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سُورَةُ النَّحۡلِ

  1. अन-नहल

(मक्‍का में उतरी-आयतें 128)

परिचय

नाम

आयत 68 के वाक्‍य ‘व औहा रब्‍बु-क इलन्‍नह्‍ल' से लिया गया है। नह्‍ल शब्द का अर्थ है- मधुमक्‍खी । यह भी केवल संकेत है, न कि वार्ता के विषय का शीर्षक ।

उतरने का समय

बहुत-सी अदरूनी गवाहियों से इसके उतरने के समय पर रौशनी पड़ती है। जैसे आयत 41 के वाक्य 'वल्लज़ी-न हाजरू फ़िल्लाहि मिम-बादि मा ज़ुलिमू’ (जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए) से स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय हब्शा की हिजरत हो चुकी थी। आयत 106 'मन क-फ़-र बिल्‍लाहि मिम-बादि ईमानिही' (जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे) से मालूम होता है कि उस समय अन्याय उग्र रूप धारण किए हुए था और यह प्रश्न पैदा हो गया था कि अगर कोई व्यक्ति असह्य पीड़ा से विवश होकर कुफ़्र (अधर्म) के शब्द कह बैठे तो उसका क्‍या हुक्‍म है।

आयत 112-114 का स्‍पष्ट संकेत इस ओर है कि मक्का में जो ज़बरदस्त सूखा पड़ गया था, वह इस सूरा के उतरते समय समाप्त हो चुका था। -इस सूरा में एक आयत 115 ऐसी है जिसका हवाला सूरा-6 अनआम की आयत 119 में दिया गया है और दूसरी आयत (118) ऐसी है जिसमें सूरा अनआम की आयत 146 का हवाला दिया गया है। यह इस बात की दलील है कि इन दोनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब है।

इन गवाहियों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय भी मक्का का अन्तिम काल ही है।

शीर्षक और केन्द्रीय विषय

शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण, पैग़म्‍बर की दावत को न मानने के बुरे नतीजों पर चेतावनी और समझाना-बुझाना और सत्य के विरोध और उसके लिए रुकावटें खड़ी करने पर डाँट-फटकार।

वार्ताएँ

सूरा का आरंभ बिना किसी भूमिका के एकाएक एक चेतावनी भरे वाक्य से होता है। मक्का के कुफ़्फ़ार (अधर्मी) बार-बार कहते थे कि 'जब हम तुम्हें झुठला चुके है और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारा विरोध कर रहे है तो आख़िर वह अल्लाह का अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो।' इसपर कहा गया कि मूर्खो! अल्लाह का अज़ाब तो तुम्हारे सिर पर तुला खड़ा है। अब इसके टूट पड़ने के लिए जल्दी न मचाओ, बल्कि जो तनिक भर मोहलत बाक़ी है उससे लाभ उठाकर बात समझने की कोशिश करो। इसके बाद तुरन्त ही समझाने-बुझाने के लिए व्याख्यान आरंभ हो जाता है और निम्नलिखित विषय बार-बार एक के बाद एक सामने आने शुरू होते हैं।

  1. दिल लगती दलीलों और सृष्टि और निज की निशानियों की खुली-खुली गवाहियों से समझाया जाता है कि शिर्क असत्य है और तौहीद ही सत्य है
  2. इंकारियों की आपत्ति, सन्देह, दुराग्रह और हीले-बहानों का एक-एक करके उत्तर दिया जाता है।
  3. असत्य पर आग्रह और सत्य के मुक़ाबले में घमंड व्यक्त करने के बुरे नतीजों से डराया जाता है।
  4. उन नैतिक और व्यावहारिक परिवर्तनों को संक्षेप में, मगर मन में बैठ जानेवाली शैली में, बयान किया जाता है जो मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन मानव-जीवन में लाना चाहता है।
  5. नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की ढाढ़स बँधाई जाती है और साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि कुफ़्फ़ार की रुकावटों और अत्याचारों के मुक़ाबले में उनका रवैया क्या होना चाहिए।

 

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سُورَةُ النَّحۡلِ
16. अन-नह्ल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ
(1) आ गया अल्लाह का फ़ैसला1, अब उसके लिए जल्दी न मचाओ। पाक है वह और बहुत ऊँचा है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।2
1. यानी बस वह आया ही चाहता है-उसके ज़ाहिर होने और लागू होने का वक़्त करीब आ लगा है। इस बात को गुज़री हुई बात के अन्दाज़ में या तो इसके इन्तिहाई यक़ीनी और बहुत क़रीब होने का एहसास दिलाने के लिए कहा गया, या फिर इसलिए कि क़ुरैश के इस्लाम दुश्मनों की सरकशी व बदअमली का पैमाना भर चुका था और आख़िरी फ़ैसला कर देनेवाला क़दम उठाए जाने का वक़्त आ गया था। सवाल पैदा होता है कि यह 'फ़ैसला' क्या था और किस शक्ल में आया? हम यह समझते हैं (अल्लाह ही बेहतर जानता है) कि इस फ़ैसले से मुराद नबी (सल्ल०) की मक्का से हिजरत है जिसका हुक्म थोड़ी मुद्दत बाद ही दिया गया। क़ुरआन के पढ़ने से मालूम होता है कि नबी जिन लोगों के दरमियान भेजा जाता है उनके झुठलाने और इनकार करने की आख़िरी सरहद पर पहुँचकर ही उसे हिजरत का हुक्म दिया जाता है और यह हुक्म उनकी क़िस्मत का फ़ैसला कर देता है। इसके बाद या तो उनपर तबाह कर डालनेवाला अज़ाब आ जाता है, या फिर नबी और उसकी पैरवी करनेवालों के हाथों उनकी जड़ काटकर रख दी जाती है। यही बात इतिहास से भी मालूम होती है। हिजरत जब की गई तो मक्का के इस्लाम दुश्मन समझे कि फ़ैसला उनके हक़ में है। मगर आठ-दस साल के अन्दर ही दुनिया ने देख लिया कि न सिर्फ़ मक्का से बल्कि पूरे अरब की ज़मीन ही से कुफ़्र व शिर्क की जड़ें उखाड़कर फेंक दी गईं।
2. पहले जुमले और दूसरे जुमले का आपसी ताल्लुक़ समझने के लिए पसमंज़र (पृष्ठभूमि) को निगाह में रखना ज़रूरी है। इस्लाम-दुश्मन जो नबी (सल्ल०) को बार-बार चैलेंज कर रहे थे कि अब क्यों नहीं आ जाता ख़ुदा का वह फ़ैसला जिससे तुम हमें डरावे दिया करते हो, इसके पीछे अस्ल में उनका यह ख़याल काम कर रहा था कि उनका शिर्कवाला मज़हब ही सच्चा है और मुहम्मद (सल्ल०) ख़ाह-मख़ाह अल्लाह का नाम ले-लेकर एक ग़लत मज़हब पेश कर रहे हैं जिसे अल्लाह की तरफ़ से कोई मंजूरी हासिल नहीं है। उनकी दलील यह थी कि आख़िर यह कैसे हो सकता है कि हम अल्लाह से फिरे हुए होते और मुहम्मद (सल्ल०) उसके भेजे हुए नबी होते और फिर भी जो कुछ हम उनके साथ कर रहे हैं उसपर हमारी शामत न आ जाती। इसलिए ख़ुदाई फ़ैसले का एलान करते ही फ़ौरन यह कहा गया कि इसके लागू होने में देरी की वजह हरगिज़ वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो। अल्लाह इससे बहुत बुलन्द और बहुत पाकीज़ा है कि कोई उसका शरीक हो।
يُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ بِٱلرُّوحِ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرُوٓاْ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱتَّقُونِ ۝ 1
(2) वह इस रूह3 को अपने जिस बन्दे पर चाहता है अपने हुक्म से फ़रिश्तों के ज़रिए उतार देता है।4 (इस हिदायत के साथ कि लोगों को) “ख़बरदार कर दो, मेरे सिवा कोई तुम्हारा माबूद नहीं है, इसलिए तुम मुझी से डरो।5
3. यानी नुबूवत (पैग़म्बरी) की रूह को जिससे भरकर नबी काम और बात करता है। यह वह्य और यह पैग़म्बरवाली स्प्रिट चूँकि अख़लाक़ी ज़िन्दगी में वही मक़ाम रखती है जो क़ुदरती ज़िन्दगी में रूह का मक़ाम है, इसलिए क़ुरआन में कई जगहों पर इसके लिए रूह का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। इसी हक़ीक़त को न समझने की वजह से ईसाइयों ने रूहुल-क़ुद्स (Holy Ghost) को तीन ख़ुदाओं में से एक ख़ुदा बना डाला।
4. फ़ैसला तलब करने के लिए इस्लाम के दुश्मन जो चैलेंज कर रहे थे, उसके पीछे चूँकि मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत का इनकार भी मौजूद था, इसलिए शिर्क को रद्द करने के साथ और इसके फ़ौरन बाद आपकी नुबूवत को सही साबित किया गया है। वे कहते थे कि ये बनावटी बातें हैं जो यह शख़्स बना रहा है। अल्लाह इसके जवाब में फ़रमाता है कि नहीं यह हमारी भेजी हुई रूह है जिससे लबालब होकर यह शख़्स पैग़म्बरी का काम कर रहा है। फिर यह जो फ़रमाया कि अपने जिस बन्दे पर अल्लाह चाहता है यह रूह उतारता है, तो यह इस्लाम-दुश्मनों के उन एतिराज़ों का जवाब है जो वे नबी (सल्ल०) पर करते थे कि अगर ख़ुदा को नबी ही भेजना था तो क्या बस अब्दुल्लाह का बेटा मुहम्मद (सल्ल०) ही इस काम के लिए रह गया था, मक्का और ताइफ़ के सारे बड़े-बड़े सरदार मर गए थे कि उनमें से किसी पर भी निगाह न पड़ सकी। इस तरह के फ़ुज़ूल एतिराज़ों का जवाब इसके सिवा और क्या हो सकता था, और यही कई जगहों पर क़ुरआन में दिया गया है कि ख़ुदा अपने काम को ख़ुद जानता है, तुमसे मश्वरा लेने की ज़रूरत नहीं है, वह अपने बन्दों में से जिसको मुनासिब समझता है आप ही अपने काम के लिए चुन लेता है।
5. इस जुमले से यह हक़ीक़त वाज़ेह की गई कि पैग़म्बरी की रूह जहाँ जिस इनसान पर भी उतरी है यही एक दावत लेकर आई है कि ख़ुदाई सिर्फ़ एक अल्लाह की है और बस वही अकेला इसका हक़दार है कि उससे तक़वा किया जाए। कोई दूसरा इस लायक नहीं कि उसकी नाराज़ी का डर, उसकी सज़ा का डर और उसकी नाफ़रमानी के बुरे नतीजों का अन्देशा इनसानी अख़लाक़ का लंगर और इनसानी सोच व अमल के पूरे निज़ाम की धुरी बनकर रहे।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ تَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 2
(3) उसने आसमानों व ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है, वह बहुत बुलंद और ऊँचा है, उस उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।6
6. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि शिर्क का इनकार और तौहीद को साबित करना जिसकी दावत ख़ुदा के पैग़म्बर देते हैं, इसी की गवाही ज़मीन व आसमान में मौजूद हर चीज़ दे रही है। यह कारख़ाना कोई ख़याली गोरखधंधा नहीं है, बल्कि सरासर हक़ीक़त पर बना एक निज़ाम है। इसमें तुम जिस तरफ़ भी निगाह उठाकर देख लो, शिर्क की गवाही कहीं से न मिलेगी, अल्लाह के सिवा दूसरे की ख़ुदाई कहीं चलती नज़र न आएगी, किसी चीज़ की बनावट यह गवाही न देगी कि उसका वुजूद किसी और का भी एहसानमन्द है। फिर जब यह ठोस हक़ीक़त पर बना हुआ निज़ाम ख़ालिस तौहीद पर चल रहा है, तो आख़िर तुम्हारे इस शिर्क का सिक्का किस जगह चल सकता है जबकि इसकी तह में वहम व गुमान के सिवा हक़ीक़त और सच्चाई का हल्का-सा निशान तक नहीं है?— इसके बाद कायनात की निशानियों से और ख़ुद इनसान के अपने वुजूद से वे गवाहियाँ पेश की जाती हैं जो एक तरफ़ तौहीद की और दूसरी तरफ़ रिसालत (पैग़म्बरी) की दलीलें बन जाती हैं।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 3
(4) उसने इनसान को एक ज़रा-सी बूँद से पैदा किया और देखते-देखते खुले तौर पर वह एक झगड़ालू हस्ती बन गया।7
7. इसके दो मतलब हो सकते हैं, और शायद दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि अल्लाह ने नुतफ़े (वीर्य) की मामूली-सी बूँद से वह इनसान पैदा किया जो बहस करने और दलीलें देने की क़ाबिलियत रखता है और अपने मक़सद को बयान करने के लिए दलीलें पेश कर सकता है। दूसरे यह कि जिस इनसान को ख़ुदा ने नुतफ़े जैसी मामूली चीज़ से पैदा किया है, उसकी ख़ुदी (स्वाभिमान) की सरकशी तो देखो कि वह ख़ुद ख़ुदा ही के मुक़ाबले में झगड़ने पर उतर आया है। पहले मतलब के लिहाज़ से यह आयत उसी दलील की एक कड़ी है जो आगे लगातार कई आयतों में पेश की गयी है (जिसकी तशरीह हम इस बयान के सिलसिले के आख़िर में करेंगे) और दूसरे मतलब के लिहाज़ से यह आयत इनसान को ख़बरदार करती है कि बढ़-बढ़कर बातें करने से पहले ज़रा अपने वुजूद को देख किस शक्ल में तू कहाँ से निकलकर कहाँ पहुँचा, किस जगह तूने शुरू में परवरिश पाई, फिर किस रास्ते से निकलकर दुनिया में आया, फिर किन मरहलों से गुज़रता हुआ तू जवानी की उम्र को पहुँचा और अब अपने आपको भूलकर तू किसके मुँह आ रहा है।
وَٱلۡأَنۡعَٰمَ خَلَقَهَاۖ لَكُمۡ فِيهَا دِفۡءٞ وَمَنَٰفِعُ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 4
(5) उसने जानवर पैदा किए जिनमें तुम्हारे लिए लिबास भी है और खाना भी, और तरह-तरह के दूसरे फ़ायदे भी।
وَلَكُمۡ فِيهَا جَمَالٌ حِينَ تُرِيحُونَ وَحِينَ تَسۡرَحُونَ ۝ 5
(6) उनमें तुम्हारे लिए ख़ूबसूरती है जबकि सुबह तुम उन्हें चरने के लिए भेजते हो और जबकि शाम उन्हें वापस लाते हो।
وَتَحۡمِلُ أَثۡقَالَكُمۡ إِلَىٰ بَلَدٖ لَّمۡ تَكُونُواْ بَٰلِغِيهِ إِلَّا بِشِقِّ ٱلۡأَنفُسِۚ إِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 6
(7) वे तुम्हारे लिए बोझ ढोकर ऐसी-ऐसी जगहों तक ले जाते हैं, जहाँ तुम कड़ी मेहनत के बिना नहीं पहुँच सकते। सच तो यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही रहमदिल और मेहरबान है।
وَٱلۡخَيۡلَ وَٱلۡبِغَالَ وَٱلۡحَمِيرَ لِتَرۡكَبُوهَا وَزِينَةٗۚ وَيَخۡلُقُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 7
(8) उसने घोड़े और ख़च्चर और गधे पैदा किए, ताकि तुम उनपर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की रौनक़ बनें। वह और बहुत-सी चीज़ें (तुम्हारे फ़ायदे के लिए) पैदा करता है जिनका तुम्हें इल्म तक नहीं है।8
8. यानी बहुत-सी ऐसी चीज़ें हैं जो इनसान की भलाई के लिए काम कर रही हैं और इनसान को ख़बर तक नहीं है कि कहाँ-कहाँ कितने ख़ादिम उसकी ख़िदमत में लगे हुए हैं और क्या ख़िदमत कर रहे हैं।
وَعَلَى ٱللَّهِ قَصۡدُ ٱلسَّبِيلِ وَمِنۡهَا جَآئِرٞۚ وَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 8
(9) और अल्लाह ही के ज़िम्मे है सीधा रास्ता बताना, जबकि रास्ते टेढ़े भी मौजूद हैं।9 अगर वह चाहता तो तुम सबको सीधा रास्ता दिखा देता।10
9. ख़ुदा एक है, वह रहम करनेवाला और पालनहार है, इन बातों की दलीलें पेश करते हुए यहाँ इशारे में नुबूवत की भी एक दलील पेश कर दी गई है। इस दलील का मुख़्तसर बयान यह है— दुनिया में इनसान के लिए सोच व अमल के बहुत-से अलग-अलग रास्ते मुमकिन हैं और अमली तौर पर मौजूद हैं। ज़ाहिर है कि ये सारे रास्ते एक ही वक़्त में तो हक़ नहीं हो सकते। सच्चाई तो एक ही है और ज़िन्दगी का सही नज़रिया सिर्फ़ वही हो सकता है जो उस सच्चाई के मुताबिक़ हो और अमल के अनगिनत मुमकिन रास्तों में से सही रास्ता भी सिर्फ़ वही हो सकता को इस सही नज़रिए और सही राहे-अमल से वाक़िफ़ होना इनसान की सबसे बड़ी ज़रूरत है, जो ज़िन्दगी के सही नज़रिए पर बना हो। इस सही नज़रिए और सही राहे-अमल से वाक़िफ़ होना इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत है, बल्कि अस्ल बुनियादी ज़रूरत यही है, क्योंकि दूसरी तमाम चीज़ें तो इनसान की सिर्फ़ उन ज़रूरतों को पूरा करती हैं जो एक ऊँचे दरजे का जानवर होने की हैसियत से उसको हुआ करती हैं। मगर यह एक ज़रूरत ऐसी है जो इनसान होने की हैसियत से उसके साथ लगी हुई है। यह अगर पूरी न हो तो इसका मतलब यह है कि आदमी की सारी ज़िन्दगी ही नाकाम हो गई। अब ग़ौर करो कि जिस ख़ुदा ने तुम्हें वुजूद में लाने से पहले तुम्हारे लिए यह कुछ सरो-सामान जुटाकर रखा और जिसने वुजूद में लाने के बाद तुम्हारी हैवानी ज़िन्दगी की एक-एक ज़रूरत को पूरा करने का इतनी बारीकी के साथ इतने बड़े पैमाने पर इन्तिज़ाम किया, क्या उससे तुम यह उम्मीद रखते हो कि उसने तुम्हारी इनसानी ज़िन्दगी की इस सबसे बड़ी और अस्ली ज़रूरत को पूरा करने का इन्तिज़ाम न किया होगा? यही इन्तिज़ाम तो है जो नुबूवत के ज़रिए से किया गया है। अगर तुम नुबूवत को नहीं मानते तो बताओ कि तुम्हारे ख़याल में ख़ुदा ने इनसान की हिदायत के लिए और कौन-सा इन्तिज़ाम किया है? इसके जवाब में तुम न यह कह सकते हो कि ख़ुदा ने हमें रास्ता तलाश करने के लिए अक़्ल व समझ दे रखी है, क्योंकि इनसानी अक़्ल व समझ पहले ही अनगिनत अलग-अलग रास्ते निकाल बैठी है जो सीधे रास्ते की सही खोज में उसकी नाकामी का खुला सुबूत है और न तुम यही कह सकते हो कि ख़ुदा ने हमें राह दिखाने का कोई इन्तिज़ाम नहीं किया है, क्योंकि ख़ुदा के साथ इससे बढ़कर बदगुमानी और कोई नहीं हो सकती कि वह जानवर होने की हैसियत से तो तुम्हारी परवरिश और तुम्हारे फूलने-फलने का इतना तफ़सील से पूरा इन्तिज़ाम करे, मगर इनसान होने की हैसयित से तुमको यूँ ही अंधेरों में भटकने और ठोकरें खाने के लिए छोड़ दे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-55 रहमान, हाशिया-2, 3)
10. यानी अगरचे यह भी हो सकता था कि अल्लाह तआला अपनी इस ज़िम्मेदरी को (जो इनसानों को राह दिखाने के लिए उसने ख़ुद अपने ऊपर डाली है) इस तरह अदा करता कि सारे इनसानों को पैदाइशी तौर पर दूसरे तमाम बेइख़्तियार मख़लूक़ की तरह सीधे रास्ते पर लगा देता। मगर वह ऐसा करना नहीं चाहता था। उसकी मरज़ी और स्कीम एक ऐसे इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ को वुजूद में लाने का तक़ाज़ा कर रही थी जो अपनी पसन्द और अपने चुनाव से सही और ग़लत, हर तरह के रास्तों पर जाने की आज़ादी रखती हो। इसी आज़ादी के इस्तेमाल के लिए उसको इल्म के ज़रिए (साधन) दिए गए, अक़्ल व फ़िक्र (चिंतन) की सलाहियतें दी गईं। ख़ाहिश और इरादे की ताक़तें दी गईं, अपने अन्दर और बाहर की अनगिनत चीज़ों को इस्तेमाल के इख़्तियारात दिए गए, और अन्दर और बाहर में हर तरफ़ अनगिनत ऐसे असबाब (साधन) रख दिए गए जो उसके लिए हिदायत और गुमराही दोनों का सबब बन सकते हैं। ये सब कुछ बेमतलब हो जाता अगर वह पैदाइशी तौर पर सीधे रास्ते पर चलनेवाला बना दिया जाता और तरक़्क़ी के उन सबसे ऊँचे दरजों तक भी इनसान का पहुँचना मुमकिन न रहता जो सिर्फ़ आज़ादी के सही इस्तेमाल ही के नतीजे में उसको मिल सकते हैं। इसलिए अल्लाह तआला ने इनसान की रहनुमाई के लिए ज़बरदस्ती हिदायत देने का तरीक़ा छोड़कर रिसालत का तरीक़ा अपनाया, ताकि इनसान की आज़ादी भी बनी रहे, और उसके इम्तिहान का मक़सद भी पूरा हो, और सीधा रास्ता भी सबसे ज़्यादा मुनासिब तरीक़े से उसके सामने पेश कर दिया जाए।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗۖ لَّكُم مِّنۡهُ شَرَابٞ وَمِنۡهُ شَجَرٞ فِيهِ تُسِيمُونَ ۝ 9
(10) वही है जिसने आसमान से तुम्हारे लिए पानी बरसाया जिससे तुम ख़ुद भी सैराब होते हो और तुम्हारे जानवरों के लिए भी चारा पैदा होता है।
يُنۢبِتُ لَكُم بِهِ ٱلزَّرۡعَ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلنَّخِيلَ وَٱلۡأَعۡنَٰبَ وَمِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 10
(11) वह इस पानी के ज़रिये से खेतियाँ उगाता है और ज़ैतून और खजूर और अंगूर और तरह-तरह के दूसरे फल पैदा करता है। इसमें एक बड़ी निशानी है उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ وَٱلنُّجُومُ مُسَخَّرَٰتُۢ بِأَمۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 11
(12) उसने तुम्हारी भलाई के लिए रात और दिन को और सूरज और चाँद को सधा रखा है और सब तारे भी उसी के हुक्म से सधे हुए हैं। इसमें बहुत निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
وَمَا ذَرَأَ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهُۥٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 12
(13) और यह जो बहुत-सी रंग-बिरंग की चीज़ें उसने तुम्हारे लिए ज़मीन में पैदा कर रखी हैं, इनमें भी ज़रूर निशानी है उन लोगों के लिए जो सबक़ हासिल करनेवाले हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي سَخَّرَ ٱلۡبَحۡرَ لِتَأۡكُلُواْ مِنۡهُ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُواْ مِنۡهُ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ مَوَاخِرَ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 13
(14) वही है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को सधा रखा है, ताकि तुम उससे तरो-ताज़ा गोश्त लेकर खाओ और उससे जीनत (शोभा) की वे चीज़ें निकालो जिन्हें तुम पहना करते हो। तुम देखते हो कि नाव समुद्र का सीना चीरती हुई चलती है, यह सब कुछ इसलिए है कि तुम अपने रब की मेहरबानी तलाश करो11 और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
11. यानी हलाल तरीक़ों से अपनी रोज़ी हासिल करने की कोशिश करो।
وَأَلۡقَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِكُمۡ وَأَنۡهَٰرٗا وَسُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 14
(15) उसने ज़मीन में पहाड़ों की मेख़ें गाड़ दीं, ताकि ज़मीन तुमको लेकर ढुलक न जाए।12 उसने नदियाँ बहाईं और क़ुदरती रास्ते बनाए13 ताकि तुम हिदायत पाओ।
12. इससे मालूम होता है कि ज़मीन की सतह पर पहाड़ों के उभार का अस्ल फ़ायदा यह है कि उसकी वजह से ज़मीन के घूमने में और उसकी रफ़्तार में कंट्रोल पैदा होता है। क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर पहाड़ों के इस फ़ायदे को नुमायाँ करके बताया गया है जिससे हम यह समझते हैं कि दूसरे तमाम फ़ायदे बुनियादी फ़ायदे नहीं हैं और अस्ल फ़ायदा यही ज़मीन की हरकत को कंट्रोल से बाहर होने से बचाकर कंट्रोल (Regulate) करना है।
13. यानी वे रास्ते जो नदी-नालों और दरियाओं के साथ बनते चले जाते हैं। उन क़ुदरती रास्तों की अहमियत ख़ुसूसियत के साथ पहाड़ी इलाक़ों में महसूस होती है, अगरचे मैदानी इलाक़ों में भी वे कुछ कम अहम नहीं है।
وَعَلَٰمَٰتٖۚ وَبِٱلنَّجۡمِ هُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 15
(16) उसने ज़मीन में रास्ता बतानेवाली निशानियाँ रख दीं14, और तारों से भी लोग रास्ता पाते हैं।15
14. यानी ख़ुदा ने सारी ज़मीन बिलकुल एक जैसी बनाकर नहीं रख दी, बल्कि हर हिस्से को अलग-अलग ख़ास अलामतों (Landmarks) से अलग किया। इसके बहुत-से दूसरे फ़ायदों के साथ एक फ़ायदा यह भी है कि आदमी अपने रास्ते और अपनी मंज़िल को अलग पहचान लेता है। इस नेमत की क़द्र आदमी को उसी वक़्त मालूम होती है, जबकि उसे कभी ऐसे रेगिस्तानी इलाक़ों में जाने का मौक़ा मिला हो जहाँ इस तरह के अलग नज़र आनेवाले निशान तक़रीबन न होने के बराबर होते हैं और आदमी हर वक़्त भटक जाने का ख़तरा महसूस करता है। इससे भी बढ़कर समुद्री सफ़र में आदमी को इस शानदार नेमत का एहसास होता है, क्योंकि वहाँ रास्ते के निशान बिलकुल ही नहीं होते। लेकिन रेगिस्तानों और समुद्रों में भी अल्लाह ने इनसान की रहनुमाई का, फ़ितरी इन्तिज़ाम कर रखा है और वे हैं तारे जिन्हें देख-देखकर इनसाने पुराने-ज़माने से आज तक अपना रास्ता मालूम कर रहा है। यहाँ फिर ख़ुदा के एक होने, उसके मेहरबान और रब होने की दलीलों के बीच एक हल्का-सा इशारा पैग़म्बरी की दलील की तरफ़ कर दिया गया है। इस जगह को पढ़ते हुए ज़ेहन ख़ुद-ब-ख़ुद इस मज़मून की तरफ़ पलटता है कि जिस ख़ुदा ने तुम्हारी दुनियावी ज़िन्दगी में तुम्हारी रहनुमाई के लिए ये कुछ इन्तिज़ाम किए हैं क्या वह तुम्हारी अख़लाक़ी ज़िन्दगी से इतना बेपरवाह हो सकता है कि यहाँ तुम्हारी हिदायत का कुछ भी इन्तिज़ाम न करे? ज़ाहिर है कि दुनियावी ज़िन्दगी में भटक जाने का बड़े से बड़ा नुक़सान भी अख़लाक़ी ज़िन्दगी में भटकने के नुक़सान से कई दरजे कम है। फिर जिस मेहरबान रब को हमारी दुनियावी भलाई की इतनी फ़िक्र है कि पहाड़ों में हमारे लिए रास्ते बनाता है, मैदानों में रास्ता बतानेवाले निशान खड़े करता है, रेगिस्तानों और समुद्रों में हमको सफ़र की सही दिशा बताने के लिए आसमानों पर चिराग़ रौशन करता है, उससे यह बदगुमानी कैसे की जा सकती है कि उसने हमारी अख़लाक़ी कामयाबी के लिए कोई रास्ता न बनाया होगा, उस रास्ते को नुमायाँ करने के लिए कोई निशान न खड़ा किया होगा, और उसे साफ़-साफ़ दिखाने के लिए कोई चमकता चिराग रौशन न किया होगा?
15. यहाँ तक दुनिया में फैली हुई और इनसान के अन्दर पाई जानेवाली बहुत-सी निशानियाँ जो एक के बाद एक लगातार बयान की गई हैं, उनका मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि इनसान अपने वुजूद से लेकर ज़मीन और आसमान के कोने-कोने तक जिधर चाहे नज़र दौड़ाकर देख ले, हर चीज़ पैग़म्बर के बयान को सच्चा बता रही है और कहीं से भी शिर्क की और साथ-साथ नास्तिकता की भी ताईद में कोई गवाही नहीं मिलती। यह एक मामूली बूँद से बोलता-चालता और हुज्जत और दलील देता हुआ इनसान बनाकर खड़ा करना, यह उसकी ज़रूरत के ठीक मुताबिक़ बहुत-से जानवर पैदा करना जिनके बाल और खाल, ख़ून और दूध, गोश्त और पीठ, हर चीज़ में इनसानी फ़ितरत की बहुत-सी माँगों का, यहाँ तक कि उसके ज़ौक़े-जमाल (सौन्दर्य प्रियता) की माँग का जवाब मौजूद है। यह आसमान से बारिश का इन्तिज़ाम, और यह ज़मीन में तरह-तरह के फलों और अनाजों और चारों की हरियाली का इन्तिज़ाम, जिसके अनगिनत हिस्से आपस में एक-दूसरे के साथ जोड़ खाते चले जाते हैं और फिर इनसान की भी फ़ितरी ज़रूरतों के ठीक मुताबिक़ हैं। यह रात और दिन का बाक़ायदा आना-जाना और यह चाँद-सूरज और तारों की इंतिहाई मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) हरकतें जिनका ज़मीन की पैदावार और इनसान की मस्लहतों से इतना गहरा ताल्लुक़ है। यह ज़मीन में समुद्रों का होना और यह उनके अन्दर इनसान की बहुत-सी फ़ितरी और जमाली माँगों का जवाब, यह पानी का कुछ ख़ास क़ानूनों से जकड़ा हुआ होना, और फिर उसके ये फ़ायदे कि इनसान समुद्र जैसी डरावनी चीज़ का सीना चीरता हुआ उसमें अपने जहाज़ चलाता है और एक देश से दूसरे देश तक सफ़र और कारोबार करता फिरता है। ये धरती के सीने पर पहाड़ों के उभार और ये इनसान के वुजूद के लिए उनके फ़ायदे। यह ज़मीन की सतह की बनावट से लेकर आसमान की बुलन्द फ़ज़ाओं तक अनगिनत अलामतों और पहचान के निशानों का फैलाव और फिर इस तरह उनका इनसान के लिए फ़ायदेमन्द होना। ये सारी चीज़ें साफ़ गवाही दे रही हैं कि एक ही हस्ती ने यह मंसूबा सोचा है, उसी ने अपने मंसूबे के मुताबिक़ इन सबको डिज़ाइन किया है, उसी ने इस डिज़ाइन पर इनको पैदा किया है, वही हर पल इस दुनिया में नित नई चीज़ें बना-बनाकर इस तरह ला रहा है कि पूरी स्कीम और उसके इन्तिज़ाम में ज़रा फ़र्क़ नहीं आता, और वही ज़मीन से लेकर आसमानों तक इस शानदार कारख़ाने को चला रहा है। एक बेवक़ूफ़ या एक हठधर्म के सिवा और कौन यह कह सकता है कि यह सब कुछ एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा है? या यह कि इस कमाल दरजे की मुनज़्ज़म (सुव्यवस्थित), एक-दूसरे से जुड़ी बँधी हुई और सन्तुलित कायनात के अलग-अलग काम या अलग-अलग हिस्से, अलग-अलग ख़ुदाओं के बनाए हुए और अलग-अलग ख़ुदाओं के इन्तिज़ाम के तहत हैं?
أَفَمَن يَخۡلُقُ كَمَن لَّا يَخۡلُقُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 16
(17) फिर क्या वह जो पैदा करता है और वे जो कुछ भी नहीं पैदा करते, दोनों बराबर हैं?16 क्या तुम होश में नहीं आते?
16. यानी अगर तुम यह मानते हो (जैसा कि हक़ीक़त में मक्का के इस्लाम-दुश्मन भी मानते थे और दुनिया के दूसरे मुशरिक भी मानते हैं) कि पैदा करनेवाला अल्लाह ही है और इस कायनात के अन्दर तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों में से किसी का कुछ भी पैदा किया हुआ नहीं हैं, तो फिर कैसे हो सकता है ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) के बनाए हुए निज़ाम में उन हस्तियों की हैसियत, जिन्होंने कुछ भी पैदा नहीं किया, ख़ुद पैदा करनेवाले के बराबर या किसी तरह उसके जैसी हो? किस तरह मुमकिन है कि अपनी बनाई हुई कायनात में जो इख़्तियारात पैदा करनेवाले के हैं, वही न पैदा करनेवालों के भी हों, और अपने पैदा किए हुए जानदारों और दूसरी चीज़ों पर जो हक़ पैदा करनेवाले को हासिल हैं वही हक़ न पैदा करनेवालों को भी हासिल हों? कैसे माना जा सकता है कि पैदा करनेवाले और न पैदा करनेवाले की सिफ़ात (गुण) एक जैसी होंगी, या वे एक क़िस्म के लोग होंगे, यहाँ तक कि उनके बीच बाप और औलाद का रिश्ता होगा?
وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 17
(18) अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो गिन नहीं सकते। सच तो यह है कि वह बड़ा ही माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है,17
17. पहले और दूसरे जुमले के दरमियान एक पूरी दास्तान अनकही छोड़ दी है, इसलिए कि वह इतनी ज़्यादा खुली हुई है कि उसके बयान की ज़रूरत नहीं। उसकी तरफ़ सिर्फ़ यह हल्का-सा इशारा ही काफ़ी है कि अल्लाह के बेहिसाब एहसानों का ज़िक्र करने के फ़ौरन बाद उसके ग़फ़ूर (माफ़ कर देनेवाला) और रहीम (रहम करनेवाला) होने का ज़िक्र कर दिया जाए। इसी से मालूम हो जाता है कि जिस इनसान का बाल-बाल अल्लाह के एहसानों में बँधा हुआ है वह अपने एहसान करनेवाले की नेमतों का जवाब कैसी-कैसी नमक-हरामियों बेवफ़ाइयों, ग़द्दारियों और सरकशियों से दे रहा है और फिर उसका मुहसिन कैसा रहमदिल और नर्मदिल है कि इन सारी हरकतों के बावजूद कई सालों तक एक नमकहराम शख़्स को और सैकड़ों सालों तक एक बग़ावत करनेवाली क़ौम को अपनी नेमतों से नवाज़ता चला जाता है। यहाँ वे भी देखने में आते हैं जो किसी पैदा करनेवाले के वुजूद ही का खुल्लम-खुल्ता इनकार करते हैं और फिर भी नेमतों से मालामाल हुए जा रहे हैं। वे भी पाए जाते हैं जो पैदा करनेवाले के वुजूद, सिफ़ात (गुण) इख़्तियारों, हक़ों सबमें न पैदा करनेवाली हस्तियों को उसका साझी ठहरा रहे हैं और नेमतें देनेवाले की नेमतों का शुक्रिया नेमतें न देनेवालों को अदा कर रहे हैं, फिर भी नेमत देनेवाला हाथ नेमत देने से नहीं रुकता। वे भी हैं जो ख़ालिक को पैदा करनेवाला और नेमतें देनेवाला मानने के बावजूद उसके मुक़ाबले में सरकशी व नाफ़रमानी ही को अपनी आदत और उसकी फ़रमाँबरदारी से आज़ादी ही को अपना तरीक़ा बनाए रखते हैं, फिर भी तमाम उम्र उसके बेहद व बेहिसाब एहसानों का सिलसिला उनपर जारी रहता है।
وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَ ۝ 18
(19) हालाँकि वह तुम्हारे खुले को भी जानता है और छिपे को भी।18
18. यानी कोई बेवक़ूफ़ यह न समझे कि ख़ुदा के इनकार, उसका साझी ठहराने और गुनाह करने के बावजूद नेमतों का सिलसिला बन्द न होना कुछ इस वजह से है कि अल्लाह को लोगों के करतूतों की ख़बर नहीं है। यह कोई अंधी बाँट और ग़लत मेहरबानी नहीं है जो अनजाने में हो रही हो। यह तो वह बर्दाश्त और अनदेखी करना है जो मुजरिमों के छिपे भेदों बल्कि दिल की छिपी हुई नीयतों तक से वाक़िफ़ होने के बावजूद किया जा रहा है, और यह वह फ़ैयाज़ी (दानशीलता) और दिल की कुशादगी है जो कि सारे जहान के रब ही को शोभा देती है।
وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 19
(20) और वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं, वे किसी चीज़ को भी पैदा करनेवाली नहीं हैं, बल्कि ख़ुद पैदा की हुई हैं।
أَمۡوَٰتٌ غَيۡرُ أَحۡيَآءٖۖ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ ۝ 20
(21) मुर्दा हैं, न कि ज़िन्दा। और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब (दोबारा ज़िन्दा करके) उठाया जाएगा।19
19. ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ ख़ासतौर पर जिन बनावटी माबूदों को रद्द किया जा रहा है, वे फ़रिश्ते या जिन्न या शैतान या लकड़ी-पत्थर की मूर्तियाँ नहीं हैं, बल्कि क़ब्र में दफ़न हो चुके लोग हैं। इसलिए कि फ़रिश्ते और शैतान तो जिन्दा हैं, उनके लिए “मुर्दा हैं न कि ज़िन्दा” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किए जा सकते। और लकड़ी और पत्थर की मूर्तियों के मामले में “मौत के बाद उठाए जाने” का कोई सवाल नहीं है, इसलिए “उन्हें कुछ पता नहीं कि वे कब उठाए जाएँगे” के अलफ़ाज़ उन्हें भी बहस से अलग कर देते हैं। अब लाज़िमी तौर पर इस आयत में “वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं” से मुराद वे पैग़म्बर, वली, शहीद, नेक लोग और दूसरे ग़ैर-मामूली इनसान ही हैं जिनको उनके हद से ज़्यादा अक़ीदतमन्द (श्रद्धालु) दाता, मुश्किला-कुशा, फ़रियाद-रस, ग़रीब-नवाज़, गंज बख़्श और न जाने क्या-क्या ठहराकर अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पुकारना शुरू कर देते हैं। इसके जवाब में अगर कोई यह कहे कि अरब में इस तरह के माबूद नहीं पाए जाते थे तो हम अर्ज़ करेंगे कि यह अरब में पाई जानेवाली जाहिलियत के इतिहास से उसके वाक़िफ़ न होने का सुबूत है। कौन पढ़ा-लिखा नहीं जानता है कि अरब के कई क़बीले, रबीआ, कल्ब, तग़लिब, क़ुज़ाआ, किनाना, हर्स, कअब, किन्दा वग़ैरह में बहुत ज़्यादा तादाद में ईसाई और यहूदी पाए जाते थे, और ये दोनों मज़हब बुरी तरह पैग़म्बरों, वलियों और शहीदों की इबादत में पड़े हुए थे। फिर अरब के ज़्यादा तर नहीं तो बहुत-से माबूद वे गुज़रे हुए इनसान ही थे जिन्हें बाद की नस्लों ने ख़ुदा बना लिया था। बुख़ारी में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि वद्द, सुवाअ, यग़ूस, यऊक़, नम्र ये सब नेक लोगों के नाम हैं जिन्हें बाद के लोग बुत बना बैठे। हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि 'इसाफ़' और 'नाइला' दोनों इनसान थे। इसी तरह की रिवायतें 'लात' और 'मनात' और 'उज़्ज़ा' के बारे में भी मौजूद हैं और मुशरिकों का यह अक़ीदा भी रिवायतों में आया है कि 'लात' और 'उज्ज़ा' अल्लाह के ऐसे प्यारे थे कि अल्लाह मियाँ जाड़ा लात के यहाँ और गर्मी ‘उज़्ज़ा' के यहाँ गुज़ारते थे। (अल्लाह उन बुराइयों से पाक है जो ये लोग बयान करते हैं)।
إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ فَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ قُلُوبُهُم مُّنكِرَةٞ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 21
(22) तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है। मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके दिलों में इनकार बसकर रह गया है और ये घमंड में पड़ गए हैं।20
20. यानी आख़िरत के इनकार ने उनको इतना ज़्यादा ग़ैर-ज़िम्मेदार, बेफ़िक्र और दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त बना दिया है कि अब उन्हें किसी हक़ीक़त का इनकार कर देने में डर नहीं रहा, किसी सच्चाई की उनके दिल में क़द्र बाक़ी नहीं रही, किसी अख़लाक़ी बन्दिश को अपने मन पर बरदाश्त करने के लिए वे तैयार नहीं रहे, और उन्हें यह पता लगाने की परवाह ही नहीं रही कि जिस तरीक़े पर वे चल रहे हैं वह सही है या नहीं।
لَا جَرَمَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡتَكۡبِرِينَ ۝ 22
(23) अल्लाह यक़ीनन इनके सब करतूत जानता है, छिपे छिपे हुए भी और खुले हुए भी। वह उन लोगों को हरगिज़ पसन्द नहीं करता जो घमंड में पड़े हों।
وَإِذَا قِيلَ لَهُم مَّاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡ قَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 23
(24) और21 जब कोई उनसे पूछता है कि तुम्हारे रब ने यह क्या चीज़ उतारी है तो कहते हैं, “अजी, वे तो अगले वक़्तों की घिसी-पिटी कहानियाँ हैं।"22
21. यहाँ से तक़रीर का रुख़ दूसरी तरफ़ फिरता है। नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में जो शरारतें मक्का के इस्लाम दुश्मनों की तरफ़ से हो रही थीं, जो हुज्जतें नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ पेश की जा रही थीं, जो हीले और बहाने ईमान न लाने के लिए गढ़े जा रहे थे, जो एतिराज़ नबी (सल्ल०) पर किए जा रहे थे, उनको एक-एक करके लिया जाता है और उनपर समझाया और डाँटा जाता है और नसीहत की जाती है।
22. नबी (सल्ल०) की दावत (पैग़ाम) की चर्चा जब चारों तरफ़ फैली तो मक्का के लोग जहाँ कहीं जाते थे उनसे पूछा जाता था कि तुम्हारे यहाँ जो साहब नबी बनकर उठे हैं वे क्या तालीम देते हैं? क़ुरआन किस तरह की किताब है? इसमें क्या बातें बयान की गई हैं? वग़ैरह-वग़ैरह। इस तरह के सवालों का जवाब मक्का के इस्लाम दुश्मन हमेशा ऐसे अलफ़ाज में देते थे जिनसे पूछनेवाले के दिल में नबी (सल्ल०) और आपकी लाई हुई किताब (क़ुरआन ) के बारे में कोई न कोई शक बैठ जाए, या कम-से-कम उसको आपके और आपकी नुबूवत के मामले से कोई दिलचस्पी बाक़ी न रहे।
لِيَحۡمِلُوٓاْ أَوۡزَارَهُمۡ كَامِلَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَمِنۡ أَوۡزَارِ ٱلَّذِينَ يُضِلُّونَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۗ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 24
(25) ये बातें वे इसलिए करते हैं कि क़ियामत के दिन अपने बोझ भी पूरे उठाएँ और साथ-साथ कुछ लोगों के बोझ भी समेटें जिन्हें ये जहालत की वजह से गुमराह कर रहे हैं। देखो, कैसी सख़्त ज़िम्मेदारी है जो यह अपने सर ले रहे हैं।
قَدۡ مَكَرَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَأَتَى ٱللَّهُ بُنۡيَٰنَهُم مِّنَ ٱلۡقَوَاعِدِ فَخَرَّ عَلَيۡهِمُ ٱلسَّقۡفُ مِن فَوۡقِهِمۡ وَأَتَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 25
(26) इनसे पहले भी बहुत-से लोग (हक़ को नीचा दिखाने के लिए) ऐसी ही मक्कारियाँ कर चुके हैं, तो देख लो कि अल्लाह ने उनकी चालों की इमारत जड़ से उखाड़ फेंकी और उसकी छत ऊपर से उनके सर पर आ रही और ऐसी तरफ़ से उनपर अज़ाब आया, जिधर से उसके आने का उनको गुमान तक न था।
ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُخۡزِيهِمۡ وَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تُشَٰٓقُّونَ فِيهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ إِنَّ ٱلۡخِزۡيَ ٱلۡيَوۡمَ وَٱلسُّوٓءَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 26
(27) फिर क़ियामत के दिन अल्लाह उन्हें रुसवा करेगा और उनसे कहेगा. “बताओ अब कहाँ हैं मेरे वे शरीक जिनके लिए तुम (हक़ को माननेवालों से) झगड़े किया करते थे?"— जिन लोगों23 को दुनिया में इल्म हासिल था वे कहेंगे, “आज रुसवाई और बदनसीबी है हक़ का इनकार करनेवालों के लिए।”
23. पहले जुमले और दूसरे जुमले के बीच एक लतीफ़ ख़ला (सूक्ष्म रिक्तता) है जिसे सुननेवाले का ज़ेहन थोड़े ग़ौर-फ़िक्र से ख़ुद भर सकता है। इसकी तफ़सील यह है कि जब अल्लाह तआला यह सवाल करेगा तो सारे हश्र के मैदान में एक सन्नाटा छा जाएगा। इनकार करनेवालों और शिर्क करनेवालों की ज़बानें बन्द हो जाएँगी। उनके पास इस सवाल का कोई जवाब न होगा इसलिए वे अपनी साँसे थामकर रह जाएँगे और इल्म रखनेवालों के बीच आपस में ये बातें होंगी।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡۖ فَأَلۡقَوُاْ ٱلسَّلَمَ مَا كُنَّا نَعۡمَلُ مِن سُوٓءِۭۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 27
(28) हाँ24 उन्हीं इनकार करनेवालों के लिए जो अपने ऊपर ज़ुल्म करते हुए जब फ़रिश्तों के हाथों गिरफ़्तार होते हैं25 तो (सरकशी छोड़कर) फ़ौरन डगें डाल देते हैं और कहते हैं, “हम तो कोई क़ुसूर नहीं कर रहे थे।” फ़रिश्ते जवाब देते हैं, “कर कैसे नहीं रहे थे! अल्लाह तुम्हारे करतूतों को ख़ूब जानता है।
24. यह जुमला इल्म रखनेवालों की बात पर इज़ाफ़ा (वृद्धि) करते हुए अल्लाह तआला ख़ुद तशरीह के तौर पर फ़रमा रहा है। जिन लोगों ने इसे भी इल्मवालों ही की बात समझा है उन्हें बड़े घुमाव-फ़िराव से बात बनानी पड़ी है और फिर भी बात पूरी नहीं बन सकी है।
25. यानी जब मौत के वक़्त फ़रिश्ते उनकी रूहें उनके जिस्म से निकालकर अपने क़ब्ज़े में ले लेते है।
فَٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَلَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 28
(29) अब जाओ, जहन्नम के दरवाज़ों में घुस जाओ। वहीं तुम्हें हमेशा रहना है।"26 बस सच्चाई तो यह है कि बहुत ही बुरा ठिकाना है घमंडियों के लिए।
26. यह आयत और इसके बादवाली आयत, जिसमें रूह निकालने के बाद परहेज़गारों और फ़रिश्तों की बातचीत का ज़िक्र है, क़ुरआन मजीद की उन बहुत-सी आयतों में से है जो साफ़ तौर पर क़ब्र के अज़ाब व सवाब का सुबूत देती हैं। हदीस में 'क़ब्र' का लफ़्ज़ मजाज़ी तौर पर (लाक्षणिक रूप में) 'आलमे-बरज़ख़' के लिए इस्तेमाल हुआ है, और इससे मुराद वह आलम है जिसमें मौत की आख़िरी हिचकी से लेकर मौत के बाद उठाए जाने के पहले झटके तक इनसानी रूहें रहेंगी। हदीस को न माननेवालों का पूरा ज़ोर इस बात पर है कि यह आलम बिलकुल शून्य जैसा होगा जिसमें कोई एहसास और शुऊर (चेतना) न होगा और किसी क़िस्म का अज़ाब या सवाब न होगा। लेकिन यहाँ देखिए कि इनकार करनेवालों की रूहें जब निकाली जाती हैं तो वे मौत की सरहद के पार का हाल बिलकुल अपनी उम्मीदों के ख़िलाफ़ पाकर हैरान रह जाती हैं। और फ़ौरन सलाम ठोककर फ़रिश्तों को यक़ीन दिलाने की कोशिश करती हैं कि हम कोई बुरा काम नहीं कर रहे थे। जवाब में फ़रिश्ते उनको डाँट बताते हैं और जहन्नम में डाले जाने की पहले से ख़बर देते हैं। दूसरी तरफ़ परहेज़गारों और नेक लोगों की रूहें जब निकाली जाती हैं तो फ़रिश्ते उनको सलाम करते हैं और जन्नती होने की पेशगी मुबारकबाद देते हैं। क्या बरज़ख़ की ज़िन्दगी, एहसास, शुऊर, अज़ाब और सवाब का इससे भी ज़्यादा खुला हुआ कोई सुबूत चाहिए? इसी से मिलता-जुलता मज़मून सूरा-14 निसा, आयत-97 में गुज़र चुका है, जहाँ हिजरत न करनेवाले मुसलमानों से रूह निकालने के बाद फ़रिश्तों की बात-चीत का ज़िक्र आया है और इन सबसे ज़्यादा साफ़ अलफ़ाज़ में बरज़ख़ के अज़ाब का बयान सूरा-40 मोमिन, आयत-45, 46 में किया गया है जहाँ अल्लाह तआला फ़िरऔन और फ़िरऔन के लोगों के बारे में फ़रमाता है कि “एक सख़्त अज़ाब उनको घेरे हुए है, यानी सुबह-शाम वे आग के सामने पेश किए जाते हैं, फिर जब क़ियामत की घड़ी आ जाएगी तो हुक्म दिया जाएगा कि फ़िरऔन के लोगों को ज़्यादा सख़्त अज़ाब में दाख़िल करो।" हक़ीक़त यह है कि क़ुरआन और हदीस, दोनों से मौत और क़ियामत के बीच की हालत का एक ही नक़्शा मालूम होता है, और वह यह है कि मौत सिर्फ़ जिस्म व रूह के अलग होने का नाम है, न कि बिलकुल ही वुजूद मिट जाने का। जिससे अलग हो जाने के बाद रूह मिट नहीं जाती बल्कि उस पूरी शख़्सियत के साथ ज़िन्दा रहती है, जो दुनिया की ज़िन्दगी के तजरिबों और ज़ेहनी व अख़लाक़ी कमाइयों से बनी थी। इस हालत में रूह के शुऊर, एहसास, जाइज़ों और तजरिबों की कैफ़ियत ख़ाब से मिलती-जुलती होती है। एक मुजरिम रूह से फ़रिश्तों की पूछ-गछ और फिर उसका अज़ाब और तकलीफ़ में मुब्तला होना और दोज़ख़ के सामने पेश किया जाना, सब कुछ उस कैफ़ियत से मिलता-जुलता होता है जो एक क़त्ल के मुजरिम पर फाँसी की तारीख़ से एक दिन पहले एक डरावने ख़ाब की शक्ल में गुज़रती होगी। इसी तरह एक पाकीज़ा रूह का इस्तिक़बाल, और फिर उसका जन्नत की ख़ुशख़बरी सुनना और उसका जन्नत की हवाओं और ख़ुशबुओं से फ़ायदा उठाना, यह सब भी उस नौकर के ख़ाब से मिलता-जुलता होगा जो अच्छी कारगुज़ारी के बाद सरकारी बुलावे पर हेड क्वार्टर में हाज़िर हुआ हो और मुलाक़ात के वादे की तारीख़ से एक दिन पहले आइंदा मिलनेवाले इनामों से भरा एक सुहाना सपना देख रहा हो। यह सपना दूसरा सूर (नरसिंघा) फूँके जाने से एकदम टूट जाएगा और एकाएक हश्र के मैदान में अपने आपको जिस्म व रूह के साथ ज़िन्दा पाकर मुजरिम हैरत से कहेंगे कि “अरे यह कौन हमें हमारे सोने की जगह से उठा लाया?” मगर ईमानवाले पूरे इत्मीनान से कहेंगे कि “यह वही चीज़ है जिसका रहमान ने वादा किया था और रसूलों का बयान सच्चा था।” मुजरिमों को उस वक़्त फ़ैरी तौर पर यह महसूस होगा कि वे अपने सोने की जगह में (जहाँ मौत के बिस्तर पर उन्होंने दुनिया में जान दी थी) शायद कोई एक घंटा भर सोए होंगे और अब अचानक इस हादिसे से आँखे खुलते ही कहीं भागे चले जा रहे हैं। मगर ईमानवाले दिल के पूरे इत्मीनान के साथ कहेंगे कि “अल्लाह के दफ्तर में तो तुम हश्र के दिन तक ठहरे रहे हो और यही हश्र का दिन है मगर तुम इस चीज़ को जानते न थे।
۞وَقِيلَ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ مَاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡۚ قَالُواْ خَيۡرٗاۗ لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۚ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞۚ وَلَنِعۡمَ دَارُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 29
(30) दूसरी तरफ़ जब अल्लाह का डर रखनेवालों से पूछा जाता है कि यह क्या चीज़ है जो तुम्हारे रब की तरफ़ से उतरी है? तो वे जवाब देते हैं कि “बेहतरीन चीज़ उतरी है।27 इस तरह के नेक काम करनेवालों के लिए इस दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर तो ज़रूर ही उनके हक़ में बेहतर है। बड़ा अच्छा घर है मुत्तक़ियों (परहेज़गारों) का,
27. यानी मक्का से बाहर के लोग जब ख़ुदा से डरनेवाले और सच्चे लोगों से नबी (सल्ल०) और अपकी लाई हुई तालीम के बारे में सवाल करते हैं तो उनका जवाब झूठे और बेईमान इस्लाम-दुश्मनों के जवाब से बिलकुल अलग होता है। वे झूठा प्रोपगण्डा नहीं करते। वे आम लोगों को बहकाने और ग़लफ़हमियों में डालने की कोशिश नहीं करते। वे नबी (सल्ल०) की और आपकी लाई हुई तालीम की तारीफ़ करते हैं और लोगों को सही सूरतेहाल से बाख़बर करते हैं।
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ لَهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَۚ كَذَٰلِكَ يَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 30
(31) हमेशा रहने की जन्न्तें जिनमें वे दाख़िल होंगे, नीचे नहरें बह रही होंगी और सब कुछ वहाँ ठीक उनकी ख़ाहिश के मुताबिक़ होगा।28 यह बदला देता है अल्लाह मुत्तक़ियों को,
28. यह है जन्नत की अस्ल तारीफ़ (परिचय)। वहाँ इनसान जो कुछ चाहेगा वही उसे मिलेगा और कोई चीज़ उसकी मरज़ी और पसन्द के ख़िलाफ़ न होगी। दुनिया में किसी रईस, किसी मालदार से मालदार, किसी बड़े से बड़े बादशाह को भी यह नेमत कभी हासिल नहीं हुई है और न यहाँ उसके मिलने का कोई इमकान है। मगर जन्नत में रहनेवाले हर शख़्स को आराम व ख़ुशी का यह इन्तिहाई दरजा हासिल होगा कि उसकी ज़िन्दगी में हर वक़्त हर तरफ़ सब कुछ उसकी ख़ाहिश और पसन्द के बिलकुल मुताबिक़ होगा। उसका हर अरमान निकलेगा। उसकी हर आरजू पूरी होगी, उसकी हर चाहत अमल में आकर रहेगी।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ طَيِّبِينَ يَقُولُونَ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 31
(32) उन मुत्तक़ियों को जिनकी रूहें पाकीज़गी की हालत में जब फ़रिश्ते निकालते हैं तो कहते हैं, “सलाम हो तुमपर, जाओ जन्नत में अपने आमाल (कर्मो) के बदले।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ أَمۡرُ رَبِّكَۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 32
(33) ऐ नबी! अब जो ये लोग इन्तिज़ार कर रहे हैं तो इसके सिवा अब और क्या बाक़ी रह गया है कि फ़रिश्ते ही आ पहुँचें, या तेरे रब का फ़ैसला लागू हो जाए?29 इसी तरह की ढिठाई इनसे पहले बहुत-से लोग कर चुके हैं। फिर जो कुछ उनके साथ हुआ वह उनपर अल्लाह का ज़ुल्म न था, बल्कि उनका अपना ज़ुल्म था जो उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर किया।
29. ये चन्द बातें नसीहत और ख़बरदार करने के लिए कही जा रही हैं। मतलब यह है कि जहाँ तक समझाने का ताल्लुक़ था, तुमने एक-एक हक़ीक़त पूरी तरह खोलकर समझा दी, दलीलों से उसका सुबूत दे दिया। कायनात के पूरे निज़ाम से उसकी गवाहियाँ पेश कर दीं। किसी समझदार आदमी के लिए शिर्क पर जमे रहने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। अब ये लोग एक साफ़-सीधी बात को मान लेने में क्यों झिझक रहे हैं? क्या इसका इन्तिज़ार कर रहे हैं कि मौत का फ़रिश्ता सामने आ खड़ा हो, तो ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हे में मानेंगे? या ख़ुदा का अज़ाब सर पर आ जाए तो उसकी पहली चोट खा लेने के बाद मानेंगे?
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا عَبَدۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖ نَّحۡنُ وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ فَهَلۡ عَلَى ٱلرُّسُلِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 33
(35) ये मुशरिक (अल्लाह का शरीक ठहरानेवाले।) कहते हैं, “अगर अल्लाह चाहता तो न हम और न हमारे बाप-दादा उसके सिवा किसी और की इबादत करते और न उसके हुक्म के बिना किसी चीज़ को हराम ठहराते।30 ऐसे ही बहाने इनसे पहले के लोग भी बनाते31 रहे हैं। तो क्या रसूलों पर साफ़-साफ़ बात पहुँचा देने के सिवा और भी कोई ज़िम्मेदारी है?
30. मुशरिकों की इस हुज्जत (कुतर्क) को सूर-6 अनआम, आयत-148, 149 में भी नक़्ल करके इसका जवाब दिया गया है। वह जगह और उसके हाशिए अगर निगाह में रहें तो समझने में ज़्यादा आसानी होगी। (देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिए—124 से 126)
31. यानी यह कोई नई बात नहीं है कि आज तुम लोग अल्लाह की मरज़ी को अपनी गुमराही और बुरे कामों के लिए दलील बना रहे हो। यह तो बड़ी पुरानी दलील है जिसे हमेशा से बिगड़े हुए लोग अपने आपको धोखा देने और नसीहत करनेवालों का मुँह बन्द करने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। यह मुशरिकों की हुज्जत का पहला जवाब है। इस जवाब का पूरा मज़ा उठाने के लिए यह बात ज़ेहन में रहनी जरूरी है कि अभी कुछ लाइनों पहले मुशरिकों के उस प्रोपगण्डे का ज़िक्र गुज़र चुका है, जो वे क़ुरआन के ख़िलाफ़ यह कह-कहकर किया करते थे कि “अजी, ये तो पुराने वक़्तों की घिसी-पिटी कहानियाँ है।” मानो उनको नबी पर एतिराज़ यह था कि यह साहब नई बात कौन-सी लाए हैं वही पुरानी बातें दोहरा रहे हैं जो नूह (अलैहि०) के ज़माने में आए हुए तूफ़ान के वक़्त से लेकर आजतक हज़ारों बार कही जा चुकी हैं। इसके जवाब में यहाँ यह हल्का-सा इशारा किया गया है कि लोगो! आप ही कौन से मॉडर्न हैं, यह शानदार दलील जो आप लाए हैं इसमें बिलकुल कोई नई बात नहीं है, वही घिसी-पिटी बात है जो हज़ारों सालों से गुमराह लोग कहते चले आ रहे हैं, आपने भी उसी को दोहरा दिया है।
وَلَقَدۡ بَعَثۡنَا فِي كُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱجۡتَنِبُواْ ٱلطَّٰغُوتَۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ هَدَى ٱللَّهُ وَمِنۡهُم مَّنۡ حَقَّتۡ عَلَيۡهِ ٱلضَّلَٰلَةُۚ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 34
(36) हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत (बढ़े हुए नाफ़रमान) की बन्दगी से बचो।32 इसके बाद इनमें से किसी को अल्लाह ने सीधा रास्ता दिखाया और किसी पर गुमराही छा गई।33 फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।34
32. यानी तुम अपने शिर्क और अपने इख़्तियार से चीज़ों को हलाल-हराम ठहराने के हक़ में हमारी मरज़ी को जाइज़ होने की दलील कैसे बता सकते हो, जबकि हमने हर उम्मत में अपने रसूल भेजे और उनके ज़रिए से लोगों को साफ़-साफ़ बता दिया कि तुम्हारा काम सिर्फ़ हमारी बन्दगी करना है, ताग़ूत की बन्दगी के लिए तुम पैदा नहीं किए गए हो। इसी तरह जबकि हम पहले ही मुनासिब ज़रिओं से तुमको बता चुके हैं कि तुम्हारी इन गुमराहियों को हमारी रिज़ा (ख़ुशी) हासिल नहीं है, तो इसके बाद हमारी मशीयत (वक़्ती छूट) की आड़ लेकर तुम्हारा अपनी गुमराहियों को जाइज़ ठहराना साफ़ तौर पर यह मतलब रखता है कि तुम चाहते थे कि हम समझानेवाले रसूल भेजने के बजाय ऐसे रसूल भेजते जो हाथ पकड़कर तुमको ग़लत रास्तों से खींच लेते और ज़बरदस्ती तुम्हें सीधे रास्ते पर चलनेवाला बनाते। (मशीयत और रिज़ा के फ़र्क़ को समझने के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-80; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-20)
33. यानी हर पैग़म्बर के आने के बाद उसकी क़ौम दो हिस्सों में बँट गई। कुछ लोगों ने उसकी बात मानी (और यह मान लेना अल्लाह की तौफ़ीक़ से था) और कुछ लोग अपनी गुमराही पर जमे रहे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-28)
34. यानी तजरिबे से बढ़कर सच्चाई का पता लगाने के लिए भरोसे के क़ाबिल कसौटी और कोई नहीं है। अब तुम ख़ुद देख लो कि इनसानी इतिहास के लगातार तजरिबे क्या साबित कर रहे हैं। अल्लाह का अज़ाब फ़िरऔन और फ़िरआनियों पर आया या बनी-इसराईल पर? सॉलेह (अलैहि०) के झुठलानेवालों पर आया था माननेवालों पर? हूद (अलैहि०) और नूह (अलैहि०) और दूसरे पैग़म्बरों के झुठलानेवालों पर आया या ईमानवालों पर? क्या सचमुच इन ऐतिहासिक तजरिबों से यही नतीजा निकलता है कि जिन लोगों को हमारी मशीयत ने शिर्क और शरीअत गढ़ने के जुर्म का मौक़ा दिया था उनको हमारी रिज़ा हासिल थी? इसके बरख़िलाफ़ ये वाक़िआत तो साफ़-साफ़ यह साबित कर रहे हैं कि समझाने-बुझाने और नसीहत के बावजूद जो लोग इन गुमराहियों पर जमे रहते हैं उन्हें हमारी मशीयत एक हद तक जुर्म का मौक़ा देती चली जाती है और फिर उनकी नाव अच्छी तरह भर जाने के बाद डुबो दी जाती है।
إِن تَحۡرِصۡ عَلَىٰ هُدَىٰهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَن يُضِلُّۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 35
(37) ऐ नबी! तुम चाहे इनकी हिदायत के लिए कितने ही हरीस (लालायित) हो, मगर अल्लाह जिसको भटका देता है। फिर उसे रास्ता नहीं दिखाया करता और इस तरह के लोगों की मदद कोई नहीं कर सकता।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَا يَبۡعَثُ ٱللَّهُ مَن يَمُوتُۚ بَلَىٰ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 36
(38) ये लोग अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि “अल्लाह किसी मारनेवाले को फिर से ज़िन्दा करके न उठाएगा” — उठाएगा क्यों नहीं! यह तो एक वादा है जिसे पूरा करना उसने अपने लिए ज़रूरी कर लिया है, मगर ज़्यादा तर लोग जानते नहीं हैं।
لِيُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي يَخۡتَلِفُونَ فِيهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰذِبِينَ ۝ 37
(39) और ऐसा होना इसलिए ज़रूरी है कि अल्लाह इनके सामने उस हक़ीक़त को खोल दे जिसके बारे में ये इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं और हक़ (सत्य) के इनकारियों को मालूम हो जाए कि वे झूठे थे।35
35. यह मरने के बाद की ज़िन्दगी और हश्र क़ायम होने की अक़्ली और अख़लाक़ी ज़रूरत है। दुनिया में जब से इनसान पैदा हुआ है, हक़ीक़त के बारे में अनगिनत इख़्तिलाफ़ पैदा हुए हैं। इन्हीं इख़्तिलाफ़ात की बुनियाद पर नस्लों और क़ौमों और ख़ानदानों में फूट पड़ी है। इन्हीं की वजह से अलग-अलग नज़रिये रखनेवालों ने अपने अलग-अलग मज़हब अलग समाज बनाए या अपनाए हैं। एक-एक नज़रिये की हिमायत और वकालत में हज़ारों-लाखों आदमियों ने अलग-अलग ज़मानों में जान, माल, आबरू हर चीज़ की बाज़ी लगा दी है। और अनगिनत मौक़ों पर उन अलग-अलग नज़रियों को माननेवालों में ऐसी ज़बरदस्त खींच-तान हुई है कि एक ने दूसरे को बिलकुल मिटा देने की कोशिश की है, और मिटनेवाले ने मिटते-मिटते भी अपना नज़रिया नहीं छोड़ा है। अक़्ल चाहती है कि ऐसे अहम और संजीदा इख़्तिलाफ़ों के बारे में कभी तो सही और यक़ीनी तौर पर मालूम हो कि अस्ल में उनके अन्दर हक़ क्या था और बातिल क्या, सीधे रास्ते पर कौन था और ग़लत रास्ते पर कौन। इस दुनिया में तो कोई इमकान इस परदे के उठने का दिखाई नहीं देता। इस दुनिया का निज़ाम ही कुछ ऐसा है कि इसमें हक़ीक़त पर से परदा उठ नहीं सकता। लिहाज़ा लाज़िमी तौर पर अक़्ल के इस तक़ाज़े को पूरा करने के लिए एक दूसरी ही दुनिया चाहिए। और यह सिर्फ़ अक़्ल का तक़ाज़ा ही नहीं है, बल्कि अख़लाक़ का तक़ाज़ा भी है; क्योंकि इन इख़्तिलाफ़ात और इन कशमकशों में बहुत-से फ़रीक़ों (पक्षों) ने हिस्सा लिया। किसी ने ज़ुल्म किया है और किसी ने सहा है। किसी ने क़ुरबानियाँ की हैं और किसी ने उन क़ुरबानियों को वुसूल किया है। हर एक ने अपने नज़रिए के मुताबिक़ एक अख़लाक़ी फ़लसफ़ा (दर्शन) और एक अख़लाक़ी रवैया अपनाया है और उससे अरबों और खरबों इनसानों की ज़िन्दगियाँ बुरे या भले तौर पर मुतास्सिर हुई हैं। आख़िर कोई वक़्त तो होना चाहिए जबकि इन सबका अख़लाक़ी नतीजा इनाम या सज़ा की शक्ल में ज़ाहिर हो। इस दुनिया का निज़ाम अगर सही और पूरे अख़लाक़ी नतीजे ज़ाहिर नहीं कर सकता तो एक दूसरी दुनिया होनी चाहिए जहाँ ये नतीजे ज़ाहिर हो सकें।
إِنَّمَا قَوۡلُنَا لِشَيۡءٍ إِذَآ أَرَدۡنَٰهُ أَن نَّقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 38
(40) (रहा इसका इमकान तो) हमें किसी चीज़ को वुजूद में लाने के लिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं करना होता कि उसे हुक्म दें कि 'हो जा' और बस वह हो जाती है।36
36. यानी लोग समझते हैं कि मरने के बाद इनसान को दोबारा पैदा करना और तमाम अगले-पिछले इनसानों को एक साथ ज़िन्दा करके उठाना कोई बड़ा ही मुश्किल काम है। हालाँकि अल्लाह की क़ुदरत का हाल यह है कि वह अपने किसी इरादे को पूरा करने के लिए किसी सरो-सामान, किसी सबब और ज़रिए और किसी तरह के हालात दुरुस्त होने का मुहताज नहीं है। उसका हर इरादा सिर्फ़ उसके हुक्म से पूरा होता है। उसका हुक्म ही सरो-सामान वुजूद में लाता है। उसके हुक्म ही से असबाबो-वसाइल (साधन और संसाधन) पैदा हो जाते हैं। उसका हुक्म ही उसकी मरज़ी के बिलकुल मुताबिक़ हालात तैयार कर लेता है। इस वक़्त जो दुनिया मौजूद है यह भी सिर्फ़ हुक्म से वुजूद में आई है और दूसरी दुनिया भी आनन-फ़ानन सिर्फ़ एक हुक्म से वुजूद में आ सकती है।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْ لَنُبَوِّئَنَّهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 39
(41) जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए हैं उन्हें हम दुनिया ही में अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का बदला तो बहुत बड़ा हैं37 काश, जान लें
37. यह इशारा है उन मुहाजिरों की तरफ़ जो इस्लाम दुश्मनों के बरदाश्त न होनेवाले ज़ुल्मों से तंग आकर मक्का से हबशा की तरफ़ हिजरत कर गए थे। आख़िरत का इनकार करनेवालों की बात का जवाब देने के बाद एकाएक हबशा के मुहाजिरों का ज़िक्र छेड़ देने में एक बारीक नुक्ता छिपा हुआ है। इसका मक़सद मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को ख़बरदार करना है कि ज़ालिमो! ये ज़ुल्म-ज़्यादतियाँ करने के बाद अब तुम समझते हो कि कभी तुमसे पूछ-गछ और मज़लूमों की फ़रियाद सुनने का वक़्त न आएगा।
ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 40
(42) वे मज़लूम जिन्होंने सब्र से काम लिया है और जो अपने रब के भरोसे पर काम कर रहे हैं (कि कैसा अच्छा अंजाम उनका इंतिज़ार कर रहा है)!
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 41
(43) ऐ नबी! हमने तुमसे पहले भी जब कभी रसूल भेजे हैं, आदमी ही भेजे हैं। जिनकी तरफ़ हम अपने पैग़ामात वह्य किया करते थे।38 ज़िक्रवालों39 से पूछ लो अगर तुम लोग ख़ुद नहीं जानते।
38. यहाँ मक्का के मुशरिकों के एक एतिराज़ को नक़्ल किए बिना उसका जवाब दिया जा रहा है। एतिराज़ वही है जो पहले भी तमाम पैग़म्बरों पर हो चुका था और नबी (सल्ल०) के ज़माने के लोगों ने भी आप (सल्ल०) पर कई बार किया था कि तुम हमारी ही तरह के इनसान हो, फिर हम कैसे मान लें कि ख़ुदा ने तुमको पैग़म्बर बनाकर भेजा है।
39. यानी अहले-किताब के उलमा, और वे दूसरे लोग जो चाहे सिक्का बन्द उलमा न हों, मगर बहरहाल आसमानी किताबों की तालीमात के जानकार और पिछले पैग़म्बरों पर गुज़रे हुए हालात से आगाह हों।
بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِۗ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّكۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 42
(44) पिछले रसूलों को भी हमने रौशन निशानियाँ और किताबें देकर भेजा था और अब यह 'ज़िक्र' तुमपर उतारा है, ताकि तुम लोगों के सामने तालीम को खोलकर साफ़-साफ़ बयान करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है।40 और ताकि लोग (ख़ुद भी) सोच-विचार करें।
40. तशरीह करना और वज़ाहत करना सिर्फ़ ज़बान ही से नहीं, बल्कि अपने अमल से भी, और अपनी रहनुमाई में एक पूरी मुस्लिम सोसाइटी बना कर भी, और 'अल्लाह के ज़िक्र' के मंशा के मुताबिक़ उसके निज़ाम को चलाकर भी। इस तरह अल्लाह तआला ने वह हिकमत बयान कर दी है जिसका तक़ाज़ा यह था कि लाज़िमन एक इनसान ही को पैग़म्बर बनाकर भेजा जाए। 'ज़िक्र' फ़रिश्तों के ज़रिए से भी भेजा जा सकता था। सीधे तौर पर छापकर एक-एक इनसान तक भी पहुँचाया जा सकता था। मगर सिर्फ़ ज़िक्र भेज देने से वह मक़सद पूरा नहीं हो सकता था जिसके लिए अल्लाह तआला की हिकमत और रहमत व रबूबियत उसके उतारे जाने का तकाजा कर रही थी। उस मक़सद को पूरा करने के लिए ज़रूरी था कि इस 'ज़िक्र' को एक सबसे ज़्यादा क़ाबिल इनसान लेकर आए। वह इसको थोड़ा-थोड़ा करके लोगों के सामने पेश करे। जिनकी समझ में कोई बात न आए। उसका मतलब समझाए। जिन्हें कुछ शक हो उनका शक दूर करे। जिन्हें कोई एतिराज़ हो उनके एतिराज़ का जवाब दे। जो न मानें और मुख़ालफ़त करें और रुकावट बनें उनके मुक़ाबले में उस तरह का रवैया बरतकर दिखाए जो इस 'ज़िक्र' के माननेवालों की शान के मुताबिक़ है। जो मान लें उन्हें ज़िन्दगी के हर हिस्से और हर पहलू के बारे में हिदायतें दे, उनके सामने ख़ुद अपनी ज़िन्दगी को नमूना बनाकर पेश करे, और उनको इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) व इज्तिमाई तर्बियत देकर सारी दुनिया के सामने एक ऐसी सोसाइटी को मिसाल के तौर पर रख दे जिसका पूरा इज्तिमाई निज़ाम 'ज़िक्र' के मंशा की शरह (व्याख्या) हो। यह आयत जिस तरह नुबूवत के उन इनकार करनेवालों की दलील को काटनेवाली थी जो ख़ुदा का ‘ज़िक्र' इनसान के ज़रिए से आने को नहीं मानते थे, उसी तरह आज ये उन हदीस के इनकारियों की हुज्जत को भी काटनेवाली है जो नबी की तशरीह और वज़ाहत (स्पष्टीकरण) के बिना सिर्फ़ 'ज़िक्र' को ले लेना चाहते हैं। वे चाहे इस बात को मानते हों कि नबी ने तशरीह और स्पष्टीकरण कुछ भी नहीं किया था, सिर्फ़ ज़िक्र पेश कर दिया था, या यह कहते हों कि मानने के लायक़ सिर्फ़ ज़िक्र है न कि नबी की तशरीह, या यह कहते हों कि अब हमारे लिए सिर्फ़ ज़िक्र काफ़ी है, नबी की तशरीह की कोई ज़रूरत नहीं, या इस बात को मानते हों कि अब सिर्फ़ ज़िक्र ही भरोसे के लायक़ हालत में बाक़ी रह गया है, नबी की तशरीह या तो बाक़ी ही नहीं रही या बाक़ी है भी तो भरोसे के लायक नहीं है, ग़रज़ इन चारों बातों में से जिस बात को भी वे मानते हों, उनका तरीक़ा बहरहाल क़ुरआन की इस आयत से टकराता है।) अगर वे पहली बात को मानते हैं तो इसका मतलब यह है कि नबी ने उस मक़सद ही को ख़त्म कर दिया जिसकी ख़ातिर ज़िक्र को फ़रिश्तों के हाथ भेजने या सीधे तौर पर लोगों तक पहुँचा देने के बजाय उसे तब्लीग़ का ज़रिआ बनाया गया था। और अगर वे दूसरी या तीसरी बात को मानते हैं तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह ने (अल्लाह की पनाह) यह फ़ुज़ूल हरकत की कि अपना ज़िक्र' एक नबी के ज़रिए से भेजा- क्योंकि नबी के आने का नतीजा भी वही है जो नबी के बिना सिर्फ़ ज़िक्र के छपी हुई शक्ल में उतारे जाने का हो सकता था। और अगर वे चौथी बात को मानते हैं तो दर अस्ल यह क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत, दोनों के मंसूख़ (निरस्त) हो जाने का एलान है जिसके बाद अगर कोई सही मस्लक (मत) बाक़ी रह जाता है तो वह सिर्फ़ उन लोगों का मस्लक है जो एक नई नुबूवत और नई वह्य को मानते हैं। इसलिए कि इस आयत से अल्लाह तआला ख़ुद क़ुरआन मजीद के उतरने के मक़सद को पूरा होने के लिए नबी की तशरीह को ज़रूरी ठहरा रहा है और नबी की ज़रूरत ही इस तरह साबित कर रहा है कि वह ज़िक्र के मक़सद को साफ़-साफ़ बयान करे। अब अगर हदीस के इनकार करनेवालों का यह कहना सही है कि नबी की वज़ाहत व तशरीह दुनिया में बाक़ी नहीं रही है तो इसके दो नतीजे खुले हुए हैं। पहला नतीजा यह है कि पैरवी के नमूने की हैसियत से मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत ख़त्म हो गई और हमारा ताल्लुक़ मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ उस तरह का रह गया जैसा हूद, सॉलेह और शुऐब (अलैहि०) के साथ है कि हम उन्हें सच्चा समझते हैं, उनपर ईमान लाते हैं, अगर उनका कोई अमली नमूना हमारे पास नहीं हैं। जिसकी हम पैरवी करें। यह चीज़ नई नुबूवत की ज़रूरत आप से आप साबित कर देती है, सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ ही इसके बाद इस बात पर अड़ा रह सकता है कि नबी आने का सिलसिला ख़त्म हो गया। दूसरा नतीजा यह है कि अकेला क़ुरआन नबी की तशरीह और बयान के बिना ख़ुद अपने भेजनेवाले के कहने के मुताबिक़ हिदायत के लिए नाकाफ़ी है, इसलिए क़ुरआन के माननेवाले चाहे कितने ही ज़ोर से चीख़-चीख़कर उसे अपनी जगह काफ़ी बताएँ, मुद्दई सुस्त की हिमायत में चुस्त गवाहों की बात हरगिज़ नहीं चल सकती और एक नई किताब के उतारे जाने की ज़रूरत आप से आप ख़ुद क़ुरआन के मुताबिक़ साबित हो जाती है। अल्लाह उन्हें तबाह करे, इस तरह ये लोग हक़ीक़त में इनकारे-हदीस के ज़रिए से दीन की जड़ खोद रहे हैं।
أَفَأَمِنَ ٱلَّذِينَ مَكَرُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَخۡسِفَ ٱللَّهُ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 43
(45) फिर क्या वे लोग जो (पैग़म्बर की दावत की मुख़ालफ़त में) बुरी से बुरी चालें चल रहे हैं, इस बात से बिलकुल ही निडर हो गए हैं कि अल्लाह उन्हें ज़मीन में घुसा दे, या ऐसे हिस्से से उनपर अज़ाब ले आए जिधर से उसके आने का उनको वहम व गुमान तक न हो,
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ فِي تَقَلُّبِهِمۡ فَمَا هُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 44
(46) या अचानक चलते-फिरते उनको पकड़ ले या ऐसी हालत में उनको पकड़े जबकि उन्हें ख़ुद आनेवाली मुसीबत का खटका लगा हुआ हो
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ عَلَىٰ تَخَوُّفٖ فَإِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 45
(47) और वे उससे बचने की फ़िक्र में चौकन्ने हों? वह जो कुछ भी करना चाहे, ये लोग उसको बेबस करने की ताक़त नहीं रखते। सच तो यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही नर्म और रहम करनेवाला है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ يَتَفَيَّؤُاْ ظِلَٰلُهُۥ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَٱلشَّمَآئِلِ سُجَّدٗا لِّلَّهِ وَهُمۡ دَٰخِرُونَ ۝ 46
(48) और क्या ये लोग अल्लाह की पैदा की हुई किसी चीज़ को भी नहीं देखते कि उसका साया किस तरह अल्लाह के सामने सजदा करते हुए दाएँ और बाएँ गिरता है?41 सब के सब इस तरह आजिज़ी ज़ाहिर कर रहे हैं।
41. यानी तमाम जिस्मानी चीज़ों के साए इस बात की अलामत हैं कि पहाड़ हों या पेड़, जानवर हों या इनसान, सब के सब एक हमागीर (व्यापक) क़ानून की पकड़ में जकड़े हुए हैं, सबके माथे पर बन्दगी का निशान लगा हुआ है, अल्लाह की सिफ़ात में किसी का कोई मामूली-सा हिस्सा भी नहीं है। साया पड़ना एक चीज़ के माद्दी (भौतिक) होने की अलामत है, और माद्दी होना इस बात का खुला सुबूत है कि वह पैदा किया हुआ है।
وَلِلَّهِۤ يَسۡجُدُۤ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن دَآبَّةٖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 47
(49) ज़मीन और आसमानों में जितने जानदार हैं और जितने फ़रिश्ते हैं, सब अल्लाह के आगे सजदे में हैं।42 वे हरगिज़ सरकशी नहीं करते,
42. यानी ज़मीन ही की नहीं, आसमानों की भी वे तमाम हस्तियाँ जिनको पुराने ज़माने से लेकर आज तक लोग देवी-देवता और ख़ुदा के रिश्तेदार ठहराते आए हैं, दरअस्ल ग़ुलाम और मातहत हैं। इनमें से किसी का भी ख़ुदाई में कोई हिस्सा नहीं। इसके अलावा इस आयत से एक इशारा इस तरफ़ भी निकल आया कि जानदार सिर्फ़ ज़मीन ही में नहीं हैं, बल्कि ऊपरी दुनिया के ग्रहों में भी हैं। यही बात सूरा-42 शूरा, आयत-29 में भी कही गई है।
يَخَافُونَ رَبَّهُم مِّن فَوۡقِهِمۡ وَيَفۡعَلُونَ مَا يُؤۡمَرُونَ۩ ۝ 48
(50) अपने रब से जो उनके ऊपर है, डरते हैं और जो कुछ हुक्म दिया जाता है उसी के मुताबिक़ काम करते हैं।
۞وَقَالَ ٱللَّهُ لَا تَتَّخِذُوٓاْ إِلَٰهَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 49
(51) अल्लाह का हुक्म है कि “दो ख़ुदा न बना लो43, ख़ुदा तो बस एक ही है, इसलिए तुम मुझी से डरो।
43. दो ख़ुदाओं से मना करने में दो से ज़्यादा ख़ुदाओं से मना करना आप से आप शामिल है।
وَلَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلدِّينُ وَاصِبًاۚ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَتَّقُونَ ۝ 50
(52) उसी का है वह सब कुछ जो आसमानों में है और जो ज़मीन में है, और ख़ालिस उसी का दीन (सारी कायनात में) चल रहा है।44 फिर क्या अल्लाह को छोड़कर तुम किसी और का डर रखोगे?45
44. दूसरे अलफ़ाज़ में उसी की फ़रमाँबरदारी पर इस पूरी कायनात का निज़ाम क़ायम है।
45. दूसरे अलफ़ाज़ में क्या अल्लाह के बजाय किसी और का डर और किसी और की नाराज़ी से बचने का ज़ज़्बा तुम्हारी ज़िन्दगी के निज़ाम की बुनियाद बनेगा?
وَمَا بِكُم مِّن نِّعۡمَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ ثُمَّ إِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فَإِلَيۡهِ تَجۡـَٔرُونَ ۝ 51
(53) तुम्हें जो नेमत भी हासिल है, अल्लाह ही की तरफ़ से है। फिर जब कोई सख़्त वक़्त तुमपर आता है तो तुम लोग ख़ुद अपनी फ़रियादें लेकर उसी की तरफ़ दौड़ते हो46,
46. यानी यह तौहीद की एक साफ़ गवाही तुम्हारे अपने वुजूद में मौजूद है। सख़्त मुसीबत के वक़्त जब तमाम मनगढ़ंत ख़यालों का रंग हट जाता है तो थोड़ी देर के लिए तुम्हारी अस्ल फ़ितरत उभर आती है जो अल्लाह के सिवा किसी इलाह, किसी रब और किसी इख़्तियार रखनेवाले मालिक को नहीं जानती। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-29 व 41, यूनुस, हाशिया-31)
ثُمَّ إِذَا كَشَفَ ٱلضُّرَّ عَنكُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنكُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 52
(54) मगर जब अल्लाह उस वक़्त को टाल देता है तो यकायकी तुममें से एक गरोह अपने रब के साथ दूसरों को (इस मेहरबानी के शुक्रिए में) साझीदार बनाने लगता है47,
47. यानी अल्लाह के शुक्रिए के साथ-साथ किसी बुज़ुर्ग या किसी देवी-देवता के शुक्रिए की भी भेंटें और चढ़ावे चढ़ाने शुरू कर देता है और अपनी बात-बात से यह ज़ाहिर करता है कि उसके नज़दीक अल्लाह की इस मेहरबानी में उन हज़रत की मेहरबानी का भी दखल था, बल्कि अल्लाह हरगिज़ मेहरबानी न करता अगर वे हज़रत मेहरबान होकर अल्लाह को मेहरबानी पर आमादा न करते।
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 53
(55) ताकि अल्लाह के एहसान की नाशुक्री करे। अच्छा, मज़े कर लो, बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा।
وَيَجۡعَلُونَ لِمَا لَا يَعۡلَمُونَ نَصِيبٗا مِّمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡۗ تَٱللَّهِ لَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَفۡتَرُونَ ۝ 54
(56) ये लोग जिनकी हक़ीक़त से वाक़िफ़ नहीं हैं48, उनके हिस्से हमारी दी हुई रोज़ी में से मुक़र्रर करते हैं।49 —ख़ुदा की क़सम! ज़रूर तुमसे पूछा जाएगा कि यह झूठ तुमने कैसे गढ़ लिए थे?
48. यानी जिनके बारे में इल्म के किसी भरोसेमंद ज़रिए से इन्हें यह पता नहीं चला है कि अल्लाह ने उनको वाक़ई अपना शरीक बन रखा है, और अपनी ख़ुदाई के कामों में से कुछ काम या अपनी सल्तनत के इलाक़ों में से कुछ इलाक़े उनको सौंप रखे हैं।
49. यानी उनकी नज़्र-नियाज़ और भेंट के लिए अपनी आमदनियों और अपनी ज़मीन की पैदावार में से एक मुक़र्रर हिस्सा अलग निकाल रखते हैं।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ ٱلۡبَنَٰتِ سُبۡحَٰنَهُۥ وَلَهُم مَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 55
(57) ये ख़ुदा के लिए बेटियाँ ठहराते हैं50 पाक है अल्लाह! और इनके लिए वह जो यह ख़ुद चाहें?51
50. अरब के मुशरिकों के माबूदों में देवता कम थे, देवियाँ ज़्यादा थीं, और उन देवियों के बारे में उनका अक़ीदा यह था कि ये ख़ुदा की बेटियाँ हैं। इसी तरह फ़रिश्तों को भी वे ख़ुदा की बेटियाँ क़रार देते थे।
51. यानी बेटे।
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِٱلۡأُنثَىٰ ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 56
(58) जब इनमें से किसी को बेटी पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी जाती है तो उसके चेहरे पर कलौंस छा जाती है और वह बस ख़ून का-सा घूँट पीकर रह जाता है।
يَتَوَٰرَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ مِن سُوٓءِ مَا بُشِّرَ بِهِۦٓۚ أَيُمۡسِكُهُۥ عَلَىٰ هُونٍ أَمۡ يَدُسُّهُۥ فِي ٱلتُّرَابِۗ أَلَا سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 57
(59) लोगों से छिपता फिरता है कि इस बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। सोचता है कि ज़िल्लत के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे? — देखो, कैसे बुरे हुक्म हैं जो ये ख़ुदा के बारे में लगाते हैं।52
52. यानी अपने लिए जिस बेटी को ये लोग इतनी ज़्यादा बेइज़्ज़ती और शर्म की वजह समझते हैं, उसी को ख़ुदा के लिए बेझिझक पसन्द कर लेते हैं। इस बात से हटकर कि ख़ुदा के लिए औलाद ठहराना अपने आप में एक सख़्त जहालत और गुस्ताख़ी है, अरब के मुशरिकों की इस हरकत पर यहाँ इस ख़ास पहलू से पकड़ इसलिए की गई है कि अल्लाह के बारे में उनके ख़यालों की गिरावट साफ़-साफ़ बयान की जाए और यह बताया जाए कि शिर्कवाले अक़ीदों ने अल्लाह के मामले में उनको कितना निडर और गुस्ताख़ बना दिया है और वे कितने ज़्यादा बेहिस हो चुके हैं कि इस तरह की बातें करते हुए कोई बुराई तक महसूस नहीं करते।
لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ مَثَلُ ٱلسَّوۡءِۖ وَلِلَّهِ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 58
(60) बुरी सिफ़तवाले कहे जाने के लायक़ तो वे लोग हैं जो आख़िरत का यक़ीन नहीं रखते। रहा अल्लाह, तो उसके लिए तो सबसे बेहतरीन सिफ़ात (गुण) हैं, वही तो सबपर ग़ालिब और हिकमत में मुकम्मल है।
وَلَوۡ يُؤَاخِذُ ٱللَّهُ ٱلنَّاسَ بِظُلۡمِهِم مَّا تَرَكَ عَلَيۡهَا مِن دَآبَّةٖ وَلَٰكِن يُؤَخِّرُهُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 59
(61) अगर कहीं अल्लाह लोगों को उनकी ज़्यादती पर फ़ौरन ही पकड़ लिया करता तो ज़मीन पर किसी जानदार को न छोड़ता। लेकिन वह सबको एक तयशुदा वक़्त तक मुहलत देता है, फिर जब वह वक़्त आ जाता है तो उससे कोई एक घड़ी भर भी। आगे-पीछे नहीं हो सकता।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ مَا يَكۡرَهُونَۚ وَتَصِفُ أَلۡسِنَتُهُمُ ٱلۡكَذِبَ أَنَّ لَهُمُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ لَا جَرَمَ أَنَّ لَهُمُ ٱلنَّارَ وَأَنَّهُم مُّفۡرَطُونَ ۝ 60
(62) आज ये लोग वे चीज़ें अल्लाह के लिए ठहरा रहे हैं जो ख़ुद अपने लिए इन्हें नापसन्द हैं, और झूठ कहती हैं इनकी ज़बानें कि इनके लिए भला ही भला है। इनके लिए तो एक ही चीज़ है, और वह है दोज़ख़ की आग। ज़रूर ये सबसे पहले उसमें पहुँचाए जाएँगे।
تَٱللَّهِ لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُوَ وَلِيُّهُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 61
(63) ख़ुदा की क़सम! ऐ नबी! तुमसे पहले भी बहुत-सी क़ौमों में हम रसूल भेज चुके हैं, (और पहले भी यही होता रहा है कि) शैतान ने उनके बुरे करतूत उन्हें ख़ूबसूरत बनाकर दिखाए (और रसूलों की बात उन्होंने मानकर न दी)। वही शैतान आज इन लोगों का भी सरपरस्त बना हुआ है और ये दर्दनाक सज़ा के हक़दार बन रहे हैं।
وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا لِتُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 62
(64) हमने यह किताब तुमपर इसलिए उतारी है कि तुम उन इख़्तिलाफ़ात की हक़ीक़त इनपर खोल दो जिनमें ये पड़े हुए हैं। यह किताब रहनुमाई और रहमत बनकर उतरी है उन लोगों के लिए जो इसे मान लें।53
53. दूसरे अलफ़ाज़ में, इस किताब के उतरने से इन लोगों को इस बात का बेहतरीन मौक़ा मिला है कि अंधविश्वासों और दूसरों की पैरवी में अपनाए गए ख़यालों की बुनियाद पर जिन अनगिनत अलग-अलग मस्लकों और मज़हबों में ये बँट गए हैं उनके बजाय सच्चाई की एक ऐसी पायदार बुनियाद पा लें जिसपर ये सब एक राय हो सकें। अब जो लोग इतने बेवक़ूफ़ हैं कि इस नेमत के आ जाने पर भी अपनी पिछली हालत ही को तर्जीह दे रहे हैं वे तबाही और रुस्वाई के सिवा ओर कोई अंजाम देखनेवाले नहीं हैं। अब तो सीधा रास्ता पाएगा और वही बरकतों और रहमतों से मालामाल होगा जो इस किताब को मान लेगा।
وَٱللَّهُ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 63
(65) (तुम हर बरसात में देखते हो कि) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और यकायक मुरदा पड़ी हुई ज़मीन में उसकी बदौलत जान डाल दी। यक़ीनन इसमें एक निशानी है सुननेवालों के लिए।53अ
53 (अ). यानी यह मंज़र हर साल तुम्हारी आँखों के सामने गुज़रता है कि ज़मीन बिलकुल चटियल मैदान पड़ी हुई है, ज़िन्दगी के कोई आसार मौजूद नहीं, न घास-फूस है, न बेल-बूटे, न फूल-पत्ती और न किसी क़िस्म के कीड़े-मकोड़े। इतने में बारिश का मौसम आ गया और एक-दो छींटे पड़ते ही उसी ज़मीन से ज़िन्दगी के चश्मे (स्रोत) उबलने शुरू हो गए। ज़मीन के नीचे दबी हुई अनगिनत जड़ें एकाएक जी उठीं और हर एक के अन्दर से वही पौधे फिर निकल आए जो पिछली बरसात में पैदा होने के बाद मर चुके थे। अनगिनत कीड़े-मकोड़े जिनका नामो-निशान तक गर्मी के ज़माने में बाक़ी न रहा था, एकाएक फिर उसी शान से निकल आए जैसे पिछली बरसात में देखे गए थे। ये सब कुछ अपनी ज़िन्दगी में बार-बार तुम देखते हो, और फिर भी तुम्हें नबी की ज़बान से यह सुनकर हैरत होती है कि अल्लाह तमाम इनसानों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा करेगा। इस हैरत की वजह इसके सिवा और क्या है कि तुम्हारा देखना बेअक़्ल जानवरों के जैसे देखना है। तुम कायनात के करिश्मों को तो देखते हो, मगर उनके पीछे बनानेवाले की क़ुदरत और हिकमत के निशानों को नहीं देखते। वरना यह मुमकिन न था कि नबी का बयान सुनकर तुम्हारा दिल न पुकार उठता कि सचमुच ये निशानियाँ उसके बयान की ताईद कर रही हैं।
وَإِنَّ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَنۡعَٰمِ لَعِبۡرَةٗۖ نُّسۡقِيكُم مِّمَّا فِي بُطُونِهِۦ مِنۢ بَيۡنِ فَرۡثٖ وَدَمٖ لَّبَنًا خَالِصٗا سَآئِغٗا لِّلشَّٰرِبِينَ ۝ 64
(66) और तुम्हारे लिए मवेशियों में भी एक सबक़ मौजूद है। उनके पेट से गोबर और ख़ून के बीच हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते है यानी ख़ालिस दूध54, जो पीनेवालों के लिए निहायत ख़ुशगवार है।
54. “गोबर और ख़ून के बीच” का मतलब यह है कि जानवर जो खाना खाते हैं उससे एक तरफ़ तो ख़ून बनता है, और दूसरी तरफ़ गोबर। मगर इन्हीं जानवरों की मादाओं में उसी खाने से एक तीसरी चीज़ भी पैदा हो जाती है जो ख़ासियत, रंग, गंध, फ़ायदे और मक़सद में इन दोनों से बिलकुल अलग हैं। फिर ख़ास तौर पर मवेशियों में इस चीज़ की पैदावार इतनी ज़्यादा होती है कि वे अपने बच्चों की ज़रूरत पूरी करने के बाद इनसान के लिए भी यह बेहतरीन गिज़ा (भोजन) बहुत ज़्यादा मिक़्दार (मात्रा) में जुटाते रहते है।
وَمِن ثَمَرَٰتِ ٱلنَّخِيلِ وَٱلۡأَعۡنَٰبِ تَتَّخِذُونَ مِنۡهُ سَكَرٗا وَرِزۡقًا حَسَنًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 65
(67) (इसी तरह) खजूर के पेड़ों और अंगूर की बेलों से भी एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं जिसे तुम नशाआवर भी बना लेते हो और पाक रोज़ी भी।55 यक़ीनन इसमें एक निशानी है अक़्ल से काम लेनेवालों के लिए
55. इसमें एक हल्का-सा इशारा इस बात की तरफ़ भी है कि फलों के इस रस में वह माद्दा (तत्त्व) भी मौजूद है जो इनसान के लिए ज़िन्दगी-बख़्श खाना बन सकता है, और वह माद्दा भी मौजूद है जो सड़कर अल्कोहल में तब्दील हो जाता है। अब इसका दारोमदार इनसान के अपने चुनाव व पसन्द की ताक़त पर है कि वह इस सरचश्मे से पाक रोज़ी हासिल करता है या अक़्ल व समझ को ख़त्म कर देनेवाली शराब। एक और दूसरा इशारा शराब के हराम होने की तरफ़ भी है कि वह पाक रिज़्क़ नहीं है।
وَأَوۡحَىٰ رَبُّكَ إِلَى ٱلنَّحۡلِ أَنِ ٱتَّخِذِي مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا وَمِنَ ٱلشَّجَرِ وَمِمَّا يَعۡرِشُونَ ۝ 66
(68) और देखो, तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी पर यह बात वह्य कर दी56 कि पहाड़ों में, और पेड़ों में, और टट्टियों पर चढ़ाई बेलों में अपने छत्ते बना
56. वह्य लफ़्ज के मानी हैं छिपे हुए और हल्के इशारे के जिसे इशारा करनेवाले और इशारा पानेवाले के सिवा कोई और महसूस न कर सके। इसी हिसाब से यह लफ़्ज़ 'इल्क़ा' (दिल में बात डाल देने) और 'इल्हाम' (छिपे तरीक़े से तालीम और नसीहत करना) के मानी में इस्तेमाल होता है। अल्लाह तआला अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) को जो तालीम देता है वह चूँकि किसी स्कूल और मदरसे में नहीं दी जाती, बल्कि ऐसे ग़ैर-महसूस तरीक़ों से दी जाती है कि बज़ाहिर कोई तालीम देता और कोई तालीम पाता नज़र नहीं आता, इसलिए इसके लिए क़ुरआन में वह्य, इल्हाम और इल्क़ा के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। अब ये तीनों अलफ़ाज़ अलग-अलग ख़ास मानों में इस्तेमाल होने लगे हैं। लफ़्ज़ 'वह्य' नबियों के लिए ख़ास हो गया है। ‘इल्हाम’ को वलियों और अल्लाह के ख़ास बन्दों के लिए ख़ास कर दिया गया है और ‘इल्क़ा’ इनके मुक़ाबले में आम लोगों के लिए बोला जाता है। लेकिन क़ुरआन में यह फ़र्क़ नहीं पाया जाता। यहाँ आसमानों पर भी वह्य होती है जिसके मुताबिक़ उनका सारा निज़ाम चलता है, “और उसने हर आसमान को उसका काम वह्य किया (समझाया)।” (सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा, आयत-12) ज़मीन पर भी वह्य होती है जिसका इशारा पाते ही वह अपनी आप-बीती सुनाने लगती है। “उस दिन वह (ज़मीन) अपने हालात बयान करेगी, क्योंकि इस बात की तेरे रब ने उसपर वह्य की होगी। (सूरा-99 अज़-ज़िलज़ाल, आयत-4-5) फ़रिश्तों पर भी वह्य होती है जिसके मुताबिक़ वे काम करते है— “जब तेरे रब की तरफ़ से फ़रिश्तों पर वह्य की गई कि मैं तुम्हारे साथ हूँ” (सूरा-18 अनफ़ाल, आयत-12)। शहद की मक्खी को उसका पूरा काम वह्य (फ़ितरी तालीम) के ज़रिए से सिखाया जाता है, जैसा कि इस आयत में आप देखे रहे हैं और यह वह्य सिर्फ़ शहद की मक्खी ही को नहीं की जाती, बल्कि मछली को तैरना, परिन्दों को उड़ना, नवजात बच्चे को दूध पीना भी अल्लाह की वह्य ही सिखाया करती है। फिर एक इनसान को सोच-विचार, जाँच-पड़ताल और खोजबीन के बिना जो सही तदबीर या सही राय या सोचने व अमल करने की सही राह सुझाई जाती है। वह भी वह्य है, “और हमने मूसा की माँ को वह्य की कि उसको दूध पिला” (सूरा-28 अल-क़सस, आयत-7), और इस वह्य से कोई इनसान भी महरूम नहीं है। दुनिया में जितनी भी खोजें हुई हैं, जितनी फ़ायदेमन्द ईजादें हुई हैं, बड़े-बड़े इन्तिज़ाम और तदबीर करनेवालों, जीत हासिल करनेवालों, ग़ौरो-फ़िक्र करनेवाले (चिन्तकों) और लिखनेवालों ने जो कारनामे अंजाम दिए हैं उन सबमें यही वह्य काम करती नज़र आती है, बल्कि आम इनसानों को आए दिन इस तरह के तजरिबे होते रहते हैं कि कभी बैठे-बैठे दिल में एक बात आई, कोई तदबीर सूझ गई, या सपने में कुछ देख लिया, और बाद में तजरिबे से पता चला कि वह एक सही रहनुमाई थी, जो ग़ैब से उन्हें मिली थी। इन बहुत-सी क़िस्मों में से एक ख़ास तरह की वह्य वह है जिससे पैग़म्बर (अलैहि०) नवाज़े जाते हैं और यह वह्य अपनी ख़ूबियों में दूसरी क़िस्मों से बिलकुल अलग होती है। इसमें वह्य किए जानेवाले को अच्छी तरह मालूम होता है कि यह वह्य ख़ुदा की तरफ़ से आ रही है। उसे उसके अल्लाह की तरफ़ से होने का पूरा यक़ीन होता है। उसमें अक़ीदे, हुक्म, क़ानून और हिदायतें सब शामिल होती हैं और उसे उतारने का मक़सद यह होता है कि नबी उसके ज़रिए से इनसानों को सीधा रास्ता दिखाए।
ثُمَّ كُلِي مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ فَٱسۡلُكِي سُبُلَ رَبِّكِ ذُلُلٗاۚ يَخۡرُجُ مِنۢ بُطُونِهَا شَرَابٞ مُّخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهُۥ فِيهِ شِفَآءٞ لِّلنَّاسِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 67
(69) और हर तरह के फलों का रस चूस और अपने रब की हमवार की हुई राहों पर चलती रह57 इस मक्खी के अन्दर से रंग-बिरंग का एक शरबत निकलता है जिसमें शिफ़ा (आरोग्य) है। लोगों के लिए।58 यक़ीनन इसमें भी एक निशानी है उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते है।59
57. “रब की हमवार की हुई राहों का इशारा उस पूरे निज़ाम और काम के तरीक़े की तरफ़ है जिसपर शहद की मक्खियों का एक गरोह काम करता है। उनके छत्तों की बनावट, उनके गरोह का इन्तिज़ाम, उनके अलग-अलग काम करनेवालों में काम का बँटवारा, खाना हासिल करने के लिए उनका लगातार आना-जाना, उनका बाक़ायदगी के साथ शहद बना-बनाकर इकट्ठा करते जाना, ये सब वे राहें हैं जो उनके अमल के लिए उनके रब ने इस तरह हमवार और आसान कर दी हैं कि उन्हें कभी सोचने-विचारने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बस एक लगा-बँधा निज़ाम है जिसपर एक लगे-बँधे तरीक़े पर चीनी के ये अनगिनत छोटे-छोटे कारखाने हज़ारों सालों से काम किए चले जा रहे हैं।
58. शहद का एक फ़ायदेमन्द और मज़ेदार खाना होना तो ज़ाहिर है, इसलिए इसका ज़िक्र नहीं किया गया। अलबत्ता उसके अन्दर शिफ़ा होना किसी हद तक एक छिपी बात है, इसलिए इससे वाक़िफ़ कर दिया गया। शहद अव्वल तो कुछ रोगों में अपनी जगह ख़ुद फ़ायदेमन्द है, क्योंकि उसके अन्दर फूलों और फलों का रस, और उनका ग्लूकोज़ अपनी बेहतरीन शक्ल में मौजूद होता है। फिर शहद की यह ख़ासियत कि वह ख़ुद भी नहीं सड़ता और दूसरी चीज़ों को भी अपने अन्दर एक मुद्दत तक महफ़ूज़ रखता है, उसे इस क़ाबिल बना देता है कि दवाएँ तैयार करने में उससे मदद ली जाए। चुनाँचे अल्कोहल के बजाय दुनिया की दवा बनाने के काम में वह सदियों से इसी मक़सद के लिए इस्तेमाल होता रहा है। इसके अलावा शहद की मक्खी अगर किसी ऐसे इलाक़े में काम करती है जहाँ कोई ख़ास जड़ी-बूटी बहुतायत में पाई जाती हो तो उस इलाक़े का शहद सिर्फ़ शहद ही नहीं होता, बल्कि उस जड़ी-बूटी का बेहतरीन जौहर भी होता है और उस रोग के लिए फ़ायदेमन्द होता है जिसकी दवा उस जड़ी-बूटी में ख़ुदा ने पैदा की है। शहद की मक्खी से यह काम अगर बाक़ायदगी से लिया जाए, और अलग-अलग जड़ी बूटियों के जौहर उससे निकलवाकर उनके शहद अलग-अलग रख लिए जाएँ तो हमारा ख़याल है कि ये शहद लेबोरेटरी में निकाले हुए जौहरों से ज़्यादा फ़ायदेमन्द साबित होंगे।
59. इस पूरे बयान का मक़सद नबी (सल्ल०) की दावत के दूसरे हिस्से की सच्चाई साबित करना है। इस्लाम का इनकार करनेवाले और मुशरिक लोग दो ही बातों की वजह से आपकी मुख़ालफ़त कर रहे थे। एक यह कि आप आख़िरत की ज़िन्दगी का नक़्शा पेश करते हैं जो अख़लाक़ के पूरे निज़ाम का नक़्शा बदल डालता है। दूसरे यह कि आप कहते हैं कि सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत करो, उसी की फ़रमाँबरदारी करो और उसी को मुश्किल-कुशा और फ़रियाद सुननेवाला समझो, इससे वह पूरा निज़ामे-ज़िन्दगी ग़लत करार पाता है जो शिर्क या नास्तिकता की बुनियाद पर बना हो। मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़ाम के इन्ही दोनों हिस्सों को सही साबित करने के लिए यहाँ कायनात की निशानियों की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है। बयान का मक़सद यह है कि अपने आस-पास की दुनिया पर निगाह डालकर देख लो, ये निशानियाँ जो हर तरफ़ पाई जाती हैं नबी के बयान को सही ठहरा रही हैं या तुम्हारे अंधविश्वास और ख़यालात को? नबी कहता है कि तुम मरने के बाद दोबारा उठाए जाओगे। तुम इसे एक अनहोनी बात कहते हो, मगर ज़मीन हर बारिश के मौसम में इस बात का सुबूत देती है कि दोबारा पैदाइश न सिर्फ़ मुमकिन है, बल्कि रोज़ तुम्हारी आँखों के सामने हो रही है। नबी कहता है कि यह कायनात बे-ख़ुदा नहीं है। तुम्हारे नास्तिक इस बात को एक बेसुबूत दावा ठहराते हैं। मगर मवेशियों की बनावट, खजूरों और अंगूरों की बनावट और शहद की मक्खियों की बनावट गवाही दे रही है कि एक हिकमतवाले और रहमवाले रब ने इन चीज़ों को डिज़ाइन किया है, वरना यह कैसे मुमकिन था कि इतने जानवर और इतने पेड़ और इतनी मक्खियाँ मिल-जुलकर इनसान के लिए ऐसी-ऐसी अच्छी मज़ेदार और फ़ायदेमन्द चीज़ें इस बाक़यादगी के साथ पैदा करती रहतीं। नबी कहता है कि अल्लाह के सिवा कोई तुम्हारी इबादत और तारीफ़ और शुक्र व वफ़ा का हक़दार नहीं है। तुम्हारे मुशरिक इसपर नाक-भौं चढ़ाते हैं और अपने बहुत-से माबूदों की नज़्रें-नियाज़ें पूरी करने पर अड़े रहते हैं। मगर तुम ख़ुद ही बताओ कि यह दूध और ये खजूरें और ये अंगूर और ये शहद जो तुम्हारी बेहतरीन खाने की चीज़ें हैं, ख़ुदा के सिवा और किस की दी हुई नेमतें हैं? किस देवी या देवता या वली ने तुम्हें रिज़्क़ पहुँचाने के लिए ये इन्तिज़ाम किए है?
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ ثُمَّ يَتَوَفَّىٰكُمۡۚ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡ لَا يَعۡلَمَ بَعۡدَ عِلۡمٖ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 68
(70) और देखो, अल्लाह ने तुम्हें पैदा किया, फिर वह तुम्हें मौत देता है60 और तुममें से कोई सबसे बुरी उम्र को पहुँचा दिया जाता है, ताकि सब कुछ जानने के फिर कुछ न जाने।61 हक़ यह है कि अल्लाह ही इल्म में भी कामिल (पूर्ण) है और क़ुदरत में भी।
60. यानी हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि तुम्हारी परवरिश और तुम्हें रिज़्क़ पहुँचाने का सारा इन्तिज़ाम अल्लाह के हाथ में है, बल्कि हक़ीक़त यह भी है कि तुम्हारी ज़िन्दगी और मौत, दोनों अल्लाह के बस में हैं। कोई दूसरा न ज़िन्दगी देने का इख़्तियार रखता है, न मौत देने का।
61. यानी यह इल्म जिसपर तुम नाज़ करते हो और जिसकी बदौलत ही ज़मीन के दूसरे जानदारों पर तुमको बढ़कर दरजा हासिल है, यह भी ख़ुदा का दिया हुआ है। तुम अपनी आँखों से यह इबरतनाक मंज़र देखते रहते हो कि जब किसी इनसान को अल्लाह तआला बहुत ज़्यादा लम्बी उम्र दे देता है तो वही शख़्स जो कभी जवानी में दूसरों को अक़्ल सिखाता था, किस तरह गोश्त का एक लोथड़ा बनकर रह जाता है जिसे अपने तन-बदन का भी होश नहीं रहता।
وَٱللَّهُ فَضَّلَ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلرِّزۡقِۚ فَمَا ٱلَّذِينَ فُضِّلُواْ بِرَآدِّي رِزۡقِهِمۡ عَلَىٰ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَهُمۡ فِيهِ سَوَآءٌۚ أَفَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 69
(71) और देखो, अल्लाह ने तुममें से कुछ को कुछ पर रोज़ी में बड़ाई दी है। फिर जिन लोगों को यह बड़ाई दी गई है वे ऐसे नहीं हैं कि अपनी रोज़ी अपने ग़ुलामों की तरफ़ फेर दिया करते हों, ताकि दोनों इस रोज़ी में बराबर के हिस्सेदार बन जाएँ। तो क्या अल्लाह ही का एहसान मानने से इन लोगों को इनकार है?62
62. आज के दौर में इस आयत से जो अजीब-ग़रीब मतलब निकाले गए हैं, वे इस बात की सबसे बुरी मिसाल हैं कि क़ुरआन की आयतों को उनके सन्दर्भ से अलग करके एक-एक आयत के अलग मतलब लेने से कैसी-कैसी और कभी न ख़त्म होनेवाली बहसों का दरवाज़ा खुल जाता है। लोगों ने इस आयत को इस्लाम के फ़लसफ़-ए-मईशत (आर्थिक दर्शन) की बुनियाद और मईशत के क़ानून की एक अहम दफ़ा ठहराया है। उनके नज़दीक आयत का मंशा यह है कि जिन लोगों को अल्लाह ने रिज़्क़ में बड़ाई दी उन्हें अपना रिज़्क़ अपने नौकरों और ग़ुलामों की तरफ़ ज़रूर लौटा देना चाहिए, अगर न लौटाएँगे तो अल्लाह की नेमत के इनकारी ठहरेंगे। हालाँकि बात के इस सिलसिले में मईशत के क़ानून के बयान का सिरे से कोई मौक़ा ही नहीं है। ऊपर से तमाम तक़रीर शिर्क को ग़लत ठहराने और तौहीद को सही साबित करने में होती चली आ रही है और आगे भी लगातार यही मज़मून चल रहा है। इस बातचीत के बीच में यकायक मईशत के क़ानून की एक दफ़ा बयान कर देने का आख़िर कौन-सा तुक है? आयत को उसके प्रसंग और संदर्भ में रखकर देखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यहाँ इसके बिलकुल बरख़िलाफ़ विषय बयान हो रहा है। यहाँ यह दलील दी जा रही है कि तुम ख़ुद अपने माल में अपने ग़ुलामों और नौकरों को जब बराबर का दरजा नहीं देते — हालाँकि यह माल ख़ुदा का दिया हुआ है — तो आख़िर किस तरह यह बात तुम सही समझते हो कि जो एहसान अल्लाह ने तुमपर किए हैं उनके शुक्रिए में अल्लाह के साथ उसके अधिकार न रखनेवाले ग़ुलामों को भी साझीदार बना लो और अपनी जगह यह समझ बैठो कि अधिकारों और हक़ों में अल्लाह के ये ग़ुलाम भी उसके साथ बराबर के हिस्सेदार हैं? दलील देने का ठीक यही अन्दाज़ इसी मज़मून से सूरा-30 रूम, आयत-28 में अपनाया गया हैं। वहाँ इसके अलफ़ाज़ ये हैं— “अल्लाह तुम्हारे सामने एक मिसाल ख़ुद तुम्हारे अपने वुजूद से पेश करता है। क्या तुम्हारे उस रिज़्क़ में जो हमने तुम्हें दे रखा हैं तुम्हारे ग़ुलाम तुम्हारे साझीदार हैं, यहाँ तक कि तुम और वे उसमें बराबर हों? और तुम उनसे उसी तरह डरते हो जिस तरह अपने बराबरवालों से डरा करते हो? इस तरह अल्लाह खोल-खोलकर निशानियाँ पेश करता है उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।" दोनों आयतों का आपस में मुक़ाबला करने से साफ़-साफ़ मालूम होता है कि दोनों में एक ही मक़सद के लिए एक ही मिसाल से दलील दी गई है और इनमें से हर एक दूसरी की तफ़सीर कर रही है। शायद लोगों को ग़लत-फ़हमी “अ-फ़-बिनिअ-मतिल्लाहि यज-हदून” (तो क्या ये अल्लाह की नेमत का इनकार करते हैं) के अलफ़ाज़ से हुई है। उन्होंने मिसाल देने के बाद उसी से जुड़ा हुआ यह जुमला देखकर समझा कि हो न हो इसका मतलब यही होगा कि अपने मातहतों की तरफ़ रिज़्क़ न फेर देना ही अल्लाह की नेमत का इनकार है। हालाँकि जो शख़्स क़ुरआन की कुछ भी समझ रखता है वह इस बात को जानता है कि अल्लाह की नेमतों का शुक्रिया अल्लाह के बजाय दूसरों को अदा करना इस किताब की निगाह में अल्लाह की नेमतों का इनकार है। यह बात क़ुरआन में इतनी ज़्यादा बार दोहराई गई है कि तिलावत करने और क़ुरआन में ग़ौर-फ़िक्र करने की आदत रखनेवालों को तो इसमें किसी तरह का कोई शक नहीं हो सकता, अलबत्ता इंडेक्सों की मदद से अपने मतलब की आयतें निकालकर लेख तैयार करनवाले लोग इससे नावाक़िफ़ हो सकते हैं। अल्लाह की नेमत के इनकार का यह मतलब समझ लेने के बाद इस जुमले का यह मतलब साफ़-साफ़ समझ में आ जाता है कि जब ये लोग मालिक और ग़ुलाम का फ़र्क़ ख़ूब जानते हैं, और ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में हर वक़्त इस फ़र्क़ को सामने रखते हैं, तो क्या फिर एक अल्लाह ही के मामले में उन्हें इस बात पर ज़िद है कि उसके बन्दों को उसका साझीदार और हिस्सेदार ठहराएँ और जो नेमतें उन्होंने उससे पाई हैं उनका शुक्रिया उसके बन्दों को अदा करें?
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُم بَنِينَ وَحَفَدَةٗ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ هُمۡ يَكۡفُرُونَ ۝ 70
(72) और वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हार लिए तुम्हीं में से तुम्हारी बीवियाँ बनाई और उसी ने इन बीवियों से तुम्हें बेटे-पोते दिए और अच्छी-अच्छी चीज़ें तुम्हें खाने को दीं। फिर क्या ये लोग (यह सब कुछ देखते और जानते हुए भी) बातिल (असत्य) को मानते हैं63 और अल्लाह के एहसान का इनकार करते हैं।64
63. “बातिल (असत्य) को मानते हैं", यानी यह बेबुनियाद और बेहक़ीक़त अक़ीदा रखते हैं कि उनकी क़िस्मतें बनाना और बिगाड़ना, उनकी मुराद पूरी करना और दुआएँ सुनना, उन्हें औलाद देना, उनको रोज़गार दिलावाना, उनके मुक़द्दमे जितवाना और उन्हें बीमारियों से बचाना कुछ देवियों-देवताओं और जिन्नों और अगले-पिछले बुज़ुर्गों के इख़्तियार में है।
64. अगरचे मक्का के मुशरिक इस बात से इनकार नहीं करते थे कि सारी नेमतें अल्लाह की दी हुई हैं, और इन नेमतों पर अल्लाह का एहसान मानने से भी उन्हें इनकार न था, लेकिन जो ग़लती वे करते थे वह यह थी कि इन नेमतों पर अल्लाह का शुक्रिया अदा करने के साथ-साथ वह उन बहुत-सी हस्तियों का शुक्रिया भी ज़बान और अमल से अदा करते थे, जिनको उन्होंने बिना किसी सुबूत और बिना किसी दलील के इस नेमत देने में दख़ल देनेवाला और साझीदार ठहरा रखा था। इसी चीज़ को क़ुरआन “अल्लाह के एहसान का इनकार” क़रार देता है। क़ुरआन में यह बात एक बुनियादी उसूल के तौर पर पेश की गई है कि एहसान करनेवाले के एहसान का शुक्रिया एहसान न करनवाले को अदा करना अस्ल में एहसान करनेवाले के एहसान का इनकार करना है। इसी तरह क़ुरआन यह बात भी उसूल के तौर पर बयान करता है कि एहसान करनेवाले के बारे में बिना किसी दलील और सुबूत के यह गुमान कर लेना कि उसने ख़ुद अपनी मेहरबानी से यह एहसान नहीं किया है, बल्कि फ़ुलाँ शख़्स की वजह से, या फ़ुलाँ की रिआयत से, या फ़ुलाँ की सिफारिश से, या फ़ुलाँ के दख़ल देने से किया है, यह भी दरअस्ल उसके एहसान का इनकार ही है। ये दोनों उसूली बातें सरासर इनसाफ़ और आम अक़्ल के मुताबिक़ हैं। हर शख़्स ख़ुद ज़रा-सा ग़ौर करने से इनका सही होना समझ सकता है। मान लीजिए कि आप एक ज़रूरतमन्द आदमी पर तरस खाकर उसकी मदद करते हैं, और वह उसी वक़्त उठकर आपके सामने एक-दूसरे आदमी का शुक्रिया अदा कर देता है जिसका उस मदद करने में कोई हाथ न था। आप चाहे अपने कुशादा (खुले) दिल होने की वजह से उसकी इस ग़लत हरकत को अनदेखा कर दें और आगे भी उसकी मदद करने का सिलसिला जारी रखें, मगर अपने दिल में यह ज़रूर समझेंगे कि यह एक बहुत बदतमीज़ और एहसान फ़रामोश आदमी है। फिर अगर पूछने पर आपको मालूम हो कि इस शख़्स ने यह हरकत यह समझते हुए की थी कि आपने उसकी जो कुछ भी मदद की है वह अपनी नेक दिली और फ़य्याज़ी (दानशीलता) की वजह से नहीं की, बल्कि उस दूसरे शख़्स की ख़ातिर की है, हालाँकि यह हक़ीक़त न थी, तो आप ज़रूर ही इसे अपनी तौहीन समझेंगे। उसकी इस बेहूदा बहानेबाज़ी का साफ़ मतलब आपके नज़दीक यह होगा कि वह आपसे सख़्त बदगुमान है और आपके बारे में यह राय रखता है कि आप कोई रहमदिल और मेहरबान इनसान नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ किसी की दोस्ती और यारी का ख़याल करनेवाले आदमी हैं, चन्द लगे-बंधे दोस्तों के ज़रिए से कोई आए तो आप उसकी मदद उन दोस्तों की ख़ातिर कर देते हैं, वरना आपके हाथ से किसी को कुछ फ़ायदा नहीं पहुँच सकता।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ رِزۡقٗا مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 71
(73) और अल्लाह को छोड़कर उनको पूजते हैं जिनके हाथ में न आसमानों से उन्हें कुछ भी रिज़्क़ देना है, न ज़मीन से और न यह काम वे कर ही सकते हैं?
فَلَا تَضۡرِبُواْ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡثَالَۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 72
(74) तो अल्लाह के लिए मिसालें न गढ़े65 अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
65. “अल्लाह के लिए मिसालें न गढ़ो,” यानी अल्लाह को दुनियावी बादशाहों और राजाओं और महाराजाओं की तरह न समझो कि जिस तरह कोई उनके मुसाहिबों और क़रीबी मुलाज़िमों के ज़रिए के बिना उन तक अपनी दरख़ास्त नहीं पहुँचा सकता, उसी तरह अल्लाह के बारे में भी तुम यह गुमान करने लगो कि वह अपने शाही महल में फ़रिश्तों और वलियों और दूसरे क़रीबी लोगों के दरमियान घिरा बैठा है और किसी का कोई काम इन वास्तों के बग़ैर उसके यहाँ से नहीं बन सकता।
۞ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلًا عَبۡدٗا مَّمۡلُوكٗا لَّا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَمَن رَّزَقۡنَٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنٗا فَهُوَ يُنفِقُ مِنۡهُ سِرّٗا وَجَهۡرًاۖ هَلۡ يَسۡتَوُۥنَۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 73
(75) अल्लाह एक मिसाल देता है।66 एक तो है ग़ुलाम जो दूसरे का मातहत है और ख़ुद कोई इख़्तियार नहीं रखता। दूसरा आदमी ऐसा है जिसे हमने अपनी तरफ़ से अच्छी रोज़ी दी है और वह उसमें से खुले और छिपे ख़ूब ख़र्च करता है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं? अल-हम्दु लिल्लाह!67 मगर अकसर लोग (इस सीधी बात को) नहीं जानते।68
66. यानी अगर मिसालों ही से बात समझानी है तो अल्लाह सही मिसालों से तुमको हक़ीक़त समझाता है। तुम जो मिसालें दे रहे हो वे ग़लत हैं, इसलिए तुम उनसे ग़लत नतीजे निकाल बैठते हो।
67. ऊपर आयत में जो सवाल किया गया है कि बताओ क्या दोनों बराबर हैं और फिर ‘अल्हम्दुलिल्लाह' कहा गया है तो सवाल और 'अलहम्दुलिल्लाह' के बीच एक लतीफ़ ख़ला (सूक्ष्म रिक्तता) है जिसे भरने के लिए ख़ुद लफ़्ज़ 'अलहम्दुलिल्लाह' ही में साफ़ इशारा मौजूद है। ज़ाहिर है कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से यह सवाल सुनकर मुशरिकों के लिए इसका यह जवाब देना तो किसी तरह मुमकिन न था कि दोनों बराबर हैं। ज़रूर ही इसके जवाब में किसी ने साफ़-साफ़ इक़रार किया होगा कि वाक़ई दोनों बराबर नहीं हैं, और किसी ने इस अन्देशे से ख़ामोशी इख़्तियार कर होगी कि इक़रारी जवाब देने की सूरत में इस बात का भी इक़रार करना होगा जो इस दलील के नतीजे में पैदा होगी और उससे ख़ुद-ब-ख़ुद उनका शिर्क ग़लत साबित हो जाएगा। इसलिए नबी ने दोनों का जवाब पाकर फ़रमाया, 'अलहम्दुलिल्लाह!’ इक़रार करनेवालों के इक़रार पर भी 'अलहम्दुलिल्लाह' और ख़ामोश रह जानेवालों की ख़ामोशी पर भी 'अलहम्दुलिल्लाह'। पहली सूरत में इसका मतलब यह हुआ कि, “ख़ुदा का शुक्र है, इतनी बात तो तुम्हारी समझ में आई।” दूसरी सूरत में इसका मतलब यह है कि, “चुप हो गए? अहलहम्दुलिल्लाह! अपनी सारी हठधर्मियों के बावुजूद दोनों को बराबर कह देने की हिम्मत तुम भी न कर सके।"
68. यानी इसके बावजूद कि इनसानों के दरमियान वे साफ़ तौर पर अधिकारवाले और बेअधिकार के फ़र्क़ को महसूस करते हैं, और इस फ़र्क़ का ध्यान रखकर ही दोनों के साथ अलग-अलग रवैया अपनाते हैं, फिर भी वे ऐसे जाहिल व नादान बने हुए हैं कि ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) और मख़लूक़ (पैदा किए जानेवाले) का फ़र्क़ उनकी समझ में नहीं आता। ख़ालिक़ के वुजूद और सिफ़ात और हक़ों और इख़्तियार सबमें वे मख़लूक़ को उसका शरीक समझ रहे हैं और मख़लूक़ के साथ वह रवैया अपना रहे हैं जो सिर्फ़ ख़ालिक़ के साथ ही अपनाया जा सकता है। इस अस्बाब की दुनिया में कोई चीज़ माँगनी हो तो घर के मालिक से माँगेंगे, न कि घर के नौकर से। मगर तमाम मेहरबानियाँ करनेवाले से ज़रूरत की चीज़ें माँगनी हों तो कायनात के मालिक को छोड़कर उसके बन्दों के आगे हाथ फैला देंगे।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلَيۡنِ أَحَدُهُمَآ أَبۡكَمُ لَا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُوَ كَلٌّ عَلَىٰ مَوۡلَىٰهُ أَيۡنَمَا يُوَجِّههُّ لَا يَأۡتِ بِخَيۡرٍ هَلۡ يَسۡتَوِي هُوَ وَمَن يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَهُوَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 74
(76) अल्लाह एक और मिसाल देता है। दो आदमी हैं। एक गूँगा-बहरा है, कोई काम नहीं कर सकता, अपने मालिक पर बोझ बना हुआ है, जिधर भी वह उसे भेजे, कोई भला काम उससे बन न आए। दूसरा शख़्स ऐसा है कि इनसाफ़ का हुक्म देता है और ख़ुद सीधे रास्ते पर क़ायम है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं?69
69. पहली मिसाल में अल्लाह और बनावटी माबूदों के फ़र्क़ को सिर्फ़ इख़्तियार और बेइख़्तियारी के सिफ़ात के लिहाज़ एतिबार से नुमायाँ किया गया था। अब इस दूसरी मिसाल में वही फ़र्क़ और ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है। मतलब यह है कि अल्लाह और इन बनावटी माबूदों के दरमियान फ़र्क़ सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि एक अधिकार रखनेवाला मालिक है और दूसरा बेइख़्तियार ग़ुलाम, बल्कि इसके अलावा यह फ़र्क़ भी है कि यह ग़ुलाम न तुम्हारी पुकार सुनता है, न उसका जवाब दे सकता है, न कोई काम पूरे अधिकार से ख़ुद कर सकता है। उसकी अपनी ज़िन्दगी का सारा दारोमदार उसके मालिक की ज़ात पर है। और मालिक अगर कोई काम उसपर छोड़ दे तो वह कुछ भी नहीं बना सकता। इसके बरख़िलाफ़ उसके मालिक का हाल यह है कि सिर्फ़ बोलनेवाला ही नहीं, बल्कि हिकमत के साथ बोलनेवाला है। दुनिया को इनसाफ़ का हुक्म देता है, और सिर्फ़ सब कुछ करने का अधिकार ही नहीं रखता, बल्कि जो कुछ करता है सही करता है, सच्चाई के साथ और सही तरीक़े से करता है। बताओ यह कौन-सी अक़्लमन्दी है कि तुम ऐसे मालिक और ऐसे ग़ुलाम को एक जैसा समझ रहे हो?
وَٱللَّهُ أَخۡرَجَكُم مِّنۢ بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 75
(78) अल्लाह ने तुम्हें तुम्हारी माँओं के पेटों से निकाला इस हालत में कि तुम कुछ न जानते थे। उसने तुम्हें कान दिए, आँखें दीं और सोचनेवाले दिल दिए72, इसलिए कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।73
72. यानी वे ज़रिए जिनसे तुम्हें दुनिया के काम चला सको। इनसान का बच्चा पैदाइश के वक़्त जितना बेबस और बेख़बर होता है उतना किसी जानवर का नहीं होता। मगर यह सिर्फ़ अल्लाह के दिए हुए इल्म (सुनने, देखने और सोचने-समझने) के ज़रिए ही हैं, जिनकी बदौलत वह तरक़्क़ी करके ज़मीन पर मौजूद तमाम चीज़ों पर हुक्मरानी करने के लायक़ बन जाता है।
73. यानी उस ख़ुदा के शुक्रगुज़ार जिसने ये अनमोल नेमतें तुमको दीं। इन नेमतों की इससे बढ़कर नाशुक्री और क्या हो सकती है कि इन कानों से आदमी सब कुछ सुने मगर एक ख़ुदा ही की बता न सुने, इन आँखों से सब कुछ देखे मगर एक ख़ुदा ही की आयतें न देखे और इस दिमाग़ से सब कुछ सोचे मगर एक यही बात न सोचे कि मुझपर एहसान करनवाला वह कौन है जिसने ये इनाम मुझे दिए हैं।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلطَّيۡرِ مُسَخَّرَٰتٖ فِي جَوِّ ٱلسَّمَآءِ مَا يُمۡسِكُهُنَّ إِلَّا ٱللَّهُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 76
(79) क्या इन लोगों ने कभी परिन्दों को नहीं देखा कि आसमान की फ़ज़ा में किस तरह सधे हुए हैं? अल्लाह के सिवा किसने इनको थाम रखा है? इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۢ بُيُوتِكُمۡ سَكَنٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّن جُلُودِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ بُيُوتٗا تَسۡتَخِفُّونَهَا يَوۡمَ ظَعۡنِكُمۡ وَيَوۡمَ إِقَامَتِكُمۡ وَمِنۡ أَصۡوَافِهَا وَأَوۡبَارِهَا وَأَشۡعَارِهَآ أَثَٰثٗا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 77
(80) अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को सुकून की जगह बनाया। उसने जानवरों की खालों से तुम्हारे लिए ऐसे मकान पैदा किए74 जिन्हें तुम सफ़र और ठहरने, दोनों हालतों में हल्का पाते हो।75 उसने जानवरों के ऊन फ़र (समूर) और ऊन और बालों से तुम्हारे लिए पहनने और बरतने की बहुत-सी चीज़ें पैदा कर दीं, जो ज़िन्दगी की मुक़र्रर मुद्दत तक तुम्हारे काम आती हैं।
74. यानी चमड़े के तम्बू जिनका चलन अरब में बहुत है।
75. यानी आप कूच करना चाहते हो तो इन्हें आसानी से तह करके उठा ले जाते हो और जब ठहरना चाहते हो तो आसानी से उनको खोलकर डेरा जमा लेते हो।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّمَّا خَلَقَ ظِلَٰلٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡجِبَالِ أَكۡنَٰنٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ سَرَٰبِيلَ تَقِيكُمُ ٱلۡحَرَّ وَسَرَٰبِيلَ تَقِيكُم بَأۡسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡلِمُونَ ۝ 78
(81) उसने अपनी पैदा की हुई बहुत-सी चीज़ों से तुम्हारे लिए साए का इन्तिज़ाम किया, पहाड़ों में तुम्हारे लिए पनाहगाहें बनाईं और तुम्हें ऐसे लिबास दिए जो तुम्हें गर्मी से बचाते हैं76 और कुछ दूसरे लिबास जो आपस की जंग में तुम्हारी हिफ़ाज़त करते हैं।77 इस तरह वह तुमपर अपनी नेमतें पूरी करता है78
76. सर्दी से बचाने का ज़िक्र या तो इसलिए नहीं किया गया कि गर्मी में कपड़ों का इस्तेमाल इनसानी समाज का इन्तिहाई दरजा है और इन्तिहाई दरजे का ज़िक्र कर देने के बाद शुरुआती दरजों के ज़िक्र की ज़रूरत नहीं रहती, या फिर इसे ख़ास तौर पर इसलिए बयान किया गया है कि जिन देशों में निहायत ख़तरनाक क़िस्म की गर्म हवाएँ चलती हैं वहाँ सर्दी के लिबास से भी बढ़कर गर्मी का लिबास अहमियत रखता है। ऐसे देशों में, अगर आदमी सिर, गर्दन, कान और सारा जिस्म अच्छी तरह ढाँककर न निकले तो गर्म हवा उसे झुलसाकर रख दे, बल्कि कई बार तो आँखों को छोड़कर पूरा मुँह तक लपेट लेना पड़ता है।
77. यानी ज़िरह बकतर (कवच)।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 79
(82) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो ऐ नबी! तुमपर साफ़-साफ़ हक़ का पैग़ाम पहुँचा देने के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
يَعۡرِفُونَ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 80
(83) ये अल्लाह के एहसान को पहचानते हैं, फिर उसका इनकार करते हैं79 और इनमें ज़्यादा तर लोग ऐसे हैं जो हक़ को मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
79. इनकार से मुराद वही रवैया है जिसका हम पहले ज़िक्र कर चुके हैं। इस्लाम को न माननेवाले मक्का के लोगों को इस बात से इनकार न था कि ये सारे एहसान अल्लाह ने उनपर किए हैं, मगर उनका अक़ीदा यह था कि अल्लाह ने ये एहसान उनके बुज़ुर्गों और देवताओं के दख़ल देने से किए हैं, और इसी वजह से वे उन एहसानों का शुक्रिया अल्लाह के साथ, बल्कि कुछ अल्लाह से भी बढ़कर उन बिचौलियों को अदा करते थे। इसी हरकत को अल्लाह तआला नेमत का इनकार और एहसान-फ़रामोशी और नाशुक्री बता रहा है।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا ثُمَّ لَا يُؤۡذَنُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 81
(84) (इन्हें कुछ होश भी है कि उस दिन क्या बनेगी) जबकि हम हर उम्मत (समुदाय) में से एक गवाह80 खड़ा करेंगे, फिर इनकार करनेवालों को न दलीलें पेश करने का मौक़ा दिया जाएगा81, न उनसे तौबा व इस्तिग़फ़ार (क्षमा याचना) ही की माँग की जाएगी82।
80. यानी उस उम्मत का नबी, या कोई ऐसा शख़्स जिसने नबी के गुज़र जाने के बाद उस उम्मत को तौहीद और ख़ालिस ख़ुदा की दावत दी हो, शिर्क और शिर्कवाले अंधविश्वासों और रस्मों पर ख़बरदार किया हो, और क़ियामत के दिन की जवाबदेही से ख़बरदार कर दिया हो। वह इस बात की गवाही देगा कि मैंने हक़ का पैग़ाम इन लोगों को पहुँचा दिया था, इसलिए जो कुछ इन्होंने किया वह अनजाने में नहीं किया, बल्कि जानते-बूझते किया।
81. यह मतलब नहीं है कि उन्हें सफाई पेश करने की इजाज़त न दी जाएगी, बल्कि मतलब यह है कि उनके जुर्म ऐसे खुले नाक़ाबिले-इनकार और लाजवाब कर देनेवाली गवाहियों से साबित कर दिए जाएँगे कि उनके लिए सफ़ाई पेश करने की कोई गुंजाइश न रहेगी।
82. यानी उस वक़्त उनसे यह नहीं कहा जाएगा कि अब अपने रब से अपने क़ुसूरों की माफ़ी माँग लो; क्योंकि वह फ़ैसले का वक़्त होगा, माफ़ी माँगने का वक़्त गुज़र चुका होगा। क़ुरआन और हदीस दोनों का इस बारे में कहना है कि तौबा व इस्तिग़फ़ार की जगह दुनिया है, न कि आख़िरत और दुनिया में भी इसका मौक़ा सिर्फ़ उसी वक़्त तक है जब तक मौत की निशानियाँ सामने नहीं आ जातीं। जिस वक़्त आदमी को यक़ीन हो जाए कि उसका आख़िरी वक़्त आ पहुँचा है उस वक़्त की तौबा क़ुबूल किए जाने के क़ाबिल नहीं है। मौत की सरहद में दाख़िल होते ही आदमी के अमल की मुहलत ख़त्म हो जाती है और सिर्फ़ इनाम या सज़ा ही का हक़दार होना बाक़ी रह जाता है।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلۡعَذَابَ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 82
(85) ज़ालिम लोग जब एक बार अज़ाब देख लेंगे तो उसके बाद न उनके अज़ाब में कोई कमी की जाएगी और न उन्हें एक लम्हा भर की मुहलत दी जाएगी
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ شُرَكَآءَهُمۡ قَالُواْ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ شُرَكَآؤُنَا ٱلَّذِينَ كُنَّا نَدۡعُواْ مِن دُونِكَۖ فَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلَ إِنَّكُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 83
(86) और जब वे लोग, जिन्होंने दुनिया में शिर्क किया था, अपने ठहराए हुए शरीकों को देखेंगे तो कहेंगे, “ऐ परवरदिगार! यही हैं हमारे वे शरीक जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारा करते थे।” इसपर उनके वे माबूद उन्हें साफ़ जवाब देंगे कि “तुम झूठे हो।"83
83. इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपनी जगह ख़ुद इस हक़ीक़त का इनकार करेंगे कि मुशरिक उन्हें ज़रूरत पूरी करने और मुश्किलें हल करने के लिए पुकारा करते थे, बल्कि अस्ल में वे इस हक़ीक़त के बारे में अपनी जानकारी और मालूमात और उसपर अपनी रज़ामन्दी व ज़िम्मेदारी का इनकार करेंगे। वे कहेंगे कि हमने कभी तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम ख़ुदा को छोड़कर हमें पुकारा करो, न हम तुम्हारी इस हरकत पर राज़ी थे, बल्कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमें पुकार रहे हो। तुमने अगर हमें दुआ सुननेवाला, पुकार कर जवाब देनेवाला, हाथ थामनेवाला, फ़रियाद सुननेवाला क़रार दिया था तो यह सब बिलकुल झूठी बात थी जो तुमने गढ़ ली थी और इसके ज़िम्मेदार तुम ख़ुद थे। अब हमें इसकी ज़िम्मेदारी में लपेटने की कोशिश क्यों करते हो।
وَأَلۡقَوۡاْ إِلَى ٱللَّهِ يَوۡمَئِذٍ ٱلسَّلَمَۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 84
(87) उस वक़्त ये सब अल्लाह के आगे झुक जाएँगे और उनकी वे सारी झूठी गढ़ी बातें रफ़ूचक्कर हो जाएँगी जो दुनिया में करते रहे थे।84
84. यानी वे सब ग़लत साबित होंगी। जिन-जिन सहारों पर वे दुनिया में भरोसा किए हुए थे वे सारे के सारे गुम हो जाएँगे। किसी फ़रियाद सुननेवाले को वहाँ फ़रियाद सुनने के लिए मौजूद न पाएँगे। कोई मुश्किल-कुशा उनकी मुश्किल हल करने के लिए नहीं मिलेगा। कोई आगे बढ़कर यह कहनेवाला न होगा कि ये मुझे वसीला (ज़रिया) बनाते थे, इन्हें कुछ न कहा जाए।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ زِدۡنَٰهُمۡ عَذَابٗا فَوۡقَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يُفۡسِدُونَ ۝ 85
(88) जिन लोगों ने ख़ुद कुफ़्र का रास्ता अपनाया और दूसरों को अल्लाह की राह से रोका, उन्हें हम अज़ाब पर अज़ाब देंगे85 उस फ़साद (बिगाड़) के बदले जो वे दुनिया में पैदा करते रहे।
85. यानी एक अज़ाब ख़ुद कुफ़्र (इनकार) करने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को अल्लाह की राह से रोकने का।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ فِي كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدًا عَلَيۡهِم مِّنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيدًا عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ تِبۡيَٰنٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 86
(89) (ऐ नबी! इन्हें उस दिन से ख़बरदार कर दो) जबकि हम हर उम्मत (समुदाय) में ख़ुद उसी के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उसके मुक़ाबले में गवाही देगा, और इन लोगों के मुक़ाबले में गवाही देने के लिए हम तुम्हें लाएँगे। और (यह उसी गवाही की तैयारी है कि) हमने यह किताब तुमपर उतार दी है जो हर चीज़ को साफ़-साफ़ बयान करनेवाली है86 और हिदायत और रहमत और ख़ुशख़बरी है उन लोगों के लिए जो फ़रमाँबरदार हो गए हैं।87
86. यानी हर ऐसी चीज़ का साफ़-साफ़ बयान जिसपर हिदायत और गुमराही और कामयाबी व नाकामी का दारोमदार है, जिसका जानना सीधे रास्ते पर चलने के लिए ज़रूरी है, जिससे हक़ और बातिल (असत्य) का फ़र्क़ नुमायाँ होता है। ग़लती से लोग 'तिबयानल-लिकुल्लि शैइन' (हर चीज़ को साफ़-साफ़ बयान कर देनेवाली है) और इसके जैसी मानीवाली आयतों का मतलब यह ले लेते हैं कि क़ुरआन में सब कुछ बयान कर दिया गया है। फिर वे इसे निबाहने के लिए क़ुरआन से साइंस और फ़ुनून (कलाओं) के अजीब-अजीब मज़मून निकालने की कोशिश शुरू कर देते हैं।
87. यानी जो लोग आज इस किताब को मान लेंगे और फ़रमाँबरदारी की राह अपना लेंगे उनको यह ज़िन्दगी के हर मामले में सही रहनुमाई देगी और इसकी पैरवी की वजह से उनपर अल्लाह की रहमतें होंगी और उन्हें यह किताब ख़ुशख़बरी देगी कि फ़ैसले के दिन अल्लाह की अदालत से ये कामयाब होकर निकलेंगे। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग इसे न मानेंगे वे सिर्फ़ यही नहीं कि हिदायत और रहमत से महरूम रहेंगे, बल्कि क़ियामत के दिन जब ख़ुदा का पैग़म्बर उनके मुक़ाबले में गवाही देने खड़ा होगा तो यही दस्तावेज़ उनके ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त दलील होगी; क्योंकि पैग़म्बर यह साबित कर देगा कि उसने वह चीज़ उन्हें पहुँचा दी थी जिसमें हक़ और बातिल का फ़र्क़ खोलकर रख दिया गया था।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَٱلۡإِحۡسَٰنِ وَإِيتَآيِٕ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَيَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡبَغۡيِۚ يَعِظُكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 87
(90) अल्लाह अद्ल (इनसाफ़) और एहसान और रिश्ते जोड़ने का हुक्म देता है88 और बुराई और बेहयाई और ज़ुल्म व ज़्यादती से मना करता है।89 वह तुम्हें नसीहत करता है, ताकि तुम सबक़ लो।
88. इस छोटे से जुमले में तीन ऐसी चीज़ों का हुक्म दिया गया है जिनपर पूरे इनसानी समाज के दुरुस्त होने का दारोमदार है: पहली चीज़ अद्ल (इनसाफ़) है जिसका तसव्वुर दो हमेशा रहनेवाली हक़ीक़तों से बना है। एक यह कि लोगों के दरमियान हुक़ूक़ में तवाज़ुन (सन्तुलन) और तनासुब (अनुपात) क़ायम हो। दूसरे यह कि हर एक को उसका हक़ पूरा-पूरा दे दिया जाए। उर्दू और हिन्दी ज़बान में इस मतलब को लफ़्ज़ 'इनसाफ़' और 'न्याय' कहा जाता है, मगर यह लफ़्ज ग़लतफ़हमी पैदा करनेवाला है। इससे ख़ाह-मख़ाह यह ख़याल पैदा होता है कि दो आदमियों के बीच हक़ों का बाँटना आधे-आधे की बुनियाद पर हो और फिर इसी से 'अद्ल' का मतलब बराबर-बराबर बाँटना समझ लिया गया है जो सरासर फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। दर अस्ल अद्ल जिस चीज़ का तक़ाज़ा करता है वह तवाज़ुन और तनासुब (सन्तुलन और अनुपात) है, न कि बराबरी। कुछ हैसियतों से तो अद्ल बेशक समाज के लोगों में बराबरी चाहता है, जैसे शरीअत के हक़ों में, मगर कुछ दूसरी हैसियतों से बराबरी बिलकुल अद्ल के ख़िलाफ़ है, मसलन माँ-बाप और औलाद के बीच समाजी व अख़लाक़ी बराबरी, और आला दरजे के काम करनेवालों और कमतर दरजे के काम करनेवालों के बीच में मुआवज़ों की बराबरी। तो अल्लाह तआला ने जिस चीज़ का हुक्म दिया है वह हक़ों में बराबरी नहीं, बल्कि सन्तुलन और अनुपात है, और इस हुक्म का तक़ाज़ा यह है कि हर शख़्स को उसके अख़लाक़ी, समाजी, मआशी (आर्थिक), क़ानूनी और सियासी व रहन-सहन के हुक़ूक़ पूरी ईमानदारी के साथ अदा किए जाएँ। दूसरी चीज़ एहसान है जिससे मुराद है अच्छा सुलूक, उदारतापूर्ण व्यवहार, हमदर्दी भरा रवैया, रवादारी, अच्छा अख़लाक़, माफ़ी, एक-दूसरे की रिआयत, एक-दूसरे का ख़याल, दूसरे को उसके हक़ से कुछ ज़्यादा देना और ख़ुद अपने हक़ से कुछ कम पर राज़ी हो जाना। यह अद्ल से कुछ बढ़कर एक चीज़ है जिसकी अहमियत समाजी ज़िन्दगी में अद्ल से भी ज़्यादा है। अद्ल अगर समाज की बुनियाद है तो एहसान उसका जमाल (ख़ूबसूरती) और उसका कमाल (सबसे ऊँचा दरजा) है। अद्ल अगर समाज को नागवारियाँ और तल्ख़ियों से बचाता है तो एहसान उसमें ख़ुशगवारियाँ और मिठास पैदा करता है। कोई समाज सिर्फ़ इस बुनियाद पर खड़ा नहीं रह सकता कि उसका हर फ़र्द (व्यक्ति) हर वक़्त नाप-तौलकर देखता रहे कि उसका क्या हक़ है। और उसे वुसूल करके छोड़े, और दूसरे का कितना हक़ है, उसे बस उतना ही दे दे। ऐसे एक ठंडे और खुर्रे समाज में कशमकश तो न होगी मगर मुहब्बत और शुक्रगुज़ारी और कुशादा-दिली और क़ुरबानी और ख़ुलूस ख़ैर-ख़ाही की क़द्रों (मूल्यों) से वह महरूम रहेगा जो अस्ल ज़िन्दगी में आनन्द और मिठास पैदा करनेवाली और समाजी भलाइयों को बढ़ानेवाली क़द्रे हैं। तीसरी चीज़ जिसका इस आयत में हुक्म दिया गया है सिला-रहमी (रिश्तों को जोड़ना) है जो रिश्तेदारों के मामले में एहसान की एक ख़ास सूरत तय करती है। इसका मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि आदमी अपने रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव करे और ख़ुशी-ग़मी में उनके साथ शरीक हो और जाइज़ के अन्दर उनका हिमायती और मददगार बने, बल्कि इसका मतलब यह है कि हर हैसियत रखनेवाला शख़्स अपने माल पर सिर्फ़ अपने और अपने बाल-बच्चों ही के हक़ न समझे, बल्कि अपने रिश्तेदारों के हक़ों को भी माने। अल्लाह की शरीअत हर ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों को इस बात का ज़िम्मेदार क़रार देती है कि वे अपने ख़ानदान के लोगों को भूखा-नंगा न छोड़ें। उसकी निगाह में एक समाज की इससे बदतर कोई हालत नहीं है। कि उसके अन्दर एक शख़्स ऐश कर रहा हो और उसी के ख़ानदान में उसके अपने भाई-बन्धु रोटी-कपड़े तक को मुहताज हों। वह ख़ानदान को समाज का एक अहम हिस्सा क़रार देती है। और यह उसूल पेश करती है कि हर ख़ानदान के गरीब लोगों का पहला हक़ अपने ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों पर है, फिर दूसरों पर उनके हक़ आते हैं। और हर ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों पर पहला हक़ उनके अपने ग़रीब रिश्तेदारों का है, फिर दूसरों के हक़ उनपर आते हैं। यही बात है जिसको नबी (सल्ल०) ने अपनी बहुत-सी बातों में साफ़-साफ़ बयान किया है। चुनाँचे कई हदीसों में यह बात साफ़-साफ़ बयान की गई कि आदमी के सबसे पहले हक़दार उसके माँ-बाप, उसके बीवी-बच्चे और उसके भाई-बहन हैं, फिर वे जो उनके बाद ज़्यादा क़रीब हों, और फिर जो उनके बाद ज़्यादा क़रीब हों। और यही उसूल है जिसकी बुनियाद पर हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक यतीम बच्चे के चचेरे भाइयों को मजबूर किया कि वे उसकी परवरिश के ज़िम्मेदार हों और एक-दूसरे यतीम के हक़ में फ़ैसला करते हुए आपने फ़रमाया कि अगर इसका कोई बहुत दूर का रिश्तेदार भी मौजूद होता तो मैं उसपर इसकी परवरिश लाज़िम कर देता। अन्दाज़ा किया जा सकता है कि जिस समाज की हर इकाई (Unit) इस तरह अपने-अपने लोगों को संभाल ले उसमें मआशी हैसियत से कितनी ख़ुशहाली, सामाजिक हैसियत से कितनी मिठास और अख़लाक़ी हैसियत से कितनी पाकीज़गी व बुलन्दी पैदा हो जाएगी।
89. ऊपर की तीन भलाइयों के मुक़ाबले में अल्लाह तआला तीन बुराइयों से रोकता है जो इनफ़िरादी हैसियत से अफ़राद को, और इज्तिमाई हैसियत से पूरे समाज को ख़राब करनेवाली हैं— पहली चीज़ ‘फ़ुहशा’ है जिसके तहत तमाम बेहूदा और शर्मनाक काम आ जाते हैं। हर वह बुराई जो अपने आप में नियायत बुरी हो, ‘फ़ुहश’ है। मसलन कंजूसी, ज़िना (व्यभिचार), नंगापन और अश्लीलता, क़ौमे-लूत का अमल (समलैंगिकता), हराम ठहराई गई औरतों से निकाह करना, चोरी, शराब पीना, भीख माँगना, गालियाँ बकना और बदकलामी करना वग़ैरा। इसी तरह खुल्लम-खुल्ला बुरे काम करना और बुराइयों पर उभारनेवाली कहानियाँ और ड्रामे और फ़िल्म, नंगी तस्वीरें, औरतों का बन-संवर कर सबके सामने आना, खुल्लम-खुल्ला मर्दों और औरतों का मिलना-जुलना, और स्टेज पर औरतों का नाचना-थिरकना और अदाओं की नुमाइश करना वग़ैरा। दूसरी चीज़ ‘मुनकर’ है जिससे मुराद हर वह बुराई है जिसे इनसान आम तौर पर बुरा जानते हैं, हमेशा से बुरा कहते रहे हैं, और अल्लाह की आम शरीअतों ने जिससे मना किया है। तीसरी चीज़ ‘बग़्य’ है जिसके मानी हैं अपनी हद से आगे बढ़ जाना और दूसरे के हक़ों को छीन लेना, चाहे वे हुक़ूक़ ख़ालिक़ (अल्लाह) के हों या मख़लूक़ (बन्दों) के।
وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ إِذَا عَٰهَدتُّمۡ وَلَا تَنقُضُواْ ٱلۡأَيۡمَٰنَ بَعۡدَ تَوۡكِيدِهَا وَقَدۡ جَعَلۡتُمُ ٱللَّهَ عَلَيۡكُمۡ كَفِيلًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 88
(91) अल्लाह के अह्द (वादा) को पूरा करो जबकि तुमने उससे कोई अह्द बाँधा हो, और अपनी क़समें पक्की करने के बाद तोड़ न डालो, जबकि तुम अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बना चुके हो। अल्लाह तुम्हारे सब कामों की ख़बर रखता है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّتِي نَقَضَتۡ غَزۡلَهَا مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٍ أَنكَٰثٗا تَتَّخِذُونَ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ أَن تَكُونَ أُمَّةٌ هِيَ أَرۡبَىٰ مِنۡ أُمَّةٍۚ إِنَّمَا يَبۡلُوكُمُ ٱللَّهُ بِهِۦۚ وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 89
(92) तुम्हारी हालत उस औरत की-सी न हो जाए जिसने आप ही मेहनत से सूत काता और फिर आप ही उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला।90 तुम अपनी क़समों आपस के मामलो में चालबाज़ी और धोखाधड़ी का हथियार बनाते हो ताकि एक क़ौम दूसरी क़ौम से बढ़कर फ़ायदे हासिल करे, हालाँकि अल्लाह उस अह्द व समझौते के ज़रिए से तुमको आज़माइश में डालता है91, और ज़रूर वह क़ियामत के दिन तुम्हारे तमाम इख़्तिलाफ़ों की हक़ीक़त तुमपर खोल देगा।92
90. यहाँ तरतीब से तीन तरह के मुआहदों (वचनों) को उनकी अहमियत के लिहाज से अलग-अलग बयान करके उनकी पाबन्दी का हुक्म दिया गया है। एक वह अह्द जो इनसान ने ख़ुदा के साथ बाँधा हो, और यह अपनी अहमियत में सबसे बढ़कर है। दूसरा वह अह्द जो एक इनसान या गरोह ने दूसरे इनसान या गरोह से बाँधा हो और उसपर अल्लाह की क़सम खाई हो, या किसी न किसी तौर पर अल्लाह का नाम लेकर अपनी बात की मज़बूती का यक़ीन दिलाया हो। यह दूसरे दरजे की अहमियत रखता है। तीसरा वह अह्द व पैमान जो अल्लाह का नाम लिए बिना किया गया हो। इसकी अहमियत ऊपर की दोनों क़िस्मों के बाद है। लेकिन पाबन्दी इन सबकी ज़रूरी है और ख़िलाफ़वर्ज़ी इनमें से किसी की भी जाइज़ नहीं है।
91. यहाँ ख़ास तौर से अह्द तोड़ने की उस सबसे बुरी क़िस्म पर मलामत (निंदा) की गई है जो दुनिया में सबसे बढ़कर बिगाड़ की वजह होती है और जिसे बड़े-बड़े ऊँचे दरजे के लोग भी सवाब का काम समझकर करते और अपनी क़ौम से तारीफ़ पाते हैं। क़ौमों और गरोहों की राजनीतिक, मआशी (आर्थिक) और मज़हबी कशमकश में यह आए दिन होता रहता है कि एक क़ौम का लीडर एक वक़्त में दूसरी क़ौम से एक समझौता करता है और दूसरे वक़्त में सिर्फ़ अपने क़ौमी फ़ायदे की ख़ातिर या तो उसे खुलेआम तोड़ देता है या अन्दर ही अन्दर उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करके नाजाइज़ फ़ायदा उठाता है। ये हरकतें ऐसे-ऐसे लोग तक कर गुज़रते हैं जो अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में बड़े सच्चे होते हैं। और इन हरकतों पर सिर्फ़ यही नहीं कि उनकी पूर क़ौम में से मलामत की कोई आवाज़ नहीं उठती, बल्कि हर तरफ़ से उनकी पीठ ठोंकी जाती है और इस तरह की चालबाज़ियों को डिप्लोमेसी का कमाल समझा जाता हैं। अल्लाह तआला इसपर ख़बरदार करता है कि हर अह्द अस्ल में अह्द करनेवाले शख़्स और क़ौम के अख़लाक़ व ईमानदारी की आज़माइश है और जो लोग इस आज़माइश में नाकाम होंगे वे अल्लाह की अदालत में पकड़ से न बच सकेंगे।
92. यानी यह फ़ैसला तो क़ियामत ही के दिन होगा कि जिन इख़्तिलाफ़ों की वजह से तुम्हारे बीच कशमकश हो रही है उनमें सच्चाई पर कौन है और झूठ पर कौन। लेकिन बहरहाल, चाहे कोई सरासर हक़ पर ही क्यों न हो, और उसका दुश्मन बिलकुल गुमराह और बातिल-परस्त (असत्यवादी) ही क्यों न हो, उसके लिए यह किसी तरह जाइज़ नहीं हो सकता कि वह अपने गुमराह दुश्मन के मुक़ाबले में अह्द तोड़ने और झूठ बोलने और धोखा देने के हथियार इस्तेमाल करे। अगर वह ऐसा करेगा तो क़ियामत के दिन अल्लाह के इम्तिहान में नाकाम होगा, क्योंकि हक़-परस्ती सिर्फ़ नज़रिए और मक़सद ही में सच्चाई की माँग नहीं करती, काम के तरीक़े और ज़रिए में भी सच्चाई ही चाहती है। यह बात ख़ास तौर से उन मज़हबी गरोहों को ख़बरदार करने के लिए कही जा रही है जो हमेशा इस ग़लत-फ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि हम चूँकि ख़ुदा के तरफ़दार हैं और हमारे सामनेवाला ख़ुदा का बाग़ी (विद्रोही) है इसलिए हमें हक़ पहुँचता है कि उसे जिस तरीक़े से भी हो सके नुक़सान पहुँचाएँ। हमपर ऐसी कोई पाबन्दी नहीं है कि ख़ुदा के बाग़ियों के साथ मामला करने में भी सच्चाई, ईमानदारी और वादा पूरा करने का ख़याल रखें। ठीक यही बात थी जो अरब के यहूदी कहा करते थे कि “लै-स अलैना फ़िल उम्मिय्यीन” यानी अरब के मुशरिकों के मामले में हमपर कोई पाबन्दी नहीं है। उनसे हर तरह की ख़ियानत की जा सकती है, जिस चाल और तदबीर से भी ख़ुदा के प्यारों का भला हो और दुश्मनों को नुक़सान पहुँचे वह बिलकुल जाइज़ है, उसपर कोई पूछ-गछ न होगी।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَلَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 90
(93) अगर अल्लाह की मरज़ी यह होती (कि तुममें कोई इख़्तिलाफ़ न हो) तो वह तुम सबको एक ही उम्मत बना देता93, मगर वह जिसे चाहता है गुमराही में डालता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है।94 और ज़रूर तुमसे तुम्हारे आमाल की पूछ-गछ होकर रहेगी।
93. यहाँ पिछले मज़मून (विषय) को और ज़्यादा तफ़सील से बयान किया गया है। इसका मतलब यह है कि अगर कोई अपने आपको अल्लाह का तरफ़दार समझकर भले और बुरे हर तरीक़े से अपने मज़हब को (जिसे वह ख़ुदाई मज़हब समझ रहा है) बढ़ावा देने और दूसरे मज़हबों को मिटा देने की कोशिश करता है, तो उसकी यह हरकत सरासर अल्लाह तआला के मंशा के ख़िलाफ़ है; क्योंकि अगर अल्लाह की मरज़ी वाक़ई यह होती कि इनसान से मज़हबी इख़्तिलाफ़ का इख़्तियार छीन लिया जाए और चाहे-अनचाहे सारे इनसानों को एक ही मज़हब की पैरवी करनेवाला बनाकर छोड़ा जाए तो उसके लिए अल्लाह को अपने नाम के 'तरफ़दारों' की और उनके ओछे हथकंडों से मदद लेने की कोई जरूरत न थी। यह काम तो वह ख़ुद अपनी ताक़त से कर सकता था। वह सबको ईमानवाला और फ़रमाँबरदार पैदा कर देता और कुफ़्र (इनकार) व गुनाह (नाफ़रमानी) की ताक़त छीन लेता। फिर किसकी मजाल थी कि ईमान और फ़रमाँबरदारी की राह से बाल बराबर भी हिल सकता?
94. यानी इनसान को इख़्तियार व चुनने की आज़ादी अल्लाह ने ख़ुद ही दी है, इसलिए इनसानों की राहें दुनिया में अलग-अलग हैं। कोई गुमराही की तरफ़ जाना चाहता है और अल्लाह उसके लिए गुमराही के असबाब जुटा देता है, और कोई सीधी राह का तलबगार होता है और अल्लाह उसकी हिदायत का इन्तिज़ाम कर देता है।
وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ فَتَزِلَّ قَدَمُۢ بَعۡدَ ثُبُوتِهَا وَتَذُوقُواْ ٱلسُّوٓءَ بِمَا صَدَدتُّمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَكُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 91
(94) (और ऐ मुसलमानो!) तुम अपनी क़समों को आपस में एक-दूसरे को धोखा देने का ज़रिआ न बना लेना। कहीं ऐसा न हो कि कोई क़दम जमने के बाद उखड़ जाए।95 और तुम इस जुर्म की सज़ा में कि तुमने लोगों को अल्लाह की राह से रोका, बुरा नतीजा देखो और कड़ी सज़ा भुगतो।
95. यानी कोई शख़्स इस्लाम के सच होने को मान लेने के बाद तुम्हारी बदअख़लाक़ी देखकर इस दीन से नफ़रत करने लगे और इस वजह से वह ईमानवालों के गरोह में शामिल होने से रुक जाए कि इस गरोह के जिन लोगों से उसको वास्ता पड़ा हो उनका अख़लाक़ और मामलों में उसने इस्लाम के इनकारियों से कुछ भी अलग न पाया हो।
وَلَا تَشۡتَرُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ إِنَّمَا عِندَ ٱللَّهِ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 92
(95) अल्लाह के अहद96 को थोड़े-से फ़ायदे के बदले न बेच डालो97, जो कुछ अल्लाह के पास है वह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा है, अगर तुम जानो।
96. यानी उस अह्द को जो तुमने अल्लाह के नाम पर किया हो, या अल्लाह के दीन का नुमाइन्दा होने की हैसियत से किया हो।
97. यह मतलब नहीं है कि उसे बड़े फ़ायदे के बदले बेच सकते हो, बल्कि मतलब यह है कि दुनिया का जो फ़ायदा भी है वह अल्लाह के अह्द की क़ीमत में थोड़ा है। इसलिए इस बहुत ही क़ीमती चीज़ को उस छोटी चीज़ के बदले बेचना बहरहाल घाटे का सौदा है।
مَا عِندَكُمۡ يَنفَدُ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ بَاقٖۗ وَلَنَجۡزِيَنَّ ٱلَّذِينَ صَبَرُوٓاْ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 93
(96) कुछ तुम्हारे पास है वह ख़र्च हो जानेवाला है और जो कुछ अल्लाह के पास है वही बाक़ी रहनेवाला है, और हम ज़रूर सब्र से काम लेनेवालों को98 उनके अज्र (इनाम) उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ देंगे।
98. “सब्र से काम लेनेवालों को” यानी उन लोगों को जो हर लालच और ख़ाहिश और मन के जज़्बों के मुक़ाबले में हक़ और सच्चाई पर क़ायम रहें, हर उस नुक़सान को बरदाश्त कर लें जो इस दुनिया में सच्चाई का रवैया अपनाने से पहुँचता हो, हर उस फ़ायदे को ठुकरा दें जो दुनिया में नाजाइज़ तरीक़े अपनाने से हासिल हो सकता हो, और अच्छे अमल के फ़ायदेमन्द नतीजों के लिए उस वक़्त तक इन्तिज़ार करने के लिए तैयार हों जो मौजूदा दुनियावी ज़िन्दगी ख़त्म हो जाने के बाद दूसरी दुनिया में आनेवाला है।
مَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَنُحۡيِيَنَّهُۥ حَيَوٰةٗ طَيِّبَةٗۖ وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 94
(97) जो शख़्स भी अच्छा काम करेगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि हो वह ईमानवाला, उसे हम दुनिया में पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर कराएँगे99 और (आख़िरत में) ऐसे लोगों को उनके बदले उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ देंगे।100
99. इस आयत में इस्लाम के माननेवालों और इस्लाम के न माननेवालों दोनों ही गरोहों के उन तमाम कमनज़र और बेसब्र लोगों की ग़लत-फ़हमी दूर की गई है, जो यह समझते हैं कि सच्चाई और ईमानदारी और परहेज़गारी का रवैया अपनाने से आदमी की आख़िरत चाहे बन जाती हो मगर उसकी दुनिया ज़रूर बिगड़ जाती है। अल्लाह तआला उनके जवाब में कहता है कि तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है। इस सही रवैये से सिर्फ़ आख़िरत ही नहीं बनती, दुनिया भी बनती है। जो लोग हक़ीक़त में ईमानदार और पाकबाज़ और मामले के खरे होते हैं उनकी दुनियावी ज़िन्दगी भी बेईमान और बद-अमल लोगों के मुक़ाबले में साफ़ तौर से बेहतर रहती है। जो साख और सच्ची इज़्ज़त अपनी बेदाग़ सीरत की वजह से उन्हें मिलती है वह दूसरों को नहीं मिलती। जो सुथरी और पाकीज़ा कामयाबियाँ उन्हें हासिल होती हैं वे उन लोगों को नहीं मिलतीं जिनकी हर कामयाबी गन्दे और घिनौने तरीक़ों का नतीजा होती है। वे मामूली रहन-सहन के बावजूद भी दिल के जिस इत्मीनान और ज़मीर (अन्तरात्मा) की जिस ठण्डक से भरे होते हैं उसका कोई मामूली-सा हिस्सा भी महलों में रहनेवाले बुराइयों और गुनाहों में पड़े हुए लोग नहीं पा सकते।
100. यानी आख़िरत में उनका मर्तबा उनके बेहतर से बेहतर आमाल के लिहाज़ से मुक़र्रर होगा। दूसरे अल्फ़ाज़ में जिस शख़्स ने दुनिया में छोटी और बड़ी, हर तरह की नेकियाँ की होंगी उसे वह ऊँचा मर्तबा दिया जाएगा जिसका वह अपनी बड़ी से बड़ी नेकी के लिहाज़ से हक़दार होगा।
فَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 95
(98) फिर जब तुम क़ुरआन पढ़ने लगो तो फिटकारे हुए शैतान से अल्लाह की पनाह माँग लिया करो।101
101. इसका मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि बस ज़बान से “अऊज़ु बिल्लाहि मिनश- शैतानिर्रजीम” (मैं पनाह लेता हूँ अल्लाह की घुतकारे हुए शैतान से) कह दिया जाए, बल्कि इसके साथ सचमुच दिल में यह ख़ाहिश और अमली तौर पर यह कोशिश भी होनी चाहिए कि आदमी क़ुरआन पढ़ते वक़्त शैतान के गुमराह करनेवाले वसवसों (बुरे ख़यालों) से बचा रहे, ग़लत और बेवजह के शक-शुब्हों में न पड़े, क़ुरआन की हर बात को उसकी सही रौशनी में देखे, और अपने ख़ुद के गढ़े हुए नज़रिये या बाहर से हासिल किए हुए ख़यालात की मिलावट से क़ुरआन के अलफ़ाज़ को वे मतलब न पहनाने लगे जो अल्लाह तआला के मंशा के ख़िलाफ़ हों। इसके साथ आदमी के दिल में यह एहसास भी मौजूद होना चाहिए कि शैतान सबसे बढ़कर जिस चीज़ के पीछे पड़ा है वह यही है कि इनसान क़ुरआन से हिदायत न हासिल करने पाए। यही वजह है कि आदमी जब इस किताब की तरफ़ रूजू करता है तो शैतान उसे बहकाने और हिदायत पाने से रोकने और सोचने-समझने की ग़लत राहों पर डालने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देता है। इसलिए आदमी को इस किताब को पढ़ते वक़्त बहुत ही चौकन्ना रहना चाहिए और हर वक़्त ख़ुदा से मदद माँगते रहना चाहिए कि कहीं शैतान की उकसाहरटें उसे हिदायत के इस सरचश्मे से फ़ायदा उठाने से महरूम न कर दें; क्योंकि जिसने यहाँ से हिदायत न पाई वह फिर कहीं हिदायत न पा सकेगा और जो इस किताब से गुमराही हासिल कर बैठा उसे फिर दुनिया की कोई चीज़ गुमराहियों के चक्कर से न निकाल सकेगी। बात के इस सिलसिले में यह आयत जिस ग़रज़ के लिए आई है वह यह है कि आगे चलकर उन एतिराज़ों का जवाब दिया जा रहा है जो मक्का के मुशरिक क़ुरआन मजीद पर किया करते थे। इसलिए पहले भूमिका के तौर पर यह कहा गया कि क़ुरआन को उसकी असली रौशनी में सिर्फ़ वही शख़्स देख सकता है जो शैतान के गुमराह करनेवाले वसवसे डालने से चौकन्ना हो और उनसे बचे रहने के लिए अल्लाह से पनाह माँगे। वरना शैतान कभी आदमी को इस क़ाबिल नहीं रहने देता कि वह सीधी तरह क़ुरआन को और उसकी बातों को समझ सके।
إِنَّهُۥ لَيۡسَ لَهُۥ سُلۡطَٰنٌ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 96
(99) उसे उन लोगों पर ग़लबा नहीं हासिल होता जो ईमान लाते और अपने रब पर भरोसा करते हैं।
إِنَّمَا سُلۡطَٰنُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَوَلَّوۡنَهُۥ وَٱلَّذِينَ هُم بِهِۦ مُشۡرِكُونَ ۝ 97
(100) उसका ज़ोर तो उन्हीं लोगों पर चलता है जो उसको अपना सरपरस्त बनाते और उसके बहकाने से शिर्क करते हैं।
وَإِذَا بَدَّلۡنَآ ءَايَةٗ مَّكَانَ ءَايَةٖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يُنَزِّلُ قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مُفۡتَرِۭۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 98
(101) जब हम एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारते हैं — और अल्लाह बेहतर जानता है कि वह क्या उतारे — तो ये लोग कहते हैं कि तुम यह क़ुरआन ख़ुद गढ़ते हो102 अस्ल बात यह है कि इनमें से अक्सर लोग हक़ीक़त को नहीं जानते हैं।
102. एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारने से मुराद एक हुक्म के बाद दूसरा हुक्म भेजना भी हो सकता है; क्योंकि क़ुरआन मजीद के हुक्म थोड़े-थोड़े करके उतारे गए हैं और कई बार एक ही मामले में कुछ साल के वक़्फ़ों से एक के बाद दूसरा दो-दो, तीन-तीन हुक्म भेजे गए हैं। मिसाल के तौर पर शराब का मामला, या ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा का मामला। लेकिन हमको यह मानी लेने में इस वजह से झिझक है कि सूरा नह्ल की यह आयत मक्की दौर में उतरी है, और जहाँ तक हमें मालूम है इस दौर में हुक्मों को सिलसिलेवार थोड़ा-थोड़ा उतारने की कोई मिसाल पेश नहीं आई थी। इसलिए हम यहाँ “एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारने का मतलब यह समझते हैं कि क़ुरआन मजीद की अलग-अलग जगहों पर कभी एक मज़मून को एक मिसाल से समझाया गया है और कभी वही मज़मून समझाने के लिए दूसरी मिसाल से काम लिया गया है। एक ही क़िस्सा बार-बार आया है और हर बार उसे अलफ़ाज़ में बयान किया गया है। एक मामले का कभी एक पहलू पेश किया गया है और कभी उसी मामले का दूसरा पहलू सामने लाया गया है। एक बात के लिए कभी एक दलील पेश की गई है और कभी दूसरी दलील; एक बात एक वक़्त में मुख़्तसर तौर पर कही गई है और दूसरे वक़्त में तफ़सील के साथ। यही चीज़ थी जिसे मक्का के इस्लाम-दुश्मन इस बात की दलील ठहराते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह की पनाह, यह क़ुरआन ख़ुद गढ़ते हैं। उनकी दलील यह थी कि अगर यह कलाम अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल होता तो पूरी बात एक ही बार में कह दी जाती, अल्लाह कोई इनसान की तरह कम इल्म रखनेवाला थोड़ा ही है कि सोच-सोचकर बात करे, धीरे-धीरे मालूमात हासिल करता रहे, और एक बात ठीक बैठती नज़र न आए तो दूसरे तरीक़े से बात करे। यह तो इनसानी इल्म की कमज़ोरियाँ हैं जो तुम्हारे इस कलाम में नज़र आ रही हैं।
قُلۡ نَزَّلَهُۥ رُوحُ ٱلۡقُدُسِ مِن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّ لِيُثَبِّتَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 99
(102) इनसे कहो कि इसे तो 'रूहुल-कुद्स' (पवित्र आत्मा) ने ठीक-ठीक मेरे रब की तरफ़ से थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है103 ताकि ईमान लानेवालों के ईमान को मज़बूत करे104 और फ़रमाँबरदारों को ज़िन्दगी के मामलों में सीधी राह बताए105 और उन्हें कामयाबी और ख़ुशनसीबी की ख़ुशख़बरी दे।106
103. 'रुहुल-क़ुद्स' का लफ़्ज़ी तर्जमा है 'पाक रूह' (पवित्र आत्मा) या 'पाकीज़गी की रूह' और इस्तिलाहन (पारिभाषिक रूप से) यह लक़ब हज़रत जिबरील (अलैहि०) को दिया गया है। यहाँ वह्य लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बजाय उसका लक़ब इस्तेमाल करने का मक़सद सुननेवालों को इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि इस कलाम को एक ऐसी रूह लेकर आ रही है जो इनसानी कमज़ोरियों और ख़राबियों से पाक है। वह न ख़ियानत करनेवाली है कि अल्लाह कुछ भेजे और वह अपनी तरफ़ से कमी-बेशी करके कुछ और बना दे। न झूठ बोलने और गढ़नेवाली है कि ख़ुद कोई बात गढ़कर अल्लाह के नाम से बयान कर दे, न बुरी नीयतवाली है कि अपने मतलब के लिए धोखे और छल से काम ले। वह सरासर एक मुक़द्दस और पाक रूह है जो अल्लाह का कलाम पूरी अमानत के साथ लाकर पहुँचाती है।
104. यानी उसके थोड़ा-थोड़ा करके इस कलाम को लेकर आने और एक ही बार में सब कुछ न ले आने की वजह यह नहीं है कि अल्लाह के इल्म व समझ में कोई कमी है, जैसा कि तुमने अपनी नादानी से समझा, बल्कि इसकी वजह यह है कि इनसान की समझने और हासिल करने की ताक़त में कमी है जिसकी वजह से वह एक ही वक़्त में सारी बात को न समझ सकता है। और न एक वक़्त की समझी हुई बात में पक्का हो सकता है। इसलिए अल्लाह तलाआ की हिकमत का यह तक़ाज़ा हुआ कि रूहुल-क़ुद्स (पवित्र आत्मा) इस कलाम को थोड़ा-थोड़ा करके लाए, कभी मुख़्तसर बात करे और कभी उस बात की तफ़सील बताए, कभी एक तरीक़े से बात समझाए और कभी दूसरे तरीक़े से, कभी बयान का एक अन्दाज़ अपनाए और कभी दूसरा, और एक ही बात को बार-बार तरीक़े-तरीक़े से ज़ेहन में बिठाने की काशिश करे, ताकि अलग-अलग क़ाबलियत और सलाहियतें रखनेवाले हक़ के तलबगार ईमान ला सकें और ईमान लाने के बाद इल्म व यक़ीन और समझ-बूझ में पुख़्ता हो सकें।
105. यह इस थोड़ा-थोड़ा उतारे जाने की दूसरी मस्लहत है। यानी कि जो लोग ईमान लाकर फ़रमाँबरदारी की राह चल रहे हैं उनको दावते इस्लामी के काम में और ज़िन्दगी के पेश आनेवाले मामलों में जिस मौक़े पर जिस तरह की हिदायतें चाहिए हों वे उसी वक़्त दे दी जाएँ। ज़ाहिर है कि न उन्हें वक़्त से पहले भेजना मुनासिब हो सकता है और न एक ही वक़्त में सारी हिदायतें दे देना फ़ायदेमन्द है।
106. यह उसकी तीसरी मस्लहत है। यानी यह कि फ़रमाँबरदारों को जिन रुकावटों और मुख़ालफ़तों का सामना करना पड़ रहा है और जिस-जिस तरह उन्हें सताया और तंग किया जा रहा है, और दावते-इस्लामी के काम में मुश्किलों के जो पहाड़ रास्ते की रुकावट बन रहे हैं, उनकी वजह से वह बार-बार इसके मुहताज होते हैं कि ख़ुशख़बरियों से उनकी हिम्मत बँधाई जाती रहे और उनको आख़िरी नतीजों की कामयाबी का यक़ीन दिलाया जाता रहे, ताकि वे उम्मीद रखें और मायूस न होने पाएँ।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّهُمۡ يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُۥ بَشَرٞۗ لِّسَانُ ٱلَّذِي يُلۡحِدُونَ إِلَيۡهِ أَعۡجَمِيّٞ وَهَٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيّٞ مُّبِينٌ ۝ 100
(103) हमें मालूम है कि ये लोग तुम्हारे बारे में कहते हैं कि इस शख़्स को एक आदमी सिखाता-पढ़ाता है।107 हालाँकि उनका इशारा जिस आदमी की तरफ़ है उसकी ज़बान अजमी (ग़ैर-अरबी) है और यह साफ़ अरबी ज़बान है।
107. रिवायतों में अलग-अलग लोगों के बारे में बयान किया गया है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मन उनमें से किसी पर यह गुमान करते थे। एक रिवायत में उसका नाम 'जब्र' बयान किया गया है जो आमिर-बिन-हज़रमी का एक रूमी ग़ुलाम था। दूसरी रिवायत में हुवैतिब-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा के एक ग़ुलाम का नाम लिया गया है जिसे 'आइश' या 'यईश' कहते थे। एक और रिवायत में 'यसार' का नाम लिया गया है जिसकी कुनियत अबू-फ़ुक़ैहा थी और जो मक्का की एक औरत का यहूदी ग़ुलाम था। एक और रिवायत 'बलआन' या 'बलआम' नाम के एक रूमी ग़ुलाम के बारे में है। बहरहाल इनमें से जो भी हो, मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने सिर्फ़ यह देखकर कि एक शख़्स तौरात व इंजील पढ़ता है और मुहम्मद (सल्ल०) की उससे मुलाक़ात है, बेझिझक यह इलज़ाम गढ़ दिया कि इस क़ुरआन को अस्ल में वह तैयार कर रहा है और मुहम्मद (सल्ल०) इसे अपनी तरफ़ से ख़ुदा का नाम ले-लेकर पेश कर रहे हैं। इससे न सिर्फ़ यह अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) के मुख़ालिफ़ आपके ख़िलाफ़ झूठी बातें गढ़ने में कितने ज़्यादा निडर थे, बल्कि यह सबक़ भी मिलता है कि लोग अपने ज़माने के लोगों की कद्र व क़ीमत पहचानने में कितने बेइनसाफ़ होते हैं। उन लोगों के सामने इनसानी-इतिहास की एक अज़ीम शख़्सियत थी जिसकी मिसाल न उस वक़्त दुनिया भर में कहीं मौजूद थी और न आज तक पाई गई है। मगर इन अक़्ल के अंधों को उसके मुक़ाबले में एक अजमी (ग़ैर-अरब) ग़ुलाम, जो कुछ तौरात व इंजील पढ़ लेता था, ज़्यादा क़ाबिल नज़र आ रहा था और वे समझ रहे थे कि यह अनमोल मोती उस कोयले से चमक हासिल कर रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَا يَهۡدِيهِمُ ٱللَّهُ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 101
(104) हक़ीक़त यह है कि जो लोग अल्लाह की आयतों को नहीं मानते, अल्लाह उन्हें कभी सही बात तक पहुँचने की तौफ़ीक़ नहीं देता और ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
إِنَّمَا يَفۡتَرِي ٱلۡكَذِبَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 102
(105) (झूठी बातें नबी नहीं गढ़ता, बल्कि) झूठ वे लोग गढ़ रहे हैं जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते108 वही हक़ीक़त में झूठे हैं।
108. दूसरा तर्जमा इस आयत का यह भी हो सकता है कि “झूठ तो ये लोग गढ़ा करते हैं जो अल्लाह की आयतों पर ईमान नहीं लाते।”
مَن كَفَرَ بِٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِهِۦٓ إِلَّا مَنۡ أُكۡرِهَ وَقَلۡبُهُۥ مُطۡمَئِنُّۢ بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرٗا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 103
(106) जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे (वह अगर) मजबूर किया गया हो और दिल उसका ईमान पर मुत्मइन हो (तब तो ठीक), मगर जिसने दिल की रज़ामन्दी से कुफ़्र (अधर्म) को क़ुबूल कर लिया उसपर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) है। और ऐसे सब लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।109
109. इस आयत में उन मुसलमानों के मामले से बहस की गई है जिनपर उस वक़्त सख़्त ज़ुल्म किए जा रहे थे और नाक़ाबिले-बर्दाश्त तकलीफ़ें दे-देकर इस्लाम से इनकार करने पर मजबूर किया जा रहा था। उनको बताया गया है कि अगर तुम किसी वक़्त ज़ुल्म से मजबूर होकर सिर्फ़ जान बचाने के लिए कुफ़्र की कोई बात ज़बान से अदा कर दो, और तुम्हारे दिल में कुफ़्र (इनकार) का अक़ीदा न हो, तो माफ़ कर दिया जाएगा। लेकिन अगर दिल से तुमने कुफ़्र क़ुबूल कर लिया तो दुनिया में चाहे जान बचा लो, ख़ुदा के अज़ाब से न बच सकोगे। इसका यह मतलब नहीं है कि जान बचाने के लिए कुफ़्र का कलिमा कह देना चाहिए, बल्कि यह सिर्फ़ छूट अगर ईमान दिल में रखते हुए आदमी मजबूरी में ऐसा कह दे तो पकड़ न होगी। मज़बूती और पुख़्तगी की बात तो यही है कि चाहे आदमी का जिस्म तिक्का-बोटी कर डाला जाए बहरहाल वह हक़ की बात ही का एलान करता रहे। दोनों की मिसालें नबी (सल्ल०) के मुबारक ज़माने में पाई जाती हैं। एक तरफ़ ख़ब्बाब-बिन अरत (रज़ि०) हैं जिनको आग के अंगारों पर लिटाया गया यहाँ तक कि उनके जिस्म की चर्बी पिघलने से आग बुझ गई, मगर वे सख़्ती के साथ अपने ईमान पर जमे रहे। बिलाल हशी (रज़ि०) हैं जिनको लोहे की जिरह पहनाकर चिलचिलाती धूप में खड़ा कर दिया गया फिर तपती हुई रेत पर लिटाकर घसीटा गया मगर वे “अहद, अहद” (ख़ुदा एक है, ख़ुदा एक है) ही कहते रहे। हबीब-बिन-ज़ैद-बिन-आसिम (रज़ि०) हैं जिनके बदन का एक-एक हिस्सा महाझूठे मुसैलिमा कज़्ज़ाब के हुक्म से काटा जाता था और फिर माँग की जाती थी कि वे मुसैलिमा को नबी मान लें, मगर हर बार वे उसके पैग़म्बर होने के दावे को मानने से इनकार करते थे यहाँ तक कि इसी हालत में कट-कटकर उन्होंने जान दे दी। दूसरी तरफ़ अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) हैं जिनकी आँखों के सामने उनके बाप और उनकी माँ को सख़्त अज़ाब दे-देकर शहीद कर दिया गया, फिर उनको इतनी नाक़ाबिले-बर्दाश्त तकलीफ़ दी गई कि आख़िरकार उन्होंने जान बचाने के लिए वह सब कुछ कह दिया जो इस्लाम के दुश्मन उनसे कहलवाना चाहते थे। फिर वे रोते हुए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे न छोड़ा गया जब तक कि मैंने आपको बुरा और उनके माबूदों को अच्छा न कह दिया।” नबी (सल्ल०) ने पूछा, “अपने दिल का क्या हाल पाते हो?” उन्होंने कहा, “ईमान पर पूरी तरह मुत्मइन।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर वे फिर इस तरह का ज़ुल्म करें तो तुम फिर यही बातें कह देना।"
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا عَلَى ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 104
(107) यह इसलिए कि उन्होंने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया, और अल्लाह का क़ायदा है कि वह उन लोगों को नजात (मुक्ति) का रास्ता नहीं दिखाता जो उसकी नेमत को झुठलाएँ।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 105
(108) ये वे लोग हैं जिनके दिलों और कानों और आँखों पर अल्लाह ने मुहर लगा दी है, ये ग़फ़लत में डूब चुके हैं।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 106
(109) ज़रूर है कि आख़िरत में यही घाटे में रहें110,
110. ये जुमले उन लोगों के बारे में कहे गए हैं जिन्होंने हक़ की राह को कठिन पाकर ईमान से तौबा कर ली थी और फिर अपनी उसी क़ौम में जा मिले थे, जो इस्लाम की इनकारी और ख़ुदा के साथ दूसरों को शरीक करनेवाली था।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ هَاجَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا فُتِنُواْ ثُمَّ جَٰهَدُواْ وَصَبَرُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 107
(110) इसके बरख़िलाफ़ जिन लोगों का हाल यह है कि जब (ईमान लाने की वजह से) वे सताए गए तो उन्होंने घर-बार छोड़ दिए, हिजरत की, अल्लाह के रास्ते में सख़्तियाँ झेलीं और सब्र से काम लिया111, उनके लिए यक़ीनन तेरा रब माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
111. इशारा है मुसलमानों की तरफ़ जो हिजरत करके हबशा चले गए थे।
۞يَوۡمَ تَأۡتِي كُلُّ نَفۡسٖ تُجَٰدِلُ عَن نَّفۡسِهَا وَتُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 108
(111) (इन सबका फ़ैसला उस दिन होगा) जबकि हर कोई अपने ही बचाव की फ़िक्र में लगा हुआ होगा और हर एक को उसके किए का बदला पूरा-पूरा दिया जाएगा और किसी पर ज़रा बराबर ज़ुल्म न होने पाएगा।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا قَرۡيَةٗ كَانَتۡ ءَامِنَةٗ مُّطۡمَئِنَّةٗ يَأۡتِيهَا رِزۡقُهَا رَغَدٗا مِّن كُلِّ مَكَانٖ فَكَفَرَتۡ بِأَنۡعُمِ ٱللَّهِ فَأَذَٰقَهَا ٱللَّهُ لِبَاسَ ٱلۡجُوعِ وَٱلۡخَوۡفِ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 109
(112) अल्लाह एक बस्ती की मिसाल देता है। वह अम्न व सुकून की ज़िन्दगी बिता रही थी और हर तरफ़ से उसको भरपूर रोज़ी पहुँच रही थी कि उसने अल्लाह की नेमतों की नाशुक्री शुरू कर दी। तब अल्लाह ने उसके रहनेवालों को उनके करतूतों का यह मज़ा चखाया कि भूख और डर की मुसीबतें उनपर छा गईं।
وَلَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡهُمۡ فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 110
(113) उनके पास अपनी क़ौम में से एक रसूल आया, मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार अज़ाब ने उनको आ लिया, जबकि वे ज़ालिम हो चुके थे।112
112. यहाँ जिनकी मिसाल पेश की गई है उसकी कोई निशानदेही नहीं की गई है। न लिखनेवाले यह तय कर सके हैं कि यह कौन-सी बस्ती है। बज़ाहिर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ही की यह बात सही मालूम होती है कि यहाँ ख़ुद मक्का को नाम लिए बिना मिसाल के तौर पर पेश किया गया है। इस सूरत में डर और भूख की जिस मुसीबत के छा जाने का यहाँ ज़िक्र किया गया है, उससे मुराद वह अकाल होगा जो नबी (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने के बाद एक मुद्दत तक मक्कावालों पर छाया रहा।
فَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَٱشۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 111
(114) तो ऐ लोगो! अल्लाह ने जो कुछ हलाल और पाक रोज़ी तुम्हें दी है उसे खाओ और अल्लाह के एहसान का शुक्र अदा करो113 अगर तुम सच में उसी की बन्दगी करनेवाले हो114
113. इससे मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने के वक़्त वह अकाल खत्म हो चुका था जिसकी तरफ़ ऊपर इशारा गुज़र चुका है।
114. यानी अगर वाक़ई तुम अल्लाह की बन्दगी को माननेवाले हो, जैसा कि तुम्हारा दावा है, तो हराम-हलाल ख़ुद ठहरानेवाले न बनो। जिस रिज़्क़ को अल्लाह ने हलाल व पाक-साफ़ क़रार दिया है उसे खाओ और शुक्र अदा करो और जो कुछ अल्लाह के क़ानून में हराम व ख़राब है उससे परहेज़ करो।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 112
(115) अल्लाह ने जो कुछ तुमपर हराम कि है वह है मुर्दार और ख़ून और सुअर का गोश्त और वह जानवर जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। अलबत्ता भूख से मजबूर होकर अगर कोई इन चीज़ों को खा ले, बिना इसके कि वह अल्लाह के क़ानून के ख़िलाफ़ काम करना चाहता हो या ज़रूरत की हद से आगे बढ़नेवाला हो, तो यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है115।
115. यह हुक्म सूरा-2 बक़रा, आयत-3; सूरा-5 माइदा, आयत-173 और सूरा-6 अनआम, आयत-35 में भी गुज़र चुका है।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَا تَصِفُ أَلۡسِنَتُكُمُ ٱلۡكَذِبَ هَٰذَا حَلَٰلٞ وَهَٰذَا حَرَامٞ لِّتَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 113
(116) और यह जो तुम्हारी ज़बानें झूठे हुक्म लगाया करती हैं कि यह चीज़ हलाल है और वह हराम, तो इस तरह के हुक्म लगाकर अल्लाह पर झूठ न बाँधा करो।116 जो लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं वे हरगिज़ कामयाबी नहीं पाया करते।
116. यह आयत साफ़-साफ़ बताती है कि ख़ुदा के सिवा हलाल और हराम ठहराने का हक़ किसी को भी नहीं। दूसरे अलफ़ाज़ में क़ानून बनानेवाला सिर्फ़ अल्लाह है दूसरा जो शख़्स भी जाइज़ और नाजाइज़ का फ़ैसला करने की जुर्अत करेगा वह अपनी हद पार करेगा, सिवाय यह कि वह अल्लाह के क़ानून को सनद मानकर उसकी हिदायतों से नतीजा निकालते हुए यह कहे कि फ़ुलाँ चीज़ या फ़ुलाँ काम जाइज़ है और फ़ुलाँ नाजाइज़। हलाल और हराम ठहराने के इस ख़ुद-मुख़्ताराना रवैये को अल्लाह पर झूठ और तोहमत इसलिए कहा गया कि जो शख़्स इस तरह के हुक्म लगाता है उसका यह काम दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। वह इस बात का दावा करता है कि जिसे वह अल्लाह की किताब की सनद से बेपरवाह होकर जाइज़ या नाजाइज़ कह रहा है उसे ख़ुदा ने जाइज़ या नाजाइज़ ठहराया है। या उसका दावा यह है कि अल्लाह ने हलाल व हराम ठहराने के अधिकारों से हाथ उठाकर इनसान को ख़ुद अपनी ज़िन्दगी का क़ानून बनाने के लिए आज़ाद छोड़ दिया है। इनमें से जो दावा भी वह करे वह ज़रूर ही झूठ और अल्लाह पर झूठ गढ़ना है।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 114
(117) दुनिया का ऐश कुछ दिनों का है। आख़िरकार उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا مَا قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُۖ وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 115
(118) वे चीज़ें117 हमने ख़ास तौर से यहूदियों के लिए हराम की थीं जिनका ज़िक्र इससे पहले हम तुमसे कर चुके हैं।118 और यह उनपर हमारा ज़ुल्म न था, बल्कि उनका अपना ही ज़ुल्म था जो वे अपने ऊपर कर रहे थे।
117. यह पूरा पैराग्राफ़ उन एतिराज़ों के जवाब में है जो ऊपर बयान किए गए हुक्म पर किए जा रहे थे। मक्का के इस्लाम दुश्मनों का पहला एतिराज़ यह था कि बनी-इसराईल की शरीअत में तो और भी बहुत-सी चीज़ हराम हैं जिनको तुमने हलाल कर रखा है। अगर वह शरीअत ख़ुदा की तरफ़ से थी तो तुम ख़ुद उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे हो और अगर वह भी ख़ुदा की तरफ़ से थी और यह तुम्हारी शरीअत भी ख़ुदा की तरफ़ से है तो दोनों में यह इख़्तिलाफ़ कैसा है? दूसरा एतिराज़ यह था कि बनी-इसराईल की शरीअत में 'सब्त' के हराम होने का जो क़ानून था उसको भी तुमने उड़ा दिया है। यह तुम्हारा अपनी मरज़ी से किया हुआ काम है या अल्लाह ही ने अपनी दो शरीअतों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हुक्म दे रखे है?
118. इशारा है सूरा-6 अनआम की आयत-146 “और जो लोग यहूदी हो गए उनपर हमने तमाम नाख़ूनवाले (जानवर) हराम कर दिए” की तरफ़ जिसमें बताया गया है कि यहूदियों पर उनकी नाफ़रमानियों की वजह से ख़ासतौर से कौन-सी चीज़ें हराम की गई थीं। इस जगह एक मुश्किल पेश आती है। सूरा-16 नह्ल की इस आयत में सूरा-6 अनआम की एक आयत का हवाला दिया गया है जिससे मालूम होता है कि सूरा अनआम, आयत-119 इससे पहले उतर चुकी थी। लेकिन एक जगह पर सूरा अनआम में कहा गया है कि “आख़िर क्या वजह है कि तुम वह कुछ न खाओ जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो, हालाँकि हराम चीज़ों की तफ़सील वह तुम्हें बता चुका है।” इसमें सूरा नह्ल की तरफ़ साफ़ इशारा है, क्योंकि मक्की सूरतों में सूरा अनआम के सिवा बस यही एक सूरा है जिसमें हराम चीज़ों की तफ़सील बयान हुई है। अब सवाल पैदा होता है कि इनमें से कौन-सी सूरा पहले उतरी थी और कौन-सी बाद में? हमारे नज़दीक इसका सही जवाब यह है कि पहले सूरा नह्ल उतरी थी, जिसका हवाला सूरा अनआम की ऊपर बयान की गई आयत में दिया गया है। बाद में किसी मौक़े पर मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने सूरा नह्ल की इन आयतों पर वे एतिराज़ किए, जो अभी हम बयान कर चुके हैं। उस वक़्त सूरा अनआम उतर चुकी थी। इसलिए उनको जवाब दिया गया कि हम पहले, यानी सूरा अनआम में बता चुके हैं कि यहूदियों पर कुछ चीज़ें ख़ास तौर पर हराम की गई थीं और चूँकि यह एतिराज सूरा नह्ल पर किया गया था इसलिए इसका जवाब भी सूरा नह्ल ही में ऊपर से चली आ रही बात से हटकर बयान की गई बात के तौर पर दर्ज़ किया गया।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 116
(119) अलबत्ता जिन लोगों ने अनजाने में जहालत की वजह से बुरा काम किया और फिर तौबा करके अपने अमल को सुधार लिया तो यक़ीनन तौबा व सुधार के बाद तेरा रब उनके लिए माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ كَانَ أُمَّةٗ قَانِتٗا لِّلَّهِ حَنِيفٗا وَلَمۡ يَكُ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 117
(120) सच तो यह है कि इबराहीम अपनी ज़ात से एक पूरी उम्मत (समुदाय) था119, अल्लाह का फ़रमाँबरदार और यकसू (एकाग्रचित)। वह कभी मुशरिक (बहुदेववादी) न था,
119. यानी वह अकेला इनसान अपनी जगह ख़ुद एक उम्मत था। जब दुनिया में कोई मुसलमान न था तो एक तरफ़ वह अकेला इस्लाम का अलमबरदार था और दूसरी तरफ़ सारी दुनिया कुफ़्र की अलमबरदार थी। ख़ुदा के उस अकेले बन्दे ने वह काम किया जो एक उम्मत के करने का था। वह एक शख़्स न था, बल्कि एक पूरा इदारा (संस्था) था।
شَاكِرٗا لِّأَنۡعُمِهِۚ ٱجۡتَبَىٰهُ وَهَدَىٰهُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 118
(121) अल्लाह की नेमतों का शुक्र अदा करनेवाला था। अल्लाह ने उसको चुन लिया और सीधा रास्ता दिखाया,
وَءَاتَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 119
(122) दुनिया में उसको भलाई दी और आख़िरत में वह यक़ीनन भले लोगों में से होगा।
ثُمَّ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ أَنِ ٱتَّبِعۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 120
(123) फिर हमने तुम्हारी तरफ़ यह वह्य भेजी कि यकसू होकर इबराहीम के तरीक़े पर चलो, और वह मुशरिकों में से न था।120
120. यह एतिराज़ करनेवालों के पहले एतिराज़ का मुकम्मल जवाब है। इस जवाब के दो हिस्से हैं। एक यह कि ख़ुदा की शरीअत में टकराव नहीं है, जैसा कि तुमने यहूदियों के मज़हबी क़ानून और शरीअते-मुहम्मदी के ज़ाहिरी फ़र्क़ को देखकर समझ लिया है, बल्कि अस्ल में यहूदियों को ख़ास तौर पर उनकी नाफ़रमानियों की सज़ा में कुछ नेमतों से महरूम किया गया था जिनसे दूसरों को महरूम करने की कोई वजह नहीं। दूसरा हिस्सा यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) को जिस तरीक़े की पैरवी का हुक्म दिया गया है वह इबराहीम (अलैहि०) का तरीक़ा है और तुम्हें मालूम है कि इबराहीमी मिल्लत में वे चीज़े हराम न थीं जो यहूदियों के यहाँ हराम हैं। मसलन यहूदी ऊँट नहीं खाते, मगर इबराहीमी मिल्लत में वह हलाल था। यहूदियों के यहाँ शुतुर्मुर्ग, बत्तख़, ख़रगोश वग़ैरा हराम हैं, मगर इबराहीमी मिल्लत में ये सब चीज़ें हलाल थीं। इस जवाब के साथ-साथ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को इस बात पर भी ख़बरदार कर दिया गया कि न तुम को इबराहीम (अलैहि०) से कोई वास्ता है न यहूदियों को, क्योंकि तुम दोनों ही शिर्क कर रहे हो इबराहीमी मिल्लत का अगर कोई सही पैरवी करनेवाला है तो वह यह नबी और इसके साथी हैं जिनके अक़ीदों और आमाल में ज़र्रा बराबर भी शिर्क का शक तक नहीं पाया जाता।
إِنَّمَا جُعِلَ ٱلسَّبۡتُ عَلَى ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 121
(124) रहा सब्त, वह हमने उन लोगों पर मुसल्लत किया था। जिन्होंने उसके हुक्मों में इख़्तिलाफ़ किया121 और यक़ीनन तेरा रब क़ियामत के दिन उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमे वे इख़्तिलाफ़ करते रहे है।
121. यह मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के दूसरे एतिराज़ का जवाब है। इसमें यह बयान करने की ज़रूरत न थी कि 'सब्त' भी यहूदियों के लिए ख़ास था और इबराहीमी मिल्लत में 'सब्त' के हराम होने का कोई वुजूद न था, क्योंकि इस बात को मक्का के इस्लाम-दुश्मन ख़ुद भी जानते थे। इसलिए सिर्फ़ इतना ही इशारा करने पर बस किया गया कि यहूदियों के यहाँ सब्त के क़ानून में जो सख़्तियाँ तुम पाते हो ये शुरुआती हुक्म में न थीं, बल्कि ये बाद में यहूदियों की शरारतों और हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ियों की वजह से उनपर डाल दी गई थीं। क़ुरआन मजीद के इस इशारे को आदमी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, जब तक कि वह एक तरफ़ बाइबल के उन मक़ामों को न देखे जहाँ सब्त के हुक्म बयान हुए हैं (मसलन देखिए— निष्कासन, अध्याय 20:8-11, 23:12-13, 31:12-17, 35:2-3; गिनती अध्याय 15:32-36) और दूसरी तरफ़ उन जसारतों (दुस्साहसों) को न जानता हो जो यहूदी सब्त की हुरमत को तोड़ने में ज़ाहिर करते रहे (मसलन देखिए— यरमियाह, अध्याय 17:21-27, हिज्रकी-एल, अध्याय 20:12-24)
ٱدۡعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلۡحِكۡمَةِ وَٱلۡمَوۡعِظَةِ ٱلۡحَسَنَةِۖ وَجَٰدِلۡهُم بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 122
(125) ऐ नबी! अपने रब के रास्ते की तरफ़ दावत दो हिकमत (तत्त्वदर्शिता) और अच्छी नसीहत के साथ122, और लोगों से बहस करो ऐसे तरीक़े पर जो बेहतरीन हो।123 तुम्हारा रब ही ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसकी राह से भटका हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।
122. यानी दावत में दो चीज़ों का ध्यान रखना चाहिए। एक हिकमत और दूसरे अच्छी नसीहत। हिकमत का मतलब यह है कि बेवक़ूफों की तरह अंधाधुंध तब्लीग़ न की जाए, बल्कि अक़्लमन्दी के साथ सामनेवाले की ज़ेहनियत, सलाहियत और हालात को समझकर, साथ ही मौक़ा देखकर बात की जाए। हर तरह के लोगों को एक ही लकड़ी से न हाँका जाए। जिस शख़्स या गरोह से वास्ता पड़े, पहले उसके रोग का पता लगाया जाए, फिर ऐसी दलीलों से उसका इलाज किया जाए जो उसके दिलो-दिमाग़ की गहराइयों से उसके रोग की जड़ निकाल सकती हों। अच्छी नसीहत के दो मतलब हैं— एक यह कि सामनेवाले को सिर्फ़ दलीलों ही से मुत्मइन करने पर बस न किया जाए, बल्कि उसके जज़्बात को भी अपील किया जाए। बुराइयों और गुमराहियों को सिर्फ़ अक़्ली हैसियत ही से ग़लत साबित न किया जाए, बल्कि इनसान की फ़ितरत में उनके लिए जो पैदाइशी नफ़रत पाई जाती है उसे भी उभारा जाए और उनके बुरे नतीजों से डराया जाए। हिदायत और अच्छे अमल का सिर्फ़ सही होना और उसकी ख़ूबी ही अक़ली तौर पर साबित न की जाए, बल्कि उनकी तरफ़ लगाव और शौक़ भी पैदा किया जाए। दूसरा मतलब यह है कि नसीहत ऐसे तरीक़े से की जाए जिससे दिलसोज़ी और ख़ैरख़ाही टपकती हो। सामनेवाला यह न समझे कि नसीहत करनेवाला उसे कमतर समझ रहा है और अपनी बुलन्दी के एहसास से मज़ा ले रहा है, बल्कि उसे यह महसूस हो कि नसीहत करनेवाले के दिल में उसके सुधार के लिए एक तड़प मौजूद है और वह हक़ीक़त में उसकी भलाई चाहता है।
123. यानी वह सिर्फ़ मुनाज़रा-बाज़ी (शास्त्रार्थ), अक़्ली और ज़ेहनी दंगल की तरह न हो। इसमें बेतुकी बहसें और इल्ज़ाम-तराशियाँ और चोटें और फब्तियाँ न हों। इसका मक़सद सामनेवाले को चुप कर देना और अपनी चर्ब-ज़बानी के डंके बजा देना न हो, बल्कि उसमें मिठास हो। आला दरजे का शरीफ़ाना अख़लाक़ हो। समझ में आनेवाली और दिल को लगनेवाली दलीलें हों। सामनेवाले के अन्दर ज़िद और बात की पच और हठधर्मी पैदा न होने दी जाए। सीधे-सीधे तरीक़े से उसको बात समझाने की कोशिश की जाए और जब महसूस हो कि वह बेतुकी बहस करने पर उतर आया है तो उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाए, ताकि वह गुमराही में और ज़्यादा दूर न निकल जाए।
وَإِنۡ عَاقَبۡتُمۡ فَعَاقِبُواْ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبۡتُم بِهِۦۖ وَلَئِن صَبَرۡتُمۡ لَهُوَ خَيۡرٞ لِّلصَّٰبِرِينَ ۝ 123
(126) और अगर तुम लोग बदला लो तो बस उतना ही ले लो जितनी तुमपर ज़्यादती की गई हो, लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यक़ीनन यह सब्र करनेवालों ही के हक़ में बेहतर है।
وَٱصۡبِرۡ وَمَا صَبۡرُكَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُ فِي ضَيۡقٖ مِّمَّا يَمۡكُرُونَ ۝ 124
(127) ऐ नबी! सब्र से काम किए जाओ— और तुम्हारा यह सब्र अल्लाह ही की तौफ़ीक़ से है— इन लोगों की हरकतों पर रंज न करो और न इनकी चालबाज़ियों पर दिल तंग हो।
إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْ وَّٱلَّذِينَ هُم مُّحۡسِنُونَ ۝ 125
(128) अल्लाह उन लोगों के साथ है जो तक़्वा (परेहज़गारी) से काम लेते हैं और एहसान पर अमल करते हैं।124
124. यानी जो ख़ुदा से डरकर हर तरह के बुरे तरीक़ों से बचते हैं और हमेशा नेक रवैये पर क़ायम रहते हैं। दूसरे उनके साथ चाहे कितनी ही बुराई करें वे उनका जवाब बुराई से नहीं, बल्कि भलाई ही से दिए जाते हैं।
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَآ أَمۡرُ ٱلسَّاعَةِ إِلَّا كَلَمۡحِ ٱلۡبَصَرِ أَوۡ هُوَ أَقۡرَبُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 126
(77) और ज़मीन और आसमानों की छिपी हक़ीक़तों का इल्म तो अल्लाह ही को है70, और क़ियामत के आने का मामला कुछ देर न लेगा मगर बस इतनी कि जिसमें आदमी की पलक झपक जाए, बल्कि इससे भी कुछ कम।71 सच तो यह है कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है।
70. बाद के जुमले से मालूम होता है कि यह अस्ल में जवाब है मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के उस सवाल का जो वे अकसर नबी (सल्ल०) से किया करते थे कि अगर वाकई वह क़ियामत आनेवाली है जिसकी तुम हमें ख़बर देते हो तो आख़िर वह किस तारीख़़ को आएगी। यहाँ उनके सवाल को नक़्ल किए बिना उसका जवाब दिया जा रहा है।
71. यानी क़ियामत धीरे-धीरे किसी लम्बी मुद्दत में न आएगी, न उसके आने से पहले तुम दूर से उसको आते देखागे कि सँभल सको और कुछ उसके लिए तैयारी कर सको। वह तो किसी दिन अचानक पलक झपकते, बल्कि उससे भी कम वक़्त में आ जाएगी। लिहाज़ा जिसको ग़ौर करना हो संजीदगी के साथ ग़ौर करे, और अपने रवैये के बारे में जो फ़ैसला भी करना हो जल्दी कर ले। किसी को इस भरोसे पर न रहना चाहिए कि अभी तो क़ियामत दूर है, जब आने लगेगी तो अल्लाह से मामला ठीक कर लेंगे। तौहीद की तफ़सीर के दरमियान यकायक क़ियामत का यह ज़िक्र इसलिए किया गया है कि लोग तौहीद और शिर्क के दरमियान किसी एक अक़ीदे के चुनने के सवाल को सिर्फ़ एक नज़रियाती सवाल न समझ बैठे। उन्हें यह एहसास रहना चाहिए कि एक फ़ैसले की घड़ी किसी नामालूम वक़्त पर अचानक आ जानेवाली है और उस वक़्त इसी चुनाव के सही या ग़लत होने पर आदमी की कामयाबी व नाकामी का दारोमदार होगा। इस बात से ख़बरदार करने के बाद फिर तक़रीर का सिलसिला शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था।
فَأَصَابَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا عَمِلُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 127
(34) उनके करतूतों की ख़राबियाँ आख़िरकार उनके सर आ लगीं और वही चीज़ उनपर छाकर रही जिसकी वे हँसी उड़ाया करते थे।