(22) और जब फ़ैसला चुका दिया जाएगा तो शैतना कहेगा, “सच तो यह है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किए थे, वे सब सच्चे थे और मैंने जितने वादे किए, उनमें से कोई भी पूरा न किया।30 मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि अपने रास्ते की तरफ़ तुम्हें बुलाया और तुमने मेरी दावत को क़ुबूल किया।31 अब मुझे बुरा-भला न कहो, अपने आप ही को मलामत करो। यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ख़ुदाई (प्रभुता) में साझीदार बना रखा था32, मैं उसकी ज़िम्मेदारी से अलग हूँ। ऐसे ज़ालिमों के लिए तो दर्दनाक सज़ा यक़ीनी है।"
30. यानी तुम्हारे तमाम गिले-शिकवे इस हद तक तो बिलकुल सही हैं कि अल्लाह सच्चा था और मैं झूठा था। इस हक़ीक़त से मुझे हरगिज़ इनकार नहीं है। अल्लाह के वादे और उसके डरावे, तुम देख ही रहे हो कि इनमें से हर बात ज्यों की त्यों सच्ची निकली और मैं ख़ुद मानता हूँ कि जो भरोसे मैंने तुम्हें दिलाए, जिन फ़ायदों के लालच तुम्हें दिए, जिन लुभावनी उम्मीदों के जाल में तुमको फाँसा, और सबसे बढ़कर यह यक़ीन जो तुम्हें दिलाया कि पहली तो यह है कि आख़िरत-वाख़िरत कुछ भी नहीं है, सब सिर्फ़ ढकोसला है, और अगर हुई भी तो फ़ुलाँ हज़रत की सिफ़ारिश से तुम साफ़ बच निकलोगे, बस उनकी ख़िदमत में भेंटों और चढ़ावों की रिश्वत पेश करते रहो और फिर जो चाहो करते फिरो, नजात का ज़िम्मा उनका, ये सारी बातें जो मैं तुमसे कहता रहा और अपने एजेंटों के ज़रिए से कहलवाता रहा, यह सब सिर्फ़ धोखा था।
31. यानी अगर आप लोग ऐसा कोई सुबूत रखते हों कि आप ख़ुद सीधे रास्ते पर चलना चाहते थे और मैंने ज़बरदस्ती आपका हाथ पकड़कर आपको ग़लत रास्ते पर खींच लिया, तो ज़रूर उसे पेश कीजिए, जो चोर की सज़ा सो मेरी। लेकिन आप ख़ुद मानेंगे कि हक़ीक़त यह नहीं है। मैंने इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया कि हक़ की दावत के मुक़ाबले में अपनी बातिल (असत्य) की दावत आपके सामने पेश की, सच्चाई के मुक़ाबले में झूठ की तरफ़ आपको बुलाया, नेकी के मुक़ाबले में बुराई की तरफ़ आपको पुकारा। मानने और न मानने के तमाम अधिकार आप ही लोगों के पास थे। मेरे पास आपको मजबूर करने की कोई ताक़त न थी। अब अपनी इस दावत का ज़िम्मेदार तो बेशक मैं ख़ुद हूँ और उसकी सज़ा भी पा रहा हूँ। मगर आपने जो इसे क़ुबूल किया इसकी ज़िम्मेदारी आप मुझ पर कहाँ डालने चले हैं, अपने ग़लत चुनाव और अपने अधिकार के ग़लत इस्तेमाल की ज़िम्मेदारी तो आपको ख़ुद ही उठानी चाहिए।
32. यहाँ फिर अक़ीदे के शिर्क के मुक़ाबले में एक दूसरी तरह के शिर्क, यानी अमली शिर्क के वुजूद का एक सुबूत मिलता है। ज़ाहिर बात है कि शैतान को अक़ीदे की हैसियत से तो कोई भी न ख़ुदाई में शरीक ठहराता है और न उसकी इबादत करता है। सब उसपर लानत ही भेजते हैं। अलबत्ता उसकी फ़रमाँबरदारी और ग़ुलामी और उसके तरीक़े की अंधी या आँखों देखे पैरवी ज़रूर की जा रही है, और उसी के लिए यहाँ शिर्क का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। मुमकिन है कोई साहब जवाब में कहें कि यह तो शैतान का क़ौल (कथन) है, जिसे अल्लाह ने नक़्ल किया है। लेकिन हम कहेंगे कि अव्वल तो उसकी बात को अल्लाह तआला ख़ुद ग़लत ठहरा देता, अगर वह ग़लत होती। दूसरे अमली शिर्क का सिर्फ़ यही एक सुबूत क़ुरआन में नहीं है, बल्कि इसके कई सुबूत पिछली सूरतों में गुज़र चुके हैं और आगे आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर यहूदियों और ईसाइयों को यह इल्ज़ाम कि वे अपने ‘अहबार' और 'रुहबान' को अल्लाह के सिवा अपना रब बनाए हैं (सूरा-9 तौबा, आयत-31)। जाहिलियत की रस्में ईजाद करनेवालों के बारे में यह कहना कि उनकी पैरवी करनेवालों ने उन्हें ख़ुदा का शरीक बना रखा है (सूरा-8 अनआम, आयत-137)। मन की ख़ाहिशों की बन्दगी करनेवालों के बारे में यह कहना कि उन्होंने अपने मन की ख़ाहिश को ख़ुदा बना लिया है (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-43)। नाफ़रमान बन्दों के बारे में यह कहना कि वे शैतान की इबादत करते रहे हैं (सूरा-36 यासीन, आयत-60)। इनसानों के बनाए हुए क़ानूनों पर चलनेवालों को इन अलफ़ाज़ में मलामत कि अल्लाह की इजाज़त के बिना जिन लोगों ने तुम्हारे लिए शरीअत बनाई है वे तुम्हारे “साझी” हैं (सूरा-26 शूरा, आयत-21)। ये सब क्या उसी अमली शिर्क की मिसालें नहीं हैं जिसका यहाँ ज़िक्र हो रहा है? इन मिसालों से साफ़ पता चलता है कि शिर्क की सिर्फ़ यही एक शक्ल नहीं है कि कोई शख़्स अपने अक़ीदे के मुताबिक़ अल्लाह के सिवा किसी को ख़ुदाई में शरीक ठहराए। उसकी एक दूसरी शक्ल यह भी है कि वह ख़ुदाई सनद (दलील) के बग़ैर, या अल्लाह के हुक्मों के ख़िलाफ़, उसकी पैरवी और फ़रमाँबरदारी करता चला जाए। ऐसा पैरोकार और फ़रमाँबरदार अगर अपने पेशवा और उस शख़्स पर जिसकी वह पैरवी कर रहा है लानत भेजते हुए भी अमली तौर पर यह रवैया अपना रहा हो तो क़ुरआन के मुताबिक़ वह उसको ख़ुदाई में शरीक बनाए हुए है, चाहे शरई तौर पर उसे अक़ीदे में शिर्क करनेवालों के ख़ाने में न रखा जाए। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-87, 107; सूरा-18 कहफ़, हाशिया-50