- यूनुस
(मक्का में उतरी – आयतें 109)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम नियमानुसार केवल प्रतीक के रूप में आयत 98 से लिया गया है, जिसमें संकेत रूप में हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है। सूरा की वार्ता का विषय हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़िस्सा नहीं है।
उतरने का स्थान
रिवायतों से मालूम होता है और विषयवस्तु से इसका समर्थन होता है कि यह पूरी सूरा मक्के में उतरी है।
उतरने का समय
उतरने के समय के बारे में कोई रिवायत हमें नहीं मिली। लेकिन विषय से ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह सूरा मक्का-निवास के अन्तिम काल में उतरी होगी, जब इस्लामी संदेश के विरोधी पूरी तीव्रता से अवरोध उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन इस सूरा में हिजरत (घर-बार छोड़ने) की ओर भी कोई संकेत नहीं पाया जाता, इसलिए इसका समय उन सूरतों से पहले का समझना चाहिए जिनमें कोई न कोई सूक्ष्म या असूक्ष्म संकेत हमें हिजरत के बारे में मिलता है --- समय के इस निर्धारण के बाद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उल्लेख की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि इस काल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सूरा-6 (अनआम) और सूरा-7 (आराफ़) की प्रस्तावनाओं में वर्णन किया जा चुका है।
विषय
व्याख्यान का विषय दावत (आह्वान), उपदेश और चेतावनी है । बात इस तरह शुरू होती है लोग एक इंसान के नबी होने का सन्देश प्रस्तुत करने पर चकित हैं और इसे ख़ाहमख़ाह जादूगरी का इलज़ाम दे रहे हैं, हालाँकि जो बात वह पेश कर रहा है उसमें कोई चीज़ भी न तो विचित्र ही है और न ही जादू और ज्योतिष से ताल्लुक़ रखती है। वह तो दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों से तुम्हें अवगत करा रहा है। [एक तो एकेश्वरवाद, दूसरा क़ियामत और बदला दिए जाने के दिन का आना।] ये दोनों तथ्य जो वह तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, अपने आपमें सही हैं, चाहे तुम मानो या न मानो। इन्हें अगर मान लोगे तो तुम्हारा अपना ही अंजाम अच्छा होगा वरना स्वयं ही बुरा नतीजा देखोगे।
वार्ताएँ
इस भूमिका के बाद निम्न वार्ताएँ एक विशेष क्रम के साथ सामने आती हैं-
(1) वे प्रमाण जो रब के एक होने और मरने के बाद की ज़िन्दगी के सिलसिले में ऐसे लोगों की बुद्धि और अन्तरात्मा को सन्तुष्ट कर सकते हैं जो अज्ञानता पूर्ण विद्वेष में ग्रस्त न हों।
(2) उन ग़लतफहमियों को दूर किया गया और उन ग़फ़लतों (भुलावों) पर चेतावनी दी गई जो लोगों को तौहीद और आख़िरत का विश्वास मानने से रोक बन रही थीं (और हमेशा ऐसा हुआ करता है)।
(3) उन सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर जो मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने और आपके लाए हुए सन्देश के बारे में की जाती थीं।
(4) दूसरे जीवन में जो कुछ सामने आनेवाला है, उसकी अग्रिम सूचना ।
(5) इस बात पर चेतावनी कि इस जगत का वर्तमान जीवन वास्तव में परीक्षा का जीवन है। इस जीवन की मोहलत को अगर तुमने नष्ट कर दिया और नबी का मार्गदर्शन स्वीकार करके परीक्षा की सफलता का सामान न किया, तो फिर कोई दूसरा अवसर तुम्हें मिलना नहीं है।
(6) उन खुली-खुली अज्ञानताओं और गुमराहियों की ओर संकेत जो लोगों के जीवन में केवल इस कारण पाई जा रही थीं कि वे अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना जी रहे थे।
इस सिलसिले में नूह (अलैहि०) का क़िस्सा संक्षेप में और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा तनिक विस्तार के साथ बयान किया गया है जिससे चार बातें मन में बिठानी हैं-
एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ जो मामला तुम लोग कर रहे हो, वह इससे मिलता-जुलता है जो नूह और मूसा (अलैहि०) के साथ तुम्हारे पहले के लोग कर चुके हैं और विश्वास करो कि इस नीति का जो परिणाम वे देख चुके हैं, वही तुम्हें भी देखना पड़ेगा।
दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों को आज कमज़ोर और बेबस देखकर यह न समझ लेना कि स्थिति सदैव यही रहेगी। तुम्हें खबर नहीं कि इन लोगों के पीछे वही अल्लाह है जो मूसा और हारून के पीछे था और वह ऐसे तरीक़े से स्थिति में परिवर्तन ला देता है जिस तक किसी की दृष्टि नहीं पहुँच सकती।
तीसरे यह कि संभलने की मोहलत समाप्त हो जाने के बाद (बिलकुल) अन्तिम क्षण में तौबा की तो क्षमा नहीं किए जाओगे।
चौथे यह कि ईमानवाले, विरोधी वातावरण की तीव्रता देखकर निराश न हों और उन्हें मालूम हो कि इन परिस्थितियों में उनको किस तरह काम करना चाहिए। साथ ही वे इस बात पर भी सचेत हो जाएँ कि जब अल्लाह अपनी कृपा से उनको इस सिथति से निकाल दे तो कहीं वे इस नीति पर न चल पड़ें जो बनी-इसराईल ने मिस्र से मुक्ति पाने पर अपनाई।
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أَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا أَنۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ رَجُلٖ مِّنۡهُمۡ أَنۡ أَنذِرِ ٱلنَّاسَ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنَّ لَهُمۡ قَدَمَ صِدۡقٍ عِندَ رَبِّهِمۡۗ قَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٞ مُّبِينٌ 1
(2) क्या लोगों के लिए यह एक अजीब बात हो गई कि हमने ख़ुद उन्हीं में से एक आदमी पर वह्य भेजी कि (ग़फ़लत में पड़े हुए) लोगों को चौंका दे और जो मान लें, उनको ख़ुशख़बरी दे दे कि उनके लिए उनके रब के पास सच्ची इज़्ज़त और सरबुलन्दी है?2 (इसपर) इनकारियों ने कहा कि यह आदमी तो खुला जादूगर है।3
2. यानी आख़िर इसमें ताज्जुब की बात क्या है? इनसानों को होशियार करने के लिए इनसान न मुक़र्रर किया जाता तो क्या फ़रिश्ता या जिन्न या जानवर मुक़र्रर किया जाता? और अगर इनसान हक़ीक़त से ग़ाफ़िल होकर ग़लत तरीक़े से ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं तो ताज्जुब की बात यह है कि उनका पैदा करनेवाला और पालनहार उन्हें उनके हाल पर छोड़ दे या यह कि वह उनकी हिदायत व रहनुमाई के लिए कोई इन्तिज़ाम करे? और अगर ख़ुदा की तरफ़ से कोई हिदायत आए तो इज़्ज़त और कामयाबी उनके लिए होनी चाहिए जो उसे मान लें या उनके लिए जो उसे रद्द कर दें? लिहाज़ा ताज्जुब करनेवालों को सोचना चाहिए कि आख़िर वह बात क्या है जिसपर वे ताज्जुब कर रहे हैं।
3. यानी जादूगर की फबती तो उन्होंने उसपर कस दी मगर यह न सोचा कि वह चस्पाँ (फ़िट) भी होती है या नहीं। सिर्फ़ यह बात कि कोई शख़्स आला दरजे की ख़िताबत (तक़रीर करने की सलाहियत) से काम लेकर दिलों और दिमाग़ों को जीत रहा है, उसपर यह इलज़ाम लगा देने के लिए तो काफ़ी नहीं हो सकती कि वह जादूगरी कर रहा है। देखना यह है कि इस तक़रीर में वह बात क्या कहता है, किस ग़रज़ के लिए तक़रीर की क़ुव्वत को इस्तेमाल कर रहा है, और जो असरात उसकी तक़रीर से ईमान लानेवालों की ज़िन्दगी पर पड़ रहे हैं वे किस क़िस्म के हैं। तक़रीर करनेवाला किसी नाजाइज़ मक़सद के लिए जादूबयानी की ताक़त इस्तेमाल करता है तो वह एक मुँहफट, बेलगाम, ग़ैर-ज़िम्मेदार तक़रीर करनेवाला होता है। हक़ और सच्चाई और इनसाफ़ से आज़ाद होकर हर वह बात कह डालता है जो बस सुननेवालों पर असर डाल सके, चाहे वह बात अपने आप में कितनी ही झूठी, बढ़ा-चढ़ाकर कही गई और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ हो। उसकी बातें हिकमत भरी नहीं, लोगों को धोखा देनेवाली होती हैं। उनमें कोई सही सोच और सही नज़रिया होने के बजाय ऐसी बातें होती हैं जिनमें आपस में टकराव और टेढ़पन होता है। एतिदाल (सन्तुलन) के बजाय बेएतिदाली हुआ करती है। वह तो बस अपना सिक्का जमाने के लिए बातें बनाता है या फिर लोगों को लड़ाने और एक गरोह को दूसरे के मुक़ाबले में उभारने के लिए लच्छेदार तक़रीर करके मदहोश करता है, उसके असर से लोगों में न कोई अख़लाक़ी बुलन्दी पैदा होती है, न उनकी ज़िन्दगी में कोई फ़ायदेमन्द तब्दीली आती है और न कोई अच्छी सोच या बेहतर अमली हालत वुजूद में आती है, बल्कि लोगों की तरफ़ से पहले से ज़्यादा बुरी आदत सामने आती हैं। मगर यहाँ तुम देख रहे हो कि पैग़म्बर जो कलाम पेश कर रहा है उसमें हिकमत है, एक मुनासिब निज़ामे-फ़िक्र (सन्तुलित विचारधारा) है, इन्तिहाई दरजे का एतिदाल और हक़ व सच्चाई की सख़्त पाबन्दी है, लफ़्ज़-लफ़्ज़ जँचा-तुला और बात-बात काँटे की तौल पूरी है। उसकी बातों में अल्लाह के बन्दों की इस्लाह के सिवा किसी दूसरी ग़रज़ की निशानदेही नहीं कर सकते। जो कुछ वह कहता है, उसमें उसकी अपनी ज़ाती या ख़ानदानी या क़ौमी या किसी क़िस्म की दुनियावी ग़रज़ का हल्का-सा असर नहीं पाया जाता। वह सिर्फ़ यह चाहता है कि लोग जिस ग़फ़लत में पड़े हुए हैं उसके बुरे नतीजों से उनको ख़बरदार करे जा और उन्हें उस तरीक़े की तरफ़ बुलाए जिसमें उनका अपना भला है। फिर उसकी तक़रीर से जो असरात पड़े हैं वे भी जादूगरों के असरात से बिलकुल अलग हैं। यहाँ जिसने भी उसका असर क़ुबूल किया है उसकी ज़िन्दगी सँवर गई है, वह पहले से ज़्यादा बेहतर अख़लाक़ का इनसान बन गया है और सारे रवैये में नेकी और भलाई की शान नुमायाँ हो गई है। अब तुम ख़ुद ही सोच लो, क्या जादूगर ऐसी ही बातें करते हैं और उनका जादू ऐसे ही नतीजे दिखाया करता है?
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۖ مَا مِن شَفِيعٍ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ إِذۡنِهِۦۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ 2
(3) हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब वही ख़ुदा है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिनों में पैदा किया, फिर तख़्ते-सल्तनत पर जलवागर (आसीन) होकर कायनात का इन्तिज़ाम चला रहा है।4 कोई शफ़ाअत (सिफ़ारिश) करनेवाला नहीं है सिवाए इसके कि उसकी इजाज़त के बाद शफ़ाअत करे।5 यही अल्लाह तुम्हारा रब है, इसलिए तुम उसी की इबादत करो।6 फिर क्या तुम होश में न आओगे?7
4. यानी पैदा करके वह मुअत्तल नहीं हो गया, बल्कि अपनी पैदा की हुई कायनात के तख़्ते-सल्तनत (राज्य-सिंहासन) पर वह ख़ुद विराजमान हुआ और अब सारे जहान का इन्तिज़ाम अमली तौर पर उसी के हाथ में है। नादान लोग समझते हैं कि ख़ुदा ने कायनात को पैदा करके यूँ ही छोड़ दिया है कि ख़ुद जिस तरह चाहे चलती रहे, या दूसरों के हवाले कर दिया है कि वे उसे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन यह हक़ीक़त पेश करता है कि अल्लाह तआला अपनी तख़लीक़ (सृष्टि) के इस पूरे कारख़ाने पर आप ही हुकूमत कर रहा है, तमाम इख़्तियारात उसके अपने हाथ में हैं, सारी सत्ता की बागडोर उसके क़ब्ज़े में है, कायनात के गोशे-गोशे में हर वक़्त, हर आन जो कुछ हो रहा है सीधे तौर पर उसके हुक्म या इजाज़त से हो रहा है, इस दुनिया के साथ उसका ताल्लुक़ सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि वह कभी इसे वुजूद में लाया था, बल्कि हर वक़्त वही इसकी तदबीर और इसका इन्तिज़ाम करनेवाला है, उसी के क़ायम रखने से यह क़ायम है और उसी के चलाने से यह चल रहा है। (देखिए— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-40, 41)
5. यानी दुनिया की तदबीर व इन्तिज़ाम में किसी दूसरे का दख़ल देना तो दूर की बात, कोई इतना इख़्तियार भी नहीं रखता कि ख़ुदा से सिफ़ारिश करके उसका कोई फ़ैसला बदलवा दे या किसी की क़िस्मत बनवा दे या बिगड़वा दे। ज़्यादा-से-ज़्यादा कोई जो कुछ कर सकता है वह बस इतना है कि ख़ुदा से दुआ करे, मगर उसकी दुआ का क़ुबूल होना या न होना बिलकुल ख़ुदा की मरज़ी पर है। ख़ुदा की ख़ुदाई में इतना ज़ोरदार कोई नहीं है कि उसकी बात चलकर रहे और उसकी सिफ़ारिश टल न सके और वह अर्श का पाया पकड़कर बैठ जाए और अपनी बात मनवाकर ही रहे।
6. ऊपर के तीन जुमलों में इस अस्ल हक़ीक़त को बयान किया गया था कि हक़ीक़त में ख़ुदा ही तुम्हारा रब है। अब यह बताया जा रहा है कि इस हक़ीक़त की मौजूदगी में तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए। जब हक़ीक़त यह है कि रब और पालनहार पूरे तौर पर ख़ुदा ही है तो इसका लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि तुम सिर्फ़ उसी की इबादत करो, फिर जिस तरह 'रब' का लफ़्ज़ अपने अन्दर तीन मतलब रखता है, यानी परवरदिगार, मालिक व आक़ा और हाकिम, इसी तरह इसके मुक़ाबले में ‘इबादत' के लफ़्ज़ में भी तीन मतलब शामिल हैं यानी परस्तिश, ग़ुलामी और इताअत व फ़रमाँबरदारी।
ख़ुदा के एक अकेले पालनहार होने से यह ज़रूरी हो जाता है कि इनसान उसी का शुक्रगुज़ार हो, उसी से दुआएँ माँगे और उसी के आगे मुहब्बत व अक़ीदत (श्रद्धा) से सर झुकाए, यह इबादत का पहला मतलब है।
ख़ुदा के एक अकेले मालिक व आक़ा (स्वामी) होने से यह ज़रूरी हो जाता है कि इनसान उसका बन्दा व ग़ुलाम बनकर रहे, उसके मुक़ाबले में ख़ुदमुख़्ताराना रवैया न इख़्तियार करे और उसके सिवा किसी और की ज़ेहनी या अमली (वैचारिक अथवा व्यावहारिक) ग़ुलामी क़ुबूल न करे। यह इबादत का दूसरा मतलब है।
ख़ुदा के एक अकेले हाकिम होने से यह ज़रूरी हो जाता है कि इनसान उसके हुक्म की इताअत करे और उसके क़ानून की पैरवी करे। न ख़ुद अपना हाकिम बने और न उसके सिवा किसी दूसरे की हाकिमियत को तस्लीम करे। यह इबादत का तीसरा मतलब है।
7. यानी जब हक़ीक़त तुम्हारे सामने खोल दी गई है और तुमको साफ़-साफ़ बता दिया गया है कि इस हक़ीक़त की मौजूदगी में तुम्हारे लिए सही रवैया क्या है तो क्या अब भी तुम्हारी आँखें न खुलेंगी और उन्हीं ग़लतफ़हमियों में पड़े रहोगे जिनकी बिना पर तुम्हारी ज़िन्दगी का पूरा रवैया अब तक हक़ीक़त के ख़िलाफ़ रहा है?
إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقًّاۚ إِنَّهُۥ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ 3
(4) उसी की तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है।8 यह अल्लाह का पक्का वादा है। बेशक पैदाइश की शुरुआत वही करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा9, ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए उनको पूरे इनसाफ़ के साथ बदला दे और जिन्होंने इनकार का तरीक़ा अपनाया, वे खौलता हुआ पानी पिएँ और दर्दनाक सज़ा भुगतें उस हक़ के इनकार के बदले में जो वे करते रहे।10
8. यह नबी की तालीम का दूसरा बुनियादी उसूल है। पहली बुनियादी बात यह कि तुम्हारा रब सिर्फ़ अल्लाह है, लिहाज़ा उसी की इबादत करो और दूसरी बुनियादी बात यह कि तुम्हें इस दुनिया से वापस जाकर अपने रब को हिसाब देना है।
9. इस जुमले में दावा और दलील दोनों मौजूद हैं। दावा यह है कि ख़ुदा दोबारा इनसान को पैदा करेगा और इसपर दलील यह दी गई है कि उसी ने पहली बार इनसान को पैदा किया। जो शख़्स यह मानता हो कि ख़ुदा ने पैदाइश की शुरुआत की है (और इससे सिवाए उन नास्तिकों के और कौन इनकार कर सकता है, जो सिर्फ़ पादरियों के मज़हब से भागने के लिए ऐसे बेवक़ूफ़ी भरे नज़रिए को ओढ़ने पर आमादा हो गए कि ख़ल्क़ (सृष्टि) तो है, मगर उसका पैदा करनेवाला कोई नहीं है। वह इस बात को नामुमकिन या समझ से परे नहीं ठहरा सकता कि वही ख़ुदा इसे दोबारा पैदा करेगा।
10. यह वह ज़रूरत है जिसकी बिना पर अल्लाह तआला इनसान को दोबारा पैदा करेगा। ऊपर जो दलील दी गई वह यह बात साबित करने के लिए काफ़ी थी कि दोबारा पैदा करना मुमकिन है और उसे नामुमकिन समझना ठीक नहीं है। अब यह बताया जा रहा है कि यह दोबारा पैदाइश अक़्ल व इनसाफ़ के लिहाज़ से ज़रूरी है और यह ज़रूरत दोबारा पैदाइश के सिवा किसी दूसरे तरीक़े से पूरी नहीं हो सकती। ख़ुदा को अपना एक अकेला रब बनाकर जो लोग सही बन्दगी का रवैया अपनाएँ वे इसके हक़दार हैं कि उन्हें अपने इस सही रवैये का पूरा-पूरा इनाम मिले। और जो लोग हक़ीक़त से इनकार करके इसके ख़िलाफ़ ज़िन्दगी गुज़ारें वे भी इसके हक़दार हैं कि वे अपने इस ग़लत रवैये का बुरा नतीजा देखें। यह ज़रूरत अगर मौजूदा दुनियावी ज़िन्दगी में पूरी नहीं हो रही है (और हर शख़्स जो हठधर्म नहीं है, जानता है कि नहीं हो रही है) तो उसे पूरा करने के लिए यक़ीनी तौर पर दोबारा ज़िन्दगी मिलना ज़रूरी है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30 व सूरा-11 हूद, हाशिया-105)
إِنَّ فِي ٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَّقُونَ 5
(6) यक़ीनन रात और दिन के उलट-फेर में और हर उस चीज़ में जो अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों में पैदा की है, निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (ग़लत देखने और ग़लत रास्ते पर चलने से बचना चाहते हैं।11
11. यह आख़िरत के अक़ीदे की तीसरी दलील है। कायनात में अल्लाह तआला के जो काम हर तरफ़ नज़र आ रहे हैं, जिनके बड़े-बड़े निशानात सूरज और चाँद, और दिन-रात के आने-जाने की शक्ल में हर शख़्स के सामने मौजूद हैं, उनसे इस बात का निहायत वाज़ेह सुबूत मिलता है। कि दुनिया के इस शानदार कारख़ाने का बनानेवाला कोई बच्चा नहीं है जिसने सिर्फ़ खेलने के लिए यह सब कुछ बनाया हो और फिर दिल भर लेने के बाद यूँ ही इस घरौंदे को तोड़-फोड़ डाले। साफ़ तौर पर नज़र आ रहा है कि उसका हर काम मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) है, उसके हर काम में हिकमत है, मस्लहतें हैं और ज़र्रे-ज़र्रे की पैदाइश में एक गहरा मक़सद पाया जाता है। तो जब वह हिकमतवाला है और उसकी हिकमत की निशानियाँ और अलामतें तुम्हारे सामने साफ़-साफ़ मौजूद हैं, तो उससे तुम कैसे यह उम्मीद रखते हो कि वह इनसान को अक़्ल और अख़लाक़ी एहसास और आज़ादाना ज़िम्मेदारी और इस्तेमाल के इख़्तियारात देने के बाद उसकी ज़िन्दगी के कामों का हिसाब कभी न लेगा और अक़्ली व अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी की बुनियाद पर इनाम और सज़ा का जो हक़ लाज़िमी तौर पर पैदा होता है उसे यूँ ही बेकार छोड़ देगा। इस तरह इन आयतों में आख़िरत का अक़ीदा पेश करने के साथ उसकी तीन दलीलें ठीक-ठीक अक़्ली तरतीब के साथ दी गई हैं—
पहली यह कि दूसरी ज़िन्दगी मुमकिन है; क्योंकि पहली ज़िन्दगी का होना एक हक़ीक़त की शक्ल में मौजूद है।
दूसरी यह कि दूसरी ज़िन्दगी की ज़रूरत है; क्योंकि मौजूदा ज़िन्दगी में इनसान अपनी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी को सही या ग़लत तौर पर जिस तरह अदा करता है और उससे सज़ा और इनाम का जो हक़ पैदा होता है उसकी बुनियाद पर अक़्ल और इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही है कि एक और ज़िन्दगी हो जिसमें हर शख़्स अपने अख़लाक़ी रवैये का वह नतीजा देखे जिसका वह हक़दार है। तीसरी यह कि जब अक़्ल व इनसाफ़ के लिहाज़ से दूसरी ज़िन्दगी की ज़रूरत है तो यह ज़रूरत यक़ीनन पूरी की जाएगी, क्योंकि इनसान और कायनात का पैदा करनेवाला हिकमतवाला है और हिकमतवाले से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि हिकमत व इनसाफ़ जिस चीज़ की माँग करते हों उसे वह वुजूद में न लाए।
ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होगा कि मरने के बाद की ज़िन्दगी को दलीलों के ज़रिए साबित करने के लिए यही तीन दलीलें दी जा सकती हैं और यही काफ़ी भी हैं। इन दलीलों के बाद अगर किसी चीज़ की कमी बाक़ी रह जाती है तो वह सिर्फ़ यह है कि इनसान को आँखों से दिखा दिया जाए कि जो चीज़ मुमकिन है, जिसके वुजूद में आने की ज़रूरत भी है, और जिसको वुजूद में लाना ख़ुदा की हिकमत का तक़ाज़ा भी है, वह देख यह तेरे सामने मौजूद है। लेकिन यह कमी बहरहाल दुनियावी ज़िन्दगी में पूरी नहीं की जाएगी, क्योंकि देखकर ईमान लाना कोई मतलब नहीं रखता। अल्लाह तआला इनसान का जो इम्तिहान लेना चाहता है वह तो है ही यह कि वह महसूस होने और दिखाई देने से परे हक़ीक़तों को ख़ालिस ग़ौर व फ़िक्र और सही दलीलों के ज़रिए से मानता है या नहीं।
इस सिलसिले में एक और अहम बात भी बयान कर दी गई है जिसपर गहराई से ग़ौर करने की ज़रूरत है। फ़रमाया कि “अल्लाह अपनी निशानियों को खोल-खोलकर पेश कर रहा है उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं।” और “अल्लाह की पैदा की हुई हर चीज़ में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ग़लत सोचने और ग़लत रास्ते पर चलने से बचना चाहते हैं।” इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने निहायत हिकमत के साथ ज़िन्दगी के मज़ाहिर में हर तरफ़ वे निशानियाँ फैला रखी हैं जो इन मज़ाहिर के पीछे छिपी हुई हक़ीक़तों की साफ़-साफ़ निशानदेही कर रही हैं। लेकिन इन निशानियों से हक़ीक़त तक सिर्फ़ वे लोग पहुँच पाते हैं जिनके अन्दर ये दो ख़ूबियाँ मौजूद हों—
एक यह कि वह जाहिलाना तास्सुबात (अज्ञानतापूर्ण दुराग्रहों) से पाक होकर इल्म हासिल करने के उन ज़रिओं से काम लें जो अल्लाह ने इनसान को दिए हैं।
दूसरी यह कि उनके अन्दर ख़ुद यह ख़ाहिश मौजूद हो कि ग़लती से बचें और सही रास्ता इख़्तियार करें।
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ 7
(8) उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम होगा, उन बुराइयों के बदले में जिन्हें वे (अपने इस ग़लत अक़ीदे और ग़लत रवैये की वजह से) करते रहे।12
12. यहाँ फिर दावे के साथ-साथ उसकी दलील भी इशारे में बयान कर दी गई है। दावा यह है कि आख़िरत के अक़ीदे के इनकार का लाज़िमी और क़तई नतीजा जहन्नम है, और दलील यह है कि इस अक़ीदे का इनकार करके या इसके बारे में ख़ाली ज़ेहन होकर इनसान वे बुराइयाँ कमाता है जिनकी सज़ा जहन्नम के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। यह एक हक़ीक़त है और हज़ारों साल के इनसानी रवैये का तजरिबा इसपर गवाह है। जो लोग ख़ुदा के सामने अपने आपको ज़िम्मेदार और जवाबदेह नहीं समझते, जो इस बात का कोई अन्देशा नहीं रखते कि उन्हें आख़िरकार ख़ुदा को अपनी पूरी ज़िन्दगी के कामों का हिसाब देना है, जो इस मनगढ़त नज़रिए पर काम करते हैं कि ज़िन्दगी बस यही दुनिया की ज़िन्दगी है, जिनके नज़दीक कामयाबी व नाकामी का पैमाना सिर्फ़ यह है कि इस दुनिया में आदमी ने कितनी ज़्यादा ख़ुशहाली, आराम, शोहरत और ताक़त हासिल की, और जो अपने इन्हीं माद्दा-परस्तीवाले (भौतिकतावादी) ख़यालों की बुनियाद पर अल्लाह की आयतों (निशानियों) को ध्यान देने के क़ाबिल नहीं समझते, उनकी पूरी ज़िन्दगी ग़लत होकर रह जाती है। वे दुनिया में बे-नकेल के ऊँट की तरह बनकर रहते हैं, उनके अख़लाक़ और सिफ़ात बहुत बुरी होती हैं, वे ख़ुदा की ज़मीन को ज़ुल्म और फ़साद और बुराइयों से भर देते हैं और इस बिना पर जहन्नम के हक़दार बन जाते हैं।
यह आख़िरत के अक़ीदे पर एक और क़िस्म की दलील है। पहली तीन दलीलें अक़्ली दलीलों में से थीं, और यह दलील तजरिबे की बुनियाद पर दी जानेवाली दलीलों में से है। यहाँ उसे सिर्फ़ इशारे में बयान किया गया है, मगर क़ुरआन में कई जगहों पर हमें उसकी तफ़सील मिलती है। इस दलील का ख़ुलासा (सारांश) यह है कि इनसान का इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) रवैया और इनसानी गरोहों का इज्तिमाई रवैया कभी उस वक़्त तक ठीक नहीं होता जब तक यह समझ और यक़ीन इनसानी सीरत की बुनियाद में समा न जाए कि हमको ख़ुदा के सामने अपने कामों का जवाब देना है। अब ग़ौरतलब यह है कि आख़िर ऐसा क्यों है? क्या वजह है कि इस एहसास और यक़ीन के ख़त्म या कमज़ोर होते ही इनसानी सीरत और किरदार की गाड़ी बुराई के रास्ते पर चल पड़ती है। अगर आख़िरत का अक़ीदा अस्ल हक़ीक़त के मुताबिक़ न होता और उसका इनकार हक़ीक़त के ख़िलाफ़ न होता तो मुमकिन न था कि इस इक़रार व इनकार के ये नतीजे लाज़मी तौर से लगातार हमारे तजरिबे में आते। एक ही चीज़ से लगातार सही नतीजों का निकलना और उसके न होने से नतीजों का हमेशा ग़लत हो जाना इस बात का पक्का सुबूत है कि वह चीज़ अपनी जगह सही है।
इसके जवाब में कभी-कभी यह दलील दी जाती है कि आख़िरत का इनकार करनेवाले बहुत-से लोग ऐसे हैं जिनका फ़ल्सफ़ा-ए-अख़लाक़ (नैतिक दर्शन) और दस्तूरे-अमल (कार्य-नीति) सरासर नास्तिकता और मादा-परस्ती (भौतिकवाद) पर मबनी (आधारित) है, फिर भी वे अच्छी-ख़ासी पाक सीरत (स्वच्छ चरित्र) रखते हैं और उनसे ज़ुल्म व फ़साद और बुराई व बेहयाई जैसा कोई काम नहीं होता, बल्कि वे अपने मामलों में नेक और ख़ुदा के बन्दों के ख़िदमतगुज़ार होते हैं लेकिन इस दलील की कमज़ोरी जरा-सा ग़ौर करने से ही वाज़ेह हो जाती है। तमाम माद्दा-परस्ताना (भौतिकतावादी) लादीनी (अधार्मिक) फ़ल्सफ़ों और निज़ामाते-फ़िक्र (वैचारिक व्यवस्थाओं) की जाँच-पड़ताल करके देख लिया जाए। कहीं उन अख़लाक़ी ख़ूबियों और अमली नेकियों के लिए कोई बुनियाद न मिलेगी जिनके लिए इन “नेक काम करनेवालों” नास्तिकों की तारीफ़ की जाती है। किसी दलील से यह साबित नहीं किया जा सकता कि इन लादीनी फ़ल्सफ़ों (अधार्मिक दर्शनों) में सच्चाई, अमानतदारी, ईमानदारी, वादों को पूरा करने, इनसाफ़, रहम, फ़य्याज़ी (दानशीलता), त्याग, हमदर्दी, मन पर कंट्रोल (आत्मसंयम), पाकदामनी, हक़ को पहचानने और हक़ों को अदा करने के लिए उभारने और आमादा करनेवाली चीज़ें मौजूद हैं। ख़ुदा और आख़िरत को नज़रअन्दाज़ कर देने के बाद अख़लाक़ (नैतिकता) के लिए अगर कोई क़ाबिले-अमल निज़ाम बन सकता है तो वह सिर्फ़ फ़ायदा हासिल करने (Utilitarianism) की बुनियादों पर बन सकता है। बाक़ी तमाम अख़लाक़ी फ़लसफ़े सिर्फ़ ख़याली और किताबों में लिखी बातें हैं, न कि अमली। और सिर्फ़ फ़ायदा हासिल करने की सोच जो अख़लाक़ पैदा करती है उसे चाहे कितना ही बढ़ा दिया जाए, बहरहाल वह इससे आगे नहीं जाती कि आदमी वह काम करे जिसका कोई फ़ायदा इस दुनिया में उसकी ज़ात की तरफ़ या उस समाज की तरफ़ जिससे वह ताल्लुक़ रखता है, पलटकर आने की उम्मीद हो। यह वह चीज़ है जो फ़ायदे की उम्मीद और नुक़सान के डर की बिना पर इनसान से सच और झूठ, अमानत और ख़ियानत, ईमानदारी और बेईमानी, वफ़ादारी और धोखा, इनसाफ़ और ज़ुल्म, ग़रज़ मौक़े के हिसाब से हर नेकी और उसके उलट काम करा सकती है। इन अख़लाक़ी बातों का बेहतरीन नमूना मौजूदा ज़माने की अंग्रेज़ क़ौम है जिसको अकसर इस बात की मिसाल में पेश किया जाता है कि ज़िन्दगी का माद्दा-परस्ताना नज़रिया रखने और आख़िरत के तसव्वुर से ख़ाली होने के बावजूद इस क़ौम के लोग आमतौर से दूसरों से ज़्यादा सच्चे, खरे, ईमानदार, वादे के पाबन्द, इनसाफ़-पसन्द और मामलों में भरोसे के क़ाबिल हैं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि सिर्फ़ फ़ायदा हासिल करने के लिए अख़लाक़ी बातों को अपनाने की नापायदारी का सबसे नुमायाँ अमली सुबूत हमको इसी क़ौम के किरदार में मिलता है। अगर वाक़ई में अंग्रेज़ों की सच्चाई, इनसाफ़-पसन्दी, सीधे रास्ते पर चलना और वादे की पाबन्दी इस यक़ीन और भरोसे की बुनियाद पर होती कि ये ख़ूबियाँ अपने आप में मुस्तक़िल अख़लाक़ी ख़ूबियाँ हैं तो आख़िर यह किस तरह मुमकिन था कि एक-एक अंग्रेज़ तो अपने ज़ाती किरदार में ये ख़ूबियाँ रखता, मगर सारी क़ौम मिलकर जिन लोगों को अपना नुमाइन्दा और अपने इज्तिमाई मामलों का ज़िम्मेदार बनाती है वह बड़े पैमाने पर उसकी सल्तनत और उसके बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) मामलों के चलाने में खुल्लम-खुल्ला झूठ, वादाख़िलाफ़ी, ज़ुल्म, बेइनसाफ़ी और बेईमानी से काम लेते और पूरी क़ौम का भरोसा उन्हें हासिल रहता? क्या यह इस बात का खुला सुबूत नहीं है कि ये लोग हमेशा क़ायम रहनेवाली अख़लाक़ी क़द्रों (नैतिक मूल्यों) को माननेवाले नहीं हैं, बल्कि दुनियावी फ़ायदे और नुक़सान के लिहाज़ से एक ही वक़्त में दो मुख़ालिफ़ अख़लाक़ी रवैये इख़्तियार करते हैं और कर सकते हैं?
फिर भी अगर ख़ुदा और आख़िरत का इनकार करनेवाला कोई शख़्स दुनिया में ऐसा मौजूद है जो मुस्तक़िल तौर पर कुछ नेकियों का पाबन्द और कुछ बुराइयों से बचता है तो हक़ीक़त में उसकी यह नेकी और परहेज़गारी ज़िन्दगी के उसके माद्दा-परस्ताना नज़रिए का नतीजा नहीं हैं, बल्कि उन मज़हबी असरात का नतीजा है जो अनजाने तौर पर उसके मन में बैठे हैं। उसका अख़लाक़ी सरमाया मज़हब से चुराया हुआ है और उसको वह ग़लत तरीक़े से बेदीनी में इस्तेमाल कर रहा है, क्योंकि वह अपनी बेदीनी और माद्दा-परस्ती के ख़ज़ाने में इस बात की निशानदही हरगिज़ नहीं कर सकता कि यह सरमाया उसने कहाँ से लिया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ يَهۡدِيهِمۡ رَبُّهُم بِإِيمَٰنِهِمۡۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ 8
(9) और यह भी हक़ीक़त है कि जो लोग ईमान लाए (यानी जिन्होंने उन सच्चाइयों को मान लिया जो इस किताब में पेश की गई हैं) और अच्छे काम करते रहे, उन्हें उनका रब उनके ईमान की वजह से सीधी राह चलाएगा, नेमत भरी जन्नतों में उनके नीचे नहरें बहेंगी।13
13. इस जुमले पर से सरसरी तौर पर न गुज़र जाइए। इसके मज़मून (विषय) की तरतीब गहरी तवज्जोह चाहती है—
उन लोगों को आख़िरत की ज़िन्दगी में जन्नत क्यों मिलेगी? — इसलिए कि वे दुनिया की ज़िन्दगी में सीधी राह चले। हर काम में, ज़िन्दगी के हर हिस्से में, हर इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) और इज्तिमाई (सामाजिक) मामले में उन्होंने सही तरीक़ा इख़्तियार किया और ग़लत तरीक़ों को छोड़ दिया।
ये हर-हर क़दम पर, ज़िन्दगी के हर मोड़ और हर दोराहे पर, उनको सही और ग़लत, हक़ और बातिल, सीधी और टेढ़ी पहचान कैसे हासिल हुई? और फिर उस पहचान के मुताबिक़ सीधे रास्ते से बचने की ताक़त उन्हें कहाँ से मिली? — उनके रब की तरफ़ से, क्योंकि इल्मी रहनुमाई और अमली तौफ़ीक़ सिर्फ़ उसी के देने से मिलती है।
उनका रब उन्हें यह हिदायत और यह तौफ़ीक़ क्यों देता रहा? — उनके ईमान की वजह से।
ये नतीजे जो ऊपर बयान हुए हैं किस ईमान के नतीजे हैं? — उस ईमान के नहीं जो सिर्फ़ मान लेने के मानी में हो, बल्कि उस ईमान के जो सीरत व किरदार की रूह बन जाए और जिसकी ताक़त से अख़लाक़ व आमाल में भलाई और ख़ैर ज़ाहिर होने लगे। अपनी जिस्मानी ज़िन्दगी में आप ख़ुद देखते हैं कि ज़िन्दगी को बाक़ी रखने, तन्दुरुस्ती, काम करने की ताक़त और ज़िन्दगी की लज़्ज़तों को हासिल करने का दारोमदार सही तरह की ख़ुराक पर होता है, लेकिन ये नतीजे उस ख़ुराक के नहीं होते जो सिर्फ़ खा लेने के मानी में हो, बल्कि उस ख़ुराक के होते हैं जो पचने के बाद ख़ून बने और नस-नस में पहुँचकर जिस्म के हर हिस्से को वह ताक़त पहुँचाए जिससे वह अपने हिस्से का काम ठीक-ठीक करने लगे। बिलकुल इसी तरह अख़लाक़ी ज़िन्दगी में भी हिदायत पाने, सही देखने, सही रास्ते पर चलने और आख़िरकार नजात और कामयाबी को हासिल करने का दारोमदार सही अक़ीदों पर है, मगर ये नतीजे उन अक़ीदों के नहीं हैं जो सिर्फ़ ज़बान पर जारी हों या दिलो-दिमाग़ के किसी कोने में बेकार पड़े हुए हों, बल्कि उन अक़ीदों के हैं जो मन के अन्दर अच्छी तरह बैठ जाएँ और आदमी के सोचने के अन्दाज़, तबीअत के मिजाज़ और उसका ज़ौक़ व शौक़ बन जाएँ और सीरत व किरदार और ज़िन्दगी के रवैए की सूरत में नुमायाँ हों। ख़ुदा के फ़ितरी क़ानून में वह शख़्स जो खाकर भी न खानेवाले की तरह रहे, उन इनामों का हक़दार नहीं होता जो खाकर पचा जानेवाले के लिए रखे गए हैं। फिर क्यों उम्मीद की जाए कि उसके अख़लाक़ी क़ानून में वह शख़्स जो मानकर न माननेवाले की तरह रहे, उन इनामों का हक़दार हो सकता है जो मानकर नेक बननेवाले के लिए रखे गए हैं?
۞وَلَوۡ يُعَجِّلُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ ٱلشَّرَّ ٱسۡتِعۡجَالَهُم بِٱلۡخَيۡرِ لَقُضِيَ إِلَيۡهِمۡ أَجَلُهُمۡۖ فَنَذَرُ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ 10
(11) अगर कहीं15 अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वे दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते हैं, तो उनके काम की मुहलत कभी की ख़त्म कर दी गई होती। (मगर हमारा यह तरीक़ा नहीं है) इसलिए हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते, उनकी सरकशी में भटकने के लिए छूट दे देते हैं।
15. ऊपर के शुरुआती जुमलों के बाद अब नसीहत और समझाने-बुझानेवाली तक़रीर शुरू होती है। इस तक़रीर को पढ़ने से पहले इसके पसमंज़र (पृष्ठभूमि) के बारे में दो बातें सामने रखनी चाहिएँ—
एक यह कि इस तक़रीर से थोड़ी मुद्दत पहले वह लगातार चलनेवाला और सख़्त मुश्किलों में डालनेवाला अकाल ख़त्म हुआ था, जिसकी मुसीबत से मक्कावाले चीख़ उठे थे। उस अकाल के वक़्त में क़ुरैश के घमण्डियों की अकड़ी हुई गर्दन बहुत झुक गई थी। दुआएँ माँगते और रोते-गिड़गिड़ाते थे, बुतपरस्ती में कमी आ गई थी, एक ख़ुदा की तरफ़ ज़्यादा झुकाव होने लगा था, और नौबत यह आ गई थी कि आख़िर अबू-सुफ़ियान ने आकर नबी (सल्ल०) से दरख़ास्त की कि आप ख़ुदा से इस बला को टालने के लिए दुआ करें। मगर जब अकाल ख़त्म हो गया, बारिशें होने लगीं और ख़ुशहाली का दौर आया तो उन लोगों की वही सरकशियाँ और बदआमालियाँ और दीने-हक़ (इस्लाम) के ख़िलाफ़ वही सरगर्मियाँ फिर शुरू हो गईं और जो दिल ख़ुदा की तरफ़ रुजू करने लगे थे, वे फिर अपनी पिछली ग़फ़लतों में डूब गए। (देखें, क़ुरआन; सूरा-16 नह्ल, आयत-113; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—75 से 77; सूरा-44 दुख़ान, आयतें—10 से 16)
दूसरी यह कि नबी (सल्ल०) जब कभी उन लोगों को हक़ का इनकार करने की सज़ा से डराते तो ये लोग जवाब में कहते थे कि तुम अल्लाह के जिस अज़ाब की धमकियाँ देते हो वह आख़िर आ क्यों नहीं जाता? उसके आने में देर क्यों लग रही है?
इसी पर कहा जा रहा है कि ख़ुदा लोगों पर रहम करने में जितनी जल्दी करता है उनको सज़ा देने और उनके गुनाहों पर पकड़ लेने में उतनी जल्दी नहीं करता। तुम चाहते हो कि जिस तरह उसने तुम्हारी दुआएँ सुनकर अकाल की मुसीबत जल्दी से दूर कर दी, उसी तरह वह तुम्हारे चैलेंज सुनकर और तुम्हारी सरकशियाँ देखकर अज़ाब भी फ़ौरन भेज दे। लेकिन ख़ुदा का तरीक़ा यह नहीं है। लोग चाहे जितनी ही सरकशियाँ किए जाएँ वह उनको पकड़ने से पहले संभलने का काफ़ी मौक़ा देता है। बराबर ख़बरदार करता है और रस्सी ढीली छोड़े रखता है, यहाँ तक कि जब रिआयत की हद हो जाती है तब अमल की सज़ा का क़ानून लागू किया जाता है। यह तो है ख़ुदा का तरीक़ा और इसके बरख़िलाफ़ तंगदिल इनसानों का तरीक़ा वह है जो तुमने अपनाया कि जब मुसीबत आई तो ख़ुदा याद आने लगा, बिलबिलाना और गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया, और जहाँ राहत का वक़्त आया कि सब कुछ भूल गए। यही वे अलामतें हैं जिनसे क़ौमें अपने आपको अल्लाह के अज़ाब का हक़दार बनाती हैं।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ 12
(13) लोगो! तुमसे पहले की क़ौमों16 को हमने तबाह कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म का रवैया17 अपनाया और उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए और उन्होंने ईमान लाकर ही न दिया। इस तरह हम मुजरिमों को उनके जुर्मों का बदला दिया करते हैं।
16. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘क़र्न’ इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद आम तौर पर तो अरबी ज़बान में 'एक दौर के लोग’ होते हैं, लेकिन क़ुरआन मजीद में जिस अन्दाज़ से मुख़्तलिफ़ जगहों पर इस लफ़्ज़ को इस्तेमाल किया गया है उससे ऐसा महसूस होता है कि 'क़र्न' से मुराद वह क़ौम है जो अपने दौर में बुलन्दी पर पूरे तौर पर या, कुछ मामलों में दुनिया की रहनुमाई के काम पर लगाई गई हो। ऐसी क़ौम की तबाही लाज़िमी तौर पर यही मतलब नहीं रखती कि उसकी नस्ल को बिलकुल ही ख़त्म कर दिया जाए, बल्कि उसका बुलन्दी और रहनुमाई के मक़ाम से गिरा दिया जाना, उसकी तहज़ीब व तमद्दुन का तबाह हो जाना, उसकी पहचान का मिट जाना और उसके हिस्सों का बिखरकर दूसरी क़ौमों में गुम हो जाना, यह भी बरबादी ही की एक शक्ल है।
17. यह लफ़्ज़ 'ज़ुल्म' उन महदूद मानी में नहीं है जो आमतौर पर इससे मुराद लिए जाते हैं, बल्कि इनमें वे सारे गुनाह शामिल हैं जो इनसान बन्दगी की हद से गुज़रकर करता है। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-2, बक़रा, हाशिया-49)
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَاتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا ٱئۡتِ بِقُرۡءَانٍ غَيۡرِ هَٰذَآ أَوۡ بَدِّلۡهُۚ قُلۡ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أُبَدِّلَهُۥ مِن تِلۡقَآيِٕ نَفۡسِيٓۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۖ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ 14
(15) जब उन्हें हमारी साफ़-साफ़ बातें सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते, कहते हैं कि “इसके बजाय कोई और क़ुरआन लाओ या इसमें कुछ फेर-बदल करो।19” ऐ नबी! उनसे कहो, “मेरा यह काम नहीं है कि अपनी तरफ़ से इसमें कोई तब्दीली कर लूँ। मैं तो बस उस वह्य की पैरवी करनेवाला हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो मुझे एक बड़े भयानक दिन के अज़ाब का डर है।"20
19. उनकी यह बात सबसे पहले तो उनके इस मनगढ़ंत ख़याल की वजह से थी कि मुहम्मद (सल्ल०) जो कुछ पेश कर रहे हैं यह ख़ुदा की तरफ़ से नहीं है, बल्कि उनके अपने दिमाग़ का गढ़ा हुआ है और उसको ख़ुदा का कलाम बनाकर सिर्फ़ इसलिए पेश किया है कि उनकी बात का वज़न बढ़ जाए। दूसरे अरबवासियों का मतलब यह था कि यह तुमने तौहीद और आख़िरत और अख़लाक़ी पाबन्दियों की बहस क्यों छेड़ दी, अगर रहनुमाई के लिए उठे हो तो कोई ऐसी चीज़ पेश करो जिससे क़ौम का भला हो और उसकी दुनिया बनती नज़र आए। फिर भी अगर तुम अपने इस पैग़ाम को बिलकुल नहीं बदलना चाहते तो कम-से-कम इसमें इतनी लचक ही पैदा करो कि हमारे और तुम्हारे दरमियान कुछ कमी-ज़्यादती पर समझौता हो सके। कुछ हम तुम्हारी मानें, कुछ तुम हमारी मान लो। तुम्हारी तौहीद में कुछ हमारे शिर्क के लिए, तुम्हारी ख़ुदा-परस्ती में कुछ हमारी नफ़्स-परस्ती और दुनिया-परस्ती के लिए और आख़िरत के बारे में तुम्हारे अक़ीदे में कुछ हमारी इन उम्मीदों के लिए भी गुंजाइश निकलनी चाहिए कि दुनिया में हम जो चाहें करते रहें, आख़िरत में हमारी किसी-न-किसी तरह नजात ज़रूर हो जाएगी। फिर तुम्हारे ये पक्के और अटल अख़लाक़ी उसूल भी हमारे लिए क़ुबूल करने के क़ाबिल नहीं हैं। उनमें कुछ हमारी जानिबदारियों के लिए, कुछ हमारे रस्मो-रिवाज के लिए, कुछ हमारे शख़्सी और क़ौमी फ़ायदों के लिए और कुछ हमारी मन की ख़ाहिशों के लिए भी जगह निकलनी चाहिए। क्यों न ऐसा हो कि दीन की माँगों का एक मुनासिब दायरा हमारी और तुम्हारी रज़ामन्दी से तय हो जाए और उसमें हम ख़ुदा का हक़ अदा कर दिया करें। उसके बाद हमें आज़ाद छोड़ दिया जाए कि जिस-जिस तरह अपनी दुनिया के काम चलाना चाहते हैं, चलाएँ। मगर तुम यह ग़ज़ब कर रहे हो कि पूरी ज़िन्दगी को और सारे मामलों को तौहीद व आख़िरत के अक़ीदे और शरीअत के बन्धनों से कस देना चाहते हो।
20. यह ऊपर की दोनों बातों का जवाब है। इसमें यह भी कह दिया गया कि मैं इस किताब का लिखनेवाला नहीं हूँ, बल्कि यह वह्य के ज़रिए से मेरे पास आई है जिसमें किसी फेर-बदल का मुझे इख़्तियार नहीं। और यह भी कि इस मामले में समझौते का बिलकुल भी कोई इमकान नहीं है, क़ुबूल करना हो तो इस पूरे दीन को ज्यों-का-त्यों क़ुबूल करो वरना पूरे को रद्द कर दो।
قُل لَّوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا تَلَوۡتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَدۡرَىٰكُم بِهِۦۖ فَقَدۡ لَبِثۡتُ فِيكُمۡ عُمُرٗا مِّن قَبۡلِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ 15
(16) और कहो, “अगर अल्लाह की मरज़ी यही होती तो मैं यह क़ुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आख़िर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे बीच बिता चुका हूँ, क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?21
21. यह एक ज़बरदस्त दलील है उनके इस ख़याल के रद्द में कि मुहम्मद (सल्ल०) क़ुरआन को ख़ुद अपने दिल से गढ़कर ख़ुदा की तरफ़ जोड़ रहे हैं और मुहम्मद (सल्ल०) के इस दावे की ताईद में कि वे ख़ुद इनके लिखनेवाले नहीं हैं, बल्कि यह ख़ुदा की तरफ़ से वह्य के ज़रिए से उनपर उतर रहा है। दूसरी तमाम दलीलें तो किसी हद तक दूर की चीज़ थीं, मगर मुहम्मद (सल्ल०) की ज़िन्दगी तो उन लोगों के सामने की चीज़ थी। नबी (सल्ल०) ने नुबूवत से पहले पूरे चालीस साल उनके बीच गुज़ारे थे, उनके शहर में पैदा हुए, उनकी आँखों के सामने बचपन गुज़ारा, जवान हुए, अधेड़ उम्र को पहुँचे। रहना-सहना, मिलना-जुलना, लेन-देन, शादी-ब्याह गरज़ हर तरह का समाजी ताल्लुक़ उन्हीं के साथ था और आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी का कोई पहलू उनसे छिपा हुआ न था। ऐसी जानी-बूझी और देखी-भाली चीज़ से ज़्यादा खुली गवाही और क्या हो सकती थी।
नबी (सल्ल०) की इस ज़िन्दगी में दो बातें बिलकुल ज़ाहिर थीं, जिन्हें मक्का के लोगों में से एक-एक शख़्स जानता था—
एक यह कि नुबूवत से पहले की पूरी चालीस साल की ज़िन्दगी में आप (सल्ल०) ने कोई ऐसी तालीम, तरबियत और संगत नहीं पाई जिससे आप (सल्ल०) को वे जानकारियाँ हासिल होतीं जिनके चश्मे (स्रोत) अचानक पैग़म्बरी के दावे के साथ ही आप (सल्ल०) की ज़बान से निकलने शुरू हो गए। उससे पहले कभी आप उन मसाइल से दिलचस्पी लेते हुए, उन बातों पर चर्चा करते हुए और उन ख़यालात का इज़हार करते हुए नहीं देखे गए जो अब क़ुरआन की इन एक के बाद एक उतरनेवाली सूरतों में चर्चा में आ रहे थे। हद यह है कि इस पूरे चालीस साल के दौरान में कभी आप (सल्ल०) के किसी गहरे दोस्त और किसी बहुत क़रीबी रिश्तेदार ने भी आप (सल्ल०) की बातों और आप (सल्ल०) के अमल में कोई ऐसी चीज़ महसूस नहीं की जिसे उस शानदार दावत और पैग़ाम की तमहीद (भूमिका) कहा जा सकता हो, जो आप (सल्ल०) ने अचानक चालीसवें साल को पहुँचकर देना शुरू कर दिया। यह इस बात का खुला सुबूत था कि क़ुरआन आप (सल्ल०) के अपने दिमाग़ की पैदावार नहीं है, बल्कि बाहर से आपके अन्दर आई हुई चीज़ है। इसलिए कि इनसानी दिमाग़ अपनी उम्र के किसी मरहले में भी ऐसी कोई चीज़ पेश नहीं कर सकता जिसके बढ़ने और फलने-फूलने के साफ़-साफ़ निशानात उससे पहले के मरहलों में न पाए जाते हों। यही वजह है कि मक्का के कुछ चालाक लोगों ने जब ख़ुद यह महसूस कर लिया कि क़ुरआन को आप (सल्ल०) के दिमाग़ की उपज ठहराना खुले तौर पर एक बेकार का इलज़ाम है तो आख़िर को उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि कोई और शख़्स है जो मुहम्मद (सल्ल०) को ये बातें सिखा देता है। लेकिन यह दूसरी बात पहली बात से भी ज़्यादा बेकार थी, क्योंकि मक्का तो एक तरफ़, पूरे अरब में कोई इस क़ाबिलियत का आदमी न था। जिसपर उंगली रखकर कह दिया जाता कि यह इस कलाम (वाणी) को लिखनेवाला है या हो सकता है। ऐसी क़ाबिलियत का आदमी किसी सोसाइटी में छिपा कैसे रह सकता है?
दूसरी बात जो नबी (सल्ल०) की पिछली ज़िन्दगी में बिलकुल नुमायाँ थी, वह यह थी कि झूठ, फ़रेब, जालसाज़ी, मक्कारी, चालाकी और इस तरह की दूसरी सिफ़तों में से किसी का हल्का-सा असर तक मुहम्मद (सल्ल०) की ज़िन्दगी में न पाया जाता था। पूरी सोसाइटी में कोई ऐसा न था जो यह कह सकता हो कि एक समाज में चालीस साल तक एक ही जगह रहने पर मुहम्मद (सल्ल०) से किसी ऐसी सिफ़त का तजरिबा उसे हुआ है। इसके बरख़िलाफ़ जिन-जिन लोगों से भी आप (सल्ल०) का मामला हुआ था वह आप (सल्ल०) को एक बहुत ही सच्चे, बेदाग़ और भरोसे के क़ाबिल (अमीन) इनसान की हैसियत ही से जानते थे। पैग़म्बरी से पाँच साल पहले काबा तामीर के सिलसिले में वह मशहूर वाक़िआ पेश आ चुका था जिसमें हजरे-असवद (काला पत्थर) को उसकी जगह पर लगाने के मामले पर क़ुरैश के कई ख़ानदान झगड़ पड़े थे और आपस में तय हुआ था कि कल सुबह पहला शख़्स जो हरम में दाख़िल होगा उसी को पंच मान लिया जाएगा। दूसरे दिन वह शख़्स मुहम्मद (सल्ल०) थे जो वहाँ दाख़िल हुए। आप (सल्ल०) को देखते ही सब लोग पुकार उठे, “यह बिलकुल सच्चा आदमी है। हम इसपर राज़ी हैं। यह तो मुहम्मद है।” इस तरह आप (सल्ल०) को नबी और पैग़म्बर बनाने से पहले अल्लाह तआला क़ुरैश के पूरे क़बीले से भरे मजमे में आप (सल्ल०) के ‘अमीन’ (अमानतदार) होने की गवाही ले चुका था। अब यह गुमान करने की क्या गुंजाइश थी कि जिस शख़्स ने सारी उम्र कभी अपनी ज़िन्दगी के किसी छोटे-से-छोटे मामले में भी झूठ, छल और फ़रेब से काम न लिया था वह अचानक इतना बड़ा झूठ और ऐसा बड़ा छल-फ़रेब लेकर उठ खड़ा हुआ कि अपने ज़ेहन से कुछ बातें गढ़ लीं और उनको पूरे ज़ोर और दावे के साथ ख़ुदा की तरफ़ जोड़ने लगा। इसी बिना पर अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) से कहता है कि उनके इस बेहूदा इलज़ाम के जवाब में उनसे कहो कि ऐ अल्लाह के बन्दो, कुछ अक़्ल से तो काम लो, मैं कोई बाहर से आया हुआ अजनबी आदमी नहीं हूँ, तुम्हारे बीच इससे पहले एक उम्र गुज़ार चुका हूँ, मेरी पिछली ज़िन्दगी को देखते हुए तुम कैसे यह उम्मीद मुझसे कर सकते हो कि मैं ख़ुदा की तालीम और उसके हुक्म के बग़ैर यह क़ुरआन तुम्हारे सामने पेश कर सकता था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-28 क़सस, हाशिया-109)
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ 16
(17) फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की सच्ची आयतों को झूठा क़रार दे।22 यक़ीनन मुजरिम कभी कामयाबी नहीं पा सकते।"23
22. यानी अगर ये आयतें ख़ुदा की नहीं हैं और मैं इन्हें ख़ुद गढ़ करके अल्लाह की आयतों की हैसियत से पेश कर रहा हूँ तो मुझसे बड़ा ज़ालिम कोई नहीं। और अगर ये वाक़ई अल्लाह की आयतें हैं और तुम इनको झुठला रहे हो तो फिर तुमसे बड़ा भी कोई ज़ालिम नहीं।
23. कुछ नादान लोग 'फ़लाह' (कामयाबी) को लम्बी उम्र या दुनियावी ख़ुशहाली, या दुनियावी तरक्क़ी के मानी में ले लेते हैं, और फिर इस आयत से यह नतीजा निकालना चाहते हैं कि जो शख़्स नुबूवत और पैग़म्बरी का दावा करके जीता रहे, या दुनिया में फले-फूले, या उसकी दावत को बढ़ावा मिले, उसे सच्चा नबी मान लेना चाहिए, क्योंकि उसने फ़लाह पाई। अगर वह सच्चा नबी न होता तो झूठा दावा करते ही मार डाला जाता, या भूखों मार दिया जाता और दुनिया में उसकी बात चलने ही न पाती, लेकिन यह बेवक़ूफ़ी की दलील सिर्फ़ वही शख़्स दे सकता है जो न तो क़ुरआनी लफ़्ज़ (पारिभाषिक शब्द) 'फ़लाह' का मतलब जानता हो, न मुहलत देने के उस क़ानून से वाक़िफ़ हो जो क़ुरआन के बयान के मुताबिक़ अल्लाह तआला ने मुजरिमों के लिए मुक़र्रर किया है, और न यही समझता हो कि इस सिलसिला-ए-बयान (वार्ताक्रम) में यह जुमला किस मानी में आया है।
सबसे पहले तो यह बात कि “मुजरिम फ़लाह नहीं पा सकते” इस मौक़े से इस हैसियत से कही ही नहीं गई कि यह किसी के नुबूवत के दावे को परखने का पैमाना है जिससे आप लोग जाँचकर ख़ुद फ़ैसला कर लें कि जो नुबूवत का दावेदार ‘फ़लाह' पा रहा हो उसके दावे को मानें और जो फ़लाह न पा रहा हो उसका इनकार कर दें, बल्कि यहाँ तो यह बात इस मानी में कही गई है कि “मैं यक़ीन के साथ जानता हूँ कि मुजरिमों को फ़लाह हासिल नहीं हो सकती, इस लिए मैं ख़ुद तो यह जुर्म नहीं कर सकता कि नुबूवत का झूठा दावा करूँ, अलबत्ता तुम्हारे बारे में मुझे यक़ीन है कि तुम सच्चे नबी को झुठलाने का जुर्म कर रहे हो, इसलिए तुम्हें फ़लाह और कामयाबी नहीं मिलेगी।”
फिर 'फ़लाह' का लफ़्ज़ भी क़ुरआन में दुनियावी फ़लाह (सांसारिक सफलता) के महदूद मानी में नहीं आया है, बल्कि इससे मुराद वह पायदार कामयाबी है जिसका नतीजा किसी घाटे की सूरत में निकलनेवाला न हो, इस बात से अलग हटकर कि दुनियावी ज़िन्दगी के इस इब्तिदाई मरहले में उसके अन्दर कामयाबी का कोई पहलू हो या न हो। हो सकता है कि गुमराही की तरफ़ बुलानेवाला एक शख़्स दुनिया में मज़े से जिए, ख़ूब फले-फूले और उसकी गुमराही को ख़ूब बढ़ावा मिले, मगर यह क़ुरआन की ज़बान में फ़लाह नहीं, सरासर घाटा है और यह भी हो सकता है कि हक़ (सत्य) की तरफ़ बुलानेवाला एक शख़्स दुनिया में सख़्त मुसीबतों से दोचार हो, दुखों की ज़्यादती से निढाल होकर या ज़ालिमों के ज़ुल्मों का शिकार होकर दुनिया से जल्दी रुख़़सत हो जाए, और कोई उसे मानकर न दे, मगर यह क़ुरआन की ज़बान में घाटा नहीं, हक़ीक़ी फ़लाह और कामयाबी है।
इसके अलावा क़ुरआन में जगह-जगह यह बात पूरी तरह खोलकर बयान की गई है कि अल्लाह तआला मुजरिमों को पकड़ने में जल्दी नहीं किया करता, बल्कि उन्हें संभलने के लिए काफ़ी मुहलत देता है, और अगर वे इस मुहलत से नाजाइज़ फ़ायदा उठाकर और ज़्यादा बिगड़ते हैं तो अल्लाह की तरफ़ से उनको ढील दी जाती है और बहुत बार तो उनको नेमतों से नवाज़ा जाता है, ताकि वे अपने नफ़्स की छिपी हुई तमाम शरारतों को पूरी तरह सामने ले आएँ और अपने अमल की बिना पर उस सज़ा के हक़दार हो जाएँ जिसके वे अपनी बुरी सिफ़तों की वजह से हक़ीक़त में हक़दार हैं। तो अगर किसी झूठे दावेदार की रस्सी को ढील दी जा रही हो और उसपर दुनियावी 'फ़लाह' की बरसात बरस रही हो तो बहुत बड़ी भूल होगी अगर उसकी इस हालत को उसके हिदायत पर होने की दलील समझा जाए। मुहलत देने और नवाज़े जाने से मुताल्लिक़ ख़ुदा का क़ानून जिस तरह तमाम मुजरिमों के लिए आम है उसी तरह नुबूवत के दावेदारों के लिए भी है और उनके इससे अलग होने की कोई दलील नहीं है। फिर शैतान को क़ियामत तक के लिए जो मुहलत अल्लाह तआला ने दी है उसमें भी इस इस्तिसना (अपवाद) का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है कि तेरे और तो सारे फ़रेब चलने दिए जाएँगे, लेकिन अगर तू अपनी तरफ़ से कोई ‘नबी' खड़ा करेगा तो यह फ़रेब न चलने दिया जाएगा।
मुमकिन है कोई शख़्स हमारी इस बात के जवाब में वे आयतें पेश करे जो सूरा-69 हाक़्क़ा, आयत-44 से 47 में बयान हुई हैं कि “अगर मुहम्मद ने ख़ुद गढ़कर कोई बात हमारे नाम से कही होती तो हम उसका हाथ पकड़ लेते और उसके दिल की नस काट डालते।” लेकिन आयत में जो बात कही गई है वह तो यह है कि जो शख़्स वाक़ई में ख़ुदा की तरफ़ से नबी बनाया गया हो वह अगर झूठी बात गढ़कर वह्य की हैसियत से पेश करे तो फ़ौरन पकड़ा जाए। इससे यह दलील देना कि नुबूवत का जो झूठा दावेदार पकड़ा नहीं जा रहा है वह ज़रूर सच्चा है, एक धोखे के सिवा कुछ नहीं है, जिसके लिए ग़लत दलील का सहारा लिया जा रहा है। मुहलत देने और नवाज़े जाने से मुताल्लिक़ ख़ुदा के क़ानून में जो इस्तिसना (अपवाद) इस आयत से साबित हो रहा है वह सिर्फ़ सच्चे नबी के लिए है। इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि जो शख़्स नुबूवत का झूठा दावा करे वह भी इससे अलग किया गया है। ज़ाहिर बात है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए हुकूमत ने जो क़ानून बनाया हो वह सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए होगा जो वाक़ई सरकारी कर्मचारी हों। रहे वे लोग जो जाली तौर पर अपने आपको एक सरकारी अधिकारी के रूप में पेश करें तो उनपर नौकरी का क़ानून लागू न होगा, बल्कि उनके साथ वही सूलूक किया जाएगा जो फ़ौजदारी क़ानून के तहत आम बदमाशों और मुजरिमों के साथ किया जाता है। इसके अलावा सूरा हाक़्क़ा की उस आयत में जो कुछ कहा गया है वह भी इस मक़सद के लिए नहीं कहा गया कि लोगों को नबी के परखने का यह पैमाना बताया जाए कि अगर ग़ैब के परदे से कोई सामने आकर उसके दिल की नस अचानक काट ले तो समझें झूठा है वरना मान लें कि सच्चा है। नबी के सच्चे या झूठे होने की जाँच अगर उसकी सीरत, उसके काम और उस चीज़ से जो वह पेश कर रहा हो, मुमकिन न होती तो ऐसे नामुनासिब और ग़लत पैमाने तय करने की ज़रूरत पेश आ सकती थी।
وَمَا كَانَ ٱلنَّاسُ إِلَّآ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَٱخۡتَلَفُواْۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡ فِيمَا فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ 18
(19) शुरू में सारे इनसान एक ही उम्मत (समुदाय) थे, बाद में उन्होंने अलग-अलग अक़ीदे और मसलक (पंथ) बना लिए,25 और अगर तेरे रब की तरफ़ से पहले ही एक बात तय न कर ली गई होती तो जिस चीज़ में वे आपस में इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं, उसका फ़ैसला कर दिया जाता।26
25. तशरीह के लिए देखें— सूरा-2 बक़रा, हाशिया-230; सूरा-6 अनआम, हाशिया-24 ।
26. यानी अगर अल्लाह तआला ने पहले ही यह फ़ैसला न कर लिया होता कि हक़ीक़त को इनसानों के हवास (चेतना) से छिपा रखकर उनकी अक़्ल व समझ और ज़मीर व विजदान (अन्तरात्मा और अन्तर्ज्ञान) को आज़माइश में डाला जाएगा और जो इस आज़माइश में नाकाम होकर ग़लत राह पर जाना चाहेंगे उन्हें उस राह पर जाने और चलने का मौक़ा दिया जाएगा, तो हक़ीक़त को आज ही बेनक़ाब करके सारे इख़्तिलाफ़ात (मतभेदों) का फ़ैसला किया जा सकता था।
यहाँ यह बात एक बड़ी ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए बयान की गई है। आमतौर पर आज भी लोग इस उलझन में हैं और क़ुरआन उतरने के वक़्त भी थे कि दुनिया में बहुत से मज़हब (धर्म) पाए जाते हैं और हर मज़हबवाला अपने ही मज़हब को सही समझता है। ऐसी हालत में आख़िर यह फ़ैसला किस तरह होगा कि कौन हक़ पर है और कौन नहीं? इसके बारे में कहा जा रहा है कि मज़हबों का यह इख़्तिलाफ़ दरअस्ल बाद की पैदावार है। शुरू में तमाम इनसानों का मज़हब एक था और वही मज़हब हक़ था, फिर उस हक़ में इख़्तिलाफ़ करके लोग अलग-अलग अक़ीदे और मज़हब बनाते चले गए। अब अगर मज़हबों की इस लड़ाई का फ़ैसला तुम्हारे नज़दीक अक़्ल व समझा के सही इस्तेमाल के बजाय सिर्फ़ इसी तरह हो सकता है कि ख़ुदा ख़ुद सच को बेनक़ाब करके सामने ले आए तो यह मौजूदा दुनियावी ज़िन्दगी में नहीं होगा। दुनिया की यह ज़िन्दगी तो है ही इम्तिहान के लिए, और यहाँ सारा इम्तिहान इसी बात का है कि तुम हक़ को देखे बग़ैर अक़्ल व समझ से काम लेते हुए उसे पहचानते हो या नहीं।
وَيَقُولُونَ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۖ فَقُلۡ إِنَّمَا ٱلۡغَيۡبُ لِلَّهِ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ 19
(20) और यह जो वे कहते हैं कि इस नबी पर उसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतारी गई,27 तो इनसे कहो, “ग़ैब” (परोक्ष) का मालिक और मुख़्तार (अधिकारी) तो अल्लाह ही है, अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।”28
27. यानी इस बात की निशानी कि यह वाक़ई सच्चा नबी और जो कुछ कर रहा है वह बिलकुल दुरुस्त है। इस सिलसिले में यह बात सामने रहे कि निशानी के लिए उनकी यह माँग कुछ इस बिना पर न थी कि वे सच्चे दिल से हक़ की दावत को क़ुबूल करने और उसके तक़ाज़ों के मुताबिक़ अपने अख़लाक़ को, आदतों को, समाज और रहन-सहन के निज़ाम को, गरज़ अपनी पूरी ज़िन्दगी को ढाल लेने के लिए तैयार थे और बस इस वजह से ठहरे हुए थे कि नबी की बात को सच्चा साबित करनेवाली कोई निशानी अभी उन्होंने ऐसी नहीं देखी थी जिससे उन्हें उसकी नुबूवत का यक़ीन आ जाए। अस्ल बात यह थी कि निशानी की यह माँग सिर्फ़ ईमान न लाने के लिए एक बहाने के रूप में पेश की जाती थी, जो कुछ भी उनको दिखाया जाता उसके बाद वे यही कहते कि कोई निशानी तो हमको दिखाई ही नहीं गई। इसलिए कि वे ईमान लाना चाहते ही न थे। दुनियावी ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू को इख़्तियार करने में यह जो आज़ादी उन्हें मिली हुई थी कि मन की ख़ाहिशों और दिलचस्पियों के मुताबिक़ जिस तरह चाहें काम करें और जिस चीज़ में लज़्ज़त या फ़ायदा महसूस करें उसके पीछे लग जाएँ, इसको छोड़कर वे ऐसी ग़ैबी हक़ीक़तों (परोक्ष सम्बन्धी तथ्यों यानी तौहीद और आख़िरत) को मानने के लिए तैयार न थे जिन्हें मान लेने के बाद उनको अपनी ज़िन्दगी का सारा निज़ाम मुस्तक़िल अख़लाक़ी उसूलों की बन्दिश में बाँधना पड़ जाता।
28. यानी जो कुछ अल्लाह ने उतारा है वह तो मैंने पेश कर दिया, और जो उसने नहीं उतारा वह मेरे और तुम्हारे लिए 'ग़ैब' है जिसपर सिवाए ख़ुदा के किसी का इख़्तियार नहीं, वह चाहे तो उतारे और न चाहे तो न उतारे। अब अगर तुम्हारा ईमान लाना इसी पर टिका है कि जो कुछ ख़ुदा ने नहीं उतारा है वह उतरे तो उसके इन्तिज़ार में बैठे रहो, मैं भी देंखूँगा कि तुम्हारी यह ज़िद पूरी की जाती है या नहीं।
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ مِّنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُمۡ إِذَا لَهُم مَّكۡرٞ فِيٓ ءَايَاتِنَاۚ قُلِ ٱللَّهُ أَسۡرَعُ مَكۡرًاۚ إِنَّ رُسُلَنَا يَكۡتُبُونَ مَا تَمۡكُرُونَ 20
(21) लोगों का हाल यह है कि मुसीबत के बाद जब हम उनको रहमत का मज़ा चखाते हैं तो फ़ौरन ही वे हमारी निशानियों के मामले में चालबाज़ियाँ शरू कर देते हैं।29 इनसे कहो, “अल्लाह अपनी चाल में तुमसे ज़्यादा तेज़ है। उसके फ़रिश्ते तुम्हारी सब मक्कारियों को लिख रहे हैं।30
29. यह फिर उसी अकाल की तरफ़ इशारा है जिसका ज़िक्र आयत नं. 11 और 12 में गुज़र चुका है। मतलब यह है कि तुम निशानी आख़िर किस मुँह से माँगते हो। अभी जो अकाल तुमपर गुज़रा है उसमें तुम अपने उन माबूदों (उपास्यों) से मायूस हो गए थे जिन्हें तुमने अल्लाह के यहाँ अपना सिफ़ारिशी ठहरा रखा था और जिनके बारे में कहा करते थे कि फ़ुलाँ आस्ताने की नियाज़ तो अचूक नुस्ख़ा है, और फ़ुलाँ दरगाह पर चढ़ावा चढ़ाने की देर है कि मुराद पूरी हो जाती है। तुमने देख लिया कि सिर्फ़ नाम के इन ख़ुदाओं के हाथ में कुछ नहीं है और सारे इख़्तियारात का मालिक सिर्फ़ अल्लाह है। इसी वजह से तो आख़िरकार तुम अल्लाह ही से दुआएँ माँगने लगे थे। क्या यह काफ़ी निशानी न थी कि तुम्हें उस तालीम के हक़ होने का यक़ीन आ जाता जो मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं? मगर उस निशानी को देखकर तुमने क्या किया? ज्यों ही कि अकाल दूर हुआ और रहमत की बारिश ने तुम्हारी मुसीबत ख़त्म कर दी, तुमने उस बला के आने और फिर उसके दूर होने के बारे में हज़ार तरह की वजहें बयान करनी और तावीलें (चालबाज़ियाँ) करनी शुरू कर दीं, ताकि तौहीद के मानने से बच सको और अपने शिर्क पर जमे रह सको। अब जिन लोगों ने अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) को इस हद तक ख़राब कर लिया हो उन्हें आख़िर कौन-सी निशानी दिखाई जाए और उसके दिखाने से फ़ायदा क्या है?
30. अल्लाह की चाल से मुराद यह है कि अगर तुम हक़ीक़त को नहीं मानते और उसके मुताबिक़ अपना रवैया दुरुस्त नहीं करते तो वह तुम्हें उसी बग़ावतवाले रास्ते पर चलते रहने की छूट दे देगा, तुमको जीते जी अपने रिज़्क़ और नेमतों से नवाज़ता रहेगा जिससे तुम्हारी ज़िन्दगी का नशा यूँ ही तुम्हें मस्त किए रखेगा, और इस मस्ती के दौरान में जो कुछ तुम करोगे वह सब अल्लाह के फ़रिश्ते ख़ामोशी के साथ बैठे लिखते रहेंगे, यहाँ तक कि अचानक मौत का पैग़ाम आ जाएगा और तुम अपने करतूतों का हिसाब देने के लिए पकड़ लिए जाओगे।
فَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ إِن كُنَّا عَنۡ عِبَادَتِكُمۡ لَغَٰفِلِينَ 28
(29) हमारे और तुम्हारे बीच अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि (तुम अगर हमारी इबादत करते भी थे तो) हम तुम्हारी उस इबादत से बिलकुल बेख़बर थे।37
37. यानी वे तमाम फ़रिश्ते जिनको दुनिया में देवी और देवता ठहराकर पूजा गया, और वे तमाम जिन्न, रूहें, गुज़रे हुए लोग, बाप-दादा, पैग़म्बर, वली, शहीद वग़ैरा जिनको ख़ुदाई सिफ़तों में शरीक ठहराकर वे हक़ उन्हें अदा किए गए जो दर-अस्ल ख़ुदा के हक़ थे, वहाँ अपनी परस्तिश करनेवालों से साफ़ कह देंगे कि हमें तो पता तक न था कि तुम हमारी इबादत कर रहे हो। तुम्हारी कोई दुआ, कोई दरख़ास्त, कोई पुकार और फ़रियाद, कोई नज़्रो-नियाज़, कोई चढ़ावे की चीज़, तुम्हारी तरफ़ से कोई तारीफ़ और बड़ाई बयान करना और हमारे नाम की जाप हम तक नहीं पहुँची और न तुम्हारा हमें कोई सजदा करना, हमारे आस्ताने को चूमना-चाटना और दरगाह के चक्कर लगाना हम तक पहुँचा है।
فَذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَاذَا بَعۡدَ ٱلۡحَقِّ إِلَّا ٱلضَّلَٰلُۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ 31
(32) तब तो यही अल्लाह तुम्हारा हक़ीक़ी रब है।38 फिर हक़ (सत्य) के बाद गुमराही के सिवा और क्या बाक़ी रह गया? आख़िर यह तुम किधर फिराए जा रहे हो?39
38. यानी अगर ये सारे काम अल्लाह के हैं, जैसा कि तुम ख़ुद मानते हो, तब तो तुम्हारा हक़ीक़ी परवरदिगार, मालिक, स्वामी और तुम्हारी बन्दगी व इबादत का हक़दार अल्लाह ही हुआ। ये दूसरे जिनका इन कामों में कोई हिस्सा नहीं आख़िर वे रब होने में कहाँ से साझीदार हो गए?
39. ख़याल रहे कि ख़िताब आम लोगों से है और उनसे सवाल यह नहीं किया जा रहा है कि “तुम किधर फिरे जाते हो” बल्कि यह है कि “तुम किधर फिराए जा रहे हो।” इससे साफ़ ज़ाहिर है कि कोई ऐसा गुमराह करनेवाला शख़्स या गरोह मौजूद है जो लोगों को सही रुख़़ से हटाकर ग़लत रुख़ पर फेर रहा है। इसी बिना पर लोगों से यह कहा जा रहा है कि तुम अन्धे बनकर ग़लत रहनुमाई करनेवालों के पीछे क्यों चले जा रहे हो, अपनी अक़्ल से काम लेकर सोचते क्यों नहीं कि जब हक़ीकत यह है, तो आख़िर यह तुमको किधर चलाया जा रहा है। सवाल करने का यह अन्दाज़ जगह-जगह ऐसे मौक़ों पर क़ुरआन में अपनाया गया है, और हर जगह गुमराह करनेवालों का नाम लेने के बजाय उनको परदे में छिपा दिया गया है, ताकि उनकी पैरवी करनेवाले ठण्डे दिल से अपने मामले पर ग़ौर कर सकें, और किसी को यह कहकर उन्हें भड़काने और उनका दिमाग़ी तवाज़ुन (सन्तुलन) बिगाड़ देने का मौक़ा न मिले कि देखो ये तुम्हारे बुज़ुर्गों और पेशवाओं पर चोटें की जा रही हैं। इसमें इस बात का एक अहम नुक्ता छिपा है कि तबलीग़ कैसे की जाए, जिससे गाफ़िल न रहना चाहिए।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۚ قُلِ ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ 33
(34) इनसे पूछो, “तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई है जो पैदाइश की शुरुआत भी करता हो और फिर उसे दोहराए भी?"— कहो, “वह सिर्फ़ अल्लाह है जो पैदाइश की इब्तिदा भी करता है और उसे दोहराता भी है’’41 फिर तुम यह किस उलटी राह पर चलाए जा रहे हो?42
41. पैदाइश की शुरुआत के बारे में तो शिर्क करनेवाले मानते ही थे कि यह सिर्फ़ अल्लाह का काम है, उनके ठहराए हुए साझीदारों में से किसी का इस काम में कोई हिस्सा नहीं। रहा दोबारा पैदा करना, तो ज़ाहिर है कि जो शुरू में पैदा करनेवाला है वही दोबारा भी पैदा कर सकता है, मगर जो शुरू ही मैं पैदा करने की क़ुदरत न रखता हो वह किस तरह दोबारा पैदा करने की क़ुदरत रख सकता है। यह बात अगरचे साफ़ तौर पर एक अक़्ल में आनेवाली बात है, और ख़ुद शिर्क करनेवालों के दिल भी अन्दर से इसकी गवाही देते थे कि बात बिलकुल ठिकाने की है, लेकिन उन्हें इसका इक़रार करने में इस वजह से झिझक थी कि उसे मान लेने के बाद आख़िरत का इनकार मुश्किल हो जाता है। यही वजह है कि ऊपर के सवालों पर तो अल्लाह ने फ़रमाया कि वे ख़ुद कहेंगे कि ये काम अल्लाह के हैं, मगर यहाँ इसके बजाय नबी (सल्ल०) से कहा जाता है कि तुम डंके की चोट पर कहो कि यह शुरू में पैदा करने और दोबारा पैदा करने का काम भी अल्लाह ही का है।
42. यानी जब तुम्हारी शुरुआत का सिरा भी अल्लाह के हाथ में है और इन्तिहा का सिरा भी उसी के हाथ में, तो ख़ुद अपना भला चाहनेवाले बनकर ज़रा सोचो कि आख़िर तुम्हें यह क्या समझाया जा रहा है कि इन दोनों सिरों के बीच में अल्लाह के सिवा किसी और को तुम्हारी बन्दगियों और नियाज़मन्दियों का हक़ पहुँच गया है।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّۚ قُلِ ٱللَّهُ يَهۡدِي لِلۡحَقِّۗ أَفَمَن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّيٓ إِلَّآ أَن يُهۡدَىٰۖ فَمَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ 34
(35) इनसे पूछो, तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई ऐसा भी है जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता हो?43 कहो, वह सिर्फ़ अल्लाह है जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है। फिर भला बताओ, जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है वह इसका ज़्यादा हक़दार है। कि उसकी पैरवी की जाए या वह जो ख़ुद राह नहीं पाता, सिवाए इसके कि उसकी रहनुमाई की जाए? आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, कैसे उलटे-उलटे फ़ैसले करते हो?
43. यह एक बहुत ही अहम सवाल है जिसको ज़रा तफ़सील के साथ समझ लेना चाहिए। दुनिया में इनसान की ज़रूरतों का दायरा सिर्फ़ इसी हद तक महदूद नहीं है कि उसको खाने-पीने, पहनने और ज़िन्दगी बसर करने का सामान हासिल हो और आफ़तों, मुसीबतों और नुक़सानों से वह महफ़ूज़ रहे, बल्कि उसकी एक ज़रूरत (और हक़ीक़त में सबसे बड़ी ज़रूरत) यह भी है कि उसे दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने का सही तरीक़ा मालूम हो और वह जाने कि अपने आपके साथ, अपनी कुव्वतों और क़ाबिलियतों के साथ, उस सरो-सामान के साथ जो ज़मीन पर उसके इस्तेमाल में हैं, उन अनगिनत इनसानों के साथ जिनसे अलग-अलग हैसियतों में उसको साबिक़ा पेश आता है, और मजमूई तौर पर इस कायनात के निज़ाम के साथ जिसके मातहत रहकर ही बहरहाल उसको काम करना है, वह क्या और किस तरह मामला करे जिससे उसकी ज़िन्दगी मजमूई हैसियत से कामयाब हो और उसकी कोशिशें और मेहनतें ग़लत राहों में ख़र्च होकर तबाही व बरबादी पर ख़त्म न हों। इसी सही तरीक़े का नाम 'हक़' है, और जो रहनुमाई इस तरीक़े की तरफ़ इनसान को ले जाए वही ‘हक़' की हिदायत' है। अब क़ुरआन तमाम मुशरिकों से और उन सब लोगों से, जो पैग़म्बर की तालीम को मानने से इनकार करते हैं, यह पूछता है कि तुम ख़ुदा के सिवा जिन-जिनकी बन्दगी करते हो उनमें कोई है जो तुम्हारे लिए 'सच्ची हिदायत' हासिल करने का ज़रिआ बनता हो या बन सकता हो? — ज़ाहिर है कि इसका जवाब 'नहीं' के सिवा और कुछ नहीं है। इसलिए कि इनसान ख़ुदा के सिवा जिनकी बन्दगी करता है। वे दो बड़ी क़िस्मों में बँटे हैं—
एक वे देवियाँ, देवता और ज़िन्दा या मुर्दा इनसान जिनकी परस्तिश की जाती है। सो उनकी तरफ़ तो इनसान इस मक़सद के लिए रुख़ करता है कि ग़ैर-फ़ितरी तरीक़े से वे उसकी ज़रूरत पूरी करें और उनको आफ़तों से बचाएँ। रही सही रास्ते की हिदायत, तो वह न कभी उनकी तरफ़ से आई, न कभी किसी मुशरिक ने उसके लिए उनकी तरफ़ रुख़ किया, और न कोई मुशरिक यह कहता है कि उसके ये माबूद (उपास्य) उसे अख़लाक़़, समाज, रहन-सहन, तहज़ीबो-तमद्दुन, रोज़ी कमाने और कारोबार करने, सियासत, क़ानून, अदालत वग़ैरा के उसूल सिखाते हैं।
दूसरे वे इनसान जिनके बनाए हुए उसूलों और क़ानूनों की पैरवी और इताअत की जाती है, सो वे रहनुमा तो ज़रूर हैं मगर सवाल यह है कि क्या वाकई में वे 'हक़ के रहनुमा' भी हैं या हो सकते हैं? क्या उनमें से किसी का इल्म भी उन तमाम हक़ीक़तों पर हावी है जिनको जानना इनसानी ज़िन्दगी के सही उसूल बनाने के लिए ज़रूरी है? क्या उनमें से किसी की नज़र भी उस पूरे दायरे पर फैलती है जिसमें इनसानी ज़िन्दगी से ताल्लुक़ रखनेवाले मसाइल फैले हुए हैं? क्या उनमें से कोई भी उन कमज़ोरियों से, उन तास्सुबात (पक्षपातों) से, उन व्यक्तिगत या गरोही दिलचस्पियों से, उन मक़सदों और ख़ाहिशों से, और उन रुझानों और मैलानों से परे है जो इनसानी समाज के लिए मुंसिफ़ाना (न्यायपूर्ण) क़ानून बनाने में रुकावट होते हैं? अगर जवाब 'न' में है, और ज़ाहिर है कि कोई सही दिमाग़ का आदमी इन सवालों का जवाब 'हाँ' में नहीं दे सकता, तो आख़िर ये लोग 'हक़ की हिदायत देनेवाले' कैसे हो सकते हैं?
इसी बिना पर क़ुरआन यह सवाल करता है कि लोगो, तुम्हारे इन मज़हबी माबूदों और सामाजिक ख़ुदाओं में कोई ऐसा भी है जो सीधी राह की तरफ़ तुम्हारी रहनुमाई करनेवाला हो? ऊपर के सवालात के साथ मिलकर यह आख़िरी सवाल दीन व मज़हब के पूरे मसले का फ़ैसला कर देता है। इनसान की सारी ज़रूरतें दो ही क़िस्म की हैं। एक क़िस्म की ज़रूरतें ये हैं कि कोई उसका पालनहार हो, कोई ऐसा हो जिसकी वह पनाह चाहे, कोई दुआओं का सुननेवाला और ज़रूरतों का पूरा करनेवाला हो जिसका मुस्तक़िल सहारा इस असबाब (कारणों और साधनों) की दुनिया के कमज़ोर सहारों के बीच रहते हुए वह थाम सके। सो ऊपर के सवालों ने फ़ैसला कर दिया कि इस ज़रूरत को पूरा करनेवाला ख़ुदा के सिवा कोई नहीं है। दूसरी क़िस्म की ज़रूरतें ये हैं कि कोई ऐसा रहनुमा हो जो दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने के सही उसूल बताए और जिसके दिए हुए ज़िन्दगी के क़ानूनों की पैरवी पूरे एतिमाद व इत्मीनान के साथ की जा सके। सो इस आख़िरी सवाल ने उसका फ़ैसला भी कर दिया कि वह भी सिर्फ़ ख़ुदा ही है। इसके बाद ज़िद और हठधर्मी के सिवा कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह जाती जिसकी बिना पर इनसान शिर्क की तालीम देनेवाले मज़हबों और समाज, अख़लाक़ और सियासत के ग़ैर-मज़हबी (Secular) उसूलों से चिमटा रहे।
وَمِنۡهُم مَّن يُؤۡمِنُ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن لَّا يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ 39
(40) इनमें से कुछ लोग ईमान लाएँगे और कुछ नहीं लाएँगे, और तेरा रब उन बिगाड़ पैदा करनेवालों को ख़ूब जानता है।48
48. ईमान न लानेवालों के बारे में कहा जा रहा है कि “ख़ुदा इन बिगाड़ फैलानेवालों को ख़ूब जानता है।” यानी वे दुनिया का मुँह तो ये बातें बनाकर बन्द कर सकते हैं कि साहब हमारी समझ में बात नहीं आती इसलिए नेक नीयती के साथ हम इसे नहीं मानते, लेकिन ख़ुदा जो दिल और अन्दरून के छिपे राज़ों को जानता है, वह उनमें से एक-एक शख़्स के बारे में जानता है कि किस-किस तरह उसने अपने दिलो-दिमाग़ पर ताले लगाए, अपने आपको ग़फ़लतों में गुम किया, अपने दिल और अन्दरून की आवाज़ को दबाया, अपने दिल में हक़ की गवाही को उभरने से रोका, अपने ज़ेहन से हक़ को क़ुबूल करने की सलाहियत को मिटाया, सुनकर न सुना, समझते हुए न समझने की कोशिश की और हक़ के मुक़ाबले में अपने तास्सुबात (पक्षपातों) को, अपने दुनियावी फ़ायदे को, बातिल और नाहक़ बातों से उलझे अपने मक़सदों को और अपने मन की ख़ाहिशों और चाहतों को तरजीह दी। इसी बिना पर वे 'भोले-भाले गुमराह' नहीं हैं, बल्कि हक़ीक़त में बिगाड़ फैलानेवाले हैं।
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي ضَرّٗا وَلَا نَفۡعًا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۗ لِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌۚ إِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَلَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ 48
(49) कहो, “मेरे इख़्तियार में ख़ुद अपना फ़ायदा और नुक़सान भी नहीं, सब कुछ अल्लाह की मरज़ी पर टिका है।57 हर उम्मत के लिए मुहलत की एक मुद्दत है, जब यह मुद्दत पूरी हो जाती है तो घड़ी भर के लिए भी आगे-पीछे नहीं होती।58
57. यानी मैंने यह कब कहा था कि यह फ़ैसला मैं चुकाऊँगा और न माननेवालों को मैं अज़ाब दूँगा, इसलिए मुझसे क्या पूछते हो कि फ़ैसला चुकाए जाने की धमकी कब पूरी होगी। धमकी तो अल्लाह ने दी है, वही फ़ैसला चुकाएगा और उसी के इख़्तियार में है कि फ़ैसला कब करे और किस शक्ल में उसको तुम्हारे सामने लाए।
58. मतलब यह है कि अल्लाह तआला जल्दबाज़ नहीं है। उसका यह तरीक़ा नहीं कि रसूल की दावत किसी शख़्स या गरोह को पहुँची उसी वक़्त जो ईमान ले आया वह तो बस रहमत का हक़दार ठहरा और जिस किसी ने उसको मानने से इनकार किया या मानने में उसे हिचकिचाहट हुई उसपर फ़ौरन अज़ाब का फ़ैसला लागू कर दिया गया। नहीं, अल्लाह का क़ायदा यह है कि अपना पैग़ाम पहुँचाने के बाद वह हर शख़्स को उसकी इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) हैसियत के मुताबिक़ और हर गरोह और क़ौम को उसकी इज्तिमाई हैसियत के मुताबिक़, सोचने-समझने और संभलने के लिए काफ़ी वक़्त देता है। यह मुहलत का ज़माना कई बार सदियों तक लम्बा होता है और इस बात को अल्लाह ही बेहतर जानता है कि किसको कितनी मुहलत मिलनी चाहिए। फिर जब वह मुहलत, जो सरासर इनसाफ़ के साथ उसके लिए रखी गई थी, पूरी हो जाती है और वह शख़्स या गरोह बग़ावत के अपने रवैये से नहीं रुकता, तो अल्लाह तआला उसपर अपना फ़ैसला लागू करता है। यह फ़ैसले का वक़्त अल्लाह की मुक़र्रर की हुई मुद्दतों से न एक घड़ी पहले आ सकता है और न वक़्त आ जाने के बाद एक पल के लिए टल सकता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ لَكُم مِّن رِّزۡقٖ فَجَعَلۡتُم مِّنۡهُ حَرَامٗا وَحَلَٰلٗا قُلۡ ءَآللَّهُ أَذِنَ لَكُمۡۖ أَمۡ عَلَى ٱللَّهِ تَفۡتَرُونَ 58
(59) ऐ नबी! इनसे कहो, “तुम लोगों ने कभी यह भी सोचा है कि जो रोज़ी60 अल्लाह ने तुम्हारे लिए उतारी थी उसमें से तुमने ख़ुद ही किसी को हराम और किसी को हलाल ठहरा लिया।61 इनसे पूछो, “अल्लाह ने इसकी इजाज़त दी थी? या तुम अल्लाह पर झूठ गढ़ रहे हो?62
60. उर्दू ज़बान में 'रिज़्क़' लफ़्ज़ का इस्तेमाल सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ों के लिए होता है। इसी वजह से लोग समझते हैं कि यहाँ पकड़ सिर्फ़ उस क़ानूनसाज़ी पर की गई है जो खाने-पीने की छोटी-सी दुनिया में मज़हबी अंधविश्वासों या रस्मो-रिवाज की बुनियाद पर लोगों ने कर डाली है। इस ग़लतफ़हमी में जाहिल लोग ही नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे लोग और उलमा तक मुब्तला हैं हालाँकि अरबी ज़बान में 'रिज़्क़' सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ों के मानी तक महदूद नहीं है, बल्कि देन और बख़्शिश और नसीब के मानी में आम है। अल्लाह तआला ने जो कुछ भी दुनिया में इनसान को दिया है वह सब उसका रिज़्क़ है, यहाँ तक कि औलाद भी रिज़्क़ है। अस्माउर्रिजाल की किताबों में बहुत-से रावियों (उल्लेखकर्ताओं) के नाम 'रिज़क़' और 'रुज़ैक़' और 'रिज़्क़ुल्लाह' मिलते हैं जिसके मानी लगभग वही हैं जो उर्दू-हिन्दी में 'अल्लाह दिए' के मानी हैं। मशहूर दुआ है “अल्लाहुम-म अरिनल हक़-क हक़्क़न वरज़ुक़नत्तिबाअहू” यानी “ऐ अल्लाह, हमपर हक़ खोल और हमें उसपर चलने की तौफ़ीक़ दे” मुहावरे में बोला जाता है “रूज़ि-क़ इल्मन” यानी “फ़ुलाँ शख़्स को इल्म दिया गया है।” हदीस में है कि अल्लाह तआला हर हामिला (गर्भवती) के पेट में एक फ़रिश्ता भेजता है और वह पैदा होनेवाले का रिज़्क़ और उसकी उम्र की मुद्दत और उसका काम लिख देता है। ज़ाहिर है कि यहाँ रिज़्क़ से मुराद सिर्फ़ वह ख़ुराक ही नहीं है जो बच्चे को आइन्दा मिलनेवाली है, बल्कि वह सब कुछ है जो उसे दुनिया में दिया जाएगा। ख़ुद क़ुरआन में है- “व मिम्मा रज़क़्नाहुम युन्फ़िक़ून” यानी “जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं।” लिहाज़ा रिज़्क़ को सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ों की हदों तक महदूद समझना और यह समझ लेना कि अल्लाह तआला को सिर्फ़ उन पाबन्दियों और आज़ादियों पर एतिराज़ है जो खाने-पीने की चीज़ों के मामले में लोगों ने अपने आप अपना ली हैं, बहुत बड़ी ग़लती है और यह कोई मामूली ग़लती नहीं है। इसकी बदौलत ख़ुदा के दीन (धर्म) की एक बहुत बड़ी उसूली तालीम लोगों की निगाहों से ओझल हो गई है। यह इसी ग़लती का तो नतीजा है कि खाने-पीने की चीज़ों के मामले में हलाल व हराम और जाइज़ नाजाइन का मामला तो एक दीनी मामला समझा जाता है, लेकिन रहन-सहन के बहुत-से मामलों में अगर यह उसूल तय कर लिया जाए कि इनसान ख़ुद अपने लिए हदें मुक़र्रर करने का हक़ रखता है, और इसी बुनियाद पर ख़ुदा और उसकी किताब से वेपरवाह होकर क़ानूनसाज़ी की जाने लगे, तो आम आदमी तो दूर की बात, दीन के आलिम, मुफ़्ती, क़ुरआन के मुफ़स्सिरीन (टीकाकार) और हदीसों की गहरी जानकारी रखनेवालों तक को यह एहसास नहीं होता कि यह चीज़ भी दीन से उसी तरह टकराती है, जिस तरह खाने-पीने की चीज़ों में अल्लाह की शरीअत से बेपरवाह होकर जाइज-नाजाइज़ की हदें अपने आप तय कर लेना।
61. यानी तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह कितना सख़्त बाग़ियाना (विद्रोहपूर्ण) जुर्म है जो तुम कर रहे हो। रिज़्क़ अल्लाह का है और तुम ख़ुद अल्लाह के हो, फिर यह हक़ आख़िर तुम्हें कहाँ से मिल गया कि तुम उन चीज़ों में, जिनका मालिक अल्लाह है, अपने इस्तेमाल और फ़ायदे के लिए ख़ुद हदबन्दियाँ मुक़र्रर करो? कोई नौकर अगर यह दावा करे कि मालिक के माल में अपने इस्तेमाल और इख़्तियारात की हदें उसे ख़ुद मुक़र्रर कर लेने का हक़ है और इस मामले में मालिक के कुछ बोलने की सिरे से कोई ज़रूरत ही नहीं है, तो उसके बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम्हारा अपना नौकर अगर तुम्हारे घर में और तुम्हारे घर की सब चीज़ों में अपने अमल और इस्तेमाल के लिए इस आज़ादी और ख़ुदमुख़्तारी का दावा करे तो तुम उसके साथ क्या सुलूक करोगे?— उस नौकर का मामला तो दूसरा ही है जो सिरे से यही नहीं मानता कि वह किसी का नौकर है और कोई उसका मालिक भी है और यह किसी और का माल है जो उसके इस्तेमाल में है। उस बदमाश नाजाइज़ कब्ज़ा करनेवाले की पोज़ीशन पर यहाँ बहस नहीं हो रही है। यहाँ सवाल उस नौकर की पोजीशन का है, जो ख़ुद मान रहा है कि वह किसी का नौकर है और यह भी मानता है कि माल उसी का है जिसका वह नौकर है और फिर कहता है कि इस माल में अपने इस्तेमाल की हदें मुकर्रर कर लेने का हक़ मुझे आप ही हासिल है और मालिक से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है।
62. यानी तुम्हारी यह पोज़ीशन सिर्फ़ उसी सूरत में सही हो सकती थी कि मालिक ने ख़ुद तुमको इख़्तियार दे दिया होता कि मेरे माल को तुम जिस तरह चाहो इस्तेमाल करो। अपने अमल और इस्तेमाल की हदें, क़ानून, ज़ाबिते सब कुछ बना लेने के तमाम हुक़ूक़ मैंने तुम्हें सौंप दिए। अब सवाल यह है कि क्या तुम्हारे पास वाक़ई इसकी कोई सनद (प्रमाण) है कि मालिक ने तुमको ये इख़्तियार दे दिए हैं या तुम बिना किसी सनद के यह दावा कर रहे हो कि वे तमाम हुक़ूक़ तुम्हें सौंप चुका है? अगर पहली सूरत है तो मेहरबानी करके वह सनद दिखाओ, वरना दूसरी सूरत में यह खुली बात है कि तुम बग़ावत पर झूठ और झूठी बातें गढ़ने का जुर्म भी कर रहे हो।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ 63
(67) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई कि उसमें सुकून हासिल करो और दिन को रौशन बनाया। इसमें निशानियों उन लोगों के लिए जो (खुले कानों से पैग़म्बर के पैग़ाम की) सुनते हैं।65
65. यह एक ऐसी बात है जिसे बहुत मुख़्तसर लफ़्ज़ों में बयान किया गया है, हालाँकि यह बात बहुत वज़ाहत चाहती है। फ़ल्सफ़ियाना तजस्सुस (दार्शनिकोंवाली जिज्ञासा), जिसका मक़सद यह पता चलाना है कि इस कायनात में जो कुछ हम देखते और महसूस करते हैं, उसके पीछे कोई हक़ीक़त छिपी है या नहीं और है तो वह क्या है? दुनिया में उन सब लोगों के लिए जो वह्य व इल्हाम से सीधे तौरपर (Direct) हक़ीक़त का इल्म नहीं पाते, मज़हब के बार में राय क़ायम करने का एक अकेला ज़रिआ है। कोई शख़्स भी चाहे वह दहरियत (नास्तिकता) अपनाए, या शिर्क (बहुदेववाद) या ख़ुदा-परस्ती (एकेश्वरवाद), बहरहाल एक न एक तरह का फ़ल्सफ़ियाना तजस्सुस किए बिना मज़हब के बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकता और पैग़म्बरों ने जो मज़हब पेश किया है उसकी जाँच भी अगर हो सकती है तो इसी तरह हो सकती है कि आदमी अपनी कोशिश भर, फ़ल्सफ़ियाना ग़ौर व फ़िक्र करके इत्मीनान हासिल करने की कोशिश करे कि पैग़म्बर हमें कायनात में नज़र आनेवाली चीज़ों के पीछे जिस हक़ीक़त के छिपे होने का पता दे रहे हैं वह दिल को लगती है या नहीं। इस तजस्सुस (जिज्ञाषा) के सही या ग़लत होने का पूरा दारोमदार तजस्सुस के तरीक़े पर है। उसके ग़लत होने से ग़लत राय और सही होने से सही राय क़ायम होती है। अब ज़रा जाइज़ा लेकर देखिए कि दुनिया के मुख़्तलिफ़ गरोहों ने इस तजस्सुस के लिए कौन-कौन से तरीक़े अपनाए हैं—
मुशारिकों ने ख़ालिस वहम पर अपनी तलाश की बुनियाद रखी है।
इशाराक़ियों (ज्योतिषियों) और जोगियों ने अगरचे मुराक़बा (ध्यान-योग) का ढोंग रचाया है और दावा किया है कि “हम ज़ाहिर के पीछे झाँककर बातिन (अन्दरून) को देख लेते हैं”, लेकिन अस्ल में उन्होंने अपनी इस ख़ुफ़िया मालूमात हासिल करने की बुनियाद गुमान पर रखी है। वह मुराक़बा (ध्यान) अस्ल में अपने गुमान का करते हैं, और जो कुछ वे कहते हैं कि हमें नज़र आता है उसकी हक़ीक़त इसके सिवा कुछ नहीं है कि गुमान से जो ख़याल उन्होंने क़ायम कर लिया है उसी पर अपने ख़याल को जमा देते हैं और फिर उसपर ज़ेहन का दबाव डालने से उनको वही ख़याल चलता-फिरता नज़र आने लगता है। फ़ल्सफ़ी (दार्शनिक) कहे जानेवाले लोगों ने अनुमान को गुमान की हक़ीक़त का पता लगाने की बुनियाद बनाया है जो अस्ल में तो गुमान ही है, लेकिन इस गुमान के लंगड़ेपन को महसूस करके उन्होंने अक़्ली दलीलों और बनावटी अक़्ल-पसंदी की बैसाखियों पर इसे चलाने की कोशिश की है और इसका नाम 'क़ियास' (अनुमान) रख दिया है। साइंसदानों ने अगरचे साइंस के दायरे में तहक़ीक़ात के लिए इल्मी तरीक़ा अपनाया, मगर भौतिक और क़ुदरती दुनिया के परे की हदों में कदम रखते ही वे भी इल्मी तरीक़े को छोड़कर क़ियास व गुमान और अन्दाज़ों व अटकलों के पीछे चल पड़े।
फिर इन सब गरोहों के अंधविश्वासों और गुमानों को किसी-न-किसी तरह तास्सुब (पक्षपात) की बीमारी भी लग गई, जिसने उन्हें दूसरे की बात न सुनने और अपने ही मनपसन्द रास्ते पर मुड़ने और मुड़ जाने के बाद मुड़े रहने पर मजबूर कर दिया।
तजस्सुस (जिज्ञासा) के इस तरीक़े को क़ुरआन बुनियादी तौर पर ग़लत ठहराता है। वह कहता है कि तुम लोगों की गुमराही की अस्ल वजह यही है कि तुम हक़ीक़त की तलाश की बुनियाद गुमान और अटकलों पर रखते हो और फिर तास्सुब की वजह से किसी की सही और मुनासिब बातें सुनने के लिए भी आमादा नहीं होते। इसी दोहरी ग़लती का नतीजा यह है कि तुम्हारे लिए ख़ुद हक़ीक़त को पा लेना तो नामुमकिन था ही, नबियों के ज़रिए पेश किए गए दीन को जाँच कर सही राय पर पहुँचना भी नामुमकिन हो गया।
इसके मुक़ाबले में क़ुरआन ने फ़ल्सफ़ियाना तहक़ीक़ के लिए सही इल्मी व अक़्ली तरीक़ा यह बताया है कि पहले तुम हक़ीक़त के बारे में उन लोगों का बयान खुले कानों से, बिना तास्सुब (पक्षपात) सुनो जो दावा करते हैं कि हम क़ियास व गुमान, मुराक़बा व इस्तिदराज (चमत्कार) की बुनियाद पर नहीं, बल्कि 'इल्म' की बुनियाद पर तुम्हें बता रहे हैं कि हक़ीक़त यह है। फिर कायनात में जो निशानियाँ (क़ुरआन की ज़बान में 'निशानात') तुम्हारे देखने और तजरिबे में आती हैं उनपर ग़ौर करो, उनकी गवाहियों को इकट्ठा करके देखो और तलाश करते चले जाओ कि इस ज़ाहिर के पीछे जिस हक़ीक़त की निशानदही ये लोग कर रहे हैं उसकी तरफ़ इशारा करनेवाली अलामतें तुमको इसी ज़ाहिर में मिलती हैं या नहीं। अगर ऐसी अलामतें नज़र आएँ और उनके इशारे भी वाज़ेह हों तो फिर कोई वजह नहीं कि तुम ख़ाह-मख़ाह उन लोगों को झुठलाओ जिनका बयान निशानियों की गवाहियों के मुताबिक़ पाया जा रहा है। यही तरीक़ा इस्लाम के फ़ल्सफ़े की बुनियाद है जिसे छोड़कर अफ़सोस है कि मुसलमान फ़ल्सफ़ी (दार्शनिक) भी अफ़लातून और अरस्तू के नक़्शे-क़दम पर चल पड़े।
क़ुरआन में जगह-जगह न सिर्फ़ इस तरीक़े की ताकीद की गई है, बल्कि ख़ुद कायनात की निशानियों को पेश कर-कर के उनसे नतीजा निकालने और हक़ीक़त तक पहुँचने की मानो बाक़ायदा तरबियत दी गई है, ताकि सोचने और तलाश करने का यह ढंग ज़ेहनों में बैठ जाए। चुनाँचे इस आयत में भी मिसाल के तौर पर सिर्फ़ दो निशानियों की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है, यानी रात और दिन। रात और दिन का यह आना-जाना अस्ल में सूरज और ज़मीन की निस्बतों में इन्तिहाई बाज़ाबिता तब्दीली की वजह से सामने आता है। यह एक आलमगीर नाज़िम और सारी कायनात पर ग़ालिब इक़तिदार रखनेवाले हाकिम के वुजूद की खुली अलामत है। इसमें वाज़ेह हिकमत और मक़सदियत भी नज़र आती है; क्योंकि ज़मीन पर मौजूद तमाम चीज़ों की बेशुमार मस्लहतें रात-दिन के इसी उलट-फेर से जुड़ी हैं। इसमें ख़ुदा की परवरदिगारी और रहमत की साफ़ और खुली अलामतें भी पाई जाती हैं, क्योंकि इससे यह सुबूत मिलता है कि जिसने ज़मीन पर ये सारी चीज़े पैदा की हैं वह ख़ुद ही इनके वुजूद की ज़रूरतें भी पूरी करता है। इससे यह भी मालूम होता है कि वह आलमगीर नाज़िम एक है, और यह भी कि वह खिलंडरा नहीं, बल्कि हिकमतवाला है और बामक़सद काम करता है, और यह भी कि वही एहसान करनेवाला और पालने-पोसनेवाला होने की हैसियत से इबादत का हक़दार है, और यह भी कि रात-दिन के उलट-फेर के तहत जो कोई भी है वह रब और पालनहार नहीं है, बल्कि उस पालनहार के ज़रिए ख़ुद उसका पालन-पोषण हो रहा है, वह मालिक नहीं ग़ुलाम है। इन आसारी गवाहियों के मुक़ाबले में मुशरिकों ने गुमान और अटकलों से जो मज़हब बना लिए हैं, वे आख़िर किस तरह सही हो सकते हैं।
قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱلۡغَنِيُّۖ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنۡ عِندَكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭ بِهَٰذَآۚ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ 64
(68) लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है।66 सुबहानल्लाह!67 वह तो बेनियाज़ (निस्पृह) है, आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब उसकी मिल्कियत है।68 तुम्हारे पास इस बात के लिए आख़िर दलील क्या है? क्या तुम अल्लाह के बारे में वे बातें कहते हो जो तुम्हारे इल्म में नहीं हैं?
66. ऊपर की आयतों में लोगों की इस जाहिलियत पर टोका गया था कि अपने मज़हब की बुनियाद इल्म के बजाय गुमान और अटकल पर रखते हैं और फिर किसी इल्मी तरीक़े से यह पता लगाने की भी कोशिश नहीं करते कि हम जिस मज़हब पर चले जा रहे हैं उसकी कोई दलील भी है या नहीं। अब इसी सिलसिले में ईसाइयों और कुछ दूसरे धर्मवालों की इस नादानी पर टोका गया है कि उन्होंने सिर्फ़ गुमान से किसी को ख़ुदा का बेटा ठहरा लिया।
67. 'सुब्हानल्लाह' कलिमा ताज्जुब के तौर पर कभी हैरत ज़ाहिर करने के लिए भी बोला जाता है, और कभी उसके हक़ीक़ी मानी ही मुराद होते हैं, यानी यह कि “अल्लाह तआला हर ऐब से पाक है।” यहाँ यह कलिमा दोनों मानी दे रहा है। इसका मक़सद लोगों के यह कहने पर हैरत का इज़हार भी है और इसका मक़सद उनकी बात के जवाब में यह कहना भी है कि अल्लाह तो बेऐब है, किसी को उसका बेटा बताना किस तरह सही हो सकता है।
68. यहाँ उनकी इस बात के रद्द में तीन बातें कही गई हैं— एक यह कि अल्लाह बेऐब (दोषमुक्त) है, दूसरी यह कि वह बेनियाज़ (निस्पृह) है। तीसरी यह कि आसमान और ज़मीन में मौजूद सारी चीज़ें उसकी मिल्कियत हैं। ये मुख़्तसर जवाब थोड़ी-सी तशरीह (व्याख्या) से आसानी से समझ में आ सकते हैं—
ज़ाहिर बात है कि बेटा या तो सगा और नस्ली हो सकता है या फिर गोद लिया हुआ। अगर ये लोग किसी को ख़ुदा का बेटा सगा या नस्ली मानी में ठहराते हैं तो इसका मतलब यह है कि लोग ख़ुदा को उस जानदार की तरह समझते हैं जो शख़्सी हैसियत से ख़त्म हो जानेवाला होता है और जिसके वुजूद का सिलसिला इसके बिना क़ायम नहीं रह सकता कि उसकी कोई जिंस (जाति) हो और उस जिंस से कोई उसका जोड़ा हो और उन दोनों के जिंसी मिलाप से उसकी औलाद हो, जिसके ज़रिए से उसका वुजूद और उसका नाम व काम बाक़ी रहे। और अगर ये लोग इस मानी में ख़ुदा का बेटा ठहराते हैं कि उसने किसी को गोद लेकर बेटा बनाया है तो यह दो हालत से ख़ाली नहीं। या तो उन्होंने ख़ुदा को उस इनसान के जैसा समझ लिया है जो बेऔलाद होने की वजह से अपनी जिंस के किसी शख़्स को इसलिए बेटा बनाता है कि वह उसका वारिस हो और उस नुक़सान का, जो उसे बेऔलाद रह जाने की वजह से पहुँच रहा है, नाम के लिए ही सही, कुछ तो भरपाई कर दे। या फिर उनका गुमान यह है कि ख़ुदा भी इनसान की तरह जज़्बाती रुझान रखता है और अपने बेशुमार बन्दों में से किसी एक के साथ उसको कुछ ऐसी मुहब्बत हो गई कि उसने उसे बेटा बना लिया है।
इन तीनों सूरतों में से जो सूरत भी हो, बहरहाल इस अक़ीदे के बुनियादी तसव्वुरात (मौलिक अवधारणाओं) में ख़ुदा पर बहुत-से ऐबों, बहुत-सी कमज़ोरियों, बहुत-सी कमियों और बहुत-सी ज़रूरतों की तोहमत लगी हुई हैं। इसी बिना पर पहले जुमले में कहा गया कि अल्लाह तआला इन तमाम ऐबों, कमियों और कमज़ोरियों से पाक है जो तुम उससे जोड़ रहे हो। दूसरे जुमले में कहा गया कि वह उन ज़रूरतों से भी बेनियाज़ है जिनकी वजह से ख़त्म हो जानेवाले इनसानों को औलाद की या बेटा बनाने की ज़रूरत पेश आती है और तीसरे जुमले में साफ़ कह दिया गया कि ज़मीन व आसमान में सब अल्लाह के बन्दे और उसकी मिल्कियत हैं। उनमें से किसी के साथ भी अल्लाह का ऐसा कोई ख़ास ज़ाती ताल्लुक़ नहीं है कि सबको छोड़कर उसे वह अपना बेटा या इकलौता या जानशीन (उत्तराधिकारी) क़रार दे ले। ख़ूबियों की बुनियाद पर बेशक अल्लाह कुछ बन्दों से कुछ के मुक़ाबले ज़्यादा मुहब्बत रखता है, मगर इस मुहब्बत के ये मानी नहीं है कि किसी बन्दे को बन्दगी के मक़ाम से उठाकर ख़ुदाई में साझेदारी का मक़ाम दे दिया जाए। ज़्यादा-से-ज़्यादा इस मुहब्बत का तक़ाज़ा बस वह है जो इससे पहले की एक आयत में बयान कर दिया गया है कि “जो ईमान लाए और जिन्होंने तक़वा (परहेज़गारी) का रवैया अपनाया उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं। दुनिया और आख़िरत दोनों में उनके लिए ख़ुशख़बरी-ही-ख़ुशख़बरी है।"
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ نُوحٍ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكُم مَّقَامِي وَتَذۡكِيرِي بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَعَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡتُ فَأَجۡمِعُوٓاْ أَمۡرَكُمۡ وَشُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُنۡ أَمۡرُكُمۡ عَلَيۡكُمۡ غُمَّةٗ ثُمَّ ٱقۡضُوٓاْ إِلَيَّ وَلَا تُنظِرُونِ 67
(71) इनको नूह69 का क़िस्सा सुनाओ, उस वक़्त का क़िस्सा जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ क़ौम के भाइयो। अगर मेरा तुम्हारे बीच रहना और अल्लाह की आयतों को सुना-सुनाकर तुम्हें ग़फ़लत से जगाना तुम्हारे लिए बरदाश्त से बाहर हो गया है, तो मेरा भरोसा अल्लाह पर है। तुम अपने ठहराए हुए शरीकों को साथ लेकर सबकी रज़ामन्दी से एक फ़ैसला कर लो और जो मंसूबा तुम्हारे सामने हो उसको ख़ूब सोच- समझ लो, ताकि उसका कोई पहलू तुम्हारी निगाह से छिपा न रहे। फिर मेरे ख़िलाफ़ उसको अमल में ले आओ और मुझे हरगिज़ मुहलत न दो।70
69. यहाँ तक तो उन लोगों को मुनासिब दलीलों और दिल को लगनेवाली नसीहतों के साथ समझाया गया था कि उनके अक़ीदे और ख़यालात और तरीक़ों में ग़लती क्या है और वे क्यों ग़लत हैं, और उसके मुक़ाबले में सही राह क्या है और वह क्यों सही है। अब उनके उस रवैये की तरफ़ ध्यान दिया जाता है जो वह इस सीधी-सीधी और साफ़-साफ़ नसीहत और समझाने-बुझाने के जवाब में अपना रहे थे। दस-ग्यारह साल से उनका रवैया यह था कि वे बजाय इसके कि इस मुनासिब तनक़ीद (आलोचना) और सही रहनुमाई पर ग़ौर करके अपनी गुमराहियों पर दोबारा ग़ौर करते, उलटे उस शख़्स की जान के दुश्मन हो गए थे जो इन बातों को अपनी किसी ज़ाती ग़रज़ के लिए नहीं, बल्कि उन्हीं के भले के लिए पेश कर रहा था। वे दलीलों का जवाब पत्थरों से और नसीहतों का जवाब गालियों से दे रहे थे। अपनी बस्ती में ऐसे शख़्स का वुजूद उनके लिए सख़्त नागवार, बल्कि नाक़ाबिले-बरदाश्त हो गया था जो ग़लत को ग़लत कहनेवाला हो और सही बात बताने की कोशिश करता हो। उनकी माँग यह थी कि हम अन्धों के बीच जो आँखोंवाला पाया जाता है वह हमारी आँखें खोलने के बजाय अपनी आँखें ही बन्द कर ले, वरना हम ज़बरदस्ती उसकी आँखें फ़ोड़ देंगे; ताकि आँखों की रौशनी जैसी चीज़ हमारी सरज़मीन में न पाई जाए। यह रवैया जो उन्होंने अपना रखा था, उसपर कुछ और कहने के बजाय अल्लाह तआला अपने नबी को हुक्म देता है कि इन्हें नूह (अलैहि०) का क़िस्सा सुना दो। इसी क़िस्से में वे अपने और तुम्हारे मामले का जवाब भी पा लेंगे।
70. यह चैलेंज था कि मैं अपने काम से नहीं रुकूँगा, तुम मेरे ख़िलाफ़ जो कुछ करना चाहते हो कर गुज़रो, मेरा भरोसा अल्लाह पर है। (देखें— सूरा-11 हूद, आयत- 55)
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُوٓاْ إِنَّ هَٰذَا لَسِحۡرٞ مُّبِينٞ 72
(76) जब हमारे पास से हक़ उनके सामने आया तो उन्होंने कह दिया कि यह तो खुला जादू है।74
74. यानी हज़रत मूसा का पैग़ाम सुनकर वही कुछ कहा जो मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने मुहम्मद (सल्ल०) का पैग़ाम सुनकर कहा था कि “यह शख़्स तो खुला जादूगर है।” (देखें, इसी सूरा यूनुस की दूसरी आयत)। यहाँ बात के सिलसिले को निगाह में रखने से यह बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो जाती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) व हारून (अलैहि०) भी अस्ल में उसी काम पर लगाए गए थे जिसपर हज़रत नूह (अलैहि०) और उनके बाद के तमाम पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) तक लगाए जाते रहे हैं। इस सूरा में शुरू से एक ही मज़मून (विषय) चला आ रहा है और वह यह कि सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह को अपना रब और इलाह (उपास्य) मानो और यह तस्लीम करो कि तुमको इस ज़िन्दगी के बाद दूसरी ज़िन्दगी में अल्लाह के सामने हाज़िर होना और अपने अमल का हिसाब देना है। फिर जो लोग पैग़म्बर की इस दावत को मानने से इनकार कर रहे थे, उनको समझाया जा रहा है कि न सिर्फ़ तुम्हारी फ़लाह का, बल्कि हमेशा से तमाम इनसानों की फ़लाह का दारोमदार इसी एक बात पर रहा है कि तौहीद और आख़िरत के इस अक़ीदे की दावत को, जिसे हर ज़माने में ख़ुदा के पैग़म्बरों ने पेश किया है, क़ुबूल किया जाए और अपना पूरा निज़ामे-ज़िन्दगी इसी बुनियाद पर क़ायम कर लिया जाए। फ़लाह सिर्फ़ उन्होंने पाई जिन्होंने यह काम किया, और जिस क़ौम ने भी इससे इनकार किया वह आख़िरकार तबाह होकर रही। यही इस सूरा का मर्कज़ी मज़मून (केन्द्रीय विषय) है, और इस पसमंज़र ही में जब तारीख़ी मिसालों के तौर पर दूसरे नबियों का ज़िक्र आया है तो लाज़िमन उसके यही मानी हैं कि जो दावत इस सूरा में दी गई है वही उन तमाम नबियों की दावत थी, और उसी को लेकर हज़रत मूसा (अलैहि०) व हारून (अलैहि०) भी फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों के पास गए थे। अगर सच्चाई वह होती जो कुछ लोगों ने समझी है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) व हारून (अलैहि०) का मिशन एक ख़ास क़ौम को दूसरी क़ौम की ग़ुलामी से आज़ाद कराना था, तो इस पसमंज़र में इस वाक़िए को तारीख़ी मिसाल के तौर पर पेश करना बिलकुल बेजोड़ होता। इसमें शक नहीं कि इन दोनों हज़रात के मिशन का एक हिस्सा यह भी था कि बनी-इसराईल (एक मुसलमान क़ौम) को एक काफ़िर क़ौम के पंजे से (अगर वह अपने कुफ़्र पर क़ायम रहे) आज़ाद कराएँ। लेकिन यह एक दूसरा मक़सद था न कि भेजे जाने का अस्ल मक़सद। अस्ल मक़सद तो वही था जो क़ुरआन के मुताबिक़ तमाम नबियों के भेजे जाने का मक़सद रहा है और सूरा-79 नाज़िआत में जिसको साफ़ तौर पर बयान भी कर दिया गया है कि “फ़िरऔन के पास जा, क्योंकि वह बन्दगी की हद से गुज़र गया है और उससे कह क्या तू इसके लिए तैयार है कि सुधर जाए, और मैं तुझे तेरे रब की तरफ़ रहनुमाई करूँ, तो तू उससे डरे?” मगर चूँकि फ़िरऔन और उसके दरबारियों ने इस दावत को क़ुबूल नहीं किया और आख़िरकार हज़रत मूसा (अलैहि०) को यही करना पड़ा कि अपनी मुसलमान क़ौम को उसके चंगुल से निकाल ले जाएँ, इसलिए उनके मिशन का यही हिस्सा इतिहास में नुमायाँ हो गया और क़ुरआन में भी इसको वैसा ही नुमायाँ करके पेश किया गया जैसा कि वह हक़ीक़त में इतिहास में मौजूद है। जो शख़्स क़ुरआन की तफ़सीलात को उसके उसूलों से अलग करके देखने की ग़लती न करता हो, बल्कि उन्हीं उसूलों के मातहत करके ही देखता और समझता हो, वह कभी इस ग़लतफ़हमी में नहीं पड़ सकता कि एक क़ौम की रिहाई, किसी नबी को भेजे जाने का अस्ल मक़सद और दीने-हक़ की बात सिर्फ़ उसका एक दूसरा मक़सद हो सकता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-20 ताहा, आयत-44 से 52; सूरा-48 जुख़रुफ़, आयत-46 से 56; सूरा-73 मुज़्ज़म्मिल, आयत-15, 16)
فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٞ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٖ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ 79
(83) (फिर देखो कि) मूसा को उसकी क़ौम में से कुछ 'नौजवानों'78 के सिवा किसी न न माना79, फ़िरऔन के डर से और ख़ुद अपनी क़ौम के बड़े लोगों के डर से (जिन्हें डर था कि) फ़िरऔन उनको अज़ाब में मुब्तला करेगा, और सच तो यह है कि फ़िरऔन ज़मीन में ग़ल्बा (प्रभुत्व) रखता था और उन लोगो में से था, जो किसी हद पर रुकते नहीं हैं।80
78. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ुर्रियतुन’ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी औलाद के हैं। हमने इसका तर्जमा 'नौजवान’ किया है। मगर दरअस्ल इस ख़ास लफ़्ज़ के इस्तेमाल से जो बात क़ुरआन मजीद बयान करना चाहता है, वह यह है कि उस ख़तरों भरे ज़माने में हक़ का साथ देने और हक़ के अलमबरदार को अपना रहनुमा तस्लीम करने की जुर्रत कुछ लड़कों और लड़कियों ने तो की, मगर माँओं और बापों और क़ौम के बुज़ुर्ग लोगों को इसकी तौफ़ीक नसीब न हुई। उनपर मस्लहत-परस्ती और दुनियावी फ़ायदों की बन्दगी और आफ़ियत और सुकून की चाहत कुछ इस तरह छाई रही कि वे ऐसे हक़ का साथ देने पर राज़ी न हुए जिसका रास्ता उनको ख़तरों से भरा नज़र आ रहा था, बल्कि वे उलटे नौजवानों ही को रोकते रहे कि मूसा के क़रीब न जाओ, वरना तुम ख़ुद भी फ़िरऔन के ग़ज़ब का शिकार होगे और हमपर भी आफ़त लाओगे।
यह बात ख़ासतौर पर क़ुरआन ने नुमायाँ करके इसलिए पेश की है कि मक्का की आबादी में से भी मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए जो लोग आगे बढ़े थे वे क़ौम के बड़े-बूढ़े और बड़ी उम्र के लोग न थे, बल्कि कुछ बाहिम्मत नौजवान ही थे। वे शुरू के मुसलमान जो इन आयतों के उतरने के वक़्त सारी क़ौम की सख़्त मुख़ालफ़त के मुक़ाबले में इस्लामी सच्चाई की हिमायत कर रहे थे और ज़ुल्मो-सितम के इस तूफ़ान में जिनके सीने इस्लाम के लिए ढाल बने हुए थे। उनमें मस्लहत-परस्त बूढ़ा कोई न था, सब के सब जवान लोग ही थे। अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०), जाफ़र तय्यार (रज़ि०), ज़ुबैर (रज़ि०), सअद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०), मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) जैसे लोग इस्लाम क़ुबूल करने के वक़्त 20 साल से कम उम्र के थे। अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०), बिलाल (रज़ि०) और सुहैब (रज़ि०) की उम्रें 20 और 30 के बीच थीं। अबू-उबैदा-बिन-जर्राह (रज़ि०), ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०), उसमान बिन-अफ़्फ़ान (रज़ि०) और उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) 30 और 35 साल के बीच की उम्र के थे। उनसे ज़्यादा उम्र के अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) थे और उनकी उम्र भी ईमान लाने के वक़्त 58 साल से ज़्यादा न थी। शुरू के मुसलमानों में सिर्फ़ एक सहाबी का नाम हमें मिलता है जिनकी उम्र नबी (सल्ल०) से ज़्यादा थी, यानी हज़रत उबैदा-बिन-हारिस मुत्तलिबी (रज़ि०), और शायद पूरे गरोह में एक ही सहाबी नबी (सल्ल०) की उम्र के थे, यानी अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०)।
79. अस्ल अरबी में “फमा आम न लिमूसा” के अलफ़ाज़ हैं। इससे कुछ लोगों को शक हुआ कि शायद बनी-इसराईल सब के सब काफ़िर थे और शुरू में उनमें से सिर्फ़ कुछ आदमी ईमान लाए। लेकिन ईमान के साथ जब “लाम” (ल) का 'सिला' (उपसर्ग) आता है वह आमतौर से इताअत और फ़रमाँबरदारी के मानी देता है, यानी किसी की बात मानना और उसके कहे पर चलना। लिहाज़ा अस्ल में इन अलफ़ाज़ का मतलब यह है कि कुछ नौजवानों को छोड़कर बनी-इसराईल की पूरी क़ौम में से कोई भी इस बात पर आमादा न हुआ कि हज़रत मूसा को अपना रहनुमा और पेशवा मानकर उनकी पैरवी करने लगता और इस्लाम की इस दावत के काम में उनका साथ देता। फिर बाद के जुमले ने इस बात को वाज़ेह कर दिया कि उनके इस रवैये की अस्ल वजह यह न थी कि उन्हें हज़रत मूसा के सच्चे होने और उनकी दावत के हक़ होने में कोई शक था, बल्कि इसकी वजह सिर्फ़ यह थी कि वे और ख़ासतौर से उनके बड़े और इज़्ज़तदार लोग, हज़रत मूसा का साथ देकर अपने आपको फ़िरऔन की सख़्तियों के ख़तरे में डालने के लिए तैयार न थे। अगरचे ये लोग नस्ली और मज़हबी दोनों हैसियतों से इबराहीम, इसहाक, याक़ूब और यूसुफ़ (अलैहि०) के उम्मती थे और इस बिना पर ज़ाहिर है कि सब मुसलमान थे, लेकिन एक लम्बे समय की अख़लाक़ी गिरावट ने और उस कमहिम्मती ने जो दूसरों के मातहत रहने के सबब से पैदा हुई थी, उनमें इतना बलबूता बाक़ी न छोड़ा था कि कुफ़्र और गुमराही की हुकूमत के मुक़ाबले में ईमान व हिदायत का अलम लेकर ख़ुद उठते, या जो उठा था उसका साथ देते।
हज़रत मूसा और फ़िरऔन की इस कशमकश में आम इसराईलियों का रवैया क्या था, इसका अन्दाज़ा बाइबल की इस इबारत से हो सकता है:
“जब वे फ़िरऔन के पास से निकले आ रहे थे तो उनको मूसा और हारून मुलाक़ात के लिए रास्ते पर खड़े मिले। तब उन्होंने उनसे कहा कि ख़ुदावन्द ही देखे और तुम्हारा इनसाफ़ करे, तुमने तो हमको फ़िरऔन और उसके ख़ादिमों की निगाह में ऐसा घिनौना किया है कि हमारे क़त्ल के लिए उनके हाथ में तलवार दे दी है।"
(निष्कासन, 5:20, 21)
तलमूद में लिखा है कि बनी-इसराईल मूसा और हारून (अलैहि०) से कहते थे:
"हमारी मिसाल तो ऐसी है जैसे एक भेड़िये ने बकरी को पकड़ा और चरवाहे ने आकर उसको बचाने की कोशिश की और दोनों की कशमकश में बकरी के टुकड़े उड़ गए। बस इसी तरह तुम्हारी और फ़िरऔन की खींचतान में हमारा काम तमाम होकर रहेगा।” (एच.पोलानू, मुतखव तलमूद, पृष्ठ-152)
इन्हीं बातों की तरफ़ सूरा-आराफ़ में भी इशारा किया गया है कि बनी-इसराईल ने हज़रत मूसा से कहा कि तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे और अब तेरे आने पर भी सताए जा रहे हैं। (सूरा-7 आराफ़, आयत-129)
80. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘मुसरिफ़ीन’ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी हैं हद को पार करनेवाले। मगर इस लफ़्ज़ी तर्जमे से इसकी अस्ल रूह नुमायाँ नहीं होती, मुसरिफ़ीन से मुराद अस्ल में वे लोग हैं जो अपने मतलब के लिए किसी बुरे-से-बुरे तरीक़े को भी अपनाने में नहीं झिझकते, किसी ज़ुल्म और किसी बदअख़लाक़ी और किसी वहशीपन और बर्बरता का जुर्म करने से नहीं चूकते। अपनी ख़ाहिशों के पीछे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके लिए कोई हद नहीं जिसपर जाकर वे रुक जाएँ।
فَقَالُواْ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَا رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ 81
(85) उन्होंने जवाब दिया,82 “हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया। ऐ हमारे रब! हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ितना83 न बना
82. यह जवाब उन नौजवानों का था जो मूसा (अलैहि०) का साथ देने पर आमादा हुए थे। यहाँ 'क़ालू' (उन्होंने कहा) में कहनेवाली क़ौम नहीं, बल्कि 'ज़ुर्रियत' है जैसा कि बात के मौक़ा-महल (सन्दर्भ) से ख़ुद ज़ाहिर है।
83. इन सच्चे ईमानवाले नौजवानों की यह दुआ कि “हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ितना न बना” अपने अन्दर बड़े मानी और मतलब रखती है। जब हर तरफ़ गुमराही का ग़लबा और बोलबाला होता है और इस हालत में जब कुछ लोग हक़ को क़ायम करने के लिए उठते हैं, तो उन्हें तरह-तरह के ज़ालिमों से वास्ता पेश आता है। एक तरफ़ बातिल (असत्य) के अस्ली अलमबरदार होते हैं जो पूरी ताक़त से इन हक़ की दावत देनेवालों को कुचल देना चाहते हैं। दूसरी तरफ़ सिर्फ़ नाम के हक़-परस्तों का एक अच्छा-ख़ासा गरोह होता है जो हक़ को मानने का दावा तो करता है मगर बातिल (असत्य) की ज़ालिमाना फ़रमाँरवाई (सत्ता) के मुक़ाबले में हक़ को क़ायम करने की कोशिश को ग़ैर-ज़रूरी, बेकार या बेबक़ूफ़ी समझता है और उसकी पूरी कोशिश यह होती है कि अपनी इस ख़ियानत (बेईमानी) को जो वह हक़ के साथ कर रहा है किसी-न-किसी तरह दुरुस्त साबित कर दे और उन लोगों को उलटा ग़लत साबित करके अपने अन्दर की उस बेचैनी को मिटाए जो उनकी सच्चे दीन को क़ायम करने की दावत से उसके दिल की गहराइयों में खुले तौर पर या छिपे तौर पर पैदा होती है। तीसरी तरफ़ आम लोग होते हैं जो अलग खड़े तमाशा देख रहे होते हैं और उनका वोट आख़िरकार उसी ताक़त के हक़ में पड़ा करता है जिसका पलड़ा भारी रहे, चाहे वह ताक़त सही हो या ग़लत। इस सूरतेहाल में हक़ की तरफ़ बुलानेवाले इन लोगों की हर नाकामी, हर मुसीबत, हर ग़लती, हर कमज़ोरी और ख़राबी इन मुख़्तलिफ़ गरोहों के लिए मुख़्तलिफ़ तौर से फ़ितना बन जाती है। वे कुचल डाले जाएँ या हार जाएँ तो पहला गरोह कहता है कि हक़ हमारे साथ था, न कि इन बेवक़ूफ़ों के साथ जो नाकाम हो गए। दूसरा गरोह कहता है कि देख लिया! हम न कहते थे कि ऐसी बड़ी-बड़ी ताक़तों से टकराने का नतीजा कुछ क़ीमती जानों के जाने के सिवा कुछ न होगा, और आख़िरकार इस तबाही में अपने आपको डालने का शरीअत ने हमें पाबन्द ही कब किया था, दीन की कम-से-कम ज़रूरी माँगें तो उन अक़ीदों व आमाल से पूरी हो ही रही थीं जिसकी इजाज़त वक़्त के फ़िरऔनों ने दे रखी थी। तीसरा गरोह फ़ैसला कर देता है कि हक़ वही है जो ग़ालिब रहा। इसी तरह अगर वे अपनी दावत के काम में कोई ग़लती कर जाएँ, या मुसीबतों और मुश्किलों को बरदाश्त न कर पाने की वजह से कमज़ोरी दिखा जाएँ, या उनसे, बल्कि उनके किसी एक आदमी से भी अख़लाक़ी एतिबार से कोई ग़लती हो जाए, तो बहुत-से लोगों के लिए बातिल (असत्य) से चिमटे रहने के हज़ार बहाने निकल आते हैं और फिर उस दावत की नाकामी के बाद लम्बे समय तक किसी दूसरी दावत के उठने का इमकान बाक़ी नहीं रहता। तो यह अपने अन्दर बहुत-से मानी और मतलब रखनेवाली दुआ थी जो मूसा (अलैहि०) के उन साथियों ने माँगी थी कि ऐ ख़ुदा, हमपर ऐसी मेहरबानी कर कि हम ज़ालिमों के लिए फ़ितना बनकर न रह जाएँ। यानी हमको ग़लतियों से, ख़राबियों से, कमज़ोरियों से बचा और हमारी कोशिश को दुनिया में कामयाब कर दे, ताकि हमारा वुजूद तेरे बन्दों के लिए भलाई का ज़रिआ बने, न कि ज़ालिमों के लिए बुराई का ज़रिआ।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبَّنَآ إِنَّكَ ءَاتَيۡتَ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَأَهُۥ زِينَةٗ وَأَمۡوَٰلٗا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا رَبَّنَا لِيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِكَۖ رَبَّنَا ٱطۡمِسۡ عَلَىٰٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ وَٱشۡدُدۡ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُواْ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ 84
(88) मूसा ने86 दुआ की, “ऐ हमारे रब! तूने फ़िरऔन और उसके सरदारों को दुनिया की ज़िन्दगी में ज़ीनत87 और माल88 दे रखे हैं। ऐ रब! क्या यह इसलिए है कि वे लोगों को तेरी राह से भटकाएँ? ऐ रब! इनके माल ग़ारत कर दे और इनके दिलों पर ऐसी मुहर कर दे कि ईमान न लाएँ जब तक दर्दनाक अज़ाब न देख लें।"89
86. ऊपर की आयतें हज़रत मूसा की दावत के शुरुआती दौर से ताल्लुक़ रखती हैं और यह दुआ मिस्र में ठहरने के ज़माने के बिलकुल आख़िरी दिनों की है। बीच में कई साल की लम्बी दूरी है, जिसकी तफ़सीलात को यहाँ नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है। दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में इस बीच के दौर का भी तफ़सीली हाल बयान हुआ है।
87. यानी ठाठ, शान-शौकत और तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता व संस्कृति) की वह ख़ुशनुमाई जिसकी वजह से दुनिया उनपर और उनके तौर-तरीक़ों पर रीझती है और हर शख़्स का दिल चाहता है कि वैसा ही बन जाए, जैसे वे हैं।
88. यानी ज़रिए और वसाइल (साधन और संसाधन) जिनकी बहुतायत की वजह से वे अपनी तदबीरों को अमल में लाने के लिए हर तरह की आसानियाँ रखते हैं और जिनकी कमी की वजह से हक़परस्त अपनी तदबीरों को अमल में नहीं ला पाते हैं।
89. जैसा कि अभी हम बता चुके हैं, यह दुआ हज़रत मूसा ने मिस्र में रहने के ज़माने के बिलकुल आख़िरी वक़्त में की थी, और उस वक़्त की थी जब एक के बाद एक निशानियाँ देख लेने और दीन की हुज्जत पूरी हो जाने के बाद भी फ़िरऔन और उसके दरबारी हक़ (इस्लाम) की दुश्मनी पर इन्तिहाई हठधर्मी के साथ जमे रहे। ऐसे मौक़े पर पैग़म्बर जो बद्दुआ करता है वह ठीक-ठीक वही होती है, जो कुफ़्र पर अड़े रहनेवालों के बारे में ख़ुद अल्लाह तआला का फ़ैसला है, यानी यह कि फिर उन्हें ईमान की तौफ़ीक़ (सुअवसर) न बख़्शी जाए।
وَلَقَدۡ بَوَّأۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مُبَوَّأَ صِدۡقٖ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ فَمَا ٱخۡتَلَفُواْ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ 89
(93) हमने बनी-इसराईल को बहुत अच्छा ठिकाना दिया94 और ज़िन्दगी के बड़े अच्छे वसाइल (साधन) उन्हें दिए। फिर उन्होंने आपस में इख़्तिलाफ़ नहीं किया, मगर उस वक़्त जबकि इल्म उनके पास आ चुका था।95 यक़ीनन तेरा रब क़ियामत के दिन उनके बीच उस चीज़ का फ़ैसला कर देगा जिसमें वे इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
94. यानी मिस्र से निकलने के बाद फ़िलस्तीन की सरज़मीन।
95. मतलब यह है कि बाद में उन्होंने अपने दीन (धर्म) में जो अलग-अलग गरोह बना लिए और नए-नए मज़हब निकाले उसकी वजह यह नहीं थी कि उनको हक़ीक़त का इल्म नहीं दिया गया था और न जानने की वजह से उन्होंने मजबूरन ऐसा किया, बल्कि हक़ीक़त में यह सब कुछ उनके अपने मन की शरारतों का नतीजा था। ख़ुदा की तरफ़ से तो उन्हें साफ़ तौर पर बता दिया गया था कि दीने-हक़ यह है, ये उसके उसूल हैं, ये उसके तक़ाज़े और माँगें हैं, यह कुफ़्र व इस्लाम के बीच फ़र्क़ करनेवाली हदें हैं, इताअत और फ़रमाँबरदारी इसको कहते हैं, गुनाह इसका नाम है, इन चीज़ों की पूछ-गछ ख़ुदा के यहाँ होनी है, और ये वे क़ानून हैं जिनकी बुनियाद पर दुनिया में तुम्हारी ज़िन्दगी क़ायम होनी चाहिए। मगर इन साफ़-साफ़ हिदायतों के बावजूद उन्होंने एक दीन के बीसियों दीन बना डाले और ख़ुदा की दी हुई बुनियादों को छोड़कर कुछ दूसरी ही बुनियादों पर अपने मज़हबी फ़िरक़ों की इमारतें खड़ी कर लीं।
فَلَوۡلَا كَانَتۡ قَرۡيَةٌ ءَامَنَتۡ فَنَفَعَهَآ إِيمَٰنُهَآ إِلَّا قَوۡمَ يُونُسَ لَمَّآ ءَامَنُواْ كَشَفۡنَا عَنۡهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ 94
(98) फिर क्या ऐसी कोई मिसाल है कि एक बस्ती अज़ाब देखकर ईमान लाई हो और उसका ईमान उसके लिए फ़ायदेमन्द साबित हुआ हो? यूनुस की क़ौम के सिवा98 (उसकी कोई मिसाल नहीं), वह क़ौम जब ईमान ले आई थी तो अलबत्ता हमने उसपर से दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई का अज़ाब टाल दिया था99 और उसको एक मुद्दत तक ज़िन्दगी से फ़ायदा उठाते रहने का मौक़ा दे दिया था।100
98. यूनुस (अलैहि०) (जिनका नाम बाइबल में युनाह है और जिनका ज़माना 860-784 ई० पूर्व दरमियान बताया जाता है) अगरचे इसराईली नबी थे, मगर उनको अशूर (असीरिया) वालों की रहनुमाई के लिए इराक़ भेजा गया था और इसी बिना पर अशूरियों को यहाँ यूनुस की क़ौम कहा गया है। इस क़ौम का मर्कज़ उस ज़माने में नैनवा का मशहूर शहर था जिसके फैले खण्डहर आज तक दजला नदी के पूर्वी किनारे पर मौजूद शहर मौसिल के ठीक सामने पाए जाते हैं और इसी इलाक़े में ‘यूनुस नबी’ के नाम से एक जगह भी मौजूद है। इस क़ौम की तरक्क़ी का अन्दाज़ा इससे हो सकता है कि इसकी राजधानी नैनवा लगभग 60 मील के इलाक़े में फैली हुई थी।
99. क़ुरआन में इस क़िस्से की तरफ़ तीन जगह सिर्फ़ इशारे किए गए हैं, कोई तफ़सील नहीं दी गई है (देखें— सूरा-21 अम्बिया, आयतें—87, 88; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—139 से 148; सूरा-68 क़लम, आयतें—48 से 50), इसलिए यक़ीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह क़ौम किन ख़ास वजहों से ख़ुदा के इस क़ानून से अलग की गई कि “अज़ाब का फ़ैसला हो जाने के बाद किसी का ईमान उसके लिए फ़ायदेमन्द नहीं होता।” बाइबल में यूनाह के नाम से जो मुख़्तसर-सा सहीफ़ा (Chapter) है उसमें कुछ तफ़सील तो मिलती है मगर वह बिलकुल भरोसे के क़ाबिल नहीं है, क्योंकि अव्वल तो न वह आसमानी सहीफ़ा है, न ख़ुद यूनुस (अलैहि०) का अपना लिखा हुआ है, बल्कि उनके चार-पाँच सौ साल बाद किसी नामालूम आदमी ने उसे यूनुस (अलैहि०) के इतिहास के तौर पर लिखकर मुक़द्दस किताबों के मजमूए (संग्रह) में शामिल कर दिया है। दूसरे उसमें कुछ बिलकुल बेमानी बातें भी पाई जाती हैं जो मानने के क़ाबिल नहीं हैं। फिर भी क़ुरआन के इशारों और यूनुस के सहीफ़ों की तफ़सीलात पर ग़ौर करने से वही बात सही मालूम होती है जो क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने बयान की है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) चूँकि अज़ाब की ख़बर देने के बाद अल्लाह की इजाज़त के बग़ैर अपनी जगह छोड़कर चले गए थे, इसलिए जब अज़ाब की निशानियाँ देखकर आशूरियों ने तौबा की तो अल्लाह तआला ने उन्हें माफ़ कर दिया। क़ुरआन मजीद में ख़ुदाई दस्तूर के जो उसूल और ज़ाबिते बयान किए गए हैं उनमें एक मुस्तक़िल दफ़ा (स्थायी धारा) यह भी है कि अल्लाह तआला किसी क़ौम को उस वक़्त तक अज़ाब नहीं देता जब तक उसपर अपनी हुज्जत पूरी नहीं कर लेता। चुनाँचे जब नबी (युनूस अलैहि०) ने उस क़ौम की मुहलत के आख़िरी वक़्त तक नसीहत का सिलसिला जारी न रखा और अल्लाह के मुक़रर्र किए हुए वक़्त से पहले अपने आप ही वह हिजरत कर गया, तो अल्लाह तआला के इनसाफ़ ने उसकी क़ौम को अज़ाब देना गवारा न किया; क्योंकि उसपर हुज्जत पूरी करने की क़ानूनी शर्तें पूरी न हुई थीं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें, तफ़सीर सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-85)
100. जब यह क़ौम ईमान ले आई तो उसकी मुहलत के वक़्त में इज़ाफ़ा कर दिया गया। बाद में उसने फिर ख़याल और अमल की गुमराहियाँ अपनानी शुरू कर दीं। नाहूम नबी (720-698 ईसा पूर्व) ने उसे ख़बरदार किया, मगर कोई असर न हुआ। फिर सफ़नियाह नबी (640-609 ईसा पूर्व) ने उसको आख़िरी तौर पर ख़बरदार किया, वह भी कारगर न हुई। आख़िरकार लगभग 612 ईसा पूर्व के ज़माने में अल्लाह तआला ने मेडियावालों को उसपर हुक्मरों बना दिया। मेडिया का बादशाह बाबिलवालों की मदद से अशूर के इलाक़े पर चढ़ आया। अशूरी फ़ौज को हार का मुँह देखना पड़ा। और वह नैनवा में क़ैद हो गई। कुछ मुद्दत तक उसने जमकर मुक़ाबला किया फिर दजला नदी के उफान ने शहर की दीवार तोड़ दी और हमलावर अन्दर घुस गए। पूरा शहर जलाकर राख कर दिया गया। आसपास के इलाक़े का भी यही अंजाम हुआ। अशूर का बादशाह ख़ुद अपने महल में आग लगाकर जल मरा और इसके साथ ही अशूरी सल्तनत और तहज़ीब (सभ्यता) भी हमेशा के लिए ख़त्म हो गई। मौजूदा ज़माने में आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की जो ख़ुदाइयाँ इस इलाक़े में हुई हैं उनमें आगज़नी के निशानात बहुत ज़्यादा पाए जाते हैं।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تُؤۡمِنَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَجۡعَلُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ 96
(100) कोई जानदार अल्लाह की इजाज़त के बिना ईमान नहीं ला सकता।103 और अल्लाह का तरीक़ा यह है कि जो लोग अक़्ल से काम नहीं लेते वह उनपर गन्दगी डाल देता है।104
103. यानी जिस तरह तमाम नेमतें अकेले अल्लाह के इख़्तियार में हैं कोई शख़्स किसी नेमत को भी अल्लाह के हुक्म के बिना न तो ख़ुद हासिल कर सकता है, न किसी दूसरे शख़्स को दे सकता है, उसी तरह इस नेमत का दारोमदार भी कि कोई शख़्स ईमान लाए और सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत पाए, अल्लाह के हुक्म पर है। कोई शख़्स न इस नेमत को अल्लाह के हुक्म के बिना ख़ुद पा सकता है, और न किसी इनसान के इख़्तियार में यह है कि जिसको चाहे यह नेमत दे दे। तो नबी अगर सच्चे दिल से यह चाहे भी कि लोगों को मोमिन बना दे तो नहीं बना सकता। इसके लिए अल्लाह का हुक्म और उसकी तौफ़ीक़ दरकार है।
104. यहाँ साफ़ बता दिया गया कि अल्लाह का हुक्म और उसकी तौफ़ीक़ (सुअवसर प्रदान करना) कोई अंधी बाँट नहीं है कि बिना किसी हिकमत और बिना किसी मुनासिब ज़ाबिते के यूँ ही जिसको चाहा ईमान की नेमत पाने का मौक़ा दिया और जिसे चाहा इस मौक़े से महरूम कर दिया, बल्कि इसका एक निहायत हिकमत से भरा ज़ाबिता है, और वह यह है कि जो शख़्स हक़ीक़त की तलाश में बेलाग तरीक़े से अपनी अक़्ल को ठीक-ठीक इस्तेमाल करता है उसके लिए तो अल्लाह की तरफ़ से हक़ीक़त तक पहुँचने के असबाब और ज़रिए उसकी कोशिश और तलब के हिसाब से मुहैया कर दिए जाते हैं, और उसी को सही इल्म पाने और ईमान लाने की तौफ़ीक़ दी जाती है। रहे वे लोग जो हक़ के तलबगार ही नहीं हैं और जो अपनी अक़्ल को तास्सुब (पक्षपात) के फंदों में फाँसे रखते हैं, या हक़ीक़त की तलाश में सिरे से अक़्ल का इस्तेमाल ही नहीं करते, तो अल्लाह ने उनकी क़िस्मत में जहालत और गुमराही और ग़लत देखने और ग़लत काम करने की गन्दगियों के सिवा और कुछ नहीं रखा है। वे अपने आपको इन्हीं गन्दगियों के लायक़ बनाते हैं और यही उनके नसीब में लिखी जाती हैं।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي شَكّٖ مِّن دِينِي فَلَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِنۡ أَعۡبُدُ ٱللَّهَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُمۡۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 98
(104) ऐ नबी! कह दो106 कि “लोगो, अगर तुम अभी तक मेरे दीन के बारे में किसी शक में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करते हो, मैं उनकी बन्दगी नहीं करता, बल्कि सिर्फ़ उसी अल्लाह की बन्दगी करता हूँ जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी मौत है।107 मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं ईमान लानेवालों में से हूँ
106. जिस मज़मून (विषय) से बात की शुरुआत की गई थी उसी पर अब बात को ख़त्म किया जा रहा है। तक़ाबुल (तुलना) के लिए पहले रुकू (आयत-1 से 10) के मज़मून पर फिर एक नज़र डाल ली जाए।
107. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ “य-त-वफ़्फ़ाकुम” है जिसका लफ़्ज़ी तर्जमा है “जो तुम्हें मौत देता है”। लेकिन इस लफ़्ज़ी तर्जमे से अस्ल रूह ज़ाहिर नहीं होती। यह कहने का अस्ल मतलब यह है कि “वह जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी जान है, जो तुमपर ऐसा मुकम्मल हाकिमाना इख़्तियार रखता है कि जब तक उसकी मरज़ी हो उसी वक़्त तक तुम जी सकते हो और जिस वक़्त उसक इशारा हो जाए उसी वक़्त तुम्हें अपनी जान उसके हवाले कर देनी पड़ती है। मैं सिर्फ़ उसी की परस्तिश और उसी की बन्दगी और ग़ुलामी को और उसी की इताअत और फ़रमाँबरदारी को तस्लीम करता हूँ।” यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि मक्का के मुशरिक लोग यह मानते थे और आज भी हर क़िस्म के मुशरिक (बहुदेववादी) यह मानते हैं कि मौत सिर्फ़ अल्लाह, सारे जहान के रब, के इख़्तियार में है, उसपर किसी दूसरे का क़ाबू नहीं है। यहाँ तक कि जिन बुज़ुर्गों को ये मुशरिक ख़ुदाई सिफ़तों और इख़्तियारों में साझीदार ठहराते हैं उनके बारे में भी वे मानते हैं कि इनमें से कोई ख़ुद अपनी मौत का वक़्त नहीं टाल सका है। चुनाँचे बयान करने के लिए अल्लाह तआला की अनगिनत सिफ़तों में से किसी दूसरी सिफ़त का ज़िक्र करने के बजाय यह ख़ास सिफ़त कि “वह जो तुम्हें मौत देता है” यहाँ इसलिए चुनी गई है कि अपना मसलक (पक्ष) बयान करने के साथ-साथ उसके सही होने की दलील भी दे दी जाए। यानी सबको छोड़कर मैं उसकी बन्दगी इसलिए करता हूँ कि ज़िन्दगी और मौत पर अकेले उसी का इख़्तियार है। और उसके सिवा दूसरों की बन्दगी आख़िर क्यों करूँ जबकि वह ख़ुद अपनी ज़िन्दगी और मौत पर भी क़ुदरत नहीं रखते, कहाँ यह कि किसी और की ज़िन्दगी और मौत पर उनको इख़्तियार हो। फिर बात को कहने की ख़ूबी देखिए कि “वह मुझे मौत देनेवाला है” कहने के बजाय “वह जो तुम्हें मौत देता है” कहा गया। इस तरह एक ही लफ़्ज़ में बयान करने का मक़सद, उसकी दलील और मक़सद की तरफ़ दावत देना, तीनों फ़ायदे जमा कर दिए गए हैं। अगर यह कहा जाता कि, “मैं उसकी बन्दगी करता हूँ जो मुझे मौत देनेवाला है” तो इससे सिर्फ़ यही मानी निकलते कि “मुझे उसकी बन्दगी करनी ही चाहिए।” अब जो यह कहा कि “मै उसकी बन्दगी करता हूँ जो तुम्हें मौत देनेवाला है” तो इससे यह मानी निकले कि मुझे ही नहीं, तुमको भी उसकी बन्दगी करनी चाहिए और तुम यह ग़लती कर रहे हो कि उसके सिवा दूसरों की बन्दगी किए जाते हो।
وَأَنۡ أَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗا وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ 99
(105) और मुझसे फ़रमाया गया है कि तू यकसू (एकाग्र) होकर अपने आपको ठीक-ठीक इस दीन पर क़ायम कर दे108, और हरगिज़ हरगिज़ मुशरिकों में से न हो।109
108. इस माँग की शिद्दत क़ाबिले-ग़ौर है। बात इन लफ़्ज़ों में भी अदा हो सकती थी कि “तू इस दीन (धर्म) को अपना ले” या “इस दीन पर चल” या “इस दीन की पैरवी करनेवाला बन जा।” मगर अल्लाह तआला को बयान के ये सब अन्दाज़ ढीले-ढाले नज़र आए। इस दीन की जैसी सख़्त और ठुकी और कसी हुई पैरवी चाहिए इसका इज़हार इन कमज़ोर अलफ़ाज़ से न हो सकता था। लिहाज़ा अपनी माँग इन अलफ़ाज़ में पेश की कि “अपना चेहरा जमा दे।” इसका मतलब यह है कि तेरा रुख़ एक ही तरफ़ क़ायम हो, डगमगाता और हिलता-डुलता न हो। कभी पीछे और कभी आगे और कभी दाएँ और कभी बाएँ न मुड़ता रहे। बिलकुल नाक की सीध उसी रास्ते पर नज़र जमाए हुए चल जो तुझे दिखा दिया गया है। यह बन्दिश अपने आप में ख़ुद बहुत चुस्त थी, मगर इसपर भी बस न किया गया। इसपर एक और बन्दिश 'हनीफ़ा' की बढ़ाई गई। हनीफ़ उसको कहते हैं जो सब तरफ़ से मुड़कर एक तरफ़ का हो गया हो। इसका मतलब यह है कि इस दीन को, ख़ुदा की बन्दगी के इस तरीक़े को, इस ज़िन्दगी के ढंग को कि परस्तिश, बन्दगी, ग़ुलामी, इताअत, फ़रमाँबरदारी सब कुछ सिर्फ़ अल्लाह, सारे जहान के रब, ही की की जाए, ऐसी यकसूई (एकाग्रता) के साथ अपनाकर कि किसी दूसरे तरीक़े की तरफ़ ज़र्रा बराबर मैलान व रुझान भी न हो, इस राह पर आकर उन ग़लत रास्तों से कुछ भी लगाव बाक़ी न रहे जिन्हें तू छोड़कर आया है और उन टेढ़े रास्तों पर एक ग़लत अन्दाज़ की निगाह भी न पड़े जिनपर दुनिया चली जा रही है।
109. यानी उन लोगों में हरगिज़ शामिल न हो जो अल्लाह की ज़ात में, उसकी सिफ़ात में, उसके हक़ों और उसके इख़्तियारात में किसी तौर पर अल्लाह के सिवा दूसरों को शरीक करते हैं। चाहे अल्लाह के अलावा वह उनका अपना नफ़्स (मन) हो, या कोई दूसरा इनसान हो, या इनसानों का कोई गरोह हो, या कोई रूह हो, जिन्न हो, फ़रिश्ता हो, या कोई माद्दी या ख़याली या वहमी वुजूद हो। तो माँग सिर्फ़ इस बात को अपनाने की सूरत में ही नहीं है कि ख़ालिस तौहीद (विशुद्ध एकेश्वाद) का रास्ता पूरी मज़बूती के साथ इख़्तियार करो, बल्कि इस बात को छोड़ देने की सूरत में भी है कि उन लोगों से अलग हो जाओ जो किसी शक्ल और ढंग का शिर्क करते हों। अक़ीदे ही में नहीं अमल में भी, इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) तर्ज़े-ज़िन्दगी ही में नहीं, इज्तिमाई निज़ामे-हयात (जीवन-व्यवस्था) में भी, इबादतगाहों ही में नहीं दर्सगाहों (पाठशालाओं) में भी, अदालतों में भी, क़ानून साज़ इदारों में भी, सियासत के गलियारों में, मआशी दुनिया (आर्थिक जगत्) में भी, गरज़ उन लोगों के तरीक़े से अपना तरीक़ा अलग कर ले, जिन्होंने अपने नज़रियों और कामों का पूरा निज़ाम ख़ुदा-परस्ती और नाख़ुदा-परस्ती की मिलावट पर क़ायम कर रखा है। तौहीद (एकेश्वरवाद) पर चलनेवाला ज़िन्दगी के किसी पहलू और किसी मैदान में भी शिर्क (बहुदेववाद) की राह पर चलनेवालों के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर नहीं चल सकता, यह तो बहुत दूर की बात है कि आगे वे हों और पीछे ये और फिर भी उसकी तौहीद-परस्ती के तक़ाज़े इत्मीनान से पूरे होते रहें।
फिर माँग बड़े और खुले शिर्क ही से बचने की नहीं है, बल्कि छोटे व छिपे हुए शिर्क से भी पूरी तरह और सख़्ती के साथ बचने की है। बल्कि छिपा शिर्क ज़्यादा ख़ौफ़नाक है और उससे होशियार रहने की और भी ज़्यादा ज़रूरत है। कुछ नादान लोग ‘शिर्के-ख़फ़ी’ (छिपे शिर्क) को ‘शिर्के-ख़फ़ीफ़’ (हल्का-सा शिर्क) समझते हैं और उनका गुमान यह है कि इसका मामला इतना अहम नहीं है जितना ‘शिर्के-जली’ (खुले शिर्क) का है। हालाँकि 'ख़फ़ी' के मानी 'ख़फ़ीफ़' के नहीं हैं, छिपे और पोशीदा होने के हैं। अब यह सोचने की बात है कि जो दुश्मन मुँह खोलकर दिन-दहाड़े सामने आ जाए वह ज़्यादा ख़तरनाक है या वह जो आस्तीन में छिपा हो या दोस्त के लिबास में गले मिल रहा हो? बीमारी वह ज़्यादा जानलेवा है जिसकी अलामतें बिलकुल नुमायाँ हों या वह जो लम्बे समय तक तन्दुरुस्ती के धोखे में रखकर अन्दर-ही-अन्दर सेहत की जड़ खोखली करती रहे? जिस शिर्क को हर शख़्स पहली नज़र में देखकर कह दे कि यह शिर्क है, उससे तो दीने-तौहीद का टकराव बिलकुल खुला हुआ है। मगर जिस शिर्क को समझने के लिए गहरी निगाह और तौहीद के तक़ाज़ों की गहरी समझ चाहिए, वह अपनी न दिखाई देनेवाली जड़ें दीन के निज़ाम में इस तरह फैलाता है कि तौहीद के माननेवाले आम लोगों को उनकी ख़बर तक नहीं होती और धीरे-धीरे ऐसे महसूस न होनेवाले तरीक़े से दीन (धर्म) के मग़्ज़ को खा जाता है कि कहीं ख़तरे की घंटी बजने की नौबत ही नहीं आती।