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سُورَةُ المَعَارِجِ

70. अल-मआरिज

(मक्का में उतरी, आयतें 44)

परिचय

नाम

तीसरी आयत के शब्द 'ज़िल-मआरिज' (उत्थान की सीढ़ियों का मालिक) से उद्धृत है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तुएँ इसकी साक्षी हैं कि इसका अवतरण भी लगभग उन्हीं परिस्थितियों में हुआ है जिनमें सूरा-69 (अल-हाक़्क़ा) अवतरित हुई थी।

विषय और वार्ता

इसमें उन इस्लाम-विरोधियों (इनकार करनेवालों) को चेतावनी दी गई है और उन्हें उपदेश दिया गया है जो क़ियामत और आख़िरत (प्रलय एवं परलोक) की ख़बरों का मज़ाक़ उड़ाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चुनौती देते थे कि यदि तुम सच्चे हो तो वह क़ियामत ले आओ जिससे तुम हमें डराते हो। इस सूरा का सम्पूर्ण अभिभाषण इस चुनौती के जवाब में है। आरम्भ में कहा गया है कि माँगनेवाला यातना माँगता है। वह यातना इनकार करनेवालों पर अवश्य ही घटित होकर रहेगी। किन्तु वह अपने समय पर घटित होगी। अत: इनके मज़ाक़ उड़ाने पर धैर्य से काम लो। ये उसे दूर देख रहे हैं और हम उसे निकट देख रहे हैं। फिर बताया गया है कि क़ियामत, जिसके शीघ्र आने की माँग ये लोग हँसी और खेल समझकर कर रहे हैं, कैसी कष्टदायक वस्तु है और जब वह आएगी तो इन अपराधियों की कैसी बुरी गत होगी। इसके बाद लोगों को अवगत कराया गया है कि उस दिन इंसानों के भाग्य का निर्णय सर्वथा उनकी धारणा और नैतिक स्वभाव और कर्म के आधार पर किया जाएगा। जिन लोगों ने संसार में सत्य की ओर से मुँह मोड़ा है वे नरक के भागी होंगे और जो यहाँ ईश्वरीय यातना से डरे हैं, परलोक को माना है [अच्छे कर्म और अच्छे नैतिक स्वभाव से अपने आपको सुसज्जित कर रखा है,] उनका जन्नत (स्वर्ग) में प्रतिष्ठित स्थान होगा। अन्त में मक्का के उन इस्लाम-विरोधियों को, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को देखकर आपका मज़ाक़ उड़ाने के लिए चारों ओर से टूटे पड़ते थे, सावधान किया गया है कि यदि तुम न मानोगे तो सर्वोच्च ईश्वर तुम्हारे स्थान पर दूसरे लोगों को ले आएगा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नसीहत की गई है कि इनके मज़ाक़ की परवाह न करें। ये लोग यदि क़ियामत का अपमान देखने का हठ कर रहे हैं तो इन्हें इनके अपने अशिष्ट कार्यों में व्यस्त रहने दें, अपना बुरा परिणाम ये स्वयं देख लेंगे।

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سُورَةُ المَعَارِجِ
70. अल-मआरिज
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
سَأَلَ سَآئِلُۢ بِعَذَابٖ وَاقِعٖ
(1) माँगनेवाले ने अज़ाब माँगा है,1 (वह अज़ाब) जो ज़रूर वाक़े (घटित) होनेवाला है,
1. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘स-अ-ल साइलुन’। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने यहाँ सवाल को पूछने के मानी में लिया है और वे आयत का मतलब यह बयान करते हैं कि पूछनेवाले ने पूछा है कि वह अज़ाब, जिसकी हमें ख़बर दी जा रही है, किसपर आएगा? और अल्लाह तआला ने इसका यह जवाब दिया है कि वह इनकार करनेवालों पर आएगा। लेकिन क़ुरआन के ज़्यादातर आलिमों ने इस जगह सवाल को माँगने और मुतालबा करने के मानी में लिया है। नसई और दूसरे हदीस के आलिमों ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से यह रिवायत नक़्ल की है और हाकिम ने इसको सही ठहराया है कि नज़्र-बिन-हारिस-बिन-कलदा ने कहा था— “ऐ अल्लाह! अगर ये सचमुच तेरी ही तरफ़ से हक़ है तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या हमपर दर्दनाक अज़ाब ले आ।” (सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-32) इसके अलावा कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में मक्का के इनकारियों के इस चैलेंज का ज़िक्र किया गया है कि जिस अज़ाब से तुम हमें डराते हो वह ले क्यों नहीं आते। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए— सूरा-10 यूनुस, आयतें—46 से 48; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—36 से 41; सूरा-27 नम्ल, आयतें—67 से 72; सूरा-34 सबा, आयतें—26 से 30; सूरा-36 या-सीन, आयतें—45 से 52; सूरा-67 मुल्क, आयतें—24 से 27।
لِّلۡكَٰفِرِينَ لَيۡسَ لَهُۥ دَافِعٞ ۝ 1
(2) इनकार करनेवालों के लिए है, कोई उसे टालनेवाला नहीं,
مِّنَ ٱللَّهِ ذِي ٱلۡمَعَارِجِ ۝ 2
(3) उस ख़ुदा की तरफ़ से है जो बुलन्दियों की सीढ़ियों का मालिक है।2
2. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़िल-मआरिज’ इस्तेमाल हुआ है। मआरिज, ‘मिअरज’ की जमा (बहुवचन) है जिसका मतलब ज़ीना, या सीढ़ी या ऐसी चीज़ है जिसके ज़रीए से ऊपर चढ़ा जाए। अल्लाह तआला को मआरिजवाला कहने का मतलब यह है कि उसकी हस्ती बहुत बुलन्द और बरतर है और उसके पास पहुँचने के लिए फ़रिश्तों को एक के बाद एक बुलन्दियों से गुज़रना होता है, जैसा कि बादवाली आयत में बयान किया गया है।
تَعۡرُجُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَٱلرُّوحُ إِلَيۡهِ فِي يَوۡمٖ كَانَ مِقۡدَارُهُۥ خَمۡسِينَ أَلۡفَ سَنَةٖ ۝ 3
(4) फ़रिश्ते और रूह3 उसके पास चढ़कर जाते हैं4 एक ऐसे दिन में जिसकी मिक़दार (मात्रा) पचास हज़ार साल है।5
3. रूह से मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं और फ़रिश्तों से अलग उनका ज़िक्र उनकी अज़मत (महानता) पर दलील देता है। सूरा-26 शुअरा में फ़रमाया गया है कि “इस क़ुरआन को रूहे-अमीन लेकर तुम्हारे दिल पर उतरे हैं।” और सूरा-2 बक़रा में कहा गया है कि “कहो कि जो शख़्स जिबरील का इसलिए दुश्मन हो कि उसने यह क़ुरआन तुम्हारे दिल पर उतारा है ......।” इन दोनों आयतों को मिलाकर पढ़ने से मालूम हो जाता है कि रूह से मुराद जिबरील (अलैहि०) ही हैं।
4. यह सारा मज़मून मुतशाबिहात (उपलक्षित बातों) में से है जिसका सही मतलब बयान नहीं किया जा सकता। हम न फ़रिश्तों की हक़ीक़त जानते हैं, न उनके चढ़ने की कैफ़ियत को समझ सकते हैं, न यह बात हमारे ज़ेहन की पकड़ में आ सकती है कि वे ज़ीने कैसे हैं जिनपर फ़रिश्ते चढ़ते हैं, और अल्लाह तआला के बारे में भी यह नहीं सोचा जा सकता कि वह किसी ख़ास जगह पर रहता है, क्योंकि उसकी हस्ती वक़्त और जगह की क़ैद से पाक है।
5. सूरा-22 हज, आयत-47 में कहा गया है— “ये लोग तुमसे अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं। अल्लाह हरगिज़ अपने वादे के ख़िलाफ़ न करेगा, मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम्हारी गिनती के हज़ार सालों के बराबर हुआ करता है।” सूरा-32 सजदा, आयत-5 में कहा गया है— “वह आसमान से ज़मीन तक दुनिया के मामलों की तदबीर करता है, फिर (उसका ब्योरा) उसके सामने जाता है एक ऐसे दिन में जिसकी मिक़दार (माप) तुम्हारी गिनती से एक हज़ार साल है।” और यहाँ अज़ाब की माँग के जवाब में अल्लाह तआला के एक दिन की मिक़दार पचास हज़ार साल बताई गई है, फिर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नसीहत की गई है कि जो लोग मज़ाक़ के तौर पर अज़ाब माँग रहे हैं उनकी बातों पर सब्र करें और इसके बाद कहा गया है कि ये लोग उसको दूर समझते हैं और ख़ुदा उसे क़रीब देख रहा है। इन सब फ़रमानों पर कुल मिलाकर एक नज़र डालने से यह बात साफ़ हो जाती है कि लोग अपने ज़ेहन और अपनी सोच और नज़र के दायरे के तंग होने के सबब ख़ुदा के मामलों को अपने वक़्त के पैमानों से नापते हैं और उन्हें सौ पचास साल की मुद्दत भी बड़ी लम्बी महसूस होती है। लेकिन अल्लाह तआला के यहाँ एक-एक स्कीम हज़ार-हज़ार साल और पचास-पचास हज़ार साल की होती है। और यह मुद्दत भी सिर्फ़ मिसाल के लिए है, वरना कायनाती मंसूबे लाखों-करोड़ों और अरबों साल के भी होते हैं। इन्हीं मंसूबों में से एक अहम मंसूबा वह है जिसके तहत ज़मीन पर इनसानी नस्ल को पैदा किया गया है और उसके लिए एक वक़्त तय कर दिया गया है कि फ़ुलाँ ख़ास घड़ी तक यहाँ इस जाति को काम करने का मौक़ा दिया जाएगा। कोई इनसान यह नहीं जान सकता कि यह मंसूबा कब शुरू हुआ, कितनी मुद्दत उसके पूरा होने के लिए तय की गई है, कौन-सी घड़ी उसके ख़त्म होने के लिए मुक़र्रर की गई है, जिसपर क़ियामत बरपा की जाएगी, और कौन-सा वक़्त इस ग़रज़ के लिए रखा गया है कि पैदाइश की शुरुआत से क़ियामत तक पैदा होनेवाले सारे इनसानों को एक साथ उठाकर उनका हिसाब लिया जाए। इस मंसूबे के सिर्फ़ उस हिस्से को हम किसी हद तक जानते हैं जो हमारे सामने गुज़र रहा है या जिसके गुज़रे हुए ज़मानों का कोई छोटा-सा इतिहास हमारे पास मौजूद है। रही उसकी शुरुआत और उसका अंजाम, तो उसे जानना तो एक तरफ़, उसे समझना भी हमारे बस से बाहर है, कहाँ यह कि हम उन हिकमतों को समझ सकें जो उसके पीछे काम कर रही हैं। अब जो लोग यह माँग करते हैं कि इस मंसूबे को ख़त्म करके इसका अंजाम फ़ौरन उनके सामने ले आया जाए, और अगर ऐसा नहीं किया जाता तो उसे इस बात की दलील ठहराते हैं कि अंजाम की बात ही सिरे से ग़लत है, वे हक़ीक़त में अपनी ही नादानी का सुबूत पेश करते हैं (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-22 हज, हाशिए—92, 93; सूरा-32 सजदा, हाशिया-9)।
فَٱصۡبِرۡ صَبۡرٗا جَمِيلًا ۝ 4
(5) तो ऐ नबी, सब्र करो, अच्छा (शिष्ट) सब्र।6
6. यानी ऐसा सब्र जो एक कुशादा दिल के इनसान की शान के मुताबिक़ है।
إِنَّهُمۡ يَرَوۡنَهُۥ بَعِيدٗا ۝ 5
(6) ये लोग उसे दूर समझते हैं
وَنَرَىٰهُ قَرِيبٗا ۝ 6
(7) और हम उसे क़रीब देख रहे हैं।7
7. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि ये लोग उसे नामुमकिन समझते हैं और हमारे नज़दीक वह बहुत जल्द होनेवाली है। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि ये लोग क़ियामत को बड़ी दूर की चीज़ समझते हैं और हमारी निगाह में वह इतनी ज़्यादा क़रीब है मानो कल होनेवाली है।
يَوۡمَ تَكُونُ ٱلسَّمَآءُ كَٱلۡمُهۡلِ ۝ 7
(8) (वह अज़ाब उस दिन होगा) जिस दिन8 आसमान पिघली हुई चाँदी की तरह हो जाएगा9
8. क़ुरआन के आलिमों में से एक गरोह ने इस जुमले का ताल्लुक़ “एक ऐसे दिन में जिसकी मिक़दार पचास हज़ार साल है” से माना है और वे कहते हैं कि पचास हज़ार साल की मुद्दत जिस दिन की बताई गई है उससे मुराद क़ियामत का दिन है। मुसनदे-अहमद और तफ़सीर इब्ने-जरीर में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से यह रिवायत नक़्ल की गई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इस आयत के बारे में अर्ज़ किया गया कि वह तो बड़ा ही लम्बा दिन होगा। इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “उस हस्ती की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है, दुनिया में एक फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने में जितना वक़्त लगता है, मोमिन के लिए वह दिन इससे भी ज़्यादा हलका होगा।” यह रिवायत अगर सही सनद से नक़्ल होती तो फिर इसके सिवा इस आयत की कोई दूसरी तशरीह नहीं की जा सकती थी। लेकिन इसकी सनद में दुर्राज और उसके शैख़ अबुल-हैसम, दोनों ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं।
9. यानी बार-बार रंग बदलेगा।
وَتَكُونُ ٱلۡجِبَالُ كَٱلۡعِهۡنِ ۝ 8
(9) और पहाड़ रंग-बिरंगे धुनके हुए ऊन जैसे हो जाएँगे।10
10. चूँकि पहाड़ों के रंग अलग-अलग हैं, इसलिए जब वे अपनी जगह से उखड़कर और हलके होकर उड़ने लगेंगे तो ऐसे लगेंगे जैसे रंग-बिरंगा धुनका हुआ ऊन उड़ रहा हो।
وَلَا يَسۡـَٔلُ حَمِيمٌ حَمِيمٗا ۝ 9
(10) और कोई जिगरी दोस्त अपने जिगरी दोस्त को न पूछेगा
يُبَصَّرُونَهُمۡۚ يَوَدُّ ٱلۡمُجۡرِمُ لَوۡ يَفۡتَدِي مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِئِذِۭ بِبَنِيهِ ۝ 10
(11) हालाँकि वे एक-दूसरे को दिखाए जाएँगे।11 मुजरिम चाहेगा कि उस दिन अज़ाब से बचने के लिए अपनी औलाद को,
11. यानी ऐसा न होगा कि वे एक-दूसरे को देख नहीं रहे होंगे इसलिए न पूछेंगे। नहीं, हर एक अपनी आँखों से देख रहा होगा कि दूसरे पर क्या गुज़र रही है और फिर वह उसे न पूछेगा, क्योंकि उसको अपनी ही पड़ी होगी।
وَصَٰحِبَتِهِۦ وَأَخِيهِ ۝ 11
(12) अपनी बीवी को, अपने भाई को,
وَفَصِيلَتِهِ ٱلَّتِي تُـٔۡوِيهِ ۝ 12
(13) अपने सबसे क़रीबी ख़ानदान को जो उसे पनाह देनेवाला था,
وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا ثُمَّ يُنجِيهِ ۝ 13
(14) और धरती के सब लोगों को फ़िद्ये (बदले) में दे दे और यह तदबीर उसे नजात दिला दे।
كَلَّآۖ إِنَّهَا لَظَىٰ ۝ 14
(15) हरगिज़ नहीं। वह तो भड़कती हुई आग की लपट होगी
نَزَّاعَةٗ لِّلشَّوَىٰ ۝ 15
(16) जो गोश्त और खाल को चाट जाएगी,
تَدۡعُواْ مَنۡ أَدۡبَرَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 16
(17) पुकार-पुकारकर अपनी तरफ़ बुलाएगी हर उस शख़्स को जिसने सच से मुँह मोड़ा और पीठ फेरी
وَجَمَعَ فَأَوۡعَىٰٓ ۝ 17
(18) और माल जमा किया और सहेज-सहेजकर रखा।12
12. यहाँ भी सूरा-69 हाक़्क़ा, आयतें—33, 34 की तरह आख़िरत में आदमी के बुरे अंजाम की दो वजहें बयान की गई हैं। एक हक़ से मुँह मोड़ना और ईमान लाने से इनकार। दूसरे दुनिया-परस्ती और कंजूसी, जिसकी वजह से आदमी माल जमा करता है और उसे किसी भलाई के काम में ख़र्च नहीं करता।
۞إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ خُلِقَ هَلُوعًا ۝ 18
(19) इंसान थुडदिला पैदा किया गया है13,
13. जिस बात को हम अपनी ज़बान में यूँ कहते हैं कि “यह बात इनसान की फ़ितरत में है,” या “यह इनसान की फ़ितरी कमज़ोरी है,” इसी को अल्लाह तआला इस तरह बयान करता है कि “इनसान ऐसा पैदा किया गया है।” इस जगह पर यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद में बहुत-से मौक़ों पर इनसानी नस्ल की आम अख़लाक़ी कमज़ोरियों का ज़िक्र करने के बाद ईमान लानेवाले और सीधा रास्ता अपनानेवाले लोगों को इससे अलग ठहराया गया है, और यही बात आगे की आयतों में भी आ रही है। इससे यह हक़ीक़त ख़ुद-ब-ख़ुद मालूम हो जाती है कि ये पैदाइशी कमज़ोरियाँ ऐसी नहीं हैं कि इन्हें सुधारा या बदला न जा सके, बल्कि इनसान अगर ख़ुदा की भेजी हुई हिदायत को क़ुबूल करके अपने नफ़्स (अन्तर्मन) के सुधार के लिए अमली तौर पर कोशिश करे तो वह इनको दूर कर सकता है, और अगर वह नफ़्स की बागें ढीली छोड़ दे तो ये उसके अन्दर जड़ पकड़ लेती हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-41; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिए—23, 28; सूरा-42 शूरा, हाशिया-75)
إِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ جَزُوعٗا ۝ 19
(20) जब उसपर मुसीबत आती है तो घबरा उठता है
وَإِذَا مَسَّهُ ٱلۡخَيۡرُ مَنُوعًا ۝ 20
(21) और जब उसे ख़ुशहाली मिलती है तो कंजूसी करने लगता है।
إِلَّا ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 21
(22) मगर वे लोग (इस ख़राबी से बचे हुए हैं) जो नमाज़ पढ़नेवाले हैं,14
14. किसी शख़्स का नमाज़ पढ़ना लाज़िमी तौर से यह मानी रखता है कि वह अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताब और आख़िरत पर ईमान भी रखता है और अपने इस ईमान के मुताबिक़ अमल भी करने की कोशिश कर रहा है।
ٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ دَآئِمُونَ ۝ 22
(23) जो अपनी नमाज़ की हमेशा पाबन्दी करते हैं,15
15. यानी किसी तरह की सुस्ती और आराम चाहना, या मसरूफ़ियत (व्यस्तता), या दिलचस्पी उनकी नमाज़ की पाबन्दी में रुकावट नहीं होती। जब नमाज़ का वक़्त आ जाए तो वह सब कुछ छोड़-छाड़कर अपने ख़ुदा की इबादत करने के लिए खड़े हो जाते हैं। ‘अला सलातिहिम दाइमून’ का एक और मतलब हज़रत उक़बा-बिन-आमिर ने यह बयान किया है कि वे पूरे सुकून और ख़ुशूअ् (आजिज़ी) के साथ नमाज़ अदा करते हैं। कौए की तरह ठोंगें नहीं मारते। मारा-मार पढ़कर किसी-न-किसी तरह नमाज़ से निबट जाने की कोशिश नहीं करते। और नमाज़ के दौरान में इधर-उधर ध्यान भी नहीं देते। अरबी मुहावरे में ठहरे हुए पानी को ‘माइ-दाइम’ कहा जाता है। यह तफ़सीर उसी से ली गई है।
وَٱلَّذِينَ فِيٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ حَقّٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 23
(24) जिनके मालों में माँगनेवाले
لِّلسَّآئِلِ وَٱلۡمَحۡرُومِ ۝ 24
(25) और महरूम का एक तयशुदा हक़ है,16
16. सूरा-51 ज़ारियात, आयत-19 में कहा गया है कि “उनके मालों में सवाल करनेवाले और महरूम का हक़ है।” और यहाँ कहा गया है कि “उनके मालों में सवाल करनेवाले और महरूम का एक मुक़र्रर हक़ है।” कुछ लोगों ने इससे यह समझा है कि मुक़र्रर हक़ से मुराद फ़र्ज़ ज़कात है, क्योंकि उसी में निसाब और दर, दोनों चीज़ें मुक़र्रर कर दी गई हैं। लेकिन यह तफ़सीर इस वजह से मानने लायक़ नहीं है कि सूरा-70 मआरिज सब आलिमों के नज़दीक मक्की सूरा है, और ज़कात एक ख़ास निसाब और शरह (दर) के साथ मदीना में फ़र्ज़ हुई है। इसलिए मुक़र्रर हक़ का सही मतलब यह है कि उन्होंने ख़ुद अपने मालों में माँगनेवाले और महरूम का एक हिस्सा तय कर रखा है जिसे वे उनका हक़ समझकर अदा करते हैं। यही मतलब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), मुजाहिद, शअ्बी और इबराहीम नख़ई ने बयान किया है। ‘साइल’ से मुराद पेशावर भीख माँगनेवाला नहीं, बल्कि वह ज़रूरतमन्द शख़्स है जो किसी से मदद माँगे। और महरूम से मुराद ऐसा शख़्स है जो बेरोज़गार हो, या रोज़ी कमाने की कोशिश करता हो, मगर उसकी ज़रूरतें पूरी न होती हों, या किसी हादिसे या आफ़त का शिकार होकर मुहताज हो गया हो, या रोज़ी कमाने के क़ाबिल ही न हो। ऐसे लोगों के बारे में जब मालूम हो जाए कि वे सचमुच महरूम हैं तो एक ख़ुदा-परस्त इनसान इस बात का इन्तिज़ार नहीं करता कि वह उससे मदद माँगें, बल्कि उनकी महरूमी का इल्म होते ही वह ख़ुद आगे बढ़कर उनकी मदद करता है (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, अज़-ज़ारियात, हाशिया-17)।
وَٱلَّذِينَ يُصَدِّقُونَ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 25
(26) जो बदले के दिन को सही मानते हैं,17
17. यानी दुनिया में अपने आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह नहीं समझते, बल्कि इस बात पर यक़ीन रखते हैं कि एक दिन उन्हें अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर अपने आमाल का हिसाब देना होगा।
وَٱلَّذِينَ هُم مِّنۡ عَذَابِ رَبِّهِم مُّشۡفِقُونَ ۝ 26
(27) जो अपने रब से अज़ाब से डरते हैं18,
18. दूसरे अलफ़ाज़ में उनका हाल हक़ के इनकारियों की तरह नहीं है जो दुनिया में हर तरह के गुनाह और जुर्म और ज़ल्मो-सितम करके भी ख़ुदा से नहीं डरते, बल्कि वे अपनी हद तक अख़लाक़ और आमाल में नेक रवैया अपनाने के बावजूद अल्लाह से डरते रहते हैं और यह अन्देशा उनको लगा रहता है कि कहीं ख़ुदा की अदालत में हमारी कोताहियाँ हमारी नेकियों से बढ़कर न निकलें और हम सज़ा के हक़दार क़रार पा न जाएँ। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-54; सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-19)
إِنَّ عَذَابَ رَبِّهِمۡ غَيۡرُ مَأۡمُونٖ ۝ 27
(28) क्योंकि उनके रब का अज़ाब ऐसी चीज़ नहीं है जिससे कोई बेख़ौफ़ हो,
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِفُرُوجِهِمۡ حَٰفِظُونَ ۝ 28
(29) जो अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करते हैं19—
19. शर्मगाहों की हिफ़ाज़त से मुराद ज़िना (बदकारी) से परहेज़ भी है और नंगेपन से परहेज़ भी। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-6; सूरा-24 नूर, हाशिए—30 से 32; सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-62)
إِلَّا عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَإِنَّهُمۡ غَيۡرُ مَلُومِينَ ۝ 29
(30) सिवाय अपनी बीवियों या अपनी उन औरतों के जो तुम्हारी मिलकियत में हों जिनसे महफ़ूज़ न रखने पर कोई मलामत नहीं,
فَمَنِ ٱبۡتَغَىٰ وَرَآءَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡعَادُونَ ۝ 30
(31) अलबत्ता जो इसके अलावा कुछ और चाहें वही हद पार करनेवाले हैं20—
20. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-7।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِأَمَٰنَٰتِهِمۡ وَعَهۡدِهِمۡ رَٰعُونَ ۝ 31
(32) जो अपनी अमानतों की हिफ़ाज़त और अपने वादे निभाते हैं,21
21. अमानतों से मुराद वे अमानतें भी हैं जो अल्लाह तआला ने अपने बन्दों के सिपुर्द की हैं और वे अमानतें भी हैं जो इनसान किसी दूसरे इनसान पर भरोसा करके उसके हवाले करता है। इसी तरह अहद (वादे) से मुराद वे अहद भी हैं जो बन्दा अपने ख़ुदा से करता है और वे अहद भी जो बन्दे एक-दूसरे से करते हैं। इन दोनों क़िस्म की अमानतों और दोनों तरह के अहद और समझौतों का ख़याल रखना एक ईमानवाले की सीरत (आचरण) की ज़रूरी ख़ासियतों में से है। हदीस में हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हमारे सामने जो तक़रीर भी करते उसमें यह बात ज़रूर फ़रमाते थे कि “ख़बरदार रहो, जिसमें अमानत नहीं उसका कोई ईमान नहीं, और जो अहद का पाबन्द नहीं उसका कोई दीन नहीं।” (हदीस: बैहक़ी फ़ी शुअ्बिल-ईमान)
وَٱلَّذِينَ هُم بِشَهَٰدَٰتِهِمۡ قَآئِمُونَ ۝ 32
(33) जो अपनी गवाहियों में सच्चाई पर क़ायम रहते हैं,22
22. यानी न गवाही छिपाते हैं, न उसमें कोई कमी-ज़्यादती करते हैं।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 33
(34) जो अपनी नमाज़ की हिफ़ाज़त करते हैं।23
23. इससे नमाज़ की अहमियत का अन्दाज़ा होता है। जिस बुलन्द सीरत और किरदार के लोग अल्लाह की जन्नत के हक़दार ठहराए गए हैं उनकी ख़ूबियों का ज़िक्र नमाज़ ही से शुरू और उसी पर ख़त्म किया गया है। नमाज़ी होना उनकी पहली ख़ूबी है। नमाज़ का हमेशा पाबन्द रहना उनकी दूसरी ख़ूबी, और नमाज़ की हिफ़ाज़त करना उनकी आख़िरी ख़ूबी। नमाज़ की हिफ़ाज़त से बहुत-सी चीज़ें मुराद हैं। वक़्त पर नमाज़ अदा करना। नमाज़ से पहले यह इत्मीनान कर लेना कि जिस्म और कपड़े पाक हैं। वुज़ू करना और वुज़ू में जिस्म के हिस्सों (अंगों) को अच्छी तरह धोना। नमाज़ में जो कुछ करना फ़र्ज़, वाजिब और मुस्तहब (पसन्दीदा) है, उसको ठीक-ठीक अदा करना। नमाज़ के आदाब का पूरी तरह ख़याल रखना। अल्लाह की नाफ़रमानियाँ करके अपनी नमाज़ों को बरबाद न करना। ये सब चीज़ें नमाज़ की हिफ़ाज़त में शामिल हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ فِي جَنَّٰتٖ مُّكۡرَمُونَ ۝ 34
(35) ये लोग इज़्ज़त के साथ जन्नत के बाग़ों में रहेंगे।
فَمَالِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قِبَلَكَ مُهۡطِعِينَ ۝ 35
(36) इसलिए ऐ नबी! क्या बात है कि ये इनकार करनेवाले
عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَعَنِ ٱلشِّمَالِ عِزِينَ ۝ 36
(37) दाएँ और बाएँ से गरोह-दर-गरोह तुम्हारी तरफ़ दौड़े चले आ रहे हैं?24
24. यह उन लोगों का ज़िक्र है जो नबी (सल्ल०) की दावत और तबलीग़ और क़ुरआन पढ़ने की आवाज़ सुनकर मज़ाक़ उड़ाने और आवाज़ें कसने के लिए चारों तरफ़ से दौड़ पड़ते थे।
أَيَطۡمَعُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُدۡخَلَ جَنَّةَ نَعِيمٖ ۝ 37
(38) क्या इनमें से हर एक यह लालच रखता है कि वह नेमत भरी जन्नतों में दाख़िल कर दिया जाएगा?25
25. मतलब यह है कि ख़ुदा की जन्नत तो उन लोगों के लिए है जिनकी ख़ूबियाँ अभी-अभी बयान की जा चुकी हैं। अब क्या ये लोग जो हक़ बात सुनना तक गवारा नहीं करते और हक़ की आवाज़ को दबा देने के लिए यूँ दौड़े चले आ रहे हैं, जन्नत के उम्मीदवार हो सकते हैं? क्या ख़ुदा ने अपनी जन्नत ऐसे ही लोगों के लिए बनाई है? इस जगह पर सूरा-68 क़लम की आयतें—34 से 41 भी सामने रखनी चाहिएँ, जिनमें मक्का के इनकारियों को उनकी इस बात का जवाब दिया गया है कि आख़िरत अगर हुई भी तो वहाँ वे उसी तरह मज़े करेंगे जिस तरह दुनिया में कर रहे हैं और मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लानेवाले उसी तरह बदहाल रहेंगे जिस तरह आज दुनिया में हैं।
كَلَّآۖ إِنَّا خَلَقۡنَٰهُم مِّمَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39) हरगिज़ नहीं। हमने जिस चीज़ से इनको पैदा किया है उसे ये ख़ुद तो जानते हैं।26
26. इस जगह पर इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं। पिछली बात के साथ इसका ताल्लुक़ माना जाए तो मतलब यह होगा कि जिस माद्दे (तत्त्व) से ये लोग बने हैं उसके लिहाज़ से तो सब इनसान एक जैसे हैं। अगर वह माद्दा ही इनसान के जन्नत में जाने का सबब हो तो अच्छे-बुरे, ज़ालिम और इनसाफ़ करनेवाले, मुजरिम और बेगुनाह, सभी को जन्नत में जाना चाहिए। लेकिन मामूली अक़्ल ही यह फ़ैसला करने के लिए काफ़ी है कि जन्नत का हक़ इस बुनियाद पर नहीं कि इनसान किस चीज़ से बना है, बल्कि सिर्फ़ उसकी ख़ूबियों के लिहाज़ से पैदा हो सकता है। और अगर इस जुमले को बाद की बात की तमहीद (भूमिका) समझा जाए तो इसका मतलब यह है कि ये लोग अपने-आपको हमारे अज़ाब से महफ़ूज़ समझ रहे हैं और जो शख़्स इन्हें हमारी पकड़ से डराता है उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं, हालाँकि हम इनको दुनिया में भी जब चाहें अज़ाब दे सकते हैं और मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा करके जब चाहें उठा सकते हैं। ये ख़ुद जानते हैं कि नुत्फ़े (वीर्य) की एक मामूली-सी बूंद से इनकी पैदाइश की शुरुआत करके हमने इनको चलता-फिरता इनसान बनाया है। अगर अपनी इस पैदाइश पर ये ग़ौर करते तो इन्हें कभी यह ग़लतफ़हमी न होती कि अब यह हमारी पकड़ से बाहर हो गए हैं, या हम इन्हें दोबारा पैदा नहीं कर सकते।
فَلَآ أُقۡسِمُ بِرَبِّ ٱلۡمَشَٰرِقِ وَٱلۡمَغَٰرِبِ إِنَّا لَقَٰدِرُونَ ۝ 39
(40) तो नहीं,27 मैं क़सम खाता हूँ पूरबों और पश्चिमों के मालिक28 की, हम इसकी क़ुदरत रखते हैं
27. यानी बात वह नहीं है जो इन्होंने समझ रखी है।
28. यहाँ अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी ज़ात की क़सम खाई है। पूरबों और पश्चिमों का लफ़्ज़ इस वजह से इस्तेमाल किया गया है कि साल के दौरान में सूरज हर दिन एक नए ज़ाविए (कोण) से निकलता और नए ज़ाविए (कोण) पर डूबता है। इसके अलावा ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर सूरज अलग-अलग वक़्तों में लगातार निकलता और डूबता चला जाता है। इन बातों की वजह से पूरब और पश्चिम एक नहीं हैं, बल्कि बहुत-से हैं। एक-दूसरे पहलू से उत्तर और दक्षिण के मुक़ाबले में एक दिशा पूरब है और दूसरी दिशा पश्चिम। इस वजह से सूरा-26 शुअरा, आयत-28 और सूरा-73 मुज़्ज़म्मिल, आयत-19 में ‘रब्बुल-मशरिक़ि वल-मग़रिबि’ (पूरब और पश्चिम का रब) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। एक और लिहाज़ से ज़मीन के दो पूरब और दो पश्चिम हैं, क्योंकि जब ज़मीन के एक निस्फ़ (अर्द्ध) गोले पर सूरज डूबता है तो दूसरे पर निकलता है। इसी वजह से सूरा-55 रहमान, आयत-17 में ‘रब्बुल-मशरिक़ैन व रब्बुल-मग़रिबैन’ (दो पूरबों का रब और दो पश्चिमों का रब) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, हाशिया-17)।
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ خَيۡرٗا مِّنۡهُمۡ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 40
(41) कि इनकी जगह इनसे बेहतर लोग ले आएँ और कोई हमसे बाज़ी ले जानेवाला नहीं है।29
29. यह है वह बात जिसपर अल्लाह तआला ने अपने पूरबों और पश्चिमों का रब होने की क़सम खाई है। इसका मतलब यह है कि ख़ुदा चूँकि पूरबों और पश्चिमों का मालिक है, इसलिए पूरी ज़मीन ख़ुदा के बस में है और उसकी पकड़ से बचकर निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। ख़ुदा जब चाहे तुम्हें हलाक कर सकता है और तुम्हारी जगह किसी दूसरी क़ौम को उठा सकता है जो तुमसे बेहतर हो।
فَذَرۡهُمۡ يَخُوضُواْ وَيَلۡعَبُواْ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 41
(42) लिहाज़ा इन्हें अपनी बेहूदा बातों और अपने खेल में पड़ा रहने दो यहाँ तक कि ये अपने उस दिन को पहुँच जाएँ जिसका इनसे वादा किया जा रहा है,
يَوۡمَ يَخۡرُجُونَ مِنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ سِرَاعٗا كَأَنَّهُمۡ إِلَىٰ نُصُبٖ يُوفِضُونَ ۝ 42
(43) जब ये अपनी क़ब्रों से निकलकर इस तरह दौड़े जा रहे होंगे जैसे अपने बुतों के स्थानों की तरफ़ दौड़ रहे हों,30
30. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘इला नुसुबिंय-यूफ़िज़ून’। ‘नस्ब’ के मतलब में क़ुरआन के आलिमों की रायें अलग-अलग हैं। इनमें से कुछ ने इससे मुराद बुत लिए हैं और उनके नज़दीक इसका मतलब यह है कि वह क़ियामत के दिन सबको इकट्ठा करनेवाले अल्लाह की तय की हुई जगह की तरफ़ इस तरह दौड़े जा रहे होंगे जैसे आज वे अपने बुतों के स्थानों की तरफ़ दौड़ते हैं। और कुछ दूसरे आलिमों ने इससे मुराद वे निशान लिए हैं जो दौड़ का मुक़ाबला करनेवालों के लिए लगाए जाते हैं ताकि हर एक दूसरे से पहले लगे हुए निशान पर पहुँचने की कोशिश करे।
خَٰشِعَةً أَبۡصَٰرُهُمۡ تَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۚ ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمُ ٱلَّذِي كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 43
(44) इनकी निगाहें झुकी हुई होंगी, रुसवाई इनपर छा रही होगी। वह दिन है जिसका इनसे वादा किया जा रहा है।