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الٓرۚ كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ لِتُخۡرِجَ ٱلنَّاسَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ

14. इबराहीम

(मक्का में उतरी-आयतें 52)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम इसकी आयत 35 के वाक्य “याद करो वह समय जब इबराहीम ने दुआ की थी कि पालनहार ! इस नगर (मक्का) को शांति का नगर बना” से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह नहीं है कि इस सूरा में हज़रत इबराहीम की आत्मकथा बयान हुई है, बल्कि यह भी अधिकतर सूरतों के नामों की तरह प्रतीक के रूप में है, अर्थात् वह सूरा जिसमें इबराहीम (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

सामान्य वर्णनशैली मक्का के अन्तिम काल की सूरतों की-सी है। सूरा-13 (रअ़द) से क़रीब ज़माने ही की उतरी सूरा मालूम होती है। मुख्य रूप से आयत 13 के शब्द 'व क़ालल्लज़ी-न क-फ़-रू लिरुसुलिहिम ल-नुख़रिजन्नकुम मिन अरज़िना अव ल-त-ऊदुन-न फ़ी मिल्लतिना अर्थात् "इंकार करनेवालों ने अपने रसूलों से कहा कि या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल देंगे” का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि उस समय मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार अपनी चरम सीमा को पहुँच चुका था और मक्कावाले पिछली काफ़िर क़ौमों की तरह अपने यहाँ के ईमानवालों को शहर से निकाल देने पर तुल गए थे। इसी आधार पर उन्हें वह धमकी सुनाई गई जो उन्हीं के जैसे रवैये पर चलनेवाली पिछली क़ौमों को दी गई थी कि “हम ज़ालिमों को हलाक करके रहेंगे” और ईमानवालों को वही तसल्ली दी गई जो उनके अगलों को दी जाती रही है कि “हम इन ज़ालिमों को समाप्त करने के बाद तुम ही को इस भू-भाग पर आबाद करेंगे।"

इसी तरह अन्तिम आयतों के तेवर भी यही बताते हैं कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग से संबंध रखती है।

केन्द्रीय विषय और उद्देश्य

जो लोग नबी (सल्ल०) की रिसालत (रसूल होने) को मानने से इंकार कर रहे थे और आप (सल्ल०) के सन्देश को विफल करने के लिए हर प्रकार की बुरी से बुरी चालें चल रहे थे, उन्हें समझाया-बुझाया गया और चेतावनी दी गई, लेकिन समझाने-बुझाने की अपेक्षा इस सूरा में चेतावनी, निन्दा और डाँट-फटकार का अंदाज़ ज़्यादा तेज़ है। इसका कारण यह है कि समझाने-बुझाने का हक़ इससे पहले की सूरतों में अच्छी तरह अदा किया जा चुका था और इसके बाद भी क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (अवज्ञाकारियों) की हठधर्मी, शत्रुता, विरोध, दुष्टता और अत्याचार दिन-पर-दिन अधिक ही होता चला जा रहा था।

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الٓرۚ كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ لِتُخۡرِجَ ٱلنَّاسَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ
(1) अलिफ़-लाम-रा। ऐ नबी! यह एक किताब है, जिसको हमने तुम्हारी तरफ़ उतारा है, ताकि तुम लोगों को अंधेरों से निकालकर रौशनी में लाओ; उनके रब की मेहरबानी से, उस ख़ुदा के रास्ते पर1 जो ज़बरदस्त और अपनी ज़ात में आप महमूद (प्रशंसनीय) है।2
1. यानी अंधेरों से निकालकर रौशनी में लाने का मतलब शैतानी रास्तों से हटाकर ख़ुदा के रास्ते पर लाना है। दूसरे लफ़्जों में हर वह शख़्स जो ख़ुदा की राह पर नहीं है, वह अस्ल में जहालत के अंधेरों में भटक रहा है, चाहे वह अपने आपको कितना ही रौशन ख़याल समझ रहा हो और अपने दावे में इल्म की रौशनी से कितना ही जगमगा रहा हो। इसके बरख़िलाफ़ जिसने ख़ुदा का रास्ता पा लिया वह इल्म की रौशनी में आ गया है, चाहे वह एक अनपढ़ देहाती ही क्यों न हो। फिर यह जो कहा कि तुम इनको अपने रब की इजाज़त या उसकी मेहरबानी से ख़ुदा के रास्ते पर लाओ, तो इसमें अस्ल में इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा है कि कोई तब्लीग़ करनेवाला, चाहे वह नबी ही क्यों न हो, सीधा रास्ता पेश कर देने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता। किसी को इस रास्ते पर ले आना उसके बस में नहीं है। इसका दारोमदार सरासर अल्लाह की मेहरबानी और उसकी इजाज़त पर है। अल्लाह किसी पर मेहरबान हो तो वह हिदायत पा सकता है, वरना पैग़म्बर जैसा बेहतरीन तबलीग़ करनेवाला पूरा ज़ोर लगाकर भी उसको हिदायत नहीं दे सकता। रही अल्लाह की तौफ़ीक़ (मेहरबानी), तो उसका क़ानून बिलकुल अलग है जिसे क़ुरआन में कई जगहों पर साफ़-साफ़ बयान कर दिया गया है। इससे साफ़ मालूम होता है कि ख़ुदा की तरफ़ से हिदायत की ख़ुशनसीबी उसी को मिलती है जो ख़ुद हिदायत चाहता हो, ज़िद और हठधर्मी और तास्सुब (पक्षपात) से पाक हो, अपने मन का बन्दा अपनी ख़ाहिशों का ग़ुलाम न हो, खुली आँखों से देखे, खुले कानों से सुने, साफ़ दिमाग़ से सोचे-समझे और मुनासिब बातों को बेलाग तरीक़े से माने।
2. 'हमीद' लफ़्ज़ का मतलब भी अगरचे वही है जो 'महमूद' का है मगर दोनों लफ़्जों में एक बारीक फ़र्क़ है। ‘महमूद' किसी शख़्स को उसी वक़्त कहेंगे जबकि उसकी तारीफ़ की गई हो या की जाती हो। मगर 'हमीद' ख़ुद-ब-ख़ुद तारीफ़ का हक़दार है, चाहे कोई उसकी तारीफ़ करे या न करे। इस लफ़्ज़ का पूरा मतलब ख़ूबियोंवाला और तारीफ़ के काबिल जैसे अल्फ़ाज़ से अदा नहीं हो सकता, इसी लिए हमने इसका तर्जमा 'अपनी ज़ात में आप महमूद' किया है।
ٱللَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَوَيۡلٞ لِّلۡكَٰفِرِينَ مِنۡ عَذَابٖ شَدِيدٍ ۝ 1
(2) और ज़मीन व आसमानों में मौजूद सारी चीज़ों का मालिक है। और सख़्त तबाह करनेवाली सज़ा है हक़ क़ुबूल करने से इनकार करनेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ يَسۡتَحِبُّونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا عَلَى ٱلۡأٓخِرَةِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٖ ۝ 2
(3) जो दुनिया की ज़िन्दगी को आख़िरत पर तरजीह देते है3, जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोक रहे हैं और चाहते हैं कि यह रास्ता (उनकी ख़ाहिशों के मुताबिक़) टेढ़ा हो जाए।4 ये लोग गुमराही बहुत दूर निकल गए हैं।
3. दूसरे अलफ़ाज़ में जिन्हें सारी फ़िक्र बस दुनिया की है, आख़िरत की परवाह नहीं है। जो दुनिया के फ़ायदों और लज़्ज़तों और आरामों की ख़ातिर आख़िरत का नुक़सान तो मोल ले सकते हैं, मगर आख़िरत की कामयाबियों और ख़ुशहालियों के लिए दुनिया का कोई नुक़सान, कोई तकलीफ़ और कोई ख़तरा, बल्कि किसी लज़्ज़त से महरूम (वंचित) रहना तक बरदाश्त नहीं कर सकते। जिन्होंने दुनिया और आख़िरत दोनों का मुक़ाबला करके ठंडे दिल से दुनिया को पसन्द कर लिया है और आख़िरत के बारे में फ़ैसला कर चुके हैं कि जहाँ-जहाँ उसका फ़ायदा दुनिया के फ़ायदे से टकराएगा, वहाँ उसे क़ुरबान करते चले जाएँगे।
4. यानी वे अल्लाह की मरज़ी के मातहत होकर नहीं रहना चाहते, बल्कि यह चाहते हैं कि अल्लाह का दीन उनकी मरज़ी के मुताबिक़ होकर रहे। उनके हर ख़याल, हर नज़रिये और हर वहम व गुमान को अपने अक़ीदों में दाख़िल करे और किसी ऐसे अक़ीदे को अपने निज़ामे-फ़िक्र (चिन्तन-व्यवस्था) में न रहने दे जो उनकी खोपड़ी में न समाता हो। उनकी हर रस्म, हर आदत और हर ख़सलत को जाइज़ ठहराए और किसी ऐसे तरीक़े की पैरवी की उनसे माँग न करे जा उन्हें पसन्द न हो। वह इनका हाथ बँधा ग़ुलाम हो कि जिधर-जिधर ये अपने मन के शैतान की पैरवी में मुड़ें उधर वह भी मुड़ जाए, और कहीं न तो वह उन्हें टोके और न किसी जगह पर उन्हें अपने रास्ते की तरफ़ मोड़ने की कोशिश करे। वे अल्लाह की बात सिर्फ़ उसी सूरत में मान सकते हैं, जबकि वह इस तरह का दीन उनके लिए भेजे।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا بِلِسَانِ قَوۡمِهِۦ لِيُبَيِّنَ لَهُمۡۖ فَيُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 3
(4) हमने अपना पैग़ाम देने के लिए जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की ज़बान में पैग़ाम दिया है, ताकि वह उन्हें अच्छी तरह खोलकर बात समझाए5, फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखाता है6, वह सबपर हावी और हिकमतवाला है।7
5. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि अल्लाह तआला ने जो नबी जिस क़ौम में भेजा है, उसपर उसी क़ौम की ज़बान में अपना कलाम नाज़िल किया ताकि वह क़ौम उसे अच्छी तरह समझे, और उसे यह बहाना पेश करने का मौक़ा न मिल सके कि आपकी भेजी हुई तालीम तो हमारी समझ ही में न आती थी, फिर हम इसपर ईमान कैसे लाते। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने महज़ मोजिज़ा दिखाने की ख़ातिर कभी यह नहीं किया कि रसूल तो भेजे अरब में और वह कलाम सुनाए चीनी या जापानी में। इस तरह के करिश्मे दिखाने और लोगों की अजायब-पसन्दी को आसूदा (तृप्त) करने के मुक़ाबले अल्लाह तआला की निगाह में तालीम व नसीहत और समझाने-बुझाने और साफ़-साफ़ बयान करने की अहमियत ज़्यादा रही है जिसके लिए ज़रूरी था कि एक क़ौम को उसी ज़बान में पैग़ाम पहुँचाया जाए जिसे वह समझती हो।
6. यानी बावजूद इसके कि पैग़म्बर सारी तब्लीग़ व नसीहत उसी ज़बान में करता है जिसे सारी क़ौम समझती है, फिर भी सबको हिदायत नहीं मिल जाती; क्योंकि किसी कलाम या पैग़ाम के सिर्फ़ सबकी समझ में आनेवाला होने से यह लाज़िम नहीं हो जाता कि सब सुननेवाले उसे मान जाएँ। हिदायत और गुमराही का देना या न देना बहरहाल अल्लाह के हाथ में है। वही जिसे चाहता है अपने इस कलाम के ज़रिए से हिदायत देता है, और जिसके लिए चाहता है उसी कलाम को उलटी गुमराही का सबब बना देता है।
7. यानी लोगों का अपने आप हिदायत पा लेना या भटक जाना तो इस वजह से मुमकिन नहीं है कि वे पूरी तरह ख़ुदमुख़्तार नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की ताक़त और ग़ल्बे के मातहत हैं। लेकिन अल्लाह अपनी इस ताक़त को अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं करता कि यूँ ही बिना किसी मुनासिब वजह के जिसे चाहे हिदायत दे और जिसे चाहे ख़ाह-मख़ाह भटका दे। वह सबपर ग़ालिब होने और इख़्तियार रखने के साथ हिकमतवाला और सूझ-बूझ रखनेवाला भी है। उसके यहाँ से जिसको हिदायत मिलती है मुनासिब वजहों से मिलती है और जिसको सीधे रास्ते से महरूम करके भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है वह ख़ुद अपनी गुमराही की वजह से उस सुलूक का हक़दार होता है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ أَنۡ أَخۡرِجۡ قَوۡمَكَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ وَذَكِّرۡهُم بِأَيَّىٰمِ ٱللَّهِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 4
(5) हम इससे पहले मूसा को भी अपनी निशानियों के साथ भेज चुके हैं। उसे भी हमने हुक्म दिया था कि अपनी क़ौम को अंधेरों से निकालकर रौशनी में ला और उन्हें तारीख़े इलाही (ईश्वरीय इतिहास)8 के सबक़आमोज़ वाक़िआत सुनाकर नसीहत कर। इन वाक़िआत में बड़ी निशानियाँ हैं9 हर उस शख़्स के लिए जो सब्र और शुक्र करनेवाला हो।10
8. 'अय्याम' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ अरबी ज़बान में इस्तिलाही तौर पर ऐतिहासिक घटनाओं की यादगार के लिए बोला जाता है। 'अय्यामुल्लाह' से मुराद इनसानी तारीख़ के वे अहम अध्याय हैं जिनमें अल्लाह तआला ने पिछले ज़माने की क़ौमों और बड़ी-बड़ी शख़्सियतों को उनके आमाल के लिहाज़ से जज़ा या सज़ा दी है।
9. यानी इन ऐतिहासिक घटनाओं में ऐसी निशानियाँ मौजूद हैं जिनसे एक आदमी ख़ुदा के एक होने (तौहीद) का सुबूत भी पा सकता है और इस हक़ीक़त की भी अनगिनत गवाहियाँ जुटा सकता है कि कामों के हिसाब से बदला दिए जाने का क़ानून एक आलमगीर क़ानून है, और वह सरासर और बातिल के इल्मी व अख़लाक़ी फ़र्क़ पर क़ायम है, और उसके तक़ाज़े पूरे करने के लिए एक दूसरी दुनिया, यानी आख़िरत की दुनिया ज़रूरी है। साथ ही इन वाक़िआत में वे निशानियाँ भी मौजूद हैं जिनसे एक आदमी बातिल और ग़लत अक़ीदों व नज़रियों पर ज़िन्दगी की इमारत उठाने के बुरे नतीजे मालूम कर सकता है और उनसे सबक़ हासिल कर सकता है।
10. यानी ये निशानियाँ तो अपनी जगह मौजूद हैं मगर उनसे फ़ायदा उठाना सिर्फ़ उन्हीं लोगों का काम है जो अल्लाह की आज़माइशों से सब्र और बहादुरी से गुज़रनेवाले, और अल्लाह की नेमता को ठीक-ठीक महसूस करके उनका सही शुक्रिया अदा करनेवाले हों। छिछोरे और ओछे और नाशुक्रे लोग अगर इन निशानियों को समझ भी लें तो उनकी ये अख़लाक़ी कमज़ोरियाँ उन्हें इस समझ से फ़ायदा उठाने नहीं देतीं।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ أَنجَىٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ وَيُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 5
(6) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, “अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसने तुमपर किया है, उसने तुम्हें फ़िरऔनवालों से छुड़ाया जो तुमको सख़्त तकलीफ़ें देते थे, तुम्हारे लड़कों को क़त्ल कर डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को ज़िन्दा बचा रखते थे। इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।
وَإِذۡ تَأَذَّنَ رَبُّكُمۡ لَئِن شَكَرۡتُمۡ لَأَزِيدَنَّكُمۡۖ وَلَئِن كَفَرۡتُمۡ إِنَّ عَذَابِي لَشَدِيدٞ ۝ 6
(7) और याद रखो तुम्हारे रब ने ख़बरदार कर दिया था कि अगर शुक्रगुज़ार11 बनोगे तो मैं तुम्हें और ज़्यादा नवाज़ूँगा और अगर नेमत की नाशुक्री करोगे तो मेरी सज़ा बहुत सख़्त है"12
11. यानी अगर हमारी नेमतों का हक़ पहचानकर उनका सही इस्तेमाल करोगे, और हमारे हुक्मों के मुक़ाबले में सरकशी व घमण्ड न करोगे, और हमारा एहसान मानकर हमारे फ़रमाँबरदार बने रहोगे।
12. इस मज़मून (विषय) की तक़रीर बाइबल की किताब व्यवस्था-विवरण में बड़ी तफ़सील से नक़्ल की गई है। इस तक़रीर में हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी मौत से कुछ दिन पहले बनी-इसराईल को उनके इतिहास के सारे अहम वाक़िआत याद दिलाते हैं। फिर तौरात के उन तमाम हुक्मों को दोहराते हैं जो अल्लाह तआला ने उनके ज़रिए से बनी-इसराईल को भेजे थे। फिर एक लम्बा ख़ुत्बा (भाषण) देते हैं जिसमें बताते हैं कि अगर उन्होंने अपने रब की फ़रमाँबरदारी की तो कैसे इनामों से नवाज़े जाएँगे और अगर नाफ़रमानी का रवैया अपनाया तो उसकी कैसी सख़्त सज़ा दी जाएगी। यह ख़ुत्बा किताब व्यवस्था-विवरण के अध्याय नम्बर 4, 6, 8, 10, 11 और 28 से 30 में फैला हुआ है और उसके कुछ-कुछ हिस्से निहायत दरजे के असरदार और इबरतनाक हैं। मिसाल के तौर पर उसके कुछ जुमले हम यहाँ नक़्ल करते हैं जिनसे पूरे खुत्बे का अन्दाज़ा हो सकता है— “सुन ऐ इसराईल! ख़ुदावन्द हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावन्द है। तू अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी ताक़त से ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा के साथ मुहब्बत रख। और ये बातें जिनका हुक्म आज मैं तुझे देता हूँ तेरे दिल पर लिखे रहें और तू इनको अपनी औलाद के मन में बिठाना और घर बैठे और राह चलते और लेटते और उठते उनका ज़िक्र करना।” (अध्याय-6, आयतें 4 से 7) “तो ऐ इसराईल! ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तुझसे इसके सिवा और क्या चाहता है कि तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा का डर रखे और उसकी सब राहों पर चले और उससे मुहब्बत रखे और अपने सारे दिल और सारी जान से ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की बन्दगी करे और ख़ुदावन्द के जो हुक्म और क़ानून में तुझको आज बताता हूँ उनपर अमल करे, ताकि तेरी भलाई हो। देख आसमान और ज़मीन और जो कुछ ज़मीन में है यह सब ख़ुदावन्द तेरे ख़ुदा ही का है।” (अध्याय-10, आयतें—12 से 14) “और अगर तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की बात को दिल से मानकर उसके इन सब हुक्मों पर जो आज के दिन मैं तुझे देता हूँ एहतियात से अमल करे तो ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा दुनिया की सब क़ौमों से ज़्यादा तुझको देगा और अगर तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की बात सुने तो ये सब बरकतें तुझपर उतरेंगी और तुझको मिलेंगी। शहर में भी तू मुबारक होगा और खेत में मुबारक। ख़ुदावन्द तेरे दुश्मनों को जो तुझपर हमला करें तेरे मुक़ाबले में हराएगा.... ख़ुदावन्द तेरे भण्डार गृहों में और सब कामों में जिनमें तू हाथ डाले बरकत का हुक्म देगा..... तुझको अपनी पाक क़ौम बनाकर रखेगा और दुनिया की सब क़ौमें यह देखकर कि तू ख़ुदावन्द के नाम से कहलाता है तुझसे डर जाएँगी तू बहुत-सी क़ौमों को क़र्ज़ देगा पर ख़ुद क़र्ज़ नहीं लेगा और ख़ुदावन्द तुझको दुम नहीं, बल्कि सर ठहराएगा और तू पस्त नहीं, बल्कि ऊपर ही रहेगा।” (अध्याय-28, आयत-1 से 13) "लेकिन अगर तू ऐसा न करे कि ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की बात सुनकर उसके सब हुक्मों और क़ानूनों पर जो आज के दिन मैं तुझको देता हूँ एहतियात से अमल करे तो ये सब फिटकारें तुझपर होंगी और तुझको लगेंगी, शहर में भी तू फिटकारा हुआ होगा और खेत में भी फिटकारा हुआ...... ख़ुदावन्द उन सब कामों में जिनको तू हाथ लगाए लानत और फिटकार और बेचैनी को तुझपर उतारेगा...... महामारी तुझसे लिपटी रहेगी आसमान जो तेरे सर पर है पीतल का और ज़मीन जो तेरे नीचे है लोहे की हो जाएगी...... ख़ुदावन्द तुझको तेरे दुश्मनों के आगे हार दिलाएगा। तो उनके मुक़ाबले के लिए तू एक ही रास्ते से जाएगा मगर उनके सामने सात-सात रास्तों से भागेगा...... औरत से मँगनी तो तू करेगा, मगर दूसरा उससे सहवास करेगा। तू घर बनाएगा, लेकिन उसमें बसने न पाएगा। तू अंगूर के बाग़ लगाएगा, पर उसका फल न खा सकेगा, तेरा बैल तेरी आँखों के सामने ज़ब्ह किया जाएगा...। भूखा और प्यासा और नंगा और सब चीज़ों का मुहताज होकर तू अपने उन दुश्मनों की सेवा करेगा जिनको ख़ुदावन्द तेरे ख़िलाफ़ भेजेगा और दुश्मन तेरी गर्दन पर लोहे का जुआ रखेगा जब तक वह तेरा नाश न कर दे...... ख़ुदावन्द तुझको धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तमाम क़ौमों में बिखेर देगा।” (अध्याय-28, आयतें—15 से 64)
وَقَالَ مُوسَىٰٓ إِن تَكۡفُرُوٓاْ أَنتُمۡ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا فَإِنَّ ٱللَّهَ لَغَنِيٌّ حَمِيدٌ ۝ 7
(8) और मूसा ने कहा कि “अगर तुम इनकार करो और ज़मीन के सारे रहनेवाले भी इनकारी हो जाएँ तो अल्लाह बेनियाज़ और अपनी ज़ात में आप महमूद (प्रशंसनीय) है।13
13. इस जगह हज़रत मूसा और उनकी क़ौम के मामले की तरफ़ यह मुख़्तसर-सा इशारा करने का मक़सद मक्कावालों को यह बताना है कि अल्लाह जब किसी क़ौम पर एहसान करता है और जवाब में वह क़ौम नमक-हरामी और सरकशी दिखाती है तो फिर ऐसी क़ौम को वह इबरतनाक अंजाम देखना पड़ता है जो तुम्हारी आँखों के सामने बनी-इसराईल देख रहे हैं। अब क्या तुम भी ख़ुदा की नेमत और उसके एहसान का जवाब नाशुक्री से देकर यही अंजाम देखना चाहते हो? यहाँ यह बात भी साफ़ तौर से ध्यान में रहे कि अल्लाह तआला अपनी जिस नेमत की क़द्र करने का यहाँ क़ुरैश से मुतालबा कर रहा है वह ख़ास तौर से उसकी यह नेमत है कि उसने हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को उनके बीच पैदा किया और आपके ज़रिए से उनके पास वह अज़ीमुश्शान तालीम भेजी जिसके बारे में हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) बार-बार क़ुरैश से कहा करते थे कि, “मेरी एक बात मान लो, अरब और अजम (ग़ैर-अरब) सब तुम्हारे मातहत हो जाएँगे।"
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا ٱللَّهُۚ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرَدُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فِيٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَقَالُوٓاْ إِنَّا كَفَرۡنَا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ وَإِنَّا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَنَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ ۝ 8
(9) क्या तुम्हें14 उन क़ौमों के हालात नहीं पहुँचे जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं? नूह की क़ौम, आद, समूद और उनके बाद आनेवाली बहुत-सी क़ौमें जिनकी गिनती अल्लाह ही को मालूम है? उनके रसूल जब उनके पास साफ़-साफ़ बातें और खुली-खुली निशानियाँ लिए हुए आए तो उन्होंने अपने मुँह में हाथ दबा लिए15 और कहा कि “जिस पैग़ाम के साथ तुम भेज गए हो, हम उसको नहीं मानते और जिस चीज़ की तरफ़ तुम हमें बुलाते हो, उसकी तरफ़ से हम सख़्त उलझन भरे शक में पड़े हुए हैं।"16
14. हज़रत मूसा (अलैहि०) की तक़रीर ऊपर ख़त्म हो गई। अब सीधे तौर पर मक्का के इस्लाम-दुश्मनों से ख़िताब शुरू होता है।
15. इन अलफ़ाज का मतलब क्या है इस बारे क़ुरआन मजीद की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की राय अलग-अलग है। हमारे नज़दीक सबसे ज़्यादा (अरबी से) क़रीब मतलब वह है जिसे अदा करने के लिए हम उर्दू या हिन्दी में कहते हैं कानों पर हाथ रखे, या दाँतों में उँगली दबाई। इसलिए कि बाद के जुमले में साफ़ तौर पर इनकार और अचम्भे, दोनों बातें पाई जाती हैं और कुछ इसमें ग़ुस्से का अन्दाज़ भी है।
16. यानी ऐसा शक जिसकी वजह से इत्मीनान और सुकून की हालत विदा हो गई है। यह हक़ की दावत की ख़ासियत है कि जब वह उठती है तो इसकी वजह से एक खलबली ज़रूर मच जाती है और इनकार व मुख़ालफ़त करनेवाले भी पूरे इत्मीनान के साथ न उसका इनकार कर सकते हैं, न उसकी मुख़ालफ़त। वे चाहे कितनी ही शिद्दत के साथ उसे रद्द करें और कितना ही ज़ोर उसकी मुख़ालफ़त में लगाएँ, दावत की सच्चाई, उसकी मुनासिब दलीलें, उसकी खरी-खरी और बेलाग बातें, उसकी दिल मोह लेनेवाली ज़बान, उसकी दावत देनेवाले की बेदाग़ सीरत, उसपर ईमान लानेवालों की ज़िन्दगियों में आनेवाली साफ़-साफ़ तब्दीली और अपनी सच्ची बातों के ऐन मुताबिक़ उनके पाकीज़ा आमाल (पवित्र कर्म), ये सारी चीज़ें मिल-जुलकर कटर से कट्टर मुख़ालिफ़ के दिल में भी एक बेचैनी पैदा कर देती हैं। हक़ की दावत देनेवालों को बेचैन करनेवाला ख़ुद भी चैन से महरूम हो जाता है।
۞قَالَتۡ رُسُلُهُمۡ أَفِي ٱللَّهِ شَكّٞ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَدۡعُوكُمۡ لِيَغۡفِرَ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُؤَخِّرَكُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ قَالُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا تُرِيدُونَ أَن تَصُدُّونَا عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتُونَا بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 9
(10) उनके रसूलों ने कहा, “क्या अल्लाह के बारे में शक है जो आसमानों और ज़मीन का पैदा करनेवाला है?17 वह तुम्हें बुला रहा है ताकि तुम्हारे कुसूर माफ़ करे और तुम्हें एक तय की हुई मुद्दत तक मुहलत दे।"18 उन्होंने जवाब दिया, “तुम कुछ नहीं हो मगर वैसे ही इनसान जैसे हम हैं।19 तुम हमें उन हस्तियों की बन्दगी से रोकना चाहते हो जिनकी बन्दगी बाप-दादा से होती चली आ रही है। अच्छा तो लाओ कोई खुली दलील।”20
17. रसूलों ने यह बात इसलिए कही कि हर ज़माने के मुशरिक ख़ुदा के वुजूद को मानते थे और यह भी मानते थे कि ज़मीन और आसमानों का बनानेवाला वही है। इसी बुनियाद पर रसूलों ने फ़रमाया कि आख़िर तुम्हें शक किस चीज़ में है? हम जिस चीज़ की तरफ़ तुम्हें बुलाते हैं वह इसके सिवा और क्या है कि आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला अल्लाह तुम्हारी बन्दगी का अस्ल हक़दार है। फिर क्या अल्लाह के बारे में तुमको शक है?
18. एक मुक़र्रर मुद्दत से मुराद लोगों की मौत का वक़्त भी हो सकता है और क़ियामत भी। जहाँ तक क़ौमों का ताल्लुक़ है उनके उठने और गिरने के लिए अल्लाह के यहाँ मुद्दत का तय किया जाना उनके औसाफ़ (गुणों) की शर्त के साथ जुड़ा होता है। एक अच्छी क़ौम अगर अपने अन्दर बिगाड़ पैदा कर ले तो उसके अमल की मुहलत घटा दी जाती है और उसे तबाह कर दिया जाता है और एक बिगड़ी क़ौम अगर अपनी बुरी आदतों को अच्छी आदतों से बदल ले तो उसके अमल की मुहलत बढ़ा दी जाती है, यहाँ तक कि वह क़ियामत तक भी चल सकती है। इसी बात की तरफ़ सूरा-13 रअद की आयत-11 इशारा करती है कि अल्लाह तआला किसी क़ौम के हाल को उस वक़्त तक नहीं बदलता जब तक कि वह अपनी आदतों को न बदल दे।
19. उनका मतलब यह था कि तुम हर हैसयित से बिलकुल हम जैसे इनसान ही नज़र आते हो खाते हो, पीते हो, सोते हो, बीवी-बच्चे रखते हो, भूख-प्यास, बीमारी-दुख, सर्दी-गर्मी, हर चीज़ के एहसास में और हर इनसानी कमज़ोरी में हमारे जैसे हो। तुम्हारे अन्दर कोई ग़ैर-मामूलीपन हमें नज़र नहीं आता जिसकी बुनियाद पर हम यह मान लें कि तुम कोई पहुँचे हुए लोग हो और ख़ुदा तुमसे बात करता है और फ़रिश्ते तुम्हारे पास आते हैं।
20. यानी कोई ऐसी सनद (सुबूत) जिसे हम आँखों से देखें और हाथों से छुएँ और जिससे हमका यक़ीन आ जाए कि वाक़ई ख़ुदा ने तुमको भेजा है और यह पैग़ाम जो तुम लाए हो ख़ुदा ही का पैग़ाम है।
قَالَتۡ لَهُمۡ رُسُلُهُمۡ إِن نَّحۡنُ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَمَا كَانَ لَنَآ أَن نَّأۡتِيَكُم بِسُلۡطَٰنٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) उनके रसूलों ने उनसे कहा, “सच में हम कुछ नहीं हैं मगर तुम ही जैसे इनसान, लेकिन अल्लाह अपने बन्दों में से जिसे चाहता है, नवाज़ता है21 और यह हमारे अधिकार में नहीं है कि तुम्हें कोई सनद ला दें। सनद तो अल्लाह ही की इजाज़त से आ सकती है, और अल्लाह ही पर ईमानवालों को भरोसा करना चाहिए।
21. यानी बेशक हम हैं तो इनसान ही, मगर अल्लाह ने तुम्हारे बीच हमको ही हक़ का इल्म और सोचने-समझने की पूरी सलाहियत देने के लिए चुना है। इसमें हमारे बस की कोई बात नहीं। यह तो अल्लाह के इख़्तियारों का मामला है। वह अपने बन्दों में से जिसको जो कुछ चाहे दें। हम न यह कर सकते हैं कि जो कुछ हमारे पास आया है वह तुम्हारे पास भिजवा दें और न यही कर सकते हैं कि जो हक़ीक़तें हमपर खुल गई हैं उनसे आँखें बन्द कर लें।
وَمَا لَنَآ أَلَّا نَتَوَكَّلَ عَلَى ٱللَّهِ وَقَدۡ هَدَىٰنَا سُبُلَنَاۚ وَلَنَصۡبِرَنَّ عَلَىٰ مَآ ءَاذَيۡتُمُونَاۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 11
(12) और हम क्यों न अल्लाह पर भरोसा करें, जबकि हमारी ज़िन्दगी की राहों में उसने हमारी रहनुमाई की है? जो तकलीफ़ें तुम लोग हमें दे रहे हो उनपर हम सब्र करेंगे, और भरोसा करनेवालों का भरोसा अल्लाह ही पर होना चाहिए।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِرُسُلِهِمۡ لَنُخۡرِجَنَّكُم مِّنۡ أَرۡضِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِي مِلَّتِنَاۖ فَأَوۡحَىٰٓ إِلَيۡهِمۡ رَبُّهُمۡ لَنُهۡلِكَنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 12
(13) आख़िरकार हक़ के इनकारियों ने अपने रसूलों से कह दिया कि “या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा22 वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल ” देंगे तब उनके रब ने उनपर वह्य भेजी कि “हम इन ज़ालिमों को हलाक कर देंगे
22. इसका यह मतलब नहीं है कि पैग़म्बर नुबूवत के मनसब पर मुक़र्रर होने से पहले अपनी गुमराह क़ौमों की मिल्लत में शामिल हुआ करते थे, बल्कि इसके मानी ये हैं कि नुबूवत से पहले चूँकि वे एक तरह की ख़ामोश ज़िन्दगी गुज़ारते थे, किसी दीन की तब्लीग़ और उस वक़्त के किसी राइज दीन का रद्द (खंडन) नहीं करते थे, इसलिए उनकी क़ौम यह समझती थी कि वे हमारी ही मिल्लत में हैं, और नुबूवत का काम शुरू कर देने के बाद उनपर यह इलज़ाम लगाया जाता था कि वह अपने बाप-दादा की मिल्लत से निकल गए हैं। हालाँकि वे नुबूवत से पहले भी कभी मुशरिकों की मिल्लत में शामिल न हुए थे कि उससे निकल जाने का इलज़ाम उनपर लग सकता।
وَلَنُسۡكِنَنَّكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَافَ مَقَامِي وَخَافَ وَعِيدِ ۝ 13
(14) और उनके बाद तुम्हें ज़मीन में आबाद करेंगे23 यह इनाम है उसका जो मेरे सामने जवाबदेही का डर रखता हो और मेरी धमकी से डरता हो।”
23. यानी घबराओ नहीं, ये कहते हैं कि तुम इस मुल्क में नहीं रह सकते, मगर हम कहते हैं कि अब ये इस ज़मीन में न रहने पाएँगे। अब तो जो तुम्हें मानेगा वही यहाँ रहेगा।
وَٱسۡتَفۡتَحُواْ وَخَابَ كُلُّ جَبَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 14
(15) उन्होंने फ़ैसला चाहा था (तो ये उनका फ़ैसला हुआ) और हर सरकश हक़ के दुश्मन ने मुँह की खाई24,
24. यह बात ध्यान में रहे कि यहाँ इस ऐतिहासिक बयान के अन्दाज़ में दरअस्ल मक्का के इस्लाम दुश्मनों को उन बातों का जवाब दिया जा रहा है जो वे नबी (सल्ल०) से किया करते थे। ज़िक्र बज़ाहिर पिछले नबियों और उनकी क़ौमों के वाक़िआत का है, मगर चस्पाँ हो रहा है वह उन हालात पर जो इस सूरा के उतरने के ज़माने में पेश आ रहे थे। इस जगह पर मक्का के काफ़िरों को, बल्कि अरब के मुशरिकों को मानो साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दिया गया कि तुम्हारे मुस्तक़बिल (भविष्य) का दारोमदार अब उस रवैये पर है जो मुहम्मद (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में तुम अपनाओगे। अगर उसे क़ुबूल कर लोगे तो अरब की ज़मीन में रह सकोगे, और अगर उसे रद्द कर दोगे तो यहाँ से तुम्हारा नामो-निशान तक मिटा दिया जाएगा। चुनाँचे इस बात को ऐतिहासिक घटनाओं ने एक साबितशुदा हक़ीक़त बना दिया। इस पेशीनगोई पर पूरे पन्द्रह साल भी न बीते थे कि अरब की ज़मीन में एक मुशरिक भी बाक़ी न रहा।
مِّن وَرَآئِهِۦ جَهَنَّمُ وَيُسۡقَىٰ مِن مَّآءٖ صَدِيدٖ ۝ 15
(16) फिर उसके बाद आगे उसके लिए जहन्नम है। वहाँ उसे कचलहू का-सा पानी पीने को दिया जाएगा,
يَتَجَرَّعُهُۥ وَلَا يَكَادُ يُسِيغُهُۥ وَيَأۡتِيهِ ٱلۡمَوۡتُ مِن كُلِّ مَكَانٖ وَمَا هُوَ بِمَيِّتٖۖ وَمِن وَرَآئِهِۦ عَذَابٌ غَلِيظٞ ۝ 16
(17) जिसे वह ज़बरदस्ती गले से उतारने की कोशिश करेगा और मुश्किल ही से उतार सकेगा। मौत हर तरफ़ से उसपर छाई रहेगी, मगर वह मरने न पाएगा और आगे एक सख़्त अज़ाब उसकी जान का लागू रहेगा।
مَّثَلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡۖ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَرَمَادٍ ٱشۡتَدَّتۡ بِهِ ٱلرِّيحُ فِي يَوۡمٍ عَاصِفٖۖ لَّا يَقۡدِرُونَ مِمَّا كَسَبُواْ عَلَىٰ شَيۡءٖۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلضَّلَٰلُ ٱلۡبَعِيدُ ۝ 17
(18) जिन लोगों ने अपने रब से कुफ़्र (इनकार) किया है उनके आमाल की मिसाल उस राख की-सी है जिसे एक तूफ़ानी दिन की आँधी ने उड़ा दिया हो। वे अपने किए का कुछ भी फल न पा सकेंगे।25 यही परले दरजे की गुमराही है।
25. यानी जिन लोगों ने अपने रब के साथ नमक हरामी, बेवफ़ाई, ख़ुदमुख़्तारी और नाफ़रमानी व सरकशी का रवैया अपनाया, और फ़माँबरदारी व बन्दगी का वह तरीक़ा अपनाने से इनकार कर दिया, जिसकी दावत ख़ुदा के सभी पैग़म्बर लेकर आए हैं, उनकी ज़िन्दगी का पूरा कारनामा और ज़िन्दगी भर के कामों का सारा सरमाया आख़िरकार ऐसे बेनतीजा और बेमतलब साबित होगा जैसे एक राख का ढेर था जो इकट्ठा हो-होकर लम्बी मुद्दत में बड़ा भारी टीला-सा बन गया था, मगर सिर्फ़ एक ही दिन की आँधी ने उसको ऐसा उड़ाया कि उसका एक-एक कण बिखर कर रह गया। नज़रों को धोखे में डालनेवाली उनकी तहज़ीब, उनका शानदार रहन-सहन, उनके हैरतअंगेज़ कल-कारखाने, उनकी ज़बरदस्त सल्तनतें, उनकी आलीशान यूनिवर्सिटियाँ उनके इल्म और फ़न (ज्ञान और कलाएँ) और उनके हल्के-फुल्के और भारी-भरकम साहित्य के अपार भण्डार, यहाँ तक कि उनकी इबादतें और उनकी ज़ाहिरी नेकियाँ और उनके बड़े-बड़े ख़ैराती और भलाई के कारनामे भी, जिनपर वे दुनिया में फ़ख़्र करते हैं, सब-के-सब आख़िरकार राख का एक ढेर ही साबित होंगे जिसे क़ियामत के दिन की आँधी बिलकुल साफ़ कर देगी और आख़िरत में उसका एक ज़र्रा भी उनके पास इस क़ाबिल न रहेगा कि उसे ख़ुदा के तराज़ू में रखकर कुछ भी वज़न पा सकें।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَأۡتِ بِخَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 18
(19) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन की पैदाइश को हक़ पर क़ायम किया हैं?26 वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और एक नई ख़िलक़त (सृष्टि) तुम्हारी जगह ले आए।
26. यह दलील है उस दावे की जो ऊपर किया गया था। मतलब यह है कि इस बात को सुनकर तुम्हें ताज्जुब क्यों होता है? क्या तुम देखते नहीं हो कि यह ज़मीन व आसमान की तख़्लीक़ (रचना) का अज़ीमुश्शान कारखाना हक़ पर क़ायम हुआ है, न कि बातिल (असत्य) पर? यहाँ जिस चीज़ की बुनियाद हक़ीक़त और सच्चाई पर न हो, बल्कि सिर्फ़ ये बेअस्ल गुमान और अटकल पर जिसकी नींव रख दी गई हो, उसे कोई पायदारी हासिल नहीं हो सकती। उसके लिए टिकाऊ होने का कोई इमकान नहीं है। उसके भरोसे पर काम करनेवाला कभी अपने एतिमाद में कामयाब नहीं हो सकता। जो शख़्स पानी पर नक़्श बनाए और रेत पर महल बनाए वह अगर यह उम्मीद रखता है कि उसका नक्श बाक़ी रहेगा और उसका महल खड़ा रहेगा तो उसकी यह उम्मीद कभी पूरी नहीं हो सकती; क्योंकि पानी की यह हक़ीक़त नहीं हैं कि वह नक़्श क़ुबूल करे और रेत की यह हक़ीक़त नहीं है कि वह इमारतों के लिए मज़बूत बुनियाद बन सके। इसलिए सच्चाई और हक़ीक़त को नज़र-अन्दाज़ करके जो शख़्स झूठी उम्मीदों पर अपने अमल की बुनियाद रखे उसे नाकाम होना ही चाहिए। यह बात अगर तुम्हारी समझ में आती है तो फिर यह सुनकर तुम्हें हैरत किस लिए होती है कि ख़ुदा की इस कायनात में जो शख़्स अपने आपको ख़ुदा की बन्दगी व फ़रमाँबरदारी से आज़ाद मानकर काम करेगा या ख़ुदा के सिवा किसी और की ख़ुदाई मानकर, जिसकी हक़ीक़त में ख़ुदाई नहीं है, ज़िन्दगी गुज़ारेगा, उसकी ज़िन्दगी का सब किया-धरा बर्बाद हो जाएगा? जब हक़ीक़त यह नहीं है कि इनसान यहाँ अपनी मरज़ी का मालिक हो, या ख़ुदा के सिवा किसी और का बन्दा हो, तो इस झूठ पर, हक़ीक़त के ख़िलाफ़ इस गढ़ी हुई बात पर, अपने ख़यालात व अमल के पूरे निज़ाम की बुनियाद रखनेवाला इनसान तुम्हारी राय में पानी पर लकीरें बनानेवाले बेवक़ूफ़ के जैसा अंजाम न देखेगा तो उसके लिए और किस अंजाम की तुम उम्मीद रखते हो?
وَمَا ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ بِعَزِيزٖ ۝ 19
(20) ऐसा करना उसपर कुछ भी मुश्किल नहीं है।27
27. दावे पर दलील पेश करने के बाद फ़ौरन ही यह जुमला नसीहत के तौर पर कहा गया है और साथ-साथ इसमें एक शक को भी दूर किया गया है जो ऊपर की दो टूक बात सुनकर आदमी के दिल में पैदा हो सकता है। एक शख़्स पूछ सकता है कि अगर बात वही है जो इन आयतों में कही गई है तो यहाँ हर बातिल-परस्त (असत्यवादी) और ग़लत रास्ते पर चलनेवाला आदमी मिट क्यों नहीं जाता? इसका जवाब यह है कि नादान! क्या तू समझता है कि उसे फ़ना कर देना अल्लाह के लिए कुछ मुश्किल है? या अल्लाह से उसका कोई रिश्ता है कि उसकी शरारतों के बावजूद अल्लाह ने महज़ रिश्ते का ख़याल करते हुए उसे मजबूरन छूट दे रखी है? अगर यह बात नहीं है, और तू ख़ुद जानता है कि नहीं है, तो फिर तुझे समझना चाहिए कि एक बातिल-परस्त और ग़लत काम करनेवाली क़ौम हर वक़्त इस ख़तरे में मुब्तला है कि उसे हटा दिया जाए और किसी दूसरी क़ौम को उसकी जगह काम करने का मौक़ा दे दिया जाए। इस ख़तरे के अमली तौर पर सामने आने में अगर देर लग रही है तो इस ग़लतफ़हमी के नशे में मस्त न हो जा कि ख़तरा सिरे से मौजूद ही नहीं है। मुहलत के एक-एक लम्हे को ग़नीमत जान और अपने ख़याल व अमल के बातिल निज़ाम की नापायदारी को महसूस करके उसे जल्दी से जल्दी पायदार बुनियादों पर क़ायम कर ले।
وَبَرَزُواْ لِلَّهِ جَمِيعٗا فَقَالَ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا مِنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ قَالُواْ لَوۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ لَهَدَيۡنَٰكُمۡۖ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَجَزِعۡنَآ أَمۡ صَبَرۡنَا مَا لَنَا مِن مَّحِيصٖ ۝ 20
(21) और ये लोग जब इकट्टे अल्लाह के सामने बेनक़ाब28 होंगे तो उस वक़्त इनमें से जो दुनिया में कमज़ोर थे, वे उन लोगों से जो बड़े बने हुए थे, कहेंगे, “दुनिया में हम तुम्हारे मातहत थे, अब क्या तुम अल्लाह के अज़ाब से हमें बचाने के लिए भी कुछ कर सकते हो?” वे जवाब देंगे, “अगर अल्लाह ने हमें छुटकारे की कोई राह दिखाई होती तो हम ज़रूर तुम्हें भी दिखा देते। अब तो बराबर है, चाहे हम रोएँ-पीटें या सब्र करें, बहरहाल हमारे बचने की कोई शक्ल नहीं।"29
28. अस्ल अरबी में ‘बरज़ू’ लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो ‘बुरुज़’ से बना है, जिसके मानी सिर्फ़ निकलकर सामने आना और पेश होना ही नहीं है, बल्कि इसमें ज़ाहिर होने और खुल जाने का मतलब भी शामिल है। इसी लिए हमने इसका तर्जमा बेनक़ाब होकर सामने आ जाना किया है। हक़ीक़त के लिहाज़ से तो बन्दे हर वक़्त अपने रब के सामने बेनक़ाब हैं। मगर आख़िरत की पेशी के दिन जब वे सब के सब अल्लाह की अदालत में हाज़िर होंगे तो उन्हें ख़ुद भी मालूम होगा कि हम उस सब हाकिमों से बड़े हाकिम और हिसाब के दिन के मालिक के सामने बिलकुल बेनक़ाब हैं, हमारा कोई काम बल्कि कोई ख़याल और दिल के कोनों में छिपा हुआ कोई इरादा तक उससे छिपा नहीं है।
29. यह तम्बीह है उन सब लोगों के लिए जो दुनिया में आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलते हैं, या अपनी कमज़ोरी को दलील बनाकर ताक़तवर ज़ालिमों के कहे पर चलते हैं। उनको बताया जा रहा है कि आज जो तुम्हारे लीडर और पेशवा और अफ़सर और हाकिम बने हुए हैं, कल इनमें से कोई भी तुम्हें ख़ुदा के अज़ाब से ज़र्रा बराबर भी न बचा सकेगा। इसलिए आज ही सोच लो कि तुम जिसके पीछे चल रहे हो जिसका हुक्म मान रहे हो वह ख़ुद कहाँ जा रहा है और तुम्हें कहाँ पहुँचाकर छोड़ेगा।
وَقَالَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَمَّا قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ إِنَّ ٱللَّهَ وَعَدَكُمۡ وَعۡدَ ٱلۡحَقِّ وَوَعَدتُّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُكُمۡۖ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّآ أَن دَعَوۡتُكُمۡ فَٱسۡتَجَبۡتُمۡ لِيۖ فَلَا تَلُومُونِي وَلُومُوٓاْ أَنفُسَكُمۖ مَّآ أَنَا۠ بِمُصۡرِخِكُمۡ وَمَآ أَنتُم بِمُصۡرِخِيَّ إِنِّي كَفَرۡتُ بِمَآ أَشۡرَكۡتُمُونِ مِن قَبۡلُۗ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 21
(22) और जब फ़ैसला चुका दिया जाएगा तो शैतना कहेगा, “सच तो यह है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किए थे, वे सब सच्चे थे और मैंने जितने वादे किए, उनमें से कोई भी पूरा न किया।30 मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि अपने रास्ते की तरफ़ तुम्हें बुलाया और तुमने मेरी दावत को क़ुबूल किया।31 अब मुझे बुरा-भला न कहो, अपने आप ही को मलामत करो। यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ख़ुदाई (प्रभुता) में साझीदार बना रखा था32, मैं उसकी ज़िम्मेदारी से अलग हूँ। ऐसे ज़ालिमों के लिए तो दर्दनाक सज़ा यक़ीनी है।"
30. यानी तुम्हारे तमाम गिले-शिकवे इस हद तक तो बिलकुल सही हैं कि अल्लाह सच्चा था और मैं झूठा था। इस हक़ीक़त से मुझे हरगिज़ इनकार नहीं है। अल्लाह के वादे और उसके डरावे, तुम देख ही रहे हो कि इनमें से हर बात ज्यों की त्यों सच्ची निकली और मैं ख़ुद मानता हूँ कि जो भरोसे मैंने तुम्हें दिलाए, जिन फ़ायदों के लालच तुम्हें दिए, जिन लुभावनी उम्मीदों के जाल में तुमको फाँसा, और सबसे बढ़कर यह यक़ीन जो तुम्हें दिलाया कि पहली तो यह है कि आख़िरत-वाख़िरत कुछ भी नहीं है, सब सिर्फ़ ढकोसला है, और अगर हुई भी तो फ़ुलाँ हज़रत की सिफ़ारिश से तुम साफ़ बच निकलोगे, बस उनकी ख़िदमत में भेंटों और चढ़ावों की रिश्वत पेश करते रहो और फिर जो चाहो करते फिरो, नजात का ज़िम्मा उनका, ये सारी बातें जो मैं तुमसे कहता रहा और अपने एजेंटों के ज़रिए से कहलवाता रहा, यह सब सिर्फ़ धोखा था।
31. यानी अगर आप लोग ऐसा कोई सुबूत रखते हों कि आप ख़ुद सीधे रास्ते पर चलना चाहते थे और मैंने ज़बरदस्ती आपका हाथ पकड़कर आपको ग़लत रास्ते पर खींच लिया, तो ज़रूर उसे पेश कीजिए, जो चोर की सज़ा सो मेरी। लेकिन आप ख़ुद मानेंगे कि हक़ीक़त यह नहीं है। मैंने इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया कि हक़ की दावत के मुक़ाबले में अपनी बातिल (असत्य) की दावत आपके सामने पेश की, सच्चाई के मुक़ाबले में झूठ की तरफ़ आपको बुलाया, नेकी के मुक़ाबले में बुराई की तरफ़ आपको पुकारा। मानने और न मानने के तमाम अधिकार आप ही लोगों के पास थे। मेरे पास आपको मजबूर करने की कोई ताक़त न थी। अब अपनी इस दावत का ज़िम्मेदार तो बेशक मैं ख़ुद हूँ और उसकी सज़ा भी पा रहा हूँ। मगर आपने जो इसे क़ुबूल किया इसकी ज़िम्मेदारी आप मुझ पर कहाँ डालने चले हैं, अपने ग़लत चुनाव और अपने अधिकार के ग़लत इस्तेमाल की ज़िम्मेदारी तो आपको ख़ुद ही उठानी चाहिए।
32. यहाँ फिर अक़ीदे के शिर्क के मुक़ाबले में एक दूसरी तरह के शिर्क, यानी अमली शिर्क के वुजूद का एक सुबूत मिलता है। ज़ाहिर बात है कि शैतान को अक़ीदे की हैसियत से तो कोई भी न ख़ुदाई में शरीक ठहराता है और न उसकी इबादत करता है। सब उसपर लानत ही भेजते हैं। अलबत्ता उसकी फ़रमाँबरदारी और ग़ुलामी और उसके तरीक़े की अंधी या आँखों देखे पैरवी ज़रूर की जा रही है, और उसी के लिए यहाँ शिर्क का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। मुमकिन है कोई साहब जवाब में कहें कि यह तो शैतान का क़ौल (कथन) है, जिसे अल्लाह ने नक़्ल किया है। लेकिन हम कहेंगे कि अव्वल तो उसकी बात को अल्लाह तआला ख़ुद ग़लत ठहरा देता, अगर वह ग़लत होती। दूसरे अमली शिर्क का सिर्फ़ यही एक सुबूत क़ुरआन में नहीं है, बल्कि इसके कई सुबूत पिछली सूरतों में गुज़र चुके हैं और आगे आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर यहूदियों और ईसाइयों को यह इल्ज़ाम कि वे अपने ‘अहबार' और 'रुहबान' को अल्लाह के सिवा अपना रब बनाए हैं (सूरा-9 तौबा, आयत-31)। जाहिलियत की रस्में ईजाद करनेवालों के बारे में यह कहना कि उनकी पैरवी करनेवालों ने उन्हें ख़ुदा का शरीक बना रखा है (सूरा-8 अनआम, आयत-137)। मन की ख़ाहिशों की बन्दगी करनेवालों के बारे में यह कहना कि उन्होंने अपने मन की ख़ाहिश को ख़ुदा बना लिया है (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-43)। नाफ़रमान बन्दों के बारे में यह कहना कि वे शैतान की इबादत करते रहे हैं (सूरा-36 यासीन, आयत-60)। इनसानों के बनाए हुए क़ानूनों पर चलनेवालों को इन अलफ़ाज़ में मलामत कि अल्लाह की इजाज़त के बिना जिन लोगों ने तुम्हारे लिए शरीअत बनाई है वे तुम्हारे “साझी” हैं (सूरा-26 शूरा, आयत-21)। ये सब क्या उसी अमली शिर्क की मिसालें नहीं हैं जिसका यहाँ ज़िक्र हो रहा है? इन मिसालों से साफ़ पता चलता है कि शिर्क की सिर्फ़ यही एक शक्ल नहीं है कि कोई शख़्स अपने अक़ीदे के मुताबिक़ अल्लाह के सिवा किसी को ख़ुदाई में शरीक ठहराए। उसकी एक दूसरी शक्ल यह भी है कि वह ख़ुदाई सनद (दलील) के बग़ैर, या अल्लाह के हुक्मों के ख़िलाफ़, उसकी पैरवी और फ़रमाँबरदारी करता चला जाए। ऐसा पैरोकार और फ़रमाँबरदार अगर अपने पेशवा और उस शख़्स पर जिसकी वह पैरवी कर रहा है लानत भेजते हुए भी अमली तौर पर यह रवैया अपना रहा हो तो क़ुरआन के मुताबिक़ वह उसको ख़ुदाई में शरीक बनाए हुए है, चाहे शरई तौर पर उसे अक़ीदे में शिर्क करनेवालों के ख़ाने में न रखा जाए। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-87, 107; सूरा-18 कहफ़, हाशिया-50
وَأُدۡخِلَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡۖ تَحِيَّتُهُمۡ فِيهَا سَلَٰمٌ ۝ 22
(23) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग दुनिया में ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे काम किए हैं, वे ऐसे बाग़ों में दाख़िल किए जाएँगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। वहाँ वे अपने रब की इजाज़त से हमेशा रहेंगे और वहाँ उनका इस्तिक़वाल 'सलामती की मुबारकबाद' से होगा।33
33. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तहिय-य' इस्तेमाल हुआ है, इसके मानी हैं ‘लम्बी उम्र की दुआ'। मगर अरबी ज़बान में इस्तिलाह के तौर पर यह लफ़्ज़ इस्तिक़बाल (स्वागत) के लिए बोला जाता है, जो लोग आमना-सामना होने पर सबसे पहले एक-दूसरे से कहते हैं। उर्दू में उसका हम मानी लफ़्ज़ या तो 'सलाम' है या फिर ‘अलैक-सलैक’। लेकिन यह लफ़्ज़ इस्तेमाल करने से तर्जमा ठीक नहीं होता, इसलिए हमने इसका तर्जमा 'इस्तिक़बाल' किया है। अमीर 'तहिय-य तुहुम' के मानी यह भी हो सकते हैं कि उनके दरमियान आपस में एक-दूसरे के इस्तिक़बाल का तरीक़ा यह होगा, और ये मानी भी हो सकते हैं कि उनका इस तरह इस्तिक़बाल होगा। साथ ही 'सलामुन' में सलामती की दुआ का मतलब भी शामिल है और सलामती की मुबारकबाद का भी। हमने मौक़े से मेल खाता हुआ वह मतलब लिया है जो तर्जमे में लिखा है।
أَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا كَلِمَةٗ طَيِّبَةٗ كَشَجَرَةٖ طَيِّبَةٍ أَصۡلُهَا ثَابِتٞ وَفَرۡعُهَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 23
(24) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह ने कलिमा- तय्यिबा34 को किस चीज़ से मिसाल दी है? इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक अच्छी ज़ात का पेड़ जिसकी जड़ ज़मीन में गहरी जमी हुई है और शाखाएँ आसमान तक पहुँची हुई हैं।35
34. 'कलिमए-तैयिबा' के लफ़्ज़ी मानी तो 'पाकीज़ा बात' के हैं, मगर इससे मुराद वह हक़ बात और सही अक़ीदा है जिसकी बुनियाद सरासर हक़ीक़त और सच्चाई पर हो। यह बात और यह अक़ीदा क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ लाज़िमन वही हो सकता है, जिसमें तौहीद (एकेश्वरवाद) का इक़रार, नबियों और आसमानी किताबों का इक़रार, और आख़िरत का इक़रार हो, क्योंकि क़ुरआन इन्हीं बातों को बुनियादी सच्चाइयों की हैसियत से पेश करता है।
35. दूसरे अलफ़ाज में इसका मतलब यह हुआ कि ज़मीन से लेकर आसमान तक चूँकि कायनात के सारे निज़ाम की बुनियाद उसी हक़ीक़त पर है जिसका इक़रार एक ईमानवाला अपने के कलिमा-ए-तय्यिबा में करता है, इसलिए किसी गोशे में भी फ़ितरत का क़ानून उससे नहीं टकराता, किसी चीज़ की भी अस्ल और फ़ितरत उससे नफ़रत नहीं करती, कहीं कोई हक़ीक़त और सच्चाई उससे टकराती नहीं। इसी लिए ज़मीन और उसका पूरा निज़ाम उससे सहयोग करता है, और आसमान और उसका पूरा आलम उसका इस्तिक़बाल करता है।
تُؤۡتِيٓ أُكُلَهَا كُلَّ حِينِۭ بِإِذۡنِ رَبِّهَاۗ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَالَ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 24
(25) हर पल अपने रब के हुक्म से अपने फल दे रहा है।36 ये मिसालें अल्लाह इसलिए देता है कि लोग इनसे सबक लें।
36. यानी वह ऐसा फलने-फूलने और फल देनेवाला कलिमा है कि जो शख़्स या क़ौम इसे बुनियाद बनाकर अपनी ज़िन्दगी का निज़ाम इसपर तामीर करे, उसको हर वक़्त इसके मुफ़ीद नतीजे हासिल होते रहते हैं। वह फ़िक्र में सुलझाव, तबीअत में सलामती, मिज़ाज में एतिदाल (संतुलन), सीरत में मज़बूती, अख़लाक़ में पाकीज़गी, रूह में ताज़गी, जिस्म में पाकी-सफ़ाई, बर्ताव में ख़ुशगवारी, मामलात में सच्चाई, बातचीत में सच्चाई-पसन्दी, कौल-क़रार में पुख़्तगी, सामाजिक मामलों में अच्छा सुलूक, तहज़ीब में फ़ज़ीलत (बड़ाई), रहन-सहन में तवाज़ुन, रोज़ी-रोज़गार में इंसाफ़ और हमदर्दी, सियासत में ईमानदारी, जंग में शराफ़त, सुलह और समझौते में ख़ुलूस और अहदो-पैमान में मज़बूती पैदा करता है। वह एक ऐसा पारस है जिसका असर अगर कोई ठीक-ठीक क़ुबूल कर ले तो सोना बन जाए।
وَمَثَلُ كَلِمَةٍ خَبِيثَةٖ كَشَجَرَةٍ خَبِيثَةٍ ٱجۡتُثَّتۡ مِن فَوۡقِ ٱلۡأَرۡضِ مَا لَهَا مِن قَرَارٖ ۝ 25
(26) और 'कलिमए-ख़बीसा’37 की मिसाल एक बदज़ात पेड़ की-सी है जो ज़मीन की सतह से उखाड़ फेंका जाता है, उसके लिए कोई जमाव नहीं है।38
37. यह लफ़्ज़ 'कलिमए-तय्यिबा' का उलट है, जिसका इस्तेमाल हालाँकि हर हक़ीक़त के ख़िलाफ़ और झूठी बात पर हो सकता है, मगर यहाँ इससे मुराद हर वह बातिल अक़ीदा (मिथ्या धारणा) है जिसको इनसान अपने निज़ामे-ज़िन्दगी की बुनियाद बनाए, चाहे वह दहरियत (भौतिकवाद) हो, इल्हाद (नास्तिकता) हो, बेदीनी हो, शिर्क व बुत-परस्ती हो या कोई और ऐसा ख़याल जो पैग़म्बरों के वास्ते से न आया हो।
38. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह हुआ कि बातिल अक़ीदा चूँकि हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है इसलिए फ़ितरत का क़ानून कहीं भी उससे मेल नहीं खाता। कायनात का हर ज़र्रा उसको झुठलाता है। ज़मीन व आसमान की हर चीज़ उसको रद्द करती है। ज़मीन में उसका बीज बोने की कोशिश की जाए तो हर वक़्त वह उसे उगलने के लिए तैयार रहती है। आसमान की तरफ़ उसकी शाखाएँ बढ़ना चाहें तो वह उन्हें नीचे धकेलता है। इनसान को अगर इम्तिहान के लिए चुनने की आज़ादी और अमल की मुहलत न दी गई होती तो यह नापाक पेड़ कहीं उगने ही न पाता। मगर चूँकि अल्लाह तआला ने इनसान को अपने रुझान के मुताबिक़ काम करने का मौक़ा दिया है, इसलिए जो नादान लोग फ़ितरत के क़ानून से लड़-भिड़कर यह पेड़ लगाने की कोशिश करते हैं, उनके ज़ोर मारने से ज़मीन उसे थोड़ी बहुत जगह दे देती है, हवा और पानी से कुछ न कुछ ग़िज़ा (भोजन) भी इसे मिल जाती है, और फ़िज़ा भी इसकी शाखाओं को फैलने के लिए न चाहते हुए कुछ मौक़ा देने पर तैयार हो जाती है। लेकिन जब तक यह दरख़्त क़ायम रहता है कड़वे, कसैले, ज़हरीले फल देता रहता है, और हालात के बदलते ही हादिसों का एक झटका उसको जड़ से उखाड़ फेंकता है। 'कलिमए-तय्यिबा' और 'कलिमए-ख़बीसा' के इस फ़र्क़ को हर वह शख़्स आसानी से महसूस कर सकता है जो दुनिया के मज़हबी, अख़लाक़ी, फ़ितरी और सामाजिक इतिहास का अध्ययन करे। वह देखेगा कि इतिहास के आरम्भ से आज तक कलिमए-तय्यिबा एक ही रहा है, मगर ख़बीस कलिमे बेशुमार पैदा हो चुके हैं। कलिमए-तय्यिबा कभी जड़ से न उखाड़ा जा सका, मगर ख़बीस कलिमों की फ़ेहरिस्त हज़ारों मुर्दा कलिमों के नामों से भरी पड़ी है, यहाँ तक कि उनमें से बहुतों का हाल यह है कि आज इतिहास के पन्नों के सिवा कहीं उनका नामो-निशान तक नहीं पाया जाता। अपने ज़माने में जिन कलिमों का बड़ा ज़ोर-शोर रहा है आज उनका ज़िक्र किया जाए तो लोग हैरान रह जाएँ कि कभी इनसान ऐसी-ऐसी बेवक़ूफ़ियों को भी मानता रहा है। फिर कलिमए-तय्यिबा को जब, जहाँ और जिस शख़्स या क़ौम ने भी सही मानों में अपनाया उसकी ख़ुशबू से उसका माहौल महक उठा और उसकी बरकतों से सिर्फ़ उसी शख़्स या क़ौम ने फ़ायदा नहीं उठाया, बल्कि उसके आसपास की दुनिया भी उनसे मालामाल हो गई। मगर किसी कलिमए-ख़बीस ने जहाँ जिस इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) या इज्तिमाई ज़िन्दगी में भी जड़ पकड़ी उसकी सड़ाँध से सारा माहौल बदबूदार हो गया और उसके काँटों की चुभन से न उसका माननेवाला अम्न में रहा, न कोई ऐसा शख़्स जिसको उसका सामना करना पड़ा हो। इस सिलसिले में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यहाँ मिसाल के अन्दाज़ में उसी बात को समझाया गया है जो ऊपर आयत-18 में यूँ बयान हुई थी, “अपने रब से कुफ़्र (इनकार) करनेवालों के आमाल की मिसाल उस राख की-सी है जिसे एक तूफ़ानी दिन की आँधी ने उड़ा दिया हो।” और यही मज़मून इससे पहले सूरा-13 रअद, आयत-17 में एक-दूसरे अन्दाज़ से सैलाब और पिघलाई हुई धातुओं की मिसाल में बयान हो चुका है।
يُثَبِّتُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱلۡقَوۡلِ ٱلثَّابِتِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَيُضِلُّ ٱللَّهُ ٱلظَّٰلِمِينَۚ وَيَفۡعَلُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُ ۝ 26
(27) ईमान लानेवालों को अल्लाह एक पक्की बात की बुनियाद पर दुनिया और आख़िरत दोनों में जमाव और मज़बूती देता है39, और ज़ालिमों को अल्लाह भटका देता है।40 अल्लाह को इख़्तियार है जो चाहे करे।
39. यानी दुनिया में उनको इस कलिमे की वजह से एक पायदार नज़रिया, एक मज़बूत निज़ामे-फ़िक्र (चिन्तन-व्यवस्था) और एक व्यापक विचारधारा मिलती है जो मसले को हल करने और हर गुत्थी को सुलझाने के लिए 'मास्टर की' (चाबी) की हैसियत रखती है। सीरत की मज़बूती और अख़लाक़ का दुरुस्त होना हासिल होता है जिसे समय के उतार-चढ़ाव डिगा नहीं सकते। ज़िन्दगी के ऐसे ठोस उसूल मिलते हैं जो एक तरफ़ उनके दिल को सुकून और दिमाग़ को इत्मीनान देते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हें कोशिश व अमल की राहों में भटकने, ठोकरें खाने और रंग बदलते रहने का शिकार होने से बचाते हैं। फिर जब वे मौत की सीमा पार करके आख़िरत की दुनिया की हदों में क़दम रखते हैं तो वहाँ किसी तरह की हैरानी और परेशानी उन्हें नहीं होती; क्योंकि वहाँ सब कुछ बिलकुल उनकी उम्मीदों के ठीक मुताबिक़ होता है। वे उस दुनिया में दाख़िल होते हैं मानो उसके हालात को पहले ही से जानते थे। वहाँ कोई मरहला ऐसा पेश नहीं आता जिसकी उन्हें पहले ख़बर न दे दी गई हो और जिसके लिए उन्होंने पहले से तैयारी न कर रखी हो। इसलिए वहाँ हर मंज़िल से वे पूरे जमाव के साथ गुज़रते है। उनका हाल वहाँ हक़ के उस इनकारी से बिलकुल अलग होता है जिसे मरते ही अपनी उम्मीदों के सरासर ख़िलाफ़ एक दूसरी ही सूरतेहाल से अचानक सामना होता है।
40. यानी जो ज़ालिम कलिमए-तय्यिबा को छोड़कर किसी कलिमए-ख़बीसा की पैरवी करते हैं, अल्लाह तआला उनके ज़ेहन को उलझनों में डाल देता हैं और उनकी कोशिशों को अकारथ कर देता है। वे किसी पहलू से भी सोच व अमल की सही राह नहीं पा सकते। उनका कोई तीर भी निशाने पर नहीं बैठता।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ بَدَّلُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ كُفۡرٗا وَأَحَلُّواْ قَوۡمَهُمۡ دَارَ ٱلۡبَوَارِ ۝ 27
(28) तुमने देखा उन लोगों को जिन्होंने अल्लाह की नेमत पाई और उसे नाशुक्री से बदल डाला और (अपने साथ) अपनी क़ौम को भी तबाही के घर में झोंक दिया
جَهَنَّمَ يَصۡلَوۡنَهَاۖ وَبِئۡسَ ٱلۡقَرَارُ ۝ 28
(29) यानी जहन्नम, जिसमें वे झुलसे जाएँगे और वह सबसे बुरा ठिकाना है
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ أَندَادٗا لِّيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِهِۦۗ قُلۡ تَمَتَّعُواْ فَإِنَّ مَصِيرَكُمۡ إِلَى ٱلنَّارِ ۝ 29
(30) और अल्लाह के कुछ हमसर (समकक्ष) ठहरा लिए, ताकि वे उन्हें अल्लाह के रास्ते से भटका दें। इनसे कहो, अच्छा मज़े कर लो, आख़िकार तुम्हें पलटकर जाना दोज़ख़ ही में है।
قُل لِّعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُنفِقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا بَيۡعٞ فِيهِ وَلَا خِلَٰلٌ ۝ 30
(31) ऐ नबी, मेरे जो बन्दे ईमान लाए हैं उनसे कह दो कि नमाज़ क़ायम करें और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से खुले और छिपे (भलाई के रास्ते में) ख़र्च करें41 इससे पहले कि वह दिन आए जिसमें न ख़रीदना-बेचना होगा और न दोस्ती हो सकेगी।42
41. मतलब यह हो कि मानवालों का रवैया इनकार करनेवालों से अलग होना चाहिए। वे तो नेमत की नाशुक्री करनेवाले हैं। इन्हें शुक्रगुज़ार होना चाहिए और इस शुक्रगुज़ारी की अमली सूरत यह है कि नमाज़ क़ायम करें और ख़ुदा की राह में अपने माल ख़र्च करें।
42. यानी न तो वहाँ कुछ दे दिलाकर ही नजात ख़रीदी जा सकेगी और न किसी की दोस्ती काम आएगी कि वह तुम्हें ख़ुदा की पकड़ से बचा ले।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ لِتَجۡرِيَ فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡأَنۡهَٰرَ ۝ 31
(32) अल्लाह वही तो है43 जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया और आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिए से तुम्हें रोजी पहुँचाने के लिए तरह-तरह के फल पैदा किए, जिसने नाव को तुम्हारे लिए सधाया कि समुद्र में उसके हुक्म से चले, और नदियों को तुम्हारे लिए सधाया,
43. यानी वह अल्लाह जिसकी नेमतों की नाशुक्री की जा रही है, जिसकी बन्दगी और फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ा जा रहा है, जिसके साथ ज़बरदसती के साझी ठहराए जा रहे हैं, वह वही तो है जिसके ये और ये एहसान हैं।
رَّبَّنَآ إِنِّيٓ أَسۡكَنتُ مِن ذُرِّيَّتِي بِوَادٍ غَيۡرِ ذِي زَرۡعٍ عِندَ بَيۡتِكَ ٱلۡمُحَرَّمِ رَبَّنَا لِيُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱجۡعَلۡ أَفۡـِٔدَةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ تَهۡوِيٓ إِلَيۡهِمۡ وَٱرۡزُقۡهُم مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡكُرُونَ ۝ 32
(37) परवरदिगार! मैंने एक बेआबो-गयाह (निर्जल और ऊसर) घाटी में अपनी औलाद के एक हिस्से को तेरे मोहरतम घर के पास ला बसाया है। परवरदिगार! यह मैंने इसलिए किया है कि ये लोग यहाँ नमाज़ क़ायम करें, इसलिए तू लोगों के दिलों को इनका ख़ाहिशमन्द बना और इन्हें खाने को फल दे50, शायद कि ये शुक्रगुज़ार बनें।
50. यह उसी दुआ की बरकत है कि पहले सारा अरब मक्का की तरफ़ हज और उमरे के लिए खिंचकर आता था, और अब दुनिया भर के लोग खिंच-खिंचकर वहाँ जाते हैं। फिर यह भी उसी दुआ की बरकत है कि हर ज़माने में हर तरह के फल, अनाज और रिज़्क़ के दूसरे सामान वहाँ पहुँचते रहते हैं, हालाँकि इस बंजर घाटी में जानवरों के लिए चारा तक पैदा नहीं होता।
رَبَّنَآ إِنَّكَ تَعۡلَمُ مَا نُخۡفِي وَمَا نُعۡلِنُۗ وَمَا يَخۡفَىٰ عَلَى ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 33
(38) परवरदिगार! तू जानता है जो कुछ हम छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं।51 और52 वाक़ई अल्लाह से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, न ज़मीन में, न आसमानों में।
51. यानी ऐ ख़ुदा जो कुछ मैं ज़बान से कह रहा हूँ वह भी तू सुन रहा है और जो जज़्बात मेरे दिल में छिपे हुए हैं उनको भी तू जानता है।
52. यह बीच में अलग से कही गई बात है जो अल्लाह तआला ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की बात की तसदीक़ (पुष्टि) में कही है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي وَهَبَ لِي عَلَى ٱلۡكِبَرِ إِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَۚ إِنَّ رَبِّي لَسَمِيعُ ٱلدُّعَآءِ ۝ 34
(39) 'शुक्र है उस अल्लाह का जिसने मुझे इस बुढ़ापे में इसमाईल और इसहाक़ जैसे बेटे दिए, सच तो यह है कि मेरा रब ज़रूर दुआ सुनता है।
رَبِّ ٱجۡعَلۡنِي مُقِيمَ ٱلصَّلَوٰةِ وَمِن ذُرِّيَّتِيۚ رَبَّنَا وَتَقَبَّلۡ دُعَآءِ ۝ 35
(40) ऐ मेरे परवरदिगार! मुझे नमाज़ क़ायम करनेवाला बना और मेरी औलाद से भी (ऐसे लोग उठा, जो ये काम करें) । परवरदिगार! मेरी दुआ क़ुबूल कर।
رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيَّ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ يَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡحِسَابُ ۝ 36
(41) परवरदिगार! मुझे और मेरे माँ-बाप को और सब ईमान लानेवालों को उस दिन माफ़ कर दीजियो, जबकि हिसाब क़ायम होगा।"53
53. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने मग़फ़िरत की इस दुआ में अपने बाप को उस वादे की वजह से शरीक कर लिया था जो उन्होंने वतन से निकलते वक़्त किया था कि “मैं अपने रब से आपके लिए माफ़ी की दुआ करूँगा।” (सूरा-20 मरयम, आयत-47) मगर बाद में जब उन्हें एहसास हुआ कि वह तो अल्लाह का दुश्मन था तो उन्होंने उससे अलग होने का साफ़ एलान कर दिया (सूरा-9 तौबा, आयत-114) ।
وَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱللَّهَ غَٰفِلًا عَمَّا يَعۡمَلُ ٱلظَّٰلِمُونَۚ إِنَّمَا يُؤَخِّرُهُمۡ لِيَوۡمٖ تَشۡخَصُ فِيهِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 37
(42) अब ये ज़ालिम लोग जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह को तुम इससे ग़ाफ़िल न समझो। अल्लाह तो इन्हें टाल रहा है उस दिन के लिए जब हाल यह होगा कि आँखें फटी की फटी रह गई हैं।
مُهۡطِعِينَ مُقۡنِعِي رُءُوسِهِمۡ لَا يَرۡتَدُّ إِلَيۡهِمۡ طَرۡفُهُمۡۖ وَأَفۡـِٔدَتُهُمۡ هَوَآءٞ ۝ 38
(43) सर उठाए भागे चले जा रहे हैं, नज़रें ऊपर जमी हैं54 और दिल उड़े जाते हैं।
54. यानी क़ियामत का जो हौलनाक नज़ारा उनके सामने होगा। उसको इस तरह टकटकी लगाए देख रहे होंगे मानो कि उनके दीदे पथरा गए हैं, न पलक झपकेगी, न नज़र हटेगी।
وَأَنذِرِ ٱلنَّاسَ يَوۡمَ يَأۡتِيهِمُ ٱلۡعَذَابُ فَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رَبَّنَآ أَخِّرۡنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ نُّجِبۡ دَعۡوَتَكَ وَنَتَّبِعِ ٱلرُّسُلَۗ أَوَلَمۡ تَكُونُوٓاْ أَقۡسَمۡتُم مِّن قَبۡلُ مَا لَكُم مِّن زَوَالٖ ۝ 39
(44) ऐ नबी! उस दिन से तुम इन्हें डराओ जबकि अज़ाब इन्हें आ लेगा। उस वक़्त ये ज़ालिम कहेंगे कि “ऐ हमारे रब, हमें थोड़ी-सी मुहलत और दे दे, हम तेरी दावत को क़ुबूल करेंगे और रसूलों की पैरवी करेंगे।” (मगर उन्हें साफ़ जवाब दिया जाएगा कि) क्या तुम वही लोग नहीं हो जो इससे पहले क़समें खा-खाकर कहते थे कि हमारा तो कभी ज़वाल (पतन) होना ही नहीं है?
وَسَكَنتُمۡ فِي مَسَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَتَبَيَّنَ لَكُمۡ كَيۡفَ فَعَلۡنَا بِهِمۡ وَضَرَبۡنَا لَكُمُ ٱلۡأَمۡثَالَ ۝ 40
(45) हालाकि तुम उन क़ौमों की बस्तियों में रह-बस चुके थे जिन्होंने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया था और देख चुके थे कि हमने उनसे क्या सुलूक किया और उनकी मिसालें दे-देकर हम तुम्हें समझा भी चुके थे।
وَقَدۡ مَكَرُواْ مَكۡرَهُمۡ وَعِندَ ٱللَّهِ مَكۡرُهُمۡ وَإِن كَانَ مَكۡرُهُمۡ لِتَزُولَ مِنۡهُ ٱلۡجِبَالُ ۝ 41
(46) उन्होंने अपनी सारी ही चालें चल देखीं, मगर उनकी हर चाल का तोड़ अल्लाह के पास था, अगरचे उनकी चालें ऐसी ग़ज़ब की थीं कि पहाड़ उनसे टल जाएँ।55
55. यानी तुम यह भी देख चुके थे कि तुमसे पहले की क़ौमों ने ख़ुदा के क़ानूनों की ख़िलाफ़वर्ज़ी के नतीजों से बचने और पैग़म्बरों की दावत को नाकाम करन के लिए कैसी-कैसी ज़बरदस्त चालें चलीं, और यह भी देख चुके थे कि अल्लाह की एक ही चाल से वे किस तरह मात खा गईं। मगर फिर भी तुम हक़ के ख़िलाफ़ चालबाज़ियाँ करने से न रुके और यही समझते रहे कि तुम्हारी चालें ज़रूर कामयाब होंगी।
فَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱللَّهَ مُخۡلِفَ وَعۡدِهِۦ رُسُلَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٖ ۝ 42
(47) तो ऐ नबी! तुम हरगिज़ यह गुमान न करो कि अल्लाह कभी अपने रसूलों से किए हुए वादों के ख़िलाफ़ करेगा।56 अल्लाह ज़बरदस्त है और बदला लेनेवाला है।
56. इस जुमले में बात का रुख़ बज़ाहिर नबी (सल्ल०) की तरफ़ है, मगर अस्ल में मक़सद सुनाना आपकी मुख़ालफ़त करनेवालों को है। उन्हें यह बताया जा रहा है कि अल्लाह ने पहले भी अपने रसूलों से जो वादे किए थे वे पूरे किए और उनके मुख़ालिफ़ों को नीचा दिखाया, और अब भी जो वादा वह अपने रसूल मुहम्मद (सल्ल०) से कर रहा है उसे पूरा करेगा और उन लोगों को तहस-नहस कर देगा जो उसकी मुख़ालफ़त कर रहे हैं।
يَوۡمَ تُبَدَّلُ ٱلۡأَرۡضُ غَيۡرَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُۖ وَبَرَزُواْ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ ۝ 43
(48) डराओ इन्हें उस दिन से जबकि ज़मीन और आसमान बदलकर कुछ से कुछ कर दिए जाएँगे57 और सब के सब एक अकेले ज़बरदस्त क़ुव्वत रखनेवाले अल्लाह के सामने बेनक़ाब हाज़िर हो जाएँगे।
57. इस आयत से और क़ुरआन के दूसरे इशारों से मालूम होता है कि क़ियामत में ज़मीन व आसमान बिलकुल मिट नहीं जाएँगे, बल्कि सिर्फ़ मौजूदा तबई निज़ाम (भौतिक व्यवस्था) को अस्त-व्यस्त कर डाला जाएगा। उसके बाद पहले सूर फूँके जाने और आख़िरी सूर फूँके जाने के बीच एक ख़ास मुद्दत में, जिसे अल्लाह ही जानता है, ज़मीन और आसमानों की मौजूदा हालत बदल दी जाएगी और एक दूसरा क़ुदरती निज़ाम, दूसरे क़ुदरती क़ानूनों के साथ बना दिया जाएगा। वही आख़िरत की दुनिया होगी। फिर आख़िरी सूर फूँके जाने के साथ ही तमाम वे इनसान जो आदम की पैदाइश से लेकर क़ियामत तक पैदा हुए थे, नए सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे और अल्लाह तआला के सामने पेश होंगे। इसी का नाम क़ुरआन की ज़बान में 'हश्र' है जिसके लुग़वी (शाब्दिक) मानी समेटना और इकट्ठा करना हैं। क़ुरआन के इशारों और हदीस के साफ़ बयानों से यह बात साबित है कि हश्र इसी ज़मीन पर बरपा होगा, यहीं अदालत क़ायम होगी, यहीं आमाल का वज़न करने के लिए मीज़ान (तराज़ू) लगाई जाएगी और ज़मीन के मामले ज़मीन ही पर निपटाए जाएँगे। साथ ही यह भी क़ुरआन व हदीस से साबित है कि हमारी वह दूसरी ज़िन्दगी जिसमें ये मामले पेश आँएगे, सिर्फ़ रूहानी नहीं होगी, बल्कि ठीक उसी तरह जिस्म व रूह के साथ हम ज़िन्दा किए जाएँगे जिस तरह आज जिन्दा हैं, और हर शख़्स ठीक उसी शख़्सियत के साथ वहाँ मौजूद होगा जिसे लिए हुए वह दुनिया से रुख़्सत हुआ था।
وَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ مُّقَرَّنِينَ فِي ٱلۡأَصۡفَادِ ۝ 44
(49) उस दिन तुम मुजरिमों को देखोगे कि ज़ंजीरों में हाथ-पाँव जकड़े होंगे,
سَرَابِيلُهُم مِّن قَطِرَانٖ وَتَغۡشَىٰ وُجُوهَهُمُ ٱلنَّارُ ۝ 45
(50) तारकोल58 के कपड़े पहने हुए होंगे और आग के शोले उनके चेहरों पर छाए जा रहे होंगे।
58. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'क़तिरान' इस्तेमाल हुआ है। क़ुरआन के कुछ तजमा करनेवालों ने 'कतिरान' का मतलब गन्धक और कुछ ने पिघला हुआ ताँबा बयान किया है। मगर अस्ल में अरबी में 'क़तिरान' का लफ़्ज़ डामर और तारकोल के लिए इस्तेमाल होता है।
لِيَجۡزِيَ ٱللَّهُ كُلَّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 46
(51) यह इसलिए होगा कि अल्लाह हर जानदार को उसके किए का बदला देगा। अल्लाह को हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
هَٰذَا بَلَٰغٞ لِّلنَّاسِ وَلِيُنذَرُواْ بِهِۦ وَلِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَلِيَذَّكَّرَ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 47
(52) यह एक पैग़ाम है सब इंसानों के लिए और यह भेजा गया है इसलिए कि उनको इसके ज़रिये से ख़बरदार कर दिया जाए और वे जान लें कि हक़ीक़त में अल्लाह बस एक ही है, और जो अक़्ल रखते हैं वे होश में आ जाएँ।
سُورَةُ إِبۡرَاهِيمَ
14. इबराहीम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ دَآئِبَيۡنِۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ۝ 48
(33) जिसने सूरज और चाँद को तुम्हारे लिए सधाया कि लगातार चले जा रहे हैं और रात और दिन को तुम्हारे लिए सधाया44,
44. “तुम्हारे लिए सधाया” को आमतौर पर लोग ग़लती से “तुम्हारे मातहत कर दिया” के मानी में ले लेते हैं, और फिर इस मज़मून की आयतों से अजीब-अजीब मानी निकालने लगते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग तो यहाँ तक समझ बैठे कि आयतों के मुताबिक़ आसमानों और ज़मीन की चीज़ों को वश में करना इनसान का सबसे बड़ा मक़सद है। हालाँकि इनसान के लिए इन चीज़ों को सधाने का मतलब इसके सिवा कुछ नहीं है कि अल्लाह तआला ने उनको ऐसे क़ानूनों का पाबन्द बना रखा है जिनकी बदौलत वह इनसान के लिए फ़ायदेमंद हो गई हैं। नाव अगर क़ुदरत के कुछ ख़ास क़ानूनों की पाबन्द न होती तो इनसान कभी समुद्री सफ़र न कर सकता। नदियाँ अगर ख़ास क़ानूनों में जकड़ी हुई न होतीं तो कभी उनसे नहरें न निकाली जा सकतीं। सूरज और चाँद और दिन-रात अगर ज़ाबितों में कसे हुए न होते तो यहाँ ज़िन्दगी ही मुमकिन न होती, एक फलता-फूलता इनसानी समाज वुजूद में आना तो दूर की बात है।
وَءَاتَىٰكُم مِّن كُلِّ مَا سَأَلۡتُمُوهُۚ وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَظَلُومٞ كَفَّارٞ ۝ 49
(34) जिसने वह सब कुछ तुम्हें दिया जो तुमने माँगा।45 अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो गिन नहीं सकते। हक़ीक़त तो यह है कि इनसान बड़ा ही बेइनसाफ़ और नाशुक्रा है।
45. यानी तुम्हारी फ़ितरत की माँग पूरी की, तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए जो-जो कुछ चाहिए था मुहैया (उपलब्ध) किया, तुम्हारे बक़ा (बाक़ी रहने) और इर्तिक़ा (तरक़्क़ी) के लिए जिन-जिन वसाइल (संसाधनों) की ज़रूरत थी सब जुटा दिए।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ رَبِّ ٱجۡعَلۡ هَٰذَا ٱلۡبَلَدَ ءَامِنٗا وَٱجۡنُبۡنِي وَبَنِيَّ أَن نَّعۡبُدَ ٱلۡأَصۡنَامَ ۝ 50
(35) याद करो वह वक़्त जब इबराहीम ने दुआ की थी46 कि परवरदिगार! इस शहर को अमन का शहर47 बना और मुझे और मेरी औलाद को बुतपरस्ती से बचा।
46. आम एहसानों का ज़िक्र करने के बाद अब उन ख़ास एहसानों का ज़िक्र किया जा रहा है जो अल्लाह तआला ने क़ुरैश पर किए थे और इसके साथ यह भी बताया जा रहा है कि तुम्हारे बाप इबराहीम (अलैहि०) ने यहाँ आकर किन तमन्नाओं के साथ तुम्हें बसाया था, उसकी दुआओं के जवाब में कैसे-कैसे एहसान हमने तुमपर किए, और अब तुम अपने बाप की तमन्नाओं और अपने रब के एहसानों का जवाब किन गुमराहियों और बद-आमालियों से दे रहे हो।
47. यानी मक्का।
رَبِّ إِنَّهُنَّ أَضۡلَلۡنَ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِۖ فَمَن تَبِعَنِي فَإِنَّهُۥ مِنِّيۖ وَمَنۡ عَصَانِي فَإِنَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 51
(36) परवरदिगार! इन बुतों ने बहुतों को गुमराही में डाला है48, (मुमकिन है कि मेरी औलाद को भी ये गुमराह कर दें, इसलिए उनमें से) जो मेरे तरीक़े पर चले वह मेरा है और जो मेरे ख़िलाफ़ तरीक़ा अपनाए तो यक़ीनन तू माफ़ करनेवाला और मेहरबान है।49
48. यानी ख़ुदा से फेरकर अपना दीवाना बना लिया है। यह अलामती अन्दाज़े-बयान है। बुत चूँकि बहुतों की गुमराही का सबब बने है, इसलिए गुमराह करने के काम को उनसे जोड़ दिया गया है।
49. यह हज़रत इबराहीम की कमाल दरजे की नर्म-दिली और इनसानों के हाल पर उनकी इन्तिहाई मेहरबानी है कि वह किसी हाल में भी इनसान को ख़ुदा के अज़ाब में गिरफ़्तार होते नहीं देख सकते, बल्कि आख़िरी वक़्त तक माफ़ कर देने और छोड़ देने की इल्तिजा करते रहते हैं। रिज़्क़ के मामले में तो वे यहाँ तक कह देने में भी पीछे न हटे कि “और इसके रहनेवालों में से जो अल्लाह और आख़िरत को मानें, उन्हें हर क़िस्म के फलों की रोज़ी दे।” (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-126), लेकिन जहाँ आख़िरत की पकड़ का सवाल आया वहाँ उनकी ज़बान से यह न निकला कि जो मेरे तरीक़े के ख़िलाफ़ चले उसे सज़ा दे डालना, बल्कि कहा तो यह कहा कि उनके मामले में क्या अर्ज़ करूँ, तू माफ़ करनेवाला, रहम करनेवाला है। और यह कुछ अपनी ही औलाद के साथ इस सर से पैर तक रहम व मेहरबानीवाले इनसान का ख़ास रवैया नहीं है, बल्कि जब फ़रिश्ते लूत (अलैहि०) की क़ौम जैसी बदकार क़ौम को तबाह करने जा रहे थे उस वक़्त भी अल्लाह तआला बड़ी मुहब्बत के अन्दाज़ में फ़रमाता है कि “इबराहीम हमसे झगड़ने लगा।” (सूरा-11 हूद, आयत-74) यही हाल हज़रत ईसा (अलैहि०) का है कि जब अल्लाह तआला उनके सामने ईसाइयों की गुमराही साबित कर देता है तो वे कहते हैं कि अगर आप इनको सज़ा दें तो ये आपके बन्दे हैं और अगर माफ़ कर दें तो आप पूरा अधिकार रखनेवाले और हिकमतवाले हैं।” (सूरा-5 अल-माइदा, आयत-118)