(3) उनके दिल (दूसरी ही फ़िक्रों में) लगे हुए हैं। और ज़ालिम आपस में कानाफूसियाँ करते हैं कि “यह शख़्स आख़िर तुम जैसा एक इनसान ही तो है, फिर क्या तुम आँखों देखते जादू के फन्दे में फँस जाओगे।"5
5. “फँसे जाते हो” भी तर्जुमा हो सकता है, और दोनों ही मतलब सही हैं। कानाफूसियाँ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के वे बड़े-बड़े सरदार आपस में बैठ-बैटकर किया करते थे जिनको नबी (सल्ल०) की दावत का मुक़ाबला करने की बड़ी फ़िक्र लगी थी। वे कहते थे कि वह शख़्स बहरहाल नबी तो हो नहीं सकता, क्योंकि हम ही जैसा इनसान है, खाता है, पीता है, बाज़ारों में चलता-फिरता है, बीवी-बच्चे रखता है। आख़िर इसमें वह निराली बात क्या है जो इसको हमसे अलग करती हो और हमारे मुक़ाबले में इसको ख़ुदा से एक ग़ैर-मामूली ताल्लुक़ का हक़दार बनाती हो। अलबत्ता इस शख़्स की बातों में और इसकी शख़्सियत में एक जादू है कि जो इसकी बात कान लगाकर सुनता है और इसके क़रीब जाता है, वह इसका हो जाता है। इसलिए अगर अपनी ख़ैर चाहते हो तो न इसकी सुनो और न इससे मेल-जोल रखो, क्योंकि इसकी बातें सुनना और इसके क़रीब जाना मानो आँखों देखते जादू के फन्दे में फँसना है।
जिस चीज़ की वजह से वे नबी (सल्ल०) पर 'जादू' को इलज़ाम लगाते थे, उसकी कुछ मिसालें नबी (सल्ल०) के सबसे पुराने सीरत-निगार (जीवनी-लेखक) मुहम्मद-बिन-इसहाक़ (इन्तिक़ाल 152 हि०) ने बयान की हैं। वे लिखते हैं कि एक बार उतबा-बिन-रबीआ (अबू-सुफ़ियान के ससुर, हज़रत हमज़ा का कलेजा चबानेवाली औरत हिन्द के बाप) ने क़ुरैश के सरदारों से कहा, “अगर आप लोग पसन्द करें तो मैं जाकर मुहम्मद (सल्ल०) से मिलूँ और उसे समझाने की कोशिश करूँ?” यह हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के इस्लाम लाने के बाद का वाक़िआ है, जबकि नबी (सल्ल०) के सहाबा की तादाद दिन-पर-दिन बढ़ती देखकर क़ुरैश के सरदार सख़्त परेशान हो रहे थे। लोगों ने कहा, “अबुल-वलीद, तुमपर पूरा इत्मीनान है, ज़रूर जाकर उससे बात करो।” वह नबी (सल्ल०) के पास पहुँचा और कहने लगा, “भतीजे, हमारे यहाँ तुमको जो इज़्ज़त हासिल थी, तुम ख़ुद जानते हो, और नस्ल के लिहाज़ से भी तुम एक बड़े शरीफ़ घराने के आदमी हो। तुम अपनी क़ौम पर यह क्या मुसीबत ले आए हो? तुमने समाज में फूट डाल दी सारी क़ौम को बेवक़ूफ़ ठहराया। उसके दीन और उसके माबूदों की बुराई की। बाप-दादा जो मर चुके हैं उन सबको तुमने गुमराह और बेदीन ठहराया। भतीजे, अगर इन बातों से तुम्हारा मक़सद दुनिया में अपनी बड़ाई क़ायम करना है तो आओ हम सब मिलकर तुमको इतना रुपया दे देते हैं कि तुम सबसे ज़्यादा मालदार हो जाओ। सरदारी चाहते हो तो हम तुम्हें सरदार माने लेते हैं। बादशाही चाहते हो तो बादशाह बना देते हैं। और अगर तुम्हें कोई बीमारी हो गई है जिसकी वजह से तुमको वाक़ई सोते या जागते में कुछ नज़र आने लगा है तो हम सब मिलकर बेहतरीन हकीमों (और डॉक्टरों) से तुम्हारा इलाज कराए देते हैं।” ये बातें यह करता रहा और नबी (सल्ल०) चुपचाप सुनते रहे। जब यह ख़ूब बोल चुका तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अबुल-बालीद जो कुछ आप कहना चाहते थे, कह चुके हैं या और कुछ कहना है?” उसने कहा, “बस, मुझे जो कुछ कहना था मैंने कह दिया।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, अब मेरी सुनो, 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, हा-मीम तंज़ीलुम-मिनर्रहमानिर्रहीम (अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है, हा-मीम यह मेहरबान और रहम करनेवाले की तरफ़ से उतरी हुई चीज़ है)।” इसके बाद कुछ देर तक आप लगातार सूरा-41 हा-मीम सजदा की तिलावत फ़रमाते रहे और उतबा पीछे ज़मीन पर हाथ टेके ग़ौर से सुनता रहा। 38वीं आयत पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने सजदा किया और फिर सर उठाकर उतबा से फ़रमाया, “अबुल-बलीद, जो कुछ मुझे कहना था वह आपने सुन लिया। अब आप जानें और आपका काम।” उत्बा वहाँ से उठकर क़ुरैश के सरदारों की तरफ़ पलटा तो लोगों ने दूर से उसको आते देखकर कहा, “ख़ुदा की क़सम, अबुल-वलीद का चेहरा बदला हुआ है। यह वह सूरत नहीं है। जिसे लेकर वह गया था।” उसके पहुँचते ही लोगों ने सवाल किया, “कहो अबुल-वलीद, क्या कर आए हो?” उसने कहा, “ख़ुदा की क़सम, आज मैंने ऐसा कलाम सुना है कि इससे पहले कभी न सुना था। अल्लाह की क़सम, यह शायरी नहीं है, न जादू है और न कहानत (ज्योतिष)। ऐ क़ुरैश के लोगो, मेरी बात मानो और इस शख़्स को इसके हाल पर छोड़ दो, इसकी बातें जो मैंने सुनी हैं, रंग लाकर रहेंगी, अगर अरब उसपर ग़ालिब आ गए तो अपने भाई का ख़ून तुम्हारी गरदन पर न होगा, दूसरों पर होगा। और अगर यह अरब पर ग़ालिब आ गया तो उसकी हुकूमत तुम्हारी हुकूमत होगी और उसकी इज़्ज़त, तुम्हारी इज़्ज़त।” लोगों ने कहा, “अल्लाह की क़सम, अबुल-वलीद तुमपर भी उसका जादू चल गया।” उसने कहा, “यह मेरी राय है, अब तुम जानो और तुम्हारा काम।” (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पे० 313, 314)। बैहक़ी ने इस वाक़िए के बारे में जो रिवायतें जमा की हैं उनमें से एक रिवायत में यह इज़ाफ़ा है कि जब नबी (सल्ल०) हा-मीम सजदा की तिलावत करते हुए इस आयत (13) पर पहुँचे कि “फिर अगर वे मुँह मोड़े तो कह दो : मैं तुम्हारे ऊपर उस अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब से डरता हूँ जैसा आद और समूद पर आया था। तो उतबा ने बेइख़्तियार आगे बढ़कर नबी (सल्ल०) के मुँह पर हाथ रख दिया और कहने लगा कि ख़ुदा के लिए अपनी क़ौम पर रहम करो।
दूसरा वाक़िआ इब्ने-इसहाक़ ने यह बयान किया है कि एक बार 'अराश' नाम के क़बीले का एक आदमी कुछ ऊँट लेकर मक्का आया। अबू-जह्ल ने उसके ऊँट ख़रीद लिए और जब उसने क़ीमत माँगी तो टालमटोल करने लगा। अराशी ने तंग आकर एक दिन काबा में क़ुरैश के सरदारों को जा पकड़ा और भरी भीड़ में फ़रियाद शुरू कर दी। दूसरी तरफ़ हरम के एक कोने में नबी (सल्ल०) बैठे हुए थे। क़ुरैश के सरदारों ने उस शख़्स से कहा कि “हम कुछ नहीं कर सकते। देखो, वे साहब जो उस कोने में बैठे हैं उनसे जाकर कहो। वे तुमको तुम्हारा रुपया दिलवा देंगे।” अराशी नबी (सल्ल०) की तरफ़ चला, और क़ुरैश के सरदारों ने आपस में कहा, “आज मज़ा आएगा।” अराशी ने जाकर नबी (सल०) से अपनी शिकायत बयान की। आप (सल्ल०) उसी वक़्त उठ खड़े हुए और उसे साथ लेकर अबू-जह्ल के मकान की तरफ़ चल पड़े। सरदारों ने पीछे एक आदमी लगा दिया कि जो कुछ गुज़रे उसकी ख़बर लाकर दे। नबी (सल्ल०) सीधे अबू-जह्ल के दरवाज़े पर पहुँचे और कुण्डी खटखटाई। उसने पुछा, “कौन?” आप (सल्ल०) ने जवाब दिया, “मुहम्मद।” वह हैरान होकर बाहर निकल आया। आप (सल्ल०) ने उससे कहा, “इस आदमी का हक़ अदा कर दो। उसने जवाब में कोई आनाकानी न की, अन्दर गया और उसके ऊँटों की क़ीमत लाकर उसके हाथ में दे दी। क़ुरैश का मुख़बिर यह हाल देखकर हरम की तरफ़ दौड़ा और सरदारों को सारा माजरा सुनाया और कहने लगा कि अल्लाह की क़सम, आज वह अजीब मामला देखा है जो कभी न देखा था। हकम-बिन-हिशाम (अबू-जह्ल) जब निकला है तो मुहम्मद (सल्ल०) को देखते ही उसका रंग फ़क़ हो गया और जब मुहम्मद (सल्ल०) ने उससे कहा कि इसका हक़ अदा कर दो तो यह मालूम होता था कि जैसे हकम-बिन-हिशाम के जिस्म में जान नहीं है। (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पे० 29, 30)
यह था शख़्सियत और सीरत व किरदार का असर और यह था कलाम का असर जिसको वे लोग जादू कहते थे और न जाननेवालों को यह कहकर डराते थे कि उस शख़्स के पास न जाना वरना जादू कर देगा।