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سُورَةُ النَّمۡلِ

27. अन-नम्ल 

(मक्का में उतरी-आयतें 93)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 18 में 'नम्ल' (चीटी) की घाटी का उल्लेख हुआ है। सूरा का नाम इसी से उद्धृत है।

उतरने का समय

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली मक्का के मध्यकाल की सूरतों से पूरी तरह मिलती-जुलती है और इसकी पुष्टि रिवायतों से भी होती है। इब्‍ने-अब्बास (रजि०) और जाबिर-बिन-ज़ैद का बयान है कि 'पहले सूरा-26 (शुअरा) उतरी, फिर सूरा-27 (अन-नम्ल), फिर सूरा-28 (अल-क़सस)।'

विषय और वार्ताएँ

यह सूरा दो व्याख्यानों पर आधारित है। पहला व्याख्यान सूरा के आरम्भ से आयत 58 तक चला गया है। और दूसरा व्याख्यान आयत 59 से सूरा के अन्त तक । पहले व्याख्यान में बताया गया है कि कु़ुरआन की रहनुमाई से केवल वही लोग लाभ उठा सकते हैं जो इन सच्चाइयों को मान लें जिन्हें यह किताब इस विश्व की मौलिक सच्चाइयों की हैसियत से प्रस्तुत करती है और फिर मान लेने के बाद अपने व्यावहारिक जीवन में भी आज्ञापालन और पैरवी की नीति अपनाएँ, लेकिन इस राह पर आने और चलने में जो चीज़ सबसे बड़ी रुकावट होती है वह आख़िरत (परलोक) का इंकार है।

इस भूमिका के बाद तीन प्रकार के चरित्रों के नमूने प्रस्तुत किए गए हैं-

एक नमूना फ़िरऔन और समूद क़ौम के सरदारों और लूत (अलैहि०) की क़ौम के सरकशों (उद्दंडों) का है, जिनका चरित्र आख़िरत की फ़िक्र के प्रति उदासीनता और उसके नतीजे में अपने मन की बन्दगी से निर्मित हुआ था। ये लोग किसी निशानी को देखकर भी ईमान लाने को तैयार न हुए। ये उलटे उन लोगों के शत्रु हो गए जिन्होंने उनको भलाई एवं कल्याण की ओर बुलाया।

दूसरा नमूना हज़रत सुलैमान (अलै०) का है जिनको अल्लाह ने धन, राज्य और सुख-वैभव से बड़े पैमाने पर सम्पन्न किया था, लेकिन इस सबके बावजूद चूँकि वे अपने आपको अल्लाह के सामने उत्तरदायी समझते थे, इसलिए उनका सिर हर वक़्त अपने महान उपकारकर्ता (ईश्वर) के आगे झुका रहता था।

तीसरा नमूना सबा की मलिका (रानी) का है जो अरब के इतिहास की सुप्रसिद्ध धनी क़ौम की शासिका थी। उसके पास तमाम वे साधन इकट्ठा थे जो किसी इंसान को अहंकारी बना सकते हैं। फिर वह एक बहुदेववादी क़ौम से ताल्लुक रखती थी। बाप-दादा के पीछे चलने की वजह से भी और अपनी क़ौम में अपनी सरदारी बाक़ी रखने के लिए भी, उसके लिए बहुदेववादी धर्म को छोड़कर तौहीद का दीन (एकेश्वरवादी धर्म) अपनाना बहुत कठिन था। लेकिन जब उसपर सत्य खुल गया तो कोई चीज़ उसे सत्य अपनाने से न रोक सकी, क्योंकि उसकी गुमराही सिर्फ़ एक बहुदेववादी वातावरण में आँखें खोलने की वजह से थी। मन की दासता और इच्छाओं की ग़ुलामी का रोग उसपर छाया हुआ न था।

दूसरे व्याख्यान में सबसे पहले सृष्टि की कुछ अत्यन्त स्पष्ट और प्रसिद्ध सच्चाइयों की ओर इशारे करके मक्का के विधर्मियों से लगातार सवाल किया गया है कि बताओ, ये सच्चाइयाँ शिर्क की गवाहियाँ दे रही हैं या तौहीद [की?] इसके बाद विधर्मियों के असल रोग पर उंगली रख दी गई है कि जिस चीज़ ने उनको अंधा-बहरा बना रखा है, वह वास्तव में आख़िरत का इंकार है। इस वार्ता का अभिप्राय सोनेवालों को झिझोड़कर जगाना है। इसी लिए आयत 67 से सूरा के अन्त तक लगातार वे बातें कही गई हैं जो लोगों में आख़िरत की चेतना जगाएँ। अन्त में क़ुरआन की असल दावत, अर्थात् एक अल्लाह की बन्दगी की दावत, बहुत ही संक्षेप में मगर बड़ी ही प्रभावकारी शैली में प्रस्तुत करके लोगों को सचेत किया गया है कि इसे क़ुबूल करना तुम्हारे अपने लिए लाभप्रद और इसे रद्द करना तुम्हारे अपने लिए ही हानिकारक है।

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سُورَةُ النَّمۡلِ
27. अन-नम्ल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
طسٓۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡقُرۡءَانِ وَكِتَابٖ مُّبِينٍ
(1) ता-सीन। ये आयतें हैं क़ुरआन और किताबे-मुबीन (खुली किताब)1 की,
1. 'किताबे-मुबीन' का एक मतलब है कि यह किताब अपनी तालीमात (शिक्षाओं) और अपने हुक्मों और हिदायतों को बिलकुल साफ़ तरीक़े से बयान करती है। दूसरा मतलब यह कि वह हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) का फ़र्क़ नुमायाँ तरीक़े से खोल देती है और एक तीसरा मतलब यह भी है कि इसका अल्लाह की किताब होना ज़ाहिर है, जो कोई इसे आँखें खोलकर पढ़ेगा उसपर यह बात खुल जाएगी कि यह मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ कलाम (वाणी) नहीं है।
هُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) हिदायत और ख़ुशख़बरी2 उन ईमान लानेवालों के लिए
2. यानी ये आयतें हिदायतें और ख़ुशख़बरियाँ हैं। 'हिंदायत करनेवाली' और 'ख़ुशख़बरी देनेवाली’ कहने के बजाय उन्हें अपने आपमें ख़ुद ‘हिदायत' और 'ख़ुशख़बरी' कहा गया, जिसका मक़सद यह बताना है कि उसके अन्दर कामिल दरजे की रहनुमाई और ख़ुशख़बरी की सिफ़त पाई जाती है। जैसे किसी को आप सख़ी (दानशील) कहने के बजाय ‘सख़ावत की मूर्ति’ और हसीन (ख़ूबसूरत) कहने के बजाय सर से पाँव तक हुस्न (सौन्दर्य) कहें।
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 2
(3) जो नमाज क़ायम करते और ज़कात देते हैं,3 और फिर वे ऐसे लोग हैं जो आख़िरत पर पूरा यक़ीन रखते हैं।4
3. यानी क़ुरआन मजीद की ये आयतें रहनुमाई भी सिर्फ़ उन्हीं लोगों की करती हैं और भले अंजाम को ख़ुशख़बरी भी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को देती हैं जिनमें दो ख़ासियतें पाई जाती हों, एक यह कि वे ईमान लाएँ और ईमान लाने से मुराद यह है कि वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की दावत को क़ुबूल कर लें, एक ख़ुदा को अपना अकेला माबूद और रब मान लें, क़ुरआन को ख़ुदा की किताब तस्लीम कर लें, मुहम्मद (सल्ल०) को सच्चा नबी मानकर अपना पेशवा बना लें और यह अक़ीदा भी अपना लें कि इस ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी ज़िन्दगी है जिसमें हमको अपने आमाल का हिसाब देना और आमाल के बदले का सामना करना है। दूसरी ख़ासियत उनकी यह है कि वे उन चीज़ों को सिर्फ़ मानकर न रह जाएँ, बल्कि अमली तौर से फ़रमाँबरदारी के लिए राज़ी हों और इस रज़ामन्दी की सबसे पहली निशानी यह है कि वे नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें। ये दोनों शर्तें जो लोग पूरी कर देंगे उन्हीं को क़ुरआन की आयतें दुनिया में ज़िन्दगी का सीधा रास्ता बताएँगी, इस रास्ते के हर मरहले में उनको सही और ग़लत का फ़र्क़ समझाएँगी, उसके हर मोड़ पर उन्हें ग़लत राहों की तरफ़ जाने से बचाएँगी और उनको यह इतमीनान दिलाएँगी कि सीधे रास्ते पर चलने के नतीजे दुनिया में चाहे जो कुछ भी हों, आख़िरकार हमेशा रहनेवाली और दाइमी कामयाबी इसी की बदौलत उन्हें मिलेगी और अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी पाएँगे। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे एक टीचर की तालीम से वही शख़्स फ़ायदा उठा सकता है जो उसपर भरोसा करे, सचमुच उसका शागिर्द बनना क़ुबूल कर ले और फिर उसकी हिदायतों के मुताबिक़ काम भी करे। एक डॉक्टर से फ़ायदा वही रोगी उठा सकता है जो उसे अपना डॉक्टर बनाए और दवा और परहेज़ वग़ैरा के मामले में उसकी हिदायतों पर अमल करे। इसी सूरत में टीचर और डॉक्टर यह इत्मीनान दिला सकते हैं कि आदमी को मनचाहे नतीजे मिलेंगे। कुछ लोगों ने इस आयत में ‘युअतूनज़-ज़कात’ का मतलब यह लिया है कि वे अख़लाक़ की पाकीज़गी अपनाएँ। लेकिन क़ुरआन मजीद में 'इक़ामते-सलात' के साथ 'ईता-ए-ज़कात का लफ़्ज़ जहाँ भी आया है, उससे मुराद वह ज़कात अदा करना है जो नमाज़ के साथ इस्लाम का दूसरा रुक्न है। इसके अलावा ज़कात के लिए 'ईता' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो माल की ज़कात अदा करने का मानी तय कर देता है; क्योंकि अरबी ज़बान में पीकीज़गी अपनाने के लिए 'तज़क्का’ का लफ़्ज़ बोला जाता है, न कि 'ईता-ए-ज़कात’। अस्ल में यहाँ मक़सद जो बात ज़ेहन में बिठाना है वह यह कि क़ुरआन की रहनुमाई से फ़ायदा उठाने के लिए ईमान के साथ अमली तौर से फ़रमाँबरदारी और पैरवी का रवैया अपनाना भी ज़रूरी है और 'इक़ामते-सलात' और 'ईता-ए-ज़कात' वह पहली निशानी है जो यह ज़ाहिर करती है कि आदमी ने सचमुच फ़रमाँबरदारी क़ुबूल कर ली है। यह निशानी जहाँ ग़ायब हुई वहाँ फ़ौरन यह मालूम हो जाता है कि आदमी सरकश है, हाकिम को हाकिम चाहे उसने मान लिया हो, मगर हुक्म की पैरवी के लिए वह तैयार नहीं है।
4. हालाँकि आख़िरत का अक़ीदा उन बातों में शामिल है जिनपर ईमान लाना ज़रूरी है और इस वजह से ईमान लानेवालों से मुराद ज़ाहिर है कि वही लोग हैं जो तौहीद और रिसालत के साथ आख़िरत पर भी ईमान लाएँ, लेकिन ईमान के तक़ाज़ों में इसके आप-से-आप शामिल होने के बावजूद यहाँ इस अक़ीदे की अहमियत ज़ाहिर करने के लिए ख़ास तौर पर ज़ोर देकर इसे अलग से बयान किया गया है। इसका मक़सद यह ज़ेहन में बिठाना है कि जो लोग आख़िरत को न मानते हों उनके लिए इस क़ुरआन के बताए हुए रास्ते पर चलना, बल्कि उसपर क़दम रखना भी मुश्किल है, क्योंकि इस तरह की सोच रखनेवाले लोग फ़ितरी तौर से भलाई-बुराई को सिर्फ़ उन्हीं नतीजों से तय करते हैं जो इस दनिया में ज़ाहिर होते या हो सकते हैं और उनके लिए किसी ऐसी नसीहत और हिदायत को क़ुबूल करना मुमकिन नहीं होता जो आख़िरत के अंजाम को फ़ायदे-नुक़सान का पैमाना क़रार देकर भलाई और बुराई को तय करती ही। ऐसे लोग अव्वल तो नबियों और पैग़म्बरों की तालीम पर कान ही नहीं धरते, लेकिन अगर किसी वजह से वे ईमान लानेवालों के गरोह में शामिल हो भी जाएँ तो आख़िरत का यक़ीन न होने की वजह से उनके लिए ईमान और इस्लाम के रास्ते पर एक क़दम चलना भी मुश्किल होता है। इस राह में पहली ही आज़माइश जब पेश आएगी, जहाँ दुनियावी फ़ायदे और आख़िरत में मिलनेवाले नुक़सान के तक़ाज़े उन्हें दो अलग-अलग सम्तों (दिशाओं) में खींचेंगे तो बेहिचक दुनिया के फ़ायदे की तरफ़ खिँच जाएँगे और आख़िरत के नुक़सान की ज़र्रा बराबर परवाह न करेंगे, चाहे ज़बान से वे ईमान के कितने ही दावे करते रहें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ زَيَّنَّا لَهُمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 3
(4) हक़ीक़त यह है कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके लिए हमने उनके करतूतों को लुभावना बना दिया है, इसलिए वे भटकते फिरते हैं।5
5. यानी ख़ुदा का क़ानूने-फ़ितरत यह है कि इनसानी नफ़सियात (मनोवज्ञान) की फ़ितरी मन्तिक़ (तार्किकता) यही है कि जब आदमी ज़िन्दगी और उसकी कोशिश और अमल के नतीजों को सिर्फ़ इसी दुनिया तक महदूद समझेगा, जब वह किसी ऐसी अदालत को मानता न होगा जहाँ इनसान की पूरी ज़िन्दगी के कामों की जाँच-पड़ताल करके उसके अच्छे-बुरे होने का आख़िरी फ़ैसला किया जानेवाला हो और जब वह मौत के बाद किसी ऐसी ज़िन्दगी का माननेवाला न होगा जिसमें दुनिया की ज़िन्दगी के आमाल की हक़ीक़ी क़द्रो-क़ीमत के मुताबिक़ ठीक-ठीक इनाम या सज़ा दी जानेवाली हो, तो लाज़िमन उसके अन्दर एक माद्दा-परस्ताना (भौतिकवादी) सोच परवान चढ़ेगी। उसे हक़ और बातिल, शिर्क और तौहीद, भलाई और बुराई, अख़लाक़ और बद-अख़लाक़ी की सारी बहसें सरासर बेमतलब नज़र आएँगी जो कुछ उसे इस दुनिया में ऐशो-आराम और माद्दी ख़ुशहाली और ताक़त और इक़तिदार दे, वही उसके नज़दीक भलाई होगी, यह देखे बग़ैर कि वह इक़तिदार ज़िन्दगी का कोई फ़लसफ़ा (जीवन-दर्शन), कोई तर्ज़े-ज़िन्दगी (जीवन-शैली) और कोई निज़ामे-अख़लाक़ (नैतिक व्यवस्था) हो। उसको हक़ीक़त और सच्चाई से कोई सरोकार ही न होगा। उसको अस्ल में जो कुछ चाहिए वे दुनिया की ज़िन्दगी की सुख-सुविधाएँ और कामयाबियाँ होंगी जिनको पाने की फ़िक्र उसे हर घाटी में लिए भटकती फिरेगी और इस मक़सद के लिए जो कुछ भी वह करेगा, उसे अपने नज़दीक बड़ी ख़ूबी की बात समझेगा और उलटा उन लोगों को बेवक़ूफ़ समझेगा जो उसकी तरह दुनिया की तलब में नहीं लगे हैं और अख़लाक़ और बद-अख़लाक़ी से बे-परवाह होकर हर काम कर गुज़रने में निडर नहीं हैं। किसी के बुरे कामों को उसके लिए लुभावना बना देने का यह अमल क़ुरआन मजीद में कभी अल्लाह तआला से जोड़ा गया है और कभी शैतान की तरफ़। जब इसे अल्लाह तआला की तरफ़ जोड़ा जाता है तो इससे मुराद, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, यह होती है कि जो शख़्स यह नज़रिया अपनाता है, उसे फ़ितरी तौर पर ज़िन्दगी का यही रवैया अच्छा मालूम होता है और जब यह अमल शैतान की तरफ़ जोड़ा जाता है तो इसका मतलब यह होता है कि इस नज़रिए और रवैये को अपनानेवाले आदमी के सामने शैतान हर वक़्त एक ख़याली जन्नत पेश करता रहता है और उसे ख़ूब इतमीनान दिलाता है कि शाबाश बेटे, बहुत अच्छे जा रहे हो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَهُمۡ سُوٓءُ ٱلۡعَذَابِ وَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡأَخۡسَرُونَ ۝ 4
(5) ये वे लोग हैं जिनके लिए बुरी सज़ा है6 और आख़िरत में यही सबसे ज़्यादा घाटे में रहनेवाले हैं
6. इस बुरी सज़ा की सूरत, वक़्त और जगह को तय नहीं किया गया है, क्योंकि यह इस दुनिया में भी अलग-अलग लोगों और गरोहों और क़ौमों को अनगिनत अलग-अलग तरीक़ों से मिलती है। इस दुनिया से रुख़सत होते वक़्त ठीक मौत के दरवाज़े पर भी इसका एक हिस्सा ज़ालिमों को पहुँचता है, मौत के बाद आलमे-बरज़ख़ (मौत और क़ियामत के बीच का वक़्त) में भी इससे आदमी दोचार होता है और फिर हश्र के दिन से तो इसका एक सिलसिला शुरू हो जाएगा जो फिर कहीं जाकर ख़त्म न होगा।
وَإِنَّكَ لَتُلَقَّى ٱلۡقُرۡءَانَ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ عَلِيمٍ ۝ 5
(6) और (ऐ नबी) बेशक तुम यह क़ुरआन एक हिकमतवाली और सब कुछ जाननेवाली हस्ती की तरफ़ से पा रहे हो।7
7. यानी यह कोई हवाई बातें नहीं हैं जो इस क़ुरआन में की जा रही हैं और न किसी इनसान के अन्दाज़े और राय पर इनकी बुनियाद है, बल्कि उन्हें एक हिकमतवाली और सब कुछ जाननेवाली हस्ती दिल में डाल रही है जो हिकमत और अक़्लमन्दी और इल्म व दानिश में मुकम्मल है, जिसे अपने पैदा किए हुओं की मस्लहतें और उनके माज़ी (अतीत), हाल (मौजूदा) और मुस्तक़बिल (भविष्य) का पूरा इल्म है और जिसकी हिकमत बन्दों के सुधार और हिदायत के लिए बेहतरीन तदबीरें अपनाती है।
إِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِأَهۡلِهِۦٓ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا سَـَٔاتِيكُم مِّنۡهَا بِخَبَرٍ أَوۡ ءَاتِيكُم بِشِهَابٖ قَبَسٖ لَّعَلَّكُمۡ تَصۡطَلُونَ ۝ 6
(7) (इन्हें उस वक़्त का क़िस्सा सुनाओ) जब मूसा ने अपने घरवालों से कहा8 कि “मुझे एक आग-सी नज़र आई है, मैं अभी या तो वहाँ से कोई ख़बर लेकर आता हूँ या कोई अंगारा चुन लाता हूँ ताकि तुम लोग गर्म हो सको।"9
8. यह उस वक़्त का क़िस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन में आठ-दस साल गुज़ारने के बाद अपने बाल-बच्चों को साथ लेकर कोई ठिकाना तलाश करने जा रहे थे। मदयन का इलाक़ा अक़बा की खाड़ी के किनारे अरब और जज़ीरा-नुमाए-सीना (प्रायद्वीप सीना) के समन्दरी तटों पर था (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-115) वहाँ से चलकर हज़रत मूसा जज़ीरा-नुमाए-सीना के दक्षिणी हिस्से में उस जगह पर पहुँचे जो अब सीना पहाड़ और जबले-मूसा कहलाता है और क़ुरआन उतरने के ज़माने में तूर के नाम से मशहूर था। इसी के दामन में वह वाक़िआ पेश आया जिसका यहाँ ज़िक्र हो रहा है। यहाँ जो क़िस्सा बयान किया जा रहा है उसकी तफ़सीलात इससे पहले सूरा-20 ता-हा (आयतें—9-24) में गुज़र चुकी हैं और आगे सूरा-28 क़सस (आयतें—29-42) में आ रही हैं।
9. बात के मौक़ा-महल से ज़ाहिर होता है कि यह रात का वक़्त और जाड़े का मौसम था और हज़रत मूसा (अलैहि०) एक अजनबी इलाक़े से गुज़र रहे थे, जिसकी उन्हें कुछ ज़्यादा जानकारी न थी। इसलिए उन्होंने अपने घरवालों से फ़रमाया कि मैं जाकर मालूम करता हूँ यह कौन-सी बस्ती है जहाँ आग जल रही है, आगे किधर किस रास्ते जाते हैं और कौन-कौन-सी बस्तियाँ क़रीब हैं। फिर भी अगर ये भी हमारी ही तरह कोई चलते-फिरते मुसाफ़िर हुए, जिनसे कोई मालूमात हासिल न हो सकीं, तो कम-से-कम मैं कुछ अंगारे ही ले आऊँगा, ताकि तुम लोग आग जलाकर कुछ गर्मी हासिल कर सको। यह मक़ाम जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने झाड़ी में आग लगी हुई देखी थी, तूर पहाड़ के दामन में समुद्र-तल से लगभग 5 हज़ार फ़ीट की बुलन्दी पर क़ायम है। यहाँ रोमी (रूमी) सल्तनत के पहले ईसाई बादशाह क़ुस्तनतीन ने 365 ई० के लगभग ज़माने में ठीक उस जगह पर एक कनीसा बनवा दिया था जहाँ यह वाक़िआ पेश आया था। इसके दो सौ साल बाद क़ैसर जस्टिनीन ने यहाँ एक बुत ख़ाना (Monastery) बनवाया जिसके अन्दर क़ुस्तनतीन के बनाए हुए कनीसा को भी शामिल कर लिया। ये बुतख़ाना और कनीसा दोनों आज तक मौजूद हैं और यूनानी गिरजाघर (Greek orthodox Church) के राहिबों का उनपर क़ब्ज़ा है। मैंने जनवरी 1960 ई० में इस जगह को देखा है।
فَلَمَّا جَآءَهَا نُودِيَ أَنۢ بُورِكَ مَن فِي ٱلنَّارِ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 7
(8) वहाँ जो पहुँचा तो आवाज़ आई10 कि “मुबारक है वह जो इस आग में है और जो इसके माहौल में है। पाक है अल्लाह, सब जहानवालों का परवरदिगार।11
10. सूरा-28 क़सस में है कि आवाज़ एक पेड़ से आ रही थीं, “मुबारक हिस्से में एक पेड़ से” (आयत-30) इससे जो सूरते-हाल समझ में आती है वह यह है कि घाटी के किनारे एक जगह में आग-सी लगी हुई थी, मगर न कुछ जल रहा था, न कोई धुआँ उठ रहा था और इस आग के अन्दर एक हरा-भरा पेड़ खड़ा था जिसपर से यकायक यह आवाज़ आनी शुरू हुई। यह एक अजीब मामला है जो नबियों और पैग़म्बरों (अलैहि०) के साथ पेश आता रहा है। नबी (सल्ल०) को जब पहली बार पैग़म्बरी दी गई तो हिरा नामक गुफा की तन्हाई में यकायक एक फ़रिश्ता आया और उसने अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना शुरू कर दिया। हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ भी यही सूरत पेश आई कि एक आदमी सफ़र करता हुआ एक जगह ठहरा है, दूर से आग देखकर रास्ता पूछने या अंगारा चुनने की गरज़ से आता है और अचानक सारे जहानों के रब अल्लाह की हर अन्दाज़े और गुमान से परे हस्ती उससे मुख़ातब हो जाती है। इन मौक़ों पर हक़ीक़त में एक ऐसी ग़ैर-मामूली कैफ़ियत बाहर में भी और नबी (अलैहि०) के मन में भी मौजूद होती है जिसकी वजह से उन्हें इस बात का यक़ीन हासिल हो जाता है कि यह किसी जिन्न या शैतान या ख़ुद उनके अपने ज़ेहन का कोई करिश्मा नहीं है, न उनके हवास कोई धोखा खा रहे हैं, बल्कि सचमुच यह अल्लाह तआला या उसका फ़रिश्ते ही है जो उनसे बात कर रहा है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-53 नज्म, हाशिया-10)
11. इस मौक़े पर 'सुब्हानल्लाह' कहने का मक़सद अस्ल में हज़रत मूसा (अलैहि०) को इस बात पर ख़बरदार करना था कि यह मामला इन्तिहाई दरजे की पाकीज़गी के साथ पेश आ रहा है। यानी ऐसा नहीं है कि सारे जहानों का रब अल्लाह उस पेड़ पर बैठा हो, या उसमें समा गया हो, या उसका नूर तुम्हारी देखने की क़ुव्वत में समा गया हो, या कोई ज़बान किसी मुँह में हरकत करके यहाँ बात कर रही हो, बल्कि उन तमाम महदूदियतों (सीमाओं) से पाक और परे होते हुए वह ख़ुद तुमसे बात कर रहा है।
يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّهُۥٓ أَنَا ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 8
(9) ऐ मूसा, यह मैं हूँ अल्लाह, ज़बरदस्त और हिकमतवाला।
وَأَلۡقِ عَصَاكَۚ فَلَمَّا رَءَاهَا تَهۡتَزُّ كَأَنَّهَا جَآنّٞ وَلَّىٰ مُدۡبِرٗا وَلَمۡ يُعَقِّبۡۚ يَٰمُوسَىٰ لَا تَخَفۡ إِنِّي لَا يَخَافُ لَدَيَّ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 9
(10) और फेंक तो ज़रा अपनी लाठी।” ज्यों ही कि मूसा ने देखा लाठी साँप की तरह बल खा रही है12 तो पीठ फेरकर भागा और पीछे मुड़कर भी न देखा। “ऐ मूसा, डरो नहीं। मेरे सामने रसूल डरा नहीं करते,13
12. सूरा-7 आराफ़ और सूरा-26 शुअरा में इसके लिए 'सुअबान’ (अजगर) का लफ़्ज इस्तेमाल किया गया है और यहाँ उसके लिए 'जान’ का लफ़्ज़ आया है जो छोटे साँप के लिए बोला जाता है। इसकी वजह यह है कि डील-डौल में बह अजगर था, मगर उसकी हरकत की तेज़ी एक छोटे साँप जैसी थी। इसी मतलब को सूरा-20 ता-हा में ‘हय्यतुन-तसआ’ (दौड़ते हुए साँप) के अलफ़ाज़ में अदा किया गया है।
13. यानी मेरे सामने इस बात का कोई ख़तरा नहीं है कि रसूल (पैग़म्बर) को कोई तकलीफ़ पहुँचे रिसालत (पैग़म्बरी) के बड़े मंसब पर मुक़र्रर करने के लिए जब मैं किसी को अपनी पेशी में बुलाता हूँ तो उसकी हिफ़ाज़त का ख़ुद ज़िम्मेदार होता हूँ। इसलिए चाहे कैसा ही कोई ग़ैर-मामूली मामला पेश आए रसूल को निडर और मुत्मइन रहना चाहिए कि उसके लिए वह किसी तरह नुक़सानदेह न होगा।
إِلَّا مَن ظَلَمَ ثُمَّ بَدَّلَ حُسۡنَۢا بَعۡدَ سُوٓءٖ فَإِنِّي غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 10
(11) सिवाय यह कि किसी ने क़ुसूर किया हो।14 फिर अगर बुराई के बाद उसने भलाई से (अपनी करनी को) बदल लिया तो मैं माफ़ करनेवाला मेहरबान हूँ।15
14. इसका एक मतलब यह होगा कि डर की मुनासिब वजह अगर हो सकती है तो यह कि रसूल से कोई क़ुसूर हो गया हो और दूसरा मतलब यह होगा कि मेरे सामने तो किसी को भी कोई ख़तरा नहीं है, जब तक कि आदमी क़ुसूरवार न हो।
15. यानी क़ुसूर करनेवाला भी अगर तौबा करके अपने रवैये को सुधार ले और बुरे काम के बजाय अच्छे काम करने लगे तो ख़ुदा के यहाँ उसके लिए माफ़ी का दरवाज़ा खुला है। इस मौक़े पर यह बात कहने का मक़सद एक चेतावनी भी थी और ख़ुशख़बरी भी। हज़रत मूसा (अलैहि०) बे-इरादा एक क़िब्ती को क़त्ल करके मिस्र से निकले थे। यह एक क़ुसूर था जिसकी तरफ़ हलका-सा इशारा कर दिया गया। फिर जिस वक़्त यह क़ुसूर अचानक बे-इरादा उनसे हो गया था उसके बाद फ़ौरन ही उन्होंने अल्लाह तआला से माफ़ी माँग ली थी कि “ऐ परवरदिगार, मैं अपने आपपर ज़ुल्म कर गुज़रा, मुझे माफ़ कर दे।” और अल्लाह तआला ने उसी वक़्त उन्हें माफ़ भी कर दिया था (सूरा-28 क़सस, आयत-16)। अब यहाँ उसी माफ़ी की ख़ुशख़बरी उन्हें दी गई है। मानो मतलब इस तक़रीर का यह हुआ कि ऐ मूसा, मेरे सामने तुम्हारे लिए डरने की एक वजह तो ज़रूर हो सकती थी; क्योंकि तुमसे एक क़ुसूर हो गया था, लेकिन जब तुम इस बुराई को भलाई से बदल चुके हो तो मेरे पास तुम्हारे लिए अब मग़फ़िरत और रहमत के सिवा कुछ नहीं है। कोई सज़ा देने के लिए इस वक़्त मैंने तुम्हें नहीं बुलाया है, बल्कि बड़े-बड़े मोजिज़े (चमत्कार) देकर मैं तुम्हें एक बड़े काम पर भेजनेवाला हूँ।
وَأَدۡخِلۡ يَدَكَ فِي جَيۡبِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٖۖ فِي تِسۡعِ ءَايَٰتٍ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَقَوۡمِهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 11
(12) और ज़रा अपना हाथ अपने गरीबान में तो डालो। चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी तकलीफ़ के। ये (दो निशानियाँ) नौ निशानियों में से हैं फ़िरऔन और उसकी क़ौम की तरफ़ (ले जाने के लिए16)। ये बड़े बदकिरदार लोग हैं।"
16. सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-101 में कहा गया है कि मूसा को हमने खुले तौर पर नज़र आनेवाली नौ निशानियाँ दी थीं और सूरा-7 आराफ़, आयतें—107, 108, 119, 120, 130 और 133 में उनकी तफ़सील यह बयान की गई है— (1) लाठी जो अजगर बन जाती थी, ( 2 ) हाथ जो बग़ल से सूरज की तरह चमकता हुआ निकलता था, (3) जादूगरों को सबके सामने हरा देना, (4) हज़रत मूसा (अलैहि०) के पहले से किए हुए एलान के मुताबिक़ सारे देश में अकाल,(5) तूफ़ान, (6) टिड्डी दल, (7) तमाम अनाज के भण्डारों में सुरसुरियाँ और इनसान और जानवर सबमें जूएँ, (8) मेंढकों का तूफ़ान (9) और ख़ून की बारिश। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-1; सूरा-43 जुख़रुफ़, हाशिया-43)।
فَلَمَّا جَآءَتۡهُمۡ ءَايَٰتُنَا مُبۡصِرَةٗ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 12
(13) मगर जब हमारी खुली-खुली निशानियाँ उन लोगों के सामने आईं तो उन्होंने कहा कि यह तो खुला जादू है।
وَجَحَدُواْ بِهَا وَٱسۡتَيۡقَنَتۡهَآ أَنفُسُهُمۡ ظُلۡمٗا وَعُلُوّٗاۚ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 13
(14) उन्होंने सरासर ज़ूल्म और घमण्ड की राह से उन निशानियों का इनकार किया, हालाँकि दिल उनके मान चुके थे।17 अब देख लो कि उन बिगाड़ पैदा करनेवालों का अंजाम कैसा हुआ।
17. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर बयान किया गया है कि जब मूसा (अलैहि०) के एलान के मुताबिक़ कोई आम बला मिस्र पर टूट पड़ती थी तो फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) से कहता या कि तुम अपने ख़ुदा से दुआ करके इस बला को टलवा दो, फिर जो कुछ तुम कहते हो वह हम मान लेंगे। मगर जब वह बला टल जाती थी तो फ़िरऔन अपनी उसी हठधर्मी पर तुल जाता था (सूरा-7 आराफ़, आयत-134; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयतें—49-50)। बाइबल में भी इसका ज़िक्र मौजूद है (निष्कासन, अध्याय-8-10) और वैसे भी यह बात किसी तरह नहीं सोची जा सकती थी कि एक पूरे देश पर अकाल और तूफ़ान और टिड्डी दलों का टूट पड़ना और मेंढकों और सुरसुरियों के अनगिनत लश्करों का उमड़ आना किसी जादू का करिश्मा हो सकता है। यह ऐसे खुले हुए मोजिज़े थे जिनको देखकर एक बेवक़ूफ़-से-बेवक़ूफ़ आदमी भी यह समझ सकता था कि पैग़म्बर के कहने पर देश भर में ऐसी बलाओं का आना और फिर उसके कहने पर उनका दूर हो जाना सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह ही के करने से हो सकता है। इसी वजह से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन से साफ़-साफ़ कह दिया था कि “तू ख़ूब जान चुका है कि ये निशानियाँ ज़मीन आसमान के मालिक के सिवा और किसी ने नहीं उतारी हैं।” (सुरा-17 बनी-इसराईल आयत-102) लेकिन जिस वजह से फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों ने जान-बूझकर उनका इनकार किया वह यह थी कि “क्या हम अपने ही जैसे दो आदमियों की बात मान लें, हालाँकि उनकी क़ौम हमारी ग़ुलाम है? (सूरा-23 मोमिनून, आयत-47)
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ عِلۡمٗاۖ وَقَالَا ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي فَضَّلَنَا عَلَىٰ كَثِيرٖ مِّنۡ عِبَادِهِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 14
(15) (दूसरी तरफ़) हमने दाऊद और सुलैमान को इल्म अता किया18 और उन्होंने कहा कि शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमको अपने बहुत-से ईमानवाले बन्दों पर बड़ाई दी।19
18. यानी हक़ीक़त का इल्म। इस बात का इल्म कि अस्ल में उनके पास अपना कुछ भी नहीं है, जो कुछ है अल्लाह का दिया हुआ है और उसे इस्तेमाल करने के जो अधिकार भी उनको दिए गए हैं उन्हें अल्लाह ही की मरज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इस इख़्तियार के सही और ग़लत इस्तेमाल पर उन्हें अस्ल मालिक के सामने जवाबदेही करनी है। यह इल्म उस जहालत के उलट है जिसमें फ़िरऔन मुब्तला था। उस जहालत ने जो किरदार तैयार किया था, उसका नमूना ऊपर बयान हुआ। अब बताया जाता है कि यह इल्म कैसे किरदार का नमूना तैयार करता है। बादशाही, दौलत, शानो-शौकत, दोनों तरफ़ बराबर है। फ़िरऔन को भी यह मिली थी और दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) को भी। लेकिन जहालत और इल्म के फ़र्क़ ने उनके बीच कितना बड़ा फ़र्क़ पैदा कर दिया।
19. यानी दूसरे ईमानवाले बन्दे भी ऐसे मौजूद थे जिनको ख़िलाफ़त दी जा सकती थी। लेकिन यह हमारी कोई निजी ख़ूबी नहीं, बल्कि सिर्फ़ अल्लाह का एहसान है कि उसने हमें इस सल्तनत पर हुकूमत करने के लिए चुना।
وَوَرِثَ سُلَيۡمَٰنُ دَاوُۥدَۖ وَقَالَ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ عُلِّمۡنَا مَنطِقَ ٱلطَّيۡرِ وَأُوتِينَا مِن كُلِّ شَيۡءٍۖ إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 15
(16) और दाऊद का वारिस सुलैमान हुआ।20 और उसने कहा, “लोगो, हमें परिन्दों की बोलियाँ सिखाई गई हैं21 और हमें हर तरह की चीज़ें दी गई हैं,22 बेशक यह (अल्लाह की) नुमायाँ मेहरबानी है।”
20. विरासत से मुराद माल और जायदाद की विरासत नहीं, बल्कि नुबूवत (पैग़म्बरी) और खिलाफ़त में हज़रत दाऊद (अलैहि०) की जानशीनी है। माल-जायदाद की विरासत अगर मान लो कि एक से दूसरे को मिली भी तो वह अकेले हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ही को नहीं मिल सकती थी, क्योंकि हज़रत दाऊद (अलैहि०) की दूसरी औलाद भी मौजूद थी। इसलिए आयत को उस हदीस के रद्द में नहीं पेश किया जा सकता जो नबी (सल्ल०) से रिवायत है कि “हम नबियों की विरासत नहीं बँटती, जो कुछ हमने छोड़ा वह सदक़ा है।” (हदीस : बुख़ारी) और “नबी का वारिस कोई नहीं होता, जो कुछ छोड़ता है वह मुसलमानों के ग़रीबों और मिस्कीनों में बाँट दिया जाता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की रिवायतों में से, हदीस नम्बर 60 और 78) हज़रत सुलैमान (अलैहि०) हज़रत दाऊद (अलैहि०) के सबसे छोटे बेटे थे। उनका अस्ल इबरानी नाम 'सोलोमोन’ था जिसका मतलब भी वही है जो सलीम का है यानी अच्छी तबीअत का। 965 ई० पू० में हज़रत दाऊद (अलैहि०) के जानशीन हुए और 926 ई० पू० तक लगभग 10 साल हुकूमत करते रहे। उनके हालात की तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिया-7; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—74-75। उनकी सल्तनत की हदों को क़ुरआन के कुछ आलिमों ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया है। वह उन्हें दुनिया के बहुत बड़े हिस्से का हुक्मराँ बताते हैं, हालाँकि उनकी सल्तन में सिर्फ़ मौजूदा फ़िलस्तीन और पूर्वी जॉर्डन शामिल थे और शाम (सीरिया) का एक हिस्सा भी उसमें शामिल था।
21. बाइबल इस ज़िक्र से ख़ाली है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को परिन्दों और जानवरों की बोलियों का इल्म दिया गया था लेकिन बनी-इसराईल की रिवायतों में इसका ज़िक्र मिलता है। (जेविश इंसाइक्लोपीडिया, हिस्सा-11, पेज-439)
22. यानी अल्लाह का दिया हमारे पास सब कुछ मौजूद है। इस बात को लफ़्ज़ी मानी में लेना दुरुस्त नहीं है, बल्कि इससे मुराद अल्लाह के दिए हुए माल-दौलत और साज़ो-सामान की बहुतायत है। यह बात हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने फ़ख़्र के साथ नहीं कही थी, बल्कि इसका मक़सद अल्लाह की मेहरबानी और उसकी देन का शुक्रिया अदा करना था।
وَحُشِرَ لِسُلَيۡمَٰنَ جُنُودُهُۥ مِنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ وَٱلطَّيۡرِ فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 16
(17) सुलैमान के लिए जिन्न और इनसानों और परिन्दों के लश्कर इकट्ठे किए गए थे23 और वे पूरे कंट्रोल (क़ाबू) में रखे जाते थे।
23. बाइबल में इसका भी कोई ज़िक्र नहीं है कि जिन्न हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लश्करों में शामिल थे और वे उनसे काम लेते थे। लेकिन तलमूद और रिब्बियों की रिवायतों में इसका तफ़सीली ज़िक्र मिलता है। (जेविश इंसाइक्लोपीडिया, हिस्सा-11, पेज-440) मौजूदा ज़माने के कुछ लोगों ने यह साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया है कि 'जिन्न' और 'तैर' से मुराद जिन्नात और परिन्दे नहीं हैं, बल्कि इनसान ही हैं जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लश्कर में तरह-तरह के काम करते थे। वे कहते हैं कि जिन्न से मुराद पहाड़ी क़बीलों के वे लोग हैं जिन्हें हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपने मातहत कर लिया था और वे उनके यहाँ हैरत-अंगेज़ ताक़त और मेहनत के काम करते थे और तैर से मुराद घुड़सवारों के दस्ते हैं जो पैदल दस्तों के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा तेज़ी से आ-जा सकते थे लेकिन ये क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ को ग़लत मानी में लेने की सबसे ज़्यादा बुरी मिसालें हैं। क़ुरआन यहाँ जिन्न, इंस और तैर, तीन अलग तरह के लश्कर बयान कर रहा है और तीनों पर ‘अलिफ़ लाम’ (अल) चीज़ की जाति बताने के लिए लाया गया है। इसलिए किसी भी तरह अल-जिन्न और अत-तैर अल-इंस में शामिल नहीं हो सकते, बल्कि वे इससे अलग दो अलग जातियाँ हो सकती हैं। इसके अलावा कोई शख़्स, जो अरबी ज़बान की थोड़ी भी जानकारी रखता हो, यह सोच भी नहीं सकता कि इस ज़बान में सिर्फ़ लफ़्ज़ 'अल-जिन्न’ बोलकर इनसानों का कोई गरोह, या सिर्फ़ अत-तैर बोलकर सवारों का दस्ता कभी मुराद लिया जा सकता है और कोई अरब इन अलफ़ाज़ को सुनकर उनका यह मतलब समझ सकता है। सिर्फ़ मुहावरे में किसी इनसान को उसकी आम आदत से बढ़कर काम की वजह से जिन्न, या किसी औरत को उसकी ख़ूबसूरती की वजह से परी और किसी तेज़ रफ़्तार आदमी को परिन्दा कह देना यह मानी नहीं रखता कि अब जिन्न का मतलब ताक़तवर आदमी और परी का मतलब ख़ूबसूरत औरत और परिन्दे का मतलब तेज़ रफ़्तार इनसान ही हो जाए। इन अलफ़ाज़ के ये मानी तो अलामती हैं न कि हक़ीक़ी और किसी कलाम में किसी लफ़्ज़ को हक़ीक़ी मानी छोड़कर अलामती मानी में सिर्फ़ उसी हालत में इस्तेमाल किया जाता है और सुननेवाले भी उनको अलामती मानी में सिर्फ़ उसी वक़्त ले सकते हैं जबकि आसपास कोई वाज़ेह इशारा ऐसा मौजूद हो जो उसके अलामती होने की दलील दे रहा हो। यहाँ आख़िर कौन-सा इशारा पाया जाता है जिससे यह गुमान किया जा सके कि जिन्न और तैर के अलफ़ाज़ अपने हक़ीक़ी मानी में नहीं, बल्कि अलामती मानी में इस्तेमाल किए गए हैं? बल्कि आगे इन दोनों गरोहों के एक-एक शख़्स का जो हाल और काम बयान किया गया है वह तो इस मतलब के बिलकुल ख़िलाफ़ मानी की खुली दलील दे रहा है। किसी शख़्स का दिल अगर क़ुरआन की बात पर यक़ीन न करना चाहता हो तो उसे साफ़ कहना चाहिए कि में इस बात को नहीं मानता। लेकिन यह बड़ी अख़लाक़ी बुज़दिली और इल्मी ख़ियानत (बेईमानी) है कि आदमी क़ुरआन के साफ़-साफ़ अलफ़ाज़ को तोड़-मरोड़कर अपने मनमाने मानी में ढाले और यह ज़ाहिर करे कि क़ुरआन के बयान को मानता है, हालाँकि अस्ल में क़ुरआन ने जो कुछ बयान किया है वह उसे नहीं, बल्कि ख़ुद अपने ज़बरदस्ती के गढ़े हुए मतलब को मानता है।
حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَوۡاْ عَلَىٰ وَادِ ٱلنَّمۡلِ قَالَتۡ نَمۡلَةٞ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّمۡلُ ٱدۡخُلُواْ مَسَٰكِنَكُمۡ لَا يَحۡطِمَنَّكُمۡ سُلَيۡمَٰنُ وَجُنُودُهُۥ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 17
(18) (एक बार वह उनके साथ कूच कर रहा था), यहाँ तक कि जब ये सब चीटियों की घाटी में पहुँचे तो एक चींटी ने कहा, “ऐ चींटियो, अपने बिलों में घुस जाओ, कहीं ऐसा न हो कि सुलैमान और उसके लश्कर तुम्हें कुचल डालें और उन्हें ख़बर भी न हो।”24
24. इस आयत को भी आजकल के कुछ क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों ने मनमाने मतलब दे रखे हैं। वे कहते हैं कि 'वादिन-नम्ल' से मुराद चींटियों की घाटी नहीं है, बल्कि यह एक घाटी का नाम है जो शाम (सीरिया) के इलाक़े में थी और 'नमला' का मतलब एक चीटी नहीं, बल्कि यह एक क़बीले का नाम है। इस तरह वे आयत का मतलब यह बयान करते हैं कि “जब हज़रत सुलैमान वादिन-नम्ल में पहुँचे तो एक नम्ली ने कहा कि ऐ नम्ल क़बीले के लोगो.....” लेकिन यह भी ऐसा मतलब है जिसका साथ क़ुरआन के अलफ़ाज़़ नहीं देते। अगर वादिन-नम्ल को उस घाटी का नाम मान भी लिया जाए और यह भी मान लिया जाए कि वहाँ बनी-नम्ल नाम का कोई क़बीला रहता था, तब भी यह बात अरबी ज़बान के इस्तेमाल के बिलकुल खिलाफ़ है कि नम्ल क़बीले के एक शख़्स को नमला कहा जाए। अगरचे वहाँ जानवरों के नाम पर बहुत-से क़बीलों के नाम हैं, मसलन कल्ब, असद वग़ैरा। लेकिन कोई अरब कल्ब क़बीले के किसी शख़्स के बारे में “क़ा-ल कल्बुन” (एक कुत्ते ने यह कहा) या असद क़बीले के किसी आदमी के बारे में “क़ा-ल असदुन” (एक शेर ने कहा) हरगिज़ नहीं बोलेगा इसलिए बनी-नम्ल के एक शख़्स के बारे में यह कहना कि “क़ालत नम्लतुन” (एक चींटी बोली) अरबी मुहावरे और इस्तेमाल के बिलकुल खिलाफ़ है। फिर क़बीला नम्ल के एक शख़्स का बनी-नम्ल को पुकारकर यह कहना कि “ऐ नम्लियो, अपने घरों में घुस जाओ। कहीं ऐसा न हो कि सुलैमान के लश्कर तुमको कुचल डालें और उनको ख़बर भी न हो,” बिलकुल बेमतलब बात है। इनसानों के किसी गरोह को इनसानों का कोई लश्कर बेख़बरी में नहीं कुचला करता। अगर वह उनपर हमले की नीयत से आया हो तो उनका अपने घरों में घुस जाना बेनतीजा है। हमलावर उनके घरों में घुसकर उन्हें और ज़्यादा अच्छी तरह कुचलेंगे और अगर वह सिर्फ़ कूच करता हुआ गुज़र रहा हो तो उसके लिए बस रास्ता साफ़ छोड़ देना काफ़ी है। कूच करनेवालों की लपेट में आकर इनसानों को नुक़सान तो पहुँच सकता है, मगर यह नहीं हो सकता कि चलते हुए इनसान बेख़बरी में इनसानों को कुचल डालें। लिहाज़ा अगर बनी-नम्ल कोई इनसानी क़बीला होता और उसका कोई आदमी अपने क़बीले के लोगों को ख़बरदार करना चाहता तो हमले के ख़तरे की सूरत में वह कहता कि “ऐ नम्लियो, भाग चलो और पहाड़ों में चलकर पनाह लो ताकि सुलैमान के लश्कर तुम्हें तबाह न कर दें।” और हमले का ख़तरा न होने की सूरत में वह कहता कि “ऐ नम्लियो, रास्ते से हट जाओ ताकि तुममें से कोई शख़्स सुलैमान के लश्करों की चपेट में न आ जाए।" यह तो वह ग़लती है जो इस मतलब में अरबी ज़बान और मौक़ा-महल के एतिबार से है। रही यह बात कि वादिन-नम्ल अस्ल में उस घाटी का नाम था और यहाँ बनी-नम्ल नाम का कोई क़बीला रहता या, यह सिर्फ़ एक गढ़ी हुई बात है जिसके लिए कोई इल्मी सुबूत मौजूद नहीं है। जिन लोगों ने उसे घाटी का नाम ठहराया है, उन्होंने ख़ुद यह बयान किया है कि उसे यह नाम इसलिए दिया गया था कि वहाँ चीटियाँ बहुत बड़ी तादाद में पाई जाती थीं। क़तादा और मुक़ातिल कहते हैं कि “वह एक घाटी है शाम (सीरिया) की सरज़मीन में जहाँ चीटियाँ बहुत हैं। लेकिन तारीख़ (इतिहास) और जुग़राफ़रिया (भूगोल) की किसी किताब में और आसारे-क़दीमा (पुरातत्व विभाग) की किसी खोज में यह ज़िक्र नहीं है कि इस घाटी में बनी-नम्ल नाम का कोई क़बीला भी रहता था। यह सिर्फ़ एक मनगढ़न्त है जो अपने मनमाने मतलब की गाड़ी चलाने के लिए रच ली गई है। बनी-इसराईल की रिवायतों में भी यह क़िस्सा पाया जाता है, मगर उसका आख़िरी हिस्सा क़ुरआन के ख़िलाफ़ है और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की शान के भी ख़िलाफ़ है। उसमें यह बयान किया गया है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) जब एक घाटी से गुज़र रहे थे जिसमें चीटियाँ बहुत थीं तो उन्होंने सुना कि एक चींटी पुकारकर दूसरी चीटियों से कह रही है कि “अपने घरों में दाख़िल हो जाओ वरना सुलैमान के लश्कर तुम्हें कुचल डालेंगे।” इसपर हज़रत सुलैमान ने चींटी के सामने बड़े घमण्ड का इज़हार किया और जवाब में उस चीटी ने उनसे कहा कि तुम्हारी हक़ीक़त क्या है, एक मामूली बूँद से तो तुम पैदा हुए हो। यह सुनकर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) शर्मिन्दा हो गए। (जेविश इंसाइक्लोपीडिया, हिस्सा-11, पेज-440) इससे अन्दाज़ा होता है कि क़ुरआन किस तरह बनी-इसराईल की ग़लत रिवायतों को सुधारता है और उन गन्दगियों को साफ़ करता है जो उन्होंने ख़ुद अपने पैग़म्बरों की सीरतों पर डाल दी थीं। इन रिवायतो के बारे में मग़रिब के इस्लाम-मुख़ालिफ़ अहले-इल्म (विद्वान) बेशर्मी के साथ यह दावा करते हैं कि क़ुरआन ने सब कुछ उनसे चुरा लिया है। अक़्ली हैसियत से यह बात कुछ भी मुश्किल नहीं कि एक चींटी अपनी जाति के लोगों को किसी आते हुए ख़तरे से ख़बरदार करे और बिलों में घुस जाने के लिए कहे। रही यह बात कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने उसकी बात कैसे सुन ली, तो जिस शख़्स के हवास (इन्द्रियाँ) वह्य के कलाम जैसी लतीफ़ (सूक्ष्म) चीज़ को महसूस कर सकते हों, उसके लिए चींटी के कलाम जैसी चीज़ का महसूस कर लेना कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है।
فَتَبَسَّمَ ضَاحِكٗا مِّن قَوۡلِهَا وَقَالَ رَبِّ أَوۡزِعۡنِيٓ أَنۡ أَشۡكُرَ نِعۡمَتَكَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَٰلِدَيَّ وَأَنۡ أَعۡمَلَ صَٰلِحٗا تَرۡضَىٰهُ وَأَدۡخِلۡنِي بِرَحۡمَتِكَ فِي عِبَادِكَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 18
(19) सुलैमान उसकी बात पर मुस्कराते हुए हँस पड़ा और बोला, “ऐ मेरे रब, मुझे क़ाबू में रख25 कि मैं तेरे उस एहसान का शुक्र अदा करता रहूँ जो तूने मुझपर और मेरे माँ-बाप पर किया है और ऐसा भला काम करूँ जो तुझे पसन्द आए और अपनी रहमत से मुझको अपने नेक बन्दों में दाख़िल कर।"26
25. अस्ल अरबी अलफ़ाज़़ हैं “रब्बि अवज़िअनी"। 'व-ज़-अ’ का अस्ल मतलब अरबी जबान में रोकना है। इस मौक़े पर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का यह कहना कि “मुझे रोक कि मैं तेरे एहसान का शुक्र अदा करूँ” हमारे नज़दीक अस्ल में यह मानी देता है कि ऐे मेरे रब, जो अज़ीमुश्शान ताक़तें और क़ाबिलियतें तुने मुझे दी हैं वे ऐसी हैं कि अगर मैं ज़रा-सी लापरवाही में पड़ जाऊँ तो बन्दगी के दायरे से निकलकर अपनी बड़ाई के पागलपन में न जाने कहाँ-से-कहाँ निकल जाऊँ। इसलिए ऐ मेरे परवरदिगार, तू मुझे क़ाबू में रख ताकि मैं नाशुक्रा बनने के बजाय नेमत का शुक्र अदा करने पर क़ायम रहूँ।
26. नेक बन्दों में दाख़िल करने से मुराद शायद यह है कि आख़िरत में मेरा अंजाम नेक बन्दों के साथ हो और मैं उनके साथ जन्नत में दाख़िल होऊँ। इसलिए कि आदमी जब अच्छे काम करेगा तो नेक तो वह आप-से-आप होगा ही, अलबत्ता आख़िरत में किसी का जन्नत में दाख़िल होना सिर्फ़ उसके अच्छे काम के बल-बूते पर नहीं हो सकता, बल्कि इसका दारोमदार अल्लाह की रहमत पर है। हदीस में आया है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “तुममें से किसी को भी सिर्फ़ उसका अमल जन्नत में नहीं पहुँचा देगा। पूछा गया, जो अल्लाह के रसूल, क्या आपके साथ भी यही मामला है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ, मैं भी सिर्फ़ अपने अमल के बल-बूते पर जन्नत में न चला जाऊँगा जब तक कि अल्लाह तआला अपनी रहमत से मुझे न ढाँक ले।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की यह दुआ इस मौक़े पर बिलकुल बेमौक़ा हो जाती है अगर 'अन-नम्ल' से मुराद कोई इनसानी क़बीला ले लिया जाए और 'नम्ला' का मतलब नम्ल क़बीले का एक शख़्स समझा जाए। एक बादशाह के बहुत बड़े लश्कर से डरकर किसी इनसानी क़बीले के एक आदमी का अपने क़बीले को ख़तरे से ख़बरदार करना आख़िर कौन-सी ऐसी ग़ैर-मामूली बात है कि वह इतना बड़ा बादशाह इसपर ख़ुदा से यह दुआ करने लगे। अलबत्ता एक शख़्स को महसूस करने की इतनी ज़बरदस्त ताक़त का हासिल होना कि वह दूर से एक चींटी की आवाज़ भी सुन ले और उसका मतलब समझ जाए, ज़रूर ऐसी बात है जिससे आदमी के घमण्ड में पड़ जाने का ख़तरा हो। इसी सूरत में हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की यह दुआ मौक़ा-महल के मुताबिक़ हो सकती है।
وَتَفَقَّدَ ٱلطَّيۡرَ فَقَالَ مَالِيَ لَآ أَرَى ٱلۡهُدۡهُدَ أَمۡ كَانَ مِنَ ٱلۡغَآئِبِينَ ۝ 19
(20) (एक और मौक़े पर) सुलैमान ने परिन्दों का जाइज़ा लिया27 और कहा, “क्या बात है कि मैं फ़ुलाँ हुदहुद को नहीं देख रहा हूँ। क्या वह कहीं ग़ायब हो गया है?
27. यानी उन परिन्दों का जिनके बारे में ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि जिन्नों और इनसानों की तरह उनके लश्कर भी हज़रत सुलैमान की फ़ौज में शामिल थे।
لَأُعَذِّبَنَّهُۥ عَذَابٗا شَدِيدًا أَوۡ لَأَاْذۡبَحَنَّهُۥٓ أَوۡ لَيَأۡتِيَنِّي بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 20
(21) में उसे सख़्त सज़ा दूँगा, या उसे ज़ब्ह कर दूँगा, वरना उसे मेरे सामने मुनासिब वजह पेश करनी होगी।28
28. मौजूदा ज़माने के कुछ लोग कहते हैं कि हुदहुद से मुराद वह परिन्दा नहीं है जो अरबी और उर्दू ज़बान में इस नाम से (और हिन्दी में नीलकण्ठ के नाम से) जाना जाता है, बल्कि यह एक आदमी का नाम है जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की फ़ौज में एक अफ़सर था। इस दावे की बुनियाद यह नहीं है कि इतिहास में कहीं हुदहुद नाम का कोई शख़्स इन लोगों को सुलैमान (अलैहि०) की हुकूमत के अफ़सरों की लिस्ट में मिल गया है, बल्कि यह इमारत सिर्फ़ इस दलील की बुनियाद पर खड़ी की गई है कि जानवरों के नामों पर इनसानों के नाम रखने का रिवाज तमाम ज़बानों की तरह अरबी ज़बान में भी पाया जाता है और इबरानी (हिब्रू) में भी था। इसके अलावा यह कि आगे उस हुदहुद का जो काम बयान किया गया है और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से उसकी बातचीत का जो ज़िक्र है वह उनके नज़दीक सिर्फ़ एक इनसान ही कर सकता है। लेकिन क़ुरआन मजीद के मौक़ा-महल को आदमी अगर देखे तो साफ़ मालूम होता है कि यह क़ुरआन की तफ़सीर नहीं, बल्कि उसमें फेर-बदल करना और उससे भी कुछ बढ़कर उसको ग़लत ठहराना है। आख़िर क़ुरआन को इनसान की अक़्ल और समझ से क्या दुश्मनी है कि वह कहना तो यह चाहता हो कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के फ़ौज़ी दस्ते या पलटन या ख़बर देनेवाले महकमे (सूचना-विभाग) का एक आदमी ग़ायब था जिसे उन्होंने तलाश किया और उसने हाज़िर होकर यह ख़बर दी और उसे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने इस काम पर भेजा, लेकिन वह इसे लगातार एक पेचीदा ज़बान में बयान करे कि पढ़नेवाला शुरू से आख़िर तक उसे परिन्दा ही समझने पर मजबूर हो। इस सिलसिले में ज़रा क़ुरआन मजीद के बयान की तरतीब को देखिए— पहले कहा जाता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अल्लाह की इस मेहरबानी पर शुक्र का इज़हार किया कि “हमें परिन्दों की बोली का इल्म दिया गया है।” इस जुमले में अव्वल तो ‘तैर’ का लफ़्ज जिस तरह आया है उसे हर अरबवासी और अरबी जाननेवाला परिन्दे ही के मानी में लेगा; क्योंकि कोई चीज़ उसके अलामती होने की दलील नहीं दे रही है। दूसरे, अगर तैर से मुराद परिन्दे नहीं, बल्कि इनसानों का कोई गरोह हो तो इसके लिए 'मन्तिक़' (बोली) के बजाय 'लुग़त' या 'लिसान' (ज़बान) का लफ़्ज ज़्यादा सही होता और फिर किसी शख़्स का किसी दूसरे इनसानी गरोह की ज़बान जानना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है कि वह ख़ास तौर पर उसका ज़िक्र करे। आज हमारे बीच हज़ारों आदमी बहुत-सी दूसरी ज़बानों के बोलने और समझनेवाले मौजूद हैं। यह आख़िर कौन-सा बड़ा कमाल है जिसे अल्लाह तआला की ग़ैर-मामूली देन कहा जा सके। इसके बाद फ़रमाया गया कि “सुलैमान के लिए जिन्न और इनसानों और परिन्दों के लश्कर इकट्ठे किए गए थे।” इस जुमले में अव्वल तो जिन्न और इंस और तैर (परिन्दे) तीन जानी-मानी चीज़ों के नाम इस्तेमाल हाते हैं, जो तीन अलग-अलग और जानी-मानी जातियों के लिए अरबी ज़बान में इस्तेमाल होते हैं। फिर इन्हें आज़ाद रूप से इस्तेमाल किया गया है और कोई इशारा उनमें से किसी के अलामती या मिसाल होने का मौजूद नहीं है जिससे एक आदमी लुग़त (शब्दकोश) के जाने-माने मानी के सिवा किसी और मानी में उन्हें ले। फिर इंस का लफ़्ज़ जिन्न और तैर के बीच आया है तो यह मानी लेने में साफ़ रुकावट है कि जिन्न और तैर अस्त में इंस (इनसान) ही की जाति के दो गरोह थे। यह मानी मुराद होते तो 'अल-जिन्नु वत-तैरु मिनल-इंसि' (इनसानों में से जिन्न और तैर) कहा जाता न कि 'मिनल- जिन्नि बल-इंसि वत-तैरि' (जिन्न और इंस और तैर में से)। आगे चलकर कहा जाता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) तैर (परिन्दे) का जाइज़ा ले रहे थे और हुदहुद को ग़ायब देखकर उन्होंने यह बात कही। अगर ये तैर इनसान थे और हुदहुद भी किसी आदमी का नाम ही था तो कम-से कम कोई लफ़्ज़ तो ऐसा कह दिया जाता कि बेचारा पढ़नेवाला उसको जानवर न समझ बैठता। गरोह का नाम परिन्दा और उसके एक शख़्स का नाम हुदहुद, फिर भी हमसे उम्मीद की जाती है कि हम आप-से-आप उसे इनसान समझ लेंगे। फिर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) फ़रमाते हैं कि हुदहुद या तो अपने ग़ायब होने की कोई सही वजह बयान करे वरना मैं उसे सख़्त सज़ा दूँगा या ज़बह कर दूँगा। इनसान को क़त्ल किया जाता है, फाँसी दी जाती है, सज़ा-ए-मौत दी जाती है, ज़ब्ह कौन करता है? कोई बड़ा ही पत्थरदिल और बेदर्द आदमी इन्तिक़ाम के जोश में अंधा हो चुका हो तो शायद किसी आदमी को ज़बह भी कर दे, मगर क्या पैग़म्बर से हम यह उम्मीद करें कि वह अपनी फ़ौज़ के एक आदमी को सिर्फ़ ग़ैर-हाज़िर (Deserter) होने के जुर्म में ज़ब्ह कर देने का एलान करेगा और अल्लाह मियाँ से यह ख़ुशगुमानी रखे कि वह ऐसी संगीन बात का ज़िक्र करके उसपर मलामत में एक लफ़्ज़ भी न कहेंगे? कुछ दूर आगे चलकर अभी आप देखेंगे कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) इसी हुदहुद को सबा की मलिका के नाम ख़त देकर भेजते हैं और फ़रमाते हैं कि इसे उनकी तरफ़ डाल दे या फेंक दे। ज़ाहिर है कि यह हिदायत परिन्दे को तो दी जा सकती है, लेकिन किसी आदमी को नुमाइन्दा या एलची या पैग़ाम ले जानेवाला बनाकर भेजने की हालत में यह इन्तिहाई नामुनासिब है। किसी की अक़्ल ही मारी गई हो तो वह मान लेगा कि एक देश का बादशाह दूसरे देश की रानी के नाम ख़त देकर अपने नुमाइन्दे को इस हिदायत के साथ भेज सकता है कि उसे ले जाकर उसके आगे डाल दे या उसकी तरफ़ फेंक दे। क्या तहज़ीब और आदाब के उस इब्तिदाई दरजे से भी हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को गिरा हुआ मान लिया जाए जिसका लिहाज़ हम जैसे मामूली लोग भी अपने किसी पड़ोसी के पास अपने नौकर को भेजते हुए रखते हैं? क्या कोई शरीफ़ आदमी अपने नौकर से यह कह सकता है कि मेरा यह ख़त ले जाकर फ़ुलाँ साहब के आगे फेंक आ? ये तमाम इशारे साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ हुदहुद का मतलब वही है जो लुग़त (शब्दकोश) के मुताबिक़ उसका मतलब है, यानी यह कि वह इनसान नहीं, बल्कि एक परिन्दा था। अब अगर कोई शख़्स यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि एक हुदहुद वे बातें कर सकता है जो क़ुरआन उसकी तरफ़ जोड़ रहा है तो उसे साफ़-साफ़ कहना चाहिए कि मैं क़ुरआन की इस बात को नहीं मानता। अपने न मानने को इस परदे में छिपाना कि क़ुरआन के साफ़-साफ़ अलफ़ाज़ में अपने मनमाने मानी भरे जाएँ, घटिया दरजे की मुनाफ़क़त (कपटाचार) है।
فَمَكَثَ غَيۡرَ بَعِيدٖ فَقَالَ أَحَطتُ بِمَا لَمۡ تُحِطۡ بِهِۦ وَجِئۡتُكَ مِن سَبَإِۭ بِنَبَإٖ يَقِينٍ ۝ 21
(22) कुछ ज़्यादा देर न गुज़री थी कि उसने आकर कहा,"मैंने ये मालूमात हासिल की हैं जो आपकी जानकारी में नहीं हैं। मैं सबा के बारे में पक्की ख़बर लेकर आया हूँ।29
29. सबा दक्षिणी अरब की मशहूर तिजारत-पेशा क़ौम थी जिसकी राजधानी मारिब, मौजूदा यमन की राजधानी सनआ से 55 मील पूरब-उत्तर की तरफ़ थी। उसकी तरक़्क़ी का ज़माना मईन की सल्तनत ख़त्म होने (पतन) के बाद लगभग 1100 ई० पू० से शुरू हुआ और एक हज़ार साल तक यह अरब में अपनी बड़ाई के डंके बजाती रही। फिर 115 ई०पू० में दक्षिणी अरब की दूसरी मशहूर क़ौम हमयर ने इसकी जगह ले ली। अरब में यमन और हज़रमौत और अफ़रीक़ा में हब्शा (इथोपिया) के इलाक़े पर इसका क़ब्ज़ा था। पूर्वी अफ़रीक़ा, भारत, सुदूर पूर्व और ख़ुद अरब की जितनी तिजारत मिस्र और शाम (सीरिया) और यूनान और रोम के साथ होती थी वह ज़्यादातर इन्हीं सबाइयों के हाथ में थी। इसी वजह से यह क़ौम पुराने ज़माने में अपनी दौलत के लिए बहुत मशहूर थी, बल्कि यूनानी इतिहासकार तो उसे दुनिया की सबसे ज़्यादा मालदार क़ौम कहते हैं। कारोबार के अलावा उनकी ख़ुशहाली की बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने अपने देश में जगह-जगह बाँध बनाकर पानी का बेहतरीन इन्तिज़ाम कर रखा था जिससे उनका पूरा इलाक़ा जन्नत बना हुआ था। उनके देश के इस ग़ैर-मामूली हरे-भरेपन का ज़िक्र यूनानी इतिहासकारों ने भी किया है और सूरा-34 सबा (आयतें—10-21) में क़ुरआन भी इसकी तरफ़ इशारा करता है। हुदहुद का यह बयान कि “मैंने वे मालूमात हासिल की हैं जो आपके इल्म में नहीं हैं” यह मतलब नहीं रखता कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) सबा से बिलकुल अनजान थे। ज़ाहिर है कि फ़िलस्तीन और शाम (सीरिया) के जिस बादशाह की हुकूमत लाल सागर के पूर्वी किनारे (अक़बा की खाड़ी) तक पहुँची हुई थी वह इसी लाल सागर के दक्षिणी किनारे (यमन) की एक ऐसी क़ौम से अनजान न हो सकता था जो बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) तिज़ारत के एक अहम हिस्से पर क़ब्ज़ा किए हुए थी। इसके अलावा ज़बूर से मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से भी पहले उनके बाप हज़रत दाऊद (अलैहि०) सबा को जानते थे। उनकी दुआ के ये अलफ़ाज़ ज़बूर में हमें मिलते हैं— "ऐ ख़ुदा, बादशाह (यानी ख़ुद हज़रत दाऊद) को अपने हुक्म और शहज़ादे (यानी हज़रत सुलैमान) को अपनी सच्चाई बता कर.... तरसीस और जज़ीरों के बादशाह भेंटें चढ़ाँगे। सबा और शैबा (यानी सबा की यमनी और हबशी शाखाओं) के बादशाह हदिये लाएँगे।" (72 : 1-2 और 10-11) इसलिए हुदहुद के कहने का मतलब यह मालूम होता है कि सबा क़ौम की राजधानी में आँखों से जो हालात में देखकर आया हूँ, वे अभी तक आपको नहीं पहुँचे हैं।
إِنِّي وَجَدتُّ ٱمۡرَأَةٗ تَمۡلِكُهُمۡ وَأُوتِيَتۡ مِن كُلِّ شَيۡءٖ وَلَهَا عَرۡشٌ عَظِيمٞ ۝ 22
(23) मैंने वहाँ एक औरत देखी जो उस क़ौम की हुक्मराँ है। उसको हर तरह का सरो-सामान दिया गया है और उसका तख़्त बड़ा ही शानदार हैं।
وَجَدتُّهَا وَقَوۡمَهَا يَسۡجُدُونَ لِلشَّمۡسِ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَصَدَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ فَهُمۡ لَا يَهۡتَدُونَ ۝ 23
(24) मैंने देखा कि वह और उसकी क़ौम अल्लाह के बजाय सूरज के आगे सजदा30 करती है।"—शैतान31 ने उनके आमाल उनके लिए लुभावने बना दिए32 और उन्हें सही रास्ते से रोक दिया, इस वजह से वे सीधा रास्ता नहीं पाते
30. इससे मालूम होता है कि यह क़ौम उस ज़माने में सूरज की पूजावाले मज़हब को माननेवाली थी। अरब की पुरानी रिवायतों से भी उसका यही मज़हब मालूम होता है। चुनाँचे इब्ने-इसहाक़ नसब (वंशावली) के माहिरों की यह बात नक़्ल करता है कि सबा की क़ौम अस्ल में एक पुराने और बड़े वारिस के नाम से जुड़ी है, जिसका नाम अब्दे-शम्स (सूरज का बन्दा या पुजारी) और लक़ब सबा था। बनी-इसराईल की रिवायतें भी इसी की ताईद करती हैं। उनमें बयान किया गया है कि हुदहुद जब हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का ख़त लेकर पहुँचा तो सबा की रानी सूरज देवता की पूजा के लिए जा रही थी। हुदहुद ने रास्ते ही में वह ख़त रानी के सामने फेंक दिया।
31. बात के अन्दाज़ से ऐसा महसूस होता है कि यहाँ से आख़िरी पैराग्राफ़ तक की इबारत हुदहुद की बात का हिस्सा नहीं है, बल्कि “सूरज के आगे सजदा करती है” पर उसकी बात ख़त्म हो गई और उसके बाद अब यह बात अल्लाह तआला की तरफ़ से उसपर बतौर इज़ाफ़ा है। इस अन्दाज़े को जो चीज़ मजबूत करती है वह यह जुमला है “और वह सब कुछ जानता है जिसे तुम छिपाते और ज़ाहिर करते हो।” इन अलफ़ाज़ से यह गुमान होता है कि बात करनेवाला हुदहुद नहीं है और बात हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और उनके दरबारियों से नहीं कही जा रही है, बल्कि बात करनेवाला अल्लाह तआला है और बात मक्का के मुशरिकों से की जा रही है जिनको नसीहत करने ही के लिए यह क़िस्सा सुनाया जा रहा है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों में से 'रुहुल-मआनी' के लेखक अल्लामा आलूसी भी इसी अन्दाज़े को तरजीह (प्राथमिकता) देते हैं।
32. यानी दुनिया की दौलत कमाने और अपनी ज़िन्दगी को ज़्यादा-से-ज़्यादा शानदार बनाने के जिस काम में ये लगे थे, शैतान ने उनको सुझा दिया कि बस यही अक़्ल और फ़िक्र ख़र्च करने का एक तरीक़ा और ज़ेहनी और जिस्मानी ताक़तों का एक इस्तेमाल है। इससे ज़्यादा किसी चीज़ पर संजीदगी के साथ ग़ौर करने की ज़रूरत ही नहीं है कि तुम ख़ाह-मख़ाह इस फ़िक्र में पड़ो कि दुनिया की इस ज़ाहिरी ज़िन्दगी के पीछे अस्ल हक़ीक़त क्या है और तुम्हारे मज़हब, अख़लाक़, तहज़ीब और निज़ामे-ज़िन्दगी (जीवन-व्यवस्था) की बुनियादें उस हक़ीक़त से मेल खाती हैं या सरासर उसके ख़िलाफ़ जा रही हैं। शैतान ने उनको मुत्मइन कर दिया कि जब तुम दुनिया में दौलत और ताक़त और शानो-शौकत के लिहाज़ से बढ़ते ही चले जा रहे हो तो फिर तुम्हें यह सोचने की ज़रूरत ही क्या है कि हमारे ये अक़ीदे और फ़लसफ़े और नज़रिए ठीक है या नहीं। इनके ठीक होने की तो यही एक दलील काफ़ी है कि तुम मज़े से दौलत कमा रहे हो और ऐश कर रहे हो।
أَلَّاۤ يَسۡجُدُواْۤ لِلَّهِ ٱلَّذِي يُخۡرِجُ ٱلۡخَبۡءَ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَيَعۡلَمُ مَا تُخۡفُونَ وَمَا تُعۡلِنُونَ ۝ 24
(25) कि उस ख़ुदा को सजदा करें जो आसमानों और ज़मीन की छिपी चीज़ें निकालता है33 और वह सब कुछ जानता है जिसे तुम लोग छिपाते और ज़ाहिर करते हो।34
33. यानी जो हर पल उन चीज़ों को ज़ाहिर कर रहा है जो पैदाइश से पहले न जाने कहाँ- कहाँ छिपी थीं। ज़मीन के पेट से हर पल अनगिनत पेड़-पौधे निकाल रहा है और तरह-तरह के मादनियात (खनिज पदार्थ) ख़ारिज कर रहा है। ऊपरी दुनिया की फ़ज़ाओं से वे-वे चीज़ें सामने ला रहा है जिनके सामने आने से पहले इनसान की सोच और गुमान भी उन तक न पहुँच सकता था।
34. यानी उसका इल्म (ज्ञान) हर चीज़ पर छाया हुआ है। उसके लिए खुले और छिपे सब एक जैसे हैं। उसपर सब कुछ ज़ाहिर है। अल्लाह तआला की इन दो सिफ़ात को नमूने के तौर पर बयान करने का मक़सद अस्ल में यह ज़ेहन में बिठाना है कि अगर वे लोग शैतान के धोखे में न आते तो यह सीधा रास्ता उन्हें साफ़ नज़र आ सकता था कि सूरज नाम का एक दहकता हुआ गोला, जो बेचारा ख़ुद अपने वुजूद का होश भी नहीं रखता, किसी इबादत का हक़दार नहीं है, बल्कि सिर्फ़ वह हस्ती इसका हक़ रखती है जो सब कुछ जाननेवाली और सबकी ख़बर रखनेवाली है और जिसकी क़ुदरत हर पल नए-नए करिश्मे ज़ाहिर कर रही है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ۩ ۝ 25
(26) अल्लाह कि जिसके सिवा कोई इबादत का हक़दार नहीं, जो बड़े अर्श (सिंहासन) का मालिक है।35
35. इस मक़ाम पर सजदा वाजिब (अनिवार्य) है। यह क़ुरआन के उन मक़ामात में से है जहाँ तिलावत का सजदा वाजिब होने पर सभी फ़क़ीह एक राय हैं। यहाँ सजदा करने का मक़सद यह है कि एक ईमानवाला अपने आपको सूरज के पुजारियों से अलग करे और अपने अमल से इस बात का इक़रार करे कि वह सूरज को नहीं, बल्कि सिर्फ़ अल्लाह तआला ही को सजदा करने के लायक़ और अपना माबूद मानता है।
أَلَّا تَعۡلُواْ عَلَيَّ وَأۡتُونِي مُسۡلِمِينَ ۝ 26
(31) मज़मून यह है कि “मेरे मुक़ाबले में सरकशी न करो और मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) होकर मेरे पास हाज़िर हो जाओ।”37
37. यानी ख़त की अहमियत कई वजहों से है। एक यह कि वह अजीब ग़ैर-मामूली तरीक़े से आया है। बजाय इसके कि कोई नुमाइन्दा उसे लाकर देता, एक परिन्दे ने उसे लाकर मुझपर टपका दिया है। दूसरा यह कि वह फ़िलस्तीन और शाम (सीरिया) के अज़ीम बादशाह सुलैमान (अलैहि०) की तरफ़ से है। तीसरा यह कि उसे अल्लाह रहमान और रहीम के नाम से शुरू किया गया है, हालाँकि दुनिया में कहीं किसी सल्तनत के ख़तों में यह तरीक़ा इस्तेमाल नहीं किया जाता। फिर सब देवताओं को छोड़कर सिर्फ़ बुज़ुर्ग और बरतर ख़ुदा के नाम पर ख़त लिखना भी हमारी दुनिया में एक ग़ैर-मामूली बात है। इन सब बातों के साथ यह चीज़ उसकी अहमियत को और ज़्यादा बढ़ा देती है कि उसमें बिलकुल साफ़-साफ़ हमको यह दावत दी गई है कि हम सरकशी छोड़कर फ़माँबरदारी अपना लें और हुक्म माननेवाले या मुसलमान होकर सुलैमान के आगे हाज़िर हो जाएँ। ‘मुस्लिम' होकर हाज़िर होने के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि फ़माँबरदार बनकर हाज़िर हो जाओ, दूसरा यह कि इस्लाम क़ुबूल करके हाज़िर हो जाओ। पहला मतलब हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाकिम होने की हैसियत से मेल खाता है और दूसरा मतलब उनके पैग़म्बर होने की हैसियत से। दोनों मतलबों को अपने अन्दर रखनेवाला यह लफ़्ज़ शायद इसी लिए इस्तेमाल किया गया है कि ख़त में ये दोनों मक़सद शामिल थे। इस्लाम की तरफ़ से ख़ुदमुख़्तार क़ौमों और हुकूमतों को हमेशा यही दावत दी गई है कि या तो सच्चा दीन क़ुबूल करो और हमारे साथ इस्लामी निज़ाम (व्यवस्था) में बराबर के हिस्सेदार बन जाओ, या फिर अपनी सियासी ख़ुदमुख़्तारी (स्वायत्तता) छोड़कर इस्लामी निज़ाम की मातहती क़ुबूल करो और सीधे हाथ से जिज़्‌या दो।
قَالَتۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ أَفۡتُونِي فِيٓ أَمۡرِي مَا كُنتُ قَاطِعَةً أَمۡرًا حَتَّىٰ تَشۡهَدُونِ ۝ 27
(32) (ख़त सुनाकर) मलिका ने कहा, “ऐ क़ौम के सरदारो! मेरे इस मामले में मुझे मशवरा दो, मैं किसी मामले का फ़ैसला तुम्हारे बिना नहीं करती हूँ।"38
38. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “हत्ता तशहदून” (जब तक कि तुम हाज़िर न हो, या तुम गवाह न हो), यानी अहम मामलों में फ़ैसला करते वक़्त तुम लोगों की मौजूदगी मेरे नज़दीक ज़रूरी है और यह भी कि जो फ़ैसला मैं करूँ उसके सही होने की तुम गवाही दो। इससे जो बात ज़ाहिर होती है वह यह कि सबा क़ौम में बादशाही निज़ाम तो था, मगर वह ज़ालिमाना (दमनकारी) निज़ाम न था, बल्कि वक़्त का बादशाह मामलों के फ़ैसले अपने दरबारियों के मशवरे से करता था।
قَالُواْ نَحۡنُ أُوْلُواْ قُوَّةٖ وَأُوْلُواْ بَأۡسٖ شَدِيدٖ وَٱلۡأَمۡرُ إِلَيۡكِ فَٱنظُرِي مَاذَا تَأۡمُرِينَ ۝ 28
(33) उन्होंने जवाब दिया, “हम ताक़तवर और लड़नेवाले लोग हैं। आगे फ़ैसला आपके हाथ में है आप ख़ुद देख लें कि आपको क्या हुक्म देना है।”
قَالَتۡ إِنَّ ٱلۡمُلُوكَ إِذَا دَخَلُواْ قَرۡيَةً أَفۡسَدُوهَا وَجَعَلُوٓاْ أَعِزَّةَ أَهۡلِهَآ أَذِلَّةٗۚ وَكَذَٰلِكَ يَفۡعَلُونَ ۝ 29
(34) मलिका ने कहा, “बादशाह जब किसी देश में घुस आते हैं तो उसे ख़राब और उसके इज़्ज़तवालों को बेइजज़त कर देते हैं।39 यही कुछ वे किया करते हैं।40
39. इस एक जुमले में इम्पिरियलिज़्म (साम्राज्यवाद) और उसके असरात और नतीजों पर भरपूर तबसिरा (समीक्षा) कर दिया गया है। बादशाहों का देश जीतना और जीतनेवाली क़ौमों का दूसरी क़ौमों पर हाथ डालना कभी सुधार और भलाई के जज़बे से नहीं होता। उसका मक़सद ही यह होता है कि दूसरी क़ौम को ख़ुदा ने जो रोज़ी दी है और जो वसाइल व ज़राए (साधन-संसाधन) दिए हैं उनसे वे ख़ुद फ़ायदा उठाएँ और उस क़ौम को इतना बेबस कर दें कि वह कभी उनके मुक़ाबले में सर उठाकर अपना हिस्सा न माँग सके। इस ग़रज़ के लिए वह उसको ख़ुशहाली और ताक़त और इज़्ज़त के तमाम ज़रिए ख़त्म कर देते हैं, उसके जिन लोगों में भी अपनी ख़ुदी (आत्मसम्मान) का एहसास होता है उन्हें कुचलकर रख देते हैं, उसके लोगों में ग़ुलामी, ख़ुशामद, एक-दूसरे की काट, एक-दूसरे की जासूसी, जीते हुए की नक़्क़ाली, अपनी तहज़ीब (संस्कृति) की बेक़द्री और रुसवाई, जीतनेवाले को इज़्ज़त देना और ऐसी ही गिरी हुई सिफ़ात पैदा कर देते हैं और उन्हें धीरे-धीरे इस बात का आदी बना देते हैं कि वे अपनी किसी पाकीज़ा-से-पाकीज़ा चीज़ को भी बेच देने में न झिझकें और पैसे के बदले हर नीच-से-नीच काम करने के लिए तैयार हो जाएँ।
40. इस जुमले में दो बराबर के इमकान हैं। एक यह कि यह सबा की मलिका ही की कही हुई बात हो और उसने अपनी पिछली बात पर ज़ोर देने के लिए इसका इज़ाफ़ा किया हो। दूसरा यह कि अल्लाह तआला का कहना हो जो मलिका की बात की ताईद (समर्थन) के लिए बीच में कह दिया गया हो।
وَإِنِّي مُرۡسِلَةٌ إِلَيۡهِم بِهَدِيَّةٖ فَنَاظِرَةُۢ بِمَ يَرۡجِعُ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 30
(35) मैं उन लोगों की तरफ़ एक तोहफ़ा भेजती हूँ फिर देखती हूँ कि मेरे एलची क्या जवाब लेकर पलटते हैं।”
فَلَمَّا جَآءَ سُلَيۡمَٰنَ قَالَ أَتُمِدُّونَنِ بِمَالٖ فَمَآ ءَاتَىٰنِۦَ ٱللَّهُ خَيۡرٞ مِّمَّآ ءَاتَىٰكُمۚ بَلۡ أَنتُم بِهَدِيَّتِكُمۡ تَفۡرَحُونَ ۝ 31
(36) जब वह (मलिका का एलची) सुलैमान के यहाँ पहुँचा तो उसने कहा, क्या तुम लोग माल से मेरी मदद करना चाहते हो? जो कुछ ख़ुदा ने मुझे दे रखा है वह उससे बहुत ज़्यादा है जो तुम्हें दिया है।41 तुम्हारा तोहफ़ा तुम्हीं को मुबारक रहे।
41. इस जुमले का मक़सद बड़ाई और घमण्ड का इज़हार नहीं है। अस्ल मंशा यह है कि मुझे तुम्हारा माल नहीं चाहिए, बल्कि तुम्हारा ईमान दरकार है। या फिर कम-से-कम जो चीज़ मैं चाहता हूँ वह यह है कि तुम एक सॉलेह निज़ाम (कल्याणकारी व्यवस्था) के तहत आ जाओ। अगर तुम इन दोनों बातों में से किसी के लिए राज़ी नहीं हो तो मेरे लिए यह मुमकिन नहीं है कि माल-दौलत की रिश्वत लेकर तुम्हें इस शिर्क और इस बिगड़े हुए निज़ामे-ज़िन्दगी के मामले में आज़ाद छोड़ दूँ। मुझे मेरे रब ने जो कुछ दे रखा है यह इससे बहुत ज़्यादा है कि मैं तुम्हारे माल का लालच करूँ।
ٱرۡجِعۡ إِلَيۡهِمۡ فَلَنَأۡتِيَنَّهُم بِجُنُودٖ لَّا قِبَلَ لَهُم بِهَا وَلَنُخۡرِجَنَّهُم مِّنۡهَآ أَذِلَّةٗ وَهُمۡ صَٰغِرُونَ ۝ 32
(37 ) (ऐ एलची) वापस जा अपने भेजनेवालों की तरफ़। हम उनपर ऐसे लश्कर लेकर आएँगे42 जिनका मुक़ाबला वे न कर सकेंगे और हम उन्हें ऐसी बेइज़्ज़ती के साथ वहाँ से निकालेंगे कि वे बेइज़्ज़त होकर रह जाएँगे।"
42. पहले जुमले और इस जुमले के बीच में एक बारीक खला (रिक्तता) है जो बात पर ग़ौर करने से ख़ुद-ब-ख़ुद समझ में आ जाता है। यानी पूरी बात यूँ है कि ऐ नुमाइन्दे, यह तोहफ़ा वापस ले जा, अपने भेजनेवालों की तरफ, उन्हें या तो हमारी पहली बात माननी पड़ेगी कि मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) होकर हमारे पास हाज़िर हो जाएँ, वरना हम उनपर लश्कर लेकर आएँगे।
قَالَ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ أَيُّكُمۡ يَأۡتِينِي بِعَرۡشِهَا قَبۡلَ أَن يَأۡتُونِي مُسۡلِمِينَ ۝ 33
(38) सुलैमान43 ने कहा, “ऐ दरबारियो! तुममें से कौन उसका तख़्त मेरे पास लाता है, इससे पहले कि वे लोग फ़रमाँबरदार बनकर मेरे पास हाज़िर हों?"44
43. बीच में यह क़िस्सा छोड़ दिया गया है कि सबा की रानी का नुमाइन्दा रानी का तोहफ़ा वापस लेकर पहुँचा और जो कुछ उसने देखा और सुना था वह बता दिया। रानी ने उससे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के जो हालात सुने उनकी बुनियाद पर उसने यही मुनासिब समझा कि ख़ुद उनसे मुलाक़ात के लिए बैतुल-मक़दिस जाए। चुनाँचे वह अपने नौकर-चाकर और शाही साज़ो-सामान के साथ सबा से फ़िलस्तीन की तरफ़ रवाना हुई और उसने सुलैमान (अलैहि०) के दरबार में ख़बर भेज दी कि मैं आपकी दावत ख़ुद आपकी ज़बान से सुनने और आमने-सामने बातचीत करने के लिए हाज़िर हो रही हूँ। इन तफ़सीलात को छोड़कर अब उस वक़्त का क़िस्सा बयान किया जा रहा है जब रानी बैतुल-मक़दिस के क़रीब पहुँच गई थी और एक दो ही दिन में हाज़िर होनेवाली थी।
44. यानी वही तख़्त जिसके बारे में हुदहुद ने बताया था कि “उसका तख़्त बड़ा शानदार है।” क़ुरआन के कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने ग़ज़ब किया है कि रानी के आने से पहले उसका तख़्त मँगगवाने की वजह यह बताई है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उसपर क़ब्ज़ा करना चाहते थे, उन्हें अन्देशा हुआ कि अगर रानी मुसलमान हो गई तो फिर उसके माल पर उसकी मरज़ी के बिना क़ब्ज़ा कर लेना हराम हो जाएगा, इसलिए उन्होंने उसके आने से पहले तख़्त मँगा लेने की जल्दी की; क्योंकि उस वक़्त रानी का माल जाइज़ था। अल्लाह माफ़ करे! एक नबी की नीयत के बारे में यह सोचना बड़ा ही अजीब है। आख़िर यह क्यों न समझा जाए कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) तबलीग़ के साथ-साथ रानी और उसके दरबारियों को एक मोजिज़ा (चमत्कार) भी दिखाना चाहते थे, ताकि उसे मालूम हो कि सारे जहानों का रब अल्लाह अपने पैग़म्बरों को कैसी ग़ैर-मामूली क़ुदरतें देता है और उसे यक़ीन आ जाए कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) सचमुच अल्लाह के नबी हैं। इससे भी कुछ ज़्यादा ग़ज़ब कुछ नए ज़माने के तफ़सीर लिखनेवालों ने किया है। वे आयत का तर्जमा यह करते हैं कि “तुममें से कौन है जो मलिका के लिए एक तख़्त मुझे ला दे।” हालाँकि क़ुरआन जो बात कह रहा है उसका मतलब “उसका तख़्त” है, न कि “उसके लिए तख़्त।” यह बात सिर्फ़ इसलिए बनाई गई है कि क़ुरआन के इस बयान से किसी तरह पीछा छुड़ाया जाए कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उस रानी ही का तख़्त यमन से बैतुल-मक़दिस मँगवाना चाहते थे और वह भी इसी तरह कि रानी के पहुँचने से पहले-पहले वह आ जाए।
قَالَ عِفۡرِيتٞ مِّنَ ٱلۡجِنِّ أَنَا۠ ءَاتِيكَ بِهِۦ قَبۡلَ أَن تَقُومَ مِن مَّقَامِكَۖ وَإِنِّي عَلَيۡهِ لَقَوِيٌّ أَمِينٞ ۝ 34
(39) जिन्नों में से एक ताक़तवर और लम्बे-चौड़े (जिन्न) ने कहा, “मैं उसे हाज़िर कर दूँगा इससे पहले कि आप अपनी जगह से उठें।45 मैं इसकी ताक़त रखता हूँ और अमानतदार हूँ।”46
45. इससे मालूम हो सकता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के पास जो जिन्न थे, वे मौजूदा ज़माने के कुछ अक़्ल-परस्त तफ़सीर लिखनेवालों के मनमाने मानी के मुताबिक़ इनसानों में से थे या आम लोगों के मुताबिक़ उसी पोशीदा मख़लूक़ में से जो जिन्न के नाम से जाने जाते हैं। ज़ाहिर है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के दरबार की बैठक ज़्यादा-से-ज़्यादा तीन-चार घण्टे की होगी और बैतुल-मक़दिस से सबा की राजधानी मारिब का फ़ासला परिन्दे की उड़ान के लिहाज़ से भी कम-से-कम डेढ़ हज़ार मील का था। इतने फ़ासले से एक रानी का अज़़ीमुश्शान तख़्त इतनी कम मुद्दत में उठा लाना किसी इनसान का काम नहीं हो सकता था, चाहे वह लम्बे-चौड़े लोगों में से कितना ही मोटा-ताज़ा आदमी क्यों न हो। यह काम तो आजकल का जेट हवाई जहाज़ भी नहीं कर सकता। मसला इतना ही नहीं है कि तख़्त कहीं जंगल में रखा हो और उसे उठा लाया जाए। मसला यह है कि तख़्त एक रानी के महल में था जिसपर यक़ीनन पहरेदार तैनात होंगे और वह मलिका की ग़ैर-मौजूदगी में ज़रूर महफ़ूज़ जगह रखा गया होगा। इनसान जाकर उठा लाना चाहता तो उसके साथ एक छापामार दस्ता होना चाहिए था कि लड़-भिड़कर उसे पहरेदारों से छीन लाए। यह सब कुछ आख़िर दरबार बरख़ास्त होने से पहले कैसे हो सकता था। इस चीज़ के बारे में अगर सोचा जा सकता है तो एक सचमुच के जिन्न ही के बारे में सोचा जा सकता है।
46. यानी आप मुझपर यह भरोसा कर सकते हैं कि मैं उसे ख़ुद उड़ा न ले जाऊँगा, या उसमें से कोई क़ीमती चीज़ न चुरा लूँगा।
قَالَ ٱلَّذِي عِندَهُۥ عِلۡمٞ مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ أَنَا۠ ءَاتِيكَ بِهِۦ قَبۡلَ أَن يَرۡتَدَّ إِلَيۡكَ طَرۡفُكَۚ فَلَمَّا رَءَاهُ مُسۡتَقِرًّا عِندَهُۥ قَالَ هَٰذَا مِن فَضۡلِ رَبِّي لِيَبۡلُوَنِيٓ ءَأَشۡكُرُ أَمۡ أَكۡفُرُۖ وَمَن شَكَرَ فَإِنَّمَا يَشۡكُرُ لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ رَبِّي غَنِيّٞ كَرِيمٞ ۝ 35
(40) जिस शख़्स के पास किताब का इल्म (ज्ञान) था वह बोला, “मैं आपकी पलक झपकने से पहले उसे लाए देता हूँ।"47 ज्यों ही कि सुलैमान ने वह तख़्त अपने पास रखा हुआ देखा, वह पुकार उठा, “यह मेरे रब की मेहरबानी है ताकि वह मुझे आज़माए कि मैं शुक्र करता हूँ या नाशुक्रा बन जाता हूँ।"48 और जो कोई शुक्र करता है तो उसका शुक्र उसके अपने ही लिए फ़ायदेमन्द है, वरना कोई नाशुक्री करे तो मेरा रब बेनियाज़ (निस्पृह) और अपनी ज़ात में आप बुज़ुर्ग है।"49
47. उस शख़्स के बारे में यक़ीनी तौर पर यह मालूम नहीं है कि वह कौन था और उसके पास वह किस ख़ास तरह का इल्म था और उस किताब से कौन-सी किताब मुराद है जिसका इल्म उसके पास था। इन बातों की कोई तफ़सील न क़ुरआन में है, न किसी सहीह हदीस में। तफ़सीर लिखनेवालों में से कुछ कहते हैं कि वह फ़रिश्ता था और कुछ कहते हैं कि वह कोई इनसान था। फिर उस इनसान की शख़्सियत को तय करने में भी उनके बीच इख़्तिलाफ़ है। कोई आसिफ़-बिन-बरख़ियाह (Asaf-B-Barchiah) का नाम लेता है जो यहूदी रिब्बियों की रिवायतों के मुताबिक़ इनसानों के राजकुमार (Prince of Men) थे। कोई कहता है कि वे हज़रत ख़ज़िर थे, कोई किसी और का नाम लेता है और इमाम राज़ी का सारा ज़ोर इसपर है कि वे ख़ुद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) थे। लेकिन इनमें से किसी का भी कोई भरोसेमन्द ज़रिआ नहीं है जहाँ से उसने यह बात ली है और इमाम राज़ी की बात तो क़ुरआन के मौक़ा-महल से भी मेल नहीं खाती। इसी तरह किताब के बारे में भी तफ़सीर लिखनेवालों की रायें अलग-अलग हैं। कोई कहता है कि इससे मुराद लौहे-महफ़ूज़ है और कोई शरीअत की किताब मुराद लेता है। लेकिन ये सब सिर्फ़ अन्दाज़े हैं और ऐसे ही अन्दाजे उस इल्म के बारे में भी बिना दलील और सुबूत क़ायम कर लिए गए हैं जो किताब से उस आदमी को हासिल था। हम सिर्फ़ उतनी ही बात जानते और मानते हैं जितनी क़ुरआन में कही गई है, या जो उसके अलफ़ाज़ से ज़ाहिर होती है। वह शख़्स बहरहाल जिन्न की जाति में से न था और नामुमकिन नहीं कि वह कोई इनसान ही हो। उसके पास कोई ग़ैर-मामूली इल्म था और वह अल्लाह की किसी किताब (अल-किताब) से लिया गया था। जिन्न अपने वुजूद की ताक़त से उस तख़्त को कुछ घण्टों में उठा लाने का दावा कर रहा था। यह आदमी इल्म की ताक़त से उसको एक पल में उठा लाया।
48. क़ुरआन मजीद का अन्दाज़े-बयान इस मामले में बिलकुल साफ़ है कि उस लम्बे-चौड़े जिन्न के दावे की तरह इस शख़्स का दावा सिर्फ़ दावा ही न रहा, बल्कि हक़ीक़त में जिस वक़्त उसने दावा किया उसी वक़्त एक ही पल में वह तख़्त हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के सामने रखा नज़र आया। ज़रा इन अलफ़ाज़ पर ग़ौर कीजिए— "उस आदमी ने कहा कि मैं आपकी पलक झपकने से पहले उसे ले आता हूँ। ज्यों ही कि सुलैमान ने उसे अपने पास रखा देखा।” जो शख़्स भी वाक़िए के अजीबो-ग़रीब होने का ख़याल ज़ेहन से निकालकर अपनी जगह इस इबारत को पढ़ेगा वह इससे यही मतलब लेगा कि उस शख़्स के यह कहते ही दूसरे पल में वह वाक़िआ पेश आ गया जिसका उसने दावा किया था। इस सीधी-सी बात को ख़ाह-मख़ाह मनमाने मतलब पहनाने की क्या ज़रूरत है? फिर तख़्त को देखते ही हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का यह कहना कि “यह मेरे रब की मेहरबानी है, ताकि मुझे आज़माए कि मैं शुक्र करता हूँ या नेमत की नाशुक्री करनेवाला बन जाता हूँ” इसी सूरत में मौक़े के मुताबिक़ हो सकता है जबकि यह कोई ग़ैर-मामूली वाक़िआ हो। वरना अगर वाक़िआ यह होता कि उनका एक होशियार नौकर रानी के लिए जल्दी से एक तख़्त बना लाया या बनवा लाया, तो ज़ाहिर है कि यह ऐसी कोई निराली बात न हो सकती थी कि इसपर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) बेइख़्तियार “हाज़ा मिन फ़ज़लि रब्बी” (यह मेरे रब की मेहरबानी है) पुकार उठते और उनको यह ख़तरा लग जाता कि इतनी जल्दी मोहतरम मेहमान के लिए तख़्त तैयार हो जाने से कहीं मैं नेमत का शुक्रिया अदा करनेवाला बनने के बजाय नाशुक्रा न बन जाऊँ। आख़िर इतनी-सी बात पर किसी ईमानवाले बादशाह को इतना घमण्ड और अपनी बड़ाई का एहसास हो जाने का क्या ख़तरा हो सकता है, ख़ास तौर से जबकि वह एक मामूली मोमिन न हो, बल्कि अल्लाह का नबी हो। अब रही यह बात कि डेढ़ हज़ार मील से एक शाही तख़्त पलक झपकते किस तरह उठकर आ गया, तो इसका छोटा-सा जवाब यह है कि वक़्त और जगह और माद्दा और हरकत के जो तसव्वुर (धारणाएँ) हमने अपने तरजरिबों और देखने-सुनने की बुनियाद पर क़ायम कर रखे हैं। उनकी सारी हदें सिर्फ़ हमारे ही लिए हैं। ख़ुदा के लिए न ये तसव्वुर सही हैं और न वह उन हदों में क़ैद है। उसकी क़ुदरत एक मामूली तख़्त तो एक तरफ़, सूरज और उससे भी बड़े सय्यारों (ग्रहों) को ज़रा-सी देर में लाखों मील का फ़ासला तय करा सकती है। जिस ख़ुदा के सिर्फ़ एक हुक्म से यह अज़ीम कायनात (विशाल सृष्टि) वुजूद में आ गई है उसका एक हलका-सा इशारा ही सबा की रानी के तख़्त को रौशनी की रफ़्तार से चला देने के लिए काफ़ी था। आख़िर इसी क़ुरआन में यह ज़िक्र भी तो मौजूद है कि अल्लाह तआला एक रात अपने बन्दे मुहम्मद (सल्ल०) को मक्का से बैतुल-मक़दिस ले भी गया और वापस भी ले आया।
49. यानी ख़ुदा किसी के शुक्र का मुहताज नहीं है। उसकी ख़ुदाई में किसी की शुक्रगुज़ारी से न ज़र्रा बराबर कोई इज़ाफ़ा होता है और न किसी की नाशुक्री और एहसान-फ़रामोशी से बाल बराबर कोई कमी आती है। वह आप अपने ही बल-बूते पर ख़ुदाई कर रहा है, बन्दों के मानने या न मानने पर उसकी ख़ुदाई का दारोमदार नहीं है। यही बात क़ुरआन मजीद में एक जगह हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से नक़्ल की गई है कि “अगर तुम और सारी दुनियावाले मिलकर भी कुफ़्र करें तो अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) और अपने आपमें ख़ुद तारीफ़ के लायक़ है।” (सूरा-14 इबराहीम, आयत-8) और यही बात इस हदीसे-क़ुदसी में कही गई है जो सहीह मुस्लिम में आई है— “अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ मेरे बन्दो, अगर अव्वल से आख़िर तक तुम सब इनसान और जिन्न अपने सबसे ज़्यादा परहेज़गार आदमी के दिल जैसे हो जाओ तो उससे मेरी बादशाही में कोई इज़ाफ़ा न हो जाएगा। ऐ मेरे बन्दो, अगर अव्वल से आख़िर तक तुम सब इनसान और जिन्न अपने सबसे ज़्यादा बदकार आदमी के दिल जैसे हो जाओ तो मेरी बादशाही में इससे कोई कमी न हो जाएगी। ऐ मेरे बन्दो, ये तुम्हारे अपने आमाल हैं जिनको मैं तुम्हारे हिसाब में गिनता है, फिर उनका पूरा-पूरा बदला तुम्हें देता हूँ। तो जिसे कोई भलाई नसीब हो उसे चाहिए कि अल्लाह का शुक्र अदा करे और जिसे कुछ और नसीब हो वह अपने आप ही को मलामत करे।”
قَالَ نَكِّرُواْ لَهَا عَرۡشَهَا نَنظُرۡ أَتَهۡتَدِيٓ أَمۡ تَكُونُ مِنَ ٱلَّذِينَ لَا يَهۡتَدُونَ ۝ 36
(41) सुलैमान50 ने कहा, “अनजान तरीक़े से उसका तख़्त उसके सामने रख दो, देखें यह सही बात तक पहुँचती है या उन लोगों में से है जो सीधी राह नहीं पाते।”51
50. बीच में यह तफ़सील छोड़ दी गई है कि सबा की रानी कैसे बैतुल-मक़दिस पहुँची और किस तरह उसका इस्तिक़बाल हुआ। उसे छोड़कर अब उस वक़्त का हाल बयान किया जा रहा है जब वह हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की मुलाक़ात के लिए उनके महल में पहुँच गई।
51. इस जुमले के कई मतलब हैं। इसका यह मतलब भी है कि वह यकायक अपने देश से इतनी दूर अपना तख़्त मौजूद पाकर यह समझ जाती है या नहीं कि यह उसी का तख़्त उठा लाया गया है और यह मतलब भी है कि वह इस हैरत-अंगेज़ मोजिज़े (चमत्कार) को देखकर हिदायत पाती है या अपनी गुमराही पर क़ायम रहती है। इससे उन लोगों का ख़याल ग़लत साबित हो जाता है जो कहते हैं कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उस तख़्त पर क़ब्ज़ा करने की नीयत रखते थे। यहाँ वे ख़ुद उस मक़सद को ज़ाहिर कर रहे हैं कि उन्होंने यह काम रानी की हिदायत के लिए किया था।
فَلَمَّا جَآءَتۡ قِيلَ أَهَٰكَذَا عَرۡشُكِۖ قَالَتۡ كَأَنَّهُۥ هُوَۚ وَأُوتِينَا ٱلۡعِلۡمَ مِن قَبۡلِهَا وَكُنَّا مُسۡلِمِينَ ۝ 37
(42) मलिका जब हाज़िर हुई तो उससे कहा गया कि तेरा तख़्त ऐसा ही है? वह कहने लगी, “यह तो जैसे वही है।52 हम तो पहले ही जान गए थे और हमने फ़रमाँबरदारी में सर झुका दिया था (या हम मुस्लिम हो चुके थे)।53
52. इससे उन लोगों के ख़यालात का भी रद्द हो जाता है जिन्होंने अस्ल सूरते-हाल का नक़्शा कुछ इस तरह खींचा है कि मानो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) अपनी मेहमान रानी के लिए एक तख़्त बनवाना चाहते थे, इस ग़रज़ के लिए उन्होंने टेंडर तलब किए, एक हट्टे-कट्टे कारीगर ने कुछ ज़्यादा मुद्दत में तख़्त बना देने की पेशकश की, मगर एक-दूसरे माहिर उस्ताद ने कहा कि में तुरत-फुरत बनाए देता हूँ। इस सारे नक़्शे का ताना-बाना इस बात से बिखर जाता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने ख़ुद रानी ही का तख़्त लाने के लिए कहा था और उसके आने पर अपने नौकरों को उसी का तख़्त अनजान तरीक़े से उसके सामने पेश करने का हुक्म दिया था, फिर जब वह आई तो उससे पूछा गया कि क्या तेरा तख़्त ऐसा ही है और उसने कहा, गोया यह वही है। इस साफ़ बयान की मौजूदगी में उन लम्बे-चौड़े मनमाने मतलबों की क्या गुंजाइश रह जाती है। इसपर भी किसी को शक रहे तो बाद का जुमला उसे मुत्मइन करने के लिए काफ़ी है।
53. यानी वह मोजिज़ा (चमत्कार) देखने से पहले ही सुलैमान (अलैहि०) की जो सिफ़त और हालात हमें मालूम हो चुके थे उनकी बुनियाद पर हमें यक़ीन हो गया था कि वे अल्लाह के नबी हैं, सिर्फ़ एक सल्तनत के बादशाह नहीं है। तख़्त को देखने के और “मानो यह वही है कहने के बाद इस जुमले का इज़ाफ़ा करने में आख़िर क्या मतलब रह जाता है अगर यह मान लिया जाए कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने उसके लिए एक तख़्त बनवाकर रख दिया था? मान लीजिए कि अगर वह तख़्त रानी के तख़्त से मिलता-जुलता ही तैयार करा लिया गया हो तब भी इसमें आख़िर वह क्या कमाल हो सकता था कि एक सूरज की पूजा करनेवाली रानी उसे देखकर यह बोल उठती कि “हमें पहले ही इल्म नसीब हो गया था और हम फ़रमाँबरदार हो चुके थे।”
وَصَدَّهَا مَا كَانَت تَّعۡبُدُ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ إِنَّهَا كَانَتۡ مِن قَوۡمٖ كَٰفِرِينَ ۝ 38
(43) उसको (ईमान लाने से) जिस चीज़ ने रोक रखा था वह उन माबूदों की इबादत थी जिन्हें वह अल्लाह के सिवा पूजती थी, क्योंकि वह एक कुफ़्र करनेवाली क़ौम से थी।54
54. यह जुमला अल्लाह तआला की तरफ़ से सबा की रानी की पोज़ीशन वाज़ेह करने के लिए कहा गया है। यानी उसमें ज़िद और हठधर्मी न थी। वह उस वक़्त तक सिर्फ़ इसलिए ग़ैर-मुस्लिम थी कि वह एक ऐसी क़ौम में पैदा हुई थी जो कुफ़्र और शिर्क में पड़ी हुई थी। होश संभालने के बाद से उसकी जिस चीज़ के आगे सजदा करने की आदत पड़ी हुई थी, बस वही उसके रास्ते में एक रुकावट बनी हुई थी। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से मुलाक़ात होने पर जब उसकी आँखें खुलीं तो उस रुकावट के हट जाने में ज़रा-सी देर भी न लगी।
قِيلَ لَهَا ٱدۡخُلِي ٱلصَّرۡحَۖ فَلَمَّا رَأَتۡهُ حَسِبَتۡهُ لُجَّةٗ وَكَشَفَتۡ عَن سَاقَيۡهَاۚ قَالَ إِنَّهُۥ صَرۡحٞ مُّمَرَّدٞ مِّن قَوَارِيرَۗ قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي ظَلَمۡتُ نَفۡسِي وَأَسۡلَمۡتُ مَعَ سُلَيۡمَٰنَ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 39
(44) उससे कहा गया कि महल में दाख़िल हो। उसने जो देखा तो समझी कि पानी का हौज़ है और उतरने के लिए उसने अपने पाईंचे उठा लिए। सुलैमान ने कहा, “यह शीशे का चिकना फ़र्श है।55 इसपर वह पुकार उठी, तो मेरे रब, (आज तक) मैं अपने आपपर बड़ा ज़ुल्म करती रही, और अब मैंने सुलैमान के साथ सारे जहान के रब अल्लाह की फ़रमाँबरदारी क़ुबूल कर ली।”56
55. यह आख़िरी चीज़ थी जिसने सबा की रानी की आँखें खोल दीं। पहली चीज़ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का वह ख़त था जो आम बादशाहों के तरीक़े से हटकर अल्लाह रहमान और रहीम (दयावान, कृपाशील) के नाम से शुरू किया गया था। दूसरी चीज़ उसके क़ीमती तोहफ़ों को रद्द करना था जिससे रानी को अन्दाज़ा हुआ कि यह बादशाह किसी और तरह का है। तीसरी चीज़ रानी के नुमाइन्दे का बयान या जिससे उसने हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को परहेज़गारीवाली ज़िन्दगी, उनकी हिकमत और उनकी हक़ की दावत के बारे में जाना इसी चीज़ ने उसे आमादा किया कि ख़ुद चलकर उनसे मुलाक़ात करे और उसी की तरफ़ उसने अपनी इस बात में इशारा किया कि “हम तो पहले ही जान गए थे और हम मुस्लिम (फ़माँबरदार) हो चुके थे।” चौथी चीज़ उस शानदार तख़्त का आनन-फ़ानन मारिब से बैतुल-मक़दिस पहुँच जाना था जिससे रानी को मालूम हुआ कि इस शख़्स के पीछे अल्लाह तआला की ताक़त है और अब आख़िरी चीज़ वह थी कि उसने देखा जो शख़्स ऐशो-आराम के ये सामान रखता है और ऐसे शानदार महल में रहता है वह घमण्ड से कितना ज़्यादा दूर है, कितना ज़्यादा ख़ुदा से डरनेवाला और नेकदिल है, किस तरह बात-बात पर उसका सर ख़ुदा के आगे शुक्रगुज़ारी में झुक जाता है और उसकी ज़िन्दगी दुनिया की ज़िन्दगी पर मर-मिटनेवालों की ज़िन्दगी से कितनी अलग है। यही चीज़ थी जिसने उसे वह कुछ पुकार उठने पर मजबूर कर दिया जो आगे उसकी ज़बान से नक़्ल किया गया है।
56. हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और सबा की रानी का यह क़िस्सा बाइबल के पुराने नियम, नए नियम और यहूदियों की रिवायतों, सबमें अलग-अलग तरीक़ों से आया है, मगर क़ुरआन का बयान इन सबसे अलग है। पुराने नियम में इस क़िस्से का ख़ुलासा यह है “और जब शीबा (अर्थात् सबा) की रानी ने यहोवा (ख़ुदावन्द) के नाम के विषय में सुलैमान की शोहरत सुनी तो वह आई ताकि मुश्किल सवालों से उसे आज़माए और वह बहुत भारी दल के साथ......यरूशलेम में आई और सुलैमान के पास पहुँचकर उसने उन सब बातों के बारे में जो उसके दिल में थीं उससे बातचीत की। सुलैमान ने उन सबका जवाब दिया........और जब शीबा की रानी ने सुलैमान की सब बुद्धिमानी (हिकमत) और उस महल को जो उसने बनाया था और उसके दस्तरख़ान की नेमतों और उसके कर्मचारियों की बैठक और उसके नौकरों का हाज़िर होना और उनके कपड़े और उसके पिलानेवालों और उस सीढ़ी को जिससे वह यहोवा (ख़ुदावन्द) के घर को जाया करता था, देखा तो उसके होश उड़ गए और उसने बादशाह से कहा कि वह सच्ची ख़बर थी जो मैंने तेरे कामों और तेरी बुद्धिमानी (हिकमत) के बारे में अपने देश में सुनी थी, तो भी मैंने वे बातें न मानीं जब तक ख़ुद आकर अपनी आँखों से देख न लिया और मुझे तो आधा भी नहीं बताया गया था, क्योंकि तेरी बुद्धिमानी और ख़ुशनसीबी उस शोहरत से, जो मैंने सुनी, बहुत ज़्यादा है। ख़ुशनसीब हैं तेरे लोग और ख़ुशनसीब हैं तेरे ये नौकर जो हमेशा तेरे सामने खड़े रहकर तेरी बुद्धि (हिकमत) की बातें सुनते हैं। धन्य है तेरा परमेश्वर (ख़ुदावन्द) जो तुझसे ऐसा राज़ी हुआ कि तुझे इसराईल के तख़्त (राजगद्दी) पर बिठाया......और उसने बादशाह को एक सौ बीस किक्कार (किक्कार एक पैमाना है जो लगभग साढ़े चार टन के बराबर होता है) सोना और बहुत-सा सुगन्ध-द्रव्य और बहुत क़ीमती जवाहर दिए। जितना सुगन्ध-द्रव्य शीबा की रानी ने सुलैमान बादशाह को दिया उतना फिर कभी नहीं आया.......शीबा (सबा) की रानी ने जो कुछ चाहा वही बादशाह सुलैमान ने उसकी इच्छा के मुताबिक़ उसको दिया। फिर वह अपने नौकरों सहित अपने राज्य को लौट गई।” (1-राजा, 10:1-13। इसी से मिलती-जुलती बात इतिहास-2, 9:1-12 में भी है।) नए नियम की किताब में हज़रत ईसा (अलैहि०) की एक तक़रीर का सिर्फ़ यह जुमला सबा की रानी के बारे में नक़्ल हुआ है— "दक्षिण की रानी न्याय के दिन इस ज़माने के लोगों के साथ उठकर उनको मुजरिम ठहराएगी; क्योंकि वह ज़मीन के छोर से सुलैमान की हिकमत सुनने आई और देखो यहाँ वह है जो सुलैमान से भी बड़ा है।” (मत्ती, 12:42, लूक़ा, 11:31) यहूदी रिब्बियों की रिवायतों में हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और शीबा (सबा) की रानी का क़िस्सा अपनी ज़्यादातर तफ़सीलात में क़ुरआन से मिलता-जुलता है। हुदहुद का ग़ायब होना, फिर आकर सबा और उसकी रानी के हालात बयान करना, हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का उसके ज़रिए से ख़त भेजना, हुदहुद का ठीक उस वक़्त वह ख़त रानी के आगे गिराना जब कि वह सूरज की पूजा को जा रही थी, रानी का उस ख़त को देखकर अपने वज़ीरों से मीटिंग करना, फिर रानी का एक क़ीमती तोहफ़ा हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के पास भेजना, ख़ुद यरूशलेम पहुँचकर उनसे मिलना, उनके महल में पहुँचकर यह समझना कि हज़रत सुलैमान (अलैंहि०) पानी के हौज़ में बैठे हैं और उसमें उतरने के लिए पाईंचे चढ़ा लेना, ये सब उन रिवायतों में इसी तरह बयान हुआ है जिस तरह क़रआन में बयान हुआ है। मगर तोहफ़ा मिलने पर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का जवाब, रानी के तख़्त को उठवा माँगाना, हर मौक़े पर उनका ख़ुदा के आगे झुकना और आख़िरकार रानी का उनके हाथ पर ईमान लाना, ये सब बातें, बल्कि ख़ुदा को मानने और ख़ुदा की बन्दगी से मुताल्लिक़ सारी बातें ही इन रिवायतों में नहीं हैं। सबसे बढ़कर ग़ज़ब यह है कि इन ज़ालिमों ने हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर इलज़ाम लगाया है कि उन्होंने सबा की रानी के साथ (अल्लाह की पनाह!) ज़िना (व्यभिचार) का जुर्म किया और उसी नाजाइज़ नस्ल से बाबिल का बादशाह बुख़्त-नसर पैदा हुआ जिसने बैतुल-मक़दिस को तबाह किया (जेविश इंसाइक्लोपीडिया, हिस्सा-11, पेज-443)। अस्ल मामला यह है कि यहूदी आलिमों का एक गरोह हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का सख़्त दुश्मन रहा है। उन लागों ने उनपर तौरात के हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी, हुकूमत और अक़्लमन्दी के घमण्ड, औरत के रसिया होने, ऐश-परस्ती और शिर्क और बुतपरस्ती के घिनौने इलज़ाम लगाए हैं (जेविश इंसाइक्लोपीडिया (हिस्सा-11, पेज-141) और यह उसी प्रोपेगण्डे का असर है कि बाइबल उन्हें नबी के बजाय सिर्फ़ एक बादशाह की हैसियत से पेश करती है और बादशाह भी ऐसा जो अल्लाह की पनाह, ख़ुदाई हुक्मों के ख़िलाफ़ मुशरिक औरतों के इश्क़ में गुम हो गया। जिसका दिल ख़ुदा से फिर गया और जो ख़ुदा के सिवा दूसरे माबूदों की तरफ़ माइल हो गया (1-राजा, 11:1-12) इन चीज़ों को देखकर अन्दाज़ा होता है कि क़ुरआन ने बनी-इसराईल पर कितना बड़ा एहसान किया है कि उनके बुज़र्गों का दामन ख़ुद उनकी फेंकी हुई गन्दगियों से साफ़ किया और ये बनी-इसराईल कितने एहसान फ़रामोश हैं कि इसपर भी ये क़ुरआन और उसके लानेवाले को अपना दुश्मन समझते हैं।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ فَإِذَا هُمۡ فَرِيقَانِ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 40
(45) और समूद57 की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को (यह पैग़ाम देकर) भेजा कि अल्लाह की बन्दगी करो, तो यकायक वे झगड़नेवाले दो दुश्मन गरोह बन गए।58
57. यह क़िस्सा क़ुरआन में कुछ फ़र्क़ के साथ कई जगहों पर आया है दखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—78-79; सूरा-11 हूद, आयतें—61-68; सूरा-26 शुअरा, आयतें—141-159; सूरा-51 क़मर, आयतें—23-32; सूरा-91 शम्स, आयतें—11-15।
58. यानी ज्यों ही कि हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की दावत की शुरुआत हुई, उनकी क़ौम दो गरोहों में बँट गई। एक गरोह ईमान लानेवालों का, दूसरा गरोह इनकार करनेवालों का और इस फूट के साथ ही उनके बीच कशमकश शुरू हो गई, जैसा कि क़ुरआन मजीद में दूसरी जगह कहा गया है, “उसकी क़ौम में से जो सरदार अपनी बड़ाई का घमण्ड रखते थे, उन्होंने उन लोगों से जो कमज़ोर बनाकर रखे गए थे, जो उनमें से ईमान लाए थे, “कहा, क्या सचमुच तुम यह जानते हो कि सॉलेह अपने रब की तरफ़ से भेजा गया है? उन्होंने जवाब दिया, हम उस चीज़ पर ईमान रखते हैं जिसको लेकर वे भेजे गए हैं। उन बड़े बननेवालों ने कहा, जिस चीज़ पर तुम ईमान लाए हो उसका हम इनकार करते हैं।” (सूरा-7 आराफ़, आयतें—75-78) याद रहे कि ठीक यही सूरते-हाल मुहम्मद (सल्ल०) के नबी बनाकर भेजे जाने के साथ मक्का में भी पैदा हुई थी कि क़ौम दो हिस्सों में बँट गई और इसके साथ ही उन दोनों गरोहों में कशमकश शुरू हो गई। इसलिए यह क़िस्सा आप-से-आप उन हालात पर चस्पाँ हो रहा था जिनमें ये आयतें उतरीं।
قَالَ يَٰقَوۡمِ لِمَ تَسۡتَعۡجِلُونَ بِٱلسَّيِّئَةِ قَبۡلَ ٱلۡحَسَنَةِۖ لَوۡلَا تَسۡتَغۡفِرُونَ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 41
(46) सॉलेह ने कहा, “ये मेरी क़ौम के लोगो, भलाई से पहले बुराई के लिए क्यों जल्दी मचाते हो?59 क्यों नहीं अल्लाह से माफ़ी माँगते? शायद कि तुमपर रहम किया जाए।”
59. यानी अल्लाह से भलाई माँगने के बजाय अज़ाब माँगने में क्यों जल्दी करते हो? दूसरी जगह सॉलेह (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों की कही हुई यह बात नक़्ल हो चुकी है कि “सॉलेह, ले आ वह अज़ाब हमपर जिसकी तू हमें धमकी देता है, अगर तू सचमुच रसूलों में से है।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-77)
قَالُواْ ٱطَّيَّرۡنَا بِكَ وَبِمَن مَّعَكَۚ قَالَ طَٰٓئِرُكُمۡ عِندَ ٱللَّهِۖ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ تُفۡتَنُونَ ۝ 42
(47) उन्होंने कहा, “हमने तो तुमको और तुम्हारे साथियों को नहूसत (अपशकुन) का निशान पाया है।"60 सॉलेह ने जवाब दिया, “तुम्हारे अच्छे और बुरे शगुन का सिरा तो अल्लाह के पास है। अस्ल बात यह है कि तुम लोगों की आज़माइश हो रही है।61
60. उनके यह कहने का एक मतलब यह है कि तुम्हारी यह तहरीक (आन्दोलन) हमारे लिए सख़्त मनहूस (अशुभ) साबित हुई है, जब से तुमने और तुम्हारे साथियों ने अपने बाप-दादा के दीन के ख़िलाफ़ यह बग़ावत शुरू की है हमपर आए दिन कोई-न-कोई मुसीबत टूटती रहती है; क्योंकि हमारे माबूद (उपास्य) हमसे नाराज़ हो गए हैं। इस मतलब के लिहाज़ से यह बात अकसर उन मुशरिक क़ौमों की बातों से मिलती-जुलती है जो अपने नबियों को मनहूस क़रार देती थीं। चुनाँचे सूरा-36 यासीन में एक क़ौम का ज़िक्र आता है कि उसने अपने नबियों से कहा, “हमने तुमको मनहूस पाया है। (आयत-18) यही बात फ़िरऔन की क़ौम हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में कहती थी, “जब उनपर कोई अच्छा वक़्त आता तो कहते कि हमारे लिए यही है और जब कोई मुसीबत आ जाती तो मूसा (अलैहि०) और उनके साथियों के मनहूस होने को इसका ज़िम्मेदार ठहराते।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-131) लगभग ऐसी ही बातें मक्का में नबी (सल्ल०) के बारे में भी कही जाती थीं। दूसरा मतलब इस बात का यह है कि तुम्हारे आते ही हमारी क़ौम में फूट पड़ गई है। पहले हम एक क़ौम थे जो एक दीन (धर्म) पर इकट्ठा थी। तुम्हारे क़दम ऐसे पड़े कि भाई, भाई का दुश्मन हो गया और बेटा बाप से कट गया। इस तरह क़ौम के अन्दर एक नई क़ौम उठ खड़ी होने का अंजाम हमें अच्छा दिखाई नहीं देता। यही वह इलज़ाम था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) की मुख़ालफ़त करनेवाले आप (सल्ल०) के खिलाफ़ बार-बार पेश करते थे। आप (सल्ल०) की दावत शुरू होते ही क़ुरैश के सरदारों के जो नुमाइन्दे अबू-तालिब के पास गए थे, उन्होंने यही कहा था कि “अपने इस भतीजे को हमारे हवाले कर जिसने तुम्हारे दीन (धर्म) और तुम्हारे बाप-दादा के दीन की मुख़ालफ़त की है और तुम्हारी क़ौम में फूट डाल दी है और सारी क़ौम को बेवक़ूफ़ ठहरा दिया है।” (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पेज-285) हज के मौक़े पर जब मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को अन्देशा हुआ कि ज़ियारत के लिए बाहर से आनेवाले आकर कहीं मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़ाम से मुतास्सिर न हो जाएँ तो उन्होंने आपस में मशवरा करने के बाद यही तय किया कि अरब के क़बीलों से कहा जाए कि “यह आदमी जादूगर है, इसके जादू का असर यह होता है कि बेटा बाप से, भाई भाई से, बीवी शौहर से और आदमी अपने सारे ख़ानदान से कट जाता है। (इब्ने-हिशाम, पेज-259)
61. यानी बात वह नहीं है जो तुमने समझ रखी है, अस्ल मामला जिसे अब तक तुम नहीं समझे हो यह है कि मेरे आने से तुम्हारा इम्तिहान शुरू हो गया है। जब तक मैं न आया था, तुम अपनी जहालत में एक डगर पर चले जा रहे थे। हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) का कोई खुला फ़र्क़ सामने न था। खरे और खोटे की परख की कोई कसोटी न थी। बुरे-से-बुरे लोग ऊँचे हो रहे थे और अच्छी-से-अच्छी सलाहियतों के लोग मिट्टी में मिले जा रहे थे, मगर अब एक कसौटी आ गई है जिसपर तुम सब जाँचे और परखे जाओगे अब बीच मैदान में एक तराज़ू रख दिया गया है जो हर एक को उसके वज़न के लिहाज़ से तौलेगा अब हक़ और बातिल आमने-सामने मौजूद हैं। जो हक़ को क़ुबूल करेगा वह भारी उतरेगा चाहे आज तक उसकी कौड़ी-भर भी क़ीमत न रही हो और जो बातिल पर जमेगा उसका वज़न रत्ती-भर भी न रहेगा चाहे वह आज तक अमीरों-का-अमीर ही बना रहा हो। अब फ़ैसला इसपर नहीं होगा कि कौन किस ख़ानदान का है और किसके पास कितने सरो-सामान हैं और कौन कितना ज़ोर रखता है, बल्कि इसपर होगा कि कौन सीधी तरह सच्चाई को क़ुबूल करता है और कौन झूठ के साथ अपनी क़िस्मत जोड़ देता है।
وَكَانَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ تِسۡعَةُ رَهۡطٖ يُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا يُصۡلِحُونَ ۝ 43
(48) उस शहर में नौ जत्थेदार थे62 जो देश में बिगाड़ फैलाते और कोई सुधार का काम न करते थे।
62. यानी क़बीलों के नौ सरदार जिनमें से हर एक अपने साथ एक बड़ा जत्था रखता था।
قَالُواْ تَقَاسَمُواْ بِٱللَّهِ لَنُبَيِّتَنَّهُۥ وَأَهۡلَهُۥ ثُمَّ لَنَقُولَنَّ لِوَلِيِّهِۦ مَا شَهِدۡنَا مَهۡلِكَ أَهۡلِهِۦ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 44
(49) उन्होंने आपस में कहा, ख़ुदा की क़सम खाकर अह्द (प्रतिज्ञा) कर लो कि हम सॉलेह और उसके घरवालों पर हमला करेंगे और फिर उसके वली (सरपरस्त)63 से कह देंगे कि हम उसके ख़ानदान की तबाही के मौक़े पर मौजूद न थे, हम बिलकुल सच कहते हैं।"64
63. यानी हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के क़बीले के सरदार से, जिसको पुराने क़बाइली रस्मो-रिवाज के मुताबिक़ उनके ख़ून के दावे का हक़ पहुँचता था। यह वही पोज़ीशन थी जो नबी (सल्ल०) के ज़माने में आप (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब को हासिल थी। क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन भी इसी अन्देशे से हाथ रोकते थे कि अगर वे नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर देंगे तो बनी-हाशिम के सरदार अबू-तालिब अपने क़बीले की तरफ़ से ख़ून का दावा लेकर उठेंगे।
64. यह बिलकुल उसी तरह की साज़िश थी जैसी मक्का के क़बाइली सरदार नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ सोचते रहते थे और आख़िरकार यही साज़िश उन्होंने हिजरत के मौक़े पर नबी (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए की। यानी यह कि सब क़बीलों के लोग मिलकर आप (सल्ल०) पर हमला करें ताकि बनी-हाशिम किसी एक क़बीले को मुलज़िम न ठहरा सकें और सब क़बीलों से एक ही वक़्त में लड़ना उनके लिए मुमकिन न हो।
وَمَكَرُواْ مَكۡرٗا وَمَكَرۡنَا مَكۡرٗا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 45
(50) यह चाल तो वे चले और फिर एक चाल हमने चली जिसकी उन्हें ख़बर न थी।65
65. यानी इससे पहले कि वे अपने तयशुदा वक़्त पर हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के वहाँ धावा बोलते, अल्लाह तआला ने अपना अज़ाब भेज दिया और न सिर्फ़ वह बल्कि उनकी पूरी क़ौम तबाह हो गई। मालूम ऐसा होता है कि यह साज़िश उन लोगों ने ऊँटनी की कूचें काटने के बाद की थी। सूरा-11 हूद में बताया गया है कि जब उन्होंने ऊँटनी को मार डाला तो हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने उन्हें नोटिस दिया कि बस अब तीन दिन मज़े कर लो, उसके बाद तुमपर अज़ाब आ जाएगा। इसपर शायद उन्होंने सोचा होगा कि अज़ाब जिसका वादा सॉलेह (अलैहि०) कर रहा है, वह आए चाहे न आए, हम लगे हाथों ऊँटनी के साथ उसका भी क्यों न काम तमाम कर दें। चुनाँचे ज़्यादा इमकान यह है कि उन्होंने हमला करने के लिए वही रात चुनी होगी जिस रात अज़ाब आना था और इससे पहले कि उनका हाथ हज़रत सॉलेह (अलैहि०) पर पड़ता ख़ुदा का ज़बरदस्त हाथ उनपर पड़ गया।
فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ مَكۡرِهِمۡ أَنَّا دَمَّرۡنَٰهُمۡ وَقَوۡمَهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 46
(51) अब देख लो कि उनकी चाल का अंजाम क्या हुआ। हमने तबाह करके रख दिया उनको और उनकी पूरी क़ौम को
فَتِلۡكَ بُيُوتُهُمۡ خَاوِيَةَۢ بِمَا ظَلَمُوٓاْۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 47
(52) वे उनके घर ख़ाली पड़े हैं उस ज़ुल्म के बदले में जो वे करते थे, उसमें इबरत की एक निशानी है उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं।66
66. यानी जाहिलों का मामला तो दूसरा है वे तो कहेंगे कि हज़रत सॉलेह (अलैहि०) और उनकी ऊँटनी के मामले से उस ज़लज़ले का कोई ताल्लुक़ नहीं है जो समूद की क़ौम पर आया, ये चीज़ें तो अपनी क़ुदरती वजहों से आया करती हैं। इनके आने या न आने में इस चीज़ का कोई दख़ल नहीं हो सकता कि कौन इस इलाक़े में नेक और भला आदमी था और कौन बुरे काम करनेवाला और किसने किसपर ज़ुल्म किया था और किसने रहम खाया था। ये सिर्फ़ नसीहत के अन्दाज़ के ढकोसले हैं कि फ़ुलाँ शहर या फ़ुलाँ इलाक़ा फ़िस्क़ और फ़ुजूर (बुराई और गुनाह) से भर गया था, इसलिए उसपर सैलाब आ गया या ज़लज़ले ने उसकी बस्तियाँ उलट दीं या किसी और अचानक आ जाने वाली आफ़त ने उसे तलपट कर डाला। लेकिन जो लोग इल्म (ज्ञान) रखते हैं वे जानते हैं कि कोई अंधा-बहरा ख़ुदा इस कायनात पर हुकूमत नहीं कर रहा है, बल्कि एक हिकमतवाली और सब कुछ जाननेवाली हस्ती यहाँ क़िस्मतों के फ़ैसले कर रही है। उसके फ़ैसले क़ुदरती उसूलों के ग़ुलाम नहीं हैं, बल्कि क़ुदरती असबाब उसके इरादे के ग़ुलाम हैं। उसके यहाँ क़ौमों को गिराने और उठाने के फ़ैसले अंधाधुंध नहीं किए जाते, बल्कि हिकमत (गहरी सूझबूझ) और इनसाफ़ के साथ किए जाते हैं और कामों का बदला दिए जाने का क़ानून भी उसके दस्तूर की किताब में शामिल है जिसके मुताबिक़ अख़लाक़ी बुनियादों पर इस दुनिया में भी ज़ालिम अपने कामों के बुरे अंजाम को पहुँचाए जाते हैं। इन हक़ीक़तों को जो लोग जानते हैं, वे उस ज़लज़ले को क़ुदरती असबाब का नतीजा कहकर नहीं टाल सकते। वे उसे अपने हक़ में चेतावनी का कोड़ा समझेंगे। वे इससे सबक़ हासिल करेंगे। वे उन अख़लाक़ी असबाब को समझने की कोशिश करेंगे जिनकी बुनियाद पर पैदा करनेवाले ने अपनी पैदा की हुई एक फलती-फूलती क़ौम को तबाह करके रख दिया। वे अपने रवैये को उस राह से हटाएँगे जो उसका ग़ज़ब लानेवाली है और उस राह पर डालेंगे जो उसकी रहमत से मिलानेवाली है।
وَأَنجَيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 48
(53) और बचा लिया हमने उन लोगों को जो ईमान लाए थे और नाफ़रमानी से बचते थे।
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 49
(54) और लूत67 को हमने भेजा। याद करो वह वक़्त जब उसने अपनी क़ौम से कहा, “क्या तुम आँखों देखते बदकारी करते हो?68
68. इस बात के कई मतलब हो सकते हैं और शायद वे सभी मुराद हैं। एक यह कि तुम इस काम के फ़ुह्श (अश्लील) और बुरे होने से अनजान नहीं हो, बल्कि जानते-बूझते यह हरकत करते हो। दूसरा यह कि तुम इस बात से भी अनजान नहीं हो कि मर्द की ख़ाहिशे-नफ़्स (यौन-इच्छा) पूरी करने के लिए मर्द नहीं पैदा किया गया, बल्कि औरत पैदा की गई है और मर्द-औरत का फ़र्क़ भी ऐसा नहीं है कि तुम्हारी आँखों को नज़र न आता हो, मगर तुम खुली आँखों के साथ यह जीती मक्खी निगलते हो। तीसरा यह कि तुम खुल्लम-खुल्ला यह बेशर्मी और बेहयाई का काम करते हो जबकि देखनेवाली आँखें तुम्हें देख रही होती हैं, जैसा कि आगे सूरा-29 अन्‌कबूत में आ रहा है, “और तुम अपनी महफ़िलों में बुरा काम करते हो। (आयत-29)
أَئِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ شَهۡوَةٗ مِّن دُونِ ٱلنِّسَآءِۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ تَجۡهَلُونَ ۝ 50
(55) क्या तुम्हारा यही चलन है कि औरतों को छोड़कर मर्दों के पास शहवतरानी (यौन-इच्छा पूरी करने) के लिए जाते हो? हक़ीक़त यह है कि तुम लोग सख़्त जहालत का काम करते हो।”69
69. जहालत का लफ़्ज़ यहाँ बेवक़ूफ़ी और बेअक़्ली के मानी में इस्तेमाल हुआ है। उर्दू और हिन्दी ज़बान में भी हम गाली-गलौज और बेहूदा हरकतें करनेवाले को कहते हैं कि वह जहालत पर उतर आया है। इसी मानी में यह लफ़्ज़ अरबी ज़बान में भी इस्तेमाल होता है। चुनाँचे क़ुरआन मजीद में कहा गया है, “और जाहिल उनके मुँह आएँ तो कह देते हैं कि तुमको सलाम।” (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-63) लेकिन अगर इस लफ़्ज़ को बेइल्मी (अज्ञानता) ही के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब होगा कि तुम अपनी इन हरकतों के बुरे अंजाम को नहीं जानते। तुम यह तो जानते हो कि यह एक नफ़्स की लज़्ज़त (यौन-सुख) है जो तुम हासिल कर रहे हो। मगर तुम्हें यह मालूम नहीं है कि इस इन्तिहाई मुजरिमाना और घिनौनी लज़्ज़त हासिल करने का कैसा ख़मियाज़ा तुम्हें बहुत जल्द भुगतना पड़ेगा। ख़ुदा का अज़ाब तुमपर टूट पड़ने के लिए तैयार खड़ा है और तुम हो कि अंजाम से बेख़बर अपने इस गन्दे खेल में लगे हो।
۞فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَخۡرِجُوٓاْ ءَالَ لُوطٖ مِّن قَرۡيَتِكُمۡۖ إِنَّهُمۡ أُنَاسٞ يَتَطَهَّرُونَ ۝ 51
(56) मगर उसकी क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, “निकाल दो लूत के घरवालों को अपनी बस्ती से, ये बड़े पाकबाज़ बनते हैं।”
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَٰهَا مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 52
(57) आख़िरकार हमने बचा लिया उसको और उसके घरवालों को, सिवाय उसकी बीवी के जिसका पीछे रह जाना हमने तय कर दिया था,70
70. यानी पहले ही हज़रत लूत (अलैहि०) को हिदायत कर दी गई थी कि वे उस औरत को अपने साथ न ले जाएँ; क्योंकि उसे अपनी क़ौम के साथ तबाह होना है।
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَسَآءَ مَطَرُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 53
(58) और बरसाई उन लोगों पर एक बरसात, बहुत ही बुरी बरसात थी वह उन लोगों के लिए जो ख़बरदार किए जा चुके थे।
قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ وَسَلَٰمٌ عَلَىٰ عِبَادِهِ ٱلَّذِينَ ٱصۡطَفَىٰٓۗ ءَآللَّهُ خَيۡرٌ أَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 54
(59) (ऐ नबी71) कहो, तारीफ़ है अल्लाह के लिए और सलाम उसके उन बन्दों पर जिन्हें उसने चुन लिया।(इनसे पूछो) अल्लाह बेहतर है या वे माबूद जिन्हें वे लोग उसका साझी ठहरा रहे हैं?72
71. यहाँ से दूसरी तक़रीर शुरू होती है और यह जुमला उसकी तमहीद (भूमिका) है। इस तमहीद से यह सबक़ सिखाया गया है कि मुसलमानों को अपनी तक़रीर की शुरुआत किस तरह करनी चाहिए। इसी वजह से सही इस्लामी ज़ेहनियत रखनेवाले लोग हमेशा से अपनी तक़रीरें अल्लाह की हम्द (तारीफ़) और उसके नेक बन्दों पर सलाम से शुरू करते रहे हैं। मगर अब इसे 'मुल्लाइयत' समझा जाने लगा है और मौजूदा ज़माने के मुसलमान तक़रीर करनेवाले इससे बात की शुरुआत करने का ख़याल तक अपने जेहन में नहीं रखते, या फिर इसमें शर्म महसूस करते हैं।
72. बज़ाहिर यह सवाल बड़ा अजीब मालूम होता है कि अल्लाह बेहतर है या ये झूठे माबूद। हक़ीक़त के एतिबार से तो झूठे माबूदों में सिरे से किसी भलाई का सवाल ही नहीं है कि अल्लाह से उनका मुक़ाबला किया जाए। रहे मुशरिक लोग तो वे भी इस ग़लतफ़हमी में पड़े हुए न थे कि अल्लाह का और उन माबूदों का कोई मुक़ाबला है। लेकिन यह सवाल उनके सामने इसलिए रखा गया कि वे अपनी ग़लती पर ख़बरदार हों। ज़ाहिर है कि कोई आदमी दुनिया में कोई काम भी उस वक़्त तक नहीं करता जब तक वह अपने नज़दीक उसमें किसी भलाई या फ़ायदे का ख़याल न रखता हो। अब अगर ये मुशरिक लोग अल्लाह की इबादत के बजाय उन माबूदों की इबादत करते थे और अल्लाह को छोड़कर उनसे अपनी ज़रूरतें तलब करते और उनके आगे भेंट चढ़ाते थे, तो यह इसके बिना बिलकुल बेमतलब था कि उन माबूदों में कोई भलाई हो। इसी वजह से उनके सामने साफ़ अलफ़ाज़ में यह सवाल रखा गया कि बताओ, अल्लाह बेहतर है या तुम्हारे ये माबूद? क्योंकि इस दोटूक सवाल का सामना करने की उनमें हिम्मत न थी। उनमें से कोई कट्टर-से-कट्टर मुशरिक भी यह कहने की जुरअत नहीं कर सकता था कि हमारे माबूद बेहतर हैं और यह मान लेने के बाद कि अल्लाह बेहतर है, उनके पूरे दीन की बुनियाद ढह जाती थी, इसलिए कि फिर यह बात सरासर ग़लत क़रार पाती थी कि बेहतर को छोड़कर बदतर को अपनाया जाए। इस तरह क़ुरआन ने तक़रीर के पहले ही जुमले में मुख़ालफ़त करनेवालों को बेबस कर दिया। इसके बाद अब लगातार अल्लाह तआला की क़ुदरत और तख़लीक़ (पैदाइश) के एक-एक करिश्मे की तरफ़ उँगली उठाकर पूछा जाता है कि बताओ ये काम किसके हैं? क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी इन कामों में शरीक है? अगर नहीं है तो फिर ये दूसरे आख़िर क्या हैं कि इन्हें तुमने माबूद बना रखा है। रिवायतों में आता है कि नबी (सल्ल०) जब इस आयत की तिलावत करते तो फौरन जवाब में फ़रमाते, “बलिल्लाहु ख़ैरूँ-व अबक़ा व अजल्लु व अक-रमु” (नहीं, बल्कि अल्लाह ही बेहतर है और वही बाक़ी रहनेवाला और बुज़ुर्ग और बरतर है)।
أَمَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَأَنزَلَ لَكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَنۢبَتۡنَا بِهِۦ حَدَآئِقَ ذَاتَ بَهۡجَةٖ مَّا كَانَ لَكُمۡ أَن تُنۢبِتُواْ شَجَرَهَآۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٞ يَعۡدِلُونَ ۝ 55
(60) भला वह कौन है जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और तुम्हारे लिए आसमान से पानी बरसाया फिर उसके जरिए से ये लुभावने बाग़ उगाए जिनके पेड़ों का उगाना तुम्हारे बस में न था? क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी (इन कामों में शरीक) है?73 (नहीं), बल्कि यही लोग सीधे रास्ते से हटकर चले जा रहे हैं।
73. मुशरिकों में से कोई भी इस सवाल का यह जवाब न दे सकता था कि ये काम अल्लाह के सिवा किसी और के हैं, या अल्लाह के साथ कोई और भी इनमें शरीक है। क़ुरआन मजीद दूसरी जगहों पर मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों और अरब के मुशरिकों के बारे में कहता है, “अगर तुम उनसे पूछो कि किसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है तो वे ज़रूर कहेंगे कि उस ज़बरदस्त, इल्मवाले ने ही इनको पैदा किया है।” (सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-9) “और अगर उनसे पूछो कि ख़ुद उन्हें किसने पैदा किया है तो वे ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने।” (सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-87) “और अगर उनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी बरसाया और मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया तो वे ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने।” (सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-63) “उनसे पूछो कौन तुमको आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है? ये सुनने और देखने की ताक़तें किसके अधिकार में हैं? कौन जानदार को बेजान में से और बेजान को जानदार में से निकालता है? कौन इस कायनात के इन्तिज़ाम को चला रहा है? वे ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-31) अरब के मुशरिक ही नहीं, दुनिया भर के मुशरिक लोग आम तौर से यही मानते थे और आज भी मानते हैं कि कायनात का पैदा करनेवाला और इस पूरी दुनिया का निज़ाम चलानेवाला अल्लाह तआला ही है। इसलिए क़ुरआन मजीद के इस सवाल का यह जवाब उनमें से कोई शख़्स हठधर्मी की वजह से बहस करने के लिए भी न दे सकता था कि हमारे माबूद ख़ुदा के साथ इन कामों में शरीक हैं; क्योंकि अगर वह ऐसा कहता तो उसकी अपनी ही क़ौम के हज़ारों आदमी उसको झुठला देते और साफ़ कहते कि हमारा यह अक़ीदा नहीं है। इस सवाल और इसके बाद के सवालों में सिर्फ़ मुशरिकों ही के शिर्क को ग़लत साबित नहीं किया गया है, बल्कि नास्तिकों की नास्तिकता को भी ग़लत साबित किया गया है। मसलन इसी पहले सवाल में पूछा गया है कि यह बारिश बरसानेवाला और उसके ज़रिए से हर तरह के पेड़-पौधे उगानेवाला कौन है? अब ग़ौर कीजिए, ज़मीन में उस माद्दे (तत्व) का ठीक सतह पर या सतह से मिला हुआ मौजूद होना जो अनगिनत तरह के पेड़-पौधों की ज़िन्दगी के लिए दरकार है और पानी के अन्दर ठीक वे ख़ूबियाँ मौजूद होना जो जानवरों की ज़िन्दगी और पेड़-पौधों की ज़िन्दगी की ज़रूरतों के मुताबिक़ हैं और उस पानी का लगातार समन्दरों से उठाया जाना और ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में वक़्त-वक़्त पर एक बाक़ायदगी के साथ बरसाया जाना और ज़मीन, हवा, पानी और दर्जा-ए-हरारत (तापमान) वग़ैरा अलग-अलग क़ुव्वतों के बीच ऐसा मुनासिब तालमेल क़ायम करना कि इससे पेड़-पौधों की ज़िन्दगी फले-फूले और वह हर तरह के जानवरों की ज़िन्दगी के लिए उसकी अनगिनत ज़रूरतें पूरी करे, क्या यह सबकुछ एक हिकमतवाले की मंसूबा-बन्दी और समझदारी से भरी तदबीर के बिना ख़ुद-ब-ख़ुद इत्तिफ़ाक़ से हो सकता है? और क्या यह मुमकिन है कि यह इत्तिफ़ाक़ी हादिसा लगातार हज़ारों साल, बल्कि लाखों-करोड़ों साल तक इसी बाक़ायदगी के साथ होता चला जाए? सिर्फ़ एक हठधर्म आदमी ही, जो तास्सुब में अंधा हो चुका हो, उसे एक इत्तिफ़ाक़ी बात कह सकता है। किसी सच्चाई-पसन्द अक़्लमन्द इनसान के लिए ऐसा बेमतलब दावा करना और मानना मुमकिन नहीं है।
أَمَّن جَعَلَ ٱلۡأَرۡضَ قَرَارٗا وَجَعَلَ خِلَٰلَهَآ أَنۡهَٰرٗا وَجَعَلَ لَهَا رَوَٰسِيَ وَجَعَلَ بَيۡنَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ حَاجِزًاۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 56
(61) और वह कौन है जिसने ज़मीन को ठहरने की जगह बनाया और उसके74 अन्दर नदियाँ बहाईं और उसमें (पहाड़ों की) खूटियाँ गाड़ दीं और पानी के दो ज़ख़ीरों (भण्डारों) के बीच परदे डाल दिए?75 क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी (इन कामों में शरीक) है? नहीं, बल्कि उनमें से अकसर लोग नादान हैं।
74. ज़मीन का अपनी बेहद्दो-हिसाब तरह-तरह की आबादी के लिए रहने की जगह होना भी कोई सादा सी बात नहीं है। मिट्टी के इस गोले (धरती) को जिन हिकमत भरी मुनासिब चीज़ों के साथ क़ायम किया गया है, उनकी तफ़सीलात पर अगर आदमी ग़ौर करे तो उसकी अक़्ल दंग रह जाती है और उसे ऐसा महसूस होता है कि ये मुनासबतें (अनुकूलताएँ) एक हिकमतवाले और सब कुछ करने की क़ुदरत रखनेवाले की तदबीर के बिना क़ायम न हो सकती थीं। यह गोला (धरती) लम्बी-चौड़ी फ़ज़ा (वायुमण्डल) में लटका हुआ है, किसी चीज़ पर टिका हुआ नहीं है। मगर इसके बावजूद न तो यह हिलता-डुलता है और न काँपता ही है। अगर यह ज़रा-सा भी हिलता-डुलता या काँपता, जिसके ख़तरनाक नतीजों का हम कभी ज़लजज़ला आ जाने से आसानी से अन्दाज़ा लगा सकते हैं, तो यहाँ कोई आबादी मुमकिन न थी। धरती का यह गोला बाक़ायदगी के साथ सूरज के सामने आता और छिपता है, जिससे रात-दिन का फ़र्क़ सामने आता है। अगर उसका एक ही रुख़ हर वक़्त सूरज के सामने रहता और दूसरा रुख़ हर वक़्त छिपा रहता तो यहाँ कोई आबादी मुमकिन न होती, क्योंकि एक रुख़ को सर्दी और अंधेरा पेड़-पौधों और जानदारों की पैदाइश के क़ाबिल न रखता और दूसरे रुख़ को गर्मी की शिद्दत बिना पानी और हरियाली के बंजर बना देती। इस धरती पर पाँच सौ मील की बुलन्दी तक हवा की एक मोटी परत चढ़ा दी गई है जो शिहाबों (उल्का-पिण्डों) की भयानक बमबारी से उसे बचाए हुए है। वरना हर दिन दो करोड़ शिहाब, जो 30 मील फ़ी सेकण्ड की गति से ज़मीन की तरफ़ गिरते हैं, यहाँ वह तबाही मचाते कि कोई इनसान, जानवर या पेड़ जीता न रह सकता था। यही हवा दरजा-ए-हरारत (तापमान) को क़ाबू में रखती है, यही समन्दरों से बादल उठाती और ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों तक पानी पहुँचाने का काम करती है और यही इनसान और जानवरों और पेड़-पौधों को ज़िन्दगी को दरकार ग़ैसें जुटाती है। यह न होती तब भी ज़मीन किसी आबादी के लिए रहने की जगह न बन सकती। अब इस बात पर ग़ौर करें कि इस गोले (धरती) की सतह से बिलकुल मिले हुए वे मादनियात (खनिज पदार्थ) और तरह-तरह के कीमियाबी अजज़ा (रासायनिक तत्व) बड़े पैमाने पर जुटा दिए गए हैं जो पेड़-पौधों की, जानवरों की और इनसान की ज़िन्दगी के लिए दरकार हैं। जिस जगह भी यह सरो-सामान नहीं होता, वहाँ की ज़मीन किसी ज़िन्दगी को सहारा देने के लायक़ नहीं होती। धरती के इस गोले पर समन्दरों, नदियों, झीलों और ज़मीन के नीचे सोतों की शक्ल में पानी का बड़ा अज़ीमुश्शान ज़ख़ीरा (भण्डार) रख दिया गया है और पहाड़ों पर भी उसके बड़े-बड़े ज़ख़ीरों को जमा देने और फिर पिघलाकर बहाने का इन्तिज़ाम किया गया है। इस तदबीर (उपाय) के बिना यहाँ किसी ज़िन्दगी का इमकान न था। फिर इस पानी, हवा और तमाम उन चीज़ों को जी ज़मीन पर पाई जाती हैं, समेटे रखने के लिए इस धरती के गोले में बहुत ही मुनासिब कशिश (खिंचाव) रख दी गई है। यह कशिश अगर कम होती तो हवा और पानी, दोनों को न रोक सकती और तापमान इतना ज़्यादा होता कि ज़िन्दगी यहाँ दुश्वार हो जाती। यह कशिश अगर ज़्यादा होती तो हवा बहुत भारी हो जाती, उसका दबाव बढ़ जाता पानी का भाप बनकर उठना मुश्किल हो जाता और बारिशें न हो सकतीं, सर्दी ज़्यादा होती, ज़मीन के बहुत कम इलाक़े आबादी के क़ाबिल होते, बल्कि कशिशे-सक़ल (गुरुत्वाकर्षण) बहुत ज़्यादा होने की हालत में इनसानों और जानवरों की जसामत (आकार) बहुत छोटी होती और उनका वज़न इतना ज़्यादा होता कि चलना-फिरना भी उनके लिए मुश्किल होता। इसके अलावा, धरती के इस गोले को सूरज से एक ख़ास दूरी पर रखा गया है जो आबादी के लिए सबसे ज़्यादा मुनासिब जगह है। अगर इसका फ़ासला ज़्यादा होता तो सूरज से इसको गर्मी कम मिलती, सर्दी बहुत ज़्यादा होती, मौसम बहुत लम्बे होते और मुश्किल ही से यह आबादी के क़ाबिल होता और अगर फ़ासला कम होता तो इसके बरख़िलाफ़ गर्मी की ज़्यादती और दूसरी बहुत-सी चीज़ें मिल-जुलकर इसे इनसान जैसे जानदार के रहने के क़ाबिल न रहने देतीं। ये सिर्फ़ कुछ वे मुनासबतें (अनुकूलताएँ) हैं जिनकी बदौलत ज़मीन अपनी मौजूदा आबादी के लिए रहने का ठिकाना बनी है। कोई शख़्स अक़्ल रखता हो और इन बातों को निगाह में रखकर सोचे तो वह एक पल के लिए भी न यह सोच सकता है कि किसी ख़ालिक़े-हकीम (तत्वदर्शी-स्रष्टा) की स्कीम के बिना यह मुनासबतें (अनुकूलताएँ) सिर्फ़ एक हादिसे (घटना) के नतीजे में ख़ुद-ब-ख़ुद क़ायम हो गई हैं और न यह गुमान कर सकता कि इस अज़ीमुश्शान तख़लीक़ी मंसूबे (पैदाइश से मुताल्लिक़ स्कीम) को बनाने और अमल में लाने में किसी देवी-देवता, या जिन्न, या नबी और वली, या फ़रिश्ते का कोई दख़ल है।
75. यानी मीठे और खारे पानी के भण्डार, जो इसी ज़मीन पर मौजूद हैं, मगर आपस में गड्ड-मड्ड नहीं होते। ज़मीन के नीचे के पानी के सोत कई बार एक ही इलाक़े में खारा पानी अलग और मोटा पानी अलग लेकर चलते हैं। खारे पानी के समन्दर तक में कुछ जगहों पर मीठे पानी के चश्मे जारी होते हैं और उनकी धारा समन्दर के पानी से इस तरह अलग होती है कि समन्दरी मुसाफ़िर उसमें से पीने के लिए पानी हासिल कर सकते हैं। (तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-68)
أَمَّن يَهۡدِيكُمۡ فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ وَمَن يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦٓۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ تَعَٰلَى ٱللَّهُ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 57
(63) और वह कौन है जो ख़ुश्की (थल) और समन्दर के अंधियारों में तुमको रास्ता दिखाता है78 और कौन अपनी रहमत के आगे हवाओं को ख़ुशख़बरी लेकर भेजता है?79 क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी (यह काम करता) है? बहुत बुलन्द और बरतर (श्रेष्ठ) है अल्लाह उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
78. यानी जिसने सितारों के ज़रिए से ऐसा इन्तिज़ाम कर दिया है कि तुम रात के अंधेरे में भी अपना रास्ता तलाश कर सकते हो। यह भी अल्लाह तआला की हिकमत भरी तदबीरों में से एक है कि उसने समन्दरी और ज़मीनी सफ़रों में इनसान की रहनुमाई के लिए वे ज़रिए पैदा कर दिए हैं जिनसे वह अपने सफ़र की सम्त (दिशा) और मंज़िल की तरफ़ अपनी राह तय करता है। दिन के वक़्त ज़मीन की अलग-अलग निशानियाँ और सूरज के निकलने और डूबने की सम्तें (दिशाएँ) उसकी मदद करती हैं और अंधेरी रातों में तारे उसको रास्ता दिखाते हैं। सूरा-16 नह्ल में इन सबको अल्लाह के एहसानों में गिना गया है, “उसने (ज़मीन में रास्ता बतानेवाली) निशानियाँ रख दीं और तारों से भी लोग रास्ता पाते हैं।” (आयत-16)
79. रहमत से मुराद है बारिश जिसके आने से पहले हवाएँ उसके आने की ख़बर दे देती हैं।
أَمَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَمَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 58
(64) और वह कौन है जो पैदाइश की शुरुआत करता है और फिर उसे दोहराता है?80 और कौन तुमको आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है?81 क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी (इन कामों में हिस्सेदार) है? कहो कि लाओ अपनी दलील अगर तुम सच्चे हो।82
80. यह सादा-सी बात जिसको एक जुमले में बयान कर दिया गया है, अपने अन्दर ऐसी तफ़सीलात रखती है कि आदमी उनकी गहराई में जितनी दूर तक उतरता जाता है, उतने ही अल्लाह के वुजूद और उसके एक होने के सुबूत मिलते चले जाते हैं। पहले तो ख़ुद पैदाइश के अमल ही को देखिए। इनसान का इल्म आज तक यह राज़ नहीं पा सका है कि ज़िन्दगी कैसे और कहाँ से आती है। इस वक़्त तक तसलीमशुदा (मान्य) साइंटिफ़िक सच्चाई यही है कि बेजान माद्दे (तत्व) की सिर्फ़ तरतीब (संयोजन) से अपने आप जान पैदा नहीं हो सकती। ज़िन्दगी की पैदाइश के लिए जितनी चीज़ें दरकार हैं, उन सबका ठीक तनासुब (अनुपात) के साथ बिलकुल इत्तिफ़ाक़ से इकट्ठा होकर ज़िन्दगी का आप-से आप वुजूद में आ जाना ख़ुदा को न माननेवालों का एक ग़ैर-इल्मी (ज्ञान के बिना) गढ़ा हुआ ख़याल तो ज़रूर है, लेकिन अगर 'इमकान के क़ानून' (Law of Probability) को इसपर चस्पाँ किया जाए तो उसके होने का इमकान सिफ़र (शून्य) से ज़्यादा नहीं निकलता। अब तक तजरिबी तरीक़े पर साइंस की लेबोरेट्रीज़ (प्रयोगशालाओं) में बेजान माद्दे से जानदार माद्दा पैदा करने की जितनी भी कोशिशें की गई हैं, तमाम मुमकिन तदबीरें इस्तेमाल करने के बावजूद वे सब पूरी तरह नाकाम हो चुकी हैं। ज़्यादा-से-ज़्यादा जो चीज़ पैदा की जा सकी है वह सिर्फ़ वह माद्दा है जिसे डी. एन.ए. (D.N.A.) कहा जाता है। यह वह माद्दा है जो ज़िन्दा ख़लियों (कोशिकाओं) में पाया जाता है। यह ज़िन्दगी का सत (जौहर) तो ज़रूर है मगर ख़ुद जानदार नहीं है। ज़िन्दगी अब भी अपने आपमें एक मोजिज़ा (चमत्कार) ही है जिसकी कोई इल्मी (Scientific) वजह इसके सिवा नहीं बयान की जा सकी है कि यह एक पैदा करनेवाले के हुक्म और इरादे और मंसूबे का नतीजा है। इसके बाद आगे देखिए। ज़िन्दगी सिर्फ़ एक तन्हा शक्ल में नहीं, बल्कि अनगिनत शक्लों में पाई जाती है। इस वक़्त ज़मीन पर जानवरों की लगभग दस लाख और पेड़-पौधों की लगभग दो लाख क़िस्मों का पता चला है। यह लाखों क़िस्में अपनी बनावट और जातीय ख़ुसूसियतों में एक-दूसरे से ऐसा साफ़ फ़र्क़ रखती हैं और बहुत पुराने ज़माने से अपनी-अपनी क़िस्मों को इस तरह लगातार बनाए रखती चली आ रही हैं कि एक ख़ुदा के तख़लीक़ी मंसूबे (रचनात्मक योजना Design) के सिवा ज़िन्दगी की इस बड़ी रंगा-रंगी की कोई और सही वजह बयान कर देना किसी डॉर्विन के बस की बात नहीं है। आज तक कहीं भी दो क़िस्मों के बीच की कोई एक कड़ी भी नहीं मिल सकी है जो एक क़िस्म की बनावट और ख़ासियतों का ढाँचा तोड़कर निकल आई हो और अभी दूसरी क़िस्म की बनावट और ख़ासियतों तक पहुँचने के लिए हाथ-पाँव मार रही हो। मुतहज्जिरात (जीवाश्म, Fossils) का पूरा रिकार्ड इसकी मिसाल से ख़ाली है और मौजूदा जानवरों में भी यह अधूरा रूप कहीं नहीं मिला है। आज तक किसी जाति की जो इकाई भी मिली है, अपनी क़िस्म के पूरे रूप के साथ ही मिली है और हर वह कहानी जो किसी खोई हुई कड़ी के मिल जाने की वक़्त-वक़्त पर सुना दी जाती है, थोड़ी मुद्दत बाद सच्चाई उसकी सारी हवा निकाल देती है। इस वक़्त तक यह हक़ीक़त अपनी जगह बिलकुल अटल है कि एक हिकमतवाले कारीगर, एक पैदाइश की शुरुआत करने और शक्ल देनेवाले ही ने ज़िन्दगी को ये लाखों रंगा-रंग सूरतें दी हैं। यह तो है पैदाइश की शुरुआत का मामला। अब ज़रा दोबारा पैदा किए जाने पर ग़ौर कीजिए। पैदा करनेवाले ने हर जानवर और पेड़-पौधे की बनावट और तरकीब में वह हैरत-अंगेज़ निज़ामुल-अमल (Maechanism) रख दिया है जो उसकी अनगिनत इकाइयों में से बेहद्दो- हिसाब नस्ल ठीक उसी की क़िस्म की शक्लों, मिज़ाज और ख़ासियतों के साथ निकलता चला जाता है और कभी भूले से भी उन करोड़ों छोटे-छोटे कारख़ानों में यह भूल-चूक नहीं होती कि एक जाति की नस्ल का बनानेवाला कोई कारख़ाना किसी दूसरी जाति का एक नमूना निकालकर फेंक दे। पैदाइश और नस्ल के बारे में जो इल्म आज मौजूद है उसके तजरिबे इस मामले में हैरत-अगेज़ सच्चाइयाँ पेश करते हैं। हर पौधे में यह सलाहियत (क्षमता) रखी गई है कि अपनी जाति का सिलसिला आगे की नस्लों तक जारी रखने का ऐसा पूरा इन्तिज़ाम करे जिससे आनेवाली नस्ल में उस जाति की तमाम ख़ासियतें पाई जाएँ और उसकी हर इकाई दूसरी तमाम जातियों की इकाइयों से अपनी जातीय शक्ल में अलग हो। जाति और नस्ल के बाक़ी रखने का यह सामान हर पौधे की एक कोशिका (Cell) के एक हिस्से में होता है जिसे बड़ी मुश्किल से इन्तिहाई ताक़तवर दूरबीन (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) से देखा जा सकता है। यह छोटा-सा इंजीनियर बिना किसी कमी के पौधे के सारे नशो-नमा को पूरी तरह उसी रास्ते पर डालता है जो उसकी अपनी जातीय सूरत का रास्ता है। इसी की बदौलत गेहूँ के एक दाने से आज तक जितने पौधे भी दुनिया में कहीं पैदा हुए हैं उन्होंने गेहूँ ही पैदा किया है, किसी आबो-हवा (जलवायु) और किसी माहौल में यह हादिसा कभी सामने नहीं आया कि गेहूँ के दाने की नस्ल से कोई एक ही दाना जौ का पैदा हो जाता। ऐसा ही मामला जानवरों और इनसानों का भी है कि उनमें से किसी की पैदाइश बस एक ही बार होकर नहीं रह गई है, बल्कि इतने बड़े पैमाने पर, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, हर तरफ़ बार-बार पैदा करने का एक बड़ा कारख़ाना चल रहा है जो हर क़िस्म की इकाइयों से लगातार उसी क़िस्म की बेशुमार इकाइयाँ वुजूद में लाता चला जा रहा है। अगर कोई शख़्स दूरबीन (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) से दिखाई देनेवाले नस्ल के उस बीज को देखे जो तमाम जातीय ख़ासियतों और विरासती ख़ासियतों को अपने ज़रा-से वुजूद के भी सिर्फ़ एक हिस्से में लिए हुए होता है और फिर उस बेहद नाज़ुक और पेचीदा निज़ाम को देखे जो अंगों से ताल्लुक़ रखता है और बेहद लतीफ़ (सूक्ष्म) और पुरपेच अमलियात (जटिल प्रक्रियाओं, Progresses) को देखे जिनकी मदद से हर जाति की हर इकाई का नस्ल पैदा करनेवाला बीज उसी जाति की इकाई वुजूद में लाता है, तो वह एक पल के लिए भी यह सोच नहीं सकता कि ऐसा नाज़ुक और पेचीदा निज़ामुल-अमल कभी ख़ुद-ब-ख़ुद बन सकता है और फिर तरह-तरह के अरबों-खरबों लोगों में आप-से-आप ठीक चलता भी रह सकता है। यह चीज़ न सिर्फ़ अपनी इब्तिदा के लिए एक हिकमतवाला कारीगर चाहती है, बल्कि हर पल अपने दुरुस्त तरीक़े पर चलते रहने के लिए भी एक इन्तिज़ाम और तदबीर करनेवाले और एक हमेशा ज़िन्दा और क़ायम रहनेवाले की तलबगार है जो एक पल के लिए भी इन कारख़ानों की निगरानी और रहनुमाई से लापरवाह न हो। ये सच्चाइयाँ एक नास्तिक के ख़ुदा के इनकार की भी इसी तरह जड़ काट देती हैं जिस तरह एक मुशरिक के शिर्क की। कौन बेवक़ूफ़ यह गुमान कर सकता है कि ख़ुदाई के इस काम में कोई फ़रिश्ता या जिन्न या नबी या वली ज़रा बराबर भी कोई हिस्सा रखता है और कौन अक़्लमन्द आदमी तास्सुब (पक्षपात) से पाक होकर यह कह सकता है कि बार-बार पैदाइश के अमल को दोहरानेवाला यह कारख़ाना इस पूरी हिकमत और नज़्म (अनुशासन) के साथ इत्तिफ़ाक़ से शुरू हुआ और आप-से-आप चले जा रहा है।
81. रोज़ी देने का मामला भी उतना सादा नहीं है जितना सरसरी तौर पर इन थोड़े से-अलफ़ाज़ को पढ़कर कोई शख़्स महसूस करता है। इस ज़मीन पर लाखों तरह के जानदार और लाखों तरह ही के पेड़-पौधे पाए जाते हैं जिनमें से हर एक की अरबों की तादाद मौजूद है और हर एक की खाने-पीने की ज़रूरतें अलग-अलग हैं। पैदा करनेवाले ने उनमें से हर जाति के खाने-पीने का सामान इतनी ज़्यादा मिक़दार में और हर एक की पहुँच के इतने ज़्यादा क़रीब जुटा दिया है कि किसी जाति के लोग यहाँ खाना पाने से महरूम (वंचित) नहीं रह जाते। फिर इस इन्तिज़ाम में ज़मीन और आसमान की इतनी अलग-अलग ताक़तें मिल-जुलकर काम करती हैं कि जिनकी गिनती करना मुश्किल है। गर्मी, रौशनी, हवा, पानी और ज़मीन के तरह-तरह के माद्दों (पदार्थों) के बीच अगर ठीक तनासुब (अनुपात) के साथ तालमेल न हो तो खाने का एक ज़र्रा भी वुजूद में नहीं आ सकता। कौन शख़्स सोच सकता है कि यह हिकमत भरा इन्तिज़ाम एक गहरी सूझ-बूझ रखनेवाले की तदबीर और सोचे-समझे मंसूबे के बिना यूँ ही इत्तिफ़ाक़ से हो सकता था? और कौन अपने होश-हवास में रहते हुए यह सोच सकता है कि इस इन्तिज़ाम में किसी जिन्न या फ़रिश्ते या किसी बुज़ुर्ग की रूह का कोई दख़ल है?
82. यानी या तो इस बात पर दलील लाओ कि इन कामों में सचमुच कोई और भी शरीक है, या नहीं तो फिर किसी सही दलील से यही बात समझा दो कि ये सारे काम तो हों सिर्फ़ एक अल्लाह के मगर बन्दगी व इबादत का हक़ पहुँचे उसके सिवा किसी और को, या उसके साथ किसी और को भी।
قُل لَّا يَعۡلَمُ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلۡغَيۡبَ إِلَّا ٱللَّهُۚ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ ۝ 59
(65) इनसे कहो : अल्लाह के सिवा आसमानों और ज़मीन में कोई ग़ैब (परोक्ष) का इल्म नहीं रखता।83 और वे (तुम्हारे माबूद तो यह भी) नहीं जानते कि कब वे उठाए जाएँगे।84
83. ऊपर पैदा करने, इन्तिज़ाम करने और रोज़ी देने के एतिबार से अल्लाह तआला के अकेला माबूद (यानी अकेले ख़ुदा और अकेले इबादत का हक़दार) होने पर दलील दी गई थी। अब ख़ुदाई की एक और अहम सिफ़त, यानी इल्म के लिहाज़ से बताया जा रहा है कि इसमें भी अल्लाह तआला का कोई शरीक नहीं है। आसमान और ज़मीन में जो भी जानदार हैं, चाहे फ़रिश्ते हों या जिन्न या पैग़म्बर और नेक बुज़ुर्ग या दूसरे इनसान या इनसान के अलावा कोई और जानदार, सबका इल्म महदूद है। सबसे कुछ-न-कुछ छिपा है। सब कुछ जाननेवाला अगर कोई है तो वह सिर्फ़ अल्लाह तआता है जिससे इस कायनात की कोई चीज़ और कोई बात छिपी नहीं, जो गुज़रे हुए (भूतकाल), हाल (वर्तमान) और आइन्दा (भविष्य) सबको जानता है। 'ग़ैब' का मतलब है छिपा हुआ। इस्लामी ज़बान में इससे मुराद हर वह चीज़ है जो मालूम न हो, जिस तक जानकारी के ज़रिओं की पहुँच न हो। दुनिया में बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो अलग-अलग कुछ इनसानों की जानकारी में हैं और कुछ की जानकारी में नहीं हैं और बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो सब-की-सब तमाम इनसानों की जानकारी में न कभी थीं, न आज हैं, न आगे कभी हो सकेंगी। ऐसा ही मामला जिन्नों और फ़रिश्तों और दूसरे जानदारों का है कि कुछ बीजें उनमें से किसी से छिपी और किसी को मालूम है और अनगिनत चीज़ें ऐसी हैं जो उन सबसे छिपी हैं और किसी को भी मालूम नहीं। ये तमाम तरह के ‘ग़ैब' सिर्फ़ एक हस्ती के सामने हैं और वह अल्लाह तआला की हस्ती है। उसके लिए कोई चीज ‘ग़ैब’ नहीं, सब सामने-ही-सामने है। इस हक़ीक़त को बयान करने में सवाल का वह तरीक़ा नहीं अपनाया गया जो ऊपर कायनात को पैदा करने, उसका इन्तिज़ाम चलाने और रोज़ी देने के बयान में अपनाया गया है। इसकी वजह यह है कि उन सिफ़ात के आसार तो बिलकुल नुमायाँ हैं जिन्हें हर शख़्स देख रहा है और उनके बारे में ख़ुदा के इनकारी और ख़ुदा के साथ दूसरी चीज़ों को शरीक करनेवाले लोग यह मानते थे और मानते हैं कि ये सारे काम अल्लाह तआला ही के हैं। इसलिए वहाँ दलील इस तरह दी गई थी कि जब ये सारे काम अल्लाह ही के हैं और कोई इनमें उसका शरीक नहीं है, तो फिर ख़ुदाई में तुमने दूसरों को कैसे शरीक बना लिया और इबादत के हक़दार वे किस बुनियाद पर हो गए? लेकिन इल्म की सिफ़त अपने कोई महसूस होनेवाले आसार (लक्षण) नहीं रखती जिनकी तरफ़ इशारा किया जा सके। यह मामला सिर्फ़ सोच-विचार ही से समझ में आ सकता है। इसलिए इसको सवाल के बजाय दावे के अन्दाज़ में पेश किया गया है। अब यह हर समझदार आदमी का काम है कि वह अपनी जगह इस बात पर ग़ौर करे कि हक़ीक़त में क्या यह समझ में आनेवाली बात है कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा ग़ैब का इल्म रखनेवाला हो? यानी तमाम उन हालात और चीज़ों और हक़ीक़तों का जाननेवाला हो जो कायनात में कभी थीं, या अब हैं, या आगे होंगी और अगर कोई दूसरा ग़ैब की बातें जाननेवाला नहीं है और नहीं हो सकता तो फिर क्या यह बात अक़्ल में आती है कि जो लोग पूरी तरह हक़ीक़तें और हालात जानते ही नहीं हैं उनमें से कोई बन्दों की फ़रियाद सुननेवाला ज़रूरतें पूरी करनेवाला और मुश्किलें दूर करनेवाला हो सके? ख़ुदाई और ग़ैब का इल्म रखने के बीच एक ऐसा गहरा ताल्लुक़ है कि पुराने ज़माने से इनसान ने जिस हस्ती में भी ख़ुदाई के किसी अंश का गुमान किया है, उसके बारे में यह ख़याल ज़रूर ज़ाहिर किया है कि उसपर सब कुछ रौशन है और कोई चीज़ उससे छिपी नहीं है। मानो इनसान का ज़ेहन इस हक़ीक़त से बिलकुल साफ़ तौर पर आगाह है कि क़िस्मतों का बनाना और बिगाड़ना, दुआओं का सुनना, जरूरतें पूरी करना और हर मदद तलब करनेवाले की मदद को पहुँचना सिर्फ़ उसी हस्ती का काम हो सकता है जो सब कुछ जानती हो और जिससे कुछ भी छिपा न हो। इसी वजह से तो इनसान जिसको भी ख़ुदा के अधिकार रखनेवाला समझता है, उसे ज़रूर ही ग़ैब का जाननेवाला भी समझता है, क्योंकि उसकी अक़्ल बिना किसी शक-शुब्हे के गवाही देती है कि इल्म और अधिकार आपस में एक-दूसरे के लिए ज़रूरी हैं। अब अगर यह हक़ीक़त है कि पैदा करनेवाला और इन्तिज़ाम चलानेवाला और दुआएँ सुननेवाला और रोज़ी देनेवाला ख़ुदा के सिवा कोई दूसरा नहीं है, जैसाकि ऊपर की आयतों में साबित किया गया है तो आप-से-आप यह भी हक़ीक़त है कि ग़ैब का जाननेवाला भी ख़ुदा के सिवा कोई दूसरा नहीं है। आख़िर कौन अपने होशो-हवास में यह सोच सकता है कि किसी फ़रिश्ते या जिन्न या नबी या वली को या किसी जानदार को भी यह मालूम होगा कि समन्दर में और हवा में और ज़मीन की तहों में और समन्दर की सतह के ऊपर किस-किस तरह के कितने जानवर कहाँ-कहाँ हैं? और ऊपरी दुनिया के बेहद्दो-हिसाब सय्यारों (उपग्रहों) की ठीक तादाद क्या है? और उनमें से हर एक में किस-किस तरह के जानदार मौजूद हैं? और उन जानदारों का एक-एक फ़र्द कहाँ है और क्या उसकी ज़रूरतें हैं? यह सब कुछ अल्लाह को तो लाज़िमन मालूम होना चाहिए, क्योंकि उसने उन्हें पैदा किया है और उसी को उनके मामलात की तदबीर और उनके हालात की देखभाल करनी है और वही उनकी रोज़ी का इन्तिज़ाम करनेवाला है। लेकिन दूसरा कोई अपने महदूद वुजूद में इतना फैला हुआ और सब कुछ अपने में समेटे रखनेवाला इल्म कैसे रख सकता है और पैदा करने और रोज़ी देने के इस काम से उसका क्या ताल्लुक़ है कि वह इन चीज़ों को जाने? फिर यह सिफ़त तजज़िए (विश्लेषण) के लायक़ भी नहीं है कि कोई बन्दा मसलन सिर्फ़ ज़मीन की हद तक और ज़मीन में भी सिर्फ़ इनसानों की हद तक, ग़ैब का जाननेवाला हो। यह उसी तरह तजज़िए के क़ाबिल नहीं है जिस तरह पैदा करने, रोज़ी देने, क़ायम रहने और पालने-पोसने के बारे में अल्लाह की सिफ़ात तजज़िए के क़ाबिल नहीं हैं। कायनात की शुरुआत से आज तक जितने इनसान दुनिया में पैदा हुए हैं और क़ियामत तक पैदा होंगे, माँ के पेट में आने से ज़िन्दगी की आख़िरी घड़ी तक उन सबके तमाम हालात और कैफ़ियतों को जानना आख़िर किस बन्दे का काम हो सकता है और वह कैसे और क्यों उसको जानेगा? क्या वह इस बेहद्दो-हिसाब मख़लूक़ (सृष्टि) का पैदा करनेवाला है? क्या वह उनके बापों के ख़ून में उनके जरसूमे (जीवाणु) को वुजूद में लाया था? क्या उसने उनकी माँओं के पेटों में उनकी शक्ल-सूरत बनाई थी? क्या उसने उनके ज़िन्दा हालत में पैदा होने का इन्तिज़ाम किया था? क्या उसने उनमें से एक-एक शख़्स की क़िस्मत बनाई थी? क्या वह उनकी मौत और ज़िन्दगी, उनकी सेहत और बीमारी, उनकी ख़ुशहाली और बदहाली और उनकी तरक़्क़ी और गिरावट के फ़ैसले करने का ज़िम्मेदार है? और आख़िर यह काम कब से उसके ज़िम्मे हुआ? उसकी अपनी पैदाइश से पहले या उसके बाद? और सिर्फ़ इनसानों की हद तक ये ज़िम्मेदारियाँ महदूद कैसे हो सकती हैं? यह काम तो लाज़िमन ज़मीन और आसमान के आलमगीर इन्तिज़ाम का एक हिस्सा है। जो हस्ती सारी कायनात का निज़ाम चला रही है वही तो इनसानों की पैदाइश और मौत और उनकी रोज़ी की तंगी और कुशादगी और उनकी क़िस्मतों के बनाव-बिगाड़ की ज़िम्मेदार हो सकती है। इसी वजह से यह इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा है कि ग़ैब का जाननेवाला अल्लाह तआला के सिवा कोई दूसरा नहीं है। अल्लाह तआला अपने बन्दों में से जिसपर चाहे और जितना चाहे अपनी मालूमात का कोई कोना खोल दे और किसी ग़ैब या ग़ैब की कुछ बातों को उसपर रौशन कर दे, लेकिन ग़ैब का इल्म पूरे तौर पर किसी को नसीब नहीं और ग़ैब का जाननेवाला होने की सिफ़त सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए ख़ास है— “और उसी के पास ग़ैब की कुंजियाँ हैं, उन्हें कोई नहीं जानता उसके सिवा।” (सुरा-6 अनआम, आयत-59) “अल्लाह ही के पास है क़ियामत का इल्म और वही बारिश बरसानेवाला है और वही जानता है कि माँओं के पेटों में क्या (पल रहा) है और कोई जानदार नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करेगा और किसी जानदार को ख़बर नहीं है कि किस सरज़मीन में उसको मौत आएगी।” (सूरा-31 लुक़मान, आयत-34) “वह जानता है जो कुछ बन्दों के सामने है और जो कुछ उनसे ओझल है और उसके इल्म में से किसी चीज़ पर भी वे हावी नहीं हो सकते सिवाय यह कि वह जिस चीज़ का चाहे उन्हें इल्म दे।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-255) क़ुरआन मजीद बन्दों के लिए ग़ैब के इल्म के इस आम और पूरी तरह इनकार पर ही बस नहीं करता, बल्कि ख़ास तौर पर पैग़म्बरों (अलैहि०) और ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में इस बात को साफ़-साफ़ बयान करता है कि वे ग़ैब के जाननेवाले नहीं हैं और उनको ग़ैब की सिर्फ़ उतनी ही जानकारी अल्लाह तआला की तरफ़ से दी गई है, जो रिसालत (पैग़म्बरी) की ख़िदमत अंजाम देने के लिए दरकार थी। सूरा-6 अनआम, आयत-50; सूरा-7 आराफ़, आयत-187; सूरा-9 तौबा, आयत-101; सूरा-11 हूद, आयत-31; सूरा-33 अहज़ाब, आयत-63; सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-9; सूरा-66 तहरीम, आयत-3 और सूरा-72 जिन्न, आयतें—26-28 इस मामले में किसी शक-शुब्हे की गुंजाइश नहीं छोड़तीं। क़ुरआन के ये तमाम साफ़-साफ़ बयान इस आयत की ताईद और तशरीह करते हैं जिनके बाद इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं रहती कि अल्लाह तआला के सिवा किसी को ग़ैब का जाननेवाला समझना और यह समझना कि कोई दूसरा भी तमाम गुज़रे हुए और आनेवाले हालात की जानकारी रखता है, बिलकुल एक ग़ैर-इस्लामी अक़ीदा है। इमाम बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई, इमाम अहमद, इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने सहीह सनदों के साथ हज़रत आइशा (रज़ि) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल किया है— “जिसने यह दावा किया कि नबी (सल्ल०) जानते हैं कि कल क्या होनेवाला है, उसने अल्लाह पर सख़्त झूठ का इलज़ाम लगाया; क्योंकि अल्लाह तो फ़रमाता है, नबी, तुम कह दो कि ग़ैब का इल्म अल्लाह के सिवा आसमानों और ज़मीन के रहनेवालों में से किसी को भी नहीं है।” इब्नुल-मुंज़िर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) के मशहूर शागिर्द इकरिमा से रिवायत करते हैं कि एक आदमी ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “ऐ मुहम्मद, क़ियामत कब आएगी? और हमारे इलाक़े में सूखा पड़ा है, बारिश कब होगी? और मेरी बीवी हामिला (गर्भवती) है, वह लड़का पैदा करेगी या लड़की? और यह तो मुझे मालूम है कि मैंने आज क्या कमाया है, कल मैं क्या कमाऊँगा? और यह तो मुझे मालूम है कि मैं कहाँ पैदा हुआ हूँ, मरूँगा कहाँ?” इन सवालों के जवाब में सूरा-31 लुक़मान की वह आयत नबी (सल्ल०) ने सुनाई जो ऊपर हमने नक़्ल की है। यानी— “अल्लाह ही के पास है क़ियामत का इल्म और वही बारिश बरसानेवाला है और वही जानता जो कुछ माँओं के पेट में (पल रहा) है और कोई जानदार नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करेगा और किसी जानदार को ख़बर नहीं है कि किस सरज़मीन में उसको मौत आएगी।” फिर बुख़ारी और मुस्लिम और हदीस की दूसरी किताबों की वह मशहूर रिवायत भी इसी की ताईद करती है जिसमें ज़िक्र है कि सहाबा की मौजूदगी में हज़रत जिबरील (अलैहि०) ने इनसानी शक्ल में आकर नबी (सल्ल०) से जो सवालात किए थे उनमें से एक यह भी था कि क़ियामत कब आएगी? नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “जिससे पूछा जा रहा है वह ख़ुद पूछनेवाले से ज़्यादा इस बारे में कुछ नहीं जानता।” फिर फ़रमाया, “यह उन पाँच चीज़ों में से है जिनका इल्म अल्लाह के सिवा किसी को नहीं!” और यही ऊपर बयान की गई आयत नबी (सल्ल०) ने तिलावत की।
84. यानी दूसरे, जिनके बारे में यह गुमान किया जाता है कि वे ग़ैब की बातें जानते हैं और इसी वजह से जिनको तुम लोगों ने ख़ुदाई में शरीक ठहरा लिया उन बेचारों को तो ख़ुद अपने आनेवाले कल की भी ख़बर नहीं। वे नहीं जानते कि कब क़ियामत की वह घड़ी आएगी, जब अल्लाह तआला उनको दोबारा उठा खड़ा करेगा।
بَلِ ٱدَّٰرَكَ عِلۡمُهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ مِّنۡهَاۖ بَلۡ هُم مِّنۡهَا عَمُونَ ۝ 60
(66) बल्कि आख़िरत का तो इल्म ही इन लोगों से गुम हो गया है, बल्कि ये उसकी तरफ़ से शक में हैं, बल्कि ये उससे अंधे हैं।85
85. ख़ुदाई के बारे में उन लोगों की बुनियादी ग़लतियों पर ख़बरदार करने के बाद अब यह बताया जा रहा है कि ये लोग जो इन सख़्त गुमराहियों में पड़े हुए हैं, इसकी वजह यह नहीं है कि सोच-विचार करने के बाद ये किसी दलील से इस नतीजे पर पहुँचे थे कि ख़ुदाई में हक़ीक़त में कुछ दूसरी हस्तियाँ अल्लाह तआला की शरीक हैं, बल्कि इसकी अस्ल वजह यह है कि इन्होंने कभी संजीदगी के साथ ग़ौर ही नहीं किया है। चूँकि ये लोग आख़िरत से बेख़बर हैं, या उसकी तरफ़ से शक में हैं, या उससे अंधे बने हुए हैं, इसलिए अंजाम की फ़िक्र से बेपरवाही ने इनके अन्दर सरासर एक ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया पैदा कर दिया है। यह कायनात और ख़ुद अपनी ज़िन्दगी के हक़ीक़ी मसलों के बारे में सिरे से कोई संजीदगी रखते ही नहीं। इनको इसकी परवाह ही नहीं है कि हक़ीक़त क्या है और इनकी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा (दर्शन) उस हक़ीक़त से मेल खाता है या नहीं, क्योंकि इनके नज़दीक आख़िरकार मुशरिक और नास्तिक और एक अल्लाह को माननेवाले और शक में पड़े हुए सबको मरकर मिट्टी हो जाना है और किसी चीज़ का भी कोई नतीजा निकलना नहीं है। आख़िरत की यह बात इससे पहले की आयत के इस जुमले से निकली है कि “वे नहीं जानते कि कब वे उठाए जाएँगे।” उस जुमले में तो यह बताया गया था कि जिनको माबूद बनाया जाता है — और इनमें फ़रिश्ते, जिन्न, पैग़म्बर और वली लोग सब शामिल थे — उनमें से कोई भी आख़िरत के वक़्त को नहीं जानता कि वह कब आएगी। इसके बाद अब आम मुशरिकों और इनकारियों के बारे में तीन बातें कही गई हैं। एक यह कि वे सिरे से यही नहीं जानते कि आख़िरत कभी होगी भी या नहीं। दूसरी यह कि उनकी यह बेख़बरी इस वजह से नहीं है कि उन्हें इसकी ख़बर ही कभी न दी गई हो, बल्कि इस वजह से है कि जो ख़बर उन्हें दी गई उसपर उन्होंने यक़ीन नहीं किया, बल्कि उसके सही होने में शक करने लगे। तीसरी यह कि उन्होंने कभी सोच-विचार करके उन दलीलों को जाँचने की तकलीफ़ ही नहीं उठाई जो आख़िरत के आने के बारे में पेश की गई, बल्कि उसकी तरफ़ से अंधे बनकर रहने ही को उन्होंने तरजीह दी।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا تُرَٰبٗا وَءَابَآؤُنَآ أَئِنَّا لَمُخۡرَجُونَ ۝ 61
(67) ये इनकार करनेवाले कहते हैं '"क्या जब हम और हमारे बाप-दादा मिट्टी हो चुके होंगे तो हमें सचमुच क़ब्रों से निकाला जाएगा?
لَقَدۡ وُعِدۡنَا هَٰذَا نَحۡنُ وَءَابَآؤُنَا مِن قَبۡلُ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 62
(68) ये ख़बरें हमको भी बहुत दी गई हैं और पहले हमारे बाप-दादा को भी दी जाती रही हैं, मगर ये बस कहानियाँ-ही-कहानियाँ हैं जो पुराने ज़माने से सुनते चले आ रहे हैं।”
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 63
(69) कहो, ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि मुजरिमों का क्या अंजाम हो चुका है।86
86. इस छोटे-से जुमले में आख़िरत की दो ज़बरदस्त दलीलें भी हैं और नसीहत भी। पहली दलील यह है कि दुनिया की जिन क़ौमों ने भी आख़िरत को नज़र-अन्दाज़ किया है, वे मुजरिम बने बिना नहीं रह सकी हैं। वे ग़ैर-ज़िम्मेदार बनकर रहीं, उन्होंने ज़ुल्मो-सितम ढाए, वे सरकशी और नाफ़रमानी में डूब गईं और अख़लाक़ की तबाही ने आख़िरकार उनको बरबाद करके छोड़ा। यह इनसानी इतिहास का लगातार तजरिबा, जिसपर ज़मीन में हर तरफ़ तबाह हो चुकी क़ौमों के आसार गवाही दे रहे हैं, साफ़ ज़ाहिर करता है कि आख़िरत के मानने और न मानने का बहुत ही गहरा ताल्लुक़ इनसानी रवैये के सही होने और सही न होने से है। इसको माना जाए तो यह रवैया दुरुस्त रहता है। न माना जाए तो रवैया ग़लत हो जाता है। यह इस बात की खुली दलील है कि उसका मानना हक़ीक़त के मुताबिक़ है, इसी लिए उसके मानने से इनसानी ज़िन्दगी ठीक डगर पर चलती है और उसका न मानना हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है। इसी वजह से यह गाड़ी पटरी से उतर जाती है। दूसरी दलील यह है कि इतिहास के इस लम्बे तजरिबे में मुज़रिम बन जानेवाली क़ौमों का लगातार तबाह होना इस हक़ीक़त की साफ़ दलील दे रहा है कि यह कायनात बेसमझ ताक़तों की अंधी-बहरी हुकूमत नहीं है, बल्कि यह एक हिकमत भरा निज़ाम (व्यवस्था) है, जिसके अन्दर अमल का अच्छा-बुरा बदला दिए जाने का एक अटल क़ानून काम कर रहा है; जिसकी हुकूमत इनसानी क़ौमों के साथ सरासर अख़लाक़ी बुनियादों पर मामला कर रही है; जिसमें किसी क़ौम को बुरे काम करने की खुली छूट नहीं दी जाती कि एक बार ऊपर उठ जाने के बाद वह हमेशा ऐशो-आराम के मज़े लूटती रहे और ज़ुल्मो-सितम के डंके बजाती चली जाए, बल्कि एक ख़ास हद को पहुँचकर एक ज़बरदस्त हाथ आगे बढ़ता है और उसको ऊँचाइयों से गिराकर रुसवाई के गढ़े में फेंक देता है। इस हक़ीक़त को जो शख़्स समझ ले वह कभी इस बात में शक नहीं कर सकता कि कामों का अच्छा या बुरा बदला दिए जाने का यही क़ानून इस दुनिया की ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी दुनिया का तक़ाज़ा करता है, जहाँ लोगों का और क़ौमों का और कुल मिलाकर सारे ही इनसानों का इनसाफ़ चुकाया जाए; क्योंकि सिर्फ़ एक ज़ालिम क़ौम के तबाह हो जाने से तो इनसाफ़ के सारे तक़ाज़े पूरे नहीं हो गए। इससे उन सताए हुए लोगों की तो कोई भरपाई नहीं हुई जिनकी लाशों पर उन्होंने अपनी शानो-शौकत का महल बनाया था। इससे उन ज़ालिमों को तो कोई सज़ा नहीं मिली जो तबाही के आने से पहले मज़े उड़ाकर जा चुके थे। इससे उन बदकारों की भी कोई पकड़ नहीं हुई जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी और अपने बाद आनेवाली नस्लों के लिए गुमराहियों और बद-अख़लाकियों की विरासत छोड़ते चले गए थे। दुनिया में अज़ाब भेजकर तो सिर्फ़ उनकी आख़िरी नस्ल के और ज़्यादा ज़ुल्म का सिलसिला तोड़ दिया गया। अभी अदालत का अस्ल काम तो हुआ ही नहीं कि हर ज़ालिम को उसके किए का बदला दिया जाए और हर ज़ुल्म के शिकार शख़्स के नुक़सान की भरपाई की जाए और उन सब लोगों को इनाम दिया जाए जो बुराई के इस तूफ़ान में सच्चाई और ईमानदारी पर क़ायम और सुधार के लिए कोशिश करते रहे और उम्र भर इस राह में तकलीफ़ें सहते रहे। यह सब ज़रूर ही किसी वक़्त होना चाहिए, क्योंकि दुनिया में कामों के अच्छे या बुरे बदले दिए जाने के क़ानून का लगातार काम करना कायनात की फ़रमाँरवा हुकूमत का यह मिज़ाज और काम का तरीक़ा साफ़ बता रहा है कि वह इनसानी आमाल को उनकी अख़लाक़ी क़द्र के लिहाज़ से तोलती और उनका इनाम या सज़ा देती है। इन दो दलीलों के साथ इस आयत में नसीहत का पहलू यह है कि पिछले मुजरिमों का अंजाम देखकर उससे सबक़ लो और आख़िरत के इनकार के उस बेवक़ूफ़ीवाले अक़ीदे पर अड़े न रहो जिसने उन्हें मुजरिम बनाकर छोड़ा था।
وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُن فِي ضَيۡقٖ مِّمَّا يَمۡكُرُونَ ۝ 64
(70) ऐ नबी, इनके हाल पर दुखी न हो और न इनकी चालों पर दिल छोटा करो87
87. यानी तुमने समझाने का हक़ अदा कर दिया। अब अगर ये नहीं मानते और अपनी बेबक़ूफ़ी पर अड़े रहकर अल्लाह के अज़ाब के हक़दार बनना ही चाहते हैं तो तुम ख़ाह-मख़ाह इनके हाल पर कुढ़-कुढ़कर अपनी जान क्यों हलकान करो। फिर ये हक़ीक़त और सच्चाई से लड़ने और तुम्हारी सुधार की कोशिशों को नीचा दिखाने के लिए जो घटिया दरजे की चालें चल रहे हैं, उनपर परेशान और दुखी होने की तुम्हें क्या ज़रूरत है। तुम्हारी पीठ पर तो अल्लाह की ताक़त है। ये तुम्हारी बात न मानेंगे तो अपना ही कुछ बिगाड़ेंगे। तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 65
(71) वे कहते हैं कि “यह धमकी कब पूरी होगी अगर तुम सच्चे हो?"88
88. इससे मुराद वही धमकी है जो ऊपर की आयत में छिपी है। उनका मतलब यह था कि इस जुमले में हमारी ख़बर लेने की जो छिपी हुई धमकी दी जा रही है यह आख़िर कब अमल में लाई जाएगी? हम तो तुम्हारी बात रद्द भी कर चुके हैं और तुम्हें नीचा दिखाने के लिए अपनी तदबीरों में भी हमने कोई कसर नहीं उठा रखी है। अब क्यों हमारी ख़बर नहीं ली जाती?
قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ رَدِفَ لَكُم بَعۡضُ ٱلَّذِي تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 66
(72) कहो, क्या अजब कि जिस अज़ाब के लिए तुम जल्दी मचा रहे हो, उसका एक हिस्सा तुम्हारे क़रीब ही आ लगा हो।89
89. यह शाही अन्दाज़े-बयान है। सब कुछ करने की क़ुदरत रखनेवाले के कलाम में जब ‘शायद’ और 'क्या अजब’ और 'क्या मुश्किल’ जैसे अलफ़ाज़ आते हैं तो उनमें शक का कोई मतलब छिपा नहीं होता, बल्कि उनसे शाने-बेनियाज़ी (निस्पृहता) का इज़हार होता है। उसकी क़ुदरत ऐसी हावी है कि उसका किसी चीज़ को चाहना और उस चीज़ का हो जाना मानो एक ही बात है। इसके बारे में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वह कोई काम करना चाहे और वह न हो सके। इसलिए उसका यह फ़रमाना कि “क्या अजब ऐसा हो” यह मतलब रखता है कि ऐसा होकर रहेगा, अगर तुम सीधे न हुए। एक मामूली थानेदार भी अगर बस्ती के किसी आदमी से कह दे कि तुम्हारी शामत पुकार रही है तो उसे रात को नींद नहीं आती। कहाँ यह कि हर चीज़ की क़ुदरत रखनेवाला किसी से कह दे कि तुम्हारा बुरा वक़्त कुछ दूर नहीं है और फिर वह निडर होकर रहे।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 67
(73) हक़ीक़त यह है कि तेरा रब तो लोगों पर बहुत मेहरबानी करनेवाला है, मगर ज़्यादातर लोग शुक्र नहीं करते90
90. यानी यह तो सारे जहानों के रब अल्लाह की मेहरबानी है कि वह लोगों को ग़लती करते ही नहीं पकड़ लेता, बल्कि संभलने की मुहलत देता है। मगर ज़्यादातर लोग इसपर शुक्रगुज़ार होकर इस मुहलत को अपने सुधार के लिए इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि पकड़ में देर होने का मतलब यह लेते हैं कि यहाँ कोई पकड़ करनेवाला नहीं है, इसलिए जो जी में आए करते रहो और किसी समझानेवाले की बात मानकर न दो।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَعۡلَمُ مَا تُكِنُّ صُدُورُهُمۡ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 68
(74) बेशक तेरा रब ख़ूब जानता है जो कुछ उनके सीने अपने अन्दर छिपाए हुए हैं और जो कुछ वे ज़ाहिर करते हैं।91
91. यानी वह इनकी खुल्लम-खुल्ला हरकतों ही को नहीं जानता, बल्कि जो घोर खोट और कपट इनके सीनों में छिपा हुआ है और जो चालें ये अपने दिलों में सोचते हैं, उनको भी वह ख़ूब जानता है। इसलिए जब उनकी शामत आने का वक़्त आ पहुँचेगा तो कोई चीज़ छोड़ी नहीं जाएगी जिसपर उनकी ख़बर न ली जाए। बयान का यह अन्दाज़ उसी तरह का है जैसे एक अधिकारी अपने इलाक़े के किसी बदमाश से कहे, मुझे तेरे सब करतूतों की ख़बर है। इसका सिर्फ़ यही मतलब नहीं होता कि वह अपने बाहर होने की उसे ख़बर दे रहा है, बल्कि मतलब यह होता है कि तू अपनी हरकतें छोड़ दे, वरना याद रख जब पकड़ा जाएगा तो तेरे एक-एक जुर्म की पूरी सज़ा दी जाएगी।
وَمَا مِنۡ غَآئِبَةٖ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ ۝ 69
(75) आसमान और ज़मीन की कोई छिपी चीज़ ऐसी नहीं है जो एक खुली किताब में लिखी हुई मौजूद न हो।92
92. यहाँ किताब से मुराद क़ुरआन नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला का वह रिकार्ड है जिसमें ज़र्रा-ज़र्रा लिखा है।
إِنَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ يَقُصُّ عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَكۡثَرَ ٱلَّذِي هُمۡ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 70
(76) यह सच है कि यह क़ुरआन बनी-इसराईल को अकसर उन बातों की हक़ीक़त बताता है जिनमें वे इख़्तिलाफ़ रखते हैं93
93. इस जुमले का ताल्लुक़ पिछली बात से भी है और बाद की बात से भी। पिछलो बात से इसका ताल्लुक़ यह है कि उसी ग़ैब के जाननेवाले ख़ुदा के इल्म का एक करिश्मा यह है कि एक उम्मी (अनपढ़) की ज़बान से इस क़ुरआन में उन वाक़िआत की हक़ीक़त खोली जा रही है, जो बनी-इसराईल के इतिहास में गुज़रे हैं। हालाँकि ख़ुद बनी-इसराईल के आलिमों के बीच उनके अपने इतिहास के उन वाक़िआत में इख़्तिलाफ़ है (इसकी मिसालें इसी सूरा-27 नम्ल के शुरू की आयतों में गुज़र चुकी हैं जैसा कि हमने अपने हाशियों में वाज़ेह किया है) और बाद की बात से इसका ताल्लुक़ यह है कि जिस तरह अल्लाह तआला ने उन इख़्तिलाफ़ों का फ़ैसला किया है, उसी तरह वह उस इख़्तिलाफ़ का भी फ़ैसला कर देगा जो मुहम्मद (सल्ल०) और उनके मुख़ालिफ़ों के बीच पाया जाता है। वह खोलकर रख देगा कि दोनों में से हक़ पर कौन है और बातिल (असत्य) पर कौन। चुनाँचे इन आयतों के उतरने के कुछ ही साल बाद फ़ैसला सारी दुनिया के सामने आ गया। उसी अरब की सरज़मीन में और उसी क़ुरैश के क़बीले में एक आदमी भी ऐसा न रहा जो इस बात का माननेवाला न हो गया हो कि हक़ पर मुहम्मद (सल्ल०) थे न कि अबू-जह्ल और अबू-लह्ब। इन लोगों की अपनी औलाद तक मान गई कि उनके बाप ग़लती पर थे।
وَإِنَّهُۥ لَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 71
(77) और यह हिदायत और रहमत है ईमान लानेवालों के लिए।94
94. यानी उन लोगों के लिए जो इस क़ुरआन की दावत क़ुबूल कर लें और वह बात मान लें जिसे यह पेश कर रहा है। ऐसे लोग उन गुमराहियों से बच जाएँगे जिनमें उनकी क़ौम मुब्तला है। उनको इस क़ुरआन की बदौलत ज़िन्दगी का सीधा रास्ता मिल जाएगा और उनपर ख़ुदा की वे मेहरबानियाँ होंगी जिनके बारे में क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ आज सोच भी नहीं सकते। इस रहमत की बारिश को भी कुछ ही साल बाद दुनिया ने देख लिया कि वही लोग जो अरब के रेगिस्तान के एक गुमनाम कोने में पड़े हुए थे और कुफ़्र (अधर्म) की हालत में ज़्यादा-से-ज़्यादा एक कामयाब छापामार बन सकते थे, इस क़ुरआन पर ईमान लाने के बाद यकायक वे दुनिया के पेशवा, क़ौमों के इमाम, इनसानी तहज़ीब के उस्ताद और धरती के एक बड़े हिस्से पर फ़रमाँरवा (शासक) हो गए।
إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُم بِحُكۡمِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 72
(78) यक़ीनन (इसी तरह) तेरा रब इन लोगों के बीच95 भी अपने हुक्म से फ़ैसला कर देगा और वह ज़बरदस्त और सब कुछ जाननेवाला है।96
95. यानी क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों और ईमानवालों के बीच।
96. यानी न उसके फ़ैसले को लागू होने से कोई ताक़त रोक सकती है और न उसके फ़ैसले में ग़लती का कोई इमकान है।
فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۖ إِنَّكَ عَلَى ٱلۡحَقِّ ٱلۡمُبِينِ ۝ 73
(79) तो ऐ नबी, अल्लाह पर भरोसा रखो, यक़ीनन तुम खुले हक़ पर हो।
إِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ ۝ 74
(80) तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते,97 न उन बहरों तक अपनी पुकार पहुँचा सकते हो जो पीठ फेरकर भागे जा रहे हों,98
97. यानी ऐसे लोगों को जिनके ज़मीर (अन्तरात्माएँ) मर चुके हैं और जिनमें ज़िद और हठधर्मी और रस्म-परस्ती ने हक़ और बातिल का फ़र्क़ समझने की कोई सलाहियत बाक़ी नहीं छोड़ी है।
98. यानी जो तुम्हारी बात के लिए सिर्फ़ अपने कान बन्द कर लेने पर ही बस नहीं करते, बल्कि उस जगह से कतराकर निकल जाते हैं जहाँ उन्हें अन्देशा होता है कि कहीं तुम्हारी बात उनके कान में न पड़ जाए।
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِي ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 75
(81) और न अंधों को रास्ता बताकर भटकने से बचा सकते हो।99 तुम तो अपनी बात उन्हीं लोगों को सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान लाते हैं और फिर फ़रमाँबरदार बन जाते हैं।
99. यानी इनका हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती इन्हें सीधे रास्ते पर खींच लाना और घसीटकर ले चलना तो तुम्हारा काम नहीं है। तुम तो सिर्फ़ ज़बान और अपनी मिसाल ही से बता सकते हो कि यह सीधा रास्ता है और वह रास्ता ग़लत है जिसपर ये लोग चल रहे हैं। मगर जिसने अपनी आँखें बन्द कर ली हों और जो देखना ही न चाहता हो उसकी रहनुमाई तुम कैसे कर सकते हो।
۞وَإِذَا وَقَعَ ٱلۡقَوۡلُ عَلَيۡهِمۡ أَخۡرَجۡنَا لَهُمۡ دَآبَّةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ تُكَلِّمُهُمۡ أَنَّ ٱلنَّاسَ كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا لَا يُوقِنُونَ ۝ 76
(82) और जब हमारी बात पूरी होने का वक़्त उनपर आ पहुँचेगा100 तो हम उनके लिए एक जानवर ज़मीन से निकालेंगे जो उनसे बात करेगा कि लोग हमारी आयतों पर यक़ीन नहीं करते थे।101
100. यानी क़ियामत क़रीब आ जाएगी जिसका वादा उनसे किया जा रहा है।
101. इब्ने-उमर (रज़ि०) का कहना है कि यह उस वक़्त होगा जब ज़मीन में कोई नेकी का हुक्म करनेवाला और बुराई से रोकनेवाला बाक़ी न रहेगा। इब्ने-मरदुवैह ने एक हदीस अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से नक़्ल है जिसमें वे कहते हैं कि यही बात उन्होंने ख़ुद नबी (सल्ल०) से सुनी थी। इससे मालूम हुआ कि जब इनसान भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना छोड़ देंगे तो क़ियामत क़ायम होने से पहले अल्लाह तआला एक जानवर के ज़रिए से आख़िरी बार हुज्जत (तर्क) पूरी करेगा। यह बात वाज़ेह नहीं है कि यह एक ही जानवर होगा या एक ख़ास तरह के जानवरों की एक जाति होगी जिसके बहुत-से जानवर ज़मीन पर फैल जाएँगे — अरबी अलफ़ाज़ “दाब्बतुम-मिनल-अर्ज़” के दोनों मतलब हो सकते हैं। बहरहाल जो बात वह कहेगा वह यह होगी कि लोग अल्लाह तआला की उन आयतों पर यक़ीन नहीं करते थे जिनमें क़ियामत के आने और आख़िरत क़ायम होने की ख़बरें दी गई थीं, तो लो अब उसका वक़्त आ पहुँचा है और जान लो कि अल्लाह की आयतें सच्ची थीं। यह जुमला कि “लोग हमारी आयतों पर यक़ीन नहीं करते थे।” या तो उस जानवर की अपनी बात की नक़्ल है, या अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके कलाम को बयान करना है। अगर यह उसी के अलफ़ाज़ की नक़्ल है तो 'हमारी' का लफ़्ज़ वह उसी तरह इस्तेमाल करेगा जिस तरह एक हुकूमत का हर कारिन्दा 'हम' का लफ़्ज़ इस मानी में बोलता है कि वह अपनी हुकूमत की तरफ़ से बात कर रहा है, न कि अपनी निजी हैसियत में। दूसरी सूरत में बात साफ़ है कि अल्लाह तआला उसकी बात को चूँकि अपने अलफ़ाज़ में बयान कर रहा है इसलिए उसने 'हमारी आयतों' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है। इस जानवर के निकलने का वक़्त कौन-सा होगा? इसके बारे में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि “सूरज पश्चिम से निकलेगा और एक रोज़ दिन-दहाड़े यह जानवर निकल आएगा। उनमें से जो निशानी भी पहले हो वह बहरहाल दूसरी के क़रीब ही ज़ाहिर होगी।” (हदीस : मुस्लिम) दूसरी रियायतें जो मुस्लिम, इब्ने-माजा, तिरमिज़ी और मुसनद अहमद वग़ैरा में आई है, उनमें नबी (सल्ल०) ने बताया है कि क़ियामत के क़रीब ज़माने में दज्जाल का निकलना, ज़मीन के जानवर का ज़ाहिर होना, दुख़ान (धुआँ) और सूरज का पश्चिम से निकलना वे निशानियाँ हैं जो एक-के-बाद एक ज़ाहिर होंगी। इस जानवर की बनावट, शक्ल-सूरत, निकलने की जगह और ऐसी ही दूसरी तफ़सीलात के बारे में तरह-तरह की रिवायतें नक़्ल की गई हैं जो आपस में बहुत अलग और एक-दूसरे से टकराती हैं। इन चीज़ों के ज़िक्र से सिवाय ज़ेहन उलझने के और कुछ हासिल नहीं होता और उनके जानने का कोई फ़ायदा भी नहीं, क्योंकि जिस मक़सद के लिए क़ुरआन में यह ज़िक्र किया गया है, उससे उन तफ़सीलात का कोई ताल्लुकक़ नहीं है। रहा किसी जानवर का इनसानों से इनसानी ज़बान में बात करना, तो यह अल्लाह की क़ुदरत का एक करिश्मा है। वह जिस चीज़ को चाहे बोलने की ताक़त दे सकता है। क़ियामत से पहले तो वह एक जानवर ही को बोलने की ताक़त देगा। मगर जब क़ियामत क़ायम हो जाएगी तो अल्लाह की अदालत में इनसान की आँख और कान और उसके जिस्म की खाल तक बोल उठेगी, जैसा कि क़ुरआन में साफ़-साफ़ बयान हुआ है, “फिर जब सब वहाँ पहुँच जाएँगे तो उनके कान और उनकी आँखें और उनके जिस्म की खालें उनपर गवाही देंगी कि वे दुनिया में क्या कुछ करते रहे हैं। वे अपनी खालों से कहेंगे, तुमने हमारे ख़िलाफ़ क्यों गवाही दी? वे जवाब देंगी, हमें उसी ख़ुदा ने बोलने की ताक़त दी है जिसने हर चीज़ को बोलने की ताक़त दी है।” (क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयतें—20, 21)
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ فَوۡجٗا مِّمَّن يُكَذِّبُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 77
(83) और ज़रा सोचो उस दिन के बारे में जब हम हर उम्मत (समुदाय) में से एक फ़ौज-की-फ़ौज उन लोगों की घेर लाएँगे जो हमारी आयतों को झुठलाया करते थे, फिर उनको (उनकी क़िस्मों के लिहाज़ से (दरजा-ब-दरजा) तरतीब दिया जाएगा।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُو قَالَ أَكَذَّبۡتُم بِـَٔايَٰتِي وَلَمۡ تُحِيطُواْ بِهَا عِلۡمًا أَمَّاذَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 78
(84) यहाँ तक कि जब सब आ जाएँगे, तो (उनका रब उनसे) पूछेगा कि “तुमने मेरी आयतों को झुठला दिया, हालाँकि इल्म के पहलू से तुम उनपर हावी न हुएथे?102 अगर यह नहीं तो और तुम क्या कर रहे थे?” 103
102. यानी तुम्हारे झुठलाने की वजह यह हरगिज़ नहीं थी कि किसी इल्मी ज़रिए से पता लगाकर तुम्हें मालूम हो गया था कि ये आयतें झूठी हैं। तुमने सच्चाई का पता लगाए बिना और सोच-विचार किए बिना बस यूँ ही हमारी आयतों को झुठला दिया?
103. यानी अगर ऐसा नहीं है तो क्या तुम यह साबित कर सकते हो कि तुमने सच्चाई का पता लगाने के बाद इन आयतों को झूठा ही पाया था और तुम्हें सचमुच यह जानकारी हासिल हो गई थी कि अस्ल हक़ीक़त वह नहीं है जो इन आयतों में बयान की गई है?
وَوَقَعَ ٱلۡقَوۡلُ عَلَيۡهِم بِمَا ظَلَمُواْ فَهُمۡ لَا يَنطِقُونَ ۝ 79
(85) और उनके ज़ुल्म की वजह से अज़ाब का वादा उनपर पूरा हो जाएगा, तथा वे कुछ भी न बोल सकेंगे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا جَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ لِيَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 80
(86) क्या उनको सुझाई न देता था कि हमने रात उनके लिए सुकून हासिल करने के लिए बनाई थी और दिन को रौशन किया था?104 इसमें बहुत निशानियाँ थीं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते थे।105
104. यानी अनगिनत निशानियों में से ये दो निशानियों तो ऐसी थीं जिनको वे सब हर वक़्त देख रहे थे, जिनके फ़ायदों से हर पल फ़ायदा उठा रहे थे, जो किसी अंधे-बहरे और गूँगे तक से छिपी हुई न थीं। क्यों न रात के आराम और दिन के मौक़ों से फ़ायदा उठाते वक़्त उन्होंने कभी सोचा कि यह एक हिकमतवाले (तत्वदर्शी) का बनाया हुआ निज़ाम (व्यवस्था) है जिसने ठीक-ठीक उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ ज़मीन और सूरज का ताल्लुक़ क़ायम किया है। यह कोई इत्तिफ़ाक़ी बात नहीं हो सकती; क्योंकि इसमें मक़सदियत (उद्देश्यपूर्णता), हिकमत (तत्वदर्शिता) और मसूबा-बन्दी साफ़-साफ़ नज़र आ रही है जो अंधी क़ुदरती ताक़तों की ख़ासियत नहीं हो सकती और यह बहुत-से ख़ुदाओं का काम भी नहीं है, क्योंकि यह निज़ाम ज़रूर किसी एक ही ऐसे पैदा करनेवाले मालिक और मुदब्बिर (संचालक) का क़ायम किया हुआ हो सकता है जो ज़मीन, चाँद, सूरज और तमाम दूसरे सय्यारों (ग्रहों) पर हुकूमत कर रहा है। सिर्फ़ इसी एक चीज़ को देखकर वे जान सकते थे कि हमने अपने रसूल और अपनी किताब के ज़रिए से जो हक़ीक़त बताई है, यह रात और दिन का आना जाना उसको सच साबित कर रहा है।
105. यानी यह कोई न समझ में आ सकनेवाली बात भी नहीं थी। आख़िर उन्हीं के भाई-बन्धु उन्हीं के क़बीले और बिरादरी के लोग, उन्हीं के जैसे इनसान ऐसे मौजूद थे जो यही निशानियाँ देखकर मान गए थे कि नबी जिस ख़ुदा-परस्ती और तौहीद की तरफ़ बुला रहा है वह बिलकुल हक़ीक़त के मुताबिक़ है।
وَيَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِ فَفَزِعَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا مَن شَآءَ ٱللَّهُۚ وَكُلٌّ أَتَوۡهُ دَٰخِرِينَ ۝ 81
(87) और क्या गुज़रेगी उस दिन जबकि सूर (नरसिंघा) फूँका जाएगा और हौल खा जाएँगे ये सब जो आसमानों और ज़मीन में हैं106—सिवाए उन लोगों के जिन्हें अल्लाह इस हौल से बचाना चाहेगा—और सब कान दबाए उसके सामने हाज़िर हो जाएँगे।
106. सूर फूँके जाने पर तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमलु-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-47: सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-57; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—46-47; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-79।
وَتَرَى ٱلۡجِبَالَ تَحۡسَبُهَا جَامِدَةٗ وَهِيَ تَمُرُّ مَرَّ ٱلسَّحَابِۚ صُنۡعَ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ أَتۡقَنَ كُلَّ شَيۡءٍۚ إِنَّهُۥ خَبِيرُۢ بِمَا تَفۡعَلُونَ ۝ 82
(88) आज तू पहाड़ों को देखता है और समझता है कि ख़ूब जमे हुए हैं, मगर उस वक़्त ये बादलों की तरह उड़ रहे होंगे यह अल्लाह की क़ुदरत का करिश्मा होगा जिसने हर चीज़ को हिकमत के साथ क़ायम किया है। वह ख़ूब जानता है कि तुम लोग क्या करते हो।107
107. यानी ऐसे ख़ुदा से तुम यह उम्मीद न रखो कि अपनी दुनिया में तुमको अक़्ल और तमीज़ और इस्तेमाल करने के इख़्तियारात देकर वह तुम्हारे कामों से बेख़बर रहेगा और यह न देखेगा कि उसकी ज़मीन में तुम उन इख़्तियारों को कैसे इस्तेमाल करते रहे हो।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ خَيۡرٞ مِّنۡهَا وَهُم مِّن فَزَعٖ يَوۡمَئِذٍ ءَامِنُونَ ۝ 83
(89) जो शख़्स भलाई लेकर आएगा उसे उससे ज़्यादा बेहतर बदला मिलेगा108 और ऐसे लोग उस दिन के हाल से महफ़ूज़ होंगे।109
108. यानी वह इस लिहाज़ से भी बेहतर होगा कि जितनी नेकी उसने की होगी उससे ज़्यादा इनाम उसे दिया जाएगा और इस लिहाज़ से भी कि उसकी नेकी तो वक़्ती थी और उसके असरात भी दुनिया में एक महदूद ज़माने के लिए थे, मगर उसका इनाम हमेशा रहनेवाला होगा।
109. यानी क़ियामत और दोबारा ज़िन्दा होकर सबके इकट्ठे होने की वे हौलनाकियाँ जो सच को झुठलानेवालों के होश उड़ाए दे रही होंगी, उनके बीच ये लोग मुत्मइन होंगे। इसलिए कि यह सब कुछ उनकी उम्मीदों के मुताबिक़ होगा। वे पहले से अल्लाह और उसके रसूलों की दी हुई ख़बरों के मुताबिक़ अच्छी तरह जानते थे कि क़ियामत क़ायम होनी है, एक दूसरी ज़िन्दगी पेश आनी है और उसमें यही सब कुछ होना है। इसलिए उनपर वह बदहवासी और घबराहट न छाएगी जो मरते दम तक इस चीज़ का इनकार करनेवालों और उससे बेपरवाह रहनेवालों पर छाएगी। फिर उनके इत्मीनान की वजह यह भी होगी कि उन्होंने इस दिन की उम्मीद पर उसके लिए फ़िक्र की थी और यहाँ की कामयाबी के लिए कुछ सामान करके दुनिया से आए थे। इसलिए उनपर वह घबराहट न छाएगी जो उन लोगों पर छाएगी, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी की सारी पूजी दुनिया ही की कामयाबियाँ हासिल करने पर लगा दी थी और कभी न सोचा था कि कोई आख़िरत भी है जिसके लिए कुछ सामान करना है। इनकार करनेवालों के बरख़िलाफ़ यह ईमानवाले अब मुत्मइन होंगे कि जिस दिन के लिए हमने नाजाइज़ फ़ायदों और मज़ों को छोड़ा था और तकलीफ़ें और मुश्किलें बरदाश्त की थीं, वह दिन आ गया है और अब यहाँ हमारी मेहनतों का फल बरबाद होनेवाला नहीं है।
وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَكُبَّتۡ وُجُوهُهُمۡ فِي ٱلنَّارِ هَلۡ تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 84
(90) और जो बुराई लिए हुए आएगा, ऐसे सब लोग औधे मुँह आग में फेंके जाएँगे। क्या तुम लोग इसके सिवा कोई और बदला पा सकते हो कि जैसा करो वैसा भरो,109अ
109अ. क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर इस बात को साफ़-साफ़ बयान किया गया है कि आख़िरत में बुराई का बदला उतना ही दिया जाएगा जितनी किसी ने बुराई की हो और नेकी का इनाम अल्लाह तआला आदमी के अमल से बहुत ज़्यादा देगा। इसकी कुछ और मिसालों के लिए देखिए— सूरा-10 यूनुस, आयतें—26, 27; सूरा-28 क़सस, आयत-84; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-7; सूरा-34 सबा, आयतें—37, 38; सूरा-40 मोमिन, आयत-40।
إِنَّمَآ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ رَبَّ هَٰذِهِ ٱلۡبَلۡدَةِ ٱلَّذِي حَرَّمَهَا وَلَهُۥ كُلُّ شَيۡءٖۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 85
(91) (ऐ नबी इनसे कहो,) मुझे तो यही हुक्म दिया गया है कि इस शहर (मक्का) के रब की बन्दगी करूँ जिसने इसे हरम (एहतिराम के क़ाबिल जगह) बनाया है और जो हर चीज़ का मालिक है।110 मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं मुस्लिम (ख़ुदा का फ़रमाँबरदार) बनकर रहूँ
110. यह सूरा चूँकि उस ज़माने में उतरी थी, जबकि इस्लाम की दावत अभी सिर्फ़ मक्का तक महदूद थी और उसी शहर के लोगों को दी जा रही थी इसलिए कहा, “मुझे इस शहर के रब की बन्दगी का हुक्म दिया गया है। इसके साथ उस रब की ख़ासियत यह बयान की गई कि उसने इसे हरम बनाया है इसका मक़सद मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को ख़बरदार करना है।
وَأَنۡ أَتۡلُوَاْ ٱلۡقُرۡءَانَۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَقُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُنذِرِينَ ۝ 86
(92) और यह क़ुरआन पढ़कर सुनाऊँ।” अब जो हिदायत अपनाएगा, वह अपने ही भले के लिए हिदायत अपनाएगा और जो गुमराह हो, उससे कह दो कि मैं तो बस ख़बरदार करनेवाला हूँ।”
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ سَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ فَتَعۡرِفُونَهَاۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 87
(93) इनसे कहो, “तारीफ़ अल्लाह ही के लिए है। जल्द ही वह तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखा देगा और तुम उन्हें पहचान लोगे और तेरा रब बेख़बर नहीं है उन कामों से जो तुम लोग करते हो।
أَمَّن يُجِيبُ ٱلۡمُضۡطَرَّ إِذَا دَعَاهُ وَيَكۡشِفُ ٱلسُّوٓءَ وَيَجۡعَلُكُمۡ خُلَفَآءَ ٱلۡأَرۡضِۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 88
(62) कौन है जो बेक]रार की दुआ सुनता है जबकि वह उसे पुकारे और कौन उसकी तकलीफ़ दूर करता है?76 और (कौन है जो) तुम्हें ज़मीन का ख़लीफ़ा बनाता है?77 क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी (यह काम करनेवाला) है? तुम लोग कम ही सोचते हो।
76. अरब के मुशरिक लोग ख़ुद इस बात को जानते और मानते थे कि मुसीबत को टालनेवाला हक़ीक़त में अल्लाह ही है। चुनाँचे क़ुरआन मजीद जगह-जगह उन्हें याद दिलाता है कि जब तुमपर कोई सख़्त वक़्त आता है तो तुम ख़ुदा ही से फ़रियाद करते हो, मगर जब वह वक़्त टल जाता है तो ख़ुदा के साथ दूसरों को शरीक करने लगते हो। (तफ़सील के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—29, 41; सूरा-10 यूनुस, आयतें—21, 22, हाशिया-31; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-46; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-84) और यह बात अरब के मुशरिकों तक ही महदूद नहीं हैं, दुनिया भर के मुशरिकों का आम तौर से यही हाल है। यहाँ तक कि रूस के वे लोग जो सिरे से ख़ुदा ही को नहीं मानते और जिन्होंने ख़ुदा-परस्ती के खिलाफ़ एक बाक़ायदा मुहिम चला रखी है, उनपर भी जब पिछली जंगे-अज़ीम (विश्वयुद्ध) में जर्मनी की फ़ौजों का घेरा सख़्त हो गया तो उन्हें ख़ुदा को पुकारने की ज़रूरत महसूस हो गई थी।
77. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल और एक क़ौम के बाद दूसरी क़ौम उठाता है। दूसरा यह कि तुमको ज़मीन में इस्तेमाल और हुकूमत के अधिकार देता है।
۞قَالَ سَنَنظُرُ أَصَدَقۡتَ أَمۡ كُنتَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 89
(27) सुलैमान ने कहा, “अभी हम देखे लेते हैं कि तूने सच कहा है या तू झूठ बोलनेवालों में से है।
ٱذۡهَب بِّكِتَٰبِي هَٰذَا فَأَلۡقِهۡ إِلَيۡهِمۡ ثُمَّ تَوَلَّ عَنۡهُمۡ فَٱنظُرۡ مَاذَا يَرۡجِعُونَ ۝ 90
(28) मेरा यह ख़त ले जा और इसे उन लोगों की तरफ़ डाल दे, फिर अलग हटकर देख कि वे क्या रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) ज़ाहिर करते हैं।"36
36. यहाँ पहुँचकर हुदहुद का किरदार ख़त्म होता है। अक़लियत के दावेदार (बुद्धिवादी) लोगों ने जिस वजह से उसे परिन्दा मानने से इनकार किया है वह यह है कि उन्हें एक परिन्दे की देखने पहचानने और बयान करने की इतनी ताक़त नामुमकिन मालूम होती है कि वह एक देश पर गुज़रे और यह जान ले कि यह सबा क़ौम का देश है, इस देश का निज़ामे-हुकूमत (शासन-व्यवस्था) यह है, इसकी मलिका फ़ुलाँ औरत है, उसका धर्म सूरज की पूजा है, उसको एक ख़ुदा को माननेवाला होना चाहिए था, मगर यह गुमराही में मुब्तला है और अपनी ये सारी आँखों देखी बातें वह आकर इस तरह साफ़-साफ़ और तफ़सील के साथ बयान कर दे। इन्हीं वजहों से खुले-खुले नास्तिक क़ुरआन पर यह एतिराज़ करते हैं कि वह क़बीला दिमना (पंच-तन्त्र) की कहानियों जैसी बातें करता है और क़ुरआन की अक़्ली तफ़सीरें करनेवाले उसके अलफ़ाज़ को उनके खुले मानी से फेरकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि यह हज़रते-हुदहुद तो सिरे से कोई परिन्दे थे ही नहीं। लेकिन इन दोनों लोगों के पास आख़िर वह क्या साइंटिफ़िक जानकारियाँ हैं जिनकी बुनियाद पर वे पूरे यक़ीन के साथ कह सकते हों कि हैवानों और उनकी अलग-अलग जातियों और फिर उनके अलग-अलग लोगों की क़ुव्वतें और सलाहियतें क्या हैं और क्या नहीं हैं। जिन चीज़ों को वे मालूमात समझते हैं वे हक़ीक़त में उस बिलकुल नाकाफ़ी आँखों देखे तजरिबे से निकाले गए नतीजे हैं जो महज़ सरसरी तौर पर हैवानों की ज़िन्दगी और उनके बरताव का किया गया है इनसान को आज तक किसी यक़ीनी ज़रिए से यह मालूम न हो सका कि अलग-अलग तरह के जानदार क्या जानते हैं, क्या कुछ देखते और सुनते हैं, क्या महसूस करते हैं, क्या सोचते और समझते हैं और उनमें से हर एक का ज़ेहन किस तरह काम करता है। फिर भी जो थोड़ा-बहुत आँखों देखा तजरिबा अलग-अलग हैवानी जातियों की ज़िन्दगी का किया गया है उससे उनकी बहुत ही हैरत-अंगेज़ सलाहियतों (क्षमताओं) का पता चला है। अब अगर अल्लाह तआला जो इन हैवानों का पैदा करनेवाला है, हमको यह बताता है कि उसने अपने एक नबी को जानवरों की बोली समझने और उनसे बात करने की क़ाबिलियत दी थी और उस नबी के पास सधाए जाने और तरबियत पाने से एक हुदहुद इस क़ाबिल हो गया था कि दूसरे देशों से कुछ देख करके आता और पैग़म्बर को उनकी ख़बर देता था, तो बजाय इसके कि हम अल्लाह तआला के इस बयान की रौशनी में जानवरों के बारे में अपने आज तक के थोड़े-से इल्म और बहुत-सी अटकलों पर दोबारा ग़ौर करें, यह क्या अक़्लमन्दी है कि हम अपने इस नाकाफ़ी इल्म को पैमाना ठहराकर अल्लाह तआला के इस बयान को झुठलाने या उसके मानी को बदलने लगें।
قَالَتۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ إِنِّيٓ أُلۡقِيَ إِلَيَّ كِتَٰبٞ كَرِيمٌ ۝ 91
(29) मलिका बोली, “ऐ दरबारियो, मेरी तरफ़ एक बड़ा अहम ख़त फेंका गया है
إِنَّهُۥ مِن سُلَيۡمَٰنَ وَإِنَّهُۥ بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 92
(30) वह सुलैमान की तरफ़ से है और अल्लाह रहमान और रहीम के नाम से शुरू किया गया है।