शरीअत
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नैतिकता और नैतिक संस्कृति (शरीअत : लेक्चर # 4)
इस्लामी शरीअत का हर विद्यार्थी इस वास्तविकता से पूरे तौर पर परिचित है कि शरीअत के आदेशों का आधार अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) और आध्यात्मिक मूल्यों पर है। शरीअत के तमाम सामूहिक नियम, क़ानूनी आदेश, व्यावहारिक निर्देश और सांस्कृतिक शिक्षाओं के हर-हर अंग का अक़ीदों और आध्यात्मिक पवित्रता से प्रत्यक्ष रूप से और गहरा सम्बन्ध है। एक पश्चिमी विद्वान ने इस सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शरीअत ने नैतिक सिद्धान्तों और आध्यात्मिक निर्देशों को क़ानूनी रूप दे दिया है। इस्लामी शरीअत में क़ानून और नैतिकता एक ही वास्तविकता के दो पहलू या एक ही सिक्के के दो रुख़ हैं। इस्लाम का हर क़ानून किसी-न-किसी नैतिक उद्देश्य या आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है। इसी तरह इस्लाम की शिक्षा में कोई नैतिक निर्देश ऐसा नहीं दिया गया जिसपर कार्यान्वयन के लिए व्यावहारिक नियम उपलब्ध न किए गए हों। शरीअत के पूरे पुस्तक भंडार में कोई ऐसा इशारा नहीं मिलता जिसके अनुसार क़ानून और फ़िक्ह से असम्बद्ध रहकर आध्यात्मिक दर्जे प्राप्त किए जा सकते हों।

मुसलमान और मुस्लिम समाज (शरीअत : लेक्चर # 3)
आज की चर्चा का शीर्षक है “मुसलमान और मुस्लिम समाज”। मुस्लिम समाज को आसान भाषा में मुस्लिम समाज या मुस्लिम बिरादरी भी कहा जा सकता है। पवित्र क़ुरआन के अनुसार इस्लाम का सबसे बड़ा और सर्वप्रथम सामूहिक लक्ष्य मुस्लिम समाज का गठन है। पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह मुसलमानों को मुस्लिम समाज से जुड़े रहने का, मुस्लिम समाज के उद्देश्यों और लक्ष्य को पूरा करने का उपदेश और निर्देश दिया गया है। पवित्र क़ुरआन से यह भी पता चलता है कि मुस्लिम समाज के स्थायित्व की दुआ और भविष्यवाणी हज़ारों वर्ष पहले हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत इस्माईल (अलैहिस्सलाम) ने की थी। यह उस समय की बात है जब वह मुस्लिम समाज के लिए एक महसूस और आभासी आध्यात्मिक केन्द्र यानी बैतुल्लाह (काबा) का निर्माण कर रहे थे।

इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)
इस व्याख्यान में शरीअत के मूलभूत सिद्धांतों और उनके व्यावहारिक अनुप्रयोग पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि इस्लामी शरीअत केवल इबादत और व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को भी व्यवस्थित करती है। शरीअत की आधारशिला कुरआन और सुन्नत हैं, जबकि इज्मा और क़ियास इसके सहायक स्रोत हैं। इसका मुख्य उद्देश्य मानव जीवन में न्याय स्थापित करना, संतुलन बनाए रखना और भलाई को बढ़ावा देना है।व्याख्यान में यह स्पष्ट किया गया है कि शरीअत को समझने और लागू करने के लिए विद्वानों की सही मार्गदर्शन आवश्यक है, ताकि लोग अतिरेक या कमी से बच सकें। मुसलमानों का दायित्व है कि वे अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन व्यवस्था को शरीअत के अनुरूप ढालें। इसमें यह भी बताया गया है कि शरीअत केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के कल्याण का संदेश देती है। सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, नैतिकता और मानव सुधार सभी शरीअत के दायरे में आते हैं। यह व्याख्यान यह संदेश देता है कि शरीअत एक रहमत है, जो इंसान को अल्लाह की रज़ा और आख़िरत की सफलता तक ले जाती है।

इस्लामी शरीअत : एक परिचय (शरीअत: लेक्चर #1)
यह लेक्चर इस्लामी शरीअत का एक व्यापक परिचय है, जिसमें डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी आधुनिक काल में इस्लाम की शब्दावलियों और शिक्षाओं के बारे में फैली ग़लतफ़हमियों पर चर्चा करते हैं। यह व्याख्यान शरीअत की उत्पत्ति, स्रोत, उद्देश्य, विशेषताएँ और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से उसके संबंध को स्पष्ट करता है, साथ ही ऐतिहासिक और राजनैतिक संदर्भों का विश्लेषण करता है। यह शरीअत को एक जीवन-शैली के रूप में प्रस्तुत करता है जो अल्लाह की वह्य और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं पर आधारित है।

इस्लाम में औरत का स्थान और मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एतिराज़ात की हक़ीक़त
'मुस्लिम पर्सनल लॉ' एक ऐसा क़ानून है जो इस्लामी जीवन-व्यवस्था पर आधारित है। एक लम्बे समय से भारत में इसे विवादित मुद्दा बनाया जाता रहा है और माँग की जाती रही है कि इसे बदलकर देश में 'समान सिवल कोड' लागू कर दिया जाए। मुसलमान इस क़ानून को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि यह इस्लामी जीवन-व्यवस्था पर आधारित है। देश के बहुसंख्यक समुदाय के नेता सरकारी ज़िम्मेदारों की मदद से इसमें परिवर्तन की माँग करते रहते हैं। कभी-कभी कोई नेशनलिस्ट मुसलमान भी उसी सुर-में-सुर मिला बैठता है, और इस तरह यह मुद्दा दिन-प्रतिदिन महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।इस पुस्तक में इसी समस्या पर वार्ता की गई है।

इस्लामी शरीअ़त
हम अल्लाह की इबादत किस तरह करें? कैसे रहें-सहें? लेन-देन कैसे करें? एक आदमी के दूसरे आदमी पर क्या हक़ हैं? क्या हराम (अवैध) है? क्या हलाल (वैध) है? किस चीज़ को हम किस हद तक बरत सकते हैं और किस तरह बरत सकते हैं? ये और इसी तरह की तमाम बातें हमें शरीअ़त से मालूम होती हैं। इस्लामी शरीअ़त की बुनियाद क़ुरआन और सुन्नत है। क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और सुन्नत वह तरीक़ा है जो नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) से हमको मिला है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का सारा जीवन क़ुरआन पेश करने, समझाने और उसपर अमल करने में बीता। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का यही बताना, समझाना और अमल करना सुन्नत कहलाता है। हमारे बहुत-से बुज़ुर्गों और आलिमों ने क़ुरआन और सुन्नत से वे तमाम बातें चुन लीं जिनकी मदद से हम दीन की बातों पर अमल कर सकें।

परदा (इस्लाम में परदा और औरत की हैसियत)
यह बीसवीं सदी के महान विद्वान और जमाअत-इस्लामी के संस्थापक मौलाना सय्यद अबुलआला मौदूदी की महान कृति 'पर्दा’ का हिन्दी अनुवाद है। इस में मौलाना मौदूदी ने समाज में महिला के सही स्थान को स्पष्ट किया है।लेखक ने तर्कों और प्रमाणों के आधार है यह बताने की कोशिश की है कि औरत के लिए पर्दा क्यों ज़रूरी है।इतिहास के उदाहरण से यह बात बताई गई है कि क़ौमों के विकास में महिलाओं की क्या भूमिका होती है।लेखक ने इस पर भी चर्चा की है कि इस्लाम में औरतों को कितना ऊंचा मक़ाम दिया गया है और पर्दा औरत की हिफ़ाज़त के लिए कितना अहम है

एकेश्वरवाद और न्याय की स्थापना
एकेश्वरवाद (तौहीद) का अक़ीदा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों में से है। इसका मतलब है एक ऐसी हस्ती को जानना और मानना जिसने तमाम इनसानों और इस दुनिया की तमाम चीज़ों और जानदारों को पैदा किया है और जो इस दुनिया के निज़ाम को चला रही है। और इस मामले (पैदा करने और चलाने) में किसी दूसरी हस्ती को उसके साथ साझी न ठहराना। यह सिर्फ़ एक बेजान अक़ीदा नहीं है, बल्कि इसके मानने या न मानने से इनसानी ज़िन्दगी पर गहरे असरात पड़ते हैं। इस अक़ीदे पर ईमान लाने से इनसानी ज़िन्दगी में व्यवस्था, संतुलन और बैलेंस पैदा होता है और इस पर ईमान न लाने से वह अव्यवस्था (बदनज़्मी), असन्तुलन तथा बिगाड़ का शिकार हो जाती है। यह है वह बुनियादी सोच जिस पर इस किताब में बात की गई है।

दरूद और सलाम
"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।” क़ुरआन मजीद की इस आयत में एक बात यह बतलाई गयी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। अल्लाह की ओर से अपने नबी पर सलात (दुरूद) का मलतब यह है कि वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर बेहद मेहरबान है। आप की तारीफ़ फ़रमाता है, आप के काम में बरकत देता है, आप का नाम बुलन्द करता है और आप पर अपनी रहमत की बारिश करता है।

बन्दों के हक़
अनस और बिन मसऊद (रज़ि0) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मख़लूक़ (प्राणी) अल्लाह की 'अयाल' (कुम्बा) हैं। इसलिए उसे अपनी मख़लूक़ (जानदार) में सबसे ज़्यादा प्यारा वह है जो उसके कुम्बे से अच्छा सुलूक करे। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत में मुफ़लिस (निर्धन) वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात लेकर आएगा, मगर इस हालत में आएगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया होगा, किसी का (नाहक़) माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा और किसी को मारा होगा।

अध्यात्म का महत्व और इस्लाम
मनुष्य शरीर ही नहीं आत्मा भी है। बल्कि वास्तव में वह आत्मा ही है, शरीर तो आत्मा का सहायक मात्र है, आत्मा और शरीर में कोई विरोध नहीं पाया जाता। किन्तु प्रधानता आत्मा ही को प्राप्त है। आत्मा की उपेक्षा और केवल भौतिकता ही को सब कुछ समझ लेना न केवल यह कि अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध आचरण है बल्कि यह एक ऐसा नैतिक अपराध है जिसे अक्षम्य ही कहा जाएगा। आत्मा का स्वरूप क्या है और उसका गुण-धर्म क्या है। यह जानना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा के अत्यन्त विमल, सुकुमार और सूक्ष्म होने के कारण साधारणतया उसका अनुभव और उसकी प्रतीति नहीं हो पाती और वह केवल विश्वास और एक धारणा का विषय बनकर रह जाती है।

इस्लाम और मानव-एकता
“ऐ लोगो, अपने प्रभु से डरो जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत से पुरुष और स्त्री संसार में फैला दिए। उस अल्लाह से डरो जिसको माध्यम बनाकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और नाते-रिश्तों के सम्बन्धों को बिगाड़ने से बचो। निश्चय ही अल्लाह तुम्हें देख रहा है।" (क़ुरआन–4:1)

इस्लाम और मानव-अधिकार
मानव-अधिकार के बारे में यह बताने की कोशिश की जाती है कि इसका एहसास जैसे आज है, इससे पहले नहीं था और इंसानों की अधिकांश आबादी इससे वंचित थी और अत्याचार की चक्की में पिस रही थी। फिर 10 दिसम्बर 1948 ई. को संयुक्त राष्ट्र ने मानव-अधिकारों का अखिल विश्व घोषणा-पत्र (The Universal Declaration of Human Rights) प्रकाशित किया। इसे इस सिलसिले का बड़ा क्रान्तिकारी क़दम समझा जाता है और यह ख़याल किया जाता है कि मानव-अधिकारों की बहुत ही स्पष्ट अवधारणा उसके अन्दर मौजूद है और इंसानों को ज़ुल्म और ज़्यादती से बचाने की कामयाब कोशिश की गई है। आइए देखते हैं कि इस्लाम का इस बारे में क्या योगदान है।

नारी और इस्लाम
इस्लाम में औरत को क्या स्थान दिया गया है और उसकी क्या हैसियत इस्लाम में है, इसकी एक झलक इस संक्षिप्त-सी पुस्तिका में प्रस्तुत की गई है जिससे आपको अन्दाज़ा हो सकेगा कि इस्लाम ने औरत को समाज में उसका सही स्थान प्रदान किया है। इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए पुस्तिका के अन्त में एक पुस्तक-सूची भी दी गई है, जिनके अध्ययन से इस विशय पर इस्लाम का विस्तृत दृश्टिकोण आपके सामने आ सकेगा।

उंच-नीच छूत-छात
अल्लाह ने क़ुरआम दुनिया के सारे लोगों को समझाते हुए यह शिक्षा दी है : "लोगो! हमने तुम को एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और फिर तुम्हें परिवारों और वंशों में विभाजित कर दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। तुम में अधिक बड़ा वह है जो अल्लाह के आदेशों सर्वाधिक पालन करने वाला है और निसन्देह अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।" (सूरह हुजुरात) प्रस्तुत लेख में सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी आयत को आधार बनाकर समाज को मानव असमानता के रोग से बचाने की कोशिश की है।