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سُورَةُ الأَنفَالِ

    1. अल-अनफ़ाल

    (मदीना में उतरी – आयतें 75)

    परिचय

    उतरने का समय

    यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।

    नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-

    एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।

    बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।

    मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।

    इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्‍न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।

    17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"

    वार्ताएँ

    यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।

    इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों  में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।

    फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।

    फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।

    फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।

    फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।

    फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।

    फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।

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سُورَةُ الأَنفَالِ
8. अल-अनफ़ाल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बे इन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَنفَالِۖ قُلِ ٱلۡأَنفَالُ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَصۡلِحُواْ ذَاتَ بَيۡنِكُمۡۖ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ
(1) तुमसे अनफ़ाल (लड़ाई में हासिल माल) के बारे में पूछते हैं? कहो, “ये अनफ़ाल तो अल्लाह और उसके रसूल के हैं, तो तुम लोग अल्लाह से डरो और अपने आपस के ताल्लुक़ात ठीक-ठाक रखो और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करो, अगर तुम ईमानवाले हो”1
1. इस जंग के तबसिरे (समीक्षा) के सिलसिले में पहले कुछ ज़रूरी बात बयान करते हुए यह अजीब बात बयान की गई है। बद्र में ग़नीमत का माल क़ुरैश के लश्कर से हासिल हुआ था, उसके बँटवारे पर मुसलमानों के बीच झगड़ा पैदा हो गया। चूँकि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उन लोगों को पहली बार इस्लामी झण्डे के नीचे लड़ने का तजरिबा हुआ था, इसलिए उनको मालूम न था कि इस मज़हब में जंग और इससे पैदा होनेवाले मसलों के बारे में क्या क़ानून हैं। कुछ शुरुआती हिदायतें सूरा-2 बक़रा और सूरा-47 मुहम्मद में दी जा चुकी थीं, लेकिन 'तहज़ीबे-जंग' (युद्ध आचार-संहिता) की बुनियाद अभी रखनी बाक़ी थी। बहुत-से तमद्दुनी (सांस्कृतिक) मामलों की तरह मुसलमान अभी तक जंग के मामले में भी अकसर पुरानी जाहिलियत ही के तसव्वुरात लिए हुए थे। इस वजह से बद्र की लड़ाई में काफ़िरों की हार के बाद जिन लोगों ने, जो कुछ ग़नीमत का माल हासिल किया था, वे अरब के पुराने तरीक़े के मुताबिक़ अपने आपको इसका मालिक समझ बैठे थे। लेकिन एक दूसरा गरोह जिसने ग़नीमत की तरफ़ रुख़ करने के बजाय दुश्मनों का पीछा किया था, इस बात का दावा करने लगा कि इस माल में हमारा बराबर का हिस्सा है, क्योंकि अगर हम दुश्मन का पीछा करके उसे दूर तक भगा न देते और तुम्हारी तरह ग़नीमत पर टूट पड़ते, तो मुमकिन था कि दुश्मन फिर पलटकर हमला कर देता और जीत हार में बदल जाती। एक तीसरे गरोह ने भी, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की हिफ़ाज़त कर रहा था, अपना दावा पेश किया। उसका कहना यह था कि सबसे बढ़कर क्रीमती ख़िदमत तो इस जंग में हमने अंजाम दी है। अगर हम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आसपास अपनी जानों का घेरा बनाए हुए न रहते और नबी (सल्ल०) को कोई नुक़सान पहुँच जाता, तो जीत ही कब हासिल हो सकती थी कि कोई ग़नीमत का माल हाथ आता और उसके बँटवारे का सवाल पैदा होता। मगर माल अमली तौर पर जिस गरोह के क़ब्ज़े में था उसकी मिल्कियत मानो किसी सुबूत की मोहताज न थी और वह दलील का यह हक़ मानने के लिए तैयार न था कि सूरते-हाल इसके ज़ोर से बदल जाए। आख़िरकार इस इख़्तिलाफ़ में कड़वाहट पैदा होनी शुरू हो गई और ज़बानों से दिलों तक बदमज़गी (कड़वाहट) फैलने लगी। यह था वह नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) मौक़ा जिसे अल्लाह तआला ने सूरा अनफ़ाल नाज़िल करने के लिए चुना और जंग पर अपने तबसिरे (समीक्षा) की शुरुआत इसी मसले से की। फिर पहली ही आयत जो उतरी उसी में सवाल का जवाब मौजूद था। कहा, “तुमसे अनफ़ाल के बारे में पूछते हैं?” यह इन मालों को 'ग़नाइम' के बजाय 'अनफ़ाल' कहना अपने-आप में मसले का फ़ैसला अपने अन्दर रखता था। अनफ़ाल जमा (बहुवचन) है नफ़्ल की। अरबी ज़बान में नफ़्ल उस चीज़ को कहते हैं जो वाजिब से या हक़ से ज़्यादा हो। जब यह मातहत की तरफ़ से हो तो इससे मुराद वह रज़ाकाराना (Voluntary) ख़िदमत होती है जो एक ग़ुलाम अपने मालिक के लिए फ़र्ज़ से बढ़कर ख़ुद-ब-ख़ुद करता है। और जब यह मालिक और आक़ा की तरफ़ से हो तो इससे मुराद वह बख़्शिश या इनाम होता है जो आक़ा अपने ग़ुलाम को उसके हक़ से ज़्यादा देता है। इसलिए कहने का मतलब यह हुआ कि यह सारी हुज्जतबाज़ी और बहसें, यह झगड़ा, यह पूछगछ क्या ख़ुदा के बख़्शे हुए इनामों के बारे में हो रही है? अगर यह बात है तो तुम लोग इनके मालिक और मुख़्तार क्यों बने जा रहे हो कि ख़ुद उनके बँटवारे का फ़ैसला करो। माल जिसका दिया हुआ है वही फ़ैसला करेगा कि किसे दिया जाए और किसे नहीं, और जिसको भी दिया जाए उसे कितना दिया जाए। यह जंग के सिलसिले में एक बहुत बड़ा अख़लाक़ी सुधार था। मुसलमान की जंग दुनिया के माद्दी (भौतिक) फ़ायदे बटोरने के लिए नहीं है, बल्कि दुनिया के अख़लाक़ी और तमद्दुनी (सांस्कृतिक) बिगाड़ को हक़ के उसूल के मुताबिक़ दुरुस्त करने के लिए है, जिसे मजबूरन उस वक़्त अपनाया जाता है जबकि मुख़ालिफ़ कुव्वतें दावतो-तबलीग़ के ज़रिए से इस्लाह और सुधार को नामुमकिन बना दें। इसलिए इस्लाह करनेवालों की नज़र अपने मक़सद पर होनी चाहिए, न कि उन फ़ायदों पर जो मक़सद के लिए कोशिश करते हुए इनाम के तौर पर अल्लाह की मेहरबानी से हासिल हों। इन फ़ायदों से अगर शुरू ही में उनकी नज़र न हटा दी जाए तो बहुत जल्दी अख़लाक़ी गिरावट ज़ाहिर होकर यही फ़ायदे मक़सद क़रार पा जाएँ। फिर यह जंग के सिलसिले में एक बहुत बड़ा इन्तिज़ामी सुधार भी था। पुराने ज़माने में तरीक़ा यह था कि जो माल जिसके हाथ लगता वही उसका मालिक ठहरता। फिर बादशाह या कमाँडर ग़नीमतों के तमाम माल पर क़ाबिज़ हो जाता। पहली सूरत में ज़्यादातर ऐसा होता था कि जीतनेवाली फ़ौजों के बीच ग़नीमत के मालों पर सख़्त नाचाक़ी (मनमुटाव) और अनबन पैदा हो जाती और कभी-कभी तो उनकी ख़ानाजंगी जीत को हार में बदल देती। दूसरी सूरत में सिपाहियों को चोरी की बीमारी लग जाती थी और वे ग़नीमत के माल को छिपाने की कोशिश करते थे। क़ुरआन ने अनफ़ाल को अल्लाह और रसूल का माल ठहराकर पहले तो यह क़ायदा मुक़र्रर कर दिया कि ग़नीमत का सारा माल लाकर ज्यों-का-त्यों ज़िम्मेदार के सामने रख दिया जाए और एक सूई तक छिपाकर न रखी जाए। फिर आगे चलकर इस माल के बँटवारे का क़ानून बना दिया कि पाँचवाँ हिस्सा ख़ुदा के काम और उसके ग़रीब बन्दों की मदद के लिए बैतुलमाल में रख लिया जाए और बाक़ी चार हिस्से उस पूरी फ़ौज में बाँट दिए जाएँ जो लड़ाई में शरीक हुई हो। इस तरह वे दोनों ख़राबियाँ दूर हो गईं, जो जाहिलियत के तरीक़े में थीं। इस जगह पर एक लतीफ़ (सूक्ष्म) नुकता और भी ज़ेहन में रहना चाहिए। यहाँ अनफ़ाल के क़िस्से को सिर्फ़ इतनी बात कहकर ख़त्म कर दिया गया है कि ये अल्लाह और उसके रसूल के हैं। बँटवारे के मसले को यहाँ नहीं छेड़ा गया, ताकि पहले सिपुर्दगी और फ़रमाँबरदारी पूरी हो जाए। फिर कुछ आयतों के बाद आयत-41 में बताया गया कि इन मालों को किस तरह बाँटा जाए। इसी लिए यहाँ इन्हें 'अनफ़ाल' कहा गया है और आयत-41 में जब बँटवारे का हुक्म बयान करने की नौबत आई तो उन्हीं मालों को 'ग़नीमत का माल' कहा गया।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَإِذَا تُلِيَتۡ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُهُۥ زَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 1
(2) सच्चे ईमानवाले तो वे लोग हैं जिनके दिल अल्लाह का ज़िक्र सुनकर काँप उठते हैं और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाती हैं तो उनका ईमान बढ़ जाता है2 और वे अपने रब पर भरोसा रखते हैं,
2. यानी हर ऐसे मौक़े पर जबकि अल्लाह का कोई हुक्म आदमी के सामने आए और वह उसको हक़ मानकर फ़रमाँबरदारी में सर झुका दे, आदमी के ईमान में बढ़ोतरी होती है। हर उस मौक़े पर जबकि कोई चीज़ आदमी की मरज़ी के ख़िलाफ़ उसकी राय और तसव्वुरात व नज़रियों (कल्पनाओं एवं धारणाओं) के ख़िलाफ़, उसकी जानी-पहचानी आदतों के ख़िलाफ़, उसके फ़ायदों और उसकी लज़्ज़त और सुख-चैन के ख़िलाफ़, उसकी मुहब्बतों और दोस्तियों के ख़िलाफ़ अल्लाह की किताब और उसके रसूल की हिदायत में मिले और आदमी उसको मानकर अल्लाह और रसूल के फ़रमान को बदलने के बजाय अपने आप को बदल डाले और उसको क़ुबूल करने के लिए तकलीफ़ बरदाश्त करे तो इससे आदमी के ईमान में बढ़ोतरी होती है। इसके बरख़िलाफ़ अगर ऐसा करने से आदमी बचे तो उसके ईमान की जान निकलनी शुरू हो जाती है। तो मालूम हुआ कि ईमान कोई एक जगह ठहरी और जमी हुई चीज़ नहीं है, और हक़ मानने और न मानने का बस एक ही दरजा नहीं है कि अगर आदमी ने न माना तो वह बस एक ही न मानना रहा, और अगर उसने मान लिया तो वह भी बस एक ही मान लेना हुआ। नहीं, बल्कि मानना और इनकार करना दोनों में नीचे जाने और ऊपर उठने की सलाहियत है। हर इनकार की कैफ़ियत घट भी सकती है और बढ़ भी सकती है। और इसी तरह हर इक़रार और मानने में बढ़ोतरी भी हो सकती है और गिरावट भी। अलबत्ता फ़िक़ही अहकाम (धर्म विधान) के पहलू से समाजी निज़ाम में हक़ों और हैसियतों का जब तअय्युन (निर्धारण) किया जाएगा तो मानने और न मानने दोनों के बस एक ही दरजे का एतिबार किया जाएगा। इस्लामी न सोसाइटी में तमाम माननेवालों के दस्तूरी हुक़ूक़ और वाजिबात बराबर होंगे चाहे उनके बीच मानने के दरजों में कितना ही फ़र्क़ हो। और सब न माननेवाले एक ही दरजे में होंगे। चाहे उनमें कुफ़्र के पहलू से दरजों का कितना ही फ़र्क़ हो।
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 2
(3) जो नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से (हमारे रास्ते में) ख़र्च करते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَمَغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 3
(4) ऐसे ही लोग सच्चे ईमानवाले हैं। उनके लिए उनके रब के पास बड़े दरजे हैं, ग़लतियों से माफ़ी है3 और बेहतरीन रोज़ी है।
3. क़ुसूर और ग़लतियाँ बड़े-से-बड़े और अच्छे-से-अच्छे ईमानवाले से भी हो सकती हैं और हुई हैं। और जब तक इनसान इनसान है यह नामुमकिन है कि उसका आमालनामा सरासर नेक कामों से ही भरा हुआ हो और ग़लती, कोताही और कमी से बिलकुल ख़ाली रहे। मगर अल्लाह तआला की रहमतों में से यह भी एक बड़ी रहमत है कि जब इनसान बन्दगी की लाज़िमी शर्तें पूरी कर देता है तो अल्लाह उसकी कोताहियों को अनदेखा कर देता है और उसके काम और उसकी ख़िदमतें जिस बदले की हक़दार होती हैं, उससे कुछ ज़्यादा बदला अपनी मेहरबानी से देता है। वरना अगर क़ायदा यह तय किया जाता कि हर ग़लती की सज़ा और हर ख़िदमत का इनाम अलग-अलग दिया जाए तो कोई बड़े-से-बड़ा नेक आदमी भी सज़ा से नहीं बच सकता।
كَمَآ أَخۡرَجَكَ رَبُّكَ مِنۢ بَيۡتِكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لَكَٰرِهُونَ ۝ 4
(5) (लड़ाई में हासिल इस माल के मामले में भी वैसी ही सूरत सामने आ रही है जैसी उस वक़्त सामने आई थी, जबकि) तेरा रब तुझे हक़ के साथ तेरे घर से निकाल लाया था और ईमानवालों में से एक गरोह को यह सख़्त नागवार था।
يُجَٰدِلُونَكَ فِي ٱلۡحَقِّ بَعۡدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى ٱلۡمَوۡتِ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 5
(6) वे उस हक़ के मामले में तुझसे झगड़ रहे थे, हालाँकि वह साफ़-साफ़ नुमायाँ हो चुका था। उनका हाल यह था कि मानो वे आँखों देखे मौत की तरफ़ हाँके जा रहे हैं।4
4. यानी जिस तरह उस वक़्त ये लोग ख़तरे का सामना करने से घबरा रहे थे, हालाँकि हक़ की माँग उस वक़्त यही थी कि ख़तरे के मुँह में चले जाएँ, उसी तरह आज इन्हें ग़नीमत का माल हाथ से छोड़ना बुरा मालूम हो रहा है। हालाँकि हक़ की माँग यही है कि वे इसे छोड़ें और हुक्म का इन्तिज़ार करें। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि अगर अल्लाह की इताअत और फ़रमाँबरदारी करोगे और अपने मन की ख़ाहिश के बजाय रसूल का कहना मानोगे तो वैसा ही अच्छा नतीजा देखोगे जैसा अभी बद्र की लड़ाई के मौक़े पर देख चुके हो कि तुम्हें क़ुरैश के लश्कर के मुक़ाबले पर जाना सख़्त नागवार था और उसे तुम हलाकत का पैग़ाम समझ रहे थे। लेकिन जब तुमने अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म को माना तो यही ख़तरनाक काम तुम्हारे लिए ज़िन्दगी का पैग़ाम साबित हुआ। क़ुरआन का यह कहना उन रिवायतों को भी रद्द कर रहा है जो बद्र की लड़ाई के सिलसिले में आम तौर पर सीरत और मग़ाज़ी में बयान की जाती हैं, यानी यह कि शुरू में नबी (सल्ल०) और मुसलमान क़ाफ़िले को लूटने के लिए मदीना से रवाना हुए थे। फिर कुछ ही मंज़िल आगे जाकर जब मालूम हुआ कि क़ुरैश का लश्कर क़ाफ़िले की हिफ़ाज़त के लिए आ रहा है, तब यह मश्वरा किया गया कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए या लश्कर का मुक़ाबला? इस बयान के बरख़िलाफ़ क़ुरआन यह बता रहा है कि जिस वक़्त नबी (सल्ल०) अपने घर से निकले थे उसी वक़्त यह हक़ बात आपकी नज़र के सामने थी कि क़ुरैश के लश्कर से फ़ैसलाकुन मुक़ाबला किया जाए। और यह मश्वरा भी उसी वक़्त हुआ था कि क़ाफ़िले और लश्कर में से किसको हमले के लिए चुना जाए, और इसके बावजूद कि मोमिनों पर यह हक़ीक़त वाज़ेह हो चुकी थी कि लश्कर ही से निमटना ज़रूरी है, फिर भी उनमें से एक गरोह उससे बचने के लिए हुज्जत करता रहा। और आख़िरकार जब आख़िरी राय यह तय पा गई कि लश्कर ही की तरफ़ चलना चाहिए तो यह गरोह मदीना से यह ख़याल करता हुआ चला कि हम सीधे मौत के मुँह में हाँके जा रहे हैं।
وَإِذۡ يَعِدُكُمُ ٱللَّهُ إِحۡدَى ٱلطَّآئِفَتَيۡنِ أَنَّهَا لَكُمۡ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيۡرَ ذَاتِ ٱلشَّوۡكَةِ تَكُونُ لَكُمۡ وَيُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُحِقَّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَيَقۡطَعَ دَابِرَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 6
(7) याद करो वह मौक़ा जबकि अल्लाह तुमसे वादा कर रहा था कि दोनों गरोहों में से एक तुम्हें मिल जाएगा5 तुम चाहते थे कि कमज़ोर गरोह तुम्हें मिले6, मगर अल्लाह का इरादा यह था कि अपनी बातों से हक़ को हक़ कर दिखाए और काफ़िरों की जड़ काट दे,
5. यानी तिजारती क़ाफ़िला या क़ुरैश का लश्कर।
6. यानी क़ाफ़िला जिसके साथ सिर्फ़ तीस-चालीस मुहाफ़िज़ (Guards) थे।
لِيُحِقَّ ٱلۡحَقَّ وَيُبۡطِلَ ٱلۡبَٰطِلَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 7
(8) ताकि हक़, हक़ होकर रहे और बातिल, बातिल होकर रह जाए, भले ही मुजरिमों को यह कितना ही नागवार हो।7
7. इससे अन्दाज़ा होता है कि उस वक़्त हक़ीक़त में सूरते-हाल क्या पेश आई होगी। जैसा कि हमने सूरा के परिचय में बयान किया है, क़ुरैश के लश्कर के निकल जाने से अस्ल में सवाल यह पैदा हो गया था कि इस्लाम की दावत और जाहिली निज़ाम (व्यवस्था) दोनों में से किसको अरब में ज़िन्दा रहना है। अगर मुसलमान उस वक़्त मर्दानगी के साथ मुक़ाबले के लिए न निकलते तो इस्लाम के लिए ज़िन्दगी का कोई मौक़ा बाक़ी न रहता। इसके बरख़िलाफ़ मुसलमानों के निकलने और पहले ही भरपूर वार में क़ुरैश की ताक़त पर सख़्त चोट लगा देने से वे हालात पैदा हुए जिनकी वजह से इस्लाम को क़दम जमाने का मौक़ा मिल गया और फिर उसके मुक़ाबले में जाहिली निज़ाम लगातार शिकस्त खाता ही चला गया।
إِذۡ تَسۡتَغِيثُونَ رَبَّكُمۡ فَٱسۡتَجَابَ لَكُمۡ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلۡفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُرۡدِفِينَ ۝ 8
(9) और वह मौक़ा जबकि तुम अपने रब से फ़रियाद कर रहे थे। जवाब में उसने फ़रमाया कि मैं तुम्हारी मदद के लिए लगातार एक हज़ार फ़रिश्ते भेज रहा हूँ।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ وَلِتَطۡمَئِنَّ بِهِۦ قُلُوبُكُمۡۚ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) यह बात अल्लाह ने तुम्हें सिर्फ़ इसलिए बता दी कि तुम्हें ख़ुशख़बरी हो और तुम्हारे दिल इससे मुत्मइन हो जाएँ वरना मदद तो जब भी होती है, अल्लाह ही की तरफ़ से होती है, यक़ीनन अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
إِذۡ يُغَشِّيكُمُ ٱلنُّعَاسَ أَمَنَةٗ مِّنۡهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ لِّيُطَهِّرَكُم بِهِۦ وَيُذۡهِبَ عَنكُمۡ رِجۡزَ ٱلشَّيۡطَٰنِ وَلِيَرۡبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمۡ وَيُثَبِّتَ بِهِ ٱلۡأَقۡدَامَ ۝ 10
(11) और वह वक़्त जबकि अल्लाह अपनी तरफ़ से ऊँघ की शक्ल में तुमपर इत्मीनान और बेख़ौफ़ी की हालत तारी कर रहा था8 और आसमान से तुम्हारे ऊपर पानी बरसा रहा था, ताकि तुम्हें पाक करे और तुमसे शैतान की डाली हुई गन्दगी दूर करे और तुम्हारी हिम्मत बँधाए और इसके ज़रिए से तुम्हारे क़दम जमा दे।9
8. यही तज़रीबा मुसलमानों को उहुद की लड़ाई में पेश आया जैसा कि सूरा-3 आले-इमरान की आयत-154 में गुज़र चुका है। और दोनों मौक़ों पर वजह वही एक थी कि जो मौक़ा ज़बरदस्त ख़ौफ़ और घबराहट का था उस वक़्त अल्लाह ने मुसलमानों के दिलों को ऐसे इत्मीनान से भर दिया कि उन्हें ऊँघ (नींद) आने लगी।
9. यह उस रात का वाक़िआ है जिसकी सुबह को बद्र की लड़ाई पेश आई। इस बारिश के तीन फ़ायदे हुए। एक यह कि मुसलमानों को पानी काफ़ी मिल गया और उन्होंने फ़ौरन हौज़ बना-बनाकर बारिश का पानी रोक लिया। दूसरे यह कि मुसलमान चूँकि घाटी के ऊपरी हिस्से पर थे इसलिए बारिश की वजह से रेत जम गई और ज़मीन इतनी मज़बूत हो गई कि क़दम अच्छी तरह जम सकें और चलने-फिरने में आसानी हो सके। तीसरे यह कि दुश्मनों का लश्कर नीचे के हिस्से में था इसलिए वहाँ इस बारिश की वजह से कीचड़ हो गई और पाँव धंसने लगे शैतान की डाली हुई नजासत और गन्दगी से मुराद वह डर और घबराहट की कैफ़ियत थी जिसमें मुसलमान शुरू में मुब्तला थे।
إِذۡ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَنِّي مَعَكُمۡ فَثَبِّتُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ سَأُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ فَٱضۡرِبُواْ فَوۡقَ ٱلۡأَعۡنَاقِ وَٱضۡرِبُواْ مِنۡهُمۡ كُلَّ بَنَانٖ ۝ 11
(12) और वह वक़्त जबकि तुम्हारा रब फ़रिश्तों को इशारा कर रहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम ईमानवालों को जमाए रखो, मैं अभी इन काफ़िरों के दिलों में रोब डाले देता हूँ, तो तुम उनकी गरदनों पर मारो और जोड़-जोड़ पर चोट लगाओ।"10
10. जो उसूली बातें हमको क़ुरआन के ज़रिए से मालूम हैं उनकी बुनियाद पर हम यह समझते हैं कि फ़रिश्तों से लड़ाई में यह काम नहीं लिया गया होगा कि वे ख़ुद लड़ने और मारने का काम करें, बल्कि शायद उसकी सूरत यह होगी कि दुश्मनों पर मुसलमान जो वार करें वह फ़रिश्तों की मदद से ठीक बैठे और चोट गहरी लगे। और अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सही बात क्या है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَمَن يُشَاقِقِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 12
(13) यह इसलिए कि उन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करे, अल्लाह उसके लिए बड़ी सख़्त पकड़ करनेवाला है11
11. यहाँ तक बद्र की लड़ाई के जिन वाक़िआत को एक-एक करके याद दिलाया गया है उसका मक़सद अस्ल में लफ़्ज़ 'अनफ़ाल' के सही मानी को वाज़ेह करना है। शुरू में कहा गया था कि ग़नीमत के इस माल को अपनी मेहनत का फल समझकर इसके मालिक और मुख़्तार कहाँ बने जाते हो, यह तो अस्ल में ख़ुदा की देन है और देनेवाला ख़ुद ही अपने माल का मुख़्तार है। अब इसके सुबूत में ये वाक़िआत गिनाए गए हैं कि इस जीत में ख़ुद ही हिसाब लगाकर देख लो कि तुम्हारी अपनी सख़्त मेहनत, जुरअत और हिम्मत का कितना हिस्सा था और अल्लाह की मेहरबानी का कितना हिस्सा।
ذَٰلِكُمۡ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 13
(14) यह है12 तुम लोगों की सज़ा, अब इसका मज़ा चखो और तुम्हें मालूम हो कि हक़ का इनकार करनेवालों के लिए दोज़ख़ का अज़ाब है।
12. ख़िताब का रुख़ अचानक काफ़िरों (हक़ के इनकारियों) की तरफ़ फिर गया है, जिनके सज़ा के हक़दार होने का ज़िक्र ऊपर के जुमले में हुआ था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ زَحۡفٗا فَلَا تُوَلُّوهُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ۝ 14
(15) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुम्हारा एक फ़ौज की सूरत में काफ़िरों दुश्मनों) से मुक़ाबला हो तो उनके मुक़ाबले में पीठ न फेरो।
وَمَن يُوَلِّهِمۡ يَوۡمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ إِلَّا مُتَحَرِّفٗا لِّقِتَالٍ أَوۡ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٖ فَقَدۡ بَآءَ بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 15
(16) जिसने ऐसे मौक़े पर पीठ फेरी — सिवाय इसके कि जंगी चाल के तौर पर ऐसा करे या किसी दूसरी टुकड़ी से जा मिलने के लिए — तो वह अल्लाह के ग़ज़ब में घिर जाएगा। उसका ठिकाना जहन्नम होगा और वह पलटने की बहुत बुरी जगह है।13
13. दुश्मन के सख़्त दबाव पर पॉलिसी के तहत पीछे हटना (Orderly retreat) नाजाइज़ नहीं है, जबकि इसका मक़सद अपने पीछे के मर्कज़ (केन्द्र) की तरफ़ पलटना या अपनी ही फ़ौज के किसी दूसरे हिस्से से जा मिलना हो। अलबत्ता जो चीज़ हराम की गई है वह भगदड़ (Rout) है जो किसी जंगी मक़सद के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ बुज़दिली और हार मान लेने की वजह से होती है और इसलिए हुआ करती है कि भगोड़े आदमी को अपने मक़सद के मुक़ाबले में जान ज़्यादा प्यारी होती है। जंग के मैदान से इस भागने को बड़े गुनाहों में गिना गया है। चुनाँचे नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि तीन गुनाह ऐसे हैं कि इनके साथ कोई नेकी फ़ायदा नहीं देती। एक शिर्क, दूसरे माँ-बाप का हक़ मारना, तीसरे अल्लाह के रास्ते में होनेवाली जंग से भाग जाना। इसी तरह एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने सात बड़े गुनाहों का ज़िक्र किया है, जो इनसान के लिए तबाह कर देनेवाले और उसकी आख़िरत के अंजाम को बरबाद करनेवाले हैं। उनमें से एक यह गुनाह भी है कि आदमी कुफ़्र और इस्लाम की जंग में काफ़िरों के आगे पीठ फेरकर भागे। इस काम को इतना बड़ा गुनाह ठहराने की वजह सिर्फ़ यही नहीं है कि यह एक बुज़दिली का काम है, बल्कि इसकी वजह यह है कि एक आदमी का भगोड़ापन कभी-कभी एक पूरी पलटन को और एक पलटन का भगोड़ापन एक पूरी फ़ौज को बदहवास करके भगा देता है। और फिर जब एक बार किसी फ़ौज में भगदड़ मच जाए तो कहा नहीं जा सकता कि तबाही किस हद पर जाकर रुकेगी। इस तरह की भगदड़ सिर्फ़ फ़ौज ही के लिए तबाह करनेवाली नहीं है, बल्कि उस देश के लिए भी तबाह करनेवाली है जिसकी फ़ौज ऐसी शिकस्त खाए।
فَلَمۡ تَقۡتُلُوهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ قَتَلَهُمۡۚ وَمَا رَمَيۡتَ إِذۡ رَمَيۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ رَمَىٰ وَلِيُبۡلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡهُ بَلَآءً حَسَنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 16
(17) तो सच यह है कि कि तुमने उन्हें क़त्ल नहीं किया, बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया और (ऐ नबी!) तूने नहीं फेंका, बल्कि अल्लाह ने फेंका।14 (और ईमानवालों के हाथ जो इस काम में इस्तेमाल किए गए) तो यह इसलिए था कि अल्लाह ईमानवालों को एक बेहतरीन आज़माइश से कामयाबी के साथ गुज़ार दे, यक़ीनन अल्लाह सुनने और जाननेवाला है।
14. बद्र की लड़ाई में जब मुसलमानों और इस्लाम-दुश्मनों के लश्कर का मुक़ाबला हुआ और लड़ाई छिड़ जाने का मौक़ा आ गया तो नबी (सल्ल०) ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर 'शाहितिल वुजूह' (यानी उनके चेहरे झुलस जाएँ) कहते हुए दुश्मनों की तरफ़ फेंकी और उसके साथ ही नबी (सल्ल०) के इशारे से मुसलमानों ने एक ही साथ दुश्मनों पर हमला किया। यहाँ उसी घटना की तरफ़ इशारा है। मतलब यह है कि हाथ तो रसूल का था मगर चोट अल्लाह की तरफ़ से थी।
ذَٰلِكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُوهِنُ كَيۡدِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 17
(18) यह मामला तो तुम्हारे साथ है और काफ़िरों के साथ मामला यह है कि अल्लाह उनकी चालों को कमज़ोर करनेवाला है।
إِن تَسۡتَفۡتِحُواْ فَقَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡفَتۡحُۖ وَإِن تَنتَهُواْ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَعُودُواْ نَعُدۡ وَلَن تُغۡنِيَ عَنكُمۡ فِئَتُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَوۡ كَثُرَتۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 18
(19) (इन काफ़िरों से कह दो,) “अगर तुम फ़ैसला चाहते थे तो लो, फ़ैसला तुम्हारे सामने आ गया।15अब बाज़ आ जाओ तो तुम्हारे ही लिए बेहतर है, वरना फिर पलटकर उसी बेवक़ूफ़ी को दोहराओगे तो हम भी उसी सज़ा को दोहराएँगे और तुम्हारा जत्था, भले ही वह कितना ही बड़ा हो, तुम्हारे कुछ काम न आ सकेगा। अल्लाह ईमानवालों के साथ है।"
15. मक्का से रवाना होते वक़्त मुशरिकों ने काबा के परदे पकड़कर दुआ माँगी थी कि ऐ ख़ुदा, दोनों गरोहों में से जो बेहतर है उसको फ़तह नसीब कर। और अबू-जह्ल ने ख़ास तौर से कहा था कि ऐ ख़ुदा, हममें से जो हक़ पर हो उसे फ़तह दे और जो ज़ुल्म और बातिल पर हो उसे रुसवा कर दे। चुनाँचे अल्लाह ने उनकी मुँह माँगी दुआएँ ज्यों-की-त्यों पूरी कर दीं और फ़ैसला करके बता दिया कि दोनों में से कौन अच्छा और हक़ पर है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَأَنتُمۡ تَسۡمَعُونَ ۝ 19
(20) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करो और हुक्म सुनने के बाद उससे मुँह न फेरो।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 20
(21) उन लोगों की तरह न हो जाओ जिन्होंने कहा कि हमने सुना, हालाँकि वे नहीं सुनते।16
16. यहाँ सुनने से मुराद वह सुनना है जो मानने और क़ुबूल करने के मआनी में होता है। इशारा उन मुनाफ़िक़ों की तरफ़ है जो ईमान का इक़रार तो करते थे, मगर अहकाम की इताअत और फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ जाते थे।
۞إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلصُّمُّ ٱلۡبُكۡمُ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 21
(22) यक़ीनन ख़ुदा के नज़दीक सबसे बुरे क़िस्म के जानवर वे बहरे-गूँगे लोग हैं।17 जो अक़्ल से काम नहीं लेते।
17. यानी जो न हक़ सुनते हैं, न हक़ बोलते हैं। जिनके कान और जिनके मुँह हक़ के लिए बहरे और गूँगे हैं।
وَلَوۡ عَلِمَ ٱللَّهُ فِيهِمۡ خَيۡرٗا لَّأَسۡمَعَهُمۡۖ وَلَوۡ أَسۡمَعَهُمۡ لَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) अगर अल्लाह को मालूम होता कि इनमें कुछ भी भलाई है तो वह ज़रूर ही उन्हें सुनने की तौफ़ीक़ देता। (लेकिन भलाई के बिना) अगर वह उनको सुनवाता तो वे कतराते हुए मुँह फेर जाते।18
18. यानी जब उन लोगों के अन्दर ख़ुद हक़परस्ती और हक़ के लिए काम करने का जज़्बा नहीं है तो उन्हें अगर हुक्म को पूरा करने में जंग के लिए निकल आने की तौफ़ीक़ दे भी दी जाती तो ये ख़तरे का मौक़ा देखते ही बे-झिझक भाग निकलते और उनका साथ तुम्हारे लिए फ़ायदेमन्द साबित होने के बजाय उलटा नुक़सानदेह साबित होता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيكُمۡۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَحُولُ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَقَلۡبِهِۦ وَأَنَّهُۥٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 23
(24) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह और उसके रसूल की पुकार को आगे बढ़कर क़ुबूल करो, जबकि रसूल तुम्हें उस चीज़ की तरफ़ बुलाए जो तुम्हें ज़िन्दगी देनेवाली है, और जान रखो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के बीच आड़ है और उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे19।
19. निफ़ाक़ (कपटाचार) के रवैये से इनसान को बचाने के लिए अगर कोई सबसे ज़्यादा असरदार तदबीर है तो वह सिर्फ़ यह है कि दो अक़ीदे आदमी के मन में बैठ जाएँ। एक यह कि मामला उस ख़ुदा के साथ है जो दिलों के हाल तक जानता है और राज़ों (भेदों) का ऐसा जाननेवाला है। कि आदमी अपने दिल में जो नीयतें, जो ख़ाहिशें, जो ग़रज़ व मक़सद और जो ख़यालात छिपाकर रखता है उन्हें भी वह जानता है। दूसरे यह कि जाना हर हाल में अल्लाह के सामने है, उससे बचकर कहीं भाग नहीं सकते। ये दो अक़ीदे जितने ज़्यादा मज़बूत होंगे उतना ही इनसान निफ़ाक़ से दूर रहेगा। इसी लिए मुनाफ़क़त के ख़िलाफ़ वअज़ और नसीहत के सिलसिले में क़ुरआन इन दो अक़ीदों का ज़िक्र बार-बार करता है।
وَٱتَّقُواْ فِتۡنَةٗ لَّا تُصِيبَنَّ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنكُمۡ خَآصَّةٗۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 24
(25) और बचो उस फ़ितने से जिसकी शामत, ख़ास तौर पर उन्हीं लोगों तक महदूद न रहेगी जिन्होंने तुममें से गुनाह किया हो20, और जान रखो कि अल्लाह सख़्त सजा देनेवाला है।
20. इससे मुराद वे इज्तिमाई फ़ितने हैं जो आम वबा (महामारी) की तरह ऐसी शामत लाते हैं जिसमें सिर्फ़ गुनाह करनेवाले ही गिरफ़्तार नहीं होते, बल्कि वे लोग भी मारे जाते हैं जो गुनाहगार सोसाइटी में रहना गवारा करते रहे हों। मिसाल के तौर पर इसको यूँ समझिए कि जब तक किसी शहर में गन्दगियाँ कहीं-कहीं इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) तौर पर कुछ जगहों पर रहती हैं, उनका असर महदूद (Limited) रहता है और उनसे वे ख़ास तरह के लोग ही मुतास्सिर (प्रभावित) होते हैं जिन्होंने अपने जिस्म और घर को गन्दगी से लथपथ कर रखा हो। लेकिन जब वहाँ गन्दगी आम हो जाती है और कोई गरोह भी सारे शहर में ऐसा नहीं होता जो इस ख़राबी को रोकने और सफ़ाई का इन्तिज़ाम करने की कोशिश करे तो फिर हवा, ज़मीन और पानी हर चीज़ में ज़हर फैल जाता है, और इसके नतीजे में जो वबा आती है उसकी लपेट में गन्दगी फैलानेवाले और गन्दा रहनेवाले और गन्दे माहौल में ज़िन्दगी बसर करनेवाले सभी आ जाते हैं। इसी तरह अख़लाक़ी गन्दगियों का हाल भी यह है कि अगर वे इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) तौर पर कुछ लोगों में मौजूद रहें और नेक सोसाइटी के रोब और डर से दबी रहें तो उनके नुक़सान महदूद (सीमित) रहते हैं। लेकिन जब सोसाइटी का इज्तिमाई ज़मीर (सामूहिक अन्तरात्मा) कमज़ोर हो जाता है, जब अख़लाक़ी बुराइयों को दबाकर रखने की ताक़त उसमें नहीं रहती, जब उसके बीच बुरे, बेशर्म और बद-अख़लाक़ लोग अपने नफ़्स (मन) की गन्दगियों को खुले आम उछालने और फैलाने लगते हैं, और जब अच्छे लोग बे-अमली (Passive attitude) इख़्तियार करके अपनी इनफ़िरादी अच्छाई को काफ़ी समझने लगते हैं और इज्तिमाई बुराइयों पर चुप्पी साध लेते हैं, तो मजमूई तौर पर पूरी सोसाइटी की शामत आ जाती है और वह आम फ़ितना बरपा होता है, जिसमें चने के साथ घुन भी पिस जाता है। इसलिए अल्लाह के फ़रमान का मंशा यह है कि रसूल जिस इस्लाह (सुधार) और रहनुमाई के काम के लिए उठा है और तुम्हें जिस ख़िदमत में हाथ बँटाने के लिए बुला रहा है उसी में हक़ीक़त में शख़्सी और इज्तिमाई दोनों हैसियतों से तुम्हारे लिए ज़िन्दगी है। अगर इसमें सच्चेदिल से खुलूस के साथ हिस्सा न लोगे और उन बुराइयों को जो सोसाइटी में फैली हुई हैं बरदाश्त करते रहोगे तो वह आम फ़िना बरपा होगा जिसकी आफ़त सबको लपेट में ले लेगी, चाहे बहुत-से लोग तुम्हारे बीच ऐसे मौजूद हों जो अमली तौर पर बुराई करने और बुराई फैलाने के जिम्मेदार न हों, बल्कि अपनी निजी ज़िन्दगी में भलाई ही लिए हुए हों। यह वही बात है जिसको सूरा-7 आराफ़ की आयत-163 से 166 में 'असहाबुस्सब्त' की तारीख़़ी मिसाल पेश करते हुए बयान किया जा चुका है, और यही वह नज़रिया है जिसे इस्लाम की इस्लाही और सुधारवादी जंग का बुनियादी नज़रिया कहा जा सकता है।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ أَنتُمۡ قَلِيلٞ مُّسۡتَضۡعَفُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ ٱلنَّاسُ فَـَٔاوَىٰكُمۡ وَأَيَّدَكُم بِنَصۡرِهِۦ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 25
(26) याद करो वह वक़्त जबकि थोड़े थे, ज़मीन में तुमको बे-ज़ोर समझा जाता था, तुम डरते रहते थे कि कहीं लोग तुम्हें मिटा न दें। फिर अल्लाह ने तुम्हें पनाह लेने की जगह जुटा दी। अपनी मदद से तुम्हारे हाथ मज़बूत किए और तुम्हें अच्छी रोज़ी पहुँचाई, शायद कि तुम शक्रगुज़ार बनो।21
21. यहाँ शुक्रगुज़ारी का लफ़्ज़ ग़ौर करने के क़ाबिल है। ऊपर की तक़रीर के सिलसिले को नज़र में रखा जाए तो साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि इस मौक़े पर शुक्रगुज़ारी का मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि लोग अल्लाह के इस एहसान को मानें कि उसने इस कमज़ोरी की हालत से उन्हें निकाला और मक्का की ख़तरे से भरी ज़िन्दगी से बचाकर अमन की जगह ले आया, जहाँ पाक रोज़ियाँ मिल रही हैं, बल्कि इसके साथ यह बात भी इसी शुक्रगुज़ारी के मतलब में दाख़िल है कि मुसलमान उस ख़ुदा की और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करें जिसने ये एहसान उनपर किए हैं, और रसूल के मिशन में ख़ुलूस और जाँनिसारी के साथ काम करें, और इस काम में जो ख़तरे, हलाकतें और मुसीबतें पेश आएँ उनका मर्दानगी के साथ मुक़ाबला उसी ख़ुदा के भरोसे पर करते चले जाएँ, जिसने इससे पहले इनको ख़तरों से ख़ैरियत और हिफ़ाज़त के साथ निकाला है, और यक़ीन रखें कि जब वे ख़ुदा का काम ख़ुलूस के साथ करेंगे तो ख़ुदा ज़रूर उनकी हिफ़ाज़त और सरपरस्ती करेगा। इसलिए यह बात मतलूब नहीं है कि आदमी शुक्रगुज़ारी का सिर्फ़ इक़रार कर ले, बल्कि यह बात भी मतलूब है कि वह अमली तौर पर भी शुक्रगुज़ार बने। एहसान को मान लेने के बावजूद एहसान करनेवाले को ख़ुश करने के लिए कोशिश न करना और उसकी ख़िदमत में मुख़लिस न होना और इसके बारे में यह शक रखना कि न मालूम आगे भी वह एहसान करेगा या नहीं, हरगिज़ शुक्रगुजारी नहीं है, बल्कि उलटी नाशुक्री है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَخُونُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ وَتَخُونُوٓاْ أَمَٰنَٰتِكُمۡ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 26
(27) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ ख़ियानत (विश्वासघात) न करो, अपनी अमानतों में22 ग़द्दारी करनेवाले न बनो,
22. 'अपनी अमानतों' से मुराद वे तमाम ज़िम्मेदारियाँ हैं जो किसी पर भरोसा (Trust) करके उसके सिपुर्द की जाएँ, चाहे वे वादे को निभाने की ज़िम्मेदारियाँ हों, या इज्तिमाई समझौतों की, या जमाअत के राज़ों की, या शख़्सी (निजी) व जमाअती मालों की, या किसी ऐसे ओहदे और मंसब की जो किसी आदमी पर भरोसा करते हुए जमाअत उसके हवाले करे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-2; सूरा-4 निसा, हाशिया-88)
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 27
(28) और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद हक़ीक़त में आज़माइश का सामान हैं23 और अल्लाह के पास अज्र (बदला) देने के लिए बहुत कुछ है।
23. इनसान के सच्चे ईमान में जो चीज़ आम तौर से ख़लल डालती है और जिसकी वजह से इनसान अकसर मुनाफ़क़त, ग़द्दारी और ख़ियानत में पड़ जाता है वह अपने माली फ़ायदों और अपनी औलाद के फ़ायदों से उसकी हद से बढ़ी हुई दिलचस्पी होती है। इसी लिए कहा गया कि यह माल और औलाद, जिनकी मुहब्बत में गिरफ़्तार होकर तुम आम तौर से सच्चाई से हट जाते हो, अस्ल में यह दुनिया की इम्तिहानगाह में तुम्हारे लिए आज़माइश के सामान हैं। जिसे तुम बेटा या बेटी कहते हो, हक़ीक़त की ज़बान में वह अस्ल में इम्तिहान का एक पर्चा है, और जिसे तुम जायदाद या कारोबार कहते हो वह भी हक़ीक़त में एक दूसरा इम्तिहान का पर्चा है। ये चीज़ें तुम्हारे हवाले की ही इसलिए गई हैं कि इनके ज़रिए से तुम्हें जाँचकर देखा जाए कि तुम कहाँ तक हक़ों और हदों का लिहाज़ करते हो, कहाँ तक ज़िम्मेदारियों का बोझ लादे हुए जज़्बात की कशिश के बावजूद सीधे रास्ते पर चलते हो, और कहाँ तक अपने मन को, जो इन दुनियावी चीज़ों की मुहब्बत में जकड़ा हुआ होता है, इस तरह क़ाबू में रखते हो कि पूरी तरह हक़ के बन्दे बने रहो और इन चीज़ों के हुक़ूक़ इस हद तक अदा भी करते रहो जिस हद तक हक़ मुकर्रर करनेवाले ने ख़ुद इनका हक़ होना मुक़र्रर किया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَتَّقُواْ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّكُمۡ فُرۡقَانٗا وَيُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम ख़ुदातरसी अपनाओगे तो अल्लाह तुम्हारे लिए कसौटी जुटा देगा24 और तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर करेगा, और तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करेगा। अल्लाह बड़ा फ़ज़ल करनेवाला है।
24. कसौटी उस चीज़ को कहते हैं जो खरे और खोटे के फ़र्क़ को साफ़ तौर पर दिखा देती है। यही मतलब अरबी लफ़्ज़ 'फुरक़ान' का भी है। इसी लिए हमने इसका तर्जमा इस लफ़्ज़ से किया है। अल्लाह के फ़रमान का मंशा यह है कि अगर तुम दुनिया में अल्लाह से डरते हुए काम करो और तुम्हारी दिली ख़ाहिश यह हो कि तुमसे कोई ऐसी हरकत न होने पाए जो अल्लाह की ख़ुशी के ख़िलाफ़ हो, तो अल्लाह तुम्हारे अन्दर सही और ग़लत को पहचानने की ताक़त पैदा कर देगा, जिससे क़दम-क़दम पर तुम्हें ख़ुद यह मालूम होता रहेगा कि कौन-सा रवैया सही है और कौन-सा ग़लत। किस रवैये में ख़ुदा की ख़ुशी है और किस में उसकी नाराज़ी। ज़िन्दगी के हर मोड़, हर दोराहे, हर उतार-चढ़ाव पर तुम्हारी अन्दरूनी बसीरत (अन्तरदृष्टि) तुम्हें बताने लगेगी कि किधर क़दम उठाना चाहिए और किधर न उठाना चाहिए, कौन-सी राह हक़ है और अल्लाह की तरफ़ जाती है और कौन-सी राह बातिल (हक़ के ख़िलाफ़) है और शैतान से मिलाती है।
وَإِذۡ يَمۡكُرُ بِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيُثۡبِتُوكَ أَوۡ يَقۡتُلُوكَ أَوۡ يُخۡرِجُوكَۚ وَيَمۡكُرُونَ وَيَمۡكُرُ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 29
(30) वह वक़्त भी याद करने के क़ाबिल है जबकि हक़ का इनकार करनेवाले तेरे ख़िलाफ़ तदबीरें सोच रहे थे कि तुझे क़ैद कर दें या क़त्ल कर डालें या देश निकाला दे दें।25 वे अपनी चालें चल रहे थे और अल्लाह अपनी चाल चल रहा था, और अल्लाह सबसे बेहतर चाल चलनेवाला है।
25. यह उस मौक़े का ज़िक्र है जबकि क़ुरैश का यह अंदेशा यक़ीन की हद को पहुँच चुका था कि अब मुहम्मद (सल्ल०) भी मदीना चले जाएँगे। उस वक़्त वे आपस में कहने लगे कि अगर यह शख़्स मक्का से निकल गया तो फिर ख़तरा हमारे क़ाबू से बाहर हो जाएगा। चुनाँचे उन्होंने नबी (सल्ल०) के मामले में एक आख़िरी फ़ैसला करने के लिए 'दारुन्नदवा' (काउंसिल हाउस) में क़ौम के तमाम ज़िम्मेदारों और सरदारों को जमा किया और इस बात पर आपस में मश्वरा किया कि इस ख़तरे की रोकथाम किस तरह की जाए। एक गरोह की राय यह थी कि इस शख़्स को बेड़ियाँ पहनाकर एक जगह क़ैद कर दिया जाए और जीते जी रिहा न किया जाए। लेकिन इस राय को क़ुबूल न किया गया; क्योंकि कहनेवालों ने कहा कि अगर हमने इसे क़ैद कर दिया तो इसके जो साथी क़ैदख़ाने से बाहर होंगे वे बराबर अपना काम करते रहेंगे और जब ज़रा भी ताक़त पकड़ लेंगे तो इसे छुड़ाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने से भी पीछे न हटेंगे। दूसरे गरोह की राय यह थी कि इसे अपने यहाँ से निकाल दो। फिर जब यह हमारे बीच न रहेगा तो हमें इससे कुछ बहस नहीं कि कहाँ रहता है और क्या करता है, बहरहाल इसके वुजूद से हमारी ज़िन्दगी के निज़ाम में ख़लल पड़ना तो बन्द हो जाएगा। लेकिन इसे भी यह कहकर रद्द कर दिया गया कि यह शख़्स जादू बयान आदमी है, दिलों को मोहने में इसे बला का कमाल हासिल है, अगर यह यहाँ से निकल गया तो न मालूम अरब के किन-किन क़बीलों को अपना पैरौ (अनुयायी) बना लेगा और फिर कितनी ताक़त हासिल करके अरब के दिल (मक्का) को अपने इक़तिदार (सत्ता) में लाने के लिए तुम पर हमला कर देगा। आख़िरकार अबू-जह्ल ने यह राय पेश की कि हम अपने तमाम क़बीलों में से एक-एक ऊँचे ख़ानदान का फुर्तीला और मुस्तइद नौजवान चुनें और ये सब मिलकर एक साथ मुहम्मद पर टूट पड़ें और उसे क़त्ल कर डालें। इस तरह मुहम्मद का ख़ून तमाम क़बीलों पर बँट जाएगा और बनू-अब्दे-मनाफ़ के लिए नामुमकिन हो जाएगा सबसे लड़ सकें। इसलिए मजबूर होकर ख़ूँबहा (ख़ून के माली बदले) पर फ़ैसला करने के लिए राज़ी हो जाएँगे। इस राय को सबने पसन्द किया, क़त्ल के लिए आदमी भी चुन लिए गए और क़त्ल का वक़्त भी मुक़र्रर कर दिया गया। यहाँ तक कि जो रात इस काम के लिए चुनी गई थी उसमें ठीक वक़्त पर क़ातिलों का गरोह अपनी ड्यूटी पर पहुँच भी गया, लेकिन उनका हाथ पड़ने से पहले नबी (सल्ल०) उनकी आँखों में धूल झोंककर निकल गए और उनकी बनी-बनाई तदबीर ठीक वक़्त पर नाकाम होकर रह गई।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا قَالُواْ قَدۡ سَمِعۡنَا لَوۡ نَشَآءُ لَقُلۡنَا مِثۡلَ هَٰذَآ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 30
(31) जब उनको हमारी आयतें सुनाई जाती थीं तो कहते थे कि “हाँ सुन लिया हमने, हम चाहें तो ऐसी ही बातें हम भी बना सकते हैं, ये तो वही पुरानी कहानियाँ हैं जो पहले से लोग कहते चले आ रहे हैं।”
وَإِذۡ قَالُواْ ٱللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ ٱلۡحَقَّ مِنۡ عِندِكَ فَأَمۡطِرۡ عَلَيۡنَا حِجَارَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ أَوِ ٱئۡتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 31
(32) और वह बात भी याद है जो उन्होंने कही थी कि “ऐ ख़ुदा! अगर यह हक़ीक़त में हक़ है और तेरी तरफ़ से है तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या कोई दर्दनाक अज़ाब हमपर ले आ।”26
26. यह बात वे दुआ के तौर पर नहीं कहते थे, बल्कि चैलेंज के अन्दाज़ में कहते थे। यानी उनका मतलब यह था कि अगर वाक़ई में यह हक़ होता और अल्लाह की तरफ़ से होता तो इसके झुठलाने का नतीजा यह होना चाहिए था कि हमपर आसमान से पत्थर बरसते और दर्दनाक अज़ाब हमारे ऊपर टूट पड़ता। मगर जब ऐसा नहीं होता तो इसका मतलब यह है कि यह न हक़ है, न अल्लाह की तरफ़ से है।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ كُلُّهُۥ لِلَّهِۚ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 32
(39) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! इन काफ़िरों से जंग करो, यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए।31
31. यहाँ फिर मुसलमानों की जंग के उसी एक मक़सद को दोहराया गया है जो इससे पहले सूरा-2 बक़रा की आयत-193 में बयान किया गया था। इस मक़सद का सलबी (नकारात्मक) पहलू यह है कि फ़ितना बाक़ी न रहे, और ईजाबी जुज़ (सकारात्मक पहलू) यह कि दीन बिलकुल अल्लाह के लिए हो जाए। बस यही एक अख़लाक़ी मक़सद ऐसा है जिसके लिए लड़ना ईमानवालों के लिए जाइज़, बल्कि फ़र्ज़ है। इसके सिवा किसी दूसरे मक़सद की लड़ाई जाइज़ नहीं है और न ईमानवालों को ज़ेबा (शोभनीय) है कि उसमें किसी तरह हिस्सा लें। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-204 और 205)।
وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَىٰكُمۡۚ نِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 33
(40) फिर अगर वे फ़ितने से रुक जाएँ तो उनके आमाल को देखनेवाला अल्लाह है। और अगर वे न मानें तो जान रखो कि अल्लाह तुम्हारा सरपरस्त है, और वह सबसे अच्छा हिमायती और मददगार है।
۞وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا غَنِمۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُۥ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا يَوۡمَ ٱلۡفُرۡقَانِ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 34
(41) और तुम्हें मालूम हो कि जो कुछ ग़नीमत का माल तुमने हासिल किया है, उसका पाँचवाँ हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल और नातेदारों और यतीमों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है32, अगर तुम ईमान लाए हो अल्लाह पर और उस चीज़ पर जो फ़ैसले के दिन यानी दोनों फ़ौजों की मुठभेड़ के दिन, हमने अपने बन्दे पर उतारी थी33 (तो यह हिस्सा ख़ुशी से अदा करो) । अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
32. यहाँ ग़नीमत के उस माल के बँटवारे का क़ानून बताया है जिसके बारे में तक़रीर के शुरू में कहा गया था कि यह अल्लाह का इनाम है, जिसके बारे में फ़ैसला करने का इख़्तियार अल्लाह और उसके रसूल ही को हासिल है। अब वह फ़ैसला बयान कर दिया गया है और वह यह है कि लड़ाई के बाद तमाम सिपाही हर तरह का ग़नीमत का माल लाकर अमीर या इमाम के सामने रख दें और कोई चीज़ छिपाकर न रखें। फिर इस माल में से पाँचवाँ हिस्सा उन मक़सदों के लिए निकाल लिया जाए जो आयत में बयान हुए हैं, और बाक़ी चार हिस्से उन सब लोगों में बाँट दिए जाएँ जिन्होंने जंग में हिस्सा लिया हो। चुनाँचे इस आयत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) हमेशा लड़ाई के बाद एलान किया करते थे कि “ये ग़नीमत के माल तुम्हारे ही लिए हैं, मेरी अपनी ज़ात का इनमें कोई हिस्सा नहीं है सिवाए ‘ख़ुम्स’ यानी पाँचवें हिस्से के, और वह पाँचवाँ हिस्सा भी तुम्हारे ही समाजी फ़ायदों और ज़रूरतों पर ख़र्च कर दिया जाता है। इसलिए एक-एक सूई और एक-एक धागा तक लाकर रख दो, कोई छोटी या बड़ी चीज़ छिपाकर न रखो कि ऐसा करना शर्मनाक है और उसका नतीजा दोज़ख़ है।" इस बँटवारे में अल्लाह और रसूल का हिस्सा एक ही है और इसका मक़सद यह है कि पाँचवे हिस्से का एक जुज़ अल्लाह का बोलबाला करने और दीने-हक़ को क़ायम करने के काम में ख़र्च किया जाए। रिश्तेदारों से मुराद नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी में तो नबी (सल्ल०) ही के रिश्तेदार थे, क्योंकि जब आप अपना सारा वक़्त दीन के काम में ख़र्च करते थे और अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कोई का काम करना आप (सल्ल०) के लिए मुमकिन न रहा था तो ज़रूरी तौर पर इसका इन्तिज़ाम होना चाहिए था कि आप (सल्ल०) की और आप (सल्ल०) के घरवालों और उन दूसरे रिश्तेदारों की, जिनकी देखभाल और सरपरस्ती आप (सल्ल०) के ज़िम्मे थी, जरूरतें पूरी हों। इसलिए पाँचवें हिस्से में नबी (सल्ल०) के रिश्तेदारों का हिस्सा रखा गया। लेकिन इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि नबी (सल्ल०) की वफ़ात के बाद रिश्तेदारों का यह हिस्सा किसे पहुँचता है। एक गरोह की राय यह है कि नबी (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा मंसूख़ (निरस्त) हो गया। दूसरे गरोह की राय है कि नबी (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा उस शख़्स के रिश्तेदारों को पहुँचेगा जो नबी (सल्ल०) की जगह ख़िलाफ़त (इज्तिमाई रहनुमाई और हुकूमत चलाने) की ख़िदमत अंजाम दे। तीसरे गरोह के नज़दीक यह हिस्सा नबी (सल्ल०) के ख़ानदान के मोहताजों में तक़सीम किया जाता रहेगा। जहाँ तक मैं तहक़ीक़ कर सका हूँ, खुलफ़ा-ए-राशिदीन के ज़माने में इसी तीसरी राय पर अमल होता था।
33. यानी वह ताईद और मदद जिसकी वजह से तुम्हें फ़तह हासिल हुई।
إِذۡ أَنتُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلۡقُصۡوَىٰ وَٱلرَّكۡبُ أَسۡفَلَ مِنكُمۡۚ وَلَوۡ تَوَاعَدتُّمۡ لَٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡمِيعَٰدِ وَلَٰكِن لِّيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗا لِّيَهۡلِكَ مَنۡ هَلَكَ عَنۢ بَيِّنَةٖ وَيَحۡيَىٰ مَنۡ حَيَّ عَنۢ بَيِّنَةٖۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 35
(42) याद करो वह वक़्त जबकि तुम घाटी के इस तरफ़ थे और वे दूसरी तरफ़ पड़ाव डाले हुए थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे (तट) की तरफ़ था। अगर कहीं पहले से तुम्हारे और उनके बीच मुक़ाबले का मामला तय हो चुका होता तो तुम ज़रूर इस मौक़े पर पहलू बचा जाते, लेकिन जो कुछ सामने आया, वह इसलिए था कि जिस बात का फ़ैसला अल्लाह कर चुका था उसे रौशनी में ले आए, ताकि जिसे हलाक होना है वह रौशन दलील के साथ हलाक हो और जिसे ज़िन्दा रहना है, वह रौशन दलील के साथ ज़िन्दा रहे।34 यक़ीनन अल्लाह सुनने और जाननेवाला है।35
34. यानी साबित हो जाए कि जो ज़िन्दा रहा उसे ज़िन्दा ही रहना चाहिए था और जो हलाक हुआ उसे हलाक ही होना चाहिए था। यहाँ ज़िन्दा रहनेवाले और हलाक होनेवाले से मुराद लोग नहीं हैं, बल्कि इस्लाम और जाहिलियत हैं।
35. यानी ख़ुदा अन्धा, बहरा, बे-ख़बर ख़ुदा नहीं है, बल्कि देखने और जाननेवाला है। उसकी ख़ुदाई में अन्धाधुन्ध काम नहीं हो रहा है।
إِذۡ يُرِيكَهُمُ ٱللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلٗاۖ وَلَوۡ أَرَىٰكَهُمۡ كَثِيرٗا لَّفَشِلۡتُمۡ وَلَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ سَلَّمَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 36
(43) और याद करो वह वक़्त जबकि ऐ नबी! अल्लाह उनको तुम्हारे ख़ाब (सपने) में थोड़ा दिखा रहा था36 अगर कहीं वह तुम्हें उनकी तादाद ज़्यादा दिखा देता तो ज़रूर तुम लोग हिम्मत हार जाते और लड़ाई के मामले में झगड़ा शुरू कर देते, लेकिन अल्लाह ही ने इससे तुम्हें बचाया, यक़ीनन वह सीनों का हाल तक जानता है।
36. यह उस वक़्त की बात है जब नबी (सल्ल०) मुसलमानों को लेकर मदीना से निकल रहे थे या रास्ते में किसी मंजिल पर थे और यह पक्के तौर पर मालूम नहीं हुआ था कि दुश्मनों का लश्कर अस्ल में कितना है। उस वक़्त नबी (सल्ल०) ने ख़ाब में उस लश्कर को देखा और जो मंज़र आप (सल्ल०) के सामने पेश किया गया उससे आप (सल्ल०) ने अन्दाजा लगाया कि दुश्मनों की तादाद कुछ बहुत ज़्यादा नहीं है। यही ख़ाब आप (सल्ल०) ने मुसलमानों को सुना दिया और उससे हिम्मत पाकर मुसलमान आगे बढ़ते चले गए।
وَإِذۡ يُرِيكُمُوهُمۡ إِذِ ٱلۡتَقَيۡتُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِكُمۡ قَلِيلٗا وَيُقَلِّلُكُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِهِمۡ لِيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗاۗ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 37
(44) और याद करो जबकि मुक़ाबले के वक़्त अल्लाह ने तुम लोगों की निगाहों में दुश्मनों को थोड़ा दिखाया और उनकी निगाहों में तुम्हें कम करके पेश किया, ताकि जो बात होनी थी उसे अल्लाह सामने ले आए, और आख़िरकार सारे मामले अल्लाह ही की तरफ़ पलटते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمۡ فِئَةٗ فَٱثۡبُتُواْ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 38
(45) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब किसी गरोह से तुम्हारा मुक़ाबला हो तो जमे रहो और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो, उम्मीद है कि तुम्हें कामयाबी मिलेगी।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَنَٰزَعُواْ فَتَفۡشَلُواْ وَتَذۡهَبَ رِيحُكُمۡۖ وَٱصۡبِرُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 39
(46) और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करो और आपस में झगड़ो नहीं, वरना तुम्हारे अन्दर कमज़ोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। सब्र से काम लो37, यक़ीनन अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।
37. यानी अपने जज़्बात और ख़ाहिशात को क़ाबू में रखो। जल्दबाज़ी, घबराहट, डर, लालच और नामुनासिब जोश से बचो। ठण्डे दिल और जँची-तुली कुव्वते-फ़ैसला के साथ काम करो। ख़तरे और मुश्किलें सामने हों तो तुम्हारे क़दम लड़खड़ाने न पाएँ। भड़कानेवाले मौक़े पेश आएँ तो ग़ुस्से और ग़ज़ब का जोश तुमसे कोई बे-मौक़ा हरकत न कराने पाए। मुसीबतों का हमला हो और हालात बिगड़ते नज़र आ रहे हों तो बेचैनी में तुम्हारे हवास बेक़ाबू न हो जाएँ। मक़सद को हासिल करने के शौक़ से बेक़रार होकर या किसी कमज़ोर तदबीर को सरसरी नज़र में कारगर देखकर तुम्हारे इरादे जल्दबाज़ी का शिकार न हों। और अगर कभी दुनियावी फ़ायदे और मुनाफ़े और मन की लज़्ज़तों को उभारनेवाली चीज़ें तुम्हें अपनी तरफ़ लुभा रही हों, तो उनके मुक़ाबले में भी तुम्हारा मन इस दरजे कमज़ोर न हो कि बेइख़्तियार उनकी तरफ़ खिंच जाओ। ये सारे मतलब सिर्फ़ एक लफ़्ज़ 'सब्र' में छिपे हुए हैं, और अल्लाह फ़रमाता है कि जो लोग इन तमाम हैसियतों से सब्र करनेवाले हों, मेरी हिमायत और मदद उन्हीं को हासिल है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بَطَرٗا وَرِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 40
(47) और उन लोगों के से रंग-ढंग न अपनाओ जो अपने घरों से इतराते और लोगों को अपनी शान दिखाते हुए निकले और जिनका रवैया यह है कि अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं।38 जो कुछ वे कर रहे हैं वह अल्लाह की पकड़ से बाहर नहीं है।
38. इशारा है क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों की तरफ़, जिनका लश्कर मक्का से इस शान से निकला था कि गाने-बजानेवाली लौंडियाँ साथ थीं, जगह-जगह ठहरकर नाच और रंगरलियाँ, शराब-नोशी की महफ़िलें बरपा करते जा रहे थे, जो-जो क़बीले और बस्तियाँ रास्ते में मिलती थीं उनपर अपनी ताक़त, शौकत और अपनी तादाद की कसरत और अपने सरो-सामान का रोब जमाते थे और डींगे मारते थे कि भला हमारे मुक़ाबले में कौन सर उठा सकता है। यह तो थी उनकी अख़लाक़ी हालत! और इसपर यह लानत भी थी कि उनके निकलने का मक़सद उनके अख़लाक़ से भी ज़्यादा नापाक था। वे इसलिए जान व माल की बाज़ी लगाने नहीं निकले थे कि हक़ और सच्चाई और इनसाफ़ का झण्डा ऊँचा हो, बल्कि इसलिए निकले थे कि ऐसा न होने पाए, और वह अकेला गरोह भी जो दुनिया में इस हक़ के मक़सद के लिए उठा है ख़त्म कर दिया जाए ताकि इस झण्डे को उठानेवाला दुनिया भर में कोई न रहे। इसपर मुसलमानों को तंबीह की जा रही है कि तुम कहीं ऐसे न बन जाना। तुम्हें अल्लाह ने ईमान और हक़परस्ती की जो नेमत दी है उसका तक़ाज़ा यह है कि तुम्हारे अख़लाक़ भी पाकीज़ा और अच्छे हों और जंग का तुम्हारा मक़सद भी पाक हो। यह हिदायत उसी ज़माने के लिए न थी, आज के लिए भी है और हमेशा के लिए है। इस्लाम के दुश्मनों की फ़ौजों का जो हाल उस वक़्त था वही आज भी है। क़हबाख़ाने (वेश्यालय) और बेहयाई के अड्डे और शराब के पीपे उनके साथ एक लाज़िमी हिस्से की तरह लगे रहते हैं। छिपे तौर पर नहीं, बल्कि खुल्लम-खुल्ला बहुत ही बेशर्मी के साथ वे औरतों और शराब का ज़्यादा-से-ज़्यादा राशन माँगते हैं और उनके सिपाहियों को ख़ुद अपनी क़ौम ही से यह मुतालबा करने में कोई झिझक नहीं होती कि वे अपनी बेटियों को बड़ी-से-बड़ी तादाद में उनकी नफ़सानी ख़ाहिशों का खिलौना बनने के लिए पेश करें। फिर भला कोई दूसरी क़ौम इनसे क्या उम्मीद कर सकती है कि ये उसको अपनी अख़लाक़ी गन्दगी का कूड़ाघर बनाने में कोई कसर उठा रखेंगे। रहा उनका घमंड और फ़ख़्र तो उनके हर सिपाही और हर अफ़सर की चाल-ढाल और बातचीत के अन्दाज़ में साफ़ देखा जा सकता है। और उनमें से हर क़ौम के ज़िम्मेदार की बातों में 'आज तुमपर कोई ग़ालिब नहीं हो सकता और ताक़त में हमसे बढ़कर कौन है!’ की डींगें सुनी जा सकती हैं। इन अख़लाक़ी गन्दगियों से ज़्यादा नापाक उनके जंग के मक़सद हैं। उनमें से हर एक बहुत ही मक्कारी के साथ दुनिया को यक़ीन दिलाता है कि उसके पेशे-नज़र इनसानियत की कामयाबी के सिवा और कुछ नहीं है। मगर हक़ीक़त में उनके सामने बस इनसानियत की फ़लाह और कामयाबी ही नहीं है, बाक़ी सब कुछ है। उनकी लड़ाई का अस्ल मक़सद यह होता है कि ख़ुदा ने अपनी ज़मीन में जो कुछ सारे इनसानों के लिए पैदा किया है उसपर अकेले उनकी क़ौम का क़ब्ज़ा हो और दूसरे उसके चाकर और ग़ुलाम बनकर रहें। तो ईमानवालों को क़ुरआन की यह हमेशा रहनेवाली हिदायत है कि इन ख़ुदा के नाफ़रमानों और बुरे लोगों के तौर-तरीक़ों से भी बचें और उन नापाक मक़सदों में भी अपनी जान व माल खपाने से बचें, जिनके लिए ये लोग लड़ते हैं।
وَإِذۡ زَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَإِنِّي جَارٞ لَّكُمۡۖ فَلَمَّا تَرَآءَتِ ٱلۡفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكُمۡ إِنِّيٓ أَرَىٰ مَا لَا تَرَوۡنَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَۚ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 41
(48) ज़रा ख़याल करो उस वक़्त का जबकि शैतान ने उन लोगों की करतूत उनकी निगाहों में ख़ुशनुमा बनाकर दिखाई थीं और उनसे कहा था कि आज कोई तुमपर ग़ालिब नहीं हो सकता और यह कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। मगर जब दोनों गरोहों का आमना-सामना हुआ तो वह उलटे पाँव फिर गया और कहने लगा कि मेरा-तुम्हारा साथ नहीं है। मैं वह कुछ देख रहा हूँ जो तुम लोग नहीं देखते। मुझे अल्लाह से डर लगता है, और अल्लाह बड़ी कड़ी सज़ा देनेवाला है।
إِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰٓؤُلَآءِ دِينُهُمۡۗ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 42
(49) जबकि मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और वे सब लोग जिनके दिलों को रोग लगा हुआ है, कह रहे थे कि इन लोगों को तो इनके दीन (धर्म) ने ख़ब्त (सनक) में डाल रखा है,39 हालाँकि अगर कोई अल्लाह पर भरोसा करे तो यक़ीनन अल्लाह बड़ा ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
39. यानी मदीना के मुनाफ़िक़ और वे सब लोग जो दुनिया-परस्ती और ख़ुदा से ग़फ़लत के मर्ज़ में गिरफ़्तार थे, यह देखकर कि मुसलमानों की मुट्ठी भर बेसरो-सामान जमाअत क़ुरैश जैसी जबरदस्त ताक़त से टकराने के लिए जा रही है, आपस में कहते थे कि ये लोग अपने दीनी जोश में दीवाने हो गए हैं। इस लड़ाई में इनकी तबाही यक़ीनी है, मगर इस नबी ने कुछ ऐसा मन्त्र उनपर फूँक रखा है कि इनकी अक़्ल मारी गई है और आँखों देखे ये मौत के मुँह में चले जा रहे हैं।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ يَتَوَفَّى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 43
(50) काश तुम उस हालत को देख सकते जबकि फ़रिश्ते इनकार करनेवाले मक़तूलों (बधितों) की जानें निकाल रहे थे! वे उनके चेहरों और उनके कूल्हों पर चोटें लगाते जाते थे, और कहते जाते थे, “लो, अब जलने की सज़ा भुगतो।
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 44
(51) यह वह बदला है जिसका सामान तुम्हारे अपने हाथों ने पेशगी जुटा रखा था, वरना अल्लाह तो अपने बन्दों पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है।”
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 45
(52) यह मामला उनके साथ उसी तरह पेश आया जिस तरह फ़िरऔनियों और उनसे पहले के दूसरे लोगों के साथ पेश आता रहा है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को मानने से इनकार किया और अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया। अल्लाह क़ुव्वत रखता है और सख़्त सज़ा देनेवाला हैं
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ لَمۡ يَكُ مُغَيِّرٗا نِّعۡمَةً أَنۡعَمَهَا عَلَىٰ قَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 46
(53) यह अल्लाह के उस तरीक़े के मुताबिक़ हुआ कि वह किसी नेमत को, जो उसने किसी क़ौम को दी हो, उस वक़्त तक नहीं बदलता जब तक कि वह क़ौम ख़ुद अपने तरीक़े को नहीं बदल देती40 सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
40. यानी जब तक कोई क़ौम अपने आपको पूरी तरह अल्लाह की नेमत की ग़ैर-मुस्तहिक़ (अयोग्य) नहीं बना देती अल्लाह उससे अपनी नेमत छीना नहीं करता।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَۚ وَكُلّٞ كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 47
(54) आले-फ़िरऔन (फ़िरऔनियों) और उनसे पहले की क़ौमों के साथ जो कुछ पेश आया, वह इसी ज़ाबिते के मुताबिक़ था। उन्होंने अपने रब की आयतों को झुठलाया, तब हमने उनके गुनाहों के बदले में उन्हें हलाक किया और फ़िरऔनियों को डुबो दिया! ये सब ज़ालिम लोग थे।
إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 48
(55) यक़ीनन अल्लाह के नज़दीक ज़मीन पर चलनेवाली मख़लूक़ में सबसे बुरे वे लोग हैं जिन्होंने हक़ को मानने से इनकार कर दिया, फिर किसी तरह वे उसे क़ुबूल करने पर तैयार नहीं हैं।
ٱلَّذِينَ عَٰهَدتَّ مِنۡهُمۡ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهۡدَهُمۡ فِي كُلِّ مَرَّةٖ وَهُمۡ لَا يَتَّقُونَ ۝ 49
(56) (ख़ास तौर से) उनमें से वे लोग जिनके साथ तूने समझौता किया, फिर वे हर मौक़े पर उसको तोड़ते हैं और ज़रा भी ख़ुदा से नहीं डरते।41
41. यहाँ ख़ास तौर पर इशारा है यहूदियों की तरफ़। नबी (सल्ल०) ने मदीना में आने के बाद सबसे पहले इन ही के साथ इस बात के मुआहदा किया था कि आपस में अच्छे पड़ोसी बनकर रहेंगे और एक-दूसरे की मदद करेंगे, अपनी हद तक पूरी कोशिश की थी कि उनसे ख़ुशगवार ताल्लुक़ात क़ायम रहें। फिर दीनी हैसियत से भी आप (सल्ल०) यहूदियों को मुशरिकों के मुक़ाबले में अपने से ज़्यादा क़रीब समझते थे और हर मामले में मुशरिकों के मुक़ाबले में किताबवाले ही के तरीक़े को तरजीह देते थे। लेकिन यहूदियों के आलिमों और ज़िम्मेदारों को ख़ालिस तौहीद (विशुद्ध एकेश्वरवाद) और अच्छे अख़लाक़ की वह तबलीग़ और अक़ीदे व अमली गुमराहियों पर वह तनक़ीद और दीने-हक़ को क़ायम करने की वह कोशिश, जो नबी (सल्ल०) कर रहे थे, एक आन न भाती थी और उनकी बराबर कोशिश यह थी कि यह नई तहरीक किसी तरह कामयाब न होने पाए। इसी मक़सद के लिए वे मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों से साँठ-गाँठ करते थे। इसी के लिए वे औस और ख़ज़रज के लोगों में उन पुरानी दुश्मनियों को भड़काते थे जो इस्लाम से पहले उनके बीच ख़ून-ख़राबे का सबब हुआ करती थीं। इसी के लिए क़ुरैश और दूसरे इस्लाम के मुख़ालिफ़ क़बीलों से उनकी ख़ुफ़िया साज़िशें चल रही थीं और ये सब हरकतें दोस्ती के उस मुआहदे के बावुजूद हो रही थीं जो नबी (सल्ल०) और उनके बीच लिखा जा चुका था। जब बद्र की लड़ाई हुई तो शुरू में उनको उम्मीद थी कि क़ुरैश की पहली ही चोट इस तहरीक को ख़त्म कर देगी। लेकिन जब नतीजा उनकी उम्मीदों के ख़िलाफ़ निकला तो उनके सीनों की हसद की आग और ज़्यादा भड़क उठी। उन्होंने इस अन्देशे से कि बद्र की फ़तह कहीं इस्लाम की ताक़त को एक मुस्तकिल ख़तरा न बना दे, अपनी मुख़ालिफ़ाना कोशिशों को और तेज़ कर दिया। यहाँ तक कि उनका एक लीडर कअब-बिन-अशरफ़ (जो क़ुरैश की हार सुनते ही चीख़ उठा था कि आज ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से बेहतर है) ख़ुद मक्का गया और वहाँ उसने जोश दिलानेवाले और भड़कानेवाले मरसिये (शोक गीत) कह-कहकर क़ुरैश को बदला लेने का जोश दिलाया। इसपर भी उन लोगों ने बस न की। यहूदियों के बनी-क़ैनुक़ाअ क़बीले ने नबी (सल्ल०) से किए गए इस मुआहदे के ख़िलाफ़ कि वे आपस में अच्छे पड़ोसी की तरह रहेंगे, उन मुसलमान औरतों को छेड़ना शुरू किया जो उनकी बस्ती में किसी काम से जाती थीं। और जब नबी (सल्ल०) ने उनको इस हरकत पर मलामत की, तो उन्होंने जवाब में धमकी दी कि “ये क़ुरैश नहीं हैं, हम लड़ने-मरनेवाले लोग हैं और लड़ना जानते हैं। हमारे मुक़ाबले में आओगे, तब तुम्हें पता चलेगा कि मर्द कैसे होते हैं।"
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 50
(57) इसलिए अगर ये लोग तुम्हें लड़ाई में मिल जाएँ तो उनकी ऐसी ख़बर लो कि उनके बाद दूसरे लोग जो ऐसा रवैया अपनानेवाले हों, उनके होश उड़ जाएँ।42 उम्मीद है कि अह्द तोड़नेवालों के इस अंजाम से वे सबक लेंगे!
42. इसका मतलब यह है कि अगर किसी क़ौम से हमारा मुआहदा हो और फिर वह अपनी मुआहदाना ज़िम्मेदारियों को पीछे डालकर हमारे ख़िलाफ़ किसी जंग में हिस्सा ले, तो हम भी मुआहदे की अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों से बरी हो जाएँगे और हमें हक़ होगा कि उससे जंग करें। फिर अगर किसी क़ौम से हमारी लड़ाई हो रही हो और हम देखें कि दुश्मन के साथ एक ऐसी क़ौम के लोग भी जंग में शरीक हैं जिससे हमारा मुआहदा है, तो हम उनको क़त्ल करने और उनसे दुश्मन का-सा मामला करने में हरगिज़ कोई झिझक न दिखाएँगे, क्योंकि उन्होंने अपनी इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) हैसियत में अपनी क़ौम के मुआहदे की ख़िलाफ़वर्ज़ी करके अपने आपको इसका हक़दार नहीं रहने दिया है कि उनकी जान व माल के मामले में इस मुआहदे का एहतिराम किया जाए, जो हमारे और उनकी क़ौम के बीच है।
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ خِيَانَةٗ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 51
(58) और अगर कभी तुम्हें किसी क़ौम से ख़ियानत का डर हो तो उसके समझौते को अलानिया उसके आगे फेंक दो43। यक़ीनन अल्लाह ख़ियानत करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
43. इस आयत के मुताबिक़ हमारे लिए यह किसी तरह जाइज़ नहीं है कि अगर किसी शख़्स या गरोह या मुल्क से हमारा मुआहदा हो और हमें उसके रवैये से यह शिकायत पैदा हो जाए कि वह अह्द की पाबन्दी में कोताही बरत रहा है, या यह अन्देशा पैदा हो जाए कि वह मौक़ा पाते ही हमारे साथ गद्दारी कर बैठेगा, तो हम अपनी जगह ख़ुद फ़ैसला कर लें कि हमारे और उसके बीच मुआहदा नहीं रहा और यकायक उसके साथ वह रवैया इख़्तियार करना शुरू कर दें जो मुआहदा न होने सूरत ही में किया जा सकता हो। इसके बरख़िलाफ़ हमें इस बात का पाबन्द किया गया है कि जब ऐसी सूरत पेश आए तो हम कोई मुख़ालिफ़ाना कार्रवाई करने से पहले दूसरे गरोह को साफ़-साफ़ बता दें कि हमारे और तुम्हारे बीच अब मुआहदा बाक़ी नहीं रहा, ताकि मुआहदा तोड़ने की जानकारी जैसी हमको हासिल है वैसी ही उसको भी हो जाए और वह इस ग़लतफ़हमी में न रहे कि मुआहदा अब भी बाक़ी है। अल्लाह के इसी फ़रमान के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) पॉलिसी का यह मुस्तक़िल उसूल ठहरा दिया था कि “जिसका किसी क़ौम से मुआहदा हो उसे चाहिए कि मुआहदे की मुद्दत ख़त्म होने से पहले अह्द का बन्द न खोले। या नहीं तो उनका अह्द बराबरी को ध्यान में रखते हुए उनकी तरफ़ फेंक दे।” फिर इसी क़ायदे को नबी (सल्ल०) ने और ज़्यादा फैलाकर तमाम मामलों में आम उसूल यह क़ायम किया था कि जो “तुझसे ख़ियानत करे, तू उससे ख़ियानत न कर।” और यह उसूल सिर्फ़ तक़रीरों में बयान करने और किताबों में लिखने के लिए नहीं था, बल्कि अमली ज़िन्दगी में भी इसकी पाबन्दी की जाती थी। चुनाँचे एक बार जब अमीर मुआविया (रज़ि०) ने अपनी हुकूमत के दौर में रोम (रूम) की सरहद पर फ़ौजों को इस मक़सद से जमा करना शुरू किया कि मुआहदे की मुद्दत ख़त्म होते ही यकायक रूमी इलाक़े पर हमला कर दिया जाए तो उनकी इस कार्रवाई पर अम्र-बिन-अंबसा (रज़ि०) सहाबी ने सख़्त एहतिजाज (विरोध) किया और नबी (सल्ल०) की यही हदीस सुनाकर कहा कि मुआहदे की मुद्दत के अन्दर यह दुश्मनी का रवैया इख़्तियार करना ग़द्दारी है। आख़िरकार अमीर मुआविया को इस उसूल के आगे सर झुका देना पड़ा और सरहद पर फ़ौज को जमा होने से रोक दिया गया। एकतरफ़ा मुआहदे को तोड़ डालने और जंग का एलान किए बग़ैर हमला कर देने का तरीक़ा पुराने ज़माने की जाहिलियत में भी था और मौजूदा ज़माने की मुहज़्ज़ब (सुसभ्य) जाहिलियत में भी इसका रिवाज मौजूद है। चुनाँचे इसकी सबसे ताज़ा मिसालें दूसरी जंगे-अज़ीम (द्वितीय विश्व युद्ध) में रूस पर जर्मनी के हमले और ईरान के ख़िलाफ़ रूस और ब्रिटेन की फ़ौजी कार्यवाई में देखी गई हैं। आम तौर पर इस कार्रवाई के लिए यह बहाना पेश किया जाता है कि हमले से पहले ख़बर देने से दूसरा गरोह होशियार हो जाता और सख़्त मुक़ाबला करता, या अगर हम हमला न करते तो हमारा दुश्मन फ़ायदा उठा लेता। लेकिन इस क़िस्म के बहाने अगर अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों को ख़त्म कर देने के लिए काफ़ी हों तो फिर कोई गुनाह ऐसा नहीं है जो किसी न किसी बहाने न किया जा सकता हो। हर चोर, हर डाकू, हर ज़ानी (व्यभिचारी), हर क़ातिल, हर जालसाज़ अपने जुर्मों के लिए ऐसी ही कोई मस्लहत बयान कर सकता है। लेकिन यह अजीब बात है कि ये लोग बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) सोसाइटी में क़ौमों के लिए उन बहुत-से कामों को जाइज़ समझते हैं जो ख़ुद उनकी निगाह में हराम हैं, जबकि वे क़ौमी सोसाइटी में लोगों की ओर से किए जाएँ। इस मौक़े पर यह जान लेना भी ज़रूरी है कि इस्लामी क़ानून सिर्फ़ एक सूरत में बिना ख़बर दिए हमला करने को जाइज़ रखता है, और वह सूरत यह है कि दूसरा गरोह खुल्लम-खुल्ला मुआहदे को तोड़ चुका हो और उसने साफ़ तौर पर हमारे ख़िलाफ़ दुश्मनाना कार्यवाही की हो ऐसी सूरत में यह ज़रूरी नहीं रहता कि हम उसे ऊपर ज़िक्र की गई आयत के मुताबिक़ मुआहदे के तोड़ने का नोटिस दें, बल्कि हमें उसके ख़िलाफ़ बिना ख़बर दिए जंगी कार्यवाही करने का हक़ हासिल हो जाता है। इस्लाम के फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) ने यह इस्तिसनाई (अपवादी) हुक्म नबी (सल्ल०) के इस काम से निकाला है कि क़ुरैश ने जब बनी-ख़ुज़ाआ के मामले में हुदैबिया की सुलह को खुल्लम-खुल्ला तोड़ दिया तो नबी (सल्ल०) ने फिर उन्हें मुआहदा तोड़ने का नोटिस देने की कोई ज़रूरत नहीं समझी, बल्कि बग़ैर नोटिस दिए मक्का पर चढ़ाई कर दी। लेकिन अगर किसी मौक़े पर हम इस क़ायदा-ए-इस्तिसना (अपवादी नियम) से फ़ायदा उठाना चाहें तो ज़रूरी है कि वे तमाम हालात हमारे सामने रहें जिनमें नबी (सल्ल०) ने यह कार्यवाही की थी, ताकि पैरवी हो तो नबी (सल्ल०) के पूरे रवैये की हो, न कि इसके किसी एक मुफ़ीद हिस्से की, जिससे अपना कोई मतलब हासिल हो रहा हो। हदीस और सीरत की किताबों से जो कुछ साबित है वह यह है कि— (1) क़ुरैश के अह्द (सन्धि) की ख़िलाफ़वर्जी ऐसी साफ़ और वाज़ेह थी कि इस बात में कुछ कहने की गुंजाइश नहीं थी कि अह्द टूट चुका है। ख़ुद क़ुरैश के लोग भी इस बात को मानते थे कि हक़ीक़त में मुआहदा टूट गया है। उन्होंने ख़ुद अबू-सुफ़ियान को मुआहदे को ताज़ा करने के लिए मदीना भेजा था, जिसका साफ़ मतलब यह था कि उनके नज़दीक भी मुआहदा बाक़ी नहीं रहा था। फिर भी यह जरूरी नहीं है कि अह्द तोड़नेवाली क़ौम ख़ुद भी अपने अह्द तोड़ने की बात तस्लीम करे। अलबत्ता यह यक़ीनी तौर पर ज़रूरी है कि अह्द का तोड़ा जाना बिलकुल साफ़ और वाज़ेह हो और उसमें कोई शक व गुमान न हो। (2) नबी (सल्ल०) ने उनकी तरफ़ से मुआहदा टूट जाने के बाद फिर अपनी तरफ़ से साफ़ तौर पर या इशारे में ऐसी कोई बात नहीं की जिससे यह समझा जा सकता हो कि इस बदअहदी के बावजूद नबी (सल्ल०) अभी तक उनको एक ऐसी क़ौम समझते हैं जिससे कोई मुआहदा हुआ है और उनके साथ नबी (सल्ल०) के मुआहदाना ताल्लुक़ात अब भी क़ायम हैं। तमाम रिवायतें यह बताती हैं और इसमें किसी का इख़्तिलाफ़ नहीं है कि जब अबू-सुफ़ियान ने मदीना आकर मुआहदे को ताज़ा करने की दरख़ास्त की तो नबी (सल्ल०) ने उसे क़ुबूल नहीं किया। (3) क़ुरैश के ख़िलाफ़ जंगी कार्रवाई नबी (सल्ल०) ने ख़ुद की और खुल्लम-खुल्ला की। किसी ऐसी फ़रेबकारी का शायबा तक आपके रवैये में नहीं पाया जाता कि आप (सल्ल०) ने बज़ाहिर सुलह और छिपे तौर पर जंग का कोई तरीक़ा इस्तेमाल किया हो। यह इस मामले में नबी (सल्ल०) का बहतरीन नमूना है, इसलिए ऊपर ज़िक्र की गई आयत के आम हुक्म से हटकर अगर कोई कार्रवाही की जा सकती है तो ऐसे ही ख़ास हालात में की जा सकती है और इसी तरह सीधे-सीधे शरीफ़ाना तरीक़े से की जा सकती है, जो नबी (सल्ल०) ने इख़्तियार किया था। इससे भी आगे यह कि अगर किसी ऐसी क़ौम से, जिससे हमारा मुआहदा है, किसी मामले में हमारा झगड़ा हो जाए और हम देखें कि बातचीत या बैनल-अक़वामी सालिसी (अन्तर्राष्ट्रीय मध्यस्थता) के ज़रिए से वह झगड़ा तय नहीं होता, या यह कि दूसरा गरोह उसको ताक़त के बल पर तय करने पर तुला हुआ है, तो हमारे लिए यह बिलकुल जाइज़ है कि हम उसको तय करने में ताक़त इस्तेमाल करें, लेकिन ऊपर ज़िक्र की गई आयत हमपर यह अख़लाक़ी जिम्मेदारी डालती है कि हमारा यह ताक़त का इस्तेमाल साफ़-साफ़ एलान के बाद होना चाहिए और खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए। चोरी-छिपे ऐसी जंगी कार्रवाइयाँ करना, जिनका अलानिया इक़रार करने के लिए हम तैयार न हों, एक बदअख़लाक़ी है जिसकी तालीम इस्लाम ने हमको नहीं दी है।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَبَقُوٓاْۚ إِنَّهُمۡ لَا يُعۡجِزُونَ ۝ 52
(59) हक़ के इनकारी इस ग़लतफ़हमी में न रहें कि वे बाज़ी ले गए, यक़ीनन वे हमको हरा नहीं सकते।
وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٖ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّكُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 53
(60) और तुम लोग, जहाँ तक तुम्हारा बस चले, ज़्यादा-से-ज़्यादा ताक़त और तैयार बँधे रहनेवाले घोड़े उनके मुक़ाबले के लिए जुटाए रखो44 ताकि उसके ज़रिए से अल्लाह के और अपने दुश्मनों को और उन दूसरे दुश्मनों को खौफ़ज़दा कर दो जिन्हें तुम नहीं जानते, मगर अल्लाह जानता है। अल्लाह की राह में जो कुछ तुम ख़र्च करोगे उसका पूरा-पूरा बदला तुम्हारी तरफ़ पलटाया जाएगा और तुम्हारे साथ हरगिज़ ज़ुल्म न होगा।
44. इससे मतलब यह है कि तुम्हारे पास जंग के सामान और एक मुस्तक़िल फ़ौज (Standing Army) हर वक़्त तैयार रहनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर फ़ौरन जंगी कार्रवाई कर सको। यह न हो कि ख़तरा सर पर आने के बाद घबराहट में जल्दी-जल्दी रज़ाकार (स्वयंसेवी Volunteers) और हथियार और रसद का सामान जमा करने की कोशिश की जाए और इस बीच में कि यह तैयारी मुकम्मल हो, दुश्मन अपना काम कर जाए।
۞وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 54
(61) और ऐ नबी! अगर दुश्मन सुलह और सलामती की तरफ़ झुकें तो तुम भी उसके लिए तैयार हो जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो। यक़ीनन वही सब कुछ सुनने और जाननेवाला है
وَإِن يُرِيدُوٓاْ أَن يَخۡدَعُوكَ فَإِنَّ حَسۡبَكَ ٱللَّهُۚ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَيَّدَكَ بِنَصۡرِهِۦ وَبِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 55
(62) और अगर वे धोखे की नीयत रखते हों तो तुम्हारे लिए अल्लाह काफ़ी है45
45. यानी बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) मामलों में तुम्हारी पॉलिसी बुज़दिलाना नहीं होनी चाहिए, बल्कि ख़ुदा के भरोसे पर बहादुरी और दिलेरी की होनी चाहिए। दुश्मन जब सुलह की बातचीत की ख़ाहिश करे, बे-झिझक उसके लिए तैयार हो जाओ और सुलह के लिए हाथ बढ़ाने से इस बिना पर इनकार न करो कि वह नेक नीयती के साथ सुलह नहीं करना चाहता, बल्कि ग़द्दारी का इरादा रखता है। किसी की नीयत बहरहाल यक़ीनी तौर पर मालूम नहीं हो सकती। अगर वह वाक़ई सुलह ही की नीयत रखता हो तो तुम ख़ाह-मख़ाह उसकी नीयत पर शक करके ख़ूनख़राबे (जंग) को लम्बा क्यों खींचो। और अगर वह धोखे की नीयत रखता हो तो तुम्हें ख़ुदा के भरोसे पर बहादुर होना चाहिए। सुलह के लिए बढ़नेवाले हाथ के जवाब में हाथ बढ़ाओ, ताकि तुम्हारी अख़लाक़ी बरतरी साबित हो, और लड़ाई के लिए उठनेवाले हाथ को अपने बाज़ू की क़ुव्वत से तोड़कर फेंक दो, ताकि कभी कोई ग़द्दार क़ौम तुम्हें नर्म चारा समझने की हिम्मत न करे।
وَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡۚ لَوۡ أَنفَقۡتَ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مَّآ أَلَّفۡتَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ أَلَّفَ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّهُۥ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 56
(63) वही तो है जिसने अपनी मदद से और ईमानवालों के ज़रिए तुम्हारी हिमायत की और ईमानवालों के दिल एक-दूसरे के साथ जोड़ दिए। तुम धरती की सारी दौलत भी ख़र्च कर डालते तो इन लोगों के दिल न जोड़ सकते थे, मगर वह अल्लाह है जिसने इन लोगों के दिल जोड़े46, यक़ीनन वह बड़ा ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
46. इशारा है उस भाईचारे, उलफ़त और मुहब्बत की तरफ़ जो अल्लाह ने ईमान लानेवाले अरब के लोगों के बीच पैदा करके उनको एक मज़बूत जत्था बना दिया था, हालाँकि इस जत्थे के लोग उन अलग-अलग क़बीलों से निकले हुए थे जिनके बीच सदियों से दुश्मनियाँ चली आ रही थीं। ख़ास तौर से अल्लाह की यह मेहरबानी औस और ख़ज़रज के मामले में तो सबसे ज़्यादा नुमायाँ थी। ये दोनों क़बीले दो ही साल पहले तक एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे थे और मशहूर जंग बुआस को कुछ ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे थे, जिसमें औस ने ख़ज़रज को और ख़ज़रज ने औस को मानो ज़मीन से मिटा देने का पक्का इरादा कर लिया था। ऐसी सख़्त दुश्मनियों को दो-तीन साल के अन्दर गहरी दोस्ती और बिरादरी में बदल देना और उन एक-दूसरे से नफ़रत करनेवाले लोगों को जोड़कर ऐसी एक सीसा पिलाई दीवार बना देना, जैसी कि नबी (सल्ल०) के ज़माने में इस्लामी जमाअत थी, यक़ीनन इनसान की ताक़त से बाहर था और दुनियावी असबाब की मदद से यह अज़ीमुश्शान कारनामा अंजाम नहीं पा सकता था। इसलिए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब हमारी ताईद और मदद ने यह कुछ कर दिखाया है तो आइन्दा भी तुम्हारी नज़र दुनियावी असबाब (सामान) पर नहीं बल्कि, ख़ुदा की ताईद (हिमायत) पर होनी चाहिए कि जो कुछ काम बनेगा उसी से बनेगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَسۡبُكَ ٱللَّهُ وَمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 57
(64) ऐ नबी! तुम्हारे लिए और तुम्हारी पैरवी करनेवाले ईमानवालों के लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 58
(65) ऐ नबी! ईमानवालों को जंग पर उभारो, अगर तुममें से बीस आदमी सब्र करनेवाले हों तो वे दो सौ पर ग़ालिब होंगे और अगर सौ आदमी ऐसे हों तो हक़ के इनकारियों में से हज़ार आदमियों पर भारी होंगे, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते47
47. आजकल की इस्तिलाह (परिभाषा) में जिस चीज़ को अन्दरूनी क़ुव्वत या अख़लाक़ी क़ुव्वत (Morale) कहते हैं, अल्लाह ने उसी को जानना और समझ-बूझ (Understanding) कहा है। और यह लफ़्ज़ इस मानी और मतलब के लिए नई इस्तिलाह से ज़्यादा साइंटिफ़िक है। जो शख़्स अपने मक़सद का सही शुऊर रखता हो और ठण्डे दिल से ख़ूब सोच-समझकर इसलिए लड़ रहा हो कि जिस चीज़ के लिए वह जान की बाज़ी लगाने आया है वह उसकी इनफ़िरादी ज़िन्दगी से ज़्यादा क़ीमती है और उसके ख़त्म हो जाने के बाद जीना बेक़ीमत है, वह बेशुऊरी के साथ लड़नेवाले आदमी से कई गुनी ज़्यादा ताक़त रखता है। हालाँकि जिस्मानी ताक़त में दोनों के बीच कोई फ़र्क़ न हो। फिर जिस शख़्स को हक़ीक़त का शुऊर हासिल हो, जो अपनी हस्ती और ख़ुदा की हस्ती और ख़ुदा के साथ अपने ताल्लुक़ और दुनिया की ज़िन्दगी की हक़ीक़त और मौत की हक़ीक़त और मौत के बाद की ज़िन्दगी की हक़ीक़त को अच्छी तरह जानता हो, और जिसे हक़ और बातिल के फ़र्क़ और बातिल के ग़ल्बे के नतीजों की भी सही जानकारी हो, उसकी ताक़त को तो वे लोग भी नहीं पहुँच सकते जो क़ौमियत या वतनियत या तबक़ाती झगड़ों का शुऊर लिए हुए मैदान में आएँ। इसी लिए कहा गया है कि एक समझ-बूझ रखनेवाले मोमिन और एक ग़ैर-मोमिन के बीच हक़ीक़त के शुऊर होने और शुऊर न होने की वजह से फ़ितरी तौर पर एक और दस की निस्बत है। लेकिन यह निस्बत सिर्फ़ समझ-बूझ से क़ायम नहीं होती, बल्कि उसके साथ सब्र की सिफ़त भी एक लाज़िमी शर्त है।
ٱلۡـَٰٔنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفٗاۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ صَابِرَةٞ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمۡ أَلۡفٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفَيۡنِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 59
(66) अच्छा, अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का किया और उसे मालूम हुआ कि अभी तुममें कमज़ोरी है, इसलिए अगर तुममें से सौ आदमी सब्र करनेवाले हों तो वे दो सौ पर और हज़ार आदमी ऐसे हों तो दो हज़ार पर अल्लाह के हुक्म से ग़ालिब होंगे,48 और अल्लाह उन लोगों के साथ है जो सब्र करनेवाले हैं।
48. इसका यह मतलब नहीं है कि पहले एक और दस की निस्बत थी और अब चूँकि तुममें कमज़ोरी आ गई है इसलिए एक और दो की निस्बत क़ायम कर दी गई है, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि उसूली और मेयारी हैसियत से तो ईमानवालों और ग़ैर-ईमानवालों के बीच एक और दस ही की निस्बत है, लेकिन चूँकि अभी तुम लोगों की अख़लाक़ी तरबियत मुकम्मल नहीं हुई है और अभी तक तुम्हारा शुऊर और तुम्हारी समझ-बूझ का पैमाना बुलूग़ (परिपक्वता) की हद को नहीं पहुँचा है, इसलिए फ़ौरी तौर पर तुमसे यह मुतालबा किया जाता है कि अपने से दो गुनी ताक़त से टकराने में तो तुम्हें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। ख़याल रहे कि यह फ़रमान सन् 2 हिजरी का है जबकि मुसलमानों में बहुत-से लोग अभी ताजा-ताज़ा ही इस्लाम में दाख़िल हुए थे और उनकी तरबियत शुरुआती हालत में थी। बाद में जब नबी (सल्ल०) की रहनुमाई में ये लोग मज़बूती को पहुँच गए तो हक़ीक़त में उनके और दुश्मनों के बीच एक और दस की ही निस्बत क़ायम हो गई। चुनाँचे नबी (सल्ल०) के आख़िरी दौर और खुलफ़ा-ए-राशिदीन के ज़माने की लड़ाइयों में बार-बार इसका तजरिबा हुआ है।
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُۥٓ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ ٱلدُّنۡيَا وَٱللَّهُ يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 60
(67) किसी नबी के लिए यह सही नहीं है कि उसके पास क़ैदी हों जब तक कि वह ज़मीन में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल न दे। तुम लोग दुनिया के फ़ायदे चाहते हो, हालाँकि अल्लाह के सामने आख़िरत है, और अल्लाह ग़ालिब और हिकमतवाला है।
لَّوۡلَا كِتَٰبٞ مِّنَ ٱللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمۡ فِيمَآ أَخَذۡتُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 61
(68) अगर अल्लाह का लिखा पहले न लिखा जा चुका होता तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसके बदले में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती।
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمۡتُمۡ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 62
(69) तो जो कुछ तुमने माल हासिल किया है, उसे खाओ कि वह हलाल (वैध) और पाक है और अल्लाह से डरते रहो।49 यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
49. इस आयत की तफ़सीर में मतलब बयान करनेवालों ने जो रिवायते बयान की हैं वे ये हैं कि बद्र की लड़ाई में क़ुरैश के लश्कर के जो लोग गिरफ़्तार हुए थे उनके बारे में बाद में मश्वरा हुआ कि उनके साथ क्या सुलूक किया जाए। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने राय दी की फ़िदया (जुर्माना) लेकर छोड़ दिया जाए, और हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा कि क़त्ल कर दिया जाए। नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की राय क़ुबूल की और फ़िदये का मामला तय कर लिया। इसपर अल्लाह ने ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए ये आयतें नाज़िल कीं। मगर मुफ़स्सिरीन आयत के उस टुकड़े का कोई मतलब नहीं बता सके हैं कि “अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता।” वे कहते हैं कि इससे मुराद तक़दीरे-इलाही है, या यह कि अल्लाह पहले ही यह इरादा कर चुका था कि मुसलमानों के लिए ग़नीमतों को हलाल कर देगा। लेकिन यह ज़ाहिर है कि जब तक क़ानूनी तौर से वह्य के ज़रिए से किसी चीज़ की इजाज़त न दी गई हो, इसका लेना जाइज़ नहीं हो सकता। तो नबी (सल्ल०) समेत पूरी इस्लामी जमाअत इस मतलब की रू से गुनाहगार क़रार पाती है और ऐसे मतलब को अख़बारे-अहाद (कुछ रावियों के ज़रिए बयान की गई रिवायतों) के भरोसे पर क़ुबूल कर लेना एक बड़ी ही सख़्त बात है। मेरे नज़दीक इस मक़ाम की सही तफ़सीर यह है कि जंगे-बद्र से पहले सूरा-47 मुहम्मद में जंग के बारे में जो शुरुआती हिदायतें दी गई थीं, उनमें यह कहा गया था कि “जब इन इनकार करनेवालों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो, इसके बाद (तुम्हें इख़्तियार है कि) एहसान करो या फ़िदया (अर्थदण्ड) का मामला कर लो, यहाँ तक कि लड़ाई अपने हथियार डाल दे।” (क़ुरआन, 47:4) इस फ़रमान में जंगी क़ैदियों से फ़िदया वुसूल करने की इजाज़त तो दे दी गई थी, लेकिन उसके साथ शर्त यह लगाई गई थी कि पहले दुश्मन की ताक़त को अच्छी तरह कुचल दिया जाए फिर क़ैदी पकड़ने की फ़िक की जाए। इस फ़रमान के मुताबिक़ मुसलमानों ने बद्र में जो क़ैदी गिरफ़्तार किए और उसके बाद उनसे जो फ़िदया वुसूल किया गया, वह था तो इजाज़त के मुताबिक़, मगर ग़लती यह हुई कि 'दुश्मन की ताक़त को कुचल देने' की जो शर्त पहले रखी गई थी उसे पूरा करने में कोताही की गई। जंग में जब क़ुरैश की फ़ौज भाग निकली तो मुसलमानों का एक बड़ा गरोह ग़नीमत लूटने और दुश्मनों के आदमियों को पकड़-पकड़कर बाँधने में लग गया और बहुत कम आदमियों ने दुश्मनों का कुछ दूर तक पीछा किया। हालाँकि अगर मुसलमान पूरी ताक़त से उनका पीछा करते तो क़ुरैश की ताक़त का उसी दिन ख़ातिमा हो गया होता। इसी पर अल्लाह ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रहा है, और यह ग़ुस्सा नबी (सल्ल०) पर नहीं है, बल्कि मुसलमानों पर है। अल्लाह के कहने का मंशा यह है कि “तुम लोग अभी नबी के मिशन को अच्छी तरह नहीं समझे हो। नबी का अस्ल काम यह नहीं है कि फ़िदये और गनीमतें वुसूल करके ख़ज़ाने भरे, बल्कि उसके मक़सद से जो चीज़ सीधे तौर पर ताल्लुक़ रखती है वह सिर्फ़ यह है कि कुफ़्र की ताक़त टूट जाए। मगर तुम लोगों पर बार-बार दुनिया का लालच ग़ालिब हो जाता है। पहले दुश्मन की अस्ल ताक़त के बजाय क़ाफ़िले पर हमला करना चाहा, फिर दुश्मन का सर कुचलने के बजाय ग़नीमत लूटने और क़ैदी पकड़ने में लग गए, फिर ग़नीमत पर झगड़ने लगे। अगर हम पहले फ़िदया वुसूल करने की इजाज़त न दे चुके होते तो इसपर तुम्हें सख़्त सज़ा देते। ख़ैर अब जो कुछ तुमने लिया है वह खा लो, मगर आइन्दा ऐसी रविश (हरकत) से बचते रहो जो अल्लाह के नज़दीक नापसन्दीदा है।” मैं इस राय पर पहुँच चुका था कि इमाम जस्सास की किताब अहकामुल-क़ुरआन में यह देखकर मुझे और ज़्यादा इत्मीनान हासिल हुआ कि इमाम साहब भी इस तावील को कम-से-कम क़ाबिले-लिहाज्ञ ज़रूर क़रार देते हैं। फिर सीरत इब्ने-हिशाम में यह रिवायत नज़र से गुज़री कि जिस वक़्त मुजाहिदीने-इस्लाम माले ग़नीमत लूटने और दुश्मनों के आदमियों को पकड़-पकड़कर बाँधने में लगे हुए थे, नबी (सल्ल०) ने देखा कि हज़रत साद-बिन-मुआज़ के चेहरे पर कुछ नापसन्दीदगी के आसार हैं। नबी (सल्ल०) ने उनसे पूछा कि “ऐ साद, मालूम होता है कि लोगों कि यह कार्रवाई तुम्हें पसन्द नहीं आ रही है।” उन्होंने जवाब दिया कि “जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल, यह पहली लड़ाई है कि जिसमें अल्लाह ने मुशरिकों को शिकस्त दिलवाई है, इस मौक़े पर इन्हें क़ैदी बनाकर उनकी जानें बचा लेने से ज़्यादा बेहतर यह था कि उनको ख़ूब कुचल डाला जाता।” (देखें,सीरत इब्ने-हिशाम, जिल्द-2, पेज 280 और 281)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّمَن فِيٓ أَيۡدِيكُم مِّنَ ٱلۡأَسۡرَىٰٓ إِن يَعۡلَمِ ٱللَّهُ فِي قُلُوبِكُمۡ خَيۡرٗا يُؤۡتِكُمۡ خَيۡرٗا مِّمَّآ أُخِذَ مِنكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 63
(70) ऐ नबी! तुम लोगों के क़ब्ज़े में जो कैदी हैं उनसे कहो, अगर अल्लाह को मालूम हुआ कि तुम्हारे दिलों में कुछ भलाई है तो वह तुम्हें उससे बढ़-चढ़कर देगा जो तुमसे लिया गया है, और तुम्हारी ग़लतियाँ माफ़ करेगा। अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
وَإِن يُرِيدُواْ خِيَانَتَكَ فَقَدۡ خَانُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ فَأَمۡكَنَ مِنۡهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 64
(71) लेकिन अगर वे तेरे साथ ख़ियानत का इरादा रखते हैं तो इससे पहले वे अल्लाह के साथ ख़ियानत कर चुके हैं, तो उसी की सज़ा अल्लाह ने उन्हें दी कि वे तेरे क़ाबू में आ गए। अल्लाह सब कुछ जानता और गहरी समझवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يُهَاجِرُواْ مَا لَكُم مِّن وَلَٰيَتِهِم مِّن شَيۡءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْۚ وَإِنِ ٱسۡتَنصَرُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ فَعَلَيۡكُمُ ٱلنَّصۡرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 65
(72) जिन लोगों ने ईमान अपनाया और हिजरत की (घर-बार छोड़ा) और अल्लाह की राह में अपनी जानें लड़ाईं और अपने माल खपाए, और जिन लोगों ने हिजरत करनेवालों को जगह दी और उनकी मदद की, वही अस्ल में एक-दूसरे के वली (सरपरस्त) हैं। रहे वे लोग जो ईमान तो ले आए मगर हिजरत करके (दारुल-इस्लाम यानी इस्लामी राज्य में) आ नहीं गए तो उनसे तुम्हारा 'विलायत' (सरपरस्ती) का कोई ताल्लुक़ नहीं है, जब तक कि वे हिजरत करके न आ जाएँ।50 हाँ, अगर वे दीन के मामले में तुमसे मदद माँगे तो उनकी मदद करना तुमपर ज़रूरी है, लेकिन किसी ऐसी क़ौम के ख़िलाफ़ नहीं जिससे तुम्हारा मुआहदा हो।51 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देखता है।
50. यह आयत इस्लाम के दस्तूरी (संवैधानिक) क़ानून की एक अहम दफ़ा (धारा) है। इसमें यह उसूल मुक़र्रर किया गया है कि 'विलायत' (सरपरस्ती) का ताल्लुक़ सिर्फ़ उन मुसलमानों के बीच होगा जो या तो दारुल-इस्लाम के बाशिन्दे हों, या अगर बाहर से आएँ तो हिजरत करके आ जाएँ। बाक़ी रहे वे मुसलमान जो इस्लामी रियासत (State) की हद से बाहर हों तो उनके साथ मज़हबी भाईचारा तो ज़रूर क़ायम रहेगा, लेकिन 'विलायत' का ताल्लुक़ बाक़ी न होगा। और इसी तरह उन मुसलमानों से भी यह विलायत का ताल्लुक़ न रहेगा जो हिजरत करके न आएँ, बल्कि दारुल-कुफ़्र की रिआया होने की हैसियत से दारुल-इस्लाम में आएँ। 'विलायत' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में हिमायत, नुसरत, मदद, पुश्तपनाही, दोस्ती, क़राबत, सरपरस्ती और इससे मिलते-जुलते मानी के लिए बोला जाता है। और इस आयत के सियाक़ व सबाक़ (सन्दर्भ) में साफ़ तौर पर इससे मुराद वह रिश्ता है जो एक रियासत का अपने शहरियों से, और शहरियों का अपनी रियासत से, और ख़ुद शहरियों का आपस में होता है। इसलिए यह आयत दस्तूरी व सियासी विलायत' को इस्लामी रियासत की ज़मीनी हदों तक महदूद कर देती है, और उन हदों से बाहर के मुसलमानों को इस ख़ास रिश्ते से बाहर रखती है। इस विलायत के न होने के क़ानूनी नतीजे बहुत फैले हुए हैं, जिनकी तफ़सील बयान करने का यहाँ मौक़ा नहीं है। मिसाल के तौर पर सिर्फ़ इतना इशारा काफ़ी होगा कि इस विलायत के न होने की बिना पर दारुल-कुफ़्र और दारुल-इस्लाम के मुसलमान एक-दूसरे के वारिस नहीं हो सकते, एक-दूसरे के क़ानूनी वली (Guardian) नहीं बन सकते, आपस में शादी-बयाह नहीं कर सकते और इस्लामी हुकूमत किसी ऐसे मुसलमान को अपने यहाँ ज़िम्मेदारी का पद नहीं दे सकती जिसने दारुल-कुफ़्र से शहरियत का ताल्लुक़ न तोड़ा हो। इसके अलावा यह आयत इस्लामी हुकूमत की ख़ारिजी सियासत (विदेश-राजनीति Foreign Politics) पर भी बड़ा असर डालती है। इसके मुताबिक़ इस्लामी हुकूमत की ज़िम्मेदारी उन मुसलमानों तक महदूद है जो उसकी हदों के अन्दर रहते हैं। बाहर के मुसलमानों के लिए किसी ज़िम्मेदारी का मार उसके सर नहीं है। यही वह बात है जो नबी (सल्ल०) ने इस हदीस में कही है कि “मैं किसी ऐसे मुसलमान की हिमायत और हिफ़ाज़त का जिम्मेदार नहीं हूँ जो मुशरिकों के बीच रहता हो।” इस तरह इस्लामी क़ानून ने उस झगड़े की जड़ काट दी है जो आम तौर से बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) पेचीदगियों का सबब बनता है, क्योंकि जब कोई हुकूमत अपनी हदों से बाहर रहनेवाली कुछ अक़ल्लियतों (Minorities) की ज़िम्मेदारी अपने सर ले लेती है तो उसकी वजह से ऐसी उलझनें पड़ जाती हैं जिनको बार-बार की लड़ाइयों भी नहीं सुलझा सकतीं।
51. ऊपर की आयत में दारुल-इस्लाम से बाहर रहनेवाले मुसलमानों को ‘सियासी विलायत’ (सियासी सरपस्ती) के रिश्ते से ख़ारिज करार दिया गया था। अब यह आयत इस बात की वज़ाहत करती है कि इस रिश्ते से ख़ारिज होने के बावजूद वे ‘दीनी उख़ूवत’ (दीनी भाईचारा) के रिश्ते से बाहर नहीं हैं। अगर कहीं उनपर ज़ुल्म हो रहा हो और वे इस्लामी बिरादरी के ताल्लुक़ की बुनियाद पर दारुल-इस्लाम की हुकूमत और उसके बाशिन्दों से मदद माँगें तो उनका फ़र्ज़ है कि अपने उन मज़लूम भाइयों की मदद करें। लेकिन उसके बाद और ज़्यादा वज़ाहत करते हुए कहा गया कि इन दीनी भाइयों की मदद का फ़र्ज़ अन्धाधुन्ध अंजाम नहीं दिया जाएगा, बल्कि बैनल-अक़वामी ज़िम्मेदारियों और अख़लाक़ी हदों का पास और लिहाज़ रखते हुए ही अंजाम दिया जा सकेगा। अगर ज़ुल्म करनेवाली क़ौम से दारुल-इस्लाम के मुआहदे की बिना पर ताल्लुक़ात हों तो इस सूरत में मज़लूम मुसलमानों की कोई ऐसी मदद नहीं की जा सकेगी जो उन ताल्लुक़ात की अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों के ख़िलाफ़ पड़ती हो। आयत में मुआहदे के लिए 'मीसाक़' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। इसका माद्दा 'वसूक़' है जो अरबी जबान की तरह उर्दू ज़बान में भी भरोसे और एतिमाद के लिए इस्तेमाल होता है। मीसाक़ हर उस चीज़ को कहेंगे जिसकी बुनियाद पर कोई क़ौम आम तरीक़े से यह भरोसा करने में हक़ बजानिब हो कि हमारे और इसके बीच जंग नहीं है, यह बात और है कि हमारा उसके साथ वाज़ेह तौर पर लड़ाई न करने का अह्द व समझौता हुआ हो या न हुआ हो। फिर आयत में 'बैनकुम व बैनहुम मीसाक़' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। यानी 'तुम्हारे और उनके बीच मुआहदा हो।‘ इससे यह साफ़ पता चलता है कि दारुल-इस्लाम की हुकूमत ने जो मुआहदाना ताल्लुक़ात किसी ग़ैर-मुस्लिम हुकूमत से क़ायम किए हों वे सिर्फ़ दो हुकूमतों के ताल्लुक़ात ही नहीं हैं, बल्कि दो क़ौमों के ताल्लुक़ात भी हैं और उनकी अख़लाक़ी जिम्मेदारियों में मुसलमान हुकूमत के साथ मुसलमान क़ौम और उसके लोग भी शरीक हैं। इस्लामी शरीअत इस बात को बिलकुल जाइज़ नहीं रखती कि मुस्लिम हुकूमत जो मामले किसी मुल्क या क़ौम से तय करे उनकी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियों से मुसलमान क़ौम या उसके लोग आजाद रहें। अलबत्ता दारुल-इस्लाम की हुकूमत के मुआहदों की पाबन्दियाँ सिर्फ़ उन मुसलमानों पर ही लागू होंगी जो इस हुकूमत के दायरा-ए-अमल (कार्यक्षेत्र) में रहते हों। इस दायरे से बाहर दुनिया के बाक़ी मुसलमान किसी तरह भी उन ज़िम्मेदारियों में शरीक न होंगे। यही वजह है कि हुदैबिया में जो सुलह नबी (सल्ल०) ने मक्का के इस्लाम-दुश्मनों से की थी उसकी बुनियाद पर कोई पाबन्दी हज़रत अबू-बुसैर और अबू-जन्दल और उन दूसरे मुसलमानों पर लागू नहीं हुई जो दारुल-इस्लाम की रिआया न थे।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٍۚ إِلَّا تَفۡعَلُوهُ تَكُن فِتۡنَةٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَفَسَادٞ كَبِيرٞ ۝ 66
(73) जो लोग हक़ के इनकारी हैं, वे एक-दूसरे की हिमायत करते हैं। अगर तुम यह न करोगे तो ज़मीन में फ़ितना (उपद्रव) और बड़ा फ़साद पैदा होगा।52
52. आयत के इस टुकड़े का ताल्लुक़ अगर सबसे क़रीबवाले टुकड़े से माना जाए तो मतलब यह होगा कि जिस तरह इस्लाम के दुश्मन एक-दूसरे की हिमायत करते हैं अगर तुम ईमानवाले उसी तरह आपस में एक-दूसरे की हिमायत न करो तो ज़मीन में फ़ितना और बहुत बड़ा फ़साद बरपा होगा। और अगर इसका ताल्लुक़ उन तमाम हिदायतों से माना जाए जो आयत-72 से यहाँ तक दी गई हैं, तो इसे कहने का मतलब यह होगा कि अगर दारुल-इस्लाम के मुसलमान एक-दूसरे के वली न बनें, और अगर हिजरत कर के दारुल-इस्लाम में न आनेवाले और दारुल-कुफ़्र में ठहरे रहनेवाले मुसलमानों को दारुल-इस्लामवाले अपनी सियासी विलायत से ख़ारिज न समझें, और अगर बाहर के मज़लूम मुसलमानों के मदद माँगने पर उनकी मदद न की जाए, और अगर उसके साथ-साथ इस क़ायदे की पाबन्दी भी न की जाए कि जिस क़ौम से मुसलमानों का मुआहदा हो उसके ख़िलाफ़ मदद माँगनेवाले मुसलमानों की मदद न की जाएगी, और अगर मुसलमान इस्लाम दुश्मनों से दोस्ती और सरपरस्ती का ताल्लुक़ ख़त्म न करें, तो ज़मीन में फ़ितना और बहुत बड़ा फ़साद बरपा होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 67
(74) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अल्लाह की राह में घर-बार छोड़े और जिद्दो-जुह्द की और जिन्होंने पनाह दी और मदद की, वही सच्चे ईमानवाले हैं। उनके लिए ग़लतियों की माफ़ी है और बेहतरीन रोज़ी है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ مَعَكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ مِنكُمۡۚ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 68
(75) और जो लोग बाद में ईमान लाए और घर-बार छोड़कर आ गए और तुम्हारे साथ मिलकर जिद्दोजहद करने लगे, वे भी तुम ही में शामिल हैं, मगर अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं।53 यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ को जानता है।
53. मुराद यह है कि इस्लामी भाइचारे की बुनियाद पर मीरास तक़सीम न होगी और न वे हक़ जो ख़ानदानी और ससुराली रिश्ते के ताल्लुक़ की बुनियाद पर लागू होते हैं, दीनी भाइयों को एक-दूसरे के मामले में हासिल होंगे। इन मामलों में इस्लामी ताल्लुक़ के बजाय रिश्तेदारी का ताल्लुक़ ही क़ानूनी हक़ों की बुनियाद रहेगा। यह बात इस बिना पर कही गई है कि हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) ने मुहाजिरों और अनसार के बीच जो भाईचारा कराया था उसकी वजह से कुछ लोग यह समझ रहे थे कि ये दीनी भाई एक-दूसरे के वारिस भी होंगे।
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمۡ وَأَنتَ فِيهِمۡۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ مُعَذِّبَهُمۡ وَهُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 69
(33) उस वक़्त तो अल्लाह उनपर अज़ाब उतारनेवाला न था, जबकि तू उनके बीच मौजूद था। और न अल्लाह का यह क़ायदा है कि लोग तौबा कर रहे हों और वह उनको अज़ाब दे दे।27
27. यह उनके उस सवाल का जवाब है जो उनकी ऊपरवाली ज़ाहिरी दुआ में छिपा हुआ था। इस जवाब में बताया गया है कि अल्लाह ने मक्की दौर में क्यों अज़ाब नहीं भेजा। इसकी पहली वजह यह थी कि जब तक नबी किसी बस्ती में मौजूद हो और हक़ की तरफ़ दावत दे रहा हो उस वक़्त तक बस्ती के लोगों को मुहलत दी जाती है और अज़ाब भेजकर वक़्त से पहले उनसे अपने सुधार करने का मौक़ा छीन नहीं लिया जाता। इसकी दूसरी वजह यह है कि जब तक बस्ती में से ऐसे लोग बराबर निकलते चले आ रहे हों जो अपनी पिछली ग़फ़लत और ग़लत रविश से ख़बरदार होकर अल्लाह से माफ़ी की दरख़ास्त करते हों और आगे के लिए अपने रवैये की इस्लाह कर लेते हों, उस वक़्त तक कोई मुनासिब वजह नहीं है कि अल्लाह ख़ाह-मख़ाह उस बस्ती को तबाह करके रख दे। अलबत्ता अज़ाब का असली वक़्त वह होता है जब नबी उस बस्ती पर हुज्जत पूरी करने के बाद मायूस होकर वहाँ से निकल जाए या निकाल दिया जाए या क़त्ल कर डाला जाए, और वह बस्ती अपने रवैये से साबित कर दे कि वह किसी नेक शख़्स को अपने बीच बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं है।
وَمَا لَهُمۡ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ ٱللَّهُ وَهُمۡ يَصُدُّونَ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَمَا كَانُوٓاْ أَوۡلِيَآءَهُۥٓۚ إِنۡ أَوۡلِيَآؤُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 70
(34) लेकिन अब क्यों न वह उनपर अज़ाब ले आए, जबकि वे मस्जिदे-हराम (काबा) का रास्ता रोक रहे हैं, हालाँकि वे उस मस्जिद के जाइज़ मुतवल्ली (प्रबन्धक) नहीं हैं। इसके जाइज़ मुतवल्ली तो सिर्फ़ परहेज़गार ही हो सकते हैं, मगर ज़्यादातर लोग इस बात को नहीं जानते।
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمۡ عِندَ ٱلۡبَيۡتِ إِلَّا مُكَآءٗ وَتَصۡدِيَةٗۚ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 71
(35) अल्लाह के घर के पास उन लोगों की नमाज़ क्या होती है, बस सीटियाँ बजाते और तालियाँ पीटते हैं।28 इसलिए अब लो, इस अज़ाब का मज़ा चखो अपने उस हक़ के इनकार के बदले में जो तुम करते रहे हो।29
28. यह इशारा उस ग़लतफ़हमी के रद्द में है जो लोगों के दिलों में छिपी हुई थी और जिससे आम तौर पर अरबवाले धोखा खा रहे थे। वे समझते थे कि क़ुरैश चूँकि बैतुल्लाह (काबा) के मुजाविर और मुतवल्ली (प्रबंधक और संरक्षक) हैं और वहाँ इबादत बजा लाते हैं इसलिए उनपर अल्लाह का फ़ज़्ल है। इसके रद्द में फ़रमाया कि सिर्फ़ मीरास में इन्तिज़ाम और देखभाल की ज़िम्मेदारी से कोई शख़्स या गरोह किसी इबादतगाह का जाइज़ मुजाविर व मुतवल्ली नहीं हो सकता। जाइज़ मुजाविर व मुतवल्ली तो सिर्फ़ ख़ुदातरस और परहेज़गार लोग ही हो सकते हैं, और इन लोगों का हाल यह है कि एक जमाअत को, जो ख़ालिस ख़ुदा की इबादत करनेवाली है, उस इबादतगाह में आने से रोकते हैं जो ख़ालिस ख़ुदा की इबादत ही के लिए वक़्फ़ की गई थी। इस तरह ये मुतवल्ली और ख़ादिम बनकर रहने के बजाय इस इबादतगाह के मालिक बन बैठे हैं और अपने-आपको इस बात का मुख़तार (अधिकारी) समझने लगे हैं कि जिससे ये नाराज़ हों उसे इबादतगाह में न आने दें। यह हरकत इस बात की खुली दलील है कि न वे ख़ुदातरस हैं और न परहेज़गार। रही उनकी इबादत जो वे बैतुल्लाह में करते हैं तो उसके अन्दर न आजिज़ी और खाकसारी है, न अल्लाह की तरफ़ तवज्जोह है, न अल्लाह का ज़िक्र है, बस एक बेमानी शोर-ग़ुल और खेल-तमाशा है जिसका नाम इन्होंने इबादत रख छोड़ा है। अल्लाह के घर की ऐसी सिर्फ़ नाम की ख़िदमत और ऐसी झूठी इबादत पर आख़िर ये अल्लाह की मेहरबानी के हक़दार कैसे हो गए? और यह चीज़ उन्हें अल्लाह के अज़ाब से किस तरह महफ़ूज़ रख सकती है।
29. वे समझते थे कि अल्लाह का अज़ाब सिर्फ़ आसमान से पत्थरों की शक्ल में या किसी और तरह की फ़ितरी ताक़तों के उफान ही की शक्ल में आया करता है। मगर यहाँ उन्हें बताया गया है कि बद्र की लड़ाई में उनकी फ़ैसलाकुन हार, जिसकी वजह से इस्लाम के लिए ज़िन्दगी का और जाहिलियत के पुराने निज़ाम के लिए मौत का फ़ैसला हुआ है, अस्ल में उनके हक़ में अल्लाह का अज़ाब ही है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ لِيَصُدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيۡهِمۡ حَسۡرَةٗ ثُمَّ يُغۡلَبُونَۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحۡشَرُونَ ۝ 72
(36) जिन लोगों ने हक़ को मानने से इनकार किया है वे अपने माल अल्लाह के रास्ते से रोकने के लिए ख़र्च कर रहे हैं और अभी और ख़र्च करते रहेंगे, लेकिन आख़िरकार यही कोशिशें उनके लिए पछतावे का सबब बनेंगी। फिर वे मग़लूब होंगे, फिर ये करनेवाले (अधर्मी लोग) जहन्नम की तरफ़ घेर लाए जाएँगे,
لِيَمِيزَ ٱللَّهُ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِ وَيَجۡعَلَ ٱلۡخَبِيثَ بَعۡضَهُۥ عَلَىٰ بَعۡضٖ فَيَرۡكُمَهُۥ جَمِيعٗا فَيَجۡعَلَهُۥ فِي جَهَنَّمَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 73
(37) ताकि अल्लाह गन्दगी को पाकीज़गी से छाँटकर अलग करे और हर तरह की गन्दगी को मिलाकर इकट्ठा करे, फिर उस पुलिन्दे को जहन्नम में झोंक दे। यही लोग असली दीवालिए हैं।30
30. इससे बढ़कर दीवालियापन और क्या हो सकता है कि इनसान जिस राह में अपना सारा वक़्त, सारी मेहनत, सारी क़ाबिलियत और पूरी ज़िन्दगी का सरमाया खपा दे उसकी इन्तिहा पर पहुँचकर उसे मालूम हो कि वह उसे सीधे तबाही की तरफ़ ले आई है और इस राह में जो कुछ उसने खपाया है उसपर कोई सूद या फ़ायदा पाने के बजाय उसे उलटा जुर्माना भुगतना पड़ेगा।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَنتَهُواْ يُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ وَإِن يَعُودُواْ فَقَدۡ مَضَتۡ سُنَّتُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 74
(38) ऐ नबी! इनकार करनेवालों से कहो कि अगर अब भी बाज़ आ जाएँ तो जो कुछ पहले हो चुका है उसे माफ़ कर दिया जाएगा, लेकिन अगर ये उसी पिछले रवैये को दोहराएँगे तो पिछली क़ौमों के साथ जो कुछ हो चुका है वह सबको मालूम है।