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سُورَةُ الحَدِيدِ

57. अल-हदीद

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

आयत 25 के वाक्यांश "व अंज़ल-नल हदीद' अर्थात् "और हमने लोहा (हदीद) उतारा" से लिया गया है।

उतरने का समय

इसके मदनी सूरा होने में सभी टीकाकार एकमत हैं और इसके विषयों पर विचार करने से महसूस होता है कि शायद यह उहुद के युद्ध और हुदैबिया के समझौते के बीच किसी समय उतरी है। यह वह समय था जब इस्लाम को अपने अनुयायियों से केवल प्राण की क़ुरबानी ही की ज़रूरत न थी, बल्कि धन की क़ुरबानी की भी थी, और इस सूरा में इसी क़ुरबानी के लिए ज़ोरदार अपील की गई है। इस अनुमान की आयत 10 से और अधिक पुष्टि होती है।

विषय और वार्ता

इसका विषय अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने पर उभारता है। यह सूरा इस उद्देश्य के लिए उतारी गई थी कि मुसलमानों को विशेष रूप से धन की क़ुरबानियों के लिए तैयार किया जाए और यह बात उनके मन में बिठा दी जाए कि ईमान [की मूल आत्मा और वास्तविकता] अल्लाह और उसके धर्म के लिए निष्ठावान होना है। जो व्यक्ति इस आत्मा से वंचित है और ख़ुदा और उसके धर्म की तुलना में अपनी जान-माल और अपने हित को अधिक प्रिय समझे, उसके ईमान की स्वीकृति खोखली है। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले अल्लाह के गुणों को बयान किया गया है, ताकि सुननेवालों को अच्छी तरह यह एहसास हो जाए कि इस महान हस्ती की ओर से उनको संबोधित किया जा रहा है। इसके बाद निम्नलिखित विषय-वस्तुएँ क्रमशः प्रस्तुत की गई हैं—

  1. ईमान का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि आदमी ख़ुदा के रास्ते में माल ख़र्च करने से न कतराए।
  2. ख़ुदा की राह में जान-माल की क़ुरबानी देना यद्यपि हर हाल में अपना मूल्य रखता है,

मगर इन क़ुरबानियों का मूल्य मौक़ों की गंभीरता की दृष्टि से निश्चित होता है। जो लोग इस्लाम की कमज़ोरी की हालत में उसे उच्च करने के लिए जानें लड़ाएँ और माल खर्च करें, उनके दर्जे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो इस्लाम के प्रभावी होने की स्थिति में उसकी तदधिक उन्नति और आगे बढ़ाने के लिए जान-माल क़ुरबान करें।

  1. सत्य मार्ग में जो माल भी ख़र्च किया आए, वह अल्लाह के ज़िम्मे है, और अल्लाह न सिर्फ़ यह कि उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा, बल्कि अपनी और से और अधिक प्रतिदान भी प्रदान करेगा।
  2. आख़िरत में ख़ुदा का नूर (प्रकाश) उन्हीं ईमानवालों को मिलेगा, जिन्होंने अल्लाह के मार्ग में अपना माल ख़र्च किया हो। रहे ये मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) जो दुनिया में अपने ही हित को देखते रहे, आख़िरत में उनको ईमानवालों से अलग कर दिया जाएगा। वे प्रकाश से वंचित होंगे और उनका परिणाम वही होगा जो इंकार करनेवालों का होगा।
  3. मुसलमानों को उन अहले-किताब की तरह नहीं हो जाना चाहिए जिनके दिल लम्बे समय की ग़फ़लतों (बेसुधियों) की वजह से पत्थर हो गए हैं। वह ईमानवाला ही क्या जिसका दिल ख़ुदा की याद से न पिघले और उसके उतारे हुए सत्य के आगे न झुके।
  4. अल्लाह की दृष्टि में 'सिद्दीक़' (सत्यवान) और 'शहीद' (साक्षी) कैवल वे ईमानवाले हैं जो अपना माल किसी दिखावे की भावना के बिना सच्चे दिल से उसके मार्ग में ख़र्च करते हैं।
  5. दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ़ कुछ दिनों की बहार और एक धोखे का सामान है। यहाँ की साज-सजा और यहाँ का धन-दौलत, जिसमें लोग एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिशें करते हैं, सब कुछ अस्थायी है। स्थायी जीवन वास्तव में आख़िरत की ज़िन्दगी है। तुम्हें एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करनी है तो यह कोशिश जन्नत की ओर दौड़ने में करो।
  6. दुनिया में सुख और दुख जो भी होता है, अल्लाह के पहले से लिखे हुए फ़ैसले के अनुसार होता है। ईमानवालों का चरित्र यह होना चाहिए कि दुख या मुसीबत आए तो हिम्मत न हार बैठें, और सुख आए तो इतराने न लगें।
  7. अल्लाह ने अपने रसूल खुली-खुली निशानियों और किताब और न्याय-तुला के साथ भेजे, ताकि लोग न्याय पर स्थिर रह सकें, और इसके साथ लोहा भी उतारा, ताकि सत्य को स्थापित करने और असत्य का सिर नीचा करने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाए। इस तरह अल्लाह यह देखना चाहता है कि इंसानों में से कौन लोग ऐसे निकलते हैं जो उसके धर्म के समर्थन और उसकी सहायता के लिए खड़े हों और उसके लिए जान लड़ा दें।
  8. अल्लाह की ओर से पहले पैग़म्बर आते रहे जिनकी दावत से कुछ लोग सीधी राह पर आए और अधिकतर अवज्ञाकारी बने रहे। फिर ईसा (अलैहि०) आए, जिनकी शिक्षा से लोगों में बहुत-से नैतिक गुण पैदा हुए, मगर उनकी उम्मत ने संन्यास की नई नीति अपना ली। अब सर्वोच्च अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) को भेजा है। उनपर जो लोग ईमान लाएँगे, अल्लाह उनको अपनी दयालुता का दोहरा हिस्सा देगा और उन्हें [सीधी राह दिखानेवाला] नूर (प्रकाश) प्रदान करेगा। अहले-किताब चाहे अपने आपको अल्लाह की कृपाओं का ठेकेदार समझते रहें, मगर अल्लाह की कृपा उसके अपने ही हाथ में है, उसे अधिकार है जिसे चाहे अपने उदार दान से सम्पन्न करे।

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سُورَةُ الحَدِيدِ
57. अल-हदीद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह की तसबीह (महिमागान) की है हर उस चीज़ ने जो ज़मीन और आसमानों में है,1 और वही ज़बरदस्त हिकमतवाला है।2
1. यानी हमेशा कायनात की हर चीज़ ने इस हक़ीक़त का इज़हार और एलान किया है कि उसका पैदा करनेवाला और परवरदिगार हर ऐब, ख़राबी, कमज़ोरी, ग़लती और बुराई से पाक है। उसकी हस्ती पाक है, उसकी सिफ़तें पाक हैं, उसके काम पाक हैं और उसके हुक्म भी, चाहे तकवीनी हुक्म हों (यानी वे हुक्म हों जिनको मानने पर इनसान मजबूर है) या शरई हुक्म (यानी वे हुक्म जिनको मानना या न मानना इनसान के इख़्तियार में है), सरासर पाक हैं। यहाँ 'सब्ब-ह' (यानी 'तसबीह की') का लफ़्ज़ किए जा चुके काम के तौर पर इस्तेमाल किया गया है और कुछ दूसरी जगहों पर 'युसब्बिहु' इस्तेमाल हुआ है जिसमें हाल और मुस्तक़बिल दोनों का मतलब शामिल है। इसका मतलब यह हुआ कि कायनात का ज़र्रा-जर्रा हमेशा अपने पैदा करनेवाले और रब की पाकी बयान करता रहा है, आज भी कर रहा है और हमेशा करता रहेगा।
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, : 'हुवल-अज़ीज़ुल-हकीम'। लफ़्ज़ 'हु-व' को पहले लाने से ख़ुद-ब-ख़ुद घेरने या हदबन्दी करने का मतलब पैदा होता है, यानी बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि वह अज़ीज़ और हकीम है, बल्कि हक़ीक़त यह है कि वही ऐसी हस्ती है जो अज़ीज़ भी है और हकीम भी। अज़ीज़ के मानी हैं ऐसा ज़बरदस्त और सब कुछ कर सकनेवाला और ज़ोर रखनेवाला जिसके फ़ैसले को लागू होने से दुनिया की कोई ताक़त रोक नहीं सकती, जिसको रोकना किसी के बस में नहीं है, जिसकी फ़रमाँबरदारी हर एक को करनी ही पड़ती है, चाहे कोई चाहे या न चाहे, जिसकी नाफ़रमानी करनेवाला उसकी पकड़ से किसी तरह बच ही नहीं सकता। और हकीम के मानी यह हैं कि वह जो कुछ भी करता है हिकमत और सूझ-बूझ के साथ करता है। उसका पैदा करना, उसका तदबीर करना, उसकी हुकूमत, उसके हुक्म, उसकी हिदायतें, सब हिकमत की बुनियाद पर हैं। उसके किसी काम में ज़रा-सी भी नादानी, बेवक़ूफ़ी और जहालत नहीं पाई जाती। इस जगह पर एक बारीक पहलू और भी है जिसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क़ुरआन मजीद में से कम ही जगहें ऐसी हैं जहाँ अल्लाह के ‘अज़ीज’ (ज़बरदस्त) होने की सिफ़त के साथ क़वी (ताक़तवर), मुक़्तदिर (पूरा इक़तिदार रखनेवाला), जब्बार (बलपूर्वक अपना हुक्म मनवा लेनेवाला) और ज़ू-इन्तिक़ाम (बदला लेनेवाला) जैसे अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, जिनसे सिर्फ़ उसके अकेले पूरी तरह इक़तिदार रखनेवाला होने का इज़हार होता है, और यह सिर्फ़ उन मौक़ों पर हुआ है जहाँ बात का सिलसिला इस बात का तक़ाज़ा करता था कि ज़ालिमों और नाफ़रमानों को अल्लाह की पकड़ से डराया जाए। इस तरह की कुछ जगहों को छोड़कर बाक़ी जहाँ भी अल्लाह तआला के लिए 'अज़ीज़' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है वहाँ उसके साथ हकीम (हिकमतवाला), रहीम (रहम करनेवाला), ग़फ़ूर (बहुत माफ़ करनेवाला), वह्हाब (देनेवाला) और हमीद (तारीफ़ के क़ाबिल) में से कोई लफ़्ज़ ज़रूर लाया गया है। इसकी वजह यह है कि अगर कोई हस्ती ऐसी हो जिसे बेपनाह ताक़त हासिल हो, मगर उसके साथ वह नादान हो, जाहिल हो, बेरहम हो, माफ़ करना जानती ही न हो, कंजूस हो और बुरी सीरतवाली हो, तो उसके इक़तिदार का नतीजा ज़ुल्म के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। दुनिया में जहाँ कहीं भी ज़ुल्म हो रहा है उसका बुनियादी सबब (कारण) यही है कि जिस शख़्स को दूसरों पर बालातरी (ग़लबा और वर्चस्व) हासिल है वह या तो अपनी ताक़त को नादानी और जहालत के साथ इस्तेमाल कर रहा है, या वह बेरहम और संगदिल है, या कंजूस और तंगदिल है, या बुरी आदतोंवाला और बदकिरदार है। ताक़त के साथ ये बुरी सिफ़ात जहाँ भी जमा हों, वहाँ किसी भलाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी लिए क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला के 'अज़ीज़' होने की सिफ़त के साथ उसके हकीम व अलीम और रहीम व ग़फ़ूर और हमीद व वह्हाब होने का ज़िक्र लाज़िमी तौर से किया गया है, ताकि इनसान यह जान ले कि जो ख़ुदा इस कायनात पर हुकूमत कर रहा है वह एक तरफ़ तो ऐसा पूरा इक़तिदार (सत्ता) रखता है कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक कोई उसके फ़ैसलों को लागू हाने से रोक नहीं सकता, मगर दूसरी तरफ़ वह 'हकीम' (हिकमतवाला) भी है, उसका हर फ़ैसला सरासर सूझ-बूझ की बुनियाद पर होता है। 'अलीम' (सब कुछ जाननेवाला) भी है, जो फ़ैसला भी करता है ठीक-ठीक इल्म के मुताबिक़ करता है। रहीम' (रहम करनेवाला) भी है, अपने बेपनाह इक़तिदार को बेरहमी के साथ इस्तेमाल नहीं करता। ‘ग़फ़ूर' (बहुत माफ़ करनेवाला) भी है, अपने मातहतों के साथ छोटी-छोटी ग़लतियाँ ढूँढ़ने का नहीं, बल्कि अनदेखा कर देने और माफ़ कर देने का मामला करता है। 'वह्हाब' (देनेवाला) भी है, अपनी रय्यत (प्रजा) के साथ कंजूसी का नहीं, बल्कि बेइन्तिहा फ़य्याज़ी (दानशीलता) का बरताव कर रहा है। और 'हमीद' (तारीफ़ और शुक्र के क़ाबिल) भी है, तमाम तारीफ़ के क़ाबिल सिफ़तें और कमालात उसकी हस्ती में जमा हैं। क़ुरआन के इस बयान की पूरी अहमियत वे लोग ज़्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं जो हाकिमियत (Sovereignty) के सिलसिले में फ़ल्सफ़ा-ए-सियासत (राजनीतिशास्त्र) और क़ानून के फ़लसफ़े की बहसों को जानते हैं। हाकिमियत नाम ही इस चीज़ का है कि हाकिमियत रखनेवाला ग़ैर-महदूद इक़तिदार (असीमित सत्ता) का मालिक हो, कोई अन्दरूनी और बाहरी ताकत उसके हुक्म और फ़ैसले को लागू होने से रोकने, या उसको बदलने, या उसपर नए सिरे से ग़ौर करनेवाली न हो, और किसी के लिए उसका हुक्म मानने के सिवा कोई चारा न हो। इस ग़ैर-महदूद इक़तिदार का तसव्वुर करते ही इनसानी अक़्ल लाज़िमी तौर से यह माँग करती है कि ऐसा इक़तिदार जिसको भी हासिल हो उसे बे-ऐब और इल्म और हिकमत में मुकम्मल होना चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा इक़तिदार रखनेवाला नादान, जाहिल, बेरहम और बुरी आदतवाला हो तो उसकी बादशाही सरासर ज़ुल्म और फ़साद होगी। इसलिए जिन फ़ल्सफ़ियों (दार्शनिकों) ने किसी इनसान, या इनसानी इदारे (संस्था), या इनसानों के गरोह को हुकूमत का मालिक ठहराया है उनको यह मानना पड़ा है कि वह ग़लती से परे होगा। मगर ज़ाहिर है कि न तो ग़ैर-महदूद बादशाही सचमुच किसी इनसानी इक़तिदार को हासिल हो सकती है, और न यही मुमकिन है कि किसी बादशाह, या पार्लियामेंट, या क़ौम, या पार्टी को एक महदूद दायरे में हुकूमत करने का जो अधिकार हासिल हो उसे वह बे-ऐब और ग़लती से पाक तरीक़े से इस्तेमाल कर सके। इसलिए कि ऐसी हिकमत जिसमें नादानी का हल्का-सा असर भी न हो और ऐसा इल्म जो तमाम ज़रूरी हक़ीक़तों पर हावी हो, सिरे से पूरी इनसानियत ही को हासिल नहीं है, कहाँ यह कि वह इनसानों में से किसी शख़्स, या इदारे, या क़ौम को हासिल हो जाए। और इसी तरह इनसान जब तक इनसान है, उसका ख़ुदग़रज़ी, मतलब-परस्ती, डर, लालच, ख़ाहिशों, तास्सुब और जज़बाती पसन्द-नापसन्द और मुहब्बत और नफ़रत से बिलकुल पाक और परे होना भी मुमकिन नहीं है। इन हक़ीक़तों को अगर कोई शख़्स निगाह में रखकर ग़ौर करे तो उसे महसूस होगा कि क़ुरआन अपने इस बयान में हक़ीक़त में बादशाही का बिलकुल सही और मुकम्मल तसव्वुर पेश कर रहा है। वह कहता है कि 'अज़ीज़' यानी पूरी तरह इक़तिदार (सत्ता) रखनेवाला इस कायनात में अल्लाह तआला के सिवा कोई नहीं है, और इस ग़ैर-महदूद इक़तिदार के साथ वही एक हस्ती ऐसी है जो बे-ऐब है, 'हकीम' और 'अलीम' है, 'रहीम' और 'ग़फ़ूर' है और 'हमीद' और 'वह्हाब' है।
لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 1
(2) ज़मीन और आसमानों की सल्तनत का मालिक वही है, ज़िन्दगी देता और मौत देता है, और हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है
هُوَ ٱلۡأَوَّلُ وَٱلۡأٓخِرُ وَٱلظَّٰهِرُ وَٱلۡبَاطِنُۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 2
(3) वही अव्वल भी है और आख़िर भी, और ज़ाहिर भी है और छिपा हुआ भी,3 और वह हर चीज़ का इल्म रखता है
3. यानी जब कुछ न था तो वह था और जब कुछ न रहेगा तो वह रहेगा। वह सब ज़ाहिरों से बढ़कर ज़ाहिर (प्रकट) है, क्योंकि दुनिया में जो कुछ भी ज़ाहिर है उसी की सिफ़तों और उसी के कामों और उसी के नूर का ज़ाहिर होना है। और वह हर छिपी चीज़ से बढ़कर छिपा हुआ है, क्योंकि हवास (इन्द्रियों) से उसकी हस्ती को महसूस करना तो दूर रहा, अक़्ल और सोच और ख़याल तक उसकी तह और हक़ीक़त को नहीं पा सकते। इसकी बेहतरीन तफ़सीर नबी (सल्ल०) की एक दुआ के ये अलफ़ाज़ हैं जिन्हें इमाम अहमद, मुस्लिम, तिरमिज़ी और बैहक़ी ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से और हाफ़िज़ अबू-याला मूसिली (रज़ि०) ने अपनी मुसनद में हज़रत आइशा (रज़ि०) से नक़्ल किया है— "तू ही पहला है, कोई तुझसे पहले नहीं। तू ही आख़िर है, कोई तेरे बाद नहीं। तू ही ज़ाहिर है, कोई तुझसे ऊपर नहीं। तू ही बातिन है, कोई तुझसे ज़्यादा छिपा हुआ नहीं।” यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि क़ुरआन मजीद में जन्नतवालों और जहन्नमवालों के लिए हमेशा और ख़त्म न होनेवाली की ज़िन्दगी का जो ज़िक्र किया गया है उसके साथ यह बात कैसे निभ सकती है कि अल्लाह तआला आख़िर है, यानी जब कुछ न रहेगा तो वह रहेगा? इसका जवाब ख़ुद क़ुरआन मजीद; सूरा-28 क़सस, आयत-88 ही में मौज़ूद है कि 'कुल्लु शैइन हालिकुन इल्ला वजहह' यानी “हर चीज़ मिट जानेवाली है अल्लाह की ज़ात के सिवा।” दूसरे अलफ़ाज़ में ख़ुद अपने तौर पर बाक़ी रहना किसी मख़लूक़ के लिए नहीं है। अगर कोई चीज़ बाक़ी है या बाक़ी रहे तो वह अल्लाह के बाक़ी रखने ही से बाक़ी है और उसके बाक़ी रखने ही से बाक़ी रह सकती है, वरना अपने आपमें उसके सिवा सब मिट जानेवाले हैं। जन्नत और जहन्नम में कोई हमेशा इसलिए नहीं रहेगा कि वह अपने आपमें ख़ुद अनमिट है, बल्कि इसलिए रहेगा कि अल्लाह उसको हमेशा की ज़िन्दगी देगा। यही मामला फ़रिश्तों का भी है कि वे अपने आपमें ग़ैर-फ़ानी (अनमिट) नहीं हैं। जब अल्लाह ने चाहा तो वे वुजूद में आए, और जब तक वह चाहे उसी वक़्त तक वे मौजूद रह सकते हैं।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۖ وَهُوَ مَعَكُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 3
(4) वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया और फिर अर्श (राजसिंहासन) पर बैठा।4 उसके इल्म में है जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है5 वह तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम हो।6 जो काम भी तुम करते हो उसे वह देख रहा है।
4. यानी कायनात का पैदा करनेवाला भी वही है और हुकूमत करनेवाला भी वही। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—41, 42; सूरा 10 यूनुस, हाशिया-4; सूरा-13 रअद, हाशिए—2 से 5; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—11 से 15)
5. दूसरे अलफ़ाज़ में, वह सिर्फ़ बड़ी-बड़ी चीज़ों ही का इल्म नहीं रखता बल्कि छोटी-छोटी बारीकियों का इल्म भी रखता है। एक-एक दाना जो ज़मीन की तहों में जाता है, एक-एक पत्ती और कोंपल जो ज़मीन से फूटती है, बारिश की एक-एक बूँद जो आसमान से गिरती है, और भापों की हर मिक़दार (मात्रा) जो समुद्रों और झीलों से उठकर आसमान की तरफ़ जाती है, उसकी निगाह में है। उसको मालूम है कि कौन-सा दाना ज़मीन में किस जगह पड़ा है, तभी तो वह उसे फाड़कर उसमें से कोंपल निकालता है और उसे परवरिश करके बढ़ाता है। उसको मालूम है कि भापों की कितनी-कितनी मिक़दार कहाँ-कहाँ से उठी है और कहाँ पहुँची है, तभी तो वह उन सबको जमा करके बादल बनाता है और ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर बाँटकर हर जगह एक हिसाब से बारिश बरसाता है। इसी पर उन दूसरी तमाम चीज़ों की तफ़सीलात को भी समझा जा सकता है जो ज़मीन में जाती और उससे निकलती हैं और आसमान की तरफ़ चढ़ती और उससे बरसती हैं। इन सबपर अल्लाह का इल्म हावी न हो तो हर चीज़ की अलग-अलग तदबीर और हर एक का इन्तिहाई हिकमत भरे तरीक़े से इन्तिज़ाम कैसे मुमकिन है!
6. यानी किसी जगह भी तुम उसके इल्म, उसकी क़ुदरत, उसकी हुकूमत और उसकी तदबीर और इन्तिज़ाम से बाहर नहीं हो। ज़मीन में, हवा में, पानी में, या किसी तन्हाई की जगह में, जहाँ भी तुम हो, अल्लाह को मालूम है कि तुम कहाँ हो। वहाँ तुम्हारा ज़िन्दा होना अपने आपमें इसकी अलामत (सुबूत) है कि अल्लाह उसी जगह तुम्हारी ज़िन्दगी का सामान कर रहा है। तुम्हारा दिल अगर धड़क रहा है, तुम्हारे फेफड़े अगर साँस ले रहे हैं, तुम्हारी सुनने और देखने की ताक़त अगर काम कर रही है तो यह सब कुछ इसी वजह से है कि अल्लाह के इन्तिज़ाम से तुम्हारे जिस्म के सब कल-पुरज़े चल रहे हैं। और अगर किसी जगह भी तुम्हें मौत आती है तो इसी वजह से आती है कि अल्लाह तआला की तरफ़ से तुम्हारे बाक़ी रहने का इन्तिज़ाम ख़त्म करके तुम्हें वापस बुला लेने का फ़ैसला कर दिया जाता है।
لَّهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 4
(5) वही ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है और तमाम मामले फ़ैसले लिए उसी की तरफ़ पलटाए जाते हैं।
يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۚ وَهُوَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 5
(6) वही रात को दिन में और दिन को रात में दाख़िल करता है, और दिलों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।
ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَأَنفِقُواْ مِمَّا جَعَلَكُم مُّسۡتَخۡلَفِينَ فِيهِۖ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَأَنفَقُواْ لَهُمۡ أَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 6
(7) ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर7 और ख़र्च करो8 उन चीज़ों में से जिनपर उसने तुमको ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाया है।9 जो लोग तुममें से ईमान लाएँगे और माल ख़र्च करेंगे10 उनके लिए बड़ा बदला है।
7. यह बात ग़ैर-मुस्लिमों से नहीं कही गई है, बल्कि पूरी तक़रीर यह ज़ाहिर कर रही है कि यह बात मुसलमानों से कही जा रही है, जो इस्लाम के कलिमे का इक़रार करके ईमान लानेवाले गरोह में शामिल हो चुके थे, मगर ईमान के तक़ाज़े पूरे करने और ईमानवाले का-सा रवैया अपनाने से कतरा रहे थे। ज़ाहिर है कि ग़ैर-मुस्लिमों को ईमान की दावत देने के साथ ही फ़ौरन उनसे यह नहीं कहा जा सकता कि अल्लाह की राह में जिहाद के ख़र्चों में दिल खोलकर अपना हिस्सा अदा करो, और न यह कहा जा सकता है कि तुममें से जो फ़तह से पहले जिहाद और अल्लाह की राह में ख़र्च करेगा उसका दरजा उन लोगों से ज़्यादा ऊँचा होगा जो बाद में यह काम करेंगे। ग़ैर-मुस्लिम को ईमान की दावत देने की सूरत में तो पहले उसके सामने ईमान के इबतिदाई तक़ाज़े पेश किए जाते हैं न कि इन्तिहाई। इसलिए बात के मौक़ा-महल के लिहाज से यहाँ 'ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर' कहने का मतलब यह है कि 'ऐ वे लोगो जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में शामिल हो गए हो, अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) को सच्चे दिल से मानो और वह रवैया अपनाओ जो सच्चे दिल के साथ ईमान लानेवालों को अपनाना चाहिए।
8. इस जगह पर ख़र्च करने से मुराद आम भलाई के कामों में ख़र्च करना नहीं है, बल्कि आयत-10 के अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ इससे मुराद उस जिद्दो-जुह्द के ख़र्चों में हिस्सा लेना है जो उस वक़्त कुफ़्र के मुक़ाबले में इस्लाम को सरबुलन्द करने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रहनुमाई में बरपा थी। ख़ास तौर पर दो ज़रूरतें उस वक़्त ऐसी थीं जिनके लिए इस्लामी हुकूमत को माली (आर्थिक) मदद की सख़्त ज़रूरत पड़ रही थी। एक, जंगी ज़रूरतें। दूसरी, उन सताए हुए मुसलमानों को सहारा देना जो इस्लाम-दुश्मनों के ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर अरब के हर हिस्से से हिजरत करके मदीना आए थे और आ रहे थे। सच्चे ईमानवाले उन ख़र्चों को पूरा करने के लिए अपने आपपर इतना बोझ बरदाश्त कर रहे थे जो उनकी ताक़त और हैसियत से बहुत ज़्यादा था, और इसी चीज़ के लिए उनकी जो तारीफ़ आयतें—10, 12, 18 और 19 में की गई है। लेकिन मुसलमानों के गरोह में बहुत-से अच्छे-ख़ासे खाते-पीते लोग ऐसे मौजूद थे जो कुफ़्र और इस्लाम की इस लड़ाई को सिर्फ़ तमाशाई बनकर देख रहे थे और इस बात का उन्हें कोई एहसास न था कि जिस चीज़ पर ईमान लाने का वे दावा कर रहे हैं उसके कुछ हक़ भी उनकी जान-माल पर लागू होते हैं। यही दूसरी क़िस्म के लोगों से इस आयत में बात कही गई है। उनसे कहा जा रहा है कि सच्चे मोमिन बनो और अल्लाह की राह में माल ख़र्च करो।
9. इसके दो मतलब हैं और दोनों ही यहाँ मुराद भी हैं। एक मतलब यह है कि जो माल तुम्हारे पास है यह अस्ल में तुम्हारा ज़ाती माल नहीं, बल्कि अल्लाह का दिया हुआ माल है। तुम अपने तौर पर ख़ुद इसके मालिक नहीं हो, अल्लाह ने अपने ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) की हैसियत से यह तुम्हारे इस्तेमाल में दिया है। लिहाज़ा माल के अस्ल मालिक की ख़िदमत में इसे ख़र्च करने में कोताही न करो। नायब (उत्तराधिकारी) का यह काम नहीं है कि मालिक के माल को मालिक ही के काम में ख़र्च करने से जी चुराए। दूसरा मतलब यह है कि माल न हमेशा से तुम्हारे पास था, न हमेशा तुम्हारे पास रहनेवाला है। कल यह कुछ दूसरे लोगों के पास था, फिर अल्लाह ने तुमको उनका जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाकर उसे तुम्हारे हवाले किया, फिर एक वक़्त ऐसा आएगा जब यह तुम्हारे पास न रहेगा और कुछ दूसरे लोग इसपर तुम्हारे जानशीन बन जाएँगे। इस थोड़े दिनों की जानशीनी की थोड़ी-सी मुद्दत में, जबकि यह तुम्हारे क़ब्ज़े और इस्तेमाल में है, इसे अल्लाह के काम में ख़र्च करो, ताकि आख़िरत में इसका हमेशा रहनेवाला इनाम तुम्हें हासिल हो। यही बात है जिसको नबी (सल्ल०) ने एक हदीस में बयान फ़रमाया है। तिरमिज़ी की रिवायत है कि एक बार नबी (सल्ल०) के यहाँ एक बकरी ज़ब्ह करके उसका गोश्त बाँटा गया। आप (सल्ल०) घर में तशरीफ़ लाए तो पूछा, “बकरी में से क्या बाक़ी रहा?" हज़रत आइशा (रज़ि०) ने कहा, “एक बाज़ू के सिवा कुछ नहीं बचा।” आप (सल्ल०) ने फरमाया, “एक बाज़ू के सिवा सारी बकरी बच गई।” यानी जो कुछ ख़ुदा की राह में ख़र्च हुआ वही अस्ल में बाक़ी रह गया। एक और हदीस में है कि एक शख़्स ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! किस सदक़े (दान) का बदला सबसे ज़्यादा है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह कि तू सदक़ा करे इस हाल में कि तू सही और तन्दुरुस्त हो, माल की कमी के सबब उसे बचाकर रखने की ज़रूरत महसूस करता हो और उसे किसी काम में लगाकर ज़्यादा कमा लेने की उम्मीद रखता हो। उस वक़्त का इन्तिज़ार न कर कि जब जान निकलने लगे तो तू कहे कि यह फ़ुलाँ को दिया जाए और यह फ़ुलाँ को। उस वक़्त तो यह माल फ़ुलाँ को जाना ही है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। एक और हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आदमी कहता है : मेरा माल! मेरा माल! हालाँकि तुम्हारे माल में से तुम्हारा हिस्सा उसके सिवा क्या है जो तुमने खाकर ख़त्म कर दिया, या पहनकर पुराना कर दिया, या सदक़ा करके आगे भेज दिया? उसके सिवा जो कुछ भी है वह तुम्हारे हाथ से जानेवाला है और तुम उसे दूसरों के लिए छोड़ जानेवाले हो।” (हदीस : मुस्लिम)
10. यहाँ फिर जिहाद में माल ख़र्च करने को ईमान का लाज़िमी तक़ाज़ा और ईमान में सच्चे होने की जरूरी निशानी ठहराया गया है। दूसरे लफ़्ज़ों में, मानो यह कहा गया है कि हक़ीक़ी और सच्चा मोमिन वही है जो ऐसे मौक़ों पर माल ख़र्च करने से जी न चुराए।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ لِتُؤۡمِنُواْ بِرَبِّكُمۡ وَقَدۡ أَخَذَ مِيثَٰقَكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, हालाँकि रसूल तुम्हें अपने रब पर ईमान लाने की दावत दे रहा है।11 और वह तुमसे अह्द ले चुका12 अगर तुम सचमुच माननेवाले हो!
11. यानी तुम यह ग़ैर-ईमानी रवैया इस हालत में अपना रहे हो कि अल्लाह का रसूल (सल्ल०) ख़ुद तुम्हारे दरमियान मौजूद है और ईमान की दावत तुम्हें दूर-दराज़ के ज़रिए से नहीं, बल्कि सीधे तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ज़बान से पहुँच रही है।
12. क़ुरआन मजीद की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इस अह्द (वचन) से मुराद अल्लाह की बन्दगी का वह अह्द लिया है जो दुनिया की पैदाइश की शुरुआत में आदम (अलैहि०) की पीठ से उनकी नस्ल को निकालकर लिया गया था। और कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों ने इससे मुराद वह अह्द लिया है जो हर इनसान की फ़ितरत और उसकी फ़ितरी अक़्ल में का अल्लाह की बन्दगी के लिए मौजूद है। लेकिन सही बात यह है कि इससे मुराद अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी का वह समझ-बूझकर किया गया अह्द है जो हर मुसलमान ईमान लाकर अपने रब से बाँधता है। क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह इस अह्द का ज़िक्र इन लफ़्ज़ों में किया गया है— “याद रखो उस नेमत को जो अल्लाह ने तुमको दी है और उस अह्द और वादे को जो अल्लाह ने तुमसे लिया है, जबकि तुमने कहा : 'हमने सुना और फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की।’ और अल्लाह से डरो, अल्लाह दिलों का हाल जानता है।” (सूरा-5 माइदा, आयत-7) हदीस में हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) की रिवायत है कि— "अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हमसे इस बात पर बैअत (फ़रमाँबरदारी का वादा) ली थी कि हम चुस्ती और सुस्ती, हर हाल में सुनने और हुक्म मानने पर क़ायम रहेंगे, ख़ुशहाली और और तंगहाली, दोनों हालतों में ख़ुदा की राह में ख़र्च करेंगे, नेकी का हुक्म देंगे ओर बुराई से मना करेंगे, अल्लाह की ख़ातिर हक़ बात कहेंगे और इस मामले में किसी बुरा-भला कहनेवाले की मलामत से न डरेंगे।” (हदीस : मुसनद अहमद)
هُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦٓ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لِّيُخۡرِجَكُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ بِكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 8
(9) वह अल्लाह ही तो है जो अपने बन्दे पर साफ़-साफ़ आयतें उतार रहा है, ताकि तुम्हें अंधेरों से निकालकर रौशनी में ले आए, और हक़ीक़त यह है कि अल्लाह तुमपर बहुत रहमदिल और मेहरबान है।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا يَسۡتَوِي مِنكُم مَّنۡ أَنفَقَ مِن قَبۡلِ ٱلۡفَتۡحِ وَقَٰتَلَۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡظَمُ دَرَجَةٗ مِّنَ ٱلَّذِينَ أَنفَقُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَقَٰتَلُواْۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 9
(10) आख़िर क्या वजह है कि तुम अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते, हालाँकि ज़मीन और आसमानों की मीरास अल्लाह ही के लिए है!13 तुममें से जो लोग फ़तह के बाद ख़र्च और जिहाद करेंगे वे कभी उन लोगों के बराबर नहीं हो सकते जिन्होंने फ़तह से पहले जो ख़र्च और जिहाद किया है। उनका दरजा बाद में ख़र्च और जिहाद करनेवालों से बढ़कर है, अगरचे अल्लाह ने दोनों ही से अच्छे वादे किए हैं।14 कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।15
13. इसके दो मतलब हैं : एक यह कि यह माल तुम्हारे पास हमेशा रहनेवाला नहीं है, एक दिन तुम्हें लाज़िमन इसे छोड़कर ही जाना है और अल्लाह ही इसका वारिस होनेवाला है, फिर क्यों न अपनी ज़िन्दगी में इसे अपने हाथ से अल्लाह की राह में ख़र्च कर दो, ताकि अल्लाह के यहाँ इसका बदला तुम्हारे लिए साबित हो जाए। न ख़र्च करोगे तब भी यह अल्लाह ही के पास वापस जाकर रहेगा, अलबत्ता फ़र्क़ यह होगा कि उसपर तुम किसी बदले के हक़ दार न होगे। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह की राह में माल ख़र्च करते हुए तुमको किसी ग़रीबी और तंगदस्ती का डर महसूस न होना चाहिए, क्योंकि जिस ख़ुदा की राह में तुम इसे ख़र्च करोगे वह ज़मीन और आसमान के सारे ख़ज़ानों का मालिक है, उसके पास तुम्हें देने को बस उतना ही कुछ न था जो उसने आज तुम्हें दे रखा है, बल्कि कल वह तुम्हें इससे बहुत ज़्यादा दे सकता है। यही बात एक दूसरी जगह इस तरह कही गई है— "ऐ नबी, इनसे कहो कि मेरा रब अपने बन्दों में से जिसके लिए चाहता है रोज़ी बढ़ा देता है और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है, और जो कुछ तुम ख़र्च करते हो उसकी जगह वही और ज़्यादा रोज़ी तुम्हें देता है और वह बेहतरीन रोज़ी देनेवाला है।” (सूरा-34 सबा, आयत-39)
14. यानी बदले के हक़दार तो दोनों ही हैं, लेकिन एक गरोह का रुतबा दूसरे गरोह से लाज़िमन ज़्यादा ऊँचा है, क्योंकि उसने ज़्यादा सख़्त हालात में अल्लाह तआला की ख़ातिर वे ख़तरे मोल लिए जो दूसरे गरोह के सामने न थे। उसने ऐसी हालत में माल ख़र्च किया जब दूर-दूर कहीं यह इमकान नज़र न आता था कि कभी फ़तहों से इस ख़र्च की भरपाई हो जाएगी, और उसने ऐसे नाज़ुक दौर में इस्लाम-दुश्मनों से जंग की जब हर वक़्त यह अन्देशा था कि दुश्मन हावी होकर इस्लाम का नाम लेनेवालों को पीस डालेंगे। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से मुजाहिद, क़तादा और ज़ैद-बिन-असलम (रह०) कहते हैं कि इस आयत में जिस चीज़ के लिए लफ़्ज़ 'फ़तह' का इस्तेमाल किया गया है उससे मुराद फ़तह-मक्का है, और आमिर शअबी (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद सुलह-हुदैबिया है। पहली राय को तफ़सीर लिखनेवाले ज़्यादातर आलिमों ने अपनाया है, और दूसरी राय की ताईद में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की यह रिवायत पेश की जाती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हमसे हुदैबिया की सुलह के ज़माने में फ़रमाया, “बहुत जल्द ऐसे लोग आनेवाले हैं जिनके आमाल को देखकर तुम लोग अपने आमाल को मामूली और हक़ीर समझोगे, मगर इनमें से किसी के पास पहाड़ बराबर भी सोना हो और वह सारा-का-सारा ख़ुदा की राह में ख़र्च कर दे तो वह तुम्हारे दो रत्ल (एक सेर), बल्कि एक रत्ल (आधा सेर) ख़र्च करने के बराबर भी न पहुँच सकेगा।” (इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-मरदुवैह, अबू-नुऐम असफ़हानी)। साथ ही इसकी ताईद उस हदीस से भी होती है जो इमाम अहमद (रह०) ने हज़रत अनस (रज़ि०) से नक़्ल की है। वे फ़रमाते हैं। कि एक बार हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) और हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) के दरमियान झगड़ा हो गया। झगड़े के दौरान में हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) से कहा, “तुम लोग अपनी पिछली ख़िदमतों की बुनियाद पर हमसे शेख़ी बघारते हो।" यह बात जब नबी (सल्ल०) तक पहुँची तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उस ख़ुदा की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है, अगर तुम लोग उहुद के बराबर, या पहाड़ों के बराबर सोना भी ख़र्च करो, तो इन लोगों के आमाल को न पहुँच सकोगे।” इससे दलील ली जाती है कि इस आयत में फ़तह से मुराद सुलह-हुदैबिया है, क्योंकि हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) इसी सुलह के बाद ईमान लाए थे और फ़तहे-मक्का में शरीक थे। लेकिन इस ख़ास मौक़े पर फ़तह से मुराद चाहे सुलह-हुदैबिया ली जाए या फ़तह-मक्का, बहरहाल इस आयत का मतलब यह नहीं है कि दरजों का यह फ़र्क़ बस इसी एक फ़तह पर ख़त्म हो गया है, बल्कि उसूली तौर पर इससे यह बात मालूम होती है कि जब कभी इस्लाम पर ऐसा कोई वक़्त आ जाए जिसमें कुफ़्र और कुफ़्र करनेवालों का पलड़ा बहुत भारी हो और बज़ाहिर इस्लाम के ग़लबे के आसार दूर-दूर कहीं नज़र न आते हों, उस वक़्त जो लोग इस्लाम की हिमायत में जानें लड़ाएँ और माल ख़र्च करें, उनके रुतबे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो कुफ़्र और इस्लाम की कश्मकश का फ़ैसला इस्लाम के हक़ में हो जाने के बाद कु़रबानियाँ दें।
15. यानी अल्लाह जिसको जो बदला और मर्तबा भी देता है यह देखकर देता है कि किसने किन हालात में किस जज़बे के साथ क्या अमल किया है। उसकी बाँट अंधी बाँट नहीं है। वह हर एक का दरजा और उसके अमल का बदला पूरी बाख़बरी के साथ तय करता है।
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥ وَلَهُۥٓ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 10
(11) कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़ दे? अच्छा क़र्ज़, ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ाकर वापस दे, और उसके लिए बेहतरीन बदला है,16
16. यह अल्लाह तआला की बहुत बड़ी मेहरबानी है कि आदमी अगर उसके दिए हुए माल को उसी की राह में ख़र्च करे तो उसे वह अपने ज़िम्मे क़र्ज़ क़रार देता है, शर्त यह है कि वह 'क़र्ज़े-हसन' (अच्छा क़र्ज़) हो, यानी ख़ालिस नीयत के साथ किसी ज़ाती ग़रज़ के बिना दिया जाए, किसी तरह के दिखावे और शुहरत और नामवरी की तलब उसमें शामिल न हो, उसे देकर किसी पर एहसान न जताया जाए, उस का देनेवाला सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए दे और उसके सिवा किसी के बदले और किसी की ख़ुशनूदी (रज़ामन्दी) पर निगाह न रखे। इस क़र्ज़ के बारे में अल्लाह के दो वादे हैं। एक यह कि वह उसको कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा, दूसरा यह कि वह उसपर अपनी तरफ़ से बेहतरीन बदला भी भी देगा। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि जब यह आयत उतरी और नबी (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से लोगों ने इसको सुना तो हज़रत अबुद-दहदाह अनसारी (रज़ि०) ने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल, क्या अल्लाह तआला हमसे क़र्ज़ चाहता है?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया,“हाँ, ऐ अबुद-दहदाह।” उन्होंने कहा, “ज़रा अपना हाथ मुझे दिखाइए।” आप (सल्ल०) ने अपना हाथ उनकी तरफ़ बढ़ा दिया। उन्होंने आप (सल्ल०) का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, “मैंने अपने रब को अपना बाग़ क़र्ज़ दे दिया।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि उस बाग़ में खजूर के छ: सौ (600) पेड़ थे, उसी में उनका घर था, वहीं उनके बाल-बच्चे रहते थे। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह बात करके वह सीधे घर पहुँचे और बीवी को पुकारकर कहा, “दहदाह की माँ, निकल आओ, मैंने यह बाग़ अपने रब को क़र्ज़ दे दिया है।” वे बोली, “तुमने फ़ायदे का सौदा किया दहदाह के बाप!” और उसी वक़्त अपना सामान और अपने बच्चे लेकर बाग़ से निकल गईं। (हदीस : इब्ने-अबी-हातिम) इस वाक़िए से अन्दाज़ा होता है कि सच्चे ईमानवालों का तर्ज़े-अमल उस वक़्त क्या था, और इसी से यह बात भी समझ में आ सकती है कि वह कैसा 'अच्छा क़र्ज़' है जिसे कई गुना बढ़ाकर वापस देने और फिर ऊपर से बेहतरीन बदला देने का अल्लाह तआला ने वादा किया है।
يَوۡمَ تَرَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَسۡعَىٰ نُورُهُم بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَبِأَيۡمَٰنِهِمۖ بُشۡرَىٰكُمُ ٱلۡيَوۡمَ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 11
(12) उस दिन जबकि तुम ईमानवाले मर्दो और औरतों को देखोगे कि उनका नूर उनके आगे-आगे और उनके दाहिनी तरफ़ दौड़ रहा होगा।17 (उनसे कहा जाएगा कि) “आज ख़ुशख़बरी है तुम्हारे लिए।” जन्नतें होंगी जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे हमेशा रहेंगे। यही है बड़ी कामयाबी।
17. इस आयत और बादवाली आयत से मालूम होता है कि हश्र के मैदान में नूर (रौशनी) सिर्फ़ नेक ईमानवालों के लिए ख़ास होगा, रहे ईमान न लानेवाले, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और अल्लाह की खुले और छिपे नाफ़रमानी करनेवाले, तो वे वहाँ भी उसी तरह अंधेरे में भटक रहे होंगे, जिस तरह दुनिया में भटकते रहे थे। वहाँ रौशनी जो कुछ भी होगी, सही अक़ीदे और अच्छे अमल की होगी। ईमान की सच्चाई और सीरत और किरदार की पाकीज़गी ही नूर में तबदील हो जाएगी, जिससे नेक बन्दों की ख़ासियत जगमगा उठेगी। जिस शख़्स का अमल जितना बेहतर होगा उसके वुजूद की रौशनी उतनी ही ज़्यादा तेज़ होगी और जब वे हश्र के मैदान से जन्नत की तरफ़ चलेगा तो उसका नूर उसके आगे-आगे दौड़ रहा होगा। इसकी बेहतरीन तशरीह क़तादा (रह०) की वह मुर्सल रिवायत है, जिसमें वे कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “किसी का नूर इतना तेज़ होगा कि मदीना से सनअ तक के सफ़र की दूरी के बराबर पहुँच रहा होगा, और किसी का नूर मदीना से सनआ तक, और किसी का उससे कम, यहाँ तक कि कोई ईमानवाला ऐसा भी होगा, जिसका नूर उसके क़दमों से आगे न बढ़ेगा। (इब्ने-जरीर)। दूसरे अलफ़ाज़ में जिसके वुजूद से दुनिया में जितनी भलाई फैली होगी का उसका नूर उतना ही तेज़ होगा, और जहाँ-जहाँ तक दुनिया में उसकी भलाई पहुँची होगी हश्र के मैदान में उतनी ही दूरी तक उसके नूर की किरनें दौड़ रही होंगी। यहाँ एक सवाल आदमी के ज़ेहन में खटक पैदा कर सकता है। वह यह कि आगे-आगे नूर का दौड़ना तो समझ में आता है, मगर नूर का सिर्फ़ दाहिनी तरफ़ दौड़ने का क्या मतलब है? क्या उनके बाएँ तरफ़ अंधेरा होगा? इसका जवाब यह है कि अगर एक शख़्स अपने दाहिने हाथ पर रौशनी लिए हुए चल रहा हो तो उससे रौशन तो बाईं तरफ़ भी होगा, मगर सच्चाई यही होगी कि रौशनी उसके दाहिने हाथ पर है। इस बात को नबी (सल्ल०) की वह हदीस वाज़ेह करती है जिसे हज़रत अबू-ज़र (रज़ि०) और अबुद्दरदा (रज़ि०) ने रिवायत किया है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं अपनी उम्मत के नेक लोगों को वहाँ उनके उस नूर से पहचानूँगा, जो उनके आगे-आगे और उनके दाएँ और बाएँ दौड़ रहा होगा।” (हदीस : हाकिम, इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-मरदुवैह)
يَوۡمَ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱنظُرُونَا نَقۡتَبِسۡ مِن نُّورِكُمۡ قِيلَ ٱرۡجِعُواْ وَرَآءَكُمۡ فَٱلۡتَمِسُواْ نُورٗاۖ فَضُرِبَ بَيۡنَهُم بِسُورٖ لَّهُۥ بَابُۢ بَاطِنُهُۥ فِيهِ ٱلرَّحۡمَةُ وَظَٰهِرُهُۥ مِن قِبَلِهِ ٱلۡعَذَابُ ۝ 12
(13) उस दिन मुनाफ़िक़ मर्दों और औरतों का हाल यह होगा कि वे ईमानवालों से कहेंगे, “ज़रा हमारी तरफ़ देखो, ताकि हम तुम्हारे नूर से कुछ फ़ायदा उठाएँ!”18 मगर उनसे कहा जाएगा, “पीछे हट जाओ, अपना नूर कहीं और तलाश करो!” फिर उनके दरमियान एक दीवार खड़ी कर दी जाएगी, जिसमें एक दरवाज़ा होगा। उस दरवाज़े के अन्दर रहमत (मेहरबानी) होगी और बाहर अज़ाब।19
18. मतलब यह है कि ईमानवाले जब जन्नत की तरफ़ जा रहे होंगे तो रौशनी उनके आगे होगी और पीछे मुनाफ़िक़ अंधेरे में ठोकरें खा रहे होंगे। उस वक़्त वे उन ईमानवालों को जो दुनिया में उनके साथ एक ही मुस्लिम समाज में रहते थे, पुकार-पुकारकर कहेंगे कि ज़रा हमारी तरफ़ पलटकर देखो, ताकि हमें भी कुछ रौशनी मिल जाए।
19. इसका मतलब यह है कि जन्नतवाले उस दरवाज़े से जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे और दरवाज़ा बन्द कर दिया जाएगा। दरवाज़े के एक तरफ़ जन्नत की नेमतें होंगी, और दूसरी तरफ़ जहन्नम का अज़ाब। मुनाफ़िक़ों के लिए उस सरहद को पार करना मुमकिन न होगा जो उनके और जन्नत के बीच क़ायम होगी।
يُنَادُونَهُمۡ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ وَلَٰكِنَّكُمۡ فَتَنتُمۡ أَنفُسَكُمۡ وَتَرَبَّصۡتُمۡ وَٱرۡتَبۡتُمۡ وَغَرَّتۡكُمُ ٱلۡأَمَانِيُّ حَتَّىٰ جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَغَرَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 13
(14) वे ईमानवालों से पुकार-पुकारकर कहेंगे, “क्या हम तुम्हारे साथ न थे?"20 ईमानवाले जवाब देंगे, “हाँ, मगर तुमने अपने आपको ख़ुद फ़ितने में डाला,21 ' मौक़ापरस्ती की,22 शक में पड़े रहे,23 और झूठीउम्मीदें तुम्हें धोखा देती रहीं, यहाँ तक कि अल्लाह का फ़ैसला आ गया।24 और आख़िर वक़्त तक वह बड़ा धोखेबाज़25 तुम्हें अल्लाह के मामले धोखा देता रहा।
20. यानी क्या हम तुम्हारे साथ एक ही मुस्लिम समाज में शामिल न थे? क्या हम कलिमा पढ़नेवाले न थे? क्या तुम्हारी तरह हम भी नमाज़ें न पढ़ते थे? रोज़े न रखते थे? हज और ज़कात अदा न करते थे? क्या तुम्हारी मजलिसों में हम शरीक न होते थे? तुम्हारे साथ हमारे शादी-ब्याह और रिश्तेदारी के ताल्लुक़ात न थे? फिर आज हमारे और तुम्हारे दरमियान यह जुदाई कैसे पड़ गई?
21. यानी मुसलमान होकर भी तुम सच्चे मुसलमान न बने, ईमान और कुफ़्र (इनकार) के दरमियान लटकते रहे, कुफ़्र और कुफ़्र करनेवालों से तुम्हारी दिलचस्पियाँ कभी ख़त्म न हुईं, और इस्लाम से तुमने कभी अपने आपको पूरी तरह न जोड़ा।
22. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'तरब्बस्तुम'। 'तरब्बुस' अरबी ज़बान में इन्तिज़ार करने और मौक़े की तलाश में ठहरे रहने को कहते हैं। जब कोई शख़्स दो रास्तों में से किसी एक पर जाने का पक्का फ़ैसला न करे, बल्कि इस फ़िक्र में खड़ा हो कि जिधर जाना फ़ायदेमन्द होता नज़र आए उसी तरफ़ चल पड़े, तो कहा जाएगा कि वह 'तरब्बुस' में मुब्तला है। मुनाफ़िक़ों ने कुफ़्र और इस्लाम की कश्मकश के उस नाज़ुक दौर में यही रवैया अपना रखा था। वे न खुलकर कुफ़्र का साथ दे रहे थे, न पूरे इत्मीनान के साथ अपनी ताक़त इस्लाम की मदद और हिमायत में लगा रहे थे। बस अपनी जगह बैठे यह देख रहे थे कि इस ज़ोर-आज़माई में आख़िरकार पलड़ा किधर झुकता है, ताकि इस्लाम कामयाब होता नज़र आए तो उसकी तरफ़ झुक जाएँ और उस वक़्त मुसलमानों के साथ कलिमा पढ़ने का ताल्लुक़ उनके काम आए, और कुफ़्र को जीत हासिल हो तो उसके हिमायतियों से जा मिलें और इस्लाम की तरफ़ से जंग में किसी तरह का हिस्सा न लेना उस वक़्त उनके लिए फ़ायदेमन्द साबित हो।
23. इससे मुराद अलग-अलग तरह के शक और शुब्हे हैं, जो एक मुनाफ़िक़ होते हैं और वही उसकी मुनाफ़क़त का अस्ल सबब हुआ करते हैं। उसे ख़ुदा की हस्ती में शक होता है, पैग़म्बर की पैग़मबरी में शक होता है, क़ुरआन के अल्लाह की किताब होने में शक होता है, आख़िरत और वहाँ की पूछ-गछ और जज़ा (इनाम) और सज़ा में शक होता है, इस बात में शक होता है कि हक़ और बातिल का यह झगड़ा सचमुच कोई हक़ीक़त भी रखता है या यह सब ढकोसले हैं और अस्ल चीज़ बस यह है कि हँसी-ख़ुशी जियो कि ज़िन्दगी बस यही ज़िन्दगी है। कोई शख़्स जब इन शक और शुब्हों में मुब्तला न हो, वह कभी मुनाफ़िक़ नहीं हो सकता।
24. इसके दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि तुमको मौत आ गई और मरते दम तक तुम इस पर फ़रेब (भ्रम) से न निकले। दूसरा यह कि इस्लाम को ग़लबा (प्रभुत्व) नसीब हो गया और तुम तमाशा देखते रह गए।
25. मुराद है शैतान।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يُؤۡخَذُ مِنكُمۡ فِدۡيَةٞ وَلَا مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ مَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُۖ هِيَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 14
(15) लिहाज़ा आज न तुमसे कोई फ़िदया क़ुबूल किया जाएगा और न उन लोगों से जिन्होंने खुल्लम-खुल्ला इनकार किया था।26 तुम्हारा ठिकाना जहन्नम है, वही तुम्हारी ख़बर लेनेवाली है27 और यह सबसे बुरा अंजाम है।
26. यहाँ इस बात को बयान कर दिया गया है कि आख़िरत में मुनाफ़िक़ का अंजाम वही होगा जो इनकार करनेवाले का होगा।
27. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है : 'हि-य मौलाकुम' यानी “वह (जहन्नम) ही तुम्हारी मौला है।" इसके दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि वही तुम्हारे लिए मुनासिब जगह है। दूसरा यह कि अल्लाह को तो तुमने अपना मौला (सरपरस्त) बनाया नहीं कि वह तुम्हारी ख़बर रखे, अब तो जहन्नम ही तुम्हारी मौला है, वही तुम्हारी अच्छी तरह ख़बर लेगी।
۞أَلَمۡ يَأۡنِ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن تَخۡشَعَ قُلُوبُهُمۡ لِذِكۡرِ ٱللَّهِ وَمَا نَزَلَ مِنَ ٱلۡحَقِّ وَلَا يَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلُ فَطَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَمَدُ فَقَسَتۡ قُلُوبُهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 15
(16) क्या ईमान लानेवालों के लिए अभी वह वक़्त नहीं आया कि उनके दिल अल्लाह के ज़िक्र से पिघलें और उसके उतारे हुए हक़ के आगे झुकें28 और वे उन लोगों की तरह न हो जाएँ जिन्हें पहले किताब दी गई थी, फिर एक लम्बी मुद्दत उनपर गुज़र गई तो उनके दिल सख़्त हो गए और आज उनमें से ज़्यादातर नाफ़रमान बने हैं?29
28. यहाँ फिर 'ईमान लानेवालों' के अलफ़ाज़ तो आम हैं, मगर उनसे मुराद तमाम मुसलमान नहीं, बल्कि मुसलमानों का वह ख़ास गरोह है जो ईमान का इक़रार करके अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के माननेवालों में शामिल हो गया था और इसके बावजूद इस्लाम के दर्द से उसका दिल ख़ाली था। आँखों से देख रहा था कि कुफ़्र (अधर्म) की तमाम ताक़तें इस्लाम को मिटा देने पर तुली हुई हैं, चारों तरफ़ से उन्होंने ईमानवालों की मुट्ठी भर जमाअत को घेर रखा है, अरब की सरज़मीन में जगह-जगह मुसलमानों पर ज़ुल्मो-सितम किए जा रहे हैं, देश के कोने-कोने से मज़लूम मुसलमान बे-सरो-सामानी की हालत में पनाह लेने के लिए मदीना की तरफ़ भागे चले आ रहे हैं, सच्चे मुसलमानों की कमर इन मज़लूम मुसलमानों को सहारा देते-देते टूटी जा रही है, और दुश्मनों के मुक़ाबले में भी यही सच्चे मुसलमान सर हथेली पर लिए हुए हैं, मगर ये सब कुछ देखकर भी ईमान का दावा करनेवाला यह गरोह टस-से-मस नहीं हो रहा था। इसपर उन लोगों को शर्म दिलाई जा रही है कि तुम कैसे ईमान लानेवाले हो? में इस्लाम के लिए हालात नज़ाकत की इस हद को पहुँच चुके हैं, क्या अब भी वह वक़्त नहीं आया कि अल्लाह का ज़िक्र सुनकर तुम्हारे दिल पिघलें और उसके दीन के लिए तुम्हारे दिलों में ईसार (त्याग), क़ुरबानी और सरफ़रोशी का जज़बा पैदा हो? क्या ईमान लानेवाले ऐसे ही होते हैं कि अल्लाह के दीन पर बुरा वक़्त आए और वे उसकी ज़रा-सी टीस भी अपने दिल में महसूस न करें? अल्लाह के नाम पर उन्हें पुकारा जाए और वे अपनी जगह से हिलें तक नहीं? अल्लाह अपनी उतारी हुई किताब में ख़ुद चन्दे की अपील करे, और उसे अपने ज़िम्मे क़र्ज़ ठहराए, और साफ़-साफ़ यह भी सुना दे कि इन हालात में जो अपने माल को मेरे दीन से प्यारा रखेगा वह मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ होगा, इसपर भी उनके दिल न ख़ुदा के डर से काँपें, न उसके हुक्म के आगे झुकें?
29. यानी यहूदी और ईसाई तो अपने पैग़म्बरों के सैंकड़ों साल बाद आज तुम्हें इस बेहिसी (संवेदनहीनता) और रूह के मुर्दा होने और अख़लाक़ी गिरावट में मुब्तला नज़र आ रहे हैं। क्या तुम इतने गए-गुज़रे हो कि अभी रसूल (सल्ल०) तुम्हारे सामने मौजूद है, ख़ुदा की किताब उतर रही है, तुम्हें ईमान लाए कुछ ज़्यादा ज़माना भी नहीं गुज़रा है, और अभी से तुम्हारा हाल वह हो रहा है जो सदियों तक ख़ुदा के दीन और उसकी आयतों से खेलते रहने के बाद यहूदियों और ईसाइयों का हुआ है?
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 16
(17) ख़ूब जान लो कि अल्लाह ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी देता है, हमने निशानियाँ तुमको साफ़-साफ़ दिखा दी हैं, शायद कि तुम अक़्ल से काम लो।30
30. यहाँ जिस मुनासबत (अनुकूलता) से यह बात कही गई है उसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर पैग़म्बरी और किताब के उतरने को बारिश की बरकतों से मिसाल दी गई है, क्योंकि इनसानियत पर उसके वही असरात पड़ते हैं जो ज़मीन पर बारिश के पड़ा करते हैं। जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन रहमत की बारिश का एक छींटा पड़ते ही लहलहा उठती है, उसी तरह जिस देश में अल्लाह की रहमत से एक पैग़म्बर भेजा जाता है और वह्य और किताब का उतरना शुरू होता है, वहाँ मरी हुई इनसानियत यकायक जी उठती है। उसके वे जौहर (छिपे हुए गुण) खुलने लगते हैं जिन्हें एक लम्बे अरसे से जाहिलियत ने मिट्टी में दबाए रखा था। उसके अन्दर से बेहतरीन अख़लाक़ के चश्मे (स्रोत) फूटने लगते हैं और भलाइयों और नेकियों के बाग़ लहलहाने लगते हैं। इस हक़ीकत की तरफ़ जिस ग़रज़ के लिए यहाँ इशारा किया गया है वह यह है कि कमज़ोर ईमानवाले मुसलमानों की आँखें खुलें और वे अपनी हालत पर ग़ौर करें। पैग़म्बरी और वह्य की रहमत भरी बारिश से इनसानियत जिस शान से नए सिरे से ज़िन्दा हो रही थी और जिस तरह उसका दामन बरकतों से मालामाल हो रहा था, वह उनके लिए कोई दूर की दास्तान न थी। वे ख़ुद अपनी आँखों से सहाबा किराम (रज़ि०) के पाकीज़ा समाज में इसको देख रहे थे। रात-दिन इसका तजरिबा उनको हो रहा था। जाहिलियत भी अपनी तमाम ख़राबियों और बिगाड़ों के साथ उनके सामने मौजूद थी, और इस्लाम से पैदा होनेवाली ख़ूबियाँ भी उनके मुक़ाबले में अपनी पूरी बहार दिखा रही थीं। इसलिए उनको तफ़सील के साथ ये बातें बताने की कोई ज़रूरत न थी। बस यह इशारा कर देना काफ़ी था कि मुर्दा ज़मीन को अल्लाह अपनी रहमत भरी बारिश से किस तरह ज़िन्दगी देता है, उसकी निशानियाँ तुमको साफ़-साफ़ दिखा दी गई हैं, अब तुम ख़ुद अक़्ल से काम लेकर अपनी हालत पर ग़ौर कर लो कि इस नेमत से तुम क्या फ़ायदा उठा रहे हो।
إِنَّ ٱلۡمُصَّدِّقِينَ وَٱلۡمُصَّدِّقَٰتِ وَأَقۡرَضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا يُضَٰعَفُ لَهُمۡ وَلَهُمۡ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 17
(18) मर्दों और औरतों में से जो लोग सदक़े31। (दान) देनेवाले हैं और जिन्होंने अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दिया है, उनको यक़ीनन कई गुना बढ़ाकर दिया जाएगा और उनके लिए बेहतरीन बदला है।
31. 'सदक़ा' (दान) उर्दू और हिन्दी ज़बान में तो बहुत ही बुरे मानी में बोला जाता है, मगर इस्लाम की ज़बान में यह उस 'अतिए' (दान) को कहते हैं जो सच्चे दिल और ख़ालिस और साफ़ नीयत के साथ सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए दिया जाए, जिसमें कोई दिखावा न हो, किसी पर एहसान न जताया जाए, देनेवाला सिर्फ़ इसलिए दे कि वह अपने रब के लिए बन्दगी का सच्चा जज़बा रखता है। यह लफ़्ज़ 'सिद्क़' (सच) से निकला है, इसलिए 'सदाक़त' (सच्चाई) ठीक इसकी हक़ीक़त में शामिल है। कोई दान और कोई माल ख़र्च करना उस वक़्त तक सदक़ा नहीं हो सकता जब तक उसकी तह में अल्लाह की राह में ख़र्च करने का ख़ालिस और बे-खोट जज़बा मौजूद न हो।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصِّدِّيقُونَۖ وَٱلشُّهَدَآءُ عِندَ رَبِّهِمۡ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ وَنُورُهُمۡۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 18
(19) और जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हैं,32 वही अपने रब के नज़दीक सिद्दीक़33 (निहायत सच्चे) और शहीद34 (गवाह) हैं, उनके लिए उनका इनाम और उनका नूर है।35 और जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया है और हमारी आयतों को झुठलाया है, वे जहन्नमी हैं।
32. यहाँ ईमान लानेवालों से मुराद वे सच्चे ईमानवाले लोग हैं जिनका रवैया ईमान के झूठे दावेदारों और कमज़ोर ईमानवालों से बिलकुल अलग था। जो उस वक़्त एक-दूसरे से बढ़कर माली क़ुरबानियाँ दे रहे थे और अल्लाह के दीन की ख़ातिर जानें लड़ा रहे थे।
33. यहाँ अरबी लफ़्ज़ 'सिद्दीक़' इस्तेमाल हुआ है। यह 'सिद्क़' (सच्चाई) से बना है। 'सादिक़' का मतलब है 'सच्चा', और 'सिद्दीक़' का मतलब है 'बहुत ज़्यादा सच्चा'। मगर यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि 'सिद्क़' सिर्फ़ सच्चे और हक़ीक़त के मुताबिक़ बात को नहीं कहते, बल्कि उस बात को कहते हैं जो अपने आपमें ख़ुद भी सच्ची हो और जिसको कहनेवाला भी सच्चे दिल से उस हक़ीक़त को मानता हो जिसे वह ज़बान से कह रहा है। मसलन एक शख़्स अगर कहे कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के पैम्बर हैं, तो यह बात अपनी जगह ख़ुद ठीक हक़ीक़त के मुताबिक़ है, क्योंकि आप (सल्ल०) सचमुच अल्लाह के पैग़म्बर हैं, लेकिन वह शख़्स यह कहने में 'सादिक़' (सच्चा) सिर्फ़ उसी वक़्त कहा जाएगा जबकि उसका अपना मानना भी यही हो कि आप (सल्ल०) अल्लाह के पैग़म्बर हैं। लिहाज़ा 'सिद्क़' के लिए ज़रूरी है कि कहने का जोड़ हक़ीक़त के साथ भी हो और कहनेवाले के ज़मीर (अन्तरात्मा) के साथ भी। इसी तरह 'सिद्क़' के मतलब में वफ़ा और ख़ुलूस और अमली तौर से सच्चा होना भी शामिल है। 'सादिक़ुल-वअद' (वादे का सच्चा) उस शख़्स को कहेंगे जो अमली तौर से अपना वादा पूरा करता हो और कभी उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी न करता हो। 'सदीक़' (सच्चा दोस्त) उसी को कहा कहा जाएगा जिसने आज़माइश के मौक़ों पर दोस्ती का हक़ अदा किया हो और कभी आदमी को उससे बेवफ़ाई का तजरिबा न हुआ हो। जंग में 'सादिक़ुन फ़िल-क़िताल’ (सच्चा सिपाही) सिर्फ़ वही शख़्स कहलाएगा जो जान तोड़कर लड़ा हो और जिसने अपने अमल से अपनी बहादुरी साबित कर दी हो। इसलिए 'सिद्क़' की हक़ीक़त में यह बात भी शामिल है कि कहनेवाले का अमल उसकी बात के मुताबिक़ हो। क़ौल (बात) के ख़िलाफ़ अमल करनेवाला 'सादिक़' (सच्चा) क़रार नहीं दिया जा सकता। इसी वजह से तो आप उस शख़्स को झूठा वाइज़ (नसीहत करनेवाला) कहते हैं जो कहे कुछ और करे कुछ। अब ग़ौर करना चाहिए कि यह मतलब जब 'सिद्क़' और 'सादिक़' का है तो किसी को 'सिद्दीक़' कहने का मतलब क्या होगा। इसका मतलब लाज़िमी तौर से ऐसा सच्चा आदमी है जिसमें कोई खोट न हो, जो कभी हक़ और सच्चाई से न हटा हो, जिससे यह उम्मीद ही न की जा सकती हो कि वह कभी अपने ज़मीर (मन) के ख़िलाफ़ कोई बात कहेगा, जिसने किसी बात को माना हो तो पूरे सच्चे दिल से माना हो, उसकी वफ़ादारी का हक़ अदा किया हो और अपने अमल से साबित कर दिया हो कि वह सचमुच वैसा ही माननेवाला है जैसा एक माननेवाले को होना चाहिए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-99)
34. इस आयत की तफ़सीर में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलिमों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मसरूक़, ज़ह्हाक, मुक़ातिल-बिन-हय्यान (रह०) वग़ैरा कहते हैं कि 'उलाइ-क हुमुस-सिद्दीक़ून' (यही बहुत ज़्यादा सच्चे लोग हैं) पर एक जुमला ख़त्म हो गया। उसके बाद 'वश-शु-हदाउ इन-द रबिहिम लहुम अज्‌रुहुम व नूरुहुम' (और शहीदों के लिए उनके रब के यहाँ उनका अज्र और उनका नूर है) एक अलग पूरा जुमला (वाक्य) है। इस तफ़सीर के लिहाज़ से आयत का तर्जमा यह होगा कि “जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हैं वही सिद्दीक़ हैं। और शहीदों के लिए उनके रब के यहाँ उनका अज्र (बदला) और उनका नूर है।” इसके बरख़िलाफ़ मुजाहिद और दूसरे तफ़सीर लिखनेवाले पूरी इबारत को एक ही जुमला मानते हैं और उनकी तफ़सीर के लिहाज़ से तर्जमा वह होगा जो ऊपर हमने आयतों के साथ दर्ज किया है। दोनों तफ़सीरों में फ़र्क़ की वजह यह है कि पहले गरोह ने शहीद को अल्लाह की राह में मारे जानेवाले के मानी में लिया है, और यह देखकर कि हर मोमिन इस मानी में शहीद नहीं होता, उन्होंने 'वश-शु-हदाउ इन-द रब्बिहिम' को एक अलग जुमला क़रार दे दिया है। मगर दूसरा गरोह शहीद को अल्लाह की राह में मारे जानेवाले के मानी में नहीं, बल्कि हक़ की गवाही देनेवाले के मानी में लेता है और इस लिहाज़ से हर मोमिन शहीद है। हमारे नज़दीक यही दूसरी तफ़सीर ज़्यादा अहमियत दिए जाने के क़ाबिल है और क़ुरआन और हदीस से इसकी ताईद (समर्थन) होती है। क़ुरआन मजीद में कहा गया है- “और इसी तरह हमने तुम (मुसलमानों) को एक उम्मते-वसत (बेहतरीन उम्मत) बनाया, ताकि तुम लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-143) “अल्लाह ने पहले भी तुम्हारा नाम मुस्लिम रखा था और इस (क़ुरआन) में भी (तुम्हारा यही नाम है) ताकि रसूल तुमपर गवाह हो और तुम लोगों पर गवाह।” (सूरा-22 हज, आयत-78) हदीस में हज़रत बरा-बिन-आज़िब (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को उन्होंने यह फ़रमाते सुना, “मेरी उम्मत के मोमिन शहीद हैं,” फिर नबी (सल्ल०) ने सूरा-57 हदीद की यही आयत तिलावत फ़रमाई, (इब्ने-जरीर)। इब्ने-मरदुवैह ने इसी मानी में हज़रत अबुद-दरदा से यह रिवायत नक़्ल की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स अपनी जान और अपने दीन को फ़ितने से बचाने के लिए किसी सरज़मीन से निकल जाए वह अल्लाह के यहाँ 'सिद्दीक़' लिखा जाता है और जब वह मरता है तो अल्लाह 'शहीद' का हैसियत से उसकी रूह निकालता है,” फिर यह बात फ़रमाने के बाद नबी (सल्ल०) ने यही आयत पढ़ी। (शहादत के इस मानी की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-बक़रा, हाशिया-144; सूरा-4 निसा, हाशिया-99; सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-82)
35. यानी उनमें से हर एक जिस मर्तबे के अज्र (बदले) और जिस दरजे के नूर का हक़दार होगा वह उसको मिलेगा। वे अपना-अपना अज्र और अपना-अपना नूर पाएँगे। उनके लिए उनका हिस्सा आज ही से महफ़ूज़ है।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞ وَزِينَةٞ وَتَفَاخُرُۢ بَيۡنَكُمۡ وَتَكَاثُرٞ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِۖ كَمَثَلِ غَيۡثٍ أَعۡجَبَ ٱلۡكُفَّارَ نَبَاتُهُۥ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَىٰهُ مُصۡفَرّٗا ثُمَّ يَكُونُ حُطَٰمٗاۖ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٞ شَدِيدٞ وَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٞۚ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 19
(20) ख़ूब जान लो कि यह दुनिया की ज़िन्दगी इसके सिवा कुछ नहीं कि एक खेल और दिल्लगी और ज़ाहिरी टीप-टाप और तुम्हारा आपस में एक-दूसरे पर बड़ाई जताना और माल और औलाद में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करना है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक बारिश हो गई तो उससे पैदा होनेवाले पेड़-पौधों को देखकर किसान ख़ुश हो गए। फिर वही खेती पक जाती है और तुम देखते हो कि वह पीली पड़ गई। फिर वह भुस बनकर रह जाती है। इसके बरख़िलाफ़ आख़िरत वह जगह है जहाँ सख़्त अज़ाब है और अल्लाह की मग़फ़िरत (माफ़ी) और उसकी ख़ुशनूदी है। दुनिया की ज़िन्दगी एक धोखे की टट्टी के सिवा कुछ नहीं।36
36. इस बात को पूरी तरह समझने के लिए क़ुरआन मजीद की नीचे लिखी जगहों को निगाह में जा रखना चाहिए : सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—14, 15; सूरा-10 यूनुस, आयतें—24, 25; सूरा-14 इबराहीम, आयत-18; सूरा-18 कह्फ़, आयतें—45, 46; सूरा-24 नूर, आयत-39। इन सब जगहों का पर जो बात इनसान के ज़ेहन में बिठाने की कोशिश की गई है वह यह है कि यह दुनिया की ज़िन्दगी अस्ल में थोड़े दिनों की ज़िन्दगी है। यहाँ की बहार भी थोड़े दिनों की है और पतझड़ भी थोड़े दिनों का। दिल बहलाने का सामान यहाँ बहुत कुछ है, मगर हक़ीक़त में वे बहुत ही हक़ीर और छोटी-छोटी चीज़ें हैं, जिन्हें अपनी तंगदिली की वजह से आदमी बड़ी चीज़ समझता का है और इस धोखे में पड़ जाता है कि इन ही को लेना मानो कामयाबी की हद तक पहुँच जाना है। हालाँकि जो बड़े-से-बड़े फ़ायदे और लुत्फ़ो-लज़्ज़त के सामान भी यहाँ हासिल होने मुमकिन हैं वे बहुत मामूली और कुछ साल की थोड़ी-सी ज़िन्दगी तक महदूद हैं, और उनका हाल भी यह है कि तक़दीर की एक ही गर्दिश ख़ुद इसी दुनिया में इन सबपर झाड़ू फेर देने के लिए काफ़ी है। इसके बरख़िलाफ़ आख़िरत की ज़िन्दगी एक बड़ी और हमेशा रहनेवाली का ज़िन्दगी है। वहाँ के फ़ायदे भी बड़े और हमेशा रहनेवाले हैं और नुक़सान भी बड़े और हमेशा के लिए हैं। किसी ने अगर वहाँ अल्लाह की माफ़ी और उसकी ख़ुशनूदी पा ली तो उसको हमेशा-हमेशा के लिए वह नेमत मिल गई जिसके सामने दुनिया भर की दौलत और हुकूमत भी कुछ नहीं है। और जो वहाँ ख़ुदा के अज़ाब में घिर गया, उसने अगर दुनिया में वह सब कुछ भी पा लिया हो जिसे वह अपने नज़दीक बड़ी समझता था, तो उसे मालूम हो जाएगा कि वह बड़े घाटे का सौदा करके आया है।
سَابِقُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا كَعَرۡضِ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أُعِدَّتۡ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 20
(21) दौड़ो और एक-दूसरे से आये बढ़ने की कोशिश करो37 अपने रब की माफ़ी और उस जन्नत की तरफ़ जिसका फैलाव आसमान और ज़मीन जैसा है,38 जो तैयार की गई है उन लोगों के लिए जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हों। यह अल्लाह का फ़ज़्ल (मेहरबानी) है, जिसे चाहता है देता है, और अल्लाह बड़े फ़ज़्लवाला है।
37. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘साबिक़ू' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब सिर्फ़ 'दौड़ो' के लफ़्ज़ से अदा नहीं होता। 'मुसाबक़त' के मानी ‘मुक़ाबले’ में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करने के हैं। मतलब यह है कि तुम दुनिया की दौलत और लज़्ज़तें और फ़ायदे समेटने में एक-दूसरे से बढ़ जाने की जो कोशिश कर रहे हो उसे छोड़कर इस चीज़ को अपना मक़सद बनाओ और इसकी तरफ़ दौड़ने में बाज़ी जीत ले जाने की कोशिश करो।
38. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'अर्ज़ुहा क-अर्ज़िस-समाइ वल-अर्ज़' (जिसका फैलाव आसमान और ज़मीन जैसा है)। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने 'अर्ज़' को चौड़ाई के मानी में लिया है। लेकिन अस्ल में यहाँ यह लफ़्ज़ फैलाव और बहुत बड़ा होने के मानी में इस्तेमाल हुआ है। अरबी ज़बान में लफ़्ज़ 'अर्ज़' सिर्फ़ चौड़ाई ही के लिए नहीं बोला जाता जो 'तूल' (लम्बाई) के मुक़ाबले में है, बल्कि इसे सिर्फ़ फैलाव के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, जैसा कि एक दूसरी जगह क़ुरआन में कहा गया है, 'फ़ज़ू दुआइन अरीज़' यानी “इनसान फिर लम्बी-चौड़ी दुआएँ करने लगता है।” (सूरा-11 हा-मीम सजदा, आयत-51)। इसके साथ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि इस बात का मक़सद जन्नत की लम्बाई-चौड़ाई बताना नहीं है, बल्कि उसके फैलाव का तसव्वुर दिलाना है। यहाँ उसका फैलाव आसमान और ज़मीन का जैसा बताया गया है, और सूरा-3 आले-इमरान, आयत-133 में कहा गया है, “दौड़ो अपने रब की माफ़ी और उस जन्नत की तरफ़ जिसका फैलाव सारी कायनात है, जो तैयार की गई है मुत्तक़ी (परहेज़गार) लोगों के लिए।” इन दोनों आयतों को मिलाकर पढ़ने से कुछ ऐसा ख़याल ज़ेहन में आता है कि जन्नत में एक इनसान को जो बाग़ और महल मिलेंगे वे तो सिर्फ़ उसके रहने के लिए होंगे, मगर हक़ीक़त में पूरी कायनात उसकी सैरगाह होगी। कहीं वह बन्द न होगा। वहाँ उसका हाल इस दुनिया की तरह न होगा कि चाँद जैसे सबसे क़रीब के सय्यारे (उपग्रह) तक पहुँचने के लिए भी वह बरसों पापड़ बेलता रहा और इस ज़रा-से सफ़र की मुश्किलों को दूर करने में उसे बहुत ज़्यादा वसाइल (संसाधन) ख़र्च करने पड़े। वहाँ सारी कायनात उसके लिए खुली होगी, जो कुछ चाहेगा अपनी जगह से बैठे-बैठे देख लेगा और जहाँ चाहेगा बिना झिझक जा सकेगा।
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ أَن نَّبۡرَأَهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 21
(22) कोई मुसीबत ऐसी नहीं है जो ज़मीन में या तुम्हारे अपने ऊपर आती हो और हमने उसको39 पैदा करने से पहले एक किताब40 में लिख न रखा हो। ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान काम है।41
39.'उसको' का इशारा मुसीबत की तरफ़ भी हो सकता है, ज़मीन की तरफ़ भी, नफ़्स (मन) की तरफ़ भी, और मौक़ा-महल के लिहाज़ से मख़लूक़ात (पैदा की हुई चीज़ों) की तरफ़ भी।
40. किताब से मुराद है तक़दीर (भाग्य) का लिखा।
41. यानी अपनी मख़लूक़ात में से एक-एक की तक़दीर पहले से लिख देना अल्लाह के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है।
لِّكَيۡلَا تَأۡسَوۡاْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا تَفۡرَحُواْ بِمَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخۡتَالٖ فَخُورٍ ۝ 22
(23) (यह सब कुछ इसलिए है) ताकि जो कुछ भी नुक़सान तुम्हें हो उसपर तुम्हारा दिल छोटा न हो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें दे उसपर फूल न जाओ।42 अल्लाह ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता जो अपने आपको बड़ी चीज़ समझते हैं और डींगें मारते हैं,
42. बयान के इस सिललिसे में यह बात जिस ग़रज़ के लिए कही गई है उसे समझने के लिए उन कि हालात को निगाह में रखना चाहिए जो इस सूरत के उतरने के वक़्त ईमानवालों को पेश आ रहे थे। हर वक़्त दुश्मनों के हमले का ख़तरा, एक के बाद एक लड़ाइयाँ, लगातार घेराबन्दी की-सी कैफ़ियत, इस्लाम-दुश्मनों की तरफ़ से मआशी (आर्थिक) बायकाट की वजह से सख़्त बदहाली, अरब के कोने-कोने में ईमान लानेवालों पर इस्लाम-दुश्मनों का ज़ुल्मो-सितम, ये कैफ़ियत थीं जिनसे मुसलमान उस वक़्त गुज़र रहे थे। इस्लाम-दुश्मन इनको मुसलमानों के हारे हुए होने और अल्लाह के नापसन्दीदा होने की दलील क़रार देते थे। मुनाफ़िक इन्हें अपने शक-शुब्हों की ताईद में इस्तेमाल करते थे। और सच्चे ईमानवाले अगरचे बड़े जमाव के साथ इन हालात का मुक़ाबला कर रहे थे, मगर कभी-कभी मुसीबतों का हुजूम उनके लिए भी इन्तिहाई मुश्किल हो जाता था। इसपर मुसलमानों को तसल्ली देने के लिए कहा जा रहा है कि तुमपर कोई मुसीबत भी (अल्लाह की पनाह) तुम्हारे रब की बेख़बरी में नहीं आ पड़ी है। कुछ पेश आ रहा है, यह सब अल्लाह की तयशुदा स्कीम के मुताबिक़ है, जो पहले से उसके रजिस्टर में लिखी हुई मौजूद है। और इन हालात से तुम्हें इसलिए गुज़ारा जा रहा है कि तुम्हारी तरबियत करना मक़सद है। जो बड़ा काम अल्लाह तआला तुमसे लेना चाहता है उसके लिए यह तरबियत ज़रूरी है। इससे गुज़ारे बिना तुम्हें कामयाबी की मंज़िल पर पहुँचा दिया जाए तो तुम्हारी सीरत (ज़िन्दगी) में वे कमज़ोरियाँ बाक़ी रह जाएँगी जिनकी बदौलत न तुम बड़ाई और इक़तिदार (सत्ता) की भारी ख़ूराक हजम कर सकोगे और न बातिल की तूफ़ानी मौजों के थपेड़े सह सकोगे।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِۗ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 23
(24) जो ख़ुद कंजूसी करते हैं और दूसरों को कंजूसी करने पर उकसाते हैं।43 अब अगर कोई मुँह मोड़ता है तो अल्लाह बेनियाज़ और अपने आपमें तारीफ़ के क़ाबिल है44
43. यह इशारा है उस सीरत (किरदार) की तरफ़ जो ख़ुद मुस्लिम समाज के मुनाफ़िक़ों में उस वक़्त सबको नज़र आ रही थी। ईमान के ज़ाहिरी इक़रार के लिहाज़ से उनमें और सच्चे मुसलमानों में कोई फ़र्क़ न था। लेकिन नेक नीयती के न होने की वजह से वह उस तरबियत में शामिल न हुए थे जो सच्चे मुसलमानों को दी जा रही थी, इसलिए उनका हाल यह था कि जो ज़रा-सी ख़ुशहाली और सरदारी उनको अरब के एक मामूली कसबे में मिली हुई थी वही उनकी छोटी-सी ज़ेहनियत को फुलाए दे रही थी, उसी पर वे फटे पड़ते थे और दिल की तंगी इस दरजे की थी कि जिस ख़ुदा पर ईमान लाने का और जिस रसूल के पैरोकार होने और जिस दीन को मानने का दावा करते थे उसके लिए ख़ुद एक पैसा तो क्या देते, दूसरे देनेवालों को भी यह कहकर रोकते थे कि क्यों अपना पैसा इस भाड़ में झोंक रहे हो। ज़ाहिर बात है कि अगर मुसीबतों की भट्टी गर्म न की जाती तो इस खोटे माल को, जो अल्लाह के किसी काम का न था, ख़ालिस सोने से अलग न किया जा सकता था, और उसको अलग किए बिना कच्चे-पक्के मुसलमानों की एक मिली-जुली भीड़ को दुनिया की इमामत (सरदारी) का वह बड़ा मंसब न सौंपा जा सकता था जिसकी अज़ीमुश्शान बरकतें आख़िरकार दुनिया ने ख़िलाफ़ते-राशिदा में देखीं।
44. यानी ये नसीहत की बातें सुनने के बाद भी अगर कोई शख़्स अल्लाह और उसके दीन के लिए ख़ुलूस (निष्ठा), फ़रमाँबरदारी और ईसार (त्याग) और क़ुरबानी का तरीक़ा नहीं अपनाता और अपनी उसी टेढ़ी डगर पर अड़ा रहना चाहता है जो अल्लाह को सख़्त नापसन्द है, तो अल्लाह को उसकी कुछ परवाह नहीं। वह ग़नी (बेनियाज़) है, उसकी कोई ज़रूरत इन लोगों से अटकी हुई नहीं है। और वह बेहतरीन सिफ़तोंवाला है, उसके यहाँ अच्छी सिफ़तें रखनेवाले लोग ही पसन्दीदा हो सकते हैं, बदकिरदार लोग उसकी मेहरबानी की नज़र के हक़दार नहीं हो सकते।
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَنزَلۡنَا مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمِيزَانَ لِيَقُومَ ٱلنَّاسُ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَنزَلۡنَا ٱلۡحَدِيدَ فِيهِ بَأۡسٞ شَدِيدٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥ وَرُسُلَهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٞ ۝ 24
(25) हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और हिदायतों के साथ भेजा, और उनके साथ किताब और मीज़ान (तराज़ू) उतारी, ताकि लोग इनसाफ़ पर क़ायम हों,45 और लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर है और लोगों के लिए फ़ायदे हैं।46 यह इसलिए किया गया है कि अल्लाह को मालूम हो जाए कि कौन उसको देखे बिना उसकी और उसके रसूलों की मदद करता है। यक़ीनन अल्लाह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।47
45. इस छोटे-से जुमले में पैग़म्बरों के मिशन का पूरा ख़ुलासा बयान कर दिया गया है, जिसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। इसमें बताया गया है कि दुनिया में ख़ुदा के जितने रसूल भी अल्लाह की तरफ़ से आए, वे सब तीन चीज़े लेकर आए थे— (1) बय्यिनात, यानी खुली-खुली निशानियाँ जो साफ़ तौर से बता रही थीं कि ये सचमुच अल्लाह के रसूल हैं, बने हुए लोग नहीं हैं। रौशन दलीलें जो इस बात को साबित करने के लिए बिलकुल काफ़ी थीं कि जिस चीज़ को वे हक़ कह रहे हैं, वह सचमुच हक़ है और जिस चीज़ को वे बातिल (असत्य) ठहरा रहे हैं, वह सचमुच बातिल है। साफ़ हिदायतें जिनमें किसी शक-शुब्हे के बिना साफ़-साफ़ बता दिया गया था कि अक़ीदों, अख़लाक़़, इबादात और मामलात में लोगों के लिए सीधी राह क्या है जिसे वे अपनाएँ और ग़लत रास्ते कौन-से हैं जिनसे वे बचें। (2) किताब, जिसमें वे सारी तालीमात लिख दी गई थीं जो इनसान की हिदायत के लिए दरकार थीं, ताकि लोग रहनुमाई के लिए उसकी तरफ़ पलटें। (3) मीज़ान, यानी हक़ और बातिल का वह पैमाना जो ठीक-ठीक तराज़ू की तौल तौलकर यह बता दे कि ख़यालात, अख़लाक़ और मामलात में कमी और ज़्यादती की अलग-अलग इन्तिहाओं के बीच इनसाफ़ की बात क्या है। इन तीन चीज़ों के साथ पैग़म्बरों (अलैहि०) को जिस मक़सद के लिए भेजा गया वह यह था कि दुनिया में इनसान का रवैया और इनसानी ज़िन्दगी का निज़ाम, एक-एक शख़्स के तौर पर भी और इजतिमाई तौर पर भी, इनसाफ़ पर क़ायम हो। एक तरफ़ हर इनसान अपने ख़ुदा के हक़, अपने नफ़्स के हक़ और ख़ुदा के उन तमाम बन्दों के हक़, जिनसे उसको किसी तौर पर वासिता पड़ता है, ठीक-ठीक जान ले और पूरे इनसाफ़ के साथ उनको अदा करे। और दूसरी तरफ़ इजतिमाई ज़िन्दगी का निज़ाम ऐसे उसूलों पर बनाया जाए जिनसे समाज में किसी तरह का ज़ुल्म बाक़ी न रहे, तमद्दुन और तहज़ीब (सभ्यता और संस्कृति) का हर पहलू कमी और ज़्यादती से बचा हुआ हो, इजतिमाई ज़िन्दगी के तमाम हिस्सों और पहलुओं में सही-सही तवाज़ुन (सन्तुलन) क़ायम हो, और समाज के तमाम लोग इनसाफ़ के साथ अपने हक़ पाएँ जो और अपने फ़र्ज़ और अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा करें। दूसरे अलफ़ाज़ में पैग़म्बरों के भेजे जाने का मक़सद अलग-अलग शख़्स के साथ इनसाफ़ भी था और इजतिमाई इनसाफ़ भी। वे एक-एक शख़्स की शख़्सी ज़िन्दगी में भी इनसाफ़ क़ायम करना चाहते थे, ताकि उसके ज़ेहन, उसकी सीरत, उसके किरदार और उसके बरताव में तवाज़ुन (सन्तुलन) पैदा हो। और इनसानी समाज के पूरे निज़ाम को भी इनसाफ़ पर क़ायम करना चाहते थे, ताकि फ़र्द (व्यक्ति) और जमाअत (समाज) दोनों एक-दूसरे की रूहानी, अख़लाक़ी और माद्दी (भौतिक) कामयाबी में रुकावट बनने के बजाय हिमायती और मददगार हों।
46. 'लोहा उतारने' का मतलब ज़मीन में लोहा पैदा करना है, जैसा कि एक दूसरी जगह क़ुरआन में कहा गया है, “उसने तुम्हारे लिए मवेशियों की क़िस्म के आठ नर-मादा उतारे” (सूरा-39 ज़ुमर, आयत-6)। चूँकि ज़मीन में जो कुछ पाया जाता है वह अल्लाह तआला के हुक्म से यहाँ आया है, ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं बन गया है, इसलिए उनके पैदा किए जाने को क़ुरआन मजीद में उतारा कहा गया है। पैग़म्बर (अलैहि०) के मिशन को बयान करने के फ़ौरन बाद यह फ़रमाना कि “हमने लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर और लोगों के लिए फ़ायदे हैं,” ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि यहाँ लोहे से मुराद सियासी (राजनैतिक) और जंगी ताक़त है, और बात का मक़सद यह है कि अल्लाह तआला ने अपने रसूलों को इनसाफ़ क़ायम करने की सिर्फ़ एक स्कीम पेश कर देने के लिए नहीं भेजा था, बल्कि यह बात भी उनके मिशन में शामिल थी कि उसको अमली तौर पर लागू करने की कोशिश की जाए और वह क़ुव्वत जुटाई जाए, जिससे सचमुच इनसाफ़ क़ायम हो सके, उसे छिन्न-भिन्न करनेवालों को सज़ा दी जा सके और उसमें रुकावट बननेवालों का ज़ोर तोड़ा जा सके।
47. यानी अल्लाह को इस मदद की ज़रूरत कुछ इस वजह से नहीं है कि वह कमज़ोर है, अपनी उस ताक़त से यह काम नहीं कर सकता, बल्कि काम का यह तरीक़ा उसने इनसानों की आज़माइश के लिए अपनाया है और इसी आज़माइश से गुज़रकर इनसान अपनी तरक़्क़ी और कामयाबी की राह पर आगे बढ़ सकता है। अल्लाह तो हर वक़्त यह क़ुदरत रखता है कि जब चाहे अपने एक इशारे से तमाम इस्लाम-दुश्मनों को हरा दे और अपने रसूलों को उनपर हावी कर दे। मगर इसमें फिर रसूलों पर ईमान लानेवालों का क्या कमाल होगा, जिसकी वजह से वे किसी इनाम के हक़दार हों? इसी लिए अल्लाह ने इस काम को अपनी ज़बरदस्त क़ुदरत से अंजाम देने के बजाय काम का तरीक़ा यह अपनाया कि अपने रसूलों को 'बय्यिनात' और 'किताब' और 'मीज़ान' देकर इनसानों के दरमियान भेज दिया। उनको इस काम पर लगाया कि लोगों के सामने इनसाफ़ का रास्ता पेश करें और ज़ुल्म व ज़्यादती के निज़ाम और बे-इनसाफ़ी को छोड़ देने की उनको दावत दें। इनसानों को इस बात का पूरा इख़्तियार दे दिया कि उनमें से जो चाहे रसूलों की दावत को क़ुबूल करे और जो चाहे उसे रद्द कर दे। क़ुबूल करनेवालों को पुकारा कि आओ, इनसाफ़ के इस निज़ाम को क़ायम करने में मेरा और मेरे रसूलों का साथ दो और उन लोगों के मुक़ाबले में जान तोड़ जिद्दो-जुह्द करो जो ज़ुल्म व ज़्यादती को बाक़ी रखने पर तुले हुए हैं। इस तरह अल्लाह तआला यह देखना चाहता है कि इनसानों में से कौन हैं जो इनसाफ़ की बात को रद्द करते हैं और कौन हैं जो इनसाफ़ के मुक़ाबले में बे-इनसाफ़ी क़ायम रखने के लिए अपनी जान लड़ाते हैं, और कौन हैं जो इनसाफ़ की बात क़ुबूल कर लेने के बाद उसकी हिमायत और उसकी ख़ातिर जिद्दो-जुह्द करने से जी चुराते हैं, और कौन हैं जो अनदेखे ख़ुदा की ख़ातिर दुनिया में इस हक़ को ग़ालिब (हावी) का करने के लिए जान-माल की बाज़ी लगा देते हैं। इस इम्तिहान से जो लोग कामयाब होकर निकलेंगे उन ही के लिए आइन्दा तरक़्क़ियों के दरवाज़े खुलेंगे।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحٗا وَإِبۡرَٰهِيمَ وَجَعَلۡنَا فِي ذُرِّيَّتِهِمَا ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلۡكِتَٰبَۖ فَمِنۡهُم مُّهۡتَدٖۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 25
(26) हमने48 नूह और इबराहीम को भेजा और उन दोनों की नस्ल में नुबूवत (पैग़म्बरी) और किताब रख दी।49 फिर उनकी औलाद में से किसी ने हिदायत अपनाई और बहुत-से फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हो गए।50
48. अब यह बताया जा रहा है कि मुहम्मद (सल्ल०) से पहले जो रसूल ‘बय्यिनात' (रौशन दलील) का और 'किताब' और 'मीज़ान' लेकर आए थे उनके माननेवालों में क्या बिगाड़ पैदा हुआ।
49. यानी जो रसूल भी अल्लाह की किताब लेकर आए वे हज़रत नूह (अलैहि०) की और उनके बाद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की नस्ल से थे।
50. यानी नाफ़रमान हो गए, अल्लाह की फ़रमाँबरदारी के दायरे से निकल गए।
ثُمَّ قَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِرُسُلِنَا وَقَفَّيۡنَا بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَۖ وَجَعَلۡنَا فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ رَأۡفَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَرَهۡبَانِيَّةً ٱبۡتَدَعُوهَا مَا كَتَبۡنَٰهَا عَلَيۡهِمۡ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ رِضۡوَٰنِ ٱللَّهِ فَمَا رَعَوۡهَا حَقَّ رِعَايَتِهَاۖ فَـَٔاتَيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۡهُمۡ أَجۡرَهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 26
(27) उनके बाद हमने एक के बाद एक अपने रसूल भेजे, और उन सबके बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा और उसको इंजील दी, और जिन लोगों ने उसकी पैरवी अपनाई उनके दिलों में हमने तरस (दयाभाव) और रहम डाल दिया।51 और रहबानियत (संन्यास)52 उन्होंने ख़ुद ईजाद कर ली, हमने उसे उनपर फ़र्ज़ नहीं किया था, मगर अल्लाह की ख़ुशनूदी की चाह में उन्होंने आप ही यह बिदअत (नई रस्म) निकाली53 और फिर उसकी पाबन्दी करने का जो हक़ था उसे अदा न किया54 उनमें से जो लोग ईमान लाए हुए थे उनका अज्र (इनाम) हमने उनको दे दिया, मगर उनमें से ज़्यादातर लोग नाफ़रमान हैं।
51. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'राफ़त' और 'रहमत'। इन दोनों लफ़्ज़ों का मतलब क़रीब-क़रीब का एक ही है, मगर जब ये एक साथ बोले जाते हैं तो 'राफ़त' से मुराद वह नर्मदिली होती है जो किसी को तकलीफ़ और मुसीबत में देखकर एक शख़्स के दिल में पैदा हो। और 'रहमत' से मुराद वह जज़बा होता है जिसके तहत वह उसकी मदद की कोशिश करे। हज़रत ईसा (अलैहि०) चूँकि बहुत ही नर्मदिल और ख़ुदा के बन्दों के लिए रहमदिल और मेहरबान थे, इसलिए उनकी सीरत का यह असर उनके पैरोकारों में पैदा हो गया कि वे अल्लाह के बन्दों नाम पर तरस खाते थे और हमदर्दी के साथ उनकी ख़िदमत करते थे।
52. इसको 'रहबानियत' भी पढ़ा जाता है और 'रुहबानियत' भी। इसका माद्दा (धातु) 'र-ह-ब' है जिसका मतलब है डर। रहबानियत का मतलब है 'डरते रहने का रास्ता', और रुहबानियत का मतलब है 'डरते रहनेवालों का रास्ता'। इसतिलाही (पारिभाषिक) तौर पर इससे मुराद है किसी शख़्स का डर की वजह से (चाहे वह किसी के ज़ुल्म का डर हो, या दुनिया के फ़ितनों का डर, या अपने मन की कमज़ोरियों का डर) दुनिया छोड़ देनेवाले बन जाना और दुनियावी ज़िन्दगी से भागकर जंगलों और पहाड़ों में पनाह लेना या किसी तन्हा कोने में जा बैठना।
53. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'इल्लबतिग़ा-अ रिज़वानिल्लाह'। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि हमने उनपर इस 'रहबानियत' को फ़र्ज़ नहीं किया था, बल्कि जो चीज़ उनपर फ़र्ज़ की थी वह यह थी कि वे अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने की कोशिश करें। और दूसरा मतलब यह कि यह रहबानियत हमारी फ़र्ज़ की हुई न थी, बल्कि अल्लाह की ख़ुशनूदी की तलब में उन्होंने उसे ख़ुद अपने ऊपर फ़र्ज़ कर लिया था। दोनों हालतों में यह आयत इस बात को वाज़ेह करती है कि 'रहबानियत' एक ग़ैर-इस्लामी चीज़ है और यह कभी सच्चे दीन में शामिल नहीं रही है। यही बात है जो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाई है कि “इस्लाम में कोई रहबानियत नहीं।” (हदीस : मुसनद अहमद)। एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस उम्मत की रहबानियत अल्लाह की राह में जिहाद है।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुसनद अबी-याला)। यानी इस उम्मत के लिए रूहानी तरक़्क़ी का रास्ता दुनिया छोड़ देना नहीं, बल्कि अल्लाह की राह में जिहाद है, और यह उम्मत फ़ितनों से डरकर जंगलों और पहाड़ों की तरफ़ नहीं भागती, बल्कि ख़ुदा की राह में जिहाद करके उनका मुक़ाबला करती है। बुख़ारी और मुस्लिम की रिवायत है कि सहाबा में से एक साहब ने कहा, “मैं हमेशा सारी रात नमाज़ पढ़ा करूँगा।” दूसरे ने कहा, “मैं हमेशा रोज़ा रखूँगा और कभी नाग़ा न करूँगा।” तीसरे ने कहा, “मैं कभी शादी न करूँगा और औरत से कोई ताल्लुक़ न रलूँगा।” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनकी ये बातें सुनीं तो फ़रमाया, “ख़ुदा की कसम, मैं तुमसे ज़्यादा अल्लाह से डरता हूँ और उसकी नाफ़रमानी से बचता हूँ। मगर मेरा तरीक़ा यह है कि रोज़ा रखता भी हूँ और नहीं भी रखता, रातों को नमाज़ भी पढ़ता हूँ और सोता भी हूँ, और औरतों से निकाह भी करता हूँ। जिसको मेरा तरीक़ा पसन्द न हो उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं।” हज़रत अनस (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाया करते थे, “अपने ऊपर सख़्ती न करो कि अल्लाह तुमपर सख़्ती करे। एक गरोह ने यही सख़्ती अपनाई थी तो अल्लाह ने भी फिर उसे सख़्त पकड़ा। देख लो, वह उनके बाक़ी रह गये राहिब-घरों और गिरजाघरों में मौज़ूद हैं।” (हदीस : अबू-दाऊद)
54. यानी वे दोहरी ग़लती में मुब्तला हो गए। एक ग़लती यह कि अपने ऊपर वे पाबन्दियाँ लगा लीं जिनका अल्लाह ने कोई हुक्म न दिया था। और दूसरी ग़लती यह कि जिन पाबन्दियों को अपने नज़दीक अल्लाह की ख़ुशनूदी का ज़रिआ समझकर ख़ुद अपने ऊपर लगा बैठे थे, उनका हक़ अदा न किया और वे हरकतें कीं जिनसे अल्लाह की ख़ुशनूदी के बजाय उलटा उसका ग़ज़ब (ग़ुस्सा) मोल ले बैठे। इस मक़ाम को पूरी तरह समझने के लिए एक नज़र मसीही रहबानियत की तारीख़ (इतिहास) पर डाल लेनी चाहिए। हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाद दो सौ साल तक ईसाई चर्च रहबानियत से अनजान था। मगर शुरू ही से ईसाइयत में उसके असरात पाए जाते थे और वे ख़यालात उसके अन्दर मौज़ूद थे जो इस चीज़ को जन्म देते हैं। दुनिया छोड़ने और तन्हाई की ज़िन्दगी को अख़लाक़ी आइडियल क़रार देना और दरवेशोंवाली ज़िन्दगी को शादी-ब्याह और दुनियावी कारोबार की ज़िन्दगी के मुक़ाबले में बेहतर और आला समझना ही रहबानियत की बुनियाद है, और ये दोनों चीज़ें ईसाइयत में शुरू ही से मौज़ूद थीं। ख़ास तौर से तन्हाई की ज़िन्दगी का मतलब पाकबाज़ी समझने की वजह से चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देनेवालों के लिए यह बात नापसन्दीदा समझी जाती थी कि वे शादी करें, बाल-बच्चोंवाले हों और ख़ानादारी (घर-गृहस्थी) के बखेड़ों में पड़ें। इसी चीज़ ने तीसरी सदी तक पहुँचते-पहुँचते एक फ़ितने की शक्ल अपना ली। तारीख़ी तौर पर इसके तीन बड़े सबब थे— एक यह कि पुराने मुशरिक (बहुदेववादी) समाज में शहवानियत (कामवासना), बदचलनी और दुनिया-परस्ती जिस ज़ोर के साथ फैली हुई थी, उसका तोड़ करने के लिए ईसाई आलिमों ने बीच का रास्ता अपनाने के बजाय इन्तिहापसन्दी (अतिवाद) का रास्ता अपनाया। उन्होंने पाकदामनी पर इतना ज़ोर दिया कि औरत और मर्द का ताल्लुक़ सिरे से नापाक समझा जाने लगा, चाहे वह शादी (निकाह) ही सूरत में हो। उन्होंने दुनियादारी के ख़िलाफ़ इतनी सख़्ती बरती कि आख़िरकार एक दीनदार आदमी के लिए सिरे से किसी तरह की जायदाद रखना ही गुनाह बन गया और अख़लाक़ का पैमाना यह हो गया कि आदमी बिलकुल ग़रीब और हर लिहाज़ से दुनिया छोड़ देनेवाला (संसार-त्यागी) हो। इसी तरह मुशरिक समाज की लज़्ज़त-परस्ती के जवाब में वे इस इन्तिहा पर जा पहुँचे कि लज़्ज़तों को छोड़ देना, मन को मारना और ख़ाहिशों को कुचल देना अख़लाक़ का मक़सद बन गया, और तरह-तरह की रियाज़तों (तप-तपस्याओं) से जिस्म को तक़लीफ़ें देना आदमी की रूहानियत का कमाल और उसका सुबूत समझा जाने लगा। दूसरा यह कि ईसाइयत जब कामयाबी के दौर में दाख़िल होकर आम लोगों में फैलनी शुरू हुई तो अपने मज़हब को बढ़ाने और फैलाने के शौक में कलीसा (चर्च) हर उस बुराई को अपने दायरे में दाख़िल करता चला गया जो आम लोगों में पसन्दीदा थी। औलिया-परस्ती (महापुरुषों की पूजा) ने पुराने माबूदों की जगह ले ली। हौरस (Horus) और आइसिस (Isis) की मूर्तियों की जगह पर मरयम और ईसा (अलैहि०) के बुत पूजे जाने लगे। सैटरनेलिया (Saturnalia) की जगह क्रिसमस का त्यौहार मनाया जाने लगा। पुराने ज़माने के तावीज़-गण्डे, अमलियात (तंत्र-मंत्र), फ़ाल निकालना और ग़ैब की बातें बताना, जिन्न-भूत भगाने के काम, सब ईसाई दरवेशों (सन्तों) ने शुरू कर दिए। इसी तरह चूँकि आम लोग उस शख़्स को ख़ुदा तक पहुँचा हुआ समझते, जो गन्दा और नंगा हो और किसी भट या खोह में रहे, इसलिए ईसाई चर्च में ख़ुदा के वली होने का यही तसव्वुर आम हो गया और ऐसे ही लोगों की करामतों (चमत्कारों) के क़िस्सों से ईसाइयों के यहाँ 'तज़किरतुल-औलिया' (वलियों और सन्तों के क़िस्से) जैसी किताबों की भरमार हो गई। तीसरा यह कि ईसाइयों के पास दीन की सरहदें तय करने के लिए कोई तफ़सीली शरीअत (धर्म-विधान) और कोई वाज़ेह तरीक़ा मौजूद न था। मूसा (अलैहि०) की शरीअत को वे छोड़ चुके थे, और अकेले इंजील के अन्दर मुकम्मल तौर से कोई हिदायतनामा न पाया जाता था। इसलिए ईसाई आलिम कुछ बाहर के फ़ल्सफ़ों (दर्शनों) और तौर-तरीक़ों से मुतास्सिर होकर और कुछ ख़ुद अपनी दिलचस्पियों की वजह से तरह-तरह की नई-नई बातें दीन में दाख़िल करते चले गए। रहबानियत (संन्यास) भी उन ही नई बातों में से एक थी। ईसाई मज़हब के आलिमों और इमामों ने उसका फ़ल्सफ़ा और उसका अमली तरीक़ा बौद्ध मज़हब के भिक्षुओं से, हिन्दू जोगियों और संन्यासियों से, पुराने मिस्री फ़क़ीरों (Anchorites) से, ईरान के मानवियों से, और अफ़लातून और फ़लातीनूस के पैरोकार इशराक़ियों (रहस्यवादियों) से लिया और इसी को नफ़्स के पाक करने (आत्म-शुद्धि) का तरीक़ा, रूहानी तरक़्क़ी का ज़रिआ और अल्लाह के क़रीब होने का वसीला (साधन) क़रार दे लिया। इस ग़लती में पड़नेवाले कोई मामूली दरजे के लोग न थे। तीसरी सदी से सातवीं सदी ईसवी (यानी क़ुरआन उतरने के ज़माने) तक जो लोग पूरब और पश्चिम में ईसाइयत के बड़े आलिम, सबसे बड़े पेशवा (महागुरु) और इमाम (अधिनायक) माने जाते हैं, जैसे सेंट अथानासेविस, सेंट बासिल, सेंट गिरिगोरी नाज़ियानज़ीन, सेंट कराई सूस्टम, सेंट एमब्रूज़, सेंट जीरूम, सेंट ऑग्स्टाइन, सेंट बैनेडिक्ट, गिरीगोरी ग्रेट, सब-के-सब ख़ुद राहिब (संन्यासी) और रहबानियत (संन्यास) के ज़बरदस्त अलमबरदार थे। इन ही की कोशिशों से चर्च में रहबानियत ने रिवाज पाया। तारीख़ (इतिहास) से मालूम होता है कि ईसाइयों में रहबानियत की शुरुआत मिस्र से हुई। इसकी बुनियाद डालनेवाला सेंट ऐंथोनी (St. Anthony) था जो 250 ई० में पैदा हुआ और 350 ई० में दुनिया से चला गया। उसे पहला ईसाई राहिब क़रार दिया जाता है। उसने फ़य्यूम के इलाक़े में पसपीर के मक़ाम पर (जो अब 'दैरुल-मैमून' के नाम से जाना जाता है) पहली ख़ानक़ाह (मठ) क़ायम की। उसके बाद दूसरी ख़ानक़ाह उसने लाल सागर के तट पर क़ायम की जिसे अब दैरमार अंतूनियूस कहा जाता है। ईसाइयों में रहबानियत के बुनियादी उसूल उसी की तहरीरों और हिदायतों से लिए गए हैं। इस शुरुआत के बाद यह सिलसिला मिस्र सैलाब की तरह फैल गया और जगह-जगह राहिबों (संन्यासियों) और राहिबात (संन्यासिनों) के लिए ख़ानक़ाहें क़ायम हो गईं जिनमें से कुछ में तीन-तीन हज़ार राहिब एक ही वक़्त में रहते थे। 325 ई० में मिस्र ही के अन्दर एक और ईसाई वली (महापुरुष) पाख़ूमियूस सामने आया, जिसने दस बड़ी ख़ानक़ाहें राहिबों और राहिबात के लिए बनाईं। इसके बाद यह का सिलसिला सीरिया और फ़िलस्तीन और अफ़्रीक़ा और यूरोप के अलग-अलग देशों में फैलता चला गया। चर्च के निज़ाम को पहले-पहल इस रहबानियत के मामले में सख़्त उलझन का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह दुनिया छोड़ने और तन्हा रहने (ब्रह्मचर्य) और ग़रीबी और बदहाली को रूहानी ज़िन्दगी का आइडियल तो समझता था, मगर राहिबों की तरह शादी-ब्याह और औलाद पैदा करने और मिलकियत रखने को गुनाह भी न ठहरा सकता था। आख़िरकार सेंट अथानासियूस (इन्तिक़ाल 373 ई०), सेंट बासिल (इन्तिक़ाल 379 ई०), सेंट ऑग्स्टाइन (इन्तिक़ाल 430 ई०) और गिरिगोरी ग्रेट (इन्तिक़ाल 609 ई०) जैसे लोगों के असर से रहबानियत के बहुत-से उसूल चर्च के निज़ाम में दाख़िल हो गए। यह अपने मज़हब के अन्दर उन्होंने जो नई बातें उस रहबानियत (संन्यास) की शक्ल में शामिल कर डाली थीं, उनकी कुछ ख़ासियतें थीं जिन्हें हम ख़ास तौर पर बयान करते हैं— (1) सख़्त मेहनतों और रियाज़तों (तपस्याओं) और रोज़ नए तरीक़ों से अपने जिस्म को तक़लीफ़ें देना। इस मामले में हर राहिब (संन्यासी) दूसरे राहिब से आगे बढ़ जाने की कोशिश करता था। ईसाई बुज़ुर्गों के किस्सों में इन लोगों के जो कमालात (चमत्कार) बयान किए गए ये कुछ इस तरह के हैं— स्कन्दरिया का सेंट मकारियूस हर वक़्त अपने जिस्म पर 80 पौंड का बोझ उठाए रखता था। छह महीने तक यह एक दलदल में सोता रहा और ज़हरीली मक्खियाँ उसके नंगे जिस्म को काटती रहीं। उसके मुरीद (भक्त) सेंट यूसीवियूस ने अपने पीर से भी बढ़कर रियाज़त (तपस्या) की। वह 150 पौंड का बोझ उठाए फिरता था और तीन साल तक एक सूखे कुएँ में पड़ा रहा। सेंट साथियुस सिर्फ़ वह मकई खाता था जो महीना भर पानी में भीगकर बदबूदार हो जाती थी। सेंट वेसारियन 40 दिन तक काँटेदार झाड़ियों में पड़ा रहा और चालीस साल तक उसमें ज़मीन को पीठ नहीं लगाई। सेंट पाख़ूमियूस ने पन्द्रह साल, और एक रिवायत के मुताबिक़ पचास साल ज़मीन को पीठ लगाए बिना गुज़ार दिए। एक सन्त सेंट जॉन तीन साल तक इबादत में खड़ा रहा। इस पूरी मुददत में वह न कभी बैठा न लेटा। आराम के लिए बस एक चट्टान का सहारा ले लेता था और उसका खाना सिर्फ़ वह तबर्रुक (प्रसाद) था जो हर इतवार को उसके लिए लाया जाता था। सेंट सीमीयून स्टाइलाइट (390-449 ई०) जिसकी गिनती ईसाइयों के बड़े बुज़ुर्गों में होती है, हर ईस्टर से पहले पूरे चालीस दिन भूखा रहता था। एक बार वह पूरे एक साल तक एक टाँग पर खड़ा रहा। कभी-कभी वह अपनी ख़ानक़ाह से निकलकर एक कुएँ में जा रहता था। आख़िरकार उसने उत्तरी सीरिया के सीमान क़िले के क़रीब साठ फ़ीट ऊँचा एक सुतून बनवाया जिसका ऊपरी हिस्सा सिर्फ़ तीन फ़ीट के घेरे में था और ऊपर कटघरा बना दिया गया था। इस सुतून पर उसने पूरे तीस साल गुज़ार दिए। धूप, बारिश, सर्दी, गरमी सब उसपर से गुज़रती रहती थीं और वह कभी सुतून से न उतरता था। उसके मुरीद सीढ़ी लगाकर उसको खाना पहुँचाते और उसकी गन्दगी साफ़ करते थे। फिर उसने एक रस्सी लेकर अपने आपको उस सुतून से बाँध लिया, यहाँ तक कि रस्सी उसके गोश्त में पेवस्त हो गई, गोश्त सड़ गया और उसमें कीड़े पड़ गए। जब कोई कीड़ा उसके फोड़ों से गिर जाता तो वह उसे उठाकर फिर फोड़े ही में रख लेता और कहता, “खा जो कुछ ख़ुदा ने तुझे दिया है।” इसाई लोग दूर-दूर से उसको देखने के लिए जाते थे। जब वह मरा तो आम ईसाइयों का फ़ैसला यह था कि वह ईसाई वली (सन्त) की बेहतरीन मिसाल था। उस दौर के ईसाई सन्तों की जो ख़ूबियाँ बयान की गई हैं वे ऐसी ही मिसालों से भरी पड़ी हैं। किसी वली (सन्त) की तारीफ़ (ख़ुसूसियत) यह थी कि तीस साल तक वह बिलकुल चुप रहा और कभी उसे बोलते न देखा गया। किसी ने अपने आपको एक चट्टान से बाँध रखा था। कोई जंगलों में मारा-मारा फिरता और घास-फूस खाकर गुज़ारा करता। कोई भारी बोझ हर वक़्त उठाए फिरता। कोई बेड़ियों और ज़ंजीरों से अपने जिस्म के हिस्सों को जकड़े रखता। कुछ बुज़ुर्ग जानवरों के भट्टों, या सूखे कुओं या पुरानी क़ब्रों में रहते थे। और कुछ दूसरे बुज़ुर्ग हर वक़्त नंगे रहते और अपना सतर (गुप्तांग) अपने लम्बे-लम्बे बालों से छिपाते और ज़मीन पर रेंगकर चलते थे। ऐसे ही वलियों (महापुरुषों) की करामात (चमत्कारों) की चर्चाएँ हर तरफ़ फैली हुई थीं और उनके मरने के बाद उनकी हड्डियाँ ख़ानक़ाहों में महफ़ूज़ रखी जाती थीं। मैंने ख़ुद सीना पहाड़ के नीचे सेंट कैथराइन की ख़ानक़ाह में ऐसी ही हड्डियों की एक पूरी लाइब्रेरी सजी हुई देखी है जिसमें कहीं वलियों की खोपड़ियाँ क़रीने से रखी हुई थीं, कहीं पाँव की हड्डियाँ, और कहीं हाथों की हड्डियाँ। और एक बुज़ुर्ग का तो पूरा ढाँचा ही शीशे की एक अलमारी में रखा हुआ था। (2) उनकी दूसरी ख़ासियत यह थी कि वे हर वक़्त गन्दे रहते और सफ़ाई से बहुत बचते थे। नहाना या जिस्म को पानी लगाना उनके नज़दीक ख़ुदापरस्ती के ख़िलाफ़ था। जिस्म की सफ़ाई को वह रूह की गन्दगी समझते थे। सेंट अथानासियूस बड़ी अक़ीदत (श्रद्धा) के साथ सेंट ऐंथोनी की यह ख़ूबी बयान करता है कि उसने मरते दम तक कभी अपने पाँव नहीं धोए। सेंट अब्राहम जब से ईसाइयत में दाख़िल हुआ, पूरे पचास साल उसने न मुँह धोया न पाँव। एक मशहूर राहिबा (संन्यासिनी) कुमारी सिलविया ने उम्र भर अपनी उंगलयों के सिवा जिस्म के किसी हिस्से को पानी नहीं लगने दिया। एक कॉनवेंट की एक सौ तीस राहिबाओं की तारीफ़ में लिखा है कि उन्होंने कभी अपने पाँव नहीं धोए, और नहाने का तो नाम सुनकर ही उनके बदन में कँपकपी तारी हो जाती थी। (3) इस रहबानियत (संन्यास) ने शादी-शुदा ज़िन्दगी को अमली तौर से बिलकुल हराम कर दिया और शादी के रिश्ते को काट फेंकने में सख़्त बेदरदी से काम लिया। चौथी और पाँचवीं सदी की तमाम मज़हबी तहरीरें (लेख) इस ख़याल से भरी हुई हैं कि तन्हा रहना सबसे बड़ी अख़लाक़ी क़द्र है, और पाकदामनी का मतलब यह है कि आदमी जिंसी ताल्लुक़ (यौन सम्बन्धों) से पूरी तरह बचा रहे, चाहे वह मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ ही क्यों न हो। पाकीज़ा रूहानी ज़िन्दगी का कमाल यह समझा जाता था कि आदमी अपने मन को बिलकुल मार दे और उसमें जिस्मानी लज़्ज़त की कोई ख़ाहिश तक बाक़ी न छोड़े। उन लोगों के नज़दीक ख़ाहिश को मार देना इसलिए ज़रूरी था कि उससे हैवानियत को बल मिलता है। उनके नज़दीक लज़्ज़त और गुनाह का मतलब एक ही था, यहाँ तक कि ख़ुशी भी उनकी निगाह में ख़ुदा को भूल जाने के बराबर थी। सेंट बासिल हँसने और मुस्कराने तक को मना करता है। इन ही तसव्वुरात (धारणाओं) की बुनियाद पर औरत और मर्द के दरमियान शादी का ताल्लुक़ उनके यहाँ बिलकुल नापाक (अपवित्र) क़रार पा गया था। राहिब के लिए ज़रूरी था कि वह शादी करना तो दूर की बात, औरत की शक्ल तक न देखे, और अगर शादी-शुदा हो तो बीवी को छोड़कर निकल जाए। मर्दों की तरह औरतों के दिल में भी यह बात बिठाई गई थी कि वे अगर आसमानों की बादशाहत में दाख़िल होना चाहती हैं तो हमेशा कुँआरी रहें, और शादी-शुदा हों तो शौहरों से अलग हो जाएँ। सेंट जीरूम जैसा मशहूर ईसाई आलिम कहता है कि जो औरत मसीह की ख़ातिर राहिबा बनकर सारी उम्र कुँआरी रहे वह मसीह की दुल्हन और उस औरत की माँ को ख़ुदा, यानी मसीह, की सास (Mother in law of God) होने की ख़ुशनसीबी और इज़्ज़त हासिल है। एक और जगह पर सेंट जीरूम कहता है कि “पाकदामनी की कुल्हाड़ी से शादी-शुदा ताल्लुक़ की लकड़ी को काट फेंकना सालिक (ख़ुदा की चाह में लगे हुए शख़्स) का सबसे पहला काम है।” इन तालीमात की वजह से मज़हबी जज़बा तारी होने के बाद एक ईसाई मर्द या एक ईसाई औरत पर उसका पहला असर यह होता था कि उसकी ख़ुशगवार शादी-शुदा ज़िन्दगी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाती थी। और चूँकि ईसाइयत में तलाक़ और जुदाई का रास्ता बन्द था, इसलिए शादी के रिश्ते में रहते हुए मियाँ-बीवी एक-दूसरे से अलग हो जाते थे। सेंट नाइलस (St. Nilus) दो बच्चों का बाप था। जब उसपर रहबानियत का दौरा पड़ा तो उसकी बीवी रोती रह गई और वह उससे अलग हो गया। सेंट अम्मोन (St. Ammon) ने शादी की पहली रात ही अपनी दुल्हन को शादी-शुदा ज़िन्दगी की गन्दगी पर नसीहत की और दोनों ने आपसी सहमति से तय कर लिया कि जीते जी एक-दूसरे से अलग रहेंगे। सेंट अब्राहम शादी की पहली रात ही अपनी बीवी को छोड़कर भाग गया। यही हरकत सेंट एलेक्सिस (St. Alexius) ने की। इस तरह के वाक़िआत से ईसाई वलियों और बुज़ुर्गों के क़िस्से भरे पड़े हैं। चर्च का निज़ाम तीन सदियों तक अपनी हदों में इन्तिहापसन्दी से भरे इन तसव्वुरात की किसी-न-किसी तरह मुख़ालफ़त करता रहा। उस ज़माने में एक पादरी के लिए ग़ैर-शादी-शुदा होना लाज़िम न था। अगर उसने पादरी के मंसब पर क़ायम होने से पहले शादी कर रखी हो तो वह बीवी के साथ रह सकता था, अलबत्ता पादरी मुक़र्रर होने के बाद शादी करना उसके लिए मना था। साथ ही किसी ऐसे शख़्स को पादरी मुक़र्रर नहीं किया जा सकता था जिसने किसी बेवा (विधवा) या तलाक़ पाई हुई औरत से शादी की हो, या जिसकी दो बीवियाँ हों, या जिसके घर में लौंडी हो। धीरे-धीरे चौथी सदी में यह ख़याल पूरी तरह ज़ोर पकड़ गया कि जो शख़्स चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देता हो उसके लिए शादी-शुदा होना बड़ी घिनौनी बात है। 362 ई० की गिंगरा काउंसिल (Coucil of Gengra) आख़िरी मजलिस थी, जिसमें इस तरह के ख़यालात को मज़हब के लिलाफ़ ठहराया गया। मगर इसके थोड़ी ही मुद्दत बाद 386 ई० की रोमन सीनॉड (Synod) ने तमाम पादरियों को मशवरा दिया कि वे शादी-शुदा ताल्लुक़ात से अलग रहें, और दूसरे साल पॉप साइरीसियस (Siricius) ने हुक्म दे दिया कि जो पादरी शादी करे, या या शादी-शुदा होने की सूरत में अपनी बीवी से ताल्लुक़ रखे, उसको मंसब से हटा दिया जाए। सेंट जीरूम, सेंट एम्ब्रूज़ और सेंट ऑग्स्टाइन जैसे बड़े आलिमों (विद्वानों) ने बड़े ज़ोर-शोर से इस फ़ैसले की हिमायत की और थोड़ी-सी मुख़ालफ़त के बाद मग़रिबी चर्च में यह पूरी सख़्ती के साथ लागू हो गया। उस दौर में कई काउंसिलें इन शिकायतों पर ग़ौर करने के लिए मुन्अक़िद (आयोजित) हुईं कि जो लोग पहले से शादी-शुदा थे वे मज़हबी कामों पर मुक़र्रर होने के बाद भी अपनी बीवियों के साथ 'नाजाइज़' ताल्लुक़ात रखते हैं। आख़िरकार उनके सुधार के लिए ये क़ायदे बनाए गए कि वे खुली जगहों पर सोएँ, अपनी बीवियों से कभी तनहाई में न मिलें, और उनकी मुलाकात के वक़्त कम-से-कम दो आदमी मौज़ूद हों। सेंट गिरिगोरी एक पादरी की तारीफ़ में लिखता है कि चालीस साल तक वह अपनी बीवी से अलग रहा यहाँ तक कि मरते वक़्त जब उसकी बीवी उसके क़रीब गई तो उसने कहा, “औरत, दूर हट जा!" (4) सबसे ज़्यादा दर्दनाक पहलू इस रहबानियत का यह है कि उसने माँ-बाप, भाई-बहनों और औलाद तक से आदमी का रिश्ता काट दिया। ईसाई सन्तों की निगाह में बेटे के लिए माँ-बाप की मुहब्बत, भाई के लिए बहनों की मुहब्बत और बाप के लिए औलाद की मुहब्बत भी एक गुनाह थी। उनके नज़दीक रूहानी तरक़्क़ी के लिए यह ज़रूरी था कि आदमी इन सारे ताल्लुक़ात को तोड़ दे। मसीही सन्तों के क़िस्सों में इसके ऐसे-ऐसे दिल को दहला देनेवाले वाक़िआत मिलते हैं जिन्हें पढ़कर इनसान के लिए बरदाश्त करना मुश्किल हो जाता है। एक राहिब इवागरियस (Evagrius) सालों तक रेगिस्तान में रियाज़त (तपस्या) करता रहा था। एक दिन यकायक उसके पास उसकी माँ और उसके बाप के ख़त पहुँचे जो सालों से उसकी जुदाई में तड़प रहे थे। उसे अन्देशा हुआ कि कहीं इन ख़तों को पढ़कर उसके दिल में इनसानी मुहब्बत के जज़बात न जाग उठें। उसने उनको खोले बिना फ़ौरन आग में झोंक दिया। सेंट थ्योडोरस की माँ और बहन का बहुत-से पादरियों के सिफ़ारिशी ख़त लेकर उस ख़ानक़ाह में पहुँची जिसमें वह ठहरा हुआ था और ख़ाहिश की कि वे सिर्फ़ एक नज़र बेटे और भाई को देख लें। मगर उसने उनके सामने आने तक से इनकार कर दिया। सेंट मारकुस (St. Marcus) की माँ उससे मिलने के लिए उसकी ख़ानक़ाह गई और ख़ानक़ाह के शैख़ (Abbot) की ख़ुशामदें करके उसको राज़ी किया कि वह बेटे को माँ के सामने आने का हुक्म दे। मगर बेटा किसी तरह माँ से मिलना न चाहता था। आख़िरकार उसने शैख़ के हुक्म पर अमल इस तरह किया कि भेस बदलकर माँ के सामने गया और आँखें बन्द कर ली। इस तरह माँ ने बेटे को पहचाना, न माँ ने बेटे की शक्ल देखी। एक और वली सेंट पोयमेन (Poemen) और उसके छ: भाई मिस्र की एक रेगिस्तानी ख़ानक़ाह (आश्रम) में रहते थे। बरसों बाद उनकी बूढ़ी माँ को उनका पता मालूम हुआ और वह उनसे मिलने के लिए वहाँ पहुँची। बेटे माँ को दूर से देखते ही भागकर अपनी कुटिया में चले गए और दरवाज़ा बन्द कर लिया। माँ बाहर बैठकर रोने लगी और उसने चिल्ला-चिल्लाकर कहा, मैं इस बुढ़ापे में इतनी दूर चलकर सिर्फ़ तुम्हें देखने आई हूँ, तुम्हरा क्या नुक़सान होगा अगर मैं तुम्हारी शक्लें देख लूँ। क्या मैं तुम्हारी माँ नहीं हूँ?” मगर इन बुज़ुर्गों ने दरवाज़ा न खोला और माँ से कह दिया कि हम तुझसे ख़ुदा के यहाँ मिलेंगे। इससे भी ज़्यादा दर्दनाक क़िस्सा सेंट सीमिओन स्टाइलाइटस (St. Simeon Stylites) का है जो माँ-बाप को छोड़कर सत्ताइस साल ग़ायब रहा। बाप उसके ग़म में मर गया। माँ ज़िन्दा थी, बेटे के वली (सिद्ध पुरुष) होने की चर्चाएँ जब दूर और नज़दीक फैल गईं तो उसका पता चला कि वह कहाँ है। बेचारी उससे मिलने के लिए उसकी ख़ानक़ाह (आश्रम) पर पहुँची, मगर वहाँ किसी औरत को दाख़िल होने की इजाज़त न थी। उसने लाख गुज़ारिश और दरख़ास्त की कि बेटा या तो उसे अन्दर बुला ले, या बाहर निकलकर अपनी सूरत दिखा दे। मगर ख़ुदा के उस ‘सन्त' ने साफ़ इनकार कर दिया। तीन रात और तीन दिन वह ख़ानक़ाह के दरवाज़े पर पड़ी रही और आख़िरकार वहीं लेटकर उसने जान दे दी। तब सन्त साहब निकलकर आए। माँ की लाश पर आँसू बहाए और उसकी नजात के लिए दुआ की। ऐसी ही बेदर्दी इन सन्तों ने बहनों के साथ और अपनी औलाद के साथ दिखाई। एक शख़्स म्यूटियस (Mutius) का क़िस्सा लिखा है कि वह ख़ुशहाल आदमी था। यकायक उसपर मज़हबी जज़बा हावी हुआ और वह अपने आठ साल के इकलौते बेटे को लेकर एक ख़ानक़ाह में जा पहुँचा। वहाँ उसकी रूहानी तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी था कि वह बेटे की मुहब्बत दिल से निकाल दे। इसलिए पहले तो बेटे को उससे अलग कर दिया गया फिर उसकी आँखों के सामने एक मुद्दत तक तरह-तरह की सख़्तियाँ उस मासूम बच्चे पर की जाती रहीं और वह सब कुछ देखता रहा। फिर ख़ानक़ाह के ज़िम्मेदार ने उसे हुक्म दिया कि उसे ले जाकर अपने हाथ से नदी में फेंक दे। जब वह इस हुक्म पर अमल के लिए भी तैयार हो गया तो ठीक उस वक़्त राहिबों (सन्तों) ने बच्चे की जान बचाई जब वह उसे नदी में फेंकने ही वाला था। उसके बाद मान लिया गया कि वह सचमुच सन्त होने के दरजे को पहुँच गया है। ईसाई रहबानियत का नज़रिया इन मामलों में यह था कि जो शख़्स ख़ुदा की मुहब्बत चाहता हो उसे इनसानी मुहब्बत की वे सारी ज़ंजीरें काट देनी चाहिएँ जो दुनिया में उसको अपने माँ-बाप, भाई-बहनों और बाल-बच्चों के साथ बाँधती हैं। सेंट जीरूम कहता का है कि “चाहे तेरा भतीजा तेरे गले में बाँहें डालकर तुझसे लिपटे, चाहे तेरी माँ अपने दूध का वासिता देकर तुझे रोके, चाहे तेरा बाप तुझे रोकने के लिए तेरे आगे लेट जाए, फिर भी तू सबको छोड़कर और बाप के जिस्म को रौंदकर एक आँसू बहाए बिना सलीब (सूली) के झण्डे की तरफ़ दौड़ जा। इस मामले में बेरहमी ही परहेज़गारी (तक़वा, धर्मपरायणता) है।” सेंट गिरिगोरी लिखता है कि “एक नौजवान सन्त माँ-बाप की मुहब्बत दिल से न निकाल सका और एक रात चुपके-से भागकर उनसे मिल आया ख़ुदा ने इस क़ुसूर की सज़ा उसे यह दी कि ख़ानक़ाह वापस पहुँचते ही वह मर गया। उसकी लाश ज़मीन में दफ़न की गई तो ज़मीन ने उसे क़ुबूल न किया। बार-बार क़ब्र में डाला जाता और ज़मीन उसे निकालकर फेंक देती। आख़िरकार सेंट बैनेडिक्ट ने उसके सीने पर तबर्रुक (प्रसाद) रखा तब क़ब्र ने उसे क़ुबूल किया।” एक राहिबा के बारे में लिखा है कि वह मरने के बाद तीन दिन अज़ाब में इसलिए मुब्तला रही कि वह अपनी माँ की मुहब्बत दिल से न निकाल सकी थी। एक सन्त की तारीफ़ में लिखा है कि उसने कभी अपने रिश्तेदारों के सिवा किसी के साथ बेदर्दी नहीं बरती। (5) अपने सबसे क़रीबी रिश्तेदारों के साथ बेरहमी, संगदिली और सख़्ती बरतने की जो मश्क़ (अभ्यास) ये लोग करते थे, उसकी वजह से उनके इनसानी जज़बात मर जाते थे और इसी का नतीजा था कि जिन लोगों से उन्हें मज़हबी इख़्तिलाफ़ होता था उनके मुक़ाबले में ये ज़ुल्मो-सितम की इन्तिहा कर देते थे। चौथी सदी तक पहुँचते-पहुँचते ईसाइयत में अस्सी-नव्वे फ़िरक़े पैदा हो चुके थे। सेंट ऑग्स्टाइन ने अपने ज़माने में 88 फ़िरके गिनाए हैं। ये फ़िरक़े एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सख़्त नफ़रत रखते थे। इस नफ़रत की आग को भड़कानेवाले भी राहिब ही थे और इस आग में मुख़ालिफ़ गरोहों को जलाकर राख कर देने की कोशिशों में भी राहिब ही आगे-आगे होते थे। स्कन्दरिया इस फ़िरक़ेवाराना (साम्प्रदायिक) झगड़ों का एक बड़ा अखाड़ा था। वहाँ पहले ऐरियन (Arian) फ़िरक़े के बिशप ने अथानासियूस की पार्टी पर हमला किया, उसकी ख़ानक़ाहों से कुँआरी राहिबाएँ पकड़-पकड़कर निकाली गईं, उनको नंगा करके काँटेदार डालियों से पीटा गया और उनके जिस्म पर दाग़ लगाए गए, ताकि वे अपने अक़ीदे से तौबा करें। फिर जब मिस्र में कैथोलिक गरोह को ग़लबा हासिल हुआ तो उसने ऐरियन फ़िरक़े के ख़िलाफ़ यही सब कुछ किया, यहाँ तक कि बहुत मुमकिन है कि ख़ुद ऐरियस (Arius) को भी ज़हर देकर मार दिया गया। इसी स्कन्दरिया में एक बार साइरिल (St. Cyril) के मुरीद राहिबों ने बड़ा हंगामा किया, यहाँ तक कि मुख़ालिफ़ फ़िरक़े की एक राहिबा को पकड़कर अपने चर्च में ले गए, उसको क़त्ल किया, उसकी लाश की बोटी-बोटी नोच डाली और फिर उसे आग में झोंक दिया। रोम का हाल भी इससे कुछ अलग न था। 366 ई० में पॉप लिबेरियस (Liberius) की मौत पर दो गरोहों ने पापाई के लिए अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए। दोनों के बीच बहुत ख़ून-खराबा हुआ। यहाँ तक कि एक दिन में सिर्फ़ एक चर्च से 187 लाशें निकाली गईं। (6) इस दुनिया को छोड़ देने (संन्यास) और तन्हाई (ब्रह्मचर्य) और फ़क़ीरी और दरवेशी के साथ दौलत समेटने में भी कमी न की गई। पाँचवीं सदी की शुरुआत ही में हालत यह हो चुकी थी कि रोम का बिशप बादशाहों की तरह अपने महल में रहता था और उसकी सवारी जब शहर में निकलती थी, तो उसके ठाठ-बाट क़ैसर (रोम के राजा) की सवारी से कम न होते थे। सेंट जीरूम अपने ज़माने (चौथी सदी के आख़िरी दौर) में शिकायत करता है कि बहुत-से बिशपों की दावतें अपनी शान में गर्वनरों की दावतों को शरमाती हैं। ख़ानक़ाहों और चर्चों की तरफ़ दौलत का यह बहाव सातवीं सदी (क़ुरआन के उतरने के ज़माने) तक पहुँचते-पहुँचते सैलाब की शक्ल अपना चुका था। यह बात आम लोगों के ज़ेहन में बिठा दी गई थी कि जिस किसी से कोई बड़ा गुनाह हो जाए उसकी बख़शिश किसी-न-किसी वली की दरगाह पर नज़राना चढ़ाने, या किसी ख़ानक़ाह या चर्च को भेंट देने ही से हो सकती है। इसके बाद वही दुनिया राहिबों के क़दमों में आ रही जिससे दूर रहना उनकी नुमायाँ ख़ासियत थी। ख़ास तौर पर जो चीज़ इस गिरावट का सबब हुई वह यह थी कि राहिबों की ग़ैर-मामूली रियाज़तें (तपसयाएँ) और उनके मन मारने के कमालात देखकर जब आम लोगों में उनके लिए बेपनाह अक़ीदत (श्रद्धा) पैदा हो गई तो बहुत-से दुनिया-परस्त लोग दरवेशी के लिबास पहनकर राहिबों के गरोह में दाख़िल हो गए और उन्होंने दुनिया छोड़ने के भेस में दुनिया हासिल करने का कारोबार ऐसा चमकाया कि बड़े-बड़े दुनिया के तलबगार उनसे मात खा गए। (7) पाकदामनी के मामले में भी फ़ितरत से लड़कर रहबानियत बहुत बार हारी और जब हारी तो बुरी तरह हारी। ख़ानक़ाहों में मन-मारने की कुछ मश्क़ें (अभ्यास) ऐसी भी थीं, जिनमें राहिब और राहिबाएँ मिलकर एक ही जगह रहते थे और कभी-कभी ज़रा ज़्यादा मश्क़ करने के लिए एक ही बिस्तर पर रात गुज़ारते थे। मशहूर राहिब सेंट इवागिरिया (St. Evagrius) बड़ी तारीफ़ के साथ फ़िलस्तीन के उन राहिबों के मन को क़ाबू में रखने का ज़िक्र करता है जो “अपने जज़बात पर इतना क़ाबू पा गए थे कि औरतों के साथ एक जगह नहाते थे और उनके देखने से, उनके छूने से, यहाँ तक उनके साथ लिपटने से भी उनके ऊपर फ़ितरत हावी न हो पाती थी।” नहाना अगरचे रहबानियत में सख़्त नापसन्दीदा था, मगर मन-मारने की मश्क़ के लिए इस तरह के नहान (स्नान) भी कर लिए जाते थे। आख़िरकार इसी फ़िलस्तीन के बारे में नीसा (Nyssa) का सेंट गिरिगोरी (इन्तिक़ाल 396 ई०) लिखता है कि वह बदकिरदारी का अड्डा बन गया है। इनसानी फ़ितरत कभी उन लोगों से इन्तिक़ाम लिए बिना नहीं रहती जो उससे जंग करें। रहबानियत उससे लड़कर आख़िरकार बदअख़लाक़ी के जिस गड्ढे में जा गिरी उसकी दास्तान आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी ई० तक की मज़हबी तारीख़ का सबसे बदनुमा दाग़ है। दसवीं सदी का एक इटैलियन बिशप लिखता है कि “अगर चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देनेवालों के ख़िलाफ़ बद-चलनी की सज़ाएँ लागू करने का क़ानून अमली तौर से जारी कर दिया जाए तो (नाबालिग़) लड़कों के सिवा कोई सज़ा से न बच सकेगा और अगर हरामी (अवैध) बच्चों को भी मज़हबी ख़िदमतों से अलग कर देने का क़ायदा लागू किया जाए, तो शायद चर्च के ख़ादिमों में कोई लड़का तक बाक़ी न बचे।” अहदे-वुसता (मध्ययुग) के लेखकों की किताबें इन शिकायतों से भरी हुई हैं कि राहिबाओं की ख़ानक़ाहें बदअख़लाक़ी के चकले बन गई हैं, उनकी चारदीवारियों में नए पैदा हुए बच्चों का क़त्ले-आम हो रहा है, पादरियों और चर्च के मज़हबी कर्मचारियों में महरम औरतों (यानी बहुत क़रीबी रिश्तेदार औरतें जिनसे शादी हराम हो) तक से नाजाइज़ ताल्लुक़ात और ख़ानक़ाहों में ग़ैर-फ़ितरी गन्दे काम जैसे जुर्म तक फैल गए हैं, और चर्चा में गुनाह को क़ुबूल करने (Confession) की रस्म बदकिरादारी का ज़रिआ बनकर रह गई है। इन तफ़सीलात से सही तौर पर अन्दाज़ा किया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद यहाँ मज़हब में रहबानियत (संन्यास) जैसी नई चीज़ दाख़िल करने और फिर उसका हक़ अदा न करने का ज़िक्र करके ईसाइयत के किस बिगाड़ की तरफ़ इशारा कर रहा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَءَامِنُواْ بِرَسُولِهِۦ يُؤۡتِكُمۡ كِفۡلَيۡنِ مِن رَّحۡمَتِهِۦ وَيَجۡعَل لَّكُمۡ نُورٗا تَمۡشُونَ بِهِۦ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 27
(28) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो और उसके रसूल (मुहम्मद सल्ल०) पर ईमान लाओ,55 अल्लाह तुम्हें अपनी रहमत का दोहरा हिस्सा देगा और तुम्हें वह नूर देगा जिसकी रौशनी में तुम चलोगे,56 और तुम्हारे क़ुसूर माफ़ कर देगा,57 बड़ा माफ़ करनेवाला और मेहरबान है।
55. इस आयत की तफ़सीर में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह कहता है कि यहाँ 'ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो' उन लोगों से कहा गया है जो हज़रत ईसा (अलैहि०) पर ईमान लाए हुए थे। उनसे कहा जा रहा है कि अब मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाओ, तुम्हें इसपर दोहरा बदला मिलेगा, एक बदला ईसा (अलैहि०) पर ईमान का और दूसरा बदला मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान का। दूसरा गरोह कहता है कि यह बात मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लानेवालों से कही गई है। उनसे कहा जा रहा है कि तुम सिर्फ़ ज़बान से मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का इक़रार करके न रह जाओ, बल्कि सच्चे दिल से ईमान लाओ और ईमान लाने का हक़ अदा करो। इसपर तुम्हें दोहरा बदला मिलेगा। एक बदला कुफ़्र से इस्लाम की तरफ़ आने का, और दूसरा बदला इस्लाम में नेक नीयती अपनाने और उसपर जमे रहने का। पहली तफ़सीर की ताईद सूरा-28 क़सस की आयतें—52 से 54 करती हैं और इसके अलावा इसकी ताईद हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) की यह रिवायत भी करती है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन आदमी हैं जिनके लिए दोहरा अज्र है। इनमें से एक है अहले-किताब में से शख़्स, जो अपने पिछले नबी पर ईमान रखता था और फिर मुहम्मद (सल्ल०) पर भी ईमान ले आया।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। दूसरी तफ़सीर को ताईद सूरा-34 सबा की आयत-37 करती है, जिसमें फ़रमाया गया है कि नेक मोमिनों के लिए दो गुना इनाम है। दलील के एतिबार से दोनों तफ़सीरों का वज़न बराबर है। लेकिन आगे की बात पर ग़ौर किया जाए तो मालूम होता है कि दूसी तफ़सीर ही इस जगह से ज़्यादा मेल खाती है, बल्कि हक़ीक़त में इस सूरा का पूरा मज़मून शुरू से आख़िर तक इसी तफ़सीर की ताईद करता है। शुरू से इस सूरा के मुख़ातब वही लोग हैं जो अल्लाह के रसूल की पैग़म्बरी का इक़रार करके इस्लाम में दाख़िल हुए थे, और पूरी सूरा में उन ही को यह दावत दी गई है वे सिर्फ़ कहने के मुसलमान न बनें, बल्कि नेक नीयती के साथ सच्चे दिल से ईमान लाएँ।
56. यानी दुनिया में इल्म और गहरी समझ का वह नूर देगा जिसकी रौशनी में तुमको क़दम-क़दम पर साफ़ नज़र आता रहेगा कि ज़िन्दगी के अलग-अलग मामलों में जाहिलियत की टेढ़ी राहा के दरमियान इस्लाम की सीधी राह कौन-सी है। और आख़िरत में वह नूर देगा जिसका ज़िक्र आयत-12 में गुज़र चुका है।
57. यानी ईमान के तक़ाज़े पूरे करने की सच्ची कोशिश के बावजूद इनसानी कमज़ोरियों की बुनियाद पर जो क़ुसूर भी तुमसे हो जाएँ उनको नज़रन्दाज़ करेगा, और वे क़ुसूर भी माफ़ करेगा जो ईमान लाने से पहले जाहिलियत की हालत में तुमसे हुए थे।
لِّئَلَّا يَعۡلَمَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَلَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 28
(29) (तुमको यह रवैया अपनाना चाहिए) ताकि अहले-किताब को मालूम हो जाए कि अल्लाह की मेहरबानी पर सिर्फ़ उनका ही इजारा (हक़) नहीं है, और यह कि अल्लाह का फ़ज़्ल (मेहरबानी) उसके अपने ही हाथ में है, जिसे चाहता है देता है, और वह बड़े फ़ज़्लवाला है।