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سُورَةُ الحُجُرَاتِ

49. अल-हुजुरात

(मदीना में उतरी, आयतें 18)

परिचय

नाम

आयत 4 के वाक्यांश "इन्नल्लज़ी-न युनादू-न-क मिंव-वरा-इल हुजुरात" (जो लोग तुम्हें कमरों अर्थात् हुजरों के बाहर से पुकारते हैं) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द हुजुरात आया है।

उतरने का समय

यह बात उल्लेखों से भी मालूम होती है और सूरा की विषय-वस्तु से भी इसकी पुष्टि होती है कि यह सूरा अलग-अलग मौक़ों पर उतरे आदेशों और निर्देशों का संग्रह है जिन्हें विषय की अनुकूलता के कारण जमा कर दिया गया है। इसके अलावा उल्लेखों से यह भी मालूम होता है कि इनमें से अधिकतर आदेश मदीना तय्यिबा के अन्तिम समय में उतरे हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय मुसलमानों को उन शिष्ट नियमों की शिक्षा देना है जो ईमानवालों के गौरव के अनुकूल है। आरंभ की पाँच आयतों में उनको वह नियम सिखाया गया है जिसका उन्हें अल्लाह और उसके रसूल के मामले में ध्यान रखना चाहिए। फिर यह आदेश दिया गया है कि अगर किसी आदमी या गिरोह या क़ौम के विरुद्ध कोई ख़बर मिले तो ध्यान से देखना चाहिए कि ख़बर मिलने का माध्यम भरोसे का है या नहीं। भरोसे का न हो तो उसपर कार्रवाई करने से पहले जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि ख़बर सही है या नहीं। इसके बाद यह बताया गया है कि अगर किसी समय मुसलमानों के दो गिरोह आपस में लड़ पड़ें तो इस स्थिति में दूसरे मुसलमानों को क्या नीति अपनानी चाहिए।

फिर मुसलमानों को उन बुराइयों से बचने की ताकीद की गई है जो सामाजिक जीवन में बिगाड़ पैदा करती हैं और जिनकी वजह से आपस के सम्बन्ध ख़राब होते हैं। इसके बाद उन क़ौमी (जातीय) और नस्ली (वंशगत) भेद-भाव पर चोट की गई है जो दुनिया में व्यापक बिगाड़ का कारण बनते हैं। [इस सिलसिले में] सर्वोच्च अल्लाह ने यह कहकर इस बुराई की जड़ काट दी है कि तमाम इंसान एक ही मूल (अस्ल) से पैदा हुए हैं और क़ौमों और क़बीलो में उनका बँट जाना परिचय के लिए है, न कि आपस में गर्व के लिए। और एक इंसान पर दूसरे इंसान की श्रेष्ठता के लिए नैतिक श्रेष्ठता के सिवा और कोई वैध आधार नहीं है। अन्त में लोगों को बताया गया है कि मौलिक चीज़ ईमान का मौखिक दावा नहीं है, बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह और उसके रसूल को मानना, व्यावहारिक रूप से आज्ञापालक बनकर रहना और निष्ठा के साथ अल्लाह की राह में अपनी जान और माल खपा देना है।

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سُورَةُ الحُجُرَاتِ
49. अल-हुजुरात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيِ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह और उसके रसूल से आगे मत बढ़ो1 और अल्लाह से डरो, अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।2
1. यह ईमान का सबसे पहला और बुनियादी तक़ाज़ा है। जो शख़्स अल्लाह को अपना रब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को अपना हिदायत देनेवाला और रहनुमा मानता हो, वह अगर अपने इस अक़ीदे में सच्चा है तो उसका यह रवैया कभी नहीं हो सकता कि अपनी राय और ख़याल को अल्लाह और रसूल के फ़ैसले से बढ़कर समझे, या मामलों में आज़ादी के साथ राय क़ायम करे और उनके फ़ैसले अपने तौर पर ख़ुद कर डाले, बिना इसके कि उसे यह मालूम करने की फ़िक्र हो कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने उन मामलों में कोई हिदायत दी है या नहीं, और दी है तो वह क्या है? इसी लिए कहा गया है कि ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से आगे न बढ़ो, यानी उनसे आगे बढ़कर न चलो, पीछे चलो। बड़े न बनो, उनके मातहत बनकर रहो। यह कहना अपने हुक्म में सूरा-33 अहज़ाब, आयत-36 से एक क़दम आगे है। वहाँ कहा गया था कि जिस मामले का फ़ैसला अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने कर दिया हो उसके बारे में किसी ईमानवाले को ख़ुद कोई अलग फ़ैसला करने का इख़्तियार बाक़ी नहीं रहता। और यहाँ कहा गया है कि ईमानवालों को अपने मामलों में आगे बढ़कर ख़ुद फ़ैसले नहीं कर लेने चाहिएँ, बल्कि पहले यह देखना चाहिए कि अल्लाह की किताब और उसके रसूल (सल्ल०) की सुन्नत में उनके बारे में क्या हिदायतें मिलती हैं। यह हुक्म मुसलमानों के सिर्फ़ इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) मामलों तक ही महदूद (सीमित) नहीं है, बल्कि उनके तमाम इजतिमाई मामले भी इसके तहत आ जाते हैं। हक़ीक़त में यह इस्लामी दस्तूर की बुनियादी दफ़ा (मूल धारा) है जिसकी पाबन्दी से न मुसलमानों की हुकूमत आज़ाद हो सकती है, न उनकी अदालत और न पार्लियामेंट। मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा में यह रिवायत सही सनदों के साथ नक़्त हुई है कि नबी (सल्ल०) जब हज़रत मुआज़-बिन-जबल को यमन की अदालत का जज बनाकर भेज रहे थे तो आप (सल्ल०) ने उनसे पूछा कि “तुम किस चीज़ के मुताबिक़ फ़ैसले करोगे?” उन्होंने कहा, “अल्लाह की किताब (क़ुरआन) के मुताबिक़।” आप (सल्ल०) ने पूछा, “अगर अल्लाह की किताब में किसी मामले का हुक्म न मिले तो किस चीज़ की तरफ़ रुजू करोगे?” उन्होंने कहा, “अल्लाह के रसूल की सुन्नत (तरीक़े) की तरफ़।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर उसमें भी कुछ न मिले?” उन्होंने कहा, “फिर मैं ख़ुद दीन की रौशनी में फ़ैसला करूँगा।” इसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनके सीने पर हाथ रखकर फ़रमाया, “शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने अपने रसूल के नुमाइन्दे को वह तरीक़ा अपनाने की तौफ़ीक़ दी जो उसके रसूल को पसन्द है!” यह अपने फ़ैसले के मुक़ाबले में अल्लाह की किताब और रसूल (सल्ल०) की सुन्नत को आगे रखना और हिदायत हासिल करने के लिए सबसे पहले उनकी तरफ़ रुजू करना ही वह चीज़ है जो एक मुसलमान जज और एक ग़ैर-मुस्लिम जज के बीच फ़र्क़ की बुनियाद है। इसी तरह क़ानून बनाने के मामले में यह बात सभी आलिम मानते हैं कि सबसे पहला क़ानून का माख़ज़ (मूल स्रोत) अल्लाह की किताब (क़ुरआन) है और उसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत। तमाम आलिमों का इजमाअ (मतैक्य) तक इन दोनों के ख़िलाफ़ या इनसे आज़ाद नहीं हो सकता, कहाँ यह कि उम्मत के लोगों का अलग-अलग अपने तौर पर क़ियास और इजतिहाद।
2. यानी अगर कभी तुमने अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से बे-परवाह होकर ख़ुदमुख़्तारी का रवैया अपनाया या अपनी राय और ख़याल को उनके हुक्म पर तरजीह दी तो जान रखो कि तुम्हारा सामना उस ख़ुदा से है जो तुम्हारी बातें सुन रहा है और तुम्हारी नीयतों (दिलों के इरादों) तक को जानता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَرۡفَعُوٓاْ أَصۡوَٰتَكُمۡ فَوۡقَ صَوۡتِ ٱلنَّبِيِّ وَلَا تَجۡهَرُواْ لَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ كَجَهۡرِ بَعۡضِكُمۡ لِبَعۡضٍ أَن تَحۡبَطَ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تَشۡعُرُونَ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अपनी आवाज़ नबी की आवाज़ से ऊँची न करो, और न नबी के साथ ऊँची आवाज़ से बात किया करो, जिस तरह तुम आपस में एक-दूसरे से करते हो,3 कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा किया-कराया सब अकारथ हो जाए और तुम्हें ख़बर भी न हो।4
3. यह वह अदब है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मजलिस में बैठनेवालों और आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होनेवालों को सिखाया गया था। इसका मंशा यह था कि नबी (सल्ल०) के साथ मुलाक़ात और बातचीत में ईमानवाले आप (सल्ल०) के इन्तिहाई एहतिराम का ख़याल रखें। किसी शख़्स की आवाज़ आप (सल्ल०) की आवाज़ से ज़्यादा बुलन्द न हो। आप (सल्ल०) से बात करते हुए लोग यह भूल न जाएँ कि वे किसी आम आदमी या अपने बराबरवाले से नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल से बात कर रहे हैं। इसलिए आम आदमियों के साथ बातचीत और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ बातचीत में नुमायाँ फ़र्क़ होना चाहिए और किसी को आप (सल्ल०) से ऊँची आवाज़ में बात न करनी चाहिए। यह अदब अगरचे नबी (सल्ल०) की मजलिस के लिए सिखाया गया था और उन लोगों को सिखाया गया था जो नबी (सल्ल०) के ज़माने में मौजूद थे, मगर बाद के लोगों को भी ऐसे तमाम मौक़ों पर इसी अदब का ख़याल रखना चाहिए जब आप (सल्ल०) का ज़िक्र हो रहा हो, या आप (सल्ल०) का कोई हुक्म सुनाया जाए, या आप (सल्ल०) की हदीसें बयान की जाएँ। इसके अलावा इस आयत से यह इशारा भी निकलता है कि लोगों को अपने से बड़े लोगों के साथ बातचीत में क्या रवैया अपनाना चाहिए। किसी शख़्स का अपने बुज़ुर्गों के सामने इस तरह बोलना जिस तरह वह अपने दोस्तों या आम आदमियों के सामने बोलता है, अस्ल में इस बात की पहचान है कि उसके दिल में उनके लिए कोई एहतिराम (आदर) मौजूद नहीं है और वह उनमें और आम आदमियों में कोई फ़र्क़ नहीं समझता।
4. इस बात से मालूम होता है कि दीन में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की शख़सियत की बड़ाई का क्या दरजा है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सिवा कोई शख़्स, चाहे अपने-आपमें कितना ही क़ाबिले-एहतिराम हो, बहरहाल यह हैसियत नहीं रखता कि उसके साथ बे-अदबी ख़ुदा के यहाँ उस सज़ा की हक़दार हो जो हक़ीक़त में कुफ़्र की सज़ा है। वह ज़्यादा-से-ज़्यादा एक बद-तमीज़ी है, तहज़ीब के ख़िलाफ़ हरकत है। मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एहतिराम में ज़रा-सी कमी भी इतना बड़ा गुनाह है कि इससे आदमी की उम्र-भर की कमाई बरबाद हो सकती है। इसलिए कि आप (सल्ल०) का एहतिराम अस्ल में उस ख़ुदा का एहतिराम है जिसने आप (सल्ल०) को अपना रसूल बनाकर भेजा है, और आप (सल्ल०) के एहतिराम में कमी का मतलब ख़ुदा के एहतिराम में कमी है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَغُضُّونَ أَصۡوَٰتَهُمۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱمۡتَحَنَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُمۡ لِلتَّقۡوَىٰۚ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 2
(3) जो लोग ख़ुदा के रसूल के सामने बात करते हुए अपनी आवाज़ नीची रखते हैं, वे हक़ीक़त में वही लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने तक़वा (परहेज़गारी) के लिए जाँच लिया है,5 उनके लिए माफ़ी और बड़ा बदला है।
5. यानी जो लोग अल्लाह तआला की आज़माइशों में पूरे उतरे हैं और उन आज़माइशों से गुज़रकर जिन्होंने साबित कर दिया है कि उनके दिलों में सचमुच तक़वा (परहेज़गारी) मौजूद है, वही लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अदब और एहतिराम का ख़याल रखते हैं। इस फ़रमान से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात निकलती है कि जो दिल रसूल (सल्ल०) के एहतिराम से ख़ाली है, वह हक़ीक़त में तक़वा (परहेज़गारी) से ख़ाली है, और रसूल (सल्ल०) के मुक़ाबले में किसी की आवाज़ का बुलन्द होना सिर्फ़ एक ज़ाहिरी बद-तमीज़ी नहीं है, बल्कि दिल में तक़वा न होने की निशानी है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِن وَرَآءِ ٱلۡحُجُرَٰتِ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 3
(4) ऐ नबी! जो लोग तुम्हें हुजरों (कमरों) के बाहर से पुकारते हैं उनमें से अकसर बेअक़्ल हैं।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ صَبَرُواْ حَتَّىٰ تَخۡرُجَ إِلَيۡهِمۡ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) अगर वे तुम्हारे बाहर आने तक सब्र करते तो उन ही के लिए बेहतर था,6 अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।'7
6. नबी (सल्ल०) के मुबारक दौर में जिन लोगों ने आप (सल्ल०) के साथ रहकर इस्लामी आदाब और तहज़ीब की तरबियत पाई थी वे तो आप (सल्ल०) के वक़्तों का हमेशा ख़याल रखते थे। उनको पूरा एहसास था कि आप (सल्ल०) अल्लाह के काम में कितने ज़्यादा मसरूफ़ (व्यस्त) ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, और इन थका देनेवाली मसरूफ़ियतों के दौरान यक़ीनन कुछ वक़्त आप (सल्ल०) के आराम के लिए और कुछ आप (सल्ल०) के कुछ अहम कामों के लिए और कुछ वक़्त अपनी घरेलू ज़िन्दगी के मामलों की तरफ़ ध्यान देने के लिए भी होना चाहिए। इसलिए वे आप (सल्ल०) से मुलाकात के लिए उसी वक़्त हाज़िर होते थे जब आप (सल्ल०) बाहर मौजूद हों, और अगर कभी वे आप (सल्ल०) को मजलिस में मौजूद न पाते तो बैठकर आप (सल्ल०) के आने का इन्तिज़ार करते थे और किसी सख़्त ज़रूरत के बिना आप (सल्ल०) को बाहर आने की तकलीफ़ न देते थे। लेकिन अरब के उस माहौल में, जहाँ आम तौर पर लोगों को किसी शाइस्तगी (शालीनता) की तरबियत न मिली थी, कई बार ऐसे अनगढ़ लोग भी आप (सल्ल०) से मुलाक़ात के लिए आ जाते थे जिनका ख़याल यह था कि अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाले और लोगों के सुधार का काम करनेवाले को किसी वक़्त भी आराम लेने का हक़ नहीं है, और उन्हें (आनेवाले को) हक़ है कि रात-दिन में जब चाहें उसके पास आ धमकें और उसका फ़र्ज़ है कि जब भी वे आ जाएँ, वह उनसे मिलने के लिए तैयार और हाज़िर रहे। इस तरह के लोगों में आम तौर पर और अरब के आसपास से आनेवालों में ख़ास तौर पर कुछ ऐसे नाशाइस्ता (असभ्य) लोग भी होते थे जो आप (सल्ल०) से मुलाक़ात के लिए आते तो किसी ख़ादिम से अन्दर ख़बर देने की तकलीफ़ भी न उठाते थे, बल्कि पाक बीवियों हुजरों (कमरों) का चक्कर काटकर बाहर ही से आप (सल्ल०) को पुकारते फिरते थे। इस तरह के कई वाक़िआत हदीसों की किताबों में सहाबा किराम (रज़ि०) ने रिवायत किए हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को लोगों की इन हरकतों से सख़्त तकलीफ़ होती थी, मगर अपनी फ़ितरी नर्म मिज़ाजी की वजह से आप (सल्ल०) उसे बरदाश्त किए जा रहे थे। आख़िरकार अल्लाह तआला ने इस मामले में दख़ल दिया और इस नामुनासिब रवैये पर मलामत करते हुए लोगों को यह हिदायत दी कि जब वे आप (सल्ल०) से मिलने के लिए आएँ और आप (सल्ल०) को मौजूद न पाएँ तो पुकार-पुकारकर आप (सल्ल०) को बुलाने के बजाय सब्र के साथ बैठकर उस वक़्त का इन्तिज़ार करें जब आप (सल्ल०) ख़ुद उनसे मुलाक़ात के लिए बाहर आएँ।
7. यानी अब तक जो कुछ हुआ सो हुआ, आगे से इस ग़लती को दोहराया न जाए तो अल्लाह तआला पिछली ग़लतियों को माफ़ कर देगा और अपने रहम-करम की बुनियाद पर इन लोगों से कोई पूछ-गछ न करेगा जो उसके रसूल (सल्ल०) को इस तरह तकलीफ़ देते रहे हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٖ فَتَبَيَّنُوٓاْ أَن تُصِيبُواْ قَوۡمَۢا بِجَهَٰلَةٖ فَتُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَا فَعَلۡتُمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर कोई फ़ासिक़ (अल्लाह का नाफ़रमान) तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो जाँच-पड़ताल कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी गरोह को अनजाने में नुक़सान पहुँचा बैठो और फिर अपने किए पर पछताओ।8
8. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले अकसर आलिमों का बयान है कि यह आयत वलीद-बिन- उक़बा-बिन-अबी-मुऐत के बारे में उतरी है। उसका क़िस्सा यह है कि बनी-मुस्तलिक़ नाम का क़बीला जब मुसलमान हो गया तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने वलीद-बिन-उक़बा को भेजा, ताकि उन लोगों से ज़कात वुसूल कर लाएँ। ये उनके इलाक़े में पहुँचे तो किसी वजह से डर गए और क़बीलेवालों से मिले बिना मदीना वापस जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से शिकायत कर दी कि उन्होंने ज़कात देने से इनकार कर दिया है और वे मुझे क़त्ल करना चाहते थे। नबी (सल्ल०) यह ख़बर सुनकर सख़्त नाराज हुए और आप (सल्ल०) ने इरादा किया कि उन लोगों को सज़ा देने के लिए कुछ लोगों को रवाना करें। कुछ रिवायतों में आया है कि को आप (सल्ल०) ने उन लोगों को भेज दिया था और कुछ में यह बयान हुआ है कि आप (सल्ल०) रवाना करनेवाले थे। बहरहाल इस बात पर सब एक राय हैं कि बनी-मुस्तलिक़ के सरदार हारिस-बिन-ज़िरार (उम्मुल-मोनिनीन हज़रत जुवैरिया रज़ि० के बाप) इस दौरान में ख़ुद कुछ लोगों को लेकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में पहुँच गए और उन्होंने अर्ज़ किया कि ख़ुदा की क़सम! हमने तो वलीद को देखा तक नहीं, कहाँ यह कि ज़कात देने से इनकार और उनके क़त्ल के इरादे का कोई सवाल पैदा हो। हम ईमान पर क़ायम हैं और ज़कात अदा करने से हमें हरगिज़ इनकार नहीं है। इसपर यह आयत उतरी। थोड़े-से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ इस क़िस्से को इमाम अहमद, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी और इब्ने-जरीर ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास, हारिस-बिन-ज़िरार, मुजाहिद, क़तादा, अब्दुर्रहमान-बिन-अबी-लैला, यज़ीद-बिन-रूमान, ज़ह्हाक और मुक़ातिल-बिन-हय्यान से नक़्ल किया है। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) की रिवायत में यह पूरा क़िस्सा बयान तो इसी तरह हुआ है, मगर उसमें वलीद का नाम नहीं है। इस नाज़ुक मौक़े पर जबकि एक बेबुनियाद ख़बर पर भरोसा कर लेने की वजह से एक बड़ी ग़लती होते-होते रह गई, अल्लाह तआला ने मुसलमानों को यह उसूली हिदायत दी कि जब कोई अहमियत रखनेवाली ख़बर, जिससे कोई बड़ा नतीजा निकल सकता हो, तुम्हें मिले तो उसको क़ुबूल करने से पहले यह देख लो कि ख़बर लानेवाला कैसा आदमी है। अगर वह फ़ासिक़ शख़्स हो, यानी जिसका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि उसकी बात भरोसे के लायक़ नहीं है, तो उसकी दी हुई ख़बर पर अमल करने से पहले जाँच-पड़ताल कर लो कि अस्ल मामला क्या है। अल्लाह के इस हुक्म से एक अहम शरई क़ायदा निकलता है जिसके दायरे में बहुत-से मामले आ जाते हैं। इसके मुताबिक़ मुसलमानों की हुकूमत के लिए यह जाइज़ नहीं है कि किसी शख़्स या गरोह या क़ौम के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई ऐसे मुख़बिरों की दी हुई ख़बरों की बुनियाद पर कर डाले जिनका किरदार भरोसे के लायक़ न हो। इसी उसूल की बुनियाद पर हदीस के आलिमों ने इल्मे-हदीस में जिरह और तादील (सच्चाई की जाँच-पड़ताल) का फ़न (कला) ईजाद किया, ताकि उन लोगों के हालात की जाँच करें जिनके ज़रिए से बाद की नस्लों को नबी (सल्ल०) की हदीसें पहुँची थीं, और फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के आलिमों) ने गवाही के क़ानून में यह उसूल क़ायम किया कि किसी ऐसे मामले में, जिससे कोई शरई हुक्म साबित होता हो, या किसी इनसान पर कोई हक़ लाज़िम होता हो, फ़ासिक़ की गवाही क़ुबूल करने लायक़ नहीं है। अलबत्ता इस बात पर सभी आलिम एक राय हैं कि आम दुनियावी मामलों में हर ख़बर की जाँच-पड़ताल और ख़बर लानेवाले के भरोसे लायक़ होने का इत्मीनान ज़रूरी नहीं है, क्योंकि आयत में अरबी लफ़्ज़ 'नबा' इस्तेमाल हुआ है, जिसमें हर ख़बर नहीं आती, बल्कि 'नबा' अहमियत रखनेवाली ख़बर को कहते हैं। इसी लिए फ़क़ीह कहते हैं कि आम मामलों में यह क़ायदा और उसूल जारी नहीं होता। मसलन आप किसी के यहाँ जाते हैं और घर में दाख़िल होने की इजाज़त तलब करते हैं। अन्दर से कोई आकर कहता है कि आ जाओ। आप उसके कहने पर अन्दर जा सकते हैं चाहे घर के मालिक की तरफ़ से इजाज़त की ख़बर देनेवाला फ़ासिक़ हो या नेक। इसी तरह इस पर भी आलिम एक राय हैं कि जिन लोगों का फ़िस्क़ (गुनाह) झूठ और बदकारी की तरह का न हो, बल्कि अक़ीदे की ख़राबी की वजह से वे फ़ासिक़ कहलाते हों, उनकी गवाही भी क़ुबूल की जा सकती है और रिवायत भी। सिर्फ़ उनके अक़ीदे की ख़राबी उनकी गवाही या रिवायत क़ुबूल करने में रुकावट नहीं है।
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ فِيكُمۡ رَسُولَ ٱللَّهِۚ لَوۡ يُطِيعُكُمۡ فِي كَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِ لَعَنِتُّمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ حَبَّبَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡإِيمَٰنَ وَزَيَّنَهُۥ فِي قُلُوبِكُمۡ وَكَرَّهَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكُفۡرَ وَٱلۡفُسُوقَ وَٱلۡعِصۡيَانَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلرَّٰشِدُونَ ۝ 6
(7) ख़ूब जान रखो कि तुम्हारे बीच अल्लाह का रसूल मौजूद है। अगर वह बहुत-से मामलों में तुम्हारी बात मान लिया करे तो तुम ख़ुद ही मुश्किलों में पड़ जाओ।9 मगर अल्लाह ने तुमको ईमान की मुहब्बत दी और उसको तुम्हारे लिए दिलपसन्द बना दिया, और कुफ़्र और फ़िस्क़ और नाफ़रमानी से तुमको नफ़रत करनेवाला बना दिया।
9. यह बात मौक़ा-महल (प्रसंग और सन्दर्भ) से भी ज़ाहिर होती है, और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कई आलिमों ने भी इस आयत से यह समझा है कि बनी-मुस्तलिक़ के मामले में वलीद-बिन-उक़बा की दी हुई ख़बर पर नबी (सल्ल०) उनके ख़िलाफ़ फ़ौजी कार्रवाई करने में झिझक महसूस कर रहे थे, मगर कुछ लोगों ने ज़ोर दिया कि उनपर फ़ौरन चढ़ाई कर दी जाए। इसपर उन लोगों को ख़बरदार किया गया कि तुम इस बात को भूल न जाओ कि तुम्हारे बीच अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मौजूद हैं, जो तुम्हारी भलाई किस चीज़ में है इस बात को तुमसे ज़्यादा जानते हैं। तुम्हारा यह चाहना कि अहम मामलों में जो राय तुम्हें मुनासिब नज़र आती है आप (सल्ल०) उसी पर अमल करें, सख़्त बेजा जसारत (दुस्साहस) है। अगर तुम्हारे कहने पर अमल किया जाने लगे तो बहुत-से मौक़ों पर ऐसी ग़लतियाँ होंगी जिनका ख़मियाज़ा ख़ुद तुमको भुगतना पड़ेगा।
فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَنِعۡمَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 7
(8) ऐसे ही लोग अल्लाह की मेहरबानी और उसके एहसान से सीधी राह पर हैं10 और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।11
10. मतलब यह है कि ईमानवालों की पूरी जमाअत ने वह ग़लती नहीं की जो उन कुछ लोगों से हुई जो अपनी कमज़ोर राय पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चलाना चाहते थे। और ईमानवालों की जमाअत के सीधे रास्ते पर क़ायम रहने की वजह यह है कि अल्लाह ने अपनी मेहरबानी और एहसान से ईमान के रवैये को उनके लिए प्यारा और दिलपसन्द बना दिया है। और कुफ़्र और फ़िस्क़ (गुनाह) और नाफ़रमानी के रवैये से उन्हें नफ़रत करने पर मजबूर कर दिया है। इस आयत के दो हिस्सों में बात का रुख़ दो अलग-अलग गरोहों की तरफ़ है। 'अगर वह बहुत-से मामलों में तुम्हारी बात मान ले' की बात सहाबा (रज़ि०) की पूरी जमाअत से नहीं कही गई है, बल्कि उन ख़ास सहाबा से कही गई है जो बनी-मुस्तलिक़ पर चढ़ाई कर देने के लिए ज़ोर दे रहे थे। और 'मगर अल्लाह ने तुमको मुहब्बत दी' का ख़िताब आम सहाबा (रज़ि०) से है, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने अपनी राय पर ज़ोर देने की हिम्मत कभी न करते थे, बल्कि आप (सल्ल०) की रहनुमाई पर भरोसा करते हुए हमेशा फ़रमाँबरदारी के रवैये पर क़ायम रहते थे जो ईमान का तक़ाज़ा है। इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि जिन्होंने अपनी राय पर ज़ोर दिया था वे ईमान की मुहब्बत से ख़ाली थे। बल्कि इससे जो बात ज़ाहिर होती है वह यह है कि ईमान के इस तक़ाज़े की तरफ़ से वे ग़फ़लत में पड़ गए थे, जिसकी वजह से उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मौजूदगी में अपनी राय पर ज़ोर देने की ग़लती की। इसलिए अल्लाह तआला ने पहले उनको इस ग़लती पर और उसके बुरे नतीजों पर ख़बरदार किया, और फिर यह बताया कि सही ईमानी रवैया वह है जिसपर सहाबा (रज़ि०) की आम जमाअत क़ायम है।
11. यानी अल्लाह की यह मेहरबानी और एहसान कोई अन्धी बाँट नहीं है। यह बड़ी नेमत जिसको भी वह देता है हिकमत की बुनियाद पर और इस इल्म की बुनियाद पर देता है कि वह उसका हक़दार है।
وَإِن طَآئِفَتَانِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱقۡتَتَلُواْ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَاۖ فَإِنۢ بَغَتۡ إِحۡدَىٰهُمَا عَلَى ٱلۡأُخۡرَىٰ فَقَٰتِلُواْ ٱلَّتِي تَبۡغِي حَتَّىٰ تَفِيٓءَ إِلَىٰٓ أَمۡرِ ٱللَّهِۚ فَإِن فَآءَتۡ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَا بِٱلۡعَدۡلِ وَأَقۡسِطُوٓاْۖ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 8
(9) और अगर ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ जाएँ12 तो उनके बिच सुलह कराओ।13 फिर अगर उनमें से एक गरोह दूसरे गरोह से ज़्यादती करे तो ज़्यादती करनेवाले से लड़ो14 यहाँ तक कि वह अल्लाह के हुक्म की तरफ़ पलट आए।15 फ़िर अगर वह पलट आए तो उनके बीच अद्ल (इनसाफ़) के साथ सुलह करा दो।16 और इनसाफ़ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।17
12. यह नहीं फ़रमाया कि “जब ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ें, बल्कि फ़रमाया यह है कि “अगर ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ जाएँ।” इन अलफ़ाज़ से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद निकलती है कि आपस में लड़ना मुसलमानों का काम नहीं है और नहीं होना चाहिए। न उनसे इस बात की उम्मीद है कि वे मोमिन होते हुए आपस में लड़ा करेंगे। अलबत्ता अगर कभी ऐसा हो जाए तो इस सूरत में वह तरीक़ा अपनाना चाहिए जो आगे बयान किया जा रहा है। इसके अलावा गरोह के लिए भी 'फ़िरक़ा' के बजाय 'ताइफ़ा' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। अरबी ज़बान में 'फ़िरक़ा' बड़े गरोह के लिए और 'ताइफ़ा' छोटे गरोह के लिए बोला जाता है। इससे भी यह बात ज़ाहिर होती है कि अल्लाह तआला की निगाह में यह एक इन्तिहाई नापसन्दीदा हालत है जिसमें मुसलमानों की बड़ी-बड़ी जमाअतों के मुब्तला हो जाने की उम्मीद नहीं होनी चाहिए।
13. यह हुक्म उन तमाम मुसलमानों के लिए है जो इन दोनों गरोहों में शामिल न हों, और जिनके लिए उनके बीच सुलह की कोशिश करना मुमकिन हो। दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला के नज़दीक मुसलमानों का यह काम नहीं है कि उनके अपने समाज के दो गरोह आपस में लड़ रहे हों और वे बैठे उनकी लड़ाई का तमाशा देखते रहें। बल्कि यह अफ़सोसनाक सूरते-हात जब भी पैदा हो, तमाम ईमानवालों को इसपर बेचैन हो जाना चाहिए और उनके आपसी मामलों के सुधार के लिए जिसके बस में जो कोशिश भी हो वह उसे कर डालनी चाहिए। दोनों तरफ़ के लोगों को लड़ाई से रुक जाने की नसीहत की जाए। उन्हें ख़ुदा से डराया जाए। असर रखनेवाले लोग दोनों तरफ़ के लोगों के ज़िम्मेदार आदमियों से जाकर मिलें। झगड़े की वजहें मालूम करें और अपनी हद तक हर वह कोशिश करें जिससे उनके बीच समझौता हो सकता हो।
14. यानी मुसलमानों का यह काम भी नहीं है कि वे ज़्यादती करनेवाले को ज़्यादती करने दें और जिसपर ज़्यादती की जा रही हो उसे उसके हाल पर छोड़ दें, या उलटा ज़्यादती करनेवाले का साथ दें। बल्कि उनका फ़र्ज़ यह है कि अगर लड़नेवाले दोनों तरफ़ के लोगों में सुलह कराने की तमाम कोशिशें नाकाम हो जाएँ, तो फिर यह देखें कि हक़ पर कौन है और ज़्यादती करनेवाला कौन। जो हक़ पर हो उसका साथ दें और जो ज़्यादती करनेवाला हो उससे लड़ें। इस लड़ाई का चूँकि अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है इसलिए यह वाजिब है और जिहाद के हुक्म में है। इसकी गिनती उस फ़ितने में नहीं है जिसके बारे में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि “उसमें खड़ा रहनेवाला चलनेवाले से, और बैठ जानेवाला खड़े रहनेवाले से बेहतर है।" क्योंकि उस फ़ितने से मुराद तो मुसलमानों की वह आपसी लड़ाई है जिसमें दोनों तरफ़ के लोग असबियत (दुराग्रह) और जाहिली तरफ़दारी और दुनिया की तलब के लिए लड़ रहे हों और दोनों में से कोई भी हक़ पर न हो। रही यह लड़ाई जो ज़्यादती करनेवाले गरोह के मुक़ाबले में हक़ पर क़ायम गरोह की हिमायत (तरफ़दारी) के लिए लड़ी जाए, तो यह फ़ितने में हिस्सा लेना नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला के हुक्म पर अमल करना है। तमाम फ़क़ीह (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिम) इसके वाजिब होने पर एक राय हैं और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सहाबा (रज़ि०) में इसके वाजिब होने पर कोई इख़्तिलाफ़ न था, (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)। बल्कि कुछ फ़क़ीह तो इसे जिहाद से भी बढ़कर बताते हैं और उनकी दलील यह है कि हज़रत अली (रज़ि०) ने अपनी ख़िलाफ़त (हुकूमत) का पूरा ज़माना इस्लाम- दुश्मनों से जिहाद करने के बजाय बाग़ियों से लड़ने में लगा दिया, (रूहुल-मआनी)। इसके वाजिब न होने पर अगर कोई शख़्स इस बात से दलील लाए कि हज़रत अली (रज़ि०) की इन लड़ाइयों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और कुछ दूसरे सहाबा ने हिस्सा नहीं लिया था तो वह ग़लती पर है। इब्ने-उमर (रज़ि०) ख़ुद फ़रमाते हैं कि “मुझे अपने दिल में किसी बात पर इतनी ज़्यादा खटक महसूस नहीं हुई जितनी इस आयत की वजह से हुई कि मैंने अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ उस बाग़ी गरोह से जंग न की।" (अल-मुस्तदरक हाकिम) ज़्यादती करनेवाले गरोह से 'क़िताल' (जंग) करने का हुक्म लाज़िमन यही मानी नहीं रखता है कि उसके ख़िलाफ़ हथियारों से जंग की जाए और ज़रूर उसको क़त्ल ही किया जाए। बल्कि इससे मुराद उसके ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल है, और अस्ल मक़सद उसकी ज़्यादती को ख़त्म करना है। इस मक़सद के लिए जिस ताक़त का इस्तेमाल ज़रूरी हो उसे इस्तेमाल करना चाहिए, और जितनी ताक़त का इस्तेमाल काफ़ी हो, न उससे कम इस्तेमाल करनी चाहिए न उससे ज़्यादा। यह हुक्म उन लोगों के लिए है जो ताक़त इस्तेमाल करके ज़्यादती को ख़त्म कर सकते हों।
15. इससे मालूम हुआ कि यह लड़ाई बाग़ी (ज़्यादती करनेवाले गरोह) को बग़ावत (ज़्यादती) की सज़ा देने के लिए नहीं है, बल्कि उसे अल्लाह के हुक्म की तरफ़ पलटने पर मजबूर करने के लिए है। अल्लाह के हुक्म से मुराद यह है कि अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत के मुताबिक़ जो बात हक़ (सत्य) हो उसे यह बाग़ी गरोह क़ुबूल कर लेने पर आमादा हो जाए और जो रवैया इस हक़ के पैमाने के मुताबिक़ ज़्यादती क़रार पाता है उसको छोड़ दे। ज्यों ही कि कोई बाग़ी गरोह इस हुक्म की पैरवी पर राज़ी हो जाए, उसके ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल बन्द हो जाना चाहिए, क्योंकि यही क़िताल (जंग) का मक़सद और उसकी आख़िरी हद है। इसके बाद और कुछ आगे बढ़कर करनेवाला ख़ुद ज़्यादती का मुजरिम होगा। अब रही यह बात कि अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत के मुताबिक़ एक झगड़े में हक़ क्या है और ज़्यादती क्या, तो यक़ीनी तौर पर उसको तय करना उन लोगों का काम है जो उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में इल्म और सूझ-बूझ के लिहाज़ से इसकी जाँच करने के क़ाबिल हों।
16. सिर्फ़ सुलह करा देने का हुक्म नहीं है, बल्कि इनसाफ़ के साथ सुलह कराने का हुक्म है। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला की निगाह में वह सुलह कोई क़द्र के क़ाबिल चीज़ नहीं है जो हक़ और बातिल (ग़ैर-हक़) के फ़र्क़ को नज़रन्दाज़ करके सिर्फ़ लड़ाई रोकने के लिए कराई जाए, और जिसमें हक़ पर क़ायम गरोह को दबाकर ज़्यादती करनेवाले गरोह के के साथ बेजा रिआयत बरती जाए। सुलह वही सही है जिसकी बुनियाद इनसाफ़ पर हो। उसी से फ़साद टलता है, वरना हक़वालों को दबाने और ज़्यादती करनेवालों की हिम्मत बढ़ाने का नतीजा लाज़िमी तौर पर यह होता है कि ख़राबी की अस्ल वजहें ज्यों-की-त्यों बाक़ी रहती हैं, बल्कि वे और बढ़ती चली जाती हैं, और इससे बार-बार फ़साद फैलने की नौबत पेश आती है।
17. यह आयत मुसलमानों की आपसी जंग के बारे में शरई क़ानून की अस्ल बुनियाद है। एक हदीस के सिवा, जिसका ज़िक्र हम आगे करेंगे, इस क़ानून की कोई तशरीह (व्याख्या) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत में नहीं मिलती, क्योंकि नबी (सल्ल०) के ज़माने में मुसलमानों के दरमियान जंग की कभी नौबत ही नहीं आई कि आप (सल्ल०) के अमल और क़ौल (बातों) से उसके हुक्मों की तफ़सीलात मालूम होतीं। बाद में इस क़ानून की भरोसेमन्द तशरीह उस वक़्त हुई जब हज़रत अली (रज़ि०) की ख़िलाफ़त (हुकूमत) के दौर में ख़ुद मुसलमानों के बीच लड़ाइयाँ हुई। उस वक़्त चूँकि बहुत-से सहाबा किराम (रज़ि०) मौजूद थे, इसलिए उनके अमल और उनके बयान किए हुए हुक्मों से इस्लामी क़ानून के इस पहलू का तफ़सीली क़ानून तैयार हुआ। ख़ास तौर से हज़रत अली (रज़ि०) का अमल इस मामले में तमाम फ़कीहों के बयान किए हुए क़ानून की अस्ल बुनियाद है। नीचे हम इस क़ानून का एक ज़रूरी ख़ुलासा पेश करते हैं— (1) मुसलमानों की आपसी जंग की कई शक्लें हैं, जिनके बारे में हुक्म अलग-अलग हैं— (i) लड़नेवाले दोनों गरोह किसी मुसलमान हुकूमत की जनता हों। इस सूरत में उनके बीच सुलह कराना, या यह फ़ैसला करना कि उनमें से ज़्यादती करनेवाला कौन है, और ताक़त से उसको हक़ की तरफ़ पलटने पर मजबूर करना हुकूमत का फ़र्ज़ है। (ii) लड़नेवाले दोनों तरफ़ के लोग दो बहुत बड़े ताक़तवर गरोह हों, या दो मुसलमान हुकूमतें हों, और दोनों की लड़ाई दुनिया की ख़ातिर हो। इस सूरत में ईमानवालों का काम यह है कि इस फ़ितने में हिस्सा लेने से पूरी तरह बचें और दोनों गरोहों (पक्षों) को ख़ुदा का डर दिखाकर जंग से रोकने की नसीहत करते रहें। (iii) लड़नेवाले वे दो गरोह जिनका ऊपर (ii) में ज़िक्र किया गया है, उनमें से एक हक़ पर हो और दूसरा ज़्यादती कर रहा हो, और नसीहत से सुधार करने पर आमादा न हो रहा हो, इस सूरत में ईमानवालों का काम यह है कि ज़्यादती करनेवाले गरोह के ख़िलाफ़ उस गरोह का साथ दें जो हक़ पर हो। (iv) दोनों तरफ़ के लोगों में से एक गरोह (प्रजा) हो और उसने हुकूमत, यानी मुस्लिम हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) किया हो। फ़क़ीह अपनी ज़बान में इसी ख़ुरूज करनेवाले गरोह के लिए 'बाग़ी' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं। (2) बाग़ी, यानी हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले गरोह भी कई तरह के हो सकते हैं— (i) वे जो सिर्फ़ बिगाड़ और फ़साद पैदा करने के लिए उठ खड़े हों और अपनी इस बग़ावत के लिए उनके पास कोई शरई सबब न हो। उनके ख़िलाफ़ हुकूमत की जंग सभी आलिमों के नज़दीक जाइज़ है और उसका साथ देना ईमानवालों पर वाजिब है, चाहे हुकूमत इनसाफ़-पसन्द हो या न हो। (ii) वे जो हुकूमत का तख़्ता उलटने के लिए ख़ुरूज (बग़ावत) करें, और उनके पास कोई शरई बहाना न हो, बल्कि उनका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि वे ज़ालिम और फ़ासिक़ (अल्लाह के नाफ़रमान) हैं। इस सूरत में अगर हुकूमत इनसाफ़ करनेवाली हो तब तो उसका साथ देना बिना किसी शर्त के वाजिब है, लेकिन अगर वह इनसाफ़वाली न भी हो तो उस हुकूमत को बनाए रखने के लिए लड़ना वाजिब है जिसके ज़रिए से फ़िलहाल मुल्क का निज़ाम (व्यवस्था) क़ायम है। (iii) वे जो किसी शरई सबब की वजह से हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, मगर उनका बयान किया हुआ सबब ग़लत और उनका अक़ीदा बिगड़ा हुआ हो, मसलन ‘ख़वारिज' (ख़ारिजी लोग)। इस सूरत में भी, मुस्लिम हुकूमत, चाहे इनसाफ़-पसन्द हो या न हो, उनसे जंग करने का जाइज़ हक़ रखती है और उसका साथ देना वाजिब है। (iv) वे जो एक इनसाफ़-पसन्द हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, जबकि उसके सरबराह (लीडर) को जाइज़ तौर पर हाकिम बना लिया गया हो। इस सूरत में चाहे उनके पास कोई शरई बहाना हो या न हो, बहरहाल उनसे जंग करने में हुकूमत हक़ पर है और उसका साथ देना वाजिब है। (v) वे जो एक ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, जिसके सरबराह (लीडर) को ज़ोर-ज़बरदस्ती से हाकिम बनाया गया हो और जिसके इख़्तियार रखनेवाले लोग फ़ासिक़ हों, और ख़ुरूज करनेवाले इनसाफ़ और अल्लाह की हदों को क़ायम करने के लिए उठें हों और उनका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि वे ख़ुद नेक लोग हैं। इस सूरत में की उनको 'बाग़ी' यानी ज़्यादती करनेवाला गरोह क़रार देने और उनके ख़िलाफ़ जंग को वाजिब ठहराने में फ़क़ीहों के बीच सख़्त इख़्तिलाफ़ हो गया है, जिसे हम मुख़्तसर तौर पर यहाँ बयान करते हैं— ज़्यादा तर फ़क़ीह और अहले-हदीस की राय यह कि जब कोई शख़्स एक बार हाकिम बन चुका हो और मुल्क का अम्न व अमान और मुल्क का निज़ाम व बन्दोबस्त उसके तहत चल रहा हो, वह चाहे इनसाफ़वाला हो या ज़ालिम, और उसकी हुकूमत चाहे किसी तरह क़ायम हुई हो, उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करना हराम है, सिवाय यह कि वह खुल्लम-खुल्ला कुफ़्र (इस्लाम की नाफ़रमानी) का जुर्म करे। इमाम सरख़सी लिखते हैं कि "जब मुसलमान एक हाकिम पर इकट्ठे हों और उसकी बदौलत उनको अम्न हासिल हो और रास्ते महफ़ूज़ हों, ऐसी हालत में अगर मुसलमानों का कोई गरोह उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करे तो जो शख़्स भी जंग की ताक़त रखता हो उसपर वाजिब है कि मुसलमानों के उस हाकिम के साथ मिलकर ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवालों के ख़िलाफ़ जंग करे,” (अल-मबसूत, बाबुल-ख़वारिज)। इमाम नववी (रह०) शरहे-मुस्लिम में कहते हैं कि "इमामों, यानी मुसलमान हाकिमों के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) और क़िताल (जंग) हराम है, चाहे वे फ़ासिक और ज़ालिम ही क्यों न हों।” इमाम नववी दावा करते हैं कि इस बात पर सभी आलिम एक राय हैं। लेकिन इसपर सभी आलिमों के एक राय होने का दावा सही नहीं है। इस्लामी फ़क़ीहों का एक बड़ा गरोह, जिसमें बड़े आलिम शामिल हैं, ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवालों को सिर्फ़ उस सूरत में 'बाग़ी' ठहराता जबकि वे इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें। ज़ालिम और फ़ासिक़ बादशाहों के ख़िलाफ़ नेक लोगों के ख़ुरूज (बग़ावत) को वे क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ में 'बग़ावत' नहीं ठहराते, और न उनके ख़िलाफ़ जंग को वाजिब क़रार देते हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का मसलक ज़ालिम बादशाहों के ख़िलाफ़ क़िताल (जंग) के मामले में इल्म रखनेवालों को मालूम है। अबू-बक्र जस्सास अहकामुल-क़ुरआन में साफ़ लिखते हैं कि इमाम साहब उस क़िताल को न सिर्फ़ जाइज़ बल्कि साज़गार हालात में वाजिब समझते थे, (हिस्सा-1, पे० 81, हिस्सा-2, पे० 39)। बनी-उमैया के ख़िलाफ़ ज़ैद-बिन-अली (रह०) के ख़ुरूज (बग़ावत) में उन्होंने न सिर्फ़ ख़ुद माली मदद दी, बल्कि दूसरों को भी इसकी नसीहत की (अल-जस्सास, हिस्सा-1, पे, 81)। मंसूर के ख़िलाफ़ नफ़्से-ज़किय्या (रह०) की बग़ावत में वे पूरी सरगर्मी के साथ नफ़्से-ज़किय्या (रह०) की हिमायत करते रहे और उस जंग को उन्होंने इस्लाम-दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग से अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) क़रार दिया, (अल-जस्सास, हिस्सा-1, पे० 81; मनाक़िबुल-इमामि अबी-हनीफ़ा लिल-करदरी, हिस्सा-2, पे० 71, 72)। फिर हनफ़ी फ़क़ीहों का भी मसलक वह नहीं है जो इमाम सरख़सी ने बयान किया है। इब्ने-हुमाम (रह०) हिदाया की शरह फ़तहुल-क़दीर में लिखते हैं कि “फ़क़ीहों की आम राय में बाग़ी वह है जो हक़ पर बने इमाम की फ़रमाँबरदारी से निकल जाए।” हंबली मसलक के फ़क़ीहों में से इब्ने-अक़ील और इब्जे-जौज़ी इनसाफ़ न करनेवाले हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) को जाइज़ ठहराते हैं और इसपर हज़रत हुसैन (रज़ि०) के ख़ुरूज (बग़ावत) से दलील लेते हैं, (अल-इनसाफ़, हिस्सा-10, अहलिल-बग़यि)। इमाम शाफ़िई (रह०) किताबुल-उम्म में बाग़ी उस शख़्स को ठहराते हैं जो इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ जंग करे, (हिस्सा-4, पे० 135)। इमाम मालिक (रह०) का मसलक अल-मुदव्व-नतुल-कुबरा में यह नक़्ल किया गया है कि “ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले अगर इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ जंग करने के लिए निकलें तो उनके ख़िलाफ़ क़िताल (जंग) किया जाए, (हिस्सा-1, पे० 407)। क़ाज़ी अबू-बक्र इब्ने-अरबी अहकामुल क़ुरआन में उनकी यह राय नक़्ल करते हैं, “जब कोई शख़्स उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ जैसे इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करे तो उसको रोकना वाजिब है, रहा किसी दूसरी क़िस्म का हाकिम, तो उसे उसके हाल पर छोड़ दो, अल्लाह किसी दूसरे ज़ालिम के ज़रिए से उसको सज़ा देगा और फिर किसी तीसरे ज़ालिम के ज़रिए से उन दोनों को सज़ा देगा।” एक और राय इमाम मालिक (रह०) की उन्होंने यह नक़्ल की है, “जब एक इमाम से बैअत की जा चुकी हो और फिर उसके भाई उसके मुक़ाबले पर खड़े हो जाएँ तो उनसे जंग की जाएगी अगर वह इनसाफ़ पसन्द हाकिम हो। रहे ये हमारे ज़माने के हाकिम, तो इनके लिए कोई बैअत नहीं है, क्योंकि इनकी बैअत ज़बरदस्ती ली गई है।” फिर मालिकी आलिमों का जो मसलक सहनून के हवाले से क़ाज़ी साहब ने बयान किया है वह यह है कि “जंग तो सिर्फ़ इनसाफ़-पसन्द हाकिम के साथ मिलकर की जाएगी चाहे पहला हाकिम इनसाफ़-पसन्द हो या वह शख़्स जिसने उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) किया हो। लेकिन अगर दोनों इनसाफ़वाले न हों तो दोनों से अलग रहो, अलबत्ता अगर तुम्हारी अपनी जान पर हमला किया जाए या मुसलमान ज़ुल्म के शिकार हो रहे हों तो बचाव करो।” इन मसलकों को नक़्ल करने के बाद क़ाज़ी अबू-बक्र कहते हैं, “हम जंग नहीं करेंगे, मगर उस इनसाफ़-पसन्द हाकिम के साथ, जिसे हक़-पसन्दों ने अपने हाकिम के तौर पर आगे बढ़ाया हो।" (3) ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले अगर थोड़ी तादाद में हों और उनके पीछे कोई बड़ी जमाअत (गरोह) न हो, न वे कुछ ज़्यादा जंगी सरो-सामान रखते हों, तो उनपर बग़ावत का क़ानून लागू न होगा, बल्कि उनके साथ आम क़ानूनी सज़ाओं के मुताबिक़ बरताव किया जाएगा, यानी वे क़त्ल करेंगे तो उनसे क़िसास (बदला) लिया जाएगा और माल का नुक़सान करेंगे तो उसका जुर्माना उनपर लगेगा। बग़ावत के क़ानून के तहत वे बाग़ी आते हैं जो कोई बड़ी ताक़त रखते हों, और भारी तादाद और जंगी सरो-सामान के साथ ख़ुरूज (बग़ावत) करें। (4) ख़ुरूज करनेवाले जब तक सिर्फ़ अपने बिगड़े हुए अकीदों या हुकूमत और उसके सरबराह (प्रमुख) के ख़िलाफ़ बग़ावत और दुश्मनी-भरे ख़यालात का इज़हार करते रहें, उनको क़त्ल या क़ैद नहीं किया जा सकता। जंग उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ उस वक़्त की जाएगी जब वे अमली तौर पर हथियारों के साथ बग़ावत कर दें और ख़ून-ख़राबे की शुरुआत कर कर बैठें। (अल-मबसूत, बाबुल-ख़वारिज; फ़तहुल-क़दीर, बाबुल-बुग़ात; अहकामुल क़ुरआन लिल-जस्सास) (5) बाग़ियों के ख़िलाफ़ जंग की शुरुआत करने से पहले उनको क़ुरआन मजीद की हिदायत के मुताबिक़ दावत दी जाएगी कि वे बग़ावत का रवैया छोड़कर इनसाफ़ की राह अपना लें। अगर उनके कुछ शक-शुब्हे और एतिराज़ हों तो उन्हें समझाने की कोशिश की जाएगी। इसपर भी वे न मानें और जंग की शुरुआत उनकी तरफ़ से हो जाए, तब उनके ख़िलाफ़ तलवार उठाई जाएगी। (फ़तहुल-क़दीर, अहकमुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) (6) बाग़ियों से लड़ाई में जिन उसूलों को ध्यान में रखा जाएगा उनकी बुनियाद नबी (सल्ल०) के उस फ़रमान पर है जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के हवाले से हाकिम और अल-जस्सास ने नक़्ल किया है : नबी (सल्ल०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से पूछा, “ऐ इब्ने उम्मे-अब्द! जानते हो इस उम्मत के भाग़ियों के बारे में अल्लाह का क्या हुक्म है?” उन्होंने कहा, “अल्ताह और उसके रसूल को ज़्यादा जानकारी है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उनके जख़्मियों पर हाथ नहीं डाला जाएगा, उनके क़ैदी को क़त्ल नहीं किया जाएगा, उनके भागनेवाले का पीछा नहीं किया जाएगा, और उनका माल ग़नीमत (जंग में हासिल माल) के तौर पर बाँटा नहीं जाएगा। इस उसूल की दूसरी बुनियाद, जिसपर इस्लाम के तमाम फ़क़ीहों ने भरोसा किया, हज़रत अली (रज़ि०) का क़ौल (कथन) और अमल है। उन्होंने जंगे-जमल में जीत हासिल करने के बाद एलान किया कि भागनेवाले का पीछा न करो, ज़ख़्मी पर हमला न करो, गिरफ़्तार हो जानेवालों को क़त्ल न करो, जो हथियार डाल दे उसको पनाह दो, लोगों के घरों में न घुसो, और औरतों पर हाथ न डालो, चाहे वे तुम्हें गालियाँ ही क्यों न दे रही हों। उनकी फौज के कुछ लोगों ने माँग की कि मुख़ालफ़त करनेवालों को और उनके बाल बच्चों को ग़ुलाम बनाकर बाँट दिया जाए। इसपर उन्होंने गज़बनाक होकर कहा, "तुममें से कौन उम्मुल-मोमिनीन आइशा (रज़ि०) को अपने हिस्से में लेना चाहता है?” (7) बाग़ियों के मालों का हुक्म, जो हज़रत अली (रज़ि०) के अमल से लिया गया है यह है कि उनका कोई माल, चाहे वह उनके लश्कर में मिला हो या उनके पीछे उनके घरों पर हो, और वे चाहे ज़िन्दा हों या मारे जा चुके हों, बहरहाल उसे न माले-ग़नीमत क़रार दिया जाएगा और न फ़ौज में बाँटा जाएगा। अलबत्ता जिस माल का नुक़सान हो चुका हो, उसका कोई ज़मान (भरपाई) लाज़िम नहीं आता। जंग ख़त्म होने और बग़ावत का ज़ोर टूट जाने के बाद उनके माल उन ही को वापस दे दिए जाएँगे। उनके हथियार और सवारियाँ जंग की हालत में अगर हाथ आ जाएँ तो उन्हें उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाएगा, मगर जीतनेवालों की मिलकियत बनाकर माले-ग़नीमत के तौर पर बाँटा नहीं जाएगा, और अगर उनसे फिर बग़ावत का अन्देशा न हो तो उनकी ये चीज़ें भी वापस दे दी जाएँगी। सिर्फ़ इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) की राय यह है कि हुकूमत उसे ग़नीमत क़रार देगी। (अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर, अल-जस्सास) (8) उनके गिरफ़्तार हो चुके लोगों को यह वादा लेकर कि वे फिर बग़ावत न करेंगे, रिहा कर दिया जाएगा। (अल-मबसूत) (9) क़त्ल हो चुके बाग़ियों के सर काटकर घुमाना सख़्त नापसन्दीदा हरकत है, क्योंकि यह मुसला (अंगभंग करना) है जिससे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मना किया है। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के पास रूम के पादरियों के सरदार का सर काटकर लाया गया तो उन्होंने इसपर सख़्त नाराज़ी का इज़हार किया और फ़रमाया कि हमारा काम रूमियों और ईरानियों की पैरवी करना नहीं है। यह मामला जब ग़ैर-मुस्लिम इस्लाम दुश्मनों तक से करना जाइज़ नहीं है तो मुसलमानों के साथ तो यह पहले दरजे में मना होना चाहिए। (अल-मबसूत) (10) जंग के दौरान में बाग़ियों के हाथों जान-माल का जो नुक़सान हुआ हो, जंग ख़त्म होने और अम्न क़ायम हो जाने के बाद उसका कोई क़िसास (ख़ून का बदला) और ज़मान (तावान) उनपर न लगेगा। न किसी क़त्ल हो जानेवाले का बदला उनसे लिया जाएगा और न किसी माल का जुर्माना उनपर डाला जाएगा, ताकि फ़ितने की आग फिर न भड़क उठे। सहाबा किराम (रज़ि०) की आपसी लड़ाइयों में इसी उसूल का ख़याल रखा गया था। (अल-मबसूत, अल-जस्सास, अहकामुल-क़ुरआन लि-इब्निल-अरबी) (11) जिन इलाक़ों पर बाग़ियों का क़ब्ज़ा हो गया हो और वहाँ उन्होंने अपना निज़ाम क़ायम करके ज़कात और दूसरे टैक्स वुसूल कर लिए हों, हुकूमत उन इलाक़ों पर दोबारा क़ब्ज़ा करने के बाद लोगों से नए सिरे से उस ज़कात और उन टैक्सों की माँग नहीं करेगी। अगर बाग़ियों ने ये माल शरई तरीक़े पर ख़र्च कर दिए हों तो अल्लाह के नज़दीक भी वे अदा करनेवालों से ख़त्म हो जाएँगे। लेकिन अगर उन्होंने ग़ैर-इस्लामी तरीक़े पर उन्हें ख़र्च किया हो, तो यह अदा करनेवालों के और उनके ख़ुदा के बीच का मामला है। वे ख़ुद चाहें तो अपनी ज़कात दोबारा अदा कर दें। (फ़तहुल-क़दीर, अल-जस्सास, इब्नुल-अरबी) (12) बाग़ियों ने अपने क़ब्ज़े और इस्तेमालवाले इलाक़े में जो अदालतें क़ायम की हों, अगर उनके क़ाज़ी (जज) इनसाफ़ करनेवाले हों और इस्लाम के मुताबिक़ उन्होंने फ़ैसले किए हों, तो वे बरक़रार रखे जाएँगे अगरचे उनके मुक़र्रर करनेवाले बग़ावत के मुजरिम ही क्यों न हों। अलबत्ता अगर उनके फ़ैसले ग़ैर-इस्लामी हों और बग़ावत खत्म होने के बाद वे हुकूमत की अदालतों के सामने लाए जाएँ तो वे लागू नहीं किए जाएँगे। इसके अलावा बाग़ियों की क़ायम की हुई अदालतों की तरफ़ से कोई वारंट या हुक्म का परवाना हुकूमत की अदालतों में क़ुबूल न किया जाएगा। (अल-मबसूत, अल-जस्सास) (13) बाग़ियों की गवाही इस्लामी अदालतों में क़ुबूल किए जाने के क़ाबिल न होगी, क्योंकि इनसाफ़-पसन्दों के ख़िलाफ़ जंग करना फ़िस्क़ (अल्लाह की नाफ़रमानी) है। इमाम मुहम्मद (रह०) कहते हैं कि जब तक वे जंग न करें और इनसाफ़-पसन्दों के ख़िलाफ़ अमली तौर से ख़ुरूज (बग़ावत) के मुजरिम न हों, उनकी गवाही क़ुबूल की जाएगी, मगर जब वे जंग कर चुके हों तो फिर मैं उनकी गवाही क़ुबूल न करूँगा। (अल-जस्सास) इन हुक्मों से यह बात साफ़ मालूम हो जाती है कि इस्लाम-दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग और मुसलमान बाग़ियों के ख़िलाफ़ जंग के क़ानून में क्या फ़र्क़ है।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِخۡوَةٞ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَ أَخَوَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 9
(10) ईमानवाले तो एक-दूसरे के भाई हैं, इसलिए अपने भाइयों के बीच ताल्लुक़ात को दुरुस्त करो18 और अल्लाह से डरो, उम्मीद है कि तुमपर रहम किया जाएगा।
18. यह आयत दुनिया के तमाम मुसलमानों की एक आलमगीर (विश्वव्यापी) बिरादरी क़ायम करती है और यह इसी की बरकत है कि किसी दूसरे दीन या मसलक के पैरौकारों में वह भाईचारा नहीं पाया गया है जो मुसलमानों के बीच पाया जाता है। इस हुक्म की अहमियत और इसके तक़ाज़ों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी बहुत-सी हदीसों में बयान किया है जिनसे इसकी पूरी रूह समझ में आ सकती है। हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझसे तीन आम बातों पर बैअत ली थी : एक यह कि नमाज़ क़ायम करूँगा। दूसरी यह कि ज़कात देता रहूँगा। तीसरी यह कि हर मुसलमान का भला चाहनेवाला रहूँगा। (हदीस : बुख़ारी) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुसलमान को गाली देना फ़िस्क़ (गुनाह) है और उससे जंग करना कुफ़्र।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-ईमान; मुसनद अहमद में इसी सिलसिले की रिवायत हज़रत सईद-बिन-मालिक ने भी अपने बाप से नक़्ल की है) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हर मुसलमान पर दूसरे मुसलमान की जान, माल और इज़्ज़त हराम है।" (हदीस : मुस्लिम, किताबुल-बिर्रि वस-सिला; तिरमिज़ी, अबवाबुल-बिर्रि वस-सिला) हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुसलमान मुसलमान का भाई है, वह उसपर ज़ुल्म नहीं करता, उसका साथ नहीं (छोड़ता और उसकी बेइज़्ज़ती नहीं करता। एक आदमी के लिए यही बुराई (ख़राबी) बहुत है कि वह अपने मुसलमान भाई को हक़ीर (तुच्छ) समझे।" (हदीस : मुसनद अहमद) हज़रत सहल-बिन-साद साइदी नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान रिवायत करते हैं कि “ईमानवालों के गरोह के साथ एक मोमिन का ताल्लुक़ वैसा ही है जैसा सर के साथ जिस्म का ताल्लुक़ होता है। वे ईमानवालों की हर तकलीफ़ को उसी तरह महसूस करता है जिस तरह सर जिस्म के हर हिस्से का दर्द महसूस करता है,” (हदीस : मुसनद अहमद)। इसी से मिलती-जुलती बात एक और हदीस में है, जिसमें आप (सल्ल०) ने फ़रमाया है, “ईमानवालों की मिसाल आपस में मुहब्बत, ताल्लुक़ (मेल) और एक-दूसरे पर रहम और मेहरबानी के मामले में ऐसी है जैसे एक जिस्म की हालत होती है कि उसके किसी हिस्से (अंग) को भी तकलीफ़ हो तो सारा जिस्म उसपर बुख़ार और नींद न आने की कैफ़ियत में मुब्तला हो जाता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) एक और हदीस में आप (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल हुआ है कि “ईमानवाले एक-दूसरे के लिए एक दीवार की ईंटों की तरह होते हैं कि हर एक को दूसरे से बल मिलता है।" (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-अदब; तिरमिज़ी, अबवाबुल-बिर्रि वस-सिला)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَسۡخَرۡ قَوۡمٞ مِّن قَوۡمٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُونُواْ خَيۡرٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا نِسَآءٞ مِّن نِّسَآءٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهُنَّۖ وَلَا تَلۡمِزُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ وَلَا تَنَابَزُواْ بِٱلۡأَلۡقَٰبِۖ بِئۡسَ ٱلِٱسۡمُ ٱلۡفُسُوقُ بَعۡدَ ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن لَّمۡ يَتُبۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 10
(11) ऐ19 लोगो जो ईमान लाए हो! न मर्द दूसरे मर्दो का मज़ाक़ उड़ाएँ, हो सकता है कि वे इनसे बेहतर हों, और न औरतें दूसरी औरतों का मज़ाक उड़ाएँ, हो सकता है कि वे इनसे बेहतर हों।20 आपस में एक-दूसरे को ताने न दो21 और न एक-दूसरे को बुरे लक़बों (उपनामों) से याद कसे22 ईमान लाने के बाद फ़िस्क़ में नाम पैदा करना बहुत बुरी बात है।23 जो लोग इस रवैये को न छोड़ें वही ज़ालिम हैं।
19. पिछली दो आयतों में मुसलमानों की आपसी लड़ाई के बारे में ज़रूरी हिदायतें देने के बाद ईमानवालों को यह एहसास दिलाया गया था कि दीन के सबसे ज़्यादा पाक रिश्ते की बुनियाद पर वे एक-दूसरे के भाई हैं और उनको ख़ुदा से डरते हुए अपने आपस के ताल्लुक़ात को दुरुस्त रखने की कोशिश करनी चाहिए। अब आगे की दो आयतों में उन बड़ी-बड़ी बुराइयों का रास्ता बन्द करने का हुक्म दिया जा रहा है जो आम तौर से एक समाज में लोगों के आपसी ताल्लुक़ात को ख़राब करती हैं। एक-दूसरे की इज़्ज़त पर हमला, एक-दूसरे का दिल दुखाना, एक-दूसरे से बदगुमानी और एक-दूसरे के ऐबों की खोज में रहना, हक़ीक़त में यही वे वजहें हैं जिनसे आपस की दुश्मनियाँ पैदा होती हैं और फिर दूसरी वजहों के साथ मिलकर उनसे बड़े-बड़े फ़ितने पैदा होते हैं। इस सिलसिले में जो हुक्म आगे की आयतों में दिए गए हैं और उनकी जो तशरीहें हदीसों में मिलती हैं उनकी बुनियाद पर हतके-इज़्ज़त (मान-हानि) का एक तफ़सीली क़ानून (Law of Libel) तैयार किया जा सकता है। हतके-इज़्ज़त (मान-हानि) के पश्चिमी क़ानून इस मामले में इतने खोखले हैं कि एक शख़्स उनके तहत दावा करके अपनी इज़्ज़त कुछ और खो आता है। इस्लामी क़ानून इसके बरख़िलाफ़ हर शख़्स की एक बुनियादी इज़्ज़त को मानता है जिसपर हमला करने का किसी को हक़ नहीं है, चाहे यह हमला सच की बुनियाद पर हो या न हो, और जिसपर हमला किया गया है उसकी कोई 'जानी-पहचानी हैसियत' हो या न हो। सिर्फ़ यह बात कि एक आदमी ने दूसरे आदमी को रुसवा किया है उसे मुजरिम बना देने के लिए काफ़ी है, सिवाय इसके कि उस रुसवाई (अपमान) का कोई शरई सबब साबित कर दिया जाए।
20. मज़ाक़ उड़ाने से मुराद सिर्फ़ ज़बान ही से किसी का मज़ाक़ उड़ाना नहीं है, बल्कि किसी की नक़्ल उतारना, उसकी तरफ़ इशारे करना, उसकी बात पर या उसके काम या उसकी सूरत या उसके लिबास पर हँसना, या उसके किसी ऐब या कमी की तरफ़ लोगों को इस तरह ध्यान दिलाना कि दूसरे उसपर हँसें, ये सब भी मज़ाक़ उड़ाने में दाख़िल हैं। अस्ल मनाही जिस चीज़ की है वह यह है कि एक शख़्स दूसरे शख़्स का किसी-न-किसी तौर पर मज़ाक़ उड़ाए, क्योंकि इस मज़ाक उड़ाने में लाज़िमन अपनी बड़ाई और दूसरे को रुसवा करने और उसे नीचा समझने के जज़बात काम कर रहे होते हैं जो अख़लाक़ी तौर से सख़्त बुरी बात है, और इसके अलावा इससे दूसरे शख़्स के दिल को दुख भी पहुँचता है, जिससे समाज में बिगाड़ पैदा होता है। इसी वजह से इस हरकत को हराम किया गया है। मर्दों और औरतों का अलग-अलग ज़िक्र करने का मतलब यह नहीं है कि मर्दों के लिए औरतों का मज़ाक़ उड़ाना या औरतों के लिए मर्दों का मज़ाक़ उड़ाना जाइज़ है। अस्ल में जिस वजह से दोनों का ज़िक्र अलग-अलग किया गया है वह यह है कि इस्लाम सिरे से मिले-जुले समाज को मानता ही नहीं है। एक-दूसरे का मज़ाक़ आम तौर से बेतकल्लुफ़ महफ़िलों में हुआ करता है और इस्लाम में यह गुंजाइश रखी ही नहीं गई है कि ग़ैर-महरम मर्द और औरतें (यानी वे मर्द और औरतें जिनकी आपस में शादी मुमकिन हो) किसी मजलिस में इकट्ठे होकर आपस में हँसी-मज़ाक़ करें। इसलिए इस बात को एक मुस्लिम समाज में तसव्वुर करने के क़ाबिल भी नहीं समझा गया है कि एक मजलिस में मर्द किसी औरत का मज़ाक़ उड़ाएँगे या औरतें किसी मर्द का मज़ाक़ उड़ाएँगी।
21. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘लम्ज़' इस्तेमाल हुआ है जिसके अन्दर ताने मारने और बुरा-भला कहने के अलावा कई दूसरे मतलब भी शामिल हैं। मसलन चोटें करना, फब्तियाँ कसना, इलज़ाम धरना, एतिराज़ जड़ना, ऐब निकालना और खुल्लम-खुल्ला या होंठों-ही-होंठों या इशारों से किसी की मलामत करना। ये सब हरकतें भी चूँकि आपस के ताल्लुक़ात को बिगाड़ती और समाज में बिगाड़ पैदा करती हैं, इसलिए इनको हराम (नाजाइज़) कर दिया गया है। अल्लाह के कलाम के अन्दाज़े-बयान की ख़ूबी यह है कि 'एक-दूसरे को ताने न दो' कहने के बजाय 'अपने को ताने न दो' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनसे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि दूसरों को ताने देनेवाला अस्ल में अपने-आपको ताने देता है। ज़ाहिर बात है कि किसी शख़्स की ज़बान दूसरों के ख़िलाफ़ बुरा बोलने के लिए उस वक़्त तक नहीं खुलती जब तक उसके दिल में बुरे जज़बात का लावा ख़ूब पककर फूट पड़ने के लिए तैयार न हो गया हो। इस तरह इन जज़बात की परवरिश करनेवाला दूसरों से पहले अपने मन को बुराई का अड्डा बना चुकता है। फिर जब वह दूसरों पर चोट करता है तो उसका मतलब यह है कि वह ख़ुद अपने ऊपर चोटें करने के लिए दूसरों को दावत दे रहा है। यह अलग बात है कि कोई अपनी शराफ़त की वजह से उसके हमलों को टाल जाए। मगर उसने तो अपनी तरफ़ से यह दरवाज़ा खोल ही दिया कि वह शख़्स भी उसपर हमला करे जिसको उसने अपनी ज़बान के तीरों का निशाना बनाया है।
22. इस हुक्म का मंशा यह है कि किसी शख़्स को ऐसे नाम से न पुकारा जाए या ऐसा लक़ब (उपनाम) न दिया जाए जो उसको नागवार हो और जिससे उसकी तौहीन होती हो और उसमें ऐब और कमी का पहलू निकलता हो। मसलन किसी को फ़ासिक़ या मुनाफ़िक़ कहना। किसी को लंगड़ा या अन्धा या काना कहना। किसी को उसके अपने या उसकी माँ या बाप या ख़ानदान के किसी ऐब या कमी (ख़राबी) के नाम से याद करना। किसी को मुसलमान हो जाने के बाद उसके पिछले मज़हब की बुनियाद पर यहूदी या ईसाई कहना। किसी शख़्स या ख़ानदान या बिरादरी या गरोह का ऐसा नाम रख देना जो उसकी बुराई और तौहीन का पहलू रखता हो। इस हुक्म से सिर्फ़ वे अलक़ाब (उपनाम) अलग हैं जो अपनी ज़ाहिरी सूरत के एतिबार से तो बदनुमा हैं, मगर उनसे बुरा कहना मक़सद नहीं होता, बल्कि वे उन लोगों की पहचान का ज़रिआ बन जाते हैं जिनको उन अलक़ाब से याद किया जाता है। इसी बुनियाद पर हदीस के आलिमों ने असमाउर्रिजाल (रिवायत करनेवालों के बारे में तफ़सीलात का इल्म) में सुलैमान अल-आमश (चुंधे सुलैमान) और वासिल अल-अहदब (कुबड़े वासिल) जैसे लकबों को जाइज़ रखा है। एक नाम के कई आदमी मौजूद हों और उनमें से किसी ख़ास शख़्स की पहचान उसके किसी ख़ास लकब ही से होती हो तो वह लक़ब इस्तेमाल किया जा सकता है, अगरचे वह अपनी जगह ख़ुद बुरा हो। मसलन अब्दुल्लाह नाम के कई आदमी हों और एक उनमें से नाबीना (नेत्रहीन) हो तो उसकी पहचान के लिए नाबीना अब्दुल्लाह कह सकते हैं। इसी तरह ऐसे लक़ब भी इस हुक्म के तहत नहीं आते जिनमें बज़ाहिर कमी निकालनेवाला पहलू निकलता है, मगर हक़ीक़त में वे मुहब्बत की बुनियाद पर रखे जाते हैं, और ख़ुद वे लोग भी जिन्हें इन लक़बों से याद किया जाता है, उन्हें पसन्द करते हैं, जैसे अबू-हुरैरा (बिल्लीवाले) और अबू-तुराब (मिट्टीवाले)।
23. यानी एक ईमानवाले के लिए यह बात सख़्त शर्मनाक है कि मोमिन होने के बावजूद वह बद-ज़बानी और छिछोरेपन में नाम पैदा करे। एक ख़ुदा का इनकारी अगर इस लिहाज़ से मशहूर हो कि वह लोगों का मज़ाक़ ख़ूब उड़ाता है, या फब्तियाँ ख़ूब कसता है, या बुरे-बुरे नाम ख़ूब रखता है, तो यह इनसानियत के लिहाज़ से चाहे अच्छी शुहरत न हो, कम-से-कम उसके इनकार को तो ज़ेब (शोभा) देती है। मगर एक आदमी अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत पर ईमान लाने के बाद ऐसी घटिया आदतों में शुहरत हासिल करे तो यह डूब मरने के लायक़ बात है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱجۡتَنِبُواْ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلظَّنِّ إِنَّ بَعۡضَ ٱلظَّنِّ إِثۡمٞۖ وَلَا تَجَسَّسُواْ وَلَا يَغۡتَب بَّعۡضُكُم بَعۡضًاۚ أَيُحِبُّ أَحَدُكُمۡ أَن يَأۡكُلَ لَحۡمَ أَخِيهِ مَيۡتٗا فَكَرِهۡتُمُوهُۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٞ رَّحِيمٞ ۝ 11
(12) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बहुत गुमान करने से बचो कि कुछ गुमान गुनाह होते है।24 टोह में न रहो25 और तुममें से कोई किसी की ग़ीबत न करे।26 क्या तुम्हारे अन्दर कोई ऐसा है जो अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाना पसन्द करेगा?27 देखो, तुम ख़ुद इससे घिन खाते हो। अल्लाह से डरो, अल्लाह बड़ा तौबा क़ुबूल करनेवाला और रहम करनेवाला है।
24. गुमान करने से पूरी तरह नहीं रोका गया है, बल्कि बहुत ज़्यादा गुमान से काम लेने और हर तरह के गुमान की पैरवी करने से मना किया गया है, और इसकी वजह यह बताई गई है कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं। इस हुक्म को समझने के लिए हमें जाइज़ा लेकर देखना चाहिए कि गुमान की कितनी क़िस्में हैं और हर एक की अख़लाक़ी हैसियत क्या है— एक क़िस्म का गुमान वह है जो अख़लाक़ की निगाह में बहुत पसन्दीदा और दीन की नज़र में मतलूब और तारीफ़ के क़ाबिल है, मसलन अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों से नेक गुमान और उन लोगों के साथ अच्छा गुमान रखना जिनसे आदमी का मेल-जोल हो और जिनके बारे में बदगुमानी करने की कोई मुनासिब वजह न हो। दूसरी क़िस्म का गुमान वह है जिससे काम लेने के सिवा अमली ज़िन्दगी में कोई चारा ही नहीं है। मसलन अदालत में इसके बिना काम नहीं चल सकता कि जो गवाहियाँ अदालत के जज के सामने पेश हों उनको जाँचकर क़ियास और ग़ालिब गुमान की बुनियाद पर फ़ैसला करे, क्योंकि मामले की हक़ीक़त का सीधे तौर पर इल्म उसको नहीं हो सकता, और गवाहियों की बुनियाद पर जो राय क़ायम होती है वह ज़्यादातर यक़ीन पर नहीं, बल्कि ज़्यादातर गुमान (मुमकिन बात) पर होती है। इसी तरह बहुत-से मामलों में, जहाँ कोई-न-कोई फ़ैसला करना ज़रूरी होता है और हक़ीक़त का इल्म हासिल होना मुमकिन नहीं होता, इनसान के लिए गुमान की बुनियाद पर एक राय क़ायम करने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुमान की एक तीसरी क़िस्म वह है जो अगरचे है तो बदगुमानी, मगर जाइज़ क़िस्म की है। और इसकी गिनती गुनाह में नहीं हो सकती। मसलन किसी शख़्स या गरोह की सीरत और किरदार में या उसके मामलों और तौर-तरीक़ो में ऐसी साफ़ निशानियाँ पाई जाती हों जिनकी बुनियाद पर वह अच्छे गुमान का हक़दार न हो और उससे बदगुमानी करने के लिए मुनासिब वजहें मौजूद हों। ऐसी हालत में शरीअत की माँग यह हरगिज़ नहीं है कि आदमी सीधेपन से काम लेकर ज़रूर उससे अच्छा गुमान ही रखे। लेकिन इस जाइज़ बदगुमानी की आख़िरी हद यह है कि उसकी इमकानी बुराई से बचने के लिए बस एहतियात (सावधानी) से काम लेने को काफ़ी समझा जाए। इससे आगे बढ़कर सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई कर बैठना दुरुस्त नहीं है। चौथी क़िस्म का गुमान जो हक़ीक़त में गुनाह है वह यह है कि आदमी किसी शख़्स से बिला वजह बदगुमानी करे, या दूसरों के बारे में राय क़ायम करने में हमेशा बदगुमानी ही से शुरुआत किया करे, या ऐसे लोगों के मामले में बदगुमानी से काम ले जिनका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि वे नेक और शरीफ़ हैं। इसी तरह यह बात भी गुनाह है कि एक शख़्स की किसी बात या किसी काम में बुराई और भलाई दोनों का यकसाँ तौर पर इमकान हो और हम सिर्फ़ बदगुमानी से काम लेकर उसको बुराई ही समझें। मसलन कोई भला आदमी किसी महफ़िल से उठते हुए अपने जूते के बजाय किसी और का जूता उठा ले और हम यह राय क़ायम कर लें कि ज़रूर उसने जूता चुराने ही की नीयत से यह हरकत की है। हालाँकि यह काम भूले से भी हो सकता है, और अच्छे इमकान को छोड़कर बुरे इमकान को अपनाने की कोई वजह बदगुमानी के सिवा नहीं है। इस जाइज़े से यह बात साफ़ हो जाती है कि गुमान अपनी जगह ख़ुद कोई ऐसी चीज़ नहीं जिससे मना किया गया हो, बल्कि कुछ हालात में वह पसन्दीदा है, कुछ हालात में ज़रूरी है, कुछ हालात में एक हद तक जाइज़ और उससे आगे नाजाइज़ है, और कुछ हालात में बिलकुल ही नाजाइज़ है। इसी बिना पर यह नहीं फ़रमाया गया है कि गुमान से या बदगुमानी से पूरी तरह परहेज़ करो, बल्कि फ़रमाया यह गया है कि बहुत ज़्यादा गुमान करने से परहेज़ करो। फिर हुक्म का मंशा बताने के लिए और ज़्यादा बात यह कही गई है कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं। इस तंबीह (चेतावनी) से ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि जब कभी आदमी गुमान की बुनियाद पर कोई राय क़ायम कर रहा हो या किसी कार्रवाई का फ़ैसला करने लगे तो उसे अच्छी तरह जाँच-तौलकर यह देख लेना चाहिए कि मैं जो गुमान कर रहा हूँ कहीं वह गुनाह तो नहीं है?” क्या सचमुच इस गुमान की ज़रूरत है? क्या इस गुमान के लिए मेरे पास मुनासिब वजहें हैं? क्या इस गुमान की बुनियाद पर जो रवैया मैं अपना रहा हूँ वह जाइज़ है? यह सावधानी यक़ीनन वह शख़्स अपनाएगा जो ख़ुदा से डरता हो। अपने गुमान को पूरी तरह बे-लगाम बनाकर रखना सिर्फ़ उन लोगों का काम है जो ख़ुदा से निडर और आख़िरत की पूछ-गछ से बेफ़िक्र हैं।
25. यानी लोगों के राज़ न टटोलो। एक-दूसरे के ऐब न तलाश करो। दूसरों के हालात और मामलात की टोह न लगाते फिरो। यह हरकत चाहे बदगुमानी की बुनियाद पर की जाए, या बदनीयती से किसी को नुक़सान पहुँचाने की ख़ातिर की जाए, या सिर्फ़ जानने की अपनी ख़ाहिश (Curiosity) दूर करने के लिए की जाए, हर हाल में शरई तौर पर मना है। एक ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरों के जिन हालात पर परदा पड़ा हुआ है उनकी खोज-कुरेद करे और परदे के पीछे झौंककर यह मालूम करने की कोशिश करे कि किसमें क्या ऐब है और किसकी कौन-सी कमज़ोरियाँ छिपी हुई हैं। लोगों के निजी ख़त पढ़ना, दो आदमियों की बातें कान लगाकर सुनना, पड़ोसियों के घर में झाँकना और अलग-अलग तरीक़ों से दूसरों की घरेलू ज़िन्दगी या उनके निजी मामलों को टटोलना एक बड़ी बद-अख़लाक़ी है जिससे तरह-तरह के बिगाड़ पैदा होते हैं। इसी लिए नबी (सल्ल०) ने एक बार अपने ख़ुतबे में टोह लेनेवालों के बारे में फ़रमाया— "ऐ लोगो जो ज़बान से ईमान ले आए हो, मगर अभी तुम्हारे दिलों में ईमान नहीं उतरा है! मुसलमानों के छिपे हुए हालात की खोज न लगाया करो, क्योंकि जो शख़्स मुसलमानों के ऐब ढूँढ़ने के पीछे पड़ेगा अल्लाह उसके ऐबों के पीछे पड़ जाएगा, और अल्लाह जिसके पीछे पड़ जाए उसे उसके घर में रुसवा करके छोड़ता है।" (हदीस : अबू-दाऊद) हज़रत मुआविया (रज़ि०) कहते हैं कि मैंने ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते हुए सुना है— "तुम अगर लोगों के छिपे हुए हालात मालूम करने के पीछे पड़ोगे तो उनको बिगाड़ दोगे या कम-से-कम बिगाड़ के क़रीब पहुँचा दोगे।” (हदीस : अबू-दाऊद) एक और हदीस में नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान है— “जब किसी शख़्स के बारे में तुम्हें कोई बुरा गुमान हो जाए तो उसकी सच्चाई का पता न लगाओ।" (हदीस : सिलसि-लतुस-सहीहा, अलबानी) और एक दूसरी हदीस में है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया— “जिसने किसी का कोई छिपा हुआ ऐब देख लिया और उसपर परदा डाल दिया तो यह ऐसा है जैसे किसी ने एक ज़िन्दा गाड़ी हुई बच्ची को मौत से बचा लिया।” (हदीस : अदू-दाऊद) तजस्सुस या टोह लगाने की मनाही का यह हुक्म सिर्फ़ लोगों ही के लिए नहीं है, बल्कि इस्लामी हुकूमत के लिए भी है। शरीअत ने बुराई से रोकने का जो फ़र्ज़ हुकूमत के सिपुर्द किया है उसका तक़ाज़ा यह नहीं है कि वह जासूसी का एक निज़ाम कायम करके लोगों की छिपी हुई बुराइयाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर निकाले और उनपर सज़ा दे, बल्कि उसे सिर्फ़ बुराइयों के ख़िलाफ़ ताक़त इस्तेमाल करनी चाहिए जो ज़ाहिर हो जाएँ। रही छिपी हुई ख़राबियाँ तो उनके सुधार का रास्ता जासूसी नहीं है, बल्कि तालीम, नसीहत, आवाम की इजतिमाई तरबियत, और एक साफ़-सुथरा सामाजिक माहौल पैदा करने की कोशिश है। इस सिलसिले में हज़रत उमर (रज़ि०) का यह वाक़िआ बहुत सबक़ देनेवाला है कि एक बार रात के वक़्त उन्होंने एक शख़्स की आवाज़ सुनी जो अपने घर में गा रहा था। उनको शक हुआ और दीवार पर चढ़ गए। देखा कि वहाँ शराब भी मौजूद है और एक औरत भी। उमर (रज़ि०) ने पुकारकर कहा, “ऐ अल्लाह के दुश्मन! क्या तूने यह समझ रखा है कि तू अल्लाह की नाफ़रमानी करेगा और अल्लाह तेरा परदाफ़ाश न करेगा? उसने जवाब दिया की अगर मैंने एक गुनाह किया है तो आपने तीन गुनाह किये हैं। अल्लाह ने तजस्सुस (टोह लेने) से मना किया था और आपने तजस्सुस किया। अल्लाह ने हुकम दिया था कि घरों में उनके दरवाज़ों से आओ और आप दीवार पर चढ़कर आए। अल्लाह ने हुकम दिया था कि अपने घरों के सिवा दूसरों के घरों में इजाज़त लिए बिना न जाओ और आप मेरी इज़ाज़त के बिना मेरे घर में आ गए। यह जवाब तुनकर हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी ग़लती मान गए और उसके ख़िलाफ़ उन्होंने कोई कार्रवाई न की, अलबत्ता जो उससे यह वादा ले लिया कि वह भलाई की राह अपनाएगा, (मकारिमुल-अख़लाक़ लि-अबी-बक्र मुहमद-बिन-जाफ़र अल-ख़राइती)। इससे मालूम हुआ कि लोगों ही के लिए नहीं ख़ुद इस्लामी हुकुमत के लिए भी यह जाइज़ नहीं है कि वह लोगों के राज़ टटोल-टटोलकर उसके गुनाहों का पता चलाए और फिर उन्हें पकड़े। यही बात एक हदीस में भी कही गई है जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है— "हुक्मराँ जब लोगों के अन्दर शक की वजहें तलाश करने लगे तो वह उनको बिगाड़कर रख देता है।" (हदीस : अबू-दाऊद) इस हुक्म से अलग सिर्फ़ वे ख़ास हालात हैं, जिनमें तजस्सुस की वाक़ई ज़रूरत हो। मसलन किसी शख़्स या गरोह के रवैये में बिगाड़ की कुछ निशानियों नुमायाँ नज़र आ रही हों और उसके बारे में यह अन्देशा पैदा हो जाए कि यह कोई जुर्म करनेवाला है तो हकूमत उसके हालात की जाँच-पड़ताल कर सकती है। या मसलन की शख़्स के यहाँ कोई शादी का पैग़ाम भेजे, या उसके साथ कोई कारोबारी मामला करना चाहे तो वह अपने इत्मीनान के लिए उसके हालात की जाँच-पड़ताल कर सकता है।
26. ग़ीबत इसे कहते हैं कि “आदमी किसी शख़्स के पीठ पीछे उसके बारे में ऐसी बात कहे जो अगर उसे मालूम हो तो उसको नागवार गुज़रे।” ग़ीबत का यह मतलब ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल हुआ है। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है जिसे मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई और हदीस के दूसरे आलिमों ने नक़्ल किया है, इसमें नबी (सल्ल०) ने ग़ीबत का यह मतलब बयान किया है— "ग़ीबत यह है कि तू अपने भाई का ज़िक्र इस तरह करे जो उसे नागवार हो।” पूछा गया कि अगर मेरे भाई में वह बात पाई जाती हो जो मैं कह रहा हूँ तो इस सूरत में आपका क्या ख़याल है? (नबी सल्ल० ने) फ़रमाया, “अगर उसमें वह बात पाई जाती हो तो तूने उसकी ग़ीबत की, और अगर उसमें वह मौजूद न हो तो तूने उसपर बुहतान (झूठा इलज़ाम) लगाया।" एक दूसरी रिवायत जो इमाम मालिक (रह०) ने मुवत्ता में हज़रत मुत्तलिब-बिन-अब्दुल्लाह से नक़्ल की है उसके अलफ़ाज़ ये हैं— एक आदमी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “ग़ीबत क्या है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह कि तू किसी शख़्स का ज़िक्र इस तरह करे कि वह सुने तो उसे नागवार हो।" उसने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! अगरचे मेरी बात सच हो?” आप (सल्ल०) ने जवाब दिया, "अगर तेरी बात झूठ हो तो यही चीज़ फिर बुहतान है।" नबी (सल्ल०) की इन हदीसों से मालूम हुआ कि किसी शख़्स के ख़िलाफ़ उसके पीछे झूठा इलज़ाम लगाना बुहतान है और उसके हक़ीक़ी ऐबों को बयान करना ग़ीबत। यह हरकत चाहे साफ़ अलफ़ाज़ में की जाए या इशारों में, हर हालत में हराम है। इसी तरह यह हरकत चाहे आदमी की ज़िन्दगी में की जाए या उसके मरने के बाद, दोनों हालतों में इसका हराम होना बराबर है। अबू-दाऊद की रिवायत है कि माइज़-बिन-मालिक असलमी को जब ज़िना (व्यभिचार) के जुर्म में संगसार करने की सज़ा दी गई तो नबी (सल्ल०) ने राह चलते एक साहब को अपने दूसरे साथी से यह कहते सुन लिया कि “इस शख़्स को देखो, अल्लाह ने इसका परदा ढाँक दिया था, मगर इसके नफ़्स ने इसका पीछा न छोड़ा जब तक यह कुत्ते की मौत न मार दिया गया।” कुछ दूर आगे जाकर रास्ते में एक गधे की लाश सड़ती हुई नज़र आई। नबी (सल्ल०) रुक गए और उन दोनों लोगों को बुलाकर फ़रमाया, “उतरिए और इस गधे की लाश को खाइए।” उन दोनों ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! इसे कौन खाएगा?" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अभी-अभी आप लोग अपने भाई की इज़्ज़त पर जो बातें बना रहे थे वे इस गधे की लाश खाने से बहुत ज़्यादा बुरी थीं।" ग़ीबत के हराम होने के इस हुक्म से सिर्फ़ वे हालतें अलग हैं जिनमें किसी शख़्स के पीठ पीछे, या उसके मरने के बाद उसकी बुराई बयान करने की कोई ऐसी ज़रूरत पड़ जाए जो शरीअत की निगाह में एक सही ज़रूरत हो, और वह ज़रूरत ग़ीबत के बिना पूरी न हो सकती हो, और उसके लिए अगर ग़ीबत न की जाए तो ग़ीबत के मुक़ाबले ज़्यादा बड़ी बुराई लाज़िम आती हो। नबी (सल्ल०) ने इस छूट को उसूली तौर पर यूँ बयान किया है— "बदतरीन ज़्यादती किसी मुसलमान की इज़्ज़त पर नाहक़ हमला करना है।" (हदीस : अबू-दाऊद) इस हदीस में 'नाहक़ ' की शर्त यह बताती है कि 'हक़ ' की बुनियाद पर ऐसा करना जाइज़ है। फिर ख़ुद नबी (सल्ल०) ही के तर्ज़े-अमल में हमें कुछ मिसालें ऐसी मिलती हैं जिनसे मालूम हो जाता है कि 'हक़ ' से मुराद क्या है और किस तरह के हालात में ग़ीबत ज़रूरत के मुताबिक़ जाइज़ हो सकती है। एक बार एक बद्दू (देहाती) आकर नबी (सल्ल०) के पीछे नमाज़ में शामिल हुआ और नमाज़ ख़त्म होते ही यह कहता हुआ चल दिया कि “ऐ अल्लाह! मुझपर रहम कर और मुहम्मद पर, और हम दोनों के सिवा किसी को इस रहमत में शरीक न कर।” नबी (सल्ल०) ने सहाबा (रज़ि०) से फ़रमाया, “तुम लोग क्या कहते हो, यह आदमी ज़्यादा नादान है या इसका ऊँट? तुमने सुना नहीं कि यह क्या कह रहा था?” (हदीस : अबू-दाऊद)। यह बात नबी (सल्ल०) को उसके पीठ पीछे कहनी पड़ी, क्योंकि वह सलाम फेरते ही जा चुका था। उसने चूँकि नबी (सल्ल०) की मौजूदगी में एक बहुत ग़लत बात कह दी थी, और आप (सल्ल०) का उसपर ख़ामोश रह जाना किसी शख़्स को इस ग़लतफ़हमी में डाल सकता था कि ऐसी बात कहना किसी दरजे में जाइज़ हो सकता है, इसलिए ज़रूरी था कि आप (सल्ल०) उसको ग़लत ठहराएँ। एक औरत फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) को दो लोगों ने निकाह का पैग़ाम दिया। एक हज़रत मुआविया (रज़ि०), दूसरे हज़रत अबुल-जह्म (रज़ि०)। उन्होंने आकर नबी (सल्ल०) से मशवरा माँगा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुआविया ग़रीब हैं और अबुल-जह्म बीवियों को बहुत मारते-पीटते हैं,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। यहाँ एक औरत के लिए उसकी आनेवाली ज़िन्दगी का मसला सामने था और नबी (सल्ल०) से उन्होंने मशवरा माँगा था। इस हालत में आप (सल्ल०) ने ज़रूरी समझा कि दोनों लोगों की जो कमज़ोरियाँ आप (सल्ल०) की जानकारी में हैं, वे उन्हें बता दें। एक दिन नबी (सल्ल०) हज़रत आइशा (रज़ि०) के यहाँ थे। एक आदमी ने आकर मुलाक़ात की इजाज़त चाही। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह अपने क़बीले का बहुत बुरा आदमी है।" फिर आप (सल्ल०) बाहर तशरीफ़ ले गए और उससे बड़ी नरमी के साथ बात की। घर में वापस तशरीफ़ लाए तो हज़रत आइशा (रज़ि०) ने पूछा, “आपने तो उससे बड़ी अच्छी तरह बात की, हालाँकि बाहर जाते वक़्त आपने उसके बारे में वह कुछ फ़रमाया था।” जवाब में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह के नज़दीक क़ियामत के दिन सबसे बुरा मक़ाम उस आदमी का होगा जिसकी बद-ज़बानी के डर से लोग उससे मिलना-जुलना छोड़ दें,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। इस वाकिए पर ग़ौर कीजिए तो मालूम होगा कि नबी (सल्ल०) ने उस आदमी के बारे में बुरी राय रखने के बावजूद उसके साथ अच्छी तरह बातचीत इसलिए की कि आप (सल्ल०) का अख़लाक़ इसी का तक़ाज़ा करता था। लेकिन आप (सल्ल०) को यह अन्देशा हुआ कि आप (सल्ल०) के घरवाले आप (सल्ल०) को उससे मेहरबानी बरतते देखकर कहीं उसे आप (सल्ल०) का दोस्त न समझ लें और बाद में किसी वक़्त वह उसका नाजाइज़ फ़ायदा न उठाए। इसलिए नबी (सल्ल०) ने हज़रत आइशा (रज़ि०) को ख़बरदार कर दिया कि वह अपने क़बीले का बहुत बुरा आदमी है। एक मौक़े पर हज़रत अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) की बीवी हिन्द-बिन्ते-उतबा (रज़ि०) ने आकर नबी (सल्ल०) से कहा कि “अबू-सुफ़ियान एक कंजूस आदमी हैं, मुझे और मेरे बच्चों को इतना नहीं देते जो ज़रूरतों के लिए काफ़ी हो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। बीवी की तरफ़ से शौहर की ग़ैर-मौजूदगी में यह शिकायत अगरचे ग़ीबत थी, मगर नबी (सल्ल०) ने इसको जाइज़ रखा, क्योंकि मज़लूम को यह हक़ पहुँचता है कि ज़ुल्म की शिकायत किसी ऐसे शख़्स के पास ले जाए जो उसको दूर करा सकता हो। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत की इन मिसालों से फ़ायदा उठाते हुए फ़क़ीहों और हदीस के आलिमों ने यह उसूल निकाला है कि “ग़ीबत सिर्फ़ उस सूरत में जाइज़ है, जबकि एक सही (यानी शरई तौर पर सही) मक़सद के लिए उसकी ज़रूरत हो और वह ज़रूरत उसके बिना पूरी न हो सकती हो।” फिर इसी उसूल पर बुनियाद रखते हुए आलिमों ने ग़ीबत की नीचे लिखी सूरतें जाइज़ क़रार दी है— (1) ज़ालिम के ख़िलाफ़ मज़लूम की शिकायत हर उस शख़्स के सामने जिससे वह यह उम्मीद रखता हो कि वह ज़ुल्म को ख़त्म करने के लिए कुछ कर सकता है। (2) सुधार की नीयत से किसी शख़्स या गरोह की बुराइयों का ज़िक्र ऐसे लोगों के सामने जिनसे यह उम्मीद हो कि वे उन बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ कर सकेंगे। (3) फ़तवा (इस्लामी हुक्म) पूछने के लिए किसी मुफ़्ती के सामने सूरते-हाल बयान करना जिसमें किसी शख़्स के ग़लत काम का ज़िक्र आ जाए। (4) लोगों को किसी आदमी या आदमियों की बुराई से ख़बरदार करना, ताकि वे उसके नुक़सान से बच सकें। मसलन रिवायत करनेवालों, गवाहों और लेखकों की कमज़ोरियाँ बयान करना तमाम आलिमों के नज़दीक जाइज़ ही नहीं, वाजिब है, क्योंकि इसके बिना शरीअत को ग़लत रिवायतों के फैलने से, अदालतों को बेइनसाफ़ी से, और आम लोगों या इल्म के तलबगारों को गुमराहियों से बचाना मुमकिन नहीं है। या मसलन कोई शख़्स किसी से शादी-ब्याह का रिश्ता करना चाहता हो, या किसी के पड़ोस में मकान लेना चाहता हो, या किसी से साझेदारी का मामला करना चाहता हो, या किसी को अपनी अमानत सौंपना चाहता हो और आपसे मशवरा ले तो आपके लिए, वाजिब है कि उसकी अच्छाई-बुराई उसे बता दें, ताकि अनजाने में वह धोखा न खाए। (5) ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ खुल्लम-खुल्ला आवाज़ बुलन्द करना और उनकी बुराइयों पर तनक़ीद (आलोचना) करना जो फ़िस्क़ और फ़ुजूर (बुराइयाँ) फैला रहे हों, या बिदअतें और गुमराहियाँ फैला रहे हों, या ख़ुदा के बन्दों को बेदीनी और ज़ुल्म व ज़्यादती में मुब्तला कर रहे हों। (6) जो लोग किसी बुरे लक़ब (नाम से इतने ज़्यादा मशहूर हो चुके हों कि वे उस लक़ब के सिवा किसी और लक़ब से पहचाने न जा सकते हों उनके लिए वह लक़ब इस्तेमाल करना पहचान के लिए न कि बुराई करने के लिए। (तफ़सील के लिए देखिए— फ़तहुल-बारी, हिस्सा-10, पे० 962; शरह मुस्लिमीन लिन्न-बवी, बाबु तहरीमिल-ग़ीबत; रियाजुस्सालिहीन, बाबु मा युबाहु मिनल-ग़ीबत; अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास और रूहुल-मआनी, तफ़सीर सूरा-49 हुजुरात, आयत-12) इन अलग सूरतों के सिवा पीठ पीछे किसी की बुराई करना पूरी तरह हराम है। यह बुरा कहना अगर सच हो तो ग़ीबत है, झूठ हो तो बुहतान है, और दो आदमियों को लड़ाने के लिए हो तो चुग़ली है। शरीअत इन तीनों चीज़ों को हराम करती है। इस्लामी समाज में हर मुसलमान पर यह लाज़िम है कि अगर उसके सामने किसी शख़्स पर झूठी तुहमत लगाई जा रही हो तो वह उसको ख़ामोशी से न सुने, बल्कि उसको ग़लत बताए, और अगर किसी जाइज़ शरई ज़रूरत के बिना किसी की वे बुराइयाँ बयान की जा रही हों जो उसमें मौजूद हैं, तो इस हरकत के करनेवाले को अल्लाह से डराए और इस गुनाह को छोड़ देने की नसीहत करे। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है— “अगर कोई शख़्स किसी मुसलमान की तरफ़दारी ऐसे मौक़े पर नहीं करता जहाँ उसकी बेइज़्ज़ती की जा रही हो और उसकी इज़्ज़त पर हमला किया जा रहा हो तो अल्लाह तआला भी उसकी हिमायत ऐसे मौक़ों पर नहीं करता जहाँ वह अल्लाह की मदद का तलबगार हो। और अगर कोई शख़्स किसी मुसलमान की हिमायत ऐसे मौक़े पर करता है जहाँ उसकी इज़्ज़त पर हमला हो रहा हो और उसकी रुसवाई और तौहीन की जा रही हो तो अल्लाह तआला उसकी मदद ऐसे मौक़ों पर करता है जहाँ वह चाहता है कि अल्लाह उसकी मदद करे।" (हदीस : अबू-दाऊद) रहा ग़ीबत करनेवाला, तो जिस वक़्त भी उसे एहसास हो जाए कि वह उस गुनाह को कर रहा है या कर चुका है, उसका पहला फ़र्ज़ यह है कि अल्लाह से तौबा करे और इस हराम काम से रुक जाए। इसके बाद दूसरा फ़र्ज़ उसपर यह आता है कि जहाँ तक मुमकिन हो उसकी भरपाई करे। अगर उसने किसी मरे हुए आदमी की ग़ीबत की हो तो उसके लिए मग़फ़िरत की बहुत ज़्यादा दुआ करे। अगर किसी ज़िन्दा आदमी की ग़ीबत की हो और वह हक़ीक़त के ख़िलाफ़ भी हो तो उन लोगों के सामने उस बुराई के ग़लत होने का इक़रार करे, जिनके सामने वह पहले यह बुहतान-तराशी कर चुका है। और अगर सच्ची ग़ीबत की हो तो आगे फिर कभी उसकी बुराई न करे और उस शख़्स से माफ़ी माँगे जिसकी बुराई उसने की थी। आलिमों का एक गरोह कहता है कि माफ़ी सिर्फ़ उस सूरत में माँगनी चाहिए जबकि उस शख़्स को उसका इल्म हो चुका हो, वरना सिर्फ़ तौबा को काफ़ी समझना चाहिए, क्योंकि अगर वह शख़्स बेख़बर हो और ग़ीबत करनेवाला माफ़ी माँगने की ख़ातिर उसे जाकर यह बताए कि मैंने तेरी ग़ीबत की थी तो यह चीज़ उसके लिए तकलीफ़ का सबब होगी।
27. इस जुमले में अल्लाह तआला ने ग़ीबत को मरे हुए भाई का गोश्त खाने से मिसाल देकर इस हरकत के बहुत-ही घिनौनी होने का तसव्वुर दिलाया है। मुरदार का गोश्त खाना अपनी जगह ख़ुद नफ़रत के क़ाबिल है, कहाँ यह कि वह गोश्त भी किसी जानवर का नहीं बल्कि इनसान का हो, और इनसान भी कोई और नहीं, ख़ुद अपना भाई हो। फिर इस मिसाल को सवालिया अन्दाज़ में पेश करके और ज़्यादा असरदार बना दिया गया है, ताकि हर शख़्स अपने ज़मीर (मन) से पूछकर ख़ुद फ़ैसला करे कि क्या वह अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाने के लिए तैयार है? अगर नहीं है और उसकी फ़ितरत इस चीज़ से घिन खाती है तो आख़िर वह कैसे यह बात पसन्द करता है कि अपने एक ईमानवाले भाई की ग़ैर-मौजूदगी में उसकी इज़्ज़त पर हमला करे जहाँ वह अपना बचाव नहीं कर सकता और जहाँ उसको यह ख़बर तक नहीं है कि उसकी बेइज़्ज़ती की जा रही है? इस हुक्म से यह बात भी मालूम हुई कि ग़ीबत के हराम होने की बुनियादी वजह उस शख़्स का दिल दुखाना नहीं है जिसकी ग़ीबत की गई हो, बल्कि किसी शख़्स की ग़ैर-मौजूदगी में उसकी बुराई करना अपने-आपमें ख़ुद हराम है, इस बात से परे कि उसको इसका पता हो या न हो और उसको इस हरकत से तकलीफ़ पहुँचे या न पहुँचे। ज़ाहिर है कि मरे हुए आदमी का गोश्त खाना इसलिए हराम नहीं है कि मुर्दे को इससे तकलीफ़ होती है। मुर्दा बेचारा तो इससे बेख़बर होता है कि उसके मरने के बाद कोई उसकी लाश भँभोड़ रहा है। मगर यह हरकत अपनी जगह ख़ुद एक बहुत घिनौनी हरकत है। इसी तरह जिस शख़्स की ग़ीबत की गई हो उसको भी अगर किसी ज़रिए से उसकी ख़बर न पहुँचे तो वह उम्र-भर इस बात से अनजान रहेगा कि कहाँ किस शख़्स ने कब उसकी इज़्ज़त पर किन लोगों के सामने हमला किया था और उसकी वजह से किस-किस की नज़र में वह रुसवा और हक़ीर होकर रह गया। इस बेख़बरी की वजह से उसे इस ग़ीबत की सिरे से कोई तकलीफ़ न पहुँचेगी, मगर उसकी इज्ज़त पर बहरहाल इससे बट्टा लगेगा, इसलिए यह हरकत अपनी क़िस्म में मुर्दा भाई का गोश्त खाने से अलग नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن ذَكَرٖ وَأُنثَىٰ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ شُعُوبٗا وَقَبَآئِلَ لِتَعَارَفُوٓاْۚ إِنَّ أَكۡرَمَكُمۡ عِندَ ٱللَّهِ أَتۡقَىٰكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٞ ۝ 12
(13) लोगो! हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और बिरादरियाँ बना दी, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे ज़्यादा इज़्ज़तवाला वह है जो तुम्हारे अन्दर सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।28 यक़ीनन अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और बाख़बर है।29
28. पिछली आयतों में ईमानवालों को मुख़ातब करके वे हिदायतें दी गई थीं जो मुस्लिम समाज को ख़राबियों से बचाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। अब इस आयत में तमाम इनसानों को मुख़ातब करके उस बड़ी गुमराही का सुधार किया गया है जो दुनिया में हमेशा आलमगीर (विश्वव्यापी) बिगाड़ का सबब रही है, यानी नस्ल, रंग, ज़बान, वतन और क़ौमियत (राष्ट्रीयता) का तास्सुब (पक्षपात)। पुराने ज़माने से आज तक हर दौर में इनसान आम तौर पर इनसानियत को नज़रन्दाज़ करके अपने आसपास कुछ छोटे-छोटे दायरे खींचता रहा है जिनके अन्दर पैदा होनेवालों को उसने अपना और बाहर पैदा होनेवालों को पराया क़रार दिया है। ये दायरे किसी अक़्ली और अख़लाक़ी बुनियाद पर नहीं बल्कि इत्तिफ़ाक़ी पैदाइश की बुनियाद पर खींचे गए हैं। कहीं इनकी बुनियाद एक ख़ानदान, क़बीले या नस्ल में पैदा होना है, और कहीं एक इलाक़े में या एक ख़ास रंगवाली या एक ख़ास ज़बान बोलनेवाली क़ौम में पैदा हो जाना। फिर इन बुनियादों पर अपने और पराए का जो फ़र्क़ क़ायम किया गया है वह सिर्फ़ इस हद तक महदूद (सीमित) नहीं रहा है कि जिन्हें इस लिहाज़ से अपना क़रार दिया गया हो कि उनके साथ ग़ैरों के मुक़ाबले में ज़्यादा मुहब्बत और ज़्यादा तआवुन (सहयोग) हो, बल्कि इस फ़र्क़ ने नफ़रत, दुश्मनी, ज़िल्लत व रुसवाई और ज़ुल्म व सितम की बदतरीन शक्लें अपना ली हैं। इसके लिए फ़लसफ़े गढ़े गए हैं। मज़हब ईजाद किए गए हैं। क़ानून बनाए गए हैं। अख़लाक़ी उसूल बनाए गए हैं। क़ौमों और सल्तनतों ने इसको अपना एक मुस्तक़िल तरीक़ा बनाकर सदियों इसपर अमल किया है। यहूदियों ने इसी बुनियाद पर बनी-इसराईल को अल्लाह के चुने हुए बन्दे ठहराया और अपने मज़हबी हुक्मों तक में ग़ैर-इसराईलियों के इख़्तियारों और रुतबों को इसराईलियों से कमतर रखा। हिन्दुओं के यहाँ वर्ण-व्यवस्था को इसी फ़र्क़ ने जन्म दिया, जिसके मुताबिक़ ब्राह्मणों की बरतरी (श्रेष्ठता) क़ायम की गई, ऊँची जातिवालों के मुक़ाबले में तमाम इनसान नीच और नापाक ठहराए गए, और शूद्रों को इन्तिहाई बेइज़्ज़ती और ज़िल्लत के गढ़े में फेंक दिया गया। काले और गोरे के फ़र्क़ ने अफ़्रीक़ा और अमेरिका में काले लोगों पर जो ज़ुल्म ढाए उनको इतिहास के पन्नों में तलाश करने की ज़रूरत नहीं, आज इस बीसवीं सदी ही में हर शख़्स अपनी आँखों से उन्हें देख सकता है। यूरोप के लोगों ने अमेरिका बर्रे-आज़म (महाद्वीप) में घुसकर रेड इंडियन नस्ल के साथ जो सुलूक किया और एशिया और अफ़्रीक़ा की कमज़ोर क़ौमों पर अपना ग़लबा (वर्चस्व) क़ायम करके जो बरताव उनके साथ किया, उसकी तह में भी यही सोच काम करती रही कि अपने वतन और अपनी क़ौम की हदों से बाहर पैदा होनेवालों की जान-माल और आबरू (मान-मर्यादा) उनके लिए हलाल है और उन्हें हक़ पहुँचता है कि उनको लूटें, ग़ुलाम बनाएँ और ज़रूरत पड़े तो उनका वुजूद मिटा दें। पश्चिमी क़ौमों की क़ौम-परस्ती ने एक क़ौम को दूसरी क़ौमों के लिए जिस तरह दरिन्दा बनाकर रख दिया है उसकी सबसे बुरी मिसालें क़रीब के दौर की लड़ाइयों में देखी जा चुकी हैं और आज देखी जा रही हैं। ख़ास तौर से नाज़ी जर्मनी का नस्ल का फ़लसफ़ा और नॉर्डिक नस्ल की बरतरी का तसव्वुर पिछली जंगे-अज़ीम (विश्वयुद्ध) में जो करिश्मे दिखा चुका है उन्हें निगाह में रखा जाए तो आदमी आसानी से यह अन्दाज़ा कर सकता है कि वह कितनी बड़ी और तबाह कर देनेवाली गुमराही है जिसके सुधार के लिए क़ुरआन मजीद में यह आयत उतरी है। इस छोटी-सी आयत में अल्लाह तआला ने तमाम इनसानों को मुख़ातब करके तीन बहुत अहम उसूली हक़ीक़तें बयान की हैं— एक यह कि तुम सबकी अस्ल एक है, एक ही मर्द और एक ही औरत से तुम्हारी पूरी नस्ल वुजूद में आई है, और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं वे हक़ीक़त में एक इबतिदाई नस्ल की शाखाएँ हैं जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई थी। पैदाइश के इस सिलसिले में किसी जगह भी उस फ़र्क़ और ऊँच-नीच के लिए कोई बुनियाद मौजूद नहीं है जिसके झूठे दावे (दंभ) में तुम मुब्तला हो। एक ही ख़ुदा तुम्हारा पैदा करनेवाला है, ऐसा नहीं है कि अलग-अलग इनसानों को अलग-अलग ख़ुदाओं ने पैदा किया हो। एक ही चीज़ से तुम बने हो, ऐसा भी नहीं है कि कुछ इनसान किसी पाक या बढ़िया चीज़ से बने हों और कुछ दूसरे इनसान किसी नापाक या घटिया चीज़ से बन गए हों। एक ही तरीक़े से तुम पैदा हुए हो, यह भी नहीं है कि अलग-अलग इनसानों की पैदाइश के तरीक़े अलग-अलग हों। और एक ही माँ-बाप की तुम औलाद हो, यह भी नहीं हुआ है कि इबतिदाई इनसानी जोड़े बहुत-से रहे हों, जिनसे दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों की आबादियाँ अलग-अलग पैदा हुई हों। दूसरी यह कि अपनी अस्ल के एतिबार से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में बँट जाना एक फ़ितरी बात थी। ज़ाहिर है कि पूरी दुनिया में सारे इनसानों का एक ही ख़ानदान तो नहीं हो सकता था। नस्ल बढ़ने के साथ ज़रूरी था कि अनगिनत ख़ानदान बनें और फिर ख़ानदानों से क़बीले और क़ौमें वुजूद में आ जाएँ। इसी तरह ज़मीन के अलग-अलग इलाक़ों में आबाद होने के बाद रंग, रूप, ज़बानें और रहन-सहन के ढंग भी यक़ीनन अलग ही हो जाने थे, और एक इलाक़े के रहनेवालों को आपस में ज़्यादा क़रीब और दूर के इलाक़ों के रहनेवालों को ज़्यादा दूर होना ही था। मगर इस फ़ितरी फ़र्क़ और इख़्तिलाफ़ (भिन्नता) का तक़ाज़ा यह हरगिज़ न था कि इसकी बुनियाद पर ऊँच और नीच, शरीफ़ और कमीन, बरतर और कमतर के फ़र्क़ क़ायम किए जाएँ, एक नस्ल दूसरी नस्ल पर अपनी बरतरी जताए, एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को गिरे हुए और हक़ीर समझें, एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी बड़ाई का रोब जमाए और इनसानी हक़ों में एक गरोह को दूसरे गरोह पर तरजीह हासिल हो। पैदा करनेवाले ने जिस वजह से इनसानी गरोहों को क़ौमों और क़बीलों की शक्ल में बाँटा था, वह सिर्फ़ यह थी कि उनके दरमियान आपसी तआरुफ़ (परिचय) और तआवुन (सहयोग) की फ़ितरी सूरत यही थी। इसी तरीक़े से एक ख़ानदान, एक बिरादरी, एक क़बीले और एक क़ौम के लोग मिलकर मुश्तरक (संयुक्त) समाज बना सकते थे और ज़िन्दगी के मामलों में एक-दूसरे के मददगार बन सकते थे। मगर यह सिर्फ़ शैतानी जहालत (और गुमराही) थी कि जिस चीज़ को अल्लाह की बनाई हुई फ़ितरत ने पहचान का ज़रिआ बनाया था, उसे फ़ख़्र करने और एक-दूसरे से नफ़रत करने का ज़रिआ बना लिया गया और फिर नौबत ज़ुल्म व ज़्यादती तक पहुँचा दी गई। तीसरी यह कि इनसान और इनसान के बीच बड़ाई और बरतरी की बुनियाद अगर कोई है और हो सकती है तो वह सिर्फ़ अख़लाक़ी बरतरी है। पैदाइश के एतिबार से तमाम इनसान एक समान हैं, क्योंकि उनका पैदा करनेवाला एक है, उनकी पैदाइश का माद्दा (रचना-तत्त्व) और पैदाइश का तरीक़ा एक ही है, और उन सबका नसब (वंश) एक ही माँ-बाप तक पहुँचता है। इसके अलावा किसी शख़्स का किसी ख़ास देश, क़ौम या बिरादरी में पैदा होना एक इत्तिफ़ाक़ी मामला है, जिसमें उसके अपने इरादे और पसन्द और उसकी अपनी कोशिश का कोई दख़ल नहीं है। कोई मुनासिब वजह नहीं कि इस लिहाज़ से किसी को किसी पर बरतरी हासिल हो। अस्ल चीज़ जिसकी बुनियाद पर एक शख़्स को दूसरों पर बरतरी (श्रेष्ठता) हासिल होती है वह यह है कि वह दूसरों से बढ़कर ख़ुदा से डरनेवाला, बुराइयों से बचनेवाला, और नेकी व पाकीज़गी की राह पर चलनेवाला हो। ऐसा आदमी चाहे किसी नस्ल, किसी क़ौम और किसी देश से ताल्लुक़ रखता हो, अपनी निजी ख़ूबियों की बुनियाद पर क़द्र के क़ाबिल है। और जिसका हाल इसके बरख़िलाफ़ हो, वह बहरहाल एक कमतर दरजे का इनसान है, चाहे वह काला हो या गोरा, पूरब में पैदा हुआ हो या पश्चिम में। यही हक़ीक़तें जो क़ुरआन की एक छोटी-सी आयत में बयान की गई हैं, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको अपने अलग-अलग ख़ुतबों (तक़रीरों) और फ़रमानों में ज़्यादा खोलकर बयान किया है। फ़तहे-मक्का के मौक़े पर काबा का तवाफ़ (परिक्रमा) करने के बाद नबी (सल्ल०) ने जो तक़रीर की थी उसमें फ़रमाया— "शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने तुमसे जाहिलियत का ऐब और उसका घमण्ड दूर कर दिया! लोगो! तमाम इनसान बस दो ही हिस्सों में बँटते हैं। एक नेक और परहेज़गार, जो अल्लाह की निगाह में इज़्ज़तवाला है। दूसरा नाफ़रमान और ज़ालिम, जो अल्लाह की निगाह में ज़लील (बेइज़्ज़त) है। वरना सारे इनसान आदम (अलैहि०) की औलाद हैं, और अल्लाह ने आदम (अलैहि०) को मिट्टी से पैदा किया था।” (हदीस : बैहक़ी फ़ी शुअबिल-ईमान, तिरमिज़ी) हज्जुतल-वदाअ के मौक़े पर 'अय्यामे-तशरीक़' (ज़िल-हिज्जा की 11, 12, 13 तारीख़) के बीच में नबी (सल्ल०) ने एक तक़रीर की और उसमें फ़रमाया— "लोगो! ख़बरदार रहो, तुम सबका ख़ुदा एक है। किसी अरबी को किसी अजमी (ग़ैर-अरबी) पर और किसी अजमी को किसी अरबी पर और किसी गोरे को किसी काले पर और किसी काले को किसी गोरे पर कोई बरतरी (श्रेष्ठता) हासिल नहीं है, मगर परहेज़गारी के एतिबार से। अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे ज़्यादा इज़्ज़तवाला वह है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो। बताओ, मैंने तुम्हें बात पहुँचा दी है?” लोगों ने कहा, “हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल!” (नबी सल्ल० ने) फ़रमाया, “अच्छा तो जो मौजूद है वह उन लोगों तक यह बात पहुँचा दें जो मौजूद नहीं हैं।” (हदीस : बैहक़ी) एक हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “तुम सब आदम (अलैहि०) की औलाद हो और आदम (अलैहि०) मिट्टी से पैदा किए गए थे। लोग अपने बाप-दादा पर फ़ख़्र (गर्व) करना छोड़ दें वरना वे अल्लाह की निगाह में एक हक़ीर कीड़े से ज़्यादा ज़लील (रुसवा) होंगे।" (हदीस : बज़्ज़ार) एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारा हसब-नसब (वंश-कुल) नहीं पूछेगा। अल्लाह के यहाँ सबसे ज़्यादा इज़्ज़तवाला वह है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार (ईशपरायण) हो।” (हदीस : अलबानी) एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "अल्लाह तुम्हारी सूरतें और तुम्हारे माल नहीं देखता, बल्कि वह तुम्हारे दिलों और तुम्हारे आमाल (कर्मों) की तरफ़ देखता है।" (हदीस : मुस्लिम, इब्ने-माजा) ये तालीमात सिर्फ़ अलफ़ाज़ की हद तक ही सिमटकर नहीं रही हैं, बल्कि इस्लाम ने इनके मुताबिक़ ईमानवालों की एक आलमगीर बिरादरी (विश्व समुदाय) क़ायम करके दिखा दी है। जिसमें रंग, नस्ल, ज़बान, वतन और क़ौमियत का कोई फ़र्क़ नहीं, जिसमें ऊँच-नीच, छुआ-छूत और भेदभाव व तास्सुब (पक्षपात) का कोई तसव्वुर नहीं, जिसमें शरीक होनेवाले तमाम इनसान चाहे वे किसी नस्ल व क़ौम और देश व वतन से ताल्लुक़ रखते हों बिलकुल बराबरी के इख़्तियारों के साथ शरीक हो सकते हैं और हुए हैं। इस्लाम की मुख़ालफ़त करनेवालों तक को यह मानना पड़ा है कि इनसानी बराबरी और एकता के उसूल को जिस कामयाबी के साथ मुस्लिम समाज में अमली शक्ल दी गई है, उसकी कोई मिसाल दुनिया के किसी धर्म और किसी निज़ाम (व्यवस्था) में नहीं पाई जाती, न कभी पाई गई है। सिर्फ़ इस्लाम ही वह दीन है जिसने धरती के तमाम इलाक़ों में फैली हुई अनगिनत नस्लों और क़ौमों को मिलाकर एक उम्मत (समुदाय) बना दिया है। इस सिलसिले में एक ग़लतफ़हमी को दूर कर देना भी जरूरी है। शादी-ब्याह के मामले में इस्लामी क़ानून कुफ़्ब (बराबरी) को जो अहमियत देता है उसको कुछ लोग इस मानी में लेते हैं कि कुछ बिरादरियाँ शरीफ़ और कुछ नीच हैं और उनके बीच शादी-ब्याह एतिराज़ के क़ाबिल है। लेकिन अस्ल में यह एक ग़लत ख़याल है। इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ हर मुसलमान मर्द का हर मुसलमान औरत से निकाह हो सकता है, मगर शादी-शुदा ज़िन्दगी की कामयाबी का दारोमदार इसपर है कि मियाँ-बीवी के बीच आदतों, ख़स्लतों, रहन-सहन, ख़ानदानी रिवायतों (परम्पराओं) और मआशी (आर्थिक) और सामाजिक हालात में ज़्यादा-से-ज़्यादा मुताबक़त (अनुकूलता) हो, ताकि वे एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह निबाह कर सकें। यही 'कुफ़्व' (बराबरी, जोड़) का अस्ल मक़सद है। जहाँ मर्द और औरत के बीच इस लिहाज़ से बहुत ज़्यादा फ़र्क़ हो वहाँ उम्र-भर का साथ निभ जाने की कम ही उम्मीद हो सकती है, इसलिए इस्लामी क़ानून ऐसे जोड़ लगाने को नापसन्द करता है, न इस बुनियाद पर कि दोनों तरफ़ के लोगों में से एक शरीफ़ और दूसरा नीच है, बल्कि इस बुनियाद पर कि हालात में ज़्यादा खुला हुआ फ़र्क़ और इख़्तिलाफ़ हो तो शादी-ब्याह का ताल्लुक़ क़ायम करने में शादी-शुदा जिन्दगियों के नाकाम हो जाने का ज़्यादा इमकान (अन्देशा) होता है।
29. यानी यह बात अल्लाह ही जानता है कि कौन एक आला दरजे का इनसान है और कौन सिफ़तों (ख़ूबिया) के लिहाज़ से कमतर दरजे का है। लोगों ने अपने तौर पर ख़ुद ऊँचे और नीचे के जो पैमाने बना रखे हैं ये अल्लाह के यहाँ चलनेवाले नहीं हैं। हो सकता है कि जिसको दुनिया में बहुत बुलन्द दरजे का आदमी समझा गया हो वह अल्लाह के आख़िरी फ़ैसले में सबसे कमतर इनसान क़रार पाए, और हो सकता है कि जो यहाँ बहुत हक़ीर और नीचा समझा गया हो वह वहाँ बड़ा ऊँचा दरजा पाए। अस्ल अहमियत दुनिया की इज़्ज़त और ज़िल्लत (बेइज़्जती) की नहीं, बल्कि उस ज़िल्लत और इज़्ज़त की है जो अल्लाह के यहाँ किसी को मिले। इसलिए इनसान को सारी फ़िक्र इस बात की होनी चाहिए कि वह अपने अन्दर वे हक़ीक़ी खू़बियाँ पैदा करे जो उसे अल्लाह की निगाह में इज़्ज़त के लायक़ बना सकती हों।
۞قَالَتِ ٱلۡأَعۡرَابُ ءَامَنَّاۖ قُل لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ وَلَٰكِن قُولُوٓاْ أَسۡلَمۡنَا وَلَمَّا يَدۡخُلِ ٱلۡإِيمَٰنُ فِي قُلُوبِكُمۡۖ وَإِن تُطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ لَا يَلِتۡكُم مِّنۡ أَعۡمَٰلِكُمۡ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 13
(14) ये बद्दू (देहाती) कहते हैं कि “हम ईमान लाए।30 इनसे कहो, तुम ईमान नहीं लाए, बल्कि यूँ कहो, “हम फ़रमाँबरदार हो गए।"31 ईमान अभी तुम्हारे दिलों में दाख़िल नहीं हुआ है। अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी का रवैया अपना लो तो वह तुम्हारे आमाल के बदले में कोई कमी न करेगा, यक़ीनन अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
30. इससे मुराद तमाम बदवी (अरब देहाती) नहीं हैं, बल्कि यहाँ ज़िक्र कुछ ख़ास बदवी गरोहों का हो रहा है जो इस्लाम की बढ़ती हुई ताक़त देखकर सिर्फ़ इस ख़याल से मुसलमान हो गए थे कि वे मुसलमानों के नुक़सान से भी बचे रहेंगे और इस्लामी फ़तहों के फ़ायदे भी उठाएँगे। वे लोग हक़ीक़त में सच्चे दिल से ईमान नहीं लाए थे, सिर्फ़ ज़बान से ईमान का इक़रार करके उन्होंने अपना फ़ायदा देखते हुए अपने-आपको मुसलमानों में शामिल करा लिया था। और उनकी इस अन्दरूनी हालत का राज़ उस वक़्त खुल जाता था जब वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास आकर तरह-तरह की माँगें करते थे और अपना हक़ इस तरह जताते थे मानो उन्होंने इस्लाम क़ुबूल करके आप (सल्ल०) पर बड़ा एहसान किया है। रिवायतों में कई क़बाइली गरोहों के इस रवैये का ज़िक्र आया है। मसलन, मुज़ैना, जुहैना, असलम, अशजअ, ग़िफ़ार वग़ैरा। ख़ास तौर पर बनी-असद-बिन-ख़ुज़ैमा के बारे में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) का बयान है कि एक बार सूखा पड़ने के ज़माने में वे मदीना आए और माली मदद की माँग करते हुए बार-बार उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा कि "हम बिना लड़े-भिड़े मुसलमान हुए हैं, हमने आपसे उस तरह जंग नहीं की जिस तरह फ़ुलाँ-फ़ुलाँ क़बीलों ने जंग की है।” इससे उनका साफ़ मतलब यह था कि अल्लाह के रसूल से जंग न करना और इस्लाम क़ुबूल कर लेना उनका एक एहसान है, जिसका बदला उन्हें रसूल (सल्ल०) और ईमानवालों से मिलना चाहिए। मदीना के आसपास के बदवी गरोहों का यही वह रवैया है जिसपर इन आयतों में तबसिरा किया गया है। इस तबसिरे के साथ सूरा-9 तौबा, आयतें—90 से 110 और सूरा-48 फ़तह, आयतें—11 से 17 को मिलाकर पढ़ा जाए तो बात ज़्यादा अच्छी तरह समझ में आ सकती है।
31. अस्ल अरबी में 'क़ूलू अस्लमना' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, जिनका दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “कहो हम मुस्लिम हो गए हैं।” इन अलफ़ाज़ से कुछ लोगों ने यह नतीजा निकाल लिया है कि क़ुरआन मजीद की ज़बान में ‘मोमिन' और 'मुस्लिम' एक-दूसरे से अलग दो इसतिलाहें (पारिभाषिक शब्द) हैं, मोमिन वह है जो सच्चे दिल से ईमान लाया हो और मुस्लिम वह है जिसने ईमान के बिना सिर्फ़ ज़ाहिर में इस्लाम क़ुबूल कर लिया हो। लेकिन हक़ीक़त में यह ख़याल बिलकुल ग़लत है। इसमें शक नहीं कि इस जगह ईमान का लफ़्ज़ दिल से मानने के लिए और इस्लाम का लफ़्ज़ सिर्फ़ ज़ाहिरी फ़रमाँबरदारी के लिए इस्तेमाल हुआ है। मगर यह समझ लेना सही नहीं है कि ये क़ुरआन मजीद की दो मुस्तक़िल (स्थायी) और एक-दूसरे से अलग इसतिलाहें हैं। क़ुरआन की जिन आयतों में 'इस्लाम' और 'मुस्लिम' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं उनपर ग़ौर करने से यह बात साफ़ हो जाती है कि क़ुरआन की इसतिलाह (ज़बान) में 'इस्लाम' उस सच्चे दीन का नाम है जो अल्लाह ने सारे ही इनसानों के लिए उतारा है, उसके मतलब में ईमान और हुक्म मानना और फ़रमाँबरदारी दोनों शामिल हैं, और 'मुस्लिम' वह है जो सच्चे दिल से माने और अमली तौर पर फ़रमाँबरदारी करे। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी आयतें देखिए— "यक़ीनन अल्लाह के नज़दीक दीन सिर्फ़ इस्लाम है।" (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-19) "और जो इस्लाम के सिवा कोई और दीन चाहे उसका वह दीन हरगिज़ क़ुबूल न किया जाएगा।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-85) “और मैंने (ख़ुदा ने) तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन की हैसियत से पसन्द किया है।" (सूरा-5 माइदा, आयत-3) "अल्लाह जिसको हिदायत देना चाहता है उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है।" (सूरा-6 अनआम, आयत-125) ज़ाहिर है कि इन आयतों में 'इस्लाम' से मुराद बिना ईमान के फ़रमाँबरदारी नहीं है। फिर देखिए जगह-जगह इस मज़मून की आयतें आती हैं— “ऐ नबी! कहो, मुझे यह हुक्म दिया गया है कि सबसे पहले इस्लाम लानेवाला मैं हूँ।" (सूरा-6 अनआम, आयत-14) "फिर अगर वे इस्लाम ले आएँ तो उन्होंने हिदायत पा ली।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-20) "तमाम पैग़म्बर जो इस्लाम लाए थे, तौरात के मुताबिक़ फ़ैसले करते थे।" (सूरा-5 माइदा, आयत-44) क्या यहाँ और इस तरह की बीसियों दूसरी जगहों पर इस्लाम क़ुबूल करने या इस्लाम लाने का मतलब ईमान के बिना फ़रमाँबरदारी (इताअत) अपना लेना है? इसी तरह ‘मुस्लिम' का लफ़्ज़ बार-बार जिस मानी में इस्तेमाल हुआ है उसके लिए नमूने के तौर पर नीचे लिखी आयतें देखिए— "ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो जैसा कि उससे डरने का हक़ है और तुमको मौत न आए मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम हो।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-102) “उसने तुम्हारा नाम पहले भी मुस्लिम रखा था और इस किताब में भी।" (सूरा-22 हज, आयत-78) "इबराहीम न यहूदी था न नसरानी, बल्कि वह यकसू मुस्लिम था।" (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-67) "(काबा की तामीर करते वक़्त हज़रत इबराहीम अलैहि० और हज़रत इसमाईल अलैहि० की दुआ) ऐ हमारे रब! हम दोनों को अपना मुस्लिम बना और हमारी नस्ल से एक ऐसी उम्मत पैदा कर जो तेरी मुस्लिम हो।" (सूरा-2 बक़रा, आयत-128) “(हज़रत याक़ूब अलैहि० की वसीयत अपनी औलाद को) ऐ मेरे बच्चो! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन पसन्द किया है। तो तुमको मौत न आए, मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम हो।" (सूरा-2 बक़रा, आयत-132) इन आयतों को पढ़कर आख़िर कौन यह सोच सकता है कि इनमें मुस्लिम से मुराद वह शख़्स है जो दिल से न माने, बस ज़ाहिरी तौर पर इस्लाम क़ुबूल कर ले? इसलिए यह दावा करना बिलकुल ग़लत है कि क़ुरआन की ज़बान में इस्लाम से मुराद बिना ईमान के इताअत (फ़रमाँबरदारी) है, और मुस्लिम क़ुरआन की ज़बान में सिर्फ़ इस्लाम क़ुबूल कर लेनेवाले को कहते हैं। इसी तरह यह दावा करना भी ग़लत है कि ईमान और मोमिन के अलफ़ाज़ क़ुरआन मजीद में लाज़िमन सच्चे दिल से मानने ही के मानी में इस्तेमाल हुए हैं। बेशक बहुत-सी जगहों पर ये अलफ़ाज़ इसी मतलब में इस्तेमाल हुए हैं, लेकिन बहुत-सी जगहें ऐसी भी हैं जहाँ ये अलफ़ाज़ ईमान के ज़ाहिरी इक़रार के लिए भी इस्तेमाल किए गए हैं, और 'या अय्युहल-लज़ी-न आ-मनू' (ऐ लोगो जो ईमान लाए हो!) कहकर उन सब लोगों को मुख़ातब किया गया है जो ज़बानी इक़रार करके मुसलमानों के गरोह में शामिल हुए हों, यह देखे बग़ैर कि वे सच्चे मोमिन हों, या कमज़ोर ईमानवाले, या सिर्फ़ मुनाफ़िक़। इसकी बहुत-सी मिसालों में से सिर्फ़ कुछ के लिए देखिए; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-156; सूरा-4 निसा, आयत-136; सूरा-5 माइदा, आयत-54; सूरा-8 अनफ़ाल, आयतें—20 से 27; सूरा-9 तौबा, आयत-383; सूरा-57 हदीद, आयत-28; सूरा-61 सफ़्फ़, आयत-2।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ لَمۡ يَرۡتَابُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 14
(15) हक़ीक़त में तो ईमानवाले वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए, फिर उन्होंने कोई शक न किया और अपनी जानों और मालों से अल्लाह की राह में जिहाद किया। वही सच्चे लोग हैं।
قُلۡ أَتُعَلِّمُونَ ٱللَّهَ بِدِينِكُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 15
(16) ऐ नबी! इन (ईमान के दावेदारों) से कहो, क्या तुम अल्लाह को अपने दीन की ख़बर दे रहे हो? हालाँकि अल्लाह ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ को जानता है और वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
يَمُنُّونَ عَلَيۡكَ أَنۡ أَسۡلَمُواْۖ قُل لَّا تَمُنُّواْ عَلَيَّ إِسۡلَٰمَكُمۖ بَلِ ٱللَّهُ يَمُنُّ عَلَيۡكُمۡ أَنۡ هَدَىٰكُمۡ لِلۡإِيمَٰنِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 16
(17) ये लोग तुमपर एहसान जताते हैं कि इन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इनसे कहो, अपने इस्लाम का एहसान मुझपर न रखो, बल्कि अल्लाह तुमपर अपना एहसान रखता है कि उसने तुम्हें ईमान की हिदायत दी, अगर तुम सचमुच अपने ईमान के दावे में सच्चे हो।
إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 17
(18) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की हर छिपी चीज़ का इल्म रखता है और जो कुछ तुम करते हो, वह सब उसकी निगाह में है।