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سُورَةُ فَاطِرٍ

 35. फ़ातिर

(मक्का में उतरी, आयतें 45)

परिचय

नाम

पहली ही आयत का शब्द 'फ़ातिर' (बनानेवाला) को इस सूरा का शीर्षक बना दिया गया है, जिसका अर्थ केवल यह है कि यह वह सूरा है जिसमें ‘फ़ातिर' शब्द आया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली के आन्तरिक साक्ष्यों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय शायद मक्का मुअज़्ज़मा का मध्यकाल है और उसका भी वह भाग जिसमें विरोध में काफ़ी तेज़ी आ चुकी थी।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य यह है कि नबी (सल्ल०) की तौहीद की दावत (एकेश्वरवादी आमंत्रण) के मुक़ाबले में जो रवैया उस समय मक्कावालों और उनके सरदारों ने अपना रखा था, उसपर नसीहत के रूप में उनको चेतावनी दी और उनकी निंदा भी की जाए और शिक्षा देने की शैली में समझाया-बुझाया भी जाए। वार्ता का सार यह है कि मूर्खो! यह नबी जिस राह की ओर तुमको बुला रहा है, उसमें तुम्हारा अपना भला है । इसपर तुम्हारा क्रोध और उसको विफल करने के लिए तुम्हारी चालें वास्तव में उसके विरुद्ध नहीं, बल्कि तुम्हारे अपने विरुद्ध पड़ रही हैं। वह जो कुछ तुमसे कह रहा है, उसपर ध्यान तो दो कि उसमें ग़लत क्या बात है? वह शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन करता है, वह तौहीद की दावत देता है, वह तुमसे कहता है कि दुनिया की इस ज़िन्दगी के बाद एक और ज़िन्दगी है जिसमें हर एक को अपने किए का नतीजा देखना होगा। तुम ख़ुद सोचो कि इन बातों पर तुम्हारे सन्देह और अचंभे कितने आधारहीन हैं। अब अगर इन पूर्ण तर्कसंगत और सत्य पर आधारित बातों को तुम नहीं मानते हो, तो इसमें नबी की क्या हानि है। शामत तो तुम्हारी अपनी ही आएगी। वार्ता-क्रम में बार-बार नबी (सल्ल०) को तसल्ली दी गई है कि आप जिस नसीहत का हक़ पूरी तरह अदा कर रहे हैं, तो गुमराही पर आग्रह करनेवालों के सीधा रास्ता स्वीकार न करने की कोई ज़िम्मेदारी आपके ऊपर नहीं आती। इसके साथ आपको यह भी समझा दिया गया है कि जो लोग नहीं मानना चाहते, उनके रवैये पर न आप दुखी हों और न उन्हें सीधे रास्ते पर लाने की चिन्ता में अपनी जान घुलाएँ, इसके बजाय आप अपना ध्यान उन लोगों पर लगाएँ जो बात सुनने के लिए तैयार हैं। ईमान अपनानेवालों को भी इसी सिलसिले में बड़ी शुभ सूचनाएँ दी गई हैं, ताकि उनके दिल मज़बूत हों और वे अल्लाह के वादों पर भरोसा करके सत्य-मार्ग पर जमे रहें।

 

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سُورَةُ فَاطِرٍ
35. फ़ातिर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ جَاعِلِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ رُسُلًا أُوْلِيٓ أَجۡنِحَةٖ مَّثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۚ يَزِيدُ فِي ٱلۡخَلۡقِ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ
(1) तारीफ़ अल्लाह ही के लिए है जो आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला और फ़रिश्तों को पैग़ाम पहुँचाने के लिए मुक़र्रर करनेवाला है।'1 (ऐसे फ़रिश्ते) जिनके दो-दो और तीन-तीन और चार-चार बाजू हैं।2 वह अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) की बनावट में, जैसा चाहता है, इज़ाफ़ा करता है।3 यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
1. इसका मतलब यह भी हो सकता है कि ये फ़रिश्ते अल्लाह तआला और उसके नबियों (अलैहि०) के बीच पैग़ाम पहुँचाने का काम करते हैं और यह भी कि तमाम कायनात में अल्लाह तआला के हुक्मों को ले जाना और उनको लागू करना इन्हीं फ़रिश्तों का काम है। ज़िक्र का मक़सद यह हक़ीक़त मन में बिठाना है कि ये फ़रिश्ते जिनको मुशरिक लोग देवी-देवता बनाए बैठे हैं, इनकी हैसियत एक अल्लाह के, जिसका कोई साझी नहीं, फ़रमाँबरदार ख़ादिमों से ज़्यादा कुछ नहीं है। जिस तरह किसी बादशाह के ख़ादिम उसके हुक्मों पर अमल करने के लिए दौड़ते-फिरते हैं, उसी तरह ये फ़रिश्ते कायनात के अस्ली बादशाह की सेवा करने के लिए उड़े फिरते हैं। इन ख़ादिमों के बस में कुछ नहीं है। सारे अधिकार अस्ल बादशाह के हाथ में हैं।
2. हमारे पास यह जानने का कोई ज़रिआ नहीं है कि इन फ़श्तिों के बाज़ुओं और पंखों की कैफ़ियत क्या है। मगर जब अल्लाह तआला ने इस कैफ़ियत को बयान करने के लिए दूसरे अलफ़ाज़ के बजाय वह लफ़्ज इस्तेमाल किया है जो इनसानी ज़बान में परिन्दों के बाज़ुओं के लिए इस्तेमाल होता है तो यह तसव्वुर ज़रूर किया जा सकता है कि हमारी ज़बान का यही लफ़्ज़ अस्ल कैफ़ियत से ज़्यादा क़रीब है। दो-दो और तीन-तीन और चार-चार बाज़ुओं के ज़िक्र से यह ज़ाहिर होता है कि अलग-अलग फ़रिश्तों को अल्लाह तआला ने अलग-अलग दरजे की ताक़तें दी हैं और जिससे जैसा काम लेना दरकार है, उसको वैसी ही ज़बरदस्त तेज़ रफ़्तार और काम की ताक़त दी गई है।
3. इन अलफ़ाज़ से ज़ाहिर होता है कि फ़रिश्तों के बाज़ुओं की आख़िरी तादाद चार ही तक महदूद (सीमित) नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला ने कुछ फ़रिश्तों को इससे ज़्यादा बाजू दिए हैं। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने जिबरील (अलैहि०) को एक बार इस शक्ल में देखा कि उनके छः सौ बाजू थे। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी)। हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि “नबी (सल्ल०) ने जिबरील को दो बार उनकी अस्ली शक्ल में देखा है, उनके छ: सौ बाज़ू थे और वे पूरे आसमान पर छाए हुए थे।" (हदीस : तिरमिज़ी)
مَّا يَفۡتَحِ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ مِن رَّحۡمَةٖ فَلَا مُمۡسِكَ لَهَاۖ وَمَا يُمۡسِكۡ فَلَا مُرۡسِلَ لَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 1
(2) अल्लाह जिस रहमत का दरवाज़ा भी लोगों के लिए खोल दे, उसे कोई रोकनेवाला नहीं और जिसे वह बन्द कर दे, उसे अल्लाह के बाद फिर कोई दूसरा खोलनेवाला नहीं।4 वह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।5
4. इसका मक़सद भी मुशरिकों की इस ग़लतफ़हमी को दूर करना है कि अल्लाह के बन्दों में से कोई उन्हें रोज़गार दिलानेवाला और कोई उनको औलाद देनेवाला और कोई उनके बीमारों को तन्दुरुस्ती देनेवाला है। शिर्क के ये तमाम तसव्वुरात (धारणाएँ) बिलकुल बेबुनियाद हैं और ख़ालिस हक़ीक़त सिर्फ़ यह है कि जिस तरह की रहमत भी बन्दों को पहुँचती है, सिर्फ़ अल्लाह तआला की मेहरबानी से पहुँचती है। कोई दूसरा न उसके देने की क़ुदरत रखता है, न रोक देने की ताक़त रखता है। यह बात क़ुरआन मजीद और हदीसों में बहुत-सी जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से बयान की गई है, ताकि इनसान दर-दर की भीख माँगने और हर आस्ताने पर हाथ फैलाने से बचे और इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि उसकी क़िस्मत का बनना और बिगड़ना एक अल्लाह के सिवा किसी दूसरे के बस में नहीं है।
5. ज़बरदस्त है, यानी सबपर ग़ालिब (प्रभावी) और पूरे इक़तिदार (सम्प्रभुत्त्व) का मालिक है। कोई उसके फ़ैसलों को लागू होने से नहीं रोक सकता और इसके साथ ही वह हिकमतवाला भी है। जो फ़ैसला भी वह करता है सरासर हिकमत की बुनियाद पर करता है। किसी को देता है तो इसलिए देता है कि हिकमत का तक़ाज़ा यही है और किसी को नहीं देता तो इसलिए नहीं देता कि उसे देना हिकमत के ख़िलाफ़ है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ هَلۡ مِنۡ خَٰلِقٍ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 2
(3) लोगो, तुमपर अल्लाह के जो एहसान हैं, उन्हें याद रखो।6 क्या अल्लाह के सिवा कोई और पैदा करनेवाला भी है जो तुम्हें आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता हो? कोई माबूद उसके सिवा नहीं, आख़िर तुम कहाँ से धोखा खा रहे हो?'7
6. यानी एहसान भूल जानेवाले न बनो। नमक-हरामी न करो। इस हक़ीक़त को न भूल जाओ कि तुम्हें जो कुछ भी हासिल है, अल्लाह का दिया हुआ है। दूसरे अलफ़ाज़ में यह जुमला इस बात पर ख़बरदार कर रहा है कि जो शख़्स भी अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी और पूजा करता है, या किसी नेमत को अल्लाह के सिवा किसी दूसरी हस्ती की देन और बख़्शिश समझता है, या किसी नेमत के मिलने पर अल्लाह के सिवा किसी और का शुक्र अदा करता है, या कोई नेमत माँगने के लिए अल्लाह के सिवा किसी और से दुआ करता है, वह बहुत बड़ा एहसान-फ़रामोश (नाशुक्रा) है।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كُذِّبَتۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 3
(4) अब अगर (ऐ नबी) ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं8 (तो यह कोई नई बात नहीं), तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं और सारे मामले आख़िरकार अल्लाह ही की तरफ़ पलटनेवाले हैं9
8. यानी तुम्हारी इस बात को नहीं मानते कि अल्लाह के सिवा इबादत का हक़दार कोई नहीं है और तुमपर यह इलज़ाम रखते हैं कि तुम पैग़म्बरी का एक झूठा दावा लेकर खड़े हो गए हो।
9. यानी फ़ैसला लोगों के हाथ में नहीं है कि जिसे वे झूठा कह दें वह हक़ीक़त में झूठा हो जाए। फ़ैसला तो अल्लाह के हाथ में है। वह आख़िरकार बता देगा कि झूठा कौन था और जो हक़ीक़त में झूठे हैं उन्हें उनका अंजाम भी दिखा देगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ فَلَا تَغُرَّنَّكُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَلَا يَغُرَّنَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 4
(5) लोगो, अल्लाह का वादा यक़ीनन सही है,10 इसलिए दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हें धोखे में न डाले11 और न वह बड़ा धोखेबाज़ तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखा देने पाए।12
10. वादे से मुराद आख़िरत का वादा है जिसकी तरफ़ ऊपर के इस जुमले में इशारा किया गया था कि तमाम मामले आख़िरकार अल्लाह के सामने पेश होनेवाले हैं।
11. यानी इस धोखे में कि जो कुछ है बस यही दुनिया है, इसके बाद कोई आख़िरत नहीं है। जिसमें कामों (कर्मों का हिसाब होनेवाला हो। या इस धोखे में कि अगर कोई आख़िरत है भी है तो जो इस दुनिया में मज़े कर रहा है, वह वहाँ भी मज़े करेगा।
12. 'बड़े धोखेबाज़' से मुराद यहाँ शैतान है, जैसा कि आगे का जुमला बता रहा है और 'अल्लाह के बारे में' धोखा देने से मुराद यह है कि वह कुछ लोगों को तो यह समझाए कि ख़ुदा सिरे से मौजूद ही नहीं है और कुछ लोगों को इस ग़लतफ़हमी में डाले कि ख़ुदा एक बार बस दुनिया को हरकत देकर अलग जा बैठा है, अब उसे अपनी बनाई हुई इस कायनात से अमती तौर पर कोई मतलब नहीं है और कुछ लोगों को यह चकमा दे कि ख़ुदा कायनात का इन्तिज़ाम तो बेशक कर रहा है, मगर उसने इनसानों की रहनुमाई करने का कोई ज़िम्मा नहीं लिया है, इसलिए यह वह्य और रिसालत सिर्फ़ एक ढकोसला है और कुछ लोगों को यह झूठे भरोसे दिलाए कि अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है, तुम चाहे कितने ही गुनाह करो, वह माफ़ कर देगा और उसके कुछ प्यारे ऐसे हैं कि उनका दामन थाम लो तो बेड़ा पार है।
إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لَكُمۡ عَدُوّٞ فَٱتَّخِذُوهُ عَدُوًّاۚ إِنَّمَا يَدۡعُواْ حِزۡبَهُۥ لِيَكُونُواْ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 5
(6) हक़ीक़त में शैतान तुम्हारा दुश्मन है, इसलिए तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझो। वह तो अपनी पैरवी करनेवालों को अपनी राह पर इसलिए बुला रहा है कि वे जहन्नमवालों में शामिल हो जाएँ।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٌ ۝ 6
(7) जो लोग कुफ़्र (हक़ का इनकार) करेंगे13 उनके लिए सख़्त अज़ाब है और जो ईमान लाएँगे और नेक अमल करेंगे, उनके लिए माफ़ी और बड़ा बदला है।14
13. यानी ख़ुदा की किताब और उसके रसूल की इस दावत और पैग़ाम को मानने से इनकार कर देंगे।
14. यानी अल्लाह तआला उन ग़लतियों को अनदेखा करेगा और जो अच्छे काम उन्होंने किए होंगे, उनका सिर्फ़ बराबर-सराबर बदला देकर न रह जाएगा, बल्कि उन्हें बड़ा इनाम देगा।
أَفَمَن زُيِّنَ لَهُۥ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ فَرَءَاهُ حَسَنٗاۖ فَإِنَّ ٱللَّهَ يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۖ فَلَا تَذۡهَبۡ نَفۡسُكَ عَلَيۡهِمۡ حَسَرَٰتٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 7
(8) (भला15 कुछ ठिकाना है उस आदमी की गुमराही का) जिसके लिए उसका बुरा अमल (काम) लुभावना बना दिया गया हो और वह उसे अच्छा समझ रहा हो?16 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है। तो (ऐ नबी) ख़ाह-मख़ाह तुम्हारी जान इन लोगों की ख़ातिर ग़म और अफ़सोस में न घुले17 जो कुछ ये कर रहे हैं अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।18
15. ऊपर के दो पैराग्राफ़ आम लोगों को मुख़ातब (सम्बोधित) करके कहे गए थे। अब इस पैराग्राफ़ में गुमराही के उन अलमबरदारों का ज़िक्र हो रहा है जो नबी (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे थे।
16. यानी एक बिगड़ा हुआ आदमी तो वह होता है जो बुरा काम तो करता है, मगर यह जानता और मानता है कि जो कुछ वह कर रहा है, बुरा कर रहा है। ऐसा आदमी समझाने से भी दुरुस्त हो सकता है और कभी ख़ुद उसका अपना ज़मीर (अन्तरात्मा और मन) भी उसे बुरा-भला कहकर उसे सही रास्ते पर ला सकता है, क्योंकि उसकी सिर्फ़ आदतें ही बिगड़ी हैं। ज़ेहन नहीं बिगड़ा। लेकिन एक दूसरा आदमी ऐसा होता है जिसका ज़ेहन बिगड़ चुका होता है, जिसमें बुरे-भले का फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहता, जिसके लिए गुनाह की ज़िन्दगी एक पसन्दीदा और रौशन ज़िन्दगी होती है, जो भलाई से घिन खाता है और बुराई को ठीक तहज़ीब (संस्कृति) और सक़ाफ़त (सभ्यता) समझता है, जो नेकी और परहेज़गारी को दक़ियानूसियत (रूढ़िवादिता) और गुनाह और सरकशी के कामों को तरक़्क़ी पसन्दी समझता है, जिसकी निगाह में हिदायत, गुमराही और गुमराही, सरासर हिदायत बन जाती है। ऐसे आदमी पर कोई नसीहत काम नहीं करती। वह न ख़ुद अपनी बेवक़ूफ़ियों पर ख़बरदार होता है और न किसी समझानवाले की बात सुनकर देता है। ऐसे आदमी के पीछे पड़ना बेकार है। उसे हिदायत देने की फ़िक्र में अपनी जान घुलाने के बजाय हक़ की दावत देनेवाले को उन लोगों की तरफ़ ध्यान देना चाहिए जिनके ज़मीर में अभी ज़िन्दगी बाक़ी हो और जिन्होंने अपने दिल के दरवाज़े हक़ की आवाज़ के लिए बन्द न कर लिए हों।
17. पहले जुमले और इस जुमले के बीच यह कहना कि “अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है” साफ़ तौर पर यह मतलब दे रहा है। कि जो लोग इस हद तक अपने ज़ेहन को बिगाड़ लेते हैं, अल्लाह तआला उनको हिदायत की तौफ़ीक़ (सौभाग्य) से महरूम कर देता है और उन्हीं राहों में भटकने के लिए उन्हें छोड़ देता है जिनमें भटकते रहने पर वे ख़ुद अड़े होते हैं। यह हक़ीक़त समझाकर अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को नसीहत करता है कि ऐसे लोगों को सीधे रास्ते पर ले आना तुम्हारे बस में नहीं है। इसलिए उनके मामले में सब्र कर लो और जिस तरह अल्लाह को उनकी परवाह नहीं रही है, तुम भी उनके हाल पर दुखी होना छोड़ दो। इस जगह पर दो बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ। एक यह कि यहाँ जिन लोगों का ज़िक्र हो रहा है वे आम लोग नहीं थे, बल्कि मक्का के वे सरदार थे जो नबी (सल्ल०) की दावत को नाकाम करने के लिए हर झूठ, हर फ़रेब और हर चालबाज़ी से काम ले रहे थे। ये लोग हक़ीक़त में नबी (सल्ल०) के बारे में किसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला नहीं थे। ख़ूब जानते थे कि आप (सल्ल०) किस चीज़ की तरफ़ बुला रहे हैं और आप (सल्ल०) के मुक़ाबले में वे ख़ुद किन जहालतों और अख़लाक़ी बुराइयों को बनाए रखने के लिए कोशिश कर रहे हैं। यह सब कुछ जानने और समझ लेने के बाद ठण्डे दिल से उनका फ़ैसला यह था कि मुहम्मद (सल्ल०) की बात को नहीं चलने देना है और इस ग़रज़ के लिए उन्हें कोई ओछे-से-ओछा हथियार और कोई घटिया-से-घटिया हथकण्डा इस्तेमाल करने में झिझक न थी। अब यह ज़ाहिर बात है कि जो लोग जान-बूझकर और आपस में मशवरे कर-करके आए दिन एक नया झूठ गढ़ें और उसे किसी शख़्स के ख़िलाफ़ फैलाएँ, वे दुनिया भर को धोखा दे सकते हैं, मगर ख़ुद अपने आपको तो वे झूठा जानते हैं और ख़ुद उनसे तो यह बात छिपी हुई नहीं होती कि जिस शख़्स पर उन्होंने एक इलज़ाम लगाया है वह उससे बरी है। फिर अगर वह आदमी, जिसके ख़िलाफ़ ये झूठे हथियार इस्तेमाल किए जा रहे हों, उनके जवाब में कभी सच्चाई और सही रास्ते से हटकर कोई बात न करे तो इन ज़ालिमों से यह बात भी कभी छिपी नहीं रह सकती कि उनके मुक़ाबले पर एक सच्चा और खरा इनसान है। इसपर भी जिन लोगों को अपने करतूतों पर ज़रा शर्म न आए और वे सच्चाई का मुक़ाबला लगातार झूठ से करते ही चले जाएँ, उनका यह रवैया ख़ुद ही इस बात पर गवाही देता है कि अल्लाह की फिटकार उनपर पड़ चुकी है और इनमें बुरे-भले का कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहा है। दूसरी बात जिसे इस मौक़े पर समझ लेना चाहिए, वह यह है कि अगर अल्लाह तआला के सामने सिर्फ़ अपने रसूल को उनके मामले की असलियत समझाना होता तो वह ख़ुफ़िया तौर से सिर्फ़ आप (सल्ल०) को समझा सकता था। इस ग़रज़ के लिए क़ुरआन में खुल्लम-खुल्ला उसके ज़िक्र की ज़रूरत न थी। क़ुरआन मजीद में उसे बयान करने और दुनिया भर को सुना देने का मक़सद अस्ल में आम लोगों को ख़बरदार करना था कि जिन लीडरों और पेशवाओं के पीछे तुम आँखें बन्द किए चले जा रहे हो, वे कैसे बिगड़े हुए ज़ेहन के लोग हैं और उनकी बेहूदा हरकतें किस तरह मुँह से पुकार-पुकारकर बता रही हैं कि उनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है।
18. इस जुमले में आप-से-आप यह धमकी छिपी है कि एक वक़्त आएगा जब अल्लाह तआला उन्हें इन करतूतों की सज़ा देगा। किसी हाकिम का किसी मुजरिम के बारे में यह कहना कि मैं उसकी हरकतों को अच्छी तरह जानता हूँ, सिर्फ़ यही मतलब नहीं देता कि हाकिम को उसकी हरकतों की जानकारी है, बल्कि इसमें यह तंबीह (चेतावनी) लाज़िमन छिपी होती है कि मैं उसकी ख़बर लेकर रहूँगा।
وَٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَسُقۡنَٰهُ إِلَىٰ بَلَدٖ مَّيِّتٖ فَأَحۡيَيۡنَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ كَذَٰلِكَ ٱلنُّشُورُ ۝ 8
(9) वह अल्लाह ही तो है जो हवाओं को भेजता है, फिर वे बादल उठाती है फिर हम उसे एक उजाड़ इलाक़े की तरफ़ ले जाते हैं और उसके ज़रिए से उसी ज़मीन को जिला उठाते हैं जो मरी पड़ी थी। मरे हुए इनसानों का जी उठना भी इसी तरह होगा।19
19. यानी ये नादान लोग आख़िरत को नामुमकिन समझते हैं और इसी लिए अपनी जगह इस ख़याल में मगन हैं कि दुनिया में ये चाहे कुछ करते रहें बहरहाल वह वक़्त कभी आना नहीं है जब इन्हें जवाबदेही के लिए ख़ुदा के सामने हाज़िर होना पड़ेगा। लेकिन यह सिर्फ़ एक भूल है जिसमें ये पड़े हैं। क़ियामत के दिन तमाम अगले-पिछले मरे हुए इनसान अल्लाह तआला के एक इशारे पर बिलकुल उसी तरह एकाएक जी उठेंगे जिस तरह बारिश होते ही सूनी पड़ी हुई धरती एकाएक लहलहा उठती है और मुद्दतों की मरी हुई जड़ें हरी-भरी होकर ज़मीन की तहों में से सर निकालना शुरू कर देती हैं।
مَن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡعِزَّةَ فَلِلَّهِ ٱلۡعِزَّةُ جَمِيعًاۚ إِلَيۡهِ يَصۡعَدُ ٱلۡكَلِمُ ٱلطَّيِّبُ وَٱلۡعَمَلُ ٱلصَّٰلِحُ يَرۡفَعُهُۥۚ وَٱلَّذِينَ يَمۡكُرُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۖ وَمَكۡرُ أُوْلَٰٓئِكَ هُوَ يَبُورُ ۝ 9
(10) जो कोई इज़्ज़त चाहता हो, उसे मालूम होना चाहिए कि इज़्ज़त सारी की सारी अल्लाह की है।20 उसके यहाँ जो चीज़ ऊपर चढ़ती है, वह सिर्फ़ पाकीज़ा बात है और अच्छा अमल उसको ऊपर चढ़ाता है।21 रहे वे लोग जो बेहूदा चालबाज़ियाँ करते हैं,22 उनके लिए सख़्त अज़ाब है और उनकी चालबाज़ी ख़ुद ही बरबाद होनेवाली है।
20. यह बात ध्यान में रहे कि क़ुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले कुछ भी कर रहे थे अपनी इज़्ज़त और अपने वक़ार (गरिमा) की ख़ातिर कर रहे थे। उनका ख़याल यह था कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) की बात चल गई तो हमारी बड़ाई ख़त्म हो जाएगी, हमारा असर और रुसूख़ ख़त्म हो जाएगा और हमारी जो इज़्ज़त सारे अरब में बनी हुई है, वह मिट्टी में मिल जाएगी। इसपर कहा जा रहा है कि ख़ुदा से कुफ़्र और बग़ावत करके जो इज़्ज़त तुमने बना रखी है, यह तो एक झूठी इज़्ज़त है, जिसके लिए मिट्टी ही में मिलना मुक़द्दर है। हक़ीक़ी और पायदार इज़्ज़त जो दुनिया से लेकर आख़िरत तक कभी बेइज़्ज़ती में नहीं बदल सकती, सिर्फ़ ख़ुदा की बन्दगी ही में मिल सकती है। उसके हो जाओगे तो वह तुम्हें मिल जाएगी और उससे मुँह मोड़ोगे तो बेइज़्ज़त और रुसवा होकर रहोगे।
21. यह है इज़्ज़त हासिल करने का अस्ल ज़रिआ। अल्लाह के यहाँ झूठे, गन्दे और बिगाड़ पैदा करनेवाले बोलों को कभी तरक़्क़ी नहीं मिलती। उसके यहाँ तो सिर्फ़ वह बोल तरक़्क़ी पाता है जो सच्चा हो, पाकीज़ा हो, जिसकी बुनियाद हक़ीक़त पर हो और जिसमें नेक नीयती के साथ एक भले अक़ीदे और सोचने के एक सही ढंग को बयान किया गया हो। फिर जो चीज़ एक पाकीज़ा कलिमे को तरक़्क़ी की तरफ़ ले जाती है, वह क़ौल (बात) के मुताबिक़ अमल है। जहाँ बात बड़ी पाकीज़ा हो, मगर अमल उसके ख़िलाफ़ हो, वहाँ बात की पाकीज़गी ठिठुरकर रह जाती है। सिर्फ़ ज़बान के फाग उड़ाने से कोई कलिमा बुलन्द नहीं होता। उसे तरक़्क़ी पहुँचाने के लिए नेक अमल का ज़ोर दरकार होता है। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद अच्छे बोल (बात) और नेक अमल को एक-दूसरे के लिए लाज़िम की हैसियत से पेश करता है। कोई अमल सिर्फ़ अपनी ज़ाहिरी शक्ल के एतिबार से नेक नहीं हो सकता जब तक उसकी पीठ पर सही अक़ीदा न हो और कोई सही अक़ीदा ऐसी हालत में भरोसे के क़ाबिल नहीं हो सकता जब तक कि आदमी का अमल उसकी ताईद और तसदीक़ (पुष्टि) न कर रहा हो। एक शख़्स अगर ज़बान से कहता है कि मैं सिर्फ़ एक अल्लाह को, जिसका कोई शरीक नहीं, माबूद (उपास्य) मानता हूँ, मगर अमली तौर पर वह अल्लाह के अलावा दूसरों की इबादत करता है तो उसका यह अमल उसको कही हुई बात झुठला देता है। एक आदमी अगर ज़बान से कहता है कि मैं शराब को हराम मानता हूँ, मगर अमली तौर से वह शराब पीता है तो उसका यह सिर्फ़ कहना न दुनियावालों की निगाह में मक़ुबूल (पसन्दीदा) हो सकता है, न ख़ुदा के यहाँ उसे कोई पसन्दीदगी मिल सकती है।
22. यानी बातिल (झूठे) और गन्दे कलिमे (बोल) लेकर उठते हैं, उनको चालाकियों से, धोखेबाज़ियों से और लुभावनी दलीलों से बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं और उनके मुक़ाबले में सच्चे कलिमे को नीचा दिखाने के लिए कोई बुरी-से-बुरी तदबीर इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते।
يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ لَهُ ٱلۡمُلۡكُۚ وَٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ مَا يَمۡلِكُونَ مِن قِطۡمِيرٍ ۝ 10
(13) वह दिन के अन्दर रात को और रात के अन्दर दिन को पिरोता हुआ ले आता है।30 चाँद और सूरज को उसने ख़िदमत में लगा रखा है। यह सब कुछ एक मुक़र्रर वक़्त तक चले जा रहा है। वही अल्लाह (जिसके ये सारे काम हैं) तुम्हारा रब है। बादशाही उसी की है। उसे छोड़कर जिन दूसरों को तुम पुकारते हो वे एक तिनके32 के भी मालिक नहीं हैं।
30. यानी दिन की रौशनी धीरे-धीरे घटनी शुरू होती है और रात का अंधेरा बढ़ते-बढ़ते आख़िरकार पूरी तरह छा जाता है। इसी तरह रात के आख़िर में पहले उफ़ुक़ (क्षितिज) पर हल्की-सी रौशनी फूटती है और फिर धीरे-धीरे चमकता हुआ दिन निकल आता है।
31. एक ज़ाब्ते (नियम) का पाबन्द बना रखा है।
32. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'क़ितमीर' इस्तेमाल किया गया है जिससे मुराद वह पतली-सी झिल्ली है जो खजूर की गुठली पर होती है। लेकिन अस्ल मक़सद यह बताना है कि मुशरिकों के माबूद किसी मामूली-से-मामूली चीज़ के भी मालिक नहीं हैं। इसी लिए हमने लफ़्ज़ी तर्जमा छोड़कर वह तर्जमा किया है जो यहाँ मुराद है।
إِن تَدۡعُوهُمۡ لَا يَسۡمَعُواْ دُعَآءَكُمۡ وَلَوۡ سَمِعُواْ مَا ٱسۡتَجَابُواْ لَكُمۡۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكۡفُرُونَ بِشِرۡكِكُمۡۚ وَلَا يُنَبِّئُكَ مِثۡلُ خَبِيرٖ ۝ 11
(14) उन्हें पुकारो तो वे तुम्हारी दुआएँ सुन नहीं सकते और सुन लें तो उनका तुम्हें कोई जवाब नहीं दे सकते।33 और क़ियामत के दिन व तुम्हारे शिर्क का इनकार कर देंगे।34 हक़ीक़ते-हाल की ऐसी सही ख़बर तुम्हें एक ख़बरदार के सिवा कोई नहीं दे सकता।35
33. इसका मतलब यह नहीं है कि वे तुम्हारी दुआ के जवाब में पुकारकर यह नहीं कह सकते कि तुम्हारी दुआ क़ुबूल की गई या नहीं की गई, बल्कि इसका मतलब यह है कि वे तुम्हारी दरख़ास्तों पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। एक आदमी अगर अपनी दरख़ास्त किसी ऐसे आदमी के पास भेज देता है जो हाकिम नहीं है तो उसकी दरख़ास्त बेकार जाती है, क्योंकि वह जिसके पास भेजी गई है, उसके हाथ में सिरे से कोई अधिकार है ही नहीं, न रद्द करने का अधिकार और न क़ुबूल करने का अधिकार। अलबत्ता अगर वही दरख़ास्त उस हस्ती के पास भेजी जाए, जो सचमुच हाकिम हो तो उसपर ज़रूर कोई-न-कोई कार्रवाई होगी, फिर चाहे वह क़ुबूल करने की शक्ल में हो या रद्द करने की शक्ल में।
34. यानी वे साफ़ कह देंगे कि हमने उनसे कभी यह नहीं कहा था कि हम ख़ुदा के शरीक हैं, तुम हमारी इबादत किया करो, बल्कि हमें यह ख़बर भी न थी कि ये हमको तमाम जहानों के रब अल्लाह का शरीक ठहरा रहे हैं और हमसे दुआएँ, माँग रहे हैं। इनकी कोई दुआ हमें नहीं पहुँची और इनकी किसी भेंट और चढ़ावे की हम तक पहुँच नहीं हुई।
35. ख़बरदार से मुराद अल्लाह तआला ख़ुद है। मतलब यह है कि दूसरा कोई शख़्स तो ज़्यादा-से-ज़्यादा अक़्ली दलील से शिर्क को रद्द करेगा और मुशरिकों के माबूदों की बेबसी बयान करेगा। मगर हम अस्ल सूरते-हाल से सीधे तौर पर बाख़बर हैं। हम इल्म की बुनियाद पर तुम्हें बता रहे हैं कि लोगों ने जिन-जिन को भी हमारी ख़ुदाई में बाइख़्तियार (अधिकारवाला) ठहरा रखा है, वे सब बेइख़्तियार हैं। उनके पास कोई ताक़त नहीं है, जिससे वे किसी का कोई काम बना सकें या बिगाड़ सकें और हम सीधे तौर पर यह जानते हैं कि क़ियामत के दिन मुशरिकों के ये माबूद ख़ुद उनके शिर्क का इनकार कर देंगे।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ أَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 12
(15) लोगो, तुम्हीं अल्लाह के मुहताज हो36 और अल्लाह तो 'ग़नी' और 'हमीद' है।37
36. यानी इस ग़लत-फ़हमी में न रहो कि ख़ुदा तुम्हारा मुहताज है, तुम उसे ख़ुदा न मानोगे तो उसकी ख़ुदाई न चलेगी और तुम उसकी बन्दगी और इबादत न करोगे तो उसका कोई नुक़सान हो जाएगा। नहीं, अस्ल हक़ीक़त यह है कि तुम उसके मुहताज हो। तुम्हारी ज़िन्दगी एक पल के लिए भी क़ायम नहीं रह सकती, अगर वह तुम्हें ज़िन्दा न रखे और वे असबाब (साधन) तुम्हारे लिए न जुटाए जिनकी बदौलत तुम दुनिया में ज़िन्दा रहते हो और काम कर सकते हो। लिहाज़ा तुम्हें उसकी फ़रमाँबरदारी और इबादत करने की जो ताक़ीद की जाती है, वह इसलिए नहीं है कि ख़ुदा को इसकी ज़रूरत है, बल्कि इसलिए है कि इसी पर तुम्हारी अपनी दुनिया और आख़िरत की कामयाबी का दारोमदार है। ऐसा न करोगे तो अपना ही सब कुछ बिगाड़ लोगे, ख़ुदा का कुछ भी न बिगाड़ सकोगे।
37. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ग़नी' आया है। ग़नी से मुराद यह है कि वह हर चीज़ का मालिक है, हर एक से बेपरवाह और बेनियाज़ (निस्पृह) है, किसी की मदद का मुहताज नहीं है और 'हमीद' से मुराद यह है कि वह आप-से-आप महमूद (तारीफ़ किया हुआ) है, कोई उसकी 'हम्द' करे या न करे, मगर हम्द (शुक्र और तारीफ़) का हक़ उसी को पहुँचता है। इन दोनों सिफ़ात को एक साथ इसलिए लाया गया है कि सिर्फ़ 'ग़नी' तो वह भी हो सकता है जो अपनी दौलतमन्दी से किसी को फ़ायदा न पहुँचाए। इस सूरत वह 'ग़नी' तो होगा, 'हमीद' न होगा। ‘हमीद' वह इसी सूरत में हो सकता है जबकि वह किसी से ख़ुद तो कोई फ़ायदा न उठाए, मगर अपनी दौलत के ख़ज़ानों से दूसरों को हर तरह की नेमतें अता करे। अल्लाह तआला चूँकि इन दोनों सिफ़ात में मुकम्मल है इसलिए फ़रमाया गया है कि वह सिर्फ़ 'ग़नी' नहीं है, बल्कि ऐसा ‘ग़नी' है जिसे हर तारीफ़ और शुक्र का हक़ पहुँचता है, क्योंकि वह तुम्हारी और दुनिया में मौजूद तमाम चीज़ों की ज़रूरतें पूरी कर रहा है।
إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَأۡتِ بِخَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 13
(16) वह चाहे तो तुम्हें हटाकर कोई नई मख़लूक़ (लोग) तुम्हारी जगह ले आए,
وَمَا ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ بِعَزِيزٖ ۝ 14
(17) ऐसा करना अल्लाह के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं।38
38. यानी तुम कुछ अपने बल-बूते पर उसकी ज़मीन में नहीं दनदना रहे हो। उसका एक इशारा इस बात के लिए काफ़ी है कि तुम्हें यहाँ से चलता करे और किसी और क़ौम को तुम्हारी जगह उठा खड़ा करे। इसलिए अपनी औक़ात पहचानो और वह रवैया न अपनाओ जिससे आख़िरकार क़ौमों की शामत आया करती है। ख़ुदा की तरफ़ से जब किसी की शामत आती है तो सारी कायनात में कोई ताक़त ऐसी नहीं है जो उसका हाथ पकड़ सके और उसके फ़ैसले को लागू होने से रोक सके।
وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ وَإِن تَدۡعُ مُثۡقَلَةٌ إِلَىٰ حِمۡلِهَا لَا يُحۡمَلۡ مِنۡهُ شَيۡءٞ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰٓۗ إِنَّمَا تُنذِرُ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَمَن تَزَكَّىٰ فَإِنَّمَا يَتَزَكَّىٰ لِنَفۡسِهِۦۚ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 15
(18) कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा39 और अगर कोई लदा हुआ नफ़्स (प्राणी) अपना बोझ उठाने के लिए पुकारेगा तो उसके बोझ का एक छोटा सा हिस्सा भी बटाने के लिए कोई न आएगा, चाहे वह बहुत क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हो।40 (ऐ नबी,) तुम सिर्फ़ उन्हीं लोगों को ख़बरदार कर सकते हो जो बेदेखे अपने रब से डरते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं।41 जो शख़्स भी पाकीज़गी अपनाता है, अपनी ही भलाई के लिए अपनाता है। और पलटना सबको अल्लाह ही की तरफ़ है।
39. 'बोझ' से मुराद आमाल की ज़िम्मेदारियों का बोझ है। मतलब यह है कि अल्लाह के यहाँ हर शख़्स अपने अमल का ख़ुद ज़िम्मेदार है और हर एक पर सिर्फ़ उसके अपने ही अमल की ज़िम्मेदारी आती है। इस बात का कोई इमकान नहीं है कि एक शख़्स की ज़िम्मेदारी का बोझ अल्लाह तआला की तरफ़ से किसी दूसरे पर डाल दिया जाए और न यही मुमकिन है कि कोई आदमी किसी दूसरे की ज़िम्मेदारी का बोझ अपने ऊपर ले ले और उसे बचाने के लिए अपने आपको उसके जुर्म में पकड़वा दे। यह बात यहाँ इस वजह से कही जा रही है कि मक्का में जो लोग इस्लाम क़ुबूल कर रहे थे, उनसे उनके मुशरिक रिश्तेदार और बिरादरी के लोग कहते थे कि तुम हमारे कहने से इस नए दीन को छोड़ दो और बाप-दादा के दीन पर क़ायम रहो, अजाब-सवाब हमारी गर्दन पर।
40. ऊपर के जुमले में अल्लाह तआला के इनसाफ़ के क़ानून का बयान है कि वह एक के गुनाह में दूसरे को न पकड़ेगा, बल्कि हर एक को उसके अपने ही गुनाह का ज़िम्मेदार ठहराएगा और इस जुमले में यह बताया गया है कि जो लोग आज यह बात कह रहे हैं कि तुम हमारी ज़िम्मेदारी पर कुफ़्र और गुनाह करो, क़ियामत के दिन हम तुम्हारे गुनाहों का बोझ अपने ऊपर ले लेंगे, वे अस्ल में एक झूठा भरोसा दिला रहे हैं। जब क़ियामत आएगी और लोग देख लेंगे कि अपने करतूतों की वजह से वे किस अंजाम का सामना करनेवाले हैं तो हर एक को अपनी पड़ जाएगी। भाई भाई से और बाप बेटे से मुँह मोड़ लेगा और कोई किसी का ज़र्रा भर बोझ भी अपने ऊपर लेने के लिए तैयार न होगा।
41. दूसरे अलफ़ाज़ में हठधर्म और हेकड़ लोगों पर तुम्हारी तंबीहें (चेतावनियाँ) काम नहीं कर सकतीं। तुम्हारे समझाने से तो वही लोग सीधी राह पर आ सकते हैं जिनके दिल में ख़ुदा का डर है और जो अपने असली मालिक के आगे झुकने के लिए तैयार हैं।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ ۝ 16
(19) अंधा और आँखोंवाला बराबर नहीं है।
وَلَا ٱلظُّلُمَٰتُ وَلَا ٱلنُّورُ ۝ 17
(20) न अंधेरे और रौशनी एक समान हैं।
وَلَا ٱلظِّلُّ وَلَا ٱلۡحَرُورُ ۝ 18
(21) न ठण्डी छाँव और धूप की तपन एक जैसी है
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَحۡيَآءُ وَلَا ٱلۡأَمۡوَٰتُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُسۡمِعُ مَن يَشَآءُۖ وَمَآ أَنتَ بِمُسۡمِعٖ مَّن فِي ٱلۡقُبُورِ ۝ 19
(22) और न ज़िन्दे और मुर्दे बराबर हैं।42 अल्लाह जिसे चाहता है सुनवाता है, मगर (ऐ नबी) तुम उन लोगों को नहीं सुना सकते जो क़ब्रों में दफ़न हैं।43
42. इन मिसालों में ईमानवाले और ग़ैर-ईमानवाले के हाल (वर्तमान) और मुस्तक़बिल (भविष्य) का फ़र्क़ बताया गया है। एक वह शख़्स है जो हक़ीक़तों से आँखें बन्द किए हुए है और कुछ नहीं देखता कि कायनात का सारा निज़ाम और ख़ुद उसका अपना वुजूद किस सच्चाई की तरफ़ इशारे कर रहा है। दूसरा वह शख़्स है जिसकी आँखें खुली हैं और वह साफ़ देख रहा है कि उसके बाहर और अन्दर की हर चीज़ ख़ुदा के एक होने और उसके सामने इनसान की जवाबदेही पर गवाही दे रही है। एक वह शख़्स है जो जहालत से भरे अंधविश्वासों, गढ़ी हुई बातों और अटकलों अंधेरों में भटक रहा है और पैग़म्बर के रौशन किए हुए चराग़ के क़रीब भी फटकने के लिए तैयार नहीं। दूसरा वह शख़्स है जिसकी आँखें खुली हैं और पैग़म्बर की फैलाई हुई रौशनी सामने आते ही उसपर यह बात बिलकुल खुल गई है कि शिर्क और कुफ़्र करनेवाले और नास्तिक जिन राहों पर चल रहे हैं, वे सब तबाही की तरफ़ जाती हैं और कामयाबी की राह सिर्फ़ वह है जो ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) ने दिखाई है। अब आख़िर यह किस तरह मुमकिन है कि दुनिया में इन दोनों का रवैया एक जैसा हो और दोनों एक साथ एक ही राह पर चल सकें? और आख़िर यह भी कैसे मुमकिन है कि दोनों का अंजाम एक जैसा हो और दोनों ही मरकर मिट जाएँ, न एक को बुरे रास्ते पर चलने की सज़ा मिले, न दूसरा सही रास्ते पर चलने का कोई इनाम पाए? “ठण्डी छाँव और धूप की तपन एक जैसी नहीं है” का इशारा इसी अंजाम की तरफ़ है कि एक अल्लाह की रहमत की छाया में जगह पानेवाला है और दूसरा जहन्नम की तपन में झुलसनेवाला है। तुम किस भूल और ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो कि आख़िरकार दोनों एक ही अंजाम से दोचार होंगे। आख़िर में ईमानवाले की ज़िन्दा से और हठधर्म ग़ैर-ईमानवालों की मुर्दा से मिसाल दी गई है। यानी मोमिन वह है जिसके अन्दर एहसास और समझ और शुऊर मौजूद है और उसका ज़मीर (अन्तरात्मा) उसे भले-बुरे के फ़र्क़ से हर वक़्त आगाह कर रहा है और इसके बरख़िलाफ़ जो शख़्स कुफ़्र के तास्सुब (दुराग्रह) में पूरी तरह डूब चुका है, उसका हाल उस अंधे से भी बदतर है जो अंधेरे में भटक रहा हो, उसकी हालत तो उस मुर्दे की-सी है जिसमें कोई हिस (संवेदना) बाक़ी न रही हो।
43. यानी अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) की तो बात ही दूसरी है, वह चाहे तो पत्थरों को सुनने की ताक़त दे दे, लेकिन रसूल के बस का यह काम नहीं है कि जिन लोगों के सीने ज़मीर (अन्तरात्मा) के क़ब्रिस्तान बन चुके हों, उनके दिलों में अपनी बात उतार सके और जो बात सुनना ही न चाहते हों, उनके बहरे कानों को हक़ की आवाज़ सुना सके। वह तो उन्हीं लोगों को सुना सकता है जो सही और हक़ बात पर कान धरने के लिए तैयार हों।
إِنۡ أَنتَ إِلَّا نَذِيرٌ ۝ 20
(23) तुम तो बस एक ख़बरदार करनेवाले हो।44
44. यानी तुम्हारा काम लोगों को ख़बरदार कर देने से ज़्यादा कुछ नहीं है। इसके बाद अगर कोई होश में नहीं आता और अपनी गुमराहियों ही में भटकता रहता है तो उसकी कोई ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। अंधों को दिखाने और बहरों को सुनाने का काम तुम्हारे सिपुर्द नहीं किया गया है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗاۚ وَإِن مِّنۡ أُمَّةٍ إِلَّا خَلَا فِيهَا نَذِيرٞ ۝ 21
(24) हमने तुमको हक़ के साथ भेजा है ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला बनाकर। और कोई उम्मत (समुदाय) ऐसी नहीं गुज़री है जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला न आया हो।45
45. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर कही गई है कि दुनिया में कोई उम्मत नहीं गुज़री है जिसकी हिदायत के लिए अल्लाह तआला ने नबी न भेजे हों। सूरा-13 रअद, आयत-7 में फ़रमाया, “हर क़ौम के लिए एक हिदायत देनेवाला है।” सूरा-15 हिज्र, आयत-10 में फ़रमाया, “तुमसे पहले बहुत-सी गुज़री हुई क़ौमों में हम (रसूल) भेज चुके हैं।” सूरा-16 नह्ल, आयत-36 में फ़रमाया, “हमने हर उम्मत में रसूल भेजा।” सूरा-26 शुअरा, आयत-208 में फ़रमाया, “हमने कभी किसी बस्ती को इसके बिना तबाह नहीं किया कि उसके लिए ख़बरदार करनेवाले, नसीहत का हक़ अदा करने को मौजूद हैं।” मगर इस सिलसिले में दो बातें समझ लेनी चाहिएँ, ताकि कोई ग़लत-फ़हमी न हो। अव्वल यह कि एक नबी की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) जहाँ-जहाँ तक पहुँच सकती हो, वहाँ के लिए वही नबी काफ़ी है। यह ज़रूरी नहीं है कि हर-हर बस्ती और हर-हर क़ौम में अलग-अलग ही पैग़म्बर भेजे जाएँ। दूसरी यह कि एक नबी की दावत और हिदायत की अलामतें और उसकी रहनुमाई के नक़्शे-क़दम जब तक महफ़ूज़ रहें, उस वक़्त तक किसी नए नबी की ज़रूरत नहीं है। यह ज़रूरी नहीं है कि हर नस्ल और पीढ़ी के लिए अलग नबी भेजा जाए।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلزُّبُرِ وَبِٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُنِيرِ ۝ 22
(25) अब अगर ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं तो इनसे पहले गुज़रे हुए लोग भी झुठला चुके हैं। उनके पास उनके रसूल खुली दलीलें46 और सहीफ़े (आसमानी किताबों के पन्ने) और साफ़-साफ़ हिदायतें देनेवाली किताब47 लेकर आए थे।
46. यानी ऐसी दलीलें जो इस बात की साफ़ गवाही देती थीं कि वे अल्लाह के रसूल हैं।
47. सहीफ़ों और किताब में शायद यह फ़र्क़ है कि सहीफ़ों में ज़्यादा तर नसीहतें और अख़लाक़ी हिदायतें होती थीं और किताब एक पूरी शरीअत (क़ानून) लेकर आती थी।
ثُمَّ أَخَذۡتُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 23
(26) फिर जिन लोगों ने न माना, उनको मैंने पकड़ लिया और देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ ثَمَرَٰتٖ مُّخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهَاۚ وَمِنَ ٱلۡجِبَالِ جُدَدُۢ بِيضٞ وَحُمۡرٞ مُّخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهَا وَغَرَابِيبُ سُودٞ ۝ 24
(27) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और फिर उसके ज़रिए से हम तरह-तरह के फल निकाल लाते हैं, जिनके रंग अलग-अलग होते हैं। पहाड़ों में भी सफ़ेद, लाल और गहरी काली धारियाँ पाई जाती हैं, जिनके रंग अलग-अलग होते हैं।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ وَٱلدَّوَآبِّ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ مُخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهُۥ كَذَٰلِكَۗ إِنَّمَا يَخۡشَى ٱللَّهَ مِنۡ عِبَادِهِ ٱلۡعُلَمَٰٓؤُاْۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ غَفُورٌ ۝ 25
(28) और इसी तरह इनसानों और जानवरों और मवेशियों के रंग भी अलग-अलग हैं।48 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह के बन्दों में से सिर्फ़ इल्म रखनेवाले लोग ही उससे डरते हैं।49 बेशक अल्लाह ज़बरदस्त और माफ़ करनेवाला है।50
48. इसका मक़सद यह समझाना है कि ख़ुदा की पैदा की हुई कायनात में कहीं भी एकरंगापन और यकसानी नहीं है। हर तरफ़ रंगारंगी-ही-रंगारंगी है। एक ही ज़मीन और एक ही पानी से तरह-तरह के पेड़ निकल रहे हैं और एक पेड़ के दो फल तक अपने रंग, साइज़ और मज़े में एक जैसे नहीं हैं। एक ही पहाड़ को देखो तो उसमें कई-कई रंग तुम्हें नज़र आएँगे और उसके अलग-अलग हिस्सों की माद्दी (भौतिक) बनावट में बड़ा फ़र्क़ पाया जाएगा। इनसानों और जानवरों में एक माँ-बाप के दो बच्चे तक एक जैसे न मिलेंगे। इस कायनात में अगर कोई मिज़ाजों और तबीअतों और ज़ेहनियतों की यकसानी ढूँढ़े और वह उनमें फ़र्क़ देखकर घबरा उठे जिनकी तरफ़ ऊपर (आयतें—19 से 22) में इशारा किया गया है तो यह उसकी अपनी समझ की कोताही है। यही रंगारंगी और अलग-अलग होना तो पता दे रहा है कि इस कायनात को किसी ज़बरदस्त हिकमतवाले ने अनगिनत हिकमतों के साथ पैदा किया है और इसका बनानेवाला कोई बेमिसाल पैदा करनेवाला और बेमिसाल बनानेवाला है जो हर चीज़ का कोई एक ही नमूना लेकर नहीं बैठ गया है, बल्कि उसके पास हर चीज़ के लिए नए-से-नए डिज़ाइन और अनगिनत डिज़ाइन हैं। फिर ख़ास तौर पर इनसानी मिज़ाजों और ज़ेहनों के अलग-अलग होने पर कोई शख़्स ग़ौर करे तो उसे मालूम हो सकता है कि यह कोई इत्तिफ़ाक़ी हादिसा (आकस्मिक घटना) नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में पैदा करने की हिकमत का शाहकार है। अगर तमाम इनसान पैदाइशी तौर पर अपने मिज़ाज और अपनी ख़ाहिशों, जज़बात और रुझानों और सोचने के ढंग के लिहाज़ से एक जैसे बना दिए जाते और किसी फ़र्क़ की कोई गुंजाइश न रखी जाती तो दुनिया में इनसान की तरह की एक नई मख़लूक़ (सृष्टि) पैदा करना ही सिरे से बेकार हो जाता। पैदा करनेवाले ने जब इस ज़मीन पर एक ज़िम्मेदार और इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ वुजूद में लाने का फ़ैसला किया तो इस फ़ैसले की क़िस्म का लाज़िमी तक़ाज़ा यही था कि उसकी बनावट में हर तरह के फ़र्क़ों की गुंजाइश रखी जाती। यह चीज़ इस बात की सबसे बड़ी गवाही है कि इनसान किसी इत्तिफ़ाक़ी हादिसे का नतीजा नहीं है, बल्कि एक अज़ीमुश्शान हिकमत भरी स्कीम का नतीजा है और ज़ाहिर है कि हिकमत भरी स्कीम जहाँ भी पाई जाएगी, वहाँ लाज़िमन उसके पीछे एक हिकमतवाली हस्ती काम कर रही होगी। हकीम (हिकमतवाले) के बिना हिकमत का वुजूद सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ ही मान सकता है।
49. यानी जो शख़्स अल्लाह की सिफ़ात से जितना ज़्यादा अनजान होगा, वह उससे उतना ही निडर होगा और इसके बरख़िलाफ़ जिस शख़्स को अल्लाह की क़ुदरत, उसके इल्म, उसकी हिकमत, उसकी ज़बरदस्त ताक़त और क़ुव्वत और उसकी दूसरी सिफ़ात (गुणों) की जितनी पहचान हासिल होगी, उतना ही वह उसकी नाफ़रमानी से डरेगा। इसलिए हक़ीक़त में इस आयत में इल्म से मुराद फ़ल्सफ़ा (दर्शन), साइंस और इतिहास और गणित वग़ैरा पढ़ाए जानेवाले इल्म नहीं हैं, बल्कि ख़ुदा की सिफ़ात का इल्म है, फिर चाहे आदमी पढ़ा लिखा हो या अनपढ़। जो आदमी ख़ुदा से बेख़ौफ़ है, वह दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा आदमी भी हो तो इस इल्म के लिहाज़ से कोरा जाहिल है और जो आदमी ख़ुदा की सिफ़ात को जानता है और उसका डर अपने दिल में रखता है, वह अनपढ़ भी हो तो इल्मवाला है। इसी सिलसिले में यह बात भी जान लेनी चाहिए कि इस आयत में लफ़्ज़ 'उलमा' से वे 'उलमा' भी मुराद नहीं हैं जो क़ुरआन, हदीस और फ़िक़्ह और कलाम (तर्कशास्त्र) का इल्म रखने की बुनियाद पर दीन के आलिम कहे जाते हैं। वे इस आयत के तहत सिर्फ़ उसी सूरत में होंगे जबकि उनके अन्दर ख़ुदा का डर मौजूद हो। यही बात हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने कही है कि “इल्म हदीस की ज़्यादती (अधिकता) की बुनियाद पर नहीं है, बल्कि ख़ुदा के डर की ज़्यादती (अधिकता) के लिहाज़ से है।” और यही बात हज़रत हसन बसरी (रह०) ने कही है कि “आलिम वह है जो अल्लाह से बे-देखे डरे, जो कुछ अल्लाह को पसन्द है उसकी तरफ़ वह बढ़े और जिस चीज़ से अल्लाह नाराज़ होता है उससे वह कोई दिलचस्पी न रखे।"
50. यानी वह ज़बरदस्त तो ऐसा है कि नाफ़रमानों को जब चाहे पकड़ ले, किसी में हिम्मत नहीं कि उसकी पकड़ से बच निकले, मगर यह उसके माफ़ करने और नज़र-अन्दाज़ करने की शान है जिसकी बुनियाद पर ज़ालिमों को मुहलत मिले जा रही है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ كِتَٰبَ ٱللَّهِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ يَرۡجُونَ تِجَٰرَةٗ لَّن تَبُورَ ۝ 26
(29) जो लोग अल्लाह की किताब को पढ़ते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें रोज़ी दी है, उसमें से खुले और छिपे ख़र्च करते हैं, यक़ीनन वे एक ऐसी तिजारत की उम्मीद रखते हैं जिसमें हरगिज़ घाटा न होगा,
لِيُوَفِّيَهُمۡ أُجُورَهُمۡ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ غَفُورٞ شَكُورٞ ۝ 27
(30) (इस तिजारत में उन्होंने अपना सब कुछ इसलिए खपाया है, ताकि अल्लाह उनके बदले पूरे-के-पूरे उनको दे और कुछ और भी अपनी मेहरबानी से उनको दे।51 बेशक अल्लाह माफ़ करनेवाला और क़द्रदान है।52
51. ईमानवालों के इस अमल की मिसाल तिजारत से इसलिए दी गई है कि आदमी तिजारत में अपना सरमाया (पूँजी) और मेहनत और क़ाबिलियत इस उम्मीद पर लगाता है कि न सिर्फ़ अस्ल सरमाया वापस मिलेगा और न सिर्फ़ वक़्त और मेहनत का मेहनताना मिलेगा, बल्कि कुछ और फ़ायदा भी हासिल होगा। इसी तरह एक ईमानवाला भी ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी में, उसकी बन्दगी और इबादत में और उसके दीन की ख़ातिर जिद्दो-जुह्द में अपना माल, अपने वक़्त, अपनी मेहनतें और क़ाबिलियतें इस उम्मीद पर खपा देता है कि न सिर्फ़ इन सबका पूरा-पूरा बदला मिलेगा, बल्कि अल्लाह अपनी मेहरबानी से और भी बहुत कुछ देगा। मगर दोनों तिजारतों में फ़र्क़ और बहुत बड़ा फ़र्क़ इस वजह से है कि दुनिया की तिजारत में सिर्फ़ फ़ायदे ही की उम्मीद नहीं होती, घाटे और दिवालियापन तक का ख़तरा भी होता है। इसके बरख़िलाफ़ जो तिजारत एक सच्चा बन्दा अपने ख़ुदा के साथ करता है, उसमें किसी घाटे का अन्देशा नहीं।
52. यानी सच्चे ईमानवाले के साथ अल्लाह तआला का मामला उस तंग दिल मालिक के जैसा नहीं है जो बात-बात पर पकड़ करता हो और एक ज़रा-सी ग़लती पर अपने नौकर की सारी ख़िदमतों और वफ़ादारियों पर पानी फेर देता हो। वह फ़ैयाज़ (दानशील) और मेहरबान मालिक है। जो बन्दा उसका वफ़ादार हो उसकी ग़लतियों को अनदेखा कर देता है और जो कुछ भी ख़िदमत उससे बन पड़ी हो उसकी क़द्र करता है।
وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ هُوَ ٱلۡحَقُّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِعِبَادِهِۦ لَخَبِيرُۢ بَصِيرٞ ۝ 28
(31) (ऐ नबी,) जो किताब हमने तुम्हारी तरफ़ वह्य के ज़रिए से भेजी है,वही हक़ है, तसदीक़ (पुष्टि) करती हुई आई है उन किताबों की जो इससे पहले आई थीं।53 बेशक अल्लाह अपने बन्दों के हाल से बाख़बर है और हर चीज़ पर निगाह रखनेवाला है।54
53. मतलब यह है कि वह कोई निराली बात नहीं पेश कर रही है जो पिछले पैग़म्बरों की लाई हुई तालीमात के ख़िलाफ़ हो, बल्कि उसी हमेशा-हमेशा के हक़ को पेश कर रही है जो हमेशा से तमाम नबी और पैग़म्बर पेश करते चले आ रहे हैं।
54. अल्लाह की इन सिफ़ात को यहाँ बयान करने का मक़सद इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि बन्दों के लिए भलाई किस चीज़ में है और उनकी हिदायत और रहनुमाई के लिए क्या उसूल मुनासिब हैं और कौन-से ज़ाब्ते ठीक-ठीक उनकी मस्लहत के मुताबिक़ हैं, इन मामलों को अल्लाह के सिवा कोई नहीं जान सकता, क्योंकि बन्दों की फ़ितरत और उसके तक़ाज़ों से वही बाख़बर है और उन हक़ीक़ी मस्लहतों पर वही निगाह रखता है। बन्दे ख़ुद अपने आपको उतना नहीं जानते जितना उनका पैदा करनेवाला ख़ुदा उनको जानता है। इसलिए हक़ वही है और वही हो सकता है जो उसने वह्य के ज़रिए से बता दिया है।
ثُمَّ أَوۡرَثۡنَا ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِينَ ٱصۡطَفَيۡنَا مِنۡ عِبَادِنَاۖ فَمِنۡهُمۡ ظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ وَمِنۡهُم مُّقۡتَصِدٞ وَمِنۡهُمۡ سَابِقُۢ بِٱلۡخَيۡرَٰتِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 29
(32) फिर हमने इस किताब का वारिस बना दिया उन लोगों को जिन्हें इमने (इस विरासत के लिए) अपने बन्दों में से चुन लिया।55 अब कोई तो उनमें से अपने आपपर ज़ुल्म करनेवाला है और कोई बीच की रास है और कोई अल्लाह की इजाज़त से नेकियों में आगे बढ़ जानेवाला है, यही बहुत बड़ा फ़ज़्ल (अनुग्रह) है।56
55. मुराद हैं मुसलमान जो सारे इनसानों में से छाँटकर निकाले गए हैं, ताकि वे अल्लाह की किताब के वारिस हों और मुहम्मद (सल्ल०) के बाद उसे लेकर उठें। हालाँकि किताब पेश तो की गई है सारे इनसानों के सामने, मगर जिन्होंने आगे बढ़कर उसे क़ुबूल कर लिया, वही इस ख़ुशनसीबी के लिए चुन लिए गए कि क़ुरआन जैसी अज़ीम किताब के वारिस और हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) जैसे बड़े पैग़म्बर की तालीम और हिदायत के अमीन (हिफ़ाज़त करनेवाले) बनें।
56. यानी ये मुसलमान सब-के-सब एक ही तरह के नहीं हैं, बल्कि ये तीन तबक़ों में बँट गए हैं— (1) अपने आपपर ज़ुल्म करनेवाले। ये वे लोग हैं जो क़ुरआन को सच्चे दिल से अल्लाह की किताब और मुहम्मद (सल्ल०) को ईमानदारी के साथ अल्लाह का रसूल तो मानते हैं, मगर अमली तौर पर अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत (तरीक़े) की पैरवी का हक़ अदा नहीं करते। ईमानवाले हैं, मगर गुनहगार हैं। मुजरिम हैं, मगर बाग़ी नहीं हैं। इनका ईमान कमज़ोर है, मगर मुनाफ़िक़ और दिलो-दिमाग़ से हक़ के इनकारी नहीं हैं। इसी लिए उनको 'अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करनेवाले' होने के बावजूद किताब के वारिसों में दाख़िल और ख़ुदा के चुने हुए बन्दों में शामिल किया गया है, वरना ज़ाहिर है कि बाग़ियों और मुनाफ़िक़ों और दिलो-दिमाग़ के इनकारियों पर ये सिफ़ात चस्पाँ नहीं हो सकतीं। तीनों दरजों में से इस दरजे के ईमानवालों का ज़िक्र सबसे पहले इसलिए किया गया है कि तादाद के लिहाज़ से उम्मत में ज़्यादा तादाद इन्हीं की है। (2) बीच की रास। ये वे लोग हैं जो इस विरासत का हक़ कुछ-न-कुछ अदा तो करते हैं, मगर पूरी तरह अदा नहीं करते। फ़रमाँबरदार भी हैं और क़ुसूरवार भी। अपने मन को बिलकुल बेलगाम तो इन्होंने नहीं छोड़ दिया है, बल्कि उसे ख़ुदा का फ़रमाँबरदार बनाने की अपनी हद तक कोशिश करते हैं, लेकिन कभी ये उसकी बागें ढीली भी छोड़ देते हैं और गुनाहों में मुब्तला हो जाते हैं। इस तरह इनकी ज़िन्दगी में अच्छे और बुरे दोनों तरह के आमाल पाए जाते हैं। ये तादाद में पहले गरोह से कम और तीसरे गरोह से ज़्यादा हैं, इसलिए उनको दूसरे नम्बर पर रखा गया है। (3) नेकियों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जानेवाले। ये किताब के वारिसों में पहली क़तार के लोग हैं। यही अस्ल में इस विरासत का हक़ अदा करनेवाले हैं। ये किताब और सुन्नत की पैरवी में भी आगे-आगे हैं, ख़ुदा का पैग़ाम उसके बन्दों तक पहुँचाने में भी आगे-आगे हैं, सच्चे दीन की ख़ातिर क़ुरबानियाँ करने में भी आगे-आगे हैं और भलाई के हर काम में भी आगे-आगे हैं। ये जान-बूझकर गुनाह करनेवाले नहीं हैं और अनजाने में कोई गुनाह हो जाए तो उसपर ख़बरदार होते ही उनकी पेशानियाँ शर्म से पसीना-पसीना हो जाती हैं। इनकी तादाद उम्मत में पहले दोनों गरोहों से कम है, इसलिए इनका आख़िर में ज़िक्र किया गया है, हालाँकि विरासत का हक़ अदा करने के मामले में इनको पहले दरजे पर होने की ख़ुशनसीबी हासिल है। “यही बहुत बड़ा फ़ज़्ल (अनुग्रह) है।” इस जुमले का ताल्लुक़ अगर सबसे क़रीब के जुमले से माना जाए तो इसका मतलब यह होगा कि नेकियों में दूसरे से आगे बढ़ना ही बड़ा फ़ज़्ल है और जो लोग ऐसे हैं, वे मुस्लिम समाज में सबसे बढ़कर हैं और इस जुमले का ताल्लुक़ पहले जुमले से माना जाए तो मतलब यह होगा कि अल्लाह की किताब का वारिस होना और इस विरासत के लिए चुन लिया जाना बड़ा फ़ज़्ल है और ख़ुदा के तमाम बन्दों में वे बन्दे सबसे बढ़कर हैं जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाकर इस चुनाव में कामयाब हो गए हैं।
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَلُؤۡلُؤٗاۖ وَلِبَاسُهُمۡ فِيهَا حَرِيرٞ ۝ 30
(33) हमेशा रहनेवाली जन्नतें हैं जिनमें ये लोग दाख़िल होंगे।”57 वहाँ उन्हें सोने के कंगनों और मोतियों से सजाया (आभूषित किया) जाएगा, वहाँ उनका लिबास रेशम होगा
57. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों में से एक गरोह इस बात को मानता है कि इस जुमले का ताल्लुक़ सबसे क़रीब दोनों जुमलों से है, यानी नेकियों में एक-दूसरे से आगे बढ़नेवाले ही सबसे बढ़कर हैं और वही इन जन्नतों में दाख़िल होंगे। रहे पहले दो गरोह, तो उनके बारे में ख़ामोशी अपनाई गई है, ताकि वे अपने अंजाम के मामले में फ़िक्रमन्द हों और अपनी मौजूदा हालत से निकलकर आगे बढ़ने की कोशिश करें। इस राय को अल्लामा जमख़्शरी ने बड़े जोर के साथ बयान किया है और इमाम राज़ी (रह०) ने इसकी ताईद की है। लेकिन तफ़सीर लिखनेवालों में से ज़्यादा तर लोग यह कहते हैं कि इसका ताल्लुक़ ऊपर की इबारत से है और इसका मतलब यह है कि उम्मत के ये तीनों गरोह आख़िरकार जन्नत में दाख़िल होंगे, चाहे हिसाब लिए बिना या हिसाब लिए जाने के बाद, चाहे हर तरह की पूछ-गछ से बचे रहकर या कोई सज़ा पाने के बाद। इसी तफ़सीर की ताईद क़ुरआन का मौक़ा-महल करता है, क्योंकि आगे चलकर किताब के वारिसों के मुक़ाबले में दूसरे गरोह के बारे में कहा जाता है कि “और जिन लोगों ने कुफ़्र किया है, उनके लिए जहन्नम की आग है।” इससे मालूम हुआ कि जिन लोगों ने इस किताब को मान लिया है, उनके लिए जन्नत है और जिन्होंने इसपर ईमान लाने से इनकार किया है उनके लिए जहन्नम। फिर इसी की ताईद नबी (सल्ल०) की वह हदीस करती है जिसे हज़रत अबू-दरदा (रज़ि०) ने रिवायत किया है और इमाम अहमद, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी, बैहक़ी और कुछ दूसरे मुहद्दिसीन (हदीस के आलिमों) ने इसे नक़्ल किया है, इसमें नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं— "जो लोग नेकियों में दूसरों से आगे बढ़ गए हैं वे जन्नत में किसी हिसाब के बिना दाख़िल होंगे और जो बीच की रास रहे हैं, उनसे हिसाब होगा, मगर हल्का हिसाब। रहे वे लोग जिन्होंने अपने आपपर ज़ुल्म किया है तो वे हश्र के मैदान में हिसाब-किताब की इस लम्बी मुद्दत में रोक रखे जाएँगे, फिर उन्हीं को अल्लाह अपनी रहमत में ले लेगा और यही लोग हैं जो कहेंगे शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमसे दुख दूर कर दिया।" इस हदीस में नबी (सल्ल०) ने इस आयत की पूरी तफ़सीर ख़ुद बयान कर दी है और ईमानवालों के तीनों तबक़ों का अंजाम अलग-अलग बता दिया है। बीच की रासवालों से 'हल्का हिसाब' लिए जाने का मतलब यह है कि हक़ के इनकारियों को तो उनके इनकार के अलावा उनके हर-हर जुर्म और गुनाह की अलग सज़ा भी दी जाएगी, मगर इसके बरख़िलाफ़ ईमानवालों में जो लोग अच्छे और बुरे दोनों तरह के आमाल लेकर पहुँचेंगे, उनकी तमाम नेकियों और उनके तमाम गुनाहों को सामने रखकर उनका हिसाब लिया जाएगा। यह नहीं होगा कि हर नेकी का अलग इनाम और हर क़ुसूर की अलग सज़ा दी जाए और यह जो कहा गया कि ईमानवालों में से जिन लोगों ने अपने आपपर ज़ुल्म किया होगा, वे हश्र के मैदान में हिसाब-किताब की पूरी मुद्दत में रोक रखे जाएँगे, इसका मतलब यह है कि वे जहन्नम में नहीं डाले जाएँगे, बल्कि उनको 'अदालत बरख़ास्त होने तक' की सज़ा दी जाएगी, यानी हश्र के दिन की पूरी लम्बी मुद्दत (जो न जाने कितनी सदियों के बराबर लम्बी होगी) उनपर अपनी सारी सख़्तियों के साथ गुज़र जाएगी, यहाँ तक कि आख़िरकार अल्लाह उनपर रहम करेगा और अदालत के ख़त्म होने के वक़्त हुक्म देगा कि अच्छा, इन्हें भी जन्नत में दाख़िल कर दो। इसी बात के बहुत-से क़ौल (कथन) हदीस के आलिमों ने बहुत-से सहाबा, मसलन हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) और हज़रत बरा-बिन-आज़िब (रज़ि०) से नक़्ल किए हैं और ज़ाहिर है कि सहाबा ऐसे मामलात में कोई बात उस वक़्त तक नहीं कह सकते थे जब तक उन्होंने ख़ुद नबी (सल्ल०) से उसको न सुना हो। मगर इससे यह न समझ लेना चाहिए कि मुसलमानों में से जिन लोगों ने ‘अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया है' उनके लिए सिर्फ़ 'अदालत बरख़ास्त होने तक' ही की सज़ा है और उनमें से कोई जहन्नम में जाएगा ही नहीं। क़ुरआन और हदीस में कई ऐसे जुर्मों का ज़िक्र है जिनके करनेवाले को ईमान भी जहन्नम में जाने से नहीं बचा सकता। मसलन जो ईमानवाला किसी ईमानवाले को जान-बूझकर क़त्ल कर दे, उसके लिए जहन्नम की सज़ा का अल्लाह तआला ने ख़ुद एलान कर दिया है। इसी तरह विरासत के क़ानून के बारे में अल्लाह तआला की क़ायम की हुई हदों को तोड़नेवालों के लिए भी क़ुरआन मजीद में जहन्नम की धमकी दी गई है। सूद (ब्याज) के हराम होने का हुक्म आ जाने के बाद फिर सूद खानेवालों के लिए भी साफ़-साफ़ एलान कर दिया गया है कि वे आग में जानेवाले लोग हैं। इसके अलावा कुछ और बड़े गुनाहों के करनेवालों के लिए भी हदीसों में साफ़ बयान किया गया है कि वे जहन्नम में जाएँगे।
وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِيٓ أَذۡهَبَ عَنَّا ٱلۡحَزَنَۖ إِنَّ رَبَّنَا لَغَفُورٞ شَكُورٌ ۝ 31
(34) और वे कहेंगे कि शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमसे ग़म दूर कर दिया।58 यक़ीनन हमारा रब माफ़ करनेवाला और क़द्र करनेवाला है,59
58. हर तरह का दुख। दुनिया में जिन फ़िक्रों और परेशानियों में हम मुब्तला थे, उनसे भी नजात मिली, आख़िरत में अपने अंजाम की जो फ़िक्र लगी थी, वह भी ख़त्म हुई और अब आगे चैन-ही-चैन है, किसी दुख-दर्द का कोई सवाल ही बाक़ी न रहा।
59. यानी हमारे क़ुसूर उसने माफ़ कर दिए और अमल की जो थोड़ी-सी पूँजी हम लाए थे, उसकी ऐसी क़द्र की कि अपनी जन्नत उसके बदले में हमें दे दी।
ٱلَّذِيٓ أَحَلَّنَا دَارَ ٱلۡمُقَامَةِ مِن فَضۡلِهِۦ لَا يَمَسُّنَا فِيهَا نَصَبٞ وَلَا يَمَسُّنَا فِيهَا لُغُوبٞ ۝ 32
(35) जिसने हमें अपनी मेहरबानी से हमेशा ठहरने की जगह ठहरा दिया।60 अब यहाँ न हमें कोई मशक़्क़त पेश आती है और न थकान लगती है।61
60. यानी दुनिया हमारी ज़िन्दगी के सफ़र की एक मंज़िल थी जिससे हम गुज़र आए हैं और हश्र का मैदान भी इस सफ़र का एक पड़ाव था जिससे हम गुज़र गए हैं। अब हम उस जगह पहुँच गए हैं जहाँ से निकलकर फिर कहीं जाना नहीं है।
61. दूसरे अलफ़ाज़ में हमारी तमाम मेहनतें और तकलीफें ख़त्म हो चुकी हैं। अब यहाँ हमें कोई ऐसा काम नहीं करना पड़ता जिसके करने में हमको मेहनत करनी पड़ती हो और जिसे करने के बाद हम थक जाते हों।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ نَارُ جَهَنَّمَ لَا يُقۡضَىٰ عَلَيۡهِمۡ فَيَمُوتُواْ وَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُم مِّنۡ عَذَابِهَاۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي كُلَّ كَفُورٖ ۝ 33
(36) और जिन लोगों ने कुफ़्र किया है,62 उनके लिए जहन्नम की आग है। न उनका क़िस्सा ख़त्म किया जाएगा कि मर जाएँ और न उनके लिए जहन्नम के अज़ाब में कोई कमी की जाएगी। इस तरह हम बदला देते हैं हर उस शख़्स को जो कुफ़्र करनेवाला हो।
62. यानी इस किताब को मानने से इनकार कर दिया है जो अल्लाह तआला ने मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारी है।
وَهُمۡ يَصۡطَرِخُونَ فِيهَا رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا نَعۡمَلۡ صَٰلِحًا غَيۡرَ ٱلَّذِي كُنَّا نَعۡمَلُۚ أَوَلَمۡ نُعَمِّرۡكُم مَّا يَتَذَكَّرُ فِيهِ مَن تَذَكَّرَ وَجَآءَكُمُ ٱلنَّذِيرُۖ فَذُوقُواْ فَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٍ ۝ 34
(37) वे वहाँ चीख़-चीख़कर कहेंगे कि “ऐ हमारे रब, हमें यहाँ से निकाल ले, ताकि हम काम करें उन कामों से अलग जो पहले करते रहे थे।” (उन्हें जवाब दिया जाएगा,) “क्या हमने तुमको इतनी उम्र न दी थी जिसमें कोई सबक़ लेना चाहता तो सबक़ ले सकता था?63 और तुम्हारे पास ख़बरदार करनेवाला भी आ चुका था। अब मज़ा चखो। ज़ालिमों का यहाँ कोई मददगार नहीं है।"
63. इससे मुराद हर वह उम्र है जिसमें आदमी इस क़ाबिल हो सकता हो कि अगर वह अच्छे-बुरे और हक़ बातिल (सत्य-असत्य) में फ़र्क़ करना चाहे तो कर सके और गुमराही छोड़कर हिदायत की तरफ़ जाना चाहे तो जा सके। इस उम्र को पहुँचने से पहले अगर कोई शख़्स मर चुका हो तो इस आयत के मुताबिक़ उससे कोई पूछ-गछ न होगी। अलबत्ता जो इस उम्र को पहुँच चुका हो, वह अपने अमल के लिए ज़रूर ही जवाबदेह होगा और फिर इस उम्र के हो जाने के बाद जितनी मुद्दत भी वह ज़िन्दा रहे और संभलकर सीधे रास्ते पर आने के लिए जितने मौक़े भी उसे मिलते चले जाएँ, उतनी ही उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ती चली जाएगी, यहाँ तक कि जो आदमी बुढ़ापे को पहुँचकर भी सीधा न हो, उसके लिए किसी उज़्र (बहाने) की गुंजाइश बाक़ी न रहेगी। यही बात है जो एक हदीस में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत सहल-बिन-सअद साइदी (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से नक़्ल की है कि जो आदमी कम उम्र पाए उसके लिए तो बहाने का मौक़ा है, मगर 60 साल और उससे ऊपर उम्र पानेवाले के लिए कोई बहाना नहीं है। (हदीस : बुख़ारी, अहमद, नसई, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम वग़ैरा)
إِنَّ ٱللَّهَ عَٰلِمُ غَيۡبِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 35
(38) बेशक अल्लाह आसमानों और ज़मीन की हर छिपी हुई चीज़ से वाक़िफ़ है, वह तो सीनों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَكُمۡ خَلَٰٓئِفَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَمَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَلَا يَزِيدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ كُفۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ إِلَّا مَقۡتٗاۖ وَلَا يَزِيدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ كُفۡرُهُمۡ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 36
(39) वही तो है जिसने तुमको ज़मीन का ख़लीफ़ा बनाया है।64 अब जो कोई कुफ़्र करता है, उसके कुफ़्र का वबाल उसी पर है65 और कुफ़्र करनेवालों को उनका कुफ़्र इसके सिवा कोई तरक़्क़ी नहीं देता कि उनके रब का ग़ज़ब उनपर ज़्यादा-से-ज़्यादा भड़कता चला जाता है। कुफ़्र करनेवालों के लिए घाटे में बढ़ोतरी के सिवा कोई तरक़्क़ी नहीं।
64. इसके यो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उसने पिछली नस्लों और क़ौमों के गुज़र जाने के बाद अब तुमको उनकी जगह अपनी ज़मीन में बसाया है और दूसरा यह कि उसने तुम्हें ज़मीन में इस्तेमाल के जो अधिकार दिए हैं, वे इस हैसियत से नहीं हैं कि तुम इन चीज़ों के मालिक हो, बल्कि इस हैसियत से हैं कि तुम अस्ल मालिक के ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) हो।
65. अगर पहले जुमले का यह मतलब लिया जाए कि तुमको पिछली क़ौमों का जानशीन बनाया है तो इस जुमले का मतलब यह होगा कि जिसने पिछली क़ौमों के अंजाम से कोई सबक़ न लिया और वही कुफ़्र (ख़ुदा का इनकार और नाफ़रमानी) का रवैया अपनाया जिसकी बदौलत वे क़ौमें तबाह हो चुकी हैं, वह अपनी इस बेवक़ूफ़ी का बुरा नतीजा देखकर रहेगा और अगर इस जुमले का मतलब यह लिया जाए कि अल्लाह तआला ने तुमको अपने ख़लीफ़ा की हैसियत से ज़मीन में अधिकार दिए हैं तो इस जुमले का मतलब यह होगा कि जो अपनी ख़िलाफ़त की हैसियत को भूलकर अपनी मरज़ी का मालिक बन बैठा या जिसने अस्ल मालिक को छोड़कर किसी और की बन्दगी अपना ली, वह अपने इस बग़ावत के रवैये का बुरा अंजाम देख लेगा।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ شُرَكَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُواْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ لَهُمۡ شِرۡكٞ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ أَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ كِتَٰبٗا فَهُمۡ عَلَىٰ بَيِّنَتٖ مِّنۡهُۚ بَلۡ إِن يَعِدُ ٱلظَّٰلِمُونَ بَعۡضُهُم بَعۡضًا إِلَّا غُرُورًا ۝ 37
(40) (ऐ नबी,) इनसे कहो, “कभी तुमने देखा भी है अपने उन शरीकों66 को जिन्हें तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारा करते हो? मुझे बताओ, उन्होंने ज़मीन में क्या पैदा किया है? या आसमानों में उनकी क्या साझेदारी है?” (अगर ये नहीं बता सकते तो इनसे पूछो,) क्या हमने इन्हें कोई चीज़ लिखकर दी है जिसकी बुनियाद पर ये (अपने इस शिर्क के लिए) कोई साफ़ सनद रखते हों?67 नहीं, बल्कि ये ज़ालिम एक-दूसरे को सिर्फ़ फ़रेब के झाँसे दिए जा रहे हैं।68
66. 'अपने शरीक' का लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि हक़ीक़त में वे ख़ुदा के शरीक तो हैं नहीं, मुशरिकों ने उनको अपने तौर पर उसका शरीक बना रखा है।
67. यानी क्या हमारा लिखा हुआ कोई परवाना इनके पास ऐसा है जिसमें हमने यह लिख दिया हो कि फ़ुला-फ़ुलाँ लोगों को हमने बीमारों को तन्दुरुस्त करने, या बेरोज़गारों को रोज़गार दिलवाने, या ज़रूरतमन्दों की ज़रूरतें पूरी करने के अधिकार दिए हैं, या फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हस्तियों को हमने अपनी ज़मीन के फ़ुलाँ हिस्सों का अधिकारी बना दिया है और इन इलाक़ों के लोगों की क़िस्मतें बनाना-बिगाड़ना अब उनके हाथ में है, लिहाज़ा हमारे बन्दों को अब उन्हीं से दुआएँ माँगनी चाहिएँ और उन्हीं के सामने भेंटें और चढ़ावे चढ़ाने चाहिएँ और जो नेमतें भी मिलीं उनपर उन्हीं 'छोटे ख़ुदाओं' का शुक्र अदा करना चाहिए। ऐसी कोई सनद अगर तुम्हारे पास है तो लाओ उसे पेश करो और अगर नहीं है तो ख़ुद ही सोचो कि ये मुशरिकाना अक़ीदे (अनेकेश्वरवादी धारणाएँ) और आमाल आख़िर तुमने किस बुनियाद पर ईजाद कर लिए हैं। तुमसे पूछा जाता है कि ज़मीन और आसमान में कहीं तुम्हारे इन बनावटी माबूदों के ख़ुदा के शरीक होने की कोई निशानी पाई जाती है? तुम इसके जवाब में किसी अलामत की निशानदेही नहीं कर सकते। तुमसे पूछा जाता है कि ख़ुदा ने अपनी किसी किताब में यह फ़रमाया है, या तुम्हारे पास या इन बनावटी माबूदों के पास ख़ुदा का दिया हुआ कोई परवाना (ख़त) ऐसा मौजूद है इस बात की गवाही देता हो कि ख़ुदा ने ख़ुद उन्हें वे अधिकार दिए हैं जो तुम उनसे जोड़ रहे हो? तुम वह भी पेश नहीं कर सकते। अब आख़िर वह चीज़ क्या है जिसकी बुनियाद पर तुम अपने ये अक़ीदे बनाए बैठे हो? क्या तुम ख़ुदाई के मालिक हो कि ख़ुदा के अधिकार जिस-जिसको चाहो बाँट दो?
68. यानी ये पेशवा और पीर, ये पंडित और पुरोहित, ये ज्योतिषी और उपदेशक, ये मुजाविर और उनके एजेंट सिर्फ़ अपनी दुकान चमकाने के लिए आम लोगों को बेवक़ूफ़ बना रहे हैं और तरह-तरह के क़िस्से गढ़-गढ़कर लोगों को झूठे भरोसे दिला रहे हैं कि ख़ुदा को छोड़कर फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हस्तियों के दामन थाम लोगे तो दुनिया में तुम्हारे सारे काम बन जाएँगे और आख़िरत में तुम चाहे कितने ही गुनाह समेटकर ले जाओ, वे अल्लाह से तुम्हें बख़्शवा लेंगे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يُمۡسِكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ أَن تَزُولَاۚ وَلَئِن زَالَتَآ إِنۡ أَمۡسَكَهُمَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنۢ بَعۡدِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا ۝ 38
(41) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ही है जो आसमानों और ज़मीन को टल जाने से रोके हुए है और अगर वे टल जाएँ तो अल्लाह के बाद कोई दूसरा इन्हें थामनेवाला नहीं है।69 बेशक अल्लाह बड़ा सहन करनेवाला और माफ़ करनेवाला है।70
69. यानी यह अथाह कायनात अल्लाह तआला के क़ायम रखने से क़ायम है। कोई फ़रिश्ता या जिन्न या नबी या वली इसको संभाले हुए नहीं है। कायनात का संभालना तो एक तरफ़, ये बेबस बन्दे तो अपने वुजूद को संभालने की क़ुदरत भी नहीं रखते। हर एक अपनी पैदाइश और अपने वुजूद को बाक़ी रखने के लिए हर पल अल्लाह तआला का मुहताज है। इनमें से किसी के बारे में यह समझना कि ख़ुदाई की सिफ़ात और अधिकारों में उसका कोई हिस्सा है, ख़ालिस बेवक़ूफ़ी और अपने को धोखा देने के सिवा और क्या हो सकता है।
70. यानी यह सरासर अल्लाह का हिल्म (सहनशीलता) और उसका माफ़ कर देना है कि इतनी बड़ी गुस्ताख़ियाँ उसके साथ की जा रही हैं और फिर भी वह सज़ा देने में जल्दी नहीं कर रहा।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِن جَآءَهُمۡ نَذِيرٞ لَّيَكُونُنَّ أَهۡدَىٰ مِنۡ إِحۡدَى ٱلۡأُمَمِۖ فَلَمَّا جَآءَهُمۡ نَذِيرٞ مَّا زَادَهُمۡ إِلَّا نُفُورًا ۝ 39
(42) ये लोग कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहा करते थे कि अगर कोई ख़बरदार करनेवाला उनके यहाँ आ गया होता तो ये दुनिया की हर दूसरी क़ौम से बढ़कर सीधी राह पर चलनेवाले होते।71 मगर जब ख़बरदार करनेवाला इनके पास आ गया तो उसके आने ने इनके अन्दर सच से भागने के सिवा किसी चीज़ में बढ़ोतरी न की।
71. यह बात नबी (सल्ल०) के नबी बनाए जाने से पहले अरब के लोग आम तौर से और क़ुरैश के लोग ख़ास तौर से यहूदियों और ईसाइयों की बिगड़ी हुई अख़लाक़ी हालत को देखकर कहा करते थे। उनकी इस बात का ज़िक्र इससे पहले सूरा-6 अनआम (आयतें—156, 157) में भी गुज़र चुका है और आगे सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात (आयतें—167 से 169) में भी आ रहा है।
ٱسۡتِكۡبَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَكۡرَ ٱلسَّيِّيِٕۚ وَلَا يَحِيقُ ٱلۡمَكۡرُ ٱلسَّيِّئُ إِلَّا بِأَهۡلِهِۦۚ فَهَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا سُنَّتَ ٱلۡأَوَّلِينَۚ فَلَن تَجِدَ لِسُنَّتِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗاۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّتِ ٱللَّهِ تَحۡوِيلًا ۝ 40
(43) ये ज़मीन में और ज़्यादा सरकशी करने लगे और बुरी-बुरी चालें चलने लगे, हालाँकि बुरी चालें अपने चलनेवालों ही को ले बैठती हैं। अब क्या ये लोग इसका इन्तिज़ार कर रहे हैं कि पिछली क़ौमों के साथ अल्लाह का जो तरीक़ा रहा है, वही इनके साथ भी बरता जाए?72 यही बात है तो तुम अल्लाह के तरीक़े में हरगिज़ कोई तबदीली न पाओगे और तुम कभी न देखोगे कि अल्लाह की सुन्नत को उसके तय किए हुए रास्ते से कोई ताक़त फेर सकती है।
72. यानी अल्लाह का यह क़ानून इनपर भी जारी हो जाए कि जो क़ौम अपने नबी को झुठलाती है वह तबाह करके रख दी जाती है।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَكَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعۡجِزَهُۥ مِن شَيۡءٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَلِيمٗا قَدِيرٗا ۝ 41
(44) क्या ये लोग ज़मीन में कभी चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं और इनसे बहुत ज़्यादा ताक़तवर थे? अल्लाह को कोई चीज़ बेबस करनेवाली नहीं है, न आसमानों में और न ज़मीन में। वह सब कुछ जानता है और हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
وَلَوۡ يُؤَاخِذُ ٱللَّهُ ٱلنَّاسَ بِمَا كَسَبُواْ مَا تَرَكَ عَلَىٰ ظَهۡرِهَا مِن دَآبَّةٖ وَلَٰكِن يُؤَخِّرُهُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِعِبَادِهِۦ بَصِيرَۢا ۝ 42
(45) अगर कहीं वह लोगों को उनके किए करतूतों पर पकड़ता तो ज़मीन पर किसी जानदार को जीता न छोड़ता। मगर वह उन्हें एक मुक़र्रर वक़्त तक के लिए मुहलत दे रहा है। फिर जब उनका वक़्त आ पूरा होगा तो अल्लाह अपने बन्दों को देख लेगा।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ جَعَلَكُمۡ أَزۡوَٰجٗاۚ وَمَا تَحۡمِلُ مِنۡ أُنثَىٰ وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلۡمِهِۦۚ وَمَا يُعَمَّرُ مِن مُّعَمَّرٖ وَلَا يُنقَصُ مِنۡ عُمُرِهِۦٓ إِلَّا فِي كِتَٰبٍۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 43
(11) अल्लाह23 ने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर नुतफ़े (वीर्य)24 से, फिर तुम्हारे जोड़े बना दिए (यानी मर्द और औरत)। कोई औरत हामिला (गर्भवती) नहीं होती और न बच्चा जनती है, मगर यह सब कुछ अल्लाह के इल्म में होता है। कोई उम्र पानेवाला उम्र नहीं पाता और न किसी की उम्र में कुछ कमी होती है, मगर यह सब कुछ एक किताब में लिखा होता है।25 अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।26
23. यहाँ से फिर बात का रुख़ आम लोगों की तरफ़ फिरता है।
24. यानी इनसान की शुरुआत सीधे तौर पर पहले मिट्टी से की गई, फिर उसकी नस्ल नुत्फ़े (वीर्य की बूँद) से चलाई गई।
25. यानी जो आदमी भी दुनिया में पैदा होता है, उसके बारे में पहले ही यह लिख दिया जाता है कि उसे दुनिया में कितनी उम्र पानी है। किसी की उम्र लम्बी होती है तो अल्लाह के हुक्म से होती है और छोटी होती है तो वह भी अल्लाह ही के फ़ैसले की बुनियाद पर होती है। कुछ नादान लोग इसके जवाब में यह दलील पेश करते हैं कि पहले नए पैदा हुए बच्चों की मौतें बहुत ज़्यादा होती थीं और अब मेडिकल साइंस की तरक़्क़ी ने इन मौतों को रोक दिया है। और पहले लोग कम उम्र पाते थे, अब इलाज के ज़रिए (साधन) बढ़ जाने का नतीजा यह हुआ है कि उम्रें लम्बी होती जा रही हैं। लेकिन यह दलील क़ुरआन मजीद के इस बयान के रद्द में सिर्फ़ उस वक़्त पेश की जा सकती थी, जबकि किसी ज़रिए से हमको यह मालूम हो जाता कि अल्लाह तआला ने तो फ़ुलाँ आदमी की उम्र मसलन दो साल लिखी थी और हमारे मेडिकल ज़रिओं ने उसमें एक दिन की बढ़ोतरी कर दी। इस तरह का कोई इल्म अगर किसी के पास नहीं है तो वह किसी सही बुनियाद पर क़ुरआन के इस बयान की मुख़ालफ़त और इसपर एतिराज नहीं कर सकता। महज़ यह बात कि आँकड़ों के मुताबिक़ अब बच्चों की मौत की दर घट गई है, या पहले के मुक़ाबले में अब लोग ज़्यादा उम्र पा रहे हैं, इस बात की दलील नहीं है कि इनसान अब अल्लाह के फ़ैसलों को बदलने पर क़ादिर हो गया है। आख़िर इसमें अक़्ली तौर पर क्या मुश्किल है कि अल्लाह तआला ने अलग-अलग ज़मानों में पैदा होनेवाले इनसानों की उम्रें अलग-अलग तौर पर मुक़र्रर की हों और यह भी अल्लाह तआला ही का फ़ैसला हो कि फ़ुलाँ ज़माने में इनसान को फ़ुलाँ रोगों के इलाज की क़ुदरत (सामर्थ्य) दी जाए और फ़ुलाँ दौर में इनसान को ज़िन्दगी को बाक़ी रखने के फ़ुलाँ ज़रिए दिए जाएँ।
26. यानी इतनी अनगिनत जानदार और बेजान चीज़ों के बारे में इतनी तफ़सीली जानकारी और अलग-अलग हर किसी के बारे में इतने तफ़सीली हुक्म और फ़ैसले करना अल्लाह के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡبَحۡرَانِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ سَآئِغٞ شَرَابُهُۥ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞۖ وَمِن كُلّٖ تَأۡكُلُونَ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُونَ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ فِيهِ مَوَاخِرَ لِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 44
(12) और पानी के दोनों ज़खीरे एक जैसे नहीं हैं।27 एक मीठा और प्यास बुझानेवाला है, पीने में ख़ुशगवार और दूसरा सख़्त खारा कि हलक़ छील दे। मगर दोनों से तुम तरो-ताज़ा गोश्त हासिल करते हो,28 पहनने के लिए सिंगार का सामान निकालते हो,29 और इसी पानी में तुम देखते हो कि कश्तियाँ उसका सीना चीरती जा रही हैं, ताकि तुम अल्लाह का फ़ज़्ल (रोज़ी) तलाश करो और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
27. यानी एक वह भण्डार जो समुद्रों में है। दूसरा वह भण्डार जो नदियों, चश्मों (जल-स्रोतों) और झीलों में है।
28. यानी पानी के जानवरों का गोश्त ।
29. यानी मोती, मूँगे और कुछ नदियों से हीरे और सोना।