Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الرَّعۡدِ

13. अर-रअद

(मक्का में उतरी- आयतें 43)

परिचय

नाम

आयत 13 के वाक्‍य ‘व युसब्बि‍हुर-रअ-दु बिहम्दिही वल-मलाइकतु मिन ख़ीफ़तिही’ के शब्‍द 'अर-रअ़द' (बादल की गरज) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है। इस नाम का यह अर्थ नहीं है कि इस सूरा में बादल की गरज के बारे में बात की गई है, बल्कि यह केवल प्रतीक के रूप में स्पष्ट करता है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अर-अद' आया है या जिसमें ‘रअद’ का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

आयत 27 से 31 और आयत 38 से 43 तक के विषय गवाही देते हैं कि यह उसी समय की है जिसमें सूरा 10 यूनुस, सूरा-11 हूद और सूरा 7 आराफ़ उतरी हैं, अर्थात मक्का में निवास का अन्तिम युग। वर्णन शैली से स्पष्ट हो रहा है कि नबी (सल्ल०) को इस्लाम का सन्देश पहुँचाते हुए एक लंबी अवधि बीत चुकी है, विरोधी आपको परेशान करने और आपके मिशन को असफल बनाने के लिए तरह-तरह की चाले चलते रहे हैं, ईमानवाले बार-बार कामनाएँ कर रहे हैं कि काश, कोई मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाकर ही इन लोगों को सीधे रास्ते पर लाया जाए, और अल्लाह मुसलमानों को समझा रहा है कि ईमान की राह दिखाने का यह तरीक़ा हमारे यहाँ प्रचलित नहीं है और अगर सत्य के विरोधियों की रस्सी लंबी की जा रही है तो यह ऐसी बात नहीं है जिससे तुम घबरा उठो। फिर आयत 31 से यह भी मालूम होता है कि बार-बार विरोधियों की हठधर्मी का ऐसा प्रदर्शन हो चुका है जिसके बाद यह कहना बिल्कुल उचित लगता है कि अगर क़ब्रों से मुर्दे भी उठकर आ जाएँ तो ये लोग न मानेंगे, बल्कि इस घटना की भी कोई न कोई व्याख्या कर डालेंगे। इन सब बातों से यही गुमान होता है कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग में उतरी होगी।

केन्द्रीय विषय

सूरा का उद्देश्य पहली ही आयत में प्रस्तुत कर दिया गया है, अर्थात् यह कि जो कुछ मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं, वही सत्य है, मगर यह लोगों की ग़लती है कि वे इसे नहीं मानते। सारा भाषण इसी केन्द्रीय विषय के चारों ओर घूमता है। इस सिलसिले में बार-बार अलग-अलग तरीक़ों से तौहीद, आख़िरत और रिसालत का सत्य होना सिद्ध किया गया है। उनपर ईमान लाने के नैतिक एवं आध्यात्मिक लाभ समझाए गए हैं, उनको न मानने की हानियाँ बताई गई हैं और यह मन में बिठाने की कोशिश की गई है कि कुफ़्र पूर्ण रूप से मूर्खता और अज्ञानता है। फिर चूँकि इस सारे वर्णन का उद्देश्य केवल दिमाग़ों को सन्तुष्ट करना ही नहीं है, दिलों को ईमान की ओर खींचना भी है, इसलिए निरे तार्किक प्रमाणों से काम नहीं लिया गया है, बल्कि एक-एक प्रमाण और एक-एक गवाही को प्रस्तुत करने के बाद ठहरकर तरह-तरह से डराया, धमकाया, सत्य की ओर उकसाया और प्यार से समझाया गया है, ताकि नासमझ लोग अपनी गुमराही भरी हठधर्मी से बाज़ आ जाएँ।

व्याख्यान के बीच में जगह-जगह विरोधियों की आपत्तियों का उल्लेख किए बिना इनके उत्तर दिए गए हैं और उन सन्देहों को दूर किया गया है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सन्देश के बारे में लोगों के दिलों में पाए जाते थे, या विरोधियों की ओर से डाले जाते थे। इसके साथ ईमानवालों को भी, जो कई वर्षों के लम्बे और कठिन संघर्ष के कारण थके जा रहे थे और बेचैनी के साथ परोक्ष सहायता के इन्तिज़ार में थे, तसल्ली दी गई है।

---------------------

سُورَةُ الرَّعۡدِ
13. अर-रअ़द
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓمٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِۗ وَٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ ٱلۡحَقُّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ
(1) अलिफ़-लाम-मीम-रा। ये अल्लाह की किताब की आयतें हैं, और जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर उतारा गया है वह बिलकुल हक़ है, मगर (तुम्हारी क़ौम के) ज़्यादातर लोग मान नहीं रहे हैं।1
1. यह इस सूरा के बारे में इब्तिदाई ज़रूरी बात है जिसमें इस सूरा में बयान की गई बातों के मक़सद को कुछ लफ़्ज़ों में बयान कर दिया गया है। बात का रुख़ नबी (सल्ल०) की तरफ़ है और आप (सल्ल०) को ख़िताब करते हुए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ नबी, तुम्हारी क़ौम के ज़्यादातर लोग इस तालीम को मानने से इनकार कर रहे हैं, मगर हक़ीक़त यह है कि इसे हमने तुमपर उतारा है और यही हक़ है, चाहे लोग इसे माने या न मानें। इस मुख़्तसर-सी इब्तिदाई ज़रूरी बात के बाद अस्ल तक़रीर शुरू हो जाती है जिसमें इनकारियों को यह समझाने की कोशिश की गई है कि यह तालीम क्यों हक़ है और इसके बार में उनका रवैया कितना ज़्यादा ग़लत है। इस तक़रीर को समझने के लिए शुरू ही से यह बात सामने रहनी ज़रूरी है कि नबी (सल्ल०) उस वक़्त जिस चीज़ की तरफ़ लोगों को बुला रहे थे उसमें तीन बुनियादी बातें थीं। एक यह कि ख़ुदाई पूरी की पूरी अल्लाह की है, इसलिए उसके सिवा कोई बन्दगी और इबादत का हक़दार नहीं है। दूसरी यह कि इस ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी ज़िन्दगी है जिसमें तुमको अपने कामों का जवाब देना होगा। तीसरी यह कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ और जो कुछ पेश कर रहा हूँ अपनी तरफ़ से नहीं, बल्कि ख़ुदा की तरफ़ से पेश कर रहा हूँ। यही तीन बातें हैं जिन्हें मानने से लोग इनकार कर रहे थे। इन्हीं को इस तक़रीर में बार-बार अलग-अलग ढंग से समझाने की कोशिश की गई है और इन्हीं के बारे लोगों के शकों और एतिराज़ों को दूर किया गया है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي رَفَعَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ بِغَيۡرِ عَمَدٖ تَرَوۡنَهَاۖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَ يُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُم بِلِقَآءِ رَبِّكُمۡ تُوقِنُونَ ۝ 1
(2) वह अल्लाह ही है जिसने आसमानों को ऐसे सहारों के बिना क़ायम किया जो तुम्हें नज़र आते हों2, फिर वह अपने तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) पर विराजमान हुआ3, और उसने सूरज और चाँद को एक क़ानून का पाबन्द बनाया।4 इस सारे निज़ाम की हर चीज़ एक मुकर्रर वक़्त तक के लिए चल रही है5, और अल्लाह ही इस सारे काम की तदबीर कर रहा है। वह निशानियाँ खोल-खोलकर बयान करता है6, शायद कि तुम अपने रब की मुलाक़ात का यक़ीन करो।7
2. दूसरे लफ़्ज़ों में आसमानों को महसूस न होने और दिखाई न देनेवाले सहारों पर क़ायम किया। बज़ाहिर कोई चीज़ इस फैली हुई फ़िज़ा (वायुमण्डल) में ऐसी नहीं है जो इन अनगिनत अजरामे-फ़लकी (ग्रहों, उपग्रहों और नक्षत्रों) को थामे हुए हो। मगर एक महसूस न होनेवाली ताक़त ऐसी है जो हर एक को उसके मक़ाम और मदार (धुरी) पर रोके हुए है और इन अज़ीमुश्शान अजसाम (विशाल ग्रहों) को ज़मीन पर या एक-दूसरे पर गिरने नहीं देती।
3. इसकी तशरीह (व्याख्या) के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया नंबर 41। मुख़्तसर तौर पर इतना इशारा काफ़ी है कि अर्श (यानी कायनात की सल्तनत के केन्द्र) पर अल्लाह के विराजमान होने को जगह-जगह क़ुरआन में जिस मक़सद के लिए बयान किया गया है वह यह है कि अल्लाह ने इस कायनात को सिर्फ़ पैदा ही नहीं कर दिया है, बल्कि वह आप ही इस सल्तनत पर हुकूमत कर रहा है। यह दुनिया जो चली आ रही है और चली जा रही है कोई ख़ुद-ब-ख़ुद चलनेवाला कारख़ाना नहीं है, जैसा कि बहुत-से जाहिल समझते हैं, और न बहुत-से ख़ुदाओं की सल्तनत है, जैसा कि बहुत-से दूसरे जाहिल लोग समझे बैठे हैं, बल्कि यह एक बाक़ायदा निज़ाम है जिसे इसका पैदा करनेवाला ख़ुद चला रहा है।
4. यहाँ इस बात का ख़याल रहना चाहिए कि बात उस क़ौम से कही जा रही है जो अल्लाह के वुजूद का इनकार नहीं करती थी, और न इस बात की इनकारी थी कि पैदा करनेवाला अल्लाह है, और न गुमान करती थी कि ये सारे काम जो यहाँ बयान किए जा रहे हैं, अल्लाह के सिवा किसी और के हैं। इसलिए ख़ुद इस बात पर दलील लाने की ज़रूरत न समझी गई कि वाक़ई अल्लाह ही ने आसमानों को क़ायम किया है और उसी ने सूरज और चाँद को एक ज़ाबिते का पाबन्द बनाया है, बल्कि उन वाक़िआत को, जिन्हें ये लोग ख़ुद ही मानते थे, एक दूसरी बात पर दलील ठहराया गया है, और वह यह कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा इस निज़ामे-कायनात (जगत-व्यवस्था) में इक़तिदार का मालिक नहीं है जो माबूद ठहराए जाने का हक़दार हो। रहा यह सवाल कि जो शख़्स सिरे से अल्लाह के वुजूद को और इस बात को कि अल्लाह ही दुनिया और आख़िरत का पैदा करनेवाला और चलानेवाला है न मानता हो उसके सामने यह दलील देना कैसे फ़ायदेमन्द हो सकता है? तो इसका जवाब यह है कि अल्लाह तआला मुशरिकों के सामने तौहीद को साबित करने के लिए जो दलीलें देता है वही दलीलें सिरे से ख़ुदा को न माननेवालों के मुक़ाबले में ख़ुदा के वुजूद को साबित करने के लिए भी काफ़ी हैं। तौहीद की सारी दलीलें इस बुनियाद पर क़ायम हैं कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक सारी कायनात एक पूरा निज़ाम है और यह पूरा निज़ाम एक ज़बरदस्त क़ानून के तहत चल रहा है जिसमें हर तरफ़ एक हमागीर इक़तिदार (सर्वव्यापी सत्ता), एक बे-ऐब हिकमत और बे-ख़ता इल्म के आसार दिखाई देते हैं। ये आसार जिस तरह इस बात की दलील बनते हैं कि इस निज़ाम के बहुत-से हाकिम नहीं हैं, इसी तरह इस बात की भी दलील बनते हैं कि इस निज़ाम का एक हाकिम है। इन्तिज़ाम का तसव्वुर एक नाज़िम (प्रबंधक) के बग़ैर, क़ानून का तसव्वुर एक हाकिम के बिना, इल्म का तसव्वुर एक आलिम के बिना, और सबसे बढ़कर यह कि पैदा करने का तसव्वुर एक पैदा करनेवाले के बिना सिर्फ़ वही शख़्स कर सकता है जो हठधर्म हो या फिर वह जिसकी अक़्ल मारी गई हो।
5. यानी यह निज़ाम सिर्फ़ इसी बात की गवाही नहीं दे रहा है कि एक हमागीर इक़ितदार (सर्वव्यापी सत्ता) उसपर हुकूमत कर रही है और एक ज़बरदस्त हिकमत उसमें काम कर रही है, बल्कि उसके तमाम हिस्से और उनमें काम करनेवाली सारी ताक़तें इस बात पर भी गवाह हैं कि इस निज़ाम की कोई चीज़ हमेशा रहनेवाली नहीं है। हर चीज़ के लिए एक वक़्त तय है जिसके पूरा होने तक वह चलती है, और जब उसका वक़्त पूरा हो जाता है तो मिट जाती है। यह हक़ीक़त जिस तरह इस निज़ाम के एक-एक हिस्से के मामले में सही है उसी तरह इस पूरे निज़ाम के बारे में भी सही है। इस कायनात की पूरी बनावट यह बता रही है कि यह हमेशा रहनेवाली नहीं है, इसके लिए भी कोई वक़्त ज़रूर तय है, जब यह ख़त्म हो जाएगी और इसकी जगह कोई दूसरा जहान बनेगा। इसलिए क़ियामत जिसके आने की ख़बर दी गई है उसका आना नामुमकिन नहीं, बल्कि न आना नामुमकिन है।
6. यानी इस बात की निशानियाँ कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जिन हक़ीक़तों की ख़बर दे रहे हैं वे सचमुच सच्ची हक़ीक़तें हैं। कायनात में हर तरफ़ उनपर गवाही देनेवाले आसार मौजूद हैं। अगर लोग आँखें खोलकर देखें तो उन्हें नज़र आ जाए कि क़ुरआन में जिन-जिन बातों पर ईमान लाने की दावत दी गई है, ज़मीन और आसमान में फैली हुई बेशुमार निशानियाँ उनको सच साबित कर रही हैं।
7. ऊपर कायनात की जिन निशानियों को गवाही में पेश किया गया है उनकी यह गवाही तो बिलकुल खुली हुई और साफ़ है कि इस जहान का पैदा करनेवाला और इसको चलानेवाला एक ही है। लेकिन यह बात कि मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी और अल्लाह की अदालत में इनसान की हाज़िरी और इनाम व सज़ा के बारे में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो ख़बरें दी हैं उनके सच्ची होने पर भी यही निशानियाँ गवाही देती हैं, ज़रा छिपी हुई-सी है और ज़्यादा ग़ौर करने से समझ में आती है। इसलिए पहली हक़ीक़त पर ख़बरदार करने की ज़रूरत न समझी गई, क्योंकि सुननेवाला सिर्फ़ दलीलों को सुनकर ही समझ सकता है कि इनसे क्या साबित होता है। अलबत्ता दूसरी हक़ीक़त पर ख़ासतौर से ख़बरदार किया गया है कि अपने रब की मुलाक़ात का यक़ीन भी तुमको इन्हीं निशानियों पर ग़ौर करने से हासिल हो सकता है। ऊपर बयान की गई निशानियों से आख़िरत का सुबूत दो तरह से मिलता है— एक यह कि जब हम आसमानों की बनावट और सूरज और चाँद के ज़ाबिते और क़ानून के मुताबिक़ काम करने पर ग़ौर करते हैं तो हमारा दिल यह गवाही देता है कि जिस ख़ुदा ने यह अज़ीमुश्शान अजरामे-फ़लक़ी (आकाशपिंड) पैदा किए हैं, और जिसकी क़ुदरत इतने बड़े-बड़े पिंडों को फ़िज़ा में गर्दिश दे रही है, उसके लिए इनसानों को मौत के बाद दोबारा पैदा कर देना कुछ भी मुश्किल नहीं है। दूसरे यह कि इसी आसमानी निज़ाम से हमको यह गवाही भी मिलती है कि इसका पैदा करनेवाला इन्तिहाई दरजे का हिकमतवाला है, और यह बात उसकी हिकमत से बहुत परे मालूम होती है कि वह इनसानों को एक समझ-बूझ रखनेवाली और इख़्तियार और इरादे रखनेवाली मखलूक़ बनाने के बाद और अपनी ज़मीन की अनगिनत चीज़ों के इस्तेमाल की ताक़त देने के बाद, उसकी ज़िन्दगी के कामों का हिसाब न ले, उसके ज़ालिमों से पूछ-गछ और उसके मज़लूमों की फ़रियाद न सुने, उसके नेक लोगों का इनाम और उसके बुरे काम करनेवालों को सज़ा न दे, और उससे कभी यह पूछे ही नहीं कि जो बहुत क़ीमती अमानतें मैंने तेरे सिपुर्द की थीं उनके साथ तूने क्या मामला किया। एक अंधा राजा तो बेशक अपनी सल्तनत के मामले अपने कारिंदों के हवाले करके ग़फ़लत की नींद सो सकता है, लेकिन एक हिकमतवाले और समझ रखनेवाले से इस ग़लती और लापरवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस तरह आसमानों को ग़ौर से देखना हमको न सिर्फ़ आख़िरत के इमकान को क़ुबूल करने पर आमादा करता है, बल्कि उसके होने का यक़ीन भी दिलाता है।
وَهُوَ ٱلَّذِي مَدَّ ٱلۡأَرۡضَ وَجَعَلَ فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۡهَٰرٗاۖ وَمِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ جَعَلَ فِيهَا زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ يُغۡشِي ٱلَّيۡلَ ٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 2
(3) और वही है जिसने यह ज़मीन फैला रखी है, उसमें पहाड़ों के खूँटे गाड़ रखे हैं और नदियाँ बहा दी हैं। उसी ने हर तरह के फलों के जोड़े पैदा किए हैं, और वही दिन पर रात छा देता है।8 इन सारी चीज़ों में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ग़ौर-फ़िक्र से काम लेते हैं।
8. आसमानी चीज़ों (सूरज, चाँद, सितारे वग़ैरा) के बाद ज़मीनी दुनिया की तरफ़ ध्यान दिलाया जाता है और यहाँ भी ख़ुदा की क़ुदरत और हिकमत की निशानियों से इन्हीं दोनों हक़ीक़तों (तौहीद और आख़िरत) पर गवाही दी गई है जिनपर पिछली आयतों में आसमानी दुनिया की निशानियों से गवाही दी गई थी। उन दलीलों का ख़ुलासा यह है— (1) आसमान की चीज़ों के साथ ज़मीन का ताल्लुक़, ज़मीन के साथ सूरज और चाँद का ताल्लुक़, ज़मीन की अनगिनत मख़लूक़ात (सृष्टि) की ज़रूरतों से पहाड़ों और नदियों का ताल्लुक़, ये सारी चीज़ें इस बात पर खुली गवाही देती हैं कि इनको न तो अलग-अलग ख़ुदाओं ने बनाया है और न मुख़्तलिफ़ बाइख़्तियार ख़ुदा इनका इन्तिज़ाम कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो इन सब चीज़ों में आपस में इतना तालमेल, इतना ताल्लुक़ न पैदा हो सकता था और न लगातार क़ायम रह सकता था। अलग-अलग ख़ुदाओं के लिए यह कैसे मुमकिन था कि वे मिलकर पूरी कायनात को बनाने और चलाने की ऐसी स्कीम बना लेते जिसकी हर चीज़ ज़मीन से लेकर आसमानों तक एक-दूसरे के साथ जोड़ खाती चली जाए और कभी उनकी मस्लहतों के बीच टकराव न होने पाए। (2) ज़मीन के इस अज़ीमुश्शान गोले का इस लम्बी-चौड़ी फ़िज़ा में लटके रहना, इसकी सतह पर इतने बड़े-बड़े पहाड़ों का उभरना, इसके सीने पर ऐसी-ऐसी ज़बरदस्त नदियों का जारी होना, इसकी गोद में तरह-तरह के बेहद्दो-बेहिसाब पेड़ों का फलना और लगातार बहुत क़ायदे और पाबंदी के साथ रात और दिन के हैरतअंगेज़ आसार का सामने आना, ये सब चीज़ें उस ख़ुदा की क़ुदरत पर गवाह हैं जिसने उन्हें पैदा किया है। हर चीज़ की ताक़त और क़ुदरत रखनेवाले ख़ुदा के बारे में यह समझना कि वह इनसान को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दगी नहीं दे सकता अक़्ल व समझदारी की नहीं, बेवक़ूफ़ी और नासमझी की दलील है। (3) ज़मीन की बनावट में, उसपर पहाड़ों की पैदाइश में, पहाड़ों से नदियों के बहाव का इन्तिज़ाम करने में, फलों की हर क़िस्म में दो-दो तरह के फल पैदा करने में, और रात के बाद दिन और दिन के बाद रात पाबन्दी के साथ लाने में जो अनगिनत हिकमतें और मस्लहतें पाई जाती हैं वे पुकार-पुकारकर गवाही दे रही हैं कि जिस ख़ुदा ने पैदा करने का यह नक़्शा बनाया है वह इन्तिहाई दरजे का हिकमतवाला है। ये सारी चीज़ें ख़बर देती हैं कि यह न तो किसी बेइरादा ताक़त का काम है और न यह किसी खिलंडरे का खिलौना। इनमें से हर-हर चीज़ के अन्दर हिकमतवाले की हिकमत और इन्तिहाई आला दरजे की हिकमत काम करती नज़र आती है। यह सब कुछ देखने के बाद सिर्फ़ एक नादान ही हो सकता है जो यह समझे कि ज़मीन पर इनसान को पैदा करके और उसे ऐसे हंगामे मचाने के मौक़े देकर वह उसको यूँही मिट्टी में गुम कर देगा।
وَفِي ٱلۡأَرۡضِ قِطَعٞ مُّتَجَٰوِرَٰتٞ وَجَنَّٰتٞ مِّنۡ أَعۡنَٰبٖ وَزَرۡعٞ وَنَخِيلٞ صِنۡوَانٞ وَغَيۡرُ صِنۡوَانٖ يُسۡقَىٰ بِمَآءٖ وَٰحِدٖ وَنُفَضِّلُ بَعۡضَهَا عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلۡأُكُلِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 3
(4) और देखो, ज़मीन में अलग-अलग ख़ित्ते (भू-भाग) पाए जाते हैं जो एक-दूसरे से मिले हुए हैं9, अंगूर के बाग़ हैं, खेतियाँ हैं, खजूर के पेड़ हैं जिनमें से कुछ इकहरे हैं और कुछ दोहरे।10 सबको एक ही पानी सींचता है, मगर मज़े में हम किसी को बेहतर बना देते हैं और किसी को कमतर। इन सब चीज़ों में बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।11
9. यानी सारी ज़मीन को उसने एक जैसा बनाकर नहीं रख दिया है, बल्कि उसमें अनगिनत हिस्से बना दिए हैं जो एक-दूसरे से जुड़े होने के बावजूद शक्ल में, रंग में, जिन माद्दों से मिलकर बना है उसमें, ख़ासियतों में, क़ुव्वतों और सलाहियतों में, पैदावार और कीमियावी (रासायनिक) या मादनी (खनिज पदार्थ सम्बन्धी) ख़ज़ानों में एक-दूसरे से बिलकुल अलग हैं। इन अलग-अलग हिस्सों की पैदाइश और उसके अन्दर तरह-तरह के इख़्तिलाफ़ों की मौजूदगी अपने अन्दर इतनी हिकमतें और मस्लहतें रखती है कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। दूसरे जानदारों को अलग रखकर, सिर्फ़ एक इनसान ही के फ़ायदे को सामने रखकर देखा जाए तो अन्दाज़ा किया जा सकता है कि इनसान के दूसरे मक़सदों और ज़मीन के इन हिस्सों के इख़्तिलाफ़ों के दरमियान जो तालमेल और हमरंगियाँ पाई जाती हैं, और उनकी बदौलत इनसानी समाज को फलने-फूलने के जो मौक़े मिले हैं, वे यक़ीनी तौर पर किसी हिकमतवाले की सोच और उसके सोचे-समझे मंसूबे और उसके समझदारी भरे इरादे का नतीजा है। इसे सिर्फ़ एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा क़रार देना बड़ी हठधर्मी की बात होगी।
10. खजूर के पेड़ों में कुछ ऐसे होते हैं जिनकी जड़ से एक ही तना निकलता है और कुछ में एक जड़ से दो या ज़्यादा तने निकलते हैं।
11. इस आयत में अल्लाह की तौहीद और उसकी क़ुदरत व हिकमत की निशानियाँ दिखाने के अलावा एक और हक़ीक़त की तरफ़ भी हल्का-सा इशारा किया गया है, और वह यह है कि अल्लाह ने इस कायनात में कहीं भी यकसानियत नहीं रखी है। एक ही ज़मीन है, मगर उसके टुकड़े अपने-अपने रंगों, शक्लों और ख़ासियतों में अलग हैं। एक ही ज़मीन और एक ही पानी है, मगर उससे तरह-तरह के अनाज और फल पैदा हो रहे हैं। एक ही पेड़ है और उसका हर फल दूसरे फल से क़िस्म में समान होने के बावजूद शक्ल और आकार और दूसरी ख़ासियतों में अलग है। एक ही जड़ है और उससे दो अलग तने निकलते हैं जिनमें से हर एक अपनी अलग इंफ़िरादी ख़ासियतें रखता है। इन बातों पर जो शख़्स ग़ौर करेगा वह कभी यह देखकर परेशान न होगा कि इनसानी तबीयतों, मिज़ाजों और रुझानों में इतना इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। जैसा कि आगे चलकर इसी सूरा में कहा गया है, “अगर अल्लाह चाहता तो सब इनसानों को एक जैसा बना सकता था", मगर जिस हिकमत पर अल्लाह ने इस कायनात को पैदा किया है वह यकसानियत की नहीं, बल्कि अलग-अलग क़िस्मों और रंगा-रंगी की माँग करती है। सबको एक जैसा बना देने के बाद यह सारी दुनिया ही बेमानी होकर रह जाती।
۞وَإِن تَعۡجَبۡ فَعَجَبٞ قَوۡلُهُمۡ أَءِذَا كُنَّا تُرَٰبًا أَءِنَّا لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدٍۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡأَغۡلَٰلُ فِيٓ أَعۡنَاقِهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 4
(5) अब अगर तुम्हें ताज्जुब करना है तो ताज्जुब के क़ाबिल लोगों का यह कहना है। कि “जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?” ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब के साथ इनकार का रवैया अपनाया है।12 ये वे लोग हैं जिनकी गर्दनों में तौक़ पड़े हुए हैं।13 ये जहन्नमी हैं और जहन्नम में हमेशा रहेंगे।
12. यानी उनका आख़िरत से इनकार अस्ल में ख़ुदा और उसकी क़ुदरत और हिकमत से इनकार है। ये सिर्फ़ इतना ही नहीं कहते कि हमारा मिट्टी में मिल जाने के बाद दोबारा पैदा होना नामुमकिन है, बल्कि उनकी इसी बात में यह ख़याल भी छिपा है कि अल्लाह की पनाह वह ख़ुदा मजबूर और बेबस और नादान व नासमझ है जिसने उनको पैदा किया है।
13. गर्दन में तौक़ पड़ा होना क़ैदी होने की निशानी है। लोगों की गर्दनों में तौक़ पड़े होने का मतलब यह है कि ये लोग अपनी जहालत के, अपनी हठधर्मी के, अपने मन की ख़ाहिशों के और अपने बाप-दादा की अंधी पैरवी के क़ैदी बने हुए हैं। ये आज़ाद होकर सोच-विचार नहीं कर सकते। इन्हें इनके तास्सुबात (पक्षपातों) ने ऐसा जकड़ रखा है कि ये आख़िरत को नहीं मान सकते; हालाँकि उसका मानना पूरे तौर पर माक़ूल (तर्कसंगत) है, और आख़िरत के इनकार पर जमे हुए हैं हालाँकि वह सरासर नामाकूल (अतर्कसंगत) है।
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلسَّيِّئَةِ قَبۡلَ ٱلۡحَسَنَةِ وَقَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِمُ ٱلۡمَثُلَٰتُۗ وَإِنَّ رَبَّكَ لَذُو مَغۡفِرَةٖ لِّلنَّاسِ عَلَىٰ ظُلۡمِهِمۡۖ وَإِنَّ رَبَّكَ لَشَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 5
(6) ये लोग भलाई से पहले बुराई के लिए जल्दी मचा रहे हैं14, हालाँकि इनसे पहले (जो लोग इस रविश पर चले हैं, उनपर अल्लाह के अज़ाब की) इबरतनाक मिसालें गुज़र चुकी हैं। हक़ीक़त यह है कि तेरा रब लोगों की ज़्यादतियों के बावजूद उनके साथ माफ़ी से काम लेता है, और यह भी हक़ीक़त है कि तेरा रब सख़्त सज़ा देनेवाला है।
14. मक्का के इस्लाम-दुश्मन नबी (सल्ल०) से कहते थे कि अगर तुम सचमुच नबी हो और तुम देख रहे हो कि हमने तुमको झुठला दिया है, तो अब आख़िर हमपर वह अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो? उसके आने में बेवजह देर क्यों लग रही है? कभी वे चुनौती के अन्दाज़ में कहते कि, “ऐ हमारे रब, हमारा हिसाब तू अभी कर दे, क़ियामत पर न उठा रख।” (सूरा-38 सॉद, आयत-16) और कभी कहते, “ऐ अल्लाह, अगर ये बातें जो मुहम्मद पेश कर रहे हैं, सच हैं और तेरी ही तरफ़ से हैं तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा या कोई और दर्दनाक अज़ाब उतार दे।” (सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-32) इस आयत में इस्लाम-दुश्मनों की इन्हीं बातों का जवाब दिया गया है कि ये नादान भलाई से पहले बुराई माँगते हैं, अल्लाह की तरफ़ से उनको संभलने के लिए जो मुहलत दी जा रही है उससे फ़ायदा उठाने के बजाय माँग करते हैं कि इस मुहलत को जल्दी ख़त्म कर दिया जाए और उन्होंने ख़ुदा से बग़ावत का जो रवैया अपना रखा है उस पर फ़ौरन पकड़ कर डाली जाए।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦٓۗ إِنَّمَآ أَنتَ مُنذِرٞۖ وَلِكُلِّ قَوۡمٍ هَادٍ ۝ 6
(7) ये लोग, जिन्होंने तुम्हारी बात मानने से इनकार कर दिया है, कहते हैं कि “इस आदमी पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतरी?15 तुम तो सिर्फ़ ख़बरदार कर देनेवाले हो, और हर क़ौम के लिए एक रहनुमा है।”16
15. निशानी से उनकी मुराद ऐसी निशानी थी जिसे देखकर उनको यक़ीन आ जाए कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं। वे आप (सल्ल०) की बात को उसके हक़ होने की दलीलों से समझने के लिए तैयार न थे। वे आप (सल्ल०) की पाक सीरत (पवित्र जीवनी) से सबक़ लेने के लिए तैयार न थे। उस ज़बरदस्त अख़लाक़ी इंक़िलाब से भी कोई नतीजा निकालने के लिए तैयार न थे जो आप (सल्ल०) की तालीम के असर से आप (सल्ल०) के सहाबा (साथियों) की ज़िन्दगियों में ज़ाहिर हो रहा था। वे उन मुनासिब और अक़्ल की कसौटी पर खरी उतरनेवाली दलीलों पर भी ग़ौर करने के लिए तैयार न थे जो उनके शिर्क से भरे मजहब और उनके जाहिलाना अंधविश्वासों की ग़लतियाँ वाज़ेह करने के लिए क़ुरआन में पेश की जा रही थीं। इन सब चीज़ों को छोड़कर वे चाहते थे कि उन्हें कोई करिश्मा दिखाया जाए जिसकी कसौटी पर वे मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) को जाँच सकें।
16. ये उनकी माँग का मुख़्तसर-सा जवाब है जो सीधे तौर पर उनको देने के बजाय अल्लाह तआला ने अपने पैग़म्बर (सल्ल०) को मुख़ातब करके दिया है। इसका मतलब यह है कि ऐ नबी, तुम इस फ़िक्र में न पड़ो कि इन लोगों को मुत्मइन करने के लिए आख़िर कौन-सा करिश्मा दिखाया जाए। तुम्हारा काम हर एक को मुत्मइन कर देना नहीं है। तुम्हारा काम तो सिर्फ़ यह है कि ग़फ़लत की नींद में सोए हुए लोगों को चौंका दो और उनको ग़लत रास्ते पर चलने के बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दो। यह ख़िदमत हमने हर ज़माने में, हर क़ौम में, एक न एक रहनुमा भेजकर ली है। अब तुमसे यही ख़िदमत ले रहे हैं। इसके बाद जिसका जी चाहे आँखें खोले और जिसका जी चाहे ग़फ़लत में पड़ा रहे। यह मुख़्तसर जवाब देकर अल्लाह तआला उनकी माँग की तरफ़ से मुँह फेर लेता है और उनको ख़बरदार करता है कि तुम किसी अंधेर नगरी में नहीं रहते हो जहाँ किसी चौपट राजा का राज हो। तुम्हारा वास्ता एक ऐसे ख़ुदा से है जो तुममें से एक-एक शख़्स को उस वक़्त से जानता है जबकि तुम अपनी माँओं के पेट में बन रहे थे, और ज़िन्दगी भर तुम्हारी एक-एक हरकत पर निगाह रखता है। उसके यहाँ तुम्हारी क़िस्मतों का फ़ैसला पूरे इनसाफ़ के साथ तुम्हारी ख़ूबियों के लिहाज़ से होता है, और ज़मीन व आसमान में कोई ताक़त ऐसी नहीं है जो उसके फ़ैसलों पर असर डाल सके।
ٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تَحۡمِلُ كُلُّ أُنثَىٰ وَمَا تَغِيضُ ٱلۡأَرۡحَامُ وَمَا تَزۡدَادُۚ وَكُلُّ شَيۡءٍ عِندَهُۥ بِمِقۡدَارٍ ۝ 7
(8) अल्लाह एक-एक हामिला (गर्भवती) के पेट से बाख़बर है जो कुछ उसमें बनता है, उसे भी वह जानता है और जो कुछ उसमें कमी या बेशी होती है, उसकी भी वह ख़बर रखता है।17 हर चीज़ के लिए उसके यहाँ एक मिक़दार मुक़र्रर है।
17. इससे मुराद यह है कि माँओं के पेट में बच्चे के जिस्म के हिस्सों, उसकी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों, और उसकी सलाहियतों में जो कुछ कमी या बढ़ोतरी होती है, अल्लाह की सीधी निगरानी में होती है।
وَيُسَبِّحُ ٱلرَّعۡدُ بِحَمۡدِهِۦ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ مِنۡ خِيفَتِهِۦ وَيُرۡسِلُ ٱلصَّوَٰعِقَ فَيُصِيبُ بِهَا مَن يَشَآءُ وَهُمۡ يُجَٰدِلُونَ فِي ٱللَّهِ وَهُوَ شَدِيدُ ٱلۡمِحَالِ ۝ 8
(13) बादलों की गरज उसकी हम्द (तारीफ़ और शुक्र) के साथ उसकी पाकी बयान करती है20 और फ़रिश्ते उसके डर से काँपते हुए उसकी तसबीह (महिमागान) करते हैं।21 वह कड़कती हुई बिजलियों को भेजता है और कई बार उन्हें जिसपर चाहता है, ठीक उस हालत में गिरा देता है, जबकि लोग अल्लाह के बारे में झगड़ रहे होते हैं। हक़ीक़त में उसकी चाल बड़ी ज़बरदस्त है।22
20. यानी बादलों की गरज यह ज़ाहिर करती है कि जिस ख़ुदा ने ये हवाएँ चलाईं, ये भापें उठाईं, ये बोझिल बादल जमा किए, इस बिजली को बारिश का ज़रिआ बनाया और इस तरह ज़मीन की मख़लूक़ात (सृष्टि) के लिए पानी पहुँचाने का इन्तिज़ाम किया, वह तारीफ़ और शुक्र के लायक़ और पाकीज़ा है, अपनी हिकमत और क़ुदरत में मुकम्मल है, अपनी सिफ़ात में बेऐब है, और उसकी ख़ुदाई में कोई शरीक नहीं है। जानवरों की तरह सुननेवाले तो इन बादलों में सिर्फ़ गरज की आवाज़ ही सुनते हैं। मगर जो होश के कान रखते हैं वे बादलों की ज़बान से तौहीद का यह एलान सुनते हैं।
21. फ़रिश्तों के अल्लाह के जलाल और हैबत से काँपने और तसबीह (महिमा) करने का ज़िक्र ख़ास-तौर से यहाँ इसलिए किया कि मुशरिक हर ज़माने में फ़रिश्तों को देवता और माबूद ठहराते रहे हैं और उनका यह गुमान रहा है कि वे अल्लाह तआला के साथ उसकी ख़ुदाई में साझी हैं। इस ग़लत ख़याल को रद्द करने के लिए कहा गया कि वह इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) में ख़ुदा के साझी नहीं हैं, बल्कि फ़रमाँबरदार ख़ादिम हैं और अपने मालिक के जलाल और हैबत से काँपते हुए उसकी तसबीह कर रहे हैं।
22. यानी उसके पास अनगिनत हरबे हैं और वह जिस वक़्त जिसके ख़िलाफ़ जिस हरबे से चाहे ऐसे तरीक़े से काम ले सकता है कि चोट पड़ने से एक लम्हा पहले भी उसे ख़बर नहीं होती कि किधर से कब चोट पड़नेवाली है। ऐसी क़ादिरे-मुतलक़ (सर्व शक्तिमान) हस्ती के बारे में यूँ बे-सोचे-समझे जो लोग उलटी-सीधी बातें करते हैं उन्हें कौन अक़्लमन्द कह सकता है?
لَهُۥ دَعۡوَةُ ٱلۡحَقِّۚ وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَسۡتَجِيبُونَ لَهُم بِشَيۡءٍ إِلَّا كَبَٰسِطِ كَفَّيۡهِ إِلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُغَ فَاهُ وَمَا هُوَ بِبَٰلِغِهِۦۚ وَمَا دُعَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ ۝ 9
(14) उसी को पुकारना हक़ है।23 रहीं वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें उसको छोड़कर ये लोग पुकारते हैं, वे उनकी दुआओं का कोई जवाब नहीं दे सकतीं। उन्हें पुकारना तो ऐसा है जैसे कोई आदमी पानी की तरफ़ हाथ फैलाकर उससे दरख़ास्त करे कि तू मेरे मुँह तक पहुँच जा, हालाँकि पानी उस तक पहुँचनेवाला नहीं। बस इसी तरह हक़ का इनकार करनेवालों की दुआएँ भी कुछ नहीं हैं मगर एक तीर बिना निशाने का।
23. पुकारने से मुराद अपनी ज़रूरतों में मदद के लिए पुकारना है। मतलब यह है कि ज़रूरतें पूरी करने और मुश्किलें हल करने के सारे इख़्तियार उसी के हाथ में हैं, इसलिए सिर्फ़ उसी से दुआएँ माँगना बरहक़ (सत्यानुकूल) है।
وَلِلَّهِۤ يَسۡجُدُۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ طَوۡعٗا وَكَرۡهٗا وَظِلَٰلُهُم بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ۩ ۝ 10
(15) वह तो अल्लाह ही है जिसको ज़मीन व आसमानों की हर चीज़ चाहे-अनचाहे सजदा कर रही है24 और सब चीज़ों के साए सुबह व शाम उसके आगे झुकते हैं।25
24. सजदे से मुराद फ़रमाँबरदारी में झुकना, हुक्म पूरा करना और अपने को हवाले करके सर झुका देना है। ज़मीन व आसमान की हर चीज़ इस मानी में अल्लाह को सजदा कर रही है कि वह उसके क़ानून का पालन कर रही है और उसकी मरज़ी और से बाल बराबर भी आगे नहीं बढ़ सकती। ईमानवाला उसके आगे अपनी मरज़ी और ख़ुशी से झुकता है तो ईमान न रखनेवाले को मजबूरन झुकना पड़ता है, क्योंकि ख़ुदा के क़ुदरती क़ानून से हटना उसकी सकत (क्षमता) से बाहर है।
25. सायों के सजदा करने से मुराद यह है कि चीज़ों के सायों का सुबह-शाम पश्चिम और पूरब की तरफ़ गिरना इस बात की अलामत है कि ये सब चीज़ें किसी के हुक्म की पाबंद और किसी के क़ानून से बँधी हैं।
قُلۡ مَن رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ قُلِ ٱللَّهُۚ قُلۡ أَفَٱتَّخَذۡتُم مِّن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ لَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ نَفۡعٗا وَلَا ضَرّٗاۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ أَمۡ هَلۡ تَسۡتَوِي ٱلظُّلُمَٰتُ وَٱلنُّورُۗ أَمۡ جَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ خَلَقُواْ كَخَلۡقِهِۦ فَتَشَٰبَهَ ٱلۡخَلۡقُ عَلَيۡهِمۡۚ قُلِ ٱللَّهُ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُوَ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّٰرُ ۝ 11
(16) इनसे पूछो, आसमानों व ज़मीन का रब कौन है? कहो, अल्लाह।26 फिर इनसे कहो कि जब सच्चाई यह है तो क्या तुमने उसे छोड़कर ऐसे माबूदों को अपना कारसाज़ ठहरा लिया जो ख़ुद अपने लिए भी किसी फ़ायदे और नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखते? कहो, क्या अंधा और आँखोंवाला बराबर हुआ करता है?27 क्या रौशनी और अंधेरे बराबर होते हैं?28 और अगर ऐसा नहीं तो क्या इनके ठहराए हुए साझीदारों ने भी अल्लाह की तरह कुछ पैदा किया है कि उसकी वजह से इनपर पैदा करने का मामला मुश्तबह (सन्दिग्ध) हो गया?29 कहो, हर चीज़ का पैदा करनेवाला सिर्फ़ अल्लाह है और वह अकेला है, सबपर ग़ालिब!30
26. वाज़ेह रहे कि वे लोग ख़ुद इस बात को मानते थे कि ज़मीन व आसमान का रब अल्लाह है। वे इस सवाल का जवाब इनकार की शक्ल में नहीं दे सकते थे, क्योंकि यह इनकार ख़ुद उनके अपने अक़ीदे के ख़िलाफ़ था। लेकिन नबी (सल्ल०) के पूछने पर वे इक़रार की सूरत में भी इसका जवाब देने से कतराते थे, क्योंकि इक़रार के बाद तौहीद का मानना ज़रूरी हो जाता था, और शिर्क के लिए कोई मुनासिब और अक़्ल में आनेवाली बुनियाद बाक़ी नहीं रहती थी। इसलिए अपने नज़रिए की कमज़ोरी महसूस करके वे सवाल के जवाब में चुप साध जाते थे। यही वजह है कि क़ुरआन में जगह-जगह अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) से फ़रमाता है कि इनसे पूछो कि ज़मीन व आसमान का बनानेवाला कौन है? कायनात का रब कौन है? तुमको रोज़ी देनेवाला कौन है? फिर हुक्म देता है कि तुम ख़ुद कहो कि 'अल्लाह', और इसके बाद यूँ दलील देता है कि जब ये सारे काम अल्लाह के हैं तो आख़िर ये दूसरे कौन हैं जिनकी तुम बन्दगी किए जा रहे हो?
27. अन्धे से मुराद वह शख़्स है जिसके आगे कायनात में हर तरफ़ अल्लाह के एक होने के आसार और निशानियाँ फैली हुई हैं, मगर वह उनमें से किसी चीज़ को भी नहीं देख रहा है और आँखोंवाले से मुराद वह है जिसके लिए कायनात के ज़र्रे-ज़रें और पत्ते-पत्ते में पैदा करनेवाले को पहचानने के दफ़्तर खुले हुए हैं। अल्लाह तआला के इस सवाल का मतलब यह है कि अक़्ल के अन्धो! अगर तुम्हें कुछ नहीं सूझता तो आख़िर देखने के क़ाबिल आँखें रखनेवाला अपनी आँखें कैसे फोड़ ले? जो शख़्स हक़ीक़त को साफ़-साफ़ देख रहा है उसके लिए किस तरह मुमकिन है कि वह तुम नासमझ लोगों की तरह ठोकरें खाता फिरे?
28. रौशनी से मुराद इल्मे-हक़ (सत्य-ज्ञान) की वह रौशनी है जो नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को हासिल थी और अंधेरों से मुराद जहालत के वे अंधेरे हैं जिनमें हक़ का इनकार करनेवाले भटक रहे थे। सवाल का मतलब यह है कि जिसको रौशनी मिल चुकी है वह किस तरह अपना दीया बुझाकर अंधेरों में ठोकरें खाना क़ुबूल कर सकता है? अगर तुम रौशनी की क़द्र नहीं पहचानते हो तो न सही। लेकिन जिसने उसे पा लिया है, जो उजाले और अंधेरे के फ़र्क़ को जान चुका है, जो दिन के उजाले में सीधा रास्ता साफ़ देख रहा है वह रौशनी को छोड़कर अंधेरों में भटकते फिरने के लिए कैसे तैयार हो सकता है?
29. इस सवाल का मतलब यह है कि अगर दुनिया में कुछ चीज़ें अल्लाह तआला ने पैदा की होती, और कुछ दूसरों ने, और यह मालूम करना मुश्किल होता कि ख़ुदा की बनाई हुई चीज़ें कौन-सी हैं और दूसरों की बनाई हुई कौन-सी तब तो सचमुच शिर्क के लिए कोई मुनासिब बुनियाद हो सकती थी। लेकिन जब ये शिर्क करनेवाले ख़ुद मानते हैं कि इनके माबूदों में से किसी ने एक तिनका और एक बाल तक पैदा नहीं किया है, और जब वे ख़ुद मानते हैं कि पैदा करने के काम में इन मनगढ़ंत ख़ुदाओं का ज़र्रा बराबर भी कोई हिस्सा नहीं है, तो फिर ये झूठे माबूद पैदा करनेवाले के अधिकारों और उसके हक़ों में आख़िर किस बुनियाद पर साझी ठहरा लिए गए?
30. अस्ल अऱबी में लफ़्ज 'क़ह्हार' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है- “वह हस्ती जो अपने ज़ोर से सबपर हुक्म चलाए और सबको अपने मातहत करके रखे।” यह बात कि “अल्लाह ही हर चीज़ को पैदा करनेवाला है” मुशरिकों की अपनी मानी हुई सच्चाई है जिससे उन्हें कभी इनकार न था और यह बात कि “वह अकेला और क़ह्हार है” इस तस्लीम की हुई हक़ीक़त का लाज़िमी नतीजा है जिससे इनकार करना, पहली हक़ीक़त को मान लेने के बाद, किसी अक़्लमन्द आदमी के लिए मुमकिन नहीं है। इसलिए कि जो हर चीज़ का पैदा करनेवाला है, वह ज़रूर ही अपने आपमें अकेला है, क्योंकि दूसरी जो चीज़ भी है वह उसकी मख़लूक़ है। फिर भला यह कैसे हो सकता है कि कोई मख़लूक़ अपने पैदा करनेवाले की ज़ात, या सिफ़ात या इख़्तियारों, या हक़ों में उसकी शरीक हो? इस तरह वह ज़रूर ही ‘क़ह्हार’ भी है, क्योंकि मख़लूक़ का अपने पैदा करनेवाले से मग़लूब होकर (दबकर) रहना मख़लूक़ होने की सिफ़त में पूरी तरह शामिल है। अगर पैदा करनेवाले को पूरा ग़लबा हासिल न हो तो वह कुछ पैदा ही कैसे कर सकता है। तो जो शख़्स अल्लाह को ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला) मानता है उसके लिए इन दो ख़ालिस अक़्ली व मन्तिक़ी (तार्किक) नतीजों से इनकार मुमकिन नहीं रहता, और इसके बाद यह बात सरासर ग़ैर-माक़ूल ठहरती है कि कोई शख़्स पैदा करनेवाले को छोड़कर मख़लूक़ की बन्दगी करे और ग़ालिब को छोड़कर मग़लूब को मुश्किल कुशाई के लिए पुकारे।
أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَسَالَتۡ أَوۡدِيَةُۢ بِقَدَرِهَا فَٱحۡتَمَلَ ٱلسَّيۡلُ زَبَدٗا رَّابِيٗاۖ وَمِمَّا يُوقِدُونَ عَلَيۡهِ فِي ٱلنَّارِ ٱبۡتِغَآءَ حِلۡيَةٍ أَوۡ مَتَٰعٖ زَبَدٞ مِّثۡلُهُۥۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡحَقَّ وَٱلۡبَٰطِلَۚ فَأَمَّا ٱلزَّبَدُ فَيَذۡهَبُ جُفَآءٗۖ وَأَمَّا مَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ فَيَمۡكُثُ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَالَ ۝ 12
(17) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और हर नदी-नाला अपनी समाई के मुताबिक़ उसे लेकर चल निकला। फिर जब बाढ़ आई तो सतह पर झाग भी आ गए।31 और ऐसे ही झाग उन धातुओं पर भी उठते हैं जिन्हें गहने और बर्तन वग़ैरा बनाने के लिए लोग पिघलाया करते हैं।32 इसी मिसाल से हक़ व बातिल (सत्य और असत्य) के मामले को वाज़ेह करता है। जो झाग है, वह उड़ जाया करता है और जो चीज़ इनसानों के लिए फ़ायदेमन्द है, वह ज़मीन में ठहर जाती है। इस तरह अल्लाह मिसालों से अपनी बात समझाता है।
31. यहाँ इस इल्म की मिसाल जो नबी (सल्ल०) पर वह्य के ज़रिए से उतारा गया था, आसमानी बारिश से दी गई है और ईमान लानेवाले भली फ़ितरत के लोगों को उन नदी-नालों की तरह ठहराया गया है जो अपनी-अपनी समाई के मुताबिक़ रहमत की बारिश से भरपूर होकर बहने लगते हैं और उस हंगामे और फ़ितना-फसाद को जो इस्लामी तहरीक के ख़िलाफ़ इनकार और मुख़ालफ़त करनेवालों ने खड़ा कर रखा था, उस झाग और कूड़े-करकट से मिसाल दी गई है जो हमेशा सैलाब के उठते ही सतह पर अपनी उछल-कूद दिखानी शुरू कर देता है।
32. यानी भट्टी जिस काम के लिए गरम की जाती है वह तो है ख़ालिस धातु को तपाकर मुफ़ीद बनाना। मगर यह काम जब भी किया जाता है मैल-कुचैल ज़रूर उभर आता है और इस शान से उभरता और चक्कर खाता है कि कुछ देर तक सतह पर बस वही वह नज़र आता रहता है।
لِلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُۥ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لَٱفۡتَدَوۡاْ بِهِۦٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ سُوٓءُ ٱلۡحِسَابِ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 13
(18) जिन लोगों ने अपने रब की दावत क़ुबूल कर ली, उनके लिए भलाई है और जिन्होंने उसे क़ुबूल न किया, वे अगर ज़मीन की सारी दौलत के भी मालिक हों और उतनी ही और जुटा लें, तो वे अल्लाह की पकड़ से बचने के लिए इस सबको बदले में दे डालने पर तैयार हो जाएँगे।33 ये वे लोग हैं जिनसे बुरी तरह हिसाब लिया जाएगा34 और उनका ठिकाना जहन्नम है, बहुत ही बुरा ठिकाना।
33. यानी उस वक़्त उनपर ऐसी मुसीबत पड़ेगी कि वह अपनी जान छुड़ाने के लिए पूरी दुनिया और जो कुछ उसमें है वह दौलत दे डालने में भी झिझकेंगे नहीं।
34. बुरी तरह हिसाब लेने या सख़्त हिसाब लेने का मतलब यह है कि आदमी की किसी ग़लती और किसी भूल को माफ़ न किया जाए, कोई कुसूर जो उसने किया हो पूछ-गछ किए बिना न छोड़ा जाए। क़ुरआन हमें बताता है कि अल्लाह तआला इस तरह का हिसाब अपने उन बन्दों से लेगा जो उसके बाग़ी बनकर दुनिया में रहे हैं। इसके बरख़िलाफ़ जिन्होंने अपने ख़ुदा से वफ़ादारी की है। और उसके फ़रमाँबरदार बनकर रहे हैं उनसे आसान और हल्का हिसाब लिया जाएगा, उनकी ख़िदमतों के मुक़ाबले में उनकी ग़लतियों को नज़र-अन्दाज़ किया जाएगा और उनके मजमूई रवैये की भलाई को सामने रखकर उनकी बहुत-सी कमियों को अनदेखा कर दिया जाएगा। इसकी और ज़्यादा वज़ाहत उस हदीस से होती है जो हज़रत आइशा (रज़ि०) से अबू-दाऊद में रिवायत हुई है। हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि मैंने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल, मेरे नज़दीक अल्लाह की किताब की सबसे ज़्यादा डरानेवाली आयत वह है जिसमें कहा गया है कि “जो शख़्स कोई बुराई करेगा वह उसकी सज़ा पाएगा।” इसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आइशा! क्या तुम्हें मालूम नहीं कि ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बन्दे को दुनिया में जो तकलीफ़ भी पहुँचती है, यहाँ तक कि अगर कोई काँटा भी उसको चुभता है, तो अल्लाह उसे उसके किसी-न-किसी क़ुसूर की सज़ा ठहराकर दुनिया ही में उसका हिसाब साफ़ कर देता है? आख़िरत में तो जिससे भी पूछ-गछ होगी वह सज़ा पाकर रहेगा।” हज़रत आइशा (रज़ि०) ने पूछा, “फिर अल्लाह तआला के यह कहने का मतलब क्या है कि “जिसका आमालनामा उसके दाहिने हाथ में दिया जाएगा उससे हल्का हिसाब लिया जाएगा।” (सल्ल०) ने जवाब दिया, “इससे मुराद है पेशी (यानी उसकी भलाइयों के साथ उसकी बुराइयाँ भी अल्लाह तआला के सामने पेश ज़रूर होंगी), मगर जिससे पूछ-गछ हुई वह तो बस समझ लो कि मारा गया।” इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख़्स अपने वफ़ादार और फ़रमाँबरदार नौकर की छोटी-छोटी ग़लतियों पर कभी सख़्त पकड़ नहीं करता, बल्कि उसके बड़े-बड़े क़ुसूरों को भी उसकी ख़िदमतों को देखते हुए माफ़ कर देता है। लेकिन अगर किसी नौकर की ग़द्दारी व ख़ियानत साबित हो जाए तो उसकी कोई भी ख़िदमत ऐसी नहीं रहती जिसका लिहाज़ किया जाए और उसके छोटे-बड़े सब क़ुसूर गिनती में आ जाते हैं।
۞أَفَمَن يَعۡلَمُ أَنَّمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ ٱلۡحَقُّ كَمَنۡ هُوَ أَعۡمَىٰٓۚ إِنَّمَا يَتَذَكَّرُ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 14
(19) भला यह कैसे हो सकता है कि वह आदमी जो तुम्हारे रब की इस किताब को, जो उसने तुमपर उतारी है, हक़ जानता है और वह आदमी जो इस हक़ीक़त की तरफ़ से अंधा है, दोनों बराबर हो जाएँ?35 नसीहत तो अक़्लमन्द लोग ही क़ुबूल किया करते हैं।36
35. यानी न दुनिया में दोनों का रवैया एक जैसा हो सकता है और न आख़िरत में इनका अंजाम एक जैसा होगा।
36. यानी ख़ुदा की भेजी हुई इस तालीम और ख़ुदा के रसूल की इस दावत को जो लोग क़ुबूल किया करते हैं वे अक़्ल के अंधे नहीं, बल्कि सुनने और समझनेवाले तेज़ दिमाग़ के लोग ही होते हैं और फिर दुनिया में उनकी सीरत व किरदार का वह रंग और आख़िरत में उनका वह अंजाम होता है जो बाद की आयतों में बयान हुआ है।
ٱلَّذِينَ يُوفُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَلَا يَنقُضُونَ ٱلۡمِيثَٰقَ ۝ 15
(20) और उनका रवैया यह होता है कि अल्लाह के साथ अपने वादे को करते हैं, उसे मज़बूत बाँधने के बाद तोड़ नहीं डालते।37
37. इससे मुराद वह अह्द है जो अल्लाह तआला ने पैदाइश के वक़्त तमाम इनसानों से लिया था कि वे सिर्फ़ उसी की बन्दगी करेंगे (तशरीह के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-134, 135)। यह अह्द हर इनसान से लिया गया है, हर एक की फ़ितरत में छिपा है, और उसी वक़्त पक्का हो जाता है जब आदमी अल्लाह तआला के पैदा करने से वुजूद में आता और उसके पालने-पोसने से परवरिश पाता है। ख़ुदा के रिज़्क़ से पलना, उसकी पैदा की हुई चीज़ों से काम लेना और उसकी दी हुई क़ुव्वतों को इस्तेमाल करना आप-से-आप इनसान को ख़ुदा के साथ बन्दगी के अह्द में बाँध देता है, जिसे तोड़ने की जुर्अत कोई समझ रखनेवाला और नमक हलाल आदमी नहीं कर सकता। यह और बात है कि अनजाने में कभी उससे कोई भूल-चूक हो जाए।
وَٱلَّذِينَ يَصِلُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيَخۡشَوۡنَ رَبَّهُمۡ وَيَخَافُونَ سُوٓءَ ٱلۡحِسَابِ ۝ 16
(21) उनका रवैया यह होता है। कि अल्लाह ने जिन-जिन रिश्तों को बाक़ी रखने का हुक्म दिया हैं,38 उन्हें बाक़ी रखते हैं, अपने रब से डरते हैं और इस बात का डर रखते हैं कि कहीं उनसे बुरी तरह हिसाब न लिया जाए।
38. यानी वे तमाम समाजी और तमद्दुनी (सांस्कृतिक) रिश्ते जिनके दुरुस्त होने पर इनसान की समाजी ज़िन्दगी का दारोमदार है।
وَٱلَّذِينَ صَبَرُواْ ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ رَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ وَيَدۡرَءُونَ بِٱلۡحَسَنَةِ ٱلسَّيِّئَةَ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 17
(22) उनका हाल यह होता है कि अपने रब की ख़ुशनूदी के लिए सब्र से काम लेते हैं,39 नमाज़ क़ायम करते हैं, हमारी दी हुई रोज़ी में से खुले और छिपे ख़र्च करते हैं और बुराई को भलाई से दूर करते हैं।40 आख़िरत का घर इन्हीं लोगों के लिए है,
39. यानी अपनी ख़ाहिशों को काबू में रखते हैं, अपने जज़्बात और रुझानों को हदों का पाबन्द बनाते हैं, ख़ुदा की नाफ़रमानी में जिन-जिन फ़ायदों और लज़्ज़तों का लालच नज़र आता है उन्हें देखकर फिसल नहीं जाते, और ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी में जिन-जिन नुक़सानों और तकलीफ़ों का अन्देशा होता है उन्हें बरदाश्त कर ले जाते हैं। इस लिहाज़ से ईमानवाले की पूरी ज़िन्दगी हक़ीक़त में सब्र की ज़िन्दगी है, क्योंकि वह अल्लाह की ख़ुशी पाने की उम्मीद पर और आख़िरत के हमेशा रहनेवाले नतीजों की उम्मीद पर इस दुनिया में अपने मन पर क़ाबू रखता है और गुनाह की तरफ़ मन के हर झुकाव का सब्र के साथ मुक़ाबला करता है।
40. यानी वे बुराई के मुक़ाबले में बुराई नहीं, बल्कि नेकी करते हैं। वे बुराई का मुक़ाबला बुराई से नहीं, बल्कि भलाई ही से करते हैं। कोई उनपर चाहे कितना ही ज़ुल्म करे, वे जवाब में ज़ुल्म नहीं, बल्कि इनसाफ़ ही करते हैं। कोई उनके ख़िलाफ़ कितना ही झूठ बोले वे जवाब में सच ही बोलते हैं। कोई उनसे चाहे कितनी ही ख़ियानत और बेईमानी करे, वे जवाब में ईमानदारी ही से काम लेते हैं। इसी मानी में है वह हदीस जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है— "तुम अपने रवैये को लोगों के रवैये का ग़ुलाम बनाकर न रखो। यह कहना ग़लत है कि अगर लोग भलाई करेंगे तो हम भी भलाई करेंगे और लोग ज़ुल्म करेंगे तो हम भी ज़ुल्म करेंगे। तुम अपने मन को एक क़ायदे का पाबन्द बनाओ। अगर लोग नेकी करें तो तुम नेकी करो और अगर लोग तुमसे बुरा सुलूक करें तो तुम ज़ुल्म न करो।" इसी मानी में है वह हदीस जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि मेरे रब ने मुझे नौ (9) बातों का हुक्म दिया है। और उनमें से चार बातें आप (सल्ल०) ने ये बताईं कि, “मैं चाहे किसी से ख़ुश हूँ या नाराज़, हर हालत में इनसाफ़ की बात कहूँ, जो मेरा हक़ मारे मैं उसका हक़ अदा करूँ, जो मुझे न दे मैं उसको दूँ, और जो मुझपर ज़ुल्म करे मैं उसको माफ़ कर दूँ।” और इसी मानी में है वह हदीस जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि “जो तुझसे ख़ियानत (बेईमानी) करे तू उससे ख़ियानत न कर।” और इसी मानी में है हज़रत उमर (रज़ि०) की यह बात कि, “जो शख़्स तेरे साथ मामला करने में ख़ुदा से नहीं डरता, उसको सज़ा देने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि तू उसके साथ ख़ुदा से डरते हुए मामला कर।"
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا وَمَن صَلَحَ مِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَأَزۡوَٰجِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَدۡخُلُونَ عَلَيۡهِم مِّن كُلِّ بَابٖ ۝ 18
(23) यानी ऐसे बाग जो उनके हमेशा रहनेवाले घर होंगे। वे ख़ुद भी उनमें दाख़िल होंगे और उनके बाप-दादा और उनकी बीवियों और उनकी औलाद में से जो-जो नेक हैं, वे भी उनके साथ वहाँ जाएँगे। फ़रिश्ते हर तरफ़ से उनके इस्तिक़बाल के लिए। आएँगे
سَلَٰمٌ عَلَيۡكُم بِمَا صَبَرۡتُمۡۚ فَنِعۡمَ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 19
(24) और उनसे कहेंगे कि “तुमपर सलामती है,41 तुमने दुनिया में जिस तरह सब्र से काम लिया उसकी वजह से आज तुम इसके हक़दार हुए हो"— तो क्या ही ख़ूब है यह आख़िरत का घर!
41. इसका मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि फ़रिश्ते हर तरफ़ से आ-आकर उनको सलाम करेंगे, बल्कि यह भी है कि फ़रिश्ते उनको इस बात की ख़ुशख़बरी देंगे कि अब तुम ऐसी जगह आ गए हो जहाँ तुम्हारे लिए सलामती-ही-सलामती है। अब यहाँ तुम हर आफ़त से, हर तकलीफ़ से, हर मेहनत से, और हर ख़तरे और अन्देशे से महफ़ूज़ हो। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-15 हिज्र, हाशिया-29)
وَٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱللَّعۡنَةُ وَلَهُمۡ سُوٓءُ ٱلدَّارِ ۝ 20
(25) रहे वे लोग जो अल्लाह के अह्द (प्रतिज्ञा) को मज़बूत बाँधने के बाद तोड़ डालते हैं, जो उन रिश्तों को काटते हैं जिन्हें अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है और जो ज़मीन में बिगाड़ फैलाते हैं, वे लानत के क़ाबिल हैं और उनके लिए आख़िरत में बहुत बुरा ठिकाना है।
ٱللَّهُ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ وَفَرِحُواْ بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا مَتَٰعٞ ۝ 21
(26) अल्लाह जिसको चाहता है रोज़ी की कुशादगी बख़्शता है और जिसे चाहता है नपी-तुली रोज़ी देता है।42 ये लोग दुनिया की ज़िन्दगी में मगन हैं, हालाँकि दुनिया की ज़िन्दगी आख़िरत के मुक़ाबले में एक थोड़े से सामान के सिवा कुछ भी नहीं है।
42. इस आयत का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि आम जाहिलों की तरह मक्का के इस्लाम-दुश्मन भी अक़ीदे और अमल की अच्छाई-बुराई को देखने के बजाय अमीरी-ग़रीबी के लिहाज़ से इनसानों की क़द्र-कीमत का हिसाब लगाते थे। वे समझते थे कि जिसे दुनिया में ख़ूब ऐश का सामान मिल रहा है वह ख़ुदा का प्यारा है, चाहे वह कैसा ही गुमराह और बुरा काम करनेवाला हो, और जो तंगहाल है वह ख़ुदा के ग़ज़ब का शिकार है चाहे वह कैसा ही नेक हो। इसी बुनियाद पर वे क़ुरैश के सरदारों को नबी (सल्ल०) के ग़रीब साथियों के मुक़ाबले में बड़ा समझते थे और कहते थे कि देख लो, अल्लाह किसके साथ है। इसपर ख़बरदार किया जा रहा है कि रिज़्क़ की कमी-ज़्यादती का मामला अल्लाह के एक-दूसरे ही क़ानून से ताल्लुक़ रखता है, जिसमें बहुत-सी दूसरी मस्लहतों के लिहाज़ से किसी को ज़्यादा दिया जाता है और किसी को कम। यह कोई पैमाना नहीं है जिसके लिहाज़ से इसका फ़ैसला किया जाए कि कौन इनसान अख़लाक़ और किरदार के पहलू से अच्छा है और कौन बुरा। इनसानों के दरमियान दरजों की अस्ल बुनियाद और उनके ख़ुशक़िस्मत और बदक़िस्मत होने की अस्ल कसौटी यह है कि किसने सोच व अमल की सही राह अपनाई और किसने ग़लत, किसने अपने अंदर अच्छी और उम्दा ख़ूबियाँ पैदा की और किसने बुरी आदतें और बुरे अख़लाक़ पैदा किए। मगर नादान लोग इसके बजाय यह देखते हैं कि किसको दौलत ज़्यादा मिली और किसको कम।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَنۡ أَنَابَ ۝ 22
(27) ये लोग, जिन्होंने (मुहम्मद सल्ल० की पैग़म्बरी को मानने से इनकार कर दिया है, कहते हैं, “इस आदमी पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतरी"43— कहो, अल्लाह जिसे चाहता गुमराह कर देता है और वह अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी तरफ़ पलटे।”44
43. इससे पहले आयत-7 में इस सवाल का जो जवाब दिया जा चुका है उसे सामने रखा जाए अब दोबारा उनके इसी एतिराज़ को नक़्ल करके एक-दूसरे तरीक़े से उसका जवाब दिया जा रहा है।
44. यानी जो अल्लाह की तरफ़ ख़ुद नहीं पलटता और उससे मुँह मोड़ता है उसे ज़बरदस्ती सीधा रास्ता दिखाने का तरीक़ा अल्लाह के यहाँ राइज नहीं है। वह ऐसे शख़्स को उन्हीं रास्तों में भटकने की छूट दे देता है जिनमें वह ख़ुद भटकना चाहता है। वही सारे ज़रिए जो किसी हिदायत चाहनेवाले इनसान के लिए हिदायत का सबब बनते हैं, एक गुमराही चाहनेवाले इनसान के लिए गुमराही का सबब बना दिए जाते हैं। जलती हुई शमा भी उसके सामने आती है तो रास्ता दिखाने के बजाय उसकी आँखें चुँधिया देने ही का काम देती है। यही मतलब है अल्लाह के किसी शख़्स को गुमराह करने का। निशानी की माँग का जो जवाब यहाँ दिया गया है वह अपने अन्दाज़े-बयान के लिहाज़ से बेमिसाल है। वे कहते थे कि कोई निशानी दिखाओ तो हमें तुम्हारी सच्चाई का यक़ीन आए। जबाब में कहा गया कि नादानो, तुम्हें सीधा रास्ता न मिलने का अस्ल सबब निशानियों की कमी नहीं है, बल्कि तुम्हारे अपने हिदायत चाहने की कमी है। निशानियाँ तो हर तरफ़ बेहद व बेहिसाब फैली हुई हैं, मगर उनमें से कोई भी तुम्हारे लिए रास्ता दिखानेवाली नहीं बनती, क्योंकि तुम ख़ुदा के रास्ते पर जाना ही नहीं चाहते हो। अब अगर कोई और निशानी आए तो वह तुम्हारे लिए कैसे फ़ायदेमन्द हो सकती है? तुम शिकायत करते हो कि कोई निशानी नहीं दिखाई गई। मगर जिन्हें ख़ुदा के रास्ते की तलाश है उन्हें निशानियाँ दिखाई दे रही हैं और वे उन्हें देख-देखकर सीधा रास्ता पा रहे हैं।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَتَطۡمَئِنُّ قُلُوبُهُم بِذِكۡرِ ٱللَّهِۗ أَلَا بِذِكۡرِ ٱللَّهِ تَطۡمَئِنُّ ٱلۡقُلُوبُ ۝ 23
(28) ऐसे ही लोग हैं वे जिन्होंने (इस नबी की दावत को) मान लिया है और उनके दिलों को अल्लाह की याद से इत्मीनान हासिल होता है। ख़बरदार रहो, अल्लाह की याद ही वह चीज़ है जिससे दिलों को इत्मीनान मिला करता है।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ طُوبَىٰ لَهُمۡ وَحُسۡنُ مَـَٔابٖ ۝ 24
(29) फिर जिन लोगों ने हक़ की दावत को माना और नेक काम किए, वे ख़ुशनसीब हैं और उनके लिए अच्छा अंजाम है।
كَذَٰلِكَ أَرۡسَلۡنَٰكَ فِيٓ أُمَّةٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهَآ أُمَمٞ لِّتَتۡلُوَاْ عَلَيۡهِمُ ٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَهُمۡ يَكۡفُرُونَ بِٱلرَّحۡمَٰنِۚ قُلۡ هُوَ رَبِّي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ مَتَابِ ۝ 25
(30) ऐ नबी! इसी शान से हमने तुम्हें रसूल बनाकर भेजा है,45 एक ऐसी क़ौम में जिससे पहले बहुत-सी क़ौमें गुज़र चुकी हैं, ताकि तुम इन लोगों को वह पैग़ाम सुनाओ जो हमने तुमपर उतारा इस हाल में कि ये अपने निहायत मेहरबान ख़ुदा के इनकारी बने हुए हैं।46 इनसे कहो कि वही मेरा रब है, उसके सिवा कोई माबूद नहीं है, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की तरफ़ मुझे पलटकर जाना है।
45. यानी किसी ऐसी निशानी के बिना जिसकी ये लोग माँग करते हैं।
46. यानी उसकी बन्दगी से मुँह मोड़े हुए हैं, उसकी सिफ़ात (गुणों) और अधिकारों और हक़ों में दूसरों को उसका साझी बना रहे हैं, और उसकी नेमतों के शुक्रिए दूसरों को अदा कर रहे हैं।
وَلَوۡ أَنَّ قُرۡءَانٗا سُيِّرَتۡ بِهِ ٱلۡجِبَالُ أَوۡ قُطِّعَتۡ بِهِ ٱلۡأَرۡضُ أَوۡ كُلِّمَ بِهِ ٱلۡمَوۡتَىٰۗ بَل لِّلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ جَمِيعًاۗ أَفَلَمۡ يَاْيۡـَٔسِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَهَدَى ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۗ وَلَا يَزَالُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ تُصِيبُهُم بِمَا صَنَعُواْ قَارِعَةٌ أَوۡ تَحُلُّ قَرِيبٗا مِّن دَارِهِمۡ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ وَعۡدُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 26
(31) और क्या हो जाता अगर कोई ऐसा क़ुरआन उतार दिया जाता जिसके ज़ोर से पहाड़ चलने लगते, या ज़मीन फट जाती, या मुर्दे क़ब्रों से निकलकर बोलने लगते?47 (इस तरह की निशानियाँ दिखा देना कुछ मुश्किल नहीं है, बल्कि सारा अधिकार ही अल्लाह के हाथ में हैं।48 फिर क्या ईमानवाले (अभी तक इनकारवाले की तलब के जवाब में किसी निशानी के ज़ाहिर होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं और वे यह जानकर) मायूस नहीं हो गए कि अगर अल्लाह चाहता तो सारे इनसानों को हिदायत दे देता?49 जिन लोगों ने अल्लाह के साथ इनकार का रवैया अपना रखा है उनपर उनके करतूतों की वजह से कोई-न-कोई आफ़त आती ही रहती है, या उनके घर के क़रीब कहीं उतरती है। यह सिलसिला चलता रहेगा यहाँ तक कि अल्लाह का वादा पूरा हो जाए। यक़ीनन अल्लाह अपने वादे के ख़िलाफ़ काम नहीं करता।
47. इस आयत को समझने के लिए यह बात सामने रहनी ज़रूरी है कि इसमें बात ग़ैर-मुस्लिमों से नहीं, बल्कि मुसलमानों से कही जा रही है। मुसलमान जब ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ से बार-बार निशानी की माँग सुनते थे तो उनके दिलों में बेचैनी पैदा होती थी कि काश! इन लोगों को कोई ऐसी निशानी दिखा दी जाती जिससे ये लोग मान जाते! फिर जब वे महसूस करते थे कि इस तरह की किसी निशानी के न आने की वजह से इस्लाम का इनकार करनेवालों को नबी (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) के बारे में लोगों के दिलों में शक फैलाने का मौक़ा मिल रहा है तो उनकी यह बेचैनी और भी ज़्यादा बढ़ जाती थी। इसपर मुसलमानों से कहा जा रहा है कि अगर क़ुरआन की किसी सूरा के साथ ऐसी और ऐसी निशानियाँ यकायक दिखा दी जातीं तो क्या वाक़ई तुम यह समझते हो कि ये लोग ईमान ले आते? क्या तुम्हें इनसे यह ख़ुशगुमानी है कि ये हक़ क़ुबूल करने के लिए बिलकुल तैयार बैठे हैं, सिर्फ़ एक निशानी के दिखाए जाने की कमी है? जिन लोगों को क़ुरआन की तालीम में कायनात की निशानियों में, नबी की पाकीज़ा ज़िन्दगी में, सहाबा किराम की ज़िन्दगी में आई इंक़िलाबी तब्दीली में हक़ की रौशनी नज़र न आई क्या तुम समझते हो कि वे पहाड़ों के चलने और ज़मीन के फटने और मुर्दो के क़ब्रों से निकल आने में कोई रौशनी पा लेंगे?
48. यानी निशानियों के न दिखाने की अस्ल वजह यह नहीं है अल्लाह तआला उनको दिखाने की क़ुदरत नहीं रखता, बल्कि अस्ल वजह यह है कि इन तरीक़ों से काम लेना अल्लाह की मस्लहत के ख़िलाफ़ है। इसलिए कि अस्ल मक़सद तो सीधा रास्ता दिखाना है, न कि एक नबी की नुबूवत (पैग़म्बरी) को मनवा लेना, और सीधा रास्ता दिखाना इसके बिना मुमकिन नहीं कि लोगों की सोच और समझ का सुधार हो।
49. यानी अगर समझ-बूझ के बिना सिर्फ़ एक ग़ैर-शुऊरी ईमान चाहिए होता तो उसके लिए निशानियाँ दिखाने की तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी। यह काम तो इस तरह भी हो सकता था कि अल्लाह सारे इनसानों को ईमानवाला ही पैदा कर देता।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَأَمۡلَيۡتُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ ثُمَّ أَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ عِقَابِ ۝ 27
(32) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया जा चुका है, मगर मैंने हमेशा इनकारियों को ढील दी और आख़िरकार उनको पकड़ लिया। फिर देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।
أَفَمَنۡ هُوَ قَآئِمٌ عَلَىٰ كُلِّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡۗ وَجَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ قُلۡ سَمُّوهُمۡۚ أَمۡ تُنَبِّـُٔونَهُۥ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَم بِظَٰهِرٖ مِّنَ ٱلۡقَوۡلِۗ بَلۡ زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ مَكۡرُهُمۡ وَصُدُّواْ عَنِ ٱلسَّبِيلِۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 28
(33) फिर क्या वह जो एक-एक जानदार की कमाई पर नज़र रखता है50 (उसके मुक़ाबले में ये हिम्मतें की जा रही हैं कि51) लोगों ने उसके कुछ साझी ठहरा रखे हैं? ऐ नबी! इनसे कहो, (अगर सचमुच वे अल्लाह के अपने बनाए हुए साझी हैं तो) ज़रा उनके नाम लो कि वे कौन हैं, क्या तुम अल्लाह को एक नई बात की ख़बर दे रहे हो जिसे वह अपनी ज़मीन में नहीं जानता? या तुम लोग बस यूँ ही जो मुँह में आता है, कह डालते हो?52 हक़ीक़त यह है कि जिन लोगों ने दावते-हक़ (सत्य-संदेश) को मानने से इनकार किया है, उनके लिए उनकी मक्कारियाँ53 ख़ुशनुमा बना दी गई हैं और वे सीधे रास्ते से रोक दिए गए है।54 फिर जिसको अल्लाह गुमराही में फेंक दे, उसे कोई राह दिखानेवाला नहीं है।
50. यानी जो एक-एक शख़्स के हाल से अलग-अलग वाक़िफ़ है और जिसकी निगाह से न किसी नेक आदमी की नेकी छिपी हुई है, न किसी बुरे आदमी की बुराई।
51. जसारतें (दुस्साहस) ये कि उसके बराबर और मद्दे-मुक़ाबिल (प्रतिद्वन्द्वी) बताए जा रहे हैं, उसकी हस्ती और सिफ़ात और हक़ों में उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) को शरीक किया जा रहा है, और उसकी ख़ुदाई में रहकर लोग यह समझ रहे हैं कि हम जो कुछ चाहें करें, हमसे कोई पूछ-गछ करनेवाला नहीं।
52. यानी उसके शरीक जो तुमने बना रखे हैं उनके मामले में तीन ही शक्लें हो सकती हैं एक यह कि तुम्हारे पास कोई भरोसेमन्द ख़बर आई हो कि अल्लाह ने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हस्तियों को अपनी सिफ़ात, या अधिकारों, या हक़ों में शरीक ठहराया है। अगर यह सूरत है तो ज़रा मेहरबानी करके हमें भी बताओ कि वे कौन-कौन लोग हैं और उनके ख़ुदा का साझी बनाए जाने की ख़बर आप लोगों को किस ज़रिए से पहुँची है। दूसरी मुमकिन शक्ल यह है कि अल्लाह को ख़ुद ख़बर नहीं है कि ज़मीन में कुछ लोग उसके साझी बन गए हैं और अब आप उसको यह ख़बर देने चले हैं। अगर यह बात है तो सफ़ाई के साथ अपनी इस पोज़ीशन का इक़रार करो। फिर हम भी देख लेंगे कि दुनिया में कितने ऐसे बेवक़ूफ़ निकलते हैं जो तुम्हारे इस सरासर बेहूदा रास्ते की पैरवी पर क़ायम रहते हैं। लेकिन अगर ये दोनों बातें नहीं हैं तो फिर तीसरी ही शक्ल बाक़ी रह जाती है, और वह यह है कि तुम बिना किसी सनद (प्रमाण) के और बिना किसी दलील के यूँ ही जिसको चाहते हो ख़ुदा का रिश्तेदार ठहरा लेते हो, जिसको चाहते हो दाता और फ़रियाद सुननेवाला कह देते हो, और जिसके बारे में चाहते हो दावा कर देते हो कि फ़ुलाँ इलाक़े के सुल्तान फ़ुलाँ साहब हैं और फ़ुलाँ काम फ़ुलाँ हज़रत की ताईद व मदद से पूरे होते हैं।
53. इस शिर्क को मक्कारी कहने की एक वजह यह है कि दर अस्ल आसमान की जिन चीज़ों (सूरज, चाँद, सितारे वग़ैरा) या फ़रिश्तों या रूहों या बुज़ुर्ग इनसानों को ख़ुदाई सिफ़ात व इख़्तियारात का मालिक ठहरा दिया गया है, और जिनको ख़ुदा के ख़ास हक़ों में साझी बना लिया गया है, उनमें से किसी ने भी कभी न इन सिफ़ात व इख़्तियारात का दावा किया, न इन हक़ों की माँग की, और न लोगों को यह तालीम दी कि तुम हमारे आगे इबादत की रस्में अदा करो, हम तुम्हारे काम बनाया करेंगे। यह तो चालाक इनसानों का काम है कि उन्होंने अवाम पर अपनी ख़ुदाई का सिक्का जमाने के लिए और उनकी कमाइयों में हिस्सा बटाने के लिए कुछ बनावटी ख़ुदा गढ़ लिए, लोगों को उनका अक़ीदतमन्द (श्रद्धालु) बनाया और अपने आपको किसी-न-किसी शक्ल में उनका नुमाइंदा ठहराकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दिया। दूसरी वजह शिर्क को मक्कारी बताने की यह है कि दर अस्ल यह एक मन का धोखा है और एक चोर दरवाज़ा है जिसके ज़रिए से इनसान दुनिया-परस्ती के लिए, अख़लाक़ी बन्दिशों से बचने के लिए और ग़ैर-ज़िम्मेदारी की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए फ़रार का रास्ता निकालता है। तीसरी वजह जिसकी बुनियाद पर मुशरिकों के रवैये को मक्कारी बताया गया है आगे आती है।
54. यह इनसानी फ़ितरत है कि जब इनसान एक चीज़ के मुक़ाबले में दूसरी चीज़ को अपनाता है तो वह अपने मन को इत्मीनान दिलाने के लिए और लोगों को अपने सही रास्ते पर होने का यक़ीन दिलाने के लिए अपनी अपनाई हुई चीज़ को हर तरीक़े से दलील देकर सही साबित करने की कोशिश करता है और अपनी रद्द की हुई चीज़ के ख़िलाफ़ हर तरह की बातें छाँटनी शुरू कर देता है। इसी वजह से कहा गया है कि जब उन्होंने हक़ की दावत को मानने से इनकार कर दिया तो फ़ितरत के क़ानून के मुताबिक़ उनके लिए उनकी गुमराही और उस गुमराही पर क़ायम रहने के लिए उनकी मक्कारी ख़ुशनुमा बना दी गई और इसी फ़ितरी क़ानून के मुताबिक़ ये सीधे रास्ते पर आने से रोक दिए गए।
لَّهُمۡ عَذَابٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَشَقُّۖ وَمَا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن وَاقٖ ۝ 29
(34) ऐसे लोगों के लिए दुनिया की ज़िन्दगी ही में अज़ाब है। और आख़िरत का अज़ाब उससे भी ज़्यादा सख़्त है, कोई ऐसा नहीं जो उन्हें अल्लाह से बचानेवाला हो।।
۞مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ أُكُلُهَا دَآئِمٞ وَظِلُّهَاۚ تِلۡكَ عُقۡبَى ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْۚ وَّعُقۡبَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ٱلنَّارُ ۝ 30
(35) ख़ुदातरस इनसानों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है, उसकी शान यह है कि उसके नीचे नहरें बह रहीं हैं, उसके फल हमेशा रहनेवाले हैं और उसका साया कभी न ख़त्म होनेवाला। यह अंजाम है मुत्तक़ी (परहेज़गार) लोगों का, और हक़ का इनकार करनेवालों का अंजाम यह है कि उनके लिए दोज़ख़ की आग है।
وَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَفۡرَحُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَۖ وَمِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ مَن يُنكِرُ بَعۡضَهُۥۚ قُلۡ إِنَّمَآ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱللَّهَ وَلَآ أُشۡرِكَ بِهِۦٓۚ إِلَيۡهِ أَدۡعُواْ وَإِلَيۡهِ مَـَٔابِ ۝ 31
(36) ऐ नबी, जिन लोगों को हमने पहले किताब दी थी, वे इस किताब से जो हमने तुमपर उतारी है, ख़ुश हैं और मुख़्तलिफ़ गरोहों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उसकी कुछ बातों को नहीं मानते। तुम साफ़ कह दो कि “मुझे तो सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी का हुक्म दिया गया है और इससे मना किया गया है कि किसी को उसके साथ साझी ठहराऊँ। इसलिए मैं उसी की तरफ़ दावत देता हूँ और उसी की तरफ़ मेरा पलटना है।"55
55. यह एक ख़ास बात का जवाब है जो उस वक़्त मुख़ालिफ़ों की तरफ़ से कही जा रही थी। वे कहते थे कि अगर यह साहब सचमुच वही तालीम लेकर आए हैं जो पिछले पैग़म्बर लाए थे, जैसा कि इनका दावा है, तो आख़िर क्या बात है कि यहूदी व ईसाई, जो पिछले पैग़म्बरों की पैरवी करनेवाले हैं आगे बढ़कर इनका इस्तिकबाल नहीं करते। इसपर कहा जा रहा है कि उनमें से कुछ लोग इसपर ख़ुश हैं और कुछ नाराज़, मगर ऐ नबी! चाहे कोई ख़ुश हो या नाराज़, तुम साफ़ कह दो कि मुझे तो ख़ुदा की तरफ़ से यह तालीम दी गई है और मैं बहरहाल इसी की पैरवी करूँगा।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ حُكۡمًا عَرَبِيّٗاۚ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم بَعۡدَ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا وَاقٖ ۝ 32
(37) इसी हिदायत के साथ हमने यह अरबी में फ़रमान तुमपर उतारा है। अब अगर तुमने इस इल्म के बावजूद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, लोगों की ख़ाहिशों की पैरवी की तो अल्लाह के मुक़ाबले में न कोई तुम्हारा हिमायती और मददगार है और न कोई उसकी पकड़ से तुम्हें बचा सकता है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلٗا مِّن قَبۡلِكَ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَذُرِّيَّةٗۚ وَمَا كَانَ لِرَسُولٍ أَن يَأۡتِيَ بِـَٔايَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ لِكُلِّ أَجَلٖ كِتَابٞ ۝ 33
(38) तुमसे पहले भी हम बहुत-से रसूल भेज चुके हैं और उन्हें हमने बीवी-बच्चोंवाला ही बनाया था।56 और किसी रसूल की भी यह ताक़त न थी कि अल्लाह की इजाज़त के बिना कोई निशानी ख़ुद ला दिखाता।57 हर दौर के लिए एक किताब है।
56. यह एक और एतिराज़ का जवाब है जो नबी (सल्ल०) पर किया जाता था। वे कहते थे कि यह अच्छा नबी है जो बीवी और बच्चे रखता है। भला पैग़म्बरों को भी नफ़सानी ख़ाहिशों से कोई ताल्लुक़ हो सकता है?
57. यह भी एक एतिराज़ का जवाब है। मुख़ालिफ़ लोग कहते थे कि मूसा सफ़ेद चमकता हुआ हाथ और असा (लाठी) लाए थे। मसीह अंधों को देखनेवाला बना देते और कोढ़ियों को तन्दुरुस्त कर देते थे। सॉलेह (अलैहि०) ने ऊँटनी का निशान दिखाया था। तुम क्या निशानी लेकर आए हो? इसका जवाब यह दिया गया है कि जिस नबी ने जो चीज़ भी दिखाई है अपने इख़्तियार और अपनी ताक़त से नहीं दिखाई है। अल्लाह ने जिस वक़्त जिसके ज़रिए से जो कुछ ज़ाहिर करना मुनासिब समझा वह सामने आया। अब अगर अल्लाह की मस्लहत होगी तो जो वह चाहेगा दिखाएगा। पैग़म्बर ख़ुद किसी ख़ुदाई इख़्तियार का दावेदार नहीं है कि तुम उससे निशानी दिखाने की माँग करते हो।
يَمۡحُواْ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُ وَيُثۡبِتُۖ وَعِندَهُۥٓ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ ۝ 34
(39) अल्लाह जो कुछ चाहता है मिटा देता है और जिस चीज़ को चाहता है क़ायम रखता है। 'उम्मुल-किताब' (मूल ग्रंथ) उसी के पास है।58
58. यह भी मुख़ालिफ़ों के एक एतिराज़ का जवाब है। वे कहते थे कि पहले आई हुई किताबें जब मौजूद थीं तो इस नई किताब की क्या ज़रूरत थी? तुम कहते हो कि उनमें फेर-बदल हो गया है, अब वे मंसूख़ (निरस्त) हैं और इस नई किताब की पैरवी का हुक्म दिया गया है। मगर ख़ुदा की किताब में फेर-बदल कैसे हो सकता है? ख़ुदा ने उसकी हिफ़ाज़त क्यों न की? और कोई ख़ुदाई किताब मंसूख़ कैसे हो सकती है? तुम कहते हो कि यह उसी ख़ुदा की किताब है जिसने तौरात व इंजील उतारी थी। मगर यह क्या बात है कि तुम्हारा तरीक़ा तौरात के कुछ हुक्मों के ख़िलाफ़ है? मसलन कुछ चीज़ें जिन्हें तौरातवाले हराम कहते हैं तुम उन्हें हलाल समझकर खाते हो। इन एतिराज़ों के जवाब बाद की सूरतों में ज़्यादा तफ़सील के साथ दिए गए हैं। यहाँ उनका सिर्फ़ एक मुख़्तसर जामे (व्यापक) जवाब देकर छोड़ दिया गया है। “उम्मुल-किताब” के मानी हैं “अस्ल किताब” यानी वह मंबा (उद्गम) व सरचश्मा (मूलस्रोत) जिससे तमाम आसमानी किताबें निकली हैं।
وَإِن مَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُ وَعَلَيۡنَا ٱلۡحِسَابُ ۝ 35
(40) और ऐ नबी! जिस बुरे अंजाम की धमकी हम इन लोगों को दे रहे हैं, उसका कोई हिस्सा चाहे हम तुम्हारे जीते जी दिखा दें या उसके ज़ाहिर होने से पहले हम तुम्हें उठा लें, बहरहाल तुम्हारा काम सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देना है और हिसाब लेना हमारा काम है।59
59. मतलब यह है कि तुम इस फ़िक्र में न पड़ो कि जिन लोगों ने तुम्हारी हक़ की इस दावत को झुठला दिया है उनका अंजाम क्या होता है और कब वह सामने आता है। तुम्हारे सिपुर्द जो काम किया गया है उसे पूरी यकसूई के साथ किए चले जाओ और फ़ैसला हमपर छोड़ दो। यहा बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में बात उन मुख़ालिफ़ों को सुनानी मक़सूद है जो चैलेंज के अन्दाज़ में बार-बार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि हमारी जिस शामत की धमकियाँ तुम हमें दिया करते हो आख़िर वह आ क्यों नहीं जाती?
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَاۚ وَٱللَّهُ يَحۡكُمُ لَا مُعَقِّبَ لِحُكۡمِهِۦۚ وَهُوَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 36
(41) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि हम इस सरज़मीन (भू-भाग) पर चले आ रहे हैं और इसका दायरा हर तरफ़ से तंग करते चले आते हैं?60 अल्लाह हुकूमत कर रहा है, कोई उसके फ़ैसलों पर नज़रसानी करनेवाला नहीं है, और उसे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
60. यानी क्या तुम्हारे मुख़ालिफ़ों को नज़र नहीं आ रहा है कि इस्लाम का असर अरब की सरज़मीन के कोने-कोने में फैलता जा रहा है और चारों तरफ़ से इनपर घेरा तंग होता चला जाता है? ये इनकी शामत के आसार नहीं हैं, तो क्या हैं? अल्लाह तआला का यह कहना कि “हम इस सरज़मीन पर चले आ रहे हैं” एक बहुत लतीफ़ (सूक्ष्म और कोमल) अन्दाज़े-बयान है। चूँकि हक़ की दावत अल्लाह की तरफ़ से होती है और अल्लाह उसके पेश करनेवालों के साथ होता है, इसलिए ज़मीन के किसी हिस्से में इस दावत के फैलने को अल्लाह तआला यूँ बयान करता है कि हम ख़ुद इस हिस्से में बढ़े चले आ रहे हैं।
وَقَدۡ مَكَرَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَلِلَّهِ ٱلۡمَكۡرُ جَمِيعٗاۖ يَعۡلَمُ مَا تَكۡسِبُ كُلُّ نَفۡسٖۗ وَسَيَعۡلَمُ ٱلۡكُفَّٰرُ لِمَنۡ عُقۡبَى ٱلدَّارِ ۝ 37
(42) इनसे पहले जो लोग हो गुज़रे हैं वे भी बड़ी-बड़ी चालें चल चुके हैं,61 मगर अस्ल फ़ैसला करनेवाली चाल तो पूरी-की-पूरी अल्लाह ही के हाथ में है। वह जानता है कि कौन क्या कुछ कमाई कर रहा है, और बहुत जल्द हक़ के ये इनकारी देख लेंगे कि अंजाम किसका बेहतर होता है।
61. यानी आज यह कोई नई बात नहीं है कि हक़ की आवाज़ को दबाने के लिए झूठ और फ़रेब और ज़ुल्म के हथियार इस्तेमाल किए जा रहे हैं। पिछली तारीख़़ में बहुत बार ऐसी ही चालों से हक़ की दावत को शिकस्त देने की कोशिशें की जा चुकी हैं।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَسۡتَ مُرۡسَلٗاۚ قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡ وَمَنۡ عِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡكِتَٰبِ ۝ 38
(43) ये इनकारी कहते हैं कि तुम अल्लाह के भेजे हुए नहीं हो। कहो, “मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह की गवाही काफ़ी है और फिर हर उस आदमी की गवाही जो आसमानी किताब का इल्म रखता है।"62
62. यानी हर वह शख़्स जो सचमुच आसमानी किताबों का इल्म रखता है इस बात की गवाही देगा कि जो कुछ मैं पेश कर रहा हूँ वह वही तालीम है जो पिछले पैग़म्बर लेकर आए थे।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡكَبِيرُ ٱلۡمُتَعَالِ ۝ 39
(9) वह छिपी और खुली हर चीज़ को जानता है। वह बुज़ुर्ग है और हर हाल में सबसे बड़ा बनकर रहनेवाला है।
سَوَآءٞ مِّنكُم مَّنۡ أَسَرَّ ٱلۡقَوۡلَ وَمَن جَهَرَ بِهِۦ وَمَنۡ هُوَ مُسۡتَخۡفِۭ بِٱلَّيۡلِ وَسَارِبُۢ بِٱلنَّهَارِ ۝ 40
(10) तुममें से कोई आदमी चाहे ज़ोर से बात करे या धीरे से, और कोई रात के अंधेरे में छिपा हुआ हो या दिन की रौशनी में चल रहा हो, उसके लिए सब बराबर हैं।
لَهُۥ مُعَقِّبَٰتٞ مِّنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦ يَحۡفَظُونَهُۥ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُغَيِّرُ مَا بِقَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡۗ وَإِذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ سُوٓءٗا فَلَا مَرَدَّ لَهُۥۚ وَمَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَالٍ ۝ 41
(11) हर आदमी के आगे और पीछे उसके मुक़र्रर किए हुए निगराँ लगे हुए हैं, जो अल्लाह के हुक्म से उसकी देखभाल कर रहे हैं।18 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह किसी क़ौम के हाल को नहीं बदलता जब तक वह ख़ुद अपने औसाफ़ (गुणों) को नहीं बदल देती। और जब अल्लाह किसी क़ौम की शामत लाने का फ़ैसला करले तो फिर वह किसी के टाले नहीं टल सकती, न अल्लाह के मुक़ाबले में ऐसी क़ौम का कोई हिमायती और मददगार हो सकता है।19
18. यानी बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि अल्लाह तआला हर शख़्स को हर हाल में सीधे तौर पर ख़ुद देख रहा है और उसके तमाम कामों और हरकतों से वाक़िफ़ है, बल्कि इसके अलावा अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए निगराँ (फ़रिश्ते) भी हर शख़्स के साथ लगे हुए हैं और उसकी ज़िन्दगी के सभी कर्मों का रिकॉर्ड महफ़ूज़ करते हैं। इस हक़ीक़त को बयान करने का मक़सद यह है कि ऐसे ख़ुदा की ख़ुदाई में जो लोग यह समझते हुए ज़िन्दगी गुज़ारते हैं कि उन्हें बेनकेल ऊँट की तरह ज़मीन पर छोड़ दिया गया है और कोई नहीं जिसके सामने वे अपने आमालनामे (कर्मपत्र) के लिए जवाबदेह हों, वे अस्ल में अपनी शामत आप बुलाते हैं।
19. यानी इस ग़लतफ़हमी में भी न रहो कि अल्लाह के यहाँ कोई पीर या फ़क़ीर, या कोई अगला-पिछला बुज़ुर्ग, या कोई जिन्न या फ़रिश्ता ऐसा ज़ोरावर है कि तुम चाहे कुछ भी करते रहो, वह तुम्हारी नज़्रों-नियाज़ों की रिश्वत लेकर तुम्हें तुम्हारे बुरे कामों की सज़ा से बचा लेगा।
هُوَ ٱلَّذِي يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنشِئُ ٱلسَّحَابَ ٱلثِّقَالَ ۝ 42
(12) वही है जो तुम्हारे सामने बिजलियाँ चमकाता है जिन्हें देखकर तुम्हें अंदेशे भी होते हैं और उम्मीदें भी बँधती हैं। वही है जो पानी से लदे हुए बादल उठाता है,