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يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۚ وَهُوَ ٱلرَّحِيمُ ٱلۡغَفُورُ

 34. सबा

(मक्का में उतरी, आयतें 54)

 

परिचय

नाम

आयत 15 के वाक्यांश 'ल-क़द का-न लि स-ब-इन फ़ी मस्कनिहिम आय:'(सबा के लिए उनके अपने निवास स्थान ही में एक निशानी मौजूद थी) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें सबा का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

इसके उतरने का ठीक समय किसी विश्वस्त उल्लेख से मालूम नहीं होता। अलबत्ता वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि या तो वह मक्का का मध्यकाल है या आरंभिक काल और अगर मध्यकाल है तो शायद उसका आरंभिक समय है, जबकि ज़ुल्म और अत्याचारों में उग्रता न आई थी।

विषय और वार्ता

इस सूरा में विधर्मियों के उन आक्षेपों का उत्तर दिया गया है जो वे नबी (सल्ल०) की 'तौहीद' (एकेश्वरवाद)और आख़िरत' (परलोकवाद) की दावत पर और ख़ुद आपकी पैग़म्बरी पर अधिकतर व्यंग्य एवं उपहास और अश्लील आरोपों के रूप में पेश करते थे। उन आक्षेपों का उत्तर कहीं तो उनको नक़ल करके दिया गया है और कहीं व्याख्यान से स्वयं यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किस आक्षेप का उत्तर है। उत्तर अधिकतर स्थानों पर समझाने-बुझाने, याद दिलाने और तर्क देकर मन में उतारने की शैली में हैं, लेकिन कहीं-कहीं विधर्मियों को उनकी हठधर्मी के बुरे अंजाम से डराया भी गया है। इसी सिलसिले में हज़रत दाऊद (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और सबा क़ौम के वृत्तान्त इस उद्देश्य के लिए बयान किए गए हैं कि तुम्हारे सामने इतिहास की ये दोनों मिसालें मौजूद हैं । इन दोनों मिसालों को सामने रखकर स्वयं राय क़ायम कर लो कि तौहीद और आख़िरत के विश्वास और नेमत के प्रति कृतज्ञता-प्रदर्शन से जो जीवन बनता है, वह ज़्यादा बेहतर है या वह जीवन जो कुफ्र और शिर्क और आख़िरत के इंकार और दुनियापरस्ती की बुनियाद पर निर्मित है।

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يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۚ وَهُوَ ٱلرَّحِيمُ ٱلۡغَفُورُ ۝ 1
(2) जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है, हर चीज़ को वह जानता है। वह रहम करनेवाला और माफ़ करनेवाला है।4
4. यानी ऐसा नहीं है कि उसकी सल्तनत में अगर कोई शख़्स या गरोह उसके ख़िलाफ़ बग़ावत करने के बावजूद पकड़ा नहीं जा रहा है तो इसकी वजह यह हो कि यह दुनिया अंधेर नगरी और अल्लाह तआला इसका चौपट राजा है, बल्कि इसकी वजह यह है कि अल्लाह तआला रहम करनेवाला है और (ग़लतियों को) नज़र-अन्दाज़ कर देना उसकी आदत है। गुनाहगार और क़ुसूरवार को क़ुसूर होते ही पकड़ लेना, उसकी रोज़ी बन्द कर देना, उसके जिस्म को नाकारा कर देना, उसको आनन-फ़ानन हलाक कर देना, सब कुछ उसकी क़ुदरत में है, मगर वह ऐसा करता नहीं है। यह उसकी रहमदिली की शान का तक़ाज़ा है कि सब कुछ करने की क़ुदरत रखनेवाला होने के बावजूद वह नाफ़रमान बन्दों को ढील देता है, संभलने की मुहलत देता है और जब भी वे बाज़ आ जाएँ, माफ़ कर देता है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَأۡتِينَا ٱلسَّاعَةُۖ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتَأۡتِيَنَّكُمۡ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِۖ لَا يَعۡزُبُ عَنۡهُ مِثۡقَالُ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَآ أَصۡغَرُ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرُ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 2
(3) इनकार करनेवाले कहते हैं, क्या बात है कि क़ियामत हमपर नहीं आ रही है।5 कहो, क़सम है मेरे ग़ैब (छिपी हक़ीक़तों) का इल्म रखनेवाले परवरदिगार की, वह तुमपर आकर रहेगी।6 उससे ज़र्रा भर भी कोई चीज़ न आसमानों में छिपी है, न ज़मीन में; न ज़र्रे (कण) से बड़ी और न उससे छोटी। सब कुछ एक नुमायाँ दफ़्तर (चिट्ठ) में लिखा है।7
5. यह बात वे तंज़ (व्यंग्य) और मज़ाक़ उड़ाने के तौर पर बन-बनकर कहते थे। उनका मतलब यह था कि बहुत दिनों से यह पैग़म्बर साहब क़ियामत के आने की ख़बर सुना रहे हैं, मगर कुछ ख़बर नहीं कि वह आते-आते कहाँ रह गई। हमने इतना कुछ इन्हें झुठलाया, इतनी गुस्ताख़ियाँ कीं, इनका मज़ाक़ तक उड़ाया, मगर वह क़ियामत है कि किसी तरह नहीं आ चुकती।
6. परवरदिगार की क़सम खाते हुए उसके लिए आलिमुल-ग़ैब' (छिपी हक़ीक़तों का जानकार) की सिफ़त इस्तेमाल करने से ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात की तरफ़ इशारा हो गया कि क़ियामत का आना तो यक़ीनी है, मगर उसके आने का वक़्त ग़ैब की जानकारी रखनेवाले ख़ुदा के सिवा किसी को मालूम नहीं। यही बात क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से बयान हुई है। (तफ़सील के लिए देखिए; सूरा-7 आराफ़, आयत-187; सूरा-20 ता-हा, आयत-15; सूरा-31 लुक़मान, आयत-34; सूरा-33 अहजाब, आयत-63; सूरा-67 मुल्क, आयतें—25, 26; सूरा-78 नाज़िआत, आयतें—42 से 44)
7. यह आख़िरत के इमकान की दलीलों में से एक दलील है। जैसा कि आगे आयत-7 में आ रहा है। आख़िरत का इनकार करनेवाले जिन वजहों से मरने के बाद की ज़िन्दगी को अक़्ल से परे समझते थे, उनमें से एक बात यह थी कि जब सारे इनसान मरकर मिट्टी में रल-मिल जाएँगे और उनका ज़र्रा-ज़र्रा बिखर जाएगा तो किस तरह यह मुमकिन है कि ये अनगिनत टुकड़े फिर से इकट्ठे हों और उनको जोड़कर हम दोबारा अपने उन्हीं जिस्मों के साथ पैदा कर दिए जाएँ। इस शक को यह कहकर दूर किया गया है कि हर ज़र्रा जो कहीं गया है, ख़ुदा के रजिस्टर में वह लिखा हुआ मौजूद है और ख़ुदा को मालूम है कि क्या चीज़ कहाँ गई है। जब वह दोबारा पैदा करने का इरादा करेगा तो उसे एक-एक इनसान के जिस्म के हिस्सों को समेटकर लाने में कोई मुश्किल पेश न आएगी।
لِّيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 3
(4) और यह क़ियामत इसलिए आएगी कि बदला दे अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और भले काम करते रहे हैं। उनके लिए माफ़ी है और इज़्ज़त की रोज़ी।
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مِّن رِّجۡزٍ أَلِيمٞ ۝ 4
(5) और जिन लोगों ने हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिए ज़ोर लगाया है, उनके लिए सबसे बुरी तरह का दर्दनाक अज़ाब है।8
8. ऊपर आख़िरत के इमकान की दलील थी और यह उसके ज़रूरी होने की दलील है। मतलब यह है कि ऐसा वक़्त ज़रूर आना ही चाहिए जब ज़ालिमों को उनके ज़ुल्म का और नेक लोगों को उनकी नेकी का बदला दिया जाए। अक़्ल यह चाहती है और इनसाफ़ यह तक़ाज़ा करता है कि जो नेकी करे उसे इनाम मिले और जो बुरा काम करे, वह सजा पाए। अब अगर तुम देखते हो कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में न हर बुरे को उसकी बुराई का और न हर नेक को उसकी नेकी का पूरा बदला मिलता है, बल्कि बहुत बार तो बुराई और भलाई के उलटे नतीजे भी निकल आते हैं, तो तुम्हें मानना चाहिए कि अक़्ल और इनसाफ़ का यह लाज़िमी तक़ाज़ा किसी वक़्त ज़रूर पूरा होना चाहिए। क़ियामत और आख़िरत उसी वक़्त का नाम है। उसका आना नहीं, बल्कि न आना अक़्ल के ख़िलाफ़ और इनसाफ़ के बरख़िलाफ़ है। इस सिलसिले में एक और बात भी ऊपर की आयत से वाज़ेह होती है। इनमें बताया गया है कि ईमान और नेक अमल का नतीजा माफ़ी और इज़्ज़त की रोज़ी है और जो लोग अल्लाह के दीन को नीचा दिखाने के लिए मुख़ालिफ़ाना कोशिशें करें, उनके लिए सबसे बुरी तरह का अज़ाब है। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर हो गया कि जो शख़्स सच्चे दिल से ईमान लाएगा, उसके अमल में अगर कुछ ख़राबी भी हो तो वह इज़्ज़त की रोज़ी चाहे न पाए, माफ़ी से महरूम न रहेगा और जो शख़्स हक़ का इनकारी तो हो, मगर सच्चे दीन के मुक़ाबले में दुश्मनी और मुख़ालफ़त का रवैया भी न अपनाए, वह अज़ाब से तो न बचेगा, मगर बदतरीन अज़ाब उसके लिए नहीं है।
وَيَرَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ هُوَ ٱلۡحَقَّ وَيَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 5
(6) ऐ नबी! इल्म रखनेवाले अच्छी तरह जानते हैं कि जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर उतारा गया है, वह सरासर हक़ है और जबरदस्त ताक़त रखनेवाले और तारीफ़ के क़ाबिल ख़ुदा का रास्ता दिखाता है।9
9. यानी दुश्मन तुम्हारे पेश किए हुए हक़ को बातिल (ग़लत) साबित करने के लिए चाहे कितना ही ज़ोर लगाएँ, उनकी ये तदबीरें कामयाब नहीं हो सकतीं, क्योंकि इन बातों से वह जाहिलों ही को धोखा दे सकते हैं। इल्म रखनेवाले लोग उनके धोखे में नहीं आते।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هَلۡ نَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ يُنَبِّئُكُمۡ إِذَا مُزِّقۡتُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍ إِنَّكُمۡ لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدٍ ۝ 6
(7) (हक़ का) इनकार करनेवाले लोगों से कहते हैं, “हम बताएँ तुम्हें ऐसा आदमी जो ख़बर देता है कि जब तुम्हारे जिस्म का ज़र्रा-जर्रा बिखर चुका होगा, उस वक़्त तुम नए सिरे से पैदा कर दिए जाओगे?
أَفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَم بِهِۦ جِنَّةُۢۗ بَلِ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ فِي ٱلۡعَذَابِ وَٱلضَّلَٰلِ ٱلۡبَعِيدِ ۝ 7
(8) न जाने यह आदमी अल्लाह के नाम से झूठ गढ़ता है या इसे पागलपन हो गया है।10 नहीं, बल्कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते, वे अज़ाब में मुब्तला होनेवाले हैं और वही बुरी तरह बहके हुए हैं।11
10. क़ुरैश के सरदार इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) को झूठा मानना आम लोगों के लिए, बहुत मुश्किल है, क्योंकि सारी क़ौम आप (सल्ल०) को सच्चा जानती थी और कभी सारी उम्र किसी ने आप (सल्ल०) की ज़बान से कोई झूठी बात न सुनी थी। इसलिए वे लोगों के सामने अपना इलज़ाम इस शक्ल में पेश करते थे कि यह आदमी जब मरने के बाद की ज़िन्दगी जैसी अनहोनी बात ज़बान से निकालता है तो लाज़िमन इसका मामला दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। या तो (अल्लाह की पनाह) यह आदमी जान-बूझकर एक झूठी बात कह रहा है, या फिर यह मजनून है। लेकिन यह मजनूनवाली बात भी इतनी ही बेबुनियाद थी, जितनी झूठवाली बात थी। इसलिए कि कोई अक़्ल का अंधा ही एक आला दरजे के अक़्लमन्द आदमी को मजनून मान सकता था, वरना आँखों देखते कोई शख़्स जीती मक्खी कैसे निगल लेता। यही वजह है कि अल्लाह तआला ने इस बेहूदा बात के जवाब में किसी दलील की ज़रूरत महसूस न की और बात सिर्फ़ उनके इस अचम्भे पर की, जो मरने के बाद की ज़िन्दगी के इमकान पर वे ज़ाहिर करते थे।
11. यह उनकी बात का पहला जवाब है। इसका मतलब यह है कि नादानी, अक़्ल तो तुम्हारी मारी गई है कि जो आदमी सही सूरतेहाल से तुम्हें आगाह कर रहा है, उसकी बात नहीं मानते और सरपट उस रास्ते पर चले जा रहे हो जो सीधा जहन्नम की तरफ़ जाता है, मगर तुम्हारी बेवक़ूफ़ी की इन्तिहा का हाल यह है कि उलटा उस आदमी को मजनून और दीवाना कहते हो जो तुम्हें जहन्नम से बचाने की फ़िक्र कर रहा है।
أَفَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِن نَّشَأۡ نَخۡسِفۡ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ نُسۡقِطۡ عَلَيۡهِمۡ كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّكُلِّ عَبۡدٖ مُّنِيبٖ ۝ 8
(9) क्या इन्होंने कभी उस आसमान और ज़मीन को नहीं देखा जो इन्हें आगे और पीछे से घेरे हुए है। हम चाहें तो इन्हें ज़मीन में धँसा दें, या आसमान के कुछ टुकड़े इनपर गिरा दें।12 हक़ीक़त में इसमें एक निशानी है हर उस बन्दे के लिए जो ख़ुदा की तरफ़ रुजू करनेवाला हो।13
12. यह उनकी बात का दूसरा जवाब है। इस जवाब को समझने के लिए यह हक़ीक़त निगाह में रहनी चाहिए कि क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन जिन वजहों से मौत के बाद की ज़िन्दगी का इनकार करते थे, उनमें तीन चीज़ें सबसे ज़्यादा नुमायाँ थीं। एक यह कि वे ख़ुदा के हिसाब लेने और पूछ-गछ को नहीं मानना चाहते थे, क्योंकि उसे मान लेने के बाद दुनिया में मनमानी करने की आज़ादी उनसे छिन जाती थी। दूसरी यह कि वे क़ियामत के आने और दुनिया के निज़ाम (व्यवस्था) के छिन्न-भिन्न हो जाने और फिर से एक नई कायनात बनने को तसव्वुर से परे समझते थे। तीसरी यह कि जिन लोगों को मरे हुए सैकड़ों-हज़ारों साल बीत चुके हों और जिनकी हड्डियाँ तक चूर-चूर होकर ज़मीन, हवा और पानी में रल-मिल चुकी हों, उनका दोबारा जिस्मो-जान के साथ जी उठना उनके नज़दीक बिलकुल नामुमकिन था। ऊपर का जवाब इन तीनों पहलुओं पर हावी है और इसके अलावा इसमें एक सख़्त तंबीह (चेतावनी) भी शामिल है। इन छोटे-छोटे जुमलों में जो बात बयान की गई है उसकी तफ़सील यह है— (1) इस ज़मीन और आसमान को अगर कभी तुमने आँखें खोलकर देखा होता तो तुम्हें नज़र आता कि यह कोई खिलौना नहीं है और न यह निज़ाम इत्तिफ़ाक़ से बन गया है। इस कायनात की हर चीज़ इस बात की दलील दे रही है कि उसे हर चीज़ की क़ुदरत रखनेवाली एक हस्ती ने कमाल दरजे की हिकमत के साथ बनाया है। ऐसे एक हिकमत भरे निज़ाम में यह तसव्वुर करना कि यहाँ किसी को अक़्ल और तमीज़ और इख़्तियारात देने के बाद उसे ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह छोड़ा जा सकता है, सरासर एक बेमानी बात है। (2) इस निज़ाम को जो कोई भी देखनेवाली आँख के साथ देखेगा, उसे मालूम हो जाएगा कि क़ियामत का आ जाना कुछ भी मुश्किल नहीं है। ज़मीन और आसमान जिन बन्दिशों पर क़ायम हैं, उनमें एक ज़रा-सा उलट-फेर भी हो जाए तो आनन-फ़ानन क़ियामत आ सकती है और यही निज़ाम इस बात पर भी गवाह है कि जिसने आज यह दुनिया बना रखी है, वह एक दूसरी दुनिया फिर बना सकता है। उसके लिए ऐसा करना मुश्किल होता तो यही दुनिया कैसे बन खड़ी होती। (3) तुमने आख़िर ज़मीन और आसमान के पैदा करनेवाले को क्या समझ रखा है कि मरे हुए इनसानों के दोबारा पैदा किए जाने को उसकी क़ुदरत से बाहर समझ रहे हो। जो लोग मरते हैं उनके जिस्म चूर-चूर होकर चाहे कितने ही बिखर जाएँ, रहते तो इसी ज़मीन और आसमान की हदों में हैं। इससे कहीं बाहर तो नहीं चले जाते। फिर जिस ख़ुदा के ये ज़मीन-आसमान हैं, उसके लिए क्या मुश्किल है कि मिट्टी और पानी और हवा में जो चीज़ जहाँ भी है, उसे वहाँ से निकाल लाए। तुम्हारे जिस्म में अब जो कुछ मौजूद है, वह भी तो उसी का इकट्ठा किया हुआ है और इसी मिट्टी, हवा और पानी में से निकालकर लाया गया है। इन चीज़ों का हासिल होना अगर आज मुमकिन है तो कल क्यों ग़ैर-मुमकिन हो जाएगा। इन तीन दलीलों के साथ इस बात में यह तंबीह (चेतावनी) भी छिपी है कि तुम हर तरफ़ से ख़ुदा की ख़ुदाई में घिरे हुए हो। जहाँ भी जाओगे, यही कायनात तुमको घेरे हुए होगी। ख़ुदा के मुक़ाबले में कोई छिपने की जगह तुम नहीं पा सकते और ख़ुदा की क़ुदरत का हाल यह है कि जब वह चाहे तुम्हारे पैरों के नीचे या सर के ऊपर से जो बला चाहे तुमपर डाल सकता है। जिस ज़मीन को माँ की गोद की तरह तुम अपने लिए सुकून की जगह पाते हो और इत्मीनान से उसपर घर बनाए बैठे हो, तुम्हें कुछ पता नहीं कि इसकी सतह के नीचे क्या ताक़तें काम कर रही हैं और कब वे कोई ज़लज़ला (भूकम्प) लाकर इसी ज़मीन को तुम्हारे लिए क़ब्र बना देती हैं। जिस आसमान के नीचे तुम इस इत्मीनान के साथ चल-फिर रहे हो मानो कि यह तुम्हारे घर की छत है, तुम्हें क्या मालूम कि इसी आसमान से कब कोई बिजली गिर पड़ती है, या तबाह कर डालनेवाली बारिश हो जाती है, या और कोई अचानक आफ़त आ जाती है। इस हालत में तुम्हारी ख़ुदा से यह निडरता और अंजाम की फ़िक्र से यह लापरवाही और एक भला चाहनेवाले की नसीहत के मुक़ाबले में यह बकवास सिवाय इसके और क्या मतलब रखती है कि तुम अपनी शामत ही को दावत दे रहे हो।
13. यानी जो शख़्स किसी तरह का तास्सुब न रखता हो, जिसमें कोई हठधर्मी या ज़िद न पाई जाती हो, बल्कि जो ख़ुलूस (निष्ठा) के साथ अपने ख़ुदा से हिदायत का तलबगार हो, वह तो आसमान और ज़मीन के इस निज़ाम को देखकर बड़े सबक़ ले सकता है। लेकिन जिसका दिल ख़ुदा से फिरा हुआ हो, वह कायनात में सब कुछ देखेगा मगर हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करनेवाली कोई निशानी उसे सुझाई न देगी।
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ مِنَّا فَضۡلٗاۖ يَٰجِبَالُ أَوِّبِي مَعَهُۥ وَٱلطَّيۡرَۖ وَأَلَنَّا لَهُ ٱلۡحَدِيدَ ۝ 9
(10) हमने दाऊद को अपने यहाँ से बड़ा फ़ज़्ल (मेहरबानी) दिया था।14 (हमने हुक्म दिया कि) ऐ पहाड़ो, उसके साथ तालमेल क़ायम करो, (और वही हुक्म हमने) परिन्दों को दिया15 हमने लोहे को उसके लिए नर्म कर दिया,
14. इशारा है उन अनगिनत मेहरबानियों की तरफ़ जिनसे अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद (अलैहि०) को नवाज़ा था। वे 'बैतुल-लहम' के रहनेवाले यहूदाह क़बीले के एक मामूली नौजवान थे। फ़िलस्तियों के ख़िलाफ़ एक लड़ाई में जालूत जैसे ताक़तवर और बड़े डील-डौलवाले दुश्मन को क़त्ल करके एकाएक वे बनी-इसराईल की आँखों का तारा बन गए। इसी वाक़िए से उनकी तरक़्क़ी शुरू हुई, यहाँ तक कि तालूत की मौत के बाद पहले वे हबरून (मौजूदा अल-ख़लील) में यहूदिया के बादशाह बनाए गए, फिर कुछ साल बाद बनी-इसराईल के तमाम क़बीलों ने मिलकर उनको अपना बादशाह चुन लिया और उन्होंने यरुशलम को जीतकर उसे इसराईल सल्तनत की राजधानी बनाया। यह उन्हीं की रहनुमाई और सरदारी थी जिसकी बदौलत इतिहास में पहली बार एक ऐसी ख़ुदा-परस्त हुकूमत वुजूद में आई जिसकी हदें अक़बा की खाड़ी से लेकर फ़ुरात नदी के मग़रिबी (पश्चिमी) किनारों तक फैली हुई थीं। इन मेहरबानियों पर ख़ुदा की और भी ज़्यादा मेहरबानी वह है जो इल्मो-हिकमत, इनसाफ़, परहेज़गारी और अल्लाह की बन्दगी और हक़परस्ती की सूरत में उनको मिली (तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-273; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-7)
15. यह मज़मून इससे पहले सूरा-21 अम्बिया, आयत-79 में गुज़र चुका है और वहाँ हम इसकी तशरीह भी कर चुके हैं। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अल-अम्बिया, हाशिया-71)
أَنِ ٱعۡمَلۡ سَٰبِغَٰتٖ وَقَدِّرۡ فِي ٱلسَّرۡدِۖ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 10
(11) इस हिदायत के साथ कि ज़िरहें (कवच) बना और उनके हल्के (कुण्डलों) को ठीक पैमाने16 पर रख। (ऐ दाऊद के लोगो,) भले काम करो, जो कुछ तुम करते हो, उसको में देख रहा हूँ।
16. यह मज़मून भी सूरा-21 अम्बिया, आयत-80 में गुज़र चुका है और वहाँ इसकी तशरीह की जा चुकी है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-72)
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ غُدُوُّهَا شَهۡرٞ وَرَوَاحُهَا شَهۡرٞۖ وَأَسَلۡنَا لَهُۥ عَيۡنَ ٱلۡقِطۡرِۖ وَمِنَ ٱلۡجِنِّ مَن يَعۡمَلُ بَيۡنَ يَدَيۡهِ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَمَن يَزِغۡ مِنۡهُمۡ عَنۡ أَمۡرِنَا نُذِقۡهُ مِنۡ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 11
(12) और सुलैमान के लिए हमने हवा को ख़िदमत में लगा दिया, सुबह के वक़्त उसका चलना एक महीने की राह तक और शाम के लिए उसका चलना एक महीने की राह तक।17 हमने उसके लिए पिघले हुए ताँबे का चश्मा (स्रोत) बहा दिया18 और ऐसे जिन्न उसके मातहत कर दिए जो अपने रब के हुक्म से उसके आगे काम करते थे।19 उनमें से जो हमारे हुक्म से मुँह मोड़ता, उसको हम भड़कती हुई आग का मज़ा चखाते।
17. यह मज़मून भी सूरा-21 अम्बिया, आयत-81 में गुज़र चुका है और इसकी तशरीह वहाँ की जा चुकी है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-74, 75)।
18. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ पुराने आलिमों ने इसका मतलब यह लिया है कि ज़मीन से एक चश्मा (जल-स्रोत) हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए फूट निकला था, जिसमें से पानी के बजाय पिघला हुआ ताँबा बहता था। लेकिन आयत का दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि हज़रत सुलैमान (अलहि०) के ज़माने में ताँबे को पिघलाने और उससे तरह-तरह की चीज़ें बनाने का काम इतने बड़े पैमाने पर किया गया कि मानो वहाँ ताँबे के चश्मे बह रहे थे। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—74, 75)
19. ये जिन्न जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की ख़िदमत में लगाए गए थे, क्या ये किसान और पहाड़ी इनसान थे या सचमुच वही जिन्न थे जो एक छिपी हुई मख़लूक़ की हैसियत से दुनिया भर में जाने जाते हैं, इस मसले पर भी सूरा-21 अम्बिया और सूरा-27 नम्ल की तफ़सीर में तफ़सीली बहस कर चुके हैं। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-75; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—23, 45, 52)
يَعۡمَلُونَ لَهُۥ مَا يَشَآءُ مِن مَّحَٰرِيبَ وَتَمَٰثِيلَ وَجِفَانٖ كَٱلۡجَوَابِ وَقُدُورٖ رَّاسِيَٰتٍۚ ٱعۡمَلُوٓاْ ءَالَ دَاوُۥدَ شُكۡرٗاۚ وَقَلِيلٞ مِّنۡ عِبَادِيَ ٱلشَّكُورُ ۝ 12
(13) वे उसके लिए बनाते थे जो कुछ वह चाहता, ऊँची इमारतें, तस्वीरें,20 बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन और अपनी जगह से न हटनेवाली भारी देगें।21 ऐ दाऊद के लोगो, अमल करो शुक्र के तरीक़े पर,22 मेरे बन्दों में कम ही शुक्रगुज़ार हैं।
20. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तमासील' इस्तेमाल हुआ है जो 'तिमसाल' की जमा (बहुवचन) है। 'तिमसाल' अरबी ज़बान में हर उस चीज़ को कहते हैं जो किसी क़ुदरती चीज़ से मिलती-जुलती बनाई जाए, चाहे फिर वह कोई इनसान हो या जानवर, कोई पेड़ हो या फूल या नदी या कोई दूसरी बेजान चीज़। “तिमसाल नाम है हर उस बनावटी चीज़ का जो ख़ुदा की बनाई हुई किसी चीज़ के जैसी बनाई गई हो।” (लिसानुल-अस्ब)। “तिमसाल हर उस तस्वीर को कहते हैं जो किसी दूसरी चीज़ के जैसी बनाई गई हो, चाहे वह जानदार हो या बेजान।” (तफ़सीरे-कश्शाफ़)। इस वजह से क़ुरआन मजीद के इस बयान से यह लाज़िम नहीं आता कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए जो 'तमासील' बनाई जाती थीं वे ज़रूर इनसानों और जानवरों की तस्वीरें या मूर्तियाँ ही होंगी। हो सकता है कि वे फूल-पत्तियाँ और क़ुदरती मंज़र और अलग-अलग तरह के बेल-बूटे हों जिनसे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपनी इमारतों को सजाया हो। ग़लत-फ़हमी का मंशा कुछ तफ़सीर लिखनेवालों के ये बयान हैं कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने नबियों और फ़रिश्तों की तस्वीरें बनवाई थीं। ये बातें उन लोगों ने बनी-इसराईल की रिवायतों से ले लीं और फिर उनकी वजह यह बयान की कि पिछली शरीअतों में इस तरह की तस्वीरें बनाना मना न था। लेकिन इन रिवायतों को बिना तहक़ीक़ नक़्ल करते हुए इन बुज़ुर्गा को यह ख़याल न रहा कि हज़रत सुलैमान जिस मूसवी शरीअत की पैरवी करते थे, उसमें भी इनसानी और जानवरों की तस्वीरें और बुत उसी तरह हराम थे जिस तरह मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में हराम हैं और वे यह भी भूल गए कि बनी-इसराईल के एक गरोह को हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से जो दुश्मनी थी, उसकी वजह से उन्होंने उनपर शिर्क और बुत-परस्ती और जादूगरी और ज़िना (व्यभिचार) के इन्तिहाई बुरे इलज़ाम लगाए हैं, इसलिए उनकी रिवायतों पर भरोसा करके इस बुलन्द रुतबेवाले पैग़म्बर के बारे में कोई ऐसी बात हरगिज़ क़ुबूल न करनी चाहिए जो ख़ुदा की भेजी हुई किसी शरीअत के ख़िलाफ़ पड़ती हो। यह बात हर किसी को मालूम है, कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद हज़रत ईसा (अलैहि०) तक बनी-इसराईल में जितने नबी भी आए हैं, वे सब तौरात की पैरवी करनेवाले थे और उनमें से कोई भी नई शरीअत न लाया था जो तौरात के क़ानून को ख़त्म करनेवाली होती। अब तौरात को देखिए तो उसमें बार-बार साफ़ तौर से यह हुक्म मिलता है कि इनसानों और जानवरों की तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) बिलकुल हराम हैं— "तू अपने लिए मूर्ति तराशकर न बनाना, न किसी चीज़ की प्रतिमा बनाना जो आसमान में या नीचे ज़मीन पर या ज़मीन के नीचे पानी में है।" (निर्गमन, अध्याय-20, आयत-4) “तुम अपने लिए बुत न बनाना और न कोई तराशी हुई मूर्ति या लाट अपने लिए खड़ी करना और न अपने देश में सजदा करने के लिए नक़्क़ाशीदार पत्थर स्थापित करना।" (लैव्य-व्यवस्था, अध्याय-26, आयत-1) "यह न हो कि तुम बिगड़कर किसी शक्ल या सूरत की खोदी हुई मूरत अपने लिए बना लो जिसकी शबीह (आकृति) किसी मर्द या औरत या ज़मीन के किसी जानदार या हवा में उड़नेवाले परिन्दे या ज़मीन के रेंगनेवाले जानदार या मछली से जो ज़मीन के नीचे पानी में रहती है, मिलती हो।" (व्यवस्थाविवरण, अध्याय-1, आयत-16-18) "लानत है उस आदमी पर जो कोई मूर्ति कारीगर से खुदवाकर या ढलवाकर निराले स्थान में स्थापित करे, क्योंकि इससे ख़ुदावन्द नफ़रत करता है।" (व्यवस्थाविवरण, अध्याय-27, आयत-15) इन साफ़ और वाज़ेह हुक्मों के बाद यह बात कैसे मानी जा सकती है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने नबियों और फ़रिश्तों की तस्वीरें या उनके मुजस्समे (प्रतिमाएँ) बनाने का काम जिन्नों से लिया होगा और यह बात आख़िर उन यहूदियों के बयान पर भरोसा करके कैसे मान ली जाए जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर यह इलज़ाम लगाते हैं कि वे अपनी मुशरिक बीवियों के इश्क में पड़कर बुत-परस्ती करने लगे थे। (राजा-1, अध्याय-2) फिर भी तफ़सीर लिखनेवालों ने तो बनी-इसराईल की ये रिवायतें नक़्ल करने के साथ इस बात को साफ़ तौर पर बयान कर दिया था कि मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में यह काम हराम है, इसलिए अब कोई शख़्स हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की पैरवी में तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) नहीं बना सकता। लेकिन मौजूदा ज़माने के कुछ लोगों ने, जो मग़रिब (पश्चिम) वालों की नक़्ल में तस्वीरें बनाने और बुत तराशने को हलाल करना चाहते हैं, क़ुरआन मजीद की इस आयत को अपने लिए दलील ठहरा लिया। वे कहते हैं कि जब एक पैग़म्बर ने यह काम किया है और अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी किताब में उसके इस काम का ज़िक्र किया है और इसपर किसी नापसन्दीदगी का इज़हार भी नहीं किया है तो इसे लाज़िमन हलाल ही होना चाहिए। मग़रिब (पश्चिम) की पैरवी करनेवाले इन लोगों की यह दलील दो वजहों से ग़लत है। एक यह कि लफ़्ज़ 'तमासील' जो क़ुरआन मजीद में इस्तेमाल किया गया है, साफ़-साफ़ इनसानों और जानवरों की तस्वीरों के मानी में नहीं है, बल्कि इसका इस्तेमाल बेजान चीज़ों की तस्वीरों के लिए भी होता है, इसलिए सिर्फ़ इस लफ़्ज़ के सहारे यह हुक्म नहीं लगाया जा सकता कि क़ुरआन के मुताबिक़ इनसानों और जानवरों की तस्वीरें हलाल हैं। दूसरी यह कि बहुत-सी और मज़बूत सनदों और एक जैसे मानीवाली हदीसों से यह साबित है कि नबी (सल्ल०) ने जानदार चीज़ों की तस्वीरें बनाने और रखने को बिलकुल हराम ठहराया है। इस मामले में जो इरशादात (कथन) नबी (सल्ल०) से साबित हैं और बड़े सहाबा (रज़ि०) के जो आसार (बातें और आमाल) बयान हुए हैं उन्हें हम यहाँ नक़्ल करते हैं— (1) उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत है कि हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) ने हबशा में एक कनीसा देखा था जिसमें तस्वीरें थीं। इसका ज़िक्र उन्होंने नबी (सल्ल०) से किया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इन लोगों का हाल यह था कि जब इनमें कोई नेक आदमी होता तो उसके मरने के बाद वे उसकी क़ब्र पर एक इबादतगाह बनाते और उसमें ये तस्वीरें बना लिया करते थे। ये लोग क़ियामत के दिन अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरे लोग क़रार पाएँगे।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई) (2) अबू-जुहैफ़ा का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तस्वीर बनानेवाले पर लानत की है। (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-बुयूअ, किताबुत-तलाक़ और किताबुल-लिबास) (3) अबू-ज़ुरआ कहते हैं कि एक बार में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) के साथ एक मकान में दाख़िल हुआ तो देखा कि मकान के ऊपर एक मुसव्विर (तस्वीर बनानेवाला) तस्वीरें बना रहा है। इसपर हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) ने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि “अल्लाह तआला फ़रमाता है कि उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो मेरी तख़लीक़ (रचना) के जैसी तख़लीक़ की कोशिश करे। ये लोग एक दाना या एक चींटी तो बनाकर दिखाएँ।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास। मुस्लिम और मुसनद अहमद की रिवायत में बताया गया है कि यह मरवान का घर था।) (4) अबू-मुहम्मद हुज़ली हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) एक ज़नाजे में शरीक थे। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम लोगों में से कौन है जो जाकर मदीना में कोई बुत न छोड़े जिसे तोड़ न दे और कोई क़ब्र न छोड़े जिसे ज़मीन के बराबर न कर दे और कोई तस्वीर न छोड़े जिसे मिटा न दे।” एक आदमी ने कहा, “मैं इसके लिए हाज़िर हूँ।” चुनाँचे वह गया, मगर मदीनावालों के डर से यह काम किए बिना पलट आया। फिर हज़रत अली (रज़ि०) ने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल, मैं जाता हूँ।” नबी (सल्ल०) ने कहा, “अच्छा तुम जाओ।” हज़रत अली (रज़ि०) गए और वापस आकर उन्होंने कहा कि “मैंने कोई बुत नहीं छोड़ा जिसे तोड़ न दिया हो, कोई क़ब्र नहीं छोड़ी जिसे ज़मीन के बराबर न कर दिया हो और कोई तस्वीर नहीं छोड़ी जिसे मिटा न दिया हो।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अब अगर किसी शख़्स ने इन चीज़ों में से कोई चीज़ बनाई तो उसने उस तालीम से इनकार किया जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरी है।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम किताबुल-जनाइज़ और नसई किताबुल-जनाइज़ में भी इस सिलसिले की एक हदीस नक़्ल हुई है।) (5) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से रिवायत करते हैं..... “और जिस किसी ने तस्वीर बनाई, उसे अज़ाब दिया जाएगा और मजबूर किया जाएगा कि वह उसमें रूह फूँके और वह न फूँक सकेगा।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुत-ताबीर; तिरमिज़ी, अबवाबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद) (6) सईद-बिन-अबिल-हसन कहते हैं कि मैं इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास बैठा था। इतने में एक आदमी आया और उसने कहा कि “ऐ अबू-अब्बास, मैं एक ऐसा आदमी हूँ जो अपने हाथ से रोज़ी कमाता है और मेरा रोज़गार ये तस्वीरें बनाना है।” इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने जवाब दिया कि मैं तुमसे वही बात कहूँगा जो मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को फ़रमाते सुनी है। मैंने नबी (सल्ल०) से यह बात सुनी है कि “जो कोई तस्वीर बनाएगा, अल्लाह उसे अज़ाब देगा और उसे न छोड़ेगा जब तक वह उसमें रूह न फूँके और वह कभी रूह न फूँक सकेगा।” यह बात सुनकर वह आदमी सख़्त नाराज़ हुआ और उसके चेहरे का पीला पड़ गया। इसपर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने कहा, “ऐ अल्लाह के बन्दे, अगर तुझे तस्वीर बनानी ही है तो इस पेड़ की बना, या किसी ऐसी चीज़ की बना जिसमें रूह न हो।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-बुयूअ; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई किताबुज़-जीनत; मुसनद अहमद) (7) अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़ियामत के दिन अल्लाह के यहाँ सबसे सख़्त सज़ा पानेवाले मुसव्विर (तस्वीर बनानेवाले) होंगे।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद) (8) अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने बयान किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो लोग ये तस्वीरें बनाते हैं, उनको क़ियामत के दिन अज़ाब दिया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि जो कुछ तुमने बनाया है, उसे ज़िन्दा करो।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल- लिबास; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद) (9) हज़रत आइशा (रज़ि०) कहती हैं कि “मैंने एक तकिया ख़रीदा जिसमें तस्वीरें बनी हुई थीं। फिर नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और दरवाज़े ही में खड़े हो गए। अन्दर दाख़िल न हुए। मैंने कहा कि मैं ख़ुदा से तौबा करती हूँ हर उस गुनाह पर जो मैंने किया हो। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : यह तकिया कैसा है? मैंने अर्ज़ किया कि यह इस ग़रज़ के लिए है कि आप यहाँ तशरीफ़ रखें और इसपर टेक लगाएँ। फ़रमाया कि इन तस्वीरों के बनानेवालों को क़ियामत के दिन अज़ाब दिया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि जो कुछ तुमने बनाया है उसको ज़िन्दा करो और फ़रिश्ते (यानी रहमत के फ़रिश्ते) किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें तस्वीरें हों।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, इब्ने-माजा, मुवत्ता) (10) हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मेरे यहाँ तशरीफ़ लाए और मैंने एक परदा लटका रखा था जिसमें तस्वीर थी। आप (सल्ल०) के चेहरे का रंग बदल गया, फिर आपने उस परदे को लेकर फाड़ डाला और फ़रमाया, “क़ियामत के दिन सबसे बुरा अज़ाब जिन लोगों को दिया जाएगा, उनमें वे लोग भी हैं जो अल्लाह की तख़लीक़ (रचना) की जैसी तख़लीक़ की कोशिश करते हैं।" (हदीस : मुस्लिम, बुख़ारी, नसई) (11) हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सफ़र से वापस तशरीफ़ लाए और मैंने अपने दरवाज़े पर एक परदा लटका रखा था, जिसमें परदार घोड़ों की तस्वीरें थीं। नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि इसे उतार दो और मैंने उतार दिया। (हदीस : मुस्लिम, नसई) (12) जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इससे मना कर दिया है कि घर में तस्वीर रखी जाए और इससे भी मना कर दिया कि कोई शख़्स तस्वीर बनाए। (हदीस : तिरमिज़ी) (13) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) अबू-तलहा अनसारी से रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “फ़रिश्ते (यानी रहमत के फ़रिश्ते) किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें कुत्ता पला हुआ हो और न ऐसे घर में जिसमें तस्वीर हो।” (हदीस : बुख़ारी) (14) अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) कहते हैं एक बार जिबरील (अलैहि०) ने नबी (सल्ल०) के पास आने का वादा किया, मगर बहुत देर लग गई और वह न आए। नबी (सल्ल०) को इससे परेशानी हुई और आप (सल्ल०) घर से निकले तो वे मिल गए। आप (सल्ल०) ने उनसे शिकायत की तो उन्होंने कहा कि हम किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें कुत्ता हो या तस्वीर हो। (हदीस : बुख़ारी। इस सिलसिले की बहुत-सी रिवायतें बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, इमाम मालिक और इमाम अहमद ने कई सहाबा से नक़्ल की हैं।) इन रिवायतों के मुक़ाबले में कुछ रिवायतें ऐसी भी पेश की जाती हैं जिनमें तस्वीरों के मामले में छूट पाई जाती है। मसलन अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) की यह रिवायत कि जिस कपड़े में तस्वीर कढ़ी हुई हो, उसका परदा लटकाने की इजाज़त है। (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास) और हज़रत आइशा (रज़ि०) की यह रिवायत कि तस्वीरदार कपड़े को फाड़कर जब उन्होंने गद्दा बना लिया तो नबी (सल्ल०) ने उसे बिछाने से मना नहीं किया। (हदीस : मुस्लिम, किताबुल-लिबास) और सालिम-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की यह रिवायत कि मनाही उस तस्वीर की है जो नुमायाँ जगह पर लगाई गई हो, न कि उस तस्वीर की जो फ़र्श के तौर पर बिछा दी गई हो। (हदीस : मुसनद अहमद)। लेकिन इनमें से कोई हदीस भी दरअस्ल उन हदीसों को रद्द नहीं करती जो ऊपर नक़्ल की गई हैं। जहाँ तक तस्वीर बनाने का ताल्लुक़ है, उसका जाइज़ होना इनमें से किसी हदीस से भी नहीं साबित होता। ये हदीसें सिर्फ़ इस मसले से बहस करती हैं कि अगर किसी कपड़े पर तस्वीर बनी हुई हो और आदमी उसको ले चुका हो तो क्या करे। इस बारे में अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) वाली रिवायत किसी तरह भी क़ुबूल करने के क़ाबिल नहीं है, क्योंकि वह दूसरी बहुत-सी सहीह हदीसों से टकराती है, जिनमें नबी (सल्ल०) ने तस्वीरदार कपड़ा लटकाने से न सिर्फ़ मना किया है, बल्कि उसे फाड़ दिया है। इसके अलावा ख़ुद हज़रत अबू-तलहा (रज़ि०) का अपना अमल जो हदीस की किताब तिरमिज़ी और मुवत्ता में बयान हुआ है, वह यह है कि तस्वीरदार परदा लटकाना तो एक तरफ़ रहा, वे ऐसा फ़र्श बिछाना भी पसन्द नहीं करते थे जिसमें तस्वीरें हों। रहीं हज़रत आइशा (रज़ि०) और सालिम-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायतें तो उनसे सिर्फ़ इतनी गुंजाइश निकलती है कि अगर तस्वीर एहतिराम की जगह पर न हो, बल्कि रुसवाई और ज़िल्लत के साथ फ़र्श में रखी जाए और उसे रौंदा जाए तो वह बरदाश्त के क़ाबिल है। इन हदीसों से आख़िर उस पूरी तहज़ीब (संस्कृति) का जाइज़ होना कैसे निकाला जा सकता है जो तस्वीर बनाने और मुजस्समासाज़ी (प्रतिमा बनाने) के आर्ट (कला) को इनसानी तहज़ीब का फ़ख़्र करने लायक़ कमाल ठहराती है और उसे मुसलमानों में रिवाज देना चाहती है। तस्वीरों के मामले में नबी (सल्ल०) ने आख़िरकार उम्मत के लिए जो उसूल छोड़ा है उसका पता बड़े सहाबा के उस रवैये से चलता है जो उन्होंने इस बारे में अपनाया। इस्लाम में यह उसूल माना गया है कि भरोसेमन्द इस्लामी क़ानून वही है जो तमाम तदरीजी (दरजा-ब-दरजा दिए जानेवाले, क्रमबद्ध) हुक्मों और इबतिदाई रुख़सतों के बाद नबी (सल्ल०) ने अपने आख़िरी दौर में मुक़र्रर कर दिया हो और नबी (सल्ल०) के बाद बड़े-बड़े सहाबियों का किसी तरीक़े पर अमल करना इस बात का सुबूत है कि इसी तरीक़े पर नबी (सल्ल०) ने उम्मत को छोड़ा था। अब देखिए कि तस्वीरों के साथ इस पाकीज़ा और क़ाबिले-एहतिराम गरोह का बर्ताव क्या था। हज़रत उमर (रज़ि०) ने ईसाइयों से कहा कि “हम तुम्हारे गिरजाघरों में इसलिए दाख़िल नहीं होते कि उनमें तस्वीरें हैं।" (हदीस : बुख़ारी, किताबुस्सलात) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) गिरजा में नमाज़ पढ़ लेते थे, मगर किसी ऐसे गिरजाघर में नहीं जिसमें तस्वीरें हों। (हदीस : बुख़ारी, किताबुस्सलात) अबुल-हय्याज असदी कहते हैं कि हज़रत अली (रज़ि०) ने मुझसे कहा, “क्या न भेजूँ मैं तुमको उस मुहिम पर जिसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे भेजा था? और वह यह है कि तुम कोई मुजस्समा (प्रतिमा) न छोड़ो जिसे तोड़ न दो और कोई ऊँची कब्र न छोड़ो जिसे ज़मीन के बराबर न कर दो और कोई तस्वीर न छोड़ो जिसे मिटा न दो।" (हदीस : मुस्लिम, किताबुल-जनाइज़; नसई, किताबुल-जनाइज़)। हनशुल-किनानी कहते हैं कि हज़रत अली (रज़ि०) ने अपनी पुलिस के कोतवाल से कहा कि तुम जानते हो कि मैं किस मुहिम पर तुम्हें भेज रहा हूँ? उस मुहिम पर जिसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे भेजा था, यह कि मैं हर तस्वीर को मिटा दूँ और हर क़ब्र को ज़मीन के बराबर कर दूँ। (हदीस : मुसनद अहमद) इसी साबितशुदा इस्लामी उसूल को इस्लाम के फ़क़ीहों (फ़ुक़हा) ने माना है और इसे इस्लामी क़ानून की एक दफ़ा (धारा) क़रार दिया है। चुनाँचे अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी (रह०) इस बात को किताब 'तौजीह' के हवाले से लिखते हैं— “हमारे असहाब (यानी हनफ़ी आलिम) और दूसरे फ़ुक़हा कहते हैं कि किसी जानदार चीज़ की तस्वीर बनाना हराम ही नहीं, सख़्त हराम और बड़े गुनाहों में से है, चाहे बनानेवाले ने उसे किसी ऐसे इस्तेमाल के लिए बनाया हो जिसमें उसकी ज़िल्लत (अनादर) और रुसवाई हो, या किसी दूसरे मक़सद के लिए। हर हालत में तस्वीर बनाना हराम है, क्योंकि इसमें अल्लाह की तख़लीक़ (रचना-कार्य) की नक़्ल है। इसी तरह तस्वीर चाहे कपड़े में हो या फ़र्श में या दीनार और दिरहम या पैसे में या किसी बरतन में या दीवार में, बहरहाल उसका बनाना हराम है। अलबत्ता जानदार के सिवा किसी दूसरी चीज़ मसलन पेड़ वग़ैरा की तस्वीर बनाना हराम नहीं है। इन तमाम मामलों में तस्वीर के सायादार होने या न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यही राय इमाम मालिक (रह०), सुफ़ियान सौरी (रह०), इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और दूसरे आलिमों की है। क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं कि इससे लड़कियों की गुड़ियाँ अलग हैं। मगर इमाम मालिक (रह०) उनके ख़रीदने को भी नापसन्द करते थे। (उम्दतुल-क़ारी, हिस्सा-22, पे० 70। इसी राय को इमाम नववी ने 'शरह मुस्लिम' में ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान किया है। (देखिए— शरह नववी, मिस्र में छपी हुई, हिस्सा-14, पे० 81, 82) यह तो है तस्वीर बनाने का हुक्म। रहा दूसरे की बनाई हुई तस्वीर के इस्तेमाल का मसला तो इसके बारे में इस्लाम के फ़क़ीहों की रायें अल्लामा इब्ने-हजर ने इस तरह नक़्ल की हैं— “मालिकी फ़क़ीह इब्ने-अरबी कहते हैं, कि जिस तस्वीर का साया पड़ता हो, उसके हराम होने पर तो सभी आलिम एक राय हैं, यह देखे बग़ैर कि वह तहक़ीर (अपमान) के साथ रखी गई राज हो या न। इससे सिर्फ़ लड़कियों की गुड़ियाँ अलग हैं इब्ने-अरबी (रह०) यह भी कहते हैं कि जिस तस्वीर की छाया न पड़ती हो, वह अगर अपनी हालत पर बाक़ी रहे (यानी आईने की परछाईं की तरह न हो, बल्कि छपी हुई तस्वीर की तरह जमी हुई और क़ायम हो) तो वह भी हराम है, चाहे उसे तहक़ीर (अनादर) के साथ रखा गया हो या न रखा गया हो। अलबत्ता उसका इस्तेमाल जाइज़ है अगर उसका सर काट दिया गया हो या उसके हिस्से अलग-अलग कर दिए गए हों तो इमामुल-हरमैन ने एक मसलक यह नक़्ल किया है कि परदे या तकिए पर अगर तस्वीर हो तो उसके इस्तेमाल की इजाज़त है, मगर दीवार या छत में जो तस्वीर लगाई जाए वह मना है, क्योंकि इस हालत में उसकी इज़्ज़त होगी, इसके बरख़िलाफ़ परदे और तकिए की तस्वीर हिक़ारत (अनादर) से रहेगी इब्ने-अबी-शैबा ने इकरिमा (रज़ि०) से नक़्ल किया है कि ताबिईन के ज़माने के उलमा यह राय रखते थे कि फ़र्श और तकिए में तस्वीर का होना उसके लिए ज़िल्लत (अनादर) का सबब है। साथ ही उनका यह खयाल भी था कि ऊँची जगह पर जो तस्वीर लगाई गई हो, वह हराम है और जिसे पैरों से रौंदा जाता हो यह जाइज़ है। यही राय इब्ने-सीरीन, सालिम-बिन-अब्दुल्लाह, इकरिमा-बिन-ख़ालिद और सईद-बिन-जुबैर से भी नक़्ल हुई है।" (फ़तहुल-बारी, हिस्सा-10, पे० 300) इस तफ़सील से यह बात भी अच्छी तरह वाज़ेह हो जाती है कि इस्लाम में तस्वीरों का हराम होना कोई ऐसा मसला नहीं है जिसमें उलमा का इख़्तिलाफ़ हो या जिसमें किसी तरह का शक-शुब्हा पाया जाए, बल्कि नबी (सल्ल०) के वाज़ेह फ़रमानों, सहाबा किराम (रज़ि०) के अमल और इस्लामी फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्रियों) की एकराय से दिए गए फ़तवों के मुताबिक़ एक तस्लीम-शुदा क़ानून है जिसे आज बाहर की तहज़ीबों से मुतास्सिर लोगों की बहानेबाज़ियाँ बदल नहीं सकतीं। इस सिलसिले में कुछ बातें और भी समझ लेनी ज़रूरी हैं, ताकि किसी तरह की ग़लत-फ़हमी बाक़ी न रहे। कुछ लोग फ़ोटो और हाथ से बनी हुई तस्वीर में फ़र्क़ करने की कोशिश करते हैं। हालाँकि शरीअत अपनी जगह ख़ुद तस्वीर को हराम करती है, न कि तस्वीर बनाने के किसी ख़ास तरीक़े को। फ़ोटो और हाथ से बनी तस्वीर में तस्वीर होने के लिहाज़ से कोई फर्क़ नहीं है। उनके बीच जो कुछ भी फ़र्क़ है वह तस्वीर बनाने के तरीक़े के लिहाज़ से है और इस लिहाज़ से शरीअत ने हुक्मों में कोई फ़र्क़ नहीं किया है। कुछ लोग यह दलील देते हैं कि इस्लाम में तस्वीर के हराम होने का हुक्म सिर्फ़ शिर्क और बुत-परस्ती को रोकने के लिए दिया गया था और अब इसका कोई ख़तरा नहीं है, लिहाज़ा यह हुक्म बाक़ी न रहना चाहिए। लेकिन यह दलील बिलकुल ग़लत है। पहली बात तो यह कि हदीसों में कहीं यह बात नहीं कही गई है कि तस्वीरें सिर्फ़ शिर्क और बुत-परस्ती के ख़तरे से बचाने के लिए हराम की गई हैं। दूसरी, यह दावा भी बिलकुल बेबुनियाद है कि अब दुनिया में शिर्क और बुत-परस्ती का ख़ातिमा हो गया है। आज ख़ुद भारत-पाकिस्तान जैसे मुल्कों में करोड़ों बुत-परस्त मुशरिक लोग मौजूद हैं, दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों में तरह-तरह से शिर्क हो रहा है, ईसाई अहले-किताब भी हज़रत ईसा (अलैहि०) और हज़रत मरयम (अलैहि०) और अपने कई बुज़ुर्गों की तस्वीरों और मुजस्समों (प्रतिमाओं) को पूज रहे है, यहाँ तक कि मुसलमानों की एक बड़ी तादाद भी मख़लूक़-परस्ती की आफ़तों से महफ़ूज़ नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि सिर्फ़ वे तस्वीरें मना होनी चाहिएँ जो मुशरिकाना तरह की हों, यानी ऐसे लोगों की तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) जिनको माबूद (उपास्य) बना लिया गया हो, बाक़ी दूसरी तस्वीरों और मुजस्समों (प्रतिमाओं) के हराम होने की कोई वजह नहीं है। लेकिन इस तरह की बातें करनेवाले अस्ल में शरीअत देनेवाले (ख़ुदा व रसूल) के हुक्मों और फ़रमानों से क़ानून लेने के बजाय आप ही अपने लिए शरीअत (क़ानून) बनानेवाले बन बैठते हैं। उनको यह मालूम नहीं है कि तस्वीर सिर्फ़ एक शिर्क और बुत-परस्ती ही का सबब नहीं बनती, बल्कि दुनिया में दूसरे बहुत-से फ़ितनों का सबब भी बनी है और बन रही है। तस्वीर उन बड़े ज़रिओं में से एक है जिनसे बादशाहों, तानाशाहों और सियासी लीडरों की बड़ाई का सिक्का आम लोगों के दिमाग़ों पर बिठाने की कोशिश की गई है। तस्वीर को दुनिया में शहवानियत (कामुकता) फैलाने के लिए भी बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है और आज यह फ़ितना हर ज़माने से ज़्यादा ज़ोरों पर है। तस्वीरें क़ौमों में नफ़रत और दुश्मनी के बीज बोने, फ़साद डलवाने और आम लोगों को तरह-तरह से गुमराह करने के लिए भी बहुत ज़्यादा इस्तेमाल की जाती रही हैं और आज सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जा रही हैं। इसलिए यह समझना कि शरीअत बनानेवाले ने तस्वीर के हराम होने का हुक्म सिर्फ़ बुत-परस्ती को जड़ से ख़त्म करने के लिए दिया है, बुनियादी तौर पर ग़लत है। शरीअत देनेवाले ने जानदार चीज़ों की तस्वीरों से पूरी तरह रोका है। हम अगर ख़ुद शरीअत बनानेवाले नहीं हैं, बल्कि शरीअत बनानेवाले की पैरवी करनेवाले हैं तो हमें बिना किसी शर्त के इससे पूरी तरह रुक जाना चाहिए। हमारे लिए यह किसी तरह जाइज़ नहीं है कि अपनी तरफ़ से हुक्म की कोई वजह ख़ुद तय करके उसके लिहाज़ से कुछ तस्वीरों को हराम और कुछ को हलाल ठहराने लगें। कुछ लोग चन्द इस क़िस्म की तस्वीरों की तरफ़ इशारा करके कहते हैं जिनमें बज़ाहिर किसी भी तरह का कोई नुक़सान या अन्देशा नहीं है कि आख़िर इनमें क्या ख़तरा है, ये तो शिर्क, शहवानियत (कामुकता), फ़साद फैलाने और सियासी प्रोपेगण्डे और ऐसी ही दूसरी बुराई फैलानेवाली बातों से बिलकुल पाक हैं, फिर इनके मना होने की क्या वजह हो सकती है? इस मामले में लोग फिर वही ग़लती करते हैं कि पहले हुक्म की वजह ख़ुद तय कर लेते हैं और उसके बाद यह सवाल करते हैं कि जब फ़ुलाँ चीज़ में यह वजह नहीं पाई जाती तो वह क्यों नाजाइज़ है। इसके अलावा ये लोग इस्लामी शरीअत के इस क़ायदे को भी नहीं समझते कि वे हलाल और हराम के बीच ऐसी धुंधली और ग़ैर-वाज़ेह हदबन्दियाँ क़ायम नहीं करती जिनसे आदमी यह फ़ैसला न कर सकता हो कि वह कहाँ तक जाइज़ होने की हद में है और कहाँ उस हद को पार कर गया है, बल्कि एक ऐसी साफ़ फ़र्क़ करनेवाली लकीर खींचती है जिसे हर आदमी दिन के उजाले की तरह देख सकता हो। तस्वीरों के बीच यह हदबन्दी पूरी तरह वाज़ेह है कि जानदारों की तस्वीरें हराम और बेजान चीज़ों की तस्वीरें हलाल हैं। फ़र्क़ करनेवाली इस लकीर में किसी शक की गुंजाइश नहीं है। जिसे हुक्मों की पैरवी करनी हो वह साफ़-साफ़ जान सकता है कि उसके लिए क्या चीज़ जाइज़ है और क्या नाजाइज़। लेकिन अगर जानदारों की तस्वीरों में से कुछ को जाइज़ और कुछ को नाजाइज़ ठहराया जाता तो दोनों तरह की तस्वीरों की कोई बड़ी-से-बड़ी फ़ेहरिस्त बयान कर देने के बाद भी जाइज़ और नाजाइज़ की सरहद कभी वाज़ेह (स्पष्ट) न हो सकती और अनगिनत तस्वीरों के बारे में यह शक बाक़ी रह जाता कि उन्हें जाइज़ की हद के अन्दर समझा जाए या बाहर। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे शराब के बारे में इस्लाम का यह हुक्म कि उससे पूरी तरह परहेज़ किया जाए, एक साफ़ हद क़ायम कर देता है। लेकिन अगर यह कहा जाता कि उसकी इतनी मिक़दार इस्तेमाल करने से परहेज़ किया जाए जिससे नशा पैदा हो तो हलाल और हराम के बीच फ़र्क़ करनेवाली हद किसी जगह भी क़ायम न की जा सकती और कोई शख़्स भी फ़ैसला न कर सकता कि किस हद तक वह शराब पी सकता है और कहाँ जाकर उसे रुक जाना चाहिए। (और ज़्यादा तफ़सीली बहस के लिए देखिए रसाइल-व-मसाइल, हिस्सा-1, पे० 152-155)
21. इससे मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के यहाँ बहुत बड़े पैमाने पर मेहमानदारी होती थी। बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन (परातें) इसलिए बनाए गए थे कि उनमें लोगों के लिए खाना निकालकर रखा जाए और भारी देगें इसलिए बनवाई गई थीं कि उनमें एक ही वक़्त में हज़ारों आदमियों का खाना पक सके।
22. यानी शुक्रगुज़ार बन्दों तरह काम करो। जो शख़्स नेमत देनेवाले का एहसान सिर्फ़ ज़बान से मानता हो, मगर उसकी नेमतों को उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता हो, उसका सिर्फ़ ज़बानी शुक्रिया बेमतलब है। अस्ल शुक्रगुज़ार बन्दा वही है जो ज़बान से भी नेमत को माने और इसके साथ नेमतें देनेवाले की नेमतों से वही काम भी ले जो नेमत देनेवाले की मरज़ी के मुताबिक़ हो।
فَلَمَّا قَضَيۡنَا عَلَيۡهِ ٱلۡمَوۡتَ مَا دَلَّهُمۡ عَلَىٰ مَوۡتِهِۦٓ إِلَّا دَآبَّةُ ٱلۡأَرۡضِ تَأۡكُلُ مِنسَأَتَهُۥۖ فَلَمَّا خَرَّ تَبَيَّنَتِ ٱلۡجِنُّ أَن لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ٱلۡغَيۡبَ مَا لَبِثُواْ فِي ٱلۡعَذَابِ ٱلۡمُهِينِ ۝ 13
(14) फिर जब सुलैमान पर हमने मौत का फ़ैसला लागू किया तो जिन्नों को उसकी मौत का पता देनेवाली कोई चीज़ उस घुन के सिवा न थी जो उसकी लाठी को खा रहा था। इस तरह जब सुलैमान गिर पड़ा तो जिन्नों पर यह बात खुल गई23 कि अगर वे ग़ैब के जाननेवाले होते तो इस रुसवाई के अज़ाब में मुब्तला न रहते।24
23. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'तबय्य-न-तिल-जिन्नु'। इस जुमले का एक तर्जमा तो वह है जो हमने ऊपर आयतों के तर्जमे के साथ किया है और दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि जिन्नों का हाल खुल गया या ज़ाहिर हो गया। पहली सूरत में मतलब यह होगा कि ख़ुद जिन्नों को पता चल गया कि ग़ैब का हाल जानने के बारे में उनका दावा ग़लत है। दूसरी सूरत में मतलब यह होगा कि आम लोग जो जिन्नों को ग़ैब की बातें जाननेवाला समझते थे, उनपर यह राज़ खुल गया कि वे कोई ग़ैब का इल्म नहीं रखते।
24. मौजूदा ज़माने के क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह बयान किया है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का बेटा रहुबआम चूँकि नालायक़ और ऐशपसन्द था और चापलूस दरबारियों में घिरा हुआ था, इसलिए अपने इज़्ज़तदार वालिद की मौत के बाद वह उस भारी ज़िम्मेदारी को न संभाल सका जो उसपर आ पड़ी थी। उसकी जानशीनी के थोड़ी मुद्दत बाद ही हुकूमत का महल धड़ाम से ज़मीन पर आ रहा और आस-पास के जिन सरहदी (सीमावर्ती) क़बीलों (यानी जिन्नों) को हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपनी ज़बरदस्त ताक़त से अपना ख़ादिम बना रखा था, वे सब क़ाबू से बाहर निकल गए। लेकिन यह मतलब किसी तरह भी क़ुरआन के अलफ़ाज़ से मेल नहीं खाता। क़ुरआन के अलफ़ाज़ जो नक़्शा हमारे सामने पेश कर रहे हैं, वह यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर ऐसी हालत में मौत तारी हुई जबकि वे एक लाठी के सहारे खड़े या बैठे थे। इस लाठी की वजह से उनका बेजान जिस्म अपनी जगह क़ायम रहा और जिन्न यह समझते हुए उनकी ख़िदमत में लगे रहे कि वे ज़िन्दा हैं। आख़िरकार जब लाठी को घुन लग गया और वह अन्दर से खोखली हो गई तो उनका जिस्म ज़मीन पर गिर गया और उस वक़्त जिन्नों को पता चला कि उनका इन्तिक़ाल हो गया है। वाक़िए के इस साफ़-साफ़ बयान का आख़िर यह मतलब निकालने की क्या सही वजह है कि घुन से मुराद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बेटे की नालायक़ी है और लाठी से मुराद उनकी हुकूमत है और उनके मुर्दा जिस्म के गिर जाने से मुराद उनकी सल्तनत का टुकड़े-टुकड़े हो जाना है। अल्लाह तआला को अगर यही बात बयान करनी होती तो क्या इसके लिए वाज़ेह अरबी ज़बान में अलफ़ाज़ मौजूद न थे कि इस हेर-फेर के साथ इसे बयान किया जाता? ये पहेलियों की ज़बान आख़िर क़ुरआन मजीद में कहाँ इस्तेमाल की गई है? और उस ज़माने के आम अरबवासी, जिनसे सबसे पहले यह बात कही गई थी, यह पहेली कैसे बूझ सकते थे? फिर इस मतलब का सबसे ज़्यादा अजीब हिस्सा यह है कि इसमें जिन्नों से मुराद वे सरहदी क़बीले लिए गए हैं जिन्हें हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपनी ख़िदमत में लगा रखा था। सवाल यह है कि आख़िर इन क़बीलों में से कौन ग़ैब का हाल जानने का दावेदार था और किसको मुशरिक लोग ग़ैब का जाननेवाला समझते थे? आयत के आख़िरी अलफ़ाज़ को अगर कोई शख़्स आँखें खोलकर पढ़े तो वह ख़ुद देख सकता है कि जिन्न से मुराद यहाँ ज़रूर ही कोई ऐसा गरोह है जो या तो ख़ुद ग़ैब का हाल जानने का दावेदार था, या लोग उसको ग़ैब का जाननेवाला समझते थे और इस गरोह के ग़ैब से अनजान होने का राज़ इस वाक़िए ने खोल दिया कि वे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को ज़िन्दा समझते हुए ख़िदमत में लगे रहे, हालाँकि उनका इन्तिक़ाल हो चुका था। क़ुरआन मजीद का यह बयान इसके लिए काफ़ी था कि एक ईमानदार आदमी इसको देखकर अपने इस ख़याल पर दोबारा नज़र डाल लेता कि जिन्न से मुराद सरहदी क़बीले हैं। लेकिन जो लोग माद्दा-परस्त (भौतिकवादी) दुनिया के सामने जिन्न नाम की एक दिखाई न देनेवाली मख़लूक़ (सृष्टि) का वुजूद मानते हुए शरमाते हैं, वे क़ुरआन के इस साफ़ बयान के बावजूद अपने मनमाने मतलब पर अड़े हैं। क़ुरआन में कई जगहों पर अल्लाह तआला ने यह बताया है कि अरब के मुशरिक लोग जिन्नों को अल्लाह तआला का साझी ठहराते थे, उन्हें अल्लाह की औलाद समझते थे और उनसे पनाह माँगा करते थे— "और उन्होंने जिन्नों को अल्लाह का साझी ठहरा लिया, हालाँकि उसने उनको पैदा किया है।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-100) “और उन्होंने अल्लाह और जिन्नों के बीच नसबी (वंश सम्बन्धी) ताल्लुक़ ठहरा लिया।" (क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-158) "और यह कि इनसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे।" (क़ुरआन, सूरा-72 जिन्न, आयत-6) इन्हीं अक़ीदों में से एक अक़ीदा यह भी था कि वे जिन्नों को ग़ैब का जाननेवाला समझते थे और ग़ैब की बातें जानने के लिए उनकी तरफ़ रुजू किया करते थे। अल्लाह तआला यहाँ इसी अक़ीदे को ग़लत ठहराने के लिए यह वाक़िआ सुना रहा है और इसका मक़सद अरब के ग़ैर-मुस्लिमों को यह एहसास दिलाना है कि तुम लोग ख़ाह-मख़ाह जाहिलियत के ग़लत अक़ीदों पर अड़े चले जा रहे हो, हालाँकि तुम्हारे ये अक़ीदे बिलकुल बेबुनियाद हैं। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए आगे हाशिया-63 भी देखें।)
لَقَدۡ كَانَ لِسَبَإٖ فِي مَسۡكَنِهِمۡ ءَايَةٞۖ جَنَّتَانِ عَن يَمِينٖ وَشِمَالٖۖ كُلُواْ مِن رِّزۡقِ رَبِّكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥۚ بَلۡدَةٞ طَيِّبَةٞ وَرَبٌّ غَفُورٞ ۝ 14
(15) सबा25 के लिए उनके अपने ठिकाने ही में एक निशानी मौजूद थी,26 दो बाग़ दाएँ और बाएँ।27 खाओ अपने रब की दी हुई रोज़ी और शुक्र अदा करो उसका, देश है। उम्दा और पाकीज़ा और परवरदिगार है माफ़ करनेवाला।
25. ऊपर से चली आ रही बात को समझने के लिए पहले रुकू (आयतें—1 से 9) में बयान की गई बात को निगाह में रखना ज़रूरी है। उसमें यह बताया गया है कि अरब के ग़ैर-मुस्लिम आख़िरत के आने को अक़्ल से परे समझते थे और जो रसूल इस अक़ीदे को पेश कर रहा था, उसके बारे में खुल्लम-खुल्ला यह कह रहे थे कि ऐसी अजीब बातें करनेवाला आदमी या तो मजनून और दीवाना हो सकता है, या फिर वह जान-बूझकर झूठ बोल रहा है। इसके जवाब में अल्लाह तआला ने पहले कुछ अक़्ली दलीलें दीं जिनकी तशरीह हम हाशिया-7, 8, 12 में कर चुके हैं। इसके बाद दूसरे रुकू (आयतें—10 से 21) में हज़रत दाऊद (अलैहि०) और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का क़िस्सा और फिर सबा का क़िस्सा एक तारीख़ी (ऐतिहासिक) दलील के तौर पर बयान किया गया है, जिसका मक़सद यह हक़ीक़त ज़ेहन में बिठाना है कि ज़मीन पर ख़ुद इनसानों का अपना इतिहास इस क़ानून की गवाही दे रहा है कि अच्छे या बुरे कामों का अच्छा या बुरा बदला मिलता है। इनसान अपने इतिहास को ग़ौर से देखे तो उसे मालूम हो सकता है कि यह दुनिया कोई अंधेर नगरी नहीं है, जिसका सारा कारख़ाना अंधाधुंध चल रहा हो, बल्कि इसपर एक सब कुछ सुनने और सब कुछ देखनेवाला ख़ुदा हुकूमत कर रहा है जो शुक्र की राह अपनानेवालों के साथ एक मामला करता है और नेमत की नाशुक्री की राह चलनेवालों के साथ बिलकुल ही एक दूसरा मामला करता है। कोई सबक़ लेना चाहे तो इसी इतिहास से यह सबक़ ले सकता है कि जिस ख़ुदा की सल्तनत का यह मिज़ाज है, उसकी ख़ुदाई में भलाई और बुराई का अंजाम कभी एक जैसा नहीं हो सकता। उसके इनसाफ़ का लाज़िमी तकाजा यह है कि एक वक़्त ऐसा आए जब भलाई और नेकी का पूरा-पूरा इनाम और बुराई की पूरी-पूरी सज़ा दी जाए।
26. यानी इस बात की निशानी कि जो कुछ उनको मिला हुआ है, वह किसी का दिया हुआ है, न कि उनका अपना पैदा किया हुआ और इस बात की निशानी कि उनकी बन्दगी और इबादत और शुक्रिए का हक़दार वह ख़ुदा है जिसने उन्हें ये नेमतें दी हैं, न कि वे जिनका कोई हिस्सा इन नेमतों के देने में नहीं है और इस बात की निशानी कि उनकी दौलत हमेशा रहनेवाली नहीं है, बल्कि जिस तरह आई है, उसी तरह जा भी सकती है।
27. इसका मतलब यह नहीं है कि पूरे देश में बस दो ही बाग़ थे, बल्कि इससे मुराद यह है कि सबा की पूरी सरज़मीन हरी-भरी थी। आदमी जहाँ भी खड़ा होता उसे अपने दाईं तरफ़ भी बाग़ दिखाई देता और बाईं तरफ़ भी।
فَأَعۡرَضُواْ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سَيۡلَ ٱلۡعَرِمِ وَبَدَّلۡنَٰهُم بِجَنَّتَيۡهِمۡ جَنَّتَيۡنِ ذَوَاتَيۡ أُكُلٍ خَمۡطٖ وَأَثۡلٖ وَشَيۡءٖ مِّن سِدۡرٖ قَلِيلٖ ۝ 15
(16) मगर वे मुँह मोड़ गए।28आख़िरकार हमने उनपर बंध तोड़ सैलाब भेज दिया29 और उनके पिछले दो बाग़ों की जगह दो और बाग़ उन्हें दिए जिनमें कड़वे-कसैले फल और झाऊ के पेड़ थे और कुछ थोड़ी-सी बेरियाँ।30
28. यानी बन्दगी और शुक्रगुज़ारी के बजाय उन्होंने नाफ़रमानी और नमकहरामी का रवैया अपना लिया।
29. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘सैलुल-अरिम' इस्तेमाल किया गया है। अरिम जुनूबी (दक्षिणी) अरब की ज़बान के लफ़्ज़ 'अरमन' से लिया गया है, जिसका मतलब 'बाँध' है। यमन के खण्डहरों में जो पुराने कतबे (शिलालेख) मौजूदा ज़माने में मिले हैं, उनमें यह लफ़्ज़ इस मानी में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है। मसलन 542 ई० या 543 ई० का एक कतबा जो यमन के हबशी आज गवर्नर अबरहा ने 'मारिब' नामक बाँध की मरम्मत कराने के बाद लगाया था, उसमें वह इस लफ़्ज़ को बार-बार बाँध के मानी में इस्तेमाल करता है। इसलिए 'सैलुल-अरिम' से मुराद वह सैलाब है जो किसी बाँध के टूटने से आए।
30. यानी 'सैलुल-अरिम' के आने का नतीजा यह हुआ कि सारा इलाक़ा बरबाद हो गया। सबा के लोगों ने पहाड़ों के दरमियान बाँध बाँधकर जो नहरें जारी की थीं, वे सब ख़त्म हो गईं और सिंचाई का पूरा निज़ाम छिन्न-भिन्न हो गया। इसके बाद वही इलाक़ा जो कभी जन्नत की मिसाल बना हुआ था, ख़ुद उगनेवाले जंगली पेड़ों से भर गया और उसमें खाने के लायक़ अगर कोई चीज़ बाक़ी रह गई थी तो वे सिर्फ़ झाड़ी-बूटी के बेर थे।
ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِمَا كَفَرُواْۖ وَهَلۡ نُجَٰزِيٓ إِلَّا ٱلۡكَفُورَ ۝ 16
(17) यह था उनके इनकार का बदला जो हमने उनको दिया और नाशुक्रे इनसान के सिवा ऐसा बदला हम और किसी को नहीं देते।
وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ ٱلۡقُرَى ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا قُرٗى ظَٰهِرَةٗ وَقَدَّرۡنَا فِيهَا ٱلسَّيۡرَۖ سِيرُواْ فِيهَا لَيَالِيَ وَأَيَّامًا ءَامِنِينَ ۝ 17
(18) और हमने उनके और उन बस्तियों के बीच, जिनको हमने बरकत दी थी, नुमायाँ बस्तियाँ बसा दी थीं और उनमें सफ़र की दूरियाँ एक सही पैमाने पर रख दी थीं।31 चलो-फिरो इन रास्तों में रात-दिन पूरे अम्न के साथ।
31. 'बरकतवाली बस्तियों' से मुराद शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन का इलाक़ा है जिसे क़ुरआन मजीद में आम तौर से इसी लक़ब से याद किया गया है। (मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-7 आराफ़, आयत-137; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-1; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—71 और 81) । 'नुमायाँ बस्तियों' से मुराद हैं ऐसी बस्तियाँ जो आम रास्ते पर हों, गोशों में छिपी हुई न हों और यह मतलब भी हो सकता है कि वे बस्तियाँ बहुत ज़्यादा दूरी पर न थीं, बल्कि आपस में मिली हुई थीं। एक बस्ती की निशानियाँ ख़त्म होने के बाद दूसरी बस्ती की निशानियाँ नज़र आने लगती थीं। सफ़र की दूरियों को एक सही पैमाने पर रखने से मुराद यह है कि यमन से शाम तक का पूरा सफ़र लगातार आबाद इलाक़े में तय होता था, जिसकी हर मंजिल से दूसरी मंज़िल तक की दूरी मालूम और तय थी। आबाद इलाक़ों के सफ़र और सुनसान रेगिस्तानी इलाक़ों के सफ़र में यही फ़र्क़ होता है। रेगिस्तान में मुसाफ़िर जब तक चाहता है, चलता है और जब थक जाता है तो किसी जगह पड़ाव कर लेता है। इसके बरख़िलाफ़ आबाद इलाक़ों में रास्ते की एक बस्ती से दूसरी बस्ती तक की दूरी जानी-बूझी और तय होती है। मुसाफ़िर पहले से प्रोग्राम बना सकता है कि रास्ते की किन-किन जगहों पर वह ठहरता हुआ जाएगा, कहाँ दोपहर गुज़ारेगा और कहाँ रात गुज़ारेगा।
فَقَالُواْ رَبَّنَا بَٰعِدۡ بَيۡنَ أَسۡفَارِنَا وَظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَحَادِيثَ وَمَزَّقۡنَٰهُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 18
(19) मगर उन्होंने कहा, “ऐ हमारे रब, हमारे सफ़र की दूरियाँ लम्बी कर दे।32 उन्होंने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया। आख़िरकार हमने उन्हें कहानी बनाकर रख दिया और उन्हें बिलकुल तितर-बितर कर डाला।33 यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो बड़ा सब्र और शुक्र करनेवाला हो34
32. ज़रूरी नहीं है कि उन्होंने ज़बान ही से यह दुआ की हो। अस्ल में जो शख़्स भी ख़ुदा की दी हुई नेमतों की नाशुक्री करता है, वह मानो ज़बाने-हाल से यह कहता है कि ऐ ख़ुदा, मैं इन नेमतों का हक़दार नहीं हूँ और इसी तरह जो क़ौम अल्लाह की मेहरबानी से ग़लत फ़ायदा उठाती है, वह मानो अपने रब से यह दुआ करती है कि ऐ परवरदिगार, ये नेमतें हमसे छीन ले, क्योंकि हम इनके क़ाबिल नहीं हैं। इसके अलावा “ऐ हमारे रब, हमारे सफ़र दूर-दराज़ कर दे” के अलफ़ाज़ से कुछ यह बात भी ज़ाहिर होती है कि शायद सबा की क़ौम को अपनी आबादी की ज़्यादती खलने लगी थी और दूसरी नादान क़ौमों की तरह उसने भी अपनी बढ़ती हुई आबादी को ख़तरा समझकर इनसानी नस्ल को बढ़ने से रोकने की कोशिश की थी।
33. यानी सबा की क़ौम ऐसी बिखरी कि उसका बिखराव मिसाल बन गया। आज भी अरबवाले अगर किसी गरोह के बिखराव का ज़िक्र करते हैं तो कहते हैं कि “वे तो ऐसे बिखर गए जैसे सबा की क़ौम बिखर गई थी।” अल्लाह तआला की तरफ़ से जब नेमतें छिनने का दौर शुरू हुआ तो सबा के अलग-अलग क़बीले अपना वतन छोड़-छोड़कर अरब के अलग-अलग इलाक़ों में चले गए। ग़स्सानियों ने उर्दुन (जॉर्डन) और शाम (सीरिया) का रुख़ किया। औस और ख़ज़रज के क़बीले यसरिब में जा बसे। ख़ुजाआ जिद्दा के करीब तहामा के इलाक़े में जा बसे। अज़्द का क़बीला ओमान में जाकर आबाद हुआ। लख़्म, जुज़ाम और किन्दा भी निकलने पर मजबूर हुए। यहाँ तक कि 'सबा' नाम की कोई क़ौम ही दुनिया में बाक़ी न रही। सिर्फ़ उसका ज़िक्र कहानियों में रह गया।
34. इस जगह पर सब्र और शुक्र करनेवाले से मुराद ऐसा शख़्स या गरोह है जो अल्लाह की तरफ़ से नेमतें पाकर आपे से बाहर न हो जाए, न ख़ुशहाली पर फूले और न उस ख़ुदा को भूल जाए जिसने यह सब कुछ उसे दिया है। ऐसा इनसान उन लोगों के हालात से बहुत कुछ सबक़ ले सकता है जिन्होंने उरूज और तरक़्क़ी के मौक़े पाकर नाफ़रमानी का रवैया अपनाया और अपने बुरे अंजाम से दोचार होकर रहे।
وَلَقَدۡ صَدَّقَ عَلَيۡهِمۡ إِبۡلِيسُ ظَنَّهُۥ فَٱتَّبَعُوهُ إِلَّا فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 19
(20) उनके मामले में इबलीस ने अपना गुमान सही पाया और उन्होंने उसी की पैरवी की, सिवाय एक थोड़े-से गरोह के जो मोमिन था।35
35. इतिहास से यह बात मालूम होती है कि पुराने ज़माने से सबा क़ौम में कुछ लोग ऐसे मौजूद थे जो दूसरे माबूदों को मानने के बजाय एक ख़ुदा को मानते थे। मौजूदा ज़माने की खोजों (पुरातत्त्व) के सिलसिले में यमन के खण्डहरों से जो कतबे मिले हैं, उनमें से कुछ इन थोड़े लोगों की निशानदेही करते हैं। 650 ई०पू० के लगभग ज़माने के कुछ कतबे बताते हैं कि सबा हुकूमत की कई जगहों पर ऐसी इबादतगाहें बनी हुई थीं जो 'ज़ू-समवी' या 'ज़ू-समावी' (यानी आसमान के रब) की इबादत के लिए ख़ास थीं। कुछ जगहों पर इस माबूद का नाम 'मलिकुन ज़ू-समवी' (वह बादशाह जो आसमानों का मालिक है) लिखा गया है। ये थोड़े-से लोग लगातार सदियों तक यमन में मौजूद रहे। चुनाँचे 378 ई० के एक कतबे (शिला लेख) में भी 'इलाह ज़ू-समवी' के नाम से एक इबादतगाह की तामीर का ज़िक्र मिलता है। फिर 465 ई० के एक कतबे में ये अलफ़ाज़ पाए जाते हैं, अर्थात् “उस ख़ुदा की मदद और हिमायत से जो आसमानों और ज़मीन का मालिक है।” इसी ज़माने के एक और कतबे में जिसकी तारीख़ 458 ई० है, इसी ख़ुदा के लिए 'रहमान' (मेहरबान ख़ुदा) का लफ़्ज़ भी इस्तेमाल किया गया है।
وَمَا كَانَ لَهُۥ عَلَيۡهِم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يُؤۡمِنُ بِٱلۡأٓخِرَةِ مِمَّنۡ هُوَ مِنۡهَا فِي شَكّٖۗ وَرَبُّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 20
(21) इबलीस को उनपर कोई ज़ोर हासिल न था, मगर जो कुछ हुआ वह इसलिए कि हम देखना चाहते थे कि कौन आख़िरत का माननेवाला है और कौन उसकी तरफ़ से शक में पड़ा हुआ है।36 तेरा रब हर चीज़ पर निगरानी करनेवाला है।37
36. यानी इबलीस को यह ताक़त हासिल न थी कि उनका इरादा तो ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करने का हो, मगर वह ज़बरदस्ती उनका हाथ पकड़कर उन्हें नाफ़रमानी की राह पर खींच ले गया हो। अल्लाह तआला ने जो कुछ भी क़ुदरत उसको दी थी, वह सिर्फ़ इस हद तक थी कि वह उन्हें बहकाए और ऐसे तमाम लोगों को अपने पीछे लगा ले जो ख़ुद उसकी पैरवी करना चाहें और बहकावे के ये मौक़े इबलीस को इसलिए दिए गए, ताकि आख़िरत के माननेवालों और उसके आने में शक रखनेवालों का फ़र्क़ खुल जाए। दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह का यह फ़रमान इस हक़ीक़त को वाज़ेह करता है कि आख़िरत के अक़ीदे के सिवा कोई दूसरी चीज़ ऐसी नहीं है जो इस दुनिया में इनसान को सीधे रास्ते पर क़ायम रखने की ज़मानत देती हो। अगर कोई शख़्स यह न मानता हो कि उसे मरकर दोबारा उठना है और अपने ख़ुदा के सामने अपने आमाल (कर्मों) की जवाबदेही करनी है, तो वह लाज़िमन गुमराह होकर और भटककर रहेगा, क्योंकि उसके अन्दर सिरे से ज़िम्मेदारी का वह एहसास पैदा ही न हो सकेगा जो आदमी को सीधी राह पर जमाए रखता है। इसी लिए शैतान की सबसे बड़ी चाल, जिसके ज़रिए से वह आदमी को अपने फन्दे में फाँसता है, यह है कि वह उसे आख़िरत की तरफ़ से भुलावे में डालता है। उसके इस धोखे से जो शख़्स बच निकले, वह कभी इस बात पर राज़ी न होगा कि अपनी असली हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी के फ़ायदे को दुनिया की थोड़े दिनों की ज़िन्दगी पर क़ुरबान कर दे। इसके बरख़िलाफ़ जो शख़्स शैतान के फन्दे में आकर आख़िरत का इनकारी हो जाए, या कम-से-कम उसकी तरफ़ से शक में पड़ जाए, उसे कोई चीज़ इस बात पर आमादा नहीं कर सकती कि जो नक़्द सौदा इस दुनिया में हो रहा है उससे सिर्फ़ इसलिए हाथ उठा ले कि उससे किसी बाद की ज़िन्दगी में नुक़सान पहुँचने का अन्देशा है। दुनिया में जो शख़्स भी गुमराह हुआ है, इसी आख़िरत के इनकार या आख़िरत के बारे में शक की वजह से हुआ है और जिसने भी सीधी राह अपनाई है, उसके सही रवैये की बुनियाद आख़िरत पर ईमान ही पर क़ायम हुई है।
37. सबा क़ौम के इतिहास की तरफ़ ये इशारे जो क़ुरआन मजीद में किए गए हैं, उनको समझने के लिए ज़रूरी है कि वे जानकारियाँ भी हमारी निगाह में रहें जो इस क़ौम के बारे में दूसरे ऐतिहासिक ज़रिओं से मिली हैं। इतिहास के मुताबिक़ ‘सबा' जुनूबी (दक्षिणी) अरब की एक बहुत बड़ी क़ौम का नाम है जिसमें कुछ बड़े-बड़े क़बीले शामिल थे। इमाम अहमद, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-अब्दुल-बर्र और तिरमिज़ी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह रिवायत नक़्ल की है कि सबा अरब के एक शख़्स का नाम था जिसकी नस्ल से अरब में नीचे लिखे क़बीले पैदा हुए— किन्दा, हिमयर, अज़्द, अशअरयीन, मज़हिज, अनमार (जिसकी दो शाख़ें हैं, ख़सअम और बजीला), आमिला, जुज़ाम, लख़्म और ग़स्सान। बहुत पुराने ज़माने से दुनिया में अरब की इस क़ौम की चर्चा थी। 2500 ई० पू० में उर के कतबे उसका ज़िक्र साबूम के नाम से करते हैं। इसके बाद बाबिल और आशूर (असीरिया) के कतबों में और इसी तरह बाइबल में भी बहुत जगह इसका ज़िक्र आया है, (मिसाल के तौर देखिए— भजन संहिता, 72:15, यिर्मयाह, 6:20, यहेजकेल, 27:22, 38:13 अय्यूब, 6:19)। यूनान और रोम के इतिहासकार और जोग़राफ़ियानवीस (भूगोलविद्) थ्योनास्टस (288 ई० पू०) के वक़्त से मसीह के बाद की कई सदियों तक लगातार उसका ज़िक्र करते चले गए हैं। उसका वतन अरब का जुनूब-मग़रिबी (दक्षिण-पश्चिमी) कोना था जो आज यमन के नाम से मशहूर है। इसकी तरक़्क़ी का दौर 1100 वर्ष ई०पू० से शुरू होता है। हज़रत दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) के ज़माने में एक दौलतमन्द क़ौम की हैसियत से इसकी चर्चा दुनिया में फैल चुकी थी। शुरू में यह क़ौम एक सूरज की पुजारी थी। फिर जब इसकी मलिका हज़रत सुलैमान (965-926 ई०पू०) के हाथ पर ईमान ले आई तो ज़्यादा इमकान यह है कि इसकी ज़्यादा तर आबादी मुसलमान हो गई थी। लेकिन बाद में न जाने किस वक़्त उसके अन्दर शिर्क और बुत-परस्ती का फिर ज़ोर हो गया और उसने 'अल-मक़ा' (चाँद देवता), अशतर (शुक्र ग्रह), ज़ाते-हमीम और ज़ाते-बुअदान (सूरज देवी), हूबस, हरमतम या हरीमत और ऐसे ही दूसरे बहुत-से देवताओं और देवियों को पूजना शुरू कर दिया। अल-मक़ा उस क़ौम का सबसे बड़ा देवता था और उसके बादशाह अपने आपको इसी देवता के वकील की हैसियत से फ़रमाँबरदारी का हक़दार क़रार देते थे। यमन में बहुत ज़्यादा कतबे मिले हैं, जिनसे मालूम होता है कि सारा देश इन देवताओं और ख़ास तौर से अल-मक़ा के मन्दिरों से भरा हुआ था और हर अहम वाक़िए पर उनके शुक्रिए अदा किए जाते थे। आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व अवशेषों) की नई खोजों के सिलसिले में यमन से लगभग तीन हज़ार कतबे मिले हैं जो इस क़ौम के इतिहास पर अहम रौशनी डालते हैं। इसके साथ अरबी रिवायतों और रूमी और यूनानी इतिहास की दी हुई मालूमात को अगर इकट्ठा कर लिया जाए तो अच्छी-ख़ासी तफ़सील के साथ उसका इतिहास लिखा जा सकता है। इन मालूमात के मुताबिक़ उसके इतिहास के अहम दौर नीचे लिखे हैं— (1) 650 ई० पू० से पहले का दौर। उस ज़माने में सबा के बादशाहों का लक़ब मुकर्रिबे-सबा था। ज़्यादा इमकान इस बात का है कि यह लफ़्ज़ 'मुक़र्रिब' के मानी में था और इसका मतलब यह था कि ये बादशाह इनसानों और ख़ुदाओं के बीच अपने आपको वास्ता क़रार देते थे, या दूसरे अलफ़ाज़ में यह काहिन बादशाह (Priest-Kings) थे। उस ज़माने में उनकी राजधानी सिरवाह थी, जिसके खण्डहर आज भी मारिब से मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ एक दिन की राह पर पाए जाते हैं और ख़रीबा के नाम से मशहूर हैं। इसी दौर में मारिब के मशहूर बाँध की बुनियाद रखी गई और वक़्त-वक़्त पर अलग-अलग बादशाहों ने उसको फैलाया। (2) 650 ई०पू० से 115 ई० पू० तक का दौर। इस दौर में सबा के बादशाहों ने मुकर्रिब का लक़ब छोड़कर मलिक (बादशाह) का लक़ब अपना लिया, जिसका मतलब यह है कि हुकूमत में मज़हबियत (धार्मिकता) की जगह सियासत और सेक्युलरिज़्म का रंग छा गया। इस ज़माने में सबा के बादशाहों ने सिरवाह को छोड़कर मारिब को अपनी राजधानी बनाया और उसे ग़ैर-मामूली तरक़्क़ी दी। यह मक़ाम समुद्र से 3900 फीट की ऊँचाई पर सनआ से 60 मील पूरब की तरफ़ है और आज तक इसके खण्डहर गवाही दे रहे हैं कि यह कभी एक बड़ी आबाद और तहज़ीब-याफ़्ता (सुसभ्य) क़ौम का मर्कज़ (केन्द्र) था। (3) 115 ई० पू० से 300 ई० पू० तक का दौर। इस ज़माने में सबा की हुकूमत पर हिमयर का क़बीला ग़ालिब हो गया जो सबा क़ौम ही का एक क़बीला था और तादाद में दूसरे तमाम क़बीलों से बढ़ा हुआ था। उस दौर में मारिब को उजाड़कर रैदान राजधानी बनाया गया जो हिमयर क़बीले का मर्कज़ था। बाद में इस शहर को 'जफ़ार' नाम दिया गया। आजकल मौजूदा शहर यरीम के क़रीब एक गोल पहाड़ी पर उसके खण्डहर मिलते हैं और उसी के क़रीब इलाक़े में एक छोटा-सा क़बीला हिमयर के नाम से आबाद है, जिसे देखकर कोई शख़्स सोच तक नहीं सकता कि यह उसी क़ौम की यादगार है जिसके डंके कभी दुनिया भर में बजते थे। उसी ज़माने में सल्तनत के एक हिस्से की हैसियत से पहली बार लफ़्ज़ यमनत और यमनात का इस्तेमाल होना शुरू हुआ और धीरे-धीरे यमन इस पूरे इलाक़े का नाम हो गया जो अरब के जुनूब-मग़रिबी (दक्षिण-पश्चिमी) कोने पर असीर से अदन तक और बाबुल-मन्दब से हज़र-मौत तक वाक़े है। यही दौर है जिसमें सबाइयों का ज़वाल (पतन) शुरू हुआ। (4) 300 ई० के बाद से इस्लाम के शुरू होने तक का दौर। यह सबा क़ौम की तबाही का दौर है। इस दौर में उनके यहाँ लगातार ख़ानाजगियाँ (गृहयुद्ध) हुईं। बाहरी क़ौमों की दख़ल-अन्दाज़ी शुरू हुई। तिजारत बरबाद हुई। खेती-बाड़ी ने दम तोड़ा और आख़िरकार आज़ादी तक ख़त्म हो गई। पहले रैदानियों, हिमयरियों और हमदानियों के आपसी झगड़ों से फ़ायदा उठाकर 340 ई० से 378 ई० तक यमन पर हब्शियों का क़ब्ज़ा रहा। फिर आज़ादी तो बहाल हो गई, मगर मारिब के मशहूर बाँध में दरारें पड़नी शुरू हो गई, यहाँ तक कि आख़िरकार 450 ई० या 451 ई० में बाँध टूटने से वह भारी सैलाब आया जिसका ज़िक्र ऊपर क़ुरआन मजीद की आयतों में किया गया है। अगरचे उसके बाद अबरहा के ज़माने तक इस बाँध की लगातार मरम्मतें होती रहीं, लेकिन जो आबादी बिखर चुकी थी वह फिर इकट्ठी न हो सकी और न सिंचाई और खेती-बाड़ी का वह निज़ाम जो छिन्न-भिन्न हो चुका था, दोबारा बहाल हो सका। 523 ई० में यमन के यहूदी बादशाह ज़ूनिवास ने नजरान के ईसाइयों पर वह ज़ुल्मो-सितम ढाया जिसका ज़िक्र क़ुरआन मजीद (सूरा-85 बुरूज, आयत-4) में 'असहाबुल-उख़दूद' (खाइयोंवाले) के नाम से किया गया है। इसके नतीजे में हब्शा की ईसाई हुकूमत ने बदला लेने के लिए यमन पर हमला कर दिया और उसने सारा देश जीत लिया। इसके बाद यमन के हबशी वायसराय अबरहा ने काबा की मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) ख़त्म करने और अरब के पूरे मग़रिबी (पश्चिमी) इलाक़े को रूमी हबशी असर में लाने के लिए 570 या 571 ई० मैं (नबी सल्ल० की पैदाइश से कुछ दिनों पहले) मक्का पर हमला किया और उसकी पूरी फ़ौज पर वह तबाही आई जिसे क़ुरआन मजीद में 'असहाबुल-फ़ील' (हाथियोंवाले) के नाम से बयान किया गया है। (सूरा-105 फ़ील, आयत-1) आख़िरकार 575 ई० में यमन पर ईरानियों का क़ब्ज़ा हुआ और उसका ख़ातिमा उस वक़्त हुआ जब 628 ई० में ईरानी गवर्नर बाज़ान ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। सबा क़ौम की तरक़्क़ी अस्ल में दो बुनियादों पर क़ायम थी। एक खेती, दूसरी तिजारत। खेती-बाड़ी को उन्होंने सिंचाई के एक बेहतरीन निज़ाम के ज़रिए से तरक़्क़ी दी थी, जिसके जैसा कोई दूसरा सिंचाई का निज़ाम बाबिल के सिवा पुराने ज़माने में कहीं न पाया जाता था। उनकी सरज़मीन में क़ुदरती नदियाँ न थीं। बारिश के ज़माने में पहाड़ों से बरसाती नाले बह निकलते थे। इन्हीं नालों पर सारे देश में जगह-जगह बाँध बाँधकर उन्होंने तालाब बना लिए थे और उनसे नहरें निकाल-निकालकर पूरे देश को इस तरह सैराब कर दिया था कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ हर तरफ़ बाग़-ही-बाग़ नज़र आता था। इस सिंचाई के निज़ाम का सबसे बड़ा पानी का भण्डार वह तालाब था जो मारिब शहर के क़रीब बल्क़ पहाड़ की बीच की घाटी पर बाँध बाँधकर तैयार किया गया था, मगर जब अल्लाह की मेहरबानी बन्द हो गई तो पाँचवीं सदी ई० के बीच में यह अज़ीमुश्शान बाँध टूट गया और उससे निकलनेवाला सैलाब रास्ते में बाँध-पर-बाँध तोड़ता चला गया, यहाँ तक कि देश का पूरा सिंचाई का निज़ाम तबाह होकर रह गया। फिर कोई उसे बहाल न कर सका। तिजारत के लिए इस क़ौम को अल्लाह ने बेहतरीन जोग़राफ़ी (भौगोलिक) मक़ाम दिया था जिससे उसने ख़ूब फ़ायदा उठाया। एक हज़ार साल से ज़्यादा मुद्दत तक यही क़ौम पूरब और पश्चिम के बीच तिजारत का वास्ता बनी रही। एक तरफ़ उनकी बन्दरगाहों में चीन का रेशम, इण्डोनेशिया और मालाबार के गर्म मसाले, भारत के कपड़े और तलवारें, पूर्वी अफ़्रीक़ा के हबशी ग़ुलाम, बन्दर, शुतुरमुर्ग के पंख और हाथी के दाँत पहुँचते थे और दूसरी तरफ़ ये इन चीज़ों को मिस्र और शाम (सीरिया) की मंडियों में पहुँचाते थे जहाँ से रूम (रोम) और यूनान तक यह माल भेजा जाता था। इसके अलावा ख़ुद उनके इलाक़े में लोबान, ऊद, अंबर, मुश्क (कस्तूरी), मुर्र, क़ुर्फ़ा, क़सबुज़्ज़रीरा, सलीख़ा और दूसरी उन ख़ुशबूदार चीज़ों की बड़ी पैदावार थी जिन्हें मिस्र और शाम और रूम और यूनान के लोग हाथों-हाथ लेते थे। इस बड़ी तिजारत के दो बड़े रास्ते थे। एक समुद्री, दूसरा ख़ुश्की का रास्ता। समुद्री तिजारत का ठेका हज़ार साल तक इन्हीं सबाइयों के हाथों में था, क्योंकि लाल सागर की मौसमी हवाओं, पानी के नीचे की चट्टानों और लंगर डालने की जगहों का राज़ यही लोग जानते थे और दूसरी कोई क़ौम इस ख़रतनाक समुद्र में जहाज़ चलाने की हिम्मत न रखती थी। इस समुद्री रास्ते से ये लोग उर्दुन और मिस्र की बन्दरगाहों तक अपना माल पहुँचाया करते थे। समुद्री रास्ते अदन और हज़रे-मौत से मारिब पर जाकर मिलते थे और फिर वहाँ से एक सड़क मक्का, जिद्दा, यसरिब, अल-उला, तबूक और ऐला से गुज़रती हुई पेट्रा तक पहुँचती थी। इसके बाद एक रास्ता मिस्र की तरफ़ और दूसरा रास्ता शाम (सीरिया) की तरफ़ जाता था। इस ख़ुश्की के रास्ते पर, जैसा कि क़ुरआन में कहा गया है, यमन से शाम की सरहदों तक सबाइयों की नौआबादियाँ लगातार क़ायम थीं और रात-दिन उनके तिजारती क़ाफ़िले यहाँ से गुज़रते रहते थे। आज तक उनमें से बहुत-सी नौआबादियों की निशानियाँ इस इलाक़े में मौजूद हैं और वहाँ सबाई और हिमयरी ज़बान के कतबे मिल रहे हैं। पहली सदी ईसवी के लगभग जमाने में इस तिजारत में गिरावट होनी शुरू हो गई। मशरिक़े-औसत (मध्यपूर्व) में जब यूनानियों और फिर रूमियों की ताक़तवर हुकूमतें क़ायम हुईं तो शोर मचना शुरू हुआ कि अरब ताजिर अपनी ठेकेदारी के सबब पूरब के कारोबारी माल की मनमानी क़ीमतें वुसूल कर रहे हैं और ज़रूरत है कि हम ख़ुद इस मैदान में आगे बढ़कर इस तिजारत पर क़ब्ज़ा करें। इस ग़रज़ के लिए सबसे पहले मिस्र के यूनानी नस्ल के बादशाह बतलीमूस सानी (द्वितीय) (285-246 ई० पू०) ने उस पुरानी नहर को फिर से खोला जो 17 सौ साल पहले फ़िरऔन सिस्वसतिरीस ने नील नदी को लाल सागर से मिलाने के लिए ख़ुदवाई थी। इस नहर के ज़रिए से मिस्र का समुद्री बेड़ा पहली बार लाल सागर में दाख़िल हुआ। लेकिन सबाइयों के मुक़ाबले में यह कोशिश ज़्यादा काम न आ सकी। फिर जब मिस्र पर रूम (रोम) का क़ब्ज़ा हुआ तो रूमी ज़्यादा ताक़तवर तिजारती बेड़ा लाल सागर में ले आए और उसकी पीठ पर उन्होंने एक जंगी बेड़ा भी लाकर डाल दिया। इस ताक़त का मुक़ाबला सबाइयों के बस में न था। रूमियों ने जगह-जगह बन्दरगाहों पर अपनी तिजारती नौआबादियाँ (कॉलोनियाँ) क़ायम कीं, उनमें जहाज़ों की ज़रूरतें जुटाने का इन्तिज़ाम किया और जहाँ मुमकिन हुआ, वहाँ अपने फ़ौजी दस्ते भी रख दिए। यहाँ तक कि एक वक़्त वह आ गया कि अदन पर रूमियों का फ़ौजी क़ब्ज़ा क़ायम हो गया। इसी सिलसिले में रूमी और हबशी सल्तनतों ने सबाइयों के मुक़ाबले में आपस में साँठ-गाँठ भी कर ली, जिसकी बदौलत आख़िरकार इस क़ौम की आज़ादी तक ख़त्म हो गई। समुद्री कारोबार हाथ से निकाल जाने के बाद सिर्फ़ ख़ुश्की की तिजारत सबाइयों के पास रह गई थी। मगर बहुत-सी वजहों ने धीरे-धीरे उसकी कमर भी तोड़ दी। पहले नबतियों ने पेट्रा से अल-उला तक ऊपरी हिजाज़ और जॉर्डन की तमाम कालोनियों से सबाइयों को निकाल बाहर किया। फिर 106 ई० में रूमियों ने नब्ती सल्तनत का ख़ातिमा कर दिया और हिजाज़ की सरहद तक शाम और जॉर्डन के तमाम इलाक़े उनके मज़बूत हाथों में चले गए। इसके बाद हब्शा और रूम दोनों की कोशिश यह रही कि सबाइयों की आपसी कश्मकश से फ़ायदा उठाकर उनकी तिजारत को बिलकुल तबाह कर दिया जाए। इसी वजह से हबशी बार-बार यमन में दख़ल देते रहे, यहाँ तक कि आख़िरकार उन्होंने पूरे देश पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस तरह अल्लाह तआला के ग़ज़ब ने इस क़ौम को इन्तिहाई बुलन्दी से गिराकर उस गढ़े में फेंक दिया जहाँ से फिर कोई ग़ज़ब में घिरी क़ौम कभी सर नहीं निकाल सकी है। एक वक़्त था कि उसकी दौलत की कहानियाँ सुन-सुनकर यूनान और रूमवालों के मुँह में पानी भर आता था। स्ट्राबो लिखता है कि ये लोग सोने-चाँदी के बरतन इस्तेमाल करते हैं और उनके मकानों की छतों, दीवारों और दरवाज़ों तक में हाथी दाँत, सोने-चाँदी और जवाहर का काम बना हुआ होता है। पलीनी कहता है कि रूम और फ़ारस की दौलत उनकी तरफ़ बही चली जा रही है, ये उस वक़्त दुनिया की सबसे ज़्यादा मालदार क़ौम हैं और उनका सरसब्ज़ और हरा-भरा देश बाग़ों, खेतियों और मवेशियों से भरा हुआ है। आर. टी. मेडोर्स कहता है कि ये लोग ऐश में मस्त हो रहे हैं और जलाने की लकड़ी के बजाय दारचीनी, चन्दन और दूसरी ख़ुश्बूदार लकड़ियाँ जलाते हैं। इसी तरह दूसरे यूनानी इतिहासकार बयान करते हैं कि उनके इलाक़े के क़रीब समुद्र-तटों से गुज़रते हुए तिजारती जहाज़ों तक ख़ुशबू की लपटें पहुँचती हैं। उन्होंने इतिहास में पहली बार सनआ के ऊँचे पहाड़ी मक़ाम पर आसमान से बातें करनेवाली वह इमारत (Sky Scraper) बनाई जो ग़ुमदान के महल के नाम से सदियों तक मशहूर रही है। अरब इतिहासकारों का बयान है कि उसकी बीस मंज़िलें थीं और हर मंज़िल 36 फ़िट ऊँची थी। यह सब कुछ बस उसी वक़्त तक रहा जब तक अल्लाह की मेहरबानी उनके साथ रही। आख़िरकार जब उन्होंने नाशुक्री की हद कर दी तो क़ुदरत रखनेवाले रब (ख़ुदा) की मेहरबानी की नज़र हमेशा के लिए उनसे फिर गई और उनका नामो-निशान तक बाक़ी न रहा।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا لَهُمۡ فِيهِمَا مِن شِرۡكٖ وَمَا لَهُۥ مِنۡهُم مِّن ظَهِيرٖ ۝ 21
(22) (ऐ नबी,38 इन मुशरिकों से) कहो कि पुकार देखो अपने उन माबूदों को जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा अपना माबूद समझे बैठे हो।39 वे न आसमानों में किसी ज़र्रा भर चीज़ के मालिक हैं, न ज़मीन में। वे आसमान और ज़मीन की मिलकियत में शरीक भी नहीं हैं। उनमें से कोई अल्लाह का मददगार भी नहीं है।
38. पिछले दो रुकूओं (आयतें—1 से 21) में आख़िरत के बारे में मुशरिकों के ग़लत ख़यालात पर बात की गई थी। अब तक़रीर का रुख़ शिर्क को रद्द करने की तरफ़ फिर रहा है।
39. यानी अल्लाह तो यूँ लोगों और क़ौमों और सल्तनतों की क़िस्मतें बनाता और बिगाड़ता है, जैसा कि अभी तुम दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) और सबा क़ौम के ज़िक्र में सुन चुके हो। अब ज़रा अपने इन बनावटी माबूदों को पुकारकर देख लो, क्या इनमें भी यह ताक़त है कि किसी की तरक़्क़ी को गिरावट से, या गिरावट को तरक़्क़ी से बदल सकें?
وَلَا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ عِندَهُۥٓ إِلَّا لِمَنۡ أَذِنَ لَهُۥۚ حَتَّىٰٓ إِذَا فُزِّعَ عَن قُلُوبِهِمۡ قَالُواْ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمۡۖ قَالُواْ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 22
(23) और अल्लाह के सामने कोई सिफ़ारिश भी किसी के लिए फ़ायदेमन्द नहीं हो सकती, सिवाय उस शख़्स के जिसके लिए अल्लाह ने सिफ़ारिश की इजाज़त दी हो,40 यहाँ तक कि जब लोगों के दिलों से घबराहट दूर होगी तो वे (सिफ़ारिश करनेवालों से) पूछेगे कि तुम्हारे रब ने क्या जवाब दिया। वे कहेंगे कि ठीक जवाब मिला है और वह बुज़ुर्ग और बरतर है।41
40. यानी किसी का ख़ुद मालिक होना, या मिलकियत में शरीक होना, या ख़ुदा का मददगार होना तो एक तरफ़ रहा, सारी कायनात में कोई ऐसी हस्ती तक नहीं पाई जाती जो अल्लाह तआला के सामने किसी के हक़ में अपने तौर पर सिफ़ारिश कर सके। तुम लोग इस ग़लत-फ़हमी में पड़े हुए हो कि ख़ुदा के कुछ प्यारे ऐसे हैं, या ख़ुदा की ख़ुदाई में कुछ बन्दे ऐसे ज़ोरावर हैं कि वे अड़ बैठें तो ख़ुदा को उनकी सिफ़ारिश माननी ही पड़ेगी। हालाँकि वहाँ हाल यह है कि इजाज़त लिए बिना कोई ज़बान खोलने की हिम्मत नहीं कर सकता। जिसकी इजाज़त मिलेगी सिर्फ़ वही कुछ कह सकेगा और जिसके लिए सिफ़ारिश करने की इजाज़त मिलेगी, उसी के लिए सिफ़ारिश या गुज़ारिश की जा सकेगी। (सिफ़ारिश के इस्लामी अक़ीदे और मुशरिकाना अक़ीदे के फ़र्क़ को समझने के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—5 से 23; सूरा-11 हूद, हाशिए—84 से 106; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—61 से 79; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-86; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-27; सूरा-22 हज, हाशिया-125)।
41. यहाँ उस वक़्त का नक़्शा खींचा गया है जब क़ियामत के दिन कोई सिफ़ारिश करनेवाला किसी के हक़ में सिफ़ारिश की इजाज़त माँगेगा। इस नक़्शे में यह कैफ़ियत हमारे सामने आती है कि इजाज़त चाहने की दरख़ास्त भेजने के बाद सिफ़ारिश करनेवाला और जिसकी सिफ़ारिश की जा रही होगी, दोनों बहुत बेचैनी की हालत में डरते और काँपते हुए जवाब के इन्तिज़ार में खड़े हैं। आख़िरकार जब ऊपर से इजाज़त आ जाती है और सिफ़ारिश करनेवाले के चेहरे से सिफ़ारिश के इन्तिज़ार में खड़ा शख़्स भाँप जाता है कि मामला कुछ इत्मीनान-बख़्श है तो उसकी जान में जान आती है और वह आगे बढ़कर सिफ़ारिश करनेवाले से पूछता है, “क्या जवाब आया?” सिफ़ारिश करनेवाला जवाब देता है कि ठीक है इजाज़त मिल गई है। इस बयान का मक़सद जो बात ज़ेहन में बिठाना है, वह यह है कि नादानो! जिस बड़े दरबार की शान यह है उसके बारे में तुम किस ग़लत-फ़हमी में पड़े हुए हो कि वहाँ कोई अपने ज़ोर से तुमको माफ़ करवा लेगा या किसी की यह मजाल होगी कि वहाँ मचलकर बैठ जाए और अल्लाह से कहे कि यह तो मेरे क़रीबी हैं, इन्हें तो माफ़ करना ही पड़ेगा।
۞قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُلِ ٱللَّهُۖ وَإِنَّآ أَوۡ إِيَّاكُمۡ لَعَلَىٰ هُدًى أَوۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 23
(24) (ऐ नबी) इनसे पूछो, “कौन तुमको आसमानों और ज़मीन से रोज़ी देता है?” कहो, “अल्लाह।"42 अब लाज़िमन हममें और तुममें से कोई एक ही हिदायत पर है या खुली गुमराही में पड़ा हुआ है।"43
42. सवाल और जवाब के बीच में एक हल्की-सी ख़ाली जगह है। बात मुशरिकों से कही जा रही थी जो सिर्फ़ यही नहीं कि अल्लाह के वुजूद का इनकार न करते थे, बल्कि यह भी जानते और मानते थे कि रोज़ी की कुंजियाँ उसी के हाथ में हैं, मगर इसके बावजूद वे दूसरों को ख़ुदाई में शरीक ठहराते थे। अब जो उनके सामने यह सवाल पेश किया गया कि बताओ कौन तुम्हें आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है, तो वे मुश्किल में पड़ गए। अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लेते हैं तो ख़ुद अपने और अपनी क़ौम के अक़ीदे के ख़िलाफ़ बात कहते हैं। हठधर्मी की बुनियाद पर ऐसी बात कह भी दें तो डरते हैं कि ख़ुद अपनी क़ौम के लोग ही इसको रद्द करने के लिए उठ खड़े होंगे और अगर मान लेते हैं कि अल्लाह ही रोज़ी देनेवाला है तो फ़ौरन दूसरा सवाल यह सामने आ जाता है कि फिर ये दूसरे किस रोग की दवा हैं जिन्हें तुमने ख़ुदा बना रखा है? रोज़ी तो दे अल्लाह और पूजे जाएँ ये, आख़िर तुम्हारी अक़्ल कहाँ मारी गई है कि इतनी बात भी नहीं समझते। इस दो-तरफ़ा मुश्किल में पड़कर वे हैरान रह जाते हैं। न यह कहते हैं कि अल्लाह ही रोज़ी देनेवाला है, न यह कहते हैं कि रोज़ी देनेवाला कोई दूसरा माबूद है। पूछनेवाला जब देखता है कि ये लोग कुछ नहीं बोलते, तो वह ख़ुद अपने सवाल का जवाब देता है कि 'अल्लाह'।
43. इस जुमले में तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) की हिकमत का एक अहम नुक्ता (Point) छिपा है। ऊपर के सवाल-जवाब का अली नतीजा यह था कि जो अल्लाह ही की बन्दगी और इबादत करता है, वह हिदायत पर हो और जो उसके सिवा दूसरों की बन्दगी करता है वह गुमराही में पड़ा हो। इस बुनियाद पर बज़ाहिर तो इसके बाद कहना यह चाहिए था कि हम हिदायत पर हैं और तुम गुमराह हो। लेकिन इस तरह दोटूक बात कह देना सच बोलने के एतिबार से चाहे कितना ही दुरुस्त होता, तबलीग़ की हिकमत के लिहाज़ से दुरुस्त न होता, क्योंकि जब किसी शख़्स को मुख़ातब (सम्बोधित) करके आप साफ़-साफ़ गुमराह कह दें और ख़ुद अपने हिदायत पर होने का दावा करें तो वह ज़िद में मुब्तला हो जाएगा और सच्चाई के लिए उसके दिल के दरवाज़े बन्द हो जाएँगे। अल्लाह के रसूल चूँकि सिर्फ़ सच बोलने के लिए नहीं भेजे जाते, बल्कि उनके सिपुर्द यह काम भी होता है कि ज़्यादा से ज़्यादा हिकमत भरे तरीक़े से बिगड़े हुए लोगों को सुधारें, इसलिए अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया कि ऐ नबी, इस सवाल-जवाब के बाद अब तुम इन लोगों से साफ़-साफ़ कह दो कि तुम सब गुमराह हो और हिदायत पर सिर्फ़ हम हैं। इसके बजाय नसीहत यह की गई कि उन्हें अब यूँ समझाओ। उनसे कहो कि हमारे और तुम्हारे बीच यह फ़र्क़ तो खुल गया कि हम उसी माबूद (उपास्य) को मानते हैं जो रोज़ी देनेवाला है और तुम उनको माबूद बना रहे हो जो रोज़ी देनेवाले नहीं हैं। अब यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि हम और तुम दोनों एक ही वक़्त में सीधी राह पर हों। इस साफ़ फ़र्क़ के साथ तो हममें से एक ही सही राह पर हो सकता है और दूसरा ज़रूर गुमराह ठहरता है। इसके बाद यह सोचना तुम्हारा अपना काम है कि दलील किसके सही राह पर होने का फ़ैसला कर रही है और कौन उसके मुताबिक़ गुमराह है।
قُل لَّا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّآ أَجۡرَمۡنَا وَلَا نُسۡـَٔلُ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 24
(25) इनसे कहो, “जो क़ुसूर हमने किया हो। उसकी कोई पूछ-गछ तुमसे न होगी और जो कुछ तुम कर रहे हो उसका कोई जवाब हमसे न माँगा जाएगा।"44
44. ऊपर की बात सुननेवालों को पहले ही सोचने पर मजबूर कर चुकी थी। इसपर एक जुमला यह भी कह दिया गया कि ताकि वे और ज़्यादा ग़ौर-फ़िक्र से काम लें। इससे उनको यह एहसास दिलाया गया कि हिदायत और गुमराही के इस मामले का ठीक-ठीक फ़ैसला करना हममें से हर एक के अपने मफ़ाद (हितों) का तक़ाज़ा है। मान लो कि हम गुमराह हैं तो अपनी इस गुमराही का ख़मियाज़ा हम ही भुगतेंगे, तुमपर इसकी कोई पकड़ न होगी। इसलिए यह हमारे अपने मफ़ाद (हितों) का तक़ाज़ा है कि कोई अक़ीदा अपनाने से पहले ख़ूब सोच-समझ लें कि कहीं हम ग़लत राह पर तो नहीं जा रहे हैं। इसी तरह तुमको भी हमारी किसी ग़रज़ के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद अपनी ही भलाई के लिए एक अक़ीदे पर जमने से पहले अच्छी तरह सोच लेना चाहिए कि कहीं तुम किसी ग़लत नज़रिए पर तो अपनी ज़िन्दगी की सारी पूँजी नहीं लगा रहे हो। इस मामले में अगर तुमने ठोकर खाई तो तुम्हारा अपना ही नुक़सान होगा, हमारा कुछ न बिगड़ेगा।
قُلۡ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَا رَبُّنَا ثُمَّ يَفۡتَحُ بَيۡنَنَا بِٱلۡحَقِّ وَهُوَ ٱلۡفَتَّاحُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 25
(26) कहो, “हमारा रब हमको इकट्ठा करेगा, फिर हमारे बीच ठीक-ठीक फ़ैसला कर देगा। वह ऐसा ज़बरदस्त हाकिम है जो सब कुछ जानता है।"45
45. यह इस मामले पर ग़ौर करने के लिए आख़िरी और सबसे बड़ी आमादा करनेवाली और उभारनेवाली बात है जिसकी तरफ़ सुननेवालों को ध्यान दिलाया गया है। बात इसी हद पर ख़त्म नहीं हो जाती कि इस ज़िन्दगी में हमारे और तुम्हारे बीच हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) का इख़्तिलाफ़ है और हममें से कोई एक ही हक़ पर है, बल्कि इसके आगे अस्ल हक़ीक़त यह भी है कि हमें और तुम्हें, दोनों ही को अपने रब के सामने हाज़िर होना है और रब वह है जो हक़ीक़त को भी जानता है और हम दोनों गरोहों के हालात से भी पूरी तरह बाख़बर है। वहाँ जाकर न सिर्फ़ इस बात का फ़ैसला होगा कि हममें और तुममें से सही रास्ते पर कौन था और ग़लत रास्ते पर कौन, बल्कि इस मुक़द्दमे का फ़ैसला भी हो जाएगा कि हमने तुमपर हक़ खोल देने के लिए क्या कुछ किया और तुमने बातिल-परस्ती की ज़िद में आकर हमारी मुख़ालफ़त किस-किस तरह की।
قُلۡ أَرُونِيَ ٱلَّذِينَ أَلۡحَقۡتُم بِهِۦ شُرَكَآءَۖ كَلَّاۚ بَلۡ هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 26
(27) इनसे कहो, “ज़रा मुझे दिखाओ तो सही वे कौन हस्तियाँ हैं जिन्हें तुमने उसके साथ शरीक लगा रखा है।46 हरगिज़ नहीं, ज़बरदस्त और हिकमतवाला तो बस वह अल्लाह ही है।
46. यानी इससे पहले कि तुम इन माबूदों के भरोसे पर इतना बड़ा ख़तरा मोल लो, ज़रा मुझे यही बता दो कि इनमें से कौन इतना ज़ोरावर है कि अल्लाह की अदालत में वह तुम्हारा हिमायती बनकर उठ सकता हो और तुम्हें उसकी पकड़ से बचा सकता हो।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا كَآفَّةٗ لِّلنَّاسِ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 27
(28) और (ऐ नबी), हमने तुमको तमाम ही इनसानों के लिए ख़ुशख़बरी सुनानेवाला और ख़बरदार करनेवाला मगर ज़्यादा तर लोग जानते नहीं हैं।47
47. यानी तुम सिर्फ़ इसी शहर, या इसी देश, या इसी ज़माने के लोगों के लिए नहीं, बल्कि तमाम दुनिया के इनसानों के लिए और हमेशा के लिए नबी बनाकर भेजे गए हो। मगर ये तुम्हारे ज़माने के तुम्हारे वतन के लोग तुम्हारी क़द्र और तुम्हारे मंसब को नहीं समझते और इनको एहसास नहीं है कि कैसी बड़ी हस्ती को नबी की हैसियत से उनके पास भेजकर इनको ख़ुशनसीबी अता की गई है। यह बात कि नबी (सल्ल०) सिर्फ़ अपने देश या अपने ज़माने के लिए नहीं, बल्कि क़ियामत तक सारे इनसानों के लिए भेजे गए हैं, क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान की गई है। मिसाल के तौर पर— "और मेरी तरफ़ यह क़ुरआन वह्य किया गया है ताकि इसके ज़रिए से मैं तुमको ख़बरदार करूँ और हर उस शख़्स को जिसे यह पहुँचे।” (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-197) "ऐ नबी, कह दो कि ऐ इनसानो, मैं तुम सबकी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूँ।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-158) “और ऐ नबी, हमने नहीं भेजा तुमको, मगर तमाम दुनियावालों के लिए रहमत के तौर पर।” (क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, आयत-107) “बड़ी बरकतवाला है वह जिसने अपने बन्दे पर फ़ुरक़ान (कसौटी) उतारा ताकि वह तमाम जहानवालों के लिए ख़बरदार करनेवाला हो।" (क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-1) यही बात नबी (सल्ल०) ने ख़ुद भी बहुत-सी हदीसों में अलग-अलग तरीक़ों से बयान की है। मिसाल के तौर पर— "मैं काले और गोरे सबकी तरफ़ भेजा गया हूँ।" (हदीस : मुसनद अहमद) “मैं आम तौर से तमाम इनसानों की तरफ़ भेजा गया हूँ। हालाँकि मुझसे पहले जो नबी भी गुज़रा है, वह अपनी क़ौम की तरफ़ भेजा जाता था।" (हदीस : मुसनद अहमद) “पहले हर नबी ख़ास अपनी क़ौम की तरफ़ भेजा जाता था और मैं तमाम इनसानों के लिए भेजा गया हूँ।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) "मेरा भेजा जाना और क़ियामत इस तरह हैं,” यह कहते हुए नबी (सल्ल०) ने अपनी दो उँगलियाँ उठाईं। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) मतलब यह था कि जिस तरह इन दो उँगलियों के बीच कोई तीसरी उँगली रुकावट नहीं है इसी तरह मेरे और क़ियामत के बीच भी कोई नुबूवत नहीं है। मेरे बाद बस क़यामत ही है। और क़यामत तक मैं ही नबी रहनेवाला हूँ।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 28
(29) ये लोग तुमसे कहते हैं कि वह (क़ियामत का) वादा कब पूरा होगा, अगर तुम सच्चे हो?48
48. यानी जिस वक़्त के बारे में अभी तुमने कहा है कि “हमारा रब हमको इकट्ठा करेगा और हमारे बीच ठीक-ठीक फ़ैसला कर देगा,” वह वक़्त आख़िर कब आएगा? एक मुद्दत से हमारा और तुम्हारा मुक़द्दमा चल रहा है। हम तुम्हें बार-बार झुठला चुके हैं और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी मुख़ालफ़त किए जा रहे हैं। अब इसका फ़ैसला क्यों नहीं कर डाला जाता?
قُل لَّكُم مِّيعَادُ يَوۡمٖ لَّا تَسۡتَـٔۡخِرُونَ عَنۡهُ سَاعَةٗ وَلَا تَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 29
(30) कहो, तुम्हारे लिए एक ऐसे दिन का वक़्त मुक़र्रर है जिसके आने में न एक घड़ी भर की देर तुम कर सकते हो और न एक घड़ी भर पहले उसे ला सकते हो।49
49. दूसरे अलफ़ाज़ में इस जवाब का मतलब यह है कि अल्लाह तआला के फ़ैसले तुम्हारी ख़ाहिशों के तहत नहीं हैं कि किसी काम के लिए जो वक़्त तुम मुक़र्रर करो, उसी वक़्त पर वह उस काम को करने का पाबन्द हो। अपने मामलों को वह अपनी ही समझ के मुताबिक़ अंजाम देता है। तुम इसे क्या समझ सकते हो कि अल्लाह की स्कीम में इनसानों को कब तक इस दुनिया के अन्दर काम करने का मौक़ा मिलना है, कितने लोग और कितनी क़ौमों को किस-किस तरह आज़माइश होनी है और कौन-सा वक़्त इसके लिए मुनासिब है कि इस दफ़्तर को लपेट दिया जाए और शुरू से आख़िर तक के तमाम इनसानों को हिसाब के लिए बुला लिया जाए। इस काम का जो वक़्त अल्लाह ही की स्कीम में मुक़र्रर है, उसी वक़्त पर यह काम होगा। न तुम्हारे तक़ाज़ों से वह वक़्त एक सेकेण्ड पहले आएगा और न तुम्हारी इलतिजाओं (विनतियों) से वह एक सेकेण्ड के लिए टल सकेगा।
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُوٓاْ أَنَحۡنُ صَدَدۡنَٰكُمۡ عَنِ ٱلۡهُدَىٰ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَكُمۖ بَلۡ كُنتُم مُّجۡرِمِينَ ۝ 30
(32) वे बड़े बननेवाले इन दबे हुए लोगों को जवाब देंगे, “क्या हमने तुम्हें उस हिदायत से रोका था जो तुम्हारे पास आई थी? नहीं, बल्कि तुम ख़ुद मुजरिम थे।52
52. यानी वे कहेंगे कि हमारे पास ऐसी कोई ताक़त न थी जिससे हम कुछ इनसान तुम करोड़ों इनसानों को ज़बरदस्ती अपनी पैरवी पर मजबूर कर देते। अगर तुम ईमान लाना चाहते तो हमारी सरदारियों और पेशवाइयों और हुकूमतों का तख़्ता उलट सकते थे। हमारी फ़ौज तो तुम ही थे। हमारी दौलत और ताक़त का सरचश्मा (मूलस्रोत) तो तुम्हारे ही हाथ में था। तुम नज़राने और टैक्स न देते तो हम कंगाल थे। तुम हमारे हाथ पर बैअत (फ़रमाँबरदारी का वादा) न करते तो हमारी पीरी एक दिन न चलती। तुम ज़िन्दाबाद के नारे न मारते तो कोई हमारा पूछनेवाला न होता। तुम हमारी फ़ौज बनकर दुनिया भर से हमारे लिए लड़ने पर तैयार न होते तो एक इनसान पर भी हमारा बस न चल सकता था। अब क्यों नहीं मानते कि अस्ल में तुम ख़ुद उस रास्ते पर न चलना चाहते थे जो रसूलों ने तुम्हारे सामने पेश किया था। तुम अपने फ़ायदों और ख़ाहिशों के बन्दे थे और तुम्हारे मन की यह माँग रसूलों की बताई हुई राहे-तक़वा (परहेज़गारी के रास्ते) के बजाय हमारे यहाँ पूरी होती थी। तुम हराम-हलाल से बेपरवाह होकर दुनिया के ऐश को तलबगार थे और वह हमारे पास ही तुम्हें नज़र आता था। तुम ऐसे पीरों की तलाश में थे जो तुम्हें हर तरह के गुनाहों की खुली छूट दें और कुछ नज़राना लेकर ख़ुदा के यहाँ तुम्हें माफ़ करवाने की ख़ुद ज़िम्मेदारी ले लें। तुम ऐसे पंडितों और मौलवियों के तलबगार थे जो हर शिर्क और बिदअत और तुम्हारे मन की हर दिलपसन्द चीज़ को बिलकल हक़ साबित करके तुम्हारा दिल ख़ुश करें और अपना काम बनाएँ। तुमको ऐसे जालसाज़ों की ज़रूरत थी जो ख़ुदा के दीन को बदलकर तुम्हारी ख़ाहिशों के मुताबिक़ एक नया दीन गढ़ें। तुमको ऐसे लीडर चाहिए थे जो किसी-न-किसी तरह तुम्हारी दुनिया बना दें, चाहे आख़िरत बिगड़े या दुरुस्त हो। तुमको ऐसे हाकिम चाहिए, थे जो ख़ुद बदकार और बेईमान हों और उनकी सरपरस्ती में तुम्हें हर तरह के गुनाहों और बुराइयों की छूट मिली रहे। इस तरह हमारे और तुम्हारे बीच बराबर के लेन-देन का सौदा हुआ था। अब तुम कहाँ यह ढोंग रचाने चले हो कि मानो तुम बड़े भोले-भाले लोग थे और हमने ज़बरदस्ती तुम्हें बिगाड़ दिया था।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ بَلۡ مَكۡرُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ إِذۡ تَأۡمُرُونَنَآ أَن نَّكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَنَجۡعَلَ لَهُۥٓ أَندَادٗاۚ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۚ وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَغۡلَٰلَ فِيٓ أَعۡنَاقِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 31
(33) वे दबे हुए लोग इन बड़े बननेवालों से कहेंगे, “नहीं, बल्कि रात-दिन की मक्कारी थी जब तुम हमसे कहते थे कि हम अल्लाह से कुफ़्र (इनकार) करें और दूसरों को उसके बराबर ठहराएँ।”53 आख़िरकार जब ये लोग अज़ाब देखेंगे तो अपने दिलों में पछताएँगे और हम इन इनकार करनेवालों के गलों में तौक़ डाल देंगे। क्या लोगों को इसके सिवा और कोई बदला दिया जा सकता कि जैसे आमाल उनके थे, वैसा ही बदला ये पाएँ?
53. दूसरे अलफ़ाज़ में उन आम लोगों का जवाब यह होगा कि तुम इस ज़िम्मेदारी में हमको बराबर का साझी कहाँ ठहराए दे रहे हो। कुछ यह भी याद है कि तुमने अपनी चालबाज़ियों, मक्कारियों, धोखाधड़ी और झूठे प्रापेगण्डे से क्या जादू कर रखा था और रात-दिन अल्लाह के बन्दों को फाँसने के लिए कैसे-कैसे जतन तुम किया करते थे। मामला सिर्फ़ इतना ही तो नहीं है कि तुमने हमारे सामने दुनिया पेश की और हम उसपर रीझ गए। अस्ल बात यह भी तो है कि तुम रात-दिन की मक्कारियों से हमको बेवक़ूफ़ बनाते थे और तुममें से हर शिकारी रोज़ एक नया जाल बुनकर तरह-तरह की तदबीरों से अल्लाह के बन्दों को उसमें फाँसता था। क़ुरआन मजीद में पेशवाओं और पैरोकारों के इस झगड़े का ज़िक्र अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से आया है। तफ़सील के लिए नीचे लिखी जगहों को देखिए; सूरा-7 आराफ़, आयतें—38, 39; सूरा-14 इबराहीम, आयत-21; सूरा-28 क़सस, आयत-63; सूरा-33 अहज़ाब, आयतें—66 से 68; सूरा-40 मोमिन, आयतें—47, 48; सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयत-29।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 32
(34) कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने किसी बस्ती में एक ख़बरदार करनेवाला भेजा हो और उस बस्ती के खाते-पीते लोगों ने यह न कहा हो कि जो पैग़ाम तुम लेकर आए हो, उसको हम नहीं मानते।54
54. यह बात क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर बयान की गई है कि नबियों की दावत का मुक़ाबला सबसे पहले और सबसे आगे बढ़कर उन ख़ुशहाल तबक़ों ने किया है जो दौलत, शानो-शौकत और रुसूख़ और ताक़त के मालिक थे। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए; सूरा-6 अनआम, आयत-123; सूरा-7 आराफ़, आयतें—60, 66, 75, 88, 90; सूरा-11 हूद, आयत-27; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-16; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—24, 33 से 38, 46, 47; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-23।
وَقَالُواْ نَحۡنُ أَكۡثَرُ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 33
(35) उन्होंने हमेशा यही कहा कि हम तुमसे ज़्यादा माल-औलाद रखते हैं और हम हरगिज़ सज़ा पानेवाले नहीं हैं।55
55. उनकी दलील यह थी कि हम तुमसे ज़्यादा अल्लाह के प्यारे और पसन्दीदा लोग हैं, जब ही तो उसने हमको ये नेमतें दी हैं जिनसे तुम महरूम हो, या कम-से-कम हमसे कमतर हो। अगर अल्लाह हमसे राज़ी न होता तो यह सरो-सामान और यह दौलत और शानो-शौकत हमें क्यों देता। अब यह बात हम कैसे मान लें कि अल्लाह यहाँ तो हमपर नेमतों की बारिश कर रहा है और आख़िरत में जाकर हमें अज़ाब देगा। अज़ाब होना है तो उनपर होना है जो यहाँ उसकी मेहरबानियों से महरूम हैं। क़ुरआन मजीद में दुनिया-परस्तों की इस ग़लत-फ़हमी का भी जगह-जगह ज़िक्र करके उसको ग़लत बताया गया है। मिसाल के तौर पर आगे लिखी जगहें देखिए; सूरा-2 बक़रा, आयतें—126, 212; सूरा-9 तौबा, आयतें—55, 69; सूरा-11 हूद, आयतें—3, 27; सूरा-13 रअद, आयत-26; सूरा-18 कह्फ़, आयतें—34 से 43; सूरा-19 मरयम, आयतें—73 से 77; सूरा-20 ता-हा, आयत-131; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—55 से 61; सूरा-26 शुअरा, आयत-111; सूरा-28 क़सस, आयतें—76 से 83; सूरा-30 रूम, आयत-9; सूरा-74 मुद्दस्सिर, आयतें—11 से 26; सूरा-89 फ़ज़, आयतें—15 से 20।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 34
(36) ऐ नबी, इनसे कहो कि मेरा रब जिसे चाहता है, कुशादा रोज़ी देता है और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है, मगर ज़्यादा तर लोग इसकी हक़ीक़त नहीं जानते।"56
56. यानी दुनिया में रोज़ी की तक़सीम के इन्तिज़ाम का दारोमदार जिस हिकमत और मस्लहत पर है, उसको ये लोग नहीं समझते और इस ग़लत-फ़हमी में पड़ जाते हैं कि जिसे अल्लाह कुशादा रोज़ी दे रहा है, वह उसका प्यारा है और जिसे तंगी के साथ दे रहा है, वह उसके ग़ज़ब में मुब्तला है। हालाँकि अगर कोई शख़्स ज़रा आँखें खोलकर देखे तो उसे दिखाई दे सकता है कि कई बार बड़े नापाक और घिनौने किरदार के लोग बहुत ख़ुशहाल होते हैं और बहुत-से नेक और शरीफ़ इनसान, जिनके किरदार की ख़ूबी को हर शख़्स मानता है, तंगदस्ती में मुब्तला पाए जाते हैं। अब आख़िर कौन अक़्लमन्द आदमी यह कह सकता है कि अल्लाह को ये पाकीज़ा अख़लाक़ लोग नापसन्द हैं और वे शरारती और बुरे लोग ही उसे भले लगते हैं।
وَمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُم بِٱلَّتِي تُقَرِّبُكُمۡ عِندَنَا زُلۡفَىٰٓ إِلَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَزَآءُ ٱلضِّعۡفِ بِمَا عَمِلُواْ وَهُمۡ فِي ٱلۡغُرُفَٰتِ ءَامِنُونَ ۝ 35
(37) यह तुम्हारी दौलत और तुम्हारी औलाद नहीं है जो तुम्हें हमसे क़रीब करती हो। हाँ, मगर जो ईमान लाए और नेक अमल करे।57 यही लोग हैं जिनके लिए उनके अमल का दोहरा बदला है और वे ऊँची-ऊँची इमारतों में इत्मीनान से रहेंगे।58
57. इसके दो मतलब हो सकते हैं और दोनों ही सही हैं। एक यह कि अल्लाह से क़रीब करनेवाली चीज़ माल और औलाद नहीं है, बल्कि ईमान और नेक अमल है। दूसरा यह कि माल और औलाद सिर्फ़ उस भले और ईमानवाले इनसान ही के लिए (अल्लाह से) क़रीब होने का ज़रिआ बन सकते हैं, जो अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करे और अपनी औलाद को अच्छी तालीम-तरबियत से ख़ुदा को पहचाननेवाला और भले किरदार की बनाने की कोशिश करे।
58. इसमें एक हल्का-सा इशारा इस बात की तरफ़ भी है कि उनकी ये नेमत कभी ख़त्म न होनेवाली होगी और इस बदले का सिलसिला कभी न टूटेगा, क्योंकि जिस ऐश के कभी ख़त्म हो जाने का ख़तरा हो, उससे इनसान पूरी तरह मुत्मइन होकर मज़ा नहीं ले सकता। इस हालत में यह धड़का लगा रहता है कि न जाने कब यह सब कुछ छिन जाए।
وَٱلَّذِينَ يَسۡعَوۡنَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 36
(38) रहे वे लोग जो हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिए दौड़-धूप करते हैं, तो वे अज़ाब में मुब्तला होंगे।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُ لَهُۥۚ وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَهُوَ يُخۡلِفُهُۥۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 37
(39) ऐ नबी, इनसे कहो, “मेरा रब अपने बन्दों में से जिसे चाहता है, खुली रोज़ी देता है और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है।59 जो कुछ तुम ख़र्च कर देते हो, उसकी जगह वही तुमको और देता है, वह सब रोज़ी देनेवालों से बेहतर रोज़ी देनेवाला है।60
59. इस बात को बार-बार बयान करने का मक़सद इस बात पर ज़ोर देना है कि रोज़ी का कम-ज़्यादा होना अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) से ताल्लुक़ रखता है, न कि उसकी ख़ुशी से। अल्लाह की मशीयत के तहत अच्छे और बुरे हर तरह के इनसानों को रोज़ी मिल रही है। ख़ुदा को माननेवाले भी रोज़ी पा रहे हैं और उसका इनकार करनेवाले भी। न रोज़ी की बहुतायत इस बात की दलील है कि आदमी ख़ुदा का पसन्दीदा बन्दा है और न उसकी तंगी इस बात की निशानी है कि आदमी उसके ग़ुस्से का शिकार है। अल्लाह की मरज़ी के तहत एक ज़ालिम और बेईमान आदमी फलता-फूलता है, हालाँकि ज़ुल्म और बेईमानी ख़ुदा को पसन्द नहीं है और इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह की मरज़ी ही के तहत एक सच्चा और ईमानदार आदमी नुक़सान उठाता और तकलीफ़ें सहता है, हालाँकि ये सिफ़तें ख़ुदा को पसन्द हैं। लिहाज़ा वह शख़्स सख़्त गुमराह है जो माद्दी (भौतिक) फ़ायदों को भलाई और बुराई का पैमाना ठहरा देता है। अस्ल चीज़ ख़ुदा की रिज़ा (ख़ुशी) है और वह उन अख़लाक़ी ख़ूबियों से हासिल होती है जो ख़ुदा को पसन्द हैं। उन ख़ूबियों के साथ अगर किसी को दुनिया की नेमतें हासिल हों तो यह बेशक ख़ुदा की मेहरबानी है जिसपर शुक्र अदा करना चाहिए। लेकिन अगर एक शख़्स अख़लाक़ी ख़ूबियों के लिहाज़ से ख़ुदा का बाग़ी (विद्रोही) और नाफ़रमान बन्दा हो और उसके साथ दुनिया की नेमतें भी उसे दी जा रही हों तो इसका मतलब यह है कि वह सख़्त पूछ-गछ और बहुत बुरे अज़ाब के लिए तैयार हो रहा है।
60. रोज़ी देनेवाला, बनानेवाला, ईजाद करनेवाला, देनेवाला और ऐसी ही दूसरी बहुत-सी सिफ़तें ऐसी हैं जो अस्ल में तो अल्लाह तआला ही की सिफ़तें हैं, मगर अलामती (लाक्षणिक) तौर पर बन्दों से भी जुड़ जाती हैं। मसलन हम एक आदमी के बारे में कहते हैं कि उसने फ़ुलाँ शख़्स के रोज़गार का इन्तिज़ाम कर दिया, या उसने यह तोहफ़ा दिया, या उसने फ़ुलाँ चीज़ बनाई या ईजाद की। इसी लिहाज़ से अल्लाह तआला ने अपने लिए 'ख़ैरुर-राज़िक़ीन' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है। यानी जिन-जिनके बारे में तुम गुमान रखते हो कि वे रोज़ी देनेवाले हैं उन सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला अल्लाह है।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ يَقُولُ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَهَٰٓؤُلَآءِ إِيَّاكُمۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ۝ 38
(40) और जिस दिन वह तमाम इनसानों को इकट्ठा करेगा, फिर फ़रिश्तों से पूछेगा,"क्या ये लोग तुम्हारी ही इबादत किया करते थे?"61
61. पुराने ज़माने से आज तक हर दौर के मुशरिक लोग फ़रिश्तों को देवी-देवता ठहराकर उनके बुत बनाते और उनकी पूजा करते रहे हैं। कोई बारिश का देवता है तो कोई बिजली का और कोई हवा का। कोई दौलत की देवी है तो कोई इल्म की और कोई मौत और तबाही की। इसी के बारे में अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि क़ियामत के दिन इन फ़रिश्तों से पूछा जाएगा कि क्या तुम्हीं इन लोगों के माबूद (पूज्य) बने हुए थे? इस सवाल का मतलब सिर्फ़ हाल मालूम कर लेना नहीं है, बल्कि इसमें यह मतलब भी छिपा है कि क्या तुम इनकी इस इबादत से राज़ी थे? क्या तुमने यह कहा था कि लोगो, हम तुम्हारे माबूद हैं, तुम हमारी पूजा किया करो? या तुमने यह चाहा था कि ये लोग तुम्हारी पूजा करें? क़ियामत में यह सवाल सिर्फ़ फ़रिश्तों ही से नहीं, बल्कि तमाम उन हस्तियों से किया जाएगा जिनकी दुनिया में इबादत की गई है। चुनाँचे सूरा-25 फ़ुरक़ान में कहा गया है— “जिस दिन अल्लाह तआला इन लोगों को और उन हस्तियों को जिनकी ये अल्लाह के सिवा इबादत किया करते हैं जमा करेगा, फिर पूछेगा क्या तुमने मेरे इन बन्दों को गुमराह किया था या ये ख़ुद सीधे रास्ते से भटक गए थे?” (आयत-17)
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ أَنتَ وَلِيُّنَا مِن دُونِهِمۖ بَلۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ٱلۡجِنَّۖ أَكۡثَرُهُم بِهِم مُّؤۡمِنُونَ ۝ 39
(41) तो वे जवाब देंगे कि “पाक है आपकी हस्ती, हमारा ताल्लुक़ तो आपसे है, न कि इन लोगों से।62 अस्ल में ये हमारी नहीं, बल्कि जिन्नों की इबादत करते थे। इनमें से ज़्यादा तर उन्हीं पर ईमान लाए हुए थे।"63
62. यानी ये जवाब देंगे कि आप इससे पाक और उच्च हैं कि कोई दूसरा ख़ुदाई और माबूद होने में आपका शरीक हो। हमारा इन लोगों से कोई ताल्लुक़ नहीं। इनकी और इनके कामों की हमपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। हम तो आपके बन्दे हैं।
63. इस जुमले में जिन्न से मुराद शैतान जिन्न हैं। फ़रिश्तों के इस जवाब का मतलब यह है कि बज़ाहिर तो ये हमारे नाम लेकर और अपने ख़यालात के मुताबिक़ हमारी सूरतें बनाकर मानो हमारी इबादत करते थे, लेकिन अस्ल में ये हमारी नहीं, बल्कि शैतानों की बन्दगी कर रहे थे, क्योंकि शैतानों ही ने इनको यह रास्ता दिखाया था कि ख़ुदा को छोड़कर दूसरों को अपनी ज़रूरत पूरी करनेवाला समझो और उनके आगे भेंटें और चढ़ावे पेश किया करो। यह आयत साफ़ तौर पर उन लोगों के ख़याल की ग़लती वाज़ेह (स्पष्ट) कर देती है जो 'जिन्न' को पहाड़ी इलाक़े के रहनेवालों या देहातियों और रेगिस्तानी लोगों के मानी में लेते हैं। क्या कोई अक़्लमन्द आदमी इस आयत को पढ़कर यह सोच सकता है कि लोग पहाड़ी, रेगिस्तानी और देहाती आदमियों की इबादत किया करते थे और उन्हीं पर ईमान लाए हुए थे। इस आयत से इबादत के भी एक-दूसरे मतलब पर रौशनी पड़ती है। इससे मालूम होता है कि इबादत सिर्फ़ परस्तिश और पूजा-पाठ ही का नाम नहीं है, बल्कि किसी के हुक्म पर चलना और उसकी बिना ना-नुकुर फ़रमाँबरदारी करना भी इबादत ही है। यहाँ तक कि अगर आदमी किसी पर लानत भेजता हो जैसा कि शैतान पर भेजता है और फिर भी पैरवी उसी के तरीक़े की किए जा रहा हो तब भी वह उसकी इबादत कर रहा है। इसकी दूसरी मिसालों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-145; सूरा-5 माइदा, हाशिया-91; सूरा-9 तौबा, हाशिया-31; सूरा-19 मरयम, हाशिया-27; सूरा-28 क़सस, हाशिया-86।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يَمۡلِكُ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٖ نَّفۡعٗا وَلَا ضَرّٗا وَنَقُولُ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 40
(42) (उस वक़्त हम कहेंगे कि) आज तुममें से कोई न किसी को फ़ायदा पहुँचा सकता है, न नुक़सान और ज़ालिमों से हम कह देंगे कि अब चखो इस जहन्नम के अज़ाब का मज़ा जिसे तुम झुठलाया करते थे।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّا رَجُلٞ يُرِيدُ أَن يَصُدَّكُمۡ عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُكُمۡ وَقَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٞ مُّفۡتَرٗىۚ وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 41
(43) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं तो ये कहते हैं कि “यह आदमी तो बस यह चाहता है कि तुमको उन माबूदों से फेर दे जिनकी इबादत तुम्हारे बाप-दादा करते आए हैं।” और कहते हैं कि “यह (क़ुरआन) सिर्फ़ एक झूठ है गढ़ा हुआ।” इन इनकार करनेवालों के सामने जब हक़ आया तो इन्होंने कह दिया कि “यह तो खुला जादू है।”
وَمَآ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّن كُتُبٖ يَدۡرُسُونَهَاۖ وَمَآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ قَبۡلَكَ مِن نَّذِيرٖ ۝ 42
(44) हालाँकि न हमने इन लोगों को पहले कोई किताब दी थी कि ये इसे पढ़ते हों और न तुमसे पहले इनकी तरफ़ कोई ख़बरदार करनेवाला भेजा था।64
64. यानी इससे पहले न कोई किताब ख़ुदा की तरफ़ से ऐसी आई है और न कोई रसूल ऐसा आया है जिसने आकर इनको यह तालीम दी हो कि ये अल्लाह के सिवा दूसरों की बन्दगी और पूजा किया करें। इसलिए ये लोग किसी इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि सरासर जहालत की बुनियाद पर क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत का इनकार कर रहे हैं। इसके लिए इनके पास कोई सनद नहीं है।
وَكَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَمَا بَلَغُواْ مِعۡشَارَ مَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ فَكَذَّبُواْ رُسُلِيۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 43
(45) इनसे पहले गुज़रे हुए लोग झुठला चुके हैं। जो कुछ हमने उन्हें दिया था, उसके 100वें हिस्से को भी ये नहीं पहुँचे हैं। मगर जब इन्होंने मेरे रसूलों को झुठलाया तो देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।65
65. यानी मक्का के लोग तो उस ताक़त और शानो-शौकत और उस ख़ुशहाली के सौवें हिस्से को भी नहीं पहुँचे हैं जो उन क़ौमों को हासिल थी, मगर देख लो कि जब उन्होंने उन सच्चाइयों को मानने से इनकार किया जो पैग़म्बरों (अलैहि०) ने उनके सामने पेश की थीं और बातिल (ग़लत उसूलों) पर अपनी ज़िन्दगी के निज़ाम की बुनियाद रखी तो आख़िरकार वे किस तरह तबाह हुई और उनकी ताक़त और दौलत उनके किसी काम न आ सकी।
۞قُلۡ إِنَّمَآ أَعِظُكُم بِوَٰحِدَةٍۖ أَن تَقُومُواْ لِلَّهِ مَثۡنَىٰ وَفُرَٰدَىٰ ثُمَّ تَتَفَكَّرُواْۚ مَا بِصَاحِبِكُم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ لَّكُم بَيۡنَ يَدَيۡ عَذَابٖ شَدِيدٖ ۝ 44
(46) ऐ नबी, इनसे कहो कि “मैं तुम्हें बस एक बात की नसीहत करता हूँ। ख़ुदा के लिए तुम अकेले-अकेले और दो-दो मिलकर अपना दिमाग़ लड़ाओ और सोचो, तुम्हारे साहब में आख़िर ऐसी कौन-सी बात है जो पागलपन की हो?66 वह तो एक सख़्त अज़ाब के आने से पहले तुमको ख़बरदार करनेवाला है।"67
66. यानी निज़ी फ़ायदों, ख़ाहिशों और तास्सुबात (पक्षपातों) से पाक होकर ख़ालिस अल्लाह के लिए ग़ौर करो। हर आदमी अलग-अलग भी नेक-नीयती के साथ सोचे और दो-दो चार-चार आदमी सर जोड़कर भी बेलाग तरीक़े से एक-दूसरे के साथ बहस करके पता लगाएँ कि आख़िर वह क्या बात है जिसकी वजह से आज तुम उस आदमी को मजनून और दीवाना ठहरा रहे हो जिसे कल तक तुम अपने बीच बहुत ही समझदार और अक़्लमन्द आदमी समझते थे। आख़िर नुबूवत से थोड़ी ही मुद्दत पहले का तो वाक़िआ था कि काबा की तामीर करने के बाद हज्रे-असवद (काला पत्थर) लगाने के मसले पर जब क़ुरैश के क़बीले आपस में लड़ पड़े थे तो तुम्हीं लोगों ने एक राय होकर मुहम्मद (सल्ल०) को फ़ैसला करनेवाला मान लिया था और उन्होंने ऐसे तरीक़े से इस झगड़े को चुकाया था जिसपर तुम सब मुत्मइन हो गए थे। जिस आदमी की अक़्ल और समझ का यह तजरिबा तुम्हारी सारी क़ौम को हो चुका है, अब क्या बात ऐसी हो गई कि तुम उसे मजनून और दीवाना कहने लगे? हठधर्मी और ज़िद की बात तो दूसरी है, मगर क्या सचमुच तुम अपने दिलों में भी कुछ समझते हो जो अपनी ज़बानों से कहते हो?
67. यानी क्या यही वह क़ुसूर है जिसकी बुनियाद पर तुम उसे जुनून का रोगी ठहराते हो? क्या तुम्हारे नज़दीक अक़्लमन्द वह है जो तुम्हें तबाही के रास्ते पर जाते देखकर कहे कि शाबाश, बहुत अच्छे जा रहे हो और मजनून व दीवाना वह है जो तुम्हें बुरा वक़्त आने से पहले ख़बरदार करे और बिगाड़ की जगह सुधार की राह बताए।
قُلۡ مَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٖ فَهُوَ لَكُمۡۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٞ ۝ 45
(47) इनसे कहो, “अगर मैंने तुमसे कोई बदला माँगा है तो वह तुम्हीं को मुबारक रहे।68 मेरा इनाम तो अल्लाह के ज़िम्मे है और वह हर चीज़ पर गवाह है।"69
68. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “मा स-अल-तुकुम-मिन् अजरिन फ़हु-व लकुम"। इसका एक मतलब तो वह है जो हमने ऊपर तर्जमे में बयान किया है और दूसरा मतलब यह भी हो सकता है न कि तुम्हारी भलाई के सिवा मैं कुछ और नहीं चाहता, मेरा इनाम बस यही है कि तुम दुरुस्त हो जाओ। इस बात को दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में यूँ अदा किया गया है— “ऐ नबी, इनसे कहो कि मैं इस काम पर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता मेरा बदला यही है कि जिसका जी चाहे वह अपने रब का रास्ता अपना ले।” (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-57)
69. यानी इलज़ाम लगानेवाले जो कुछ चाहें इलज़ाम लगाते रहें, मगर अल्लाह सब कुछ जानता है, वह गवाह है कि मैं एक बे-ग़रज़ इनसान हूँ, यह काम अपने किसी निजी फ़ायदे के लिए नहीं कर रहा हूँ।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 46
(48) इनसे कहो, “मेरा रब (मेरे दिल में) हक़ डाल देता है70 और वह तमाम छिपी हक़ीक़तों का जाननेवाला है।
70. अस्ल अलफ़ाज़ हैं “यक़ज़िफ़ बिल-हक़्क़"। इसका एक मतलब तो यह है कि वह्य के ज़रिए से वह सच्चा इल्म मेरे मन में डालता है और दूसरा मतलब यह है कि वह हक़ (सत्य) को ग़ालिब (प्रभावी) कर रहा है, बातिल (असत्य) के सर पर हक़ की चोट लगा रहा है।
قُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَمَا يُبۡدِئُ ٱلۡبَٰطِلُ وَمَا يُعِيدُ ۝ 47
(49) कहो, “हक़ आ गया है और अब बातिल (असत्य) के लिए कुछ नहीं हो सकता।”
قُلۡ إِن ضَلَلۡتُ فَإِنَّمَآ أَضِلُّ عَلَىٰ نَفۡسِيۖ وَإِنِ ٱهۡتَدَيۡتُ فَبِمَا يُوحِيٓ إِلَيَّ رَبِّيٓۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٞ قَرِيبٞ ۝ 48
(50) कहो, “अगर मैं गुमराह हो गया हूँ तो मेरी गुमराही का वबाल मुझपर है, और अगर मैं हिदायत पर हूँ तो उस वह्य की वजह से हूँ जो मेरा रब मेरे ऊपर उतारता है। वह सब कुछ सुनता है और क़रीब ही है।71
71. इस ज़माने के कुछ लोगों ने इस आयत से यह दलील निकाली है कि इसके मुताबिक़ नबी (सल्ल०) गुमराह हो सकते थे, बल्कि हो जाया करते थे, इसी लिए तो अल्लाह तआला ने ख़ुद नबी (सल्ल०) ही की ज़बान से यह कहलवा दिया कि अगर मैं गुमराह होता हूँ तो अपनी गुमराही का ख़ुद ज़िम्मेदार होता हूँ और सीधे रास्ते पर मैं बस उस वक़्त होता हूँ जब मेरा रब मुझपर वह्य (यानी क़ुरआनी आयतें) उतारता है। इस मनमाने ग़लत मतलब से ये ज़ालिम मानो यह साबित करना चाहते हैं कि नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी में, अल्लाह की पनाह, हिदायत और गुमराही दोनों चीज़ें थीं और अल्लाह तआला ने ग़ैर-मुस्लिमों के सामने नबी (सल्ल०) से यह बात इसलिए कहलवाई थी कि कहीं कोई शख़्स आप (सल्ल०) को बिलकुल ही सही राह पर समझकर आप (सल्ल०) की मुकम्मल पैरवी न करने लगे। हालाँकि जो आदमी भी बयान के सिलसिले पर ग़ौर करेगा, वह जान लेगा कि यहाँ “अगर मैं गुमराह हो गया हूँ” के अलफ़ाज़ इस मानी में नहीं कहे गए हैं कि अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) सचमुच गुमराह हो जाते थे, बल्कि पूरी बात इस मानी में कही गई है कि “अगर मैं गुमराह हो गया हूँ, जैसा कि तुम लोग मुझपर इलज़ाम लगा रहे हो और मेरा यह नुबूवत का दावा और मेरी तौहीद की दावत इसी गुमराही का नतीजा है। जैसा कि तुम गुमान कर रहे हो, तो मेरी गुमराही का वबाल मुझ ही पर पड़ेगा, इसकी ज़िम्मेदारी में तुम न पकड़े जाओगे। लेकिन अगर मैं हिदायत पर हूँ, जैसा कि हक़ीक़त में हूँ, तो इसकी वजह यह है कि मुझपर मेरे रब की तरफ़ से वह्य आती है जिसके ज़रिए से मुझे सही रास्ते का इल्म हासिल हो गया है। मेरा रब क़रीब ही मौज़ूद है और सब कुछ सुन रहा है। उसे मालूम है कि मैं गुमराह हूँ या उसकी तरफ़ से हिदायत पाया हुआ।”
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ فَزِعُواْ فَلَا فَوۡتَ وَأُخِذُواْ مِن مَّكَانٖ قَرِيبٖ ۝ 49
(51) काश, तुम देखो इन्हें उस वक़्त जब ये लोग घबराए हुए फिर रहे होंगे और कहीं बचकर न जा सकेंगे! बल्कि क़रीब ही से पकड़ लिए जाएँगे।72
72. यानी क़ियामत के दिन हर मुजरिम इस तरह पकड़ा जाएगा कि मानो पकड़नेवाला क़रीब ही कहीं छिपा खड़ा था, ज़रा उसने भागने की कोशिश की और फ़ौरन ही धर लिया गया।
وَقَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِهِۦ وَأَنَّىٰ لَهُمُ ٱلتَّنَاوُشُ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 50
(52) उस वक़्त ये कहेंगे कि हम उसपर ईमान ले आए।73 हालाँकि अब दूर निकली हुई चीज़ कहाँ हाथ आ सकती है।74
73. मुराद यह है कि उस तालीम पर ईमान ले आए जो रसूल ने दुनिया में पेश की थी।
74. यानी ईमान लाने की जगह तो दुनिया थी और वहाँ से अब यह बहुत दूर निकल आए हैं। आख़िरत की दुनिया में पहुँच जाने के बाद अब तौबा और ईमान का मौक़ा कहाँ मिल सकता है।
وَقَدۡ كَفَرُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۖ وَيَقۡذِفُونَ بِٱلۡغَيۡبِ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 51
(53) इससे पहले ये कुफ़्र (इनकार) कर चुके थे और बिना जाँच-पड़ताल के दूर-दूर की कौड़ियाँ लाया करते थे।75
75. यानी रसूल (सल्ल०) और रसूल की तालीमात और ईमानवालों पर तरह-तरह के इलज़ाम लगाते, आवाज़ें और फब्तियाँ कसते थे। कभी कहते यह आदमी जादूगर है। कभी कहते हैं मजनून है, कभी तौहीद (ख़ुदा के एक होने) का मज़ाक़ उड़ाते और कभी आख़िरत के ख़याल पर बातें छाँटते। कभी यह अफ़साना तराशते कि रसूल को कोई और सिखाता-पढ़ाता है और कभी ईमान लानेवालों के बारे में कहते कि ये सिर्फ़ अपनी नादानी की वजह से रसूल के पीछे लग गए हैं।
وَحِيلَ بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ مَا يَشۡتَهُونَ كَمَا فُعِلَ بِأَشۡيَاعِهِم مِّن قَبۡلُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ فِي شَكّٖ مُّرِيبِۭ ۝ 52
(54) उस वक़्त जिस चीज़ की ये तमन्ना कर रहे होंगे, उससे महरूम (वंचित) कर दिए जाएँगे जिस तरह इनके पहले के हम-मज़हब लोग महरूम हो चुके होंगे। ये बड़े गुमराह करनेवाले शक में पड़े हुए थे।"76
76. हक़ीक़त में शिर्क और नास्तिकता और आख़िरत के इनकार के अक़ीदे कोई शख़्स भी यक़ीन की बुनियाद पर नहीं अपनाता और नहीं अपना सकता, इसलिए कि यक़ीन सिर्फ़ इल्म से हासिल होता है और किसी शख़्स को भी यह इल्म हासिल नहीं है कि ख़ुदा नहीं है, या बहुत-से ख़ुदा हैं, या ख़ुदाई के अधिकारों में बहुत-सी हस्तियों को दख़ल हासिल है, या आख़िरत नहीं होनी चाहिए। तो जिसने भी दुनिया में ये अक़ीदे अपनाए हैं, उसने सिर्फ़ अटकल और गुमान पर एक इमारत खड़ी कर ली है, जिसकी अस्ल बुनियाद शक के सिवा और कुछ नहीं है और यह शक उन्हें सख़्त गुमराही की तरफ़ ले गया है। उन्हें ख़ुदा के वुजूद में शक हुआ। उन्हें तौहीद की सच्चाई में शक हुआ, उन्हें आख़िरत के आने में शक हुआ,यहाँ तक कि इस शक को उन्होंने यक़ीन की तरह दिलों में बिठाकर नबियों की कोई बात न मानी और अपनी ज़िन्दगी के पूरे अमल की मुहलत एक ग़लत रास्ते में खपा दी।
سُورَةُ سَبَإٍ
34. सबा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ
(1) हम्द (तारीफ़ व शुक्र) उस ख़ुदा के लिए है जो आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ का मालिक है1 और आख़िरत में भी उसी के लिए हम्द है।2 वह हिकमतवाला और ख़बर रखनेवाला है।3
1. 'हम्द' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तारीफ़ और शुक्र दोनों के लिए इस्तेमाल होता है और यहाँ दोनों मतलब मुराद हैं। जब अल्लाह तआला सारी कायनात और उसकी हर चीज़ का मालिक है तो लाज़िमन इस कायनात में ख़ूबसूरती और कमाल और हिकमत और क़ुदरत और हुनर व कारीगरी की जो शान भी नज़र आती है, उसकी तारीफ़ का हक़दार वही है और इस कायनात में रहनेवाला इसकी जिस चीज़ से भी कोई फ़ायदा या मज़ा या लज़्ज़त हासिल कर रहा है, उसपर ख़ुदा ही का शुक्र उसे अदा करना चाहिए। कोई दूसरा जब इन चीज़ों की मिलकियत में शरीक नहीं है तो उसे न तारीफ़ का हक़ पहुँचता है, न शुक्र का।
2.यानी जिस तरह इस दुनिया की सारी नेमतें उसी की दी हुई हैं, उसी तरह आख़िरत में भी जो कुछ किसी को मिलेगा, उसी के ख़ज़ानों से और उसी के देने से मिलेगा, इसलिए वहाँ भी वही तारीफ़ का हक़दार है और शुक्र का हक़दार भी।
3. यानी उसके सारे कामों की बुनियाद इन्तिहाई दरजे की हिकमत और सूझ-बूझ पर है, वह जो कुछ करता है, बिलकुल ठीक करता है और उसे अपनी पैदा की हुई हर चीज़ और जानदार के बारे में पूरा इल्म है कि वह कहाँ है, किस हाल में है, क्या उसकी ज़रूरतें हैं, क्या कुछ उसकी भलाई और फ़ायदों के लिए मुनासिब है, क्या उसने अब तक किया है और आगे क्या उससे होनेवाला है। वह अपनी बनाई हुई दुनिया से बेख़बर नहीं है, बल्कि उसे ज़र्रे-ज़र्रे की हालत पूरी तरह मालूम है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ بِهَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ وَلَا بِٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ مَوۡقُوفُونَ عِندَ رَبِّهِمۡ يَرۡجِعُ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ ٱلۡقَوۡلَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لَوۡلَآ أَنتُمۡ لَكُنَّا مُؤۡمِنِينَ ۝ 53
(31) ये इनकार करनेवाले कहते हैं कि “हम हरगिज़ इस क़ुरआन को न मानेंगे और न इससे पहले आई हुई किसी किताब को मानेंगे।"50 काश, तुम देखो इनका हाल उस वक़्त जब ये ज़ालिम अपने रब के सामने खड़े होंगे! उस वक़्त ये एक-दूसरे पर इलज़ाम धरेंगे। जो लोग दुनिया में दबाकर रखे गए थे, वे बड़े बननेवालों से कहेंगे कि “अगर तुम न होते तो हम ईमानवाले होते।"51
50. मुराद हैं अरब के ग़ैर-मुस्लिम जो किसी आसमानी किताब को नहीं मानते थे।
51. यानी आम लोग, जो आज दुनिया में अपने लीडरों, सरदारों, पीरों और हाकिमों के पीछे आँखें बन्द किए चले जा रहे हैं और उनके ख़िलाफ़ किसी नसीहत करनेवाले की बात पर कान धरने के लिए तैयार नहीं हैं, यही आम लोग जब अपनी आँखों से देख लेंगे कि हक़ीक़त क्या थी और उनके ये पेशवा उन्हें क्या बता रहे थे और जब इन्हें यह पता चल जाएगा कि इन मज़हबी रहनुमाओं की पैरवी इन्हें किस अंजाम से दोचार करनेवाली है, तो ये अपने इन बुज़ुर्गों पर पलट पड़ेंगे और चीख़-चीख़कर कहेंगे कि कमबख़्तो, तुमने हमें गुमराह किया, तुम हमारी सारी मुसीबतों के ज़िम्मेदार हो, तुम हमें न बहकाते तो हम ख़ुदा के रसूलों की बात मान लेते।