(39) और यह कि इनसान के लिए कुछ नहीं है, मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है,38
38. इस बात से भी तीन अहम उसूल निकलते हैं : एक यह कि हर शख़्स जो कुछ भी पाएगा अपने अमल का फल पाएगा। दूसरा यह कि हर शख़्स के अमल का फल दूसरा नहीं पा सकता, सिवाय यह कि उस अमल में उसका अपना कोई हिस्सा हो। तीसरा यह कि कोई शख़्स कोशिश और अमल के बिना कुछ नहीं पा सकता।
इन तीन उसूलों को कुछ लोग दुनिया के माली मामलों पर ग़लत तरीक़े से चस्पाँ करने की कोशिश करके इनसे यह नतीजा निकालते हैं कि कोई शख़्स अपनी मेहनत की कमाई (Earned income) के सिवा किसी चीज़ का जाइज़ मालिक नहीं हो सकता। लेकिन यह बात क़ुरआन मजीद ही के दिए हुए कई क़ानून और हुक्मों से टकराती है। मसलन विरासत का क़ानून, जिसके मुताबिक़ एक शख़्स के तरके (छोड़े हुए माल-जायदाद) में से बहुत-से लोग हिस्सा पाते हैं और उसके जाइज़ वारिस क़रार पाते हैं, हालाँकि यह मीरास उनकी अपनी मेहनत की कमाई नहीं होती, बल्कि एक दूध-पीते बच्चे के बारे में तो किसी खींचतान से भी यह साबित नहीं किया जा सकता कि बाप के छोड़े हुए माल में उसकी मेहनत का भी कोई हिस्सा था। इसी तरह ज़कात और सदक़ों के हुक्म, जिनके मुताबिक़ एक आदमी का माल दूसरों को सिर्फ़ उनके शरई और अख़लाक़ी हक़ की बुनियाद पर मिलता है और वे उसके जाइज़ मालिक होते हैं, हालाँकि उस माल के पैदा करने में उनकी मेहनत का कोई हिस्सा नहीं होता। इसलिए क़ुरआन की किसी एक आयत को लेकर उससे ऐसे नतीजे निकालना जो ख़ुद क़ुरआन ही की दूसरी तालीमात से टकराते हों, क़ुरआन के मंशा के बिलकुल ख़िलाफ़ है।
कुछ दूसरे लोग इन उसूलों को आख़िरत के बारे में मानकर ये सवाल उठाते हैं कि क्या इन उसूलों के मुताबिक़ एक शख़्स का अमल दूसरे शख़्स के लिए किसी सूरत में भी फ़ायदेमन्द हो सकता है? और क्या एक शख़्स अगर दूसरे शख़्स के लिए या उसके बदले कोई अमल करे तो वह उसकी तरफ़ से क़ुबूल किया जा सकता है? और क्या यह भी मुमकिन है कि एक आदमी अपने अमल के बदले को दूसरे की तरफ़ भेज सके? इन सवालों का जवाब अगर इनकार में हो तो ईसाले-सवाब (मुर्दों को सवाब पहुँचाना) और हज्जे-बदल वग़ैरा सब नाजाइज़ हो जाते हैं, बल्कि दूसरे के हक़ में दुआ-ए-इसतिग़फ़ार (माफ़ी की दुआ) भी बे-मतलब हो जाती है, क्योंकि यह दुआ भी उस शख़्स का अपना अमल नहीं है, जिसके हक़ में दुआ की जाए। मगर यह इन्तिहाई नुक़्ता-ए-नज़र (अतिवादी दृष्टिकोण) मुअतज़िला (एक ख़ास फ़िरक़ा जो दीन के मामले में अक़्ल की बुनियाद पर फ़ैसले करता है) के सिवा मुसलमानों में से किसी ने भी नहीं अपनाया है। सिर्फ़ वे इस आयत का यह मतलब लेते हैं कि एक शख़्स की कोशिश दूसरे के लिए किसी हाल में भी फ़ायदेमन्द नहीं हो सकती। इसके बरख़िलाफ़ अहले-सुन्नत एक शख़्स के लिए दूसरे की दुआ के फ़ायदेमन्द होने पर एक राय हैं, क्योंकि वह क़ुरआन से साबित है, अलबत्ता ईसाले-सवाब और दूसरे के बदले किसी नेक काम के फ़ायदेमन्द होने में उनके बीच उसूली तौर पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ तफ़सीलात में फ़र्क़ है।
(i) ईसाले-सवाब यह है कि एक शख़्स कोई नेक काम करके अल्लाह से दुआ करे कि उसका सवाब और इनाम किसी दूसरे शख़्स को दे दिया जाए। इस मसले में इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) फ़रमाते हैं कि ख़ालिस बदनी इबादतों, मसलन नमाज़, रोज़ा और क़ुरआन की तिलावत वग़ैरा का सवाब दूसरे को नहीं पहुँच सकता, अलबत्ता माली इबादतों, मसलन सदक़ा, या माली और बदनी मिली-जुली इबादतों, मसलन हज का सवाब दूसरे को पहुँच सकता है, क्योंकि अस्ल यह है कि एक शख़्स का अमल दूसरे के लिए फ़ायदेमन्द न हो, मगर चूँकि सही हदीसों के मुताबिक़ सदक़े का सवाब पहुँचाया जा सकता है और दूसरे के बदले हज भी किया जा सकता है, इसलिए हम इसी तरह की इबादतों तक ईसाले-सवाब को सही मानते हैं। इसके बरख़िलाफ़ हनफ़ी मसलक के माननेवालों की राय यह है कि इनसान अपने हर नेक अमल का सवाब दूसरे को दे सकता है, चाहे वह नमाज़ हो या रोज़ा या क़ुरआन की तिलावत या ज़िक्र या सदक़ा या हज या उमरा। इसकी दलील यह है कि आदमी जिस तरह मजदूरी करके मालिक से यह कह सकता है कि इसका मेहनताना मेरे बजाय फ़ुलाँ शख़्स को दे दिया जाए, इसी तरह वह कोई नेक काम करके अल्लाह तआला से यह दुआ भी कर सकता है कि इसका इनाम मेरी तरफ़ से फ़ुलाँ शख़्स को दे दिया जाए। इसमें कुछ क़िस्म की नेकियों को अलग करने और कुछ दूसरी तरह की नेकियों तक महदूद रखने की कोई मुनासिब वजह नहीं है। यही बात बहुत-सी हदीसों से भी साबित है—
बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, इब्ने-माजा, तबरानी (फ़िल-औसत), मुस्तदरक और इब्ने-अबी-शैबा में हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०), हज़रत अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) और हज़रत हुजैफ़ा-बिन-असीद गिफ़ारी (रज़ि०) सभी ने रिवायत की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दो मेंढे लेकर एक अपनी और अपने घरवालों की तरफ़ से क़ुरबान किया और दूसरा अपनी उम्मत की तरफ़ से।
मुस्लिम, बुख़ारी, मुसनद अहमद, अबू-दाऊद और नसई में हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक शख़्स ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “मेरी माँ का अचानक इन्तिक़ाल हो गया है। मेरा ख़याल है कि अगर उन्हें बात करने का मौक़ा मिलता तो वे ज़रूर सदक़ा करने के लिए कहतीं। अब अगर मैं उनकी तरफ़ से सदका करूँ? तो क्या उनके लिए अज्र (बदला) है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ।"
मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि उनके दादा आस-बिन-वाइल ने जाहिलियत के ज़माने में सौ ऊँट ज़ब्ह करने की नज़्र मानी थी। उनके चचा हिशाम-बिन-आस ने अपने हिस्से के पचास ऊँट ज़ब्ह कर दिए। हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा कि मैं क्या करूँ? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर तुम्हारे बाप ने तौहीद (एकेश्वरवाद) का इक़रार कर लिया था तो उनकी तरफ़ से रोज़ा रखो या सदक़ा करो, वह उनके लिए फ़ायदेमन्द होगा।"
मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई और इब्ने-माजा में हज़रत हसन बसरी (रह०) की रिवायत है कि हज़रत साद-बिन-उबादा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा कि "मेरी माँ का इन्तिक़ाल हो गया है, क्या मैं उनकी तरफ़ से सदक़ा करूँ?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ।” इसी मज़मून की कई दूसरी रिवायतें भी हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, नसई, तिरमिजी, अबू-दाऊद और इब्ने-माजा वग़ैरा में मौजूद हैं, जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मरनेवाले की तरफ़ से सदक़ा करने की इजाज़त दी है और उसे मरनेवाले के लिए फ़ायदेमन्द बताया है।
दारे-क़ुतनी में है कि एक शख़्स ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “मैं अपने माँ-बाप की ख़िदमत उनकी ज़िन्दगी में तो करता हूँ, उनके मरने के बाद कैसे करूँ?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह भी उनकी ख़िदमत ही है कि तू उनके मरने के बाद अपनी नमाज़ के साथ उनके लिए भी नमाज़ पढ़े और अपने रोज़ों के साथ उनके लिए भी रोज़े रखे।” एक दूसरी हदीस दारे-क़ुतनी में हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत है, जिसमें वे बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिस शख़्स का क़ब्रिस्तान पर गुज़र हो और वह ग्यारह बार 'क़ुल हुवल्लाहु अहद' (कहो, अल्लाह एक है) पढ़कर उसका अज्र मरनेवालों को बख़्श दे तो जितने मुर्दे हैं उतना ही अज्र दे दिया जाएगा।"
ये इतनी सारी रिवायतें जो एक-दूसरे की ताईद कर रही हैं, इस बात को बयान करती हैं कि ईसाले-सवाब न सिर्फ़ मुमकिन है, बल्कि हर तरह की इबादतों और नेकियों के सवाब को पहुँचाया जा सकता है और उसमें किसी ख़ास तरह के आमाल को ख़ास नहीं किया गया है, मगर इस सिलसिले में चार बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ—
पहली बात यह कि सवाब उस अमल का पहुँचाया जा सकता है जो ख़ालिस अल्लाह के लिए और शरीअत के क़ायदों के मुताबिक़ पहुँचाया गया हो, वरना ज़ाहिर है कि अल्लाह के बजाय दूसरों के लिए या शरीअत के ख़िलाफ़ जो अमल किया जाए, उसपर ख़ुद अमल करनेवाले ही को किसी तरह का सवाब नहीं मिल सकता, कहाँ यह कि वह किसी दूसरे की तरफ़ पहुँच सके।
दूसरी बात यह कि जो लोग अल्लाह तआला के यहाँ नेक लोगों की हैसियत से मेहमान हैं उनको तो सवाब का हदिया (तोहफ़ा) यक़ीनन पहुँचेगा, मगर जो वहाँ मुजरिम की हैसियत से हवालात में बन्द हैं उन्हें कोई सवाब पहुँचने की उम्मीद नहीं है। अल्लाह के मेहमानों को हदिया तो पहुँच सकता है, मगर उम्मीद नहीं कि अल्लाह के मुजरिम को तोहफ़ा पहुँच सके। उसके लिए अगर कोई शख़्स किसी ग़लतफ़हमी की वजह से ईसाले-सवाब करेगा तो उसका सवाब बेकार न होगा, बल्कि मुजरिम को पहुँचने के बजाय उसी की तरफ़ पलट आएगा, जिसने वह नेक अमल किया होगा। जैसे मनी ऑर्डर अगर उस शख़्स को न पहुँचे जिसे भेजा गया हो तो भेजनेवाले को वापस मिल जाता है।
तीसरी बात यह है कि ईसाले-सवाब तो मुमकिन है, मगर 'ईसाले-अज़ाब' (अज़ाब पहुँचाना) मुमकिन नहीं है। यानी यह तो हो सकता है कि आदमी नेकी करके किसी दूसरे के लिए अज्र बख़्श दे और वह उसको पहुँच जाए, मगर यह नहीं हो सकता कि आदमी गुनाह करके उसका अज़ाब किसी को बख़्शे और वह उसे पहुँच जाए।
और चौथी बात यह है कि नेक अमल के दो फ़ायदे हैं : एक इसके वे नतीजे जो अमल करनेवाले की अपनी रूह और उसके अख़लाक़ पर पड़ते हैं और जिनकी बुनियाद पर वह अल्लाह के यहाँ भी अज्र का हक़दार होता है। दूसरा उसका वह बदला जो अल्लाह तआला इनाम के तौर पर उसे देता है। ईसाले-सवाब का ताल्लुक़ पहली चीज़ से नहीं है, बल्कि सिर्फ़ दूसरी चीज़ से है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख़्स कसरत करके कुश्ती में महारत हासिल करने की कोशिश करता है। इससे जो ताक़त और महारत उसमें पैदा होती है वह बहरहाल उसके अपने ही लिए ख़ास है। दूसरे की तरफ़ वह भेजी नहीं जा सकती। इसी तरह अगर वह किसी दरबार का नौकर है और पहलवान की हैसियत से उसके लिए एक तनख़ाह मुक़र्रर है तो वह भी उसी को मिलेगी, किसी और को न दी जाएगी। अलबत्ता जो इनाम उसके काम पर ख़ुश होकर उसका सरपरस्त उसे दे, उसके हक़ में वह दरख़ास्त कर सकता है कि वह उसके उस्ताद, या माँ-बाप, या दूसरे एहसान करनेवालों को उसकी तरफ़ से दे दिए जाएँ। ऐसा ही मामला नेक कामों का है कि उनके रूहानी फ़ायदे तो दूसरों को नहीं पहुँचाए जा सकते और उनका बदला भी किसी को नहीं दिया जा सकता, मगर उनके अज्र और सवाब के बारे में वह अल्लाह तआला से दुआ कर सकता है कि वह उसके किसी क़रीबी रिश्तेदार या उसके किसी एहसान करनेवाले को दे दिया जाए। इसी लिए इसको ईसाले-जज़ा (अमल का बदला पहुँचाना) नहीं, बल्कि ईसाले-सवाब (अमल का इनाम पहुँचाना) कहा जाता है।
(ii) एक शख़्स की कोशिश के किसी और शख़्स के लिए फ़ायदेमन्द होने की दूसरी शक्ल यह है कि आदमी या तो दूसरे की ख़ाहिश और मरज़ी की बुनियाद पर उसके लिए कोई नेक अमल करे, या उसकी ख़ाहिश और मरज़ी के बिना उसकी तरफ़ से कोई ऐसा अमल करे जो अस्ल में वाजिब तो उसके ज़िम्मे था, मगर वह ख़ुद उसे अदा न कर सका। इसके बारे में हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि इबादतों की तीन क़िस्में हैं। एक ख़ालिस बदनी, जैसे नमाज़, दूसरी ख़ालिस माली, जैसे ज़कात और तीसरी माली और बदनी मिली-जुली, जैसे हज। इनमें से पहली क़िस्म में बदल नहीं हो सकता, मसलन एक शख़्स की तरफ़ से दूसरा शख़्स उसके बदले में नमाज़ नहीं पढ़ सकता। दूसरी क़िस्म में बदल हो सकता है, मसलन बीवी के ज़ेवरात की ज़कात शौहर दे सकता है। तीसरी क़िस्म में सिर्फ़ उस हालत में बदल हो सकता है जबकि अस्ल शख़्स, जिसकी तरफ़ से कोई काम किया जा रहा है, अपना फ़र्ज़ अदा करने से वक़्ती तौर पर नहीं, बल्कि मुस्तक़िल (स्थायी) तौर पर मजबूर हो, मसलन हज्जे-बदल ऐसे शख़्स की तरफ़ से हो सकता है जो ख़ुद हज के लिए न जा सकता हो और न यह उम्मीद हो कि वह कभी इस क़ाबिल हो सकेगा। मालिकी और शाफ़िई मसलक के आलिम भी यही कहते हैं। अलबत्ता इमाम मालिक (रह०) हज्जे-बदल के लिए यह शर्त लगाते हैं कि अगर बाप ने वसीयत की हो कि उसका बेटा उसके बाद उसकी तरफ़ से हज करे तो वह हज्जे-बदल कर सकता है, वरना नहीं। मगर हदीसें इस मामले में बिलकुल साफ़ हैं कि बाप की मरज़ी या वसीयत हो, या न हो, बेटा उसकी तरफ़ से हज्जे-बदल कर सकता है।
इजे-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि ख़सअम क़बीले की एक औरत ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि मेरे बाप को हज के फ़र्ज़ होने का हुक्म ऐसी हालत में पहुँचा है कि वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं, ऊँट की पीठ पर बैठ नहीं सकते। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तो उनकी तरफ़ से तुम हज कर लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई)। क़रीब-क़रीब इसी मज़मून की रिवायत हज़रत अली (रज़ि०) ने भी बयान की है। (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी)।
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) ख़सअम क़बीले ही के एक मर्द का ज़िक्र करते हैं कि उसने भी अपने बूढ़े बाप के बारे में यही सवाल किया था। नबी (सल्ल०) ने पूछा, कि “क्या तुम उनके सबसे बड़े लड़के हो?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारा क्या ख़याल है, अगर तुम्हारे बाप पर क़र्ज़ हो और तुम उसको अदा कर दो तो वह उनकी तरफ़ से अदा हो जाएगा?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बस इसी तरह तुम उनकी तरफ़ से हज भी कर लो।" (हदीस : अहमद, नसई)।
इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि जुहैना नामी क़बीले की एक औरत ने आकर अर्ज़ किया कि मेरी माँ ने हज करने की नज़्र (मन्नत) मानी थी, मगर वे उससे पहले ही मर गईं, अब क्या मैं उनकी तरफ़ से हज कर सकती हूँ? अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जवाब दिया, “तुम्हारी माँ पर अगर क़र्ज़ होता तो क्या तुम उसको अदा न कर सकती थीं? इसी तरह तुम लोग अल्लाह का हक़ भी अदा करो और अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उसके साथ किए हुए वादे पूरे किए जाएँ।" (हदीस : बुख़ारी, नसई)
बुख़ारी और मुसनद अहमद में एक दूसरी रिवायत यह है कि एक मर्द ने आकर अपनी बहन के बारे में यही सवाल किया जो ऊपर बयान हुआ है और नबी (सल्ल०) ने उसको भी वही जवाब दिया।
इन रिवायतों से माली और बदनी मिली-जुली इबादतों में नियाबत (बदले के तौर पर अदा करने) का साफ़ सुबूत मिलता है। रहीं ख़ालिस बदनी इबादतें तो कुछ हदीसें ऐसी हैं जिनसे इस तरह की इबादतों में भी नियाबत का जाइज़ होना साबित होता है। मिसाल के तौर पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की यह रिवायत कि जुहैना क़बीले की एक औरत ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “मेरी माँ ने रोज़े की नज़्र (मन्नत) मानी थी और वे पूरी किए बिना मर गई, क्या मैं उनकी तरफ़ से रोज़ा रख सकती हूँ?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उनकी तरफ़ से रोज़ा रख लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, अबू-दाऊद)। और हज़रत बुरैदा (रज़ि०) की यह रिवायत है कि एक औरत ने अपनी माँ के बारे में पूछा कि उनके ज़िम्मे एक महीने (या दूसरी रिवायत के मुताबिक़ दो महीने) के रोज़े थे, क्या मैं ये रोज़े अदा कर दूँ? आप (सल्ल०) ने उसको भी इसकी इजाज़त दे दी, (हदीस : मुस्लिम, अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद)। और हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स मर जाए और उसके ज़िम्मे कुछ रोज़े हों तो उसकी तरफ़ से उसका वली (क़रीबी, वारिस) वे रोज़े रख ले,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, बज़्ज़ार की रिवायत में नबी सल्ल० के अलफ़ाज़ ये हैं कि उसका वली अगर चाहे तो उसकी तरफ़ से ये रोज़े रख ले)। इन ही हदीसों की बुनियाद पर हदीस के आलिमों इमाम औज़ाई और ज़ाहिरी मसलक के आलिमों का मानना है कि बदनी इबादतों में भी नियाबत जाइज़ है। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम ज़ैद-बिन-अली (रह०) का फ़तवा यह है कि मरनेवाले की तरफ़ से रोज़ा नहीं रखा जा सकता और इमाम अहमद (रह०), इमाम लैस और इसहाक़-बिन-राहवैह (रह०) कहते हैं कि सिर्फ़ उस सूरत में ऐसा किया जा सकता है जबकि मरनेवाले ने उसकी नज़्र (मन्नत) मानी हो और वह उसे पूरा न कर सका हो। मना करनेवालों की दलील यह है कि जिन हदीसों से इसके जाइज़ होने का सुबूत मिलता है, उनके रिवायत करनेवालों ने ख़ुद इसके ख़िलाफ़ फ़तवा दिया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का फ़तवा नसई ने इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है कि “कोई शख़्स किसी की तरफ़ से न नमाज़ पढ़े, न रोज़ा रखे।” और हज़रत आइशा (रज़ि०) का फ़तवा अब्दुर्रज़्ज़ाक़ की रिवायत के मुताबिक़ यह है कि अपने मुर्दों की तरफ़ से रोज़ा न रखो, बल्कि खाना खिलाओ।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से भी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने यही बात नक़्ल की है कि मरनेवाले की तरफ़ से रोज़ा न रखा जाए। इससे मालूम होता है कि शुरू में बदनी इबादतों में नियाबत की इजाज़त थी, मगर आख़िरी हुक्म यही क़रार पाया कि ऐसा करना जाइज़ नहीं है। वरना किस तरह मुमकिन था कि जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से ये हदीसें नक़्ल की हैं वे ख़ुद उनके ख़िलाफ़ फ़तवा देते।
इस सिलसिले में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि नियाबत (बदल) के तौर पर किसी फ़र्ज़ को अदा करना सिर्फ़ उन ही लोगों के हक़ में फ़ायदेमन्द हो सकता है जो ख़ुद फ़र्ज़ अदा करने के ख़ाहिशमन्द हों और मजबूरी की वजह से अदा करने से रह गए हों। लेकिन अगर कोई शख़्स ताक़त और क़ुदरत के बावजूद जान-बूझकर हज से दूर रहा और उसके दिल में इस फ़र्ज़ का एहसास तक न था, उसके लिए चाहे कितने ही हज्जे-बदल किए जाएँ, वे उसके हक़ में फ़ायदेमन्द नहीं हो सकते। यह ऐसा ही है जैसे एक शख़्स ने किसी का क़र्ज़ जान-बूझकर मार खाया हो और मरते दम तक उसका कोई इरादा क़र्ज़ अदा करने का न था। उसकी तरफ़ से चाहे बाद में पाई-पाई अदा कर दी जाए, अल्लाह तआला की निगाह में वह क़र्ज़ मारनेवाला ही माना जाएगा। दूसरे के अदा करने से ज़िम्मेदारी से सिर्फ़ वही शख़्स छूट सकता है जो अपनी ज़िन्दगी में क़र्ज़ अदा करने का ख़ाहिशमन्द हो और किसी मजबूरी की वजह से अदा न कर सका हो।