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سُورَةُ غَافِرٍ

40. अल-मोमिन

(मक्का में उतरी, आयतें 85)

परिचय

नाम

आयत 28 के वाक्य “व क़ा-ल रजलुम-मोमिनुम-मिन आलि फ़िरऔ-न" ( फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमान रखनेवाला व्यक्ति (अल-मोमिन) बोल उठा) से लिया गया है। अर्थात् वह सूरा जिसमें उस विशेष 'मोमिन' (ईमानमाले) का उल्लेख हुआ है। [इस सूरा का एक नाम ‘ग़ाफ़िर’ भी है, सूरा की आयत 3 में आए शब्द ‘ग़ाफ़िर’ से लिया गया है।]  

उतरने का समय

इब्‍ने-अब्‍बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का बयान है कि यह सूरा, सूरा-39 ज़ुमर के बाद उतरी है और इसका जो स्थान क़ुरआन मजीद के वर्तमान क्रम में है, वही क्रम अवतरण के अनुसार भी है।

उतरने की परिस्थितियाँ

जिन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी है, उनकी ओर स्पष्ट संकेत इसकी विषय वस्तु में मौजूद है। मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उस समय नबी (सल्ल०) के विरुद्ध दो प्रकार की कार्रवाइयाँ शुरू कर रखी थीं। एक यह कि हर ओर झगड़े और विवाद छेड़कर और नित नए मिथ्यारोपण द्वारा क़ुरआन की शिक्षा और इस्लाम की दावत और स्वयं नबी (सल्ल०) के बारे में अधिक से अधिक सन्देह और बुरे विचार आम लोगों के दिलों में पैदा कर दिए जाएँ। दूसरे यह कि आप (सल्ल०) की हत्या के लिए माहौल तैयार किया जाए। अतएव इस उद्देश्य के लिए वे निरंतर षड्‍यंत्र रच रहे थे।

विषय और वार्ता

परिस्थितियों के इन दोनों पहलुओं को अभिभाषण के आरंभ ही में स्पष्ट कर दिया गया है और फिर आगे का सम्पूर्ण अभिभाषण इन्हीं दोनों की एक अत्यन्त प्रभावी और शिक्षाप्रद समीक्षा है। हत्या के षड्‍यंत्र के जवाब में आले-फ़िरऔन में से एक मोमिन व्यक्ति का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है (आयत 23 से लेकर 55 तक)। और इस वृत्तान्त के रूप में तीन गिरोहों को तीन अलग-अलग शिक्षाएँ दी गई हैं-

(1) इस्लाम-विरोधियों को बताया गया है कि जो कुछ तुम मुहम्मद (सल्ल०) के साथ करना चाहते हो, यहांँ कुछ अपनी शक्ति के भरोसे पर फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ करना चाहता था, अब क्या ये हरकतें करके तुम भी उसी परिणाम को देखना चाहते हो जिस परिणाम को उसे देखना पड़ा था?

(2) मुहम्मद (सल्ल०) और उनके अनुयायियों को शिक्षा दी गई है कि [इन ज़ालिमों की बड़ी से बड़ी भयावह धमकी] के जवाब में बस अल्लाह की पनाह माँग लो और इसके बाद बिल्कुल निर्भय होकर अपने काम में लग जाओ। इस तरह अल्लाह के भरोसे पर ख़तरों और आशंकाओं से बेपरवाह होकर काम करोगे तो आख़िरकार उसकी मदद आकर रहेगी और आज के फ़िरऔन भी वही कुछ देख लेंगे जो कल के फ़िरऔन देख चुके हैं।

(3) इन दो गिरोहों के अलावा एक तीसरा गिरोह भी समाज में मौजूद था और वह उन लोगों का गिरोह था जो दिलों में जान चुके थे कि सत्य मुहम्मद (सल्ल०) ही के साथ है। मगर यह जान लेने के बावजूद वे चुपचाप सत्य-असत्य के इस संघर्ष का तमाशा देख रहे थे। अल्लाह ने इस अवसर पर उनकी अन्तरात्मा को झिंझोड़ा है और उन्हें बताया है कि जब सत्य के शत्रु खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी आँखों के सामने इतना बड़ा ज़ुल्म भरा क़दम उठाने पर तुल गए हैं, तो अफ़सोस है तुम पर अगर अब भी तुम बैठे तमाशा ही देखते रहो। इस हालत में जिस व्यक्ति की अन्तरात्मा बिल्‍कुल मर न चुकी हो उसे तो उठकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो फ़िरऔन के भरे दरबार में उसके अपने दरबारियों में से एक सत्यवादी व्यक्ति ने उस समय निभाया था जब फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल करना चाहा था। अब रहा इस्लाम-विरोधियों का वह तर्क-वितर्क जो सत्य को नीचा दिखाने के लिए मक्का मुअज़्ज़मा में रात-दिन जारी था, तो उसके उत्तर में एक ओर प्रमाणों के द्वारा तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की उन धारणाओं का सत्य होना सिद्ध किया गया है जो मुहम्मद (सल्ल०) और इस्लाम-विरोधियों के बीच झगड़े की असल जड़ थी। दूसरी ओर उन मूल प्रेरक तत्त्वों को स्पष्ट रूप से सामने लाया गया है जिनके कारण क़ुरैश के सरदार इतनी सरगर्मी के साथ नबी (सल्ल०) के विरुद्ध लड़ रहे थे। अतएव आयत 56 में यह बात किसी लाग-लपेट के बिना उनसे साफ़ कह दी गई है कि तुम्हारे इंकार का मूल कारण वह दंभ है, जो तुम्हारे दिलों में भरा हुआ है। तुम समझते हो कि अगर लोग मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी को मान लेंगे तो तुम्हारी बड़ाई कायम न रह सकेगी। इसी सिलसिले में विधर्मियों को बार-बार चेतावनियाँ दी गई हैं कि अगर अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में लड़ने-झगड़ने से बाज़ न आओगे तो उसी परिणाम का सामना करना पड़ेगा, जिसका सामना पिछली जातियों को करना पड़ा है।

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سُورَةُ غَافِرٍ
40. अल-मोमिन (ग़ाफ़िर)
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 1
(2) इस किताब का उतरना अल्लाह की तरफ़ से है जो ज़बरदस्त है, सब कुछ जाननेवाला है,
غَافِرِ ٱلذَّنۢبِ وَقَابِلِ ٱلتَّوۡبِ شَدِيدِ ٱلۡعِقَابِ ذِي ٱلطَّوۡلِۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ إِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 2
(3) गुनाह माफ़ करनेवाला और तौबा क़ुबूल करनेवाला है, सख़्त सज़ा देनेवाला और बड़ा मेहरबान है, कोई माबूद (उपास्य) उसके सिवा नहीं, उसी की तरफ़ सबको पलटना है।1
1. यह तक़रीर की शुरुआती बातें हैं जिनके ज़रिए से सुननेवालों को पहले ही ख़बरदार कर दिया गया है कि यह कलाम जो उनके सामने पेश किया जा रहा है, किसी मामूली हस्ती का कलाम नहीं है, बल्कि उस ख़ुदा की तरफ़ से उतारा हुआ है जिसकी ये और ये सिफ़ात (गुण) हैं। फिर एक के बाद एक अल्लाह तआला की कुछ सिफ़ात बयान की गई हैं जो आगे की बात से बहुत मेल खाती हैं— पहली सिफ़त यह कि वह 'ज़बरदस्त' है, यानी सबपर हावी है। उसका जो फ़ैसला भी किसी के हक़ में हो, लागू होकर ही रहता है। कोई उससे लड़कर जीत नहीं सकता, न उसकी पकड़ से बच सकता है। इसलिए उसके हुक्म से मुँह मोड़कर अगर कोई शख़्स कामयाबी की उम्मीद रखता हो और उसके रसूल से झगड़ा करके यह उम्मीद रखता हो कि वह उसे नीचा दिखा देगा, तो यह उसकी अपनी बेवक़ूफ़ी है। ऐसी उम्मीदें कभी पूरी नहीं हो सकतीं। दूसरी सिफ़त यह है कि “वह सब कुछ जाननेवाला” है। यानी वह अटकल और गुमान की बुनियाद पर कोई बात नहीं करता, बल्कि हर चीज़ का सीधे तौर पर इल्म रखता है, इसलिए एहसास और समझ से परे जो मालूमात वह दे रहा है, सिर्फ़ वही सही हो सकती हैं और उनको न मानने का मतलब यह है कि आदमी ख़ाह-मख़ाह जहालत की पैरवी करे। इसी तरह वह जानता है कि इनसान की भलाई किस चीज़ में है और कौन-से उसूल और क़ानून और हुक्म उसकी बेहतरी के लिए ज़रूरी हैं। उसकी हर तालीम हिकमत और सही इल्म की बुनियाद पर है, जिसमें ग़लती का इमकान नहीं है। इसलिए उसकी हिदायतों को क़ुबूल न करने का मतलब यह है कि आदमी ख़ुद अपनी तबाही के रास्ते पर जाना चाहता है। फिर इनसानों की सरगर्मियों में से कोई चीज़ उससे छिपी नहीं रह सकती, यहाँ तक कि वह उन नीयतों और इरादों तक को जानता है जो इनसानी कामों के अस्ल सबब होते हैं। इसलिए इनसान किसी बहाने उसकी सज़ा से बचकर नहीं निकल सकता। तीसरी सिफ़त यह कि वह “गुनाह माफ़ करनेवाला और तौबा क़ुबूल करनेवाला” है। यह उम्मीद और शौक़ दिलानेवाली सिफ़त है जो इस गरज़ से बयान की गई है कि जो लोग अब तक सरकशी करते रहे हैं वे मायूस न हों, बल्कि यह समझते हुए अपनी रविश (नीति) पर दोबारा ग़ौर करें कि अगर अब भी वे इस रवैये को छोड़ दें तो अल्लाह की रहमत के दामन में जगह पा सकते हैं। इस जगह यह बात समझ लेनी चाहिए कि गुनाह माफ़ करना और तौबा क़ुबूल करना लाज़िमी तौर से एक ही चीज़ के दो नाम नहीं हैं, बल्कि कई बार तौबा के बिना भी अल्लाह के यहाँ गुनाहों की माफ़ी होती रहती है। मसलन एक आदमी ग़लतियाँ भी करता रहता है और नेकियाँ भी और उसकी नेकियाँ उसकी ग़लतियों के माफ़ होने का ज़रिआ बन जाती हैं, चाहे उसे उन ग़लतियों पर तौबा और इसतिग़फ़ार करने का मौक़ा न मिला हो, बल्कि वह उन्हें भूल भी चुका हो। इसी तरह एक आदमी पर दुनिया में जितनी भी तकलीफ़ें और मुसीबतें और बीमारियाँ और तरह-तरह की दुख-तकलीफ़ पहुँचानेवाली आफ़तें आती हैं, वे सब उसकी ग़लतियों का बदल बन जाती हैं। इसी वजह से गुनाहों की माफ़ी का ज़िक्र तौबा क़ुबूल करने से अलग किया गया है। लेकिन याद रखना चाहिए कि तौबा के बिना ग़लतियाँ माफ़ होने की यह छूट सिर्फ़ ईमानवालों के लिए है और ईमानवालों में भी सिर्फ़ उनके लिए जो सरकशी और बग़ावत के हर जज़्बे से ख़ाली हों और जिनसे गुनाह इनसानी कमज़ोरी की बुनियाद पर हुए हों, न कि अपनी बड़ाई के एहसास और गुनाहों पर अड़े रहने की बुनियाद पर। चौथी सिफ़त यह कि वह “सख़्त सज़ा देनेवाला” है। इस सिफ़त का ज़िक्र करके लोगों को ख़बरदार किया गया है कि बन्दगी की राह अपनानेवालों के लिए अल्लाह तआला जितना रहमवाला है, बग़ावत और सरकशी का रवैया अपनानेवालों के लिए उतना ही सख़्त है। जब कोई शख़्स या गरोह उन तमाम हदों से गुज़र जाता है जहाँ तक वह उसके अनदेखा करने और माफ़ कर देने का हक़दार हो सकता है, तो फिर वह उसकी सज़ा का हक़दार बनता है और उसकी सज़ा ऐसी भयानक है कि सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ इनसान ही उसको बरदाश्त के लायक़ समझ सकता है। पाँचवीं सिफ़त यह कि वह “मेहरबानी करनेवाला” है, यानी उसका हाथ खुला हुआ है, ग़नी और फ़य्याज़ (सम्पन्न और दानशील) है। तमाम जानदारों पर उसकी नेमतों और उसके एहसानों की चौतरफ़ा बारिश हर पल हो रही है। बन्दों को जो कुछ भी मिल रहा है, उसी की मेहरबानी और फ़ज़्ल की वजह से मिल रहा है। इन पाँच सिफ़ात के बाद दो हक़ीक़तें खोलकर बयान कर दी गई हैं। एक यह कि माबूद (उपास्य) हक़ीक़त में उसके सिवा कोई नहीं है, चाहे लोगों ने कितने ही दूसरे झूठे माबूद बना रखें हों। दूसरी यह कि जाना सबको आख़िरकार उसी की तरफ़ है। कोई दूसरा माबूद लोगों के कामों का हिसाब लेनेवाला और उनके इनाम और सज़ा का फ़ैसला करनेवाला नहीं है। लिहाज़ा उसको छोड़कर अगर कोई दूसरों को माबूद बनाएगा तो अपनी इस बेवक़ूफ़ी का ख़मियाज़ा ख़ुद भुगतेगा।
مَا يُجَٰدِلُ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَا يَغۡرُرۡكَ تَقَلُّبُهُمۡ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 3
(4) अल्लाह की आयतों में झगड़े2 नहीं करते, मगर सिर्फ़ वे लोग जिन्होंने कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया है।3 इसके बाद दुनिया के देशों में उनकी चलत-फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले।4
2. झगड़ा करने से मुराद है बेतुकी बहसें करना, मीन-मेख़ निकालना, उलटे-सीधे एतिराज़ करना। मौक़ा-महल से अलग करके कोई एक लफ़्ज़ या जुमला ले उड़ना और उससे तरह-तरह की बारीकियाँ निकालकर शक व शुब्हों और इलज़ामों की इमारतें खड़ी करना। बात के अस्ल मक़सद को नज़रअन्दाज़ करके उसका ग़लत मतलब निकालना, ताकि आदमी न ख़ुद बात को समझे, न दूसरों को समझने दे। इख़्तिलाफ़ ज़ाहिर करने का यह तरीक़ा लाज़िमी तौर से सिर्फ़ वही लोग अपनाते हैं जिनका इख़्तिलाफ़ बदनीयती की बुनियाद पर होता है। नेक नीयत मुख़ालिफ़ अगर बहस करता भी है तो सच्चाई जानने के लिए करता है और अस्ल मसलों पर बात करके यह इत्मीनान करना चाहता है कि इन मसलों में उसका अपना नज़रिया सही है या सामनेवाले का। इस तरह की बहस हक़ मालूम करने के लिए होती है, न कि किसी को नीचा दिखाने के लिए। इसके बरख़िलाफ़ बदनीयत मुख़ालिफ़ का अस्ल मक़सद समझना और समझाना नहीं होता, बल्कि वह दूसरे शख़्स को नीचा दिखाना चाहता है और बहस के मैदान में इसलिए उतरता है कि दूसरे की बात किसी तरह चलने नहीं देनी है। इसी वजह से वह कभी अस्ल मसलों का सामना नहीं करता, बल्कि हमेशा इधर-उधर ही छापे मारता रहता है।
3. 'कुफ़्र' का लफ़्ज़ यहाँ दो मानी में इस्तेमाल हुआ है। एक नेमतों की नाशुक्री। दूसरा सच का इनकार। पहले मानी के लिहाज़ से इस जुमले का मतलब यह है कि अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में यह रवैया सिर्फ़ वे लोग अपनाते हैं जो उसके एहसानों को भूल गए हैं और जिन्हें यह एहसास नहीं रहा है कि उसी की नेमतें हैं, जिनके बल पर वे पल रहे हैं। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि यह रवैया सिर्फ़ वही लोग अपनाते हैं जिन्होंने सच से मुँह मोड़ लिया है और उसे न मानने का फ़ैसला कर लिया है। मौक़ा-महल को निगाह में रखने से यह बात बिलकुल वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ कुफ़्र करनेवाले से मुराद हर वह आदमी नहीं है जो मुसलमान न हो। इसलिए कि जो ग़ैर-मुस्लिम इस्लाम को समझने के लिए नेक नीयती के का साथ बहस करे और सच्चाई जानने की ग़रज़ से वे बातें समझने की कोशिश करे जिनके समझने में उसे मुश्किल पेश आ रही हो, अगरचे इस्लाम क़ुबूल करने से पहले तक इस्लाम के नज़दीक होता वह कुफ़्र करनेवाला ही है, लेकिन ज़ाहिर है कि उसपर वह बात फ़िट नहीं होती जिसकी इस आयत में मज़म्मत (निन्दा) की गई है।
4. पहले जुमले और दूसरे जुमले के बीच एक ख़ला (रिक्तता) है जिसे सुननेवाले के ज़ेहन पर जी छोड़ दिया गया है। मौक़ा-महल से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद मालूम हो जाती है कि अल्लाह तआला की आयतों के मुक़ाबले में जो लोग झगड़ालूपन का रवैया अपनाते हैं, वे सज़ा से कभी बच नहीं सकते। ज़रूर ही एक न एक दिन उनकी शामत आनी है। अब अगर तुम देख रहे हो कि वे लोग यह सब कुछ करके भी ख़ुदा की ज़मीन में इत्मीनान से दनदनाते फिर रहे हैं और उनके कारोबार ख़ूब चमक रहे हैं और उनकी हुकूमतें बड़ी शान से चल रही हैं और वे ख़ूब ऐश कर रहे हैं, तो इस धोखे में न पड़ जाओ कि वे ख़ुदा की पकड़ से बच निकले हैं, ख़ुदा की आयतों से जंग कोई खेल है जिसे तफ़रीह के तौर पर खेला जा सकता है और इसका कोई बुरा नतीजा इस खेल के खिलाड़ियों को कभी न देखना पड़ेगा। यह तो अस्ल में एक मुहलत है जो ख़ुदा की तरफ़ से उनको मिल रही है। इस मुहलत से ग़लत फ़ायदा उठाकर जो लोग जितनी ज़्यादा शरारतें करते हैं उनकी नाव उतनी ही ज़्यादा भरकर डूबती है।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۖ وَهَمَّتۡ كُلُّ أُمَّةِۭ بِرَسُولِهِمۡ لِيَأۡخُذُوهُۖ وَجَٰدَلُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّ فَأَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ عِقَابِ ۝ 4
(5) इनसे पहले नूह की क़ौम भी झुठला चुकी है और उसके बाद बहुत-से दूसरे जत्थों ने भी यह काम किया है। हर क़ौम अपने रसूल पर झपटी ताकि उसे गिरफ़्तार करे। उन सबने बातिल (असत्य) के हथियारों से हक़ को नीचा दिखाने की कोशिश की, मगर आख़िरकार मैंने उनको पकड़ लिया, फिर देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।
وَكَذَٰلِكَ حَقَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَى ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ ۝ 5
(6) इसी तरह तेरे रब का यह फ़ैसला भी उन सब लोगों पर चस्पाँ हो चुका है जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया है कि वे जहन्नम में डाले जानेवाले हैं।'5
5. यानी दुनिया में जो अज़ाब उनपर आया वह उनकी आख़िरी सज़ा न थी, बल्कि अल्लाह ने यह फ़ैसला भी उनके हक़ में कर दिया है कि उनको जहन्नम में जाना है। एक दूसरा मतलब इस आयत का यह भी हो सकता है कि जिस तरह पिछली क़ौमों की शामत आ चुकी है। उसी तरह अब जो लोग कुफ़्र (इनकार) कर रहे हैं उनके हक़ में भी अल्लाह का यह फ़ैसला तयशुदा है कि वे जहन्नम में डाले जानेवाले हैं।
ٱلَّذِينَ يَحۡمِلُونَ ٱلۡعَرۡشَ وَمَنۡ حَوۡلَهُۥ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْۖ رَبَّنَا وَسِعۡتَ كُلَّ شَيۡءٖ رَّحۡمَةٗ وَعِلۡمٗا فَٱغۡفِرۡ لِلَّذِينَ تَابُواْ وَٱتَّبَعُواْ سَبِيلَكَ وَقِهِمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 6
(7) अल्लाह के अर्श को उठानेवाले फ़रिश्ते और वे जो अर्श के आस-पास हाज़िर रहते हैं, सब अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) कर रहे हैं। वे उसपर ईमान रखते हैं और ईमान लानेवालों के हक़ में माफ़ी की दुआ करते हैं।6 वे कहते हैं, “ऐ हमारे रब! तू अपनी रहमत और अपने इल्म के साथ हर चीज़ पर छाया हुआ है,7 तो माफ़ कर दे और जहन्नम के अज़ाब से बचा ले8 उन लोगों को जिन्होंने तौबा की है। और तेरा रास्ता अपना लिया है।9
6. यह बात नबी (सल्ल०) के साथियों की तसल्ली के लिए कही गई है। वे उस वक़्त मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के बुरा-भला कहने और ज़ुल्म करने के मुक़ाबले में अपनी बेबसी देख-देखकर सख़्त मायूस हो रहे थे। इसपर कहा गया कि इन घटिया और नीच लोगों की बातों पर तुम उदास क्यों होते हो, तुम्हारा मर्तबा तो वह है कि अल्लाह के अर्श (सिंहासन) को उठानेवाले फ़रिश्ते और अर्श के आस-पास हाज़िर रहनेवाले फ़रिश्ते तक तुम्हारे तरफ़दार हैं और तुम्हारे हक़ में अल्लाह तआला से सिफ़ारिशें कर रहे हैं। आम फ़रिश्तों की जगह अल्लाह के अर्श को उठानेवाले और उसके आस-पास हाज़िर रहनेवाले फ़रिश्तों का ज़िक्र यह तसव्वुर दिलाने के लिए किया गया है कि अल्लाह की सल्तनत के आम अहले-कार (कर्मचारी) तो एक तरफ़, वे अल्लाह के क़रीबी फ़रिश्ते भी, जो इस सल्तनत के सुतून हैं और जिन्हें कायनात के बादशाह के यहाँ क़रीब का मक़ाम हासिल है, तुम्हारे साथ गहरी दिलचस्पी और हमदर्दी रखते हैं। फिर यह जो फ़रमाया गया कि ये फ़रिश्ते अल्लाह तआला पर ईमान रखते हैं और ईमान लानेवालों के हक़ में मग़फ़िरत (माफ़ी) की दुआ करते हैं, इससे यह ज़ाहिर होता है कि ईमान का रिश्ता ही वह अस्ल रिश्ता है जिसने अर्शवालों और इस ज़मीनवालों को मिलाकर एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया है और इसी ताल्लुक़ की वजह से अर्श के क़रीब रहनेवाले फ़रिश्तों को ज़मीन पर बसनेवाले मिट्टी से बने उन इनसानों से दिलचस्पी पैदा हुई है जो उन्हीं की तरह अल्लाह पर ईमान रखते हैं। फ़रिश्तों के अल्लाह पर ईमान रखने का मतलब यह नहीं है कि वे कुफ़्र कर सकते थे, मगर उन्होंने उसे छोड़कर ईमान को अपनाया, बल्कि इसका मतलब यह है कि वे एक अल्लाह, जिसका कोई साझी नहीं, ही का इक़तिदार (सत्ता) मानते हैं। कोई दूसरी हस्ती ऐसी नहीं है जो उन्हें हुक्म देनेवाली हो और वे उसके हुक्म के आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुकाते हों। यही तरीक़ा जब ईमान लानेवाले इनसानों ने भी अपना लिया तो उनके और फ़रिश्तों के बीच दोस्ती का मज़बूत ताल्लुक़ क़ायम हो गया, जबकि वे दोनों अलग-अलग जिंसों (जातियों) के हैं और दोनों के मक़ाम और जगहों में दूरी होती है।
7. यानी अपने बन्दों की कमज़ोरियाँ और कोताहियाँ और ग़लतियाँ तुझसे छिपी हुई नहीं हैं, बेशक तू सब कुछ जानता है, मगर तेरे इल्म की तरह तेरी रहमत का दामन भी तो कुशादा है, इसलिए इनकी ग़लतियों को जानने के बावजूद इन बेचारों को माफ़ कर दे। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि रहमत की बुनियाद पर उन सब लोगों को माफ़ कर दे जिनको तू इल्म की बुनियाद पर जानता है कि इन्होंने सच्चे दिल से तौबा की है और सचमुच तेरा रास्ता अपना लिया है।
8. माफ़ करना और जहन्नम के अज़ाब से बचा लेना अगरचे साफ़ तौर से एक-दूसरे के लिए ज़रूरी हैं और एक बात का ज़िक्र कर देने के बाद दूसरी बात कहने की बज़ाहिर कोई ज़रूरत नहीं रहती। लेकिन बयान के इस अन्दाज़ से अस्ल में ईमानवालों के साथ फ़रिश्तों की गहरी दिलचस्पी ज़ाहिर होती है। क़ायदे की बात है कि किसी मामले में जिस शख़्स के दिल को लगी हुई होती है, वह जब हाकिम से गुज़ारिश करने का मौक़ा पा लेता है तो फिर वह मन्नत के साथ एक ही दरख़ास्त को बार-बार तरह-तरह से पेश करता है और एक बात बस एक बार कहकर उसकी तसल्ली नहीं होती।
9. यानी नाफ़रमानी छोड़ दी है, सरकशी से बाज़ आ गए हैं और फ़रमाँबरदारी अपनाकर ज़िन्दगी के उस रास्ते पर चलने लगे हैं जो तूने ख़ुद बताया है।
رَبَّنَا وَأَدۡخِلۡهُمۡ جَنَّٰتِ عَدۡنٍ ٱلَّتِي وَعَدتَّهُمۡ وَمَن صَلَحَ مِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَأَزۡوَٰجِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡۚ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 7
(8) ऐ हमारे रब! और दाख़िल कर उनको हमेशा रहनेवाली उन जन्नतों में जिनका तूने उनसे वादा किया है10 और उनके माँ-बाप और बीवियों और औलाद में से जो नेक हों (उनको भी वहाँ उनके साथ ही पहुँचा दे"11), तू बेशक सब कुछ कर सकनेवाला (सर्वशक्तिमान) और हिकमतवाला (तत्त्वदर्शी) है।
10. इसमें भी वही मिन्नत-समाजत की कैफ़ियत पाई जाती है जिसकी तरफ़ ऊपर हाशिया-8 में हमने इशारा किया है। ज़ाहिर है कि माफ़ करना और जहन्नम की आग से बचा लेना आप-से-आप जन्नत में दाख़िल होने को लाज़िम कर देता है और फिर जिस जन्नत का अल्लाह ने ख़ुद ईमानवालों से वादा किया है, बज़ाहिर उसी के लिए ईमानवालों के हक़ में दुआ करना ग़ैर-जरूरी मालूम होता है, लेकिन ईमानवालों के लिए फ़रिश्तों के दिल में जो ख़ैरख़ाही के जज़्बे का इतना जोश है कि वे अपनी तरफ़ से उनके हक़ में भली बात कहते ही चले जाते हैं, हालाँकि उन्हें मालूम है कि अल्लाह तआला ये सब मेहरबानियाँ उनके साथ करनेवाला है।
11. यानी उनकी आँखें ठण्डी करने के लिए उनके माँ-बाप और बीवियों और औलाद को भी उनके साथ इकट्ठा कर दे। यह वही बात है जो अल्लाह तआला ने ख़ुद भी उन नेमतों के सिलसिले में बयान की है जो जन्नत में ईमानवालों को दी जाएँगी। देखिए; सूरा-13 रअद, आयत-23 और सूरा-52 तूर, आयत-21। सूरा-52 तूर वाली आयत में यह बात भी साफ़ तौर से बयान हुई है कि अगर एक शख़्स जन्नत में बुलन्द दरजे का हक़दार हो और उसके माँ-बाप और बाल-बच्चे उस दरजे के हक़दार न हों तो उसको नीचे लाकर उनके साथ मिलाने के बजाय अल्लाह तआला उनको उठाकर उसके दरजे में ले जाएगा।
وَقِهِمُ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ وَمَن تَقِ ٱلسَّيِّـَٔاتِ يَوۡمَئِذٖ فَقَدۡ رَحِمۡتَهُۥۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 8
(9) और बचा दे उनको बुराइयों से।12 जिसको तूने क़ियामत के दिन बुराइयों13 से बचा दिया, उसपर तूने बड़ा रहम किया। यही बड़ी कामयाबी है।
12. ‘सय्यिआत’ (बुराइयों) का लफ़्ज़ तीन अलग-अलग मानी में इस्तेमाल होता है और तीनों ही यहाँ मुराद हैं। एक, ग़लत अक़ीदे, बिगड़े हुए अख़लाक़ और बुरे आमाल। दूसरा, गुमराही और बुरे कामों का वबाल। तीसरा आफ़तें, मुसीबतें और तकलीफ़ें चाहे वे इस दुनिया की हों या बरज़ख़ की ज़िन्दगी की, या क़ियामत के दिन की। फ़रिश्तों की दुआ का मक़सद यह है कि इनको हर उस चीज़ से बचा जो इनके हक़ में बुरी हो।
13. क़ियामत के दिन की बुराइयों से हश्र के मैदान की घबराहट, साए और हर क़िस्म की आराम और आसानी देनेवाली चीज़ों से महरूमी, हिसाब-किताब में सख़्ती, तमाम लोगों के सामने ज़िन्दगी के राज़ खुलने की रुसवाई और दूसरी वे तमाम रुसवाइयाँ और सख़्तियाँ हैं जिनसे वहाँ मुजरिमों का पाला पड़नेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنَادَوۡنَ لَمَقۡتُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُ مِن مَّقۡتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡ إِذۡ تُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلۡإِيمَٰنِ فَتَكۡفُرُونَ ۝ 9
(10) जिन लोगों ने कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया है, क़ियामत के दिन उनको कहा जाएगा, “आज तुम्हें जितना ज़्यादा ग़ुस्सा अपने ऊपर आ रहा है, अल्लाह तुमपर उससे ज़्यादा ग़ुस्से में उस वक़्त होता था जब तुम्हें ईमान की तरफ़ बुलाया जाता था और तुम कुफ़्र (इनकार) करते थे।"14
15. दो बार मौत और दो बार ज़िन्दगी से मुराद वही चीज़ है जिसका ज़िक्र सूरा-2 बक़रा, आयत-28 में किया गया है कि तुम ख़ुदा के साथ कैसे कुफ़्र करते हो जबकि तुम बेजान थे, उसने तुम्हें ज़िन्दगी दी, फिर वह तुम्हें मौत देगा और फिर दोबारा जिन्दा कर देगा। कुफ़्र करनेवाले लोग इनमें से पहली तीन हालतों का तो इनकार नहीं करते, क्योंकि वे देखने में आती हैं और इस वजह से उनका इनकार नहीं किया जा सकता। मगर आख़िरी हालत पेश आने का इनकार करते हैं, क्योंकि वह उनके देखने में अभी तक नहीं आई है और सिर्फ़ पैग़म्बरों (अलैहि०) ही ने उसकी ख़बर दी है। क़ियामत के दिन जब अमली तौर से वह चौथी हालत भी देखने में आ जाएगी तब ये लोग मान लेंगे कि सचमुच वही कुछ पेश आ गया जिसकी हमें ख़बर दी गई थी।
قَالُواْ رَبَّنَآ أَمَتَّنَا ٱثۡنَتَيۡنِ وَأَحۡيَيۡتَنَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَٱعۡتَرَفۡنَا بِذُنُوبِنَا فَهَلۡ إِلَىٰ خُرُوجٖ مِّن سَبِيلٖ ۝ 10
(11) वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब, तूने सचमुच हमें दो बार मौत और दो बार ज़िन्दगी दे दी,15 अब हमने अपने क़ुसूरों को मान लिया है।16 क्या अब यहाँ से निकलने का भी कोई रास्ता है?17
15. दो बार मौत और दो बार ज़िन्दगी से मुराद वही चीज़ है जिसका ज़िक्र सूरा-2 बक़रा, आयत-28 में किया गया है कि तुम ख़ुदा के साथ कैसे कुफ़्र करते हो जबकि तुम बेजान थे, उसने तुम्हें ज़िन्दगी दी, फिर वह तुम्हें मौत देगा और फिर दोबारा ज़िन्दा कर देगा। कुफ़्र करनेवाले लोग इनमें से पहली तीन हालतों का तो इनकार नहीं करते, क्योंकि वे देखने में आती हैं और इस वजह से उनका इनकार नहीं किया जा सकता। मगर आख़िरी हालत पेश आने का इनकार करते हैं, क्योंकि वह उनके देखने में अभी तक नहीं आई है और सिर्फ़ पैग़म्बरों (अलैहि०) ही ने उसकी ख़बर दी है। क़ियामत के दिन जब अमली तौर से वह चौथी हालत भी देखने में आ जाएगी तब ये लोग मान लेंगे कि सचमुच वही कुछ पेश आ गया जिसकी हमें ख़बर दी गई थी।
16. यानी हम मानते हैं कि इस दूसरी ज़िन्दगी का इनकार करके हमने सख़्त ग़लती की और इस ग़लत नज़रिए पर काम करके हमारी ज़िन्दगी गुनाहों से भर गई।
17. यानी क्या अब इसका कोई इमकान है कि हमने अपना गुनाह मान लिया है, इस बात को क़ुबूल करके हमें अज़ाब की इस हालत से निकाल दिया जाए जिसमें हम मुब्तला हो गए हैं।
ذَٰلِكُم بِأَنَّهُۥٓ إِذَا دُعِيَ ٱللَّهُ وَحۡدَهُۥ كَفَرۡتُمۡ وَإِن يُشۡرَكۡ بِهِۦ تُؤۡمِنُواْۚ فَٱلۡحُكۡمُ لِلَّهِ ٱلۡعَلِيِّ ٱلۡكَبِيرِ ۝ 11
(12) (जवाब मिलेगा) “यह हालत जिसमें तुम मुब्तला हो, इस वजह से है कि जब अकेले अल्लाह की तरफ़ बुलाया जाता था तो तुम मानने से इनकार कर देते थे और जब उसके साथ दूसरों को मिलाया जाता तो तुम मान लेते थे। अब फ़ैसला अल्लाह बुज़ुर्ग और बुलन्द के हाथ है।"18
18. यानी फ़ैसला अब उसी अकेले ख़ुदा के हाथ में है जिसकी ख़ुदाई पर तुम राज़ी न थे और उन दूसरों का फ़ैसले में कोई दख़ल नहीं है, जिन्हें ख़ुदाई के अधिकारों में हिस्सेदार ठहराने पर तुम बुरी तरह अड़े हुए थे। (इस मक़ाम को समझने के लिए सूरा-39 ज़ुमर, आयत-15 और उसका हाशिया-64 भी निगाह में रहना चाहिए।) इस जुमले में आप-से-आप यह मतलब भी शामिल है कि अब इस अज़ाब की हालत से तुम्हारे निकलने का कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि तुमने सिर्फ़ आख़िरत ही इनकार नहीं किया था, बल्कि अपने पैदा करने और पालनेवाले से तुमको चिढ़ थी और उसके साथ दूसरों को मिलाए बिना तुम्हें चैन न आता था।
هُوَ ٱلَّذِي يُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُنَزِّلُ لَكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ رِزۡقٗاۚ وَمَا يَتَذَكَّرُ إِلَّا مَن يُنِيبُ ۝ 12
(13) वही है जो तुमको अपनी निशानियाँ दिखाता है19 और आसमान और आसमान से तुम्हारे लिए रिज़्क़ (रोज़ी) उतारता है,20 मगर (इन निशानियों को देखकर) सबक़ सिर्फ़ वही शख़्स लेता है जो अल्लाह की तरफ़ रुजू करनेवाला हो।21
19. निशानियों से मुराद वे निशानियाँ हैं जो इस बात का पता देती हैं कि इस कायनात का बनानेवाला और इसका इन्तिज़ाम चलानेवाला एक ख़ुदा और एक ही ख़ुदा है।
20. 'रिज़्क़' (रोज़ी) से मुराद यहाँ बारिश है, क्योंकि इनसान को जितनी तरह के रिज़्क़ (खाने-पीने की चीज़े) भी दुनिया में मिलते हैं, उन सबका दारोमदार आख़िरकार बारिश पर है। अल्लाह तआला अपनी अनगिनत निशानियों में से अकेले इस एक निशानी को पेश करके लोगों को ध्यान दिलाता है कि सिर्फ़ इसी एक चीज़ के इन्तिज़ाम पर तुम ग़ौर करो तो तुम्हारी समझ में आ जाए कि कायनात के निज़ाम (व्यवस्था) के बारे में जो तसव्वुर (धारणा) तुमको क़ुरआन में दिया जा रहा है वही हक़ीक़त है। यह इन्तिज़ाम सिर्फ़ उसी सूरत में क़ायम हो सकता था जबकि ज़मीन और उसपर पाई जानेवाली चीज़ों और पानी और हवा और सूरज और गर्मी-सर्दी सबका पैदा करनेवाला एक ही ख़ुदा हो और यह इन्तिज़ाम सिर्फ़ उसी सूरत में लाखों-करोड़ों साल तक लगातार एक बाक़ायदगी से चल सकता है जबकि वही ख़ुदा उसको जारी रखे जो हमेशा से है और हमेशा रहे और इस इन्तिज़ाम को क़ायम करनेवाला लाज़िमन एक हिकमतवाला और रहम करनेवाला पालनहार ही हो सकता है जिसने ज़मीन में इनसान और जानवरों और पेड़-पौधों को जब पैदा किया तो ठीक-ठीक उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ पानी भी बनाया और फिर इस पानी को बाक़ायदगी के साथ धरती पर पहुँचाने और फैलाने के लिए ये हैरतअंगेज़ इन्तिज़ाम किए। अब उस शख़्स से ज़्यादा ज़ालिम कौन हो सकता है जो यह सब कुछ देखकर भी ख़ुदा का इनकार करे, या उसके साथ कुछ दूसरी हस्तियों को भी ख़ुदाई में शरीक ठहराए।
21. यानी ख़ुदा से फिरा हुआ आदमी, जिसकी अक़्ल पर ग़फ़लत या तास्सुब (दुराग्रह) का परदा पड़ा हुआ हो, किसी चीज़ को देखकर भी कोई सबक़ नहीं ले सकता। उसकी जानवरों की-सी आँखें ये तो देख लेंगी कि हवाएँ चलीं, बादल आए, कड़क-चमक हुई और बारिश हो गई। मगर उसका इनसानी दिमाग़ कभी यह न सोचेगा कि यह सब कुछ क्यों हो रहा है, कौन कर रहा है और मुझपर उसके क्या हक़ हैं।
فَٱدۡعُواْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 13
(14) (तो ऐ रुजू करनेवालो) अल्लाह ही को पुकारो अपने दीन को उसके लिए ख़ालिस (विशुद्ध) करके,22 चाहे तुम्हारा यह काम हक़ का इनकार करनेवालों को कितना ही नागवार हो।
22. दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करने का मतलब सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-3 में बयान किया चुका है।
رَفِيعُ ٱلدَّرَجَٰتِ ذُو ٱلۡعَرۡشِ يُلۡقِي ٱلرُّوحَ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ لِيُنذِرَ يَوۡمَ ٱلتَّلَاقِ ۝ 14
(15) वह बुलन्द दरजोंवाला,23 अर्श का मालिक है।24 अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है, अपने हुक्म से रूह उतार देता है25 ताकि वह मुलाक़ात के दिन26 से ख़बरदार कर दे।
23. यानी पाई जानेवाली तमाम चीज़ों में से उसका मक़ाम बहुत ऊँचा है। कोई हस्ती भी जो इस कायनात में मौजूद है, चाहे वह कोई फ़रिश्ता हो या नबी या वली, या और कोई जानदार, उसका मक़ाम दूसरे जानदारों के मुक़ाबले में चाहे कितना ही ऊँचा और बुलन्द हो, मगर अल्लाह तआला के सबसे बुलन्द मक़ाम से उसके क़रीब होने तक के बारे में सोचा नहीं जा सकता, कहाँ यह कि अल्लाह की सिफ़ात और इख़्तियारात में उसके शरीक होने का गुमान किया जा सके।
24. यानी सारी कायनात का बादशाह और हाकिम है। कायनात के तख़्ते-सल्तनत (राजसिंहासन) का मालिक है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-41; सूरा-13 रअद, हाशिया-3; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-2)
25. रूह से मुराद वह्य और नुबूवत है (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-2; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-103)। और यह कहना कि अल्लाह अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है यह रूह उतारता है, इस मानी में है कि अल्लाह की मेहरबानी पर किसी का इजारा (अकेले का अधिकार) नहीं है। जिस तरह कोई शख़्स यह एतिराज़ करने का हक़ नहीं रखता कि फ़ुलाँ शख़्स को ख़ूबसूरती क्यों दी गई और फ़ुलाँ शख़्स को याददाश्त या ज़हानत (बौद्धिकता) की ग़ैर-मामूली ताक़त क्यों दी गई, उसी तरह किसी को यह एतिराज़ करने का भी हक़ नहीं है कि पैग़म्बरी के मंसब के लिए फ़ुलाँ शख़्स ही को क्यों चुना गया और जिसे हम चाहते थे उसे क्यों न नबी बनाया गया।
26. यानी जिस दिन तमाम इनसान और जिन्न और शैतान एक साथ अपने रब के सामने इकठे होंगे और उनके आमाल के सारे गवाह भी हाज़िर होंगे।
يَوۡمَ هُم بَٰرِزُونَۖ لَا يَخۡفَىٰ عَلَى ٱللَّهِ مِنۡهُمۡ شَيۡءٞۚ لِّمَنِ ٱلۡمُلۡكُ ٱلۡيَوۡمَۖ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ ۝ 15
(16) वह दिन जबकि सब लोग बेपरदा होंगे, अल्लाह से उनकी कोई बात भी छिपी हुई न होगी। (उस दिन पुकारकर पूछा जाएगा) “आज बादशाही किसकी है?"27 (सारा जहान पुकार उठेगा) “अकेले अल्लाह की जो सबपर हावी है।”
27. यानी दुनिया में तो बहुत-से अपने आपमें ग़लत लोग अपनी बादशाही और ताक़तवर होने के डंके पीटते रहे और बहुत-से बेवक़ूफ़ उनकी बादशाहियाँ और बड़ाइयाँ मानते रहे, अब बताओ कि बादशाही अस्ल में किसकी है? अधिकारों का अस्ल मालिक कौन है? और हुक्म किसका चलता है? यह ऐसी बात है जिसे अगर कोई शख़्स ध्यान से सुने तो चाहे कितना ही बड़ा बादशाह या तानाशाह बना बैठा हो, उसकी अकड़ पानी की तरह पिघल जाए और सारी ताक़त की हवा उसके दिमाग़ से निकल जाए। इस मौक़े पर इतिहास का यह वाक़िआ बयान करने के क़ाबिल है कि सामानी ख़ानदान का बादशाह नस्र-बिन-अहमद (293-331 हि० 1905-943 ई०) जब नेशापुर में दाख़िल हुआ तो उसने एक दरबार सजाया और तख़्त पर बैठने के बाद फ़रमाइश की कि कार्रवाई की शुरुआत क़ुरआन मजीद की तिलावत से हो। यह सुनकर एक बुज़ुर्ग आगे बढ़े और उन्होंने यही रुकू तिलावत किया। जिस वक़्त वह इस आयत पर पहुँचे तो नस्र पर ख़ौफ़ तारी हो गया। काँपता हुआ तख़्त से उतरा, सर से ताज उतारकर सजदे में गिर गया और बोला, “ऐ रब! बादशाही तेरी ही है, न कि मेरी।”
ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡۚ لَا ظُلۡمَ ٱلۡيَوۡمَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 16
(17) (कहा जाएगा) आज हर एक को उस कमाई का बदला दिया जाएगा जो उसने की थी। आज किसी पर कोई ज़ुल्म न होगा28 और अल्लाह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।29
28. यानी किसी तरह का ज़ुल्म भी न होगा। ध्यान रहे कि बदले के मामले में ज़ुल्म की कई शक्लें हो सकती हैं। एक यह कि आदमी इनाम का हक़दार हो और वह उसको न दिया जाए। दूसरी यह कि वह जितने इनाम का हक़दार हो उससे कम दिया जाए। तीसरी यह कि वह सज़ा का हक़दार न हो, मगर उसे सज़ा दे डाली जाए। चौथी यह कि जो सज़ा का हक़दार हो, उसे सज़ा न दी जाए। पाँचवीं यह कि जो कम सज़ा का हक़दार हो, उसे ज़्यादा सज़ा दी जाए। छठी यह कि मज़लूम (पीड़ित) मुँह देखता रह जाए और ज़ालिम उसकी आँखों के सामने साफ़ बरी होकर निकल जाए। सातवीं यह कि एक के गुनाह में दूसरा पकड़ लिया जाए। अल्लाह तआला के कहने का मंशा यह है कि इन तमाम क़िस्मों में से किसी तरह का का ज़ुल्म भी उसकी अदालत में न होने पाएगा।
29. मतलब यह है कि अल्लाह को हिसाब लेने में कोई देर नहीं लगेगी। वह जिस तरह कायनात के हर जानदार को एक साथ रोज़ी दे रहा है और किसी को रोज़ी पहुँचाने के इन्तिज़ाम में उसको ऐसी मशग़ूलियत (व्यस्तता) नहीं होती कि दूसरों को रोज़ी देने की उसे फ़ुर्सत न मिले। वह जिस तरह कायनात की हर चीज़ को एक साथ देख रहा है, सारी आवाज़ों को एक साथ सुन रहा है, तमाम छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े मामलों की एक ही वक़्त में तदबीर कर रहा है और कोई चीज़ उसके ध्यान को इस तरह अपनी तरफ़ नहीं लगा लेती कि उसी वक़्त वह दूसरी चीज़ों की तरफ़ ध्यान न दे सके, उसी तरह वह हर-हर शख़्स का एक ही वक़्त में हिसाब-किताब भी लेगा और एक मुक़द्दमे की सुनवाई करने में वह ऐसा मशग़ूल न होगा कि उसी वक़्त दूसरे अनगिनत मुक़द्दमों की सुनवाई न कर सके। फिर उसकी अदालत में इस वजह से भी कोई देर न होगी कि मुक़द्दमे के वाक़िआत की जाँच-पड़ताल और उसके लिए गवाहियाँ जुटाने में वहाँ कोई मुश्किल पेश आए। अदालत का जज सीधे तौर पर ख़ुद तमाम हक़ीक़तों को जानता होगा। मुक़द्दमे का हर फ़रीक़ (पक्ष) उसके सामने बिलकुल बेनक़ाब होगा। और वाक़िआत की खुली-खुली रद्द न की जा सकनेवाली गवाहियाँ छोटी-से-छोटी जुज़ई (आंशिक) तफ़सीलात तक के साथ बिना देर किए पेश हो जाएँगी। इसलिए हर मुक़द्दमे का फ़ैसला झटपट हो जाएगा।
وَأَنذِرۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡأٓزِفَةِ إِذِ ٱلۡقُلُوبُ لَدَى ٱلۡحَنَاجِرِ كَٰظِمِينَۚ مَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ حَمِيمٖ وَلَا شَفِيعٖ يُطَاعُ ۝ 17
(18) ऐ नबी, डरा दो इन लोगों को उस दिन से जो क़रीब आ लगा है।30 जब कलेजे मुँह को आ रहे होंगे और लोग चुपचाप ग़म के घूँट पिए खड़े होंगे। ज़ालिमों का न कोई मेहरबान दोस्त होगा31 और न कोई सिफ़ारिशी जिसकी बात मानी जाए।32
30. क़ुरआन मजीद में लोगों को बार-बार यह एहसास दिलाया गया है कि क़ियामत उनसे कुछ दूर नहीं है, बल्कि क़रीब ही लगी खड़ी है और हर पल आ सकती है। कहीं फ़रमाया, “आ गया अल्लाह का हुक्म, सो अब उसके लिए जल्दी न मचाओ।” (सूरा-16 नह्ल, आयत1)। कहीं कहा गया, “क़रीब आ गया है लोगों के हिसाब का वक़्त और वे ग़फ़लत में मुँह मोड़े हुए हैं।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-1)। कहीं ख़बरदार किया गया, “क़रीब आ गई वह घड़ी और चाँद फट गया।” (सूरा-54 क़मर, आयत-1)। कहीं कहा गया, “क़रीब आनेवाली (क़ियामत की घड़ी) क़रीब आ गई। अल्लाह के सिवा कोई नहीं जो उसको ज़ाहिर करे।” (सूरा-53 नज्म, आयत-57, 58)। इन सारी बातों का मक़सद लोगों को ख़बरदार करना है कि क़ियामत को दूर की चीज़ समझकर बेख़ौफ़ न रहें और संभलना है तो एक पल गँवाए बिना संभल जाएँ।
31. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'हमीम' इस्तेमाल किया गया है जिससे मुराद किसी शख़्स का ऐसा दोस्त है जो उसे पिटते देखकर जोश में आए और उसे बचाने के लिए दौड़े।
32. यह बात सूरा उतरते वक़्त, ग़ैर-मुस्लिमों के शफ़ाअत (सिफ़ारिश) के अक़ीदे (धारणा) को रद्द करते हुए कही गई है। हक़ीक़त में तो वहाँ ज़ालिमों का कोई सिफ़ारिशी सिरे से होगा ही नहीं, क्योंकि सिफ़ारिश की इजाज़त मिल भी सकती है तो अल्लाह के नेक बन्दों को मिल सकती है और अल्लाह के नेक बन्दे कभी हक़ के इनकारियों और मुशरिकों और अल्लाह के खुले नाफ़रमानों और सरकशों के दोस्त नहीं हो सकते कि वे उन्हें बचाने के लिए सिफ़ारिश का ख़याल भी करें। लेकिन चूँकि हक़ के इनकारियों, मुशरिकों और गुमराह लोगों का आम तौर से यह अक़ीदा रहा है और आज भी है कि हम जिन बुज़ुर्गों का दामन थामे हुए हैं, वे कभी हमें जहन्नम में न जाने देंगे, बल्कि अड़कर खड़े हो जाएँगे और बख़्शवाकर ही छोड़ेंगे, इसलिए कहा गया कि वहाँ ऐसा सिफ़ारिशी कोई भी न होगा जिसकी बात मानी जाए और जिसकी सिफ़ारिश अल्लाह को लाज़िमन क़ुबूल ही करनी पड़े।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 18
(23) हमने मूसा35 को फ़िरऔन और हामान36 और क़ारून की तरफ़ अपनी निशानियों और तक़रुरी की नुमायाँ सनद'37 के साथ भेजा,
35. हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से की दूसरी तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—64 से 76; सूरा-4 निसा, हाशिया-206; सूरा-5 माइदा, हाशिया-42; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—93 से 119; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—72 से 94; सूरा-11 हूद, हाशिए—19, 104, 111; सूरा-12 यूसुफ़, परिचय; सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—8 से 13; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—113 से 117; सूरा-18 कह्फ़, हाशिए—57 से 59; सूरा-19 मरयम, हाशिए—29 से 31; सूरा-20 ता-हा, परिचय, हाशिए—5 से 75; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—39 से 42; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—7 से 49; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—8 से 17; सूरा-28 क़सस, परिचय, हाशिए—1 से 57; सूरा-83 अहज़ाब, आयत-69; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—114 से 122।
36. हामान के बारे में मुख़ालिफ़ों के एतिराज़ों का जवाब इससे पहले सूरा-28 क़सस के हाशिया-8 में दिया जा चुका है।
37. यानी ऐसी साफ़ निशानियों के साथ जिनसे इस बात में शक नहीं रह जाता था कि वह अल्लाह की तरफ़ से भेजे गए हैं और उनके पीछे सारे जहान के रब अल्लाह की ताक़त है। क़ुरआन मजीद में हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से की जो तफ़सीलात बयान की गई हैं, उनपर एक गहरी नज़र डालने से साफ़ मालूम हो जाता है कि वे कौन-सी निशानियाँ थीं जिनको यहाँ अल्लाह की तरफ़ से भेजे हुए होने की खुली सनद कहा जा रहा है। अव्वल तो यही एक अजीब बात थी कि जो आदमी कुछ साल पहले फ़िरऔन की क़ौम के एक आदमी को क़त्ल करके देश से भाग गया था और जिसके वारंट निकले हुए थे, वह अचानक एक लाठी लिए हुए सीधा फ़िरऔन के भरे दरबार में बेख़ौफ़ चला आता है और धड़ल्ले के साथ बादशाह और उसके दरबारियों को मुख़ातब करके दावत देता है कि वे उसे सारे जहान के रब अल्लाह का नुमाइन्दा (प्रतिनिधि) मानकर उसकी हिदायतों पर अमल करें और किसी को उसपर हाथ डालने की जुर्रत नहीं होती। हालाँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) जिस क़ौम से ताल्लुक़ रखते थे, वह इस बुरी तरह ग़ुलामी के बोझ तले पिस रही थी कि अगर क़त्ल के इलज़ाम की बुनियाद पर उनको फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया जाता तो इस बात का कोई अन्देशा न था कि उनकी क़ौम बग़ावत तो एक तरफ़, एहतिजाज (प्रतिरोध) ही के लिए ज़बान खोल सकेगी। इससे साफ़ मालूम होता है कि 'असा' और 'चमकता हुआ हाथ' के मोजिज़े (चमत्कार) देखने से भी पहले फ़िरऔन और उसके दरबारी सिर्फ़ हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने ही से ख़ौफ़ खा चुके थे और पहली नज़र ही में उन्हें महसूस हो गया था कि यह आदमी किसी और ही ताक़त के बल-बूते पर आया है। फिर जो आलीशान मोजिज़े (चमत्कार) एक के बाद एक उनके हाथ से हुए उनमें से हर एक यह यक़ीन दिलाने के लिए काफ़ी था कि का यह जादू का नहीं, ख़ुदाई ताक़त ही का करिश्मा है। आख़िर किस जादू के ज़ोर से एक लाठी सचमुच अजगर बन सकती है? या एक पूरे देश में क़हत (अकाल) पड़ सकता है? या लाखों वर्ग मील के इलाक़े में एक नोटिस पर तरह-तरह के तूफ़ान आ सकते हैं और एक नोटिस पर वे ख़त्म हो सकते हैं? यही वजह है कि क़ुरआन मजीद के बयान के मुताबिक़ फ़िरऔन और उसकी सल्तनत के तमाम ज़िम्मेदार लोग, ज़बान से चाहे इनकार करते रहे हों, मगर दिल उनके पूरी तरह जान चुके थे कि हज़रत मूसा (अलैहि०) सचमुच अल्लाह तआला की तरफ़ से भेजे गए हैं। (तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—86 से 89; ता-हा, हाशिए—29 से 53; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—22 से 41; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-16)
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَقَٰرُونَ فَقَالُواْ سَٰحِرٞ كَذَّابٞ ۝ 19
(24) मगर उन्होंने कहा, “जादूगर है, बहुत बड़ा झूठा है।”
فَلَمَّا جَآءَهُم بِٱلۡحَقِّ مِنۡ عِندِنَا قَالُواْ ٱقۡتُلُوٓاْ أَبۡنَآءَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ وَٱسۡتَحۡيُواْ نِسَآءَهُمۡۚ وَمَا كَيۡدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ ۝ 20
(25) फिर जब हमारी तरफ़ से हक़ उनके सामने ले आया38 तो उन्होंने कहा, “जो लोग ईमान लाकर इसके साथ शामिल हुए हैं उन सबके लड़कों को क़त्ल करो और लड़कियों को जीता छोड़ दो।39 मगर हक़ के इनकारियों की चाल अकारथ ही गई।40
38. यानी जब एक के बाद एक मोजिज़े और निशानियाँ दिखाकर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने यह बात पूरी तरह साबित कर दी कि वे अल्लाह के भेजे हुए रसूल हैं और मज़बूत दलीलों से अपना हक़ पर होना पूरी तरह वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया।
39. सूरा-7 आराफ़, आयत-127 में यह बात गुज़र चुकी है कि फ़िरऔन के दरबारियों ने उससे कहा था कि आख़िर मूसा को यह खुली छुट्टी कब तक दी जाएगी और उसने कहा था कि मैं बहुत जल्द बनी-इसराईल के लड़कों को क़त्ल करने और लड़कियों को जीता छोड़ देने का हुक्म देनेवाला हूँ (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-93)। अब यह आयत बताती है। कि फ़िरऔन के यहाँ से आख़िरकार यह हुक्म जारी कर दिया गया। इसका मक़सद यह था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के तरफ़दारों और पैरोकारों को इतना डरा दिया जाए कि वे डर के मारे उनका साथ छोड़ दें।
40. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “व मा क़ैदुल-काफ़िरी-न इल्ला फ़ी ज़लालिन"। इस जुमले का दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि हक़ के इन इनकारियों की जो चाल भी थी, गुमराही और ज़ुल्मो-सितम और हक़ की मुख़ालफ़त ही की राह में थी, यानी हक़ खुलकर सामने आ जाने और दिलों में मान लेने के बावजूद वे अपनी ज़िद में बढ़ते ही चले गए और सच्चाई को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने कोई नीच-से-नीच चाल चलने में भी झिझक महसूस न की।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ذَرُونِيٓ أَقۡتُلۡ مُوسَىٰ وَلۡيَدۡعُ رَبَّهُۥٓۖ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُبَدِّلَ دِينَكُمۡ أَوۡ أَن يُظۡهِرَ فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡفَسَادَ ۝ 21
(26) एक दिन41 फ़िरऔन ने अपने दरबारियों से कहा, “छोड़ो मुझे, मैं इस मूसा को क़त्ल किए देता हूँ,42 और पुकार देखे यह अपने रब को। मुझे अन्देशा है कि यह तुम्हारा दीन (धर्म) बदल डालेगा, या मुल्क में फ़साद पैदा करेगा।"43
41. यहाँ से जिस वाक़िए का बयान शुरू हो रहा है, वह बनी-इसराईल के इतिहास का एक बहुत अहम वाक़िआ है जिसे ख़ुद बनी-इसराईल बिलकुल भूल बैठे हैं। बाइबल और तलमूद, दोनों इसके ज़िक्र से ख़ाली हैं और दूसरी इसराईली रिवायतों में भी इसका कोई नामो-निशान नहीं पाया जाता। सिर्फ़ क़ुरआन मजीद ही के ज़रिए से दुनिया को यह मालूम हुआ है कि फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) के टकराव के दौर में एक वक़्त यह वाक़िआ भी पेश आया था। इस क़िस्से को जो शख़्स भी पढ़ेगा, शर्त यह है कि वह इस्लाम और क़ुरआन के ख़िलाफ़ तास्सुब (दुराग्रह) में अन्धा न हो चुका हो, वह यह महसूस किए बिना न रह सकेगा कि हक़ की दावत के नज़रिए से यह क़िस्सा बड़ी क़द्रो-क़ीमत रखता है और अपनी जगह यह बात ख़ुद अक़्ल और गुमान से परे भी नहीं है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की शख़सियत, उनकी तबलीग़ और उनके हाथों होनेवाले हैरतअंगेज़ मोजिज़ों (चमत्कारों) से मुतास्सिर होकर ख़ुद फ़िरऔन के दरबारियों में से कोई आदमी दिल-ही-दिल में ईमान ले आया हो और फ़िरऔन को उनके क़त्ल पर आमादा देखकर वह ख़ुद को रोक न सका हो। लेकिन मग़रिबी मुस्तशरिक़ीन (पश्चिमी प्राच्यविद्) इल्म और खोज के लम्बे-चौड़े दावों के बावजूद, तास्सुब में अन्धे होकर जिस तरह क़ुरआन की रौशन सच्चाइयों पर धूल डालने की कोशिश करते हैं, उसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इंसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम में लेख 'मूसा' का लेखक इस क़िस्से के बारे में लिखता है— "क़ुरआन की यह कहानी कि फ़िरऔन के दरबार में एक ईमानवाला मूसा को बचाने की कोशिश करता है, पूरी तरह वाज़ेह नहीं है (सूरा-40, आयत-28)। क्या हमें इसका तक़ाबुल (तुलना) उस क़िस्से से करना चाहिए जो हग्गादा में बयान हुआ है और जिसका मज़मून यह है कि यथरो ने फ़िरऔन के दरबार में नरमी और माफ़ी से काम लेने का मशवरा दिया था?” सच्चाई जानने के इन दावेदारों के यहाँ मानो यह बात तो तयशुदा है कि क़ुरआन की हर बात में ज़रूर कीड़े ही डालने हैं। अब अगर उसके किसी बयान पर एतिराज़ की कोई बुनियाद नहीं मिलती तो कम-से-कम यही शोशा छोड़ दिया जाए कि यह क़िस्सा पूरी तरह वाज़ेह नहीं है और चलते-चलते यह शक भी पढ़नेवालों के दिल में डाल दिया जाए कि हग्गादा में यथरो का जो क़िस्सा हज़रत मूसा (अलैहि०) की पैदाइश से पहले का बयान हुआ है, वह कहीं से मुहम्मद (सल्ल०) ने सुन लिया होगा और उसे लाकर यहाँ इस शक्ल में बयान कर दिया होगा। यह है 'इल्मी जाँच' का वह अन्दाज़ जो इन लोगों ने इस्लाम, क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के मामले में अपना रखा है।
42. इस जुमले में फ़िरऔन यह ज़ाहिर करने की कोशिश करता है कि मानो कुछ लोगों ने उसे रोक रखा है जिनकी वजह से वह हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल नहीं कर रहा है, वरना अगर वे रुकावट न होते तो वह कभी का उन्हें मार चुका होता। हालाँकि अस्ल में बाहर की कोई ताक़त उसे रोकनेवाली न थी, उसके अपने दिल का डर ही उसको अल्लाह के रसूल पर हाथ डालने से रोके हुए था।
43. यानी, मुझे इससे इनक़िलाब का ख़तरा है और अगर यह इनक़िलाब न ला सके तो कम-से-कम यह ख़तरा तो है ही कि इसकी कार्रवाइयों से देश में बिगाड़ फैलेगा, लिहाज़ा बिना इसके कि यह कोई ऐसा जुर्म करे जिसके लिए यह मौत का हक़दार ठहरे, सिर्फ़ दुनिया में शान्ति बनाए रखने (Maintenance of public order) के लिए इसे क़त्ल कर देना चाहिए। रही यह बात कि इस आदमी के वुजूद से सचमुच जनता के अम्न को ख़तरा है या नहीं, तो इसके लिए सिर्फ़ बादशाह का इत्मीनान काफ़ी है। बड़े सरकार अगर मुत्मइन हैं कि यह ख़तरनाक आदमी है तो मान लिया जाना चाहिए कि सचमुच ख़तरनाक और क़त्ल किए जाने लायक़ है। इस जगह पर 'दीन बदल डालने' का मतलब भी अच्छी तरह समझ लीजिए जिसके अन्देशे से फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल कर देना चाहता था। यहाँ दीन से मुराद हुकूमत का निज़ाम (शासन-व्यवस्था) है और फ़िरऔन के कहने का मतलब यह है कि “मुझे डर है कि यह तुम्हारी हुकूमत बदल डालेगा।” (रूहुल-मआनी, हिस्सा-24, पे० 56)। दूसरे अलफ़ाज़ में फ़िरऔन और उसके ख़ानदान के इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) की बुनियाद पर मज़हब, सियासत और तमद्दुन व मईशत (सभ्यता और माली मामलों) का जो निज़ाम मिस्र में चल रहा था, वह मुल्क का दीन था और फ़िरऔन को हज़रत मूसा (अलैहि०) की दावत से इसी दीन के बदल जाने का ख़तरा था। लेकिन हर ज़माने के मक्कार हुक्मरानों की तरह उसने भी यह नहीं कहा कि मुझे अपने हाथ से इक़तिदार निकल जाने का डर है, इसलिए मैं मूसा (अलैहि०) को क़त्ल करना चाहता हूँ, बल्कि सूरते-हाल को उसने इस तरह पेश किया कि लोगो, ख़तरा मुझे नहीं, तुम्हें है, क्योंकि मूसा (अलैहि०) की तहरीक (आन्दोलन) अगर कामयाब हो गई तो तुम्हारा दीन बदल जाएगा। मुझे अपनी फ़िक्र नहीं है। मैं तो तुम्हारी फ़िक्र में घुला जा रहा हूँ कि मेरे इक़तिदार की छाँव से महरूम होकर तुम्हारा क्या बनेगा। लिहाज़ा जिस ज़ालिम के हाथों यह साया तुम्हारे सर से उठ जाने का डर है, उसे क़त्ल कर देना चाहिए, क्योंकि वह देश और क़ौम का दुश्मन है।
وَقَالَ مُوسَىٰٓ إِنِّي عُذۡتُ بِرَبِّي وَرَبِّكُم مِّن كُلِّ مُتَكَبِّرٖ لَّا يُؤۡمِنُ بِيَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 22
(27) मूसा ने कहा, “मैंने तो हर उस बड़े बननेवाले (अहंकारी) के मुक़ाबले में, जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता, अपने रब और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है।"44
44. यहाँ दो बराबर के इमकान हैं, जिनमें से किसी को किसी से बढ़कर मानने का कोई इशारा मौजूद नहीं है। एक इमकान यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) उस वक़्त दरबार में मौजूद हों और फ़िरऔन ने उनकी मौजूदगी में उन्हें क़त्ल कर देने का इरादा ज़ाहिर किया हो और हज़रत ने उसको और उसके दरबारियों को मुख़ातब करके उसी वक़्त खुल्लम-खुल्ला यह जवाब दे दिया हो। दूसरा इमकान यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की ग़ैर-मौजूदगी में फ़िरऔन ने अपनी हुकूमत के ज़िम्मेदार लोगों की किसी मजलिस में यह ख़याल ज़ाहिर किया हो और इस बातचीत की ख़बर मूसा (अलैहि०) को ईमानवालों में से कुछ लोगों ने पहुँचाई हो और उसे सुनकर मूसा (अलैहि०) ने अपने माननेवालों की मजलिस में यह बात कही हो। इन दोनों बातों में से जो बात भी हो, हज़रत मूसा (अलैहि०) के अलफ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि फ़िरऔन की धमकी उनके दिल में ज़र्रा बराबर भी डर की कोई कैफ़ियत पैदा न कर सकी और उन्होंने अल्लाह के भरोसे पर उसकी धमकी उसी के मुँह पर मार दी। इस वाक़िए को जिस मौक़े पर क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है, उससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात निकलती है कि मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ से भी यही जवाब उन सब ज़ालिमों को है जो हिसाब के दिन से निडर होकर आप (सल्ल०) को क़त्ल कर देने की साज़िशें कर रहे थे।
وَقَالَ رَجُلٞ مُّؤۡمِنٞ مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَكۡتُمُ إِيمَٰنَهُۥٓ أَتَقۡتُلُونَ رَجُلًا أَن يَقُولَ رَبِّيَ ٱللَّهُ وَقَدۡ جَآءَكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ مِن رَّبِّكُمۡۖ وَإِن يَكُ كَٰذِبٗا فَعَلَيۡهِ كَذِبُهُۥۖ وَإِن يَكُ صَادِقٗا يُصِبۡكُم بَعۡضُ ٱلَّذِي يَعِدُكُمۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ كَذَّابٞ ۝ 23
(28) इस मौक़े पर फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमानवाला शख़्स, जो अपना ईमान छिपाए हुए था, बोल उठा, “क्या तुम एक आदमी को सिर्फ़ इस वजह से क़त्ल कर दोगे कि वह कहता है, मेरा रब अल्लाह है? हालाँकि वह तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास खुली-खुली निशानियाँ45 ले आया। अगर वह झूठा है तो उसका झूठ ख़ुद उसी पर पलट पड़ेगा46 लेकिन अगर वह सच्चा है तो जिन भयानक नतीजों से वह तुमको डराता है उनमें से कुछ तो तुमपर ज़रूर ही आ जाएँगे। अल्लाह किसी ऐसे शख़्स को हिदायत नहीं देता जो हद से गुज़र जानेवाला और बहुत झूठा हो।47
45. यानी उसने ऐसी खुली-खुली निशानियाँ तुम्हें दिखा दी हैं जिनसे यह बात दिन के उजाले की तरह ज़ाहिर हो चुकी है कि वह तुम्हारे रब का भेजा हुआ रसूल है। फ़िरऔन के लोगों में से उस मोमिन का इशारा उन निशानियों की तरफ़ था जिनकी तफ़सीलात इससे पहले गुज़र चुकी हैं (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—87, 89 से 91, 94 से 96; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—113 से 116; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—29 से 50; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—26 से 39; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-16)
46. यानी अगर ऐसी साफ़-साफ़ निशानियों के बावजूद तुम उसे झूठा समझते हो तब भी तुम्हारे लिए मुनासिब यही है कि उसे उसके हाल पर छोड़ दो, क्योंकि दूसरा इमकान और बहुत मज़बूत इमकान यह भी है कि वह सच्चा हो और उसपर हाथ डालकर तुम ख़ुदा के अज़ाब में मुब्तला हो जाओ। इसलिए अगर तुम उसे झूठा भी समझते हो तो उससे छेड़-छाड़ न करो। वह अल्लाह का नाम लेकर झूठ बोल रहा होगा तो अल्लाह ख़ुद उससे निमट लेगा। लगभग इसी तरह की बात इससे पहले ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) भी फ़िरऔन से कह चुके थे, "अगर तुम मेरी बात नहीं मानते तो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।” (सूरा-44 दुख़ान, आयत-21) यहाँ यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि फ़िरऔन के लोगों में से उस ईमानवाले ने बातचीत के शुरू में खुलकर यह ज़ाहिर नहीं किया था कि वह हज़रत मूसा (अलैहि०) पर ईमान ले आया है, बल्कि शुरू में वह इसी तरह बात करता रहा कि वह भी फ़िरऔन ही के गरोह का एक आदमी है और सिर्फ़ अपनी क़ौम की भलाई के लिए बात कर रहा है। मगर जब फ़िरऔन और उसके दरबारी किसी तरह सीधे रास्ते पर आते न दिखाई दिए तो आख़िर में उसने अपने ईमान का राज़ खोल दिया, जैसा कि पाँचवें रुकू (आयतें—38 से 50) में उसकी तक़रीर से ज़ाहिर होता है।
47. इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं और शायद फ़िरऔन के लोगों में से उस मोमिन ने जान-बूझकर यह दो मानी रखनेवाली बात इसी लिए कही थी कि अभी वह खुलकर अपने ख़यालात ज़ाहिर करना नहीं चाहता था। इसका एक मतलब यह है कि एक ही आदमी की शख़सियत में सच्चाई-पसन्दी जैसी ख़ूबी और झूठ बोलने और झूठ गढ़ने जैसी बुराई इकट्ठी नहीं हो सकती। तुम खुल्लम-खुल्ला देख रहे हो कि मूसा (अलैहि०) एक निहायत साफ़-सुथरी सीरत और इन्तिहाई दरजे का बुलन्द किरदार इनसान है। अब आख़िर यह बात तुम्हारे दिमाग़ में कैसे समाती है कि एक तरफ़ तो वह इतना बड़ा झूठा हो कि अल्लाह का नाम लेकर पैग़म्बरी का बेबुनियाद दावा कर बैठे और दूसरी तरफ़ अल्लाह उसे इतने आला दरजे के अख़लाक़ दे दे। दूसरा मतलब यह है कि तुम लोग अगर हद से आगे बढ़कर मूसा (अलैहि०) की जान लेने के पीछे पड़ोगे और उनपर झूठे इलज़ाम लगाकर अपने नापाक मंसूबों पर अमल करोगे तो याद रखो कि अल्लाह तुम्हें हरगिज़ कामयाबी का रास्ता न दिखाएगा।
يَٰقَوۡمِ لَكُمُ ٱلۡمُلۡكُ ٱلۡيَوۡمَ ظَٰهِرِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَن يَنصُرُنَا مِنۢ بَأۡسِ ٱللَّهِ إِن جَآءَنَاۚ قَالَ فِرۡعَوۡنُ مَآ أُرِيكُمۡ إِلَّا مَآ أَرَىٰ وَمَآ أَهۡدِيكُمۡ إِلَّا سَبِيلَ ٱلرَّشَادِ ۝ 24
(29) ऐ मेरी क़ौम के लोगो, आज तुम्हें बादशाही हासिल है और ज़मीन में तुम ग़ालिब (हावी) हो, लेकिन अगर ख़ुदा का अज़ाब हमपर आ गया तो फिर कौन है जो हमारी मदद कर सकेगा।"48 फ़िरऔन ने कहा, “मैं तो तुम लोगों को वही राय दे रहा हूँ जो मुझे मुनासिब नज़र आती है और मैं उसी रास्ते की तरफ़ तुम्हारी रहनुमाई करता हूँ जो ठीक है।"49
48. यानी क्यों अल्लाह की दी हुई ग़लबे और इक़तिदार की इस नेमत की नाशुक्री करके उसके ग़ुस्से को अपने ऊपर दावत देते हो?
49. फ़िरऔन के इस जवाब से अन्दाज़ा होता है कि अभी तक वह यह राज़ नहीं पा सका था कि उसके दरबार का यह सरदार दिल-ही-दिल में ईमान ला चुका है। इसी लिए उसने उस आदमी की बात पर कोई नाराज़ी तो ज़ाहिर न की, अलबत्ता यह साफ़ कर दिया कि उसके ख़यालात सुनने के बाद भी वह अपनी राय बदलने के लिए तैयार नहीं है।
وَقَالَ ٱلَّذِيٓ ءَامَنَ يَٰقَوۡمِ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُم مِّثۡلَ يَوۡمِ ٱلۡأَحۡزَابِ ۝ 25
(30) वह शख़्स जो ईमान लाया था उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, मुझे डर है कि कहीं तुमपर भी वह दिन न आ जाए जो इससे पहले बहुत-से जत्थों पर आ चुका है,
مِثۡلَ دَأۡبِ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ وَمَا ٱللَّهُ يُرِيدُ ظُلۡمٗا لِّلۡعِبَادِ ۝ 26
(31) जैसा दिन नूह की क़ौम और आद और समूद और उनके बादवाली क़ौमों पर आया था। और यह हक़ीक़त है कि अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म का कोई इरादा नहीं रखता।50
50. यानी अल्लाह को बन्दों से कोई दुश्मनी नहीं है कि वह ख़ाह-मख़ाह उन्हें हलाक कर दे, बल्कि की वह उनपर अज़ाब उसी वक़्त भेजता है जबकि वे हद से गुज़र जाते हैं और उस वक़्त उनपर अज़ाब भेजना इनसाफ़ के तक़ाज़े के बिलकुल मुताबिक़ होता है।
وَيَٰقَوۡمِ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ يَوۡمَ ٱلتَّنَادِ ۝ 27
(32) ऐ मेरे लोगो, मुझे डर है कि कहीं तुमपर फ़रियाद करने और रोने-पीटने का दिन न आ जाए,
يَوۡمَ تُوَلُّونَ مُدۡبِرِينَ مَا لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِنۡ عَاصِمٖۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 28
(33) जब तुम एक-दूसरे को पुकारोगे और भागे-भागे फिरोगे, मगर उस वक़्त अल्लाह से बचानेवाला कोई न होगा। सच यह है कि जिसे अल्लाह भटका दे उसे फिर कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं होता।
وَلَقَدۡ جَآءَكُمۡ يُوسُفُ مِن قَبۡلُ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا زِلۡتُمۡ فِي شَكّٖ مِّمَّا جَآءَكُم بِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا هَلَكَ قُلۡتُمۡ لَن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِهِۦ رَسُولٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ مُّرۡتَابٌ ۝ 29
(34) इससे पहले यूसुफ़ तुम्हारे पास खुली- खुली निशानियाँ लेकर आए थे, मगर तुम उनकी लाई हुई तालीम की तरफ़ से शक ही में पड़े रहे। फिर जब उनका इन्तिक़ाल हो गया तो तुमने कहा, अब उनके बाद अल्लाह कोई रसूल हरगिज़ न भेजेगा।51 इसी तरह52 अल्लाह उन सब लोगों को गुमराही में डाल देता है जो हद से गुज़रनेवाले और शक्की होते हैं
51. यानी तुम्हारी गुमराही और फिर उसपर हठधर्मी का हाल यह है कि मूसा (अलैहि०) से पहले तुम्हारे देश में यूसुफ़ (अलैहि०) आए, जिनके बारे में तुम ख़ुद मानते हो कि वे बहुत बुलन्द अख़लाक़ रखते थे और इस बात को भी तुम मानते हो कि उन्होंने वक़्त के बादशाह के ख़ाब (सपने) का सही मतलब बताकर तुम्हें सात साल के उस भयानक अकाल की तबाहकारियों से बचा लिया जो उनके दौर में तुमपर आया था और तुम्हारी सारी क़ौम इस बात को भी मानती है कि उनकी हुकूमत के दौर से बढ़कर इनसाफ़ और ख़ैरो-बरकत का ज़माना कभी मिस्र की ज़मीन ने नहीं देखा, मगर उनकी सारी ख़ूबियाँ जानते और मानते हुए भी तुमने उनके जीते जी उनपर ईमान लाकर न दिया और जब उनका इन्तिक़ाल हो गया तो तुमने कहा कि अब भला ऐसा आदमी कहाँ पैदा हो सकता है। मानो तुमने उनकी ख़ूबियों को माना भी तो इस तरह कि बाद के आनेवाले हर नबी का इनकार करने के लिए उसे हमेशा का एक बहाना बना लिया। इसका मतलब यह है कि हिदायत बहरहाल तुम्हें क़ुबूल नहीं करनी है।
52. बज़ाहिर ऐसा महसूस होता है कि आगे के ये कुछ जुमले अल्लाह तआला ने फ़िरऔन के लोगों में से उस मोमिन की बात पर अपने तौर पर इज़ाफ़ा और तशरीह करते हुए फ़रमाए हैं।
ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ سُلۡطَٰنٍ أَتَىٰهُمۡۖ كَبُرَ مَقۡتًا عِندَ ٱللَّهِ وَعِندَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ قَلۡبِ مُتَكَبِّرٖ جَبَّارٖ ۝ 30
(35) और अल्लाह की आयतों में झगड़े करते हैं बिना इसके कि उनके पास कोई सनद या दलील आई हो।53 यह रवैया अल्लाह और ईमान लानेवालों के नज़दीक सख़्त नापसन्दीदा है। इसी तरह अल्लाह हर घमण्डी और ज़ालिम के दिल पर ठप्पा लगा देता है।54
53. यानी अल्लाह तआला की तरफ़ से गुमराही में उन्हीं लोगों को फेंका जाता है जिनमें ये तीन ख़राबियाँ मौजूद होती हैं। एक यह कि वे अपने बुरे कामों में हद से गुज़र जाते हैं और फिर उन्हें गुनाह और नाफ़रमानी की ऐसी चाट लग जाती है कि अख़लाक़ सुधारने की किसी दावत को क़ुबूल करने के लिए वे आमादा नहीं होते। दूसरी यह कि नबियों (अलैहि०) के मामले में उनका हमेशा का रवैया शक का होता है। ख़ुदा के नबी उनके सामने चाहे कैसी ही निशानियाँ ले आएँ, मगर वे उनकी नुबूवत (पैग़म्बरी) में भी शक करते हैं और उन सच्चाइयों को भी हमेशा शक ही की निगाह से देखते हैं जो तौहीद और आख़िरत के बारे में उन्होंने पेश की हैं। तीसरी यह कि वे अल्लाह की किताब की आयतों पर समझदारी के साथ ग़ौर करने के बजाय उलटी-सीधी बहसों से उनका मुक़ाबला करने की कोशिश करते हैं और उन उलटी-सीधी बहसों की बुनियाद न किसी अक़्ली दलील पर होती है, न किसी आसमानी किताब की सनद पर, बल्कि शुरू से आख़िर तक सिर्फ़ ज़िद और हठधर्मी ही उनकी अस्ल बुनियाद होती है। ये तीन ख़राबियाँ जब किसी गरोह में पैदा हो जाती हैं तो फिर अल्लाह उसे गुमराही के गढ़े में फेंक देता है, जहाँ से दुनिया की कोई ताक़त उसे नहीं निकाल सकती।
54. यानी किसी के दिल पर ठप्पा बिला वजह नहीं लगा दिया जाता। यह लानत की मुहर सिर्फ़ उसी के दिल पर लगाई जाती है, जिसमें ‘तकब्बुर' (अहंकार) और 'जब्बारियत' (दमन) की हवा भर चुकी हो। तकब्बुर से मुराद है आदमी का झूठा घमण्ड जिसकी बुनियाद पर वह सच्चाई के आगे सर झुकाने को अपनी हैसियत से गिरी हुई बात समझता है और जब्बारियत से मुराद दुनियावालों पर ज़ुल्म है जिसकी खुली छूट हासिल करने के लिए आदमी अल्लाह की शरीअत की पाबन्दियाँ क़ुबूल करने से भागता है।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ يَٰهَٰمَٰنُ ٱبۡنِ لِي صَرۡحٗا لَّعَلِّيٓ أَبۡلُغُ ٱلۡأَسۡبَٰبَ ۝ 31
(36) फ़िरऔन ने कहा, “ऐ हामान, मेरे लिए एक ऊँची इमारत बना, ताकि मैं रास्तों तक पहुँच सकूँ,
أَسۡبَٰبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ فَأَطَّلِعَ إِلَىٰٓ إِلَٰهِ مُوسَىٰ وَإِنِّي لَأَظُنُّهُۥ كَٰذِبٗاۚ وَكَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِفِرۡعَوۡنَ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ وَصُدَّ عَنِ ٱلسَّبِيلِۚ وَمَا كَيۡدُ فِرۡعَوۡنَ إِلَّا فِي تَبَابٖ ۝ 32
(37) आसमानों के रास्तों तक और मूसा के ख़ुदा को झाँककर देखें। मुझे तो यह मूसा झूठा ही मालूम होता है।"55— इस तरह फ़िरऔन के लिए उसका बुरा काम ख़ुशनुमा (मनमोहक) बना दिया गया और वह सीधे रास्ते से रोक दिया गया। फ़िरऔन की सारी चालबाज़ी (उसकी अपनी) तबाही के रास्ते ही में लग गई।
55. फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमानवाले की तक़रीर के दौरान में फ़िरऔन अपने वज़ीर हामान को मुख़ातब करके यह बात कुछ इस अन्दाज़ में कहता है कि मानो वह उस ईमानवाले की बात को ज़रा भी ध्यान देने लायक नहीं समझता, इसलिए घमण्ड भरी शान के साथ उसकी तरफ़ से मुँह फेरकर हामान से कहता है कि ज़रा मेरे लिए एक ऊँची इमारत तो बनवा, देखें तो सही कि यह मूसा जिस ख़ुदा की बातें कर रहा है, वह कहाँ रहता है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-28 क़सस, हाशिए—52 से 54)।
وَقَالَ ٱلَّذِيٓ ءَامَنَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُونِ أَهۡدِكُمۡ سَبِيلَ ٱلرَّشَادِ ۝ 33
(38) वह आदमी जो ईमान लाया था, बोला, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, मेरी बात मानो, तुम्हें सही रास्ता बताता हूँ।
يَٰقَوۡمِ إِنَّمَا هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا مَتَٰعٞ وَإِنَّ ٱلۡأٓخِرَةَ هِيَ دَارُ ٱلۡقَرَارِ ۝ 34
(39) ऐ मेरे लोगो, यह दुनिया की ज़िन्दगी तो कुछ दिन की है,56 हमेशा रहने की जगह आख़िरत ही है।
56. यानी इस दुनिया की थोड़े दिनों की दौलत पर फूलकर तुम जो अल्लाह को भूल रहे हो, यह तुम्हारी नादानी है।
مَنۡ عَمِلَ سَيِّئَةٗ فَلَا يُجۡزَىٰٓ إِلَّا مِثۡلَهَاۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ يُرۡزَقُونَ فِيهَا بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 35
(40) जो बुराई करेगा उसको उतना ही बदला मिलेगा जितनी उसने बुराई की होगी और जो नेक अमल करेगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, शर्त यह है कि हो वह ईमानवाला, ऐसे सब लोग जन्नत में दाख़िल होंगे जहाँ उनको बेहिसाब रोज़ी दी जाएगी।
۞وَيَٰقَوۡمِ مَا لِيٓ أَدۡعُوكُمۡ إِلَى ٱلنَّجَوٰةِ وَتَدۡعُونَنِيٓ إِلَى ٱلنَّارِ ۝ 36
(41) ऐ मेरे लोगो, आख़िर यह क्या माजरा है कि मैं तो तुम लोगों को नजात की तरफ़ बुलाता हूँ और तुम लोग मुझे आग की तरफ़ बुलाते हो!
تَدۡعُونَنِي لِأَكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَأُشۡرِكَ بِهِۦ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞ وَأَنَا۠ أَدۡعُوكُمۡ إِلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡغَفَّٰرِ ۝ 37
(42) तुम मुझे इस बात की तरफ़ बुलाते हो कि मैं अल्लाह का इनकार करूँ और उसके साथ उन हस्तियों को साझी ठहराऊँ जिन्हें मैं नहीं जानता।57 हालाँकि मैं तुम्हें उस ज़बरदस्त माफ़ करनेवाले ख़ुदा की तरफ़ बुला रहा हूँ।
57. यानी उनके ख़ुदा का शरीक होने का मेरे पास कोई इल्मी सुबूत नहीं है, फिर आख़िर आँखें बन्द करके मैं इतनी बड़ी बात कैसे मान लूँ कि ख़ुदाई में उनका भी हिस्सा है और मुझे अल्लाह के साथ उनकी भी बन्दगी करनी है।
لَا جَرَمَ أَنَّمَا تَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِ لَيۡسَ لَهُۥ دَعۡوَةٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَلَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ مَرَدَّنَآ إِلَى ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ هُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ ۝ 38
(43) नहीं, हक़ यह है और इसके ख़िलाफ़ नहीं हो सकता कि जिनकी तरफ़ तुम मुझे बुला रहे हो उनके लिए न दुनिया में कोई दावत (बुलावा) है, न आख़िरत में58 और हम सबको पलटना अल्लाह ही की तरफ़ है और हद से गुज़रनेवाले"59 आग में जानेवाले हैं।
58. इस जुमले के कई मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उनको न दुनिया में यह हक़ पहुँचता है और न आख़िरत में कि उनकी ख़ुदाई मानने के लिए ख़ुदा के बन्दों को दावत दी जाए। दूसरा यह कि उन्हें तो लोगों ने ज़बरदस्ती ख़ुदा बनाया है, वरना वे ख़ुद न इस दुनिया में ख़ुदा होने के दावेदार हैं, न आख़िरत में यह दावा लेकर उठेंगे कि हम भी तो ख़ुदा थे, तुमने हमें क्यों न माना। तीसरा यह कि उनको पुकारने का कोई फ़ायदा न इस दुनिया में है, न आख़िरत में, क्योंकि वे बिलकुल बेबस हैं और उन्हें पुकारना बिलकुल बेकार है।
59. 'हद से गुज़र जाने' का मतलब हक़ से आगे बढ़ जाना है। हर वह शख़्स जो अल्लाह के सिवा दूसरों की ख़ुदाई मानता है या ख़ुद ख़ुदा बन बैठता है, या ख़ुदा से बाग़ी होकर दुनिया में मनमानी का रवैया अपनाता है और फिर अपने ऊपर, ख़ुदा के बन्दों पर और दुनिया की हर उस चीज़ पर जिससे उसको वास्ता पड़े, तरह-तरह की ज़्यादतियाँ करता है, वह हक़ीक़त में अक़्ल और इनसाफ़ की तमाम हदों को फाँद जानेवाला इनसान है।
فَسَتَذۡكُرُونَ مَآ أَقُولُ لَكُمۡۚ وَأُفَوِّضُ أَمۡرِيٓ إِلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 39
(44) आज जो कुछ मैं कह रहा हूँ, बहुत जल्द वह वक़्त आएगा जब तुम उसे याद करोगे और अपना मामला में अल्लाह के सिपुर्द करता हूँ, वह अपने बन्दों का निगहबान है।"60
60. इस जुमले से साफ़ मालूम होता है कि ये बातें कहते वक़्त उस ईमानवाले शख़्स को पूरा यक़ीन था कि इस सच बोलने की सज़ा में फ़िरऔन की पूरी सल्तनत का ग़ुस्सा उसपर टूट पड़ेगा और उसे सिर्फ़ अपने इनामों और फ़ायदों ही से नहीं, अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ेगा। मगर यह सब कुछ जानते हुए भी उसने सिर्फ़ अल्लाह के भरोसे पर अपना वह फ़र्ज़ अदा कर दिया, जिसे इस नाज़ुक मौक़े पर उसके ज़मीर (अन्तरात्मा) ने उसका फ़र्ज़ समझा था।
فَوَقَىٰهُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِ مَا مَكَرُواْۖ وَحَاقَ بِـَٔالِ فِرۡعَوۡنَ سُوٓءُ ٱلۡعَذَابِ ۝ 40
(45) आख़िरकार उन लोगों ने जो बुरी-से-बुरी चालें उस ईमानवाले के ख़िलाफ़ चली, अल्लाह ने उन सबसे उसको बचा लिया,61 और फ़िरऔन के साथी ख़ुद बहुत बुरे अज़ाब के फेर में आ गए।62
61. इससे मालूम होता है कि वह शख़्स फ़िरऔन की सल्तनत में इतनी अहम शख़सियत का मालिक था कि भरे दरबार में फ़िरऔन के सामने यह सच बोल जाने के बावजूद खुल्लम-खुल्ला उसको सज़ा देने की जुर्अत न की जा सकती थी, इस वजह से फ़िरऔन और उसके तरफ़दारों को उसे मार डालने के लिए खुफ़िया चालें चलनी पड़ीं, मगर उन तदबीरों को भी अल्लाह ने न चलने दिया।
62. बयान के इस अन्दाज़ से यह बात ज़ाहिर होती है कि फ़िरऔन के लोगों में से एक मोमिन के सच बोलने का यह वाक़िआ हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन की कशमकश के बिलकुल आख़िरी ज़माने में पेश आया था। शायद इस लम्बी कशमकश से दुखी होकर आख़िरकार फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल कर देने का इरादा किया होगा। मगर अपनी सल्तनत के इस असरदार शख़्स के सच बोलने से उसको यह ख़तरा पैदा हो गया होगा कि मूसा (अलैहि०) के असरात हुकूमत के ऊँचे लोगों तक में पहुँच गए हैं। इसलिए उसने फ़ैसला किया होगा कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के ख़िलाफ़ यह इन्तिहाई क़दम उठाने से पहले उन लोगों का पता चलाया जाए जो सल्तनत के सरदार और आला ओहदेदारों में इस मिशन से मुतास्सिर हो चुके हैं और उनका सर कुचलने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) पर हाथ डाला जाए। लेकिन अभी वह इन तदबीरों में लगा हुआ था कि अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) और उनके साथियों को हिजरत का हुक्म दे दिया और उनका पीछा करते हुए फ़िरऔन अपने लश्करों के साथ समुद्र में डूब गया।
ٱلنَّارُ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا غُدُوّٗا وَعَشِيّٗاۚ وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ أَدۡخِلُوٓاْ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ أَشَدَّ ٱلۡعَذَابِ ۝ 41
(46) जहन्नम की आग है जिसके सामने वे सुबह-शाम पेश किए जाते हैं और जब क़ियामत की घड़ी आ जाएगी तो हुक्म होगा कि फ़िरऔन के लोगों को और ज़्यादा सख़्त अज़ाब में दाख़िल करो।63
63. यह आयत बरज़ख़ के उस अज़ाब का खुला सुबूत है जिसका ज़िक्र बहुत-सी हदीसों में क़ब्र के अज़ाब के नाम से आया है। अल्लाह तआला यहाँ साफ़ अलफ़ाज़ में अज़ाब के दो मरहलों का ज़िक्र कर रहा है, एक कमतर दरजे का अज़ाब जो क़ियामत के आने से पहले फ़िरऔन और उसके लोगों को अब दिया जा रहा है और वह यह है कि उन्हें सुबह-शाम जहन्नम की आग के सामने पेश किया जाता है, जिसे देखकर वे हर वक़्त डरते रहते हैं कि यह है वह जहन्नम जिसमें आख़िरकार हमें जाना है। इसके बाद जब क़ियामत आ जाएगी तो उन्हें वह अस्ली और बड़ी सज़ा दी जाएगी जो उनके लिए मुक़द्दर है, यानी वे उसी जहन्नम में झोंक दिए जाएँगे, जिसका नज़ारा उन्हें डूबने के वक़्त से आज तक कराया जा रहा है और क़ियामत की घड़ी तक कराया जाता रहेगा और यह मामला सिर्फ़ फ़िरऔन और उसके साथियों के साथ ही ख़ास नहीं है, तमाम मुजरिमों को मौत की घड़ी से लेकर क़ियामत तक वह बुरा अंजाम दिखाई देता रहता है जो उनका इन्तिज़ार कर रहा है और तमाम नेक लोगों को उस बेहतर अंजाम की हसीन तस्वीर दिखाई जाती रहती है जो अल्लाह ने उनके लिए तैयार कर रखा है। हदीस की मशहूर किताबें बुख़ारी, मुस्लिम और मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से जो कोई भी मरता है, उसे सुबह-शाम उसका आख़िरी ठिकाना दिखाया जाता रहता है, चाहे वह जन्नती हो या जहन्नमी। उससे कहा जाता है कि यह वह जगह है जहाँ तू उस वक़्त जाएगा जब अल्लाह तुझे क़ियामत के दिन दोबारा उठाकर अपने सामने बुलाएगा।” (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-97; सूरा-6 अनआम, आयतें—93 से 94; सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-50; सूरा-16 नह्ल, आयतें—28, 32; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—99, 100; सूरा-36 यासीन, आयतें—26, 27, हाशिए—22, 23; सूरा-47 मुहम्मद, आयत-27, हाशिया-37)।
وَإِذۡ يَتَحَآجُّونَ فِي ٱلنَّارِ فَيَقُولُ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا نَصِيبٗا مِّنَ ٱلنَّارِ ۝ 42
(47) फिर ज़रा सोचो उस वक़्त का जब ये लोग जहन्नम में एक-दूसरे से झगड़ रहे होंगे। दुनिया में जो लोग कमज़ोर थे, वे बड़े बननेवालों से कहेंगे कि “हम तुम्हारे ताबे (अधीन) थे, अब क्या यहाँ तुम जहन्नम की आग की तकलीफ़ के कुछ हिस्से से हमको बचा लोगे?64
64. यह बात वे इस उम्मीद पर नहीं कहेंगे कि हमारे ये पिछले पेशवा या हाकिम या रहनुमा सचमुच हमें अज़ाब से बचा सकेंगे या उसमें कुछ कमी करा देंगे। उस वक़्त तो उनपर यह हक़ीक़त खुल चुकी होगी कि ये लोग यहाँ हमारे किसी काम आनेवाले नहीं हैं, मगर वे उन्हें रुसवा करने के लिए उनसे कहेंगे कि दुनिया में तो जनाब बड़े तनतने से अपनी सरदारी हमपर चलाते थे, अब यहाँ इस आफ़त से भी तो हमें बचाइए जो आप ही की बदौलत हमपर आई है।
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُلّٞ فِيهَآ إِنَّ ٱللَّهَ قَدۡ حَكَمَ بَيۡنَ ٱلۡعِبَادِ ۝ 43
(48) वे बड़े बननेवाले जबाव देंगे, “हम सब यहाँ एक हाल में हैं और अल्लाह बन्दों के बीच फ़ैसला कर चुका है।"65
65. यानी हम और तुम, दोनों ही सज़ा पानेवाले हैं और अल्लाह की अदालत से जिसको जो सज़ा मिलनी थी, मिल चुकी है। उसके फ़ैसले को बदलना या उसकी दी हुई सज़ा को घटाना-बढ़ाना अब किसी के बस में नहीं है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ فِي ٱلنَّارِ لِخَزَنَةِ جَهَنَّمَ ٱدۡعُواْ رَبَّكُمۡ يُخَفِّفۡ عَنَّا يَوۡمٗا مِّنَ ٱلۡعَذَابِ ۝ 44
(49) फिर ये जहन्नम में पड़े हुए लोग जहन्नम के कारिन्दों (कर्मचारियों) से कहेंगे, “अपने रब से दुआ करो कि हमारे अज़ाब में बस एक दिन की कमी कर दे।”
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ تَكُ تَأۡتِيكُمۡ رُسُلُكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ قَالُواْ بَلَىٰۚ قَالُواْ فَٱدۡعُواْۗ وَمَا دُعَٰٓؤُاْ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٍ ۝ 45
(50) वे पूछेगे, “क्या तुम्हारे पास तुम्हारे रसूल खुली-खुली निशानियाँ लेकर नहीं आते रहे थे?” वे कहेंगे, “हाँ।” जहन्नम के कारिन्दे बोलेंगे, “फिर तो तुम ही दुआ करो और हक़ के इनकारियों की दुआ अकारथ ही जानेवाली है।”66
66. यानी जब सच्चाई यह है कि रसूल तुम्हारे पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आ चुके थे और तुम इस बुनियाद पर सज़ा पाकर यहाँ आए हो कि तुमने उनकी बात मानने से इनकार (कुफ़्र) कर दिया था, तो अब हमारे लिए तुम्हारे हक़ में अल्लाह तआला से कोई दुआ करना किसी तरह भी मुमकिन नहीं है, क्योंकि ऐसी दुआ के लिए किसी-न-किसी तरह का सबब और बहाना तो होना चाहिए और तुम अपनी तरफ़ से कोई सबब पेश करने की गुंजाइश पहले ही ख़त्म कर चुके हो। इस हालत में तुम ख़ुद दुआ करना चाहो तो कर देखो, मगर हम यह पहले ही तुम्हें बताए देते हैं कि तुम्हारी तरह कुफ़्र (इनकार) करके जो लोग यहाँ आए हों उनकी दुआ बिलकुल बेकार है।
إِنَّا لَنَنصُرُ رُسُلَنَا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَيَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ ۝ 46
(51) यक़ीन जानो कि हम अपने रसूलों और ईमान लानेवालों की मदद इस दुनिया की ज़िन्दगी में भी लाज़िमन करते हैं,67 और उस दिन भी करेंगे जब गवाह खड़े होंगे,68
67. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-93 ।
68. यानी जब अल्लाह की अदालत क़ायम होगी और उसके सामने गवाह पेश किए जाएँगे।
يَوۡمَ لَا يَنفَعُ ٱلظَّٰلِمِينَ مَعۡذِرَتُهُمۡۖ وَلَهُمُ ٱللَّعۡنَةُ وَلَهُمۡ سُوٓءُ ٱلدَّارِ ۝ 47
(52) जब ज़ालिमों को उनका मजबूरी पेश करना कुछ भी फ़ायदा न देगा और उनपर लानत पड़ेगी और बदतरीन ठिकाना उनके हिस्से में आएगा।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡهُدَىٰ وَأَوۡرَثۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡكِتَٰبَ ۝ 48
(53) आख़िर देख लो कि मूसा की हमने रहनुमाई की69 और बनी-इसराईल को उस किताब का वारिस बना दिया
69. यानी मूसा (अलैहि०) को हमने फ़िरऔन के मुक़ाबले पर भेजकर बस यूँ ही उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया था, बल्कि क़दम-कदम पर हम उनकी रहनुमाई करते रहे, यहाँ तक कि उन्हें कामयाबी की मंज़िल तक पहुँचा दिया। इस फ़रमान में एक बारीक-सा इशारा इस बात की तरफ़ है कि ऐ मुहम्मद! ऐसा ही मामला हम तुम्हारे साथ भी करेंगे। तुमको भी मक्का के शहर और क़ुरैश के क़बीले में पैग़म्बरी के लिए उठा देने के बाद हमने तुम्हारे हाल पर नहीं छोड़ दिया है कि ये ज़ालिम तुम्हारे साथ जो सुलूक चाहें करें, बल्कि हम ख़ुद तुम्हारे पीछे मौजूद हैं और तुम्हारी रहनुमाई कर रहे हैं।
هُدٗى وَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 49
(54) जो समझ-बूझ रखनेवालों के लिए हिदायत और नसीहत थी70
70. यानी जिस तरह मूसा (अलैहि०) का इनकार करनेवाले इस नेमत और बरकत को पाने से रह गए और उनपर ईमान लानेवाले बनी-इसराईल ही किताब के वारिस बनाए गए, उसी तरह अब जो लोग तुम्हारा इनकार करेंगे, वे पाने से रह जाएँगे और तुमपर ईमान लानेवालों ही को यह ख़ुशनसीबी हासिल होगी कि क़ुरआन के वारिस हों और दुनिया में हिदायत के अलमबरदार बनकर उठें।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ ۝ 50
(55) तो ऐ नबी, सब्र करो,"71 अल्लाह का वादा सच्चा है,72 अपने क़ुसूर की माफ़ी चाहो73 और सुबह-शाम अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।74
71. यानी जो हालात तुम्हारे साथ पेश आ रहे हैं, उनको ठण्डे दिल से बरदाश्त करते चले जाओ।
72. इशारा है उस वादे की तरफ़ जो अभी-अभी ऊपर के इस जुमले में किया गया था कि “हम अपने रसूलों और ईमान लानेवालों की मदद इस दुनिया की ज़िन्दगी में भी ज़रूर करते हैं।”
73. जिस मौक़ा-महल में यह बात कही गई है उसपर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि इस जगह पर 'क़ुसूर' से मुराद बेसब्री की वह कैफ़ियत है जो सख़्त मुख़ालफ़त के उस माहौल में ख़ास तौर से अपने साथियों का सताया जाना देख-देखकर, नबी (सल्ल०) के अन्दर पैदा हो रही थी। आप (सल्ल०) चाहते थे कि जल्दी से कोई मोजिज़ा (चमत्कार) ऐसा दिखा दिया जाए जिससे हक़ का इनकार करनेवाले लोग मान जाएँ, या अल्लाह की तरफ़ से और कोई ऐसी बात जल्द सामने आ जाए जिससे मुख़ालफ़त का यह तूफ़ान ठण्डा हो जाए। यह ख़ाहिश अपनी जगह ख़ुद कोई गुनाह न थी जिसपर तौबा और इसतिग़फ़ार की ज़रूरत होती, लेकिन जो बुलन्द मक़ाम अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को दिया था और वह मंसब जिस ज़बरदस्त मज़बूत अज़्म (दृढ़ संकल्प) का तक़ाज़ा कर रहा था, उसके लिहाज़ से यह ज़रा-सी बेसब्री भी अल्लाह तआला को आप (सल्ल०) के मर्तबे से कमतर नज़र आई, इसलिए कहा गया कि इस कमज़ोरी पर अपने रब से माफ़ी माँगो और चट्टान की-सी मज़बूती के साथ अपनी बात पर डट जाओ, जैसा कि तुम जैसे ऊँचे दरजे के आदमी को होना चाहिए।
74. यानी यह हम्द (तारीफ़ और शुक्र) और तसबीह (महिमागान) ही वह ज़रिआ है जिससे अल्लाह के लिए काम करनेवालों को अल्लाह की राह में पेश आनेवाली मुश्किलों का मुक़ाबला करने की ताक़त हासिल होती है। सुबह-शाम हम्द और तसबीह करने के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि हमेशा अल्लाह को याद करते रहो। दूसरा यह कि इन ख़ास वक़्तों में नमाज़ अदा करो और यह दूसरा मतलब लेने की हालत में इशारा नमाज़ के इन पाँचों वक़्तों की तरफ़ है जो इस सूरत के उतरने के कुछ मुद्दत बाद तमाम ईमानवालों पर फ़र्ज़ कर दिए गए। इसलिए कि 'अशी' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में सूरज ढलने से लेकर रात के इब्तिदाई हिस्से तक के लिए बोला जाता है, जिसमें ज़ुह्‍र से लेकर इशा तक की चारों नमाज़ें आ जाती हैं। और 'इबकार' सुबह पौ फटने से सूरज निकलने तक के वक़्त को कहते हैं जो फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त है (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—5, 59, 60, 263; सूरा-11 हूद, हाश्यिा-113; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-53; सूरा-17 बनी-इसराईल, परिचय, हाशिए—1, 91, 98; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-111; सूरा-24 नूर, हाशिए—84 से 89; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—76 से 79; सूरा-30 रूम, हाशिए—24, 50)
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ سُلۡطَٰنٍ أَتَىٰهُمۡ إِن فِي صُدُورِهِمۡ إِلَّا كِبۡرٞ مَّا هُم بِبَٰلِغِيهِۚ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 51
(56) हक़ीक़त यह है कि जो लोग किसी सनद और दलील के बिना, जो उनके पास आई हो, अल्लाह की आयतों में झगड़े कर रहे हैं, उनके दिलों में बड़े बनने का एहसास (अहंकार) भरा हुआ है75 मगर वे उस बड़ाई को पहुँचनेवाले नहीं हैं जिसका वे घमण्ड रखते हैं।76 अल्लाह की पनाह माँग लो,77 वह सब कुछ देखता और सुनता है।
75. यानी इन लोगों की बिना दलील मुख़ालफ़त और इनकी बेकार की उलटी-सीधी बहसों की अस्ल वजह यह नहीं है कि अल्लाह की आयतों में जो सच्चाइयाँ और भलाई की बातें इनके सामने पेश की जा रही हैं, वे इनकी समझ में नहीं आतीं, इसलिए ये नेक नीयती के साथ उनको समझने के लिए बहसें करते हैं, बल्कि इनके इस रवैये की अस्ल वजह यह है कि इनका ग़ुरुरे-नफ़्स (अहंकार) यह बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं है कि इनके होते अरब में मुहम्मद (सल्ल०) की पेशवाई और रहनुमाई मान ली जाए और आख़िरकार एक दिन इन्हें ख़ुद भी इस आदमी की रहनुमाई मानना पड़े जिसके मुक़ाबले में ये अपने आपको सरदारी का ज़्यादा हक़दार समझते हैं। इसी वजह से ये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) की बात किसी तरह न चलने पाए और इस मक़सद के लिए इन्हें कोई घटिया-से-घटिया चाल चलने में भी कोई झिझक नहीं है।
76. दूसरे अलफ़ाज़ में मतलब यह है कि जिसको अल्लाह ने बड़ा बनाया है, वही बड़ा बनकर रहेगा और ये छोटे लोग अपनी बड़ाई क़ायम रखने की जो कोशिशें कर रहे हैं, वे सब आख़िरकार नाकाम हो जाएँगी।
77. यानी जिस तरह फ़िरऔन की धमकियों के मुक़ाबले में एक और ज़बरदस्त अल्लाह की पनाह माँगकर मूसा (अलैहि०) बेफ़िक्र हो गए थे, उसी तरह क़ुरैश के सरदारों की धमकियों और साज़िशों के मुक़ाबले में तुम भी उसकी पनाह ले लो और फिर बे-फ़िक्र होकर उसका कलिमा बुलन्द करने में लग जाओ।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَلَا ٱلۡمُسِيٓءُۚ قَلِيلٗا مَّا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 52
(58) और यह नहीं हो सकता कि अन्धा और आँखोंवाला बराबर हो जाए और ईमानदार व नेक और बुरे काम करनेवाला बराबर ठहरें। मगर तुम लोग कम ही कुछ समझते हो।80
80. यह इस बात की दलील है कि आख़िरत आकर रहेगी। ऊपर के जुमले में बताया गया था कि आख़िरत हो सकती है, इसका होना नामुमकिन नहीं है और इस जुमले में बताया जा रहा है कि आख़िरत होनी चाहिए, अक़्ल और इनसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि वह हो और उसका होना नहीं, बल्कि न होना अक़्ल और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ है। आख़िर कोई समझदार आदमी इस बात को कैसे दुरुस्त मान सकता है कि जो लोग दुनिया में अन्धों की तरह जीते हैं और अपने बुरे अख़लाक़ और आमाल से ख़ुदा की ज़मीन को बिगाड़ से भर देते हैं, वे अपने इस ग़लत रवैये का बुरा अंजाम न देखें और इसी तरह वे लोग भी जो दुनिया में आँखें खोलकर चलते हैं और ईमान लाकर नेक अमल करते हैं, अपने इन अच्छे कामों का कोई अच्छा नतीजा न देख पाएँ? यह बात अगर साफ़-साफ़ अक़्ल और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ है तो फिर यक़ीनन आख़िरत के इनकार का अक़ीदा भी अक़्ल और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ ही होना चाहिए, क्योंकि आख़िरत न होने का मतलब यह है कि अच्छे और बुरे दोनों आख़िरकार मरकर मिट्टी हो जाएँ और एक ही अंजाम से दोचार हों। इस सूरत में सिर्फ़ अक़्ल और इनसाफ़ ही का ख़ून नहीं होता, बल्कि अख़लाक़ की भी जड़ कट जाती है। इसलिए कि अगर नेकी और बुराई का अंजाम एक जैसा है तो फिर बुरा इनसान बड़ा अक़्लमन्द है कि मरने से पहले अपने दिल के सारे अरमान निकाल गया और नेक इनसान बहुत बेवक़ूफ़ है कि ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर तरह-तरह की अख़लाक़ी पाबन्दियाँ लगाए रहा।
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 53
(59) यक़ीनन क़ियामत की घड़ी आनेवाली है, उसके आने में कोई शक नहीं, मगर अकसर लोग नहीं मानते।81
81. यह आख़िरत के होने का यक़ीनी हुक्म है जो दलील को बुनियाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ इल्म ही की बुनियाद पर लगाया जा सकता है और वह्य के कलाम (वाणी) के सिवा किसी दूसरे कलाम में यह बात इस यक़ीन के साथ बयान नहीं हो सकती। वह्य के बिना सिर्फ़ अक़्ली दलील के ज़रिए से जो कुछ कहा जा सकता है, वह बस इतना है कि आख़िरत हो सकती है और उसको होना चाहिए। इससे आगे बढ़कर यह कहना कि आख़िरत यक़ीनन होगी और होकर रहेगी, यह सिर्फ़ उस हस्ती के कहने की बात है, जिसे मालूम है कि आख़िरत होगी और वह हस्ती अल्लाह तआला के सिवा कोई नहीं है। यही वह मक़ाम है जहाँ पहुँचकर यह बात साफ़ हो जाती है कि अन्दाज़े और दलील के बजाय ख़ालिस इल्म पर दीन की बुनियाद अगर क़ायम हो सकती है तो वह सिर्फ़ अल्लाह की वह्य के ज़रिए ही से हो सकती है।
وَقَالَ رَبُّكُمُ ٱدۡعُونِيٓ أَسۡتَجِبۡ لَكُمۡۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِي سَيَدۡخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ ۝ 54
(60) तुम्हारा82 रब कहता है, “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएँ क़ुबूल करूँगा,83 जो लोग घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं, ज़रूर वे बेइज़्ज़त और रुसवा होकर जहन्नम में दाख़िल होंगे।84
82. आख़िरत के बाद अब तौहीद (एकेश्वरवाद) पर बात शुरू हो रही है। जो इस्लाम-मुख़ालिफ़ों और नबी (सल्ल०) के दरमियान इख़्तिलाफ़ की दूसरी वजह थी।
83. यानी दुआएँ क़ुबूल करने और न करने के कुल अधिकार ख़ुदा के पास हैं, इसलिए तुम दूसरों से दुआएँ न माँगो, बल्कि ख़ुदा से माँगो। इस आयत की रूह को ठीक-ठीक समझने के लिए तीन बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ— एक यह कि दुआ आदमी सिर्फ़ उस हस्ती से माँगता है, जिसको वह सुनने और देखनेवाला और फ़ितरी ताक़तों से बढ़कर ताक़तों (Supernatural powers) का मालिक समझता है और दुआ माँगने पर उकसानेवाली चीज़ अस्ल में आदमी का यह अन्दरूनी एहसास होता है कि आलमे-असबाब (कारण-जगत्) के तहत फ़ितरी ज़रिए और वसाइल (संसाधन) उसकी तकलीफ़ को दूर करने या किसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए काफ़ी नहीं हैं या काफ़ी साबित नहीं हो रहे हैं, इसलिए किसी फ़ितरी ताक़तों से परे ताक़तों की मालिक हस्ती से रुजू करना ज़रूरी है। उस हस्ती को आदमी बिना देखे पुकारता है। हर वक़्त, हर जगह, हर हाल में पुकारता है। अकेलेपन की तन्हाइयों में पुकारता है। ज़ोर की आवाज़ ही से नहीं, चुपके-चुपके भी पुकारता उससे मदद की दरख़ास्तें करता है। यह सब कुछ लाज़िमी तौर पर है, बल्कि दिल-ही-दिल में इस अक़ीदे की बुनियाद पर होता है कि वह हस्ती उसको हर जगह हर हाल में देख रही है। उसके दिल की बात भी सुन रही है और उसको ऐसी ज़बरदस्त और पूरी क़ुदरत (सामर्थ्य) हासिल है कि उसे पुकारनेवाला जहाँ भी हो, वह उसकी मदद को पहुँच सकती है और उसकी बिगड़ी बना सकती है। दुआ की इस हक़ीक़त को जान लेने के बाद यह समझना आदमी के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं रहता कि जो कोई अल्लाह के सिवा किसी और को मदद के लिए पुकारता है, वह हक़ीक़त में यक़ीनी तौर से और ख़ालिस शिर्क का जुर्म करता है, क्योंकि वह उस हस्ती के अन्दर उन सिफ़ात का अक़ीदा रखता है जो सिर्फ़ अल्लाह तआला ही की सिफ़ात हैं। अगर वह उसको उन ख़ुदाई सिफ़ात में अल्लाह का शरीक न समझता तो उससे दुआ माँगने का ख़याल तक कभी उसके ज़ेहन में न आ सकता था। दूसरी बात जो इस सिलसिले में अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए, वह यह है कि किसी हस्ती के बारे में आदमी का अपनी जगह यह समझ बैठना कि वह अधिकारों की मालिक है, इससे यह ज़रूरी नहीं हो जाता कि वह सचमुच अधिकारों की मालिक हो जाए। अधिकारों का मालिक होना तो एक हक़ीक़ी सच है जिसका दारोमदार किसी के समझने या न समझने पर नहीं है। जो हक़ीक़त में अधिकारों का मालिक है वह बहरहाल मालिक ही रहेगा, चाहे आप उसे मालिक समझें या न समझें और जो हक़ीक़त में मालिक नहीं है, उसको सिर्फ़ यह बात कि आपने उसे मालिक समझ लिया है, अधिकारों में ज़र्रा बराबर भी कोई हिस्सा न दिलवा सकेगी। अब यह बात एक हक़ीक़ी सच है कि सब कुछ कर सकनेवाला (सर्वशक्तिमान), कायनात को चलानेवाला और सब कुछ सुनने और सब कुछ देखनेवाला सिर्फ़ अल्लाह तआला ही है और वही पूरे तौर पर अधिकारों का मालिक है। दूसरा कोई भी इस पूरी कायनात में ऐसा नहीं है जो दुआएँ सुनने और उनपर क़ुबूल होने या क़ुबूल न होने की हालत में कोई कार्रवाई करने के अधिकार रखता हो। इस हक़ीक़ी सच के ख़िलाफ़ अगर लोग अपनी जगह कुछ नबियों, वलियों, फ़रिश्तों, जिन्नों, सय्यारों (ग्रहों) और फ़र्ज़ी (काल्पनिक) देवताओं को अधिकारों में शरीक समझ बैठें तो इससे हक़ीक़त में ज़र्रा बराबर भी कोई फ़र्क़ न आएगा। मालिक, मालिक ही रहेगा और बेबस और बेइख़्तियार बन्दे, बन्दे ही रहेंगे। तीसरी बात यह है कि अल्लाह तआला के सिवा दूसरों से दुआएँ माँगना बिलकुल ऐसा है जैसे कोई शख़्स दरख़ास्त लिखकर हुकूमत के दरबार की तरफ़ जाए, मगर तमाम अधिकार रखनेवाले हाकिम को छोड़कर वहाँ जो दूसरे सवाली अपनी ज़रूरतें लिए बैठे हों, उन्हीं में से किसी एक के आगे अपनी दरख़ास्त पेश कर दे और फिर हाथ जोड़-जोड़कर उससे इलतिजाएँ (विनतियाँ) करता चला जाए कि हुज़ूर ही सब कुछ हैं, आप ही का यहाँ हुक्म चलता है, मेरी मुराद आप ही पूरी करेंगे तो पूरी होगी। यह हरकत अव्वल तो अपनी जगह ख़ुद बहुत बड़ी बेवक़ूफ़ी और जहालत है, लेकिन ऐसी हालत में यह इन्तिहाई गुस्ताख़ी भी बन जाती है, जबकि अधिकार रखनेवाला अस्ल हाकिम सामने मौजूद हो और ठीक उसकी मौजूदगी में उसे छोड़कर किसी दूसरे के सामने दरख़ास्तें और इलतिजाएँ पेश की जा रही हों। फिर यह जहालत अपने कमाल (चरम) पर उस वक़्त पहुँच जाती है जब वह शख़्स जिसके सामने दरख़ास्त पेश की जा रही हो, ख़ुद बार-बार समझाए कि मैं तो ख़ुद तेरी ही तरह का एक सवाली हूँ, मेरे हाथ में कुछ नहीं है, अस्ल हाकिम सामने मौजूद है, तू उसकी सरकार में अपनी दरख़ास्त पेश कर, मगर उसके समझाने और मना करने के बावजूद यह बेवक़ूफ़ कहता ही चला जाए कि मेरे सरकार तो आप हैं, मेरा काम आप ही बनाएँगे तो बनेगा। इन तीनों बातों को ज़ेहन में रखकर अल्लाह तआला के इस फ़रमान को समझने की कोशिश कीजिए कि मुझे पुकारो, तुम्हारी दुआओं का जवाब देनेवाला मैं हूँ, उन्हें क़ुबूल करना मेरा काम है।
84. इस आयत में दो बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने के लायक़ हैं। एक यह कि दुआ और इबादत को यहाँ मुतरादिफ़ (पर्यायवाची) अलफ़ाज़ के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पहले जुमले में जिस चीज़ को 'दुआ' कहा गया था, उसी को दूसरे जुमले में ‘इबादत' कहा गया है। इससे यह बात साफ़ हो गई कि दुआ हक़ीक़ी इबादत और इबादत की जान है। दूसरी यह कि अल्लाह से दुआ न माँगनेवालों के लिए “घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह से दुआ माँगना ठीक बन्दगी का तक़ाज़ा है और उससे मुँह मोड़ने का मतलब यह है कि आदमी घमण्ड में पड़ा है, इसलिए अपने पैदा करनेवाले और मालिक के आगे बन्दगी का इक़रार करने से कतराता है। नबी (सल्ल०) ने अपने फ़रमानों में आयत की इन दोनों बातों को खोलकर बयान कर दिया है। हज़रत नोमान-बिन-बशीर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ ही इबादत है,” फिर आप (सल्ल०) ने क़ुरआन की यह आयत तिलावत की, “उदऊनी अस्तजिब लकुम.........” (हदीस : बुख़ारी, अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा, इब्ने-अबी-हातिम, इबने-जरीर)। हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ इबादत का मग़्ज़ (मूल तत्त्व) है।” (हदीस : तिरमिज़ी)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो अल्लाह से नहीं माँगता, अल्लाह को उसपर ग़ुस्सा आता है।” (हदीस : तिरमिज़ी)। इस जगह पर पहुँचकर वह गाँठ भी खुल जाती है जो बहुत-से ज़ेहनों में अकसर उलझन डालती रहती है। लोग दुआ के मामले पर इस तरह सोचते हैं कि जब तक़दीर की बुराई और भलाई अल्लाह के इख़्तियार में है और वह अपनी पूरी तरह हावी हिकमत और मस्लहत के लिहाज़ से जो फ़ैसला कर चुका है, वही कुछ ज़रूर ही सामने आकर रहना है तो फिर हमारे दुआ माँगने का फ़ायदा क्या है। यह एक बड़ी ग़लतफ़हमी है जो आदमी के दिल से दुआ की सारी अहमियत निकाल देती है और इस ग़लत ख़याल में मुब्तला रहते हुए अगर आदमी दुआ माँगे भी तो उसकी दुआ में कोई रूह बाक़ी नहीं रहती। क़ुरआन मजीद की ऊपर बयान की हुई आयत इस ग़लतफ़हमी को दो तरीक़ों से दूर करती है। एक, अल्लाह तआला साफ़ अलफ़ाज़ में फ़रमा रहा है कि “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएँ क़ुबूल करूँगा।” इससे साफ़ मालूम हुआ कि अल्लाह का फ़ैसला और तक़दीर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसने हमारी तरह, अल्लाह की पनाह, ख़ुद अल्लाह के हाथ भी बाँध दिए हों और दुआ क़ुबूल करने के इख़्तियार उससे छिन गए हों। बन्दे तो बेशक अल्लाह के फ़ैसलों को टालने या बदल देने की ताक़त नहीं रखते, मगर अल्लाह तआला ख़ुद यह ताकत ज़रूर रखता है कि किसी बन्दे की दुआएँ और इलतिजाएँ सुनकर अपना फ़ैसला बदल दे। दूसरी बात जो इस आयत में बयान की गई है, वह यह है कि दुआ चाहे क़ुबूल हो या न हो, बहरहाल एक फ़ायदे और बहुत बड़े फ़ायदे से वह किसी तरह भी ख़ाली नहीं होती और वह यह कि बन्दा अपने रब के सामने अपनी ज़रूरतें पेश करके और उससे दुआ माँगकर उसके मालिक होने और सबसे बढ़कर होने को मानता और अपनी बन्दगी और बेबसी का इक़रार करता है। बन्दगी का यह इज़हार अपनी जगह ख़ुद इबादत, बल्कि इबादत की जान है, जिसके बदले से बन्दा किसी हाल में भी महरूम (वंचित) न रहेगा, चाहे वह ख़ास चीज़ उसको दी जाए या न दी जाए जिसके लिए उसने दुआ की थी। नबी (सल्ल०) के फ़रमानों में ये दोनों बातें साफ़ तौर पर बयान कर दी गई हैं। पहली बात पर नीचे दी जा रही हदीसें रौशनी डालती हैं— हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़ज़ा (अल्लाह के फ़ैसले) को कोई चीज़ नहीं टाल सकती सिवाय दुआ के।” (हदीस : तिरमिज़ी) यानी अल्लाह के फ़ैसले को बदल देने की ताक़त किसी में नहीं है, मगर अल्लाह अपना फ़ैसला ख़ुद बदल सकता है और यह उस वक़्त होता है जब बन्दा उससे दुआ माँगता है। हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आदमी जब कभी अल्लाह से दुआ माँगता है, अल्लाह उसे या तो वही चीज़ देता है जिसकी उसने दुआ की थी या उसी दरजे की कोई मुसीबत उसपर आने से रोक देता है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह की या रिश्ता तोड़ने की दुआ न करे।” (हदीस : तिरमिज़ी) इसी से मिलती-जुलती बात एक दूसरी हदीस में है जो हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से रिवायत की है। उसमें नबी (सल्ल०) ने यह फ़रमाया है, “एक मुसलमान जब भी कोई दुआ माँगता है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह या रिश्ता तोड़ने की दुआ न हो, तो अल्लाह उसे तीन शक्लों में से किसी एक शक्ल में क़ुबूल करता है। या तो उसकी वह दुआ इसी दुनिया में क़ुबूल कर ली जाती है, या उसे आख़िरत में बदला देने के लिए बचाकर रख लिया जाता है, या उसी दरजे की किसी आफ़त को उसपर आने से रोक दिया जाता है।” (हदीस : मुसनद अहमद) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तुममें से कोई शख़्स दुआ माँगे तो यूँ न कहे कि ऐ ख़ुदा, मुझे माफ़ कर दे अगर तू चाहे, मुझपर रहम कर अगर तू चाहे, मुझे रोज़ी दे अगर तू चाहे, बल्कि उसे यक़ीन के साथ कहना चाहिए कि ऐ ख़ुदा मेरी फ़ुलाँ ज़रूरत पूरी कर।” (हदीस : बुख़ारी) दूसरी रिवायत हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) ही से इन अलफ़ाज़ में आई है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह से दुआ माँगो इस यक़ीन के साथ कि वह क़ुबूल करेगा।” (हदीस : तिरमिज़ी) एक और रिवायत में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का यह इरशाद (कथन) नक़्ल करते हैं कि “बन्दे की दुआ क़ुबूल की जाती है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह की या रिश्ता तोड़ने की दुआ न करे और जल्दबाज़ी से काम न ले।” पूछा गया कि जल्दबाज़ी क्या है, ऐ अल्लाह के रसूल? फ़रमाया, “जल्दबाज़ी यह है कि आदमी कहे कि मैंने बहुत दुआ की, बहुत दुआ की, मगर मैं देखता हूँ कि मेरी दुआ क़ुबूल ही नहीं होती और यह कहकर आदमी थक जाए और दुआ माँगनी छोड़ दे।” (हदीस : मुस्लिम) दूसरी बात को नीचे लिखी हदीसें वाज़ेह करती हैं— हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह की निगाह में दुआ से बढ़कर कोई चीज़ क़द्र के काबिल नहीं है।” (हदीस : तिरमिज़ी, इब्ने-माजा)। हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह से उसकी मेहरबानी माँगो, क्योंकि अल्लाह इसे पसन्द करता है कि उससे माँगा जाए।” (हदीस : तिरमिज़ी)। हज़रत इब्ने-उमर (रज़ि०) और हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ बहरहाल फ़ायदेमन्द है उन मुसीबतों के मामले में भी जो आ चुकी हैं और उनके मामले में भी जो नहीं आईं। तो ऐ ख़ुदा के बन्दो, तुम ज़रूर दुआ माँगा करो।" (हदीस : तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)। हज़रत अनस (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से हर शख़्स को अपनी हर ज़रूरत अल्लाह से माँगनी चाहिए, यहाँ तक कि अगर उसकी जूती का तसमा भी टूट जाए तो अल्लाह से दुआ करे।” यानी जो मामले बज़ाहिर आदमी को अपने बस में महसूस होते हैं, उनमें भी तदबीर करने से पहले उसे ख़ुदा से मदद माँगनी चाहिए, इसलिए कि किसी मामले में भी हमारी कोई तदबीर ख़ुदा की मेहरबानी और मदद के बिना कामयाब नहीं हो सकती और तदबीर से पहले दुआ का मतलब यह है कि बन्दा हर वक़्त अपनी कमज़ोरी और ख़ुदा के सबसे बढ़कर होने को मान रहा है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 55
(61) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई, ताकि तुम उसमें सुकून हासिल करो और दिन को रौशन किया। हक़ीक़त यह है कि अल्लाह लोगों पर बड़ी मेहरबानी करनेवाला है, मगर अकसर लोग शुक्र अदा नहीं करते।85
85. इस आयत में दो अहम बातें हैं। एक, इसमें रात और दिन को तौहीद (अल्लाह के एक होने) की दलील के तौर पर पेश किया गया है, क्योंकि उनका बाक़ायदगी से आना यह मतलब रखता है कि ज़मीन और सूरज पर एक ही ख़ुदा हुकूमत कर रहा है और इनके उलट-फेर का इनसान और ज़मीन की दूसरी मख़लूक़ के लिए फ़ायदेमन्द होना इस बात की खुली दलील है कि वही एक ख़ुदा इन सब चीज़ों का पैदा करनेवाला भी है और उसने यह निज़ाम इन्तिहाई दरजे की हिकमत के साथ इस तरह बनाया है कि वह उसकी पैदा की हुई मख़लूक़ के लिए फ़ायदेमन्द हो। दूसरी, इसमें ख़ुदा का इनकार करनेवाले और ख़ुदा के साथ किसी को शरीक करनेवाले इनसानों को यह एहसास दिलाया गया है कि ख़ुदा ने रात और दिन की शक्ल में यह कितनी बड़ी नेमत उनको दी है और वे कितने ज़्यादा नाशुक्रे हैं कि उसकी इस नेमत से फ़ायदा उठाते हुए रात-दिन उससे ग़द्दारी और बेवफ़ाई किए चले जाते हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-65; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-77; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-104; सूरा-28 क़सस, हाशिया-91; सूरा-30 रूम, हाशिया-36; सूरा-31 लुक़मान, आयत-29, हाशिया-50; या-सीन, आयत-37, हाशिया-32)
ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 56
(62) वही अल्लाह (जिसने तुम्हारे लिए यह कुछ किया है) तुम्हारा रब है, हर चीज़ का पैदा करनेवाला। उसके सिवा कोई माबूद नहीं।86 फिर तुम किधर से बहकाए जा रहे हो?87
86. यानी रात और दिन के उलट-फेर ने साबित कर दिया है कि वही तुम्हारा और हर चीज़ का पैदा करनेवाला है। और यह उलट-फेर तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए जो बड़े फ़ायदे और मुनाफ़े अपने अन्दर रखता है, उससे साबित हुआ कि वह तुम्हारा बहुत ही मेहरबान परवरदिगार है। उसके बाद चाहे-अनचाहे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद साबित हो जाती है कि तुम्हारा हक़ीक़ी माबूद भी वही है। यह बात सरासर अक़्ल और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ है कि पैदा करनेवाला और पालनेवाला तो हो अल्लाह और तुम्हारे माबूद (उपास्य) बन जाएँ दूसरे।
87. यानी कौन तुमको यह उलटी पट्टी पढ़ा रहा है कि जो न पैदा करनेवाले हैं, न पालनेवाले, वे तुम्हारी इबादत के हक़दार हैं।
كَذَٰلِكَ يُؤۡفَكُ ٱلَّذِينَ كَانُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 57
(63) इसी तरह वे सब लोग बहकाए जाते रहे हैं जो अल्लाह की आयतों का इनकार करते थे।88
88. यानी हर ज़माने में आम लोग सिर्फ़ इस वजह से इन बहकानेवालों के धोखे में आते रहे हैं कि अल्लाह ने अपने रसूलों के ज़रिए से हक़ीक़त समझाने के लिए जो आयतें उतारीं, लोगों ने उनको न माना। नतीजा यह हुआ कि वे उन ख़ुदग़रज़ धोखेबाज़ों के जाल में फँस गए जो अपनी दुकान चमकाने के लिए जाली ख़ुदाओं के आस्ताने बनाए बैठे थे।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ قَرَارٗا وَٱلسَّمَآءَ بِنَآءٗ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡۖ فَتَبَارَكَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 58
(64) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन को ठहरने की जगह बनाया89 और ऊपर आसमान का गुम्बद बना दिया।90 जिसने तुम्हारी सूरत बनाई और बड़ी ही उम्दा बनाई, जिसने तुम्हें पाकीज़ा चीज़ों की रोज़ी दी।91 वही अल्लाह (जिसके ये काम हैं) तुम्हारा रब है। बेहिसाब बरकतोंवाला है वह कायनात का रब।
89. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—74, 75
90. यानी तुम्हें खुली फ़ज़ा में नहीं छोड़ दिया गया कि ऊपरी दुनिया की आफ़तें बारिश की तरह बरसकर तुमको तहस-नहस कर दें, बल्कि ज़मीन के ऊपर एक बहुत ही मज़बूत आसमानी निज़ाम (जो देखनेवाली आँख को गुम्बद की तरह नज़र आता है) बना दिया जिससे गुज़रकर कोई तबाह करनेवाली चीज़ तुम तक नहीं पहुँच सकती, यहाँ तक कि आफ़ाक़ (अन्तरिक्ष) की हलाक कर देनेवाली शुआएँ (किरणे) तक नहीं पहुँच सकतीं और इसी वजह से तुम अम्न और चैन के साथ ज़मीन पर जी रहे हो।
91. यानी तुम्हारे पैदा करने से पहले तुम्हारे लिए इतना ज़्यादा महफ़ूज़ और पुरअम्न ठिकाना दिया। फिर तुम्हें पैदा किया तो इस तरह कि एक बेहतरीन जिस्म, निहायत मुनासिब जिस्मानी हिस्से और निहायत आला दरजे की जिस्मानी और ज़ेहनी क़ुव्वतों के साथ तुमको दिया। यह सीधी उठान, ये हाथ-पाँव, ये आँख, नाक और ये कान, यह बोलती हुई ज़बान और ये बेहतरीन सलाहियतों का ख़ज़ाना दिमाग़ तुम ख़ुद बनाकर नहीं ले आए थे, न तुम्हारी माँ और तुम्हारे बाप ने इन्हें बनाया था, न किसी नबी या वली या देवता में यह क़ुदरत थी कि इन्हें बनाता। इनका बनानेवाला वह हिकमतवाला (तत्त्वदर्शी) और रहमतवाला क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) था जिसने इनसान को वुजूद में लाने का जब फ़ैसला किया तो उसे दुनिया में काम करने के लिए ऐसा बेमिसाल जिस्म देकर पैदा किया। फिर पैदा होते ही उसकी मेहरबानी से तुमने अपने लिए पाकीज़ा रोज़ी का एक बहुत बड़ा दस्तरख़ान बिछा हुआ पाया। खाने और पीने का ऐसा पाकीज़ा सामान जो ज़हरीला नहीं, बल्कि सेहत बनानेवाला है, कड़वा-कसैला और बदमज़ा नहीं, बल्कि मज़ेदार है, सड़ा-बुसा और बदबूदार नहीं, बल्कि ख़ुशबूदार है, बेजान फोक नहीं, बल्कि उन विटामिनों और फ़ायदेमन्द ग़िज़ाई माद्दों (पौष्टिक तत्त्वों) से मालामाल है जो तुम्हारे जिस्म की परवरिश और नशो-नमा (विकास) के लिए बहुत ही मुनासिब हैं। यह पानी, ये अनाज, ये तरकारियाँ, ये फल, यह दूध, यह शहद, यह गोश्त, यह नमक-मिर्च और मसाले, जो तुम्हारी ख़ुराक के लिए इतने मुनासिब और तुम्हें ज़िन्दगी की ताक़त ही नहीं, ज़िन्दगी का लुत्फ़ देने के लिए भी इस क़द्र मुनासिब हैं, आख़िर किसने इस ज़मीन पर इतनी बड़ी मिक़दार में मुहैया किए हैं और किसने यह इन्तिज़ाम किया है कि ग़िज़ा के ये बेहिसाब ख़ज़ाने ज़मीन से एक के बाद एक निकलते चले आएँ और उनकी रसद का सिलसिला कभी टूटने न पाए? यह रोज़ी का इन्तिज़ाम न होता और बस तुम पैदा कर दिए जाते तो सोचो कि तुम्हारी ज़िन्दगी का क्या रंग होता। क्या यह इस बात का खुला सुबूत नहीं है कि तुम्हारा पैदा करनेवाला सिर्फ़ तुम्हें बनानेवाला ही नहीं, बल्कि हिकमत के साथ बनानेवाला और रहम करनेवाला रब है? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-11 हूद, हाशिए—6 से 7; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73 से 83)
هُوَ ٱلۡحَيُّ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ فَٱدۡعُوهُ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَۗ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 59
(65) वही ज़िन्दा है92 उसके सिवा कोई माबूद नहीं, उसी को तुम पुकारो अपने दीन को उसके लिए ख़ालिस93 करके। सारी तारीफ़ अल्लाह, सारे जहानों के रब के लिए है।94
92. यानी अस्ली और हक़ीक़ी ज़िन्दगी उसी की है। अपने बल पर आप ज़िन्दा वही है। हमेशा से और हमेशा तक रहनेवाली ज़िन्दगी उसके सिवा किसी की भी नहीं है। बाक़ी सबकी ज़िन्दगी दी हुई है, कुछ दिनों की है, मरनेवाली और फ़ना हो जानेवाली है।
93. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, हाशिए—3, 41।
94. यानी कोई दूसरा नहीं है जिसकी तारीफ़ और शुक्र के गीत गाए जाएँ और जिसके शुक्राने अदा किए जाएँ।
۞قُلۡ إِنِّي نُهِيتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَمَّا جَآءَنِيَ ٱلۡبَيِّنَٰتُ مِن رَّبِّي وَأُمِرۡتُ أَنۡ أُسۡلِمَ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 60
(66) ऐ नबी, इन लोगों से कह दो कि मुझे तो उन हस्तियों की इबादत से मना कर दिया गया है जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो।95 (मैं यह काम कैसे कर सकता हूँ) जबकि मेरे पास मेरे रब की तरफ़ से खुली-खुली निशानियाँ आ चुकी हैं। मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं सारे जहानों के रब (अल्लाह) के आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुका हूँ।
95. यहाँ फिर इबादत और दुआ को एक ही मानी में इस्तेमाल किया गया है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ يُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡ ثُمَّ لِتَكُونُواْ شُيُوخٗاۚ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ مِن قَبۡلُۖ وَلِتَبۡلُغُوٓاْ أَجَلٗا مُّسَمّٗى وَلَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 61
(67) वही तो है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर नुतफ़े (वीर्य) से, फिर के लोथड़े से, फिर वह तुम्हें बच्चे की शक्ल में निकालता है, फिर तुम्हें बढ़ाता है, ताकि तुम अपनी पूरी ताक़त को पहुँच जाओ, फिर और बढ़ाता है ताकि तुम बुढ़ापे को पहुँचो और तुममें से कोई पहले ही वापस लिया जाता है।96 यह सब कुछ इसलिए किया जाता है, ताकि तुम अपने तय हो चुके वक़्त तक पहुँच जाओ"97 और इसलिए कि तुम हक़ीक़त को समझो98
96. यानी कोई पैदा होने से पहले और कोई जवानी को पहुँचने से पहले और कोई बुढ़ापे को पहुँचने से पहले मर जाता है।
97. तय हो चुके वक़्त (मुक़र्रर वक़्त) से मुराद या तो मौत का वक़्त है, या वह वक़्त जब तमाम इनसानों को दोबारा उठकर अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है। पहली सूरत में मतलब यह होगा कि अल्लाह तआला हर इनसान को ज़िन्दगी के अलग-अलग मरहलों से गुज़ारता हुआ उस ख़ास घड़ी तक ले जाता है जो उसने हर एक की वापसी के लिए तय कर रखी है। उस वक़्त से पहले सारी दुनिया मिलकर भी किसी को मारना चाहे तो नहीं मार सकती और वह वक़्त आ जाने के बाद दुनिया की सारी ताक़तें मिलकर भी किसी को ज़िन्दा रखने की कोशिश करें तो कामयाब नहीं हो सकतीं। दूसरा मतलब लेने की सूरत में मतलब यह होगा कि ज़िन्दगी का यह हंगामा इसलिए बरपा नहीं किया गया है कि तुम मरकर मिट्टी में मिल जाओ और फ़ना हो जाओ, बल्कि ज़िन्दगी के इन अलग-अलग मरहलों से अल्लाह तुमको इसलिए गुज़ारता है कि तुम सब उस वक़्त पर जो उसने तय कर रखा है, उसके सामने हाज़िर हो।
98. यानी ज़िन्दगी के इन अलग-अलग मरहलों से तुमको इसलिए नहीं गुज़ारा जाता कि तुम जानवरों की तरह जिओ और उन्हीं की तरह मर जाओ, बल्कि इस लिए गुज़ारा जाता है कि तुम उस अक़्ल से काम लो जो अल्लाह ने तुम्हें दी है और उस निज़ाम को समझो जिसमें ख़ुद तुम्हारे अपने वुजूद पर ये हालात गुज़रते हैं। ज़मीन के बेजान माद्दों में ज़िन्दगी जैसी अनोखी चीज़ का पैदा होना, फिर नुत्फ़े (वीर्य) के एक ख़ुर्दबीनी (सूक्ष्मदर्शी) कीड़े से इनसान जैसे हैरत-अंगेज़ जानदार का वुजूद में आना, फिर माँ के पेट में हमल ठहरने (गर्भधारण) के वक़्त से बच्चा पैदा होने तक अन्दर-ही-अन्दर उसका इस तरह परवरिश पाना कि उसकी जिंस (लिंग), उसकी शक्ल-सूरत, उसके जिस्म की बनावट, उसके ज़ेहन की ख़ासियतें और उसकी क़ुव्वतें और सलाहियतें (प्रतिभाएँ) सब कुछ वहीं तय हो जाएँ और उनके गठन पर दुनिया की कोई ताक़त असर न डाल सके, फिर यह बात कि जिसे इसक़ाते-हमल (गर्भपात) का शिकार होना है उसका इसक़ात ही होकर रहता है, जिसे बचपन में मरना है वह बचपन ही में मरता है, चाहे वह किसी बादशाह ही का बच्चा क्यों न हो और जिसे जवानी या बुढ़ापे की किसी उम्र तक पहुँचना है, वह ख़तरनाक-से-ख़तरनाक हालात से गुज़रकर भी, जिनमें बज़ाहिर मौत यक़ीनी होनी चाहिए, उस उम्र को पहुँचकर रहता है और जिसे उम्र के जिस ख़ास मरहले में मरना है उसमें वह दुनिया के किसी बेहतरीन अस्पताल के अन्दर बेहतरीन डॉक्टरों के इलाज में रहते हुए भी मरकर रहता है। ये सारी बातें क्या इस हक़ीक़त की निशानदेही नहीं कर रही हैं कि हमारी अपनी ज़िन्दगी और मौत का ख़ास रिश्ता किसी मुकम्मल क़ुदरत रखनेवाले के हाथ में है? और जब हक़ीक़त यही है कि एक मुकम्मल क़ुदरत रखनेवाला हमारी मौत और ज़िन्दगी पर हुक्मराँ है तो फिर कोई नबी या वली या फ़रिश्ता या सितारा और सय्यारा (ग्रह) आख़िर कैसे हमारी बन्दगी और इबादत का हक़दार हो गया? किसी बन्दे को यह मक़ाम कब से हासिल हुआ कि हम उससे दुआएँ माँगें और अपनी क़िस्मत के बनने और बिगड़ने का अधिकारी उसको मान लें? और किसी इनसानी ताक़त का यह मंसब कैसे हो गया कि हम उसके क़ानून और उसके हुक्मों और मना किए हुए कामों और उसके ख़ुद के ठहराए हलाल-हराम की बिना ना-नुकुर किए पैरवी करें। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-22 हज, हाशिया-9)।
هُوَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ فَإِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 62
(68) वही है ज़िन्दगी देनेवाला और वही मौत देनेवाला है। वह जिस बात का भी फ़ैसला करता है, बस एक हुक्म देता है कि वह हो जाए और वह हो जाती है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ أَنَّىٰ يُصۡرَفُونَ ۝ 63
(69) तुमने देखा उन लोगों को जो अल्लाह की आयतों में झगड़े करते हैं, कहाँ से वे फिराए जा रहे हैं?99
99. मतलब यह है कि ऊपरवाली तक़रीर के बाद भी क्या तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आई कि इन लोगों के ग़लत नज़रिए से देखने और ग़लत रवैया अपनाने की अस्ल वजह क्या है और कहाँ से ठोकर खाकर ये इस गुमराही के गढ़े में गिरे हैं? (मालूम रहे कि यहाँ तुम नबी (सल्ल०) को नहीं कहा गया है, बल्कि इससे मुराद हर वह शख़्स है जो इन आयतों को पढ़े या सुने।)
ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِٱلۡكِتَٰبِ وَبِمَآ أَرۡسَلۡنَا بِهِۦ رُسُلَنَاۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 64
(70) ये लोग जो इस किताब को और उन सारी किताबों को झुठलाते हैं जो हमने अपने रसूलों के साथ भेजी थीं,100 बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा,
100. यह है उनके ठोकर खाने की अस्ल वजह। उनका क़ुरआन को और अल्लाह के रसूलों की लाई हुई तालीमात को न मानना और अल्लाह की आयतों पर संजीदगी के साथ ग़ौर करने के बजाय झगड़ालूपन से उनका मुक़ाबला करना, यही वह बुनियादी वजह है जिसने उनको भटका दिया है और उनके लिए सीधी राह पर आने के सारे इमकान ख़त्म कर दिए हैं।
إِذِ ٱلۡأَغۡلَٰلُ فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ وَٱلسَّلَٰسِلُ يُسۡحَبُونَ ۝ 65
(71) जब तौक़ इनकी गर्दनों में होंगे और जंजीरें, जिनसे पकड़कर वे खौलते हुए पानी की तरफ़ खींचे जाएँगे
فِي ٱلۡحَمِيمِ ثُمَّ فِي ٱلنَّارِ يُسۡجَرُونَ ۝ 66
(72) और फिर जहन्नम की आग में झोंक दिए जाएँगे।101
101. यानी जब वे प्यास की शिद्दत से मजबूर होकर पानी माँगेंगे तो जहन्नम के कारकुन (कर्मचारी) उनको जंजीरों से खींचते हुए ऐसे चश्मों (स्रोतों) की तरफ़ ले जाएँगे जिनसे खौलता हुआ पानी निकल रहा होगा और फिर जब वे इसे पी चुकेंगे तो फिर वे उन्हें खींचते हुए वापस ले जाएँगे और जहन्नम की आग में झोंक देंगे।
ثُمَّ قِيلَ لَهُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تُشۡرِكُونَ ۝ 67
(73) फिर इनसे पूछा जाएगा कि “अब कहाँ हैं अल्लाह के सिवा वे दूसरे ख़ुदा जिनको तुम शरीक करते थे?"102
102. यानी अगर वे सचमुच ख़ुदा या ख़ुदाई में हिस्सेदार थे और तुम इस उम्मीद पर उनकी इबादत करते थे कि वे बुरे वक़्त पर तुम्हारे काम आएँगे तो अब क्यों वे आकर तुम्हें नहीं छुड़ाते?
مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالُواْ ضَلُّواْ عَنَّا بَل لَّمۡ نَكُن نَّدۡعُواْ مِن قَبۡلُ شَيۡـٔٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 68
(74) वे जवाब देंगे, “खोए गए वे हमसे, बल्कि हम इससे पहले किसी चीज़ को न पुकारते थे।"103 इस तरह अल्लाह इनकारियों का गुमराह होना सच साबित कर देगा।
103. यह मतलब नहीं है कि हम दुनिया में शिर्क नहीं करते थे, बल्कि मतलब यह है कि अब हमपर यह बात खुल गई है कि हम जिन्हें दुनिया में पुकारते थे वे कुछ भी न थे, हक़ीर (तुच्छ) थे, बेहैसियत थे।
ذَٰلِكُم بِمَا كُنتُمۡ تَفۡرَحُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَبِمَا كُنتُمۡ تَمۡرَحُونَ ۝ 69
(75) उनसे कहा जाएगा, “यह तुम्हारा अंजाम इसलिए हुआ है कि तुम ज़मीन में ग़ैर-हक़ (असत्य) पर मग्न थे और फिर उसपर इतराते थे।104
104. यानी तुमने सिर्फ़ इतने ही पर बस न किया कि जो चीज़ हक़ न थी, उसकी तुमने पैरवी की, बल्कि तुम उसपर, जो हक़ न थी, ऐसे मग्न रहे कि जब हक़ तुम्हारे सामने पेश किया गया तो तुमने उसकी तरफ़ ध्यान न दिया और उलटे अपनी बातिल-परस्ती पर इतराते रहे।
ٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 70
(76) अब जाओ, जहन्नम के दरवाज़ों में दाख़िल हो जाओ, हमेशा तुमको वहीं रहना है, बहुत बुरा ठिकाना है बड़े बननेवालों (अहंकारियों) का।”
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۚ فَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا يُرۡجَعُونَ ۝ 71
(77) तो ऐ नबी, सब्र करो,105 अल्लाह का वादा सच्चा है। अब चाहे हम तुम्हारे सामने ही इनको उन बुरे नतीजों का कोई हिस्सा दिखा दें जिनसे हम इन्हें डरा रहे हैं, या (उससे पहले) तुम्हें दुनिया से उठा लें, पलटकर आना तो इन्हें हमारी ही तरफ़ है।106
105. यानी जो लोग झगड़ालूपन से तुम्हारा मुक़ाबला कर रहे हैं और घटिया हथकण्डों से तुम्हें नीचा दिखाना चाहते हैं, उनकी बातों और उनकी हरकतों पर सब्र करो।
106. यानी यह ज़रूरी नहीं है कि हम हर उस शख़्स को जिसने तुम्हें नीचा दिखाने की कोशिश की है इसी दुनिया में और तुम्हारी ज़िन्दगी ही में सज़ा दे दें। यहाँ कोई सज़ा पाए या न पाए, बहरहाल वह हमारी पकड़ से बचकर नहीं जा सकता। मरकर तो उसे हमारे पास ही आना है उस वक़्त वे अपने करतूतों की भरपूर सज़ा पा लेगा।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلٗا مِّن قَبۡلِكَ مِنۡهُم مَّن قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّن لَّمۡ نَقۡصُصۡ عَلَيۡكَۗ وَمَا كَانَ لِرَسُولٍ أَن يَأۡتِيَ بِـَٔايَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ قُضِيَ بِٱلۡحَقِّ وَخَسِرَ هُنَالِكَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 72
(78) ऐ नबी,107 तुमसे पहले हम बहुत-से रसूल भेज चुके हैं, जिनमें से कुछ के हालात हमने तुमको बताए हैं और कुछ के नहीं बताए। किसी रसूल की भी यह ताक़त न थी कि अल्लाह के हुक्म के बिना ख़ुद कोई निशानी108 ले आता। फिर जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो हक़ के मुताबिक़ फ़ैसला कर दिया गया और उस वक़्त ग़लत काम करनेवाले लोग घाटे में पड़ गए।109
107. यहाँ से एक और बात शुरू हो रही है। मक्का के इस्लाम-दुश्मन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहते थे कि हम आपको उस वक़्त तक अल्लाह का रसूल नहीं मान सकते जब तक आप हमारा मुँह माँगा मोजिज़ा (चमत्कार) हमें न दिखा दें। आगे की आयतों में उनकी इसी बात को नक़्ल किए बिना उसका जवाब दिया जा रहा है। (जिस तरह के मोजिज़ों की वे लोग माँग करते थे उनके कुछ नमूनों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-11 हूद, हाशिया-13; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—4, 5; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—105, 106; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-33)
108. यानी किसी नबी ने भी कभी अपनी मरज़ी से कोई मोजिज़ा (चमत्कार) नहीं दिखाया है और न कोई नबी ख़ुद मोजिज़ा दिखा सकता था। मोजिज़ा तो जब भी किसी नबी के ज़रिए से ज़ाहिर हुआ है और उस वक़्त ज़ाहिर हुआ है जब अल्लाह ने यह चाहा कि उसके हाथ से कोई मोजिज़ा किसी इनकार करनेवाली क़ौम को दिखाया जाए। यह हक़ के इनकारियों की माँग का पहला जवाब है।
109. यानी मोजिज़ा (चमत्कार) कभी खेल के तौर पर नहीं दिखाया गया है। वह तो एक फ़ैसला चुका देनेवाली चीज़ है। उसके ज़ाहिर हो जाने के बाद जब कोई क़ौम नहीं मानती तो फिर उसका ख़ातिमा कर दिया जाता है। तुम सिर्फ़ तमाशा देखने के शौक़ में मोजिज़े की माँग कर रहे हो, मगर तुम्हें अन्दाज़ा नहीं है कि इस तरह अस्ल में तुम ख़ुद माँगें कर-करके अपनी शामत बुला रहे हो। यह इस्लाम के इनकारियों की इस माँग का दूसरा जवाब है और इसकी तफ़सीलात इससे पहले क़ुरआन में कई जगह पर गुज़र चुकी हैं। (देखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—5, 30; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—68 से 69; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—7, 8; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-33; सूरा-26 शुअरा, हाशिया-49)
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمَ لِتَرۡكَبُواْ مِنۡهَا وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 73
(79) अल्लाह ही ने तुम्हारे लिए ये मवेशी जानवर बनाए हैं, ताकि उनमें से किसी पर तुम सवार हो और किसी का गोश्त खाओ।
وَلَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَلِتَبۡلُغُواْ عَلَيۡهَا حَاجَةٗ فِي صُدُورِكُمۡ وَعَلَيۡهَا وَعَلَى ٱلۡفُلۡكِ تُحۡمَلُونَ ۝ 74
(80) उनके अन्दर तुम्हारे लिए और भी बहुत-से फ़ायदे हैं। वे इस काम भी आते हैं कि तुम्हारे दिलों में जहाँ जाने की ज़रूरत हो, वहाँ तुम उनपर पहुँच सको। उनपर भी और नावों पर भी तुम सवार किए जाते हो।
وَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ فَأَيَّ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ تُنكِرُونَ ۝ 75
(81) अल्लाह अपनी ये निशानियाँ तुम्हें दिखा रहा है, आख़िर तुम उसकी किन-किन निशानियों का इनकार करोगे।110
110. मतलब यह है कि अगर तुम सिर्फ़ तमाशा देखने और दिल बहलाने के लिए मोजिज़े (चमत्कार) की माँग नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम्हें सिर्फ़ यह इत्मीनान करने की ज़रूरत है कि मुहम्मद (सल्ल०) जिन बातों को मानने की दावत तुम्हें दे रहे हैं (यानी ख़ुदा के एक होने और आख़िरत के आने की) वे सच हैं या नहीं, तो इसके लिए ख़ुदा की ये निशानियाँ बहुत काफ़ी हैं जो हर वक़्त तुम्हारे देखने और तजरिबे में आ रही हैं। हक़ीक़त को समझने के लिए इन निशानियों के होते किसी और निशानी की क्या ज़रूरत रह जाती है। ये मोजिज़ों की माँगों का तीसरा जवाब है। यह जवाब भी इससे पहले कई जगहों पर क़ुरआन में दिया गया है और हम इसका मतलब अच्छी तरह बयान कर चुके हैं (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—26, 27; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-105; सूरा-13 रअद, हाशिए—15 से 20; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—3 से 5) ज़मीन पर जो जानवर इनसान की ख़िदमत कर रहे हैं, ख़ास तौर से गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, ऊँट और घोड़े, इनको बनानेवाले ने ऐसे नक़्शे पर बनाया है कि ये आसानी से इनसान के पालतू ख़ादिम (सेवक) बन जाते हैं और इनसे उसकी अनगिनत ज़रूरतें पूरी होती हैं। वह इनपर सवारी करता है, इनसे बोझ ढोने का काम लेता है, इन्हें खेती-बाड़ी के काम में इस्तेमाल करता है, इनका दूध निकालकर उसे पीता भी है और इससे दही, लस्सी, मक्खन, घी, खोया, पनीर और तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाता है। इनका गोश्त खाता है, इनकी चरबी इस्तेमाल करता है। इनके ऊन, बाल, खाल, आँतें, हड्डी, ख़ून और गोबर, हर चीज़ उसके काम आती है। क्या यह इस बात का खुला हुआ सुबूत नहीं है कि इनसान को पैदा करनेवाले ख़ुदा ने ज़मीन पर उसको पैदा करने से भी पहले उसकी इन उन ज़रूरतों को सामने रखकर ये जानवर इस ख़ास नक़्शे पर पैदा कर दिए थे, ताकि वह उनसे फ़ायदा उठाए? फिर ज़मीन का तीन-चौथाई हिस्सा पानी से भरा है और सिर्फ़ एक-चौथाई हिस्सा ख़ुश्की (थल) पर मुश्तमिल (आधारित) है। ख़ुश्की के हिस्से के भी बहुत-से छोटे और बड़े हिस्से ऐसे हैं जिनके बीच पानी रुकावट है। धरती के इन सूखे इलाक़ों पर इनसानी आबादियों का फैलना और फिर उनके बीच सफ़र और तिजारत के ताल्लुक़ात का क़ायम होना इसके बिना मुमकिन न था कि पानी, समुद्रों और हवाओं को ऐसे क़ानूनों का पाबन्द बनाया जाता जिनकी बदौलत जहाज़ चलाए जा सकते और धरती पर वह सरो-सामान पैदा किया जाता जिसे इस्तेमाल करके इनसान जहाज़ बनाने पर क़ुदरत रखता। क्या यह इस बात की खुली निशानी नहीं है कि एक ही पूरी क़ुदरत रखनेवाला, रहमतवाला और हिकमतवाला रब है जिसने इनसान और ज़मीन, पानी, समुद्रों, हवाओं और उन तमाम चीज़ों को जो ज़मीन पर हैं अपने ख़ास मंसूबे के मुताबिक़ बनाया है, बल्कि अगर इनसान सिर्फ़ जहाज़ चलाने ही के नज़रिए से देखें तो इसमें तारों की जगहों और सय्यारों (ग्रहों) के बाक़ायदा घूमने से जो मदद मिलती है, वह इस बात की गवाही देती है कि ज़मीन ही नहीं, आसमानों का पैदा करनेवाला भी वही एक मेहरबान रब है। इसके बाद इस बात पर भी ग़ौर कीजिए कि जिस हिकमतवाले ख़ुदा ने अपनी इतनी अनगिनत चीज़ें इनसान के इस्तेमाल में दी हैं और उसके फ़ायदे के लिए यह कुछ सरो-सामान जुटाया है, क्या होश-हवास रखते हुए आप उसके बारे में यह गुमान कर सकते हैं कि वह, अल्लाह की पनाह, ऐसा आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा होगा कि वह इनसान को यह सब कुछ देकर कभी उससे हिसाब न लेगा।
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِنۡهُمۡ وَأَشَدَّ قُوَّةٗ وَءَاثَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 76
(82) फिर क्या111 ये ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इनको उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे तादाद में ज़्यादा थे, इनसे बढ़कर ताक़तवर थे और ज़मीन में इनसे ज़्यादा शानदार निशानियाँ छोड़ गए हैं। जो कुछ कमाई उन्होंने की थी, आख़िर वह उनके किस काम आई?
111. यहाँ बात ख़त्म हो रही है। इस हिस्से को पढ़ते वक़्त आयतों-4, 5 और आयत-21 पर फिर एक बार नज़र डाल लें।
فَلَمَّا جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرِحُواْ بِمَا عِندَهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 77
(83) जब उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए तो वे उसी इल्म में मग्न रहे जो उनके अपने पास था,112 और फिर उसी चीज़ के फेर में आ गए जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
112. यानी अपने फ़लसफ़े और साइंस (दर्शन और विज्ञान), अपने क़ानून, अपने दुनियावी इल्म और अपने पेशवाओं की गढ़ी हुई मज़हबी कहानियों (Mythology) और दीनियात (Theology) ही को उन्होंने अस्ल इल्म समझा और नबियों (अलैहि०) के लाए हुए इल्म को मामूली समझकर उसकी तरफ़ कोई ध्यान न दिया।
فَلَمَّا رَأَوۡاْ بَأۡسَنَا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥ وَكَفَرۡنَا بِمَا كُنَّا بِهِۦ مُشۡرِكِينَ ۝ 78
(84) जब उन्होंने हमारा अज़ाब देख लिया तो पुकार उठे कि हमने मान लिया अल्लाह को जो अकेला है, जिसका कोई साझी नहीं और हम इनकार करते हैं उन सब माबूदों (उपास्यों) का जिन्हें हम उसका साझी ठहराते थे।
فَلَمۡ يَكُ يَنفَعُهُمۡ إِيمَٰنُهُمۡ لَمَّا رَأَوۡاْ بَأۡسَنَاۖ سُنَّتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ فِي عِبَادِهِۦۖ وَخَسِرَ هُنَالِكَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 79
(85) मगर हमारा अज़ाब देख लेने के बाद उनका ईमान उनके लिए कुछ भी फ़ायदेमन्द न हो सकता था, क्योंकि यही अल्लाह का मुक़र्रर किया हुआ क़ानून है जो हमेशा उसके बन्दों में जारी रहा है113 और उस वक़्त हक़ के इनकारी लोग घाटे में पड़ गए।
113. यह कि तौबा और ईमान बस उसी वक़्त तक फ़ायदेमन्द है जब तक आदमी अल्लाह के अज़ाब या मौत की पकड़ में न आ जाए। अज़ाब आ जाने या मौत के आसार शुरू हो जाने के बाद ईमान लाना या तौबा करना अल्लाह के यहाँ क़ुबूल होने के क़ाबिल नहीं है।
لَخَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَكۡبَرُ مِنۡ خَلۡقِ ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 80
(57) आसमानों78 और ज़मीन का पैदा करना इनसान को पैदा करने के मुक़ाबले में यक़ीनन ज़्यादा बड़ा काम है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।'79
78. ऊपर के साढ़े तीन रुकूओं (आयतें—1 से 56 तक) में क़ुरैश के सरदारों की साज़िशों पर तबसिरा (समीक्षा) करने के बाद अब यहाँ से बात का रुख़ आम लोगों की तरफ़ फिर रहा है और उनको यह समझाया जा रहा है कि जिन हक़ीक़तों को मानने की दावत मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं, वे सरासर सही और अक़्ल के मुताबिक़ हैं। उनको मान लेने ही में तुम्हारी भलाई है और न मानना तुम्हारे अपने लिए तबाही लानेवाला है। इस सिलसिले में सबसे पहले आख़िरत के अक़ीदे को लेकर उसपर दलीलें दी गई हैं, क्योंकि इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सबसे ज़्यादा अचंभा इसी अक़ीदे पर था और इसे वे समझ से परे समझते थे।
79. यह आख़िरत के इमकान की दलील है। हक़ के इनकारियों का ख़याल था कि मरने के बाद कि इनसान का दोबारा जी उठना नामुमकिन है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि जो लोग इस तरह की बातें करते हैं वे हक़ीक़त में नादान हैं। अगर अक़्ल से काम लें तो उनके लिए यह समझना कुछ भी मुश्किल न हो कि जिस ख़ुदा ने यह अज़ीमुश्शान कायनात बनाई है, उसके लिए इनसानों को दोबारा पैदा कर देना कोई मुश्किल काम नहीं हो सकता।
يَعۡلَمُ خَآئِنَةَ ٱلۡأَعۡيُنِ وَمَا تُخۡفِي ٱلصُّدُورُ ۝ 81
(19) अल्लाह निगाहों की चोरी तक से वाक़िफ़ है और वे राज़ तक जानता है जो सीनों ने छिपा रखे हैं।
وَٱللَّهُ يَقۡضِي بِٱلۡحَقِّۖ وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَقۡضُونَ بِشَيۡءٍۗ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 82
(20) और अल्लाह ठीक-ठीक बेलाग फ़ैसला करेगा। रहे वे जिनको (ये मुशरिक लोग) अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं, वे किसी चीज़ का भी फ़ैसला करनेवाले नहीं हैं। बेशक अल्लाह ही सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।33
33. यानी तुम्हारे माबूदों की तरह वह कोई अन्धा-बहरा ख़ुदा नहीं है, जिसे कुछ पता न हो कि जिस आदमी के मामले में वह फ़ैसला कर रहा है, उसके क्या करतूत थे।
۞أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ كَانُواْ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُواْ هُمۡ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَءَاثَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡ وَمَا كَانَ لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن وَاقٖ ۝ 83
(21) क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे ज़्यादा ताक़तवर थे और इनसे ज़्यादा ज़बरदस्त निशानियाँ ज़मीन में छोड़ गए हैं। मगर अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया और उनको अल्लाह से बचानेवाला कोई न था।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَكَفَرُواْ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 84
(22) यह उनका अंजाम इसलिए हुआ कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली निशानियाँ34 लेकर आए और उन्होंने मानने से इनकार कर दिया। आख़िरकार अल्लाह ने उनको पकड़ लिया। यक़ीनन वह बड़ी क़ुव्वतवाला और सज़ा देने में बहुत सख़्त है।
34. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'बय्यिनात' (खुली-खुली निशानियाँ) इस्तेमाल हुआ है। इससे मुराद तीन चीज़ें हैं। एक ऐसी नुमायाँ अलामतें और निशानियाँ जो उनके अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए होने का सुबूत थीं। दूसरी, ऐसी रौशन दलीलें जो उनकी पेश की हुई तालीम के हक़ होने का सुबूत दे रही थीं। तीसरी, ज़िन्दगी के मसाइल और मामलों के बारे में ऐसी साफ़ हिदायतें जिन्हें देखकर हर समझदार आदमी यह जान सकता था कि ऐसी पाकीज़ा तालीम कोई झूठा ख़ुदग़रज़ आदमी नहीं दे सकता।