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سُورَةُ المُؤۡمِنُونَ

23. अल-मोमिनून

(मक्का में उतरी-आयतें 118)

परिचय

नाम

पहली ही आयत “क़द अफ़-ल-हल मोमिनून (निश्चय ही सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने)" से लिया गया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली और विषय, दोनों से यही मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है। आयत 75-76 से स्पष्ट रूप से यह गवाही मिलती है कि यह मक्का के उस भीषण अकाल के समय में उतरी है जो विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसी मध्यकाल में पड़ा था।

विषय और वार्ताएँ

रसूल (सल्ल०) की पैरवी की दावत इस सूरा का केंद्रीय विषय है और पूरा भाषण इसी केंद्र के चारों ओर घूमता है। बात का आरंभ इस तरह होता है कि जिन लोगों ने इस पैग़म्बर की बात मान ली है, उनके भीतर ये और ये गुण पैदा हो रहे हैं और निश्चय ही ऐसे ही लोग दुनिया और आख़िरत की सफलता के अधिकारी हैं। इसके बाद इंसान की पैदाइश, आसमान और ज़मीन की पैदाइश, पेड़-पौधों और जानवरों की पैदाइश और सृष्टि की दूसरी निशानियों से तौहीद और आख़िरत के सत्य होने के प्रमाण जुटाए गए हैं, फिर नबियों (अलैहि०) और उनकी उम्मतों (समुदायों) के क़िस्से |बयान करके] कुछ बातें श्रोताओं को समझाई गई हैं-

एक यह कि आज तुम लोग मुहम्मद (सल्ल०) की दावत पर जो सन्देह और आपत्तियाँ कर रहे हो वे कुछ नई नहीं हैं, पहले भी जो नबी दुनिया में आए थे, उन सबपर उनके समय के अज्ञानियों ने यही आपत्तियाँ की थीं। अब देख लो कि इतिहास का पाठ क्या बता रहा है, आपत्ति करनेवाले सत्य पर थे या नबी?

दूसरे यह कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के बारे में जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, यही शिक्षा हर युग के नबियों ने दी है।

तीसरे यह कि जिन क़ौमों ने नबियों की बात सुनकर न दो, वे अन्तत: नष्ट होकर रहीं।

चौथे यह कि अल्लाह की ओर से हर समय में एक ही दीन आता रहा है और सारे नबी एक ही उम्मत (समुदाय) के लोग थे, उस अकेले धर्म के सिवा, जो अलग-अलग धर्म तुम लोग दुनिया में देख रहे हो, ये सब लोगों के गढ़े हुए हैं।

इन क़िस्सों के बाद लोगों को यह बताया गया है कि वास्तविक चीज़ जिसपर अल्लाह के यहाँ प्रिय या अप्रिय होना आश्रित है, वह आदमी का ईमान और उसकी ख़ुदातर्सी और सत्यवादिता है। ये बातें इसलिए कही गई हैं कि नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में उस समय जो रुकावटें पैदा की जा रही थी, उसके ध्वजावाहक सब के सब मक्का के बुजुर्ग और बड़े-बड़े सरदार थे। वे अपनी जगह स्वयं भी यह घमंड रखते थे और उनके प्रभावाधीन लोग भी इस भ्रम में पड़े हुए थे कि नेमतों की बारिश जिन लोगों पर हो रही है, उनपर ज़रूर अल्लाह और देवताओं की कृपा है। रहे ये टूटे-मारे लोग जो मुहम्मद के साथ हैं, इनकी तो हालत स्वयं ही यह बता रही है कि अल्लाह इनके साथ नहीं है और देवताओं की तो मार ही इनपर पड़ी हुई है। इसके बाद मक्कावालों को अलग-अलग पहलुओं से नबी (सल्ल०) की नुबूवत पर सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। फिर उनको बताया गया है कि यह अकाल जो तुमपर आ पड़ा है, यह एक चेतावनी है, बेहतर है कि इसको देखकर संभलो और सीधे रास्ते पर आ जाओ। फिर उनको नए सिरे से उन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है जो सृष्टि और स्वयं उनके अपने अस्तित्त्व में मौजूद हैं। और अल्लाह की तौहीद और मरने के बाद की ज़िन्दगी की खुली हुई गवाही दे रही हैं। फिर नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि चाहे ये लोग तुम्हारे मुक़ाबले में कैसा ही रवैया अपनाएँ, तुम भले तरीक़ों ही से बचाव करना । शैतान कभी तुमको जोश में लाकर बुराई का जवाब बुराई से देने पर तैयार न करने पाए।

वार्ता के अन्त में सत्य के विरोधियों को आख़िरत की पूछ-ताछ से डराया गया है और उन्हें सचेत किया गया है कि जो कुछ तुम सत्य की दावत और उसकी पैरवी करनेवालों के साथ कर रहे हो, उसका कड़ा हिसाब तुमसे लिया जाएगा।

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سُورَةُ المُؤۡمِنُونَ
23. अल-मोमिनून 14
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ
(1) यक़ीनन कामयाबी पाई है ईमान लानेवालों ने1 जो:
1. ईमान लानेवालों से मुराद वे लोग हैं जिन्होंने मुहम्मद (सल्ल०) की दावत क़ुबूल कर ली, आपको अपना रहनुमा मान लिया और ज़िन्दगी के उस तरीक़े की पैरवी पर राज़ी हो गए जिसे आप (सल्ल०) ने पेश किया है। अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अफ़-ल-ह’ इस्तेमाल हुआ है जो फ़लाह से बना है। इसका मतलब है कामयाबी और ख़ुशहाली। यह लफ़्ज़ 'ख़ुसरान' का उलट है, जो टोटे और घाटे और नाकामी के मानी में बोला जाता है। ‘अफ़-लहर-रजुल' का मतलब है फ़ुलाँ आदमी कामयाब हुआ, अपनी मुराद को पहुँचा, ख़ुशहाल हो गया, उसकी कोशिश कामयाब हुई, उसकी हालत अच्छी हो गई। 'क़द अफ़-ल-ह' (यक़ीनन कामयाबी पाई)। बात की शुरुआत इन अलफ़ाज़ से करने का सही मतलब उस वक़्त तक समझ में नहीं आ सकता जब तक वह माहौल निगाह में न रखा जाए जिसमें यह तक़रीर की जा रही थी। उस वक़्त एक तरफ़ इस्लामी दावत की मुख़ालफ़त करनेवाले मक्का के सरदार थे, जिनकी तिजारतें चमक रही थीं, जिनके पास दौलत की रेल-पेल थी, जिनको दुनियावी ख़ुशहाली के सारे सामान हासिल थे और दूसरी तरफ़ इस्लामी दावत की पैरवी करनेवाले थे, जिनमें से ज़्यादातर तो पहले ही ग़रीब और तंगहाल थे, और कुछ जो अच्छे खाते-पीते घरानों से ताल्लुक़ रखते थे या अपने कारोबार में पहले से कामयाब थे, उनको भी अब क़ौम की मुख़ालफ़त ने बदहाल कर दिया था इस सूरतेहाल में जब तक़रीर की शुरुआत इस जुमले से की गई कि “यकीनन कामयाबी पाई है ईमान लानेवालों ने”तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकला कि कामयाबी और नाकामी का तुम्हारा पैमाना ग़लत है, तुम्हारे अन्दाज़े ग़लत हैं, तुम्हारी निगाह दूर तक पहुँचनेवाली नहीं है, तुम अपनी जिस वक़्ती और महदूद ख़ुशहाली को कामयाबी समझ रहे हो वह कामयाबी नहीं नाकामी और घाटा है, और मुहम्मद (सल्ल०) के माननेवालों को जो तुम नाकाम और नामुराद समझ रहे हो, वे अस्ल में कामयाब और अपनी मुराद पा जानेवाले हैं। हक़ की इस दावत को मानकर उन्होंने घाटे का सौदा नहीं किया है, बल्कि वह चीज़ पाई है जो दुनिया और आख़िरत दोनों में उनको क़ायम रहनेवाली ख़ुशहाली देगी। और उसे रद्द करके अस्ल में तुमने घाटे का सौदा किया है जिसके बुरे नतीजे तुम यहाँ भी देखोगे और दुनिया से गुज़रकर दूसरी ज़िन्दगी में भी देखते रहोगे। यही इस सूरा का मर्कज़ी मजमून (केन्द्रीय विषय) है और सारी तक़रीर शुरू से आख़िर तक इसी बात को ज़ेहन में बिठाने के लिए की गई है।
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي صَلَاتِهِمۡ خَٰشِعُونَ ۝ 1
(2) अपनी2 नमाज़ में ख़ुशू3 अपनाते हैं,
2. यहाँ से आयत-9 तक ईमान लानेवालों की जो सिफ़तें और ख़ूबियाँ बयान की गई हैं वे मानो दलीलें हैं इस दावे की कि उन्होंने ईमान लाकर हक़ीक़त में कामयाबी पाई है। दूसरे अलफ़ाज़़ में मानो यूँ कहा जा रहा है कि ऐसे लोग आख़िर किस तरह कामयाब न हों जिनकी ये और ये ख़ूबियाँ हैं। इन ख़ूबियों के लोग नाकाम और नामुराद कैसे हो सकते हैं कामयाबी इन्हें नसीब न होगी तो और किन्हें होगी?
3. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ख़ाशिऊन’ इस्तेमाल हुआ है जो 'ख़ुशू’ से बना है। 'ख़ुशू' के अस्ल मानी हैं किसी के आगे झुक जाना, दब जाना, आजिज़ी और इंकिसारी करना (विनम्रता दिखाना)। इस कैफ़ियत का ताल्लुक़ दिल से भी है और जिस्म की ज़ाहिरी हालत से भी। दिल का ख़ुशू यह है कि आदमी किसी के रोब और बड़ाई और जलाल से मुतास्सिर हो। और जिस्म का ख़ुशू यह है कि जब वह उसके सामने जाए तो सर झुक जाए, जिस्म के अंग ढीले पड़ जाएँ, निगाह झुक जाए, आवाज़ दब जाए और डर और रोब के वे सारे आसार उसपर छा जाएँ जो उस हालत में फ़ितरी तौर पर छा जाया करते हैं, जबकि आदमी किसी ज़बरदस्त ताक़त रखनेवाली हस्ती के सामने पेश हो। नमाज़ में ख़ुशू से मुराद दिल और जिस्म की यही कैफ़ियत है और यही नमाज़ की अस्ल रूह है। हदीस में आता है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने एक आदमी को देखा कि नमाज़ पढ़ रहा है और साथ-साथ दाढ़ी के बालों से खेलता जाता है। इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर इसके दिल में ख़ुशू होता तो इसके जिस्म पर भी ख़ुशू छाया होता।" (रूहुल-मआनी, हिस्सा-18, पेज-3, अल्लामा आलूसी) हालाँकि ख़ुशू का ताल्लुक़ हक़ीक़त में दिल से है और दिल का ख़ुशू आप-से-आप जिस्म पर छा जाता है, जैसा कि ऊपर बयान की गई हदीस से अभी मालूम हुआ। लेकिन शरीअत में नमाज़ के कुछ ऐसे आदाब (शिष्टाचार) भी मुक़र्रर कर दिए हैं जो एक तरफ़ दिल के ख़ुशू में मददगार होते हैं और दूसरी तरफ़ ख़ुशू की घटती-बढ़ती कैफ़ियतों में नमाज़ के अमल को कम-से-कम ज़ाहिरी हैसियत से एक ख़ास सतह पर क़ायम रखते हैं। इन आदाब में से एक यह है कि आदमी दाएँ-बाएँ न मुड़े और न सर उठाकर ऊपर की तरफ़ देखे (ज़्यादा-से-ज़्यादा सिर्फ़ कनखियों से इधर-उधर देखा जा सकता है। हनफ़ी और शाफ़िई उलमा के नज़दीक निगाह सजदे की जगह से न हटनी चाहिए, मगर मालिकी आलिम इस बात को मानते हैं कि निगाह सामने की तरफ़ रहनी चाहिए।) नमाज़ में हिलना और अलग-अलग सम्तों (दिशाओं) में झुकना भी मना है। कपड़ों को बार-बार समेटना, या उनको झाड़ना, या उनसे खेलना भी मना है। इस बात से भी मना किया गया है कि सजदे में जाते वक़्त आदमी अपने बैठने की जगह या सजदे की जगह साफ़ करने की कोशिश करे। तनकर खड़े होना, बहुत ऊँची आवाज़ से कड़ककर क़ुरआन पढ़ना, या गा-गाकर क़ुरान पढ़ना भी नमाज़ के आदाब के ख़िलाफ़ है। ज़ोर-ज़ोर से जम्हाइयाँ लेना और डकारें मारना भी नमाज़ में बेअदबी है। जल्दी-जल्दी मारा-मार नमाज़ पढ़ना भी सख़्त नापसन्दीदा है। हुक्म यह है कि नमाज़ का हर अमल पूरी तरह सुकून और इत्मीनान से अदा किया जाए और एक अमल मिसाल के तौर पर रुकू या सजदा या क़ियाम (खड़े होना) या क़ुऊद (बैठना) जब तक पूरा न हो ले, दूसरा काम शुरू न किया जाए। नमाज़ में अगर कोई चीज़ तकलीफ़ दे रही हो तो उसे एक हाथ से हटाया जा सकता है, मगर बार-बार हाथों को हरकत देना, या दोनों हाथों को इस्तेमाल करना मना है। इन ज़ाहिरी आदाब के साथ यह चीज़ भी बड़ी अहमियत रखती है कि आदमी नमाज़ में जान-बूझकर बेकार बातें सोचने से बचे। बिला इरादा ख़यालात ज़ेहन में आएँ और आते रहें तो यह इनसान के मन की एक फ़ितरी कमज़ोरी है। लेकिन आदमी की पूरी कोशिश यह होनी चाहिए कि नमाज़ के वक़्त उसका दिल अल्लाह से लगा हो और जो कुछ वह ज़बान से कह रहा हो वही दिल से भी कहे। इस बीच अगर बे-इख़्तियार दूसरे ख़यालात आ जाएँ तो जिस वक़्त भी आदमी को उनका एहसास हो उसी वक़्त उसे अपना ध्यान उनसे हटाकर नमाज़ की तरफ़ फेर लेना चाहिए।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَنِ ٱللَّغۡوِ مُعۡرِضُونَ ۝ 2
(3) बेकार की बातों से दूर रहते हैं।4
4. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'लग़्व' इस्तेमाल हुआ है। 'लग़्व' हर उस बात और काम को कहते हैं जो फ़ुज़ूल, बेमतलब और बे-मक़सद हो। जिन बातों या कामों का कोई फ़ायदा न हो, जिनसे कोई फ़ायदेमन्द नतीजा न निकले, जिनकी कोई हक़ीक़ी ज़रूरत न हो, जिनसे कोई अच्छा मक़सद हासिल न हो, वे सब 'लग़्व' में शामिल हैं। अस्ल अरबी में 'मुअरिज़ून' इस्तेमाल हुआ है इसका तर्जमा हमने “दूर रहते हैं” किया है। मगर इससे बात पूरी तरह अदा नहीं होती। आयत का पूरा मतलब यह है कि वे 'लग़्व' बातों और कामों की तरफ़ ध्यान नहीं देते। उनकी तरफ़ रुख़ नहीं करते। उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते। जहाँ ऐसी बातें हो रही हों या ऐसे काम हो रहे हों वहाँ जाने से बचते हैं, इनमें हिस्सा लेने से दूर रहते हैं, और अगर कहीं उनसे सामना हो हो जाए तो टल जाते हैं, कतराकर निकल जाते हैं, या और कुछ नहीं तो उनसे अलग-थलग हो रहते हैं। इसी बात को दूसरी जगह यूँ बयान किया गया है कि “जब किसी ऐसी जगह से उनका गुज़र होता है जहाँ 'लग़्व' बातें हो रही हों, या 'लग़्व' काम हो रहे हों, वहाँ से शरीफ़ आदमियों की तरह गुज़र जाते हैं। (क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-72) यह चीज़, जिसे इस छोटे-से जुमले में बयान किया गया है, अस्ल में ईमानवाले की सबसे अहम सिफ़ात में से है। ईमानवाला वह शख़्स होता है जिसे हर वक़्त अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास रहता है। वह समझता है कि दुनिया अस्ल में एक इम्तिहान की जगह है और जिस चीज़ को ज़िन्दगी और उम्र और वक़्त के अलग-अलग नामों से याद किया जाता है वह हक़ीक़त में एक नपी-तुली मुद्दत है जो उसे इम्तिहान के लिए दी गई है। यह एहसास उसको बिलकुल उस तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) की तरह संजीदा और काम में लगा रहनेवाला बना देता है जो इम्तिहान के कमरे में बैठा अपना परचा हल कर रहा हो। जिस तरह उस तालिबे-इल्म (Student) को यह एहसास होता है कि इम्तिहान के ये कुछ घंटे उसके आगे की ज़िन्दगी का फ़ैसला करनेवाले हैं, और इस एहसास की वजह से वह उन घंटों का एक-एक पल अपने परचे को सही तरीक़े से हल करने की कोशिश में लगा डालना चाहता है और उनका कोई सेकेंड बेकार बरबाद करने के लिए आमादा नहीं होता, ठीक उसी तरह ईमानवाला भी दुनिया की इस ज़िन्दगी को उन्हीं कामों में लगाता है जो अंजाम के लिहाज़ से फ़ायदेमन्द हों। यहाँ तक कि वह तफ़रीहों और खेलों में भी उन चीज़ों को चुनता है जो सिर्फ़ वक़्त की बरबादी न हों, बल्कि किसी बेहतर मक़सद के लिए उसे तैयार करनेवाली हों। उसके नज़दीक वक़्त 'काटने' की चीज़ नहीं होती, बल्कि इस्तेमाल करने की चीज़ होती है। इसके अलावा ईमानवाला एक अच्छी तबीअत, पाकीज़ा मिज़ाज, अच्छे ज़ौक़ का इनसान होता है। बेहूदगियों से उसकी तबीअत को किसी तरह का लगाव नहीं होता। यह फ़ायदेमन्द बातें कर सकता है, मगर बेकार की गप्पें नहीं हाँक सकता। वह ख़ुशमिज़ाजी और हलके-फुलके मज़ाक़ तक जा सकता है, मगर ठट्ठेबाज़ियोँ नहीं कर सकता, गन्दा मज़ाक़ और मसख़रापन बरदाश्त नहीं कर सकता, तफ़रीही बातों को अपना मशग़ला नहीं बना सकता। उसके लिए तो वह सोसाइटी एक हमेशा का अज़ाब होती है जिसमें कान किसी वक़्त भी गालियों से, ग़ीबतों, तोहमतों और झूठी बातों से, गन्दे गानों और बेहूदा बातों से बचे न हों। उसको अल्लाह तआला जिस जन्नत की उम्मीद दिलाता है उसकी नेमतों में से एक नेमत यह भी बयान करता है कि “वहाँ तू कोई लग़्व बात न सुनेगा।” (क़ुरआन, सूरा-88 ग़ाशिया, आयत-11)
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِلزَّكَوٰةِ فَٰعِلُونَ ۝ 3
(4) ज़कात के तरीक़े पर अमल करते हैं।5
5. 'ज़कात देने’ और 'ज़कात के तरीक़े पर अमल करने' में मतलब के लिहाज़ से बड़ा फ़र्क़ है जिसे नज़र-अन्दाज़ करके दोनों का एक ही मतलब समझ लेना सही नहीं है। आख़िर कोई बात तो है जिसकी वजह से यहाँ ईमानवालों की ख़ूबियाँ बयान करते हुए ‘वे ज़कात देते हैं’ का आम जाना-पहचाना अन्दाज़ छोड़कर “वे ज़कात के तरीक़े पर अमल करते है” का ग़ैर-मामूली अन्दाज़े-बयान अपनाया गया है। अरबी ज़बान में ज़कात का मतलब दो मानी से मिलकर बना है। एक 'पाकीज़गी’ और दूसरा बढ़ना और ‘फलना-फूलना'। किसी चीज़ की तरक़्क़ी में जो चीज़ें रुकावट हों उनको दूर करना, और उसके अस्ल जौहर को परवान चढ़ाना, ये दो बातें मिलकर ज़कात का पूरा ख़ाका बनाती हैं। फिर यह लफ़्ज़ जब इस्लामी ज़बान में बोला जाता है तो इससे दो मतलब लिए जाते हैं। एक वह माल जो तज़क़िया (पाक करने) के मक़सद से निकाला जाए। दूसरा अपने आपमें ख़ुद तज़क़िया का अमल। अगर 'ज़कातें अदा करते हैं’ कहें तो इसका मतलब यह होगा कि वह तज़क़िया के मक़सद से अपने माल का एक हिस्सा देते या अदा करते हैं। इस तरह बात सिर्फ़ माल देने तक महदूद हो जाती है। लेकिन अगर ‘ज़कात के तरीक़े पर अमल करते हैं’ कहा जाए तो इसका मतलब यह होगा कि वे तज़क़िये का अमल करते हैं। और इस सूरत में बात सिर्फ़ माली ज़कात अदा करने तक महदूद न रहेगी, बल्कि नफ़्स का तज़क़िया, अख़लाक़ का तज़क़िया ज़िन्दगी का तज़क़िया, माल का तज़क़िया, ग़रज़ हर पहलू के तज़क़िए तक फैल जाएगी। और इसके अलावा, इसका मतलब सिर्फ़ अपनी ही ज़िन्दगी के तज़क़िए तक महदूद न रहेगा, बल्कि अपने आसपास की ज़िन्दगी के तज़किए तक भी फैल जाएगा। इसलिए दूसरे अलफ़ाज़ में इस आयत का तर्जमा यूँ होगा कि “वे तज़किए का काम करनेवाले लोग हैं", यानी अपने आपको भी पाक करते हैं और दूसरों को पाक करने का काम भी अंजाम देते हैं, अपने अन्दर भी इनसानियत के जौहर को बढ़ाते हैं और बाहर की ज़िन्दगी में भी उसकी तरक़्क़ी के लिए कोशिश करते रहते हैं। यह बात क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर भी बयान की गई है। जैसे फ़रमाया, “कामयाबी पाई उस शख़्स ने जिसने पाकीज़गी अपनाई और अपने रब का नाम याद करके नमाज़ पढ़ी।” (सूरा-87 आला, आयत-14, 15) और फ़रमाया, “कामयाब हुआ वह जिसने नफ़्स का तज़किया किया, और नाकाम हुआ वह जिसने उसको दबा दिया। (सूरा-91 शम्स, आयत-9, 10) मगर यह आयत इन दोनों के मुक़ाबले में ज़्यादा मानी और मतलब अपने अन्दर रखती है, क्योंकि वह सिर्फ़ अपने मन के तज़किए पर ज़ोर देती है, और यह ख़ुद अपनी जगह तज़किए के अमल की अहमियत बयान करती है जो अपनी ज़ात और समाज की ज़िन्दगी, दोनों ही के तज़किए को अपने दायरे में लेती है।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِفُرُوجِهِمۡ حَٰفِظُونَ ۝ 4
(5) अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाजत करते हैं,6
6. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि अपने जिस्म के छिपाने लायक़ हिस्सों को छिपाकर रखते हैं, यानी नंगेपन से बचते हैं और अपने छिपाने लायक़ हिस्से दूसरों के सामने नहीं खोलते। दूसरा यह कि वे अपनी इज़्ज़त-आबरु को महफ़ूज़ रखते हैं, यानी जिंसी (यौन) मामलों में आज़ादी नहीं बरतते और शहवानी ताक़त के इस्तेमाल में बे-लगाम नहीं होते। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-24 नूर, हाशिए—30-52)।
إِلَّا عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَإِنَّهُمۡ غَيۡرُ مَلُومِينَ ۝ 5
(6) सिवाय अपनी बीवियों के और उन औरतों के जो उनकी मिल्कियत में हों कि उनपर (महफ़ूज़ न रखने में) वे मलामत (निन्दा) के क़ाबिल नहीं हैं,
فَمَنِ ٱبۡتَغَىٰ وَرَآءَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡعَادُونَ ۝ 6
(7) अलबत्ता जो उसके अलावा कुछ और चाहें वही ज़्यादती करनेवाले हैं,7
7. ऊपर से चली आ रही बात के दरमियान में यह बात उस ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए कही गई है जो 'शर्मगाहों की हिफ़ाज़त’ के लफ़्ज़ से पैदा होती है। दुनिया में पहले भी यह समझा जाता रहा है और आज भी बहुत-से लोग इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हैं कि शहवानी ताक़त (यौन-शक्ति) अपने आपमें ख़ुद एक बुरी चीज़ है और उसकी माँगें पूरी करना, चाहे जाइज़ तरीक़े ही से क्यों न हो, बहरहाल नेक और अल्लाहवाले लोगों के लिए मुनासिब नहीं है। इस ग़लत-फ़हमी को ताक़त पहुँच जाती अगर सिर्फ़ इतना ही कहकर बात ख़त्म कर दी जाती कि कामयाबी पानेवाले ईमानवाले अपनी शर्मगाहों को महफ़ूज़ रखते हैं, क्योंकि इसका मतलब यह लिया जा सकता था कि वे लंगोट-बन्द रहते हैं, राहिब और संन्यासी क़िस्म के लोग होते हैं, शादी-ब्याह के झगड़ों में नहीं पड़ते। इसलिए बीच में एक जुमला बढ़ाकर हक़ीक़त खोलकर रख दी गई कि जाइज़ जगह पर अपनी नफ़्स की ख़ाहिश पूरी करना मलामत के लायक़ चीज़ नहीं है। अलबत्ता गुनाह यह है कि आदमी शहवानी ख़ाहिश पूरी करने के लिए इस जाइज़ और जाने-पहचाने तरीक़े से आगे बढ़ जाए। बीच में आ जानेवाले इस जुमले से कुछ अहकाम (आदेश) निकलते हैं जिनको हम मुख़्तसर तौर पर यहाँ बयान करते हैं— (1) शर्मगाहों की हिफ़ाज़त के आम हुक्म से दो तरह की औरतों को अलग किया गया है एक 'अज़वाज' (बीवियाँ), दूसरे 'मा म-ल-कत ऐमानुहुम' यानी 'जो औरतें तुम्हारी मिल्कियत में हों'। 'अज़वाज' अरबी ज़बान के आम इस्तेमाल के मुताबिक़ भी और ख़ुद क़ुरआन के साफ़ बयानों के मुताबिक़ भी सिर्फ़ उन औरतों को कहते हैं जिनसे बाक़ायदा निकाह (विवाह) किया गया हो, और इसी के लिए उर्दू में 'बीवी' का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है। रहा लफ़्ज़ 'मा म-ल-कत ऐमानुहुम' तो अरबी ज़बान के मुहावरे और क़ुरआन में इसके इस्तेमाल, दोनों इसपर गवाह हैं कि यह लड़की के लिए इस्तेमाल होता है, यानी वह औरत जो आदमी की मिल्कियत में हो। इस तरह यह आयत साफ़ बयान कर देती है कि निकाह करके लाई गई बीवी की तरह अपनी मिल्कियत में रहनेवाली लौंडी से भी जिंसी ताल्लुक़ (यौन-सम्बन्ध) बनाना जाइज़ है, और इसके जाइज़ होने की बुनियाद निकाह नहीं, बल्कि मिल्कियत है। अगर इसके लिए भी निकाह की शर्त होती तो उसे अज़वाज से अलग बयान करने की कोई ज़रूरत न थी, क्योंकि निकाह में होने की सूरत में वह भी अज़वाज में दाख़िल होती। आजकल के क़ुरआन के कुछ आलिम, जो लौंडी से जिंसी ताल्लुक़ बनाने को जाइज़ नहीं मानते हैं, क़ुरआन, सूरा-4 निसा की आयत-25, “और तुममें से जो कोई इतनी सकत न रखता हो कि पाकदामन, आज़ाद और ईमानवाली औरतों से निकाह कर सके” से दलील लेकर यह साबित करने की काशिश करते हैं कि लौंडी से जिंसी ताल्लुक़ भी सिर्फ़ निकाह ही करके बनाया जा सकता है, क्योंकि वहाँ यह हुक्म दिया गया है कि अगर तुम्हारी माली हालत किसी आज़ाद ख़ानदानी औरत से शादी करने के क़ाबिल न हो तो किसी लौंडी ही से निकाह कर लो। लेकिन इन लोगों की यह अजीब ख़ासियत है कि एक ही आयत के एक टुकड़े को अपने फ़ायदे का पाकर ले लेते हैं, और उसी आयत का जो टुकड़ा उनके मक़सद के ख़िलाफ़ पड़ता हो उसे जान-बूझकर छोड़ देते हैं। इस आयत में लौंडियों से निकाह करने की हिदायत जिन अलफ़ाज़ में दी गई है वे ये हैं, “तो उन (लौंडियों) से निकाह कर लो, उनके सरपरस्तों को इजाज़त से और उनको भले तरीक़े से उनके मह्‍र अदा करो।” ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ ख़ुद लौंडी के मालिक के मामले की बात नहीं हो रही है, बल्कि किसी ऐसे शख़्स के मामले की बात हो रही है जो आज़ाद औरत से शादी का ख़र्च न बरदाश्त कर सकता हो और इस वजह से किसी दूसरे शख़्स की लौंडी से निकाह करना चाहे। वरना ज़ाहिर है कि अगर मामला अपनी ही लौंडी से निकाह करने का हो तो उसके 'अहल' (सरपरस्त) कौन हो सकते हैं जिनसे उसको इजाज़त लेने की ज़रूरत हो? मगर क़ुरआन से खेलनेवाले सिर्फ़ 'फ़न्‌किह्हुन-न' (उनसे शादी कर लो) को ले लेते हैं और उसके बाद ही 'बिइज़नि अहलिहिन-न' (उनके सरपस्तों की इजाज़त से) के जो अलफ़ाज़ मौजूद हैं, उन्हें अनदेखा कर देते हैं। इसके साथ ही वे एक आयत का ऐसा मतलब निकालते हैं जो उसी मामले के बारे में क़ुरआन मजीद की दूसरी आयतों से टकराता है। कोई आदमी अगर अपने ख़यालात की नहीं, बल्कि क़ुरआन पाक की पैरवी करना चाहता हो तो वह सूरा-4 निसा, आयतें—3-25; सूरा-33 अहज़ाब, आयतें—50-52 और सूरा-70 मआरिज, आयत-30 को सूरा-23 मोमिनून की इस आयत के साथ मिलाकर पढ़े। उसे ख़ुद मालूम हो जाएगा कि क़ुरआन का क़ानून इस मसले में क्या है। (इस मसले की और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-44; तफ़हीमात, उर्दू, हिस्सा-2, पेज 290-324; रसाइलो-मसाइल, उर्दू, पेज 324-333) (2) “इल्लला अला अज़वाजिहिम अव मा म-ल-कत ऐमानुहम” (सिवाय अपनी बीवियों के और उन औरतों के जो तरीक़े के मुताबिक़ उनकी मिल्कियत में हों) में लफ़्ज़ 'अला’ इस बात को साफ़ कर देता है कि बीच में आए हुए जुमले में इस बात के ज़रिए से जो क़ानून बयान किया जा रहा है, उसका ताल्लुक़ सिर्फ़ मर्दों से है। बाक़ी तमाम आयतें ‘क़द अफ़लहल- मुअमिनून से लेकर 'ख़ालिदून' तक मुज़क्कर (पुल्लिंग) की ज़मीरों (सर्वनामों) के बावजूद इसमें मर्द-औरत दोनों शामिल हैं, क्योंकि अरबी ज़बान में औरतों और मर्दों का जब ज़िक्र किया जाता है तो ज़मीर मुज़क्कर ही इस्तेमाल की जाती है। लेकिन यहाँ ‘लिफ़ुरूजिहिम हाफ़िज़ून' के हुक्म से अलग करते हुए 'अला' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके वह बात साफ़ बयान कर दी गई कि यह अलग हुक्म मर्दों के लिए है, न कि औरतों के लिए। अगर 'उनपर' कहने के बजाय 'उनसे महफूज़ न रखने में वे मलामत क़ाबिल नहीं हैं’ कहा जाता तो अलबत्ता यह हुक्म भी मर्द औरत दोनों के लिए हो सकता था। यही वह बारीक़ नुक्ता है जिसे न समझने की वजह से एक औरत हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में अपने ग़ुलाम से जिस्मानी ताल्लुक़ बना बैठी थी। सहाबा किराम (रज़ि०) की मजलिसे-शूरा (सलाहकार समिति) में जब उसका मामला पेश किया गया तो सबने एकराय होकर कहा कि “उसने अल्लाह तआला की किताब का ग़लत मतलब ले लिया।” यहाँ किसी को यह शक न हो कि अगर यह अलग हुक्म मर्दों के लिए ख़ास है तो फिर बीवियों के लिए उनके शौहर हलाल (जाइज़) कैसे हुए? यह शक इसलिए ग़लत है कि जब बीवियों के मामले में शौहरों को शर्मगाह की हिफ़ाज़त के हुक्म से अलग कर दिया गया तो अपने शौहरों के मामले में बीवियों आप-से-आप इस हुक्म से अलग हो गईं, उनके लिए फिर अलग से किसी साफ़ बयान की ज़रूरत न रही। इस तरह इस अलग हुक्म का असर अमली तौर पर सिर्फ़ मर्द और उसकी मिल्कियत में रहनेवाली औरत तक महदूद होकर रह जाता है, और औरत पर उसका ग़ुलाम हराम क़रार पाता है। औरत के लिए इस चीज़ को हराम करने की हिकमत यह है कि ग़ुलाम उसकी जिंसी ख़ाहिश तो पूरी कर सकता है, मगर उसका और घर का ज़िम्मेदार और सरपरस्त नहीं बन सकता, जिसकी वजह से ख़ानदानी ज़िन्दगी की चूल ढीली रह जाती है। (3) “अलबत्ता जो उसके अलावा कुछ और चाहें वही ज़्यादती करनेवाले हैं।” इस जुमले ने ऊपर बयान की गई दोनों जाइज़ सूरतों के सिवा जिंसी ख़ाहिश पूरी करने की तमाम दूसरी सूरतों को हराम कर दिया, चाहे वह ज़िना (व्यभिचार) हो, या क़ौमे-लूत का अमल (गुदा मैथुन), या जानवरों के साथ सोहबत हो या कुछ और। सिर्फ़ एक हस्त-मैथुन (Masturbation) के मामले में फ़क़ीहों (इस्लाम की गहरी जानकारी रखनेवालों) के बीच इख़्तिलाफ़ है। इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) इसको जाइज़ ठहराते हैं। इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) इसको बिलकुल हराम ठहराते हैं। और हनफ़ी आलिमों के नज़दीक हालाँकि यह हराम है, लेकिन वे कहते हैं कि अगर जज़बात के सख़्त ग़लबे की हालत में आदमी से कभी-कभार यह हरकत हो जाए तो उम्मीद है कि उसे माफ़ कर दिया जाएगा। (4) क़ुरआन के कुछ आलिमों ने 'मुतआ’ (एक तयशुदा मुद्दत के लिए किसी औरत को बीवी की तरह रखना) का हराम होना भी इस आयत से साबित किया है। उनकी दलील यह है कि जिस औरत से मुतआ किया जाता है उसे न तो बीवी कह सकते हैं और न लौंडी। लौंडी तो वह ज़ाहिर है कि नहीं है। और बीवी इसलिए नहीं है कि बीवी होने के लिए जितने क़ानूनी हुक्म हैं उनमें से कोई भी उसपर चस्पाँ नहीं होता। न वह मर्द की वारिस होती है, न मर्द उसका वारिस होता है। न उसके लिए इद्दत है, न तलाक़, न नफ़क़ा (रोटी-कपड़े वग़ैरा का ख़र्च), न ईला, ज़िहार और लिआन वग़ैरा; बल्कि चार बीवियों की तयशुदा हद से भी वह अलग है। तो जब वह 'बीवी' और 'लौडी', दोनों नहीं कही जा सकती तो ज़रूर ही वह उनके अलावा कुछ और में गिनी जाएगी जिसके तलबगार को क़ुरआन 'हद से गुज़रनेवाला' क़रार देता है। यह दलील बहुत मज़बूत है, मगर इसमें कमज़ोरी का एक पहलू ऐसा है जिसकी वजह से यह कहना मुश्किल है कि मुतआ के हराम होने के बारे में यह आयत हुक्म की हैसियत रखती है। वह पहलू यह है कि नबी (सल्ल०) ने मुतआ के हराम होने का आख़िरी और क़तई हुक्म मक्का की फ़तह के साल दिया है, और इससे पहले इजाज़त के सुबूत सही हदीसों में पाए जाते हैं। अगर यह मान लिया जाए कि मुतआ के हराम होने का हुक्म क़ुरआन की इस आयत ही में आ चुका था, जो सबकी राय में मक्की है और हिजरत से कई साल पहले उतरी थी, तो यह कैसे सोचा जा सकता है कि नबी (सल्ल०) उसे मक्का को फ़तह तक जाइज़ रखते। इसलिए यह कहना ज़्यादा सही है कि मुतआ का हराम होना क़ुरआन मजीद के किसी साफ़ हुक्म पर नहीं, बल्कि नबी (सल्ल०) की सुन्नत से है। सुन्नत में इसको साफ़-साफ़ बयान न किया गया होता तो सिर्फ़ इस आयत की बुनियाद पर इसके हराम होने का फ़ैसला कर देना मुश्किल था। मुतआ का जब ज़िक्र आ गया है तो मुनासिब मालूम होता है कि बातों को और वाज़ेह कर दिया जाए। एक यह कि इसका हराम होना ख़ुद नबी (सल्ल०) से साबित है, लिहाज़ा यह कहना कि इसे हज़रत उमर (रज़ि०) ने हराम किया, दुरुस्त नहीं है। हज़रत उमर (रज़ि०) ने इस हुक्म को अपनी तरफ़ से नहीं दिया था, बल्कि वे सिर्फ़ इसको लागू करनेवाले और लोगों तक पहुँचानेवाले थे। चूँकि यह हुक्म नबी (सल्ल०) ने आख़िरी ज़माने में दिया था और आम लोगों तक न पहुँचा था, इसलिए हज़रत उमर (रज़ि०) ने इसे आम लोगों तक पहुँचाया और क़ानून के ज़रिए से इसे लागू किया। दूसरी यह कि शीआ लोगों ने मुतआ को बिलकुल मुबाह (जाइज़) ठहराने का जो मसलक अपनाया है, उसके लिए तो बहरहाल क़ुरआन और हदीस के साफ़ हुक्मों में सिरे से कोई गुंजाइश ही नहीं है। शुरू के ज़माने में सहाबा और ताबिईन और फ़क़ीहों में से कुछ बुज़ुर्ग जो इसे जाइज़ कहते थे, वे इसे सिर्फ़ मजबूरी और बहुत ज़रूरत की हालत में जाइज़ रखते थे। उनमें से कोई भी इसे निकाह की तरह बिलकुल मुबाह और आम हालात में इसपर अमल करने के क़ाइल न थे। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) जिनका नाम इसे जाइज़ माननेवालों में सबसे ज़्यादा नुमायाँ करके पेश किया जाता है, अपनी राय को ख़ुद इन अलफ़ाज़़ में साफ़-साफ़ वाज़ेह करते हैं, “यह तो मुर्दार की तरह है कि मजबूरी के सिवा किसी के लिए भी हलाल नहीं।” और यह फ़तवा भी उन्होंने उस वक़्त वापस ले लिया था जब उन्होंने देखा कि लोग जाइज़ होने की गुंजाइश से नाजाइज़ फ़ायदा उठाकर आज़ादी से मुतआ करने लगे हैं और ज़रूरत और मजबूरी तक उसपर बस नहीं करते। इस सवाल को अगर नज़र-अन्दाज़ भी कर दिया जाए कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और उनके जैसा ख़याल रखनेवाले कुछ गिने-चुने लोगों ने इस मसलक से रुजू कर लिया था या नहीं, तो उनके मसलक को अपनानेवाला ज़्यादा-से-ज़्यादा मजबूरी की हालत में जाइज़ की हद तक जा सकता है। पूरी तरह जाइज़ होने और बिना ज़रूरत जिस्मानी ताल्लुक़, यहाँ तक कि बीवियों तक की मौजूदगी में भी मुतआ के तहत आनेवाली औरतों से फ़ायदा उठाना तो एक ऐसी आज़ादी है जिसे अच्छा और साफ-सुथरा ज़ौक़ भी गवारा नहीं करता, कहाँ यह कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) की लाई हुई शरीअत से जोड़ दिया जाए और अहले-बैत के इमामों पर इसका इलज़ाम लगाया जाए। मेरा ख़याल है कि ख़ुद शीआ लोगों में से भी कोई शरीफ़ आदमी यह गवारा नहीं कर सकता कि कोई शख़्स उसकी बेटी या बहन के लिए निकाह के बजाय मुतआ का पैग़ाम दे। इसका मतलब यह हुआ कि मुतआ को जाइज़ ठहराने के लिए समाज में तवाइफ़ों की तरह औरतों का एक ऐसा निचला तबक़ा मौजूद रहना चाहिए जिससे मुतआ के ज़रिए से जिस्मानी ताल्लुक़ बनाने का दरवाजा खुला रहे। या फिर यह कि मुतआ सिर्फ़ ग़रीब लोगों की बेटियों और बहनों के लिए हो और इससे फ़ायदा उठाना ख़ुशहाल तबक़े के मर्दों का हक़ हो। क्या ख़ुदा और रसूल की शरीअत से इस तरह के नाइनसाफ़ीवाले क़ानूनों की उम्मीद की जा सकती है? और क्या ख़ुदा और उसके रसूल से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे किसी ऐसे काम को जाइज़ कर देंगे जिसे हर शरीफ़ औरत अपने लिए बेइज़्ज़ती भी समझे और बेहयाई भी?
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِأَمَٰنَٰتِهِمۡ وَعَهۡدِهِمۡ رَٰعُونَ ۝ 7
(8) अपनी अमानतों और अपने किए हुए वादों और समझौतों का ख़याल रखते हैं,8
8. 'अमानतों का लफ़्ज़ उन तमाम अमानतों को अपने अन्दर समेटे हुए है जो अल्लाह तआला ने, या समाज ने, या लोगों ने किसी शख्स के सिपुर्द की हों। और किए हुए वादों और समझौतों में वे सारे समझौते दाख़िल हैं जो इनसान और ख़ुदा के बीच, या इनसान और इनसान के बीच, या क़ौम और क़ौम के बीच तय पाए हों। ईमानवाले की ख़ूबी यह है कि वह कभी अमानत में ख़ियानत न करेगा और कभी अपनी बात से न फिरेगा। नबी (सल्ल०) अकसर अपने ख़ुतबों में फ़रमाया करते थे, “जो अमानत की सिफ़त नहीं रखता वह ईमान नहीं रखता, और जो वादे का पास नहीं रखता वह दीन नहीं रखता।” (हदीस : बैहक़ी फ़ी शुअबिल-ईमान)। बुख़ारी और मुस्लिम दोनों की एक रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “चार आदतें हैं कि जिसमें वे चारों पाई जाएँ वह ख़ालिस मुनाफ़िक़ है और जिसमें कोई एक पाई जाए उसके अन्दर निफ़ाक़ की एक आदत मौजूद है जब तक कि वह उसे छोड़ न दे। जब कोई अमानत उसके सिपुर्द की जाए तो ख़ियानत करे। जब बोले तो झूठ बोले। जब अह्द (वादा) करे तो तोड़ दे। और जब किसी से झगड़े तो (अख़लाक़ और ईमानदारी की) सारी हदें पार कर जाए।"
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَوَٰتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 8
(9) और अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं।9
9. ऊपर ख़ुशू के ज़िक्र में 'नमाज़' फ़रमाया था और यहाँ 'नमाज़ों का लफ़्ज़ जमा (बहुवचन) में कहा है। दोनों में फ़र्क़ यह है कि वहाँ नमाज़ की शक्ल मुराद थी और यहाँ एक-एक वक़्त की नमाज़ अलग-अलग मुराद है। 'नमाज़ों की हिफ़ाज़त' का मतलब यह है कि वे नमाज़ के वक़्तों, नमाज़ के आदाब, नमाज़ के अरकान और उसके हिस्सों, मतलब यह कि नमाज़ से ताल्लुक़ रखनेवाली हर चीज़ की पूरी निगरानी करते हैं। जिस्म और कपड़े पाक रखते हैं। वुज़ू ठीक तरह से करते हैं और इस बात का ख़याल रखते हैं कि कभी बे-वुज़ू नमाज़ न पढ़ बैठें। सही वक़्त पर नमाज़ अदा करने की फ़िक्र करते हैं। वक़्त टालकर नहीं पढ़ते। नमाज़ के तमाम अरकान पूरी तरह सुकून और इत्मीनान के साथ अदा करते हैं। एक बोझ की तरह जल्दी से उतारकर भाग नहीं जाते। और जो कुछ नमाज़ में पढ़ते हैं, वह इस तरह पढ़ते हैं कि जैसे बन्दा अपने ख़ुदा से कुछ अर्ज़ (निवेदन) कर रहा है, न इस तरह कि मानो एक रटी-रटाई इबादत को किसी न किसी तरह हवा में फूँक देना है।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 9
(10) यही लोग वे वारिस हैं
ٱلَّذِينَ يَرِثُونَ ٱلۡفِرۡدَوۡسَ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 10
(11) जो विरासत में फ़िरदौस10 पाएँगे और उसमें हमेशा रहेंगे।11
10. फ़िरदौस, आम तौर से जन्नत के लिए बोले जानेवाला लफ़्ज़ है जो क़रीब-क़रीब तमाम इनसानी ज़बानों में मिले-जुले तौर पर पाया जाता है। संस्कृत में प्रदीशा, पुरानी कलंदानी ज़बान में परदेसा, पुरानी रानी (ज़िन्द) में पेरीदाइज़ा, इबरानी में परदेस, अरमनी में परदेज़, सुरयानी में फ़रदीसो, यूनानी में पारादाइसूस, लेटिन में पाराडाइसिस और अरबी में फ़िरदौस। यह लफ़्ज़ इन सब ज़बानों में एक ऐसे बाग़ के लिए बोला जाता है जिसके आसपास चारदीवारी खिंची हुई हो, कुशादा हो, आदमी के रहने की जगह से मिला हुआ हो, और उसमें हर तरह के फल, ख़ास तौर पर अंगूर पाए जाते हों; बल्कि कुछ ज़बानों में तो कुछ चुने हुए पालतू परिन्दों और जानवरों का भी पाया जाना उसके मानी में शामिल है। क़ुरआन से पहले अरब की जाहिलाना शाइरी में भी लफ़्ज़ फ़िरदौस इस्तेमाल होता था। और क़ुरआन में यह लफ़्ज़ कई बाग़ों के मजमूए के लिए आया है, जैसा कि सूरा-18 कह्फ़ में कहा गया, “उनकी मेज़बानी के लिए फ़िरदौस के बाग़ हैं।” (आयत-107) इससे जो नक़्शा ज़ेहन में आता है वह यह है कि फ़िरदौस एक बड़ी जगह है जिसमें बहुत-से बाग़ और चमन और गुलशन पाए जाते हैं। ईमानवालों के फ़िरदौस का वारिस होने पर सूरा-20 ता-हा, हाशिया-83, और सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-99 में काफ़ी रौशनी डाली जा चुकी है।
11. इन आयतों में चार अहम बातें बायन हुई हैं— एक यह कि जो लोग भी क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की बात मानकर ये सिफ़ात अपने अन्दर पैदा कर लेंगे और इस रवैये के पाबन्द हो जाएँगे वे दुनिया और आख़िरत में कामयाबी पाएँगे, चाहे वे किसी क़ौम, नस्ल या देश के हों। दूसरी यह कि कामयाबी सिर्फ़ ईमान के इक़रार, या सिर्फ़ अख़लाक़ और अमल की ख़ूबियों का नतीजा नहीं है, बल्कि दोनों के जमा होने का नतीजा है। जब आदमी ख़ुदा की भेजी हुई हिदायत को माने, फिर उसके मुताबिक़ अख़लाक़ और अमल की ख़ूबियाँ अपने अन्दर पैदा कर ले, तब वह फ़लाह (कामयाबी) पाएगा। तीसरी यह कि फ़लाह सिर्फ़ दुनियावी और माद्दी (भौतिक) ख़ुशहाली और महदूद वक़्ती कामयाबियों का नाम नहीं है, बल्कि वह एक बहुत ज़्यादा कुशादा भलाई की हालत का नाम है जिसमें दुनिया और आख़िरत दोनों में पायदार और हमेशा रहनेवाली कामयाबी और ख़ुशहाली शामिल है। यह चीज़ ईमान और नेक अमल के बिना नसीब नहीं होती। और इस उसूल को न तो गुमराहों की वक़्ती ख़ुशहालियों और कामयाबियाँ तोड़ती हैं और न नेक ईमानवालों की वक़्ती मुसीबतों को इस उसूल का तोड़नेवाला ठहराया जा सकता है। चौथी यह कि ईमानवालों की इन सिफ़ात को नबी (सल्ल०) के मिशन की सच्चाई के लिए दलील के तौर पर पेश किया गया है, और यही मज़मून आगे की तक़रीर से इन आयतों का सिलसिला जोड़ता है। तीसरे रुकू (आयत-50) के ख़ातिमे तक की पूरी तक़रीर में दलीलों का सिलसिला कुछ इस अन्दाज़ में आया है कि पहले तजरिबाती दलील है, यानी यह कि इस नबी की तालीम ने ख़ुद तुम्हारी ही सोसाइटी के लोगों में यह सीरत और किरदार और ये अख़लाक़ और ख़ूबियाँ पैदा करके दिखाई हैं। अब तुम ख़ुद सोच लो कि यह तालीम हक़ (सत्य) न होती तो ऐसे अच्छे नतीजे किस तरह पैदा कर सकती थी। इसके बाद मुशाहदे (अवलोकन) से मुताल्लिक़ दलील है, यानी यह कि इनसान के अपने वुजूद में और आसपास की कायनात (सृष्टि) में जो निशानियाँ नज़र आती हैं वे सब तौहीद और आख़िरत इस तालीम के हक़ होने की गवाही दे रही हैं जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश करते हैं। फिर तारीख़़ी दलीलें आती हैं, जिनमें बताया गया है कि नबी और उसका इनकार करनेवालों की कशमकश आज नई नहीं है, बल्कि इन्हीं बुनियादों पर बहुत पुराने ज़माने से चली आ रही है और इस कशमकश का हर ज़माने में एक ही नतीजा निकलता रहा है जिससे साफ़ तौर पर मालूम हो जाता है कि दोनों गरोहों में से हक़ (सत्य) पर कौन है और बातिल (असत्य) पर कौन।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن سُلَٰلَةٖ مِّن طِينٖ ۝ 11
(12) हमने इनसान को मिट्टी के सत् से बनाया,
ثُمَّ جَعَلۡنَٰهُ نُطۡفَةٗ فِي قَرَارٖ مَّكِينٖ ۝ 12
(13) फिर उसे एक महफ़ूज़ जगह टपकी हुई बूँद में तब्दील किया,
ثُمَّ خَلَقۡنَا ٱلنُّطۡفَةَ عَلَقَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡعَلَقَةَ مُضۡغَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡمُضۡغَةَ عِظَٰمٗا فَكَسَوۡنَا ٱلۡعِظَٰمَ لَحۡمٗا ثُمَّ أَنشَأۡنَٰهُ خَلۡقًا ءَاخَرَۚ فَتَبَارَكَ ٱللَّهُ أَحۡسَنُ ٱلۡخَٰلِقِينَ ۝ 13
(14) फिर उस बूँद को लोथड़े की शक्ल दी, फिर लोथड़े को बोटी बना दिया, फिर बोटी की हड्डियाँ बनाईं, फिर हड्डियों पर गोश्त चढ़ाया,12 फिर उसे एक दूसरा ही जानदार बना खड़ा किया।13 तो बड़ा ही बरकतवाला है14 अल्लाह, सब कारीगरों से अच्छा कारीगर।
12. तशरीह के लिए देखिए— सूरा-22 हज के हाशिए— 5, 6 और 9।
13. यानी कोई ख़ाली ज़ेहनवाला आदमी बच्चे को माँ के पेट में पलते देखकर यह सोच भी नहीं सकता कि यहाँ वह इनसान तैयार हो रहा है जो बाहर जाकर अक़ल और समझदारी और कारीगरी के ये कुछ कमाल दिखाएगा और ऐसी-ऐसी हैरत में डालनेवाली क़ुव्वतें और सलाहियतें उससे ज़ाहिर होंगी। वहाँ वह हड्डियों, गोश्त और खाल का एक पुलिन्दा-सा होता है जिसमें पैदाइश के आग़ाज़ तक ज़िन्दगी की इब्तिदाई ख़ुसूसियत के सिवा कुछ नहीं होता। न सुनने की ताक़त, न देखने और बोलने की, न अक़्ल और समझ, न और कोई ख़ूबी। मगर बाहर आकर वह चीज़ ही कुछ और बन जाता है जिसका पेटवाले बच्चे से मेल नहीं होता। अब वह एक सुनने, देखने और बोलनेवाला वुजूद होता है। अब वह तरजरिबे और मुशाहदे से इल्म हासिल करता है। अब उसके अन्दर एक ऐसी ख़ुदी उभरनी शुरू होती है जो बेदारी के पहले ही लम्हे से अपनी पहुँच की हर चीज़ पर हुक्म जताती और अपना ज़ोर मनवाने की कोशिश करती है। फिर वह ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, उसके वुजूद में यह 'अलग ही चीज़’ होने की कैफ़ियत ज़्यादा नुमायाँ और ज़्यादा बढ़ती चली जाती है। जवान होता है तो बचपन के मुक़ाबले कुछ और होता है। अधेड़ होता है तो जवानी के मुक़ाबले में कोई और चीज़ साबित होता है। बुढ़ापे को पहुँचता है तो नई नस्ल के लिए यह अन्दाज़ा करना भी मुश्किल हो जाता है कि उसका बचपन क्या था और जवानी कैसी थी। इतनी बड़ी तब्दीली कम-से-कम इस दुनिया के किसी दूसरे जानदार में नहीं होती। कोई शख़्स एक तरफ़ किसी पक्की उम्र के इनसान की ताक़तें और क़ाबिलियतें और काम देखे, और दूसरी तरफ़ यह सोच करके कि पचास-साठ साल पहले एक रोज़ जो बूँद टपककर माँ के पेट में गिरी थी उसके अन्दर यह कुछ भरा हुआ था, तो बे-इख़्तियार उसकी ज़बान से वही बात निकलेगी जो आगे के जुमले में आ रही है।
14. अस्ल अरबी में अलफ़ाज़ 'फ़-तबा-रकल्लाहु’ आए हैं जिनका पूरा मतलब तर्जमे में बयान करना मुश्किल है। लुग़त (शब्दकोश) और ज़बान के इस्तेमाल के लिहाज़ से इसमें दो मतलब शामिल हैं। एक यह कि अल्लाह निहायत ही पाकीज़ा और कमियों से पाक है, दूसरा यह कि वह इतनी ज़्यादा भलाई और ख़ूबी का मालिक है कि जितना तुम उसका अन्दाज़ा करो उससे ज़्यादा ही उसको पाओ, यहाँ तक कि उसकी भलाई और ख़ैर का सिलसिला कहीं जाकर ख़त्म न हो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिए—1, 19)। इन दोनों मतलबों पर ग़ौर किया जाए तो यह बात समझ में आ जाती है कि इनसान की पैदाइश के मरहले बयान करने के बाद 'फ़-तबा-रकल्लाहु' का जुमला सिर्फ़ एक तारीफ़ी जुमला ही नहीं है, बल्कि यह दलील के बाद दलील का नतीजा भी है। इसमें मानो यह कहा जा रहा है कि जो ख़ुदा मिट्टी के सत् को तरक़्क़ी देकर एक पूरे इनसान के दरजे तक पहुँचा देता है वह इससे कहीं ज़्यादा पाक है कि ख़ुदाई में कोई उसका साझेदार हो सके, और उससे बहुत ज़्यादा पाकीज़ा है कि उसी इनसान को फिर पैदा न कर सके, और उसकी ख़ैरात का यह बड़ा घटिया अन्दाज़ा है कि बस एक बार इनसान बना देने ही पर उसके कमालात ख़त्म हो जाएँ, उससे आगे वह कुछ न बना सके।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعَ طَرَآئِقَ وَمَا كُنَّا عَنِ ٱلۡخَلۡقِ غَٰفِلِينَ ۝ 14
(17) और तुम्हारे ऊपर हमने सात रास्ते बनाए,15 पैदा करने के काम से हम कुछ अनजान न थे16
15. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तराइक़' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी रास्तों के भी हैं और तबकों के भी। अगर पहला मतलब लिया जाए तो शायद इससे मुराद सात सैयारों (ग्रहों) के घूमने के रास्ते हैं, और चूँकि उस ज़माने का इनसान सात सैयारों हो को जानता था, इसलिए सात ही रास्तों का ज़िक्र किया गया। इसका मतलब बहरहाल यह नहीं है कि इनके अलावा और दूसरे रास्ते नहीं हैं। और अगर दूसरा मतलब लिया जाग तो 'सब-अ तराइक़’ का वही मतलब होगा जो 'सात आसमान परत-दर-परत' का मतलब है। और यह जो कहा गया कि 'तुम्हारे ऊपर हमने सात रास्ते बनाए’, तो इसका एक तो सीधा-सादा मतलब वही है जो ज़ाहिर अलफ़ाज़़ से ज़ेहन में आता है, और दूसरा मतलब यह है कि तुमसे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ हमने ये आसमान बनाए हैं, जैसा कि दूसरी जगह फ़रमाया, “आसमानों और ज़मीन का पैदा करना इनसानों को पैदा करने से ज़्यादा बड़ा काम है। (क़ुरआन, सूरा-10 मोमिन, आयत-57)
16. दूसरा तर्जमा यह हो सकता है, “और अपनी पैदा की हुई चीज़ों की तरफ़ से हम ग़ाफ़िल नहीं थे, या नहीं हैं।” आयत के तर्जमे में जो मतलब लिया गया है उसके लिहाज़ से आयत का मतलब यह है कि यह सब कुछ जो हमने बनाया है, यह बस यूँ ही किसी अनाड़ी के हाथों अललटप नहीं बन गया है, बल्कि इसे एक सोची-समझी स्कीम पर पूरे इल्म के साथ बनाया गया है। अहम क़ानून इसमें काम कर रहे हैं, छोटे से लेकर बड़े तक सारे निज़ामे-कायनात (सृष्टि-व्यवस्था) में एक मुकम्मल ताल-मेल पाया जाता है. और इस अज़ीमुश्शान कारख़ाने में हर तरफ़ एक मक़सद नज़र आता है जो बनानेवाले की हिकमत की दलील दे रहा है। दूसरा मतलब लेने की सूरत में मतलब यह होगा कि इस कायनात में जितनी भी चीज़ें हमने पैदा की हैं उनकी किसी ज़रूरत से हम कभी ग़ाफ़िल और किसी भी हालत से कभी बे-ख़बर नहीं रहे हैं। किसी चीज़ को हमने अपनी स्कीम के ख़िलाफ़ बनने और चलने नहीं दिया है। किसी चीज़ की फ़ितरी ज़रूरतें पूरी करने में हमने कोताही नहीं की है। और एक-एक ज़र्रे और पत्ते की हालत से हम बाबर रहे हैं।
وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَسۡكَنَّٰهُ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَإِنَّا عَلَىٰ ذَهَابِۭ بِهِۦ لَقَٰدِرُونَ ۝ 15
(18) और आसमान से हमने ठीक हिसाब के मुताबिक़ एक ख़ास मिक़दार (मात्रा) में पानी उतारा और उसको ज़मीन में ठहरा दिया,17 हम उसे जिस तरह चाहें ग़ायब कर सकते हैं।18
17. इससे मुराद अगरचे मौसमी बारिश भी हो सकती है, लेकिन आयत के अलफ़ाज़़ पर ग़ौर करने से एक दूसरा मतलब भी समझ में आता है, और वह यह है कि कायनात के शुरू में अल्लाह तआला ने एक ही वक़्त में इतनी मिक़दार में ज़मीन पर पानी उतार दिया था जो क़ियामत तक इस ज़मीन की ज़रूरतों के लिए उसके इल्म में काफ़ी था। वह पानी ज़मीन ही के निचले हिस्सों में ठहर गया जिससे समन्दर और नदी-झरने वग़ैरा वुजूद में आए और ज़मीन के नीचे का पानी (Sub-soil water) पैदा हुआ अब यह उसी पानी का उलट-फेर है जो गर्मी, सर्दी और हवाओं के ज़रिए से होता रहता है, उसी को बारिशें, बर्फ़ीले पहाड़, नदियाँ, झरने-चश्मे और कुएँ ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में फैलाते रहते हैं, और वही अनगिनत चीज़ों की पैदाइश और उनकी बनावट में शामिल होता और फिर हवा में घुलकर अस्ल भण्डार की तरफ़ वापस जाता रहता है। शुरू से आज तक पानी के इस भण्डार में न एक बूँद की कमी हुई है और न एक बूँद को बढ़ाने की ज़रूरत ही पेश आई। इससे भी ज़्यादा हैरत में डालनेवाली बात वह है कि पानी, जिसकी हक़ीक़त आज हर स्कूल के तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) को मालूम है कि वह हाइड्रोजन और ऑक्सीजन, दो ग़ैसों के मिलने से बना है, एक बार इतना बन गया कि उससे समुद्र भर गए, और अब उसके भण्डार में एक बूँद का भी इज़ाफ़ा नहीं होता। कौन था जिसने एक वक़्त में इतनी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलाकर इतना ज़्यादा पानी बना दिया? और कौन है जो अब इन्हीं दोनों ग़ैसों को उस ख़ास तनासुब (अनुपात) के साथ नहीं मिलने देता जिससे पानी बनता है, हालाँकि दोनों ग़ैसें अब भी दुनिया में मौजूद है। और जब पानी भाप बनकर हवा में उड़ जाता है तो उस वक़्त कौन है जो ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को अलग-अलग हो जाने से रोके रखता है? क्या नास्तिकों (ख़ुदा को न माननेवालों) के पास इसका कोई जवाब है? और क्या पानी और हवा और गर्मी और सर्दी के अलग-अलग ख़ुदा माननेवाले इसका कोई जवाब रखते हैं?
18. यानी उसे ग़ायब कर देने की कोई एक ही सूरत नहीं है, अनगिनत सूरतें हो सकती हैं, और उनमें से जिसको हम जब चाहें अपनाकर तुझे ज़िन्दगी के इस सबसे अहम वसीले (साधन) से महरूम (वंचित) कर सकते हैं। इस तरह यह आयत क़ुरआन की सूरा-67 मुल्क की उस आयत-30 से कहीं ज़्यादा मानी रखती है जिसमें कहा गया है कि “इनसे कहो, कभी तुमने सोचा कि अगर तुम्हारा यह पानी ज़मीन में बैठ जाए तो कौन है जो तुम्हें बहते चश्मे ला देगा?"
فَأَنشَأۡنَا لَكُم بِهِۦ جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ لَّكُمۡ فِيهَا فَوَٰكِهُ كَثِيرَةٞ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 16
(19) फिर उस पानी के ज़रिए से हमने तुम्हारे लिए खजूर और अंगूर के बाग पैदा कर दिए, तुम्हारे लिए उन बाग़ों में बहुत-से मज़ेदार फ़ल है।19 और उनसे तुम रोज़ी हासिल करते हो।20
19. यानी खजूरों और अंगूरों के अलावा भी तरह-तरह के मेवे और फल।
20. यानी उन बाग़ों की पैदावार से, जो फल, अनाज, लकड़ी और दूसरी अलग-अलग शक्लों में हासिल होती है, तुम अपनी रोज़ी पैदा करते हो। अस्त अरबी में 'मिन्हा ताकुलून' के अलफ़ाज़ आए हैं। इसमें 'मिन्हा' से मुराद 'जन्नात' (बाग़) हैं, न कि फल और 'ताकुलून’ का मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि इन बाग़ों के फल तुम खाते हो, बल्कि इसके मतलब में रोज़ी हासिल करने के तमाम ज़रिए और तरीक़े भी आ जाते हैं। जिस तरह हम उर्दू और हिन्दी ज़बान में कहते है कि फ़ुलाँ शख़्स अपने फ़ुलाँ काम की रोटी खाता है उसी तरह अरबी ज़बान में भी कहते हैं, “फ़ुलानुन याकुलु मिन् हिर्-फ़तिही” (फ़ुलाँ अपने हुनर की रोज़ी खाता है।)
وَشَجَرَةٗ تَخۡرُجُ مِن طُورِ سَيۡنَآءَ تَنۢبُتُ بِٱلدُّهۡنِ وَصِبۡغٖ لِّلۡأٓكِلِينَ ۝ 17
(20) और वह पेड़ भी हमने पैदा किया जो तूरे-सीना से निकलता है,21 तेल भी लिए हुए उगता है और खानेवालों के लिए सालन भी।
21. मुराद है ज़ैतून, जो रोम सागर के आसपास के इलाक़े की पैदावार में सबसे ज़्यादा अहम चीज़ है। इसका पेड़ डेढ़-डेढ़ दो-दो हज़ार साल तक चलता है, यहाँ तक कि फ़िलस्तीन के कुछ पेड़ों की लम्बाई और फैलाव देखकर अन्दाज़ा किया गया है कि वे हज़रत ईसा (अलैहि०) के ज़माने से अब तक चले आ रहे हैं। सीना पहाड़ से इसको जोड़ने की वजह शायद यह है कि वही इलाक़ा जिसका सबसे मशहूर और सबसे नुमायाँ मक़ाम सीना पहाड़ है, इस पेड़ के पाए जाने की अस्ली जगह है।
وَإِنَّ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَنۡعَٰمِ لَعِبۡرَةٗۖ نُّسۡقِيكُم مِّمَّا فِي بُطُونِهَا وَلَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ كَثِيرَةٞ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 18
(21) और हक़ीक़त यह है कि तुम्हारे लिए मवेशियों में भी एक सबक़ है। उनके पेटों में जो कुछ है, उसी में से एक चीज़ हम तुम्हें पिलाते हैं,22 और तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से दूसरे फ़ायदे भी हैं। उनको तुम खाते हो
22. यानी दूध, जिसके बारे में क़ुरआन में दूसरी जगह कहा गया है कि ख़ून और गोबर के बीच यह एक तीसरी चीज़ है जो जानवर के खाने और चारे से पैदा कर दी जाती है। (सूरा-16 नहल, आयत-66)
وَعَلَيۡهَا وَعَلَى ٱلۡفُلۡكِ تُحۡمَلُونَ ۝ 19
(22) और उनपर और नावों पर सवार भी किए जाते हो।23
23. मवेशियों और कश्तियों का एक साथ ज़िक्र करने की वजह यह है कि अरबवाले सवारी और सामान ढोने के लिए ज़्यादातर ऊँट इस्तेमाल करते थे और ऊँटों के लिए ‘रेगिस्तान के जहाज़' की कहावत बहुत पुरानी है। इस्लाम के पहले का एक अरब शायर (कवि) ज़ुरुम्मा कहता है – सफ़ी-नतु बर्रिन तह-त ख़दयी ज़मामिहा (रेगिस्तान का जहाज़, इसकी लगाम मेरे क़ाबू में है।)
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 20
(23) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा।24 उसने कहा, “ऐे मेरी क़ौम के लोगो, अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारे लिए कोई और माबूद नहीं है, क्या तुम डरते नहीं हो?"25
24. हज़रत नूह (अलैहि०) का क़िस्सा क़ुरआन में कई जगहों पर आया है। देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—59-64; सूरा-10 यूनुस, आयतें—71-73; सूरा-11 हूद, आयतें—25-48; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-3; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—76, 77।
25. यानी क्या तुम्हें अपने अस्ली और हक़ीक़ी ख़ुदा को छोड़कर दूसरों की बन्दगी करते हुए डर नहीं लगता? क्या तुम इस बात से बिलकुल बेडर हो कि जो तुम्हारा और सारे जहान का मालिक और बादशाह है उसकी सल्तनत में रहकर उसके बजाय दूसरों की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी करने और दूसरों को रब और ख़ुदा तस्लीम करने के क्या नतीजे होंगे?
فَقَالَ ٱلۡمَلَؤُاْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُرِيدُ أَن يَتَفَضَّلَ عَلَيۡكُمۡ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَنزَلَ مَلَٰٓئِكَةٗ مَّا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِيٓ ءَابَآئِنَا ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 21
(24) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इनकार किया, ये कहने लगे कि “यह शख़्स कुछ नहीं है मगर एक इनसान तुम ही जैसा।26 इसका मक़सद यह है कि तुमपर बरतरी और बड़ाई हासिल करे।27 अल्लाह को अगर भेजना होता तो फ़रिश्ते भेजता।27अ यह बात तो हमने कभी अपने बाप-दादा के वक़्तों में सुनी ही नहीं (कि इनसान रसूल बनकर आए)।
26. यह ख़याल तमाम गुमराह लोगों में पाई जानेवाली गुमराहियों में से एक है कि इनसान नबी नहीं हो सकता और नबी इनसान नहीं हो सकता। इसी लिए क़ुरआन ने बार-बार इस जहालत भरे ख़याल का ज़िक्र करके इसको ग़लत बताया है और इस बात को पूरे ज़ोर के साथ बयान किया है कि तमाम नबी इनसान थे और इनसानों के लिए इनसान ही नबी होना चाहिए। (तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-7 आराफ़ आयतें—63-69; सूरा-10 यूनुस, आयत-2; सूरा-11 हूद, आयतें—27, 31; सूरा-12 यूसुफ़, आयत-109; सूरा-13 रअद, आयत-38; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—10-11: सूरा-16 नह्ल, आयत-43; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—94, 95; सूरा-18 कह्फ़, आयत-110; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—3, 34; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—33, 34, 47; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयतें—7, 20; सूरा-26 शुअरा, आयतें—154, 186; सूरा-36 यासीन, आयत-15; सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-6 हाशियों समेत)।
27. यह भी हक़ की मुख़ालफ़त करनेवालों का बहुत पुराना हथियार है कि जो शख़्स भी इस्लाह के लिए कोशिश करने उठे उसपर फ़ौरन यह इलज़ाम लगा देते हैं कि कुछ नहीं, बस हुकुमत का भूखा है। यही इलज़ाम फिरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून (अलैहि०) पर लगाया था कि तुम इसलिए उठे हो कि तुम्हें मुल्क में बड़ाई हासिल हो जाए। (सूरा-10 यूनुस, आयत-78) यही इलज़ाम हज़रत ईसा (अलैहि०) पर लगाया गया कि यह आदमी यहूदियों का बादशाह बनना चाहता है। और इसी का शक नबी (सल्ल०) के बारे में क़ुरैश के सरदारों को था, चुनाँचे कई बार उन्होंने आप (सल्ल०) से यह सौदा करने की कोशिश की कि अगर हुकूमत चाहते हो तो अपोज़िशन (विपक्ष) छोड़कर हुकूकत में शामिल हो जाओ, तुम्हें हम बादशाह बनाए लेते हैं। अस्ल बात यह है कि जो लोग सारी उम्र दुनिया और उसके मादूदी फ़ायदों और उसकी शानो-शौकत ही के लिए अपनी जान खपाते रहते हैं, उनके लिए यह सोचना बहुत मुश्किल, बल्कि नामुमकिन होता है कि इसी दुनिया में कोई इनसान अच्छी नीयत के साथ और बे-ग़रज़ होकर इनसानियत की भलाई की ख़ातिर भी अपनी जान खपा सकता है। वह ख़ुद चूँकि अपना असर और इक़तिदार ज़माने के लिए लुभावने नारे और सुधार के झूठे दावे दिन-रात इस्तेमाल करते रहते हैं, इसलिए यह मक्कारी और धोखा देना उनकी निगाह में बिलकुल एक फ़ितरी चीज़ होती है और वे समझते हैं कि सुधार का नाम मक्कारी और धोखे के सिवा किसी सच्चाई और ख़ुलूस के साथ कभी लिया ही नहीं जा सकता, यह नाम जो भी लेता है ज़रूर वह उनके अपने जैसा इनसान ही होगा। और मज़े की बात यह है कि सुधार करनेवालों के ख़िलाफ़ ‘हुकूमत की भूख’का यह इलज़ाम हमेशा हुकूमत में बैठे लोग और उनके चापलूस लोग ही इस्तेमाल करते रहे हैं, मानो ख़ुद उन्हें और उनके नामी-गिरामी आक़ाओं को जो हुकमत हासिल है वह तो उनका पैदाइशी हक़ है, उसके हासिल करने और उसपर क़ब्ज़ा जमाए रहने में वे किसी इलज़ाम के हक़दार नहीं हैं, अलबत्ता बहुत ही क़ाबिले-मलामत है वह जिसके लिए यह ‘नेमत’पैदाइशी हक़ न था और अब ये लोग उसके अन्दर इस चीज़ की 'तलब’महसूस कर रहे हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— हाशिया-36)। इस जगह यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जो शख़्स भी राइज निज़ामे-ज़िन्दगी की ख़राबियों को दूर करने के लिए उठेगा और उसके मुक़ाबले में इस्लाही नज़रिया और निज़ाम पेश करेगा, उसके लिए बहरहाल यह बात बहुत ज़रूरी होगी कि सुधार के रास्ते में जो ताक़तें भी रुकावट बनें उन्हें हटाने की कोशिश करे और उन ताक़तों को इक़तिदार में लाए जो इस्लाही नज़रिए और निज़ाम को अमली तौर से लागू कर सके। इसके अलावा ऐसे शख़्स की दावत जब भी कामयाब होगी, उसका क़ुदरती नतीजा वही होगा कि वह लोगों का इमाम और पेशवा बन जाएगा और नए निज़ाम में सत्ता की बागडोर या तो उसके अपने ही हाथों में होगी, या उसके हामियों और उसकी पैरवी करनेवालों के क़ब्ज़े में होगी। आख़िर नबियों और दुनिया के सुधारकों में से कौन है जिसकी कोशिशों का मक़सद अपनी दावत को अमली तौर से लागू करना न था, और कौन है जिसकी दावत की कामयाबी ने सचमुच उसको पेशवा नहीं बना दिया? फिर क्या यह हक़ीक़त किसी पर यह इलज़ाम चस्पाँ कर देने के लिए काफ़ी है कि वह अस्ल में हुकूमत का भूखा था और उसका अस्ल मक़सद वही पेशवाई थी जो उसने हासिल कर ली? ज़ाहिर है कि बुरी फ़ितरत रखनेवाले हक़ के दुश्मनों के सिवा इस सवाल का जवाब कोई भी 'हाँ’ में नहीं देगा। हक़ीक़त यह है कि अपने आप में हुकूमत की तलब होना और किसी नेक मक़सद के लिए उसकी चाह करना दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है, इतना बड़ा फ़र्क़ जितना डाकू के ख़ंजर और डॉक्टर के नश्तर में है। अगर कोई शख़्स सिर्फ़ इस वजह से डाकू और डॉक्टर को एक कर दे कि दोनों जान-बूझकर जिस्म चीरते हैं और नतीजे में माल दोनों के हाथ आता है, तो यह सिर्फ़ उसके अपने ही दिमाग़ या दिल का क़ुसूर है। वरना दोनों की नीयत, दोनों के काम करने का ढंग और दोनों के पूरे क़िरदार में इतना फ़र्क़ होता है कि कोई अक़्ल रखनेवाला आदमी डाकू को डाकू और डॉक्टर को डॉक्टर समझने में ग़लती नहीं कर सकता।
27अ. यह इस बात का खुला सुबूत है कि नूह (अलैहि०) की क़ौम अल्लाह तआला के वुजूद का इनकार न करती थी और न इस बात से उसे इनकार था कि तमाम जहानों का रब वही है और सारे फ़रिश्ते उसके हुक्म के ग़ुलाम हैं। उस क़ौम की अस्ली गुमराही शिर्क थी, न कि ख़ुदा का इनकार। वह ख़ुदा की सिफ़ात और इख़्तियारों में और उसके हक़ों में दूसरों को उसका शरीक ठहराती थी।
إِنۡ هُوَ إِلَّا رَجُلُۢ بِهِۦ جِنَّةٞ فَتَرَبَّصُواْ بِهِۦ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 22
(25) कुछ नहीं, बस इस आदमी को ज़रा जुनून हो गया है कुछ मुद्दत और देख लो (शायद ठीक हो जाए) “
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي بِمَا كَذَّبُونِ ۝ 23
(26) नूह ने कहा, “परवरदिगार, इन लोगों ने जो मुझे झुठलाया है, उसपर अब तू ही मेरी मदद कर।”28
28. यानी मेरी तरफ़ से इस झुठलाने का बदला ले। जैसा कि दूसरी जगह फ़रमाया, “तो नूह ने अपने रब को पुकारा कि मैं दबा लिया गया हूँ, अब तू इनसे बदला ले।” (सूरा-54 क़मर, आयत-10)। और सूरा-71 नूह, आयत-26 में फ़रमाया, “और नूह ने कहा: ऐ मेरे परवरदिगार, इस ज़मीन पर हक़ के इनकारियों में से एक बसनेवाला भी न छोड़, अगर तूने उनको रहने दिया तो ये तेरे बन्दों को गुमराह कर देंगे और उनकी नस्ल से बदकार और हक़ के इनकारी ही पैदा होंगे।"
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ أَنِ ٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ فَٱسۡلُكۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ مِنۡهُمۡۖ وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ ۝ 24
(27) हमने उसपर वह्य की कि “हमारी निगरानी में और हमारी वह्य के मुताबिक़ नाव तैयार कर। फिर जब हमारा हुक्म आ जाए और तन्नूर (तंदूर) उबल पड़े29 तो हर तरह के जानवरों में से एक-एक जोड़ा लेकर उसमें सवार हो जा, और अपने घरवालों को भी साथ ले, सिवाय उनके जिनके खिलाफ़ पहले फ़ैसला हो चुका है, और ज़ालिमों के मामले में मुझसे कुछ न कहना, ये अब डूबनेवाले हैं।
29. कुछ लोगों ने 'तन्नूर' से मुराद ज़मीन ली है, कुछ ने ज़मीन का सबसे ऊँचा हिस्सा मुराद लिया है, कुछ कहते हैं कि “फ़ारत-तन्नूर' (तन्नूर उबल पड़े) का मतलब सुबह की पौ फटना है, और कुछ की राय में यह 'हंगामा गर्म हो जाने' की तरह का एक मुहावरा है। लेकिन कोई मुनासिब वजह नज़र नहीं आती कि क़ुरआन के अलफ़ाज़़ को बिना किसी मुनासिब इशारे के किसी दूसरे मानी में लिया जाए, जबकि ज़ाहिरी मतलब लेने में कोई हरज नहीं है। ये अलफ़ाज़ पढ़कर पहले-पहल जो मतलब ज़ेहन में आता है वह वही है कि कोई ख़ास तन्नूर (तन्दूर) पहले से नामज़द कर दिया गया था कि तूफ़ान की शुरुआत उसके नीचे से पानी उबलने पर होगी। दूसरा कोई मतलब सोचने की ज़रूरत उस वक़्त पेश आती है जबकि आदमी यह मानने के लिए तैयार न हो कि इतना बड़ा तूफ़ान एक तन्नूर (तन्दूर) के नीचे से पानी उबल पड़ने पर शुरू हुआ होगा। मगर ख़ुदा के मामले अजीब हैं। वह जब किसी क़ौम की शामत (विपत्ति) लाता है तो ऐसी तरफ़ से लाता है जिधर उसका वहम और गुमान भी नहीं जा सकता।
فَإِذَا ٱسۡتَوَيۡتَ أَنتَ وَمَن مَّعَكَ عَلَى ٱلۡفُلۡكِ فَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي نَجَّىٰنَا مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 25
(28) फिर जब तू अपने साथियों सहित नाव में सवार हो जाए तो कह कि शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमें ज़ालिम लोगों से नजात दी।30
30. यह किसी क़ौम की इन्तिहाई बुरी आदतों, बुराइयों और शरारत का सुबूत है कि उसकी तबाही पर शुक्र अदा करने का हुक्म दिया जाए।
وَقُل رَّبِّ أَنزِلۡنِي مُنزَلٗا مُّبَارَكٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡمُنزِلِينَ ۝ 26
(29) और कह, परवरदिगार! मुझको बरकतवाली जगह उतार और तू बेहतरीन जगह देनेवाला है।”31
31. 'उतारने’ से मुराद सिर्फ़ उतारना ही नहीं है, बल्कि अरबी मुहावरे के मुताबिक़ इसमें 'मेज़बानी' का मतलब भी शामिल है। यानी इस दुआ का मतलब यह है कि “ऐे ख़ुदा, हम तेरे मेहमान हैं और तू ही हमारा मेज़बान है।”
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ وَإِن كُنَّا لَمُبۡتَلِينَ ۝ 27
(30) इस क़िस्से में बड़ी निशानियाँ हैं,32 और आजमाइश तो हम करके ही रहते हैं।33
32. यानी सबक़आमोज़ हैं जो यह बताती हैं कि तौहीद की दावत देनेवाले पैग़म्बर हक़ पर थे और शिर्क पर अड़े रहनेवाले लोग बातिल (असत्य) पर, और यह कि आज वही सूरतेहाल मक्का में पाई जा रही है जो किसी वक़्त हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के बीच थी, और उसका अंजाम भी कुछ उससे अलग होनेवाला नहीं है, और यह कि ख़ुदा के फ़ैसले में चाहे देर कितनी ही लगे मगर फ़ैसला आख़िरकार होकर रहता है और वह ज़रूर ही हक़परस्तों (सत्यवादियों) के हक़ में और बातिल-परस्तों (असत्यवादियों) के ख़िलाफ़ होता है।
33. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “आज़माइश तो हमें करनी ही थी", या “आज़माइश तो हमें करनी ही है।” तीनों सूरतों में मक़सद इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि अल्लाह तआला किसी क़ौम को भी अपनी ज़मीन और उसकी अनगिनत चीज़ों पर अधिकार देकर बस यूँ ही उसके हाल पर नहीं छोड़ देता, बल्कि उसकी आज़माइश करता है और देखता रहता है कि वह अपने अधिकार और हुकूमत को किस तरह इस्तेमाल कर रही है। नूह (अलैहि०) की क़ौम के साथ जो कुछ हुआ इसी क़ानून के मुताबिक़ हुआ, और दूसरी कोई क़ौम भी अल्लाह की ऐसी चहेती नहीं है कि वह बस उसे नेमत की थाली पर हाथ मारने के लिए आज़ाद छोड़ दे। इस मामले से हर एक को लाज़िमी तौर पर वास्ता पेश आना है।
ثُمَّ أَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ ۝ 28
(31) उनके बाद हमने एक-दूसरे दौर की क़ौम उठाई।34
34. कुछ लोगों ने इससे मुराद समूद की क़ौम ली है, क्योंकि आगे चलकर ज़िक्र आ रहा है कि यह क़ौम 'सैहा’ के अज़ाब से तबाह की गई, और दूसरी जगहों पर क़ुरआन में बताया गया है कि समूद वह क़ौम है जिसपर यह अज़ाब आया (सूरा-11 हूद, आयत-67; सूरा-15 हिज़्र, आयत-83; सूरा-54 क़मर, आयत-31)। कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि यह ज़िक्र अस्ल में आद क़ौम का है, क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ नूह की क़ौम के बाद यही क़ौम उठाई गई थी, “और याद करो जब नूह की क़ौम के बाद उसने तुमको ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाया।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-69)। सही बात यही दूसरी मालूम होती है, क्योंकि 'नूह की क़ौम’ के बाद का इशारा इसी तरफ़ रहनुमाई करता है। रहा 'सैहा' (चीख़, आवाज़ शोर, बड़ा हंगामा) तो सिर्फ़ यह वजह उस क़ौम को समूद ठहरा देने के लिए काफ़ी नहीं है, इसलिए वह लफ़्ज़ जिस तरह उस तेज़ आवाज़ के लिए इस्तेमाल होता है जो आम तबाही लानेवाली हो, उसी तरह उस शोर और हंगामे के लिए भी इस्तेमाल होता है जो आम तबाही के वक़्त मचता है, चाहे तबाही की वजह कुछ ही हो।
فَأَرۡسَلۡنَا فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 29
(32) फिर उनमें ख़ुद उन्हीं की क़ौम का एक रसूल भेजा (जिसने उन्हें दावत दी) कि अल्लाह की बन्दगी करो, तुम्हारे लिए उसके सिवा कोई और माबूद नहीं है। क्या तुम डरते नहीं हो?
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَتۡرَفۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يَأۡكُلُ مِمَّا تَأۡكُلُونَ مِنۡهُ وَيَشۡرَبُ مِمَّا تَشۡرَبُونَ ۝ 30
(33) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इनकार किया और आख़िरत की पेशी को झुठलाया, जिनको हमने दुनिया की ज़िन्दगी में ख़ुशहाल कर रखा था,35 वे कहने लगे “यह आदमी कुछ नहीं है मगर एक इनसान तुम ही जैसा। जो कुछ तुम खाते हो, वही यह खाता है। और जो कुछ तुम पीते हो वही यह पीता है
35. ये ख़ासियतें क़ाबिले-ग़ौर हैं। पैग़म्बर की मुख़ालफ़त के लिए उठनेवाले अस्ल लोग वे थे जिन्हें क़ौम की सरदारी मिली हुई थी। वे सब जिस गुमराही में पड़े हुए थे वह यह थी कि वे आख़िरत को न मानते थे, इसलिए ख़ुदा सामने किसी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का उन्हें डर न था, और इसी लिए ये दुनिया की इस ज़िन्दगी पर रीझे हुए थे और 'दुनियावी कामयाबी और भलाई’ से ऊपर किसी क़द्र (मूल्य) को न मानते थे। फिर इस गुमराही में जिस चीज़ ने उनको बिलकुल ही डुबो दिया था वह ख़ुशहाली और दौलतमन्दी थी जिसे वे अपने हक़ पर होने की दलील समझते थे और यह मानने के लिए तैयार न ये कि वह अक़ीदा, वह निज़ामे-अख़लाक़, और ज़िन्दगी का वह तरीक़ा ग़लत भी हो सकता है जिसपर चलकर उन्हें दुनिया में ये कुछ कामयाबियाँ नसीब हो रही हैं। इनसानी इतिहास बार-बार इस हक़ीक़त को दोहराता रहा है कि हक़ की दावत की मुख़ालफ़त करनेवाले हमेशा इन्हीं तीन ख़ासियतें रखनेवाले लोग हुए हैं। और यही उस वक़्त का मंज़र भी था, जबकि नबी (सल्ल०) मक्का में सुधार की कोशिश कर रहे थे।
وَلَئِنۡ أَطَعۡتُم بَشَرٗا مِّثۡلَكُمۡ إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 31
(34) अब अगर तुमने अपने ही जैसे एक इनसान की फ़रमाँबरदारी क़ुबूल कर ली तो तुम घाटे ही में रहे।36
36. कुछ लोगों ने यह ग़लत समझ रखा है कि ये बातें वे लोग आपस में एक-दूसरे से करते थे। नहीं, यह बात अस्ल में आम लोगों से कही गई थी। क़ौम के सरदारों को जब ख़तरा हुआ कि आम लोग पैग़म्बर की पाकीज़ा शख़्सियत और दिल लगती बातों से मुतास्सिर हो जाएँगे, और उनके मुतास्सिर हो जाने के बाद हमारी सरदारी फिर किसपर चलेगी, तो उन्होंने ये तक़रीरें कर-करके आम लोगों को बहकाना शुरू किया यह उसी मामले का एक दूसरा पहलू है जो ऊपर क़ौमे-नूह के सरदारों के ज़िक्र में बयान हुआ था। वे कहते थे कि वह ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बरी-वैग़म्बरी कुछ नहीं है। सिर्फ़ हुकूमत की भूख है जो इस आदमी से ये बातें करा रही है। ये कहते हैं कि “भाइयो, ज़रा ग़ौर तो करो कि आख़िर यह आदमी तुमसे किस चीज़ में जुदा है। वैसा ही गोश्त-हड्डी का आदमी है, जैसे तुम हो। कोई फ़र्क़ इसमें और तुममें नहीं है। फिर क्यों यह बड़ा बने और तुम उसके कहे पर चलो। इन तक़रीरों में यह बात मानो बग़ैर किसी इख़्तिलाफ़ और झगड़े के तस्लीमशुदा थी कि हम जो तुम्हारे सरदार हैं तो हमें तो होना ही चाहिए, हमारे जिस्म और खाने-पीने के अन्दाज़ की तरफ़ देखने का सवाल पैदा नहीं होता। हमारी सरदारी पर कोई चर्चा नहीं हो रही है, क्योंकि वह तो आप-से-आप क़ायम और तस्लीमशुदा है। हालाँकि चर्चा जिसपर हो रही है, वह यह नई सरदारी है जो अब क़ायम होती नज़र आ रही है। इस तरह इन लोगों की बात नूह की क़ौम के सरदारों की बात से कुछ ज़्यादा अलग न थी, जिनके नज़दीक इलज़ाम के लायक़ अगर कोई चीज़ थी वह 'हुकूमत की भूख थी, जो किसी नए आनेवाले के अन्दर महसूस हो या जिसके होने का शक किया जा सके। रहा उनका अपना पेट तो वे समझते थे कि हुकूमत और ताक़त हर हाल में उसकी फ़ितरी ख़ुराक (प्राकृतिक भोजन) है, जिससे अगर उनका पेट बदहज़मी की हद तक भी मर जाए तो उसपर एतिराज़ और सवाल नहीं किया जा सकता।”
أَيَعِدُكُمۡ أَنَّكُمۡ إِذَا مِتُّمۡ وَكُنتُمۡ تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَنَّكُم مُّخۡرَجُونَ ۝ 32
(35) यह तुम्हें ख़बर देता है कि जब तुम मरकर मिट्टी हो जाओगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाओगे, उस वक़्त तुम (क़ब्रों से) निकाले जाओगे?
۞هَيۡهَاتَ هَيۡهَاتَ لِمَا تُوعَدُونَ ۝ 33
(36) नामुमकिन, बिलकुल नामुमकिन है यह वादा जो तुमसे किया जा रहा है।
إِنۡ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا نَمُوتُ وَنَحۡيَا وَمَا نَحۡنُ بِمَبۡعُوثِينَ ۝ 34
(37) ज़िन्दगी कुछ नहीं है मगर बस यही दुनिया की ज़िन्दगी। यहीं हमको मरना और जीना है और हम हरगिज़ उठाए जानेवाले नहीं हैं।
إِنۡ هُوَ إِلَّا رَجُلٌ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا وَمَا نَحۡنُ لَهُۥ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 35
(38) यह शख़्स ख़ुदा के नाम पर सिर्फ़ झूठ गढ़ रहा है36अ और हम कभी इसकी माननेवाले नहीं हैं।"
36अ. ये अलफ़ाज़ साफ़ बताते हैं कि अल्लाह तआला के वुजूद का ये लोग भी इनकार नहीं करते थे, इनकी भी अस्ल गुमराही शिर्क ही थी। दूसरी जगहों पर भी क़ुरआन मजीद में इस क़ौम का यही जुर्म बयान किया गया है। देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयत-70; सूरा-11 हूद, आयतें—53, 54; सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-14; सूरा-16 अहक़ाफ़ आयतें—21, 22।
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي بِمَا كَذَّبُونِ ۝ 36
(39) रसूल ने कहा, “परवरदिगार, इन लोगों ने जो मुझे झुठलाया है इसपर अब तू ही मेरी मदद कर।”
قَالَ عَمَّا قَلِيلٖ لَّيُصۡبِحُنَّ نَٰدِمِينَ ۝ 37
(40) जवाब में कहा गया, “क़रीब है वह वक़्त जब ये अपने किए पर पछताएँगे।”
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ بِٱلۡحَقِّ فَجَعَلۡنَٰهُمۡ غُثَآءٗۚ فَبُعۡدٗا لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 38
(41) आख़िरकार ठीक-ठीक हक़ (सत्य) के मुताबिक़ एक बड़े हंगामे ने उनको आ लिया और हमने उनको कचरा37बनाकर फेंक— दिया-दूर हो ज़ालिम क़ौम!
37. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ग़ुसाअन’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है वह कूड़ा-करकट जो सैलाब के साथ बहता हुआ आता है और फिर किनारों पर लग-लगकर पड़ा सड़ता रहता है।
ثُمَّ أَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قُرُونًا ءَاخَرِينَ ۝ 39
(42) फिर हमने उनके बाद दूसरी क़ौमें उठाईं।
مَا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 40
(43) कोई क़ौम न अपने वक़्त से पहले ख़त्म हुई और न उसके बाद ठहर सकी।
ثُمَّ أَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا تَتۡرَاۖ كُلَّ مَا جَآءَ أُمَّةٗ رَّسُولُهَا كَذَّبُوهُۖ فَأَتۡبَعۡنَا بَعۡضَهُم بَعۡضٗا وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَحَادِيثَۚ فَبُعۡدٗا لِّقَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 41
(44) फिर हमने एक के बाद एक अपने रसूल भेजे। जिस क़ौम के पास भी उसका रसूल आया, उसने उसे झुठलाया और हम एक के बाद एक क़ौम को हलाक करते चले गए, यहाँ तक कि उनको बस कहानी ही बनाकर छोड़ा—फिटकार उन लोगों पर जो ईमान नहीं लाते।38
38. या दूसरे लफ़्जों में पैग़म्बरों की बात नहीं मानते।
ثُمَّ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ وَأَخَاهُ هَٰرُونَ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 42
(45) फिर हमने मूसा और उसके भाई हारून को अपनी निशानियों और खुली सनद39 के साथ फ़िरऔन और उसकी हुकूमत के सरदारों की तरफ़ भेजा।
39. 'निशानियों’ के बाद खुली सनद' से मुराद या तो यह है कि उन निशानियों का उनके साथ होना ही इस बात की खुली सनद था कि वे अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर हैं या फिर निशानियों से मुराद असा (लाठी) के सिवा दूसरे वे तमाम मोजिज़े हैं जो मिस्र में दिखाए गए थे, और खुली सनद से मुराद असा है, क्योंकि उसके ज़रिए से जो मोजिज़े ज़ाहिर हुए, उनके बाद तो यह बात बिलकुल हो साफ़ हो गई थी कि ये दोनों भाई अल्लाह की तरफ़ से भेजे गए हैं। (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-43 ज़ुखरूफ़, हाशिए—43, 44)
40. अस्ल अरबी में 'वक़ानू क़ौमन आलीन' के अलफ़ाज़ हैं, जिनके दो मतलब हो सकते हैं- एक यह कि वे बड़े घमण्डी, ज़ालिम और हद से आगे बढ़ जानेवाले थे, दूसरा यह कि वे बड़े ऊँचे बने और उन्होंने शेख़ी बघारी।
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمًا عَالِينَ ۝ 43
(46) मगर उन्होंने घमंड किया और बड़ी शेख़ी बघारी।40
فَقَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لِبَشَرَيۡنِ مِثۡلِنَا وَقَوۡمُهُمَا لَنَا عَٰبِدُونَ ۝ 44
(47) कहने लगे, “क्या हम अपने ही जैसे दो आदमियों पर ईमान ले आएँ?40अ और आदमी भी वे जिनकी क़ौम हमारी ताबेदार है।"41
40अ. तशरीह के लिए देखिए हाशिया-26।
41. अस्ल अलफ़ाज़ हैं, “जिनकी क़ौम हमारी इबादत करनेवाली है।” अरबी ज़बान में किसी का ‘हुक्म का फ़रमाँबरदार' होना और उसका ‘इबादतगुज़ार' होना, दोनों लगभग एक मानी और मतलब रखनेवाले अलफ़ाज़ हैं। जो किसी की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी करता है वह मानो उसकी इबादत करता है। इससे बड़ी अहम रौशनी पड़ती है लफ़्ज़ ‘इबादत' के मतलब पर और पैग़म्बरों (अलैहि०) की इस दावत पर कि सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करने और उसके सिवा हर एक की इबादत छोड़ देने की नसीहत जो वे करते थे उसका पूरा मतलब क्या था। ‘इबादत’ उनके नज़दीक सिर्फ़ ‘पूजा' न थी। उनकी दावत यह नहीं थी कि सिर्फ़ पूजा अल्लाह की करो, बाक़ी बन्दगी और फ़रमाँबरदारी जिसकी चाहे करते रहो, बल्कि वह इनसान को अल्लाह का परस्तार भी बनाना चाहते थे और फ़रमाँबरदार भी, और इन दोनों मानी के लिहाज़ से दूसरों की इबादत को ग़लत ठहराते थे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-50)।
فَكَذَّبُوهُمَا فَكَانُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡلَكِينَ ۝ 45
(48) तो उन्होंने दोनों को झुठला दिया और हलाक होने वालों में जा मिले।42
42. मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—49, 50; सूरा-7 आराफ़, आयतें—103-136; सूरा-10 यूनुस, आयतें—75-92; सूरा-11 हूद, आयतें—96-99; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—101-104; सूरा-20 ता-हा, आयतें—9-80।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ لَعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 46
(49) और मूसा को हमने किताब दी, ताकि लोग उससे हिदायत हासिल करें।
وَجَعَلۡنَا ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥٓ ءَايَةٗ وَءَاوَيۡنَٰهُمَآ إِلَىٰ رَبۡوَةٖ ذَاتِ قَرَارٖ وَمَعِينٖ ۝ 47
(50) और मरयम के बेटे और उसकी माँ को हमने एक निशानी बनाया43 और उनको एक ऊँची सतह पर रखा जो इत्मीनान की जगह थी और चश्मे (स्रोत) उसमें जारी थे।44
43. यह नहीं कहा कि एक निशानी मरयम के बेटे थे और एक निशानी ख़ुद मरयम और यह भी नहीं कहा कि मरयम के बेटे और उसकी माँ को दो निशानियों बनाया, बल्कि फ़रमाया यह है कि वे दोनों मिलकर एक निशानी बनाए गए। इसका मतलब इसके सिवा क्या हो सकता है कि बाप के बिना मरयम के बेटे का पैदा होना और मर्द से ताल्लुक़ के बिना मरयम (अलैहि०) का हामिला (गर्भवती) होना ही वह चीज़ है जो इन दोनों को एक निशानी बनाती है। जो लोग हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाप के बिना पैदा होने का इनकार करते हैं, वे माँ और बेटे के एक निशानी होने का क्या मतलब बयान करेंगे? (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरान; सूरा-9 आले-इमरान, हाशिए—44-53; सूरा-4 निसा, हाशिए—190, 212, 213; सूरा-19 मरयम, हाशिए—15-22; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—89, 90)। यहाँ दो बातें और भी ऐसी हैं जिनपर ध्यान देना चाहिए। एक यह कि हज़रत ईसा (अलैहि०) और उनकी माँ का मामला जाहिल इनसानों की एक दूसरी कमज़ोरी की निशानदेही करता है। ऊपर जिन पैग़म्बरों का ज़िक्र था उनपर तो ईमान लाने से यह कहकर इनकार कर दिया गया कि तुम इनसान हो, भला इनसान भी कहीं नबी हो सकता है। मगर हज़रत ईसा (अलैहि०) और उनकी माँ के जब लोग अक़ीदतमन्द हुए तो फिर ऐसे हुए कि उन्हें इनसान के दरजे से उठाकर ख़ुदा के दरजे तक पहुँचा दिया। दूसरी यह कि जिन लोगों ने हज़रत ईसा (अलैहि०) की मोजिज़े के रूप में हुई पैदाइश और उनके पालने की तक़रीर से उसके मोजिज़ा होने का खुला सुबूत देख लेने के बावजूद ईमान लाने से इनकार किया और हज़रत मरयम (अलैहि०) पर तोहमत लगाई, उनको फिर सज़ा भी ऐसी दी गई कि हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया के सामने इबरत की एक मिसाल बन गए।
44. अलग-अलग लोगों ने इससे अलग-अलग जगहें मुराद ली हैं। कोई दमिश्क़ कहता है, कोई अर-रमला, कोई बैतुल-मक़दिस और कोई मिस्र। मसीही रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत मरयम (अलैहि०) हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश के बाद उनकी हिफ़ाज़त के लिए दो बार वतन छोड़ने पर मजबूर हुईं। पहले हीरोदेस बादशाह के दौर में वे उन्हें मिस्र ले गईं और उसकी मौत तक वहीं रहीं। फिर अज़ख़िलाऊस की हुकूमत के दौर में उनको गलील के शहर नासिरा में पनाह लेनी पड़ी। (मत्ती, 2:13-23)। अब यह बात यक़ीन के साथ नहीं कही जा सकती कि क़ुरआन का इशारा किस जगह की तरफ़ है। लुग़त (डिक्शनरी) में 'रबवह’ उस ऊँची ज़मीन को कहते हैं जो हमवार हो और अपने आसपास के इलाक़े से ऊँची हो। आयत में अरबी लफ़्ज़ ‘ज़ाति क़रार' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद यह है कि उस जगह ज़रूरत की सब चीज़ें पाई जाती हों और रहनेवाला वहाँ आराम से ज़िन्दगी गुजार सकता हो। और 'मईन’ से मुराद है बहता हुआ पानी या जारी चश्मा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلرُّسُلُ كُلُواْ مِنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 48
(51) ए पैग़म्बरो,45 खाओ पाक चीज़ें और अमल (कर्म) करो अच्छे,46 तुम जो कुछ भी करते हो, मैं उसको ख़ूब जानता हूँ।
45. पिछले दो रूकूओं (आयतें 23-50) में कई पैग़म्बरों का ज़िक्र करने के बाद अब ‘ऐ पैग़म्बरो कहकर तमाम पैग़म्बरों को मुख़ातब करने का मतलब यह नहीं है कि कहीं ये सारे पैग़म्बर एक जगह मौजूद थे और इन सबको मुख़ातब करके यह बात कही गई, बल्कि इसका मक़सद यह बताना है कि हर ज़माने में अलग-अलग क़ौमों और अलग-अलग देशों में आनेवाले पैग़म्बरों को यही हिदायत की गई थी, और सबके सब वक़्त और जगहों के अलग-अलग होने के बावजूद एक ही हुक्म के मुख़ातब थे। बाद को आयत में चूँकि तमाम नबियों को एक उम्मत, एक जमाजत, एक गरोह बताया गया है, इसलिए बयान का अन्दाज़ यहाँ ऐसा अपनाया गया कि निगाहों के सामने उन सबके एक गरोह होने का नक़्शा खिंच जाए। मानो वे सारे-के सारे एक जगह इकट्ठे हैं और सबको एक ही हिदायत दी जा रही है। मगर इस अन्दाज़े-बयान की बारीकी इस दौर के कुछ कम अक़्ल लोगों की समझ में न आ सकी और वे इससे यह नतीजा निकाल बैठे कि यह बात मुहम्मद (सल्ल०) के बाद आनेवाले नबियों से कही गई है और इससे नबी (सल्ल०) के बाद भी नुबूवत के सिलसिले के जारी रहने का सुबूत मिलता है। ताज्जुब है, जो लोग ज़बान और अदब (भाषा और साहित्य) की बारीकियों से इतने कोरे हैं, वे क़ुरआन की तफ़सीर करने की जुर्रत करते हैं।
46. पाक चीज़ों से मुराद ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप में ख़ुद भी पाकीज़ा हों और फिर हलाल (जाइज़) तरीक़े से भी हासिल हों। पाक चीज़ें खाने की हिदायत करके रहबानियत (संन्यास) और दुनिया-परस्ती के बीच इस्लाम की दरमियानी राह की तरफ़ इशारा कर दिया गया। मुसलमान न तो राहिब या संन्यासी की तरह अपने आपको पाकीज़ा रोज़ी से महरूम करता है, और न दुनियापरस्त की तरह हराम-हलाल के फ़र्क़ के बिना हर चीज़ पर मुँह मार देता है। नेक अमल से पहले पाक चीज़ें खाने की हिदायत से साफ़ इशारा इस तरफ़ निकलता है कि हरामख़ोरी के साथ भले कामों का कोई मतलब नहीं है। मलाई के लिए पहली शर्त यह है कि आदमी हलाल रोज़ी खाए। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “लोगो, अल्लाह ख़ुद पाक है इसलिए पाक चीज़ ही को पसन्द करता है।” फिर आप (सल्ल०) ने यह आयत तिलावत फ़रमाई और उसके बाद फ़रमाया, “एक आदमी लम्बा सफ़र करके धूल में अटा उलझे बालों के साथ आता है और आसमान की तरफ़ हाथ उठाकर दुआएँ माँगता है, ‘ऐ रब ऐ रब!’ मगर हाल यह होता है कि रोटी उसकी हराम, कपड़े उसके हराम और जिस्म उसका हराम की रोटियों से पला हुआ। अब किस तरह ऐसे आदमी की दुआ क़ुबूल हो।" (हदीस : मुस्लिम तिरमिज़ी, अहमद)
وَإِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱتَّقُونِ ۝ 49
(52) और यह तुम्हारी उम्मत एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हूँ, तो मुझी से तुम डरो।47
47. “तुम्हारी उम्मत एक ही उम्मत है,” यानी तुम एक ही गरोह के लोग हो। 'उम्मत’ का लफ़्ज़ लोगों के ऐसे गरोह के लिए बोला जाता है जो एक बुनियादी उसूल पर शरीक हो। नबी चूँकि ज़माना और जगहें अलग-अलग होने के बावजूद एक अक़ीदे, एक दीन और एक दावत पर जमा थे, इसलिए फ़रमाया गया कि उन सबकी एक ही उम्मत है। बाद का जुमला ख़ुद बता रहा है कि वह अस्ल उसूल क्या था जिसपर सब पैग़म्बर जमा थे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—130-133, 213; सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—19, 20, 23 33-34, 64, 79-85; सूरा-4 निसा, आयतें—150-152; सूरा-7 आराफ़, आयतें—59, 65, 73, 85; सूरा-12 यूसुफ़, आयतें—37-40; सूरा-19 मरयम, आयतें—19-59; सूरा-21 अम्बिया आयतें—71-93।
فَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ زُبُرٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ ۝ 50
(53) मगर बाद में लोगों ने अपने दीन को आपस में टुकड़े-टुकड़े कर लिया। हर गरोह के पास जो कुछ है, उसी में वह मगन है48
48. यहाँ सिर्फ़ वाक़िए को बयान करना ही नहीं है, बल्कि उस दलील देने के अन्दाज़ की एक कड़ी भी है जो सूरा के शुरू से चला आ रहा है। दलील का ख़ुलासा यह है कि जब नूह (अलैहि०) से लेकर हज़रत ईसा (अलैहि०) तक तमाम पैग़म्बर यही तौहीद और आख़िरत के अक़ीदे की तालीम देते रहे हैं तो यक़ीनन इससे साबित होता है कि इनसानों का अस्ल दीन (धर्म) यही इस्लाम है, और दूसरे तमाम मज़हब जो आज पाए जाते हैं वे इसी की बिगड़ी हुई सूरतें हैं, जो उसको कुछ सच्चाइयों को मिटाकर और उसके अन्दर कुछ मनगढ़न्त बातों का इज़ाफ़ा करके बना ली गई हैं। अब अगर ग़लती पर हैं तो वे लोग हैं जो उन मज़हबों के दीवाने हो रहे हैं, न कि वह जो उनको छोड़कर अस्ल दीन की तरफ़ बुला रहा है।
فَذَرۡهُمۡ فِي غَمۡرَتِهِمۡ حَتَّىٰ حِينٍ ۝ 51
(54)— अच्छा, तो छोड़ो उन्हें, डूबे रहें अपनी ग़फ़लत में एक ख़ास वक़्त तक।49
49. पहले जुमले और दूसरे जुमले के बीच एक ख़ाली जगह है जिसे भरने के बजाय सुननेवाले की सोच पर छोड़ दिया गया है; क्योंकि इसको तक़रीर का पसमंज़र ख़ुद भर रहा है। पसमंज़र यह है कि ख़ुदा का एक बन्दा पाँच-छह साल से लोगों को अस्ल दीन की तरफ़ बुला रहा है, दलीलों से बात समझा रहा है, इतिहास से मिसालें पेश कर रहा है, उसकी दावत के असरात और नतीजे अमली तौर पर निगाहों के सामने आ रहे हैं, और फिर उसका निजी किरदार भी इस बात को ज़मानत दे रहा है कि वह एक भरोसेमन्द आदमी है। मगर इसके बावजूद लोग सिर्फ़ यही नहीं कि उस बातिल में मगन हैं जो उनको उनके बाप-दादा से विरासत में मिला था और सिर्फ़ इस हद तक भी नहीं कि वे उस हक़ (सत्य) को मानकर नहीं देते जो रौशन दलीलों के साथ पेश किया जा रहा है, बल्कि वे हाथ धोकर उस हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के पीछे पड़ जाते हैं और हठधर्मी, ताने, मलामत, ज़ुल्म, झूठ ग़रज़ कोई बुरी-से-बरी तदबीर भी उसकी दावत को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। इस सूरते-हाल में अस्ल हक़ दीन के एक होने, और बाद के गढ़े हुए मज़हबों की हक़ीक़त बयान करने के बाद यह कहना कि “छोड़ो इन्हें, डूबे रहें अपनी ग़फ़लत में ख़ुद-ब-ख़ुद इस मानी की दलील बन रहा है कि “अच्छा अगर ये लोग नहीं मानते और अपनी गुमराहियों ही में मगन रहना चाहते हैं तो छोड़ो इन्हें।” ‘इस छोड़ो' को बिलकुल लफ़्ज़ी मानी में लेकर यह समझ बैठना कि “अब तबलीग़ ही न करो,” कलाम के तेवरों के न समझ पाने का सुबूत होगा। ऐसे मौक़ों पर यह बात तबलीग़ और नसीहत से रोकने के लिए नहीं, बल्कि ग़ाफ़िलों को झंझोड़ने के लिए कही जाया करती है। फिर एक ख़ास वक़्त तक के अलफ़ाज़ में एक बड़ी गहरी चेतावनी छिपी है, जो यह बता रही है कि ग़फ़लत में इस तरह डूबे रहना ज़्यादा देर तक नहीं रह सकेगा एक वक़्त आनेवाला है जब ये चौंक पड़ेंगे और इन्हें पता चल जाएगा कि बुलानेवाला जिस चीज़ की तरफ़ बुला रहा था, वह क्या चीज़ थी और यह जिस चीज़ में मगन थे, वह कैसी थी।
أَيَحۡسَبُونَ أَنَّمَا نُمِدُّهُم بِهِۦ مِن مَّالٖ وَبَنِينَ ۝ 52
(55) क्या ये समझते हैं कि हम जो इन्हें माल और औलाद से मदद दिए जा रहे हैं
نُسَارِعُ لَهُمۡ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ بَل لَّا يَشۡعُرُونَ ۝ 53
(56) तो मानो इन्हें भलाइयाँ देने में सरगर्म हैं? नहीं, अस्ल मामले की इन्हें समझ नहीं है।50
50. इस जगह पर सूरा की शुरू की आयतों पर फिर एक निगाह डाल लीजिए। उसी मज़मून (विषय) को अब फिर एक-दूसरे अन्दाज़ से दोहराया जा रहा है। ये लोग ‘फ़लाह' (कामयाबी), भलाई और ख़ुशहाली का महदूद माद्दी तसव्वुर रखते थे। इनके नज़दीक जिसने अच्छा खाना, अच्छा लिबास, अच्छा घर पा लिया, जिसको माल और औलाद मिल गई, और जिसे समाज में नाम और शोहरत और रुसूख़ और असर हासिल हो गया, उसने बस कामयाबी पा ली। और जो इसे न पा सका वह नाकाम और नामुराद रहा। इस बुनियादी ग़लतफहमी से वे फिर एक और इससे भी ज़्यादा बड़ी ग़लतफहमी में मुब्तला हो गए, और वह यह थी कि जिसे इस मानी में कामयाबी नसीब है वह ज़रूर सीधे रास्ते पर है, बल्कि ख़ुदा का प्यारा बन्दा है, वरना कैसे मुमकिन था कि उसे ये कामयाबियाँ हासिल होतीं। और इसके बरख़िलाफ़ जो इस कामयाबी से हमको खुले तौर पर महरूम नज़र आ रहा है वह यक़ीनन अक़ीदे और अमल में गुमराह और ख़ुदा (या ख़ुदाओं) के ग़ज़ब में गिरफ़्तार है। इस ग़लतफ़हमी को, जो अस्ल में माद्दा-परस्ताना (भौतिकवादी) नज़रिया रखनेवालों की गुमराही की सबसे ज़्यादा अहम वजहों में से है, क़ुरआन में जगह-जगह बयान किया गया है, अलग-अलग तरीक़ों से इसको रद्द किया गया है, और तरह-तरह से यह बताया गया है कि अस्ल हक़ीक़त क्या है, मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—126, 212; सूरा-7 आराफ़, आयत-32; सूरा-9 तौबा, आयतें—55, 69, 83; सूरा-10 यूनुस, आयत-17; सूरा-11 हूद, आयतें—3, 27-31, 38, 39; सूरा-13 रअद, आयत-26; सूरा-18 कह्फ़, आयतें—28, 32-43, 103-105; सूरा-19 मरयम, आयतें—77-80; सूरा-20 ता-हा, आयतें—131, 132; सूरा-21 अम्बिया, आयत-44 हाशियों के साथ। इस सिलसिले में कुछ अहम हक़ीक़तें ऐसी हैं कि जब तक आदमी उनको अच्छी तरह न समझ ले, उसका ज़ेहन कभी साफ़ नहीं हो सकता। पहली यह कि 'इनसान की फ़लाह' इससे ज़्यादा कुशादा और इससे ज़्यादा बुलन्द चीज़ है कि उसे किसी एक आदमी या गरोह या क़ौम की सिर्फ़ माद्दी ख़ुशहाली और वक़्ती कामयाबी के मानी में लिया जाए। दूसरी यह कि फ़लाह को इस महदूद मानी में लेने के बाद अगर इसी को हक़ और बातिल और भलाई और बुराई का पैमाना मान लिया जाए तो यह एक ऐसी बुनियादी गुमराही बन जाती है जिससे निकले बिना एक इनसान कभी अक़ीदे और सोच और अख़लाक़ और किरदार में सीधी राह पा ही नहीं सकता। तीसरी यह कि दुनिया अस्ल में बदला मिलने की जगह नहीं, बल्कि इम्तिहान की जगह है। यहाँ अख़लाक़ी इनाम और सज़ा अगर है भी तो बहुत महदूद पैमाने पर और अधूरी शक्ल में है, और इम्तिहान का पहलू ख़ुद उसमें भी मौजूद है। इस हक़ीक़त को अनदेखा करके यह समझ लेना कि यहाँ जिसको जो नेमत भी मिल रही है वह 'इनाम’ है, और उसका मिलना इनाम पानेवाले के हक़ पर होने और नेक और रब का प्यारा होने का सुबूत है, और जिसपर जो आफ़त भी आ रही है, वह 'सज़ा' है और इस बात की दलील है कि सज़ा पानेवाला बातिल (असत्य) पर है, नेक नहीं है, और अल्लाह के ग़ज़ब का शिकार है, यह सब कुछ अस्ल में एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी, बल्कि बेवक़ूफ़ी है जिससे बढ़कर शायद ही कोई दूसरी चीज़ हक़ के बारे में हमारी सोच और अख़लाक़ के पैमाने को बिगाड़ देनेवाली हो। एक हक़ीक़त के तलबगार को पहले क़दम पर यह समझ लेना चाहिए कि यह दुनिया अस्ल में एक इम्तिहान की जगह है और यहाँ अनगिनत अलग-अलग शक्लों से लोगों का, क़ौमों का और तमाम इनसानों का इम्तिहान हो रहा है। इस इम्तिहान के बीच में जो अलग-अलग हालात लोगों को पेश आते हैं वे इनाम या सज़ा के आख़िरी फ़ैसले नहीं हैं कि उन्हीं को नज़रियों, अख़लाक़ और आमाल के सही और ग़लत होने का पैमाना बना लिया जाए और उन्हीं को ख़ुदा के वहाँ पसन्दीदा या नापसन्दीदा होने की निशानी ठहरा लिया जाए। चौथी यह कि फ़लाह का दामन यक़ीनन हक़ और नेकी के साथ बंधा हुआ है, और बिना किसी शक और शुब्हे के यह एक हक़ीक़त है कि झूठ और बुराई का अंजाम घाटा है। लेकिन इस दुनिया में चूँकि बातिल और बुराई के साथ कुछ दिनों की वक़्ती और दिखावटी कामयाबी और इसी तरह हक़ और नेकी के साथ ज़ाहिरी और वक़्ती घाटा मुमकिन है, और अकसर यह चीज़ धोखा देनेवाली साबित होती है, इसलिए हक़ और बातिल और भलाई और बुराई की जाँच के लिए एक मुस्तक़िल कसौटी की ज़रूरत है जिसमें धोखे का ख़तरा न हो। पैग़म्बरों (अलैहि०) की तालीमात और आसमानी किताबें हमको वह कसौटी देती हैं, इनसानी आम अक़्ल (Common sense) उसके सही होने की तसदीक़ (पुष्टि) करती है और भलाई और बुराई के बारे में इनसानों के अन्दर जो जानने और मालूम करने की क़ुव्वतें और ख़यालात पाए जाते हैं उसपर गवाही देते हैं। पाँचवीं यह कि जब कोई शख़्स या क़ौम एक तरफ़ तो हक़ (सत्य) से मुँह मोड़कर और ख़ुदा की नाफ़रमानी, ज़ुल्म और सरकशी में मुब्तला हो, और दूसरी तरफ़ उसपर नेमतों की बारिश हो रही हो, तो अक़्ल और क़ुरआन दोनों के मुताबिक़ यह इस बात की खुली निशानी है कि ख़ुदा ने उसको बहुत ही सख़्त आज़माइश में डाल दिया है और उसपर ख़ुदा की रहमत नहीं, बल्कि उसका ग़ज़ब (प्रकोप) छा गया है। उसे ग़लती पर चोट लगती तो इसका मतलब यह होता कि ख़ुदा अभी उसपर मेहरबान है, उसे ख़बरदार कर रहा है और संभलने का मौक़ा दे रहा है। लेकिन ग़लती पर 'इनाम’ यह मतलब रखता है कि उसे सख़्त सज़ा देने का फ़ैसला कर लिया गया है और उसकी नाव इसलिए तैर रही है कि ख़ूब भरकर डूबे। इसके बरख़िलाफ़ जहाँ एक तरफ़ सच्ची ख़ुदा-परस्ती हो, अख़लाक़ की पाकीज़गी हो, मामलात में सच्चाई और ईमानदारी हो, ख़ुदा के बन्दों के साथ अच्छा सुलूक और रहमत और मेहरबानी हो, और दूसरी तरफ़ मुसीबतें और परेशानियाँ उसपर मूसलाधार बरस रही हों और चोटों-पर-चोटें उसे लग रही हों, तो यह ख़ुदा के ग़ज़ब की नहीं, उसकी रहमत ही की निशानी है। सुनार उस सोने को तपा रहा है, ताकि ख़ूब निखर जाए और दुनिया पर उसका बिलकुल खरा होना साबित हो जाए। दुनिया के बाज़ार में उसकी क़ीमत न भी उठे तो परवाह नहीं। सुनार ख़ुद उसकी क़ीमत देगा, बल्कि अपनी मेहरबानी से और ज़्यादा देगा। उसकी मुसीबतें अगर ग़ज़ब का पहलू रखती हैं तो ख़ुद उसके लिए नहीं, बल्कि उसके दुश्मनों ही के लिए रखती हैं, या फिर उस सोसाइटी के लिए जिसमें नेक और भले लोग सताए जाएँ और बुरे लोग नवाज़े जाएँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ هُم مِّنۡ خَشۡيَةِ رَبِّهِم مُّشۡفِقُونَ ۝ 54
(57) हक़ीक़त में तो वे लोग जो अपने रब के ख़ौफ़ से डरे रहते हैं,51
51. यानी वे दुनिया में ख़ुदा से बेडर और बेफ्रिक होकर नहीं रहते कि जो दिल चाहे करते रहें और कभी न सोचें कि ऊपर कोई ख़ुदा भी है जो ज़ुल्म और ज़्यादती पर पकड़नेवाला है, बल्कि उनके दिल में हर वक़्त उसका डर रहता है और वही उन्हें बुराइयों से रोकता रहता है।
وَٱلَّذِينَ هُم بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 55
(58) जो अपने रब की आयतों पर ईमान लाते हैं,52
52. आयतों से मुराद दोनों तरह की आयतें हैं, वे भी जो ख़ुदा की तरफ़ से उसके पैग़म्बर पेश करते हैं, और वे भी जो इनसान के अपने अन्दर और हर तरफ़ कायनात में फैली हुई हैं। किताब की आयतों पर ईमान लाना उनकी तसदीक़ (पुष्टि) करना है, और अपने अन्दर और बाहर की निशानियों पर ईमान लाना उन हक़ीक़तों पर ईमान लाना है जिनकी वे दलील दे रही हैं।
وَٱلَّذِينَ هُم بِرَبِّهِمۡ لَا يُشۡرِكُونَ ۝ 56
(59) जो अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करते,53
53. हालाँकि आयतों पर ईमान लाने से ख़ुद ही यह लाज़िम हो जाता है कि इनसान तौहीद का माननेवाला और उसपर यक़ीन रखनेवाला हो, लेकिन इसके बावजूद शिर्क न करने का ज़िक्र अलग से इसलिए किया गया है कि कई बार इनसान आयतों को मानकर भी किसी-न-किसी तरह के शिर्क में मुब्तला रहता है। मिसाल के तौर पर दिखावा, कि वह भी एक तरह का शिर्क है। या नबियों और नेक बुजुगों की तालीम को ऐसा बढ़ा-चढ़ा देना जो शिर्क तक पहुँचा दे। या अल्लाह के अलावा दूसरों से दुआ माँगना और मदद तलब करना। या अपनी मरज़ी और ख़ुशी से अल्लाह के अलावा दूसरों को रब बनाकर उनकी बन्दगी और फ़रमाँबरदारी करना और अल्लाह के क़ानून के बजाय दूसरे क़ानूनों की पैरवी। तो अल्लाह की आयतों पर ईमान के बाद शिर्क की मनाही का अलग से ज़िक्र करने का मतलब यह है कि वे अल्लाह के लिए अपनी बन्दगी, फ़रमाँबरदारी और इबादत को बिलकुल ख़ालिस कर लेते हैं, उसके साथ किसी और की बन्दगी का हलका-सा धब्बा भी लगा नहीं रखते।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡتُونَ مَآ ءَاتَواْ وَّقُلُوبُهُمۡ وَجِلَةٌ أَنَّهُمۡ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ رَٰجِعُونَ ۝ 57
(60) और जिनका हाल यह है कि देते हैं जो कुछ भी देते हैं और दिल उनके इस ख़याल से काँपते रहते हैं कि हमें अपने रब की तरफ़ पलटना है।54
54. अरबी ज़बान में 'देने’ (ईता) का लफ़्ज़ सिर्फ़ माल या कोई माद्दी चीज़ देने ही के मानी में इस्तेमाल नहीं होता, बल्कि उन चीज़ों को देने के लिए भी इस्तेमाल होता है जो माद्दी नहीं होतीं। मिसाल के तौर पर किसी शख़्स की फ़रमाँबरदारी क़ुबूल कर लेने के लिए कहते हैं कि 'आतैतहू मिन-नफ़सी-अल-क़ुबूल'। किसी शख़्स की बात मानने से इनकार कर देने के लिए कहते हैं कि 'आतैतुहू मिन-नफ़्सी अल-इबाअ-त'। तो इस देने का मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि वे अल्लाह के रास्ते में माल देते हैं, बल्कि इसका मतलब अल्लाह के सामने फ़रमॉबरदारी और बन्दगी पेश करना भी है। इस मतलब के लिहाज़ से आयत का पूरा मतलब यह हुआ कि वे अल्लाह की फ़माँबरदारी में जो कुछ भी नेकियों करते हैं, जो कुछ भी काम अंजाम देते हैं, जो कुछ भी क़ुरबानियाँ करते हैं, उनपर वे फूलते नहीं हैं, परहेज़गार और अल्लाहवाले होने के घमण्ड और पिन्दार में मुब्तला नहीं होते, बल्कि अपनी क़ुदरत भर सब कुछ करके भी डरते रहते हैं कि ख़ुदा जाने वह क़ुबूल हो या न हो, हमारे गुनाहों के मुक़ाबले में वज़नदार साबित हो या न हो, हमारे रब के यहाँ हमारी माफ़ी के लिए काफ़ी हो या न हो। यही मतलब है जिसपर वह हदीस रौशनी डालती है जो अहमद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, हाकिम और इब्ने-जरीर ने नक़्ल की है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल। क्या इसका मतलब यह है कि एक शख़्स चोरी और ज़िना (व्यभिचार) और शराबख़ोरी करते हुए अल्लाह से डरे।” इस सवाल से मालूम हुआ कि हज़रत आइशा (रज़ि०) इसे 'यातू-न मा अतौ (करते हैं जो कुछ भी करते हैं) के मानी में ले रही थीं। जवाब में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, ऐ सिद्दीक़ की बेटी, इससे मुराद वह शख़्स है जो नमाज़ पढ़ता है, रोज़े रखता है, ज़कात देता है और फिर अल्लाह से डरता रहता है। इस जवाब से पता चला कि आयत की सही क़िरअत ‘यातू-न’ नहीं बल्कि 'युअतू-न' है और यह 'युअतू-न' सिर्फ़ माल देने के महदूद मानी में नहीं है, बल्कि फ़रमाँबरदारी करने के वसीअ (व्यापक) मानी में है। यह आयत बताती है कि एक ईमानवाला किस दिली कैफ़ियत के साथ अल्लाह की बन्दगी करता है। उसकी मुकम्मल तस्वीर हज़रत उमर (रज़ि०) की वह हालत है कि उम्र भर की बेमिसाल ख़िदमतों के बाद जब दुनिया से विदा होने लगते हैं तो ख़ुदा की पूछ-गछ से डरते हुए जाते हैं और कहते हैं कि अगर आख़िरत में बराबर-सराबर भी छूट जाऊँ तो भी बहुत है। हज़रत हसन बसरी (रह०) ने ख़ूब कहा है कि ईमानवाला ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करता है, फिर भी डरता है, और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) अल्लाह की नाफ़रमानी करता है, फिर भी निडर रहता है।
حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذۡنَا مُتۡرَفِيهِم بِٱلۡعَذَابِ إِذَا هُمۡ يَجۡـَٔرُونَ ۝ 58
(64) यहाँ तक कि जब हम उन अय्याशों को अज़ाब में पकड़ लेंगे59 तो फिर वे डकराना शुरू कर देंगे60
59. अस्ल अरबी में 'मुत्‌रफ़रीन' इस्तेमाल हुआ है जिसका तर्जमा हमने 'अय्याश' किया है 'मुत्‌रफ़ीन अस्ल में उन लोगों को कहते हैं जो दुनियावी धन-दौलत को पाकर मज़े कर रहे हों और अल्लाह और उसके बन्दों के हक़ों को भूले हुए हों। इस लफ़्ज़ का सही मतलब अय्याश से अदा हो जाता है, शर्त यह है कि इसे सिर्फ़ शहवत पूरी करने (वासना-पूर्ति) के मानी में न लिया जाए, बल्कि ऐशपरस्ती के ज़्यादा वसीअ (व्यापक) मानी में लिया जाए। अज़ाब से मुराद यहाँ शायद आख़िरत का अज़ाब नहीं है, बल्कि दुनिया का अज़ाब है जो इसी ज़िन्दगी में ज़ालिमों को देखना पड़े।
60. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘जुआर' इस्तेमाल किया गया है, जो बैल की उस आवाज़ को कहते हैं जो सख़्त तकलीफ़ के वक़्त वह निकालता है। यह लफ़्ज़ यहाँ सिर्फ़ रोने और फ़रियाद करने के मानी में नहीं, बल्कि उस शख़्स की फ़रियाद और चीख़-पुकार के मानी में बोला गया है जो किसी रहम का हक़दार न हो। इसमें नफ़रत, रुसवाई और तंज़ (व्यंग्य) का अन्दाज़ छिपा हुआ है। इसके अन्दर यह मतलब छिपा है कि “अच्छा, अब जो अपनी करतूतों का मज़ा चखने की नौबत आई तो बिलबिलाने लगे।"
لَا تَجۡـَٔرُواْ ٱلۡيَوۡمَۖ إِنَّكُم مِّنَّا لَا تُنصَرُونَ ۝ 59
(65) अब61 बन्द करो अपना रोना-चिल्लाना और फ़रियाद करना, हमारी तरफ़ से अब कोई मदद तुम्हें नहीं मिलनी।
61. यानी उस वक़्त उनसे यह कहा जाएगा।
قَدۡ كَانَتۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَكُنتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡ تَنكِصُونَ ۝ 60
(66) मेरी आयतें सुनाई जाती थीं तो तुम (रसूल की आवाज़ सुनते ही) उलटे पाँवों भाग निकलते थे,62
62. यानी उसकी बात सुनना तक तुम्हें गवारा न था। यह तक बर्दाश्त न करते थे कि उसकी आवाज़ कान में पड़े।
مُسۡتَكۡبِرِينَ بِهِۦ سَٰمِرٗا تَهۡجُرُونَ ۝ 61
(67) अपने घमंड में उसको ख़ातिर ही में न लाते थे, अपनी चौपालों में उसपर बातें छाँटते63 और बकवास किया करते थे।
63. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सामिरन’ इस्तेमाल किया गया है, जो लफ़्ज़ 'समर' से बना है “समर’ का मतलब है रात के वक़्त बातचीत करना, गप्पे हाँकना, क़िस्से-कहानियाँ कहना। देहातों और कस्बों की ज़िन्दगी में ये रातों की गप्पें आम तौर पर चौपालों में हुआ करती हैं और यही मक्कावालों का भी दस्तूर था।
أَفَلَمۡ يَدَّبَّرُواْ ٱلۡقَوۡلَ أَمۡ جَآءَهُم مَّا لَمۡ يَأۡتِ ءَابَآءَهُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 62
(68) तो क्या इन लोगों ने कभी इस कलाम पर ग़ौर नहीं किया?64 या वह कोई ऐसी बात लाया है जो कभी उनके बाप-दादा के पास न आई थी?65
64. यानी क्या उनके इस रवैये की वजह यह है कि इस कलाम को उन्होंने समझा ही नहीं, इसलिए वे इसे नहीं मानते। ज़ाहिर है कि यह वजह नहीं है। क़ुरआन कोई पहेली नहीं है, किसी ऐसी ज़बान में नहीं है जिसे समझा न जा सके। इसमें ऐसे मज़मून और बातें शामिल नहीं हैं जो आदमी की समझ से परे हों। वे उसकी एक-एक बात अच्छी तरह समझते हैं और मुख़ालफ़त इसलिए करते हैं कि जो कुछ वह पेश कर रहा है उसे नहीं मानना चाहते, न कि इसलिए कि उन्होंने समझने की कोशिश की और समझ में न आया।
65. यानी क्या उनके इनकार की वजह यह है कि वह एक निराली बात पेश कर रहा है, जिसे इनसानी कानों ने कभी सुना ही न था? ज़ाहिर है कि यह वजह भी नहीं है। ख़ुदा की तरफ़ से नबियों का आना, किताबें लेकर आना, तौहीद की दावत देना, आख़िरत की पूछ-गछ से डराना और अख़लाक़ की ये भलाइयाँ पेश करना जिनसे लोग वाक़िफ़ हैं, इनमें से कोई चीज़ भी ऐसी नहीं है जो इतिहास में आज पहली बार सामने आई हो, और उससे पहले कभी उसका ज़िक्र न सुना गया हो। उनके आसपास इराक़, सीरिया और मिस्र में नबियों पर नबी आए हैं, जिन्होंने यही बातें पेश की हैं और ये लोग उससे अनजान नहीं हैं। ख़ुद उनकी अपनी सरज़मीन में इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) आए हूद (अलैहि०) और सॉलेह (अलैहि०) और शुऐब (अलैहि०) आए, उनके नाम आज तक उनकी ज़बानों पर हैं, उनको ये ख़ुद अल्लाह की तरफ़ से भेजे हुए पैग़म्बर मानते हैं, और इनको यह भी मालूम है कि वे शिर्क करनेवाले न थे, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी सिखाते थे। इसलिए हक़ीक़त में इनके इनकार की यह वजह भी नहीं है कि एक बिलकुल ही अनोखी बात सुन रहे हैं जो कभी न सुनी गई थी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-84; सूरा-32 सजदा, हाशिया-5; सूरा-34 सबा, हाशिया-35)।
أَمۡ لَمۡ يَعۡرِفُواْ رَسُولَهُمۡ فَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 63
(69) या ये अपने रसूल से कभी के वाक़िफ़ न थे कि (अनजाना आदमी होने के सबब) उससे बिदकते हैं?66
66. यानी क्या इनके इनकार की वजह यह है कि एक बिलकुल अजनबी आदमी जिसे ये कभी जानते न थे, अचानक इनके बीच आ खड़ा हुआ है और कहता है कि मेरी बातें मान लो और मेरी पैरवी करो। ज़ाहिर है कि यह बात भी नहीं है। जो शख़्स यह दावत पेश कर रहा है वह इनकी अपनी बिरादरी का आदमी है। उसकी ख़ानदानी शराफ़त इनसे छिपी नहीं है उसकी निजी ज़िन्दगी इनसे छिपी हुई नहीं है। बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे की सरहद तक वह इनके सामने पहुँचा है। उसकी सच्चाई से, उसकी हक़परस्ती से, उसकी दियानतदारी से, उसकी बेदाग़ सीरत से ये ख़ूब वाक़िफ़ हैं। उसको ख़ुद अमीन कहते रहे हैं। उसकी दियानत पर इनकी सारी बिरादरी भरोसा करती रही है उसके बदतरीन दुश्मन तक वह मानते हैं कि वह कभी झूठ नहीं बोला है। उसकी पूरी जवानी पाकीज़गी और पाकदामनी के साथ गुज़री है। सबको मालूम है कि वह बहुत ही शरीफ़ और बहुत ही नेक आदमी है। नर्म दिल है। हक़-पसन्द है। अम्न-पसन्द है। झगड़ों से दूर रहता है मामले में खरा है। क़ौलो-क़रार का पक्का है। ज़ुल्म न ख़ुद करता है, न ज़ालिमों का साथ देता है। किसी हक़दार का हक़ अदा करने में उसने कोताही नहीं की है। हर मुसीबत के मारे, बेकस और ज़रूरतमन्द के लिए उसका दरवाज़ा एक रहमो-करम करनेवाले हमदर्द का दरवाज़ा है। फिर वे यह भी जानते हैं कि पैग़म्बरी के दावे से एक दिन पहले तक भी किसी ने उसकी ज़बान से कोई ऐसी बात न सुनी थी जिससे शक किया जा सकता हो कि पैग़म्बरी के किसी दावे की तैयारियाँ की जा रही हैं। और जिस दिन उसने दावा किया उसके बाद से आज तक वह एक ही बात कहता रहा है कोई पलटी उसने नहीं खाई है। कोई रद्दो-बदल अपने दावे और दावत में उसने नहीं किया है। कोई दरजा-ब-दरजा तरक़्क़ी उसके दावों में नज़र नहीं आती कि कौई यह गुमान कर सके कि आहिस्ता-आहिस्ता क़दम जमाकर दावों की घाटी में क़दम बढ़ाए जा रहे हैं। फिर उसकी ज़िन्दगी इस बात पर भी गवाह है कि जो कुछ उसने दूसरों से कहा है वह पहले ख़ुद करके दिखाया है। उसके कहने और करने में कोई टकराव नहीं है। उसके पास हाथी के दाँत नहीं हैं कि दिखाने के और हों और चबाने के और। वह देने के बाट अलग और लेने के अलग नहीं रखता। ऐसे जाने-बूझे और जाँचे-परखे आदमी के बारे में वे यह नहीं कह सकते कि “साहब दूध का जला छाछ को फूँक-फूँककर पीता है, बड़े-बड़े धोखेबाज़ आते हैं और दित मोह लेनेवाली बातें करके पहले-पहले भरोसा जमा लेते हैं, बाद में मालूम होता है कि सब सिर्फ़ धोखा-ही-धोखा था, यह साहब भी क्या पता अस्ल में क्या हों और बनावटी मुखौटा उतरने के बाद क्या कुछ इनके अन्दर से निकल आए, इसलिए इनको मानते हुए हमारा तो माथा ठनकता है। (इस सिलसिले में और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-21; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-21; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-105)।
أَمۡ يَقُولُونَ بِهِۦ جِنَّةُۢۚ بَلۡ جَآءَهُم بِٱلۡحَقِّ وَأَكۡثَرُهُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ ۝ 64
(70) या ये इस बात को मानते हैं कि वह मजनून (दीवाना)67 है? नहीं, बल्कि वह हक़ (सत्य) लाया है और हक़ ही उनमें से ज़्यादातर लोगों को नागवार है
67. यानी क्या इनके इनकार की वजह यह है कि सचमुच मुहम्मद (सल्ल०) को मजनून (दीवाना) समझते हैं? ज़ाहिर है कि यह भी अस्ली वजह नहीं है, क्योंकि ज़बान से चाहे वे कुछ ही कहते रहें, दिलों में तो उनकी अक़्लमन्दी और समझदारी को मानते हैं। इसके अलावा एक पागल और एक होशमन्द आदमी का फ़र्क़ कोई ऐसा छिपा हुआ तो नहीं होता कि दोनों में फ़र्क़ करना मुश्किल हो। आख़िर एक हठधर्म और बेहया आदमी के सिवा कौन इस कलाम को सुनकर यह कह सकता है कि यह किसी दीवाने का कलाम है, और इस शख़्स की ज़िन्दगी को देखकर यह राय ज़ाहिर कर सकता है कि यह किसी होश गँवाए हुए आदमी की ज़िन्दगी है? बड़ा ही अजीब है वह जुनून (या पश्चिम के प्राच्यविदों की बकवास के मुताबिक़ मिरगी का वह दौरा) जिसमें आदमी की ज़बान से क़ुरआन जैसा कलाम निकले और जिसमें आदमी एक तहरीक़ (आन्दोलन) की ऐसी कामयाब रहनुमाई करे कि अपने ही देश की नहीं, दुनिया भर की क़िस्मत बदल डाले।
وَلَوِ ٱتَّبَعَ ٱلۡحَقُّ أَهۡوَآءَهُمۡ لَفَسَدَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِذِكۡرِهِمۡ فَهُمۡ عَن ذِكۡرِهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 65
(71)— और हक़ अगर कहीं इनकी ख़ाहिशों के पीछे चलता तो ज़मीन और आसमान और उनकी सारी आबादी का निज़ाम छिन्न-भिन्न हो जाता68-नहीं, बल्कि हम उनका अपना ही ज़िक्र उनके पास लाए हैं और वे अपने ज़िक्र से मुँह मोड़ रहे हैं।69
68. इस मुख़्तसर से जुमले में एक बड़ी बात कही गई है, जिसे अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिए। दुनिया में नादान लोगों का आम तौर से यह रवैया होता है कि जो शख़्स उनसे हक़ बात कहता है, वे उससे नाराज़ हो जाते हैं। मानो उनका मतलब यह होता है कि बात वह कही जाए जो उनकी ख़ाहिश के मुताबिक़ हो, न कि वह जो हक़ीक़त और सच्चाई के मुताबिक़ हो। हालाँकि हक़ीक़त बहरहाल हक़ीक़त ही रहती है, चाहे वह किसी को पसन्द हो या नापसन्द। तमाम दुनिया मिलकर भी चाहे तो किसी वाक़िए को ग़ैर-वाक़िआ और किसी हक़ बात को ग़लत बात नहीं बना सकती, कहाँ यह कि हक़ीक़तें और वाक़िआत एक-एक शक्स के हितों के मुताबिक़ ढला करें और हर पल अनगिनत एक-दूसरे से टकरानेवाली ख़ाहिशों से मेल खाते रहें। वेवक़ूफ़ी से भरे ज़ेहन कभी यह सोचने की तकलीफ़ भी गवारा नहीं करते कि हकक़ीक़त और उनकी ख़ाहिश के बीच अगर फ़र्क़ है तो यह क़ुसूर हक़ीक़त का नहीं, बल्कि उनके अपने मन का है। वे उसकी मुख़ालफ़त करके उसका कुछ न बिगाड़ सकेंगे, अपना ही कुछ बिगाड़ लेंगे। कायनात (सृष्टि) का यह अज़ीमुश्शान निज़ाम (व्यवस्था) जिन अटल हक़ीक़तों और क़ानूनों पर क़ायम है, उनके साये में रहते हुए इनसान के लिए इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है कि अपने ख़यालात, ख़ाहिशों और रवैये को हक़ीक़त के मुताबिक़ बनाए, और इस मक़सद के लिए हर वक़्त दलील, तजरिबे और मुशाहदे से यह जानने की कोशिश करता रहे कि सही बात क्या है। सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ ही यहाँ सोचने और अमल करने का यह रवैया अपना सकता है कि जो कुछ वह समझ बैठा है, या जो कुछ उसका जी चाहता है कि हो, या जो कुछ अपने तास्सुबात (दुराग्रहों) की बुनियाद पर यह मान चुका है कि है या होना चाहिए, उसपर जमकर रह जाए और उसके ख़िलाफ़ किसी की मज़बूत-से-मज़बूत और मुनासिब-से मुनासिब दलील को भी सुनना गवारा न करे।
69. यहाँ लफ़्ज़ ‘ज़िक्र’ के तीन मतलब हो सकते हैं और तीनों ही सही बैठते हैं (1) ‘ज़िक्र’ फ़ितरत के बयान के मानी में। इस लिहाज़ से आयत का मतलब यह होगा कि हम किसी दूसरी दुनिया की बातें नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनकी अपनी ही हक़ीक़त और फ़ितरत और उसकी माँगें उनके सामने पेश कर रहे हैं, ताकि वे अपने इस भूले हुए सबक़ को याद करें, मगर ये इसे क़ुबूल करने से कतरा रहे हैं। उनका यह भागना किसी ग़ैर-मुताल्लिक़ (असम्बद्ध) चीज़ से नहीं, बल्कि अपने ही ‘ज़िक्र' से है। (2) ‘ज़िक्र' नसीहत के मानी में। इसके मुताबिक़ आयत की तफ़सीर यह होगी कि जो कुछ पेश किया जा रहा है यह उन्हीं के भले के लिए एक नसीहत है, और उनका यह भागना किसी और चीज़ से नहीं अपनी ही भलाई की बात से है। (3) 'ज़िक्र' इज़्ज़त और क़द्रदानी के मानी में। इस मानी को अपनाया जाए तो आयत का मतलब यह होगा कि हम वह चीज़ उनके पास लाए हैं जिसे ये क़ुबूल करें तो इन्हीं को इज़्ज़त और सरबुलन्दी हासिल होगी। इससे उनका यह मुँह मोड़ना किसी और चीज़ से नहीं, अपनी ही तरक़्क़ी और अपने ही उठान के एक सुनहरे मौक़े से मुँह मोड़ना है।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ خَرۡجٗا فَخَرَاجُ رَبِّكَ خَيۡرٞۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 66
(72) क्या तू उनसे कुछ माँग रहा है? तेरे लिए तेरे रब का दिया ही बेहतर है और वह सबसे अच्छी रोज़ी देनेवाला है।70
70. यह नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी के हक़ में एक और दलील हैं। यानी यह कि नबी अपने इस काम में बिलकुल बेग़रज़ है। कोई शख़्स ईमानदारी के साथ यह इलज़ाम नहीं लगा सकता कि आप (सल्ल०) ये सारे पापड़ इसलिए बेल रहे हैं कि कोई मन में छिपा मक़सद आप (सल्ल०) के सामने है। अच्छी-ख़ासी तिजारत चमक रही थी, अब ग़रीबी में मुब्तला हो गए। क़ौम में इज़्ज़त के साथ देखे जाते थे। हर शख़्स हाथों-हाथ लेता था। अब गालियाँ और पत्थर खा रहे हैं, बल्कि जान तक के लाले पड़े हैं। चैन से अपने बीवी-बच्चों में हँसी-ख़ुशी दिन गुज़ार रहे थे। अब एक ऐसी सख़्त कशमकश में पड़ गए हैं जो किसी पल चैन नहीं लेने देती। इसपर और ज़्यादा यह कि बात वह लेकर उठे हैं जिसकी बदौलत सारा देश दुश्मन हो गया है, यहाँ तक कि ख़ुद अपने ही भाई-बन्द ख़ून के प्यासे हो रहे हैं। कौन कह सकता है कि यह एक ख़ुदग़रज़ आदमी के करने का काम है? ख़ुदग़रज़ आदमी अपनी क़ौम और क़बीले की तरफ़दारी का अलमबरदार बनकर अपनी क़ाबिलियत और जोड़-तोड़ से सरदारी हासिल करने की कोशिश करता, न कि वह बात लेकर उठता जो सिर्फ़ यही नहीं कि तमाम क़ौमी तरफ़दारियों के ख़िलाफ़ एक चैलेंज है, बल्कि सिरे से उस चीज़ की जड़ हो काट देती है जिसपर अरब के मुशरिक लोगों में उसके क़बीले की चौधराहट क़ायम है। यह वह दलील हैं जिसको क़ुरआन में न सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की, बल्कि आम तौर से तमाम पैग़म्बरों (अलैहि०) की सच्चाई के सुबूत में बार-बार पेश किया गया है। तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-6 अनाम, आयत-90; सूरा-10 यूनुस, आयत-72; सूरा-11 हूद, आयत-29, 51; सूरा-12 यूसुफ़, आयत-104; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-57; सूरा-26 शुअरा, आयत-109, 127, 145, 161, 180; सूरा-34 सबा, आयत-47; सूरा-36 या॰सीन॰, आयत-21; सूरा-38 साद, आयत-86; सूरा-42 शूरा, आयत-23; सूरा-53 नज्म, आयत-40 हाशियों समेत।
وَإِنَّكَ لَتَدۡعُوهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 67
(73) तू तो उनको सीधे रास्ते की तरफ़ बुला रहा है।
وَإِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ عَنِ ٱلصِّرَٰطِ لَنَٰكِبُونَ ۝ 68
(74) मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते, वे सीधे रास्ते से हटकर चलना चाहते हैं।71
71. यानी आख़िरत के इनकार ने उनको ग़ैर-ज़िम्मेदार और ज़िम्मेदारी का एहसास न होने ने उनको बेफ़िक्र बनाकर रख दिया है। जब वे सिरे से यही नहीं समझते कि उनकी इस ज़िन्दगी का कोई अंजाम और नतीजा भी है और किसी के सामने अपनी इस पूरी ज़िन्दगी के कारनामों का हिसाब भी देना है, तो फिर उन्हें इसकी क्या फ़िक्र हो सकती है कि हक़ क्या है और बातिल क्या। जानवरों की तरह उनका भी ज़्यादा-से-ज़्यादा मक़सद बस यह है कि तन और मन की ज़रूरतें ख़ूब अच्छी तरह पूरी होती रहें। यह मक़सद हासिल हो तो फिर हक़ और बातिल की बहस उनके लिए बिलकुल बेकार है। और इस मक़सद के हासिल होने में कोई ख़राबी पैदा हो जाए तो ज़्यादा-से-ज़्यादा वे जो कुछ सोचेंगे वह सिर्फ़ यह कि उस ख़राबी की वजह क्या है और उसे किस तरह दूर किया जा सकता है। सीधा और सच्चा रास्ता इस सोच के लोग न चाह सकते हैं, न पा सकते हैं।
۞وَلَوۡ رَحِمۡنَٰهُمۡ وَكَشَفۡنَا مَا بِهِم مِّن ضُرّٖ لَّلَجُّواْ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 69
(75) अगर हम इनपर रहम करें और वह तकलीफ़, जिसमें आजकल ये मुब्तला हैं, दूर कर दें तो ये अपनी सरकशी में बिलकुल ही बहक जाएँगे।72
72. इशारा है उस तकलीफ़ और मुसीबत की तरफ़ जिसमें वे क़हत (अकाल) की वजह से पड़े हुए थे। इस क़हत के बारे में रिवायतें नक़्ल करते हुए कुछ लोगों ने दो क़हतों (अकालों) के क़िस्सों को गड्डमड्ड कर दिया है, जिसकी वजह से आदमी को यह समझना मुश्किल हो जाता है कि वह हिजरत से पहले का वाक़िआ है या बाद का। असली मामला यह है कि नबी (सल्ल०) के दौर में मक्कावालों को दो बार क़हत का सामना करना पड़ा है। एक हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को पैग़म्बर बनाए जाने के आग़ाज़ से कुछ मुद्दत बाद, दूसरा हिजरत के कई साल बाद जबकि सुमामा-बिन-उसाल ने यमामा से मक्का की तरफ़ अनाज का आना रोक दिया था। यहाँ ज़िक्र दूसरे क़हत का नहीं, बल्कि पहले क़हत का है। उसके बारे में हदीस की किताबों बुख़ारी और मुस्लिम में इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की यह रिवायत है कि जब क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) की दावत क़ुबूल करने से लगातार इनकार किया और सख़्त मुख़ालफ़त शुरू कर दी तो नबी (सल्ल०)। ने दुआ की कि “ऐ अल्लाह, इनके मुक़ाबले में मेरी मदद यूसुफ़ के सात वर्षीय क़हत जैसे सात सालों से कर।” चुनाँचे ऐसा सख़्त क़हत शुरू हुआ कि मुरदार तक खाने की नौबत आ गई। इस क़हत की तरफ़ मक्की सूरतों में बहुत-से इशारे मिलते हैं। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-6 अनआम, आयतें—42-44; सूरा-7 आराफ़, आयतें—94-99; सूरा-10 यूनुस, आयतें—11, 12, 21; सूरा-16 नह्ल, आयतें—112, 113; सूरा-14 दुख़ान, आयतें—10-16 हाशियों समेत।
وَلَقَدۡ أَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡعَذَابِ فَمَا ٱسۡتَكَانُواْ لِرَبِّهِمۡ وَمَا يَتَضَرَّعُونَ ۝ 70
(76) इनका हाल तो यह है कि हमने इन्हें तकलीफ़ में मुब्तला किया, फिर भी ये अपने रब के आगे न झुके और न आजिज़ी (विनम्रता) अपनाते हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَا فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا ذَا عَذَابٖ شَدِيدٍ إِذَا هُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ ۝ 71
(77) अलबत्ता जब नौबत यहाँ तक पहुँच जाएगी कि हम इनपर सख़्त अज़ाब का दरवाज़ा खोल दें तो यकायक तुम देखोगे कि इस हालत में ये हर भलाई से मायूस हैं।73
73. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुबलिसून' इस्तेमाल हुआ है जिसका पूरा मतलब मायूसी से अदा नहीं हो सकता। 'ब-ल-स' और 'इबलास' का लफ़्ज़ कई मानी में इस्तेमाल होता है। हैरत की वजह से दंग होकर रह जाना, डर और दहशत के मारे दम-ब-ख़ुद रह जाना, रंज और ग़म के मारे हिम्मत हार जाना, हर तरफ़ से नाउम्मीद होकर हिम्मत तोड़ बैठना। और इसी का एक पहलू मायूसी और नामुरादी की वजह से तैश में आ जाना भी है, जिसकी वजह से शैतान का नाम इबलीस रखा गया है। इस नाम में यह मतलब छिपा है कि मायूसी और नाकामी (Frustration) की वजह से उसका जख़्मी घमण्ड इतना ज़्यादा बेक़ाबू हो गया है कि अब वह जान से हाथ धोकर हर बाज़ी खेल जाने और हर जुर्म कर गुज़रने पर तुला हुआ है।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 72
(78) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हें सुनने और देखने की ताक़तें दीं और सोचने को दिल दिए। मगर तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।74
74. मतलब यह है कि बदनसीबो, यह आँख-कान और दिल-दिमाग़ तुमको क्या इसलिए दिए गए थे कि तुम इनसे बस वह काम लो जो जानवर लेते हैं? क्या इनका सिर्फ़ यही इस्तेमाल है कि तुम जानवरों की तरह तन और मन की माँगें पूरी करने के ज़रिए ही तलाश करते रहो और हर वक़्त अपनी ज़िन्दगी का मेयार ऊँचा करने की तदबीरें ही सोचते रहा करो? क्या इससे बढ़कर भी कोई नाशुक्री हो सकती है कि तुम बनाए तो गए थे इनसान और बनकर रह गए निरे हैवान? जिन आँखों से सब कुछ देखा जाए, मगर हक़ीक़त की तरफ़ रहनुमाई करनेवाली निशानियाँ ही न देखी जाएँ, जिन कानों से सब कुछ सुना जाए मगर एक सबक़ रआमोज़ बात ही न सुनी जाए, और जिस दिल और दिमाग़ से सब कुछ सोचा जाए मगर बस यही न सोचा जाए कि मुझे यह वुजूद कैसे मिला है, किसलिए मिला है और क्या मेरी ज़िन्दगी का कोई मक़सद है? अफ़सोस है अगर वे फिर एक बैल के बजाय एक इनसान के ढाँचे में हो।
وَهُوَ ٱلَّذِي ذَرَأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 73
(79) वही है जिसने तुमहें ज़मीन में फैलाया, और उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे
وَهُوَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَلَهُ ٱخۡتِلَٰفُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 74
(80) वही ज़िन्दगी देता है और वही मौत देता है। रात-दिन का आना-जाना उसी की क़ुदरत के क़ब्ज़े में है।75 क्या तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आती76
75. इल्म के ज़रिए (शुऊर और सोचने-समझने की ताक़त) और उनके सही इस्तेमाल से इनसान की ग़फ़लत पर ख़बरदार करने के बाद अब उन निशानियाँ की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है जिनको अगर खुली आँखों से देखा जाए और जिनकी निशानदेही से अगर सही तौर पर दलील ली जाए, या खुले कानों से किसी समझ में आनेवाली दलील को सुना जाए, तो आदमी हक़ तक पहुँच सकता है। यह भी मालूम कर सकता है कि दुनिया का यह कारख़ाना बेख़ुदा या बहुत-से ख़ुदाओं का पैदा किया हुआ और बनाया हुआ नहीं है, बल्कि एक ख़ुदा की ताक़त और कारीगरी की बुनियाद पर क़ायम है। और यह भी जान सकता है कि यह बेमक़सद नहीं है, निरा खेल और सिर्फ़ एक बेकार का जादू नहीं है, बल्कि एक हिकमत (तत्वदर्शिता) पर बना हुआ निज़ाम है, जिसमें इनसान जैसे अधिकार रखनेवाले जानदार का ग़ैर-जवाबदेह होना और बस यूँ ही मरकर मिट्टी हो जाना मुमकिन नहीं है।
76. वाज़ेह रहे कि यहाँ तौहीद और मौत के बाद की ज़िन्दगी, दोनों पर एक साथ दलील दी जा रही है, और आगे तक जिन निशानियों की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है उनसे शिर्क के ग़लत होने और आख़िरत के इनकार के ग़लत होने दोनों पर दलील लाई जा रही है।
بَلۡ قَالُواْ مِثۡلَ مَا قَالَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 75
(81) मगर ये लोग वही कुछ कहते हैं जो इनके पहले के लोग कह चुके हैं।
قَالُوٓاْ أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 76
(82) ये कहते हैं, “क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाएँगे तो हमको फिर ज़िन्दा करके उठाया जाएगा?
لَقَدۡ وُعِدۡنَا نَحۡنُ وَءَابَآؤُنَا هَٰذَا مِن قَبۡلُ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 77
(83) हमने भी यह वादे बहुत सुने हैं और हमसे पहले हमारे बाप दादा भी सुनते रहे हैं। ये सिर्फ़ पुराने ज़माने की कहानियाँ हैं।"77
77. ख़याल रहे कि उनका आख़िरत को नामुमकिन समझना सिर्फ़ आख़िरत ही का इनकार न था, बल्कि ख़ुदा की क़ुदरत और हिकमत का भी इनकार था।
قُل لِّمَنِ ٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهَآ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 78
(84) इनसे कहो, बताओ अगर तुम जानते हो, कि यह ज़मीन और इसकी सारी आबादी किसकी है?
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 79
(85) ये ज़रूर कहेंगे, अल्लाह की। कहो, फिर तुम होश में क्यों नहीं आते?78
78. यानी क्यों यह बात नहीं समझते कि फिर ख़ुदा के सिवा कोई बन्दगी का हक़दार भी नहीं है, मालिक कौन है?
قُلۡ مَن رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ ٱلسَّبۡعِ وَرَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 80
(86) इनसे पूछो, सातों आसमानों और अर्शे-अज़ीम (महान सिंहासन) का मालिक कौन है?
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 81
(87) ये ज़रूर कहेंगे, अल्लाह।79 कहो, फिर तुम डरते क्यों नहीं?80
79. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'लिल्लाह' इस्तेमाल हुआ है, यानी “ये सब चीज़ें भी अल्लाह की है।” हमने तर्जमे में सिर्फ़ उर्दू और हिन्दी ज़बान की ख़ूबसूरती के लिए यह अन्दाज़े-बयान अपनाया है।
80. यानी, फिर क्यों तुम्हें उससे बग़ावत करते और उसके सिवा दूसरों की बन्दगी करते हुए डर नहीं लगता? और तुम्हारे अन्दर यह डर क्यों नहीं पैदा होता कि आसमान और ज़मीन के बादशाह ने अगर कभी हमसे हिसाब लिया तो हम क्या जवाब देंगे?
قُلۡ مَنۢ بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُوَ يُجِيرُ وَلَا يُجَارُ عَلَيۡهِ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 82
(88) इनसे कहो, बताओ अगर तुम जानते हो कि हर चीज़ पर इक़तिदार81 किसका है? और कौन है वह जो पनाह देता है और उसके मुक़ाबले में कोई पनाह नहीं दे सकता।
81. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'म-लकूत’ इस्तेमाल हुआ है जिसमें 'मुल्क’ (बादशाही) और 'मिल्क’ (मालिकियत), दोनों मतलब शामिल हैं, और इस लफ़्ज़ म-लकूत में ये मानी शामिल हैं कि ये चीज़ें उसे मुकम्मल तौर पर हासिल हैं। इस तफ़सील के लिहाज़ से आयत में पेश किए गए सवाल का पूरा मतलब यह है कि “हर चीज़ पर मुकम्मल इक़तिदार किसका है और हर चीज़ पर पूरे-पूरे मालिकाना अधिकार किसको हासिल हैं?"
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ فَأَنَّىٰ تُسۡحَرُونَ ۝ 83
(89) ये ज़रूर कहेंगे कि यह बात तो अल्लाह ही के लिए है कहो, फिर कहाँ से तुमको धोखा82 लगता है?
82. अस्ल अरबी में अलफ़ाज़ हैं 'अन्ना तुस-हरून' जिनका लफ़्ज़ी तर्जमा है “तुमपर कहाँ से जादू किया गया है।” जादू की हक़ीक़त यह है कि वह एक चीज़ को उसकी अस्ल शक्ल और सही सूरत के ख़िलाफ़ बनाकर दिखाता है और देखनेवाले के ज़ेहन में यह ग़लत असर पैदा करता है कि उस चीज़ की असलियत वह है जो बनावटी तौर पर जादूगर पेश कर रहा है। इसलिए आयत में जो सवाल किया गया है उसका मतलब यह है कि किसने तुमपर यह जादू कर दिया है कि ये सब बातें जानने के बावुजूद हक़ीक़त तुम्हारी समझ में नहीं आती? किसका जादू तुमपर चल गया है कि जो मालिक नहीं हैं वे तुम्हें मालिक या उसके साझीदार नज़र आते हैं। और जिन्हें कोई इक़तिदार हासिल नहीं है वे अस्ल इक़तिदारवाले की तरह, बल्कि उससे भी बढ़कर तुमको बन्दगी के हक़दार महसूस होते हैं? किसने तुम्हारी आँखों पर पट्टी बाँध दी है कि जिस ख़ुदा के बारे में तुम ख़ुद मानते हो कि उसके मुक़ाबले में कोई पनाह देनेवाला नहीं है उससे ग़द्दारी और बेवफ़ाई करते हो और फिर भरोसा उनकी पनाह पर कर रहे हो जो उससे तुमको नहीं बचा सकते किसने तुमको इस धोखे में डाल दिया है कि जो हर चीज़ का मालिक है वह तुमसे कभी न पूछेगा कि तुमने मेरी चीज़ों को किस तरह इस्तेमाल किया, और जो सारी कायनात का बादशाह है वह कभी तुमसे इसकी पूछ-गछ न करेगा कि मेरी बादशाही में तुम अपनी बादशाहियाँ चलाने और दूसरों की बादशाहियाँ मानने के कैसे हक़दार हो गए? यह सवाल उस हालत में और भी ज़्यादा मानी अपने अन्दर रखता है जब यह बात सामने रहे कि मक्का के क़ुरैश के लोग नबी (सल्ल०) पर जादू का इलज़ाम रखते थे। इस तरह मानो सवाल के इन्हीं अलफ़ाज़ में यह बात भी कह दी गई कि “बेवक़ूफ़ो! जो शख़्स तुम्हें अस्ल हक़ीक़त (वह हक़ीक़त जिसे तुम्हारे अपने मानने के मुताबिक़ हक़ीक़त होना चाहिए) बताता है वह तो तुमको नज़र आता है जादूगर, और जो लोग तुम्हें रात-दिन हक़ीक़त के ख़िलाफ़ बातें मनवाते रहते हैं, यहाँ तक कि जिन्होंने तुमको साफ़-साफ़ अक़्ल और दलील के ख़िलाफ़, तजरिबे और मुशाहदे के ख़िलाफ़, तुम्हारी अपनी मानी हुई सच्चाइयों के ख़िलाफ़, सरासर झूठी और बेअस्ल बातों को माननेवाला बना दिया है, उनके बारे में कभी तुम्हें यह शक नहीं होता कि अस्ल जादूगर तो वे हैं।
بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 84
(90) जो हक़ बात है वह हम उनके सामने ले आए हैं, और कोई शक नहीं कि ये लोग झूठे हैं।83
83. यानी अपनी इस बात में झूठे कि अल्लाह के सिवा किसी और को भी ख़ुदाई (ख़ुदाई की सिफ़ात, इख़्तियारात और हक़, या उनमें से कोई हिस्सा) हासिल है। और अपनी इस बात में झूठे कि मरने के बाद ज़िन्दगी मुमकिन नहीं है। उनका झूठ उन बातों से साबित है जिन्हें वे ख़ुद मानते और तस्लीम करते हैं। एक तरफ़ यह मानना कि ज़मीन और आसमान का मालिक और कायनात की हर चीज़ पर अधिकार रखनेवाला अल्लाह है, और दूसरी तरफ़ यह कहना कि ख़ुदाई अकेले उसी की नहीं है, बल्कि दूसरों का भी (जो हर हाल में उसकी मिल्कियत में और उसके मातहत ही होंगे) उसमें कोई हिस्सा है, ये दोनों बातें साफ़ तौर पर एक-दूसरे से टकराती हैं। इसी तरह एक तरफ़ यह कहना कि हमको और इस अज़ीमुश्शान कायनात को ख़ुदा ने पैदा किया है, और दूसरी तरफ़ यह कहना कि ख़ुदा अपनी ही पैदा की हुई चीज़ों और लोगों को दोबारा पैदा नहीं कर सकता, अक़्ल के बिलकुल खिलाफ़ है। लिहाज़ा उनकी अपनी मानी हुई सच्चाइयों से यह साबित है कि शिर्क और आख़िरत का इनकार, दोनों ही झूठे अक़ीदे हैं, जो उन्होंने अपना रखे हैं।
مَا ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ مِن وَلَدٖ وَمَا كَانَ مَعَهُۥ مِنۡ إِلَٰهٍۚ إِذٗا لَّذَهَبَ كُلُّ إِلَٰهِۭ بِمَا خَلَقَ وَلَعَلَا بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 85
(91) अल्लाह ने किसी को अपनी औलाद नहीं बनाया है,84 और कोई दूसरा ख़ुदा उसके साथ नहीं है। अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी पैदा की हुई चीज़ों को लेकर अलग हो जाता, और फिर वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते।85 पाक है अल्लाह उन बातों से जो ये लोग बनाते हैं।
84. यहाँ किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि यह बात सिर्फ़ ईसाइयत को रद्द करने के लिए कही गई है। नहीं, अरब के मुशरिक लोग भी अपने माबूदों को ख़ुदा की औलाद बताते थे, और दुनिया के ज़्यादातर मुशरिक इस गुमराही में उनके हम-ख़याल रहे हैं। चूँकि ईसाइयों का ईसा (अलैहि०) को अल्लाह का बेटा मानने का अक़ीदा ज़्यादा मशहूर हो गया है, इसलिए क़ुरआन के कुछ बड़े आलिमों तक को यह ग़लतफहमी हो गई कि यह आयत इसी के रद्द में उतरी है। हालाँकि शुरू से बात का रुख़ मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की तरफ़ है और आख़िर तक सारी बातें उन्हीं को सामने रखकर की गई हैं। इस मौक़े पर यकायक ईसाइयों की तरफ़ बात का रुख़ फिर जाना बेमतलब है। अलबत्ता इसके साथ-साथ इसमें उन तमाम लोगों के अक़ीदों को भी रद्द किया गया है जो ख़ुदा से अपने माबूदों या पेशवाओं का रिश्ता जोड़ते हैं, चाहे वे ईसाई हों, अरब के मुशरिक हों या कोई और।
85. यानी यह किसी तरह मुमकिन न था कि कायनात की अलग-अलग ताक़तों और अलग-अलग हिस्सों के बनानेवाले और मालिक अलग-अलग ख़ुदा होते और फिर उनके बीच ऐसा भरपूर तआवुन (सहयोग) होता जैसा कि तुम इस दुनिया के पूरे निज़ाम (व्यवस्था) की अनगिनत ताक़तों और बेहद और बेहिसाब चीज़ों में, और अनगिनत तारों और सैयारों में पा रहे हो। निज़ाम की बाक़ायदगी और निज़ाम के हिस्सों में तालमेल इस बात की दलील है कि इक़तिदार और हुकूमत एक ही जगह पर और एक ही हस्ती के हाथ में है। अगर इक़तिदार और ताक़त कई लोगों के बीच बँटी हुई होती तो इन इक़तिदार और ताक़त रखनेवालों में इखि्तलाफ़ का सामने आना यक़ीनी तौर पर ज़रूरी था। और यह इख़्तिलाफ़ उनके बीच जंग और टकराव तक पहुँचे बिना न रह सकता था। यही बात क़ुरआन में एक दूसरी जगह इस तरह बयान हुई है कि “अगर ज़मीन और आसमान में अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा भी होते तो दोनों का निज़ाम बिगड़ जाता।"(सूरा-21 अम्बिया, आयत-22) और यही दलील क़ुरआन में एक दूसरी जगह इस तरह आई है कि “अगर अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी होते, जैसाकि ये लोग कहते हैं, तो ज़रूर वे अर्श के मालिक के मक़ाम पर पहुँचने की कोशिश करते।"( सूरा-17 बनी-इसराईल,आयत-42)। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-47; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-22)।
عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 86
(92) खुले और छिपे का जाननेवाला,86 वह बहुत बुलन्द है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।
86. इसमें एक हल्का-सा इशारा छिपा है उस ख़ास तरह के शिर्क की तरफ़ जिसने पहले शफ़ाअत (सिफ़ारिश) के मुशरिकोंवाले अक़ीदे से शुरुआत की, और फिर अल्लाह के अलावा दूसरों के लिए इल्मे-ग़ैब (जो कुछ हुआ है, जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होगा) को साबित करने की शक्ल इख़्तियार कर ली। यह आयत इस शिर्क के दोनों पहलुओं को रद्द कर देती है (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिए—85, 86; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-27)।
قُل رَّبِّ إِمَّا تُرِيَنِّي مَا يُوعَدُونَ ۝ 87
(93) ऐ नबी, दुआ करो कि “परवरदिगार, जिस अज़ाब की इनको धमकी दी जा रही है, वे अगर मेरी मौजूदगी में तू लाए,
رَبِّ فَلَا تَجۡعَلۡنِي فِي ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 88
(94) तो ऐ मेरे रब, मुझे इन ज़ालिम लोगों में शामिल न कीजियो।87”
87. इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह, उस अज़ाब में नबी (सल्ल०) के मुब्तला हो जाने का सचमुच कोई ख़तरा था, या यह कि अगर आप यह दुआ न माँगते तो इसमें मुब्तला हो जाते, बल्कि इस तरह का अन्दाज़े-बयान यह तसव्वुर दिलाने के लिए अपनाया गया है कि ख़ुदा का अज़ाब है ही डरने के लायक चीज़। वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी माँग की जाए, और अगर अल्लाह अपनी रहमत और अपने इल्म की वजह से उसके लाने में देर करे तो इत्मीनान के साथ शरारतों और नाफ़रमानियों का सिलसिला जारी रखा जाए। हक़ीक़त में वह ऐसी भयानक चीज़ है कि गुनाहगारों ही को नहीं, नेक और भले लोगों को भी अपनी सारी नेकियों के बावजूद उससे पनाह माँगनी चाहिए। इसके अलावा इसमें एक पहलू यह भी है कि इजतिमाई गुनाहों की सज़ा में जब अज़ाब की चक्की चलती है तो सिर्फ़ बुरे लोग ही उसमें नहीं पिसते, बल्कि उनके साथ-साथ भले लोग भी कई बार लपेटे में आ जाते हैं। लिहाज़ा एक गुमराह और बदकार समाज में रहनेवाले हर नेक और भले आदमी को हर वक़्त ख़ुदा की पनाह माँगते रहना चाहिए। कुछ पता नहीं कि कब किस सूरत में ज़ालिमों पर अल्लाह के क़हर का कोड़ा बरसना शुरू हो जाए और कौन उसकी चपेट में आ जाए।
وَإِنَّا عَلَىٰٓ أَن نُّرِيَكَ مَا نَعِدُهُمۡ لَقَٰدِرُونَ ۝ 89
(95) और हक़ीक़त यह है कि हम तुम्हारी आँखों के सामने ही वह चीज़ ले आने की पूरी क़ुदरत रखते हैं जिसकी धमकी हम उन्हें दे रहे हैं।
ٱدۡفَعۡ بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ ٱلسَّيِّئَةَۚ نَحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَصِفُونَ ۝ 90
(96) ऐ नबी, बुराई को उस तरीक़े से दूर करो जो बेहतरीन हो। जो कुछ बातें वे तुमपर बनाते हैं वे हमें ख़ूब मालूम हैं।
وَقُل رَّبِّ أَعُوذُ بِكَ مِنۡ هَمَزَٰتِ ٱلشَّيَٰطِينِ ۝ 91
(97) और दुआ करो कि “परवरदिगार, मैं शैतानों की उकसाहटों से तेरी पनाह माँगता हैँ,
وَأَعُوذُ بِكَ رَبِّ أَن يَحۡضُرُونِ ۝ 92
(98) बल्कि ऐ मेरे रब में तो इससे भी तेरी पनाह माँगता हूँ कि वे मेरे पास आएँ।"88
88. तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—71, 72; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—138, 150-153; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-39; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-48; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—122-124; सूरा-17 बनी-इसराईल हाशिए—58-63; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—36-41।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ رَبِّ ٱرۡجِعُونِ ۝ 93
(99) (ये लोग अपनी करनी से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब इनमें से किसी को मौत आ जाएगी तो कहना शुरू करेगा कि “ऐ मेरे रब, मुझे उसी दुनिया में वापस भेज दीजिए89 जिसे मैं छोड़ आया हूँ,
89. अस्ल अरबी में ‘रब्बिर-जिऊनि' के अलफ़ाज़़ है। अल्लाह तआला को मुख़ातब करके जमा (बहुवचन) लफ़्ज़ में दरख़ास्त करने की एक वजह तो यह हो सकती है कि वह एहतिराम के लिए हो, जैसाकि तमाम ज़बानों में तरीक़ा है। और दूसरी वजह कुछ लोगों ने यह भी बयान की है कि यह लफ़्ज़ दुआ को बार-बार दोहराने का तसव्वुर दिलाने के लिए है यानी वह “इरजिअनी इरजिअनी” (मुझे वापस भेज दे, मुझे वापस भेज दे) का मतलब अदा करता है। इसके अलावा क़ुरआन के कुछ आलिमों ने यह ख़याल भी ज़ाहिर किया है कि 'रब्बि' का ख़िताब अल्लाह तआला से है और ‘इरजिऊनि’ का ख़िताब उन फरिश्तों से जो उस मुजरिम रूह को गिरफ़्तार करके लिए जा रहे होंगे। यानी बात यूँ है, “हाय मेरे रब, मुझको वापस कर दो।"
لَعَلِّيٓ أَعۡمَلُ صَٰلِحٗا فِيمَا تَرَكۡتُۚ كَلَّآۚ إِنَّهَا كَلِمَةٌ هُوَ قَآئِلُهَاۖ وَمِن وَرَآئِهِم بَرۡزَخٌ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 94
(100) उम्मीद है कि अब मैं भले काम करूँगा”90—हरगिज़ नहीं,91 यह तो बस एक बात है जो वह बक रहा है।92 अब इन सब (मरनेवालों) के पीछे एक बरज़ख़ रोक बनी है दूसरी ज़िन्दगी के दिन तक।93
90. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर आई है कि मुजरिम लोग मौत की सरहद में दाख़िल होने के वक़्त से लेकर आख़िरत में जहन्नम में डाले जाने तक, बल्कि उसके बाद भी, बार-बार यही दरख़ास्ते करते रहेंगे कि हमें बस एक बार दुनिया में और भेज दिया जाए, अब हमारी तौबा है, अब हम कभी नाफ़रमानी नहीं करेंगे, अब हम सीधी राह चलेंगे (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयतें—27, 28; सूरा-7 आराफ़, आयत-53; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—44, 45; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—105-115; सूरा-26 शुअरा, आयत-102; सूरा-32 सजदा, आयतें—12-14; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-37; सूरा-39 ज़ुमर, आयतें—58, 59; सूरा-40 मोमिन, आयतें—10-12; सूरा-42 शूरा, आयत-44 (हाशियों समेत)।
91. यानी उसको वापस नहीं भेजा जाएगा। नए सिरे से अमल करने के लिए कोई दूसरा मौक़ा अब उसे नहीं दिया जा सकता। इसकी वजह यह है कि इस दुनिया में दोबारा इम्तिहान के लिए आदमी को अगर वापस भेजा जाए तो यक़ीनन दो सूरतों में से एक ही सूरत अपनानी होगी। या तो उसकी याददाश्त और शुऊर में ये सब मुशाहदे महफ़ूज़ हों जो मरने के बाद उसने किए। या उन सबको मिटाकर उसे फिर पहले जैसा ही ख़ाली ज़ेहन पैदा किया जाए, जैसा वह पहली ज़िन्दगी में था। पहली सूरत में इम्तिहान का मक़सद ही ख़त्म हो जाता है, क्योंकि इस दुनिया में तो आदमी का इम्तिहान है ही इस बात का कि वह हक़ीक़त को देखे बिना अपनी अक़्ल से हक़ को पहचानकर उसे मानता है या नहीं, और फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की आज़ादी रखते हुए इन दोनों राहों में से किस राह को चुनता है। अब अगर उसे हक़ीक़त भी दिखा दी जाए और गुनाह का अंजाम अमली तौर पर दिखलाकर नाफ़रमानी के चुनाव की राह भी उसपर बन्द कर दी जाए तो फिर इम्तिहान की जगह में उसे भेजना बेकार है। इसके बाद कौन ईमान न लाएगा और कौन फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ सकेगा। रही दूसरी सूरत, तो यह आज़माए हुए को फिर आज़माने जैसा है। जो शख़्स एक बार इसी इम्तिहान में नाकाम हो चुका है, उसे फिर ठीक बिलकुल वैसा ही एक और इम्तिहान देने के लिए भेजना बेकार है, क्योंकि वह फिर वही कुछ करेगा जैसा पहले कर चुका है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-288; सूरा-6 अनआम, हाशिए—6,139-140; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-26)।
92. यह तर्जमा भी हो सकता है कि “यह तो अब उसे कहना ही है।” मतलब यह कि उसकी यह बात ध्यान देने के क़ाबिल नहीं है। शामत आ जाने के बाद अब वह यह न कहेगा तो और क्या कहेगा। मगर यह सिर्फ़ कहने की बात है। पलटेगा तो फिर वही कुछ करेगा, जो करके आया है। लिहाज़ा इसे बकने दो। वापसी का दरवाज़ा इसपर नहीं खोला जा सकता।
93. ‘बरज़ख़’ फ़ारसी लफ़्ज़ ‘पर्दा’ की अरबी शक्ल है। आयत का मतलब यह है कि अब इनके और दुनिया के बीच एक रोक है जो इन्हें वापस जाने नहीं देगी, और वे फ़ैसले के दिन तक वहाँ ठहरे रहेंगे।
فَإِذَا نُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَلَآ أَنسَابَ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ وَلَا يَتَسَآءَلُونَ ۝ 95
(101) फिर ज्यों ही सूर फूँक दिया गया उनके बीच फिर कोई रिश्ता न रहेगा और न वे एक-दूसरे को पूछेंगे।94
94. इसका मतलब यह नहीं है कि बाप-बाप न रहेगा और बेटा-बेटा न रहेगा; बल्कि मतलब यह है कि उस वक़्त न बाप बेटे के काम आएगा, न बेटा बाप के। हर एक अपने हाल में कुछ इस तरह गिरफ़्तार होगा कि दूसरे को पूछने तक का होश न होगा, कहाँ यह कि उसके साथ कोई हमदर्दी या उसकी कोई मदद कर सके। क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस बात को बयान किया गया है कि “कोई जिगरी दोस्त अपने दोस्त को न पूछेगा।” (सूरा-70 मआरिज, आयत-10) और “उस दिन मुजरिम का जी चाहेगा कि अपनी औलाद और बीवी और भाई और अपनी हिमायत करनेवाले सबसे क़रीबी ख़ानदान और दुनिया भर के सब लोगों को फ़िदये में दे दे और अपने आपको अज़ाब से बचा लें।” (सूरा-70 मआरिज, आयतें—11-14)। और “वह दिन कि आदमी अपने भाई और माँ और और बीवी और औलाद से भागेगा। उस दिन हर शख़्स अपने हाल में ऐसा घिरा होगा कि उसे किसी का होश न रहेगा।” (सूरा-80 अ-ब-स, आयतें—34-37)
فَمَن ثَقُلَتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 96
(102) उस वक़्त जिनके पलड़े भारी होंगे95 वही कामयाबी पाएँगे।
95. यानी जिनके अच्छे आमाल वज़नी होंगे, जिनकी नेकियों का पलड़ा बुराइयों के पलड़े से भारी होगा।
وَمَنۡ خَفَّتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فِي جَهَنَّمَ خَٰلِدُونَ ۝ 97
(103) और जिनके पलड़े हलके होंगे, वही लोग होंगे जिन्होंने अपने आपको घाटे में डाल लिया।96 वे जहन्नम में हमेशा रहेंगे।
96. सूरा के शुरू में, और फिर चौथे रुकू (आयतें—51-77) में कामयाबी और घाटे का जो पैमाना पेश किया जा चुका है, उसे ज़ेहन में फिर ताजा कर लीजिए।
تَلۡفَحُ وُجُوهَهُمُ ٱلنَّارُ وَهُمۡ فِيهَا كَٰلِحُونَ ۝ 98
(104) आग उनके चेहरों की खाल चाट जाएगी और उनके जबड़े बाहर निकल आएँगे।97
97. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कालिहून' इस्तेमाल किया गया है ‘कालिह' अरबी ज़बान में उस चेहरे को कहते हैं जिसकी खाल अलग हो गई हो और दाँत बाहर आ गए हों, जैसे बकरे की भुनी हुई सिरी। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से किसी ने 'कालिह' का मतलब पूछा तो उन्होंने कहा, “क्या तुमने भुनी हुई सिरी नहीं देखी?”
أَلَمۡ تَكُنۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَكُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 99
(105)—"क्या तुम वही लोग नहीं हो कि मेरी आयतें तुम्हें सुनाई जाती थीं तो तुम उन्हें झुठलाते थे।”
قَالُواْ رَبَّنَا غَلَبَتۡ عَلَيۡنَا شِقۡوَتُنَا وَكُنَّا قَوۡمٗا ضَآلِّينَ ۝ 100
(106) वे कहेंगे, '"ऐ हमारे रब, हमारी बदनसीबी हमपर छा गई थी। हम सचमुच गुमराह लोग थे
رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا مِنۡهَا فَإِنۡ عُدۡنَا فَإِنَّا ظَٰلِمُونَ ۝ 101
(107) ऐ परवरदिगार, अब हमें यहाँ से निकाल दे, फिर हम ऐसा क़ुसूर करें तो ज़ालिम होंगे।”
قَالَ ٱخۡسَـُٔواْ فِيهَا وَلَا تُكَلِّمُونِ ۝ 102
(108) अल्लाह तआला जवाब देगा, “दूर हो मेरे सामने से, पड़े रहो इसी में और मुझसे बात न करो।98
98. यानी अपनी रिहाई के लिए कोई गुज़ारिश और फ़रियाद न करो। अपने बहाने और मजबूरियाँ पेश न करो। यह मतलब नहीं है कि हमेशा के लिए बिलकुल चुप हो जाओ। कुछ रिवायतों में आया है कि यह उनकी आख़िरी बात होगी जिसके बाद उनकी ज़बानें हमेशा के लिए बन्द होंगी, मगर यह बात बज़ाहिर क़ुरआन के ख़िलाफ़ पड़ती है; क्योंकि आगे ख़ुद क़ुरआन ही उनकी और अल्लाह की बातचीत नक़्ल कर रहा है। लिहाज़ा या तो ये रिवायतें ग़लत हैं या फिर इनका मतलब यह है कि उसके बाद वे रिहाई के लिए कोई गुज़ारिश और फ़रियाद न कर सकेंगे।
إِنَّهُۥ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡ عِبَادِي يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 103
(109) तुम वही लोग तो हो कि मेरे कुछ बन्दे जब कहते थे कि ऐ हमारे परवरदिगार, हम ईमान लाए, हमें माफ़ कर दे, हमपर रहम कर, तू सब रहम करनेवालों से अच्छा रहम करनेवाला है,
فَٱتَّخَذۡتُمُوهُمۡ سِخۡرِيًّا حَتَّىٰٓ أَنسَوۡكُمۡ ذِكۡرِي وَكُنتُم مِّنۡهُمۡ تَضۡحَكُونَ ۝ 104
(110) तो तुमने उनका मज़ाक़ बना लिया। यहाँ तक कि उनकी ज़िद ने तुम्हें यह भी भुला दिया कि मैं भी कोई हूँ, और तुम उनपर हँसते रहे।
إِنِّي جَزَيۡتُهُمُ ٱلۡيَوۡمَ بِمَا صَبَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 105
(111) आज उनके उस सब्र का मैंने यह फल दिया है कि वही कामयाब हैं।99
99. फिर इसी बात को दोहराया गया है कि कामयाबी का हक़दार कौन है और घाटे का हक़दार कौन।
قَٰلَ كَمۡ لَبِثۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ عَدَدَ سِنِينَ ۝ 106
(112) फिर अल्लाह तआला उनसे पूछेगा, “बताओ, ज़मीन में तुम कितने साल रहे?”
ثُمَّ إِنَّكُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ لَمَيِّتُونَ ۝ 107
(15) फिर उसके बाद तुमको ज़रूर मरना है,
ثُمَّ إِنَّكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ تُبۡعَثُونَ ۝ 108
(16) फिर क़ियामत के दिन तुम ज़रूर उठाए जाओगे।
أُوْلَٰٓئِكَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَهُمۡ لَهَا سَٰبِقُونَ ۝ 109
(61) वही भलाइयों की तरफ़ दौड़नेवाले और पहल करके उन्हें पा लेनेवाले हैं।
وَلَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ وَلَدَيۡنَا كِتَٰبٞ يَنطِقُ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 110
(62) हम किसी शख़्स पर उसकी क़ुदरत (सामर्थ) से ज़्यादा बोझ नहीं डालते,55 और हमारे पास एक किताब है, जो (हर एक का हाल) ठीक-ठीक बता देनेवाली है,56 और लोगों पर ज़ुल्म बहरहाल नहीं किया जाएगा।57
55. यहाँ जो बात चली आ रही है उसके पसमंज़र में यह जुमला अपने अन्दर बड़ा गहरे मानी रखता है जिसे अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिए। पिछली आयतों में बताया गया है कि भलाइयाँ लूटनेवाले और आगे बढ़कर उन्हें पा लेनेवाले अस्ल में कौन लोग हैं और उनकी ख़ूबियाँ क्या हैं। इस बात के बाद फ़ौरन ही यह कहना कि हम किसी को उसकी क़ुदरत से ज़्यादा की तकलीफ़ नहीं देते, यह मतलब रखता है कि यह सीरत, यह अख़लाक़ और यह किरदार कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो इनसान से परे की चीज़ हो। तुम ही जैसे हाड़-माँस के इनसान इस रास्ते पर चलकर दिखा रहे हैं। लिहाज़ा तुम यह नहीं कह सकते कि तुमसे किसी ऐसी चीज़ की माँग की जा रही है जो इनसान के बस से बाहर है। इनसान को तो क़ुदरत उस रवैये की भी हासिल है जिसपर तुम चल रहे हो, और उसकी भी हासिल है जिसपर तुम्हारी अपनी क़ौम के कुछ ईमानवाले चल रहे हैं। अब फ़ैसला जिस चीज़ पर है वह सिर्फ़ यह है कि इन दोनों इमकानी रवैयों में से कौन किसको चुनता है। इस चुनाव में ग़लती करके अगर आज तुम अपनी सारी मेहनतें और कोशिशें बुराइयाँ समेटने में लगा देते हो और भलाइयों से महरूम रह जाते हो तो कल अपनी इस बेवक़ूफी का ख़मियाज़ा भुगतने से तुमको यह झूठा बहाना न बचा सकेगा कि भलाइयों तक पहुँचने का रास्ता हमारे बस से बाहर था। उस वक़्त यह बहाना पेश करोगे तो तुमसे पूछा जाएगा कि अगर यह रास्ता इनसानी क़ुदरत से बाहर था तो तुम ही जैसे बहुत-से इनसान इसपर चलने में कैसे कामयाब हो गए।
56. किताब से मुराद है आमाल-नामा जो हर एक शख़्स का अलग-अलग तैयार हो रहा है, जिसमें उसकी एक-एक बात, एक-एक हरकत, यहाँ तक कि ख़यालात और इरादों तक की एक-एक हालत लिखी जा रही है। इसी के बारे में सूरा-18 कह्फ़ में कहा गया है कि “और आमाल-नामा सामने रख दिया जाएगा, फिर तुम देखोगे कि मुजरिम लोग उसमें लिखी बातों से डर रहे होंगे और वे कह रहे होंगे कि 'हाय हमारी बदनसीबी! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी या बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें दर्ज न हो।’ जो-जो कुछ उन्होंने किया था वे सब अपने सामने मौजूद पाएँगे, और तेरा रब किसी पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है। (आयत-49) कुछ लोगों ने यहाँ किताब से मुराद क़ुरआन लेकर इस आयत का मतलब ही ग़लत कर दिया है।
57. यानी न तो किसी के ज़िम्मे कोई ऐसा इलज़ाम थोपा जाएगा जिसका वह हक़ीक़ीत में क़ुसूरवार न हो, न किसी की कोई ऐसी नेकी मारी जाएगी जिसके बदले का वह सचमुच हक़दार हो, न किसी को बेवजह सज़ा दी जाएगी और न किसी को हक़ के मुताबिक़ मुनासिब इनाम से महरूम रखा जाएगा।
بَلۡ قُلُوبُهُمۡ فِي غَمۡرَةٖ مِّنۡ هَٰذَا وَلَهُمۡ أَعۡمَٰلٞ مِّن دُونِ ذَٰلِكَ هُمۡ لَهَا عَٰمِلُونَ ۝ 111
(63) मगर ये लोग इस मामले से बेख़बर हैं।58 और इनके आमाल भी उस तरीक़े से (जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है) अलग हैं। वे अपने ये करतूत किए चले जाएँगे,
58. यानी इस बात से कि जो कुछ वे कर रहे हैं, कह रहे हैं और सोच रहे हैं, यह सब कुछ कहीं लिखा जा रहा है और कभी इसका हिसाब होनेवाला है।
قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖ فَسۡـَٔلِ ٱلۡعَآدِّينَ ۝ 112
(113) वे कहेंगे, एक दिन या दिन का भी कुछ हिस्सा हम वहाँ ठहरे हैं,100 गिनती करनेवालों से पूछ लीजिए।
100. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-80।
قَٰلَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗاۖ لَّوۡ أَنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 113
(114) कहा जाएगा, “थोड़ी ही देर ठहरे हो ना! काश, तुमने यह उस वक़्त जाना होता।101
101. यानी दुनिया में हमारे नबी तुमको बताते रहे कि यह दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ़ इम्तिहान की कुछ गिनी-चुनी घड़ियाँ हैं, इन्हीं को अस्ल ज़िन्दगी और बस एक ही ज़िन्दगी न समझ बैठो। अस्ल ज़िन्दगी आख़िरत की ज़िन्दगी है, जहाँ तुम्हें हमेशा रहना है। यहाँ के वक़्ती फ़ायदों और थोड़े दिनों को लज़्ज़तों के लिए वह काम न करो जो आख़िरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में तुम्हारे मुस्तक़बिल को बरबाद कर देनेवाले हों। मगर उस वक़्त तुमने उनकी बात सुनकर न दी। तुम आख़िरत की इस दुनिया का इनकार करते रहे। तुमने मौत के बाद की ज़िन्दगी को एक मनगढ़न्त कहानी समझा। तुम अपने इस ख़याल पर अड़े रहे कि जीना-मरना जो कुछ है बस इसी दुनिया में है, और जो कुछ मज़े लूटने हैं यहीं लूट लेने चाहिएँ। अब पछताने से क्या होता है। होश आने का वक़्त तो वह था जब तुम दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी के मज़े पर यहाँ की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी के फ़ायदों को क़ुरबान कर रहे थे।
أَفَحَسِبۡتُمۡ أَنَّمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ عَبَثٗا وَأَنَّكُمۡ إِلَيۡنَا لَا تُرۡجَعُونَ ۝ 114
(115) क्या तुमने यह समझ रखा था कि हमने तुम्हें बेकार ही पैदा किया है102 और तुम्हें हमारी तरफ़ कभी पलटना ही नहीं है?"
102. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘अ-बसा’ इस्तेमाल किया गया है, जिसका एक मतलब तो है ‘खेल के तौर पर’। और दूसरा मतलब है ‘खेल के लिए’। पहली सूरत में आयत का मतलब यह होगा कि “क्या तुमने यह समझा था कि हमने तुम्हें यूँ ही तफ़रीह के तौर पर बना दिया है, तुम्हारे बनाने का कोई मक़सद नहीं है, सिर्फ़ एक बेमक़सद मख़लूक़ (सृष्टि) बनाकर फैला दी गई है।” दूसरी सूरत में मतलब यह होगा, “क्या तुम यह समझते थे कि तुम बस खेल-कूद और तफ़रीह और ऐसे ही फ़ुजूल कामों के लिए पैदा किए गए हों, जिनका कभी कोई नतीजा निकलनेवाला नहीं है।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡكَرِيمِ ۝ 115
(116) तो बुलंद और बाला है अल्लाह,103 हक़ीक़ी बादशाह, कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं, मालिक है बुज़ुर्ग अर्श का।
103. यानी बहुत बुलन्द और बरतर है इससे कि कोई बेकार काम उससे हो, और बहुत बुलन्द है इससे कि उसके बन्दे और उसकी मिल्कियत में रहनेवाले उसकी ख़ुदाई में उसके शरीक हों।
وَمَن يَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ لَا بُرۡهَٰنَ لَهُۥ بِهِۦ فَإِنَّمَا حِسَابُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 116
(117) और जो कोई अल्लाह के साथ किसी और माबूद को पुकारे, जिसके लिए उसके पास कोई दलील नहीं,104 तो उसका हिसाब उसके रब के पास है।105 ऐसे इनकार करनेवाले कभी कामयाबी नहीं पा सकते।106
104. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “जो कोई अल्लाह के साथ किसी और माबूद को पुकारे, उसके लिए अपने इस अमल के हक़ में कोई दलील नहीं है।"
105. यानी वह हिसाब-किताब और पूछ-गछ से बच नहीं सकता।
106. यह फिर उसी बात को दोहराया गया है कि अस्ल में कामयाबी पानेवाले कौन हैं और इससे महरूम रहनेवाले कौन।
وَقُل رَّبِّ ٱغۡفِرۡ وَٱرۡحَمۡ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 117
(118) ऐ नबी, कहो, “मेरे रब माफ़ कर और रहम कर, और तू सब रहम करनेवालों से अच्छा रहम करनेवाला है।"107
107. यहाँ इस दुआ के लतीफ़ मानी निगाह में रहें। अभी ऊपर यह ज़िक्र आ चुका है कि आख़िरत में अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) के दुश्मनों को माफ़ करने से यह कहकर इनकार कर देगा कि मेरे जो बन्दे यह दुआ माँगते थे, तुम उनका मज़ाक़ उड़ाते थे। उसके बाद अब नबी (सल्ल०) को (और उन्हीं के साथ सहाबा किराम को भी) यह हुक्म दिया जा रहा है कि तुम ठीक वही दुआ माँगो जिसका हम अभी ज़िक्र ऊपर कर आए हैं। हमारे साफ़ डराने के बावजूद अब अगर ये तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाएँ तो आख़िरत में अपने ख़िलाफ़ मानो ख़ुद ही एक मजबूत मुक़द्दमा तैयार कर देंगे।