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سُورَةُ الجُمُعَةِ

62. अल-जुमुआ

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

आयत 9 के वाक्यांश ‘इज़ा नूदि-य लिस्सलाति मिंय्यौमिल जुमुअति' अर्थात् 'जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुआ (जुमा) के दिन' से लिया गया है। यद्यपि इस सूरा में जुमा की नमाज़ के नियम-सम्बन्धी आदेश दिए गए हैं, लेकिन समग्र रूप से जुमा इसकी वार्ताओं का शीर्षक नहीं है, बल्कि दूसरी सूरतों के नामों की तरह यह नाम भी चिह्न ही के रूप में है।

उतरने का समय

आयत एक से आठ तक के उतरने का समय सन् 07 हिजरी है और शायद ये ख़ैबर की विजय के अवसर पर या उसके बाद के क़रीबी समय में उतरी हैं। आयत दस से सूरा के अन्त तक की आयतें हिजरत के बाद क़रीबी समय ही में उतरी है, क्योंकि नबी (सल्ल.) ने मदीना तय्यिबा पहुँचते ही पाँचवें दिन जुमा क़ायम कर दिया था और सूरा की आख़िरी आयत में जिस घटना की ओर संकेत किया गया है, वह साफ़ बता रहा है कि वह जुमा क़ायम होने का सिलसिला शुरू होने के बाद अनिवार्य रूप से किसी ऐसे ही समय में घटी होगी, जब लोगों को दीनी इज्तिमाआत (धार्मिक सभाओं) के आदाब (शिष्टाचार) की पूरी ट्रेनिंग अभी नहीं मिली थी।

विषय और वार्ता

जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं, इस सूरा के दो भाग अलग-अलग समयों में उतरे हैं, इसी लिए दोनों के विषय अलग हैं और जिनसे सम्बोधन है वे भी अलग हैं। पहला भाग उस समय उतरा जब यहूदियों के समस्त प्रयास विफल हो चुके थे जो इस्लाम के पैग़ाम का रास्ता रोकने के लिए पिछले सालों में उन्होंने किए थे। इन आयतों के उतरने के समय [उनका सबसे बड़ा गढ़ ख़ैबर] भी बिना किसी असाधारण अवरोध के विजित हो गया। इस अन्तिम पराजय के बाद अरब में यहूदी ताक़त का बिल्कुल ख़ातिमा हो गया। वादियुल क़ुरा, फ़दक, तैमा, तबूक सब एक-एक करके हथियार डालते चले गए, यहाँ तक कि अरब के सभी यहूदी इस्लामी राज्य की प्रजा बनकर रह गए। यह अवसर था जब अल्लाह ने इस सूरा में एक बार फिर उनको सम्बोधित किया और शायद यह अन्तिम सम्बोधन था जो क़ुरआन मजीद में उनसे किया गया। इसमें उन्हें सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं-

  1. तुमने इस रसूल को इसलिए मानने से इंकार कर दिया कि यह उस क़ौम में भेजा गया था जिसे तुम तुच्छ समझकर 'उम्मी' कहते हो। तुम्हारा निष्कृष्ट भ्रम यह था कि रसूल अनिवार्यतः तुम्हारी अपनी क़ौम ही का होना चाहिए और [यह कि] 'उम्मियों' में कभी कोई रसूल नहीं आ सकता। लेकिन अल्लाह ने इन्हीं उम्मियों में से एक रसूल उठाया है जो तुम्हारी आँखों के सामने उसकी किताब सुना रहा है, आत्माओं को विकसित कर रहा है और उन लोगों को सत्यमार्ग दिखा रहा है जिनकी पथभ्रष्टता का हाल तुम स्वयं भी जानते हो। यह अल्लाह की उदार कृपा है जिसे चाहे प्रदान करे।
  2. तुमको तौरात का वाहक बनाया था, मगर तुमने उसकी ज़िम्मेदारी को न समझा, न अदा की [यहाँ तक कि तुम] जान-बूझकर अल्लाह की आयतों को झुठलाने से भी बाज़ नहीं रहते, और इस पर भी तुम्हारा दावा यह है कि तुम अल्लाह के चहेते हो और रिसालत (पैग़म्बरी) की नेमत सदा के लिए तुम्हारे नाम लिख दी गई है।
  3. तुम अगर वाक़ई अल्लाह के चहेते होते और तुम्हें अगर विश्वास होता कि उसके यहाँ तुम्हारे लिए बड़े आदर और सम्मान एवं प्रतिष्ठा का स्थान सुरक्षित है तो तुम्हें मौत का ऐसा भय न होता कि अपमानजनक जीवन स्वीकार्य है, मगर मौत किसी तरह भी स्वीकार्य नहीं । तुम्हारी यह दशा आप ही इस बात का प्रमाण है कि अपनी करतूतों को तुम स्वयं जानते हो और तुम्हारी अन्तरात्मा ख़ूब जानती है कि इन करतूतों के साथ मरोगे तो अल्लाह के यहाँ इससे अधिक अपमानित होगे, जितने दुनिया में हो रहे हो।

दूसरा भाग इस सूरा में लाकर इसलिए सम्मिलित किया गया है कि अल्लाह ने यहूदियों के सब्त के मुक़ाबले में मुसलमानों को जुमुआ (जुमा) प्रदान किया है और अल्लाह मुसलमानों को सचेत करना चाहता है कि वे अपने जुमा के साथ वह मामला न करें जो यहूदियों ने सब्त के साथ किया था। यह भाग उस समय उतरा था जब मदीना में एक दिन ठीक जुमा की नमाज़ के वक़्त एक तिजारती क़ाफ़िला आया और उसके ढोल-ताशों की आवाज़ सुनकर 12 आदमियों के सिवा मस्जिदे-नबवी में तमाम मौजूद लोग क़ाफ़िले की ओर दौड़ गए। हालाँकि उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ख़ुतबा दे रहे थे। इसपर यह आदेश दिया गया कि जुमुआ की अज़ान होने के बाद हर प्रकार के क्रय-विक्रय और हर दूसरी व्यस्तता अवैध (हराम) है।

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سُورَةُ الجُمُعَةِ
62. अल-जुमुआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡمَلِكِ ٱلۡقُدُّوسِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) अल्लाह की तसबीह (महिमागान) कर रही है हर वह चीज़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़ जो ज़मीन में है— बादशाह है, बहुत ही पाक है, ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।1
1. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिया-1; सूरा-59 हश्र, हाशिए—36, 37, 41। आगे के मज़मून से यह तमहीद (भूमिका) बहुत ज़्यादा मेल खाती है। अरब के यहूदी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की हस्ती, सिफ़ात (गुणों) और कारनामों में पैग़म्बरी की साफ़ निशानियाँ अपने सर की आँखों से देख लेने के बावजूद, और इसके बावजूद कि तौरात में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने आप (सल्ल०) के आने की साफ़-साफ़ ख़ुशख़बरी दी थी जो आप (सल्ल०) के सिवा किसी और पर चस्पाँ नहीं होती थी, सिर्फ़ इस वजह से आप (सल्ल०) का इनकार कर रहे थे कि अपनी क़ौम और नस्ल से बाहर के किसी शख़्स की पैग़म्बरी मान लेना उन्हें सख़्त नागवार था। वे साफ़ कहते थे कि जो कुछ हमारे यहाँ आया है हम सिर्फ़ उसी को मानेंगे। दूसरी किसी तालीम को, जो किसी ग़ैर-इसराईली नबी के ज़रिए से आए, चाहे वह ख़ुदा ही की तरफ़ से हो मानने के लिए वे बिलकुल तैयार न थे। आगे की आयतों में इसी रवैये पर उन्हें मलामत की जा रही है, इसलिए बात का आग़ाज़ इस शुरुआती जुमले से किया गया है। इसमें पहली बात यह कही गई है कि कायनात की हर चीज़ अल्लाह की तसबीह (महिमागान) कर रही है। यानी यह पूरी कायनात इस बात पर गवाह है कि अल्लाह उन तमाम ख़राबियाँ और कमज़ोरियों से पाक है जिनकी बुनियाद पर यहूदियों ने अपने नस्ली तौर पर बड़े होने का तसव्वुर क़ायम कर रखा है। वह किसी का रिश्तेदार नहीं है। जानिबदारी (पक्षपात, Favouritism) का उसके यहाँ कोई काम नहीं। अपनी सारी मख़लूक़ (सृष्टि) के साथ उसका मामला एक तरह के इनसाफ़ और रहमत और परवरदिगारी का है। कोई ख़ास नस्ल और क़ौम उसकी चहेती नहीं है कि वह जो चाहे करे, बहरहाल उसकी मेहरबानियाँ उसी के लिए ख़ास रहें, और किसी दूसरी नस्ल और क़ौम से उसको दुश्मनी नहीं है कि वह अपने अन्दर खू़बियाँ भी रखती हो तो वह उसकी मेहरबानियों से महरूम रहे। फिर फ़रमाया गया कि वह बादशाह है, यानी दुनिया की कोई ताक़त उसके इख़्तियार (अधिकारों) को महदूद करनेवाली नहीं है। तुम बन्दे और प्रजा हो। तुम्हारा यह मंसब कब से हो गया कि तुम यह तय करो कि वह तुम्हारी हिदायत के लिए अपना पैग़म्बर किसे बनाए और किसे न बनाए। इसके बाद कहा गया कि वह क़ुद्दूस है, यानी इससे बहुत ज़्यादा पाक-साफ़ है कि उसके फ़ैसले में किसी ख़ता और ग़लती का इमकान हो। ग़लती तुम्हारी समझ-बूझ में हो सकती है। उसके फ़ैसले में नहीं हो सकती। आख़िर में अल्लाह तआला की दो और सिफ़तें बयान की गई हैं। एक यह कि वह ज़बरदस्त है, यानी उससे लड़कर कोई जीत नहीं सकता। दूसरी यह कि वह हकीम है, यानी जो कुछ करता है वह ठीक अक़्लमन्दी का तक़ाज़ा होता है, और उसकी तदबीरें ऐसी मज़बूत होती हैं कि दुनिया में कोई उनका तोड़ नहीं कर सकता।
هُوَ ٱلَّذِي بَعَثَ فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 1
(2) वही है जिसने उम्मियों2 के अन्दर एक रसूल ख़ुद उन ही में से उठाया, जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है, उनकी ज़िन्दगी सँवारता है, और उनको किताब और हिकमत की तालीम देता है,3 हालाँकि इससे पहले वे खुली गुमराही में पड़े हुए थे।4
2. यहाँ 'उम्मी' का लफ़्ज़ यहूदी इसतिलाह (शब्दावली) के तौर पर आया है, और इसमें एक हल्का-सा तंज़ (व्यंग्य) छिपा है। इसका मतलब यह है कि जिनको यहूदी हक़ीर समझते हुए 'उम्मी' कहते हैं और अपने मुक़ाबले में नीच समझते हैं, उन ही में ग़ालिब और इल्मवाले अल्लाह ने एक रसूल उठाया है। वह ख़ुद नहीं उठ खड़ा हुआ है, बल्कि उसका उठानेवाला वह है जो कायनात का बादशाह है, ज़बरदस्त और हिकमतवाला है, जिसकी ताक़त से लड़कर ये लोग अपना ही कुछ बिगाड़ेंगे, उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मालूम होना चाहिए कि क़ुरआन मजीद में 'उम्मी' का लफ़्ज़ कई जगहों पर आया है और सब जगह उसका मतलब एक ही नहीं है, बल्कि अलग-अलग मौक़ों पर वह अलग-अलग मानी में इस्तेमाल हुआ है। कहीं वह अहले-किताब के मुक़ाबले में उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया है जिनके पास कोई आसमानी किताब नहीं है, जिसकी पैरवी वे करते हों। मसलन फ़रमाया, “अहले-किताब और उम्मियों से पूछो, क्या तुमने इस्लाम क़ुबूल किया?” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-20)। यहाँ उम्मियों से मुराद अरब के मुशरिक लोग हैं, और उनको अहले-किताब, यानी यहूदी और ईसाइयों से अलग एक गरोह क़रार दिया गया है। किसी जगह यह लफ़्ज़ ख़ुद अहले-किताब के अनपढ़ अल्लाह की किताब से अनजान लोगों के लिए इस्तेमाल हुआ है। जैसे फ़रमाया, “इन यहूदियों में कुछ लोग उम्मी हैं, किताब का कोई इल्म नहीं रखते, बस अपनी आरज़ुओं ही को जानते हैं,” (सूरा-2 बक़रा, आयत-78)। और किसी जगह यह लफ़्ज़ ख़ालिस यहूदी इसतिलाह के तौर पर इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद दुनिया के तमाम ग़ैर-यहूदी हैं। मसलन फ़रमाया, “उनकी इस (ग़ैर-यहूदियों का माल मार खाने की) अख़लाक़ी हालत की वजह यह है कि वे कहते हैं उम्मियों (ग़ैर-यहूदियों) के मामले में हमारी कोई पकड़ नहीं है।” (सूरा-8 आले-इमरान, आयत-75)। यही तीसरा मतलब है जो इस आयत में मुराद लिया गया है। यह लफ़्ज़ इबरानी ज़बान के लफ़्ज़ ‘गोएम' का हम-मानी है या ग़ैर-इसराईली लोग, जिसका तर्जमा अंग्रेज़ी बाइबल में Gentiles किया गया है, और इससे मुराद तमाम ग़ैर-यहूदी हैं, लेकिन इस यहूदी इसतिलाह का अस्ल मतलब सिर्फ़ इस तशरीह से समझ में नहीं आ सकता। अस्ल में इबरानी ज़बान का लफ़्ज़ गोएम शुरू में सिर्फ़ क़ौमों के मानी में बोला जाता था, लेकिन धीरे-धीरे यहूदियों ने उसे पहले तो अपने सिवा दूसरी क़ौमों के लिए ख़ास कर दिया, फिर उसके अन्दर ये मानी पैदा कर दिए कि यहूदियों के सिवा बाक़ी तमाम क़ौमें ग़ैर-मुहज़्ज़ब (असभ्य), गुमराह, नापाक और नीच हैं, यहाँ तक कि हक़ीर समझने और नफ़रत में यह लफ़्ज़ यूनानियों की इसतिलाह Barbarian से भी बाज़ी ले गया, जिसे वे तमाम ग़ैर-यूनानियों के लिए इस्तेमाल करते थे। रिब्बियों के लिट्रेचर में गोएम इस क़दर नफ़रत के क़ाबिल लोग हैं कि उनको इनसानी भाई नहीं समझा जा सकता, उनके साथ सफ़र नहीं किया जा सकता, बल्कि अगर उनमें से कोई शख़्स डूब रहा हो तो उसे बचाने की कोशिश भी नहीं की जा सकती। यहूदियों का अक़ीदा यह था कि आनेवाला मसीह तमाम गोएम को हलाक कर देगा और जलाकर मिट्टी में मिला डालेगा। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-64)
3. क़ुरआन मजीद में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ये सिफ़ात (गुण) चार जगहों पर बयान की गई हैं, और हर जगह उनके बयान का मक़सद अलग है। सूर-2 बक़रा, आयत-129 में इनका ज़िक्र अहले-अरब को यह बताने के लिए किया गया है कि नबी (सल्ल०) का आना, जिसे वे अपने लिए मुसीबत समझ रहे थे, हक़ीक़त में एक बड़ी नेमत है, जिसके लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) अपनी औलाद के लिए अल्लाह तआला से दुआएँ माँगा करते थे। सूरा-2 बक़रा, आयत-151 में उन्हें इसलिए बयान किया गया है कि मुसलमान नबी (सल्ल०) की क़द्र पहचानें और उस नेमत से पूरा-पूरा फ़ायदा उठाएँ जो नबी (सल्ल०) के आने की सूरत में अल्लाह तआला ने उन्हें दी है। सूरा-3 आले-इमरान, आयत-164 में मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवाले लोगों को यह एहसास दिलाने के लिए इनको फिर दोहराया गया है कि वह कितना बड़ा एहसान है जो अल्लाह तआला ने उनके दरमियान अपना रसूल भेजकर किया है और ये लोग कितने नादान हैं कि उसकी क़द्र नहीं करते। अब चौथी बार उन्हें इस सूरा में दोहराया गया है, जिसका मक़सद यहूदियों को यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल०) तुम्हारी आँखों के सामने जो काम कर रहे हैं, वह साफ़ तौर पर एक रसूल का काम है। वे अल्लाह की आयतें सुना रहे हैं, जिनकी ज़बान, जिनमें बयान की गई बातें, अन्दाज़े-बयान, हर चीज़ इस बात की गवाही देती है कि सचमुच वे अल्लाह ही की आयतें हैं। वे लोगों की जिन्दगियाँ सँवार रहे हैं, उनके अख़लाक़ और आदतें और मामलों को हर तरह की गन्दगियों से पाक कर रहे हैं, और उनके अन्दर आला दरजे की अख़लाक़ी खूबियाँ पैदा कर रहे हैं। यह वही काम है जो इससे पहले तमाम नबी करते रहे हैं। फिर वे सिर्फ़ आयतें ही सुनाने पर बस नहीं करते, बल्कि हर वक़्त अपनी बातों और अमल से और अपनी ज़िन्दगी के नमूने से लोगों को अल्लाह की किताब का मंशा समझा रहे हैं और उनको उसकी हिकमत और सूझ-बूझ की तालीम दे रहे हैं जो नबियों के सिवा आज तक किसी ने नहीं दी है। यही सीरत और किरदार और काम ही तो नबियों की वह नुमायाँ ख़ूबी है जिससे वे पहचाने जाते हैं। फिर यह कैसी हठधर्मी है कि जिसका सच्चा रसूल होना उसके कारनामों से खुल्लम-खुल्ला साबित हो रहा है उसको मानने से तुमने सिर्फ़ इसलिए इनकार कर दिया कि अल्लाह ने उसे तुम्हारी क़ौम के बजाय उस क़ौम में से उठाया जिसे तुम उम्मी कहते हो।
4. यह नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी का एक और सुबूत है जो यहूदियों की आँखें खोलने के लिए पेश किया गया है। ये लोग सदियों से अरब की सरज़मीन में आबाद थे और अरबवालों की मज़हबी, अख़लाक़ी, समाजी और तमद्दुनी (सांस्कृतिक) ज़िन्दगी का कोई पहलू उनसे छिपा हुआ न था। उनकी उस पिछली हालत की तरफ़ इशारा करके कहा जा रहा है कि कुछ साल के अन्दर मुहम्मद (सल्ल०) की सरबराही और रहनुमाई में इस क़ौम की जैसी काया पलट गई है उसके तुम चश्मदीद गवाह हो। तुम्हारे सामने वह हालत भी है जिसमें वे लोग इस्लाम क़ुबूल करने से पहले मुब्तला थे। वह हालत भी है जो इस्लाम लाने के बाद इनकी हो गई, और इसी क़ौम के उन लोगों की हालत भी तुम देख रहे हो जिन्होंने अभी इस्लाम क़ुबूल नहीं किया है। क्या ये खुला-खुला फ़र्क, जिसे एक अन्धा भी देख सकता है, तुम्हें यह यक़ीन दिलाने के लिए काफ़ी नहीं है कि यह एक नबी के सिवा किसी का कारनामा नहीं हो सकता? बल्कि इसके सामने तो पिछले नबियों तक के कारनामे फीके पड़ गए हैं।
وَءَاخَرِينَ مِنۡهُمۡ لَمَّا يَلۡحَقُواْ بِهِمۡۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(3) और (इस रसूल का भेजा जाना) उन दूसरे लोगों के लिए भी है जो अभी उनसे नहीं मिले हैं।5 अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।6
5. यानी मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी सिर्फ़ अरब क़ौम तक महमूद नहीं है, बल्कि दुनिया भर की उन दूसरी क़ौमों और नस्लों के लिए भी है जो अभी आकर ईमानवालों में शामिल नहीं हुई हैं, मगर आगे क़ियामत तक आनेवाली हैं। अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : ‘व आ-ख़री-न मिन्हुम लम्मा यल्हकू बिहिम' (दूसरे लोग उनमें से जो अभी उनसे नहीं मिले हैं)। इसमें 'मिन्हुम' (उनमें से) के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि वे दूसरे लोग उम्मियों में से, यानी दुनिया की ग़ैर-इसराईली क़ौमों में से होंगे। दूसरा यह कि वे मुहम्मद (सल्ल०) के माननेवाले होंगे जो अभी ईमानवालों में शामिल नहीं हुए हैं मगर बाद में आकर शामिल हो जाएँगे। इस तरह यह आयत उन बहुत-सी आयतों में से है जिनमें यह बात बयान की गई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का पैग़म्बर बनाकर भेजा जाना तमाम इनसानियत की तरफ़ है और हमेशा के लिए है। क़ुरआन मजीद की दूसरी जगहें इस बात को बयान किया गया है, इस तरह हैं, सूरा-6 अनआम, आयत-19; सूरा-7 आराफ़, आयत-158; सूरा-21 अम्बिया, आयत-107; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-1; सूरा-34 सबा, आयत-28। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-34 सबा, हाशिया-47)
6. यानी यह उसी की क़ुदरत और हिकमत का करिश्मा है कि ऐसी अनघड़ उम्मी क़ौम में उसने ऐसा अज़ीम (महान) पैग़म्बर पैदा किया जिसकी तालीम और हिदायत इस क़दर इनक़िलाब लानेवाली है, और फिर ऐसे आलमगीर (विश्वव्यापी) और हमेशा रहनेवाले उसूल रखती है जिनपर तमाम इनसानियत मिलकर एक उम्मत (समुदाय) बन सकती है और हमेशा-हमेशा के उन उसूलों से रहनुमाई हासिल कर सकती है। कोई बनावटी इनसान चाहे कितनी ही कोशिश कर लेता, यह मक़ाम और मर्तबा कभी हासिल नहीं कर सकता था। अरब जैसी पिछड़ी क़ौम तो एक तरफ़, दुनिया की किसी बड़ी-से-बड़ी क़ौम का कोई अक़्लमन्द-से-अक़्लमन्द आदमी भी यह नहीं कर सकता कि एक क़ौम की इस तरह पूरे तौर पर काया पलट दे, और फिर ऐसे जामे (व्यापक) उसूल दुनिया को दे दे जिनपर सारी इनसानियत एक उम्मत बनकर एक दीन और एक तहज़ीब का तमाम दुनिया में और उसके तमाम मामलों तक फैला हुआ निज़ाम हमेशा के लिए चलाने के क़ाबिल हो जाए। यह एक मोजिज़ा (चमत्कार) है जो अल्लाह की क़ुदरत से ज़ाहिर हुआ है, और अल्लाह ही ने अपनी हिकमत की बुनियाद पर जिस शख़्स, जिस देश और जिस क़ौम को चाहा है इसके लिए चुन लिया है। इसपर अगर किसी बेवक़ूफ़ का दिल दुखता है तो दुखता रहे।
ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 3
(4) यह उसका फ़ज़्ल (मेहरबानी) है, जिसे चाहता है देता है, और वह बड़ा फ़ज़्ल करनेवाला है।
مَثَلُ ٱلَّذِينَ حُمِّلُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ ثُمَّ لَمۡ يَحۡمِلُوهَا كَمَثَلِ ٱلۡحِمَارِ يَحۡمِلُ أَسۡفَارَۢاۚ بِئۡسَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 4
(5) जिन लोगों को तौरात दी गई थी, मगर उन्होंने उसका बोझ न उठाया,7 उनकी मिसाल उस गधे8 की-सी है जिसपर किताबें लदी हुई हों। इससे भी ज़्यादा बुरी मिसाल है उन लोगों की जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया है।9 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह हिदायत नहीं दिया करता।
7. इस जुमले के दो मतलब हैं : एक आम और दूसरा ख़ास। आम मतलब यह है कि जिन लोगों पर तौरात के इल्म और अमल और उसके मुताबिक़ दुनिया की हिदायत की ज़िम्मेदारी रखी गई थी, मगर न उन्होंने अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझा और न इसका हक़ अदा किया। ख़ास मतलब यह है कि तौरात रखनेवाले गरोह होने की हैसियत से जिनका काम यह था कि सबसे पहले आगे बढ़कर उस रसूल का साथ देते जिसके आने की साफ़-साफ़ ख़ुशख़बरी तौरात में दी गई थी, मगर उन्होंने सबसे बढ़कर उसकी मुख़ालफ़त की और तौरात की तालीम के तक़ाज़े को पूरा न किया।
8. यानी जिस तरह गधे पर किताबें लदी हों और वह नहीं जानता कि उसकी पीठ पर क्या है, उसी तरह यह तौरात को अपने ऊपर लादे हुए हैं और नहीं जानते कि यह किताब किस लिए आई है और इनसे क्या चाहती है।
9. यानी इनका हाल गधे से भी बदतर है। वह तो समझ-बूझ नहीं रखता इसलिए मजबूर है। मगर ये समझ-बूझ रखते हैं। तौरात को पढ़ते-पढ़ाते हैं। उसके मतलब से भी अनजान नहीं हैं। फिर भी ये उसकी हिदायत से जान-बूझकर मुँह मोड़ रहे हैं, और उस नबी को मानने से जान-बूझकर इनकार कर रहे हैं जो तौरात के मुताबिक़ सरासर हक़ पर है। यह नासमझी के क़ुसूरवार नहीं हैं, बल्कि जान-बूझकर अल्लाह की आयतों को झुठलाने के मुजरिम हैं।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ هَادُوٓاْ إِن زَعَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ أَوۡلِيَآءُ لِلَّهِ مِن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 5
(6) इनसे कहो, “ऐ लोगो जो यहूदी बन गए हो!"10 अगर तुम्हें यह घमण्ड है कि बाक़ी सब लोगों को छोड़कर बस तुम ही अल्लाह के चहेते हो,11 तो मौत की तमन्ना करो अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो।"12
10. यह पहलू ध्यान देने के क़ाबिल है। 'ऐ यहूदियो!' नहीं कहा है, बल्कि 'ऐ वे लोगो जो यहूदी बन गए हो!' या 'जिन्होंने यहूदियत अपना ली है' कहा है। इसकी वजह यह है कि अस्ल दीन जो मूसा (अलैहि०) और उनसे पहले और बाद के पैग़म्बर लाए थे वह तो इस्लाम (ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी) ही था। इन पैग़म्बरों में से कोई भी यहूदी न था, और न उनके ज़माने में यहूदियत पैदा हुई थी। यह मज़हब इस नाम के साथ बहुत बाद की पैदावार है। इसका ताल्लुक़ उस ख़ानदान से है जो हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के चौथे बेटे यहूदाह की नस्ल से था। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बाद जब सल्तनत दो टुकड़ों में बँट गई तो यह ख़ानदान उस मुल्क का मालिक हुआ जो यहूदिया के नाम से जाना जाता है, और बनी-इसराईल के दूसरे क़बीलों ने अपनी अलग हुकूमत क़ायम कर ली जो सामिरिय्या के नाम से मशहूर हुई। फिर असीरिया ने न सिर्फ़ यह कि सामिरिय्या को बरबाद कर दिया, बल्कि उन इसराईली क़बीलों का भी नाम व निशान मिटा दिया जो इस हुकूमत के बनानेवाले थे। इसके बाद सिर्फ़ यहूदाह, और उसके साथ बिन-यामीन की नस्ल बाक़ी रह गई, जिसपर यहूदाह की नस्ल के ग़लबे की वजह से उसे 'यहूद' ही कहा जाने लगा। इस नस्ल के अन्दर काहिनों और रिब्बियों और अहबार ने अपने-अपने ख़यालात और नज़रिए और रुझानों के मुताबिक़ अक़ीदों और रस्मों और मज़हबी क़ानूनों का जो ढाँचा सैकड़ों साल में तैयार किया इसका नाम यहूदियत है। यह ढाँचा चौथी सदी ई०पू० से बनना शुरू हुआ और पाँचवीं सदी ईसवी तक बनता रहा। अल्लाह के रसूलों की लाई हुई ख़ुदाई हिदायत का बहुत थोड़ा ही हिस्सा उसमें शामिल है। और उसका हुलिया भी अच्छा-ख़ासा बिगड़ चुका है। इसी वजह से क़ुरआन मजीद में अकसर जगहों पर उनको 'अल्लज़ी-न हादू' कहकर मुख़ातब किया गया है, यानी 'ऐ वे लोगो, जो यहूदी बनकर रह गए हो!' उनमें सब-के-सब इसराईली ही न थे, बल्कि वे ग़ैर-इसराईली लोग भी थे जिन्होंने यहूदियत क़ुबूल कर ली थी। क़ुरआन में जहाँ बनी-इसराईल को मुख़ातब किया गया है वहाँ 'ऐ बनी-इसराईल!' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, और जहाँ यहूद के मज़हब के पैरोकारों को मुख़ातब किया गया है, वहाँ 'अल्लज़ी-न हादू' (ऐ वे लोगो, जो यहूदी बनकर रह गए हो!) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं।
11. क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर उनके इस दावे की तफ़सीलात दी गई हैं। मसलन वे कहते हैं कि यहूदियों के सिवा कोई जन्नत में दाख़िल न होगा, (सूरा-2 बक़रा, आयत-111)। हमें जहन्नम की आग हरगिज़ न छुएगी, अगर हमको सज़ा मिलेगी भी तो बस कुछ दिन, (सूरा-2 बक़रा, आयत-80; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-24)। हम अल्लाह के बेटे और उसके चहेते हैं, (सूरा-5 माइदा, आयत-8)। ऐसे ही कुछ दावे ख़ुद यहूदियों की अपनी किताबों में भी मिलते हैं। कम-से-कम यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि वे अपने-आपको ख़ुदा की चुनी हुई मख़लूक़ (Chosen people) कहते हैं और इस घमण्ड में मुब्तला हैं कि ख़ुदा का उनके साथ एक ख़ास रिश्ता है जो किसी दूसरे इनसानी गरोह से नहीं है।
12. यह बात क़ुरआन मजीद में दूसरी बार यहूदियों को मुख़ातब करके कही गई है। पहले सूरा-2 बक़रा, आयतें—94 से 96 में कहा गया था, “इनसे कहो कि अगर वाक़ई अल्लाह के नज़दीक आख़िरत का घर तमाम इनसानों को छोड़कर सिर्फ़ तुम्हारे ही लिए ख़ास है, तब तो तुम्हें चाहिए कि मौत की तमन्ना करो, अगर तुम इस ख़याल में सच्चे हो। यक़ीन जानो कि ये कभी इसकी तमन्ना न करेंगे, इसलिए कि अपने हाथों जो कुछ कमाकर इन्होंने भेजा है उसका तक़ाज़ा यही है (कि ये वहाँ जाने की तमन्ना न करें), अल्लाह इन ज़ालिमों के हाल को अच्छी तरह जानता है। तुम इन्हें सबसे बढ़कर जीने का लालची पाओगे, यहाँ तक कि ये इस मामले में मुशरिकों से भी बढ़े हुए हैं। इनमें से एक-एक आदमी यह चाहता है कि किसी तरह हज़ार बरस जिए, हालाँकि लम्बी उम्र कभी भी उसे अज़ाब से तो दूर नहीं फेंक सकती। जैसे कुछ आमाल (कर्म) ये कर रहे हैं, अल्लाह तो उन्हें देख रहा है।” अब इसी बात को फिर यहाँ दोहराया गया है। लेकिन यह सिर्फ़ दोहराना नहीं है। सूरा-2 बक़रा में जो आयतें हैं उनमें यह बात उस वक़्त कही गई थी जब यहूदियों से मुसलमानों की कोई जंग न हुई थी। और इस सूरा में इसको दोहराया उस वक़्त गया जब उनके साथ कई जंगें होने के बाद अरब में आख़िरी और पूरे तौर पर उनका ज़ोर तोड़ दिया गया। इन जंगों ने, और इनके उस अंजाम ने वह बात तजरिबे और आँखों से दिखाकर साबित कर दी जो पहले सूरा-2 बक़रा में कही गई थी। मदीना और ख़ैबर में यहूदी ताक़त तादाद के लिहाज़ से मुसलमानों से किसी तरह कम न थी, और वसाइल (संसाधनों) के लिहाज़ से उनसे बहुत ज़्यादा थी। फिर अरब के मुशरिक और मदीना के मुनाफ़िक भी उनकी मदद कर रहे थे और मुसलमानों को मिटाने पर तुले हुए थे। लेकिन जिस चीज़ ने इस ग़ैर-बराबरी के मुक़ाबले में मुसलमानों को ग़ालिब और यहूदियों को हरा दिया वह यह थी कि मुसलमान ख़ुदा की राह में मरने से डरना तो दूर रहा, दिल की गहराइयों से इसके ख़ाहिशमन्द थे और सर हथेली पर लिए हुए जंग के मैदान में उतरते थे। क्योंकि उन्हें इस बात का यक़ीन था कि वे ख़ुदा की राह में लड़ रहे हैं, और वे इस बात पर भी पूरा यक़ीन रखते थे कि इस राह में शहीद होनेवाले के लिए जन्नत है। इसके बरख़िलाफ़ यहूदियों का हाल यह था कि वे किसी राह में भी जान देने के लिए तैयार न थे, न ख़ुदा की राह में, न क़ौम की राह में, न ख़ुद अपनी जान-माल और इज़्ज़त की राह में। उन्हें सिर्फ़ ज़िन्दगी चाहिए थी, चाहे वह कैसी ही ज़िन्दगी हो। इसी चीज़ ने उनको बुज़दिल बना दिया था।
وَلَا يَتَمَنَّوۡنَهُۥٓ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(7) लेकिन ये हरगिज़ इसकी तमन्ना न करेंगे अपने करतूतों की वजह से जो ये कर चुके है।13 और अल्लाह इन ज़ालिमों को ख़ूब जानता है।
13. दूसरे अलफ़ाज़ में उनका मौत से यह भागना बे-वजह नहीं है। वे ज़बान से चाहे कैसे ही लम्बे-चौड़े दावे करें, मगर उनके ज़मीर (दिल) ख़ूब जानते हैं कि ख़ुदा और उसके दीन के साथ उनका सुलूक क्या है, और आख़िरत में उन हरकतों के क्या नतीजे निकलने की उम्मीद की जा सकती है जो वे दुनिया में कर रहे हैं। इसी लिए उनका मन ख़ुदा की अदालत का सामना करने से जी चुराता है।
قُلۡ إِنَّ ٱلۡمَوۡتَ ٱلَّذِي تَفِرُّونَ مِنۡهُ فَإِنَّهُۥ مُلَٰقِيكُمۡۖ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) इनसे कहो, “जिस मौत से तुम भागते हो वह तो तुम्हें आकर रहेगी। फिर तुम उसके सामने पेश किए जाओगे जो छिपे और खुले का जाननेवाला है, और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نُودِيَ لِلصَّلَوٰةِ مِن يَوۡمِ ٱلۡجُمُعَةِ فَٱسۡعَوۡاْ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَذَرُواْ ٱلۡبَيۡعَۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुमे14 के दिन तो अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो और ख़रीदना-बेचना छोड़ दो,15 यह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है अगर तुम जानो।
14. इस जुमले में तीन बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने लायक़ हैं : एक यह कि इसमें नमाज़ के लिए पुकारे जाने का ज़िक्र है। दूसरी यह कि किसी ऐसी नमाज़ के लिए पुकारने का ज़िक्र है जो ख़ास तौर पर सिर्फ़ जुमे के दिन ही पढ़ी जानी चाहिए। तीसरी यह कि इन दोनों चीज़ों का ज़िक्र इस तरह नहीं किया गया है कि तुम नमाज़ के लिए आवाज़ दो, और जुमे के दिन एक ख़ास नमाज़ पढ़ा करो, बल्कि अन्दाज़े-बयान और मौक़ा-महल साफ़ बता रहा है कि नमाज़ के लिए पुकार और जुमे की ख़ास नमाज़, दोनों पहले से जारी थीं, अलबत्ता लोग यह ग़लती कर रहे थे कि जुमे की पुकार सुनकर नमाज़ के लिए दौड़ने में सुस्ती बरतते थे और ख़रीद-बिक्री करने में लगे रहते थे, इसलिए अल्लाह तआला ने यह आयत सिर्फ़ इस ग़रज़ के लिए उतारी कि लोग इस पुकार और इस ख़ास नमाज़ की अहमियत महसूस करें और फ़र्ज़ जानकर इसकी तरफ़ दौड़ें। इन तीनों बातों पर अगर ग़ौर किया जाए तो इनसे यह उसूली हक़ीक़त पूरी तरह साबित हो जाती है कि अल्लाह तआला रसूल (सल्ल०) को कुछ ऐसे हुक्म भी देता था जो क़ुरआन में नहीं उतरे, और उन हुक्मों पर अमल करना भी उसी तरह वाजिब था जिस तरह क़ुरआन में उतरनेवाले हुक्मों पर। नमाज़ के लिए पुकार वही अज़ान है जो आज सारी दुनिया में हर दिन पाँच वक़्त हर मस्जिद में दी जा रही है। मगर क़ुरआन में किसी जगह न इसके अलफ़ाज़ बयान किए गए हैं, न कहीं यह हुक्म दिया गया है कि नमाज़ के लिए लोगों को इस तरह पुकारा करो। यह चीज़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुक़र्रर की हुई है। क़ुरआन में सिर्फ़ दो जगह इसकी तसदीक़ (पुष्टि) की गई है, एक इस आयत में, दूसरे सूरा-5 माइदा, आयत-58 में। इसी तरह जुमे की यह ख़ास नमाज़ जो आज सारी दुनिया के मुसलमान अदा कर रहे हैं, इसका भी क़ुरआन में न हुक्म दिया गया है, न वक़्त और अदा करने का तरीक़ा बताया गया है। यह तरीक़ा भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का जारी किया हुआ है, और क़ुरआन की यह आयत सिर्फ़ उसकी अहमियत और उसके वाजिब होने की शिद्दत बयान करने के लिए उतरी है। इस साफ़ दलील के बावजूद जो शख़्स यह कहता है कि शरई हुक्म सिर्फ़ वही हैं जो क़ुरआन में बयान हुए हैं, वह अस्ल में सुन्नत का नहीं, ख़ुद क़ुरआन का इनकार करता है। आगे बढ़ने से पहले जुमे के बारे में कुछ बातें और भी जान लेनी चाहिएँ— • जुमा अस्ल में एक इस्लामी इसतिलाह (पारिभाषिक शब्द) है। जाहिलियत के ज़माने में अरबवाले इसे उरूबा का दिन कहा करते थे। इस्लाम में जब उसको मुसलमानों के इकट्ठे होने का दिन क़रार दिया गया तो उसका नाम जुमा रखा गया। अगरचे इतिहासकार कहते हैं कि काब-बिन-लुअय्य या क़ुसय्य-बिन-किलाब ने भी इस दिन के लिए यह नाम इस्तेमाल किया था, क्योंकि इस दिन वह क़ुरैश के लोगों को इकट्ठा किया करता था, (फ़तहुल-बारी)। लेकिन उसके इस अमल से पुराना नाम तबदील नहीं हुआ, बल्कि आम अरबवाले इसे उरूबा ही कहते थे। नाम की हक़ीक़ी तबदीली उस वक़्त हुई जब इस्लाम में इस दिन का यह नया नाम रखा गया। • इस्लाम से पहले हफ़्ते का एक दिन इबादत के लिए ख़ास करने और उसको मिल्लत (समुदाय) की पहचान क़रार देने का तरीक़ा अहले-किताब में मौजूद था। यहूदियों के यहाँ इस ग़रज़ के लिए सब्त (शनिवार) का दिन मुक़र्रर किया गया था, क्योंकि इसी दिन अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल को फ़िरऔन की ग़ुलामी से नजात दी थी। ईसाइयों ने अपने-आपको यहूदियों से अलग करने के लिए अपनी मिल्लत की पहचान इतवार का दिन क़रार दिया। अगरचे इसका कोई हुक्म न हज़रत ईसा (अलैहि०) ने दिया था, न इंजील में कहीं इसका ज़िक्र आया है, लेकिन ईसाइयों का अक़ीदा यह है कि सूली पर जान देने के बाद हज़रत ईसा (अलैहि०) इसी दिन क़ब्र से निकलकर आसमान की तरफ़ गए थे। इसी बुनियाद पर बाद के ईसाइयों ने इसे अपनी इबादत का दिन क़रार दे लिया और फिर 321 ई० में रूमी हुकूमत ने एक हुक्म के ज़रिए से इसको आम छुट्टी का दिन मुक़र्रर कर दिया। इस्लाम ने इन दोनों मिल्लतों (समुदायों) से अपनी मिल्लत को अलग करने के लिए ये दोनों दिन छोड़कर जुमे को इजतिमाई इबादत के लिए अपनाया। • हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू-मसऊद अनसारी (रज़ि०) की रिवायतों से मालूम होता है कि जुमे के फ़र्ज़ होने का हुक्म नबी (सल्ल०) पर हिजरत से कुछ मुद्दत पहले मक्का ही में उतर चुका था। लेकिन उस वक़्त आप (सल्ल०) उसपर अमल नहीं कर सकते थे। क्योंकि मक्का में कोई इजतिमाई इबादत अदा करना मुमकिन न था। इसलिए आप (सल्ल०) ने उन लोगों को जो आप (सल्ल०) से पहले हिजरत करके मदीना पहुँच चुके थे, यह हुक्म लिख भेजा कि वहाँ जुमा क़ायम करें। चुनाँचे इबतिदाई मुहाजिरों के सरदार हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) ने 12 आदमियों के साथ मदीना में पहला जुमा पढ़ा, (तबरानी, दारे-क़ुतनी)। हज़रत काब-बिन-मालिक (रज़ि०) और इब्ने-सीरीन की रिवायत यह है कि इससे भी पहले मदीना के अनसार ने अपने तौर पर (इससे पहले कि नबी सल्ल० का यह हुक्म उनको पहुँचा होता) आपस में यह तय किया था कि हफ़्ते में एक दिन मिलकर इजतिमाई इबादत करेंगे। इस ग़रज़ के लिए उन्होंने यहूदियों के सब्त और ईसाइयों के इतवार को छोड़कर जुमे का दिन चुना और पहला जुमा असअद-बिन-ज़ुरारा (रज़ि०) ने बनी-बयाज़ा के इलाक़े में पढ़ा, जिसमें 40 आदमी शरीक हुए, (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, इब्ने-हिब्बान, अब्द-बिन-हुमैद, अब्दुर्रज़्ज़ाक, बैहक़ी)। इससे मालूम होता है कि इस्लामी मिज़ाज ख़ुद उस वक़्त यह माँग कर रहा था कि ऐसा एक दिन होना चाहिए जिसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा मुसलमान जमा होकर इजतिमाई इबादत करें, और यह भी इस्लामी मिज़ाज ही का तक़ाज़ा था कि वह दिन सनीचर और इतवार से अलग हो, ताकि मुसलमानों की मिल्लत की पहचान यहूदियों और ईसाइयों की मिल्लत की पहचान से अलग रहे। यह सहाबा किराम (रज़ि०) की इस्लामी ज़ेहनियत का एक अजीब करिश्मा है कि कभी-कभी एक हुक्म आने से पहले ही उनका मिज़ाज और पसन्द कह देती थी कि इस्लाम की रूह फ़ुलाँ चीज़ का तक़ाज़ा कर रही है। • अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हिजरत के बाद जो सबसे पहले काम किए उनमें से एक जुमा क़ायम करना भी था। मक्का से हिजरत करके आप (सल्ल०) सोमवार के दिन कुबा पहुँचे, चार दिन वहाँ क़ियाम किया, पाँचवें दिन जुमे के दिन वहाँ से मदीना की तरफ़ चले, रास्ते में बनी-सालिम-बिन-औफ़ के मकाम पर थे कि जुमे की नमाज़ का वक़्त आ गया, उसी जगह आप (सल्ल) ने पहला जुमा अदा किया। (इब्ने-हिशाम) • इस नमाज़ के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़वाल (सूरज ढलने) के बाद का वक़्त मुक़र्रर किया था, यानी वही वक़्त जो ज़ुह्‍र की नमाज़ का वक़्त है। हिजरत से पहले हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) को जो लिखकर हुक्म आप (सल्ल०) ने भेजा था उसमें आप (सल्ल०) का फ़रमान यह था कि “जब जुमे के दिन आधा दिन ढल जाए तो दो रकअत नमाज़ के ज़रिए से अल्लाह की नज़दीकी हासिल करो,” (दारे-क़ुतनी)। यही हुक्म हिजरत के बाद आप (सल्ल०) ने ज़बानी भी दिया और अमली तौर पर भी इसी वक़्त पर आप (सल्ल०) जुमे की नमाज़ पढ़ाते रहे। हज़रत अनस (रज़ि०), हज़रत स-लमा-बिन-अकवअ (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०), हज़रत सहल-बिन-साद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) और हज़रत बिलाल (रज़ि०) से इस मज़मून की रिवायतें हदीस की किताबों में नक़्ल हुई हैं कि नबी (सल्ल०) जुमे की नमाज़ ज़वाल के बाद अदा किया करते थे। (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी) • यह बात भी नबी (सल्ल०) के अमल से साबित है कि उस दिन आप (सल्ल०) ज़ुह्‍र की की नमाज़ के बजाय जुमे की नमाज़ पढ़ाते थे, इस नमाज़ की सिर्फ़ दो रकअतें होती थीं, और उससे पहले आप (सल्ल०) ख़ुतबा देते थे। यही फ़र्क़ जुमे की नमाज़ और आम दिनों की ज़ुह्‍र की नमाज़ में था। हज़रत उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “नबी (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से निकले हुए हुक्म के मुताबिक़ मुसाफ़िर की नमाज़ दो रकअत है, फ़ज्र की नमाज़ दो रकअत है और जुमे की नमाज़ दो रकअत है। यह पूरी नमाज़ है, क़स्र नहीं है। और जुमे को ख़ुतबे की ख़ातिर ही मुख़्तसर (कम) किया गया है।" (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास) • जिस अज़ान का यहाँ ज़िक्र है उससे मुराद वह अज़ान है जो ख़ुतबे से पहले दी जाती है, न कि वह अज़ान जो ख़ुतबे से काफ़ी देर पहले लोगों को यह ख़बर देने के लिए दी जाती है कि जुमे का वक़्त शुरू हो चुका है। हदीस में हज़रत साइब-बिन-यज़ीद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़माने में सिर्फ़ एक ही अज़ान होती थी, और वह इमाम के मिम्बर पर बैठने के बाद दी जाती थी। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में भी यही अमल होता रहा। फिर हज़रत उसमान (रज़ि०) के दौर में जब आबादी बढ़ गई तो उन्होंने पहले एक और अज़ान दिलवानी शुरू कर दी जो मदीना के बाज़ार में उनके मकान 'जौरा' पर दी जाती थी। (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, नसई, तबरानी)
15. इस हुक्म में 'ज़िक्र' से मुराद ख़ुतबा है, क्योंकि अज़ान के बाद पहला अमल जो नबी (सल्ल०) करते थे वह नमाज़ नहीं बल्कि ख़ुतबा था, और नमाज़ हमेशा ख़ुतबे के बाद अदा करते थे। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जुमे के दिन फ़रिश्ते हर आनेवाले का नाम उसके आने की तरतीब के साथ लिखते जाते हैं। फिर जब इमाम ख़ुतबा देने के लिए निकलता है तो वे नाम लिखना बन्द कर देते हैं और ज़िक्र (यानी ख़ुतबा) सुनने में लग जाते हैं।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई)। इस हदीस से भी मालूम हुआ कि ज़िक्र से मुराद ख़ुतबा है। ख़ुद क़ुरआन का बयान भी इसी की तरफ़ इशारा कर रहा है। पहले फ़रमाया, “ख़ुदा के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो।” फिर आगे चलकर फ़रमाया, “फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ।” इससे मालूम हुआ कि जुमे के दिन अमल की तरतीब यह है कि पहले अल्लाह का ज़िक्र और फिर नमाज़। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम भी इसपर एक राय हैं कि ज़िक्र से मुराद या तो ख़ुतबा है या फिर ख़ुतबा और नमाज़ दोनों। ख़ुतबे के लिए 'अल्लाह का ज़िक्र' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल करना ख़ुद यह मतलब रखता है कि इसमें वे बातें होनी चाहिएँ जो अल्लाह की याद से मेल खाती हों। मसलन अल्लाह की तारीफ़ और शुक्र, उसके रसूल (सल्ल०) पर दुरूद और सलात, उसके हुक्मों और उसकी शरीअत के मुताबिक़ अमल की तालीम और नसीहत और उससे डरनेवाले नेक बन्दों की तारीफ़ वग़ैरा। इसी वजह से ज़मख़शरी ने कश्शाफ़ में लिखा है कि ख़ुतबे में ज़ालिम बादशाहों की तारीफ़ बयान करना, या उनका नाम लेना और उनके लिए दुआ करना, अल्लाह के ज़िक्र से दूर का मेल भी नहीं रखता, बल्कि यह तो शैतान का ज़िक्र है। 'अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो' का मतलब यह नहीं है कि भागते हुए आओ, बल्कि इसका मतलब यह है कि जल्दी-से-जल्दी वहाँ पहुँचने की कोशिश करो। उर्दू (और हिन्दी) में भी हम दौड़-धूप करना, भाग-दौड़ करना, सरगर्म कोशिश के मानी में बोलते हैं, न कि भागने के मानी में। इसी तरह अरबी में भी ‘सई' के मानी 'भागना' ही के नहीं है। क़ुरआन में अकसर जगहों पर सई का लफ़्ज़ कोशिश और जिद्दो-जुद के मानी में इस्तेमाल हुआ है। मसलन “इनसान के लिए वही कुछ है जिसकी उसने कोशिश (सई) की।” (सूरा-53 नज्म, आयत-39) “और जो आख़िरत चाहता है और उसके लिए कोशिश (सई) करेगा तो उसकी कोशिश उसके लिए होगी।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-19); “फिर जब वह उसके साथ दौड़-धूप (सई) करने की उम्र को पहुँचा।” (सूरा-87 साफ़्फ़ात, आयत-102); “और जब उसे हुकूमत मिल जाती है तो उसकी कोशिश (सई) होती है कि ज़मीन में बिगाड़ फैलाए,” (सूरा-2 बकरा, आयत-205)। क़ुरआन के आलिमों ने भी एक राय होकर इसको एहतिमाम (आयोजन) के मानी में लिया है, उनके नज़दीक सई यह है कि आदमी अज़ान की आवाज़ सुनकर फ़ौरन मस्जिद पहुँचने की फ़िक्र में लग जाए। और मामला सिर्फ़ इतना ही नहीं है, हदीस में भागकर नमाज़ के लिए आने की साफ़ मनाही आई है। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब नमाज़ खड़ी हो तो उसकी तरफ़ सुकून और वक़ार (गरिमा) के साथ चलकर आओ। भागते हुए न आओ, फिर जितनी नमाज़ भी मिल जाए उसमें शामिल हो जाओ, और जितनी छूट जाए उसे बाद में पूरा कर लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा)। हज़रत अबू-क़तादा अनसारी (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक बार हम नबी (सल्ल०) के पीछे नमाज़ पढ़ रहे थे कि एकाएक लोगों के भाग-भागकर चलने की आवाज़ आई। नमाज़ ख़त्म करने के बाद नबी (सल्ल०) ने उन लोगों से पूछा, “यह कैसी आवाज़ थी?” उन लोगों ने बताया, “हम नमाज़ में शामिल होने के लिए भागकर आ रहे थे।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ऐसा न किया करो, नमाज़ के लिए जब भी आओ पूरे सुकून के साथ आओ। जितनी मिल जाए उसको इमाम के साथ पढ़ लो, और जितनी छूट जाए वह बाद में पूरी कर लो।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) 'ख़रीदना-बेचना छोड़ दो' का मतलब सिर्फ़ ख़रीदना-बेचना ही छोड़ना नहीं है, बल्कि नमाज़ के लिए जाने की फ़िक्र और एहतिमाम के सिवा हर दूसरा काम छोड़ देना है। 'बैअ’ (ख़रीदना-बेचना) का ज़िक्र ख़ास तौर पर सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि जुमे के दिन तिजारत ख़ूब चमकती थी, आसपास की बस्तियों के लोग सिमटकर एक जगह जमा हो जाते थे। कारोबारी भी अपना माल ले-लेकर वहाँ पहुँच जाते थे। लोग भी अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने में लग जाते थे। लेकिन मनाही का हुक्म सिर्फ़ ख़रीदने-बेचने तक महदूद नहीं है, बल्कि दूसरे तमाम काम भी इसके तहत आ जाते हैं, और चूँकि अल्लाह तआला ने साफ़-साफ़ उनसे मना फ़रमा दिया है, इसलिए इस्लामी फ़क़ीहों की इसपर एक राय है कि जुमे की अज़ान के बाद ख़रीदना-बेचना और हर तरह का कारोबार हराम है। यह हुक्म पूरी तरह जुमे की नमाज़ के फ़र्ज़ होने की दलील देता है। एक तो अज़ान सुनते ही उसके लिए दौड़ने की ताकीद अपने-आपमें ख़ुद इसकी दलील है। फिर ख़रीदने-बेचने जैसी हलाल चीज़ का उसकी ख़ातिर हराम हो जाना यह ज़ाहिर करता है कि वह फ़र्ज़ है। इसके अलावा ज़ुह्‍र की फ़र्ज़ नमाज़ का जुमे के दिन ख़त्म हो जाना और जुमे की नमाज़ का उसकी जगह ले लेना भी उसके फ़र्ज़ होने का खुला सुबूत है। क्योंकि एक फ़र्ज़ उसी वक़्त ख़त्म होता है जबकि उसकी जगह लेनेवाला फ़र्ज़ उससे ज़्यादा अहम हो। इसी की ताईद बहुत-सी हदीसें करती हैं, जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जुमे की बहुत सख़्त ताकीद की है और उसे साफ़ अलफ़ाज़ में फ़र्ज़ क़रार दिया है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरा जी चाहता है कि किसी और शख़्स को अपनी जगह नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़ा कर दूँ और जाकर उन लोगों के घर जला दूँ जो जुमे की नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं आते।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) कहते हैं कि हमने जुमे के ख़ुतबे में नबी (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है— "लोगों को चाहिए कि जुमा छोड़ने से बाज़ आ जाएँ, वरना अल्लाह उनके दिलों पर ठप्पा लगा देगा और वे बे-परवाह होकर रह जाएँगे।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम, नसई) हज़रत अबुल-जाद ज़मरी (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबी-औफ़ा (रज़ि०) की रिवायतों में नबी (सल्ल०) के जो फ़रमान नक़्ल हुए हैं उनसे मालूम होता है कि जो शख़्स किसी हक़ीक़ी ज़रूरत और जाइज़ मजबूरी के बिना, सिर्फ़ बे-परवाई की वजह से लगातार तीन जुमे छोड़ दे, अल्लाह उसके दिल पर मुहर लगा देता है, बल्कि एक रिवायत में तो अलफ़ाज़ ये हैं कि “अल्लाह उसके दिल को मुनाफ़िक़ का दिल बना देता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, दारमी, हाकिम, इब्ने-हिब्बान, बज़्ज़ार, तबरानी फ़िल-कबीर) हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “आज से लेकर क़ियामत तक जुमा तुम लोगों पर फ़र्ज़ है। जो शख़्स उसे एक मामूली चीज़ समझकर या उसका हक़ न मानकर उसे छोड़ दे, ख़ुदा उसका हाल दुरुस्त न करे, न उसे बरकत दे। ख़ूब सुन रखो, उसकी नमाज़ नमाज़ नहीं, उसकी ज़कात ज़कात नहीं, उसका हज हज नहीं, उसका रोज़ा रोज़ा नहीं, उसकी कोई नेकी नेकी नहीं, जब तक कि वह तौबा न करे। फिर जो तौबा कर ले, अल्लाह उसे माफ़ करनेवाला है।” (हदीस : इब्ने-माजा, बज़्ज़ार) इसी से मिलते-जुलते मानीवाली एक रिवायत तबरानी ने औसत में इब्ने-उमर (रज़ि०) से नक़्ल की है। इसके अलावा बहुत-सी रिवायतें हैं जिनमें नबी (सल्ल०) ने जुमे को साफ़ अलफ़ाज़ में फ़र्ज़ और वाजिब हक़ क़रार दिया है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "जुमा हर उस शख़्स पर फ़र्ज़ है जो उसकी अज़ान सुने।” (हदीस : अबू-दाऊद, दारे-क़ुतनी) जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) कहते हैं कि आप (सल्ल०) ने खुतबे में फ़रमाया— "जान लो कि अल्लाह ने तुमपर जुमे की नमाज़ फ़र्ज़ की है।" (हदीस : बैहक़ी) अलबत्ता नबी (सल्ल०) ने औरत, बच्चे, ग़ुलाम, बीमार और मुसाफ़िर को इस फ़र्ज़ से अलग क़रार दिया है। हज़रत हफ़सा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “जुमे के लिए निकलना हर बालिग़ पर वाजिब है।” (हदीस : नसई) हज़रत तारिक़-बिन-शिहाब की रिवायत में आप (सल्ल०) का फरमान यह है— “जुमा हर मुसलमान पर जमाअत के साथ पढ़ना वाजिब है, सिवाय ग़ुलाम, औरत, बच्चे और बीमार के।” (हदीस : अबू-दाऊद, हाकिम) हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत में नबी (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं— “जो शख़्स अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो उसपर जुमा फ़र्ज़ है, सिवाय यह कि वह औरत हो, या मुसाफ़िर हो, या ग़ुलाम हो, या बीमार हो।” (हदीस : दारे-क़ुतनी, बैहक़ी) क़ुरआन और हदीस के इन ही साफ़ बयानों की वजह से जुमे के फ़र्ज़ होने पर पूरी मुस्लिम उम्मत एक राय है।
فَإِذَا قُضِيَتِ ٱلصَّلَوٰةُ فَٱنتَشِرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 9
(10) फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ और अल्लाह का फ़ज़्ल तलाश करो।16 और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो,17 शायद कि तुम्हें कामयाबी नसीब हो जाए।18
16. इसका मतलब यह नहीं है कि जुमे की नमाज़ के बाद ज़मीन में फैल जाना और रोज़ी तलाश करने की दौड़-धूप में लग जाना ज़रूरी है। बल्कि यह बात इजाज़त के मानी में है। चूँकि जुमे की अज़ान सुनकर सब कारोबार छोड़ देने का हुक्म दिया गया था इसलिए फ़रमाया गया कि नमाज़ ख़त्म हो जाने के बाद तुम्हें इजाज़त है कि बिखर जाओ और अपने जो कारोबार भी करना चाहो करो। यह ऐसा ही है जैसे एहराम की हालत में शिकार की मनाही करने के बाद फ़रमाया, “जब एहराम खोल चुको तो शिकार करो,” (सूरा-5 माइदा, आयत-2)। इसका मतलब यह नहीं है कि एहराम खोलने के बाद ज़रूर शिकार करो। बल्कि इससे मुराद यह है कि इसके बाद शिकार करने पर कोई पाबन्दी बाक़ी नहीं रहती, चाहो तो शिकार कर सकते हो। या मसलन सूरा-4 निसा, आयत-3 में एक से ज़्यादा निकाह की इजाज़त 'फ़नकिहू मा ता-ब लकुम' (तो निकाह करो उनसे जो तुम्हें पसन्द हों) के अलफ़ाज़ में दी गई है। यहाँ अगरचे 'फ़नकिहू' (तो निकाह करो) हुक्म के अन्दाज़ में है, मगर किसी ने भी इसको हुक्म के मानी में नहीं लिया है। इससे यह उसूली मसला निकलता है कि हुक्म का अन्दाज़ हमेशा वाजिब ही के मानी में नहीं होता, बल्कि यह कभी इजाज़त और कभी पसन्दीदा के मानी में का भी होता है। यह बात मौक़ा-महल से मालूम होती है कि कहाँ यह हुक्म के मानी में है और कहाँ इजाज़त के मानी में और कहाँ इससे मुराद यह होता है कि अल्लाह को ऐसा करना पसन्द है, लेकिन यह मुराद नहीं होता कि यह काम फ़र्ज़ और वाजिब है। ख़ुद इसी जुमले के बाद फ़ौरन ही दूसरे जुमले में कहा गया है, 'वज़कुरुल्ला-ह कसीरन' (और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो)। यहाँ भी हुक्म का अन्दाज़ मौज़ूद है। मगर ज़ाहिर है कि यह पसन्दीदगी के मानी में है न कि वाजिब होने के मानी में। इस मक़ाम पर यह बात भी बयान के क़ाबिल है कि अगरचे क़ुरआन में यहूदियों के सब्त और ईसाइयों के इतवार की तरह जुमे को आम छुट्टी का दिन क़रार नहीं दिया गया है, लेकिन इस बात से कोई शख़्स भी इनकार नहीं कर सकता कि जुमा ठीक उसी तरह मुसलमानों की मिल्लत की पहचान है जिस तरह शनिवार और इतवार यहूदियों और ईसाइयों की मिल्लतों की पहचान हैं। और अगर हफ़्ते में कोई एक दिन आम छुट्टी के लिए मुक़र्रर करना एक तमद्दुनी (सांस्कृतिक) ज़रूरत हो तो जिस तरह यहूदी इसके लिए फ़ितरी तौर पर हफ़्ते (शनिवार) को और ईसाई इतवार को चुनते हैं उसी तरह मुसलमान (अगर उसकी फ़ितरत में कुछ इस्लाम का एहसास मौज़ूद हो) लाज़िमी तौर से इस ग़रज़ के लिए जुमा ही को चुनेगा, बल्कि ईसाइयों ने तो दूसरे ऐसे मुल्कों पर भी अपने इतवार को हावी करने में झिझक न महसूस की जहाँ ईसाई आबादी आटे में नमक के बराबर भी न थी। यहूदियों ने जब फ़िलस्तीन में अपनी इसराईली हुकूमत क़ायम की तो सबसे पहला काम जो उन्होंने किया वह यह था कि इतवार के बजाय शनिवार को छुट्टी का दिन मुक़र्रर किया। बँटवारे से पहले भारत में भारत के ब्रिटिश और मुसलमान रियासतों (राज्यों) के दरमियान नुमायाँ फ़र्क़ यह नज़र आता था कि देश के एक हिस्से में इतवार को छुट्टी होती थी और दूसरे हिस्से में जुमे की। अलबत्ता जहाँ मुसलमानों के अन्दर इस्लामी एहसास मौज़ूद नहीं होता वहाँ वे अपने हाथ में हुकूमत आने के बाद भी इतवार ही को सीने से लगाए रहते हैं, जैसा कि हम पाकिस्तान में देख रहे हैं। बल्कि इससे ज़्यादा जब बेहिसी (संवेदनहीनता) छा जाती है तो जुमे की छुट्टी ख़त्म करके इतवार की छुट्टी को रिवाज दिया जाता है, जैसा कि मुस्तफ़ा कमाल ने तुर्की में किया।
17. यानी अपने कारोबार में लगकर भी अल्लाह को भूलो नहीं, बल्कि हर हाल में उसको याद रखो और उसका ज़िक्र करते रहो। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-63)
18. क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर एक हिदायत या एक नसीहत या एक हुक्म देने के बाद 'लअल्लकुम तुफ़लिहून' (शायद कि तुम कामयाबी पा जाओ!) और 'लअल्लकुम तुर्हमून' (शायद कि तुमपर रहम किया जाए!) के अलफ़ाज़ कहे गए हैं। इस तरह के मौक़े पर शायद का लफ़्ज़ इस्तेमाल करने का मतलब यह नहीं होता कि अल्लाह तआला को (अल्लाह की पनाह!) कोई शक है, बल्कि यह अस्ल में शाही अन्दाज़े-बयान है। यह ऐसा ही है जैसे कोई मेहरबान मालिक अपने नौकर से कहे कि तुम फ़ुलाँ काम करो, शायद कि तुम्हें तरक़्क़ी मिल जाए! इसमें एक हल्का-सा वादा छिपा होता है, जिसकी उम्मीद में नौकर दिल लगाकर बड़े शौक़ के साथ वह काम करता है। किसी बादशाह की ज़बान से किसी नौकर के लिए यह जुमला निकल जाए तो उसके घर ख़ुशी की शहनाइयाँ बज जाती हैं। यहाँ चूँकि जुमे के बारे में हुक्म ख़त्म हो गए हैं, इसलिए मुनासिब मालूम होता है कि चारों मसलकों में क़ुरआन, हदीस, सहाबा के अमल और इस्लाम के आम उसूलों से जो जुमे के सिलसिले में हुक्म तरतीब दिए गए हैं उनका ख़ुलासा दे दिया जाए। हनफ़ी मसलक के आलिमों के नज़दीक जुमे का वक़्त वही है जो ज़ुह्‍र का वक़्त है। न इससे पहले जुमा हो सकता है, न इसके बाद। 'बैअ' (ख़रीदने-बेचने) का हराम होना पहली अज़ान ही से शुरू हो जाता है, न कि उस दूसरी अज़ान से जो इमाम के मिम्बर पर बैठने के बाद दी जाती है, क्योंकि क़ुरआन में 'जब जुमे के दिन नमाज़ के लिए पुकारा जाए' के अलफ़ाज़ बग़ैर किसी शर्त और क़ैद आम अन्दाज़ में कहे गए हैं। इसलिए सूरज ढलने के बाद जब जुमे का वक़्त शुरू हो जाए उस वक़्त जो अज़ान भी जुमे की नमाज़ के लिए दी जाए, लोगों को उसे सुनकर ख़रीदना-बेचना छोड़ देना चाहिए। लेकिन अगर किसी शख़्स ने उस वक़्त कुछ लिया हो या कुछ बेचा हो तो वह ख़रीदना-बेचना नाजाइज़ या 'फ़स्ख़' (रद्द) न हो जाएगा, बल्कि यह सिर्फ़ एक गुनाह होगा। जुमा हर बस्ती में नहीं, बल्कि सिर्फ़ 'मिस्र-जामे' में हो सकता है, और 'मिस्र-जामे' का मतलब यह है कि वह शहर जिसमें बाज़ार हों, अम्न क़ायम करने का इन्तिज़ाम मौज़ूद हो, और आबादी इतनी हो कि अगर उसकी बड़ी-से-बड़ी मस्जिद में भी जुमे की नमाज़ अदा कर सकने वाले सब लोग जमा हो जाएँ तो उसमें समा न सकें। जो लोग शहर से बाहर रहते हों उनपर जुमा उस सूरत में शहर में आकर पढ़ना फ़र्ज़ है जबकि उन तक अज़ान की आवाज़ पहुँचती हो, या वे ज़्यादा-से-ज़्यादा शहर से छह (6) मील के फ़ासले पर हों। नमाज़ के लिए ज़रूरी नहीं कि वह मस्जिद ही में हो। वह खुले मैदान में भी हो सकती है और ऐसे मैदान में भी हो सकती है जो शहर के बाहर हो, मगर उसका एक हिस्सा कहलाता हो। जुमे की नमाज़ सिर्फ़ उस जगह हो सकती है जहाँ हर शख़्स लिए शरीक होने की इजाज़त हो। किसी बन्द जगह, जहाँ हर एक को आने की इजाज़त न हो, चाहे कितने ही आदमी जमा हो जाएँ, जुमा सही नहीं हो सकता। जुमा के सही होने के लिए ज़रूरी है कि जमाअत में कम-से-कम (अबू-हनीफ़ा रह० के मुताबिक़) इमाम के सिवा तीन आदमी, या (इमाम अबू-यूसुफ़ के मुताबिक़) इमाम समेत दो आदमी ऐसे मौज़ूद हों जिनपर जुमा फ़र्ज़ है। जिन मजबूरियों की बुनियाद पर एक शख़्स पर जुमा फ़र्ज़ नहीं रहता वे ये हैं : आदमी सफ़र की हालत में हो, या ऐसा बीमार हो कि चलकर न आ सकता हो, या दोनों टाँगों से मजबूर हो, या अन्धा हो (मगर इमाम अबू-यूसुफ़ रह० और इमाम मुहम्मद रह० के नज़दीक अन्धे पर से सिर्फ़ उस वक़्त जुमे का फ़र्ज़ होना ख़त्म होता है जबकि वह कोई ऐसा आदमी न पाता हो जो उसे चलाकर ले जाए), या किसी ज़ालिम से उसको जान और इज़्ज़त का, या नाक़ाबिले-बरदाश्त नुक़सान का ख़तरा हो, या सख़्त बारिश और कीचड़ और पानी हो, या आदमी क़ैद की हालत में हो। क़ैदियों और मजबूरों (अपंगों) के लिए यह बात मकरूह (नापसन्दीदा) है कि वे जुमे के दिन ज़ुह्‍र की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ें। जिन लोगों का जुमा छूट गया हो उनके लिए भी ज़ुह्‍र की नमाज़ जमाअत से पढ़ना मकरूह है। ख़ुतबा देना जुमा के सही होने की शर्तों में से एक शर्त है, क्योंकि नबी (सल्ल०) ने कभी जुमे की नमाज़ ख़ुतबे के बिना नहीं पढ़ी है, और वह लाज़िमी तौर से नमाज़ से पहले होना चाहिए, और दो ख़ुतबे होने चाहिएँ। ख़ुतबे के लिए जब इमाम मिम्बर की तरफ़ जाए, उस वक़्त से ख़ुतबा ख़त्म होने तक हर तरह की बातचीत करना मना है, और नमाज़ भी उस वक़्त नहीं पढ़नी चाहिए, चाहे इमाम की आवाज़ उस जगह तक पहुँचती हो या न पहुँचती हो जहाँ कोई शख़्स बैठा हो। (हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, अल-फ़िक्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ, उम्दतुल-क़ारी) शाफ़िई मसलक के आलिमों के नज़दीक जुमे का वक़्त वही है जो ज़ुह्‍र का है। ख़रीदना-बेचना हराम होना और नमाज़ के लिए निकल पड़ने का वाजिब हो जाना उस वक़्त से शुरू होता है जब दूसरी अज़ान हो (यानी वह अज़ान जो इमाम के मिम्बर पर बैठने के बाद दी जाती है)। अलबत्ता अगर कोई शख़्स उस वक़्त ख़रीदारी कर ले या कुछ बेच ले तो वह फ़स्ख़ (रद्द) नहीं होती। जुमा हर उस बस्ती में हो सकता है जिसके मुस्तक़िल बाशिन्दों में 40 ऐसे आदमी मौज़ूद हों जिनपर जुमे की नमाज़ फ़र्ज़ है। बस्ती से बाहर के उन लोगों पर जुमे के लिए हाज़िर होना लाज़िम है जिन तक अज़ान की आवाज़ पहुँच सकती हो। जुमा लाज़िमी तौर से बस्ती की हदों में होना चाहिए, मगर यह जरूरी नहीं कि वह मस्जिद ही में पढ़ा जाए। जो लोग रेगिस्तान में ख़ेमों के अन्दर रहते हों उनपर जुमा वाजिब नहीं है। जुमे के सही होने के लिए ज़रूरी है कि जमाअत में इमाम समेत कम-से-कम 40 ऐसे आदमी शरीक हों जिनपर जुमा फ़र्ज़ है। जिन मजबूरियों की बुनियाद पर किसी शख़्स पर से जुमे का फ़र्ज़ होना ख़त्म हो जाता है वे ये हैं : सफ़र की हालत में हो, या किसी जगह पर चार दिन या उससे कम ठहरने का इरादा रखता हो, बशर्ते कि सफ़र जाइज़ क़िस्म का हो। ऐसा बूढ़ा या बीमार हो कि सवारी पर भी जुमे के लिए न जा सकता हो। अन्धा हो और कोई ऐसा आदमी न पाता हो जो उसे नमाज़ के लिए ले जाए। जान-माल या आबरू का डर लगा हो। क़ैद की हालत में हो, इस शर्त के साथ कि उसकी क़ैद उसके अपने किसी क़ुसूर की वजह से न हो। नमाज़ से पहले दो ख़ुतबे होने चाहिएँ। खुतबे के दौरान में ख़ामोश रहना सुन्नत है, मगर बात करना हराम नहीं है। जो शख़्स इमाम से इतना क़रीब बैठा हो कि ख़ुतबा सुन सकता हो उसके लिए बोलना मकरूह (नापसन्दीदा) है, लेकिन वह सलाम का जवाब दे सकता है, और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का ज़िक्र सुनकर ज़ोर की आवाज़ से दुरूद पढ़ सकता है। (मुग़निल-मुहताज, अल-फ़िक़्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ) मालिकी मसलक के आलिमों के नज़दीक जुमे का वक़्त सूरज ढलने से शुरू होकर मग़रिब से इतने पहले तक है कि सूरज डूबने से पहले-पहले ख़ुतबा और नमाज़ ख़त्म हो जाए। ख़रीद-बिक्री का हराम होना और नमाज़ के लिए एहतिमाम का वाजिब होना दूसरी अज़ान से शुरू होता है। उसके बाद अगर ख़रीद-बिक्री हो तो वह फ़ासिद (अवैध) है और फ़स्ख़ (रद्द) होगी। जुमा सिर्फ़ उन बस्तियों में हो सकता है जिनके रहनेवाले वहाँ मुस्तक़िल तौर से घर बनाकर रहते हों, और जाड़े-गर्मी में कहीं और न चले जाते हों, और उनकी ज़रूरतें उसी बस्ती में पूरी होती हों, और अपनी तादाद की बुनियाद पर वे अपनी हिफ़ाज़त कर सकते हों। वक़्ती (अस्थायी) ठिकानों में चाहे कितने ही लोग हों और चाहे कितनी ही मुद्दत ठहरें, जुमा क़ायम नहीं किया जा सकता। जिस बस्ती में जुमा क़ायम किया जाता हो उससे तीन मील के एक फ़ासिले तक रहनेवाले लोगों पर जुमे में हाज़िर होना फ़र्ज है। जुमे की नमाज़ सिर्फ़ ऐसी मस्जिद में हो सकती है जो बस्ती के अन्दर या उससे मिली हुई हो और जिसकी इमारत बस्ती के आम बशिन्दों के घरों से कमतर दरजे की न हो। कुछ मालिकी आलिमों ने यह शर्त भी लगाई है कि मस्जिद छतवाली होनी चाहिए और उसमें पाँच वक़्तों की नमाज़ का एहतिमाम भी होना चाहिए। लेकिन मालिकी मसलक के आलिमों का ज़्यादा सही मसलक यह है कि किसी मस्जिद में जुमे के सही होने के लिए उसका छतवाली होना शर्त नहीं है, और ऐसी मस्जिद में भी जुमा हो सकता है जो सिर्फ़ जुमे की नमाज़ के लिए बनाई गई हो और पाँच वक़्तों की नमाज़ का उसमें एहतिमाम न हो। जुमे की नमाज़ सही होने के लिए जमाअत में इमाम के सिवा कम-से-कम 12 ऐसे आदमियों का मौज़ूद होना ज़रूरी है जिनपर जुमा फ़र्ज़ हो। जिन मजबूरियों की बुनियाद पर किसी शख़्स पर से जुमे का फ़र्ज़ होना ख़त्म हो जाता है वे ये हैं : सफ़र की हालत में हो या सफ़र की हालत में किसी जगह चार दिन से कम ठहरने का इरादा रखता हो। ऐसा बीमार हो कि मस्जिद आना उसके लिए दुश्वार हो। उसकी माँ या बाप या बीवी या बच्चा बीमार हो, या वह किसी ऐसे अजनबी बीमार की तीमारदारी कर रहा हो, जिसका और कोई तीमारदार न हो, या उसका कोई क़रीबी रिश्तेदार सख़्त बीमारी में मुब्तला हो या मरने के क़रीब हो। उसके ऐसे माल को, जिसका नुक़सान बरदाश्त के क़ाबिल न हो, ख़तरा लगा हो, या उसे अपनी जान या आबरू का ख़तरा हो, या वह मार या क़ैद के डर से छिपा हुआ हो, बशर्ते कि वह इस मामले में मज़लूम हो। सख़्त बारिश और कीचड़, या सख़्त गर्मी या सर्दी मस्जिद तक पहुँचने में रुकावट हो। दो ख़ुतबे नमाज़ से पहले लाज़िम हैं, यहाँ तक कि अगर नमाज़ के बाद ख़ुतबा हो तो नमाज़ को दोहराना ज़रूरी है। और ये ख़ुतबे लाज़िमी तौर से मस्जिद के अन्दर होने चाहिएँ। ख़ुतबे के लिए जब इमाम मिम्बर की तरफ़ बढ़े उस वक़्त से नफ़्ल पढ़ना हराम है और जब ख़ुतबा शुरू हो तो बात करना भी हराम है, चाहे आदमी ख़ुतबे की आवाज़ न सुन रहा हो। लेकिन अगर ख़ुतबा देनेवाला अपने ख़ुतबे में ऐसी बेकार बातें करे जो ख़ुतबे के निज़ाम से बाहर की हों, या किसी ऐसे शख़्स को गालियाँ दे जो गाली का हक़दार न हो, या किसी ऐसे शख़्स की तारीफ़ें शुरू (कर दे जिसकी तारीफ़ जाइज़ न हो, या ख़ुतबे से ग़ैर-मुताल्लिक़ कोई चीज़ पढ़ने लगे, तो लोगों को उसपर आवाज़ उठाने का हक़ है। इसके अलावा ख़ुतबे में वक़्त के बादशाह के लिए दुआ मकरूह (नापसन्दीदा) है सिवाय यह कि ख़ुतबा देनेवाले को अपनी जान का ख़तरा हो। ख़ुतबा देनेवाला लाज़िमी तौर से वही शख़्स होना चाहिए जो नमाज़ पढ़ाए। अगर ख़ुतबा देनेवाले के सिवा किसी और ने नमाज़ पढ़ाई तो वह न होगी। (हाशियतुद-दुसूकी अलश-शरहिल-कबीर, अहकामुल-क़ुरआन इब्ने-अरबी, अल-फ़िक़्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ) हंबली मसलक के आलिमों के नज़दीक जुमे की नमाज़ का वक़्त सुबह को सूरज के एक नेज़ा जितना बुलन्द होने के बाद से अस्र का वक़्त शुरू होने तक है। लेकिन ज़वाल (सूरज ढलने) से पहले जुमा सिर्फ़ जाइज़ है, और सूरज ढलने के बाद वाजिब और बेहतर। ख़रीद-बिक्री के हराम होने और नमाज़ के लिए निकलने के वाजिब होने का वक़्त दूसरी अज़ान से शुरू होता है। इसके बाद जो कारोबारी लेन-देन हो वह सिरे से होता नहीं। जुमा सिर्फ़ उस जगह हो सकता है जहाँ 40 ऐसे आदमी जिनपर जुमा फ़र्ज़ हो, मुस्तक़िल तौर से घरों में (न कि ख़ेमों में) आबाद हों, यानी जाड़े और गर्मी में कहीं और न चले जाते हों। इस ग़रज़ के लिए बस्ती के घरों और मुहल्लों के आपस में मिले हुए या अलग-अलग होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, इन सबके मजमूए (संग्रह) का नाम एक हो तो वह एक ही बस्ती है चाहे उसके टुकड़े एक-दूसरे से मीलों के फ़ासिले पर पाए जाते हों। ऐसी बस्ती से जो लोग तीन मील के अन्दर रहते हों उनपर जुमा के लिए हाज़िर होना फ़र्ज़ है। जमाअत में इमाम समेत 40 आदमियों का शरीक होना ज़रूरी है। नमाज़ के लिए ज़रूरी नहीं है कि वह मस्जिद ही में हो। खुले मैदान में भी हो सकती है। जिन मजबूरियों की वजह से किसी शख़्स के लिए जुमा फ़र्ज़ नहीं रहता वे ये हैं : मुसाफ़िर हो और जुमे की बस्ती में चार दिन या उससे कम ठहरने का इरादा रखता हो। ऐसा बीमार हो कि सवारी पर आना भी उसके लिए मुश्किल हो। अन्धा हो, सिवाय यह कि ख़ुद रास्ता टटोलकर आ सकता हो। किसी दूसरे शख़्स के सहारे आना अन्धे के लिए वाजिब नहीं है। सख़्त सर्दी या सख़्त गर्मी या सख़्त बारिश और कीचड़ की वजह से नमाज़ की जगह पहुँचने में रुकावट हो। किसी ज़ालिम के ज़ुल्म से बचने के लिए छिपा हुआ हो। जान या आबरू का ख़तरा या ऐसे माली नुक़सान का डर हो जो बरदाश्त के क़ाबिल न हो। नमाज़ से पहले दो ख़ुतबे होने चाहिएँ। ख़ुतबे के दौरान में उस शख़्स के लिए बोलना हराम है जो ख़ुतबा देनेवाले के इतना क़रीब हो कि उसकी आवाज़ सुन सकता हो। अलबत्ता दूर का का आदमी जिस तक ख़ुतबा देनेवाले की आवाज़ न पहुँचती हो, बात कर सकता है। ख़ुतबा देनेवाला चाहे इनसाफ़-पसन्द हो या ग़ैर-इनसाफ़-पसन्द, लोगों को ख़ुतबे के दौरान में चुप रहना चाहिए। अगर जुमे के दिन ईद हो जाए तो जो लोग ईद पढ़ चुके हों उनपर से जुमे का का फ़र्ज़ ख़त्म हो जाता है। इस मसले में हंबली आलिमों का मसलक तीनों इमामों के मसलक से अलग है। (ग़ायतुल-मुन्तहा, अल-फ़िक़्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ) इस बात में तमाम फ़क़ीहों की राय एक है कि जिस शख़्स पर जुमा फ़र्ज़ नहीं है वह अगर जुमे की नमाज़ में शरीक हो जाए तो उसकी नमाज़ सही है और उसके लिए फिर ज़ुह्‍र पढ़ना फ़र्ज़ नहीं रहता।
وَإِذَا رَأَوۡاْ تِجَٰرَةً أَوۡ لَهۡوًا ٱنفَضُّوٓاْ إِلَيۡهَا وَتَرَكُوكَ قَآئِمٗاۚ قُلۡ مَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ مِّنَ ٱللَّهۡوِ وَمِنَ ٱلتِّجَٰرَةِۚ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 10
(11) और जब उन्होंने तिजारत और खेल-तमाशा होते देखा तो उसकी तरफ़ लपक गए और तुम्हें खड़ा छोड़ दिया।19 इनसे कहो, “जो कुछ अल्लाह के पास है वह खेल-तमाशे और तिजारत से बेहतर है।20 और अल्लाह सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला है।"21
19. यह है वह वाक़िआ जिसकी वजह से ऊपर की आयतों में जुमे के हुक्म बयान किए गए हैं। (उसका क़िस्सा जो हदीस की किताबों में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), हज़रत अबू-मालिक (रज़ि०), हज़रत हसन बसरी (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०), क़तादा (रह०), और मुक़ातिल-बिन-हय्यान (रह०) से नक़्ल हुआ है, यह है कि मदीना तय्यिबा में शाम (सीरिया) से एक तिजारती क़ाफ़िला ठीक जुमे की नमाज़ के वक़्त आया और ढोल-ताशे बजाने शुरू किए, ताकि बस्ती के लोगों को उसके आने की ख़बर हो जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उस वक़्त ख़ुतबा दे रहे थे। ढोल-ताशों की आवाज़ें सुनकर लोग बेचैन हो गए और 12 आदमियों के सिवा बाक़ी सब वक़ीअ की तरफ़ दौड़ गए, जहाँ क़ाफ़िला उतरा हुआ था। इस क़िस्से की रिवायतों में सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द रिवायत हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की है जिसे इमाम अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, अबू-उवाना, अब्द-बिन-हुमैद, अबू-याला वग़ैरा ने कई सनदों से नक़्ल किया है। इसमें कमज़ोरी सिर्फ़ यह है कि किसी रिवायत में बयान यह किया गया है कि यह वाक़िआ नमाज़ की हालत में पेश आया था, और किसी में यह है कि यह उस वक़्त पेश आया जब नबी (सल्ल०) ख़ुतबा दे रहे थे। लेकिन हज़रत जाबिर (रज़ि०) और दूसरे सहाबा और ताबिईन की तमाम रिवायतों को जमा करने से सही बात यह मालूम होती है कि यह ख़ुतबे के दौरान का वाक़िआ है और हज़रत जाबिर (रज़ि०) ने जहाँ यह कहा है कि यह जुमे की नमाज़ के दौरान पेश आया, वहाँ अस्ल में उन्होंने ख़ुतबे और नमाज़ को मिलाकर पूरे अमल को जुमे की नमाज़ कहा है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत में बयान किया गया है कि उस वक़्त 12 मर्दों के साथ 7 औरतें बाक़ी रह गई थीं, (इब्ने-मरदुवैह)। क़तादा (रह०) का बयान है कि 12 मर्दों के साथ एक औरत थी, (इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम)। दारे-क़ुतनी की एक रिवायत में 40 लोग और अब्द-बिन-हुमैद (रज़ि०) की रिवायत में 7 लोग बयान किए गए हैं। और फ़र्रा ने 8 लोग लिखे हैं। लेकिन ये सब ज़ईफ़ (कमज़ोर) रिवायतें हैं। और क़तादा (रह०) की यह रिवायत भी ज़ईफ़ है कि इस तरह का वाक़िआ तीन बार पेश आया था, (इब्ने जरीर)। भरोसेमन्द रिवायत हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह की है जिसमें बाक़ी रह जानेवालों की तादाद बताई गई है और क़तादा की एक रिवायत के सिवा बाक़ी तमाम सहाबा और ताबिईन की रिवायतें इसपर मुत्तफ़िक है कि यह वाकिआ सिर्फ़ एक बार पेश आया। बाक़ी रह जानेवालों के बारे में अलग-अलग रिवायतों को जमा करने से मालूम होता है कि इनमें हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०), हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०), हज़रत सालिम मौला हुजैफ़ा (रज़ि०) और हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) शामिल थे। हाफ़िज़ अबू-याला ने हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की जो रिवायत नक़्ल की है उसमें बयान किया गया है कि जब लोग इस तरह निकलकर चले गए और सिर्फ़ 12 लोग बाक़ी रह गए तो उनको मुख़ातब करके नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर तुम सब चले जाते और एक भी बाक़ी न रहता तो यह घाटी आग से बह निकलती।" इसी से मिलती-जुलती बात इब्ने-मरदुवैह ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से और इब्ने-जरीर ने क़तादा (रह०) से नक़्ल की है। शिया लोगों ने इस वाक़िए को भी सहाबा (रज़ि०) पर तान करने के लिए इस्तेमाल किया है। वे कहते हैं कि सहाबा की इतनी बड़ी तादाद का ख़ुतबे और नमाज़ को छोड़कर तिजारत और खेल-तमाशे की तरफ़ दौड़ जाना इस बात का सुबूत है कि वे दुनिया को आख़िरत पर ज़्यादा अहमियत देते थे। लेकिन यह एक बे-मतलब का एतिराज़ है जो सिर्फ़ हक़ीक़तों से आँखें बन्द करके ही किया जा सकता है। अस्ल में यह वाक़िआ हिजरत के बाद क़रीबी ज़माने ही में पेश आया था। उस वक़्त एक तरफ़ तो सहाबा की इजतिमाई तरबियत इबतिदाई मरहलों में थी। और दूसरी तरफ़ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने अपने असर से मदीना तय्यिबा के रहनेवालों की सख़्त माली नाकाबन्दी कर रखी थी, जिसकी वजह से मदीना में ज़रूरत की चीज़ें मिलनी मुश्किल हो गई थीं। हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि उस वक़्त मदीना में लोग भूखों मर रहे थे और क़ीमतें बहुत चढ़ी हुई थीं, (इब्ने-जरीर)। इस हालत में जब एक तिजारती क़ाफ़िला आया तो लोग इस अन्देशे से कि कहीं हमारे नमाज़ से निबटते-निबटते सामान बिक न जाए, घबराकर उसकी तरफ़ दौड़ गए। यह एक ऐसी कमज़ोरी और ग़लती थी जो उस वक़्त अचानक तरबियत की कमी और हालात की सख़्ती की वजह से हो गई थी। लेकिन जो शख़्स भी इन सहाबा (रज़ि०) की वे क़ुरबानियाँ देखेगा जो उसके बाद उन्होंने इस्लाम के लिए कीं, और यह देखेगा कि इबादतों और मामलों में उनकी जिन्दगियाँ कैसे ज़बरदस्त तक़्वा (परहेज़गारी) की गवाही देती हैं, वह हरगिज़ यह इलज़ाम रखने की हिम्मत न कर सकेगा कि उनके अन्दर दुनिया को आख़िरत पर अहमियत देने की कोई बीमारी पाई जाती थी, सिवाय यह कि उसके अपने दिल में सहाबा (रज़ि०) से जलन और दुश्मनी का रोग पाया जाता हो। अलबत्ता यह वाक़िआ जिस तरह सहाबा (रज़ि०) पर एतिराज़ करनेवालों की ताईद नहीं करता उसी तरह उन लोगों के ख़यालात की ताईद भी नहीं करता जो सहाबा (रज़ि०) की अक़ीदत में हद से आगे बढ़कर इस तरह के दावे करते हैं कि उनसे कभी कोई ग़लती ही नहीं हुई, या हुई भी हो तो उसका ज़िक्र नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनकी ग़लती का ज़िक्र करना और उसे ग़लती कहना उनकी तौहीन है, और इससे उनकी इज़्ज़त और क़द्र दिलों में बाक़ी नहीं रहती, और इसका ज़िक्र उन आयतों और हदीसों के ख़िलाफ़ है जिनमें सहाबा के अल्लाह की तरफ़ से माफ़ किए जा चुके होने और अल्लाह के पसन्दीदा होने को साफ़ तौर से बयान किया गया है। ये सारी बातें सरासर हद से आगे बढ़ी हुई हैं, जिनके लिए क़ुरआन और हदीस में कोई सनद मौज़ूद नहीं है। यहाँ हर शख़्स देख सकता है कि अल्लाह तआला ने ख़ुद इस ग़लती का ज़िक्र किया है जो सहाबा (रज़ि०) की एक बड़ी तादाद से हो गई थी। उस किताब में किया है जिसे क़ियामत तक सारी उम्मत (मुस्लिम समुदाय) को पढ़ना है। और उसी किताब में किया है जिसमें सहाबा के माफ़ किए जाने और अल्लाह के पसन्दीदा होने की बात कही गई है। फिर हदीस और तफ़सीर की तमाम किताबों में सहाबा (रज़ि०) से लेकर बाद के अहले-सुन्नत के बड़े आलिमों तक ने इस ग़लती की तफ़सीलात बयान की हैं। क्या इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने यह ज़िक्र उन ही सहाबा (रज़ि०) का एहतिराम दिलों से निकालने के लिए किया है जिनका एहतिराम वह ख़ुद दिलों में क़ायम करना चाहता है? और क्या इसका मतलब यह है कि सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन और हदीस के आलिमों और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इस क़िस्से की सारी तफ़सीलात उस शरई मसले से अनजान होने की वजह से बयान कर दी हैं जो ये हद से आगे बढ़ जानेवाले लोग बयान करते हैं? और क्या सचमुच सूरा-62 जुमुआ पढ़नेवाले और उसकी तफ़सीर पढ़नेवाले लोगों के दिलों से सहाबा का एहतिराम निकल गया है? अगर इनमें से हर सवाल का जवाब 'नहीं' में है, और यक़ीनन 'नहीं' में है, तो वे सब बेजा और बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बातें हैं जो सहाबा (रज़ि०) के एहतिराम के नाम से कुछ लोग किया करते हैं। हक़ीकत यह है कि सहाबा (रज़ि०) कोई आसमानी मख़लूक़ (लोग) न थे, बल्कि इसी ज़मीन पर पैदा होनेवाले इनसानों में से थे। वे जो कुछ भी बने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तरबियत से बने। यह तरबियत धीरे-धीरे सालों-साल तक उनको दी गई। उसका जो तरीक़ा क़ुरआन और हदीस में हमको नज़र आता है वह यह है कि जब कभी उनके अन्दर कोई कमज़ोरी ज़ाहिर हुई, अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने उसी वक़्त उसकी तरफ़ ध्यान दिलाया और फ़ौरन उस ख़ास पहलू में तालीम और तरबियत का एक प्रोग्राम शुरू हो गया जिसमें वह कमज़ोरी पाई गई थी। इसी जुमे की नमाज़ के मामले में हम देखते हैं कि जब तिजारत के क़ाफ़िलेवाला वाक़िआ पेश आया तो अल्लाह तआला ने सूरा-62 जुमुआ का यह रुकू उतारकर उसपर ख़बरदार किया और जुमे के आदाब बताए। फिर इसके साथ ही रसूल (सल्ल०) ने लगातार अपने मुबारक ख़ुतबों में जुमे के फ़र्ज़ होने की अहमियत लोगों के ज़ेहन में बिठाई, जिसका ज़िक्र हम हाशिया-15 में कर आए हैं, और तफ़सील के साथ उनको आदाबे-जुमा की तालीम दी। चुनाँचे हदीसों में ये सारी हिदायतें हमको बड़ी साफ़ शक्ल में मिलती हैं। हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "हर मुसलमान को जुमे के दिन नहाना चाहिए, दाँत साफ़ करने चाहिएँ, जो अच्छे कपड़े उसके पास हों पहनने चाहिएँ, और अगर ख़ुशबू हासिल हो तो लगानी चाहिए।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई) हज़रत सलमान फ़ारिसी (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "जो मुसलमान जुमे के दिन नहाए और जहाँ तक हो ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने-आपको पाक-साफ़ करे, सर में तेल लगाए या जो ख़ुश्बू घर में मौज़ूद हो वह लगाए, फिर मस्जिद जाए और दो आदमियों को हटाकर उनके बीच में न घुसे, फिर जितनी कुछ अल्लाह भलाई का मौक़ा दे उतनी नमाज़ (नफ़्ल) पढ़े, फिर जब इमाम बोले तो चुप रहे, उसके क़ुसूर एक जुमे से दूसरे जुमे तक माफ़ हो जातें हैं।” (हदीस : बुख़ारी, मुसनद अहमद) क़रीब-क़रीब इसी बात को बयान करनेवाली रिवायतें हज़रत अबू-अय्यूब अनसारी (रज़ि०), हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत नुबैशा अल-हुज़ली ने भी नबी (सल्ल०) से नक़्ल की हैं। (मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, तबरानी) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब इमाम ख़ुतबा दे रहा हो उस वक़्त जो शख़्स बात करे वह उस गधे की तरह है जिसपर किताबें लदी हुई हों, और जो शख़्स उससे कहे कि चुप रह, उसका भी कोई जुमा नहीं हुआ।” (हदीस : मुसनद अहमद) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "अगर तुमने जुमे के दिन ख़ुतबे के दौरान में बात करनेवाले शख़्स से कहा, 'चुप रह' तो तुमने भी ग़लत हरकत की।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद) इसी से मिलती-जुलती रिवायतें इमाम अहमद, अबू-दाऊद और तबरानी ने हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत अबुद-दरदा (रज़ि०) से नक़्ल की हैं। इसके साथ आप (सल्ल०) ने ख़ुतबा देनेवालों को भी हिदायत की कि लम्बे-लम्बे ख़ुतबे देकर लोगों को तंग न करें। आप (सल्ल०) ख़ुद जुमे के दिन छोटे ख़ुतबे देते और नमाज़ भी ज़्यादा लम्बी न पढ़ाते थे। हज़रत जाबिर-बिन-समुरा (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) लम्बा ख़ुतबा नहीं देते थे। वे बस कुछ थोड़ी-सी बातें होती थीं, (हदीस : अबू-दाऊद)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबी-औफ़ा (रज़ि०) कहते हैं कि आप (सल्ल०) का ख़ुतबा नमाज़ के मुक़ाबले में कम होता था और नमाज़ उससे ज़्यादा लम्बी होती थी, (हदीस : नसई)। हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) की रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया— “आदमी की नमाज़ का लम्बा होना और खुतबे का छोटा होना इस बात की निशानी है कि वह दीन की समझ रखता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम) तक़रीबन यही बात बज़्ज़ार ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से नक़्ल की है। इन बातों से अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) ने किस तरह लोगों को जुमे के आदाब सिखाए यहाँ तक कि इस नमाज़ की वह शान क़ायम हुई जिसकी मिसाल दुनिया की किसी क़ौम की इजतिमाई इबादत में नहीं पाई जाती।
20. यह जुमला ख़ुद बता रहा है कि सहाबा (रज़ि०) से जो ग़लती हुई थी वह किस तरह की थी। अगर अल्लाह की पनाह! उसकी वजह ईमान की कमी और आख़िरत पर दुनिया को जान-बूझकर अहमियत देना होता तो अल्लाह तआला के ग़ज़ब और डाँट-फिटकार का अन्दाज़ कुछ और होता। लेकिन चूँकि ऐसी कोई ख़राबी वहाँ न थी, बल्कि जो कुछ हुआ था तरबियत की कमी की वजह से हुआ था, इसलिए पहले तालीम देनेवाले अन्दाज़ में जुमे के आदाब बताए गए, फिर उस ग़लती पर पकड़ करके तरबियत देनेवाले अन्दाज़ में समझाया गया कि जुमे का ख़ुतबा सुनने और उसकी नमाज़ अदा करने पर जो कुछ तुम्हें ख़ुदा के यहाँ मिलेगा वह इस दुनिया की तिजारत और खेल-तमाशों से बेहतर है।
21. यानी इस दुनिया में मजाज़ी (ग़ैर-हक़ीक़ी) तौर पर जो भी रोज़ी पहुँचाने का ज़रिआ बनते हैं। उन सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला अल्लाह तआला है। इस तरह के जुमले क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर आए हैं। कहीं अल्लाह तआला को 'अहसनुल-ख़ालिक़ीन' (सबसे अच्छा पैदा करनेवाला) कहा गया है, कहीं 'ख़ैरुल-ग़ाफ़िरीन' (सबसे अच्छा माफ़ करनेवाला), 'ख़ैरुल-हाकिमीन' (सबसे अच्छा हाकिम), कहीं 'ख़ैरुर-राहिमीन' (सबसे अच्छा रहम करनेवाला), कहीं 'ख़ैरुन नासिरीन' (सबसे अच्छा मददगार)। इन सब जगहों पर मख़लूक़ की तरफ़ रोज़ी, पैदा करने, माफ़ी, रहम और मदद का ताल्लुक़ मजाज़ी (ग़ैर-हक़ीक़ी) है और अल्लाह की तरफ़ हक़ीक़ी। मतलब यह है कि जो लोग भी दुनिया में तुमको तनख़ाह, मेहनताना या रोटी देते नज़र आते हैं, या जो लोग भी अपनी दस्तकारी और कारीगरी से कुछ बनाते नज़र आते हैं, या जो लोग भी दूसरों के क़ुसूर माफ़ करते और दूसरों पर रहम खाते और दूसरों की मदद करते नज़र आते हैं, अल्लाह उन सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला, पैदा करनेवाला, रहम करनेवाला, माफ़ करनेवाला और मददगार है।