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سُورَةُ الطَّلَاقِ

65. अत-तलाक़

(मदीना में उतरी, आयतें 12)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम ही 'अत-तलाक़' नहीं है, बल्कि यह इसकी विषय-वस्तु का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें तलाक़ ही के नियमों का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने स्पष्टत: कहा है और सूरा के विषय के आन्तरिक साक्ष्य से भी यही स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्यत: सूरा-2 (बक़रा) की उन आयतों के बाद उतरी है जिनमें तलाक़ के नियम-सम्बन्धी आदेश पहली बार दिए गए थे। उल्लेखों से मालूम होता है कि जब सूरा बक़रा के आदेशों को समझने में लोग ग़लतियाँ करने लगे और व्यवहारतः भी उनसे ग़लतियाँ होने लगीं, तब अल्लाह ने उनके सुधार के लिए ये नियम-सम्बन्धी आदेश अवतरित किए।

विषय और वार्ता

इस सूरा के आदेशों एवं निर्देशों को समझने के लिए आवश्यक है कि उन निर्देशों को पुन: मन में ताज़ा कर लिया जाए जो तलाक़ और इद्दत के सम्बन्ध में इससे पहले सूरा-2 (बक़रा), आयत-28, 229, 230, 234; सूरा-33 (अहज़ाब), आयत 49 में वर्णित हो चुके हैं। इन आयतों में जो नियम निर्धारित किए गए थे, वे ये थे—

(1) एक पुरुष अपनी पत्‍नी को अधिक-से-अधिक तीन तलाक़ दे सकता है।

 

(2) एक या दो तलाक़ देने की स्थिति में इद्दत के अन्दर पति को रुजूअ (अर्थात् बिना निकाह के पुनः दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने) का अधिकार होता है और इद्दत का समय समाप्त होने के बाद वही पुरुष और स्त्री पुनः निकाह करना चाहें तो कर सकते हैं। इसके लिए हलाला की कोई शर्त नहीं है। किन्तु यदि पुरुष तीन तलाक़ दे दे तो इद्दत के भीतर रुजूअ करने का अधिकार समाप्त हो जाता है और पुनः निकाह भी उस समय तक नहीं हो सकता, जब तक स्त्री का विवाह किसी और पुरुष से न हो जाए और वह (पुरुष) अपनी मरज़ी से उसको तलाक़ न दे दे।

(3) वह स्त्री जिसका पति से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और जो रजस्वला हो उसकी इद्दत यह है कि उसे तलाक़ के बाद तीन बार हैज़ (मासिक धर्म) आ जाए। एक तलाक़ या दो तलाक़ की स्थिति में इस इद्दत का अर्थ यह है कि स्त्री का अभी तक उस व्यक्ति (पति) से पत्‍नीत्व का सम्बन्ध पूर्णत: समाप्त नहीं हुआ है और वह इद्दत के भीतर उससे रुजूअ (पुनर्मिलन) कर सकता है। किन्तु यदि पुरुष तीन तलाक दे चुका हो तो यह इद्दत रुजूअ की गुंजाइश के लिए नहीं है, बल्कि केवल इसलिए है कि इसके समाप्त होने से पूर्व स्त्री किसी और व्यक्ति से निकाह नहीं कर सकती।

(4) वह स्त्री जिसका पति से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित न हुआ हो, जिसके हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दी जाए, उसके लिए कोई इद्दत नहीं है। वह चाहे तो तलाक़ के बाद तुरन्त निकाह कर सकती है।

(5) जिस स्त्री का पति मर जाए उसकी इद्दत 4 महीने 10 दिन है। अब यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सूरा तलाक़ इन नियमों में से किसी नियम को निरस्त करने या उसमें संशोधन करने के लिए नहीं उतरी है, बल्कि दो उद्देश्य के लिए उतरी है। एक यह कि पुरुष को तलाक़ का जो अधिकार दिया गया है, उसे व्यवहार में लाने के लिए ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण तरीक़े बताए जाएँ जिनसे यथासम्भव विलगाव की नौबत न आने पाए, क्योंकि ईश्वरीय धर्म-विधान में तलाक़ की गुंजाइश केवल एक अवश्यम्भावी आवश्यकता के रूप में रखी गई है, अन्यथा अल्लाह को यह बात अत्यन्त अप्रिय है कि एक स्त्री और पुरुष के बीच में जो दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित हो चुका है, वह फिर कभी टूट जाए। नबी (सल्ल०) का कथन है कि "अल्लाह ने किसी ऐसी चीज़ को वैध नहीं किया है जो तलाक़ से बढ़कर उसे अप्रिय हो" (हदीस : अबू दाऊद)। दूसरा उद्देश्य यह है कि सूरा-2 (बक़रा) के नियम-सम्बन्धी आदेशों एवं निर्देशों के बाद इस सम्बन्ध में जो प्रश्न ऐसे रह गए थे जिनका उत्तर नहीं दिया गया था उनका उत्तर देकर इस्लाम के पारिवारिक क़ानून के इस विभाग को पूर्ण कर दिया जाए।

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سُورَةُ الطَّلَاقِ
65. अत-तलाक़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَطَلِّقُوهُنَّ لِعِدَّتِهِنَّ وَأَحۡصُواْ ٱلۡعِدَّةَۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ رَبَّكُمۡۖ لَا تُخۡرِجُوهُنَّ مِنۢ بُيُوتِهِنَّ وَلَا يَخۡرُجۡنَ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُۥۚ لَا تَدۡرِي لَعَلَّ ٱللَّهَ يُحۡدِثُ بَعۡدَ ذَٰلِكَ أَمۡرٗا
(1) ऐ नबी! जब तुम लोग औरतों को तलाक़ दो तो उन्हें उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दिया करो।1 और इद्दत के ज़माने का ठीक-ठीक हिसाब रखो,2 और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। (इद्दत के ज़माने में) न तुम उन्हें उनके घरों से निकालो और न वे निकले3 सिवाय यह कि वे कोई खुली बुराई कर बैठें।4 ये अल्लाह की क़ायम की हुई हदें हैं, और जो कोई अल्लाह की हदों को पार करेगा वह अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा। तुम नहीं जानते, शायद इसके बाद अल्लाह (मेल-मिलाप की) कोई सूरत पैदा कर दे।5
1. यानी तुम लोग तलाक़ देने के मामले में जल्दी न किया करो कि ज्यों ही मियाँ-बीवी में कोई झगड़ा हुआ, फ़ौरन ही ग़ुस्से में आकर तलाक़ दे डाली, और निकाह का झटका इस तरह दिया कि दोबारा मिलाप की गुंजाइश भी न छोड़ी। बल्कि जब तुम्हें बीवियों को तलाक़ देना हो तो उनकी इद्दत के लिए दिया करो। इद्दत के लिए तलाक़ देने के दो मतलब हैं और दोनों ही यहाँ मुराद भी हैं— एक मतलब इसका यह है कि इद्दत की शुरुआत करने के लिए तलाक़ दो, या दूसरे अलफ़ाज़ में उस वक़्त तलाक़ दो जिससे उनकी इद्दत शुरू होती हो। यह बात सूरा-2 बक़रा, आयत-228 में बताई जा चुकी है कि जिस औरत से सोहबत हो चुकी हो और उसे माहवारी आती हो उसकी इद्दत तलाक़ देने के बाद तीन बार माहवारी का आना है। इस हुक्म को निगाह में रखकर देखा जाए तो इद्दत की शुरुआत करने के लिए तलाक़ देने की सूरत लाज़िमी तौर से यही हो सकती है कि औरत को माहवारी की हालत में तलाक़ न दी जाए, क्योंकि उसकी इद्दत उस माहवारी से शुरू नहीं हो सकती जिसमें उसे तलाक़ दी गई हो, और इस हालत में तलाक़ देने का मतलब यह हो जाता है कि अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ औरत की इद्दत तीन माहवारी के बजाय चार माहवारी बन जाए। इसके अलावा इस हुक्म का तक़ाज़ा यह भी है कि औरत को उस तुहर (पाकी की हालत) में तलाक़ न दी जाए जिसमें शौहर उससे सोहबत कर चुका हो, क्योंकि इस सूरत में तलाक़ देते वक़्त शौहर और बीवी दोनों में से किसी को भी यह मालूम नहीं हो सकता कि सोहबत के नतीजे में कोई हम्ल (गर्भ) ठहर गया है या नहीं, इस वजह से इद्दत की शुरुआत न इस अन्दाज़े की बुनियाद पर की जा सकती है कि यह इद्दत आगे आनेवाली माहवारियों के एतिबार से होगी और न इसी अन्दाज़े पर की जा सकती है कि यह हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत होगी। इसलिए यह हुक्म एक साथ दो बातों का तक़ाज़ा करता है। एक यह कि माहवारी की हालत में तलाक़ न दी जाए। दूसरे यह कि तलाक़ या तो उस तुहर (पाक हालत) में दी जाए जिसमें सोहबत न की गई हो, या फिर उस हालत में दी जाए जबकि औरत का हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो। ग़ौर किया जाए तो महसूस होगा कि तलाक़ पर ये क़ैदें लगाने में बहुत बड़ी मस्लहतें हैं। माहवारी की हालत में तलाक़ न देने की मस्लहत यह है कि यह वह हालत होती है जिसमें औरत और मर्द के दरमियान सोहबत मना होने की वजह से एक तरह की दूरी पैदा हो जाती है, और तिब्बी (मेडिकल) तौर पर भी यह बात साबित है कि इस हालत में औरत का मिज़ाज मामूल पर (सामान्य) नहीं रहता। इसलिए अगर उस वक़्त दोनों के दरमियान कोई झगड़ा हो जाए तो औरत और मर्द दोनों उसे ख़त्म करने के मामले में एक तरह से बेबस हो जाते हैं, और झगड़े से तलाक़ तक नौबत पहुँचाने के बजाय अगर औरत के माहवारी से निबटने तक इन्तिज़ार कर लिया जाए तो इस बात का काफ़ी इमकान होता है कि औरत का मिज़ाज भी मामूल पर आ जाए (सामान्य हो जाए) और दोनों के दरमियान फ़ितरत ने जो कशिश रखी है वह भी अपना काम करके दोनों को फिर से जोड़ दे। इसी तरह जिस तुहर में सोहबत की जा चुकी हो उसमें तलाक़ के मना होने की मस्लहत यह है कि उस ज़माने में अगर हम्ल (गर्भ) ठहर जाए तो मर्द और औरत, दोनों में से किसी को भी इसकी जानकारी नहीं हो सकती। इसलिए वह वक़्त तलाक़ देने के लिए मुनासिब नहीं है। हम्ल (गर्भ) का पता चल जाने की सूरत में तो मर्द भी दस बार सोचेगा कि जिस औरत के पेट में उसका बच्चा परवरिश पा रहा है उसे तलाक़ दे या न दे, और औरत भी अपने और अपने बच्चे की आनेवाली ज़िन्दगी का ख़याल करके शौहर की नाराज़ी की वजहें दूर करने की पूरी कोशिश करेगी। लेकिन अंधेरे में बिना सोचे-समझे तीर चला बैठने के बाद अगर मालूम हो कि हम्ल (गर्भ) ठहर चुका था, तो दोनों को पछताना पड़ेगा। यह तो है 'इद्दत के लिए' तलाक़ देने का पहला मतलब, जो सिर्फ़ उन औरतों पर चस्पाँ होता है जिनसे सोहबत हो चुकी हो और जिनको माहवारी आती हो और जिनके हामिला (गर्भवती) होने का इमकान हो। अब रहा इसका दूसरा मतलब तो वह यह है कि तलाक़ देना हो तो इद्दत तक के लिए तलाक़ दो, यानी एक साथ तीन तलाक़ देकर हमेशा की जुदाई के लिए तलाक़ न दे बैठो, बल्कि एक, या हद-से-हद दो तलाक़ें देकर इद्दत तक इन्तिज़ार करो, ताकि इस मुद्दत में हर वक़्त तुम्हारे लिए पलटने की गुंजाइश बाक़ी रहे। इस मतलब के लिहाज़ से यह हुक्म उन औरतों के बारे में भी फ़ायदेमन्द है जिनसे सोहबत हो चुकी हो और जिनको माहवारी आती हो और उनके मामले में भी फ़ायदेमन्द है जिनको माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या जिन्हें अभी माहवारी शुरू न हुई हो, या जिनका तलाक़ के वक़्त हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो। अल्लाह के इस हुक्म की पैरवी की जाए तो किसी शख़्स को भी तलाक़ देकर पछताना न पड़े, क्योंकि इस तरह तलाक़ देने से इद्दत के अन्दर दोबारा मिलाप भी हो सकता है, और इद्दत गुज़र जाने के बाद भी यह मुमकिन रहता है कि पहले के मियाँ-बीवी फिर आपस में रिश्ता जोड़ना चाहें तो नए सिरे से निकाह कर लें। 'फ़तल्लिक़ूहुन-न लिइद्दतिहिन-न' (उन्हें तलाक़ दो तो उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दो) का यही मतलब क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलिमों ने बयान किया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) इसकी तफ़सीर में फ़रमाते हैं कि “तलाक़ माहवारी की हालत में न दे, और न उस तुहर (माहवारी के बाद पाकी की हालत) में दे जिसके अन्दर शौहर सोहबत कर चुका हो, बल्कि उसे छोड़े रखे यहाँ तक माहवारी से निबटकर वह पाक हो जाए। फिर उसे एक ही तलाक़ दे दे। इस सूरत में अगर वह दोबारा मिलन न भी करे और इद्दत गुज़र जाए तो वह सिर्फ़ एक तलाक़ से जुदा होगी,” (इब्ने-जरीर)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “इद्दत के लिए तलाक़ यह है कि तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दी जाए।” यही तफ़सीर अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), अता (रह०), मुजाहिद (रह०), मैमून-बिन-महरान (रह०), मुक़ातिल-बिन-हय्यान (रह०) और ज़ह्हाक (रह०) से रिवायत हुई है, (इब्ने-कसीर)। इकरिमा इसका मतलब यह बयान करते हैं, “तलाक़ इस हालत में दे कि औरत का हामिला (गर्भवती) होना मालूम हो और इस हालत में न दे कि वह उससे सोहबत कर चुका हो और कुछ पता न हो कि वह हामिला (गर्भवती) हो गई है या नहीं,” (इब्ने-कसीर)। हज़रत हसन बसरी (रह०) और इब्ने-सीरीन, दोनों कहते हैं, “तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दी जाए, या फिर उस हालत में दी जाए जबकि हम्ल (गर्भ) ज़ाहिर हो चुका हो।” (इब्ने-जरीर) इस आयत के मंशा को बेहतरीन तरीक़े से ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उस मौक़े पर बयान फ़रमाया था जब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने अपनी बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दे दी थी। इस वाक़िए की तफ़सीलात क़रीब-क़रीब हदीस की तमाम किताबों में नक़्ल हुई हैं, और वही हक़ीक़त में इस मामले में क़ानून का ख़ास ज़रिआ हैं। क़िस्सा इसका यह है कि जब हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने अपनी बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दे दी तो हज़रत उमर (रज़ि०) ने जाकर नबी (सल्ल०) से इसका ज़िक्र किया। आप (सल्ल०) सुनकर सख़्त नाराज़ हुए और फ़रमाया कि “उसको हुक्म दो कि बीवी से रुजू (मिलाप) कर ले और उसे अपनी बीवी की हैसियत से रोके रखे यहाँ तक कि वह पाक हो जाए, फिर उसे माहवारी आए और उससे भी निबटकर वह पाक हो जाए, उसके बाद अगर वह उसे तलाक़ देना चाहे तो तुहर (पाकी) की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दे। यही वह इद्दत है जिसके लिए तलाक़ देने का अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है।” एक रिवायत के अलफ़ाज़ ये हैं कि “या तो पाकी की हालत में सोहबत किए बिना तलाक़ दे, या फिर ऐसी हालत में दे जबकि उसका हम्ल (गर्भ) ज़ाहिर हो चुका हो।" इस आयत के मंशा पर और रौशनी कुछ दूसरी हदीसें भी डालती हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और बड़े सहाबा से नक़्ल हुई हैं। नसई में रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ख़बर दी गई कि एक आदमी ने अपनी बीवी को एक ही वक़्त में तीन तलाक़ें दे डाली हैं। नबी (सल्ल०) यह सुनकर ग़ुस्से में खड़े हो गए और फ़रमाया, “क्या अल्लाह की किताब के साथ खेल किया जा रहा है, हालाँकि मैं तुम्हारे दरमियान मौज़ूद हूँ?” इस हरकत पर नबी (सल्ल०) के ग़ुस्से की कैफ़ियत देखकर एक आदमी ने पूछा, “क्या मैं उसे क़त्ल न कर दूँ?" अब्दुर्रज्ज़ाक़ ने हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) के बारे में रिवायत नक़्ल की है कि उनके बाप ने अपनी बीवी को हज़ार तलाक़ें दे डालीं। उन्होंने जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मसला पूछा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन तलाक़ों के ज़रिए से तो अल्लाह की नाफ़रमानी के साथ वह औरत उससे जुदा हो गई, और 997 ज़ुल्म व ज़्यादती के तौर पर बाक़ी रह गईं जिनपर अल्लाह चाहे तो उसे अज़ाब दे और चाहे तो माफ़ कर दे।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के क़िस्से की जो तफ़सील दारे-क़ुतनी और इब्ने-अबी-शैबा में रिवायत हुई है उसमें एक बात यह भी है कि नबी (सल्ल०) ने जब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन उमर (रज़ि०) को बीवी से मिलाप करने का हुक्म दिया तो उन्होंने पूछा, “अगर मैं उसको तीन तलाक़ दे देता तो क्या फिर भी मैं रुजू कर सकता था?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “नहीं, वह तुझसे जुदा हो जाती और यह काम गुनाह होता।” एक रिवायत में आप (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं कि “अगर तुम ऐसा करते तो अपने रब की नाफ़रमानी करते और तुम्हारी बीवी तुमसे जुदा हो जाती।" सहाबा किराम (रज़ि०) से इस बारे में जो फ़तवे नक़्ल हुए हैं वे भी नबी (सल्ल०) के इन ही फ़रमानों से मेल खाते हैं। मुवत्ता में है कि एक आदमी ने आकर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-सऊद (रज़ि०) से कहा, “मैंने अपनी बीवी को आठ तलाक़ें दे डाली हैं।” इब्ने-मसऊद (रज़ि०) ने पूछा, “फिर इसपर तुम्हें क्या फ़तवा दिया गया?” उसने कहा, “मुझसे कहा गया कि औरत मुझसे जुदा हो गई।” उन्होंने फ़रमाया, “लोगों ने सच कहा, मसला यही है जो वे बयान करते हैं।” अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने अल्क़मा से रिवायत की है कि एक आदमी ने इब्ने-मसऊद (रज़ि०) से कहा, “मैंने अपनी बीवी को 99 तलाक़ें दे डाली हैं।” उन्होंने फ़रमाया, “तीन तलाक़ें उसे जुदा करती हैं, बाक़ी सब ज़्यादतियाँ हैं।” वक़ीअ-बिन-अल-जर्राह ने अपनी सुनन में हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०), दोनों का यही मसलक नक़्ल किया है। हज़रत उसमान (रज़ि०) से एक आदमी ने आकर कहा कि “मैं अपनी बीवी को हज़ार तलाक़ें दे बैठा हूँ।” उन्होंने फ़रमाया, “वह तीन तलाक़ों से तुझसे जुदा हो गई।” ऐसा ही वाक़िआ हज़रत अली (रज़ि०) के सामने पेश हुआ तो उन्होंने जवाब दिया, “तीन तलाक़ों से वह तुझसे जुदा हो गई, बाक़ी तलाकों को अपनी दूसरी औरतों में बाँटता फिर।” अबू-दाऊद और इब्ने-जरीर ने थोड़े लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ मुजाहिद की रिवायत नक़्ल की है कि वे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास बैठे थे। इतने में एक आदमी आया और उसने कहा कि मैं अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे बैठा हूँ। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) सुनकर ख़ामोश रहे, यहाँ तक कि मैंने समझा कि शायद ये उसकी बीवी को उसकी तरफ़ पलटा देनेवाले हैं। फिर उन्होंने फ़रमाया, “तुममें से एक आदमी पहले तलाक़ देने में बेवक़ूफ़ी कर गुज़रता है, उसके बाद आकर कहता है, ऐ इब्ने-अब्बास! ऐ इब्ने-अब्बास! हालाँकि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि जो कोई अल्लाह से डरते हुए काम करेगा अल्लाह उसके लिए मुश्किलों से निकलने का रास्ता पैदा कर देगा, और तूने अल्लाह से तक़वा (डर) नहीं किया। अब मैं तेरे लिए कोई रास्ता नहीं पाता। तूने अपने रब की नाफ़रमानी की और तेरी बीवी तुझसे जुदा हो गई।” एक और रिवायत जिसे मुवत्ता और तफ़सीर इब्ने-जरीर में कुछ लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ मुजाहिद ही से नक़्ल किया गया है, उसमें यह ज़िक्र है कि एक आदमी ने अपनी बीवी को सौ तलाक़ें दे दीं, फिर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से मसला पूछा। उन्होंने जवाब दिया, “तीन तलाक़ों से तो वह तुझसे जुदा हो गई, बाक़ी 97 से तूने अल्लाह की आयतों को खेल बनाया।” ये मुवत्ता के अलफ़ाज़ हैं। इब्ने-जरीर में इब्ने-अब्बास के जवाब के अलफ़ाज़ ये हैं, “तूने अपने रब की नाफ़रमानी की और तेरी बीवी तुझसे जुदा हो गई और तू अल्लाह से नहीं डरा कि वह तेरे लिए इस मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता पैदा करता।” इमाम तहावी ने रिवायत नक़्ल की है कि एक शख़्स इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास आया और उसने कहा मेरे चचा ने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे डाली हैं। उन्होंने जवाब दिया, “तेरे चचा ने अल्लाह की नाफ़रमानी की और गुनाह किया और शैतान की पैरवी की। अल्लाह ने उसके लिए इस मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता नहीं रखा है।” अबू-दाऊद और मुवत्ता में है कि एक आदमी ने अपनी बीवी को सोहबत से पहले तीन तलाक़ें दे दीं, फिर उससे दोबारा निकाह करना चाहा और फ़तवा पूछने निकला। हदीस के रिवायत करनेवाले मुहम्मद-बिन-इयास-बिन-बुकैर कहते हैं कि मैं उसके साथ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और अबू-हुरैरा (रज़ि०) के पास गया। दोनों का जवाब यह था, “तेरे लिए जो गुंजाइश थी तूने उसे अपने हाथ से छोड़ दिया।” ज़मख़शरी ने कश्शाफ़ में बयान किया है कि हज़रत उमर (रज़ि०) के पास जो शख़्स भी ऐसा आता जिसने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे दी हों, वे उसे मारते थे और उसकी तलाक़ों को लागू कर देते थे। सईद-बिन-मंसूर ने यही बात सही सनद के साथ हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत से नक़्ल की है। इस मामले में सहाबा किराम (रज़ि०) की आम राय, जिसे इब्ने-अबी-शैबा और इमाम मुहम्मद ने इबराहीम नख़ई (रह०) से नक़्ल किया है, यह थी कि “सहाबा (रज़ि०) इस बात को पसन्द करते थे कि कोई आदमी अपनी बीवी को सिर्फ़ एक तलाक़ दे दे और उसको छोड़े रखे यहाँ तक कि उसे तीन माहवारी आ जाएँ।” ये इब्ने-अबी-शैबा के अलफ़ाज़ हैं। और इमाम मुहम्मद (रह०) के अलफ़ाज़ ये हैं, “उनको यह तरीक़ा पसन्द था कि तलाक़ के मामले में एक-से-ज़्यादा न बढ़ें, यहाँ तक की इद्दत पूरी हो जाए।” इन हदीसों और सहाबा के अमल से क़ुरआन मजीद की ऊपर बयान कि की गई आयत का मंशा समझकर इस्लाम के फ़क़ीहों ने जो तफ़सीली क़ानून बनाया है उसे हम नीचे नक़्ल करते हैं— (1) हनफ़ी मसलक के आलिम तलाक़ की तीन क़िस्में क़रार देते है : अहसन, हसन और बिदई। 'अहसन' तलाक़ यह है कि आदमी अपनी बीवी को ऐसी पाक हालत में जिसके अन्दर उसने सोहबत न की हो, सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दे। 'हसन' यह है कि हर तुहर में एक-एक तलाक़ दे। इस सूरत में तीन पाक हालतों में तीन तलाक़ देना भी सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं है, अगरचे बेहतर यही है कि एक ही तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। और 'बिदई’ तलाक़ यह है कि आदमी एक ही वक़्त में तीन तलाक़ दे, या एक ही तुहर के अन्दर अलग-अलग वक़्तों में तीन तलाक़ें दे, या माहवारी की हालत में तलाक़ दे, या ऐसी पाक हालत में तलाक़ दे जिसमें वह सोहबत कर चुका हो। इनमें से जो काम भी वह करेगा गुनहगार होगा। यह तो है हुक्म ऐसी औरत का जिससे सोहबत हो चुकी हो और जिसे माहवारी आती हो। रही ऐसी औरत जिसके साथ सोहबत न की गई हो तो उसे सुन्नत के मुताबिक़ पाकी और माहवारी दोनों हालतों में तलाक़ दी जा सकती है। और अगर औरत जिससे सोहबत की गई हो ऐसी हो जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या अभी आनी शुरू न हुई हो, तो उसे सोहबत के बाद भी तलाक़ दी जा सकती है, क्योंकि उसके हामिला (गर्भवती) होने का इमकान नहीं है। और औरत हामिला (गर्भवती) हो तो सोहबत के बाद उसे भी तलाक़ दी जा सकती है, क्योंकि उसका हामिला (गर्भवती) होना पहले ही मालूम है। लेकिन इन तीनों क़िस्म की औरतों को सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ देने का तरीक़ा यह है कि एक-एक महीने बाद तलाक़ दी जाए, और अहसन तरीक़ा यह है कि सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। (हिदाया, फ़त्हुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, उम्दतुल-क़ारी) इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक भी तलाक़ की तीन क़िस्में हैं। सुन्नी (सुन्नत के मुताबिक़), बिदई मकरूह, और बिदई हराम। सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ यह है कि उस औरत को जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसे माहवारी आती हो, पाकी की हालत में सोहबत किए बिना सिर्फ़ एक तलाक़ देकर इद्दत गुज़र जाने दी जाए। 'बिदई मकरूह' यह है कि ऐसी पाक हालत में तलाक़ दी जाए जिसमें आदमी सोहबत कर चुका हो, या सोहबत किए बिना एक तुहर में एक से ज़्यादा तलाक़ें दी जाएँ, या इद्दत के अन्दर अलग-अलग पाक हालतों में तीन तलाक़ें दी जाएँ या एक साथ तीन तलाक़ें दे डाली जाएँ। और 'बिदई हराम' यह है कि माहवारी की हालत में तलाक़ दी जाए। (हाशियतुद-दुसूक़ी अलश-शरहिल-कबीर, अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल-अरबी) इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का भरोसेमन्द मसलक यह है जिसपर ज़्यादातर हंबली फ़क़ीह एक राय हैं, औरत जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसको माहवारी आती हो, उसे सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ देने का तरीक़ा यह है कि पाकी की हालत में सोहबत किए बिना उसे तलाक़ दी जाए, फिर उसे छोड़ दिया जाए, यहाँ तक कि इद्दत गुज़र जाए। लेकिन अगर उसे पाकी की तीन हालतों में तीन अलग-अलग तलाक़ें दी जाएँ, या एक ही पाक हालत में तीन तलाक़ें दे दी जाएँ, या एक साथ तीन तलाक़ें दे डाली जाएँ, या माहवारी की हालत में तलाक़ दी जाए, या ऐसी पाकी की हालत में तलाक़ दी जाए जिसमें सोहबत की गई हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हो, तो ये सब तलाक़ बिदअत और हराम हैं। लेकिन अगर औरत के साथ सोहबत न हुई हो, या सोहबत की हुई ऐसी औरत हो जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या अभी माहवारी आनी शुरू ही न हुई हो, या हामिला (गर्भवती) हो, तो उसके मामले में न वक़्त के लिहाज़ से सुन्नत और बिदअत का कोई फ़र्क़ है, न तादाद के लिहाज़ से। (अल-इनसाफ़ु फ़ी मारि-फ़तुर-राजिह मिनल-ख़िलाफ़ि अला मज़्‍हबि अहमदिब्नि हंबलिन रह०) इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक तलाक़ के मामले में सुन्नत और बिदअत का फ़र्क़ सिर्फ़ वक़्त के लिहाज़ से है न कि तादाद के लिहाज़ से। यानी वह औरत जिससे सोहबत हो चुकी हो, जिसको माहवारी आती हो, उसे माहवारी की हालत में तलाक़ देना, या जो हामिला (गर्भवती) हो सकती हो उसे ऐसी पाकी की हालत में तलाक़ देना जिसमें सोहबत की जा चुकी हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हुआ हो, बिदअत और हराम है। रही तलाक़ों की तादाद, तो चाहे एक साथ तीन तलाक़ें दी जाएँ, एक ही तुहर में दी जाएँ, या अलग-अलग पाक हालतों में दी जाएँ, बहरहाल यह सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं है। और ऐसी औरत जिसके साथ हमबिस्तरी न की गई हो, या ऐसी औरत जिसे माहवारी आनी बन्द हो गई हो, या माहवारी आई ही न हो, या जिसका हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर हो चुका हो, उसके मामले में सुन्नत और बिदअत का कोई फ़र्क़ नहीं है। (मुग़निल-मुहताज) (2) किसी तलाक़ के बिदअत, मकरूह, हराम, या गुनाह होने का मतलब चारों इमामों के नज़दीक यह नहीं है कि वह लागू ही न हो। चारों मसलकों में तलाक़, चाहे माहवारी की हालत में दी गई हो, या एक साथ तीन तलाक़ें दे दी गई हों, या ऐसी पाक हालत में (लो तलाक़ दी गई हो जिसमें सोहबत की जा चुकी हो और औरत का हामिला (गर्भवती) होना ज़ाहिर न हुआ हो, या किसी और ऐसे तरीक़े से दी गई हो जिसे किसी इमाम ने बिदअत क़रार दिया है, बहरहाल लागू हो जाती है, अगरचे आदमी गुनहगार होता है। लेकिन कुछ दूसरे इजतिहाद (तहक़ीक़) करनेवाले आलिमों की राय इस मसले में चारों इमामों से अलग है। सईद-बिन-मुसय्यब और कुछ दूसरे ताबिईन कहते हैं कि जो आदमी सुन्नत के ख़िलाफ़ माहवारी की हालत में तलाक़ दे, या एक साथ तीन तलाक़ दे दे उसकी तलाक़ सिरे से होती ही नहीं है। यही राय इमामिया की है। और इस राय की बुनियाद यह है कि ऐसा करना चूँकि मना और हराम बिदअत है इसलिए यह बेअसर है। हालाँकि ऊपर जो हदीसें हम नक़्ल कर आए हैं उनमें यह बयान हुआ है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने जब बीवी को माहवारी की हालत में तलाक़ दी तो नबी (सल्ल०) ने उन्हें रुजू (दोबारा मिलाप) का हुक्म दिया। अगर यह तलाक़ हुई ही न थी तो रुजू का हुक्म देने का क्या मतलब? और यह भी बहुत-सी हदीसों से साबित है कि नबी (सल्ल०) ने और बड़े सहाबा (रज़ि०) ने एक से ज़्यादा तलाक़ देनेवाले को अगरचे गुनहगार क़रार दिया है, मगर उसकी तलाक़ को बेअसर क़रार नहीं दिया। ताऊस और इकरिमा कहते हैं कि एक साथ तीन तलाक़ें दी जाएँ तो सिर्फ़ एक तलाक़ होती है, और इसी राय को इमाम इब्ने-तैमिया (रह०) ने अपनाया है। उनकी इस राय की बुनियाद यह रिवायत है कि अबुस-सहबा ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से पूछा, “क्या आपको मालूम नहीं है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर में और हज़रत उमर (रज़ि०) के इबतिदाई दौर में तीन तलाक़ों को एक क़रार दिया जाता था?" उन्होंने जवाब दिया, “हाँ,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। और मुस्लिम, अबू-दाऊद और मुसनद अहमद में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की बयान की हुई यह बात नक़्ल की गई है कि "अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर, और हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के इबतिदाई दो सालों में तीन तलाक़ को एक क़रार दिया जाता था। फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा कि लोग एक ऐसे मामले में जल्दबाज़ी करने लगे हैं जिसमें उनके लिए सोच-समझकर काम करने की गुंजाइश रखी गई थी। अब क्यों न हम उनके इस अमल को लागू कर दें? चुनाँचे उन्होंने उसे लागू कर दिया।" लेकिन यह राय कई वजहों से क़ुबूल किए जाने लायक़ नहीं है। एक तो कई रिवायतों के मुताबिक़ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का अपना फ़तवा इसके ख़िलाफ़ था, जैसा कि हम ऊपर नक़्ल कर चुके हैं। दूसरी यह बात उन हदीसों के भी ख़िलाफ़ पड़ती है जो नबी (सल्ल०) और बड़े सहाबा (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं, जिनमें एक साथ तीन तलाक़ देनेवाले के बारे में यह फ़तवा दिया गया है कि उसकी तीनों तलाक़ें लागू हो जाती हैं। ये हदीसें भी हमने ऊपर नक़्ल कर दी हैं। तीसरी, ख़ुद इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने सहाबा (रज़ि०) की भीड़ में तीन तलाक़ों को लागू करने का एलान किया था, लेकिन न उस वक़्त, न उसके बाद कभी सहाबा (रज़ि०) में से किसी ने उससे अलग राय का इज़हार किया। अब क्या यह सोचा जा सकता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) सुन्नत के ख़िलाफ़ किसी काम का फ़ैसला कर सकते थे? और सारे सहाबा (रज़ि०) उसपर चुप्पी भी साधे रह सकते थे? इसके अलावा रुकाना-बिन-अब्दे-यज़ीद के क़िस्से में अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, इमाम शाफ़िई (रह०), दारमी और हाकिम ने यह रिवायत नक़्ल की है कि रुकाना ने जब एक ही मजलिस में अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दीं तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको क़सम देकर पूछा कि उनकी नीयत एक ही तलाक़ देने की थी? (यानी बाक़ी दो तलाक़ें पहली तलाक़ पर ज़ोर देने के लिए उनकी ज़बान से निकली थीं, तीन तलाक़ देकर हमेशा के लिए जुदा कर देना मक़सद न था।) और जब उन्होंने क़सम खाकर यह बयान दिया तो नबी (सल्ल०) ने उनको रुजू का हक़ दे दिया। इससे इस मामले की अस्ल हक़ीक़त मालूम हो जाती है कि इबतिदाई दौर में किस तरह की तलाक़ों को एक के हुक्म में रखा जाता था। इसी वजह से हदीस की तशरीह करनेवाले आलिमों ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत का यह मतलब लिया है कि इबतिदाई दौर में लोगों के अन्दर दीनी मामलों में ख़ियानत (बेईमानी) क़रीब-क़रीब न होने के बराबर थी, इसलिए तीन तलाक़ देनेवाले के इस बयान को मान लिया जाता था कि उसकी अस्ल नीयत एक तलाक़ देने की थी और बाक़ी दो तलाक़ें सिर्फ़ पहली तलाक़ पर ज़ोर देने के लिए उसकी ज़बान से निकली थीं। लेकिन हज़रत उमर (रज़ि०) ने जब देखा कि लोग पहले जल्दबाज़ी करके तीन-तीन तलाक़ें दे डालते हैं और फिर एक ही तलाक़ पर ज़ोर देने का बहाना करते हैं तो उन्होंने इस बहाने को क़ुबूल करने से इनकार कर दिया। इमाम नववी (रह०) और इमाम सुबकी ने इसे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के ज़रिए से बयान की हुई रिवायत की बेहतरीन तावील (तशरीह) क़रार दिया है। आख़िरी बात यह है कि ख़ुद अबुस-सहबा की उन रिवायतों में इज़तिराब (झोल) पाया जाता है जो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के क़ौल के बारे में उनसे रिवायत हुई हैं। मुस्लिम, अबू-दाऊद और नसई ने अबुस-सहबा से एक दूसरी रिवायत यह नक़ल की है कि उनके पूछने पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया, “एक आदमी जब सोहबत से पहले अपनी बीवी को तीन तलाक़ें देता था तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के दौर और हजरत उमर (रज़ि०) के इबतिदाई दौर में उसको एक तलाक़ क़रार दिया जाता था।” इस तरह एक ही रिवायत करनेवाले ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से दो अलग-अगल बातों की रिवायतें नक़्ल की हैं और यह इख़िलाफ़ दोनों रिवायतों को कमज़ोर कर देता है। (3) माहवारी की हालत में तलाक़ देनेवाले को चूँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने रुजू (दोबारा मिलाप) करने का हुक्म दिया था, इसलिए फ़क़ीहों के दरमियान यह सवाल पैदा हुआ है कि यह हुक्म किस मानी में है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अहमद (रह०), इमाम औज़ाई, इब्ने-अबी-लैला, इसहाक़-बिन-राहवैह और अबू-सौर (रह०) कहते हैं कि ऐसे शख़्स को रुजू का हुक्म तो दिया जाएगा, मगर रुजू पर मजबूर न किया जाएगा, (उम्दतुल-क़ारी)। हिदाया में हनफ़ी मसलकवालों की राय यह बयान की गई है कि इस सूरत में रुजू (फिर मिलाप) करना न सिर्फ़ मुस्तहब (पसन्दीदा) बल्कि वाजिब है। मुग़निल-मुहताज में शाफ़िई आलिमों का मसलक यह बयान हुआ है कि जिसने माहवारी में तलाक़ दी हो और तीन तलाक़ें न दे डाली हों, उसके लिए सुन्नत के मुताबिक़ तरीक़ा यह है कि वह रुजू करे, और उसके बादवाली पाक हालत में तलाक़ न दे, बल्कि उसके गुज़रने के बाद जब दूसरी बार औरत माहवारी से निबट जाए तब तलाक़ देना चाहे तो दे, ताकि माहवारी में दी हुई तलाक़ से पलटना सिर्फ़ खेल के तौर पर न हो। अल-इनसाफ़ में हंबली आलिमों का मसलक यह बयान हुआ है कि इस हालत में तलाक़ देनेवाले के लिए रुजू (फिर से मिलन) करना मुस्तहब (पसन्दीदा) है। लेकिन इमाम मालिक (रह०) और उनके साथी आलिम कहते हैं कि माहवारी की हालत में तलाक़ देना ऐसा जुर्म है जिसमें पुलिस को कार्रवाई का हक़ है। औरत चाहे माँग करे या न करे, बहरहाल हाकिम का यह फ़र्ज़ है कि जब किसी शख़्स की यह हरकत उसकी जानकारी में आए तो वह उसे रुजू (बीवी को वापस लेने) पर मजबूर करे और इद्दत के आख़िरी वक़्त तक उसपर दबाव डालता रहे। अगर वह इनकार करे तो उसे क़ैद कर दे। फिर भी इनकार करे तो उसे मारे। इसपर भी न माने तो हाकिम ख़ुद फ़ैसला कर दे कि “मैंने तेरी बीवी तुझपर वापस कर दी।” और हाकिम का यह फ़ैसला रुजू होगा जिसके बाद मर्द के लिए उस औरत से सोहबत करना जाइज़ होगा, चाहे उसकी नीयत रुजू की हो या न हो, क्योंकि हाकिम की नीयत उसकी नीयत की जगह पर है,” (हाशियतुद-दुसूक़ी)। आलिम यह भी कहते हैं कि जिस शख़्स ने ख़ुशी से या नापसन्दीदगी से माहवारी में दी हुई तलाक़ से रुजू कर लिया हो वह अगर तलाक़ ही देना चाहे तो उसके लिए मुस्तहब (पसन्दीदा) तरीक़ा यह है कि जिस माहवारी में उसने तलाक़ दी है उसके बादवाले तुहर में उसे तलाक़ न दे, बल्कि जब दोबारा माहवारी आने के बाद वह पाक हो उस वक़्त तलाक़ दे। तलाक़ से जुड़े हुए तुहर (पाकी की हालत) में तलाक़ न देने का हुक्म अस्ल में इसलिए दिया गया है कि माहवारी की हालत में तलाक़ देनेवाले का पलटना सिर्फ़ ज़बानी न हो, बल्कि उसे पाकी के ज़माने में औरत से सोहबत करनी चाहिए। फिर जिस तुहर में सोहबत की जा चुकी हो उसमें तलाक़ देना चूँकि मना है, लिहाज़ा तलाक़ देने का सही वक़्त उसके बाद वाला तुहर ही है। (हाशियतुद-दुसूक़ी) (4) रजई तलाक़ (वह तलाक़ जिसके बाद दोबारा मिलाप किया जा सकता है) देनेवाले के लिए रुजू करने का मौक़ा किस वक़्त तक है? इसमें भी फ़क़ीहों के दरमियान रायों का फ़र्क़ हुआ है, और यह फ़र्क़ इस सवाल पर पैदा हुआ है कि सूरा-2 बक़रा की आयत-228 में 'सला-स-त क़ुरूइन' से मुराद तीन माहवारी हैं या तीन तुहर (पाकी की हालतें)? इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक 'क़रउन' से मुराद तुहर है, और यह राय हज़रत आइशा (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) से नक़्ल हुई है। हनफ़ी आलिमों का मसलक यह है कि 'क़रउन' से मुराद हैज़ (माहवारी) है और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का भरोसेमन्द मसलक भी यही है। यह राय चारों ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन, अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), उबई-बिन-काब (रज़ि०), मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०), अबुद-दरदा (रज़ि०), उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) और अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) से नक़्ल हुई है। इमाम मुहम्मद (रह०) ने मुवत्ता में शअबी का क़ौल नक़्ल किया है कि वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के 13 सहाबियों से मिले हैं, और उन सबकी राय यही थी। और यही राय बहुत-से ताबिईन ने भी अपनाई है। रायों के इस इख़्तिलाफ़ की वजह से शाफ़िई मसलक और मालिकी मसलक के आलिमों के नज़दीक तीसरी माहवारी में दाख़िल होते ही औरत की इद्दत ख़त्म हो जाती है, और मर्द का दोबारा रुजू (मिलाप करने) का हक़ ख़त्म हो जाता है। और अगर तलाक़ माहवारी की हालत में दी गई हो, तो उस माहवारी की गिनती इद्दत में न होगी, बल्कि चौथी माहवारी में दाख़िल होने पर इद्दत ख़त्म होगी, (मुग़निल-मुहताज, हाशियतुद-दुसूक़ी)। हनफ़ी आलिमों का मसलक यह है कि अगर तीसरी माहवारी में दस दिन गुज़रने पर ख़ून बन्द हो तो औरत की इद्दत ख़त्म हो जाएगी चाहे औरत ग़ुस्ल करे या न करे। और अगर दस दिन से कम में ख़ून बन्द हो जाए तो इद्दत उस वक़्त तक ख़त्म न होगी जब तक औरत ग़ुस्ल न कर ले, या एक नमाज़ का पूरा वक़्त न गुज़र जाए। पानी न होने की सूरत में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक जब औरत तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ ले उस वक़्त रुजू (मर्द का दोबारा मिलन) का हक़ ख़त्म होगा, और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक तयम्मुम करते ही रुजू (वापस लेने) का हक़ ख़त्म हो जाएगा, (हिदाया)। इमाम अहमद का भरोसेमन्द मसलक जिसपर ज़्यादातर हंबली फ़क़ीह एक राय हैं, यह है कि जब तक औरत तीसरी माहवारी से निबटकर ग़ुस्ल न कर ले, मर्द का रुजू (दोबारा मिलन) का हक़ बाक़ी रहेगा। (अल-इनसाफ़) (5) रुजू (बीवी को वापस लेना) किस तरह से होता है और किस तरह से नहीं होता? इस मसले में फ़क़ीहों के दरमियान इस बात पर एक राय है कि जिस आदमी ने अपनी बीवी को रजई (रुजू करने लायक़) तलाक़ दी हो, वह इद्दत ख़त्म होने से पहले जब चाहे उससे मिलन कर सकता है, चाहे औरत राज़ी हो या न हो। क्योंकि क़ुरआन मजीद (सूरा-2 बक़रा, आयत-228) में फ़रमाया गया है, “उनके शौहर इस मुद्दत के अन्दर उन्हें वापस ले लेने के पूरी तरह हक़दार हैं। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि इद्दत गुज़रने से पहले तक उनका शौहर-बीवी का ताल्लुक़ बाक़ी रहता है और वे उन्हें पूरी रह छोड़ देने से पहले वापस ले सकते हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में रुजू (वापस लेना) कोई दोबारा निकाह करना नहीं है कि इसके लिए औरत की रज़ामन्दी ज़रूरी हो। इस हद तक एक राय होने के बाद आगे रुजू (वापस लेने) के तरीक़े में फ़क़ीहों की रायें अलग-अलग हो गई हैं। शाफ़िई आलिमों के नज़दीक रुजू सिर्फ़ ज़बान ही से हो सकता है, अमल से नहीं हो सकता। अगर आदमी ज़बान से यह न कहे कि मैंने रुजू किया (मैंने तुझे अपनी बीवी की हैसियत से वापस लिया) तो सोहबत या लिपटने-चिमटने की कोई हरकत, चाहे रुजू की नीयत ही से की गई हो, रुजू क़रार नहीं दी जाएगी, बल्कि इस सूरत में औरत से हर तरह का फ़ायदा उठाना हराम है चाहे वह बिना शहवत (वासना) ही हो। लेकिन रजई तलाक़ पाई हुई औरत से सोहबत करने पर हद्द (क़ुरआन या हदीस में बयान हुई सज़ा) नहीं है, क्योंकि आलिम इसके हराम होने पर एक राय नहीं है। अलबत्ता जो इसके हराम होने का अक़ीदा रखता हो उसे ताज़ीर (हाकिम के ज़रिए से तय की हुई सज़ा) दी जाएगी। इसके अलावा शाफ़िई मसलक के मुताबिक़ रजई तलाक़ पाई हुई औरत के साथ सोहबत करने पर बहरहाल महरे-मिस्ल (वह मह्‍र जो औरत के ददिहाल में चलता हो) लाज़िम आता है चाहे उसके बाद आदमी ज़बान से रुजू (वापस लेने) की बात कहे या न कहे। (मुग़निल-मुहताज) मालिकी आलिम कहते हैं कि रुजू (वापस लेना) ज़बान और अमल, दोनों से हो सकता है। अगर ज़बान से रुजू करने में आदमी साफ़ अलफ़ाज़ इस्तेमाल करे तो चाहे उसकी नीयत रुजू की हो या न हो, रुजू हो जाएगा, बल्कि अगर वह मज़ाक़ के तौर पर भी रुजू (वापस लेने) के साफ़ अलफ़ाज़ कह दे तो वह रुजू क़रार पाएँगे। लेकिन अगर अलफ़ाज़ साफ़ न हों तो वे सिर्फ़ उस सूरत में रुजू क़रार दिए जाएँगे, जबकि वे रुजू की नीयत से कहे गए हों। रहा अमल से रुजू (वापस लेना) तो कोई हरकत चाहे वह लिपटना-चिमटना हो, या सोहबत व हमबिस्तरी, उस वक़्त तक रुजू नहीं कही जा सकती जब तक वह रुजू की नीयत से न की गई हो। (हाशियतुद-दुसूक़ी, अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल-अरबी) हनफ़ी और हंबली आलिमों का मसलक ज़बान से रुजू (वापस लेने) के मामले में वही है। जो मालिकी आलिमों का है। रहा अमल से रुजू, तो मालिकी आलिमों के बरख़िलाफ़ इन दोनों मसलकों का फ़तवा यह है कि शौहर अगर इद्दत के अन्दर रजई तलाक़ पाई औरत से सोहबत कर ले तो वह आप-से-आप रुजू है, चाहे रुजू (वापस लेने) की नीयत हो या न हो। अलबत्ता दोनों के मसलक में फ़र्क़ यह है कि हनफ़ी आलिमों के नज़दीक लिपटने-चिमटने की हर हरकत रुजू है चाहे वह सोहबत से कम किसी दरजे की हो, और हंबली आलिम सिर्फ़ लिपटने-चिमटने को रुजू नहीं मानते। (हिदाया, फ़त्हुल-क़दीर, उम्दतुल-क़ारी, अल-इनसाफ़) (6) सुन्नत तलाक़ और बिदअत तलाक़ के नतीजों का फ़र्क़ यह है कि एक तलाक़ या दो तलाक़ देने की सूरत में अगर इद्दत गुज़र भी जाए तो तलाक़ पाई हुई औरत और उसके पिछले शौहर के दरमियान आपसी रज़ामन्दी से फिर निकाह हो सकता है। लेकिन अगर आदमी तीन तलाक़ दे चुका हो तो न इद्दत के अन्दर रुजू करना मुमकिन है और न इद्दत गुज़र जाने के बाद दोबारा निकाह किया जा सकता है। सिवाय यह कि उस औरत का निकाह किसी और शख़्स से हो, वह निकाह सही तरह का हो, दूसरा शौहर उस औरत से सोहबत भी कर चुका हो, फिर या तो वह उसे तलाक़ दे दे या मर जाए। इसके बाद अगर औरत और उसका पिछला शौहर आपसी रज़ामन्दी के साथ नए सिरे से निकाह करना चाहें तो कर सकते हैं। हदीसों की ज़्यादातर किताबों में सही सनद के साथ यह रिवायत आई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा गया कि एक शख़्स ने अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे दीं, फिर उस औरत ने दूसरे शख़्स से निकाह कर लिया, और उस दूसरे शौहर के साथ तन्हाई में मुलाक़ात भी हुई, मगर सोहबत नहीं हुई, फिर उसने उसे तलाक़ दे दी, अब क्या उस औरत का अपने पिछले शौहर से दोबारा निकाह हो सकता है? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, जब तक कि दूसरा शौहर उससे उसी तरह लुत्फ़ न उठा चुका हो जिस तरह पहले शौहर ने उठाया था।” रहा साज़िशी निकाह, जिसमें पहले से यह तय हो चुका हो कि औरत को पिछले शौहर के लिए हलाल करने की ख़ातिर एक आदमी उससे निकाह करेगा और सोहबत करने के बाद उसे तलाक़ दे देगा, तो इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक यह निकाह फ़ासिद (अवैध) है, और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक इससे औरत हलाल तो हो जाएगी, मगर यह हरकत मकरूहे-तहरीमी (हराम दरजे का नापसन्दीदा अमल) है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह ने हलाला करनेवाले और हलाला करानेवाले, दोनों पर लानत की है,” (हदीस : तिरमिज़ी, नसई)। हज़रत उक़बा-बिन-आमिर (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सहाबा से पूछा, “क्या मैं तुम्हें न बताऊँ कि किराए का साँड कौन होता है?” सहाबा ने कहा, “ज़रूर बताएँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “वह हलाला करनेवाला है। ख़ुदा की लानत है हलाला करनेवाले पर भी और उस शख़्स पर भी जिसके लिए हलाला किया जाए!” (इब्ने-माजा, दारे-क़ुतनी)
2. यह हुक्म मर्दों को भी दिया गया है और औरतों को भी और उनके ख़ानदानवालों को भी। मतलब यह है कि तलाक़ को खेल न समझ बैठो कि तलाक़ का अहम मामला पेश आने के बाद यह भी याद न रखा जाए कि कब तलाक़ दी गई है, कब इद्दत शुरू हुई और कब उसको ख़त्म होना है। तलाक़ एक बहुत ही नाज़ुक मामला है जिससे औरत और मर्द और उनकी औलाद और उनके ख़ानदान के लिए बहुत-से क़ानूनी मसले पैदा होते हैं। इसलिए जब तलाक़ दी जाए तो उसके वक़्त और तारीख़ को याद रखा जाए, और यह भी याद रखा जाए कि किस हालत में औरत को तलाक़ दी गई है, और हिसाब लगाकर देखा जाए कि इद्दत की शुरुआत कब हुई है, कब तक वह बाक़ी है और कब वह ख़त्म हो गई। इस हिसाब पर इन बातों के फ़ैसले का दारोमदार है कि शौहर को कब तक रुजू का हक़ है, कब तक उसे औरत को घर में रखना है, कब तक उसका ख़र्च देना है, कब तक वह औरत का वारिस होगा और औरत उसकी वारिस होगी, कब औरत उससे जुदा हो जाएगी और उसे दूसरा निकाह कर लेने का हक़ हासिल हो जाएगा। और अगर यह मामला किसी मुक़द्दमे की सूरत अपना ले तो अदालत को भी सही फ़ैसला करने के लिए तलाक़ की सही तारीख़ और वक़्त और औरत की हालत मालूम होने की ज़रूरत होगी, क्योंकि इसके बिना अदालत उन औरतों के मामले में जिनसे सोहबत हो चुकी है और जिनसे सोहबत नहीं हुई है, हामिला (गर्भवती) और वह जो हामिला नहीं है, जिनको माहवारी आती है और जिनको माहवारी नहीं आती, जिनको रजई तलाक़ दी गई है और जिनको ग़ैर-रजई तलाक़ दी गई है, तलाक़ से पैदा हुए मसलों का सही फ़ैसला नहीं कर सकती।
3. यानी न मर्द ग़ुस्से में आकर औरत को घर से निकाल दे, और न औरत ख़ुद ही बिगड़कर घर छोड़ दे। इद्दत तक घर उसका है। उसी घर में दोनों को रहना चाहिए, ताकि आपस में जाँच मेल-मिलाप की कोई सूरत अगर निकल सकती हो तो उससे फ़ायदा उठाया जा सके। तलाक़ अगर रजई (वापस लेने लायक़) हो तो किसी वक़्त भी शौहर की तबीअत बीवी की तरफ़ (आकृष्ट) हो सकती है, और बीवी भी इख़्तिलाफ़ की वजहों को दूर करके शौहर को राज़ी करने की कोशिश कर सकती है। दोनों एक घर में मौज़ूद रहेंगे तो तीन महीने तक, या तीन माहवारी आने तक, या हम्ल (गर्भ) की हालत में बच्चा पैदा होने तक इसके मौक़े बार-बार पेश आ सकते हैं। लेकिन अगर मर्द जल्दबाज़ी करके उसे निकाल दे, या औरत नासमझी से काम लेकर मायके जा बैठे तो इस सूरत में रुजू (दोबारा मिलाप) के इमकान बहुत कम रह जाते हैं और आम तौर से तलाक़ का अंजाम आख़िरकार पूरी तरह जुदाई होकर रहता है। इसी लिए फ़क़ीहों ने यहाँ तक कहा है कि रजई तलाक़ की सूरत में जो औरत इद्दत गुज़ार रही हो उसे बनाव-सिंगार करना चाहिए, ताकि शौहर उसकी तरफ़ माइल हो। (हिदाया, अल-इनसाफ़) फ़क़ीह इस बात में एक राय हैं कि रजई तलाक़ पाई हुई औरत को इद्दत के ज़माने में रहने के लिए घर और गुज़ारा-ख़र्च पाने का हक़ है, और औरत के लिए यह जाइज़ नहीं है कि शौहर की इजाज़त के बिना घर से जाए, और मर्द के लिए भी यह जाइज़ नहीं है कि उसे घर से निकाले। अगर मर्द उसे निकालेगा तो गुनहगार होगा, औरत अगर ख़ुद निकलेगी तो गुनहगार भी होगी और गुज़ारा-ख़र्च और रहने के लिए घर के हक़ से भी महरूम हो जाएगी।
4. इसके कई मतलब अलग-अलग फ़क़ीहों (आलिमों) ने बयान किए हैं। हज़रत हसन बसरी, आमिर शअबी, ज़ैद-बिन-असलम, ज़ह्हाक, मुजाहिद, इकरिमा, इब्ने-ज़ैद, हम्माद और लैस (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद बदकारी है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि इससे मुराद बद-ज़बानी है, यानी यह कि तलाक़ के बाद भी औरत का मिज़ाज दुरुस्त न हो, बल्कि वह इद्दत के ज़माने में शौहर और उसके ख़ानदानवालों से झगड़ती और बद-ज़बानी करती रहे। क़तादा कहते हैं कि इससे मुराद सरकशी है, यानी औरत को सरकशी की वजह से तलाक़ दी गई हो और इद्दत के ज़माने में भी वह शौहर के मुक़ाबले पर सरकशी करना न छोड़े। अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), सुद्दी, इब्नुस-साइब, और इबराहीम नख़ई कहते हैं कि इससे मुराद औरत का घर से निकल जाना है, यानी उनकी राय में तलाक़ के बाद इद्दत के ज़माने में औरत का घर छोड़कर निकल जाना अपनी जगह ख़ुद खुली बुराई कर बैठना है, और यह कहना कि ‘वे न ख़ुद निकलें सिवाय यह कि खुली बुराई कर बैठें’ कुछ इस तरह की बात है जैसे कोई कहे कि 'तुम किसी को गाली न दो सिवाय यह कि बदतमीज़ बनो’। इन चार रायों में से पहली तीन रायों के मुताबिक़ 'सिवाय यह कि' का ताल्लुक़ 'उनको घरों से न निकालो’ के साथ है और इस जुमले का मतलब यह है कि अगर वे बद-चलनी या बद-ज़बानी या सरकशी करें तो उन्हें निकाल देना जाइज़ होगा। और चौथी राय के मुताबिक़ इसका ताल्लुक़ 'और न वे ख़ुद निकलें' के साथ है और मतलब यह है कि अगर वे निकलेंगी तो खुली बुराई करेंगी।
5. ये दोनों जुमले उन लोगों के ख़याल को भी ग़लत साबित करते हैं जो इस बात को मानते हैं कि माहवारी की हालत में तलाक़ देने या एक साथ तीन तलाक़ दे देने से कोई तलाक़ सिरे से होती ही नहीं है, और उन लोगों की राय को भी ग़लत साबित कर देते हैं जिनका ख़याल यह है कि एक साथ तीन तलाक़ एक ही तलाक़ के हुक्म में हैं। सवाल यह है कि अगर बिदई तलाक़ होती ही नहीं है या तीन तलाक़ एक ही रजई तलाक़ के हुक्म में हैं तो यह कहने की आख़िर ज़रूरत ही क्या रह जाती है कि जो अल्लाह की हदों, यानी सुन्नत के बताए हुए तरीक़े के ख़िलाफ़ अमल करेगा वह अपने-आपपर ज़ुल्म करेगा, और तुम नहीं जानते शायद इसके बाद अल्लाह मेल-मिलाप की कोई सूरत पैदा कर दे? ये दोनों बातें तो उसी सूरत में मानीदार हो सकती हैं जबकि सुन्नत के ख़िलाफ़ तलाक़ देने से वाक़ई कोई नुक़सान होता हो जिसपर आदमी को पछताना पड़े, और तीन तलाक़ एक साथ दे बैठने से रुजू (दोबारा मिलन) का कोई इमकान बाक़ी न रहता हो। वरना ज़ाहिर है कि जो तलाक़ लागू ही न हो उससे अल्लाह की हदों की कोई ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं होती जो अपने-आपपर ज़ुल्म क़रार पाए, और जो तलाक़ बहरहाल रजई ही हो उसके बाद तो लाज़िमी तौर से मेल-मिलाप की सूरत बाक़ी रहती है, फिर यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं है कि शायद उसके बाद अल्लाह मेल-मिलाप की कोई सूरत पैदा कर दे। इस जगह पर एक बार फिर सूरा-2 बक़रा, आयतें—228 से 230 और सूरा-65 तलाक़ की इन आयतों के आपसी ताल्लुक़ को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। सूरा-2 बक़रा में तलाक़ की कुल तादाद तीन बताई गई है, जिनमें दो के बाद वापसी का हक़, और इद्दत गुज़र जाने के बाद बिना हलाला किए दोबारा निकाह कर लेने का हक़ बाक़ी रहता है, और तीसरी तलाक़ दे देने से ये दोनों हक़ ख़त्म हो जाते हैं। सूरा-65 तलाक़ की ये आयतें इस हुक्म में किसी रद्दो-बदल या इसे बिलकुल ख़त्म करने के लिए नहीं उतरी हैं, बल्कि यह बताने के लिए उतरी हैं कि बीवियों को तलाक़ देने के जो इख़्तियार मर्दों को दिए गए हैं उनको इस्तेमाल करने की सही सूरत क्या है, जिसकी पैरवी अगर की जाए तो घर बिगड़ने से बच सकते हैं, तलाक़ देकर पछताने की नौबत पेश नहीं आ सकती, मेल-मिलाप पैदा होने के ज़्यादा-से-ज़्यादा मौक़े बाक़ी रहते हैं, और अगर आख़िरकार जुदाई हो भी जाए तो यह आख़िरी रास्ता खुला रहता है कि फिर मिल जाना चाहें तो दोबारा निकाह कर लें। लेकिन अगर कोई शख़्स नादानी के साथ अपने इन इख़्तियारात को ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल कर बैठे तो वह अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा और भरपाई के तमाम मौक़े खो बैठेगा। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे एक बाप अपने बेटे को तीन सौ रुपये दे और कहे कि ये तुम्हारी मिलकियत हैं, इनको तुम अपनी मरज़ी से ख़र्च करने के मालिक हो। फिर वह उसे नसीहत करे कि अपने इस माल को जो मैंने तुम्हें दे दिया है, इस तरह एहतियात के साथ मौक़े के हिसाब से और थोड़ा-थोड़ा करके इस्तेमाल करना कि तुम इससे सही फ़ायदा उठा सको, वरना मेरी नसीहत के ख़िलाफ़ तुम बेएहतियाती के साथ उसे बे-मौक़ा ख़र्च करोगे या सारी रक़म एक ही वक़्त में ख़र्च कर बैठोगे तो नुक़सान उठाओगे और फिर और कोई रक़म मैं तुम्हें बरबाद करने के लिए नहीं दूँगा। यह सारी नसीहत ऐसी सूरत में बे-मतलब हो जाती है जबकि बाप ने पूरी रक़म सिरे से उसके हाथ में छोड़ी ही न हो, वह बे मौक़े ख़र्च करना चाहे तो रक़म उसकी जेब से निकले ही नहीं, या पूरे तीन सौ ख़र्च कर डालने पर भी एक सौ ही उसके हाथ से निकलें और दो सौ बहरहाल उसकी जेब में पड़े रहें, सही सूरते-हाल अगर यही हो तो इस नसीहत की आख़िर ज़रूरत क्या है।
فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ فَارِقُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٖ وَأَشۡهِدُواْ ذَوَيۡ عَدۡلٖ مِّنكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَ لِلَّهِۚ ذَٰلِكُمۡ يُوعَظُ بِهِۦ مَن كَانَ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَمَن يَتَّقِ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّهُۥ مَخۡرَجٗا ۝ 1
(2) फिर जब वे अपनी (इद्दत की) मुद्दत के ख़ातिमे पर पहुँचे तो या उन्हें भले तरीक़े से (अपने निकाह में) रोक रखो, या भले तरीक़े पर उनसे अलग हो जाओ।6 और दो ऐसे आदमियों को गवाह बना लो जो तुममें से इनसाफ़ करनेवाले हों।7 और (ऐ गवाह बननेवालो!) गवाही ठीक-ठीक अल्लाह के लिए अदा करो। ये बातें हैं जिनकी तुम लोगों को नसीहत की जाती है, हर उस शख़्स को जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो।8 जो कोई अल्लाह से डरते हुए काम करेगा अल्लाह उसके लिए मुश्किलों से निकलने का कोई रास्ता पैदा कर देगा9
6. यानी एक या दो तलाक़ देने की सूरत में इद्दत ख़त्म होने से पहले-पहले फ़ैसला कर लो कि औरत को अपनी बीवी के तौर पर रखना है या नहीं। रखना हो तो निबाहने की ग़रज़ से रखो, इस ग़रज़ से न रखो कि उसको सताने के लिए रुजू कर लो और फिर तलाक़ देकर उसकी इद्दत लम्बी करते रहो। और अगर रुख़सत करना हो तो शरीफ़ आदमियों की तरह किसी लड़ाई-झगड़े के बिना रुख़सत करो, मह्‍र या उसका कोई हिस्सा बाक़ी हो तो अदा कर दो, और जो हो सके तो कुछ-न-कुछ तलाक़ के हरजाने के तौर पर दो, जैसा कि सूरा-2 बक़रा, आयत-241 में कहा गया है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहजाब, हाशिया-86)
7. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि इससे मुराद तलाक़ पर भी गवाह बनाना है और रुजू (फिर मिलाप करने) पर भी, (इब्ने-जरीर)। हज़रत इमरान-बिन-हुसैन (रज़ि०) से पूछा गया कि एक शख़्स ने अपनी बीवी को तलाक़ दी और फिर उससे रुजू कर लिया, मगर न तलाक़ पर किसी को गवाह बनाया न रुजू पर। उन्होंने जवाब दिया, “तुमने तलाक़ भी सुन्नत के ख़िलाफ़ दी और रुजू भी सुन्नत के ख़िलाफ़ किया। तलाक़ और रुजू दोनों पर गवाह बनाओ और आगे से ऐसा न करना,” (हदीस : अबू-दाऊद, इब्ने-माजा)। लेकिन चारों फ़क़ीह (चारों इमाम) इसपर एक राय हैं कि तलाक़ और दोबारा मिलाप और जुदाई पर गवाह बनाना, इन कामों के सही होने के लिए शर्त नहीं है कि अगर गवाह न बनाया जाए तो न तलाक़ हो, न रुजू सही हो और न जुदाई, बल्कि यह हुक्म इस एहतियात के लिए दिया गया है कि दोनों में से कोई बाद में किसी वाक़िए का इनकार न कर सके, और झगड़ा पैदा होने की सूरत में आसानी से फ़ैसला हो सके, और शक-शुब्हे का दरवाज़ा भी बन्द हो जाए। यह हुक्म बिलकुल ऐसा ही है जैसे कहा गया, “जब तुम आपस में ख़रीदने-बेचने का कोई मामला तय करो तो गवाह बना लो,” (सूरा-2 बक़रा, आयत-282)। इसका यह मतलब नहीं है कि ख़रीदने-बेचने पर गवाह बनाना फ़र्ज़ है और अगर गवाह न बनाया जाए तो ख़रीदने-बेचने का अमल सही न होगा, बल्कि यह एक हिकमत-भरी हिदायत है जो झगड़ों का दरवाज़ा बन्द करने के लिए दी गई है और इसपर अमल करने ही में बेहतरी है। इसी तरह तलाक़ और रुजू के मामले में भी सही बात यही है कि इनमें से हर काम गवाहियों के बिना भी क़ानूनी तौर पर दुरुस्त हो जाता है, लेकिन एहतियात का तक़ाज़ा यह है कि जो काम भी किया जाए, उसी वक़्त या उसके बाद दो इनसाफ़-पसन्द आदमियों को उसपर गवाह बना लिया जाए।
8. ये अलफ़ाज़ ख़ुद बता रहे हैं कि ऊपर जो हिदायतें दी गई हैं वे नसीहत की हैसियत रखती हैं, न कि क़ानून की। आदमी सुन्नत के ख़िलाफ़ तलाक़ दे बैठे, इद्दत का हिसाब महफ़ूज़ न रखे, बीवी को बिना किसी मुनासिब वजह के घर से निकाल दे, इद्दत के ख़त्म होने पर रुजू करे तो औरत को सताने के लिए करे और रुख़सत करे तो लड़ाई-झगड़े के साथ करे, और तलाक़, रुजू, जुदाई (अलग होने), किसी चीज़ पर भी गवाह न बनाए, तो इससे तलाक़ और रुजू और जुदाई के क़ानूनी नतीजों में कोई फ़र्क़ न आएगा। अलबत्ता अल्लाह तआला की नसीहत के ख़िलाफ़ अमल करना इस बात की दलील होगा कि उसके दिल में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर सही ईमान मौज़ूद नहीं है जिसकी वजह से उसने वह रवैया अपनाया जो एक सच्चे मोमिन को नहीं अपनाना चाहिए।
9. मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि यहाँ अल्लाह तआला से डरते हुए काम करने का मतलब सुन्नत के मुताबिक़ तलाक़ देना, इद्दत का ठीक-ठीक हिसाब रखना, बीवी को घर से न निकालना, इद्दत के खत्म होने पर औरत को रोकना हो तो निबाह करने की नीयत से रुजू करना और अलग करना हो तो भले आदमियों की तरह उसको रुख़सत कर देना, और तलाक़, रुजू या जुदाई, जो भी हो, उसपर दो इनसाफ़-पसन्द आदमियों को गवाह बना लेना है। इसके बारे में अल्लाह तआला का फ़रमाना है कि जो इस तरह परहेज़गारी से काम लेगा उसके लिए हम मुश्किलों से निकलने का कोई रास्ता निकाल देंगे। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि जो शख़्स इन चीज़ों में परहेज़गारी से काम न लेगा वह अपने लिए ख़ुद ऐसी उलझनें और मुश्किलें पैदा कर लेगा जिनसे निकलने का कोई रास्ता उसे न मिल सकेगा। इन अलफ़ाज़ पर ग़ौर किया जाए तो साफ़ महसूस होता है कि जिन लोगों के नज़दीक बिदई तलाक़ सिरे से होती ही नहीं है और जो लोग एक ही वक़्त में या एक ही तुहर (पाक हालत) में दी हुई तीन तलाक़ों को एक ही तलाक़ क़रार देते हैं, उनकी राय सही नहीं है। क्योंकि अगर बिदई तलाक़ वाक़े ही न हो तो सिरे से कोई उलझन पेश नहीं आती जिससे बाहर निकलने के लिए किसी रास्ते की ज़रूरत हो। और अगर तीन तलाक़ें इकट्ठी (एक साथ) दे बैठने से एक ही तलाक़ होती हो, तब भी मुश्किलों से निकलने के लिए किसी रास्ते का कोई सवाल पैदा नहीं होता। इस सूरत में आख़िर वह पेचीदगी क्या है जिससे निकलने के लिए किसी रास्ते की ज़रूरत पेश आए?
وَيَرۡزُقۡهُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَحۡتَسِبُۚ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَهُوَ حَسۡبُهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بَٰلِغُ أَمۡرِهِۦۚ قَدۡ جَعَلَ ٱللَّهُ لِكُلِّ شَيۡءٖ قَدۡرٗا ۝ 2
(3) और उसे ऐसे रास्ते से रोज़ी देगा जिधर उसका गुमान भी न जाता हो।10 जो अल्लाह पर भरोसा करे उसके लिए वह काफ़ी है। अल्लाह अपना काम पूरा करके रहता है।11 अल्लाह ने हर चीज़ के लिए एक तक़दीर मुक़र्रर कर रखी है।
10. मुराद यह है कि इद्दत के दौरान में तलाक़ पाई हुई बीवी को घर में रखना, उसका ख़र्च बरदाश्त करना, और रुख़सत करते हुए उसको मह्‍र या तलाक़ का हरजाना देकर रुख़सत करना बेशक आदमी पर माली बोझ डालता है। जिस औरत से आदमी दुखी होकर ताल्लुक़ात तोड़ लेने पर आमादा हो चुका हो, उसपर माल ख़र्च करना तो उसे ज़रूर नागवार होगा। और अगर आदमी ग़रीब हो तो यह ख़र्च और ज़्यादा खलेगा। लेकिन अल्लाह से डरनेवाले आदमी को यह सब कुछ बरदाश्त करना चाहिए। तुम्हारा दिल तंग हो तो हो, अल्लाह का हाथ रोज़ी देने के लिए तंग नहीं है। उसकी हिदायत पर चलकर माल ख़र्च करोगे तो वह ऐसे रास्तों से तुम्हें रोज़ी देगा जिधर से रोज़ी मिलने का तुम गुमान भी नहीं कर सकते।
11. यानी कोई ताक़त अल्लाह के हुक्म को लागू होने से रोकनेवाली नहीं है।
وَٱلَّٰٓـِٔي يَئِسۡنَ مِنَ ٱلۡمَحِيضِ مِن نِّسَآئِكُمۡ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ فَعِدَّتُهُنَّ ثَلَٰثَةُ أَشۡهُرٖ وَٱلَّٰٓـِٔي لَمۡ يَحِضۡنَۚ وَأُوْلَٰتُ ٱلۡأَحۡمَالِ أَجَلُهُنَّ أَن يَضَعۡنَ حَمۡلَهُنَّۚ وَمَن يَتَّقِ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّهُۥ مِنۡ أَمۡرِهِۦ يُسۡرٗا ۝ 3
(4) और तुम्हारी औरतों में से जो माहवारी से मायूस हो चुकी हों उनके मामले में अगर तुम लोगों को कोई शक हो गया है तो (तुम्हें मालूम हो कि) उनकी इद्दत तीन महीने है।12 और यही हुक्म उनका है जिन्हें अभी माहवारी शुरू न हुई हो।13 और हामिला (गर्भवती) औरतों की इद्दत की हद यह है कि उनका बच्चा पैदा हो जाए।14 जो शख़्स अल्लाह से डरे उसके मामले में वह सुहूलत (आसानी) पैदा कर देता है।
12. यह उन औरतों का हुक्म है जिनको माहवारी आनी बिलकुल बन्द हो चुकी हो और उम्र ज़्यादा होने की वजह से अब माहवारी की उम्मीद भी न हो। उनकी इद्दत उस दिन से मानी जाएगी जिस दिन उन्हें तलाक़ दी गई हो। और तीन महीनों से मुराद तीन क़मरी (चाँद के) महीने हैं। अगर क़मरी महीने की शुरुआत में तलाक़ दी गई हो तो तमाम आलिमों के नज़दीक चाँद निकलने के लिहाज़ से इद्दत का हिसाब होगा, और अगर महीने के बीच में किसी वक़्त तलाक़ दी गई हो तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक 30 दिन का महीना क़रार देकर 3 महीने पूरे करने होंगे। (बदाइउस-सनाइ) रहीं वे औरतें जिनकी माहवारी में किसी तरह की बेक़ायदगी हो, उनके बारे में फ़क़ीहों की रायें अलग-अलग हैं। हज़रत सईद-बिन-मुसय्यब (रह०) कहते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “जिस औरत को तलाक़ दी गई हो, फिर एक-दो बार माहवारी आने के बाद उसकी माहवारी बन्द हो गई हो, वह 9 महीने इन्तिज़ार करे। अगर हम्ल (गर्भ) ज़ाहिर हो जाए तो ठीक है, वरना 9 महीने गुज़रने के बाद वह 3 महीने और इद्दत गुज़ारे, फिर वह किसी दूसरे आदमी से निकाह के लिए हलाल होगी।" इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा और इकरिमा कहते हैं कि जिस औरत को साल-भर माहवारी न आई हो उसकी इद्दत तीन महीने है। ताऊस कहते हैं कि जिस औरत को साल में एक बार माहवारी आए उसकी इद्दत तीन माहवारी है। यही राय हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) से रिवायत हुई है। इमाम मालिक (रह०) की रिवायत है कि एक साहब हब्बान नाम के थे, जिन्होंने अपनी बीवी को ऐसे ज़माने में तलाक़ दी जबकि वे बच्चे को दूध पिला रही थीं और उसपर एक साल गुज़र गया, मगर उन्हें माहवारी न हुई। फिर वे साहब इन्तिक़ाल कर गए। तलाक़ पाई हुई बीवी ने विरासत का दावा कर दिया। हज़रत उसमान (रज़ि०) के सामने मुक़द्दमा पेश हुआ। उन्होंने हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) से मशवरा माँगा। दोनों बुज़ुर्गों के मशवरे से हज़रत उसमान (रज़ि०) ने फ़ैसला सुनाया कि औरत वारिस है। दलील यह थी कि न वह उन औरतों में से है जो माहवारी से मायूस हो चुकी हैं और न उन लड़कियों में से है जिनको अभी माहवारी नहीं आई, लिहाज़ा वह शौहर के मरने तक अपनी उस माहवारी का पर थी जो उसे पहले थी और उसकी इद्दत बाक़ी थी। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि जिस औरत की माहवारी बन्द हो गई हो, मगर उसका बन्द होना 'सिन्ने-अयास' (रजोनिवृत्ति की उम्र) की वजह से न हो कि आगे उसके जारी होने की उम्मीद न रहे, उसकी इद्दत या तो माहवारी ही से मानी जाएगी अगर वह आगे जारी हो, या फिर उस उम्र के लिहाज़ से होगी जिसमें औरतों की माहवारी आनी बन्द हो जाती है और उस उम्र को पहुँचने के बाद वह तीन महीने इद्दत गुज़ारकर निकाह से आज़ाद होगी। यही राय इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम सौरी और इमाम लैस की है। और यही मसलक हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) का है। इमाम मालिक (रह०) ने हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की राय को अपनाया है और वह यह है कि औरत पहले 9 महीने गुज़ारेगी। अगर इस दौरान में माहवारी जारी न हो तो फिर वह तीन महीने उस औरत की-सी इद्दत गुज़ारेगी जो माहवारी से मायूस हो चुकी हो। इब्नुल-क़ासिम ने इमाम मालिक के मसलक का मतलब यह बयान किया है कि 9 महीने उस दिन से गिने जाएँगे जब आख़िरी बार उसकी माहवारी ख़त्म हुई थी न कि उस दिन से जब उसे तलाक़ दी गई। (ये तमाम तफ़सीलात अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास और बदाइउस-सनाइ लिल-कासानी से ली गई हैं।) इमाम अहमद-बिन-हंबल का मसलक यह है कि अगर कोई औरत जिसकी इद्दत माहवारी के एतिबार से शुरू हुई थी, इद्दत के दौरान में ‘आइसा' (माहवारी न आने) की उम्र (यानी रजोनिवृत्ति) में दाख़िल हो जाए तो उसे माहवारीवाली औरतों के बजाय माहवारी न आनेवाली औरतोंवाली इद्दत गुज़ारनी होगी। और अगर उसको माहवारी आनी बन्द हो जाए और मालूम न हो सके कि वह क्यों बन्द हो गई है तो पहले वह हम्ल (गर्भ) के शक में 9 महीने गुज़ारेगी और फिर उसे तीन महीने इद्दत के पूरे करने होंगे। और अगर यह मालूम हो कि माहवारी क्यों बन्द हुई है, मसलन कोई बीमारी हो, या दूध पिला रही हो या ऐसी ही कोई और वजह हो तो वह उस वक़्त तक इद्दत में रहेगी जब तक या तो माहवारी आनी शुरू न हो जाए और इद्दत का हिसाब माहवारियों के लिहाज़ से किया जा सके, या फिर वह माहवारी से छुट्टी पाई हुई हो जाए और ऐसी ही औरतों की-सी इद्दत गुज़ार सके। (अल-इनसाफ़)
13. माहवारी का ख़ून चाहे कम उम्र होने की वजह से न आया हो, या इस वजह से कि कुछ औरतों को बहुत देर में माहवारी आनी शुरू होती है और कभी-कभार ऐसा भी होता है कि किसी औरत को उम्र-भर नहीं आती, बहरहाल तमाम सूरतों में ऐसी औरत की इद्दत वही है जो माहवारी से छुट्टी पाई हुई औरत की इद्दत है, यानी तलाक़ के वक़्त से तीन महीने। इस जगह यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद के बयान के मुताबिक़ इद्दत का सवाल उस औरत के मामले में पैदा होता है जिससे शौहर सोहबत कर चुका हो, क्योंकि सोहबत से पहले तलाक़ की सूरत में सिरे से कोई इद्दत है ही नहीं, (सूरा-33 अहज़ाब, आयत-49)। इसलिए ऐसी लड़कियों की इद्दत बयान करना जिन्हें माहवारी आनी शुरू न हुई हो, साफ़ इस बात पर दलील देता है कि इस उम्र में न सिर्फ़ लड़की का निकाह कर देना जाइज़ है, बल्कि शौहर का उसके साथ सोहबत करना भी जाइज़ है। अब यह बात ज़ाहिर है कि जिस चीज़ को क़ुरआन ने जाइज़ क़रार दिया हो उसे मना ठहराने का किसी मुसलमान को हक़ नहीं पहुँचता। जिस लड़की को ऐसी हालत में तलाक़ दी गई हो कि उसे अभी माहवारी आनी न शुरू हुई हो, और फिर इद्दत के दौरान में उसको माहवारी शुरू हो जाए, तो वह फिर उसी माहवारी से इद्दत शुरू करेगी और उसकी इद्दत माहवारीवाली औरतों जैसी होगी।
14. इस बात पर तमाम आलिम एक राय हैं कि तलाक़ पाई हुई हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत बच्चा पैदा होने तक है। लेकिन इस बात में इख़्तिलाफ़ हो गया है कि क्या यही हुक्म उस औरत का भी है जिसका शौहर हम्ल (गर्भ) के ज़माने में मर गया हो? यह इख़्तिलाफ़ इस वजह से हुआ है कि सूरा-2 बक़रा, आयत-234 में उस औरत की इद्दत 4 महीने 10 दिन बयान की गई है जिसका शौहर मर जाए, और वहाँ इस बात को बयान नहीं किया गया है कि यह हुक्म तमाम बेवा औरतों के लिए आम है या उन औरतों के लिए ख़ास है जो हामिला (गर्भवती) न हों। हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) इन दोनों आयतों को मिलाकर यह मसला निकालते हैं कि तलाक़ पाई हुई हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत तो बच्चा पैदा होने तक ही है, मगर बेवा हामिला (गर्भवती) की इद्दत 'आख़िरुल-अ-जलैन' है, यानी तलाक़ शुदा की इद्दत और हामिला (गर्भवती) की इद्दत में से जो ज़्यादा लम्बी हो वही उसकी इद्दत है। मसलन अगर उसका बच्चा 4 महीने 10 दिन से पहले पैदा हो जाए तो उसे चार महीने दस दिन पूरे होने तक इद्दत गुज़ारनी होगी। और अगर उसका बच्चा उस वक़्त तक न हो तो फिर उसकी इद्दत उस वक़्त पूरी होगी जब बच्चा पैदा हो जाए। यही मसलक इमामिय्या का है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) कहते हैं कि सूरा-65 तलाक़ की यह आयत सूरा-2 बक़रा की आयत के बाद उतरी है, इसलिए बाद के हुक्म ने पहली आयत के हुक्म को ऐसी बेवा के लिए ख़ास कर दिया है जो हामिला (गर्भवती) न हो और हर हामिला (गर्भवती) की इद्दत बच्चा पैदा होने तक मुक़र्रर कर दी है, चाहे वह तलाक़ पाई हुई औरत हो या बेवा। इस मसलक के मुताबिक़ औरत का बच्चा चाहे शौहर की मौत के फ़ौरन बाद हो जाए या इसमें 4 महीने 10 दिन से ज़्यादा लम्बा वक़्त लगे, बहरहाल बच्चा पैदा होते ही वह इद्दत से बाहर हो जाएगी। इस मसलक की ताईद हज़रत उबई-बिन-काब (रज़ि०) की यह रिवायत करती है कि वे फ़रमाते हैं, जब सूरा-65 तलाक़ की यह आयत उतरी तो मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “क्या यह तलाक़-शुदा और बेवा दोनों के लिए है?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, हाँ।” दूसरी रिवायत में नबी (सल्ल०) ने और ज़्यादा साफ़ तौर से बताया, “हर हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत की मुद्दत उसका बच्चा पैदा होने तक है,” (इब्ने-जरीर,इब्ने-अबी-हातिम। इब्ने-हजर कहते हैं कि अगरचे इसकी सनद में बहस की गुंजाइश है, लेकिन चूँकि यह कई सनदों से नक़्ल हुई है इसलिए मानना पड़ता है कि इसकी कोई अस्ल ज़रूर है)। इससे भी ज़्यादा बढ़कर इसकी मज़बूत ताईद सुबैआ-बिन्ते-हारिस अस्लमिय्या के वाक़िए से होती है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुबारक दौर में पेश आया था। वे जब बेवा हुई थीं उस वक़्त वे हामिला (गर्भवती) थीं और शौहर की मौत के कुछ दिन के बाद (कुछ रिवायतों में 20 दिन, कुछ में 23 दिन, कुछ में 25 दिन, कुछ में 35 दिन और कुछ में 40 दिन बयान हुए हैं) उनका बच्चा पैदा हो गया था। नबी (सल्ल०) से उनके मामले में फ़तवा पूछा कि गया तो आप (सल्ल०) ने उनको निकाह की इजाज़त दे दी। इस वाक़िए को बुख़ारी और मुस्लिम ने कई तरीक़ों से हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) से रिवायत किया है। इसी वाक़िए को बुख़ारी, मुस्लिम, इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसई और इब्ने-माजा ने कई अलग-अलग सनदों के साथ हज़रत मिसवर-बिन-मख़रमा से भी रिवायत किया है। मुस्लिम ने ख़ुद सुबैआ-बिन्ते-हारिस अस्लमिय्या का यह बयान नक़्ल किया है कि मैं हज़रत साद-बिन-ख़ौला की बीवी थी। हज्जतुल-वदा के ज़माने में मेरे शौहर का इन्तिक़ाल हो गया जबकि मैं हामिला (गर्भवती) थी। इन्तिक़ाल के कुछ दिन बाद मेरे यहाँ बच्चा पैदा हो गया। एक साहब ने कहा कि तुम चार महीने दस दिन से पहले निकाह नहीं कर सकतीं। मैंने जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से जो पूछा तो आप (सल्ल०) ने फ़तवा दिया कि तुम बच्चा पैदा होते ही हलाल हो चुकी हो, अब चाहो तो दूसरा निकाह कर सकती हो। इस रिवायत को बुख़ारी ने भी मुख़्तसर (संक्षिप्त) तौर से नक़्ल किया है। सहाबा (रज़ि०) की एक बड़ी तादाद से यही मसलक नक़्ल हुआ है। इमाम मालिक, इमाम शाफ़िई, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, इब्ने-अबी-शैबा और इब्नुल-मुंज़िर ने रिवायत नक़्ल की है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से हामिला बेवा का मसला पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उसकी इद्दत बच्चा पैदा होने तक है। इसपर अनसार में से एक साहब बोले कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने तो यहाँ तक कहा था कि अगर शौहर अभी दफ़्न भी न हुआ हो, बल्कि उसकी लाश उसके बिस्तर पर ही हो और उसकी बीवी के यहाँ बच्चा पैदा हो जाए तो वह दूसरे निकाह के लिए हलाल हो जाएगी। यही राय हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), हज़रत अबू-मसऊद बदरी (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) की है, और इसी को चारों इमामों और दूसरे बड़े फ़क़ीहों ने अपनाया है। शाफ़िई आलिम कहते हैं कि अगर हामिला औरत के पेट में एक से ज़्यादा बच्चे हों तो आख़िरी बच्चे के पैदा होने पर इद्दत ख़त्म होगी। बच्चा चाहे मुर्दा ही पैदा हो, उसके पैदा होते ही इद्दत ख़त्म हो जाएगी। हम्ल गिर जाने की सूरत में अगर दाइयाँ (या आजकल के ज़माने में लेडी डॉक्टर) अपने इल्म के मुताबिक़ यह कहें कि यह सिर्फ़ ख़ून का लोथड़ा न था, बल्कि इसमें आदमी की सूरत पाई जाती थी, या यह रसौली न थी, बल्कि आदमी की अस्ल थी तो उनकी बात मानी जाएगी और इद्दत ख़त्म हो जाएगी, (मुग़निल-मुहताज)। हंबली और हनफ़ी आलिमों का मसलक भी इसके क़रीब-क़रीब है, मगर हम्ल गिरने (गर्भपात) के बारे में उनकी राय यह है कि जब तक इनसानी बनावट ज़ाहिर न पाई जाए, सिर्फ़ दाइयों के इस बयान पर यह आदमी ही की अस्ल है, भरोसा नहीं किया जाएगा और इससे इद्दत ख़त्म न होगी, (बदाइउस-सनाइ, अल-इनसाफ़)। लेकिन मौज़ूदा ज़माने में मेडिकल जाँच के ज़रिए से यह मालूम करने में कोई मुश्किल पेश नहीं आ सकती कि जो चीज़ गिरी है वह सचमुच इनसानी हिम्ल की तरह की थी या किसी रसौली या जमे हुए ख़ून की क़िस्म से थी, इसलिए अब जहाँ डॉक्टरों से राय हासिल करना मुमकिन हो वहाँ यह फ़ैसला आसानी से किया जा सकता है कि जिस चीज़ को हम्ल का गिरना (गर्भपात) कहा जाता है वह सचमुच हम्ल का गिरना (गर्भपात) था या नहीं और इससे इद्दत ख़त्म हुई या नहीं। अलबत्ता जहाँ ऐसी मेडिकल जाँच मुमकिन न हो वहाँ हंबली और हनफ़ी आलिमों का मसलक ही ज़्यादा एहतियातवाला है और जाहिल दाइयों पर भरोसा करना मुनासिब नहीं है।
ذَٰلِكَ أَمۡرُ ٱللَّهِ أَنزَلَهُۥٓ إِلَيۡكُمۡۚ وَمَن يَتَّقِ ٱللَّهَ يُكَفِّرۡ عَنۡهُ سَيِّـَٔاتِهِۦ وَيُعۡظِمۡ لَهُۥٓ أَجۡرًا ۝ 4
(5) यह अल्लाह का हुक्म है जो उसने तुम्हारी तरफ़ उतारा है। जो अल्लाह से डरेगा अल्लाह उसकी बुराइयों को उससे दूर कर देगा और उसको बड़ा बदला देगा15
15. यह अगरचे एक आम नसीहत है जो इनसानी ज़िन्दगी के तमाम हालात पर चस्पाँ होती है, लेकिन इस ख़ास मौक़ा-महल में इसे कहने का मक़सद मुसलमानों को ख़बरदार करना है कि ऊपर जो हुक्म बयान किए गए हैं, उनसे चाहे तुम्हारे ऊपर कितनी ही ज़िम्मेदारियों का बोझ पड़ता हो, बहरहाल ख़ुदा से डरते हुए उसकी पैरवी करो, अल्लाह तुम्हारे काम आसान करेगा, तुम्हारे गुनाह माफ़ करेगा और तुम्हें बड़ा इनाम देगा। ज़ाहिर है कि जिन तलाक़-शुदा औरतों की इद्दत तीन महीने मुक़र्रर की गई है उनकी इद्दत का ज़माना उन औरतों के मुक़ाबले में ज़्यादा लम्बा होगा जिनकी इद्दत तीन माहवारी मुक़र्रर की गई है। और हामिला (गर्भवती) औरत की इद्दत का ज़माना तो उससे भी कई महीने ज़्यादा हो सकता है। इस पूरे ज़माने में औरत के रहने और उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी उठाना, जबकि आदमी उसे छोड़ देने का इरादा कर चुका हो, लोगों को बरदाश्त न होनेवाला बोझ महसूस होगा। लेकिन जो बोझ अल्लाह से डरते हुए, अल्लाह के हुक्मों की पैरवी में उठाया जाए, अल्लाह का वादा है कि अपने फ़ज़्ल (मेहरबानी) से वह उसको हल्का कर देगा और उसका इतना बड़ा इनाम देगा जो दुनिया में उठाए हुए इस थोड़े-से बोझ के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा क़ीमती होगा।
أَسۡكِنُوهُنَّ مِنۡ حَيۡثُ سَكَنتُم مِّن وُجۡدِكُمۡ وَلَا تُضَآرُّوهُنَّ لِتُضَيِّقُواْ عَلَيۡهِنَّۚ وَإِن كُنَّ أُوْلَٰتِ حَمۡلٖ فَأَنفِقُواْ عَلَيۡهِنَّ حَتَّىٰ يَضَعۡنَ حَمۡلَهُنَّۚ فَإِنۡ أَرۡضَعۡنَ لَكُمۡ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ وَأۡتَمِرُواْ بَيۡنَكُم بِمَعۡرُوفٖۖ وَإِن تَعَاسَرۡتُمۡ فَسَتُرۡضِعُ لَهُۥٓ أُخۡرَىٰ ۝ 5
(6) उनको (इद्दत के ज़माने में) उसी जगह रखो जहाँ तुम रहते हो, जैसी कुछ भी जगह तुम्हारे पास हो। और उन्हें तंग करने के लिए उनको न सताओ।16 और अगर वे हामिला (गर्भवती) हों तो उनपर उस वक़्त तक ख़र्च करते रहो जब तक उनका बच्चा पैदा न हो जाए17 फिर अगर वे तुम्हारे लिए (बच्चे को) दूध पिलाएँ तो उनका मेहनताना उन्हें दो, और भले तरीक़े से (मेहनताने का मामला) आपसी मशवरे से तय कर लो।18 लेकिन अगर तुमने (मेहनताना तय करने में) एक-दूसरे को तंग किया बच्चे को कोई और औरत दूध पिला लेगी।19
16. इस बात में तमाम फ़क़ीह एक राय हैं कि तलाक़-शुदा औरत को अगर रजई तलाक़ दी गई हो तो शौहर पर उसके रहने और गुज़ारा-ख़र्च की ज़िम्मेदारी आती है। और इस बात पर भी एक राय हैं कि अगर औरत हामिला हो तो चाहे उसे रजई तलाक़ दी गई हो या पूरी तरह अलग कर देनेवाली, बहरहाल उसका बच्चा पैदा होने तक उसके रहने और उसके ख़र्च का ज़िम्मेदार शौहर होगा। इसके बाद इख़्तिलाफ़ इस बात में हुआ है कि क्या ऐसी हामिला जिसे पूरी तरह अलग करने के लिए तलाक़ दी गई हो, रहने और गुज़ारा-ख़र्च दोनों की हक़दार है? या सिर्फ़ रहने का हक़ रखती है? या दोनों में से किसी की भी हक़दार नहीं है? एक गरोह कहता है कि वह रहने और गुज़ारा-ख़र्च दोनों की हक़दार है। यह राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अली-बिन-हुसैन (इमाम ज़ैनुल-आबिदीन), क़ाज़ी शुरैह (रह०) और इबराहीम नख़ई की है। इसी को हनफ़ी आलिमों ने अपनाया है, और इमाम सुफ़ियान सौरी और हसन-बिन-सॉलेह की भी यही राय है। इसकी ताईद दारे-क़ुतनी की उस हदीस से होती है जिसमें हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिस औरत को तीन तलाक़ें दी जा चुकी हों उसे इद्दत के ज़माने में रहने और गुज़ारे का ख़र्च पाने का हक़ है।” इसकी और भी ताईद उन रिवायतों से होती है जिनमें बताया गया है कि फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस की हदीस को हज़रत उमर (रज़ि०) ने यह कहकर रद्द कर दिया था कि हम एक औरत की कही हुई बात पर अपने रब की किताब और अपने नबी की सुन्नत को नहीं छोड़ सकते। इससे मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) की जानकारी में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की यह सुन्नत होगी कि ऐसी औरत के लिए गुज़ारा-ख़र्च और रहने का हक़ है। बल्कि इबराहीम नख़ई (रह०) की एक रिवायत में तो यह साफ़-साफ़ बयान हुआ है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस की हदीस को रद्द करते हुए कहा था, “मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि ऐसी औरत के लिए रहने का हक़ भी है और गुज़ारा-ख़र्च का भी।” इमाम अबू-बक्र जस्सास अहकामुल-क़ुरआन में इस मसले पर तफ़सीली बहस करते हुए इस मसलक के हक़ में पहली दलील यह देते हैं कि अल्लाह तआला ने सिर्फ़ यह फ़रमाया है कि “उनको उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दो।” अल्लाह का यह फ़रमान उस शख़्स पर भी चस्पाँ होता है जो दो तलाक़ पहले देकर रुजू कर चुका हो और अब उसे सिर्फ़ एक ही तलाक़ देने का हक़ बाक़ी हो। दूसरी दलील उनकी यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तलाक़ देने का जब यह तरीक़ा बताया कि “आदमी या तो ऐसे तुहर (पाक हालत) में तलाक़ दे जिसमें सोहबत न की गई हो या ऐसी हालत में तलाक़ दे जब औरत का हामिला होना ज़ाहिर हो चुका हो तो इसमें आप (सल्ल०) ने पहली, दूसरी या आख़िरी तलाक़ के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं किया। लिहाज़ा अल्लाह तआला का यह फ़रमान कि “उनको उसी जगह रखो जहाँ तुम रहते हो” हर तरह की तलाक़ के बारे में माना जाएगा। तीसरी दलील वे यह देते हैं कि तलाक़-शुदा हामिला, चाहे उसे रजई तलाक़ दी गई हो या पूरी तरह अलग कर देनेवाली, उसके रहने और ख़र्च का इन्तिज़ाम शौहर पर वाजिब है। और वह तलाक़-शुदा औरत जो हामिला न हो, उसके लिए भी ये दोनों हक़ वाजिब हैं। इससे मालूम हुआ कि रहने और ख़र्च पाने के हक़ का वाजिब होना अस्ल में हम्ल (गर्भ) की बुनियाद पर नहीं है, बल्कि इस वजह से है कि ये दोनों क़िस्म की औरतें शरई तौर पर शौहर के घर में रहने पर मजबूर हैं। अब अगर यही हुक्म पूरी तरह अलग हो जानेवाली तलाक़ पाई हुई उस औरत के लिए भी हो जो हामिला न हो तो कोई वजह नहीं कि उसके रहने और ख़र्च की ज़िम्मेदारी मर्द पर न हो। दूसरा गरोह कहता है कि पूरी तरह अलग कर देनेवाली तलाक़ पाई हुई औरत के लिए रहने का हक़ तो है, मगर ख़र्च पाने का हक़ नहीं है। यह राय सईद-बिन-मुसय्यब (रह०), सुलैमान-बिन-यसार (रह०), अता (रह०), शअबी (रह०), औज़ाई (रह०), लैस (रह०) और अबू-उबैद (रह०) की है और इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) ने भी इसी को अपनाया है। लेकिन मुग़निल-मुहताज में इमाम शाफ़िई (रह०) का मसलक इससे अलग बयान हुआ है जैसा कि आगे आ रहा है। तीसरा गरोह कहता है कि पूरी तरह अलग करनेवाली तलाक़ पाई हुई औरत के लिए न रहने का हक़ है न ख़र्च पाने का। यह राय हसन बसरी, हम्माद, इब्ने-अबी-लैला, अम्र-बिन-दीनार, ताऊस, इसहाक़-बिन-राहवैह, और अबू-सौर की है। इब्ने जरीर (रह०) ने हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की भी यही राय नक़्ल की है। इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) और इमामिय्या ने भी इसी को अपनाया है। और मुग़निल-मुहताज में शाफ़िई आलिमों की राय भी यह बयान की गई है कि “तलाक़ की वजह से जो औरत इद्दत गुज़ार रही हो उसके लिए रहने का हक़ वाजिब है चाहे वह हामिला हो या न हो, मगर बाइना (पूरी तरह अलग हो जानेवाली, तलाक़ पाई हुई) औरत के लिए वाजिब नहीं है .... और ऐसी बाइना जो हामिला न हो उसके लिए न ख़र्च है और न कपड़ा।” इस मसलक की दलील एक तो क़ुरआन मजीद की इस आयत से है कि “तुम नहीं जानते, शायद इसके बाद अल्लाह मेल-मिलाप की कोई सूरत पैदा कर दे।" इससे वे यह नतीजा निकालते हैं कि यह बात रजई तलाक़ पाई हुई औरत के हक़ ही में दुरुस्त हो सकती है न कि पूरी तरह अलग कर देनेवाली तलाक़ पाई हुई औरत के हक़ में। इसलिए तलाक़-शुदा को घर में रखने का हुक्म भी रजई तलाक़ पानेवाली ही के लिए ख़ास है। दूसरी दलील फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस की हदीस से है जिसे हदीस की किताबों में बहुत-सी सही सनदों के साथ रिवायत किया गया है। यह फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस अल-फ़िहरिय्या सबसे पहले हिजरत करनेवाली औरतों में से थीं, बड़ी अक़्लमन्द समझी जाती थीं, और हज़रत उमर (रज़ि०) के शहीद होने के मौक़े पर उन सहाबा (रज़ि०) का, जो शूरा के मेम्बर थे, इजतिमा इन ही के यहाँ हुआ था। ये पहले अबू-अम्र-बिन-हफ़्स-बिन-मुग़ीरा अल-मनतमी के निकाह में थीं, फिर उनके शौहर ने उनको तीन तलाक़ें देकर अलग कर दिया, और बाद में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इनका निकाह हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) से किया। इनका क़िस्सा यह है कि इनके शौहर अबू-अम्र पहले इनको दो तलाक़ दे चुके थे। फिर जब हज़रत अली (रज़ि०) के साथ वे यमन भेजे गए तो उन्होंने वहाँ से बाक़ी बची हुई तीसरी तलाक़ भी उनको भेज दी। कुछ रिवायतों में यह है कि अबू-अम्र ही ने अपने रिश्तेदारों को पैग़ाम भेजा था कि इद्दत के ज़माने में इनको घर में रखें और इनका ख़र्च बरदाश्त करें। और कुछ में यह है कि इन्होंने ख़ुद ख़र्च और रहने के हक़ की माँग की थी। बहरहाल जो सूरत भी हो, शौहर के रिश्तेदारों ने इनका हक़ मानने से इनकार कर दिया। इसपर ये दावा लेकर नबी (सल्ल०) के पास पहुँचीं और नबी (सल्ल०) ने फ़ैसला सुनाया कि न तुम्हारे लिए ख़र्च है, न रहने का हक़। एक रिवायत में है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “औरत का ख़र्च और उसके रहने का इन्तिज़ाम तो शौहर पर इस सूरत में वाजिब है जबकि शौहर को उसपर रुजू (बीवी की हैसियत से वापस लेने) का हक़ हो। मगर जब रुजू का हक़ न हो तो न ख़र्च पाने का हक़ है और न रहने का,” (हदीस : मुसनद अहमद)। तबरानी और नसई ने भी क़रीब-क़रीब यही रिवायत नक़्ल की है और उसके आख़िरी अलफ़ाज़ ये हैं, “लेकिन जब वह उसके लिए उस वक़्त तक हलाल न हो जब तक उसके सिवा किसी और मर्द से निकाह न करे तो फिर उसके लिए न ख़र्च पाने का हक़ है न रहने का।” यह हुक्म बयान करने के बाद नबी (सल्ल०) ने उनको पहले उम्मे-शरीक के घर में इद्दत गुज़ारने का हुक्म दिया और बाद में फ़रमाया कि तुम इब्ने-उम्मे-मकतूम (रज़ि०) के यहाँ रहो। लेकिन इस हदीस को जिन लोगों ने क़ुबूल नहीं किया है उनकी दलीलें ये हैं— एक, उनको शौहर के रिश्तेदारों का घर छोड़ने का हुक्म इसलिए दिया गया था कि वे बहुत तेज़ ज़बान थीं और शौहर के रिश्तेदार उनकी बदमिज़ाजी से तंग थे। सईद-बिन-मुसय्यब कहते हैं कि “इन साहिबा ने अपनी हदीस बयान करके लोगों को फ़ितने में डाल दिया है। अस्ल बात यह है कि वे ज़बान-दराज़ औरत थीं, इसलिए उनको इब्ने-उम्मे-मकतूम (रज़ि०) के यहाँ रखा गया,” (हदीस : अबू-दाऊद)। दूसरी रिवायत में सईद-बिन-मुसय्यब का कहना यह है कि उन्होंने अपने शौहर के रिश्तेदारों से ज़बान-दराजी की थी इसलिए उन्हें घर से निकल जाने का हुक्म दिया गया था, (जस्सास)। सुलैमान-बिन-यसार कहते हैं, “उनका घर से निकलना अस्ल में बदमिज़ाजी की वजह से था।" (हदीस : अबू-दाऊद) दूसरे, उनकी रिवायत को हज़रत उमर (रज़ि०) ने उस ज़माने में रद्द कर दिया था जब बहुत-से सहाबा मौज़ूद थे और इस मामले की पूरी जाँच-पड़ताल हो सकती थी। इबराहीम नख़ई कहते हैं कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) को फ़ातिमा (रज़ि०) की यह हदीस पहुँची तो उन्होंने फ़रमाया, "हम अल्लाह की किताब की एक आयत और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के क़ौल को एक औरत के क़ौल की वजह से नहीं छोड़ सकते, जिसे शायद कुछ वहम हुआ है। मैंने ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से सुना है कि मबतूता (पूरी तरह अलग कर देनेवाली तलाक़ पाई हुई औरत) के लिए रहने का हक़ भी है और ख़र्च का भी,” (जस्सास)। अबू-इसहाक़ कहते हैं कि मैं असवद-बिन-यज़ीद के पास कूफ़ा की मस्जिद में बैठा था। वहाँ शअबी ने फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) की हदीस का ज़िक्र किया। इसपर हज़रत असवद ने शअबी को कंकरियाँ खींच मारीं और कहा कि हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में जब फ़ातिमा की यह रिवायत पेश की गई थी तो उन्होंने कहा था, “हम अपने रब की किताब और अपने नबी की सुन्नत को एक औरत के क़ौल की वजह से रद्द नहीं कर सकते, मालूम नहीं उसने याद रखा या भूल गई। उसके लिए ख़र्च और रहने का ठिकाना है, अल्लाह का हुक्म है, 'उनको उनके घरों से मत निकालो।” यह रिवायत अलफ़ाज़ के थोड़े-से फ़र्क़ के साथ मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और नसई में नक़्ल हुई है। तीसरे, मरवान की हुकूमत के ज़माने में जब पूरी तरह अलग कर देनेवाली तलाक़ पाई हुई औरत के बारे में एक झगड़ा चल पड़ा था, हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस की रिवायत पर सख़्त एतिराज़ किए थे। क़ासिम-बिन-मुहम्मद कहते हैं कि मैंने हज़रत आइशा (रज़ि०) से पूछा, “क्या आपको फ़ातिमा का क़िस्सा मालूम नहीं है?” उन्होंने जवाब दिया, "फ़ातिमा की हदीस का ज़िक्र न करो तो अच्छा है,” (हदीस : बुख़ारी)। बुख़ारी ने दूसरी रिवायत जो नक़्ल की है उसमें हज़रत आइशा (रज़ि०) के अलफ़ाज़ ये हैं, “फ़ातिमा को क्या हो गया है, वह ख़ुदा से डरती नहीं?” तीसरी रिवायत में हज़रत उरवा-बिन-ज़ुबैर कहते हैं कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, “फ़ातिमा के लिए यह हदीस बयान करने में कोई भलाई नहीं है।” हज़रत उरवा एक और रिवायत में बयान करते हैं कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़ातिमा पर सख़्त नाराज़ी का इज़हार किया और कहा, “वह अस्ल में एक ख़ाली मकान में थीं जहाँ कोई हाल पूछनेवाला न था, इसलिए उनकी सलामती की ख़ातिर नबी (सल्ल०) ने उनको घर बदल देने की हिदायत की थी।" चौथे, उन साहिबा का निकाह बाद में उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) से हुआ था, और मुहम्मद-बिन-उसामा कहते हैं कि जब कभी फ़ातिमा इस हदीस का ज़िक्र करतीं, मेरे बाप, जो चीज़ भी उनके हाथ लगती उठाकर उनपर दे मारते थे, (जस्सास)। ज़ाहिर है कि हज़रत उसामा के इल्म में सुन्नत इसके ख़िलाफ़ न होती तो वे इस हदीस के बयान किए जाने पर इतनी नाराज़ी का इज़हार नहीं कर सकते थे।
17. इस बात पर तमाम आलिम एक राय रखते हैं कि तलाक़-शुदा औरत चाहे रजई तलाक़ पाई। हुई हो या पूरी तरह अलग कर देनेवाली, अगर हामिला (गर्भवती) हो तो बच्चा पैदा होने तक उसके रहने और उसके गुज़ारा-ख़र्च का ज़िम्मेदार शौहर है। अलबत्ता रायों का फ़र्क़ उस सूरत में है जबकि हामिला औरत का शौहर मर गया हो, फिर चाहे वह तलाक़ देने के बाद मरा हो, या उसने कोई तलाक़ न दी हो और औरत हम्ल के ज़माने में बेवा हो गई हो। इस मामले में फ़क़ीहों की रायें ये हैं— (1) हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) का कहना है कि शौहर की कुल विरासत में उसका ख़र्च वाजिब है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), क़ाज़ी शुरैह, अबुल-आलिया, शअबी और इबराहीम नख़ई से भी यही राय नक़्ल हुई है, और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का भी एक क़ौल इसी की ताईद में है। (आलूसी, जस्सास) (2) इब्जे-जरीर ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का दूसरा क़ौल यह नक़्ल किया है कि उसपर उसके पेट के बच्चे के हिस्से में से ख़र्च किया जाए, अगर मरनेवाले ने कोई विरासत छोड़ी हो। और अगर विरासत न छोड़ी हो तो मरनेवाले के वारिसों को उस पर ख़र्च करना चाहिए, क्योंकि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है, “और इसी तरह की ज़िम्मेदारी उसके वारिस पर भी आती है।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-233) (3) हज़रत ज़ाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०), हज़रत हसन बसरी, हज़रत सईद-बिन-मुसय्यब और हज़रत अता-बिन-अबी-रबाह कहते हैं कि मरनेवाले शौहर के माल में उसके लिए कोई गुज़ारा-ख़र्च नहीं है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी एक तीसरा क़ौल यही नक़्ल हुआ है, (जस्सास)। इसका मतलब यह है कि शौहर की छोड़ी हुई विरासत में से उसको जो हिस्सा मिला हो उससे वह अपना ख़र्च पूरा कर सकती है, लेकिन शौहर की कुल विरासत पर उसके ख़र्च का ज़िम्मा नहीं आता जिसका बोझ तमाम वारिसों पर पड़े। (4) इब्ने-अबी-लैला कहते हैं कि उसका ख़र्च मरनेवाले शौहर के माल में उसी तरह वाजिब है जिस तरह उसके माल में किसी का क़र्ज़ वाजिब होता है, (जस्सास)। यानी कुल छोड़े हुए माल में से जिस तरह क़र्ज़ अदा किया जाता है उसी तरह उसका ख़र्च भी दिया जाए। (5) इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०) और इमाम जुफ़र (रह०) कहते हैं कि मरनेवाले के माल में उसके लिए न रहने के मकान का हक़ है, न गुज़ारा-ख़र्च का। क्योंकि मौत के बाद मरनेवाले की कोई मिलकियत ही नहीं है। उसके बाद तो वह वारिसों का माल है। उनके माल में हामिला बेवा का ख़र्च कैसे वाजिब हो सकता है, (हिदाया, जस्सास)। यही राय इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) की है। (अल-इनसाफ़) (6) इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि उसके लिए कोई गुज़ारा-ख़र्च नहीं है, अलबत्ता उसे रहने की जगह का हक़ है, (मुग़निल-मुहताज)। उनकी दलील हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की बहन फ़ुरैआ-बिन्ते-मालिक के इस वाक़िए से है कि उनके शौहर जब क़त्ल कर दिए गए तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको हुक्म दिया कि शौहर के घर ही में इद्दत गुज़ारें, (हदीस : अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी)। इसके अलावा उनकी दलील दारे-क़ुतनी की इस रिवायत से है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बेवा हामिला के लिए कोई गुज़ारा-ख़र्च नहीं है।” यही राय इमाम मालिक (रह०) की भी है। (हाशियतुद-दुसूक़ी)
18. अल्लाह के इस फ़रमान से कई अहम बातें मालूम हुईं। एक यह कि औरत अपने दूध की मालिक है, वरना ज़ाहिर है कि वह उसका मेहनताना लेने की हक़दार नहीं हो सकती थी। दूसरी यह कि जब वह बच्चा पैदा होते ही अपने पिछले शौहर के निकाह से बाहर हो गई तो बच्चे को दूध पिलाने पर वह क़ानूनी तौर पर मजबूर नहीं है, बल्कि बच्चे का बाप अगर उससे दूध पिलवाना चाहे और वह भी राज़ी हो तो वह उसे दूध पिलाएगी और उसपर मेहनताना लेने की हक़दार होगी। तीसरी यह कि बाप भी क़ानूनी तौर से मजबूर नहीं है कि बच्चे की माँ ही से उसको दूध पिलवाए। चौथी यह कि बच्चे के ख़र्च का ज़िम्मा बाप पर आता है। पाँचवीं यह कि बच्चे को दूध पिलाने की सबसे पहली हक़दार माँ है और दूसरी औरत से दूध पिलवाने का काम उसी सूरत में लिया जा सकता है जबकि माँ ख़ुद इसपर राज़ी न हो, या उसका ऐसा मेहनताना माँगे जिसका अदा करना बाप के बस में न हो। इसी से छठा क़ायदा यह निकलता है कि अगर दूसरी औरत को भी वही मेहनताना देना पड़े जो बच्चे की माँ माँगती हो तो माँ का हक़ पहले नम्बर पर है। आलिमों की राएँ इस मसले में ये हैं— ज़ह्हाक कहते हैं कि “बच्चे की माँ उसे दूध पिलाने की ज़्यादा हक़दार है, मगर उसे इख़्तियार है कि चाहे दूध पिलाए या न पिलाए। अलबत्ता अगर बच्चा दूसरी औरत की छाती क़ुबूल न करे तो माँ को उसे दूध पिलाने पर मजबूर किया जाएगा।” इसी से मिलती-जुलती राय क़तादा और इबराहीम नख़ई और सुफ़ियान सौरी की है। इबराहीम नख़ई यह भी कहते हैं कि “अगर दूसरी औरत दूध पिलाने के लिए न मिल रही हो तब भी माँ को उसे दूध पिलाने पर मजबूर किया जाएगा।" (इब्ने-जरीर) हिदाया में है, “अगर माँ-बाप की जुदाई (अलग होने) के वक़्त छोटा-बच्चा दूध पीता हो तो माँ पर यह फ़र्ज़ नहीं है कि वही उसे दूध पिलाए, अलबत्ता अगर दूसरी औरत न मिलती हो तो वह दूध पिलाने पर मजबूर की जाएगी। और अगर बाप यह कहे कि मैं बच्चे की माँ को मेहनताना देकर उससे दूध पिलवाने के बजाय दूसरी औरत से मेहनताने पर यह काम लूँगा, और माँ दूसरी औरत ही के बराबर मेहनताना माँग रही हो, या बिना मेहनताना लिए ही इस ख़िदमत के लिए राज़ी हो, तो इस सूरत में माँ का हक़ पहले नम्बर पर रखा जाएगा। और अगर बच्चे की माँ ज़्यादा मेहनताना माँग रही हो तो बाप को इसपर मजबूर नहीं किया जाएगा।
19. इसमें माँ और बाप दोनों के लिए ग़ुस्से और मलामत का एक पहलू है। अन्दाज़े-बयान से साफ़ मालूम होता है कि पिछली तलख़ियों की वजह से, जिनकी वजह से आख़िरकार तलाक़ तक नौबत पहुँची थी, दोनों भले तरीक़े से आपस में बच्चे को दूध पिलवाने का मामला तय न करें तो यह अल्लाह को पसन्द नहीं है। औरत को ख़बरदार किया गया है कि तू ज़्यादा मेहनताना माँगकर मर्द को तंग करने की कोशिश करेगी तो बच्चे की परवरिश सिर्फ़ तेरे ही ऊपर नहीं टिकी है, कोई दूसरी औरत उसे दूध पिला लेगी। और मर्द को भी ख़बरदार किया गया है कि अगर तू माँ की ममता से नाजाइज़ फ़ायदा उठाकर उसे तंग करना चाहेगा तो यह भले आदमियों का-सा काम न होगा। क़रीब-क़रीब यही बात सूरा-2 बक़रा, आयत-233 में ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान हुई है।
لِيُنفِقۡ ذُو سَعَةٖ مِّن سَعَتِهِۦۖ وَمَن قُدِرَ عَلَيۡهِ رِزۡقُهُۥ فَلۡيُنفِقۡ مِمَّآ ءَاتَىٰهُ ٱللَّهُۚ لَا يُكَلِّفُ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِلَّا مَآ ءَاتَىٰهَاۚ سَيَجۡعَلُ ٱللَّهُ بَعۡدَ عُسۡرٖ يُسۡرٗا ۝ 6
(7) ख़ुशहाल आदमी अपनी ख़ुशहाली के मुताबिक़ ख़र्च दे और जिसको रोज़ी कम दी गई हो वह उसी माल में से ख़र्च करे जो अल्लाह ने उसे दिया है। अल्लाह ने जिसको जितना कुछ दिया है उससे ज़्यादा की वह उसपर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता। नामुमकिन नहीं कि अल्लाह तंगदस्ती के बाद ख़ुशहाली भी दे दे।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ عَتَتۡ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهَا وَرُسُلِهِۦ فَحَاسَبۡنَٰهَا حِسَابٗا شَدِيدٗا وَعَذَّبۡنَٰهَا عَذَابٗا نُّكۡرٗا ۝ 7
(8) कितनी20 ही बस्तियाँ हैं जिन्होंने अपने रब और उसके रसूलों के हुक्म से सरकशी की तो हमने उनका सख़्त हिसाब लिया और उनको बुरी तरह सज़ा दी।
20. अब मुसलमानों को ख़बरदार किया जाता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और उसकी किताब के ज़रिए से जो हुक्म उनको दिए गए हैं, उनकी अगर वे नाफ़रमानी करेंगे तो दुनिया और कि आख़िरत में किस अंजाम से दोचार होंगे, और अगर फ़रमाँबरदारी की राह पर चलेंगे तो क्या इनाम पाएँगे।
فَذَاقَتۡ وَبَالَ أَمۡرِهَا وَكَانَ عَٰقِبَةُ أَمۡرِهَا خُسۡرًا ۝ 8
(9) उन्होंने अपने किए का मज़ा चख लिया और उनका आख़िरकार घाटा-ही-घाटा है,
أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗاۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ قَدۡ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكُمۡ ذِكۡرٗا ۝ 9
(10) अल्लाह ने (आख़िरत में) उनके लिए सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है। तो अल्लाह से डरो अक़्ल रखनेवाले लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह ने तुम्हारी तरफ़ एक नसीहत उतार दी है,
رَّسُولٗا يَتۡلُواْ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ مُبَيِّنَٰتٖ لِّيُخۡرِجَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَيَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ قَدۡ أَحۡسَنَ ٱللَّهُ لَهُۥ رِزۡقًا ۝ 10
(11) एक ऐसा रसूल21 जो तुमको अल्लाह की साफ़-साफ़ हिदायत देनेवाली आयतें सुनाता है, ताकि ईमान लानेवालों और भले काम करनेवालों को अंधेरों से निकालकर रौशनी में ले आए।22 जो कोई अल्लाह पर ईमान लाए और भले काम करे, अल्लाह उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। ये लोग उनमें हमेशा रहेंगे। अल्लाह ने ऐसे शख़्स के लिए बेहतरीन रोज़ी रखी है।
21. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से कुछ ने नसीहत से मुराद क़ुरआन लिया है, और कुछ कहते हैं कि नसीहत से मुराद ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही हैं, यानी आप (सल्ल०) की पूरी हस्ती सर से पाँव तक नसीहत थी। हमारे नज़दीक यही दूसरी तफ़सीर ज़्यादा सही है, क्योंकि पहली तफ़सीर के मुताबिक़ जुमला कुछ यूँ बनाना पड़ेगा कि “हमने तुम्हारी तरफ़ एक नसीहत उतारी है और एक ऐसा रसूल भेजा है।” क़ुरआन की इबारत में इस तबदीली की आख़िर ज़रूरत क्या है जबकि उसके बिना ही इबारत न सिर्फ़ पूरी तरह मानीदार है, बल्कि ज़्यादा मानीदार भी है।
22. यानी जहालत के अंधेरों से इल्म की रौशनी में निकाल लाए। इस फ़रमान की पूरी अहमियत उस वक़्त समझ में आती है जब इनसान तलाक़, इद्दत और गुज़ारा-ख़र्चों के बारे में दुनिया के दूसरे पुराने और नए घरेलू क़ानूनों को पढ़ता है। इन तमाम चीज़ों को पढ़ लेने के बाद यह मालूम होता है कि बार-बार की तबदीलियों और नित नए क़ानून बनाने के बावजूद आज तक किसी क़ौम को ऐसा मुनासिब और फ़ितरी और समाज के लिए फ़ायदेमन्द क़ानून नहीं मिल सका है जैसा कि इस किताब और इसके लानेवाले रसूल (सल्ल०) ने डेढ़ हज़ार साल पहले हमको दिया था और जिसपर किसी नज़रे-सानी (पुनर्विचार) की ज़रूरत न कभी पेश आई न पेश आ सकती है। यहाँ इस्लामी क़ानून और दूसरे क़ानूनों पर बहस का मौक़ा नहीं है। इसका सिर्फ़ एक छोटा-सा नमूना हमने अपनी किताब 'हुक़ूक़ुज़-ज़ौजैन' (इस्लाम में पति-पत्नी के अधिकार) के आख़िरी हिस्से में लिखा है। लेकिन जो लोग चाहें वे दुनिया के मज़हबी और ग़ैर-मजहबी क़ानून से क़ुरआन और सुन्नत के इस क़ानून का मुक़ाबला करके ख़ुद देख लें।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖ وَمِنَ ٱلۡأَرۡضِ مِثۡلَهُنَّۖ يَتَنَزَّلُ ٱلۡأَمۡرُ بَيۡنَهُنَّ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ قَدۡ أَحَاطَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عِلۡمَۢا ۝ 11
(12) अल्लाह वह है जिसने सात आसमान बनाए और ज़मीन की क़िस्म से भी उन ही की तरह।23 उनके दरमियान हुक्म उतरता रहता है। (यह बात तुम्हें इसलिए बताई जा रही है) ताकि तुम जान लो कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है, और यह कि अल्लाह का इल्म हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है।
23. 'उन ही की तरह' का मतलब यह नहीं है कि जितने आसमान बनाए उतनी ही ज़मीनें भी बनाईं, बल्कि मतलब यह है कि जैसे कई आसमान उसने बनाए हैं वैसी ही कई ज़मीनें भी बनाई हैं। और 'ज़मीन की क़िस्म से' का मतलब यह है कि जिस तरह यह ज़मीन, जिसपर इनसान रहते हैं, अपने ऊपर मौज़ूद चीज़ों के लिए फ़र्श और पालना (गहवारा) बनी हुई है उसी तरह अल्लाह तआला ने कायनात में और ज़मीनें भी तैयार कर रखी हैं जो अपनी-अपनी आबादियों के लिए फ़र्श और पालना हैं। बल्कि कुछ जगहों पर तो क़ुरआन में यह इशारा भी कर दिया गया है कि जानदार चीज़ें सिर्फ़ ज़मीन ही पर नहीं हैं, ऊपरी दुनिया में भी पाई जाती हैं, (मिसाल के तौर पर देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-12 शूरा, आयत-29, हाशिया-50) दूसरे अलफ़ाज़ में आसमान में ये जो अनगिनत तारे और सय्यारे (ग्रह) नज़र आते हैं, ये सब वीरान पड़े हुए नहीं हैं, बल्कि ज़मीन की तरह उनमें भी बहुत-से ऐसे हैं जिनमें दुनियाएँ आबाद हैं। पुराने ज़माने के क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से सिर्फ़ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) एक ऐसे तफ़सीर लिखनेवाले हैं जिन्होंने उस दौर में इस हक़ीक़त को बयान किया था जब आदमी इसके बारे में सोचने तक के लिए तैयार न था कि कायनात में इस ज़मीन के सिवा कहीं और भी अक़्ल रखनेवाली मख़लूक़ बसती है। आज इस ज़माने के साइंसदानों तक को इसके हक़ीक़त होने में शक है, कहाँ कि 14 सौ साल पहले के लोग इसे आसानी के साथ मान सकते। इसी लिए इब्ने-अब्बास (रज़ि०) आम लोगों के सामने यह बात कहते हुए डरते थे कि कहीं इससे लोगों के ईमान डगमगा न जाएँ। चुनाँचे मुजाहिद कहते हैं कि उनसे जब इस आयत का मतलब पूछा गया तो उन्होंने कहा, “अगर मैं इसकी तफ़सीर तुम लोगों से बयान करूँ तो तुम इनकारी हो जाओगे और तुम्हारा इनकार यह होगा कि उसे झुठलाओगे।" क़रीब-क़रीब यही बात सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) से भी नक़्ल हुई है कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया, “क्या भरोसा किया जा सकता है कि अगर मैं तुम्हें उसका मतलब बताऊँ तो इनकारी न हो जाओगे!” (इब्ने-जरीर, अब्द-बिन-हुमैद)। अलबत्ता इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम और हाकिम ने, और शुअबुल-ईमान और किताबुल-असमाइ वस-सिफ़ात में बैहक़ी ने अबू-ज़ुहा के वासिते से अलफ़ाज़ के फ़र्क़ से इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की यह तफ़सीर नक़्ल की है कि “उनमें से हर ज़मीन में नबी है तुम्हारे नबी जैसा और आदम है तुम्हारे आदम (अलैहि०) जैसा और नूह है तुम्हारे नूह (अलैहि०) जैसा, और इबराहीम है तुम्हारे इबराहीम (अलैहि०) जैसा और ईसा तुम्हारे ईसा (अलैहि०) जैसा।” इस रिवायत को इब्ने-हजर (रह०) ने फ़तहुल-बारी में और इब्ने-कसीर ने अपनी तफ़सीर में भी नक़्ल किया है। और इमाम ज़हबी ने कहा है कि इसकी सनद सही है, अलबत्ता मेरी जानकारी में अबू-ज़ुहा के सिवा किसी ने इसे बयान नहीं किया है, इसलिए यह बिलकुल शाज़ (बहुत कम बयान होनेवाली) रिवायत है। कुछ दूसरे आलिमों ने इसे झूठ और गढ़ी हुई क़रार दिया है और मुल्ला अली क़ारी ने इसको मौज़ूआते-कबीर (पे० 19) में गढ़ी हुई कहते हुए लिखा है कि अगर यह इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ही की रिवायत है तब भी इसराईलियात में से है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इसे रद्द करने की अस्ल वजह लोगों का इसे अक़्ल और सोच से परे समझना है, वरना अपनी जगह ख़ुद इसमें कोई बात भी अक़्ल के ख़िलाफ़ नहीं है। चुनाँचे अल्लामा आलूसी अपनी तफ़सीर में इसपर बहस करते हुए लिखते हैं, “इसको सही मानने में न अक़्ली तौर पर कोई चीज़ रुकावट है न शरई तौर पर। मुराद यह है कि हर ज़मीन में एक मख़लूक़ है जो एक अस्ल की तरफ़ उसी तरह रुजू होती है जिस तरह इनसान हमारी ज़मीन में आदम (अलैहि०) की तरफ़ रुजू करते हैं। और हर ज़मीन में ऐसे लोग पाए जाते हैं जो अपने यहाँ दूसरों के मुक़ाबले में उसी तरह सबसे अलग हैं जिस तरह हमारे यहाँ नूह (अलैहि०) और इबराहीम (अलैहि०) नुमायाँ हैं।” आगे चलकर अल्लामा आलूसी कहते हैं, “मुमकिन है कि ज़मीनें सात से ज़्यादा हों और इसी तरह आसमान भी सिर्फ़ सात ही न हों। सात की गिनती से यह समझना ज़रूरी नहीं है कि इससे ज़्यादा तादाद नहीं हो सकती।” फिर कुछ हदीसों में एक-एक आसमान के बीच की दूरी जो पाँच-पाँच सौ साल बयान की गई है इसके बारे में अल्लामा कहते हैं कि “इससे मुराद ठीक-ठीक दूरी की नाप बयान करना नहीं है, बल्कि अस्ल मक़सद बात को इस तरह बयान करना है कि वह लोगों की समझ से ज़्यादा क़रीब हो।” यह बात काबिले-ज़िक्र है कि हाल में अमेरिका के रैंड कारपोरेशन (Rand Corporation) ने आसमानों (अन्तरिक्ष) को देखने से अन्दाज़ा लगाया है कि ज़मीन जिस कहकशाँ (Galaxy) में पाई जाती है सिर्फ़ उसी के अन्दर तक़रीबन साठ करोड़ ऐसे सय्यारे (ग्रह) पाए जाते हैं जिनके तबई (फ़ितरी) हालात हमारी ज़मीन से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं और हो सकता है कि इनके अन्दर भी जानदार मख़लूक़ आबाद हो। (इकॉनोमिस्ट, लन्दन, 26 जुलाई 1969 ई०)