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سُورَةُ صٓ

38. सॉद

(मक्का में उतरी, आयतें 88) 

परिचय

नाम

इस सूरा के शुरू ही के अक्षर 'सॉद' को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

जैसा की आगे चलकर बताया जाएगा कि कुछ रिवायतों के अनुसार यह सूरा उस समय उतरी थी, जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का मुअज़्ज़मा में खुल्लम-खुल्ला दावत (आह्वान) का आरंभ किया था। कुछ दूसरी रिवायतें इसके उतरने को हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बाद की घटना बताती हैं। रिवायतों के एक और क्रम से मालूम होता है कि इसके उतरने का समय नुबूवत का दसवाँ या ग्यारहवाँ साल है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इमाम अहमद, नसई और तिर्मिज़ी आदि ने जो रिवायतें नक़्ल की हैं, उनका सारांश यह है कि जब अबू-तालिब बीमार हुए और कुरैश के सरदारों ने महसूस किया कि अब यह उनका अन्तिम समय है, तो उन्होंने आपस में मश्‍वरा किया कि चलकर उनसे बात करनी चाहिए। वे हमारा और अपने भतीजे का झगड़ा चुका जाएँ तो अच्छा हो। इस राय पर सब सहमत हो गए और क़ुरैश के लगभग पच्चीस सरदार, जिनमें अबू-जहल, अबू-सुफ़ियान, उमैया-बिन-ख़ल्फ़, आस-बिन-वाइल, अस्वद-बिन-मुत्तलिब, उक़बा-बिन-अबी-मुऐत, उतबा और शैबा शामिल थे, अबू-तालिब के पास पहुँचे। उन लोगों ने पहले तो अपनी सामान्य नीति के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) के विरुद्ध अपनी शिकायतें बयान की, फिर कहा कि हम आपके सामने एक न्याय की बात रखने आए हैं। आपका भतीजा हमें हमारे दीन पर छोड़ दे और हम उसे उसके दीन पर छोड़ देते हैं, लेकिन वह हमारे उपास्यों का विरोध और उनकी निंदा न करे। इस शर्त पर आप हमसे उसका समझौता करा दें। अबू-तालिब ने नबी (सल्ल०) को बुलाया और आप (सल्ल०) को वह बात बताई जो क़ुरैश के सरदारों ने उनसे कही थी। नबी (सल्ल०) ने उत्तर में कहा, "चचा जान! मैं तो इनके सामने एक ऐसी बात पेश करता हूँ जिसे अगर ये मान लें तो अरब इनके अधीन हो जाए और ग़ैर-अरब इन्हें कर (Tax) देने लग जाएँ।" उन्होंने पूछा, “वह बात क्या है ?" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "ला इला-ह इल्लल्लाह" (नहीं है कोई उपास्य सिवाय अल्लाह के)। इसपर वे सब एक साथ उठ खड़े हुए और वे बातें कहते हुए निकल गए जो इस सूरा के शुरू के हिस्से में अल्लाह ने नक़्ल की हैं। इब्‍ने-सअद की रिवायत के अनुसार यह अबू-तालिब के मृत्यु-रोग की नहीं, बल्कि उस समय की घटना है, जब नबी (सल्ल०) ने सामान्य रूप से लोगों को सत्य की ओर बुलाना शुरू कर दिया था और मक्का में बराबर ये ख़बरें फ़ैलनी शुरू हो गई थीं कि आज फ़ुलाँ आदमी मुसलमान हो गया और कल फ़ुलाँ। ज़मख़शरी, राजी, नेशाबूरी (नेशापूरी) और कुछ दूसरे टीकाकार कहते हैं कि यह प्रतिनिधिमंडल अबूृ-तालिब के पास उस समय गया था जब हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने पर क़ुरैश के सरदार बौखला गए थे। (मानो यह हबशा की हिजरत के बाद की घटना है।)

विषय और वार्ता

ऊपर जिस बैठक का उल्लेख किया गया है, उसकी समीक्षा करते हुए इस सूरा की शुरुआत हुई है। इस्लाम विरोधियों और नबी (सल्ल०) की बातचीत को आधार बनाकर अल्लाह ने बताया है कि इन लोगों के इंकार का मूल कारण इस्लामी दावत की कोई कमी नहीं है, बल्कि उनका अपना घमंड, जलन और अंधी पैरवी पर दुराग्रह है। इसके बाद अल्लाह ने सूरा के शुरू के हिस्से में भी और आख़िरी वाक्यों में भी इस्लाम विरोधियों को साफ़-साफ़ चेतावनी दी है कि जिस आदमी का आज तुम मज़ाक़ उड़ा रहे हो, बहुत जल्द वही ग़ालिब आकर रहेगा, और वह समय दूर नहीं जब उसके आगे तुम सब नतमस्तक नज़र आओगे। फिर बराबर नौ पैग़म्बरों का उल्लेख करके, जिनमें हज़रत दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) का क़िस्सा अधिक विस्तार से है, अल्लाह ने यह बात सुननेवालों के मन में बिठाई है कि उसके न्याय का क़ानून बिल्कुल बे-लाग है। ग़लत बात चाहे कोई भी करे, वह उसपर पकड़ करता है, और उसके यहाँ वही लोग पसन्द किए जाते हैं जो ग़लती पर हठ न करें, बल्कि उससे अवगत होते ही तौबा कर लें। इसके बाद आज्ञाकारी बन्दों और सरकश बन्दों के उस अंजाम का चित्र खींचा गया है जो वे परलोक में देखनेवाले हैं। अन्त में आदम (अलैहि०) और इबलीस के क़िस्से का उल्लेख किया गया है और उसका अभिप्राय क़ुरैश के इस्लाम विरोधियों को यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल.) के आगे झुकने से जो अहंकार तुम्हारे रास्ते की रुकावट बन रहा है, वही अहंकार आदम के आगे झुकने में इबलीस के लिए भी रुकावट बना था। इसलिए जो अंजाम इबलीस का होना है, वही अन्ततः तुम्हारा भी होना है।

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سُورَةُ صٓ
38. सॉद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
صٓۚ وَٱلۡقُرۡءَانِ ذِي ٱلذِّكۡرِ
(1),1 क़सम है नसीहत भरे2 क़ुरआन की,
1. हालाँकि तमाम हुरूफ़े-मुक़त्तआत (अलग-अलग लिखे हुए अक्षर) की तरह हर्फ़ 'सॉद' का मतलब क्या है यह बताना भी मुश्किल है, लेकिन इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और ज़ह्हाक (रह०) का यह कहना भी कुछ दिल को लगता है कि इससे मुराद है “सादिक़ुन फ़ी क़ौलिही (वे अपनी बात में सच्चे हैं)", या “स-द-क़ मुहम्मदुन (मुहम्मद (सल्ल०) सच्चे हैं)” सॉद के हर्फ़ को हम उर्दू में भी इसी से मिलते-जुलते मानी में इस्तेमाल करते हैं। मसलन कहते हैं, “मैं इसपर सॉद करता हूँ", यानी इसकी तसदीक़ करता हूँ, या इसे सही क़रार देता हूँ।
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'ज़िज़-ज़िक्र' । इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक, इज़्ज़तवाला, यानी क़ुरआन मजीद। दूसरा 'ज़िजत-तज़कीर' यानी नसीहत से भरा क़ुरआन, या भूला हुआ सबक़ याद दिलानेवाला और ग़फ़लत से चौंकानेवाला क़ुरआन।
بَلِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي عِزَّةٖ وَشِقَاقٖ ۝ 1
(2) बल्कि यही लोग, जिन्होंने मानने से इनकार किया है, सख़्त घमण्ड और ज़िद में मुब्तला हैं।3
3. अगर 'सॉद' का वह मतलब माना जाए जो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और ज़ह्हाक (रह०) ने बयान किया है तो इस जुमले का मतलब यह होगा कि “क़सम है इस बुज़ुर्ग क़ुरआन, या इस नसीहत से भरे क़ुरआन की कि मुहम्मद (सल्ल०) सच्ची बात पेश कर रहे हैं, मगर जो लोग इनकार पर जमे हुए हैं, वे अस्ल में ज़िद और घमण्ड में मुब्तला हैं।” और अगर ‘सॉद' को उन हरूफ़े-मुक़त्तआत में से समझा जाए जिनका मतलब तय नहीं किया जा सकता, तो फिर पूरी इबारत यूँ होगी कि “इन इनकार करनेवालों के इनकार की वजह यह नहीं है कि जो दीन इनके सामने पेश किया जा रहा है, उसमें कोई ख़राबी है, या मुहम्मद (सल्ल०) ने उनके सामने हक़ का इज़हार करने में कोई कोताही की है, बल्कि इसकी वजह सिर्फ़ उनकी झूठी शेख़ी, उनका जहालत भरा घमण्ड और उनकी हठधर्मी है और उसपर यह नसीहत भरा क़ुरआन गवाह है जिसे देखकर हर वह आदमी तसलीम करेगा जो तास्सुब (दुराग्रह) से पाक है कि उसमें समझाने-बुझाने का हक़ पूरी तरह अदा कर दिया गया है।"
كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّن قَرۡنٖ فَنَادَواْ وَّلَاتَ حِينَ مَنَاصٖ ۝ 2
(3) इनसे पहले हम ऐसी ही कितनी क़ौमों को हलाक कर चुके हैं (और जब उनकी शामत आई है) तो वे चीख़ उठे मगर वह वक़्त बचने का नहीं होता।
وَعَجِبُوٓاْ أَن جَآءَهُم مُّنذِرٞ مِّنۡهُمۡۖ وَقَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ هَٰذَا سَٰحِرٞ كَذَّابٌ ۝ 3
(4) इन लोगों को इस बात पर बड़ी हैरत हुई कि एक डरानेवाला ख़ुद इन्हीं में से आ गया।4 इनकार करनेवाले कहने लगे कि “यह जादूगर'5 है, बहुत झूठा है,
4. यानी ये ऐसे बेवक़ूफ़ लोग हैं कि जब एक देखा-भाला आदमी ख़ुद इनकी अपनी जाति, अपनी क़ौम और अपनी ही बिरादरी में से इनको ख़बरदार करने के लिए मुक़र्रर किया गया तो इनको यह अजीब बात लगी। हालाँकि अजीब बात अगर होती तो यह होती कि इनसानों को ख़बरदार करने के लिए आसमान से कोई और जानदार भेज दिया जाता, या उनके बीच यकायक एक अजनबी आदमी कहीं बाहर से आ खड़ा होता और पैग़म्बरी करनी शुरू कर देता। उस हालत में तो बेशक ये लोग जाइज़ तौर पर कह सकते थे कि यह अजीब हरकत हमारे साथ की गई है, भला जो इनसान ही नहीं है, वह हमारे हालात और जज़बात और ज़रूरतों को क्या जानेगा कि हमारी रहनुमाई कर सके, या जो अजनबी आदमी अचानक हमारे बीच आ गया है, उसकी सच्चाई को आख़िर हम कैसे जाँचें और कैसे मालूम करें कि यह भरोसे के क़ाबिल आदमी है या नहीं, इसकी सीरत और किरदार (चरित्र) को हमने कब देखा है कि इसकी बात का भरोसा करने या न करने का फ़ैसला कर सकें।
5. नबी (सल्ल०) के लिए जादूगर का लफ़्ज़ वे लोग इस मानी में बोलते थे कि यह आदमी कुछ काम ऐसा जादू करता है जिससे आदमी दीवाना होकर इसके पीछे लग जाता है। किसी ताल्लुक़ के कट जाने और कोई नुक़सान पहुँच जाने की परवाह नहीं करता। बाप को बेटा और बेटे को बाप छोड़ बैठता है। बीवी शौहर को छोड़ देती है और शौहर बीवी से अलग हो जाता है। हिजरत की नौबत आए तो दामन झाड़कर वतन से निकल खड़ा होता है। कारोबार बैठ जाए और सारी बिरादरी बाइकॉट कर दे तो इसे भी गवारा कर लेता है। सख़्त-से-सख़्त जिस्मानी तकलीफ़ें भी बरदाश्त कर जाता है, मगर इस आदमी का कलिमा पढ़ने से किसी तरह नहीं मानता। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-5)
أَجَعَلَ ٱلۡأٓلِهَةَ إِلَٰهٗا وَٰحِدًاۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٌ عُجَابٞ ۝ 4
(5) क्या इसने सारे ख़ुदाओं की जगह बस एक ही ख़ुदा बना डाला? यह तो बड़ी अजीब बात है।”
وَٱنطَلَقَ ٱلۡمَلَأُ مِنۡهُمۡ أَنِ ٱمۡشُواْ وَٱصۡبِرُواْ عَلَىٰٓ ءَالِهَتِكُمۡۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٞ يُرَادُ ۝ 5
(6) और क़ौम के सरदार यह कहते हुए निकल गए6 कि “चलो और डटे रहो अपने माबूदों (उपास्यों) की इबादत पर। यह बात'7 तो किसी और ही ग़रज़ से कही जा रही है।8
6. इशारा है उन सरदारों तरफ़ जो नबी (सल्ल०) की बात सुनकर अबू-तालिब की मजलिस से उठ गए थे।
7. यानी नबी (सल्ल०) का यह कहना कि कलिमा “ला इला-ह इल्लल्लाह” को मान लो तो अरब और अजम (अरब के बाहर की दुनिया) सब तुम्हारे मातहत हो जाएँगे।
8. उनका मतलब यह था कि इस दाल में कुछ काला नज़र आता है, अस्ल में यह दावत इस मक़सद से दी जा रही है कि हम मुहम्मद (सल्ल०) के मातहत हो जाएँ और ये हमपर अपना हुक्म चलाएँ।
مَا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِي ٱلۡمِلَّةِ ٱلۡأٓخِرَةِ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا ٱخۡتِلَٰقٌ ۝ 6
(7) यह बात हमने क़रीब के ज़माने की किसी मिल्लत (पंथ) में किसी से नहीं सुनी।9 यह कुछ नहीं है, मगर एक मनगढ़त बात।
9. यानी क़रीब के ज़माने में हमारे अपने बुज़ुर्ग भी गुज़रे हैं, ईसाई और यहूदी भी हमारे देश और आस-पास के देशों में मौजूद हैं और मजूसियों से ईरान और इराक़ और मशरिक़ी (पूर्वी) अरब भरा पड़ा है। किसी ने भी हमसे यह नहीं कहा कि इनसान सिर्फ़ एक अल्लाह, सारे जहानों के रब को माने और दूसरे किसी को न माने। आख़िर एक अकेले ख़ुदा पर कौन बस करता है। अल्लाह के प्यारों को तो सब ही मान रहे हैं। उनके आस्तानों पर जाकर माथे रगड़ रहे हैं। भेंटें और चढ़ावे चढ़ा रहे हैं। दुआएँ माँग रहे हैं। कहीं से औलाद मिलती है, कहीं से रोज़ी मिलती है, किसी आस्ताने पर जो मुराद माँगो वह पूरी होती है, उनके इख़्तियारात को एक दुनिया मान रही है और उनसे फ़ायदा हासिल करनेवाले बता रहे हैं कि इन दरबारों से लोगों की किस-किस तरह मुश्किलें हल होतीं और ज़रूरतें पूरी होती हैं। अब इस आदमी से हम यह निराली बात सुन रहे हैं, जो कभी किसी से न सुनी थी कि इनमें से किसी का भी ख़ुदाई में कोई हिस्सा नहीं और पूरी-की-पूरी ख़ुदाई बस एक अकेले अल्लाह ही की है।
أَءُنزِلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ مِنۢ بَيۡنِنَاۚ بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ مِّن ذِكۡرِيۚ بَل لَّمَّا يَذُوقُواْ عَذَابِ ۝ 7
(8) क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी रह गया था जिसपर अल्लाह का ज़िक्र (याददिहानी) उतार दिया गया?” अस्ल बात यह है कि यह मेरे 'ज़िक्र' पर शक कर रहे हैं10 और ये सारी बातें इसलिए कर रहे हैं कि इन्होंने मेरे अज़ाब का मज़ा चखा नहीं है।
10. दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ मुहम्मद, ये लोग अस्ल में तुम्हें नहीं झुठला रहे हैं, बल्कि मुझे झुठला रहे हैं। तुम्हारी सच्चाई पर तो पहले भी इन्होंने शक नहीं किया था। आज यह शक जो किया जा रहा है यह अस्ल में मेरे 'ज़िक्र' की वजह से है। मैंने इनको नसीहत करने का काम जब तुम्हारे सिपुर्द किया तो ये उसी आदमी की सच्चाई में शक करने लगे जिसकी सच्चाई और ईमानदारी की पहले क़समें खाया करते थे। यही बात सूरा-6 अनआम, आयत-38 में भी आ चुकी है (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-21)
أَمۡ عِندَهُمۡ خَزَآئِنُ رَحۡمَةِ رَبِّكَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡوَهَّابِ ۝ 8
(9) क्या तेरे दाता और ग़ालिब परवरदिगार की रहमत के ख़ज़ाने इनके क़ब्ज़े में हैं?
أَمۡ لَهُم مُّلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ فَلۡيَرۡتَقُواْ فِي ٱلۡأَسۡبَٰبِ ۝ 9
(10) क्या ये आसमान और ज़मीन और उनके बीच की चीज़ों के मालिक हैं? अच्छा तो ये आलमे-असबाब (कारण और संसाधनों पर आधारित दुनिया) की बुलन्दियों पर चढ़कर देखें!11
11. यह इनकार करनेवालों की इस बात का जवाब है कि “क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी रह गया था जिसपर अल्लाह का ज़िक्र उतारा गया।” इसपर अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि नबी हम किसको बनाएँ और किसे न बनाएँ, इसका फ़ैसला करना हमारा अपना काम है। इन लोगों को आख़िर कब से इस फ़ैसले का हक़ मिल गया। अगर ये इसके हक़दार बनना चाहते हैं तो कायनात की बादशाही के मंसब पर क़ब्ज़ा करने के लिए अर्श पर पहुँचने की कोशिश करें, ताकि जिसे ये अपनी रहमत का हक़दार समझें, उसपर वह्य उतरे और जिसे हम हक़दार समझते हैं उसपर वह न उतरे। यह बात कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान हुई है, क्योंकि क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ बार-बार कहते थे कि यह मुहम्मद (सल्ल०) कैसे नबी बन गए, क्या ख़ुदा को क़ुरैश के बड़े-बड़े सरदारों में से कोई इस काम के लिए न मिला था। (देखिए; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-100; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयतें—31, 32)
جُندٞ مَّا هُنَالِكَ مَهۡزُومٞ مِّنَ ٱلۡأَحۡزَابِ ۝ 10
(11) यह तो जत्थों में से एक छोटा-सा जत्था है जो इसी जगह मात खानेवाला है।12
12. 'इसी जगह' का इशारा मक्का की तरफ़ है। यानी जहाँ ये लोग ये बातें बना रहे हैं, इसी जगह एक दिन ये मात खानेवाले हैं और यहीं वह वक़्त आनेवाला है जब ये मुँह लटकाए उसी आदमी के सामने खड़े होंगे जिसे आज ये मामूली समझकर नबी मानने से इनकार कर रहे हैं।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَفِرۡعَوۡنُ ذُو ٱلۡأَوۡتَادِ ۝ 11
(12) इनसे पहले नूह की क़ौम, और आद, और मेखोवाला फ़िरऔन,13
13. फ़िरऔन के लिए 'ज़िल-औताद' (मेख़ोंवाला) या तो इस मानी में इस्तेमाल किया गया है कि उसकी सल्तनत ऐसी मज़बूत थी मानो मेख़ (कील) ज़मीन में ठुकी हुई हो। या इस वजह से कि उसके बहुत-से लश्कर जहाँ ठहरते थे, वहाँ हर तरफ़ ख़ेमों की मेख़ें-ही-मेख़ें (कीलें) ठुकी हुई नज़र आती थीं। या इस वजह से कि वह जिससे नाराज़ होता था, उसे कीलें ठोंककर अज़ाब दिया करता था और मुमकिन है कि मेख़ों से मुराद मिस्र के अहराम (इमारतें) हों जो ज़मीन के अन्दर मेख़ की तरह ठुके हुए हैं।
وَثَمُودُ وَقَوۡمُ لُوطٖ وَأَصۡحَٰبُ لۡـَٔيۡكَةِۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡأَحۡزَابُ ۝ 12
(13) और समूद, और लूत की क़ौम और ऐकावाले झुठला चुके हैं। जत्थे वे थे।
إِن كُلٌّ إِلَّا كَذَّبَ ٱلرُّسُلَ فَحَقَّ عِقَابِ ۝ 13
(14) उनमें से हर एक ने रसूलों को झुठलाया और मेरी सज़ा का फ़ैसला उसपर चस्पाँ होकर रहा।
وَمَا يَنظُرُ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ مَّا لَهَا مِن فَوَاقٖ ۝ 14
(15) ये लोग भी बस एक धमाके के इन्तिज़ार में हैं, जिसके बाद कोई दूसरा धमाका न होगा।14
14. यानी अज़ाब का एक ही कड़का उन्हें ख़त्म कर देने के लिए काफ़ी होगा। किसी दूसरे कड़के की ज़रूरत पेश न आएगी। दूसरा मतलब इस जुमले का यह भी हो सकता है कि उसके बाद फिर वे संभल न सकेंगे, उन्हें इतनी देर की भी मुहलत न मिलेगी जितनी देर ऊँटनी का दूध निचोड़ते वक़्त एक बार सोंते हुए थन में दोबारा सोंतने तक दूध उतरने में लगती है।
وَقَالُواْ رَبَّنَا عَجِّل لَّنَا قِطَّنَا قَبۡلَ يَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 15
(16) और ये कहते हैं कि ऐ हमारे रब, हिसाब के दिन से पहले ही हमारा हिस्सा हमें जल्दी से दे दे।15
15. यानी अल्लाह के अज़ाब का हाल तो है वह जो अभी बयान किया गया और इन नादानों का हाल यह है कि ये नबी से मज़ाक़ के तौर पर कहते हैं कि जिस हिसाब के दिन से तुम हमें डराते हो उसके आने तक हमारे मामले को न टालो, बल्कि हमारा हिसाब अभी चुकवा दो, जो कुछ भी हमारे हिस्से की शामत लिखी है वह फ़ौरन ही आ जाए।
ٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَٱذۡكُرۡ عَبۡدَنَا دَاوُۥدَ ذَا ٱلۡأَيۡدِۖ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٌ ۝ 16
(17) ऐ नबी, सब्र करो उन बातों पर जो ये लोग बनाते हैं16 और इनके सामने हमारे बन्दे दाऊद का क़िस्सा बयान करो"17 जो बड़ी क़ुव्वतों का मालिक था।18 हर मामले में अल्लाह की तरफ़ रुजू करने (पलटने) वाला था।
16. इशारा है मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उन बातों की तरफ़ जिनका ज़िक्र ऊपर गुज़र चुका है, यानी नबी (सल्ल०) के बारे में उनकी यह बकवास कि यह आदमी जादूगर और झूठा है और उनका यह एतिराज़ कि अल्लाह मियाँ के पास रसूल बनाने के लिए क्या बस यही एक आदमी रह गया था और यह इलज़ाम कि इस तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत से इस आदमी का मक़सद कोई मज़हबी तबलीग़ (प्रचार) नहीं है, बल्कि इसकी नीयत कुछ और ही है।
17. इस जुमले का दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “हमारे बन्दे दाऊद को याद करो।” पहले तर्जमे के लिहाज़ से मतलब यह है कि इस क़िस्से में इन लोगों के लिए एक सबक़ है और दूसरे तर्जमे के लिहाज़ से मुराद यह है कि इस क़िस्से की याद ख़ुद तुम्हें सब्र करने में मदद देगी। चूँकि यह क़िस्सा बयान करने से दोनों ही बातें मुराद हैं, इसलिए अलफ़ाज़ ऐसे इस्तेमाल किए गए हैं जो दोनों मतलबों की दलील देते हैं। (हज़रत दाऊद (अलैहि०) के क़िस्से की तफ़सीलात इससे पहले इन जगहों पर गुज़र चुकी हैं, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-273; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—7, 63; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—70 से 73; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—18 से 20; सूरा-34 सबा, हाशिए—14 से 16)
18. अस्ल अलफ़ाज़ हैं 'ज़ल-ऐद' (हाथोंवाला)। हाथ का लफ़्ज़ सिर्फ़ अरबी ज़बान ही में नहीं, दूसरी ज़बानों में भी ताक़त और क़ुदरत के लिए अलामत के तौर पर इस्तेमाल होता है। हज़रत दाऊद (अलैहि०) के लिए जब उनकी सिफ़त के तौर पर यह कहा गया कि वह 'हाथोंवाले' थे तो इसका मतलब लाज़िमन यह होगा कि वे बड़ी क़ुव्वतों के मालिक थे। इन क़ुव्वतों से बहुत-सी क़ुव्वतें मुराद हो सकती हैं। मसलन जिस्मानी ताक़त, जो उन्होंने जालूत से जंग के मौक़े पर दिखाई थी। फ़ौजी और सियासी ताक़त, जिससे उन्होंने आस-पास की मुशरिक क़ौमों को हराकर एक मज़बूत इस्लामी सल्तनत क़ायम कर दी थी। अख़लाक़ी ताक़त, जिसकी बदौलत उन्होंने बादशाही में फ़क़ीरी की और हमेशा अल्लाह से डरते और उसकी तय की हुई हदों की पाबन्दी करते रहे और इबादत की ताक़त, जिसका हाल यह था कि हुकूमत और फ़रमाँरवाई और अल्लाह के रास्ते में जिहाद की मसरूफ़ियतों (व्यस्तताओं) के बावजूद, वे हमेशा एक दिन बीच रोज़ा रखते थे और हर रोज़ एक तिहाई रात नमाज़ में गुज़ारते थे। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) इमाम बुख़ारी (रह०) ने हज़रत अबू-दरदा (रज़ि०) के हवाले से लिखा है कि जब हज़रत दाऊद (अलैहि०) का ज़िक्र आता था तो नबी (सल्ल०) फ़रमाते थे, “वे सबसे ज़्यादा इबादतगुज़ार आदमी थे।” (हदीस : बुख़ारी)
إِنَّا سَخَّرۡنَا ٱلۡجِبَالَ مَعَهُۥ يُسَبِّحۡنَ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِشۡرَاقِ ۝ 17
(18) हमने पहाड़ों को इसके मातहत कर रखा था कि सुबह-शाम वे उसके साथ तसबीह (अल्लाह का महिमागान) करते थे।19
19. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-71।
وَٱلطَّيۡرَ مَحۡشُورَةٗۖ كُلّٞ لَّهُۥٓ أَوَّابٞ ۝ 18
(19) परिन्दे सिमट आते और सब-के-सब उसकी तसबीह की तरफ़ ध्यान लगा देते थे।
وَشَدَدۡنَا مُلۡكَهُۥ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡحِكۡمَةَ وَفَصۡلَ ٱلۡخِطَابِ ۝ 19
(20) हमने उसकी सल्तनत मज़बूत कर दी थी, उसको हिकमत (गहरी सूझ-बूझ) दी थी और फ़ैसलाकुन (निर्णायक) बात कहने की सलाहियत दी थी।20
20. यानी उनकी बात उलझी हुई न होती थी कि सारी तक़रीर सुनकर भी आदमी न समझ सके कि कहना क्या चाहते हैं, बल्कि वह जिस मामले पर भी बात करते, उसके तमाम बुनियादी पहलुओं को खोलकर बयान कर देते और अस्ल फ़ैसला-तलब मसले को ठीक-ठीक तय करके उसका बिलकुल दोटूक जवाब दे देते थे। यह बात किसी शख़्स को उस वक़्त तक हासिल नहीं होती जब तक वह आला दरजे की सूझ-बूझ न रखता हो और अपनी बात कहने और समझाने की ऊँचे दरजे की क़ुदरत न रखता हो।
۞وَهَلۡ أَتَىٰكَ نَبَؤُاْ ٱلۡخَصۡمِ إِذۡ تَسَوَّرُواْ ٱلۡمِحۡرَابَ ۝ 20
(21) फिर तुम्हें कुछ ख़बर पहुँची है उन मुक़द्दमेवालों की जो दीवार चढ़कर उसके महल के ऊपरी हिस्से (निजी चैम्बर) में घुस आए थे?21
21. हज़रत दाऊद (अलैहि०) का ज़िक्र जिस ग़रज़ के लिए इस जगह किया गया है, उसका मक़सद अस्ल में यही क़िस्सा सुनाना है जो यहाँ से शुरू होता है। इससे पहले उनकी जो बेहतरीन ख़ूबियाँ बात की शुरुआत में बयान की गई हैं, उनका मक़सद सिर्फ़ यह बताना था कि दाऊद (अलैहि०), जिनके साथ यह मामला पेश आया है, किस दरजे के इनसान थे।
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَىٰ دَاوُۥدَ فَفَزِعَ مِنۡهُمۡۖ قَالُواْ لَا تَخَفۡۖ خَصۡمَانِ بَغَىٰ بَعۡضُنَا عَلَىٰ بَعۡضٖ فَٱحۡكُم بَيۡنَنَا بِٱلۡحَقِّ وَلَا تُشۡطِطۡ وَٱهۡدِنَآ إِلَىٰ سَوَآءِ ٱلصِّرَٰطِ ۝ 21
(22) जब वे दाऊद के पास पहुँचे तो वह उन्हें देखकर घबरा गया।22 उन्होंने कहा, “डरिए नहीं, हम मुक़द्दमे के दो फ़रीक़ (पक्ष) हैं जिनमें से एक ने दूसरे पर ज़्यादती की है। आप हमारे बीच ठीक-ठीक हक़ के साथ फ़ैसला कर दीजिए, बेइनसाफ़ी न कीजिए और हमें सीधी राह बताइए।
22. घबराने की वजह यह थी कि दो आदमी उस वक़्त के बादशाह के पास उसके निजी मकान में सीधे रास्ते से जाने के बजाय यकायक दीवार पर चढ़कर जा पहुँचे थे।
إِنَّ هَٰذَآ أَخِي لَهُۥ تِسۡعٞ وَتِسۡعُونَ نَعۡجَةٗ وَلِيَ نَعۡجَةٞ وَٰحِدَةٞ فَقَالَ أَكۡفِلۡنِيهَا وَعَزَّنِي فِي ٱلۡخِطَابِ ۝ 22
(23) यह मेरा भाई है।23 इसके पास 99 दुबियाँ हैं और मेरे पास सिर्फ़ एक ही दुंबी है। इसने मुझसे कहा कि यह एक दुंबी भी मेरे हवाले कर दे और इसने अपनी बातचीत में मुझे दबा लिया।"24
23. भाई से मुराद हक़ीक़ी भाई नहीं, बल्कि दीनी और क़ौमी भाई है।
24. आगे की बात समझने के लिए यह बात निगाह में रहनी ज़रूरी है कि दरख़ास्त देनेवाला फ़रीक़ यह नहीं कह रहा है कि उस आदमी ने मेरी वह दुंबी छीन ली और अपनी दुंबियों में मिला ली, बल्कि यह कह रहा है कि यह मुझसे मेरी एक दुंबी माँग रहा है और उसने बातचीत में मुझको दबा लिया है, क्योंकि यह बड़ी शख़सियत का आदमी है और मैं एक ग़रीब आदमी हूँ, मैं अपने अन्दर इतनी ताक़त नहीं पाता कि इसकी माँग रद्द कर दूँ।
قَالَ لَقَدۡ ظَلَمَكَ بِسُؤَالِ نَعۡجَتِكَ إِلَىٰ نِعَاجِهِۦۖ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡخُلَطَآءِ لَيَبۡغِي بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٍ إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَقَلِيلٞ مَّا هُمۡۗ وَظَنَّ دَاوُۥدُ أَنَّمَا فَتَنَّٰهُ فَٱسۡتَغۡفَرَ رَبَّهُۥ وَخَرَّۤ رَاكِعٗاۤ وَأَنَابَ۩ ۝ 23
(24) दाऊद ने जवाब दिया,“इस शख़्स ने अपनी दुंबियों के साथ तेरी तेरी दुंबी मिला लेने की माँग करके यक़ीनन तुझपर ज़ुल्म किया25 और सच तो यह है कि मिल-जुलकर साथ रहनेवाले लोग अकसर एक-दूसरे पर ज़्यादतियाँ करते रहते हैं, बस वही लोग इससे बचे हुए हैं जो ईमान रखते और नेक अमल करते हैं और ऐसे लोग कम ही हैं।” (यह बात कहते-कहते) दाऊद समझ गया कि यह तो हमने अस्ल में उसकी आज़माइश की है, चुनाँचे उसने अपने रब से माफ़ी माँगी और सजदे में गिर गया और पलट आया।26
25. यहाँ किसी को यह शक न हो कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने एक ही फ़रीक़ की बात सुनकर अपना फ़ैसला कैसे दे दिया। अस्ल बात यह है कि जब दावेदार की शिकायत पर वह शख़्स चुप रहा जिसके ख़िलाफ़ दावा किया जा रहा है और उसके रद्द में कुछ न बोला तो यह ख़ुद ही उसके ग़लती क़ुबूल करने के बराबर था। इस वजह से हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने यह राय क़ायम की कि वाक़िआ वही कुछ है जो मुद्दई बयान कर रहा है।
26. इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि इस जगह तिलावत का सजदा वाजिब है या नहीं। इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि यहाँ सजदा वाजिब नहीं है, बल्कि यह तो एक नबी की तौबा है और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) यहाँ सजदा करने को वाजिब कहते हैं। इस सिलसिले में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से तीन रिवायतें मुहद्दिसीन (हदीस संकलित करनेवालों) ने नक़्ल की हैं। इकरिमा (रह०) की रिवायत यह है कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया, “यह उन आयतों में से नहीं है जिनपर सजदा लाज़िम है, मगर मैंने इस जगह पर नबी (सल्ल०) को सजदा करते देखा है।” (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, मुसनद अहमद)। दूसरी रिवायत जो उनसे सईद-बिन-जुबैर ने नक़्ल की है उसके अलफ़ाज़ ये हैं कि “सूरा सॉद में नबी (सल्ल०) ने सजदा किया और फ़रमाया, “दाऊद (अलैहि०) ने तौबा के तौर पर सजदा किया था और हम शुक्र के तौर पर सजदा करते हैं,” यानी इस बात पर कि उनकी तौबा क़ुबूल हुई (हदीस : नसई)। तीसरी रिवायत जो मुजाहिद (रह०) ने उनसे नक़्ल की है, उसमें वे फ़रमाते हैं कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को हुक्म दिया है कि “ये वे लोग थे जिनको अल्लाह ने सीधी राह दिखाई थी, इसलिए तुम उनके तरीक़े की पैरवी करो।” (सूरा-6 अनआम, आयत-90) अब चूँकि हज़रत दाऊद (अलैहि०) भी एक नबी थे और उन्होंने इस मौक़े पर सजदा किया था, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने भी उनकी पैरवी में यहाँ सजदा किया (हदीस : बुख़ारी)। ये तीन बयान तो हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के हैं और हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी का बयान यह है कि नबी (सल्ल०) ने एक बार ख़ुतबे में सूरा-38 सॉद पढ़ी और जब आप (सल्ल०) इस आयत पर पहुँचे तो आप (सल्ल०) ने मिम्बर से उतरकर सजदा किया और आप (सल्ल०) के साथ वहाँ मौजूद सब लोगों ने सजदा किया। फिर एक-दूसरे मौक़े पर इसी तरह आप (सल्ल०) ने यह आयत पढ़ी तो इस आयत को सुनते ही लोग सजदा करने के लिए तैयार हो गए। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह एक नबी की तौबा है, मगर मैं देखता हूँ कि तुम लोग सजदे के लिए तैयार हो गए हो।" — यह फ़रमाकर आप (सल्ल०) मिम्बर से उतरे और सजदा किया और सब मौजूद लोगों ने भी किया (हदीस : अबू-दाऊद)। इन रिवायतों से अगरचे सजदे के वाजिब होने की पक्की दलील तो नहीं मिलती, लेकिन कम-से-कम इतनी बात तो ज़रूर साबित होती है कि नबी (सल्ल०) ने इस जगह पर अकसर सजदा किया है और सजदा न करने के मुक़ाबले में यहाँ सजदा करना बहरहाल ज़्यादा बेहतर है, बल्कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की तीसरी रिवायत, जो हमने ऊपर बुख़ारी के हवाले से नक़्ल की है, वाजिब न होने के मुक़ाबले में वाजिब होने के हुक्म का पलड़ा झुका देती है। एक और बात, जो इस आयत से निकलती है, यह है कि अल्लाह तआला ने यहाँ “ख़र-र राकिअन” (रुकू में गिर पड़ा) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं, मगर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले सभी आलिम इसपर एकराय हैं कि इससे मुराद “ख़र-र साजिदन” (सजदे में गिर पड़ा) है। इसी वजह से इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों ने यह राय ज़ाहिर की है कि नमाज़ या नमाज़ के अलावा आम हालत में सजदे की आयत सुनकर या पढ़कर आदमी सजदे के बजाय सिर्फ़ रुकू भी कर सकता है, क्योंकि जब अल्लाह तआला ने रुकू का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके सजदा मुराद लिया है तो मालूम हुआ कि रुकू सजदे का बदल हो सकता है। शाफ़िई मसलक के फ़क़ीहों में से इमाम ख़त्ताबी की भी यही राय है। यह राय अगरचे अपनी जगह ख़ुद सही और मुनासिब है, लेकिन नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) के अमल में हमको ऐसी कोई मिसाल नहीं मिली कि सजदे की आयत पर सजदा करने के बजाय सिर्फ़ रुकू कर लिया गया हो। लिहाज़ा इस राय पर अमल सिर्फ़ उस सूरत में करना चाहिए जब सजदा करने में कोई चीज़ रुकावट हो। उसे आम उसूल बना लेना दुरुस्त नहीं है और ख़ुद इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों का मंशा भी यह नहीं है कि इसे आम उसूल बनाया जाए, बल्कि वे सिर्फ़ इसे जाइज़ मानते हैं।
فَغَفَرۡنَا لَهُۥ ذَٰلِكَۖ وَإِنَّ لَهُۥ عِندَنَا لَزُلۡفَىٰ وَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 24
(25) तब हमने उसका वह कुसूर माफ़ किया और यक़ीनन हमारे यहाँ उसके लिए नज़दीकी पाने का मक़ाम और बेहतर अंजाम है27
27. इससे मालूम हुआ कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) से क़ुसूर तो ज़रूर हुआ था और वह कोई ऐसा क़ुसूर था जो दुबियोंवाले मुक़द्दमे से किसी तरह से मिलता-जुलता था, इसी लिए उसका फ़ैसला सुनाते हुए अचानक उनको यह ख़याल आया कि यह मेरी आज़माइश हुई है, लेकिन वह क़ुसूर ऐसा सख़्त न था कि उसे माफ़ न किया जाता, या अगर माफ़ किया भी जाता तो वह अपने ऊँचे मर्तबे से गिरा दिए जाते। अल्लाह तआला यहाँ ख़ुद बता रहा है कि जब उन्होंने सजदे में गिरकर तौबा की तो न सिर्फ़ यह कि उन्हें माफ़ कर दिया गया, बल्कि दुनिया और आख़िरत में उनको जो बुलन्द मक़ाम हासिल था, उसमें भी कोई फ़र्क़ न आया।
يَٰدَاوُۥدُ إِنَّا جَعَلۡنَٰكَ خَلِيفَةٗ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱحۡكُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعِ ٱلۡهَوَىٰ فَيُضِلَّكَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَضِلُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدُۢ بِمَا نَسُواْ يَوۡمَ ٱلۡحِسَابِ ۝ 25
(26) (हमने उससे कहा) “ऐ दाऊद, हमने तुझे ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाया है, लिहाज़ा तू लोगों के बीच हक़ के साथ हुकूमत कर और मन की ख़ाहिश की पैरवी न कर कि वह तुझे अल्लाह की राह से भटका देगी। जो लोग अल्लाह की राह से भटकते हैं, यक़ीनन उनके लिए सख़्त सज़ा है कि वे हिसाब के दिन को भूल गए।"28
28. यह वह चेतावनी है जो इस मौक़े पर अल्लाह तआला ने तौबा क़ुबूल करने और दरजे बुलन्द होने की ख़ुशख़बरी देने के साथ हज़रत दाऊद (अलैहि०) को की। इससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है कि जो हरकत उनसे हो गई थी, उसके अन्दर मन की ख़ाहिश का कुछ दख़ल था, उसका हुकूमत के इख़्तियार के नामुनासिब इस्तेमाल से भी कोई ताल्लुक़ था और वह कोई ऐसा काम था जो हक़ के साथ हुकूमत करनेवाले किसी हाकिम को ज़ेब (शोभा) न देता था। यहाँ पहुँचकर तीन सवाल हमारे सामने आते हैं। एक यह कि वह काम क्या था? दूसरा यह कि अल्लाह तआला ने उसको साफ़-साफ़ बयान करने के बजाय इस तरह परदे-परदे ही में उसकी तरफ़ क्यों इशारा किया? तीसरा यह कि इस मौक़े पर उसका ज़िक्र किस वजह से किया गया है? जिन लोगों ने बाइबल पढ़ी है, उनसे यह बात छिपी नहीं है कि इस किताब में हज़रत दाऊद (अलेहि०) पर ऊरिय्याह हित्ती (Uriah the Hittite) की बीवी से बदकारी करने और फिर ऊरिय्याह को एक जंग में जान-बूझकर मरवाकर उसकी बीवी से शादी कर लेने का साफ़-साफ़ इलज़ाम लगाया गया है और यह भी कहा गया है कि यही औरत, जिसने एक आदमी की बीवी होते हुए अपने आपको हज़रत दाऊद (अलैहि०) के हवाले किया था, हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की माँ थी। यह पूरा क़िस्सा बाइबल की किताब शमूएल-2, अध्याय-11-12 में बहुत तफ़सील के साथ लिखा है। क़ुरआन उतरने से सदियों पहले यह बाइबल में लिखा जा चुका था। दुनिया भर के यहूदियों और ईसाइयों में से जो भी अपनी इस पाक किताब को पढ़ता या उसे सुनता था, वह इस क़िस्से से न सिर्फ़ वाक़िफ़ था, बल्कि इसपर ईमान भी लाता था। इन्हीं लोगों के ज़रिए से यह दुनिया में मशहूर हुआ और आज तक हाल यह है कि पश्चिमी देशों में बनी-इसराईल और इबरानी मज़हब के इतिहास पर कोई किताब ऐसी नहीं लिखी जाती जिसमें हज़रत दाऊद (अलैहि०) के ख़िलाफ़ इस इलज़ाम को दोहराया न जाता हो। इस मशहूर क़िस्से में यह बात भी लिखी है— "ख़ुदावन्द ने नातन को दाऊद के पास भेजा। उसने उसके पास आकर उससे कहा : किसी शहर में दो आदमी थे। एक अमीर, दूसरा ग़रीब। उस अमीर के पास बहुत-से रेवड़ और गल्ले थे। पर उस ग़रीब के पास भेड़ की एक पठिया के सिवा कुछ न था, जिसे उसने ख़रीदकर पाला था और वह उसके और उसके बाल-बच्चों के साथ बढ़ी थी। वह उसी के निवाले में से खाती और उसी के प्याले से पानी पीती और उसकी गोद में सोती थी और उसके लिए बेटी जैसी थी और उस अमीर के यहाँ कोई मुसाफ़िर आया। सो उसने उस मुसाफ़िर के लिए, जो उसके यहाँ आया था, पकाने को अपने रेवड़ और गल्ले में से कुछ न लिया, बल्कि उस ग़रीब की भेड़ ले ली और उस आदमी के लिए, जो उसके यहाँ आया था, पकाई। तब दाऊद का ग़ुस्सा उस आदमी पर तेज़ी से भड़का और उसने नातन से कहा कि ख़ुदावन्द की ज़िन्दगी की कसम! वह आदमी जिसने यह काम किया, क़त्ल किए जाने के क़ाबिल है। अब उस आदमी को उस भेड़ का चौगुना भरना पड़ेगा, क्योंकि उसने ऐसा काम किया और उसे तरस न आया। तब नातन ने दाऊद से कहा कि वह आदमी तू ही है ...... तूने हित्ती ऊरिय्याह को तलवार से मारा और उसकी बीवी ले ली, ताकि वह तेरी बीवी बने और उसको बनी-अम्मून की तलवार से क़त्ल करवाया।" (शमूएल-2, अध्याय 12, जुमले 1-11) इस क़िस्से और उसकी शोहरत की मौजूदगी में यह ज़रूरत बाक़ी न थी कि क़ुरआन मजीद में उसके बारे में कोई तफ़सीली बयान दिया जाता। अल्लाह तआला का यह क़ायदा है भी नहीं कि वह अपनी पाक किताब में ऐसी बातों को खोलकर बयान करे। इसलिए यहाँ परदे-परदे ही में इसकी तरफ़ इशारा भी किया गया है और इसके साथ यह भी बता दिया गया है कि अस्ल वाक़िआ क्या था और अहले-किताब ने उसे बना क्या दिया है। अस्ल वाक़िआ, जो क़ुरआन मजीद में ऊपर ज़िक्र हुए बयान से साफ़ समझ में आता है, वह यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने ऊरिय्याह (या जो कुछ भी उस आदमी का नाम रहा हो) से सिर्फ़ ख़ाहिश की थी कि वह अपनी बीवी को तलाक़ दे दे और चूँकि यह ख़ाहिश एक आम आदमी की तरफ़ से नहीं, बल्कि एक बड़े बादशाह और ज़बरदस्त (महान) दीनी शख़सियत की तरफ़ से जनता के एक आदमी के सामने ज़ाहिर की गई थी, इसलिए वह आदमी किसी ज़ाहिरी दबाव के बिना भी अपने आपको उसे क़ुबूल करने पर मजबूर पा रहा था। इस मौक़े पर, इससे पहले कि वह हज़रत दाऊद (अलैहि०) की फ़रमाइश पूरी करता, क़ौम के दो नेक आदमी अचानक हज़रत दाऊद (अलैहि०) के पास पहुँच गए और उन्होंने एक फ़रज़ी (काल्पनिक) मुक़द्दमे में यह मामला उनके सामने पेश कर दिया। हज़रत दाऊद (अलैहि०) शुरू में तो यह समझे कि यह सचमुच कोई मुक़द्दमा है। चुनाँचे उन्होंने उसे सुनकर अपना फ़ैसला सुना दिया। लेकिन ज़बान से फ़ैसले के अलफ़ाज़ निकलते ही उनके ज़मीर (अन्तरात्मा) ने ख़बरदार किया कि यह मिसाल पूरी तरह उनके और उस आदमी के मामले पर चस्पाँ होती है और जिस काम को वह ज़ुल्म ठहरा रहे हैं, वह ख़ुद उनसे उस आदमी के मामले में हो रहा है। यह एहसास दिल में पैदा होते ही वे सजदे में गिर गए और तौबा की और अपने इस काम से रुजू कर लिया। बाइबल में इस वाक़िए की इतनी घिनावनी शक्ल कैसे बनी? यह बात भी थोड़े-से ग़ौर के बाद समझ में आ जाती है। मालूम ऐसा होता है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) को उस औरत की ख़ूबियों का पता किसी ज़रिए से चल गया था और उनके दिल में यह ख़याल पैदा हुआ था कि ऐसी लायक़ औरत एक मामूली अफ़सर की बीवी होने के बजाय देश की मलिका होनी चाहिए। इसी ख़याल के असर में आकर उन्होंने उसके शौहर से यह ख़ाहिश ज़ाहिर की कि वह उसे तलाक़ दे दे। इसमें कोई बुराई उन्होंने इसलिए महसूस न की कि बनी-इसराईल के यहाँ यह कोई बुरी बात न समझी जाती थी। उनके यहाँ यह एक मामूली बात थी कि एक आदमी अगर किसी की बीवी को पसन्द करता तो बेझिझक उससे दरख़ास्त कर देता था कि इसे मेरे लिए छोड़ दे। ऐसी दरख़ास्त पर कोई बुरा न मानता था, बल्कि कभी-कभी तो दोस्त एक-दूसरे का ख़याल करते हुए बीवी को ख़ुद तलाक़ दे देते थे, ताकि दूसरा उससे शादी कर ले। लेकिन यह बात करते वक़्त हज़रत दाऊद (अलैहि०) को इस बात का एहसास न हुआ कि एक आम आदमी की तरफ़ से इस तरह की ख़ाहिश ज़ाहिर करना तो ज़ोर-ज़बरदस्ती और ज़ुल्म के असर से ख़ाली हो सकता है, मगर एक बादशाह की तरफ़ से जब ऐसी ख़ाहिश ज़ाहिर की जाए तो वह ज़ोर-ज़बरदस्ती से किसी तरह भी ख़ाली नहीं हो सकती। इस पहलू की तरफ़ जब उस बनावटी मुक़द्दमे के ज़रिए से उनको ध्यान दिलाया गया तो उन्होंने बिना झिझक अपनी यह ख़ाहिश छोड़ दी और बात आई-गई हो गई। मगर बाद में किसी वक़्त जब उनकी किसी ख़ाहिश और कोशिश के बिना उस औरत का शौहर जंग में शहीद हो गया और उन्होंने उससे निकाह कर लिया, तो यहूदियों के गन्दे ज़ेहन ने कहानी बनानी शुरू कर दी और यह मन की गन्दगी उस वक़्त और ज़्यादा तेजी से काम करने लगी जब बनी-इसराईल का एक गरोह हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का दुश्मन हो गया (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिया-56)। इन वजहों से यह क़िस्सा गढ़ डाला गया कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने, अल्लाह की पनाह, ऊरिय्याह की बीवी को अपने महल की छत पर से इस हालत में देख लिया था कि वह बरहना (नग्नावस्था में) नहा रही थी। उन्होंने उसको अपने यहाँ बुलवाया और उससे बदकारी की जिससे वह हामिला (गर्भवती) हो गई। फिर उन्होंने ऊरिय्याह को बनी-अम्मून के मुक़ाबले पर जंग में भेज दिया और फ़ौज के कमाँडर यूआब को हुक्म दिया कि उसे लड़ाई में ऐसी जगह रख दे जहाँ लाज़िमन वह मारा जाए और जब वह मारा गया तो उन्होंने उसकी बीवी से शादी कर ली और उसी औरत के पेट से सुलैमान (अलैहि०) पैदा हुए। ये तमाम झूठे इलज़ाम ज़ालिमों ने अपनी 'पाक किताब' में लिख दिए हैं ताकि एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल के ज़रिए से इसे पढ़ते रहें और अपनी क़ौम के उन दो सबसे बुज़ुर्ग इनसानों की बेइज़्ज़ती करते रहें जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद उनके सबसे बड़े मुहसिन (एहसान करनेवाले) थे। क़ुरआन मजीद की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से एक गरोह ने तो उन कहानियों को क़रीब-क़रीब ज्यों-का-त्यों क़ुबूल कर लिया है जो बनी-इसराईल के ज़रिए से उन तक पहुँची हैं। इसराईली रिवायतों का सिर्फ़ इतना हिस्सा उन्होंने निकाल दिया है जिसमें हज़रत दाऊद पर बदकारी का इलज़ाम लगाया गया था और औरत के हामिला (गर्भवती) हो जाने का ज़िक्र था। बाक़ी सारा क़िस्सा उनकी नक़्ल की हुई रिवायतों में उसी तरह पाया जाता है जिस तरह वह बनी-इसराईल में मशहूर था। दूसरे गरोह ने सिरे से इस वाक़िए ही का इनकार कर दिया है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) से कोई ऐसी हरकत हो गई थी जो दुबियोंवाले मुक़द्दमे से कोई मेल रखता हो। इसके बजाय वे अपनी तरफ़ से इस क़िस्से के मतलब कुछ इस तरह बयान करते हैं जो बिलकुल बेबुनियाद हैं, उनके बारे में कुछ नहीं पता कि वे कहाँ से लिए गए हैं। और ख़ुद क़ुरआन के मौक़ा-महल से भी वे ज़रा मेल नहीं खाते। लेकिन तफ़सीर लिखनेवालों ही में एक गरोह ऐसा भी है जो ठीक बात तक पहुँचा है और क़ुरआन के साफ़ इशारों से क़िस्से की अस्ल हक़ीक़त पा गया है। मिसाल के तौर पर कुछ बातें देखिए— मसरूक़ (रह०) और सईद-बिन-जुबैर, दोनों हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल करते हैं कि “हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया था कि उस औरत के शौहर से यह ख़ाहिश ज़ाहिर की थी कि अपनी बीवी को मेरे लिए छोड़ दे।" (इब्ने-जरीर) अल्लामा ज़मख़्शरी अपनी तफ़सीर 'कश्शाफ़' में लिखते हैं कि “जिस शक्ल में अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद (अलैहि०) का क़िस्सा बयान किया है, उससे तो यही ज़ाहिर होता है कि उन्होंने उस आदमी से सिर्फ़ यह ख़ाहिश ज़ाहिर की थी कि वह उनके लिए को छोड़ दे।” अल्लामा अबू-बक्र जस्सास (रह०) इस राय का इज़हार करते हैं कि वह औरत उस आदमी की बीवी नहीं थी, बल्कि उसकी लौंडी थी जिससे उसको कुछ दे-दिलाकर आज़ाद करने का मामला हो चुका था या उससे मंगनी का ताल्लुक़ था। हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने उसी औरत से निकाह का पैग़ाम दे दिया, इसपर अल्लाह तआला की तरफ़ से मलामत की गई, क्योंकि उन्होंने अपने ईमानवाले भाई के पैग़ाम पर पैग़ाम दिया था। हालाँकि उनके घर में पहले से कई बीवियाँ मौजूद थीं। (अहकामुल-क़ुरआन) कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों ने भी यही राय ज़ाहिर की है। लेकिन यह बात क़ुरआन के बयान से पूरी तरह मेल नहीं खाती। क़ुरआन मजीद में मुक़द्दमा पेश करनेवाले के जो अलफ़ाज़ नक़्ल हुए हैं वे ये हैं, “मेरे पास बस एक ही दुंबी है और यह कहता है कि इसे मेरे हवाले कर दे।” यही बात हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने भी अपने फ़ैसले में कही, “उसने तेरी दुंबी माँगने में तुझपर ज़ुल्म किया।” यह मिसाल हज़रत दाऊद (अलैहि०) और ऊरिय्याह के मामले पर इसी सूरत में चस्पाँ हो सकती है जबकि वह औरत उस आदमी की बीवी हो। पैग़ाम पर पैग़ाम देने का मामला होता तो फिर मिसाल यूँ होती कि “मैं एक दुंबी लेना चाहता था और इसने कहा कि यह भी मेरे लिए छोड़ दे।” क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी अहकामुल-क़ुरआन में इस मसले पर तफ़सीली बहस करते हुए लिखते हैं, “अस्ल वाक़िआ बस यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने अपने आदमियों में से एक आदमी से कहा कि मेरे लिए अपनी बीवी छोड़ दे और संजीदगी के साथ यह माँग की..... क़ुरआन में यह बात नहीं है कि उस आदमी ने उनकी इस माँग पर अपनी बीवी को छोड़ दिया और हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने उस औरत से इसके बाद शादी कर ली और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उसी के पेट से पैदा हुए ...... जिस बात पर मलामत की गई वह इसके सिवा कुछ न थी कि उन्होंने एक औरत के शौहर से यह चाहा कि वह उनकी ख़ातिर उसे छोड़ दे ..... यह काम चाहे अपनी जगह जाइज़ ही हो मगर नुबूवत (पैग़म्बरी) के मंसब से मेल नहीं खाता था, इसी लिए उनकी मलामत भी की गई और उनको नसीहत भी की गई।” यही तफ़सीर उस मौक़ा-महल से भी मेल खाती है जिसमें यह क़िस्सा बयान किया गया है। बात के सिलसिले पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि क़ुरआन मजीद में इस जगह पर यह क़िस्सा दो मक़सदों से बयान किया गया है। पहला मक़सद नबी (सल्ल०) को सब्र की नसीहत करना है और इस मक़सद के लिए आप (सल्ल०) को मुख़ातब (सम्बोधित) करके कहा गया है कि “जो बातें ये लोग तुमपर बनाते हैं उनपर सब्र करो और हमारे बन्दे दाऊद को याद करो।” यानी तुम्हें तो जादूगर और झूठा ही कहा जा रहा है, लेकिन हमारे बन्दे दाऊद पर ज़ालिमों ने बदकारी और साज़िशी क़त्ल तक के इलज़ाम लगा दिए। लिहाज़ा इन लोगों से जो कुछ भी तुमको सुनना पड़े उसे बरदाश्त करते रहो। दूसरी ग़रज़ कि ईमान न लानेवालों को यह बताना है कि तुम लोग हर पूछ-गछ से बेख़र होकर दुनिया में तरह-तरह की ज़्यादतियाँ करते चले जाते हो, लेकिन जिस ख़ुदा की ख़ुदाई में तुम ये हरकतें कर रहे हो वह किसी को भी हिसाब लिए बिना नहीं छोड़ता, यहाँ तक कि जो बन्दे उसके बहुत ही पसन्दीदा और क़रीबी होते हैं, वे भी अगर कहीं ज़रा-सा फिसल जाएँ तो अल्लाह तआला उनसे सख़्त पूछ-गछ करता है। इस मक़सद के लिए नबी (सल्ल०) से फ़रमाया गया कि उनके सामने हमारे बन्दे दाऊद (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करो जो ऐसी और ऐसी ख़ूबियों का मालिक था, मगर जब उससे एक ग़लत बात हो गई तो देखो कि हमने उसे किस तरह मलामत की। इस सिलसिले में एक ग़लतफ़हमी और बाक़ी रह जाती है, जिसे दूर कर देना ज़रूरी है। मिसाल में मुक़द्दमा पेश करनेवाले ने यह जो कहा है कि इस आदमी के पास 99 दुंबियाँ हैं और मेरे पास एक ही दुंबी है जिसे यह माँग रहा है, इससे बज़ाहिर यह गुमान होता है कि शायद हज़रत दाऊद (अलैहि०) के पास 99 बीवियाँ थीं और वह एक औरत हासिल करके 100 का आंकड़ा पूरा करना चाहते थे। लेकिन अस्ल में मिसाल के हर-हर हिस्से का हज़रत दाऊद (अलैहि०) और ऊरिय्याह हित्ती के मामले पर लफ़्ज़-लफ़्ज़ चस्पाँ होना जरूरी नहीं है। आम मुहावरे में दस, बीस, पचास वग़ैरा नम्बरों का ज़िक्र सिर्फ़ तादाद की ज़्यादती को बयान करने के लिए किया जाता है, न कि ठीक तादाद बयान करने के लिए। हम जब किसी से कहते हैं कि दस बार तुमसे फ़ुलाँ बात कह दी तो इसका मतलब यह नहीं होता कि दस बार गिनकर वह बात कही गई है, बल्कि मतलब यह होता है कि कई बार वह बात कही जा चुकी है। ऐसा ही मामला यहाँ भी है। मिसाल के तौर पर पेश होनेवाले मुक़द्दमे में वह आदमी हज़रत दाऊद (अलैहि०) को यह एहसास दिलाना चाहता था कि आपके पास कई बीवियाँ हैं और फिर भी आप दूसरे आदमी की एक बीवी हासिल करना चाहते हैं। यही बात तफ़सीर लिखनेवाले आलिम नेसाबूरी ने हज़रत हसन बसरी (रह०) से नक़्ल की है कि “हज़रत दाऊद के 99 बीवियाँ न थीं, बल्कि यह सिर्फ़ एक मिसाल है।" (इस क़िस्से पर तफ़सीली बहस हमने अपनी किताब तफ़हीमात हिस्सा-2 में की है। जो लोग हमारे बयान किए हुए मतलब को तरजीह देने की तफ़सीली दलीलें मालूम करना चाहते हैं, वे इस किताब के पे० 29-44 देखें)।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا بَٰطِلٗاۚ ذَٰلِكَ ظَنُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنَ ٱلنَّارِ ۝ 26
(27) हमने इस आसमान और ज़मीन को और इस दुनिया को जो उनके बीच है, बेमक़सद पैदा नहीं कर दिया है।29 यह तो उन लोगों का गुमान है जिन्होंने (अल्लाह का) इनकार किया है और ऐसे इनकार करनेवालों के लिए बरबादी है जहन्नम की आग से।
29. यानी सिर्फ़ खेल के तौर पर पैदा नहीं कर दिया है कि इसमें कोई हिकमत न हो, कोई ग़रज़ और मक़सद न हो, कोई अद्ल और इनसाफ़ न हो और किसी अच्छे-बुरे काम का कोई नतीजा न निकले। यह बात पिछली तक़रीर का हासिल भी है और आगे की बात की तमहीद (भूमिका) भी। पिछली तक़रीर के बाद यह जुमला कहने का मक़सद यह हक़ीक़त सुननेवालों के ज़ेहन में बिठाना है कि इनसान यहाँ बेनकेल ऊँट की तरह नहीं छोड़ दिया गया है, न यह दुनिया अन्धेर-नगरी है कि यहाँ जिसका जो जी चाहे करता रहे और उससे कोई पूछ-गछ न हो। आगे की बात की तमहीद (भूमिका) के तौर पर इस जुमले से बात शुरू करके यह बात समझाई गई है कि जो आदमी इनाम और सज़ा को नहीं मानता है और अपनी जगह यह समझे बैठा है कि अच्छे-बुरे सब आख़िरकार मरकर मिट्टी हो जाएँगे, किसी से कोई पूछ-गछ न होगी, न किसी को भलाई या बुराई का कोई बदला मिलेगा, वह अस्ल में दुनिया को एक खिलौना और उसके बनानेवाले को खिलंडरा समझता है और उसका ख़याल यह है कि कायनात के पैदा करनेवाले ख़ुदा ने दुनिया बनाकर और उसमें इनसान को पैदा करके एक बेफ़ायदा काम किया है। यही बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से कही गई है। “क्या तुमने यह समझ रखा है कि हमने तुमको बेकार (व्यर्थ) पैदा कर दिया है और तुम हमारी तरफ़ पलटाए जानेवाले नहीं हो?" (सूरा-23 मोमिनून, आयत-115) "हमने आसमानों और ज़मीन को और इस कायनात को जो उनके बीच है खेल के तौर पर पैदा नहीं किया है। हमने उनको हक़ के साथ पैदा किया है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं। हक़ीक़त में फ़ैसले का दिन इन सबके लिए हाज़िरी का तय किया हुआ वक़्त है।" (सूरा-41 दुख़ान, आयतें—38 से 40)
أَمۡ نَجۡعَلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ كَٱلۡمُفۡسِدِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ نَجۡعَلُ ٱلۡمُتَّقِينَ كَٱلۡفُجَّارِ ۝ 27
(28) क्या हम उन लोगों को जो ईमान लाते और भले काम करते हैं और उनको जो ज़मीन में बिगाड़ फैलानेवाले हैं एक जैसा कर दें? क्या परहेज़गारों को हम नाफ़रमानों जैसा कर दें?30
30. यानी क्या तुम्हारे नज़दीक यह बात मुनासिब और सही है कि अच्छे और बुरे आख़िरकार दोनों बराबर हो जाएँ? क्या यह सोचना तुम्हारे लिए इत्मीनान की बात है कि किसी नेक इनसान को उसकी नेकी का कोई बदला और किसी बुरे आदमी को उसकी बुराई का कोई बदला न मिले? ज़ाहिर बात है कि अगर आख़िरत न हो और अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई हिसाब न लिया जाए और इनसान के कामों का कोई इनाम और सज़ा न हो तो इससे अल्लाह की हिकमत और उसके इनसाफ़ दोनों का इनकार हो जाता है और कायनात का पूरा निज़ाम एक अन्धा निज़ाम बनकर रह जाता है। अगर बात यह होती तो दुनिया में भलाई पर उभारनेवाली कोई चीज़ और बुराई से रोकनेवाली कोई रुकावट सिरे से बाक़ी ही न रह जाती। ख़ुदा की ख़ुदाई अगर, अल्लाह की पनाह, ऐसी ही अन्धेर-नगरी हो तो फिर वह आदमी बेवक़ूफ़ है जो इस ज़मीन पर तकलीफ़ें उठाकर ख़ुद भली और नेक ज़िन्दगी गुज़ारता है और ख़ुदा के बन्दों के सुधार के लिए काम करता है और वह आदमी अक़्लमन्द है जो साज़गार और मुनासिब मौक़े पाकर हर तरह की ज़्यादतियों से फ़ायदे समेटता और हर तरह के गुनाह और जुर्म से मज़े लेता है।
كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ مُبَٰرَكٞ لِّيَدَّبَّرُوٓاْ ءَايَٰتِهِۦ وَلِيَتَذَكَّرَ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 28
(29) यह एक बड़ी बरकतवाली किताब31 है जो (ऐ नबी) हमने तुम्हारी तरफ़ उतारी है, ताकि ये लोग इसकी आयतों पर ग़ौर करें और अक़्ल और समझ रखनेवाले इससे सबक़ लें।
31. 'बरकत' के मानी हैं 'ख़ैर व सआदत (भलाई और सौभाग्य) में इज़ाफ़ा' । क़ुरआन मजीद को बरकतवाली किताब कहने का मतलब यह है कि यह इनसान के लिए बहुत ही फ़ायदेमन्द किताब है, उसकी ज़िन्दगी को दुरुस्त करने के लिए बेहतरीन हिदायतें देती है, उसकी पैरवी में आदमी का फ़ायदा-ही-फ़ायदा है, नुक़सान का कोई ख़तरा नहीं है।
وَوَهَبۡنَا لِدَاوُۥدَ سُلَيۡمَٰنَۚ نِعۡمَ ٱلۡعَبۡدُ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٌ ۝ 29
(30) और दाऊद को हमने सुलैमान (जैसा बेटा) दिया,32 बेहतरीन बन्दा, अपने रब की तरफ़ बहुत ज़्यादा पलटनेवाला।
32. हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का ज़िक्र इससे पहले नीचे लिखी जगहों पर गुज़र चुका है, तफ़हीमुल- क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-104; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-7; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—70 से 75; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—18 से 56; सूरा-34 सबा, आयतें—12 से 14।
إِذۡ عُرِضَ عَلَيۡهِ بِٱلۡعَشِيِّ ٱلصَّٰفِنَٰتُ ٱلۡجِيَادُ ۝ 30
(31) बयान के क़ाबिल है वह मौक़ा जब शाम के वक़्त उसके सामने ख़ूब सधे हुए तेज़-रफ़्तार घोड़े पेश किए गए33
33. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “अस-साफ़िनातुल-जियाद” । इससे मुराद ऐसे घोड़े हैं जो खड़े हों तो बहुत सुकून के साथ खड़े रहें, कोई उछल-कूद न करें और जब दौड़ें तो बहुत तेज़ दौड़ें।
وَإِنَّ لَهُۥ عِندَنَا لَزُلۡفَىٰ وَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 31
(40) यक़ीनन इसके लिए हमारे यहाँ नज़दीकी का मक़ाम और बेहतर अंजाम है।40
40. इस ज़िक्र का अस्ल मक़सद यह बताना है कि अल्लाह तआला को बन्दे की अकड़ जितनी नापसन्द है, उसकी आजिज़ी (विनम्रता) की अदा उतनी ही प्यारी है। बन्दा अगर क़ुसूर करे और ख़बरदार करने पर उलटा और ज़्यादा अकड़ जाए तो अंजाम वह होता है जो आगे आदम और इबलीस के क़िस्से में बयान हो रहा है। इसके बरख़िलाफ़ ज़रा-सी भूल भी अगर बन्दे से हो जाए और वह तौबा करके आजिज़ी के साथ अपने रब के आगे झुक जाए तो उसपर वे मेहरबानियाँ की जाती हैं जो दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) पर की गईं। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने तौबा के बाद जो दुआ की थी, अल्लाह तआला ने उसे लफ़्ज़-लफ़्ज़ पूरा किया और उनको सचमुच ऐसी बादशाही दी जो न उनसे पहले किसी को मिली थी, न उनके बाद आज तक किसी को दी गई। हवाओं पर इख़्तियार और जिन्नों पर हुक्मरानी एक ऐसी ग़ैर-मामूली ताक़त है जो इनसानी इतिहास में सिर्फ़ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ही को दी गई है, कोई दूसरा इसमें उनका शरीक नहीं है।
وَٱذۡكُرۡ عَبۡدَنَآ أَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بِنُصۡبٖ وَعَذَابٍ ۝ 32
(41) और हमारे बन्दे अय्यूब का ज़िक्र करो।41 जब उसने अपने रब को पुकारा कि शैतान ने मुझे सख़्त तकलीफ़ और अज़ाब में डाल दिया है।42
41. यह चौथा मक़ाम है जहाँ हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का ज़िक्र क़ुरआन मजीद में आया है। इससे पहले सूरा-4 निसा, आयत-163; सूरा-6 अनआम, आयत-84; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—83, 84, में उनका ज़िक्र गुज़र चुका है और हम सूरा-21 अम्बिया की तफ़सीर में उनके हालात की तफ़सील बयान कर चुके हैं। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—76 से 79)
42. इसका यह मतलब नहीं है कि शैतान ने मुझे बीमारी में मुब्तला कर दिया है और मेरे ऊपर मुसीबतें डाल दी हैं, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि बीमारी की शिद्दत, माल-दौलत की बरबादी और दूर-क़रीब के रिश्तेदारों के मुँह मोड़ लेने से मैं जिस तकलीफ़ और अज़ाब में मुब्तला हूँ, उससे बढ़कर तकलीफ़ और अज़ाब मेरे लिए यह है कि शैतान अपने वसवसों (कुविचारों) से मुझे तंग कर रहा है, वह इन हालात में मुझे अपने रब से मायूस करने की कोशिश करता है, मुझे अपने रब का नाशुक्रा बनाना चाहता है और इस बात के पीछे पड़ा है कि मैं सब्र का दामन हाथ से छोड़ बैठूँ। हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की फ़रियाद का मतलब हमारे नज़दीक दो वजहों से ज़्यादा अहम है। एक यह कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ अल्लाह तआला ने शैतान को सिर्फ़ वसवसे डालने ही की ताक़त दी है, यह उसके वश में नहीं किया कि अल्लाह की बन्दगी करनेवालों को बीमार डाल दे और उन्हें जिस्मानी तकलीफ़ें देकर बन्दगी की राह से हटने पर मजबूर करे। दूसरी यह कि सूरा-21 अम्बिया में जहाँ हज़रत अय्यूब (अलैहि०) अपनी बीमारी की शिकायत अल्लाह तआला के सामने पेश करते हैं, वहाँ शैतान का कोई ज़िक्र नहीं करते, बल्कि सिर्फ़ यह कहते हैं कि “मुझे बीमारी लग गई है और तू सबसे बढ़कर रहम करनेवाला है।
ٱرۡكُضۡ بِرِجۡلِكَۖ هَٰذَا مُغۡتَسَلُۢ بَارِدٞ وَشَرَابٞ ۝ 33
(42) (हमने उसे हुक्म दिया) अपना पाँव ज़मीन पर मार, यह है ठण्डा पानी नहाने के लिए और पीने के लिए।43
43. यानी अल्लाह तआला के हुक्म से ज़मीन पर पाँव मारते ही एक चश्मा (जल-स्रोत) निकल आया जिसका पानी पीना और उसमें नहाना हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की बीमारी का इलाज था। बहुत मुमकिन है कि हज़रत अय्यूब (अलैहि०) किसी बहुत बड़ी जिल्दी बीमारी (चर्म रोग) में मुब्तला थे। बाइबल का बयान भी यही है कि सर से पाँव तक उनका सारा जिस्म फोड़ों से भर गया था।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 34
(43) हमने उसे उसके घरवाले वापस दिए और उनके साथ उतने ही और44 अपनी तरफ़ से रहमत के तौर पर और सोच-समझ रखनेवालों के लिए नसीहत के तौर पर।45
44. रिवायतों से मालूम होता है कि इस बीमारी में हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की बीवी के सिवा और सबने उनका साथ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि औलाद भी उनसे मुँह मोड़ गई थी। इसी चीज़ की तरफ़ अल्लाह तआला इशारा फ़रमा रहा है कि जब हमने उनको बीमारी से नजात दी तो सारा ख़ानदान उनके पास पलट आया और फिर हमने उनको और औलाद दी।
45. यानी इसमें एक अक़्ल रखनेवाले आदमी के लिए सबक़ है कि इनसान को न अच्छे हालात में अल्लाह को भूलकर सरकश बनना चाहिए और न बुरे हालात में उससे मायूस होना चाहिए। तक़दीर की भलाई-बुराई सरासर एक अकेले अल्लाह के हाथ में है जिसका कोई शरीक नहीं। वह चाहे तो आदमी के बेहतरीन हालात को बदतरीन हालात में तब्दील कर दे और बुरे-से-बुरे हालात से उसको ख़ैरियत से गुज़ारकर बेहतरीन हालत पर पहुँचा दे। इसलिए अक़्लमन्द इनसान को हर हालत में उसी पर भरोसा करना चाहिए और उसी से उम्मीद लगानी चाहिए।
وَخُذۡ بِيَدِكَ ضِغۡثٗا فَٱضۡرِب بِّهِۦ وَلَا تَحۡنَثۡۗ إِنَّا وَجَدۡنَٰهُ صَابِرٗاۚ نِّعۡمَ ٱلۡعَبۡدُ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٞ ۝ 35
(44) (और हमने उससे कहा,) तिनकों का एक मुट्ठा ले और उससे मार दे, अपनी क़सम न तोड़।46 हमने उसे सब्र करनेवाला पाया, बेहतरीन बन्दा, अपने रब की तरफ़ बहुत पलटनेवाला।47
46. इन अलफ़ाज़ पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि हज़रत अय्यूब (अलैहि०) ने बीमारी की हालत में नाराज़ होकर किसी को मारने की क़सम खा ली थी, (रिवायतों में यह है कि बीवी को मारने की क़सम खाई थी) और इस क़सम ही में उन्होंने यह भी कहा था कि तुझे इतने कोड़े मारूँगा। जब अल्लाह तआला ने उनको सेहतमन्द कर दिया और बीमारी की हालत का वह ग़ुस्सा दूर हो गया जिसमें यह क़सम खाई गई थी, तो उनको यह परेशानी हुई कि क़सम पूरी करता हूँ तो ख़ाह-मख़ाह एक बेगुनाह को मारना पड़ेगा और अगर क़सम तोड़ता हूँ तो यह भी एक गुनाह करना है। इस मुश्किल से अल्लाह तआला ने उनको इस तरह निकाला कि उन्हें हुक्म दिया, एक झाड़ू लो जिसमें इतने ही तिनके हों जितने कोड़े तुमने मारने की क़सम खाई थी और उस झाड़ू से उस शख़्स को बस एक बार मार दो, ताकि तुम्हारी क़सम भी पूरी हो जाए और उसे नागवार तकलीफ़ भी न पहुँचे। कुछ फ़क़ीह इस रिआयत को हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के लिए ख़ास समझते हैं और कुछ फ़क़ीहों के नज़दीक दूसरे लोग भी इस रिआयत से फ़ायदा उठा सकते हैं। पहली राय इब्ने-असाकिर ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से और अबू-बक्र जस्सास ने मुजाहिद से नक़्ल की है और इमाम मालिक (रह०) की भी यही राय है। दूसरी राय को इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम मुहम्मद, इमाम ज़ुफ़र और इमाम शाफ़िई (रह०) ने अपनाया है। वे कहते हैं कि अगर कोई आदमी, मसलन अपने नौकर को दस कोड़े मारने की क़सम खा बैठा हो और बाद में दसों कोड़े मिलाकर उसे सिर्फ़ एक मार इस तरह लगा दे कि हर कोड़े का कुछ-न-कुछ हिस्सा उस शख़्स को ज़रूर लग जाए, तो उसकी क़सम पूरी हो जाएगी। कई हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने ऐसे बदकार पर हद (सज़ा) जारी करने के मामले में भी इस आयत का बताया हुआ तरीक़ा इस्तेमाल किया है जो इतना बीमार या इतना कमज़ोर हो कि सौ कोड़ों की मार बरदाश्त न कर सके। अल्लामा अबू-बक्र जस्सास ने हज़रत सईद-बिन-साद-बिन-उबादा (रज़ि०) से रिवायत की है कि क़बीला बनी-साइद में एक आदमी ने बदकारी की और वह ऐसा रोगी था कि बस हड्डी-चमड़ा रह गया था। इसपर नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि “खजूर का एक टहना लो जिसमें सौ टहनियाँ हों और उससे एक बार इस आदमी को मार दो।” (अहकामुल-क़ुरआन)। मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा, तबरानी, अब्दुर्रज्जाक़ और हदीस की दूसरी किताबों में भी इसकी ताईद (समर्थन) करनेवाली कई हदीसें मौजूद हैं जिनसे यह बात साबित हो जाती है कि नबी (सल्ल०) ने मरीज़ और कमज़ोर पर हद जारी करने के लिए यही तरीक़ा मुक़र्रर किया था। अलबत्ता फ़क़ीहों ने इसके लिए यह शर्त लगाई है कि हर टहनी या हर तिनका कुछ-न-कुछ मुजरिम को लग जाना चाहिए। और एक ही चोट सही, मगर वह किसी-न-किसी हद तक मुजरिम को चोट पहुँचानेवाली भी होनी चाहिए, यानी बस छू देना काफ़ी नहीं है, बल्कि मारना ज़रूरी है। यहाँ यह बहस भी पैदा होती है कि अगर कोई शख़्स एक बात की क़सम खा बैठा हो और बाद में मालूम हो कि वह बात मुनासिब नहीं है तो उसे क्या करना चाहिए। नबी (सल्ल०) से एक रिवायत यह है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि इस सूरत में आदमी को वही काम करना चाहिए जो बेहतर हो और यही इसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है। दूसरी रिवायत नबी (सल्ल०) से यह है कि उस नामुनासिब काम के बजाय आदमी वह काम करे जो अच्छा हो और अपनी क़सम का कफ़्फ़ारा अदा कर दे। यह आयत इसी दूसरी रिवायत की ताईद करती है, क्योंकि एक नामुनासिब काम न करना ही अगर क़सम का कफ़्फ़ारा होता तो अल्लाह तआला हज़रत अय्यूब (अलैहि०) से यह न फ़रमाता कि एक झाड़ू मारकर अपनी क़सम पूरी कर लो, बल्कि यह फ़रमाता कि तुम यह नामुनासिब काम न करो और इसे न करना ही तुम्हारी क़सम का कफ़्फ़ारा है। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-24 नूर, हाशिया-20) इस आयत से यह भी मालूम होता है कि आदमी ने जिस बात की क़सम खाई हो, उसे फ़ौरन पूरी करना ज़रूरी नहीं है। हज़रत अय्यूब (अलैहि०) ने क़सम बीमारी की हालत में खाई थी और उसे पूरा तन्दुरुस्त होने के बाद किया और तन्दुरुस्त होने के बाद भी फ़ौरन ही नहीं कर दिया। कुछ लोगों ने इस आयत को शरई हीले (क़ानूनी बचाव) के लिए दलील ठहराया है। इसमें शक नहीं कि वह एक हीला (क़ानूनी बचाव) ही था जो हज़रत अय्यूब (अलैहि०) को बताया गया था, लेकिन वह किसी फ़र्ज़ से बचने के लिए नहीं, बल्कि एक बुराई से बचने के लिए बताया गया था। लिहाज़ा शरीअत में सिर्फ़ वही हीले (क़ानूनी बचाव) जाइज़ हैं जो आदमी को अपने आपसे या किसी दूसरे शख़्स से ज़ुल्म और गुनाह और बुराई को दूर करने के लिए अपनाए जाएँ। वरना हराम को हलाल करने या ज़िम्मेदारियों को ख़त्म करने या नेकी से बचने के लिए हीले बनाना गुनाह-पर-गुनाह है, बल्कि इसके डाँडे कुफ़्र से जा मिलते हैं, क्योंकि जो शख़्स इन नापाक मक़सदों के लिए हीला करता है, वह मानो ख़ुदा को धोखा देना चाहता है। मसलन जो शख़्स ज़कात से बचने के लिए साल ख़त्म होने से पहले अपना माल किसी और को दे देता है वह सिर्फ़ एक फ़र्ज़ ही से नहीं भागता, वह यह भी समझता है कि अल्लाह तआला उसके इस ज़ाहिरी काम से धोखा खा जाएगा और उसे फ़र्ज़ अदा करनेवाला समझ लेगा। जिन फ़क़ीहों ने इस तरह के हीले अपनी किताबों में लिखे हैं, उनका मतलब यह नहीं है कि शरीअत के हुक्मों से जान छुड़ाने के लिए ये हीलेबाज़ियाँ करनी चाहिएँ, बल्कि उनका मतलब यह है कि अगर कोई आदमी एक गुनाह को क़ानूनी शक्ल देकर बच निकले तो क़ाज़ी या हाकिम उसकी पकड़ नहीं कर सकता, उसका मामला अल्लाह के हवाले है।
47. हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का ज़िक्र इस मौक़ा-महल में यह बताने के लिए किया गया है कि अल्लाह तआला के नेक बन्दे जब मुसीबतों और सख़्तियों में मुब्तला होते हैं तो अपने रब से शिकवा नहीं करते, बल्कि सब्र के साथ उसकी डाली हुई आज़माइशों को बरदाश्त करते हैं और उसी से मदद माँगते हैं। उनका यह तरीक़ा नहीं होता कि अगर कुछ मुद्दत तक ख़ुदा से दुआ माँगते रहने पर बला न टले तो फिर उससे मायूस होकर दूसरों के आस्तानों पर हाथ फैलाना शुरू कर दें, बल्कि वे ख़ूब समझते हैं कि जो कुछ मिलना है, अल्लाह ही के यहाँ से मिलना है, इसलिए मुसीबतों का सिलसिला चाहे कितना ही लम्बा क्यों न हो, वे उसी की रहमत के उम्मीदवार बने रहते हैं। इसी लिए वे उन मेहरबानियों से नवाज़े जाते हैं जिनकी मिसाल हज़रत अय्यूब (अलैहि०) ज़िन्दगी में मिलती है, यहाँ तक कि अगर वे कभी बेचैन होकर किसी अख़लाक़ी उलझन में फँस भी जाते हैं तो अल्लाह तआला उन्हें बुराई से बचाने के लिए एक राह निकाल देता है जिस तरह उसने हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के लिए निकाल दी।
وَٱذۡكُرۡ عِبَٰدَنَآ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ أُوْلِي ٱلۡأَيۡدِي وَٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 36
(45) और हमारे बन्दों, इबराहीम और इसहाक़ और याक़ूब का ज़िक्र करो। अमल की बड़ी ताक़त रखनेवाले और दूर तक देखनेवाले लोग थे।48
48. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: “उलिल-ऐदी वल-अबसार” (हाथोंवाले और निगाहोंवाले)। हाथ से मुराद, जैसा कि हम इससे पहले बयान कर चुके हैं, ताक़त और क़ुदरत (क्षमता) है और इन नबियों को ताक़तवाला और क़ुदरतवाला कहने का मतलब यह है कि ये बहुत ही बाअमल (कर्मठ) लोग थे, अल्लाह तआला का हुक्म मानने और गुनाहों से बचने की ज़बरदस्त ताक़त रखते थे और दुनिया में अल्लाह का कलिमा बुलन्द करने के लिए उन्होंने बड़ी कोशिशें की थीं। निगाह से मुराद आँखों की रौशनी नहीं, बल्कि दिल का देखना है। वे सच देखनेवाले और हक़ीक़त को पहचाननेवाले लोग थे। दुनिया में अन्धों की तरह नहीं चलते थे, बल्कि आँखें खोलकर इल्म और मारिफ़त (परख) की पूरी रौशनी में हिदायत का सीधा रास्ता देखते हुए चलते थे। इन अलफ़ाज़ में एक हलका-सा इशारा इस तरफ़ भी है कि जो लोग बुरे काम करनेवाले और गुमराह हैं, वे हक़ीक़त में हाथ और आँख, दोनों ही नहीं रखते। हाथवाला हक़ीक़त में वही है जो अल्लाह की राह में काम करे और आँखोंवाला अस्ल में वही है जो हक़ की रौशनी और बातिल (असत्य) के अंधेरे में फ़र्क़ करे।
إِنَّآ أَخۡلَصۡنَٰهُم بِخَالِصَةٖ ذِكۡرَى ٱلدَّارِ ۝ 37
(46) हमने उनको एक ख़ालिस सिफ़त (ख़ूबी) की वजह से चुन लिया था और वह आख़िरत के घर की याद थी।49
49. यानी उनकी तमाम सरफ़राज़ियों (ऊँचे और बुलन्द दरजे पाने) की अस्ल वजह यह थी कि उनके अन्दर दुनिया चाहने और दुनिया-परस्ती का निशान तक न था, उनकी सारी सोच और कोशिश आख़िरत के लिए थी, वे ख़ुद भी उसको याद रखते थे और दूसरों को भी उसकी याद दिलाते थे। इसी लिए अल्लाह तआला ने उनको वे दरजे और मर्तबे दिए जो दुनिया बनाने की फ़िक्र में लगे रहनेवाले लोगों को कभी नसीब न हुए। इस सिलसिले में यह बारीक नुक्ता (पहलू) भी निगाह में रहना चाहिए कि यहाँ अल्लाह तआला ने आख़िरत के लिए सिर्फ़ 'अद-दार' (वह घर, या अस्ल घर) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है। इसका मक़सद यह हक़ीक़त ज़ेहन में बिठाना है कि यह दुनिया सिरे से इनसान का घर है ही नहीं, बल्कि यह सिर्फ़ एक रास्ता है, एक मुसाफ़िरख़ाना है, जिससे आदमी को बहरहाल रुख़सत हो जाना है। अस्ल घर वही आख़िरत का घर है। जो शख़्स इसको सँवारने की फ़िक्र करता है, वही समझदार और अक़्लमन्द है और अल्लाह के नज़दीक यक़ीनन उसी को पसन्दीदा इनसान होना चाहिए। रहा वह शख़्स जो इस मुसाफ़िरखाने में अपनी कुछ दिन के ठहरने की जगह को सजाने के लिए वे हरकतें करता है जिनसे आख़िरत का अस्ल घर उसके लिए उजड़ जाए, वह अक़्ल का अन्धा है और फ़ितरी बात है कि ऐसा आदमी अल्लाह को पसन्द नहीं आ सकता।
وَإِنَّهُمۡ عِندَنَا لَمِنَ ٱلۡمُصۡطَفَيۡنَ ٱلۡأَخۡيَارِ ۝ 38
(47) यक़ीनन हमारे यहाँ उनकी गिनती चुने हुए नेक लोगों में है।
وَٱذۡكُرۡ إِسۡمَٰعِيلَ وَٱلۡيَسَعَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ وَكُلّٞ مِّنَ ٱلۡأَخۡيَارِ ۝ 39
(48) और इसमाईल और अल-यअस50 और जुल-किफ़्ल'51 का ज़िक्र करो, ये सब नेक लोगों में से थे।
50. क़ुरआन मजीद में अल-यस्अ (अलैहि०) का ज़िक सिर्फ़ दो जगह आया है। एक सूरा-6 अनआम, आयत-56 में, दूसरे इस जगह और दोनों जगहों पर कोई तफ़सील नहीं है, बल्कि सिर्फ़ नबियों के सिलसिले में उनका नाम लिया गया है। वे बनी-इसराईल के बड़े पैग़म्बरों में से थे। उर्दुन नदी के किनारे एक जगह अबील महोला (Abel Meholah) के रहनेवाले थे। यहूदी और ईसाई उनको इलीशा (Elisha) के नाम से याद करते हैं। हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) जिस ज़माने में जज़ीरानुमाए-सीना (प्रायद्वीप सीना) में पनाह लिए हुए थे, उनको कुछ अहम कामों के लिए सीरिया और फ़िलस्तीन की तरफ़ वापस जाने का हुक्म दिया गया, जिनमें से एक काम यह था कि हज़रत अल-यस्अ को अपनी जानशीनी के लिए तैयार करें। इस हुक्म के मुताबिक़ जब हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) इनकी बस्ती पर पहुँचे तो देखा कि ये बारह जोड़ी बैल आगे लिए ज़मीन जोत रहे हैं और ख़ुद बारहवीं जोड़ी के साथ हैं। उन्होंने इनके पास से गुज़रते हुए इनपर अपनी चादर डाल दी और ये खेती-बाड़ी छोड़कर साथ हो लिए (राजा-1, अध्याय-19, वाक्य-15 से 21)। लगभग दस-बारह साल यह उनकी तरबियत में रहे। फिर जब अल्लाह तआला ने उनको उठा लिया तो ये उनकी जगह मुक़र्रर हुए (राजा-2, अध्याय 2)। बाइबल की किताब राजा-2 में अध्याय-2 से 13 तक उनका ज़िक्र बड़ी तफ़सील के साथ दर्ज है, जिससे मालूम होता है कि शिमाली (उत्तरी) फ़िलस्तीन की इसराईली हुकूमत जब शिर्क और बुतपरस्ती और अख़लाक़ी गन्दगियों में डूबती चली गई तो आख़िरकार उन्होंने याहू-बिन-याहूसफ़्त-बिन-नमसी को उस शाही ख़ानदान के ख़िलाफ़ खड़ा किया जिसके करतूतों से इसराईल में ये बुराइयाँ फैली थीं और उसने न सिर्फ़ बअल-परस्ती का ख़ातिमा किया, बल्कि उस बदकिरदार ख़ानदान के बच्चे-बच्चे को क़त्ल कर दिया। लेकिन इस इस्लाही (सुधारवादी) इक़िलाब से भी वे बुराइयाँ पूरी तरह न मिट सकीं जो इसराईल की रग-रग में उतर चुकी थीं और हज़रत अल-यस्अ की मौत के बाद तो उन्होंने तूफ़ानी शक्ल अपना ली, यहाँ तक कि सामिरिया पर अशूरियों के लगातार हमले शुरू हो गए। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-7 और सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—70, 71)।
51. हज़रत जुल-किफ़्ल (अलैहि०) का ज़िक्र भी क़ुरआन मजीद में दो ही जगह आया है। एक सूरा-21 अम्बिया, दूसरे यह मक़ाम। इनके बारे में हम अपनी तहक़ीक़ सूरा-21 अम्बिया में बयान कर चुके हैं। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-81)
هَٰذَا ذِكۡرٞۚ وَإِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ لَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 40
(49) यह एक ज़िक्र था। (अब सुनो कि) परहेज़गार लोगों के लिए यक़ीनन बेहतरीन ठिकाना है,
جَنَّٰتِ عَدۡنٖ مُّفَتَّحَةٗ لَّهُمُ ٱلۡأَبۡوَٰبُ ۝ 41
(50) हमेशा रहनेवाली जन्नतें जिनके दरवाज़े उनके लिए खुले होंगे।52
52. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “मुफ़त्त-ह-तल-लहुमुल-अबवाब” (जिनके लिए दरवाज़े खुले होंगे)। इसके कई मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उन जन्नतों में वे बेरोक-टोक फिरेंगे। कहीं उनके लिए कोई रुकावट न होगी। दूसरा यह कि जन्नत के दरवाज़े खोलने के लिए किसी कोशिश की ज़रूरत न होगी, बल्कि वे सिर्फ़ उनकी ख़ाहिश पर ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाएँगे। तीसरा यह कि जन्नत के इन्तिज़ाम पर जो फ़रिश्ते मुक़र्रर होंगे वे जन्नतवालों को देखते ही उनके लिए दरवाज़े खोल देंगे। यह तीसरी बात क़ुरआन मजीद में एक और जगह पर ज़्यादा साफ़ अलफ़ाज़ में बयान की गई है, “यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे और उसके दरवाज़े पहले ही खोले जा चुके होंगे तो जन्नत के इन्तिज़ाम करनेवाले उनसे कहेंगे कि सलाम हो आपपर! आपका स्वागत है! हमेशा के लिए इसमें दाख़िल हो जाइए।” (सूरा-39 ज़ुमर, आयत-73)
مُتَّكِـِٔينَ فِيهَا يَدۡعُونَ فِيهَا بِفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ وَشَرَابٖ ۝ 42
(51) उनमें वे तकिए लगाए बैठे होंगे, ख़ूब-ख़ूब मेवे और पीने की चीज़ें (पेय पदार्थ) तलब कर रहे होंगे
۞وَعِندَهُمۡ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ أَتۡرَابٌ ۝ 43
(52) और उनके पास शर्मीली हमउम्र बीवियाँ होंगी।53
53. हमउम्र बीवियों का मतलब यह भी हो सकता है कि वे आपस में हमउम्र होंगी और यह भी हो सकता है कि वे अपने शौहरों की हमउम्र होंगी।
هَٰذَا مَا تُوعَدُونَ لِيَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 44
(53) ये वे चीज़ें हैं जिन्हें हिसाब के दिन देने का वादा तुमसे किया जा रहा है।
إِنَّ هَٰذَا لَرِزۡقُنَا مَا لَهُۥ مِن نَّفَادٍ ۝ 45
(54) यह हमारी देन है जो कभी ख़त्म होनवाली नहीं।
هَٰذَاۚ وَإِنَّ لِلطَّٰغِينَ لَشَرَّ مَـَٔابٖ ۝ 46
(55) यह तो है परहेज़गारों का अंजाम
جَهَنَّمَ يَصۡلَوۡنَهَا فَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 47
(56) और सरकशों के लिए बहुत-ही बुरा ठिकाना है जहन्नम जिसमें वे झुलसे जाएँगे, बहुत ही बुरी ठहरने की जगह।
هَٰذَا فَلۡيَذُوقُوهُ حَمِيمٞ وَغَسَّاقٞ ۝ 48
(57) यह है उनके लिए, तो वे मज़ा चखें खौलते हुए पानी और पीप,54 लहू
54. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ग़स्साक़’ इस्तेमाल हुआ है जिसके कई मतलब अरबी ज़बान के जानकारों ने बयान किए हैं। एक मतलब जिस्म से निकलनेवाली रतूबत (नमी) है जो पीप, लहू, कचलहू वग़ैरा की शक्ल में हो और इसमें आँसू भी शामिल हैं। दूसरा मतलब इन्तिहाई ठण्डी चीज़ हैं और तीसरा मतलब इन्तिहाई बदबूदार सड़ी हुई चीज़। लेकिन इस लफ़्ज़ का आम इस्तेमाल पहले ही मानी में होता है, अगरचे बाक़ी दोनों मतलब भी ज़बान के एतिबार से सही हैं।
وَءَاخَرُ مِن شَكۡلِهِۦٓ أَزۡوَٰجٌ ۝ 49
(58) और इसी तरह की दूसरी कड़वाहटों का।
هَٰذَا فَوۡجٞ مُّقۡتَحِمٞ مَّعَكُمۡ لَا مَرۡحَبَۢا بِهِمۡۚ إِنَّهُمۡ صَالُواْ ٱلنَّارِ ۝ 50
(59) (वे जहन्नम की तरफ़ अपनी पैरवी करनेवालों को आते देखकर आपस में कहेंगे) “यह एक लश्कर तुम्हारे पास घुसा चला आ रहा है, कोई ख़ुश-आमदीद (स्वागत) इनके लिए नहीं है, ये आग में झुलसनेवाले हैं।”
قَالُواْ بَلۡ أَنتُمۡ لَا مَرۡحَبَۢا بِكُمۡۖ أَنتُمۡ قَدَّمۡتُمُوهُ لَنَاۖ فَبِئۡسَ ٱلۡقَرَارُ ۝ 51
(60) वे उनको जवाब देंगे, “नहीं, बल्कि तुम ही झुलसे जा रहे हो, कोई ख़ैर-मक़दम (स्वागत) तुम्हारे लिए नहीं। तुम ही तो यह अंजाम हमारे आगे लाए हो, कैसी बुरी है यह ठहरने की जगह!”
قَالُواْ رَبَّنَا مَن قَدَّمَ لَنَا هَٰذَا فَزِدۡهُ عَذَابٗا ضِعۡفٗا فِي ٱلنَّارِ ۝ 52
(61) फिर वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब, जिसने हमें इस अंजाम को पहुँचाने का बन्दोबस्त किया, उसको जहन्नम का दोहरा अज़ाब दे।”
وَقَالُواْ مَا لَنَا لَا نَرَىٰ رِجَالٗا كُنَّا نَعُدُّهُم مِّنَ ٱلۡأَشۡرَارِ ۝ 53
(62) और वे आपस में कहेंगे, “क्या बात है, हम उन लोगों को नहीं देखते जिन्हें हम दुनिया में बुरा समझते थे?55
55. मुराद हैं वे ईमानवाले जिनको ये ग़ैर-मुस्लिम दुनिया में बुरा समझते थे। मतलब यह है कि वे हैरान हो-होकर हर तरफ़ देखेंगे कि इस जहन्नम में हम और हमारे पेशवा तो मौजूद हैं, मगर उन लोगों का यहाँ कहीं पता-निशान तक नहीं है जिनकी हम दुनिया में बुराइयाँ करते थे और ख़ुदा, रसूल, आख़िरत की बातें करने पर जिनका मज़ाक़ हमारी मजलिसों में उड़ाया जाता था।
أَتَّخَذۡنَٰهُمۡ سِخۡرِيًّا أَمۡ زَاغَتۡ عَنۡهُمُ ٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 54
(63) हमने यूँ ही उनका मज़ाक़ बना लिया था, या वे कहीं नज़रों से ओझल हैं?”
إِنَّ ذَٰلِكَ لَحَقّٞ تَخَاصُمُ أَهۡلِ ٱلنَّارِ ۝ 55
(64) बेशक यह बात सच्ची है, जहन्नमवालों में यही कुछ झगड़े होनेवाले हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ مُنذِرٞۖ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّا ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 56
(65) (ऐ नबी)56 इनसे कहो, “मैं तो बस ख़बरदार कर देनेवाला हूँ।57 कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं, मगर अल्लाह, जो बेमिसाल है, सब पर हावी,
56. अब बात का रुख़ फिर उसी मज़मून की तरफ़ फिर रहा है जिससे तक़रीर की शुरुआत हुई थी। इस हिस्से को पढ़ते हुए शुरू के हिस्से को सामने रखिए, ताकि बात पूरी तरह समझ में आ सके।
57. आयत-4 में कहा गया था कि ये लोग इस बात पर बड़ा अचम्भा ज़ाहिर कर रहे हैं कि एक ख़बरदार करनेवाला ख़ुद उनके बीच से उठ खड़ा हुआ है। यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि उनसे कहो मेरा काम बस तुम्हें ख़बरदार कर देना है। यानी मैं कोई फ़ौजदार नहीं हूँ कि ज़बरदस्ती तुम्हें ग़लत रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते की तरफ़ खींचूँ। मेरे समझाने से अगर तुम न मानोगे तो अपना ही नुक़सान करोगे। बेख़बर ही रहना अगर तुम्हें पसन्द है तो अपनी ग़फ़लत में डूबे पड़े रहो, अपना अंजाम ख़ुद देख लोगे।
رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفَّٰرُ ۝ 57
(66) आसमानों और ज़मीन का मालिक और उन सारी चीज़ों का मालिक जो उनके बीच हैं, ज़बरदस्त और माफ़ करनेवाला।”
قُلۡ هُوَ نَبَؤٌاْ عَظِيمٌ ۝ 58
(67) इनसे कहो, “यह एक बड़ी ख़बर है
أَنتُمۡ عَنۡهُ مُعۡرِضُونَ ۝ 59
(68) जिसको सुनकर तुम मुँह फेरते हो।"58
58. यह जवाब है इस्लाम-मुख़ालिफ़ ग़ैर-मुस्लिमों की उस बात का जो आयत-5 में गुज़री है कि“क्या इस आदमी ने सारे ख़ुदाओं की जगह बस एक ख़ुदा बना डाला? यह तो बड़ी अजीब बात है।” इसपर कहा जा रहा है कि तुम चाहे कितनी ही नाक-भौं चढ़ाओ, मगर यह है एक हक़ीक़त जिसकी तुम्हें ख़बर मैं तुम्हें दे रहा हूँ और तुम्हारे नाक-भौं चढ़ाने से यह हक़ीक़त बदल नहीं सकती। इस जवाब में सिर्फ़ हक़ीक़त का बयान ही नहीं है, बल्कि इसके हक़ीक़त होने की दलील भी इसी में मौजूद है। मुशरिक लोग कहते थे कि माबूद (पूज्य) बहुत-से हैं जिनमें से एक अल्लाह भी है, तुमने सारे माबूदों को ख़त्म करके बस एक माबूद कैसे बना डाला? इसके जवाब में कहा गया कि हकीक़ी माबूद सिर्फ़ एक अल्लाह ही है, क्योंकि वह सबपर ग़ालिब (प्रभावी) है, ज़मीन और आसमान का मालिक है और कायनात की हर चीज़ उसकी मिलकियत है। उसके सिवा इस कायनात में जिन हस्तियों को तुमने माबूद बना रखा है, उनमें से कोई हस्ती भी ऐसी नहीं है जो उसके बस में और उसकी मिलकियत न हो। ये हस्तियाँ उस ग़ालिब और मालिक के साथ ख़ुदाई में शरीक कैसे हो सकती हैं जो उसके मातहत हैं और उसकी मिलकियत हैं, आख़िर किस हक़ की बुनियाद पर उन्हें माबूद ठहराया जा सकता है।
مَا كَانَ لِيَ مِنۡ عِلۡمِۭ بِٱلۡمَلَإِ ٱلۡأَعۡلَىٰٓ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 60
(69) (इनसे कहो,) “मुझे उस वक़्त की कोई ख़बर न थी जब मलए-आला (ऊँचे दरबारवालों) में झगड़ा हो रहा था।
إِن يُوحَىٰٓ إِلَيَّ إِلَّآ أَنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 61
(70) मुझको तो वह्य के ज़रिए से ये बातें सिर्फ़ इसलिए बताई जाती हैं कि मैं खुला-खुला ख़बरदार करनेवाला हूँ।”
إِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن طِينٖ ۝ 62
(71) जब तेरे रब ने फ़रिश्तों से कहा,59 “मैं मिट्टी से एक इनसान बनानेवाला हूँ,60
59. यह उस झगड़े की तफ़सील है जिसकी तरफ़ ऊपर की आयत में इशारा किया गया है और झगड़े से मुराद शैतान का ख़ुदा से झगड़ा है, जैसा कि आगे के बयान से ज़ाहिर हो रहा है। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि 'मलए-आला' से मुराद फ़रिश्ते हैं और अल्लाह तआला से शैतान की बात आमने-सामने नहीं, बल्कि किसी फ़रिश्ते ही के वास्ते से हुई है। इसलिए किसी को यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि अल्लाह तआला भी मलए-आला में शामिल था। जो क़िस्सा यहाँ बयान किया जा रहा है वह इससे पहले इन जगहों पर गुज़र चुका है— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—35 से 53; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—10 से 15; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—17 से 19; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—71 से 82; सूरा-18 कह्फ़, हाशिए—46 से 48; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—92 से 106।
60. 'बशर' का लुग़वी मानी (शाब्दिक अर्थ) है ठोस जिस्म जिसकी ज़ाहिरी सतह किसी दूसरी चीज़ से ढकी हुई न हो। इनसान की पैदाइश के बाद तो यह लफ़्ज़ इनसान ही के लिए इस्तेमाल होने लगा है। लेकिन पैदाइश से पहले उसका ज़िक्र लफ़्ज़ 'बशर' से करने और इसको मिट्टी से बनाने का साफ़ मतलब यह है कि “मैं मिट्टी का एक पुतला बनानेवाला हूँ जो बाल और पर से ख़ाली होगा, यानी जिसकी खाल दूसरे जानदारों की तरह ऊन, या सूफ़ या बालों और परों से ढकी हुई न होगी।"
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 63
(72) फिर जब मैं उसे पूरी तरह बना दूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ61 तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाओ।"62
61. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज़्र, हाशिए—17 से 19; सूरा-34 सजदा, हाशिया-16।
62. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-45; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-10।
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 64
(73) इस हुक्म के मुताबिक़ फ़रिश्ते सब-के-सब सजदे में गिर गए,
إِلَّآ إِبۡلِيسَ ٱسۡتَكۡبَرَ وَكَانَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 65
(74) मगर इबलीस ने अपनी बड़ाई का घमण्ड किया और वह इनकार करनेवालों में से हो गया।63
63. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-17; सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-48।
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا مَنَعَكَ أَن تَسۡجُدَ لِمَا خَلَقۡتُ بِيَدَيَّۖ أَسۡتَكۡبَرۡتَ أَمۡ كُنتَ مِنَ ٱلۡعَالِينَ ۝ 66
(75) रब ने फ़रमाया, “ऐ इबलीस, तुझे किस चीज़ ने उसको सजदा करने से रोक दिया जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बनाया है?64 तू बड़ा बन रहा है या तू है ही कुछ ऊँचे दरजे की हस्तियों में से?”
64. ये अलफ़ाज़ इस बात की दलील के तौर पर इस्तेमाल किए गए हैं कि इनसान ख़ुदा की बुलन्द मख़लूक़ (सर्वश्रेष्ठ प्राणी) है। बादशाह का अपने ख़ादिमों से कोई काम कराना यह मानी रखता है कि वह एक मामूली काम था जो ख़ादिमों से लिया गया। इसके बरख़िलाफ़ बादशाह का किसी काम को ख़ुद अंजाम देना इस बात पर दलील देता है कि वह एक बेहतर और श्रेष्ठ काम था। तो अल्लाह तआला की इस बात का मतलब यह है कि जिसे मैंने ख़ुद तक अपने हाथों से बनाया है उसके आगे झुकने से तुझे किस चीज़ ने रोका? 'दोनों हाथों’ के लफ़्ज़ का मक़सद शायद इस बात की तरफ़ इशारा करना है कि इस नए जानदार में अल्लाह तआला के पैदा करने की शान के दो अहम पहलू पाए जाते हैं। एक यह कि उसे जानदार का जिस्म दिया गया, जिसकी बुनियाद पर वह जानदारों की क़िस्म में से एक क़िस्म है। दूसरा यह कि उसके अन्दर वह रूह डाल दी गई जिसकी वजह से वह अपनी सिफ़ात में धरती के तमाम जानदारों से ऊँचा और बुलन्द हो गया।
قَالَ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡهُ خَلَقۡتَنِي مِن نَّارٖ وَخَلَقۡتَهُۥ مِن طِينٖ ۝ 67
(76) उसने जवाब दिया, “मैं उससे बेहतर हूँ, आपने मुझको आग से पैदा किया है और उसको मिट्टी से।”
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 68
(77) कहा, “अच्छा तो यहाँ से निकल जा65, तू मरदूद है66
65. यानी इस जगह से जहाँ आदम को बनाया गया और जहाँ आदम के आगे फ़रिश्तों को सजदा करने का हुक्म हुआ और जहाँ इबलीस ने अल्लाह तआला की नाफ़रमानी का जुर्म किया।
66. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘रजीम' इस्तेमाल हुआ है, जिसका मानी है ‘फेंका हुआ' या मारा हुआ और मुहावरे में यह लफ़्ज़ उस शख़्स के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसे इज़्ज़त के मक़ाम से गिरा दिया गया हो और बेइज़्ज़त और रुसवा करके रख दिया गया हो। सूरा-7 आराफ़ में यही बात इन अलफ़ाज़ में कही गई है, “तो तू निकल जा, तू रुसवा लोगों में से है।" (आयत-13)
67. इसका मतलब यह नहीं है कि बदले के दिन के बाद उसपर लानत न होगी, बल्कि इसका या मतलब यह है कि बदले के दिन तक तो वह उस नाफ़रमानी की सज़ा में लानत में मुब्तला रहेगा और बदले के दिन के बाद वह अपने उन करतूतों की सज़ा भुगतेगा जो आदम (अलैहि०) की पैदाइश के वक़्त से लेकर क़ियामत तक उससे होंगे।
وَإِنَّ عَلَيۡكَ لَعۡنَتِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 69
(78) और तेरे ऊपर बदले के दिन तक मेरी फिटकार है।"67
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 70
(79) वह बोला, “ऐ मेरे रब,यह बात है तो फिर मुझे उस वक़्त तक के लिए मुहलत दे दे जब ये लोग दोबारा उठाए जाएँगे।”
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 71
(80) कहा, “अच्छा, तुझे उस दिन तक की मुहलत है
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 72
(81) जिसका वक़्त मुझे मालूम है।”
قَالَ فَبِعِزَّتِكَ لَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 73
(82) उसने कहा, “तेरी इज़्ज़त की क़सम, मैं इन सब लोगों को बहकाकर रहूँगा,
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 74
(83) सिवाय तेरे उन बन्दों के जिन्हें तूने ख़ालिस कर लिया है।"68
68. इसका मतलब यह नहीं है कि “मैं तेरे चुने हुए बन्दों को बहकाऊँगा नहीं, बल्कि इसका मतलब यह है कि “तेरे चुने हुए बन्दों पर मेरा बस न चलेगा।"
قَالَ فَٱلۡحَقُّ وَٱلۡحَقَّ أَقُولُ ۝ 75
(84) कहा, “तो सच यह है और मैं सच ही कहा करता हूँ
لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنكَ وَمِمَّن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 76
(85) कि मैं जहन्नम को तुझसे69 और उन सब लोगों से भर दूँगा जो इन इनसानों में से तेरी पैरवी (अनुसरण) करेंगे।”70
69. 'तुझसे' का लफ़्ज़ सिर्फ़ एक शख़्स इबलीस ही के लिए नहीं है, बल्कि इससे मुराद शैतानों की पूरी जाति से है, यानी इबलीस और उसका वह पूरा शैतानी गरोह जो उसके साथ मिलकर इनसानों को गुमराह करने में लगा रहेगा।
70. यह पूरा क़िस्सा क़ुरैश के सरदारों की इस बात के जवाब में सुनाया गया है कि “क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी रह गया था, जिसपर ज़िक्र उतारा गया?” इसका एक जवाब तो वह था जो आयत-9 और 10 में दिया गया था, कि क्या ख़ुदा की रहमत के ख़ज़ानों के तुम मालिक हो और क्या आसमान और ज़मीन की बादशाही तुम्हारी है और फ़ैसला करना तुम्हारा काम है कि ख़ुदा का नबी किसे बनाया जाए और किसे न बनाया जाए? दूसरा जवाब यह है और इसमें क़ुरैश के सरदारों को बताया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में तुम्हारी जलन और अपनी बड़ाई का घमण्ड आदम (अलैहि०) के मुक़ाबले में इबलीस के घमण्ड और जलन से मिलता-जुलता है। इबलीस ने भी अल्लाह तआला के इस हक़ को मानने से इनकार किया था कि जिसे वह चाहे अपना ख़लीफ़ा बनाए और तुम भी उसके इस हक़ को मानने से इनकार कर रहे हो कि जिसे वह चाहे अपना पैग़म्बर बनाए। उसने आदम (अलैहि०) के आगे झुकने का हुक्म न माना और तुम मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी का हुक्म नहीं मान रहे हो। उसके साथ तुम्हारा यह मिलता-जुलता रवैया बस इस बात पर ख़त्म न हो जाएगा, बल्कि तुम्हारा अंजाम भी फिर वही होगा जो उसके लिए मुक़द्दर हो चुका है, यानी दुनिया में ख़ुदा की लानत और आख़िरत में जहन्नम की आग। इसके साथ इस क़िस्से के तहत दो बातें और भी समझाई गई हैं। एक यह कि जो इनसान भी इस दुनिया में अल्लाह तआला की नाफ़रमानी कर रहा है, वह अस्ल में अपने उस पैदाइशी दुश्मन, इबलीस के फन्दे में फँस रहा है जिसने शुरू से इनसानों को बहकाने और उचक लेने की ठान रखी है। दूसरी यह कि वह बन्दा अल्लाह की निगाह में इन्तिहाई नापसन्दीदा है जो अपनी बड़ाई के एहसास की वजह से उसकी नाफ़रमानी करे और फिर अपनी इस नाफ़रमानी के रवैये पर अड़ा ही रहे। ऐसे बन्दे के लिए अल्लाह के यहाँ कोई माफ़ी नहीं है।
قُلۡ مَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٖ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُتَكَلِّفِينَ ۝ 77
(86) (ऐ नबी) इनसे कह दो कि मैं इस पैग़ाम पहुँचाने (तबलीग़) पर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता71 और न मैं बनावटी लोगों में से हूँ।72
71. यानी मैं एक बेग़रज़ (निस्स्वार्थ) आदमी हूँ, अपने किसी निजी फ़ायदे के लिए यह तबलीग़ (प्रचार) नहीं कर रहा हूँ।
72. यानी मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो अपनी बड़ाई क़ायम करने के लिए झूठे दावे लेकर उठ खड़े होते हैं और वह कुछ बन बैठते हैं जो अस्ल में वे नहीं होते। यह बात नबी (सल्ल०) की ज़बान से सिर्फ़ मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को ख़बर देने के लिए नहीं कहलवाई गई है, बल्कि इसके पीछे नबी (सल्ल०) की वह पूरी ज़िन्दगी गवाही के तौर पर मौजूद है जो पैग़म्बरी से पहले इन्हीं ग़ैर-मुस्लिमों के बीच चालीस साल तक गुज़र चुकी थी। मक्का का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि मुहम्मद (सल्ल०) एक बनावटी आदमी नहीं हैं। पूरी क़ौम में किसी आदमी ने भी कभी उनकी ज़बान से कोई ऐसी बात न सुनी थी जिससे यह शक करने की गुंजाइश होती कि वह कुछ बनना चाहते हैं और अपने आपको नुमायाँ करने की फ़िक्र में लगे हुए हैं।
إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 78
(87) यह तो एक नसीहत है तमाम जहानवालों के लिए
وَلَتَعۡلَمُنَّ نَبَأَهُۥ بَعۡدَ حِينِۭ ۝ 79
(88) और थोड़ी मुद्दत ही गुज़रेगी कि तुम्हें उसका हाल ख़ुद मालूम हो जाएगा।73
73. यानी जो तुममें से ज़िन्दा रहेंगे, वे कुछ साल के अन्दर अपनी आँखों से देख लेंगे कि जो बात मैं कह रहा हूँ, वह पूरी होकर रही। और जो मर जाएँगे, उनको मौत के दरवाज़े से गुज़रते ही पता चल जाएगा कि हक़ीक़त वही कुछ है जो मैं बयान कर रहा हूँ।
فَقَالَ إِنِّيٓ أَحۡبَبۡتُ حُبَّ ٱلۡخَيۡرِ عَن ذِكۡرِ رَبِّي حَتَّىٰ تَوَارَتۡ بِٱلۡحِجَابِ ۝ 80
(32) तो उसने कहा, मैंने इस माल34 की मुहब्बत अपने रब की याद की वजह से अपनाई है।” यहाँ तक कि जब वे घोड़े निगाह से ओझल हो गए तो (उसने हुक्म दिया कि)
34. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ख़ैर' इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में बहुत ज़्यादा माल के लिए भी इस्तेमाल होता है और घोड़ों के लिए भी अलामती तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने उन घोड़ों को चूँकि ख़ुदा के रास्ते में जिहाद के लिए रखा था, इसलिए उन्होंने उनके लिए 'ख़ैर' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया।
رُدُّوهَا عَلَيَّۖ فَطَفِقَ مَسۡحَۢا بِٱلسُّوقِ وَٱلۡأَعۡنَاقِ ۝ 81
(33) उन्हें मेरे पास वापस लाओ, फिर लगा उनकी पिण्डलियों और गर्दनों पर हाथ फेरने।35
35. इन आयतों के तजरमे और तफ़्सीर में तफ़्सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह इनका मतलब यह बयान करता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) घोड़ों के मुआयने (निरीक्षण) और उनकी दौड़ देखने में इतने ज़्यादा मशग़ूल हुए कि अस्र की नमाज़ पढ़ना भूल गए, या कुछ लोगों के कहने के मुताबिक़ अपना कोई ख़ास वज़ीफ़ा पढ़ना भूल गए जो वे अस्र और मग़रिब के बीच पढ़ा करते थे, यहाँ तक कि सूरज छिप गया। तब उन्होंने हुक्म दिया कि इन घोड़ों को वापस लाओ और जब वे वापस आए तो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने तलवार लेकर उनको काटना, या दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह के लिए उनको क़ुरबान करना शुरू कर दिया, क्योंकि वे अल्लाह के ज़िक्र को भूल जाने का सबब बन गए थे। इस मतलब के लिहाज़ से इन आयतों का तर्जमा यह किया गया है, तो उसने कहा, मैंने इस माल की मुहब्बत को ऐसा पसन्द किया कि अपने रब की याद (अस्र की नमाज़, या ख़ास वज़ीफ़े) से ग़ाफ़िल हो गया, यहाँ तक कि (सूरज पश्चिम के परदे में) छिप गया। (फिर उसने हुक्म दिया कि) वापस लाओ उन (घोड़ों) को (और जब वे वापस आए) तो लगा उनकी पिण्डलियों और गर्दनों पर (तलवार के) हाथ चलाने।” यह तफ़सीर अगरचे कुछ बड़े आलिमों ने की है, लेकिन यह इस वजह से तरजीह के क़ाबिल नहीं है कि इसमें तफ़सीर करनेवाले को तीन बातें अपनी तरफ़ से बढ़ानी पड़ती हैं जिनकी कोई बुनियाद नहीं है। एक, वह फ़र्ज़ करता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की अस्र की नमाज़ इस काम में छूट गई, या उनका कोई ख़ास वज़ीफ़ा छूट गया जो वह उस वक़्त पढ़ा करते थे। हालाँकि क़ुरआन के अलफ़ाज़ सिर्फ़ ये हैं, “इन्नी अह्बबतु हुब्बल-ख़ैरि अन ज़िकरि रब्बी।” इन अलफ़ाज़ का तर्जमा यह तो किया जा सकता है कि “मैंने इस माल को इतना पसन्द किया कि अपने रब की याद से ग़ाफ़िल हो गया” लेकिन इनमें अस्र की नमाज़ या कोई ख़ास वज़ीफ़ा लेने के लिए कोई इशारा नहीं है। दूसरी वह यह भी मान लेता है कि सूरज छिप गया, हालाँकि वहाँ सूरज का कोई ज़िक्र नहीं है, बल्कि “हत्ता तवारत बिल-हिजाब” (यहाँ तक कि वे घोड़े नज़रों से ओझल हो गए) के अलफ़ाज़ पढ़कर आदमी का ज़ेहन फ़ौरन “अस-साफ़िनातुल जियाद” (सधे हुए तेज़-रफ़्तार) की तरफ़ फिरता है जिनका ज़िक्र पिछली आयत में हो चुका है। तीसरी, वह यह भी मानकर चलता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने घोड़ों की पिण्डलियों और गर्दनों पर ख़ाली हाथ नहीं फेरा, बल्कि तलवार से फेरा, हालाँकि क़ुरआन में “मसहन बिस-सैफ़” (तलवार फेरी) के अलफ़ाज़ नहीं हैं और कोई अलामत भी ऐसी मौजूद नहीं है जिसकी बुनियाद पर फेरने से तलवार फेरना मुराद लिया जा सके। हमें तफ़सीर के इस तरीक़े से उसूली इख़्तिलाफ़ है। हमारे नज़दीक क़ुरआन के अलफ़ाज़ से ज़्यादा कोई मतलब लेना चार ही सूरतों में सही हो सकता है। या तो क़ुरआन ही की इबारत में इसके लिए कोई इशारा मौजूद हो, या क़ुरआन में किसी दूसरी जगह पर इसकी तरफ़ कोई इशारा हो, या किसी सहीह हदीस में इस मुख़्तसर बात की तफ़सील मिलती हो, या उसकी और कोई भरोसेमन्द बुनियाद हो, मसलन इतिहास का मामला है तो इतिहास में उस मुख़्तसर बयान की तफ़सील मिलती हो, कायनात के आसार का ज़िक्र है तो भरोसेमन्द इल्मी तहक़ीक़ात से इसकी तशरीह हो रही हो और शरीअत के हुक्मों का मामला है तो इस्लामी फ़िक़्ह की किताबें उसको साफ़ बयान कर रही हों। जहाँ इनमें से कोई चीज़ भी मौजूद न हो, वहाँ अपने तौर पर ख़ुद एक क़िस्सा गढ़कर क़ुरआन की इबारत में शामिल कर देना हमारे नज़दीक सही नहीं है। आलिमों के एक गरोह ने ऊपर बयान किए गए तर्जमे और तफ़सीर से थोड़ा-सा इख़्तिलाफ़ किया है। वे कहते हैं कि “हत्ता तवारत बिल-हिजाब” (यहाँ तक कि वे घोड़े नज़रों से ओझल हो गए) और “रुद्‍दूहा अलय-य” (उन्हें मेरे पास वापस लाओ) दोनों की ज़मीर (सर्वनाम) सूरज ही की तरफ़ फिरती है। यानी जब अस्र की नमाज़ छूट गई और सूरज मग़रिब के परदे में छिप गया, तो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने दुआ की कि सूरज वापस आ जाए, ताकि अस्र का वक़्त वापस आ जाए और वे नमाज़ अदा कर लें, चुनाँचे सूरज पलट आया और उन्होंने नमाज़ पढ़ ली। लेकिन यह तफ़सीर ऊपरवाली तफ़सीर से भी ज़्यादा न मानने के क़ाबिल है। इसलिए नहीं कि अल्लाह तआला सूरज को वापस नहीं ला सकता, बल्कि इसलिए कि अल्लाह तआला ने इसका क़तई कोई ज़िक्र नहीं किया है, हालाँकि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए इतना बड़ा मोजिज़ा (चमत्कार) हुआ होता तो वह ज़रूर क़ाबिले-ज़िक्र होना चाहिए था और इसलिए भी कि सूरज का छिपकर पलट आना ऐसा ग़ैर-मामूली वाक़िआ है कि अगर वह हक़ीक़त में पेश आया होता तो दुनिया का इतिहास उससे हरगिज़ ख़ाली न रहता। इस तफ़सीर (मानी और मतलब) की ताईद में ये लोग कुछ हदीसों को भी पेश करके यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि सूरज का डूबकर फिर पलट आना एक ही बार का वाक़िआ नहीं है, बल्कि यह कई बार पेश आया है। मेराज के क़िस्से में नबी (सल्ल०) के लिए सूरज वापस लाए जाने का ज़िक्र है। ख़न्दक़ की जंग के मौक़े पर भी नबी (सल्ल०) के लिए वह वापस लाया गया और हज़रत अली (रज़ि०) के लिए भी, जबकि नबी (सल्ल०) उनकी गोद में सर रखे सो रहे थे और उनकी अस्र की नमाज़ छूट गई थी, नबी (सल्ल०) ने सूरज की वापसी की दुआ की थी और वह पलट आया था। लेकिन इन रिवायतों से दलील लेना उस तफ़सीर से भी ज़्यादा कमज़ोर है जिसकी ताईद के लिए उन्हें पेश किया गया है। हज़रत अली (रज़ि०) के बारे में जो रिवायत बयान की जाती है, उसके तमाम तरीक़ों और बयान करनेवालों पर तफ़सीली बहस करके इब्ने-तैमिया (रह०) ने उसे गढ़ी हुई साबित किया है। इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि उसकी कोई अस्ल नहीं है और इब्ने-जौज़ी कहते हैं कि वह बेशक-शुब्हा गढ़ी हुई है। ख़न्दक़ की जंग के मौक़े पर सूरज की वापसीवाली रिवायत भी कुछ मुहद्दिसीन (हदीसों के संकलित करनेवालों) के नज़दीक कमज़ोर और कुछ के नज़दीक गढ़ी हुई है। रही मेराजवाले क़िस्से की रिवायत, तो उसकी हक़ीक़त यह है कि जब नबी (सल्ल०) मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों से मेराज की रात के हालात बयान कर रहे थे तो मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों ने आप (सल्ल०) से सुबूत माँगा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि बैतुल-मक़दिस के रास्ते में फुलाँ मक़ाम पर एक क़ाफ़िला मिला था जिसके साथ फ़ुलाँ वाक़िआ पेश आया था। ग़ैर-मुस्लिमों ने पूछा वह काफ़िला किस दिन मक्का पहुँचेगा। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि फ़ुलाँ दिन। जब वह दिन आया तो क़ुरैश के लोग दिन भर क़ाफ़िले का इन्तिज़ार करते रहे, यहाँ तक कि शाम होने को आ गई। इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने दुआ की कि दिन उस वक़्त तक ख़त्म न हो जब तक क़ाफ़िला न आ जाए। चुनाँचे सचमुच सूरज डूबने से पहले वह पहुँच गया। इस वाक़िए को कुछ रिवायत करनेवालों ने इस तरह बयान किया है कि उस दिन में एक घण्टा बढ़ा दिया गया और सूरज इतनी देर तक खड़ा रहा। सवाल यह है कि इस तरह की रिवायतें क्या इतने बड़े ग़ैर-मामूली वाक़िए के सुबूत में काफ़ी गवाहियाँ हैं? जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, सूरज का पलट आना, या घण्टा भर रुका रहना कोई मामूली वाक़िआ तो नहीं है। ऐसा वाक़िआ अगर सचमुच पेश आ गया होता तो दुनिया भर में उसकी धूम मच गई होती। इस बात के बयान करनेवाले कुछ थोड़े-से लागों तक उसका ज़िक्र कैसे महदूद (सीमित) रह जा सकता था? तफ़सीर लिखनेवालों का तीसरा गरोह इन आयतों का वही मतलब लेता है जो एक ख़ाली ज़ेहन आदमी इसके अलफ़ाज़ पढ़कर इससे समझ सकता है। इस तफ़सीर के मुताबिक़ वाक़िआ बस इतना है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के सामने जब आला दरजे के अस्ली नस्ल के घोड़ों का एक दस्ता पेश किया गया तो उन्होंने फ़रमाया, यह माल मुझे कुछ अपनी बड़ाई की ग़रज़ से या अपने आपके लिए प्यारा नहीं है, बल्कि इन चीज़ों से दिलचस्पी को मैं अपने रब का कलिमा बुलन्द (बोलबाला) करने के लिए पसन्द करता हूँ। फिर उन्होंने उन घोड़ों की दौड़ कराई, यहाँ तक कि वे निगाहों से ओझल हो गए। इसके बाद उन्होंने उनको वापस तलब किया और जब वे आए तो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के कहने के मुताबिक़, “हज़रत उनकी गर्दनों पर और उनकी पिण्डलियों पर मुहब्बत से हाथ फेरने लगे।” यही मानी और मतलब हमारे नज़दीक सही है, क्योंकि यह क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ से पूरी तरह मेल खाता है और मानी व मतलब पूरा होने में ऐसी कोई बात बढ़ानी नहीं पड़ती जो न क़ुरआन में हो, न किसी सही हदीस में और न बनी-इसराईल के इतिहास में। यह बात भी इस मौक़े पर निगाह में रहनी चाहिए कि इस वाक़िए का ज़िक्र अल्लाह तआला ने हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हक़ में “बेहतरीन बन्दा, अपने रब की तरफ़ बहुत ज़्यादा रुजू करनेवाला” के तारीफ़ी अलफ़ाज़ कहने के फ़ौरन बाद किया है। इससे साफ़ मालूम होता है कि मक़सद अस्ल में यह बताना है कि देखो, वह हमारा ऐसा अच्छा बन्दा था, बादशाही का सरो-सामान उसको दुनिया की ख़ातिर नहीं, बल्कि हमारी ख़ातिर पसन्द था, अपनी शानदार फ़ौज को देखकर दुनियापरस्त बादशाहों की तरह उसने डींगें न मारीं, बल्कि उस वक़्त भी हम ही उसे याद आए।
وَلَقَدۡ فَتَنَّا سُلَيۡمَٰنَ وَأَلۡقَيۡنَا عَلَىٰ كُرۡسِيِّهِۦ جَسَدٗا ثُمَّ أَنَابَ ۝ 82
(34) और (देखो कि) सुलैमान को भी हमने आज़माइश में डाला और उसकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल दिया। फिर उसने (हमारी तरफ़) रुजू किया
قَالَ رَبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَهَبۡ لِي مُلۡكٗا لَّا يَنۢبَغِي لِأَحَدٖ مِّنۢ بَعۡدِيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡوَهَّابُ ۝ 83
(35) और उसने कहा कि “ऐ मेरे रब, मुझे माफ़ कर दे और मुझे वह बादशाही दे जिसका मेरे बाद कोई लायक़ न हो। बेशक तू ही अस्ल दाता है।"36
36. बयान के सिलसिले के लिहाज़ से इस जगह अस्ल मक़सद यही वाक़िआ बयान करना है और पिछली आयतें इसी के लिए तमहीद (भूमिका) के तौर पर कही गई हैं। जिस तरह पहले हज़रत दाऊद (अलैहि०) की तारीफ़ की गई, फिर उस वाक़िए का ज़िक्र किया गया जिसमें वे फ़ितने और आज़माइश में पड़ गए थे, यह बताया गया कि अल्लाह तआला ने अपने ऐसे प्यारे बन्दे को भी हिसाब लिए बिना न छोड़ा, फिर उनकी यह शान दिखाई कि फ़ितने पर ख़बरदार होते ही उन्होंने तौबा कर ली और अल्लाह के आगे झुककर उन्होंने अपनी इस हरकत से रुजू कर लिया, इसी तरह यहाँ भी बात की तरतीब (क्रम) यह है कि पहले हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बुलन्द मर्तबे और बन्दगी की शान का ज़िक्र किया गया है, फिर बताया गया है कि उनको भी आज़माइश में डाला गया, फिर उनकी बन्दगी की यह शान दिखाई गई कि जब उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल दिया गया तो वे फ़ौरन ही अपनी ग़लती पर ख़बरदार हो गए और अपने रब से माफ़ी माँगकर उन्होंने अपनी बात से रुजू कर लिया, जिसकी वजह से वे फ़ितने और आज़माइश में पड़े थे। दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला इन दोनों क़िस्सों से एक ही वक़्त में दो बातें ज़ेहन में बिठाना चाहता है। एक यह कि उसके बेलाग हिसाब-किताब लेने से पैग़म्बर तक नहीं बच सके हैं, दूसरों की क्या हैसियत है। दूसरी यह कि बन्दे के लिए सही रवैया क़ुसूर करके अकड़ना नहीं है, बल्कि उसका काम यह है कि जिस वक़्त भी उसे अपनी ग़लती का एहसास हो जाए उसी वक़्त वह आजिज़ी (विनम्रता) के साथ अपने रब के आगे झुक जाए। इसी रवैये का नतीजा यह है कि अल्लाह तआला ने इन बुज़ुर्गों की भूलों और ग़लतियों को सिर्फ़ माफ़ ही नहीं किया, बल्कि उनको और ज़्यादा मेहरबानियों से नवाज़ा। यहाँ फिर यह सवाल पैदा होता है कि वह फ़ितना क्या था जिसमें हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पड़ गए थे? और उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल देने का क्या मतलब है? और इस धड़ का लाकर डाला जाना उनके लिए किस तरह की तंबीह (चेतावनी) थी जिसपर उन्होंने तौबा की? इसके जवाब में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने चार अलग-अलग रायें अपनाई हैं। एक गरोह ने एक लम्बी-चौड़ी कहानी बयान की है, जिसकी तफ़सील में उनके बीच बहुत कुछ इख़्तिलाफ़ हैं। मगर सबका ख़ुलासा यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से या तो यह क़ुसूर हुआ था कि उनके महल में एक बेगम चालीस दिन तक बुतपरस्ती करती रही और वे उससे अनजान रहे, या यह कि वह कुछ दिन तक घर में बैठे रहे और किसी मज़लूम (पीड़ित) की फ़रियाद न सुनी। इसपर उन्हें यह सज़ा मिली कि एक शैतान किसी-न-किसी तरह उनकी वह अंगूठी उड़ा ले गया जिसकी बदौलत वे जिन्नों और इनसानों और हवाओं पर हुकूमत करते थे। अंगूठी हाथ से जाते ही हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का सारा इक़तिदार (सत्ता) छिन गया और वे चालीस दिन तक दर-दर की ठोकरें खाते फिरे और इस दौरान में वह शैतान, सुलैमान बना हुआ हुकूमत करता रहा। सुलैमान (अलैहि०) की कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल देने से मुराद यही शैतान है जो उनकी कुर्सी पर बैठ गया था। कुछ लोग यहाँ तक भी कह गुज़रते हैं कि उस ज़माने में उस शैतान से सुलैमान (अलैहि०) के हरम की औरतों की इज़्ज़त तक महफ़ूज़ न रही। आख़िरकार हुकूमत के दरबारी और बड़े आलिमों को उसकी कार्रवाइयाँ देखकर शक हो गया कि यह सुलैमान नहीं है। चुनाँचे उन्होंने उसके सामने तौरात खोली और वह डरकर भाग निकला। रास्ते में अंगूठी उसके हाथ से समुद्र में गिर गई, या ख़ुद उसी ने फेंक दी और उसे एक मछली ने निगल लिया। फिर इत्तिफ़ाक़ से वह मछली हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को मिल गई। उसे पकाने के लिए उन्होंने उसका पेट जो चाक किया तो अंगूठी निकल आई और उसका हाथ आना था कि जिन्न और इनसान सब सलाम करते हुए उनके सामने हाज़िर हो गए। यह पूरी कहानी शुरू से आख़िर तक सिर्फ़ बकवास है जिसे नव-मुस्लिम अहले-किताब ने तलमूद और दूसरी इसराईली रिवायतों से लेकर मुसलमानों में फैला दिया था और हैरत है कि हमारे यहाँ के बड़े-बड़े लोगों ने इनको क़ुरआन के मुख़्तसर बयानों की तफ़सील समझकर अपनी ज़बान से नक़्ल कर दिया। हालाँकि न सुलैमानी अंगूठी की कोई हक़ीक़त है, न हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के कमालात किसी अंगूठी के करिश्मे थे, न शैतानों को अल्लाह ने यह क़ुदरत दी है कि नबियों की शक्ल बनाकर आएँ और ख़ुदा के बन्दों को गुमराह करें और न अल्लाह तआला के बारे में यह सोचा जा सकता है कि वह किसी नबी के क़ुसूर की सज़ा ऐसी फ़ितना पैदा करनेवाली शक्ल में दे जिससे शैतान नबी बनकर एक पूरी उम्मत का सत्यानाश कर दे। सबसे बड़ी बात यह है कि क़ुरआन ख़ुद इस तफ़सीर को ग़लत ठहरा रहा है। आगे की आयतों में अल्लाह तआला का फ़रमान है कि जब यह आज़माइश हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को पेश आई और उन्होंने हमसे माफ़ी माँग ली। तब हमने हवा और शैतानों को उनके मातहत कर दिया। लेकिन यह तफ़सीर इसके बरख़िलाफ़ यह बता रही है कि शैतान पहले ही अंगूठी के ज़रिए से हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के फ़रमाँबरदार थे। ताज्जुब है कि जिन बुज़ुर्गों ने यह तफ़सीर बयान की है, उन्होंने यह भी न देखा कि बाद की आयतें क्या कह रही हैं। दूसरा गरोह कहता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के यहाँ बीस (20) साल के बाद एक लड़का पैदा हुआ। शैतानों को ख़तरा हुआ कि अगर सुलैमान (अलैहि०) के बाद यह बादशाह हो गया तो हम फिर इसी ग़ुलामी में फँसे रहेंगे, इसलिए उन्होंने उसे क़त्ल कर देने की ठानी। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को इसका पता चल गया और उन्होंने उस लड़के को बादलों में छिपा दिया, ताकि वहीं उसकी परवरिश होती रहे। यही वह फ़ितना था जिसमें हज़रत मुब्तला हुए थे कि उन्होंने अल्लाह पर भरोसा करने के बजाय बादलों की हिफ़ाज़त पर भरोसा किया। इसकी सज़ा उन्हें यह दी गई कि वह बच्चा मरकर उनकी कुर्सी पर आ गिरा। (अल-कश्शाफ़) यह कहानी भी बिलकुल बेसिर-पैर की और साफ़-साफ़ क़ुरआन के ख़िलाफ़ है, क्योंकि इसमें भी यह मान लिया गया है कि हवाएँ और शैतान पहले से हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए मातहत थे, हालाँकि क़ुरआन साफ़ अलफ़ाज़ में उनके मातहत होने को इस फ़ितने के बाद का वाक़िआ बता रहा है। तीसरा गरोह कहता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने एक दिन क़सम खाई कि आज रात में अपनी सत्तर बीवियों के पास जाऊँगा और हर एक से अल्लाह की राह में जिहाद करनेवाला एक लड़का पैदा होगा, मगर यह बात कहते हुए उन्होंने इंशा-अल्लाह (अगर अल्लाह ने चाहा) न कहा। इसका नतीजा यह हुआ कि सिर्फ़ एक बीवी हामिला (गर्भवती) हुईं और उनसे भी एक अधूरा बच्चा पैदा हुआ जिसे दाई ने लाकर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की कुर्सी पर डाल दिया। (तफ़सीर अल-कबीर) यह हदीस हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से रिवायत नक़्ल की है और इसे बुख़ारी और मुस्लिम और दूसरे मुहद्दिसीन (हदीसें जमा करनेवालों) ने कई तरीक़ों से नक़्ल किया है। ख़ुद बुख़ारी में अलग-अलग जगहों पर यह रिवायत जिन तरीक़ों से नक़्ल की गई है, उनमें से किसी में बीवियों की तादाद साठ (60) बयान की गई है, किसी में सत्तर (70), किसी में नव्वे (90), किसी में निन्यानवे (99) और किसी में सौ (100)। जहाँ तक सनदों का ताल्लुक़ है, इनमें से ज़्यादा तर रिवायतों की सनद मज़बूत है और रिवायत के एतिबार से इसके सही होने में बात नहीं की जा सकती। लेकिन हदीस का मज़मून साफ़-साफ़ अक़्ल के ख़िलाफ़ है और पुकार-पुकारकर कह रहा है कि यह बात नबी (सल्ल०) ने इस तरह हरगिज़ न फ़रमाई होगी जिस तरह वह नक़्ल हुई है, बल्कि आप (सल्ल०) ने शायद यहूदियों की बकवासों का ज़िक्र करते हुए किसी मौक़े पर इसे मिसाल के तौर पर बयान किया होगा और सुननेवाले को यह ग़लतफ़हमी हो गई कि इस बात को नबी (सल्ल०) ख़ुद हक़ीक़त के तौर पर बयान कर रहे हैं। ऐसी रिवायतों को सिर्फ़ सनद के ज़ोर पर लोगों के गले से उतरवाने की कोशिश करना दीन को मज़ाक़ बनाना है। हर शख़्स ख़ुद हिसाब लगाकर देख सकता है कि जाड़े की लम्बी रातों में भी इशा और फ़ज़्र के बीच दस ग्यारह घण्टे से ज़्यादा वक़्त नहीं होता। अगर बीवियों की कम-से-कम तादाद साठ (60) ही मान ली जाए जो इसका मतलब यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उस रात बिना दम लिए हर घण्टा छः (6) बीवी के हिसाब से लगातार दस या ग्यारह घण्टे सोहबत करते चले गए। क्या यह अमली तौर से मुमकिन भी है? और क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि नबी (सल्ल०) ने यह बात एक हक़ीक़त के तौर पर बयान की होगी? फिर हदीस में यह बात कहीं नहीं बयान की गई है कि क़ुरआन मजीद में हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की कुर्सी पर जिस धड़ के डाले जाने का ज़िक्र आया है, उससे मुराद यही अधूरा बच्चा है। इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि नबी (सल्ल०) ने यह वाक़िआ इस आयत की तफ़सीर के तौर पर बयान किया था। इसके अलावा उस बच्चे की पैदाइश पर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का इसतिग़फ़ार करना (अल्लाह से माफ़ी माँगना) तो समझ में आता है, मगर यह बात समझ में नहीं आती कि उन्होंने इसतिग़फ़ार के साथ यह दुआ क्यों माँगी कि “मुझे वह बादशाही दे जिसका मेरे बाद कोई लायक़ न हो।" एक और तफ़सीर जिसको इमाम राज़ी (रह०) सबसे ज़्यादा अहमियत देते हैं, यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) किसी सख़्त बीमारी में मुब्तला हो गए थे, या किसी ख़तरे की वजह से इतने ज़्यादा फ़िक्रमन्द थे कि घुलते-घुलते वह बस हड्डी और चमड़ा बनकर रह गए थे। लेकिन यह तफ़सीर क़ुरआन के अलफ़ाज़ का साथ नहीं देती। क़ुरआन के अलफ़ाज़ ये हैं कि “हमने सुलैमान को आज़माइश में डाला और उसकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल दिया, फिर उसने रुजू किया।” इन अलफ़ाज़ को पढ़कर कोई शख़्स भी यह नहीं समझ सकता कि इस धड़ से मुराद ख़ुद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) हैं। इनसे तो साफ़ यह मालूम होता है कि आज़माइश में डाले जाने से मुराद कोई क़ुसूर है जो उनसे हो गया था, उस क़ुसूर पर उनको तंबीह (चेतावनी) इस शक्ल में दी गई कि उनकी कुर्सी पर एक धड़ ला डाला गया और इसपर जब उनको अपने क़ुसूर का एहसास हुआ तो उन्होंने रुजू कर लिया। हक़ीक़त यह है कि यह मक़ाम क़ुरआन मजीद के सबसे मुश्किल मक़ामात में से है और क़तई तौर पर इसकी कोई तफ़सीर बयान करने के लिए हमें कोई यक़ीनी बुनियाद नहीं मिलती। लेकिन हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की दुआ के ये अलफ़ाज़ कि "ऐ मेरे रब, मुझे माफ़ कर दे और मुझको ऐसी बादशाही दे जिसका मेरे बाद कोई लायक़ न हो," अगर बनी-इसराईल के इतिहास की रौशनी में जाएँ तो बज़ाहिर ऐसा महसूस होता है कि उनके दिल में शायद यह ख़ाहिश थी कि उनके बाद उनका बेटा जानशीन हो और हुकूमत और बादशाही आगे उन्हीं की नस्ल में बाक़ी रहे। इसी चीज़ को अल्लाह तआला ने उनके लिए 'फ़ितना' बताया और इसपर वह उस वक़्त ख़बरदार हुए जब उनका जानशीन रहुबआम एक ऐसा नालायक नौजवान बनकर उठा जिसके लक्षण साफ़ बता रहे थे कि वह दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) की हुकूमत चार दिन भी न संभाल सकेगा। उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाले जाने का मतलब शायद यही है कि जिस बेटे को वह अपनी कुर्सी पर बिठाना चाहते थे, वह बिलकुल अनघड़ था। तब उन्होंने अपनी इस ख़ाहिश से रुजू किया और अल्लाह तआला से माफ़ी माँगकर दरख़ास्त की कि बस यह बादशाही मुझी पर ख़त्म हो जाए, मैं अपने बाद अपनी नस्ल में बादशाही जारी रहने की तमन्ना से बाज़ आया। बनी-इसराईल के इतिहास से भी यही मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपने बाद किसी के लिए भी जानशीनी की, न वसीयत की और न किसी का हुक्म मानने के लिए लोगों को पाबन्द किया। बाद में उनके दरबारियों ने रहुबआम को तख़्त पर बिठाया, मगर कुछ ज़्यादा मुद्दत न गुज़री थी कि बनी-इसराईल के दस क़बीले शिमाली (उत्तरी) फ़िलस्तीन का इलाक़ा लेकर अलग हो गए और सिर्फ़ यहूदाह का क़बीला बैतुल-मक़दिस के तख़्त से जुड़ा रह गया।
فَسَخَّرۡنَا لَهُ ٱلرِّيحَ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦ رُخَآءً حَيۡثُ أَصَابَ ۝ 84
(36) तब हमने उसके लिए हवा को मातहत किया जो उसके हुक्म से नर्मी के साथ चलती थी जिधर वह चाहता था,37
37. इसकी तशरीह सूरा-21 अम्बिया की तफ़सीर में गुज़र चुकी है (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-74)। अलबत्ता यहाँ एक बात वाज़ेह (स्पष्ट) करने की ज़रूरत है। सूरा-21 अम्बिया में जहाँ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए हवा को उनके मातहत करने का ज़िक्र किया गया है, वहाँ “अर-री-ह आसिफ़ः” (तेज़ हवा) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं और यहाँ इसी हवा के बारे में कहा गया है “तजरी बिअमरिही रुख़ाअन” (वह उसके हुक्म से नर्मी के साथ चलती थी)। इसका मतलब यह है कि वह हवा अपनी जगह ख़ुद तो तेज़ हवा थी, जैसी कि बादबानी (हवा के सहारे चलनेवाले) जहाज़ों को चलाने के लिए दरकार होती है, मगर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए वह इस मानी में नर्म बना दी गई थी कि जिधर उनके तिजारती बेड़ों को सफ़र करने की ज़रूरत होती थी, उसी तरफ़ वह चलती थी।
وَٱلشَّيَٰطِينَ كُلَّ بَنَّآءٖ وَغَوَّاصٖ ۝ 85
(37) और शैतानों को मातहत किया, हर तरह के इमारतें बनानेवाले, ग़ोताख़ोर
وَءَاخَرِينَ مُقَرَّنِينَ فِي ٱلۡأَصۡفَادِ ۝ 86
(38) और दूसरे जो ज़ंजीरों में जकड़े हुए थे।38
38. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-75; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—23, 28, 45, 46, 17,— शैतानों से मुराद जिन्न हैं और 'ज़ंजीरों से बंधे शैतानों' से मुराद वे ख़िदमतगार शैतान हैं जिन्हें शरारत की सज़ा में क़ैद कर दिया जाता था। ज़रूरी नहीं है कि वे बेड़ियाँ और ज़ंजीरें जिनसे ये शैतान बाँधे जाते थे, लोहे की ही बनी हुई हों और क़ैदी इनसानों की तरह वे भी लोगों को खुल्लम-खुल्ला बंधे हुए नज़र आते हों। बहरहाल उन्हें किसी ऐसे तरीक़े से क़ैद किया जाता था जिससे वे भागने और शरारत करने की सकत न रखते थे।
هَٰذَا عَطَآؤُنَا فَٱمۡنُنۡ أَوۡ أَمۡسِكۡ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 87
(39) (हमने उससे कहा) “यह हमारी देन है, तुझे इख़्तियार है जिसे चाहे दे और जिससे चाहे रोक ले, कोई हिसाब नहीं।"39
39. इस आयत के तीन मतलब हो सकते हैं। एक यह कि यह हमारी बेहिसाब देन और बख़शिश है, तुम्हें इख़्तियार है कि जिसे चाहो दो और जिसे चाहो न दो। दूसरा यह कि यह हमारी देन है, जिसे चाहे दो और जिसे चाहो न दो, देने या न देने पर तुमसे कोई पूछ-गछ न होगी। एक और मतलब कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने यह भी बयान किया है कि ये शैतान पूरी तरह तुम्हारे इस्तेमाल में दे दिए गए हैं, इनमें से जिसे चाहो रिहा कर दो और जिसे चाहे रोक रखो, इसपर तुमसे कोई हिसाब न लिया जाएगा।