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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ

21. अल-अंबिया

(मक्का में उतरी-आयतें 112)

परिचय

नाम

चूँकि इस सूरा में निरन्तर बहुत-से नबियों का उल्लेख हुआ है, इसलिए इसका नाम 'अल-अंबिया' रख दिया गया। यह विषय की दृष्टि से सूरा का शीर्षक नहीं है, बल्कि केवल पहचानने के लिए एक लक्षणमात्र है।

अवतरण काल

विषय और वर्णन-शैली, दोनों से यही मालूम होता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यवर्ती काल अर्थात् हमारे काल-विभाजन की दृष्टि से नबी (सल्ल०) की मक्की ज़िन्दगी का तीसरा काल है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में उस संघर्ष पर वार्ता की गई है जो नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के सरदारों के बीच चल रहा था। वे लोग प्यारे नबी (सल्ल०) की रिसालत के दावे और आपकी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत और आख़िरत के अक़ीदे पर जो सन्देह और आक्षेप पेश करते थे, उनका उत्तर दिया गया है। उनकी ओर से आपके विरोध में जो चालें चली जा रही थीं, उनपर डॉट-फटकार की गई है और उन हरकतों के बुरे नतीजों से सावधान किया गया है और अन्त में उनको यह एहसास दिलाया गया है कि जिस व्यक्ति को तुम अपने लिए संकट और मुसीबत समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे लिए दयालुता बनकर आया है।

अभिभाषण करते समय मुख्य रूप से जिन बातों पर वार्ता की गई है, वे ये हैं-

  1. मक्का के विधर्मियों की यह कुधारणा कि इंसान कभी रसूल नहीं हो सकता और इस आधार पर उनका हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को रसूल मानने से इंकार करना- इस कुधारणा का सविस्तार खण्डन किया गया है।
  2. उनका नबी (सल्ल०) पर और क़ुरआन पर विभिन्न और विरोधाभासी आक्षेप करना और किसी एक बात पर न जमना- इसपर संक्षेप में मगर बहुत ही जोरदार और अर्थगर्भित ढंग से पकड़ की गई है।
  3. उनका यह विचार कि ज़िन्दगी बस एक खेल है जिसे कुछ दिन खेलकर यों ही समाप्त हो जाना है [इसका कोई हिसाब-किताब नहीं]- इसका बड़े ही प्रभावी ढंग से तोड़ किया गया है।
  4. शिर्क पर उनका आग्रह और तौहीद के विरुद्ध उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात - इसके सुधार के लिए संक्षेप में किन्तु महत्त्वपूर्ण और चित्ताकर्षक दलीलें भी दी गई है।
  5. उनका यह भ्रम कि नबी के बार-बार झुठालाने के बावजूद जब उनपर कोई अज़ाब नहीं आता तो अवश्य ही नबी झूठा है और अल्लाह के अज़ाब की धमकियाँ केवल धमकियाँ हैं- इसको दलीलों से और उपदेश देकर दोनों तरीक़ों से दूर करने की कोशिशें की गई हैं।

इसके बाद नबियों की जीवन-चर्याओं के महत्त्वपूर्ण घटनाओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे यह समझाना अभीष्ट है कि वे तमाम पैग़म्बर जो मानव-इतिहास के दौरान ख़ुदा की ओर से आए थे, इंसान थे। ईश्वरत्व और प्रभुता का उनमें लेशमात्र तक न था। इसके साथ इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों से दो बातें और भी स्पष्ट हो गई हैं-एक यह कि नबियों पर तरह-तरह की मुसीबतें आती रही हैं और उनके विरोधियों ने भी उनको बर्बाद करने की कोशिशें को हैं, मगर आख़िरकार अल्लाह की ओर से असाधारण रूप से उनकी मदद की गई है। दूसरे यह कि तमाम नबियों का दीन एक था और वह वही दीन था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। मानव-जाति का असल दीन यही है और बाक़ी जितने धर्म दुनिया में बने हैं, वे केवल गुमराह इंसानों द्वारा डाली हुई फूट और संभेद है। अन्त में यह बताया गया है कि इंसान की नजात (मुक्ति) का आश्रय इसी दीन की पैरवी अपनाने पर है और इसका उतरना तो साक्षात दयालुता है।

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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ
21. अल-अम्बिया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फरमा आने वाला है।
ٱقۡتَرَبَ لِلنَّاسِ حِسَابُهُمۡ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ مُّعۡرِضُونَ
(1) क़रीब आ गया है लोगों के हिसाब का वक़्त1 और वे हैं कि ग़फ़लत में मुँह मोड़े हुए हैं।2
1. मुराद है क़ियामत का क़रीब आ जाना। यानी अब वह वक़्त दूर नहीं है जब लोगों को अपना हिसाब देने के लिए अपने रब के सामने हाज़िर होना पड़ेगा। मुहम्मद (सल्ल०) का नबी बनाकर भेजा जाना इस बात की निशानी है कि इनसानों का इतिहास अब अपने आख़िरी दौर में दाख़िल हो रहा है। अब वह अपनी शुरुआत के मुक़ाबले अपने अंजाम से ज़्यादा क़रीब है। शुरू और बीच के मरहले गुज़र चुके हैं और आख़िरी मरहला शुरू हो चुका है। यही बात है जिसको नबी (सल्ल०) ने एक हदीस में बयान फ़रमाया है। आप (सल्ल०) ने अपनी दो उँगलियाँ खड़ी करके फ़रमाया, “में ऐसे वक़्त पर भेजा गया हूँ कि में और क़ियामत इन दो उँगलियों की तरह हैं।” यानी मेरे बाद बस क़ियामत ही है। कोई और नबी बीच में दावत और पैग़ाम लेकर आनेवाला नहीं है। संभलना है तो मेरी दावत पर संभल जाओ। कोई और हिदायत देनेवाला, ख़ुशख़बरी सुनानेवाला और डरानेवाला आनेवाला नहीं है।
2. यानी किसी डरावे (चेतावनी) की तरफ़ ध्यान नहीं देते न ख़ुद सोचते हैं कि हमारा अजाम क्या होना है और न उस पैग़म्बर की बात सुनते हैं जो उन्हें ख़बरदार करने कोशिश कर रहा है।
مَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّن رَّبِّهِم مُّحۡدَثٍ إِلَّا ٱسۡتَمَعُوهُ وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 1
(2) उनके पास जो ताज़ा नसीहत भी उनके रब की तरफ़ से आती है,3 उसको तकल्लुफ़ से सुनते हैं और खेल में पड़े रहते हैं।4
3. यानी क़ुरआन की हर नई सूरा जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरती है और उन्हें सुनाई जाती है।
4. अस्ल अरबी में जुमला 'वहुम यल-अबून' इस्तेमाल हुआ है। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक वह जो ऊपर तर्जमे में दिया गया है, और उसमें खेल से मुराद वही ज़िन्दगी का खेल है जिसे ख़ुदा और आख़िरत से ग़ाफ़िल लोग खेल रहे हैं दूसरा मतलब यह है कि वे इसे संजीदगी के साथ नहीं सुनते, बल्कि खेल और मज़ाक़ के तौर पर सुनते हैं।
لَاهِيَةٗ قُلُوبُهُمۡۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ هَلۡ هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡۖ أَفَتَأۡتُونَ ٱلسِّحۡرَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 2
(3) उनके दिल (दूसरी ही फ़िक्रों में) लगे हुए हैं। और ज़ालिम आपस में कानाफूसियाँ करते हैं कि “यह शख़्स आख़िर तुम जैसा एक इनसान ही तो है, फिर क्या तुम आँखों देखते जादू के फन्दे में फँस जाओगे।"5
5. “फँसे जाते हो” भी तर्जुमा हो सकता है, और दोनों ही मतलब सही हैं। कानाफूसियाँ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के वे बड़े-बड़े सरदार आपस में बैठ-बैटकर किया करते थे जिनको नबी (सल्ल०) की दावत का मुक़ाबला करने की बड़ी फ़िक्र लगी थी। वे कहते थे कि वह शख़्स बहरहाल नबी तो हो नहीं सकता, क्योंकि हम ही जैसा इनसान है, खाता है, पीता है, बाज़ारों में चलता-फिरता है, बीवी-बच्चे रखता है। आख़िर इसमें वह निराली बात क्या है जो इसको हमसे अलग करती हो और हमारे मुक़ाबले में इसको ख़ुदा से एक ग़ैर-मामूली ताल्लुक़ का हक़दार बनाती हो। अलबत्ता इस शख़्स की बातों में और इसकी शख़्सियत में एक जादू है कि जो इसकी बात कान लगाकर सुनता है और इसके क़रीब जाता है, वह इसका हो जाता है। इसलिए अगर अपनी ख़ैर चाहते हो तो न इसकी सुनो और न इससे मेल-जोल रखो, क्योंकि इसकी बातें सुनना और इसके क़रीब जाना मानो आँखों देखते जादू के फन्दे में फँसना है। जिस चीज़ की वजह से वे नबी (सल्ल०) पर 'जादू' को इलज़ाम लगाते थे, उसकी कुछ मिसालें नबी (सल्ल०) के सबसे पुराने सीरत-निगार (जीवनी-लेखक) मुहम्मद-बिन-इसहाक़ (इन्तिक़ाल 152 हि०) ने बयान की हैं। वे लिखते हैं कि एक बार उतबा-बिन-रबीआ (अबू-सुफ़ियान के ससुर, हज़रत हमज़ा का कलेजा चबानेवाली औरत हिन्द के बाप) ने क़ुरैश के सरदारों से कहा, “अगर आप लोग पसन्द करें तो मैं जाकर मुहम्मद (सल्ल०) से मिलूँ और उसे समझाने की कोशिश करूँ?” यह हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के इस्लाम लाने के बाद का वाक़िआ है, जबकि नबी (सल्ल०) के सहाबा की तादाद दिन-पर-दिन बढ़ती देखकर क़ुरैश के सरदार सख़्त परेशान हो रहे थे। लोगों ने कहा, “अबुल-वलीद, तुमपर पूरा इत्मीनान है, ज़रूर जाकर उससे बात करो।” वह नबी (सल्ल०) के पास पहुँचा और कहने लगा, “भतीजे, हमारे यहाँ तुमको जो इज़्ज़त हासिल थी, तुम ख़ुद जानते हो, और नस्ल के लिहाज़ से भी तुम एक बड़े शरीफ़ घराने के आदमी हो। तुम अपनी क़ौम पर यह क्या मुसीबत ले आए हो? तुमने समाज में फूट डाल दी सारी क़ौम को बेवक़ूफ़ ठहराया। उसके दीन और उसके माबूदों की बुराई की। बाप-दादा जो मर चुके हैं उन सबको तुमने गुमराह और बेदीन ठहराया। भतीजे, अगर इन बातों से तुम्हारा मक़सद दुनिया में अपनी बड़ाई क़ायम करना है तो आओ हम सब मिलकर तुमको इतना रुपया दे देते हैं कि तुम सबसे ज़्यादा मालदार हो जाओ। सरदारी चाहते हो तो हम तुम्हें सरदार माने लेते हैं। बादशाही चाहते हो तो बादशाह बना देते हैं। और अगर तुम्हें कोई बीमारी हो गई है जिसकी वजह से तुमको वाक़ई सोते या जागते में कुछ नज़र आने लगा है तो हम सब मिलकर बेहतरीन हकीमों (और डॉक्टरों) से तुम्हारा इलाज कराए देते हैं।” ये बातें यह करता रहा और नबी (सल्ल०) चुपचाप सुनते रहे। जब यह ख़ूब बोल चुका तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अबुल-बालीद जो कुछ आप कहना चाहते थे, कह चुके हैं या और कुछ कहना है?” उसने कहा, “बस, मुझे जो कुछ कहना था मैंने कह दिया।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, अब मेरी सुनो, 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, हा-मीम तंज़ीलुम-मिनर्रहमानिर्रहीम (अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है, हा-मीम यह मेहरबान और रहम करनेवाले की तरफ़ से उतरी हुई चीज़ है)।” इसके बाद कुछ देर तक आप लगातार सूरा-41 हा-मीम सजदा की तिलावत फ़रमाते रहे और उतबा पीछे ज़मीन पर हाथ टेके ग़ौर से सुनता रहा। 38वीं आयत पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने सजदा किया और फिर सर उठाकर उतबा से फ़रमाया, “अबुल-बलीद, जो कुछ मुझे कहना था वह आपने सुन लिया। अब आप जानें और आपका काम।” उत्बा वहाँ से उठकर क़ुरैश के सरदारों की तरफ़ पलटा तो लोगों ने दूर से उसको आते देखकर कहा, “ख़ुदा की क़सम, अबुल-वलीद का चेहरा बदला हुआ है। यह वह सूरत नहीं है। जिसे लेकर वह गया था।” उसके पहुँचते ही लोगों ने सवाल किया, “कहो अबुल-वलीद, क्या कर आए हो?” उसने कहा, “ख़ुदा की क़सम, आज मैंने ऐसा कलाम सुना है कि इससे पहले कभी न सुना था। अल्लाह की क़सम, यह शायरी नहीं है, न जादू है और न कहानत (ज्योतिष)। ऐ क़ुरैश के लोगो, मेरी बात मानो और इस शख़्स को इसके हाल पर छोड़ दो, इसकी बातें जो मैंने सुनी हैं, रंग लाकर रहेंगी, अगर अरब उसपर ग़ालिब आ गए तो अपने भाई का ख़ून तुम्हारी गरदन पर न होगा, दूसरों पर होगा। और अगर यह अरब पर ग़ालिब आ गया तो उसकी हुकूमत तुम्हारी हुकूमत होगी और उसकी इज़्ज़त, तुम्हारी इज़्ज़त।” लोगों ने कहा, “अल्लाह की क़सम, अबुल-वलीद तुमपर भी उसका जादू चल गया।” उसने कहा, “यह मेरी राय है, अब तुम जानो और तुम्हारा काम।” (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पे० 313, 314)। बैहक़ी ने इस वाक़िए के बारे में जो रिवायतें जमा की हैं उनमें से एक रिवायत में यह इज़ाफ़ा है कि जब नबी (सल्ल०) हा-मीम सजदा की तिलावत करते हुए इस आयत (13) पर पहुँचे कि “फिर अगर वे मुँह मोड़े तो कह दो : मैं तुम्हारे ऊपर उस अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब से डरता हूँ जैसा आद और समूद पर आया था। तो उतबा ने बेइख़्तियार आगे बढ़कर नबी (सल्ल०) के मुँह पर हाथ रख दिया और कहने लगा कि ख़ुदा के लिए अपनी क़ौम पर रहम करो। दूसरा वाक़िआ इब्ने-इसहाक़ ने यह बयान किया है कि एक बार 'अराश' नाम के क़बीले का एक आदमी कुछ ऊँट लेकर मक्का आया। अबू-जह्ल ने उसके ऊँट ख़रीद लिए और जब उसने क़ीमत माँगी तो टालमटोल करने लगा। अराशी ने तंग आकर एक दिन काबा में क़ुरैश के सरदारों को जा पकड़ा और भरी भीड़ में फ़रियाद शुरू कर दी। दूसरी तरफ़ हरम के एक कोने में नबी (सल्ल०) बैठे हुए थे। क़ुरैश के सरदारों ने उस शख़्स से कहा कि “हम कुछ नहीं कर सकते। देखो, वे साहब जो उस कोने में बैठे हैं उनसे जाकर कहो। वे तुमको तुम्हारा रुपया दिलवा देंगे।” अराशी नबी (सल्ल०) की तरफ़ चला, और क़ुरैश के सरदारों ने आपस में कहा, “आज मज़ा आएगा।” अराशी ने जाकर नबी (सल०) से अपनी शिकायत बयान की। आप (सल्ल०) उसी वक़्त उठ खड़े हुए और उसे साथ लेकर अबू-जह्ल के मकान की तरफ़ चल पड़े। सरदारों ने पीछे एक आदमी लगा दिया कि जो कुछ गुज़रे उसकी ख़बर लाकर दे। नबी (सल्ल०) सीधे अबू-जह्ल के दरवाज़े पर पहुँचे और कुण्डी खटखटाई। उसने पुछा, “कौन?” आप (सल्ल०) ने जवाब दिया, “मुहम्मद।” वह हैरान होकर बाहर निकल आया। आप (सल्ल०) ने उससे कहा, “इस आदमी का हक़ अदा कर दो। उसने जवाब में कोई आनाकानी न की, अन्दर गया और उसके ऊँटों की क़ीमत लाकर उसके हाथ में दे दी। क़ुरैश का मुख़बिर यह हाल देखकर हरम की तरफ़ दौड़ा और सरदारों को सारा माजरा सुनाया और कहने लगा कि अल्लाह की क़सम, आज वह अजीब मामला देखा है जो कभी न देखा था। हकम-बिन-हिशाम (अबू-जह्ल) जब निकला है तो मुहम्मद (सल्ल०) को देखते ही उसका रंग फ़क़ हो गया और जब मुहम्मद (सल्ल०) ने उससे कहा कि इसका हक़ अदा कर दो तो यह मालूम होता था कि जैसे हकम-बिन-हिशाम के जिस्म में जान नहीं है। (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पे० 29, 30) यह था शख़्सियत और सीरत व किरदार का असर और यह था कलाम का असर जिसको वे लोग जादू कहते थे और न जाननेवालों को यह कहकर डराते थे कि उस शख़्स के पास न जाना वरना जादू कर देगा।
قَالَ رَبِّي يَعۡلَمُ ٱلۡقَوۡلَ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 3
(4) रसूल ने कहा, “मेरा रब हर उस बात को जानता है जो आसमान और ज़मीन में की जाए, वह सुनता और जानता है।”6
6. यानी रसूल ने कभी इस झूठे प्रोपेगंडे और कानाफूसियों की इस मुहिम (Whispering Campaign) का जवाब इसके सिवा न दिया कि “तुम लोग जो कुछ बातें बनाते हो सब ख़ुदा सुनता और जानता है, चाहे ज़ोर से कहो, चाहे चुपके-चुपके कानों में फेंको।” वह कभी बेइनसाफ़ दुश्मनों के मुक़ाबले में तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने पर न उतर आया।
بَلۡ قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمِۭ بَلِ ٱفۡتَرَىٰهُ بَلۡ هُوَ شَاعِرٞ فَلۡيَأۡتِنَا بِـَٔايَةٖ كَمَآ أُرۡسِلَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 4
(5) वे कहते हैं, “बल्कि ये बिखरे सपने हैं, बल्कि यह इसकी मनगढ़ंत है, बल्कि यह आदमी शाइर है,7 वरना यह लाए कोई निशानी जिस तरह पुराने ज़माने के रसूल निशानियों के साथ भेजे गए थे।”
7. इसका पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि नबी (सल्ल०) की दावत का असर जब फैलने लगा तो मक्का के सरदारों ने आपस में मशवरा करके यह तय किया कि आप (सल्ल०) के मुक़ाबले में प्रोपेगंडे की एक मुहिम शुरू की जाए और हर उस आदमी को जो मक्का में ज़ियारत के लिए आए, आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ पहले ही से इतना बदगुमान कर दिया जाए कि वह आप (सल्ल०) की बात सुनने के लिए तैयार ही न हो। यह मुहिम वैसे तो बारह महीने जारी रहती थी, मगर ख़ास तौर पर हज के ज़माने में बहुत ज़्यादा तादाद में आदमी फैला दिए जाते थे जो काबा की ज़ियारत के लिए बाहर से आनेवाले तमाम लोगों के ख़ेमों में पहुँचकर उनको ख़बरदार करते फिरते थे कि यहाँ ऐसा-ऐसा एक आदमी है उससे होशियार रहना। इन गुफ़्तगुओं में तरह-तरह की बातें बनाई जाती थीं। कभी कहा जाता कि यह शख़्स जादूगर है। कभी कहा जाता कि एक कलाम उसने ख़ुद गढ़ रखा है और कहता है ख़ुदा का कलाम है। कभी कहा जाता कि अजी वह कलाम क्या है, दीवानों की बड़ और परेशान और बिखरे ख़यालात का पुलिन्दा है। कभी कहा जाता कि शाइराना ख़याली बातें और तुकबन्दियाँ हैं जिनका नाम उसने अल्लाह का कलाम रखा है। मक़सद यह था कि किसी-न-किसी तरह लोगों को बहकाया जाए। सच्चाई का उनके सामने सिरे से कोई सवाल ही न था कि जमकर कोई एक तयशुदा और जँची-तुली राय ज़ाहिर करते। लेकिन इस झूठे प्रोपेगंडे का नतीजा जो कुछ हुआ वह यह था कि नबी (सल्ल०) का नाम उन्होंने ख़ुद देश के कोने-कोने में पहुँचा दिया। आप (सल्ल०) की जितनी शोहरत मुसलमानों की बरसों की कोशिशों से भी न हो सकती थी, वह क़ुरैश की इस मुख़ालिफ़ाना मुहिम से थोड़ी मुद्दत ही के अन्दर हो गई। हर आदमी के दिल में एक सवाल पैदा हो गया कि आख़िर मालूम तो हो कि वह कौन ऐसा आदमी है जिसके ख़िलाफ़ यह तूफ़ान बरपा है, और बहुत-से सोचनेवालों ने सोचा कि उस शख़्स की बात सुनी तो जाए। हम कोई बच्चे तो नहीं हैं कि ख़ाह-मख़ाह बहक जाएँगे। इसकी एक दिलचस्प मिसाल तुफ़ैल-बिन-अम्र दौसी का क़िस्सा है जिसे इब्ने-इसहाक़ ने ख़ुद उनकी रिवायत से बड़ी तफ़सील के साथ नक़्ल किया है। वे कहते हैं कि में दौस क़बीले का एक शाइर था। किसी काम से मक्का गया वहाँ पहुँचते ही क़ुरेश के कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ ख़ूब मेरे कान भरे, यहाँ तक कि में आप (सल्ल०) से सख़्त बदगुमान हो गया और मैंने तय कर लिया कि आप (सल्ल०) से बचकर ही रहूँगा। दूसरे दिन मैंने हरम में जाकर हाज़िरी दी तो आप (सल्ल०) काबा के पास नमाज़ पढ़ रहे थे मेरे कानों में कुछ जुमले जो पड़े तो मैंने महसूस किया कि यह तो कोई बड़ा अच्छा कलाम है। मैंने अपने दिल में कहा कि मैं शाइर हूँ, जवान मर्द हूँ, अक़्ल रखता हूँ, कोई बच्चा नहीं हूँ कि सही और ग़लत में फ़र्क़ न कर सकूँ। आख़िर क्यों न इस शख़्स से मिलकर मालूम करूँ कि यह क्या कहता है। चुनाँचे जब नबी (सल्ल०) नमाज़ से फ़ारिग़ होकर वापस चले तो मैं आप (सल्ल०) के पीछे-पीछे हो लिया और आप (सल्ल०) के मकान पर पहुँचकर मैंने अर्ज़ किया कि आप (सल्ल०) की क़ौम ने आपके बारे में मुझसे यह-यह कुछ कहा था, और मैं आपसे इतना ज़्यादा बदगुमान हो गया था कि मैंने अपने कानों में रूई ठूँस ली थी, ताकि आपकी आवाज़ न सुनने पाऊँ। लेकिन अभी जो कुछ जुमले मैंने आपकी ज़बान से सुने हैं, वे मुझे कुछ अच्छे मालूम हुए। आप मुझे ज़रा तफ़सील से बताइए, आप क्या कहते हैं। नबी (सल्ल०) ने जवाब में मुझको क़ुरआन का एक हिस्सा सुनाया और में उससे इतना ज़्यादा मुतास्सिर हुआ कि उसी वक़्त ईमान ले आया। फिर वापस जाकर मैंने अपने बाप और बीवी को मुसलमान किया। उसके बाद अपने क़बीले में लगातार इस्लाम के फैलाने का काम करता रहा, यहाँ तक कि ख़न्दक़ (खाई) की जंग के ज़माने तक पहुँचते-पहुँचते मेरे क़बीले के 70-80 घराने मुसलमान हो गए। (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पे० 22-24) एक और रिवायत जो इब्ने-इसहाक़ ने नक़्ल की है उससे मालूम होता है कि क़ुरैश के सरदार अपनी महफ़िलों में ख़ुद इस बात का एतिराफ़ करते थे कि जो बातें वे नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ बनाते हैं, वे सिर्फ़ झूठ हैं। वह कहता है कि एक मजलिस में नज़्र-बिन-हारिस ने तक़रीर की कि “तुम लोग मुहम्मद का मुक़ाबला जिस तरह कर रहे हो उससे काम न चलेगा। वह जब तुम्हारे बीच नई उम्र का जवान या तो तुम्हारे नज़दीक सबसे ज़्यादा अच्छी आदतवाला आदमी था। सबसे ज़्यादा सच्चा और सबसे बढ़कर अमानतदार समझा जाता था। अब जबकि उसके बाल सफ़ेद होने को आ गए तो तुम कहते हो कि यह जादूगर है, काहिन है, शाइर है, दीवाना है। ख़ुदा की क़सम, वह जादूगर नहीं है। हमने जादूगरों को देखा है और उनकी झाड़-फूँक से हम वाक़िफ़ हैं। ख़ुदा की क़सम, वह काहिन भी नहीं है, हमने काहिनों की तुकबन्दियाँ सुनी हैं और जैसी गोल-मोल बातें वे किया करते हैं उनका हमें इल्म है ख़ुदा की क़सम, वह शाइर (कवि) भी नहीं है, शाइरी की तमाम क़िस्मों से हम वाक़िफ़ हैं और उसका कलाम उनमें से किसी क़िस्म में नहीं आता। ख़ुदा की क़सम, वह दीवाना भी नहीं है, दीवाने की जो हालत होती है और जैसी बेतुकी बातें वह करता है, क्या इससे हम बेख़बर हैं? ऐ क़ुरैश के सरदारो, कुछ और बात सोचो जो चीज़ तुम्हारे मुक़ाबले पर है वह इससे ज़्यादा बड़ी है कि ये बातें बनाकर तुम उसे हरा सको।” इसके बाद उसने यह मशवरा दिया कि अजम (अरब के बाहर) से रुस्तम और असफ़न्दयार के क़िस्से लाकर फैलाए जाएँ ताकि लोग उनमें दिलचस्पी लेने लगें और वे उन्हें क़ुरआन से ज़्यादा अजीब मालूम हों। चुनाँचे कुछ दिनों इसपर अमल किया गया और ख़ुद नज़्र ने लम्बी-लम्बी कहानियाँ सुनानी शुरू कर दीं। (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पे० 320, 321)
مَآ ءَامَنَتۡ قَبۡلَهُم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآۖ أَفَهُمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) हालाँकि इनसे पहले कोई बस्ती भी जिसे हमने तबाह किया, ईमान न लाई। अब क्या ये ईमान लाएँगे?8
৪. इस छोटे-से जुमले में निशानी की माँग का जो जवाब दिया गया है उसमें तीन मज़मूनों पर चर्चा की गई है। एक यह कि तुम पिछले रसूलों की-सी निशानियाँ माँगते हो, मगर यह भूल जाते हो कि हठधर्म लोग निशानियों को देखकर भी ईमान न लाए थे। दूसरी यह कि तुम निशानी की माँग तो करते हो, मगर यह याद नहीं रखते कि जिस क़ौम ने भी खुला मोजिज़ा आँखों से देख लेने के बाद ईमान लाने से इनकार किया है वह फिर हलाक हुए बिना नहीं रही है। तीसरी यह कि तुम्हारी मुँह माँगी निशानी न भेजना तो तुमपर ख़ुदा की एक बड़ी मेहरबानी है। अब तक तुम इनकार-पर-इनकार किए जाते रहे और अज़ाब में न घिरे। क्या अब निशानी इसलिए माँगते हो कि उन क़ौमों का-सा अंजाम देखो जो निशानियों देखकर भी ईमान न लाईं और तबाह कर दी गईं?
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 6
(7) और ऐ नबी, तुमसे पहले भी हमने इनसानों ही को रसूल बनाकर भेजा था जिनपर हम वह्य किया करते थे।9 तुम लोग अगर नहीं जानते तो अहले-किताब से पूछ लो10
9. यह जवाब है उनकी इस बात का कि “यह शख़्स तुम जैसा एक इनसान ही तो है। वे नबी (सल्ल०) के इनसान होने को इस बात की दलील ठहराते थे कि आप (सल्ल०) नबी नहीं हो सकते। जवाब दिया गया कि पहले ज़माने के जिन लोगों को तुम ख़ुद मानते हो कि वे ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गए थे, वे सब भी इनसान ही थे और इनसान होते हुए ही ख़ुदा की वह्य से नवाज़े गए थे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-11)
10. यानी ये यहूदी जो आज इस्लाम की दुश्मनी में तुम्हारे साथ हैं और तुमको मुख़ालफ़त के दाँव-पेंच सिखाया करते हैं, उन्हीं से पूछ लो कि मूसा और बनी-इसराईल के दूसरे पैग़म्बर कौन थे? इनसान ही थे या कोई और मख़लूक़?
وَمَا جَعَلۡنَٰهُمۡ جَسَدٗا لَّا يَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَمَا كَانُواْ خَٰلِدِينَ ۝ 7
(8) उन रसूलों को हमने कोई ऐसा जिस्म नहीं दिया था कि वे खाते न हों, और न वे सदा जीनेवाले थे।
ثُمَّ صَدَقۡنَٰهُمُ ٱلۡوَعۡدَ فَأَنجَيۡنَٰهُمۡ وَمَن نَّشَآءُ وَأَهۡلَكۡنَا ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 8
(9) फिर देख लो कि आख़िरकार हमने उनके साथ अपने वादे पूरे किए, और उन्हें और जिस-जिसको हमने चाहा बचा लिया, और हद से गुज़र जानेवालों को हलाक कर दिया।11
11. यानी पिछले इतिहास का सबक़ सिर्फ़ इतना हो नहीं बताता कि पहले जो रसूल भेजे गए थे वे इनसान थे, बल्कि यह भी बताता है कि उनकी मदद और हिमायत के, और उनकी मुख़ालफ़त करनेवालों को हलाक कर देने के जितने वादे अल्लाह ने उनसे किए थे, वे सब पूरे हुए और हर वह क़ौम बरबाद हुई जिसने उनको नीचा दिखाने की कोशिश की। अब तुम अपना अंजाम ख़ुद सोच लो।
لَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ كِتَٰبٗا فِيهِ ذِكۡرُكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 9
(10) लोगो! हमने तुम्हारी तरफ़ एक ऐसी किताब भेजी है जिसमें तुम्हारा ही ज़िक्र है। क्या तुम समझते नहीं हो?12
12. यह इकट्ठा जवाब है मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ों की उन उलटी-सीधी बातों का जो वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में कहते थे कि यह शाइरी है, यह जादूगरी है, ये परेशान ख़ाब हैं, ये मनगढ़ंत कहानियों हैं, वग़ैरा। इसपर कहा जा रहा है कि इस किताब में आख़िर वह कौन-सी निराली बात है जो तुम्हारी समझ में न आती हो, जिसकी वजह से उसके बारे में तुम इतनी अलग-अलग राएँ क़ायम कर रहे हो जो ख़ुद आपस में एक-दूसरे से टकरा रही हैं इसमें तो तुम्हारा अपना ही हाल बयान किया गया है। तुम्हारे ही मन की हालत और ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ तुम्हारे ही मामलों पर चर्चा की गई है। तुम्हारी ही फ़ितरत (स्वभाव) और बनावट और शुरुआत और अंजाम पर बात की गई है। तुम्हारे ही माहौल से वे निशानियाँ चुन-चुनकर पेश की गई हैं जो हक़ीक़त की तरफ़ इशारा कर रही हैं। और तुम्हारी ही अख़लाक़ी सिफ़ात में से अच्छाइयों और बुराइयों का फ़र्क़ नुमायाँ करके दिखाया जा रहा है, जिसके सही होने पर तुम्हारे अपने ज़मीर (अन्तरात्माएँ) गवाही देते हैं। इन सब बातों में क्या चीज़ ऐसी उलझी हुई और पेचीदा है कि इसको समझने से तुम्हारी अक़्ल मजबूर हो?
وَكَمۡ قَصَمۡنَا مِن قَرۡيَةٖ كَانَتۡ ظَالِمَةٗ وَأَنشَأۡنَا بَعۡدَهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 10
(11) कितनी ही ज़ालिम बस्तियाँ हैं जिनको हमने पीसकर रख दिया और उनके बाद दूसरी किसी क़ौम को उठाया।
فَلَمَّآ أَحَسُّواْ بَأۡسَنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَرۡكُضُونَ ۝ 11
(12) जब उनको हमारा अज़ाब महसूस हुआ13 तो लगे वहाँ से भागने।
13. यानी जब अल्लाह का अज़ाब सर पर आ गया और उन्हें मालूम हो गया कि आ गई मुसीबत।
لَا تَرۡكُضُواْ وَٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰ مَآ أُتۡرِفۡتُمۡ فِيهِ وَمَسَٰكِنِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 12
(13) (कहा गया) “भागो नहीं, जाओ अपने उन्हीं घरों में और ऐश के सामानों में जिनके अन्दर तुम चैन कर रहे थे, शायद कि तुमसे पूछा जाए।"14
14. यह जुमला अपने अन्दर बड़े गहरे मानी रखता है और इसके कई मतलब हो सकते हैं, मिसाल के तौर पर ज़रा अच्छी तरह इस अज़ाब को देख लो ताकि कल कोई इसकी कैफ़ियत पूछे तो ठीक बता सको। अपने वही ठाठ जमाकर फिर मजलिसें गर्म करो, शायद अब भी तुम्हारे नौकर-चाकर हाथ बाँधकर पूछें कि हुज़ूर क्या हुक्म है। अपनी वही क़ौसिलें और कमेटियाँ जमाए बैठे रहो, शायद अब भी तुम्हारे अक़्लमन्दी भरे मशवरों और समझ से भरी रायों से फ़ायदा उठाने के लिए दुनिया हाज़िर हो।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 13
(14) कहने लगे, “हाय हमारी कमबख़्ती! बेशक हम ग़लती करनेवाले थे।"
فَمَا زَالَت تِّلۡكَ دَعۡوَىٰهُمۡ حَتَّىٰ جَعَلۡنَٰهُمۡ حَصِيدًا خَٰمِدِينَ ۝ 14
(15) और वे यही पुकारते रहे, यहाँ तक कि हमने उनको खलियान कर दिया, ज़िन्दगी की एक चिंगारी तक उनमें न रही।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 15
(16) हमने इस आसमान और ज़मीन को और जो कुछ भी इनमें है, कुछ खेल के तौर पर नहीं बनाया है।15
15. यह तबसिरा (टिप्पणी) है तौहीद के बारे में उनके उस पूरे नज़रिए पर जिसकी वजह से वे नबी (सल्ल०) की दावत पर ध्यान न देते थे। उनका ख़याल यह था कि इनसान दुनिया में बस यूँ ही आज़ाद छोड़ दिया गया है। जो कुछ चाहे करे और जिस तरह चाहे जिए, कोई पूछ-गछ उससे नहीं होनी है। किसी को उसे हिसाब नहीं देना है। कुछ दिनों की भली-बुरी ज़िन्दगी गुज़ारकर सबको बस यूँ ही मिट जाना है। कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है जिसमें भलाई का इनाम और बुराई की सज़ा हो। यह ख़याल अस्ल में इस बात का हममानी (समानार्थी) था कि कायनात (सृष्टि) का यह सारा निज़ाम (व्यवस्था) महज़ किसी खिलंडरे का खेल है जिसका कोई संजीदा मक़सद नहीं हैं। और यही ख़याल पैग़म्बर की दावत की तरफ़ उनके ध्यान न देने का अस्ल सबब था।
لَوۡ أَرَدۡنَآ أَن نَّتَّخِذَ لَهۡوٗا لَّٱتَّخَذۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّآ إِن كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 16
(17) अगर हम कोई खिलौना बनाना चाहते और बस यही कुछ हमें करना होता तो अपने ही पास से कर लेते।16
16. यानी हमें खेलना ही होता तो खिलौने बनाकर हम ख़ुद ही खेल लेते। इस सूरत में यह ज़ुल्म तो हरगिज़ न किया जाता कि ख़ाह-मख़ाह एक शुऊर और एहसास रखनेवाली ज़िम्मेदार मख़लूक़ (सृष्टि) को पैदा कर डाला जाता उसके बीच हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) की यह कशमकश और खींचातानियाँ कराई जातीं, और सिर्फ़ अपने मज़े और मनोरंजन के लिए हम दूसरों को बेवजह तकलीफ़ों में डालते। तुम्हारे ख़ुदा ने यह दुनिया कुछ रूमी अखाड़े (Colosseum) के तौर पर नहीं बनाई है कि बन्दों को दरिन्दों से लड़वाकर और उनकी बोटियाँ नुचवाकर ख़ुशी के ठट्टे लगाए।
بَلۡ نَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَى ٱلۡبَٰطِلِ فَيَدۡمَغُهُۥ فَإِذَا هُوَ زَاهِقٞۚ وَلَكُمُ ٱلۡوَيۡلُ مِمَّا تَصِفُونَ ۝ 17
(18) मगर हम तो बातिल (असत्य) पर हक़ (सत्य) की चोट लगाते हैं जो उसका सर तोड़ देती है और वह देखते-देखते मिट जाता है और तुम्हारे लिए तबाही है उन बातों की वजह से जो तुम बनाते हो17
17. यानी हम बाज़ीगर नहीं न हमारा काम खेल-तमाशा करना है। हमारी यह दुनिया एक संजीदा निज़ाम (गंभीर व्यवस्था) है जिसमें कोई बातिल चीज़ नहीं जम सकती। बातिल यहाँ जब भी सर उठाता है, हक़ीक़त से उसका टकराव होकर रहता है और आख़िरकार वह मिटकर ही रहता है। इस दुनिया को अगर तुम तमाशागाह समझकर जियोगे, या हक़ीक़त के ख़िलाफ़ खोखले नज़रियात पर काम करोगे तो नतीजा तुम्हारी अपनी ही तबाही होगा। इनसानों का इतिहास उठाकर देख लो कि दुनिया को सिर्फ़ एक तामाशागाह, सिर्फ़ नेमतों से भरा एक थाल, सिर्फ़ ऐश करने की एक जगह समझकर जीनेवाली और नबियों की बताई हुई हक़ीक़त से मुँह मोड़कर बातिल नज़रियों पर काम करनेवाली क़ौमें एक के बाद एक किस अंजाम से दोचार होती रही हैं। फिर यह कौन-सी अक़्लमन्दी है कि जब समझानेवाला समझाए तो उसका मज़ाक़ उड़ाओ और जब अपने ही किए करतूतों के नतीजे अल्लाह के अज़ाब की शक्ल में सर पर आ जाएँ तो चीख़ने लगो कि “हाय हमारी कमबख़्ती, बेशक हम ख़ताकार थे।"
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَنۡ عِندَهُۥ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَلَا يَسۡتَحۡسِرُونَ ۝ 18
(19) ज़मीन और आसमानों में जो कुछ भी है, अल्लाह का है।18 जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं।19 वे न अपने आपको बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से मुँह मोड़ते हैं और न दुखी होते हैं।20
18. यहाँ तौहीद (एकेश्वरवाद) को सही और शिर्क को ग़लत साबित करने पर बात शुरू होती है जो नबी (सल्ल०) और मक्का के मुशरिकों के बीच झगड़े की अस्ल जड़ थी। अब मुशरिकों को यह बताया जा रहा है कि कायनात का यह निज़ाम जिसमें तुम जी रहे हो (जिसके बारे में अभी यह बताया जा चुका है कि किसी खिलंडरे का खिलौना नहीं है, जिसके बारे में यह भी बताया जा चुका कि यह एक संजीदा और बामक़सद और हक़ीक़त पर बना हुआ निज़ाम है और जिसके बारे में यह भी बताया जा चुका कि इसमें बातिल हमेशा हक़ीक़त से टकराकर चूर-चूर हो जाता है) इसकी हक़ीक़त यह है कि इस पूरे निज़ाम का पैदा करनेवाला, मालिक, हाकिम और एक ख़ुदा है, और इस हक़ीक़त के मुक़ाबले में बातिल यह है कि इसे बहुत-से ख़ुदाओं की साझा सल्तनत समझा जाए, या यह समझा जाए कि एक बड़े ख़ुदा की ख़ुदाई में दूसरे छोटे-छोटे ख़ुदाओं का भी कुछ दख़ल है।
19. यानी वही फ़ारिश्ते जिनको अरब के मुशरिक लोग अल्लाह की औलाद समझकर, ख़ुदाई में साझीदार मानकर माबूद बनाए हुए थे।
20. यानी ख़ुदा की बन्दगी करना उनको नागवार भी नहीं है कि अनचाहे मन से बन्दगी करते करते वे उकता जाते हों। अस्ल अरबी इबारत में लफ़्ज़ 'ला यस्तहसिरून' इस्तेमाल किया गया है। इससे मुराद वह थकन है जो किसी नागवार काम के करने से हो जाती है।
يُسَبِّحُونَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لَا يَفۡتُرُونَ ۝ 19
(20) रात-दिन उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहते हैं, दम नहीं लेते।
أَمِ ٱتَّخَذُوٓاْ ءَالِهَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ هُمۡ يُنشِرُونَ ۝ 20
(21) क्या इन लोगों के बनाए हुए ज़मीनी ख़ुदा ऐसे हैं कि (बेजान में जान डालकर) उठा खड़ा करते हों?21
21. अस्ल अरबी इबारत में लफ़्ज़ ‘युन्‌शिरून' इस्तेमाल हुआ है जो 'इनशार' से निकला है। इनशार का मतलब है बेजान पड़ी हुई चीज़ को उठा खड़ा करना। अगरचे इस लफ़्ज़ को क़ुरआन मजीद में आम तौर से मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिए इस्तेमाल किया गया है, लेकिन इस मतलब से अलग हटकर अस्ल लफ़्ज़ी मानी के एतिबार से यह लफ़्ज़ बेजान माद्दे में ज़िन्दगी फूँक देने के लिए इस्तेमाल होता है और मौक़े को देखते हुए हम समझते हैं कि यह लफ़्ज यहाँ इसी मतलब में इस्तेमाल हुआ है। मतलब यह है कि जिन हस्तियों को उन्होंने ख़ुदा ठहरा रखा है और अपना माबूद बनाया है, क्या उनमें कोई ऐसा है जो बेजान माद्दे में ज़िन्दगी पैदा करता हो? अगर एक अल्लाह के सिवा किसी में यह ताक़त नहीं है— और अरब के मुशरिक लोग ख़ुद मानते थे कि किसी में यह ताक़त नहीं है— तो फिर वे उनको ख़ुदा और माबूद किसलिए मान रहे हैं?
لَوۡ كَانَ فِيهِمَآ ءَالِهَةٌ إِلَّا ٱللَّهُ لَفَسَدَتَاۚ فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 21
(22) अगर आसमान और ज़मीन में एक अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों का निज़ाम (व्यवस्था) बिगड़ जाता।22 तो पाक है अल्लाह, अर्श का मालिक,23 उन बातों से जो ये लोग बना रहे हैं।
22. दलील का यह तरीक़ा बहुत सीधा-सादा भी है और बहुत गहरा भी। सादा-सी बात जिसको एक देहाती, एक मोटी-सी समझ का आदमी भी आसानी से समझ सकता है, यह है कि एक मामूली घर का निज़ाम (व्यवस्था) भी चार दिन सही-सलामत नहीं चल सकता, अगर उस घर के दो मुखिया हों। और गहरी बात यह है कि कायनात का पूरा निज़ाम, ज़मीन की तहों से लेकर दूर-दूर के सैयारों तक, एक हमागीर (विश्वव्यापी) क़ानून पर चल रहा है। यह एक पल के लिए भी क़ायम नहीं रह सकता अगर इसकी अनगिनत अलग-अलग क़ुव्वतों और बेहद और बेहिसाब चीज़ों के बीच सही तनासुब (अनुपात) और तवाज़ुन (सन्तुलन) और ताल-मेल और सहयोग न हो। और यह सब कुछ इसके बिना मुमकिन नहीं है कि कोई अटल, ग़ालिब और ज़बरदस्त क़ानून इन अनगिनत चीज़ों और क़ुव्वतों को पूरे ताल-मेल के साथ बाहम तआवुन (सहयोग) करते रहने पर मजबूर कर रहा हो। अब यह किस तरह समझा जा सकता है कि बहुत-से तानाशाहों की हुकूमत में एक क़ानून इस बाक़ायदगी के साथ चल सके? नज़्म (अनुशासन) का पाया जाना ख़ुद ही यह लाज़िम करता है कि नज़्म को चलानेवाला एक अकेला है क़ानून और ज़ाब्ते की हमागीरी (सर्वव्यापकता) आप ही इस बात पर गवाह है कि अधिकार और इख़्तियार सब-के-सब एक ही हाकिम के हाथ में हों और वह हाकिमियत अलग-अलग तरह के हाकिमों (शासकों) में बेटी हुई नहीं है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया 47; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-85)
23. 'रब्बुल-अर्श' (अर्श का रब) यानी कायनात के तख़्ते-सल्तनत (राज्य-सिंहासन) का मालिक।
لَا يُسۡـَٔلُ عَمَّا يَفۡعَلُ وَهُمۡ يُسۡـَٔلُونَ ۝ 22
(23) वह अपने कामों के लिए (किसी के आगे) जवाबदेह नहीं है और सब जवाबदेह हैं।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡۖ هَٰذَا ذِكۡرُ مَن مَّعِيَ وَذِكۡرُ مَن قَبۡلِيۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡحَقَّۖ فَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 23
(24) क्या उसे छोड़कर इन्होंने दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं? ऐ नबी, इनसे कहो कि “लाओ अपनी दलील, यह किताब भी मौजूद है जिसमें मेरे दौर के लोगों के लिए नसीहत है और वे किताबें भी मौजूद हैं जिनमें मुझसे पहले लोगों के लिए नसीहत24 थी।” मगर इनमें से अकसर लोग हक़ीक़त से बेख़बर हैं, इसलिए मुँह मोड़े हुए हैं।25
24. पहली दो दलीलें अक़्ल की बुनियाद पर दी गई थीं, और यह दलील लिखी हुई बातों की बुनियाद पर दी गई है। इसका मतलब यह है कि आज तक जितनी किताबें भी ख़ुदा की तरफ़ से दुनिया के किसी देश में किसी क़ौम के पैग़म्बर पर उतरी हैं उनमें से किसी में यह निकालकर दिखा दो कि एक अल्लाह, ज़मीन और आसमान के पैदा करनेवाले, के सिवा कोई दूसरा भी ख़ुदाई का थोड़ा-सा भी हिस्सा रखता है और किसी और को भी बन्दगी और इबादत का हक़ पहुँचता है। फिर यह कैसा मज़हब तुम लोगों ने बना रखा है जिसकी ताईद में न अक़्ल से कोई दलील है और न आसमानी किताबें ही जिसके लिए कोई गवाही देती हैं।
25. यानी नबी की बात पर इनका ध्यान न देना इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि जहालत की वजह से है। हक़ीक़त से बेख़बर हैं इसलिए समझानेवाले की बात को ध्यान देने के क़ाबिल ही नहीं समझते।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٍ إِلَّا نُوحِيٓ إِلَيۡهِ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 24
(25) हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजा है उसको यही वह्य की है कि मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं हैं, इसलिए तुम लोग मेरी ही बन्दगी करो।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۚ بَلۡ عِبَادٞ مُّكۡرَمُونَ ۝ 25
(26) ये कहते हैं, “रहमान औलाद रखता है।”26 पाक है अल्लाह, वे तो बन्दे हैं जिन्हें इज़्ज़त दी गई है,
26. यहाँ फिर फ़रिश्तों ही का ज़िक्र है, जिनको अरब के मुशरिक लोग (बहुदेववादी) ख़ुदा की बेटियाँ ठहराते थे। बाद की तक़रीर से यह बात ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है।
لَا يَسۡبِقُونَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ وَهُم بِأَمۡرِهِۦ يَعۡمَلُونَ ۝ 26
(27) उसके सामने बढ़कर नहीं बोलते और बस उसके हुक्म पर अमल करते हैं।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يَشۡفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ٱرۡتَضَىٰ وَهُم مِّنۡ خَشۡيَتِهِۦ مُشۡفِقُونَ ۝ 27
(28) जो कुछ उनके सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह बाख़बर है। वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उसके जिसके हक़ में सिफ़ारिश सुनने पर अल्लाह राज़ी हो, और वे उसके ख़ौफ़ से डरे रहते हैं।27
27. मुशरिक लोग फ़रिश्तों को दो वजहों से माबूद बनाते थे एक यह कि उनके नज़दीक वे ख़ुदा की औलाद थे। दूसरी यह कि वे उनकी परस्तिश (ख़ुशामद) करके उन्हें ख़ुदा के यहाँ अपना सिफ़ारिशी बनाना चाहते थे। “वे कहते हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी हैं।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-18) और “हम तो उनकी इबादत इसलिए करते हैं कि वे अल्लाह तक हमारी पहुँच करा दें।” (सूरा-39 ज़ुमर, आयत-3) इन आयतों में दोनों वजहों को रद्द किया गया है। इस जगह यह बात भी ध्यान देने के क़ाबिल है कि क़ुरआन आम तौर से शफ़ाअत (सिफ़ारिश) के मुशरिकाना अक़ीदे को ग़लत बताते हुए इस हक़ीक़त पर ज़ोर देता है कि जिन्हें तुम सिफ़ारिशी ठहराते हो, वे ग़ैब का इल्म नहीं रखते और यह कि अल्लाह तआला उन बातों को भी जानता है जो उनके सामने हैं और उन बातों को भी जो उनसे ओझल हैं। इसका मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि आख़िर इनको सिफ़ारिश करने का खुला और बिना शर्त के अधिकार कैसे मिल सकता है जबकि वे हर शख़्स के अगले-पिछले और छिपे और खुले हालात नहीं जानते हैं। इसलिए चाहे फ़रिश्ते हों या पैग़म्बर और नेक लोग, हर एक का सिफ़ारिश का अधिकार लाज़िमन इस शर्त के साथ जुड़ा है कि अल्लाह तआला उनको किसी के हक़ में सिफ़ारिश की इजाज़त दे। अपने तौर पर हर भले-बुरे की सिफ़ारिश कर देने का किसी को भी इख़्तियार नहीं। और जब सिफ़ारिश सुनने या न सुनने और उसे क़ुबूल करने या न करने का दारोमदार बिलकुल अल्लाह की मरज़ी पर है तो ऐसे अधिकार न रखनेवाले सिफ़ारिशी इस क़ाबिल कब हो सकते हैं कि उनके आगे बन्दगी में सर झुकाया जाए और उनके आगे माँगने के लिए हाथ फैलाया जाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिए—85, 86)
۞وَمَن يَقُلۡ مِنۡهُمۡ إِنِّيٓ إِلَٰهٞ مِّن دُونِهِۦ فَذَٰلِكَ نَجۡزِيهِ جَهَنَّمَۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 28
(29) और जो उनमें से कोई कह दे कि अल्लाह के सिवा मैं भी एक ख़ुदा हूँ तो उसे हम जहन्नम की सज़ा दें, हमारे यहाँ ज़ालिमों का यही बदला है।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ كَانَتَا رَتۡقٗا فَفَتَقۡنَٰهُمَاۖ وَجَعَلۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ كُلَّ شَيۡءٍ حَيٍّۚ أَفَلَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 29
(30) क्या वे लोग, जिन्होंने (नबी की बात मानने) से इनकार कर दिया है, यह ग़ौर नहीं करते कि ये सब आसमान और ज़मीन आपस में मिले हुए थे, फिर हमने इन्हें अलग किया,28 और पानी से हर ज़िन्दा चीज़ पैदा की?29 क्या वे (हमारी इस तरह-तरह की चीज़ें पैदा करने की इस सलाहियत को) नहीं मानते?
28. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘रत्क़’ और ‘फ़तक़’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं रत्क़ का मतलब है एक जगह होना, इकट्ठा होना, एक-दूसरे से जुड़ा हुआ होना, मिला हुआ होना। और फ़तक़ का मतलब फाड़ने और जुदा करने के हैं। बज़ाहिर इन अलफ़ाज़ से जो बात समझ में आती है वह यह है कि कायनात की इन्तिदाई शक्ल एक ढेर (Mass) की-सी थी, बाद में उसको अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर ज़मीन और दूसरी आसमानी चीज़ें अलग-अलग दुनियाओं की शक़्ल में बनाई गईं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—13, 14, 15)
29. इससे जो मतलब समझ में आता है वह यह है कि पानी को ख़ुदा ने ज़िन्दगी का सबब और ज़िन्दगी की अस्ल बनाया। उसी में और उसी से ज़िन्दगी की शुरुआत की। दूसरी जगह इस मतलब को इन अलफ़ाज़़ में बयान किया गया है, “और अल्लाह ने हर जानदार चीज़ को पानी से पैदा किया।” (सूरा-24 नूर, आयत-45)
وَجَعَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِهِمۡ وَجَعَلۡنَا فِيهَا فِجَاجٗا سُبُلٗا لَّعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 30
(31) और हमने ज़मीन में पहाड़ जमा दिए ताकि वह उन्हें लेकर लुढ़क न जाए।30 और उसमें कुशादा रास्ते बना दिए,31 शायद कि लोग अपना रास्ता मालूम कर लें।32
30. इसकी तशरीह सूरा-16 नह्ल, हाशिया-12 में की जा चुकी है।
31. यानी पहाड़ों के बीच ऐसे दर्रे रख दिए और नदियाँ निकाल दीं जिनकी वजह से पहाड़ी इलाक़ों से गुज़रने और ज़मीन के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की तरफ़ जाने रास्ते निकल आते हैं। इसी तरह ज़मीन के दूसरे हिस्सों की बनावट भी ऐसी रखी है कि एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े तक पहुँचने के लिए रास्ता बन जाता है या बना लिया जा सकता है।
32. यह जुमला अपने अन्दर कई मतलब रखता है। इसका यह मतलब भी है कि लोग ज़मीन में चलने के लिए रास्ता पाएँ, और यह भी कि वह इस हिकमत और इस कारीगरी और इस इन्तिज़ाम को देखकर हक़ीक़त तक पहुँचने का रास्ता पा लें।
وَجَعَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ سَقۡفٗا مَّحۡفُوظٗاۖ وَهُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 31
(32) और हमने आसमान को एक महफ़ूज़ छत बना दिया,33 मगर ये हैं कि उसकी निशानियों की तरफ़34 ध्यान ही नहीं देते।
33. तशरीह के लिए देखिए— सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8, 10, 11, 12।
34. यानी उन निशानियों की तरफ़ जो आसमान में हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 32
(33) और वह अल्लाह ही है जिसने रात और दिन बनाए और सूरज और चाँद को पैदा किया। सब एक-एक फ़लक (कक्ष) में तैर रहे हैं।35
35. अस्ल अरबी में 'कुल्लुन' और 'यस-बहून' इस्तेमाल हुए हैं। ये अलफ़ाज़ बताते हैं कि मुराद सिर्फ़ सूरज और चाँद ही नहीं हैं, बल्कि दूसरी आसमानी चीज़ें यानी तारे भी मुराद हैं, वरना यहाँ जमा (बहुवचन) के बजाय वह लफ़्ज़ इस्तेमाल होता जो दो चीज़ों के लिए बोला जाता है। अस्ल अरबी में 'फ़लक’ लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में आसमान के मशहूर नामों में से है। “सब एक-एक फ़लक (कक्ष) में तैर रहे हैं” से दो बातें साफ़ समझ में आती हैं। एक यह कि ये सब तारे एक ही ‘फ़लक' में नहीं हैं, बल्कि हर एक का फ़लक अलग है दूसरी यह कि फ़लक कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें ये तारे खूँटियों की तरह जड़े हुए हों और वह ख़ुद उन्हें लिए हुए घूम रहा हो, बल्कि वह कोई तरल चीज़ है या फ़ज़ा और ख़ला की तरह की चीज़ है जिसमें इन तारों की हरकत तैरने के अमल से मिलती जुलती है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-37) पुराने ज़माने में लोगों के लिए आसमान और ज़मीन के 'जुड़े होने’ (रत्क़) और ‘अलग होने’ (फ़तक़) और पानी से हर ज़िन्दा चीज़ के पैदा किए जाने, और तारों के एक-एक फ़लक में तैरने का मतलब कुछ और था। मौजूदा दौर में तबीआत (भौतिक विज्ञान, Physics), हयातियात (जीव विज्ञान, Biology) और इल्मे-हैयत (खगोल विज्ञान, Astronomy) की नई मालूमात ने हमारे लिए इनका मतलब कुछ और कर दिया है, और नहीं कह सकते कि आगे चलकर इनसान को जो मालूमात हासिल होनी हैं ये इन अलफ़ाज़़ के किन मानी और मतलबों पर रौशनी डालेंगी। बहरहाल, मौजूदा ज़माने का इनसान इन तीनों आयतों को बिलकुल अपनी नई मालूमात के मुताबिक़ पाता है। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि “व लहू मन फ़िस्समावाति वल अरज़ि” (ज़मीन और आसमानों में जो कुछ भी है अल्लाह ही का है) से लेकर “कज़ालि-क नजज़िज़- ज़ालिमीन” (ज़ालिमों को हम यही बदला देते हैं) तक की तक़रीर शिर्क के रद्द में है, और “अ-वलम यरल्लज़ी-न क-फ़रू” (क्या जिन्होंने इनकार किया) से लेकर “फ़ी फ़ लकिंय-यस-बहून” (एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं) तक जो कुछ फ़रमाया गया है उसमें तौहीद (एकेश्वरवाद) के लिए ईजाबी (सकारात्मक, Positive) दलीलें दी गई हैं। मक़सद यह है कि कायनात का यह निज़ाम जो तुम्हारे सामने है, क्या इसमें कहीं एक अल्लाह, सारे जहान के रब, के सिवा किसी और की भी कोई कारीगरी तुम्हें नज़र आती है? क्या यह निज़ाम एक से ज़्यादा ख़ुदाओं की साझेदारी में बन सकता था और इस बाक़ायदगी के साथ जारी रह सकता था? क्या इस हिकमत से भरे निज़ाम के बारे में कोई अक़्ल और समझ रखनेवाला आदमी यह सोच सकता है कि यह एक खिलाड़ी का खेल है और उसने सिर्फ़ मनोरंजन के लिए कुछ गुड़ियाँ बनाई हैं जिनसे कुछ देर खेलकर बस यह यूँ ही इनको मिट्टी में मिला देगा? यह सब कुछ अपनी आँखों से देख रहे हो और फिर भी नबी की बात मानने से इनकार किए जाते हो? तुमको नज़र नहीं आता कि ज़मीन और आसमान की एक-एक चीज़ तौहीद के उस नज़रिए की गवाही दे रही है जो यह नबी तुम्हारे सामने पेश कर रहा है? इन निशानियों के होते हुए तुम कहते हो कि “यह नबी हमारे पास कोई निशानी लेकर आए।” नबी तौहीद की जो दावत दे रहा है क्या उसके हक़ होने पर गवाही देने के लिए ये निशानियाँ काफ़ी नहीं हैं?
وَمَا جَعَلۡنَا لِبَشَرٖ مِّن قَبۡلِكَ ٱلۡخُلۡدَۖ أَفَإِيْن مِّتَّ فَهُمُ ٱلۡخَٰلِدُونَ ۝ 33
(34) और36 ऐसे नबी, हमेशगी तो हमने तुमसे पहले भी किसी इनसान के लिए नहीं रखी है। अगर तुम मर गए तो क्या ये लोग हमेशा जीते रहेंगे?
36. यहाँ से फिर तक़रीर का सिलसिला उस कशमकश की तरफ़ मुड़ता है जो नबी (सल्ल०) और आपकी (सल्ल०) मुख़ालफ़त करनेवालों के बीच हो रही थी।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَنَبۡلُوكُم بِٱلشَّرِّ وَٱلۡخَيۡرِ فِتۡنَةٗۖ وَإِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 34
(35) हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है,37 और हम अच्छे और बुरे हालात में डालकर तुम सब की आज़माइश कर रहे हैं।38 आख़िरकार तुम्हें हमारी ही तरफ़ पलटना है।
37. यह मुख़्तसर-सा जवाब है उन सारी धमकियों और बद्दुआओं और कोसनों और क़त्ल की साज़िशों का जिनसे हर वक़्त नबी (सल्ल०) की ‘ख़ातिर' की जाती थी। एक तरफ़ क़ुरैश के सरदार थे जो आए दिन आप (सल्ल०) को इस तबलीग़ के भयानक नतीजों की धमकियाँ देते रहते थे, और उनमें से कुछ जोशीले मुख़ालिफ़ बैठ-बैठकर यह तक सोचा करते थे कि किसी तरह आप (सल्ल०) का काम तमाम कर दें। दूसरी तरफ़ हर वह घर, जिसका कोई आदमी इस्लाम क़ुबूल कर लेता था, आप (सल्ल०) का दुश्मन बन जाता था। उसकी औरतें आप (सल्ल०) को कलप-कलपकर कोसने और बददुआएँ देती थीं और उसके मर्द आप (सल्ल०) को डरावे देते फिरते थे। ख़ास तौर से हब्शा की हिजरत के बाद तो मक्का भर के घरों में कोहराम मच गया था, क्योंकि मुश्किल ही से कोई ऐसा घराना बचा रह गया था जिसके किसी लड़के या लड़की ने हिजरत न की हो। ये सब लोग नबी (सल्ल०) के नाम की दुहाइयाँ देते थे कि इस शख़्स ने हमारे घर बरबाद किए हैं। इन्हीं बातों का जवाब इस आयत में दिया गया है, और साथ-साथ नबी (सल्ल०) को भी नसीहत की गई है कि तुम इनकी परवाह किए बिना, निडर होकर अपना काम किए जाओ।
38. यानी सुख और दुख, ग़रीबी और अमीरी, ग़ालिब होना और मग़लूब (पराधीन) होना, ताक़त और कमज़ोरी, सेहत और बीमारी, ग़रज़ तमाम तरह के हालात में तुम लोगों की आज़माइश की जा रही है ताकि देखें तुम अच्छे हालात में घमंडी, ज़ालिम, ख़ुदा को भूल जानेवाले, मन की ख़ाहिशों पर चलनेवाले तो नहीं बन जाते, और बुरे हालात में कम-हिम्मती के साथ नीच और घटिया तरीक़े और नाजाइज़ रास्ते तो नहीं अपनाने लगते। इसलिए किसी अक़्ल रखनेवाले आदमी को इन अलग-अलग तरह के हालात को समझने में ग़लती नहीं करनी चाहिए। जो हालत भी उसे पेश आए उसके इम्तिहानी और आज़माइशी पहलू को निगाह में रखना चाहिए। और उससे बख़ैरियत गुज़रने की कोशिश करनी चाहिए। यह सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ और ओछे आदमी का काम है कि जब अच्छे हालात आएँ तो फ़िरऔन बन जाए, और जब बुरे हालात पेश आ जाएँ तो ज़मीन पर नाक रगड़ने लगे।
وَإِذَا رَءَاكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي يَذۡكُرُ ءَالِهَتَكُمۡ وَهُم بِذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 35
(36) ये हक़ का इनकार करनेवाले जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं। कहते हैं, “क्या यह है वह आदमी जो तुम्हारे ख़ुदाओं का ज़िक्र किया करता है?"39 और उनका अपना हाल यह है कि रहमान (दयावान प्रभु) का ज़िक्र करने से इनकार करते हैं।40
39. यानी बुराई के साथ उनका ज़िक्र करता है। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि यह जुमला उनके मज़ाक़ का मज़मून नहीं बता रहा है, बल्कि मज़ाक़ उड़ाने की वजह और बुनियाद पर रौशनी डाल रहा है। ज़ाहिर है कि यह जुमला अपने आपमें कोई मज़ाक़ का जुमला नहीं है मज़ाक़ तो वे दूसरे ही अलफ़ाज़ में उड़ाते होंगे और कुछ और ही तरह की फब्तियाँ कसते होंगे। अलबत्ता यह सारा दिल का बुख़ार जिस वजह से निकाला जाता था, वह यह थी कि आप (सल्ल०) उनके अपने गढ़े हुए माबूदों के ख़ुदा होने का रद्द करते थे।
40. यानी बुतों और बनावटी ख़ुदाओं की मुख़ालफ़त तो उन्हें इतनी ज़्यादा नागवार है कि उसका बदला लेने के लिए तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाते और तुम्हारी बेइज़्ज़ती करते हैं, मगर उन्हें ख़ुद अपने हाल पर शर्म नहीं आती कि ख़ुदा से फिरे हुए हैं और उसका ज़िक्र सुनकर आग बगूला हो जाते हैं।
خُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ مِنۡ عَجَلٖۚ سَأُوْرِيكُمۡ ءَايَٰتِي فَلَا تَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 36
(37) इनसान उतावला पैदा हुआ है।"41 अभी मैं तुमको अपनी निशानियाँ दिखाए देता हूँ, जल्दी न मचाओ।42
41. अस्ल अरबी में “ख़ुलिक़ल-इनसानु मिन् अ-जल” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं जिनका लफ़्ज़ी तर्जमा है “इनसान जल्दबाज़ी से बनाया गया है, या पैदा किया गया है। लेकिन यह लफ़्जी मानी बात का अस्ल मक़सद नहीं है। जिस तरह हम अपनी ज़बान में कहते हैं कि फ़ुलाँ शख़्स अक़्ल का पुतला है, और फ़ुलाँ शख़्स हर्फ़ों का बना हुआ है उसी तरह अरबी ज़बान में कहते हैं कि वह फ़ुलाँ चीज़ से पैदा किया गया है, और मतलब यह होता है कि फ़ुलाँ चीज़ उसकी फ़ितरत में है। यही बात जिसको यहाँ “ख़ुलिक़ल-इन्‌सानु मिन् अ-जल” कहकर अदा किया गया है, दूसरी जगह “वकानल-इन्‌सानु अजूला” यानी “इनसान जल्दबाज़ है” (सुरा-17 बनी-इसराईल, आयत-11) के अलफ़ाज़ में बयान की गई है।
42. बाद की तक़रीर साफ़ बता रही है कि यहाँ 'निशानियों’ से क्या मुराद है। वे लोग जिन बातों का मज़ाक़ उड़ाते थे उनमें से एक अल्लाह का अज़ाब और क़ियामत और जहन्नम की बातें भी थीं। वे कहते थे कि यह शख़्स आए दिन हमें डरावे देता है कि मेरा इनकार करोगे तो ख़ुदा का अज़ाब टूट पड़ेगा, और क़ियामत में तुमपर यह बनेगी और तुम लोग यूँ जहन्नम के ईंधन बनाए जाओगे। मगर हम रोज़ इनकार करते हैं और दनदनाते फिर रहे हैं। न कोई अज़ाब आता दिखाई देता है और न कोई क़ियामत ही टूटी पड़ती है। इसी का जवाब इन आयतों में दिया गया है।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 37
(38)—ये लोग कहते हैं, “आख़िर यह धमकी पूरी कब होगी, अगर तुम सच्चे हो।”
لَوۡ يَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ حِينَ لَا يَكُفُّونَ عَن وُجُوهِهِمُ ٱلنَّارَ وَلَا عَن ظُهُورِهِمۡ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 38
(39) काश, हक़ के इन इनकारियों को उस वक़्त का कुछ इल्म होता जबकि ये न अपने मुँह आग से बचा सकेंगे, न अपनी पीठें और न इनको कहीं से मदद पहुँचेगी।
بَلۡ تَأۡتِيهِم بَغۡتَةٗ فَتَبۡهَتُهُمۡ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ رَدَّهَا وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 39
(40) वह बला अचानक आएगी और इन्हें इस तरह एकदम दबोच लेगी कि ये न उसे दूर कर सकेंगे और न इनको पल भर की मुहलत ही मिल सकेगी।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 40
(41) मज़ाक़ तुमसे पहले भी रसूलों का उड़ाया जा चुका है, मगर उनका मज़ाक़ उड़ानेवाले उसी चीज़ के फेर में आकर रहे जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
قُلۡ مَن يَكۡلَؤُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ مِنَ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ بَلۡ هُمۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 41
(42) ऐ नबी, इनसे कहो, “कौन है जो रात को या दिन को तुम्हें रहमान से बचा सकता हो?”43 मगर ये अपने रब की नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं।
43. यानी अगर अचानक दिन को या रात को किसी वक़्त ख़ुदा का ज़बरदस्त हाथ तुमपर पड़ जाए तो आख़िर वह कौन-सा ज़ोरावर, हिमायती और मदद करनेवाला है जो उसकी पकड़ से तुमको बचा लेगा?
أَمۡ لَهُمۡ ءَالِهَةٞ تَمۡنَعُهُم مِّن دُونِنَاۚ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَ أَنفُسِهِمۡ وَلَا هُم مِّنَّا يُصۡحَبُونَ ۝ 42
(43) क्या ये कुछ ऐसे ख़ुदा रखते हैं जो हमारे मुक़ाबले में इनकी हिमायत करें? वे तो न ख़ुद अपनी मदद कर सकते हैं और न हमारी ही ताईद उनको हासिल है।
بَلۡ مَتَّعۡنَا هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۗ أَفَلَا يَرَوۡنَ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَآۚ أَفَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 43
(44) अस्ल बात यह है कि इन लोगों को और इनके बाप-दादाओं को हम ज़िन्दगी का सरो-सामान दिए चले गए, यहाँ तक कि इनको दिन लग गए।44 मगर क्या इन्हें नज़र नहीं आता कि हम ज़मीन को अलग-अलग दिशाओं से घटाते चले आ रहे हैं?45 फिर क्या ये ग़ालिब आ जाएँगे?46
44. यानी हमारी इस मेहरबानी और परवरिश से ये इस ग़लतफ़हमी में पड़ गए हैं कि यह सब कुछ इनका कोई निजी हक़ है जिसका छीननेवाला कोई नहीं। अपनी ख़ुशहालियों और सरदारियों को ये कभी न ख़त्म होनेवाली समझने लगे हैं और ऐसे बदमस्त हो गए हैं कि इन्हें कभी यह ख़याल तक नहीं आता कि ऊपर कोई ख़ुदा भी है जो इनकी क़िस्मतें बनाने ओर बिगाड़ने की क़ुदरत रखता है।
45. यह मज़मून इससे पहले सूरा-13 रअद आयत-41 में गुज़र चुका है और वहाँ हम इसकी तशरीह भी कर चुके हैं (देखिए— हाशिया-60)। यहाँ इस मौक़े पर यह एक और मतलब भी दे रहा है। वह यह कि ज़मीन में हर तरफ़ एक ग़ालिब ताक़त की कारफ़रमाई के ये आसार नज़र आते हैं कि अचानक कभी सूखे की शक्ल में, कभी महामारी की शक्ल में, कभी सैलाब की शक्ल में, कभी ज़लज़ले की शक्ल में, कभी सर्दी या गर्मी की शक्ल में और कभी किसी और शक्ल में कोई बला ऐसी आ जाती है जो इनसान के सब किए-धरे पर पानी फेर देती है। हज़ारों-लाखों आदमी मर जाते हैं। बस्तियाँ तबाह हो जाती हैं। लहलहाती खेतियाँ ग़ारत हो जाती हैं। पैदावार घट जाती है। कारोबारों में मन्दी आने लगती है। ग़रज़ इनसान की ज़िन्दगी के वसाइल (संसाधनों) में कभी किसी तरफ़ से कमी पैदा हो जाती है और कभी किसी तरफ़ से। और इनसान अपना सारा ज़ोर लगाकर भी इन नुक़सानों को नहीं रोक सकता। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-32 सजदा, हाशिया-33)
46. यानी जबकि इनके तमाम वसाइले-ज़िन्दगी (जीवन-संसाधन) हमारे हाथ में हैं, जिस चीज़ को चाहें घटा दें और जिसे चाहें रोक लें। तो क्या ये इतना बल-बूता रखते हैं कि हमारे मुक़ाबले में ग़ालिब आ जाएँ और हमारी पकड़ से बच निकलें। क्या ये आसार इनको यही इत्मीनान दिला रहे हैं कि तुम्हारी ताक़त कभी कम न होनेवाली और तुम्हारा ऐश कभी ख़त्म न होनेवाला है और कोई तुम्हें पकड़नेवाला नहीं है।
قُلۡ إِنَّمَآ أُنذِرُكُم بِٱلۡوَحۡيِۚ وَلَا يَسۡمَعُ ٱلصُّمُّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا مَا يُنذَرُونَ ۝ 44
(45) इनसे कह दो कि “मैं तो वह्य की बुनियाद पर तुम्हें ख़बरदार कर रहा हूँ"— मगर बहरे पुकार को नहीं सुना करते, जबकि उन्हें ख़बरदार किया जाए
وَلَئِن مَّسَّتۡهُمۡ نَفۡحَةٞ مِّنۡ عَذَابِ رَبِّكَ لَيَقُولُنَّ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 45
(46) और अगर तेरे रब का अज़ाब ज़रा-सा इन्हें छू जाए47 तो अभी चीख़ उठे कि हाय हमारी कमबख़्ती, बेशक हम ख़ताकार थे।
47. वही अज़ाब जिसके लिए ये जल्दी मचाते हैं और मज़ाक़ के अन्दाज़ में कहते हैं कि लाओ न वह अज़ाब, क्यों नहीं यह टूट पड़ता?
وَنَضَعُ ٱلۡمَوَٰزِينَ ٱلۡقِسۡطَ لِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَلَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗاۖ وَإِن كَانَ مِثۡقَالَ حَبَّةٖ مِّنۡ خَرۡدَلٍ أَتَيۡنَا بِهَاۗ وَكَفَىٰ بِنَا حَٰسِبِينَ ۝ 46
(47) क़ियामत के दिन हम ठीक-ठीक तौलनेवाले तराज़ू रख देंगे, फिर किसी शख़्स पर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न होगा। जिसका राई के दाने के बराबर भी कुछ किया-धरा होगा, वह हम सामने ले आएँगे, और हिसाब लगाने के लिए हम काफ़ी हैं।48
48. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—8, 91। हमारे लिए यह समझना मुश्किल है कि यह तराज़ू किस तरह का होगा बहरहाल, वह कोई ऐसी चीज़ होगी जो माद्दी चीज़ों (भौतिक पदाथों) को तौलने के बजाय इनसान की अख़लाक़ी सिफ़ात और कामों और उसकी नेकी और बदी को मिलेगी और ठीक-ठीक वज़न करके बता देगी कि अख़लाक़ी हैसियत से किस शख़्स का क्या दरजा है। नेक है तो कितना नेक है और बुरा है तो कितना बुरा। अल्लाह तआला ने इसके लिए हमारी ज़बान के दूसरे अलफ़ाज़ को छोड़कर 'तराज़ू’ का लफ़्ज़ या तो इस वजह से चुना है कि यह तराज़ू से मिलता-जुलता होगा, या इसके चुनने का मक़सद यह तसव्वुर दिलाना है कि जिस तरह एक तराज़ू के पलड़े दो चीज़ों के वज़न का फ़र्क़ ठीक-ठीक बता देते, हैं उसी तरह ख़ुदा के इनसाफ़ का तराज़ू भी हर इनसान की ज़िन्दगी के कारनामे को जाँचकर बिना घटाए-बढ़ाए बता देगा कि उसमें अच्छाई का पहलू हावी है या बुराई का।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ٱلۡفُرۡقَانَ وَضِيَآءٗ وَذِكۡرٗا لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 47
(48) पहले49 हम मूसा और हारून को 'फ़ुरक़ान' और 'रौशनी' और 'ज़िक्र’50 अता कर चुके हैं उन परहेज़गार लोगों की भलाई के लिए51
49. यहाँ से नबियों (अलैहि०) का ज़िक्र शुरू होता है और एक के बाद एक बहुत-से नबियों की ज़िन्दगी के वाक़िआत की तरफ़ तफ़सील से या मुख़्तसर तौर पर इशारे किए जाते हैं। यह ज़िक्र जिस मौक़े से आया है उसपर ग़ौर करने से साफ़ मालूम होता है कि इसका मक़सद नीचे लिखी बातें ज़ेहन में बिठाना है— एक यह कि तमाम पिछले नबी भी इनसान ही थे, कोई निराली मख़लूक़ (प्राणी) न थे। इतिहास में यह कोई नया वाक़िआ आज पहली बार ही पेश नहीं आया है कि एक इनसान को रसूल और पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है। दूसरी यह कि पहले नबी भी इसी काम के लिए आए थे जो काम अब मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं। यही उनका मिशन था और यही उनकी तालीम थी। तीसरी यह कि नबी (अलैहि०) के साथ अल्लाह तआला का ख़ास मामला रहा है। बड़ी-बड़ी मुसीबतों से वे गुज़रे हैं। सालों-साल वे मुसीबतों में घिरे रहे। शख़्सी और निजी मुसीबतों में भी और अपने मुख़ालिफ़ों की डाली हुई मुसीबतों में भी, मगर आख़िरकार अल्लाह तआला की मदद और हिमायत उनको हासिल हुई है। उसने अपनी मेहरबानी और रहमत से उनको नवाज़ा है, उनकी दुआओं को क़ुबूल किया है, उनकी तकलीफ़ों को दूर किया है, उनके मुख़ालिफ़ों को नीचा दिखाया है और मोजिज़ाना तरीक़ों पर उनकी मदद की है। चौथी यह कि अल्लाह तआला के प्यारे और क़रीबी होने के बावजूद, और उसकी तरफ़ से बड़ी-बड़ी हैरतअंगेज़ ताक़तें पाने के बावजूद, थे वे बन्दे और इनसान ही। ख़ुदा होने की कोई सिफ़त उनमें से किसी को भी न हासिल थी। राय और फ़ैसले में उनसे ग़लती भी हो जाती थी। बीमार भी होते थे। आज़माइशों में भी डाले जाते थे, यहाँ तक कि क़ुसूर भी उनसे हो जाते थे और उनपर अल्लाह तआला की तरफ़ से पकड़ भी होती थी।
50. तीनों अलफ़ाज़ तौरात की तारीफ़ में इस्तेमाल हुए हैं। यानी वह हक़ (सत्य) ओर बातिल (असत्य) का फ़र्क़ दिखानेवाली कसौटी थी, वह इनसान को ज़िन्दगी का सीधा रास्ता दिखानेवाली रौशनी थी, और वह आदम की औलाद को उसका भूला हुआ सबक़ याद दिलानेवाली नसीहत थी।
51. यानी अगरचे भेजी गई थी वह तमाम इनसानों के लिए, मगर उससे अमली तौर पर फ़ायदा वही लोग उठा सकते थे जिनमें ये सिफ़ात पाई जाती हो।
ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَهُم مِّنَ ٱلسَّاعَةِ مُشۡفِقُونَ ۝ 48
(49) जो बेदेखे अपने रब से डरें और जिनको (हिसाब की) उस घड़ी52 का खटका लगा हुआ हो।
52. जिसका अभी ऊपर ज़िक्र गुज़रा है, यानी क़ियामत।
وَهَٰذَا ذِكۡرٞ مُّبَارَكٌ أَنزَلۡنَٰهُۚ أَفَأَنتُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 49
(50) और अब यह बरकतवाला ज़िक्र हमने (तुम्हारे लिए) उतारा है। फिर क्या तुम इसको क़ुबूल करने से इनकार करते हो
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ إِبۡرَٰهِيمَ رُشۡدَهُۥ مِن قَبۡلُ وَكُنَّا بِهِۦ عَٰلِمِينَ ۝ 50
(51) उससे भी पहले हमने इबराहीम को उसकी होशमन्दी दी थी और हम उसको ख़ूब53 जानते थे।
53. 'होशमन्दी’ हमने अरबी लफ़्ज़ ‘रुश्द' का तर्जमा किया है जिसका मतलब है “सही और ग़लत में फ़र्क़ करके सही बात या तरीक़े को अपना लेना और ग़लत बात या तरीक़े से बचना।” इस मतलब के लिहाज़ से ‘रुश्द' का तर्जमा 'सीधे रास्ते पर चलना’ भी हो सकता है, लेकिन चूँकि रुश्द का लफ़्ज़ सिर्फ़ सीधे रास्ते पर चलने को नहीं, बल्कि उस सीधे रास्ते पर चलने को ज़ाहिर करता है जो नतीजा हो सही सोच और सही अक़्ल के इस्तेमाल का, इसलिए हमने 'होशमन्दी’ के लफ़्ज़ को इसके मतलब से ज़्यादा क़रीब समझा है। "इबराहीम को उसकी होशमन्दी दी” यानी जो होशमन्दी उसको हासिल थी, वह हमारी दी हुई थी। "हम उसको ख़ूब जानते थे” यानी हमारी यह बख़्शिश कोई अंधी बाँट न थी। हमें मालूम था कि वह कैसा आदमी है, इसलिए हमने उसको नवाज़ा। “अल्लाह ख़ूब जानता है कि अपनी रिसालत किसके हवाले करे।” (सूरा-6 अनआम, आयत-124) इसमें एक हलका-सा इशारा छिपा है क़ुरैश के सरदारों के उस एतिराज़ की तरफ़ जो वे नबी (सल्ल०) पर करते थे। वे कहा करते थे कि आख़िर इस शख़्स में कौन-से सुर्ख़ाब के पंख लगे हुए हैं कि अल्लाह हमको छोड़कर इसे रिसालत के मंसब पर मुक़र्रर करे। इसका जवाब अलग-अलग जगहों पर क़ुरआन मजीद में अलग-अलग तरीक़ों से दिया गया है। यहाँ सिर्फ़ यह हलका-सा इशारा करने पर बस किया गया कि यही सवाल इबराहीम के बारे में भी हो सकता था, पूछा जा सकता था कि सारे इराक़ देश में एक इबराहीम ही को क्यों इस नेमत से नवाज़ा गया, मगर हम जानते थे कि इबराहीम में क्या क़ाबिलियत है, इसलिए उनकी पूरी क़ौम में से उनको इस नेमत के लिए चुना गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पाक सीरत के अलग-अलग पहलू इससे पहले सूरा-2 बक़रा, आयतें—124 से 141, 258-260; सूरा-6 अनआम, आयतें—74 से 81; सूरा-9 तौबा, आयत-114 सूरा-11 हूद, आयतें—69 से 76; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—35 से 41; सूरा-15 हिज्र, आयतें—51 से 60; सूरा-16 नह्ल, आयतें—120 से 123 में गुज़र चुके हैं जिनपर एक निगाह डाल लेना फ़ायदेमन्द होगा।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا هَٰذِهِ ٱلتَّمَاثِيلُ ٱلَّتِيٓ أَنتُمۡ لَهَا عَٰكِفُونَ ۝ 51
(52) याद करो वह मौक़ा54 जबकि उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था कि “ये बुत कैसे हैं जिनपर तुम लोग फ़िदा हो रहे हो?”
54. जिस वाक़िए का आगे ज़िक्र किया जा रहा है उसको पढ़ने से पहले यह बात ज़ेहन में ताज़ा कर लीजिए कि क़ुरैश के लोग हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की औलाद थे, काबा उन्हीं का बनाया हुआ था, सारे अरब में काबा का मर्कज़ होना उन्हीं के ताल्लुक़ की वजह से था और क़ुरैश का सारा भरम इसी लिए बंधा हुआ था कि ये इबराहीम (अलैहि०) की औलाद हैं और इबराहीमी काबा के मुजाविर हैं। आज इस ज़माने और अरब से दूर-दराज़ के माहौल में तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का यह क़िस्सा सिर्फ़ एक सबक़-आमोज़ तारीख़ी वाक़िआ ही दिखाई देता है, मगर जिस ज़माने और माहौल में पहले-पहले यह बयान किया गया था उसको निगाह में रखकर देखिए तो महसूस होगा कि क़ुरैश के मज़हब और उनके पुरोहितवाद पर यह एक ऐसी गहरी चोट थी जो ठीक उसकी जड़ पर जाकर लगती थी।
قَالُواْ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا لَهَا عَٰبِدِينَ ۝ 52
(53) उन्होंने जवाब दिया, “हमने अपने बाप-दादा को इनकी इबादत करते पाया है।”
قَالَ لَقَدۡ كُنتُمۡ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 53
(54) उसने कहा, “तुम भी गुमराह हो और तुम्हारे बाप-दादा भी खुली गुमराही में हुए थे।"
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا بِٱلۡحَقِّ أَمۡ أَنتَ مِنَ ٱللَّٰعِبِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने कहा, “क्या तू हमारे सामने अपने अस्ली ख़यालात पेश कर रहा है या मज़ाक़ करता है?”55
55. इस जुमले का लफ़जी तर्जमा यह होगा कि “क्या तू हमारे सामने हक़ पेश कर रहा है या खेलता है?” लेकिन अस्ल मतलब वही है जिसकी तर्जुमानी ऊपर की गई है। उन लोगों को अपने दीन के सच्चे होने का इतना यक़ीन था कि वे यह सोचने के लिए भी तैयार न थे कि ये बातें कोई शख़्स संजीदगी के साथ कर सकता है। इसलिए उन्होंने कहा कि यह तुम सिर्फ़ मज़ाक़ और खेल कर रहे हो या सचमुच तुम्हारे यही ख़यालात हैं।
قَالَ بَل رَّبُّكُمۡ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلَّذِي فَطَرَهُنَّ وَأَنَا۠ عَلَىٰ ذَٰلِكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 55
(56) उसने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि हक़ीक़त में तुम्हारा रब वही है जो ज़मीन और आसमानों का रब और उनका पैदा करने है। इसपर में तुम्हारे सामने गवाही देता हूँ।
وَتَٱللَّهِ لَأَكِيدَنَّ أَصۡنَٰمَكُم بَعۡدَ أَن تُوَلُّواْ مُدۡبِرِينَ ۝ 56
(57) और ख़ुदा की क़सम, मैं तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी में ज़रूर तुम्हारे बुतों की ख़बर लूँगा।”56
56. यानी अगर तुम दलील से बात नहीं समझते हो तो में अमली तौर पर तुम्हें दिखा दूँगा कि ये बेबस हैं, इनके पास कुछ भी अधिकार नहीं हैं, और इनको ख़ुदा बनाना ग़लत है। रही यह बात कि अमली तजरिबे और मुशाहदे (अवलोकन) से यह बात वे किस तरह साबित करेंगे तो इसकी कोई तफ़सील हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने उस मौक़े पर नहीं बताई।
فَجَعَلَهُمۡ جُذَٰذًا إِلَّا كَبِيرٗا لَّهُمۡ لَعَلَّهُمۡ إِلَيۡهِ يَرۡجِعُونَ ۝ 57
(58) चुनाँचे उसने उनको टुकड़े-टुकड़े कर दिया57 और सिर्फ़ उनके बड़े को छोड़ दिया ताकि शायद वे उसकी तरफ़ रुजूअ करें।58
57. यानी मौक़ा पाकर, जबकि पुजारी और मुजाविर मौजूद न थे, हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उनके मर्कज़ी बुतख़ाने में घुस गए और सारे बुतों को तोड़ डाला।
58. 'उसकी तरफ़’ का इशारा बड़े बुत की तरफ़ भी हो सकता है और ख़ुद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की तरफ़ भी। अगर पहली बात हो तो यह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की तरफ़ से उनके अक़ीदों पर एक तंज़ (व्यंग्य) करने जैसा है। यानी अगर इनके नज़दीक सचमुच ये ख़ुदा हैं तो इन्हें अपने बड़े ख़ुदा के बारे में यह शक होना चाहिए कि शायद बड़े साहब इन छोटे साहबों से किसी बात पर बिगड़ गए हों और सबका कचूमर बना डाला हो। या फिर बड़े साहब से यह पूछे कि जनाब, आपकी मौजूदगी में यह क्या हुआ? कौन यह काम कर गया? और आपने उसे रोका क्यों नहीं और अगर दूसरा मतलब लिया जाए तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का मंशा इस कार्रवाई से यह था कि अपने बुतों का यह हाल देखकर शायद इनका ज़ेहन मेरी ही तरफ़ जाएगा और ये मुझसे पूछेंगे तो मुझको फिर इनसे साफ़-साफ़ बात करने का मौक़ा मिल जाएगा।
قَالُواْ مَن فَعَلَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَآ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 58
(59) (उन्होंने आकर बुतों का यह हाल देखा तो) कहने लगे, “हमारे ख़ुदाओं का यह हाल किसने कर दिया? बड़ा ही कोई ज़ालिम था वह।”
قَالُواْ سَمِعۡنَا فَتٗى يَذۡكُرُهُمۡ يُقَالُ لَهُۥٓ إِبۡرَٰهِيمُ ۝ 59
(60) (कुछ लोग) बोले, “हमने एक नौजवान को इनका ज़िक्र करते सुना था जिसका नाम इबराहीम है।”
قَالُواْ فَأۡتُواْ بِهِۦ عَلَىٰٓ أَعۡيُنِ ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡهَدُونَ ۝ 60
(61) उन्होंने कहा, “तो पकड़ लाओ उसे सबके सामने ताकि लोग देख लें (उसकी कैसी ख़बर ली जाती है59)।"
59. यह मानो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की मुँह माँगी मुराद थी, क्योंकि वे भी यही चाहते थे कि बात सिर्फ़ पुरोहितों और पुजारियों ही के सामने न हो, बल्कि आम लोग भी मौजूद हों और सब देख लें कि ये बुत जो उनकी ज़रूरतें पूरी करनेवाले बनाकर रखे गए हैं, कैसे बेबस हैं और ख़ुद ये पुरोहित लोग इनको क्या समझते हैं। इस तरह इन पुजारियों से भी वही बेवक़ूफ़ी हो गई जो फ़िरऔन से हुई थी। उसने भी जादूगरों से हज़रत मूसा (अलैहि०) का मुक़ाबला कराने के लिए देश भर के लोगों को इकट्ठा कर लिया था और उन्होंने भी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का मुक़द्दमा सुनने के लिए जनता को इकट्ठा कर लिया। वहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को सबके सामने यह साबित करने का मौक़ा मिल गया कि जो कुछ वे लाए हैं वह जादू नहीं, मोजिज़ा है। और यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उनके दुश्मनों ने आप ही यह मौक़ा दे दिया कि वे जनता के सामने उनके धोखे और फ़रेब का तिलिस्म तोड़ दें।
قَالُوٓاْ ءَأَنتَ فَعَلۡتَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَا يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 61
(62) (इबराहीम के आने पर) उन्होंने पूछा, “क्यों इबराहीम, तूने हमारे ख़ुदाओं के साथ यह हरकत की है?”
قَالَ بَلۡ فَعَلَهُۥ كَبِيرُهُمۡ هَٰذَا فَسۡـَٔلُوهُمۡ إِن كَانُواْ يَنطِقُونَ ۝ 62
(63) उसने जवाब दिया, “बल्कि यह सब कुछ उनके इस सरदार ने किया है, इन्हीं से पूछ लो, अगर ये बोलते हों।”60
60. यह आख़िरी जुमला ख़ुद ज़ाहिर कर रहा है कि पहले जुमले में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने बुत तोड़ने के इस काम को बड़े बुत की तरफ़ जो जोड़ा है इससे उनका मक़सद झूठ बोलना न था, बल्कि वे अपने मुख़ालिफ़ों पर हुज्जत क़ायम करना चाहते थे। यह बात उन्होंने इसलिए कही थी कि वे लोग जवाब में ख़ुद इसका इक़रार करेंगे कि उनके ये माबूद बिलकुल बेबस हैं और उनसे कुछ करने की उम्मीद तक नहीं की जा सकती। ऐसे मौक़े पर एक शख़्स दलील से साबित करने के लिए जो हक़ीक़त के ख़िलाफ़ बात कहता है उसको झूठ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि न वह ख़ुद झूठ की नीयत से ऐसी बात कहता है और न सुननेवाले ही इसे झूठ समझते हैं। कहनेवाला इसे दलील क़ायम करने के लिए कहता है और सुननेवाला भी उसे इसी मानी में लेता है। बदक़िस्मती से हदीस की एक रिवायत में यह बात आ गई है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपनी ज़िन्दगी में तीन बार झूठ बोले हैं, उनमें से एक 'झूठ' तो यह है, और दूसरा झूठ सूरा-37 साफ़्फ़ात में हज़रत इबराहीम का कहना 'इन्नी सक़ीम' (मेरी तबीअत ठीक नहीं है) है, और तीसरा 'झूठ' उनका अपनी बीवी को बहन कहना है जिसका ज़िक्र क़ुरआन में नहीं, बल्कि बाइबल की किताब उत्पत्ति में आया है एक गरोह रिवायत-परस्ती में हद से आगे बढ़कर इस हद तक पहुँच जाता है कि उसे बुख़ारी और मुस्लिम के कुछ रावियों की सच्चाई ज़्यादा प्यारी है और इस बात की परवाह नहीं है कि इससे एक नबी पर झूठ का इलज़ाम लगता है। दूसरा गरोह इस एक रिवायत को लेकर हदीस की तमाम किताबों पर निशाना साधता है और कहता है कि सारी ही हदीसों को उठाकर फेंक दो, क्योंकि उनमें ऐसी-ऐसी रिवायतें पाई जाती है। हालाँकि न एक या कुछ रियायतों में किसी ख़राबी के पाए जाने से यह ज़रूरी हो जाता है कि सारी ही रिवायतें भरोसे के लायक़ न हों, और न हदीस को जाँचने की कसौटी के मुताबिक़ किसी रिवायत की सनद का मज़बूत होना इस बात को ज़रूरी कर देता है कि उस हदीस की इबारत चाहे कितनी ही क़ाबिले-एतिराज़ हो, मगर उसे ज़रूर आँखें बन्द करके सही मान लिया जाए। सनद के मज़बूत और भरोसेमन्द होने के बावजूद बहुत-से सबब ऐसे हो सकते हैं जिनकी वजह से एक इबारत ग़लत रूप में नक़्ल हो जाती है और उसमें ऐसी बातें होती हैं जिनकी ख़राबी ख़ुद पुकार रही होती है कि ये बातें नबी (सल्ल०) की कही हुई नहीं हो सकतीं। इसलिए सनद के साथ-साथ इबारत को देखना भी ज़रूरी है, और अगर इबारत में सचमुच कोई ख़राबी तो फिर ख़ाह-मखाह उसके सही होने पर ज़ोर देना सही नहीं है। यह हदीस, जिसमें हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के तीन ‘झूठ’ बयान किए गए हैं, सिर्फ़ इसी वजह से क़ाबिले-एतिराज़ नहीं है कि यह एक नबी को झूठा ठहरा रही है, बल्कि इस वजह से भी ग़लत है कि इसमें जिन तीन वाक़िआत को बयान किया गया है, तीनों ही ध्यान देने के क़ाबिल हैं। उनमें से एक ‘झूठ’का हाल अभी आप देख चुके है कि कोई मामूली अक़्ल और दिमाग़ का आदमी भी इस मौक़े पर हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) की इस बात को झूठ नहीं कह सकता, कहाँ यह कि हम नबी (सल्ल०) से (अल्लाह की पनाह) इस नासमझी की बात की उम्मीद करें रहा 'इन्नी सक़ीम' (मेरी तबीअत ठीक नहीं है) वाला वाक़िआ तो उसका झूठ होना साबित नहीं हो सकता जब तक यह साबित न हो जाए कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) सचमुच उस वक़्त बिलकुल ठीक और तन्दुरुस्त थे और कोई मामूली-सी शिकायत भी उनको न थी। यह बात न क़ुरआन में कहीं बयान हुई है और न इस ज़ेरे-ग़ौर रिवायत के सिवा किसी दूसरी भरोसेमन्द रिवायत में इसका ज़िक्र आया है। अब रह जाता है बीवी को बहन बताने का वाक़िआ तो वह अपने आपमें ख़ुद इतना बेमानी है कि एक शख़्स उसको सुनते ही यह कह देगा कि यह हरगिज़ सच नहीं हो सकता। क़िस्सा उस वक़्त का बताया जाता है जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपनी बीवी हज़रत सारा के साथ मिस्र गए हैं। बाइबल के मुताबिक़ उस वक़्त हज़रत इबराहीम की उम्र 75 और हज़रत सारा की उम्र 65 वर्ष से कुछ ज़्यादा ही थी। और इस उम्र में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को यह डर महसूस होता है कि मिस्र का बादशाह इस ख़ूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मुझे क़त्ल कर देगा। चुनाँचे वे बीवी से कहते हैं कि जब मिस्री तुम्हें पकड़कर बादशाह के पास ले जाने लगें तो तुम भी मुझे अपना भाई बताना और मैं भी तुम्हें अपनी बहन बताऊँगा ताकि मेरी जान तो बच जाए (उत्पत्ति, अध्याय 12)। हदीस की ज़ेरे-ग़ौर रिवायत में तीसरे 'झूठ' की बुनियाद इसी बेबुनियाद और बेमानी इसराईली रिवायत पर है। क्या यह कोई मुनासिब बात है कि जिस हदीस की इबारत में ऐसी बात हो उसको भी हम नबी (सल्ल०) से जोड़ने पर सिर्फ़ इसलिए ज़िद करें कि इसकी सनद कमज़ोर नहीं है। इसी तरह की इन्तिहा-पसन्दियाँ फिर मामले को बिगाड़कर उस दूसरी इन्तिहा पर पहुँचा देती हैं जिसका मुज़ाहरा हदीस का इनकार करनेवाले लोग कर रहे हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— मेरी किताब 'रसाइलो-मसाइल (उर्दू), हिस्सा-2, पे० 35-39)
فَرَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ فَقَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ أَنتُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 63
(64) यह सुनकर वे लोग अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) की तरफ़ पलटे और (अपने दिलों में) कहने लगे, “सच तो यह है कि तुम ख़ुद ही ज़ालिम हो।”
ثُمَّ نُكِسُواْ عَلَىٰ رُءُوسِهِمۡ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا هَٰٓؤُلَآءِ يَنطِقُونَ ۝ 64
(65) मगर फिर उनकी मत पलट गई61 और बोले, “तू जानता है कि ये बोलते नहीं हैं।”
61. अस्ल अरबी इबारत में “नुकिसू अला रुऊसिहिम” (औंधा दिए गए अपने सिरों के बल) कहा गया है। कुछ लोगों ने इसका मतलब यह लिया है कि उन्होंने शर्मिन्दगी के मारे सर झुका लिए। लेकिन मौक़ा और बयान का अन्दाज़ इस मतलब को क़ुबूल करने से इनकार करता है। सही मतलब जो बात के सिलसिले और बात के अन्दाज़ पर ध्यान देने से साफ़ समझ में आ जाता है, यह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का जवाब सुनते ही पहले तो उन्होंने अपने दिलों में सोचा कि “वाक़ई ज़ालिम तो तुम ख़ुद हो, कैसे बेबस और लाचार माबूदों को ख़ुदा बना बैठे हो जो अपनी ज़बान से यह भी नहीं कह सकते कि इनपर क्या बीती और कौन इन्हें मारकर रख गया। आख़िर ये हमारी क्या मदद करेंगे जबकि ख़ुद अपने आपको भी नहीं बचा सकते।” लेकिन इसके बाद फ़ौरन ही उनपर ज़िद और जहालत सवार हो गई और, जैसा कि ज़िद की ख़ासियत है उसके सवार होते ही उनकी अक़्ल औंधी हो गई। दिमाग़ सीधा सोचते-सोचते यकायक उलटा सोचने लगा।
قَالَ أَفَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يَضُرُّكُمۡ ۝ 65
(66) इबराहीम ने कहा, “फिर क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उन चीज़ों को पूज रहे हो जो न तुम्हें फ़ायदा पहुँचाने की क़ुदरत रखती हैं, न नुक़सान।
أُفّٖ لَّكُمۡ وَلِمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 66
(67) धिक्कार है तुमपर और तुम्हारे इन माबूदों पर जिनकी तुम अल्लाह को छोड़कर पूजा कर रहे हो। क्या तुम कुछ भी अक़्ल नहीं रखते?”
قَالُواْ حَرِّقُوهُ وَٱنصُرُوٓاْ ءَالِهَتَكُمۡ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 67
(68) उन्होंने कहा, “जला डालो इसको और मदद करो अपने ख़ुदाओं की अगर तुम्हें कुछ करना है।”
قُلۡنَا يَٰنَارُ كُونِي بَرۡدٗا وَسَلَٰمًا عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 68
(69) हमने कहा, “ऐ आग, ठंडी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम पर।"62
62. अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं, और मौक़ा भी इस मतलब का साथ दे रहा है कि उन्होंने सचमुच अपने फ़ैसले पर अमल किया, और जब आग का अलाव तैयार करके उन्होंने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उसमें फेंका तब अल्लाह तआला ने आग को हुक्म दिया कि वह इबराहीम के लिए ठंडी हो जाए और बे-नुक़सान बनकर रह जाए इसलिए साफ़ तौर पर यह भी उन मोजिज़ों में से एक है जो क़ुरआन में बयान किए गए हैं। अगर कोई शख़्स इन मोजिज़ों का कोई और मनमाना मतलब इसलिए निकालता है कि उसके नज़दीक ख़ुदा के लिए भी दुनिया के निज़ाम के मामूल (Routine) से हटकर कोई ग़ैर-मामूली काम करना मुमकिन नहीं है तो आख़िर वह ख़ुदा को मानने ही की तकलीफ़ क्यों उठाता है। और अगर वह इस तरह के मतलब इसलिए निकालता है कि नए ज़माने के नाम-निहाद अक़लियत-परस्त (तथाकथित बुद्धिवादी) ऐसी बातों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं तो हम उससे पूछते हैं कि अल्लाह के बन्दे, तेरे ऊपर यह फ़र्ज़ किसने डाल दिया था कि तू किसी-न-किसी तरह उन्हें मनवाकर ही छोड़े? जो शख़्स क़ुरआन को, जैसा कि वह है, मानने के लिए तैयार नहीं है उसे उसके हाल पर छोड़ दो। उसे मनवाने के लिए क़ुरआन को उसके ख़यालात के मुताबिक़ ढालने की कोशिश करना जबकि क़ुरआन के अलफ़ाज़ क़दम-क़दम पर इस ढिलाई से रोक रहे हों, आख़िर किस तरह की तबलीग़ है और कौन समझदार आदमी इसे जाइज़ समझ सकता है। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए दखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-39)
وَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَخۡسَرِينَ ۝ 69
(70) वे चाहते थे कि इबराहीम के साथ बुराई करें, मगर हमने उनको बुरी तरह नाकाम कर दिया।
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَلُوطًا إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 70
(71) और हम उसे और लूत को63 बचाकर उस सर-ज़मीन की तरफ़ निकाल ले गए जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी हैं।64
63. बाइबल के बयान के मुताबिक़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दो भाई थे, नहवर और हारान। हज़रत लूत (अलैहि०) हारान के बेटे थे (उत्पत्ति, अध्याय-11, आयत-26)। सूरा-29 अन्‌कबूत में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का जो ज़िक्र आया है उससे बज़ाहिर यही मालूम होता है कि उनकी क़ौम में से सिर्फ़ एक हज़रत लूत (अलैहि०) ही उनपर ईमान लाए थे (देखिए आयत-26)।
64. यानी शाम (सीरिया) और फ़िलिस्तीन की सरज़मीन। उसकी बरकतें माद्दी (भौतिक) भी हैं और रूहानी भी। माद्दी हैसियत से वह दुनिया के बहुत ज़्यादा उपजाऊ इलाक़ों में से है और रूहानी हैसियत से वह दो हज़ार साल तक नबियों (अलैहि०) के आने की जगह रही है दुनिया के किसी दूसरे भू-भाग में इतनी ज़्यादा तादाद में नबी नहीं भेजे गए हैं।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ نَافِلَةٗۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا صَٰلِحِينَ ۝ 71
(72) और हमने उसे इसहाक़ दिया और याक़ूब उसपर और ज़्यादा,65 और हर एक को नेक बनाया।
65. यानी बेटे के बाद पोता भी ऐसा हुआ जिसे नुबूवत (पैग़म्बरी) से नवाज़ा गया।
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِمۡ فِعۡلَ ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَإِقَامَ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءَ ٱلزَّكَوٰةِۖ وَكَانُواْ لَنَا عَٰبِدِينَ ۝ 72
(73) और हमने उनको इमाम (पेशवा) बना दिया जो हमारे हुक्म से रहनुमाई करते थे और हमने उन्हें वह्य के ज़रिए से अच्छे कामों की और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने की हिदायत की, और वे हमारे इबादतगुज़ार थे।66
66. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की ज़िन्दगी के इस अहम वाक़िए का बाइबल में कोई ज़िक्र नहीं है, बल्कि उनकी ज़िन्दगी के इराक़ी दौर का कोई वाक़िआ भी उस किताब में जगह नहीं पा सका है। नमरूद से उनकी मुठभेड़, बाप और क़ौम से उनकी कशमकश, बुतपरस्ती के ख़िलाफ़ उनकी जिद्दो-जुह्द, आग में डाले जाने का क़िस्सा, और आख़िरकार देश छोड़ने पर मजबूर होना, इनमें से कोई भी चीज़ बाइबल की किताब 'उत्पत्ति' के लेखक की निगाह में ध्यान देने के क़ाबिल न थी। वह सिर्फ़ उनकी हिजरत का ज़िक्र करता है, मगर वह भी इस अन्दाज़ से जैसे एक ख़ानदान रोज़ी की तलाश में एक देश छोड़कर दूसरे देश में जाकर आबाद हो रहा है। क़ुरआन और बाइबल का इससे भी ज़्यादा दिलचस्प फ़र्क़ यह है कि क़ुरआन के बयान के मुताबिक़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का मुशरिक बाप उनपर ज़ुल्म करने में आगे-आगे था, और बाइबल कहती है कि उनका बाप ख़ुद अपने बेटों, पोतों और बहुओं को लेकर हारान में जा बसा (अध्याय-11, आयतें—27 से 32)। इसके बाद यकायक ख़ुदा हज़रत इबराहीम से कहता है कि तू हारान को छोड़कर कनआन में जाकर बस जा और “मैं तुझे एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा और बरकत दूँगा और तेरा नाम ऊँचा करूँगा। सो तू बरकत का सबब हो। जो तुझे मुबारक कहें उनको मैं बरकत दूँगा और जो तुझपर लानत करे उसपर मैं लानत करूँगा और ज़मीन के सब क़बीले तेरे ज़रिए से बरकत पाएँगे।” (अध्याय-12, आयतें— 1-3)। कुछ समझ में नहीं आता कि अचानक हज़रत इबराहीम पर मेहरबानी की यह नज़र क्यों हो गई। तलमूद में अलबत्ता इबराहीम (अलैहि०) की ज़िन्दगी के इराक़ी दौर की वे ज़्यादातर तफ़सीलात मिलती हैं जो क़ुरआन की अलग-अलग जगहों पर बयान हुई हैं। मगर दोनों को सामने रखकर देखने से न सिर्फ़ यह कि क़िस्से के अहम हिस्सों में खुला फ़र्क़ नज़र आता है, बल्कि एक शख़्स साफ़ तौर पर यह महसूस कर सकता है कि तलमूद का बयान बहुत-सी बेजोड़ और न समझ में आनेवाली बातों से भरा हुआ है और इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन बिलकुल साफ़-सुथरी शक्ल में हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी के अहम वाक़िआत को पेश करता है जिनमें कोई फ़ुज़ूल बात नहीं आने पाई है। अपनी बात को साफ़-साफ़ बयान करने के लिए हम यहाँ तलमूद की दास्तान का ख़ुलासा पेश करते हैं ताकि उन लोगों की ग़लती पूरी तरह खुल जाए जो क़ुरआन को बाइबल और यहूदी लिट्रेचर से लिया हुआ बताते हैं तलमूद का बयान है कि हज़रत इबराहीम की पैदाइश के दिन नुजूमियों (ज्योतिषियों) ने आसमान पर एक निशानी देखकर नमरूद को मशवरा दिया था कि तारेह के यहाँ जो बच्चा पैदा हुआ है उसे क़त्ल कर दे। चुनाँचे वह उनके क़त्ल के पीछे पड़ा। मगर तारेह ने अपने एक ग़ुलाम का बच्चा उनके बदले में देकर उन्हें बचा लिया। इसके बाद तारेह ने अपनी बीवी और बच्चे को एक गुफा में ले जाकर छिपा दिया, जहाँ दस साल तक वे रहे। ग्यारहवें साल हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को तारेह ने हज़रत नूह (अलैहि०) के पास पहुँचा दिया और 39 साल तक वे हज़रत नूह और उनके बेटे साम की तर्बियत में रहे। इसी ज़माने में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी सगी भतीजी सारा से निकाह कर लिया जो उम्र में उनसे 42 साल छोटी थीं (बाइबल इस बात को बयान नहीं करती कि सारा हज़रत इबराहीम की भतीजी थी। साथ ही वह दोनों के बीच उम्र का फ़र्क़ भी सिर्फ़ 10 साल बताती है। पैदाइश, अध्याय-11, आयत-29 और अध्याय-17, आयत-17) फिर तलमूद कहती है कि हज़रत इबराहीम पचास साल की उम्र में हज़रत नूह (अलैहि०) का घर छोड़कर अपने बाप के यहाँ आ गए। यहाँ उन्होंने देखा कि बाप बुतपरस्त है और घर में साल के बारह महीनों के हिसाब से 12 बुत रखे हैं। उन्होंने पहले तो बाप को समझाने की कोशिश की, और जब उसकी समझ में बात न आई तो एक दिन मौक़ा पाकर उस घरेलू बुतख़ाने के बुतों को तोड़ डाला। तारेह ने आकर अपने ख़ुदाओं का यह हाल जो देखा तो सीधा नमरूद के पास पहुँचा और शिकायत की कि 50 साल पहले मेरे यहाँ जो लड़का पैदा हुआ था, आज उसने मेरे घर में वह हरकत की है। आप इसका फ़ैसला कीजिए। नमरूद ने बुलाकर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से पूछ-गछ की। उन्होंने सख़्त जवाब दिए। नमरूद ने उनको फ़ौरन जेल भेज दिया और फिर मामला अपनी कौंसिल में पेश किया ताकि सलाह-मशवरे से इस मुक़द्दमे का फ़ैसला किया जाए। कौंसिल के मेम्बरों ने मशवरा दिया कि इस शख़्स को आग में जला दिया जाए। चुनाँचे आग का एक बड़ा अलाव तैयार कराया गया और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उसमें फेंक दिए गए। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ उनके भाई और ससुर, हारान को भी फेंका गया, क्योंकि नमरूद ने तारेह से जब पूछा कि तेरे इस बेटे को तो मैं पैदाइश ही के दिन क़त्ल करना चाहता था, तूने उस वक़्त उसे बचाकर दूसरा बच्चा क्यों उसके बदले क़त्ल कराया तो उसने कहा कि मैंने हारान के कहने से यह हरकत की थी। इसलिए ख़ुद इस हरकत के करनेवाले को तो छोड़ दिया गया और मशवरा देनेवाले को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ आग में फेंका गया। आग में गिरते ही हारान फ़ौरन जल-भुनकर कोयला हो गया, मगर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को लोगों ने देखा कि अन्दर इत्मीनान से टहल रहे हैं। नमरूद को इस मामले की ख़बर दी गई। उसने आकर जब ख़ुद अपनी आँखों से यह माजरा देख लिया तो पुकारकर कहा कि “आसमानी ख़ुदा के बन्दे, आग से निकल आ और मेरे सामने खड़ा हो जा।” हज़रत इबराहीम (अलैहि०) बाहर आ गए। नमरूद उनका अक़ीदतमन्द (श्रद्धालु) हो गया और उसने बहुत क़ीमती नज़राने उनको देकर रुख़सत कर दिया। इसके बाद तलमूद के बयान के मुताबिक़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) दो साल तक वहाँ रहे। फिर नमरूद ने एक डरावना सपना देखा और उसके ज्योतिषियों ने उसका मतलब यह बताया कि इबराहीम (अलैहि०) तेरी हकूमत की तबाही का सबब बनेगा उसे क़त्ल करा दे। उसने उनके क़त्ल के लिए आदमी भेजे, मगर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को ख़ुद नमरूद ही के दिए हुए एक ग़ुलाम अल-यज़र ने वक़्त से पहले इस मनसूबे की ख़बर दे दी और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने भागकर हज़रत नूह (अलैहि०) के यहाँ पनाह ली। वहाँ तारेह आकर उनसे चुपके-चुपके मिलता रहा और आख़िर बाप-बेटों की यह सलाह हुई कि देश छोड़ दिया जाए। हज़रत नूह (अलैहि०) और साम ने भी इस सुझाव को पसन्द किया। चुनाँचे तारेह अपने बेटे इबराहीम (अलैहि०) और पोते लूत (अलैहि०) और पोती और बहू सारा को लेकर उर से हारान चला गया। (तलमूद से उद्धृत, लेखक : एच० पोलानो, लन्दन, पे० 30-42) । क्या इस दास्तान को देखकर कोई समझदार आदमी वह सोच सकता है कि क़ुरआन ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बारे में जो कुछ बयान किया है, वह इस दास्तान से लिया गया है।
وَلُوطًا ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗا وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَت تَّعۡمَلُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَٰسِقِينَ ۝ 73
(74) और लूत को हमने हुक्म और इल्म दिया67 और उसे उस बस्ती से बचाकर निकाल दिया जो बदकारियाँ (कुकर्म) करती थी— हक़ीक़त में वह बड़ी ही बुरी, नाफ़रमान क़ौम थी
67. 'हुक्म और इल्म देना' आम तौर से क़ुरआन मजीद में नुबूबत (पैग़म्बरी) देने के मानी में इस्तेमाल होता है। 'हुक्म' से मुराद हिकमत भी है, सही फ़ैसले की क़ुव्वत भी और अल्लाह तआला की तरफ़ से हुक्मरानी का अधिकार (Authority) हासिल होना भी। रहा 'इल्म' तो इससे मुराद सच्चाई का वह इल्म है जो वह्य के ज़रिए से दिया गया हो। हज़रत लूत (अलैहि०) के बारे में और ज़्यादा तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—80-84; सूरा-11 हूद, आयतें—69-83; सूरा-15 हिज्र, आयतें—57-76।
وَأَدۡخَلۡنَٰهُ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 74
(75) और लूत को हमने अपनी रहमत में दाख़िल किया, वह नेक लोगों में से था।
وَنُوحًا إِذۡ نَادَىٰ مِن قَبۡلُ فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 75
(76) और यही नेमत हमने नूह को दी। याद करो जबकि इन सबसे पहले उसने हमें पुकारा था।68 हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे और उसके घरवालों को बड़ी तकलीफ़69 से नजात दी।
68. इशारा है हज़रत नूह (अलैहि०) की उस दुआ की तरफ़ जो एक लम्बी मुद्दत तक अपनी क़ौम के सुधार के लिए लगातार कोशिश करते रहने के बाद आख़िरकार थककर उन्होंने माँगी थी कि “परवरदिगार मैं हार गया है, अब तू मेरी मदद को पहुँच।” (सूरा-54 क़मर, आयत-10) और “परवरदिगार! ज़मीन पर हक़ का इनकारी एक बाशिन्दा भी न छोड़।” (सूरा-71 नूह, आयत-26)
69. 'बड़ी तकलीफ़' से मुराद या तो एक बदकिरदार क़ौम के बीच ज़िन्दगी गुज़ारने की मुसीबत हैं, या फिर तूफ़ान हज़रत नूह (अलैहि०) के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए सूरा-7 आराफ़, आयतें—59-64; सूरा-10 यूनुस, आयतें—71-73; सूरा-11 हूद, आयतें—25-48; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-3।
وَنَصَرۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 76
(77) और उस क़ौम के मुक़ाबले में उसकी मदद की जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया था। वे बड़े बुरे लोग थे, सो हमने उन सबको डुबो दिया।
وَدَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ إِذۡ يَحۡكُمَانِ فِي ٱلۡحَرۡثِ إِذۡ نَفَشَتۡ فِيهِ غَنَمُ ٱلۡقَوۡمِ وَكُنَّا لِحُكۡمِهِمۡ شَٰهِدِينَ ۝ 77
(78) और इसी नेमत से हमने दाऊद और सुलैमान को नवाज़ा। याद करो वह मौक़ा जबकि वे दोनों एक खेत के मुक़द्दमे में फ़ैसला कर रहे थे जिसमें रात के वक़्त दूसरे लोगों की बकरियाँ फैल गई थीं, और हम उनकी अदालत ख़ुद देख रहे थे
فَفَهَّمۡنَٰهَا سُلَيۡمَٰنَۚ وَكُلًّا ءَاتَيۡنَا حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَسَخَّرۡنَا مَعَ دَاوُۥدَ ٱلۡجِبَالَ يُسَبِّحۡنَ وَٱلطَّيۡرَۚ وَكُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 78
(79) उस वक़्त हमने सही फ़ैसला सुलैमान को समझा दिया; हालाँकि हिकमत और इल्म हमने दोनों ही को दिया था।70 दाऊद के साथ हमने पहाड़ों और परिन्दों को ख़िदमत में लगा दिया था जो तसबीह करते थे।71 इस काम के करनेवाले हम ही थे।
70. इस वाक़िए का ज़िक्र बाइबल में नहीं है और यहूदी लिट्रेचर में भी हमें इसका कोई निशान नहीं मिला। मुसलमान तफ़सीर लिखनेवाले मुस्लिम उलमा ने इसकी जो तशरीह की है वह यह है कि एक शख़्स के खेत में दूसरे शख़्स की बकरियाँ रात के वक़्त घुस गई थीं। उसने हज़रत दाऊद (अलैहि०) के यहाँ अपील की। उन्होंने फ़ैसला किया कि उसकी बकरियाँ छीनकर इसे दे दी जाएँ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने इससे इख़्तिलाफ़ किया और यह राय दी कि बकरियाँ उस वक़्त तक खेतवाले के पास रहें जब तक बकरीवाला उसके खेत को फिर से तैयार न कर दे। इसी के बारे में अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि यह फ़ैसला हमने सुलैमान को सुझाया था। मगर चूँकि मुक़द्दमे की यह तफ़सील क़ुरआन में बयान नहीं हुई है और न किसी हदीस में नबी (सल्ल०) की तरफ़ से इसकी तफ़सील मिलती है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के मुक़द्दमे में यही साबितशुदा इस्लामी क़ानून है। यही वजह है कि इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम शाफ़िई, इमाम मालिक और इस्लाम के दूसरे फ़क़ीहों के बीच इस बात में इख़्तिलाफ़ पैदा हुआ है कि अगर किसी का खेत दूसरे शख़्स के जानवर ख़राब कर दें तो कोई हरजाना लागू होगा या नहीं, और लागू होगा तो किस सूरत में होगा और किस सूरत में नहीं, और यह कि हरजाने की शक्ल क्या होगी। इस मौक़े पर हज़रत दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) के इस ख़ास क़िस्से का ज़िक्र करने का मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि पैग़म्बर (अलैहि०) नबी होने और अल्लाह की तरफ़ से ग़ैर-मामूली ताक़तें और क़ाबिलियतें पाने के बावजूद होते इनसान ही थे, ख़ुदाई का कोई हलका-सा निशान तक उनमें न होता था। इस मुक़द्दमे में हज़रत दाऊद (अलैहि०) की रहनुमाई वह्य के ज़रिए से न की गई और वह फ़ैसला करने में ग़लती कर गए। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की रहनुमाई की गई और उन्होंने सही फ़ैसला किया, हालाँकि नबी दोनों ही थे। आगे इन दोनों बुज़ुर्गों के जिन कमालात का ज़िक्र किया गया है, वह भी यही बात समझाने के लिए है कि ये कमालात ख़ुदा के दिए हुए थे और इस तरह के कमालात किसी को ख़ुदा नहीं बना देते। साथ ही इस आयत से अदालत का यह उसूल भी मालूम हुआ कि अगर दो जज एक मुक़द्दमे का फ़ैसला करें, और दोनों के फ़ैसले अलग-अलग हों तो अगरचे सही फ़ैसला एक ही का होगा, लेकिन दोनों हक़ पर होंगे, शर्त यह है कि अदालत करने की ज़रूरी सलाहियत दोनों में मौजूद हो, उनमें से कोई नादानी और ना-तजरिबेकारी के साथ अदालत करने न बैठ जाए। नबी (सल्ल०) ने अपनी हदीसों में इस बात को और ज़्यादा खोलकर बयान फ़रमा दिया है। बुख़ारी में अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर हाकिम अपनी हद तक फ़ैसला करने की पूरी कोशिश करे तो सही फ़ैसला करने की सूरत में उसके लिए दोहरा इनाम है और ग़लत फ़ैसला करने की सूरत में इकहरा इनाम।” अबू-दाऊद और इब्ने-माजा में बुरैदा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “क़ाज़ी तीन तरह के हैं, एक उनमें से जन्नती है और दो जहन्नमी। जन्नती वह क़ाज़ी है जो हक़ को पहचान जाए तो उसके मुताबिक़ फ़ैसला दे। मगर जो शख़्स हक़ को पहचानने के बावुजूद हक़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे तो वह जहन्नमी है। और इसी तरह वह भी जहन्नमी है जो इल्म के बिना लोगों के फ़ैसले करने के लिए बैठ जाए।
71. अस्ल अरबी इबारत में 'म-अ दाऊद’ के अलफ़ाज़़ इस्तेमाल हुए हैं, 'लिदावू-द' के अलफ़ाज़ नहीं हैं, यानी 'दाऊद (अलैहि०) के लिए नहीं, बल्कि उनके साथ' पहाड़ और परिन्दे पाबन्द कर दिए गए थे, और इस पाबन्द करने का मतलब यह था कि वे भी हज़रत दाऊद (अलैहि०) के साथ अल्लाह की तसबीह करते थे। यही बात सूरा-38 सॉद में बयान की गई है, “हमने उसके साथ पहाड़ों को पाबन्द कर दिया था कि सुबह-शाम तसबीह करते थे, और परिन्दे भी पाबन्द कर दिए थे जो इकट्ठे हो जाते थे, सब उसकी तसबीह को दोहराते।” (आयतें—18,19) सूरा-34 सबा में इसको और ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है, “पहाड़ों को हमने हुक्म दिया कि उसके साथ तसबीह दोहराओ ओर यही हुक्म हमने परिन्दों को दिया।” (आयत-10) इन बयानों से जो बात समझ में आती है यह यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) जब अल्लाह की तारीफ़ के गीत गाते थे तो उनकी बुलन्द और सुरीली आवाज़ से पहाड़ गूँज उठते थे, परिन्दे ठहर जाते थे और एक समाँ बंध जाता था। इस मतलब की ताईद उस हदीस से होती है जिसमें ज़िक्र आया है कि एक बार हज़रत अबू-मूसा अशअरी जो ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छी आवाज़वाले बुज़ुर्ग थे, क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे। नबी (सल्ल०) उधर से गुज़रे तो उनकी आवाज़ सुनकर खड़े हो गए और देर तक सुनते रहे। जब वे ख़त्म कर चुके तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस शख़्स को दाऊद की अच्छी आवाज़ का एक हिस्सा मिला है।"
وَعَلَّمۡنَٰهُ صَنۡعَةَ لَبُوسٖ لَّكُمۡ لِتُحۡصِنَكُم مِّنۢ بَأۡسِكُمۡۖ فَهَلۡ أَنتُمۡ شَٰكِرُونَ ۝ 79
(80) और हमने उसको तुम्हारे फ़ायदे के लिए ज़िरह (कवच) बनाने का हुनर सिखा दिया था ताकि तुमको एक-दूसरे की मार से बचाए।72 फिर क्या तुम शुक्रगुज़ार हो?73
71. अस्ल अरबी इबारत में 'म-अ दाऊद’ के अलफ़ाज़़ इस्तेमाल हुए हैं, 'लिदावू-द' के अलफ़ाज़ नहीं हैं, यानी 'दाऊद (अलैहि०) के लिए नहीं, बल्कि उनके साथ' पहाड़ और परिन्दे पाबन्द कर दिए गए थे, और इस पाबन्द करने का मतलब यह था कि वे भी हज़रत दाऊद (अलैहि०) के साथ अल्लाह की तसबीह करते थे। यही बात सूरा-38 सॉद में बयान की गई है, “हमने उसके साथ पहाड़ों को पाबन्द कर दिया था कि सुबह-शाम तसबीह करते थे, और परिन्दे भी पाबन्द कर दिए थे जो इकट्ठे हो जाते थे, सब उसकी तसबीह को दोहराते।” (आयतें—18,19) सूरा-34 सबा में इसको और ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है, “पहाड़ों को हमने हुक्म दिया कि उसके साथ तसबीह दोहराओ ओर यही हुक्म हमने परिन्दों को दिया।” (आयत-10) इन बयानों से जो बात समझ में आती है यह यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) जब अल्लाह की तारीफ़ के गीत गाते थे तो उनकी बुलन्द और सुरीली आवाज़ से पहाड़ गूँज उठते थे, परिन्दे ठहर जाते थे और एक समाँ बंध जाता था। इस मतलब की ताईद उस हदीस से होती है जिसमें ज़िक्र आया है कि एक बार हज़रत अबू-मूसा अशअरी जो ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छी आवाज़वाले बुज़ुर्ग थे, क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे। नबी (सल्ल०) उधर से गुज़रे तो उनकी आवाज़ सुनकर खड़े हो गए और देर तक सुनते रहे। जब वे ख़त्म कर चुके तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस शख़्स को दाऊद की अच्छी आवाज़ का एक हिस्सा मिला है।" 72. सूरा-34 सबा में और ज़्यादा तफ़सील यह है, “और हमने लोहे को उसके लिए नर्म कर दिया (और उसको हिदायत की) कि पूरे-पूरे कवच बना और ठीक अन्दाज़ से कड़ियाँ जोड़।" (आयत-10)। इससे मालूम होता है कि अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद (अलैहि०) को लोहे के इस्तेमाल पर क़ुदरत अता की थी, और ख़ास तौर पर जंगी मक़सदों के लिए कवच बनाने का तरीक़ा सिखाया था। आज के ज़माने की तारीख़ी और असरी (ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक तहक़ीक़ात से इन आयतों के मानी पर जो रौशनी पड़ती है वह यह है कि दुनिया में लोहे के इस्तेमाल का दौर (Iron-Age) 1200 से 1000 ई० पू० के बीच शुरू हुआ है, और यही हज़रत दाऊद का ज़माना है। पहले-पहले शाम (सीरिया) और एशिया-ए-कोचक की हित्ती क़ौम (Hittites) को जिसकी तरक़्क़ी का ज़माना 2000 से 1200 ई० पू० तक रहा है, लोहे के पिघलाने और तैयार करने का एक पेचीदा तरीक़ा मालूम हुआ और वह शिद्दत के साथ इसको दुनिया भर से राज़ में रखे रही। मगर इस तरीक़े से जो लोहा तैयार होता था वह सोने-चाँदी की तरह इतना क़ीमती होता था कि आम इस्तेमाल में न आ सकता था। बाद में फ़िलिस्तियों ने यह तरीक़ा मालूम कर लिया, और वे भी इसे राज़ ही में रखते रहे। तालूत की बादशाही से पहले हित्तीयों और फ़िलिस्तियों ने बनी-इसराईल को लगातार हराकर जिस तरह फ़िलिस्तीन से लगभग बेदखल कर दिया था, बाइबल के बयान के मुताबिक़ उसकी वजहों में से एक अहम वजह यह भी थी कि ये लोग लोहे की रथें इस्तेमाल करते थे और उनके पास लोहे के दूसरे हथियार भी ये (यशूअ, अध्याय-17, आयत-16, न्यायियों, अध्याय-1, आयत 19, अध्याय-4, आयतें—2-3)। 1020 ई० पू० में जब तालूत ख़ुदा के हुक्म से बनी-इसराईल का हुक्मराँ हुआ तो उसने लगातार हराकर उन लोगों से फ़िलिस्तीन का बड़ा हिस्सा वापस ले लिया, और फिर हज़रत दाऊद (1004-965 ई० पू०) ने न सिर्फ़ फ़िलिस्तीन और पूर्वी जॉर्डन, बल्कि शाम (सीरिया) के भी बड़े हिस्से पर इसराईली हुकूमत क़ायम कर दी। उस ज़माने में लोहा बनाने का वह राज़ जो हित्तियों और फ़िलिस्तियों के क़ब्ज़े में था, बेनक़ाब हो गया, और सिर्फ़ बेनक़ाब ही न हुआ, बल्कि लोहा बनाने के ऐसे तरीक़े भी निकल आए जिनसे आम इस्तेमाल के लिए लोहे को सस्ती चीज़ें तैयार होने लगीं। फ़िलिस्तीन के दक्षिण में अदम का इलाक़ा कच्चे लोहे (Iron ore) की दौलत से मालामाल है और हाल में आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की खुदाइयाँ इस इलाक़े में हुई हैं उनमें बहुत-सी ऐसी जगहों की निशानियाँ मिली हैं जहाँ लोहा पिघलाने की भट्टियाँ लगी हुई थीं। अ-क़बा और ऐला से लगी हुई हज़रत सुलैमान के ज़माने की बन्दरगाह इसयून जाबिर के आसारे-क़दीमा (अवशेषों) में जो भट्टी मिली है उसको ग़ौर से देखकर अन्दाज़ा किया गया है कि इसमें कुछ वे उसूल इस्तेमाल किए जाते थे जो आज बिलकुल नए ज़माने की ‘Blast Furnace' में इस्तेमाल होते हैं अब यह एक क़ुदरती बात है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने सबसे पहले और सबसे बढ़कर इस नई खोज को जंगी मक़सदों के लिए इस्तेमाल किया होगा, क्योंकि थोड़ी ही मुद्दत पहले आसपास की दुश्मन क़ौमों ने इसी लोहे के हथियारों से उनकी क़ौम का जीना दूभर कर दिया था।
73. हज़रत दाऊद (अलैहि०) के बारे में और ज़्यादा तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयत-251, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—7, 63।
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ عَاصِفَةٗ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦٓ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۚ وَكُنَّا بِكُلِّ شَيۡءٍ عَٰلِمِينَ ۝ 80
(81) और सुलैमान के लिए हमने तेज़ हवा को वश में कर दिया था जो उसके हुक्म से उस सर-ज़मीन की तरफ़ चलती थी जिसमें हमने बरकते रखी हैं।74 हम हर चीज़ का इल्म रखनेवाले थे।
74. हवा को पाबन्द कर दिया था, एक महीने की राह तक उसका चलना सुबह को और एक महीने की राह तक उसका चलना शाम को।” फिर इसकी और ज़्यादा तफ़सील सूरा-38 सॉद (आयत-36) में यह आती है, “तो हमने उसके लिए हवा को पाबन्द कर दिया जो उसके हुक्म से सहूलत के मुताबिक़ चलती थी जिधर वह जाना चाहता।” इससे मालूम हुआ कि हवा को हज़रत सुलैमान (अलेहि०) के लिए इस तरह हुक्म का पाबन्द कर दिया गया था कि उनकी सल्तनत से एक महीने की राह तक की जगहों का सफ़र आसानी से किया जा सकता था। जाने में भी हमेशा उनकी मरज़ी के मुताबिक़ हवा मिलती थी और वापसी पर भी। बाइबल और नई तारीख़ी खोजों से इस मज़मून पर जो रौशनी पड़ती है वह यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपनी हुकूमत के ज़माने में बहुत बड़े पैमाने पर समन्दरी तिजारत का सिलसिला शुरू किया था। एक तरफ़ इसयून जाबिर से उनके तिजारती जहाज़ लाल सागर में यमन और दूसरे दक्षिणी और पूर्वी देशों की तरफ़ जाते थे, और दूसरी तरफ़ रोम सागर के बन्दरगाहों से उनका बेड़ा (जिसे बाइबल में 'तरसीसी बेड़ा' कहा गया है) मग़रिबी मुल्कों (पश्चिमी देशों) की तरफ़ जाया करता था। इसयून जाबिर में उनके ज़माने की जो बड़ी और शानदार भट्टी मिली है उसके मुक़ाबले की कोई मट्टी मग़रिबी एशिया और मशरिक़े-वुस्ता (मध्य-पूर्व) में अभी तक नहीं मिली। आसारे-क़दीमा (पुरातत्व विभाग) के माहिरों का अन्दाज़ा है कि यहाँ अदुम के इलाक़े अरबा की कानों (खदानों) से कच्चा लोहा और ताँबा लाया जाता था और उस भट्टी में पिघलाकर उसे दूसरे कामों के अलावा जहाज़ बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता था। इससे क़ुरआन मजीद की उस आयत के मतलब पर रौशनी पड़ती है जो सूरा-34 सबा में हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बारे में आई है कि “और हमने उसके लिए पिघली हुई धातु का चश्मा बहा दिया।” साथ ही इस तारीख़ी पसमंज़र को निगाह में रखने से यह बात भी समझ में आ जाती है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए एक महीने की राह तक हवा की रफ़्तार को पाबन्द करने का क्या मतलब है। उस ज़माने में समन्दरी सफ़र का सारा दारोमदार मुवाफ़िक़ (अनुकूल) हवा मिलने पर था, और अल्लाह तआला की हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर यह ख़ास मेहरबानी थी कि वह हमेशा उनके दोनों समन्दरी बेड़ों को उनकी मरज़ी के मुताबिक़ मिलती थी। फिर भी अगर हवा पर हज़रत सुलैमान (अहि०) को हुक्म चलाने का भी कोई इक़तिदार दिया गया हो, जैसा कि 'उसके हुक्म से चलती थी' के ज़ाहिर अलफ़ाज़ से ज़ाहिर होता है तो यह अल्लाह की क़ुदरत के लिए कोई नामुमकिन बात नहीं है। वह अपनी सल्तनत का आप मालिक है। अपने जिस बन्दे को जो अधिकार चाहे दे सकता है। जब वह ख़ुद किसी को कोई अधिकार दे तो हमारा दिल दुखने की कोई वजह नहीं।
وَمِنَ ٱلشَّيَٰطِينِ مَن يَغُوصُونَ لَهُۥ وَيَعۡمَلُونَ عَمَلٗا دُونَ ذَٰلِكَۖ وَكُنَّا لَهُمۡ حَٰفِظِينَ ۝ 81
(82) और शैतानों में से हमने ऐसे बहुतों को उसका मातहत बना दिया था जो उसके लिए ग़ोते लगाते और इसके सिवा दूसरे काम करते थे। उन सबके निगराँ हम ही थे।75
75. सूरा-34 सबा (आयतें—12-18) में इसकी तफ़सील यह आई है, “और जिन्नों में से ऐसे जिन्न हमने उसके लिए पाबन्द कर दिए थे जो उसके रब के हुक्म से उसके आगे काम करते थे, और उनमें से जो कोई हमारे हुक्म से मुँह मोड़ता तो हम उसको भड़कती हुई आग का मज़ा चखाते। वे उसके लिए जैसे वह चाहता महल और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) और हौज़-जैसे बड़े-बड़े लगन और भारी जमी हुई देगें बनाते थे ...फिर जब हमने सुलैमान को मौत दे दी तो उन जिन्नों को उसकी मौत की ख़बर देनेवाली कोई चीज़ न थी, मगर ज़मीन का कीड़ा (यानी घुन) जो उसकी लाठी को खा रहा था। फिर जब वह गिर पड़ा तो जिन्नों को पता चल गया कि अगर वे सचमुच ग़ैब (परोक्ष) की बातें जाननेवाले होते तो इस रुसवाई के अज़ाब में इतनी मुद्दत तक फँसे न रहते।” इस आयत से यह बात बिलकुल साफ़ समझ में आ जाती है कि जो शैतान हज़रत सुलैमान के लिए पाबन्द किए गए थे, और जो उनके लिए अलग-अलग तरह के काम करते थे, वे जिन्न थे, और जिन्न भी वे जिन्न जिनके बारे में अरब के मुशरिकों का यह अक़ीदा था, और जो ख़ुद अपने बारे में भी यह ग़लतफ़हमी रखते थे कि उनको ग़ैब का इल्म हासिल है। अब हर शख़्स जो क़ुरआन मजीद को आँखें खोलकर पढ़े, और उसको अपने तास्सुबात (पूर्वाग्रह) और पहले क़ायम किए हुए नज़रियों का पाबन्द बनाए बिना पढ़े, वह ख़ुद देख सकता है कि जहाँ क़ुरआन सिर्फ़ 'शैतान’ और 'जिन्न’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल करता है, वहाँ उसकी मुराद कौन-सा जानदार होता है, और क़ुरआन के मुताबिक़ वे कौन-से जिन्न हैं जिनको अरब के मुशरिक लोग ग़ैब को जाननेवाला (परोक्षज्ञाता) समझते थे। नए ज़माने के तफ़सीर लिखनेवाले यह साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं कि वे जिन्न और शैतान जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए पाबन्द किए गए थे, इनसान थे और आसपास की क़ौमों में से आए थे। लेकिन सिर्फ़ यही नहीं कि क़ुरआन के अलफ़ाज़ में उनके इस मनमाना मतलब निकालने के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, बल्कि क़ुरआन में जहाँ-जहाँ भी यह क़िस्सा आया है, वहाँ का मौक़ा और बयान का अन्दाज़ इस मतलब की गुंजाइश निकालने से साफ़ इनकार करता है। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए इमारतें बनानेवाले अगर इनसान ही थे तो आख़िर ये उनकी कौन-सी ख़ास ख़ूबी थी जिसको क़ुरआन में इस शान के साथ बयान किया गया है मिस्र के अहराम से लेकर न्यूयार्क की गगनचुंबी इमारतों तक किस चीज़ को इनसान ने नहीं बनाया है और किस बादशाह या रईस या ताजिरों के सरदार के लिए वे 'जिन्न’ और 'शैतान' मुहैया नहीं हुए जो आप हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए मुहैया कर रहे हैं?
۞وَأَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلضُّرُّ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 82
(83) और यहीं (होशमंदी और इल्म-व-हिकमत की नेमत) हमने अय्यूब76 को दी थी। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि “मुझे बीमारी लग गई है और तू रहम करनेवालों में सबसे बढ़कर रहम करनेवाला77 है।”
76. हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की शख़्सियत, ज़माना क़ौमियत, हर चीज़ के बारे में इख़्तिलाफ़ है। नए ज़माने के तहक़ीक़ करनेवालों में से कोई उनको इसराईली कहता है और कोई मिस्री और कोई अरब। किसी के नज़दीक उनका ज़माना हज़रत मूसा (अलैहि०) से पहले का है, कोई उन्हें हज़रत दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) के ज़माने का आदमी कहता है और कोई उनसे भी पहले का लेकिन सबके गुमान और अन्दाज़ों की बुनियाद 'अय्यूब' नाम की उस किताब या पन्नों पर है जो बाइबल की मुक़द्दस किताबों के मजमूए (संग्रह) में शामिल हैं। उसी की ज़बान, अन्दाज़े-बयान और कलाम को देखकर ये अलग-अलग राएँ क़ायम की गई हैं, न कि किसी और तारीख़ी गवाही पर और इस 'अय्यूब' नाम की किताब का हाल यह है कि उसके अपने मज़मूनों में भी बाहम टकराव पाया जाता है और उसका बयान क़ुरआन मजीद के बयान से भी इतना अलग है कि दोनों को एक ही वक़्त में नहीं माना जा सकता। लिहाज़ा हम उसपर बिलकुल भरोसा नहीं कर सकते। ज़्यादा-से-ज़्यादा भरोसेमन्द गवाही अगर कोई है तो वह यह है कि यसअयाह नबी और हिज़क़ीएल नबी के सहीफ़ों में उनका ज़िक्र आया है, और ये सहीफ़े तारीख़ी हैसियत से ज़्यादा भरोसेमन्द हैं। यसअयाह नबी आठवीं सदी और हिज्रक़ीएल नबी छठी सदी ई० पू० में गुज़रे हैं, इसलिए यह बात यक़ीन से कही जा सकती है कि हज़रत अययूब (अलैहि०) नवीं सदी ई० पू० या उससे पहले के बुज़ुर्ग हैं। रही उनकी क़ौमियत तो सूरा-4 निसा, आयत-165, और सूरा-6 अनआम, आयत-84 में जिस तरह उनका ज़िक्र आया है उससे गुमान तो यही होता है कि वे बनी-इसराईल ही में से थे, मगर वहब-बिन-मुनब्बिह का यह बयान भी कुछ नामुमकिन नहीं है कि वे हज़रत इसहाक (अलैहि०) के बेटे ईसू की नस्ल से थे।
77. दुआ का अन्दाज़ कितना लतीफ़ (कोमल और सुथरा) है। बहुत ही कम अलफ़ाज़ में अपनी तकलीफ़ का ज़िक्र करते हैं और उसके बाद बस यह कहकर रह जाते हैं कि तू “अरहमुर-राहिमीन” (सबसे बढ़कर रहम करनेवाला) है। आगे कोई शिकवा या शिकायत नहीं, कोई गरज़ बयान करना नहीं, किसी चीज़ की माँग नहीं, दुआ के इस अन्दाज़ में कुछ ऐसी शान नज़र आती है जैसे कोई इन्तिहाई सब्र ओर क़नाअत (सन्तोष) करनेवाला और शरीफ़ और ख़ुद्दार आदमी लगातार फ़ाक़ों से बेताब हो और किसी इन्तिहाई मेहरबान हस्ती के सामने बस इतना कहकर रह जाए कि “मैं भूखा हूँ और आप दाता हैं।” आगे कुछ उसकी ज़बान से न निकल सके।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَكَشَفۡنَا مَا بِهِۦ مِن ضُرّٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰبِدِينَ ۝ 83
(84) हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और जो तकलीफ़ उसे थी उसको दूर कर दिया,78 और सिर्फ़ उसके ख़ानदान के लोग ही उसको नहीं दिए, बल्कि उनके साथ उतने ही और भी दिए, अपनी ख़ास रहमत के तौर पर, और इसलिए कि वह एक सबक़ हो इबादतगुज़ारों के लिए।79
78. सूरा-38 सॉद (आयतें—41-64) में इसकी तफ़सील यह बताई गई है कि अल्लाह तआला ने उनसे फ़रमाया, “अपना पाँव मारो, यह ठंडा पानी मौजूद है नहाने को और पीने को।” इससे मालूम होता है कि ज़मीन पर पाँव मारते ही अल्लाह ने उनके लिए एक क़ुदरती चश्मा जारी कर दिया जिसके पानी में यह ख़ासियत थी कि उससे नहाने और उसको पीने से उनकी बीमारी दूर हो गई। यह इलाज इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि उनको कोई सख़्त जिल्दी बीमारी (चर्म-रोग) हो गई थी, और बाइबल का बयान भी इसकी ताईद करता है कि उनका जिस्म सर से पाँव तक फोड़ों से भर गया था। (अय्यूब, अध्याय-2, आयत-7)
79. इस क़िस्से में क़ुरआन मजीद हज़रत अय्यूब (अलैहि०) को इस शान से पेश करता है कि वे सब्र की तस्वीर नज़र आते हैं, और फिर कहता है कि उनकी ज़़िन्दगी इबादतगुज़ारों के लिए एक नमूना है। लेकिन दूसरी तरफ़ बाइबल की किताब 'अय्यूब' पढ़िए तो वहाँ आपको एक ऐसे शख़्स को तस्वीर नज़र आएगी जो ख़ुदा के ख़िलाफ़ शिकायत की मूरत और अपनी मुसीबत पर सर से पैर तक फ़रियाद बना हुआ है। बार-बार उसकी ज़बान से ऐसे जुमले निकलते हैं, “मिट जाए वह दिन जिस दिन में पैदा हुआ”, “मैं पेट ही में क्यों न मर गया।” “मैंने पेट से निकलते ही क्यों न जान दे दी।” और बार-बार वह ख़ुदा के ख़िलाफ़ शिकायतें करता है कि “क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) के तीर मेरे अन्दर लगे हुए हैं, मेरी रूह उन्हीं के ज़हर को पी रही है, ख़ुदा की डरावनी बातें मेरे ख़िलाफ़ क़तार बाँधे हुए हैं।” “ऐ आदम की औलाद के देखनेवाले, अगर मैंने गुनाह किया है तो तेरा क्या बिगाड़ता हूँ? तूने क्यों मुझे अपना निशाना बना लिया है, यहाँ तक कि मैं अपने आप पर बोझ हूँ? तू मेरा गुनाह माफ़ क्यों नहीं करता और मेरी बदकारी क्यों नहीं दूर कर देता?” “मैं ख़ुदा से कहूँगा कि मुझे मुलज़िम न ठहरा, मुझे बता कि तू मुझसे क्यों झगड़ता है? क्या तुझे अच्छा लगता है कि अंधेर करे और अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ को हक़ीर (मामूली) जाने और शरारत करनेवालों की मशवरत को रौशन करे?” उसके तीन दोस्त आकर उसे तसल्ली देते हैं और उसको सब्र और मानने और राज़ी रहने की नसीहत करते हैं, मगर वह नहीं मानता। वह उनकी नसीहत के जवाब में एक के बाद एक इलज़ाम ख़ुदा पर रखता चला जाता है और उनके समझाने के बावुजूद इस बात पर अड़ जाता है कि ख़ुदा के इस काम में कोई हिकमत और मस्लहत नहीं है, सिर्फ़ एक ज़ुल्म है जो मुझ जैसे एक परहेज़गार और इबादतगुज़ार आदमी पर किया जा रहा है वह ख़ुदा के इस इन्तिज़ाम पर सख़्त एतिराज़ करता है कि एक तरफ़ बदकार नवाज़े जाते हैं और दूसरी तरफ़ भले काम करनेवाले सताए जाते हैं। वह एक-एक करके अपनी नेकियों गिनाता है और फिर वे तकलीफ़ें बयान करता है जो उनके बदले में ख़ुदा ने उसपर डालीं, और फिर कहता है कि ख़ुदा के पास अगर कोई जवाब है तो वह मुझे बताए कि यह सुलूक मेरे साथ किस क़ुसूर की सज़ा में किया गया है। उसकी यह ज़बानदराज़ी अपने पैदा करनेवाले के मुक़ाबले में इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि आख़िरकार उसके दोस्त उसकी बातों का जवाब देना छोड़ देते हैं। वे चुप होते हैं तो एक चौथा आदमी जो उनकी बातें चुपचाप सुन रहा था बीच में दख़ल देता है और अय्यूब (अलैहि०) को इस बात पर बहुत डाँटता है कि “उसने ख़ुदा को नहीं, बल्कि अपने आपको सही ठहराया।” उसकी तक़रीर ख़त्म नहीं होती कि बीच में अल्लाह मियाँ ख़ुद बोल पड़ते हैं और फिर उनके और अय्यूब (अलैहि०) के बीच ख़ूब गर्मागर्म बहस होती है। इस सारी दास्तान को पढ़ते हुए किसी जगह भी हमें यह महसूस नहीं होता कि हम उस सरापा सब्र का हाल और कलाम पढ़ रहे हैं जिसकी तस्वीर इबादतगुज़ारों के लिए सबक़ बनाकर क़ुरआन ने पेश की है। हैरत की बात यह है कि इस किताब का इब्तिदाई हिस्सा कुछ कह रहा है, बीच का हिस्सा कुछ, और आख़िर में नतीजा कुछ और निकल आता है। तीनों हिस्सों में कोई मेल नहीं है। शुरुआती हिस्सा कहता है कि अय्यूब (अलैहि०) एक बहुत ही ज़्यादा हक़परस्त, परहेज़गार और नेक शख़्स था, और इसके साथ इतना दौलतमन्द कि “पूरबवालों में वह सबसे बड़ा आदमी था।” एक दिन ख़ुदा के यहाँ उसके (यानी ख़ुद अल्लाह मियाँ के) बेटे हाज़िर हुए और उनके साथ शैतान भी आया। ख़ुदा ने उस महफ़िल में अपने बन्दे अय्यूब पर फ़ख़्र का इज़हार किया। शैतान ने कहा, “आपने जो कुछ इसे दे रखा है, उसके बाद वह शुक्र न करेगा तो और क्या करेगा। ज़रा इसकी नेमत छीनकर देखिए— यह आपके मुँह पर आपका इनकार न करे तो मेरा नाम शैतान नहीं।” ख़ुदा ने कहा, “अच्छा, इसका सब कुछ तेरे अधिकार में दिया जाता है। अलबत्ता उसकी ज़ात को कोई नुक़सान न पहुँचाना।” शैतान ने जाकर अय्यूब के तमाम माल-दौलत का और उसके पूरे ख़ानदान का सफ़ाया कर दिया और अय्यूब हर चीज़ से महरूम होकर बिलकुल अकेला रह गया। मगर अय्यूब की आँख पर मैल न आया। उसने ख़ुदा को सजदा किया और कहा, “नंगा ही मैं अपनी माँ के पेट से निकला और नंगा ही वापस जाऊँगा। ख़ुदावन्द ने दिया और ख़ुदावन्द ने ले लिया। ख़ुदावन्द का नाम मुबारक हो।” फिर एक दिन वैसी ही महफ़िल अल्लाह मियाँ के यहाँ जमी। उनके बेटे भी आए और शैतान भी हाज़िर हुआ। अल्लाह मियाँ ने शैतान को जताया कि “देख ले, अय्यूब कैसा हक़परस्त आदमी साबित हुआ।” शैतान ने कहा, “जनाब, ज़रा उसके जिस्म पर मुसीबत डालकर देखिए। वह आपके मुँह पर आपका इनकार करेगा।” अल्लाह मियाँ ने फ़रमाया, “अच्छा जा उसको तेरे अधिकार में दिया गया, बस उसकी जान महफ़ूज़ रहे।” चुनाँचे शैतान वापस हुआ और आकर उसने “अय्यूब को तलवे से चाँद तक दर्दनाक फोड़ो से दुख दिया।” उसकी बीवी ने उससे कहा, “क्या तू अब भी अपनी हक्क़-परस्ती पर क़ायम रहेगा? ख़ुदा का इनकार कर और मर जा।” उसने जवाब दिया, “तू नादान औरतों की-सी बातें करती है। क्या हम ख़ुदा के हाथ से सुख पाएँ और दुख न पाएँ?” यह है ‘अय्यूब’नाम की किताब के पहले और दूसरे बाब (अध्याय) का ख़ुलासा। लेकिन इसके बाद तीसरे अध्याय से एक दूसरा ही मज़मून शुरू होता है जो 42वें अध्याय तक अय्यूब की बेसब्री और ख़ुदा के ख़िलाफ़ शिकायतों और इलज़ामों की एक लगातार दास्तान है, और उससे पूरी तरह यह बात साबित हो जाती है कि अय्यूब के बारे में ख़ुदा का अन्दाज़ा ग़लत निकला और शैतान का अन्दाज़ा सही था। फिर 42वाँ अध्याय इस बात पर ख़त्म होता है कि अल्लाह मियाँ से ख़ूब गर्मा-गर्म बहस कर लेने के बाद, सब्र, शुक्र और भरोसे की वजह से नहीं, बल्कि अल्लाह मियाँ की डाँट खाकर, अय्यूब (अलैहि०) उनसे माफ़ी माँग लेता है और वह उसे क़ुबूल करके उसकी तकलीफ़ें दूर कर देते हैं और जितना कुछ पहले उसके पास था उससे दोगुना दे देते हैं। इस आख़िरी हिस्से को पढ़ते वक़्त आदमी को यूँ महसूस होता है कि अय्यूब और अल्लाह मियाँ दोनों शैतान के चैलेंज के मुक़ाबले में नाकाम साबित हुए हैं, और फिर सिर्फ़ अपनी बात रखने के लिए अल्लाह मियाँ ने डाँट-डपटकर उसे माफ़ी माँगने पर मजबूर किया है, और उसके माफ़ी माँगते ही उसे क़ुबूल कर लिया है, ताकि शैतान के सामने उनकी हेटी (रुसवाई और सुबकी) न हो। यह किताब ख़ुद अपने मुँह से बोल रही है कि यह न ख़ुदा का कलाम है, न ख़ुद हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का, बल्कि यह हज़रत अय्यूब के ज़माने का भी नहीं है। उनके सदियों बाद किसी शख़्स ने अय्यूब (अलैहि०) के क़िस्से को बुनियाद बनाकर 'यूसुफ़-ज़ुलेख़ा' की तरह एक दास्तान लिखी है और उसमें अय्यूब, अल-यज़ तैमानी, सूख़ी बलद, नोमाती ज़ूफ़र, बराकील बूज़ी का बेटा अल-यहू कुछ किरदार हैं जिनकी ज़बान से कायनात के निज़ाम के बारे में दरअस्ल वह अपना फ़लसफ़ा (दर्शन) बयान करता है। उसकी शायरी और उसके ज़ोरे-बयान की जितना जी चाहे दाद दे लीजिए, मगर पाक किताबों के मजमूए में एक आसमानी सहीफ़े की हैसियत से इसको जगह देने का कोई मतलब नहीं। अय्यूब (अलैहि०) की सीरत (जीवनी) से इसका बस इतना ही ताल्लुक़ है जितना 'यूसुफ़ ज़ुलेखा' का ताल्लुक़ यूसुफ़ (अलैहि०) की सीरत से है, बल्कि शायद उतना भी नहीं। ज़्यादा-से-ज़्यादा हम इतना ही कह सकते हैं कि इस किताब के इब्तिदाई और आख़िरी हिस्से में जो वाक़िआत बयान किए गए हैं उनमें सही तारीख़ का एक हिस्सा पाया जाता है, और वह शाइर ने या तो ज़बानी रिवायतों से लिया होगा जो उस ज़माने में मशहूर होंगी, या फिर किसी सहीफ़े से लिया होगा जो अब मौजूद नहीं है।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِدۡرِيسَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 84
(85) और यही नेमत इसमाईल और इदरीस80 और ज़ुलकिफ़्ल81 को दी कि ये सब सब्र करनेवाले लोग थे।
80. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-19 मरयम, हाशिया-83।
81. जुलक़िफ्ल का लफ़्ज़ी तर्जमा है 'नसीबवाला', और मुराद है अख़लाक़ी बुज़ुर्गी और आख़िरत के बदले के लिहाज़ से नसीबवाला, न कि दुनियावी फ़ायदों और लाभों के लिहाज़ से। यह उन बुज़ुर्ग का नाम नहीं, बल्कि लक़ब (उपाधि) है क़ुरआन मजीद में दो जगह उनका ज़िक्र आया है और दोनों जगह उनको इसी लक़ब से याद किया गया है नाम नहीं लिया गया। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों के ख़यालात इस मामले में बहुत उलझे हुए हैं कि ये बुज़ुर्ग कौन हैं, किस देश और क़ौम से ताल्लुक़ रखते हैं और किस ज़माने में गुज़रे हैं। कोई कहता है कि ये हज़रत ज़करिय्या (अलैहि०) का दूसरा नाम है (हालाँकि यह बिलकुल ग़लत है, क्योंकि उनका ज़िक्र अभी आगे आ रहा है), कोई कहता है ये हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) हैं, कोई यूशअ-बिन-नून का नाम लेता है, कोई कहता है ये अल-यसअ हैं, (हालाँकि यह भी ग़लत है; सूरा-38 सॉद में उनका ज़िक्र अलग किया गया है और ज़ुलक़िफ़्ल का अलग), कोई उन्हें हज़रत अल-यसअ का ख़लीफ़ा बताता है और किसी का कहना है कि ये हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के बेटे थे जो उनके बाद नबी हुए और उनका अस्ली नाम बिश्र था। आलूसी ने रूहुल-मआनी में लिखा है कि “यहूदियों का दावा है कि ये हिज्रक़ियाल (हिज्रक़ीएल) नबी हैं जो बनी-इसराईल की क़ैदी ज़िन्दगी (597 ई० पू०) के ज़माने में नबी बनाए गए और नहर ख़ाबूर के किनारे एक बस्ती में नुबूबत की ज़िम्मेदारियों निभाते रहे। इन अलग-अलग बयानों की मौजूदगी में यक़ीन और भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि अस्ल में ये कौन-से नबी हैं। मौजूदा ज़माने के तफ़सीर लिखनेवालों ने अपना झुकाव हिज्रक़ीएल नबी की तरफ़ ज़ाहिर किया है, लेकिन हमें कोई सही दलील ऐसी नहीं मिली जिसकी बुनियाद पर यह राय क़ायम की जा सके। फिर भी अगर इसके लिए कोई दलील मिल सके तो यह राय तरजीह के क़ाबिल हो सकती है, क्योंकि बाइबल की किताब हिज्रक़ीएल को देखने से मालूम होता है कि सचमुच वे इस तारीफ़ के हक़दार हैं जो इस आयत में की गई है, यानी सब्र करनेवाले और नेक। वे उन लोगों में से थे जो यरुशलम की आख़िरी तबाही से पहले बख़्त नसर के हाथों गिरफ़्तार हो चुके थे। बख़्त नसर ने इराक़ में इसराईली क़ैदियों की एक नई आबादी ख़ाबूर नदी के किनारे क़ायम कर दी थी, जिसका नाम तल-अबीब था। इसी जगह पर 594 ई०पू० में हज़रत हिज़क़ीएल नबी बनाए गए जबकि उनकी उम्र 30 साल थी, और लगातार 22 साल एक तरफ़ मुसीबत में गिरफ़्तार इसराईलियों को और दूसरी तरफ़ यरूशलम के ग़ाफ़िल और अपने में मस्त बाशिन्दों और हुक्मरानों को चलाने का काम करते रहे। इस बड़े काम में उनकी लगन का जो हाल था उसका अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि नुबूवत के 9वें साल उनकी बीवी जिन्हें वे ख़ुद 'मंज़ूरे-नज़र' कहते हैं, इन्तिक़ाल कर जाती हैं, लोग उनके पुरसे के लिए इकट्ठे होते हैं, और यह अपना दुखड़ा छोड़कर अपनी मिल्लत (समुदाय) को ख़ुदा के उस अज़ाब से डराना शुरू कर देते हैं जो उसके सर पर तुला खड़ा था (अध्याय-21, आयतें—15-27)। बाइबल की किताब हिज्रक़ीएल उन सहीफ़ों में से है, जिन्हें पढ़कर सचमुच यह महसूस होता है कि यह इलहामी (अल्लाह की तरफ़ से उतारा हुआ) कलाम है।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَوَهَبۡنَا لَهُۥ يَحۡيَىٰ وَأَصۡلَحۡنَا لَهُۥ زَوۡجَهُۥٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَيَدۡعُونَنَا رَغَبٗا وَرَهَبٗاۖ وَكَانُواْ لَنَا خَٰشِعِينَ ۝ 85
(90) फिर हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे यह्या दिया और उसकी बीवी को उसके लिए दुरुस्त कर दिया।86 ये लोग नेकी के कामों में दौड़-धूप करते थे और हमें लगाव और डर के साथ पुकारते थे, और हमारे आगे झुके हुए थे।87
86. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—37-41 हाशियों समेत; सूरा-19 मरयम, आयतें—2-15 हाशियों समेत, बीवी को दुरुस्त कर देने से मुराद उनका बाँझपन दूर कर देना और बुढ़ापे के बावजूद बच्चा पैदा करने के क़ाबिल बना देना है। “बेहतरीन वारिस तो तू ही है।” यानी तू औलाद न भी दे तो ग़म नहीं, तेरी पाक हस्ती वारिस होने के लिए काफ़ी है।
87. यहाँ इस मौक़े पर नबियों का ज़िक्र जिस मक़सद के लिए किया गया है उसे फिर ज़ेहन में ताज़ा कर लीजिए। हज़रत ज़करिय्या (अलैहि०) के क़िस्से का ज़िक्र करने का मक़सद यह ज़ेहन में बिटाना है कि ये सारे पैग़म्बर सिर्फ़ अल्लाह के बन्दे और इनसान थे, ख़ुदाई का उनमें कोई हलका-सा निशान और असर तक न था। दूसरों को औलाद देनेवाले न ये, बल्कि ख़ुद अल्लाह के आगे औलाद के लिए हाथ फैलानेवाले थे। हज़रत यूनुस (अलैहि०) का ज़िक्र इसलिए किया गया कि एक बुलन्द और मज़बूत इरादोंवाले नबी होने के बावजूद जब उनसे ग़लती हो गई तो उन्हें पकड़ लिया गया और जब वे अपने रब के आगे झुक गए तो उनपर मेहरबानी भी ऐसी की गई कि मछली के पेट से ज़िन्दा निकाल लिए गए। हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का ज़िक्र इसलिए किया गया कि नबी का मुसीबत में पड़ जाना कोई निराली बात नहीं है, और नबी भी जब मुसीबत में मुब्तला होता है तो ख़ुदा ही के आगे मुसीबत से नजात के लिए हाथ फैलाता है। वह दूसरों को अच्छा कर देनेवाला नहीं, ख़ुदा से सेहत माँगनेवाला होता है। फिर इन सब बातों के साथ एक तरफ़ यह हक़ीक़त भी ज़ेहन में बिठानी मक़सद है कि ये सारे पैग़म्बर तौहीद (एकेश्वरवाद) के माननेवाले थे और अपनी ज़रूरतें एक ख़ुदा के सिवा किसी के सामने न ले जाते थे, और दूसरी तरफ़ यह भी जताना मक़सद है कि अल्लाह तआला हमेशा ग़ैर-मामूली तौर पर अपने पैग़म्बरों की मदद करता रहा है। शुरू में चाहे कैसी ही आज़माइशों से उनको गुज़रना पड़ा हो, मगर आख़िरकार उनकी दुआएँ मोजिज़ाना (चामत्कारिक) शान के साथ पूरी हुई हैं।
وَٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهَا مِن رُّوحِنَا وَجَعَلۡنَٰهَا وَٱبۡنَهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 86
(91) और वह औरत जिसने अपनी इस्मत (अस्मिता) की हिफ़ाज़त की थी,88 हमने उसके अन्दर अपनी रूह से फूँका89 और उसे और उसके बेटे को दुनिया भर के लिए निशानी बना दिया।90
88. मुराद हैं हज़रत मरयम (अलैहि०)।
89. हज़रत आदम (अलैहि०) के बारे में भी यह कहा गया है कि “मैं मिट्टी से एक इनसान बना रहा हूँ; तो (ऐ फ़रिश्तो) जब मैं उसे पूरा बना चुकू और उसमें अपनी रूह से फूँक दूँ तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना।” (सूरा-38 साद, आयतें— 71, 72) और यही बात हज़रत ईसा (अलैहि०) के बारे में अलग-अलग जगहों पर कही गई है सूरा-4 निसा में फ़रमाया, “अल्लाह का रसूल और उसका फ़रमान जो मरयम की तरफ़ डाला गया और उसकी तरफ़ से एक रूह।” (आयत-171)। और सूरा-66 तहरीम में कहा गया, “और इमरान की बेटी मरयम जिसने अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त की तो फूँक दिया हमने उसमें अपनी रूह से।” (आयत-12)। इसके साथ यह बात भी सामने रहे कि अल्लाह तआला हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश और हज़रत आदम (अलैहि०) की पैदाइश को एक-दूसरे से मिलता-जुलता क़रार देता है, चुनाँचे सूरा-3 आले-इमरान में फ़रमाया, “ईसा की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम की-सी है जिसको अल्लाह ने मिट्टी से बनाया और फिर कहा हो जा' और वह हो जाता है।” (आयत-59) इन आयतों पर ग़ौर करने से यह बात समझ में आती है कि पैदाइश के आम तरीक़े के बजाय जब अल्लाह तआला किसी को सीधे-सीधे अपने हुक्म से वुजूद में लाकर ज़िन्दगी देता है तो उसके लिए 'अपनी रूह से फूँकने' के अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करता है। इस रूह का ताल्लुक़ अल्लाह से शायद इसलिए जोड़ा गया है कि उसका फूँका जाना मोजिज़े की ग़ैर-मामूली शान रखता है। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिए—212, 213।
90. ये दोनों माँ-बेटे ख़ुदा या ख़ुदाई (अल्लाह के गुणों) में शरीक न थे, बल्कि ख़ुदा की निशानियों में से एक निशानी थे। 'निशानी' वे किस मानी में थे, इसकी तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-19 मरयम, हाशिया-21 और तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-43।
إِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 87
(92) यह तुम्हारी उम्मत (समुदाय) हक़ीक़त में एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हूँ तो तुम मेरी इबादत करो।
وَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡۖ كُلٌّ إِلَيۡنَا رَٰجِعُونَ ۝ 88
(93) मगर (यह लोगों की कारस्तानी है कि) उन्होंने आपस में अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला91— सबको हमारी तरफ़ पलटना है।
91. 'तुम' तमाम इनसानों को कहा गया है। मतलब यह है कि ऐ इनसानो, तुम सब हक़ीक़त में एक ही उम्मत (समुदाय) और एक ही मिल्लत (पंथ) थे। दुनिया में जितने नबी भी आए, वे सब एक ही दीन लेकर आए थे, और वह अस्ल दीन यह था कि सिर्फ़ एक अल्लाह ही इनसान का रब है और अकेले अल्लाह ही की बन्दगी और परस्तिश की जानी चाहिए। बाद में जितने धर्म पैदा हुए वे इसी दीन को बिगाड़कर बना लिए गए उसकी कोई चीज़ किसी ने ली, और कोई दूसरी चीज़ किसी और ने, और फिर हर एक ने एक हिस्सा उसका लेकर बहुत-सी चीज़ें अपनी तरफ़ से उसके साथ मिला डालीं इस तरह ये अनगिनत मिल्लतें वुजूद में आईं। अब यह समझना कि फ़ुलाँ नबी फ़ुलाँ मज़हब की बुनियाद डालनेवाला था और फ़ुलाँ नबी ने फ़ुलाँ मज़हब की बुनियाद डाली, और इनसानों में यह मिल्लतों और मज़हबों की फूट नबियों की डाली हुई है, महज़ एक रात ख़याल है। महज़ यह बात कि ये अलग-अलग मिल्लतें अपने आपको अलग-अलग ज़मानों और अलग-अलग देशों के नबियों से जोड़ रही हैं, इस बात की दलील नहीं है कि मिल्लतों और मज़हबों का यह इख़्तिलाफ़ नबियों का डाला हुआ है ख़ुदा के भेजे हुए पैग़म्बर दस अलग मज़हब नहीं बना सकते थे और न एक ख़ुदा के सिवा किसी और की बन्दगी सिखा सकते थे।
فَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا كُفۡرَانَ لِسَعۡيِهِۦ وَإِنَّا لَهُۥ كَٰتِبُونَ ۝ 89
(94) फिर जो नेक अमल करेगा, इस हाल में कि वह ईमानवाला हो तो उसके काम की नाक़द्री न होगी, और उसे हम लिख रहे हैं।
وَحَرَٰمٌ عَلَىٰ قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآ أَنَّهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 90
(95) और मुमकिन नहीं है कि जिस बस्ती को हमने हलाक कर दिया हो वह फिर पलट सके।92
92. इस आयत के तीन मतलब हैं— एक यह कि जिस क़ौम पर एक बार अल्लाह का अज़ाब आ चुका हो, वह फिर कभी नहीं उठ सकती। उसका दोबारा उठना और नई ज़िन्दगी मुमकिन नहीं है। दूसरा यह कि हलाक हो जाने के बाद फिर इस दुनिया में उसका पलटना और उसे दोबारा इम्तिहान का मौक़ा मिलना नामुमकिन है। फिर तो अल्लाह की अदालत ही में उसकी पेशी होगी। तीसरा वह कि जिस काम की बदकारियाँ और ज़ुल्म-ज़्यादतियाँ और सीधे रास्ते से बराबर मुँह फेरते रहना इस हद तक पहुँच जाता है कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उसकी तबाही का फ़ैसला हो जाता है उसे फिर सही रास्ते की तरफ़ पलटने और ग़लतियों से तौबा करने का मौक़ा नहीं दिया जाता। उसके लिए फिर यह मुमकिन नहीं रहता कि गुमराही से सीधे रास्ते की तरफ़ पलट सके।
حَتَّىٰٓ إِذَا فُتِحَتۡ يَأۡجُوجُ وَمَأۡجُوجُ وَهُم مِّن كُلِّ حَدَبٖ يَنسِلُونَ ۝ 91
(96) यहाँ तक कि जब याजूज और माजूज खोल दिए जाएँगे और हर बुलन्दी से वे निकल पड़ेंगे
وَٱقۡتَرَبَ ٱلۡوَعۡدُ ٱلۡحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَٰخِصَةٌ أَبۡصَٰرُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَٰوَيۡلَنَا قَدۡ كُنَّا فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا بَلۡ كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 92
(97) और सच्चे वादे के पूरा होने का वक़्त क़रीब आ लगेगा93 तो यकायक उन लोगों के दीदे फटे-के फटे रह जाएँगे जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया था कहेंगे, “हाय हमारी कमबख़्ती, हम इस चीज़ की तरफ़ से ग़फ़लत में पड़े हुए थे, बल्कि हम ख़ताकार थे।94
93. याजूज माजूज की तशरीह तफहीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-62 और 69 में की जा चुकी है। उनके खोल दिए जाने का मतलब यह है कि वे दुनिया पर इस तरह टूट पड़ेंगे कि जैसे कोई शिकारी दरिन्दा यकायक पिंजरे या बन्धन से छोड़ दिया गया हो। “सच्चे वादे के पूरा होने का वक़्त क़रीब आ लगेगा” का इशारा साफ़ तौर पर इस तरफ़ है कि याजूज-माजूज को पूरी दुनिया पर यह यलग़ार आख़िरी ज़माने में होगी और उसके बाद जल्दी ही क़ियामत आ जाएगी। नबी (सल्ल०) का वह इरशाद इस मानी को और ज़्यादा खोल देता है जो मुस्लिम ने हुज़ैफ़ा-बिन-असीद अल-ग़िफ़ारी की रिवायत से नक़्ल किया है कि “क़ियामत क़ायम न होगी जब तक तुम उससे पहले दस अलामतें (लक्षण) न देख लो— धुआँ, दज्जाल, ज़मीन का जानवर, मग़रिब (पश्चिम) से सूरज का निकलना, मरयम के बेटे ईसा (अलहि०) का उतरना, याजूज-माजूज का हमला और तीन बड़े ख़ुसूफ़ (ज़मीन की धँसना या Land Slide)— एक पूरब में, दूसरा मग़रिब (पश्चिम) में और तीसरा जज़ीरतुल-अरब (अरब प्रायदीप) में। फिर सबसे आख़िर में यमन से एक साल आग उठेगी जो लोगों को महशर (इकट्ठे होने की जगह) की तरफ़ हाँकेगी (यानी बस उसके बाद क़ियामत आ जाएगी)।” एक और हदीस में याजूज-माजूज के हमले का ज़िक्र करके नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उस वक़्त क़ियामत इतनी ज़्यादा क़रीब होगी, जैसे पूरे पेटों की हामिला कि कह नहीं सकते कब वह बच्चा जन दे, रात को या दिन को।” लेकिन क़ुरआन मजीद और हदीसों में याजूज माजूज के बारे में जो कुछ बयान किया गया है उससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि ये दोनों एकजुट होंगे और मिलकर दुनिया पर टूट पड़ेंगे। हो सकता है कि क़ियामत के क़रीब ज़माने में ये दोनों आपस ही में लड़ जाएँ और फिर उनकी लड़ाई एक पूरी दुनिया में फैल जानेवाले फ़साद की वजह बन जाए।
94. 'ग़फ़लत' में फिर एक तरह की मजबूरी पाई जाती है, इसलिए वे अपनी ग़फ़लत का ज़िक्र करने के बाद फिर ख़ुद ही साफ़-साफ़ तस्लीम कर लेंगे कि हमको नबियों ने आकर इस दिन से ख़बरदार किया था। लिहाज़ा हक़ीक़त में हम ग़ाफ़िल और बेख़बर न ये, बल्कि ख़ताकार थे।
إِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنتُمۡ لَهَا وَٰرِدُونَ ۝ 93
(98) बेशक तुम और तुम्हारे वे माबूद, जिन्हें तुम पूजते हो, जहन्नम का ईंधन हैं वहीं तुमको जाना है।95
95. रिवायतों में आया है कि इस आयत पर अब्दुल्लाह-बिन-अज़-ज़वारा ने एतिराज़ किया कि इस तरह तो सिर्फ़ हमारे ही माबूद नहीं, मसीह और उज़ैर और फ़रिश्ते भी जहन्नम में जाएँगे; क्योंकि दुनिया में उनकी भी इबादत की जाती है। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया “हाँ, हर वह शख़्स जिसने पसन्द किया कि अल्लाह के बजाय उसकी बन्दगी की जाए, वह उन लोगों के साथ होगा जिन्होंने उसकी बन्दगी की।” इससे मालूम हुआ कि जिन लोगों ने अल्लाह के बन्दों को ख़ुदा-परस्ती की तालीम दी थी और लोग उन्हीं को माबूद बना बैठे, या जो बेचारे इस बात से बिलकुल बे-ख़बर हैं कि दुनिया में उनकी बन्दगी की जा रही है और इस काम में उनकी ख़ाहिश और मरज़ी का कोई दख़ल नहीं है उनके जहन्नम में जाने की कोई वजह नहीं है; क्योंकि वे इस शिर्क के ज़िम्मेदार नहीं हैं। अलबत्ता जिन्होंने ख़ुद माबूद बनने की कोशिश की और जिनका लोगों के इस शिर्क में सचमुच दख़ल है, वे सब अपने इबादतगुज़ारों के साथ जहन्नम में जाएँगे। इसी तरह वे लोग भी जहन्नम में जाएँगे जिन्होंने अपने मतलब और फ़ायदों के लिए अल्लाह को छोड़कर दूसरों को माबूद बनवाया, क्योंकि इस सूरत में मुशरिकों के अस्ली माबूद वही क़रार पाएँगे, न कि वे जिनको इन शरारती लोगों ने बज़ाहिर माबूद बनवाया था। शैतान भी इसी के तहत आता है, क्योंकि उसके उकसाने पर जिन हस्तियों को माबूद बनाया जाता है, अस्ल माबूद वे नहीं, बल्कि ख़ुद शैतान होता है जिसके हुक्म पर चलने में यह हरकत की जाती है। इसके अलावा पत्थर और लकड़ी के बुतों और पूजा के दूसरे सामान को भी मुशरिक लोगों के साथ जहन्नम में दाख़िल किया जाएगा, ताकि वे उनपर जहन्नम की आग के और ज़्यादा भड़कने की वजह बनें और यह देखकर उन्हें और ज़्यादा तकलीफ़ हो कि जिनसे वे सिफ़ारिश की उम्मीद लगाए बैठे थे, वे उनपर उलटे अज़ाब की शिद्दत की वजह बने हुए हैं।
لَوۡ كَانَ هَٰٓؤُلَآءِ ءَالِهَةٗ مَّا وَرَدُوهَاۖ وَكُلّٞ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 94
(99) अगर सचमुच ये ख़ुदा होते तो वहाँ न जाते। अब सबको हमेशा इसी में रहना है
لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَهُمۡ فِيهَا لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 95
(100 ) वहाँ वे फुँकार मारेंगे96 और हाल यह होगा कि उसमें कान पड़ी आवाज़ न सुनाई देगी।
96. अस्ल अरबी में 'ज़फ़ीर' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। सख़्त गर्मी, मेहनत और थकान की हालत जब आदमी लम्बी साँस लेकर उसको एक पुकार के रूप में निकालता है तो उसे अरबी में 'ज़फ़ीर' कहते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ سَبَقَتۡ لَهُم مِّنَّا ٱلۡحُسۡنَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ عَنۡهَا مُبۡعَدُونَ ۝ 96
(101) रहे वे लोग जिनके लिए हमारी तरफ़ से भलाई का पहले ही फ़ैसला हो चुका होगा तो वे यक़ीनन उससे दूर रखे जाएँगे,97
97. इससे मुराद वे लोग हैं जिन्होंने दुनिया में नेकी और भलाई की राह अपनाई। ऐसे लोगों के बारे में अल्लाह तआला पहले ही यह वादा कर चुका है कि वे उसके अज़ाब से बचे रहेंगे और उनको नजात दी जाएगी।
لَا يَسۡمَعُونَ حَسِيسَهَاۖ وَهُمۡ فِي مَا ٱشۡتَهَتۡ أَنفُسُهُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 97
(102) उसकी सरसराहट तक न सुनेंगे। और हमेशा- हमेशा अपनी मनभाती चीज़ों के बीच रहेंगे।
لَا يَحۡزُنُهُمُ ٱلۡفَزَعُ ٱلۡأَكۡبَرُ وَتَتَلَقَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ هَٰذَا يَوۡمُكُمُ ٱلَّذِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 98
(103) वह इन्तिहाई घबराहट का वक़्त उनको ज़रा परेशान न करेगा,98 और फ़रिश्ते बढ़कर उनको हाथों-हाथ लेंगे कि “यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता था।"
98. यानी महशर (इकट्ठा होने) के दिन और ख़ुदा के सामने पेशी का वक़्त जो आम लोगों के लिए इन्तिहाई घबराहट और परेशानी का वक़्त होगा, उस वक़्त नेक लोगों पर एक इत्मीनान की कैफ़ियत छाई रहेगी। इसलिए कि सब कुछ उनकी उम्मीदों के मुताबिक़ हो रहा होगा। ईमान और अच्छे कामों की जो पूँजी लिए हुए वे दुनिया से विदा हुए थे, वह उस वक़्त ख़ुदा की मेहरबानी से उनकी ढाढ़स बाँधाएगी और डर और दुख की जगह उनके दिलों में यह उम्मीद पैदा करेगी कि जल्द ही वे अपनी कोशिश के अच्छे नतीजे देखनेवाले हैं।
يَوۡمَ نَطۡوِي ٱلسَّمَآءَ كَطَيِّ ٱلسِّجِلِّ لِلۡكُتُبِۚ كَمَا بَدَأۡنَآ أَوَّلَ خَلۡقٖ نُّعِيدُهُۥۚ وَعۡدًا عَلَيۡنَآۚ إِنَّا كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 99
(104) वह दिन जबकि आसमान को हम यूँ ही लपेटकर रख देंगे, जैसे पंजी में पन्ने लपेटकर रख दिए जाते हैं। जिस तरह पहले हमने पैदाइश की शुरुआत की थी, उसी तरह हम फिर उसको दोहराएँगे। यह एक वादा है हमारे ज़िम्मे, और यह काम हमें बहरहाल करना है।
وَلَقَدۡ كَتَبۡنَا فِي ٱلزَّبُورِ مِنۢ بَعۡدِ ٱلذِّكۡرِ أَنَّ ٱلۡأَرۡضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ ٱلصَّٰلِحُونَ ۝ 100
(105) और ज़बूर में हम नसीहत के बाद यह लिख चुके हैं कि ज़मीन वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे
إِنَّ فِي هَٰذَا لَبَلَٰغٗا لِّقَوۡمٍ عَٰبِدِينَ ۝ 101
(106) इसमें एक बड़ी ख़बर है इबादतगुज़ार लोगों के लिए।99
99. इस आयत का मतलब समझने में कुछ लोगों ने ज़बरदस्त ठोकर खाई है और इससे एक ऐसा मतलब निकाल लिया है जो पूरे क़ुरआन को रद्द करता और दीन के पूरे निज़ाम (व्यवस्था) की जड़ खोद डालता है। वे आयत का मतलब यह लेते हैं कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में ज़मीन की विरासत (यानी सल्तनत और हुकूमत और ज़मीन के वसाइल के इस्तेमाल का हक़) सिर्फ़ नेक और भले लोगों को मिला करती है और उन्हीं को अल्लाह तआला इस नेमत से नवाज़ता है। फिर इस तस्लीमशुदा उसूल से वे यह नतीजा निकालते हैं कि नेक होने और नेक न होने के फ़र्क़ का पैमाना यही ज़मीन की विरासत है। जिसको यह विरासत मिले वह नेक है और जिसको न मिले वह नेक नहीं है। इसके बाद वे आगे बढ़कर उन क़ौमों पर निगाह डालते हैं जो दुनिया में पहले ज़मीन की वारिस रही हैं और आज इस विरासत की मालिक बनी हुई हैं। यहाँ वे देखते हैं कि काफ़िर, मुशरिक, नास्तिक, गुनाहगार और बदकार, सब ये विरासत पहले भी पाते रहे हैं और आज भी पा रहे हैं। जिन क़ौमों में वे तमाम सिफ़ात पाई गई हैं और आज पाई जाती हैं जिन्हें क़ुरआन साफ़ अलफ़ाज़ में कुफ़्र (इनकार), गुनाह, बदकारी, बुराई और नाफ़रमानी कहता है, वे इस विरासत से महरूम नहीं हुईं, बल्कि नवाज़ी गईं और आज भी नवाज़ी जा रही हैं। फ़िरऔन और नमरूद से लेकर इस ज़माने के कम्युनिस्ट हाकिमों तक कितने ही हैं जो खुल्लम-खुल्ला ख़ुदा का इनकार करनेवाले, उसके मुख़ालिफ़ बल्कि उसके मद्दे-मुक़ाबिल (प्रतिद्वंद्वी) बने हैं और फिर भी ज़मीन के वारिस हुए हैं। इस मंज़र को देखकर वे यह राय क़ायम करते हैं कि क़ुरआन का बयान किया हुआ बुनियादी उसूल तो ग़लत नहीं हो सकता। अब लाज़िमी तौर पर ग़लती जो कुछ है वह ‘भले और अच्छे' के उस मतलब में है जो अब तक मुसलमान समझते रहे हैं। चुनाँचे वे नेकी और भलाई का एक नया तसव्वुर तलाश करते हैं जिसके मुताबिक़ ज़मीन के वारिस होनेवाले सब लोग समान रूप से 'नेक’ या भले ठहराए जा सकें, इस बात से बिलकुल अलग हटकर कि वे अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) और उमर फारूक़ (रज़ि०) हों या चंगेज़ और हलाकू। इस नए तसव्वुर की तलाश में डार्विन का तरक़्क़ी का नज़रिया उनकी रहनुमाई करता है और वह क़ुरआन में बताए गए 'नेकी' के तसव्वुर को डार्विन के 'सलाहियत (Fitness) के तसव्वुर से ले जाकर मिला देते हैं। इस नई तफ़सीर (व्याख्या) के मुताबिक़ इस आयत का मतलब यह ठहरता है कि जो शख़्स और गरोह भी देशों को जीतने और उनपर ताक़त के ज़रिए से अपनी हुकूमत चलाने और ज़मीन के वसाइल को कामयाबी के साथ इस्तेमाल करने की क़ाबिलियत रखता हो, वही 'ख़ुदा का नेक बन्दा' है और उसका यह काम तमाम 'इबादतगुज़ार' इनसानों के लिए एक पैग़ाम है कि 'इबादत' इस चीज़ का नाम है जो यह शख़्स और गरोह कर रहा है, अगर यह इबादत तुम नहीं करते और नतीजे में ज़मीन की विरासत तुम्हें नहीं मिल पाती है तो न तुम्हारी गिनती नेक और भले लोगों में हो सकती है और न तुमको ख़ुदा का इबादतगुज़ार बन्दा कहा जा सकता है। यह मतलब अपना लेने के बाद इन लोगों के सामने यह सवाल आया कि अगर 'नेकी और इबादत' का तसव्वुर यह है तो फिर वह ईमान (अल्लाह पर ईमान, आख़िरत के दिन पर ईमान, रसूलों पर ईमान और आसमानी किताबों पर ईमान) क्या है जिसके बिना, ख़ुद इसी क़ुरआन के मुताबिक़, ख़ुदा के यहाँ कोई अच्छा काम क़ुबूल न होगा? और फिर क़ुरआन की इस दावत का क्या मतलब है कि उस अख़लाक़ी निज़ाम (नैतिक व्यवस्था) और क़ानूने-ज़िन्दगी (जीवन-विधान) की पैरवी करो जो ख़ुदा ने अपने रसूल के ज़रिए से भेजा है? और फिर क़ुरआन का बार-बार यह कहना क्या मतलब रखता है कि जो रसूल को न माने और ख़ुदा के उतारे हुए हुक्मों की पैरवी न करे वह काफ़िर (इनकारी), फ़ासिक़ (नाफ़रमान), अज़ाब का हक़दार और अल्लाह के गज़ब का हक़दार है? ये सवालात ऐसे थे कि अगर ये लोग इनपर ईमानदारी के साथ ग़ौर करते तो महसूस कर लेते कि इनसे इस आयत का मतलब समझने और नेकी का एक नया तसव्वुर क़ायम करने में ग़लती हुई है। लेकिन उन्होंने अपनी ग़लती महसूस करने के बजाय पूरी ढिठाई के साथ ईमान, इस्लाम, तौहीद, आख़िरत, रिसालत, हर चीज़ का मतलब बदल डाला, ताकि वे सब उनकी इस एक आयत की तफ़सीर के मुताबिक़ हो जाएँ, और इस एक चीज़ को ठीक मिटाने के लिए उन्होंने क़ुरआन की सारी तालीमात को उलट-पुलट कर डाला। इसपर लतीफ़ा यह है कि जो लोग उनके ज़रिए से निकाले गए क़ुरआनी आयत के इस मनमाने मतलब से इख़्तिलाफ़ करते हैं उनको ये उलटा इलज़ाम देते हैं कि “ख़ुद बदलते नहीं, क़ुरआं को बदल देते हैं।” यह अस्ल में माद्दी तरक्क़ी (भौतिक विकास) की ख़ाहिश का हैज़ा है जो कुछ लोगों को इस बुरी तरह हो गया है कि वे क़ुरआन के मतलबों में उलट-फेर करने में भी नहीं झिझकते। उनकी इस तफ़सीर में पहली बुनियादी ग़लती यह है कि ये लोग एक आयत की ऐसी तफ़सीर करते हैं जो क़ुरआन की कुल तालीमात के ख़िलाफ़ पड़ती है; हालाँकि उसूली तौर पर क़ुरआन की हर आयत की वही तफ़सीर सही हो सकती है जो उसके दूसरे बयानों और उसके पूरे निज़ामे-फ़िक्र (वैचारिक व्यवस्था) से मेल खाती हो। कोई शख़्स जिसने कभी क़ुरआन को एक बार भी समझकर पढ़ने की कोशिश की है, इस बात से अनजान नहीं रह सकता कि क़ुरआन जिस चीज़ को नेकी, तक़वा (परहेज़गारी) और भलाई कहता है वह 'माद्दी तरक़्क़ी और हुक्मरानी’ की सलाहियत के हममानी नहीं है, और 'नेक' को अगर 'सलाहियतवाला' के मानी में न लिया जाए तो यह एक आयत पूरे क़ुरआन से टकरा जाती है। दूसरा सबब जो इस ग़लती की वजह बना है, यह है कि ये लोग एक आयत को उसके मौक़ा-महल से अलग करके बेझिझक जो मतलब चाहते हैं उसके अलफ़ाज से निकाल लेते हैं, हालाँकि हर आयत का सही मतलब सिर्फ़ वही हो सकता है जो मौक़ा-महल से मेल खाता हो। अगर यह ग़लती न की जाती तो आसानी के साथ देखा जा सकता था कि ऊपर से जो बात लगातार चली आ रही है उसमें आख़िरत की दुनिया में नेक ईमानवालों और हक़ के नकारियों और मुशरिकों के अंजाम से बहस की गई है। इस मज़मून (विषय) में यकायक इस मज़मून के बयान करने का आख़िर कौन-सा मौक़ा था कि दुनिया में ज़मीन की विरासत का इन्तिज़ाम किस क़ायदे पर हो रहा है। तफ़सीर के सही उसूलों को ध्यान में रखकर देखा जाए तो आयत का मतलब साफ़ है कि दूसरी पैदाइश (मरने के बाद दोबारा उठाए जाने) में जिसका ज़िक्र इससे पहले की आयत में हुआ है, ज़मीन के वारिस सिर्फ़ नेक और भले लोग होंगे और उस हमेशा रहनेवाले निज़ाम में मौजूदा थोड़े दिनों के निज़ाम की-सी कैफियत क़ायम न रहेगी कि ज़मीन पर ख़ुदा के नाफ़रमानों और ज़ालिमों को भी ग़लबा हासिल हो जाता है। यह बात सूरा-23 मोमिनून, आयतें—4-11 में भी कही गई है और इससे ज़्यादा साफ़ अलफ़ाज़ में सुरा-39 ज़ुमर के आख़िर में बयान की गई है, जहाँ अल्लाह तआला क़ियामत और पहला और दूसरा सूर फूँके जाने का ज़िक्र करने के बाद अपनी अदालत का ज़िक्र करता है। फिर कुफ़्र का अंजाम बयान करके नेक लोगों का अंजाम यह बताता है कि “और जिन लोगों ने अपने रब के डर से तक़वा (परहेज़गारी) अपनाया था, वे जन्नत की तरफ़ गरोह-दर-गरोह ले जाए जाएँगे, यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँच जाएँगे तो उनके लिए जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाएँगे और उसका इन्तिज़ाम करनेवाले उनसे कहेंगे कि सलाम हो तुमको, तुम बहुत अच्छे रहे। आओ, अब इसमें हमेशा रहने के लिए दाख़िल हो जाओ। और वे कहेंगे कि तारीफ़ है उस ख़ुदा की जिसने हमसे अपना वादा पूरा किया और हमको ज़मीन का वारिस कर दिया। अब हम जन्नत में जहाँ चाहें अपनी जगह बना सकते हैं; तो बेहतरीन बदला है अमल करनेवालों के लिए।” देखिए— ये दोनों आयतें एक ही बात बयान कर रही हैं, और दोनों जगह ज़मीन की विरासत का ताल्तुक़ आख़िरत की दुनिया से है, न कि इस दुनिया से। अब ज़बूर को लीजिए जिसका हवाला ज़ेरे-बहस (विचाराधीन) आयत में दिया गया है अगरचे हमारे लिए यह कहना मुश्किल है कि बाइबल की पाक किताबों के मजमूए में ज़बूर के नाम से जो किताब इस वक़्त पाई जाती है यह अपनी अस्ली वे-बिगड़ी हुई सूरत में है या नहीं, क्योंकि इसमें मज़ामीरे-दाऊद (भजन संहिता) के अलावा दूसरे लोगों के मज़ामीर (भजन) भी गह-मह हो गए हैं और अस्ली ज़बूर का नुस्खा कहीं मौजूद नहीं है। फिर भी जो ज़बूर इस वक़्त मौजूद है उसमें भी नेकी और सच्चाई और अल्लाह पर भरोसा करने की नसीहत के बाद कहा गया है- "क्योंकि बदकिरदार काट डाले जाएँगे, लेकिन जिनको ख़ुदावन्द की आस है देश के वारिस होंगे; क्योंकि थोड़ी देर में शरारत करनेवाला मिट जाएगा, तू उसकी जगह को ग़ौर से देखेगा. पर वह न होगा। लेकिन हलीम (बरदाश्त करनेवाले) देश के वारिस होंगे और सलामती की बहुतायत से ख़ुश रहेंगे...उनकी मीरास हमेशा लिए होगी......सच्चे लोग ज़मीन के वारिस होंगे और उसमें हमेशा बसे रहेंगे।" (37 दाऊद का मज़मून (आयतें—9, 10, 11, 18-29) देखिए— यहाँ सच्चे लोगों के लिए ज़मीन की हमेशा रहनेवाली विरासत का ज़िक्र है, और ज़ाहिर है कि आसमानी किताबों के मुताबिक़ हमेशा की ज़िन्दगी का ताल्लुक़ आख़िरत की ज़िन्दगी से है, न कि इस दुनिया की ज़िन्दगी से। दुनिया में ज़मीन की थोड़े दिनों की विरासत जिस क़ायदे पर तक़सीम होती है उसे सूरा आराफ़ में इस तरह बयान किया गया है, “ज़मीन अल्लाह की है, अपने बन्दों में से जिसको चाहता है इसका वारिस बनाता है।” (आयत-128 )। अल्लाह की मरज़ी के तहत यह विरासत ईमानवाले और इनकारी, नेक और बुरे, फ़रमाँबरदार और नाफ़रमान, सबको मिलती है, मगर आमाल के बदले के तौर पर नहीं, बल्कि इम्तिहान के तौर पर; जैसा कि इसी आयत के बाद दूसरी आयत में फ़रमाया, “और वह तुमको ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाएगा, फिर देखेगा कि तुम कैसे काम करते हो। (आयत-129)। यह विरासत हमेशा रहनेवाली नहीं है। यह मुस्तक़िल और हमेशा का बन्दोबस्त नहीं है। यह सिर्फ़ एक इम्तिहान का मौक़ा है जो ख़ुदा के एक ज़ाब्ते के मुताबिक़ दुनिया में अलग-अलग क़ौमों को बारी-बारी दिया जाता है। इसके बरख़िलाफ आख़िरत में इसी ज़मीन का हमेशा क़ायम रहनेवाला बन्दोबस्त होगा, और क़ुरआन के कई साफ़ बयानों की रौशनी में वह इस ज़ाब्ते के मुताबिक़ होगा कि “ज़मीन अल्लाह की है और वह अपने बन्दों में से सिर्फ़ नेक ईमानवालों को इसका वारिस बनाएगा; इम्तिहान के तौर पर नहीं, बल्कि उस नेक रवैये के हमेशा रहनेवाले इनाम के तौर पर जो उन्होंने दुनिया अपनाया था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 नूर, हाशिया-83)
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا رَحۡمَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 102
(107) ऐ नबी, हमने जो तुमको भेजा है तो यह अस्ल में दुनियावालों के हक़ में हमारी रहमत है।100
100. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “हमने तुमको दुनियावालों के लिए रहमत ही बनाकर भेजा है।” दोनों सूरतों में मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) का नबी बनाकर भेजा जाना अस्ल में तमाम इनसानों के लिए ख़ुदा की रहमत और मेहरबानी है; क्योंकि आप (सल्ल०) ने आकर ग़फ़लत में पड़ी हुई दुनिया को चौंकाया है, और उसे वह इल्म दिया है जो हक़ और बातिल का फ़र्क़ खोल देता है, और उसको बिलकुल साफ़-साफ़ बता दिया है कि उसके लिए तबाही की राह कौन-सी है और सलामती की राह कौन-सी। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ नबी (सल्ल०) को अपने लिए परेशानी और मुसीबत समझते थे और कहते थे कि इस शख़्स ने हमारी क़ौम में फूट डाल दी है। हमारे अपनों को हमसे अलग करके रख दिया है। इसपर फ़रमाया गया कि नादानो, तुम जिसे मुसीबत समझ रहे हो, यह अस्ल में तुम्हारे लिए ख़ुदा की रहमत है।
قُلۡ إِنَّمَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 103
(108) इनसे कहो, “मेरे पास जो वह्य आती है वह यह है कि तुम्हारा ख़ुदा सिर्फ़ एक ख़ुदा है। फिर क्या तुम फ़रमाँबरदारी में सर झुकाते हो?”
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ ءَاذَنتُكُمۡ عَلَىٰ سَوَآءٖۖ وَإِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٌ أَم بَعِيدٞ مَّا تُوعَدُونَ ۝ 104
(109) अगर वे मुँह फेरें तो कह दो कि “मैंने अलानिया तुमको ख़बरदार कर दिया है। अब मैं यह नहीं जानता कि वह चीज़ जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है,101 क़रीब है या दूर।
101. यानी ख़ुदा की पकड़ जो पैग़म्बर की दावत को रद्द कर देने की सूरत में आएगी, चाहे किसी तरह के अज़ाब की शक्ल में आए।
إِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلۡجَهۡرَ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡتُمُونَ ۝ 105
(110) अल्लाह वे बातें भी जानता है जो बुलन्द आवाज़ से कही जाती हैं और वे भी जो तुम छिपाकर करते हो।102
102. इशारा है उन मुख़ालिफ़राना बातों, साज़िशों ओर कानाफूसियों की तरफ़ जिनका ज़िक्र सूरा की शुरुआत में किया गया था। वहाँ भी रसूल की ज़बान से उनका यही जवाब दिलवाया गया था कि जो बातें तुम बना रहे हो, वे सब ख़ुदा सुन रहा है और जानता है। यानी इस ग़लतफ़हमी में न रहो कि ये हवा में उड़ गईं और कभी इनके बारे में पूछ-गछ न होगी।
وَإِنۡ أَدۡرِي لَعَلَّهُۥ فِتۡنَةٞ لَّكُمۡ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 106
(111) मैं तो यह समझता हूँ कि शायद यह (देर) तुम्हारे लिए एक फ़ितना103 है और तुम्हें एक ख़ास वक़्त तक के लिए मज़े करने का मौक़ा दिया जा रहा है।"
103. यानी तुम इस देरी की वजह से फ़ितने में पड़ गए हो। देर तो इसलिए की जा रही है कि तुम्हें संभलने के लिए काफ़ी मुहलत दी जाए और जल्दबाज़ी करके फ़ौरन ही न पकड़ लिया जाए। मगर तुम इससे इस ग़लतफ़हमी में पड़ गए हो कि नबी की सब बातें झूठी हैं वरना, अगर यह सच्चा नबी होता और ख़ुदा ही की तरफ़ से आया होता तो उसको झुठला देने के बाद हम कभी के धर लिए गए होते।
قَٰلَ رَبِّ ٱحۡكُم بِٱلۡحَقِّۗ وَرَبُّنَا ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 107
(112) (आख़िरकार) रसूल ने कहा कि “ऐे मेरे रब हक़ के साथ फ़ैसला कर दे। और लोगो, तुम जो बातें बनाते हो उनके मुक़ाबले में हमारा मेहरबान रब ही हमारे लिए मदद का सहारा है।"
وَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُم مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 108
(86) और उनको हमने अपनी रहमत में दाख़िल किया कि वे नेक लोगों में से थे।
وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبٗا فَظَنَّ أَن لَّن نَّقۡدِرَ عَلَيۡهِ فَنَادَىٰ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ أَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنتَ سُبۡحَٰنَكَ إِنِّي كُنتُ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 109
(87) और मछलीवाले को भी हमने नवाज़ा।82 याद करो जबकि वह बिगड़कर चला गया था83 और समझा था कि हम उसपर गिरिफ़्त न करेंगे।84 आख़िर को उसने अंधेरों में से पुकारा,85 नहीं है कोई ख़ुदा मगर तू, पाक है तेरी ज़ात, बेशक मॅने क़ुसूर किया।"
82. मुराद हैं हज़रत यूनुस (अलैहि०)। कहीं उनका नाम लिया गया है और कहीं 'ज़ुन्नून' और 'साहिबुल-हूत' यानी मछलीवाले के लक़ब से याद किया गया है। मछलीवाला उन्हें इसलिए नहीं कहा गया कि वे मछलियाँ पकड़ते या बेचते थे, बल्कि इस वजह से कि अल्लाह तआला के हुक्म से एक मछली ने उन्हें निगल लिया था, जैसा कि सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-142 में बयान हुआ है। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—98-100, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—77-85।
83. यानी वह अपनी क़ौम से नाराज़ होकर चले गए, इससे पहले कि ख़ुदा की तरफ़ से हिज्ररत का हुक्म आता और उनके लिए अपनी ड्यूटी छोड़ना जाइज़ होता।
84. उन्होंने सोचा कि इस क़ौम पर तो अज़ाब आनेवाला है। अब मुझे कहीं चलकर पनाह लेनी चाहिए ताकि ख़ुद भी अज़ाब में न घिर जाऊँ। यह बात अपनी जगह ख़ुद तो क़ाबिले-गिरिफ़्त न थी, मगर पैग़म्बर का अल्लाह की इजाज़त के बिना ड्यूटी से हट जाना क़ाबिले-गिरिफ़्त था।
85. यानी मछली के पेट में से जिसमें ख़ुद अंधेरा था, और ऊपर से समन्दर के अंधेरे और भी ज़्यादा।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡغَمِّۚ وَكَذَٰلِكَ نُـۨجِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 110
(88) तब हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और ग़म से उसको नजात दी, और इसी तरह हम ईमानवालों को बचा लिया करते हैं।
وَزَكَرِيَّآ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ رَبِّ لَا تَذَرۡنِي فَرۡدٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 111
(89) और ज़करिय्या को जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि “ऐ परवरदिगार, मुझे अकेला न छोड़, और बेहतरीन वारिस तो तू ही है।”