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سُورَةُ الشُّعَرَاءِ

26. अश-शुअरा 

(मक्का में उतरी-आयतें 227)

परिचय

नाम

आयत 224 वश-शुअराउ यत्तबिउहुमुल ग़ावून' अर्थात् रहे कवि (शुअरा), तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते है" से उद्धृत है।

उतरने का समय 

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से महसूस होता है और रिवायतें भी इसकी पुष्टि करती हैं कि इस सूरा के उत्तरने का समय मक्का का मध्यकाल है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण की पृष्ठभूमि यह है कि मक्का के विधर्मी नबी (सल्ल०) के प्रचार करने और उपदेश का मुक़ाबला लगातार विरोध और इंकार से कर रहे थे और इसके लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े चले जाते थे। नबी (सल्ल०) उन लोगों को उचित प्रमाणों के साथ उनकी धारणाओं की ग़लती और तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत की सच्चाई समझाने की कोशिश करते-करते थके जाते हैं, मगर वे हठधर्मी के नित नए रूप अपनाते हुए न थकते थे। यही चीज़ प्यारे नबी (सल्ल०) के लिए आत्म-विदारक बनी हुई थी और इस ग़म में आपकी जान घुली जाती थी। इन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी।

वार्ता का आरंभ इस तरह होता है कि तुम इनके पीछे अपनी जान क्यों घुलाते हो? इनके ईमान न लाने का कारण यह नहीं है कि इन्होंने कोई निशानी नहीं देखी है, बल्कि इसका कारण यह है कि ये हठधर्म हैं, समझाने से मानना नहीं चाहते।

इस प्रस्तावना के बाद आयत 191 तक जो विषय लगातार वर्णित हुआ है वह यह है कि सत्य की चाह रखनेवाले लोगों के लिए तो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर निशानियाँ-ही-निशानियाँ फैली हुई हैं जिन्हें देखकर वे सत्य को पहचान सकते हैं। लेकिन हठधर्मी लोग कभी किसी चीज़ को देखकर भी ईमान नहीं लाए हैं, यहाँ तक कि अल्लाह के अज़ाब ने आकर उनको पकड़ में ले लिया है। इसी संदर्भ से इतिहास की सात क़ौमों के हालात पेश किए गए हैं, जिन्होंने उसी हठधर्मी से काम लिया था जिससे मक्का के काफ़िर (इंकारी) काम ले रहे थे और इस ऐतिहासिक वर्णन के सिलसिले में कुछ बातें मन में बिठाई गई हैं।

एक यह कि निशानियाँ दो प्रकार की हैं। एक प्रकार की निशानियाँ वे हैं जो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर फैली हुई हैं, जिन्हें देखकर हर बुद्धिवाला व्यक्ति जाँच कर सकता है कि नबी जिस चीज़ की ओर बुला रहा है, वह सत्य है या नहीं। दूसरे प्रकार की निशानियों वे हैं जो [तबाह कर दी जानेवाली क़ौमों] ने देखी। अब यह निर्णय करना स्वयं इंकारियों का अपना काम है कि वे किस प्रकार की निशानी देखना चाहते हैं।

दूसरे यह कि हर युग में काफ़िरों (इंकारियों) की मानसिकता एक जैसी रही है। उनके तर्क एक ही तरह के थे, उनकी आपत्तियाँ एक जैसी थी और अन्तत: उनका अंजाम भी एक जैसा ही रहा। इसके विपरीत हर समय में नबियों की शिक्षा एक थी। अपने विरोधियों के मुक़ाबले में उनके प्रमाण और तर्क की शैली एक थी और इन सबके साथ अल्लाह की रहमत का मामला भी एक था। ये दोनों नमूने इतिहास में मौजूद है। विधर्मी खुद देख सकते हैं कि उनका अपना चित्र किस नमूने से मिलता है।

तीसरी बात जो बार-बार दोहराई गई है वह यह है कि अल्लाह प्रभावशाली, सामर्थ्यवान और शक्तिशाली भी है और दयावान भी। अब यह बात लोगों को स्वयं ही तय करनी चाहिए कि वे अपने आपको उसकी दया का अधिकारी बनाते हैं या क़हर (प्रकोप) का। आयत 192 से सूरा के अंत तक में इस वार्ता को समेटते हुए कहा गया है कि तुम लोग अगर निशानियाँ ही देखना चाहते हो तो आख़िर वह भयानक निशानियाँ देखने पर आग्रह क्यों करते हो जो तबाह होनेवाली क़ौमों ने देखी हैं। इस क़ुरआन को देखो जो तुम्हारी अपनी भाषा में है, मुहम्मद (सल्ल०) को देखो, उनके साथियों को देखो। क्या यह वाणी किसी शैतान या जिन्न की वाणी हो सकती है? क्या इस वाणी का पेश करनेवाला तुम्हें काहिन नज़र आता है? क्या मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथी तुम्हें वैसे हो नज़र आते हैं जैसे कवि और उनके जैसे लोग हुआ करते हैं? [अगर नहीं, जैसा कि ख़ुद तुम्हारे दिल गवाही दे रहे होंगे] तो फिर यह भी जान लो कि तुम ज़ुल्म कर रहे हो और ज़ालिमों का-सा अंजाम देखकर रहोगे ।

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سُورَةُ الشُّعَرَاءِ
26. अश-शुअरा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फरमानेवाला है।
طسٓمٓ
(1) ता-सीम-मीम।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) ये खुली किताब की आयतें हैं।1
1. यानी ये आयतें, जो इस सूरा में पेश की जा रही हैं, उस किताब की आयतें है जो अपना मंशा और मक़सद साफ़-साफ़ खोलकर बयान करती हैं जिसे पढ़कर या सुनकर हर शख़्स समझ सकता है कि वह किस चीज़ की तरफ़ बुलाती है, किस चीज़ से रोकती है, किसे हक़ (सत्य) कहती है और किसे बातिल (असत्य) ठहराती है। मानना या न मानना अलग बात है, मगर कोई शख़्स यह बहाना कभी नहीं बना सकता कि इस किताब की तालीम उसकी समझ में नहीं आई और वह इससे यह मालूम ही न कर सका कि यह उसको क्या चीज़ छोड़ने और क्या अपनाने की दावत दे रही है। अस्ल अरबी में क़ुरआन को 'अल-किताबुल-मुबीन' कहा गया है इसका एक दूसरा मतलब भी है, और वह यह कि इसका अल्लाह की किताब होना बिलकुल खुली और वाज़ेह (स्पष्ट) बात है। इसके ज़बान, इसका बयान, इसके मज़ामीन (विषय), इसकी पेश की हुई हक़ीक़तें और इसके उतरने के हालात, सब-के-सब साफ़-साफ़ दलील दे रहे हैं कि वह सारे जहानों के ख़ुदा ही की किताब है। इस लिहाज़ से हर जुमला, जो इस किताब में आया है, एक निशानी और एक मोजिज़ा (आयत) है। कोई शख़्स अक़्ल और समझ से काम ले तो उसे मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का यक़ीन करने के लिए किसी और निशानी की ज़रूरत नहीं, खुली किताब की यही आयतें (निशानियाँ) उसे मुत्मइन करने के लिए काफ़ी हैं। यह छोटा-सा शुरुआती जुमला अपने दोनों मानी के लिहाज़ से उस बात के साथ पूरी तरह मेल खाता है जो आगे इस सूरा में बयान हुई है। मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ नबी (सल्ल०) से मोजिज़ा माँगते थे, ताकि उस निशानी को देखकर उन्हें इत्मीनान हो कि वाक़ई आप (सल्ल०) यह पैग़ाम ख़ुदा की तरफ़ से लाए हैं। फ़रमाया गया कि अगर हक़ीक़त में किसी को ईमान लाने के लिए निशानी की तलब है तो खुली किताब की ये आयतें मौजूद हैं। इसी तरह इस्लाम को न माननेवाले नबी (सल्ल०) पर इलज़ाम रखते थे कि आप शाइर या काहिन हैं। फ़रमाया गया कि यह किताब कोई पहेली तो नहीं है। साफ़-साफ़ खोलकर अपनी तालीम पेश कर रही है। ख़ुद ही देख लो कि यह तालीम किसी शाइर या काहिन की हो सकती है?
لَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ أَلَّا يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) ऐ नबी, शायद तुम इस ग़म में अपनी जान खो दोगे कि वे लोग ईमान नहीं लाते।2
2. नबी (सल्ल०) की इस हालत का ज़िक्र क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर किया गया है। मसलन सूरा-18 कह्फ़ में फ़रमाया, “शायद तुम इनके पीछे ग़म के मारे अपनी जान खो देनेवाले हो, अगर ये इस तालीम पर ईमान न लाए।” (आयत-6) और सूरा-35 फ़ातिर में कहा गया, “इन लोगों को हालत पर रंज और अफ़सोस में तुम्हारी जान न घुले।” (आयत-8)। इससे अन्दाज़ा होता है कि उस दौर में अपनी क़ौम की गुमराही, उसकी अख़लाक़ी गिरावट, उसकी हठधर्मी और उसके सुधार की हर कोशिश के मुक़ाबले में उसकी मुख़ालफ़त और दुश्मनी का रंग देख-देखकर नबी (सल्ल०) सालों अपने दिन-रात किस घुटन और दिल तोड़नेवाली हालत में गुज़ारते रहे हैं। अस्ल अरबी में जो अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं यानी 'बाख़िउन-नफ़-स-क' इनका मतलब यह है कि तुम अपने आपको क़त्ल किए दे रहे हो।
إِن نَّشَأۡ نُنَزِّلۡ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ ءَايَةٗ فَظَلَّتۡ أَعۡنَٰقُهُمۡ لَهَا خَٰضِعِينَ ۝ 3
(4) हम चाहें तो आसमान से ऐसी निशानी उतार सकते हैं कि इनकी गर्दनें उसके आगे झुक जाएँ।3
3. यानी कोई ऐसी निशानी उतार देना जो इस्लाम के तमाम मुख़ालिफ़ों को ईमान और फ़रमाँबरदारी का रवैया अपनाने पर मजबूर कर दे, अल्लाह तआता के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो इसकी वजह यह नहीं है कि यह काम उसकी क़ुदरत से बाहर है, बल्कि इसकी वजह यह है कि इस तरह का ज़बरदस्ती थोपा हुआ ईमान उसको नहीं चाहिए। वह चाहता है कि लोग अक़्ल और समझ से काम लेकर उन आयतों की मदद से हक़ को पहचानें जो अल्लाह की किताब में पेश की गई हैं, जो तमाम कायनात में हर तरफ़ फैली हुई हैं, जो ख़ुद उनके अपने वुजूद में पाई जाती हैं। फिर जब उनका दिल गवाही दे कि वाक़ई ह़क वही है जो ख़ुदा के पैग़म्बरों (अलैहि०) ने पेश किया है और उसके ख़िलाफ़ जो अक़ीदे और तरीक़े चल रहे हैं ये बातिल है, तो जान-बूझकर बातिल को छोड़ दें और हक़ को अपना लें। यही अपनी मरज़ी से अपनाया हुआ ईमान और बातिल का छोड़ना और हक़ को पैरवी करना वह चीज़ है जो अल्लाह ताला इनसान से चाहता है। इसी लिए उसने इनसान को इरादे और इख़्तियार की आज़ादी दी है। इसी वजह से उसने इनसान को यह क़ुदरत दी है कि सही और ग़लत, जिस राह पर भी वह जाना चाहे जा सके। इसी वजह से उसने इनसान के अन्दर भलाई और बुराई दोनों के रुझानात रख दिए हैं, फ़ुजूर (नाफ़रमानी) ओर तक़्वा (परहेज़गारी) की दोनों राहें उसके सामने खोल दी हैं, शैतान की बहकाने की आज़ादी दी है, पैग़म्बरी और वह्य और भलाई की तरफ़ बुलाने का सिलसिला सीधा रास्ता दिखाने के लिए क़ायम किया है, और इनसान को रास्ते को चुनने के लिए सारी मुनासिब सलाहियतें देकर इस इम्तिहान के मक़ाम पर खड़ा कर दिया है कि वह ख़ुदा के इनकार और नाफ़रमानी का रास्ता अपनाता है या उसे मानने और उसकी फ़रमाँबरदारी का। इस इम्तिहान का सारा मक़सद ही ख़त्म हो जाए अगर अल्लाह कोई ऐसी तदबीर अपनाए जो इनसान को ईमान और ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी पर मजबूर कर देनेवाली हो। ज़ोर-ज़बरदस्तीवाला ईमान ही चाहिए होता तो निशानियाँ उतारकर मजबूर करने की क्या ज़रूरत थी, अल्लाह तआला इनसान को उसी फ़ितरत और साख़्त (स्वरूप) पर पैदा कर सकता था जिसमें कुफ़्र, नाफ़रमानी और बुराई का कोई इमकान ही न होता, बल्कि फरिश्तों की तरह इनसान भी पैदाइशी फ़रमाँबरदार होता। यही हक़ीक़त है जिसकी तरफ़ कई मौक़ों पर क़ुरआन में इशारा किया गया है। मसलन कहा गया, “अगर तुम्हारा रब चाहता तो ज़मीन के रहनवाले सब-के-सब लोग ईमान ले आते। अब क्या तुम लोगों को ईमान लाने पर मजबूर करोगे?” (सूरा-10 यूनुस, आयत-99) और, “अगर तेरा रब चाहता तो तमाम इनसानों को एक ही उम्मत बना सकता था। वे तो अलग-अलग राहों पर ही चलते रहेंगे (और गुमराहियों से) सिर्फ़ वही बचेंगे जिनपर तेरे रब की रहमत है। इसी लिए तो उसने उनको पैदा किया था।” (सूरा-11 हूद, आयत-119) और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन— सूरा-10 यूनुस, हाशिए—101-102; सूरा-11 हूद, हाशिया-116।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ مُحۡدَثٍ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهُ مُعۡرِضِينَ ۝ 4
(5) इन लोगों के पास रहमान (दयावान ख़ुदा) की तरफ़ से जो नई नसीहत भी आती है ये उससे मुँह मोड़ लेते हैं।
فَقَدۡ كَذَّبُواْ فَسَيَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 5
(6) अब जबकि ये झुठला चुके हैं, जल्द ही इनको इस चीज़ की हक़ीक़त (अलग-अलग तरीक़ों से) मालूम हो जाएगी जिसका ये मज़ाक़ उड़ाते रहे हैं।4
4. यानी जिन लोगों का हाल यह हो कि सही तरीक़े से उनको समझाने और सीधी राह दिखाने की जो कोशिश भी की जाए उसका मुक़ाबला बेरुख़ी और वेतवज्जोही से करें, उनका इलाज यह नहीं है कि उनके दिल में ज़बरदस्ती इमान उतारने के लिए आसमान से निशानियाँ उतारी जाएँ, बल्कि ऐसे लोग इस बात के हक़दार हैं कि जब एक तरफ़ उन्हें समझाने का हक़ पूरा-पूरा अदा कर दिया जाए और दूसरी तरफ़ वे बेरुख़ी से गुज़रकर झुठलाने और साफ़-साफ़ झुठलाने पर, और इससे भी आगे बढ़कर हक़ीक़त का मज़ाक़ उड़ाने पर उतर आएँ, तो उनका बुरा अंजाम उन्हें दिखा दिया जाए। यह बुरा अंजाम इस शक्ल में उन्हें दिखाया जा सकता है कि दुनिया में वह हक़ उनकी आँखों के सामने उनके सारी रुकावटें डालने के बावजूद ग़ालिब (प्रभावी) आ जाए जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे। इसकी यह भी हो सकती है कि उनपर दर्दनाक अज़ाब टूट पड़े और वे तबाह-बरबाद करके रख दिए जाएँ और वह इस शक़्ल में भी उनके सामने आ सकता है कि कुछ साल अपनी ग़लतफ़हमियों में मुब्तला रहकर वे मौत की न टल सकनेवाली मंजिल से गुज़रें और आख़िरकार उनपर साबित हो जाए कि वह सरासर बातिल या जिसकी राह में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की तमाम पूंजी खपा दी और हक़ वही था, जिसे ख़ुदा के पैग़म्बर (अलैहि०) पेश करते थे और जिसे ये उम्र भर ठहाकों में उड़ाते रहे। इस बुरे अंजाम के सामने आने की चूँकि बहुत-सी शक्लें हैं और अलग-अलग लोगों के सामने वह अलग-अलग सूरतों से आ सकता है और आता रहा है, इसलिए आयत में 'नबा’ (ख़बर) की जगह जमा (बहुवचन) लफ़्ज़ 'अंबा' (ख़बरें) कहा गया यानी जिस चीज़ का ये मज़ाक़ उड़ा रहे हैं उसकी हक़ीक़त आख़िरकार बहुत-सी अलग-अलग शक्लों में उन्हें मालूम होगी।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ كَمۡ أَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجٖ كَرِيمٍ ۝ 6
(7) और क्या इन्होंने कभी ज़मीन पर निगाह नहीं डाली कि हमने कितनी ज़्यादा मिक़दार (मात्रा) में हर तरह की उम्दा वनस्पतियाँ उसमें पैदा की हैं?
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) यक़ीनन इसमें एक निशानी है,5 मगर इनमें से ज़्यादा तर माननेवाले नहीं।
5. यानी हक़ की खोज के लिए किसी को निशानी की ज़रूरत हो तो कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। आँखें खोलकर ज़रा इस ज़मीन ही के फलने-फूलने को देख ले, उसे मालूम हो जाएगा कि कायनात का निज़ाम (सृष्टि की व्यवस्था) की जो हक़ीक़त (तौहीद, एकेश्वरवाद) ख़ुदा के पैग़म्बर (अलैहि०) पेश करते हैं वह सही है, या ये नज़रियात सही हैं जो शिर्क करनेवाले या ख़ुदा का इनकार करनेवाले बयान करते हैं। ज़मीन से उगनेवाली बेशुमार तरह-तरह की चीज़ें जिस बहुतायत से उग रही हैं, जिन माद्दों (तत्वों) और क़ुव्वतों की बदौलत उग रही हैं, जिन क़ानूनों के तहत उग रही हैं, फिर उनकी ख़ासियतों और ख़ूबियों में और बेशुमार जानदारों की अनगिनत ज़रूरतों में जो खुला तालमेल पाया जाता है, इन सारी चीज़ों को देखकर एक बेवक़ूफ़ ही इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि यह सब कुछ एक हिकमतवाले (तत्वदर्शी) की हिकमत, किसी अलीम (सर्वज्ञानी) के इल्म, किसी क़ुदरतवाले और ताक़तवाले की क़ुदरत और किसी पैदा करनेवाले की स्कीम के बिना बस यूँ ही आपसे आप हो रहा है। या इन सारी स्कीमों को बनाने और चलानेवाला कोई एक ख़ुदा नहीं है, बल्कि बहुत-से ख़ुदाओं की तदबीर ने ज़मीन, सूरज और चाँद और हवा और पानी के बीच यह तालमेल और इन वसाइल (संसाधनों) से पैदा होनेवाले पेड़-पौधों और बेहद और बेहिसाब अलग-अलग तरह के जानदारों की ज़रूरतों के दरमियान यह तालमेल पैदा कर रखा है। अक़्ल रखनेवाला एक इनसान अगर वह किसी हठधर्मी और पेशगी तास्सुब में पड़ा हुआ नहीं है, इस मंज़र को देखकर बेइख़्तियार पुकार उठेगा कि यक़ीनन यह ख़ुदा होने और एक ख़ुदा के होने की खुली-खुली निशानियों हैं। इन निशानियों के होते हुए और किस मोजिज़े (चमत्कार) की ज़रूरत है जिसे देखे बिना आदमी को तौहीद (ख़ुदा के एक होने) की सच्चाई का यक़ीन न आ सकता हो?
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 8
(9) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।6
6. यानी उसकी क़ुदरत तो ऐसी ज़बरदस्त है कि किसी को सज़ा देना चाहे तो पल भर में मिटाकर रख दे। मगर इसके बावजूद यह सरासर उसका रहम है कि सज़ा देने में जल्दी नहीं करता। सालों और सदियों ढील देता है, सोचने-समझने और संभलने की मुहलत दिए जाता है, और उम्र-भर की नाफ़रमानियों को एक तौबा पर माफ़ कर देने के लिए तैयार रहता है।
وَإِذۡ نَادَىٰ رَبُّكَ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱئۡتِ ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 9
(10) इन्हें उस वक़्त का क़िस्सा सुनाओ जबकि तुम्हारे रब ने मूसा को पुकारा,7 “ज़ालिम क़ौम के पास जा
7. ऊपर की छोटी-सी शुरुआती तक़रीर के बाद अब तारीख़ी (ऐतिहासिक) बयान का आग़ाज़ हो रहा है, जिसकी शुरुआत हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन के क़िस्से से की गई है इसका मक़सद ख़ास तौर पर यह सबक़ देना है— (i) यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को जिन हालात का सामना हुआ था वे उन हालात के मुक़ाबले में कई गुना सख़्त थे जिनसे नबी (सल्ल०) को जूझना पड़ रहा था। हज़रत मूसा (अलैहि०) एक ग़ुलाम क़ौम के आदमी थे जो फ़िरऔन और उसकी क़ौम से बुरी तरह दबी हुई थी। इसके बरख़िलाफ़ नबी (सल्ल०) क़ुरैश ख़ानदान के एक आदमी थे और आप (सल्ल०) का ख़ानदान क़ुरैश के दूसरे ख़ानदानों के साथ बिलकुल बराबर की पोज़ीशन रखता था। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ख़ुद उस फ़िरऔन के घर में परवरिश पाई थी और एक क़त्ल के इलज़ाम में दस साल छिपे रहने के बाद उन्हें हुक्म दिया गया था कि उसी बादशाह के दरबार में जा खड़े हों जिसके यहाँ से वे जान बचाकर भाग गए थे। नबी (सल्ल०) को ऐसी किसी नाज़ुक सूरते-हाल का सामना न था। फिर फ़िरऔन की सल्तनत उस वक़्त दुनिया की सबसे बड़ी ताक़तवर सल्तनत थी। क़ुरैश की ताक़त का उसकी ताक़त से कोई जोड़ न था। इसके बावजूद फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) का कुछ न बिगाड़ सका और आख़िरकार उनसे टकराकर तबाह हो गया। इससे अल्लाह तआला क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को यह सबक़ देना चाहता है कि जिसकी पीठ पर अल्लाह का हाथ हो उसका मुक़ाबला करके कोई जीत नहीं सकता। जब फ़िरऔन मूसा (अलैहि०) को कोई नुक़सान न पहुँचा सका तो तुम बेचारे क्या हस्ती हो कि मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में बाज़ी जीत जाओगे। (ii) जो निशानियाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) के ज़रिए से फ़िरऔन को दिखाई गईं इससे ज़्यादा खुली निशानियों और क्या हो सकती हैं। फिर हज़ारों आदमियों की भीड़ में फ़िरऔन ही के चैलेंज पर खुल्लम-खुल्ला जादूगरों से मुक़ाबला कराके यह साबित भी कर दिया गया कि जो कुछ हज़रत मूसा (अलैहि०) दिखा रहे हैं, वह जादू नहीं है। जादू की कला के जो माहिर फ़िरऔन की अपनी क़ौम से ताल्लुक़ रखते थे और उसके अपने बुलाए हुए थे, उन्होंने ख़ुद यह तसदीक़ (पुष्टि) कर दी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की लाठी का अजगर बन जाना एक हक़ीक़ी तब्दीली है और यह सिर्फ़ अल्लाह के मोजिज़े (चमत्कार) से हो सकता है, जादूगरी के ज़रिए से ऐसा होना किसी तरह मुमकिन नहीं। जादूगरों ने ईमान लाकर और अपनी जान को ख़तरे में डालकर इस बात में किसी शक की गुंजाइश भी बाक़ी नहीं छोड़ी कि हज़रत मूसा की पेश की हुई निशानी सचमुच मोजिज़ा है, जादूगरी नहीं है। लेकिन इसपर भी जो लोग हठधर्मी में मुब्तला थे, उन्होंने नबी की सच्चाई मानकर न दी। अब तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा ईमान लाना हक़ीक़त में कोई महसूस होनेवाला मोजिज़ा और माद्दी निशानी देखने पर टिका है। तास्सुब, जाहिली ग़ैरत और मतलब-परस्ती (स्वार्थपरता) से आदमी पाक हो और खुले दिल से हक़ और बातिल का फ़र्क़ समझकर ग़लत बात को छोड़ने और सही बात क़ुबूल करने के लिए कोई शख़्स तैयार हो तो उसके लिए वही निशानियों काफ़ी हैं जो इस किताब में और इसके लानेवाले की ज़िन्दगी में और ख़ुदा की लम्बी-चौड़ी कायनात में हर आँखोवाला हर वक़्त देख सकता है। वरना एक हठधर्म आदमी जिसे हक़ की तलाश ही न हो और मन की ख़ाहिशों की बन्दगी में मु्ब्तला होकर जिसने फ़ैसला कर लिया हो कि किसी ऐसी सच्चाई को क़ुबूल न करेगा, जिससे उसके फ़ायदों पर चोट पड़ती हो, वह कोई निशानी देखकर भी ईमान न लाएगा, चाहे ज़मीन और आसमान ही उसके सामने क्यों न उलट दिए जाएँ। (iii) इस हठधर्मी का जो अंजाम फ़िरऔन ने देखा वह कोई ऐसा अंजाम तो नहीं है जिसे देखने के लिए दूसरे लोग बेताब हों। अपनी आँखों से ख़ुदाई ताक़त की निशानियाँ देख लेने के बाद जो नहीं मानते, वे फिर ऐसे ही अंजाम से दोचार होते हैं। अब क्या तुम लोग इससे सबक़ हासिल करने के बजाय इसका मज़ा चखना ही पसन्द करते हो? यह क़िस्सा क़ुरआन में कई जगहों पर आया है। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयतें—103-137; सूरा-10 यूनुस, आयतें—75-92; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—101-104; सूरा-20 ता-हा, आयतें—9-79।
قَوۡمَ فِرۡعَوۡنَۚ أَلَا يَتَّقُونَ ۝ 10
(11) फ़िरऔन की क़ौम के पास8— क्या वे नहीं डरते?”9
9. यानी ऐ मूसा, देखो कैसी अजीब बात है कि ये लोग अपने आपको पूरी तरह मालिक समझते हुए दुनिया में ज़ुल्मो-सितम ढाए जा रहे हैं और इस बात से निडर हैं कि ऊपर कोई ख़ुदा भी है जो उनसे पूछ-गछ करनेवाला है।
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُكَذِّبُونِ ۝ 11
(12) उसने अर्ज़ किया, “ऐ मेरे रब, मुझे डर है कि वे मुझे झुठला देंगे।
وَيَضِيقُ صَدۡرِي وَلَا يَنطَلِقُ لِسَانِي فَأَرۡسِلۡ إِلَىٰ هَٰرُونَ ۝ 12
(13) मेरा सीना घुटता है और मेरी ज़बान नहीं चलती। आप हारून की तरफ़ रिसालत (पैग़म्बरी) भेजें।10
10. सूरा-20 ता-हा, आयतें—25-46 और सूरा-28 क़सस, आयतें—28-42 में इसकी जो तफ़सील आई है उसे इन आयतों के साथ मिलाकर देखा जाए तो मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अव्वल तो इतने बड़े मिशन पर अकेले जाते हुए घबराते थे (‘मेरा सीना घुटता है’ के अलफ़ाज़ इसी की निशानदेही करते हैं), दूसरे उनको यह भी एहसास था कि वे रवानी (प्रवाह) के साथ तक़रीर नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने अल्लाह तआला से दरख़ास्त की कि हज़रत हारून को उनके साथ मददगार की हैसियत से नबी बनाकर भेजा जाए, क्योंकि वे बोलने में ज़्यादा माहिर हैं, जब ज़रूरत पेश आएगी तो वे उनकी ताईद और तसदीक़ करके उनकी पीठ मज़बूत करेंगे। मुमकिन है कि शुरू में हज़रत मूसा (अलैहि०) की दरख़ास्त यही रही हो कि उनके बजाय हज़रत हारुन (अलैहि०) को इस मंसब पर मुक़र्रर किया जाए, और बाद में जब उन्होंने महसूस किया हो कि अल्लाह की मरज़ी उन्हीं को मुक़र्रर करने की है तो फिर यह दरख़ास्त की हो कि हारून (अलैहि०) को उनका वज़ीर और मददगार बनाया जाए। यह शक इस वजह से होता है कि यहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) उनको वज़ीर बनाने की दरख़ास्त नहीं कर रहे हैं, बल्कि यह अर्ज़ कर रहे हैं कि “फ़-अरसिल इला हारू-न” (आप हारून की तरफ़ रिसालत भेजें) और सूरा-20 ता-हा में वे यह गुज़ारिश करते हैं कि “मेरे लिए ख़ानदान में से एक वज़ीर मुक़र्रर कर दीजिए, मेरे भाई हारून को।” इसके अलावा सूरा-28 क़सस में वे यह अर्ज़ करते हैं, “मेरे भाई हारून मुझसे ज़्यादा बोलने में माहिर हैं, लिहाज़ा आप उन्हें मददगार के तौर पर मेरे साथ भेजिए ताकि ये मेरी तसदीक़ करें।” इससे ऐसा लगता है कि शायद ये बाद में बयान की गई दोनों दरख़ास्तें बाद की थीं, और पहली बात वही थी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) से इस सूरा में नक़्ल हुई है। बाइबल (निर्गमन, अध्याय-4) का बयान इससे अलग है। वह कहती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन की क़ौम के झुठलाने और अपनी ज़बान के अटक जाने की मजबूरी पेश करके वह मंसब क़ुबूल करने से बिलकुल ही इनकार कर दिया था और कहा था कि ऐ ख़ुदावन्द, मैं तेरी मिन्नत करता हूँ। किसी और के हाथ से जिसे तू चाहे यह पैग़ाम भेज। फिर अल्लाह तआला ने अपनी तरफ़ से ख़ुद हारून को उनके लिए मददगार बनाकर उन्हें इस बात पर राज़ी किया कि दोनों भाई मिलकर फ़िरऔन के पास जाएँ। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-3; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-19)
وَلَهُمۡ عَلَيَّ ذَنۢبٞ فَأَخَافُ أَن يَقۡتُلُونِ ۝ 13
(14) और मुझपर उनके यहाँ एक जुर्म का इलज़ाम भी है, इसलिए मैं डरता हूँ। कि वे मुझे क़त्ल कर देंगे।"11
11. यह इशारा है उस वाक़िए की तरफ़ जो सूरा-28 क़सस, आयत-14 में बयान हुआ है। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन की क़ौम के एक शख़्स को एक इसराईली से लड़ते देखकर एक घूँसा मार दिया था जिससे वह मर गया था। फिर जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को मालूम हुआ कि इस वाक़िए की ख़बर फ़िरऔन की क़ौम के लोगों को हो गई है और वे बदला लेने की तैयारी कर रहे हैं तो वे देश छोड़कर मदयन की तरफ़ चले गए अब आठ-दस साल छिपे रहने के बाद यकायक उन्हें यह हुक्म दिया गया कि तुम ख़ुदा का पैग़ाम लेकर उसी फिरऔन के दरबार में जा खड़े हो जिसके यहाँ तुम्हारे ख़िलाफ़ क़त्ल का मुक़द्दमा पहले से मौजूद है तो हज़रत मूसा को फ़ितरी तौर पर यह ख़तरा हुआ कि पैग़ाम सुनाने की नौबत आने से पहले ही वह मुझे उस क़त्ल के इलज़ाम में फाँस लेगा।
قَالَ كَلَّاۖ فَٱذۡهَبَا بِـَٔايَٰتِنَآۖ إِنَّا مَعَكُم مُّسۡتَمِعُونَ ۝ 14
(15) फ़रमाया, “हरगिज़ नहीं, तुम दोनों जाओ हमारी निशानियाँ12 लेकर, हम तुम्हारे साथ सब कुछ सुनते रहेंगे।
12. निशानियों से मुराद, 'लाठी' और, ‘चमकता हाथ’ के मोजिज़े हैं जिनके दिए जाने की तफ़सील सूरा-7 आराफ़, आयतें—100-126; सूरा-20 ता-हा, आयतें—1-24; सूरा-27 नम्ल, आयतें— 1-14 और सूरा-28 क़सस, आयतें—29-42 में बयान हुई है।
فَأۡتِيَا فِرۡعَوۡنَ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 15
(16) फ़िरऔन के पास जाओ और उससे कहो, हमें रब्बुल-आलमीन (सारे जहानों के रब) ने इसलिए भेजा है
أَنۡ أَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 16
(17) कि तू बनी-इसराईल को हमारे साथ जाने दे।”13
13. हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून (अलैहि०) की दावत के दो हिस्से थे, एक फ़िरऔन को अल्लाह की बन्दगी की तरफ़ बुलाना, जो तमाम नबियों (अलैहि०) की दावत का अस्ल मक़सद रहा है। दूसरा, बनी-दसराईल को फ़िरऔन की ग़ुलामी के बन्धन से निकालना, जो ख़ास तौर पर इन्हीं दोनों लोगों का मिशन था। क़ुरआन मजीद में किसी जगह सिर्फ़ पहले हिस्से का ज़िक्र किया गया है (मसलन सूरा-79 नाज़िआत में) और किसी जगह सिर्फ़ दूसरे हिस्से का।
قَالَ أَلَمۡ نُرَبِّكَ فِينَا وَلِيدٗا وَلَبِثۡتَ فِينَا مِنۡ عُمُرِكَ سِنِينَ ۝ 17
(18) फ़िरऔन ने कहा, “क्या हमने तुझको अपने यहाँ बच्चा सा नहीं पाला था?14 तूने अपनी उम्र के कई साल हमारे यहाँ गुज़ारे,
14. इससे एक इशारा इस ख़याल की ताईद में निकलता है कि यह फ़िरऔन वह फ़िरऔन न था जिसके घर में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने परवरिश पाई थी, बल्कि यह उसका बेटा था। अगर यह वही फ़िरऔन होता तो कहता कि मैंने तुझे पाला था। लेकिन यह कहता है कि हमारे यहाँ तू रहा है और हमने तेरी परवरिश की है। (इस मसले पर तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—85, 93)
وَفَعَلۡتَ فَعۡلَتَكَ ٱلَّتِي فَعَلۡتَ وَأَنتَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 18
(19) और उसके बाद कर गया जो कुछ कि कर गया,15 तू बड़ा एहसान भूल जानेवाला आदमी है।”
15. इशारा है उसी क़त्ल के वाक़िए की तरफ़ जो हज़रत मूसा (अलैहि०) से हो गया था।
قَالَ فَعَلۡتُهَآ إِذٗا وَأَنَا۠ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 19
(20) मूसा ने जवाब दिया उस वक़्त वह काम मैंने अनजाने में कर दिया था।16
16. अस्ल अरबी लफ़्ज़ हैं 'व अना मिनज़-ज़ाल्लीन' यानी “मैं उस वक़्त ज़लालत में था।” या, “मैंने उस वक़्त यह काम ज़लालत की हालत में किया था।” इस लफ़्ज़, ‘ज़लालत’ का मतलब हर हाल में, ‘गुमराही’ ही नहीं होता, बल्कि अरबी ज़बान में इसे जानकारी का न होना, नादानी, ग़लती, भूल, अनजाने में, वग़ैरा मानी में भी इस्तेमाल किया जाता है। जो वाक़िआ सूरा-28 क़सस में बयान हुआ है उसपर ग़ौर करने से यहाँ, 'ज़लालत’ का मतलब, 'ग़लती' या, 'अनजाने में लेना ही ज़्यादा सही है। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उस क़िब्ती को एक इसराईली पर ज़ुल्म करते देखकर सिर्फ़ एक घूसा मारा था। ज़ाहिर है कि घूँसे से आम तौर पर आदमी मरता नहीं है, न क़त्ल की नीयत से घूँसा मारा जाता है। इतिफ़ाक़ की बात है कि इससे वह आदमी मर गया। इसलिए सही सूरते-वाक़िआ यही है कि यह क़तले-अम्द (जान-बूझकर किया गया क़त्ल) नहीं, बल्कि क़त्ले-ख़ता (ग़लती से किया गया क़त्ल) था। क़त्ल हुआ ज़रूर, मगर जान-बूझकर क़त्ल की नीयत से नहीं हुआ, न कोई ऐसा ज़रिआ इस्तेमाल किया गया जो क़त्ल की ग़रज़ से इस्तेमाल किया जाता है या जिससे क़त्ल हो जाने की उम्मीद की जा सकती है।
فَفَرَرۡتُ مِنكُمۡ لَمَّا خِفۡتُكُمۡ فَوَهَبَ لِي رَبِّي حُكۡمٗا وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 20
(21) फिर मैं तुम्हारे डर से भाग गया। उसके बाद मेरे रब ने मुझको हुक्म अता किया17 और मुझे रसूलों (पैग़म्बरों) में, शामिल कर लिया।
17. यानी इल्म (ज्ञान), गहरी सूझबूझ और पैग़म्बरी। हुक्म का मतलब हिकमत और सूझबूझ भी है, और वह अधिकार (Authority) भी जो अल्लाह की तरफ़ से पैग़म्बर को दिया जाता है, जिसकी बुनियाद पर वह इख़्तियार के साथ बोलता है।
وَتِلۡكَ نِعۡمَةٞ تَمُنُّهَا عَلَيَّ أَنۡ عَبَّدتَّ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 21
(22) रहा तेरा एहसान, जो तूने मुझपर जताया है, तो उसकी हक़ीक़त यह है कि तूने बनी-इसराईल को ग़ुलाम बना लिया था।”18
18. यानी तेरे घर में परवरिश पाने के लिए मैं क्यों आता। अगर तूने बनी-इसराईल पर ज़ुल्म न ढाया होता। तेरे ही ज़ुल्म की वजह से तो मेरी माँ ने मुझे टोकरी में डालकर नदी में बहाया था। वरना क्या मेरी परवरिश के लिए मेरा अपना घर मौजूद न था इसलिए उस परवरिश का एहसान जताना तेरे लिए मुनासिब नहीं।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ وَمَا رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 22
(23 ) फ़िरऔन ने कहा,19 “और यह रब्बुल-आलमीन क्या होता है?"20
19. बीच में यह तफ़सील छोड़ दी गई है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अपने आपको रब्बुल-आलमीन (सारे जहानों के रब) के रसूल की हैसियत से पेश करके फ़िरऔन को वह पैग़ाम पहुँचाया जिसके लिए वे भेजे गए थे। यह बात आप-से-आप ज़ाहिर है कि नबी ने ज़रूर वह पैग़ाम पहुँचा दिया होगा, जिसपर वे मुक़र्रर किए गए थे, इसलिए उसका ज़िक्र करने की ज़रूरत न थी। उसे छोड़कर अब वह बातचीत नक़्ल की जाती है जो उस पैग़ाम को पहुँचाने के बाद फ़िरऔन और मूसा के बीच हुई।
20. फ़िरऔरन का यह सवाल हज़रत मूसा (अलैहि०) की इस बात पर था कि मैं रब्बुल-आलमीन (तमाम जहानवालों के मालिक और हाकिम) की तरफ़ से भेजा गया हूँ और इसलिए भेजा गया हूँ कि तू बनी-इसराईत को मेरे साथ जाने दे। यह पैग़ाम पूरी तरह सियासी पैग़ाम था। इसका साफ़ मतलब यह या कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जिस ख़ुदा की नुमाइन्दगी (प्रतिनिधित्व) के दावेदार हैं, वह सारे जहानवालों पर हाकिमियत और इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) रखता है और फ़िरऔन को अपने मातहत बताकर उसकी हुकूमत और इक़तिदार में सबसे बुलन्द एक हाकिम को हैसियत से न सिर्फ़ यह कि दख़ल-अन्दाज़ी कर रहा है, बल्कि उसके नाम यह फ़रमान भेज रहा है कि तू अपनी प्रजा (जनता) के एक हिस्से को मेरे नामज़द किए हुए नुमाइन्दे के हवाले कर दे ताकि वह उसे तेरी सल्तनत से निकालकर ले जाए। इसपर फ़िरऔन पूछता है कि यह सारे जहानवालों का मालिक और बादशाह है कौन जो मिस्र के बादशाह को उसकी प्रजा के एक मामूली शख़्स के हाथों यह हुक्म भेज रहा है।
قَالَ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُم مُّوقِنِينَ ۝ 23
(24) मूसा ने जवाब दिया, “आसमानों और ज़मीन का रब, और उन सब चीज़ों का रब जो आसमान और ज़मीन के बीच हैं, अगर तुम यक़ीन लानेवाले हो।”21
21. यानी मैं ज़मीन पर बसनेवाले किसी जानदार और मिट जानेवाली बादशाही के किसी दावेदार की तरफ़ से नहीं आया है, बल्कि उसकी तरफ़ से आया हूँ जो आसमान और ज़मीन का मालिक है। अगर तुम इस बात का यक़ीन रखते हो कि इस कायनात का कोई पैदा करनेवाला और मालिक और हाकिम है तो तुम्हें यह समझने में कोई मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि सारे जहानवालों का रब कौन है।
قَالَ لِمَنۡ حَوۡلَهُۥٓ أَلَا تَسۡتَمِعُونَ ۝ 24
(25) फ़िरऔन ने अपने आस-पास के लोगों से कहा, “सुनते हो?”
قَالَ رَبُّكُمۡ وَرَبُّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 25
(26) मूसा ने कहा, “तुम्हारा रब भी और तुम्हारे उन बाप-दादाओं का रब भी जो गुज़र चुके हैं।”22
22. हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह ख़िताब फ़िरऔन के दरबारियों से था, जिनसे फ़िरऔन ने कहा या कि “सुनते हो!” हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनसे कहा कि मैं उन झूठे रबों को नहीं मानता जो आज हैं, और कल न थे, और कल थे मगर आज नहीं हैं। तुम्हारा यह फ़िरऔन जो आज तुम्हारा रब बना बैठा है, कल न था और कल तुम्हारे बाप-दादा जिन फ़िरऔनों को रब बनाए बैठे थे, वे आज नहीं है। मैं सिर्फ़ उस रब की बादशाही को मानता हूँ जो आज भी तुम्हारा और इस फ़िरऔन का रब है और इससे पहले जो तुम्हारे और इसके बाप-दादा गुज़र चुके हैं उन सबका रब भी था।
قَالَ إِنَّ رَسُولَكُمُ ٱلَّذِيٓ أُرۡسِلَ إِلَيۡكُمۡ لَمَجۡنُونٞ ۝ 26
(27) फ़िरऔन ने (वहाँ मौजूद लोगों से) कहा, “तुम्हारे ये पैग़म्बर साहब, जो तुम्हारी तरफ़ भेजे गए हैं, बिलकुल ही पागल मालूम होते हैं।”
قَالَ رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 27
(28) मूसा ने कहा, “पूरब और पश्चिम और जो कुछ उनके बीच है सबका रब, अगर आप लोग कुछ अक़्ल रखते हैं।"23
23. यानी मुझे तो पागल ठहराया जा रहा है, लेकिन आप लोग अगर अक़्लवाले हैं तो ख़ुद सोचिए कि हक़ीक़त में रब यह बेचारा फ़िरऔन है जो ज़मीन के एक ज़रा-से हिस्से पर बादशाह बना बैठा है, या वह जो पूरब और पश्चिम का मालिक और मिस्र समेत हर उस चीज़ का मालिक है जो पूरब और पश्चिम से घिरी हुई है। मैं तो बादशाही उसी की मानता हूँ और उसी की तरफ़ से यह हुक्म उसके एक बन्दे को पहुँचा रहा हूँ।
قَالَ لَئِنِ ٱتَّخَذۡتَ إِلَٰهًا غَيۡرِي لَأَجۡعَلَنَّكَ مِنَ ٱلۡمَسۡجُونِينَ ۝ 28
(29) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तूने मेरे सिवा किसी और को माबूद माना तो तुझे भी उन लोगों में शामिल कर दूँगा जो क़ैदखानों में पड़े सड़ रहे हैं।"24
24. इस बातचीत को समझने के लिए यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि आज की तरह पुराने ज़माने में भी, 'माबूद' (पूज्य) का तसव्वुर (धारणा) सिर्फ़ मज़हबी मानी तक महदूद (सीमित) था। यानी यह कि उसे बस पूजा-पाठ और भेंट-चढ़ावों का हक़ पहुँचता है, और अपने फ़ितरत से परे ग़लबे और इक़तिदार (पराभौतिक वर्चस्व और सत्ता) की वजह से उसका यह मंसब भी है कि इनसान अपने मामलों में उससे मदद चाहने के लिए दुआएँ माँगे। लेकिन किसी माबूद की यह हैसियत कि वह क़ानूनी और सियासी मानी में भी सबसे ऊपर है, और उसे यह हक़ भी पहुँचता है कि दुनिया के मामलों में वह जो हुक्म चाहे दे, और इनसानों का यह फ़र्ज़ है कि उसने जिन कामों को करने का हुक्म दिया है उन्हें करने और जिन कामों से रोका है, उन्हें न करने को सबसे बढ़कर क़ानून मानकर उसके आगे झुक जाएँ। यह चीज़ ज़मीन के ग़ैर-हक़ीक़ी (अवास्तविक) बादशाहों ने न पहले कभी मानकर दी थी, न आज वे इसे मानने के लिए तैयार हैं। वे हमेशा से यही कहते चले आए हैं कि दुनिया के मामलों में हम पूरी तरह अपनी मरज़ी के मालिक हैं, किसी माबूद को हमारी सियासत और हमारे क़ानून में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है। दुनियावी हुकूमतों और बादशाहतों से पैग़म्बर (अलैहि०) और उनकी पैरवी करनेवाले सुधारकों के टकराव की अस्ल वजह यही रही है। उन्होंने इनसे सारे जहानों के ख़ुदा की हाकिमियत और बालादस्ती (प्रभुत्व) को मनवाने की कोशिश की है, और ये इसके जवाब में न सिर्फ़ यह कि पूरी तरह ख़ुद के हाकिम होने का दावा पेश करती रही हैं, बल्कि उन्होंने हर उस शख़्स को मुजरिम और बाग़ी ठहराया जो उनके सिवा किसी और को क़ानून और सियासत के मैदान में माबूद माने। इस तशरीह से फ़िरऔन की इस बातचीत का सही मतलब अच्छी तरह समझ में आ सकता है। अगर मामला सिर्फ़ पूजा-पाठ और भेंट-चढ़ावे का होता तो उसको इससे कोई बहस न थी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) दूसरे देवताओं को छोड़कर सारे जहानों के रब, एक अल्लाह को इसका हक़दार समझते हैं। अगर सिर्फ़ इस मानी में एक अल्लाह की इबादत की दावत मूसा (अलैहि०) ने उसको दी होती तो उसे ग़ज़बनाक होने की कोई ज़रूरत ने थी। ज़्यादा-से-ज़्यादा अगर वह कुछ करता तो बस यह कि अपने बाप-दादा का दीन छोड़ने से इनकार कर देता, या हज़रत मूसा (अलैहि०) से कहता कि मेरे धर्म के पण्डितों से मुनाज़रा (शास्त्रार्थ) कर लो। लेकिन जिस चीज़ ने उसे ग़ज़बनाक कर दिया वह यह थी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने रब्बुल-आलमीन के नुमाइन्दे की हैसियत से अपने आपको पेश करके उसे इस तरह एक सियासी हुक्म पहुँचाया कि मानो वह एक मातहत हाकिम है और एक बड़े हाकिम का पैग़म्बर आकर उससे हुक्म मानने की माँग कर रहा है। इस मानी में वह अपने ऊपर किसी की सियासी और क़ानूनी बरतरी (श्रेष्ठता) मानने के लिए तैयार न था, बल्कि वह यह भी गवारा न कर सकता था कि उसकी प्रजा में से कोई शख़्स उसके बजाय किसी और को उससे बढ़कर हाकिम माने। इसी लिए उसने पहले, 'रब्बुल-आलमीन' के अलफ़ाज़ को चुनौती दी, क्योंकि उसकी तरफ़ से लाए हुए पैग़ाम में सिर्फ़ मज़हबी माबूदियत (माबूद होने) का नहीं, बल्कि खुला-खुला सबसे ऊँचे सियासी इक़तिदार का रंग नज़र आता था फिर जब हज़रत मूसा ने बार-बार तशरीह करके बताया कि जिस रब्बुल-आलमीन का पैग़ाम वे लाए हैं वह कौन है, तो उसने साफ़-साफ़ धमकी दे दी कि मिस्र में तुमने मेरे इक़तिदार के सिवा किसी और के इक़तिदार का नाम भी लिया तो जेल की हवा खाओगे।
قَالَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكَ بِشَيۡءٖ مُّبِينٖ ۝ 29
(30) मूसा ने कहा, “अगरचे में ले आऊँ तेरे सामने एक खुली और वाज़ेह चीज़ भी?"25
25. यानी क्या तू उस सूरत में भी मेरी बात मानने से इनकार करेगा और मुझे जेल भेजेगा जबकि मैं इस बात की एक खुली निशानी पेश कर दूँ कि मैं वाक़ई उस ख़ुदा का भेजा हुआ हूँ जो तमाम जहानों का रब, आसमानों और ज़मीन का रब और पूरब और पश्चिम का रब है?
قَالَ فَأۡتِ بِهِۦٓ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 30
(31) फ़िरऔन ने कहा, “अच्छा तो ले आ, अगर तू सच्चा है।”26
26. हज़रत मूसा (अलैहि०) के सवाल पर फ़िरऔन का यह जवाब ख़ुद ज़ाहिर करता है कि उसका हाल पुराने और नए ज़माने के आम मुशरिकों से अलग न था। वह दूसरे तमाम मुशरिकों की तरह फ़ितरत से परे (पराभौतिक) मानी में इस बात को मानता था कि अल्लाह ही अस्ल इलाह है और उन ही की तरह यह भी मानता था कि कायनात में अल्लाह की क़ुदरत सब देवताओं से बढ़कर है। इसी वजह से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उससे कहा कि अगर तुझे इस बात का यक़ीन नहीं है कि में ख़ुदा का भेजा हुआ हूँ तो मैं ऐसी खुली निशानियों पेश करूँ जिनसे साबित हो जाए कि मैं अल्लाह ही का भेजा हुआ हूँ और इसी वजह से फ़िरऔन ने भी जवाब दिया कि अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो तो लाओ कोई निशानी। वरना ज़ाहिर है कि अगर अल्लाह तआला की हस्ती या उसके कायनात का मालिक होने ही में उसे शक होता तो निशानी का सवाल पैदा ही न हो सकता था। निशानी की बात तो उसी सूरत में बीच में आ सकती थी जबकि अल्लाह तआला का वुजूद और उसका क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) होना तो तसलीमशुदा हो, और बहस इस बात में हो कि हज़रत मूसा (अलैहि०) उसके भेजे हुए हैं या नहीं।
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 31
(32) (उसकी ज़बान से यह बात निकलते ही) मूसा ने अपनी लाठी (असा) फेंकी और यकायक वह एक खुला अजगर था।27
27. क़ुरआन मजीद में किसी जगह इसके लिए 'हय्यतुन’ (साँप) और किसी जगह 'जान्नुन’ (जो आम तौर से छोटे साँपों के लिए बोला जाता है) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, और यहाँ उसे ‘सुअबानुन’ (अजगर) कहा जा रहा है। इसकी वजह इमाम राज़ी इस तरह बयान करते हैं कि 'हय्यतुन’ अरबी में साँप की हर जाति के लिए बोला जा सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा और ‘सुअबानुन' का लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया कि डील-डौल के लिहाज़ से वह अजगर की तरह था और 'जान्नुन' का लफ़्ज़ इस वजह से इस्तेमाल किया गया कि उसकी फुरती और तेज़ी छोटे साँप जैसी थी।
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 32
(33) फिर उसने अपना हाथ (बग़ल से) खींचा और वह सब देखनेवालों के सामने चमक रहा था।28
27. क़ुरआन मजीद में किसी जगह इसके लिए 'हय्यतुन’ (साँप) और किसी जगह 'जान्नुन’ (जो आम तौर से छोटे साँपों के लिए बोला जाता है) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, और यहाँ उसे ‘सुअबानुन’ (अजगर) कहा जा रहा है। इसकी वजह इमाम राज़ी इस तरह बयान करते हैं कि 'हय्यतुन’ अरबी में साँप की हर जाति के लिए बोला जा सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा और ‘सुअबानुन' का लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया कि डील-डौल के लिहाज़ से वह अजगर की तरह था और 'जान्नुन' का लफ़्ज़ इस वजह से इस्तेमाल किया गया कि उसकी फुरती और तेज़ी छोटे साँप जैसी थी। 28. क़ुरआन के कुछ आलिमों ने यहूदी रिवायतों से मुतास्सिर होकर 'बैज़ा' का मानी 'सफ़ेद’ किया है और इसका मतलब यह लिया है कि बग़ल से निकालते ही भला-चंगा हाथ बर्स के दाग़ की तरह सफ़ेद हो गया। लेकिन इब्ने-जरीर, इब्ने-कसीर, ज़मख़शरी, राज़ी, अबू-सऊद इमादी, आलूसी और दूसरे बड़े-बड़े क़ुरआन के आलिम इस बात पर एक राय हैं कि यहाँ 'बैज़ा' का मतलब 'रौशन और चमकदार’ है। ज्यों ही हज़रत मूसा (अलैहि०) ने बग़ल से हाथ निकाला, यकायक सारा माहौल जगमगा उठा और यूँ महसूस हुआ जैसे सूरज निकल आया। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-13)
قَالَ لِلۡمَلَإِ حَوۡلَهُۥٓ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 33
(34) फ़िरऔन अपने आस-पास के सरदारों से बोला, “यह आदमी यक़ीनन एक माहिर जादूगर है।
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِۦ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 34
(35) चाहता है कि अपने जादू के ज़ोर से तुमको तुम्हारे देश से निकाल दे।29 अब बताओ तुम क्या हुक्म देते हो?"30
29. दोनों मोजिजों (चमत्कारों) की अज़मत (महानता) का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि या तो एक लम्हा पहले वह अपनी प्रजा के एक शख़्स को भरे दरबार में पैग़म्बरी की बातें और बनी-इसराईल की रिहाई की माँग करते देखकर पागल ठहरा रहा था (क्योंकि उसके नज़दीक एक ग़ुलाम क़ौम के शख़्स का उस जैसे ताक़तवर बादशाह के सामने ऐसी जुरअत करना पागलपन के सिवा और कुछ न हो सकता था) और उसे धमकी दे रहा था कि अगर तूने मेरे सिवा किसी को माबूद माना तो जेल में सड़ा-सड़ाकर मार दूँगा, या अब उन निशानियों को देखते ही उसपर ऐसा डर छाया कि उसे अपनी बादशाही और अपना देश छिनने का ख़तरा महसूस होने लगा और बदहवासी में उसे यह भी एहसास न रहा कि मैं भरे दरबार में अपने नौकरों के सामने कैसी बेतुकी बातें कर रहा हूँ। बनी-इसराईल जैसी दबी हुई क़ौम के दो आदमी वक़्त के सबसे बड़े ताक़तवर बादशाह के सामने खड़े थे। कोई लाव-लश्कर (दल-बल) उनके साथ न था। कोई जान उनकी क़ौम में न थी। किसी बग़ावत का नामो-निशान तक देश के किसी कोने में न था। देश से बाहर किसी दूसरी हुकूमत की ताक़त भी उनकी पीठ पर न थी। इस हालत में सिर्फ़ एक लाठी को अजगर बनते देखकर और एक हाथ को चमकते देखकर यकायक उसका चीख़ उठना कि ये दो बेसरो-सामान आदमी मेरी सल्तनत का तख़्ता उलट देंगे और पूरे हुक्मराँ तबक़े को सत्ता से बेदख़ल कर देंगे, आख़िर क्या मतलब रखता है? फ़िरऔन का यह कहना कि यह आदमी जादू के ज़ोर से ऐसा कर डालेगा, और ज़्यादा बौखलाहट की दलील है। जादू के ज़ोर से दुनिया में कभी कोई सियासी इंक़िलाब नहीं हुआ, कोई देश जीता नहीं गया, कोई जंग नहीं जीती गई, जादूगर तो उसके अपने देश में मौजूद थे और बड़े-बड़े करिश्मे (चमत्कार) दिखा सकते थे। मगर वह ख़ुद जानता था कि तमाशा दिखाकर इनाम लेने से बढ़कर उनकी कोई औक़ात नहीं है। सल्तनत तो बहुत दूर की बात, वे बेचारे तो सल्तनत के किसी पुलिस कांस्टेबल को भी चैलेंज देने की हिम्मत न कर सकते थे।
30. यह जुमला फ़िरऔन की बौखलाहट को और भी ज़ाहिर करता है। कहाँ तो वह इलाह (माबूद) बना हुआ था और ये सब उसके बन्दे थे। कहाँ अब इलाह साहब मारे डर के बन्दों से पूछ रहे हैं कि तुम्हारा क्या हुक्म है। दूसरे अलफ़ाज़ में मानो वह यह कह रहा था कि मेरी अक़्ल तो अब कुछ काम नहीं करती, तुम बताओ कि इस ख़तरे का मुक़ाबला मैं कैसे करूँ।
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَٱبۡعَثۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 35
(36) उन्होंने कहा, “इसे और इसके भाई को रोक लीजिए और शहरों में हरकारे भेज दीजिए
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَحَّارٍ عَلِيمٖ ۝ 36
(37) कि हर माहिर जादूगर को आपके पास ले आएँ।”
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالُواْ لِفِرۡعَوۡنَ أَئِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 37
(41) जब जादूगर मैदान में आए तो उन्होंने फ़िरऔन से कहा, “हमें इनाम तो मिलेगा अगर हम गालिब रहे?"34
34. ये थे मुशरिकों के दीन के वे तरफ़दार जो मूसा (अलैहि०) के हमले से अपने दीन को बचाने के लिए इस फ़ैसलाकुन मुक़ाबले के वक़्त इन पाकीज़ा जज़बात के साथ आए थे कि अगर हमने पाला मार लिया तो सरकार से कुछ इनाम मिल जाएगा।
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 38
(42) उसने कहा, “हाँ, और तुम तो उस वक़्त क़रीबी लोगों में शामिल हो जाओगे"35
35. और वह था वह बड़े-से-बड़ा इनाम जो धर्म और समाज के इन ख़ादिमों को वक़्त के बादशाह के यहाँ से मिल सकता था। यानी रुपया-पैसा ही नहीं मिलेगा, दरबार में कुर्सी भी मिल जाएगी। इस तरह फ़िरऔन और उसके जादूगरों ने पहले ही मरहले पर नबी और जादूगर का बड़ा अख़लाक़ी फ़र्क़ ख़ुद खोलकर रख दिया। एक तरफ़ वह हौसला था कि बनी-इसराईल जैसी पिसी हुई क़ौम का एक शख़्स दस साल तक क़त्ल के इलज़ाम में छिपा रहने के बाद फ़िरऔन के दरबार में बेझिझक आ खड़ा होता है और धड़ल्ले के साथ कहता है कि मैं सारे जहानों के रब अल्लाह का भेजा हुआ हूँ, बनी-इसराईल को मेरे हवाले कर। फ़िरऔन से आमने-सामने बहस करने में वह ज़रा-सी भी झिझक महसूस नहीं करता। उसकी धमकियों को वह बाल बराबर भी अहमियत नहीं देता। दूसरी तरफ़ यह कम-हिम्मती है कि उसी फ़िरऔन के यहाँ बाप-दादा के दीन को बचाने की ख़िदमत पर बुलाए जा रहे हैं, फिर भी हाथ जोड़कर कहते हैं कि सरकार, कुछ इनाम तो मिल जाएगा ना? और जवाब में यह सुनकर फूले नहीं समाते कि पैसा भी मिलेगा और बादशाह के क़रीबियों में होने का मौक़ा भी मिलेगा। ये दो मुक़ाबिल के किरदार आप-से-आप ज़ाहिर कर रहे थे कि नबी किस शान का इनसान होता है और उसके मुक़ाबले में जादूगरों की हस्ती क्या होती है। जब तक कोई आदमी बेहयाई की सारी हदों को न फलाँग जाए, वह नबी को जादूगर कहने की जुरअत नहीं कर सकता।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 39
(43) मूसा ने कहा, “फेंको जो तुम्हें फेंकना है।"
فَأَلۡقَوۡاْ حِبَالَهُمۡ وَعِصِيَّهُمۡ وَقَالُواْ بِعِزَّةِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّا لَنَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 40
(44) उन्होंने फ़ौरन अपनी रस्सियाँ और लाठियाँ फेंक दीं और बोले, “फ़िरऔन के इक़बाल (प्रताप) से हम ही ग़ालिब रहेंगे।”36
36. यहाँ यह ज़िक्र छोड़ दिया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से यह जुमला सुनते ही जब जादूगरों ने अपनी रस्सियाँ और लाठियाँ फेंकीं तो यकायक वे बहुत-से साँपों की शक्ल में हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरफ़ लपकती नज़र आईं। इसकी तफ़सील क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर बयान हो चुकी है। सूरा-7 आराफ़ में है, “जब उन्होंने अपने अंक्षर फेंके तो लोगों की आँखों पर जादू कर दिया, सबको डराकर रख दिया, और बड़ा भारी जादू बना लाए।” सूरा-20 ता-हा, आयतें—66, 67 में उस वक़्त का नक़्शा यह खींचा गया है कि “यकायक उनके जादू से मूसा को यूँ महसूस हुआ कि उनकी रस्सियाँ और लाठियाँ दौड़ी चली आ रही हैं, इससे मूसा अपने दिल में डर से गए।"
فَأَلۡقَىٰ مُوسَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 41
(45) फिर मूसा ने अपनी लाठी फेंकी तो यकायक वह उनके झूठे करिश्मों को हड़प करती चली जा रही थी।
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 42
(46) इसपर सारे जादूगर बे-क़ाबू होकर सजदे में गिर पड़े
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 43
(47) और बोल उठे कि “मान गए हम रब्बुल-आलमीन को
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 44
(48) मूसा और हारून के रब को।"37
37. यह हज़रत मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में उनकी तरफ़ से सिर्फ़ हार क़ुबूल करना नहीं था कि कोई शख़्स यह कहकर पीछा छुड़ा लेता कि एक बड़े जादूगर ने छोटे जादूगरों को नीचा दिखा दिया, बल्कि उनका सजदे में गिरकर सारे जहानों के रब अल्लाह पर ईमान ले आना मानो हज़ारों मिस्रवासियों के सामने इस बात का एलान और इक़रार था कि मूसा (अलैहि०) जो कुछ लाए हैं यह हमारे फ़न (कला) की चीज नहीं है, यह काम तो सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह ही की क़ुदरत से हो सकता है।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَ فَلَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَۚ لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 45
(49) फ़िरऔन ने कहा, “तुम मूसा की बात मान गए इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाज़त देता! ज़रूर यह तुम्हारा बड़ा है, जिसने तुम्हें जादू सिखाया है।38 अच्छा, अभी तुम्हें मालूम हुआ जाता है; मैं तुम्हारे हाथ-पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों (विपरीत दिशाओं) से कटवाऊँगा और तुम सबको सूली चढ़ा दूँगा।”39
38. यहाँ चूँकि बयान के सिलसिले के मुताबिक़ सिर्फ़ यह दिखाना है कि एक ज़िद्दी और हठधर्म आदमी किस तरह एक साफ़-साफ़ मोजिज़े को देखकर, और उसके मोजिज़ा होने पर ख़ुद जादूगरों की गवाही सुनकर भी उसे जादू कहे जाता है, इसलिए फ़िरऔन का सिर्फ़ इतना ही जुमला नक़्ल करने पर बस किया गया है। लेकिन सूरा-7 आराफ़ में तफ़सील के साथ यह बताया गया है कि फ़िरऔन ने बाज़ी हारती देखकर फ़ौरन ही एक सियासी साज़िश को कहानी गढ़ ली। उसने कहा, “यह एक साज़िश है जो तुम लोगों ने मिलकर इस राजधानी में तैयार की है, ताकि इसके मालिकों को इक़तिदार से बेदख़ल कर दो।” (सूरा-7 आराफ़, आयत- 123) इस तरह फ़िरऔन ने आम लोगों को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि जादूगरों का यह ईमान मोजिज़े की वजह से नहीं है, बल्कि महज़ मिलीभगत है। यहाँ आने से पहले इन जादूगरों और मूसा के बीच मामला तय हो गया था कि वे मूसा के मुक़ाबले में आकर हार जाएँगे, और नतीजे में जो सियासी इंक़िलाब आएगा उसके मज़े वह और ये मिलकर लूटेंगे।
39. यह भयानक धमकी फ़िरऔन ने अपने इस नज़रिए को कामयाब करने के लिए दी थी कि जादूगर अस्ल में मूसा (अलैहि०) के साथ साज़िश करके आए हैं उसके सामने यह मक़सद था कि इस तरह ये लोग जान बचाने के लिए साज़िश को क़ुबूल कर लेंगे और वह ड्रामाई असर ख़त्म हो जाएगा जो हारते ही उनके सजदे में गिरकर ईमान ले आने से उन हज़ारों देखनेवालों पर पड़ा था जो ख़ुद उसकी दावत पर यह फ़ैसला चुका देनेवाला मुक़ाबला देखने के लिए इकट्ठे हुए थे और जिन्हें ख़ुद उसके भेजे हुए लोगों ने यह ख़याल दिलाया था कि मिस्रवालों का दीन और ईमान बस इन जादूगरों के सहारे लटक रहा है, ये कामयाब हों तो क़ौम अपने बाप-दादा के दीन (धर्म) पर क़ायम रह सकेगी, वरना मूसा (अलैहि०) के पैग़ाम का सैलाब उसे और उसके साथ फ़िरऔन की सल्तनत को भी बहा ले जाएगा।
قَالُواْ لَا ضَيۡرَۖ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 46
(50) उन्होंने जवाब दिया, “कुछ परवाह नहीं, हम अपने रब के पास पहुँच जाएँगे।
إِنَّا نَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لَنَا رَبُّنَا خَطَٰيَٰنَآ أَن كُنَّآ أَوَّلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 47
(51) और हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमारे गुनाह माफ़ कर देगा, क्योंकि सबसे पहले हम ईमान लाए हैं।”40
40. यानी हमें अपने रब की तरफ़ पलटना तो बहरहाल एक-न-एक दिन ज़रूर है। अब अगर तू क़त्ल कर देगा तो इससे ज़्यादा कुछ न होगा कि वह दिन जो कभी आना था, आज आ जाएगा। इस सूरत में डरने का क्या सवाल? हमें तो इससे अल्लाह से अपनी ग़लतियों की माफ़ी और रहमत की उम्मीद है, क्योंकि आज इस जगह हक़ीक़त खुलते ही हमने मान लेने में एक पल की भी देर न की ओर इस पूरी भीड़ में सबसे पहले आगे बढ़कर हम ईमान ले आए। जादूगरों के इस जवाब ने दो बातें उन तमाम लोगों के सामने खोलकर रख दीं जिन्हें फ़िरऔन ने ढिंढोरे पीट-पीटकर इकट्ठा किया था। एक यह कि फ़िरऔन बेहद झूठा, हठधर्म और मक्कार है। जो मुक़ाबला उसने ख़ुद फ़ैसले के लिए कराया था, उसमें मूसा (अलैहि०) की खुली-खुली जीत को सीधी तरह मान लेने के बजाय अब उसने फ़ौरन एक झूठी साज़िश की कहानी गढ़ ली और क़त्ल और सज़ा की धमकी देकर ज़बरदस्ती उसका इक़रार कराने की कोशिश की। इस कहानी में ज़र्रा बराबर भी कोई सच्चाई होती तो मुमकिन न था कि जादूगर हाथ-पाँव कटवाने और सूली पर चढ़ जाने के लिए यूँ तैयार हो जाते। ऐसी किसी साज़िश से अगर कोई सल्तनत मिल जाने का लालच था तो अब उसके लिए कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रही, क्योंकि सल्तनत के मज़े तो जो लूटेगा सो लूटेगा, इन बेचारों के हिस्से तो सिर्फ़ कट-कटकर जान देना ही रह गया है। इस भयानक ख़तरे का सामना करके भी उन जादूगरों का अपने ईमान पर क़ायम रहना इस बात की खुली दलील है कि साज़िश का इलज़ाम सरासर झूठा है और सच्ची बात यही है कि जादूगर अपने फ़न (कला) में माहिर होने की वजह से ठीक-ठीक जान गए हैं कि जो कुछ मूसा (अलैहि०) ने दिखाया है वह हरगिज़ जादू नहीं है, बल्कि सचमुच सारे जहानों के रब, अल्लाह ही की क़ुदरत का करिश्मा है। दूसरी बात जो उस वक़्त देश के कोने-कोने से सिमटकर आए हुए हज़ारों आदमियों के सामने खुलकर आ गई वह यह थी कि अल्लाह रब्बुल-आलमीन पर ईमान लाते ही जादूगरों में कैसा ज़बरदस्त अख़लाक़ी इंक़िलाब पैदा हो गया। कहाँ तो उनके ज़ेहन और फ़िक्र की पस्ती का यह हाल था कि बाप-दादा के दीन की मदद के लिए आए थे और फ़िरऔन के आगे हाथ जोड़-जोड़कर इनाम माँग रहे थे और कहाँ अब देखते-हो-देखते उनकी हिम्मत और इरादे की बुलन्दी इस दरजे को पहुँच गई कि वही फ़िरऔन उनकी निगाह में कुछ न रहा, उसकी बादशाही की सारी ताक़त को उन्होंने ठोकर मार दी और अपने ईमान की ख़ातिर वे मौत और बुरी-से-बुरी जिस्मानी सज़ाओं की तकलीफ़ें तक बरदाश्त करने के लिए तैयार हो गए। इससे बढ़कर मिस्रियों के शिर्कवाले मज़हब की बेइजज़्ज़ती और मूसा (अलैहि०) के लाए हुए सच्चे दीन की असरदार तबलीग़ इस नाज़ुक नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) मौक़े पर शायद ही कोई और हो सकती थी।
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِيٓ إِنَّكُم مُّتَّبَعُونَ ۝ 48
(52) हमने41 मूसा को वह्य भेजी कि रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर निकल जाओ, तुम्हारा पीछा किया जाएगा।"42
41. ऊपर के वाक़िआत के बाद हिजरत का ज़िक्र शुरू हो जाने से किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि इसके बाद बस फ़ौरन ही ख़ुदा की तरफ़ से हज़रत मूसा (अलैहि०) को बनी-इसराईल को लेकर मिस्र से निकल जाने का हुक्म दे दिया गया। अस्ल में यहाँ कई साल का इतिहास बीच में छोड़ दिया गया है जिसे सूरा-7 आराफ़, आयतें—127-141 और सूरा-10 यूनुस, आयतें—83-92 में बयान किया जा चुका है, और जिसका एक हिस्सा आगे सूरा-40 मोमिन, आयतें—10-50 और सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयतें—46-56 में आ रहा है। यहाँ चूँकि बात के सिलसिले को देखते हुए मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि जिस फ़िरऔन ने साफ़-साफ़ निशानियाँ देख लेने के बावजूद यह हठधर्मी दिखाई थी, उसका अंजाम आख़िरकार क्या हुआ, और जिस दावत के पीछे अल्लाह तआला की ताक़त थी वह किस तरह कामयाब हुई, इसलिए फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) की कशमकश के इब्तिदाई मरहले का ज़िक्र करने के बाद अब बात को मुख़्तसर (संक्षिप्त) करके उसका आख़िरी मंज़र दिखाया जा रहा है।
42. ध्यान रहे कि बनी-इसराईल की आबादी मिस्र में किसी एक जगह इकट्ठी न थी, बल्कि देश के तमाम शहरों और बस्तियों में बंटी हुई थी और ख़ास तौर से मंफ़ (Mamphis) से रअमसीस तक उस इलाक़े में उनकी बड़ी तादाद आबाद थी जिसे 'जुशन' कहा जाता था। लिहाज़ा हज़रत मूसा (अलैहि०) को जब हुक्म दिया गया होगा कि अब तुम्हें बनी-इसराईल को लेकर मिस्र से निकल जाना है तो उन्होंने बनी-इसराईल की तमाम बस्तियों में हिदायतें भेज दी होंगी कि सब लोग अपनी-अपनी जगह हिजरत के लिए तैयार हो जाएँ, और एक ख़ास रात मुक़र्रर कर दी होगी कि उस रात हर बस्ती के मुहाजिर निकल खड़े हों। यह कहना कि “तुम्हारा पीछा किया जाएगा” इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि हिजरत के लिए रात को निकलने की हिदायत क्यों की गई थी। यानी इससे पहले कि फ़िरऔन लश्कर लेकर तुम्हारा पीछा करने के लिए निकले। तुम रातों-रात अपना रास्ता इस हद तक तय कर लो कि उससे बहुत आगे निकल चुके हो।
فَأَرۡسَلَ فِرۡعَوۡنُ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 49
(53) इसपर फ़िरऔन ने (फ़ौजें इकट्ठा करने के लिए) शहरों में हरकारे भेज दिए
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ لَشِرۡذِمَةٞ قَلِيلُونَ ۝ 50
(54) (और कहला भेजा) कि “ये कुछ मुट्ठी-भर लोग हैं,
وَإِنَّهُمۡ لَنَا لَغَآئِظُونَ ۝ 51
(55) और इन्होंने हमको बहुत नाराज़ किया है,
وَإِنَّا لَجَمِيعٌ حَٰذِرُونَ ۝ 52
(56) और हम एक ऐसी जमाअत हैं जिसकी आदत हर वक़्त चौकन्ना रहना है।”43
43. ये बातें फ़िरऔन के उस छिपे हुए डर को ज़ाहिर करती हैं, जिसपर वह निडरता का दिखावटी परदा डाल रहा था। एक तरफ़ वह जगह-जगह से फ़ौजें भी फ़ौरी मदद के लिए बुला रहा था जो इस बात की खुली निशानी थी कि उसे बनी-इसराईल से ख़तरा महसूस हो रहा है। दूसरी तरफ़ वह इस बात को छिपाना भी चाहता था कि लम्बी मुद्दत से दबी और पिसी हुई ऐसी क़ौम, जो बेहद रुसवाई की ग़ुलामी में ज़िन्दगी गुज़ार रही थी, उससे फ़िरऔन जैसा ज़ालिम बादशाह कोई ख़तरा महसूस कर रहा है। यहाँ तक कि उसे फ़ौरन मदद के लिए फ़ौजें मँगाने की ज़रूरत पेश आ गई है। इसलिए यह अपना पैग़ाम इस अन्दाज़ में भेजता है कि ये बनी-इसराईल बेचारे चीज़ ही क्या हैं, कुछ मुट्ठी भर लोग हैं जो हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकते, लेकिन उन्होंने ऐसी हरकतें की हैं कि हमें उनपर ग़ुस्सा आ गया है, इसलिए हम उन्हें सज़ा देना चाहते हैं, और फ़ौजें हम किसी डर की वजह से इकट्ठी नहीं कर रहे हैं, बल्कि यह सिर्फ़ एहतियाती कार्रवाई है, हमारी समझदारी का तक़ाज़ा यही है कि कोई दूर-से-दूर का भी इमकानी ख़तरा हो तो हम वक़्त पर उसको कुचल डालने के लिए तैयार रहें।
فَأَخۡرَجۡنَٰهُم مِّن جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 53
(57) इस तरह हम उन्हें उनके बाग़ों और चश्मों (जल-स्रोतों) और ख़ज़ानों
44. यानी फ़िरऔन ने तो यह काम अपने नज़दीक बड़ी अक़्लमन्दी का किया था कि दूर-दूर से फ़ौजें बुलाकर बनी-इसराईल को दुनिया से मिटा देने का सामान किया, लेकिन ख़ुदाई तदबीर ने उसकी चाल उसपर यूँ उलट दी कि फ़िरऔन की हुकूमत के बड़े-बड़े लोग अपनी-अपनी जगह छोड़कर उस जगह जा पहुँचे जहाँ उन्हें और उनके सारे लाव-लश्कर को एक साथ डूबना था। अगर वे बनी-इसराईल का पीछा न करते तो नतीजा सिर्फ़ इतना ही होता कि एक क़ौम देश छोड़कर निकल जाती। इससे बढ़कर उनका कोई नुक़सान न होता और वे पहले की तरह अपनी ऐशगाहों में बैठे ज़िन्दगी के मज़े लूटते रहते। लेकिन उन्होंने इन्तिहाई दरजे की होशियारी दिखाने के लिए यह फ़ैसला किया कि बनी-इसराईल को सही-सलामत न जाने दें, बल्कि उनके हिजरत करनेवाले क़ाफ़िलों पर अचानक हमला करके हमेशा के लिए उनको ख़त्म कर दें। इस ग़रज़ के लिए उनके शहज़ादे और बड़े-बड़े सरदार और दरबारी ख़ुद बादशाह समेत अपने महलों से निकल आए, और इसी नादानी ने यह दोहरा नतीजा दिखाया कि बनी-इसराईल मिस्र से निकल भी गए और मिस्र की ज़ालिम फ़िरऔनी सल्तनत का मक्खन दरिया की भेंट भी चढ़ गया।
وَكُنُوزٖ وَمَقَامٖ كَرِيمٖ ۝ 54
(58) और उनकी बेहतरीन ठहरने की जगहों से निकाल लाए।44
كَذَٰلِكَۖ وَأَوۡرَثۡنَٰهَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 55
(59) यह तो हुआ उनके साथ और (दूसरी तरफ़) बनी-इसराईल को हमने इन सब चीज़ों का वारिस कर दिया।45
45. क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इस आयत का यह मतलब लिया है कि जिन बाग़ों, चश्मों (जल-स्रोतों), ख़ज़ानों और बेहतरीन ठिकानों से ये ज़ालिम लोग निकले थे उन्हीं का वारिस अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल को कर दिया। यह मतलब अगर लिया जाए तो इसका मतलब लाज़िमन यह होना चाहिए कि फ़िरऔन के डूब जाने पर बनी-इसराईल फिर वापस मिस्र पहुँच गए हों और फ़िरऔनवालों की दौलत और हुकूमत उनके क़ब्ज़े में आ गई हो। लेकिन यह चीज़ इतिहास से भी साबित नहीं है और ख़ुद क़ुरआन मजीद के दूसरे बयानों से भी इस आयत का यह मतलब मेल नहीं खाता। सूरा-2 बक़रा; सूरा-5 माइदा; सूरा-7 आराफ़ और सूरा-20 ता-हा में जो हालात बयान किए गए हैं, उनसे साफ़ मालूम होता है कि फ़िरऔन के डूब जाने के बाद बनी-इसराईल मिस्र की तरफ़ पलटने के बजाय अपनी मंज़िल (फ़िलस्तीन) ही की तरफ़ चल पड़े और फिर हज़रत दाऊद (अलैहि०) के ज़माने (1013-973 ई०पू०) तक उनके इतिहास में जो वाक़िआत भी पेश आए, वे सब उस इलाक़े में पेश आए जो आज जज़ीरा-नुमाए (प्रायद्वीप) सीना, उत्तरी अरब, पूर्वी जॉर्डन और फ़िलस्तीन (Palestine) के नामों से जाना जाता है। इसलिए हमारे नज़दीक आयत का सही मतलब यह नहीं है कि अल्लाह तआला ने वही बाग़ और चश्मे (जल-स्रोत) और ख़ज़ाने और महल बनी-इसराईल को दे दिए जिनसे फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदार और अमीर लोग निकाले गए थे, बल्कि इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने एक तरफ़ फ़िरऔनवालों को इन नेमतों से महरूम किया और दूसरी तरफ़ बनी-इसराईल को यही नेमतें दे दी। यानी वे फ़िलस्तीन की सरज़मीन में बाग़ों, चश्मों, ख़ज़ानों और बेहतरीन ठिकानों के मालिक हुए। इसी मतलब की ताईद सूरा-7 आराफ़ की ये आयतें—136, 137 करती हैं, “तब हमने उनसे इन्तिक़ाम लिया और उन्हें समन्दर में डुबो दिया, क्योंकि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था और उनसे बेपरवाह हो गए थे और उनके बजाय हमने उन लोगों को जो कमज़ोर बनाकर रखे गए थे, उस देश के पूरब और पश्चिम का वारिस बना दिया जिसे हमने बरकतों से मालामाल किया था।” यह 'बरकतों’ से मालामाल सरज़मीन की मिसाल क़ुरआन मजीद में आम तौर से फ़िलस्तीन ही के लिए इस्तेमाल हुई है और किसी इलाक़े का नाम लिए बिना जब उसकी यह ख़ूबी बयान की जाती है तो इससे यही इलाक़ा मुराद होता है। मसलन सूरा-17 बनी-इसराईल आयत-1 में फ़रमाया, “मस्जिदे-अक़सा की तरफ़ जिसके आसपास को हमने बरकत दी।” और सूरा-21 अम्बिया, आयत-71 में कहा गया, “और हम उसे और लूत को बचाकर उस सर-ज़मीन की तरफ़ निकाल ले गए जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी हैं।” और “और सुलैमान के लिए हमने तेज़ हवा को बस में कर दिया था जो उसके हुक्म से उस सर-ज़मीन की तरफ़ चलती थी जिसमें हमने बरकतें रखी हैं।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-81) इसी तरह सूरा-34 सबा, आयत-18 में भी“वह बस्ती जिसमें हमने बरकतें रखी हैं” के अलफ़ाज़ शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन ही की बस्तियों के बारे में इस्तेमाल हुए हैं।
فَأَتۡبَعُوهُم مُّشۡرِقِينَ ۝ 56
(60) सुबह होते ही ये लोग उनका पीछा करने को चल पड़े।
فَلَمَّا تَرَٰٓءَا ٱلۡجَمۡعَانِ قَالَ أَصۡحَٰبُ مُوسَىٰٓ إِنَّا لَمُدۡرَكُونَ ۝ 57
(61) जब दोनों गरोहों का आमना-सामना हुआ तो मूसा के साथी चीख़ उठे कि “हम तो पकड़े गए।”
قَالَ كَلَّآۖ إِنَّ مَعِيَ رَبِّي سَيَهۡدِينِ ۝ 58
(62) मूसा ने कहा, “हरगिज़ नहीं! मेरे साथ मेरा रब है। वह ज़रूर मेरी रहनुमाई करेगा।”46
46. यानी मुझे इस आफ़त से बचने की राह बताएगा।
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡبَحۡرَۖ فَٱنفَلَقَ فَكَانَ كُلُّ فِرۡقٖ كَٱلطَّوۡدِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 59
(63) हमने मूसा को वह्य के ज़रिए से हुक्म दिया कि “मार अपनी लाठी समन्दर पर।” यकायक समन्दर फट गया और उसका हर टुकड़ा एक अज़ीमुश्शान पहाड़ की तरह हो गया।47
47. अस्ल अरबी अलफ़ाज़़ हैं, “कत्तौदिल-अज़ीम"। 'तौद' अरबी ज़बान में कहते ही बड़े पहाड़ को हैं। अरबी लुग़त (शब्दकोश) लिसानुल-अरब में है, 'अत्तौद-अल-जबलुल-अज़ीम' (यानी तौद का मतलब बड़ा पहाड़ है) इसके लिए फिर 'अज़ीम’ (बड़ा) की सिफ़त लाने का मतलब यह हुआ कि पानी दोनों तरफ़ बहुत ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की तरह खड़ा हो गया था। फिर जब हम इस बात पर ग़ौर करते हैं कि समन्दर हज़रत मूसा (अलैहि०) के असा (लाठी) मारने से फटा था, और यह काम एक तरफ़ बनी-इसराईल के पूरे काफ़िले को गुज़ारने के लिए किया गया था और दूसरी तरफ़ इसका मक़सद फ़िरऔन के लश्कर को डुबोना था, तो इससे साफ़ मालूम होता है कि असा (लाठी) की चोट लगने पर पानी बहुत ऊँचे पहाड़ों की शक्ल में खड़ा हो गया और इतनी देर तक खड़ा रहा कि हज़ारों-लाखों बनी-इसराईल का मुहाजिर क़ाफ़िला उसमें से गुज़र भी गया और फिर फ़िरऔन का पूरा लश्कर उसके बीच पहुँच भी गया। ज़ाहिर है कि फ़ितरत के आम क़ानून के तहत जो तूफ़ानी हवाएँ चलती हैं वे चाहे कैसी ही तेज़ क्यों न हों, उनके असर से कभी समन्दर का पानी इस तरह आलीशान पहाड़ों की तरह इतनी देर तक खड़ा नहीं रहा करता। इसपर सूरा-20 ता-हा का यह बयान भी है कि “उनके लिए समन्दर में सूखा रास्ता बना दे।” (आयत-77) इसका मतलब यह है कि समन्दर पर लाठी मारने से सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ कि समन्दर का पानी हटकर दोनों तरफ़ पहाड़ों की तरह खड़ा हो गया, बल्कि बीच में जो रास्ता निकला वह सूख भी गया, यानी कोई कीचड़ ऐसी न रही जो चलने में रुकावट बनती इसके साथ सूरा-44 दुख़ान, आयत-24 के ये अलफ़ाज़ भी ध्यान देने के लायक़ हैं कि अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को हिदायत की कि समन्दर पार कर लेने के बाद, “उसको उसी हाल में रहने दे, फ़िरऔन का लश्कर यहाँ डूबनेवाला है।” इससे मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अगर दूसरे तट पर पहुँचकर समन्दर पर लाठी मार देते तो दोनों तरफ़ खड़ा हुआ पानी फिर मिल जाता। इसलिए अल्लाह तआला ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया, ताकि फ़िरऔन का लश्कर इस रास्ते में उतर आए और फिर पानी दोनों तरफ़ से आकर उसे डुबो दे। यह साफ़-साफ़ एक मोजिज़े (चमत्कार) का बयान है और इससे उन लोगों के ख़याल की ग़लती बिलकुल वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाती है जो इस वाक़िए का मतलब आम फ़ितरी क़ानूनों के मुताबिक़ बयान करने की कोशिश करते हैं। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-53)
وَأَزۡلَفۡنَا ثَمَّ ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 60
(64) उसी जगह हम दूसरे गरोह को भी क़रीब ले आए।48
48. यानी फ़िरऔन और उसके लश्कर को।
وَأَنجَيۡنَا مُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 61
(65) मूसा और उन सब लोगों को जो उसके साथ थे हमने बचा लिया,
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 62
(66) और दूसरों को डुबो दिया
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 63
(67) इस वाक़िए में एक निशानी है,49 मगर इन लोगों में से ज़्यादातर माननेवाले नहीं हैं।
49. यानी क़ुरैश के लिए इसमें यह सबक़ है कि हठधर्म लोग खुले-खुले मोजिजज़े देखकर भी किस तरह ईमान लाने से इनकार ही किए जाते हैं और फिर इस हठधर्मी का अंजाम कैसा दर्दनाक होता है। फ़िरऔन और उसकी क़ौम के तमाम सरदारों और हज़ारों लश्करियों की आँखों पर ऐसी पट्टी बँधी हुई थी कि सालों तक जो निशानियाँ उनको दिखाई जाती 49. यानी क़ुरैश के लिए इसमें यह सबक़ है कि हठधर्म लोग खुले-खुले मोजिजज़े देखकर भी किस तरह ईमान लाने से इनकार ही किए जाते हैं और फिर इस हठधर्मी का अंजाम कैसा दर्दनाक होता है। फ़िरऔन और उसकी क़ौम के तमाम सरदारों और हज़ारों लश्करियों की आँखों पर ऐसी पट्टी बँधी हुई थी कि सालों तक जो निशानियाँ उनको दिखाई जाती रहीं उनको तो वे अनदेखा करते ही रहे थे, आख़िर में ठीक डूबने के वक़्त भी उनको यह न सूझा कि समन्दर इस क़ाफ़िले के लिए फट गया है, पानी पहाड़ों की तरह दोनों तरफ़ खड़ा है और बीच में सूखी सड़क-सी बनी हुई है। ये खुली निशानियाँ देखकर भी उनको अक़्ल न आई कि मूसा (अलैहि०) के साथ ख़ुदाई ताक़त काम कर रही है और वे उस ताक़त से लड़ने जा रहे हैं। होश उनको आया भी तो उस वक़्त जब पानी ने दोनों तरफ़ से उनको दबोच लिया था और वह ख़ुदा के ग़ज़ब (प्रकोप) में घिर चुके थे। उस वक़्त फ़िरऔन चीख उठा,“मैं ईमान ले आया कि उस (अल्लाह) के सिवा कोई माबूद नहीं, जिसपर बनी-इसराईल ईमान लाए और अब मैं फ़रमाँबरदारों में से हूँ।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-90) दूसरी तरफ़ इमानवालों के लिए भी इसमें यह निशानी है कि ज़ुल्म और उसकी ताक़तें चाहे बज़ाहिर कैसी ही छाई हुई नज़र आती हों, आख़िरकार अल्लाह तआला की मदद से सच का यूँ बोलबाला होता है और बातिल (झूठ) इस तरह नाकाम होकर रहता है।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 64
(68) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहमवाला भी।
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 65
(69) और इन्हें इबराहीम का क़िस्सा सुनाओ50
50. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पाक ज़िन्दगी के उस दौर का क़िस्सा बयान हुआ है जबकि पैग़म्बरी मिलने के बाद शिर्क और तौहीद (अनेकेश्वरवाद और एकेश्वरवाद) के मसले पर उनको अपने ख़ानदान और क़ौम से कशमकश शुरू हुई थी। उस दौर के इतिहास के अलग-अलग हिस्से क़ुरआन मजीद में इन जगहों पर बयान हुए हैं सूरा-2 बक़रा, आयतें—252-260; सूरा-6 अनआम, आयतें—75-83; सूरा-19 मरयम, आयतें—41-50; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—51-70; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—85-113; सूरा-60 मुम्तहिना, आयतें—4-6। इबराहीम (अलैहि०) की ज़िन्दगी के इस दौर का इतिहास ख़ास तौर पर जिस वजह से क़ुरआन मजीद बार-बार सामने लाता है वह यह है कि अरब के लोग आम तौर से और क़ुरैश के लोग ख़ास तौर से अपने आपको हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का पैरोकार समझते और कहते थे और यह दावा करते थे कि इबराहीमी तरीक़ा ही उनका मज़हब है। अरब के मुशरिक लोगों के अलावा ईसाई और यहूदियों का भी यह दावा था कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उनके दीन के पेशवा हैं। इसपर क़ुरआन मजीद जगह-जगह उन लोगों को ख़बरदार करता है कि इबराहीम (अलैहि०) जो दीन लेकर आए थे, वह यही ख़ालिस इस्लाम था, जिसे अरबी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं और जिससे आज तुम लोग कशमकश कर रहे हो। वे मुशरिक न थे, बल्कि उनकी सारी लड़ाई शिर्क ही के ख़िलाफ़ थी और इस लड़ाई की बदौलत उन्हें अपने बाप, ख़ानदान, क़ौम, वतन सबको छोड़कर शाम (सीरिया), फ़िलस्तीन और हिजाज़ में परदेसी की ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी थी। इसी तरह वे यहूदी और ईसाई भी न थे, बल्कि यहूदियत और ईसाइयत तो उनके सदियों बाद वुजूद में आई। इस ऐतिहासिक दलील का कोई जवाब न मुशरिकों के पास था, न यहूदियों और ईसाइयों के पास, क्योंकि मुशरिक यह भी मानते थे कि अरब में बुतों की पूजा हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के कई सदी बाद शुरू हुई थी और यहूदी और ईसाई भी इससे इनकार न कर सकते थे कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का ज़माना यहूदियत और ईसाइयत की पैदाइश से बहुत पहले था। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता था कि जिन ख़ास अक़ीदों और आमाल पर ये लोग अपने दीन का दारोमदार रखते हैं वह उस पुराने दीन के टुकड़े नहीं हैं, जो शुरू से चला आ रहा था और सही दीन वही है जो इन मिलावटों से पाक हो और उसकी बुनियाद ख़ालिस (विशुद्ध) ख़ुदापरस्ती पर हो इसी बुनियाद पर क़ुरआन कहता है— "इबराहीम न यहूदी था, न ईसाई बल्कि वह तो एक यकसू मुस्लिम (ख़ुदा का फ़माँबरदार) था और वह मुशरिकों में से भी न था। हक़ीक़त में इबराहीम से ताल्लुक़ रखने का सबसे ज़्यादा हक़ उन्हीं को पहुँचता है जिन्होंने उसके तरीक़े की पैरवी की, (और अब यह हक़) इस नबी और इसके साथ ईमान लानेवालों को (पहुँचता है)।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—67-68)
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا تَعۡبُدُونَ ۝ 66
(70) जबकि उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से पूछा था कि “ये क्या चीज़ें हैं जिनको तुम पूजते हो?"51
51. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के इस सवाल का मंशा यह मालूम करना न था कि वे किन चीज़ों की इबादत करते हैं; क्योंकि उन बुतों को तो वे ख़ुद भी देख रहे थे जिनकी पूजा वहाँ होती थी। उनका मंशा अस्ल में उन लोगों को इस तरफ़ ध्यान दिलाना था कि इन माबूदों की हक़ीक़त क्या है जिनके आगे वे सर झुकाते हैं। इसी सवाल को सूरा-21 अम्बिया, आयत-52 में इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया गया है— "ये कैसे बुत हैं जिनपर तुम लोग फ़िदा हो रहे हो?"
قَالُواْ نَعۡبُدُ أَصۡنَامٗا فَنَظَلُّ لَهَا عَٰكِفِينَ ۝ 67
(71) उन्होंने जवाब दिया, “कुछ बुत हैं जिनकी हम पूजा करते हैं और उन्हीं की सेवा में हम लगे रहते हैं।”52
52. यह जवाब भी सिर्फ़ यह ख़बर देने के लिए न था कि हम बुतों की पूजा करते हैं; क्योंकि पूछनेवाला और जिससे पूछा गया दोनों के सामने यह हक़ीक़त ज़ाहिर थी। इस जवाब की अस्ल रूह अपने अक़ीदे पर उनका जमे रहना और इत्मीनान था। मानो अस्ल में वे यह कह रहे थे कि हाँ, हम भी जानते हैं कि ये लकड़ी और पत्थर के बुत हैं जिनकी हम पूजा कर रहे हैं, मगर हमारा दीन और ईमान यही है कि हम इनकी पूजा और सेवा में लगे रहें।
قَالَ هَلۡ يَسۡمَعُونَكُمۡ إِذۡ تَدۡعُونَ ۝ 68
(72) उसने पूछा, “क्या ये तुम्हारी सुनते हैं जब तुम इन्हें पुकारते हो?
أَوۡ يَنفَعُونَكُمۡ أَوۡ يَضُرُّونَ ۝ 69
(73) या ये तुम्हें कुछ फ़ायदा या नुक़सान पहुँचाते हैं?"
قَالُواْ بَلۡ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا كَذَٰلِكَ يَفۡعَلُونَ ۝ 70
(74) उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि हमने बाप-दादा को ऐसा ही करते पाया है।"53
53. यानी हमारी इस इबादत की वजह यह नहीं है कि ये हमारी अर्ज़ियाँ, दुआएँ और फ़रियादें सुनते हैं या हमें फ़ायदा और नुक़सान पहुँचाते हैं, इसलिए हमने इनको पूजना शुरू कर दिया है, बल्कि अस्ल वजह इस इबादत की यह है कि बाप-दादा के वक़्तों से यूँ ही होता चला आ रहा है। इस तरह उन्होंने ख़ुद यह मान लिया कि उनके मज़हब के लिए बाप-दादा के पीछे आँख बन्द करके चलने के सिवा कोई दलील नहीं है दूसरे अलफ़ाज़ में मानो वे यह कह रहे थे कि आख़िर तुम नई बात हमें क्या बताने चले हो? क्या हम ख़ुद नहीं देखते कि ये लकड़ी और पत्थर के बुत हैं? क्या हम नहीं जानते कि लकड़ियाँ सुना नहीं करतीं और पत्थर किसी का काम बनाने या बिगाड़ने के लिए नहीं उठा करते? मगर ये हमारे बुज़ुर्ग जो सदियों से नस्ल-पर-नस्ल इनकी पूजा करते चले आ रहे हैं तो क्या ये सब तुम्हारे नज़दीक बेवक़ूफ़ थे? ज़रूर कोई वजह होगी कि वे इन बेजान बुतों की पूजा करते रहे। इसलिए हम भी उनके भरोसे पर यह काम कर रहे हैं।
قَالَ أَفَرَءَيۡتُم مَّا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 71
(75) इसपर इबराहीम ने कहा,"कभी तुमने (आँखें खोलकर) उन चीज़ों को देखा भी
أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمُ ٱلۡأَقۡدَمُونَ ۝ 72
(76) जिनकी बन्दगी तुम और तुम्हारे पिछले बाप-दादा करते रहे?54
54. यानी क्या एक मज़हब की सच्चाई के लिए बस यह दलील काफ़ी है कि वह बाप-दादा के वक़्तों से चला आ रहा है? क्या नस्ल-पर-नस्ल बस यूँ ही आँखें बन्द करके मक्खी-पर-मक्खी मारती चली जाए और कोई आँखें खोलकर न देखे कि जिनकी बन्दगी हम कर रहे हैं, उनके अन्दर सचमुच ख़ुदा होने की कोई सिफ़त (गुण) पाई जाती है या नहीं और वे हमारी क़िस्मतें बनाने और बिगाड़ने के कुछ इख़्तियार रखते भी हैं या नहीं?
فَإِنَّهُمۡ عَدُوّٞ لِّيٓ إِلَّا رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 73
(77) मेरे तो ये सब दुश्मन हैं,55 सिवाय एक रब्बुल-आलमीन56 के,
55. यानी मैं जब ग़ौर करता हूँ तो मुझे यह नज़र आता है कि अगर मैं उनकी पूजा करूँगा तो मेरी दुनिया और आख़िरत दोनों बरबाद हो जाएँगी। मैं उनकी इबादत को सिर्फ़ बेफ़ायदा और बेनुक़सान ही नहीं समझता, बल्कि उलटा नुक़सानदेह समझता हूँ। इसलिए मेरे नज़दीक तो इनको पूजना दुश्मन को पूजना है। इसके अलावा हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस बात में उस बात की तरफ़ भी इशारा है जो सूरा-19 मरयम में कही गई है, “और उन्होंने अल्लाह के सिवा दूसरे माबूद बना लिए हैं ताकि वे उनके लिए ताक़त का ज़रिआ हों। हरगिज़ नहीं! जल्द ही वह वक़्त आएगा जबकि वे इनकी इबादत का इनकार कर देंगे और उलटे इनके मुख़ालिफ़ होंगे। यानी क़ियामत के दिन वे उनके ख़िलाफ़ गवाही देंगे और साफ़ कह देंगे कि न हमने उनसे कभी कहा कि हमारी इबादत करो, न हमें ख़बर कि ये हमारी इबादत करते थे।” (आयतें—81-82) यहाँ तबलीग़ की हिकमत का भी एक प्वाइंट ध्यान देने के क़ाबिल है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने यह नहीं फ़रमाया कि ये तुम्हारे दुश्मन हैं, बल्कि यह फ़रमाया कि वे मेरे दुश्मन हैं। अगर वे कहते कि ये तुम्हारे दुश्मन हैं तो सामनेवाले के लिए ज़िद में मुब्तला हो जाने का ज़्यादा मौक़ा था। वे इस बहस में पड़ जाते कि बताओ, वे हमारे दुश्मन कैसे हो गए। इसके बरख़िलाफ़ जब उन्होंने कहा कि ये मेरे दुश्मन हैं तो इससे सामनेवाले के लिए यह सोचने का मौक़ा पैदा हो गया कि वह भी इसी तरह अपने भले-बुरे की फ़िक्र करे जिस तरह इबराहीम (अलैहि०) ने की है। इस तरीक़े से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने मानो हर इनसान के उस फ़ितरी जज़बे से अपील की, जिसकी बुनियाद पर वह ख़ुद अपना भला चाहनेवाला होता है और जान-बूझकर कभी अपना बुरा नहीं चाहता। उन्होंने उसे बताया कि मैं तो इनकी इबादत में सरासर नुक़सान देखता हूँ और जानते-बूझते मैं अपना बुरा नहीं चाह सकता। इसलिए देख लो कि में ख़ुद इनकी बन्दगी और पूजा से पूरी तरह परहेज़ करता हूँ। इसके बाद सामनेवाला फ़ितरी तौर पर यह सोचने पर मजबूर था कि उसकी अपनी भलाई किस चीज़ में है, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अनजाने में अपना बुरा कर रहा हो।
56. यानी उन तमाम माबूदों में से, जिनकी दुनिया में बन्दगी और पूजा की जाती है, सिर्फ़ सारे जहानों का रब एक अल्लाह है जिसकी बन्दगी में मुझे अपनी भलाई नज़र आती है और जिसकी इबादत मेरे नज़दीक एक दुश्मन की नहीं, बल्कि अपने अस्ल रब की इबादत है। इसके बाद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) कुछ जुमलों में वे वजहें बयान करते हैं जिनकी बुनियाद पर सिर्फ़ सारे जहानों का रब अल्लाह ही इबादत का हक़दार है, और इस तरह अपने सामनेवालों को यह एहसास दिलाने की कोशिश करते हैं कि तुम्हारे पास तो अल्लाह को छोड़कर दूसरे माबूदों की इबादत के लिए कोई मुनासिब और अक़्ल में आनेवाली वजह सिवाय बुज़ुर्गों की अंधी पैरवी के नहीं है, जिसे तुम बयान कर सको, मगर मेरे पास सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत करने के लिए बहुत ही समझ में जानेवाली वजहें मौजूद हैं, जिनसे तुम इनकार भी नहीं कर सकते।
ٱلَّذِي خَلَقَنِي فَهُوَ يَهۡدِينِ ۝ 74
(78) जिसने मुझे पैदा किया,57 फिर वही मेरी रहनुमाई करता है।
57. यह सबसे पहली वजह है जिसकी बुनियाद पर अल्लाह और सिर्फ़ एक अल्लाह ही इबादत का हक़दार है। जिन लोगों को यह समझाया जा रहा था, वे भी इस बात को जानते और मानते थे कि अल्लाह तआला उनका पैदा करनेवाला है और वे यह भी मानते थे कि उनके पैदा करने में किसी दूसरे का कोई हिस्सा नहीं है। यहाँ तक कि अपने माबूदों के बारे में भी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम समेत तमाम मुशरिकों का यह अक़ीदा रहा है कि वे ख़ुद अल्लाह तआला के बनाए हुए हैं सिवाय नास्तिकों के और किसी को भी दुनिया में अल्लाह के कायनात का पैदा करनेवाला होने से इनकार नहीं रहा। इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पहली दलील यह थी कि मैं सिर्फ़ उसकी इबादत को सही और हक़ के मुताबिक़ समझता हूँ जिसने मुझे पैदा किया है। दूसरी कोई हस्ती मेरी इबादत की कैसे हक़दार हो सकती है जबकि मेरे पैदा करने में उसका कोई हिस्सा नहीं। मख़लूक़ (सृष्टि) को अपने पैदा करनेवाले की बन्दगी तो करनी ही चाहिए, लेकिन जो पैदा करनेवाला नहीं है उसकी बन्दगी वह क्यों करे?
وَٱلَّذِي هُوَ يُطۡعِمُنِي وَيَسۡقِينِ ۝ 75
(79) जो मुझे खिलाता और पिलाता है
وَإِذَا مَرِضۡتُ فَهُوَ يَشۡفِينِ ۝ 76
(80) और जब बीमार हो जाता हूँ तो वही मुझे अच्छा करता है।58
58. यह दूसरी वजह है अल्लाह और अकेले अल्लाह ही के इबादत का हक़दार होने की। अगर उसने इनसान को बस पैदा ही करके छोड़ दिया होता और आगे उसकी ख़बरगीरी और देखभाल से वह बिलकुल बेताल्लुक़ रहता, तब भी कोई मुनासिब वजह इस बात की हो सकती थी कि इनसान उसके अलावा किसी दूसरी तरफ़ भी सहारे ढूँढ़ने के लिए रुजू करता। लेकिन उस ख़ुदा ने तो पैदा करने के साथ रहनुमाई, परवरिश, देख-भाल, हिफ़ाज़त और ज़रूरत पूरी करने का ज़िम्मा भी ख़ुद ही ले लिया है। जिस लम्हे इनसान दुनिया में क़दम रखता है, उसी वक़्त एक तरफ़ उसकी माँ के सीने में दूध पैदा हो जाता है तो दूसरी तरफ़ कोई अनदेखी ताक़त उसे दूध चूसने और हलक़ से उतारने का तरीक़ा सिखा देती है। फिर इस तरबियत और रहनुमाई का सिलसिला पैदाइश के पहले दिन से शुरू होकर मौत की आख़िरी घड़ी तक बराबर जारी रहता है। ज़िन्दगी के हर मरहले में इनसान को अपने वुजूद और पलने-बढ़ने, बाक़ी रहने और तरक़्क़ी के लिए जिस-जिस तरह के सरो-सामान की ज़रूरत पेश आती है वह सब उसके पैदा करनेवाले ने ज़मीन से लेकर आसमान तक हर तरफ़ जुटा दिया है। इस सरो-सामान से फ़ायदा उठाने और काम लेने के लिए जिन-जिन ताक़तों और क़ाबिलियतों की उसको ज़रूरत पेश आती है वे सब भी उसके वुजूद में रख दी हैं और ज़िन्दगी के हर मैदान में जिस-जिस तरह की रहनुमाई उसको दरकार होती है उसका भी पूरा इन्तिज़ाम उस ख़ुदा ने कर दिया है। इसके साथ उसने इनसानी वुजूद की हिफ़ाज़त के लिए और उसको आफ़तों से, बीमारियों से, जानलेवा कीटाणुओं से, और ज़हरीले असरात से बचाने के लिए ख़ुद उसके जिस्म में इतने ज़बरदस्त इन्तिज़ाम किए हैं कि इनसान का इल्म अभी तक उन सबको जान भी नहीं सका है। अगर ये क़ुदरती इन्तिज़ाम मौजूद न होते तो एक मामूली काँटा चुभ जाना भी इनसान के लिए जानलेवा साबित होता और अपने इलाज के लिए आदमी की कोई कोशिश भी कामयाब न हो सकती। पैदा करनेवाले की हर मामले में रहमत और रबूबियत (पालन-पोषण) जब हर पल हर पहलू से इनसान का सहारा बन रही है तो इससे बड़ी बेवक़ूफ़ी और जहालत और क्या हो सकती है और इससे बढ़कर एहसान भुला देना भी और क्या हो सकता है कि इनसान उसको छोड़कर किसी दूसरी हस्ती के आगे अपना सर झुकाए और ज़रूरत पूरी करने और मुश्किल हल करने के लिए किसी और का दामन थामे।
وَٱلَّذِي يُمِيتُنِي ثُمَّ يُحۡيِينِ ۝ 77
(81) जो मुझे मौत देगा और फिर दोबारा मुझको ज़िन्दगी देगा।
وَٱلَّذِيٓ أَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لِي خَطِيٓـَٔتِي يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 78
(82) और जिससे मैं उम्मीद रखता हूँ कि बदले के दिन में वह मेरी ख़ता माफ़ कर देगा।”59
59. यह तीसरी वजह है जिसकी बुनियाद पर अल्लाह तआला के सिवा दूसरे की इबादत दुरुस्त नहीं हो सकती। इनसान का मामला अपने ख़ुदा के साथ सिर्फ़ इस दुनिया और इसकी ज़िन्दगी तक महदूद नहीं है कि वुजूद की सरहद में क़दम रखने से शुरू होकर मौत की आख़िरी हिचकी पर वह ख़त्म हो जाए, बल्कि इसके बाद उसका अंजाम भी सरासर ख़ुदा ही के हाथ में है। वही ख़ुदा जो इनसान को वुजूद में लाया है, आख़िरकार उसे इस दुनिया से वापस बुला लेता है और कोई ताक़त दुनिया में ऐसी नहीं है जो इनसान की इस वापसी को रोक सके। आज तक किसी दवा या डॉक्टर या देवी-देवता की दख़ल-अन्दाज़ी उस हाथ को पकड़ने में कामयाब नहीं हो सकी है जो इनसान को यहाँ से निकाल ले जाता है, यहाँ तक कि वे बहुत-से इनसान भी जिन्हें माबूद बनाकर इनसानों ने पूज डाला है, ख़ुद अपनी मौत को भी नहीं टाल सके हैं। सिर्फ़ ख़ुदा ही इस बात का फ़ैसला करनेवाला है कि किस शख़्स को कब इस दुनिया से बापस बुलाना है और जिस वक़्त जिसका बुलावा भी उसके यहाँ से आ जाता है उसे चाहे-अनचाहे जाना ही पड़ता है। फिर वही ख़ुदा है जो अकेला इस बात का फ़ैसला करेगा कि कब इन तमाम इनसानों को जो दुनिया में पैदा हुए थे दोबारा वुजूद में लाए और उनसे उनकी दुनिया की ज़िन्दगी का हिसाब ले। उस वक़्त भी किसी की ताक़त न होगी कि मौत के बाद उठने से किसी को बचा सके या ख़ुद बच सके। हर एक को उसके हुक्म पर उठना ही होगा और उसकी अदालत में हाज़िर होना पड़ेगा। फिर वही अकेला उस अदालत का क़ाज़ी और हाकिम होगा। कोई दूसरा उसके अधिकारों में ज़र्रा बराबर भी शरीक न होगा। सज़ा देना या माफ़ करना बिलकुल उसके अपने हाथ में होगा। किसी की यह ताक़त न होगी कि जिसे वह सज़ा देना चाहे उसको माफ़ करा ले जाए, या जिसे वह माफ़ करना चाहे उसे सज़ा दिलवा सके। दुनिया में जिनको माफ़ करवा लेने का मालिक समझा जाता है वह ख़ुद अपनी माफ़ी के लिए भी उसी की मेहरबानी की आस लगाए बैठे होंगे। इन हक़ीक़तों के होते हुए जो शख़्स ख़ुदा के सिवा किसी की बन्दगी करता है, वह अपने बुरे अंजाम का ख़ुद सामान करता है। दुनिया से लेकर आख़िरत तक आदमी की सारी क़िस्मत तो हो ख़ुदा के हाथ में, और इसी क़िस्मत के बनाव की ख़ातिर आदमी जाए उनके पास जिनके बस में कुछ नहीं है, इससे बढ़कर आमाल की ख़राबी और क्या हो सकती है!
رَبِّ هَبۡ لِي حُكۡمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 79
(83) (इसके बाद इबराहीम ने दुआ की), “ऐे मेरे रब मुझे हुक्म अता कर।60 और मुझको नेक लोगों के साथ मिला।61
60. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'हुक्म' इस्तेमाल हुआ है। 'हुक्म' से मुराद 'नुबूवत’ (पैग़म्बरी) यहाँ दुरुस्त नहीं है, क्योंकि जिस वक़्त की यह दुआ है उस वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को पैग़म्बरी मिल चुकी थी और अगर मान लीजिए कि यह दुआ उससे पहले की भी हो तो पैग़म्बरी किसी के माँगने पर उसे नहीं दी जाती, बल्कि वह एक वहबी (दी जानेवाली) चीज़ है जो अल्लाह तआला ख़ुद ही जिसे चाहता है देता है। इसलिए यहाँ हुक्म से मुराद इल्म, हिकमत, सही समझ और फ़ैसला करने की क़ुव्वत ही लेना दुरुस्त है और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह दुआ लगभग इसी मानी में है जिसमें नबी (सल्ल०) से यह दुआ मिलती है कि “अरिनल-अश्या-अ कमा हि-य” यानी हमको इस क़ाबिल बना कि हम हर चीज़ को उसी नज़र से देखें जैसी कि वह अस्ल में है और हर मामले में वही राय क़ायम करें जैसी कि उसकी हक़ीक़त के लिहाज़ से क़ायम की जानी चाहिए।
61. यानी दुनिया में मुझे अच्छा समाज दे और आख़िरत में मेरा अंजाम नेक लोगों के साथ कर। जहाँ तक आख़िरत का ताल्लुक़ है, नेक लोगों के साथ किसी का अंजाम होना और उसका नजात पाना एक ही बात है, इसलिए यह तो हर उस इनसान की दुआ होनी ही चाहिए जो मौत के बाद की ज़िन्दगी और इनाम और सज़ा पर यक़ीन रखता हो। लेकिन दुनिया में भी एक पाकीज़ा रूह की दिली तमन्ना यही होती है कि अल्लाह तआला उसे एक बदअख़लाक़ और ख़ुदा के नाफ़रमान और बिगड़े हुए समाज में ज़िन्दगी गुज़ारने की मुसीबत से नजात दे और उसको नेक लोगों के साथ मिलाए। समाज का बिगाड़ जहाँ चारों तरफ़ फैला हो वहाँ एक आदमी के लिए सिर्फ़ यही चीज़ हर वक़्त तकलीफ़ का सबब नहीं होती कि वह अपने आसपास गन्दगी-ही-गन्दगी फैली हुई देखता है, बल्कि उसके लिए ख़ुद पाकीज़ा रहना और अपने आपको गन्दगी की छींटों से बचाकर रखना भी मुश्किल होता है। इसलिए एक नेक और भला आदमी उस वक़्त तक बेचैन ही रहता है जब तक या तो उसका अपना समाज पाक-साफ़ न हो जाए, या फिर उससे निकलकर वह कोई दूसरा ऐसा समाज न पा ले जो हक़ और सच्चाई के उसूलों पर चलनेवाला हो।
وَٱجۡعَل لِّي لِسَانَ صِدۡقٖ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 80
(84) और बाद के आनेवालों में मुझको सच्ची नामवरी दे।62
62. यानी बाद की नस्लें मुझे भलाई के साथ याद करें। मैं दुनिया से वह काम करके न जाऊँ कि इनसानी नस्ल मेरे बाद मेरी गिनती उन ज़ालिमों में करे जो ख़ुद बिगड़े हुए थे और दुनिया को बिगाड़कर चले गए, बल्कि मुझसे वे कारनामे हों जिनकी वजह से रहती दुनिया तक मेरी ज़िन्दगी दुनियावालों के लिए रौशनी का मीनार बनी रहे और मुझे इनसानियत पर एहसान करनेवालों में गिना जाए। यह सिर्फ़ शुहरत और नामवरी की दुआ नहीं है, बल्कि सच्ची शुहरत और हक़ीक़ी नामवरी की दुआ है जो ज़रूर ही ठोस ख़िदमतों और क़ीमती कारनामों ही के नतीजे में हासिल होती है। किसी शख़्स को इस चीज़ का हासिल होना अपने अन्दर दो फ़ायदे रखता है। दुनिया में इसका फ़ायदा यह है कि इनसानी नस्लों को बुरी मिसालों के मुक़ाबले में एक नेक मिसाल मिलती है, जिससे वह भलाई का सबक़ हासिल करती हैं और हर नेक आदमी को सीधे रास्ते पर चलने में इससे मदद मिलती है और आख़िरत में इसका फ़ायदा यह है कि एक आदमी की छोड़ी हुई नेक मिसाल से क़ियामत तक जितने लोगों को भी हिदायत मिल गई हो, उनका सवाब (इनाम) उस शख़्स को भी मिलेगा और क़ियामत के दिन उसके अपने आमाल के साथ अल्लाह के करोड़ों बन्दों की वह गवाही भी उसके हक़ में मौजूद होगी कि वह दुनिया में भलाई के चश्मे की नहर जारी करके आया है जिनसे नस्ल-पर-नस्ल अपनी प्यास बुझाती रही है।
وَٱجۡعَلۡنِي مِن وَرَثَةِ جَنَّةِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 81
(85) और मुझे नेमत भरी जन्नत के वारिसों में शामिल कर।
وَٱغۡفِرۡ لِأَبِيٓ إِنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 82
(86) और मेरे बाप को माफ़ कर दे कि बेशक वह गुमराह लोगों में से है63
63. क़ुरआन के कुछ आलिमों ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस दुआ-ए-मग़फ़िरत (अल्लाह से माफ़ी और नजात की दुआ) का यह मतलब बयान किया है कि मग़फ़िरत बहरहाल इस्लाम की शर्त के साथ जुड़ी है, इसलिए उनका अपने बाप के लिए मग़फ़िरत की दुआ करना मानो इस बात की दुआ करना था कि अल्लाह तआला उसे इस्लाम लाने की तौफ़ीक़ (ताक़त) दे। लेकिन क़ुरआन मजीद में उसके बारे में अलग-अलग जगहों पर जो साफ़ बयान मिलते हैं वे इस मतलब व मानी से मेल नहीं खाते। क़ुरआन का कहना है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने बाप के ज़ुल्म से तंग आकर जब घर से निकलने लगे तो उन्होंने जाते वक़्त फ़रमाया, “आपको सलाम है, में आपके लिए अपने रब से माफ़ी और नजात की दुआ करूँगा, वह मेरे ऊपर बहुत मेहरबान है।” इसी वादे की वजह से उन्होंने यह दुआ-ए-मग़फ़िरत न सिर्फ़ अपने बाप के लिए की, बल्कि एक दूसरी जगह पर बयान हुआ है कि माँ और बाप दोनों के लिए की, “रबनग़-फ़िरली वलिवालिदय-य'' (सूरा-14 इबराहीम, आयत-41) यानी “ऐ मेरे रब, मेरी और मेरे माँ-बाप की मग़फ़िरत फ़रमा!” लेकिन बाद में उन्हें ख़ुद यह एहसास हो गया कि हक़ का एक दुश्मन, चाहे वह एक ईमानवाले का बाप ही क्यों न हो, दुआ-ए-मग़फ़िरत का हक़दार नहीं है, “इबराहीम का अपने बाप के लिए दुआ-ए-मग़फ़िरत करना सिर्फ़ उस वादे की वजह से था जो उसने उससे किया था। मगर जब यह बात उसपर खुल गई कि वह ख़ुदा का दुश्मन है तो उसने उससे अलग होने का एलान कर दिया।” (सूरा-9 तौबा, आयत-114)
وَمَآ أَضَلَّنَآ إِلَّا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 83
(99) और वे मुजरिम लोग ही थे जिन्होंने हमको इस गुमराही में डाला।69
69. ये पैरोकारों और अक़ीदतमन्दों (श्रद्धालुओं) की तरफ़ से उन लोगों की ख़ातिरदारी हो रही होगी जिन्हें यही लोग दुनिया में बुज़ुर्ग पेशवा और रहनुमा मानते रहे थे, जिनके हाथ-पाँव चूमे जाते थे, जिनकी कथनी और करनी को दलील माना जाता था, जिनके सामने भेंटें चढ़ाई जाती थीं। आख़िरत में जाकर जब हक़ीक़त खुलेगी और पीछे चलनेवालों को मालूम हो जाएगा कि आगे चलनेवाले ख़ुद कहाँ आए हैं और हमें कहाँ ले आए हैं तो यहीं अक़ीदतमन्द उनको मुजरिम ठहराएँगे और उनपर लानत भेजेंगे। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह आख़िरत की दुनिया का यह इबरतनाक नक़्शा खींचा गया है, ताकि आँखें बन्द करके पीछे चलनेवाले दुनिया में आँखें खोलें और किसी के पीछे चलने से पहले देख लें कि वह ठीक भी जा रहा है या नहीं। सूरा-7 आराफ़ में कहा गया, “हर गरोह जहन्नम में दाख़िल होगा तो अपने साथ के गरोह पर लानत करता जाएगा। यहाँ तक कि जब सब वहाँ इकट्ठे हो जाएँगे तो हर बादवाला गरोह पहलेवाले गरोह के बारे में कहेगा कि ऐ हमारे रब, ये हैं वे लोग जिन्होंने हमें गुमराह किया था, अब इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे। रब फ़रमाएगा, सभी के लिए दोहरा अज़ाब है, मगर तुम जानते नहीं हो।” (आयत-38) सूरा-41 हा-मीम-सजदा में कहा गया है, “और हक़ के इनकारी उस वक़्त कहेंगे कि परवरदिगार, उन जिन्नों और इनसानों को हमारे सामने ला जिन्होंने हमें गुमराह किया था, ताकि हम उन्हें पाँवों तले रौद डालें और वे पस्त और रुसवा होकर रहें।” (आयत-29) यही बात सूरा-33 अहज़ाब में कही गई है, “और वे कहेंगे कि ऐ रब, हमने अपने सरदारों और बड़ों की पैरवी की और उन्होंने हमें सीधे रास्ते से भटका दिया। ऐ रब, इनको दो गुना अज़ाब दे और इनपर सख़्त लानत कर।” (आयतें—67-68)
فَمَا لَنَا مِن شَٰفِعِينَ ۝ 84
(100) अब न हमारा कोई सिफ़ारिशी है70
70. यानी जिन्हें हम दुनिया में सिफ़ारिशी समझते थे और जिनके बारे में हमारा यह अक़ीदा था कि उनका दामन जिसने थाम लिया बस उसका बेड़ा पार है, उनमें से आज कोई भी सिफ़ारिश की कोशिश के लिए ज़बान खोलनेवाला नहीं है।
وَلَا صَدِيقٍ حَمِيمٖ ۝ 85
(101) और न कोई जिगरी दोस्त।71
71. यानी कोई ऐसा भी नहीं है जो हमारा दुख बाँटनेवाला और हमारे लिए कुढ़नेवाला हो, चाहे हमको छुड़ा न सके मगर कम-से-कम उसे हमारे साथ कोई हमदर्दी ही हो। क़ुरआन मजीद यह बताता है कि आख़िरत में दोस्तियाँ सिर्फ़ ईमानवालों ही की बाक़ी रह जाएँगी। रहे गुमराह लोग, तो दुनिया में चाहे कैसे ही जिगरी दोस्त रहे हों, वहाँ पहुँचकर एक-दूसरे के जानी दुश्मन होंगे, एक-दूसरे को मुजरिम ठहराएँगे और अपनी बरबादी का ज़िम्मेदार ठहराकर हर एक-दूसरे को ज़्यादा-से-ज़्यादा सज़ा दिलवाने की कोशिश करेगा, “दोस्त उस दिन एक-दूसरे के दुश्मन होंगे सिवाय परहेज़गारों के (कि उनकी दोस्तियाँ क़ायम रहेंगी)।” (सूरा-18 ज़ुख़रुफ़, आयत-67)
فَلَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 86
(102) काश, हमें एक वार फिर पलटने का मौक़ा मिल जाए तो हम मोमिन (ईमानवाले) हों।”72
72. इस तमन्ना का जवाब भी क़ुरआन में दे दिया गया है कि “अगर उन्हें पिछली ज़िन्दगी की तरफ़ वापस भेज दिया जाए तो वही कुछ करेंगे जिससे उन्हें मना किया गया है।” (सूरा-6 अनआम, आयत-28) रहा यह सवाल के उन्हें वापसी का मौक़ा क्यों न दिया जाएगा, इसकी वजहों पर तफ़सीली चर्चा हम सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—90 से 92 में कर चुके हैं।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 87
(103) यक़ीनन इसमें एक बड़ी निशानी है,73 मगर इनमें से ज़्यादातर लोग ईमान लानेवाले नहीं।
73. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के इस क़िस्से में निशानी के दो पहलू हैं। एक यह कि अरब के मुशरिक लोग और ख़ास तौर से क़ुरैश के लोग एक तरफ़ तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पैरवी का दावा और उनके साथ अपना रिश्ता जोड़ने पर फ़ख़्र (गर्व) करते हैं, मगर दूसरी तरफ़ उसी शिर्क में मुब्तला है जिसके ख़िलाफ़ जिद्दो-जुह्द करते इबराहीम (अलैहि०) की उम्र बीत गई थी, और उनके लाए हुए दीन की दावत आज जो नबी पेश कर रहा है उसके खिलाफ़ ठीक वही कुछ कर रहे है जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) की क़ौम ने उनके साथ किया था। उनको याद दिलाया जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) तो शिर्क के दुश्मन और तौहीद (एक अल्लाह को मानने) की दावत के अलमबरदार थे, तुम ख़ुद भी जानते और मानते हो कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) मुशरिक न ये, मगर फिर भी तुम अपनी ज़िद पर क़ायम हो। दूसरा पहलू इस क़िस्से में निशानी का यह है कि इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम दुनिया से मिट गई और ऐसी मिटी कि उसका नामो-निशान तक बाक़ी न रहा, इसमें से अगर किसी को बाक़ी रहना नसीब हुआ तो सिर्फ़ इबराहीम (अलैहि०) और उनके मुबारक बेटों (इसमाईल और इसहाक़ अलैहि०) की औलाद ही को नसीब हुआ। क़ुरआन में हालाँकि उस अज़ाब का ज़िक्र नहीं किया गया है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के निकल जाने के बाद उनकी क़ौम पर आया, लेकिन उसकी गिनती अज़ाब भोगनेवाली क़ौमों ही में की गई है, “क्या इन्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुँची जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं, नूह की क़ौम की, आद और समूद की क़ौम की, और इबराहीम की क़ौम की, और मदयनवालों की और उन बस्तियों को जिन्हें दिया गया?” (सूरा-9 तौबा, आयत-70)
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 88
(104) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ نُوحٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 89
(105) नूह की क़ौम"74 ने रसूलों को झुठलाया।75
74. नूह और उनकी क़ौम का क़िस्सा क़ुरआन में कुछ फ़र्क़ के साथ कई जगहों पर आया है। देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—59-64; सूरा-10 यूनुस, आयतें—71-73; सूरा-11 हूद, आयतें—25-45; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-3; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—76-77; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—23-30; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-37। इसके अलावा नूह (अलैहि०) के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए क़ुरआन मजीद के ये मक़ामात भी ध्यान में रहें, सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—14-15; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—75-82; सूरा-54 क़मर, आयतें—9-15; सूरा-71 नूह, पूरी सूरा।
75. हालाँकि उन्होंने एक ही पैग़म्बर को झुठलाया था, लेकिन चूँकि पैग़म्बर को झुठलाना अस्ल में उस दावत और पैग़ाम को झुठलाना है जिसे लेकर वह अल्लाह तआला की तरफ़ से आता है, इसलिए जो शख़्स या गरोह किसी एक पैग़म्बर का भी इनकार कर दे वह अल्लाह तआला की निगाह में तमाम पैग़म्बरों का इनकार करनेवाला है। यह एक बड़ी अहम उसूली हक़ीक़त है जिसे क़ुरआन में जगह-जगह अलग-अलग तरीक़ों से बयान किया गया है यहाँ तक कि वे लोग भी इनकारी ठहराए गए हैं जो सिर्फ़ एक पैग़म्बर का इनकार करते हों और बाक़ी तमाम पैग़म्बरों को मानते हों, इसलिए कि जो शख़्स अस्ल रिसालत के पैग़ाम का माननेवाला है वह तो लाज़िमन हर पैग़म्बर को मानेगा। मगर जो शख़्स किसी पैग़म्बर का इनकार करता है वह अगर दूसरे पैग़म्बरों को मानता भी है तो किसी तरफ़दारी या बाप-दादा की पैरवी की बुनियाद पर मानता है, पैग़म्बरी के अस्ल पैग़ाम को नहीं मानता, वरना मुमकिन न था कि वही हक़ (सत्य) एक पेश करे तो यह उसे मान ले और वहीं दूसरा पेश करे तो यह उसका इनकार कर दे।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ نُوحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 90
(106) याद करो जबकि उनके भाई नूह ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं हो?76
76. दूसरी जगहों पर हज़रत नूह (अलैहि०) की अपनी क़ौम से शुरूआती बात इन अलफ़ाज़ में बयान हुई है, अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है, तो क्या तुम डरते नहीं हो?” (सूरा-23 मोमिनून, आयत-23) “अल्लाह की बन्दगी करो और उससे डरो और मेरा कहा मानो।” (सूरा-7 नूह, आयत-3) इसलिए यहाँ हज़रत नूह (अलैहि०) के यह कहने का मतलब सिर्फ़ डर नहीं, बल्कि अल्लाह का डर है। यानी क्या तुम अल्लाह से निडर हो गए? उसके सिवा दूसरों की बन्दगी करते हुए तुम कुछ नहीं सोचते कि इस बाग़ियाना रवैये का अंजाम क्या होगा? दावत के शुरू में डर का एहसास कराने की हिकमत यह है कि जब तक किसी शख़्स या गरोह को उसके ग़लत रवैये के बुरे अंजाम का ख़तरा महसूस न कराया जाए, वह सही बात और उसकी दलीलों की तरफ़ ध्यान देने पर आमादा नहीं होता। सीधे रास्ते की तलाश आदमी के दिल में पैदा ही उस वक़्त होती है जब उसको यह फ़िफ्र लग जाती है कि कहीं मैं किसी टेढ़े रास्ते पर तो नहीं जा रहा हूँ जिसमें तबाही का अन्देशा हो।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 91
(107) में तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ,77
77. इसके दो मतलब है। एक यह कि मैं अपनी तरफ़ से कोई बात बनाकर या घटा-बढ़ाकर बयान नहीं करता, बल्कि जो कुछ ख़ुदा की तरफ़ से मुझपर उतरता है वही पूरा-का-पूरा तुम तक पहुँचा देता हूँ। और दूसरा मतलब यह है कि मैं एक ऐसा पैग़म्बर हूँ जिसे तुम पहले से एक अमानतदार और सच्चे आदमी की हैसियत से जानते हो। जब मैं लोगों के मामले में ख़ियानत (बेईमानी) करनेवाला नहीं हूँ, तो ख़ुदा के मामले में कैसे ख़ियानत कर सकता हूँ। लिहाज़ा तुम्हें समझना चाहिए कि जो कुछ मैं ख़ुदा की तरफ़ से पेश कर रहा हूँ उसमें भी वैसा ही अमानतदार हूँ जैसा दुनिया के मामलों में आज तक तुमने मुझे अमानतदार पाया है।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 92
(108) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।78
78. यानी मेरे अमानतदार पैग़म्बर होने का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि तुम दूसरे सब माबूदों की फ़रमाँबरदारी छोड़कर सिर्फ़ मेरी फ़रमाँबरदारी करो और जो हुक्म मैं तुम्हें देता हूँ उनके आगे सर झुका दो, क्योंकि मैं सारे जहानों के मालिक अल्लाह की मरज़ी का नुमाइन्दा हूँ। मेरी फ़रमाँबरदारी ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी है और मेरी नाफ़रमानी सिर्फ़ मेरी नाफ़रमानी नहीं है, बल्कि सीधे तौर पर ख़ुदा की नाफ़रमानी है। दूसरे जलफ़ाज़ में, इसका मतलब यह है कि पैग़म्बर का हक़ सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि जिन लोगों की तरफ़ वह पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है वे उसकी सच्चाई क़ुबूल कर लें और उसे सच्चा पैग़म्बर मान लें, बल्कि उसको ख़ुदा का सच्चा रसूल मानते ही आप-से-आप यह भी लाज़िम आ जाता है कि उसका हुक्म माना जाए और हर क़ानून को छोड़कर सिर्फ़ उसी के लाए हुए क़ानून की पैरवी की जाए। पैग़म्बर को पैग़म्बर न मानना, या पैग़म्बर मानकर उसकी फ़रमाँबरदारी न करना, दोनों सूरतें अस्ल में ख़ुदा से बग़ावत के बराबर हैं और दोनों का नतीजा ख़ुदा के ग़ज़ब (प्रकोप) में घिर जाना है। इसी लिए ईमान और फ़रमाँबरदारी की माँग करने से पहले, “अल्लाह से डरो” का ख़बरदार कर देनेवाला जुमला कहा गया, ताकि हर सुननेवाला अच्छी तरह कान खोलकर सुन ले कि पैग़म्बर को पैग़म्बरी न मानने या उसकी पैरवी क़ुबूल न करने का नतीजा क्या होगा।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 93
(109) में इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ। मेरा इनाम तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।79
79. यह अपनी सच्चाई पर हज़रत नूह (अलैहि०) की दूसरी दलील है। पहली दलील यह थी कि पैग़म्बरी के दावे से पहले मेरी सारी ज़िन्दगी तुम्हारे बीच गुज़री है और आज तक तुम मुझे एक अमानतदार आदमी की हैसियत से जानते हो और दूसरी दलील यह है कि मैं एक बेग़रज़ आदमी हूँ। तुम किसी ऐसे निज़ी फ़ायदे की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस काम से मुझे हासिल हो रहा हो या जिसको हासिल करने की में कोशिश कर रहा हूँ। इस बेग़रज़ाना (निस्स्वार्थ) तरीक़े से किसी निज़ी फ़ायदे के बिना जब मैं इस सच्चाई के पैग़ाम के काम में रात-दिन अपनी जान खपा रहा हूँ, अपने वक़्त और अपनी मेहनतें लगा रहा हूँ और हर तरह की तकलीफ़ उठा रहा हूँ, तो तुम्हें मान लेना चाहिए कि मैं इस काम में मुख़लिस (निष्ठावान) हूँ, ईमानदारी के साथ जिस चीज़ को हक़ जानता हूँ और जिसकी पैरवी में अल्लाह के बन्दों की भलाई देखता हूँ वही पेश कर रहा हूँ, कोई मन में छिपी ख़ाहिश इसकी वजह नहीं है कि उसकी ख़ातिर में झूठ गढ़कर लोगों को धोखा दूँ। ये दोनों दलीलें उन अहम दलीलों में से हैं जो क़ुरआन मजीद ने बार-बार पैग़म्बर (अलैहि०) की सच्चाई के सुबूत में पेश की हैं और जिनको वह पैग़म्बरी के परखने की कसौटी ठहराता है। पैग़म्बरी से पहले जो शख़्स एक समाज में सालों ज़िन्दगी गुज़ार चुका हो और लोगों ने हमेशा हर मामले में उसे सच्चा और ईमानदार आदमी पाया हो, उसके बारे में कोई तास्सुब से पाक आदमी मुश्किल ही से यह शक कर सकता है कि वह यकायक ख़ुदा के नाम से इतना बड़ा झूठ बोलने पर उतर आएगा कि उसे पैग़म्बर न बनाया गया हो और यह कहे कि ख़ुदा ने मुझे पैग़म्बर बनाया है। फिर दूसरी इससे भी ज़्यादा अहम बात यह है कि ऐसा सफ़ेद झूठ कोई शख़्स नेक नीयती के साथ नहीं गढ़ा करता। ज़रूर कोई मन की ख़ाहिश ही इस धोखेबाज़ी की वजह होती है और जब कोई शख़्स अपने फ़ायदों के लिए इस तरह की धोखेबाज़ी करता है तो छिपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके आसार नुमायाँ होकर रहते हैं। उसे अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे इस्तेमाल करने पड़ते हैं, जिनके घिनौने पहलू आसपास के समाज में छिपाए नहीं छिप सकते और इसके अलावा वह अपनी पीरी को दुकान चमकाकर कुछ-न-कुछ अपना भला करता नज़र आता है। नज़राने वुसूल किए जाते हैं, लंगर जारी होते हैं, जायदादें बनती हैं, ज़ेवर तैयार किए जाते हैं और फ़क़ीरी का आस्ताना देखते-ही-देखते शाही दरबार बनता चला जाता है। लेकिन जहाँ इसके ख़िलाफ़ पैग़म्बरी का दावा करनेवाले शख़्स की निज़ी ज़िन्दगी ऐसी अख़लाक़ी ख़ूबियों से भरी नज़र आए कि उसमें कहीं दूँढ़े से भी किसी धोखे के हथकण्डे का निशान न मिल सके और इस काम से कोई निजी फ़ायदा उठाना तो एक तरफ़, वह अपना सब कुछ उसी बे-ग़रज़ ख़िदमत की भेंट चढ़ा दे, वहाँ झूठ का शक करना किसी समझदार इनसान के लिए मुमकिन नहीं रहता। कोई शख़्स जो अक़्ल भी रखता हो और बे-इनसाफ़ भी न हो, यह सोच नहीं सकता कि आख़िर एक अच्छा-भला समझदार आदमी, जो इत्मीनान की ज़िन्दगी जी रहा था, क्यों बे-वजह एक झूठा दावा लेकर उठे जबकि उसे कोई फ़ायदा इस झूठ से न हो, बल्कि वह उलटा अपना माल, अपना वक़्त और अपनी सारी क़ुव्वतें और मेहनतें इस काम में खपा रहा हो और बदले में दुनिया भर की दुश्मनी मोल ले रहा हो। निज़ी फ़ायदे की क़ुरबानी आदमी के मुख़लिस (सच्चा) होने की सबसे ज़्यादा नुमायाँ दलील होती है। यह क़ुरबानी करते जिसको सालों बीत जाएँ उसे बदनीयत या ख़ुदग़रज़ समझना ख़ुद उस शख़्स की अपनी बदनीयती का सुबूत होता है जो ऐसे आदमी पर यह इलज़ाम लगाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-70)
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 94
(110) तो तुम अल्लाह से डरो और (बेखटके) मेरी फ़रमाँबरदारी करो।”80
80. इस जुमले का दोहराना बेवजह नहीं है। पहले यह एक और वजह से कहा गया था और यहाँ एक दूसरी वजह से इसको दोहराया गया है। ऊपर, “मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार पैग़म्बर हूँ,” से “इसलिए तुम अल्लाह से डरो” के जुमले का जोड़ यह था कि जो शख़्स अल्लाह की तरफ़ से एक अमानतदार पैग़म्बर है, जिसकी ईमानदारी के बारे में तुम लोग ख़ुद भी जानते हो, उसे झुठलाते हुए ख़ुदा से डरो और यहाँ “मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ” से इस जुमले का जोड़ यह है कि जो शख़्स अपने किसी निजी फ़ायदे के बिना सिर्फ़ लोगों के सुधार के लिए पूरे ख़ुलूस के साथ काम कर रहा है, उसकी नीयत पर हमला करते हुए ख़ुदा से डरो। इस बात को इतना ज़ोर देकर बयान करने की वजह यह थी कि हज़रत नूह (अलैहि०) सच्चे दिल से हक़ की जो दावत दे रहे थे उसमें कीड़े डालने के लिए क़ौम के सरदार उनपर यह इलज़ाम लगाते थे कि यह शख़्स अस्ल में यह सारी दौड़-धूप अपनी बड़ाई के लिए कर रहा है, “यह चाहता है कि तुमपर फ़ज़ीलत (बड़ाई) हासिल कर ले।” (सूरा-23 मोमिनून, आयत-24)
۞قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لَكَ وَٱتَّبَعَكَ ٱلۡأَرۡذَلُونَ ۝ 95
(111) उन्होंने जवाब दिया, “क्या हम तुझे मान लें, हालाँकि तेरी पैरवी सबसे निचले दरजे के लोगों ने अपनाई है?"81
81. ये लोग, जिन्होंने हज़रत नूह (अलैहि०) को हक़ की दावत का यह जवाब दिया, उनकी क़ौम के सरदार, हैसियतवाले और इज़्ज़तदार लोग थे, जैसाकि दूसरी जगह पर इसी क़िस्से के सिलसिले में बयान हुआ है, “उसकी क़ौम के ग़ैर-मुस्लिम सरदारों ने कहा, हमें तो तुम इसके सिवा कुछ नज़र नहीं आते कि बस एक इनसान हो हम जैसे, और हम देख रहे हैं कि तुम्हारी पैरवी सिर्फ़ उन लोगों ने बे-समझे-बूझे अपना ली है जो हमारे यहाँ के निचले दरजे के लोग हैं और हम कोई चीज़ भी ऐसी नहीं पाते जिसमें तुम लोग हमसे बढ़े हुए हो।” (सूरा-11 हूद, आयत-27) इससे मालूम हुआ कि हज़रत नूह (अलैहि०) पर ईमान लानेवाले ज़्यादातर ग़रीब लोग, छोटे-छोटे पेशावर लोग, या ऐसे नौजवान थे जिनकी क़ौम में कोई हैसियत न थी। रहे ऊँचे तबक़े के हैसियत, रुसूख़वाले और ख़ुशहाल लोग, तो वे उनकी मुख़ालफ़त पर कमर कसे हुए थे और वही अपनी क़ौम के आम लोगों को तरह-तरह के धोखे दे-देकर अपने पीछे लगाए रखने की कोशिश कर रहे थे। इस सिलसिले में जो दलीलें वे हज़रत नूह (अलैहि०) ख़िलाफ़ पेश करते थे, उनमें से एक दलील यह थी कि अगर नूह की दावत में कोई वज़न होता तो क़ौम के बड़े लोग, आलिम, मज़हबी पेशवा, इज़्ज़तदार और समझदार लोग उसे क़ुबूल करते। लेकिन उनमें से तो कोई भी इस आदमी पर ईमान नहीं लाया है। इसके पीछे लगे हैं निचले दरजे के कुछ नादान लोग जो कोई समझ-बूझ नहीं रखते। अब क्या हम जैसे ऊँचे दरजे के लोग इन नासमझ और मामूली लोगों के साथ में शामिल हो जाएँ। ठीक यही बात क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ नबी (सल्ल०) के बारे में कहते थे कि इनकी पैरवी करनेवाले या तो ग़ुलाम और ग़रीब लोग हैं या कुछ नादान लड़के, क़ौम के बड़े और इ्ज़्ज़तदार लोगों में से कोई भी इनके साथ नहीं है। अबू-सुफ़ियान ने रूम के बादशाह हिरक़्ल के सवालों का जवाब देते हुए भी यही कहा था कि “मुहम्मद की पैरवी हममें से कमज़ोर और ग़रीब लोगों ने क़ुबूल की है। यानी उन लोगों के सोचने का ढंग यह था कि हक़ (सत्य) सिर्फ़ वह है जिसे क़ौम के बड़े लोग हक़ मानें, क्योंकि वही अक़्ल और समझ-बूझ रखते हैं, रहे छोटे लोग, तो उनका छोटा होना ही इस बात की दलील है कि वे बेअक़्ल हैं और उनकी राय की कोई अहमियत नहीं है, इसलिए उनका किसी बात को मान लेना और बड़े लोगों का रद्द कर देना साफ़ तौर पर यह मानी रखता है कि वह एक बेवज़न बात है, बल्कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ तो इससे भी आगे बढ़कर यह दलील लाते थे कि पैग़म्बर भी कोई मामूली आदमी नहीं हो सकता, ख़ुदा को अगर सचमुच कोई पैग़म्बर भेजना मंज़ूर होता तो किसी बड़े मालदार आदमी को बनाता, “वे (मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़) कहते हैं कि यह क़ुरआन हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के किसी बड़े आदमी पर क्यों न उतारा गया?" (सूरा-13 ज़ुख़रुफ़, आयत-3)
قَالَ وَمَا عِلۡمِي بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 96
(112) नूह ने कहा, “मैं क्या जानूँ कि उनके अमल कैसे हैं?
إِنۡ حِسَابُهُمۡ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّيۖ لَوۡ تَشۡعُرُونَ ۝ 97
(113) उनका हिसाब तो मेरे रब के ज़िम्मे है काश, तुम कुछ समझ से काम लो!82
82. यह उनके एतिराज़ का पहला जवाब है, जैसाकि ऊपर बयान हुआ, उनके एतिराज़ की बुनियाद इस ग़लत-फ़हमी पर थी कि जो लोग ग़रीब, मज़दूर और छोटे दरजे का काम करनेवाले हैं या समाज के निचले तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं, उनमें कोई ज़ेहनी सलाहियत नहीं होती, और वे इल्म, अक़्ल और समझ-बूझ से ख़ाली होते हैं, इसलिए न उनके ईमान की बुनियाद किसी गहरी सोच-समझ पर क़ायम, न उनका एतिक़ाद (अक़ीदा) भरोसे के क़ाबिल और न उनके आमाल का कोई वज़न। हज़रत नूह (अलैहि०) इसके जवाब में फ़रमाते हैं कि मेरे पास यह जानने का कोई ज़रिआ नहीं कि जो शख़्स मेरे पास आकर ईमान लाता है और एक अक़ीदा क़ुबूल करके उसके मुताबिक़ अमल करने लगता है, उसके इस अमल की तह में क़ौन-सी बातें और वजहें काम कर रही हैं और वे कितनी कुछ क़द्रो-क़ीमत रखती हैं। इन चीज़ों का देखना और उनका हिसाब लगाना तो ख़ुदा का काम है, मेरा और तुम्हारा काम नहीं है।
وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 98
(114) मेरा यह काम नहीं है कि जो ईमान लाएँ उनको में धुतकार दूँ।
إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 99
(115) मैं तो बस एक साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला आदमी हूँ।83
83. यह उनके एतिराज़ का दूसरा जवाब है। उनके एतराज़ में यह बात भी छिपी हुई थी कि ईमान लानेवालों का जो गरोह हज़रत नूह (अलैहि०) के आसपास इकट्ठा हो रहा है यह चूँकि हमारे समाज के निचले तबक़े के लोगों में से हैं, इसलिए ऊँचे तबक़ों में से कोई शख़्स इस गरोह में शामिल होना गवारा नहीं कर सकता। दूसरे अलफ़ाज़ में, मानो वे यह कह रहे थे कि “ऐ नूह! क्या तुमपर ईमान लाकर हम अपने आपको निचले और बेअक़्ल लोगों में गिनवाएँ? क्या हम ग़ुलामों, नौकरों, मज़दूरों और कामगारों की लाइन में आ बैठे?” हज़रत नूह (अलैहि०) इसका जवाब यह देते हैं कि मैं आख़िर यह बे-अक़्ली का काम कैसे कर सकता हूँ कि जो लोग मेरी बात नहीं मानते उनके तो पीछे फिरता रहूँ और जो मेरी बात मानते हैं उन्हें धक्के देकर निकाल हूँ। मेरी हैसियत तो एक ऐसे बेलाग आदमी की है जिसने खुल्लम-खुल्ला खड़े होकर पुकार दिया है कि जिस तरीक़े पर तुम लोग चल रहे हो वह ग़लत है और इसपर चलने का अंजाम तबाही है और जिस तरीक़े की तरफ़ मैं रहनुमाई कर रहा हूँ, उसी में तुम सबकी नजात है। जब जिसका जी चाहे मेरी इस चेतावनी को क़ुबूल करके सीधे रास्ते पर आए और जिसका जी चाहे आँखें बन्द करके तबाही की राह पर चलता रहे। मैं यह नहीं कर सकता कि जो अल्लाह के बन्दे मेरी इस चेतावनी को सुनकर सीधा रास्ता अपनाने के लिए मेरे पास आएँ उनकी ज़ात-बिरादरी, ख़ानदान और पेशा पूछूँ, और अगर वे आप लोगों की निगाह में 'नीच' हों तो उनको वापस करके इस इन्तिज़ार में बैठा रहूँ कि 'शरीफ़’ लोग कब तबाही का रास्ता छोड़कर नजात की राह पर क़दम रखते हैं। ठीक यही मामला इन आयतों के उतरने के ज़माने में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के बीच चल रहा था और उसी को निगाह में रखने से यह समझ में आ सकता है कि हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के सरदारों की बातचीत यहाँ क्यों सुनाई जा रही है। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के बड़े-बड़े सरदार पैग़म्बर (सल्ल०) से कहते थे कि हम आख़िर बिलाल, अम्मार और सुहैब (रज़ि०) जैसे ग़ुलामों और कामगार लोगों के साथ कैसे बैठ सकते हैं। यानी उनका मतलब यह था कि ईमान लानेवालों की लाइन में से ये ग़रीब लोग निकाले जाएँ, तब कोई इमकान इसका निकल सकता है कि इज़्ज़तदार लोग इधर का रुख़ करें, वरना यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि महमूद और अयाज़ एक लाइन में खड़े हो जाएँ। इसपर नबी (सल्ल०) को अल्लाह की तरफ़ से बिलकुल साफ़ और दोटूक अलफ़ाज़ में यह हिदायत दी गई कि हक़ (सत्य) से मुँह मोड़नेवाले घमंडियों की ख़ातिर ईमान क़ुबूल करनेवाले ग़रीबों को धक्के नहीं दिए जा सकते— “ऐ नबी! जिसने बेपरवाही दिखाई तुम उसके पीछे पड़ते हो! हालाँकि अगर वह न सुधरे तो तुमपर उसकी क्या ज़िम्मेदारी है और जो तुम्हारे पास दौड़ा आता है इस हाल में कि वह अल्लाह से डर रहा है, तुम उससे बेरुख़ी बरतते हो? हरगिज़ नहीं, यह तो एक नसीहत है जिसका जी चाहे इसे क़ुबूल करे।" (सूरा-80 अ-ब-स, आयतें—5-13) “न दूर फेंको उन लोगों को जो रात-दिन अपने रब को पुकारते हैं सिर्फ़ उसकी ख़ुशनूदी की ख़ातिर। उनका कोई हिसाब तुम्हारे ज़िम्मे नहीं और तुम्हारा कोई हिसाब उनके ज़िम्मे नहीं। इसपर भी अगर तुम उन्हें दूर फेंकोगे तो ज़ालिमों में गिने जाओगे। हमने तो इस तरह इन लोगों में से कुछ को कुछ के ज़रिए से आज़माइश में डाल दिया है ताकि वे कहें, क्या हमारे बीच बस यही लोग रह गए थे जिनपर अल्लाह की मेहरबानी हुई ?— हाँ, क्या अल्लाह अपने शुक्रगुज़ार बन्दों को इनसे ज़्यादा नहीं जानता!” (सूरा-6 अनआम, आयत-52)
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰنُوحُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمَرۡجُومِينَ ۝ 100
(116) उन्होंने कहा, “ऐ नूह, अगर तू न माना तो फिटकारे हुए लोगों में शामिल होकर रहेगा।"84
84. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है 'ल-तकूनन-न मिनल-मरजूमीन’। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि तुमको रज्म किया जाएगा, यानी पत्थर मार-मारकर मार डाला जाएगा। दूसरा मतलब यह हो सकता है कि तुमपर हर तरफ़ से गालियों की बौछार की जाएगी, जहाँ जाओगे धुतकारे और फिटकारे जाओगे। अरबी मुहावरे के लिहाज़ से इन अलफ़ाज़ के ये दोनों मतलब लिए जा सकते हैं।
قَالَ رَبِّ إِنَّ قَوۡمِي كَذَّبُونِ ۝ 101
(117) नूह ने दुआ की, “ऐ मेरे रब मेरी क़ौम ने मुझे झुठला दिया।85
85. यानी आख़िरी और पूरे तौर पर झुठला दिया है जिसके बाद अब किसी तसदीक़ और ईमान की उम्मीद बाक़ी नहीं रही। ज़ाहिरी बात से कोई शख़्स इस शक में न पड़े कि बस पैग़म्बर और क़ौम के सरदारों के बीच ऊपर की बातचीत हुई और उनकी तरफ़ से पहली बार झुठलाने के बाद पैग़म्बर ने अल्लाह के सामने रिपोर्ट पेश कर दी कि ये मेरी बात नहीं मानते, अब आप मेरे और उनके मुक़द्दमे का फ़ैसला कर दें। क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर उस लम्बी कशमकश का ज़िक्र किया गया है जो हज़रत नूह (अलैहि०) की दावत और उनकी क़ौम के कुफ़्र पर अड़े रहने के बीच सदियों चलती रही। सूरा-29 अन्‌कबूत में बताया गया है कि इस कशमकश (संघर्ष) का ज़माना साढ़े नौ सौ साल तक फैला हुआ रहा है, “और वह पचास साल कम एक हज़ार साल उनके बीच रहा।” (आयत-14) हज़रत नूह (अलैहि०) ने इस ज़माने में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके इजतिमाई रवैये को देखकर न सिर्फ़ यह अन्दाज़ा कर लिया कि उनके अन्दर हक़ को क़ुबूल करने की कोई सलाहियत बाक़ी नहीं रही है, बल्कि यह राय भी क़ायम कर ली कि आगे उनकी नस्लों से भी नेक और ईमानदार आदमियों के उठने की उम्मीद नहीं है, “अगर तू उन्हें छोड़ देगा तो वे तेरे बन्दों को गुमराह करेंगे और उनकी नस्ल से जो भी पैदा होगा बुरे काम करनेवाला और हक़ का सख़्ती से इनकार करनेवाला होगा।” (सूरा-71 नूह, आयत-27) ख़ुद अल्लाह तआला ने भी हज़रत नूह (अलैहि०) को इस राय को दुरुस्त ठहरा दिया और अपने मुकम्मल इल्म (पूर्ण ज्ञान) की बुनियाद पर फ़रमाया, “तेरी क़ौम में से जो लोग ईमान ला चुके, बस ये ला चुके। अब कोई ईमान लानेवाला नहीं है। लिहाज़ा अब उनके करतूतों पर ग़म खाना छोड़ दे।” (सूरा-11 हूद, आयत-36)
فَٱفۡتَحۡ بَيۡنِي وَبَيۡنَهُمۡ فَتۡحٗا وَنَجِّنِي وَمَن مَّعِيَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 102
(118) अब मेरे और उनके बीच दोटूक फ़ैसला कर दे और मुझे और जो ईमानवाले मेरे साथ हैं उनको नजात दे।”86
86. यानी सिर्फ़ यही फ़ैसला न कर दे कि हक़ पर कौन है और बातिल पर कौन, बल्कि वह फ़ैसला इस शक्ल में लागू कर कि बातिल-परस्त (असत्यवादी) तबाह कर दिए जाएँ और हक़-परस्त (सत्यवादी) बचा लिए जाएँ। ये अलफ़ाज़ कि “मुझे और मेरे ईमानवाले साथियों को बचा ले” ख़ुद-ब-ख़ुद अपने अन्दर ये मतलब रखते हैं कि बाक़ी लोगों पर अज़ाब उतार और उन्हें ग़लत हर्फ़ की तरह मिटाकर रख दे।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 103
(119) आख़िरकार हमने उसको और उसके साथियों को एक भरी हुई नाव में बचा लिया।87
87. 'भरी हुई नाव' से मुराद यह है कि वह नाव ईमान लानेवाले इनसानों और तमाम जानवरों से भर गई थी, जिनका एक-एक जोड़ा साथ रख लेने की हिदायत की गई थी। इसकी तफ़सील के लिए देखिए— सूरा-11 हूद, आयत-40।
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا بَعۡدُ ٱلۡبَاقِينَ ۝ 104
(120) और उसके बाद बाक़ी लोगों को डुबो दिया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 105
(121) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर लोग माननेवाले नहीं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 106
(122) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ عَادٌ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 107
(123) आद ने रसूलों (पैग़म्बरों) को झुठलाया।88
88. यह क़िस्सा कुछ फ़र्क़ के साथ क़ुरआन में कई जगहों पर आया है। देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—65-72; सूरा-11 हूद, आयतें—50-60। इसके अलावा इस क़िस्से की तफ़सीलात के लिए क़ुरआन मजीद के नीचे लिखे मक़ामात भी निगाह में रहें— सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयतें—13-16; सूरा-16 अहक़ाफ़, आयतें—21-26; सूरा-51 ज़ारियात, आयतें—41-45; सूरा-51 क़मर, आयतें—18-22; सूरा-69 हाक़्क़ा, आयतें—4-8; सूरा-89 फ़ज्र आयतें—6-8।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ هُودٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 108
(124) याद करो जबकि उनके भाई हूद ने उनसे कहा था,89 “क्या तुम डरते नहीं?
89. हज़रत हूद (अलैहि०) की इस तक़रीर को समझने के लिए ज़रूरी है कि उस क़ौम के बारे में वे मालूमात हमारी निगाह में रहें जो क़ुरआन मजीद ने अलग-अलग जगहों पर हमें दी हैं। उनमें बताया गया है— नूह (अलैहि०) की क़ौम की तबाही के बाद दुनिया में जिस क़ौम की तरक़्क़ी दी गई वह यही थी, “याद करो (अल्लाह की उस मेहरबानी और इनाम को) नूह की क़ौम के बाद उसने तुमको खलीफ़ा बनाया।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-69) जिस्मानी हैसियत से ये बड़े सेहतमन्द और ताक़तवर लोग थे— “और तुम्हें जिस्मानी बनावट में ख़ूब सेहतमन्द किया।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-69) अपने दौर में यह बेमिसाल क़ौम थी। कोई दूसरी क़ौम इसकी टक्कर की न थी— "जिसके जैसी देशों में कोई क़ौम पैदा नहीं की गई।” (सूरा-89 फ़ज्र, आयत-8) इसका रहन-सहन बड़ा शानदार था, ऊँचे-ऊँचे सुतूनों (स्तम्भों) की बुलन्द इमारतें बनाना उसकी वह ख़ासियत थी जिसके लिए वह उस वक़्त की दुनिया में मशहूर थी— “तूने देखा नहीं कि तेरे रब ने क्या किया सुतूनोंवाले आदे-इरम के साथ?” (सूरा-89 फ़ज्र, आयतें—6-7) इस माद्दी तरक़्क़ी (भौतिक विकास) और जिस्मानी सेहत ने उनको बहुत घमण्डी बना दिया था और उन्हें अपनी ताक़त का बड़ा घमण्ड था— "रहे आद, तो उन्होंने ज़मीन में हक़ की राह से हटकर धमण्ड का रवैया अपनाया और कहने लगे कि कौन है हमसे ज़्यादा ताक़तवर?” (सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-15) उनका सियासी निज़ाम कुछ बड़े-बड़े ज़ालिमों के हाथ में था जिनके आगे कोई दम न मार सकता था— "और उन्होंने हर ज़ालिम सच के दुश्मन के हुक्म की पैरवी की।” (सूरा-11 हूद, आयत-59) मज़हबी हैसियत से ये अल्लाह तआला के वुजूद का इनकार करनेवाले न थे, बल्कि शिर्क में मुब्तला थे। उनको इस बात से इनकार था कि बंदगी सिर्फ़ अल्लाह की होनी चाहिए— "उन्होंने (हूद से) कहा, क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हम सिर्फ़ एक अल्लाह की बन्दगी करें और उनको छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते थे?" (सूरा-7 आराफ़, आयत-70) इन ख़ासियतों को नज़र में रखने से हज़रत हूद (अलैहि०) की यह दावती तक़रीर अच्छी तरह समझ में आ सकती है।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 109
(125) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 110
(126) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 111
(127) मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ। मेरा इनाम तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे हैं।
أَتَبۡنُونَ بِكُلِّ رِيعٍ ءَايَةٗ تَعۡبَثُونَ ۝ 112
(128) यह तुम्हारा क्या हाल है कि हर ऊँचे मक़ाम पर बेकार ही एक यादगार इमारत बना डालते हो,90
90. यानी सिर्फ़ अपनी बड़ाई और ख़ुशहाली का दिखावा करने के लिए ऐसी शानदार इमारतें बनाते हो जिनका कोई इस्तेमाल नहीं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं, जिनका कोई फ़ायदा इसके सिवा नहीं कि वे बस तुम्हारी दौलत और शान दिखाने के लिए एक निशानी के तौर पर खड़ी रहें।
وَتَتَّخِذُونَ مَصَانِعَ لَعَلَّكُمۡ تَخۡلُدُونَ ۝ 113
(129) और बड़े-बड़े महल तामीर करते हो मानो तुम्हें हमेशा रहना है।91
91. यानी तुम्हारी दूसरी तरह की इमारतें ऐसी हैं जो हालाँकि इस्तेमाल के लिए हैं, मगर उनको शानदार, सजी हुई और मज़बूत बनाने में तुम इस तरह अपनी दौलत, मेहनत और क़ाबिलियतें लगाते हो जैसे दुनिया में हमेशा रहने का सामान कर रहे हो, जैसे तुम्हारी ज़िन्दगी का मक़सद बस यहीं के ऐश का एहतिमाम करना है और इससे आगे कोई चीज़ नहीं है जिसकी तुम्हें फ़िक्र हो। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि बे-ज़रूरत या ज़रूरत से ज़्यादा शानदार इमारतें बनाना कोई ऐसा निराला काम नहीं है कि जिसका पाया जाना किसी क़ौम में इस तरह हो सकता हो कि उसकी और सब चीज़ें तो ठीक हों और बस यही एक काम वह ग़लत करती हो। यह सूरते-हाल तो एक क़ौम में पैदा ही उस वक़्त होती है जब एक तरफ़ उसमें दौलत की रेल-पेल होती है और दूसरी तरफ़ उसके अन्दर ख़ुदग़रजी और दुनिया-परस्ती की शिद्दत बढ़ते-बढ़ते जुनून की हद तक पहुँच जाती है और जब यह हालत किसी क़ौम में पैदा होती है तो उसका सारा समाजी निज़ाम बिगड़ जाता है हज़रत हूद (अलैहि०) ने अपनी क़ौम के इमारते बनाने पर जो पकड़ की उसका मक़सद यह नहीं था कि उनके नज़दीक सिर्फ़ ये इमारतें ही अपने आपमें क़ाबिले-एतिराज़ थीं, बल्कि अस्ल में वे कुल मिलाकर उनके समाजी और तहज़ीबी बिगाड़ पर गिरिफ़्त कर रहे थे और उन इमारतों का ज़िक्र उन्होंने इस हैसियत से किया था कि सारे देश में हर तरफ़ ये बड़े-बड़े फोड़े उस फ़साद (ख़राबी) की सबसे नुमायाँ निशानी के तौर पर उभरे हुए नज़र आते थे।
وَإِذَا بَطَشۡتُم بَطَشۡتُمۡ جَبَّارِينَ ۝ 114
(130) और जब किसी पर हाथ डालते हो तो इन्तिहाई ज़ालिम बनकर डालते हो
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 115
(131) तो तुम लोग अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِيٓ أَمَدَّكُم بِمَا تَعۡلَمُونَ ۝ 116
(132) डरो उससे जिसने वह कुछ तुम्हें दिया है, जो तुम जानते हो।
أَمَدَّكُم بِأَنۡعَٰمٖ وَبَنِينَ ۝ 117
(133) तुम्हें जानवर दिए, औलादें दीं,
وَجَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 118
(134) बाग़ दिए और (पानी के) चश्मे दिए
إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 119
(135) मुझे तुम्हारे बारे में एक बड़े दिन के अज़ाब का डर है।"
قَالُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَوَعَظۡتَ أَمۡ لَمۡ تَكُن مِّنَ ٱلۡوَٰعِظِينَ ۝ 120
(136) उन्होंने जवाब दिया, “तू नसीहत कर या न कर, हमारे लिए सब बराबर है।
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا خُلُقُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 121
(137) ये बातें तो यूँ ही होती चली आई हैं।93
93. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि जो कुछ हम कर रहे हैं यह आज कोई नई चीज़ नहीं है, सदियों से हमारे बाप-दादा यही कुछ करते चले आ रहे हैं। यही उनका दीन (मज़हब) था, यही उनका तमद्दुन (तहज़ीब) था और ऐसे ही उनके अख़लाक़ और मामलात थे। कौन-सी आफ़त उनपर टूट पड़ी थी कि अब हम उसके टूट पड़ने का अन्देशा करें ज़िन्दगी गुज़ारने के इस ढंग में कोई ख़राबी होती तो पहले ही अज़ाब आ चुका होता, जिससे तुम डराते हो। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि जो बातें तुम कर रहे हो ऐसी ही बातें पहले भी बहुत-से मज़हबी ख़ब्ती और अख़लाक़ की बातें बघारनेवाले करते रहे हैं, मगर दुनिया की गाड़ी जिस तरह चल रही थी उसी तरह चले जा रही है। तुम जैसे लोगों की बातें न मानने का नतीजा कभी यह न निकला कि यह गाड़ी किसी दुख से दोचार होकर उलट गई हो।
وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 122
(138) और हम अज़ाब में मुब्तला होनेवाले नहीं हैं।”
فَكَذَّبُوهُ فَأَهۡلَكۡنَٰهُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 123
(139) आख़िरकार उन्होंने उसे झुठला दिया और हमने उनको हलाक कर दिया।94
94. इस क़ौम के हलाक होने की जो तफ़सील क़ुरआन मजीद में बयान की गई है वह यह है कि अचानक ज़ोर की आँधी उठी। ये लोग दूर से उसकी अपनी घाटियों की तरफ़ आते देखकर समझे कि घटा छाई है। ख़ुशियाँ मनाने लगे कि अब ख़ूब बारिश होगी। मगर वह था ख़ुदा का अज़ाब। आठ दिन और सात रातों तक लगातार ऐसी तूफ़ानी हवा चलती रही, जिसने हर चीज़ को तबाह कर डाला। उसके ज़ोर का हाल यह था कि उसने आदमियों को उठा-उठाकर फेंक दिया। उसकी गर्मी और ख़ुश्की का यह हाल था कि जिस चीज पर गुज़र गई उसे तोड़-फोड़कर रख दिया और यह तूफ़ान उस वक़्त तक न थमा जब तक इस ज़ालिम क़ौम का एक-एक आदमी ख़त्म न हो गया। बस इनकी बस्तियों के खण्डहर ही उनके अंजाम की दास्तान सुनाने के लिए खड़े रह गए और आज खण्डहर भी बाक़ी नहीं हैं। अहक़ाफ़ का पूरा इलाक़ा एक भयानक रेगिस्तान बन चुका है। (तफ़सील के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-46 अहक़ाफ़, हाशिया-25)
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 124
(140) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 125
(141) समूद ने रसूलों (पैग़म्बरी) को झुठलाया।95
95. यह क़िस्सा क़ुरआन में कुछ फ़र्क़ के साथ कई जगहों पर आया है। जैसे— सूरा-7 आराफ़, आयतें—73-79; सूरा-11 हूद, आयतें—61-68; सूरा-15 हिज्र, आयतें—80-84; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-59 और ज़्यादा तफ़सीत के लिए क़ुरआन के ये मक़ामात भी सामने रहें- सूरा-27 नम्ल, आयतें—45-53; सूरा-51 ज़ारियात, आयतें—43-45; सूरा-54 क़मर आयतें—23-31; सूरा-46 हाक़्क़ा, आयतें—4-5; सूरा-89 फ़ज्र, आयत-9; सूरा-91 शम्स, आयत-11। इस क़ौम के बारे में क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर जो साफ़-साफ़ बयान आए हैं उनसे मालूम होता है कि आद के बाद जिस क़ौम को तरक़्क़ी दी गई यह वही थी, “आद के बाद उसने तुम्हें ख़लीफ़ा बनाया।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-74) मगर इसकी तमद्दुनी (तहज़ीबी) तरक़्क़ी ने भी आख़िरकार वही शक़्ल इख़्तियार की जो आद की तरक़्क़ी ने की थी, यानी मेयारे-ज़िन्दगी ऊँचे-से-ऊँचा और इनसानियत का मेयार नीचे-से-नीचा होता चला गया। एक तरफ़ मैदानी इलाक़ों में शानदार महल और पहाड़ों में एलोरा और अजनता की गुफाओं जैसे मकान बन रहे थे। दूसरी तरफ़ समाज में शिर्क और बुतपरस्ती का ज़ोर था और ज़मीन ज़ुल्मो-सितम से भर रही थी। क़ौम के सबसे ज़्यादा बिगाड़ फैलानेवाले लोग उसके लीडर बने हुए थे। ऊँचे तबक़े अपनी बड़ाई के घमण्ड में चूर थे। हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की हक़ की दावत ने अगर अपनी तरफ़ खींचा तो निचले तबक़े के कमज़ोर लोगों को खींचा। ऊँचे तबक़ों ने उसे मानने से सिर्फ़ इसलिए इनकार कर दिया कि “जिस चीज़ पर तुम ईमान लाए हो उसको हम नहीं मान सकते।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-76)
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ صَٰلِحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 126
(142) याद करो जबकि उनके भाई सॉलेह ने उनसे कहा, “क्या तुम डरते नहीं?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 127
(143) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।96
96. हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की अमानतदारी और दियानतदारी और ग़ैर-मामूली क़ाबिलियत की गवाही ख़ुद उस क़ौम के लोगों की ज़बान से क़ुरआन मजीद इन अलफ़ाज़़ में नक़्ल करता है, “उन्होंने कहा, ऐ सॉलेह, इससे पहले तो तुम हमारे बीच ऐसे आदमी थे जिससे हमारी बड़ी उम्मीदें जुड़ी थीं।” (सूरा-11 हूद, आयत-62)
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 128
(144) लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 129
(145) में इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ, मेरा इनाम तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे है।
أَتُتۡرَكُونَ فِي مَا هَٰهُنَآ ءَامِنِينَ ۝ 130
(146) क्या तुम उन सब चीज़ों के बीच, जो यहाँ हैं, बस यूँ ही इत्मीनान से रहने दिए जाओगे?97
97. यानी क्या तुम्हारा ख़याल यह है कि तुम्हारा यह ऐश हमेशा रहनेवाला है? क्या इसको ख़त्म नहीं होना है? क्या तुमसे कभी इन नेमतों का हिसाब न लिया जाएगा और कभी इन आमाल की पूछ-गछ न होगी जिनको तुम कर रहे हो?
فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 131
(147) इन बाग़ों और चश्मों में?
وَزُرُوعٖ وَنَخۡلٖ طَلۡعُهَا هَضِيمٞ ۝ 132
(148) इन खेतों और नख़्लिस्तानों में जिनके गुच्छे रस भरे हैं?98
98. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'हज़ीम' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद खजूर के एसे गुच्छे हैं जो फलों से लदकर झुक गए हों और जिनके फल पकने के बाद नरमी और रस की वजह से फटे पड़ते हों।
وَتَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا فَٰرِهِينَ ۝ 133
(149) तुम पहाड़ खोद-खोदकर घमण्ड के साथ उनमें इमारतें बनाते हो।99
99. जिस तरह आद के तमद्दुन (तहज़ीब) की सबसे नुमायाँ ख़ासियत यह थी कि वे ऊँचे-ऊँचे सुतूनोंवाली इमारतें बनाते थे, इसी तरह समूद की तहज़ीब की सबसे ज़्यादा नुमायाँ ख़ासियत, जिसकी वजह से वे पुराने ज़माने की क़ौमों में मशहूर थे, यह थी कि वे पहाड़ों को तराश-तराशकर उनके अन्दर इमारतें बनाते थे। चुनाँचे सूरा-89 फ़ज्र, आयत-7 में जिस तरह आद को, 'ज़ातुल-इमाद' (सुतूनोंवाले) का लक़ब दिया गया है, उसी तरह समूद का ज़िक्र इस हवाले से किया गया है कि “वे जिन्होंने घाटी में चट्टानें तराशी हैं।” (सूरा-89, आयत-9) इसके अलावा क़ुरआन में यह भी बताया गया है कि वे अपने यहाँ मैदानी इलाक़ों में भी बड़े-बड़े महल बनाते थे, “तुम उसके समतल मैदानों में महल बनाते हो।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-74) और इन तामीरात (निर्माणों) का मक़सद क्या था? क़ुरआन इसपर लफ़्ज़ 'फ़ारिहीन' से रौशनी डालता है। यानी यह सब कुछ अपनी बड़ाई, अपनी दौलत और ताक़त और अपने हुनर के कमाल की नुमाइश के लिए था, कोई हक़ीक़ी ज़रूरत उनके पीछे न थी। एक बिगड़ी हुई तहज़ीब की शान यही होती है। एक तरफ़ समाज के ग़रीब लोग सर छिपाने तक को ढंग की जगह नहीं पाते, दूसरी तरफ़ बड़े और मालदार लोग रहने के लिए जब ज़रूरत से ज़्यादा महल बना चुकते हैं तो बे-ज़रूरत नुमाइशी यादगार बनाने लगते हैं। समूद की इन इमारतों में से कुछ अब भी बाक़ी हैं जिन्हें 1959 ई० के दिसम्बर में मैंने ख़ुद देखा है। यह जगह मदीना तय्यिबा और तबूक के बीच हिजाज़ की मशहूर जगह अल-उला (जिसे नबी सल्ल० के दौर में क़ुरा की वादी कहा जाता था) से कुछ क़दम के फ़ासले पर उत्तर की तरफ़ है। आज भी उस जगह को मक़ामी लोग, 'अल-हिज्र’ और, 'मदाइने-सॉलेह' के नामों ही से याद करते हैं। इस इलाक़े में अल-उला तो अब भी एक बहुत ही हरी-भरी घाटी है, जिसमें बहुत ज़्यादा पानी के चश्मे और बाग़ हैं, मगर अल-हिज्र के आसपास बड़ी वीरानी पाई जाती है। आबादी बराए नाम है। हरियाली बहुत कम है। कुछ कुएँ हैं। उन्हीं में से एक कुएँ के बारे में मक़ामी आबादी में यह कहावत चली आ रही है कि हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की ऊँटनी उसी से पानी पीती थी। अब वह तुर्की दौर की एक वीरान छोटी-सी फ़ौजी चौकी के अन्दर पाया जाता है और बिलकुल सूखा पड़ा है। इस इलाक़े में जब हम दाख़िल हुए तो अल-उला के क़रीब पहुँचते ही हर तरफ़ हमें ऐसे पहाड़ नज़र आए जो बिलकुल खील-खील हो गए हैं। साफ़ महसूस होता था कि किसी भयानक ज़लज़ले ने उन्हें ज़मीन की सतह से चोटी तक झिंझोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर रखा है। इसी तरह के पहाड़ हमें पूरब की तरफ़ अल-उला से ख़ैबर जाते हुए लगभग 50 मील तक और उत्तर की तरफ़ उर्दुन के राज्य की सीमाओं में 30-40 मील अन्दर तक मिलते चले गए। इसका मतलब यह है कि तीन-चार सौ मील लम्बा और 100 मील चौड़ा एक इलाक़ा था जिसे एक बड़े ज़लज़ले ने हिलाकर रख दिया था। समूद की जो इमारतें हमने हिज्र में देखी थीं, उसी तरह की कुछ इमारतें हमको, ‘अक़बा' की खाड़ी के किनारे मदयन के मक़ाम पर, और उर्दुन के राज्य में पेट्रा (Petra) के मक़ाम पर भी मिलीं। ख़ास तौर से पेट्रा में समूद की इमारतें और नबतियों की बनाई हुई इमारतें साथ-साथ मौजूद हैं और उनकी तराश-ख़राश और बनाने के ढंग में इतना साफ़ फ़र्क़ है कि हर शख़्स एक नज़र देखकर ही समझ सकता है कि ये दोनों न एक ज़माने की हैं और न ये एक ही क़ौम के ज़रिए से तामीर हुईं। इस्लाम का तंक़ीदी मुताला करनेवाले अंग्रेज़ मुस्तशरिक़ डाटी (Daughty) क़ुरआन को झूठा साबित करने के लिए हिज्र की इमारतों के बारे में यह दावा करता है कि ये समूद की नहीं, बल्कि नबतियों को बनाई हुई इमारतें हैं। लेकिन दोनों क़ौमों की इमारतों का फ़र्क़ इतना खुला हुआ है कि एक अंधा ही उन्हें एक क़ौम की इमारतें कह सकता है। मेरा अन्दाज़ा यह है कि पहाड़ तराशकर उनके अन्दर इमारतें बनाने का हुनर समूद से शुरू हुआ, उसके हज़ारों साल बाद नबतियों ने दूसरी और पहली सदी ई०पू० में इसे तरक़्क़ी दी, और फिर एलोरा में (जिसकी गुफाएँ पेट्रा से लगभग सात सौ साल बाद की हैं) ये हुनर अपने कमाल को पहुँच गया।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 134
(150) अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।
وَلَا تُطِيعُوٓاْ أَمۡرَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 135
(151) उन बे-लगाम लोगों का कहना न मानो
ٱلَّذِينَ يُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا يُصۡلِحُونَ ۝ 136
(152 ) जो ज़मीन में फ़साद फैलाते हैं और कोई सुधार नहीं करते।"100
100. यानी अपने उन अमीरों और रईसों और उन रहनुमाओं और हाकिमों के पीछे चलना छोड़ दो जिनकी रहनुमाई में तुम्हारा यह बिगड़ा हुआ ज़िन्दगी का निज़ाम चल रहा है। ये हदें पार करनेवाले लोग हैं, अख़लाक़ की सारी हदें फलाँगकर बेनकेल के ऊँट बन चुके हैं इनके हाथों से कोई सुधार नहीं हो सकता। ये जिस निज़ाम को चलाएँगे उसमें बिगाड़ ही फैलेगा तुम्हारे लिए कामयाबी और नजात की कोई सूरत अगर है तो सिर्फ़ यह कि अपने अन्दर ख़ुदा का डर पैदा करो और बिगाड़ फैलानेवालों की पैरवी छोड़कर मेरा कहा मानो, क्योंकि मैं ख़ुदा का रसूल हैं, मेरी अमानतदारी और ईमानदारी को तुम पहले से जानते हो, और मैं एक बेग़रज़ आदमी हूँ, अपने किसी निज़ी फ़ायदे के लिए सुधार का यह काम करने नहीं उठा हूँ— यह था वह मुख़्तसर मनशूर (घोषणा पत्र) जो हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने अपनी क़ौम के सामने पेश किया, इसमें सिर्फ़ मज़हबी तबलीग़ ही न थी, समाजी और अख़लाक़ी सुधार और सियासी इंक़िलाब की दावत भी साथ-साथ मौजूद थी।
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 137
(153) उन्होंने जवाब दिया, “तू तो बस एक जादू का मारा आदमी है।101
101. 'जादू का मारा' यानी दीवाना और मजनून, जिसकी अक़्ल मारी गई हो। पुराने ख़यालात के मुताबिक़ पागलपन या तो किसी जिन्न के असर से होता था या जादू के असर से। इसलिए वे जिसे पागल कहना चाहते थे उसको या तो 'मजनून' (जिन्न का मारा) कहते थे या 'मसहूर’ और 'मुसह्हर' (जादू का मारा)।
مَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا فَأۡتِ بِـَٔايَةٍ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 138
(154) तू हम जैसे एक इंसान के सिवा और क्या है? ला कोई निशानी अगर तू सच्चा है।”102
102. यानी बज़ाहिर तो हममें और तुझमें कोई फ़र्क़ नजर नहीं आता कि हम तुझे ख़ुदा का पैग़म्बर मान लें। लेकिन अगर तू अल्लाह की तरफ़ से भेजे जाने और उसकी तरफ़ से पैग़म्बर बनाए जाने के दावे में सच्चा है तो कोई ऐसा महसूस मोजिज़ा पेश कर जिससे हमें यक़ीन आ जाए कि सचमुच कायनात के पैदा करनेवाले और ज़मीन और आसमान के मालिक ने तुझको हमारे पास भेजा है।
قَالَ هَٰذِهِۦ نَاقَةٞ لَّهَا شِرۡبٞ وَلَكُمۡ شِرۡبُ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 139
(155) सॉलेह ने कहा, “यह ऊँटनी है।103 एक दिन इसके पीने का है और एक दिन तुम सबके पानी लेने का।104
103. मोजिज़े (चमत्कार) की माँग पर ऊँटनी पेश करने से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह सिर्फ़ एक आम ऊँटनी न थी जैसी हर अरब के पास वहाँ पाई जाती थी, बल्कि ज़रूर उसकी पैदाइश और उसके ज़ाहिर होने में या उसकी बनावट में कोई ऐसी चीज़ थी जिसे मोजिज़े को माँग पर पेश करना मुनासिब होता। अगर हज़रत सॉलेह (अलैहि०) इस माँग के जवाब में यूँ ही किसी ऊँटनी को पकड़कर खड़ा कर देते तो ज़ाहिर है कि यह एक बिलकुल बेकार हरकत होती, जिसकी किसी पैग़म्बर से तो बहुत दूर, एक आम समझदार आदमी से भी उम्मीद नहीं की जा सकती। यह बात यहाँ तो सिर्फ़ बात के मौक़ा-महल ही के तक़ाज़े से समझ में आती है, लेकिन दूसरी जगहों पर क़ुरआन में साफ़-साफ़ इस ऊँटनी के वुजूद को मोजिज़ा कहा गया है सूरा-7 आराफ़, आयत-73 और सूरा-11 हूद, आयत-64 में फ़रमाया गया, “यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए निशानी के तौर पर है।” और सूरा-17 बनी-इसराईल में इससे भी ज़्यादा ज़ोरदार अलफ़ाज़ में कहा गया है— "हमको निशानियों भेजने से किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर इस बात ने लोग उनको झुठला चुके हैं और हम समूद के सामने आँखों देखते ऊँटनी ले आए फिर भी उन्होंने उसके साथ ज़ुल्म किया। निशानियाँ तो हम डराने ही के लिए भेजते हैं (तमाशा दिखाने के लिए तो नहीं भेजते)। (आयत-59) इसपर वह चैलेंज और है जो ऊँटनी को मैदान में ले आने के बाद उस इनकार करनेवाली क़ौम को दिया गया। वह चैलेंज ऐसा ही था कि सिर्फ़ एक मोजिज़ा पेश करके ही ऐसा चैलेंज दिया जा सकता था।
104. यानी एक दिन अकेले यह ऊँटनी तुम्हारे कुओं और पानी के चश्मों से पानी पिएगी और एक दिन सारी क़ौम के आदमी और जानवर पिएँगे। ख़बरदार, उसकी बारी के दिन कोई आदमी पानी लेने की जगह फ़टकने भी न पाए। यह चैलेंज अपने आपमें ख़ुद बहुत सख़्त था। लेकिन अरब के ख़ास हालात में तो किसी काम के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा चैलेंज हो नहीं सकता था। वहाँ तो पानी ही के मसले पर ख़ून-खराबे हो जाते थे, क़बीला क़बीले से लड़ जाता था और जान जोखिम में डालकर किसी कुएँ या चश्मे का पानी लेने का हक़ हासिल किया जाता था। इस सरज़मीन में किसी शख़्स का उठकर यह कह देना कि एक दिन मेरी अकेली ऊँटनी पानी पिएगी और बाक़ी सारी क़ौम के आदमी और जानवर सिर्फ़ दूसरे दिन ही पानी ले सकेंगे, यह मतलब रखता था कि वह अस्ल में पूरी क़ौम को लड़ाई का चैलेंज दे रहा है। एक ज़बरदस्त लश्कर के बिना कोई आदमी अरब में यह बात ज़बान से न निकाल सकता था और कोई क़ौम यह बात उस वक़्त तक न सुन सकती थी जब तक वह अपनी आँखों से यह न देख रही हो कि चैलेंज देनेवाले के पीछे इतने तलवारवाले और तीरन्दाज़ मौजूद हैं जो मुक़ाबले पर उठनेवालों को कुचलकर रख देंगे। लेकिन हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने बिना किसी लाव-लश्कर के अकेले उठकर यह चैलेंज अपनी क़ौम को दिया और क़ौम ने न सिर्फ़ यह कि उसको कान लटकाकर सुना, बल्कि बहुत दिनों तक डर के मारे वह उसपर अमल भी करती रही। सूरा-7 आराफ़, आयत-73 और सूरा-1। हूद, आयत-64 में इसपर इतना इज़ाफ़ा है कि “यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए निशानी के तौर पर है, छोड़ दो इसे कि अल्लाह की ज़मीन में चरती फिरे, हरगिज़ इसे बुरे इरादे से न छूना।” यानी चेलेंज सिर्फ़ इतना ही न था कि हर दूसरे दिन अकेली यह ऊँटनी दिन भर सारे इलाक़े के पानी की मालिक रहेगी, बल्कि उसपर यह चैलेंज और भी था कि यह तुम्हारे खेतों और बाग़ों और नख़्लिस्तानों और चरागाहों में दनदनाती फिरेगी, जहाँ चाहेगी जाएगी, जो कुछ चाहेगी खाएगी, ख़बरदार जो किसी ने उसे छेड़ा।
وَلَا تُخۡزِنِي يَوۡمَ يُبۡعَثُونَ ۝ 140
(87) और मुझे उस दिन रूसवा न कर जबकि सब लोग ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे64
64. यानी क़ियामत के दिन यह रुसवाई मुझे न दिखा कि हश्र के मैदान में शुरू और आख़िर के तमाम लोगों के सामने इबराहीम का बाप सज़ा पा रहा हो और इबराहीम खड़ा देख रहा हो।
يَوۡمَ لَا يَنفَعُ مَالٞ وَلَا بَنُونَ ۝ 141
(88) जबकि न माल कोई फ़ायदा देगा न औलाद,
إِلَّا مَنۡ أَتَى ٱللَّهَ بِقَلۡبٖ سَلِيمٖ ۝ 142
(89) सिवाय इसके कि कोई शख़्स भला-चंगा दिल लिए हुए अल्लाह के सामने हाज़िर हो।65
65. इन दो जुमलों के बारे में यह बात यक़ीन के साथ नहीं कही जा सकती कि ये हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की दुआ का हिस्सा हैं या इन्हें अल्लाह तआला ने उनकी बात पर इज़ाफ़ा करते हुए इरशाद फ़रमाया है। अगर पहली बात मानी जाए तो इसका मतलब यह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने बाप के लिए यह दुआ करते वक़्त ख़ुद भी इन हक़ीक़तों का एहसास रखते थे और दूसरी बात मानी जाए तो इसका मतलब यह होगा कि उनकी दुआ पर तबसिरा (टिप्पणी) करते हुए अल्लाह तआला यह फ़रमा रहा है कि क़ियामत के दिन आदमी के काम अगर कोई चीज़ आ सकती है तो वह माल और औलाद नहीं, बल्कि सिर्फ़ भला-चंगा दिल है, ऐसा दिल जो कुफ़्र और शिर्क और ख़ुदा की नाफ़रमानी, बिगाड़ और सरकशी से पाक हो। माल और औलाद भी साफ़-सुथरे दिल के साथ ही फ़ायदेमन्द हो सकते हैं, इसके बिना नहीं। माल सिर्फ़ उस सूरत में वहाँ फ़ायदेमन्द होगा जबकि आदमी ने दुनिया में ईमान और ख़ुलूस (निष्ठा) के साथ उसे अल्लाह की राह में ख़र्च किया हो, वरना करोड़पति आदमी भी वहाँ कंगाल होगा। औलाद भी सिर्फ़ उसी हालत में वहाँ काम आ सकेगी जबकि आदमी ने दुनिया में उसे अपनी हद तक ईमान और अच्छे कामों की तालीम दी हो, वरना बेटा अगर नबी और पैग़म्बर भी हो तो वह बाप सज़ा पाने से नहीं बच सकता जिसका अपना ख़ातिमा कुफ़्र और ख़ुदा की नाफ़रमानी पर हुआ हो और औलाद की नेकी में जिसका अपना कोई हिस्सा न हो।
وَأُزۡلِفَتِ ٱلۡجَنَّةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 143
(90) (उस दिन66) जन्नत परहेज़गारों के क़रीब ले आई जाएगी
66. यहाँ से आख़िरी पैराग्राफ़ तक की पूरी इबारत हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की बात का हिस्सा नहीं मालूम होती, बल्कि इसका मज़मून साफ़ ज़ाहिर कर रहा है कि यह अल्लाह तआला का अपना इरशाद है।
وَبُرِّزَتِ ٱلۡجَحِيمُ لِلۡغَاوِينَ ۝ 144
(91) और जहन्नम बहके हुए लोगों के सामने खोल दी जाएगी67
67. यानी एक तरफ़ परहेज़गार लोग जन्नत में दाख़िल होने से पहले ही यह देख रहे होंगे कि कैसी नेमतों से भरी जगह है जहाँ अल्लाह की मेहरबानी से हम जानेवाले हैं और दूसरी तरफ़ गुमराह लोग अभी हश्र के मैदान ही में होंगे कि उनके सामने उस जहन्नम का भयानक मंज़र पेश कर दिया जाएगा जिसमें उन्हें जाना है।
وَقِيلَ لَهُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 145
(92) और उनसे पूछा जाएगा कि “अब कहाँ हैं वे जिनकी तुम ख़ुदा को छोड़कर इबादत किया करते थे?
مِن دُونِ ٱللَّهِ هَلۡ يَنصُرُونَكُمۡ أَوۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 146
(93) क्या वे तुम्हारी कुछ मदद कर रहे हैं या ख़ुद अपना बचाव कर सकते हैं?"
فَكُبۡكِبُواْ فِيهَا هُمۡ وَٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 147
(94) फिर वे माबूद और ये बहके हुए लोग,
وَجُنُودُ إِبۡلِيسَ أَجۡمَعُونَ ۝ 148
(95) और इबलीस के लश्कर सब-के सब उसमें ऊपर तले धकेल दिए जाएँगे68
68. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कुबकिबू' आया है जिसमें दो मतलब शामिल हैं। एक यह कि एक के ऊपर एक धकेल दिया जाएगा, दूसरा यह कि वे जहन्नम की गहराई तक लुढ़कते चले जाएँगे।
قَالُواْ وَهُمۡ فِيهَا يَخۡتَصِمُونَ ۝ 149
(96) वहाँ ये सब आपस में झगड़ेंगे और ये बहके हुए लोग (अपने माबूदों से) कहेंगे कि
تَٱللَّهِ إِن كُنَّا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 150
(97) “ख़ुदा की क़सम, हम तो खुली गुमराही में मुब्तला थे
إِذۡ نُسَوِّيكُم بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 151
(98) जबकि तुमको रब्बुल-आलमीन की बराबरी का दरजा दे रहे थे।
فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 152
(158) अज़ाब ने उन्हें आ लिया।106 यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर माननेवाले नहीं।
106. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस अज़ाब की जो तफ़सील बयान हुई है वह यह है कि जब ऊँटनी मार डाली गई तो हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने प्लान किया, “तीन दिन अपने घरों में मज़े कर लो।” (सूरा-11 हूद, आयत-65) इस नोटिस की मुद्दत ख़त्म होने पर रात के पिछले पहर सुबह के क़रीब एक ज़बरदस्त धमाका हुआ और उसके साथ ऐसा सख़्त ज़लज़ला आया जिसने देखते-ही-देखते पूरी क़ौम को तबाह करके रख दिया। सुबह हुई तो हर तरफ़ इस तरह कुचली हुई लाशें पड़ी थीं कि जैसे बाड़े की बाड़ में लगी हुई सूखी झाड़ियाँ जानवरों के रौंदने से कुचलकर रह गई हो। न उनके पत्थर के महल उन्हें इस आफ़त से बचा सके, न पहाड़ों में खोदी हुई गुफाएँ— “हमने उनपर बस एक ही धमाका छोड़ा, फिर वे बाड़ेवाले की रौंदी हुई बाड़ की तरह चूरा होकर रह गए।” (सूरा-54 क़मर, आयत-31) और, “आख़िरकार एक दहला देनेवाली आफ़त ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में ऑँधे पड़े-के-पड़े रह गए।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-78) और, “आख़िरकार एक ज़बरदस्त धमाके ने सुबह होते-होते उन्हें आ लिया और उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई।” (सूरा-15 हिज्र, आयतें—83-84)
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 153
(159) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 154
(160) लूत की क़ौम ने रसूलों (पैग़म्बरों) को झुठलाया।107
107. यह क़िस्सा क़ुरआन में थोड़े फ़र्क़ के साथ कई जगहों पर आया है जैसे- सूरा-7 आराफ़, आयतें—80-84; सूरा-11 हूद, आयतें—74-83; सूरा-15 हिज्र, आयतें—57-77; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—71-75; सूरा-27 नम्ल, आयतें—54-58; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—28-35; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—133-138; सूरा-54 क़मर, आयतें—33-39।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ لُوطٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 155
(161) याद करो जबकि उनके भाई लूत ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 156
(162) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 157
(163) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 158
(164) मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ, मेरा इनाम तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे है।
أَتَأۡتُونَ ٱلذُّكۡرَانَ مِنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 159
(165) क्या तुम दुनिया के जानदारों में से मर्दों के पास जाते हो108
108. इसके दो मतलब हो सकते हैं, एक यह कि सारे इनसानों में से तुमने सिर्फ़ मर्दों को इस ग़रज़ के लिए छाँट लिया है कि उनसे नफ़्स (मन) की ख़ाहिश पूरी करो, हालाँकि दुनिया में बहुत औरतें मौजूद हैं। दूसरा मतलब यह है कि दुनिया भर में एक तुम्हीं ऐसे लोग हो जो जिंसी ख़ाहिश पूरी करने के लिए मर्दों के पास जाते हो, वरना इनसानों में कोई दूसरी क़ौम ऐसी नहीं है, बल्कि जानवरों में भी कोई जानवर ऐसा काम नहीं करता। इस दूसरे मतलब को सूरा-7 आराफ़, आयत-80 और सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-28 में और ज़्यादा खोलकर इस तरह बयान किया गया है, “क्या तुम वह बेहयाई का काम करते हो जो तुमसे पहले दुनियावालों में से किसी ने नहीं किया?”
وَتَذَرُونَ مَا خَلَقَ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٌ عَادُونَ ۝ 160
(166) और तुम्हारी बीवियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ पैदा किया है, उसे छोड़ देते हो?109 बल्कि तुम लोग तो हद से ही गुज़र गए हो।"110
109. इसके भी दो मतलब हो सकते हैं, एक यह कि इस ख़ाहिश को पूरा करने के लिए जो बीवियाँ ख़ुदा ने पैदा की थीं, उन्हें छोड़कर तुम ग़ैर-फ़ितरी ज़रिए यानी मर्दों को इस ग़रज़ के लिए इस्तेमाल करते हो। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि ख़ुद उन बीवियों के अन्दर ख़ुदा ने इस ख़ाहिश के पूरा करने का जो फ़ितरी रास्ता रखा था उसे छोड़कर तुम ग़ैर-फ़ितरी रास्ता अपनाते हो। इस दूसरे मतलब में यह इशारा निकलता है कि ये ज़ालिम लोग अपनी औरतों से भी ग़ैर-फ़ितरी ताल्लुक़ बनाते थे। नामुमकिन नहीं कि वे यह हरकत फ़ैमिली प्लॉनिंग (परिवार नियोजन) के लिए करते हों।
110. यानी तुम्हारा सिर्फ़ यही एक जुर्म नहीं है तुम्हारी ज़िन्दगी का तो सारा ढब ही हद से ज़्यादा बिगड़ चुका है। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर उनके इस आम बिगाड़ की कैफ़ियत इस तरह बयान की गई है, “क्या तुम्हारा यह हाल हो गया है कि खुल्लम-खुल्ला देखनेवालों की निगाहों के सामने बेहयाई का काम करते हो?” (सूरा-27 नम्ल, आयत-54)
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰلُوطُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُخۡرَجِينَ ۝ 161
(167) उन्होंने कहा, “ऐ लूत, अगर तू ये बातें करने से न माना तो जो लोग हमारी बस्तियों से निकाले गए हैं उनमें तू भी शामिल होकर रहेगा।"111
111. यानी तुझे मालूम है कि इससे पहले जिसने भी हमारे ख़िलाफ़ ज़बान खोली है, या हमारी हरकतों की मुख़ालफ़त की है, या हमारी मरज़ी के ख़िलाफ़ काम किया है, वह हमारी बस्तियों से निकाला गया है। अब अगर तू ये बातें करेगा तो तेरा अंजाम भी ऐसा ही होगा। सुरा-7 आराफ़, आयत-82 और सूरा-27 नम्ल, आयत-56 में बयान हुआ है कि हज़रत लूत (अलैहि०) को यह नोटिस देने से पहले उस शरारती क़ौम के लोग आपस में यह कर चुके थे कि "लूत और उसके ख़ानदानवालों और साथियों को अपनी बस्ती से निकाल बाहर करो। ये लोग बड़े पकबाज़ बनते हैं। इन 'नेक’ लोगों को बाहर का रास्ता दिखाओ।”
قَالَ إِنِّي لِعَمَلِكُم مِّنَ ٱلۡقَالِينَ ۝ 162
(168) उसने कहा, “तुम्हारे करतूतों पर जो लोग कुढ़ रहे हैं मैं उनमें शामिल हूँ।
رَبِّ نَجِّنِي وَأَهۡلِي مِمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 163
(169) ऐे परवरदिगार, मुझे और मेरे घरवालों को इनके बुरे कामों (कर्मों) से नजात दे।"112
112. इसका यह मतलब भी हो सकता है कि हमें उनके बुरे कामों के बुरे अंजाम से बचा और यह मतलब भी लिया जा सकता है कि इस बदकिरदार और बदचलन बस्ती में जो अख़लाक़ी गन्दगियाँ फैली हुई हैं, उनकी छूत कहीं हमारे बाल-बच्चों को न लग जाए, ईमानवालों की अपनी नस्लें कहीं इस बिगड़े हुए माहौल से मुतास्सिर न हो जाएँ, इसलिए ऐ परवरदिगार, हमें इस हर वक़्त के अज़ाब से नजात दे जो इस नापाक समाज में ज़िन्दगी गुज़ारने से हम पर गुज़र रहा है।
فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 164
(170) आख़िरकार हमने उसे और उसके सब घरवालों को बचा लिया,
إِلَّا عَجُوزٗا فِي ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 165
(171) सिवाय एक बुढ़िया के जो पीछे रह जानेवालों में थी।113
113. इससे मुराद हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवी है। सूरा-66 तहरीम में हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवियों के बारे में कहा गया है कि “ये दोनों औरतें हमारे दो नेक बन्दों के घर में थीं, मगर इन्होंने उनके साथ ख़ियानत (बेईमानी) की।” (आयत-10) यानी दोनों ईमान से ख़ाली थीं और अपने नेक शौहरों का साथ देने के बजाय उन दोनों ने अपनी ख़ुदा की नाफ़रमान क़ौम का साथ दिया। इसी वजह से जब अल्लाह तआला ने लूत (अलैहि०) की क़ौम पर अज़ाब उतारने का फ़ैसला किया और हज़रत लूत (अलैहि०) को हुक्म दिया कि अपने परवालों को लेकर इस इलाक़े से निकल जाएँ तो साथ ही यह भी हिदायत कर दी कि अपनी बीवी को साथ न ले जाओ, “तो तू कुछ रात रहे अपने घरवालों को साथ लेकर निकल जा और तुममें से कोई पीछे पलटकर न देखे। मगर अपनी बीवी को साथ न ले जा, उसपर वही कुछ गुज़रनी है जो उन लोगों पर गुज़रनी है।” (सूरा-11 हूद, आयत-81)
ثُمَّ دَمَّرۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 166
(172) फिर बाक़ी लोगों को हमने तबाह कर दिया
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَسَآءَ مَطَرُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 167
(173) और उनपर बरसाई एक बरसात, बड़ी ही बुरी बारिश थी जो उन डराए जानेवालों पर बरसी।114
114. इस बारिश से मुराद पानी की बारिश नहीं, बल्कि पत्थरों की बारिश है। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर इस अज़ाब की जो तफ़सील बयान हुई है वह यह है कि हज़रत लूत (अलैहि०) जब रात के पिछले पहर अपने बाल-बच्चों को लेकर निकल गए तो सुबह पौ फटते ही यकायक एक ज़ोर का धमाका हुआ, एक भयानक ज़लज़ले ने उनकी बस्तियों को तलपट करके रख दिया, (सूरा-15 हिज्र, आयत-73) एक ज़बरदस्त ज्वालामुखी के फूट पड़ने से उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर बरसाए गए, (सूरा-15 हिज्र, आयत-74) और एक तूफ़ानी हवा से भी उनपर पथराव किया गया। (सूरा-11 हूद, आयत-82) बाइबल के बयानों, क़दीम (प्राचीन) यूनानी और लेटिन लेखों, नए ज़माने की ज़मीन की अन्दरूनी खोजों और आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) को देखने से इस अज़ाब की तफ़सील पर जो रौशनी पड़ती है, उसका ख़ुलासा हम नीचे लिख रहे हैं— मृत सागर (Dead Sea) के दक्षिण और पूरब में जो इलाक़ा आज इन्तिहाई वीरान और सुनसान हालत में पड़ा हुआ है, उसमें बड़ी तादाद में पुरानी बस्तियों के खण्डहरों की मौजूदगी पता देती है कि यह किसी ज़माने में निहायत आबाद इलाक़ा रहा था आज वहाँ सैकड़ों बरबाद हो चुकी बस्तियों के निशान मिलते हैं, हालाँकि अब यह इलाक़ा इतना हरा-भरा नहीं है कि इतनी आबादी का बोझ सह सके। आसारे क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) के माहिरों का अन्दाज़ा है कि इस इलाक़े की आबादी और ख़ुशहाली का दौर 2300 ई० पू० से 1900 ई०पू० तक रहा है और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बारे में इतिहासकारों का अन्दाज़ा यह है कि वे 2000 ई० पू० के लगभग ज़माने में गुज़रे हैं। इस लिहाज़ से आसार की गवाही इस बात की ताईद करती है कि यह इलाक़ा हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और उनके भतीजे हज़रत लूत (अलैहि०) के दौर ही में बरबाद हुआ है। इस इलाक़े का सबसे ज़्यादा आबाद और हरा-भरा हिस्सा वह था जिसे बाइबल में 'सिद्दीम की घाटी’ कहा गया है, जिसके बारे में बाइबल का बयान है कि “वह इससे पहले कि ख़ुदावन्द ने सदोम और उमोरा को तबाह किया, ख़ुदावन्द के बाग़ (अद्न) और मिस्र की तरह ख़ूब सैराब थी।” (उत्पत्ति, अध्याय-13, आयत-10) आज के ज़माने के खोज करनेवालों की आम राय यह है कि वह घाटी अब मृत सागर के अन्दर डूब चुकी है, और यह राय अलग-अलग निशानियों से क़ायम की गई है। पुराने ज़माने में मृत सागर दक्षिण की तरफ़ इतना फैला हुआ न था जितना अब है। पूर्वी जॉर्डन के मौजूदा शहर अल-कर्क के सामने पश्चिम की तरफ़ इस सागर में जो एक छोटा-सा जज़ीरा-नुमा (प्रायद्वीप) 'अल-लिसान' पाया जाता है, पुराने ज़माने में बस यही पानी की आख़िरी सरहद थी। उसके नीचे का हिस्सा जहाँ अब पानी फैल गया है, पहले एक हरी-भरी घाटी की शक्ल में आबाद था और यही वह घाटी सिद्दीम थी जिसमें लूत (अलैहि०) की क़ौम के बड़े-बड़े शहर सदोम, उमोरा, अमा, सबोयीम और बेला (सोअर) थे। 2000 ई० पू० के लगभग ज़माने में एक ज़बरदस्त ज़लज़ले की वजह से यह घाटी फटकर दब गई और मृत सागर का पानी इसके ऊपर छा गया। आज भी यह सागर का सबसे ज़्यादा उथला हिस्सा है, मगर रोमी दौर में यह इतना उथला था कि लोग अल-लिसान से मग़रिबी (पश्चिमी) तट तक चलकर पानी में से गुज़र जाते थे। इस वक़्त तक दक्षिणी तट के साथ-साथ पानी में डूबे हुए जंगल साफ़ नज़र आते हैं, बल्कि वह शक भी किया जाता है कि पानी में कुछ इमारतें डूबी हुई हैं। बाइबल और क़दीम (प्राचीन) यूनानी और लैटिन लेखों से मालूम होता है कि इस इलाक़े में जगह-जगह पेट्रोल और स्फ़ाल्ट के गढ़े थे और कुछ-कुछ जगह ज़मीन से जल उठनेवाली ग़ैस भी निकलती थी। अब भी वहाँ ज़मीन के नीचे पेट्रोल और ग़ैसों का पता चलता है। ज़मीन की अन्दरूनी खोजों से अन्दाजा किया गया है कि ज़लज़ले के तेज़ झटकों के साथ पेट्रोल, ग़ैस और स्फ़ाल्ट ज़मीन से निकलकर भड़क उठे और सारा इलाक़ा भक से उड़ गया। बाइबल का बयान है कि इस तबाही की ख़बर पाकर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) जब हिब्रून से इस घाटी का हाल देखने आए तो ज़मीन से धुआँ इस तरह उठ रहा था जैसे भट्टी का धुआँ होता है।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 168
(174) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर माननेवाले नहीं
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 169
(175) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ لۡـَٔيۡكَةِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 170
(176) ऐकावालों ने रसूलों (पैग़म्बरों) को झुठलाया।115
115. “एकावालों' का थोड़ा-सा ज़िक्र सूरा-15 हिज्र, आयतें—78-84 में पहले गुज़र चुका है। यहाँ उसकी तफ़सील बयान हो रही है। क़ुरआन के आलिमों के बीच इस बात में रायें अलग-अलग हैं कि क्या मदयन और एकावाले अलग-अलग क़ौमें हैं या एक ही क़ौम के दो नाम हैं। एक गरोह का ख़याल है कि ये दो अलग-अलग क़ौमें है और इसके लिए सबसे बड़ी दलील यह है कि सूरा-7 आराफ़, आयत-85 में हज़रत शुऐब (अलैहि०) को मदयनवालों का भाई कहा गया है, “व इला मद-य-न अख़ाहुम शुऐबा” (और मदयन की तरफ़ उनके भाई शुऐब को भेजा), और यहाँ ऐकावालों के ज़िक्र में सिर्फ़ यह कहा है कि “जबकि उनसे शुऐब ने कहा।” (सूरा-26 शुअरा, आयत-177) 'उनके भाई’ (अख़ाहुम) का लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं किया। इसके बरख़िलाफ़ कुछ तफ़सीर लिखनेवाले दोनों को एक ही क़ौम ठहराते हैं, क्योंकि सूरा-7 आराफ़ और सूरा-11 हूद में जो बीमारियाँ और सिफ़ात मदयनवालों की बयान हुई हैं वही यहाँ ऐकावालों की बयान हो रही हैं। हज़रत शुऐब (अलैहि०) की दावत और नसीहत भी एक जैसी है और आख़िरकार उनके अंदाज में भी फ़र्क़ नहीं है। तहक़ीक़ से मालूम होता है कि ये दोनों बातें अपनी जगह सही हैं। मदयनवाले और ऐकावाले बेशक दो अलग-अलग क़बीले हैं, मगर हैं एक ही नस्ल की दो शाखाएँ। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की जो औलाद उनकी बीवी या कनीज़ (लौंडी) क़तूरा के पेट से थी वह अरब और इसराईल के इतिहास में बनी-क़तरा के नाम से जानी जाती है। उनमें से एक क़बीला जो सबसे ज़्यादा मशहूर हुआ, मदयान-बिन-इबराहीम के ताल्लुक़ से मदयानी या असहाबे-मदयन कहलाया और उसकी आबादी उत्तरी हिजाज़ से फ़िलस्तीन के दक्षिण तक और वहाँ से जज़ीरा-नुमाए सीना (प्रायद्वीप सीना) के आख़िरी कोने तक लाल सागर और अक़बा खाड़ी के समन्दरी तटों पर फैल गई। उसको राजधानी शहर मदयन थी, जो अबुल-फ़िदा के मुताबिक़ अक़बा नामक खाड़ी के पश्चिमी किनारे ऐला (मौजूदा अक़बा) से पाँच दिन के रास्ते पर था। बाक़ी बनी-क़तूरा जिनमें बनी-दिदान (Dedanites) दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा मशहूर हैं, उत्तरी अरब में तैमा, तबूक और अल-उला के बीच आबाद हुए और उनकी राजधानी तबूक थी, जिसे पुराने ज़माने में ऐका कहते थे। (याक़ूब ने मुअजमुल-बुलदान में एक लफ़्ज़ ऐका के तहत बताया है कि यह तबूक का पुराना नाम है और तबूकवालों में आम तौर पर यह बात मशहूर है कि यही जगह किसी ज़माने में ऐका थी)। मदयनवालों और ऐेकावालों के लिए एक ही पैग़म्बर भेजे जाने की वजह शायद वह थी कि दोनों एक ही नस्ल से ताल्लुक़ रखते थे, एक ही ज़बान बोलते थे और उनके इलाक़े भी बिलकुल एक-दूसरे से मिले हुए थे, बल्कि नामुमकिन नहीं कि कुछ इलाक़ों में यह साथ-साथ आबाद हों और आपस के शादी-ब्याह से उनका समाज भी आपस में घुल-मिल गया हो। इसके अलावा बनी-क़तूरा की दोनों शाखाओं का पेशा भी तिज़ारत था और दोनों में एक ही तरह की तिज़ारती बेईमानियों ओर मज़हबी और अख़लाक़ी बीमारियाँ पाई जाती थीं। बाइबल को शुरुआती किताबों में जगह-जगह यह ज़िक्र मिलता है कि वे लोग बअले-फ़गूर की परस्तिश करते थे और बनी-इसराईल जब मिस्र से निकलकर उनके इलाक़े में आए तो उनके अन्दर भी इन्होंने शिर्क और ज़िनाकारी (व्यभिचार) की बुराई फैला दी। (गिनती, अध्याय-25, आयतें—1-5, अध्याय-31, आयतें—16-17) फिर ये लोग बैनल-अक़वामी तिजारत (अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार) के उन दो बड़े रास्तों पर आबाद थे जो यमन से शाम (सीरिया) और फ़ारस की खाड़ी से मिस्र की तरफ़ जाते थे। इन रास्तों पर होने की वजह से उन्होंने बड़े पैमाने पर लूटपाट का सिलसिला चला रखा था। दूसरी क़ौमों के तिजारती क़ाफ़िलों को भारी टैक्स लिए बिना गुज़रने न देते थे और बैनल-अक़वामी तिजारत पर ख़ुद क़ब्ज़ा किए रहने के लिए उन्होंने रास्तों का अम्न ख़तरे में डाल रखा था। क़ुरआन मजीद में उनकी इस पोज़ीशन को यूँ बयान किया गया है, “ये दोनों (लूत की क़ौम और ऐकावाले) खुली सड़क पर आबाद थे।” और इनकी लूटपाट का ज़िक्र सूरा-7 आराफ़ में इस तरह किया गया है, “और हर रास्ते पर लोगों को डराने न बैठो।” यही वजहें थीं जो अल्लाह तआला ने उन दोनों क़बीलों के लिए एक ही पैग़म्बर भेजा और उनको एक ही तरह की तालीम दी। हज़रत शुऐब (अलैहि०) और मदयनवालों के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए सूरा-7 आराफ़, आयतें—85-93; सूरा-11 हूद, आयतें—84-95; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—36-37।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ شُعَيۡبٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 171
(177) याद करो जबकि शुऐब ने उनसे कहा था कि “क्या तुम डरते नहीं?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 172
(178) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 173
(179) लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी फ़रमाँबरदारी करो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 174
(180) मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ, मेरा इनाम तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे है।
۞أَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُخۡسِرِينَ ۝ 175
(181) पैमाने ठीक भरो और किसी को घाटा न दो।
وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِ ۝ 176
(182) सही तराज़ू से तौलो
وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 177
(183) और लोगों को उनकी चीज़ें कम न दो। ज़मीन में बिगाड़ न फैलाते फिरो
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلۡجِبِلَّةَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 178
(184) और उस हस्ती से डरो जिसने तुम्हें और पिछली नस्लों को पैदा किया है।”
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 179
(185) उन्होंने कहा, “तू तो बस एक जादू का मारा आदमी है,
وَمَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَإِن نَّظُنُّكَ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 180
(186) और तू कुछ नहीं है मगर एक इनसान हम ही जैसा, और हम तो तुझे बिलकुल झूठा समझते हैं।
فَأَسۡقِطۡ عَلَيۡنَا كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 181
(187) अगर तू सच्चा है तो हमपर आसमान का कोई टुकड़ा गिरा दे।
قَالَ رَبِّيٓ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 182
(188) शुऐब ने कहा, “मेरा रब जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो।”116
116. यानी अज़ाब भेजना मेरा काम नहीं है। यह तो सारे जहानों के रब अल्लाह के इख़्तियार में है और वह तुम्हारे करतूत देख ही रहा है। अगर वह तुम्हें इस अज़ाब का हक़दार समझेगा तो ख़ुद अज़ाब भेज देगा। ऐकावालों की इस माँग और हज़रत शुऐब (अलैहि०) के इस जवाब में क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों के लिए भी एक चेतावनी थी। वे भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यही माँगें करते थे, “या फिर गिरा दे हमपर आसमान का कोई टुकड़ा जैसाकि तेरा दावा है।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-92) इसलिए उनको सुनाया जा रहा है कि ऐसी ही माँग ऐकावालों ने अपने पैग़म्बर से की थी, उसका जो जवाब उन्हें मिला वही मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ से तुम्हारी माँग का जवाब भी है।
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمِ ٱلظُّلَّةِۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٍ ۝ 183
(189) उन्होंने उसे झुठला दिया, आख़िरकार छतरी वाले दिन का अज़ाब उनपर आ गया,117 और वह बड़े ही भयानक दिन का अज़ाब था।
117. इस अज़ाब की कोई तफ़सील क़ुरआन मजीद में या किसी सहीह हदीस में बयान नहीं हुई है। ज़ाहिर अलफ़ाज़ से जो बात समझ में आती है वह यह है कि उन लोगों ने चूँकि आसमानी अज़ाब माँगा था, इसलिए अल्लाह तआला ने उनपर एक बादल भेज दिया और वह छतरी की तरह उनपर उस वक़्त तक छाया रहा जब तक अज़ाब की बारिश ने उनको बिलकुल तबाह न कर दिया। क़ुरआन से यह बात साफ़ मालूम होती है कि मदयनवालों के अज़ाब की कैफ़ियत ऐकावालों के अज़ाब से बिलकुल अलग थी। जैसा कि यहाँ बताया गया है, छतरीवाले अज़ाब से हलाक हुए और उनपर अज़ाब एक धमाके और ज़लज़ले की शक्ल में आया, “आख़िरकार एक हिला मारनेवाली आफ़त ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े रह गए।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-91) और, “और एक हिला मारनेवाली आफ़त ने उन ज़ालिमों को आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े रह गए।” (सूरा-11 हूद, आयत-94) इसलिए इन दोनों को मिलाकर एक दास्तान बनाने की कोशिश दुरुस्त नहीं है। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने 'अज़ाबु यौमिज़-ज़ुल्ला' के कुछ मतलब बयान किए हैं, मगर हमें नहीं मालूम कि उनकी मालूमात का ज़रिआ क्या है। इब्ने-जरीर ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल किया है कि “आलिमों में से जो कोई तुमसे बयान करे कि यौमुज़-ज़ुल्ला का अज़ाब क्या था उसको दुरुस्त न समझो।” (तफ़सीर तबरी)
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 184
(190) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर लोग माननेवाले नहीं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 185
(191) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी।
وَإِنَّهُۥ لَتَنزِيلُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 186
(192) यह118 सारे जहानों के रब की उतारी हुई चीज़ है।119
118. तारीख़ी (ऐतिहासिक) बयान ख़त्म करके जब बात का सिलसिला उसी मज़मून की तरफ़ फिरता है जिससे सूरा की शुरुआत की गई थी इसको समझने के लिए एक बार फिर पलटकर सूरा की शुरू की आयतों (1-9) को देख लेना चाहिए।
119. यानी यह 'खुली किताब' जिसकी आयतें यहाँ सुनाई जा रही हैं, और यह 'ज़िक्र’ जिससे लोग मुँह मोड़ रहे हैं किसी इनसान की मनगढ़न्त चीज़ नहीं है, इसे मुहम्मद (सल्ल०) ने ख़ुद गढ़ नहीं लिया है, बल्कि यह सारे जहानों के रब का उतारा हुआ है।
نَزَلَ بِهِ ٱلرُّوحُ ٱلۡأَمِينُ ۝ 187
(193) उसे लेकर तेरे दिल पर अमानतदार रूह120 उतरी है
120. मुराद हैं जिबरील (अलैहि०), जैसा कि दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में कहा गया है, “कहो कि जो कोई दुश्मन है जिबरील का तो उसे मालूम हो कि उसी ने यह क़ुरआन अल्लाह के हुक्म से तेरे दिल पर उतारा है।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-97) यहाँ उनका नाम लेने के बजाय उनके लिए, 'रूहुल-अमीन' (अमानतदार रूह) का लक़ब इस्तेमाल करने का मक़सद यह बताना है कि सारे जहानों के रब अल्लाह की तरफ़ से इस क़ुरआन को लेकर कोई माद्दी (भौतिक) ताक़त नहीं आई है जिसके अन्दर फेर-बदल का इमकान हो, बल्कि वह एक ख़ालिस रूह है जिसमें माहियत का हलका-सा निशान भी नहीं, और वह पूरी तरह अमानतदार है, ख़ुदा का पैग़ाम जैसा उसके सिपुर्द किया जाता है। वैसा ही बिना घटाए-बढ़ाए पहुँचा देती है, अपनी तरफ़ से कुछ बढ़ाना या घटा देना या अपने तौर पर ख़ुद कुछ गढ़ लेना उसके लिए मुमकिन नहीं है।
عَلَىٰ قَلۡبِكَ لِتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُنذِرِينَ ۝ 188
(194) ताकि तू उन लोगों में शामिल हो जो (ख़ुदा की तरफ़ से ख़ुदा के बन्दों को) ख़बरदार करनेवाले हैं,
بِلِسَانٍ عَرَبِيّٖ مُّبِينٖ ۝ 189
(195) साफ़-साफ़ अरबी ज़बान में।121
121. इस जुमले का ताल्लुक़ “अमानतदार रूह उतरी है” से भी हो सकता है और “ख़बरदार करनेवाले हैं” से भी। पहली सूरत में इसका मतलब यह होगा कि वह अमानतदार रूह उसे साफ़-साफ़ अरबी ज़बान में लाई है, और दूसरी सूरत में मतलब यह होगा कि नबी (सल्ल०) उन पैग़म्बरों में शामिल हों जिन्हें अरबी ज़बान में दुनियावालों को ख़बरदार करने के लिए मुक़र्रर किया गया था, यानी हूद (अलैहि०), सॉलेह (अलैहि०), इसमाईल (अलैहि०) और शुऐब (अलैहि०)। दोनों सूरतों में बात का मक़सद एक ही है, और वह यह कि सारे जहानों के रब की तरफ़ से यह तालीम किसी मुर्दा या जिन्नाती ज़बान में नहीं आई है, न इसमें कोई मुअम्मे या पहेली की-सी उलझी हुई ज़बान इस्तेमाल की गई है, बल्कि यह ऐसी साफ़ और आला दरजे की ज़बान में है जिसका मतलब और मंशा हर अरबवासी और हर वह शख़्स जो अरबी ज़बान जानता हो, आसानी से समझ सकता है। इसलिए जो लोग इससे मुँह मोड़ रहे हैं उनके लिए यह बहाना करने का कोई मौक़ा नहीं है कि वे इस तालीम को समझ नहीं सके हैं, बल्कि उनके कतराने और इनकार करने की वजह सिर्फ़ यह है कि ये उसी बीमारी में मुब्तला हैं जिसमें मिस्र का फ़िरऔन और इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम और नूह (अलैहि०) की क़ौम और लूत (अलैहि०) की क़ौम और आद और समूद और ऐकावाले मुब्तला थे।
وَإِنَّهُۥ لَفِي زُبُرِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 190
(196) और अगले लोगों की किताबों में भी यह मौजूद है।122
122. यानी यही ज़िक्र और यही ख़ुदा की तरफ़ से उतारा हुआ कलाम और यही अल्लाह की तालीम पिछली किताबों में मौजूद है। यही एक अल्लाह की बन्दगी का बुलावा, यही आख़िरत की ज़िन्दगी का अक़ीदा, यही नबियों की पैरवी का तरीक़ा उन सबमें भी पेश किया गया है। सब किताबें जो ख़ुदा की तरफ़ से आई हैं शिर्क को बुरा ही कहती हैं, ज़िन्दगी के माद्दा-परस्ताना नज़रिए को छोड़कर ज़िन्दगी के उसी सही नज़रिए की तरफ़ दावत देती हैं, जिसकी बुनियाद ख़ुदा के सामने इनसान की जवाबदेही के तसव्वुर (परिकल्पना) पर है, और इनसान से यही माँग करती हैं कि वह अपनी ख़ुदमुख़्तारी छोड़कर अल्लाह के उन हुक्मों की पैरवी करने लगे जो पैग़म्बर (अलैहि०) लाए हैं। इन बातों में से कोई बात भी निराली नहीं जो दुनिया में पहली बार क़ुरआन ही पेश कर रहा हो और कोई शख़्स यह कह सके कि तुम वह बात कर रहे हो जो अगलों-पिछलों में से किसी ने भी नहीं की। यह आयत उन दलीलों में से है जो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की उस पुरानी राय के हक़ में पेश की जाती हैं कि अगर कोई शख़्स नमाज़ में क़ुरआन का तर्जमा पढ़ ले तो नमाज़ हो जाती है, चाहे वह शख़्स अरबी में क़ुरआन पढ़ सकता हो या नहीं। दलील की बुनियाद अल्लामा अबू-बक्र जस्सास के अलफ़ाज़ में यह है कि अल्लाह तआला यहाँ यह बता रहा है कि यह क़ुरआन पिछली किताबों में भी था और ज़ाहिर है कि उन किताबों में वह अरबी अलफ़ाज़ के साथ न था। लिहाज़ा किसी दूसरी ज़बान में उसकी इबारतों को नक़्ल कर देना उसे क़ुरआन होने से ख़ारिज नहीं कर देता (अहकामुल-क़ुरआन, हिस्सा-3, पेज 429) लेकिन इस दलील की कमज़ोरी बिलकुल ज़ाहिर है। क़ुरआन मजीद हो या कोई दूसरी आसमानी किताब, किसी के उतरने की कैफ़ियत भी यह न थी कि अल्लाह तआला ने सिर्फ़ मानी को नबी के दिल में डाल दिया हो और नबी ने फिर उन्हें अपने अलफ़ाज़़ में बयान किया हो, बल्कि हर किताब जिस ज़बान में भी आई है अल्लाह तआला की तरफ़ से मतलब और अलफ़ाज़ दोनों के साथ आई है। इसलिए क़ुरआन की तालीम जिन पिछली किताबों में थी, इनसानी अलफ़ाज़़ में नहीं, ख़ुदाई अलफ़ाज़ ही में थी और उनमें से किसी के तर्जमे को भी अल्लाह की किताब नहीं कहा जा सकता कि वह अस्ल के बराबर ठहराई जा सके। रहा क़ुरआन तो उसके बारे में बार-बार और साफ़-साफ़ कहा गया है कि लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ अरबी ज़बान में उतारा गया है, “बेशक हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-2) और, “और इसी तरह हमने इस (क़ुरआन) को एक अरबी फ़रमान के रूप में उतारा है।” (सूरा-13 अर-रअद, आयत-37) और, “अरबी क़ुरआन के रूप में, जिसमें कोई टेढ़ नहीं।” (सूरा-39 अज़-जुमर, आयत-28) और ख़ुद इसी आयत से पहले, जिसपर चर्चा चल रही है, फ़रमाया जा चुका है कि रूहुल-अमीन इसे अरबी ज़बान में लेकर उतरा है। अब उसके बारे में यह कैसे कहा जा सकता है कि उसका कोई तर्जमा जो किसी इनसान ने दूसरी ज़बान में किया हो वह भी क़ुरआन ही होगा और उसके अलफ़ाज़ अल्लाह तआला के अलफ़ाज़ की तरह होंगे। मालूम होता है कि दलील की इस कमज़ोरी को बाद में ख़ुद इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने भी महसूस कर लिया था, चुनाँचे भरोसेमन्द रिवायतों से यह बात नक़्ल हुई है कि उन्होंने इस मसले में अपनी राय से रुजू करके इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम मुहम्मद की राय क़ुबूल कर ली थी, यानी यह कि जो शख़्स अरबी ज़बान में क़ुरआन न पढ़ सकता हो वह उस वक़्त तक नमाज़ में क़ुरआन का तर्जमा पढ़ सकता है जब तक उसकी ज़बान अरबी अलफ़ाज़़ को अदा करने के क़ाबिल न हो जाए, लेकिन जो शख़्स अरबी में क़ुरआन पढ़ सकता हो वह अगर क़ुरआन का तर्जमा पढ़ेगा तो उसकी नमाज़ न होगी। हक़ीक़त यह है कि इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम मुहम्मद ने यह रिआयत अस्ल में उन अजमी (ग़ैर-अरब) नव-मुस्लिमों के लिए पेश की थी जो इस्लाम क़ुबूल करते ही फ़ौरन अरबी ज़बान में नमाज़ अदा करने के क़ाबिल न हो सकते थे और इसमें दलील की बुनियाद यह न थी कि क़ुरआन का तर्जमा भी क़ुरआन है, बल्कि उनकी दलील यह थी कि जिस तरह इशारे से रुकू और सजदे करना उस शख़्स के लिए जाइज़ है जो रुकू और सजदा न कर सकता हो, इसी तरह ग़ैर-अरबी में नमाज़ पढ़ना उस शख़्स के लिए जाइज़ है जो अरबी न पढ़ सकता हो। इसी उसूल के मुताबिक़ जिस तरह मजबूरी दूर हो जाने के बाद इशारे से रुकू और सजदे करनेवाले की नमाज़ न होगी उसी तरह क़ुरआन के अरबी अलफ़ाज़ अदा करना आ जाने के बाद तर्जमा पढ़नेवाले की नमाज़ न होगी। (इस मसले पर तफ़सीली बहस के लिए देखिए— मबसूत सरख़सी, हिस्सा-1, पेज-37; फ़तहुल-क़दीर व शरह इनाया अलल-हिदाया, हिस्सा-1, पेज 190-201)
أَوَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ ءَايَةً أَن يَعۡلَمَهُۥ عُلَمَٰٓؤُاْ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 191
(197) क्या इन (मक्कावालों) के लिए यह कोई निशानी नहीं है कि इसे बनी-इसराईल के आलिम जानते हैं?123
123. यानी बनी-इसराईल के आलिम लोग यह बात जानते हैं कि जो तालीम क़ुरआन मजीद में दी गई है वह ठीक वही तालीम है जो पिछली आसमानी किताबों में दी गई थी। मक्कावाले ख़ुद किताब के इल्म से अनजान सही, बनी-इसराईल के आलिम तो आसपास के इलाक़ों में बड़ी तादाद में मौजूद हैं। वे जानते हैं कि यह कोई अनोखा और निराला, 'ज़िक्र' नहीं है जो आज पहली बार अब्दुल्लाह के बेटे मुहम्मद (सल्ल०) ने लाकर तुम्हारे सामने रख दिया हो, बल्कि हज़ारों साल से ख़ुदा के पैग़म्बर यही ज़िक्र एक के बाद एक लाते रहे हैं। क्या वह इस बात के इत्मीनान के लिए काफ़ी नहीं है कि यह किताब भी उसी सारे जहानों के रब की तरफ़ से उतरी है जिसने पिछली किताबें उतारी थीं? सीरत इब्ने-हिशाम से मालूम होता है कि इन आयतों के उतरने के ज़माने से क़रीब ही यह वाक़िआ पेश आ चुका था कि हबश (इथोपिया) से हज़रत जाफ़र (रज़ि०) का पैग़ाम सुनकर 20 आदमियों का एक गरोह मक्का आया और उसने मस्जिदे-हराम में क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों के सामने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मिलकर पूछा कि आप क्या तालीम लाए हैं। नबी (सल्ल०) ने जवाब में उनको क़ुरआन की कुछ आयतें सुनाईं। इसपर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और वे उसी वक़्त आप (सल्ल०) को सच्चा रसूल मानकर आप (सल्ल०) पर ईमान ले आए। फिर जब वे नबी (सल्ल०) के पास से उठे तो अबू-जह्ल क़ुरैश के कुछ लोगों के साथ उनसे मिला और उन्हें सख़्त बुरा-भला कहा। उसने कहा, “तुमसे ज़्यादा बेवक़ूफ़ क़ाफ़िला यहाँ कभी नहीं आया। कमबख़्तो, तुम्हारे यहाँ के लोगों ने तो तुम्हें इसलिए भेजा था कि इस आदमी के हालात का पता लगाकर आओ, मगर तुम अभी उससे मिले ही थे कि अपना दीन छोड़ बैठे।” वे शरीफ़ लोग अबू-जह्ल की इस डाँट-फिटकार पर उलझने के बजाय सलाम करके हट गए और कहने लगे कि हम आपसे बहस नहीं करना चाहते, आपको अपने दीन पर चलने का अधिकार है और हमें अपने दीन पर चलने का अधिकार। हमें जिस चीज़ में अपनी भलाई दिखाई दी, उसे हमने अपना लिया (हिस्सा-2, पेज-32)। इसी वाक़िए का ज़िक्र सूरा-28 क़सस में आया है कि “जिन लोगों को हमने इससे पहले किताब दी थी वे इस क़ुरआन पर ईमान लाते हैं और जब वह उन्हें सुनाया जाता है तो कहते हैं हम इसपर ईमान लाए, यह हक़ है। हमारे रब की तरफ़ से, हम इससे पहले भी इसी दीने-इस्लाम पर थे......और जब उन्होंने बेहूदा बातें सुनीं तो उलझने से परहेज़ किया और बोले कि हमारे आमाल हमारे लिए हैं और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए, तुमको सलाम है, हम जाहिलों का तरीक़ा पसन्द नहीं करते (कि चार बातें तुम हमें सुनाओ तो चार हम तुम्हें सुनाएँ)।”(आयतें—52-55)
وَلَوۡ نَزَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ بَعۡضِ ٱلۡأَعۡجَمِينَ ۝ 192
(198) (लेकिन इनकी हठधर्मी का हाल तो यह है कि) अगर हम इसे किसी अजमी (ग़ैर-अरब) पर भी उतार देते
فَقَرَأَهُۥ عَلَيۡهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 193
(199) और यह (आला दरजे का अरबी कलाम) वह इनको पढ़कर सुनाता तब भी यह मानकर न देते।124
124. यानी अब उन्हीं की क़ौम का एक आदमी उन्हें साफ़ ओर वाज़ेह अरबी में यह कलाम पढ़कर सुना रहा है तो ये लोग कहते हैं कि इस आदमी ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है। अरब के आदमी की ज़बान से अरबी तक़रीर अदा होने में आख़िर मोजिज़े (चमत्कार) की क्या बात है कि हम उसे ख़ुदा का कलाम मान लें। लेकिन अगर चही बेहतरीन अरबी कलाम अल्लाह तआला की तरफ़ से अरब के बाहर के किसी आदमी पर मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर उतार दिया जाता और वह उनके सामने आकर बेहद सही अरबी लहजे में उसे पढ़ता तो ये ईमान न लाने के लिए दूसरा बहाना तराशते, उस वक़्त यह कहते कि उसपर कोई जिन्न आ गया है जो अजमी (ग़ैर-अरब) की ज़बान से अरबी बोलता है (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-4; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—54-58) अस्ल चीज़ यह है कि जो शख़्स सच्चाई-पसन्द होता है, वह उस बात पर ग़ौर करता है जो उसके सामने पेश की जा रही हो और ठण्डे दिल से सोच-समझकर राय क़ायम करता है कि यह मुनासिब बात है या नहीं और जो शख़्स हठधर्म होता है और न मानने का इरादा कर लेता है तो वह अस्ल बात पर ध्यान नहीं देता, बल्कि उसे रद्द करने के लिए तरह-तरह के हीले-बहाने तलाश करता है। उसके सामने बात चाहे किसी तरीक़े से पेश की जाए, वह बहरहाल उसे झुठलाने के लिए कोई-न-कोई वजह पैदा कर लेगा। क़ुरैश के इस्लाम मुख़ालिफ़ों की इस हटधर्मी का परदा क़ुरआन मजीद में जगह-जगह फ़ाश किया गया है और उनसे साफ-साफ़ कहा गया है कि तुम ईमान लाने के लिए मोजिज़ा दिखाने की शर्त आख़िर किस मुँह से लगाते हो। तुम तो वे लोग हो कि तुम्हे चाहे कोई चीज़ दिखा दी जाए, तुम उसे झुठलाने के लिए कोई बहाना निकाल लोगे, क्योंकि अस्ल में तुम्हें हक़ बात माननी ही नहीं है, “(ऐ नबी,) अगर हम तेरे ऊपर काग़ज़ में लिखी हुई कोई किताब उतार देते और ये लोग उसे अपने हाथों से छूकर भी देख लेते तो जिन लोगों ने नहीं माना वे कहते, यह तो खुला जादू है।” (सूरा-6 अनआम आयत-7) दूसरी जगह कहा गया और अगर हम उनपर आसमान का कोई दरवाज़ा भी खोल देते और ये उसमें चढ़ने लगते तो ये कहते हमारी आँखों को धोखा हो रहा है, बल्कि हमपर जादू कर दिया गया है।" (सूरा-15 हिज, आयतें—14-15)
كَذَٰلِكَ سَلَكۡنَٰهُ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 194
(200) इसी तरह हमने इस (ज़िक्र) को मुजरिमों के दिलों में गुज़ारा है।125
125. यानी यह हक़पसन्दों के दिलों की तरह रूह का सुकून और दिल की शिफ़ा (आरोग्य) बनकर उनके अन्दर नहीं उतरता, बल्कि एक गर्म लोहे की सलाख़ बनकर इस तरह गुज़रता है कि वे भड़क उठते हैं और इसकी बातों पर ग़ौर करने के बजाय इसे रद्द करने के लिए तरकीबें ढूँढ़ने में लग जाते हैं।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 195
(201) वे इसपर ईमान नहीं लाते जब तक कि दर्दनाक अज़ाब न देख लें।126
126. वैसा ही अज़ाब जैसा वे क़ौमें देख चुकी हैं जिनका ज़िक्र ऊपर इस सूरा में गुज़रा है।
فَيَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 196
(202) फिर जब वह बेख़बरी में उनपर आ पड़ता है
فَيَقُولُواْ هَلۡ نَحۡنُ مُنظَرُونَ ۝ 197
(203) उस वक़्त वे कहते हैं कि अब हमें कुछ मुहलत मिल सकती है?"127
127. यानी अज़ाब सामने देखकर ही मुजरिमों को यक़ीन आया करता है कि सचमुच पैग़म्बर ने जो कुछ कहा था, वह सच था। उस वक़्त वे हसरत के साथ हाथ मलकर कहते हैं कि काश, अब हमें कुछ मुहलत मिल जाए! हालाँकि मुहलत का वक़्त गुज़र चुका होता है।
أَفَبِعَذَابِنَا يَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 198
(204) तो क्या ये लोग हमारे अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं?
أَفَرَءَيۡتَ إِن مَّتَّعۡنَٰهُمۡ سِنِينَ ۝ 199
(205) तुमने कुछ ग़ौर किया, अगर हम इन्हें सालों तक ऐश करने की मुहलत भी दे दें
ثُمَّ جَآءَهُم مَّا كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 200
(206) और फिर वही चीज़ इनपर आ जाए, जिससे इन्हें डराया जा रहा है,
مَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يُمَتَّعُونَ ۝ 201
(207) तो वह ज़िन्दगी का सामान जो इन्हें मिला हुआ है इनके किस काम आएगा?128
128. इस जुमले और इससे पहले के जुमले के बीच एक लतीफ़ ख़ला (सूक्ष्म रिक्तता) है जिसे सुननेवाले का ज़ेहन थोड़ा-सा ग़ौर करके ख़ुद भर सकता है। अज़ाब के लिए उनके जल्दी मचाने की वजह यह थी कि वे अजाब के आने का कोई अन्देशा न रखते थे। उन्हें भरोसा था कि जैसी चैन की बंसी आज तक हम बजाते रहे हैं, उसी तरह हमेशा बजाते रहेंगे। इसी भरोसे पर वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चैलेंज देते थे कि अगर सचमुच तुम अल्लाह के रसूल हो और हम तुम्हें झुठलाकर अल्लाह के अज़ाब के हक़दार हो रहे हैं तो लो हमने तुम्हें झुठला दिया अब ले आओ अपना वह अज़ाब जिससे तुम हमें डराते हो। इसपर कहा जा रहा है कि अच्छा, अगर मान लो कि उनका यह भरोसा सही ही हो, अगर उनपर फौरन अज़ाब न आए, अगर उन्हें दुनिया में मज़े करने के लिए एक लम्बी ढील भी मिल जाए जिसकी उम्मीद पर ये फूल रहे हैं, तो सवाल यह है कि जब भी उनपर आद और समूद या लूत की क़ौम और ऐकावालों की कोई अचानक आफ़त टूट पड़ी जिससे बचे रहने की किसी के पास कोई जमानत नहीं है, या और कुछ नहीं तो मौत ही की आख़िरी घड़ी आ पहुँची जिससे बहरहाल किसी को छुटकारा नहीं, तो उस वक़्त दुनिया के मज़ों के ये कुछ साल आख़िर उनके लिए क्या फ़ायदेमन्द साबित होंगे।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا لَهَا مُنذِرُونَ ۝ 202
(208) (देखो) हमने कभी किसी बस्ती को इसके बिना हलाक नहीं किया कि उसके लिए ख़बरदार करनेवाले
ذِكۡرَىٰ وَمَا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 203
(209) नसीहत का हक़ अदा करने को मौजूद थे। और हम ज़ालिम न थे।129
129. यानी जब उन्होंने ख़बरदार करनेवालों की चेतावनी और समझानेवालों की नसीहत क़ुबूल न की और हमने उन्हें हलाक कर दिया, तो ज़ाहिर है कि वह हमारी तरफ़ से उनपर कोई ज़ुल्म न था। ज़ुल्म तो उस वक़्त होता जब कि हलाक करने से पहले उन्हें समझाकर सीधे रास्ते पर लाने की कोई कोशिश न की गई होती।
وَمَا تَنَزَّلَتۡ بِهِ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 204
(210) इस (खुली किताब) को शैतान लेकर नहीं उतरे हैं,130
130. पहले इस मामले का मुसबत (सकारात्मक) पहलू बयान हुआ था कि यह सारे जहानों के रब की उतारी हुई है और इसे रूहुल-अमीन लेकर उतरा है। अब इसका मनफ़ी (नकारात्मक) पहलू बयान किया जा रहा है कि इसे शैतान लेकर नहीं उतरे हैं, जैसाकि हक़ के दुश्मनों का इलज़ाम है। क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने नबी (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए झूठ की जो मुहिम चला रखी थी, उसमें सबसे बड़ी मुश्किल उन्हें यह पेश आ रही थी कि उस हैरत-अंगेज़ कलाम को क्या कहा जाए जो क़ुरआन की शक़्ल में लोगों के सामने आ रहा था और दिलों में उतरता चला जा रहा था। यह बात तो उनके बस में न थी कि लोगों तक इसके पहुँचने को रोक सकें। अब परेशानी की बात उनके लिए यह थी कि लोगों को इससे बदगुमान करने और उसके असर से बचाने के लिए क्या बात बनाएँ। इस घबराहट में जो इलज़ामात उन्होंने आम लोगों में फैलाए थे उनमें से एक यह था कि मुहम्मद (सल्ल०), अल्लाह की पनाह, काहिन हैं और आम काहिनों की तरह उनके ज़ेहन में भी ये बातें शैतान डालते हैं। इस इलज़ाम को वे अपना सबसे ज़्यादा अचूक हथियार समझते थे। उनका ख़याल था कि किसी के पास इस बात को जाँचने के लिए आख़िर क्या ज़रिआ हो सकता है कि यह कलाम कोई फ़रिश्ता लाता है या शैतान, और शैतान के ज़रिए से मन में डाली गई बात को कोई रद्द करेगा भी तो कैसे।
وَمَا يَنۢبَغِي لَهُمۡ وَمَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 205
(211) न यह काम उनको सजता है,131 इसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं।132
131. यानी यह कलाम और ये मज़ामीन (विषय) शैतान के मुँह पर फबते भी तो नहीं हैं। कोई अक़्ल रखता हो तो ख़ुद समझ सकता है कि कहीं ये बातें, जो क़ुरआन में बयान हो रही हैं, शैतानों की तरफ़ से भी हो सकती हैं? क्या तुम्हारी बस्तियों में काहिन (ग़ैब की बातें जानने का दावा करनेवाले) मौजूद नहीं है और शैतानों से ताल्लुक़ रखकर जो बातें वे करते हैं, वे तुमने कभी नहीं सुनीं? क्या कभी तुमने सुना है कि किसी शैतान ने किसी काहिन के ज़रिए से लोगों को ख़ुदा-परस्ती और परहेज़गारी की तालीम दी हो? शिर्क और बुत-परस्ती से रोका हो? आख़िरत की पूछ-गछ से डराया हो? ज़ुल्म और बुरे कामों और बद-अख़लाक़ियों से मना किया हो? भले काम करने, सच बोलने और दुनियावालों के साथ एहसान करने की नसीहत की हो? शैतानों का यह मिज़ाज कहाँ है? उनका मिज़ाज तो यह है कि लागों में बिगाड़ डलवाएँ और उन्हें बुराइयों के लिए उकसाएँ। उनसे ताल्लुक़ रखनेवाले काहिनों के पास तो लोग यह पूछने जाते हैं कि आशिक़ को माशूक़ मिलेगा या नहीं? जुए में कौन-सा दाँव फ़ायदेमन्द रहेगा? दुश्मन को नीचा दिखाने के लिए क्या चाल चली जाए? और फ़ुलाँ शख़्स का ऊँट किसने चुराया है? इन मसलों और मामलों को छोड़कर काहिनों और उनके सरपरस्त शैतानों को लोगों के सुधार, भलाइयों की सीख देने और बुराइयों को जड़ से मिटाने की कब से फ़िक्र सताने लगी?
132. यानी शैतान अगर करना चाहें भी तो यह काम उनके बस का नहीं है कि थोड़ी देर के लिए भी अपने आपको इनसानों के सच्चे मुअल्लिम (शिक्षक) और सच्चे सुधारक के मक़ाम पर रखकर ख़ालिस है और ख़ालिस भलाई की वह तालीम दे सके, जो क़ुरआन दे रहा है। ये धोखा देने की ख़ातिर भी अगर यह रूप इख़्तियार कर लें तो उनका काम ऐसी मिलावटों से ख़ाली नहीं हो सकता जो उनकी जहालत और उनके अन्दर छिपी हुई शैतानी फ़ितरत को ज़ाहिर न कर दें। नीयत की ख़राबी, इरादों की नापाकी, मक़सदों की ख़राबी लाज़िमन उस आदमी की ज़िन्दगी में भी और उसकी तालीम में भी झलककर रहेगी जो शैतान से इलहाम (रोब की बात) हासिल करके पेशवा बन बैठा हो। मिलावट से पाक और ख़ालिस (विशुद्ध) नेकी न शैतान इनसान के ज़ेहन में डाल सकते हैं और न उनसे ताल्लुक़ रखनेवाले ऐसा कर सकते हैं। फिर तालीम की बुलन्दी और पाकीज़गी के अलावा ज़बान की वह ख़ूबी और मेयार और सच्चाइयों का वह इल्म है जो क़ुरआन में पाया जाता है। इसी वजह से क़ुरआन में बार-बार यह चैलेंज दिया गया है कि इनसान और जिन्न मिलकर भी चाहें तो इस किताब के जैसी कोई चीज़ तैयार करके नहीं ला सकते, “कह दो कि अगर इनसान और जिन्न सब-के-सब मिलकर इस क़ुरआन जैसी कोई चीज़ लाने की कोशिश करें तो न ला सकेंगे, चाहे वे सब एक-दूसरे के मददगार ही क्यों न हों।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-88) और “कहा, अगर तुम अपने इस इलज़ाम में सच्चे हो तो एक सूरा इस जैसी रचकर लाओ और एक अल्लाह को छोड़कर जिस जिसको बुला सकते हो मदद के लिए बुला लो।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-38)
إِنَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّمۡعِ لَمَعۡزُولُونَ ۝ 206
(212) वे और न वे ऐसा कर ही सकते हैं।133
133. यानी इस क़ुरआन के इलक़ा (दिल में डालने) में दख़ल देना तो बहुत दूर की बात, जिस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ से रूहुल-अमीन इसको लेकर चलता है और जिस वक़्त मुहम्मद (सल्ल०) के दिल पर वह इसको उतारता है, इस पूरे सिलसिले में किसी जगह भी शैतानों को कान लगाकर सुनने तक का मौक़ा नहीं मिलता। वे आसपास कहीं फटकने भी नहीं पाते कि सुन-गुन लेकर ही कोई बात उचक ले जाएँ और जाकर अपने दोस्तों को बता सकें कि आज मुहम्मद (सल्ल०) यह पैग़ाम सुनानेवाले हैं, या उनकी तक़रीर में फ़ुलाँ बात का भी ज़िक्र आनेवाला है। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुआन; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8-12 ;सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—5-7 और सूरा-72 जिन्न, आयतें—8, 9, 27)
فَلَا تَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُعَذَّبِينَ ۝ 207
(213) तो ऐ नबी, अल्लाह के साथ किसी दूसरे माबूद को न पुकारो, वरना तुम भी सज़ा पानेवालों में शामिल हो जाओगे।134
134. इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह नबी (सल्ल०) से शिर्क का कोई ख़तरा था और इस वजह से उनको धमकाकर इससे रोका गया। अस्ल में इसका मक़सद काफ़िरों और मुशरिकों को ख़बरदार करना है। बात का मक़सद यह है कि क़ुरआन मजीद में जो तालीम पेश की जा रही है। यह चूँकि ख़ालिस हक़ (विशुद्ध सत्य) है कायनात के बादशाह की तरफ़ से, और इसमें शैतानी गन्दगियों का ज़र्रा बराबर भी दख़ल नहीं है, इसलिए यहाँ हक़ के मामले में किसी के साथ छूट और रिआयत का कोई काम नहीं। ख़ुदा को सबसे बढ़कर अपनी मख़लूक़ में कोई प्यारा और पसन्दीदा हो सकता है तो वह उसका रसूल है लेकिन मान लीजिए अगर वह भी बन्दगी की राह से बाल बराबर हट जाए और एक ख़ुदा के सिवा किसी और को माबूद की हैसियत से पुकार बैठे तो पकड़ से नहीं बच सकता, तो दूसरों की बात ही क्या। इस मामले में जब ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) के साथ भी कोई रिआयत नहीं तो और कौन है जो ख़ुदा की ख़ुदाई में किसी और को शरीक ठहराने के बाद यह उम्मीद कर सकता हो कि ख़ुद बच निकलेगा या किसी के बचाने से बच जाएगा।
وَأَنذِرۡ عَشِيرَتَكَ ٱلۡأَقۡرَبِينَ ۝ 208
(214) अपने सबसे क़रीबी रिश्तेदारों को डराओ,135
135. यानी ख़ुदा के इस बेलाग दीन में जिस तरह नबी (सल्ल०) की हस्ती के लिए कोई रिआयत नहीं, उसी तरह नबी के ख़ानदान और उसके सबसे ज़्यादा क़रीबी लोगों के लिए भी किसी रिआयत की गुंजाइश नहीं है। यहाँ जिसके साथ भी कोई मामला है उसकी ख़ूबियों (Merits) के लिहाज़ से है। किसी का ख़ानदान और किसी के साथ आदमी का ताल्लुक़ कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा सकता। गुमराही और बद अमली पर ख़ुदा के अज़ाब का डर सबके लिए एक जैसा है। ऐसा नहीं है कि और सब तो उन चीज़ों पर पकड़े जाएँ, मगर नबी के रिश्तेदार बचे रह जाएँ। इसलिए हुक्म हुआ कि अपने सबसे ज़्यादा क़रीबी रिश्तेदारों को भी साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दो। अगर वह अपना अक़ीदा और अमल दुरुस्त न रखेंगे तो यह बात उनके किसी काम न आ सकेगी कि वे नबी के रिश्तेदार हैं। भरोसेमन्द रिवायतों में आया है कि इस आयत के उतरने के बाद नबी (सल्ल०) ने सबसे पहले अपने दादा की औलाद को मुक़्त करते हुए फ़रमाया और एक-एक को पुकार-पुकारकर साफ़-साफ़ कह दिया कि जो बनी-अब्दुल-मुत्तलिब, ऐ अब्बास, ऐ अल्लाह के रसूल की फूफी सफ़ीया, ऐे मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा, तुम लोग आग के अज़ाब से अपने आपको बचाने की फ़िक्र कर लो, मैं ख़ुदा की पकड़ से तुमको नहीं बचा सकता, अलबत्ता मेरे माल में से तुम लोग जो कुछ चाहो माँग सकते हो।” फिर नबी (सल्ल०) ने सुबह-सवेरे ‘सफ़ा’ की सबसे ऊँची जगह पर खड़े होकर पुकारा, “या सबाहाह, (हाय, सुबह का ख़तरा), ऐ क़ुरैश के लोगो, ऐ बनी-कअब-बिन-लुवई, ऐ बनी-मुर्रा, ऐ आले-क़ुसई, ऐे बनी-अब्दे-मनाफ़, ऐ बनी-अब्दे-शम्स, ऐ बनी-हाशिम, ऐ आले-अब्दुल-मुत्तलिब।” इस तरह क़ुरैश के एक-एक क़बीले और ख़ानदान का नाम ले-लेकर नबी (सल्ल०) ने आवाज़ दी। अरब में दस्तूर था कि जब सुबह तड़के किसी अचानक हमले का ख़तरा होता तो जिस शख़्स को भी उसका पता चल जाता, वह इसी तरह पुकारना शुरू कर देता और लोग उसकी आवाज़ सुनते ही हर तरफ़ दौड़ पड़ते। चुनाँचे नबी (सल्ल०) की इस आवाज़ पर सब लोग घरों से निकल आए और जो ख़ुद न आ सका उसने अपनी तरफ़ से किसी को ख़बर लाने के लिए भेज दिया। जब सब लोग जमा हो गए तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “लोगो, अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि इस पहाड़ के दूसरी तरफ़ एक भारी लश्कर है जो तुमपर टूट पड़ना चाहता है तो तुम मेरी बात सच मानोगे सबने कहा, “हाँ, हमारे तजरिबे में तुम कभी झूठ बोलनेवाले नहीं रहे हो।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, तो मैं ख़ुदा का सख़्त अज़ाब आने से पहले तुमको ख़बरदार करता हूँ। अपनी जानों को उसकी पकड़ से बचाने की फ़िक्र करो। मैं ख़ुदा के मुक़ाबले में तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकता। क़ियामत में मेरे रिश्तेदार सिर्फ़ अल्लाह से डरनेवाले और परहेज़गार लोग होंगे। ऐसा न हो कि दूसरे लोग अच्छे आमाल लेकर आएँ और तुम लोग दुनिया भर के गुनाहों का बोझ सर पर उठाए हुए आओ। उस वक़्त तुम पुकारोगे कि ऐ मुहम्मद, मगर में मजबूर होऊँगा कि तुम्हारी तरफ़ से मुँह फेर लूँ। अलबत्ता दुनिया में मेरा और तुम्हारा ख़ून का रिश्ता है और यहाँ मैं तुम्हारे साथ हर तरह का बेहतर सुलूक करूँगा।” (इस मज़मून की कई रिवायतें बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, नसई और तफ़सीर इब्ने-जरीर में हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-हरैरा (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत ज़ुहैर-बिन-अम्र (रज़ि०) और हज़रत क़बीसा-बिन-मख़ारिक़ (रज़ि०) से बयान हुई हैं।) यह मामला सिर्फ़ इस हद तक न था कि क़ुरआन में, “अपने क़रीबी रिश्तेदारों को ख़बरदार कर दो” का हुक्म आया और नबी (सल्ल०) ने अपने रिश्तेदारों को इकट्ठा करके बस यह काम कर दिया। अस्ल में इसमें जो उसूल बताया गया था यह यह था कि दीन में नबी और उसके ख़ानदान के लिए कोई ख़ास रिआयतें नहीं हैं जो दूसरों को न मिली हों। जो चीज़ हलाक कर देनेवाला ज़हर है, वह सभी के लिए हलाक करनेवाली है। नबी का काम यह है कि सबसे पहले इससे बचे और अपने क़रीबी लोगों को इससे डराए, फिर हर ख़ास और आम को ख़बरदार कर दे कि जो भी उसे खाएगा, हलाक हो जाएगा और जो चीज़ फ़ायदेमन्द है वह सभी के लिए फ़ायदेमन्द है। नबी का मंसब यह है सबसे पहले उसे ख़ुद अपनाए और अपने रिश्तेदारों और क़रीबी लोगों को उसकी नसीहत करे, ताकि हर शख़्स देख ले कि वह नसीहत दूसरों ही के लिए नहीं है, बल्कि नबी अपने पैग़ाम में सच्चा है। इसी तरीक़े पर नबी (सल्ल०) ज़िन्दगी भर अमल करते रहे। मक्का की फ़तह के दिन जब पैग़म्बर (सल्ल०) शहर में दाख़िल हुए तो उन्होंने एलान किया कि “जाहिलियत के ज़माने का हर सूद (ब्याज), जो लोगों के ज़िम्मे था, मेरे इन क़दमों तले रौंद डाला गया और सबसे पहले जिस सूद को मैं ख़त्म करता हूँ वह मेरे चचा अब्बास (रज़ि०) का है। (ध्यान रहे कि ब्याज के हराम होने का हुक्म आने से पहले हज़रत अब्बास ब्याज पर रुपया चलाते थे और उनका बहुत-सा ब्याज उस वक़्त लोगों के ज़िम्मे था जिसको वुसूल किया जाना था।) एक बार चोरी के जुर्म में फ़ातिमा नाम की क़ुरैश की एक औरत का हाथ काटने का आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) ने उसके हक़ में सिफ़ारिश की। इसपर पैग़म्बर (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ख़ुदा की क़सम, अगर मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा भी चोरी करती तो मैं उसका हाथ काट देता।”
وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 209
(215) और ईमान लानेवालों में से जो लोग तुम्हारी पैरवी अपना लें उनके साथ नरमी से पेश आओ,
فَإِنۡ عَصَوۡكَ فَقُلۡ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 210
(216) लेकिन अगर वे तुम्हारी नाफ़रमानी करें तो उनसे कह दो कि जो कुछ तुम करते हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।136
136. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि तुम्हारे रिश्तेदारों में से जो लोग ईमान लाकर तुम्हारी पैरवी करने लगें उनके साथ नरमी, मुहब्बत और मेहरबानी का सुलूक करो और जो तुम्हारी बात न मानें उनसे अलग होने का एलान कर दो। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि यह बात सिर्फ़ उन रिश्तेदारों के बारे में न हो, जिन्हें ख़बरदार करने का हुक्म दिया था, बल्कि सबके लिए आम हो। यानी जो भी ईमान लाकर तुम्हारी पैरवी करे उसके साथ नरमी बरतो और जो भी तुम्हारी नाफ़रमानी करे, उसको ख़बरदार कर दो कि तेरे आमाल की कुछ भी ज़िम्मेदारी मुझपर नहीं है। इस आयत से मालूम होता है कि उस वक़्त क़ुरैश और आसपास के अरबवालों में कुछ लोग ऐसे भी थे जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सच्चाई को मान गए थे, मगर उन्होंने अमली तौर से नबी (सल्ल०) की पैरवी नहीं अपनाई थी, बल्कि वे पहले की तरह अपनी गुमराह सोसाइटी में मिल-जुलकर उसी तरह ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे जैसी दूसरे इस्लाम मुख़ालिफ़ों की थी। अल्लाह तआला ने इस तरह के माननेवालों को उन ईमानवालों से अलग ठहराया जिन्होंने नबी (सल्ल०) की सच्चाई क़ुबूल करने के बाद उनकी पैरवी भी अपना ली थी। नरमी बरतने का हुक्म सिर्फ़ इसी बादवाले गरोह के लिए था। बाक़ी रहे वे लोग जो नबी (सल्ल०) की फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़े हुए थे, जिनमें उनकी सच्चाई को माननेवाले भी शामिल थे और उनका इनकार कर देनेवाले भी, उनके बारे में नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई कि उनसे बेताल्लुफ़ी ज़ाहिर कर दो और साफ़-साफ़ कह दो कि अपने आमाल का नतीजा तुम ख़ुद भुगतोगे, तुम्हें ख़बरदार कर देने के बाद अब मुझपर तुम्हारे किसी काम की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 211
(217) और उस ज़बरदस्त और रहम करनेवाले पर भरोसा करो137
137. यानी दुनिया की किसी बड़ी-से-बड़ी ताक़त की भी परवाह न करो और उस हस्ती के भरोसे पर अपना काम किए चले जाओ जो ज़बरदस्त भी है और रहम करनेवाला भी। उसका ज़बरदस्त होना इस बात की ज़मानत है कि जिसकी पीठ पर उसकी मदद हो, उसे दुनिया में कोई नीचा नहीं दिखा सकता और उसका रहमवाला होना इस इत्मीनान के लिए काफ़ी है कि जो शख़्स उसके लिए हक़ का बोलबाला करने के काम में जान लड़ाएगा, उसकी कोशिशों को वह कभी बेकार न जाने देगा।
ٱلَّذِي يَرَىٰكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 212
(218) जो तुम्हें उस वक़्त देख रहा होता है जब तुम उठते हो,138
138. उठने से मुराद रातों को नमाज़ के लिए उठना भी हो सकता है और रिसालत (पैग़म्बरी) का फ़र्ज़ अदा करने के लिए उठना भी।
وَتَقَلُّبَكَ فِي ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 213
(219) और सजदे करनेवाले लोगों में तुम्हारी नक़्लो-हरकत है (गतिविधियों) पर निगाह रखता है।139
139. इससे कई मानी मुराद हो सकते हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) जब जमाअत से नमाज़ पढ़ने में अपने पीछे नमाज़ पढ़नेवालों के साथ उठते और बैठते और रुकू और सजदे करते हैं उस वक़्त अल्लाह तआला आप (सल्ल०) को देख रहा होता है। दूसरा जब रातों को उठकर आप (सल्ल०) अपने साथियों को (जिनके लिए 'सजदा गुज़ारों’ का लफ़्ज़ ख़ास सिफ़त के तौर पर इस्तेमाल हुआ है) देखते फिरते हैं कि वे अपना अंजाम सँवारने के लिए क्या कुछ कर रहे हैं, उस वक़्त आप (सल्ल०) अल्लाह की निगाह से छिपे हुए नहीं होते। तीसरा यह कि अल्लाह ताला उस तमाम दौड़-धूप और कोशिशों को जानता है जो आप (सल्ल०) अपने सजदा करनेवाले साथियों के साथ में उसके बन्दों के सुधार के लिए कर रहे हैं। चौथा यह कि सजदा करनेवाले लोगों के गरोह में आप (सल्ल०) की तमाम कोशिशें अल्लाह की निगाह में हैं। वह जानता है कि आप (सल्ल०) किस तरह उनकी तरबियत कर रहे हैं, कैसा कुछ उनका तज़किया (आत्म-सुधार) आपने किया है और किस तरह कच्ची धातु को खरा सोना बनाकर रख दिया है। नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के सहाबा किराम (रज़ि०) की इन सिफ़ात का ज़िक्र यहाँ जिस मक़सद से किया गया है, उसका ताल्लुक़ ऊपर के मज़मून से भी है और आगे के मज़मून से भी। ऊपर के मज़मून से इसका ताल्लुक़ यह है कि आप (सल्ल०) हक़ीक़त में अल्लाह की रहमत और उसकी ज़बरदस्त मदद के हक़दार हैं, इसलिए कि अल्लाह कोई अंधा-बहरा माबूद नहीं है, देखने और सुननेवाला हुक्मराँ है, उसकी राह में आप (सल्ल०) की दौड़-धूप और अपने सजदे करनेवाले साथियों में आप (सल्ल०) की सरगर्मियाँ, सब कुछ उसकी निगाह में हैं। बाद के मज़मून से इसका ताल्लुक़ यह है कि जिस शख़्स की ज़िन्दगी यह कुछ हो जैसी कि मुहम्मद (सल्ल०) की है और जिसके साथियों की सिफ़ात वे कुछ हों जैसी कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथियों की हैं, उसके बारे कोई अक़्ल का अंधा ही यह कह सकता है कि उसपर शैतान उतरते हैं या वह शाइर है। शैतान जिन काहिनों पर उतरते हैं और शाइर और उनके साथ लगे रहनेवालों के जैसे कुछ रंग-ढंग हैं, वे आख़िर किससे छिपे हैं। तुम्हारे अपने समाज में ऐसे लोग बड़ी तादाद में पाए ही जाते हैं। क्या कोई आँखोंवाला ईमानदारी के साथ यह कह सकता है कि उसे मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों की ज़िन्दगी में और शाइरों और काहिनों की ज़िन्दगी में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता? अब यह कैसी ढिठाई है कि ख़ुदा के इन बन्दों का खुल्लम-खुल्ला कहानत और शाइर कहकर मज़ाक उड़ाया जाता है और किसी को इसपर शर्म भी नहीं आती।
إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 214
(220) वह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
هَلۡ أُنَبِّئُكُمۡ عَلَىٰ مَن تَنَزَّلُ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 215
(221) लोगो, क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि शैतान किसपर उतरा करते हैं?
تَنَزَّلُ عَلَىٰ كُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٖ ۝ 216
(222) वे हर जालसाज़ बदकार पर उतरा करते हैं।140
140. मुराद हैं काहिन, ज्योतिषी, फ़ाल निकालनेवाले, मिट्टी के ज़रिए से शगुन निकालनेवाले और 'आमिल’ क़िस्म के लोग जो ग़ैब की बातें जानने का ढोंग रचाते फिरते हैं। गोल-मोल लच्छेदार बातें बनाकर लोगों की क़िस्मतें बताते हैं, या सयाने बनकर जिन्नों और रूहों और मुअक्किलों के ज़रिए से लोगों की बिगड़ी बनाने का कारोबार करते हैं।
يُلۡقُونَ ٱلسَّمۡعَ وَأَكۡثَرُهُمۡ كَٰذِبُونَ ۝ 217
(223 ) सुनी-सुनाई बाते कानों में फूँकते हैं और उनमें से अकसर झूठे होते हैं।141
141. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि शैतान कुछ सुनगुन लेकर अपने चेलों के दिलों में डाला करते हैं और उसमें थोड़ी-सी हक़ीक़त के साथ बहुत-सा झूठ मिला देते हैं। दूसरा यह कि झूठे लपाड़िए काहिन शैतानों से कुछ बातें सुन लेते हैं और फिर अपनी तरफ़ से बहुत-सा झूठ मिलाकर लोगों के कानों में फूँकते फिरते हैं। इसकी तशरीह एक हदीस में भी आई है जो बुख़ारी ने हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत की है। वे फ़रमाती हैं कि कुछ लोगों ने नबी (सल्ल०) से काहिनों के बारे में सवाल किया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, वे कुछ नहीं हैं। उन्होंने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल, कभी-कभी तो वे ठीक बात बता देते हैं। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, वह ठीक बात जो होती है, उसे कभी-कभार जिन्न ले उड़ते हैं और जाकर अपने दोस्त काहिन के कान में फूँक देते हैं, फिर वह उसके साथ झूठ की बहुत-सी मिलावट करके एक दास्तान बना लेता है।
وَٱلشُّعَرَآءُ يَتَّبِعُهُمُ ٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 218
(224) रहे शाइर,142 तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते हैं।
142. यानी शाइरों के साथ लगे रहनेवाले लोग अपने अख़लाक़, आदतों और मिज़ाज में उन लोगों से बिलकुल अलग होते हैं, जो मुहम्मद (सल्ल०) के साथ तुम्हें नज़र आते हैं। दोनों गरोहों का फ़र्क़ ऐसा खुला हुआ फ़र्क़ है कि एक नज़र देखकर ही आदमी जान सकता है कि ये कैसे लोग हैं और वे कैसे। एक तरफ़ इन्तिहाई संजीदगी, तहज़ीब, शराफ़त, सच्चाई और ख़ुदा का डर है। बात-बात में ज़िम्मेदारी का एहसास है। बरताव में लोगों के हक़ों का ख़याल रखा जाता है। मामलों में इन्तिहाई दरजे की ईमानदारी है और ज़बान जब खुलती है, भलाई ही के लिए खुलती है, बुराई की बात कभी उससे नहीं निकलती। सबसे ज़्यादा यह कि इन लोगों को देखकर साफ़ मालूम होता है कि इनके सामने एक बुलन्द और पाकीज़ा नस्बुल-ऐन (मक़सद व लक्ष्य) है जिसकी धुन में ये रात-दिन लगे हुए हैं और इनकी सारी ज़िन्दगी एक बड़े मक़सद के लिए वक़्फ़ (समर्पित) है। दूसरी तरफ़ हाल यह है कि कहीं इश्क़बाज़ी और शराब पीने की बातें बयान हो रही हैं और वहाँ मौजूद लोग उछल-उछलकर उनपर दाद दे रहे हैं। कहीं किसी बाज़ारी औरत या किसी घर की बहू-बेटी की ख़ूबसूरती पर बात हो रही है और सुननेवाले उसपर मज़े ले रहे हैं। कहीं जिंसी मेल-मिलाप (यौन-सम्बन्धों) की कहानी बयान हो रही है और पूरी भीड़ पर शहवानियत (कामुकता) का भूत सवार है। कहीं बेहदा बातें बकी जा रही हैं या हँसी-मज़ाक़ हो रहा है और भीड़ में हर तरफ़ ठहाके लग रहे हैं। कहीं किसी की बुराई बयान की जा रही है और लोग उससे मज़े ले रहे हैं। कहीं किसी की बेजा तारीफ़ हो रही है और उसपर तारीफ़ और शाबाशी के डोंगरे बरसाए जा रहे हैं और कहीं किसी के ख़िलाफ़ नफ़रत, दुश्मनी और इन्तिक़ाम के जज़बात भड़काए जा रहे हैं और सुननेवालों के दिलों में उनसे आग-सी लग जाती है। इन मजलिसों में शाइरों के कलाम सुनने के लिए जो भीड़-की-भीड़ लगती है, और बड़े-बड़े शाइरों के पीछे जो लोग लगे फिरते हैं, उनको देखकर कोई शख़्स यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि ये अख़लाक़ की बन्दिशों से आज़ाद, जज़बात और ख़ाहिशों के बहाव में बहनेवाले और मौज़-मस्ती के दीवाने, आधे जानवर क़िस्म के लोग हैं, जिनके ज़ेहन को कभी यह ख़याल छूकर भी नहीं गया है कि दुनिया में इनसान के लिए ज़िन्दगी का कोई बुलन्द मक़सद और नस्बुल-ऐन भी हो सकता है। इन दोनों गरोहों का खुला-खुला फ़र्क़ अगर किसी को नज़र नहीं आता तो वह अंधा है और अगर सब कुछ देखकर भी कोई सिर्फ़ हक़ (सत्य) को नीचा दिखाने के लिए ईमान निगलकर यह कहता है कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके आसपास इकट्ठा होनेवाले उसी तरह के लोग हैं जैसे शाइर और उनके पीछे लगे रहनेवाले लोग होते हैं, तो वह झूठ बोलने में बेशर्मी की सारी हदें पार कर गया है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّهُمۡ فِي كُلِّ وَادٖ يَهِيمُونَ ۝ 219
(225) क्या तुम देखते नहीं हो कि वे हर घाटी में भटकते हैं143
143. यानी कोई एक तयशुदा राह नहीं है जिसपर ये सोचते और अपनी बोलने की ताक़त का इस्तेमाल करते हों, बल्कि उनकी सोच की तार एक बे-लगाम घोड़े की तरह है जो हर पाटी में भटकता फिरता है और जज़बात, ख़ाहिशों और ज़रूरतों की हर नई लहर उनकी ज़बान से एक नई बात निकालती है जिसे सोचने और बयान करने में इस बात का कोई लिहाज़ सिरे से होता ही नहीं कि यह बात हक़ और सच्चाई भी है। कभी एक लहर उठी तो हिकमत और नसीहत की बातें होने लगीं और कभी दूसरी लहर आई तो उसी ज़बान से इन्तिहाई गन्दे और घटिया जज़बात ज़ाहिर होने शुरू हो गए। कभी किसी से ख़ुश हुए तो उसे आसमान पर चढ़ा दिया और कभी बिगड़ बैठे तो उसी को पाताल में जा गिराया। एक कंजूस को हातिम और एक बुज़दिल को रुस्तम और स्फ़न्दयार से बढ़ाकर पेश करने में उन्हें ज़रा झिझक नहीं होती, अगर उससे कोई फ़ायदा उठाना हो। इसके बरख़िलाफ़ किसी से दुख पहुँच जाए तो उसकी पाक ज़िन्दगी पर धब्बा लगाने और उसकी इज़्ज़त पर मिट्टी डालने में, बल्कि उसके ख़ानदान पर छींटाकशी करने में भी उनकी शर्म महसूस नहीं होती। ख़ुदा-परस्ती और नास्तिकता, मादा-परस्ती (भौतिकता) और रूहानियत, अच्छा अख़लाक़ और बद-अख़लाक़ी, पाकीज़गी और गन्दगी, संजीदगी और हँसी-ठिठोली और मज़ाक़ उड़ाना सब कुछ एक ही शाइर के कलाम में आपको एक-दूसरे से मिला हुआ मिल जाएगा। शाइरों की इन जानी-मानी ख़ासियतों को जो शख़्स जानता हो उसके दिमाग़ में आख़िर यह बेतुकी बात कैसे उतर सकती है कि इस क़ुरआन के लानेवाले पर शाइरी की तुहमत रखी जाए जिसकी तक़रीर जँची-तुली, जिसकी बात दोटूक, जिसकी राह बिलकुल साफ़ और तयशुदा है और जिसने हक़ और इमानदारी और भलाई की दावत से हटकर कभी एक बात भी ज़बान से नहीं निकाली है। क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह पर नबी (सल्ल०) के बारे में कहा गया है कि आप (सल्ल०) के मिज़ाज का तो शाइरी के साथ सिरे से कोई जोड़ ही नहीं है, “हमने उसको शेअर (शाइरी) नहीं सिखाया है, न यह उसके करने का काम है।” (क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, आयत-69) और यह एक ऐसी हक़ीक़त थी कि जो लोग भी नबी (सल्ल०) को निजी तौर पर जानते थे वे सब इसे जानते थे। भरोसेमन्द रिवायतों में आया है कि कोई शेअर नबी (सल्ल०) को पूरा याद न था। बातचीत के बीच में कभी किसी शाइर का कोई अच्छा शेअर नबी (सल्ल०) की मुबारक ज़बान पर आता भी तो बेमेल शेअर पढ़ जाते थे, या उसमें अलफ़ाज़ का उलटफेर हो जाता था। हज़रत आइशा (रज़ि०) से पूछा गया कि नबी (सल्ल०) कभी अपनी तक़रीरों में अशआर भी इस्तेमाल करते थे? उन्होंने फ़रमाया, “शेअर से बढ़कर आप (सल्ल०) को किसी चीज़ से नफ़रत न थी। अलबत्ता कभी-कभार बनी-क़ैस के शाइर का एक शेअर पढ़ते थे, मगर पहले को बाद में और बाद को पहले पढ़ जाते थे।” हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) कहते, “अल्लाह के रसूल! यूँ नहीं बल्कि यूँ है, तो आप (सल्ल०) फ़रमाते कि “भाई में शाइर नहीं हूँ और न शेर कहना मेरे करने का काम है।” जिस तरह के मज़ामीन (विषयों) से अरब की शाइरी भरी थी उनमें या तो शहवानियत (कामुकता) और इश्क़बाज़ी की बातें थीं, या शराब पीने की, या क़बीलों की आपसी नफ़रत और लड़ाई-झगड़े की, या नस्ली ग़ुरूर और घमण्ड की। नेकी और भलाई की बातें उनमें बहुत ही कम पाई जाती थीं। फिर झूठ, बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, झूठे इलज़ाम लगाना, बुराई बयान करना, बेजा तारीफ़, डींगें, ताने, फबतियाँ और शिर्क से भरी ख़ुराफ़ात तो इस शाइरी की रग-रग में पेवस्त थी। इसी लिए नबी (सल्ल०) की राय इस शाइरी के बारे में यह थी कि “तुममें से किसी शख़्स का ख़ोल पीप से भर जाना इससे ज़्यादा बेहतर है कि वह शेअर से भरे।” अलबत्ता जिस शेअर में कोई अच्छी बात होती थी आप (सल्ल०) उसकी दाद भी देते थे और आप (सल्ल०) फ़रमाते थे कि “कुछ अशआर हिकमत से भरे होते हैं।” उमैया-बिन-अबिस्सल्त का कलाम सुनकर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसका शेअर ईमानवाला है मगर इसका दिल ईमान से ख़ाली है।” एक बार एक सहाबी ने सौ के क़रीब बेहतरीन अशआर आप (सल्ल०) को सुनाए और आप (सल्ल०) फ़रमाते गए, “और सुनाओ।”
وَأَنَّهُمۡ يَقُولُونَ مَا لَا يَفۡعَلُونَ ۝ 220
(226) और ऐसी बातें कहते हैं जो करते नहीं हैं144
144. यह शाइरों की एक और ख़ासियत है जो नबी (सल्ल०) के रवैये के बिलकुल बरख़िलाफ़ थी। नबी (सल्ल०) के बारे में आप (सल्ल०) का हर जाननेवाला जानता था कि आप (सल्ल०) जो कहते हैं वही करते हैं और जो करते हैं वही कहते हैं। आप (सल्ल०) की कथनी और करनी का एक जैसा होना ऐसी खुली हक़ीक़त थी जिससे आप (सल्ल०) के आसपास के समाज में कोई इनकार न कर सकता था। इसके बरख़िलाफ़ शाइरों के बारे में किसको मालूम न था कि उनके यहाँ कहने की बातें और हैं और करने की और। सख़ावत (दानशीलता) की बात इस ज़ोर-शोर से बयान करेंगे कि आदमी समझे कि शायद उनसे बढ़कर दरिया-दिल कोई न होगा। मगर अमल देखिए तो मालूम होगा कि बेहद कंजूस हैं। बहादुरी की बातें करेंगे, मगर ख़ुद बुज़दिल होंगे। बेनियाज़ी (निस्पृहता), क़नाअत (सन्तोष), और ख़ुद्दारी (स्वाभिमान) की बातें करेंगे मगर ख़ुद हिर्स और लालच में नीचता की आख़िरी हद को पार कर जाएँगे। दूसरों की छोटी-छोटी कमज़ोरियों पर पकड़ करेंगे, मगर ख़ुद बड़ी-बड़ी कमज़ोरियों में मुब्तला होंगे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَذَكَرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱنتَصَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْۗ وَسَيَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَيَّ مُنقَلَبٖ يَنقَلِبُونَ ۝ 221
(227)—सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और जिन्होंने भले काम किए और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद किया और जब उनपर ज़ुल्म किया गया तो सिर्फ़ बदला ले लिया145— और ज़ुल्म करनेवालों को जल्द ही मालूम हो जाएगा कि वे किस अंजाम से दोचार होते हैं।146
145. यहाँ शाइरों की उस आम बुराई से, जो ऊपर बयान हुई, उन शाइरों को अलग किया गया है जो चार ख़ूबियों के मालिक हों— एक यह कि वे मोमिन (ईमानवाले) हो, यानी अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताबों को सच्चे दिल से मानते हों और आख़िरत पर यक़ीन रखते हों। दूसरी यह कि अपनी अमली ज़िन्दगी में नेक हो, बुरे काम करनेवाले और अल्लाह के नाफ़रमान और गुनहगार न हों, अख़लाक़री बन्दिशों से आज़ाद होकर झक न मारते फिरें। तीसरी यह कि अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करनेवाले हों, अपने आम हालात और वास्तों में भी, और अपने कलाम में भी। यह न हो कि निजी ज़िन्दगी तो अल्लाह के डर और परहेज़गारी से भरी हो, मगर कलाम सरासर शराब और शहवानी (कामुक) बातों से भरा हो और यह भी न हो कि शेअर में तो बड़ी हिकमतवाली और अल्लाह को पहचानने की बातें बघारी जा रही हैं, मगर निजी ज़िन्दगी को देखिए तो अल्लाह की याद की सारी अलामतों से ख़ाली। हक़ीक़त यह है कि ये दोनों हालतें यकसाँ तौर पर बुरी हैं। एक पसन्दीदा शाइर वही है जिसकी निजी ज़िन्दगी भी ख़ुदा की याद से भरी हो और शाइराना क़ाबिलियतें भी उस राह में लगी रहें जो ख़ुदा से ग़ाफ़िल लोगों की नहीं, बल्कि अल्लाह को पहचाननेवाले, उससे मुहब्बत करनेवाले और उसकी परस्तिश करनेवाले लोगों की राह है। चौथी ख़ूबी इन अलग तरह के शाइरों की यह बयान की गई है कि वे निजी फ़ायदों के लिए तो किसी की बुराई बयान न करें, न निजी या नस्ली और क़ौमी असबियतों (पक्षपातों) की ख़ातिर इन्तिक़ाम की आग भड़काएँ, मगर जब ज़ालिमों के मुक़ाबले में हक़ की हिमायत के लिए ज़रूरत पड़े तो फिर ज़बान से वही काम लें जो एक मुजाहिद (जिहाद करनेवाला) तीर और तलवार से लेता है। हर वक़्त घिघियाते ही रहना और ज़ुल्म के मुक़ाबले में नरमी से अर्ज़ियाँ ही पेश करते रहना ईमानवालों का तरीक़ा नहीं है। इसी के बारे में रिवायत में आता है कि ग़ैर-मुस्लिमों और मुशरिकों के शाइर इस्लाम और नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ इलज़ामों का जो तूफ़ान उठाते और नफ़रत और दुश्मनी का जो ज़हर फैलाते थे, उसका जवाब देने के लिए नबी (सल्ल०) ख़ुद इस्लामी शाइरों की हिम्मत बढ़ाया करते थे। चुनाँचे कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) से आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, इनकी हज्व (बुराई) में शेअर कहो, क्योंकि उस ख़ुदा की क़सम जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, तुम्हारा शेअर उनके हक़ में तीर से ज़्यादा तेज़ है।” (हदीस अहमद इब्ने-हम्बल, मुसनद अहमद, जिल्द-6, पेज 387; नसई किताबुल-मनासिक-अल-हज्ज बाब इंशाद अश्शिर-फ़िल-हराम, बाब इस्तिक़बाल-अल-हज्ज) हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) से फ़रमाया, “इनकी ख़बर लो और जिबरील तुम्हारे साथ है।” (हदीस : बुख़ारी किताबुल-ल-बद-अल-ख़ल्क़, बाब-अज़्ज़िकरल-मलाइ-क स-लवातुल्ला अलैहिम) और “कहो, और रूहुल-क़ुद्स तुम्हारे साथ है।” (अहमद-इब्ने-हम्बल, मुसनद जिल्द-4, पेज-298 और 301) आप (सल्ल०) का इरशाद था कि “मोमिन तलवार से भी लड़ता है और ज़बान से भी।” (हदीस : मुसनद अहमद, जिल्द-6, पेज-387)
146. ज़ुल्म करनेवालों से मुराद यहाँ वे लोग हैं जो हक़ को नीचा दिखाने के लिए सरासर हठधर्मी की राह से नबी (सल्ल०) पर शाइरी और कहानत और जादूगरी और जुनून की तुहमतें लगाते फिरते थे, ताकि न जाननेवाले लोग आप (सल्ल०) की दावत से बदगुमान हों और आप (सल्ल०) की तालीम की तरफ़ ध्यान न दें।
وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 222
(156) उसको हरगिज़ न छेड़ना वरना एक बड़े दिन का अज़ाब तुमको आ लेगा।”
فَعَقَرُوهَا فَأَصۡبَحُواْ نَٰدِمِينَ ۝ 223
(157) मगर उन्होंने उसकी कूचे काट दीं105 और आख़िरकार पछताते रह गए।
105. यह मतलब नहीं है कि जिस वक़्त उन्होंने हज़रत सॉलेह (अलैहि०) से यह चैलेंज सुना उसी वक़्त वे ऊँटनी पर पिल पड़े और उसकी कूचें काट डालीं, बल्कि काफ़ी मुद्दत तक यह ऊँटनी सारी क़ौम के लिए एक मसला बनी रही, लोग उसपर दिलों में खौलते रहे, मशवरे होते रहे, और आख़िरकार एक मनचले सरदार ने इस काम का बेड़ा उठाया कि वह क़ौम को इस बला से नजात दिलाएगा। सूरा-91 शम्स, में इस आदमी का ज़िक्र इन अलफ़ाज़ में किया गया है, “जब उस क़ौम का सबसे ज़्यादा बदनसीब (अभागा) आदमी।” (आयत-12) और सूरा-54 क़मर में कहा गया है, “उन्होंने अपने साथी से गुज़ारिश की, आख़िरकार वह यह काम अपने ज़िम्मे लेकर उठा और उसने कूचें काट डालीं।” (आयत-29)
فَجُمِعَ ٱلسَّحَرَةُ لِمِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 224
(38) चुनाँचे एक दिन तय हो चुके वक़्त पर31 जादूगर इकट्ठे कर लिए गए
31. सूरा-20 ता-हा में गुज़र चुका है कि इस मुक़ाबले के लिए क़िब्तियों की क़ौमी ईद का दिन (यौमुज़-ज़ीनत) मुक़र्रर किया गया था, ताकि देश के कोने-कोने से मेलों-ठेलों की ख़ातिर आनेवाले सब लोग यह अज़ीमुश्शान 'दंगल’ देखने के लिए इकट्ठा हो जाएँ, और इसके लिए वक़्त भी दिन चढ़े का तय हुआ था, ताकि दिन की रौशनी में सबकी आँखों के सामने दोनों तरफ़ की ताक़त का मुज़ाहरा (प्रदर्शन) हो और रौशनी की कमी की वजह से किसी तरह का शक-शुब्हा पैदा होने की गुंजाइश न रहे।
وَقِيلَ لِلنَّاسِ هَلۡ أَنتُم مُّجۡتَمِعُونَ ۝ 225
(39) और लोगों से कहा गया, “तुम इजतिमा (जन-सभा) में चलोगे?32
32. यानी सिर्फ़ एलान और इशतिहार पर ही बस नहीं किया गया, बल्कि आदमी इस ग़रज़ के लिए छोड़े गए कि लोगों को उकसा-उकसाकर यह मुक़ाबला देखने के लिए लाएँ। इससे मालूम होता है कि भरे दरबार में जो मोजिज़े (चमत्कार) हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिखाए थे उनकी ख़बर आम लोगों में फैल चुकी थी और फ़िरऔन को यह अन्देशा हो गया था कि इससे देश के रहनेवाले मुतास्सिर होते चले जा रहे हैं। इसलिए उसने चाहा कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग इकट्ठा हों और ख़ुद देख लें कि लाठी का साँप बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हमारे देश का हर जादूगर यह कमाल दिखा सकता है।
لَعَلَّنَا نَتَّبِعُ ٱلسَّحَرَةَ إِن كَانُواْ هُمُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 226
(40) शायद कि हम जादूगरों के दीन ही पर रह जाएँ, अगर वे ग़ालिब (प्रभावी) रहे।"33
33. यह जुमला इस ख़याल की तसदीक़ (पुष्टि) करता है कि दरबार में मौजूद जिन लोगों ने हज़रत मूसा (अलैहि०) का मोजिज़ा (चमत्कार) देखा था और बाहर जिन लोगों तक उसकी पक्की ख़बरें पहुँची थीं, उनके अक़ीदे अपने बाप-दादा के दीन पर से डगमगाए जा रहे थे, और अब उनके दीन का दारोमदार बस इसपर रह गया था कि किसी तरह जादूगर भी वह काम कर दिखाएँ जो मूसा (अलैहि०) ने किया है। फ़िरऔन और उसके दरबारी उसे ख़ुद एक फ़ैसलाकुन मुक़ाबला समझ रहे थे। उनके अपने भेजे हुए आदमी आम लोगों के ज़ेहन में यह बात बिठाते फिरते थे कि अगर जादूगर कामयाब हो गए तो हम मूसा (अलैहि०) के दीन में जाने से बच जाएँगे, वरना हमारे दीन और ईमान की ख़ैर नहीं है।