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سُورَةُ النَّجۡمِ

53. अन-नज्म

(मक्का में उतरी, आयतें 62)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वन-नज्म' (क़सम है तारे की) से लिया गया है और केवल प्रतीक के रूप में इसे इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हजरत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि "पहली सूरा, जिसमें सजदे की आयत उतरी, अन-नज्म है।" साथ ही यह कि यह क़ुरआन मजीद की वह पहली सूरा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़ुरैश के एक जन-समूह में (और इब्‍ने-मर्दूया की रिवायत के अनुसार काबा में) सुनाया था। जन-समूह में काफ़िर और मोमिन सब मौजूद थे। आख़िर में जब आपने सजदे की आयत पढ़कर सजदा किया तो तमाम उपस्थित लोग आप (सल्ल०) के साथ सजदे में गिर गए और बहुदेववादियों के वे बड़े-बड़े सरदार तक, जो विरोध में आगे-आगे थे, सजदा किए बिना न रह सके। इब्‍ने-सअद का बयान है कि इससे पहले रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम की एक छोटी-सी जमाअत हबशा की ओर हिजरत कर चुकी थी। फिर जब उसी साल रमज़ान में यह घटना घटित हुई तो हबशा के मुहाजिरों तक यह क़िस्सा इस रूप में पहुँचा कि मक्का के इस्लाम-विरोधी मुसलमान हो गए हैं। इस ख़बर को सुनकर उनमें से कुछ लोग शव्वाल सन् 05 नबवी में मक्का वापस आ गए, मगर यहाँ आकर मालूम हुआ कि ज़ुल्म की चक्की उसी तरह चल रही है जिस तरह पहले चल रही थी। अन्ततः हबशा को दूसरी हिजरत घटित हुई जिसमें पहली हिजरत से भी अधिक लोग मक्का छोड़कर चले गए। इस तरह यह बात लगभग निश्चित रूप से मालूम हो जाती है कि यह सूरा रमज़ान 05 नबवी में उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उतरने के समय के इस विवरण से मालूम हो जाता है कि वे परिस्थितियाँ क्या थीं जिनमें यह सूरा उतरी। [मक्का के इस्लाम-विरोधियों की बराबर यह कोशिश रहती थी कि] ईश्वरीय वाणी को न ख़ुद सुनें, न किसी को सुनने दें और उसके विरुद्ध तरह-तरह की भ्रामक बातें फैलाकर सिर्फ़ अपने झूठे प्रोपगंडे के बल पर आप (सल्ल०) की दावत (आह्‍वान) को दबा दें। इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन पवित्र हरम (काबा) में जब यह घटना घटी कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से इस सूरा नज्म को सुनकर आप (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के इस्लाम विरोधी भी सजदे में गिर गए, तो बाद में उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि यह हमसे क्या कमज़ोरी ज़ाहिर हुई। और लोगों ने भी इसके कारण उनपर चोटें करनी शुरू कर दी कि दूसरों को तो इस वाणी को सुनने से मना करते थे, आज ख़ुद उसे न सिर्फ़ यह कि कान लगाकर सुना, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सजदे में भी गिर गए। अन्तत: उन्होंने यह बात बनाकर अपना पीछा छुड़ाया कि साहब! हमारे कानों ने तो "अब तनिक बताओ तुमने कभी इस 'लात' और 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?" के बाद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से ये शब्द सुने थे, "ये ऊच्च कोटी की देवियाँ हैं और इनकी सिफ़ारिश की अवश्य आशा की जा सकती है।" इसलिए हमने समझा कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे तरीक़े पर वापस आ गए हैं, हालाँकि कोई पागल आदमी ही यह सोच सकता था कि इस पूरी सूरा के संदर्भ में उन वाक्यों की भी कोई जगह हो सकती है जो उनका दावा था कि उनके कानों ने सुने हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखें, सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 96-101)

विषय और वार्ता

व्याख्यान का विषय मक्का के इस्लाम-विरोधियों को उस नीति की ग़लती पर सावधान करना है जो वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के सिलसिले में अपनाए हुए थे। वार्ता इस तरह आरंभ हुई है कि मुहम्मद (सल्ल०) बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं, जैसा कि तुम उनके बारे में प्रचार करते फिर रहे हो और न इस्लाम की यह शिक्षा और आमंत्रण उन्होंने स्वयं अपने दिल से घड़ा है, जैसा कि तुम अपनी दृष्टि में समझे बैठे हो, बल्कि जो कुछ वे पेश कर रहे हैं, वह विशुद्ध वह्य (प्रकाशना) है जो उनपर अवतरित की जाती है। जिन सच्चाइयों को वे तुम्हारे सामने बयान करते हैं, वे उनकी अपनी कल्पना और अन्दाज़े की उपज नहीं हैं, बल्कि उनकी आँखों देखी सच्चाइयाँ हैं। इसके बाद क्रमश: तीन विषय लिए गए हैं—

एक, यह कि सुननेवालों को समझाया गया है कि जिस दीन (धर्म) का तुम अनुसरण कर रहे हो, उसका आधार केवल अटकल और मनमानी कल्पनाओं पर स्थिर है। तुमने जो अक़ीदे (धारणाएँ) अपना रखे हैं, उनमें से कोई अक़ीदा भी किसी ज्ञान और प्रमाण पर आधारित नहीं है, बल्कि कुछ इच्छाएँ हैं जिनके लिए तुम कुछ कतिपय अंधविश्वासों को सच्चाई समझ बैठे हो। यह एक बहुत बड़ी बुनियादी ग़लती है जिसमें तुम लोग पड़े हुए हो। इस ग़लती में तुम्हारे पड़ने का मूल कारण यह है कि तुम्हें आख़िरत की कोई चिन्ता नहीं है, बस दुनिया ही तुम्हारी अभीष्ट बनी हुई है, इसलिए तुम्हें सत्य के ज्ञान की कोई चाह नहीं है।

दूसरा, यह कि लोगों को यह बताया गया है कि अल्लाह ही सम्पूर्ण जगत् का मालिक एवं सर्वाधिकारी है। सीधे रास्ते पर वह है जो उसके रास्ते पर हो और गुमराह वह जो उसकी राह से हटा हुआ हो।हर एक के कर्म को वह जानता है और उसके यहाँ अनिवार्य रूप से बुराई का बदला बुरा और भलाई का बदला भला मिलकर रहना है।

तीसरा, यह कि सत्य धर्म के उन कुछ आधारभूत तथ्यों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है जो क़ुरआन मजीद के अवतरण से सैकड़ों वर्ष पहले हज़रत इबराहीम और हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित धर्म-ग्रंथों में बयान हो चुके थे, ताकि उनको मालूम हो जाए कि ये वे आधारभूत तथ्य हैं जो हमेशा से अल्लाह के नबी बयान करते चले आए हैं।

इन वार्ताओं के बाद अभिभाषण को इस बात पर समाप्त किया गया है कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब आ लगी है जिसे कोई टालनेवाला नहीं है। उस घड़ी के आने से पहले मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरआन मजीद के द्वारा तुम लोगों को उसी तरह सचेत किया जा रहा है, जिस तरह पहले लोगों को सचेत किया गया था। अब क्या यही वह बात है जो तुम्हें अनोखी लगी है, जिसकी तुम हँसी उड़ाते हो?

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سُورَةُ النَّجۡمِ
53. अन-नज्म
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلنَّجۡمِ إِذَا هَوَىٰ
(1) क़सम है तारे की जबकि वह डूब गया!1
1. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अन-नज्म' इस्तेमाल हुआ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद (रह०) और सुफ़ियान सौरी (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद सुरैया (Pleiades) है। इब्ने-जरीर (रह०) और ज़मख़्शरी (रह०) ने इसी क़ौल (राय) को तरजीह दी है, क्योंकि अरबी ज़बान में जब सिर्फ़ 'अन-नज्म' का लफ़्ज़ बोला जाता है तो आम तौर पर इससे सुरैया ही मुराद लिया जाता है। सुद्दी (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद ज़ोहरा (शुक्र, Venus) है और अबू-उबैदा नहवी का कहना है कि यहाँ अन-नज्म बोलकर तारों की जिंस (जाति) मुराद ली गई है, यानी मतलब यह है कि जब सुबह हुई और सब सितारे डूब गए। मौक़ा-महल के लिहाज़ से हमारे नज़दीक यह आख़िरी क़ौल (राय) ज़्यादा तरजीह के क़ाबिल है।
مَا ضَلَّ صَاحِبُكُمۡ وَمَا غَوَىٰ ۝ 1
(2) तुम्हारा साथी'2 न भटका है और न बहका है।3
2. मुराद हैं अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) और बात कही जा रही है क़ुरैश के लोगों से। अस्ल अरबी अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं : 'साहिबुकुम' (तुम्हारा साहिब)। ‘साहिब' अरबी ज़बान में दोस्त, साथी, पास रहनेवाले और साथ उठने-बैठनेवाले को कहते हैं। इस जगह पर आप (सल्ल०) का नाम लेने या 'हमारा रसूल' कहने के बजाय 'तुम्हारा साहिब (साथी)' कहकर आप (सल्ल०) का ज़िक्र करने का बड़ा गहरा मतलब है। इसका मक़सद क़ुरैश के लोगों को यह एहसास दिलाना है कि जिस शख़्स का तुमसे ज़िक्र किया जा रहा है वह तुम्हारे यहाँ बाहर से आया हुआ कोई अज़नबी आदमी नहीं है कि उससे तुम्हारी पहले की कोई जान-पहचान न हो। तुम्हारी अपनी क़ौम का आदमी है। तुम्हारे साथ ही रहता-बसता है। तुम्हारा बच्चा-बच्चा जानता है कि वह कौन है, क्या है, किस सीरत और किरदार का इनसान है, कैसे उसके मामलात हैं, कैसी उसकी आदतें हैं और आज तक तुम्हारे बीच उसकी ज़िन्दगी कैसी रही है, उसके बारे में मुँह फाड़कर कोई कुछ कह दे तो तुम्हारे अन्दर हज़ारों आदमी उसके जाननेवाले मौजूद हैं जो ख़ुद देख सकते हैं कि यह बात उस शख़्स पर चस्पाँ होती भी है या नहीं।
3. यह है वह अस्ल बात जिसपर डूबनेवाले तारे या तारों की क़सम खाई गई है। भटकने से मुराद है किसी शख़्स का रास्ता न जानने की वजह से किसी ग़लत रास्ते पर चल पड़ना और बहकने से मुराद है किसी शख़्स का जान-बूझकर ग़लत रास्ता अपना लेना। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) जो तुम्हारे जाने-पहचाने आदमी हैं, उनपर तुम लोगों का यह इलज़ाम बिलकुल ग़लत है कि वे गुमराह हो गए या बहक गए हैं। हक़ीक़त में वे न भटके हैं, न बहके हैं। इस बात पर तारों के डूबने की क़सम जिस मुनासबत से खाई गई है वह यह है कि रात के अंधेरे में जब तारे निकले हुए हों, एक आदमी अपने आसपास की चीज़ों को साफ़ नहीं देख सकता और अलग-अलग चीज़ों की धुंधली शक्लें देखकर उनके बारे में ग़लत अन्दाज़े कर सकता है। मिसाल के तौर पर अंधेरे में दूर से किसी पेड़ को देखकर उसे भूत समझ सकता है। कोई रस्सी पड़ी देखकर उसे साँप समझ सकता है। रेत से कोई चट्टान उभरी देखकर यह ख़याल कर सकता है कि कोई दरिन्दा बैठा है। लेकिन जब तारे डूब जाएँ और सुबह रौशन हो जाए तो हर चीज़ अपनी असली शक्ल में आदमी के सामने आ जाती है। उस वक़्त किसी चीज़ की असलियत के बारे में कोई शक व शुब्हा नहीं होता। ऐसा ही मामला तुम्हारे यहाँ मुहम्मद (सल्ल०) का भी है कि उनकी ज़िन्दगी और शख़सियत अंधेरे में छिपी हुई नहीं है, बल्कि रौशन सुबह की तरह ज़ाहिर है। तुम जानते हो कि तुम्हारा यह 'साथी' एक बहुत ही नेक दिल, अक़्लमन्द और समझदार आदमी है। इसके बारे में क़ुरैश के किसी शख़्स को यह ग़लतफ़हमी कैसे हो सकती है कि वह गुमराह हो गया है! तुम यह भी जानते हो कि वह कमाल दरजे का नेक नीयत और सच्चा इनसान है। उसके बारे में तुममें से कोई शख़्स कैसे यह राय क़ायम कर सकता है कि वह जान-बूझकर न सिर्फ़ ख़ुद टेढ़ी राह पर चल पड़ा है, बल्कि दूसरों को भी उसी टेढ़े रास्ते की तरफ़ दावत देने के लिए खड़ा हो गया है!
وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ۝ 2
(3) वह अपनी मन-मरज़ी से नहीं बोलता,
إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡيٞ يُوحَىٰ ۝ 3
(4) यह तो एक वह्य है जो उसपर उतारी जाती है।4
4. मतलब यह है कि जिन बातों की वजह से तुम उसपर यह इलज़ाम लगाते हो कि वह गुमराह हो गया या बहक गया है, वे (बातें) उसने अपने दिल से नहीं गढ़ ली हैं, न उनपर उभारनेवाली (बातें) उसके अपने मन की ख़ाहिश है, बल्कि वे ख़ुदा की तरफ़ से उसपर वह्य के ज़रिए से उतारी गई हैं और उतारी जा रही हैं। उसका ख़ुद पैग़म्बर बनने को जी नहीं चाहता था, बल्कि ख़ुदा ने जब वह्य के ज़रिए से उसको इस मंसब पर मुक़र्रर किया तब वह तुम्हारे बीच पैग़म्बरी की तबलीग़ के लिए उठा और उसने तुमसे कहा कि “मैं तुम्हारे लिए ख़ुदा का नबी हूँ।” इसी तरह इस्लाम की यह दावत, तौहीद की यह तालीम, आख़िरत और दोबारा उठाए जाने और इकट्ठा किए जाने और आमाल के बदले की ये ख़बरें, कायनात और इनसान के बारे में ये हक़ीक़तें और पाकीज़ा ज़िन्दगी गुज़ारने के ये उसूल, जो वह पेश कर रहा है, यह सब कुछ भी उसका अपना बनाया हुआ कोई फ़लसफ़ा (दर्शन) नहीं है, बल्कि ख़ुदा ने वह्य के ज़रिए से उसको इन बातों का इल्म दिया है। इसी तरह यह क़ुरआन जो वह तुम्हें सुनाता है, यह भी उसका अपना गढ़ा हुआ नहीं है, बल्कि यह ख़ुदा का कलाम है जो वह्य के ज़रिए से उसपर उतरता है। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि नबी (सल्ल०) के बारे में अल्लाह तआला का यह कहना कि "वह अपनी मन-मरज़ी से नहीं बोलता, बल्कि जो कुछ वह कहता है, वह एक वह्य है जो उसपर उतारी जाती है,” आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से निकलनेवाली किन-किन बातों के बारे में है? क्या उसमें वे सारी बातें आ जाती हैं जो आप (सल्ल०) बोलते थे, या उसमें कुछ बातें आती हैं और कुछ नहीं आतीं? इसका जवाब यह है कि जहाँ तक क़ुरआन मजीद का ताल्लुक़ है, उसपर तो यह बात पहले दरजे में चस्पाँ होती है। रहीं वे दूसरी बातें जो क़ुरआन के अलावा नबी (सल्ल) की मुबारक ज़बान से अदा होती थीं, वे हर हाल में तीन ही क़िस्म की हो सकती थीं— एक क़िस्म की बातें वे थीं जो आप (सल्ल०) दीन की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) और अल्लाह की तरफ़ बुलाने के लिए करते थे, या क़ुरआन मजीद के मक़सद और मंशा को पूरा करने के लिए तक़रीर और नसीहत करते और लोगों को तालीम देते थे। उनके बारे में ज़ाहिर है कि यह शक करने सिरे से कोई गुंजाइश नहीं है कि ये बातें, अल्लाह की पनाह! आप (सल्ल०) अपने दिल से गढ़ते थे। इन बातों में तो आप (सल्ल०) की हैसियत हक़ीक़त में क़ुरआन के सरकारी तरजुमान (प्रवक्ता) और अल्लाह तआला के मुक़र्रर किए हुए नुमाइन्दे की थी। ये बातें अगरचे उस तरह लफ़्ज़-लफ़्ज़ आप (सल्ल०) पर उतारी नहीं जाती थीं, जिस तरह क़ुरआन आप (सल्ल०) पर उतारा जाता था, मगर ये लाज़िमन थीं उसी इल्म पर मबनी (आधारित) जो कि वह्य के ज़रिए से आप (सल्ल०) को दिया गया था। इनमें और क़ुरआन में फ़र्क़ सिर्फ़ यह था कि क़ुरआन के अलफ़ाज़ और मतलब सब कुछ अल्लाह की तरफ़ से थे, और इन दूसरी बातों में मानी और मतलब वे थे जो अल्लाह ने आप (सल्ल०) को सिखाए थे और उनको अदा आप (सल्ल०) अपने अलफ़ाज़ में करते थे। इसी फ़र्क़ की बुनियाद पर क़ुरआन को 'वह्ये-जली' (खुली और वाज़ेह वह्य) और आप (सल्ल०) की इन दूसरी बातों को 'वह्ये-ख़फ़ी' (छिपी हुई वह्य) कहा जाता है। दूसरी क़िस्म की बातें वे थीं जो नबी (सल्ल०) अल्लाह के कलिमे का बोलबाला करने की जिद्दो-जुह्द और दीन क़ायम करने के कामों के सिलसिले में करते थे। इस काम में आप (सल्ल०) को मुसलमानों की जमाअत के क़ाइद और रहनुमा की हैसियत से अलग-अलग तरह की बेशुमार ज़िम्मेदारियाँ अदा करनी होती थीं, जिनमें बहुत बार आप (सल्ल०) ने अपने साथियों से मश्वरा भी लिया है, अपनी राय छोड़कर उनकी राय भी मानी है, उनके पूछने पर कभी-कभी यह भी वाज़ेह किया है कि यह बात मैं ख़ुदा के हुक्म से नहीं, बल्कि अपनी राय के तौर पर कह रहा हूँ और कई बार ऐसी भी हुआ है कि आप (सल्ल०) ने अपने इजतिहाद (तहक़ीक़) से कोई बात की है और बाद में अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके ख़िलाफ़ हिदायत आ गई है। इस तरह की जितनी भी बातें आप (सल्ल०) ने की हैं, उनमें से भी कोई ऐसी न थी और बिलकुल भी न हो सकती थी, जिसका दारोमदार अपनी ख़ाहिश पर हो। रहा यह सवाल कि क्या उनका दारोमदार वह्य पर था? इसका जवाब यह है कि सिवाय उन बातों के जिनमें आप (सल्ल०) ने ख़ुद वाज़ेह किया है कि ये अल्लाह के हुक्म से नहीं हैं, या जिनमें आप (सल्ल०) ने सहाबा (रज़ि०) से मशवरा माँगा है और उनकी राय क़ुबूल की है, या जिनमें आप (सल्ल०) से कोई बात या अमल होने के बाद अल्लाह तआला ने उसके ख़िलाफ़ हिदायत उतार दी है, बाक़ी तमाम बातों का दारोमदार उसी तरह 'वह्ये-ख़फ़ी' पर था जिस तरह पहली क़िस्म की बातें। इसलिए कि इस्लामी दावत के क़ाइद, रहनुमा और ईमानवालों की जमाअत के सरदार और इस्लामी हुकूमत के चलानेवाले का जो मंसब आप (सल्ल०) को हासिल था वह आप (सल्ल०) का अपना बनाया हुआ या लोगों का दिया हुआ न था, बल्कि उसपर आप (सल्ल०) अल्लाह तआला की तरफ़ से मुक़र्रर हुए थे और इस मंसब की ज़िम्मेदारियों को अदा करने में आप (सल्ल०) जो कुछ कहते और करते थे उसमें आप (सल्ल०) की हैसियत अल्लाह की मरज़ी के नुमाइन्दे की थी। इस मामले में आप (सल्ल०) ने जो बातें अपनी तहक़ीक़ और राय से की हैं उनमें भी आप (सल्ल०) का इजतिहाद अल्लाह को पसन्द था और इल्म की उस रौशनी से लिया गया था जो अल्लाह ने आप (सल्ल०) को दी थी। इसलिए जहाँ आप (सल्ल०) का इजतिहाद ज़रा भी अल्लाह की पसन्द से हटा है वहाँ फ़ौरन ‘वह्ये-जली' से उसको सुधार दिया गया है। नबी (सल्ल०) की अपनी कुछ तहक़ीक़ और रायों में वह्य के ज़रिए से यह सुधार अपनी जगह ख़ुद इस बात की निशानी है कि आप (सल्ल०) के बाक़ी तमाम इजतिहाद ठीक अल्लाह की मरज़ी के मुताबिक़ थे। तीसरी क़िस्म की बातें वे थीं जो नबी (सल्ल०) एक इनसान होने की हैसियत से ज़िन्दगी के (आम मामलों में करते थे, जिनका ताल्लुक़ पैग़म्बरी की ज़िम्मेदारियों से न था, जो आप (सल्ल०) नबी होने से पहले भी करते थे और नबी होने के बाद भी करते रहे। इस तरह की बातों के बारे में सबसे पहले तो यह समझ लेना चाहिए कि उनके बारे में ग़ैर-मुस्लिमों से कोई झगड़ा न था। ग़ैर-मुस्लिमों ने उनकी बुनियाद पर आप (सल्ल०) को गुमराह और बहका हुआ नहीं कहा था, बल्कि पहली दो तरह की बातों पर वे यह इलज़ाम लगाते थे। इसलिए उनपर सिरे से बात ही नहीं हो रही थी कि अल्लाह उनके बारे में यह आयत फ़रमाता, लेकिन इस जगह पर इनपर बात न होने के बावजूद यह हक़ीक़त है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से कोई बात अपनी ज़िन्दगी के इस निजी पहलू में भी कभी हक़ के सिवा नहीं निकलती थी, बल्कि हर वक़्त हर हाल में आप (सल्ल०) की बातें और काम उन हदों के अन्दर महदूद रहते थे जो अल्लाह तआला ने एक पैग़म्बराना और परहेज़गारीवाली ज़िन्दगी के लिए आप (सल्ल०) को बता दी थीं। इसलिए हक़ीक़त में वह्य का नूर उनमें भी काम कर रहा था। यही बात है कि जो कुछ सही हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल हुई है। मुसनद अहमद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं कभी हक़ के सिवा कोई बात नहीं कहता।” किसी सहाबी ने कहा, “ऐ अल्लाह रसूल! कभी-कभी आप हम लोगों से हँसी-मज़ाक़ भी तो कर लेते हैं।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हक़ीक़त में मैं हक़ के सिवा कुछ नहीं कहता।” मुसनद अहमद और अबू-दाऊद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है, वे कहते हैं कि मैं जो कुछ भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से सुनता था वह लिख लिया करता था, ताकि उसे महफ़ूज़ कर लूँ। क़ुरैश के लोगों ने मुझे इससे मना किया और कहने लगे कि तुम हर बात लिखते चले जाते हो, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इनसान हैं, कभी ग़ुस्से में भी कोई बात कह देते हैं। इसपर मैंने लिखना छोड़ दिया। बाद में इस बात का ज़िक्र मैंने नबी (सल्ल०) से किया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम लिखे जाओ, उस हस्ती की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है! मेरी ज़बान से कभी कोई बात हक़ के सिवा नहीं निकली है।” इस मसले पर तफ़सीली बहस के लिए देखिए— मेरी किताब 'क्या पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी नहीं?')
عَلَّمَهُۥ شَدِيدُ ٱلۡقُوَىٰ ۝ 4
(5) उसे ज़बरदस्त क़ुव्वतवाले ने तालीम दी है।5
5. यानी कोई इनसान उसको लिखनेवाला नहीं है, जैसा कि तुम गुमान करते हो, बल्कि यह इल्म उसको एक ऐसे ज़रिए से मिल रहा है जो इनसानी पहुँच से परे है। ज़बरदस्त ‘क़ुव्वतवाले' से मुराद कुछ लोगों के नज़दीक अल्लाह तआला की हस्ती है, लेकिन क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की एक बड़ी तादाद इसपर एक राय है कि इससे मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), क़तादा, मुजाहिद और रबीअ-बिन-अनस (रह०) से यही बात नक़्ल हुई है। इब्ने-जरीर, इब्ने कसीर, राज़ी और आलूसी (रह०) वग़ैरा उलमा ने भी इसी राय को अपनाया है। शाह वलियुल्लाह साहब और मौलाना अशरफ़ अली साहब (रह०) ने भी क़ुरआन के अपने तर्जमों में इसी की पैरवी की है और सही बात यह है कि ख़ुद क़ुरआन मजीद के दूसरे बयानों से भी यही साबित है। सूरा-81 तकवीर, आयतें—19 से 23 में अल्लाह तआला फ़रमाता है, “हक़ीक़त में यह एक बुज़ुर्ग फ़रिश्ते का बयान है जो ज़बरदस्त क़ुव्वतवाला है, अर्श के मालिक के यहाँ बड़ा दरजा रखता है, उसका हुक्म माना जाता है और वहाँ वह भरोसेमन्द है। तुम्हारा साथी कुछ दीवाना नहीं है, वह उस फ़रिश्ते को आसमान के खुले किनारे पर देख चुका है।" फिर सूरा-2 बक़रा की आयत-97 में इस फ़रिश्ते का नाम भी बयान कर दिया गया है जिसके ज़रिए से यह तालीम नबी (सल्ल०) के दिल पर उतारी गई थी, “उनसे कहो कि जो कोई जिबरील से दुश्मनी रखता हो, उसे मालूम होना चाहिए कि जिबरील ने अल्लाह ही के हुक्म से यह (क़ुरआन) तुम्हारे दिल पर उतारा है।” इन तमाम आयतों को अगर सूरा-53 नज्म की इस आयत के साथ मिलाकर पढ़ा जाए तो इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं रहती कि यहाँ ज़बरदस्त क़ुव्वतवाले मुअल्लिम (शिक्षक) से मुराद जिबरीले-अमीन (अलैहि०) ही हैं, न कि अल्लाह तआला। इस मसले पर तफ़सीली बात आगे आ रही है। इस मक़ाम पर कुछ लोग शक ज़ाहिर करते है की जिबरीले-अमीन (अलैहि०) को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तालीम देनेवाला कैसे ठहराया जा सकता है, इसका मतलब तो यह होगा कि वे उस्ताद हैं और नबी (सल्ल०) शागिर्द, और इससे नबी (सल्ल०) पर जिबरील (अलैहि०) की बरतरी (श्रेष्ठता) लाज़िम आएगी, लेकिन यह शक इसलिए ग़लत है कि जिबरील (अलैहि०) अपने किसी निजी इल्म से नबी (सल्ल०) को तालीम नहीं देते थे, जिससे आप (सल्ल०) पर उनका बरतर होना लाज़िम हो, बल्कि उनको अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) तक इल्म पहुँचाने का ज़रिआ बनाया था और वे सिर्फ़ तालीम का वासिता होने की हैसियत से ज़ाहिरी तौर पर आप (सल्ल०) के उस्ताद थे। इससे उनके बरतर होने का कोई पहलू नहीं निकलता। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे पाँच वक़्तों की नमाज़ें फ़र्ज़ होने के बाद अल्लाह तआला ने रसूल (सल्ल०) को नमाज़ के सही वक़्त बताने के लिए जिबरील (अलैहि०) को आप (सल्ल०) के पास भेजा और उन्होंने दो दिन तक पाँच वक़्त की नमाज़ें आप (सल्ल०) को पढ़ाईं। यह क़िस्सा बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और मुवत्ता वग़ैरा हदीस की किताबों में सही सनदों के साथ बयान हुआ है और उसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ख़ुद फ़रमाते हैं कि आप (सल्ल०) मुक़्तदी थे और जिबरील (अलैहि०) ने इमाम बनकर आप (सल्ल०) को नमाज़ पढ़ाई थी, लेकिन इस तरह सिर्फ़ तालीम की ग़रज़ से उनका इमाम बनाया जाना यह मानी नहीं रखता कि वे आप (सल्ल०) से बरतर थे।
ذُو مِرَّةٖ فَٱسۡتَوَىٰ ۝ 5
(6) जो बड़ा हिकमतवाला है।6 वह सामने आ खड़ा हुआ
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ज़ू-मिर्रतिन' इस्तेमाल किया गया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और क़तादा इसको ख़ूबसूरत और शानदार के मानी में लेते है। मुजाहिद, हसन बसरी, इब्ने-ज़ैद और सुफ़ियान सौरी कहते हैं कि इसका मतलब ताक़तवर है। सईद-बिन-मुसय्यब के नज़दीक इससे मुराद हिकमतवाला है। हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि 'ला तहिल्लुस-स-द-क़तु लि-ग़निय्यि व ला लिज़ी-मिर्रतिन सविय्यिन' (सदक़ा लेना न मालदार के लिए हलाल है और न जिस्मानी तौर से पूरी तरह तन्दुरुस्त के लिए)। इस हदीस में 'ज़ू-मिर्रतिन' को आप (सल्ल०) ने तन्दुरुस्त और जिस्मानी तौर से ठीक-ठाक होनेवाले के मानी में इस्तेमाल किया है। अरबी मुहावरे में यह लफ़्ज़ बहुत ही सही राय रखनेवाले और अक़्लमन्द और समझदार के मानी में भी इस्तेमाल होता है। अल्लाह तआला ने यहाँ जिबरील (अलैहि०) के लिए अपने अन्दर बहुत-से मानी और मतलब रखनेवाला यह लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया है कि उनमें अक़्ली और जिस्मानी, दोनों तरह की क़ुव्वतों का कमाल पाया जाता है। उर्दू (या हिन्दी) का कोई लफ़्ज़ इन तमाम मानी को समेटनेवाला नहीं है, इस वजह से हमने तर्जमे में इसके सिर्फ़ एक मतलब को अपनाया है, क्योंकि जिस्मानी क़ुव्वतों के कमाल का ज़िक्र इससे पहले के जुमले में आ चुका है।
وَهُوَ بِٱلۡأُفُقِ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 6
(7) जबकि वह ऊपरी उफ़ुक़ (क्षितिज) पर था,7
7. 'उफ़ुक़' (क्षितिज) से मुराद आसमान का पूर्वी किनारा है जहाँ से सूरज निकलता है और दिन की रौशनी फैलती है। इसी को सूरा-81 तकवीर की आयत-23 में 'उफ़ुक़िल-मुबीन' (रौशन क्षितिज) कहा गया है। दोनों आयतें बताती हैं कि पहली बार जिबरील (अलैहि०) जब नबी (सल्ल०) को नज़र आए उस वक़्त वे आसमान के पूर्वी किनारे से ज़ाहिर हुए थे और कई भरोसेमन्द रिवायतों से मालूम होता है कि उस वक़्त वे अपनी असली सूरत में थे जिसमें अल्लाह तआला ने उनको पैदा किया है। आगे चलकर हम वे तमाम रिवायतें नक़्ल करेंगे जिनमें यह बात बयान की गई है।
ثُمَّ دَنَا فَتَدَلَّىٰ ۝ 7
(8) फिर क़रीब आया और ऊपर रुक गया,
فَكَانَ قَابَ قَوۡسَيۡنِ أَوۡ أَدۡنَىٰ ۝ 8
(9) यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम फ़ासिला रह गया।8
8. यानी आसमान के ऊपरी पूर्वी किनारे से ज़ाहिर होने के बाद जिबरील (अलैहि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तरफ़ आगे बढ़ना शुरू किया, यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते वे आप (सल्ल०) के ऊपर आकर फ़ज़ा में रुक गए। फिर वे आप (सल्ल०) की तरफ़ झुके और इतने क़रीब हो गए कि आप (सल्ल०) के और उनके बीच सिर्फ़ दो कमानों के बराबर या कुछ कम फ़ासिला रह गया। आम तौर पर तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने अस्ल अरबी लफ़्ज़ 'क़ा-ब क़ौसैनि' के मानी 'दो कमानों के बराबर' ही बयान किए हैं, लेकिन हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने 'क़ौस' को 'हाथ' के मानी में लिया है और 'का-न क़ा-ब क़ौसैनि' का मतलब वे यह बयान करते हैं कि दोनों के बीच सिर्फ़ दो हाथ का फ़ासिला रह गया था। और यह जो फ़रमाया कि फ़ासिला (दूरी) दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम था, तो इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह! फ़ासिला कितना था इसे यक़ीनी तौर से बताने में अल्लाह तआला को कोई शक हो गया है। अस्ल में यह अन्दाज़े-बयान इसलिए अपनाया गया है कि तमाम कमानें लाज़िमन एक ही नाप की नहीं होतीं और उनके हिसाब से किसी फ़ासिले को जब बयान किया जाएगा तो फ़ासिले की मिक़दार में ज़रूर कमी-बेशी होगी।
فَأَوۡحَىٰٓ إِلَىٰ عَبۡدِهِۦ مَآ أَوۡحَىٰ ۝ 9
(10) तब उसने अल्लाह के बन्दे को वह्य पहुँचाई जो वह्य भी उसे पहुँचानी थी।9
9. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'फ़औहा इला अबदिही मा औहा'। इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि “उसने वह्य की उस बन्दे पर जो कुछ भी वह्य की।” और दूसरा यह कि “उसने वह्य की अपने बन्दे पर जो कुछ भी वह्य की।” पहला तर्जमा किया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि जिबरील (अलैहि०) ने वह्य की अल्लाह के बन्दे पर जो कुछ भी उसको वह्य करनी थी। और दूसरा तर्जमा किया जाए तो मतलब यह होगा कि अल्लाह ने वह्य की जिबरील के वासिते से अपने बन्दे पर जो कुछ उसको वह्य करनी थी। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने ये दोनों मतलब बयान किए हैं। मगर मौक़ा-महल के साथ ज़्यादा मुनासबत पहला मतलब ही रखता है और वही हज़रत हसन बसरी और इब्ने ज़ैद (रह०) से नक़्ल हुआ है। इसपर यह सवाल किया जा सकता है कि 'अबदिही' की ज़मीर (सर्वनाम) 'औहा' के फ़ाइल (कर्ता) की तरफ़ फिरने के बजाय अल्लाह तआला की तरफ़ कैसे फिर सकती है जबकि सूरा की शुरुआत से यहाँ तक अल्लाह का नाम सिरे से आया ही नहीं है? इसका जवाब यह है कि जहाँ ज़मीर (सर्वनाम) का ताल्लुक़ किसी ख़ास शख़्स की तरफ़ मौक़ा-महल से साफ़ ज़ाहिर हो रहा हो वहाँ ज़मीर (सर्वनाम) आप-से-आप उसी की तरफ़ फिरती है चाहे उसका ज़िक्र पहले न आया हो। इसकी कई मिसालें ख़ुद क़ुरआन मजीद में मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर अल्लाह तआला का फ़रमान है, “हमने उसको क़द्र की रात में उतारा है,” (सूरा-97 क़द्र, आयत-1)। यहाँ क़ुरआन का सिरे से कहीं ज़िक्र नहीं आया है, मगर मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि 'उसको' से मुराद क़ुरआन है। एक और जगह कहा गया है, “अगर अल्लाह लोगों को उनके करतूतों पर पकड़ने लगे तो इसकी पीठ पर किसी जानदार को न छोड़े,” (सूरा-16 नह्ल, आयत-61)। यहाँ आगे-पीछे ज़मीन का ज़िक्र कहीं नहीं आया है, मगर बात के मौक़ा-महल से ख़ुद ज़ाहिर होता है कि ‘इसकी पीठ' से मुराद ज़मीन की पीठ है। सूरा-36 या-सीन, आयत-69 में फ़रमाया गया है, “हमने उसे शेअर की तालीम नहीं दी है और न शाइरी उसको ज़ेब (शोभा) देती है।” यहाँ पहले या बाद में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का कोई ज़िक्र नहीं आया है, मगर बात का अन्दाज़ बता रहा है कि ‘उसे' और 'उसको' के अलफ़ाज़ नबी (सल्ल०) ही के लिए आए हैं। सूरा-55 रहमान, आयत-26 में फ़रमाया, “वह सब कुछ जो इसपर है मिट जानेवाला है।” आगे-पीछे कोई ज़िक्र ज़मीन का नहीं है, मगर इबारत का अन्दाज़ ज़ाहिर कर रहा है कि 'अलैहा' (उसपर) की ज़मीर (उस) का ताल्लुक़ ज़मीन से है। सूरा-56 वाक़िआ, आयत-35 में कहा गया, “हमने उनको ख़ास तौर पर पैदा किया होगा।” आसपास कोई चीज़ नहीं है जिसकी तरफ़ 'हुन-न' (उनको) की ज़मीर फिरती नजर आती हो। यह बात के अन्दाज़ से ज़ाहिर होता है कि मुराद जन्नत की औरतें हैं। तो चूँकि 'औला इला अबदिही' का यह मतलब बहरहाल नहीं हो सकता कि जिबरील (अलैहि०) ने अपने बन्दे पर वह्य की, इसलिए लाज़िमी तौर से इसका मतलब यही लिया जाएगा कि जिबरील (सल्ल०) ने अल्लाह के बन्दे पर वह्य की, या फिर यह कि अल्लाह ने जिबरील के वासिते से अपने बन्दे पर वह्य की।
مَا كَذَبَ ٱلۡفُؤَادُ مَا رَأَىٰٓ ۝ 10
(11) नज़र ने जो कुछ देखा दिल ने उसमें झूठ न मिलाया10
10. यानी देखने का यह तजरिबा जो दिन की रौशनी में और पूरी तरह जागने की हालत में खुली आँखों से मुहम्मद (सल्ल०) को हुआ, उसपर उनके दिल ने यह नहीं कहा कि यह नज़र का धोखा है, या यह कोई जिन्न या शैतान है जो मुझे नज़र आ रहा है, या मेरे सामने कोई ख़याली सूरत आ गई है और मैं जागते में कोई ख़ाब देख रहा हूँ, बल्कि उनके दिल ने ठीक वही कुछ समझा जो उनकी आँखें देख रही थीं। उन्हें इस बात में कोई शक नहीं हुआ कि सचमुच ये जिबरील हैं और जो पैग़ाम पहुँचा रहे हैं वह सचमुच अल्लाह की तरफ़ से वह्य है। इस जगह यह सवाल पैदा होता है कि आख़िर वह क्या बात है जिसकी वजह से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ऐसी अजीब और ग़ैर-मामूली चीज़े देखने के बारे में बिलकुल भी कोई शक न हुआ और आप (सल्ल०) ने पूरे यक़ीन के साथ जान लिया कि उनकी आँखें जो कुछ देख रहीं हैं वह सचमुच हक़ीक़त है, कोई ख़याली चीज़ नहीं है और कोई जिन्न या शैतान भी नहीं है? इस सवाल पर जब हम ग़ौर करते हैं तो उसकी पाँच वजहें हमारी समझ में आती हैं— एक यह कि वे बाहरी हालात जिनमें यह सब दिखाया गया था, इसके सही होने का यक़ीन दिलानेवाले थे। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह आँखों देखा तजरिबा अंधेरे में, या मुराक़बे (ध्यान) की हालत में, या ख़ाब में, या जागने-सोने की-सी हालत में नहीं हुआ था, बल्कि सुबह रौशन हो चुकी थी, आप (सल्ल०) पूरी तरह जाग रहे थे, खुली फ़ज़ा में और दिन की पूरी रौशनी में अपनी आँखों से यह मंज़र (दृश्य) ठीक उसी तरह देख रहे थे जिस तरह कोई शख़्स दुनिया के दूसरे मंज़रों को देखता है। इसमें अगर शक की गुंजाइश हो तो हम दिन के वक़्त नदी, पहाड़, आदमी, मकान, ग़रज़ जो कुछ भी देखते हैं, उन सबमें भी फिर शक और सिर्फ़ नज़र का धोखा हो सकता है। दूसरी यह कि नबी (सल्ल०) की अपनी अन्दरूनी हालत भी उसके सही होने का यक़ीन दिलानेवाली थी। आप (सल्ल०) पूरी तरह अपने होश व हवास में थे। पहले से आप (सल्ल०) के ज़ेहन में इस तरह का सिरे से कोई ख़याल न था कि आप (सल्ल०) को ऐसा कोई आँखों देखा तजरिबा होना चाहिए या होनेवाला है। ज़ेहन इस सोच से और इसकी तलाश से बिलकुल ख़ाली था और इस हालत में अचानक आप (सल्ल०) का इस मामले से सामना हुआ। इसपर यह शक करने की कोई गुंजाइश न थी कि आँखें किसी हक़ीक़ी मंज़र को नहीं देख रही हैं, बल्कि एक ख़याली चीज़ सामने आ गई है। तीसरी यह कि जो हस्ती इन हालात में आप (सल्ल०) के सामने आई थी वह ऐसी अज़ीम (महान), ऐसी शानदार, ऐसी ख़ूबसूरत और इस क़दर रौशन थी कि न आप (सल्ल०) के वहम और ख़याल में कभी इससे पहले ऐसी हस्ती का तसव्वुर आया था जिसकी वजह से आप (सल्ल०) को यह गुमान होता कि वह आप (सल्ल०) के अपने ख़याल की पैदावार है और न कोई जिन्न या शैतान इस शान का हो सकता है कि आप (सल्ल०) उसे फ़रिश्ते के सिवा और कुछ समझते। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैंने जिबरील (अलैहि०) को इस सूरत में देखा कि उनके छह सौ बाज़ू थे,” (हदीस : मुसनद अहमद)। एक दूसरी रिवायत में इब्ने-मसऊद (रज़ि०) और वाज़ेह करते हैं कि जिबरील (अलैहि०) का एक-एक बाज़ू इतना बड़ा था कि उफ़ुक़ (क्षितिज) पर छाया हुआ नज़र आता था, (हदीस : मुसनद अहमद)। अल्लाह तआला ख़ुद उनकी शान को 'शदीदुल-क़ुवा' और 'ज़ू-मिर्रतिन' के अलफ़ाज़ में बयान कर रहा है। चौथी यह कि जो तालीम वह हस्ती दे रही थी वह भी इस आँखों देखे तजरिबे के सही होने का यक़ीन दिलानेवाली थी। उसके ज़रिए से अचानक जो इल्म और तमाम कायनात की हक़ीक़तों पर हावी इल्म आप (सल्ल०) को मिला उसका कोई तसव्वुर पहले से आप (सल्ल०) के ज़ेहन में न था कि आप (सल्ल०) उसपर यह शक करते कि यह मेरे अपने ही ख़यालात हैं जो तरतीब पाकर मेरे सामने आ गए हैं। इसी तरह उस इल्म पर यह शक करने की भी कोई गुंजाइश न थी कि शैतान इस शक्ल में आकर आप (सल्ल०) को धोखा दे रहा है। क्योंकि शैतान का यह काम आख़िर कब हो सकता है और कब उसने यह काम किया है कि इनसान को शिर्क और बुतपरस्ती के ख़िलाफ़ तौहीद (एकेश्वरवाद) की तालीम दे? आख़िरत की पूछ-गछ से ख़बरदार करे? जाहिलियत और उसके तौर-तरीक़ों से बेज़ार करे? अख़लाक़ी ख़ूबियों की तरफ़ दावत दे? और एक शख़्स से यह कहे कि न सिर्फ़ तू ख़ुद इस तालीम को क़ुबूल कर, बल्कि सारी दुनिया से शिर्क और ज़ुल्म और अल्लाह की खुली-छिपी नाफ़रमानियों को मिटाने और उन बुराइयों की जगह तौहीद और इनसाफ़ और परहेज़गारी की भलाइयाँ क़ायम करने के लिए उठ खड़ा हो? पाँचवीं और सबसे अहम वजह यह है कि अल्लाह तआला जब किसी शख़्स को अपना पैग़म्बर बनाने के लिए चुन लेता है तो उसके दिल को शक-शुब्हों और बुरे ख़यालात से पाक करके यक़ीन और एतिमाद से भर देता है। इस हालत में उसकी आँखें जो कुछ देखती हैं और उसके कान जो कुछ सुनते हैं, उसके सही होने के बारे में कोई मामूली-सी झिझक भी उसके ज़ेहन में पैदा नहीं होती। वह दिल के पूरे इत्मीनान के साथ हर उस हक़ीकत को क़ुबूल कर लेता है जो उसके रब की तरफ़ से उसपर ज़ाहिर की जाती है, चाहे वह आँखों से दिखाए जानेवाले किसी तजरिबे की शक्ल में हो, या इलहामी इल्म की शक्ल में हो जो उसके दिल में (अल्लाह की तरफ़ से) डाला जाए, या वह्य के पैग़ाम की शक्ल में हो जो उसको लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ सुनाया जाए। इन तमाम हालतों में पैग़म्बर को इस बात का पूरा एहसास होता है कि वह हर क़िस्म की शैतानी दख़लअन्दाज़ी से पूरी तरह महफ़ूज़ और अम्न में है और जो कुछ भी उस तक किसी शक्ल में पहुँच रहा है वह ठीक-ठीक उसके रब की तरफ़ से है। ख़ुदा के दिए हुए तमाम एहसासों की तरह पैग़म्बर का यह शुऊर (विवेक) और एहसास भी एक ऐसी यक़ीनी चीज़ है जिसमें ग़लतफ़हमी का कोई इमकान नहीं। जिस तरह मछली को अपने तैराक होने का, परिन्दे को अपने परिन्दे होने का और इनसान को अपने इनसान होने का एहसास बिलकुल ख़ुदा की तरफ़ से दिया हुआ होता है और उसमें ग़लतफ़हमी का कोई हिस्सा नहीं हो सकता, उसी तरह पैग़म्बर को अपने पैग़म्बर होने का एहसास भी ख़ुदा का दिया हुआ होता है, उसके दिल में कभी एक लम्हे के लिए भी यह वस्वसा नहीं आता कि शायद उसे पैग़म्बर होने की ग़लतफ़हमी हो गई है।
أَفَتُمَٰرُونَهُۥ عَلَىٰ مَا يَرَىٰ ۝ 11
(12) अब क्या तुम उस चीज़ पर उससे झगड़ते हो जिसे वह आँखों से देखता है?
وَلَقَدۡ رَءَاهُ نَزۡلَةً أُخۡرَىٰ ۝ 12
عِندَ سِدۡرَةِ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 13
(13-14) और एक बार फिर उसने 'सिद-रतुल-मुन्तहा' (परली सीमा पर बेर) के पास उसको उतरते देखा
عِندَهَا جَنَّةُ ٱلۡمَأۡوَىٰٓ ۝ 14
(15) जहाँ पास ही 'जन्नतुल-मावा'11 है।
11. यह जिबरील (अलैहि०) से नबी (सल्ल०) की दूसरी मुलाक़ात का ज़िक्र है, जिसमें वे आप (सल्ल०) के सामने अपनी असली सूरत में नमूदार हुए। इस मुलाक़ात का मक़ाम 'सिद-रतुल-मुन्तहा' बताया गया है और साथ ही यह फ़रमाया गया है कि उसके क़रीब 'जन्नतुल-मावा' है। 'सिदरह' अरबी ज़बान में बेरी के पेड़ को कहते हैं और 'मुन्तहा' का मतलब है आख़िरी सिरा। 'सिद-रतुल-मुन्तहा' के लुग़वी (शाब्दिक) मानी हैं 'वह बेरी का पेड़ जो आख़िरी या इन्तिहाई सिरे पर है।' अल्लामा आलूसी (रह०) ने रूहुल-मआनी में इसकी तशरीह यह की है कि “उसपर हर आलिम का इल्म ख़त्म हो जाता है, आगे जो कुछ है उसे अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता।” क़रीब-क़रीब यही तशरीह इब्ने-जरीर (रह०) ने अपनी तफ़सीर में और इब्ने-असीर (रह०) ने 'अन-निहाया फ़ी ग़रीबिल-हदीसि वल-अस्र' में की है। हमारे लिए यह जानना बहुत मुश्किल है कि इस माद्दी दुनिया (भौतिक संसार) की आख़िरी सरहद पर वह बेरी का पेड़ कैसा है और वह हक़ीक़त में किस तरह का है और उसकी अस्ल कैफ़ियत क्या है। ये ख़ुदा की कायनात के वे राज़ (रहस्य) हैं जिन तक हमारी अक़्ल की पहुँच नहीं है। बहरहाल वह कोई ऐसी चीज़ है जिसके लिए इनसानी ज़बान के अलफ़ाज़ में 'सिदरह' से ज़्यादा का मुनासिब लफ़्ज़ अल्लाह तआला के नज़दीक और कोई नहीं था। 'जन्नतुल-मावा' के लुग़वी (शाब्दिक) मानी हैं 'वह जन्नत जो रहने का ठिकाना बने’। हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि यह वही जन्नत है जो आख़िरत में ईमानवालों और परहेज़गारों को मिलनेवाली है और इसी आयत से उन्होंने यह दलील ली है कि वह जन्नत आसमान में है। क़तादा (रह०) कहते हैं कि यह वह जन्नत है जिसमें शहीदों की रूहें रखी जाती हैं, इससे मुराद वह जन्नत नहीं है जो आख़िरत में मिलनेवाली है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) भी यही कहते हैं। और इसपर यह इज़ाफ़ा भी करते हैं कि आख़िरत में जो जन्नत ईमानवालों को दी जाएगी वह आसमान में नहीं है, बल्कि उसकी जगह यही ज़मीन है।
إِذۡ يَغۡشَى ٱلسِّدۡرَةَ مَا يَغۡشَىٰ ۝ 15
(16) उस वक़्त सिदरह पर छा रहा था जो कुछ कि छा रहा था।12
12. यानी उसकी शान और उसकी कैफ़ियत बयान से बाहर है। वे ऐसी रौशनियाँ थीं कि न इनसान उनका तसव्वुर कर सकता है और न कोई इनसानी ज़बान उसकी खू़बियाँ बयान कर सकती है।
مَا زَاغَ ٱلۡبَصَرُ وَمَا طَغَىٰ ۝ 16
(17) निगाह न चौंधियाई न हद से आगे बढ़ी,13
13. यानी एक तरफ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बरदाश्त की इन्तिहा का हाल यह था कि ऐसी ज़बरदस्त तजल्लियों (रौशनियों) के सामने भी आप (सल्ल०) की निगाह में कोई चकाचौंध पैदा न हुई और आप (सल्ल०) पूरे सुकून के साथ उनको देखते रहे। दूसरी तरफ़ आप (सल्ल०) की बरदाश्त और यकसूई (एकाग्रता) का कमाल यह था कि जिस मक़सद के लिए आप (सल्ल०) को बुलाया गया था उसी पर आप (सल्ल०) अपने ज़ेहन और अपनी निगाह को जमाए रहे और जो हैरत-अंगेज़ मंज़र वहाँ थे उनको देखने के लिए आप (सल्ल०) ने एक तमाशाई की तरह हर तरफ़ निगाहें दौड़ानी न शुरू कर दीं। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे किसी शख़्स को एक अज़ीम (महान) और जलालवाले (प्रतापी) बादशाह के दरबार में हाज़िरी का मौक़ा मिलता है और वहाँ वह कुछ शान व शौकत उसके सामने आती है जो उसके तसव्वुर की आँख ने भी कभी न देखी थी। अब अगर वह शख़्स कमज़र्फ़ (छोटे दिल का) होगा तो वहाँ पहुँचकर भौंचक्का रह जाएगा और अगर हाज़िरी के आदाब न जानता होगा तो शाही मक़ाम से ग़ाफ़िल होकर दरबार की सजावट का नज़ारा करने के लिए हर तरफ़ मुड़-मुड़कर देखने लगेगा, लेकिन एक आला ज़र्फ़ (बड़े दिलवाला), अदब से वाक़िफ़ और फ़र्ज़ पहचाननेवाला आदमी न तो वहाँ पहुँचकर हैरान होगा और न दरबार का तमाशा देखने में लग जाएगा, बल्कि वह पूरे वक़ार (गरिमा) के साथ हाज़िर होगा और अपना सारा ध्यान उस मक़सद पर लगाए रखेगा जिसके लिए शाही दरबार में उसको तलब किया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की यही ख़ूबी है जिसकी तारीफ़ इस आयत में की गई है।
لَقَدۡ رَأَىٰ مِنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ ۝ 17
(18) और उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं14
14. यह आयत इस बात को साफ़-साफ़ बयान करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह तआला को नहीं, बल्कि उसकी अज़ीमुश्शान आयतों (निशानियों) को देखा था और चूँकि मौक़ा-महल के मुताबिक़ यह दूसरी मुलाक़ात भी उस हस्ती से हुई थी जिससे पहली मुलाक़ात हुई, इसलिए हर हाल में यह मानना पड़ेगा कि ऊपरी उफ़ुक़ (क्षितिज) पर जिसको आप (सल्ल०) ने पहली बार देखा था वह भी अल्लाह न था और दूसरी बार सिद-रतुल-मुन्तहा के पास जिसको देखा वह भी अल्लाह न था। अगर आप (सल्ल०) ने इन मौक़ों में से किसी मौक़े पर भी अल्लाह तआला को देखा होता तो यह इतनी बड़ी बात थी कि यहाँ ज़रूर उसको साफ़-साफ़ बयान कर दिया जाता। हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में क़ुरआन मजीद में कहा गया है कि उन्होंने अल्लाह तआला को देखने की दरख़ास्त की थी और उन्हें जवाब दिया गया था कि “तुम मुझे नहीं देख सकते,” (सूरा-7 आराफ़, आयत-143)। अब यह ज़ाहिर है कि यह ख़ुशनसीबी, जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को नहीं दी गई थी, हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को दे दी जाती तो इसकी अहमियत ख़ुद ऐसी थी कि इसे साफ़ अलफ़ाज़ में बयान कर दिया जाता। लेकिन हम देखते हैं कि क़ुरआन मजीद में कहीं यह नहीं फ़रमाया गया है कि नबी (सल्ल०) ने अपने रब को देखा था, बल्कि मेराज के वाक़िए का ज़िक्र करते हुए सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-1 में भी यह कहा गया है कि हम अपने बन्दे को इसलिए ले गए थे कि “उसको अपनी निशानियाँ दिखाएँ।” और यहाँ सिद-रतुल-मुन्तहा पर हाज़िरी के सिलसिले में भी यह फ़रमाया गया है कि “उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं।" इन वजहों से बज़ाहिर इस बहस की कोई गुंजाइश न थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इन दोनों मौक़ों पर अल्लाह तआला को देखा था या जिबरील (अलैहि०) को? लेकिन जिस वजह से यह बहस पैदा हुई वह यह है कि इस मसले पर हदीसों की रिवायतों में फ़र्क़ पाया जाता है। नीचे हम तरतीब के साथ उन हदीसों को दर्ज करते हैं जो इस सिलसिले में अलग-अलग सहाबा किराम (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं। (i) हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायतें— बुख़ारी : किताबुत-तफ़सीर में हज़रत मसरूक़ (रह०) का बयान है कि मैंने हज़रत आइशा (रज़ि०) से अर्ज़ किया: “अम्माँजान! क्या मुहम्मद (सल्ल०) ने अपने रब को देखा था?" उन्होंने जवाब दिया, “तुम्हारी इस बात से मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए। तुम यह कैसे भूल गए कि तीन बातें ऐसी हैं जिनका अगर कोई शख़्स दावा करे तो झूठा दावा करेगा।" (उनमें से पहली बात हज़रत आइशा (रज़ि०) ने यह फ़रमाई कि) “जो शख़्स तुमसे यह कहे कि मुहम्मद (सल्ल०) ने अपने रब को देखा था, वह झूठ कहता है।” फिर हज़रत आइशा (रज़ि०) ने क़ुरआन की ये आयतें पढ़ीं, “निगाहें उसको नहीं पा सकतीं,” (सूरा-6 अनआम, आयत-103)। और “किसी इनसान का यह मक़ाम नहीं है कि अल्लाह उससे बात करे, मगर या तो वह्य के तौर पर, या परदे के पीछे से, या यह कि एक फ़रिश्ता भेजे और वह उसपर अल्लाह की इजाज़त से वह्य करे जो कुछ वह चाहे,” (सूरा-42 शूरा, आयत-51)। इसके बाद उन्होंने कहा कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिबरील (अलैहि०) को दो बार उनकी असली शक्ल में देखा था।" इस हदीस का एक हिस्सा बुख़ारी, किताबुत-तौहीद, बाब-4 में भी है और किताबु बदइल-ख़ल्क़ में मसरूक़ (रह०) की जो रिवायत इमाम बुख़ारी ने नक़्ल की है उसमें वे बयान करते हैं कि मैंने हज़रत आइशा (रज़ि०) की बात सुनकर अर्ज़ किया कि फिर अल्लाह तआला के इस फ़रमान का क्या मतलब होगा, “फिर क़रीब आया और ऊपर रुक गया, यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम फ़ासिला रह गया," (सूरा-53, आयतें—8, 9)? इसपर उन्होंने कहा, “इससे मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं। वे हमेशा अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने इनसानी शक्ल में आया करते थे, मगर इस मौक़े पर वे अपनी असली शक्ल में आप (सल्ल०) के पास आए और सारा उफ़ुक़ (क्षितिज) उनसे भर गया।" मुस्लिम : किताबुल-ईमान, बाबु फ़ी ज़िक्रि सिद-रतिल-मुन्तहा में हज़रत आइशा (रज़ि०) से मसरूक़ (रह०) की यह बातचीत ज़्यादा तफ़सील के साथ नक़्ल हुई है और उसका सबसे समान अहम हिस्सा यह है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स यह दावा करता है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने अपने रब को देखा था वह अल्लाह तआला पर बहुत बड़ा झूठ गढ़ता है।” मसरूक़ (रह०) कहते हैं कि मैं टेक लगाए बैठा था। यह बात सुनकर मैं उठ कर बैठा और मैंने पूछा कि उम्मुल-मोमिनीन! जल्दी न कीजिए। क्या अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया है कि “उसने उस पैग़म्बर को रौशन उफ़ुक़ पर देखा है,” (सूरा-81 तकवीर, आयत-23) और “एक बार फिर उसने सिद-रतुल-मुन्तहा के पास उसको उतरते देखा,” (सूरा-53 नज्म, आयत-13) । हज़रत आइशा (रज़ि०) ने जवाब दिया कि इस उम्मत में सबसे पहले मैंने ही अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इस मामले में पूछा था। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “वे तो जिबरील (अलैहि०) थे। मैंने उनको उनकी उस असली सूरत में, जिसपर अल्लाह ने उनको पैदा किया है, इन दो मौक़ों के सिवा कभी नहीं देखा। इन दो मौक़ों पर मैंने उनको आसमान से उतरते हुए देखा और उनकी अज़ीम हस्ती ज़मीन और आसमान के बीच सारी फ़ज़ा पर छाई हुई थी।” इब्ने-मरदुवैह ने मसरूक़ (रह०) की इस रिवायत को जिन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है वे ये हैं— हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, “सबसे पहले मैंने ही अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह पूछा था कि क्या आपने अपने रब को देखा था?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “नहीं, मैंने तो जिबरील (अलैहि०) को आसमान से उतरते हुए देखा था।” (ii) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायतें— बुख़ारी : किताबुत-तफ़सीर, मुस्लिम : किताबुल-ईमान और तिरमिज़ी : अबवाबुत-तफ़सीर में ज़िर्र-बिन-हुबैश (रह०) की रिवायत है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने “यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम फ़ासिला रह गया,” (सूरा-53 नज्म, आयत-9) की तफ़सीर यह बयान की कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिबरील (अलैहि०) को इस सूरत में देखा कि उनके छह सौ बाज़ू थे। मुस्लिम की दूसरी रिवायतों में “नज़र ने जो कुछ देखा दिल ने उसमें झूठ न मिलाया" (सूरा-53 नज्म, आयत-11) और “उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं,” (सूरा-53 नज्म, आयत-18) की भी यही तफ़सीर ज़िर्र-बिन-हुबैश (रह०) ने अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से नक़्ल की है। मुसनद अहमद में इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की यह तफ़सीर ज़िर्र-बिन-हुबैश (रह०) के अलावा अब्दुर्रहमान-बिन-यज़ीद (रह०) और अबू-वाइल (रह०) के ज़रिए से भी नक़्ल हुई है और इसके अलावा मुसनद अहमद में ज़िर्र-बिन-हुबैश (रह०) की दो रिवायतें और नक़्ल हुई हैं, जिनमें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) “और एक बार फिर उसने सिद-रतुल-मुन्तहा (परली सीमा पर बेर) के पास उसको उतरते देखा,” (सूरा-53 नज्म, आयतें—13, 14) की तफ़सीर बयान करते हुए कहते हैं, “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया कि मैंने जिबरील (अलैहि०) को सिद-रतुल-मुन्तहा के पास देखा, उनके छह सौ बाज़ू थे।" इसी मज़मून की रिवायत इमाम अहमद ने शक़ीक़-बिन-सलमा से भी नक़्ल की है जिसमें वे कहते हैं कि मैंने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की ज़बान से यह सुना कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ुद यह फ़रमाया था कि मैंने जिबरील (अलैहि०) को इस सूरत में सिद-रतुल-मुन्तहा पर देखा था। (iii) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से अता-बिन-अबी-रबाह (रह०) ने आयत “एक बार फिर उसने उसको उतरते देखा,” (सूरा-53 नज्म, आयत-13) का मतलब पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि “नबी (सल्ल०) ने जिबरील (अलैहि०) को देखा था।”(हदीस : मुस्लिम, किताबुल-ईमान) (vi) हज़रत अबू-ज़र ग़िफ़ारी (रज़ि०) से अब्दुल्लाह-बिन-शक़ीक़ (रह०) की दो रिवायतें इमाम मुस्लिम ने किताबुल-ईमान में नक़्ल की हैं। एक रिवायत में वे फ़रमाते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “क्या आपने अपने रब को देखा था?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “वह नूर है, उसे मैं कैसे देख सकता हूँ!” और दूसरी रिवायत में फ़रमाते हैं कि मेरे इस सवाल का जवाब आप (सल्ल०) ने यह दिया कि “मैंने सिर्फ़ रौशनी देखी।” नबी (सल्ल०) की फ़रमाई हुई पहली बात का मतलब इब्ने-क़य्यिम (रह०) ने ज़ादुल-मआद में यह बयान किया है कि “मेरे और रब के दीदार के बीच नूर का परदा था।” और दूसरी बात का मतलब वे यह बयान करते हैं कि “मैंने अपने रब को नहीं, बल्कि बस एक नूर देखा।" नसई और इब्ने-अबी हातिम ने हज़रत अबू-ज़र (रज़ि०) का क़ौल इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने रब को दिल से देखा था, आँखों से नहीं देखा।” (v) हज़रत अबू मूसा अशअरी (रज़ि०) से इमाम मुस्लिम किताबुल-ईमान में यह रिवायत लाएहैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआला तक उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) में से किसी की निगाह नहीं पहुँची।" (vi) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायतें— मुस्लिम की रिवायत है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से “नज़र ने जो कुछ देखा दिल ने उसमें झूठ न मिलाया” (सूरा-53 नज्म, आयत-11) का मतलब पूछा गया तो उन्होंने कहा, “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने रब को दो बार अपने दिल से देखा।" यह रिवायत मुसनद अहमद में भी है। इब्ने-मरदुवैह ने अता-बिन-अबी-रबाह के हवाले से इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह तआला को आँखों से नहीं, बल्कि दिल से देखा था। नसई में इकरिमा की रिवायत है कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया, “क्या तुम्हें इस बात पर ताज्जुब है कि इबराहीम (अलैहि०) को अल्लाह ने ख़लील (दोस्त) बनाया, मूसा (अलैहि०) से बात की और मुहम्मद (सल्ल०) को दीदार (दर्शन) नसीब किया।” हाकिम ने भी इस रिवायत को नक़्ल किया है और इसे सही क़रार दिया है। तिरमिज़ी में शअबी की रिवायत है कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने एक मजलिस में फ़रमाया, “अल्लाह ने अपने दीदार और अपने कलाम (बात) को मुहम्मद (सल्ल०) और मूसा (अलैहि०) के बीच बाँट दिया था। मूसा (अलैहि०) से उसने दो बार बात की और मुहम्मद (सल्ल०) ने दो बार उसको देखा।” इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की इसी बात को सुनकर मसरूक़ (रह०) हज़रत आइशा (रज़ि०) के पास गए थे और उनसे पूछा था, “क्या मुहम्मद (सल्ल०) भी ने अपने रब को देखा था?” उन्होंने फ़रमाया, “तुमने वह बात कही है जिसे सुनकर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए।” इसके बाद हज़रत आइशा (रज़ि०) और मसरूक़ (रह०) के बीच वह बातचीत हुई जिसे हम ऊपर हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायतों में नक़्ल कर आए हैं। तिरमिज़ी ही में दूसरी रिवायतें जो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल हुईं उनमें से एक में वे कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने अल्लाह तआला को देखा था। दूसरी में फ़रमाते हैं दो बार देखा था और तीसरी में उनका कहना यह है कि आप (सल्ल०) ने अल्लाह को दिल से देखा था। मुसनद अहमद में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की एक रिवायत यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैंने अपने रब अल्लाह तआला को देखा।” दूसरी रिवायत में वे कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आज रात मेरा रब बेहतरीन सूरत में मेरे पास आया।” मैं समझता हूँ कि नबी (सल्ल०) के यह फ़रमाने का मतलब यह था कि ख़ाब में आप (सल्ल०) ने अल्लाह को देखा। तबरानी और इब्ने-मरदुवैह ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से एक रिवायत यह भी नक़्ल की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने रब को दो बार देखा, एक बार आँखों से और दूसरी बार दिल से। (vii) मुहम्मद-बिन-काब अल-क़ुरज़ी (रह०) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कुछ सहाबा (रज़ि०) ने पूछा, “आपने अपने रब को देखा है?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “मैंने उसको दो बार अपने दिल से देखा,” (इब्ने-अबी-हातिम)। इस रिवायत को इब्ने-जरीर ने इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैंने उसको आँख से नहीं बल्कि दिल से दो बार देखा है।" (viii) हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) की एक रिवायत जो मेराज के क़िस्से के सिलसिले में शरीक-बिन-अब्दुल्लाह के हवाले से इमाम बुख़ारी (रह०) ने किताबुत-तौहीद में नक़्ल की है उसमें ये अलफ़ाज़ आते हैं, “जब आप (सल्ल०) सिद-रतुल-मुन्तहा पर पहुँचे तो अल्लाह तआला आप (सल्ल०) के क़रीब आया और आप (सल्ल०) के ऊपर रुक गया, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) के और उसके बीच दो कमानों के जितना या उससे भी कुछ कम फ़ासिला रह गया, फिर अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) पर जो बातें वह्य कीं उनमें से एक पचास (50) नमाज़ों का हुक्म था।” लेकिन उन एतिराज़ों के अलावा जो इस रिवायत की सनद और मज़मून पर इमाम ख़त्ताबी, हाफ़िज़ इब्ने-हजर, इब्ने-हज़्म और हाफ़िज़ अब्दुल-हक़ (रह०) साहिबुल-जमइ बैनस्सहीहैन ने किए हैं, सबसे बड़ा एतिराज़ इसपर यह आता है कि यह साफ़ तौर से क़ुरआन के ख़िलाफ़ पड़ती है, क्योंकि क़ुरआन मजीद दो अलग-अलग दीदारों (दर्शनों) का ज़िक्र करता है, जिनमें से एक शुरू में 'उफ़ुक़िल-आला' (ऊपरी क्षितिज) पर हुई थी और फिर उसमें दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम होने का मामला पेश आया था और दूसरा सिद-रतुल-मुन्तहा के पास हुआ था। लेकिन यह रिवायत इन दोनों को गड्ड-मड्ड करके एक दीदार बना देती है। इसलिए क़ुरआन मजीद से टकराने के सबब इसको तो किसी तरह क़ुबूल ही नहीं किया जा सकता। अब रहीं वे दूसरी रिवायतें जो हमने ऊपर नक़्ल की हैं तो उनमें सबसे ज़्यादा वज़नी रिवायतें वे हैं जो हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं, क्योंकि इन दोनों ने एक राय से ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की फ़रमाई हुई यह बात बयान की है कि इन दोनों मौक़ों पर आप (सल्ल०) ने अल्लाह तआला को नहीं, बल्कि जिबरील (अलैहि०) को देखा था और ये रिवायतें क़ुरआन मजीद के बयानों और हुक्मों से पूरी तरह मेल खाती हैं। इसके अलावा उनकी ताईद (समर्थन) नबी (सल्ल०) के उन फ़रमानों से भी होती है जो हज़रत अबू-ज़र (रज़ि०) और हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) ने आप (सल्ल०) से नक़्ल किए हैं। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से जो रिवायतें हदीस की किताबों में नक़्ल हुई हैं उनमें बहुत झोल पाया जाता है। किसी में वे दोनों दीदारों को आँखों देखा कहते हैं, किसी में दोनों को दिल का दीदार क़रार देते हैं, किसी में एक को आँखों देखा और दूसरे को दिल का बताते हैं और किसी में आँखों से देखने का साफ़-साफ़ इनकार कर देते हैं। इनमें से कोई रिवायत भी ऐसी नहीं है जिसमें वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का अपना कोई फ़रमान नक़्ल कर रहे हों। और जहाँ उन्होंने ख़ुद नबी (सल्ल०) का फ़रमान नक़्ल किया है, वहाँ अव्वल तो क़ुरआन मजीद के बयान किए हुए इन दोनों दीदारों में से किसी का भी ज़िक्र नहीं है और इसके अलावा उनकी एक रिवायत की तशरीह दूसरी रिवायत से यह मालूम होती है कि नबी (सल्ल०) ने जागते हुए नहीं, बल्कि ख़ाब में अल्लाह तआला को देखा था। इसलिए हक़ीक़त में इन आयतों की तफ़सीर में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल रिवायतों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसी तरह मुहम्मद-बिन-काब अल-क़ुरज़ी (रह०) की रिवायतें भी, अगरचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक बात नक़्ल करती हैं, लेकिन उनमें उन सहाबा किराम (रज़ि०) के नामों को साफ़ तौर से बयान नहीं किया गया है, जिन्होंने नबी (सल्ल०) से यह बात सुनी। साथ ही उनमें से एक में बताया गया है कि नबी (सल्ल०) ने इस बात से साफ़-साफ़ इनकार कर दिया था कि उन्होंने आँखों से अल्लाह को देखा।
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱللَّٰتَ وَٱلۡعُزَّىٰ ۝ 18
(19) अब ज़रा बताओ, तुमने कभी इस लात, और इस उज़्ज़ा,
وَمَنَوٰةَ ٱلثَّالِثَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ ۝ 19
(20) और तीसरी एक देवी मनात की हक़ीक़त पर कुछ ग़ौर भी किया?15
15. मतलब यह है कि जो तालीम मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं उसको तो तुम लोग गुमराही और भटकाव क़रार देते हो, हालाँकि यह इल्म उनको अल्लाह तआला की तरफ़ से दिया जा रहा है और अल्लाह उनको आँखों से वे हक़ीक़तें दिखा चुका है जिनकी गवाही वे तुम्हारे सामने दे रहे हैं। अब ज़रा तुम ख़ुद देखो कि जिन अक़ीदों की पैरवी पर तुम अड़े चले जा रहे हो, वे किस क़दर ग़लत और नामुनासिब हैं, और इनके मुक़ाबले में जो शख़्स तुम्हें सीधा रास्ता बता रहा है, उसकी मुख़ालफ़त करके आख़िर तुम किसका नुक़सान कर रहे हो! इस सिलसिले में ख़ास तौर पर उन तीन देवियों को मिसाल के तौर पर लिया गया है जिनको मक्का, ताइफ़, मदीना और हिजाज़ के आसपास के लोग सबसे ज़्यादा पूजते थे। उनके बारे में सवाल किया गया है कि कभी तुमने अक़्ल से काम लेकर सोचा भी कि ज़मीन और आसमान की ख़ुदाई के मामलों में इनका कोई मामूली-सा दख़ल भी हो सकता है? या सारे जहान के रब से सचमुच इनका कोई रिश्ता हो सकता है? लात का स्थान ताइफ़ में था और बनी-सक़ीफ़ उसके इस हद तक अक़ीदतमन्द थे कि जब अबरहा हाथियों की फ़ौज लेकर काबा को तोड़ने के लिए मक्का पर चढ़ाई करने जा रहा था, उस वक़्त उन लोगों ने सिर्फ़ अपने उस माबूद के आस्ताने को बचाने की ख़ातिर उस ज़ालिम को मक्का का रास्ता बताने के लिए गाइड (रहनुमा) दिए, ताकि वह लात को हाथ न लगाए, हालाँकि तमाम अरबवालों की तरह सक़ीफ़ के लोग भी यह मानते थे कि काबा अल्लाह का घर है। ‘लात' का मतलब क्या है, इस बारे में आलिमों की राएँ अलग-अलग हैं। इब्ने-जरीर तबरी की तहक़ीक़ है कि यह अल्लाह की तानीस (स्त्रीलिंग) है, यानी अस्ल में यह लफ़्ज 'अल्लाहतुन' था जिसे 'अल-लात' कर दिया गया। ज़मख़्शरी के नज़दीक यह अरबी ज़बान के लफ़्ज़ 'लवा, यलवी' से निकला है, जिसका मतलब मुड़ना और किसी की तरफ़ झुकना है। चूँकि मुशरिक इबादत के लिए उसकी तरफ़ रुजू करते और उसके आगे झुकते और उसका तवाफ़ करते थे इसलिए उसको लात कहा जाने लगा। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) उसको 'लात्त’ पढ़ते हैं और उसे अरबी ज़बान के लफ़्ज़ 'लत-त, यलत्तु’ से निकला हुआ क़रार देते हैं, जिसका मतलब मथना और लथेड़ना है। उनका और मुजाहिद (रह०) का बयान है कि यह लात अस्ल में एक शख़्स था जो ताइफ़ के क़रीब एक चट्टान पर रहता था और हज के लिए जानेवालों को सत्तू पिलाता और खाने खिलाता था। जब वह मर गया तो लोगों ने उसी चट्टान पर उसका स्थान बना लिया और उसकी इबादत करने लगे। मगर लात की यह तशरीह इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और मुजाहिद (रह०) जैसे बुज़ुर्गों से रिवायत होने के बावजूद दो वजहों से क़ुबूल नहीं है : एक यह कि क़ुरआन में उसे लात कहा गया है न कि लात्त। दूसरी यह कि क़ुरआन मजीद इन तीनों को देवियाँ बता रहा है और इस रिवायत के मुताबिक़ लात मर्द था, न कि औरत। 'उज़्ज़ा' इज़्ज़त से है और इसका मतलब है इज़्ज़तवाली। यह क़ुरैश की ख़ास देवी थी और इसका स्थान मक्का और ताइफ़ के बीच नख़ला घाटी में हुराज़ के मक़ाम पर था, (नख़ला कहाँ था, इसके लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-46 अहक़ाफ़, हाशिया-33)। बनी-हाशिम के हलीफ़ (साथ देनेवाले) क़बीले बनी-शैबान के लोग उसके मुजाविर थे। क़ुरैश और दूसरे क़बीले के लोग उसकी ज़ियारत करते और उसपर नज़्रें (चढ़ावे) चढ़ाते और उसके लिए क़ुरबानियाँ करते थे। काबा की तरह उसकी तरफ़ भी ‘हद्य' (क़ुरबानी) के जानवर ले जाए जाते और तमाम बुतों से बढ़कर उसकी इज़्ज़त की जाती थी। इब्ने-हिशाम की रिवायत है कि अबू-उहैहा जब मरने लगा तो अबू-लहब उसकी बीमारपुर्सी के लिए गया। देखा कि वह रो रहा है। अबू-लहब ने कहा, “अबू-उहैहा! क्यों रोते हो? क्या मौत से डरते हो? हालाँकि वह हम सभी को आनी है।” उसने कहा, “ख़ुदा की कसम! मैं मौत से डरकर नहीं रोता, बल्कि मुझे यह दुख खाए जा रहा है कि मेरे बाद उज़्ज़ा की पूजा कैसे होगी!” अबू-लहब बोला, “उसकी पूजा तुम्हारी ज़िन्दगी में तुम्हारी वजह से होती थी और न तुम्हारे बाद उसे छोड़ा जाएगा।” अबू-उहैहा ने कहा, “अब मुझे इत्मीनान हो गया कि मेरे बाद कोई मेरी जगह सम्भालनेवाला है।" 'मनात' का स्थान मक्का और मदीना के बीच लाल सागर के किनारे क़ुदैद के मक़ाम पर था और ख़ास तौर पर ख़ुज़ाआ, औस और ख़ज़रज के लोग उसके बहुत अक़ीदतमन्द थे। उसका हज और तवाफ़ किया जाता और उसपर नज़्रों (भेटों) की क़ुरबानियाँ चढ़ाई जाती थीं। हज के ज़माने में जब हाजी लोग बैतुल्लाह (काबा) के तवाफ़ और अरफ़ात व मिना से फ़ारिग़ हो जाते तो वहीं से मनात की ज़ियारत के लिए 'लब्बैक! लब्बैक!' की आवाज़ें बुलन्द कर दी जातीं और जो लोग इस दूसरे 'हज' की नीयत कर लेते वे सफ़ा और मरवा के बीच ‘सई (फेरे लगाने की रस्म) न करते थे।
أَلَكُمُ ٱلذَّكَرُ وَلَهُ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 20
(21) क्या बेटे तुम्हारे लिए हैं और बेटियाँ अल्लाह के लिए?16
16. यानी इन देवियों को तुमने सारे जहान के रब अल्लाह की बेटियाँ क़रार दे लिया और यह बेहूदा अक़ीदा ईजाद करते वक़्त तुमने यह भी न सोचा कि अपने लिए तो तुम बेटी की पैदाइश को रुसवाई (ज़िल्लत) समझते हो और चाहते हो कि तुम्हें बेटे मिलें, मगर अल्लाह के लिए तुम औलाद भी ठहराते हो तो बेटियाँ!
تِلۡكَ إِذٗا قِسۡمَةٞ ضِيزَىٰٓ ۝ 21
(22) यह तो फिर बड़ी धाँधली की बाँट हुई!
إِنۡ هِيَ إِلَّآ أَسۡمَآءٞ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَمَا تَهۡوَى ٱلۡأَنفُسُۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مِّن رَّبِّهِمُ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 22
(23) अस्ल में ये कुछ नहीं हैं, मगर बस कुछ नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नहीं उतारी।17 हक़ीक़त यह है कि लोग सिर्फ़ वहम और गुमान की पैरवी कर रहे हैं और मन की ख़ाहिशों के पुजारी बने हुए हैं।18 हालाँकि उनके रब की तरफ़ से उनके पास हिदायत आ चुकी है।19
17. यानी तुम जिनको देवी-देवता कहते हो, वे न देवियाँ हैं और न देवता, न उनके अन्दर ख़ुदाई की कोई सिफ़त (ख़ूबी) पाई जाती है, न ख़ुदाई के इख़्तियारात का कोई मामूली-सा हिस्सा उन्हें हासिल है। तुमने अपने तौर पर ख़ुद उनको ख़ुदा की औलाद और माबूद (उपास्य) और ख़ुदाई में शरीक ठहरा लिया है। ख़ुदा की तरफ़ से कोई सनद ऐसी नहीं आई है जिसे तुम अपनी इन तसव्वुर की हुई बातों के सुबूत में पेश कर सको।
18. दूसरे अलफ़ाज़ में उनकी गुमराही की बुनियादी वजहें दो हैं : एक यह कि वे किसी चीज़ को अपना अक़ीदा और दीन बनाने के लिए हक़ीक़त के इल्म की कोई ज़रूरत महसूस नहीं करते, बल्कि सिर्फ़ अटकल और गुमान से एक बात मान लेते हैं और फिर उसपर इस तरह ईमान ले आते हैं कि मानो वही हक़ीक़त है। दूसरी यह कि उन्होंने यह रवैया अस्ल में अपने मन की ख़ाहिशों की पैरवी में अपनाया है। उनका दिल यह चाहता है कि कोई ऐसा माबूद हो जो दुनिया में उनके काम तो बनाता रहे और आख़िरत अगर होकर रहनेवाली हो तो वहाँ उन्हें बख़्शवाने का ज़िम्मा भी ले ले, मगर हराम-हलाल की कोई पाबन्दी उनपर न लगाए और अख़लाक़ के किसी ज़ाबिते (बन्धन) में उनको न कसे। इसी लिए वे नबियों (अलैहि०) के लाए हुए तरीक़े पर एक ख़ुदा की बन्दगी करने के लिए तैयार नहीं होते और इन ख़ुद के गढ़े हुए माबूदों और माबूदनियों की इबादत ही उनको पसन्द आती है।
19. यानी हर ज़माने में पैग़म्बर (अलैहि०) अल्लाह की तरफ़ से इन गुमराह लोगों को हक़ीक़त बताते रहे हैं और अब मुहम्मद (सल्ल०) ने आकर इनको बता दिया है कि कायनात में अस्ल में ख़ुदाई किसकी है।
أَمۡ لِلۡإِنسَٰنِ مَا تَمَنَّىٰ ۝ 23
(24) क्या इनसान जो कुछ चाहे उसके लिए वही हक़ है?20
20. इस आयत का दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि क्या इनसान को यह हक़ है कि जिसको चाहे माबूद (उपास्य) बना ले? और एक तीसरा मतलब यह भी लिया जा सकता है कि क्या इनसान इन माबूदों से अपनी मुरादें पा लेने की जो तमन्ना रखता है वह कभी पूरी हो सकती है?
فَلِلَّهِ ٱلۡأٓخِرَةُ وَٱلۡأُولَىٰ ۝ 24
(25) दुनिया और आख़िरत का मालिक तो अल्लाह ही है।
۞وَكَم مِّن مَّلَكٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ لَا تُغۡنِي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـًٔا إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ أَن يَأۡذَنَ ٱللَّهُ لِمَن يَشَآءُ وَيَرۡضَىٰٓ ۝ 25
(26) आसमानों में कितने ही फ़रिश्ते मौजूद हैं, उनकी सिफ़ारिश कुछ भी काम नहीं आ सकती जब तक कि अल्लाह किसी ऐसे शख़्स के हक़ में उसकी इजाज़त न दे जिसके लिए वह कोई गुज़ारिश सुनना चाहे और उसको पसन्द करे।21
21. यानी तमाम फ़रिश्ते मिलकर भी अगर किसी की सिफ़ारिश करें तो वह उसके लिए फ़ायदेमन्द नहीं हो सकती, कहाँ यह कि तुम्हारे इन बनावटी माबूदों की सिफ़ारिश किसी की बिगड़ी बना सके। ख़ुदाई के इख़्तियारात सारे-के-सारे बिलकुल अल्लाह के हाथ में हैं। फ़रिश्ते भी उसके सामने किसी की सिफ़ारिश करने की उस वक़्त तक हिम्मत नहीं कर सकते जब तक वह उन्हें इजाज़त न दे और किसी के हक़ में उनकी सिफ़ारिश सुनने पर राज़ी न हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ لَيُسَمُّونَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ تَسۡمِيَةَ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 26
(27) मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे फ़रिश्तों को देवियों का नाम देते हैं,22
22. यानी एक बेवक़ूफ़ी तो उनकी यह है कि इन बेइख़्तियार फ़रिश्तों को जो अल्लाह तआला से सिफ़ारिश तक करने का हौसला नहीं रखते, उन्होंने माबूद बना लिया है। इसपर और ज़्यादा बेवक़ूफ़ी यह कि वे उन्हें औरतें समझते हैं और उनको ख़ुदा की बेटियाँ ठहराते हैं। इन सारी जहालतों में उनके मुब्तला होने की बुनियादी वजह यह है कि वे आख़िरत को नहीं मानते। अगर वे आख़िरत के माननेवाले होते तो कभी ऐसी ग़ैर-ज़िम्मेदारी की बातें न कर सकते थे। आख़िरत के इनकार ने उन्हें अंजाम से बेफ़िक्र बना दिया है और वे समझते हैं कि ख़ुदा को मानने या न मानने, या हज़ारों ख़ुदा मान बैठने से कोई फ़र्क़ नहीं होता, क्योंकि इनमें से किसी अक़ीदे का भी कोई अच्छा या बुरा नतीजा दुनिया की मौज़ूदा ज़िन्दगी में निकलता नज़र नहीं आता। ख़ुदा के वुजूद का इनकार करनेवाले हों या मुशरिक हों या एक ख़ुदा को माननेवाले, सबकी खेतियाँ पकती भी हैं और जलती भी हैं। सब बीमार भी होते हैं और तन्दुरुस्त भी होते रहते हैं। हर तरह के अच्छे और बुरे हालात सबपर गुज़रते हैं। इसलिए उनके नज़दीक यह कोई बड़ा अहम और संजीदा (गम्भीर) मामला नहीं है कि आदमी किसी को माबूद माने या न माने, या जितने और जैसे चाहे माबूद (पूज्य) बना ले। हक़ और बातिल (सही और ग़लत) का फ़ैसला जब उनके नज़दीक इसी दुनिया में होना है और उसका दारोमदार इसी दुनिया में ज़ाहिर होनेवाले नतीजों पर है, तो ज़ाहिर है कि यहाँ के नतीजे न किसी अक़ीदे के हक़ होने का आख़िरी फ़ैसला कर देते हैं न किसी दूसरे अक़ीदे के ग़लत होने का। इसलिए ऐसे लोगों के लिए एक अक़ीदे को अपनाना और दूसरे अक़ीदे को रद्द कर देना सिर्फ़ एक मन की मौज का मामला है।
ٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ إِلَّا ٱللَّمَمَۚ إِنَّ رَبَّكَ وَٰسِعُ ٱلۡمَغۡفِرَةِۚ هُوَ أَعۡلَمُ بِكُمۡ إِذۡ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَإِذۡ أَنتُمۡ أَجِنَّةٞ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡۖ فَلَا تُزَكُّوٓاْ أَنفُسَكُمۡۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱتَّقَىٰٓ ۝ 27
(32) जो बड़े-बड़े गुनाहों30 और खुली-खुली बदकारियों31 से परहेज़ करते हैं, सिवाय यह कि कुछ क़ुसूर इनसे हो जाए।32 बेशक तेरे रब की मग़फ़िरत का दामन बहुत कुशादा है।33 वह तुम्हें उस वक़्त से ख़ूब जानता है जब उसने ज़मीन से तुम्हें पैदा किया और जब तुम अपनी माँओं के पेटों में अभी जनीन (भ्रूण) ही थे। तो अपने मन की पाकी के दावे न करो, वही बेहतर जानता है कि वाक़ई परहेज़गार कौन है?
30. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-53।
31. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-130; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-89।
32. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'इल्लल्ल-म-म'। अरबी ज़बान में 'ल-म-म' का लफ़्ज़ किसी चीज़ की थोड़ी-सी मिकदार, या उसके हलके-से असर, या उसके सिर्फ़ क़रीब होने, या उसके ज़रा-सी देर रहने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मसलन कहते हैं, 'अलम-म बिल-मकानि' (वह शख़्स फ़ुलाँ जगह थोड़ी देर ही ठहरा, या थोड़ी देर के लिए ही वहाँ गया)। 'अलम-म बित-तआमि' (उसने थोड़ा-सा खाना खाया)। 'बिही ल-म-मुन' (उसका दिमाग़ ज़रा-सा खिसका हुआ है, या उसमें कुछ पागलपन का असर है)। यह लफ़्ज़ इस मानी में बोलते हैं कि एक आदमी ने एक हरकत तो नहीं की, मगर करने के क़रीब पहुँच गया। फ़र्रा का कौल (कथन) है कि मैंने अरबों को इस तरह के जुमले बोलते सुना है, 'ज़-र-बहू मा ल-ममल-क़त्ल' (फ़ुलाँ शख़्स ने उसे इतना मारा कि बस मार डालने की कसर रह गई) और 'अलम-म यफ़अल' (क़रीब था कि फ़ुलाँ शख़्स यह हरकत कर बैठता)। शाइर कहता है 'अलम्मत फ़हय्यत सुम-म क़ामत फ़वद्दअत' (वह बस ज़रा-सी देर के लिए आई, सलाम किया, उठी और रुख़सत हो गई)। इन इस्तेमालों की बुनियाद पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से कुछ ने 'ल-ममुन' से मुराद छोटे गुनाह लिए हैं। कुछ ने इसका मतलब यह लिया है कि आदमी अमली तौर से किसी बड़े गुनाह के क़रीब तक पहुँच जाए, मगर उसे न करे। कुछ इसे कुछ देर के लिए गुनाह में मुब्तला होने और फिर रुक जाने के मानी में लेते हैं और कुछ के नज़दीक इससे मुराद यह है कि आदमी गुनाह का ख़याल या उसकी ख़ाहिश, या उसका इरादा तो करे, मगर अमली तौर से कोई हरकत न करे। इस सिलसिले में सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन (सहाबा के बाद आनेवाले आलिमों) ने जो फ़रमाया है, उसे नीचे लिखा जा रहा है— ज़ैद-बिन-असलम और इब्ने-ज़ैद (रह०) कहते हैं और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की भी एक राय यह है कि इससे मुराद वे गुनाह हैं जिनको इस्लाम से पहले जाहिलियत के ज़माने में लोग कर चुके थे, फिर इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उन्होंने उसे छोड़ दिया। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की दूसरी राय यह है और यही हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), हसन बसरी (रह०) और अबू-सॉलेह (रह०) की राय भी है कि उससे मुराद आदमी का किसी बड़े गुनाह या किसी गन्दी (अश्लील) हरकत में कुछ देर के लिए, या भूल से मुब्तला हो जाना और फिर उसे छोड़ देना है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और मसरूक़ और शअबी (रह०) फ़रमाते हैं और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी भरोसेमन्द रिवायतों में यह क़ौल (कथन) नक़्ल हुआ है कि इससे मुराद आदमी का किसी बड़े गुनाह के क़रीब तक पहुँच जाना और उसके शुरुआती मरहले तक तय कर गुज़रना, मगर आख़िरी मरहले पर पहुँचकर रुक जाना है। मसलन कोई शख़्स चोरी के लिए जाए, मगर चुराने से रुका रहे। या अज़नबी औरत को छुए, मगर ज़िना (व्यभिचार) न करे। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०), इकरिमा, क़तादा और ज़ह्हाक (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद वे छोटे-छोटे गुनाह हैं जिनके लिए दुनिया में भी कोई सज़ा मुक़र्रर नहीं की गई है और आख़िरत में भी जिनपर अज़ाब देने की कोई धमकी नहीं दी गई है। सईद-बिन-मुसय्यब (रह०) फ़रमाते हैं कि इससे मुराद है गुनाह का ख़याल दिल में आना, मगर अमली तौर से उसको न करना। ये सहाबा और ताबिईन हज़रात की अलग-अलग तफ़सीरें हैं जो रिवायतों में नक़्ल हुई हैं। बाद के तफ़सीर लिखनेवालों और इमामों व फ़क़ीहों में से ज़्यादातर लोगों का कहना है कि यह आयत और सूरा-4 निसा की आयत-31 साफ़ तौर पर गुनाहों को दो बड़ी क़िस्मों में बाँटती हैं : एक बड़े गुनाह, दूसरे छोटे गुनाह। और ये दोनों आयतें इनसान को उम्मीद दिलाती हैं कि अगर वह बड़े गुनाहों और गन्दी (अश्लील) हरकतों से परहेज़ करे तो अल्लाह तआला छोटे गुनाहों को अनदेखा कर देगा। अगरचे कुछ बड़े आलिमों ने यह ख़याल भी ज़ाहिर किया है कि (अल्लाह की) कोई नाफ़रमानी छोटी नहीं है, बल्कि ख़ुदा की नाफ़रमानी अपनी जगह ख़ुद बड़ा गुनाह है। लेकिन जैसा कि इमाम ग़ज़ाली (रह०) ने फ़रमाया है, बड़े और छोटे गुनाहों का फ़र्क़ एक ऐसी चीज़ है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि मालूमात के जिन ज़रिओं से शरीअत के हुक्मों का इल्म हासिल होता है वे सब इसकी निशानदेही करते हैं। अब रहा यह सवाल कि छोटे और बड़े गुनाहों में फ़र्क़ क्या है और किस तरह के गुनाह छोटे और किस तरह के गुनाह बड़े हैं, तो इस मामले में जिस बात पर हमारा इत्मीनान है वह यह है कि “हर वह गुनाह बड़ा गुनाह है जिसे क़ुरआन और सुन्नत के किसी साफ़ हुक्म ने हराम क़रार दिया हो, या उसके लिए अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने दुनिया में कोई सज़ा मुक़र्रर की हो, या उसपर आख़िरत में अज़ाब देने की धमकी सुनाई हो, या उसके करनेवाले पर लानत की हो, या उसके करनेवालों पर अज़ाब आने की ख़बर दी हो।” इस क़िस्म के गुनाहों के सिवा जितने काम भी शरीअत की निगाह में नापसन्दीदा हैं, वे सब छोटे गुनाहों के तहत आते हैं। इसी तरह बड़े गुनाह की सिर्फ़ ख़ाहिश या उसका इरादा भी बड़ा गुनाह नहीं, बल्कि छोटा गुनाह है। यहाँ तक कि किसी बड़े गुनाह के शुरुआती मरहले तय कर जाना भी उस वक़्त तक बड़ा गुनाह नहीं है जब तक आदमी उसको कर न गुज़रे। अलबत्ता छोटा गुनाह भी ऐसी हालत में बड़ा गुनाह हो जाता है जब कि वह दीन को हल्का समझकर और अल्लाह तआला के मुक़ाबले में घमण्ड के जज़बे से किया जाए और उसका करनेवाला उस शरीअत को किसी तरह से ध्यान देने लायक़ न समझे जिसने उसे एक बुराई क़रार दिया है।
33. यानी छोटे गुनाहों के करनेवाले को माफ़ कर दिया जाना कुछ इस वजह से नहीं है कि छोटा गुनाह, गुनाह नहीं है, बल्कि इसकी वजह यह है कि अल्लाह तआला अपने बन्दों के साथ तंगनज़री और छोटी-छोटी बातों पर पकड़ का मामला नहीं करता। बन्दे अगर नेकी अपनाएँ और बड़े गुनाहों और बेहयाई के कामों से बचते रहें तो वह उनकी छोटी-छोटी बातों पर पकड़ न करेगा और अपनी बेपनाह रहमत की वजह से उनको वैसे ही माफ़ कर देगा।
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي تَوَلَّىٰ ۝ 28
(33) फिर ऐ नबी! तुमने उस शख़्स को भी देखा जो ख़ुदा की राह से फिर गया
وَأَعۡطَىٰ قَلِيلٗا وَأَكۡدَىٰٓ ۝ 29
(34) और थोड़ा-सा देकर रुक गया?34
34. इशारा है वलीद-बिन-मुग़ीरा की तरफ़ जो क़ुरैश के बड़े सरदारों में से एक था। इब्ने-जरीर तबरी (रह०) की रिवायत है कि यह आदमी पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत क़ुबूल करने पर आमादा हो गया था। मगर जब उसके एक मुशरिक दोस्त को मालूम हुआ कि वह मुसलमान होने का इरादा कर रहा है तो उसने कहा कि तुम बाप-दादा के दीन को न छोड़ो, अगर तुम्हें आख़िरत के अज़ाब का ख़तरा है तो मुझे इतनी रक़म दे दो, मैं ज़िम्मा लेता हूँ कि तुम्हारे बदले वहाँ का अज़ाब मैं भुगत लूँगा। वलीद ने यह बात मान ली और ख़ुदा की राह पर आते-आते उससे फिर गया, मगर जो रक़म उसने अपने मुशरिक दोस्त को देनी तय की थी, वह भी बस थोड़ी-सी दी और बाक़ी रोक ली। इस वाक़िए की तरफ़ इशारा करने का मक़सद मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों को यह बताना था कि आख़िरत से बेफ़िक्री और दीन की हक़ीक़त से बेख़बरी ने उनको कैसी जहालतों और बेवक़ूफ़ियों में मुब्तला कर रखा है।
أَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡغَيۡبِ فَهُوَ يَرَىٰٓ ۝ 30
(35) क्या उसके पास ग़ैब (परोक्ष) का इल्म है कि वह हक़ीक़त को देख रहा है?35
35. यानी क्या उसे मालूम है कि यह रवैया उसके लिए फ़ायदेमन्द है? क्या वह जानता है कि आख़िरत के अज़ाब से कोई इस तरह भी बच सकता है?
أَمۡ لَمۡ يُنَبَّأۡ بِمَا فِي صُحُفِ مُوسَىٰ ۝ 31
(36) क्या उसे उन बातों की कोई ख़बर नहीं पहुँची जो मूसा के सहीफ़ों (ग्रन्थ के पन्नों)
وَإِبۡرَٰهِيمَ ٱلَّذِي وَفَّىٰٓ ۝ 32
(37) और उस इबराहीम के सहीफ़ों में बयान हुई हैं जिसने वफ़ा का हक़ अदा कर दिया?36
36. आगे उन तालीमात का ख़ुलासा बयान किया जा रहा है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सहीफ़ों में उतरी थीं। हज़रत मूसा (अलैहि०) के सहीफ़ों से मुराद तौरात है। रहे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सहीफ़े तो वे आज दुनिया में कहीं मौजूद नहीं हैं और यहूदियों और ईसाइयों की पाक किताबों में भी उनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता। सिर्फ़ क़ुरआन ही वह किताब है जिसमें दो जगहों पर 'सुहुफ़े-इबराहीम' की तालीमात के कुछ हिस्से नक़्ल किए गए हैं, एक यह जगह, दूसरी सूरा-87 आला की आख़िरी आयतें।
أَلَّا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰ ۝ 33
(38) “यह कि कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा,37
37. इस आयत से तीन बड़े उसूल निकलते हैं : एक यह कि हर शख़्स ख़ुद अपने अमल का ज़िम्मेदार है। दूसरा यह कि एक शख़्स के अमल की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती, सिवाय यह कि उस काम के होने में उसका अपना कोई हिस्सा हो। तीसरा यह कि कोई शख़्स अगर चाहे भी तो किसी दूसरे शख़्स के अमल की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले जा सकता, न अस्ल मुजरिम को इस बुनियाद पर छोड़ा जा सकता है कि उसकी जगह सज़ा भुगतने के लिए कोई और आदमी अपने-आपको पेश कर रहा है।
وَأَن لَّيۡسَ لِلۡإِنسَٰنِ إِلَّا مَا سَعَىٰ ۝ 34
(39) और यह कि इनसान के लिए कुछ नहीं है, मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है,38
38. इस बात से भी तीन अहम उसूल निकलते हैं : एक यह कि हर शख़्स जो कुछ भी पाएगा अपने अमल का फल पाएगा। दूसरा यह कि हर शख़्स के अमल का फल दूसरा नहीं पा सकता, सिवाय यह कि उस अमल में उसका अपना कोई हिस्सा हो। तीसरा यह कि कोई शख़्स कोशिश और अमल के बिना कुछ नहीं पा सकता। इन तीन उसूलों को कुछ लोग दुनिया के माली मामलों पर ग़लत तरीक़े से चस्पाँ करने की कोशिश करके इनसे यह नतीजा निकालते हैं कि कोई शख़्स अपनी मेहनत की कमाई (Earned income) के सिवा किसी चीज़ का जाइज़ मालिक नहीं हो सकता। लेकिन यह बात क़ुरआन मजीद ही के दिए हुए कई क़ानून और हुक्मों से टकराती है। मसलन विरासत का क़ानून, जिसके मुताबिक़ एक शख़्स के तरके (छोड़े हुए माल-जायदाद) में से बहुत-से लोग हिस्सा पाते हैं और उसके जाइज़ वारिस क़रार पाते हैं, हालाँकि यह मीरास उनकी अपनी मेहनत की कमाई नहीं होती, बल्कि एक दूध-पीते बच्चे के बारे में तो किसी खींचतान से भी यह साबित नहीं किया जा सकता कि बाप के छोड़े हुए माल में उसकी मेहनत का भी कोई हिस्सा था। इसी तरह ज़कात और सदक़ों के हुक्म, जिनके मुताबिक़ एक आदमी का माल दूसरों को सिर्फ़ उनके शरई और अख़लाक़ी हक़ की बुनियाद पर मिलता है और वे उसके जाइज़ मालिक होते हैं, हालाँकि उस माल के पैदा करने में उनकी मेहनत का कोई हिस्सा नहीं होता। इसलिए क़ुरआन की किसी एक आयत को लेकर उससे ऐसे नतीजे निकालना जो ख़ुद क़ुरआन ही की दूसरी तालीमात से टकराते हों, क़ुरआन के मंशा के बिलकुल ख़िलाफ़ है। कुछ दूसरे लोग इन उसूलों को आख़िरत के बारे में मानकर ये सवाल उठाते हैं कि क्या इन उसूलों के मुताबिक़ एक शख़्स का अमल दूसरे शख़्स के लिए किसी सूरत में भी फ़ायदेमन्द हो सकता है? और क्या एक शख़्स अगर दूसरे शख़्स के लिए या उसके बदले कोई अमल करे तो वह उसकी तरफ़ से क़ुबूल किया जा सकता है? और क्या यह भी मुमकिन है कि एक आदमी अपने अमल के बदले को दूसरे की तरफ़ भेज सके? इन सवालों का जवाब अगर इनकार में हो तो ईसाले-सवाब (मुर्दों को सवाब पहुँचाना) और हज्जे-बदल वग़ैरा सब नाजाइज़ हो जाते हैं, बल्कि दूसरे के हक़ में दुआ-ए-इसतिग़फ़ार (माफ़ी की दुआ) भी बे-मतलब हो जाती है, क्योंकि यह दुआ भी उस शख़्स का अपना अमल नहीं है, जिसके हक़ में दुआ की जाए। मगर यह इन्तिहाई नुक़्ता-ए-नज़र (अतिवादी दृष्टिकोण) मुअतज़िला (एक ख़ास फ़िरक़ा जो दीन के मामले में अक़्ल की बुनियाद पर फ़ैसले करता है) के सिवा मुसलमानों में से किसी ने भी नहीं अपनाया है। सिर्फ़ वे इस आयत का यह मतलब लेते हैं कि एक शख़्स की कोशिश दूसरे के लिए किसी हाल में भी फ़ायदेमन्द नहीं हो सकती। इसके बरख़िलाफ़ अहले-सुन्नत एक शख़्स के लिए दूसरे की दुआ के फ़ायदेमन्द होने पर एक राय हैं, क्योंकि वह क़ुरआन से साबित है, अलबत्ता ईसाले-सवाब और दूसरे के बदले किसी नेक काम के फ़ायदेमन्द होने में उनके बीच उसूली तौर पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ तफ़सीलात में फ़र्क़ है। (i) ईसाले-सवाब यह है कि एक शख़्स कोई नेक काम करके अल्लाह से दुआ करे कि उसका सवाब और इनाम किसी दूसरे शख़्स को दे दिया जाए। इस मसले में इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) फ़रमाते हैं कि ख़ालिस बदनी इबादतों, मसलन नमाज़, रोज़ा और क़ुरआन की तिलावत वग़ैरा का सवाब दूसरे को नहीं पहुँच सकता, अलबत्ता माली इबादतों, मसलन सदक़ा, या माली और बदनी मिली-जुली इबादतों, मसलन हज का सवाब दूसरे को पहुँच सकता है, क्योंकि अस्ल यह है कि एक शख़्स का अमल दूसरे के लिए फ़ायदेमन्द न हो, मगर चूँकि सही हदीसों के मुताबिक़ सदक़े का सवाब पहुँचाया जा सकता है और दूसरे के बदले हज भी किया जा सकता है, इसलिए हम इसी तरह की इबादतों तक ईसाले-सवाब को सही मानते हैं। इसके बरख़िलाफ़ हनफ़ी मसलक के माननेवालों की राय यह है कि इनसान अपने हर नेक अमल का सवाब दूसरे को दे सकता है, चाहे वह नमाज़ हो या रोज़ा या क़ुरआन की तिलावत या ज़िक्र या सदक़ा या हज या उमरा। इसकी दलील यह है कि आदमी जिस तरह मजदूरी करके मालिक से यह कह सकता है कि इसका मेहनताना मेरे बजाय फ़ुलाँ शख़्स को दे दिया जाए, इसी तरह वह कोई नेक काम करके अल्लाह तआला से यह दुआ भी कर सकता है कि इसका इनाम मेरी तरफ़ से फ़ुलाँ शख़्स को दे दिया जाए। इसमें कुछ क़िस्म की नेकियों को अलग करने और कुछ दूसरी तरह की नेकियों तक महदूद रखने की कोई मुनासिब वजह नहीं है। यही बात बहुत-सी हदीसों से भी साबित है— बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, इब्ने-माजा, तबरानी (फ़िल-औसत), मुस्तदरक और इब्ने-अबी-शैबा में हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०), हज़रत अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) और हज़रत हुजैफ़ा-बिन-असीद गिफ़ारी (रज़ि०) सभी ने रिवायत की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दो मेंढे लेकर एक अपनी और अपने घरवालों की तरफ़ से क़ुरबान किया और दूसरा अपनी उम्मत की तरफ़ से। मुस्लिम, बुख़ारी, मुसनद अहमद, अबू-दाऊद और नसई में हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक शख़्स ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “मेरी माँ का अचानक इन्तिक़ाल हो गया है। मेरा ख़याल है कि अगर उन्हें बात करने का मौक़ा मिलता तो वे ज़रूर सदक़ा करने के लिए कहतीं। अब अगर मैं उनकी तरफ़ से सदका करूँ? तो क्या उनके लिए अज्र (बदला) है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ।" मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि उनके दादा आस-बिन-वाइल ने जाहिलियत के ज़माने में सौ ऊँट ज़ब्ह करने की नज़्र मानी थी। उनके चचा हिशाम-बिन-आस ने अपने हिस्से के पचास ऊँट ज़ब्ह कर दिए। हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा कि मैं क्या करूँ? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर तुम्हारे बाप ने तौहीद (एकेश्वरवाद) का इक़रार कर लिया था तो उनकी तरफ़ से रोज़ा रखो या सदक़ा करो, वह उनके लिए फ़ायदेमन्द होगा।" मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई और इब्ने-माजा में हज़रत हसन बसरी (रह०) की रिवायत है कि हज़रत साद-बिन-उबादा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा कि "मेरी माँ का इन्तिक़ाल हो गया है, क्या मैं उनकी तरफ़ से सदक़ा करूँ?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ।” इसी मज़मून की कई दूसरी रिवायतें भी हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, नसई, तिरमिजी, अबू-दाऊद और इब्ने-माजा वग़ैरा में मौजूद हैं, जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मरनेवाले की तरफ़ से सदक़ा करने की इजाज़त दी है और उसे मरनेवाले के लिए फ़ायदेमन्द बताया है। दारे-क़ुतनी में है कि एक शख़्स ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “मैं अपने माँ-बाप की ख़िदमत उनकी ज़िन्दगी में तो करता हूँ, उनके मरने के बाद कैसे करूँ?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह भी उनकी ख़िदमत ही है कि तू उनके मरने के बाद अपनी नमाज़ के साथ उनके लिए भी नमाज़ पढ़े और अपने रोज़ों के साथ उनके लिए भी रोज़े रखे।” एक दूसरी हदीस दारे-क़ुतनी में हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत है, जिसमें वे बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिस शख़्स का क़ब्रिस्तान पर गुज़र हो और वह ग्यारह बार 'क़ुल हुवल्लाहु अहद' (कहो, अल्लाह एक है) पढ़कर उसका अज्र मरनेवालों को बख़्श दे तो जितने मुर्दे हैं उतना ही अज्र दे दिया जाएगा।" ये इतनी सारी रिवायतें जो एक-दूसरे की ताईद कर रही हैं, इस बात को बयान करती हैं कि ईसाले-सवाब न सिर्फ़ मुमकिन है, बल्कि हर तरह की इबादतों और नेकियों के सवाब को पहुँचाया जा सकता है और उसमें किसी ख़ास तरह के आमाल को ख़ास नहीं किया गया है, मगर इस सिलसिले में चार बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ— पहली बात यह कि सवाब उस अमल का पहुँचाया जा सकता है जो ख़ालिस अल्लाह के लिए और शरीअत के क़ायदों के मुताबिक़ पहुँचाया गया हो, वरना ज़ाहिर है कि अल्लाह के बजाय दूसरों के लिए या शरीअत के ख़िलाफ़ जो अमल किया जाए, उसपर ख़ुद अमल करनेवाले ही को किसी तरह का सवाब नहीं मिल सकता, कहाँ यह कि वह किसी दूसरे की तरफ़ पहुँच सके। दूसरी बात यह कि जो लोग अल्लाह तआला के यहाँ नेक लोगों की हैसियत से मेहमान हैं उनको तो सवाब का हदिया (तोहफ़ा) यक़ीनन पहुँचेगा, मगर जो वहाँ मुजरिम की हैसियत से हवालात में बन्द हैं उन्हें कोई सवाब पहुँचने की उम्मीद नहीं है। अल्लाह के मेहमानों को हदिया तो पहुँच सकता है, मगर उम्मीद नहीं कि अल्लाह के मुजरिम को तोहफ़ा पहुँच सके। उसके लिए अगर कोई शख़्स किसी ग़लतफ़हमी की वजह से ईसाले-सवाब करेगा तो उसका सवाब बेकार न होगा, बल्कि मुजरिम को पहुँचने के बजाय उसी की तरफ़ पलट आएगा, जिसने वह नेक अमल किया होगा। जैसे मनी ऑर्डर अगर उस शख़्स को न पहुँचे जिसे भेजा गया हो तो भेजनेवाले को वापस मिल जाता है। तीसरी बात यह है कि ईसाले-सवाब तो मुमकिन है, मगर 'ईसाले-अज़ाब' (अज़ाब पहुँचाना) मुमकिन नहीं है। यानी यह तो हो सकता है कि आदमी नेकी करके किसी दूसरे के लिए अज्र बख़्श दे और वह उसको पहुँच जाए, मगर यह नहीं हो सकता कि आदमी गुनाह करके उसका अज़ाब किसी को बख़्शे और वह उसे पहुँच जाए। और चौथी बात यह है कि नेक अमल के दो फ़ायदे हैं : एक इसके वे नतीजे जो अमल करनेवाले की अपनी रूह और उसके अख़लाक़ पर पड़ते हैं और जिनकी बुनियाद पर वह अल्लाह के यहाँ भी अज्र का हक़दार होता है। दूसरा उसका वह बदला जो अल्लाह तआला इनाम के तौर पर उसे देता है। ईसाले-सवाब का ताल्लुक़ पहली चीज़ से नहीं है, बल्कि सिर्फ़ दूसरी चीज़ से है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख़्स कसरत करके कुश्ती में महारत हासिल करने की कोशिश करता है। इससे जो ताक़त और महारत उसमें पैदा होती है वह बहरहाल उसके अपने ही लिए ख़ास है। दूसरे की तरफ़ वह भेजी नहीं जा सकती। इसी तरह अगर वह किसी दरबार का नौकर है और पहलवान की हैसियत से उसके लिए एक तनख़ाह मुक़र्रर है तो वह भी उसी को मिलेगी, किसी और को न दी जाएगी। अलबत्ता जो इनाम उसके काम पर ख़ुश होकर उसका सरपरस्त उसे दे, उसके हक़ में वह दरख़ास्त कर सकता है कि वह उसके उस्ताद, या माँ-बाप, या दूसरे एहसान करनेवालों को उसकी तरफ़ से दे दिए जाएँ। ऐसा ही मामला नेक कामों का है कि उनके रूहानी फ़ायदे तो दूसरों को नहीं पहुँचाए जा सकते और उनका बदला भी किसी को नहीं दिया जा सकता, मगर उनके अज्र और सवाब के बारे में वह अल्लाह तआला से दुआ कर सकता है कि वह उसके किसी क़रीबी रिश्तेदार या उसके किसी एहसान करनेवाले को दे दिया जाए। इसी लिए इसको ईसाले-जज़ा (अमल का बदला पहुँचाना) नहीं, बल्कि ईसाले-सवाब (अमल का इनाम पहुँचाना) कहा जाता है। (ii) एक शख़्स की कोशिश के किसी और शख़्स के लिए फ़ायदेमन्द होने की दूसरी शक्ल यह है कि आदमी या तो दूसरे की ख़ाहिश और मरज़ी की बुनियाद पर उसके लिए कोई नेक अमल करे, या उसकी ख़ाहिश और मरज़ी के बिना उसकी तरफ़ से कोई ऐसा अमल करे जो अस्ल में वाजिब तो उसके ज़िम्मे था, मगर वह ख़ुद उसे अदा न कर सका। इसके बारे में हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि इबादतों की तीन क़िस्में हैं। एक ख़ालिस बदनी, जैसे नमाज़, दूसरी ख़ालिस माली, जैसे ज़कात और तीसरी माली और बदनी मिली-जुली, जैसे हज। इनमें से पहली क़िस्म में बदल नहीं हो सकता, मसलन एक शख़्स की तरफ़ से दूसरा शख़्स उसके बदले में नमाज़ नहीं पढ़ सकता। दूसरी क़िस्म में बदल हो सकता है, मसलन बीवी के ज़ेवरात की ज़कात शौहर दे सकता है। तीसरी क़िस्म में सिर्फ़ उस हालत में बदल हो सकता है जबकि अस्ल शख़्स, जिसकी तरफ़ से कोई काम किया जा रहा है, अपना फ़र्ज़ अदा करने से वक़्ती तौर पर नहीं, बल्कि मुस्तक़िल (स्थायी) तौर पर मजबूर हो, मसलन हज्जे-बदल ऐसे शख़्स की तरफ़ से हो सकता है जो ख़ुद हज के लिए न जा सकता हो और न यह उम्मीद हो कि वह कभी इस क़ाबिल हो सकेगा। मालिकी और शाफ़िई मसलक के आलिम भी यही कहते हैं। अलबत्ता इमाम मालिक (रह०) हज्जे-बदल के लिए यह शर्त लगाते हैं कि अगर बाप ने वसीयत की हो कि उसका बेटा उसके बाद उसकी तरफ़ से हज करे तो वह हज्जे-बदल कर सकता है, वरना नहीं। मगर हदीसें इस मामले में बिलकुल साफ़ हैं कि बाप की मरज़ी या वसीयत हो, या न हो, बेटा उसकी तरफ़ से हज्जे-बदल कर सकता है। इजे-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि ख़सअम क़बीले की एक औरत ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि मेरे बाप को हज के फ़र्ज़ होने का हुक्म ऐसी हालत में पहुँचा है कि वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं, ऊँट की पीठ पर बैठ नहीं सकते। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तो उनकी तरफ़ से तुम हज कर लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई)। क़रीब-क़रीब इसी मज़मून की रिवायत हज़रत अली (रज़ि०) ने भी बयान की है। (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) ख़सअम क़बीले ही के एक मर्द का ज़िक्र करते हैं कि उसने भी अपने बूढ़े बाप के बारे में यही सवाल किया था। नबी (सल्ल०) ने पूछा, कि “क्या तुम उनके सबसे बड़े लड़के हो?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारा क्या ख़याल है, अगर तुम्हारे बाप पर क़र्ज़ हो और तुम उसको अदा कर दो तो वह उनकी तरफ़ से अदा हो जाएगा?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बस इसी तरह तुम उनकी तरफ़ से हज भी कर लो।" (हदीस : अहमद, नसई)। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि जुहैना नामी क़बीले की एक औरत ने आकर अर्ज़ किया कि मेरी माँ ने हज करने की नज़्र (मन्नत) मानी थी, मगर वे उससे पहले ही मर गईं, अब क्या मैं उनकी तरफ़ से हज कर सकती हूँ? अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जवाब दिया, “तुम्हारी माँ पर अगर क़र्ज़ होता तो क्या तुम उसको अदा न कर सकती थीं? इसी तरह तुम लोग अल्लाह का हक़ भी अदा करो और अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उसके साथ किए हुए वादे पूरे किए जाएँ।" (हदीस : बुख़ारी, नसई) बुख़ारी और मुसनद अहमद में एक दूसरी रिवायत यह है कि एक मर्द ने आकर अपनी बहन के बारे में यही सवाल किया जो ऊपर बयान हुआ है और नबी (सल्ल०) ने उसको भी वही जवाब दिया। इन रिवायतों से माली और बदनी मिली-जुली इबादतों में नियाबत (बदले के तौर पर अदा करने) का साफ़ सुबूत मिलता है। रहीं ख़ालिस बदनी इबादतें तो कुछ हदीसें ऐसी हैं जिनसे इस तरह की इबादतों में भी नियाबत का जाइज़ होना साबित होता है। मिसाल के तौर पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की यह रिवायत कि जुहैना क़बीले की एक औरत ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “मेरी माँ ने रोज़े की नज़्र (मन्नत) मानी थी और वे पूरी किए बिना मर गई, क्या मैं उनकी तरफ़ से रोज़ा रख सकती हूँ?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उनकी तरफ़ से रोज़ा रख लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, अबू-दाऊद)। और हज़रत बुरैदा (रज़ि०) की यह रिवायत है कि एक औरत ने अपनी माँ के बारे में पूछा कि उनके ज़िम्मे एक महीने (या दूसरी रिवायत के मुताबिक़ दो महीने) के रोज़े थे, क्या मैं ये रोज़े अदा कर दूँ? आप (सल्ल०) ने उसको भी इसकी इजाज़त दे दी, (हदीस : मुस्लिम, अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद)। और हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स मर जाए और उसके ज़िम्मे कुछ रोज़े हों तो उसकी तरफ़ से उसका वली (क़रीबी, वारिस) वे रोज़े रख ले,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, बज़्ज़ार की रिवायत में नबी सल्ल० के अलफ़ाज़ ये हैं कि उसका वली अगर चाहे तो उसकी तरफ़ से ये रोज़े रख ले)। इन ही हदीसों की बुनियाद पर हदीस के आलिमों इमाम औज़ाई और ज़ाहिरी मसलक के आलिमों का मानना है कि बदनी इबादतों में भी नियाबत जाइज़ है। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम ज़ैद-बिन-अली (रह०) का फ़तवा यह है कि मरनेवाले की तरफ़ से रोज़ा नहीं रखा जा सकता और इमाम अहमद (रह०), इमाम लैस और इसहाक़-बिन-राहवैह (रह०) कहते हैं कि सिर्फ़ उस सूरत में ऐसा किया जा सकता है जबकि मरनेवाले ने उसकी नज़्र (मन्नत) मानी हो और वह उसे पूरा न कर सका हो। मना करनेवालों की दलील यह है कि जिन हदीसों से इसके जाइज़ होने का सुबूत मिलता है, उनके रिवायत करनेवालों ने ख़ुद इसके ख़िलाफ़ फ़तवा दिया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का फ़तवा नसई ने इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है कि “कोई शख़्स किसी की तरफ़ से न नमाज़ पढ़े, न रोज़ा रखे।” और हज़रत आइशा (रज़ि०) का फ़तवा अब्दुर्रज़्ज़ाक़ की रिवायत के मुताबिक़ यह है कि अपने मुर्दों की तरफ़ से रोज़ा न रखो, बल्कि खाना खिलाओ।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से भी अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने यही बात नक़्ल की है कि मरनेवाले की तरफ़ से रोज़ा न रखा जाए। इससे मालूम होता है कि शुरू में बदनी इबादतों में नियाबत की इजाज़त थी, मगर आख़िरी हुक्म यही क़रार पाया कि ऐसा करना जाइज़ नहीं है। वरना किस तरह मुमकिन था कि जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से ये हदीसें नक़्ल की हैं वे ख़ुद उनके ख़िलाफ़ फ़तवा देते। इस सिलसिले में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि नियाबत (बदल) के तौर पर किसी फ़र्ज़ को अदा करना सिर्फ़ उन ही लोगों के हक़ में फ़ायदेमन्द हो सकता है जो ख़ुद फ़र्ज़ अदा करने के ख़ाहिशमन्द हों और मजबूरी की वजह से अदा करने से रह गए हों। लेकिन अगर कोई शख़्स ताक़त और क़ुदरत के बावजूद जान-बूझकर हज से दूर रहा और उसके दिल में इस फ़र्ज़ का एहसास तक न था, उसके लिए चाहे कितने ही हज्जे-बदल किए जाएँ, वे उसके हक़ में फ़ायदेमन्द नहीं हो सकते। यह ऐसा ही है जैसे एक शख़्स ने किसी का क़र्ज़ जान-बूझकर मार खाया हो और मरते दम तक उसका कोई इरादा क़र्ज़ अदा करने का न था। उसकी तरफ़ से चाहे बाद में पाई-पाई अदा कर दी जाए, अल्लाह तआला की निगाह में वह क़र्ज़ मारनेवाला ही माना जाएगा। दूसरे के अदा करने से ज़िम्मेदारी से सिर्फ़ वही शख़्स छूट सकता है जो अपनी ज़िन्दगी में क़र्ज़ अदा करने का ख़ाहिशमन्द हो और किसी मजबूरी की वजह से अदा न कर सका हो।
وَأَنَّ سَعۡيَهُۥ سَوۡفَ يُرَىٰ ۝ 35
(40) और यह कि उसकी कोशिश जल्द ही देखी जाएगी39
39. यानी आख़िरत में लोगों के आमाल की जाँच-पड़ताल होगी और यह देखा जाएगा कि कौन क्या करके आया है। यह जुमला चूँकि पहले जुमले के फ़ौरन बाद कहा गया है इसलिए इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि पहले जुमले का ताल्लुक़ आख़िरत के इनाम और उसकी सज़ा ही से है और उन लोगों की बात सही नहीं है जो इसे इस दुनिया के लिए एक मआशी (आर्थिक) उसूल बनाकर पेश करते हैं। क़ुरआन मजीद की किसी आयत का ऐसा मतलब लेना सही नहीं हो सकता जो मौक़ा-महल के भी ख़िलाफ़ हो, और क़ुरआन के दूसरे बयानों से भी टकराता हो।
ثُمَّ يُجۡزَىٰهُ ٱلۡجَزَآءَ ٱلۡأَوۡفَىٰ ۝ 36
(41) और उसका पूरा बदला उसे दिया जाएगा,
وَأَنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 37
(42) और यह कि आख़िरकार पहुँचना तेरे रब ही के पास है,
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَضۡحَكَ وَأَبۡكَىٰ ۝ 38
(43) और यह कि उसी ने हँसाया और उसी ने रुलाया,40
40. यानी ख़ुशी और ग़म, दोनों के असबाब उसी की तरफ़ से हैं। अच्छी और बुरी क़िस्मत की डोर उसी के हाथ में है। किसी को अगर राहत और ख़ुशी नसीब हुई है तो उसी के देने से हुई है और किसी को मुसीबतों और दुखों से वासिता पेश आया है तो उसी की मरज़ी से पेश आया है। कोई दूसरी हस्ती इस कायनात में ऐसी नहीं है जो क़िस्मतों के बनाने और बिगाड़ने में किसी क़िस्म का दख़ल रखती हो।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَمَاتَ وَأَحۡيَا ۝ 39
(44) और यह कि उसी ने मौत दी और उसी ने ज़िन्दगी दी,
وَأَنَّهُۥ خَلَقَ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰ ۝ 40
(45) और यह कि उसी ने नर और मादा का जोड़ा पैदा किया
مِن نُّطۡفَةٍ إِذَا تُمۡنَىٰ ۝ 41
(16) एक बूँद से जब वह टपकाई जाती है,41
41. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-30 रूम, हाशिए—27 से 30; सूरा-42 शूरा, हाशिया-77।
وَأَنَّ عَلَيۡهِ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰ ۝ 42
(47) और यह कि दूसरी ज़िन्दगी देना भी उसी के ज़िम्मे है,42
42. ऊपर की दोनों आयतों के साथ मिलाकर इस आयत को देखा जाए तो महसूस होता है कि बात की तरतीब (वार्ताक्रम) से ख़ुद-ब-ख़ुद मरने के बाद की ज़िन्दगी की दलील भी निकल रही है। जो ख़ुदा मौत देने और ज़िन्दगी देने की क़ुदरत रखता है और जो ख़ुदा नुतफ़े (वीर्य) की हक़ीर-सी बूँद से इनसान जैसा जानदार पैदा करता है, बल्कि पैदाइश का एक ही माद्दा (पदार्थ) और एक ही तरीक़े से औरत और मर्द की दो अलग-अलग जिंसें (जातियाँ) पैदा कर दिखाता है, उसके लिए इनसान को दोबारा पैदा करना कुछ मुश्किल नहीं है।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَغۡنَىٰ وَأَقۡنَىٰ ۝ 43
(48) और यह कि उसी ने ग़नी (सम्पन्न) किया और जायदाद दी,43
43. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अक़ना' इस्तेमाल हुआ है जिसके अलग-अलग मतलब अरबी ज़बान के जाननेवालों और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने बयान किए हैं। क़तादा (रह०) कहते हैं कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने इसका मतलब 'अरज़ा' (राज़ी कर दिया) बताया है। इकरिमा ने इब्जे-अब्बास (रज़ि०) से इसका मतलब 'क़न-नअ’ (मुत्मइन कर दिया) नक़्ल किया है। इमाम राज़ी कहते हैं कि आदमी की ज़रूरत से ज़्यादा जो कुछ भी उसको दिया जाए वह 'इक़ना' है। अबू-उबैदा और बहुत-से दूसरे अरबी ज़बान के जाननेवालों का कहना है कि 'अक़ना' 'क़ुन्यतुन' से निकला है, जिसका मतलब है बाक़ी और महफ़ूज़ रहनेवाला माल, जैसे मकान, ज़मीन, बाग़ात, मवेशी वग़ैरा। इन सबसे अलग मतलब इब्ने-ज़ैद (रह०) बयान करते हैं। वे कहते हैं कि 'अक़ना' यहाँ 'अफ़क़र' (फ़कीर कर दिया) के मानी में है और आयत का मतलब यह है कि उसने जिसको चाहा ग़नी (मालदार) किया और जिसे चाहा फ़क़ीर कर दिया।
وَأَنَّهُۥ هُوَ رَبُّ ٱلشِّعۡرَىٰ ۝ 44
(49) और यह कि वही 'शिअरा' का रब है,44
44. 'शिअरा' आसमान का सबसे चमकदार तारा है, जिसे मिर्ज़मुल-जौज़ा, अल-कल्बुल-अकबर, अल-कल्बुल-जब्बार, अश-शिअरा, अल-अबूर वग़ैरा नामों से भी याद किया जाता है। अंग्रेज़ी में इसको Sirius और Dog Star और Canis Majoris कहते हैं। यह सूरज से 23 गुना ज़्यादा रौशन है, मगर ज़मीन से इसकी दूरी आठ नूरी साल (प्रकाश वर्ष) से भी ज़्यादा है, इसलिए यह सूरज से छोटा और कम रौशन नज़र आता है। मिस्र के लोग इसकी पूजा करते थे, क्योंकि उसके निकलने के ज़माने में नील नहर से फ़ायदे पहुँचने शुरू होते थे, इसलिए वे समझते थे कि यह उसी के निकलने की बरकत है। जाहिलियत में अरबवालों का भी यह अक़ीदा था कि यह सितारा लोगों की क़िस्मतों पर असर डालता है। इसी वजह से यह अरब के माबूदों (उपस्यों) में शामिल था और ख़ास तौर पर क़ुरैश का पड़ोसी क़बीला, खुज़ाआ इसकी पूजा के लिए मशहूर था। अल्लाह तआला के फ़रमान का मतलब यह है कि तुम्हारी क़िस्मतें शिअरा नहीं बनाता, बल्कि उसका रब बनाता है।
وَأَنَّهُۥٓ أَهۡلَكَ عَادًا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 45
(50) और यह कि उसी ने 'आदे-ऊला'45 को हलाक किया,
45 ‘आदे-ऊला’ से मुराद है पुरानी आद क़ौम, जिसकी तरफ़ हज़रत हूद (अलैहि०) भेजे गए थे। यह क़ौम जब हज़रत हूद (अलैहि०) को झुठलाने की सज़ा में अज़ाब में मुब्तला हुई तो सिर्फ़ वे लोग बाक़ी बचे जो उनपर ईमान लाए थे। उनकी नस्ल को तारीख़ (इतिहास) में 'आदे-उख़रा' या 'आदे-सानिया' कहते हैं।
وَثَمُودَاْ فَمَآ أَبۡقَىٰ ۝ 46
(51) और समूद को ऐसा मिटाया कि उनमें से किसी को बाक़ी न छोड़ा,
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ هُمۡ أَظۡلَمَ وَأَطۡغَىٰ ۝ 47
(52) औरउनसे पहले नूह की क़ौम को तबाह किया, क्योंकि वे थे ही सख़्त ज़ालिम और सरकश लोग,
وَٱلۡمُؤۡتَفِكَةَ أَهۡوَىٰ ۝ 48
(53) और औंधी गिरनेवाली बस्तियों को उठा फेंका,
فَغَشَّىٰهَا مَا غَشَّىٰ ۝ 49
(54) फिर छा दिया उनपर वह कुछ जो (तुम जानते ही हो कि) क्या छा दिया।46
46. औंधी गिरनेवाली बस्तियों से मुराद लूत (अलैहि०) की क़ौम की बस्तियाँ हैं और ‘छा दिया उनपर जो कुछ छा दिया' से मुराद शायद बहरे-मुरदार (मृतसागर) का पानी है, जो उनकी बस्तियों के ज़मीन में धंस जाने के बाद उनपर फैल गया था और आज तक वह उस इलाक़े पर छाया हुआ है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكَ تَتَمَارَىٰ ۝ 50
(55) तो47 ऐ इनसान! अपने रब की किन-किन नेमतों में तू शक करेगा?"48
47. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों के नज़दीक यह जुमला भी 'सुहुफ़े-इबराहीम' और 'सुहुफ़े-मूसा' की इबारत का एक हिस्सा है और कुछ तफ़सीर लिखनेवाले कहते हैं कि 'फिर छा दिया उनपर जो कुछ छा दिया' पर वह इबारत ख़त्म हो गई, यहाँ से दूसरा मज़मून शुरू होता है। मौक़ा-महल को देखते हुए पहली राय ही सही मालूम होती है, क्योंकि बाद की यह इबारत कि 'यह एक तंबीह (चेतावनी) है पहले से आई हुई तंबीहात (चेतावनियों) में से’, इस बात की तरफ़ इशारा कर रही है कि इससे पहले की तमाम इबारत पिछली तंबीहात में से है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत मूसा (अलैहि०) के सहीफ़ों में दी गई थीं।
48. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'त-तमारा’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब शक करना भी है और झगड़ना भी। बात हर सुननेवाले से कही जा रही है। जो शख़्स भी इस कलाम को सुन रहा हो उसको मुख़ातब करके कहा जा रहा है कि अल्लाह तआला की नेमतों को झुठलाने और उनके बारे में पैग़म्बरों से झगड़ा करने का जो अंजाम इनसानी तारीख़ में हो चुका है, क्या उसके बाद भी तू यही बेवक़ूफ़ी करेगा? पिछली क़ौमों ने यही तो शक किया था कि जिन नेमतों से हम इस दुनिया में फ़ायदा उठा रहे हैं ये एक ख़ुदा की नेमतें हैं, या कोई और भी इनके जुटाने में शरीक है, या ये किसी की दी हुई नहीं हैं, बल्कि आप-से-आप जुट गई है। इसी शक की वजह से उन्होंने पैग़म्बरों से झगड़ा किया था। पैग़म्बर उनसे कहते थे कि ये सारी नेमतें तुम्हें ख़ुदा ने, और अकेले एक ही ख़ुदा ने दी हैं, इसलिए उसी का तुम्हें शुक्रगुज़ार होना चाहिए और उसी की तुमको बन्दगी करनी चाहिए। मगर वे लोग इसको नहीं मानते थे और इसी बात पर नबियों से झगड़ते थे। अब क्या तुझे तारीख़ में यह नज़र नहीं आता कि ये क़ौमें अपने इस शक और इस झगड़े का क्या अंजाम देख चुकी हैं? क्या तू भी वही शक और वही झगड़ा करेगा जो दूसरों के लिए तबाह करनेवाला साबित हो चुका है? इस सिलसिले में यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि आद, समूद और नूह (अलैहि०) की क़ौम के लोग हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से पहले गुज़र चुके थे और लूत (अलैहि०) की क़ौम ख़ुद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ज़माने में अज़ाब में मुब्तला हुई थी, इसलिए इस इबारत के 'इबराहीम के सहीफ़ों' का एक हिस्सा होने में कोई शक नहीं है।
هَٰذَا نَذِيرٞ مِّنَ ٱلنُّذُرِ ٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 51
(56) यह एक तंबीह (चेतावनी) है पहले आई हुई तंबीहात (चेतावनियों) में से।49
49. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'हाज़ा नज़ीरुम-मिनन-नुज़ुरिल-ऊला'। इसकी तफ़सीर में तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की तीन राएँ हैं : एक यह कि 'नज़ीर' (चेतावनी देनेवाले) से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) हैं। दूसरी यह कि इससे मुराद क़ुरआन है। तीसरी यह है कि इससे मुराद पिछली हलाक हो चुकी क़ौमों का अंजाम है, जिसका हाल ऊपर की आयतों में बयान किया गया है। मौक़ा-महल के लिहाज़ से हमारे नज़दीक यही तीसरी तफ़सीर ज़्यादा अहमियत देने के क़ाबिल है।
أَزِفَتِ ٱلۡأٓزِفَةُ ۝ 52
(57) आनेवाली घड़ी क़रीब आ लगी है,50
50. यानी यह न समझो कि सोचने के लिए अभी बहुत वक़्त पड़ा है, क्या जल्दी है कि इन बातों पर हम फ़ौरन ही संजीदगी के साथ ग़ौर करें और इन्हें मानने का बिना देर किए फ़ैसला कर डालें। नहीं, तुममें से किसी को भी यह मालूम नहीं है कि उसके लिए ज़िन्दगी की कितनी मुहलत बाक़ी है। हर वक़्त तुममें से हर शख़्स की मौत भी आ सकती है और क़ियामत भी अचानक पेश आ सकती है। इसलिए फ़ैसले की घड़ी को दूर न समझो। जिसको भी अपनी आख़िरत की फ़िक्र करनी है वह एक पल की देर किए बिना सम्भल जाए, क्योंकि हर साँस के बाद यह मुमकिन है कि दूसरी साँस लेने की नौबत न आए।
لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ كَاشِفَةٌ ۝ 53
(58) अल्लाह के सिवा कोई उसको हटानेवाला नहीं।51
51. यानी फ़ैसले की घड़ी जब आ जाएगी तो न तुम उसे रोक सकोगे और न अल्लाह को छोड़कर तुम्हारे इन माबूदों में से किसी का यह बल-बूता है कि वह इसको टाल सके। टाल सकता है तो अल्लाह ही टाल सकता है और वह उसे टालनेवाला नहीं है।
أَفَمِنۡ هَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ تَعۡجَبُونَ ۝ 54
(59) अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम ताज्जुब का इज़हार करते हो?52
52. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘हाज़ल-हदीस' इस्तेमाल हुआ है, जिससे मुराद वह सारी तालीम है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़रिए से क़ुरआन मजीद में पेश की जा रही थी और ताज्जुब से मुराद वह ताज्जुब है जिसका इज़हार आदमी किसी अनोखी और नाक़ाबिले-यक़ीन बात को सुनकर किया करता है। आयत का मतलब यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस चीज़ की तरफ़ दावत दे रहे हैं वह यही कुछ तो है जो तुमने सुन ली। अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम कान खड़े करते हो और हैरत से इस तरह मुँह तकते हो मानो कोई बड़ी अजीब और निराली बातें तुम्हें सुनाई जा रही हैं?
وَتَضۡحَكُونَ وَلَا تَبۡكُونَ ۝ 55
(60) हँसते हो और रोते नहीं हो?53
53. यानी बजाय इसके कि तुम्हें अपनी जहालत और गुमराही पर रोना आता, तुम लोग उलटा इस सच्चाई का मज़ाक़ उड़ाते हो जो तुम्हारे सामने पेश की जा रही है।
وَأَنتُمۡ سَٰمِدُونَ ۝ 56
(61) और गा-बजाकर उन्हें टालते हो?54
54. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सामिदून' इस्तेमाल हुआ है जिसके दो मतलब अरबी ज़बान के जाननेवालों ने बयान किए हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इकरिमा और अबू-उबैदा नहवी का कहना है कि यमनी ज़बान में सुमूद का मतलब गाना-बजाना है और आयत का इशारा इस तरफ़ है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मन क़ुरआन की आवाज़ को दबाने और लोगों का ध्यान दूसरी तरफ़ हटाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से गाना शुरू कर देते थे। दूसरा मतलब इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और मुजाहिद ने यह बयान किया है कि “सुमूद घमण्ड के तौर पर सर न्योढ़ाने (टेढ़ा करने) को कहते हैं, मक्का के इस्लाम-दुश्मन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास से जब गुज़रते तो ग़ुस्से के साथ मुँह ऊपर उठाए हुए निकल जाते थे।” राग़िब अस्फ़हानी ने मुफ़्रदात में भी यही मतलब लिया है और इसी मतलब के लिहाज़ से 'सामिदून' का मतलब क़तादा (रह०) ने 'ग़ाफ़िलून' (भुलावे में पड़े हुए) और सईद-बिन-जुबैर (रह०) ने 'मुअरिज़ून' (मुँह मोड़ेनेवाले) बयान किया है।
فَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ وَٱعۡبُدُواْ۩ ۝ 57
(62) झुक जाओ अल्लाह के आगे और बन्दगी करो।55
55. इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०) और ज़्यादातर आलिमों के नज़दीक इस आयत पर सजदा करना लाज़िम है। इमाम मालिक (रह०) अगरचे ख़ुद इसकी तिलावत करके सजदा ज़रूर करते थे (जैसा कि क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी ने अहकामुल-क़ुरआन में नक़्ल किया है), मगर उनका मसलक यह था कि यहाँ सजदा करना लाज़िम नहीं है। उनकी इस राय की बुनियाद हज़रत ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) की यह रिवायत है कि “मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने सूरा-53 नज्म पढ़ी और नबी (सल्ल०) ने सजदा न किया,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसई)। लेकिन यह हदीस इस आयत पर सजदा लाज़िम होने का इनकार नहीं करती, क्योंकि इस बात का इमकान है कि नबी (सल्ल०) ने उस वक़्त किसी वजह से सजदा न किया हो और बाद में कर लिया हो। दूसरी रिवायतें इस बारे में साफ़ हैं कि इस आयत पर लाज़िमी तौर पर सजदा किया गया है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और मुत्तलिब-बिन-अबी-बदाआ (रज़ि०), इन तीनों की रिवायतें जिनपर ये एक राय हैं, ये हैं कि नबी (सल्ल०) ने जब पहली बार हरम (काबा) में यह सूरा तिलावत की तो आप (सल्ल०) ने सजदा किया और आप (सल्ल०) के साथ मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम सब सजदे में गिर गए, (हदीस : बुख़ारी, अहमद, नसई)। इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने नमाज़ में सूरा-53 नज्म पढ़कर सजदा किया और देर तक सजदे में पड़े रहे, (हदीस : बैहक़ी, इब्ने-मरदुवैह)। सबु-रतुल-जुहनी कहते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़ज्र की नमाज़ में सूरा-53 नज्म पढ़कर सजदा किया और फिर उठकर सूरा-99 ज़िलज़ाल पढ़ी और रुकू किया, (सईद-बिन-मंसूर)। ख़ुद इमाम मालिक (रह०) ने भी ‘मुवत्ता, बाबु मा जा-अ फ़ी सुजूदिल-क़ुरआन’ में हज़रत उमर (रज़ि०) का यह अमल नक़्ल किया है।
وَمَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّۖ وَإِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـٔٗا ۝ 58
(28) हालाँकि इस मामले का कोई इल्म उन्हें हासिल नहीं है, वे सिर्फ़ गुमान की पैरवी कर रहे हैं,23 और गुमान हक़ की जगह कुछ भी काम नहीं दे सकता।
23. यानी फ़रिश्तों के बारे में यह अक़ीदा उन्होंने कुछ इस बुनियाद पर नहीं अपनाया है कि उन्हें इल्म के किसी ज़रिए से यह मालूम हो गया है कि वे औरतें हैं और ख़ुदा की बेटियाँ हैं, बल्कि उन्होंने सिर्फ़ अपने अन्दाज़े और अटकल से एक बात मान ली है और उसपर ये आस्ताने (स्थान) बनाए बैठे हैं जिनसे मुरादें माँगी जा रही हैं और नज़्रे (भेंटें) और चढ़ावे इनपर चढ़ाए जा रहे हैं।
فَأَعۡرِضۡ عَن مَّن تَوَلَّىٰ عَن ذِكۡرِنَا وَلَمۡ يُرِدۡ إِلَّا ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 59
(29) तो ऐ नबी! कोई हमारे ज़िक्र से मुँह फेरता है,24 और दुनिया की ज़िन्दगी के सिवा जिसे कुछ नहीं चाहिए, उसे उसके हाल पर छोड़ दो25
24. ज़िक्र का लफ़्ज़ यहाँ कई मतलब दे रहा है। इससे मुराद क़ुरआन भी हो सकता है, सिर्फ़ नसीहत भी मुराद हो सकती है और इसका मतलब यह भी हो सकता है कि ख़ुदा का ज़िक्र सुनना ही जिसे गवारा नहीं है।
25. यानी उसके पीछे न पड़ो और उसे समझाने पर अपना वक़्त बरबाद न करो, क्योंकि ऐसा शख़्स किसी ऐसी दावत को क़ुबूल करने के लिए तैयार न होगा जिसकी बुनियाद ख़ुदा-परस्ती पर हो, जो दुनिया के माद्दी (भौतिक) फ़ायदों से ज़्यादा बुलन्द मक़सदों और क़दरों (मूल्यों) की तरफ़ बुलाती हो और जिसमें अस्ल दरकार आख़िरत की हमेशा रहनेवाली भलाई और कामयाबी को क़रार दिया जा रहा हो। इस तरह के माद्दापरस्त (भौतिकवादी) और ख़ुदा-बेज़ार इनसान पर अपनी मेहनत ख़र्च करने के बजाय ध्यान उन लोगों की तरफ़ करो जो ख़ुदा का ज़िक्र सुनने के लिए तैयार हों और दुनिया-परस्ती के रोग में मुब्तला न हों।
ذَٰلِكَ مَبۡلَغُهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 60
(30) इन26 लोगों को बस इतना ही इल्म हासिल है,27 यह बात तेरा रब ही ज़्यादा जानता है कि उस रास्ते से कौन भटक गया है और कौन सीधे रास्ते पर है,
26. यह बीच में एक जुमला अलग से आ गया है जो तक़रीर के सिलसिले को बीच में तोड़कर पिछली बात की तशरीह के तौर पर कहा गया है।
27. यानी ये लोग दुनिया और उसके फ़ायदों से आगे न कुछ जानते हैं न सोच सकते हैं, इसलिए इनपर मेहनत ख़र्च करना बेफ़ायदा है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ بِمَا عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ بِٱلۡحُسۡنَى ۝ 61
(31) और ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक अल्लाह ही है28 ताकि29 अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके अमल का बदला दे और उन लोगों को अच्छा इनाम दे जिन्होंने भला रवैया अपनाया है,
28. दूसरे अलफ़ाज़ में किसी आदमी के गुमराह या हिदायत पर होने का फ़ैसला न इस दुनिया में होना है, न इसका फ़ैसला दुनिया के लोगों की राय पर छोड़ा गया है। इसका फ़ैसला तो अल्लाह के हाथ में है, वही ज़मीन और आसमान का मालिक है और उसी को यह मालूम है कि दुनिया के लोग जिन अलग-अलग राहों पर चले जा रहे हैं उनमें से हिदायत की राह कौन-सी है और गुमराही की राह कौन-सी। इसलिए तुम इस बात की कोई परवाह न करो कि अरब के ये मुशरिक और मक्का के ये ग़ैर-मुस्लिम तुमको बहका और भटका हुआ आदमी कह रहे हैं और अपनी जाहिलियत ही को हक़ और हिदायत समझ रहे हैं। ये अगर अपने इसी झूठे दावे में मग्न रहना चाहते हैं तो इन्हें मग्न रहने दो। इनसे उलझने और बहस-मुबाहसा करने में वक़्त बरबाद करने और सर खपाने की ज़रूरत नहीं।
29. यहाँ से फिर वही तक़रीर का सिलसिला शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था। यानी बीच में आ गए जुमले को छोड़कर इबारत कुछ इस तरह है, “उसे उसके हाल पर छोड़ दो, ताकि अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके अमल का बदला दे।"