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سُورَةُ النَّازِعَاتِ

79. अन-नाज़िआत

(मक्का में उतरी, आयतें 46)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'वन-नाज़िआत' (अर्थात् क़सम है उन फ़रिश्तों की जो डूबकर खींचते हैं) से उद्धृत है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि यह सूरा-78 अन-नबा के बाद उतरी है। इसका विषय भी यही बता रहा है कि यह आरम्भिक काल की उतरी हुई सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसका विषय क़ियामत और मौत के बाद की जिंदगी की पुष्टि है और साथ-साथ इस बात की चेतावनी भी कि अल्लाह के रसूल को झुठलाने का अंजाम क्या होता है। वार्ता के आरम्भ ही में मौत के समय जान निकालनेवाले और अल्लाह के आदेश का बिना कुछ देर किए पालन करनेवाले और अल्लाह के आदेशों के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि का प्रबन्ध करनेवाले फ़रिश्तों की क़सम खाकर विश्वास दिलाया गया है कि क़ियामत ज़रूर आएगी और मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी ज़रूर पेश आकर रहेगी, क्योंकि जिन फ़रिश्तों के हाथों आज जान निकाली जाती है, उन्हीं के हाथों दोबारा जान डाली भी जा सकती है और जो फ़रिश्ते आज अल्लाह के आदेश का पालन बिना कुछ देर किए करते और सृष्टि का प्रबन्ध करते हैं, वही फ़रिश्ते कल उसी अल्लाह के आदेश से सृष्टि की यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न भी कर सकते हैं और एक दूसरी व्यवस्था क़ायम भी कर सकते हैं। इसके बाद लोगों को बताया गया है कि यह काम जिसे तुम बिलकुल असम्भव समझते हो, अल्लाह के लिए सिरे से कोई कठिन काम ही नहीं है जिसके लिए किसी बड़ी तैयारी की ज़रूरत हो, बस एक झटका दुनिया की इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देगा और एक दूसरा झटका इसके लिए बिलकुल काफ़ी होगा कि दूसरी दुनिया में यकायक तुम अपने आपको जिंदा मौजूद पाओ।

फिर हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन का क़िस्सा संक्षेप में बयान करके लोगों को सचेत किया गया है कि रसूल को झुठलाने और चालबाज़ियों से उसे हराने की कोशिश का क्या अंजाम फ़िरऔन देख चुका है। उससे शिक्षा प्राप्त करके इस नीति को न छोड़ोगे तो वही अंजाम तुम्हें भी देखना पड़ेगा। इसके बाद आयत 27 से 33 तक आख़िरत और मरने के बाद की ज़िन्दगी के प्रमाणों का उल्लेख किया गया है। आयत 34-41 में यह बताया गया है कि जब आख़िरत होगी तो इंसान के सार्वकालिक और शाश्वत भविष्य का निर्णय इस आधार पर होगा कि किसने दुनिया में बन्दगी की सीमा से आगे बढ़कर अपने रब से बग़ावत की और दुनिया के लाभों और आस्वादनों को मक़सद बना लिया और किसने अपने रब के सामने खड़े होने का भय रखा और कौन मन की अवैध कामनाओं को पूरा करने से बचकर रहा। आख़िर में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि वह क़ियामत आएगी कब? उत्तर में कहा गया है कि उसके समय का ज्ञान अल्लाह के सिवा किसी को नहीं है। रसूल का काम सिर्फ़ सचेत कर देना है कि वह समय आएगा ज़रूर। अब जिसका जी चाहे उसके आने का भय रखकर अपना रवैया ठीक कर ले और जिसका जी चाहे निडर होकर बे-नकेल ऊँट की तरह चलता रहे। जब वह समय आ जाएगा तो वही लोग जो इस दुनिया की ज़िन्दगी पर मर-मिटते थे और इसी को सब कुछ समझते थे, यह महसूस करेंगे कि दुनिया में वे सिर्फ़ घड़ी भर ठहरे थे। उस समय उन्हें मालूम होगा कि इस कुछ दिनों की जिंदगी के लिए उन्होंने किस तरह सदा के लिए अपना भविष्य ख़राब कर लिया।

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سُورَةُ النَّازِعَاتِ
79. अन-नाज़िआत
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
فَٱلسَّٰبِقَٰتِ سَبۡقٗا ۝ 1
(4) फिर (हुक्म को पूरा करने में) आगे बढ़ जाते हैं,
فَٱلۡمُدَبِّرَٰتِ أَمۡرٗا ۝ 2
(5) फिर (अल्लाह के हुक्मों के मुताबिक़) मामलों का इन्तिज़ाम चलाते हैं।1
1. यहाँ पाँच ख़ूबियाँ रखनेवाली हस्तियों की क़सम जिस बात पर खाई गई है उसकी तफ़सील बयान नहीं की गई है। लेकिन बाद का मज़मून इस बात को वाज़ेह कर देता है कि यह क़सम इस बात पर खाई गई है कि क़ियामत ज़रूर आएगी और तमाम मरे हुए इनसान ज़रूर नए सिरे से ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे। इसको भी साफ़ तौर से नहीं बताया गया कि ये पाँच ख़ूबियाँ किन हस्तियों की हैं, लेकिन नबी (सल्ल०) के सहाबा (रज़ि०) और उनके बाद आनेवाले बुज़ुर्गों (ताबिईन) की बड़ी तादाद ने और क़ुरआन के ज़्यादातर आलिमों ने कहा है कि इनसे मुराद फ़रिश्ते हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), मसरूक़, सईद-बिन-जुबैर, अबू-सॉलेह, अबू-ज़ुहा, और सुद्दी (रह०) कहते हैं कि डूबकर खींचनेवालों और धीरे से निकालकर ले जानेवालों से मुराद वे फ़रिश्ते हैं जो मौत के वक़्त इनसान की जान को उसके जिस्म की गहराइयों तक उतरकर और उसकी रग-रग से खींचकर निकालते हैं। तेज़ी से तैरते फिरनेवालों से मुराद भी हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०), मुजाहिद, सईद-बिन-जुबैर और अबू-सॉलेह (रह०) ने फ़रिश्ते ही लिए हैं, जो अल्लाह के हुक्मों को पूरा करने में इस तरह तेज़ी से सरगर्म रहते और भाग-दौड़ करते हैं जैसे कि वे फ़िज़ा में तैर रहे हों। यही मतलब ‘आगे बढ़नेवालों’ का हज़रत अली (रज़ि०), मुजाहिद, मसरूक़, अबू-सॉलेह और हसन बसरी (रह०) ने लिया है और आगे बढ़ने से मुराद यह है कि अल्लाह के हुक्म का इशारा पाते ही उनमें से हर एक उसको पूरा करने के लिए दौड़ पड़ता है। ‘मामलों का इन्तिज़ाम चलानेवालों’ से मुराद भी फ़रिश्ते हैं, जैसा कि हज़रत अली (रज़ि०), मुजाहिद, अता, अबू-सॉलेह, हसन बसरी, क़तादा, रबीअ-बिन-अनस और सुद्दी (रह०) से नक़्ल हुआ है। दूसरे अलफ़ाज़ में कायनात की सल्तनत के ये वे कारिन्दे (कर्मचारी) हैं जिनके हाथों दुनिया का सारा इन्तिज़ाम अल्लाह तआला के हुक्म के मुताबिक़ चल रहा है। इन आयतों का यह मतलब अगरचे किसी सही हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल नहीं हुआ है, लेकिन कुछ बड़े सहाबियों ने, और उन ताबिईन ने जो सहाबा ही के शागिर्द थे, जब इनका मतलब यह बयान किया है तो गुमान यही होता है कि यह इल्म अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही से हासिल किया गया होगा। अब सवाल यह पैदा होता है कि क़ियामत के आने और मौत के बाद की ज़िन्दगी पर इन फ़रिश्तों की क़सम किस बुनियाद पर खाई गई है जबकि ये ख़ुद भी उसी तरह ग़ैर-महसूस हैं जिस तरह वह चीज़ ग़ैर-महसूस है जिसके आने पर इनको गवाही के तौर पर और दलील के तौर पर पेश किया गया है। हमारे नज़दीक इसकी वजह यह है, अल्लाह ही बेहतर जानता है, कि अरबवाले फ़रिश्तों के वुजूद का इनकार न करते थे। वे ख़ुद इस बात को मानते थे कि मौत के वक़्त इनसान की जान फ़रिश्ते ही निकालते हैं। उनका अक़ीदा यह भी था कि फ़रिश्तों की रफ़्तार इन्तिहाई तेज़ है, ज़ीमन से आसमान तक आनन-फ़ानन वे एक जगह से दूसरी जगह पहुँच जाते हैं और हर काम जिसका उन्हें हुक्म दिया जाए बिना देर किए पूरा करते हैं। वे यह भी मानते थे कि ये फ़रिश्ते अल्लाह के हुक्म के मातहत हैं और कायनात का इन्तिज़ाम अल्लाह तआला ही के हुक्म से चलाते हैं, पूरी तरह इख़्तियार रखनेवाले और अपनी मरज़ी के मालिक नहीं हैं। जहालत की वजह से वे उनको अल्लाह की बेटियाँ ज़रूर कहते थे और उनको माबूद भी बनाए हुए थे, लेकिन उनका यह अक़ीदा नहीं था कि अस्ल इख़्तियार उन्हीं के हाथ में हैं। इसलिए यहाँ क़ियामत के आने और मौत के बाद की ज़िन्दगी पर उनकी ऊपर बयान की गई ख़ूबियों से दलील इस वजह से दी गई है कि जिस ख़ुदा के हुक्म से फ़रिश्ते तुम्हारी जान निकालते हैं उसी के हुक्म से वे दोबारा जान डाल भी सकते हैं। और जिस ख़ुदा के हुक्म से वे कायनात का इन्तिज़ाम चला रहे हैं उसी के हुक्म से, जब भी उसका हुक्म हो, इस कायनात को वे तोड़-फोड़ भी सकते हैं, और एक दूसरी दुनिया बना भी सकते हैं। उसके हुक्म को पूरा करने में उनकी तरफ़ से ज़र्रा बराबर भी सुस्ती या पल भर की देर भी नहीं हो सकती।
يَوۡمَ تَرۡجُفُ ٱلرَّاجِفَةُ ۝ 3
(6) जिस दिन हिला मारेगा ज़लज़ले का झटका,
تَتۡبَعُهَا ٱلرَّادِفَةُ ۝ 4
(7) और उसके पीछे एक और झटका पड़ेगा,2
2. पहले झटके से मुराद वह झटका है जो ज़मीन और उसकी ही चीज़ को तबाह कर देगा और दूसरे झटके से मुराद वह झटका है जिसके बाद तमाम मुर्दे ज़िन्दा होकर ज़मीन से निकल आएँगे। इसी कैफ़ियत को सूरा-39 ज़ुमर में यूँ बयान किया गया है— “और सूर फूँका जाएगा तो ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं वे सब मरकर गिर जाएँगे सिवाए उनके जिन्हें अल्लाह (ज़िन्दा रखना) चाहे। फिर एक दूसरा सूर फूँका जाएगा तो यकायक वे सब उठकर देखने लगेंगे।” (आयत-68)।
قُلُوبٞ يَوۡمَئِذٖ وَاجِفَةٌ ۝ 5
(8) कुछ दिल होंगे जो उस दिन डर से काँप रहे होंगे,3
3. ‘कुछ दिल’ के अलफ़ाज़ इसलिए इस्तेमाल किए गए हैं कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ सिर्फ़ हक़ का इनकार करनेवालों, अल्लाह के खुले नाफ़रमानों और मुनाफ़िक़ों ही पर क़ियामत के दिन घबराहट छाएगी। नेक ईमानवाले लोग उस घबराहट से बचे रहेंगे। सूरा-21 अम्बिया में उनके बारे में फ़रमाया गया है— “वह इन्तिहाई घबराहट का वक़्त उनको ज़रा परेशान न करेगा और फ़रिश्ते बढ़कर उनको हाथों-हाथ लेंगे कि यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता था।” (आयत-103)।
أَبۡصَٰرُهَا خَٰشِعَةٞ ۝ 6
(9) निगाहें उनकी सहमी हुई होंगी।
يَقُولُونَ أَءِنَّا لَمَرۡدُودُونَ فِي ٱلۡحَافِرَةِ ۝ 7
(10) ये लोग कहते हैं, “क्या सचमुच हम पलटाकर फिर वापस लाए जाएँगे?
أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا نَّخِرَةٗ ۝ 8
(11) क्या जब हम खोखली सड़ी-गली हड्डियाँ बन चुके होंगे?”
قَالُواْ تِلۡكَ إِذٗا كَرَّةٌ خَاسِرَةٞ ۝ 9
(12) कहने लगे, “यह वापसी तो फिर बड़े घाटे की होगी।"4
4. यानी जब उनको जवाब दिया गया कि हाँ, ऐसा ही होगा तो वे मज़ाक़ के तौर पर आपस में एक-दूसरे से कहने लगे कि यारो! अगर सचमुच हमें पलटकर दोबारा ज़िन्दगी की हालत में वापस आना पड़ा तब तो हम मारे गए, उसके बाद तो फिर हमारी ख़ैर नहीं है।
فَإِنَّمَا هِيَ زَجۡرَةٞ وَٰحِدَةٞ ۝ 10
(13) हालाँकि यह बस इतना काम है कि एक ज़ोर की डाँट पड़ेगी
فَإِذَا هُم بِٱلسَّاهِرَةِ ۝ 11
(14) और अचानक ये खुले मैदान में मौजूद होंगे।5
5. यानी ये लोग उसे एक मुश्किल मामला समझकर उसकी हँसी उड़ा रहे हैं, हालाँकि अल्लाह के लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं है, जिसको अंजाम देने के लिए कुछ बड़ी लम्बी-चैड़ी तैयारियों की ज़रूरत हो। इसके लिए सिर्फ़ एक डाँट या झिड़की काफ़ी है, जिसके साथ ही तुम्हारी मिट्टी या राख, चाहे कहीं पड़ी हो, हर तरफ़ से सिमटकर एक जगह जमा हो जाएगी और तुम यकायक अपने आपको ज़मीन की पीठ पर ज़िन्दा मौजूद पाओगे। इस वापसी को घाटे की वापसी समझकर चाहे तुम इससे कितना ही भागने की कोशिश करो, यह तो होकर रहनी है, तुम्हारे इनकार या भागने या मज़ाक़ उड़ाने से यह रुक नहीं सकती।
هَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ مُوسَىٰٓ ۝ 12
(15) क्या6 तुम्हें मूसा के क़िस्से की ख़बर पहुँची है?
6. चूँकि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का क़ियामत और आख़िरत को न मानना और उसका मज़ाक़ उड़ाना अस्ल में किसी फ़लसफ़े (दर्शन) को रद्द करना नहीं था, बल्कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को झुठलाना था, और जो चालें वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ख़िलाफ़ चल रहे थे वे किसी आम आदमी के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पैग़ाम को नुक़सान पहुँचाने के लिए थीं, इसलिए आख़िरत के आने की कुछ और दलीलें देने से पहले उनको हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन का क़िस्सा सुनाया जा रहा है, ताकि वे ख़बरदार हो जाएँ कि पैग़म्बरी से टकराने और रसूल के भेजनेवाले ख़ुदा के मुक़ाबले में सिर उठाने का अंजाम क्या होता है।
إِذۡ نَادَىٰهُ رَبُّهُۥ بِٱلۡوَادِ ٱلۡمُقَدَّسِ طُوًى ۝ 13
(16) जब उसके रब ने उसे तुवा की पाक घाटी7 में पुकारा था
7. ‘वादी-ए-मुक़द्दसि तुवा’ का मतलब आम तौर से क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने यह बयान किए हैं कि “वह मुक़द्दस वादी जिसका नाम तुवा था।” लेकिन इसके अलावा इसके दो मतलब और भी बयान किए गए हैं। एक यह कि “वह वादी (घाटी) जो दो बार मुक़द्दस (पाक व पवित्रा) की गई,” क्योंकि एक बार उसे उस वक़्त मुक़द्दस किया गया जब पहली बार अल्लाह तआला ने वहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) से बात की, और दूसरी बार उसे मुक़द्दस उस वक़्त बनाया गया जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र से बनी-इसराईल को निकालकर इस घाटी में लाए। दूसरे यह कि “रात के वक़्त मुक़द्दस वादी में पुकारा।” अरबी में मुहावरा है ‘जा-अ बअ-द तुवा’ यानी फ़ुलाँ आदमी मेरे पास रात का कुछ हिस्सा गुज़रने के बाद आया।
ٱذۡهَبۡ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 14
(17) कि “फ़िरऔन के पास जा, वह सरकश हो गया है,
فَقُلۡ هَل لَّكَ إِلَىٰٓ أَن تَزَكَّىٰ ۝ 15
(18) और उससे कह, क्या तू इसके लिए तैयार है कि पाकीज़गी अपनाए,
وَأَهۡدِيَكَ إِلَىٰ رَبِّكَ فَتَخۡشَىٰ ۝ 16
(19) और मैं तेरे रब की तरफ़ रहनुमाई करूँ तो (उसका) डर तेरे अन्दर पैदा हो?”8
8. यहाँ कुछ बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ— (i) हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर मुक़र्रर करते वक़्त जो बातें उनके और अल्लाह के बीच हुई थीं, उनको क़ुरआन मजीद में मौक़े के हिसाब से कहीं मुख़्तसर तौर से और कहीं तफ़सील से बयान किया गया है। यहाँ मौक़ा मुख़्तसर तौर से बताने का तक़ाज़ा कर रहा था, इसलिए उनका सिर्फ़ ख़ुलासा बयान किया गया है। सूरा-20 ता-हा, आयतें—9, 48; सूरा-26 शुअरा, आयतें—10 से 17; सूरा-27 नम्ल, आयतें—7 से 12, और सूरा-28 क़सस, आयतें—29 से 35 में इनकी तफ़सील बयान हुई है। (ii) फ़िरऔन की जिस सरकशी का यहाँ ज़िक्र किया गया है उससे मुराद बन्दगी की हद से निकल करके पैदा करनेवाले (ख़ुदा) और मख़लूक़, दोनों के मुक़ाबले में सरकशी करना है। पैदा करनेवाले के मुक़ाबले में उसकी सरकशी का ज़िक्र तो आगे आ रहा है कि उसने अपनी जनता को इकट्ठा करके एलान किया कि “मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ।” और दुनियावालों के मुक़ाबले में उसकी सरकशी यह थी कि उसने अपनी हुकूमत के वासियों को अलग-अलग गरोहों और तबक़ों में बाँट रखा था, कमज़ोर तबक़ों (वर्गों) पर वह सख़्त ज़ुल्म और सितम ढा रहा था, और अपनी पूरी क़ौम को बेवक़ूफ़ बनाकर उसने ग़ुलाम बना रखा था, जैसा कि सूरा-28 क़सस, आयत-4; और सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-54 में बयान किया गया है। (iii) हज़रत मूसा (अलैहि०) को हिदायत की गई थी कि “तुम और हारून दोनों भाई उससे नर्मी के साथ बात करना, शायद कि वह नसीहत क़ुबूल करे और ख़ुदा से डरे” (सूरा-20 ता-हा, आयत-44)। इस नर्म बात करने का एक नमूना तो इन आयतों में दिया गया है जिससे मालूम होता है कि एक तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) करनेवाले को किसी बिगड़े हुए आदमी की हिदायत के लिए किस हिकमत के साथ तबलीग़ करनी चाहिए। दूसरे नमूने सूरा-20 ता-हा, आयतें—49 से 52; सूरा-26 शुअरा, आयतें—23 से 28, और सूरा-28 क़सस, आयत-37 में दिए गए हैं। यह उन आयतों में से हैं जिनमें अल्लाह तआला ने क़ुरआन मजीद में तबलीग़ की हिकमत की तालीम दी है। (iv) हज़रत मूसा (अलैहि०) सिर्फ़ बनी-इसराईल की रिहाई के लिए ही फ़िरऔन के पास नहीं भेजे गए थे, जैसा कि कुछ लोगों का ख़याल है, बल्कि उनके भेजे जाने का पहला मक़सद फ़िरऔन और उसकी क़ौम को सीधी राह दिखाना था, और दूसरा मक़सद यह था कि अगर वह सीधी राह क़ुबूल न करे तो बनी-इसराईल को (जो अस्ल में एक मुसलमान क़ौम थे) उसकी ग़ुलामी से छुड़ाकर मिस्र से निकाल लाएँ। यह बात इन आयतों से भी ज़ाहिर होती है, क्योंकि इनमें सिरे से बनी-इसराईल की रिहाई का ज़िक्र ही नहीं है, बल्कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को फ़िरऔन के सामने सिर्फ़ हक़ की तबलीग़ पेश करने का हुक्म दिया गया है, और उन जगहों से भी इसका सुबूत मिलता है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इस्लाम की तबलीग़ भी की है और बनी-इसराईल की रिहाई की माँग भी की है। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—104, 105; सूरा-20 ता-हा, आयतें—47 से 52; सूरा-26 शुअरा, आयतें—16, 17 और 23 से 28। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-74)। (v) यहाँ पाकीज़गी (तज़क्की) अपनाने का मतलब अक़ीदे और अख़लाक़ और आमाल की पाकीज़गी अपनाना या दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम क़ुबूल कर लेना है। इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि क़ुरआन में जहाँ भी ‘तज़क्की’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, वहाँ इससे मुराद इस्लाम क़ुबूल करना ही है। चुनाँचे वह मिसाल में क़ुरआन मजीद की नीचे लिखी आयतें पेश करते हैं, “और यह बदला है उसका जो पाकीज़गी (तज़क्का) अपनाए,” (सूरा-20 ता-हा, आयत-76) यानी इस्लाम ले आए। और “तुम्हें क्या ख़बर कि शायद वह पाकीज़गी (यज़्ज़क्का) अपनाए,” (सूरा-80 अ-ब-स, आयत-3) यानी मुसलमान हो जाए। “और तुमपर क्या ज़िम्मेदारी है अगर वह पाकीज़गी (यज़्ज़क्का) न अपनाए,” (सूरा-80 अ-ब-स, आयत-7) यानी मुसलमान न हो।” (इब्ने-जरीर)। (vi) यह कहना कि “मैं तेरे रब की तरफ़ तेरी रहनुमाई करूँ तो (उसका डर) तेरे दिल में पैदा हो,” इसका मतलब यह है कि जब तू अपने रब को पहचान लेगा और तुझे मालूम हो जाएगा कि तू उसका बन्दा है, आज़ाद आदमी नहीं है, तो ज़रूर ही तेरे दिल में उसका डर पैदा होगा, और ख़ुदा का डर ही वह चीज़ है जिसपर दुनिया में आदमी के रवैये के सही होने का दारोमदार है। ख़ुदा की पहचान और उसके डर के बिना किसी पाकीज़गी के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता।
فَأَرَىٰهُ ٱلۡأٓيَةَ ٱلۡكُبۡرَىٰ ۝ 17
(20) फिर मूसा ने (फ़िरऔन के पास जाकर) उसको बड़ी निशानी9 दिखाई,
9. बड़ी निशानी से मुराद असा (लाठी) का अजगर बन जाना है, जिसका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर किया गया है। ज़ाहिर है कि इससे बड़ी निशानी और क्या हो सकती है कि एक बेजान लाठी सब देखनेवालों की आँखों के सामने अलानिया (खुल्लम-खुल्ला) अजगर बन जाए, जादूगर उसके मुक़ाबले में लाठियों और रस्सियों के जो बनावटी अजगर बनाकर दिखाएँ उन सबको वह निगल जाए, और फिर हज़रत मूसा (अलैहि०) जब उसको पकड़कर उठाएँ तो वह फिर लाठी-की-लाठी बनकर रह जाए। यह इस बात की खुली निशानी थी कि वह अल्लाह, तमाम जहानों का रब, ही है जिसकी तरफ़ से हज़रत मूसा (अलैहि०) भेजे गए हैं।
فَكَذَّبَ وَعَصَىٰ ۝ 18
(21) मगर उसने झुठला दिया और न माना,
ثُمَّ أَدۡبَرَ يَسۡعَىٰ ۝ 19
(22) फिर चालबाज़ियाँ करने के लिए पलटा10
10. इसकी तफ़सील दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में यह बयान की गई है कि उसने तमाम मिस्र से माहिर जादूगरों को बुलवाया और एक आम भीड़ में उनसे लाठियों और रस्सियों के अजगर बनवाकर दिखाए, ताकि लोगों को यक़ीन आ जाए कि मूसा (अलैहि०) कोई नबी नहीं, बल्कि एक जादूगर हैं, और लाठी का अजगर बनाने का जो करिश्मा उन्होंने दिखाया है वह दूसरे जादूगर भी दिखा सकते हैं। लेकिन उसकी यह चाल उलटी पड़ी और जादूगरों ने हार क़ुबूल करके ख़ुद यह मान लिया कि मूसा (अलैहि०) ने जो कुछ दिखाया है वह जादू नहीं, बल्कि मोजिज़ा (चमत्कार) है।
فَحَشَرَ فَنَادَىٰ ۝ 20
(23) और लोगों को इकट्ठा करके उसने पुकारकर
11. फ़िरऔन का यह दावा कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है। एक मौक़े पर उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) से कहा कि “अगर तुमने मेरे सिवा किसी और को ख़ुदा बनाया तो मैं तुम्हें क़ैद कर दूँगा।” (सूरा-26 शुअरा, आयत-29)। एक और मौक़े पर उसने अपने दरबार में लोगों को ख़िताब (सम्बोधित) करके कहा, “ऐ क़ौम के सरदारो! मैं नहीं जानता कि मेरे सिवा तुम्हारा कोई और ख़ुदा भी है।” (सूरा-28 क़सस, आयत-38)। इन सारी बातों से फ़िरऔन का यह मतलब न था, और न ही हो सकता था कि वही कायनात का पैदा करनेवाला है और उसी ने यह दुनिया पैदा की है। यह मतलब भी न था कि वह अल्लाह तआला के वुजूद का इनकार करनेवाला और ख़ुद सारे जहानों का रब होने का दावेदार था। यह मतलब भी न था कि वह सिर्फ़ अपने-आप ही को मज़हबी मानों में लोगों का माबूद (उपास्य) ठहराता था। क़ुरआन मजीद ही में इस बात का गवाही मौजूद है कि जहाँ तक मज़हब का ताल्लुक़ है वह ख़ुद दूसरे माबूदों की पूजा करता था, चुनाँचे उसके दरबारी एक मौक़े पर उसको मुख़ातब करके कहते हैं, “क्या आप मूसा (अलैहि०) और उसकी क़ौम को यह आज़ादी देते चले जाएँगे कि वे देश में बिगाड़ फैलाएँ और आपको और आपके माबूदों को छोड़ दें?” (सूरा-7 आराफ़, आयत-127)। और क़ुरआन में फ़िरऔन की यह बात भी नक़्ल की गई है कि अगर मूसा अल्लाह के भेजे हुए होते तो क्यों न उनपर सोने के कंगन उतारे गए? या उनके साथ फ़रिश्ते उनकी अरदली में क्यों न आए? (सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-53)। इसलिए हक़ीक़त में वह मज़हबी मानी में नहीं, बल्कि सियासी मानी में अपने आपको इलाह और सबसे बड़ा रब कहता था, यानी उसका मतलब यह था कि सबसे बड़े इक़्तिदार (सत्ता) का मालिक मैं हूँ, मेरे सिवा किसी को मेरी हुकूमत में हुक्म चलाने का हक़ नहीं है, और मेरे ऊपर कोई बालातर ताक़त नहीं है जिसका हुक्म यहाँ जारी हो सकता हो (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-85; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-21; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—24, 26; सूरा-28 क़सस, हाशिए—52, 53; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-49)।
فَقَالَ أَنَا۠ رَبُّكُمُ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 21
(24) कहा, “मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ।”11
فَأَخَذَهُ ٱللَّهُ نَكَالَ ٱلۡأٓخِرَةِ وَٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 22
(25) आख़िरकार अल्लाह ने उसे आख़िरत और दुनिया के अज़ाब में पकड़ लिया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰٓ ۝ 23
(26) हक़ीक़त में इसमें बड़ा सबक़ है हर उस शख़्स के लिए जो डरे।12
12. यानी ख़ुदा के रसूल को झुठलाने के उस अंजाम से डरे जो फ़िरऔन देख चुका है।
ءَأَنتُمۡ أَشَدُّ خَلۡقًا أَمِ ٱلسَّمَآءُۚ بَنَىٰهَا ۝ 24
(27) क्या13 तुम लोगों का पैदा करना ज़्यादा मुश्किल काम है या आसमान का?14 अल्लाह ने उसे बनाया,
13. अब क़ियामत और मरने के बाद की ज़िन्दगी के मुमकिन और हिकमत का तक़ाज़ा होने की दलीलें बयान की जा रही हैं।
14. पैदा करने से मुराद इनसानों को दोबारा पैदा करना है और आसमान से मुराद वह पूरी ऊपरी दुनिया है जिसमें अनगिनत सितारे और सय्यारे (ग्रह), बेहद व बेहिसाब शमसी निज़ाम (सौरमण्डल) और अनगिनत कहकशाँ (आकाशगंगा) पाई जाती हैं। मतलब यह है कि तुम जो मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा किए जाने को कोई बड़ा ही मुश्किल और नामुमकिन काम समझते हो, और बार-बार कहते हो कि भला यह कैसे हो सकता है कि जब हमारी हड्डियाँ तक गल-सड़ चुकी होंगी, उस हालत में हमारे जिस्म के बिखरे हुए हिस्से (अंग) फिर से इकट्ठा कर दिए जाएँ और उनमें जान डाल दी जाए, कभी इस बात पर भी ग़ौर करते हो कि इस अज़ीमुश्शान (विशाल) कायनात का बनाना ज़्यादा मुश्किल काम है या तुम्हें एक बार पैदा कर चुकने के बाद दोबारा इसी शक्ल में पैदा कर देना? जिस ख़ुदा के लिए वह कोई मुश्किल काम न था उसके लिए आख़िर यह क्यों ऐसा मुश्किल काम है कि वह इसे करने की क़ुदरत न रख सके? मरने के बाद की ज़िन्दगी पर यही दलील क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दी गई है। मिसाल के तौर पर सूरा-36 या-सीन में है— “और क्या वह जिसने आसमानों और ज़मीन को बनाया इसकी क़ुदरत (सामर्थ्य) नहीं रखता कि इन जैसों को (फिर से) पैदा कर दे? क्यों नहीं, वह तो बड़ा ज़बरदस्त पैदा करनेवाला है, पैदा करने के काम को ख़ूब जानता है।” (आयत-81)। और सूरा-40 मोमिन में फ़रमाया— “यक़ीनन आसमानों और ज़मीन को पैदा करना इनसानों को पैदा करने से ज़्यादा बड़ा काम है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।” (आयत-57)।
رَفَعَ سَمۡكَهَا فَسَوَّىٰهَا ۝ 25
(28) उसकी छत ख़ूब ऊँची उठाई, फिर उसका तवाज़ुन (सन्तुलन) क़ायम किया,
وَأَغۡطَشَ لَيۡلَهَا وَأَخۡرَجَ ضُحَىٰهَا ۝ 26
(29) और उसकी रात ढाँकी और उसका दिन निकाला।15
15. रात और दिन को आसमान की तरफ़ जोड़ दिया गया है, क्योंकि आसमान का सूरज डूबने से ही रात आती है और उसी के निकलने से दिन निकलता है। रात के लिए ढाँकने का लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल किया गया है कि सूरज डूबने के बाद रात की तारीकी इस तरह ज़मीन पर छा जाती है जैसे ऊपर से उसपर परदा डालकर ढाँक दिया गया हो।
وَٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ دَحَىٰهَآ ۝ 27
(30) इसके बाद ज़मीन को उसने बिछाया,16
16. “इसके बाद ज़मीन को बिछाने” का मतलब यह नहीं है कि आसमान के पैदा करने के बाद अल्लाह तआला ने ज़मीन पैदा की, बल्कि यह ऐसा ही अन्दाज़े-बयान है जैसे हम एक बात का ज़िक्र करने के बाद कहते हैं, “फिर यह बात ध्यान देने लायक़ है।” इसका मतलब उन दोनों बातों के बीच वाक़िआती तरतीब बयान करना नहीं होता कि पहले यह बात हुई और उसके बाद दूसरी बात, बल्कि मक़सद एक बात के बाद दूसरी बात की तरफ़ ध्यान दिलाना होता है, अगरचे दोनों एक साथ पाई जाती हों। बयान के इस अन्दाज़ की कई मिसालें ख़ुद क़ुरआन में मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर सूरा-68 क़लम, आयत-13 में फ़रमाया, “ज़ालिम है और उसके बाद बदअस्ल।” इसका मतलब यह नहीं है कि पहले वह ज़ालिम बना और उसके बाद बदअस्ल हुआ, बल्कि मतलब यह है कि वह शख़्स ज़ालिम है और उसके साथ बदअस्ल भी है। इसी तरह सूरा-90 बलद, आयत-13, 17 में फ़रमाया, “ग़ुलाम आज़ाद कर दे .... फिर ईमान लानेवालों में से हो।” इसका भी यह मतलब नहीं है कि पहले वह नेक आमाल करे, फिर ईमान लाए, बल्कि मतलब यह है कि उन नेक आमाल के साथ-साथ उसमें ईमानवाला होने की सिफ़त भी हो। इस जगह यह बात समझ लेनी चाहिए कि क़ुरआन में कहीं ज़मीन की पैदाइश का ज़िक्र पहले किया गया है और आसमानों की पैदाइश का ज़िक्र बाद में, जैसे सूरा-2 बक़रा, आयत-29 में है, और किसी जगह आसमान की पैदाइश का ज़िक्र पहले और ज़मीन की पैदाइश का ज़िक्र बाद में किया गया है, जैसे इन आयतों में हम देख रहे हैं। यह अस्ल में टकराव नहीं है। इन जगहों में से किसी जगह भी बयान का मक़सद यह बताना नहीं है कि किसे पहले बनाया गया और किसे बाद में, बल्कि जहाँ मौक़ा-महल की यह माँग हो कि अल्लाह की क़ुदरत के कमालात को नुमायाँ किया जाए वहाँ आसमानों का ज़िक्र पहले किया गया है और ज़मीन का बाद में, और जहाँ बात का सिलसिला इस बात का तक़ाज़ा करता है कि लोगों को उन नेमतों का एहसास दिलाया, जो उन्हें ज़मीन पर हासिल हो रही हैं वहाँ ज़मीन के ज़िक्र को आसमानों के ज़िक्र से पहले किया गया है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—13, 14)।
أَخۡرَجَ مِنۡهَا مَآءَهَا وَمَرۡعَىٰهَا ۝ 28
(31) उसके अन्दर से उसका पानी और चारा निकाला17
17. चारे से मुराद इस जगह सिर्फ़ जानवरों का चारा नहीं है, बल्कि वे तमाम पेड़-पौधे मुराद हैं जो इनसानों और जानवरों दोनों के खाने के काम आते हैं। मिसाल के तौर पर सूरा-12 यूसुफ़ में आया है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने अपने बाप से कहा, “आप कल यूसुफ़ को हमारे साथ भेज दें कि कुछ चर-चुग ले और खेले।” (आयत-12)। यहाँ बच्चे के लिए चरने का लफ़्ज़ जंगल में चल-फिरकर फल तोड़ने और खाने के मानी में इस्तेमाल किया गया है।
وَٱلۡجِبَالَ أَرۡسَىٰهَا ۝ 29
(32) और पहाड़ उसमें गाड़ दिए,
مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِأَنۡعَٰمِكُمۡ ۝ 30
(33) ज़िन्दगी के सामान के तौर पर तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए।18
18. इन आयतों में क़ियामत और मरने के बाद की ज़ि़न्दगी के लिए दो हैसियतों से दलील दी गई है। एक यह कि उस ख़ुदा की क़ुदरत के लिए इनका लाना हरगिज़ नामुमकिन नहीं है, जिसने यह लम्बी-चैड़ी (विशाल और भव्य) कायनात इस हैरत-अंगेज़ तवाज़ुन (सन्तुलन) के साथ और यह ज़मीन इस सरो-सामान के साथ बनाई है। दूसरी यह कि अल्लाह की मुकम्मल और आला हिकमत की जो निशानियाँ इस कायनात और इस ज़मीन में साफ़-साफ़ नज़र आ रही हैं वे इस बात की दलील हैं कि यहाँ कोई काम बेमक़सद नहीं हो रहा है। ऊपरी दुनिया में अनगिनत तारों और सय्यारों (ग्रहों) और कहकशानों (आकाशगंगाओं) के बीच जो तवाज़ुन (सन्तुलन) क़ायम है वह गवाही दे रहा है कि यह सब कुछ यूँ ही नहीं हो गया है, बल्कि कोई बहुत सोची-समझी स्कीम इसके पीछे काम कर रही है। यह रात और दिन का बाक़ायदगी के साथ आना इस बात पर गवाह है कि ज़मीन को आबाद करने के लिए यह इन्तिज़ाम इन्तिहाई दर्जे की सूझ-बूझ के साथ क़ायम किया गया है। ख़ुद इसी ज़मीन पर वे इलाक़े भी मौजूद हैं जहाँ 24 घण्टे के अन्दर दिन और रात का उलट-फेर हो जाता है और वे इलाक़े भी मौजूद हैं जहाँ बहुत लम्बे दिन और बहुत लम्बी रातें होती हैं। ज़मीन की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा पहली तरह के इलाक़ों में है, और जहाँ रात-दिन जितने ज़्यादा लम्बे होते जाते हैं, वहाँ ज़िन्दगी ज़्यादा-से-ज़्यादा मुश्किल और आबादी कम-से-कम होती चली जाती है, यहाँ तक कि 6 महीने के दिन और 6 महीने की रातें रखनेवाले इलाक़े आबादी के बिलकुल क़ाबिल नहीं हैं। ये दोनों नमूने इसी ज़मीन पर दिखाकर अल्लाह तआला ने इस हक़ीक़त की गवाही पेश कर दी है कि रात और दिन के आने-जाने का यह बाक़ायदा इन्तिज़ाम किसी इत्तिफ़ाक़ (संयोग) से नहीं हो गया है, बल्कि यह ज़मीन को आबादी के क़ाबिल बनाने के लिए बड़ी हिकमत और सूझ-बूझ के साथ ठीक-ठीक एक पैमाने (माप) के मुताबिक़ किया गया है। इसी तरह ज़मीन को इस तरह बिछाना कि वह रहने के क़ाबिल बन सके, उसमें वह पानी पैदा करना जो इनसानों और जानवरों के लिए पीने के क़ाबिल और पेड़-पौधों के लिए फलने-फूलने के क़ाबिल हो, इसमें पहाड़ों का जमाना और वे तमाम चीजें पैदा करना जो इनसान और हर तरह के जानदारों के लिए ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़रिआ बन सकें, ये सारे काम इस बात की खुली निशानी हैं कि यह इत्तिफ़ाक़ी हादिसों या किसी खिलंदड़े के बेमक़सद काम नहीं हैं, बल्कि इनमें से हर काम एक बहुत बड़ी हिकमतवाली और सूझ-बूझ रखनेवाली हस्ती ने मक़सद के साथ किया है। अब यह हर अक़्लमन्द आदमी के ख़ुद सोचने की बात है कि क्या आख़िरत का होना हिकमत और समझदारी का तक़ाज़ा है या उसका न होना? जो शख़्स इन सारी चीज़ों को देखने के बावजूद यह कहता है कि आख़िरत नहीं होगी वह मानो यह कहता है कि यहाँ और सब कुछ तो हिकमत और मक़सद के साथ हो रहा है, मगर ज़मीन पर इनसान को होश-हवासवाला और इख़्तियार रखनेवाला बनाकर पैदा करना बेमक़सद और बेहिकमत है। क्योंकि इससे बड़ी कोई बेमक़सद और कोई बेहिकमत बात नहीं हो सकती कि इस ज़मीन में इस्तेमाल के अनगिनत इख़्तियारात देकर इनसान को यहाँ हर तरह के अच्छे और बुरे काम करने का मौक़ा तो दे दिया जाए, मगर कभी उससे पूछ-गछ न की जाए।
فَإِذَا جَآءَتِ ٱلطَّآمَّةُ ٱلۡكُبۡرَىٰ ۝ 31
(34) फिर जब वह बड़ा हंगामा मचेगा,19
19. इससे मुराद है क़ियामत और उसके लिए अस्ल अरबी में ‘अत्ताम्मतुल-कुबरा’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। ‘ताम्मा’ अपनी जगह ख़ुद किसी ऐसी बड़ी आफ़त को कहते हैं जो सबपर छा जाए। इसके बाद उसके लिए कुबरा का लफ़्ज़ और इस्तेमाल किया गया है जिससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर होता है कि इसकी शिद्दत का एहसास दिलाने के लिए सिर्फ़ लफ़्ज़ ताम्मा भी काफ़ी नहीं है।
يَوۡمَ يَتَذَكَّرُ ٱلۡإِنسَٰنُ مَا سَعَىٰ ۝ 32
(35) जिस दिन इंसान अपना सब किया-धरा याद करेगा20,
20. यानी जब इनसान देख लेगा कि वही पूछ-गछ और हिसाब-किताब का दिन आ गया है जिसकी उसे दुनिया में ख़बर दी जा रही थी तो इससे पहले कि उसका आमाल-नामा उसके हाथ में दिया जाए, उसे एक-एक करके अपनी वे सब हरकतें याद आने लगेंगी जो वह दुनिया में करके आया है। कुछ लोगों को यह तजरिबा ख़ुद इस दुनिया में भी होता है कि अगर अचानक किसी वक़्त वे किसी ऐसे ख़तरे से दोचार हो जाते हैं जिसमें मौत उनको बिलकुल क़रीब खड़ी नज़र आने लगती है तो अपनी पूरी ज़िन्दगी की फ़िल्म उनकी तसव्वुर की आँखों के सामने एकदम से फिर जाती है।
وَبُرِّزَتِ ٱلۡجَحِيمُ لِمَن يَرَىٰ ۝ 33
(36) और हर देखनेवाले के सामने जहन्नम खोलकर रख दी जाएगी,
فَأَمَّا مَن طَغَىٰ ۝ 34
(37) तो जिसने सरकशी की थी
وَءَاثَرَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 35
(38) और दुनिया की ज़िन्दगी को तरजीह (प्राथमिकता) दी थी,
فَإِنَّ ٱلۡجَحِيمَ هِيَ ٱلۡمَأۡوَىٰ ۝ 36
(39) जहन्नम ही उसका ठिकाना होगी।
وَأَمَّا مَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ وَنَهَى ٱلنَّفۡسَ عَنِ ٱلۡهَوَىٰ ۝ 37
(40) और जो अपने रब के सामने खड़े होने से डरा था और मन को बुरी ख़ाहिशों से रोके रखा था,
فَإِنَّ ٱلۡجَنَّةَ هِيَ ٱلۡمَأۡوَىٰ ۝ 38
(41) जन्नत उसका ठिकाना होगी।21
21. यहाँ कुछ थोड़े-से अलफ़ाज़ में यह बता दिया गया है कि आख़िरत में अस्ल फ़ैसला किस चीज़ पर होना है। दुनिया में ज़िन्दगी का एक रवैया यह है कि आदमी बन्दगी और फ़रमाँबरदारी की हद से बाहर निकलकर अपने ख़ुदा के मुक़ाबले में सरकशी करे और यह तय कर ले कि इसी दुनिया के फ़ायदे और मज़े उसे चाहिए हैं, चाहे वे किसी भी तरह हासिल हों। दूसरा रवैया यह है कि यहाँ ज़िन्दगी गुज़ारते हुए आदमी को इस बात का ध्यान रहे कि आख़िर एक दिन उसे अपने रब के सामने खड़ा होना है, और मन की बुरी ख़ाहिशों को पूरा करने से इसलिए रुका रहे कि अगर यहाँ उसने अपने मन का कहा मानकर कोई नाजाइज़ फ़ायदा कमा लिया या कोई नाजाइज़ मज़ा हासिल कर लिया तो अपने रब को क्या जवाब देगा। आख़िरत में फ़ैसला इसी बात पर होना है कि इनसान ने इन दोनों में से कौन-सा रवैया दुनिया में अपनाया। पहला रवैया अपनाया हो तो उसका हमेशा का ठिकाना जहन्नम है, और दूसरा रवैया अपनाया हो तो उसके हमेशा रहने की जगह जन्नत।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلسَّاعَةِ أَيَّانَ مُرۡسَىٰهَا ۝ 39
(42) ये लोग तुमसे पूछते हैं कि “आख़िर वह घड़ी कब आकर ठहरेगी?"22
22. मक्का के इस्लाम-दुश्मन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह सवाल बार-बार करते थे और इसका मक़सद क़ियामत के आने का वक़्त और उसकी तारीख़ मालूम करना नहीं होता था, बल्कि उसका मज़ाक़ उड़ाना होता था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-67 मुल्क, हाशिया-35)।
فِيمَ أَنتَ مِن ذِكۡرَىٰهَآ ۝ 40
(43) तुम्हारा क्या काम कि उसका वक़्त बताओ।
إِلَىٰ رَبِّكَ مُنتَهَىٰهَآ ۝ 41
(44) उसका इल्म तो अल्लाह पर ख़त्म है।
إِنَّمَآ أَنتَ مُنذِرُ مَن يَخۡشَىٰهَا ۝ 42
(45) तुम सिर्फ़ ख़बरदार करनेवाले हो हर उस शख़्स को जो उससे डरे।23
23. इसकी तशरीह भी हम सूरा-67 मुल्क, हाशिया-36 में कर चुके हैं। रहा यह कहना कि तुम हर उस शख़्स को ख़बरदार कर देनेवाले हो जो उससे डरे, तो इसका मतलब यह नहीं है कि डर न रखनेवालों को ख़बरदार करना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हारे ख़बरदार करने का फ़ायदा उसी को पहुँचेगा जो उस दिन के आने से डरे।
كَأَنَّهُمۡ يَوۡمَ يَرَوۡنَهَا لَمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا عَشِيَّةً أَوۡ ضُحَىٰهَا ۝ 43
(46) जिस दिन ये लोग उसे देख लेंगे तो इन्हें यूँ महसूस होगा कि (ये दुनिया में या मौत की हालत में) बस एक दिन के पिछले पहर या अगले पहर तक ठहरे हैं।24
24. यह बात इससे पहले कई जगह क़ुरआन में बयान हो चुकी है और हम इसकी तशरीह कर चुके हैं। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-53; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-56; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-80; सूरा-40 मोमिनून, हाशिया-101; सूरा-30 रूम, हाशिए—81, 82; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-48। इसके अलावा यह बात सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-35 में भी गुज़र चुकी है जिसकी तशरीह हमने वहाँ नहीं की, क्योंकि पहले कई जगह तशरीह हो चुकी थी।
وَٱلنَّٰزِعَٰتِ غَرۡقٗا
(1) क़सम है उन (फ़रिश्तों) की जो डूबकर खींचते हैं,
وَٱلنَّٰشِطَٰتِ نَشۡطٗا ۝ 44
(2) और धीरे से निकाल ले जाते हैं,
وَٱلسَّٰبِحَٰتِ سَبۡحٗا ۝ 45
(3) और (उन फ़रिश्तों की जो कायनात में) तेज़ी से तैरते फिरते हैं,