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سُورَةُ القَصَصِ

28. अल-क़सस 

(मक्का में उतरी-आयतें 88)

परिचय

नाम

आयत 25 के इस वाक्य से लिया गया है, "व क़स-स अलैहिल क़-स-स" (और अपना सारा वृत्तांत, अल-क़सस, सुनाया) अर्थात् वह सूरा जिसमें 'अल-क़सस' का शब्द आया है।

उतरने का समय

सूरा-27 नम्ल के परिचय में इब्‍ने-अब्बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का यह कथन हम नक़्ल कर चुके हैं कि सूरा-26 शुअरा, सूरा-27 नम्ल और सूरा-28 क़सस क्रमश: उतरी हैं। भाषा, वर्णन-शैली और विषय-वस्तुओं से भी यही महसूस होता है कि इन तीनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब एक ही हैं। और इस लिहाज़ से भी इन तीनों में क़रीबी ताल्लुक़ है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के किस्से के अलग-अलग हिस्से जो इनमें बयान हुए हैं, वे आपस में मिलकर एक पूरा क़िस्सा बन जाते हैं।

विषय और वार्ताएँ

इसका विषय उन सन्देहों और आपत्तियों को दूर करना है जो नबी (सल्ल०) की रिसालत पर की जा रही थीं और बहानों को रद्द करना है जो आपपर ईमान न लाने के लिए पेश किए जा रहे थे। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले हज़रत मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा बयान किया गया है जो उतरने के समय की परिस्थितियों से मिलकर अपने आप कुछ सच्चाइयाँ सुननेवालों के मन में बिठा देता है। एक यह कि अल्लाह जो कुछ करना चाहता है, उसके लिए वह ग़ैर-महसूस तरीक़े से साधन जुटा देता है। जिस बच्चे के हाथों अन्तत: फ़िरऔन का तख़्ता पलटना था, उसे अल्लाह ने स्वयं फ़िरऔन ही के घर में उसके अपने हाथों परवरिश करा दिया। दूसरे यह कि नुबूवत किसी आदमी को किसी बड़े जश्न और ज़मीन-आसमान से किसी भारी एलान के साथ नहीं दी जाती। तुमको आश्चर्य है कि मुहम्मद (सल्ल०) को चुपके से यह नुबूवत कहाँ से मिल गई और बैठे-बिठाए ये नबी कैसे बन गए। मगर जिन मूसा (अलैहि०) का तुम स्वयं हवाला देते हो कि “क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" (आयत 48), उन्हें भी इसी तरह राह चलते नुबूवत मिल गई थी। तीसरे यह कि जिस बन्दे से अल्लाह कोई काम लेना चाहता है, कोई ताक़त प्रत्यक्ष में उसके पास नहीं होती, मगर बड़े-बड़े लाव-लश्कर और संसाधनोंवाले  अन्तत: उसके मुक़ाबले में धरे के धरे रह जाते हैं। जो तुलनात्मक अन्तर तुम अपने और मुहम्मद के बीच पा रहे हो, उससे बहुत ज्यादा अन्तर मूसा और फ़िरऔन की शक्ति के बीच था, मगर देख लो कि आखिर कौन जीता और कौन हारा। चौथे यह कि तुम लोग बार-बार मूसा का हवाला देते हो कि "मुहम्मद को वह कुछ क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" अर्थात् (चमत्कारी) लाठी और चमकता हाथ और दूसरे खुले-खुले मोजिज़े (चमत्कार)। मगर तुम्हें कुछ मालूम भी है कि जिन लोगों को वे मोजिज़े दिखाए गए थे वे उन्हें देखकर भी ईमान न लाए, क्योंकि वे सत्य के विरुद्ध हठधर्मी और वैमनस्य में पड़े हुए थे। इसी रोग में आज तुम पड़े हुए हो। क्या तुम इसी तरह के मोजिज़े देखकर ईमान ले आओगे? फिर तुम्हें कुछ यह भी ख़बर है कि जिन लोगों ने वे मोजिज़े देखकर सत्य का इंकार किया था उनका अंजाम क्या हुआ? अन्तत: अल्लाह ने उन्हें तबाह करके छोड़ा। अब क्या तुम भी हठधर्मी के साथ मोजिज़ा माँगकर अपनी शामत बुलाना चाहते हो? ये वे बातें हैं जो किसी स्पष्टीकरण के रूप में बिना, आपसे आप हर उस आदमी के मन में उतर जाती थीं जो मक्का के अधर्मपूर्ण माहौल में इस क़िस्से को सुनता था, क्योंकि उस समय मुहम्मद (सल्ल०) और मक्का के विधर्मियों के बीच वैसा ही एक संघर्ष चल रहा था जैसा इससे पहले फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) के दर्मियान बरपा हो चुका था। इसके बाद आयत-43 से मूल विषय पर प्रत्यक्ष रूप से वार्ता शुरू होती है। पहले इस बात को मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत का एक सुबूत क़रार दिया जाता है कि आप उम्मी (अनपढ़) होने के बावजूद दो हज़ार वर्ष पहले गुज़री हुई एक ऐतिहासिक घटना को इस विस्तार के साथ हू-ब-हू सुना रहे हैं। फिर आप के नबी बनाए जाने को उन लोगों के हक़ में अल्लाह की एक रहमत (अनुकम्पा) क़रार दिया जाता है कि वे भुलावे में पड़े हुए थे और अल्लाह ने उनके मार्गदर्शन के लिए यह प्रबन्ध किया। फिर उनकी इस आपत्ति का उत्तर दिया जाता है, “यह नबी वह मोजिज़े क्यों न लाया जो इससे पहले मूसा लाये थे?" इनसे कहा जाता है कि मूसा ही को तुमने कब माना है कि अब इस नबी से मोजिज़े की माँग करते हो। आख़िर में मक्का के विधर्मियों की उस मूल आपत्ति को लिया जाता है जो नबी (सल्ल०) की बात न मानने के लिए वे पेश करते थे। उनका कहना यह था कि अगर हम अरबवालों के शिर्क के धर्म को छोड़कर तौहीद (एकेश्वरवाद) के इस नये दीन को अपना लें तो यकायक इस देश से हमारी धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक चौधराहट समाप्त हो जाएगी। यह चूंकि क़ुरैश के सरदारों के सत्य-विरोध का मूल प्रेरक था इसलिए अल्लाह ने इसपर सूरा के अन्त तक सविस्तार वार्ता की है

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سُورَةُ القَصَصِ
28. अल-क़सस
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
طسٓمٓ
(1) ता-सीम-मीम।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) ये खुली किताब की आयतें हैं।
نَتۡلُواْ عَلَيۡكَ مِن نَّبَإِ مُوسَىٰ وَفِرۡعَوۡنَ بِٱلۡحَقِّ لِقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 2
(3) हम मूसा और फ़िरऔन का कुछ हाल ठीक-ठीक तुम्हें सुनाते हैं,1 ऐसे लोगों के फ़ायदे के लिए जो ईमान लाएँ।2
1. यह क़िस्सा कुछ फ़र्क़ के साथ क़ुरआन में कई जगहों पर आया है देखिए सूरा-2 बक़रा, आयतें—47-59; सूरा-7 आराफ़, आयतें—100-141; सूरा-10 यूनुस, आयतें—75-92; सूरा-11 हूद, आयतें—96-109; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—101-111; सूरा-19 मरयम, आयतें—51-53; सूरा-20 ता-हा, आयतें—45-59; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—45-49; सूरा-26 शुअरा, आयतें—10-68; सूरा-27 नम्ल, आयतें—7-14; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—39-40; सूरा-40 मोमिन, आयतें—23-50; सूरा-43 ज़ुखरूफ़, आयतें—46-56; सूरा-11 दुख़ान, आयतें—17-33; सूरा-51 ज़ारियात, आयतें—38-40 और सूरा-79 नाज़िआत, आयतें—15-26।
2. यानी जो लोग बात मानने के लिए तैयार ही न हों उनको सुनाना तो बेकार है। अलबत्ता जिन्होंने हठधर्मी का ताला अपने दिलों पर लगा न रखा हो, उनसे यह बात कही जा रही है।
إِنَّ فِرۡعَوۡنَ عَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَجَعَلَ أَهۡلَهَا شِيَعٗا يَسۡتَضۡعِفُ طَآئِفَةٗ مِّنۡهُمۡ يُذَبِّحُ أَبۡنَآءَهُمۡ وَيَسۡتَحۡيِۦ نِسَآءَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 3
(4) सच तो यह है कि फ़िरऔन ने ज़मीन में सरकशी की3 और उसके रहनेवालों को गरोहों में बाँट दिया।4 उनमें से एक गरोह को वह रुसवा करता था, उसके लड़कों को क़त्ल करता और उसकी लड़कियों को जीता रहने देता था।5 हक़ीक़त में वह फ़सादी (बिगाड़ फैलानेवाले) लोगों में से था।
3. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ “अला फ़िल-अर्ज़ि” इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब यह है कि उसने ज़मीन में सर उठाया, बाग़ियाना रवैया अपनाया, अपनी अस्ल हैसियत यानी बन्दगी के मक़ाम से उटकर ख़ुदमुख़्तारी और ख़ुदावन्दी की शक्ल इख़्तियार कर ली, मातहत बनकर रहने के बजाय अधिकारी बन बैठा और ज़ालिम और घमण्डी बनकर ज़ुल्म ढाने लगा।
4. यानी उसकी हुकूमत का क़ायदा यह न था कि क़ानून की निगाह में देश के सब बाशिन्दे बराबर हों और सबको बराबर हक़ दिए जाएँ, बल्कि उसने रहन-सहन और सियासत का यह तरीक़ा अपनाया कि देश के वासियों को गरोहों में बाँट दिया जाए, किसी को रिआयतें और ख़ास अधिकार देकर हुक्मराँ गरोह ठहराया जाए और किसी को ग़ुलाम बनाकर दबाया, पीसा और लूटा जाए। यहाँ किसी को यह शक न हो कि इस्लामी हुकूमत भी तो मुस्लिम और ज़िम्मी के बीच फ़र्क़ करती है और उनके हक़ और अधिकार हर हैसियत से एक समान नहीं रखती। यह शक इसलिए ग़लत है कि इस फ़र्क़ की बुनियाद फ़िरऔनी फ़र्क़ के बरख़िलाफ़ नस्ल, रंग, ज़बान या तबक़ाती फ़र्क़ पर नहीं है, बल्कि उसूल और मसलक (पंथ) के फ़र्क़ पर है। इस्लामी निज़ामे- हुकूमत (शासन-व्यवस्था) में ज़िम्मियों और मुसलमानों के बीच क़ानूनी हक़ों में बिलकुल भी कोई फ़र्क़ नहीं है। सारा फ़र्क़ सिर्फ़ सियासी अधिकारों में है और इस फ़र्क़ की वजह इसके सिवा कुछ नहीं कि एक उसूली हुकूमत में हुक्मराँ जमाअत सिर्फ़ वही हो सकती है जो हुकूमत के बुनियादी उसूलों की हामी हो। इस जमाअत में हर वह शख़्स दाख़िल हो सकता है जो इसके उसूलों को मान ले और हर वह शख़्स इससे बाहर हो जाता है जो उन उसूलों को मानने से इनकार कर दे। आख़िर इस फ़र्क़ में और उस फ़िरऔनी फ़र्क़ के तरीक़े में कौन-सी समानता है जिसकी बुनियाद पर ग़ुलाम नस्ल का कोई शख़्स कभी हुक्मराँ गरोह में शामिल नहीं हो सकता। जिसमें ग़ुलाम नस्ल के लोगों को सियासी और क़ानूनी अधिकार तो बहुत दूर की बात बुनियादी इनसानी हक़ भी हासिल नहीं होते, यहाँ तक कि ज़िन्दा रहने का हक़ भी उनसे छीन लिया जाता है। जिसमें ग़ुलामों और मातहतों के लिए किसी हक़ की कोई ज़मानत नहीं होती, तमाम फ़ायदे और अच्छे मंसब और दरजे सिर्फ़ हुक्मराँ (सत्ताधारी) क़ौम के लिए ख़ास होते हैं और ये ख़ास हक़ सिर्फ़ उसी शख़्स को हासिल होते हैं जो हुक्मराँ क़ौम में पैदा हो जाए।
5. बाइबल में इसकी जो तशरीह (व्याख्या) मिलती है वह यह है— “तब मिस्र में एक नया बादशाह हुआ जो यूसुफ़ को नहीं जानता था और उसने अपनी क़ौम के लोगों से कहा कि देखो, इसराईली गिनती में हमसे ज़्यादा और ताक़त में अधिक बढ़ गए हैं, इसलिए आओ हम उनके साथ हिकमत से पेश आएँ। कहीं ऐसा न हो कि जब वे और ज़्यादा हो जाएँ और उस वक़्त जंग छिड़ जाए तो वे हमारे दुश्मनों से मिलकर हमसे लड़ें और इस देश से निकल जाएँ। इसलिए उन्होंने उनपर बेगारी करानेवालों को मुक़र्रर किया जो उनसे सख़्त काम लेकर उन्हें सताएँ और उन्होंने फ़िरऔन के लिए पितोम और रामसेस नामी ज़खीरेवाले शहरों को बनाया..और मिस्रयों ने बनी-इसराईल पर सख़्ती करके उनसे काम कराया और उन्होंने उनसे सख़्त मेहनत से गारा और ईंट बनवा-बनवाकर और खेत में हर तरह के काम लेकर उनकी ज़िन्दगी दूभर कर दी। जिस किसी काम में भी वे उनसे ख़िदमत लेते थे, तो उसमें वे कठोरता का व्यवहार करते थे..........तब मिस्र के बादशाह ने इबरानी दाइयों से......बातें कीं और कहा कि जब इबरानी (यानी इसराईली) औरतों के तुम बच्चा जनाओ और उनको प्रसव के पत्थर पर बैठी देखो तो अगर बेटा हो तो उसे मार डालना और अगर बेटी हो तो जीवित रहने देना।” (निर्गमन, अध्याय-1, आयत-8-16) इससे मालूम हुआ कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का दौर गुज़र जाने के बाद मिस्र में एक क़ौम-परस्ताना इंक़िलाब हुआ था और क़िबतियों के हाथ में जब दोबारा हुकूमत आई तो नई क़ौमपरस्त हुकूमत ने बनी-इसराईल का ज़ोर तोड़ने की पूरी कोशिश की थी। इस सिलसिले में सिर्फ़ इतने ही पर बस न किया गया कि इसराइलियों को बे-इज्ज़त और रुसवा किया जाता और उन्हें छोटे दरजे के काम के लिए ख़ास कर लिया जाता, बल्कि इससे आगे बढ़कर यह पॉलिसी अपनाई गई कि बनी-इसराईल की तादाद घटाई जाए और उनके लड़कों को क़त्ल करके सिर्फ़ उनकी लड़कियों को ज़िन्दा रहने दिया जाए, ताकि धीरे-धीरे उनकी औरतें क़िबतियों के इस्तेमाल में आती जाएँ और उनसे इसराईल के बजाय क़िब्ती नस्ल पैदा हो। तलमूद इसकी और ज़्यादा तफ़सील यह देती है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैह०) के इन्तिक़ाल पर एक सदी से कुछ ज़्यादा मुद्दत गुज़र जाने के बाद यह इंक़िलाब हुआ था। वह बताती है कि नई क़ौमपरस्त हुकूमत ने पहले तो बनी-इसराईल को उनकी उपजाऊ ज़मीनों और उनके मकानों और जायदादों से महरूम किया। उसके बाद भी जब क़िब्ती हुक्मरानों ने महसूस किया कि बनी-इसराईल और उनके अपने मज़हबवाले मिस्री काफ़ी ताक़तवर हैं तो उन्होंने इसराईलियों को बे-इज़्ज़त और रुसवा करना शुरू किया और उनसे सख़्त मेहनत के काम बहुत कम मज़दूरी पर या बिना मजदूरी ही के लेने लगे। यह तफ़सीर है क़ुरआन के इस बयान की कि मिस्र की आबादी के एक गरोह को वह बे-इज्ज़त करता था और सूरा-2 बक़रा में अल्लाह तआला के इस इरशाद (कथन) की कि आले-फ़िरऔन बनी-इसराईल को सख़्त अज़ाब देते थे। मगर बाइबल और क़ुरआन दोनों इस ज़िक्र से ख़ाली हैं कि फ़िरऔन से किसी ज्योतिषी ने यह कहा था कि बनी-इसराईल में एक लड़का पैदा होनेवाला है जिसके हाथों फ़िरऔनी हुकूमत का तख़्ता उलट जाएगा और इसी ख़तरे को रोकने के लिए फ़िरऔन ने इसराईल के लड़कों को क़त्ल करने का हुक्म दिया था, या फ़िरऔन ने कोई भयानक सपना देखा था और उसका यह मतलब बताया गया था कि एक लड़का बनी-इसराईल में ऐसा और ऐसा पैदा होनेवाला है। यह कहानी तलमूद और दूसरी इसराईली रिवायतों से हमारे तफ़सीर लिखनेवालों ने नक़्ल की है (देखिए— जेविश इंसाइक्लोपीडिया, लेख 'मूसा' और The Talmud Selections. P. 23-24)
وَنُرِيدُ أَن نَّمُنَّ عَلَى ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَنَجۡعَلَهُمۡ أَئِمَّةٗ وَنَجۡعَلَهُمُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 4
(5) और हम यह इरादा रखते थे कि मेहरबानी करें उन लोगों पर जो ज़मीन में रुसवा करके रखे गए थे और उन्हें पेशवा बना दें6 और उन्हीं को वारिस बनाएँ7
6. यानी उन्हें दुनिया में क़ियादत (नेतृत्व) और रहनुमाई का मक़ाम दें।
7. यानी उनकी ज़मीन की विरासत दें और वे हुक्मराँ और हुकूमत करनेवाले हों।
وَنُمَكِّنَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَنُرِيَ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَجُنُودَهُمَا مِنۡهُم مَّا كَانُواْ يَحۡذَرُونَ ۝ 5
(6) और ज़मीन में उनको हुकूमत दें और उनसे फ़िरऔन और हामान8 और उनके लश्करों को वही कुछ दिखला दें जिसका उन्हें डर था।
8. मग़रिबी मुस्तशरिक़ीन (इस्लाम का दुराग्रहपूर्ण अध्ययन करनेवाले पश्चिमी विद्वानों) ने इस बात पर बड़ी ले दे की है कि हामान तो ईरान के बादशाह अख़्सवीरस यानी ख़शियार शा (Xerxes) के दरबार का एक अमीर (सरदार) था और उस बादशाह का ज़माना हज़रत मूसा के सैंकड़ों साल बाद 484 और 465 ई०पू० में गुज़रा है, मगर क़ुरआन ने उसे मिस्र ले जाकर फ़िरऔन का वज़ीर (मंत्री) बना दिया। इन लोगों की अक़्ल पर तास्सुब (दुराग्रह) का परदा पड़ा हुआ न हो तो ये ख़ुद ग़ौर करें कि आख़िर उनके पास यह यक़ीन करने के लिए क्या ऐतिहासिक सुबूत मौजूद है कि अख़्सवीरस के दरबारी हामान से पहले दुनिया में कोई शख़्स कभी इस नाम का नहीं गुज़रा है। जिस फ़िरऔन का ज़िक्र यहाँ हो रहा है अगर उसके तमाम वज़ीरों और सरदारों और दरबारियों की कोई मुकम्मल फ़ेहरिस्त बिलकुल भरोसेमन्द ज़रिए से किसी मुस्तशरिक़ साहब को मिल गई है जिसमें हामान का नाम नहीं है तो वह उसे छिपाए क्यों बैठे हैं? उन्हें उसकी तस्वीर फ़ौरन छपवा देनी चाहिए, क्योंकि क़ुरआन को झुठलाने के लिए इससे ज़्यादा असरदार हथियार उन्हें कोई और न मिलेगा।
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَرۡضِعِيهِۖ فَإِذَا خِفۡتِ عَلَيۡهِ فَأَلۡقِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ وَلَا تَخَافِي وَلَا تَحۡزَنِيٓۖ إِنَّا رَآدُّوهُ إِلَيۡكِ وَجَاعِلُوهُ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 6
(7) हमने9 मूसा की माँ को इशारा किया कि “इसको दूध पिला, फिर जब तुझे उसकी जान का ख़तरा हो तो उसे दरिया में डाल दे और कुछ ख़ौफ़ और दुख न कर, हम इसे तेरे ही पास वापस ले आएँगे और इसको पैग़म्बरों में शामिल करेंगे।"10
9. बीच में यह ज़िक्र छोड़ दिया गया है कि इन्हीं हालात में एक इसराईली माँ-बाप के यहाँ वह बच्चा पैदा हो गया जिसको दुनिया ने मूसा (अलैहि०) के नाम से जाना। बाइबल और तलमूद के बयान के मुताबिक़ यह ख़ानदान हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के बेटे लावी की औलाद में से था। हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाप का नाम इन दोनों किताबों में 'इमराम' बताया गया है, क़ुरआन इसी को 'इमरान' कहता है। मूसा (अलैहि०) की पैदाइश से पहले उनके यहाँ दो बच्चे हो चुके थे। सबसे बड़ी लड़की मरयम (Miriam) नाम की थीं जिनका ज़िक्र आगे आ रहा है। उनसे छोटे हज़रत हारून (अलैहि०) थे। शायद यह फ़ैसला कि बनी-इसराईल के यहाँ जो लड़का पैदा हो उसे क़त्ल कर दिया जाए, हज़रत हारून (अलैहि०) की पैदाइश के ज़माने में नहीं हुआ था, इसलिए वे बच गए। फिर यह क़ानून जारी हुआ और उस भयानक दौर में तीसरे बच्चे की पैदाइश हुई।
10. यानी पैदा होते ही नदी में डाल देने का हुक्म न था, बल्कि कहा यह गया कि जब तक ख़तरा न हो बच्चे को दूध पिलाती रहो। जब राज़ खुलता हुआ दिखाई दे और अन्देशा हो कि बच्चे की आवाज़ सुनकर या और किसी तरह दुश्मनों को इसकी पैदाइश का पता चल जाएगा, या ख़ुद बनी-इसराईल ही में से कोई कमीना आदमी मुख़बिरी कर बैठेगा तो बिलकुल निडर होकर उसे एक ताबूत (सन्दूक़) में रखकर नदी में डाल देना। बाइबल का बयान है कि पैदाइश के बाद तीन महीने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) को माँ उनको छिपाए रहीं तलमूद इसपर इज़ाफ़ा करती है कि फ़िरऔन की हुकूमत ने उस ज़माने में जासूस औरतें छोड़ रखी थीं जो इसराईली घरों में अपने साथ छोटे-छोटे बच्चे ले जाती थीं और वहाँ किसी-न-किसी तरह उन बच्चों को रुला देती थीं ताकि अगर किसी इसराईली ने अपने यहाँ कोई बच्चा छिपा रखा हो तो वह भी दूसरे बच्चे की आवाज़ सुनकर रोने लगे। जासूसी के इस नए तरीक़े से हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँ परेशान हो गईं और उन्होंने अपने बच्चे की जान बचाने के लिए पैदाइश के तीन महीने बाद उसे नदी में डाल दिया। इस हद तक इन दोनों किताबों का बयान क़ुरआन के मुताबिक़ है और नदी में डालने की कैफ़ियत भी उन्होंने वही बताई है जो क़ुरआन में बताई गई है। सूरा-20 ता-हा में कहा गया है, “बच्चे को एक ताबूत में रखकर नदी में डाल दे।” (आयत-39) इसी की ताईद (समर्थन) बाइबल और तलमूद भी करती हैं। उनका बयान है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँ ने सरकण्डों का एक टोकरा बनाया और उसे चिकनी मिट्टी और राल से लेपकर पानी से महफ़ूज़ कर दिया, फिर उसमें हज़रत मूसा (अलैहि०) को लिटाकर नील नदी में डाल दिया। लेकिन सबसे बड़ी बात जो क़ुरआन में बयान की गई है उसका कोई ज़िक्र इसराईली रिवायतों में नहीं है, यानी यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँ ने यह काम अल्लाह तआला के इशारे पर किया था और अल्लाह तआला ने पहले ही उनको यह इत्मीनान दिला दिया था कि इस तरीक़े पर अमल करने में न सिर्फ़ यह कि तुम्हारे बच्चे की जान को कोई ख़तरा नहीं है, बल्कि हम बच्चे को तुम्हारे पास ही पलटा लाएँगे और यह कि तुम्हारा यह बच्चा आगे चलकर हमारा रसूल (पैग़म्बर) होनेवाला है।
فَٱلۡتَقَطَهُۥٓ ءَالُ فِرۡعَوۡنَ لِيَكُونَ لَهُمۡ عَدُوّٗا وَحَزَنًاۗ إِنَّ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَجُنُودَهُمَا كَانُواْ خَٰطِـِٔينَ ۝ 7
(8) आख़िरकार फ़िरऔन के घरवालों ने उसे (दरिया से) निकाल लिया, ताकि यह उनका दुश्मन और उनके लिए दुख का सबब बने।11 वाक़ई फ़िरऔन और हामान और उनके लश्कर (अपनी तदबीर में) बड़े ग़लत काम करनेवाले लोग थे।
11. यह उनका मक़सद न था, बल्कि यह उनके उस काम का अंजाम होना था। वे उस बच्चे को उठा रहे थे जिसके हाथों आख़िरकार उन्हें तबाह होना था।
وَقَالَتِ ٱمۡرَأَتُ فِرۡعَوۡنَ قُرَّتُ عَيۡنٖ لِّي وَلَكَۖ لَا تَقۡتُلُوهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 8
(9) फ़िरऔन की बीवी ने (उससे) कहा, “यह मेरे और तेरे लिए आँखों की ठण्डक है, इसे क़त्ल न करो, क्या अजब कि यह हमारे लिए फ़ायदेमन्द साबित हो, या हम इसे बेटा ही बना लें।"12 और वे अंजाम से बेख़बर थे।
12. इस बयान से जो सूरते-हाल साफ़ समझ में आती है वह यह है कि ताबूत या टोकरा नदी में बहता हुआ जब उस मक़ाम पर पहुँचा जहाँ फ़िरऔन के महल थे, तो फ़िरऔन के नौकरों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर बादशाह और मलिका के सामने पेश कर दिया। मुमकिन है कि बादशाह और मलिका ख़ुद उस वक़्त नदी के किनारे सैर कर रहे हों और उनकी निगाह उस टोकरे पर पड़ी हो और उन्हीं के हुक्म से यह निकाला गया हो। उसमें एक बच्चा पड़ा हुआ देखकर आसानी से यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह ज़रूर किसी इसराईली का बच्चा है, क्योंकि वह उन मुहल्लों की तरफ़ से आ रहा था जिनमें बनी-इसराईल रहते थे और उन्हीं के बेटे उस ज़माने में क़त्ल किए जा रहे थे और उन्हीं के बारे में यह उम्मीद की जा सकती थी कि किसी ने बच्चे को छिपाकर कुछ मुद्दत तक पाला है और फिर जब वह ज़्यादा देर छिप न सका तो अब उसे इस उम्मीद पर नदी में डाल दिया है कि शायद इसी तरह उसकी जान बच जाए और कोई उसे निकालकर पाल ले। इसी वजह से कुछ ज़रूरत से ज़्यादा वफ़ादार ग़ुलामों ने कहा कि हुज़ूर इसे फ़ौरन क़त्ल करा दें, यह भी कोई साँप (इसराईली दुश्मन) का बच्चा ही है। लेकिन फ़िरऔन की बीवी आख़िर औरत थी और नामुमकिन नहीं कि बे-औलाद हो। फिर बच्चा भी बहुत प्यारी सूरत का था, जैसाकि सूरा-20 ता-हा में अल्लाह तआला ख़ुद हज़रत मूसा को बताता है कि “मैंने अपनी तरफ़ से तेरे ऊपर मुहब्बत डाल दी थी।” (आयत-39) यानी तुझे ऐसी मोहनी सूरत दी थी कि देखनेवालों को बे-इख़्तियार तुझपर प्यार आ जाता था। इसलिए उस औरत से रहा न गया और उसने कहा कि इसे क़त्ल न करो, बल्कि लेकर पाल लो। यह जब हमारे यहाँ परवरिश पाएगा और हम इसे अपना बेटा बना लेंगे तो इसे क्या ख़बर होगी कि मैं इसराईली हूँ। यह अपने आपको आले-फ़िरऔन ही का एक शख़्स समझेगा और इसकी क़ाबिलियतें बनी-इसराईल के बजाय हमारे काम आएँगी। बाइबल और तलमूद का बयान है कि वह औरत जिसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को पालने और बेटा बनाने के लिए कहा था फ़िरऔन की बेटी थी। लेकिन क़ुरआन साफ़ अलफ़ाज़ में उसे 'इम-रअतु फ़िरऔन' (फ़िरऔन की बीवी) कहता है और ज़ाहिर है कि सदियों बाद तरतीब दी हुई ज़बानी रिवायतों के मुक़ाबले में सीधे तौर पर अल्लाह तआला का बयान ही भरोसे के लायक़ है। कोई वजह नहीं कि ख़ाह-मख़ाह इसराईली रियायतों से तालमेल पैदा करने के लिए अरबी मुहावरे और इस्तेमाल के ख़िलाफ़ ‘इम-रअतु फ़िरऔन’ का मतलब “फ़िरऔन के ख़ानदान की औरत” लिया जाए।
وَأَصۡبَحَ فُؤَادُ أُمِّ مُوسَىٰ فَٰرِغًاۖ إِن كَادَتۡ لَتُبۡدِي بِهِۦ لَوۡلَآ أَن رَّبَطۡنَا عَلَىٰ قَلۡبِهَا لِتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 9
(10) उधर मूसा की माँ का दिल उड़ा जा रहा था। वह इसका राज़ खोल बैठती अगर हम उसकी ढाढ़स न बँधा देते, ताकि वह (हमारे वादे पर) ईमान लानेवालों में से हो।
وَقَالَتۡ لِأُخۡتِهِۦ قُصِّيهِۖ فَبَصُرَتۡ بِهِۦ عَن جُنُبٖ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 10
(11) उसने बच्चे की बहन से कहा, इसके पीछे-पीछे जा। चुनाँचे वह अलग से उसको इस तरह देखती रही कि (दुश्मनों को) उसका पता न चला।13
13. यानी लड़की ने इस तरीक़े से टोकरे पर निगाह रखी कि बहते हुए टोकरे के साथ-साथ वह उसको देखती हुई चलती भी रही और दुश्मन यह न समझ सके कि उसका कोई ताल्लुक़ इस टोकरेवाले बच्चे के साथ है। इसराईली रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह बहन उस वक़्त 10-12 साल की थीं। उनकी अक़्लमन्दी का अन्दाजा इससे हो सकता है कि उन्होंने बड़ी होशियारी के साथ भाई का पीछा किया और यह पता चला लिया कि वह फ़िरऔन के महल में पहुँच चुका है।
۞وَحَرَّمۡنَا عَلَيۡهِ ٱلۡمَرَاضِعَ مِن قَبۡلُ فَقَالَتۡ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰٓ أَهۡلِ بَيۡتٖ يَكۡفُلُونَهُۥ لَكُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ نَٰصِحُونَ ۝ 11
(12 ) और हमने बच्चे पर पहले ही दूध पिलानेवालों की छातियाँ हराम कर रखी थीं।14 (यह हालत देखकर) उस लड़की ने उनसे कहा, “मैं तुम्हें ऐसे घर का पता बताऊँ जिसके लोग उसकी परवरिश का ज़िम्मा लें और ख़ैरख़ाही के साथ उसे रखें?”15
14. यानी फ़िरऔन की बीवी जिस अन्ना को भी दूध पिलाने के लिए बुलाती थी, बच्चा उसकी छाती को मुँह न लगाता था।
15. इससे मालूम हुआ कि फ़िरऔन के महल में भाई के पहुँच जाने के बाद बहन घर नहीं बैठ गई, बल्कि वह अपनी उसी होशियारी के साथ महल के आसपास चक्कर लगाती रही। फिर जब उसे पता चला कि बच्चा किसी का दूध नहीं पी रहा है और मलिका-ए-आलिया परेशान हैं कि कोई ऐसी अन्ना (दूध पिलानेवाली) मिले जो बच्चे को पसन्द आए तो वह होशियार लड़की सीधी महल में पहुँच गई और जाकर कहा कि मैं एक अच्छी अन्ना का पता बताती हूँ जो इस बच्चे को बड़ी ममता के साथ पालेगी। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि पुराने ज़माने में उन देशों के बड़े और ख़ानदानी लोग बच्चों को अपने यहाँ पालने के बजाय आम तौर से अन्नाओं (दूध पिलानेवाली औरतों) के सिपुर्द कर देते थे और वे अपने यहाँ उनकी परवरिश करती थीं। नबी (सल्ल॰) की ज़िन्दगी के हालात में भी यह ज़िक्र आता है कि मक्का में समय-समय पर आसपास की औरतें अन्ना का काम करने के लिए आती थीं और सरदारों के बच्चे दूध पिलाने के लिए अच्छे-अच्छे मेहनतानों पर हासिल करके साथ ले जाती थीं। नबी (सल्ल॰) ने ख़ुद भी हलीमा सादिया के यहाँ रेगिस्तान में परवरिश पाई है। यही तरीक़ा मिस्र में भी था। इसी बुनियाद पर हज़रत मूसा (अलैहि॰) की बहन ने यह नहीं कहा कि मैं एक अच्छी अन्ना लाकर देती हूँ, बल्कि यह कहा कि मैं ऐसे घर का पता बताती हूँ जिसके लोग उसकी परवरिश का ज़िम्मा लेंगे और उसे भलाई के जज़बे के साथ पालेंगे।
فَرَدَدۡنَٰهُ إِلَىٰٓ أُمِّهِۦ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَ وَلِتَعۡلَمَ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 12
(13) इस तरह हम मूसा16 को उसकी माँ के पास पलटा लाए, ताकि उसकी आँखें ठण्डी हों और वह दुखी न हो और जान ले कि अल्लाह का वादा सच्चा था,17 मगर अकसर लोग इस बात को नहीं जानते।
16. बाइबल और तलमूद से मालूम होता है कि बच्चे का नाम 'मूसा' फ़िरऔन के घर में रखा गया था। यह इबरानी ज़बान का नहीं, बल्कि क़िब्ती ज़बान का लफ़्ज़ है. और इसका मतलब है, “मैंने इसे पानी से निकाला।” पुरानी मिस्री ज़बान से भी हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह नाम रखना सही साबित होता है। इस ज़बान में 'मू’ पानी को कहते थे और ओशे का मतलब था 'बचाया हुआ’।
17. और अल्लाह की इस हिकमत भरी तदबीर का फ़ायदा यह भी हुआ कि हज़रत मूसा (अलैहि०) सचमुच फ़िरऔन के शहज़ादे न बन सके, बल्कि अपने ही माँ-बाप और बहन-भाइयों में परवरिश पाकर उन्हें अपनी अस्लियत अच्छी तरह मालूम हो गई। अपनी ख़ानदानी रिवायतों से, अपने बाप-दादा के मज़हब से और अपनी क़ौम से उनका रिश्ता न कट सका। वह आले-फ़िरऔन के एक शख़्स बनने के बजाय अपने दिली जज़बात और ख़यालात के एतिबार से पूरी तरह बनी-इसराईल के एक शख़्स बनकर उठे। नबी (सल्ल०) एक हदीस में फ़रमाते हैं, “जो शख़्स अपनी रोज़ी कमाने के लिए काम करे और उस काम में अल्लाह की ख़ुशनूदी को सामने रखे, उसकी मिसाल हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँ की-सी है कि उन्होंने अपने ही बेटे को दूध पिलाया और उसका मेहनताना भी पाया।” (इब्ने-कसीर) यानी ऐसा शख़्स अगरचे अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट भरने के लिए काम करता है, लेकिन चूँकि वह अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी सामने रखकर ईमानदारी से काम करता है, जिसके साथ भी मामला करता है उसका हक़ ठीक-ठीक अदा करता है और हलाल रोज़ी से ख़ुद की और अपने बाल-बच्चों की परवरिश अल्लाह की इबादत समझते हुए करता है इसलिए वह अपनी रोज़ी कमाने पर भी अल्लाह के यहाँ इनाम का हक़दार होता है यानी रोज़ी भी कमाई और अल्लाह से अज्रो-सवाब (इनाम) भी पाया।
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُۥ وَٱسۡتَوَىٰٓ ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 13
(14) जब मूसा अपनी पूरी जवानी को पहुँच गया और उसका बढ़ना पूरा18 हो गया तो हमने उसे हुक्म और इल्म अता किया,19 हम नेक लोगों को ऐसा ही बदला देते हैं।
18. यानी जब उनका जिस्मानी और ज़ेहनी नशो-नमा पूरा हो गया। यहूदी रिवायतों में उस वक़्त हज़रत मूसा (अलैहि०) की अलग-अलग उम्रें बताई गई हैं। किसी ने 18 साल लिखी है, किसी ने 20 साल और किसी ने 40 साल। बाइबल के नए नियम में 40 साल उम्र बताई गई है (प्रेरितों, 7:23), लेकिन क़ुरआन किसी उम्र को साफ़ तौर से बयान नहीं करता। जिस मक़सद के लिए क़िस्सा बयान किया जा रहा है उसके लिए बस इतना ही जान लेना काफ़ी है कि आगे जिस वाक़िए का ज़िक्र हो रहा है, वह उस ज़माने का है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) पूरी जवानी को पहुँच चुके थे।
19. हुक्म से मुराद हिकमत, अक़्लमन्दी, समझ-बूझ और फ़ैसला करने की ताक़त है और इल्म से मुराद दीनी और दुनियावी इल्म दोनों हैं, क्योंकि अपने माँ-बाप के साथ ताल्लुक़ क़ायम रखने और मिलते-जुलते रहने की वजह से उनको अपने बाप-दादा (हज़रत यूसुफ़, याक़ूब, इसहाक़ और इबराहीम अलैहिमुस्सलाम) की तालीमात की भी जानकारी हासिल हो गई और वक़्त के बादशाह के यहाँ शहज़ादे की हैसियत से परवरिश पाने की वजह से उनको वे तमाम दुनियावी इल्म भी हासिल हुए जो उस ज़माने के मिस्रवालों में मौजूद थे। इस हुक्म और इल्म की देन से मुराद नुबूवत (पैग़म्बरी) की देन नहीं है, क्योंकि हज़रत मूसा (अलैहि०) को नुबूवत तो उसके कई साल बाद दी गई, जैसा कि आगे आ रहा है और उससे पहले सूरा-26 शुअरा (आयत-21) में भी बयान हो चुका है। शहज़ादे की हैसियत से गुज़रनेवाले इस ज़माने की तालीम व तरबियत के बारे में बाइबल की किताब 'प्रेरितों के काम’ में बताया गया है कि “मूसा ने मिस्रियों के तमाम इल्मों की तालीम पाई और वह बात और काम दोनों में क़ुव्वतवाला था।” (7:22)। तलमूद का बयान है कि मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के घर में एक ख़ूबसूरत जवान बनकर उठे। शहज़ादों का-सा लिबास पहनते, शहज़ादों की तरह रहते और लोग उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। वे अकसर जुशन के इलाक़े में जाते, जहाँ इसराईलियों की बस्तियाँ थीं और उन तमाम सख़्तियों को अपनी आँखों से देखते जो उनकी क़ौम के साथ क़िब्ती हुकूमत के लोग करते थे। इन्हीं की कोशिश से फ़िरऔन ने इसराईलियों के लिए हफ़्ते में एक दिन छुट्टी तय की। उन्होंने फ़िरऔन से कहा कि हमेशा लगातार काम करने की वजह से ये लोग कमज़ोर हो जाएँगे और हुकूमत ही के काम का नुक़सान होगा। इनकी ताक़त बहाल होने के लिए ज़रूरी है कि इन्हें हफ़्ते में एक दिन आराम का दिया जाए। इसी तरह अपनी अक़्लमन्दी से उन्होंने और बहुत-से ऐसे काम किए जिनकी वजह से सारे मिस्र देश में उनकी शोहरत हो गई थी। (इक़्तिबासाते-तलमूद, पेज-129)
قَالَ رَبِّ إِنِّي ظَلَمۡتُ نَفۡسِي فَٱغۡفِرۡ لِي فَغَفَرَ لَهُۥٓۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 14
(16) फिर वह कहने लगा, “ऐ मेरे रब, मैंने अपने आपपर ज़ुल्म कर डाला, मुझे माफ़ कर दे।”23 चुनाँचे अल्लाह ने उसे माफ़ कर दिया, यह बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।24
23. 'मग़फ़िरत' का मतलब अनदेखा कर देना और माफ़ कर देना भी है और छिपाना भी। हज़रत मूसा (अलैहि०) की दुआ का मतलब यह था कि मेरे इस गुनाह को (जिसे तू जानता है कि मैंने जान-बूझकर नहीं किया है) माफ़ भी कर दे और उसका परदा भी ढाँक दे, ताकि दुश्मनों को इसका पता न चले।
24. इसके भी दो मतलब हैं और दोनों ही यहाँ मुराद हैं। यानी अल्लाह तआला ने उनका यह क़ुसूर माफ़ भी कर दिया और हज़रत मूसा (अलैहि०) का परदा भी ढाँक दिया, यानी क़िब्ती क़ौम के किसी शख़्स और क़िब्ती हुकूमत के किसी आदमी का उस वक़्त उनके आसपास कहीं गुज़र न हुआ कि वह क़त्ल के इस वाक़िए को देख लेता। इस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) को चुपचाप वहाँ से निकल जाने का मौक़ा मिल गया।
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ فَلَنۡ أَكُونَ ظَهِيرٗا لِّلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 15
(17) मूसा ने अह्द (प्रण) किया कि “ऐ मेरे रब, यह एहसान जो तूने मुझपर किया है25 इसके बाद अब मैं कभी मुजरिमों का मददगार न बनूँगा।"26
25. यानी यह एहसान कि मेरी हरकत छिपी रह गई और दुश्मन क़ौम के किसी शख़्स ने मुझको नहीं देखा और मुझे बच निकलने का मौक़ा मिल गया।
26. हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह अह्द (प्रण) ऐसे अलफ़ाज़ में है जो अपने अन्दर बहुत मानी रखते हैं। इससे मुराद सिर्फ़ यही नहीं है कि मैं किसी मुजरिम शख़्स का मददगार नहीं बनूँगा बल्कि इससे मुराद यह भी है कि मेरी मदद कभी उन लोगों के साथ न होगी, जो दुनिया में ज़ुल्मो-सितम करते हैं। इब्ने-जरीर और कई दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों ने इसका यह मतलब बिलकुल ठीक लिया है कि इसी दिन हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन और उसकी हुकूमत से अलग हो जाने का अह्द कर लिया, क्योंकि वह एक ज़ालिम हुकूमत थी और उसने ख़ुदा की ज़मीन पर एक मुजरिमाना निज़ाम (व्यवस्था) क़ायम कर रखा था। उन्होंने महसूस किया कि किसी ईमानदार आदमी का यह काम नहीं है कि वह एक ज़ालिम हुकूमत का कल-पुर्ज़ा बनकर रहे और उसकी फ़ौज़ और ताक़त में इज़ाफ़े का सबब बने। मुस्लिम आलिमों ने आम तौर से हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस अह्द से यह दलील ली है कि एक ईमानवाले को ज़ालिम की मदद करने से पूरी तरह बचना चाहिए, चाहे वह ज़ालिम एक आदमी हो या गरोह, या हुकूमत और सल्तनत। मशहूर ताबिई अता-बिन-अबी-रबाह (रह०) से एक साहब ने कहा कि “मेरा भाई बनी-उमैया की हुकूमत में कूफ़े के गवर्नर का कातिब (सेक्रेट्री) है। मामलात के फ़ैसले करना उसका काम नहीं है। अलबत्ता जो फ़ैसले किए जाते हैं। वह उसके क़लम से जारी होते हैं। यह नौकरी वह न करे तो मुफ़लिस हो जाए। हज़रत अता (रह०) ने जवाब में यह आयत पढ़ी और फ़रमाया, “तेरे भाई को चाहिए कि अपना क़लम फेंक दे, रोज़ी देनेवाला अल्लाह है।” एक और कातिब ने आमिर शअबी (रह०) से पूछा, “अबू-अम्र, मैं बस हुक्म लिखकर जारी करने का ज़िम्मेदार हैं, फ़ैसले करने का ज़िम्मेदार नहीं हूँ। क्या यह रोज़ी मेरे लिए जाइज़ है?” उन्होंने कहा, “हो सकता है कि किसी बेगुनाह के क़त्ल का फ़ैसला किया जाए और वह तुम्हारे क़लम से जारी हो, हो सकता है कि किसी का माल नाहक़ ज़ब्त किया जाए, या किसी का घर गिराने का हुक्म दिया जाए और वह तुम्हारे क़लम से जारी हो।” फिर इमाम साहब ने यह आयत पढ़ी जिसे सुनते हो कातिब ने कहा, “आज के बाद मेरा क़लम बनी-उमैया के हुक्म जारी करने में इस्तेमाल न होगा।” इमाम ने फिर कहा, “फिर अल्लाह भी तुम्हें रोज़ी से महरूम न करेगा।” ज़ह्हाक को तो अब्दुर्रहमान-बिन-मुस्लिम ने सिर्फ़ इस काम पर भेजना चाहा था कि वे बुख़ारा के लोगों की तनख़ाहें जाकर बाँट आएँ, मगर उन्होंने इससे भी इनकार कर दिया। उनके दोस्तों ने कहा, “आख़िर इसमें क्या हरज है?” उन्होंने कहा, “मैं ज़ालिमों के किसी काम में भी मददगार नहीं बनना चाहता।” (रूहुल-मआनी, हिस्सा-20, पेज-49) इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का यह वाक़िआ उनके तमाम भरोसेमन्द सवानेह-निगारों (जीवनी-लेखकों), अल-मुअफ़िक़ अल मक्की, इब्नुल-बज़्ज़ाज़ अल-करदरी, मुल्ला अली क़ारी वग़ैरा ने लिखा है कि उन्हीं की नसीहत पर मंसूर के कमांडर इन चीफ़ हसन-बिन-क़हतुबा ने यह कहकर अपने ओहदे से इस्तीफ़ा दे दिया था कि आज तक मैंने तो आपकी हुकूमत की हिमायत के लिए जो कुछ किया है यह अगर अल्लाह की राह में था तो मेरे लिए बस इतना काफ़ी है, लेकिन अगर यह ज़ुल्म की राह में था तो मैं अपने आमालनामे में और ज़्यादा जुर्मों का इज़ाफ़ा करना नहीं चाहता।
فَأَصۡبَحَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ خَآئِفٗا يَتَرَقَّبُ فَإِذَا ٱلَّذِي ٱسۡتَنصَرَهُۥ بِٱلۡأَمۡسِ يَسۡتَصۡرِخُهُۥۚ قَالَ لَهُۥ مُوسَىٰٓ إِنَّكَ لَغَوِيّٞ مُّبِينٞ ۝ 16
(18) दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे डरता और हर तरफ़ से ख़तरा भाँपता हुआ शहर में जा रहा था कि यकायक क्या देखता है कि वही आदमी जिसने कल उसे मदद के लिए पुकारा था, आज फिर उसे पुकार रहा है मूसा ने कहा, “तू तो बड़ा ही बहका हुआ आदमी है।”27
27. यानी तु झगड़ालू आदमी मालूम होता है। रोज़ तेरा किसी-न-किसी से झगड़ा होता रहता है। कल एक आदमी से भिड़ गया था, आज एक-दूसरे आदमी से जा भिड़ा।
فَلَمَّآ أَنۡ أَرَادَ أَن يَبۡطِشَ بِٱلَّذِي هُوَ عَدُوّٞ لَّهُمَا قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ أَتُرِيدُ أَن تَقۡتُلَنِي كَمَا قَتَلۡتَ نَفۡسَۢا بِٱلۡأَمۡسِۖ إِن تُرِيدُ إِلَّآ أَن تَكُونَ جَبَّارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا تُرِيدُ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ ۝ 17
(19) फिर जब मूसा ने इरादा किया कि दुश्मन क़ौम के आदमी पर हमला करे28 तो वह पुकार उठा,29 मूसा, क्या आज तू मुझे उसी तरह क़त्ल करने लगा है जिस तरह कल एक आदमी को क़त्ल कर चुका है। तू इस देश में बहुत ही बेरहम ज़ालिम बनकर रहना चाहता है, सुधार करना नहीं चाहता।"
28. बाइबल का बयान यहाँ क़ुरआन के बयान से अलग है। बाइबल कहती है कि दूसरे दिन का झगड़ा दो इसराईलियों के बीच था। लेकिन क़ुरआन कहता है कि यह झगड़ा भी इसराईली और मिस्री के बीच ही था। यही दूसरा बयान ज़्यादा सही मालूम होता है; क्योंकि पहले दिन के क़त्ल का राज़ खुल जाने की जो सूरत आगे बयान हो रही है, वह इसी तरह हो सकती थी कि मिस्री क़ौम के एक शख़्स को उस वाक़िए का पता चल जाता। एक इसराईली को उसके मालूम हो जाने से यह इमकान कम या कि अपनी क़ौम के मददगार शहज़ादे के इतने बड़े क़ुसूर की ख़बर पाते ही वह जाकर फ़िरऔनी हुकूमत में उसकी मुख़बिरी कर देता।
29. यह पुकारनेवाला वही इसराईली था जिसकी मदद के लिए हज़रत मूसा (अलैहि०) आगे बढ़े थे। उसको डाँटने के बाद जब वे मिस्री को मारने के लिए चले तो उस इसराईली ने समझा कि ये मुझे मारने आ रहे हैं, इसलिए उसने चिल्लाना शुरू कर दिया और अपनी बेवक़ूफ़ी से कल के क़त्ल का राज़ खोल डाला।
وَجَآءَ رَجُلٞ مِّنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ ٱلۡمَلَأَ يَأۡتَمِرُونَ بِكَ لِيَقۡتُلُوكَ فَٱخۡرُجۡ إِنِّي لَكَ مِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 18
(20) इसके बाद एक आदमी शहर के परले सिरे से दौड़ता हुआ आया30 और बोला “मूसा, सरदारों में तेरे क़त्ल के मशवरे हो रहे हैं, यहाँ से निकल जा, मैं तेरा भला चाहता हूँ।”
30. यानी इस दूसरे झगड़े में जब क़त्ल का राज़ खुल गया और उस मिस्री ने जाकर मुख़बिरी कर दी, तब यह वाक़िआ पेश आया।
فَخَرَجَ مِنۡهَا خَآئِفٗا يَتَرَقَّبُۖ قَالَ رَبِّ نَجِّنِي مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 19
(21) यह ख़बर सुनते ही मूसा डरता और सहमता निकल खड़ा हुआ और उसने दुआ की कि “ऐ मेरे रब, मुझे ज़ालिमों से बचा।”
وَلَمَّا تَوَجَّهَ تِلۡقَآءَ مَدۡيَنَ قَالَ عَسَىٰ رَبِّيٓ أَن يَهۡدِيَنِي سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 20
(22) (मिस्र से निकलकर) जब मूसा ने मदयन का रुख़ किया31 तो उसने कहा, “उम्मीद है कि मेरा रब मुझे ठीक रास्ते पर डाल देगा।"32
31. बाइबल का बयान इस बात में क़ुरआन जैसा ही है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने मिस्र से निकलकर मदयन का रुख़ किया था लेकिन तलमूद यह बे-सिर-पैर की कहानी बयान करती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र से भागकर हबशा चले गए और वहाँ बादशाह के क़रीबी लोगों में से हो गए। फिर उसके मरने पर लोगों ने उनको अपना बादशाह बना लिया और उसकी बेवा (विधवा) से उनकी शादी कर दी। 40 साल उन्होंने वहाँ हुकूमत की। मगर इस पूरी मुद्दत में अपनी हबशी बीवी से कभी सोहबत (सहवास) न की। 40 साल बीत जाने के बाद उस औरत ने हबशा के वासियों से शिकायत की कि इस आदमी ने आज तक न तो मुझसे मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ रखा है और न कभी हबशा के देवताओं की पूजा की है। इस बात पर हुकूमत के अधिकारियों ने उन्हें बरख़ास्त करके और बहुत-सा माल देकर देश से बाइज़्ज़त रुख़सत कर दिया। तब वे हवशा से मदयन पहुँचे और ये वाक़िआत पेश आए जो आगे बयान हो रहे हैं। तलमूद के मुताबिक़ उस वक़्त उनकी उम्र 67 साल थी। इस कहानी के बे-सिर-पैर होने की एक खुली हुई दलील यह है कि इसी कहानी में यह भी बयान हुआ है कि उस ज़माने में असीरिया (उत्तरी इराक़) पर हबशा की हुकूमत थी और असीरियावालों की बग़ावतें कुचलने के लिए हज़रत मूसा (अलैहि०) ने भी और उनसे पहले के बादशाह ने भी फ़ौज़ी चढ़ाइयाँ की थीं। अब जो शख़्स भी इतिहास और जुग़राफ़िया (भूगोल) की कोई जानकारी रखता हो वह नक़्शे पर एक निगाह डालकर देख सकता है कि असीरिया पर हबशा का ग़लबा और हबशी फ़ौज़ का हमला या तो इस सूरत में हो सकता था कि मिस्र और फ़िलस्तीन और सीरिया पर उसका क़ब्ज़ा होता, या पूरा अरब देश उसके मातहत होता, या फिर हबशा का बेड़ा ऐसा ज़बरदस्त होता कि वह हिन्द महासागर और फ़ारस की खाड़ी को पार करके इराक़ जीत लेता। इतिहास इस ज़िक्र से ख़ाली है कि कभी हबशियों को इन देशों पर ग़लबा हासिल हुआ हो या उनकी समन्दरी ताक़त इतनी ज़बरदस्त रही हो। इससे अन्दाज़ा होता है कि बनी-इसराईल की जानकारी ख़ुद अपने इतिहास के बारे में कितनी ख़राब थी और क़ुरआन उनकी ग़लतियों को सुधारकर सही वाक़िआत कैसी साफ़ शक्ल में पेश करता है। लेकिन ईसाई और यहूदी मुस्तशरिक़ीन (पश्चिमी देशों के वे सरमुस्लिम विद्वान जिन्होंने इस्लाम का आलोचनात्मक अध्ययन किया) को यह कहते हुए ज़रा शर्म नहीं आती कि क़ुरआन ने ये क़िस्से बनी-इसराईल से नक़्ल कर लिए हैं।
32. यानी ऐसे रास्ते पर जिससे मैं ख़ैरियत के साथ मदयन पहुँच जाऊँ। ध्यान रहे कि उस ज़माने में मदयन फ़िरऔन की हुकूमत से बाहर था। मिस्र की हुकूमत पूरे जज़ीरा नुमा-ए-सीना (प्रायद्वीप सीना) पर न थी, बल्कि सिर्फ़ उसके पश्चिमी और दक्षिणी इलाक़े तक महदूद थी। अक़बा की खाड़ी के पूर्वी और पश्चिमी तट, जिनपर बनी-मदयान आबाद थे, मिस्री असर और हुकूमत से बिलकुल आज़ाद थे। इसी वजह से हज़रत मूसा (अलहि०) ने मिस्र से निकलते ही मदयन का रुख़ किया था, क्योंकि सबसे क़रीब आज़ाद और आबाद इलाक़ा वही था। लेकिन वहाँ जाने के लिए उन्हें गुज़रना बहरहाल मिस्र के दूसरे इलाक़ों ही से था और मिस्र की पुलिस और फ़ौज़ी चौकियों से बचकर निकलना था। इसी लिए उन्होंने अल्लाह से दुआ की कि मुझे ऐसे रास्ते पर डाल दे जिससे में सही-सलामत मदयन पहुँच जाऊँ।
وَلَمَّا وَرَدَ مَآءَ مَدۡيَنَ وَجَدَ عَلَيۡهِ أُمَّةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ يَسۡقُونَ وَوَجَدَ مِن دُونِهِمُ ٱمۡرَأَتَيۡنِ تَذُودَانِۖ قَالَ مَا خَطۡبُكُمَاۖ قَالَتَا لَا نَسۡقِي حَتَّىٰ يُصۡدِرَ ٱلرِّعَآءُۖ وَأَبُونَا شَيۡخٞ كَبِيرٞ ۝ 21
(23) और जब वह मदयन के कुएँ पर पहुँचा,33 उसने देखा कि बहुत-से लोग अपने जानवरों को पानी पिला रहे हैं और उनसे अलग एक तरफ़ दो औरतें अपने जानवरों को रोक रही हैं। मूसा ने उन औरतों से पूछा, “तुम्हें क्या परेशानी है?” उन्होंने कहा, “हम अपने जानवरों को पानी नहीं पिला सकतीं, जब तक ये चरवाहे अपने जानवर न निकाल ले जाएँ और हमारे बाप एक बहुत बूढ़े आदमी हैं।”34
33. यह जगह जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) पहुँचे थे, अरबी रिवायतों के मुताबिक़ अक़बा की खाड़ी के पशचिमी तट पर मक़ना से कुछ मील उत्तर की तरफ़ थी। आजकल इसे अल-बिद्अ कहते हैं और वहाँ एक छोटा-सा क़स्बा आबाद है। मैंने दिसम्बर 1959 में तबूक से अक़बा जाते हुए इस जगह को देखा है। मक़ामी लोगों ने मुझे बताया कि हम बाप-दादा से यही सुनते चले आए है कि मदयन इसी जगह पर था। यूसीफ़ूस से लेकर बर्टन (Burton) तक पुराने और नए सय्याहों (पर्यटकों) और जुग़राफ़िया (भूगोल) के लिखनेवालों ने भी आम तौर से मदयन के होने की जगह यही बताई है। इसके क़रीब थोड़ी दूरी पर वह जगह है जिसे अब ‘मग़ाइरे-शुऐब' या 'मुग़ाराते-शुऐब' कहा जाता है। इस जगह समूद की तरह की कुछ इमारतें मौजूद हैं और इससे लगभग मील-डेढ-मील की दूरी पर कुछ पुराने खण्डहर हैं जिनमें दो अंधे कुएँ हमने देखे। मक़ामी लोगों ने हमें बताया कि यक़ीन के साथ तो हम नहीं कह सकते, लेकिन हमारे यहाँ रिवायतें यही हैं कि इन दोनों में से एक कुआँ वह था जिसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने बकरियों को पानी पिलाया है। यही बात अबुल-फ़िदा (मौत 732 हि०) ने तक़वीमुल-बुलदान में और याक़ूत ने मुअजमुल-बुलदान में अबू-ज़ैद अनसारी (मौत 216 हिजरी) के हवाले से लिखी है कि इस इलाक़े के रहनेवाले इसी जगह पर हज़रत मूसा (अलैहिo) के उस कुएँ की निशानदेही करते हैं। इससे मालूम होता है कि यह रिवायत सदियों से वहाँ के लोगों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है और इस बुनियाद पर एतिमाद के साथ कहा जा सकता है कि क़ुरआन मजीद में जिस जगह का ज़िक्र किया गया है वह यही है।
34. यानी हम औरतें हैं, इन चरवाहों से मुक़ाबला और कशमकश करके अपने जानवरों को पानी पिलाना हमारे बस में नहीं है। हमारे बाप इतने ज़्यादा बूढ़े हैं कि वे ख़ुद यह मेहनत नहीं कर सकते। घर में कोई दूसरा मर्द भी नहीं है। इसलिए हम औरतें ही यह काम करने निकलती हैं और जब तक सब चरवाहे अपने जानवरों को पानी पिलाकर चले नहीं जाते, हमको मजबूरन इन्तिज़ार करना पड़ता है। इन सारी बातों को उन औरतों ने सिर्फ़ एक छोटे-से जुमले में अदा कर दिया, जिससे उनकी हयादारी (शर्म) का अन्दाज़ा होता है कि एक ग़ैर-मर्द से ज़्यादा बात भी न करना चाहती थीं, मगर यह भी पसन्द न करती थीं कि यह अजनबी हमारे ख़ानदान के बारे में कोई ग़लत राय क़ायम कर ले और अपने ज़ेहन में यह ख़याल करे कि कैसे लोग हैं जिनके मर्द घर बैठे रहें और अपनी औरतों को इस काम के लिए बाहर भेज दिया। इन औरतों के बाप के बारे में हमारे यहाँ यह रिवायत मशहूर हो गई है कि वे हज़रत शुऐब (अलैहि०) थे। लेकिन क़ुरआन मजीद में हल्के-से इशारे में भी कोई बात ऐसी नहीं कही गई है जिससे यह समझा जा सके कि वे हज़रत शुऐब (अलैहि०) ही थे। हालाँकि शुऐब (अलैहि०) की शख़्सियत क़ुरआन में एक जानी-मानी शख़्सियत है। अगर इन औरतों के बाप वही होते तो कोई वजह न थी कि यहाँ इसको साफ़-साफ़ बयान न कर दिया जाता। बेशक कुछ हदीसों में साफ़ तौर से उनका नाम लिया गया है, लेकिन अल्लामा इब्ने-जरीर और इब्ने-कसीर दोनों इसपर एकराय हैं कि उनमें से किसी की सनद भी सही नहीं है। इसी लिए इब्ने-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी, अबू-उबैदा और सईद-बिन-जुबैर (रह०) जैसे बुज़ुर्ग तफ़सीर लिखनेवालों ने बनी-इसराईल की रिवायतों पर एतिमाद करके उन बुज़ुर्ग के वही नाम बताए हैं जो तलमूद वग़ैरा में आए है। वरना ज़ाहिर है कि अगर नबी (सल्ल०) से शुऐब नाम का ज़िक्र नक़्ल होता तो ये लोग कोई दूसरा नाम न ले सकते थे। बाइबल में एक जगह उन बुज़ुर्ग का नाम रूएल और दूसरी जगह यित्रो बयान किया गया है। और बताया गया है कि वे मिद्यान (मदयन) के काहिन (याजक) थे (निर्गमन, अध्याय 2:16-18, अध्याय 3:1, अध्याय 18:5) तलमूदी लिट्रेचर में रूएल, यित्रो और हुबाब तीन अलग-अलग नाम बताए गए हैं। आजकल के ज़माने के यहूदी आलिमों का ख़याल है कि यित्रो हिज्र एक्सिलेंसी (His Excellency) की तरह लक़ब था और अस्ल नाम रूएल या हुबाब था। इस तरह लफ़्ज़ काहिन (Kohen) की तशरीह में भी यहूदी आलिमों के बीच रायें अलग-अलग हैं। कुछ उसको पुरोहित (Priest) के मानी में बताते हैं और कुछ रईस या अमीर (Prince) के। तलमूद में उनके जो हालात बयान किए गए हैं वे ये हैं कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की पैदाइश से पहले फ़िरऔन के यहाँ उनका आना-जाना था और वह उनके इल्म और उनकी रायों और मशवरों पर भरोसा करता था। मगर जब बनी-इसराईल को उखाड़ फेंकने के लिए मिस्र की शाही कौसिल में मशवरे होने लगे और उनके लड़कों को पैदा होते ही क़त्ल कर देने का फ़ैसला किया गया तो उन्होंने फ़िरऔन को इस ग़लत काम से रोकने की कोशिश की, उसे इस ज़ुल्म के बुरे नतीजों से डराया और राय दी कि अगर उन लोगों का वुजूद आपके लिए बरदाश्त से बाहर है तो उन्हें उनके बाप-दादा के देश कनआन की तरफ़ निकाल दीजिए। इसपर फ़िरऔन उनसे नाराज़ हो गया और उसने उन्हें रुसवाई के साथ अपने दरबार से निकलवा दिया। उस वक़्त से वे अपने देश मिद्यान (मदयन) ही में ठहर गए थे। उनके मज़हब के बारे में अन्दाज़ा यही है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरह वे भी इबराहीम (अलैहि०) के दीन की पैरवी करनेवाले थे; क्योंकि जिस तरह हज़रत मूसा इसहाक़-बिन-इबराहीम (अलैहि०) की औलाद थे, इसी तरह वे मिदयान-बिन-इबराहीम की औलाद में से थे। यही ताल्लुक़ शायद इसका सबब हुआ होगा कि उन्होंने फ़िरऔन को बनी-इसराईल पर ज़ुल्म करने से रोका और उसकी नाराज़ी मोल ली। क़ुरआन के आलिम नेसाबूरी ने हज़रत हसन बसरी के हवाले से लिखा है कि “वे एक मुसलमान आदमी थे। हज़रत शुऐब का दीन उन्होंने क़ुबूल कर लिया था। तलमूद में बयान किया गया है कि वे मिदयानवालों की बुतपरस्ती को खुल्लम-खुल्ला बेवक़ूफ़ी बताते थे, इस वजह से मदयनवाले उनके ख़िलाफ़ हो गए थे।
فَسَقَىٰ لَهُمَا ثُمَّ تَوَلَّىٰٓ إِلَى ٱلظِّلِّ فَقَالَ رَبِّ إِنِّي لِمَآ أَنزَلۡتَ إِلَيَّ مِنۡ خَيۡرٖ فَقِيرٞ ۝ 22
(24) यह सुनकर मूसा ने उनके जानवरों को पानी पिला दिया, फिर एक साये की जगह जा बैठा और बोला, “परवरदिगार, जो भलाई भी तू मुझपर उतार दे मैं उसका मुहताज हूँ।”
فَجَآءَتۡهُ إِحۡدَىٰهُمَا تَمۡشِي عَلَى ٱسۡتِحۡيَآءٖ قَالَتۡ إِنَّ أَبِي يَدۡعُوكَ لِيَجۡزِيَكَ أَجۡرَ مَا سَقَيۡتَ لَنَاۚ فَلَمَّا جَآءَهُۥ وَقَصَّ عَلَيۡهِ ٱلۡقَصَصَ قَالَ لَا تَخَفۡۖ نَجَوۡتَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 23
(25) (कुछ देर न गुज़री थी कि) उन दोनों औरतों में से एक शर्मो-हया के साथ चलती हुई उसके पास आई35 और कहने लगी “मेरे बाप आप को बुला रहे हैं, ताकि आपने हमारे लिए जानवरों को जो पानी पिलाया है उसका बदला आपको दें।”36 मूसा जब उसके पास पहुँचा और अपना सारा क़िस्सा उसे सुनाया तो उसने कहा, “बिलकुल न डरो, अब तुम ज़ालिम लोगों से बच निकले हो।”
35. हज़रत उमर (रज़ि०) ने इस जुमले को वह तशरीह की है कि “वह शर्मा-हया के साथ चलती हुई अपना मुँह घूँघट से छिपाए हुए आई। उन बेबाक औरतों की तरह बेधड़क नहीं चली आई जो हर तरफ़ निकल जातीं और हर जगह जा घुसती हैं।” इस बात को बयान करनेवाली कई रिवायतें सईद-बिन-मंसूर, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम और इब्ने-मुंज़िर ने भरोसेमन्द सनदों के साथ हज़रत उमर (रज़ि०) से नक़्ल की हैं। इससे साफ़ मालूम होता है कि सहाबा किराम के दौर में हयादारी का इस्लामी तसव्वुर (परिकल्पना), जो क़ुरआन और नबी (सल्ल०) की तालीमी-तरबियत से इन बुज़ुर्गों ने समझा था, चेहरे को अजनबियों के सामने खोले फिरने और घर से बाहर बेधड़क चलत-फिरत दिखाने के बिलकुल ख़िलाफ़ था। हज़रत उमर (रज़ि०) साफ़ अलफ़ाज़ में यहाँ चेहरा ढाकने को हया की निशानी और उसे अजनबियों के सामने खोलने को बेहयाई ठहरा रहे हैं।
36. यह बात भी शर्मो-हया ही की वजह से उन्होंने कही, क्योंकि एक ग़ैर-मर्द के पास अकेली जगह आने की कोई मुनासिब वजह बतानी ज़रूरी थी। वरना ज़ाहिर है कि एक शरीफ़ आदमी ने अगर औरत ज़ात को परेशानी में मुब्तला देखकर उसकी कोई मदद की हो तो उसका बदला देने के लिए कहना कोई अच्छी बात न थी और फिर उस बदले का नाम सुन लेने के बावजूद हज़रत मूसा (अलैहि०) जैसे बड़े दिल के इनसान का चल पड़ना यह ज़ाहिर करता है कि वह उस वक़्त बेहद परेशानी की हालत में थे। बेसरो-सामानी की हालत में यकायक मिस्र से निकल खड़े हुए थे। मदयन तक कम-से-कम आठ दिन में पहुँचे होंगे। भूख-प्यास और सफ़र की थकन से बुरा हाल होगा और सबसे बढ़कर यह फ़िक्र होगी कि इस परदेस में कोई ठिकाना मिल जाए और कोई ऐसा हमदर्द मिले जिसकी पनाह में रह सकें। इसी मजबूरी की वजह से यह लफ़्ज़ सुन लेने के बावजूद कि इस ज़रा-से काम का बदला देने के लिए बुलाया जा रहा है, हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जाने में झिझक न दिखाई। उन्होंने सोचा होगा कि ख़ुदा से अभी-अभी जो दुआ मैंने माँगी है, उसे पूरा करने का यह सामान ख़ुदा ही की तरफ़ से हुआ है, इसलिए अब ख़ाह-मख़ाह ख़ुद्दारी दिखाकर अपने रब के दिए गए मेज़बानी के सामान को ठुकराना मुनासिब नहीं है।
قَالَتۡ إِحۡدَىٰهُمَا يَٰٓأَبَتِ ٱسۡتَـٔۡجِرۡهُۖ إِنَّ خَيۡرَ مَنِ ٱسۡتَـٔۡجَرۡتَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡأَمِينُ ۝ 24
(26) उन दोनों औरतों में से एक ने अपने बाप से कहा, “अब्बाजान, इस आदमी को नौकर रख लीजिए, बेहतरीन आदमी जिसे आप नौकर रखें वही हो सकता है जो मज़बूत और अमानतदार हो।”37
37. ज़रूरी नहीं कि यह बात लड़की ने अपने बाप से हज़रत मूसा (अलैहि०) की पहली मुलाक़ात के वक़्त ही कह दी हो। ज़्यादा इमकान यह है कि उसके बाप ने अजनबी मुसाफ़िर को एक-दो दिन अपने पास ठहरा लिया होगा और उस दौरान में किसी वक़्त बेटी ने बाप को यह मशवरा दिया होगा। इस मशवरे का मतलब यह था कि आपके बुढ़ापे की वजह से मजबूरन हम लड़कियों को काम के लिए निकलना पड़ता है। हमारा कोई भाई नहीं है कि बाहर के काम संभाले। आप इस शख़्स को नौकर रख लें। मज़बूत आदमी है, हर तरह की मेहनत कर लेगा और भरोसे के लायक़ आदमी है। सिर्फ़ अपनी शराफ़त की वजह से इसने हम औरतों को बेबस खड़ा देखकर हमारी मदद की और कभी हमारी तरफ़ नज़र उठाकर न देखा।
قَالَ إِنِّيٓ أُرِيدُ أَنۡ أُنكِحَكَ إِحۡدَى ٱبۡنَتَيَّ هَٰتَيۡنِ عَلَىٰٓ أَن تَأۡجُرَنِي ثَمَٰنِيَ حِجَجٖۖ فَإِنۡ أَتۡمَمۡتَ عَشۡرٗا فَمِنۡ عِندِكَۖ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أَشُقَّ عَلَيۡكَۚ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 25
(27) उसके बाप ने (मूसा से) कहा,38 “मैं चाहता हूँ कि अपनी इन दो बेटियों में से एक का निकाह तुम्हारे साथ कर दूँ, शर्त यह है कि तुम आठ साल तक मेरे यहाँ नौकरी करो और अगर दस साल पूरे कर दो तो यह तुम्हारी मरज़ी है। मैं तुमपर सख़्ती करना नहीं चाहता। अल्लाह ने चाहा तो तुम मुझे भला आदमी पाओगे।
38. यह भी ज़रूरी नहीं कि बेटी की बात सुनते ही बाप ने फ़ौरन हज़रत मूसा (अलैहि०) से यह बात कह दी हो। अन्दाज़ा यही है कि उन्होंने बेटी के मशवरे पर ग़ौर करने के बाद यह राय क़ायम की होगी कि आदमी शरीफ़ सही, मगर जवान बेटियों के घर में एक जवान, तन्दुरुस्त और ताक़तवर आदमी का यूँ ही नौकर रख छोड़ना मुनासिब नहीं है। जब यह शरीफ़, पढ़ा-लिखा, मुहज़्ज़ब (सभ्य) और ख़ानदानी आदमी है (जैसा कि हज़रत मूसा का क़िस्सा सुनकर उन्हें मालूम हो चुका होगा) तो क्यों न इसे दामाद बनाकर ही घर में रखा जाए। इस राय पर पहुँचने के बाद उन्होंने किसी मुनासिब वक़्त पर हज़रत मूसा (अलैहि०) से यह बात कही होगी। यहाँ फिर बनी-इसराईल की एक 'मेहरबानी' देखिए जो उन्होंने अपने क़ाबिले-कद्र नबी, अपने सबसे बड़े मुहसिन (उपकारक) और किसी हीरो पर की है। तलमूद में कहा गया है कि “मूसा रूएल के यहाँ रहने लगे और वह अपने मेज़बान की बेटी सफ़ूरा पर मेहरबानी की नज़र रखते थे, यहाँ तक कि आख़िरकार उन्होंने उससे ब्याह कर लिया।” एक और यहूदी रिवायत जो जेविश इंसाइक्लोपीडिया में नक़्ल की गई है, यह है कि “हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जब यित्रो को अपना सारा माजरा सुनाया तो उसने समझ लिया कि यही वह आदमी है जिसके हाथों फ़िरऔन की सल्तनत तबाह होने की पेशीनगोइयाँ की गई थीं। इसलिए उसने फ़ौरन हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़ैद कर लिया, ताकि उन्हें फ़िरऔन के हवाले करके इनाम हासिल करे। सात या दस साल तक वह उसकी क़ैद में रहे। एक अंधेरा तहख़ाना था जिसमें वे बन्द थे, मगर यित्रो की बेटी ज़फ़ूरा (या सफ़ूरा) जिससे कुएँ पर उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी, चुपके-चुपके उनसे क़ैदख़ाने में मिलती रही और उन्हें खाना-पानी भी पहुँचाती रही। उन दोनों में शादी का ख़ुफ़िया समझौता हो चुका था। सात या दस साल के बाद ज़फ़ूरा ने अपने बाप से कहा कि इतनी मुद्दत हुई आपने एक आदमी को क़ैद में डाल दिया था और फिर उसकी ख़बर तक न ली। अब तक उसे मर जाना चाहिए था, लेकिन अगर वह अब भी ज़िन्दा हो तो ज़रूर कोई अल्लाहवाला आदमी है। यित्रो उसकी यह बात सुनकर जब क़ैदख़ाने में गया तो हज़रत मूसा (अलैहि०) को ज़िन्दा देखकर उसे यक़ीन आ गया कि वे मोजिज़े से ज़िन्दा हैं। तब उसने ज़फ़ूरा से उनकी शादी कर दी।” (जिल्द-9, पेज-48, 49) जो मग़रिबी मुस्तशरिक़ीन (पश्चिमी देशों के वे ग़ैर-मुस्लिम विद्वान जिन्होंने इस्लाम का आलोचनात्मक अध्ययन किया) क़ुरआनी क़िस्सों के माख़ज़ (मूल स्रोत) ढूँढ़ते फिरते हैं, उन्हें कहीं यह खुला फ़र्क़ भी नज़र आता है जो क़ुरआन के बयान और इसराईली रिवायतों में पाया जाता है?
قَالَ ذَٰلِكَ بَيۡنِي وَبَيۡنَكَۖ أَيَّمَا ٱلۡأَجَلَيۡنِ قَضَيۡتُ فَلَا عُدۡوَٰنَ عَلَيَّۖ وَٱللَّهُ عَلَىٰ مَا نَقُولُ وَكِيلٞ ۝ 26
(28) मूसा ने जवाब दिया, “यह बात मेरे और आपके बीच तय हो गई। इन दोनों मुद्दतों में से जो भी मैं पूरी कर दूँ, उसके बाद फिर कोई ज़्यादती मुझपर न हो और जो कुछ क़ौल-क़रार हम कर रहे हैं अल्लाह उसपर निगहबान है।”39
39. कुछ लोगों ने हज़रत मूसा (अलैहि०) और लड़की के बाप की इस बातचीत को निकाह का ईजाब और क़ुबूल (रज़ामन्दी और इक़रार) समझ लिया है और यह बहस छेड़ दी है कि क्या बाप की ख़िदमत बेटी के निकाह का मह्‍र क़रार पा सकती है? और क्या निकाह के बन्धन में इस तरह की बाहरी शर्तें शामिल हो सकती हैं? हालाँकि इन आयतों की इबारत से ख़ुद ही यह बात ज़ाहिर हो रही है कि यह निकाह होना न था, बल्कि वह शुरुआती बातचीत थी जो निकाह से पहले निकाह की पेशकश के सिलसिले में आम तौर से दुनिया में हुआ करती है। आख़िर यह निकाह का ईजाब और क़ुबूल कैसे हो सकता है जबकि इसमें यह भी तय न किया गया था कि दोनों लड़कियों में से कौन-सी निकाह में दी जा रही है। इस बातचीत से जो नतीजा निकला था वह सिर्फ़ यह था कि लड़की के बाप ने कहा कि मैं अपनी लड़कियों में से एक का निकाह तुमसे कर देने के लिए तैयार हूँ, शर्त यह है कि तुम मुझसे वादा करो कि आठ-दस साल मेरे यहाँ रहकर मेरे घर के काम-काज में मेरा हाथ बँटाओगे, क्योंकि इस रिश्ते से मेरा अस्ल मक़सद यही है कि मैं बूढ़ा आदमी हूँ, कोई बेटा मेरे यहाँ नहीं है जो मेरी जायदाद का इन्तिज़ाम संभाले, लड़कियाँ-ही-लड़कियाँ हैं जिन्हें मजबूरन बाहर निकालता हूँ, मैं चाहता हूँ कि दामाद मेरा मददगार बनकर रहे, यह ज़िम्मेदारी अगर तुम संभालने के लिए तैयार हो और शादी के बाद ही बीवी को लेकर चले जाने का इरादा न रखते हो तो मैं अपनी एक लड़की का निकाह तुमसे कर दूँगा। हज़रत मूसा (अलैहि०) उस वक़्त एक ठिकाने के तलबगार थे। उन्होंने इस पेशकश को क़ुबूल कर लिया। ज़ाहिर है कि यह एक समझौते की सूरत थी जो निकाह से पहले दोनों तरफ़ के लोगों में तय हुई थी। इसके बाद अस्ल निकाह का बन्धन क़ायदे के मुताबिक़ बाँधा गया होगा और उसमें मह्‍र भी बाँधा गया होगा। उस बन्धन में ख़िदमत की शर्त शामिल होने की कोई वजह न थी।
۞فَلَمَّا قَضَىٰ مُوسَى ٱلۡأَجَلَ وَسَارَ بِأَهۡلِهِۦٓ ءَانَسَ مِن جَانِبِ ٱلطُّورِ نَارٗاۖ قَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِخَبَرٍ أَوۡ جَذۡوَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ لَعَلَّكُمۡ تَصۡطَلُونَ ۝ 27
(29) जब मूसा ने मुद्दत पूरी कर दी40 और वह अपने घरवालों को लेकर चला तो तूर की तरफ़ उसको एक आग नज़र आई।41 उसने अपने घरवालों से कहा, “ठहरो, मैंने एक आग देखी है, शायद मैं वहाँ से कोई ख़बर ले आऊँ या उस आग से कोई अंगारा हो उठा लाऊँ जिससे तुम ताप सको।"
40. हज़रत हसन-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने आठ साल के बजाय दस साल की मुद्दत पूरी की थी। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि यह बात ख़ुद नबी (सल्ल०) से रिवायत हुई है आप (सल्ल०) ने फ़रमाया था, “मूसा (अलैहि०) ने दोनों मुद्दतों में से बह मुद्दत पूरी की जो ज़्यादा मुकम्मल और उनके ससुर के लिए ज़्यादा ख़ुशगवार थी, यानी दस साल।"
41. इस सफ़र का रुख़ तूर की तरफ़ होने से यह ख़याल होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने घरवालों को लेकर मिस्र ही जाना चाहते होंगे, इसलिए कि तूर उस रास्ते पर है जो मदयन से मिस्र की तरफ़ जाता है। शायद हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सोचा होगा कि दस साल गुज़र चुके हैं। वह फ़िरऔन भी मर चुका है जिसकी हुकूमत के ज़माने में वे मिस्र से निकले थे। अब अगर चुपचाप यहाँ चला जाऊँ और अपने ख़ानदानवालों के साथ रह पड़ूँ तो शायद किसी को मेरा पता भी न चले। बाइबल का बयान यहाँ वाक़िआत की तरतीब में क़ुरआन बयान से बिलकुल अलग है। वह कहती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने ससुर की बकरियों चराते हुए “जंगल के पश्चिम की तरफ़ ख़ुदा के पहाड़ होरेब के नज़दीक” आ निकले थे। उस वक़्त अल्लाह तआला ने उनसे बात की और उन्हें रिसालत (पैग़म्बरी) के मंसब पर मुक़र्रर करके मिस्र जाने का हुक्म दिया। फिर वे अपने ससुर के पास वापस आ गए और उनसे इजाज़त लेकर अपने बाल-बच्चों के साथ मिस्र रवाना हुए (निर्गमन, 3:1, 4:8) इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन कहता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) मुद्दत पूरी करने के बाद अपने घरवालों को लेकर मदयन से रवाना हुए और इस सफ़र में अल्लाह तआला से बात हुई और पैग़म्बरी के मंसब पर मुक़र्रर किए जाने का मामला पेश आया। बाइबल और तलमूद दोनों का बयान है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के मदयन में ठहरने के ज़माने में वह फ़िरऔन मर चुका था जिसके यहाँ उन्होंने परवरिश पाई थी और अब एक दूसरा फ़िरऔन मिस्र का बादशाह था।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ مِن شَٰطِيِٕ ٱلۡوَادِ ٱلۡأَيۡمَنِ فِي ٱلۡبُقۡعَةِ ٱلۡمُبَٰرَكَةِ مِنَ ٱلشَّجَرَةِ أَن يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّيٓ أَنَا ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 28
(30) वहाँ पहुँचा तो घाटी के दाहिने किनारे42 पर मुबारक इलाक़े43 में एक पेड़ से पुकारा गया कि “ऐ मूसा, मैं ही अल्लाह हूँ, सारे जहानवालों का मालिक।”
42. यानी उस किनारे पर जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के दाहिने हाथ की तरफ़ था।
43. यानी उस इलाक़े में जो ख़ुदाई नूर से रौशन हो रहा था।
وَأَنۡ أَلۡقِ عَصَاكَۚ فَلَمَّا رَءَاهَا تَهۡتَزُّ كَأَنَّهَا جَآنّٞ وَلَّىٰ مُدۡبِرٗا وَلَمۡ يُعَقِّبۡۚ يَٰمُوسَىٰٓ أَقۡبِلۡ وَلَا تَخَفۡۖ إِنَّكَ مِنَ ٱلۡأٓمِنِينَ ۝ 29
(31) और (हुक्म दिया गया कि) फेंक दे अपनी लाठी। ज्यों ही कि मूसा ने देखा कि वह लाठी साँप की तरह बल खा रही है, तो वह पीठ फेरकर भागा और उसने मुड़कर भी न देखा। (कहा गया), “मूसा, पलट आ और डर मत, तू बिलकुल महफ़ूज़ है।
ٱسۡلُكۡ يَدَكَ فِي جَيۡبِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٖ وَٱضۡمُمۡ إِلَيۡكَ جَنَاحَكَ مِنَ ٱلرَّهۡبِۖ فَذَٰنِكَ بُرۡهَٰنَانِ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 30
(32) अपना हाथ गिरेबान में डाल, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी तकलीफ़ के।44 और डर से बचने के लिए अपना बाजू भींच ले।45 दो रौशन निशानियाँ हैं तेरे रब की तरफ़ से और उसके दरबारियों के सामने पेश करने के लिए, वे बड़े नाफ़रमान लोग हैं।46
44. ये दोनों मोजिज़े उस वक़्त हज़रत मूसा (अलैहि०) को इसलिए दिखाए गए कि अव्वल तो उन्हें ख़ुद पूरी तरह यक़ीन हो जाए कि सचमुच वही हस्ती उनसे बात कर रही है जो कायनात के पूरे निज़ाम को बनानेवाली, मालिक और हुकूमत करनेवाली है। दूसरे वे उन मोजिज़ों को देखकर मुत्मइन हो जाएँ कि जिस ख़तरनाक मिशन पर उन्हें फ़िरऔन की तरफ़ भेजा जा रहा है उसका सामना करने के लिए वे बिलकुल निहत्थे नहीं जाएँगे, बल्कि दो ज़बरदस्त हथियार लेकर जाएँगे।
45. यानी जब कभी कोई ख़तरनाक मौक़ा ऐसा आए जिससे तुम्हारे दिल में डर पैदा हो तो अपना बाज़ू भींच लिया करो, इससे तुम्हारा दिल मज़बूत हो जाएगा और रोब और दहशत की कोई कैफ़ियत तुम्हारे अन्दर बाक़ी न रहेगी। बाज़ू से मुराद शायद सीधा बाज़ू है; क्योंकि सिर्फ़ हाथ बोलकर सीधा हाथ ही मुराद लिया जाता है। भींचने की दो शक्लें हो सकती हैं। एक यह कि बाज़ू को पहलू के साथ लगाकर दबा लिया जाए। दूसरी यह कि एक हाथ को दूसरे हाथ की बग़ल में रखकर दबाया जाए। ज़्यादा इमकान यह है कि पहली शक्ल ही मुराद होगी; क्योंकि इस सूरत में दूसरा कोई शख़्स यह महसूस नहीं कर सकता कि आदमी अपने दिल का डर दूर करने के लिए कोई ख़ास अमल कर रहा है। हज़रत मूसा (अलैहि०) को यह तदबीर इसलिए बताई गई कि वे एक ज़ालिम हुकूमत का मुक़ाबला करने के लिए किसी लाव-लश्कर और दुनियावी साज़ो-सामान के बिना भेजे जा रहे थे। कई बार ऐसे भयानक मौक़े पेश आनेवाले थे जिनमें एक इन्तिहाई मज़बूत इरादेवाला नबी तक दहशत से महफ़ूज़ न रह सकता या। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि जब कोई ऐसी सूरत पेश आए, तुम बस यह अमल कर लिया करो, फ़िरऔन अपनी पूरी सल्तनत का ज़ोर लगाकर भी तुम्हारे दिल की ताक़त को डगमगा न सकेगा।
46. इन अलफ़ाज़ में यह मतलब आप-से-आप शामिल है कि ये निशानियाँ लेकर फ़िरऔन के पास जाओ और अल्लाह के रसूल की हैसियत से अपने आपको पेश करके उसे और उसके दरबारियों को अल्लाह, सारे जहान के रब, की फ़रमाँबरदारी और बन्दगी की तरफ़ बुलाओ। इसी लिए यहाँ इस तहरीर का मतलब खोलकर बयान नहीं किया गया है अलबत्ता दूसरी जगहों पर साफ़ तौर से यह मज़मून बयान किया गया है। सूरा-20 ता-हा और सूरा-79 नाज़िआत में फ़रमाया, “फ़िरऔन के पास जा कि वह सरकश हो गया है। और सूरा-26 शुअरा में फ़रमाया, “जब कि पुकारा तेरे रब ने मूसा (अलैहि०) को कि जा ज़ालिम क़ौम के पास, फ़िरऔन की क़ौम के पास।"
قَالَ رَبِّ إِنِّي قَتَلۡتُ مِنۡهُمۡ نَفۡسٗا فَأَخَافُ أَن يَقۡتُلُونِ ۝ 31
(33) मूसा ने अर्ज़ किया, “मेरे आक़ा मैं तो उनका एक आदमी क़त्ल कर चुका हूँ, हूँ कि वे मुझे मार डालेंगे।47
47. इसका मतलब यह नहीं था कि इस डर से मैं वहाँ नहीं जाना चाहता, बल्कि मतलब यह या कि आपकी तरफ़ से कुछ ऐसा इन्तिज़ाम होना चाहिए कि मेरे पहुँचते ही किसी बातचीत और रिसालत का फ़र्ज़ अदा करने की नौबत आने से पहले ये लोग मुझे कल के इलज़ाम में गिरफ़्तार न कर लें, क्योंकि इस सूरत में तो वह मक़सद ही ख़त्म हो जाएगा जिसके लिए मुझे इस मुहिम पर भेजा जा रहा है। बाद की इबारत से यह बात ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की इस गुज़ारिश का यह मक़सद हरगिज़ नहीं था कि वे डर के मारे नुबूवत (पैराम्बरी) का मंसब क़ुबूल करने और फ़िरऔन के यहाँ जाने से इनकार करना चाहते थे।
وَأَخِي هَٰرُونُ هُوَ أَفۡصَحُ مِنِّي لِسَانٗا فَأَرۡسِلۡهُ مَعِيَ رِدۡءٗا يُصَدِّقُنِيٓۖ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُكَذِّبُونِ ۝ 32
(34) और मेरा भाई हारून मुझसे ज़्यादा बोलने में माहिर है, उसे मेरे साथ मददगार के तौर पर भेज, ताकि वह मेरी ताईद (समर्थन) करे मुझे अन्देशा है कि वे लोग मुझे झुठलाएँगे।”
قَالَ سَنَشُدُّ عَضُدَكَ بِأَخِيكَ وَنَجۡعَلُ لَكُمَا سُلۡطَٰنٗا فَلَا يَصِلُونَ إِلَيۡكُمَا بِـَٔايَٰتِنَآۚ أَنتُمَا وَمَنِ ٱتَّبَعَكُمَا ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 33
(35) फ़रमाया, “हम तेरे भाई के ज़रिए से तेरा हाथ मज़बूत करेंगे और तुम दोनों को ऐसी ताक़त अता करेंगे कि वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। हमारी निशानियों के ज़ोर से तुम और तुम्हारी पैरवी करनेवाले ही ऊपर रहेंगे।"48
48. अल्लाह तआला के साथ हज़रत मूसा (अलैहि०) की इस मुलाक़ात और बातचीत का हाल इससे ज़्यादा तफ़सील के साथ सूरा-20 ता-हा (आयतें—9-48) में बयान हुआ है। क़ुरआन मजीद के इस बयान का जो शख़्स भी उस दास्तान से मुक़ाबला करेगा जो इस सिलसिले में बाइबल की किताब निष्कासन (अध्याय-3, 4) में बयान की गई है, वह अगर कुछ साफ़-सुथरा ज़ौक़ रखता हो तो ख़ुद महसूस कर लेगा कि इन दोनों में से अल्लाह का कलाम कौन-सा है और इनसान की कही गई कहानी कौन लगती है। साथ ही वह इस मामले में भी आसानी से राय क़ायम कर सकेगा कि क्या क़ुरआन की यह रिवायत (अल्लाह की पनाह) बाइबल और इसराईली रिवायतों की नक़्ल है, या वह ख़ुदा ख़ुद अस्ल वाक़िआ बयान कर रहा है जिसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को मुलाक़ात की ख़ुशनसीबी का मौक़ा दिया था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-19)
فَلَمَّا جَآءَهُم مُّوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا بَيِّنَٰتٖ قَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّفۡتَرٗى وَمَا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِيٓ ءَابَآئِنَا ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 34
(36) फिर जब मूसा उन लोगों के पास हमारी खुली-खुली निशानियाँ लेकर पहुँचा तो उन्होंने कहा कि यह कुछ नहीं है, मगर बनावटी जादू।49 और ये बातें तो हमने अपने बाप-दादा के ज़माने में कभी सुनी ही नहीं।50
49. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है “सिहरुम-मुफ़-तरन” (गढ़ा हुआ जादू) इस 'इफ़तिरा' (गढ़ना) को अगर झूठ के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि यह लाठी का अजगर बनना और हाथ का चमक उठना अस्ल चीज़ में हक़ीक़ी तब्दीली नहीं है, बल्कि सिर्फ़ एक दिखावटी धोखा है जिसे यह शख़्स मोजिज़ा (चमत्कार) कहकर हमें धोखा दे रहा है और अगर इसे बनावट के मानी में लिया जाए तो मुराद यह होगी कि यह शख़्स किसी करतब से एक ऐसी चीज़ बना लाया है जो देखने में लाठी मालूम होती है, मगर जब यह उसे फेंक देता है तो साँप नज़र आने लगती है और अपने हाथ पर भी उसने कोई ऐसी चीज़ मल ली है कि उसकी बग़ल से निकलने के बाद वह यकायक चमक उठता है। यह बनावटी जादू उसने ख़ुद तैयार किया है और हमें यक़ीन यह दिला रहा है कि ये मोजिज़े हैं जो ख़ुदा ने उसे दिए हैं।
50. इशारा है उन बातों की तरफ़ जो रिसालत (पैराम्बरी) की तबलीग़ के सिलसिले में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने पेश की थीं। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर उन बातों की तफ़सील दी गई है। सूरा-79 नाज़िआत में है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उससे कहा, “क्या तू पाकीज़ा रवैया अपनाने पर आमादा है? और मैं तुझे तेरे रब की राह बताऊँ तो (उसका) डर तेरे अन्दर पैदा हो?” सूरा-20 ता-हा में है कि “हम तेरे पास तेरे रब की निशानी लाए हैं और सलामती है उसके लिए जो सीधे रास्ते की पैरवी करे और हमपर वह्य की गई है कि सज़ा है उसके लिए जो झुठलाए और मुँह मोड़े और हम तेरे रब के पैग़म्बर हैं। तू हमारे साथ बनी-इसराईल को जाने दे।” इन्हीं बातों के बारे में फ़िरऔन ने कहा कि हमारे बाप-दादा ने भी कभी यह नहीं सुना था कि मिस्र के फ़िरऔन से ऊपर भी कोई ऐसी ताक़तवर हस्ती है जो उसको हुक्म दे सकती हो, जो उसे सज़ा दे सकती हो, जो उसे हिदायत देने के लिए किसी आदमी को उसके दरबार में भेजे और जिससे डरने के लिए मिस्र के बादशाह से कहा जाए ये तो निराली बातें हैं जो आज हम एक आदमी की ज़बान से सुन रहे हैं।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبِّيٓ أَعۡلَمُ بِمَن جَآءَ بِٱلۡهُدَىٰ مِنۡ عِندِهِۦ وَمَن تَكُونُ لَهُۥ عَٰقِبَةُ ٱلدَّارِۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 35
(37) मूसा ने जवाब दिया, “मेरा रब उस शख़्स का हाल अच्छी तरह जानता है जो उसकी तरफ़ से हिदायत लेकर आया है और वही बेहतर जानता है कि आख़िरी अंजाम किसका अच्छा होना है, सच यह है कि ज़ालिम कभी कामयाब नहीं होते।”51
51. यानी तू मुझे जादूगर और झूठ गढ़नेवाला कहता है, लेकिन मेरा रब मेरा हाल अच्छी तरह जानता है। वह जानता है कि जो शख़्स उसकी तरफ़ से रसूल मुक़र्रर किया गया है वह कैसा आदमी है और आख़िरी अंजाम का फ़ैसला उसी के हाथ में है। मैं झूठा हूँ तो मेरा अंजाम बुरा होगा और अगर तू झूठा है तो फिर ख़ूब जान ले कि तेरा अंजाम अच्छा नहीं है। बहरहाल यह हक़ीक़त अपनी जगह अटल है कि ज़ालिम के लिए कामयाबी नहीं है। जो आदमी ख़ुदा का रसूल न हो और झूठ-मूठ का रसूल बनकर अपना कोई फ़ायदा हासिल करना चाहे वह भी ज़ालिम है और फ़लाह (कामयाबी और नजात) से महरूम रहेगा और जो तरह-तरह के झूठे इलज़ाम लगाकर सच्चे रसूल को झुठलाए और मक्कारियों से सच्चाई को दबाना चाहे वह भी ज़ालिम है और उसे कभी फ़लाह (कामयाबी) न मिलेगी।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ مَا عَلِمۡتُ لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرِي فَأَوۡقِدۡ لِي يَٰهَٰمَٰنُ عَلَى ٱلطِّينِ فَٱجۡعَل لِّي صَرۡحٗا لَّعَلِّيٓ أَطَّلِعُ إِلَىٰٓ إِلَٰهِ مُوسَىٰ وَإِنِّي لَأَظُنُّهُۥ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 36
(38) और फ़िरऔन ने कहा, “ऐ दरबारियो, मैं तो अपने सिवा तुम्हारे किसी ख़ुदा को नहीं जानता।52 हामान, ज़रा ईंटें पकवाकर मेरे लिए एक ऊँची इमारत तो बनवा, शायद कि उसपर चढ़कर मैं मूसा के ख़ुदा को देख सकूँ, मैं तो उसे झूठा समझता हूँ।"53
52. इस बात से फ़िरऔन का मतलब ज़ाहिर है कि यह नहीं था और नहीं हो सकता था कि मैं ही तुम्हारा और ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला हूँ; क्योंकि ऐसी बात सिर्फ़ एक पागल ही के मुँह से निकल सकती थी और इसी तरह इसका मतलब यह भी नहीं हो सकता था कि मेरे सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है, क्योंकि मिस्रवालों के मज़हब में बहुत-से माबूदों (उपास्यों) की पूजा होती थी और ख़ुद फ़िरऔन को जिस बुनियाद पर माबूदियत का दरजा दिया गया था वह भी सिर्फ़ यह थी कि उसे सूरज देवता का अवतार माना जाता था। सबसे बड़ी गवाही क़ुरआन मजीद की मौजूद है कि फ़िरऔन ख़ुद बहुत-से देवताओं का पुजारी था, “और फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों ने कहा, क्या तू मूसा और उसकी क़ौम को छूट देगा कि देश में फ़साद फैलाएँ और तुझे और तेरे माबूदों को छोड़ दें?” (सूरा-7 आराफ़, आयत-127) इसलिए हो-न-हो यहाँ फ़िरऔन ने लफ़्ज़ 'ख़ुदा' अपने लिए पैदा करनेवाले और माबूद के मानी में नहीं, बल्कि फ़रमाँबरदारी के हक़दार और हुक्म देनेवाले के मानी में इस्तेमाल किया था। उसका मतलब यह था कि मिस्र की इस सरज़मीन का मालिक मैं हूँ। यहाँ मेरा हुक्म चलेगा। मेरा ही क़ानून यहाँ क़ानून माना जाएगा। मुझे ही यहाँ हुक्म देने और मना करने का हक़दार माना जाएगा। कोई दूसरा यहाँ हुक्म देने का हक़ दार नहीं है। यह मूसा कौन है जो रब्बुल-आलमीन (सारे जहानों के रब) का नुमाइन्दा बनकर आ खड़ा हुआ है और मुझे इस तरह हुक्म दे रहा है कि मानो अस्ल बादशाह यह है और मैं उसके हुक्म का ग़ुलाम हूँ। इसी बुनियाद पर उसने अपने दरबार के लोगों को मुख़ातब करके कहा था, “ऐ क़ौम! क्या मिस्र की बादशाही मेरी ही नहीं है और ये नहरें मेरे नीचे जारी नहीं हैं?” (सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-51) और इसी वजह से वह हज़रत मूसा (अलैहि०) से बार-बार कहता था, “क्या तू इसलिए आया है कि हमें उस तरीक़े से हटा दे जो हमारे बाप-दादा के ज़माने से चला आ रहा है और इस देश में बड़ाई तुम दोनों भाइयों की हो जाए?” (सूरा-10 यूनुस, आयत-78) “ऐ मूसा, क्या तू इसलिए आया है कि हमें अपने जादू के ज़ोर से हमारी ज़मीन से बेदख़ल कर दे?” (सूरा-20 ता-हा, आयत-57) “मैं डरता हूँ कि यह आदमी तुम लोगों का दीन बदल डालेगा, या देश में बिगाड़ पैदा करेगा।” (सूरा-40 मोमिन, आयत-26) इस लिहाज़ से अगर ग़ौर किया जाए तो फ़िरऔन की पोज़ीशन उन हुकूमतों की पोज़ीशन से कुछ भी अलग नहीं है जो ख़ुदा के पैग़म्बर की लाई हुई शरीअत (क़ानून) से आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार होकर सियासी और क़ानूनी तौर पर हुकूमत का अधिकार रखने की दावेदार हैं। वे चाहे क़ानून का सरचश्मा और हुक्म देने और मना करने का अधिकारी किसी बादशाह को मानें या क़ौम की मरज़ी को, बहरहाल जब तक वे यह तरीक़ा अपनाए हुए हैं कि देश में ख़ुदा और उसके रसूल का नहीं, बल्कि हमारा हुक्म चलेगा उस वक़्त तक उनके और फ़िरऔन के तरीक़े में कोई उसूली फ़र्क़ नहीं है। अब यह अलग बात है कि नासमझ लोग फ़िरऔन पर लानत भेजते रहें और इनको जाइज़ ठहराते रहें। हक़ीक़तों की समझ-बूझ रखनेवाला आदमी तो मतलब और रूह को देखेगा न कि अलफ़ाज़ और इस्तिलाहों (परिभाषाओं) को। आख़िर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि फ़िरऔन ने अपने लिए ‘इलाह' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया था और ये इसी मानी में 'हाकिमियत’ (सत्ताधिकार) की इस्तिलाह इस्तेमाल करती हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-21)
53. यह उसी तरह की ज़ेहनियत थी जैसी आजकल के ज़माने के रूसी कम्युनिस्ट ज़ाहिर कर रहे हैं। यह स्पुटनिक और लूनिक छोड़कर दुनिया को ख़बर देते हैं कि हमारी इन गेंदों को ऊपर कहीं ख़ुदा नहीं मिला। वह बेवक़ूफ़ (फ़िरऔन) एक मीनार पर चढ़कर ख़ुदा को झाँकना चाहता था। इससे मालूम हुआ कि गुमराह लोगों के ज़ेहन की उड़ान साढ़े तीन हज़ार साल पहले जहाँ थी, आज भी वहीं तक है। इस एतिबार से एक अंगुल-भर भी तरक़्क़ी वे नहीं कर सके हैं। मालूम नहीं किस बेवक़ूफ़ ने इनको यह ख़बर दी थी कि ख़ुदा-परस्त लोग जिस रब्बुल-आलमीन को मानते हैं, वह उनके अक़ीदे के मुताबिक़ ऊपर कहीं बैठा हुआ है और इस अथाह कायनात में ज़मीन से चन्द हज़ार फ़ीट या चन्द लाख मील ऊपर उठकर अगर वह उन्हें न मिले तो यह बात मानो बिलकुल साबित हो जाएगी कि वह कहीं मौजूद नहीं है। क़ुरआन यह नहीं कहता कि फ़िरऔन ने सचमुच एक इमारत इस मक़सद के लिए बनवाई थी और उसपर चढ़कर ख़ुदा को झाँकने की कोशिश भी की थी, बल्कि वह उसकी सिर्फ़ उस बात को नक़्ल करता है। इससे बज़ाहिर यही मालूम होता है कि उसने अमली तौर पर यह बेवक़ूफ़ी नहीं की थी। इन बातों से उसका मक़सद सिर्फ़ बेवक़ूफ़ बनाना था। यह बात भी साफ़ तौर से मालूम नहीं होती कि फ़िरऔन क्या सचमुच ख़ुदा रब्बुल-आलमीन की हस्ती का इनकार करनेवाला था या सिर्फ़ ज़िद और हठधर्मी की वजह से नास्तिकता की बातें करता था। उसकी बातें इस मामले में उसी ज़ेहनी उलझाव की निशानदेही करती हैं जो रूसी कम्युनिस्टों की बातों में पाया जाता है। कभी तो वह आसमान पर चढ़कर दुनिया को बताना चाहता था कि मैं ऊपर देख आया हूँ, मूसा (अलैहि०) का ख़ुदा कहीं नहीं है और कभी वह कहता, “अगर मूसा सचमुच ख़ुदा का भेजा हुआ है तो क्यों न उसके लिए सोने के कंगन उतारे गए, या उसकी अरदली में रिश्ते न आए?” (सूरा-15 जुख़रुफ़, आयत-53) ये बातें रूस के एक प्रधानमंत्री ख़ुरुश्चेफ़ को बातों से कुछ ज़्यादा अलग नहीं हैं जो कभी ख़ुदा का इनकार करता और कभी बार-बार ख़ुदा का नाम लेता और उसके नाम की क़स्में खाता था। हमारा अन्दाज़ा यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके ख़लीफ़ाओं (उनके बाद हुकूमत की बागडोर संभालनेवालों) की हुकूमत का दौर गुज़र जाने के बाद जब मिस्र में क़िब्ती क़ौम-परस्ती का ज़ोर हुआ और देश में इसी नस्ली और वतनी तास्सुब (पक्षपात) की बुनियाद पर सियासी इंक़िलाब आ गया तो नए लीडरों ने अपनी क़ौम-परस्ती के जोश में उस ख़ुदा के खिलाफ़ भी बग़ावत कर दी जिसको मानने की दावत हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके पैरोकार इसराईली और मिस्री मुसलमान देते थे। उन्होंने यह समझा कि ख़ुदा को मानकर हम यूस़ुफ़ी तहज़ीब (सभ्यता) के असर से न निकल सकेंगे और यह तहज़ीब बाक़ी रही तो हमारा सियासी असर भी मज़बूत न हो सकेगा। वे ख़ुदा के इक़रार और मुसलमानों की हुकूमत को एक-दूसरे के लिए लाज़िमी समझते थे, इसलिए एक से पीछा छुड़ाने के लिए दूसरे का इनकार उनके नज़दीक ज़रूरी था, अगरचे उसका इक़रार उनके दिल की गहराइयों से किसी तरह निकाले न निकलता था।
وَٱسۡتَكۡبَرَ هُوَ وَجُنُودُهُۥ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ إِلَيۡنَا لَا يُرۡجَعُونَ ۝ 37
(39) उसने और उसके लश्करों ने ज़मीन में बिना किसी हक़ के अपनी बड़ाई का घमण्ड किया54 और समझे कि उन्हें कभी हमारी तरफ़ पलटना नहीं है।55
54. यानी बड़ाई का हक़ तो इस कायनात में सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह को है। मगर फ़िरऔन और उसके लश्कर ज़मीन के एक ज़रा-से हिस्से में थोड़ी-सी हुकूमत पाकर यह समझ बैठे कि यहाँ बड़े बस वही हैं।
55. यानी उन्होंने अपने आपको हर पूछ-गछ से आज़ाद समझ लिया और यह मान करके पूरी तरह अपनी मरज़ी से काम करने लगे कि उन्हें जाकर किसी के सामने जवाबदेही नहीं करनी है।
فَأَخَذۡنَٰهُ وَجُنُودَهُۥ فَنَبَذۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 38
(40) आख़िरकार हमने उसे और उसके लश्करों को पकड़ा और समन्दर में फेंक दिया।56 अब देख लो कि उन ज़ालिमों का कैसा अंजाम हुआ।
56. इन अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला ने उनके झूठे घमण्ड के मुक़ाबले में उनके बेहक़ीक़त और हक़ीर (तुच्छ) होने की तस्वीर खींच दी है। वे अपने आपको बड़ी चीज़ समझ बेठे थे। मगर जब वह मुहलत जो ख़ुदा ने उनको सीधे रास्ते पर आने के लिए दी थी ख़त्म हो गई तो उन्हें इस तरह उठाकर समन्दर में फेंक दिया जैसे कूड़ा-करकट फेंका जाता है।
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلنَّارِۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا يُنصَرُونَ ۝ 39
(41) हमने उन्हें जहन्नम की तरफ़ बुलानेवाला पेशवा बना दिया57 और क़ियामत के दिन वे कहीं से कोई मदद न पा सकेंगे
57. यानी ये बाद की नस्लों के लिए एक मिसाल क़ायम कर गए हैं कि ज़ुल्म यूँ किया जाता है, हक़ (सत्य) के इनकार पर डट जाने और आख़िर वक़्त तक डटे रहने की शान यह होती है और सच्चाई के मुक़ाबले में बातिल (असत्य) पर चलनेवाले लोग ऐसे-ऐसे हथियार इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सब रास्ते दुनिया को दिखाकर वे जहन्नम की तरफ़ जा चुके हैं और उनके पीछे आनेवाले अब उन्हीं के रास्तों पर चलकर उसी मंज़िल की तरफ़ लपके जा रहे हैं।
وَأَتۡبَعۡنَٰهُمۡ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا لَعۡنَةٗۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ هُم مِّنَ ٱلۡمَقۡبُوحِينَ ۝ 40
(42) हमने इस दुनिया में उनके पीछे लानत लगा दी और क़ियामत के दिन वे बड़ी बदहाली में मुब्तला होंगे।58
58. अस्ल अलफ़ाज़ हैं क़ियामत के दिन वे 'मक़बूहीन' में से होंगे। इसके कई मतलब हो सकते हैं। वे फिटकारे हुए होंगे। अल्लाह की रहमत से बिलकुल महरूम कर दिए जाएँगे उनकी बुरी गत (दुर्गति) बनाई जाएगी और उनके चेहरे बिगाड़ दिए जाएँगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ ٱلۡأُولَىٰ بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 41
(43) पिछली नस्लों को हलाक करने के बाद हमने मूसा को किताब दी, लोगों के लिए गहरी सूझ-बूझ का सामान बनाकर, हिदायत और रहमत बनाकर, ताकि शायद लोग सबक़ हासिल करें।59
59. यानी पिछली नस्लें जब पिछले नबियों की तालीमात से मुँह फेरने का बुरा नतीजा भुगत चुकीं और उनका आख़िरी अंजाम वह कुछ हो चुका जो फ़िरऔन और उसके लश्करों ने देखा, तो इसके बाद मूसा (अलैहि०) को किताब दी गई ताकि इनसानियत का एक नया दौर शुरू हो।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلۡغَرۡبِيِّ إِذۡ قَضَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَى ٱلۡأَمۡرَ وَمَا كُنتَ مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 42
(44) (ऐ नबी) तुम उस वक़्त पश्चिमी कोने में मौजूद न थे,"60 जब हमने मूसा को शरीअत का यह हुक्म दिया और न तुम देखनेवालों में शामिल61 थे,
60. पश्चिमी कोने से मुराद जज़ीरा नुमा-ए-सीना (प्रायद्वीप सीना) का वह पहाड़ है जिसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) को शरीअत के अहकाम दिए गए थे। यह इलाक़ा हिजाज़ के पश्चिमी तरफ़ पाया जाता है।
61. यानी बनी-इसराईल के उन सत्तर नुमाइन्दों में जिनको शरीअत की पाबन्दी का अह्द (शपथ) लेने के लिए हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ बुलाया गया था। (सूरा-7 आराफ़, आयत-155 में उन नुमाइन्दों के बुलाए जाने का ज़िक्र गुज़र चुका है और बाइबल की किताब निष्कासन, अध्याय-24 में भी इसका ज़िक्र मौजूद है।)
وَلَٰكِنَّآ أَنشَأۡنَا قُرُونٗا فَتَطَاوَلَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۚ وَمَا كُنتَ ثَاوِيٗا فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ تَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَا وَلَٰكِنَّا كُنَّا مُرۡسِلِينَ ۝ 43
(45) बल्कि उसके बाद (तुम्हारे ज़माने तक) हम बहुत-सी नस्लें उठा चुके हैं और उनपर बहुत ज़माना गुज़र चुका है।62 तुम मदयनवालों के बीच भी मौजूद न थे कि उनको हमारी आयतें सुना रहे होते,63 मगर (उस वक़्त की ये ख़बरें) भेजनेवाले हम हैं।
62. यानी तुम्हारे पास इन मालूमात के हासिल करने का सीधे तोर पर कोई ज़रिआ नहीं था। आज जो तुम इन वाक़िआत को दो हज़ार साल से ज़्यादा मुद्दत गुज़र जाने के बाद इस तरह बयान कर रहे हो कि मानो यह सब तुम्हारा आँखों देखा हाल है, इसकी कोई वजह इसके सिवा नहीं है कि अल्लाह तआला की वह्य के ज़रिए से तुमको ये मालूमात पहुँचाई जा रही हैं।
63. यानी जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन पहुँचे और जो कुछ वहाँ उनके साथ पेश आया और दस साल गुज़ारकर जब वे वहाँ से रवाना हुए, उस वक़्त तुम्हारा कहीं पता भी न था। तुम उस वक़्त मदयन की बस्तियों में वह काम नहीं कर रहे थे जो आज मक्का की गलियों में कर रहे हो। उन वाक़िआत का ज़िक्र तुम कुछ इस बुनियाद पर नहीं कर रहे हो कि यह तुम्हारा आँखों देखा हाल है, बल्कि यह इल्म भी तुमको हमारी वह्य के ज़रिए ही से हासिल हुआ है।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلطُّورِ إِذۡ نَادَيۡنَا وَلَٰكِن رَّحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 44
(46) और तुम तूर के दामन में भी उस वक़्त मौजूद न थे जब हमने (मूसा को पहली बार) पुकारा था, मगर यह तुम्हारे रब की रहमत है (कि तुमको ये जानकारियाँ दी जा रही है64), ताकि तुम उन लोगों को ख़बरदार करो जिनके पास तुमसे पहले कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया,65 शायद कि वे होश में आएँ।
64. ये तीनों बातें मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत (पैग़म्बरी) के सुबूत में पेश की गई हैं। जिस वक़्त ये बातें कही गई थीं उस वक़्त मक्का के तमाम सरदार और आम ग़ैर-मुस्लिम इस बात पर पूरी तरह तुले हुए थे कि किसी-न-किसी तरह आप (सल्ल०) को ग़ैर-नबी और, अल्लाह की पनाह, झूठा दावेदार साबित कर दें। उनकी मदद के लिए यहूदियों के उलमा और ईसाइयों के राहिब भी हिजाज़ की बस्तियों में मौजूद थे और मुहम्मद (सल्ल०) कहीं ऊपरी दुनिया से आकर यह क़ुरआन नहीं सुना जाते थे, बल्कि उसी मक्का के रहनेवाले थे और आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी का कोई हिस्सा आप (सल्ल०) की बस्ती और आप (सल्ल०) के क़बीले के लोगों से छिपा हुआ न था। यही वजह है कि जिस वक़्त इस खुले चैलेंज के अन्दाज़ में नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी के सूबूत के तौर पर ये तीन बातें कही गईं, उस वक़्त मक्का और हिजाज़ और पूरे अरब में कोई एक शख़्स भी उठकर वह बेहूदा बात न कह सका जो आज के मुस्तशरिक़ीन (पश्चिमी प्राच्यविद्) कहते हैं। अगरचे झूठ गढ़ने में वे लोग इनसे कुछ कम न थे, लेकिन ऐसा बे-सिर-पैर का झूठ ये आख़िर कैसे बोल सकते थे जो एक पल के लिए भी न चल सकता हो। वे कैसे कहते कि ऐे मुहम्मद, तुम फ़ुलाँ-फ़ुलाँ यहूदी आलिमों और ईसाई राहिबों से ये जानकारियों हासिल कर लाए हो, क्योंकि पूरे देश में वे इस ग़रज़ के लिए किसी का नाम नहीं ले सकते थे। जिसका नाम भी वे लेते, फ़ौरन ही यह साबित हो जाता कि उससे नबी (सल्ल०) ने कोई मालूमात हासिल नहीं की हैं। वे कैसे कहते कि ऐ मुहम्मद, तुम्हारे पास पिछले इतिहास और उलूम-व-आदाब (ज्ञान-विज्ञान और शिष्टाचार) की एक लाइब्रेरी मौजूद है जिसकी मदद से तुम ये सारी तक़रीरें कर रहे हो, क्योंकि लाइब्रेरी तो दूर की बात, मुहम्मद (सल्ल०) के आसपास कहीं से वे एक काग़ज़ का टुकड़ा भी बरामद नहीं कर सकते थे जिसमें ये मालूमात लिखी हुई हो। मक्का का बच्चा-बच्चा जानता था कि मुहम्मद (सल्ल०) पढ़े-लिखे आदमी नहीं हैं और कोई यह भी नहीं कह सकता था कि आप (सल्ल०) ने कुछ तर्जमा करनेवालों को काम पर लगा रखा है जो इबरानी और सुरयानी और यूनानी किताबों के तर्जमे कर-करके आप (सल्ल०) को देते हैं। फिर उनमें से कोई बड़े-से-बड़ा बेहया आदमी भी यह दावा करने की जुरअत न रखता था कि शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन के तिज़ारती सफ़रों में आप (सल्ल०) ये मालूमात हासिल कर आए थे, क्योंकि ये सफ़र अकेले नहीं हुए थे। मक्का ही के तिज़ारती क़ाफ़िले हर सफ़र में आप (सल्ल०) के साथ लगे हुए थे। अगर कोई उस वक़्त ऐसा दावा करता तो सैकड़ों ज़िन्दा गवाह यह गवाही दे देते कि वहाँ आप (सल्ल०) ने किसी से कोई दर्स नहीं लिया और आप (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद तो दो साल के अन्दर ही रोम-वासियों से मुसलमानों की जंग होने लगी थी। अगर कहीं झूठों भी शाम और फ़िलस्तीन में किसी ईसाई राहिब या यहूदी रिब्बी से नबी (सल्ल०) ने कोई मुज़ाकरा (विचारों का आदान-प्रदान) किया होता तो रोमी सल्तनत राई का पहाड़ बनाकर यह प्रोपेगण्डा करने में ज़रा न झिझकती कि मुहम्मद, (अल्लाह की पनाह), सब कुछ यहाँ से सीखकर गए थे और मक्का जाकर नबी बन बैठे। ग़रज़ उस ज़माने में जबकि क़ुरआन का यह चैलेंज क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों और मुशरिकों के लिए मौत के पैग़ाम की हैसियत रखता था और उसको झुठलाने की ज़रूरत मौजूदा ज़माने के मुस्तशसरिक़ीन (पश्चिमी देशों के वे ग़ैर-मुस्लिम विद्वान जिन्होंने इस्लाम का आलोचनात्मक अध्ययन किया) के मुक़ाबले में उन लोगों को कहीं ज़्यादा थी, कोई शख़्स भी कहीं से ऐसी कोई सामग्री जुटाकर न ला सका जिससे वह यह साबित कर सकता कि मुहम्मद (सल्ल०) के पास वह्य के सिवा इन मालूमात के हासिल करने का कोई दूसरा ज़रिआ मौजूद है जिसकी निशानदेही की जा सकती हो। यह बात भी जान लेनी चाहिए कि क़ुरआन ने यह चैलेंज इसी एक जगह नहीं दिया है, बल्कि कई जगहों पर अलग-अलग हिस्सों के सिलसिले में दिया है। हज़रत ज़करिया और हज़रत मरयम (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करके फ़रमाया, “यह ग़ैब की ख़बरों में से है जो हम वह्य के ज़रिए से तुम्हें दे रहे हैं, तुम उन लोगों के आसपास कहीं मौजूद न थे, जबकि वे अपने पाँसे यह तय करने के लिए फेंक रहे थे कि मरयम की सरपरस्ती कौन करे और न तुम उस वक़्त मौजूद थे जबकि ये झगड़ रहे थे।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-44) हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करने के बाद फ़रमाया, “यह ग़ैब की ख़बरों में से है जो हम वह्य के ज़रिए से तुम्हें दे रहे हैं, तुम उनके (यानी यूसुफ़ के भाइयों के आसपास कहीं मौजूद न थे जबकि वे अपनी तदबीर पर एकमत हुए और जबकि वे अपनी चाल चल रहे थे।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-102) इसी तरह हज़रत नूह (अलैहि०) का तफ़सीली क़िस्सा बयान करके फ़रमाया, “ये बातें ग़ैब की ख़बरों में से हैं जो हम तुमपर वह्य कर रहे हैं। तुम्हें और तुम्हारी क़ौम को इससे पहले इनका कोई इल्म न था।” (सूरा-11 हूद, आयत-49) इस चीज़ की बार-बार तकरार से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि क़ुरआन मजीद अपने अल्लाह की तरफ़ से होने और मुहम्मद (सल्ल०) के अल्लाह का रसूल होने पर जो बड़ी-बड़ी दलीलें देता था उनमें से एक दलील यह थी कि सैंकड़ों-हज़ारों साल पहले के गुज़रे हुए वाक़िआत की जो तफ़सीलात एक उम्मी (अनपढ़) की ज़बान से अदा हो रही हैं उनके इल्म का कोई ज़रिआ उसके पास वह्य के सिवा नहीं है और यह चीज उन अहम वजहों में से थी जिनकी बुनियाद पर नबी (सल्ल०) के ज़माने के लोग इस बात पर यक़ीन लाते चले जा रहे थे कि सचमुच आप (सल्ल०) अल्लाह के नबी हैं और आप (सल्ल०) पर वह्य आती है। अब यह हर शख़्स ख़ुद सोच सकता है कि इस्लामी तहरीक (आन्दोलन) की मुख़ालफ़त करनेवालों के लिए उस ज़माने में इस चैलेंज को ग़लत साबित करना कैसा-कुछ अहमियत रखता होगा और उन्होंने उसके ख़िलाफ़ सुबूत जुटाने की कोशिशों में क्या कमी छोड़ी होगी। साथ ही यह भी अन्दाज़ा किया जा सकता है कि अगर अल्लाह की पनाह, इस चैलेंज में ज़रा-सी भी कोई कमज़ोरी होती तो उसको ग़लत साबित करने के लिए सुबूत जुटाना उस ज़माने के लोगों के लिए मुश्किल न होता।
65. अरब में हज़रत इसमाईल (अलैहि०) और हज़रत शुऐब (अलैहि०) के बाद कोई नबी नहीं आया था। लगभग दो हज़ार साल की इस लम्बी मुद्दत में बाहर के नबियों की दावतें और तालीमात तो ज़रूर वहाँ पहुँचीं, मसलन हज़रत मूसा (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) की तालीमात, मगर किसी नबी को ख़ास तौर से इस सरज़मीन में नहीं भेजा गया था।
وَلَوۡلَآ أَن تُصِيبَهُم مُّصِيبَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَيَقُولُواْ رَبَّنَا لَوۡلَآ أَرۡسَلۡتَ إِلَيۡنَا رَسُولٗا فَنَتَّبِعَ ءَايَٰتِكَ وَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 45
(47) (और यह हमने इसलिए किया कि) कहीं ऐसा न हो कि उनके अपने किए करतूतों की बदौलत कोई मुसीत जब उनपर आए तो ये कहें, “ऐ परवरदिगार, तूने क्यों न हमारी तरफ़ कोई रसूल भेजा कि हम तेरी आयतों की पैरवी करते और ईमानवालों में से होते।”66
66. इसी चीज़ को क़ुरआन मजीद कई जगहों पर रसूलों के भेजे जाने की वजह के तौर पर पेश करता है। मगर इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि इस ग़रज़ के लिए हर वक़्त हर जगह एक रसूल आना चाहिए। जब तक दुनिया में एक रसूल का पैग़ाम अपनी सही शक्ल में मौजूद रहे और लोगों तक उसके पहुँचने के ज़राए (साधन) मौजूद रहें, किसी नए रसूल की ज़रूरत नहीं रहती, सिवाय यह कि पिछले पैग़ाम में कुछ बढ़ाने की और कोई नया पैग़ाम देने को ज़रूरत हो। अलबत्ता जब नबियों की तालीमात गुम हो जाएँ, या गुमराहियों में गड्ड-मड्ड होकर हिदायत का ज़रिआ बनने के क़ाबिल न रहें, तब लोगों के लिए यह मजबूरी पेश करने का मौक़ा पैदा हो जाता है कि हमें हक़ और बातिल के फ़र्क़ से आगाह करने और सही राह बताने का कोई इन्तिज़ाम सिरे से मौजूद ही नहीं था, फिर भला हम कैसे हिदायत पा सकते थे। इसी मजबूरी को तोड़ने के लिए अल्लाह तआला ऐसे हालात में नबी को भेजता है, ताकि उसके बाद जो शख़्स भी ग़लत राह पर चले वह अपनी गुमराही का ज़िम्मेदार ठहराया जा सके।
وَدَخَلَ ٱلۡمَدِينَةَ عَلَىٰ حِينِ غَفۡلَةٖ مِّنۡ أَهۡلِهَا فَوَجَدَ فِيهَا رَجُلَيۡنِ يَقۡتَتِلَانِ هَٰذَا مِن شِيعَتِهِۦ وَهَٰذَا مِنۡ عَدُوِّهِۦۖ فَٱسۡتَغَٰثَهُ ٱلَّذِي مِن شِيعَتِهِۦ عَلَى ٱلَّذِي مِنۡ عَدُوِّهِۦ فَوَكَزَهُۥ مُوسَىٰ فَقَضَىٰ عَلَيۡهِۖ قَالَ هَٰذَا مِنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّهُۥ عَدُوّٞ مُّضِلّٞ مُّبِينٞ ۝ 46
(15) (एक दिन) वह शहर में ऐसे वक़्त दाख़िल हुआ जबकि शहर के लोग बेसुध थे।20 वहाँ उसने देखा कि दो आदमी लड़ रहे हैं। एक उसकी अपनी क़ौम का था और दूसरा उसकी दुश्मन क़ौम से ताल्लुक़ रखता था। उसकी क़ौम के आदमी ने दुश्मन क़ौमवाले के ख़िलाफ़ उसे मदद के लिए पुकारा। मूसा ने उसको एक घूँसा मारा21 और उसका काम तमाम कर दिया। (यह हरकत होते ही) मूसा ने कहा, “यह शैतान का किया-धरा है, वह सख़्त दुश्मन और खुला गुमराह करनेवाला है।"22
20. हो सकता है कि वह सुबह-सवेरे का वक़्त हो, या गर्मी में दोपहर का, या सर्दियों में रात का। बहरहाल मुराद यह है कि जब सड़के सुनसान थीं और शहर में सन्नाटा छाया हुआ था। “शहर में दाख़िल हुआ", इन अलफ़ाज़ से ज़ाहिर होता है कि राजधानी के शाही महल आम आबादी से बाहर क़ायम थे। हज़रत मूसा (अलैहि०) चूँकि शाही महल में रहते थे इसलिए “शहर में निकले” कहने के बजाय “शहर में दाख़िल हुए” कहा गया है।
21. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'व-क-ज़' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब थप्पड़ मारना भी है और घूँसा मारना भी। हमने इस ख़याल से कि थप्पड़ से मौत हो जाना घूँसे के मुक़ाबले ज़्यादा मुश्किल है, इसका तर्जमा घूँसा मारना किया है।
22. इससे अन्दाज़ा होता है कि घूँसा खाकर जब मिस्रवासी गिरा होगा और उसने दम तोड़ा होगा तो कैसी सख़्त शर्मिन्दगी और घबराहट की हालत में ये अलफ़ाज़ हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से निकले होंगे। उनका कोई इरादा क़त्ल का न था। न क़त्ल के लिए घूँसा मारा जाता है, न कोई शख़्स यह उम्मीद रखता है कि एक घूँसा खाते ही एक भला-चंगा आदमी चल बसेगा। इस वजह से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने कहा कि यह शैतान की कोई शरारत भरी स्कीम मालूम होती है। उसने एक बड़ा फ़साद खड़ा करने के लिए मुझसे यह काम कराया है, ताकि एक इसराईली की हिमायत में एक क़िब्ती को मार डालने का इलज़ाम मुझपर लग जाए और सिर्फ़ मेरे ही ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि तमाम बनी-इसराईल के ख़िलाफ़ मिस्र में एक बड़ा तूफ़ान उठ खड़ा हो। इस मामले में बाइबल का बयान क़ुरआन से अलग है। वह हज़रत मूसा (अलैहि०) को जान-बूझकर किए गए क़त्ल का मुजरिम ठहराती है। उसकी रिवायत यह है कि मिस्रवासी और इसराईली को लड़ते देखकर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने “इधर-उधर निगाह डाली और जब देखा कि वहाँ कोई दूसरा आदमी नहीं है तो इस मिस्रवासी को जान से मारकर उसे रेत में छिपा दिया।” (निष्कासन, 2:12) यही बात तलमूद में भी बयान की गई है। अब यह हर शख़्स देख सकता है कि बनी-इसराईल अपने बुज़ुर्गों की सीरतों को ख़ुद किस तरह दाग़दार करते हैं और क़ुरआन किस तरह उनकी पोज़ीशन साफ़ करता है। अक़्ल भी यही कहती है कि एक हिकमतवाला और समझदार आदमी, जिसे आगे चलकर एक मज़बूत इरादेवाला पैग़म्बर होना था और जिसे इनसान को इनसाफ़ का एक अज़ीमुश्शान क़ानून देना था, ऐसा अंधा क़ौम-परस्त नहीं हो सकता कि अपनी काम के एक शख़्स से दूसरी क़ौम के किसी आदमी को लड़ते देखकर आपे से बाहर हो जाए और जान-बूझकर उसे क़त्ल कर डाले। ज़ाहिर है कि इसराईली को मिस्रवासी के पंजे से छुड़ाने के लिए उसे क़त्ल कर देना तो सही न हो सकता था।
وَإِذَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِهِۦٓ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّنَآ إِنَّا كُنَّا مِن قَبۡلِهِۦ مُسۡلِمِينَ ۝ 47
(53) और जब वह उनको सुनाया जाता है तो वे कहते हैं कि “हम इसपर ईमान लाए, यह वाक़ई हक़ है हमारे रब की तरफ़ से, हम तो पहले ही से मुस्लिम (फ़मॉँबरदार) हैं।”73
73. यानी इससे पहले भी हम नबियों और आसमानी किताबों के माननेवाले थे, इसलिए इस्लाम के सिवा हमारा कोई और दीन न था और अब जो नबी अल्लाह तआला की तरफ़ से किताब लेकर आया है उसे भी हमने मान लिया है। लिहाज़ा हक़ीक़त में हमारे दीन में कोई तब्दीली नहीं हुई है, बल्कि जैसे हम पहले मुसलमान (ख़ुदा के फ़रमाँबरदार) थे वैसे ही अब भी मुसलमान हैं। यह कहना इस बात को साफ़ कर देता है कि इस्लाम सिर्फ़ उस दीन का नाम नहीं है जो मुहम्मद (सल्ल०) लेकर आए हैं और 'मुस्लिम’ नाम सिर्फ़ नबी (सल्ल०) के पैरोकारों पर ही चस्पाँ नहीं होता, बल्कि हमेशा से तमाम नबियों का दीन यही इस्लाम था और हर ज़माने में उन सबके पैरोकार मुसलमान ही थे। ये मुसलमान अगर कभी इनकारी हुए तो सिर्फ़ उस वक़्त जबकि किसी बाद के आनेवाले सच्चे नबी को मानने से उन्होंने इनकार किया। लेकिन जो लोग पहले नबी को मानते थे और बाद के आनेवाले नबी पर भी ईमान ले आए, उनके इस्लाम में कोई रुकावट नहीं हुई। वे जैसे मुसलमान पहले थे, वैसे ही बाद में रहे। ताज्जुब है कि कुछ बड़े-बड़े इल्मवाले भी इस हक़ीक़त को न समझ सके हैं, यहाँ तक कि इस वाज़ेह आयत को देखकर भी उनको इत्मीनान न हुआ। अल्लामा सुयूती ने एक तफ़सीली किताब इस सिलसिले में लिखी है कि मुस्लिम का नाम सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत के लिए ख़ास है। फिर जब यह आयत सामने आई तो ख़ुद फ़रमाते हैं कि “मेरे हाथों के तोते उड़ गए।” लेकिन कहते हैं कि “मैंने फिर ख़ुदा से दुआ की कि इस मामले में मेरा सीना खोल दे (यानी मैं इसका मतलब सही तरह से समझ सकूँ।)” आख़िरकार अपनी राय से रुजू करने के बजाय ये उसपर अड़े रहे और इस आयत के कई मनमाने मतलब निकाल डाले जो एक-से-एक बढ़कर बेवज़न हैं। मसलन उनका बयान किया हुआ एक मतलब यह है कि “इन्ना कुन्ना मिन् क़बलिही मुस्लिमीन” का मतलब है हम क़ुरआन के आने से पहले ही मुस्लिम बन जाने का इरादा रखते थे, क्योंकि हमें अपनी किताबों से उसके आने की ख़बर मिल चुकी थी और हमारा इरादा यह था कि जब वह आएगा हम इस्लाम क़ुबूल कर लेंगे। दूसरा मतलब वे यह बयान करते हैं कि इस जुमले में 'मुस्लिमीन' के बाद लफ़्ज़ 'बिही' महज़ूफ़ (छिपा हुआ) है, यानी पहले ही से हम क़ुरआन को मानते थे; क्योंकि उसके आने की हम उम्मीद रखते थे और उसपर पेशगी ईमान लाए हुए थे, इसलिए तौरात और इंजील को मानने की वजह से नहीं, बल्कि क़ुरआन को उसके उतरने से पहले सच मान लेने की वजह से हम मुस्लिम थे। तीसरा मतलब वे यह बयान करते हैं कि अल्लाह की लिखी तक़दीर में हमारे लिए पहले ही मुक़द्दर हो चुका था कि मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरआन के आने पर हम इस्लाम क़ुबूल कर लेंगे, इसलिए हक़ीक़त में हम पहले ही से मुस्लिम थे। इन मनमाने मतलबों में से किसी को देखकर भी यह महसूस नहीं होता कि अल्लाह की तरफ़ से सीना खोले जाने का इसमें कोई असर मौजूद है। सच तो यह है कि क़ुरआन सिर्फ़ इसी एक मक़ाम पर नहीं, बल्कि बीसियों जगहों पर इस उसूली हक़ीक़त को बयान करता है कि अस्ल दीन सिर्फ़ 'इस्लाम’ (अल्लाह की फ़रमाँबरदारी) है और ख़ुदा की कायनात में ख़ुदा की मख़लूक़ (सृष्टि) के लिए इसके सिवा कोई दूसरा दीन (तरीक़ा) नहीं हो सकता और कायनात की शुरुआत से जो नबी भी इनसानों की हिदायत के लिए आया है, वह यही दीन लेकर आया है और यह कि सारे पैग़म्बर (अलैहि०) हमेशा ख़ुद मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) रहे हैं, अपने पैरोकारों को उन्होंने मुस्लिम ही बनकर रहने की ताक़ीद की है और उनकी पैरवी करनेवाले वे सब लोग जिन्होंने नुबूवत के ज़रिए से आए हुए अल्लाह के हुक्म के आगे सर झुका दिया, हर ज़माने में मुस्लिम (फ़माँबरदार) ही थे। इस सिलसिले में मिसाल के तौर पर क़ुरआन मजीद की सिर्फ़ कुछ आयतें देखिए— “हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक दीन तो सिर्फ़ इस्लाम है।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-19) “और जो कोई इस्लाम के सिवा कोई और दीन अपनाए वह हरगिज़ क़ुबूल न किया जाएगा।” (सूरा-5 आले-इमरान, आयत-85) हज़रत नूह (अलैहि०) फ़रमाते हैं, “मेरा बदला तो अल्लाह के ज़िम्मे है और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं मुस्लिमों (फ़रमाँबरदारों) में शामिल होकर रहूँ।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-72) हज़रत इबराहीम और उनकी औलाद के बारे में कहा जाता है— “जबकि उसके रब ने उससे कहा कि मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हो जा, तो उसने कहा, मैं मुस्लिम हो गया रब्बुल-आलमीन के लिए और इसी चीज़ की वसीयत की इबराहीम ने अपनी औलाद को और याक़ूब ने भी, कि ऐ मेरे बच्चो, अल्लाह ने तुम्हारे लिए इस दीन को पसन्द किया है। लिहाज़ा तुमको मौत न आए, मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हो। क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब याक़ूब की मौत का वक़्त आया? जबकि उसने अपनी औलाद से पूछा, किसकी बन्दगी करोगे तुम मेरे बाद? उन्होंने जवाब दिया, हम बन्दगी करेंगे आपके माबूद और आपके बाप-दादा इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ के माबूद की उसको अकेला माबूद मानकर और हम उसी के मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हैं।” (सूरा-2 बक़रा, आयतें—131-133) "इबराहीम न यहूदी था न नसरानी (ईसाई), बल्कि वह यकसु (एकाग्र) मुस्लिम था।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-68) हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ख़ुद दुआ फ़रमाते हैं— “ऐ हमारे रब, हमको अपना मुस्लिम बना और हमारी नस्ल से एक उम्मत पैदा कर जो तेरी मुस्लिम हो।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-128) हज़रत लूत (अलैहि०) के क़िस्से में कहा जाता है— "हमने लूत की क़ौम की बस्ती में एक घर के सिवा मुसलमानों का कोई घर नहीं पाया।” (सूरा-51 ज़ारियात, आयत-36) हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) अल्लाह के दरबार में अर्ज़ करते हैं— "मुझको मुस्लिम होने की हालत में मौत दे और नेक लोगों के साथ मिला।" (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-101) हज़रत मूसा अपनी क़ौम से कहते हैं— “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, अगर तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो तो उसी पर भरोसा करो अगर तुम मुस्लिम हो।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-84) बनी-इसराईल का अस्ल मज़हब यहूदियत नहीं, बल्कि इस्लाम था, इस बात को दोस्त और दुश्मन सब जानते थे। चुनाँचे फ़िरऔन समन्दर में डूबते वक़्त आख़िरी बात जो कहता है वह यह है— "मैंने मान लिया कि कोई माबूद उसके सिवा नहीं है जिसपर बनी-इसराईल ईमान लाए हैं और मैं मुस्लिमों (फ़रमाँबरदारों) में से हूँ।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-90) बनी-नसराईल के तमाम पैग़म्बरों का दीन भी यही इस्लाम था— "हमने तौरात उतारी जिसमें हिदायत और रौशनी थी उसी के मुताबिक़ वे नबी, जो मुस्लिम थे, उन लोगों के मामलों के फ़ैसले करते थे जो यहूदी हो गए थे।” (सूरा-5 माइदा, आयत-44) यही हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का दीन था, चुनाँचे सबा की मलिका उनपर ईमान लाते हुए कहती है— "मैं सुलैमान के साथ रबुल-आलमीन की मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हो गई।" (सूरा-27 नम्ल, आयत-44) और यही हज़रत ईसा (अलैहि०) और उनके हवारियों (साथियों) का दीन था— “और जबकि मैंने हवारियों पर वह्य (प्रकाशना) की कि ईमान लाओ मुझपर और मेरे रसूल पर, तो उन्होंने कहा, हम ईमान लाए और गवाह रह कि हम मुस्लिम हैं।" (सूरा-5 माइदा, आयत-111) इस मामले में अगर कोई शक इस बुनियाद पर किया जाए कि अरबी ज़बान के अलफ़ाज़ ‘इस्लाम' और 'मुस्लिम' इन अलग-अलग देशों और अलग-अलग ज़बानों में कैसे इस्तेमाल हो सकते थे, तो ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ एक नादानी की बात होगी; क्योंकि अस्ल एतिबार अरबी के इन अलफ़ाज़ का नहीं, बल्कि उस मानी का है जिसके लिए ये अलफ़ाज़ अरबी में इस्तेमाल होते हैं। अस्ल में जो बात इन आयतों में बताई गई है वह यह है कि ख़ुदा की तरफ़ से आया हुआ हक़ीक़ी दीन मसीहियत या मूसवियत या मुहम्मदियत नहीं है, बल्कि नबियों और आसमानी किताबों के ज़रिए से आए हुए अल्लाह के हुक्मों के आगे सर झुका देना है और यह रवैया ख़ुदा के जिस बन्दे ने भी जिस ज़माने में अपनाया है वह एक ही आलमगीर और हमेशा से रहनेवाले सच्चे दीन का पैरोकार है। इस दीन को जिन लोगों ने ठीक-ठीक सोच-समझकर और सच्चे दिल से अपनाया है, उनके लिए मूसा (अलैहि०) के बाद मसीह (अलैहि०) को और मसीह के बाद मुहम्मद (सल्ल०) को मानना मज़हब की तब्दीली नहीं, बल्कि हक़ीक़ी दीन की पैरवी का फ़ितरी और मन्तिक़ी (तार्किक) तक़ाज़ा है। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग नबियों (अलैहि०) के गरोहों में बे-सोचे-समझे घुस आए या पैदा हो गए और क़ौमी, नस्ली और गरोही तास्सुबात ने जिनके लिए अस्ल मज़हब का रूप ले लिया, वे बस यहूदी या ईसाई बनकर रह गए और मुहम्मद (सल्ल०) के आने पर उनकी जहालत की क़लई खुल गई; क्योंकि उन्होंने अल्लाह के आख़िरी नबी का इनकार करके न सिर्फ़ यह कि आगे के लिए मुस्लिम रहना क़ुबूल न किया, बल्कि अपनी इस हरकत से यह साबित कर दिया कि हक़ीक़त में वे पहले भी 'मुस्लिम' न थे, सिर्फ़ एक नबी या कुछ नबियों की शख़्सियत-परस्ती में मुब्तला थे, या बाप-दादा की अन्धी पैरवी को दीन बनाए बैठे थे।
أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡتَوۡنَ أَجۡرَهُم مَّرَّتَيۡنِ بِمَا صَبَرُواْ وَيَدۡرَءُونَ بِٱلۡحَسَنَةِ ٱلسَّيِّئَةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 48
(54) ये ये लोग हैं जिन्हें उनका इनाम दो बार दिया जाएगा74 उस मज़बूती से जमे रहने के बदले जो उन्होंने दिखाई।75 ये बुराई को भलाई से दूर करते हैं76 और जो कुछ रोज़ी हमने उन्हें दी है उसमें से ख़र्च करते हैं।77
74. यानी एक इनाम उस ईमान का जो वे पहले हज़रत ईसा (अलैहि०) पर रखते थे और दूसरा इनाम उस ईमान पर जो वे अब अरबी नबी मुहम्मद (सल्ल०) पर लाए। यही बात उस हदीस में बयान की गई है जो बुख़ारी और मुस्लिम ने हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन शख़्स ऐसे हैं जिनको दोहरा इनाम मिलेगा। उनमें से एक वह है जो अहले-किताब में से था और अपने नबी पर ईमान रखता था, फिर मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाया।”
75. यानी उन्हें यह दोहरा इनाम इस बात का मिलेगा कि वे क़ौमी, नस्ली और वतनी और गरोही तास्सुबात (पक्षपातों) से बचकर अस्ल सच्चे दीन पर जमे रहे और नए नबी के आने पर जो सख़्त इम्तिहान का सामना हुआ उसमें उन्होंने साबित कर दिया कि अस्ल में ये मसीह-परस्त नहीं, बल्कि ख़ुदा-परस्त थे और मसीह (अलैहि०) की शख़्सियत के दीवाने नहीं, बल्कि 'इस्लाम के पैरोकार’ थे, इसी वजह से मसीह (अलैहि०) के बाद जब दूसरा नबी यही इस्लाम लेकर आया जिसे मसीह (अलैहि०) लाए थे तो उन्होंने बेझिझक उसकी रहनुमाई में इस्लाम का रास्ता अपना लिया और उन लोगों का रास्ता छोड़ दिया जो मसीहियत पर जमे रह गए।
76. यानी वे बुराई का जबाब बुराई से नहीं, बल्कि नेकी से देते हैं। झूठ के मुक़ाबले में झूठ नहीं, बल्कि सच्चाई लाते हैं। ज़ुल्म को ज़ुल्म से नहीं, बल्कि इनसाफ़ से दूर करते हैं। शरारतों का सामना शरारत से नहीं, बल्कि शराफ़त से करते हैं।
77. यानी वे सच की राह में माल की क़ुरबानी भी करते हैं। मुमकिन है कि इसमें इशारा इस तरफ़ भी हो कि वे लोग सिर्फ़ हक़ (सत्य) की तलाश में हबश से सफ़र करके मक्का आए थे। इस मेहनत और माल के ख़र्च से कोई माद्दी (भौतिक) फ़ायदा उनके सामने न था। उन्होंने जब सुना कि मक्का में एक शख़्स ने नुबूवत (पैग़म्बरी) का दावा किया है तो उन्होंने ज़रूरी समझा कि ख़ुद जाकर सच्चाई का पता लगाएँ ताकि अगर सचमुच एक नबी ही ख़ुदा की तरफ़ से भेजा गया हो तो वे उसपर ईमान लाने और हिदायत पाने से महरूम न रह जाएँ।
وَإِذَا سَمِعُواْ ٱللَّغۡوَ أَعۡرَضُواْ عَنۡهُ وَقَالُواْ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡ لَا نَبۡتَغِي ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 49
(55) और जब उन्होंने बेहूदा बात सुनी78 तो यह कहकर उससे अलग हो गए कि “हमारे आमाल हमारे लिए और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए, तुमको सलाम है, हम जाहिलों का-सा तरीक़ा अपनाना नहीं चाहते।”
78. इशारा है उस बेहूदा बात की तरफ़ जो अबू-जह्ल और उसके साथियों ने हबशी ईसाइयों के उस दल से की थी, जिसका ज़िक्र ऊपर हाशिया-72 में गुज़र चुका है।
إِنَّكَ لَا تَهۡدِي مَنۡ أَحۡبَبۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 50
(56) ऐ नबी, तुम जिसे चाहो उसे हिदायत नहीं दे सकते, मगर अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है और वह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो हिदायत क़ुबूल करनेवाले हैं।79
79. जिस पसमंज़र (सन्दर्भ) में बात हो रही है उससे ज़ाहिर है कि हबशी ईसाइयों के ईमान और इस्लाम का ज़िक्र करने के बाद नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके यह जुमला कहने का मक़सद अस्ल में मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों को शर्म दिलाना था। कहना यह था कि बदनसीबो, मातम करो अपनी हालत पर कि दूसरे कहाँ-कहाँ से आकर इस नेमत से फ़ायदा उठा रहे हैं और तुम भलाई के इस सरचश्मे से जो तुम्हारे अपने घर में बह रहा है, महरूम रहे जाते हो। लेकिन कहा गया है इस अन्दाज़ से कि ऐ मुहम्मद (सल्ल०) तुम चाहते हो कि मेरी क़ौम के लोग, मेरे भाई बन्धु मेरे दूर-क़रीब के रिश्तेदार, इस अमृत से फ़ायदा उठाएँ लेकिन तुम्हारे चाहने से क्या होता है, हिदायत तो अल्लाह के इख़्तियार में है, वह अपनी इस नेमत से उन्हीं लोगों को फ़ायदा पहुँचाता है जिनमें वह देखता है कि वे हिदायत क़ुबूल करने के लिए तैयार हैं, तुम्हारे रिश्तेदारों में अगर यह ख़ूबी मौजूद न हो तो उनपर यह मेहरबानी कैसे हो सकती है। हदीस बुख़ारी-मुस्लिम की रिवायत है कि यह आयत नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब के मामले में उतरी है। उनका जब आख़िरी वक़्त आया तो नबी (सल्ल०) ने अपनी हद तक इन्तिहाई कोशिश की कि वे कलिमा “ला-इला-ह इल्लल्लाह” पर ईमान ले आएँ ताकि उनका ख़ातिमा भलाई पर हो, मगर उन्होंने अब्दुल-मुत्तलिब के मज़हब पर ही जान देने को तरजीह दी। इसपर अल्लाह तआला ने फ़रमाया, “जिससे तुम्हें मुहब्बत है, तुम उसे हिदायत नहीं दे सकते।” लेकिन मुहद्दिसों (हदीस के आलिमों) और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों का यह तरीक़ा जाना-माना है कि एक आयत नबी (सल्ल०) के जिस मामले पर चस्पाँ होती है, उसे वह आयत के उतरने के ज़माने के तौर पर बयान करते हैं। इसलिए इस रिवायत और इसी मज़मून (विषय) की दूसरी रिवायतों से जो तिरमिज़ी और मुसनद अहमद वग़ैरा में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और इब्ने-उमर (रज़ि०) वग़ैरा से बयान हुई हैं, लाज़िमन यही नतीजा नहीं निकलता कि सूरा क़सस की यह आयत अबू-तालिब की मौत के वक़्त उतरी थी, बल्कि उनसे सिर्फ़ यह मालूम होता है कि इस आयत के मज़मून की सच्चाई सबसे ज़्यादा इस मौक़े पर ज़ाहिर हुई। अगरचे नबी (सल्ल०) की दिली ख़ाहिश तो ख़ुदा के हर बन्दे को सीधे रास्ते पर लाने की थी, लेकिन सबसे बढ़कर अगर किसी शख़्स का कुफ़्र (अधर्म) पर ख़ातिमा नबी (सल्ल०) के लिए तकलीफ़देह हो सकता था और ज़ाती मुहब्बत और ताल्लुक़ की बुनियाद पर सबसे ज़्यादा किसी शख़्स के सीधे रास्ते पर आने की आप (सल्ल०) आरज़ू रखते थे तो वे अबू-तालिब थे। लेकिन जब उनको भी आप (सल्ल०) हिदायत न दे सके तो यह बात बिलकुल ज़ाहिर हो गई कि किसी को हिदायत देना और किसी को उससे महरूम रखना नबी के बस की बात नहीं है। यह मामला बिलकुल अल्लाह के हाथ में है और अल्लाह के यहाँ से यह दौलत किसी रिश्तेदारी और बिरादरी की बुनियाद पर नहीं, बल्कि आदमी के क़ुबूल करने पर आमादा होने, क़ुबूल करने की सलाहियत और मुख़लिसाना (निष्ठापूर्ण) सच्चाई-पसन्दी की बुनियाद पर दी जाती है।
وَقَالُوٓاْ إِن نَّتَّبِعِ ٱلۡهُدَىٰ مَعَكَ نُتَخَطَّفۡ مِنۡ أَرۡضِنَآۚ أَوَلَمۡ نُمَكِّن لَّهُمۡ حَرَمًا ءَامِنٗا يُجۡبَىٰٓ إِلَيۡهِ ثَمَرَٰتُ كُلِّ شَيۡءٖ رِّزۡقٗا مِّن لَّدُنَّا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 51
(57) वे कहते हैं, “अगर हम तुम्हारे साथ इस हिदायत की पैरवी कर लें तो अपनी ज़मीन से उचक लिए जाएँगे।80 क्या यह सच नहीं है कि हमने एक अम्नवाले हरम को उनके लिए ठहरने की जगह बना दिया जिसकी तरफ़ हर तरह के फल खिंचे चले आते हैं, हमारी तरफ़ से रोज़ी के तौर पर? मगर इनमें से ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।81
80. यह वह बात है जो क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ इस्लाम क़ुबूल न करने के लिए बहाने के तौर पर पेश करते थे और अगर ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होता है कि उनके कुफ़्र और इनकार की सबसे अहम और बुनियादी वजह यही थी। इस बात को ठीक-ठीक समझने के लिए हमें देखना होगा कि तारीख़ी (ऐतिहासिक) तौर पर उस ज़माने में क़ुरैश की पोज़ीशन क्या थी जिसपर चोट पड़ने का उन्हें अन्देशा था। क़ुरैश को शुरू में जिस चीज़ ने अरब में अहमियत दी वह यह थी कि उनका हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की औलाद से होना अरब के नसब (वंशावली) के मुताबिक़ बिलकुल साबित था और इस बुनियाद पर उनका ख़ानदान अरबों की निगाह में पीरज़ादों का ख़ानदान था। फिर जब क़ुसई-बिन-किलाब की अच्छी तदबीरों से यह लोग काबा के मुतवल्ली (प्रबन्धक) हो गए और मक्का उनका ठिकाना बन गया तो उनकी अहमियत पहले से बहुत ज़्यादा हो गई। इसलिए कि अब वे अरब के सबसे बड़े तीर्थ के मुजाविर (पुरोहित) थे, तमाम अरब क़बीलों में उनको मज़हबी पेशवाई का मक़ाम हासिल या और हज की वजह से अरब का कोई क़बीला ऐसा न था जो उनसे ताल्लुक़ात न रखता हो। इस मर्कज़ी (केन्द्रीय) हैसियत से फ़ायदा उठाकर क़ुरैश ने धीरे-धीरे तिज़ारती तरक़्क़ी शुरू की और ख़ुशक़िस्मती से रोम (रूम) और ईरान की सियासी कशमकश ने उनको पूरी दुनिया की तिज़ारत (अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार) में एक अहम मक़ाम दिला दिया। उस ज़माने में रोम और यूनान और मिस्र और शाम (सीरिया) की जितनी तिज़ारत भी चीन, भारत, इंडोनेशिया और पूर्वी अफ़रीक़ा के साथ थी, उसके सारे नाके ईरान ने रोक दिए थे। आख़िरी रास्ता लाल सागर का रह गया था, सो यमन पर ईरान के क़ब्ज़े ने उसे भी रोक दिया। इसके बाद कोई सूरत इस तिज़ारत को जारी रखने के लिए इसके सिवा नहीं रह गई थी कि अरब के कारोबारी एक तरफ़ रोम के क़ब्ज़ेवाले हिस्सों का माल अरब सागर और फ़ारस की खाड़ी की बन्दरगाहों पर पहुँचाएँ और दूसरी तरफ़ उन्हीं बन्दरगाहों से पूर्वी तिज़ारती सामान लेकर रोम के क़ब्ज़ेवाले हिस्सों में पहुँचें। इस सूरते-हाल ने मक्का को पूरी दुनिया की तिजारत (अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार) का एक अहम सेंटर बना दिया। उस वक़्त क़ुरैश ही थे जिनका इस कारोबार पर लगभग पूरा क़ब्ज़ा था। लेकिन अरब की बदनज़्मी (अव्यवस्था) के माहौल में ये तिजारती काम इसके बिना न हो सकते थे कि तिजारती रास्ते जिन क़बीलों के इलाक़ों से गुज़रते थे उनके साथ क़ुरैश के गहरे ताल्लुक़ात हों। क़ुरैश के सरदार इस ग़रज़ के लिए सिर्फ़ अपने मज़हबी असर पर बस न कर सकते थे। इसके लिए उन्होंने तमाम क़बीलों के साथ समझौते कर रखे थे। तिजारती फ़ायदों में से भी ये उनको हिस्सा देते थे। क़बीले के मुखिया और असरदार सरदारों को तोहफ़ों और नज़रानों से भी ख़ुश रखते थे और सूदी कारोबार का एक जाल उन्होंने फैला रखा था जिसमें क़रीब-क़रीब तमाम पड़ोसी क़बीलों के कारोबारी और सरदार जकड़े हुए थे। इन हालात में जब नबी (सल्ल०) की एक ख़ुदा को मानने की दावत उठी तो बाप-दादा के दीन के तास्सुब (पक्षपात) से भी बढ़कर जो चीज़ क़ुरैश के लिए उसके ख़िलाफ़ भड़क उठने की वजह बनी वह यह थी कि इस दावत की बदौलत उन्हें अपना फ़ायदा ख़तरे में नज़र आ रहा था। वे समझते थे कि मुनासिब दलीलों और हुज्जतों से शिर्क और बुतपरस्ती ग़लत और तौहीद सही भी हो तो उसको छोड़ना और इसे क़ुबूल कर लेना हमारे लिए बरबादी का सबब है। ऐसा करते ही तमाम अरब हमारे ख़िलाफ़ भड़क उठेगा। हमें काबा के मुतवल्ली के पद से बेदख़ल कर दिया जाएगा। बुतपरस्त क़बीलों के साथ हमारे वे तमाम समझौतेवाले ताल्लुक़ात ख़त्म हो जाएँगे जिनकी वजह से हमारे तिजारती क़ाफ़िले रात-दिन अरब के अलग-अलग हिस्सों से गुज़रते हैं। इस तरह यह दीन हमारे मज़हबी रुसूख़ और असर को भी ख़त्म कर देगा और हमारी मआशी (आर्थिक) ख़ुशहाली को भी, बल्कि नामुमकिन नहीं कि तमाम अरब क़बीले हमें सिरे से मक्का हो छोड़ने पर मजबूर कर दें। यहाँ पहुँचकर दुनिया-परस्तों की नासमझी का अजीब नक़्शा इनसान के सामने आता है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) बार-बार उन्हें यक़ीन दिलाते थे कि यह कलिमा जो मैं तुम्हारे सामने पेश कर रहा हूँ उसे मान लो तो अरब और अजम (अरब से बाहर के इलाक़े) तुम्हारे मातहत हो जाएँगे, (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-38 का परिचय) मगर उन्हें इसमें अपनी मौत नज़र आती थी। ये समझते थे कि जो दौलत, असर, पहुँच हमें आज हासिल है यह सब भी ख़त्म हो जाएगा। उनको अन्देशा था कि यह कलिमा क़ुबूल करते ही हम इस सरज़मीन में ऐसे बेसहारा हो जाएँगे कि चील-कौए हमारी बोटियाँ नोच खाएँगे। उनकी दूर तक न देख पानेवाली नज़र यह वक़्त न देख सकती थी जब कुछ ही साल बाद तमाम अरब मुहम्मद (सल्ल०) के मातहत एक मर्कज़ी सल्तनत (केन्द्रीय साम्राज्य) के तहत होनेवाला था, फिर इसी नस्ल की ज़िन्दगी में ईरान, इराक़, सीरिया, मिस्र, सब एक-एक करके इस सल्तनत के मातहत हो जानेवाले थे और इस बात पर एक सदी गुज़रने से भी पहले क़ुरैश ही के ख़लीफ़ा सिन्ध से लेकर स्पेन तक और क़फ़क़ाज़ से लेकर यमन के समुद्री तटों तक दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से पर हुक्मरानी करनेवाले थे।
81. यह अल्लाह तआला की तरफ़ से उनकी बहानेबाज़ी का पहला जवाब है। इसका मतलब यह है कि यह हरम जिसके अम्न और शान्ति और जिसकी मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) की बदौलत आज तुम इस क़ाबिल हुए हो कि दुनिया भर का कारोबारी माल इस बंजर और वीरान घाटी में खिंचा चला आ रहा है, क्या इसको यह अम्न और मर्कज़ियत का मक़ाम तुम्हारी किसी तदबीर ने दिया है। ढाई हज़ार साल पहले चटियल पहाड़ों के बीच इस पानी और हरियाली से महरूम घाटी में एक अल्लाह का बन्दा अपनी बीवी और एक दूध पीते बच्चे को लेकर आया था। उसने यहाँ पत्थर और गारे का एक कमरा बना दिया और पुकार दिया कि अल्लाह ने इसे हरम (एहतिराम के क़ाबिल जगह) बनाया है, आओ इस घर की तरफ़ और इसका तवाफ़ (परिक्रमा) करो। अब यह अल्लाह की दी हुई बरकत नहीं तो और क्या है कि पच्चीस (25) सदियों से यह जगह अरब का मर्कज़ बनी हुई है, सख़्त बदअम्नी के माहौल में देश का सिर्फ़ यही कोना ऐसा है जहाँ अम्न हासिल है, इसको अरब का बच्चा-बच्चा एहतिराम की निगाह से देखता है और हर साल हज़ारों-हज़ार इनसान इसके तवाफ़ के लिए चले आते हैं। इसी नेमत का फल है कि तुम अरब के सरदार बने हुए हो और दुनिया की तिजारत का एक बड़ा हिस्सा तुम्हारे क़ब्ज़े में है। अब क्या तुम यह समझते हो कि जिस ख़ुदा ने यह नेमत तुम्हें दी है, उससे मुँह मोड़कर और बाग़ी होकर तो तुम फलो-फूलोगे मगर उसके दीन की पैरवी अपनाते ही बरबाद हो जाओगे?
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةِۭ بَطِرَتۡ مَعِيشَتَهَاۖ فَتِلۡكَ مَسَٰكِنُهُمۡ لَمۡ تُسۡكَن مِّنۢ بَعۡدِهِمۡ إِلَّا قَلِيلٗاۖ وَكُنَّا نَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 52
(58) और कितनी ही ऐसी बस्तियाँ हम तबाह कर चुके हैं, जिनके लोग अपनी दौलतमन्दी और ख़ुशहाली पर इतरा गए थे सो देख लो, वे उनके घर पड़े हुए हैं जिनमें उनके बाद कम ही कोई बसा है, आख़िरकार हम ही वारिस होकर रहे।82
82. यह उनके बहाने का दूसरा जवाब है। इसका मतलब यह है कि जिस माल-दौलत और ख़ुशहाली पर तुम इतराए हुए हो और जिसके खोए जाने के ख़तरे से बातिल (असत्य) पर जमना और हक़ से मुँह मोड़ना चाहते हो, यही चीज़ कभी आद और समूद और सबा और मदयन और लूत (अलैहि०) की क़ौम के लोगों को भी हासिल थी। फिर क्या यह चीज़ उनको तबाही से बचा सकी? आख़िर मेयारे-ज़िन्दगी (जीवन-स्तर) की बुलन्दी ही तो एक मक़सद नहीं है कि आदमी हक़ और बातिल से बेपरवाह होकर बस इसी के पीछे पड़ा रहे और सीधे रास्ते को सिर्फ़ इसलिए क़ुबूल करने से इनकार कर दे कि ऐसा करने से यह मनचाही क़ीमती चीज़ हाथ से जाने का ख़तरा है। क्या तुम्हारे पास इसकी कोई ज़मानत है कि जिन गुमराहियों और बदकारियों ने पिछली ख़ुशहाल क़ौमों को तबाह किया, उन्हीं पर अड़े रहकर तुम बचे रह जाओगे और उनकी तरह तुम्हारी शामत कभी न आएगी?
وَمَا كَانَ رَبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ حَتَّىٰ يَبۡعَثَ فِيٓ أُمِّهَا رَسُولٗا يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۚ وَمَا كُنَّا مُهۡلِكِي ٱلۡقُرَىٰٓ إِلَّا وَأَهۡلُهَا ظَٰلِمُونَ ۝ 53
(59) और तेरा रब बस्तियों को हलाक करनेवाला न था जब तक कि उनके मरकज़ (केन्द्र) में एक रसूल न भेज देता जो उनको हमारी आयतें सुनाता। और हम बस्तियों को हलाक करनेवाले न थे जब तक कि उनके रहनेवाले ज़ालिम न हो जाते।83
83. यह उनकी बहानेबाज़ी का तीसरा जवाब है। पहले जो क़ौमें तबाह हुईं, उनके लोग ज़ालिम हो चुके थे, मगर ख़ुदा ने उनको तबाह करने से पहले अपने रसूल भेजकर उन्हें ख़बरदार किया और जब उनके ख़बरदार करने पर भी ये अपनी गुमराही से न रुके तो उन्हें हलाक कर दिया। यही मामला अब तुम्हारे साथ है। तुम भी ज़ालिम हो चुके हो और एक रसूल तुम्हें भी ख़बरदार करने के लिए आ गया है। अब तुम कुफ़्र और इनकार का रवैया अपनाकर अपने ऐश और अपनी ख़ुशहाली को बचाओगे नहीं, बल्कि उलटा ख़तरे में डालोगे। जिस तबाही का तुम्हें डर है वह ईमान लाने से नहीं, बल्कि इनकार करने से तुमपर आएगी।
وَمَآ أُوتِيتُم مِّن شَيۡءٖ فَمَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتُهَاۚ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 54
(60) तुम लोगों को जो कुछ भी दिया गया है वह सिर्फ़ दुनिया की ज़िन्दगी का सामान और उसकी ज़ीनत (शोभा) है और जो कुछ अल्लाह के पास है वह इससे बेहतर और बाक़ी रहनेवाला है। क्या तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते?
أَفَمَن وَعَدۡنَٰهُ وَعۡدًا حَسَنٗا فَهُوَ لَٰقِيهِ كَمَن مَّتَّعۡنَٰهُ مَتَٰعَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا ثُمَّ هُوَ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مِنَ ٱلۡمُحۡضَرِينَ ۝ 55
(61) भला वह शख़्स जिससे हमने अच्छा वादा किया हो और वह उसे पानेवाला हो कभी उस शख़्स की तरह हो सकता है जिसे हमने सिर्फ़ दुनिया की ज़िन्दगी का सामान दे दिया हो और फिर वह क़ियामत के दिन सज़ा के लिए पेश किया जानेवाला हो?84
84. यह उनकी बहानेबाज़ी का चौथा जवाब है। इस जवाब को समझने के लिए पहले दो बातें अच्छी तरह ज़ेहन में बैठ जानी चाहिएँ। एक यह कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी, जिसकी मुद्दत किसी के लिए भी कुछ सालों से ज़्यादा नहीं होती, सिर्फ़ एक सफ़र का थोड़ी देर रहनेवाला मरहला है। अस्ल ज़िन्दगी जो हमेशा रहनेवाली है, आगे आनी है। मौजूदा कुछ दिनों की ज़िन्दगी में इनसान चाहे कितना ही सरो-सामान जमा कर ले और कुछ साल कैसे ही ऐश के साथ गुज़ार ले, बहरहाल उसे ख़त्म होना है और यहाँ का सब सरो-सामान आदमी को यूँ ही छोड़कर उठ जाना है। ज़िन्दगी की इस थोड़ी-सी मुदत का ऐश अगर आदमी को इस क़ीमत पर हासिल होता हो कि आगे की हमेशा रहने वाली ज़िन्दगी में वह हमेशा तंगहाल और मुसीबतों से घिरा रहे, तो कोई समझदार आदमी यह घाटे का सौदा नहीं कर सकता। इसके मुक़ाबले में एक अक़्लमन्द आदमी इसको ज़्यादा अहमियत देगा कि यहाँ कुछ साल मुसीबतें बरदाश्त कर ले, मगर यहाँ से वे भलाइयाँ कमाकर जाए जो बाद की हमेशा की ज़िन्दगी में उसके लिए हमेशा रहनेवाले ऐश का सबब बनें। दूसरी बात यह है कि अल्लाह का दीन इनसान से यह माँग नहीं करता कि वह इस दुनिया के साज़ो-सामान से फ़ायदा न उठाए और उसकी नेमतों और अच्छी चीज़ों को ख़ाह-मख़ाह लात ही मार दे। उसकी माँग सिर्फ़ यह है कि वह दुनिया पर आख़िरत को तरजीह दे, क्योंकि दुनिया मिट जानेवाली है और आख़िरत बाक़ी रहनेवाली और दुनिया का ऐश कमतर है और आख़िरत का ऐश बहुत ज़्यादा। इसलिए दुनिया की वह नेमत और अच्छी चीज़ें तो आदमी को ज़रूर हासिल करनी चाहिएँ, जो आख़िरत की बाक़ी रहनेवाली ज़िन्दगी में उसे कामयाब करें, या कम-से-कम उसे वहाँ के हमेशा के घाटे में मुब्तला न करें। लेकिन जहाँ मामला मुक़ाबले का आ पड़े, यानी दुनिया की कामयाबी और आख़िरत की कामयाबी एक-दूसरे के मुक़ाबले में आ जाएँ, वहाँ सच्चे दीन (इस्लाम) की माँग इनसान से यह है और यही सही-सलामत अक़्ल की माँग भी है कि आदमी दुनिया को आख़िरत पर क़ुरबान कर दे और इस दुनिया की थोड़े दिनों की दौलत और चमक-दमक की ख़ातिर वह राह हरगिज़ न अपनाए जिससे हमेशा के लिए उसकी आगे आनेवाली ज़िन्दगी ख़राब होती हो। इन दो बातों को निगाह में रखकर देखिए कि अल्लाह तआला ऊपर के जुमलों में मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों से क्या फ़रमाता है। यह यह नहीं फ़रमाता कि तुम अपनी तिजारत लपेट दो, अपने कारोबार ख़त्म कर दो और हमारे पैग़म्बर को मानकर भिखारी हो जाओ, बल्कि वह यह फ़रमाता है कि यह दुनिया की दौलत जिसपर तुम रीझे हुए हो, बहुत थोड़ी दौलत है और बहुत थोड़े दिनों के लिए तुम इसका फ़ायदा दुनिया की इस ज़िन्दगी में उठा सकते हो। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह के यहाँ जो कुछ है वह इसके मुक़ाबले में तादाद और मेयार (Quantity & Quality) में भी बेहतर है और हमेशा बाक़ी रहनेवाला भी है। इसलिए तुम सख़्त बेवक़ूफ़ी करोगे अगर इस थोड़े दिनों की ज़िन्दगी की थोड़ी-सी नेमतों से मज़े लेने की ख़ातिर वह रवैया अपनाओ जिसका नतीजा आख़िरत के हमेशा के घाटे की शक्ल में तुम्हें भुगतना पड़े तुम ख़ुद मुक़ाबला करके देख लो कि कामयाब क्या वह शख़्स है जो मेहनत और जी-जान से अपने रब के हुक्म को पूरा करे और फिर हमेशा के लिए उसका इनाम पाए, या वह शख़्स जो गिरफ़्तार होकर मुजरिम की हैसियत से अपने ख़ुदा की अदालत में पेश किया जानेवाला हो और गिरफ़्तारी से पहले सिर्फ़ कुछ दिन हराम की दौलत के मज़े लूट लेने का उसको मौक़ा मिल जाए?
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 56
(62) और (भूल न जाएँ ये लोग) उस दिन को जबकि वह इनको पुकारेगा और पूछेगा, “कहाँ हैं मेरे वे शरीक जिनका तुम गुमान रखते थे?"85
85. यह तक़रीर भी इसी चौथे जवाब के सिलसिले में है और इसका ताल्लुक़ ऊपर की आयत के आख़िरी जुमले से है। इसमें यह बताया जा रहा है कि सिर्फ़ अपने दुनियावी फ़ायदे की ख़ातिर शिर्क, बुतपरस्ती और पैग़म्बर के इनकार की जिस गुमराही पर ये लोग अड़े हुए हैं, आख़िरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में इसका कैसा बुरा नतीजा इन्हें देखना पड़ेगा। इसका मक़सद यह एहसास दिलाना है कि मान लो कि दुनिया में तुमपर कोई आफ़त न भी आए और यहाँ की छोटी-सी ज़िन्दगी में तुम दुनियावी ज़िन्दगी के माल और चमक-दमक से ख़ूब फ़ायदा भी उठा लो, तब भी अगर आख़िरत में इसका अंजाम यही कुछ होना है तो ख़ुद सोच लो कि यह फ़ायदे का सौदा है जो तुम कर रहे हो, या सरासर घाटे का सौदा?
قَالَ ٱلَّذِينَ حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَغۡوَيۡنَآ أَغۡوَيۡنَٰهُمۡ كَمَا غَوَيۡنَاۖ تَبَرَّأۡنَآ إِلَيۡكَۖ مَا كَانُوٓاْ إِيَّانَا يَعۡبُدُونَ ۝ 57
(63) यह बात जिसपर चस्पाँ होगी86 वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब, बेशक यही लोग हैं जिनको हमने गुमराह किया। था। इन्हें हमने उसी तरह गुमराह किया जैसे हम ख़ुद गुमराह हुए। हम आपके सामने अपने बरी होने का इज़हार करते हैं87 ये हमारी तो बन्दगी नहीं करते थे।"88
86. इससे मुराद वे शैतान जिन्न और शैतान इनसान हैं जिनको दुनिया में ख़ुदा का शरीक बनाया गया था, जिनकी बात के मुक़ाबले में ख़ुदा और उसके रसूलों की बात को रद्द किया गया था और जिनके भरोसे पर सीधे रास्ते को छोड़कर ज़िन्दगी के ग़लत रास्ते अपनाए गए थे। ऐसे लोगों को चाहे किसी ने 'इलाह' (माबूद) और 'रब' कहा हो या न कहा हो, बहरहाल जब उनकी पैरवी उस तरह की गई जैसी ख़ुदा की होनी चाहिए तो ज़रूर ही उन्हें ख़ुदाई में शरीक किया गया। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-50)
87. यानी हमने ज़बरदस्ती इनको गुमराह नहीं किया था। हमने न इनसे देखने और सुनने की ताक़त छीनी थी, न इनसे सोचने-समझने की सलाहियतें छीन ली थीं और न ऐसी ही कोई सूरत पेश आई थी कि यह तो सीधे रास्ते की तरफ़ जाना चाहते हों मगर हम उनका हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती उन्हें ग़लत रास्ते पर खींच ले गए हों, बल्कि जिस तरह हम ख़ुद अपनी मरज़ी से गुमराह हुए थे उसी तरह इनके सामने भी हमने गुमराही पेश की और इन्होंने अपनी मरज़ी से उसको क़ुबूल किया। लिहाज़ा हम इनकी ज़िम्मेदारी क़ुबूल नहीं करते। हम अपनी करनी के ज़िम्मेदार हैं और ये अपनी करनी के ज़िम्मेदार। यहाँ यह बारीक नुक्ता (प्वाइंट) ध्यान में रहे कि अल्लाह तआला सवाल तो करेगा शरीक ठहरानेवालों से। मगर इससे पहले कि ये कुछ बोलें, जवाब देने लगेंगे वे जिनको शरीक ठहराया गया था। इसकी वजह यह है कि जब आम मुशरिकों से यह सवाल किया जाएगा तो उनके लीडर और पेशवा महसूस करेंगे कि अब आ गई हमारी शामत। यह हमारे पीछे चलनेवाले पिछले लोग ज़रूर कहेंगे कि ये लोग हमारी गुमराही के अस्ल ज़िम्मेदार हैं। इसलिए पीछे चलनेवालों के बोलने से पहले वे ख़ुद आगे बढ़कर अपनी सफाई पेश करनी शुरू कर देंगे।
88. यानी ये हमारे नहीं, बल्कि अपने ही मन के बन्दे बने हुए थे।
وَقِيلَ ٱدۡعُواْ شُرَكَآءَكُمۡ فَدَعَوۡهُمۡ فَلَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُمۡ وَرَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۚ لَوۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ يَهۡتَدُونَ ۝ 58
(64) फिर उनसे कहा जाएगा कि पुकारो अब अपने ठहराए हुए शरीकों को।89 ये उन्हें पुकारेंगे मगर ये इनको कोई जवाब न देगे। और ये लोग अज़ाब देख लेंगे। काश, ये हिदायत अपनानेवाले होते।
89. यानी इन्हें मदद के लिए पुकारो। दुनिया में तो तुमने इनपर भरोसा करके हमारी बात रद्द की थी। अब वहाँ इनसे कहो कि आएँ और तुम्हारी मदद करें और तुम्हें अज़ाब से बचाएँ।
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ مَاذَآ أَجَبۡتُمُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 59
(65) और (भूल न जाएँ ये लोग) वह दिन जबकि वह इनको पुकारेगा और पूछेगा कि “जो रसूल भेजे गए थे उन्हें तुमने क्या जवाब दिया था?”
فَعَمِيَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَنۢبَآءُ يَوۡمَئِذٖ فَهُمۡ لَا يَتَسَآءَلُونَ ۝ 60
(66) उस वक़्त कोई जवाब इनको न सूझेगा और न ये आपस में एक-दूसरे से पूछ ही सकेंगे।
فَأَمَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَعَسَىٰٓ أَن يَكُونَ مِنَ ٱلۡمُفۡلِحِينَ ۝ 61
(67) अलबत्ता, जिसने आज तौबा कर ली और ईमान ले आया और नेक अमल किए वही यह उम्मीद कर सकता है कि वहाँ कामयाबी पानेवालों में से होगा।
وَرَبُّكَ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُ وَيَخۡتَارُۗ مَا كَانَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 62
(68) तेरा रब पैदा करता है जो कुछ चाहता है और (वह ख़ुद ही अपने काम के लिए जिसे चाहता है) चुन लेता है, यह चुनाव इन लोगों के करने का काम नहीं है।90 अल्लाह पाक है और बहुत बुलन्द है उस शिर्क से जो ये लोग ज़ाहिर करते हैं।
90. यह बात अस्ल में शिर्क के रद्द में कही गई है। मुशरिकों ने अल्लाह तआला की पैदा की हुई चीज़ों में से जो अनगिनत माबूद अपने लिए बना लिए हैं और उनको अपनी तरफ़ से जो सिफ़ात, दरजे और मंसब सौंप रखे हैं, उसपर एतिराज़ करते हुए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि अपने पैदा किए हुए इनसानों, फ़रिश्तों, जिन्नों और दूसरे बन्दों में से हम ख़ुद जिसको जैसी चाहते हैं ख़ूबियाँ, सलाहियतें और ताक़तें देते है और जो काम जिससे लेना चाहते हैं, लेते हैं। ये इख़्तियार आख़िर इन मुशरिकों को कैसे और कहाँ से मिल गए कि मेरे बन्दों में से जिसको चाहें मुश्किल-कुशा (मुश्किलें हल करनेवाला), जिसको चाहें गंज-बख़्श (ख़ज़ाना देनेवाला) और जिसे चाहें फ़रियाद सुननेवाला ठहरा लें? जिसे चाहें बारिश बरसानेवाला जिसे चाहें रोज़गार या औलाद देनेवाला, जिसे चाहें बीमारी और सेहत का मालिक बना दें? जिसे चाहें मेरी ख़ुदाई के किसी हिस्से का बादशाह ठहरा लें और मेरे इख़्तियारों में से जो कुछ जिसको चाहें सौंप दें। कोई फ़रिश्ता हो या जिन्न या नबी या वली, बहरहाल जो भी है हमारा पैदा किया हुआ है। जो कमालात भी किसी को मिले हैं हमारी देन और बख़्शिश से मिले हैं और जो ख़िदमत भी हमने जिससे लेनी चाही है ले ली है। मेरे पसन्दीदा होने का यह मतलब आख़िर कैसे हो गया कि वे बन्दे के मक़ाम से उठाकर ख़ुदाई के रुतबे पर पहुँचा दिए जाएँ और ख़ुदा को छोड़कर इनके आगे सर झुका दिया जाए, इनको मदद के लिए पुकारा जाने लगे, इनसे ज़रूरतें तलब की जाने लगें, उन्हें क़िस्मतों का बनानेवाला और बिगाड़नेवाला समझ लिया जाए और इन्हें ख़ुदाई सिफ़ात और इख़्तियारात रखनेवाला ठहराया जाए?
وَرَبُّكَ يَعۡلَمُ مَا تُكِنُّ صُدُورُهُمۡ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 63
(69) तेरा रब जानता है जो कुछ ये दिलों में छिपाए हुए हैं और जो कुछ ये ज़ाहिर करते हैं।91
91. बात के इस सिलसिले में यह बात जिस मक़सद के लिए कही गई है, वह यह है कि एक शख़्स या गरोह दुनिया में लोगों के सामने यह दावा कर सकता है कि जिस गुमराही को उसने अपनाया है, उसके सही होने पर वह बड़ी मुनासिब वजहों से मुत्मइन है और उसके ख़िलाफ़ जो दलीलें दी गई हैं उनसे सचमुच उसका इत्मीनान नहीं हुआ है और इस गुमराही को उसने किसी बुरे जज़्बे से नहीं, बल्कि ख़ालिस नेक नीयती के साथ अपनाया है और उसके सामने कभी कोई ऐसी चीज़ नहीं आई है जिससे उसकी ग़लती उसपर खुल जाए। लेकिन अल्लाह तआला के सामने उसकी यह बात नहीं चल सकती। वह सिर्फ़ ज़ाहिर ही को नहीं देखता। उसके सामने तो आदमी के दिलो-दिमाग़ का एक-एक कोना खुला हुआ है। वह उसके इल्म और एहसासात और जज़बात और ख़ाहिशों और नीयत और ज़मीर (अन्तरात्मा), हर चीज़ को ख़ुद सीधे तौर से जानता है। उसको मालूम है कि किस शख़्स को किस-किस वक़्त किन ज़रिओं से ख़बरदार किया गया, किन-किन रास्तों से हक़ पहुँचा, किस-किस तरीक़े से बातिल (असत्य) का बातिल होना उसपर खुला और फिर वे अस्ल सबब क्या थे जिनकी बुनियाद पर उसने अपनी गुमराही को तरजीह दी और हक़ से मुँह मोड़ा।
وَهُوَ ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ لَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلۡأُولَىٰ وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 64
(70) वही एक अल्लाह है जिसके सिवा कोई इबादत का हक़दार नहीं। उसी के लिए तारीफ़ है दुनिया में भी और आख़िरत में भी, हुकूमत उसी की है और उसी की तरफ़ तुम सब पलटाए जानेवाले हो।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن جَعَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمُ ٱلَّيۡلَ سَرۡمَدًا إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِضِيَآءٍۚ أَفَلَا تَسۡمَعُونَ ۝ 65
(71) ऐ नबी इनसे कहो, कभी तुम लोगों ने ग़ौर किया कि अगर अल्लाह क़ियामत तक तुमपर हमेशा के लिए रात छा दे तो अल्लाह के सिवा वह कौन-सा माबूद है जो तुम्हें रौशनी ला दे? क्या तुम सुनते नहीं हो?
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن جَعَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمُ ٱلنَّهَارَ سَرۡمَدًا إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِلَيۡلٖ تَسۡكُنُونَ فِيهِۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 66
(72) इनसे पूछो, कभी तुमने सोचा कि अगर अल्लाह क़ियामत तक तुमपर हमेशा के लिए दिन छा दे तो अल्लाह के सिवा वह कौन-सा माबूद है जो तुम्हें रात ला दे, ताकि तुम उसमें सुकून हासिल कर सको? क्या तुमको सूझता नहीं?
وَمِن رَّحۡمَتِهِۦ جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 67
(73) यह उसी की रहमत है कि उसने तुम्हारे लिए रात और दिन बनाए, ताकि तुम (रात में) सुकून हासिल करो और (दिन में) अपने रब का फ़ज़्ल (रोज़ी) तलाश करो, शायद कि तुम शुक्रगुजार बनो।
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 68
(74) (याद रखें ये लोग) वह दिन जबकि वह उन्हें पुकारेगा, फिर पूछेगा, “कहाँ हैं मेरे वे शरीक, जिनका तुम गुमान रखते थे?”
وَنَزَعۡنَا مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا فَقُلۡنَا هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ فَعَلِمُوٓاْ أَنَّ ٱلۡحَقَّ لِلَّهِ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 69
(75) और हम हर उम्मत (समुदाय) में से एक गवाह निकाल लाएँगे,92 फिर कहेंगे कि “लाओ अब अपनी दलील”93 उस वक़्त उन्हें मालूम हो जाएगा कि हक़ अल्लाह की तरफ़ है और गुम हो जाएँगे उनके वे सारे झूठ जो उन्होंने गढ़ रखे थे।
92. यानी वह नबी जिसने इस उम्मत को ख़बरदार किया था या पैग़म्बरों की पैरवी करनेवालों के से कोई ऐसा हिदायत पाया हुआ इनसान जिसने इस उम्मत में हक़ की तबलीग़ का फ़र्ज़ अंजाम दिया था, या कोई ऐसा ज़रिआ जिससे इस उम्मत तक हक़ का पैग़ाम पहुँच चुका था।
93. यानी अपनी सफ़ाई में कोई ऐसी दलील पेश करो जिसकी बुनियाद पर तुम्हें माफ़ किया जा सके। या तो यह साबित करो कि तुम जिस शिर्क, जिस आख़िरत के इनकार और जिस नुबूवत (पैग़म्बरी) के इनकार पर क़ायम थे वह बिलकुल सही था और तुमने मुनासिब वजहों से यह रास्ता अपनाया था। या यह नहीं तो फिर कम-से-कम यही साबित कर दो कि ख़ुदा की तरफ़ से तुमको इस ग़लती पर ख़बरदार करने और ठीक बात तुम तक पहुँचाने का कोई इन्तिज़ाम नहीं किया गया था।
۞إِنَّ قَٰرُونَ كَانَ مِن قَوۡمِ مُوسَىٰ فَبَغَىٰ عَلَيۡهِمۡۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡكُنُوزِ مَآ إِنَّ مَفَاتِحَهُۥ لَتَنُوٓأُ بِٱلۡعُصۡبَةِ أُوْلِي ٱلۡقُوَّةِ إِذۡ قَالَ لَهُۥ قَوۡمُهُۥ لَا تَفۡرَحۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَرِحِينَ ۝ 70
(76) यह एक सच्चाई है94 कि क़ारून मूसा की क़ौम का एक आदमी या, फिर वह अपनी क़ौम के ख़िलाफ़ बाग़ी हो गया95 और हमने उसको इतने ख़ज़ाने दे रखे थे कि उनकी कुंजियाँ ताक़तवर आदमियों की एक टीम मुश्किल से उठा सकती थी।96 एक बार जब उसकी क़ौम के लोगों ने उससे कहा, “फूल न जा, अल्लाह फूलनेवालों को पसन्द नहीं करता।
94. यह वाक़िआ भी मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उसी बहानेबाज़ी के जवाब में बयान किया जा रहा है जिसपर आयत-57 से लगातार बात हो रही है। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रहे कि जिन लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) की दावत से क़ौमी फ़ायदों पर चोट लगने का ख़तरा ज़ाहिर किया था वे अस्ल में मक्का के बड़े-बड़े सेठ, साहूकार और सरमायादार (पूंजीपति) थे जिन्हें बैनल-अक़वामी तिजारत (अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार) और सूदख़ोरी ने वक़्त का क़ारून बना रखा था। यही लोग अपनी जगह यह समझे बैठे थे कि अस्ल हक़ बस यह है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा दौलत समेटो। इस मक़सद पर जिस चीज़ से भी आँच आने का डर हो वह सरासर बातिल है जिसे किसी हाल में क़ुबूल नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ़ आम लोग दौलत के इन मीनारों को आरज़ू भरी निगाहों से देखते थे और उनकी अस्ल तमन्ना बस यह थी कि जिस बुलन्दी पर ये लोग पहुँचे हुए हैं काश, हमें भी उस तक पहुँचना नसीब हो जाए। इस दौलत की पूजा के माहौल में यह दलील बड़ी वज़नी समझी जा रही थी कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस तौहीद और आख़िरत की और अख़लाक़ के जिस ज़ाबिते की दावत दे रहे हैं उसे मान लिया जाए, तो क़ुरैश की बड़ाई का यह आसमान छूता महल ज़मीन पर आ रहेगा और तिजारती कारोबार तो दरकिनार, जीने तक के लाले पड़ जाएँगे।
95. क़ारून, जिसका नाम बाइबल और तलमूद में कोरह (Korah) बयान किया गया है, हज़रत मूसा (अलैहि०) का चचेरा भाई था। बाइबल की किताब निर्गमन (अध्याय-6, आयतें—18-21) में जो नसब (वंशावली) लिखा है उसके मुताबिक़ हज़रत मूसा (अलैहि०) और क़ारून के बाप आपस में सगे भाई थे। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगह यह बताया गया है कि यह शख़्स बनी-इसराईल में से होने के बावजूद फ़िरऔन के साथ जा मिला था और उसका क़रीबी बनकर इस हद तक पहुँच गया था कि मूसा (अलैहि०) की दावत के मुक़ाबले में फ़िरऔन के बाद मुख़ालफ़त के जो दो सबसे बड़े सरग़ने थे, उनमें से एक यही क़ारून था— "हमने मूसा को अपनी निशानियों और खुली दलील के साथ फ़िरऔन और हामान और क़ारून की तरफ़ भेजा, मगर उन्होंने कहा कि यह एक जादूगर है सख़्त झूठा।” (क़ुरआन, सूरा-40 मोमिन, आयतें—23, 24) इससे वाज़ेह हो जाता है कि क़ारून अपनी क़ौम से बाग़ी होकर उस दुश्मन ताक़त का पिट्ठू बन गया था जो बनी-इसराईल को जड़-बुनियाद से ख़त्म कर देने पर तुली हुई थी और क़ौमी ग़द्दारी की बदौलत उसने फ़िरऔनी सल्तनत में यह रुतबा हासिल कर लिया था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के अलावा मिस्र की जिन बड़ी हस्तियों की तरफ़ भेजे गए थे वे दो ही थीं, एक फ़िरऔन का वज़ीर हामान और दूसरा यह इसराईली सेठ। बाक़ी सब सल्तनत के अधिकारी और दरबारी उनसे कमतर दरजे में थे जिनका ख़ास तौर पर नाम लेने की ज़रूरत न थी। क़ारून की यही पोज़ीशन सूरा-29 अन्‌कबूत की आयत-39 में भी बयान की गई है।
96. बाइबल (गिनती, अध्याय-16) में इसका जो क़िस्सा बयान किया गया है उसमें उस शख़्स की दौलत का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर यहूदी रिवायतें यह बताती हैं कि यह शख़्स ग़ैर-मामूली दौलत का मालिक था, यहाँ तक कि उसके ख़ज़ानों की कुंजियाँ उठाने के लिए तीन सौ ख़च्चर (टटटू) दरकार होते थे (जेविश इंसाइक्लोपीडिया हिस्सा-7, पेज-556)। यह बयान अगरचे इन्तिहाई बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है, लेकिन इससे यह मालूम हो जाता है कि इसराईली रिवायतों के मुताबिक़ भी क़ारून अपने वक़्त का बहुत बड़ा दौलतमन्द आदमी था।
وَٱبۡتَغِ فِيمَآ ءَاتَىٰكَ ٱللَّهُ ٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَۖ وَلَا تَنسَ نَصِيبَكَ مِنَ ٱلدُّنۡيَاۖ وَأَحۡسِن كَمَآ أَحۡسَنَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ وَلَا تَبۡغِ ٱلۡفَسَادَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 71
(77) जो माल अल्लाह ने तुझे दिया है, उससे आख़िरत का घर बनाने की फ़िक्र कर और दुनिया में से भी अपना हिस्सा न भूल। एहसान कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ एहसान किया है और ज़मीन में बिगाड़ फैलाने की कोशिश न कर, अल्लाह बिगाड] फैलानेवालों को पसन्द नहीं करता।"
قَالَ إِنَّمَآ أُوتِيتُهُۥ عَلَىٰ عِلۡمٍ عِندِيٓۚ أَوَلَمۡ يَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ قَدۡ أَهۡلَكَ مِن قَبۡلِهِۦ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مَنۡ هُوَ أَشَدُّ مِنۡهُ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرُ جَمۡعٗاۚ وَلَا يُسۡـَٔلُ عَن ذُنُوبِهِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 72
(78) तो उसने कहा, “यह सब कुछ तो उस इल्म की बुनियाद पर दिया गया है जो मुझको हासिल है”97— क्या उसको यह मालूम न था कि अल्लाह उससे पहले बहुत-से लोगों को हलाक कर चुका है जो उससे ज़्यादा ताक़त और जत्था रखते थे?98 मुजरिमों से तो उनके गुनाह नहीं पूछे जाते।99
97. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है 'इन्नमा ऊतीतुहू अला इलमिन इन्दी'। इसके दो मतलब हो सकते हैं, एक यह कि मैंने जो कुछ पाया है अपनी क़ाबिलियत से पाया है, यह कोई फ़ज़्ल और मेहरबानी नहीं है जो हक़दारी के बजाय एहसान के तौर पर किसी ने मुझपर कर दिया हो और अब मुझे उसका शुक्रिया इस तरह अदा करना हो कि जिन नाकारा लोगों को कुछ नहीं दिया गया है उन्हें मैं फल और एहसान के तौर पर उसमें से कुछ दूँ, या कोई ख़ैर-ख़ैरात इस ग़रज़ के लिए करें कि यह मेहरबानी मुझसे छीन न ली जाए। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि मेरे नज़दीक तो ख़ुदा ने यह दौलत जो मुझे दी है मेरी ख़ूबियों को जानते हुए दी है। अगर मैं उसकी निगाह में एक पसन्दीदा इनसान न होता तो यह कुछ मुझे क्यों देता। मुझपर उसकी नेमतों की बारिश होना ही इस बात की दलील है कि मैं उसका चहेता हूँ और मेरा रवैया उसको पसन्द है।
98. यानी यह शख़्स जो बड़ा पढ़ा-लिखा और आक़्लमन्द और बाख़बर बना फिर रहा था और अपनी क़ाबिलियत का यह कुछ घमण्ड रखता था, उसके इल्म में क्या यह बात कभी न आई थी कि उससे ज़्यादा दौलत, नौकर-चाकर, ताक़त और शानो-शौकतवाले इससे पहले दुनिया में गुज़र चुके हैं और अल्लाह ने उन्हें आख़िरकार तबाह और बरबाद करके रख दिया? अगर क़ाबिलियत और हुनरमन्दी ही दुनियावी तरक़्क़ी के लिए कोई ज़मानत है तो उनकी ये सलाहियतें उस वक़्त कहाँ चली गई थीं जब वे तबाह हुए? और अगर किसी को दुनियावी तरक़्क़ी नसीब होना लाज़िमन इस बात का सुबूत है कि अल्लाह तआला उस शख़्स से ख़ुश है और उसके आमाल और सिफ़ात को पसन्द करता है तो फिर उन लोगों की शामत क्यों आई?
99. यानी मुजरिम तो यही दावा किया करते हैं कि हम बड़ अच्छे लोग हैं। वे कब माना करते हैं कि उनके अन्दर कोई बुराई है। मगर उनकी सज़ा का दारोमदार उनके अपने क़ुबूल करने पर नहीं होता। उन्हें जब पकड़ा जाता है तो उनसे पूछकर नहीं पकड़ा जाता कि बताओ तुम्हारे गुनाह क्या हैं।
فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ فِي زِينَتِهِۦۖ قَالَ ٱلَّذِينَ يُرِيدُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا يَٰلَيۡتَ لَنَا مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ قَٰرُونُ إِنَّهُۥ لَذُو حَظٍّ عَظِيمٖ ۝ 73
(79) एक दिन वह अपनी क़ौम के सामने अपने पूरे ठाठ में निकला। जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी के तलबगार थे वे उसे देखकर कहने लगे “काश, हमें भी वही कुछ मिलता जो क़ारून को दिया गया है। यह तो बड़ा नसीबवाला है।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَيۡلَكُمۡ ثَوَابُ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّمَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗاۚ وَلَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ٱلصَّٰبِرُونَ ۝ 74
(80) मगर जो लोग इल्म रखनेवाले थे थे, कहने लगे, “अफ़सोस तुम्हारे हाल पर, अल्लाह का सवाब (इनाम) बेहतर है उस शख़्स के लिए जो ईमान लाए और नेक अमल करे और यह दौलत नहीं मिलती मगर सब्र करनेवालों को।”100
100. यानी यह सीरत (किरदार), सोचने का यह अन्दाज़ और यह अल्लाह के सवाब (इनाम) की देन सिर्फ़ उन्हीं लोगों के हिस्से में आती है जिनमें इतना सब्र और इतना जमाव मौजूद हो कि हलाल तरीक़े ही अपनाने पर मज़बूती के साथ जमे रहें, चाहे उनसे सिर्फ़ चटनी-रोटी मिले या करोड़पति बन जाना नसीब हो जाए और हराम तरीक़ों की तरफ़ ज़रा भी ध्यान न दें चाहे उनसे दुनिया भर के फ़ायदे समेट लेने का मौक़ा मिल रहा हो। इस आयत में अल्लाह के सवाब से मुराद है, वह बेहतरीन और जाइज़ रोज़ी जो अल्लाह की हदों के अन्दर रहते हुए मेहनत और कोशिश करने के नतीजे में इनसान को दुनिया और आख़िरत में नसीब हो और सब्र से अपने मुराद है जज़बात और ख़ाहिशों पर क़ाबू रखना, लोभ और लालच के मुक़ाबले में ईमानदारी और सीधे रास्ते पर डटे रहना, सच्चाई और दियानतदारी से जो नुक़सान भी होता हो या जो फ़ायदा भी हाथ से जाता हो उसे बरदाश्त कर लेना, नाजाइज़ तदबीरों से जो फ़ायदा भी हासिल हो सकता हो उसे ठोकर मार देना, हलाल की रोज़ी चाहे ज़र्रा बराबर ही हो, उसपर मुत्मइन रहना हरामख़ोरों के ठाठ-बाट देखकर ललचाने और उसकी तमन्ना के जज़बात से बेचैन होने के बजाय उसपर एक निगाह भी ग़लत तरीक़े से न डालना और ठण्डे दिल से यह समझ लेना कि एक ईमानदार आदमी के लिए इस चमकदार गन्दगी के मुक़ाबले यह बे चमक पाकीज़गी ही बेहतर है जो अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से उसको दी है। रहा यह कहना कि “यह दौलत नहीं मिलती मगर सब्र करनेवालों को,” तो इस दौलत से मुराद अल्लाह का सवाब भी है और वह पाकीज़ा ज़ेहनियत भी जिसकी बुनियाद पर आदमी ईमान और भले कामों के साथ भूखा-प्यासा रह लेने को इससे बेहतर समझता है कि बेईमानी अपनाकर अरबपति बन जाए।
فَخَسَفۡنَا بِهِۦ وَبِدَارِهِ ٱلۡأَرۡضَ فَمَا كَانَ لَهُۥ مِن فِئَةٖ يَنصُرُونَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُنتَصِرِينَ ۝ 75
(81) आख़िरकार हमने उसे और उसके घर को ज़मीन में धँसा दिया। फिर कोई उसके हिमायतियों का गरोह न था जो अल्लाह के मुक़ाबले में उसकी मदद को आता और न वह ख़ुद अपनी मदद आप कर सका।
وَأَصۡبَحَ ٱلَّذِينَ تَمَنَّوۡاْ مَكَانَهُۥ بِٱلۡأَمۡسِ يَقُولُونَ وَيۡكَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُۖ لَوۡلَآ أَن مَّنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا لَخَسَفَ بِنَاۖ وَيۡكَأَنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 76
(82) अब वही लोग, जो कल तक उसकी जगह पाने की तमन्ना कर रहे थे, कहने लगे “अफ़सोस, हम भूल गए थे कि अल्लाह अपने बन्दों में से जिसकी रोज़ी चाहता है बढ़ा देता है और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है।101 अगर अल्लाह ने हमपर एहसान न किया होता तो हमें भी ज़मीन में धँसा देता। अफ़सोस, हमको याद न रहा कि ख़ुदा के नाफ़रमान कामयाबी नहीं पाया करते।”102
101. यानी अल्लाह की तरफ़ से रोज़ी का ज़्यादा या कम होना जो कुछ भी होता है उसकी मरज़ी की बुनियाद पर होता है और इस मरज़ी में उसकी कुछ दूसरी ही मस्लहतें काम कर रही होती हैं। किसी को ज़्यादा रोज़ी देने का मतलब लाज़िमी तौर से यही नहीं है कि अल्लाह उससे बहुत ख़ुश है और उसे इनाम दे रहा है। बहुत बार एक शख़्स अल्लाह के ग़ज़ब का हक़दार होता है, मगर वह उसे बड़ी दौलत देता चला जाता है, यहाँ तक कि आख़िरकार यही दौलत उसके ऊपर अल्लाह का सख़्त अज़ाब ले आती है। इसके बरख़िलाफ़ अगर किसी की रोज़ी तंग है तो इसका मतलब लाज़िमी तौर से यही नहीं है कि अल्लाह तआला उससे नाराज़ है और उसे सज़ा दे रहा है। अकसर नेक लोगों पर तंगी इसके बावजूद रहती है कि वे अल्लाह के प्यारे होते हैं, बल्कि बहुत बार यही तंगी उनके लिए ख़ुदा की रहमत होती है। इस हक़ीक़त को न समझने ही का नतीजा यह होता है कि आदमी उन लोगों की ख़ुशहाली को ललचाई निगाह से देखता है जो अस्ल में ख़ुदा के ग़ज़ब के हक़दार होते हैं।
102. यानी हमें यह ग़लतफ़हमी थी कि दुनियावी ख़ुशहाली और दौलतमन्दी ही कामयाबी है। इसी वजह से हम यह समझे बैठे थे कि क़ारून बड़ी कामयाबी पा रहा है। मगर अब पता चला कि हक़ीक़ी कामयाबी किसी और ही चीज़ का नाम है और वह हक़ के इनकारियों को नसीब नहीं होती। क़ारून के क़िस्से का यह सबक़आमोज़ पहलू सिर्फ़ क़ुरआन ही में बयान हुआ है बाइबल और तलमूद दोनों में इसका कोई ज़िक्र नहीं है। अलबत्ता इन दोनों किताबों में जो तफ़सीलात बयान हुई हैं, उनसे यह मालूम होता है कि बनी-इसराईल जब मिस्र से निकले तो यह शख़्स भी अपनी पार्टी समेत उनके साथ निकला और फिर उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून (अलैहि०) के ख़िलाफ़ एक साज़िश की जिसमें ढाई सौ आदमी शामिल थे। आख़िरकार अल्लाह का ग़ज़ब इसपर टूट पड़ा और यह अपने घर-द्वार और माल-असबाब के साथ ज़मीन में धँस गया।
تِلۡكَ ٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ نَجۡعَلُهَا لِلَّذِينَ لَا يُرِيدُونَ عُلُوّٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فَسَادٗاۚ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 77
(83) वह आख़िरत का घर103 तो हम उन लोगों के लिए ख़ास कर देंगे जो ज़मीन में अपनी बड़ाई नहीं चाहते104 और न फ़साद करना चाहते हैं।105 और अंजाम की भलाई परहेज़गारों ही के लिए है।106
103. मुराद है जन्नत जो हक़ीक़ी कामयाबी की जगह है।
104. यानी जो ख़ुदा की ज़मीन में अपनी बड़ाई क़ायम करना नहीं चाहते। जो सरकश, ज़ालिम और घमण्डी बनकर नहीं रहते, बल्कि बन्दे बनकर रहते हैं और ख़ुदा के बन्दों को अपना बन्दा बनाकर रखने की कोशिश नहीं करते।
105. फ़साद से मुराद इनसानी ज़िन्दगी के निज़ाम का वह बिगाड़ है जो हक़ से आगे बढ़ने के नतीजे में ज़रूर ही सामने आता है। ख़ुदा की बन्दगी और उसके क़ानूनों की पैरवी से निकलकर आदमी जो कुछ भी करता है, वह सरासर फ़साद- ही-फ़साद है। इसी का एक हिस्सा वह बिगाड़ भी है जो हराम तरीक़ों से दौलत समेटने और हराम रास्तों में ख़र्च करने से फैलता है।
106. यानी उन लोगों के लिए जो ख़ुदा से डरते हैं और उसकी नाफ़रमानी से परहेज़ करते हैं।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ خَيۡرٞ مِّنۡهَاۖ وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَلَا يُجۡزَى ٱلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 78
(84) जो कोई भलाई लेकर आएगा, उसके लिए उससे बेहतर भलाई है और जो बुराई लेकर आए तो बुराइयाँ करनेवालों को वैसा ही बदला मिलेगा जैसे काम वे करते थे।
إِنَّ ٱلَّذِي فَرَضَ عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لَرَآدُّكَ إِلَىٰ مَعَادٖۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ مَن جَآءَ بِٱلۡهُدَىٰ وَمَنۡ هُوَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 79
(85) ऐ नबी, यक़ीन जानो कि जिसने यह क़ुरआन तुमपर फ़र्ज़ किया है,107 वह तुम्हें एक बेहतरीन अंजाम को पहुँचानेवाला है।108 इन लोगों से कह दो कि “मेरा रब ख़ूब जानता है कि हिदायत लेकर कौन आया है और खुली गुमराही में कौन पड़ा है।"
107. यानी इस क़ुरआन को अल्लाह के बन्दों तक पहुँचाने और उसकी तालीम देने और उसकी हिदायत के मुताबिक़ दुनिया को सुधारने की ज़िम्मेदारी तुमपर डाली है।
108. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है “लरादु-क इला मआद” (तुम्हें एक मआद की तरफ़ फेरनेवाला है।) अरबी लफ़्ज़ 'मआद' का मतलब है, यह मक़ाम जिसकी तरफ़ आख़िरकार आदमी को पलटना हो और उसे नकरा (Indefinite Noun) इस्तेमाल करने से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब पैदा हो जाता है कि वह बड़ी शान और अज़मत (महानता) की जगह है। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इससे मुराद जन्नत ली है। लेकिन इसे सिर्फ़ जन्नत के साथ ख़ास कर देने की कोई मुनासिब वजह नहीं है। क्यों न इसे वैसा ही आम रखा जाए जैसा ख़ुद अल्लाह तआला ने बयान किया है, ताकि यह वादा दुनिया और आख़िरत दोनों के बारे में हो जाए। जो बात बयान की जा रही है उसके मौक़ा-महल की माँग भी यह है कि इसे आख़िरत ही नहीं, इस दुनिया में भी नबी (सल्ल०) को आख़िरकार बड़ी शान और अज़मत अता करने का वादा समझा जाए। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की जिस बात पर आयत-57 से लेकर यहाँ तक लगातार बात चली आ रही है, उसमें उन्होंने कहा था कि ऐ मुहम्मद, तुम अपने साथ हमें भी ले डूबना चाहते हो। अगर हम तुम्हारा साथ दें और उस दीन को अपना लें तो अरब की सरज़मीन में हमारा जीना मुश्किल हो जाए। इसके जवाब में अल्लाह तआला अपने नबी (सल्ल०) से फ़रमाता है कि ऐ नबी, जिस ख़ुदा ने इस क़ुरआन की अलमबरदारी का बोझ तुमपर डाला है वह तुम्हें बरबाद करनेवाला नहीं है, बल्कि तुमको उस मर्तबे पर पहुँचानेवाला है जिसका तसव्वुर भी लोग आज नहीं कर सकते और सचमुच अल्लाह तआला ने कुछ ही साल बाद नबी (सल्ल०) को इस दनिया में उन्हों लोगों की आँखों के सामने तमाम अरब देश पर ऐसा मुकम्मल इक़तिदार (पूर्ण सत्ता) देकर दिखा दिया कि आप (सल्ल०) के रास्ते में रुकावट डालनेवाली कोई ताक़त वहाँ न ठहर सकी और आप (सल्ल०) के दीन के सिवा किसी दीन के लिए वहाँ गुंजाइश न रही। अरब के इतिहास में इससे पहले कोई मिसाल इसकी मौजूद न थी कि पूरे अरब जज़ीरे (द्वीप) पर किसी एक शख़्स की ऐसी बिना मुख़ालफ़त बादशाही क़ायम हो गई हो कि देश-भर में कोई उसके मुक़ाबले पर बाक़ी न रहा हो, किसी में उसके हुक्म से इनकार करने की हिम्मत न हो और लोग सिर्फ़ सियासी तौर पर ही उसके दायरे में न आ गए हों, बल्कि सारे दीनों (धर्मों) को मिटाकर उसी एक शख़्स ने सबको अपने दीन का पैरोकार भी बना लिया हो। कुछ तफसीर लिखनेवालों ने यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि सूरा-28 क़सस की यह आयत मक्का से मदीना की तरफ़ हिजरत करते हुए रास्ते में उतरी थी और इसमें अल्लाह तआला न अपने नबी (सल्ल०) से यह वादा किया था कि वह आप (सल्ल०) को फिर मक्का वापस पहुँचाएगा। लेकिन अव्वल तो इसके अलफ़ाज़ में कोई गुंजाइश इस बात की नहीं है कि 'मआद’ से मुराद 'मक्का’ लिया जाए, दूसरे यह सूरा रिवायतों के मुताबिक़ भी और अपने मज़मून (विषय) की अन्दरूनी गवाही के एतिबार से भी हबशा की हिजरत के क़रीब ज़माने की है और यह बात समझ में नहीं आती कि कई साल बाद मदीना की हिजरत के रास्ते में अगर यह आयत उतरी थी तो इसे किस पहलू से यहाँ इस मौक़े पर लाकर रख दिया गया? तीसरे, इस जगह मक्का की तरफ़ नबी (सल्ल०) की वापसी का ज़िक्र बिलकुल बेमौक़ा नज़र आता है। आयत का यह मतलब अगर लिया जाए तो यह मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की बात का जवाब नहीं, बल्कि उनके बहाने को और मज़बूत बनानेवाला होगा। इसका मतलब यह होगा कि बेशक ऐ मक्कावालो, तुम ठीक कहते हो, मुहम्मद (सल्ल०) इस शहर से निकाल दिए जाएँगे, लेकिन वह हमेशा के लिए वतन से बाहर नहीं होंगे, बल्कि आख़िरकार हम उन्हें इसी जगह वापस ले आएँगे। यह रियायत अगरचे बुख़ारी, नसई, इब्ने-जरीर और दूसरे मुहद्दिसों ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल की है, लेकिन यह है इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की अपनी ही राय। कोई भरोसेमन्द हदीस नहीं है जो नबी (सल्ल०) ने कही हो कि उसे मानना ज़रूरी हो।
وَمَا كُنتَ تَرۡجُوٓاْ أَن يُلۡقَىٰٓ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبُ إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۖ فَلَا تَكُونَنَّ ظَهِيرٗا لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 80
(৪6) तुम इस बात के हरगिज़ उम्मीदवार न थे कि तुमपर किताब उतारी जाएगी, यह तो सिर्फ़ तुम्हारे रब की मेहरबानी से (तुमपर उतारी गई है109), इसलिए तुम (ख़ुदा के) इनकारियों के मददगार न बनो।110
109. यह बात मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी के सुबूत में पेश की जा रही है। जिस तरह मूसा (अलैहि०) बिलकुल बेख़बर थे कि उन्हें नबी बनाया जानेवाला है और एक बहुत बड़े मिशन पर वे लगाए जानेवाले हैं, उनके ज़ेहन के किसी कोने में भी इसका इरादा ख़ाहिश तो एक तरफ़ इसकी उम्मीद तक कभी न गुज़री थी, बस यकायक राह चलते उन्हें खींच बुलाया गया और नबी बनाकर वह हैरतअंगेज़ काम उनसे लिया गया जो उनकी पिछली ज़िन्दगी से कोई मेल नहीं रखता था, ठीक ऐसा ही मामला नबी (सल्ल०) के साथ भी पेश आया। मक्का के लोग ख़ुद जानते थे कि हिरा की गुफा से जिस दिन आप पैग़म्बरी का पैग़ाम लेकर उतरे उससे एक दिन पहले तक आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी क्या थी, आप (सल्ल०) की मशग़ूलियतें क्या थीं, आप (सल्ल०) की बातचीत क्या थी, आप (सल्ल०) की बातचीत किन-किन बातों (विषयों) के बारे में होती थी, आप (सल्ल०) की दिलचस्पियाँ और सरगर्मियाँ किस तरह की थीं। यह पूरी ज़िन्दगी सच्चाई, ईमानदारी, अमानत और पाकबाज़ी से भरी ज़रूर थी। इसमें इन्तिहाई शराफ़त, अम्न-पसन्दी, वादे का ख़याल रखना, हक़ों को अदा करना और समाज की ख़िदमत का रंग भी ग़ैर-मामूली शान के साथ नुमायाँ था, मगर इसमें कोई चीज़ ऐसी मौजूद न थी जिसकी बुनियाद पर किसी के वहमो-गुमान में भी यह ख़याल गुज़र सकता हो कि यह नेक बन्दा कल ख़ुदा का पैग़म्बर होने का दावा लेकर उठनेवाला है। आप (सल्ल०) से सबसे ज़्यादा क़रीबी ताल्लुक़ात रखनेवालों में, आप (सल्ल०) के रिश्तेदारों और पड़ोसियों और दोस्तों में कोई शख़्स यह न कर सकता था कि आप (सल्ल०) पहले से नबी बनने की तैयारी कर रहे थे। किसी ने उन बातों और मामलों के बारे में कभी एक लफ़्ज़ तक आप (सल्ल०) की ज़बान से न सुना था जो हिरा नामक गुफा की उस इंक़िलाबी घड़ी के बाद यकायक आप (सल्ल०) की ज़बान पर जारी होने शुरू हो गए। किसी ने आप (सल्ल०) को वह ख़ास ज़बान और वे अलफ़ाज़ और इस्तिलाहें इस्तेमाल करते न सुना था जो अचानक क़ुरआन की शक्ल में लोग आप (सल्ल०) से सुनने लगे। कभी आप (सल्ल०) तक़रीर करने खड़े न हुए थे। कभी कोई दावत और तहरीक (आन्दोलन) लेकर न उठे थे, बल्कि कभी आप (सल्ल०) की किसी सरगर्मी से यह गुमान तक न हो सकता था कि आप इजतिमाई मसलों के हल, या मज़हबी सुधार या अख़लाक़री सुधार के लिए कोई काम शुरू करने की फ्रिक में हैं। इस इंक़िलाबी घड़ी से एक दिन पहले तक आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी एक ऐसे ताजिर की ज़िन्दगी नज़र आती थी जो सीधे-सादे जाइज़ तरीक़ों से अपनी रोज़ी कमाता है, अपने बाल-बच्चों के साथ हँसी-ख़ुशी रहता है, मेहमानों की ख़ातिरदारी, ग़रीबों की मदद और रिश्तेदारों से अच्छा सुलूक करता है और कभी-कभी इबादत करने के लिए तन्हाई में जा बैठता है। ऐसे शख़्स का यकायक एक आलमगीर (विश्वव्यापी) भूकम्प पैदा कर देनेवाली तक़रीर के साथ उठना, एक इंक़िलाब लानेवाली दावत शुरू कर देना, एक निराला लिट्रेचर पैदा कर देना, ज़िन्दगी का एक मुस्तक़िल फ़लसफ़ा (स्थायी जीवन-दर्शन) और निज़ामे-फ़िक्र और अख़लाक़ व तमद्दुन लेकर सामने आ जाना, इतनी बड़ी तब्दीली है जो इनसानी नफ़सियात (मनोवृति) के लिहाज़ से किसी बनावट और तैयारी और इरादी कोशिश के नतीजे में हरगिज़ पैदा नहीं हो सकती। इसलिए कि ऐसी हर कोशिश और तैयारी बहरहाल दरजा-ब-दरजा तरक़्क़ी के मरहलों से गुज़रती है और ये मरहले उन लोगों से कभी छिपे नहीं रह सकते जिनके बीच आदमी दिन-रात ज़िन्दगी गुज़ारता हो। अगर नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी इन मरहलों से गुज़री होती तो मक्का में सैकड़ों जानें यह कहनेवाली होतीं कि हम न कहते थे, यह आदमी एक दिन कोई बड़ा दावा लेकर उठनेवाला है। लेकिन इतिहास गवाह है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने आप (सल्ल०) पर हर तरह के एतिराज़ किए मगर यह एतिराज़ करनेवाला उनमें से कोई एक आदमी भी न था। फिर यह बात कि नबी (सल्ल०) ख़ुद भी पैग़म्बरी के ख़ाहिशमन्द या उसकी उम्मीद और इन्तिज़ार में न थे, बल्कि पूरी बेख़बरी की हालत में अचानक आप (सल्ल०) को इस मामले का सामना करना पड़ा, इसका सुबूत उस घटना से मिलता है जो हदीसों में वह्य की शुरुआत की कैफ़ियत के बारे में नक़्ल हुई है। जिबरील (अलैहि०) से पहली मुलाक़ात और सूरा-96 अलक़ की शुरू की आयतों के उतरने के बाद आप (सल्ल०) हिरा की गुफा से काँपते और थरथराते हुए घर पहुँचते हैं। घरवालों से कहते हैं कि “मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ!” कुछ देर के बाद जब ज़रा डर की कैफ़ियत दूर होती है तो अपनी बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) को सारा माजरा सुनाकर कहते हैं कि “मुझे अपनी जान का डर है।” वे फ़ौरन जवाब देती हैं, “हरगिज़ नहीं! आपको अल्लाह कभी रंज में न डालेगा। आप तो रिश्तेदारों के हक़ अदा करते हैं। बेसहारा को सहारा देते हैं। ग़रीब की मदद करते हैं। मेहमानों की ख़ातिरदारी करते हैं। हर भले काम में मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।” फिर वे नबी (सल्ल०) को लेकर वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास जाती हैं जो उनके चचेरे भाई और अहले-किताब में से एक इल्म रखनेवाले और सच्चे आदमी थे। वे आप (सल्ल०) से सारा वाक़िआ सुनने के बाद बिना झिझक कहते हैं कि “यह जो आपके पास आया था वही नामूस (ख़ास काम पर लगा हुआ फ़रिश्ता) है जो मूसा के पास आता था। काश, मैं जवान होता और उस वक़्त तक ज़िन्दा रहता जब आपकी क़ौम आपको निकाल देगी।” आप (सल्ल०) पूछते हैं, “क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?” ये जवाब देते हैं, “हाँ, कोई शख़्स ऐसा नहीं गुज़रा कि वह चीज़ लेकर आया हो, जो आप लाए हैं और लोग उसके दुश्मन न हो गए हों।" यह पूरा वाक़िआ उस हालत की तस्वीर पेश कर देता है, जो बिलकुल फ़ितरी तौर पर यकायक उम्मीद के ख़िलाफ़ एक इन्तिहाई ग़ैर-मामूली तजरिबा पेश आ जाने से किसी सीधे-सादे इनसान पर छा सकती है। अगर नबी (सल्ल०) पहले से नबी बनने की फ़िक्र में होते, अपने बारे में यह सोच रहे होते कि मुझ जैसे आदमी को नबी होना चाहिए और उसके इन्तिज़ार में मुराक़बे (ध्यान और साधना) कर-करके अपने ज़ेहन पर ज़ोर डाल रहे होते कि कब कोई फ़रिश्ता आता है और मेरे पास पैग़ाम लाता है, तो हिरा नाम की गुफावाला मामला पेश आते ही आप (सल्ल०) ख़ुशी से उछल पड़ते और बड़े दम-दावे के साथ पहाड़ से उतरकर सीधे अपनी क़ौम के सामने पहुँचते और अपनी पैग़म्बरी का एलान कर देते । लेकिन इसके बरख़िलाफ़ यहाँ हालत यह है कि जो कुछ देखा था उसपर हैरान रह जाते हैं, काँपते और थरथराते हुए घर पहुँचते हैं, लिहाफ़ ओढ़कर लेट जाते हैं, ज़रा दिल ठहरता है तो बीवी को चुपके से बताते हैं कि आज हिरा की गुफा की तन्हाई में मुझपर यह हादिसा गुज़रा है, पता नहीं क्या होनेवाला है, मुझे अपनी जान की ख़ैर नज़र नहीं आती। यह कैफ़ियत पैग़म्बरी के किसी उम्मीदवार की कैफ़ियत से कितनी अलग है। फिर बीवी से बढ़कर शौहर की ज़िन्दगी उसके हालात और उसके ख़यालात को कौन जान सकता है? अगर उनके तजरिबे में पहले से यह बात आई हुई होती कि मियाँ पैग़म्बरी के उम्मीदवार हैं और हर वक़्त फ़रिश्ते के आने का इन्तिज़ार कर रहे हैं, तो उनका जवाब हरगिज़ वह न होता जो आप (सल्ल०) की बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने दिया। वे कहतीं कि “मियाँ घबराते क्यों हो, जिस चीज़ की मुद्दतों से तमन्ना थी, वह मिल गई। चलो अब पीरी की दुकान चमकाओ, मैं भी नज़राने संभालने की तैयारी करती हूँ।” लेकिन वे पन्द्रह साल के साथ में आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी का जो रंग देख चुकी थीं, उसकी बुनियाद पर उन्हें यह बात समझने में एक पल की भी देर न लगी कि ऐसे नेक बेग़रज़ इनसान के पास शैतान नहीं आ सकता, न अल्लाह उसको किसी बड़ी आज़माइश में डाल सकता है, उसने जो कुछ देखा है वह सरासर हक़ीक़त है। और यही मामला वरक़ा-बिन-नौफ़ल का भी है। वे कोई बाहर के आदमी न थे, बल्कि नबी (सल्ल०) की अपनी बिरादरी के आदमी और क़रीब के रिश्ते से निस्बती भाई (साले) थे। फिर एक इल्मवाले ईसाई होने की हैसियत से पैग़म्बरी, किताब और वह्य (प्रकाशना) को बनावट में अलग कर सकते थे। उम्र में कई साल बड़े होने की वजह से आप (सल्ल०) की पूरी ज़िन्दगी बचपन से उस वक़्त तक उनके सामने थी। उन्होंने भी आप (सल्ल०) की ज़बान से हिरा में जो कुछ गुज़रा उसे सुनते ही फ़ौरन कह दिया कि यह आनेवाला यक़ीनन वही फ़रिश्ता है जो मूसा (अलैहि०) पर वह्य लाता था, क्योंकि यहाँ भी वही सूरत पेश आई थी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ पेश आई थी कि एक इन्तिहाई पाकीज़ा सीरत का सीधा-सादा इनसान बिलकुल ख़ाली ज़ेहन है, पैग़म्बरी की फ्रिक में रहना तो दूर, उसको पाने का तसव्वुर (कल्पना) तक उसके ज़ेहन के किसी कोने में कभी नहीं आया है और अचानक वह पूरे होशो-हवास की हालत में खुल्लम-खुल्ला इस तजरिबे से दोचार होता है। इसी चीज़ ने उनको दो और दो चार की तरह ज़रा भी झिझक किए बिना इस नतीजे तक पहुँचा दिया कि यहाँ कोई मन का धोखा या शैतानी करिश्मा नहीं है, बल्कि इस सच्चे इनसान ने अपने किसी इरादे और ख़ाहिश के बिना जो कुछ देखा है वह अस्ल में हक़ीक़त ही को देखा है। यह मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत (पैग़म्बरी) का एक ऐसा खुला सुबूत है कि एक हक़ीक़त-परसन्द इनसान मुश्किल ही से इसका इनकार कर सकता है। इसी लिए क़ुरआन में कई जगहों पर इसे नुबूवत की दलील को हैसियत से पेश किया गया है। मसलन सूरा-10 यूनुस में फ़रमाया— “ऐ नबी, इनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता तो मैं कभी यह क़ुरआन तुम्हें न सुनाता, बल्कि इसकी ख़बर तक वह तुमको न देता। आख़िर मैं इससे पहले एक उम्र तुम्हारे बीच गुज़ार चुका हूँ, क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?" (आयत-16) और सूरा-42 शूरा में फ़रमाया— “ऐ नबी, तुम तो जानते तक न थे कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है, मगर हमने इस वह्य को एक नूर बना दिया जिससे हम रहनुमाई करते हैं, अपने बन्दों में से जिसकी चाहते हैं।” (आयत-52) और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-21; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—88-92; सूरा-42 शूरा, हाशिया-84।
110. यानी जब अल्लाह ने यह नेमत तुम्हें बिन माँगे दी है तो उसका हक़ अब तुमपर यह है कि तुम्हारी सारी क़ुव्वतें और मेहनतें इसकी अलमबरदारी पर, इसकी तबलीग़ पर और इसे फैलाने पर लगे। इसमें कोताही करने का मतलब यह होगा कि तुमने हक़ के बजाय हक़ का इनकार करनेवालों की मदद की। इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) से ऐसी किसी कोताही का अन्देशा था, बल्कि अस्ल में इस तरह अल्लाह तआला इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाते हुए अपने नबी को यह हिदायत कर रहा है कि तुम इनके शोर-हंगामे और इनकी मुख़ालफ़त के बावजूद अपना काम करो और इसकी कोई परवाह न करो कि हक़ के दुश्मन इस दावत से अपने फ़ायदे पर चोट लगने के क्या अन्देशे ज़ाहिर करते हैं।
وَلَا يَصُدُّنَّكَ عَنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بَعۡدَ إِذۡ أُنزِلَتۡ إِلَيۡكَۖ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 81
(87) और ऐसा कभी न होने पाए कि अल्लाह की आयतें जब तुमपर उतरें तो (ख़ुदा के) इनकारी तुम्हें उनसे दूर रखें।111 अपने रब की तरफ़ बुलाओ और हरगिज़ मुशरिकों में शामिल न हो।
111. यानी उनकी तबलीग़ और इशाअत (प्रचार-प्रसार) से और उनके मुताबिक़ अमल करने से।
وَلَا تَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۘ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ كُلُّ شَيۡءٍ هَالِكٌ إِلَّا وَجۡهَهُۥۚ لَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 82
(88) और अल्लाह के साथ किसी दूसरे माबूद को न पुकारो। उसके सिवा कोई माबूद नहीं है। हर चीज़ हलाक होनेवाली है, सिवाय उस हस्ती के। हुकूमत उसी की है112 और उसी की तरफ़ तुम सब पलटाए जानेवाले हो।
112. यह मतलब भी हो सकता है कि हुकूमत उसी के लिए है, यानी वही इसका हक़ रखता है।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُواْ لَوۡلَآ أُوتِيَ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ مُوسَىٰٓۚ أَوَلَمۡ يَكۡفُرُواْ بِمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۖ قَالُواْ سِحۡرَانِ تَظَٰهَرَا وَقَالُوٓاْ إِنَّا بِكُلّٖ كَٰفِرُونَ ۝ 83
(48) मगर जब हमारे यहाँ से हक़ (सत्य) उनके पास आ गया तो ये कहने लगे, “क्यों न दिया गया इसको वही कुछ जो मूसा को दिया गया था?"67 क्या ये लोग उसका इनकार नहीं कर चुके हैं जो इससे पहले मूसा को दिया गया था?68 उन्होंने कहा, “दोनों जादू है,69 जो एक-दूसरे की मदद करते हैं।” और कहा, “हम किसी को नहीं मानते।”
67. यानी मुहम्मद (सल्ल०) को वे सारे मोजिज़े क्यों न दिए गए जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को दिए गए थे। ये भी लाठी का अजगर बनाकर हमें दिखाते। इनका हाथ भी सूरज की तरह चमक उठता। झुठलानेवालों पर इनके इशारे से भी लगातार तूफ़ानों और ज़मीन और आसमान से बलाएँ उतरतीं और ये भी पत्थर की तख़्तियों पर लिखे हुए हुक्म लाकर हमें देते।
68. यह उनके एतिराज़ का जवाब है। मतलब यह है कि इन मोजिजों (चमत्कारों) के बावजूद मूसा (अलैहि०) ही पर तुम कब ईमान लाए थे जो अब मुहम्मद (सल्ल०) से उनकी माँग कर रहे हो। तुम ख़ुद कहते हो कि मूसा (अलैहि०) को ये मोजिज़े दिए गए थे। मगर फिर भी उनको नबी मानकर उनकी पैरवी तुमने कभी क़ुबूल नहीं की। सूरा-34 सबा, आयत-31 में भी मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की कही हुई यह बात की गई है कि “न हम इस क़ुरआन को मानेंगे, न उन किताबों को जो इससे पहले आई हुई हैं।"
69. यानी क़ुरआन और तौरात।
قُلۡ فَأۡتُواْ بِكِتَٰبٖ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ هُوَ أَهۡدَىٰ مِنۡهُمَآ أَتَّبِعۡهُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 84
(49) (ऐ नबी,) इनसे कहो, अच्छा तो लाओ अल्लाह की तरफ़ से कोई किताब जो इन दोनों से ज़्यादा हिदायत देनेवाली हो, अगर तुम सच्चे हो, मैं उसी की पैरवी करूँगा।70
70. यानी मुझे तो हिदायत की पैरवी करनी है, शर्त यह है कि वह किसी की मनगढ़न्त न हो, बल्कि ख़ुदा की तरफ़ से हक़ीक़ी हिदायत हो। अगर तुम्हारे पास अल्लाह की कोई किताब मौजूद है जो क़ुरआन और तौरात से बेहतर रहनुमाई करती हो तो उसे तुमने छिपा क्यों रखा है? उसे सामने लाओ, मैं बिना झिझक उसकी पैरवी क़ुबूल कर लूँगा।
فَإِن لَّمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَكَ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يَتَّبِعُونَ أَهۡوَآءَهُمۡۚ وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّنِ ٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ بِغَيۡرِ هُدٗى مِّنَ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 85
(50) अब अगर ये तुम्हारी यह माँग पूरी नहीं करते तो समझ लो कि अस्ल में ये अपनी ख़ाहिशों के पीछे चलते हैं, और उस शख़्स से बढ़कर कौन गुमराह होगा जो ख़ुदाई हिदायत के बिना बस अपनी ख़ाहिशों की पैरवी करे? अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को हरगिज़ हिदायत नहीं देता।
۞وَلَقَدۡ وَصَّلۡنَا لَهُمُ ٱلۡقَوۡلَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 86
(51) और (नसीहत की बात लगातार हम उन्हें पहुँचा चुके हैं, ताकि ये ग़फ़लत से जागें।71
71. यानी जहाँ तक नसीहत का हक़ अदा करने का ताल्लुक़ है, हम इस क़ुरआन में लगातार इसे अदा कर चुके हैं। लेकिन हिदायत तो उसी को नसीब हो सकती है जो ज़िद और हठधर्मी छोड़े और तास्सुबों से दिल को पाक करके सच्चाई को सीधी तरह क़ुबूल करने के लिए तैयार हो।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِهِۦ هُم بِهِۦ يُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(52) जिन लोगों को इससे पहले हमने किताब दी थी वे इस (क़ुरआन) पर ईमान लाते हैं।72
72. इससे मुराद यह नहीं है कि तमाम अहले-किताब (यहूदी और ईसाई) इसपर ईमान लाते हैं, बल्कि यह इशारा अस्ल में उस वाक़िए की तरफ़ है जो इस सूरा के उतरने के ज़माने में पेश आया था और इसका मक़सद मक्कावालों को शर्म दिलाना है कि तुम अपने घर आई हुई नेमत को ठुकरा रहे हो हालाँकि दूर-दूर के लोग उसकी ख़बर सुनकर आ रहे हैं और उसकी क़द्र पहचानकर उससे फ़ायदा उठा रहे हैं। इस वाक़िए को इब्ने-हिशाम और बैहक़ी वग़ैरा ने मुहम्मद-बिन-इसहाक़ के हवाले से इस तरह रिवायत किया है कि हबशा की हिजरत के बाद जब नबी (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) और दावत की ख़बरें हबशा के देश में फैलीं तो वहाँ से बीस (20) के क़रीब ईसाइयों का एक दल सही हालात जानने के लिए मक्का आया और नबी (सल्ल०) से मस्जिदे-हराम में मिला। क़ुरैश के बहुत-से लोग भी यह माजरा देखकर आसपास खड़े हो गए। दल के लोगों ने नबी (सल्ल०) कुछ सवाल किए जिनका आप (सल्ल०) ने जवाब दिया। फिर आप (सल्ल०) ने उनको इस्लाम की तरफ़ दावत दी और क़ुरआन मजीद की आयतें उनके सामने पढ़ीं। क़ुरआन सुनकर उनकी आँखों से आँसू जारी हो गए और उन्होंने उसके अल्लाह का कलाम होने को सच मान लिया और नबी (सल्ल०) पर ईमान ले आए। जब महफ़िल ख़त्म हो गई तो अबू-जह्ल और उसके कुछ साथियों ने उन लोगों को रास्ते में जा लिया और उन्हें सख़्त मलामत की कि “बड़े नामुराद हो तुम लोग, तुम्हारे मज़हबवाले लोगों ने तुमको इसलिए भेजा था कि तुम इस शख़्स के हालात की जाँच-पड़ताल करके आओ और उन्हें ठीक-ठीक ख़बर दो, मगर तुम अभी उसके पास बैठे ही थे कि अपना दीन छोड़कर उसपर ईमान ले आए तुमसे ज़्यादा बेवक़ूफ़ गरोह तो कभी हमारी नज़र से नहीं गुज़रा।” इसपर उन्होंने जवाब दिया कि “सलाम है भाइयो, तुमको। हम तुम्हारे साथ जहालतबाज़ी नहीं कर सकते। हमें हमारे तरीक़े पर चलने दो और तुम अपने तरीक़े पर चलते रहो। हम अपने आपको जान-बूझकर भलाई से महरूम नहीं रख सकते।” (सीरत इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पेज-32; अल-बिदाया वन-निहाया, हिस्सा-8, पेज-82) और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-123।