Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَفِي خُسۡرٍ

103. अल-अस्र

(मक्का में उतरी—आयतें 3)

परिचय

नाम

इस सूरा की पहली ही आयत के शब्द 'अल-अस्र' (ज़माना) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

यद्यपि मुजाहिद, क़तादा और मुक़ातिल (रह०) ने इसे मदनी कहा है, लेकिन टीकाकारों की एक बड़ी संख्या इसे मक्की क़रार देती हैं और इसका विषय भी यह गवाही देता है कि यह मक्का के भी आरंभिक काल में उतरी होगी, जब इस्लाम की शिक्षा को संक्षिप्त और हृदयग्राही वाक्यों में बयान किया जाता था, ताकि वे आप से आप लोगों की ज़बानों पर चढ़ जाएँ।

विषय और वार्ता

यह सूरा व्यापक और संक्षिप्त वाणी का अनुपम नमूना है। इसमें बिल्कुल दो टूक तरीक़े से बता दिया गया है कि इंसान की सफलता का रास्ता कौन-सा है और उसके नाश-विनाश का रास्ता कौन सा। इमाम शाफ़िई (रह०) ने बहुत सही कहा है कि अगर लोग इस सूरा पर ग़ौर करें तो यही उनके मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है। सहाबा किराम (रज़ि०) की दृष्टि में इसका बड़ा महत्त्व क्या था इसका अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-हिस्निद्दारमी अबू मदीना की रिवायत के अनुसार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों में से जब दो आदमी एक दूसरे से मिलते तो उस समय तक अलग न होते जब तक एक-दूसरे को सूरा अस्र न सुना लेते। (हदीस तबरानी)

---------------------

إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَفِي خُسۡرٍ ۝ 1
(2) इनसान हक़ीक़त में बड़े घाटे में है,
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلۡحَقِّ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلصَّبۡرِ ۝ 2
(3) सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए, और अच्छे काम करते रहे, और एक-दूसरे को हक़ की नसीहत और सब्र की ताकीद करते रहे।1
1. इस सूरा में ज़माने की क़सम इस बात पर खाई गई है कि इनसान बड़े घाटे में है, और इस घाटे से सिर्फ़ वही लोग बचे हुए हैं जिनके अन्दर चार ख़ूबियाँ पाई जाती हैं— (1) ईमान, (2) अच्छा और भला अमल, (3) एक-दूसरे को हक़ की नसीहत करना, (4) एक-दूसरे को सब्र की ताकीद करना। अब इसके एक-एक हिस्से को लेकर उसपर ग़ौर करना चाहिए, ताकि इस बात का पूरा मतलब साफ़ वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाए। जहाँ तक क़सम का ताल्लुक़ है, इससे पहले हम कई बार इसको वाज़ेह कर चुके हैं कि अल्लाह तआला ने अपनी पैदा की हुई किसी चीज़ की क़सम उसकी बड़ाई या उसके कमालात और उसके अनोखेपन की बुनियाद पर नहीं खाई है, बल्कि इस बुनियाद पर खाई है कि वह इस बात पर दलील देती है जिसे साबित करना मक़सद है। इसलिए ज़माने की क़सम का मतलब यह है कि ज़माना इस हक़ीक़त पर गवाह है कि इनसान बड़े घाटे में है सिवाय उन लोगों के जिनमें ये चार ख़ूबियाँ पाई जाती हों। ज़माने का लफ़्ज़ गुज़रे हुए ज़माने के लिए भी इस्तेमाल होता है, और गुज़रते हुए ज़माने के लिए भी जिसमें हाल (वर्तमान) अस्ल में किसी लम्बी मुद्दत का नाम नहीं है। हर घड़ी गुज़रकर माज़ी (अतीत) बनती चली जा रही है, और हर घड़ी आकर मुस्तक़बिल (भविष्य) को हाल और हाल को माज़ी (अतीत) बना रही है। यहाँ चूँकि सिर्फ़ ज़माने की क़सम खाई गई है, इसलिए दोनों तरह के ज़माने उसके मतलब में शामिल हैं। गुज़रे हुए ज़माने की क़सम खाने का मतलब यह है इनसानी इतिहास इस बात पर गवाही दे रहा है कि जो लोग भी इन ख़ूबियों से ख़ाली थे वे आख़िरकार घाटे में पड़कर रहे। और गुज़रते हुए ज़माने की क़सम खाने का मतलब समझने के लिए पहले यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि जो ज़माना अब गुज़र रहा है वह अस्ल में वह वक़्त है जो एक-एक शख़्स और एक-एक क़ौम को दुनिया में काम करने के लिए दिया गया है। उसकी मिसाल उस वक़्त की-सी है जो इम्तिहानगाह में तालिबे-इल्म (छात्रा) को परचे हल करने के लिए दिया जाता है। यह वक़्त जिस तेज़ रफ़्तार से गुज़र रहा है उसका अन्दाज़ा थोड़ी देर के लिए अपनी घड़ी में सेकेंड की सूई को हरकत करते हुए देखने से आपको हो जाएगा। हालाँकि एक सेकेंड भी वक़्त की बहुत बड़ी मात्रा है। इस एक सेकेंड में रौशनी एक लाख छियासी हज़ार मील का रास्ता तय कर लेती है, और ख़ुदा की कायनात में बहुत-सी चीज़ें ऐसी भी हो सकती हैं जो इससे भी ज़्यादा तेज़ रफ़्तार हों, चाहे वे अभी तक हमारे इल्म में न आई हों। फिर भी अगर वक़्त के गुज़रने की रफ़्तार वही समझ ली जाए जो घड़ी में सेकेंड की सूई के चलने से हमको नज़र आती है, और इस बात पर ग़ौर किया जाए कि हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा काम करते हैं और जिन कामों में हम मशग़ूल (व्यस्त) रहते हैं, सब कुछ उम्र की उस महदूद मुद्दत ही में अंजाम पाता है जो दुनिया में हमको काम करने के लिए दी गई है, तो हमें महसूस होता है कि हमारी अस्ल पूँजी तो यही वक़्त है जो तेज़ी से गुज़र रहा है। इमाम राज़ी ने किसी बुज़ुर्ग की कही हुई बात नक़्ल की है कि, “मैंने सूरा अस्र का मतलब एक बर्फ़ बेचनेवाले से समझा जो बाज़ार में आवाज़ लगा रहा था कि रहम करो उस शख़्स पर जिसका सरमाया घुला जा रहा है, रहम करो उस शख़्स पर जिसका सरमाया घुला जा रहा है। उसकी यह बात सुनकर मैंने कहा यह है ‘वल-अस्रि इन्नल-इन्‌सा-न लफ़ी ख़ुस्र’ का मतलब। उम्र की जो मुद्दत इनसान को दी गई है वह बर्फ़ के घुलने की तरह तेज़ी से गुज़र रही है। इसको अगर बरबाद कर दिया जाए, या ग़लत कामों में लगा दिया जाए तो यही इनसान का घाटा है।” इसलिए गुज़रते हुए ज़माने की क़सम खाकर जो बात इस सूरा में कही गई है, उसका मतलब यह है कि यह तेज़ रफ़्तार ज़माना गवाही दे रहा है कि इन चार ख़ूबियों से ख़ाली होकर इनसान जिन कामों में भी अपनी उम्र की मुहलत को ख़र्च कर रहा है वे सब घाटे के सौदे हैं। फ़ायदे में सिर्फ़ वे लोग हैं जो इन चारों ख़ूबियों से लैस होकर दुनिया में काम करें। यह ऐसी बात है जैसे हम उस तालिबे-इल्म (छात्र) से जो इम्तिहान के तयशुदा वक़्त को अपना परचा हल करने के बजाय किसी और काम में गुज़ार रहा हो, कमरे के अन्दर लगे हुए घण्टे की तरफ़ इशारा करके कहें कि यह गुज़रता हुआ वक़्त बता रहा है कि तुम अपना नुक़सान कर रहे हो, फ़ायदे में सिर्फ़ वह तालिबे-इल्म है जो इस वक़्त का हर लम्हा अपना परचा हल करने में लगा रहा है। इनसान का लफ़्ज़ अगरचे वाहिद (एकवचन) है, लेकिन बाद के जुमले में उससे उन लोगों को अलग किया गया है जो चार ख़ूबियाँ अपने अन्दर पैदा करें, इसलिए लाज़िमन यह मानना पड़ेगा कि यहाँ लफ़्ज़ इनसान जाति के तौर पर इस्तेमाल किया गया है और इसमें लोग, गिरोह, क़ौमें और सारे ही इनसान आ जाते हैं। इसलिए यह हुक्म कि ऊपर बयान की गई चार ख़ूबियों से जो भी ख़ाली हो वह घाटे में है, हर हालत में साबित होगा, चाहे उनसे ख़ाली कोई शख़्स हो, या कोई क़ौम, या दुनिया-भर के इनसान। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे हम अगर यह हुक्म लगाएँ कि ज़हर इनसान को हलाक कर देनेवाला है तो इसका मतलब होगा कि ज़हर बहरहाल हलाक कर देनेवाला है चाहे एक आदमी उसे खाए, या एक पूरी क़ौम, या सारी दुनिया के इनसान मिलकर उसे खाएँ। ज़हर की हलाक कर देनेवाली ख़ासियत अपनी जगह अटल है, उसमें इस लिहाज़ से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि एक आदमी ने इसे खाया है या एक क़ौम ने इसे खाने का फ़ैसला किया है या दुनिया-भर के इनसान इसपर एकराय हो गए हैं कि ज़हर खाना चाहिए। ठीक इसी तरह यह बात भी अपनी जगह अटल है कि ऊपर बयान की गई चार ख़ूबियों से ख़ाली होना इनसान के लिए घाटे का सबब है। इस उसूली क़ायदे से इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोई एक शख़्स उनसे ख़ाली है, या किसी क़ौम ने, या दुनिया-भर के इनसानों ने कुफ़्र (इनकार), बद-अमली और एक-दूसरे को ग़लत (बातिल) काम के लिए उभारने और मन की बन्दगी की ताकीद पर एक राय बना ली है। अब देखिए कि घाटे का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद किस मानी में इस्तेमाल करता है। लुग़त (शब्दकोश) के एतिबार से घाटा फ़ायदे का उलट है, और तिजारत में इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल उस हालत में भी होता है जब किसी एक सौदे में घाटा आए, और उस हालत में भी जब सारा कारोबार घाटे में जा रहा हो, और उस हालत में भी जब अपना सारा सरमाया खोकर आदमी दिवालिया हो जाए। क़ुरआन मजीद इसी लफ़्ज़ को अपनी ख़ास इस्तिलाह (परिभाषा) बनाकर कामयाबी के मुक़ाबले में इस्तेमाल करता है, और जिस तरह उसका कामयाबी का तसव्वुर (परिकल्पना) सिर्फ़ दुनियावी ख़ुशहाली के हम-मानी नहीं है, बल्कि दुनिया से लेकर आख़िरत तक इनसान की हक़ीक़ी कामयाबी पर हावी है, इसी तरह उसका घाटे का तसव्वुर भी सिर्फ़ दुनियावी नाकामी या ख़स्ताहाली के हम-मानी नहीं है, बल्कि दुनिया से लेकर आख़िरत तक इनसान की हक़ीक़ी नाकामी और नामुरादी पर हावी है। कामयाबी और घाटा, दोनों के क़ुरआनी तसव्वुर की तशरीह इससे पहले हम कई जगहों पर कर चुके हैं इसलिए उनको दोहराने की ज़रूरत नहीं है (देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-9; सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-30; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-23; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-102; सूरा-22 हज, हाशिया-17; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—1, 2, 11, 50; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-4; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-34)। इसके साथ यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हालाँकि क़ुरआन के नज़दीक हक़ीक़ी कामयाबी आख़िरत में इनसान की कामयाबी, और हक़ीक़ी घाटा वहाँ उसकी नाकामी है, लेकिन इस दुनिया में भी जिस चीज़ का नाम लोगों ने कामयाबी रख छोड़ा है वह अस्ल में कामयाबी नहीं है, बल्कि उसका अंजाम ख़ुद इसी दुनिया में घाटा है, और जिस चीज़ को लोग घाटा समझते हैं वह अस्ल में घाटा नहीं है, बल्कि इस दुनिया में भी वही कामयाबी का ज़रिआ है। इस हक़ीक़त को क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान किया गया है और हर जगह हमने इसकी तशरीह कर दी है (देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-99; सूरा-19 मरयम, हाशिया-53; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-105; सूरा-92 लैल, हाशिए—3 से 5)। तो जब क़ुरआन पूरे ज़ोर के साथ और यक़ीनी तौर पर कहता है कि, “हक़ीक़त में इनसान बड़े घाटे में है,” तो इसका मतलब दुनिया और आख़िरत दोनों का घाटा है, और जब वह कहता है कि इस घाटे से सिर्फ़ वे लोग बचे हुए हैं जिनके अन्दर नीचे लिखी चार ख़ूबियाँ पाई जाती हैं, तो इसका मतलब दोनों जहानों में घाटे से बचना और कामयाबी पाना है। अब हमें उन चारों ख़ूबियों को देखना चाहिए जिनके पाए जाने पर इस सूरा के मुताबिक़ इनसान के घाटे से बचे रहने का दारोमदार है। इनमें पहली ख़ूबी ईमान (विश्वास) है। यह लफ़्ज़ अगरचे कुछ जगहों पर क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ ज़बानी तौर पर ईमान का इक़रार कर लेने के मानी में भी इस्तेमाल किया गया है (मसलन सूरा-4 निसा, आयत-137; सूरा-5 माइदा, आयत-54; सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-20, 27; सूरा-9 तौबा, आयत-38 और सूरा-61 सफ़्फ़, आयत-2 में), लेकिन इसका अस्ल इस्तेमाल सच्चे दिल से मानने और यक़ीन करने के मानी ही में किया गया है, और अरबी ज़बान में भी इस लफ़्ज़ का यही मतलब है। लुग़त (शब्दकोश) में ‘आ-म-न लहू’ का मतलब है “उसको सच्चा माना और उसपर भरोसा किया” और ‘आ-म-न बिही’ का मतलब है “उसपर यक़ीन किया“। क़ुरआन अस्ल में जिस ईमान को हक़ीक़ी ईमान क़रार देता है, उसको इन आयतों में पूरी तरह बयान कर दिया गया है— “मोमिन तो हक़ीक़त में वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए और फिर शक में न पड़े।” (सूरा-49 हुजुरात, आयत-15) “जिन लोगों ने कहा हमारा रब अल्लाह है और फिर उसपर डट गए।” (सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयत-30) “मोमिन तो हक़ीक़त में वे हैं कि जब अल्लाह का ज़िक्र किया जाए तो उनके दिल काँप जाते हैं।” (सूरा-8 अन्‌फ़ाल, आयत-2) “और जो लोग ईमान लाए हैं वे सबसे बढ़कर अल्लाह से मुहब्बत रखते हैं।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-165) “तो नहीं, (ऐ नबी), तुम्हारे रब की क़सम वे हरगिज़ ईमानवाले नहीं हैं जब तक अपने आपसी इख़्तिलाफ़ (मतभेद) में तुम्हें फ़ैसला करनेवाला न मान लें, फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उसपर अपने दिलों में भी कोई तंगी महसूस न करें, बल्कि पूरी तरह मान लें।” (सूरा-4 निसा, आयत-65)। इनसे भी ज़्यादा इस आयत में ईमान के ज़बानी इक़रार और हक़ीक़ी इक़रार का फ़र्क़ ज़ाहिर किया गया है और यह बताया गया है कि अस्ल दरकार हक़ीक़ी ईमान है न कि ज़बानी इक़रार— “ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर।” (सूरा-4 निसा, आयत-36) अब रहा यह सवाल कि ईमान लाने से किन चीज़ों पर ईमान लाना मुराद है, तो क़ुरआन मजीद में पूरी तरह इस बात को भी खोल-खोलकर बयान कर दिया गया है। इससे मुराद सबसे पहले अल्लाह को मानना है। सिर्फ़ उसके वुजूद को मानना नहीं, बल्कि उसे इस हैसियत से मानना है कि वही एक ख़ुदा है। ख़ुदाई में उसका कोई शरीक नहीं है। वही इसका हक़दार है कि इनसान उसकी इबादत, बन्दगी और फ़रमाँबरदारी करे। वही क़िस्मतें बनाने और बिगाड़नेवाला है। बन्दे को उसी से दुआ माँगनी चाहिए और उसी पर भरोसा करना चाहिए। वही हुक्म देने और मना करनेवाला है। बन्दे का फ़र्ज़ है कि उसका हुक्म माने और जिस चीज़ से उसने मना किया है उससे रुक जाए। वह सब कुछ देखने और सुननेवाला है। उससे इनसान का कोई काम तो एक तरफ़, वह मक़सद और नीयत भी छिपी नहीं है जिसके साथ उसने कोई काम किया है। दूसरे, रसूल को मानना, इस हैसियत से कि वह अल्लाह का मुक़र्रर किया हुआ हादी (मार्गदर्शक) और रहनुमा है, और जिस चीज़ की तालीम भी उसने दी है वह अल्लाह तआला की तरफ़ से है, सही है, और उसे मानना ज़रूरी है। इसी रिसालत (पैग़म्बरी) पर ईमान में फ़रिश्तों, नबियों और अल्लाह की किताबों पर, और ख़ुद क़ुरआन पर भी ईमान लाना शामिल है, क्योंकि यह उन तालीमात में से है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दी हैं। तीसरे, आख़िरत को मानना, इस हैसियत से कि इनसान की मौजूदा ज़िन्दगी पहली और आख़िरी ज़िन्दगी नहीं है, बल्कि मरने के बाद इनसान को दोबारा ज़िन्दा होकर उठना है, अपने उन कामों का जो उसने दुनिया की ज़िन्दगी में किए हैं अल्लाह को हिसाब देना है, और इस पूछ-गछ में जो लोग नेक और भले ठहरें उन्हें इनाम, और जो बुरे ठहरें उनको सज़ा मिलनी है। यह ईमान अख़लाक़ और सीरत और किरदार के लिए एक मज़बूत बुनियाद देता है जिसपर एक पाकीज़ा ज़िन्दगी की इमारत खड़ी हो सकती है। वरना जहाँ सिरे से ईमान ही मौजूद न हो वहाँ इनसान की ज़िन्दगी चाहे कितनी ही अच्छी नज़र क्यों न आती हो, उसका हाल एक बेलंगर के जहाज़ का-सा होता है जो लहरों के साथ बहता चला जाता है और कहीं ठहर नहीं सकता। ईमान के बाद दूसरी ख़ूबी जो इनसान को घाटे से बचाने के लिए ज़रूरी है वह ‘सालिहात’ (भले और अच्छे कामों) पर अमल करना है। ‘सालिहात’ के लफ़्ज़ में तमाम नेकियाँ आ जाती हैं, जिससे नेकी और भलाई की कोई क़िस्म छूटी नहीं रह जाती। लेकिन क़ुरआन के मुताबिक़ कोई भी काम उस वक़्त तक नेक काम नहीं हो सकता जब तक उसकी जड़ में ईमान मौजूद न हो, और वह उस हिदायत की पैरवी में न किया जाए जो अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने दी है। इसी लिए क़ुरआन मजीद में हर जगह नेक काम से पहले ईमान का ज़िक्र किया गया है और इस सूरा में भी उसका ज़िक्र ईमान के बाद ही आया है। किसी एक जगह भी क़ुरआन में ईमान के बिना किसी काम को अच्छा और भला काम नहीं कहा गया है और न बिना ईमान के काम पर किसी इनाम की उम्मीद दिलाई गई है। दूसरी तरफ़ यह भी एक हक़ीक़त है कि ईमान वही भरोसेमन्द और फ़ायदेमन्द है जिसके सच्चे होने का सुबूत इनसान अपने अमल (कर्म) से पेश करे। वरना बिना ईमान का नेक अमल (कर्म) सिर्फ़ एक दावा है, जिसको आदमी ख़ुद ही झुठला देता है जब वह इस दावे के बावजूद अल्लाह और उसके रसूल के बताए हुए तरीक़े से हटकर चलता है। ईमान और नेक अमल का ताल्लुक़ बीज और पेड़ का-सा है। जब तक बीज ज़मीन में न हो, कोई पेड़ पैदा नहीं हो सकता। लेकिन अगर बीज ज़मीन में हो और कोई पेड़ पैदा न हो रहा हो तो इसका मतलब यह है कि बीज ज़मीन में दफ़न होकर रह गया। इसी वजह से क़ुरआन पाक में जितनी ख़ुशाख़बरियाँ भी दी गई हैं उन्हीं लोगों को दी गई हैं जो ईमान लाकर नेक अमल करें, और यही बात इस सूरा में भी कही गई है कि इनसान को घाटे से बचाने के लिए जो दूसरी ख़ूबी ज़रूरी है वह ईमान के बाद ‘सालिहात’ (भले कामों) पर अमल करना है। दूसरे लफ़्ज़ों में नेक अमल के बिना सिर्फ़ ईमान आदमी को घाटे से नहीं बचा सकता। ऊपर बयान किए गए दो ख़ूबियाँ तो वे हैं जो एक-एक शख़्स में होनी चाहिएँ। इसके बाद यह सूरा दो और ख़ूबियाँ बयान करती है जो घाटे से बचने के लिए ज़रूरी हैं, और वे ये हैं कि ईमान लाने और नेक अमल करनेवाले लोग एक-दूसरे को हक़ की नसीहत और सब्र की ताकीद करें। इसका मतलब यह है कि अव्वल तो ईमान लाने और नेक अमल करनेवालों को अलग-अलग शख़्स बनकर नहीं रहना चाहिए बल्कि उनके मिलने से एक ईमानवाला और नेक और भला समाज वुजूद में आना चाहिए। दूसरे, इस समाज के हर सदस्य को अपनी यह ज़िम्मेदारी महसूस करनी चाहिए कि वह समाज को बिगड़ने न दे, इसलिए उसके तमाम लोगों पर यह फ़र्ज़ हो जाता है कि वे एक-दूसरे को हक़ और सब्र की नसीहत करें। ‘हक़’ का लफ़्ज़ ‘बातिल’ का विलोम है। और आम तौर से यह दो मानी में इस्तेमाल होता है। एक, सही और सच्ची और इनसाफ़ और हक़ीक़त के मुताबिक़ बात, चाहे वह अक़ीदे और ईमान (आस्था और विश्वास) से ताल्लुक़ रखती हो या दुनिया के मामलों से। दूसरे, वह हक़ जिसका अदा करना इनसान पर वाजिब हो, चाहे वह अल्लाह का हक़ हो या बन्दों का हक़ या ख़ुद अपने नफ़्स का हक़। इसलिए एक-दूसरे को हक़ की नसीहत करने का मतलब यह है कि ईमानवालों का यह समाज ऐसा संवेदनाहीन न हो कि उसमें बातिल (असत्य) सिर उठा रहा हो और हक़ के ख़िलाफ़ काम किए जा रहे हों, मगर लोग चुपचाप उसका तमाशा देखते रहें, बल्कि इस समाज में यह रूह जारी रहे कि जब और जहाँ भी बातिल सिर उठाए हक़ बात कहनेवाले उसके मुक़ाबले में उठ खड़े हों, और समाज का हर शख़्स सिर्फ़ ख़ुद ही हक़परस्ती और सच्चाई और इंसाफ़ पर क़ायम रहने और हक़दारों के हक़ अदा करने को काफ़ी न समझे बल्कि दूसरों का भी इस रवैये पर अमल की नसीहत करे। यह वह चीज़ है जो समाज को अख़लाक़ी गिरावट से बचाने की ज़मानत देती है। अगर यह रूह किसी समाज में मौजूद न रहे तो वह घाटे से नहीं बच सकता और इस घाटे में वे लोग भी आख़िरकार मुब्तला होकर रहते हैं जो अपनी जगह हक़ पर क़ायम हों, मगर अपने समाज में हक़ को कुचले जाते हुए देखते रहें। यही बात है जो सूरा माइदा में कही गई है कि बनी-इसराईल पर हज़रत दाऊद (अलैहि०) और हज़रत ईसा इब्ने-मरयम (अलैहि०) की ज़बान से लानत की गई और इस लानत की वजह यह थी कि उनके समाज में गुनाहों और ज़्यादतियों का किया जाना आम हो रहा था और लोगों ने एक-दूसरे को बुरे कामों से रोकना छोड़ दिया था (आयतें—78, 79)। फिर इसी बात को सूरा आराफ़ में इस तरह बयान किया गया है कि बनी-इसराईल ने जब खुल्लम-खुल्ला ‘सब्त’ के हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करके मछलियाँ पकड़नी शुरू कर दीं तो उनपर अज़ाब उतार दिया गया और उस अज़ाब से सिर्फ़ वही लोग बचाए गए जो इस गुनाह से रोकने की कोशिश करते थे (आयतें—163 से 166)। और इसी बात को सूरा अल-अन्‌फ़ाल में यूँ बयान किया गया है कि बचो उस फ़ितने से जिसकी शामत ख़ास तौर पर सिर्फ़ उन्हीं लोगों तक महदूद (सीमित) न रहेगी जिन्होंने तुममें से गुनाह किया हो (आयत-25)। इसी लिए भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने को मुस्लिम उम्मत (समुदाय) का फ़र्ज़ ठहराया गया है (आले-इमरान, आयत-104)। और इस उम्मत को बेहतरीन उम्मत कहा गया है जो यह फ़र्ज़ अंजाम दे (आले-इमरान, आयत-110)। हक़ की नसीहत के साथ दूसरी चीज़ जो ईमानवालों और उनके समाज को घाटे से बचाने के लिए ज़रूरी शर्त क़रार दी गई है वह यह है कि इस समाज के लोग एक-दूसरे को सब्र की ताकीद करते रहें। यानी हक़ की पैरवी और उसकी हिमायत में जो मुश्किलें पेश आती हैं, और इस राह में जिन तकलीफ़ों से, जिन मुश्किलों से, जिन मुसीबतों से, और जिन नुक़सानों और महरूमियों से इनसान का सामना होता है उनके मुक़ाबले में वे एक-दूसरे को डटे रहने की ताकीद करते रहें। उनका हर शख़्स दूसरे की हिम्मत बंधाता रहे कि वह इन हालात को सब्र के साथ बरदाश्त करे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-6, अद-दह्‍र, हाशिया 16, अल-बलद, हाशिया 14)
سُورَةُ العَصۡرِ
103. अल-अस्त्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلۡعَصۡرِ
(1) ज़माने की क़सम,