Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ القَمَرِ

54. अल-क़मर

(मक्का में उतरी, आयतें 55)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के वाक्यांश "वन-शक़्क़ल- क़मर" अर्थात "और चाँद (क़मर) फट गया" से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह सूरा जिस शब्द 'अल-क़मर' आया है।

उतरने का समय

इसमें चाँद के फटने की घटना का उल्लेख हुआ है, जिससे उसके उतरने का समय निश्चित हो जाता है। हदीस के ज्ञाता और क़ुरआन के टीकाकार सभी इसपर सहमत हैं कि यह घटना हिजरत के लगभग पांँच साल पहले मक्का मुअज़्ज़मा में मिना के स्थान पर घटी थी।

विषय और वार्ता

इसमें मक्का के इस्लाम विरोधियों की उस हठधर्मा पर चेतावनी दी गई है जो उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आह्‍वान के मुक़ाबले में अपना रखी थी। चाँद के फटने की आश्चर्यजनक घटना इस बात का स्पष्ट प्रमाण थी कि जगत्-व्यवस्था न सदा से है, न सदा रहेगी, और न अमर है। वह छिन्न-भिन्न हो सकती है, बड़े-बड़े नक्षत्र और तारे फट सकते हैं और वह सब कुछ हो सकता है जिसका चित्रण क़ियामत के विस्तृत विवरण में क़ुरआन ने किया है। यही नहीं, बल्कि यह इस बात का पता भी दे रहा है कि जगत्-व्यवस्था के टूट-फूट की शुरुआत हो चुकी है और वह समय क़रीब है जब क़ियामत आएगी। मगर इस्लाम-विरोधियों ने इसे जादू का करिश्मा बताया और अपने इंकार पर जमे रहे। इसी हठधर्मी पर इस सूरा में उनकी निन्दा की गई है। वार्ता का आरंभ करते हुए कहा गया है कि ये लोग न समझाने से मानते हैं, न इतिहास से शिक्षा लेते हैं और न आँखों से खुली निशानियाँ देखकर ईमान लाते हैं। अब ये उसी समय मानेंगे जब क़ियामत वास्तव में आ जाएगी। इसके बाद उनके सामने नूह (अलैहि०) की क़ौम, आद, समूद, लूत (अलैहि०) की क़ौम और फ़िरऔन के लोगों का वृत्तान्त संक्षिप्त शब्दों में बयान करके बताया गया है कि अल्लाह के भेजे हुए रसूलों की चेतावनियों को झुठलाकर ये क़ौमें किस पीड़ाजनक यातना की शिकार हुईं और एक-एक क़ौम का क़िस्सा बयान करने के बाद बार-बार यह बात दोहराई गई है कि यह क़ुरआन शिक्षा का सहज आधार है, जिससे अगर कोई क़ौम शिक्षा ग्रहण करके सीधे रास्ते पर आ जाए तो उन यातनाओं की नौबत नहीं आ सकती जिनमें वे क़ौमें ग्रस्त हुईं। इसके बाद मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सम्बोधित करके कहा गया है कि जिस रवैये पर दूसरी क़ौमें सज़ा पा चुकी हैं, वह रवैया अगर तुम अपनाओ तो आखिर क्यों न सज़ा पाओगे? और अगर तुम अपने जत्थे पर फूले हुए हो, तो बहुत जल्द तुम्हारा यह जत्था पराजित होकर भागता नज़र आएगा और इससे अधिक कठोर मामला तुम्हारे साथ क़ियामत के दिन होगा। अन्त में इस्लाम-विरोधियों को यह बताया गया है कि सर्वोच्च अल्लाह को क़ियामत लाने के लिए किसी बड़ी तैयारी की ज़रूरत नहीं है। उसका बस एक आदेश होते ही पलक झपकाते वह आ जाएगी, मगर हर चीज़ की तरह जगत्व्य-वस्था और मानव-जाति की भी एक नियति है। इस नियति के अनुसार जो समय इस काम के लिए निश्चित है, उसी समय पर वह होगा। यह नहीं हो सकता कि जब कोई चैलेंज करे तो उसे मनवाने के लिए क़ियामत ला खड़ी की जाए।

---------------------

سُورَةُ القَمَرِ
54. अल-क़मर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱقۡتَرَبَتِ ٱلسَّاعَةُ وَٱنشَقَّ ٱلۡقَمَرُ
(1) क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई और चाँद फट गया।1
1. यानी चाँद का फट जाना इस बात की निशानी है कि वह क़ियामत की घड़ी, जिसके आने की तुम लोगों को ख़बर दी जाती रही है, आ लगी है और कायनात के निज़ाम (सृष्टि-व्यवस्था) के दरहम-बरहम (अस्त-व्यस्त) होने की शुरुआत हो गई है। साथ ही यह वाक़िआ कि चाँद जैसा एक बड़ा गोला फटकर दो टुकड़े हो गया, इस बात का खुला सुबूत है कि जिस क़ियामत (प्रलय) का तुमसे ज़िक्र किया जा रहा है वह बरपा हो सकती है। ज़ाहिर है कि जब चाँद फट सकता है तो ज़मीन भी फट सकती है, तारों और सय्यारों (ग्रहों) के मदार (कक्ष) भी बदल सकते हैं और आसमानों का यह सारा निज़ाम दरहम-बरहम हो सकता है। इसमें कोई चीज़ हमेशा से और हमेशा रहनेवाली नहीं है कि क़ियामत बरपा न हो सके। कुछ लोगों ने इस जुमले का मतलब यह लिया है कि 'चाँद फट जाएगा’। लेकिन अरबी ज़बान के लिहाज़ से चाहे यह मतलब लेना मुमकिन हो, इबारत का मौक़ा-महल इस मतलब को क़ुबूल करने से साफ़ इनकार करता है। एक तो यह मतलब लेने से पहला जुमला ही बे-मतलब हो जाता है। चाँद अगर इस कलाम के उतरने के वक़्त फटा नहीं था, बल्कि वह आगे कभी फटनेवाला है तो उसकी बुनियाद पर यह कहना बिलकुल बेकार बात है कि क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई है। आख़िर मुस्तक़बिल (भविष्य) में पेश आनेवाला कोई वाक़िआ उसके क़रीब होने की निशानी कैसे क़रार पा सकता है कि उसे गवाही के तौर पर पेश करना एक मुनासिब दलील हो। दूसरे, यह मतलब लेने के बाद जब हम आगे की इबारत पढ़ते हैं तो महसूस होता है कि इसके साथ कोई जोड़ नहीं रखती। आगे की इबारत साफ़ बता रही है कि लोगों ने उस वक़्त कोई निशानी देखी थी जो इस बात की खुली अलामत थी कि क़ियामत का आना मुमकिन है, मगर उन्होंने उसे जादू का करिश्मा ठहराकर झुठला दिया और अपने इस ख़याल पर जमे रहे कि क़ियामत का आना मुमकिन नहीं है। इस मौक़ा-महल में 'इन-शक़्क़ल-क़मर' के अलफ़ाज़ उसी सूरत में ठीक बैठ सकते हैं जबकि उनका मतलब 'चाँद फट गया' हो। 'फट जाएगा' के मानी में उनको ले लिया जाए तो बाद की सारी बात बेजोड़ होकर रह जाती है। बात के इस सिलसिले में इस जुमले को रखकर देख लीजिए, आपको ख़ुद महसूस हो जाएगा कि इसकी वजह से सारी इबारत बे-मतलब हो गई है— “क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई और चाँद फट जाएगा। इन लोगों का हाल यह है कि चाहे कोई निशानी देख लें, मुँह मोड़ जाते हैं और कहते हैं कि यह तो चलता हुआ जादू है। इन्होंने झुठला दिया और अपने मन की ख़ाहिशों की पैरवी की।" तो हक़ीक़त यह है कि चाँद फटने का वाकिआ क़ुरआन के साफ़ अलफ़ाज़ से साबित है और हदीस की रिवायतों पर उसका दारोमदार नहीं है। अलबत्ता रिवायतों से इसकी तफ़सीलात मालूम होती हैं और पता चलता है कि यह कब और कैसे पेश आया था। ये रिवायतें बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, अहमद, अबू-उवाना, अबू-दाऊद तयालिसी, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, इब्ने-जरीर, बैहक़ी, तबरानी, इब्ने-मरदुवैह और अबू-नुऐम अस्फ़हानी ने बहुत-सी सनदों के साथ हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ि०), हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) और हज़रत ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) से नक़्ल की हैं। इनमें से तीन बुज़ुर्ग यानी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद, हज़रत हुज़ैफ़ा और ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) बयान करते हैं कि वे इस वाक़िए के चश्मदीद गवाह हैं। और दो बुज़ुर्ग ऐसे हैं जो इसके चश्मदीद गवाह नहीं हो सकते, क्योंकि यह उनमें से एक (यानी अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास रज़ि०) की पैदाइश से पहले का वाक़िआ है, और दूसरे यानी (अनस-बिन-मालिक रज़ि०) उस वक़्त बच्चे थे। लेकिन चूँकि ये दोनों लोग सहाबी हैं इसलिए ज़ाहिर है कि इन्होंने ऐसे उम्रवाले सहाबियों से सुनकर ही इसे रिवायत किया होगा जो इस वाक़िए का सीधे तौर पर इल्म रखते थे। तमाम रिवायतों को इकट्ठा करने से इसकी जो तफ़सीलात मालूम होती हैं वे ये हैं कि यह हिजरत से लगभग 5 साल पहले का वाक़िआ है। चाँद के महीने की 14 तारीख़ थी। चाँद अभी-अभी निकला था। एकाएक वह फटा और उसका एक टुकड़ा सामने की पहाड़ी के एक तरफ़ और दूसरा टुकड़ा दूसरी तरफ़ नज़र आया। यह कैफ़ियत बस एक ही पल रही और फिर दोनों टुकड़े आपस में जुड़ गए। नबी (सल्ल०) उस वक़्त मिना में तशरीफ़ रखते थे। आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया, “देखो और गवाह रहो।” इनकार करनेवालों ने कहा, “मुहम्मद ने हमपर जादू कर दिया था, इसलिए हमारी आँखों ने धोखा खाया।” दूसरे लोग बोले कि “मुहम्मद हमपर जादू कर सकते थे, मगर तमाम लोगों पर तो नहीं कर सकते थे। बाहर के लोगों को आने दो। उनसे पूछेंगे कि यह वाक़िआ उन्होंने भी देखा या नहीं।” बाहर से जब कुछ लोग आए तो उन्होंने गवाही दी कि वे भी यह मंज़र देख चुके हैं। कुछ रिवायतें जो हज़रत अनस (रज़ि०) से बयान हुई हैं उनकी बुनियाद पर यह ग़लतफ़हमी पैदा होती है कि चाँद फटने का वाक़िआ एक बार नहीं, बल्कि दो बार पेश आया था। लेकिन एक तो सहाबा (रज़ि०) में से किसी और ने यह बात बयान नहीं की है। दूसरे ख़ुद हज़रत अनस (रज़ि०) की भी कुछ रिवायतों में 'मर्रतैन' (दो बार) के अलफ़ाज़ हैं और कुछ में 'फ़िर्क़तैन' और 'शक़्क़तैन' (दो टुकड़े) के अलफ़ाज़। तीसरे यह कि क़ुरआन मजीद सिर्फ़ एक ही 'इनशिक़ाक़' (फटने) का ज़िक्र करता है। इस बिना पर सही बात यही है कि यह वाक़िआ सिर्फ़ एक बार पेश आया था। रहे वे क़िस्से जो आम लोगों में मशहूर हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उँगली से चाँद की तरफ़ इशारा किया और वह दो टुकड़े हो गया और यह कि चाँद का एक टुकड़ा नबी (सल्ल०) के गिरेबान में दाख़िल होकर आप (सल्ल०) की आस्तीन से निकल गया, तो ये बिलकुल ही बेबुनियाद और बेअस्ल हैं। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि यह वाक़िआ हक़ीक़त में किस तरह का था? क्या यह एक मोजिज़ा (चमत्कार) था जो मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की माँग पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी पैग़म्बरी के सुबूत में दिखाया था? या यह एक हादिसा था जो अल्लाह तआला की क़ुदरत से चाँद में पेश आया और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने लोगों को उसकी तरफ़ सिर्फ़ इस मक़सद के लिए ध्यान दिलाया कि यह क़ियामत के इमकान (हो सकने) और क़ियामत के क़रीब होने की एक निशानी है? इस्लाम के आलिमों का एक बड़ा गरोह इसे नबी (सल्ल०) के मोजिज़ों (चमत्कारों) में शुमार करता है और उनका ख़याल यह है कि इनकार करनेवालों की माँग पर यह मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाया गया था। लेकिन इस राय का दारोमदार सिर्फ़ कुछ उन रिवायतों पर है जो हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं। उनके सिवा किसी ने भी यह बात बयान नहीं की है। फ़तहुल-बारी में इब्ने-हजर (रह०) कहते हैं— "यह क़िस्सा जितने तरीक़ों से नक़्ल हुआ है उनमें से किसी में भी हज़रत अनस (रज़ि०) की हदीस के सिवा यह मज़मून मेरी निगाह से नहीं गुज़रा कि चाँद फटने का वाक़िआ मुशरिकों की माँग पर हुआ था।” (बाबु इनशिक़ाक़िल-क़मर)। एक रिवायत अबू-नुऐम अस्फ़हानी ने 'दलाइलुन-नुबूवत' में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी इस मज़मून की नक़्ल की है, मगर इसकी सनद कमज़ोर है, और मज़बूत सनदों से जितनी रिवायतें हदीस की किताबों में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं उनमें से किसी में भी इसका ज़िक्र नहीं है। इसके अलावा हज़रत अनस (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- अब्बास (रज़ि०), दोनों इस वाक़िए के ज़माने के नहीं हैं। इसके बरख़िलाफ़ जो सहाबा उस ज़माने में मौजूद थे, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), उनमें से किसी ने भी यह नहीं कहा है कि मक्का के मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) की सच्चाई के सुबूत में किसी निशानी की माँग की थी और उसपर चाँद फटने का यह मोजिज़ा उनको दिखाया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि क़ुरआन मजीद ख़ुद भी इस वाक़िए को मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की नहीं, बल्कि क़ियामत के क़रीब होने की निशानी के तौर पर पेश कर रहा है। अलबत्ता यह इस लिहाज़ से नबी (सल्ल०) की सच्चाई का एक नुमायाँ सुबूत ज़रूर था कि आप (सल्ल०) ने क़ियामत के आने की जो ख़बरें लोगों को दी थीं, यह वाक़िआ उनको सच्चा साबित कर रहा था। एतिराज़ करनेवाले इसपर दो तरह के एतिराज़ करते हैं। एक तो उनके नज़दीक ऐसा होना मुमकिन ही नहीं है कि चाँद जैसे बड़े गोले के दो टुकड़े फटकर अलग हो जाएँ और सैंकड़ों मील की दूरी तक एक-दूसरे से दूर जाने के बाद फिर आपस में जुड़ जाएँ। दूसरे, वे कहते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो यह वाक़िआ दुनिया भर में मशहूर हो जाता, तारीख़ों (इतिहासों) में इसका ज़िक्र आता, और इल्मे-नुजूम (नक्षत्रशास्त्र) की किताबों में इसे बयान किया जाता। लेकिन हक़ीक़त में ये दोनों एतिराज़ बेवज़न हैं। जहाँ तक इस बात की बहस है कि क्या ऐसा होना मुमकिन (सम्भव) भी है? तो पुराने ज़माने में तो शायद वह चल भी सकती थी, लेकिन मौजूदा दौर में सय्यारों (ग्रहों) की बनावट के बारे में इनसान को जो मालूमात हासिल हुई हैं उनकी बुनियाद पर यह बात बिलकुल मुमकिन है कि एक गोला अपने अन्दर की आग के सबब फट जाए और इस ज़बरदस्त बिखराव से उसके दो टुकड़े दूर तक चले जाएँ, और फिर अपने मर्कज़ (केन्द्र) की खींचनेवाली ताक़त के सबब से वे एक-दूसरे के साथ आ मिलें। रहा दूसरा एतिराज़ तो वह इसलिए बेवज़न है कि यह वाक़िआ अचानक बस एक पल के लिए पेश आया था। ज़रूरी नहीं था कि उस ख़ास पल में दुनिया भर की निगाहें चाँद की तरफ़ लगी हुई हों। इससे कोई धमाका नहीं हुआ था कि लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ जाता। पहले से कोई ख़बर उसकी न थी कि लोग उसके इन्तिज़ार में आसमान की तरफ़ देख रहे होते। पूरी धरती पर उसे देखा भी नहीं जा सकता था, बल्कि सिर्फ़ अरब और उसके मशरिक़ी (पूर्वी) तरफ़ के देश ही में उस वक़्त चाँद निकला हुआ था। इतिहास लिखने का शौक़ और फ़न भी उस वक़्त तक इतनी तरक़्क़ी न कर सका था कि मशरिक़ी (पूर्वी) देशों में जिन लोगों ने उसे देखा होता वे उसे लिख लेते और किसी इतिहासकार के पास ये गवाहियाँ जमा होतीं और वह तारीख़ की किसी किताब में उनको लिख लेता। फिर भी मालाबार की तारीख़ों (इतिहासों) में यह ज़िक्र आया है कि उस वक़्त वहाँ के एक राजा ने यह मंज़र देखा था। रहीं तारों के बारे में जानकारी देनेवाली (इल्मे-नुजूम की) किताबें और जंत्रियाँ, तो उनमें इसका ज़िक्र आना सिर्फ़ उस हालत में ज़रूरी था जबकि चाँद की रफ़्तार और उसके चक्कर लगाने के रास्ते और उसके निकलने और डूबने के वक़्तों में इससे कोई फ़र्क़ पैदा हुआ होता। यह सूरत चूँकि पेश नहीं आई इसलिए पुराने ज़माने के नुजूमियों (नक्षत्रशास्त्रियों) का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया। उस ज़माने में रसदगाहें (observatories) इस हद तक तरक़्क़ी न कर सकी थीं कि आसमानों में पेश आनेवाले हर वाक़िए का नोटिस लेतीं और उसको रिकॉर्ड पर महफ़ूज़ कर लेतीं।
وَإِن يَرَوۡاْ ءَايَةٗ يُعۡرِضُواْ وَيَقُولُواْ سِحۡرٞ مُّسۡتَمِرّٞ ۝ 1
(2) मगर इन लोगों का हाल यह है कि चाहे कोई निशानी देख लें, मुँह मोड़ जाते हैं और कहते हैं कि यह तो चलता हुआ जादू है।2
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'सिहरुम-मुस्तमिर्र’। इसके कई मतलब हो सकते हैं : एक यह कि अल्लाह की पनाह! रात दिन की जादूगरी का जो सिलसिला मुहम्मद (सल्ल०) ने चला रखा है, यह जादू भी इसी में से एक है। दूसरा यह कि यह पक्का जादू है, बड़ी महारत से दिखाया गया है। तीसरा यह कि जिस तरह और जादू गुज़र गए हैं, यह भी गुज़र जाएगा, इसका कोई टिकाऊ असर रहनेवाला नहीं है।
وَكَذَّبُواْ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُمۡۚ وَكُلُّ أَمۡرٖ مُّسۡتَقِرّٞ ۝ 2
(3) इन्होंने (इसको भी) झुठला दिया और अपने मन की ख़ाहिशों ही की पैरवी की।3 हर मामले को आख़िरकार एक अंजाम पर पहुँचकर रहना है।4
3.यानी जो फ़ैसला इन्होंने क़ियामत को न मानने का कर रखा है, इस निशानी को देखकर भी ये उसी पर जमे रहे। क़ियामत को मान लेना चूँकि इनके मन की ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ था इसलिए, साफ़-साफ़ देख लेने के बाद भी ये उसे मानने पर राज़ी न हुए।
4. मतलब यह है कि यह सिलसिला हमेशा नहीं चल सकता कि मुहम्मद (सल्ल०) तुम्हें हक़ की तरफ़ बुलाते रहें और तुम हठधर्मी के साथ अपने बातिल (असत्य) पर जमे रहो, और उनका हक़ होना और तुम्हारा बातिल पर होना कभी साबित न हो। तमाम मामले आख़िरकार एक अंजाम को पहुँचकर रहते हैं, इसी तरह तुम्हारी और मुहम्मद (सल्ल०) की इस कश्मकश का भी हर हाल में एक अंजाम है जिसपर यह पहुँचकर रहेगी। एक वक़्त ज़रूर ऐसा आना है जब खुल्लम-खुल्ला यह साबित हो जाएगा कि वे हक़ पर थे और तुम सरासर बातिल (असत्य) की पैरवी कर रहे थे। इसी तरह हक़-परस्त अपनी हक़-परस्ती का और बातिल-परस्त (असत्यवादी) अपनी बातिल-परस्ती का नतीजा भी एक दिन ज़रूर देखकर रहेंगे।
وَلَقَدۡ جَآءَهُم مِّنَ ٱلۡأَنۢبَآءِ مَا فِيهِ مُزۡدَجَرٌ ۝ 3
(4) इन लोगों के सामने (पिछली क़ौमों के) वे हालात आ चुके हैं जिनमें सरकशी से रोकने के लिए काफ़ी इबरत (नसीहत) का सामान है
حِكۡمَةُۢ بَٰلِغَةٞۖ فَمَا تُغۡنِ ٱلنُّذُرُ ۝ 4
(5) और ऐसी हिकमत जो नसीहत के मक़सद को आला दरजे पर पूरा करती है। मगर तंबीहें (चेतावनियाँ) इनपर असर नहीं करतीं।
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡۘ يَوۡمَ يَدۡعُ ٱلدَّاعِ إِلَىٰ شَيۡءٖ نُّكُرٍ ۝ 5
(6) तो ऐ नबी! इनसे रुख़ फेर लो।5 जिस दिन पुकारनेवाला एक सख़्त नागवार6 चीज़ की तरफ़ पुकारेगा,
5. दूसरे अलफ़ाज़ में इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो। जब इन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनासिब तरीक़े से समझाया जा चुका है और इनसानी तारीख़ से मिसालें देकर भी बता दिया गया है कि आख़िरत के इनकार के नतीजे क्या हैं और रसूलों की बात न मानने का क्या इबरतनाक अंजाम दूसरी क़ौमें देख चुकी हैं, फिर भी ये अपनी हठधर्मी से बाज़ नहीं आते, तो इन्हें इसी बेवक़ूफ़ी में पड़े रहने दो। अब ये उसी वक़्त मानेंगे जब मरने के बाद क़ब्रों से निकलकर अपनी आँखों से देख लेंगे कि वह क़ियामत सचमुच बरपा हो गई जिससे वक़्त से पहले ख़बरदार करके सीधा रास्ता अपना लेने का मशवरा इन्हें दिया जा रहा था।
6. दूसरा मतलब अनजानी चीज़ भी हो सकता है। यानी ऐसी चीज़ जो कभी उनके वहम व गुमान में भी न थी, जिसका कोई नक़्शा और कोई तसव्वुर उनके ज़ेहन में न था, जिसका कोई अन्दाज़ा ही वे न कर सकते थे कि ये कुछ भी कभी पेश आ सकता है।
خُشَّعًا أَبۡصَٰرُهُمۡ يَخۡرُجُونَ مِنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ كَأَنَّهُمۡ جَرَادٞ مُّنتَشِرٞ ۝ 6
(7) लोग सहमी हुई निगाहों के साथ7 अपनी क़ब्रों8 से इस तरह निकलेंगे मानो वे बिखरी हुई टिड्डियाँ हैं।
7. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'ख़ुश्शअन अबसारुहुम' यानी उनकी निगाहें 'ख़ुशू' की हालत में होंगी। इसके कई मतलब हो सकते हैं : एक यह कि उनपर डर की हालत छाई हुई होगी। दूसरा यह कि रुसवाई और शर्मिन्दगी उनसे झलक रही होगी, क्योंकि क़ब्रों से निकलते ही उन्हें महसूस हो जाएगा कि यह वही दूसरी ज़िन्दगी है जिसका हम इनकार करते थे, जिसके लिए कोई तैयारी करके हम नहीं आए हैं, जिसमें अब मुजरिम की हैसियत से हमें अपने ख़ुदा के सामने पेश होना है। तीसरा यह कि वे घबराए हुए उस हौलनाक मंज़र को देख रहे होंगे जो उनके सामने होगा, उससे नज़र हटाने का उन्हें होश न होगा।
8. क़ब्रों से मुराद वही क़ब्रें नहीं हैं जिनमें किसी शख़्स को ज़मीन खोदकर बाक़ायदा दफ़्न किया गया हो। बल्कि जिस जगह भी कोई शख़्स मरा था, या जहाँ भी उसकी मिट्टी पड़ी हुई थी, वहीं से वह हश्र के मैदान की तरफ़ पुकारनेवाले की एक आवाज़ पर उठ खड़ा होगा।
مُّهۡطِعِينَ إِلَى ٱلدَّاعِۖ يَقُولُ ٱلۡكَٰفِرُونَ هَٰذَا يَوۡمٌ عَسِرٞ ۝ 7
(8) पुकारनेवाले की तरफ़ दौड़े जा रहे होंगे और वही इनकार करनेवाले (जो दुनिया में इसका इनकार करते थे) उस वक़्त कहेंगे कि यह दिन तो बड़ा कठिन है।
۞كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ فَكَذَّبُواْ عَبۡدَنَا وَقَالُواْ مَجۡنُونٞ وَٱزۡدُجِرَ ۝ 8
(9) इनसे पहले नूह की क़ौम झुठला चुकी है।9 उन्होंने हमारे बन्दे को झूठा ठहरा दिया और कहा कि यह दीवाना है, और वह बुरी तरह झिड़का गया।10
9. यानी इस ख़बर को झुठला चुकी है कि आख़िरकार बरपा होनी है, जिसमें इनसान को अपने आमाल का हिसाब देना होगा, उस पैग़म्बर की पैग़म्बरी को झुठला चुकी है जो अपनी क़ौम को इस हक़ीक़त से आगाह कर रहा था और पैग़म्बर की उस तालीम को झुठला चुकी है जो यह बताती थी कि आख़िरकार की पूछ-गछ में कामयाब होने के लिए लोगों को क्या अक़ीदा और क्या अमल अपनाना चाहिए और किस चीज़ से बचना चाहिए।
10. यानी उन लोगों ने सिर्फ़ पैग़म्बर को झुठलाने पर ही बस न किया, बल्कि उलटा उसे दीवाना क़रार दिया, उसको धमकियाँ दीं, उसपर लानत-मलामत की बौछार की, उसे डाँट-डपटकर सच्चाई की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) से रोकने की कोशिश की और उसका जीना दूभर कर दिया।
فَدَعَا رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَغۡلُوبٞ فَٱنتَصِرۡ ۝ 9
(10) आख़िरकार उसने अपने रब को पुकारा कि “मैं दबा लिया गया, अब तू इनसे इन्तिक़ाम (बदला) ले।”
فَفَتَحۡنَآ أَبۡوَٰبَ ٱلسَّمَآءِ بِمَآءٖ مُّنۡهَمِرٖ ۝ 10
(11) तब हमने मूसलाधार बारिश से आसमान के दरवाज़े खोल दिए
وَفَجَّرۡنَا ٱلۡأَرۡضَ عُيُونٗا فَٱلۡتَقَى ٱلۡمَآءُ عَلَىٰٓ أَمۡرٖ قَدۡ قُدِرَ ۝ 11
(12) और ज़मीन को फाड़कर चश्मों (जल-स्रोतों) में बदल दिया,11 और यह सारा पानी उस काम को पूरा करने के लिए मिल गया जो मुक़द्दर हो चुका था,
11. यानी अल्लाह के हुक्म से ज़मीन इस तरह फूट बही मानो वह ज़मीन न थी, बल्कि बस चश्मे-ही-चश्मे (जल-स्रोत) थे।
وَحَمَلۡنَٰهُ عَلَىٰ ذَاتِ أَلۡوَٰحٖ وَدُسُرٖ ۝ 12
(13) और नूह को हमने एक तख़्तों और कीलोंवाली12 पर सवार कर दिया
12. मुराद है वह नाव जो तूफ़ान के आने से पहले ही अल्लाह तआला की हिदायतों के मुताबिक़ हज़रत नूह (अलैहि०) ने बना ली थी।
تَجۡرِي بِأَعۡيُنِنَا جَزَآءٗ لِّمَن كَانَ كُفِرَ ۝ 13
(14) जो हमारी निगरानी में चल रही थी। यह था बदला उस शख़्स की ख़ातिर जिसकी नाक़द्री की गई थी।13
13. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'जज़ाअल-लिमन का-न कुफ़िर' यानी “यह सब कुछ उस शख़्स की ख़ातिर बदला लेने के लिए किया गया जिसका कुफ़्र किया गया था।” कुफ़्र अगर इनकार के मानी में हो तो मतलब यह होगा कि “जिसकी बात मानने से इनकार किया गया था।” और अगर इसे नेमत की नाशुक्री के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि “जिसका वुजूद एक नेमत था, मगर उसकी नाक़द्री की गई थी।"
وَلَقَد تَّرَكۡنَٰهَآ ءَايَةٗ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 14
(15) उस नाव को हमने एक निशानी बनाकर छोड़ दिया,14 फिर कोई है नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
14. यह मतलब भी हो सकता है कि हमने इस सज़ा को इबरत (नसीहत) की एक निशानी बनाकर छोड़ दिया। लेकिन हमारे नज़दीक ज़्यादा तरजीह के क़ाबिल मतलब यह है कि उस नाव को इबरत की निशानी बना दिया गया। एक बुलन्द और ऊँचे पहाड़ पर उसका मौजूद होना सैकड़ों-हज़ारों साल तक लोगों को ख़ुदा के ग़ज़ब से ख़बरदार करता रहा और उन्हें याद दिलाता रहा कि इस सरज़मीन पर ख़ुदा की नाफ़रमानी करनेवालों की कैसी शामत आई थी और ईमान लानेवालों को किस तरह उससे बचाया गया था। इमाम बुख़ारी, इब्ने-अबी-हातिम, अब्दुर्रज़ाक़ और इब्ने-जरीर (रह०) ने क़तादा (रह०) से ये रिवायतें नक़्ल की हैं कि मुसलमानों की इराक़ और अल-जज़ीरा की फ़तह (जीत) के ज़माने में यह नाव जूदी पर (और एक रिवायत के मुताबिक़ 'बाक़िरदा' नाम की बस्ती के क़रीब) मौजूद थी और इबतिदाई दौर के मुसलमानों ने उसको देखा था। मौजूदा ज़माने में भी हवाई जहाज़ों से उड़ान भरते हुए कुछ लोगों ने इस इलाक़े की एक चोटी पर एक नाव नुमा चीज़ पड़ी देखी है जिसपर शुब्ह किया जाता है कि वह नूह (अलैहि०) की नाव है, और इसी वजह से वक़्त-वक़्त पर उसकी तलाश के लिए मुहिमें जाती रही हैं। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-47; सूरा-11 हूद, हाशिया-46; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-25)
فَكَيۡفَ كَانَ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 15
(16) देख लो, कैसा था मेरा अज़ाब और कैसी थीं मेरी तंबीहें (चेतावनियाँ) !
وَلَقَدۡ يَسَّرۡنَا ٱلۡقُرۡءَانَ لِلذِّكۡرِ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 16
(17) हमने इस क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान ज़रिआ बना दिया है,15 फिर क्या है कोई नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
15. कुछ लोगों ने 'यस्सर्नल-क़ुरआन' के अलफ़ाज़ से यह ग़लत मतलब निकाल लिया है कि क़ुरआन एक आसान किताब है, इसे समझने के लिए किसी इल्म की ज़रूरत नहीं, यहाँ तक कि अरबी ज़बान तक की जानकारी के बिना जो शख़्स चाहे इसकी तफ़सीर कर सकता है और हदीस और फ़िक़्ह से बे-परवाह होकर उसकी आयतों से जो हुक्म चाहे निकाल सकता है। हालाँकि जिस मौक़ा-महल में ये अलफ़ाज़ आए हैं उसको निगाह में रखकर देखा जाए तो मालूम होता है कि यह कहने का मक़सद लोगों को यह समझाना है कि नसीहत का एक ज़रिआ तो हैं वे इबरतनाक अज़ाब जो सरकश क़ौमों पर आए और दूसरा ज़रिआ है यह क़ुरआन जो दलीलों, नसीहतों और तलक़ीन से तुमको सीधा रास्ता बता रहा है। उस ज़रिए के मुक़ाबले में नसीहत का यह ज़रिआ ज़्यादा आसान है। फिर क्यों तुम इससे फ़ायदा नहीं उठाते और अज़ाब ही देखने पर ज़िद किए जाते हो? यह तो सरासर अल्लाह तआला की मेहरबानी है कि अपने नबी के ज़रिए से यह किताब भेजकर वह तुम्हें ख़बरदार कर रहा है कि जिन राहों पर तुम लोग जा रहे हो वे किस तबाही की तरफ़ जाती हैं और तुम्हारी भलाई किस राह में है। नसीहत का यह तरीक़ा इसी लिए तो अपनाया गया है कि तबाही के गढ़े में गिरने से पहले तुम्हें उससे बचा लिया जाए। अब उससे ज़्यादा नादान और कौन होगा जो सीधी तरह समझाने से न माने और गढ़े में गिरकर ही यह माने कि सचमुच यह गढ़ा था।
كَذَّبَتۡ عَادٞ فَكَيۡفَ كَانَ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 17
(18) आद ने झुठलाया, तो देख लो कैसा था मेरा अज़ाब और कैसी थीं मेरी तंबीहें (चेतावनियाँ)!
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا صَرۡصَرٗا فِي يَوۡمِ نَحۡسٖ مُّسۡتَمِرّٖ ۝ 18
(19) हमने एक लगातार नहूसत के (अशुभ) दिन16 सख़्त तूफ़ानी हवा उनपर भेज दी,
16. यानी एक ऐसे दिन की नुहूसत (अपशकुन) कई दिन तक लगातार जारी रही। सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-16 में ‘फ़ी अय्यामिन-नहिसातिन' यानी “कुछ मनहूस (अशुभ) दिनों में” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं और सूरा-69 हाक्क़ा, आयत-7 में कहा गया है कि हवा का यह तूफ़ान लगातार सात रात और आठ दिन जारी रहा। मशहूर यह है कि जिस दिन यह अज़ाब शुरू हुआ वह बुध का दिन था। इसी से लोगों में यह ख़याल फैल गया कि बुध का दिन मनहूस (अशुभ) है और कोई काम इस दिन शुरू न करना चाहिए। कुछ बहुत ही ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीसें भी इस सिलसिले में नक़्ल की गई हैं, जिनसे इस दिन के मनहूस होने का अक़ीदा आम लोगों के ज़ेहन में बैठ गया है। मसलन इब्ने-मरदुवैह और ख़तीब बग़दादी की यह रिवायत कि “महीने का आख़िरी बुध मनहूस है जिसकी नुहूसत लगातार जारी रहती है।" इब्ने-जौज़ी (रह०) इसे गढ़ी हुई हदीस कहते हैं। इब्ने-रजब (रह०) ने कहा है कि यह हदीस सही नहीं है। हाफ़िज़ सख़ावी (रह०) कहते हैं कि जितने तरीक़ों से यह नक़्ल हुई है वे सब बेमानी और बेकार हैं। इसी तरह तबरानी की उस रिवायत को भी हदीस के आलिमों ने कमज़ोर बताया है कि “बुध का दिन लगातार नुहूसत का दिन है।” कुछ दूसरी रिवायतों में ये बातें भी बयान हुई हैं कि बुध को सफ़र न किया जाए, लेन-देन न किया जाए, नाख़ुन न कटवाए जाएँ, मरीज़ की बीमारपुर्सी न की जाए, और यह कि कोढ़ और सफ़ेद दाग़ इसी दिन शुरू होते हैं। मगर ये तमाम रिवायतें कमज़ोर हैं और इनपर किसी अक़ीदे की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। मुहक़्क़िक़ (शोधकर्ता) मुनावी कहते हैं— "बदफ़ाली (अपशकुन) के ख़याल से बुध के दिन को मनहूस समझकर छोड़ना और नुजूमियों के जैसे अक़ीदे इस मामले में रखना हराम, सख़्त हराम है, क्योंकि सारे दिन अल्लाह के हैं, कोई दिन अपने-आपमें ख़ुद न फ़ायदा पहुँचानेवाला है, न नुक़सान।” अल्लामा आलूसी कहते हैं— “सारे दिन एक जैसे हैं, बुध कोई अलग तरह का दिन नहीं। रात-दिन में कोई घड़ी ऐसी नहीं है जो किसी के लिए अच्छी और किसी दूसरे के लिए बुरी न हो। हर वक़्त अल्लाह तआला किसी के लिए मुवाफ़िक़ (अनुकूल) और किसी के लिए नामुवाफ़िक (प्रतिकूल) हालात पैदा करता रहता है।"
تَنزِعُ ٱلنَّاسَ كَأَنَّهُمۡ أَعۡجَازُ نَخۡلٖ مُّنقَعِرٖ ۝ 19
(20) लोगों को उठा-उठाकर इस तरह फेंक रही थी जैसे वे जड़ से उखड़े हुए खजूर के तने हों।
فَكَيۡفَ كَانَ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 20
(21) तो देख लो कि कैसा था मेरा अज़ाब और कैसी थीं मेरी तंबीहें (चेतावनियाँ)!
وَلَقَدۡ يَسَّرۡنَا ٱلۡقُرۡءَانَ لِلذِّكۡرِ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 21
(22) हमने इस क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान ज़रिआ बना दिया है, फिर क्या है कोई नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ بِٱلنُّذُرِ ۝ 22
(23) समूद ने तंबीहों (चेतावनियों) को झुठलाया।
فَقَالُوٓاْ أَبَشَرٗا مِّنَّا وَٰحِدٗا نَّتَّبِعُهُۥٓ إِنَّآ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ وَسُعُرٍ ۝ 23
(24) और कहने लगे, “एक अकेला आदमी जो हम ही में से है, क्या अब हम उसके पीछे चलें?17 इसकी पैरवी हम क़ुबूल कर लें तो इसका मतलब यह होगा कि हम बहक गए हैं और हमारी अक़्ल मारी गई है।
17. दूसरे अलफ़ाज़ में हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की पैरवी से उनका इनकार तीन वजहों से था— एक यह कि वे इनसान हैं, इनसानियत से ऊपर नहीं हैं कि हम उनकी बड़ाई मान लें। दूसरी यह कि वे हमारी अपनी ही क़ौम के एक आदमी हैं, उनके हमसे बढ़कर होने की कोई वजह नहीं। तीसरी यह कि अकेले हैं, हमारे आम आदमियों में से एक आदमी हैं, कोई बड़े सरदार नहीं हैं जिसके साथ कोई बड़ा जत्था हो, लाव-लश्कर हो, नौकर-चाकर हों और इस वजह से हम उनकी बड़ाई मान लें। वे चाहते थे कि नबी या तो कोई इनसान से बढ़कर हस्ती हो, या अगर इनसान ही हो तो हमारे अपने मुल्क और क़ौम में पैदा न हुआ हो, बल्कि कहीं ऊपर से उतरकर आए या बाहर से भेजा जाए, और अगर यह भी नहीं तो कम-से-कम उसे कोई रईस होना चाहिए जिसकी ग़ैर-मामूली शान व शौकत की वजह से यह मान लिया जाए कि रहनुमाई के लिए ख़ुदा की चुनावी नज़र उसपर पड़ी है। यही वह जहालत थी जिसमें मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ मुब्तला थे। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी को मानने से उनका इनकार भी इसी बुनियाद पर था कि आप (सल्ल०) इनसान हैं, आम आदमियों की तरह बाज़ारों में चलते-फिरते हैं, कल हमारे ही दरमियान पैदा हुए और आज यह दावा कर रहे हैं कि मुझे ख़ुदा ने पैग़म्बर बनाया है।
أَءُلۡقِيَ ٱلذِّكۡرُ عَلَيۡهِ مِنۢ بَيۡنِنَا بَلۡ هُوَ كَذَّابٌ أَشِرٞ ۝ 24
(25) क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी था जिसपर ख़ुदा का ज़िक्र उतारा गया? नहीं, बल्कि यह परले दरजे का झूठा और ख़ुद ही ग़लती पर है।"18
18. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'अशिर' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है ऐसा ख़ुद-पसन्द और अपने-आपमें ग़लत शख़्स जिसके दिमाग़ में अपनी बड़ाई का जुनून (पागलपन) समा गया हो। और इस वजह से वह डींगे मारता हो।
سَيَعۡلَمُونَ غَدٗا مَّنِ ٱلۡكَذَّابُ ٱلۡأَشِرُ ۝ 25
(26) (हमने अपने पैग़म्बर से कहा) “कल ही इन्हें मालूम हुआ जाता है कि कौन परले दरजे का झूठा और ख़ुद ग़लती पर है।
إِنَّا مُرۡسِلُواْ ٱلنَّاقَةِ فِتۡنَةٗ لَّهُمۡ فَٱرۡتَقِبۡهُمۡ وَٱصۡطَبِرۡ ۝ 26
(27) हम ऊँटनी को इनके लिए फ़ितना बनाकर भेज रहे हैं। अब ज़रा सब्र के साथ देख कि इनका क्या अंजाम होता है।
وَنَبِّئۡهُمۡ أَنَّ ٱلۡمَآءَ قِسۡمَةُۢ بَيۡنَهُمۡۖ كُلُّ شِرۡبٖ مُّحۡتَضَرٞ ۝ 27
(28) इनको जता दे कि पानी इनके और ऊँटनी के बीच बाँटा जाएगा और हर एक अपनी बारी के दिन पानी पर आएगा।19
19. यह तशरीह है इस बात की कि “हम ऊँटनी को उनके लिए फ़ितना बनाकर भेज रहे हैं।” वह फ़ितना यह था कि एकाएक एक ऊँटनी लाकर उनके सामने खड़ी कर दी गई और उनसे कह दिया गया कि एक दिन यह अकेली पानी पिएगी और दूसरे दिन तुम सब लोग अपने लिए और अपने जानवरों के लिए पानी ले सकोगे। उसकी बारी के दिन तुममें से कोई शख़्स किसी चश्मे (जलस्रोत) और कुएँ पर न ख़ुद पानी लेने के लिए आए, न अपने जानवरों को पिलाने के लिए लाए। यह चैलेंज उस शख़्स की तरफ़ से दिया गया था जिसके बारे में वे ख़ुद कहते थे कि यह कोई लाव-लश्कर नहीं रखता, न कोई बड़ा जत्था उसके पीछे है।
فَنَادَوۡاْ صَاحِبَهُمۡ فَتَعَاطَىٰ فَعَقَرَ ۝ 28
(29) आख़िरकार उन लोगों ने अपने आदमी को पुकारा और उसने इस काम का बेड़ा उठाया और ऊँटनी को मार डाला20
20. इन अलफ़ाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह सूरते-हाल ज़ाहिर होती है कि वह ऊँटनी एक मुद्दत तक उनकी बस्तियों में दनदनाती फिरी। उसकी बारी के दिन किसी को पानी पर आने की हिम्मत न होती थी। आख़िरकार अपनी क़ौम के एक मनचले सरदार को उन्होंने पुकारा कि तू बड़ा बहादुर और निडर आदमी है, बात-बात पर आस्तीनें चढ़ाकर मारने और मरने के लिए तैयार हो जाता है, ज़रा हिम्मत करके इस ऊँटनी का क़िस्सा भी पाक कर दिखा। उनके बढ़ावे-चढ़ावे देने पर उसने इस मुहिम को पूरा करने का बीड़ा उठाया और ऊँटनी को मार डाला। इसका साफ़ मतलब यह है कि वे लोग उस ऊँटनी से बहुत डरे हुए थे, उनको यह एहसास था कि उसके पीछे कोई ग़ैर-मामूली ताक़त है, उसपर हाथ डालते हुए वे डरते थे, और इसी लिए सिर्फ़ एक ऊँटनी को मार डालना, ऐसी हालत में भी जबकि उसके पेश करनेवाले पैग़म्बर के पास कोई फ़ौज न थी जिसका उन्हें डर होता, उनके लिए एक बड़ी मुहिम सर (फ़त्‌ह) करने जैसा था। (और ज़्यादा तफ़सीलात के लिए दखिए, तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-58; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—101, 105)
فَكَيۡفَ كَانَ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 29
(30) फिर देख लो कि कैसा था मेरा अज़ाब और कैसी थीं मेरी तंबीहें (चेतावनियाँ)!
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَكَانُواْ كَهَشِيمِ ٱلۡمُحۡتَظِرِ ۝ 30
(31) हमने उनपर बस एक ही धमाका छोड़ा और वे बाड़ेवाले की रौंदी हुई बाढ़ की तरह भुस होकर रह गए।21
21. जो लोग मवेशी पालते हैं वे अपने जानवरों के बाड़े को महफ़ूज़ करने के लिए लकड़ियों और झाड़ियों की एक बाढ़ बना देते हैं। इस बाढ़ की झाड़ियाँ धीरे-धीरे सूखकर झड़ जाती हैं और जानवरों के आने-जाने से कुचलकर उनका बुरादा बन जाता है। समूद क़ौम की कुचली हुई सड़ी-गली लाशों की इसी बुरादे से मिसाल दी गई है।
وَلَقَدۡ يَسَّرۡنَا ٱلۡقُرۡءَانَ لِلذِّكۡرِ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 31
(32) हमने इस क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान ज़रिआ बना दिया है, अब है कोई नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
وَلَقَدۡ رَٰوَدُوهُ عَن ضَيۡفِهِۦ فَطَمَسۡنَآ أَعۡيُنَهُمۡ فَذُوقُواْ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 32
(37) फिर उन्होंने उसे अपने मेहमानों की हिफ़ाज़त से बाज़ रखने की कोशिश की। आख़िरकार हमने उनकी आँखें मूँद दी कि चखो अब मेरे अज़ाब और मेरी तंबीहों (चेतावनियों) का मज़ा।22
22. इस क़िस्से की तफ़सीलात सूरा-11 हूद (आयतें—77 से 88) और सूरा-15 हिज्र (आयतें—61 से 74) में गुज़र चुकी हैं। इनका ख़ुलासा (सारांश) यह है कि जब अल्लाह तआला ने इस क़ौम पर अज़ाब भेजने का फ़ैसला किया तो कुछ फ़रिश्तों को बहुत ही ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ मेहमान के तौर पर भेज दिया। उनकी क़ौम के लोगों ने जब देखा कि उनके यहाँ ऐसे ख़ूबसूरत मेहमान आए हैं तो वे उनके घर पर चढ़ दौड़े और उनसे माँग की कि वे अपने मेहमानों को बदकारी के लिए उनके हवाले कर दें। हज़रत लूत (अलैहि०) ने उनकी बहुत ख़ुशामद की कि वे यह गिरी हुई हरकत न करें। मगर वे न माने और घर में घुसकर ज़बरदस्ती मेहमानों को निकाल लेने की कोशिश की। इस आख़िरी मरहले पर एकाएक उनकी आँखें अन्धी हो गईं। फिर फ़रिश्तों ने हज़रत लूत (अलैहि०) से कहा कि वे और उनके घरवाले सुबह होने से पहले इस बस्ती से निकल जाएँ और उनके निकलते ही इस क़ौम पर एक हौलनाक अज़ाब आ गया। बाइबल में भी यह वाक़िआ इसी तरह बयान किया गया है। उसके अलफ़ाज़ ये हैं— "तब वे उस मर्द (यानी लूत) पर पिल पड़े और नज़दीक आए, ताकि किवाड़ तोड़ डालें, लेकिन उन मर्दों (यानी फ़रिश्तों) ने अपने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया और दरवाज़ा बन्द कर दिया और उन मर्दों को जो घर के दरवाज़े पर थे, क्या छोटे, क्या बड़े, अन्धा कर दिया, सो वे दरवाज़ा ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गए। (उत्पत्ति, 11-9:19)
وَلَقَدۡ صَبَّحَهُم بُكۡرَةً عَذَابٞ مُّسۡتَقِرّٞ ۝ 33
(38) सुबह-सवेरे ही एक अटल अज़ाब ने उनको आ लिया।
فَذُوقُواْ عَذَابِي وَنُذُرِ ۝ 34
(39) चखो मज़ा अब मेरे अज़ाब का और मेरी तंबीहों (चेतावनियों) का!
وَلَقَدۡ يَسَّرۡنَا ٱلۡقُرۡءَانَ لِلذِّكۡرِ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 35
(40) हमने इस क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान ज़रिआ बना दिया है, तो है कोई नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
وَلَقَدۡ جَآءَ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ ٱلنُّذُرُ ۝ 36
(41) और फ़िरऔन के लोगों के पास भी तंबीहें (चेतावनियाँ) आई थीं,
كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا كُلِّهَا فَأَخَذۡنَٰهُمۡ أَخۡذَ عَزِيزٖ مُّقۡتَدِرٍ ۝ 37
(42) मगर उन्होंने हमारी सारी निशानियों को झुठला दिया। आख़िर को हमने उन्हें पकड़ा जिस तरह कोई ज़बरदस्त क़ुदरतवाला पकड़ता है।
أَكُفَّارُكُمۡ خَيۡرٞ مِّنۡ أُوْلَٰٓئِكُمۡ أَمۡ لَكُم بَرَآءَةٞ فِي ٱلزُّبُرِ ۝ 38
(43) क्या तुम्हारे इनकार करनेवाले कुछ उन लोगों से अच्छे हैं?23 या आसमानी किताबों में तुम्हारे लिए कोई माफ़ी लिखी हुई है?
23. बात क़ुरैश के लोगों से की जा रही है। मतलब यह है कि तुममें आख़िर क्या ख़ूबी है, कौन-से लाल तुम्हारे लटके हुए हैं कि जिस इनकार और झुठलाने और हठधर्मी के रवैये पर दूसरी क़ौमों को सज़ा दी जा चुकी है वही रवैया तुम अपनाओ तो तुम्हें सज़ा न दी जाए?
أَمۡ يَقُولُونَ نَحۡنُ جَمِيعٞ مُّنتَصِرٞ ۝ 39
(44) या इन लोगों का कहना यह है कि “हम एक मज़बूत जत्था हैं, अपना बचाव कर लेंगे?”
سَيُهۡزَمُ ٱلۡجَمۡعُ وَيُوَلُّونَ ٱلدُّبُرَ ۝ 40
(45) बहुत जल्द यह जत्था हार जाएगा और ये सब पीठ फेरकर भागते नज़र आएँगे।24
24. यह साफ़ पेशीनगोई (भविष्यवाणी) है जो हिजरत से पाँच साल पहले कर दी गई थी कि क़ुरैश का जत्था, जिसकी ताक़त का उन्हें बड़ा घमण्ड था, बहुत जल्द मुसलमानों से हार जाएगा। उस वक़्त कोई शख़्स यह सोच तक नहीं सकता था कि बहुत जल्द आनेवाले वक़्त में यह इनक़िलाब कैसे होगा। मुसलमानों की बेबसी का हाल यह था कि उनमें से एक गरोह मुल्क छोड़कर हबश में पनाह ले चुका था, और बाक़ी बचे हुए ईमानवाले अबू-तालिब की घाटी में क़ैद थे जिन्हें क़ुरैश के बाईकाट और क़ैद ने भूखों मार दिया था। इस हालत में कौन यह समझ सकता था कि सात ही साल के अन्दर नक़शा बदल जानेवाला है! हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) के शागिर्द इकरिमा (रह०) की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) फ़रमाते थे, “जब सूरा-51 क़मर की यह आयत उतरी तो मैं हैरान था कि आख़िर यह कौन-सा जत्था है जो हार जाएगा? मगर जब बद्र की जंग में इस्लाम-दुश्मन हारकर भाग रहे थे उस वक़्त मैंने देखा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ज़िरह (लोहे का कवच) पहने हुए आगे की तरफ़ झपट रहे हैं और आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान पर ये अलफ़ाज़ जारी हैं 'बहुत जल्द यह जत्था हार जाएगा और ये सब पीठ फेरकर भागते नज़र आएँगे।' तब मेरी समझ में आया कि यह थी वह शिकस्त (हार) जिसकी ख़बर दी गई थी। (इब्जे-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम)
بَلِ ٱلسَّاعَةُ مَوۡعِدُهُمۡ وَٱلسَّاعَةُ أَدۡهَىٰ وَأَمَرُّ ۝ 41
(46) बल्कि इनसे निमटने केलिए अस्ल वादे का वक़्त तो क़ियामत है और वह बड़ी आफ़त और ज़्यादा तल्ख़ घड़ी है।
إِنَّ ٱلۡمُجۡرِمِينَ فِي ضَلَٰلٖ وَسُعُرٖ ۝ 42
(47) ये मुजरिम लोग हक़ीक़त में ग़लतफ़हमी में मुब्तला हैं और इनकी अक़्ल मारी गई है।
يَوۡمَ يُسۡحَبُونَ فِي ٱلنَّارِ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ ذُوقُواْ مَسَّ سَقَرَ ۝ 43
(48) जिस दिन ये मुँह के बल आग में घसीटे जाएँगे, उस दिन इनसे कहा जाएगा कि अब चखो जहन्नम की लपट का मज़ा।
إِنَّا كُلَّ شَيۡءٍ خَلَقۡنَٰهُ بِقَدَرٖ ۝ 44
(49) हमने हर चीज़ एक तक़दीर के साथ पैदा की है,25
25. यानी दुनिया की कोई चीज़ भी अलल-टप नहीं पैदा कर दी गई है, बल्कि हर चीज़ की एक तक़दीर है जिसके मुताबिक़ वह एक मुक़र्रर वक़्त पर बनती है, एक ख़ास शक्ल अपनाती है, एक ख़ास हद तक पलती-बढ़ती है, एक ख़ास मुद्दत तक बाक़ी रहती है और एक ख़ास वक़्त पर ख़त्म हो जाती है। इसी आलमगीर ज़ाबिते (विश्वव्यापी नियम) के मुताबिक़ ख़ुद इस दुनिया की भी एक तक़दीर है जिसके मुताबिक़ एक ख़ास वक़्त तक यह चल रही है और एक ख़ास वक़्त ही पर इसे ख़त्म होना है। जो वक़्त इसके ख़ातिमे के लिए मुक़र्रर कर दिया गया है न उससे एक घड़ी पहले यह ख़त्म होगी, न उसके एक घड़ी बाद यह बाक़ी रहेगी। यह न अज़ली और अबदी है कि हमेशा से हो और हमेशा क़ायम रहे और न किसी बच्चे का खिलौना है कि जब तुम कहो उसी वक़्त वह उसे तोड़-फोड़कर दिखा दे।
وَمَآ أَمۡرُنَآ إِلَّا وَٰحِدَةٞ كَلَمۡحِۭ بِٱلۡبَصَرِ ۝ 45
(50) और हमारा हुक्म बस एक ही हुक्म होता है और पलक झपकाते वह अमल में आ जाता है।26
26. यानी क़ियामत बरपा करने के लिए हमें कोई बड़ी तैयारी नहीं करनी होगी और न उसे लाने में कोई बड़ी मुद्दत लगेगी। हमारी तरफ़ से बस एक हुक्म होने की देर है। उसके होते ही पलक झपकाते वह बरपा हो जाएगी।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَآ أَشۡيَاعَكُمۡ فَهَلۡ مِن مُّدَّكِرٖ ۝ 46
(51) तुम जैसे बहुत-सों को हम हलाक कर चुके हैं,27 फिर है कोई नसीहत क़ुबूल करनेवाला?
27. यानी अगर तुम यह समझते हो कि यह किसी एक अकेले हिकमतवाले और इनसाफ़वाले ख़ुदा की ख़ुदाई नहीं, बल्कि किसी अन्धे राजा की चौपट नगरी है जिसमें आदमी जो कुछ चाहे करता फिरे, कोई उससे पूछ-गछ करनेवाला नहीं है, तो तुम्हारी आँखें खोलने के लिए इनसानी तारीख़़ मौजूद है जिसमें इसी डगर पर चलनेवाली क़ौमें लगातार तबाह की जाती रही हैं।
وَكُلُّ شَيۡءٖ فَعَلُوهُ فِي ٱلزُّبُرِ ۝ 47
(52) जो कुछ इन्होंने किया है वह सब ऱजिस्टरों में दर्ज है
وَكُلُّ صَغِيرٖ وَكَبِيرٖ مُّسۡتَطَرٌ ۝ 48
(53) और हर छोटी-बड़ी बात लिखी हुई मौजूद है।28
28. यानी ये लोग इस ग़लतफ़हमी में भी न रहें कि इनका किया-धरा कहीं ग़ायब हो गया है। नहीं, हर आदमी, हर गरोह और हर क़ौम का पूरा-पूरा रिकार्ड महफ़ूज़ है और अपने वक़्त पर वह सामने आ जाएगा।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَنَهَرٖ ۝ 49
(54) नाफ़रमानी से परहेज़ करनेवाले यक़ीनन बाग़ों और नहरों में होंगे,
فِي مَقۡعَدِ صِدۡقٍ عِندَ مَلِيكٖ مُّقۡتَدِرِۭ ۝ 50
(55) सच्ची इज़्ज़त की जगह, बड़ी इक़तिदार (ताक़त) वाले बादशाह के क़रीब।
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ لُوطِۭ بِٱلنُّذُرِ ۝ 51
(33) लूत की क़ौम ने तंबीहों (चेतावनियों) को झुठलाया
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ حَاصِبًا إِلَّآ ءَالَ لُوطٖۖ نَّجَّيۡنَٰهُم بِسَحَرٖ ۝ 52
(34) और हमने पथराव करनेवाली हवा उसपर भेज दी। सिर्फ़ लूत के घरवाले उससे बचे रहे। उनको हमने अपनी मेहरबानी से रात के पिछले पहर बचाकर निकाल दिया।
نِّعۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَاۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي مَن شَكَرَ ۝ 53
(35) यह बदला देते हैं हम हर उस शख़्स को जो शुक्रगुज़ार होता है।
وَلَقَدۡ أَنذَرَهُم بَطۡشَتَنَا فَتَمَارَوۡاْ بِٱلنُّذُرِ ۝ 54
(36) लूत ने अपनी क़ौम के लोगों को हमारी पकड़ से ख़बरदार किया, मगर वे सारी तंबीहों (चेतावनियों) को शकवाली समझकर बातों में उड़ाते रहे।