(9) और अगर ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ जाएँ12 तो उनके बिच सुलह कराओ।13 फिर अगर उनमें से एक गरोह दूसरे गरोह से ज़्यादती करे तो ज़्यादती करनेवाले से लड़ो14 यहाँ तक कि वह अल्लाह के हुक्म की तरफ़ पलट आए।15 फ़िर अगर वह पलट आए तो उनके बीच अद्ल (इनसाफ़) के साथ सुलह करा दो।16 और इनसाफ़ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।17
12. यह नहीं फ़रमाया कि “जब ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ें, बल्कि फ़रमाया यह है कि “अगर ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ जाएँ।” इन अलफ़ाज़ से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद निकलती है कि आपस में लड़ना मुसलमानों का काम नहीं है और नहीं होना चाहिए। न उनसे इस बात की उम्मीद है कि वे मोमिन होते हुए आपस में लड़ा करेंगे। अलबत्ता अगर कभी ऐसा हो जाए तो इस सूरत में वह तरीक़ा अपनाना चाहिए जो आगे बयान किया जा रहा है। इसके अलावा गरोह के लिए भी 'फ़िरक़ा' के बजाय 'ताइफ़ा' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। अरबी ज़बान में 'फ़िरक़ा' बड़े गरोह के लिए और 'ताइफ़ा' छोटे गरोह के लिए बोला जाता है। इससे भी यह बात ज़ाहिर होती है कि अल्लाह तआला की निगाह में यह एक इन्तिहाई नापसन्दीदा हालत है जिसमें मुसलमानों की बड़ी-बड़ी जमाअतों के मुब्तला हो जाने की उम्मीद नहीं होनी चाहिए।
13. यह हुक्म उन तमाम मुसलमानों के लिए है जो इन दोनों गरोहों में शामिल न हों, और जिनके लिए उनके बीच सुलह की कोशिश करना मुमकिन हो। दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह तआला के नज़दीक मुसलमानों का यह काम नहीं है कि उनके अपने समाज के दो गरोह आपस में लड़ रहे हों और वे बैठे उनकी लड़ाई का तमाशा देखते रहें। बल्कि यह अफ़सोसनाक सूरते-हात जब भी पैदा हो, तमाम ईमानवालों को इसपर बेचैन हो जाना चाहिए और उनके आपसी मामलों के सुधार के लिए जिसके बस में जो कोशिश भी हो वह उसे कर डालनी चाहिए। दोनों तरफ़ के लोगों को लड़ाई से रुक जाने की नसीहत की जाए। उन्हें ख़ुदा से डराया जाए। असर रखनेवाले लोग दोनों तरफ़ के लोगों के ज़िम्मेदार आदमियों से जाकर मिलें। झगड़े की वजहें मालूम करें और अपनी हद तक हर वह कोशिश करें जिससे उनके बीच समझौता हो सकता हो।
14. यानी मुसलमानों का यह काम भी नहीं है कि वे ज़्यादती करनेवाले को ज़्यादती करने दें और जिसपर ज़्यादती की जा रही हो उसे उसके हाल पर छोड़ दें, या उलटा ज़्यादती करनेवाले का साथ दें। बल्कि उनका फ़र्ज़ यह है कि अगर लड़नेवाले दोनों तरफ़ के लोगों में सुलह कराने की तमाम कोशिशें नाकाम हो जाएँ, तो फिर यह देखें कि हक़ पर कौन है और ज़्यादती
करनेवाला कौन। जो हक़ पर हो उसका साथ दें और जो ज़्यादती करनेवाला हो उससे लड़ें। इस लड़ाई का चूँकि अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है इसलिए यह वाजिब है और जिहाद के हुक्म में है। इसकी गिनती उस फ़ितने में नहीं है जिसके बारे में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि “उसमें खड़ा रहनेवाला चलनेवाले से, और बैठ जानेवाला खड़े रहनेवाले से बेहतर है।" क्योंकि उस फ़ितने से मुराद तो मुसलमानों की वह आपसी लड़ाई है जिसमें दोनों तरफ़ के लोग असबियत (दुराग्रह) और जाहिली तरफ़दारी और दुनिया की तलब के लिए लड़ रहे हों और दोनों में से कोई भी हक़ पर न हो। रही यह लड़ाई जो ज़्यादती करनेवाले गरोह के मुक़ाबले में हक़ पर क़ायम गरोह की हिमायत (तरफ़दारी) के लिए लड़ी जाए, तो यह फ़ितने में हिस्सा लेना नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला के हुक्म पर अमल करना है। तमाम फ़क़ीह (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिम) इसके वाजिब होने पर एक राय हैं और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सहाबा (रज़ि०) में इसके वाजिब होने पर कोई इख़्तिलाफ़ न था, (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)। बल्कि कुछ फ़क़ीह तो इसे जिहाद से भी बढ़कर बताते हैं और उनकी दलील यह है कि हज़रत अली (रज़ि०) ने अपनी ख़िलाफ़त (हुकूमत) का पूरा ज़माना इस्लाम- दुश्मनों से जिहाद करने के बजाय बाग़ियों से लड़ने में लगा दिया, (रूहुल-मआनी)। इसके वाजिब न होने पर अगर कोई शख़्स इस बात से दलील लाए कि हज़रत अली (रज़ि०) की इन लड़ाइयों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और कुछ दूसरे सहाबा ने हिस्सा नहीं लिया था तो वह ग़लती पर है। इब्ने-उमर (रज़ि०) ख़ुद फ़रमाते हैं कि “मुझे अपने दिल में किसी बात पर इतनी ज़्यादा खटक महसूस नहीं हुई जितनी इस आयत की वजह से हुई कि मैंने अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ उस बाग़ी गरोह से जंग न की।" (अल-मुस्तदरक हाकिम)
ज़्यादती करनेवाले गरोह से 'क़िताल' (जंग) करने का हुक्म लाज़िमन यही मानी नहीं रखता है कि उसके ख़िलाफ़ हथियारों से जंग की जाए और ज़रूर उसको क़त्ल ही किया जाए। बल्कि इससे मुराद उसके ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल है, और अस्ल मक़सद उसकी ज़्यादती को ख़त्म करना है। इस मक़सद के लिए जिस ताक़त का इस्तेमाल ज़रूरी हो उसे इस्तेमाल करना चाहिए, और जितनी ताक़त का इस्तेमाल काफ़ी हो, न उससे कम इस्तेमाल करनी चाहिए न उससे ज़्यादा।
यह हुक्म उन लोगों के लिए है जो ताक़त इस्तेमाल करके ज़्यादती को ख़त्म कर सकते हों।
15. इससे मालूम हुआ कि यह लड़ाई बाग़ी (ज़्यादती करनेवाले गरोह) को बग़ावत (ज़्यादती) की सज़ा देने के लिए नहीं है, बल्कि उसे अल्लाह के हुक्म की तरफ़ पलटने पर मजबूर करने के लिए है। अल्लाह के हुक्म से मुराद यह है कि अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत के मुताबिक़ जो बात हक़ (सत्य) हो उसे यह बाग़ी गरोह क़ुबूल कर लेने पर आमादा हो जाए और जो रवैया इस हक़ के पैमाने के मुताबिक़ ज़्यादती क़रार पाता है उसको छोड़ दे। ज्यों ही कि कोई बाग़ी गरोह इस हुक्म की पैरवी पर राज़ी हो जाए, उसके ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल बन्द हो जाना चाहिए, क्योंकि यही क़िताल (जंग) का मक़सद और उसकी आख़िरी हद है। इसके बाद और कुछ आगे बढ़कर करनेवाला ख़ुद ज़्यादती का मुजरिम होगा। अब रही यह बात कि अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत के मुताबिक़ एक झगड़े में हक़ क्या है और ज़्यादती क्या, तो यक़ीनी तौर पर उसको तय करना उन लोगों का काम है जो उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में इल्म और सूझ-बूझ के लिहाज़ से इसकी जाँच करने के क़ाबिल हों।
16. सिर्फ़ सुलह करा देने का हुक्म नहीं है, बल्कि इनसाफ़ के साथ सुलह कराने का हुक्म है। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला की निगाह में वह सुलह कोई क़द्र के क़ाबिल चीज़ नहीं है जो हक़ और बातिल (ग़ैर-हक़) के फ़र्क़ को नज़रन्दाज़ करके सिर्फ़ लड़ाई रोकने के लिए कराई जाए, और जिसमें हक़ पर क़ायम गरोह को दबाकर ज़्यादती करनेवाले गरोह के के साथ बेजा रिआयत बरती जाए। सुलह वही सही है जिसकी बुनियाद इनसाफ़ पर हो। उसी से फ़साद टलता है, वरना हक़वालों को दबाने और ज़्यादती करनेवालों की हिम्मत बढ़ाने का नतीजा लाज़िमी तौर पर यह होता है कि ख़राबी की अस्ल वजहें ज्यों-की-त्यों बाक़ी रहती हैं, बल्कि वे और बढ़ती चली जाती हैं, और इससे बार-बार फ़साद फैलने की नौबत पेश आती है।
17. यह आयत मुसलमानों की आपसी जंग के बारे में शरई क़ानून की अस्ल बुनियाद है। एक हदीस के सिवा, जिसका ज़िक्र हम आगे करेंगे, इस क़ानून की कोई तशरीह (व्याख्या) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत में नहीं मिलती, क्योंकि नबी (सल्ल०) के ज़माने में मुसलमानों के दरमियान जंग की कभी नौबत ही नहीं आई कि आप (सल्ल०) के अमल और क़ौल (बातों) से उसके हुक्मों की तफ़सीलात मालूम होतीं। बाद में इस क़ानून की भरोसेमन्द तशरीह उस वक़्त हुई जब हज़रत अली (रज़ि०) की ख़िलाफ़त (हुकूमत) के दौर में ख़ुद मुसलमानों के बीच लड़ाइयाँ हुई। उस वक़्त चूँकि बहुत-से सहाबा किराम (रज़ि०) मौजूद थे, इसलिए उनके अमल और उनके बयान किए हुए हुक्मों से इस्लामी क़ानून के इस पहलू का तफ़सीली क़ानून तैयार हुआ। ख़ास तौर से हज़रत अली (रज़ि०) का अमल इस मामले में तमाम फ़कीहों के बयान किए हुए क़ानून की अस्ल बुनियाद है। नीचे हम इस क़ानून का एक ज़रूरी ख़ुलासा पेश करते हैं—
(1) मुसलमानों की आपसी जंग की कई शक्लें हैं, जिनके बारे में हुक्म अलग-अलग हैं—
(i) लड़नेवाले दोनों गरोह किसी मुसलमान हुकूमत की जनता हों। इस सूरत में उनके बीच सुलह कराना, या यह फ़ैसला करना कि उनमें से ज़्यादती करनेवाला कौन है, और ताक़त से उसको हक़ की तरफ़ पलटने पर मजबूर करना हुकूमत का फ़र्ज़ है।
(ii) लड़नेवाले दोनों तरफ़ के लोग दो बहुत बड़े ताक़तवर गरोह हों, या दो मुसलमान हुकूमतें हों, और दोनों की लड़ाई दुनिया की ख़ातिर हो। इस सूरत में ईमानवालों का काम यह है कि इस फ़ितने में हिस्सा लेने से पूरी तरह बचें और दोनों गरोहों (पक्षों) को ख़ुदा का डर दिखाकर जंग से रोकने की नसीहत करते रहें।
(iii) लड़नेवाले वे दो गरोह जिनका ऊपर (ii) में ज़िक्र किया गया है, उनमें से एक हक़ पर हो और दूसरा ज़्यादती कर रहा हो, और नसीहत से सुधार करने पर आमादा न हो रहा हो, इस सूरत में ईमानवालों का काम यह है कि ज़्यादती करनेवाले गरोह के ख़िलाफ़ उस गरोह का साथ दें जो हक़ पर हो।
(iv) दोनों तरफ़ के लोगों में से एक गरोह (प्रजा) हो और उसने हुकूमत, यानी मुस्लिम हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) किया हो। फ़क़ीह अपनी ज़बान में इसी ख़ुरूज करनेवाले गरोह के लिए 'बाग़ी' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं।
(2) बाग़ी, यानी हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले गरोह भी कई तरह के हो सकते हैं—
(i) वे जो सिर्फ़ बिगाड़ और फ़साद पैदा करने के लिए उठ खड़े हों और अपनी इस बग़ावत के लिए उनके पास कोई शरई सबब न हो। उनके ख़िलाफ़ हुकूमत की जंग सभी आलिमों के नज़दीक जाइज़ है और उसका साथ देना ईमानवालों पर वाजिब है, चाहे हुकूमत इनसाफ़-पसन्द हो या न हो।
(ii) वे जो हुकूमत का तख़्ता उलटने के लिए ख़ुरूज (बग़ावत) करें, और उनके पास कोई शरई बहाना न हो, बल्कि उनका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि वे ज़ालिम और फ़ासिक़ (अल्लाह के नाफ़रमान) हैं। इस सूरत में अगर हुकूमत इनसाफ़ करनेवाली हो तब तो उसका साथ देना बिना किसी शर्त के वाजिब है, लेकिन अगर वह इनसाफ़वाली न भी हो तो उस हुकूमत को बनाए रखने के लिए लड़ना वाजिब है जिसके ज़रिए से फ़िलहाल मुल्क का निज़ाम (व्यवस्था) क़ायम है।
(iii) वे जो किसी शरई सबब की वजह से हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, मगर उनका बयान किया हुआ सबब ग़लत और उनका अक़ीदा बिगड़ा हुआ हो, मसलन ‘ख़वारिज' (ख़ारिजी लोग)। इस सूरत में भी, मुस्लिम हुकूमत, चाहे इनसाफ़-पसन्द हो या न हो, उनसे जंग करने का जाइज़ हक़ रखती है और उसका साथ देना वाजिब है।
(iv) वे जो एक इनसाफ़-पसन्द हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, जबकि उसके सरबराह (लीडर) को जाइज़ तौर पर हाकिम बना लिया गया हो। इस सूरत में चाहे उनके पास कोई शरई बहाना हो या न हो, बहरहाल उनसे जंग करने में हुकूमत हक़ पर है और उसका साथ देना वाजिब है।
(v) वे जो एक ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें, जिसके सरबराह (लीडर) को ज़ोर-ज़बरदस्ती से हाकिम बनाया गया हो और जिसके इख़्तियार रखनेवाले लोग फ़ासिक़ हों, और ख़ुरूज करनेवाले इनसाफ़ और अल्लाह की हदों को क़ायम करने के लिए उठें हों और उनका ज़ाहिर हाल यह बता रहा हो कि वे ख़ुद नेक लोग हैं। इस सूरत में की उनको 'बाग़ी' यानी ज़्यादती करनेवाला गरोह क़रार देने और उनके ख़िलाफ़ जंग को वाजिब ठहराने में फ़क़ीहों के बीच सख़्त इख़्तिलाफ़ हो गया है, जिसे हम मुख़्तसर तौर पर यहाँ बयान करते हैं—
ज़्यादा तर फ़क़ीह और अहले-हदीस की राय यह कि जब कोई शख़्स एक बार हाकिम बन चुका हो और मुल्क का अम्न व अमान और मुल्क का निज़ाम व बन्दोबस्त उसके तहत चल रहा हो, वह चाहे इनसाफ़वाला हो या ज़ालिम, और उसकी हुकूमत चाहे किसी तरह क़ायम हुई हो, उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करना हराम है, सिवाय यह कि वह खुल्लम-खुल्ला कुफ़्र (इस्लाम की नाफ़रमानी) का जुर्म करे। इमाम सरख़सी लिखते हैं कि "जब मुसलमान एक हाकिम पर इकट्ठे हों और उसकी बदौलत उनको अम्न हासिल हो और रास्ते महफ़ूज़ हों, ऐसी हालत में अगर मुसलमानों का कोई गरोह उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करे तो जो शख़्स भी जंग की ताक़त रखता हो उसपर वाजिब है कि मुसलमानों के उस हाकिम के साथ मिलकर ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवालों के ख़िलाफ़ जंग करे,” (अल-मबसूत, बाबुल-ख़वारिज)। इमाम नववी (रह०) शरहे-मुस्लिम में कहते हैं कि "इमामों, यानी मुसलमान हाकिमों के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) और क़िताल (जंग) हराम है, चाहे वे फ़ासिक और ज़ालिम ही क्यों न हों।” इमाम नववी दावा करते हैं कि इस बात पर सभी आलिम एक राय हैं।
लेकिन इसपर सभी आलिमों के एक राय होने का दावा सही नहीं है। इस्लामी फ़क़ीहों का एक बड़ा गरोह, जिसमें बड़े आलिम शामिल हैं, ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवालों को सिर्फ़ उस सूरत में 'बाग़ी' ठहराता जबकि वे इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करें। ज़ालिम और फ़ासिक़ बादशाहों के ख़िलाफ़ नेक लोगों के ख़ुरूज (बग़ावत) को वे क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ में 'बग़ावत' नहीं ठहराते, और न उनके ख़िलाफ़ जंग को वाजिब क़रार देते हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का मसलक ज़ालिम बादशाहों के ख़िलाफ़ क़िताल (जंग) के मामले में इल्म रखनेवालों को मालूम है।
अबू-बक्र जस्सास अहकामुल-क़ुरआन में साफ़ लिखते हैं कि इमाम साहब उस क़िताल को न सिर्फ़ जाइज़ बल्कि साज़गार हालात में वाजिब समझते थे, (हिस्सा-1, पे० 81, हिस्सा-2, पे० 39)। बनी-उमैया के ख़िलाफ़ ज़ैद-बिन-अली (रह०) के ख़ुरूज (बग़ावत) में उन्होंने न सिर्फ़ ख़ुद माली मदद दी, बल्कि दूसरों को भी इसकी नसीहत की (अल-जस्सास, हिस्सा-1, पे, 81)। मंसूर के ख़िलाफ़ नफ़्से-ज़किय्या (रह०) की बग़ावत में वे पूरी सरगर्मी के साथ नफ़्से-ज़किय्या (रह०) की हिमायत करते रहे और उस जंग को उन्होंने इस्लाम-दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग से अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) क़रार दिया, (अल-जस्सास, हिस्सा-1, पे० 81; मनाक़िबुल-इमामि अबी-हनीफ़ा लिल-करदरी, हिस्सा-2, पे० 71, 72)। फिर हनफ़ी फ़क़ीहों का भी मसलक वह नहीं है जो इमाम सरख़सी ने बयान किया है। इब्ने-हुमाम (रह०) हिदाया की शरह फ़तहुल-क़दीर में लिखते हैं कि “फ़क़ीहों की आम राय में बाग़ी वह है जो हक़ पर बने इमाम की फ़रमाँबरदारी से निकल जाए।” हंबली मसलक के फ़क़ीहों में से इब्ने-अक़ील और इब्जे-जौज़ी इनसाफ़ न करनेवाले हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) को जाइज़ ठहराते हैं और इसपर हज़रत हुसैन (रज़ि०) के ख़ुरूज (बग़ावत) से दलील लेते हैं, (अल-इनसाफ़, हिस्सा-10, अहलिल-बग़यि)। इमाम शाफ़िई (रह०) किताबुल-उम्म में बाग़ी उस शख़्स को ठहराते हैं जो इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ जंग करे, (हिस्सा-4, पे० 135)। इमाम मालिक (रह०) का मसलक अल-मुदव्व-नतुल-कुबरा में यह नक़्ल किया गया है कि “ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले अगर इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ जंग करने के लिए निकलें तो उनके ख़िलाफ़ क़िताल (जंग) किया जाए, (हिस्सा-1, पे० 407)। क़ाज़ी अबू-बक्र इब्ने-अरबी अहकामुल क़ुरआन में उनकी यह राय नक़्ल करते हैं, “जब कोई शख़्स उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ जैसे इनसाफ़-पसन्द हाकिम के ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) करे तो उसको रोकना वाजिब है, रहा किसी दूसरी क़िस्म का हाकिम, तो उसे उसके हाल पर छोड़ दो, अल्लाह किसी दूसरे ज़ालिम के ज़रिए से उसको सज़ा देगा और फिर किसी तीसरे ज़ालिम के ज़रिए से उन दोनों को सज़ा देगा।” एक और राय इमाम मालिक (रह०) की उन्होंने यह नक़्ल की है, “जब एक इमाम से बैअत की जा चुकी हो और फिर उसके भाई उसके मुक़ाबले पर खड़े हो जाएँ तो उनसे जंग की जाएगी अगर वह इनसाफ़ पसन्द हाकिम हो। रहे ये हमारे ज़माने के हाकिम, तो इनके लिए कोई बैअत नहीं है, क्योंकि इनकी बैअत ज़बरदस्ती ली गई है।” फिर मालिकी आलिमों का जो मसलक सहनून के हवाले से क़ाज़ी साहब ने बयान किया है वह यह है कि “जंग तो सिर्फ़ इनसाफ़-पसन्द हाकिम के साथ मिलकर की जाएगी चाहे पहला हाकिम इनसाफ़-पसन्द हो या वह शख़्स जिसने उसके ख़िलाफ़ ख़ुरूज (बग़ावत) किया हो। लेकिन अगर दोनों इनसाफ़वाले न हों तो दोनों से अलग रहो, अलबत्ता अगर तुम्हारी अपनी जान पर हमला किया जाए या मुसलमान ज़ुल्म के शिकार हो रहे हों तो बचाव करो।” इन मसलकों को नक़्ल करने के बाद क़ाज़ी अबू-बक्र कहते हैं, “हम जंग नहीं करेंगे, मगर उस इनसाफ़-पसन्द हाकिम के साथ, जिसे हक़-पसन्दों ने अपने हाकिम के तौर पर आगे बढ़ाया हो।"
(3) ख़ुरूज (बग़ावत) करनेवाले अगर थोड़ी तादाद में हों और उनके पीछे कोई बड़ी जमाअत (गरोह) न हो, न वे कुछ ज़्यादा जंगी सरो-सामान रखते हों, तो उनपर बग़ावत का क़ानून लागू न होगा, बल्कि उनके साथ आम क़ानूनी सज़ाओं के मुताबिक़ बरताव किया जाएगा, यानी वे क़त्ल करेंगे तो उनसे क़िसास (बदला) लिया जाएगा और माल का नुक़सान करेंगे तो उसका जुर्माना उनपर लगेगा। बग़ावत के क़ानून के तहत वे बाग़ी आते हैं जो कोई बड़ी ताक़त रखते हों, और भारी तादाद और जंगी सरो-सामान के साथ ख़ुरूज (बग़ावत) करें।
(4) ख़ुरूज करनेवाले जब तक सिर्फ़ अपने बिगड़े हुए अकीदों या हुकूमत और उसके सरबराह (प्रमुख) के ख़िलाफ़ बग़ावत और दुश्मनी-भरे ख़यालात का इज़हार करते रहें, उनको क़त्ल या क़ैद नहीं किया जा सकता। जंग उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ उस वक़्त की जाएगी जब वे अमली तौर पर हथियारों के साथ बग़ावत कर दें और ख़ून-ख़राबे की शुरुआत कर कर बैठें। (अल-मबसूत, बाबुल-ख़वारिज; फ़तहुल-क़दीर, बाबुल-बुग़ात; अहकामुल क़ुरआन लिल-जस्सास)
(5) बाग़ियों के ख़िलाफ़ जंग की शुरुआत करने से पहले उनको क़ुरआन मजीद की हिदायत के मुताबिक़ दावत दी जाएगी कि वे बग़ावत का रवैया छोड़कर इनसाफ़ की राह अपना लें। अगर उनके कुछ शक-शुब्हे और एतिराज़ हों तो उन्हें समझाने की कोशिश की जाएगी। इसपर भी वे न मानें और जंग की शुरुआत उनकी तरफ़ से हो जाए, तब उनके ख़िलाफ़ तलवार उठाई जाएगी। (फ़तहुल-क़दीर, अहकमुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)
(6) बाग़ियों से लड़ाई में जिन उसूलों को ध्यान में रखा जाएगा उनकी बुनियाद नबी (सल्ल०) के उस फ़रमान पर है जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के हवाले से हाकिम और अल-जस्सास ने नक़्ल किया है : नबी (सल्ल०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से पूछा, “ऐ इब्ने उम्मे-अब्द! जानते हो इस उम्मत के भाग़ियों के बारे में अल्लाह का क्या हुक्म है?” उन्होंने कहा, “अल्ताह और उसके रसूल को ज़्यादा जानकारी है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उनके जख़्मियों पर हाथ नहीं डाला जाएगा, उनके क़ैदी को क़त्ल नहीं किया जाएगा, उनके भागनेवाले का पीछा नहीं किया जाएगा, और उनका माल ग़नीमत (जंग में हासिल माल) के तौर पर बाँटा नहीं जाएगा। इस उसूल की दूसरी बुनियाद, जिसपर इस्लाम के तमाम फ़क़ीहों ने भरोसा किया, हज़रत अली (रज़ि०) का क़ौल (कथन) और अमल है। उन्होंने जंगे-जमल में जीत हासिल करने के बाद एलान किया कि भागनेवाले का पीछा न करो, ज़ख़्मी पर हमला न करो, गिरफ़्तार हो जानेवालों को क़त्ल न करो, जो हथियार डाल दे उसको पनाह दो, लोगों के घरों में न घुसो, और औरतों पर हाथ न डालो, चाहे वे तुम्हें गालियाँ ही क्यों न दे रही हों। उनकी फौज के कुछ लोगों ने माँग की कि मुख़ालफ़त करनेवालों को और उनके बाल बच्चों को ग़ुलाम बनाकर बाँट दिया जाए। इसपर उन्होंने गज़बनाक होकर कहा, "तुममें से कौन उम्मुल-मोमिनीन आइशा (रज़ि०) को अपने हिस्से में लेना चाहता है?”
(7) बाग़ियों के मालों का हुक्म, जो हज़रत अली (रज़ि०) के अमल से लिया गया है यह है कि उनका कोई माल, चाहे वह उनके लश्कर में मिला हो या उनके पीछे उनके घरों पर हो, और वे चाहे ज़िन्दा हों या मारे जा चुके हों, बहरहाल उसे न माले-ग़नीमत क़रार दिया जाएगा और न फ़ौज में बाँटा जाएगा। अलबत्ता जिस माल का नुक़सान हो चुका हो, उसका कोई ज़मान (भरपाई) लाज़िम नहीं आता। जंग ख़त्म होने और बग़ावत का ज़ोर टूट जाने के बाद उनके माल उन ही को वापस दे दिए जाएँगे। उनके हथियार और सवारियाँ जंग की हालत में अगर हाथ आ जाएँ तो उन्हें उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाएगा, मगर जीतनेवालों की मिलकियत बनाकर माले-ग़नीमत के तौर पर बाँटा नहीं जाएगा, और अगर उनसे फिर बग़ावत का अन्देशा न हो तो उनकी ये चीज़ें भी वापस दे दी जाएँगी। सिर्फ़ इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) की राय यह है कि हुकूमत उसे ग़नीमत क़रार देगी। (अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर, अल-जस्सास)
(8) उनके गिरफ़्तार हो चुके लोगों को यह वादा लेकर कि वे फिर बग़ावत न करेंगे, रिहा कर दिया जाएगा। (अल-मबसूत)
(9) क़त्ल हो चुके बाग़ियों के सर काटकर घुमाना सख़्त नापसन्दीदा हरकत है, क्योंकि यह मुसला (अंगभंग करना) है जिससे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मना किया है। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के पास रूम के पादरियों के सरदार का सर काटकर लाया गया तो उन्होंने इसपर सख़्त नाराज़ी का इज़हार किया और फ़रमाया कि हमारा काम रूमियों और ईरानियों की पैरवी करना नहीं है। यह मामला जब ग़ैर-मुस्लिम इस्लाम दुश्मनों तक से करना जाइज़ नहीं है तो मुसलमानों के साथ तो यह पहले दरजे में मना होना चाहिए। (अल-मबसूत)
(10) जंग के दौरान में बाग़ियों के हाथों जान-माल का जो नुक़सान हुआ हो, जंग ख़त्म होने और अम्न क़ायम हो जाने के बाद उसका कोई क़िसास (ख़ून का बदला) और ज़मान (तावान) उनपर न लगेगा। न किसी क़त्ल हो जानेवाले का बदला उनसे लिया जाएगा और न किसी माल का जुर्माना उनपर डाला जाएगा, ताकि फ़ितने की आग फिर न भड़क उठे। सहाबा किराम (रज़ि०) की आपसी लड़ाइयों में इसी उसूल का ख़याल रखा गया था। (अल-मबसूत, अल-जस्सास, अहकामुल-क़ुरआन लि-इब्निल-अरबी)
(11) जिन इलाक़ों पर बाग़ियों का क़ब्ज़ा हो गया हो और वहाँ उन्होंने अपना निज़ाम क़ायम करके ज़कात और दूसरे टैक्स वुसूल कर लिए हों, हुकूमत उन इलाक़ों पर दोबारा क़ब्ज़ा करने के बाद लोगों से नए सिरे से उस ज़कात और उन टैक्सों की माँग नहीं करेगी। अगर बाग़ियों ने ये माल शरई तरीक़े पर ख़र्च कर दिए हों तो अल्लाह के नज़दीक भी वे अदा करनेवालों से ख़त्म हो जाएँगे। लेकिन अगर उन्होंने ग़ैर-इस्लामी तरीक़े पर उन्हें ख़र्च किया हो, तो यह अदा करनेवालों के और उनके ख़ुदा के बीच का मामला है। वे ख़ुद चाहें तो अपनी ज़कात दोबारा अदा कर दें। (फ़तहुल-क़दीर, अल-जस्सास, इब्नुल-अरबी)
(12) बाग़ियों ने अपने क़ब्ज़े और इस्तेमालवाले इलाक़े में जो अदालतें क़ायम की हों, अगर उनके क़ाज़ी (जज) इनसाफ़ करनेवाले हों और इस्लाम के मुताबिक़ उन्होंने फ़ैसले किए हों, तो वे बरक़रार रखे जाएँगे अगरचे उनके मुक़र्रर करनेवाले बग़ावत के मुजरिम ही क्यों न हों। अलबत्ता अगर उनके फ़ैसले ग़ैर-इस्लामी हों और बग़ावत खत्म होने के बाद वे हुकूमत की अदालतों के सामने लाए जाएँ तो वे लागू नहीं किए जाएँगे। इसके अलावा बाग़ियों की क़ायम की हुई अदालतों की तरफ़ से कोई वारंट या हुक्म का परवाना हुकूमत की अदालतों में क़ुबूल न किया जाएगा। (अल-मबसूत, अल-जस्सास)
(13) बाग़ियों की गवाही इस्लामी अदालतों में क़ुबूल किए जाने के क़ाबिल न होगी, क्योंकि इनसाफ़-पसन्दों के ख़िलाफ़ जंग करना फ़िस्क़ (अल्लाह की नाफ़रमानी) है। इमाम मुहम्मद (रह०) कहते हैं कि जब तक वे जंग न करें और इनसाफ़-पसन्दों के ख़िलाफ़ अमली तौर से ख़ुरूज (बग़ावत) के मुजरिम न हों, उनकी गवाही क़ुबूल की जाएगी, मगर जब वे जंग कर चुके हों तो फिर मैं उनकी गवाही क़ुबूल न करूँगा। (अल-जस्सास)
इन हुक्मों से यह बात साफ़ मालूम हो जाती है कि इस्लाम-दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग और मुसलमान बाग़ियों के ख़िलाफ़ जंग के क़ानून में क्या फ़र्क़ है।