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سُورَةُ الكَهۡفِ

  1. अल-कह्फ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 110)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम इसकी नवीं आयत 'अम हसिब-त अन-न असहाब-कह्फ़' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें कह्फ़ का शब्द आया है।

उतरने का समय

यहाँ से उन सूरतों का आरंभ होता है जो मक्की जीवन के तीसरे काल में उतरी हैं। यह काल लगभग 5 नबवी के आरंभ से शुरू होकर क़रीब-क़रीब 10 नबवी तक चलता है। इस युग में क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) और आपकी 'तहरीक' (आन्दोलन) और जमाअत को दबाने के लिए उपहास, हँसी, आपत्तियों, आरोप, धमकी, लालच और विरोधीृ-दुष्प्रचार से आगे बढ़कर अन्याय-अत्याचार, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार पूरी कठोरता के साथ प्रयोग में लाए गए।

सूरा कह्फ़ के विषय पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह तीसरे काल के आरंभ में उतरी होगी, जबकि अन्याय एवं अत्याचार और अवरोध ने तेज़ी तो अपना ली थी, मगर अभी हबशा की हिजरत नहीं हुई थी। उस समय जो मुसलमान सताए जा रहे थे उनको कह्फ़वालों का क़िस्सा सुनाया गया, ताकि उनमें साहस पैदा हो और उन्हें मालूम हो कि ईमानवाले अपना ईमान बचाने के लिए इससे पहले क्या कुछ कर चुके है।

विषय और वार्ताएँ

यह सूरा मक्का के मुशरिकों के तीन प्रश्नों के उत्तर में उतरी है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए अहले-किताब के मश्‍वरे से आपके सामने पेश किए थे-1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवाले) कौन थे? 2. ख़िज़्र के क़िस्से की वास्तविकता क्या है ? और 3 ज़ुल-क़रनैन का क्या क़िस्सा है ? ये तीनों क़िस्से यहूदियों और ईसाइयों के इतिहास से सम्बन्धित थे। हिजाज़ में इनकी कोई चर्चा न थी, मगर अल्लाह ने सिर्फ़ यही नहीं कि अपने नबी की ज़बान से इनके प्रश्नों का पूरा उत्तर दिया, बल्कि उनके अपने पूछे हुए तीनों क़िस्सों को पूरी तरह से उस परिस्थिति पर घटित करके दिखा दिया जो उस समय मक्का में कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम के बीच पायी जा रही थी।

  1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवालों) के बारे में बताया कि वे उसी तौहीद(एकेश्वरवाद) को अपनाए हुए थे, जिसकी दावत यह क़ुरआन पेश कर रहा है और उनका हाल मक्का के मुट्ठी भर पीड़ित मुसलमानों के हाल से और उनकी क़ौम का रवैया कुरैश के विधर्मियों के रवैये से कुछ अलग न था। फिर इसी क़िस्से से ईमानवालों को यह शिक्षा दी गई कि अगर विधर्मियों का ग़लबा (प्रभुत्त्व) बहुत ज़्यादा हो और एक ईमानवाले व्यक्ति को ज़ालिम समाज में साँस लेने तक की मोहलत न दी जा रही हो, तब भी उसको असत्य के आगे सिर न झुकाना चाहिए |चाहे इसके लिए उसे घर-बार, बाल-बच्चे सब कुछ छोड़ देना पड़े।
  2. कह्फ़वालों के किस्से से रास्ता निकालकर उस अन्याय एवं अत्याचार पर और अनादर एवं अपमानजनक व्यवहार पर वार्ता शुरू कर दी गई जो मक्का के सरदार मुसलमानों के साथ कर रहे थे। इस सिलसिले में एक ओर नबी (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि न इन अत्याचारियों से कोई समझौता करो और न अपने निर्धन साथियों के मुक़ाबले में इन बड़े-बड़े लोगों को कोई महत्त्व दो। दूसरी ओर उन सरदारों को उपदेश दिया गया कि अपने कुछ दिनों की ज़िन्दगी के ऐश पर न फूलो, बल्कि उन भलाइयों की तलब करनेवाले बनो जो सदा-सर्वदा रहनेवाली और स्थायी हैं।
  3. इसी के वर्णन-क्रम में ख़िज़्र और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा कुछ इस ढंग से सुनाया गया है कि उसमें विधर्मियों के सवालों का जवाब भी था और ईमानवालों के लिए तसल्ली का सामान भी। इस क़िस्से में वास्तव में जो शिक्षा दी गई है, वह यह है कि अल्लाह की मशीयत (ईश्वरेच्छा) का कारख़ाना जिन मस्लहतों (निहितार्थों) पर चल रहा है, वे चूँकि तुम्हारी नज़र से छिपी हुई हैं, इसलिए तुम बात-बात पर हैरान होते हो कि यह क्यों हुआ? यह क्या हो गया? हालाँकि अगर परदा उठा दिया जाए तो तुम्हें स्वयं मालूम हो जाए कि यहाँ जो कुछ हो रहा है, ठीक हो रहा है।
  4. इसके बाद ज़ुल-क़रनैन का क़िस्सा बयान होता है और इसमें पूछनेवालों को यह शिक्षा दी जाती है कि तुम तो इतनी मामूली-मामूली-सी सरदारियों पर फूल रहे हो, हालाँकि ज़ुल-क़रनैन इतना बड़ा शासक और ऐसा पराक्रमी विजेता और इतने श्रेष्ठ और प्रचार साधनों का स्वामी होकर भी अपनी वास्तविकता को न भूला था और अपने पैदा करनेवाले के आगे हमेशा सिर झुकाए रखता था।

अन्त में फिर उन्हीं बातों को दोहरा दिया गया है जो आरंभ में आई हैं, अर्थात् यह कि तौहीद और आख़िरत पूर्णत: सत्य हैं और तुम्हारी अपनी भलाई इसी में है कि इन्हें मानो ।

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سُورَةُ الكَهۡفِ
18. अल-कह्फ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَىٰ عَبۡدِهِ ٱلۡكِتَٰبَ وَلَمۡ يَجۡعَل لَّهُۥ عِوَجَاۜ
(1) तारीफ़ अल्लाह के लिए है जिसने अपने बन्दे पर यह किताब उतारी और उसमें कोई टेढ़ न रखी।1
1. यानी न इसमें कोई घुमाव-फिराव की बात है जो समझ में न आ सके और न कोई बात हक़ और सच्चाई के सीधे रास्ते से हटी हुई है, जिसे मानने में किसी सच्चाई-पसन्द इनसान को झिझक हो।
قَيِّمٗا لِّيُنذِرَ بَأۡسٗا شَدِيدٗا مِّن لَّدُنۡهُ وَيُبَشِّرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرًا حَسَنٗا ۝ 1
(2) ठीक-ठीक सीधी बात कहनेवाली किताब, ताकि वह लोगों को अल्लाह के सख़्त अज़ाब से ख़बरदार कर दे, और ईमान लाकर भले काम करनेवालों को ख़ुशख़बरी दे दे कि उनके लिए अच्छा बदला है,
مَّٰكِثِينَ فِيهِ أَبَدٗا ۝ 2
(3) जिसमें वे हमेशा रहेंगे,
وَيُنذِرَ ٱلَّذِينَ قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗا ۝ 3
(4) और उन लोगों को डरा दे जो कहते हैं कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है।2
2. यानी जो कहते हैं कि अल्लाह औलाद रखता है। इसमें ईसाई भी शामिल हैं और यहूदी भी और अरब के मुशरिक भी।
مَّا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٖ وَلَا لِأٓبَآئِهِمۡۚ كَبُرَتۡ كَلِمَةٗ تَخۡرُجُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡۚ إِن يَقُولُونَ إِلَّا كَذِبٗا ۝ 4
(5) इस बात का न उन्हें कोई इल्म है और न उनके बाप-दादा को था।3 बड़ी बात है जो उनके मुँह से निकलती है, वे सिर्फ़ झूठ बकते हैं।
3. यानी उनका यह कहना कि फ़ुलाँ ख़ुदा का बेटा है, या फ़ुलाँ को ख़ुदा ने बेटा बना लिया है, कुछ इस बुनियाद पर नहीं है कि उनको ख़ुदा के यहाँ औलाद होने या ख़ुदा के किसी को मुँहबोला बेटा बनाने की जानकारी है, बल्कि सिर्फ़ अपनी हद से बढ़ी हुई अक़ीदतमन्दी (श्रद्धा) में वे एक मनमाना हुक्म लगा बैठे हैं और उनको कुछ एहसास नहीं है कि कैसी सख़्त गुमराही की बात कर रहे हैं और कितनी बड़ी गुस्ताख़ी और झूठ है जो तमाम जहानों के रब, अल्लाह पर उनकी तरफ़ से गढ़ा जा रहा है।
فَلَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِمۡ إِن لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَسَفًا ۝ 5
(6) अच्छा, तो ऐ नबी! शायद तुम इनके पीछे ग़म के मारे अपनी जान खो देनेवाले हो, अगर ये इस तालीम पर ईमान न लाए।4
4. यह इशारा है उस हालत की तरफ़ जिसमें उस वक़्त नबी (सल्ल०) मुब्तला थे। इससे साफ़ मालूम होता है कि आप (सल्ल०) को रंज उन तकलीफ़ों का न था जो आप (सल्ल०) को और आपके साथियों को दी जा रही थीं, बल्कि जो चीज़ आपको अन्दर-ही-अन्दर खाए जा रही थी वह यह थी कि आप अपनी क़ौम को गुमराही और अख़लाक़ी गिरावट से निकालना चाहते थे और वह किसी तरह निकलने पर तैयार नहीं होती थी। आप (सल्ल०) को यक़ीन था कि इस गुमराही का लाज़िमी नतीजा तबाही और अल्लाह का अज़ाब है। आप उनको इससे बचाने के लिए अपने दिन और अपनी रातें एक किए दे रहे थे, मगर वे इसपर अड़े थे कि वे ख़ुदा के अज़ाब में मुब्तला होकर ही रहेंगे। अपनी इस कैफ़ियत को नबी (सल्ल०) ख़ुद एक हदीस में इस तरह बयान करते हैं कि “मेरी और तुम लोगों की मिसाल उस शख़्स की-सी है जिसने आग जलाई रौशनी के लिए, मगर परवाने हैं कि उसपर टूटे पड़ते हैं जल जाने के लिए। वह कोशिश करता है कि ये किसी तरह आग से बचें, मगर परवाने उसकी एक नहीं चलने देते। ऐसा ही हाल मेरा है कि मैं तुम्हें दामन पकड़-पकड़कर खींच रहा हूँ और तुम हो कि आग में गिरे पड़ते हो।”(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, साथ ही देखिए— सूरा-26 शुअरा, आयत-3) इस आयत में बज़ाहिर तो बात इतनी ही कही गई है कि शायद तुम अपनी जान इनके पीछे खो दोगे, मगर इसी में एक लतीफ़ (सूक्ष्म) अन्दाज़ से आप (सल्ल०) को तसल्ली भी दे दी गई कि उनके ईमान न लाने की ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है, इसलिए तुम क्यों अपने आपको रंजो-ग़म में घुलाए देते हो? तुम्हारा काम सिर्फ़ ख़ुशख़बरी देना और आगाह करना है। लोगों को ईमानवाला बना देना तुम्हारा काम नहीं है। इसलिए तुम बस हक़ पहुँचा देने की अपनी ज़िम्मेदारी अदा किए जाओ। जो मान ले, उसे ख़ुशख़बरी दे दो। जो न माने उसे बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दो।
إِنَّا جَعَلۡنَا مَا عَلَى ٱلۡأَرۡضِ زِينَةٗ لَّهَا لِنَبۡلُوَهُمۡ أَيُّهُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗا ۝ 6
(7) सच तो यह है कि यह जो कुछ सरो-सामान भी ज़मीन पर है, उसे हमने ज़मीन की ज़ीनत (शोभा) बनाया है, ताकि इन लोगों को आज़माएँ कि इनमें से कौन बेहतर अमल करनेवाला है।
وَإِنَّا لَجَٰعِلُونَ مَا عَلَيۡهَا صَعِيدٗا جُرُزًا ۝ 7
(8) आख़िरकार इस सबको हम एक चटियल मैदान बना देनेवाले हैं।5
5. पहली आयत में बात नबी (सल्ल०) से कही गई है और इन दोनों आयतों में बात इस्लाम-दुश्मनों से कही जा रही है। नबी (सल्ल०) को तसल्ली देने के बाद अब आप (सल्ल०) की बात न माननेवालों को मुखातब किए बिना यह सुनाया जा रहा है कि ये सरो-सामान जो ज़मीन की सतह पर तुम देखते हो और जिसकी दिलफरेबियों पर तुम फ़िदा हो, यह थोड़े दिनों की चमक-दमक है जो सिर्फ़ तुम्हें आज़माइश में डालने के लिए मुहैया की गई है। तुम इस ग़लतफ़हमी में पड़कर कि यह सब कुछ हमने तुम्हारे ऐशो-आराम के लिए जुटाया है, इसलिए तुम ज़ीन्दगी के मजे लूटने के सिवा और किसी मक़सद की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते, और इसी लिए तुम किसी समझानेवाले की बात पर कान भी नहीं धरते। मगर हक़ीक़त यह है कि यह ऐशो-आराम का सामान नहीं, बल्कि इम्तिहान के लिए दी गई चीज़ें हैं, जिनके बीच तुमको रखकर यह देखा जा रहा है कि तुममें से कौन अपनी अस्ल को भुलाकर दुनिया की इन दिलफरेबियों में गुम हो जाता है, और कौन अपने अस्ल मक़ाम (रब की बन्दगी) को याद रखकर सही रास्ते पर क़ायम रहता है। जिस दिन यह इम्तिहान ख़त्म हो जाएगा, उसी दिन ऐश की यह बिसात उलट दी जाएगी और यह ज़मीन एक चटियल मैदान के सिवा कुछ न रहेगी।
أَمۡ حَسِبۡتَ أَنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡكَهۡفِ وَٱلرَّقِيمِ كَانُواْ مِنۡ ءَايَٰتِنَا عَجَبًا ۝ 8
(9) क्या तुम समझते हो कि ग़ार6 (गुफा) और कतबे7 (शिलालेख) वाले हमारी कोई बड़ी अजीब निशानियों में से थे?8
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कह्फ़' इस्तेमाल हुआ है। 'कह्फ़' कुशादा 'ग़ार' को कहते हैं। और 'ग़ार' का लफ़्ज़ तंग खोह के लिए इस्तेमाल होता है। मगर उर्दू/हिन्दी में ग़ार कह्फ़ के लिए भी बोला जाता है।
7. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अर-रक़ीम' इस्तेमाल हुआ है। क़ुरआन के आलिम 'अर-रक़ीम' के मानी अलग-अलग बयान करते हैं। कुछ सहाबा और ताबिईन का कहना है कि यह उस बस्ती का नाम है जहाँ यह वाक़िआ पेश आया था, और वह ‘ऐला' (यानी अक़बा) और फ़िलस्तीन के बीच में बसी थी। और क़ुरआन के कुछ पुराने तफ़सीर लिखनेवाले कहते हैं कि इससे मुराद वह कतबा (शिलालेख) है जो उस गुफा पर असहाबे-कहफ़ (गुफावालों) की यादगार में लगाया गया था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी तफ़सीर ‘तर्जमानुल-क़ुरआन' में पहले मानी को ज़्यादा सही समझा है और यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि यह मक़ाम वही है जिसे बाइबल की किताब यशूअ (अध्याय-18, आयत-27) में 'रक़म' या 'राक़िम' कहा गया है। फिर वे इसे नबतियों के मशहूर तारीख़़ी मर्कज़ (ऐतिहासिक केन्द्र) 'पीट्रा' का पुराना नाम बताते हैं। लेकिन उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि किताब यशूअ में 'रक़म' या 'राक़िम' का ज़िक्र बनी-बिन-यमीन की विरासत के सिलसिले में आया है और ख़ुद इसी किताब के बयान के मुताबिक़ इस क़बीले की विरासत का इलाक़ा जॉर्डन नदी और लूत सागर (मृत सागर) के पश्चिम में पाया जाता था, जिसमें पीट्रा के होने का कोई इमकान नहीं। पीट्रा के खंडहर जिस इलाक़े में पाए गए हैं, उसके और बनी-बिन-यमीन की विरासत के बीच तो यहूदाह और अदूमिया का पूरा इलाक़ा बीच में आता था। इसी वजह से नए ज़माने के आसारे-क़दीमा (पुरातत्व) की खोज करनेवालों ने यह बात मानने में बड़ी झिझक महसूस की है कि पीट्रा और राक़िम एक चीज़ हैं। (देखिए—इंसाइक्लोपीडिया ऑफ़ ब्रिटानिका, 1946 ई०, भाग-17, पृष्ठ-658) हमारे नज़दीक सही बात यही मालूम होती है कि 'रक़ीम' से मुराद कतबा है।
8. यानी क्या तुम उस ख़ुदा की क़ुदरत से, जिसने ज़मीन और आसमान को पैदा किया है, इस बात को कुछ नामुमकिन समझते हो कि वह कुछ आदमियों को दो-तीन सौ साल तक सुलाए रखे और फिर वैसा ही जवान और तन्दुरुस्त जगा उठाए जैसे वे सोए थे? अगर सूरज और चाँद और ज़मीन के पैदा होने पर तुमने कभी ग़ौर किया होता तो तुम हरगिज़ यह न समझते कि ख़ुदा के लिए यह कोई बड़ा मुश्किल काम है।
إِذۡ أَوَى ٱلۡفِتۡيَةُ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ فَقَالُواْ رَبَّنَآ ءَاتِنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةٗ وَهَيِّئۡ لَنَا مِنۡ أَمۡرِنَا رَشَدٗا ۝ 9
(10) जब उन कुछ नौजवानों ने ग़ार में पनाह ली और उन्होंने कहा कि “ऐ परवरदिगार! हमपर अपनी ख़ास मेहरबानी कर और हमारा मामला ठीक कर दे,”
فَضَرَبۡنَا عَلَىٰٓ ءَاذَانِهِمۡ فِي ٱلۡكَهۡفِ سِنِينَ عَدَدٗا ۝ 10
(11) तो हमने उन्हें उसी ग़ार में थपककर कई सालों के लिए गहरी नींद सुला दिया।
ثُمَّ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِنَعۡلَمَ أَيُّ ٱلۡحِزۡبَيۡنِ أَحۡصَىٰ لِمَا لَبِثُوٓاْ أَمَدٗا ۝ 11
(12) फिर हमने उन्हें उठाया, ताकि देखें कि उनके दो गरोहों में से कौन अपनी ठहरने की मुद्दत की ठीक गिनती करता है।
نَّحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ نَبَأَهُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّهُمۡ فِتۡيَةٌ ءَامَنُواْ بِرَبِّهِمۡ وَزِدۡنَٰهُمۡ هُدٗى ۝ 12
(13) हम उनका अस्ल क़िस्सा तुम्हें सुनाते हैं।9 वे कुछ नौजवान थे जो अपने रब पर ईमान ले आए थे और हमने उनको हिदायत में तरक़्क़ी दी थी।10
9. इस क़िस्से की सबसे पुरानी गवाही शाम (सीरिया) के एक ईसाई पादरी जेम्स सरोजी की नसीहतों में पाई गई है जो सुरयानी ज़बान में लिखी गई थीं। यह शख़्स असहाबे-कह्फ़ (गुफावालों) की मौत के कुछ साल बाद 452 ई० में पैदा हुआ था और उसने 474 ई० के लगभग ज़माने में अपनी ये नसीहतें लिखी थीं। इन नसीहतों में वह इस पूरे वाक़िए को बड़ी तफ़सील के साथ बयान करता है। यही सुरयानी रिवायत एक तरफ़ हमारे शुरुआती दौर के तफ़सीर लिखनेवालों तक पहुँची, जिसे इब्ने-जरीर तबरी ने अलग-अलग सनदों के साथ अपनी तफ़सीर में नक़्ल किया है। और दूसरी तरफ़ यूरोप पहुँची, जहाँ यूनानी और लैटिन ज़बानों में इसके तर्जमे और ख़ुलासे छपे। गिब्बन (Gibbon) ने अपनी किताब 'रोमी साम्राज्य के पतन का इतिहास' के अध्याय 33 में 'सात सोनेवाले' (Seven Sleepers) के नाम से इन किताबों से लेकर इस क़िस्से का जो ख़ुलासा पेश किया है, यह हमारे तफ़सीर लिखनेवालों की रिवायतों से इतना ज़्यादा मिलता-जुलता है कि ऐसा महसूस होता है कि दोनों क़िस्से क़रीब-क़रीब एक ही जगह से लिए गए हैं। मिसाल के तौर पर जिस बादशाह के ज़ुल्म से भागकर असहाबे-कहफ़ ने गुफा में पनाह ली थी, हमारे तफ़सीर लिखनेवाले उसका नाम दक़्यनूस या दक़्यानूस या दक़्यूस बताते हैं और गिब्बन कहता है कि वह क़ैसर डिसियस (Decius) था जिसने 249 ई० से 251 ई० तक रोमी साम्राज्य पर हुकूमत की है और मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवालों पर ज़ुल्मो-सितम करने के मामले में जिसका दौर बहुत बदनाम है। जिस शहर में यह वाक़िआ पेश आया, उसका नाम हमारे तफ़सीर लिखनेवाले असुस या असूस लिखते हैं, और गिब्बन इस शहर का नाम इफ़िसुस (Ephesus) बताता है जो एशिया-ए-कोचक के पश्चिमी तट पर रोमवासियों का सबसे बड़ा शहर और मशहूर बन्दरगाह था, जिसके खंडहर आज मौजूदा टर्की के शहर अजमीर (सिमरना) से 20-25 मील दक्षिण की तरफ़ पाए जाते हैं। फिर जिस बादशाह के दौर में असहाबे-कहफ़ जागे उसका नाम हमारे मुफ़स्सिर (तफ़सीर लिखनेवाले) तीज़ूसियस लिखते हैं और गिब्बन कहता है कि उनके उठने का वक़िआ क़ैसर थियोडोसियस (Theodosius) द्वितीय के दौर में हुआ जो रोमी सल्तनत के ईसाइयत क़ुबूल कर लेने के बाद 408 ई० से 450 ई० तक रोम का हाकिम रहा। दोनों बयान इतने ज़्यादा मिलते-जुलते हैं कि असहाबे-कहफ़ ने जागने के बाद अपने जिस साथी को खाना लाने के लिए शहर भेजा था, उसका नाम हमारे मुफ़स्सिर यमलीख़ा बताते हैं और गिब्बन उसे यमलीख़ुस (JAMBLICHUS) लिखता है। क़िस्से की तफ़सीलात दोनों रिवायतों में एक जैसी हैं और उनका ख़ुलासा यह है कि क़ैसर डिसियस (Decius) के ज़माने में जब मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवालों पर सख़्त ज़ुल्मो-सितम हो रहे थे, ये सात नव-जवान एक ग़ार में जा बैठे थे। फिर क़ैसर थियोडोसियस की सल्तनत के 38 वें साल (यानी लगभग 445 ई० या 446 ई० में) ये लोग जागे, जबकि पूरी रोमी सल्तनत मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवाली बन चुकी थी। इस हिसाब से ग़ार में उनके रहने की मुद्दत लगभग 196 साल बनती है। कुछ मुस्तशरिक़ीन (इस्लाम का अध्ययन करनेवाले पश्चिमी विद्वानों) ने इस क़िस्से को असहाबे-कह्फ़ के क़िस्से जैसा मानने से इस वजह से इनकार किया है कि आगे क़ुरआन उनके ग़ार में रहने की मुद्दत 309 साल बयान कर रहा है, लेकिन इसका जवाब हमने हाशिया-25 में दे दिया है। इस सुरयानी रिवायत और क़ुरआन के बयान में कुछ छोटे-मोटे फ़र्क़ भी हैं, जिनको बुनियाद बनाकर गिब्बन ने नबी (सल्ल०) पर 'जहालत' का इलज़ाम लगाया है। हालाँकि जिस रिवायत के भरोसे पर वह इतनी बड़ी जसारत (दुस्साहस) कर रहा है, उसके बारे में वह ख़ुद मानता है कि वह इस वाक़िए के 30-40 साल बाद शाम (सीरिया) के एक शख़्स ने लिखी है और इतनी मुद्दत के अन्दर ज़बानी रिवायतों के एक देश से दूसरे देश तक पहुँचने में कुछ-न-कुछ फ़र्क़ हो जाया करता है। इस तरह की एक रिवायत के बारे में यह समझना कि उसका हर-हर लफ़्ज़ सही है और उससे किसी छोटे-से मामले में इख़्तिलाफ़ होना लाज़िमन क़ुरआन ही की ग़लती है, सिर्फ़ उन हठधर्म लोगों को ज़ेब (शोभा) देता है जो मज़हबी तास्सुब में अक़्ल के मामूली तक़ाज़ों तक को नज़र-अन्दाज़ कर जाते हैं।
10. यानी जब वे सच्चे दिल से ईमान ले आए तो अल्लाह ने उनकी हिदायत में इज़ाफ़ा किया और उनको अपनी मेहरबानी से यह मौक़ा और ताक़त दी कि हक़ और सच्चाई पर जमे रहें, और अपने आपको ख़तरे में डाल लेना गवारा कर लें, मगर बातिल (असत्य) के आगे सर न झुकाएँ।
وَرَبَطۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ إِذۡ قَامُواْ فَقَالُواْ رَبُّنَا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَن نَّدۡعُوَاْ مِن دُونِهِۦٓ إِلَٰهٗاۖ لَّقَدۡ قُلۡنَآ إِذٗا شَطَطًا ۝ 13
(14) हमने उनके दिल उस वक़्त मज़बूत कर दिए जब वे उठे और उन्होंने एलान कर दिया कि “हमारा रब तो बस यही है जो आसमानों और ज़मीन का रब है। हम उसे छोड़कर किसी दूसरे माबूद (उपास्य) को न पुकारेंगे। अगर हम ऐसा करें तो बिलकुल ग़लत बात करेंगे।”
هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمُنَا ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ لَّوۡلَا يَأۡتُونَ عَلَيۡهِم بِسُلۡطَٰنِۭ بَيِّنٖۖ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 14
(15) (फिर उन्होंने आपस में एक-दूसरे से कहा) “यह हमारी क़ौम तो कायनात के रब को छोड़कर दूसरे ख़ुदा बना बैठी है। ये लोग उनके माबूद होने पर कोई खुली दलील क्यों नहीं लाते? आख़िर उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन हो सकता है जो अल्लाह पर झूठ बाँधे?
وَإِذِ ٱعۡتَزَلۡتُمُوهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ فَأۡوُۥٓاْ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ يَنشُرۡ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَيُهَيِّئۡ لَكُم مِّنۡ أَمۡرِكُم مِّرۡفَقٗا ۝ 15
(16) अब जबकि तुम उनसे और अल्लाह के अलावा उनके माबूदों से बेताल्लुक़ हो चुके हो तो चलो अब फ़ुलाँ ग़ार में चलकर पनाह लो।11 तुम्हारा रब तुमपर अपनी रहमत का दामन फैला देगा और तुम्हारे काम के लिए सरो-सामान मुहैया कर देगा।”
11. जिस ज़माने में इन ख़ुदापरस्त नौजवानों को आबादियों से भागकर पहाड़ों में पनाह लेनी पड़ी थी, उस वक़्त शहर इफ़िसुस एशिया-ए-कोचक में बुतपरस्ती और जादूगरी का सबसे बड़ा मर्कज़ (केन्द्र) था। वहाँ डायना देवी का एक शानदार मन्दिर था, जिसकी शोहरत तमाम दुनिया में फैली थी और दूर-दूर से लोग उसकी पूजा के लिए आते थे। वहाँ के जादूगर, आमिल (तान्त्रिक), ज्योतिषी और तावीज़-गंडे बनानेवाले दुनिया भर में मशहूर थे। शाम (सीरिया), फ़िलस्तीन और मिस्र तक उनका कारोबार चलता था और उस कारोबार में यहूदियों का भी अच्छा-ख़ासा हिस्सा था जो अपनी कारीगरी का ताल्लुक़ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से जोड़ते थे (देखिए—इंसाइक्लोपीडिया ऑफ़ बिबलिकल लिट्रेचर)। शिर्क और अंधविश्वास के इस माहौल में ख़ुदापरस्तों का जो हाल हो रहा था, उसका अन्दाज़ा असहाबे-कह्फ़ के उस जुमले से किया जा सकता है जो आगे आयत-20 में आ रहा है कि “अगर उनका हाथ हमपर पड़ गया तो बस हमें पत्थर मार-मारकर हलाक ही कर डालेंगे या फिर ज़बरदस्ती अपनी मिल्लत (समुदाय) में वापस ले जाएँगे।”
۞وَتَرَى ٱلشَّمۡسَ إِذَا طَلَعَت تَّزَٰوَرُ عَن كَهۡفِهِمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَإِذَا غَرَبَت تَّقۡرِضُهُمۡ ذَاتَ ٱلشِّمَالِ وَهُمۡ فِي فَجۡوَةٖ مِّنۡهُۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِۗ مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ وَلِيّٗا مُّرۡشِدٗا ۝ 16
(17) तुम उन्हें ग़ार में देखते12 तो तुम्हें यूँ नज़र आता कि सूरज जब निकलता है तो उनके ग़ार को छोड़कर दाईं तरफ़ चढ़ जाता है और जब डूबता है तो उनसे बचकर बाई तरफ़ उतर जाता है और वे हैं कि ग़ार के अन्दर एक कुशादा जगह में पड़े हैं।13 यह अल्लाह की निशानियों में से एक है, जिसको अल्लाह रास्ता दिखाए वही रास्ता पानेवाला है और जिसे अल्लाह भटका दे, उसके लिए तुम कोई रास्ता दिखानेवाला सरपरस्त नहीं पा सकते।
12. बीच में यह ज़िक्र छोड़ दिया गया कि इस आपसी समझौते के मुताबिक़ ये लोग शहर से निकलकर पहाड़ों के बीच एक गुफा में जा छुपे, ताकि हलाक होने या मजबूरन सच्चा रास्ता छोड़ देने से बच सकें।
13. यानी उनकी गुफा का मुँह उत्तर की तरफ़ था, जिसकी वजह से सूरज की रौशनी किसी मौसम में भी अन्दर न पहुँचती थी और बाहर से गुज़रनेवाला यह न देख सकता था कि अन्दर कौन है।
وَتَحۡسَبُهُمۡ أَيۡقَاظٗا وَهُمۡ رُقُودٞۚ وَنُقَلِّبُهُمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَذَاتَ ٱلشِّمَالِۖ وَكَلۡبُهُم بَٰسِطٞ ذِرَاعَيۡهِ بِٱلۡوَصِيدِۚ لَوِ ٱطَّلَعۡتَ عَلَيۡهِمۡ لَوَلَّيۡتَ مِنۡهُمۡ فِرَارٗا وَلَمُلِئۡتَ مِنۡهُمۡ رُعۡبٗا ۝ 17
(18) तुम उन्हें देखकर यह समझते कि वे जाग रहे हैं, हालाँकि वे सो रहे थे। हम उन्हें दाएँ-बाएँ करवट दिलवाते रहते थे14 और उनका कुत्ता ग़ार के दहाने (द्वार) पर हाथ फैलाए बैठा था। अगर तुम कहीं झाँककर उन्हें देखते तो उलटे पाँव भाग खड़े होते और उन्हें देखकर तुम्हारे अन्दर डर बैठ जाता।15
14. यानी अगर बाहर से कोई झाँककर देखता भी तो इन सात आदमियों के रह-रहकर करवटें लेते रहने की वजह से वह यही समझता कि ये बस यूँ ही लेटे हुए हैं, सोए हुए नहीं हैं।
15. यानी पहाड़ों के अन्दर एक अंधेरी गुफा में कुछ आदमियों का इस तरह मौजूद होना और आगे कुत्ते का बैठा होना एक ऐसा डरावना मंज़र पेश करता कि झाँकनेवाले उनको डाकू समझकर भाग जाते थे, और यह एक बड़ा सबब था जिसकी वजह से उन लोगों के हाल पर इतनी मुद्दत तक पर्दा पड़ा रहा। किसी को इतनी हिम्मत न हुई कि अन्दर जाकर कभी अस्ल मामले को मालूम करता।
وَكَذَٰلِكَ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِيَتَسَآءَلُواْ بَيۡنَهُمۡۚ قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ كَمۡ لَبِثۡتُمۡۖ قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۚ قَالُواْ رَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثۡتُمۡ فَٱبۡعَثُوٓاْ أَحَدَكُم بِوَرِقِكُمۡ هَٰذِهِۦٓ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ فَلۡيَنظُرۡ أَيُّهَآ أَزۡكَىٰ طَعَامٗا فَلۡيَأۡتِكُم بِرِزۡقٖ مِّنۡهُ وَلۡيَتَلَطَّفۡ وَلَا يُشۡعِرَنَّ بِكُمۡ أَحَدًا ۝ 18
(19) और इसी अनोखे करिश्मे से हमने उन्हें उठा-बिठाया, ताकि ज़रा आपस में पूछ-गछ करें। उनमें से एक ने पूछा, “कहो, कितनी देर इस हाल में रहे? ” दूसरों ने कहा, “शायद दिन भर या उससे कुछ कम रहे होंगे।” फिर वे बोले, “अल्लाह ही बेहतर जानता है कि हमारा कितना वक़्त इस हालत में बीता। चलो, अब अपने में से किसी को चाँदी का यह सिक्का देकर शहर भेजें और वह देखे कि सबसे अच्छा खाना कहाँ मिलता है। वहाँ से वह कुछ खाने के लिए लाए, और चाहिए कि ज़रा होशियारी से काम करे। ऐसा न हो कि वह किसी को हमारे यहाँ होने की ख़बर दे बैठे।
إِنَّهُمۡ إِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ يَرۡجُمُوكُمۡ أَوۡ يُعِيدُوكُمۡ فِي مِلَّتِهِمۡ وَلَن تُفۡلِحُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 19
(20) अगर कहीं उन लोगों का हाथ हमपर पड़ गया तो बस पत्थरों से मार-मारकर हलाक ही कर डालेंगे या फिर ज़बरदस्ती हमें अपनी मिल्लत (समुदाय) में वापस ले जाएँगे, और ऐसा हुआ तो हम कभी कामयाबी न पा सकेंगे।16
16. यानी जैसे अजीब तरीक़े से वे सुलाए गए थे और दुनिया को उनके हाल से बेख़बर रखा गया था, वैसा ही क़ुदरत का अनोखा करिश्मा उनका एक लम्बी मुद्दत के बाद जागना भी था।
وَكَذَٰلِكَ أَعۡثَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ لِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ لَا رَيۡبَ فِيهَآ إِذۡ يَتَنَٰزَعُونَ بَيۡنَهُمۡ أَمۡرَهُمۡۖ فَقَالُواْ ٱبۡنُواْ عَلَيۡهِم بُنۡيَٰنٗاۖ رَّبُّهُمۡ أَعۡلَمُ بِهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ غَلَبُواْ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِمۡ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيۡهِم مَّسۡجِدٗا ۝ 20
(21) इस तरह हमने शहरवालों को उनकी हालत की ख़बर पहुँचा दी,17 ताकि लोग जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़ियामत की घड़ी बेशक आकर रहेगी।18 (मगर ज़रा सोचो कि जब सोचने की अस्ल बात यह थी) उस वक़्त वे आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि इन (कह्फ़वालों) के साथ क्या किया जाए। कुछ लोगों ने कहा, “इनपर एक दीवार चुन दो, इनका रब ही इनके मामले को बेहतर जानता है।"19 मगर जो लोग उनके मामलों पर ग़ालिब थे,20 उन्होंने कहा, “हम तो इनपर एक इबादतगाह (उपासना-गृह) बनाएँगे।"21
17. यानी जब वह शख़्स खाना ख़रीदने के लिए शहर गया तो दुनिया बदल चुकी थी। बुतपरस्त रोम (रूम) को ईसाई हुए एक मुद्दत गुज़र चुकी थी। ज़बान, तहज़ीब, रहन-सहन, लिबास हर चीज़ में नुमायाँ फ़र्क़ आ गया था। दो सौ साल पहले का यह आदमी अपनी सज- धज, लिबास, ज़बान हर चीज़ के एतिबार से फ़ौरन एक तमाशा बन गया। और जब उसने क़ैसर डिसियस के वक़्त का सिक्का खाना ख़रीदने के लिए पेश किया तो दुकानदार की आँखें फटी-की-फटी रह गईं। सुरयानी रिवायत के मुताबिक़ दुकानदार को उसपर शक यह हुआ कि शायद वह किसी पुराने ज़माने का गड़ा हुआ ख़ज़ाना निकाल लाया है। चुनाँचे उसने आसपास के लोगों का इस तरफ़ ध्यान दिलाया और आख़िरकार उस शख़्स को अफ़सरों के सामने पेश किया गया। वहाँ जाकर यह मामला खुला कि यह शख़्स तो मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवाले उन लोगों में से है जो दो सौ साल पहले अपना ईमान बचाने के लिए भाग निकले थे। यह ख़बर देखते-ही देखते शहर की ईसाई आबादी में फैल गई और हुकूमत के अफ़सरों के साथ लोगों की एक भीड़ गुफा के सामने पहुँच गई। अब जो असहाबे-कह्फ़ को यह पता चला कि वे दो सौ साल बाद सोकर उठे हैं तो वे अपने ईसाई भाइयों को सलाम करके लेट गए और उनकी रूह निकल गई।
18. सुरयानी रिवायत के मुताबिक़ उस ज़माने में वहाँ क़ियामत और आख़िरत की दुनिया के बारे में ज़ोर-शोर से बहस छिड़ी हुई थी; हालाँकि रोमी सल्तनत के असर से आम लोग मसीहियत क़ुबूल कर चुके थे, जिसके बुनियादी अक़ीदों में आख़िरत का अकीदा भी शामिल था। लेकिन अभी तक रोम में पाए जानेवाले शिर्क, बुतपरस्ती और यूनानी फ़लसफे (दर्शन) के असरात काफ़ी ताक़तवर थे, जिनकी बदौलत बहुत-से लोग आख़िरत से इनकार या कम-से-कम उसके होने में शक करते थे। फिर इस शक और इनकार को सबसे ज़्यादा जो चीज़ ताक़त पहुँचा रही थी, वह यह थी कि इफ़िसुस में यहूदियों की बड़ी आबादी थी, और उनमें से एक फ़िरका (सम्प्रदाय, जिसे सदूक़ी कहा जाता था) आख़िरत का खुल्लम-खुल्ला इनकार करता था। यह गरोह अल्लाह की किताब (यानी तौरात) से आख़िरत के इनकार पर दलील लाता था और मसीही आलिमों (विद्वानों) के पास उसके मुक़ाबले में मज़बूत दलीलें मौजूद न थीं। मत्ती, मर्क़ुस, लूक़ा, तीनों इंजीलों में सदूक़ियों और मसीह (अलैहि०) के उस मुनाज़रे (बहस-मुबाहसे) का ज़िक्र हमें मिलता है जो आख़िरत के मसले पर हुआ था, मगर तीनों ने मसीह (अलैहि०) की तरफ़ से ऐसा कमज़ोर जवाब नक़्ल किया है जिसकी कमज़ोरी को ख़ुद मसीहियत के आलिम (विद्वान) भी मानते हैं। (देखिए— मत्ती, अध्याय-22, आयत– 23-33; मर्क़ुस, अध्याय-12, आयत-18 से 27; लूक़ा, अध्याय-20, आयत-27 से 40) इसी वजह से आख़िरत का इनकार करनेवालों का पलड़ा भारी हो रहा था और आख़िरत पर ईमान रखनेवाले भी शक और उलझन में गिरफ़्तार होते जा रहे थे। ठीक उस वक़्त असहाबे-कहफ़ के (सालों बाद सोकर) उठने का यह वाक़िआ पेश आया और उसने मौत के बाद जी उठने का एक ऐसा सुबूत जुटा दिया जिसका इनकार मुमकिन नहीं।
19. बयान के अन्दाज़ से ज़ाहिर होता है कि यह बात नेक और भले ईसाइयों ने कही थी। उनकी राय यह थी कि असहाबे-कह्फ़ जिस तरह गुफा में लेटे हुए हैं, उसी तरह उन्हें लेटा रहने दो और गुफा के मुँह को चुन दो। इनका रब ही बेहतर जानता है कि ये कौन लोग हैं? किस मर्तबे के हैं और किस बदले के हक़दार हैं?
20. इससे मुराद रोमी सल्तनत के ज़िम्मेदार और मसीही कलीसा के मज़हबी पेशवा हैं, जिनके मुक़ाबले में सही अक़ीदा रखनेवाले ईसाइयों की बात न चलती थी। पाँचवीं सदी के बीच तक पहुँचते-पहुँचते आम ईसाइयों में और ख़ास तौर से रोमन कैथोलिक कलीसा में शिर्क, बुज़ुर्गों की पूजा और क़ब्र-परस्ती का पूरा ज़ोर हो चुका था। बुज़ुर्गों के आस्ताने (क़ब्रें) पूजे जा रहे थे और मसीह (अलैहि०), मरयम (अलैहि०) और हवारियों (साथियों) के बुत गिरजाघरों में रखे जा रहे थे। असहाबे-कह्फ़ के उठने से कुछ ही साल पहले 431 ई० में पूरी ईसाई दुनिया के मज़हबी पेशवाओं की एक कौंसिल का इजलास इसी इफ़िसुस के मक़ाम पर हो चुका था, जिसमें मसीह (अलैहि०) के 'ख़ुदा' होने और हज़रत मरयम (अलैहि०) के 'ख़ुदा की माँ' होने का अक़ीदा चर्च का सरकारी अक़ीदा ठहराया गया था। इस तारीख़ (इतिहास) को निगाह में रखने से साफ़ मालूम हो जाता है कि “जो लोग उनके मामलों पर ग़ालिब थे” से मुराद वे लोग हैं जो मसीह (अलैहि०) के सच्चे पैरोकारों के मुक़ाबले में उस वक़्त आम ईसाई लोगों के रहनुमा और ज़िम्मेदार बने हुए थे और मज़हबी और सियासी मामलों की बागडोर जिनके हाथों में थी। यही लोग अस्ल में शिर्क के अलमबरदार थे और इन्होंने ही फ़ैसला किया कि असहाबे-कह्फ़ का मक़बरा बनाकर उसको इबादतगाह बनाया जाए।
21. मुसलमानों में से कुछ लोगों ने क़ुरआन मजीद की इस आयत का बिलकुल उलटा मतलब लिया है। वे इसे दलील बनाकर नेक बुज़ुर्गों की क़ब्रों पर इमारतें और सजदागाह बनाने को जाइज़ ठहराते हैं। हालाँकि यहाँ क़ुरआन उनकी इस गुमराही की तरफ़ इशारा कर रहा है कि जो निशानी उन ज़ालिमों को मौत के बाद उठने और आख़िरत के मुमकिन होने का यक़ीन दिलाने के लिए दिखाई गई थी, उसे उन्होंने शिर्क करने के लिए ख़ुदा का दिया हुआ एक मौक़ा समझा और सोचा कि चलो, कुछ और बुज़ुर्ग पूजा-पाठ के लिए हाथ आ गए। फिर आख़िर इस आयत को नेक बुजुगों की कब्रों पर सजदागाह बनाने के लिए कैसे दलील बनाया जा सकता है, जबकि नबी (सल्ल०) के ये फ़रमान इससे मना करने के बारे में मौजूद हैं– "अल्लाह ने लानत की है क़ब्रों की ज़ियारत करनेवाली औरतों पर, और क़ब्रों पर सजदागाह बनाने और चराग़ रौशन करनेवालों पर। (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसई, इबने-माजा) “ख़बरदार रहो, तुमसे पहले लोग अपने नबियों की क़ब्रों को इबादतगाह बना लेते थे, मैं तुम्हें इस हरकत से मना करता हूँ। (हदीस : मुस्लिम) "अल्लाह ने लानत की यहूदियों और ईसाइयों पर। उन्होंने अपने नबियों की क़ब्रों को इबादतगाह बना लिया।”(हदीस : अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई) “उन लोगों का हाल यह था कि अगर उनमें कोई नेक आदमी होता तो उसके मरने के बाद उसकी क़ब्र पर सजदागाह बनाते और उसकी तस्वीरें तैयार करते थे। ये क़ियामत के दिन सबसे बुरे लोग होंगे।” (हदीस : अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई) नबी (सल्ल०) की इन खुली हिदायतों की मौजूदगी में कौन ख़ुदा-परस्त आदमी यह हिम्मत कर सकता है कि क़ुरआन मजीद में ईसाई पादरियों और रोम के हाकिमों के गुमराही भरे जिस काम का एक क़िस्से के तौर पर ज़िक्र किया गया है, उसको ठीक वही काम करने के लिए दलील और बुनियाद ठहराए? इस मौक़े पर यह ज़िक्र कर देना भी फ़ायदे से ख़ाली नहीं कि 1884 ई० में रेवरेंड टी॰ अरंडेल (R.T.Arundel) ने ‘एशिया-ए-कोचक की खोजों' (Discoveries in Asia Minor) के नाम से अपने जो तजरिबात शाया (प्रकाशित) किए थे, उनमें वह बताता है कि पुराने शहर इफ़िसुस के खंडहरों से मिली हुई एक पहाड़ी पर उसने हज़रत मरयम और 'सात लड़कों' (यानी असहाबे-कहफ़) के मक़बरों के निशान पाए हैं।
سَيَقُولُونَ ثَلَٰثَةٞ رَّابِعُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ وَيَقُولُونَ خَمۡسَةٞ سَادِسُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ رَجۡمَۢا بِٱلۡغَيۡبِۖ وَيَقُولُونَ سَبۡعَةٞ وَثَامِنُهُمۡ كَلۡبُهُمۡۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ بِعِدَّتِهِم مَّا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا قَلِيلٞۗ فَلَا تُمَارِ فِيهِمۡ إِلَّا مِرَآءٗ ظَٰهِرٗا وَلَا تَسۡتَفۡتِ فِيهِم مِّنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 21
(22) कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था, और कुछ दूसरे कह देंगे कि पाँच थे और छठा उनका कुत्ता था। ये सब बेतुकी हाँकते हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि सात थे और आठवाँ उनका कुत्ता था।22 कहो, मेरा रब ही बेहतर जानता है कि वे कितने थे। कम ही लोग उनकी सही तादाद जानते हैं। इसलिए तुम सरसरी बात से बढ़कर उनकी तादाद के मामले में लोगों से बहस न करो, और न उनके बारे में किसी से कुछ पूछो23
22. इससे मालूम होता है कि इस वाक़िए के पौने तीन सौ साल बाद, क़ुरआन के उतरने के ज़माने में उसकी तफ़सीलात (विवरणों) के बारे में अलग-अलग कहानियाँ ईसाइयों में फैली हुई थीं और आम तौर से भरोसेमन्द मालूमात लोगों के पास मौजूद न थीं। ज़ाहिर है कि वह प्रेस का ज़माना न था कि जिन किताबों में उसके बारे में कुछ ज़्यादा सही मालूमात पाई जाती थीं, वे आम तौर पर शाया होतीं। वाक़िआत ज़्यादातर ज़बानी रिवायतों (बयानों) के ज़रिए से फैलते थे, और ज़माना गुज़रने के साथ उनकी बहुत-सी तफ़सीलात कहानी और अफ़साना बनते चले जाते थे। फिर भी चूँकि तीसरी बात को अल्लाह तआला ने रद्द नहीं किया है, इसलिए यह गुमान किया जा सकता है कि उनकी सही तादाद सात ही थी।
23. मतलब यह है कि अस्ल चीज़ उनकी तादाद नहीं है, बल्कि अस्ल चीज़ वे सबक़ हैं जो इस क़िस्से से मिलते हैं। इससे यह सबक़ मिलता है कि एक सच्चे ईमानवाले को किसी हाल में हक़ (सत्य) से मुँह मोड़ने और बातिल (असत्य) के आगे सर झुकाने के लिए तैयार न होना चाहिए। इससे यह सबक़ मिलता है कि एक सच्चे ईमानवाले का भरोसा दुनिया के सरो-सामान पर नहीं, बल्कि अल्लाह पर होना चाहिए और सच्चाई पर चलने के लिए बज़ाहिर माहौल में किसी साज़गारी (अनुकूलता) की निशानियाँ नज़र न आती हों तब भी अल्लाह के भरोसे पर हक़ (सत्य) के रास्ते में क़दम उठा देना चाहिए। इससे यह सबक़ मिलता है कि आदत के तौर पर जारी जिस काम को लोग 'फ़ितरत का क़ानून' समझते हैं और सोचते हैं कि इस क़ानून के ख़िलाफ़ दुनिया में कुछ नहीं हो सकता। अल्लाह तआला हक़ीक़त में इसका पाबन्द नहीं है, वह जब और जहाँ चाहे, इस आदत (चलन) को बदलकर जो ग़ैर-मामूली काम भी करना चाहे, कर सकता है। उसके लिए यह कोई बड़ा काम नहीं है कि किसी को दो सौ साल तक सुलाकर इस तरह उठा बिठाए जैसे वह कुछ घंटे सोया है, और उसकी उम्र, शक्ल-सूरत, लिबास, तन्दुरुस्ती, ग़रज़ किसी चीज़ पर भी उस बीते हुए लम्बे वक़्त का कुछ असर न हो। इससे यह सबक़ मिलता है कि इनसान की तमाम अगली-पिछली नस्लों को एक ही वक़्त में ज़िन्दा करके उठा देना, जिसकी ख़बर नबियों (अलैहि०) और आसमानी किताबों ने दी है, अल्लाह तआला की क़ुदरत के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। इससे यह सबक़ मिलता है कि जाहिल इनसान किस तरह हर ज़माने में अल्लाह की निशानियों को अपने लिए गहरी सूझ-बूझ हासिल करने का ज़रिआ बनाने के बजाय उलटा और ज़्यादा गुमराही का सामान बनाते रहे हैं। असहाबे-कह्फ़ (गुफावालों) का मोजिज़ा (चमत्कार) अल्लाह ने इसलिए दिखाया था कि लोग उससे आख़िरत का यक़ीन हासिल करें, ठीक उसी निशानी को उन्होंने यह समझा कि अल्लाह ने उन्हें अपने कुछ और बुज़ुर्ग पूजने के लिए दे दिए। ये हैं वे सबक़ जो आदमी को इस क़िस्से से लेने चाहिएँ और इसमें ध्यान देने के क़ाबिल यही बातें हैं। इनसे ध्यान हटाकर इस खोज में लग जाना कि असहाबे-कह्फ़ (गुफावाले) कितने थे और कितने न थे, और उनके नाम क्या-क्या थे, और उनका कुत्ता किस रंग का था, यह उन लोगों का काम है जो गूदे को छोड़कर सिर्फ़ छिलकों से दिलचस्पी रखते हैं। इसलिए अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) के वास्ते से ईमानवालों को यह तालीम दी कि अगर दूसरे लोग इस तरह की बेकार बहसें छेड़ें भी तो तुम उनमें न उलझो, न ऐसे सवालों का जवाब पाने की खोज में अपना वक़्त बर्बाद करो, बल्कि अपना ध्यान सिर्फ़ काम की बात पर लगाए रखो। यही वजह है कि अल्लाह तआला ने ख़ुद उनकी सही तादाद बयान नहीं की, ताकि बेकार की बातों से दिलचस्पी रखनेवालों को बढ़ावा न मिले।
وَلَا تَقُولَنَّ لِشَاْيۡءٍ إِنِّي فَاعِلٞ ذَٰلِكَ غَدًا ۝ 22
(23) और देखो, किसी चीज़ के बारे में कभी यह न कहा करो कि कल मैं यह काम कर दूँगा।
إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ إِذَا نَسِيتَ وَقُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَهۡدِيَنِ رَبِّي لِأَقۡرَبَ مِنۡ هَٰذَا رَشَدٗا ۝ 23
(24) (तुम कुछ नहीं कर सकते) सिवाय इसके कि अल्लाह चाहे। अगर भूले से ऐसी बात ज़बान से निकल जाए तो फ़ौरन अपने रब को याद करो और कहो, “उम्मीद है कि मेरा रब इस मामले में सच्चाई से ज़्यादा क़रीब बात की तरफ़ मेरी रहनुमाई कर देगा।"24
24. यह अलग से कही गई एक बात है जो पिछली आयत के मज़मून (विषय) को देखते हुए बीच में कह दी गई है। पिछली आयत में हिदायत की गई थी कि असहाबे-कह्फ़ की तादाद की सही जानकारी अल्लाह को है और इस खोज में पड़ना एक ग़ैर-ज़रूरी काम है, इसलिए ख़ाह-मख़ाह एक ग़ैर-ज़रूरी बात की खोज में लगने से बचो और इसपर किसी से बहस भी न करो। इस सिलसिले में आगे की बात कहने से पहले, ऊपर से चली आ रही बात से अलग हटकर एक और ज़रूरी हिदायत भी नबी (सल्ल०) और ईमानवालों को दी गई और वह यह कि तुम कभी दावे से यह न कह देना कि मैं कल फ़ुलाँ काम कर दूँगा। तुम को क्या पता कि तुम वह काम कर सकोगे या नहीं। न तुम्हें ग़ैब का इल्म (परोक्ष-ज्ञान) है और न तुम अपने कामों में इतने ख़ुदमुख़्तार हो कि जो कुछ चाहो, कर सको। इसलिए अगर कभी बे-ख़याली में ऐसी बात ज़बान से निकल भी जाए तो फ़ौरन ख़बरदार होकर अल्लाह को याद करो और 'इंशा-अल्लाह' (अगर अल्लाह ने चाहा) कह दिया करो। इसके अलावा तुम यह भी नहीं जानते कि जिस काम के करने को तुम कह रहे हो, क्या उसमें कोई भलाई है या कोई दूसरा काम उससे बेहतर है। इसलिए अल्लाह पर भरोसा करते हुए यूँ कहा करो कि उम्मीद है कि मेरा रब इस मामले में सही बात या सही रवैये की तरफ़ मेरी रहनुमाई कर देगा।
وَلَبِثُواْ فِي كَهۡفِهِمۡ ثَلَٰثَ مِاْئَةٖ سِنِينَ وَٱزۡدَادُواْ تِسۡعٗا ۝ 24
(25) और वे अपने ग़ार में तीन सौ साल रहे, और (कुछ लोग मुद्दत के गिनने में) 9 साल और बढ़ गए हैं।25
25. इस जुमले का ताल्लुक़ हमारे नज़दीक उस जुमले के साथ है जो ऊपर से चली आ रही बात से हटकर कही गई बात से पहले आया है। यानी बात का सिलसिला कुछ यूँ है कि “कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था ....... और कुछ लोग कहते हैं कि वे अपनी गुफा में तीन सौ साल रहे और कुछ लोग इस मुद्दत की गिनती में नौ साल और बढ़ गए इस जुमले में तीन सौ और तीन सौ नौ साल की तादाद जो बयान की गई है, हमारे ख़याल में यह अस्ल में लोगों की कही हुई बात है, न कि अल्लाह तआला का अपना कहना। और इसपर दलील यह है कि बाद के जुमले में अल्लाह तआला ख़ुद फ़रमा रहा है कि तुम कहो, “अल्लाह ही बेहतर जानता है कि वे कितनी मुद्दत रहे।” अगर 309 की तादाद अल्लाह ने ख़ुद बयान की होती तो इसके बाद यह बात कहने का कोई मतलब न था। इसी दलील की बुनियाद पर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने भी यही मतलब लिया है कि यह अल्लाह तआला की कही बात नहीं है बल्कि लोगों की कही हुई बात है।
قُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثُواْۖ لَهُۥ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَبۡصِرۡ بِهِۦ وَأَسۡمِعۡۚ مَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا يُشۡرِكُ فِي حُكۡمِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 25
(26) तुम कहो, “अल्लाह उनके ठहरने की मुद्दत ज़्यादा जानता है,” आसमानों और ज़मीन की सब छिपी बातें उसी को मालूम हैं। क्या ख़ूब है वह देखनेवाला और सुननेवाला! (ज़मीन और आसमान में पाई जानेवाली चीज़ों और जानदारों का) कोई ख़बर रखनेवाला उसके सिवा नहीं, और वह अपनी हुकूमत में किसी को साझीदार नहीं बनाता।
وَٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن كِتَابِ رَبِّكَۖ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَن تَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدٗا ۝ 26
(27) ऐ नबी!26 तुम्हारे रब की किताब में से जो कुछ तुमपर वह्य की गई है उसे (ज्यों-का-त्यों) सुना दो, कोई उसके फ़रमानों को बदल देने का इख़्तियार नहीं रखता। और (अगर तुम किसी के लिए उसमें रद्दो-बदल करोगे तो) उससे बचकर भागने के लिए कोई पनाहगाह न पाओगे।27
26. असहाबे-कह्फ़ (गुफावालों) का क़िस्सा ख़त्म करने के बाद अब यहाँ से दूसरी बात शुरू हो रही है और इसमें उन हालात पर तबसिरा (समीक्षा) है, जिनका उस वक़्त मक्का में मुसलमानों को सामना करना पड़ रहा था।
27. इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह, उस वक़्त नबी (सल्ल०) मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की ख़ातिर क़ुरआन में कुछ फेर-बदल कर देने और क़ुरैश के सरदारों से कुछ कम-ज़्यादा पर समझौता कर लेने की सोच रहे थे और अल्लाह तआला आप (सल्ल०) को इससे मना कर रहा था, बल्कि अस्ल में इसमें बात का रुख़ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की तरफ़ है अगरचे बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है। इसका मक़सद इस्लाम का इनकार करनेवालों को यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुदा के कलाम (वाणी) में अपनी तरफ़ से कुछ घटाने-बढ़ाने का इख़्तियार नहीं रखते। उनका काम बस यह है कि जो कुछ ख़ुदा ने उतारा है, उसे बिना किसी कमी-बेशी के पहुँचा दें। तुम्हें मानना है तो इस पूरे दीन को ज्यों-का-त्यों मानो जो सारे जहान के ख़ुदा की तरफ़ से पेश किया जा रहा है। और नहीं मानना है तो शौक़ से न मानो। मगर यह उम्मीद किसी हाल में न रखो कि तुम्हें राज़ी करने के लिए इस दीन (धर्म) में तुम्हारी ख़ाहिशों के मुताबिक़ कोई तब्दीली की जाएगी, चाहे वह कैसी ही मामूली-सी तब्दीली हो। यह जवाब है उस मुतालबे का जो इस्लाम के इनकारियों की तरफ़ से बार-बार किया जाता था कि ऐसी भी क्या ज़िद है कि हम तुम्हारी पूरी बात मान लें। आख़िर कुछ तो हमारे बाप-दादा के दीन के अक़ीदों और रस्मो-रिवाज का ख़याल रखो। कुछ तुम हमारी मान लो, कुछ हम तुम्हारी मान लें। इसपर समझौता हो सकता है और बिरादरी फूट से बच सकती है। क़ुरआन में उनके इस मुतालबे का कई मौक़ों पर ज़िक्र किया गया है और इसका यही जवाब दिया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-10 यूनुस की आयत 15 देखिए— “जब हमारी आयतें साफ़-साफ़ उनको सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो कभी हमारे सामने हाज़िर होने की उम्मीद नहीं रखते थे, कहते हैं कि इसके बजाय कोई और क़ुरआन लाओ या इसमें कुछ और तब्दीली करो।”
وَٱصۡبِرۡ نَفۡسَكَ مَعَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ وَلَا تَعۡدُ عَيۡنَاكَ عَنۡهُمۡ تُرِيدُ زِينَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَا تُطِعۡ مَنۡ أَغۡفَلۡنَا قَلۡبَهُۥ عَن ذِكۡرِنَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ وَكَانَ أَمۡرُهُۥ فُرُطٗا ۝ 27
(28) और अपने दिल को उन लोगों के साथ रहने पर मुत्मइन करो जो अपने रब की ख़ुशनूदी के तलबगार बनकर सुबह-शाम उसे पुकारते हैं, और उनसे हरगिज़ निगाह न फेरो। क्या तुम दुनिया की ज़ीनत (शोभा) को पसन्द करते हो?28 किसी ऐसे आदमी के हुक्मों पर न चलो29 जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया है और जो अपनी मरज़ी पर चलने और मनमानी करने में लग गया है। और जिसके काम करने का तरीक़ा एतिदाल (सन्तुलन) पर नहीं है।30
28. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत के मुताबिक़, क़ुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि ये बिलाल (रज़ि०), सुहैब (रज़ि०), अम्मार (रज़ि०), ख़ब्बाब (रज़ि०) और इब्ने-मसऊद (रज़ि०) जैसे गरीब लोग जो तुम्हारे साथ बैठा करते हैं, उनके साथ हम नहीं बैठ सकते। इन्हें हटाओ तो हम तुम्हारी मजलिस में आ सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि तुम क्या कहना चाहते हो। इसपर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) से कहा कि जो लोग अल्लाह की ख़ुशनूदी की ख़ातिर तुम्हारे पास इकट्ठा हुए हैं और रात-दिन अपने रब को याद करते हैं, उनके साथ रहने पर अपने दिल को मुत्मइन करो और उनसे हरगिज़ निगाह न फेरो। क्या तुम इन सच्चे लोगों को छोड़कर यह चाहते हो कि दुनियावी ठाठ-बाट रखनेवाले लोग तुम्हारे पास बैठे? इस जुमले में भी बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर मक़सद अस्ल में क़ुरैश के सरदारों को सुनाना है कि तुम्हारी यह दिखावे की शानो-शौकत, जिसपर तुम फूल रहे हो, अल्लाह और उसके रसूल की निगाह में कुछ क़द्रो-क़ीमत नहीं रखती। तुमसे वे गरीब लोग ज़्यादा क़ीमती हैं जिनके दिल में खुलूस और सच्चाई है और जो अपने रब की याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहते। ठीक यही मामला हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के सरदारों के बीच भी पेश आया था। वे हज़रत नूह (अलैहि०) से कहते थे, “हम तो यह देखते हैं कि हममें से जो नीच लोग हैं वे बे-सोचे-समझे तुम्हारे पीछे लग गए हैं।” (सूरा-11 हूद, आयत-27) और हज़रत नूह (अलैहि०) का जवाब यह था, “मैं ईमान लानेवालों को धुत्कार नहीं सकता।” (सूरा-11 हूद, आयत-29) और “जिन लोगों को तुम हिक़ारत (हीनता) की नज़र से देखते हो, मैं उनके बारे में यह नहीं कह सकता कि अल्लाह ने उन्हें कोई भलाई नहीं दी है।"(सूरा-11 हूद, आयत-31; सूरा-6 अनआम, आयत-52 और सूरा-15 हिज़्र, आयत-88)
29. यानी उसकी बात न मानो, उसके आगे न झुको, उसकी मरज़ी पूरी न करो और उसके कहने पर न चलो। यहाँ 'इताअत' का लफ़्ज़ अपने वसीअ (व्यापक) मानी में इस्तेमाल हुआ है।
30. अस्ल अरबी में जुमला “का-न अम्रुहू फ़ुरुता” आया है। इसका एक मतलब तो वह है जो हमने तर्जमे (अनुवाद) में अपनाया है। और दूसरा मतलब यह है कि “जो हक़ (सत्य) को पीछे छोड़कर और अख़लाक़ी हदों को तोड़कर बेलगाम चलनेवाला है।” दोनों सूरतों में नतीजा एक ही है। जो शख़्स ख़ुदा को भूलकर अपने नफ़्स (मन) का बन्दा बन जाता है, उसके हर काम में बेएतिदाली (असन्तुलन) पैदा हो जाती है और वह हदों से अनजान होकर रह जाता है। ऐसे आदमी की इताअत और पैरवी करने के मानी यह हैं कि इताअत और पैरवी करनेवाला ख़ुद भी हदों से अनजान होकर रह जाए और जिस-जिस घाटी में पैरवी करानेवाला भटके, उसी में पैरवी करनेवाला भी भटकता चला जाए।
وَقُلِ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَن شَآءَ فَلۡيُؤۡمِن وَمَن شَآءَ فَلۡيَكۡفُرۡۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ نَارًا أَحَاطَ بِهِمۡ سُرَادِقُهَاۚ وَإِن يَسۡتَغِيثُواْ يُغَاثُواْ بِمَآءٖ كَٱلۡمُهۡلِ يَشۡوِي ٱلۡوُجُوهَۚ بِئۡسَ ٱلشَّرَابُ وَسَآءَتۡ مُرۡتَفَقًا ۝ 28
(29) साफ़ कह दो कि यह हक़ (सत्य) है तुम्हारे रब की तरफ़ से, अब जिसका जी चाहे मान ले जिसका जी चाहे इनकार कर दे।31 हमने (इनकार करनेवाले) ज़ालिमों के लिए एक आग तैयार कर रखी है, जिसकी लपटें उन्हें घेरे में ले चुकी हैं।32 वहाँ अगर वे पानी माँगेंगे तो ऐसे पानी से उनकी ख़ातिरदारी की जाएगी जो तेल की तलछट जैसा होगा।33 और उनका मुँह भून डालेगा, सबसे बुरी पीने की चीज़ और बहुत बुरी आरामगाह!
31. यहाँ पहुँचकर साफ़ समझ में आ जाता है कि असहाबे-कह्फ़ का क़िस्सा सुनाने के बाद ये जुमले किस लिए कहे गए हैं। असहाबे-कह्फ़ (गुफावालों) के जो वाक़िआत ऊपर बयान हुए हैं, उनमें यह बताया गया था कि तौहीद (एक अल्लाह) पर ईमान लाने के बाद उन्होंने किस तरह उठकर दोटूक बात कह दी कि “हमारा रब तो बस वह है जो आसमानों और ज़मीन का रब है।” और फिर किस तरह वे अपनी गुमराह क़ौम से किसी तरह के समझौते पर तैयार न हुए, बल्कि उन्होंने पक्के इरादे के साथ कहा कि “हम उसके सिवा किसी दूसरे माबूद को न पुकारेंगे। अगर हम ऐसा करें तो बहुत ग़लत बात करेंगे।” और किस तरह उन्होंने अपनी क़ौम और उसके माबूदों (उपास्यों) को छोड़कर बिना किसी सहारे और बिना किसी सरो-सामान के एक गुफा में जा पड़ना क़ुबूल कर लिया, मगर यह गवारा न किया कि हक़ (सत्य) से बाल-बराबर भी हटकर अपनी क़ौम से समझौता कर लेते। फिर जब वे जागे तब भी उन्हें फ़िक्र हुई तो इस बात की कि अगर अल्लाह न करे कि हमारी क़ौम हमको अपनी मिल्लत (समुदाय) की तरफ़ फेर ले जाने में कामयाब हो गई तो हम कभी हकीक़ी कामयाबी और नजात न पा सकेंगे। इन वाक़िआत का ज़िक्र करने के बाद अब नबी (सल्ल०) से कहा जा रहा है — और मक़सद अस्ल में इस्लाम-दुश्मनों को सुनाना है— कि इन मुशरिकों और हक़ का इनकार करनेवालों से समझौते की बिलकुल भी गुंजाइश नहीं है। जो हक़ ख़ुदा की तरफ़ से आया है, उसे बिना कमी-बेशी उनके सामने पेश कर दो। मानते हैं तो मानें, नहीं मानते तो ख़ुद बुरा अंजाम देखेंगे। जिन्होंने मान लिया चाहे वे कम उम्र नव-जवान हों, या धन-दौलत से ख़ाली लोग, या ग़ुलाम और मज़दूर, बहरहाल वही क़ीमती जवाहर (रत्न) हैं। उन्हीं को यहाँ मुहब्बत के साथ रखा जाएगा और उनको छोड़कर उन बड़े-बड़े सरदारों और रईसों की कुछ परवाह न की जाएगी जो दुनिया की शानो-शौकत चाहे कितनी ही रखते हों, मगर हैं ख़ुदा से ग़ाफ़िल और अपने नफ़्स (मन) के बन्दे।
32. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सुरादिक़' इस्तेमाल हुआ है। इसका अस्ल मतलब है क़नातें और सिरापर्दे जो किसी ख़ेमे के चारों तरफ़ लगाए जाते हैं। लेकिन जहन्नम के पहलू से देखा जाए तो लगता है कि 'सुरादिक़' से मुराद उसकी वे बाहरी हदें हैं, जहाँ तक उसकी लपटें पहुँचें और उसकी गर्मी का असर हो। आयत में कहा गया है कि “उसके सुरादिक़ ने उनको घेरे में ले लिया है।” कुछ लोगों ने इसको मुस्तक़बिल (भविष्य) के मानी में लिया है, यानी वे इसका मतलब यह समझते हैं कि आख़िरत में जहन्नम के सिरापर्दे उनको घेर लेंगे। लेकिन हम इसका मतलब यह समझते हैं कि हक़ (सत्य) से मुँह मोड़नेवाले ज़ालिम यहीं से जहन्नम की लपेट में आ चुके हैं और उससे बचकर भाग निकलना उनके लिए मुमकिन नहीं है।
33. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुहल' इस्तेमाल हुआ है और अरबी लुग़त में इसके कई मतलब बयान किए गए हैं। कुछ इसका मतलब 'तेल की तलछट' बताते हैं। कुछ के नज़दीक यह लफ़्ज़ 'लावे' के मानी में आता है, यानी ज़मीन के वे माद्दे जो गरमी की शिद्दत से पिघल गए हों। कुछ के नज़दीक इससे मुराद पिघली हुई धातु है और कुछ कहते हैं कि इसका मतलब पीप और लहू है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ مَنۡ أَحۡسَنَ عَمَلًا ۝ 29
(30) रहे वे लोग जो मान लें और भले काम करें, तो यक़ीनन हम भले काम करनेवाले लोगों का अज्र (बदला) बरबाद नहीं किया करते।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَيَلۡبَسُونَ ثِيَابًا خُضۡرٗا مِّن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۚ نِعۡمَ ٱلثَّوَابُ وَحَسُنَتۡ مُرۡتَفَقٗا ۝ 30
(31) उनके लिए सदाबहार जन्नतें हैं, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वहाँ वे सोने के कंगनों से सजाए जाएँगे।34 बारीक रेशम और अतलस व दीबा के हरे कपड़े पहनेंगे, और ऊँची मसनदों35 पर तकिए लगाकर बैठेगे।
34. पुराने ज़माने में बादशाह सोने के कंगन पहनते थे। जन्नतवालों के लिबास में इस चीज़ का ज़िक्र करने का मक़सद यह बताना है कि वहाँ उनको शाही लिबास पहनाए जाएँगे। ख़ुदा का इनकार करनेवाला और उसकी नाफ़रमानी करनेवाला बादशाह वहाँ बेइज़्ज़त और रुसवा होगा और एक ईमानवाला और भले काम करनेवाला मज़दूर वहाँ बादशाहों की-सी शानो-शौकत से रहेगा।
35. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अराइक' इस्तेमाल हुआ जो जमा (बहुवचन) है 'अरीका' का। 'अरीका' अरबी ज़बान में ऐसे तख़्त को कहते हैं जिसपर छत्र लगा हुआ हो। इसका मक़सद भी यही तसव्वुर दिलाना है कि वहाँ हर जन्नती शाही तख़्त पर बैठा होगा।
۞وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلٗا رَّجُلَيۡنِ جَعَلۡنَا لِأَحَدِهِمَا جَنَّتَيۡنِ مِنۡ أَعۡنَٰبٖ وَحَفَفۡنَٰهُمَا بِنَخۡلٖ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمَا زَرۡعٗا ۝ 31
(32) ऐ नबी! इनके सामने एक मिसाल पेश करो।36 दो आदमी थे। उनमें से एक को हमने अंगूर के दो बाग़ दिए और उनके चारों तरफ़ खजूर के पेड़ों की बाड़ लगाई और उनके बीच खेती की ज़मीन रखी।
36. यह मिसाल किस तरह फिट बैठती है, इसे समझने के लिए आयत-2 निगाह में रहनी चाहिए, जिसमें मक्का के घमंडी सरदारों की इस बात का जवाब दिया गया था कि हम ग़रीब मुसलमानों के साथ आकर नहीं बैठ सकते। उन्हें हटा दिया जाए तो हम आकर सुनेंगे कि तुम क्या कहना चाहते हो। इस मक़ाम पर वह मिसाल भी निगाह में रहे जो सूरा-68 क़लम, आयतें—17-28 में बयान की गई है। साथ ही सूरा-19 मरयम, आयतें—73-74; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—55-61; सूरा-34 सबा, आयतें—34-36 और सूरा-41 हा॰ मीम॰ सजदा, आयतें—49, 50 पर भी नज़र डाल ली जाए।
كِلۡتَا ٱلۡجَنَّتَيۡنِ ءَاتَتۡ أُكُلَهَا وَلَمۡ تَظۡلِم مِّنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ وَفَجَّرۡنَا خِلَٰلَهُمَا نَهَرٗا ۝ 32
(33) दोनों बाग़ ख़ूब फले-फूले और फलदार होने में उन्होंने कोई कमी न छोड़ी। उन बाग़ों के अन्दर हमने एक नहर जारी कर दी
وَكَانَ لَهُۥ ثَمَرٞ فَقَالَ لِصَٰحِبِهِۦ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَنَا۠ أَكۡثَرُ مِنكَ مَالٗا وَأَعَزُّ نَفَرٗا ۝ 33
(34) और उसे ख़ूब फ़ायदा हासिल हुआ। यह कुछ पाकर एक दिन वह अपने पड़ोसी से बात करते हुए बोला, “मैं तुझसे ज़्यादा मालदार हूँ और तुझसे ज़्यादा लोगों की ताक़त मुझे हासिल है।”
وَدَخَلَ جَنَّتَهُۥ وَهُوَ ظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ قَالَ مَآ أَظُنُّ أَن تَبِيدَ هَٰذِهِۦٓ أَبَدٗا ۝ 34
(35) फिर वह अपने बाग़ में दाख़िल हुआ37 और ख़ुद अपने हक़ में ज़ालिम बनकर कहने लगा, “मैं नहीं समझता कि यह दौलत कभी ख़त्म हो जाएगी,
37. यानी जिन बाग़ों को वह अपनी जन्नत समझ रहा था, तंगदिल लोग जिन्हें दुनिया में कुछ शानो-शौकत हासिल हो जाती है, हमेशा इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो जाते हैं कि उन्हें दुनिया ही में जन्नत मिल चुकी है। अब और कौन-सी जन्नत है जिसे पाने की वे फ़िक्र करें।
وَمَآ أَظُنُّ ٱلسَّاعَةَ قَآئِمَةٗ وَلَئِن رُّدِدتُّ إِلَىٰ رَبِّي لَأَجِدَنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهَا مُنقَلَبٗا ۝ 35
(36) और मुझे उम्मीद नहीं कि क़ियामत की घड़ी कभी आएगी। फिर भी अगर कभी मुझे अपने रब के पास पलटाया भी गया, तो ज़रूर इससे भी ज़्यादा शानदार जगह पाऊँगा।38
38. यानी अगर मान लो कि कोई दूसरी ज़िन्दगी है भी तो मैं वहाँ इससे भी ज़्यादा ख़ुशहाल रहूँगा; क्योंकि यहाँ मेरा ख़ुशहाल होना इस बात की दलील है कि मैं ख़ुदा का प्यारा और उसका चहेता हूँ।
قَالَ لَهُۥ صَاحِبُهُۥ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَكَفَرۡتَ بِٱلَّذِي خَلَقَكَ مِن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ سَوَّىٰكَ رَجُلٗا ۝ 36
(37) उसके पड़ोसी ने बातें करते हुए उससे कहा, ” क्या तू कुफ़्र (नाशुक्री) करता है, उस ज़ात से जिसने तुझे मिट्टी से और फिर नुत्फ़े (वीर्य) से पैदा किया और तुझे एक पूरा आदमी बना खड़ा किया?”39
39. हालाँकि उस शख़्स ने ख़ुदा के वुजूद से इनकार नहीं किया था, बल्कि 'अगर मुझे मेरे रब की तरफ़ पलटाया भी गया' के अलफ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि वह ख़ुदा के वुजूद को मानता था, लेकिन इसके बावजूद उसके पड़ोसी ने उसे अल्लाह के इनकार का मुजरिम ठहराया। इसकी वजह यह है कि 'अल्लाह के साथ कुफ़्र' सिर्फ़ उसके वुजूद से इनकार ही का नाम नहीं है, बल्कि घमंड, फ़ख़्र और आख़िरत का इनकार भी अल्लाह से कुफ़्र (इनकार) ही है। जिसने यह समझा कि बस मैं-ही-मैं हूँ, मेरी दौलत और शानो-शौकत किसी की दी हुई नहीं, बल्कि मेरी ताक़त और क़ाबिलियत का नतीजा है, और मेरी दौलत ख़त्म होनेवाली नहीं, कोई उसको मुझसे छीननेवाला नहीं और किसी के सामने मुझे हिसाब देना नहीं, वह अगर ख़ुदा को मानता भी है तो सिर्फ़ एक वुजूद की हैसियत से मानता है; अपने मालिक और आक़ा और हाकिम की हैसियत से नहीं मानता। हालाँकि अल्लाह पर ईमान इसी हैसियत से ख़ुदा को मानना है, न कि सिर्फ़ एक मौजूद हस्ती की हैसियत से।
وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ فِئَةٞ يَنصُرُونَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَمَا كَانَ مُنتَصِرًا ۝ 37
(43) न हुआ अल्लाह को छोड़कर उसके पास कोई जत्था कि उसकी मदद करता, और न कर सका वह आप ही इस आफ़त का मुक़ाबला।
هُنَالِكَ ٱلۡوَلَٰيَةُ لِلَّهِ ٱلۡحَقِّۚ هُوَ خَيۡرٞ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ عُقۡبٗا ۝ 38
(44) उस वक़्त मालूम हुआ कि काम बनाने का इख़्तियार ख़ुदा-ए-बरहक़ (परम सत्य अल्लाह) ही के लिए है। इनाम वही बेहतर है जो वह दे और अंजाम वही अच्छा है जो वह दिखाए।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ فَأَصۡبَحَ هَشِيمٗا تَذۡرُوهُ ٱلرِّيَٰحُۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقۡتَدِرًا ۝ 39
(45) और ऐ नबी! इन्हें दुनिया की ज़िन्दगी की हक़ीक़त इस मिसाल से समझाओ कि आज हमने आसमान से पानी बरसा दिया तो ज़मीन की पौध ख़ूब घनी हो गई, और कल ज़मीन की वही पैदावार भुस बनकर रह गई जिसे हवाएँ उड़ाए लिए फिरती हैं। अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।41
41. यानी ख़ुदा ज़िन्दगी भी देता है और मौत भी। वह ऊपर भी उठाता है और नीचे भी गिराता है। उसके हुक्म से बहार आती है तो पतझड़ भी आ जाता है। आज तुम्हें ऐश और ख़ुशहाली हासिल है तो इस घमंड और धोखे में न रहो कि यह हालत हमेशा रहेगी। जिस ख़ुदा के हुक्म से यह कुछ तुम्हें मिला है, उसी के हुक्म से सब कुछ तुमसे छिन भी सकता है।
ٱلۡمَالُ وَٱلۡبَنُونَ زِينَةُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱلۡبَٰقِيَٰتُ ٱلصَّٰلِحَٰتُ خَيۡرٌ عِندَ رَبِّكَ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ أَمَلٗا ۝ 40
(46) यह माल और यह औलाद सिर्फ़ दुनियावी ज़िन्दगी की थोड़े दिनों की आराइश (शोभा) है। अस्ल में तो बाक़ी रह जानेवाली नेकियाँ ही तेरे रब के नज़दीक नतीजे के एतिबार से बेहतर हैं और उन्हीं से अच्छी उम्मीदें बाँधी जा सकती हैं।
وَيَوۡمَ نُسَيِّرُ ٱلۡجِبَالَ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ بَارِزَةٗ وَحَشَرۡنَٰهُمۡ فَلَمۡ نُغَادِرۡ مِنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 41
(47) फ़िक्र उस दिन की होनी चाहिए जब कि हम पहाड़ों को चलाएँगे,42 और तुम ज़मीन को बिलकुल नंगा पाओगे,43 और हम तमाम इनसानों को इस तरह घेरकर जमा करेंगे कि (अगलों-पिछलों में से) एक भी न छूटेगा,44
42. यानी जबकि ज़मीन की पकड़ ढीली पड़ जाएगी और पहाड़ इस तरह चलने शुरू होंगे, जैसे बादल चलते हैं। इस कैफ़ियत को एक दूसरी जगह पर क़ुरआन में इस तरह बयान किया गया है— “तुम पहाड़ों को देखते हो और समझते हो कि ये सख़्त जमे हुए हैं। मगर वे चलेंगे उस तरह जैसे बादल चलते हैं।” (सूरा-27 नम्ल, आयत-88)
43. यानी उसपर कोई चीज़ न उग सकेगी और कोई इमारत बाक़ी न रहेगी, बिलकुल वह एक चटियल मैदान बन जाएगी। यह वही बात है जो इस सूरा के शुरू में कही गई थी कि “जो कुछ इस ज़मीन पर है उसे हमने लोगों की आज़माइश के लिए थोड़े दिनों की रौनक बनाया है। जब यह बिना पानी और बिना हरियाली का एक रेगिस्तान बनकर रह जाएगी।”
44. यानी हर इनसान जो आदम से लेकर क़ियामत की आख़िरी घड़ी तक पैदा हुआ है, चाहे माँ के पेट से निकलकर उसने एक ही साँस ली हो, उस वक़्त दोबारा पैदा किया जाएगा और सबको एक वक़्त में इकट्ठा कर दिया जाएगा।
وَعُرِضُواْ عَلَىٰ رَبِّكَ صَفّٗا لَّقَدۡ جِئۡتُمُونَا كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةِۭۚ بَلۡ زَعَمۡتُمۡ أَلَّن نَّجۡعَلَ لَكُم مَّوۡعِدٗا ۝ 42
(48) और सबके सब तुम्हारे रब के सामने क़तारों में पेश किए जाएँगे लो देख लो, आ गए न तुम हमारे पास उसी तरह, जैसा हमने तुमको पहली बार पैदा किया था।45 तुमने तो यह समझा था कि हमने तुम्हारे लिए कोई वादे का वक़्त मुक़र्रर ही नहीं किया है
45. यानी उस वक़्त आख़िरत का इनकार करनेवालों से कहा जाएगा कि देखो, नबियों की दी हुई ख़बर सच्ची साबित हुई ना! वे तुम्हें बताते थे कि जिस तरह अल्लाह ने तुम्हें पहली बार पैदा किया है, उसी तरह दोबारा पैदा करेगा। मगर तुम उसे मानने से इनकार करते थे। बताओ, अब तुम दोबारा पैदा हो गए या नहीं?
وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ فَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا فِيهِ وَيَقُولُونَ يَٰوَيۡلَتَنَا مَالِ هَٰذَا ٱلۡكِتَٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةً إِلَّآ أَحۡصَىٰهَاۚ وَوَجَدُواْ مَا عَمِلُواْ حَاضِرٗاۗ وَلَا يَظۡلِمُ رَبُّكَ أَحَدٗا ۝ 43
(49) और आमालनामा सामने रख दिया जाएगा। उस वक़्त तुम देखोगे कि मुजरिम लोग अपनी ज़िन्दगी की किताब में लिखी बातों से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे कि “हाय, हमारी बदनसीबी! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें दर्ज न हो गई हो।” जो-जो कुछ उन्होंने किया था, वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे, और तेरा रब किसी पर ज़रा (भी) ज़ुल्म न करेगा।46
46. यानी ऐसा हरगिज़ न होगा कि किसी ने कोई जुर्म न किया हो और वह ख़ाह-मख़ाह उसके आमालनामे में लिख दिया जाए, और न यही होगा कि आदमी को उसके जुर्म से बढ़कर सज़ा दी जाए या बेगुनाह पकड़कर सज़ा दे डाली जाए।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ كَانَ مِنَ ٱلۡجِنِّ فَفَسَقَ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِۦٓۗ أَفَتَتَّخِذُونَهُۥ وَذُرِّيَّتَهُۥٓ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِي وَهُمۡ لَكُمۡ عَدُوُّۢۚ بِئۡسَ لِلظَّٰلِمِينَ بَدَلٗا ۝ 44
(50) याद करो, जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो उन्होंने सजदा किया, मगर इबलीस ने न किया।47 वह जिन्नों में से था, इसलिए अपने रब के हुक्म की पैरवी से निकल गया।48 अब क्या तुम मुझे छोड़कर उसको और उसकी औलाद को अपना सरपरस्त बनाते हो, हालाँकि वे तुम्हारे दुश्मन हैं? बड़ा ही बुरा बदल है जिसे ज़ालिम लोग अपना रहे हैं।
47. बात के इस सिलसिले में आदम और इबलीस के क़िस्से की तरफ़ इशारा करने का मक़सद गुमराह इनसानों को उनकी इस बेवक़ूफ़ी पर ख़बरदार करना है कि वे अपने रहमवाले मेहरबान पालनहार और उनका भला चाहनेवाले पैग़म्बरों को छोड़कर अपने उस सदा के दुश्मन के फंदे में फँस रहे हैं जो पैदाइश के पहले दिन से उनके ख़िलाफ़ हसद (जलन) रखता है।
48. यानी इबलीस फ़रिश्तों में से न था, बल्कि जिन्नों में से था। इसी लिए इताअत और फ़रमाँबरदारी से बाहर निकल जाना उसके लिए मुमकिन हुआ। फ़रिश्तों के बारे में क़ुरआन साफ़ बयान करता है कि ये फ़ितरी तौर पर फ़रमाँबरदार हैं, “अल्लाह जो हुक्म भी उनको दे, वे उसकी नाफ़रमानी नहीं करते और वही करते हैं जो उनको हुक्म दिया जाता है।” (सूरा-66 तहरीम, आयत-6) “वे सरकशी नहीं करते, अपने रब से, जो उनके ऊपर है, डरते हैं और वही करते हैं जिसका उन्हें हुक्म दिया जाता है।” (सूरा-16 नह्ल, आयतें—49, 50) इसके बरख़िलाफ़ जिन्न इनसानों की तरह एक इख़्तियार रखनेवाला जानदार है, जिसे पैदाइशी फ़रमाँबरदार नहीं बनाया गया है, बल्कि उसे कुफ़्र (इनकार) व ईमान और इताअत व नाफ़रमानी, दोनों की क़ुदरत दी गई है। इसी हक़ीक़त को यहाँ खोला गया है कि इबलीस जिन्नों में से था, इसलिए उसने ख़ुद अपने इख़्तियार से नाफ़रमानी की राह चुनी। यह बयान उन तमाम ग़लतफ़हमियों को दूर कर देता है जो आम तौर से लोगों में पाई जाती हैं कि इबलीस फ़रिश्तों में से था और फ़रिश्ता भी कोई मामूली नहीं, बल्कि फ़रिश्तों का उस्ताद। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— सूरा-15 हिज्र, आयत-27 और सूरा-72 जिन्न, आयतें—13-15) रहा यह सवाल कि जब इबलीस फ़रिश्तों में से न था तो फिर क़ुरआन के बयान का यह अन्दाज़े-बयान किस तरह सही हो सकता है कि “हमने फ़रिश्तों को कहा कि आदम को सजदा करो। तो उन सबने सजदा किया, मगर इबलीस ने न किया?” इसका जवाब यह है कि फ़रिश्तों को सजदे का हुक्म देने के मानी ये थे कि ज़मीन के वे तमाम जानदार भी इनसान के फ़रमाँबरदार बन जाएँ जो ज़मीन की अमलदारी में फ़रिश्तों के मातहत इन्तिज़ाम में लगाए गए हैं। चुनाँचे फ़रिश्तों के साथ उन सब जानदारों ने भी सजदा किया। मगर इबलीस ने उनका साथ देने से इनकार कर दिया। (शब्द 'इबलीस' का मतलब जानने के लिए देखिए— सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-73)
۞مَّآ أَشۡهَدتُّهُمۡ خَلۡقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَا خَلۡقَ أَنفُسِهِمۡ وَمَا كُنتُ مُتَّخِذَ ٱلۡمُضِلِّينَ عَضُدٗا ۝ 45
(51) मैंने आसमान और ज़मीन पैदा करते वक़्त उनको नहीं बुलाया था और न ख़ुद उनकी अपनी पैदाइश में उन्हें शरीक किया था।49 मेरा यह काम नहीं है कि गुमराह करनेवालों को अपना मददगार बनाया करूँ।
49. मतलब यह है कि ये शैतान आख़िर तुम्हारी फ़रमाँबरदारी और बन्दगी के हक़दार कैसे बन गए? बन्दगी का हक़दार तो सिर्फ़ पैदा करनेवाला ही हो सकता है। और इन शैतानों का हाल यह है कि आसमान और ज़मीन के बनाने में शरीक होना तो दूर, ये तो ख़ुद पैदा किए गए हैं।
وَيَوۡمَ يَقُولُ نَادُواْ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ فَدَعَوۡهُمۡ فَلَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُمۡ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُم مَّوۡبِقٗا ۝ 46
(52) फिर क्या करेंगे ये लोग उस दिन जबकि इनका रब इनसे कहेगा कि पुकारो अब उन हस्तियों को जिन्हें तुम मेरा शरीक समझ बैठे थे।50 ये उनको पुकारेंगे, मगर वे इनकी मदद को न आएँगे और हम उनके बीच एक ही हलाकत का गढ़ा साझा कर देंगे।51
50. यहाँ फिर वही बात बयान की गई है जो इससे पहले भी कई जगह क़ुरआन में गुज़र चुकी है कि अल्लाह के हुक्मों और उसकी हिदायतों को छोड़कर किसी दूसरे के हुक्मों और रहनुमाई की पैरवी करना अस्ल में उसको ख़ुदाई में अल्लाह का साझी ठहराना है, चाहे आदमी उस दूसरे को ज़बान से ख़ुदा का साझी ठहराता हो या न ठहराता हो, बल्कि अगर आदमी उन दूसरी हस्तियों पर लानत भेजते हुए भी अल्लाह के हुक्म के मुक़ाबले में उनके हुक्मों की पैरवी कर रहा हो, तब भी वह शिर्क का मुजरिम है। चुनाँचे यहाँ शैतानों के मामले में आप खुले आम देख रहे हैं कि दुनिया में हर एक उनपर लानत करता है, मगर इस लानत के बावजूद जो लोग उनकी पैरवी करते हैं, क़ुरआन उन सबको यह इलज़ाम दे रहा है कि तुम शैतानों को ख़ुदा का साझी बनाए हुए हो। यह शिर्क अक़ीदे का शिर्क नहीं, बल्कि अमली शिर्क है और क़ुरआन इसको भी शिर्क ही कहता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4, निसा, हाशिए—91, 145; सूरा-6 अनआम, हाशिया-87 और 107; सूरा-9 तौबा, हाशिया-31; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-32; सूरा-19 मरयम, हाशिया-27; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-11; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-56; सूरा-28 क़सस, हाशिया-86; सूरा-24 सबा, हाशिए— 59-63; सूरा-36 यासीन, हाशिया-53; सूरा-42 शूरा, हाशिया-38; सूरा-45 जासिया, हाशिया-30)
51. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों ने इस आयत के दो मतलब बयान किए हैं। एक वह जो हमने ऊपर तर्जमे में अपनाया है और दूसरा मतलब यह है कि “हम उनके बीच दुश्मनी डाल देंगे।” यानी दुनिया में उनके बीच जो दोस्ती थी, आख़िरत में वह सख़्त दुश्मनी में बदल जाएगी।
وَرَءَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ٱلنَّارَ فَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مُّوَاقِعُوهَا وَلَمۡ يَجِدُواْ عَنۡهَا مَصۡرِفٗا ۝ 47
(53) सारे मुजरिम उस दिन आग देखेंगे और समझ लेंगे कि अब उन्हें उसमें गिरना है और वे उससे बचने के लिए कोई पनाहगाह न पाएँगे।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِلنَّاسِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَكۡثَرَ شَيۡءٖ جَدَلٗا ۝ 48
(54) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया, मगर इनसान बड़ा ही झगड़ालू साबित हुआ है।
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّهُمۡ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ قُبُلٗا ۝ 49
(55) उनके सामने जब हिदायत आई तो उसे मानने और अपने रब के सामने माफ़ी चाहने से आख़िर उनको किस चीज़ ने रोक दिया? इसके सिवा और कुछ नहीं कि वे इन्तिज़ार में हैं कि उनके साथ भी वही कुछ हो जो पिछली क़ौमों के साथ हो चुका है, या यह कि वे अज़ाब को सामने आते देख लें!52
52. यानी जहाँ तक दलील और हुज्जत (तर्क) का ताल्लुक़ है, क़ुरआन ने हक़ (सच्चाई) को खोलकर साफ़-साफ़ बयान करने में कोई कसर उठा नहीं रखी है। दिल और दिमाग़ को अपील करने के जितने असरदार तरीक़े अपनाए जा सकते थे, वे सब बेहतरीन अन्दाज़ में यहाँ अपनाए जा चुके हैं। अब वह क्या चीज़ है जो हक़ क़ुबूल करने में उनके लिए रुकावट बन रही है? सिर्फ़ यह कि उन्हें अज़ाब का इन्तिज़ार है। मार खाए बग़ैर वे सीधे नहीं होना चाहते।
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۚ وَيُجَٰدِلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّۖ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَمَآ أُنذِرُواْ هُزُوٗا ۝ 50
(56) रसूलों को हम इस काम के सिवा और किसी ग़रज़ के लिए नहीं भेजते कि वे ख़ुशख़बरी देने और ख़बरदार करने का काम पूरा करें।53 मगर इनकार करनेवालों का हाल यह है कि वे बातिल (असत्य) के हथियार लेकर हक़ (सत्य) को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं और उन्होंने मेरी आयतों को और उन चेतावनियों को जो इन्हें दी गईं, मज़ाक़ बना लिया है।
53. इस आयत के भी दो मतलब हो सकते हैं और दोनों ही यहाँ चस्पाँ होते हैं— एक यह कि रसूलों को हम इसी लिए भेजते हैं कि फ़ैसले का वक़्त आने से पहले लोगों को फ़रमाँबरदारी के अच्छे और नाफ़रमानी के बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दें। मगर ये बेवक़ूफ़ लोग इन पेशगी चेतावनियों से कोई फ़ायदा नहीं उठाते और उसी बुरे अंजाम को देखने पर अड़े हैं, जिससे रसूल उन्हें बचाना चाहते हैं। दूसरा मतलब यह है कि अगर उनको अज़ाब ही देखना मंज़ूर है तो पैग़म्बर से इसकी माँग न करें, क्योंकि पैग़म्बर अज़ाब देने के लिए नहीं, बल्कि अज़ाब से पहले सिर्फ़ ख़बरदार करने के लिए भेजे जाते हैं।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ فَأَعۡرَضَ عَنۡهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُۚ إِنَّا جَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۖ وَإِن تَدۡعُهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ فَلَن يَهۡتَدُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 51
(57) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन है जिसे उसके रब की आयतें सुनाकर नसीहत की जाए और वह उनसे मुँह फेरे और उस बुरे अंजाम को भूल जाए जिसका सरो-सामान उसने अपने लिए ख़ुद अपने हाथों किया है? (जिन लोगों ने यह रवैया अपनाया है) उनके दिलों पर हमने ग़िलाफ़ (ख़ोल) चढ़ा दिए हैं जो उन्हें क़ुरआन की बात नहीं समझने देते, और उनके कानों में हमने बोझ पैदा कर दिया है। तुम उन्हें हिदायत (सीधे रास्ते) की तरफ़ कितना ही बुलाओ, वे इस हालत में कभी हिदायत न पाएँगे।54
54. यानी जब कोई शख़्स या गरोह दलील, हुज्जत (तर्क) और भलाई की नसीहत के मुक़ाबले में झगड़ालूपन पर उतर आता है और हक़ का मुक़ाबला झूठ और धोखा-फ़रेब के हथियारों से करने लगता है और अपने करतूतों का बुरा अंजाम देखने से पहले किसी के समझाने से अपनी ग़लती मानने पर तैयार नहीं होता तो अल्लाह तआला फिर उसके दिल पर ताला लगा देता है और उसके कान सच की हर पुकार के लिए बहरे कर देता है। ऐसे लोग नसीहत से नहीं माना करते, बल्कि तबाही के गढ़े में गिरकर ही उन्हें यक़ीन आता है कि वह तबाही थी जिसके रास्ते पर वे बढ़े चले जा रहे थे।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَفُورُ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۖ لَوۡ يُؤَاخِذُهُم بِمَا كَسَبُواْ لَعَجَّلَ لَهُمُ ٱلۡعَذَابَۚ بَل لَّهُم مَّوۡعِدٞ لَّن يَجِدُواْ مِن دُونِهِۦ مَوۡئِلٗا ۝ 52
(58) तेरा रब बड़ा माफ़ करनेवाला और रहमवाला है। वह इनके करतूतों पर इन्हें पकड़ना चाहता तो जल्दी ही अज़ाब भेज देता। मगर इनके लिए वादे का एक वक़्त मुक़र्रर है और उससे बचकर भाग निकलने की ये कोई राह न पाएँगे।55
55. यानी अल्लाह तआला का यह तरीक़ा नहीं है कि जिस वक़्त किसी से कोई क़ुसूर हो उसी वक़्त पकड़कर उसे सज़ा दे डाले। यह उसके बेइन्तिहा रहमवाला होने का तक़ाज़ा है कि मुजरिमों के पकड़ने में वह जल्दबाज़ी से काम नहीं लेता और मुद्दतों उनको संभलने का मौक़ा देता रहता है। मगर सख़्त नादान हैं वे लोग जो इस ढील को ग़लत मानी में लेते हैं और यह समझते हैं कि वे चाहे कुछ भी करते रहें, उनसे कभी पूछ-गछ होगी ही नहीं।
وَتِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰٓ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَعَلۡنَا لِمَهۡلِكِهِم مَّوۡعِدٗا ۝ 53
(59) ये अज़ाब की लपेट में आई हुई बस्तियाँ तुम्हारे सामने मौजूद हैं।56 इन्होंने जब ज़ुल्म किया तो हमने इन्हें तबाह कर दिया, और इनमें से हर एक की तबाही के लिए हमने वक़्त मुक़र्रर कर रखा था।
56. इशारा है सबा, समूद, मदयन और क़ौमे-लूत के उजड़े इलाक़ों की तरफ़ जिन्हें क़ुरैश के लोग अपने तिजारती सफ़रों में आते-जाते देखा करते थे और जिनको अरब के दूसरे लोग भी अच्छी तरह जानते थे।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِفَتَىٰهُ لَآ أَبۡرَحُ حَتَّىٰٓ أَبۡلُغَ مَجۡمَعَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ أَوۡ أَمۡضِيَ حُقُبٗا ۝ 54
(60) (ज़रा इनको वह क़िस्सा सुनाओ जो मूसा को पेश आया था) जबकि मूसा ने अपने ख़ादिम (सेवक) से कहा था कि “मैं अपना सफ़र ख़त्म न करूँगा जब तक कि दोनों नदियों के संगम पर न पहुँच जाऊँ, वरना मैं एक लम्बे ज़माने तक चलता ही रहूँगा।”57
57. यहाँ पहुँचकर यह क़िस्सा सुनाने का मक़सद कुफ़्र (इनकार) करनेवालों और ईमान लानेवालों दोनों को एक अहम हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है और वह यह है कि सिर्फ़ ज़ाहिर को देखने की निगाह दुनिया में बज़ाहिर जो कुछ होते देखती है उससे बिलकुल ग़लत नतीजे निकाल लेती है; क्योंकि उसके सामने अल्लाह तआला की वे मस्लहतें नहीं होतीं जिनका ख़याल रखकर वह काम करता है। ज़ालिमों का फलना-फूलना और बेगुनाहों का तकलीफ़ों में गिरफ़्तार होना, नाफ़रमानों पर इनामों की बारिश और फ़रमाँबरदारों पर मुसीबतों की भरमार, बुरे काम करनेवालों का ऐश और भले काम करनेवालों की बदहाली, ये वे मंज़र हैं जो आए दिन इनसानों के सामने आते रहते हैं, और सिर्फ़ इसलिए कि लोग उनकी बारीकी को नहीं समझते, इनसे आम तौर पर ज़ेहनों में उलझनें, बल्कि ग़लतफहमियों तक पैदा हो जाती हैं। हक़ के इनकारी और ज़ालिम इनसे यह नतीजा निकालते हैं कि यह दुनिया अँधेर नगरी है। कोई इसका राजा नहीं और है तो चौपट है। यहाँ जिसका जो कुछ जी चाहे करता रहे, कोई पूछनेवाला नहीं। ईमानवाले लोग इस तरह के वाक़िआत को देखकर दुखी होते हैं और कभी-कभी सख़्त आजमाइशों के मौक़ों पर उनके ईमान तक डगमगा जाते हैं। ऐसे ही हालात में अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अपनी मशीयत (मरज़ी) के मुताबिक़ चलनेवाले कारख़ाने (दुनिया) का परदा उठाकर ज़रा उसकी एक झलक दिखाई थी, ताकि उन्हें मालूम हो जाए कि यहाँ रात-दिन जो कुछ हो रहा है, कैसे और किन मस्लहतों से हो रहा है और किस तरह वाक़िआत का ज़ाहिर उनके अन्दर छिपी हक़ीक़तों से अलग होता है। हज़रत मूसा (अलैहि०) को यह वाक़िआ कब और कहाँ पेश आया? इसकी कोई तफ़सील क़ुरआन ने बयान नहीं की है। हदीस में औफ़ी की एक रिवायत हमें ज़रूर मिलती है, जिसमें वे इबने-अब्बास (रज़ि०) की यह बात नक़्ल करते हैं कि यह वाक़िआ उस वक़्त पेश आया था जब फ़िरऔन की तबाही के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) ने मिस्र में अपनी क़ौम को आबाद किया था। लेकिन इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से जो मज़बूत रिवायतें बुख़ारी और हदीस की दूसरी किताबों में नक़्ल की गई हैं, वे इस बयान की ताईद (समर्थन) नहीं करतीं और न किसी दूसरे ज़रिए ही से यह साबित होता है कि फ़िरऔन की तबाही के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) कभी मिस्र में रहे थे, बल्कि क़ुरआन इसकी तफ़सील यह बयान करता है कि मिस्र से निकलने के बाद उनका सारा ज़माना ‘सीना' और 'तैह' में बीता। इसलिए यह रिवायत तो क़ुबूल करने के क़ाबिल नहीं है। अलबत्ता जब हम ख़ुद इस क़िस्से की तफ़सीलात पर ग़ौर करते हैं तो दो बातें साफ़ समझ में आती हैं। एक यह कि ये चीज़ें हज़रत मूसा (अलैहि०) को उनकी पैग़म्बरी के शुरू दौर में दिखाई गई होंगी; क्योंकि पैग़म्बरी के शुरू ही में नबियों (अलैहि०) को इस तरह की तालीम और तरबियत की ज़रूरत होती है। दूसरी यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को इन बातों को दिखाने की ज़रूरत उस ज़माने में पेश आई होगी, जबकि बनी-इसराईल के सामने भी उसी तरह के हालात पेश आ रहे थे जो मक्का के मुसलमानों के सामने थे। इन दो वजहों से हमारा अन्दाज़ा यह है (सही बात तो अल्लाह जानता है) कि इस वाक़िए का ताल्लुक़ उस दौर से है जबकि मिस्र में बनी-इसराईल पर फ़िरऔन के ज़ुल्मों का सिलसिला जारी था और क़ुरैश के सरदारों की तरह फ़िरऔन और उसके दरबारी भी अज़ाब में देर होते देखकर यह समझ रहे थे कि ऊपर कोई नहीं है जो उनसे पूछ-गछ करनेवाला हो, और मक्का के सताए जा रहे मुसलमानों की तरह मिस्र के सताए गए मुसलमान भी बेचैन हो-होकर पूछ रहे थे कि ऐ ख़ुदा! इन ज़ालिमों पर इनामों की और हमपर मुसीबतों की यह बारिश कब तक? यहाँ तक कि ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) यह पुकार उठे थे कि “ऐ पालनहार! तूने फ़िरऔन और उसके दरबारियों को दुनिया की ज़िन्दगी में बड़ी शानो-शौकत और धन-दौलत दे रखी है; ऐ पालनहार, क्या यह इसलिए है। कि वे दुनिया को तेरे रास्ते से भटका दें?” (क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-88) अगर हमारा यह अन्दाज़ा दुरुस्त हो तो फिर यह समझा जा सकता है कि शायद हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह सफ़र सूडान की तरफ़ था और 'मज-मउल-बहरैन' (दो नदियों का संगम) से मुराद वह जगह है जहाँ मौजूदा शहर ख़ुरतूम के क़रीब नील नदी की दो बड़ी धाराएँ 'बहरुल-अबयज़' और 'बहरुल-अज़रक़' आकर मिलती हैं। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जिन इलाक़ों में गुज़ारी है, उनमें उस एक मक़ाम के सिवा और कोई 'मज-मउल-बहरैन' नहीं पाया जाता। बाइबल इस वाक़िए के बारे में बिलकुल ख़ामोश है। अलबत्ता तलमूद में इसका ज़िक्र मौजूद है, मगर वह इसे हज़रत मूसा (अलैहि०) के बजाय रिब्बी यहूहानान-बिन-लावी से जोड़ती है और उसका बयान है कि रिब्बी यहूहानान को यह वाक़िआ हज़रत इलयास (अलैहि०) के साथ पेश आया था जो दुनिया से ज़िन्दा उठाए जाने के बाद फ़रिश्तों में शामिल कर लिए गए हैं और दुनिया का इन्तिज़ाम करने के काम पर लगे हैं (The Talmud Selections by H. Polano, pp 313-316)। हो सकता है कि (मिस्र से) निकलने से पहले के बहुत-से वाक़िआत की तरह यह वाक़िआ भी बनी-इसराईल के यहाँ अपनी सही शक्ल में महफ़ूज़ न रहा हो और सदियों बाद उन्होंने क़िस्से की कड़ियाँ कहीं-से-कहीं ले जाकर जोड़ दी हों। तलमूद की इसी रिवायत से मुतास्सिर होकर मुसलमानों में से कुछ लोगों ने यह कह दिया था कि क़ुरआन में इस जगह पर मूसा से मुराद हज़रत मूसा (अलैहि०) नहीं, बल्कि कोई और मूसा हैं। लेकिन न तो तलमूद की हर रिवायत लाज़िमी तौर पर सही इतिहास ठहराई जा सकती है, न हमारे लिए यह समझने की कोई मुनासिब वजह है कि क़ुरआन में किसी और अनजान मूसा का ज़िक्र इस तरीक़े से किया गया होगा और फिर जबकि भरोसेमन्द हदीसों में हज़रत उबई-बिन-कअब की यह रिवायत मौजूद है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) ने इस क़िस्से को बयान करते हुए मूसा से मुराद बनी-इसराईल के पैग़म्बर हज़रत मूसा को बताया है तो किसी मुसलमान के लिए तलमूद का बयान ध्यान देने के क़ाबिल नहीं रह जाता। मुस्तशरिक़ीन (इस्लाम का अध्ययन करनेवाले पश्चिमी विद्वानों) ने अपनी आदत के मुताबिक़ क़ुरआन मजीद के इस क़िस्से के बारे में भी यह खोज करने की कोशिश की है कि अस्ल में ये कहाँ से लिए गए हैं और तीन किस्सों पर उंगली रख दी है कि ये हैं वे जगहें जहाँ से मुहम्मद (सल्ल०) ने नक़्ल करके यह क़िस्सा बना लिया और फिर दावा कर दिया कि यह तो मेरे ऊपर वह्य के ज़रिए से उतरा है। एक गिलगामेश की दास्तान, दूसरा सिकन्दरनामा सुरयानी और तीसरा वह यहूदी रिवायत जिसका हमने ऊपर ज़िक्र किया है। लेकिन ये बदमिज़ाज लोग इल्म (ज्ञान) के नाम से जो खोजबीन करते हैं, उसमें पहले अपनी जगह यह तय कर लेते हैं कि क़ुरआन को किसी भी हालत में अल्लाह की तरफ़ से उतरा हुआ तो नहीं मानना है। अब कहीं-न-कहीं से इस बात का सुबूत जुटाना ज़रूरी है कि जो कुछ मुहम्मद (सल्ल०) ने इसमें पेश किया है यह फ़ुलाँ-फ़ुलाँ जगहों से चुराई हुए बातें और जानकारियाँ हैं। खोज के इस तरीक़े में ये लोग इतनी बेशर्मी के साथ खींच-तानकर ज़मीन-आसमान के जोड़ मिलाते हैं कि बेइख़्तियार घिन आने लगती है और आदमी को मजबूरन कहना पड़ता है कि अगर इसी का नाम इल्मी तहक़ीक़ (ज्ञानपरक शोध) है तो लानत है इस इल्म पर और इस तहक़ीक़ पर। अगर जानकारी चाहनेवाला कोई शख़्स उनसे सिर्फ़ चार बातों का जवाब तलब कर ले तो उनके इस झूठ और इलज़ाम का परदा बिलकुल चाक हो जाए जो उन्होंने सिर्फ़ दुश्मनी और तास्सुब की बिना पर डालने की नाकाम कोशिश की है– एक यह कि आपके पास वह क्या दलील है जिसकी बुनियाद पर आप दो-चार पुरानी किताबों में क़ुरआन के किसी बयान से मिलता-जुलता मज़मून (विषय) पाकर यह दावा कर देते हैं कि क़ुरआन का बयान लाज़िमी तौर पर इन्हीं किताबों से लिया हुआ है? दूसरी यह कि अलग-अलग ज़बानों की जितनी किताबों के बारे में आप लोगों ने बताया है कि क़ुरआन मजीद के क़िस्से और दूसरे बयान उनसे लिए गए हैं, अगर उनकी लिस्ट बनाई जाए तो अच्छी-ख़ासी एक लाइब्रेरी की लिस्ट बन जाए। क्या ऐसी कोई लाइब्रेरी मक्का में उस वक़्त मौजूद थी और अलग-अलग ज़बानों के तर्जमा करनेवाले बैठे हुए मुहम्मद (सल्ल०) के लिए चीज़ें जुटा रहे थे? अगर ऐसा नहीं है और आपका सारा दारोमदार उन दो-तीन तिजारती सफ़रों पर है जो नबी (सल्ल०) ने पैग़म्बरी से कई साल पहले अरब से बाहर किए थे तो सवाल यह है कि आख़िर उन तिजारती सफ़रों में नबी (सल्ल०) कितनी लाइब्रेरियाँ नक़्ल या ज़बानी याद कर लाए थे? और पैग़म्बरी के एलान से एक दिन पहले तक भी नबी (सल्ल०) की ऐसी जानकारी का कोई निशान नबी (सल्ल०) की बातचीत में न पाए जाने की क्या मुनासिब वजह है? तीसरी बात यह कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़, यहूदी और ईसाई, सब आप ही लोगों की तरह इस तलाश में थे कि मुहम्मद (सल्ल०) ये बातें कहाँ से लाते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि नबी (सल्ल०) के ज़माने के लागों को इस चोरी का पता न चलने की क्या वजह है? उन्हें तो बार-बार ललकारा जा रहा था कि यह क़ुरआन अल्लाह की तरफ़ से उतारा हुआ है, वह्य के सिवा यह और कहीं से नहीं आया है। अगर तुम इसे इनसान का कलाम (वाणी) कहते हो तो साबित करो कि इनसान ऐसा कलाम कह सकता है। इस चैलेंज ने नबी (सल्ल०) के ज़माने के इस्लाम-दुश्मनों की कमर तोड़कर रख दी, मगर वे एक जगह की भी निशानदेही न कर सके जहाँ से क़ुरआन के लाए जाने का कोई समझदार आदमी यक़ीन तो दरकिनार, शक ही कर सकता। सवाल यह है कि उस ज़माने के लोग यह सुराग़ लगाने में नाकाम क्यों हुए और हज़ार-बारह सौ साल के बाद आज दुश्मनों को इसमें कैसे कामयाबी मिल रही है? आख़िरी और सबसे अहम सवाल यह है कि इस बात का इमकान तो बहरहाल है ना कि क़ुरआन अल्लाह का उतारा हुआ हो और वह पिछले इतिहास के उन्हीं वाक़िआत की सही ख़बरें दे रहा हो जो दूसरे लोगों तक सदियों के दौरान में ज़बानी रिवायतों से बिगड़ती हुई पहुँची हों और अफसानों में जगह पा गई हों। इस इमकान को किस सही दलील की बुनियाद पर बिलकुल ही बहस से अलग कर लिया गया और क्यों सिर्फ़ इसी एक इमकान को बहस और खोजबीन की बुनियाद बना लिया गया कि क़ुरआन उन क़िस्सों ही से लिया गया है जो लोगों के पास ज़बानी रिवायतों और कहानियों के रूप में मौजूद थे? क्या मज़हबी तास्सुब (दुराग्रह) और दुश्मनी के सिवा इस तरजीह (प्राथमिकता) की कोई दूसरी वजह बयान की जा सकती है? इन सवालों पर जो शख़्स भी ग़ौर करेगा, वह इस नतीजे तक पहुँचे बिना न रह सकेगा कि मुस्तशरिक़ीन ने 'इल्म' के नाम से जो कुछ पेश किया है, वह हक़ीक़त में किसी ऐसे शख़्स के लिए ध्यान देने के क़ाबिल नहीं है जो संजीदगी के साथ कुछ सीखना चाहता हो।
فَلَمَّا بَلَغَا مَجۡمَعَ بَيۡنِهِمَا نَسِيَا حُوتَهُمَا فَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ سَرَبٗا ۝ 55
(61) तो जब वे उनके संगम पर पहुँचे तो अपनी मछली से ग़ाफ़िल हो गए और वह निकलकर इस तरह नदी में चली गई जैसे कि कोई सुरंग लगी हो।
فَلَمَّا جَاوَزَا قَالَ لِفَتَىٰهُ ءَاتِنَا غَدَآءَنَا لَقَدۡ لَقِينَا مِن سَفَرِنَا هَٰذَا نَصَبٗا ۝ 56
(62) आगे जाकर मूसा ने अपने ख़ादिम से कहा, “लाओ हमारा नाश्ता, आज के सफ़र में हम बुरी तरह थक गए हैं।”
قَالَ أَرَءَيۡتَ إِذۡ أَوَيۡنَآ إِلَى ٱلصَّخۡرَةِ فَإِنِّي نَسِيتُ ٱلۡحُوتَ وَمَآ أَنسَىٰنِيهُ إِلَّا ٱلشَّيۡطَٰنُ أَنۡ أَذۡكُرَهُۥۚ وَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ عَجَبٗا ۝ 57
(63) ख़ादिम ने कहा, “आपने देखा! यह क्या हुआ? जब हम उस चट्टान के पास ठहरे हुए थे, उस वक़्त मुझे मछली का ध्यान न रहा और शैतान ने मुझको ऐसा ग़ाफ़िल कर दिया कि मैं उसका ज़िक्र (आपसे करना) भूल गया। मछली तो अजीब तरीक़े से निकलकर नदी में चली गई।”
قَالَ ذَٰلِكَ مَا كُنَّا نَبۡغِۚ فَٱرۡتَدَّا عَلَىٰٓ ءَاثَارِهِمَا قَصَصٗا ۝ 58
(64) मूसा ने कहा, ” इसी की तो हमें तलाश थी।"58 चुनाँचे वे दोनों अपने पैरों के निशानों पर फिर वापस हुए
58. यानी मंज़िल का यही निशान तो हमको बताया गया था जहाँ हमें पहुँचना था। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह इशारा मिलता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह सफ़र अल्लाह तआला के हुक्म से था और उनको मंज़िल की यही निशानी बताई गई थी कि जहाँ उनके नाश्ते की मछली ग़ायब हो जाए, वही जगह उस बन्दे की मुलाक़ात की है जिससे मिलने के लिए वे भेजे गए थे।
فَوَجَدَا عَبۡدٗا مِّنۡ عِبَادِنَآ ءَاتَيۡنَٰهُ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَعَلَّمۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّا عِلۡمٗا ۝ 59
(65) और वहाँ उन्होंने हमारे बन्दों में से एक बन्दे को पाया, जिसे हमने अपनी रहमत से नवाज़ा था। और अपनी तरफ़ से एक ख़ास इल्म अता किया था।59
59. उस बन्दे का नाम तमाम भरोसेमन्द हदीसों में 'ख़ज़िर' बताया गया है। इसलिए उन लोगों के बयानात बिलकुल ध्यान देने के लायक़ नहीं हैं जो इसराईली रिवायतों से मुतास्सिर होकर इस क़िस्से को हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) से जोड़ते हैं। उनका यह कहना न सिर्फ़ इस वजह से ग़लत है कि नबी (सल्ल०) के इरशाद (कथन) से टकराता है, बल्कि इस वजह से भी सरासर बकवास है कि हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) हज़रत मूसा (अलैहि०) से कई सौ साल बाद पैदा हुए हैं। हज़रत मूसा (अलैहि०) के ख़ादिम (सेवक) का नाम भी क़ुरआन में नहीं बताया गया है। अलबत्ता कुछ रिवायतों में ज़िक्र है कि वे हज़रत यूशअ-बिन-नून थे जो बाद में हज़रत मूसा (अलैहि०) के ख़लीफ़ा हुए।
قَالَ لَهُۥ مُوسَىٰ هَلۡ أَتَّبِعُكَ عَلَىٰٓ أَن تُعَلِّمَنِ مِمَّا عُلِّمۡتَ رُشۡدٗا ۝ 60
(66) मूसा ने उससे कहा, “क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ, ताकि आप मुझे भी उस इल्म की तालीम दें जो आपको सिखाया गया है?”
قَالَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 61
(67) उसने जवाब दिया, “आप मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते।
وَكَيۡفَ تَصۡبِرُ عَلَىٰ مَا لَمۡ تُحِطۡ بِهِۦ خُبۡرٗا ۝ 62
(68) और जिस चीज़ की आपको ख़बर न हो आख़िर आप उसपर सब्र कर भी कैसे सकते हैं?”
قَالَ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ صَابِرٗا وَلَآ أَعۡصِي لَكَ أَمۡرٗا ۝ 63
(69) मूसा ने कहा, “इंशा-अल्लाह! (अगर अल्लाह ने चाहा) आप मुझे सब्र करनेवाला पाएँगे और मैं किसी मामले में आपकी नाफ़रमानी न करूँगा।”
قَالَ فَإِنِ ٱتَّبَعۡتَنِي فَلَا تَسۡـَٔلۡنِي عَن شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ أُحۡدِثَ لَكَ مِنۡهُ ذِكۡرٗا ۝ 64
(70) उसने कहा, “अच्छा, अगर आप मेरे साथ चलते हैं तो मुझसे कोई बात न पूछें, जब तक कि मैं ख़ुद उसका आपसे ज़िक्र न करूँ।”
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا رَكِبَا فِي ٱلسَّفِينَةِ خَرَقَهَاۖ قَالَ أَخَرَقۡتَهَا لِتُغۡرِقَ أَهۡلَهَا لَقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـًٔا إِمۡرٗا ۝ 65
(71) अब वे दोनों रवाना हुए, यहाँ तक कि जब वे एक नाव में सवार हो गए तो उस शख़्स ने नाव में दरार डाल दी। मूसा ने कहा, “आपने उसमें दरार पैदा कर दी ताकि सब नाववालों को डुबो दें? यह तो आपने एक सख़्त हरकत कर डाली।”
قَالَ أَلَمۡ أَقُلۡ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 66
(72) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते?"
قَالَ لَا تُؤَاخِذۡنِي بِمَا نَسِيتُ وَلَا تُرۡهِقۡنِي مِنۡ أَمۡرِي عُسۡرٗا ۝ 67
(73) मूसा ने कहा, “भूल-चूक पर मुझे न पकड़िए। मेरे मामले में आप ज़रा सख़्ती से काम न लें।”
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا لَقِيَا غُلَٰمٗا فَقَتَلَهُۥ قَالَ أَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا زَكِيَّةَۢ بِغَيۡرِ نَفۡسٖ لَّقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـٔٗا نُّكۡرٗا ۝ 68
(74) फिर वे दोनों चले, यहाँ तक कि उनको एक लड़का मिला और उस शख़्स ने उसे क़त्ल कर दिया। मूसा ने कहा, “आपने एक बेगुनाह की जान ले ली, हालाँकि उसने किसी का ख़ून न किया था, यह काम तो आपने बहुत ही बुरा किया।”
۞قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 69
(75) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम मेरे साथ सब्र नहीं कर सकते?”
قَالَ إِن سَأَلۡتُكَ عَن شَيۡءِۭ بَعۡدَهَا فَلَا تُصَٰحِبۡنِيۖ قَدۡ بَلَغۡتَ مِن لَّدُنِّي عُذۡرٗا ۝ 70
(76) मूसा ने कहा, “इसके बाद अगर मैं आपसे कुछ पूछूँ तो आप मुझे साथ न रखें। लीजिए अब तो मेरी तरफ़ से आपको उज़्र (बहाना) मिल गया।”
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَيَآ أَهۡلَ قَرۡيَةٍ ٱسۡتَطۡعَمَآ أَهۡلَهَا فَأَبَوۡاْ أَن يُضَيِّفُوهُمَا فَوَجَدَا فِيهَا جِدَارٗا يُرِيدُ أَن يَنقَضَّ فَأَقَامَهُۥۖ قَالَ لَوۡ شِئۡتَ لَتَّخَذۡتَ عَلَيۡهِ أَجۡرٗا ۝ 71
(77) फिर वे आगे चले, यहाँ तक कि एक बस्ती में पहुँचे और वहाँ के लोगों से खाना माँगा। मगर उन्होंने इन दोनों की मेहमाननवाज़ी से इनकार कर दिया। वहाँ उन्होंने एक दीवार देखी जो गिरने के क़रीब थी। उस शख़्स ने उस दीवार को सीधा खड़ा कर दिया। मूसा ने कहा, “अगर आप चाहते तो इस काम का मेहनताना ले सकते थे।”
قَالَ هَٰذَا فِرَاقُ بَيۡنِي وَبَيۡنِكَۚ سَأُنَبِّئُكَ بِتَأۡوِيلِ مَا لَمۡ تَسۡتَطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرًا ۝ 72
(78) उसने कहा, “बस मेरा-तुम्हारा साथ ख़त्म हुआ। अब मैं तुम्हें उन बातों की हक़ीक़त बताता हूँ जिनपर तुम सब्र न कर सके।
أَمَّا ٱلسَّفِينَةُ فَكَانَتۡ لِمَسَٰكِينَ يَعۡمَلُونَ فِي ٱلۡبَحۡرِ فَأَرَدتُّ أَنۡ أَعِيبَهَا وَكَانَ وَرَآءَهُم مَّلِكٞ يَأۡخُذُ كُلَّ سَفِينَةٍ غَصۡبٗا ۝ 73
(79) उस नाव का मामला यह है कि वह कुछ ग़रीब आदमियों की थी जो नदी में मेहनत-मज़दूरी करते थे। मैंने चाहा कि उसे ऐबदार कर दूँ, क्योंकि आगे एक से बादशाह का इलाक़ा था जो हर नाव को ज़बरदस्ती छीन लेता था।
وَأَمَّا ٱلۡغُلَٰمُ فَكَانَ أَبَوَاهُ مُؤۡمِنَيۡنِ فَخَشِينَآ أَن يُرۡهِقَهُمَا طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗا ۝ 74
(80) रहा वह लड़का, तो उसके माँ-बाप ईमानवाले थे। हमें डर हुआ कि यह लड़का अपनी सरकशी और कुफ़्र से उनको तंग करेगा।
فَأَرَدۡنَآ أَن يُبۡدِلَهُمَا رَبُّهُمَا خَيۡرٗا مِّنۡهُ زَكَوٰةٗ وَأَقۡرَبَ رُحۡمٗا ۝ 75
(81) इसलिए हमने चाहा कि उनका रब उसके बदले उनको ऐसी औलाद दे जो अख़लाक़ में भी उससे बेहतर हो और जिससे रिश्ते-नाते जोड़ने की उम्मीद भी ज़्यादा हो।
وَأَمَّا ٱلۡجِدَارُ فَكَانَ لِغُلَٰمَيۡنِ يَتِيمَيۡنِ فِي ٱلۡمَدِينَةِ وَكَانَ تَحۡتَهُۥ كَنزٞ لَّهُمَا وَكَانَ أَبُوهُمَا صَٰلِحٗا فَأَرَادَ رَبُّكَ أَن يَبۡلُغَآ أَشُدَّهُمَا وَيَسۡتَخۡرِجَا كَنزَهُمَا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ وَمَا فَعَلۡتُهُۥ عَنۡ أَمۡرِيۚ ذَٰلِكَ تَأۡوِيلُ مَا لَمۡ تَسۡطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرٗا ۝ 76
(82) और इस दीवार का मामला यह है कि यह दो यतीम लड़कों की है, जो इस शहर में रहते हैं। इस दीवार के नीचे इन बच्चों के लिए एक ख़ज़ाना दफ़्न है और इनका बाप एक नेक आदमी था। इसलिए तुम्हारे रब ने चाहा कि ये दोनों बच्चे बालिग़ हों और अपना ख़ज़ाना निकाल लें। यह तुम्हारे रब की रहमत की बिना पर किया गया है। मैंने कुछ अपने इख़्तियार से नहीं कर दिया है। यह है हक़ीक़त उन बातों की जिनपर तुम सब्र न कर सके।"60
60. इस क़िस्से में एक बड़ी पेचीदगी है जिसे दूर करना ज़रूरी है। हज़रत ख़ज़िर ने ये तीन काम जो किए हैं उनमें से तीसरा काम तो ख़ैर शरीअत से नहीं टकराता, मगर पहले दोनों काम यक़ीनन उन हुक्मों से टकराते हैं जो इनसानियत के शुरू के ज़माने से आज तक तमाम आसमानी शरीअतों में साबित रहे हैं। कोई शरीअत भी किसी इनसान को यह इजाज़त नहीं देती कि वह किसी ऐसी चीज़ को ख़राब कर दे जो उसकी मिलकियत में न हो और किसी जानदार को बेक़ुसूर क़त्ल कर डाले। यहाँ तक कि अगर इनसान को इलहाम (अल्लाह के ज़रिए से दिल में डाली गई बात) के ज़रिए से भी यह मालूम हो जाए कि एक नाव को आगे जाकर एक ज़ालिम छीन लेगा, और फ़ुलाँ लड़का बड़ा होकर सरकश और ख़ुदा का इनकारी निकलेगा, तब भी उसके लिए ख़ुदा की भेजी हुई शरीअतों में से किसी शरीअत के मुताबिक़ यह जाइज़ नहीं है कि वह अपने उस इलहामी इल्म की बुनियाद पर कश्ती में छेद कर दे और एक बेगुनाह को मार डाले। इसके जवाब में यह कहना कि हज़रत ख़ज़िर ने ये दोनों काम अल्लाह के हुक्म से किए थे, हक़ीक़त में इस पेचीदगी को ज़रा भी दूर नहीं करता। सवाल यह नहीं है कि हज़रत ख़ज़िर ने ये काम किसके हुक्म से किए थे, उनका अल्लाह के हुक्म से होना तो पूरी तरह साबित है; क्योंकि हज़रत ख़ज़िर ख़ुद फ़रमाते हैं कि उनके ये काम सिर्फ़ उनके अपने इरादे से हुए नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की रहमत ने उनसे ये काम कराए हैं और इसकी तसदीक़ (पुष्टि) अल्लाह तआला ख़ुद कर चुका है कि हज़रत ख़ज़िर को अल्लाह तआला की तरफ़ से एक ख़ास इल्म मिला हुआ था। इसलिए यह बात तो हर शक-शुब्हे से परे है कि ये काम अल्लाह के हुक्म से किए गए थे। मगर अस्ल सवाल जो यहाँ पैदा होता है वह यह है कि अल्लाह के इन हुक्मों की नौइयत क्या थी? ज़ाहिर है कि ये शरई हुक्म न थे, क्योंकि ख़ुदा की शरीअतों के जो बुनियादी उसूल क़ुरआन और उससे पहले की आसमानी किताबों से साबित हैं, उनमें कभी किसी इनसान के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई कि वह जुर्म के सुबूत के बिना किसी दूसरे इनसान को क़त्ल कर दे। इसलिए लाज़िमन यह मानना पड़ेगा कि ये हुक्म अपनी क़िस्म में अल्लाह तआला के उन तकवीनी (क़ुदरती) हुक्मों से मिलते-जुलते हैं जिनके तहत दुनिया में हर पल कोई बीमार किया जाता है और कोई तन्दुरुस्त किया जाता है, किसी को मौत दी जाती है और किसी को ज़िन्दगी दी जाती है, किसी को तबाह किया जाता है और किसी पर नेमतों की बारिश होती है। अब अगर ये तकवीनी (क़ुदरती) हुक्म हैं तो ये सिर्फ़ फ़रिश्तों ही को दिए जा सकते हैं, जिनके बारे में शरई और क़ानूनी तौर पर जाइज़ और नाजाइज़ का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि वे अपने ख़ुद के इरादे के बिना सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म की पैरवी करते हैं। रहा इनसान तो चाहे वह बिना इरादे के किसी तकवीनी हुक्म के लागू होने का ज़रिआ बने, और चाहे इलहाम के ज़रिए से इस तरह का कोई ग़ैबी इल्म और हुक्म पाकर उसपर अमल कर डाले, बहरहाल वह गुनहगार होने से नहीं बच सकता, अगर वह काम जो उसने किया है किसी शरई हुक्म से टकराता हो। इसलिए कि इनसान पर, इस हैसियत से कि वह इनसान है, शरई हुक्मों की पाबन्दी ज़रूरी है और शरीअत के उसूलों में कहीं यह गुंजाइश नहीं पाई जाती कि किसी इनसान के लिए सिर्फ़ इस वजह से शरई हुक्मों में से किसी हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी जाइज़ हो कि उसे इलहाम के ज़रिए से इस ख़िलाफ़वर्जी का हुक्म मिला है और ग़ैब के इल्म के ज़रिए से इस ख़िलाफ़वर्जी की मस्लहत बताई गई है। यह एक ऐसी बात है जिसपर न सिर्फ़ शरीअत के तमाम आलिम (विद्वान) एकराय हैं, बल्कि बड़े-बड़े सूफ़ी भी एकराय होकर यही बात कहते हैं। चुनाँचे अल्लामा आलूसी ने तफ़सील के साथ अब्दुल-वह्हाब शिअरानी, मुहीयुद्दीन इब्ने-अरबी, मुजद्दिद अल्फ़े-सानी, शैख़ अब्दुल-क़ादिर जीलानी (रह०), जुनैद बग़दादी, सरिय्यी सक़्ती, अबुल-हुसैन अन-नूरी, अबू-सईद अल-ख़र्राज़, अबुल-अब्बास अहमद अद-दैनवरी और इमाम ग़जाली जैसे नामवर बुज़ुर्गों के बयान नक़्ल करके यह साबित किया है कि सूफ़ियों के नज़दीक भी किसी ऐसे इल्हाम पर अमल करना ख़ुद इलहामवाले तक के लिए जाइज नहीं है जो शरई नस्स (वाज़ेह शरई हुक्म) के ख़िलाफ़ हो। (रूहुल-मआनी, हिस्सा-16, पेज 16-18) अब क्या हम यह मान लें कि इस तस्लीमशुदा उसूल से सिर्फ़ एक इनसान अलग रखा गया है और वह हैं हज़रत ख़ज़िर? या यह समझें कि ख़ज़िर कोई इनसान न थे, बल्कि अल्लाह के उन बन्दों में से थे जो अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) के तहत (न कि अल्लाह की शरीअत के तहत) काम करते हैं। पहली सूरत को हम मान लेते अगर क़ुरआन साफ़ लफ़्ज़ों में यह कह देता कि वह 'बन्दा' जिसके पास हज़रत मूसा (अलैहि०) इस तरबियत के लिए भेजे गए थे, इनसान था। लेकिन क़ुरआन उनके इनसान होने को साफ़ तौर पर बयान नहीं करता, बल्कि सिर्फ़ ‘हमारे बन्दों में से एक बन्दा' के अलफ़ाज़ बोलता है, जो ज़ाहिर है कि उस बन्दे के इनसान होने को लाज़िम नहीं ठहराता। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर फ़रिश्तों के लिए भी यह लफ़्ज इस्तेमाल हुआ है। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-21 अम्बिया, आयत-26 और सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-19। फिर किसी सहीह हदीस में नबी (सल्ल०) से भी कोई ऐसा इरशाद (कथन) नक़्ल नहीं हुआ है जिसमें साफ़ अलफ़ाज़ में हज़रत ख़ज़िर को इनसान कहा गया हो। इस बारे में सबसे भरोसे के लायक़ वे रिवायतें हैं जो सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), उबई-बिन-कअब (रज़ि०) के ज़रिए से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सनद से हदीस के इमामों को पहुँची हैं। इनमें हज़रत ख़ज़िर के लिए सिर्फ़ ‘रजुल’का लफ़्ज़ आया है जो अगरचे मर्द इनसानों के लिए इस्तेमाल होता है, मगर इनसानों के लिए ही ख़ास नहीं है। चुनाँचे ख़ुद क़ुरआन में यह लफ़्ज़ जिन्नों के लिए इस्तेमाल हो चुका है, जैसा कि सूरा-72 जिन्न, आयत-6 में कहा गया है, “और यह कि इनसानों में से कुछ लोग (रिजाल) जिन्नों में से कुछ लोगों (रिजाल) की पनाह माँगा करते थे।” फिर यह ज़ाहिर है कि जिन्न या फ़रिश्ता या कोई और दिखाई न देनेवाला वुजूद जब इनसानों के सामने आएगा तो इनसानी शक्ल ही में आएगा और इस हालत में उसको ‘बशर’ या ‘इनसान’ ही कहा जाएगा। हज़रत मरयम के सामने जब फ़रिश्ता आया था तो क़ुरआन इस वाक़िए को यूँ बयान करता है, “और वह उसके सामने एक पूरे इनसान की शक्ल में ज़ाहिर हुआ।” (सूरा-19 मरयम, आयत-17) इसलिए नबी (सल्ल०) का यह कहना कि “वहाँ उन्होंने एक मर्द को पाया,” हज़रत ख़ज़िर के इनसान होने की खुली दलील नहीं बनता। इसके बाद हमारे लिए इस पेचीदगी को दूर करने की सिर्फ़ यही एक सूरत बाक़ी रह जाती है कि हम ‘ख़ज़िर’ को इनसान न मानें, बल्कि फ़रिश्तों में से, या अल्लाह के बनाए हुए किसी और जानदारों में से समझें जो शरीअतों पर चलने के पाबन्द नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की मशीयत (मर्ज़ी) को पूरा करनेवाले हैं। शुरू के ज़माने के कुछ तफ़सीर लिखनेवालों में से भी कुछ लोगों ने यह राय ज़ाहिर की है जिसे इब्ने-कसीर ने अपनी तफ़सीर में मावर्दी के हवाले से नक़्ल किया है।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَن ذِي ٱلۡقَرۡنَيۡنِۖ قُلۡ سَأَتۡلُواْ عَلَيۡكُم مِّنۡهُ ذِكۡرًا ۝ 77
(83) और ऐ नबी! ये लोग तुमसे ज़ुल-क़रनैन के बारे में पूछते हैं।61 इनसे कहो : में उसका कुछ हाल तुमको सुनाता हूँ।62
61. अस्ल अरबी में 'वयस्अलू-न-क अन् ज़िल्-क़रनैन' के पहले लफ़्ज़ 'व' (और) का ताल्लुक़ ज़रूर पिछले क़िस्से ही से है। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह इशारा निकलता है कि मूसा (अलैहि०) और ख़ज़िर का क़िस्सा भी लोगों के सवाल ही के जवाब में सुनाया गया है और यह बात हमारे इस गुमान की ताईद करती है कि इस सूरा के ये तीनों अहम क़िस्से अस्ल में मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने अहले-किताब के मश्वरे से नबी (सल्ल०) का इम्तिहान लेने के लिए आप (सल्ल०) से पूछे थे।
62. इस मामले में पुराने ज़माने से लेकर अब तक इख़्तिलाफ़ रहा है कि यह 'ज़ुल-क़रनैन' जिसका यहाँ ज़िक्र हो रहा है, कौन था। पुराने ज़माने में आम तौर से तफ़सीर लिखनेवालों का झुकाव सिकन्दर की तरफ़ था, लेकिन क़ुरआन में उसकी जो ख़ूबियों और ख़ुसूसियतें बयान की गई हैं वे मुश्किल ही से सिकन्दर पर चस्पाँ होती हैं। नए ज़माने में तारीख़़ी (ऐतिहासिक) जानकारियों की बुनियाद पर तफ़सीर लिखनेवालों का झुकाव ज़्यादा तर ईरान के बादशाह ख़ूरस (खुसरो या साइरस) की तरफ़ है, और यह ख़याल दूसरों के मुक़ाबले ज़्यादा सही लगता है, मगर बहरहाल अभी तक यक़ीन के साथ किसी शख़्स के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह ज़ुल-क़रनैन था। क़ुरआन मजीद जिस तरह उसका ज़िक्र करता है उससे हमें चार बातें साफ़ तौर से मालूम होती हैं— (1) उसका लक़ब (उपाधि) 'ज़ुल-क़रनैन' (दो सींगोंवाला) कम-से-कम यहूदियों में, जिनके इशारे से मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने उसके बारे में नबी (सल्ल०) से सवाल किया था, ज़रूर जाना-पहचाना होना चाहिए। इसलिए हमें यह मालूम करने के लिए लाज़िमन इसराईली लिट्रेचर की तरफ़ रुजू करना पड़ेगा कि वे 'दो सींगवाले' की हैसियत से किस शख़्सियत या सल्तनत को जानते थे। (2) वह ज़रूर कोई बड़ा बादशाह और विजेता होना चाहिए जिसकी फ़तहों (विजयों) का सिलसिला पूरब से पश्चिम तक पहुँचा हुआ हो और तीसरी तरफ़ शिमाल (उत्तर) और जुनूब (दक्षिण) में भी फैली हुई हों, ऐसी शख़्सियतें क़ुरआन उतरने से पहले कुछ ही गुज़री हैं और लाज़िमन उन्हीं में से किसी में उसकी दूसरी ख़ासियतें हमें तलाश करनी होंगी। (3) वह ज़रूर कोई ऐसा बादशाह होना चाहिए जिसने अपने राज्य को याजूज और माजूज के हमलों से बचाने के लिए किसी पहाड़ी दर्रे पर एक मज़बूत दीवार बनाई हो। इस निशान का पता लगाने के लिए हमें यह भी मालूम करना होगा कि याजूज और माजूज से मुराद कौन-सी ताक़तें हैं। और फिर यह भी देखना होगा कि उनके इलाक़े से लगी हुई कौन-सी ऐसी दीवार कभी दुनिया में बनाई गई है और वह किसने बनाई है। (4) उसमें ऊपर बयान की गई ख़ासियतों के साथ एक यह ख़ासियत भी पाई जानी चाहिए कि वह ख़ुदापरस्त और इनसाफ़पसन्द हाकिम हो; क्योंकि क़ुरआन यहाँ सबसे बढ़कर उसकी इसी ख़ासियत को नुमायाँ करता है। इनमें से पहली अलामत (निशानी) आसानी के साथ ख़ूरस पर चस्पाँ की जा सकती है, क्योंकि बाइबल की किताब दानियेल में दानियाल नबी का जो ख़ाब बयान किया गया है, उसमें वे यूनानियों उरूज (उत्थान) से पहले मीडिया और फ़ारस की मुश्तरका सल्तनत (संयुक्त राज्य) को एक मेंढे की शक्ल में देखते जिसके दो सींग थे। यहूदियों में इस 'दो सींगोंवाले' की बड़ी चर्चा थी, क्योंकि उसी की टक्कर ने आख़िरकार बाबिल की सल्तनत को टुकड़े-टुकड़े किया और बनी-इसराईल को क़ैद की ज़िन्दगी से नजात दिलाई। (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-8) दूसरी अलामत बड़ी हद तक उसपर चस्पाँ होती है, मगर पूरी तरह नहीं। उसकी जीतों का सिलसिला बेशक पश्चिम में एशिया-ए-कोचक और शाम (सीरिया) के समुद्री तटों तक और पूरब में बाख़तर (बल्ख़) तक फैला, मगर उत्तर या दक्षिण में उसकी किसी बड़ी मुहिम (अभियान) का सुराग़ अभी तक इतिहास से नहीं मिला है; हालाँकि क़ुरआन साफ़ तौर से एक तीसरी मुहिम का भी ज़िक्र करता है। फिर भी इस मुहिम का पेश आना नामुमकिन नहीं है, क्योंकि इतिहास के मुताबिक़ खूरस की सल्तनत उत्तर में काकेशिया (क़फ़क़ाज़) तक फैली हुई थी। तीसरी अलामत के बारे में यह तो क़रीब-क़रीब खोज लगाई जा चुकी है कि याजूज माजूज से मुराद रूस और उत्तरी चीन के वे क़बीले हैं जो तातारी, मंगोली, हूण और सीथियन वग़ैरा नामों से मशहूर हैं और पुराने ज़माने से मुहज़्ज़ब (सभ्य) देशों पर हमले करते रहे हैं। साथ ही यह भी मालूम है कि उनके हमलों से बचने के लिए क़फ़क़ाज़ के दक्षिणी इलाक़े में दरबन्द और दारियाल के मज़बूत तामीरी काम किए गए थे। लेकिन यह अभी तक साबित नहीं हो सका है कि ये तामीरी काम ख़ूरस ही ने किए थे। आख़िरी अलामत पुराने ज़माने के मशहूर फ़ातेहों (विजेताओं) में अगर किसी पर चस्पाँ की जा सकती है तो वह ख़ूरस ही है, क्योंकि उसके दुश्मनों तक ने उसके इनसाफ़ की तारीफ़ की है। और बाइबल की किताब 'अज़रा’ इस बात पर गवाह है कि वह ज़रूर एक ख़ुदा-परस्त और ख़ुदातरस बादशाह था, जिसने बनी-इसराईल को उनकी ख़ुदा-परस्ती ही की वजह से बाबिल की क़ैदवाली ज़िन्दगी से रिहा किया और एक ख़ुदा की, जिसका कोई शरीक नहीं, इबादत के लिए बैतुल-मक़दिस में दोबारा हैकले-सुलैमानी की तामीर का हुक्म दिया। इस बुनियाद पर हम यह तो ज़रूर मानते हैं कि क़ुरआन उत्तरने से पहले दुनिया के जितने मशहूर विजेता गुज़रे हैं, उनमें से ख़ूरस ही के अन्दर ज़ुलक़रनैन की ज़्यादा अलामतें पाई जाती हैं, लेकिन यक़ीनी तौर पर उसी को ज़ुल-क़रनैन क़रार देने के लिए अभी कुछ और सुबूतों की ज़रूरत है। फिर भी दूसरा कोई विजेता क़ुरआन की बताई हुई अलामतों पर इतना भी फ़िट नहीं बैठता जितना कि ख़ूरस फ़िट बैठता है। तारीख़ी (ऐतिहासिक) बयान के लिए सिर्फ़ इतना ज़िक्र काफ़ी है कि ख़ूरस एक ईरानी बादशाह था, जिसका उरूज (उत्थान) 549 ईसा पूर्व के क़रीब ज़माने में शुरू हुआ। उसने कुछ साल के अर्से में मीडिया (अल-जिबाल) और लीडिया (एशिया-ए-कोचक) की सल्तनतों को अपने मातहत करने के बाद 539 ईसा पूर्व में बाबिल को भी फ़तह कर लिया, जिसके बाद कोई ताक़त उसके रास्ते में रुकावट न रही। उसकी जीतों का सिलसिला सिंध और सुग़्द (मौजूदा तुर्किस्तान) से लेकर एक तरफ़ मिस्र और लीबिया तक, और दूसरी तरफ़ थ्रेस और मक़दूनिया तक फैल गया था और उत्तर में उसकी सल्तनत क़फ़क़ाज (काकेशिया) और ख़वारिज़्म तक फैल गई थी। अमली तौर पर उस वक़्त की पूरी मुहज़्ज़ब (सभ्य) दुनिया उसके मातहत थी।
إِنَّا مَكَّنَّا لَهُۥ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِن كُلِّ شَيۡءٖ سَبَبٗا ۝ 78
(84) हमने उसको ज़मीन में हुकूमत दे रखी थी और उसे हर तरह के सरो-सामान (संसाधन) दे रखे थे।
فَأَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 79
(85) उसने (पहले पश्चिम की तरफ़ एक मुहिम की) तैयारी की,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَغۡرِبَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَغۡرُبُ فِي عَيۡنٍ حَمِئَةٖ وَوَجَدَ عِندَهَا قَوۡمٗاۖ قُلۡنَا يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِمَّآ أَن تُعَذِّبَ وَإِمَّآ أَن تَتَّخِذَ فِيهِمۡ حُسۡنٗا ۝ 80
(86) यहाँ तक कि जब वह सूरज के डूबने की हद तक पहुँच गया तो63 उसने सूरज को एक काले पानी में डूबते देखा64 और वहाँ उसे एक क़ौम मिली। हमने कहा, “ऐ ज़ुल-क़रनैन! तुझे यह क़ुदरत भी हासिल है कि उनको तकलीफ़ पहुँचाए और यह भी कि इनके साथ अच्छा सुलूक करे।65
63. सूरज छिपने की हद से मुराद, जैसा कि इब्ने-कसीर ने लिखा है, “वह पश्चिम की आख़िरी सरहद है, न कि सूरज डूबने की जगह। मुराद यह है कि वह मग़रिब की तरफ़ देश-पर-देश फ़तह करता हुआ ज़मीन के आख़िरी सिरे तक पहुँच गया जिसके आगे समन्दर था।"
64. यानी वहाँ सूरज डूबने के वक़्त ऐसा महसूस होता था कि सूरज समन्दर के काले मटमैले पानी में डूब रहा है। अगर हक़ीक़त में ज़ुल-क़रनैन से मुराद ख़ूरस ही हो तो यह एशिया-ए-कोचक का पश्चिमी तट होगा, जहाँ बहरे-ऐजियन छोटी-छोटी खाड़ियों का रूप ले लेता है। इस गुमान की ताईद यह बात भी करती है कि क़ुरआन यहाँ 'बहर' के बजाय ‘ऐन' (चश्मा/जल-स्रोत) का लफ़्ज़ इस्तेमाल करता है जो समन्दर के बजाय झील या खाड़ी के लिए ही ज़्यादा सही तौर पर बोला जा सकता है।
65. ज़रूरी नहीं है कि अल्लाह तआला ने यह बात सीधे-सीधे वह्य या इलहाम के ज़रिए से ज़ुल-क़रनैन से कही हो, यहाँ तक कि इससे यह बात लाज़िमन क़रार पाए कि ज़ुल-क़रनैन पैग़म्बर थे या मुहद्दस (जिससे ख़ुदा ने बात की हो), बल्कि यह बात ज़बाने-हाल (हाव-भाव) के वास्ते से भी हो सकती है और यही गुमान के ज़्यादा क़रीब है। ज़ुल-क़रनैन ने उस वक़्त विजयी होकर उस इलाक़े पर क़ब्ज़ा किया था। हार जानेवाली क़ौम उसके मातहत थी। अल्लाह ने इस सूरते-हाल में उसके ज़मीर (अन्तःकरण) के सामने यह सवाल रख दिया कि यह तेरे इम्तिहान का वक़्त है। यह क़ौम तेरे आगे बेबस है। तू ज़ुल्म करना चाहे तो कर सकता है और शराफ़त का सुलूक करना चाहे तो यह भी तेरे इख़्तियार में है।
قَالَ أَمَّا مَن ظَلَمَ فَسَوۡفَ نُعَذِّبُهُۥ ثُمَّ يُرَدُّ إِلَىٰ رَبِّهِۦ فَيُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا نُّكۡرٗا ۝ 81
(87) उसने कहा, “जो इनमें से ज़ुल्म करेगा हम उसको सज़ा देंगे। फिर वह अपने रब की तरफ़ पलटाया जाएगा और वह उसे और ज़्यादा सख़्त अज़ाब देगा।
وَأَمَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُۥ جَزَآءً ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَسَنَقُولُ لَهُۥ مِنۡ أَمۡرِنَا يُسۡرٗا ۝ 82
(88) और जो उनमें से ईमान लाएगा और भले काम करेगा, उसके लिए अच्छा बदला है और हम उसको नर्म हिदायतें देंगे।”
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 83
(89) फिर उसने (एक दूसरी मुहिम की) तैयारी की,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَطۡلِعَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَطۡلُعُ عَلَىٰ قَوۡمٖ لَّمۡ نَجۡعَل لَّهُم مِّن دُونِهَا سِتۡرٗا ۝ 84
(90) यहाँ तक कि सूरज के निकलने की हद तक जा पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि सूरज एक ऐसी क़ौम पर निकल रहा है जिसके लिए धूप से बचने का कोई सामान हमने नहीं किया है।66
66. यानी वह देशों को जीतता हुआ पूरब की तरफ़ ऐसे इलाक़े तक पहुँच गया जहाँ मुहज़्ज़ब (सभ्य) दुनिया की सरहद ख़त्म हो गई थी और आगे ऐसी जंगली क़ौमों का इलाक़ा था जो इमारतें बनाना तो दूर की बात, ख़ेमे बनाना तक न जानती थीं।
كَذَٰلِكَۖ وَقَدۡ أَحَطۡنَا بِمَا لَدَيۡهِ خُبۡرٗا ۝ 85
(91) यह हाल था उनका, और ज़ुल-क़रनैन के पास जो कुछ था उसे हम जानते थे।
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 86
(92) फिर उसने (एक और मुहिम का) सामान किया,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ بَيۡنَ ٱلسَّدَّيۡنِ وَجَدَ مِن دُونِهِمَا قَوۡمٗا لَّا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ قَوۡلٗا ۝ 87
(93) यहाँ तक कि जब दो पहाड़ों के बीच पहुँचा67 तो उसे उनके पास एक क़ौम मिली जो मुश्किल ही से कोई बात समझती थी68
67. चूँकि आगे यह ज़िक्र आ रहा है कि इन दोनों पहाड़ों के उस तरफ़ याजूज-माजूज का इलाक़ा था, इसलिए ज़रूर ही इन पहाड़ों से मुराद काकेशिया के वे पहाड़ी सिलसिले हो सकते हैं जो कैस्पियन सागर और काला सागर के बीच पाए जाते हैं।
68. यानी उनकी ज़बान ज़ुल-क़रनैन और उसके साथियों के लिए लगभग बिलकुल अजनबी थी। बिलकुल जंगली होने की वजह से न कोई उन लोगों की ज़बान जानता था और न वे कोई दूसरी ज़बान जानते थे।
قَالُواْ يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِنَّ يَأۡجُوجَ وَمَأۡجُوجَ مُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَهَلۡ نَجۡعَلُ لَكَ خَرۡجًا عَلَىٰٓ أَن تَجۡعَلَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَهُمۡ سَدّٗا ۝ 88
(94) उन लोगों ने कहा कि “ऐ ज़ुल-क़रनैन! याजूज और माजूज69 इस सर-ज़मीन में बिगाड़ फैलाते हैं। तो क्या हम तुझे कोई टैक्स इस काम के लिए दें कि तू हमारे और उनके बीच एक बन्द तामीर कर दे?”
69. याजूज-माजूज से मुराद, जैसा कि ऊपर हाशिया-62 में इशारा किया जा चुका है, एशिया के उत्तरी-पूर्वी इलाक़े की वे क़ौमें हैं जो पुराने ज़माने से मुहज़्ज़ब (सभ्य) देशों पर लूटमार के लिए हमले करती रही हैं और जिनके सैलाब समय-समय पर उठकर, एशिया और यूरोप, दोनों तरफ़ बढ़ते रहे हैं। बाइबल की किताब उत्पत्ति (अध्याय 10) में उनको हज़रत नूह (अलैहि०) के बेटे याफ़स की नस्ल में गिना गया है, और यही बयान मुस्लिम इतिहासकारों का भी है। हिज्रक़ी-एल की किताब (अध्याय 38, 39) में उनका इलाक़ा तो रूस और तौबुल (मौजूदा तौबालसक) और मस्क (मौजूदा मास्को) बताया गया है। इसराईली इतिहासकार यूसीफ़ोस उनसे मुराद सीथियन क़ौम लेता है, जिसका इलाक़ा काला सागर के उत्तर और पूरब में पाया जाता था। जीरूम के बयान के मुताबिक़ माजूज काकेशिया के उत्तर में ख़ज़र सागर के क़रीब आबाद थे।
قَالَ مَا مَكَّنِّي فِيهِ رَبِّي خَيۡرٞ فَأَعِينُونِي بِقُوَّةٍ أَجۡعَلۡ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُمۡ رَدۡمًا ۝ 89
(95) उसने कहा, “जो कुछ मेरे रब ने मुझे दे रखा है, वह बहुत है। तुम बस मेहनत से मेरी मदद करो, मैं तुम्हारे और उनके बीच रोक बनाए देता हूँ।70
70. यानी बादशाह होने की हैसियत से मेरा यह फ़र्ज़ है कि अपनी प्रजा (जनता) को लूटमार करनेवालों के हमलों से बचाऊँ। इस काम के लिए तुमपर कोई अलग टैक्स लगाना मेरे लिए जाइज़ नहीं है। देश का जो ख़ज़ाना अल्लाह तआला ने मेरे हवाले किया है, वह इस काम के लिए काफ़ी है। अलबत्ता हाथ-पाँव की मेहनत से तुमको मेरी मदद करनी होगी।
ءَاتُونِي زُبَرَ ٱلۡحَدِيدِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا سَاوَىٰ بَيۡنَ ٱلصَّدَفَيۡنِ قَالَ ٱنفُخُواْۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَعَلَهُۥ نَارٗا قَالَ ءَاتُونِيٓ أُفۡرِغۡ عَلَيۡهِ قِطۡرٗا ۝ 90
(96) मुझे लोहे की चादरें लाकर दो।” आख़िर जब दोनों पहाड़ों की बीच की ख़ाली जगह को उसने पाट दिया तो लोगों से कहा कि अब आग दहकाओ। यहाँ तक कि जब (यह लोहे की दीवार) बिलकुल आग की तरह लाल हो गई तो उसने कहा, “लाओ, अब मैं इसपर पिघला हुआ ताँबा उड़ेलूँगा।”
فَمَا ٱسۡطَٰعُوٓاْ أَن يَظۡهَرُوهُ وَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ لَهُۥ نَقۡبٗا ۝ 91
(97) (यह बन्द ऐसा था कि) याजूज-माजूज उसपर चढ़कर भी न आ सकते थे और उसमें सेंध लगाना उनके लिए और भी मुश्किल था।
قَالَ هَٰذَا رَحۡمَةٞ مِّن رَّبِّيۖ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ رَبِّي جَعَلَهُۥ دَكَّآءَۖ وَكَانَ وَعۡدُ رَبِّي حَقّٗا ۝ 92
(98) ज़ुल-क़रनैन ने कहा, “यह मेरे रब की रहमत है। मगर जब मेरे रब के वादे का वक़्त आएगा तो वह उसको घूल में मिला देगा,71 और मेरे रब का वादा सच्चा है।”72
71. यानी अगरचे मैंने अपनी हद तक इन्तिहाई मज़बूत दीवार बनाई है, मगर यह हमेशा रहनेवाली नहीं है। जब तक अल्लाह की मरज़ी है, यह क़ायम रहेगी, और जब वह वक़्त आएगा जो अल्लाह ने उसकी तबाही के लिए तय कर रखा है तो फिर इसको टुकड़े-टुकड़े होने से कोई चीज़ न बचा सकेगी। 'वादे का वक़्त' के कई मतलब हैं। इससे मुराद इस दीवार की तबाही का वक़्त भी है और वह घड़ी भी जो अल्लाह ने हर चीज़ की मौत और फ़ना (मिटने) के लिए तय कर दी है, यानी क़ियामत।
72. यहाँ पहुँचकर ज़ुल-क़रनैन का क़िस्सा खत्म हो जाता है। यह क़िस्सा हालाँकि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के उस सवाल के जवाब में सुनाया गया है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) का इम्तिहान लेने के लिए आप (सल्ल०) से किया था। मगर असहाबे-कह्फ़ के क़िस्से और मूसा व ख़ज़िर के क़िस्से की तरह इसको भी क़ुरआन ने अपने क़ायदे के मुताबिक़ अपने मक़सद के लिए पूरी तरह इस्तेमाल किया है। इसमें बताया गया है कि ज़ुल-क़रनैन जिसकी बड़ाई का हाल तुमने अहले-किताब से सुना है, सिर्फ़ एक विजेता ही न था, बल्कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत का माननेवाला था, इनसाफ़ और फ़य्याज़ी (दानशीलता) के उसूलों पर अमल करता था और तुम लोगों की तरह तंगदिल न था कि ज़रा-सी सरदारी मिली और समझ बैठे कि हमारे सामने किसी की कोई हैसियत ही नहीं।
۞وَتَرَكۡنَا بَعۡضَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ يَمُوجُ فِي بَعۡضٖۖ وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَجَمَعۡنَٰهُمۡ جَمۡعٗا ۝ 93
(99) और उस दिन73 हम लोगों को छोड़ देंगे कि (समन्दर की लहरों की तरह) एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हों और 'सूर' फूँका जाएगा और हम सब इनसानों को एक साथ जमा करेंगे।
73. यानी क़ियामत के दिन। ज़ुल-क़रनैन ने जो इशारा क़ियामत के सच्चे वादे की तरफ़ किया था, उसी को देखते हुए ये बातें उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कही जा रही हैं।
وَعَرَضۡنَا جَهَنَّمَ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡكَٰفِرِينَ عَرۡضًا ۝ 94
(100) और वह दिन होगा जब हम जहन्नम को (हक़ के) इनकारियों के सामने लाएँगे,
ٱلَّذِينَ كَانَتۡ أَعۡيُنُهُمۡ فِي غِطَآءٍ عَن ذِكۡرِي وَكَانُواْ لَا يَسۡتَطِيعُونَ سَمۡعًا ۝ 95
(101) उन इनकारियों के सामने जो मेरी नसीहत की तरफ़ से अंधे बने हुए थे और जो कुछ सुनने के लिए तैयार ही न थे।
أَفَحَسِبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن يَتَّخِذُواْ عِبَادِي مِن دُونِيٓ أَوۡلِيَآءَۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ نُزُلٗا ۝ 96
(102) तो क्या74 ये लोग, जिन्होंने इनकार किया है, यह समझते हैं कि मुझे छोड़कर मेरे बन्दों को अपना कर्ता-धर्ता बना लें?75 हमने ऐसे इनकारियों की 'मेहमानी' के लिए जहन्नम तैयार कर रखी है।
74. यह पूरी सूरा का ख़ुलासा है जो आख़िर में बयान किया है। इसलिए इसका ताल्लुक़ ज़ुल-क़रनैन के क़िस्से में नहीं, बल्कि सूरा के पूरे मज़मून में तलाश करना चाहिए। कुल मिलाकर सूरा का पूरा मज़मून यह है कि नबी (सल्ल०) अपनी क़ौम को शिर्क छोड़कर तौहीद अपनाने और दुनिया-परस्ती छोड़कर आख़िरत पर यक़ीन लाने की दावत दे रहे थे। मगर क़ौम के बड़े-बड़े सरदार अपनी दौलत और शानो-शौकत के घमंड में न सिर्फ़ आप (सल्ल०) की इस दावत को ठुकरा रहे थे, बल्कि उन कुछ सच्चाई-पसन्द इनसानों को भी, जिन्होंने यह दावत क़ुबूल कर ली थी, ज़ुल्मो-सितम, नफ़रत और रुसवाई का निशाना बना रहे थे। इसपर वह सारी तक़रीर की गई जो सूरा के शुरू से यहाँ तक चली आ रही है, और इसी तक़रीर के दौरान में एक के बाद एक उन तीन क़िस्सों को भी, जिनको इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने नबी (सल्ल०) का इम्तिहान लेने के लिए पूछा था, ठीक मौक़े पर नगीनों की तरह जड़ दिया गया। अब तक़रीर ख़त्म करते हुए फिर बात का रुख़ उसी मक़सद की तरफ़ फेरा जा रहा है, जिसे तक़रीर के शुरू में पेश किया गया था और जिसपर सूरा की 24 से 59 आयतों तक लगातार चर्चा की जा चुकी है।
75. यानी क्या यह सब कुछ सुनने के बाद भी उनका ख़याल यही है और वे समझते हैं कि यह रवैया उनके लिए फ़ायदेमन्द होगा?
قُلۡ هَلۡ نُنَبِّئُكُم بِٱلۡأَخۡسَرِينَ أَعۡمَٰلًا ۝ 97
(103) ऐ नबी! इनसे कहो क्या हम तुम्हें बताएँ कि अपने कामों में सबसे ज़्यादा नाकाम व नामुराद कौन लोग हैं?
ٱلَّذِينَ ضَلَّ سَعۡيُهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّهُمۡ يُحۡسِنُونَ صُنۡعًا ۝ 98
(104) वे कि दुनिया की ज़िन्दगी में जिनकी सारी भाग-दौड़ और कोशिश सीधे रास्ते से भटकी रही76 और वे समझते रहे कि वे सब कुछ ठीक कर रहे हैं।
76. इस आयत के दो मतलब हो सकते हैं। एक वह जो हमने तर्जमे में अपनाया है और दूसरा यह कि “जिन की सारी भाग-दौड़ और जिद्दो-जुह्द्द दुनिया की ज़िन्दगी ही में गुम होकर रह गई।” यानी उन्होंने जो कुछ भी किया ख़ुदा से बेपरवाह और आख़िरत से बेफ़िक्र होकर सिर्फ़ दुनिया के लिए किया। दुनिया की ज़िन्दगी ही को अस्ल ज़िन्दगी समझा। दुनिया की कामयाबियों और ख़ुशहालियों ही को अपना मक़सद बनाया। ख़ुदा के वुजूद को अगर माना भी तो इस बात की कभी फ़िक्र न की कि उसकी मरज़ी क्या है और हमें कभी उसके सामने जाकर अपने आमाल का हिसाब भी देना है। अपने आपको सिर्फ़ अपनी मरज़ी का मालिक और ग़ैर-ज़िम्मेदार अक़्लमन्द जानवर समझते रहे, जिसके लिए दुनिया की इस चराहगाह से फ़ायदा उठाने के सिवा और कोई काम नहीं है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَلِقَآئِهِۦ فَحَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَلَا نُقِيمُ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَزۡنٗا ۝ 99
(105) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब की आयतों को मानने से इनकार किया और उसके सामने पेशी का यक़ीन न किया। इसलिए उनके सारे आमाल बरबाद हो गए। क़ियामत के दिन हम उन्हें कोई वज़न न देंगे।77
77. यानी इस तरह के लोगों ने दुनिया में चाहे कितने ही बड़े कारनामे किए हों, बहरहाल वे दुनिया के ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हो जाएँगे। अपने शानदार घर और महल, अपनी यूनिवर्सिटियाँ और लाइब्रेरियाँ, अपने कारख़ाने और वर्कशॉप, अपनी सड़कें और रेलें, अपनी ईजादें (आविष्कार) और पेशे, अपने इल्म और फ़न और अपनी आर्ट-ग़ैलरियाँ, और दूसरी वे चीज़ें जिनपर वे गर्व करते हैं, उनमें से तो कोई चीज़ भी अपने साथ लिए हुए वे ख़ुदा के यहाँ न पहुँचेंगे कि ख़ुदा के तराज़ू में उसको रख सकें। वहाँ जो चीज़ बाक़ी रहनेवाली है, वह सिर्फ़ अमल के मक़सद और अमल के नतीजे हैं। अब अगर किसी के सारे मक़सद दुनिया तक महदूद थे और नतीजे भी उसको दुनिया ही में चाहिए थे और दुनिया में वह अपने कामों के नतीजे देख भी चुका है तो उसका सब किया-कराया मिट जानेवाली दुनिया के साथ ही मिट गया। आख़िरत में जो कुछ पेश करके वह कोई वज़न पा सकता है, वह तो लाज़िमी तौर पर कोई ऐसा ही कारनामा होना चाहिए जो उसने ख़ुदा को राज़ी और ख़ुश करने के लिए किया हो, उसके हुक्मों की पाबन्दी करते हुए किया हो और उन नतीजों को मक़सद बनाकर किया हो जो आख़िरत में निकलनेवाले हैं। ऐसा कोई कारनामा अगर उसके हिसाब में नहीं है तो वह सारी दौड़-धूप बेशक अकारथ गई जो उसने दुनिया में की थी।
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُمۡ جَهَنَّمُ بِمَا كَفَرُواْ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَرُسُلِي هُزُوًا ۝ 100
(106) उनका बदला जहन्नम है उस 'इनकार’ के बदले जो उन्होंने किया और उस मज़ाक़ के बदले में जो वे मेरी आयतों और मेरे रसूलों के साथ करते रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ كَانَتۡ لَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡفِرۡدَوۡسِ نُزُلًا ۝ 101
(107) अलबत्ता वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने भले काम किए, उनकी मेहमानी के लिए फ़िरदौस78 के बाग़ होंगे,
78. तशरीह (व्याख्या) के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-29 मोमिनून, हाशिया-10।
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يَبۡغُونَ عَنۡهَا حِوَلٗا ۝ 102
(108) जिनमें वे हमेशा रहेंगे और कभी उस जगह से निकलकर कहीं जाने को उनका जी न चाहेगा।79
79. यानी उस हालत से बेहतर और कोई हालत होगी ही नहीं कि जन्नत की ज़िन्दगी को उससे बदल लेने के लिए उनके दिलों में कोई ख़ाहिश पैदा हो।
قُل لَّوۡ كَانَ ٱلۡبَحۡرُ مِدَادٗا لِّكَلِمَٰتِ رَبِّي لَنَفِدَ ٱلۡبَحۡرُ قَبۡلَ أَن تَنفَدَ كَلِمَٰتُ رَبِّي وَلَوۡ جِئۡنَا بِمِثۡلِهِۦ مَدَدٗا ۝ 103
(109) ऐ नबी! कहो कि अगर समन्दर मेरे रब की बाते80 लिखने के लिए रौशनाई बन जाए तो वह ख़त्म हो जाए, मगर मेरे रब की बातें ख़त्म न हों, बल्कि अगर उतनी ही रौशनाई हम और ले आएँ तो वह भी काफ़ी न हो
80. 'बातों' से मुराद उसके काम और कमालात (कौशल्य) और क़ुदरत और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) की अनोखी बातें हैं। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-51 लुक़मान, हाशिया-48।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَمَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ رَبِّهِۦ فَلۡيَعۡمَلۡ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَلَا يُشۡرِكۡ بِعِبَادَةِ رَبِّهِۦٓ أَحَدَۢا ۝ 104
(110) ऐ नबी! कहो कि मैं तो एक इनसान हूँ तुम्ही जैसा, मेरी तरफ़ वह्य की जाती है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है। लिहाज़ा जो कोई अपने रब की मुलाक़ात का उम्मीदवार हो, उसे चाहिए कि अच्छे काम करे और बन्दगी में अपने रब के साथ किसी और को साझीदार न बनाए।
لَّٰكِنَّا۠ هُوَ ٱللَّهُ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 105
(38) रहा मैं, तो मेरा रब तो वही अल्लाह है और मैं उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।
وَلَوۡلَآ إِذۡ دَخَلۡتَ جَنَّتَكَ قُلۡتَ مَا شَآءَ ٱللَّهُ لَا قُوَّةَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ إِن تَرَنِ أَنَا۠ أَقَلَّ مِنكَ مَالٗا وَوَلَدٗا ۝ 106
(39) और जब तू अपने बाग़ में दाख़िल हो रहा था तो उस वक़्त तेरी ज़बान से यह क्यों न निकला कि माशाअल्लाह, ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाह40? अगर तू मुझे माल और औलाद में अपने से कमतर पा रहा है
40. “यानी जो कुछ अल्लाह चाहे, वही होगा। मेरा और किसी का कुछ ज़ोर नहीं है। हमारा अगर कुछ बस चल सकता है तो अल्लाह ही की मेहरबानी और मदद से चल सकता है।”
فَعَسَىٰ رَبِّيٓ أَن يُؤۡتِيَنِ خَيۡرٗا مِّن جَنَّتِكَ وَيُرۡسِلَ عَلَيۡهَا حُسۡبَانٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَتُصۡبِحَ صَعِيدٗا زَلَقًا ۝ 107
(40) तो नामुमकिन नहीं कि मेरा रब मुझे तेरे बाग़ से बेहतर दे दे और तेरे बाग़ पर आसमान से कोई आफ़त भेज दे जिससे वह साफ़ मैदान बनकर रह जाए,
أَوۡ يُصۡبِحَ مَآؤُهَا غَوۡرٗا فَلَن تَسۡتَطِيعَ لَهُۥ طَلَبٗا ۝ 108
(41) या उसका पानी ज़मीन में उतर जाए और फिर तू उसे किसी तरह न निकाल सके।”
وَأُحِيطَ بِثَمَرِهِۦ فَأَصۡبَحَ يُقَلِّبُ كَفَّيۡهِ عَلَىٰ مَآ أَنفَقَ فِيهَا وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَيَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي لَمۡ أُشۡرِكۡ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 109
(42) आख़िरकार हुआ यह कि उसका सारा फल मारा गया और वह अपने अंगूरों के बाग़ को टट्टियों पर उलटा पड़ा देखकर अपनी लगाई हुई लागत पर हाथ मलता रह गया और कहने लगा कि “काश, मैंने अपने रब के साथ किसी को शरीक न ठहराया होता"