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سُورَةُ التَّكَاثُرِ

102. अत-तकासुर

(मक्का में उतरी—आयतें 8)

परिचय

नाम

इस सूरा की पहली आयत के शब्द 'अत-तकासुर' (अधिक से अधिक और एक-दूसरे से बढ़कर) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

अबू-हैयान और शौकानी (रह०) कहते हैं कि यह तमाम टीकाकारों के नज़दीक मक्की है और इमाम सुयूती का कथन है कि सबसे मशहूर बात यही है कि यह मक्की है, लेकिन कुछ रिवायतें ऐसी भी हैं जिनके आधार पर इसे मदनी कहा गया है। हमारे नज़दीक सिर्फ़ यही नहीं कि यह मक्की सूरा है, बल्कि इसका विषय और वार्ताशैली यह बता रही है कि यह मक्का के आरंभिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसमें उन लोगों को उस दुनिया-परस्ती के बुरे अंजाम से सचेत किया गया है जिसके कारण वे मरते दम तक अधिक से अधिक धन-दौलत, सांसारिक लाभ और सुख-वैभव तथा प्रतिष्ठा एवं सत्ता प्राप्त करने और उसमें एक-दूसरे से बाज़ी ले जाने और उन्हीं चीज़ों के प्राप्त करने पर गर्व करने में लगे रहते हैं। और इस एक चिन्ता ने उनको इतना फँसा रखा है कि उन्हें इससे श्रेष्ठतम किसी चीज़ की ओर ध्यान देने का होश ही नहीं है। इसके बुरे अंजाम पर सचेत करने के बाद लोगों को यह बताया गया है कि ये नेमतें जिनको तुम यहाँ निश्चिंत होकर समेट रहे हो, ये केवल नेमतें ही नहीं हैं, बल्कि तुम्हारी परीक्षा सामग्री भी हैं। इनमें से हर नेमत के बारे में तुमको आख़िरत में जवाबदेही करनी होगी।

 

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سُورَةُ التَّكَاثُرِ
102. अत-तकासुर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَلۡهَىٰكُمُ ٱلتَّكَاثُرُ
(1) तुम लोगों को ज़्यादा-से-ज़्यादा और एक-दूसरे से बढ़कर दुनिया हासिल करने की धुन ने ग़फ़लत में डाल रखा है1
1. अस्ल अरबी में ‘अल्हाकुमुत-तकासुर’ कहा गया है, जिसके मानी इतने फैले हुए हैं कि एक पूरी इबारत में बड़ी मुश्किल से इसको अदा किया जा सकता है। ‘अल्हाकुमु’ ‘लह्व’ से है जिसका अस्ल मतलब ‘ग़फ़लत’ है, लेकिन अरबी ज़बान में यह लफ़्ज़ हर उस लगाव के लिए बोला जाता है जिससे आदमी की दिलचस्पी इतनी बढ़ जाए कि वह उसमें डूबकर दूसरी ज़्यादा अहम चीज़ों से ग़ाफ़िल हो जाए। इस माद्दे (धातु) से जब ‘अल्हाकुम’ का लफ़्ज़ बोला जाएगा तो इसका मतलब यह होगा कि किसी ‘काम’ ने तुम को अपने अन्दर ऐसा मशग़ूल (व्यस्त) कर लिया है कि तुम्हें किसी और चीज़ का, जो उससे ज़्यादा अहम है, होश बाक़ी नहीं रहा है। उसी की धुन तुमपर सवार है। उसी की फ़िक्र में तुम लगे हुए हो। और इस धुन ने तुमको बिलकुल ग़ाफ़िल कर दिया है। ‘तकासुर’ कसरत (बहुतायत) से है, और इसके तीन मतलब हैं। एक यह कि आदमी ज़्यादा-से-ज़्यादा कसरत हासिल करने की कोशिश करे। दूसरे यह कि लोग कसरत हासिल करने में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करें। तीसरे यह कि लोग एक-दूसरे के मुक़ाबले में इस बात पर फ़ख़्र (गर्व) जताएँ कि उन्हें दूसरे से ज़्यादा कसरत हासिल है। इसलिए ‘अल्हाकुमुत-तकासुर’ का मतलब हुआ कि तकासुर (बहुतायत) ने तुम्हें अपने अन्दर ऐसा लगा लिया है कि उसकी धुन ने तुम्हें उससे ज़्यादा अहम चीज़ों से ग़ाफ़िल कर दिया है। इस जुमले में यह बयान नहीं किया गया है कि ‘तकासुर’ में किस चीज़ की ज़्यादती (बहुतायत) और ‘अल्हाकुम’ में किस चीज़ से ग़ाफ़िल हो जाना मुराद है, और ‘अल्हाकुम’ (तुमको ग़ाफ़िल कर दिया है) किन लोगों से कहा गया है। इसे बयान न करने की वजह से इन अलफ़ाज़ का मतलब ज़्यादा वसीअ (व्यापक) हो जाता है। तकासुर का मतलब महदूद नहीं रहता, बल्कि दुनिया के तमाम फ़ायदे, ऐश का सामान, लज़्ज़त के असबाब (संसाधन), और ताक़त और हुकूमत के वसाइल (संसाधनों) को ज़्यादा-से-ज़्यादा हासिल करने की दौड़-धूप करना, उनको हासिल करने के लिए एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करना और एक-दूसरे के मुक़ाबले में उनकी कसरत (बहुतायत) पर फ़ख़्र जताना उसके मतलब में शामिल हो जाता है। इसी तरह ‘अल्हाकुम’ के मुख़ातब (संबोधित) महदूद नहीं रहते, बल्कि हर ज़माने के लोग अपनी निजी हैसियत से भी और इजतिमाई हैसियत से भी उसके मुख़ातब हो जाते हैं। इसका मतलब यह हो जाता है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा दुनिया हासिल करने, और उसमें एक-दूसरे से बढ़ जाने, और दूसरों के मुक़ाबले में उसपर फ़ख़्र जताने की धुन लोगों पर भी सवार रहती है और क़ौमों पर भी। इसी तरह ‘अल्हाकुमुत-तकासुर’ में चूँकि इस बात को बयान नहीं किया गया कि तकासुर ने लोगों को अपने अन्दर लगाकर किस चीज़ से ग़ाफ़िल कर दिया है, इसलिए उसके मतलब में बड़ी वुसअत (व्यापकता) पैदा हो गई है। इसका मतलब यह है कि लोगों को इस तकासुर की धुन ने हर उस चीज़ से ग़ाफ़िल कर दिया है जो उसके मुक़ाबले में ज़्यादा अहम है। वे ख़ुदा से ग़ाफ़िल हो गए हैं। अपने अंजाम से ग़ाफ़िल हो गए हैं। अख़लाक़ी हदों और अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों से ग़ाफ़िल हो गए हैं। हक़दारों के हक़ों और उन्हें अदा करने के मामले में अपने फ़र्ज़ों से ग़ाफ़िल हो गए हैं। उन्हें ज़िन्दगी का मेयार (जीवन-स्तर) बुलन्द करने की फ़िक्र है, इस बात की कोई फ़िक्र नहीं कि इनसानियत का मेयार किस क़द्र गिर रहा है। उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा दौलत चाहिए, इस बात की कोई परवा नहीं कि वह किस ज़रिए से हासिल होती है। उन्हें ऐशो-इशरत और जिस्मानी लज़्ज़तों के सामान ज़्यादा-से-ज़्यादा चाहिए, इस ऐश और आराम (विलासिता) में डूबकर वे इस बात से बिलकुल ग़ाफ़िल हो गए हैं कि इस रवैये का अंजाम क्या है। उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा ताक़त, ज़्यादा-से-ज़्यादा फ़ौजें, ज़्यादा-से-ज़्यादा हथियार जुटाने की फ़िक्र है, और इस मामले में उनके बीच एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़ जारी है, इस बात की कोई फ़िक्र उन्हें नहीं है कि यह सब कुछ ख़ुदा की ज़मीन को ज़ुल्म से भर देने और इनसानियत को तबाह व बरबाद कर देने का सरो-सामान है। यानी तकासुर (बहुतायत) की अनगिनत सूरतें ऐसी हैं जिन्होंने लोगों और क़ौमों सबको अपने अन्दर ऐसा मशग़ूल (व्यस्त) कर रखा है कि उन्हें दुनिया और उसके फ़ायदों और लज़्ज़तों से बढ़कर किसी चीज़ का होश नहीं रहा है।
حَتَّىٰ زُرۡتُمُ ٱلۡمَقَابِرَ ۝ 1
(2) यहाँ तक कि (इसी फ़िक्र में) तुम क़ब्र के किनारे तक पहुँच जाते हो।2
2. यानी तुम अपनी सारी उम्र इसी कोशिश में खपा देते हो और मरते दम तक यह फ़िक्र तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती।
كَلَّا سَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) हरगिज़ नहीं, बहुत जल्द तुमको मालूम हो जाएगा।3
3. यानी तुम्हें यह ग़लतफ़हमी है कि दुनिया की दौलत की यह ज़्यादती (बहुतायत), और उसमें दूसरों से बढ़ जाना ही तरक़्क़ी और कामयाबी है। हालाँकि यह हरगिज़ तरक़्क़ी और कामयाबी नहीं है। बहुत जल्द इसका बुरा अंजाम तुम्हें मालूम हो जाएगा और तुम जान लोगे कि यह कितनी बड़ी ग़लती थी जिसमें तुम उम्र भर मुब्तला रहे। बहुत जल्द से मुराद आख़िरत भी हो सकती है, क्योंकि जिस हस्ती की निगाह शुरू से आख़िर तक तमाम ज़मानों पर हावी है, उसके लिए कुछ हज़ार या कुछ लाख साल भी ज़माने का एक छोटा-सा हिस्सा हैं। लेकिन इससे मुराद मौत भी हो सकती है, क्योंकि वह तो किसी इनसान से भी कुछ ज़्यादा दूर नहीं है, और यह बात मरते ही इनसान पर खुल जाएगी कि जिन मशग़लों में वह अपनी सारी उम्र खपाकर आया है वह उसके लिए भलाई और ख़ुशनसीबी का ज़रिआ थे या बुरे अंजाम और बदनसीबी का ज़रिआ।
ثُمَّ كَلَّا سَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 3
(4) फिर (सुन लो कि) हरगिज़ नहीं, बहुत जल्द तुमको मालूम हो जाएगा।
كَلَّا لَوۡ تَعۡلَمُونَ عِلۡمَ ٱلۡيَقِينِ ۝ 4
(5) हरगिज़ नहीं, अगर तुम यक़ीनी इल्म की हैसियत से (इस रवैये के अंजाम को) जानते होते (तो तुम्हारा यह रवैया न होता)।
لَتَرَوُنَّ ٱلۡجَحِيمَ ۝ 5
(6) तुम जहन्नम देखकर रहोगे,
ثُمَّ لَتَرَوُنَّهَا عَيۡنَ ٱلۡيَقِينِ ۝ 6
(7) फिर (सुन लो कि) तुम बिलकुल यक़ीन के साथ उसे देख लोगे।
ثُمَّ لَتُسۡـَٔلُنَّ يَوۡمَئِذٍ عَنِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 7
(8) फिर ज़रूर उस दिन तुमसे इन नेमतों के बारे में जवाब तलब किया जाएगा।4
4. इस जुमले में ‘फिर’ का लफ़्ज़ इस मानी में नहीं है कि जहन्नम में डाले जाने के बाद जवाब तलब किया जाएगा। बल्कि इसका मतलब यह है कि फिर यह ख़बर भी हम तुम्हें दिए देते हैं कि तुमसे इन नेमतों के बारे में सवाल किया जाएगा। और ज़ाहिर है कि यह सवाल अल्लाह की अदालत में हिसाब लेने के वक़्त होगा। इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि कई हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह बात नक़्ल हुई है कि अल्लाह तआला ने जो नेमतें बन्दों को दी हैं उनके बारे में जवाबदेही ईमानवाले और ग़ैर-ईमानवाले सब ही को करनी होगी। यह अलग बात है कि जिन लोगों ने नेमत की नाशुक्री नहीं की और शुक्रगुज़ार बनकर रहे वे इस पूछ-गछ में कामयाब रहेंगे, और जिन लोगों ने अल्लाह की नेमतों का हक़ अदा नहीं किया और अपनी बातों या अमल से, या दोनों से उनकी नाशुक्री की वे इसमें नाकाम होंगे। हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हमारे यहाँ तशरीफ़ लाए और हमने आप (सल्ल०) को तरोताज़ा खजूरें खिलाईं और ठण्डा पानी पिलाया। इसपर रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ये उन नेमतों में से हैं जिनके बारे में तुमसे सवाल किया जाएगा।” (हदीस : मुसनदे-अहमद, नसई, इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-मरदुवैह, अब्द-बिन-हुमैद, बैहक़ी)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) से कहा कि चलो अबुल-हैसम-बिन-तैहान अनसारी के यहाँ चलें। चुनाँचे उनको लेकर आप (सल्ल०) इब्ने-तैहान के बाग़ में तशरीफ़ ले गए। उन्होंने लाकर खजूरों का एक गुच्छा रख दिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम ख़ुद क्यों न खजूरें तोड़ लाए?” उन्होंने कहा, “मैं चाहता था कि आप लोग ख़ुद छाँट-छाँटकर खजूरें खाएँ।” चुनाँचे उन्होंने खजूरें खाईं और ठण्डा पानी पिया। खा-पी चुकने के बाद नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उस हस्ती की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है, ये उन नेमतों में से है जिनके बारे में तुम्हें क़ियामत के दिन जवाबदेही करनी होगी। यह ठण्डी छाँव, ये ठण्डी खजूरें, यह ठण्डा पानी।” (इस क़िस्से को अलग-अलग तरीक़ों से मुस्लिम, इब्ने-माजा, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-जरीर और अबू-याला वग़ैरा से नक़्ल किया है, जिनमें से कुछ में उन अनसारी बुज़ुर्ग का नाम लिया गया है और कुछ में सिर्फ़ अनसार में से एक शख़्स कहा गया है। इस क़िस्से को अलग-अलग तरीक़ों से कई तफ़सीलात के साथ इब्ने-अबी-हातिम ने हज़रत उमर (रज़ि०) से और इमाम अहमद ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम अबू-उसैब से नक़्ल किया है। इब्ने-हिब्बान और इब्ने-मरदुवैह ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से एक रिवायत नक़्ल की है, जिससे मालूम होता है कि लगभग इसी तरह का वाक़िआ हज़रत अबू-अय्यूब अनसारी (रज़ि०) के यहाँ पेश आया था।) इन हदीसों से यह बात साफ़ हो जाती है कि सवाल सिर्फ़ ग़ैर-ईमानवालों ही से नहीं, नेक ईमानवालों से भी होगा। रहीं अल्लाह की वे नेमतें जो उसने इनसान को दी हैं तो वे बेहद और बेहिसाब हैं, उनको गिना नहीं जा सकता, बल्कि बहुत-सी नेमतें तो ऐसी हैं कि इनसान को उनकी ख़बर भी नहीं है। क़ुरआन मजीद में फ़रमाया गया है— “अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनो तो तुम उनको पूरी तरह गिन नहीं सकते।” (सूरा-14 इबराहीम, आयत-34) इन नेमतों में से बेहद और बेहिसाब नेमतें तो वे हैं जो अल्लाह तआला ने सीधे तौर से इनसान की दी हैं, और बहुत-सी नेमतें वे हैं जो इनसान को उसकी अपनी कोशिश के ज़रिए से दी जाती हैं। इनसान की कोशिश से हासिल होनेवाली नेमतों के बारे में उसको जवाबदेही करनी पड़ेगी कि उसने उनको किन तरीक़ों से हासिल किया और किन रास्तों में ख़र्च किया। अल्लाह तआला की तरफ़ से सीधे तौर पर दी गई नेमतों के बारे में उसे हिसाब देना होगा कि उनको उसने किस तरह इस्तेमाल किया। और कुल मिलाकर तमाम नेमतों के बारे में उसको बताना पड़ेगा कि क्या उसने इस बात को माना था कि ये नेमतें अल्लाह की दी हुई हैं और इनपर दिल, ज़बान और अमल से उसका शुक्र अदा किया था? या यह समझा था कि ये सब कुछ उसे इत्तिफ़ाक़ से मिल गया है? या यह समझा था कि बहुत-से ख़ुदा इनके देनेवाले हैं? या यह अक़ीदा रखा था कि ये हैं तो ख़ुदा ही की नेमतें मगर इनके देने में बहुत-सी दूसरी हस्तियों का भी दख़ल है और इस बुनियाद पर उन्हें माबूद (उपास्य) ठहरा लिया था और उन्हीं के शुक्रिए अदा किए थे?