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سُورَةُ فُصِّلَتۡ (حمٓ السجدۃ)

41. हा-मीम अस-सजदा

(मक्‍का में उतरीं, आयतें 54)

परिचय

नाम

सूरा का नाम दो शब्दों को जोड़कर बना है एक हा-मीम, दूसरा अस-सजदा। अर्थ यह है कि वह सूरा जिसकी शुरुआत हा-मीम से होती है और जिसमें एक जगह सजदे की आयत आई है।

उतरने का समय

विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसके उतरने का समय हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के ईमान लाने के बाद और हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने से पहले है। मशहूर ताबिई मुहम्मद-बिन-काब अल-क़रज़ी [रिवायत करते हैं कि] एक बार क़ुरैश के कुछ सरदार मस्जिदे-हराम (काबा) में महफ़िल जमाए बैठे थे और मस्जिद के एक दूसरे कोने में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल०) अकेले मौजूद थे। उत्बा-बिन-रबीआ ने क़ुरैश के सरदारों [के मश्‍वरे से नबी (सल्ल०) के पास जाकर] कहा, "भतीजे ! यह काम जो तुमने शुरू किया है, इससे अगर तुम्हारा उद्देश्य धन प्राप्त करना है, तो हम सब मिलकर तुमको इतना कुछ दिए देते हैं कि तुम हममें सबसे अधिक धनवान हो जाओ। अगर इससे अपनी बड़ाई चाहते हो तो हम तुम्हें अपना सरदार बनाए लेते हैं, अगर बादशाही चाहते हो तो हम तुम्हें अपना बादशाह बना लेते हैं, और अगर तुमपर कोई जिन्न आता है तो हम अपने ख़र्च पर तुम्हारा इलाज कराते हैं।" उतबा ये बातें करता रहा और नबी (सल्ल०) चुपचाप सुनते रहे। फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अबुल-वलीद! आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?" उसने कहा, "हाँ।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, अब मेरी सुनो।" इसके बाद आप (सल्ल०) ने 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' (अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है) पढ़कर इसी सूरा को पढ़ना शुरू किया और उतबा अपने दोनों हाथ पीछे ज़मीन पर टेके ध्यान से सुनता रहा। सजदे की आयत (38) पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने सजदा किया और फिर सिर उठाकर फ़रमाया, “ऐ अबुल-वलीद ! मेरा जवाब आपने सुन लिया। अब आप जानें और आप का काम।" उतबा उठकर क़ुरैश के सरदारों के पास वापस आया और उनसे कहा, "ख़ुदा की क़सम! मैंने ऐसा कलाम (वाणी) सुना कि कभी इससे पहले न सुना था। ख़ुदा की क़सम ! न यह शेर (कविता) है, न सेहर (जादू) है, न कहानत (ज्योतिष विद्या)। ऐ क़ुरैश के सरदारो ! मेरी बात मानो और उस आदमी को उसके हाल  पर छोड़ दो। मैं समझता हूँ कि यह वाणी कुछ रंग लाकर रहेगी।" क़ुरैश के सरदार उसकी यह बात सुनते ही बोल ठटे, “वलीद के बाप! आख़िर उसका जादू तुम पर भी चल गया।‘’ (इब्‍ने-हिशाम, भाग 1, पृ० 313-314)

विषय और वार्ता

उतबा की इस बातचीत के जवाब में जो व्याख्यान अल्लाह की ओर से उतरा, उसमें उन बेहूदा बातों की ओर सिरे से कोई ध्यान नहीं दिया गया जो उसने नबी (सल्ल.) से कही थीं, और केवल उस विरोध को वार्ता का विषय बनाया गया है जो क़ुरआन मजीद के पैग़ाम को नीचा दिखाने के लिए मक्का के विधर्मियों की ओर से उस समय अत्यन्त हठधर्मी और दुराचार के साथ किया जा रहा था। इस अंधे और बहरे विरोध के उत्तर में जो कुछ फ़रमाया गया है, उसका सारांश यह है-

(1) यह अल्लाह की उतारी हुई वाणी है और अरबी भाषा में है। अज्ञानी लोग इसके अंदर ज्ञान का कोई प्रकाश नहीं पाते, मगर समझ-बूझ रखनेवाले उस प्रकाश को देख भी रहे हैं और उससे फ़ायदा भी उठा रहे हैं।

(2) तुमने अगर अपने दिलों पर गिलाफ़ (आवरण) चढ़ा लिए हैं और अपने कान बहरे कर लिए हैं, तो नबी के सुपुर्द यह काम नहीं है कि [वह ज़बरदस्ती तुम्हें अपनी बात सुना और समझा दे। वह तो] सुननेवालों ही को सुना सकता है और समझनेवालों ही को समझा सकता है।

(3) तुम चाहे अपनी आँखें और कान बन्द कर लो और अपने दिलों पर परदा डाल लो, लेकिन सत्य यही है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही है, और तुम किसी दूसरे के बन्दे नहीं हो।

(4) तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह शिर्क (बहुदेववाद) और कुफ़्र (इंकार) की नीति तुम किसके साथ अपना रहे हो? उस ख़ुदा के साथ जो तुम्हारा और सम्पूर्ण सृष्टि का पैदा करनेवाला, मालिक और रोज़ी देनेवाला है। उसका साझीदार तुम उसकी तुच्छ मख़्लूक़ात (सृष्ट चीज़ों) को बनाते हो?

(5) अच्छा, नहीं मानते तो ख़बरदार हो जाओ कि तुमपर उसी तरह का अज़ाब टूट पड़ने को तैयार है जैसा आद और समूद जातियों पर आया था।

(6) बड़ा ही अभागा है वह इंसान जिसके साथ ऐसे जिन्नों और इंसानों में से शैतान लग जाएँ जो उसकी मूर्खताओं को उसके सामने सुन्दर बनाकर पेश करें। इस तरह के नादान लोग आज तो यहाँ एक-दूसरे को बढ़ावे-चढ़ावे दे रहे हैं, लेकिन क़ियामत के दिन इनमें से हर एक कहेगा कि जिन लोगों ने मुझे बहकाया था, वे मेरे हाथ लग जाएँ तो उन्हें पाँव तले रौंद डालूँ।

(7) यह क़ुरआन एक अटल किताब है। इसे तुम अपनी घटिया चालों और अपने झूठ के हथियारों से हरा नहीं सकते।

(8) तुम कहते हो कि यह क़ुरआन किसी अजमी (गैर-अरबी) भाषा में आना चाहिए था, लेकिन अगर अजमी भाषा में उसे भेजते तो तुम ही लोग कहते कि यह भी विचित्र उपहास है, अरब क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अजमी भाषा में वार्तालाप किया जा रहा है । इसका अर्थ यह है कि तुम्हें वास्तव में मार्गदर्शन अभीष्ट ही नहीं है।

(9) कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर वास्तव में सत्य यही सिद्ध हुआ कि यह क़ुरआन अल्लाह की ओर से है तो इसका इंकार करके तुम किस अंजाम का सामना करोगे।

(10) आज तुम नहीं मान रहे हो, मगर बहुत जल्द तुम अपनी आँखों से देख लोगे कि इस क़ुरआन की दावत (पैग़ाम) पूरी दुनिया पर छा गई है और तुम स्वयं उससे पराजित हो चुके हो।

विरोधियों को यह उत्तर देने के साथ उन समस्याओं की ओर भी ध्यान दिया गया है जो इस कठिन रुकावटों के माहौल में ईमानवालों के और ख़ुद नबी (सल्ल०) के सामने थीं। ईमानवालों को यह कहकर हिम्मत बंधाई गई कि तुम वास्तव में बेसहारा नहीं हो, बल्कि जो आदमी ईमान की राह पर मज़बूती से जम जाता है, अल्लाह के फ़रिश्ते उसपर उतरते हैं और दुनिया से लेकर आख़िरत तक उसका साथ देते हैं। नबी (सल्ल०) को बताया गया कि [दावत की राह में रुकावट बनी चट्टानें देखने में बड़ी कठोर नज़र आती हैं, किन्तु अच्छे चरित्र और सुशीलता का हथियार वह हथियार है जो उन्हें तोड़कर और पिघलाकर रख देगा। सब्र के साथ उससे काम लो, और जब कभी शैतान उत्तेजना पैदा करके किसी दूसरे हथियार से काम लेने पर उकसाए. तो अल्लाह से पनाह माँगो।

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سُورَةُ فُصِّلَتۡ (حمٓ السجدۃ)
41. हा-मीम अस-सजदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम
تَنزِيلٞ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 1
(2) यह रहमान और रहीम ख़ुदा की तरफ़ से उतारी हुई चीज़ है,
كِتَٰبٞ فُصِّلَتۡ ءَايَٰتُهُۥ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) एक ऐसी किताब जिसकी आयतें ख़ूब खोलकर बयान की गई हैं, अरबी ज़बान का क़ुरआन, उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं,
بَشِيرٗا وَنَذِيرٗا فَأَعۡرَضَ أَكۡثَرُهُمۡ فَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 3
(4) ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरा देनेवाला।1 मगर इन लोगों में से अकसर ने इससे मुँह फेरा है और वे सुनकर नहीं देते।
1. यह इस सूरा की मुख़्तसर तमहीद (भूमिका) है। आगे की तक़रीर पर ग़ौर करने से यह बात समझ में आ सकती है कि इस तमहीद में जो बातें कही गई हैं, वे बाद के मज़मून (विषय) से किस तरह मेल खाती हैं। पहली बात यह कही गई है कि यह कलाम ख़ुदा की तरफ़ से उतर रहा है। यानी तुम जब तक चाहो यह रट लगाते रहो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद गढ़ रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि इस कलाम का उतरना सारे जहानों के रब ख़ुदा की तरफ़ से है। इसके अलावा यह फ़रमाकर सुननेवालों को इस बात पर भी ख़बरदार किया गया है कि तुम अगर इस कलाम को सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते हो तो तुम्हारा यह ग़ुस्सा मुहम्मद (सल्ल०) के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ख़ुदा के ख़िलाफ़ है, अगर इसे रद्द करते हो तो एक इनसान की बात नहीं, बल्कि ख़ुदा की बात रद्द करते हो और अगर इससे बेरुख़ी बरतते हो तो एक इनसान से नहीं, बल्कि ख़ुदा से मुँह मोड़ते हो। दूसरी बात यह कही गई है कि इसका उतारनेवाला वह ख़ुदा है जो अपनी मख़लूक़ (पैदा किए हुओं) पर बेइन्तिहा मेहरबान ('रहमान' और 'रहीम') है। उतारनेवाले ख़ुदा की दूसरी सिफ़ात (गुणों) के बजाय रहमत (दयालुता) की सिफ़त का ज़िक्र इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करता है कि उसने अपनी रहीमी (दयालुता) के तक़ाज़े से यह कलाम उतारा है। इससे सुननेवालों को ख़बरदार किया गया है कि इस कलाम से अगर कोई बेरुख़ी बरतता है, या इसे रद्द करता है, या इसपर नाक-भौं सिकोड़ता है तो हक़ीक़त में अपने आपसे दुश्मनी करता है। यह तो एक बड़ी नेमत है जो ख़ुदा ने सरासर अपनी रहमत की बुनियाद पर इनसानों की रहनुमाई, भलाई और कामयाबी के लिए उतारी है। ख़ुदा अगर इनसानों से बेरुख़ी बरतता तो उन्हें अंधेरे में भटकने के लिए छोड़ देता और कुछ परवाह न करता कि ये किस गढ़े में जाकर गिरते हैं, लेकिन यह उसकी मेहरबानी और उसका करम है कि पैदा करने और रोज़ी देने के साथ उनकी ज़िन्दगी सँवारने के लिए इल्म की रौशनी दिखाना भी वह अपनी ज़िम्मेदारी समझता है। और इसी वजह से यह कलाम अपने एक बन्दे पर उतार रहा है। अब उस शख़्स से बढ़कर नाशुक्रा और आप अपना दुश्मन कौन होगा जो इस रहमत से फ़ायदा उठाने के बजाय उलटा उससे लड़ने के लिए दौड़े। तीसरी बात यह कही गई है कि इस किताब की आयतें खोलकर बयान की गई हैं। यानी इसमें कोई बात उलझी हुई और पेचीदा नहीं है कि कोई शख़्स इस बुनियाद पर इसे क़ुबूल करने से मजबूरी ज़ाहिर कर दे कि उसकी समझ में इस किताब की बातें आती ही नहीं हैं। इसमें तो साफ़-साफ़ बताया गया है कि हक़ क्या है और बातिल (असत्य) क्या, सही अक़ीदे कौन-से हैं और ग़लत अक़ीदे कौन-से, अच्छे अख़लाक़ क्या हैं और बुरे अख़लाक़ क्या, भलाई क्या है और बुराई क्या, किस तरीक़े की पैरवी में इनसान की भलाई है और किस तरीक़े को अपनाने में उसका अपना नुक़सान है। ऐसी साफ़ और खुली हुई हिदायत को अगर कोई शख़्स रद्द करता है या उसकी तरफ़ ध्यान नहीं देता तो वह कोई बहाना पेश नहीं कर सकता। उसके इस रवैये का साफ़ मतलब यह है कि वह ख़ुद ग़लत राह पर रहना चाहता है। चौथी बात यह कही गई है कि यह अरबी ज़बान का क़ुरआन है। मतलब यह है कि अगर यह क़ुरआन किसी ग़ैर-ज़बान में आता तो अरब के लोग यह बहाना पेश कर सकते थे कि हम उस ज़बान ही से अनजान हैं जिसमें ख़ुदा ने अपनी किताब भेजी है। लेकिन यह तो उनकी अपनी ज़बान में है। इसे न समझ सकने का बहाना वे नहीं बना सकते। (इस जगह पर आयत-44 भी सामने रहे जिसमें यही बात एक-दूसरे तरीक़े से बयान हुई है और यह शक व शुब्हा कि फिर अरब के बाहर के लोगों के लिए तो क़ुरआन की दावत को क़ुबूल न करने के लिए एक अच्छा बहाना मौजूद है, इससे पहले हम दूर कर चुके हैं। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-12 यूसुफ़, हाशिया-5) पाँचवीं बात यह कही गई है कि यह किताब उन लोगों के लिए है जो इल्म रखते हैं। यानी इससे फ़ायदा सिर्फ़ अक़्लमन्द लोग ही उठा सकते हैं। नादान लोगों के लिए यह इसी तरह बेफ़ायदा है जिस तरह एक क़ीमती हीरा उस शख़्स के लिए बेफ़ायदा है जो हीरे और पत्थर का फ़र्क़ न जानता हो। छठी बात यह कही गई है कि यह किताब ख़ुशख़बरी देनेवाली और डरा देनेवाली है। यानी ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ एक ख़याल, एक फ़ल्सफ़ा (दर्शन) और अदब (साहित्य) का एक बेहतरीन नमूना पेश करती हो, जिसे मानने या न मानने का कुछ हासिल न हो, बल्कि यह हाँके-पुकारे तमाम दुनिया को ख़बरदार कर रही है कि इसे मानने के नतीजे बहुत शानदार और न मानने के नतीजे बेहद भयानक हैं। ऐसी किताब को सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ ही सरसरी तौर पर नज़रअन्दाज़ कर सकता है।
وَقَالُواْ قُلُوبُنَا فِيٓ أَكِنَّةٖ مِّمَّا تَدۡعُونَآ إِلَيۡهِ وَفِيٓ ءَاذَانِنَا وَقۡرٞ وَمِنۢ بَيۡنِنَا وَبَيۡنِكَ حِجَابٞ فَٱعۡمَلۡ إِنَّنَا عَٰمِلُونَ ۝ 4
(5) कहते हैं, “जिस चीज़ की तरफ़ तू हमें बुला रहा है, उसके लिए हमारे दिलों पर गिलाफ़ चढ़े हुए हैं2, हमारे कान बहरे हो गए हैं और हमारे और तेरे बीच एक परदा आड़े आ गया है।3 तू अपना काम कर, हम अपना काम किए जाएँगे।"4
2. यानी उसके लिए हमारे दिलों तक पहुँचने का कोई रास्ता खुला हुआ नहीं है।
3. यानी इस दावत ने हमारे और तुम्हारे बीच जुदाई डाल दी है। इसने हमें और तुम्हें एक-दूसरे से काट दिया है। यह एक ऐसी रुकावट बन गई है जो हमको और तुमको इकट्ठे नहीं होने देती।
4. इसके दो मतलब हैं, एक यह कि हमको तुमसे और तुमको हमसे कोई सरोकार नहीं। दूसरा, यह कि तुम अपनी दावत देना नहीं छोड़ते तो अपना काम किए जाओ, हम भी तुम्हारी मुख़ालफ़त करना न छोड़ेंगे और जो कुछ तुम्हें नीचा दिखाने के लिए हमसे हो सकेगा, करेंगे।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَٱسۡتَقِيمُوٓاْ إِلَيۡهِ وَٱسۡتَغۡفِرُوهُۗ وَوَيۡلٞ لِّلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 5
(6) ऐ नबी! इनसे कहो, मैं तो एक इनसान हूँ तुम जैसा।5 मुझे वह्य के ज़रिए से बताया जाता है कि तुम्हारा ख़ुदा तो बस एक ही ख़ुदा है,6 इसलिए तुम सीधे उसी का रुख़ अपनाओ7 और उससे माफ़ी चाहो।8 तबाही है उन मुशरिकों के लिए
5. यानी मेरे बस में यह नहीं है कि तुम्हारे दिलों पर चढ़े हुए ग़िलाफ़ उतार दूँ, तुम्हारे बहरे कान खोल दूँ और उस परदे को फाड़ दूँ जो तुमने ख़ुद ही मेरे और अपने बीच डाल लिया है। मैं तो एक इनसान हूँ। उसी को समझा सकता हूँ जो समझने के लिए तैयार हो, उसी को सुना सकता हूँ जो सुनने के लिए तैयार हो और उसी से मिल सकता हूँ जो मिलने के लिए तैयार हो।
6. यानी तुम चाहे अपने दिलों पर ग़िलाफ़ चढ़ा लो और अपने कान बहरे कर लो, मगर हक़ीक़त यह है कि तुम्हारे बहुत से ख़ुदा नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ एक ही ख़ुदा है, जिसके तुम बन्दे हो और यह कोई फ़लसफ़ा (दर्शन) नहीं है जो मैंने अपनी सोच-समझ से बनाया हो, जिसके सही और ग़लत होने का एक जैसा इमकान हो, बल्कि यह हक़ीक़त मुझपर वह्य के ज़रिए से खोली गई है जिसमें ग़लती का ज़रा भी इमकान नहीं है।
7. यानी किसी और को ख़ुदा न बनाओ, किसी और की बन्दगी और पूजा न करो, किसी और को मदद के लिए न पुकारो, किसी और के आगे फ़रमाँबरदारी में सर न झुकाओ, किसी और के रस्मो-रिवाज और नियम-क़ानून को लाज़िमी तौर से पैरवी करने के लायक़ शरीअत न मानो।
8. माफ़ी उस बेवफ़ाई की जो अब तक तुम अपने ख़ुदा से करते रहे, उस शिर्क, कुफ़्र और नाफ़रमानी की जिसका जुर्म तुमसे अब तक होता रहा और उन गुनाहों की जो ख़ुदा को भुला देने के सबब तुमसे हुए।
ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 6
(7) जो ज़कात नहीं देते9 और आख़िरत का इनकार करते हैं।
9. यहाँ ज़कात का मतलब क़ुरआन में क्या है इस बारे में तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और उनके अहम शागिर्द इकरिमा और मुजाहिद (रह०) कहते हैं कि इस जगह ज़कात से मुराद मन की पाकी है जो तौहीद के अक़ीदे और अल्लाह की फ़रमाँबरदारी से हासिल होती है। इस तफ़सीर के लिहाज़ से आयत का तर्जमा यह होगा कि “तबाही है उन मुशरिकों के लिए जो पाकीज़गी नहीं अपनाते।” दूसरा गरोह जिसमें क़तादा, सुद्दी, हसन बसरी, ज़ह्हाक, मुक़ातिल और इब्ने-साइब (रह०) जैसे तफ़सीर लिखनेवाले आलिम शामिल हैं, इस लफ़्ज़ को यहाँ भी ‘माल की ज़कात' ही के मानी में लेता है। इस तफ़सीर के मुताबिक़ आयत का मतलब यह है कि “तबाही है उन लोगों के लिए जो शिर्क करके ख़ुदा का और ज़कात न देकर बन्दों का हक़ मारते हैं।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُمۡ أَجۡرٌ غَيۡرُ مَمۡنُونٖ ۝ 7
(8) रहे वे लोग जिन्होंने मान लिया और अच्छे काम किए, उनके लिए यक़ीनन ऐसा बदला है जिसका सिलसिला कभी टूटनेवाला नहीं है।10
10. अस्ल अरबी में “अज्‌रुन ग़ैरु ममनून” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनके दो मतलब और भी हैं। एक यह कि वह ऐसा अज्र (इनाम) होगा जिसमें कभी कमी न आएगी। दूसरा यह कि वह अज्र एहसान जता-जताकर नहीं दिया जाएगा, जैसे किसी कंजूस का दान होता है कि अगर वह जी कड़ा करके किसी को कुछ देता भी है तो बार-बार उसको जताता है।
۞قُلۡ أَئِنَّكُمۡ لَتَكۡفُرُونَ بِٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَرۡضَ فِي يَوۡمَيۡنِ وَتَجۡعَلُونَ لَهُۥٓ أَندَادٗاۚ ذَٰلِكَ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 8
(9) ऐ नबी! इनसे कहो, क्या तुम उस ख़ुदा के बारे में इनकार का रवैया अपनाते हो और दूसरों को उसके बराबर ठहराते हो जिसने ज़मीन को दो दिनों में बना दिया? वही तो सारे जहानवालों का रब है।
وَجَعَلَ فِيهَا رَوَٰسِيَ مِن فَوۡقِهَا وَبَٰرَكَ فِيهَا وَقَدَّرَ فِيهَآ أَقۡوَٰتَهَا فِيٓ أَرۡبَعَةِ أَيَّامٖ سَوَآءٗ لِّلسَّآئِلِينَ ۝ 9
(10) उसने (ज़मीन को वुजूद में लाने के बाद) ऊपर से उसपर पहाड़ जमा दिए और उसमें बरकतें रख दीं11 और उसके अन्दर सब ज़रूरतमन्दों के लिए हर एक की तलब और ज़रूरत के मुताबिक़ ठीक हिसाब से खाने का सामान जुटा दिया।12 ये सब काम चार दिन में हो गए।13
11. ज़मीन की बरकतों से मुराद वह बेहद और बेहिसाब सरो-सामान है जो करोड़ों साल से लगातार उसके पेट से निकलता चला आ रहा है और निहायत छोटे और बारीक कीड़ों से लेकर इनसान के सबसे ऊँचे तमद्दुन (रहन-सहन) तक की दिन-ब-दिन बढ़ती ज़रूरतें पूरी किए चला जा रहा है। इन बरकतों में सबसे बड़ी बरकतें हवा और पानी हैं जिनकी बदौलत ही ज़मीन पर पेड़-पौधों, जानवरों और फिर इनसानों की ज़िन्दगी मुमकिन हुई।
12. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “क़द्द-र फ़ीहा अक़वातहा फ़ी अर-ब-अति अय्याम, सवा-अल लिस्साइलीन।” इस जुमले की तफ़सीर के बारे में कई रायें हैं— क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिम इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “ज़मीन में उसकी रोज़ियाँ ज़रूरतमन्दों के लिए ठीक हिसाब से रख दी पूरे चार दिनों में।” यानी कम या ज़्यादा नहीं, बल्कि पूरे चार दिनों में। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा और सुद्दी (रह०) इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “ज़मीन में उसकी रोज़ियाँ चार दिनों में रख दीं। पूछनेवालों का जवाब पूरा हुआ।” यानी जो कोई यह पूछे कि यह काम कितने दिनों में हुआ, उसका पूरा जवाब यह है कि चार दिनों में हो गया। इब्ने-ज़ैद (रह०) इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “ज़मीन में उसकी रोज़ियाँ ज़रूरतमन्दों के लिए चार दिनों के अन्दर रख दीं ठीक अन्दाज़े (हिसाब) से, हर एक की तलब और ज़रूरत के मुताबिक़।" जहाँ तक ज़बान के क़ायदों (व्याकरण) का ताल्लुक़ है, आयत के अलफ़ाज़ में ये तीनों मतलब लेने की गुंजाइश है। लेकिन हमारे नज़दीक पहले दो मतलबों में कोई ख़ूबी नहीं है। मौक़ा-महल के एतिबार से देखिए तो यह बात आख़िर क्या अहमियत रखती है कि यह काम एक घण्टा कम चार दिन या एक घण्टा ज़्यादा चार दिन में नहीं, बल्कि पूरे चार दिनों में हुआ। अल्लाह तआला की क़ुदरत, उसके रब होने की सिफ़त और उसकी हिकमत के कमाल (परिपूर्णता) के बयान में कौन-सी कसर रह जाती है जिसे पूरा करने के लिए इस तरह साफ़-साफ़ बयान करने की ज़रूरत हो? इसी तरह यह तफ़सीर भी बड़ी कमज़ोर तफ़सीर है कि “पूछनेवालों का जवाब पूरा हुआ।” आयत से पहले और बाद की बात में किसी जगह भी कोई इशारा यह नहीं बताता कि उस वक़्त किसी पूछनेवाले ने यह पूछा था कि ये सारे काम कितने दिनों में हुए और यह आयत इसके जवाब में उतरी। इन्हीं वजहों से हमने तर्जमे में तीसरे मतलब को अपनाया है। हमारे नज़दीक आयत का सही मतलब यह है कि ज़मीन में दुनिया के शुरू होने से लेकर क़ियामत तक जिस-जिस तरह की जितनी चीज़ें और जानदार भी अल्लाह तआला पैदा करनेवाला था, हर एक की माँग और ज़रूरत के ठीक मुताबिक़ ग़िज़ा (खाने) का पूरा सामान हिसाब लगाकर उसने ज़मीन के अन्दर रख दिया। पेड़-पौधों की अनगिनत क़िस्में ख़ुश्की (थल) और तरी (जल) में पाई जाती हैं और उनमें से हर एक की ग़िज़ाई (भोजन-सम्बन्धी) ज़रूरतें दूसरी क़िस्म से अलग हैं। जानदारों की अनगिनत जातियाँ हवा, ख़ुश्क़ी और तरी में अल्लाह तआला ने पैदा की हैं और हर जाति एक अलग तरह की ग़िज़ा (भोजन) माँगती है। फिर इन सबसे अलग, एक और जानदार इनसान है, जिसको सिर्फ़ जिस्म की परवरिश ही के लिए नहीं, बल्कि अपने ज़ौक़ (रुचि) को पूरा करने के लिए भी तरह-तरह के खाने दरकार हैं। अल्लाह के सिवा कौन जान सकता था कि इस धरती पर ज़िन्दगी की शुरुआत होने से लेकर उसके ख़ातिमे तक किस-किस तरह के जानदारों की कितनी इकाइयाँ कहाँ-कहाँ और कब-कब वुजूद में आएँगी और उनको पालने के लिए कैसी और कितनी ग़िज़ा दरकार होगी। ख़ुदा ने जानदारों को पैदा करने की स्कीम में जिस तरह उसने खाने-पीने की चीज़ें तलब करनेवाले इन जानदारों के पैदा करने का मंसूबा बनाया था, उसी तरह उसने उनकी तलब को पूरा करने के लिए खाने (ख़ुराक) का भी पूरा इन्तिज़ाम कर दिया। मौजूदा ज़माने में जिन लोगों ने मार्क्स की कम्यूनिस्ट सोच (साम्यवादी विचारधारा) का इस्लामी एडीशन “क़ुरआनी निज़ामे-रुबूबियत” के नाम से निकाला है वह “सवाअल-लिस्साइलीन” का तर्जमा “सब ज़रूरतमन्दों के लिए बराबर” करते हैं और इसपर दलीलों की इमारत यूँ उठाते हैं कि अल्लाह ने ज़मीन में सब लोगों के लिए बराबर ख़ुराक रखी है, लिहाज़ा आयत के मंशा को पूरा करने के लिए हुकूमत का एक ऐसा निज़ाम (व्यवस्था) दरकार है जो सबको खाने का बराबर राशन दे, क्योंकि निजी मिलकियत के निज़ाम में वह बराबरी क़ायम नहीं हो सकती, जिसका यह 'क़ुरआनी क़ानून' तक़ाज़ा कर रहा है। लेकिन ये लोग क़ुरआन से अपने नज़रियों का काम लेने के जोश में यह बात भूल जाते हैं कि ज़रूरतमन्द, जिनका इस आयत में ज़िक्र किया गया है, सिर्फ़ इनसान ही नहीं हैं, बल्कि अलग-अलग तरह के वे सब जानदार हैं जिन्हें ज़िन्दा रहने के लिए ख़ुराक की ज़रूरत होती है। क्या सचमुच उन सबके बीच, या एक-एक तरह के जानदार की तमाम इकाइयों के बीच ख़ुदा ने परवरिश के सामान में बराबरी रखी है? क्या क़ुदरत के इस पूरे निज़ाम में कहीं आपको ख़ुराक के राशन का बँटवारे का इन्तिज़ाम काम करता दिखाई देता है? अगर हक़ीक़त यह नहीं है तो इसका मतलब यह है कि पेड़-पौधों और जानवरों की दुनिया में, जहाँ इनसानी हुकूमत नहीं, बल्कि अल्लाह तआला की हुकूमत सीधे तौर पर ख़ुद ही रोज़ी बाँटने का काम कर रही है, अल्लाह मियाँ ख़ुद अपने इस 'क़ुरआनी क़ानून' की ख़िलाफ़वर्ज़ी....बल्कि अल्लाह की पनाह, बेइनसाफ़ी-फ़रमा रहे हैं! फिर वे यह बात भी भूल जाते हैं कि 'ज़रूरतमन्दों' में वे जानवर भी शामिल हैं जिन्हें इनसान पालता है और जिनकी ख़ुराक का इन्तिज़ाम इनसान ही के ज़िम्मे है। मसलन भेड़, बकरी, गाय, भैंस, घोड़े, गधे, टट्टू और ऊँट वग़ैरा। अगर क़ुरआनी क़ानून यही है कि सब ज़रूरतमन्दों को बराबर ख़ुराक दी जाए और इसी क़ानून को लागू करने के लिए 'निज़ामे-रुबूबियत' यानी सबकी ज़रूरतें पूरी करनेवाला निज़ाम चलानेवाली एक हुकूमत दरकार है, तो क्या वह हुकूमत इनसान और इन जानवरों के बीच भी मआशी (आर्थिक) बराबरी क़ायम करेगी?
13. इस जगह की तफ़सीर में तफ़सीर लिखनेवालों को आम तौर से यह मुश्किल पेश आई है कि अगर ज़मीन के बनाने के दो दिन और उसमें पहाड़ जमाने और बरकतें रखने और ख़ुराक का सामान पैदा करने के चार दिन मान लिए जाएँ, तो आगे आसमानों की पैदाइश दो दिनों में होने का जो ज़िक्र किया गया है, उसके लिहाज़ से और दो दिन मिलाकर आठ दिन बन जाते हैं, हालाँकि अल्लाह तआला ने कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान किया है कि ज़मीन और आसमान के बनाने में पूरे छः (6) दिन लगे हैं। (मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-54; सूरा-10 यूनुस, आयत-3; सूरा-11 हूद, आयत-7; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-59) । इसी वजह से लगभग सभी तफ़सीर लिखनेवाले यह कहते हैं कि ये चार दिन ज़मीन के बनाने के दो दिन शामिल करके हैं, यानी दो दिन ज़मीन के बनाने के और दो दिन ज़मीन के अन्दर उन बाक़ी चीज़ों की पैदाइश के जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है। इस तरह कुल चार दिनों में ज़मीन अपने सरो-सामान के साथ मुकम्मल हो गई। लेकिन यह बात क़ुरआन मजीद के ज़ाहिर अलफ़ाज़ के भी ख़िलाफ़ है और हक़ीक़त में वह मुश्किल भी सिर्फ़ ख़याली मुश्किल है, जिससे बचने के लिए यह मतलब बयान करने की ज़रूरत महसूस की गई है। ज़मीन की पैदाइश के दो दिन अस्ल में उन दो दिनों से अलग नहीं हैं, जिनमें कुल मिलाकर पूरी कायनात बनी है। आगे की आयतों पर ग़ौर कीजिए। उनमें ज़मीन और आसमान दोनों के बनने का एक साथ ज़िक्र किया गया है और फिर यह बताया गया है कि अल्लाह ने दो दिनों में सात आसमान बना दिए। इन सात आसमानों से पूरी कायनात मुराद है, जिसका एक हिस्सा हमारी यह ज़मीन भी है। फिर जब कायनात के दूसरे अनगिनत तारों और सय्यारों (ग्रहों) की तरह यह ज़मीन भी उन दो दिनों के अन्दर एक अलग गोले की शक्ल ले चुकी तो अल्लाह तआला ने इसको जानदारों के लिए तैयार करना शुरू किया और चार दिनों के अन्दर इसमें वह सब कुछ सरो-सामान पैदा कर दिया जिसका ऊपर की आयत में ज़िक्र किया गया है। दूसरे तारों और सय्यारों (ग्रहों) में इन चार दिनों के अन्दर क्या कुछ तरक़्क़ी के काम किए गए, उनका ज़िक्र अल्लाह तआला ने नहीं किया है, क्योंकि क़ुरआन उतरने के दौर का इनसान तो दूर की बात, इस ज़माने का आदमी भी उन मालूमात को पचा पाने की ताक़त नहीं रखता।
ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ وَهِيَ دُخَانٞ فَقَالَ لَهَا وَلِلۡأَرۡضِ ٱئۡتِيَا طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا قَالَتَآ أَتَيۡنَا طَآئِعِينَ ۝ 10
(11) फिर उसने आसमान की तरफ़ ध्यान दिया जो उस वक़्त सिर्फ़ धुआँ14 था। उसने आसमान और ज़मीन से कहा, “वुजूद में आ जाओ, चाहे तुम चाहो, या न चाहो।" दोनों ने कहा, “हम आ गए फ़रमाबरदारों की तरह।”15
14. इस जगह पर तीन बातों को वाज़ेह करना ज़रूरी है— अव्वल यह कि आसमान से मुराद यहाँ पूरी कायनात है, जैसा कि बाद के जुमलों से ज़ाहिर है। दूसरे अलफ़ाज़ में आसमान की तरफ़ ध्यान देने का मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने कायनात बनाने की तरफ़ ध्यान दिया। दूसरी यह कि धुएँ से मुराद माद्दे (पदार्थ) की वह इबतिदाई हालत है जिसमें वह कायनात की सूरतगरी से पहले एक बेशक्ल बिखरे हुए हिस्सोंवाले ग़ुबार की तरह फ़ज़ा (वातावरण) में फैला हुआ था। मौजूदा ज़माने के साइंसदाँ इसी चीज़ को बादल (Nebula) कहते हैं और कायनात की इबतिदा के बारे में उनकी सोच भी यही है कि पैदाइश से पहले वह माद्दा (पदार्थ) जिससे कायनात (सृष्टि) बनी है, इसी धुएँ या बादल की शक्ल में बिखरा हुआ था। तीसरी यह कि “फिर उसने आसमान की तरफ़ ध्यान दिया” से यह समझना सही नहीं है कि पहले उसने ज़मीन बनाई, फिर उसमें पहाड़ जमाने, बरकतें रखने और खाने-पीने का सामान जुटाने का काम किया, फिर इससे निबटने के बाद उसने कायनात को पैदा करने की तरफ़ ध्यान दिया। इस ग़लतफ़हमी को बाद का यह जुमला दूर कर देता है कि “उसने आसमान और ज़मीन से कहा, वुजूद में आ जाओ और उन्होंने कहा, हम आ गए फ़रमाँबरदारों की तरह।” इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि इस आयत और बाद की आयतों में ज़िक्र उस वक़्त का हो रहा है जब न ज़मीन थी, न आसमान था, बल्कि कायनात के बनाने की शुरुआत की जा रही थी। सिर्फ़ लफ़्ज़ 'सुम-म' (फिर) को इस बात की दलील नहीं बनाया जा सकता कि ज़मीन की पैदाइश आसमान से पहले हो चुकी थी। क़ुरआन मजीद में इस बात की कई मिसालें मौजूद हैं कि 'सुम-म' का लफ़्ज़ लाज़िमन ज़मानी तरतीब के लिए नहीं होता, बल्कि बयान के सिलसिले (क्रम) के तौर पर भी इसे इस्तेमाल किया जाता है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-12) पुराने ज़माने के तफ़सीर लिखनेवालों में यह बहस एक लम्बी मुद्दत तक चलती रही है कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ ज़मीन पहले बनी या आसमान। एक गरोह इस आयत और सूरा-2 बक़रा की आयत-29 से यह दलील निकालता है कि ज़मीन पहले बनी है। दूसरा गरोह सूरा-79 नाज़िआत की आयतों (27 से 33) से यह दलील लाता है कि आसमान पहले बना है, क्योंकि वहाँ इस बात को खोलकर बयान किया गया है कि ज़मीन की पैदाइश आसमान के बाद हुई है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि क़ुरआन मजीद में किसी जगह भी कायनात के बनाए जाने का ज़िक्र फ़िज़िक्स (भौतिकी) या ऐसट्रोनोमी (Astronomy खगोल विज्ञान) सिखाने के लिए नहीं किया गया है, बल्कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के अक़ीदों पर ईमान लाने की दावत देते हुए अनगिनत दूसरी निशानियों की तरह ज़मीन और आसमान की पैदाइश को भी सोच-विचार के लिए पेश किया गया है। इस ग़रज़ के लिए यह बात सिरे से ग़ैर-ज़रूरी थी कि आसमान और ज़मीन की ज़माने के लिहाज़ से तरतीब बयान की जाती और यह बताया जाता कि ज़मीन पहले बनी या आसमान। दोनों में से चाहे यह पहले बनी हो या वह, बहरहाल दोनों ही अल्लाह के अकेले माबूद (उपास्य) होने पर गवाह हैं और इस बात पर गवाह हैं कि उनके पैदा करनेवाले ने यह सारा कारख़ाना किसी खिलंदड़े के खिलौने के तौर पर नहीं बनाया है। इसी लिए क़ुरआन किसी जगह ज़मीन की पैदाइश का ज़िक्र पहले करता है और किसी जगह आसमान की पैदाइश का। जहाँ इनसान को ख़ुदा की नेमतों का एहसास दिलाना मक़सद होता है वहाँ आम तौर से वह ज़मीन का ज़िक्र पहले करता है, क्योंकि वह इनसान से ज़्यादा क़रीब है और जहाँ ख़ुदा की बड़ाई (महानता) और उसकी क़ुदरत के कमाल (चरम) का तसव्वुर दिलाना मक़सद होता है, वहाँ आम तौर से वह आसमानों का ज़िक्र पहले करता है, क्योंकि आसमानी हलचल का मंज़र हमेशा से इनसान के दिल में डर पैदा करता रहा है।
15. इन अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला ने पैदा करने के अपने तरीक़े की कैफ़ियत ऐसे अन्दाज़ से बयान की है जिससे ख़ुदा की बनाई हुई चीज़ और इनसान की बनाई हुई चीज़ का फ़र्क बिलकुल वाज़ेह हो जाता है। इनसान जब कोई चीज़ बनाना चाहता है तो पहले उसका नक़्शा अपने ज़ेहन में जमाता है, फिर उसके लिए दरकार सामान इकट्ठा करता है, फिर उस सामान को अपने नक़्शे के मुताबिक़ शक्ल देने के लिए लगातार मेहनत और कोशिश करता है और इस कोशिश के दौरान में वह सामान, जिसे वह अपने ज़ेहनी नक़्शे पर ढालना चाहता है, लगातार उसके काम में रुकावट डालता रहता है, यहाँ तक कि कभी उसका रुकावट डालना कामयाब हो जाता है और चीज़ पसन्द के नक़्शे के मुताबिक़ ठीक नहीं बनती और कभी आदमी की कोशिश हावी हो जाती है और वह उसे अपनी मनपसन्द शक्ल देने में कामयाब हो जाता है। मिसाल के तौर पर एक दर्ज़ी कमीज़ बनाना चाहता है। उसके लिए पहले वह क़मीज़ के डिज़ाइन का तसव्वुर अपने ज़ेहन में लाता है, फिर कपड़ा जुटाकर उसे अपनी कमीज़ के तसव्वुर के मुताबिक़ तराशने और सीने की कोशिश करता है और इस कोशिश के दौरान में उसे बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है कि दर्ज़ी के ख़याल के मुताबिक़ ढलने के लिए आसानी से तैयार नहीं होता, यहाँ तक कि कभी उस कपड़े से सही कमीज़ नहीं बन पाती और कभी दर्ज़ी की कोशिश हावी हो जाती है और वह कपड़े को अपने ख़याल और इरादे के मुताबिक़ शक्ल दे देता है। अब अल्लाह तआला का बनाने का ढंग देखिए। कायनात का माद्दा (पदार्थ) धुएँ की शक्ल में फैला हुआ था। अल्लाह ने चाहा कि उसे वह शक्ल दे जो अब कायनात की है। इस ग़रज़ के लिए उसे किसी इनसान कारीगर की तरह बैठकर ज़मीन, चाँद, सूरज और दूसरे तारे और सय्यारे (ग्रह) गढ़ने नहीं पड़े, बल्कि उसने कायनात के उस नक़्शे को जो उसके ज़ेहन में था बस यह हुक्म दे दिया कि वे वुजूद में आ जाएँ, यानी धुएँ की तरह फैला हुआ माद्दा (पदार्थ) उन कहकशानों (आकाशगंगाओं), तारों और सय्यारों की शक्ल में ढल जाए, जिन्हें वह पैदा करना चाहता था। इस माद्दे (पदार्थ) में यह ताक़त न थी कि वह अल्लाह के हुक्म का मुक़ाबला करता। अल्लाह को उसे कायनात की शक्ल में ढालने के लिए कोई मेहनत और कोशिश नहीं करनी पड़ी। उधर हुक्म हुआ और इधर वह माद्दा सिकुड़ और सिमटकर फ़रमाँबरदारों की तरह अपने मालिक के नक़्शे पर ढलता चला गया, यहाँ तक कि दो दिनों में ज़मीन समेत सारी कायनात बनकर तैयार हो गई। अल्लाह तआला के पैदा करने के तरीक़े की इसी कैफ़ियत को क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर इस तरह बयान किया गया है कि अल्लाह जब किसी काम का फ़ैसला करता है तो बस उसे हुक्म देता है कि “हो जा” और वह हो जाता है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-115; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—44 से 53; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—35, 36; सूरा-19 मरयम, हाशिया-22; सूरा-36 या-सीन, आयत-82; सूरा-40 मोमिन, आयत-68)
فَقَضَىٰهُنَّ سَبۡعَ سَمَٰوَاتٖ فِي يَوۡمَيۡنِ وَأَوۡحَىٰ فِي كُلِّ سَمَآءٍ أَمۡرَهَاۚ وَزَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِمَصَٰبِيحَ وَحِفۡظٗاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 11
(12) तब उसने दो दिन के अन्दर सात आसमान बना दिए और हर आसमान में उसका क़ानून वह्य कर दिया और दुनिया के आसमान को हमने चराग़ों से सजाया और उसे ख़ूब महफ़ूज़ कर दिया16 यह सब कुछ एक ज़बरदस्त इल्म रखनेवाली हस्ती की स्कीम है।
16. इन आयतों को समझने के लिए तफ़हीमुल-क़ुरआन के नीचे लिखे मक़ामात को पढ़ना फ़ायदेमन्द होगा। सूरा-2 बक़रा, हाशिया-34; सूरा-13 रअद, हाशिया-2; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8 से 12; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—34, 35; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-15; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-37; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—5, 6)
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَقُلۡ أَنذَرۡتُكُمۡ صَٰعِقَةٗ مِّثۡلَ صَٰعِقَةِ عَادٖ وَثَمُودَ ۝ 12
(13) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं17 तो इनसे कह दो कि मैं तुमको के एक अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब से डराता हूँ जैसा आद और समूद पर टूट पड़ा था।
17. यानी इस बात को नहीं मानते कि ख़ुदा और माबूद (उपास्य) बस वही एक है जिसने यह ज़मीन और सारी कायनात बनाई है और अपनी इस जहालत पर अड़े रहते हैं कि उस ख़ुदा के साथ दूसरों को भी, जो हक़ीक़त में उसके पैदा किए हुए और उसकी मिलकियत हैं, माबूद बनाएँगे और उसकी हस्ती और सिफ़ात (गुणों) और हक़ों और इख़्तियारात में उन्हें उसका शरीक ठहराएँगे।
إِذۡ جَآءَتۡهُمُ ٱلرُّسُلُ مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۖ قَالُواْ لَوۡ شَآءَ رَبُّنَا لَأَنزَلَ مَلَٰٓئِكَةٗ فَإِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 13
(14) जब ख़ुदा के रसूल उनके पास आगे और पीछे, हर तरफ़ से आए18 और उन्हें समझाया कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो तो उन्होंने कहा, “हमारा रब चाहता तो फ़रिश्ते भेजता, लिहाज़ा हम उस बात को नहीं मानते, जिसके लिए तुम भेजे गए हो।"19
18. इस जुमले के कई मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उनके पास रसूल के बाद रसूल आते रहे। दूसरा यह कि रसूलों ने हर पहलू से उन्हें समझाने की कोशिश की और उनको सीधी राह पर लाने के लिए कोई तदबीर अपनाने में कोई कमी न की। तीसरा यह कि उनके पास उनके अपने देश में भी रसूल आए और आस-पास के देशों में भी आते रहे।
19. यानी अगर अल्लाह को हमारा यह मज़हब पसन्द न होता और वह इससे रोकने के लिए हमारे पास कोई रसूल भेजना चाहता तो फ़रिश्तों को भेजता। तुम चूँकि फ़रिश्ते नहीं हो, बल्कि हम जैसे इनसान ही हो इसलिए हम यह नहीं मानते कि तुमको ख़ुदा ने भेजा है और इस मक़सद के लिए भेजा है कि हम अपना मज़हब छोड़कर वह दीन अपना लें जिसे तुम पेश कर रहे हो। हक़ के इनकारियों का यह कहना कि जिस चीज़ के लिए तुम “भेजे गए हो” उसे हम नहीं मानते, सिर्फ़ तंज़ (व्यंग्य) के तौर पर था। इसका यह मतलब नहीं है कि वे उनको ख़ुदा का भेजा हुआ मानते थे और फिर उनकी बात मानने से इनकार करते थे, बल्कि यह उसी तरह का तंज़ (व्यंग्य) भरा अन्दाज़े-बयान है जैसे फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में अपने दरबारियों से कहा था कि “यह रसूल साहब जो तुम्हारे पास भेजे गए हैं बिलकुल ही पागल मालूम होते हैं।” (सूरा-26 शुअरा, आयत-27)। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-11)
فَأَمَّا عَادٞ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَقَالُواْ مَنۡ أَشَدُّ مِنَّا قُوَّةًۖ أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَهُمۡ هُوَ أَشَدُّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗۖ وَكَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 14
(15) आद का हाल यह था कि वे ज़मीन में किसी हक़ के बिना बड़े बन बैठे और कहने लगे, “कौन है हमसे ज़्यादा ज़ोर रखनेवाला?” उनको यह न सूझा कि जिस ख़ुदा ने उनको पैदा किया है वह उनसे ज़्यादा ज़ोर रखनेवाला है? वे हमारी आयतों का इनकार ही करते रहे।
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا صَرۡصَرٗا فِيٓ أَيَّامٖ نَّحِسَاتٖ لِّنُذِيقَهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَخۡزَىٰۖ وَهُمۡ لَا يُنصَرُونَ ۝ 15
(16) आख़िरकार हमने कुछ मनहूस (अशुभ) दिनों में सख़्त तूफ़ानी हवा उनपर भेज दी,20 ताकि उन्हें दुनिया ही की ज़िन्दगी में बेइज़्ज़ती और रुसवाई के अज़ाब का मज़ा चखा दें,21 और आख़िरत का अज़ाब तो इससे भी ज़्यादा रुसवा कर देनेवाला है, वहाँ कोई उनकी मदद करनेवाला न होगा।
20. 'मनहूस दिनों' (अशुभ दिनों) का मतलब यह नहीं है कि वे दिन अपनी जगह ख़ुद मनहूस थे और अज़ाब इसलिए आया कि ये मनहूस दिन आद की क़ौम पर आ गए थे। यह मतलब अगर होता और अपनी जगह ख़ुद उन दिनों ही में कोई नुहूसत (अपशकुन) की बात होती तो अज़ाब दूर-पास की सारी ही क़ौमों पर आ जाता। इसलिए सही मतलब यह है कि उन दिनों में चूँकि इस क़ौम पर ख़ुदा का अज़ाब आया, इस वजह से वे दिन आद की क़ौम के लिए मनहूस (अशुभ) थे। इस आयत से दिनों के अच्छे और बुरे होने पर दलील देना दुरुस्त नहीं है। तूफ़ानी हवा के लिए ‘रीहे-सरसर' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। इसके मतलब में अरबी ज़बान जाननेवालों के बीच इख़्तिलाफ़ है। कुछ कहते हैं कि इससे मुराद सख़्त लू है। कुछ कहते हैं कि इससे मुराद सख़्त ठण्डी हवा है और कुछ कहते हैं कि इससे मुराद ऐसी हवा है जिसके चलने से सख़्त शोर पैदा होता हो। बहरहाल इस मतलब पर सब एक राय हैं कि यह लफ़्ज़ बहुत तेज़ तूफ़ानी हवा के लिए इस्तेमाल होता है। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर इस अज़ाब की जो तफ़सील आई है, वह यह है कि यह हवा लगातार सात रात और आठ दिन तक चलती रही। इसके ज़ोर से लोग इस तरह गिर-गिरकर मर गए और मर-मरकर गिर पड़े जैसे खजूर के खोखले तने गिरे पड़े हों (सूरा-69 हाक़्क़ा, आयत-7)। जिस चीज़ पर से यह हवा गुज़र गई, उसको तोड़-फोड़कर रख दिया (सूरा-51 ज़ारियात, आयत-42)। जिस वक़्त यह हवा आ रही थी उस वक़्त आद के लोग ख़ुशियाँ मना रहे थे कि ख़ूब घटा घिरकर आई है, बारिश होगी और सूखे धानों में पानी पड़ जाएगा। मगर वह आई तो इस तरह आई कि उसने उनके पूरे इलाक़े को तबाह करके रख दिया। (सूरा-46 अहक़ाफ़, आयतें—24, 25)
21. यह ज़िल्लत और रुसवाई का अज़ाब उनके उस घमण्ड (अंहकार) का जवाब था जिसकी वजह से वे ज़मीन में किसी हक़ के बिना बड़े बन बैठे थे और ताल ठोंक-ठोंककर कहते थे कि हमसे ज़्यादा ज़ोरावर कौन है। अल्लाह ने उनको इस तरह रुसवा किया कि उनकी आबादी के बड़े हिस्से को हलाक कर दिया, उनके समाज को मिटाकर रख दिया और उनका थोड़ा-सा हिस्सा जो बाक़ी रह गया, वह दुनिया की उन्हीं क़ौमों के आगे बेइज़्ज़त और रुसवा हुआ जिनपर कभी ये लोग अपना ज़ोर जताते थे। (आद के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—51 से 53; सूरा-11 हूद, हाशिए—54 से 66; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—34 से 37; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—88 से 94; सूरा-49 अन्‌कबूत, हाशिया-65)
وَأَمَّا ثَمُودُ فَهَدَيۡنَٰهُمۡ فَٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡعَمَىٰ عَلَى ٱلۡهُدَىٰ فَأَخَذَتۡهُمۡ صَٰعِقَةُ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡهُونِ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 16
(17) रहे समूद, तो उनके सामने हमने सीधी राह पेश की, मगर उन्होंने रास्ता देखने के बजाय अन्धा बना रहना ही पसन्द किया। आख़िर उनके करतूतों की बदौलत रुसवा कर देनेवाला अज़ाब उनपर टूट पड़ा
وَنَجَّيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 17
(18) और हमने उन लोगों को बचा लिया जो ईमान लाए थे और गुमराही और बुरे काम करने से बचते थे।22
22. समूद के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—57 से 59; सूरा-11 हूद, हाशिए—69 से 74; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—42 से 46; सूरा-17 बनी- इसराईल, हाशिया-68; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—95 से 106; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—58 से 66।
وَيَوۡمَ يُحۡشَرُ أَعۡدَآءُ ٱللَّهِ إِلَى ٱلنَّارِ فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 18
(19) और ज़रा उस वक़्त का ख़याल करो जब अल्लाह के ये दुश्मन जहन्नम की तरफ़ जाने के लिए घेर लाए जाएँगे।23 उनके अगलों को पिछलों के आने तक रोक रखा जाएगा,24
23. अस्ल मक़सद यह कहना है कि जब वह अल्लाह की अदालत में पेश होने के लिए घेर लाए जाएँगे। लेकिन इस बात को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है कि जहन्नम की तरफ़ जाने के लिए घेर लाए जाएँगे, क्योंकि उनका अंजाम आख़िरकार जहन्नम ही में जाना है।
24. यानी ऐसा नहीं होगा कि एक-एक नस्ल और एक-एक पीढ़ी का हिसाब करके उसका फ़ैसला एक के बाद एक किया जाता रहे, बल्कि तमाम अगली-पिछली नस्लें एक ही वक़्त में जमा हो जाएँगी और उन सबका इकट्ठा हिसाब किया जाएगा। इसलिए कि हर कोई अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी अच्छे-बुरे काम करता है उसके असरात उसकी ज़िन्दगी के साथ ख़त्म नहीं हो जाते, बल्कि उसके मरने के बाद भी लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं और वह उन असरात के लिए ज़िम्मेदार होता है। इसी तरह एक नस्ल अपने दौर में जो कुछ भी करती है, उसके असरात बाद की नस्लों में सदियों जारी रहते हैं और अपनी इस विरासत के लिए वह ज़िम्मेदार होती है। पूछ-गछ और इनसाफ़ के लिए इन सारी निशानियों और नतीजों का जाइज़ा लेना और उनकी गवाहियाँ जुटाना ज़रूरी है। इसी वजह से क़ियामत के दिन नस्ल-पर-नस्ल आती जाएगी और ठहराई जाती रहेगी। अदालत का काम उस वक़्त शुरू होगा जब अगले-पिछले सब इकट्ठे हो जाएँगे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30)
حَتَّىٰٓ إِذَا مَا جَآءُوهَا شَهِدَ عَلَيۡهِمۡ سَمۡعُهُمۡ وَأَبۡصَٰرُهُمۡ وَجُلُودُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 19
(20) फिर जब सब वहाँ पहुँच जाएँगे तो उनके कान और उनकी आँखें और उनके जिस्म की खालें उनपर गवाही देंगी कि वे दुनिया में क्या कुछ करते रहे हैं।25
25. हदीसों में इसकी तशरीह (व्याख्या) यह आई है कि जब कोई हेकड़ मुजरिम अपने जुर्मों का इनकार ही करता चला जाएगा और तमाम गवाहियों को भी झुठलाने पर तुल जाएगा तो फिर अल्लाह तआला के हुक्म से उसके जिस्म के हिस्से एक-एक करके गवाही देंगे कि उसने उनसे क्या-क्या काम लिए थे। यह बात हज़रत अनस (रज़ि०), हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०), हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) और हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से रिवायत की है और मुस्लिम, नसई, इब्ने-जरीर, इबने-अबी-हातिम, बज़्ज़ार वग़ैरा मुहद्दिसीन (हदीसों के आलिमों) ने इन रिवायतों को नक़्ल किया है (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-55)।
وَقَالُواْ لِجُلُودِهِمۡ لِمَ شَهِدتُّمۡ عَلَيۡنَاۖ قَالُوٓاْ أَنطَقَنَا ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنطَقَ كُلَّ شَيۡءٖۚ وَهُوَ خَلَقَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 20
(21) वे अपने जिस्म की खालों से कहेंगे, “तुमने हमारे ख़िलाफ़ क्यों गवाही दी?” वे जवाब देंगी, “हमें उसी ख़ुदा ने बोलने की क़ुदरत दी है जिसने हर चीज़ को बोलने के क़ाबिल कर दिया है।26 उसी ने तुमको पहली बार पैदा किया था और अब उसी की तरफ़ तुम वापस लाए जा रहे हो।
26. इससे मालूम हुआ कि सिर्फ़ इनसान के अपने जिस्म के हिस्से (अंग) ही क़ियामत के दिन गवाही नहीं देंगे, बल्कि हर वह चीज़ बोल उठेगी जिसके सामने इनसान ने कोई काम किया था। यही बात सूरा-99 ज़िलज़ाल में कही गई है कि “ज़मीन वे सारे बोझ निकाल फेंकेगी जो उसके अन्दर भरे पड़े हैं और इनसान कहेगा कि यह इसे क्या हो गया है। उस दिन ज़मीन अपनी सारी आप-बीती सुना देगी (यानी जो कुछ इनसान ने उसकी पीठ पर किया है उसकी सारी दास्तान बयान कर देगी), क्योंकि तेरा रब उसे बयान करने का हुक्म दे चुका होगा।” (आयतें—2 से 5)
وَمَا كُنتُمۡ تَسۡتَتِرُونَ أَن يَشۡهَدَ عَلَيۡكُمۡ سَمۡعُكُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُكُمۡ وَلَا جُلُودُكُمۡ وَلَٰكِن ظَنَنتُمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَا يَعۡلَمُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 21
(22) तुम दुनिया में जुर्म करते वक़्त जब छिपते थे तो तुम्हें यह ख़याल न था कि कभी तुम्हारे अपने कान और तुम्हारी आँखें और तुम्हारे जिस्म की खालें तुमपर गवाही देंगी, बल्कि तुमने तो यह समझा था कि तुम्हारे बहुत-से कामों की अल्लाह को भी ख़बर नहीं है।
وَذَٰلِكُمۡ ظَنُّكُمُ ٱلَّذِي ظَنَنتُم بِرَبِّكُمۡ أَرۡدَىٰكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 22
(23) तुम्हारा यही गुमान, जो तुमने अपने रब के साथ किया था, तुम्हें ले डूबा और उसी की वजह से तुम घाटे में पड़ गए।"27
27. हज़रत हसन बसरी (रह०) ने इस आयत की तशरीह में ख़ूब कहा है कि हर आदमी का रवैया उस गुमान के लिहाज़ से तय होता है जो वह अपने रब के बारे में क़ायम करता है। नेक ईमानवाले का रवैया इसलिए दुरुस्त होता है कि वह अपने रब के बारे में सही गुमान रखता है और हक़ के इनकारी (काफ़िर), मुनाफ़िक़ (कपटाचारी), फ़ासिक़ (ख़ुदा के नाफ़रमान) और ज़ालिम का रवैया इसलिए ग़लत होता है कि अपने रब के बारे में उसका गुमान ग़लत होता है। यही बात नबी (सल्ल०) ने एक बड़ी जामे (सारगर्भित) और मुख़्तसर हदीस में फ़रमाई है कि तुम्हारा रब कहता है, “मैं उस गुमान के साथ हूँ जो मेरा बन्दा मुझसे रखता है।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
فَإِن يَصۡبِرُواْ فَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡۖ وَإِن يَسۡتَعۡتِبُواْ فَمَا هُم مِّنَ ٱلۡمُعۡتَبِينَ ۝ 23
(24) इस हालत में वे सब्र करें (या न करें), आग ही उनका ठिकाना होगी और अगर पलटने का मौक़ा चाहेंगे तो कोई मौक़ा उन्हें न दिया जाएगा।28
28. इसका मतलब यह भी हो सकता है कि दुनिया की तरफ़ पलटना चाहेंगे तो न पलट सकेंगे, यह भी हो सकता है कि जहन्नम से निकलना चाहेंगे तो न निकल सकेंगे और यह भी कि तौबा करना और माफ़ी माँगना चाहेंगे तो उसे क़ुबूल न किया जाएगा।
۞وَقَيَّضۡنَا لَهُمۡ قُرَنَآءَ فَزَيَّنُواْ لَهُم مَّا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 24
(25) हमने उनपर ऐसे साथी सवार कर दिए थे जो उन्हें आगे और पीछे हर चीज़ लुभावनी बनाकर दिखाते थे।29 आख़िरकार उनपर भी अज़ाब का वही फ़ैसला चस्पाँ होकर रहा जो इनसे पहले गुज़रे हुए जिन्नों और इनसानों के गरोहों पर चस्पाँ हो चुका था। यक़ीनन वे घाटे में रह जानेवाले थे।
29. यह अल्लाह तआला की मुस्तक़िल (स्थायी) और हमेशा रहनेवाली सुन्नत (तरीक़ा) है कि वह बुरी नीयत और बुरी ख़ाहिशें रखनेवाले इनसानों को कभी अच्छे साथी नहीं दिलवाता, बल्कि उन्हें उनके अपने रुझानों के मुताबिक़ बुरे साथी ही दिलवाता है। फिर जितने-जितने वे बुराई के गढ़े में गहरे उतरते जाते हैं, उतने ही बदतर-से-बदतर आदमी और शैतान उनके साथी और सलाहकार और रफ़ीक़े-कार (सहकर्मी) बनते चले जाते हैं। कुछ लोगों का यह कहना कि फ़ुलाँ साहब अपने आपमें तो बहुत अच्छे हैं, मगर उन्हें साथी बुरे मिल गए हैं, हक़ीक़त के बिलकुल ख़िलाफ़ है। फ़ितरत का क़ानून यह है कि हर शख़्स को वैसे ही दोस्त मिलते हैं जैसा वह ख़ुद होता है। एक नेक आदमी के साथ अगर बुरे लोग लग भी जाएँ तो वे उसके साथ ज़्यादा देर तक लगे नहीं रह सकते और इसी तरह एक बदनीयत और बुरे किरदारवाले आदमी के साथ नेक और शरीफ़ इनसानों का साथ इत्तिफ़ाक़ से हो भी जाए तो वह ज़्यादा देर तक नहीं निभ सकता। बुरा आदमी फ़ितरी तौर पर बुरों ही को अपनी तरफ़ खींचता है और बुरे ही उसकी तरफ़ खिंचते हैं, जिस तरह गन्दगी मक्खियों को खींचती है और मक्खियाँ गन्दगी की तरफ़ खिंचती हैं। और यह जो कहा गया कि वे आगे और पीछे हर चीज़ को लुभावना बनाकर दिखाते थे, इसका मतलब यह है कि वे उनको यक़ीन दिलाते थे कि आपका माज़ी (अतीत) भी बड़ा शानदार था और मुस्तक़बिल (भविष्य) भी बहुत रौशन है। वे ऐसी ऐनक उनकी आँखों पर चढ़ाते थे कि हर तरफ़ उनको हरा-ही-हरा नज़र आता था। वे उनसे कहते थे कि आपको भला-बुरा कहनेवाले बेवक़ूफ़ हैं, आप कोई निराला काम थोड़े ही कर रहे हैं, दुनिया में तरक़्क़ी करनेवाले वही कुछ करते रहे हैं जो आप कर रहे हैं और आगे अव्वल तो कोई आख़िरत है ही नहीं जिसमें आपको अपने कामों की जवाबदेही करनी पड़े, लेकिन अगर वह पेश आ ही गई, जैसा कि कुछ नादान दावा करते हैं, तो जो ख़ुदा आपको यहाँ नेमतें दे रहा है, वह वहाँ भी आप पर इनाम और मेहरबानियों की बारिश करेगा। जहन्नम आपके लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए बनी है जिन्हें यहाँ ख़ुदा ने अपनी नेमतों से महरूम (वंचित) कर रखा है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَسۡمَعُواْ لِهَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ وَٱلۡغَوۡاْ فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَغۡلِبُونَ ۝ 25
(26) हक़ का इनकार करनेवाले ये लोग कहते हैं, “इस क़ुरआन को हरगिज़ न सुनो और जब यह सुनाया जाए तो इसमें ख़लल डालो, शायद कि इसी तरह तुम ग़ालिब आ जाओ।"30
30. ये मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उन स्कीमों में से एक थी जिससे वे नबी (सल्ल०) की दावत और तबलीग़ को नाकाम करना चाहते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि क़ुरआन अपने अन्दर कितना ज़्यादा असर रखता है और उसको सुनानेवाला किस दरजे का इनसान है। और इस शख़सियत के साथ उसका अन्दाज़ कितना ज़्यादा असर डालनेवाला है। वे समझते थे कि ऐसे आला दरजे के शख़्स की ज़बान से इस दिलकश अन्दाज़ में इस बेमिसाल कलाम को जो सुनेगा, वह आख़िरकार घायल होकर रहेगा। इसलिए उन्होंने यह प्रोग्राम बनाया कि इस कलाम को न ख़ुद सुनो, न किसी को सुनने दो। मुहम्मद (सल्ल०) जब भी इसे सुनाना शुरू करें, शोर मचाओ, ताली पीट दो, आवाज़ें कसो, एतिराज़ों की बौछार कर दो और आवाज़ इतनी ऊँची करो कि उनकी आवाज़ उसके मुक़ाबले में दब जाए। इस तदबीर से वे उम्मीद रखते थे कि अल्लाह के नबी को हरा देंगे।
فَلَنُذِيقَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَذَابٗا شَدِيدٗا وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَسۡوَأَ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 26
(27) हक़ के इन इनकारियों को हम सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाकर रहेंगे और जो बुरी-से-बुरी हरकतें ये करते रहे हैं, उनका पूरा-पूरा बदला इन्हें देंगे।
ذَٰلِكَ جَزَآءُ أَعۡدَآءِ ٱللَّهِ ٱلنَّارُۖ لَهُمۡ فِيهَا دَارُ ٱلۡخُلۡدِ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 27
(28) वह जहन्नम है जो अल्लाह के दुश्मनों को बदले में मिलेगी। उसी में हमेशा-हमेशा के लिए उनका घर होगा। यह है सज़ा इस जुर्म की कि वे हमारी आयतों का इनकार करते रहे।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ رَبَّنَآ أَرِنَا ٱلَّذَيۡنِ أَضَلَّانَا مِنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ نَجۡعَلۡهُمَا تَحۡتَ أَقۡدَامِنَا لِيَكُونَا مِنَ ٱلۡأَسۡفَلِينَ ۝ 28
(29) वहाँ हक़ के ये इनकारी कहेंगे कि “ऐ हमारे रब, ज़रा हमें दिखा दे उन जिन्नों और इनसानों को जिन्होंने हमें गुमराह किया था, हम उन्हें पाँव तले रौंद डालेंगे, ताकि वे अच्छी तरह बेइज़्ज़त और रुसवा हों।"31
31. यानी दुनिया में तो ये लोग अपने लीडरों और पेशवाओं और धोखा देनेवाले शैतानों के इशारों पर नाच रहे हैं, मगर जब क़ियामत के दिन इन्हें पता चलेगा कि ये राह दिखानेवाले उन्हें कहाँ ले आए हैं तो यही लोग उन्हें कोसने लगेंगे और यह चाहेंगे कि वे किसी तरह उनके हाथ आ जाएँ तो पकड़कर उन्हें पाँवों तले रौंद डालें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ قَالُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُ ثُمَّ ٱسۡتَقَٰمُواْ تَتَنَزَّلُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَلَّا تَخَافُواْ وَلَا تَحۡزَنُواْ وَأَبۡشِرُواْ بِٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 29
(30) जिन32 लोगों ने कहा कि अल्लाह हमारा रब है और फिर वे उसपर जमे रहे,33 यक़ीनन उनपर फ़रिश्ते उतरते हैं34 और उनसे कहते हैं कि “न डरो, न ग़म करो,35 और ख़ुश हो जाओ उस जन्नत की ख़ुशख़बरी से जिसका तुमसे वादा किया गया है।
32. यहाँ तक हक़ के इनकारियों को उनकी हठधर्मी और हक़ की मुख़ालफ़त के नतीजों पर ख़बरदार करने के बाद अब ईमानवालों और नबी (सल्ल०) की तरफ़ बात का रुख़ मुड़ता है।
33. यानी सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ से कभी अल्लाह को अपना रब कहकर नहीं रह गए और न इस ग़लती में पड़े कि अल्लाह को अपना रब कहते भी जाएँ और साथ-साथ दूसरों को अपना रब बनाते भी जाएँ, बल्कि एक बार यह अक़ीदा क़ुबूल कर लेने के बाद फिर सारी उम्र इसपर क़ायम रहे, इसके ख़िलाफ़ कोई दूसरा अक़ीदा न अपनाया, न इस अक़ीदे के साथ किसी ग़लत अक़ीदे की मिलावट की और अपनी अमली ज़िन्दगी में भी तौहीद के अक़ीदे के तक़ाज़ों को पूरा करते रहे। तौहीद पर क़ायम रहने का मतलब क्या है, इसकी तशरीह नबी (सल्ल०) और बुज़ुर्ग सहाबा (रज़ि०) ने इस तरह की है— हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बहुत-से लोगों ने अल्लाह को अपना रब कहा, मगर उनमें से अकसर हक़ के इनकारी हो गए। साबित क़दम वह शख़्स है जो मरते दम तक इसी अक़ीदे पर जमा रहा।” (इब्ने-जरीर, नसई, इब्ने-अबी-हातिम) हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) इसकी तशरीह यूँ करते हैं, “फिर अल्लाह के साथ किसी को शरीक न बनाया, उसके सिवा किसी दूसरे माबूद की तरफ़ ध्यान न दिया।” (इब्ने-जरीर) हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार मिम्बर पर यह आयत तिलावत की और फ़रमाया, “ख़ुदा की क़सम, क़ायम रहनेवाले वे हैं जो अल्लाह की फ़रमाँबरदारी पर मज़बूती के साथ क़ायम हो गए, लोमड़ियों की तरह इधर से उधर और उधर से इधर दौड़ते न फिरे।” (इब्ने-जरीर) हज़रत उसमान (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “अपने अमल को अल्लाह के लिए ख़ालिस कर लिया।" (कश्शाफ़) हज़रत अली (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “अल्लाह के आइद किए हुए फ़र्ज़ फ़रमाँबरदारी के साथ अदा करते रहे।” (कश्शाफ़)
34. फ़रिश्तों का यह उतरना ज़रूरी नहीं है कि किसी महसूस सूरत में हो और ईमानवाले उन्हें आँखों से देखें या उनकी आवाज़ कानों से सुनें। अगरचे अल्लाह तआला जिसके लिए चाहे फ़रिश्तों को खुल्लम-खुल्ला भी भेज देता है, लेकिन आम तौर से ईमानवालों पर, ख़ास तौर से सख़्त वक़्तों में जबकि हक़ के दुश्मनों के हाथों वे बहुत तंग हो रहे हों, उनका उतरना ग़ैर-महसूस तरीक़े से होता है और उनकी बातें कान के परदों से टकराने के बजाय दिल की गहराइयों में दिल का सुकून और चैन बनकर उतरती हैं। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने फ़रिश्तों के इस उतरने को मौत के वक़्त, या क़ब्र, या हश्र के मैदान के लिए ख़ास समझा है। लेकिन अगर उन हालात पर ग़ौर किया जाए जिनमें ये आयतें उतरी हैं, तो इसमें कुछ शक नहीं रहता कि यहाँ इस मामले को बयान करने का अस्ल मक़सद इस ज़िन्दगी में सच्चे दीन की सरबुलन्दी के लिए जानें लड़ानेवालों पर फ़रिश्तों के उतरने का ज़िक्र करना है, ताकि उन्हें सुकून हासिल हो और उनकी हिम्मत बंधे और उनके दिल इस एहसास से मुत्मइन हो जाएँ कि वे बेसहारा नहीं हैं, बल्कि अल्लाह के फ़रिश्ते उनके साथ हैं। अगरचे फ़रिश्ते मौत के वक़्त भी ईमानवालों का इस्तिक़बाल करने आते हैं और क़ब्र (बरज़ख़ की दुनिया) में भी वे उनका इस्तिक़बाल करते हैं और जिस दिन क़ियामत क़ायम होगी उस दिन भी हश्र की शुरुआत से जन्नत में पहुँचने तक वे बराबर उनके साथ लगे रहेंगे, लेकिन उनका यह साथ उसी दुनिया के लिए ख़ास नहीं है, बल्कि इस दुनिया में भी वह जारी है। बात का सिलसिला साफ़ बता रहा है कि सही और ग़लत की कशमकश में जिस तरह बातिल-परस्तों (असत्यवादियों) के साथी शैतान और बुरे लोग होते हैं, उसी तरह ईमानवालों के साथी फ़रिश्ते हुआ करते हैं। एक तरफ़ बातिल-परस्तों को उनके साथी उनके करतूत लुभावने बनाकर दिखाते हैं और उन्हें यक़ीन दिलाते हैं कि हक़ को नीचा दिखाने के लिए जो ज़ुल्मो-सितम और बेईमानियाँ तुम कर रहे हो, यही तुम्हारी कामयाबी के साधन हैं और इन्हीं से दुनिया में तुम्हारी सरदारी महफ़ूज़ रहेगी। दूसरी तरफ़ हक़-परस्तों के पास अल्लाह के फ़रिश्ते आकर वे पैग़ाम देते हैं जो आगे के जुमलों में बयान हो रहा है।
35. यह अलफ़ाज़ बहुत-से मानी अपने अन्दर समेटे हुए हैं, जो दुनिया से लेकर आख़िरत तक हर मरहले में ईमानवालों के लिए तसल्ली की एक नई बात अपने अन्दर रखते हैं। इस दुनिया में फ़रिश्तों की इस नसीहत का मतलब यह है कि बातिल (असत्य) की ताक़तें चाहे कितनी ही ज़बरदस्त और ज़ोरावर हों, उनसे हरगिज़ न डरो और हक़ पर चलने की वजह से जो तकलीफ़ें और नुक़सान भी तुम्हें सहने पड़ें, उनपर कोई दुख न करो, क्योंकि आगे तुम्हारे लिए वह कुछ है जिसके मुक़ाबले में दुनिया की हर नेमत बेकार है। यही बातें जब मौत के वक़्त फ़रिश्ते कहते हैं तो उनका मतलब यह होता है कि आगे जिस मंज़िल की तरफ़ तुम जा रहे हो, वहाँ तुम्हारे लिए किसी डर की जगह नहीं है, क्योंकि वहाँ जन्नत तुम्हारा इन्तिज़ार कर रही है और दुनिया में जिनको तुम छोड़कर जा रहे हो, उनके लिए तुम्हें दुखी होने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि यहाँ हम तुम्हारे दोस्त और साथी हैं। बरज़ख़ की दुनिया और हश्र के मैदान में जब फ़रिश्ते यही बातें कहेंगे तो इसका मतलब यह होगा कि यहाँ तुम्हारे लिए चैन-ही-चैन है, दुनिया की ज़िन्दगी में जो हालात तुमपर गुज़रे उनका ग़म न करो और आख़िरत में जो कुछ सामने आनेवाला है उससे न डरो, इसलिए कि हम तुम्हें उस जन्नत की ख़ुशख़बरी दे रहे हैं, जिसका तुमसे वादा किया जाता रहा है।
نَحۡنُ أَوۡلِيَآؤُكُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَكُمۡ فِيهَا مَا تَشۡتَهِيٓ أَنفُسُكُمۡ وَلَكُمۡ فِيهَا مَا تَدَّعُونَ ۝ 30
(31) हम इस दुनिया की ज़िन्दगी में भी तुम्हारे साथी हैं और आख़िरत में भी। वहाँ जो कछ तुम चाहोगे, तुम्हें मिलेगा और हर चीज़ जिसकी तुम तमन्ना करोगे, वह तुम्हारी होगी।
نُزُلٗا مِّنۡ غَفُورٖ رَّحِيمٖ ۝ 31
(32) यह है मेहमाननवाजी का सामान उस हस्ती की तरफ़ से जो माफ़ करनेवाली और रहम करनेवाली है।"
وَمَنۡ أَحۡسَنُ قَوۡلٗا مِّمَّن دَعَآ إِلَى ٱللَّهِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا وَقَالَ إِنَّنِي مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 32
(33) और उस शख़्स की बात से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।36
36. ईमानवालों को तसल्ली देने और उनकी हिम्मत बँधाने के बाद अब उनको उनके अस्ल काम की तरफ़ शौक़ दिलाया जा रहा है। पिछली आयतों में उनको बताया गया था कि अल्लाह की बन्दगी पर जम जाना और इस रास्ते को इख़्तियार कर लेने के बाद फिर इससे अलग न हटना अपने आपमें ख़ुद वह बुनियादी भलाई है जो आदमी को फ़रिश्तों का दोस्त और जन्नत का हक़दार बनाती है। अब उनको बताया जा रहा है कि आगे का दरजा, जिससे ज़्यादा बुलन्द कोई दरजा इनसान के लिए नहीं है, यह है कि तुम ख़ुद नेक अमल करो और दूसरों को अल्लाह की बन्दगी की तरफ़ बुलाओ और सख़्त मुख़ालफ़त के माहौल में भी, जहाँ इस्लाम का एलान और इज़हार करना अपने ऊपर मुसीबतों को दावत देना है, डटकर कहो कि मैं मुसलमान (ख़ुदा का फ़रमाँबरदार) हूँ। इस बात की पूरी अहमियत समझने के लिए उस माहौल को निगाह में रखना ज़रूरी है जिसमें यह बात कही गई थी। उस वक़्त हालत यह थी कि जो कोई भी मुसलमान होने का इज़हार करता था, उसे यकायक ऐसा महसूस होता था कि मानो उसने दरिन्दों के जंगल में क़दम रख दिया है जहाँ हर एक उसे फाड़ खाने को दौड़ रहा है और इससे आगे बढ़कर जिसने इस्लाम की तबलीग़ (प्रचार) के लिए ज़बान खोली उसने तो मानो दरिन्दों को पुकार दिया कि आओ और मुझे भंभोड़ डालो। इन हालात में कहा गया है कि किसी शख़्स का अल्लाह को अपना रब मानकर सीधी राह अपना लेना और उससे न हटना बेशक अपनी जगह बड़ी और बुनियादी भलाई है, लेकिन सबसे आला दरजे की भलाई यह है कि आदमी उठकर कहे कि मैं मुसलमान हूँ और नतीजों से बेपरवाह होकर अल्लाह की बन्दगी की तरफ़ लोगों को दावत दे और इस काम को करते हुए अपना अमल इतना पाकीज़ा रखे कि किसी को इस्लाम और उसके अलमबरदारों पर नुक्ताचीनी करने की गुंजाइश न मिले।
وَمَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَمَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ذُو حَظٍّ عَظِيمٖ ۝ 33
(35) यह सिफ़त (गुण) नहीं मिलती, मगर उन लोगों को जो सब्र करते हैं38 और यह मक़ाम हासिल नहीं होता, मगर उन लोगों को जो बड़े नसीबवाले हैं।39
38. यानी यह नुस्ख़ा है तो बड़ा असरदार, मगर इसे इस्तेमाल करना कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके लिए बड़ा दिल-गुर्दा चाहिए। इसके लिए बड़ा मज़बूत इरादा, बड़ा हौसला, बर्दाश्त और सहन करने की बड़ी क़ुव्वत और अपने नफ़्स (मन) पर बहुत बड़ा क़ाबू चाहिए। वक़्ती तौर पर एक आदमी किसी बुराई के मुक़ाबले में बड़ी भलाई बरत सकता है। यह कोई ग़ैर-मामूली बात नहीं है। लेकिन जहाँ किसी शख़्स को सालों तक उन बातिल-परस्त (असत्यवादी) शरारती लोगों के मुक़ाबले में हक़ की ख़ातिर लड़ना पड़े जो अख़लाक़ की किसी हद को फाँद जाने में हिचकते न हों और फिर ताक़त और अधिकारों के नशे में भी बदमस्त हो रहे हों, वहाँ बुराई का मुक़ाबला भलाई और वह भी आला दरजे (उच्च कोटि) की भलाई से करते चले जाना और कभी एक बार भी सब्र और कंट्रोल की डोरी हाथ से न छोड़ना, किसी मामूली आदमी के बस का काम नहीं है। यह काम वही शख़्स कर सकता है जो ठण्डे दिल से हक़ की सरबुलन्दी के लिए काम करने का पक्का इरादा कर चुका हो, जिसने पूरी तरह से अपने मन को अक़्ल और समझ के बस में कर लिया हो और जिसके अन्दर भलाई और सच्चाई ऐसी गहरी जड़ें पकड़ चुकी हो कि मुख़ालफ़त करनेवालों की कोई शरारत और बुराई भी उसे उसके ऊँचे मक़ाम से नीचे उतार लाने में कामयाब न हो सकती हो।
39. यह फ़ितरत का क़ानून है। बड़े ही ऊँचे मर्तबे के इनसान में ये सिफ़ात और ख़ूबियाँ हुआ करती हैं और जो कोई ये ख़ूबियाँ रखता हो, उसे दुनिया की कोई ताक़त भी कामयाबी की मंज़िल तक पहुँचने से नहीं रोक सकती। यह किसी तरह मुमकिन ही नहीं है कि घटिया दरजे के लोग अपनी घटिया चालों, नीच हथकण्डों और छिछली हरकतों से उसको पछाड़ दें।
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ نَزۡغٞ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 34
(36) और अगर तुम शैतान की तरफ़ से कोई उकसाहट महसूस करो तो अल्लाह की पनाह माँग लो,40 वह सब कुछ सुनता और जानता है।"41
40. शैतान को बहुत फ़िक्र होती है जब वह देखता है कि हक़ और बातिल (सत्य और असत्य) की जंग में नीचपन का मुक़ाबला शराफ़त के साथ और बुराई का मुक़ाबला भलाई के साथ किया जा रहा है। वह चाहता है कि किसी तरह एक ही बार सही, हक़ के लिए लड़नेवालों और ख़ास तौर से उनके बड़े लोगों और सबसे बढ़कर उनके लीडर से कोई ऐसी ग़लती करा दे जिसकी वजह से आम लोगों से यह कहा जा सके कि देखिए साहब, बुराई एक तरफ़ से नहीं है, एक तरफ़ से अगर घटिया हरकतें की जा रही हैं तो दूसरी तरफ़ के लोग भी कुछ बहुत ऊँचे दरजे के इनसान नहीं हैं। फ़ुलाँ घटिया हरकत तो आख़िर उन्होंने भी की है। आम लोगों में यह सलाहियत नहीं होती कि वे ठीक इनसाफ़ के साथ एक तरफ़ की ज़्यादतियों और दूसरी तरफ़ की जवाबी कार्रवाई के बीच फ़र्क़ कर सकें। वे जब तक यह देखते रहते हैं कि मुख़ालफ़त करनेवाले हर तरह की नीच हरकतें कर रहे हैं, मगर ये लोग तहज़ीब, शराफ़त, भलाई और सच्चाई के रास्ते से ज़रा नहीं हटते, उस वक़्त तक वे उनका गहरा असर क़ुबूल करते रहते हैं। लेकिन अगर कहीं उनकी तरफ़ से कोई बेजा हरकत, या उनके मर्तबे से गिरी हुई कोई हरकत हो जाए, चाहे वह किसी बड़ी ज़्यादती के जवाब ही में क्यों न हो, तो उनकी निगाह में दोनों बराबर हो जाते हैं और मुख़ालफ़त करनेवालों को भी एक सख़्त बात का जवाब हज़ार गालियों से देने का बहाना मिल जाता है। इसी वजह से कहा गया कि शैतान के धोखे से चौकन्ने रहो। वह बड़ा दर्दमन्द और भला चाहनेवाला बनकर तुम्हें जोश दिलाएगा कि फ़ुलाँ ज़्यादती तो हरगिज़ बरदाश्त न की जानी चाहिए और फ़ुलाँ बात का तो मुँह तोड़ जवाब दिया जाना चाहिए और इस हमले के जवाब में तो लड़ जाना चाहिए वरना तुम्हें बुज़दिल समझा जाएगा और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। ऐसे हर मौक़े पर जब तुम्हें अपने अन्दर इस तरह का कोई नामुनासिब जोश महसूस हो तो ख़बरदार हो जाओ कि यह शैतान की उकसाहट है जो ग़ुस्सा दिलाकर तुमसे कोई ग़लती कराना चाहता है और ख़बरदार हो जाने के बाद इस घमण्ड में न मुब्तला हो जाओ कि मैं अपने मिज़ाज पर बड़ा क़ाबू रखता हूँ, शैतान मुझसे कोई ग़लती नहीं करा सकता। फ़ैसला करने और इरादा करने की अपनी क़ुव्वत का यह घमण्ड शैतान का दूसरा और ज़्यादा ख़तरनाक धोखा होगा। इसके बजाय तुमको ख़ुदा से पनाह माँगनी चाहिए, क्योंकि वही तौफ़ीक़ (सौभाग्य) दे और हिफ़ाज़त करे तो आदमी ग़लतियों से बच सकता है। इस जगह की बेहतरीन तफ़सीर वह वाक़िआ है जो इमाम अहमद (रह०) ने अपनी मुसनद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से नक़्ल किया है। वे फ़रमाते हैं कि एक बार एक आदमी नबी (सल्ल०) की मौजूदगी में हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) को लगातार गालियाँ देने लगा। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) चुपचाप उसकी गालियाँ सुनते रहे और नबी (सल्ल०) उन्हें देखकर मुस्कुराते रहे। आख़िरकार जनाब सिद्दीक़ (रज़ि०) के सब्र का पैमाना भर गया और उन्होंने भी जवाब में उसे एक सख़्त बात कह दी। उनकी ज़बान से वह बात निकलते ही नबी (सल्ल०) को सख़्त घुटन महसूस हुई जो आप (सल्ल०) के मुबारक चेहरे से ज़ाहिर होने लगी और आप (सल्ल०) फ़ौरन उठकर चले गए। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) भी उठकर आप (सल्ल०) के पीछे हो लिए और रास्ते में पूछा कि यह क्या माजरा है, वह मुझे गालियाँ देता रहा और आप ख़ामोश मुस्कुराते रहे, मगर जब मैंने उसे जवाब दिया तो आप नाराज़ हो गए? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तक तुम ख़ामोश थे, एक फ़रिश्ता तुम्हारे साथ रहा और तुम्हारी तरफ़ से उसको जवाब देता रहा, मगर जब तुम बोल पड़े तो फ़रिश्ते की जगह शैतान आ गया। मैं शैतान के साथ तो नहीं बैठ सकता था।"
41. मुख़ालफ़तों के तूफ़ान में अल्लाह की पनाह माँग लेने के बाद जो चीज़ ईमानवाले के दिल में सब्र, सुकून और इत्मीनान की ठण्डक पैदा करती है, वह यही यक़ीन है कि अल्लाह बेख़बर नहीं है। जो कुछ हम कर रहे हैं, उसे भी वह जानता है और जो कुछ हमारे साथ किया जा रहा है, उससे भी वह वाक़िफ़ है। हमारी और हमारे मुख़ालिफ़ों की सारी बातें वह सुन रहा है और दोनों का रवैया जैसा कुछ भी है, उसे वह देख रहा है। इसी भरोसे पर ईमानवाला बन्दा अपना और हक़ के दुश्मनों का मामला अल्लाह के सिपुर्द करके पूरी तरह मुत्मइन हो जाता है। यह पाँचवाँ मौक़ा है जहाँ नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के ज़रिए से ईमानवालों को दीन की दावत देने और लोगों का सुधार करने की यह हिकमत सिखाई गई है। इससे पहले की चार जगहों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—149 से 153; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—122, 123; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—89, 90; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—81, 82।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِ ٱلَّيۡلُ وَٱلنَّهَارُ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُۚ لَا تَسۡجُدُواْ لِلشَّمۡسِ وَلَا لِلۡقَمَرِ وَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ ٱلَّذِي خَلَقَهُنَّ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 35
(37) अल्लाह42 की निशानियों में से हैं ये रात और दिन और सूरज और चाँद ।43 सूरज और चाँद को सजदा न करो, बल्कि उस ख़ुदा को सजदा करो जिसने उन्हें पैदा किया है, अगर सचमुच तुम उसी की इबादत करनेवाले हो।44
42. अब बात का रुख़ आम लोगों की तरफ़ मुड़ रहा है और कुछ जुमले उनको हक़ीक़त समझाने के लिए कहे जा रहे हैं।
43. यानी ये अल्लाह के मज़ाहिर (प्रतीक) नहीं हैं कि तुम यह समझते हुए इनकी इबादत करने लगो कि अल्लाह इनकी शक्ल में ख़ुद अपने आपको ज़ाहिर कर रहा है, बल्कि ये अल्लाह की निशानियाँ हैं जिनपर ग़ौर करने से तुम कायनात की और उसके निज़ाम की हक़ीक़त को समझ सकते हो और यह जान सकते हो कि पैग़म्बर (अलैहि०) जिस तौहीद (एकेश्वरवाद) की तालीम दे रहे हैं वही सच है। सूरज और चाँद से पहले रात और दिन का ज़िक्र इस बात पर ख़बरदार करने के लिए किया गया है कि रात को सूरज का छिपना और चाँद का निकल आना और दिन को चाँद का छिपना और सूरज का ज़ाहिर हो जाना साफ़ तौर पर यह दलील दे रहा है कि इन दोनों में से कोई भी ख़ुदा या ख़ुदा का मज़हर (प्रतीक) नहीं है, बल्कि दोनों ही मजबूर और लाचार बन्दे हैं जो ख़ुदा के क़ानून में बंधे हुए चक्कर लगा रहे हैं।
44. यह जवाब है उस फ़ल्सफ़े (दर्शन) का जो शिर्क (अनेकेश्वरवाद) को अक़्ल के मुताबिक़ साबित करने के लिए कुछ ज़्यादा अक़्लमन्द क़िस्म के मुशरिक लोग आम तौर से बघारा करते हैं। वे कहते हैं कि हम इन चीज़ों को सजदा नहीं करते, बल्कि इनके वास्ते से अल्लाह ही को सजदा करते हैं। इसका जवाब यह दिया गया है कि अगर तुम सचमुच अल्लाह ही की इबादत करनेवाले हो तो इन वास्तों की क्या ज़रूरत है, सीधे तौर पर ख़ुद उसी को सजदा क्यों नहीं करते।
فَإِنِ ٱسۡتَكۡبَرُواْ فَٱلَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ يُسَبِّحُونَ لَهُۥ بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَهُمۡ لَا يَسۡـَٔمُونَ۩ ۝ 36
(38) लेकिन अगर ये लोग आकर अपनी ही बात पर अड़े रहें45 तो परवाह नहीं, जो फ़रिश्ते तेरे रब के क़रीबी हैं, वे रात-दिन उसकी तसबीह (महिमागान) कर रहे हैं और कभी नहीं थकते।46
45. 'घमण्ड में आकर' से मुराद यह है कि अगर ये तुम्हारी बात मान लेने में अपनी रुसवाई समझकर उसी जहालत पर अड़े रहें जिसमें ये मुब्तला हैं।
46. मतलब यह है कि पूरी कायनात का निज़ाम, जो इन फ़रिश्तों के ज़रिए से चल रहा है, अल्लाह की तौहीद और उसी की बन्दगी में चल रहा है और इसका इन्तिज़ाम करनेवाले फ़रिश्ते हर पल यह गवाही दे रहे हैं कि उनका रब इससे पाक और दूर है कि कोई ख़ुदा और माबूद होने में उसका शरीक हो। अब अगर कुछ बेवक़ूफ़ समझाने पर नहीं मानते और सारी कायनात को जिस रास्ते पर चल रही है, उससे मुँह मोड़कर शिर्क ही की राह पर चलने पर अड़े रहते हैं तो पड़ा रहने दो इनको अपनी इस बेवक़ूफ़ी में। इस जगह के बारे में इस बात पर तो सभी आलिम एकराय हैं कि यहाँ सजदा ज़रूरी हो जाता है। मगर इस बात में आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ हो गया है कि ऊपर की दोनों आयतों में से किसपर सजदा करना चाहिए। हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) “इन कुन्तुम इय्याहु तअबुदून” (अगर तुम उसी को सजदा करनेवाले हो) पर सजदा करते थे। इसी राय को इमाम मालिक (रह०) ने अपनाया है और एक राय इमाम शाफ़िई (रह०) से भी इसी की ताईद में लिखी मिलती है। लेकिन हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), सईद-बिन-मुसय्यब, मसरूक़, क़तादा, हसन बसरी, अबू-अब्दुर्रहमान अस-सुलमी, इब्ने-सीरीन, इबराहीम नख़ई और कई दूसरे बुज़ुर्ग “बहुम लायस-अमून” (और कभी नहीं थकते) पर सजदा करने को कहते हैं। यही इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की राय भी है और शाफ़िई मसलक माननेवाले भी इसी बात को बेहतर कहते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنَّكَ تَرَى ٱلۡأَرۡضَ خَٰشِعَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡۚ إِنَّ ٱلَّذِيٓ أَحۡيَاهَا لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰٓۚ إِنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 37
(39) और अल्लाह की निशानियों में से एक यह है कि तुम देखते हो कि ज़मीन सूनी पड़ी हुई है, फिर ज्यों ही कि हमने उसपर पानी बरसाया, यकायक वह फबक उठती है और फूल जाती है। यक़ीनन जो ख़ुदा इस मरी हुई ज़मीन को जिला उठाता है, वह मुर्दों को भी ज़िन्दगी देनेवाला है।47 यक़ीनन वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
47. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-53; सूरा-22 हज, हाशिए—8, 9; सूरा-30 रूम; हाशिया-28; सूरा-35 फ़ातिर, हाशिया-19।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُلۡحِدُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا لَا يَخۡفَوۡنَ عَلَيۡنَآۗ أَفَمَن يُلۡقَىٰ فِي ٱلنَّارِ خَيۡرٌ أَم مَّن يَأۡتِيٓ ءَامِنٗا يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ ٱعۡمَلُواْ مَا شِئۡتُمۡ إِنَّهُۥ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 38
(40) जो48 लोग हमारी आयतों को उलटे मतलब पहनाते हैं49 वे हमसे कुछ छिपे हुए नहीं हैं।50 ख़ुद ही सोच लो कि क्या वह शख़्स अच्छा है जो आग में झोंका जानेवाला है या वह जो क़ियामत के दिन अम्न की हालत में हाज़िर होगा? करते रहो जो कुछ तुम चाहो, तुम्हारी सारी हरकतों को अल्लाह देख रहा है।
48. आम लोगों को कुछ जुमलों में यह समझाने के बाद कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के अक़ीदे की तरफ़ दावत दे रहे हैं, वही अक़्ल के मुताबिक़ है और कायनात की निशानियाँ उसी के हक़ होने की गवाही दे रही हैं। अब बात का रुख़ फिर उन मुख़ालफ़त करनेवालों तरफ़ मुड़ता है जो पूरी हठधर्मी के साथ मुख़ालफ़त पर तुले हुए थे।
49. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “युलहिदू-न फ़ी आयातिना” (हमारी आयतों में इलहाद करते हैं)। 'इलहाद' का मतलब है मुँह फेरना, सीधी राह से टेढ़ी राह की तरफ़ मुड़ जाना, टेढ़ा रास्ता अपनाना (उलटे मतलब पहनाना)। अल्लाह की आयतों में इलहाद का मतलब यह है कि आदमी सीधी बात में से टेढ़ निकालने की कोशिश करे। अल्लाह की आयतों का एक सही और साफ़ मतलब तो न ले, बाक़ी हर तरह के ग़लत मतलब उनसे निकालकर ख़ुद भी गुमराह हो और दूसरों को भी गुमराह करता रहे। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ क़ुरआन मजीद की दावत को नीचा दिखाने के लिए जो चालें चल रहे थे उनमें से एक यह भी थी कि क़ुरआन की आयतों को सुनकर जाते और फिर किसी आयत को मौक़ा-महल से काटकर, किसी आयत में लफ़्ज़ी बदलाव करके, किसी जुमले या लफ़्ज़ का ग़लत मतलब निकालकर तरह-तरह के एतिराज़ जड़ते और लोगों को बहकाते फिरते थे कि लो सुनो, आज इन नबी साहब ने क्या कह दिया है।
50. इन अलफ़ाज़ में एक सख़्त धमकी छिपी है। तमाम अधिकारों के मालिक ख़ुदा का यह कहना कि फ़ुलाँ शख़्स जो हरकतें कर रहा है, वह मुझसे छिपी हुई नहीं हैं, आप-से-आप यह मतलब अपने अन्दर रखता है कि वह बचकर नहीं जा सकता।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِٱلذِّكۡرِ لَمَّا جَآءَهُمۡۖ وَإِنَّهُۥ لَكِتَٰبٌ عَزِيزٞ ۝ 39
(41) ये वे लोग हैं जिनके सामने नसीहत की बात आई तो इन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया। मगर हक़ीक़त यह है कि यह एक ज़बरदस्त किताब है,51
51. यानी अटल है। इसको उन चालों से हराया नहीं जा सकता जो बातिल-परस्त (असत्यवादी) लोग इसके ख़िलाफ़ चल रहे हैं। इसमें सच्चाई का ज़ोर है, सच्चे इल्म का ज़ोर है, दलील और हुज्जत का ज़ोर है, ज़बान और बयान का ज़ोर है, भेजनेवाले ख़ुदा की ख़ुदाई का ज़ोर है और पेश करनेवाले रसूल की शख़सियत का ज़ोर है। झूठ और खोखले प्रोपेगण्डे के हथियारों से कोई इसे नीचा दिखाना चाहे तो कैसे दिखा सकता है।
لَّا يَأۡتِيهِ ٱلۡبَٰطِلُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَلَا مِنۡ خَلۡفِهِۦۖ تَنزِيلٞ مِّنۡ حَكِيمٍ حَمِيدٖ ۝ 40
(42) बातिल (असत्य) न सामने से इसपर आ सकता है, न पीछे से।52 यह एक हिकमतवाले और बड़े क़ाबिले-तारीफ़ (ख़ुदा) की उतारी हुई चीज़ है।
52. सामने से न आ सकने का मतलब यह है कि क़ुरआन पर सीधे-सीधे हमला करके अगर कोई शख़्स उसकी किसी बात को ग़लत और किसी तालीम को ग़लत और नाक़िस साबित करना चाहे तो इसमें कामयाब नहीं हो सकता। पीछे से न आ सकने का मतलब यह है कि कभी कोई हक़ीक़त और सच्चाई ऐसी ज़ाहिर नहीं हो सकती जो क़ुरआन की पेश की हुई हक़ीक़तों के ख़िलाफ़ हो, कोई इल्म ऐसा नहीं आ सकता जो सचमुच 'इल्म' हो और क़ुरआन के बयान किए हुए इल्म को ग़लत साबित करता हो, कोई तजरिबा और आँखों देखा मामला ऐसा नहीं हो सकता जो यह साबित कर दे कि क़ुरआन ने अक़ीदों, अख़लाक़, क़ानून, तहज़ीब और रहन-सहन, मईशत (आर्थिक), सामाजिक और सियासी मामलों में इनसान को जो रहनुमाई दी है वह ग़लत है। इस किताब ने जिस चीज़ को हक़ (सही) कह दिया वह कभी बातिल (ग़लत) साबित नहीं हो सकती और जिसे बातिल कह दिया वह कभी हक़ साबित नहीं हो सकती। इसके अलावा इसका मतलब यह भी है कि बातिल चाहे सामने से आकर हमला करे या हेर-फेर के रास्तों से छापे मारे, बहरहाल किसी तरह भी वह उस दावत को नाकाम नहीं कर सकता जिसे लेकर क़ुरआन आया है। तमाम मुख़ालफ़तों और मुख़ालफ़त करनेवालों की सारी छिपी और खुली चालों के बावजूद यह दावत फैलकर रहेगी और कोई इसे नाकाम नहीं कर सकेगा।
مَّا يُقَالُ لَكَ إِلَّا مَا قَدۡ قِيلَ لِلرُّسُلِ مِن قَبۡلِكَۚ إِنَّ رَبَّكَ لَذُو مَغۡفِرَةٖ وَذُو عِقَابٍ أَلِيمٖ ۝ 41
(43) ऐ नबी, तुमसे जो कुछ कहा जा रहा है, उसमें कोई चीज़ भी ऐसी नहीं है जो तुमसे पहले गुज़रे हुए रसूलों से न कही जा चुकी हो। बेशक तुम्हारा रब बड़ा माफ़ करनेवाला है53 और इसके साथ बड़ी दर्दनाक सज़ा देनेवाला भी है।
53. ख़ुदा बहुत ही बरदाश्त और सहन करनेवाला और माफ़ करनेवाला है। इसका सुबूत यह है कि पर उसके रसूलों को झुठलाया गया, गालियाँ दी गईं, तकलीफ़ें पहुँचाई गईं और फिर भी वह सालों तक मुख़ालफ़त करनेवालों को मुहलत देता चला गया।
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا أَعۡجَمِيّٗا لَّقَالُواْ لَوۡلَا فُصِّلَتۡ ءَايَٰتُهُۥٓۖ ءَا۬عۡجَمِيّٞ وَعَرَبِيّٞۗ قُلۡ هُوَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ هُدٗى وَشِفَآءٞۚ وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ فِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٞ وَهُوَ عَلَيۡهِمۡ عَمًىۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُنَادَوۡنَ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 42
(44) अगर हम इसको अजमी (ग़ैर-अरबी) क़ुरआन बनाकर भेजते तो ये लोग कहते, "क्यों न इसकी आयतें खोलकर बयान की गईं? क्या अजीब बात है कि कलाम अजमी और सुननेवाले अरबी।54 इनसे कहो, यह क़ुरआन ईमान लानेवालों के लिए तो हिदायत और शिफ़ा (बीमारी दूर करनेवाला) है, मगर जो लोग ईमान नहीं लाते, उनके लिए यह कानों की डाट और आँखों की पट्टी है। उनका हाल तो ऐसा है जैसे उनको दूर से पुकारा जा रहा हो55
54. यह उस हठधर्मी का एक और नमूना है जिससे नबी (सल्ल०) का मुक़ाबला किया जा रहा था। इस्लाम-दुश्मन कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) अरब हैं, अरबी उनकी मादरी ज़बान (मातृभाषा) है, वे अगर अरबी ज़बान में क़ुरआन पेश करते हैं तो यह कैसे माना जा सकता है कि यह कलाम उन्होंने ख़ुद नहीं गढ़ लिया है, बल्कि उनपर ख़ुदा ने उतारा है। उनके इस कलाम को ख़ुदा का उतारा हुआ कलाम तो उस वक़्त माना जा सकता था जब ये किसी ऐसी ज़बान में यकायक धुआँधार तक़रीर करना शुरू कर देते जिसे ये नहीं जानते, मसलन फ़ारसी या रूमी (रोमन) या यूनानी। इसपर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि अब इनकी अपनी ज़बान में क़ुरआन भेजा गया है जिसे ये समझ सकें तो इनको यह एतिराज़ है कि अरब के ज़रिए से अरबों के लिए अरबी ज़बान में यह कलाम क्यों उतारा गया। लेकिन अगर किसी दूसरी ज़बान में यह भेजा जाता तो उस वक़्त यही लोग यह एतिराज करते कि यह मामला भी ख़ूब है। अरब क़ौम में एक अरब को रसूल बनाकर भेजा गया है, मगर कलाम उसपर ऐसी ज़बान में उतारा गया है जिसे न रसूल समझता है, न क़ौम।
55. दूर से जब किसी को पुकारा जाता है तो उसके कान में एक आवाज़ तो पड़ती है, मगर उसकी समझ में यह नहीं आता कि कहनेवाला क्या कह रहा है। यह ऐसी बेमिसाल तशबीह (उपमा) है जिससे हठधर्म मुख़ालिफ़ों की नफ़सियात (मनोविज्ञान) की पूरी तस्वीर निगाहों के सामने खिंच जाती है। फ़ितरी बात है कि जो शख़्स किसी तास्सुब में मुब्तला नहीं होता, उससे अगर आप बातचीत करें तो वह उसे सुनता है, समझने की कोशिश करता है और मुनासिब बात होती है तो खुले दिल से उसको क़ुबूल कर लेता है। इसके बरख़िलाफ़ जो कोई आपके ख़िलाफ़ न सिर्फ़ तास्सुब, बल्कि दुश्मनी और कपट रखता हो, उसको आप अपनी बात समझाने की चाहे कितनी ही कोशिश करें, वह सिरे से उसकी तरफ़ ध्यान ही न देगा। आपकी सारी बात सुनकर भी उसकी समझ में कुछ न आएगा कि आप इतनी देर तक क्या कहते रहे और आपको भी यूँ महसूस होगा कि जैसे आपकी आवाज़ उसके कान के परदों से उचटकर बाहर-ही-बाहर गुज़रती रही है, दिल और दिमाग़ तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं पा सकी।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَٱخۡتُلِفَ فِيهِۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 43
(45) इससे पहले हमने मूसा को किताब दी थी और उसके मामले में भी यही इख़्तिलाफ़ हुआ था।56 अगर तेरे रब ने पहले ही एक बात तय न कर दी होती तो इन इख़्तिलाफ़ करनेवालों के बीच फ़ैसला चुका दिया जाता।57 और हक़ीक़त यह है कि ये लोग उसकी तरफ़ से सख़्त बेचैन कर देनेवाले शक में पड़े हुए हैं।58
56. यानी कुछ लोगों ने उसे माना था और कुछ मुख़ालफ़त पर तुल गए थे।
57. इस बात के दो मतलब हैं। एक यह कि अगर अल्लाह तआला ने पहले ही यह तय न कर दिया होता कि लोगों को सोचने-समझने के लिए काफ़ी मुहलत दी जाएगी तो इस तरह की मुख़ालफ़त करनेवालों का ख़ातिमा कर दिया जाता। दूसरा मतलब यह है कि अगर अल्लाह ने पहले ही यह तय न कर लिया होता कि इख़्तिलाफ़ात का आख़िरी फ़ैसला क़ियामत के दिन किया जाएगा तो दुनिया ही में हक़ीक़त को बेनक़ाब कर दिया जाता और यह बात खोल दी जाती कि हक़ पर कौन है और बातिल (ग़लत राह) पर कौन।
58. इस छोटे-से जुमले में मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के रोग की पूरी जाँच कर दी गई है। इसमें बताया गया है कि वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ से शक में पड़े हुए हैं और इस शक ने उनको सख़्त उलझन और बेचैनी में मुब्तला कर रखा है। इसका मतलब यह है कि बज़ाहिर तो वे बड़े ज़ोर-शोर से क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने का इनकार करते हैं, लेकिन हक़ीक़त में उनका यह इनकार किसी यक़ीन की बुनियाद पर नहीं है, बल्कि उनके दिलों में सख़्त शक व शुब्हा पाया जाता है। एक तरफ़ उनके निजी फ़ायदे, उनके मन की ख़ाहिशें और उनके जहालत भरे तास्सुबात यह तक़ाज़ा करते हैं कि क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) को झुठलाएँ और पूरी ताक़त के साथ उनकी मुख़ालफ़त करें। दूसरी तरफ़ उनके दिल अन्दर से पुकारते हैं कि यह क़ुरआन सचमुच एक बेमिसाल कलाम है, जिसके जैसा कोई कलाम किसी अदीब (साहित्यकार) या शाइर से कभी नहीं सुना गया है, न कोई मजनून दीवानगी की हालत में ऐसी बातें करता है, न कभी शैतान इस ग़रज़ के लिए आ सकते हैं कि लोगों को ख़ुदापरस्ती, मलाई और पाकीज़गी की तालीम दें। इसी तरह मुहम्मद (सल्ल०) को जब वे झूठा कहते हैं तो उनका दिल अन्दर से कहता है कि ख़ुदा के बन्दो! कुछ शर्म करो, क्या यह आदमी झूठा हो सकता है? जब वे उनको मजनून कहते हैं तो उनका दिल अन्दर से पुकारता है कि ज़ालिमो! क्या सचमुच तुम इस आदमी को दीवाना समझते हो? जब वे उनपर यह इलज़ाम रखते हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) यह सब कुछ हक़ की ख़ातिर नहीं, बल्कि अपनी बड़ाई के लिए कर रहे हैं तो उनका दिल अन्दर से धिक्कारता है कि लानत है तुमपर, इस नेक दिल इनसान को मतलब का बन्दा कहते हो जिसे कभी तुमने दौलत और हुकूमत और नाम और दिखावे के लिए दौड़-धूप करते नहीं देखा है, जिसकी सारी ज़िन्दगी मतलब-परस्ती के हर निशान से पाक रही है, जिसने हमेशा नेकी और भलाई के लिए काम किया है, मगर कभी अपनी किसी नफ़सानी ग़रज़ के लिए कोई ग़लत काम नहीं किया।
مَّنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَسَآءَ فَعَلَيۡهَاۗ وَمَا رَبُّكَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 44
(46) जो कोई नेक अमल करेगा अपने ही लिए अच्छा करेगा, जो बदी (बुरा काम) करेगा, उसका वबाल उसी पर होगा और तेरा रब अपने बन्दों के हक़ में ज़ालिम नहीं है।59
59. यानी तेरा रब कभी यह ज़ुल्म नहीं कर सकता कि नेक इनसान की नेकी बरबाद कर दे और बुराई करनेवालों को उनकी बुराई का बदला न दे।
۞إِلَيۡهِ يُرَدُّ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِۚ وَمَا تَخۡرُجُ مِن ثَمَرَٰتٖ مِّنۡ أَكۡمَامِهَا وَمَا تَحۡمِلُ مِنۡ أُنثَىٰ وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلۡمِهِۦۚ وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ أَيۡنَ شُرَكَآءِي قَالُوٓاْ ءَاذَنَّٰكَ مَامِنَّا مِن شَهِيدٖ ۝ 45
(47) उस घड़ी60 का इल्म अल्लाह ही की तरफ़ पलटता है,61 वही उन सारे फलों को जानता है जो अपने गाभों में से निकलते हैं। उसी को मालूम है कि कौन-सी मादा हामिला (गर्भवती) हुई है और किसने बच्चा जना है।62 फिर जिस दिन वह इन लोगों को पुकारेगा कि कहाँ हैं मेरे वे शरीक? ये कहेंगे, “हम बता चुके हैं, आज हममें से कोई इसकी गवाही देनेवाला नहीं है।"63
60. उस घड़ी से मुराद क़ियामत है, यानी वह घड़ी जब बुराई करनेवालों को उनकी बुराई का बदला दिया जाएगा और उन नेक इनसानों की फ़रियाद सुनी जाएगी जिनके साथ बुराई की गई है।
61. यानी अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता कि वह घड़ी कब आएगी। यह जवाब है इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के इस सवाल का कि हमपर बुराई का वबाल पड़ने की जो धमकी दी जा रही है वह आख़िर कब पूरी होगी। अल्लाह तआला ने उनके सवाल को नक़्ल किए बिना उसका जवाब दिया है।
62. इस बात से सुननेवालों को दो बातों का एहसास दिलाया गया है। एक यह कि सिर्फ़ एक क़ियामत ही नहीं, बल्कि ग़ैब (परोक्ष) के तमाम मामलों का इल्म अल्लाह ही के लिए ख़ास है, कोई दूसरा ग़ैब का जाननेवाला नहीं है। दूसरी यह कि जो ख़ुदा छोटी-छोटी बातों का इतना तफ़सीली इल्म रखता है, उसकी निगाह से किसी शख़्स के आमाल और कामों का चूक जाना मुमकिन नहीं है। लिहाज़ा किसी को भी उसकी ख़ुदाई में निडर होकर मनमानी नहीं करनी चाहिए। इसी दूसरे मतलब के लिहाज़ से इस जुमले का ताल्लुक़ बाद के जुमलों से जुड़ता है। इस बात के कहने के फ़ौरन बाद जो कुछ फ़रमाया गया है, उसपर ग़ौर कीजिए तो बात के सिलसिले से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात वाज़ेह होती नज़र आएगी कि क़ियामत के आने की तारीख़ मालूम करने की फ़िक्र में कहाँ पड़े हो, फ़िक्र इस बात की करो कि जब वह आएगी तो अपनी इन गुमराहियों का तुम्हें क्या ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा। यही बात है जो एक मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने क़ियामत की तारीख़ पूछनेवाले एक आदमी से कही थी। हदीस की छः भरोसेमन्द किताबों और 'सुनन' और 'मुसनदों' में तवातुर (निरन्तरता) की हद को पहुँची हुई रिवायत है कि एक बार नबी (सल्ल०) सफ़र में कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक आदमी ने दूर से पुकारा, कि “ऐ मुहम्मद!” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बोलो, क्या कहना है।” उसने कहा, “क़ियामत कब आएगी?” आप (सल्ल०) ने जवाब दिया, “ख़ुदा के बन्दे, वह तो बहरहाल आनी ही है। तूने उसके लिए क्या तैयारी की?"
63. यानी अब हमपर हक़ीक़त खुल चुकी है और हमें मालूम हो चुका है कि जो कुछ हम समझे बैठे थे, वह सरासर ग़लत था। अब हमारे बीच कोई एक शख़्स भी इस बात का माननेवाला नहीं है कि ख़ुदाई में कोई दूसरा भी आपका शरीक है। “हम बता चुके हैं” के अलफ़ाज़ इस बात पर दलील देते हैं कि क़ियामत के दिन बार-बार हर मरहले में हक़ के इनकारियों से कहा जाएगा कि दुनिया में तुम ख़ुदा के रसूलों का कहा मानने से इनकार करते रहे, अब बोलो हक़ पर वे थे या तुम? और हर मौक़े पर हक़ के इनकारी इस बात को मानते चले जाएँगे कि सचमुच हक़ वही था जो उन्होंने बताया था और ग़लती हमारी थी कि उस इल्म को छोड़कर अपनी जहालतों पर अड़े रहे।
وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَدۡعُونَ مِن قَبۡلُۖ وَظَنُّواْ مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٖ ۝ 46
(48) उस वक़्त वे सारे माबूद (उपास्य) इनसे गुम हो जाएँगे जिन्हें ये इससे पहले पुकारते थे,64 और ये लोग समझ लेंगे कि इनके लिए अब कोई पनाह लेने की जगह नहीं है।
64. यानी मायूसी की हालत में ये लोग हर तरफ़ नज़र दौड़ाएँगे कि उम्र भर जिनकी सेवा करते रहे, शायद उनमें से कोई मदद को आए और हमें ख़ुदा के अज़ाब से छुड़ा ले, या कम-से-कम हमारी सज़ा ही कम करा दे, मगर किसी तरफ़ कोई मददगार भी उनको नज़र न आएगा।
لَّا يَسۡـَٔمُ ٱلۡإِنسَٰنُ مِن دُعَآءِ ٱلۡخَيۡرِ وَإِن مَّسَّهُ ٱلشَّرُّ فَيَـُٔوسٞ قَنُوطٞ ۝ 47
(49) इनसान कभी भलाई की दुआ माँगते नहीं थकता65 और जब कोई आफ़त उसपर आ जाती है तो मायूस और दुखी हो जाता है।
65. भलाई से मुराद है ख़ुशहाली, रोज़ी में कुशादगी, तन्दुरुस्ती, बाल-बच्चों की सलामती वग़ैरा और इनसान से मुराद यहाँ सारे इनसानों का हर फ़र्द नहीं है, क्योंकि उसमें तो पैग़म्बर और नेक लोग भी आ जाते हैं जो उस ख़राबी से पाक हैं, जिसका ज़िक्र आगे आ रहा है, बल्कि इस जगह पर वह छिछोरा और घटिया इनसान मुराद है जो बुरा वक़्त आने पर गिड़गिड़ाने लगता है और दुनिया का ऐश पाते ही आपे से बाहर हो जाता है। चूँकि ज़्यादा तर इनसान इसी कमज़ोरी में मुब्तला हैं, इसलिए इसे इनसान की कमज़ोरी बताया गया है।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَٰهُ رَحۡمَةٗ مِّنَّا مِنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُ لَيَقُولَنَّ هَٰذَا لِي وَمَآ أَظُنُّ ٱلسَّاعَةَ قَآئِمَةٗ وَلَئِن رُّجِعۡتُ إِلَىٰ رَبِّيٓ إِنَّ لِي عِندَهُۥ لَلۡحُسۡنَىٰۚ فَلَنُنَبِّئَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِمَا عَمِلُواْ وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنۡ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 48
(50) मगर ज्यों ही कि सख़्त वक़्त गुज़र जाने के बाद हम इसे अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं, यह कहता है कि “मैं इसी का हक़दार हूँ66 और मैं नहीं समझता कि क़ियामत कभी आएगी, लेकिन अगर सचमुच मैं अपने रब की तरफ़ पलटाया गया तो वहाँ भी मज़े करूँगा।” हालाँकि इनकार करनेवालों को लाज़िमी तौर से हम बताकर रहेंगे कि वे क्या करके आए हैं, और उन्हें हम बड़े गन्दे अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
66. यानी यह सब कुछ मुझे अपनी क़ाबिलियत की बुनियाद पर मिला है और मेरा हक़ यही है कि मैं यह कुछ पाऊँ।
وَإِذَآ أَنۡعَمۡنَا عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ أَعۡرَضَ وَنَـَٔا بِجَانِبِهِۦ وَإِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ فَذُو دُعَآءٍ عَرِيضٖ ۝ 49
(51) इनसान जब हम नेमत देते हैं तो वह मुँह फेरता है और अकड़ जाता है।67 और जब उसे कोई आफ़त छू जाती है तो लम्बी-चौड़ी दुआएँ करने लगता है।68
67. यानी हमारी फ़रमाँबरदारी और बन्दगी से मुँह मोड़ता है और हमारे आगे झुकने को अपनी तौहीन समझने लगता है।
68. इस मज़मून (विषय) की कई आयतें इससे पहले क़ुरआन मजीद में गुज़र चुकी हैं। इसको पूरी तरह समझने के लिए नीचे लिखी जगहें देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-15; सूरा-11 हूद, हाशिया-10; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-102; सूरा-30 रूम, हाशिए—52, 56; सूरा-39 ज़ुमर, आयतें—8, 9, 49।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ ثُمَّ كَفَرۡتُم بِهِۦ مَنۡ أَضَلُّ مِمَّنۡ هُوَ فِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 50
(52) ऐ नबी, इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर सचमुच यह क़ुरआन ख़ुदा ही की तरफ़ से हुआ और तुम इसका इनकार करते रहे, तो उस शख़्स से बढ़कर भटका हुआ और कौन होगा जो इसकी मुख़ालफ़त में दूर तक निकल गया हो?69
69. इसका यह मतलब नहीं है कि सिर्फ़ इस ख़तरे की वजह से ईमान ले आओ कि अगर कहीं यह क़ुरआन ख़ुदा ही की तरफ़ से हुआ तो इनकार करके हमारी शामत न आ जाए, बल्कि इसका मतलब यह है कि जिस तरह सरसरी तौर पर बेसोचे-समझे तुम इनकार कर रहे हो और बात को सुनने और समझने की कोशिश करने के बजाय कानों में उँगलियाँ ठूँसे लेते हो और बेवजह की ज़िद में आकर मुख़ालफ़त पर तुल गए हो, यह कोई समझदारी की बात नहीं है। तुम यह दावा तो नहीं कर सकते कि तुम्हें इसका इल्म हो गया है कि यह क़ुरआन ख़ुदा की तरफ़ से नहीं आया है और तुम यक़ीन के साथ यह जान चुके हो कि ख़ुदा ने इसे नहीं भेजा है। ज़ाहिर है कि इसे अल्लाह का कलाम मानने से तुम्हारा इनकार इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि गुमान की बुनियाद पर है, जिसका सही होना अगर सरसरी नज़र में मुमकिन है तो ग़लत होना भी मुमकिन है। अब ज़रा इन दोनों तरह के इमकानों का जाइज़ा लेकर देख लो। तुम्हारा गुमान मान लो कि सही निकला तो तुम्हारे अपने ख़याल के मुताबिक़ ज़्यादा-से-ज़्यादा बस यही होगा कि माननेवाले और न माननेवाले, दोनों बराबर रहेंगे, क्योंकि दोनों ही को मरकर मिट्टी में मिल जाना है और आगे कोई ज़िन्दगी नहीं है, जिसमें इनकार करने और मान लेने के कुछ नतीजे निकलनेवाले हों। लेकिन अगर सचमुच यह क़ुरआन ख़ुदा ही की तरफ़ से हुआ और वह सब कुछ सामने आ गया जिसकी यह ख़बर दे रहा है, फिर बताओ कि इसका इनकार करके और इसकी मुख़ालफ़त में इतनी दूर जाकर तुम किस अंजाम से दो-चार होगे? इसलिए तुम्हारा अपना फ़ायदा यह तक़ाज़ा करता है कि ज़िद और हठधर्मी छोड़कर संजीदगी के साथ इस क़ुरआन पर ग़ौर करो और ग़ौर करने के बाद भी तुम ईमान न लाने ही का फ़ैसला करते हो तो न लाओ, मगर मुख़ालफ़त पर कमर कसकर इस हद तक आगे तो न बढ़ जाओ कि झूठ, छल-कपट और ज़ुल्मो-सितम के हथियार इस दावत का रास्ता रोकने के लिए इस्तेमाल करने लगो और ख़ुद ईमान न लानेवाले पर बस न करके दूसरों को भी ईमान लाने से रोकते फिरो।
سَنُرِيهِمۡ ءَايَٰتِنَا فِي ٱلۡأٓفَاقِ وَفِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَهُمۡ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّۗ أَوَلَمۡ يَكۡفِ بِرَبِّكَ أَنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 51
(53) जल्द ही हम इनको अपनी निशानियाँ बाहरी दुनिया में भी दिखाएँगे और इनके अपने अन्दर भी, यहाँ तक कि इनपर यह बात खुल जाएगी कि यह क़ुरआन सचमुच हक़ है।"70 क्या यह बात काफ़ी नहीं है कि तेरा रब हर चीज़ का गवाह है?71
70. इस आयत के दो मतलब हैं और दोनों ही क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलिमों ने बयान किए हैं— एक मतलब यह है कि जल्द ही ये अपनी आँखों से देख लेंगे कि इस क़ुरआन की दावत आस-पास के तमाम देशों पर छा गई है और ये ख़ुद उसके आगे सर झुकाए हुए हैं। उस वक़्त इन्हें पता चल जाएगा कि जो कुछ आज इनसे कहा जा रहा है और यह मानकर नहीं दे रहे है, वह सरासर हक़ था। कुछ लोगों ने इस मतलब पर यह एतिराज़ किया है कि सिर्फ़ किसी दावत का ग़ालिब आ जाना और बड़े-बड़े इलाक़े जीत लेना तो उसके हक़ (सही) होने की दलील नहीं है, बातिल (ग़लत) दावतें भी छा जाती हैं और उनके पैरोकार भी देश-पर-देश जीतते चले जाते हैं। लेकिन यह एक सतही एतिराज़ है जो पूरे मामले पर ग़ौर किए बिना कर दिया गया है। नबी (सल्ल०) और खुलफ़ा-ए-राशिदीन (चार इस्लामी ख़लीफ़ा) के दौर में जो हैरतअंगेज़ फ़तहें (कामयाबियाँ) इस्लाम को मिलीं, वे सिर्फ़ इस मानी में अल्लाह की निशानियाँ न थीं कि ईमानवाले देश-पर-देश जीतते चले गए, बल्कि इस मानी में थीं कि देशों की यह जीत दुनिया की दूसरी जीतों की तरह नहीं थी जो एक शख़्स या एक ख़ानदान या एक क़ौम को दूसरों की जान-माल का मालिक बना देती हैं और ख़ुदा की ज़मीन ज़ुल्म से भर जाती है। इसके बरख़िलाफ़ यह जीत अपने साथ एक शानदार मज़हबी, अख़लाक़ी, ज़हनी और फ़िक्री (मानसिक और वैचारिक), तहज़ीबी और सियासी और समाजी और मआशी (आर्थिक) इंक़िलाब लेकर आई थी, जिसके असरात जहाँ-जहाँ भी पहुँचे, इनसान के बेहतरीन जौहर सामने आते चले गए और बुरे औसाफ़ (दुर्गुण) दबते चले गए। दुनिया जिन ख़ूबियों को सिर्फ़ दुनिया से दूर रहनेवाले दरवेशों और कोने में बैठकर अल्लाह-अल्लाह करनेवालों के अन्दर ही देखने की उम्मीद रखती थी और कभी यह सोच भी न सकती थी कि दुनिया का कारोबार चलानेवालों में भी वे पाए जा सकते हैं, इस इंक़िलाब ने अख़लाक़ की वे ख़ूबियाँ हुकूमत करनेवालों की सियासत में, इनसाफ़ की कुर्सी पर बैठनेवालों की अदालत में, फ़ौजों के कमांडरों की जंग और जीतों में, टैक्स वुसूल करनेवालों की तहसीलदारी में और बड़े-बड़े कारोबार चलानेवालों की तिजारत में ज़ाहिर करके दिखा दिए। उसने अपने पैदा किए हुए समाज में आम इनसानों को अख़लाक़ और किरदार और पाकी-सफ़ाई के एतिबार से इतना ऊँचा उठाया कि दूसरे समाजों के चुने हुए लोग भी उनकी सतह से नीचे नज़र आने लगे। उसने अन्धविश्वासों और बेकार की रस्मों के चक्कर से निकालकर इनसान को इल्मी तहक़ीक़ (ज्ञानपरक खोजों) और सोचने और अमल करने के मुनासिब तरीक़े की साफ़ राह पर डाल दिया। उसने इजतिमाई ज़िन्दगी के उन रोगों का इलाज किया, जिनके इलाज की फ़िक्र तक से दूसरे निज़ाम ख़ाली थे, या अगर उन्होंने इसकी फ़िक्र की भी तो इन रोगों के इलाज में कामयाब न हो सके, मसलन रंग-नस्ल और वतन और ज़बान की बुनियाद पर इनसानों में फ़र्क़ करना, एक ही समाज में तबक़ों का बाँटना और उनके बीच ऊँच-नीच का फ़र्क़ और छूत-छात, क़ानूनी अधिकार और अमली रहन-सहन में बराबरी का न होना। औरतों का पिछड़ापन और बुनियादी अधिकारों तक का न मिलना, जुर्मों का बहुत ज़्यादा होना, शराब और दूसरी नशीली चीज़ों का आम रिवाज, हुकूमत का तंकीद (आलोचना) और जवाबदेही से परे रहना, आम लोगों को बुनियादी इनसानी हक़ों तक का न मिल पाना, बैनल-अक़वामी ताल्लुक़ात (अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों) में समझौतों का लिहाज़ न करना, जंग में ज़ालिमाना हरकतें और ऐसे ही दूसरे रोग। सबसे बढ़कर ख़ुद अरब सरज़मीन में इस इंक़िलाब ने देखते-देखते क़ानून को न मानने (अराजकता) की जगह नज़्म (अनुशासन), ख़ून-ख़राबे और बदअम्नी की जगह अम्न, बुराई और गुनाहों की जगह पाकी और परहेज़गारी, ज़ुल्म और बेइनसाफ़ी की जगह इनसाफ़, गन्दगी और नाशाइस्तगी की जगह पाकीज़गी और तहज़ीब, जहालत की जगह इल्म और नस्ल-दर-नस्ल चलनेवाली दुश्मनियों की जगह भाईचारे और मुहब्बत का माहौल पैदा कर दिया और जिस क़ौम के लोग अपने क़बीले की सरदारी से बढ़कर किसी चीज़ का ख़ाब तक न देख सकते थे, उन्हें दुनिया का इमाम बना दिया। ये थीं वे निशानियाँ जो उसी नस्ल ने अपनी आँखों से देख लीं जिसे मुख़ातब करके नबी (सल्ल०) ने पहली बार यह आयत सुनाई थी और उसके बाद से आज तक अल्लाह तआला इन निशानियों को बराबर दिखाए जा रहा है। मुसलमानों ने अपने ज़वाल (पतन) के दौर में भी अख़लाक़ की जो बुलन्दी दिखाई है, उसकी धूल को भी वे लोग कभी नहीं पहुँच सके जो तहज़ीब (सभ्यता) और शाइस्तगी (शालीनता) के अलमबरदार बने फिरते हैं। यूरोप की क़ौमों ने अफ़्रीक़ा, अमेरिका, एशिया और ख़ुद यूरोप में मातहत क़ौमों के साथ जो ज़ुल्म से भरा सुलूक किया है, मुसलमानों के इतिहास के किसी दौर में भी उसकी कोई मिसाल नहीं पेश की जा सकती। यह क़ुरआन ही की बरकत है जिसने मुसलमानों में इतनी इनसानियत पैदा कर दी है कि वे कभी ग़लबा पाकर उतने ज़ालिम न बन सके जितने ग़ैर-मुस्लिम इतिहास के हर दौर में ज़ालिम पाए गए हैं और आज तक पाए जा रहे हैं। कोई आँखें रखता हो तो ख़ुद देख ले कि स्पेन में जब मुसलमान सदियों हुक्मराँ रहे, उस वक़्त ईसाइयों के साथ उनका क्या सुलूक था और जब ईसाई वहाँ ग़ालिब आए तो उन्होंने मुसलमानों के साथ क्या सुलूक किया। भारत में आठ सौ साल के लम्बे हुकूमत के दौर में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ क्या बरताव किया और अब हिन्दू ग़ालिब आ जाने के बाद उनके साथ क्या बरताव कर रहे हैं। यहूदियों के साथ पिछले तेरह सौ साल में मुसलमानों का रवैया क्या रहा और अब फ़िलस्तीन में मुसलमानों के साथ उनका क्या रवैया है। दूसरा मतलब इस आयत का यह है कि अल्लाह तआला ज़मीन और आसमान की दुनिया में भी और इनसानों के अपने वुजूद में भी लोगों को वे निशानियाँ दिखाएगा जिनसे उनपर यह बात खुल जाएगी कि यह क़ुरआन जो तालीम दे रहा है, वही सही है। कुछ लोगों ने इस मतलब पर यह एतिराज़ किया है कि ज़मीन और आसमान की दुनिया और ख़ुद अपने वुजूद को तो लोग उस वक़्त भी देख रहे थे, फिर आनेवाले ज़माने में इन चीज़ों के अन्दर निशानियाँ दिखाने का क्या मतलब? लेकिन यह एतिराज़ भी वैसा ही सतही है जैसा ऊपर के मतलब पर एतिराज़ सतही था। ज़मीन और आसमान की दुनिया तो बेशक वही हैं जिन्हें इनसान हमेशा से देखता रहा है और इनसान का अपना वुजूद भी उसी तरह का है जैसा हर ज़माने में देखा जाता रहा है, मगर इन चीज़ों के अन्दर ख़ुदा की निशानियाँ इतनी ज़्यादा और अनगिनत हैं कि इनसान कभी उनको अपनी जानकारी के घेरे में नहीं ले सका है, न कभी ले सकेगा। हर दौर में इनसान के सामने नई-नई निशानियाँ आती चली गई हैं और क़ियामत तक आती चली जाएँगी।
71. यानी क्या लोगों को बुरे अंजाम से डराने के लिए यह बात काफ़ी नहीं है कि हक़ की इस दावत को झुठलाने और इसे नुक़सान पहुँचाने के लिए जो-जो कुछ वे कर रहे हैं अल्लाह उनकी एक-एक हरकत को देख रहा है।
أَلَآ إِنَّهُمۡ فِي مِرۡيَةٖ مِّن لِّقَآءِ رَبِّهِمۡۗ أَلَآ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطُۢ ۝ 52
(54) आगाह रहो, ये लोग अपने रब की मुलाक़ात में शक रखते हैं।72 सुन रखो, वह हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है।73
72. यानी इनके इस रवैये की बुनियादी वजह यह है कि इन्हें इस बात का यक़ीन नहीं है कि कभी इनको अपने रब के सामने जाना है और अपने आमाल (कर्मों) की जवाबदेही करनी है।
73. यानी उसकी पकड़ से बचकर ये कहीं जा नहीं सकते और उसके रिकार्ड से इनकी कोई हरकत छूट नहीं सकती।
وَلَا تَسۡتَوِي ٱلۡحَسَنَةُ وَلَا ٱلسَّيِّئَةُۚ ٱدۡفَعۡ بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ فَإِذَا ٱلَّذِي بَيۡنَكَ وَبَيۡنَهُۥ عَدَٰوَةٞ كَأَنَّهُۥ وَلِيٌّ حَمِيمٞ ۝ 53
(34) और ऐ नबी! भलाई और बुराई एक जैसी नहीं हैं। तुम बुराई को उस तरीक़े से दूर करो जो बेहतरीन हो। तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ जिसकी दुश्मनी पड़ी हुई थी. वह जिगरी दोस्त बन गया है।37
37. इस बात का पूरा मतलब समझने के लिए भी वे हालात निगाह में रहने चाहिएँ जिनमें नबी (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) के ज़रिए से आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को, यह हिदायत दी गई थी। सूरतेहाल यह थी कि हक़ की दावत का मुक़ाबला बेहद हठधर्मी और सख़्त जारिहाना (आक्रामक) मुख़ालफ़त से किया जा रहा था, जिसमें अख़लाक़़, इनसानियत और शराफ़त की सारी हदें तोड़ डाली गई थीं। हर झूठ नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों के ख़िलाफ़ बोला जा रहा था। हर तरह के हथकण्डे आप (सल्ल०) को बदनाम करने और आप (सल्ल०) की तरफ़ से लोगों को बदगुमान करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे थे। तरह-तरह के इलज़ाम आप (सल्ल०) पर लगाए जा रहे थे और मुख़ालफ़त भरा प्रापेगण्डा करनेवालों की एक फ़ौज-की-फ़ौज आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ दिलों में वसवसे (बुरे विचार) डालती फिर रही थी। हर तरह की तकलीफें आप (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) के साथियों को दी जा रही थीं, जिनसे तंग आकर मुसलमानों की एक अच्छी-ख़ासी तादाद वतन छोड़कर निकल जाने पर मजबूर हो गई थी। फिर आप (सल्ल०) की तबलीग़ को रोक देने के लिए प्रोग्राम यह बनाया था कि हुल्लड़ मचानेवालों का एक गरोह हर वक़्त आप (सल्ल०) की ताक में लगा रहे और जब आप (सल्ल०) हक़ की दावत देने के लिए ज़बान खोलें, इतना शोर मचा दिया जाए कि कोई आप (सल्ल०) की बात न सुन सके। ये ऐसे हिम्मत तोड़ देनेवाले हालात थे जिनमें बज़ाहिर दावत के तमाम रास्ते बन्द नज़र आते थे। उस वक़्त मुख़ालफ़तों को तोड़ने का यह नुस्ख़ा नबी (सल्ल०) को बताया गया। पहली बात यह कही गई कि भलाई और बुराई एक जैसी नहीं हैं। यानी बज़ाहिर तुम्हारी मुख़ालफ़त करनेवाले बुराई का कैसा ही ख़ौफ़नाक तूफ़ान उठा लाए हों, जिसके मुक़ाबले में भलाई बिलकुल मजबूर और बेबस महसूस होती हो, लेकिन बुराई अपने आपमें ख़ुद अपने अन्दर कमज़ोरी रखती है जो आख़िरकार उसका भट्टा बिठा देती है, क्योंकि इनसान जब तक इनसान है उसकी फ़ितरत बुराई से नफ़रत किए बिना नहीं रह सकती। बुराई के साथी ही नहीं, ख़ुद उसके अलम्बरदार तक अपने दिलों में यह जानते हैं कि वे झूठे हैं, ज़ालिम हैं और अपने फ़ायदों के लिए हठधर्मी कर रहे हैं। यह चीज़ दूसरों के दिलों में उनका वक़ार (गरिमा) पैदा करना तो दूर उन्हें ख़ुद अपनी नज़रों से गिरा देती है और उनके अपने दिलों में एक चोर बैठ जाता है जो मुख़ालफ़त में उठनेवाले हर क़दम के वक़्त उनके इरादे और हिम्मत पर अन्दर से छापा मारता रहता है। इस बुराई के मुक़ाबले में अगर वही भलाई जो बिलकुल कमज़ोर और बेबस नज़र आती है, लगातार काम करती चली जाए तो आख़िरकार वह हावी होकर रहती है, क्योंकि अव्वल तो भलाई में अपनी जगह ख़ुद ही एक ताक़त है, दिलों को जीत लेती है और आदमी चाहे कितना ही बिगड़ा हुआ हो, अपने दिल में उसकी क़द्र महसूस किए बिना नहीं रह सकता। फिर जब भलाई और बुराई आमने-सामने मुक़ाबला कर रही हों और खुलकर दोनों के जौहर पूरी तरह नुमायाँ हो जाएँ, ऐसी हालत में तो एक मुद्दत की कशमकश के बाद कम ही लोग ऐसे बाक़ी रह सकते हैं जो बुराई से नफ़रत करनेवाले और भलाई को पसन्द करनेवाले न हो जाएँ। दूसरी बात यह कही गई कि बुराई का मुक़ाबला सिर्फ़ भलाई से नहीं, बल्कि उस भलाई से करो जो बहुत आला दरजे (उच्च कोटि) की हो। यानी कोई शख़्स तुम्हारे साथ बुराई करे और तुम उसको माफ़ कर दो तो यह सिर्फ़ भलाई है। आला दरजे की भलाई यह है कि जो तुमसे बुरा सुलूक करे, तुम मौक़ा आने पर उसके साथ एहसान यानी अच्छे-से-अच्छा करो। इसका नतीजा यह बताया गया है कि सबसे बुरा दुश्मन भी आख़िरकार जिगरी दोस्त बन जाएगा। इसलिए कि यही इनसानी फ़ितरत है। गाली के जवाब में आप चुप रह जाएँ तो बेशक यह एक भलाई होगी, मगर गाली देनेवाले की ज़बान बन्द न कर सकेगी। लेकिन अगर आप गाली के जवाब में भलाई की दुआ करें तो बड़े-से-बड़ा बेशर्म मुख़ालिफ़ भी शर्मिन्दा होकर रह जाएगा और फिर मुश्किल ही से कभी उसकी ज़बान आपके ख़िलाफ़ बुरा बोलने के लिए खुल सकेगी। कोई शख़्स आपको नुक़सान पहुँचाने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देता हो और आप उसकी ज़्यादतियाँ बरदाश्त करते चले जाएँ तो हो सकता है कि वह अपनी शरारतों पर और ज़्यादा दिलेर हो जाए। लेकिन अगर किसी मौक़े पर उसे नुक़सान पहुँच रहा हो और आप उसे बचा लें तो वह आपके क़दमों में आकर रहेगा, क्योंकि कोई शरारत मुश्किल ही से इस भलाई के मुक़ाबले में खड़ी रह सकती है। फिर भी इस ज़रूरी और अहम उसूल को इस मानी में लेना दुरुस्त नहीं है कि इस आला दरजे की भलाई से लाज़िमन हर दुश्मन जिगरी दोस्त ही बन जाएगा। दुनिया में ऐसी बुरी फ़ितरत के लोग भी होते हैं कि आप उनकी ज़्यादतियों को अनदेखा करने और उनकी बुराई का जबाब एहसान और भलाई से देने में चाहे कितना ही कमाल दिखाएँ, उनके बिच्छू जैसे डंक का ज़हरीलापन ज़र्रा बराबर कम नहीं होता। लेकिन इस तरह के सर से पैर तक बुरे इनसान लगभग उतने ही कम पाए जाते हैं जितने सर से पैर तक भले इनसान कम मिलते हैं।