Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ المَاعُونِ

107. अल-माऊन

(मक्का में उतरी—आयतें 7)

परिचय

नाम

इसी सूरा की अन्तिम आयत के अन्तिम शब्द 'अल-माऊन' (मामूली ज़रूरत की चीजें) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इब्ने-मर्दूया ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) का कथन उल्लेख किया है कि यह सूरा मक्की है और यही कथन अता और जाबिर का भी है। लेकिन अबू-हैयान ने 'अल-बहरुल-मुहीत' में इब्ने-अब्बास और क़तादा और ज़हहाक का यह कथन उल्लेख किया है कि यह मदीना में उतरी है। हमारे नज़दीक स्वयं इस सूरा के अन्दर एक अन्दरूनी गवाही ऐसी मौजूद है जो इसके मदनी होने का प्रमाण बनती है और वह यह है कि इसमें उन नमाज़ पढ़नेवालों को तबाही की धमकी, सुनाई गई है जो अपनी नमाज़ों से ग़फ़लत बरतते और दिखावे के लिए नमाज़ पढ़ते हैं। मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की यह क़िस्म मदीना ही में पाई जाती थी, मक्का में नहीं।

विषय और वार्ता

इसका विषय यह बताता है कि आख़िरत पर ईमान न लाना इंसान के अन्दर किस प्रकार के चरित्र पैदा करता है। आयत 2 और 3 में उन कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) की हालत बयान की गई है जो खुल्लम-खुल्ला आख़िरत को झुठलाते हैं। और आख़िरी चार आयतों में उन मुनाफ़िक़ों का हाल बयान किया गया है जो देखने में तो मुसलमान हैं, मगर मन में आख़िरत और उसकी जज़ा और सज़ा और उसके सवाब और अज़ाब की कोई कल्पना ही नहीं रखते। कुल मिलाकर दोनों प्रकार के गिरोहों के तरीक़े को बयान करने से अभिप्राय यह वास्तविकता लोगों के मन में बिठा देनी है कि इंसान के अन्दर एक मज़बूत और सुदृढ़ पवित्र चरित्र आख़िरत के अक़ीदे के बिना पैदा नहीं हो सकता।

---------------------

سُورَةُ المَاعُونِ
107. अल-माऊन
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي يُكَذِّبُ بِٱلدِّينِ
(1) तुमने देखा1 उस आदमी को जो आख़िरत के इनाम और सज़ा2 को झुठलाता है?3
1. ‘तुमने देखा’ के अलफ़ाज़ बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कहे गए हैं, मगर क़ुरआन का अन्दाज़े-बयान यह है कि ऐसे मौक़ों पर वह आम तौर से हर अक़्लमन्द और सोचने-समझनेवाले शख़्स को मुख़ातब करता है। और देखने का मतलब आँखों से देखना भी है, क्योंकि आगे लोगों का जो हाल बयान किया गया है वह हर देखनेवाला अपनी आँखों से देख सकता है। और उसका मतलब जानना, समझना और ग़ौर करना भी है। अरबी की तरह उर्दू में भी देखने का लफ़्ज़ इस दूसरे मतलब में इस्तेमाल होता है। मसलन, हम कहते हैं कि, “मैं देख रहा हूँ” और मतलब यह होता है कि मैं जानता हूँ, या मुझे ख़बर है। या मसलन, हम कहते हैं कि “ज़रा यह भी तो देखो” और मतलब यह होता है कि ज़रा इस बात पर भी ग़ौर करो। इसलिए अगर लफ़्ज़ ‘अ-रऐ-त’ को इस मतलब में लिया जाए तो आयत का मतलब यह होगा कि “जानते हो वह कैसा शख़्स है जो इनाम और सज़ा को झुठलाता है?” या “तुमने ग़ौर किया उस शख़्स के हाल पर जो आमाल के बदले को झुठलाता है?”
2. अस्ल अरबी में ‘युकज़्ज़िबु बिद्दीन’ कहा गया है। ‘अद-दीन’ का लफ़्ज़ क़ुरआन की शब्दावली में आख़िरत में मिलनेवाले कर्मों के बदले के लिए भी इस्तेमाल होता है और दीन इस्लाम के लिए भी। लेकिन जो बात आगे बयान हुई है उसके साथ पहला ही मतलब ज़्यादा मेल खाता है, अगरचे दूसरे मतलब भी बात के सिलसिले से बेमेल नहीं हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने दूसरे अर्थ को अहमियत देते हैं। अगर पहला ही मतलब लिया जाए तो पूरी सूरा के मज़मून का मतलब यह होगा कि आख़िरत के इनकार का अक़ीदा इनसान में यह सीरत और किरदार पैदा करता है। और दूसरा मतलब लिया जाए तो पूरी सूरा का मक़सद इस्लाम की अख़लाक़ी अहमियत बयान करना ठहरेगा। यानी बात का मक़सद यह होगा कि इस्लाम उसके विपरीत सीरत और किरदार पैदा करना चाहता है जो इस दीन का इनकार करनेवालों में पाई जाती है।
3. बात के अन्दाज़ से महसूस होता है कि यहाँ इस सवाल से बात की शुरुआत करने का मक़सद यह पूछना नहीं है कि तुमने उस शख़्स को देखा है या नहीं, बल्कि सुननेवाले को इस बात पर ग़ौर करने की दावत देना है कि आख़िरत के इनाम और सज़ा का इनकार आदमी में किस तरह का किरदार पैदा करता है, और उसे यह जानने का ख़ाहिशमन्द बनाना है कि इस अक़ीदे को झुठलानेवाले कैसे लोग होते हैं ताकि वह आख़िरत पर ईमान की अख़लाक़ी अहमियत समझने की कोशिश करे।
فَذَٰلِكَ ٱلَّذِي يَدُعُّ ٱلۡيَتِيمَ ۝ 1
(2) वही तो है4 जो यतीम को धक्के देता है5,
4. अस्ल अरबी में ‘फ़ज़ालिकल-लज़ी’ कहा गया है। इस जुमले में ‘फ़’ एक पूरे जुमले का मतलब अदा करता है। इसका मतलब यह है कि, “अगर तुम नहीं जानते तो तुम्हें मालूम हो कि वही तो है जो।” या फिर यह इस अर्थ में है कि, “अपने इसी आख़िरत के इनकार की वजह से वह ऐसा शख़्स है जो।”
5. अस्ल अरबी में ‘यदुअ्-उल-यती-म’ का जुमला इस्तेमाल हुआ है जिसके कई मतलब हैं। एक यह कि वह यतीम का हक़ मार खाता है और उसके बाप की छोड़ी हुई विरासत से बेदख़ल करके उसे धक्के मारकर निकाल देता है। दूसरे यह कि यतीम अगर उससे मदद माँगने आता है तो रहम खाने के बजाय उसे धुत्कार देता है और फिर भी अगर वह अपनी परेशान हाली की बुनियाद पर रहम की उम्मीद लिए हुए खड़ा रहे तो उसे धक्के देकर भगा देता है। तीसरे यह कि वह यतीम पर ज़ुल्म ढाता है, मसलन उसके घर में अगर उसका अपना ही कोई रिश्तेदार यतीम हो तो उसे नसीब में सारे घर की सेवा करने और बात-बात पर झिड़कियाँ और ठोकरें खाने के सिवा कुछ नहीं होता। इसके अलावा इस जुमले में यह मतलब भी छिपा है कि उस आदमी से कभी-कभार यह ज़ालिमाना हरकत नहीं हो जाती, बल्कि उसकी आदत और उसका हमेशा का रवैया यही है। उसे यह एहसास ही नहीं है कि यह कोई बुरा काम है जो वह कर रहा है। बल्कि वह बड़े इत्मीनान के साथ यह रवैया अपनाए रखता है और समझता है कि यतीम एक बेबस और बेसहारा जान है, इसलिए कोई हरज नहीं अगर उसका हक़ मार खाया जाए, या उसे ज़ुल्मो-सितम का निशाना बनाकर रखा जाए, या वह मदद माँगने के लिए आए तो उसे धुत्कार दिया जाए। इस सिलसिले में एक बड़ा अजीब वाक़िआ क़ाज़ी अबुल-हसन अल-मावरदी ने अपनी किताब ‘आलामुन-नुबुव्वह’ में लिखा है। अबू-जह्ल एक यतीम का सरपरस्त था। वह बच्चा एक दिन इस हालत में उसके पास आया कि उसके बदन पर कपड़े तक न थे और उसने गुज़ारिश (विनती) की कि उसके बाप के छोड़े हुए माल में से वह उसे कुछ दे। मगर उस ज़ालिम ने उसकी तरफ़ ध्यान तक न दिया और वह खड़े-खड़े आख़िरकार मायूस होकर पलट गया। क़ुरैश के सरदारों ने शरारत में उससे कहा कि, मुहम्मद (सल्ल०) के पास जाकर शिकायत कर, वह अबू-जह्ल से से सिफ़ारिश करके तुझे तेरा माल दिलवा देंगे। बच्चा बेचारा अनजान था कि अबू-जह्ल का नबी (सल्ल०) से क्या ताल्लुक़ है और ये कमबख़्त उसे किस ग़रज़ के लिए मश्वरा दे रहे हैं। वह सीधा नबी (सल्ल०) के पास पहुँचा और अपना हाल बयान किया। आप उसी वक़्त उठ खड़े हुए और उसे साथ लेकर अपने सबसे बड़े दुश्मन अबू-जह्ल के यहाँ तशरीफ़ ले गए। आप (सल्ल०) को देखकर उसने आपका इस्तिक़बाल किया और जब आपने फ़रमाया कि इस बच्चे का हक़ इसे दे दो, तो वह फ़ौरन मान गया और उसका माल लाकर उसे दे दिया। क़ुरैश के सरदार ताक में लगे हुए थे कि देखें इन दोनों के बीच क्या मामला पेश आता है। वे किसी मज़ेदार झड़प की उम्मीद कर रहे थे। मगर जब उन्होंने यह मामला देखा कि तो हैरान होकर अबू-जह्ल के पास आए और उसे ताना दिया कि तुम भी अपना दीन छोड़ गए। उसने कहा, “ख़ुदा की क़सम, मैंने अपना दीन नहीं छोड़ा, मगर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मुहम्मद (सल्ल०) के दाएँ और बाएँ एक-एक भाला है जो मेरे अन्दर घुस जाएगा अगर मैंने ज़रा भी उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हरकत की।” इस वाक़िए से न सिर्फ़ यह मालूम होता है कि उस ज़माने में अरब के सबसे ज़्यादा तरक़्क़ी पाए हुए और इज़्ज़तदार क़बीले तक के बड़े-बड़े सरदारों का यतीमों और दूसरे बेसहारा लोगों के साथ क्या सुलूक था, बल्कि यह भी मालूम होता है अल्लाह के रसूल (सल्ल०) किस बुलन्द अख़लाक़ के मालिक थे और आपके इस अख़लाक़ का आपके सबसे कट्टर दुश्मनों तक पर क्या रोब था। इसी तरह का एक वाक़िआ हम इससे पहले तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-5 में नक़्ल कर चुके हैं जो नबी (सल्ल०) के उस ज़बरदस्त अख़लाक़ी रोब पर दलील देता है जिसकी वजह से क़ुरैश के ग़ैर-मुस्लिम आप (सल्ल०) को जादूगर कहते थे।
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 2
(3) और मुहताज का खाना6 देने पर नहीं उकसाता7
6. ‘इतआमिल-मिस्कीन’ नहीं, बल्कि ‘तआमिल-मिस्कीन’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। अगर ‘इतआमिल-मिस्कीन’ कहा गया होता तो मतलब यह होता कि वह मिस्कीन को खाना खिलाने पर नहीं उकसाता। लेकिन ‘तआमिल-मिस्कीन’ का मतलब यह है कि वह मिस्कीन का खाना देने पर नहीं उकसाता। दूसरे अलफ़ाज़ में जो खाना मिस्कीन को दिया जाता है वह देनेवाले का खाना नहीं, बल्कि उसी मिस्कीन का खाना है, वह उसका हक़ है जो देनेवाले के ज़िम्मे होता है, और देनेवाला कोई बख़्शिश नहीं दे रहा है, बल्कि उसका हक़ अदा कर रहा है। यही बात है जो सूरा ज़ारियात, आयत 19, में कही गई है कि ‘वफ़ी अमवालिहिम हक़्क़ुल-लिस्साइलि वल-महरूम’ यानी “और उनके मालों में माँगनेवाले और महरूम का हक़ है।”
7. ‘ला यहुज़्ज़ु’ का मतलब यह है कि वह शख़्स अपने नफ़्स को भी इस काम पर आमादा नहीं करता, अपने घरवालों को भी नहीं कहता कि मिस्कीन का खाना दिया करें, और दूसरे लोगों को भी इस बात पर नहीं उकसाता कि समाज में जो ग़रीब और मुहताज लोग भूखों मर रहे हैं उनके हक़ पहचानें और उनकी भूख मिटाने के लिए कुछ करें। यहाँ अल्लाह तआला ने सिर्फ़ दो सबसे नुमायाँ मिसालें देकर अस्ल में यह बताया है कि आख़िरत का इनकार लोगों में किस तरह की बुराइयाँ पैदा करता है। अस्ल मक़सद इन दो ही बातों पर पकड़ करना नहीं है कि आख़िरत को न मानने से बस ये दो ख़राबियाँ पैदा होती हैं कि लोग यतीमों को धुत्कारते हैं और मिस्कीनों का खाना देने पर नहीं उकसाते। बल्कि जो अनगिनत ख़राबियाँ इस गुमराही के नतीजे में ज़ाहिर होती हैं उनमें से दो ऐसी चीज़ें नमूने के तौर पर पेश की गई हैं जिनको हर शरीफ़ मिज़ाज और सही फ़ितरतवाला इनसान मानेगा कि वे बहुत ही बुरी अख़लाक़ी बुराइयाँ हैं। इसके साथ यह बात भी ज़ेहन में बिठानी मक़सद है कि अगर यही शख़्स अल्लाह के सामने अपनी हाज़िरी और जवाबदेही को मानता होता तो इससे ऐसी नीच हरकतें न होतीं कि यतीम का हक़ मारे, उसपर ज़ुल्म ढाए, उसको धुत्कारे और मिस्कीन को न ख़ुद खिलाए न किसी से यह कहे कि इसका खाना दो। आख़िरत का यक़ीन रखनेवालों की ख़ूबियाँ तो वे हैं जो सूरा अस्र और सूरा बलद में बयान की गई हैं कि ‘व-तवासौ बिल-मरहमह’ (वे एक-दूसरे को अल्लाह के बन्दों पर रहम खाने की नसीहत करते हैं) और ‘व-तवासौ बिल-हक़्क़ि’ (वे एक-दूसरे को हक़परस्ती और हक़ अदा करने की नसीहत करते हैं)।
فَوَيۡلٞ لِّلۡمُصَلِّينَ ۝ 3
(4) फिर तबाही है उन नमाज़ पढ़नेवालों के लिए8
8. ‘फ़वैलुल-लिल-मुसल्लीन’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। यहाँ ‘फ़’ इस अर्थ में है कि खुले-खुले आख़िरत का इनकार करनेवालों का हाल तो यह था जो तुमने अभी सुना, अब ज़रा उन मुनाफ़िक़ों का हाल भी देखो जो नमाज़ पढ़नेवाले गिरोह, यानी मुसलमानों में शामिल हैं। वे चूँकि बज़ाहिर मुसलमान होने के बावुजूद आख़िरत को झूठ समझते हैं, इसलिए ज़रा देखो कि वे अपने लिए किस तबाही का सामान कर रहे हैं। ‘मुसल्लीन’ का मतलब तो ‘नमाज़ पढ़नेवालों’ है लेकिन बात के जिस सिलसिले में यह लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और आगे इन लोगों के जो ख़ूबियाँ बयान की गई हैं उनके लिहाज़ से इस लफ़्ज़ का मतलब हक़ीक़त में नमाज़ी होना नहीं बल्कि अहले-सलात, यानी मुसलमानों के गिरोह में शामिल होने के हैं।
ٱلَّذِينَ هُمۡ عَن صَلَاتِهِمۡ سَاهُونَ ۝ 4
(5) जो अपनी नमाज से ग़फ़लत बरतते हैं,9
9. ‘फ़ी सलातिहिम साहून’ नहीं कहा गया बल्कि ‘अन सलातिहिम साहून’ कहा गया है। अगर ‘फ़ी सलातिहिम’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल होते तो मतलब यह होता कि वे अपनी नमाज़ में भूलते हैं। लेकिन नमाज़ पढ़ते-पढ़ते कुछ भूल जाना शरीअत में निफ़ाक़ तो एक तरफ़ गुनाह भी नहीं है, बल्कि सिरे से कोई ऐब या पकड़ने लायक़ बात तक नहीं है। ख़ुद नबी (सल्ल०) से भी किसी वक़्त नमाज़ में भूल हुई है। और नबी (सल्ल०) ने उसकी भरपाई के लिए ‘सज्दए-सह्व’ (भूल के सजदे) का तरीक़ा मुक़र्रर किया है। इसके विपरीत ‘अन सलातिहिम साहून’ का मतलब यह है कि वे अपनी नमाज़ से ग़ाफ़िल हैं। नमाज़ पढ़ी तो और न पढ़ी तो, दोनों की उनकी निगाह में कोई अहमियत नहीं है। कभी पढ़ते हैं और कभी नहीं पढ़ते। पढ़ते हैं तो इस तरह कि नमाज़ के वक़्त को टालते रहते हैं और जब वह बिलकुल ख़त्म होने के क़रीब होता है तो उठकर चार ठोंगें मार लेते हैं। या नमाज़ के लिए उठते हैं तो बेदिली के साथ उठते हैं और दिल न चाहते हुए पढ़ लेते हैं जैसे कोई मुसीबत है जो उनपर टूट पड़ी है। कपड़ों से खेलते हैं। जमाहियाँ लेते हैं। अल्लाह की याद का कोई हलका-सा असर तक उनके अन्दर नहीं होता। पूरी नमाज़ में न उनको यह एहसास होता है कि वे नमाज़ पढ़ रहे हैं और न यह ख़याल रहता है कि उन्होंने क्या पढ़ा है। पढ़ रहे होते हैं नमाज़ और दिल कहीं और पड़ा रहता है। मारा-मार इस तरह पढ़ते हैं कि न क़ियाम (नमाज़ में खड़े होना) ठीक होता है, न रुकू और न सजदे। बस किसी-न-किसी तरह नमाज़ की-सी शक्ल बनाकर जल्दी से जल्दी फ़ारिग़ हो जाने की कोशिश करते हैं। और बहुत-से लोग तो ऐसे हैं कि किसी जगह फँस गए तो नमाज़ पढ़ ली, वरना इस इबादत की कोई जगह उनकी ज़िन्दगी में नहीं होती। नमाज़ का वक़्त आता है तो उन्हें महसूस तक नहीं होता कि यह नमाज़ का वक़्त है। मुअज़्ज़िन (अज़ान देनेवाले) की आवाज़ कान में आती है तो उन्हें यह ख़याल तक नहीं आता कि यह क्या पुकार रहा है, किसको पुकार रहा है और किस लिए पुकार रहा है। यही आख़िरत पर ईमान न होने की निशानियाँ हैं। क्योंकि अस्ल में इस्लाम के दावेदारों का यह रवैया इस वजह से होता है कि वे न नमाज़ पढ़ने पर किसी इनाम को मानते हैं और न उन्हें इस बात का यक़ीन है कि इसके न पढ़ने पर कोई सज़ा मिलेगी। इसी वजह से हज़रत अनस बिन-मालिक (रज़ि०) और अता बिन-दीनार कहते हैं कि अल्लाह का शुक्र है उसने ‘फ़ी सलातिहिम साहून’ नहीं बल्कि ‘अन सलातिहिम साहून’ फ़रमाया। यानी हम नमाज़ में भूलते तो ज़रूर हैं मगर नमाज़ से ग़ाफ़िल नहीं हैं इसलिए हमारी गिनती मुनाफ़िक़ों में नहीं होगी। क़ुरआन मजीद में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की इस कैफ़ियत को दूसरी जगह यूँ बयान किया गया है कि, “वे नमाज़ के लिए नहीं आते मगर कसमसाते हुए और (अल्लाह की राह में) ख़र्च नहीं करते मगर दिल न चाहते हुए।” (अत-तौबा, आयत 54)। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “यह मुनाफ़िक़ की नमाज़ है, यह मुनाफ़िक़ की नमाज़ है, यह मुनाफ़िक़ की नमाज़ है। अस्र के वक़्त बैठा सूरज को देखता रहता है, यहाँ तक कि जब वह शैतान के दोनों सींगों के बीच पहुँच जाता है (यानी छिपने का वक़्त क़रीब आ जाता है) तो उठकर चार ठोंगें मार लेता है जिनमें अल्लाह को कम ही याद करता है।” (बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनदे-अहमद)। हज़रत सअ्द बिन-अबी-वक़्क़ास से उनके बेटे मुसअब बिन-सअ्द रिवायत करते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उन लोगों के बारे में पूछा था जो नमाज़ से ग़फ़लत बरतते हैं। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ये वे लोग हैं जो नमाज़ को उसका वक़्त टालकर पढ़ते हैं (हदीस : इब्ने-जरीर, अबू-याला, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी फ़िल-औसत, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी फ़िस्सुन्नह्, यह रिवायत हज़रत सअ्द की अपनी कही हुई बात की हैसियत से भी ‘मौक़ूफ़न’ नक़्ल हुई है और उसकी सनद ज़्यादा मज़बूत है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की हिदायत की हैसियत से इसकी ‘मरफ़ूअन’ रिवायत को बैहक़ी और हाकिम ने ज़ईफ़ यानी कमज़ोर ठहराया है)। हज़रत मुसअब की दूसरी रिवायत यह है कि उन्होंने अपने बाप से पूछा कि, “इस आयत पर आपने ग़ौर किया? क्या इसका मतलब नमाज़ छोड़ देना है? या इससे मुराद नमाज़ पढ़ते-पढ़ते आदमी का ख़याल कहीं और चला जाना है? ख़याल बँट जाने की हालत हममें से किसपर नहीं गुज़रती?” उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, इससे मुराद नमाज़ के वक़्त को बरबाद करना और उसे वक़्त टालकर पढ़ना है।” (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-शैबा, अबू-याला, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी फ़िस-सुनन)। इस जगह पर यह बात समझ लेनी चाहिए कि नमाज़ में दूसरे ख़यालात का आ जाना और चीज़ है और नमाज़ की तरफ़ कभी ध्यान ही न जाना और उसमें हमेशा दूसरी बातें ही सोचते रहना बिलकुल दूसरी चीज़। पहली हालत तो इनसान होने का तक़ाज़ा है, बिना इरादा दूसरे ख़यालात आ ही जाते हैं और मोमिन को जब भी यह एहसास होता है कि नमाज़ से उसका ध्यान हट गया है तो फिर वह कोशिश करके उसमें ध्यान लगा देता है। दूसरी हालत नमाज़ से ग़फ़लत बरतने की परिभाषा में आती है, क्योंकि इसमें आदमी सिर्फ़ नमाज़ की कसरत कर लेता है, अल्लाह की याद का कोई इरादा उसके दिल में नहीं होता, नमाज़ शुरू करने से सलाम फेरने तक एक पल के लिए भी उसका दिल अल्लाह की तरफ़ नहीं लगता, और जिन ख़यालात को लिए हुए वह नमाज़ में दाख़िल होता है उन्हीं में डूबा रहता है।
ٱلَّذِينَ هُمۡ يُرَآءُونَ ۝ 5
(6) जो दिखावा करते हैं, 10
10. यह जुमला एक पूरा जुमला भी हो सकता है और पहले जुमले से जुड़ा हुआ भी। अगर इसे पूरा जुमला कहा जाए तो इसका मतलब यह होगा कि कोई नेक काम भी वे ख़ालिस नीयत के साथ अल्लाह के लिए नहीं करते, बल्कि जो कुछ करते हैं दूसरों को दिखाने के लिए करते हैं ताकि उनकी तारीफ़ हो, लोग उनको नेक और भला समझें, उनके भलाई के कामों का ढिंढोरा दुनिया में पिटे, और इसका फ़ायदा किसी-न-किसी रूप में दुनिया ही में हासिल हो जाए। और अगर इसका ताल्लुक़ पहले जुमले के साथ माना जाए तो मतलब यह होगा कि वे दिखावे की नमाज़ें पढ़ते हैं। तफ़सीर लिखनेवालों ने आम तौर से दूसरे ही मतलब को अहमियत दी है क्योंकि पहली नज़र में यही महसूस होता है कि इसका ताल्लुक़ पहले जुमले से है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “इससे मुराद मुनाफ़िक़ लोग हैं जो दिखावे की नमाज़ पढ़ते थे, अगर दूसरे लोग मौजूद होते तो पढ़ लेते और कोई देखनेवाला न होता तो नहीं पढ़ते थे।” दूसरी रिवायत में उनके अलफ़ाज़ ये हैं— “अकेले होते तो न पढ़ते और अलानिया (सबके सामने) पढ़ लेते थे।” (इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी फ़िश्शुअ्ब)। क़ुरआन मजीद में भी मुनाफ़िक़ों की यह हालत बयान की गई है— “और जब वे नमाज़ के लिए उठते हैं तो कसमसाते हुए उठते हैं, लोगों को दिखाते हैं, और अल्लाह को कम ही याद करते हैं।” (सूरा-4 निसा, आयत-142)
وَيَمۡنَعُونَ ٱلۡمَاعُونَ ۝ 6
(7) और मामूली ज़रूरत की चीजे11 (लोगों को) देने से बचते हैं।
11. अस्ल में लफ़्ज़ ‘माऊन’ इस्तेमाल हुआ है। हज़रत अली (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), सईद बिन-जुबैर (रह०), क़तादा (रह०), हसन बसरी (रह०), मुहम्मद बिन-हनफ़ीया (रह०), ज़ह्हाक (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०), इकरिमा (रह०), मुजाहिद (रह०), अता (रह०) और ज़ुहरी (रह०) का कहना यह है कि इससे मुराद ज़कात है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इब्ने-मसऊद (रज़ि०), इबराहीम नख़ई (रह०), अबू-मालिक (रह०) और बहुत-से दूसरे लोगों का कहना है कि इससे मुराद ज़रूरत की चीज़ें, मसलन हंडिया, डोल, कुल्हाड़ी, तराज़ू, नमक, पानी, आग, चक़माक़ (जिसकी जगह अब माचिस ने ले ली है) वग़ैरह हैं जो आम तौर पर लोग एक-दूसरे से माँगते रहते हैं। सईद बिन-जुबैर (रह०) और मुजाहिद (रह०) का भी एक क़ौल (कथन) इसी की ताईद में है। हज़रत अली (रज़ि०) का भी एक क़ौल यह है कि इससे मुराद ज़कात भी है और ये छोटी-छोटी आम ज़रूरत की चीज़ें भी। इक्रिमा से इब्ने-अबी-हातिम ने नक़्ल किया है कि माऊन का ऊँचा दर्जा ज़कात है और सबसे कमतर दर्जा यह है कि किसी को छलनी, डोल, या सूई माँगने पर दे दी जाए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि हम मुहम्मद (सल्ल०) के साथी यह कहा करते थे (और कुछ रिवायतों में है कि नबी (सल्ल०) के मुबारक दौर में यह कहा करते थे) कि माऊन से मुराद हंडिया, कुल्हाड़ी, डोल, तराज़ू और ऐसी ही दूसरी चीज़ें माँगने पर देना है (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-शैबा, अबू-दाऊद, नसई, बज़्ज़ार, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी फ़िल-औसत, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी फ़िस-सुनन)। सअ्द बिन-इयाज़ नामों को बयान करने के बाद लगभग यही क़ौल अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सहाबा से नक़्ल करते हैं जिसका मतलब यह है कि उन्होंने कई सहाबा से यह बात सुनी थी (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-शैबा)। दैलमी, इब्ने-असाकिर और अबू-नुऐम ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की एक रिवायत नक़्ल की है जिसमें वे कहते हैं कि ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस आयत की तफ़सीर यह बयान की है कि इससे मुराद कुल्हाड़ी और डोल और ऐसी ही दूसरी चीज़ें हैं। अगर यह रिवायत सही है तो शायद यह दूसरे लोगों की जानकारी में न आई होगी, वरना मुमकिन न था कि फिर कोई इस आयत की कोई और बयान करता। अस्ल बात यह है कि माऊन छोटी और थोड़ी चीज़ को कहते हैं जिसमें लोगों के लिए कोई नफ़ा या फ़ायदा हो। इस मतलब के लिहाज़ से ज़कात भी माऊन है, क्योंकि वह बहुत-से माल में से थोड़ा-सा माल है जो ग़रीबों की मदद के लिए देना होता है, और वे दूसरी आम ज़रूरत की चीज़ें भी माऊन हैं जिनका ज़िक्र हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और उनके जैसे ख़यालात रखनेवाले लोगों ने किया है। ज़्यादातर तफ़सीर लिखनेवालों का ख़याल यह है कि माऊन में वे तमाम छोटी-छोटी चीज़ें आ जाती हैं जो आदतन पड़ोसी एक-दूसरे से माँगते रहते हैं। उनका माँगना कोई बेइज़्ज़ती की बात नहीं होता, क्योंकि ग़रीब और अमीर सब ही को किसी न किसी वक़्त उनकी ज़रूरत पेश आती ही रहती है। अलबत्ता ऐसी चीज़ों को देने से कंजूसी बरतना अख़लाक़ी तौर पर एक नीच हरकत समझा जाता है। आम तौर से ऐसी चीज़ें अपनी जगह ख़ुद बाक़ी रहती हैं और पड़ोसी उनसे काम लेकर उन्हें ज्यों का त्यों वापस दे देता है। इसी माऊन की तारीफ़ में यह भी आता है कि किसी के यहाँ मेहमान आ जाएँ और वह पड़ोसी से चारपाई या बिस्तर माँग ले। या कोई अपने पड़ोसी के तन्दूर में अपनी रोटी पका लेने की इजाज़त माँगे। या कोई कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हो और हिफ़ाज़त के लिए अपना कोई क़ीमती सामान दूसरे के यहाँ रखवाना चाहे। इसलिए आयत का मक़सद यह बताना है कि आख़िरत का इनकार आदमी को इतना तंगदिल बना देता है कि वह दूसरों के लिए कोई मामूली त्याग करने के लिए भी तैयार नहीं होता।