(7) और मामूली ज़रूरत की चीजे11 (लोगों को) देने से बचते हैं।
11. अस्ल में लफ़्ज़ ‘माऊन’ इस्तेमाल हुआ है। हज़रत अली (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), सईद बिन-जुबैर (रह०), क़तादा (रह०), हसन बसरी (रह०), मुहम्मद बिन-हनफ़ीया (रह०), ज़ह्हाक (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०), इकरिमा (रह०), मुजाहिद (रह०), अता (रह०) और ज़ुहरी (रह०) का कहना यह है कि इससे मुराद ज़कात है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इब्ने-मसऊद (रज़ि०), इबराहीम नख़ई (रह०), अबू-मालिक (रह०) और बहुत-से दूसरे लोगों का कहना है कि इससे मुराद ज़रूरत की चीज़ें, मसलन हंडिया, डोल, कुल्हाड़ी, तराज़ू, नमक, पानी, आग, चक़माक़ (जिसकी जगह अब माचिस ने ले ली है) वग़ैरह हैं जो आम तौर पर लोग एक-दूसरे से माँगते रहते हैं। सईद बिन-जुबैर (रह०) और मुजाहिद (रह०) का भी एक क़ौल (कथन) इसी की ताईद में है। हज़रत अली (रज़ि०) का भी एक क़ौल यह है कि इससे मुराद ज़कात भी है और ये छोटी-छोटी आम ज़रूरत की चीज़ें भी। इक्रिमा से इब्ने-अबी-हातिम ने नक़्ल किया है कि माऊन का ऊँचा दर्जा ज़कात है और सबसे कमतर दर्जा यह है कि किसी को छलनी, डोल, या सूई माँगने पर दे दी जाए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि हम मुहम्मद (सल्ल०) के साथी यह कहा करते थे (और कुछ रिवायतों में है कि नबी (सल्ल०) के मुबारक दौर में यह कहा करते थे) कि माऊन से मुराद हंडिया, कुल्हाड़ी, डोल, तराज़ू और ऐसी ही दूसरी चीज़ें माँगने पर देना है (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-शैबा, अबू-दाऊद, नसई, बज़्ज़ार, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी फ़िल-औसत, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी फ़िस-सुनन)। सअ्द बिन-इयाज़ नामों को बयान करने के बाद लगभग यही क़ौल अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सहाबा से नक़्ल करते हैं जिसका मतलब यह है कि उन्होंने कई सहाबा से यह बात सुनी थी (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-शैबा)। दैलमी, इब्ने-असाकिर और अबू-नुऐम ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की एक रिवायत नक़्ल की है जिसमें वे कहते हैं कि ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस आयत की तफ़सीर यह बयान की है कि इससे मुराद कुल्हाड़ी और डोल और ऐसी ही दूसरी चीज़ें हैं। अगर यह रिवायत सही है तो शायद यह दूसरे लोगों की जानकारी में न आई होगी, वरना मुमकिन न था कि फिर कोई इस आयत की कोई और बयान करता।
अस्ल बात यह है कि माऊन छोटी और थोड़ी चीज़ को कहते हैं जिसमें लोगों के लिए कोई नफ़ा या फ़ायदा हो। इस मतलब के लिहाज़ से ज़कात भी माऊन है, क्योंकि वह बहुत-से माल में से थोड़ा-सा माल है जो ग़रीबों की मदद के लिए देना होता है, और वे दूसरी आम ज़रूरत की चीज़ें भी माऊन हैं जिनका ज़िक्र हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और उनके जैसे ख़यालात रखनेवाले लोगों ने किया है। ज़्यादातर तफ़सीर लिखनेवालों का ख़याल यह है कि माऊन में वे तमाम छोटी-छोटी चीज़ें आ जाती हैं जो आदतन पड़ोसी एक-दूसरे से माँगते रहते हैं। उनका माँगना कोई बेइज़्ज़ती की बात नहीं होता, क्योंकि ग़रीब और अमीर सब ही को किसी न किसी वक़्त उनकी ज़रूरत पेश आती ही रहती है। अलबत्ता ऐसी चीज़ों को देने से कंजूसी बरतना अख़लाक़ी तौर पर एक नीच हरकत समझा जाता है। आम तौर से ऐसी चीज़ें अपनी जगह ख़ुद बाक़ी रहती हैं और पड़ोसी उनसे काम लेकर उन्हें ज्यों का त्यों वापस दे देता है। इसी माऊन की तारीफ़ में यह भी आता है कि किसी के यहाँ मेहमान आ जाएँ और वह पड़ोसी से चारपाई या बिस्तर माँग ले। या कोई अपने पड़ोसी के तन्दूर में अपनी रोटी पका लेने की इजाज़त माँगे। या कोई कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हो और हिफ़ाज़त के लिए अपना कोई क़ीमती सामान दूसरे के यहाँ रखवाना चाहे। इसलिए आयत का मक़सद यह बताना है कि आख़िरत का इनकार आदमी को इतना तंगदिल बना देता है कि वह दूसरों के लिए कोई मामूली त्याग करने के लिए भी तैयार नहीं होता।