Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الذَّارِيَاتِ

51. अज़-ज़ारियात

(मक्‍का में उतरी, आयतें 60)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वज़-ज़ारियात' (क़सम है उन हवाओं को जो धूल उड़ानेवाली हैं) से लिया गया है। आशय यह है कि वह सूरा जिसका आरम्भ 'अज़ ज़ारियात' शब्द से होता है।

उतरने का समय

विषय वस्तुओं और वर्णन-शैली से मालूम होता है कि यह सूरा [भी उसी] कालखंड में उतरी थी, जिसमें सूरा-50, ‘क़ाफ़’ उतरी है।

विषय और वार्ता

इसका बड़ा भाग आख़िरत (परलोक) के विषय पर है और अन्त में तौहीद (एकेश्वरवाद) की ओर बुलाया गया है। इसके साथ लोगों को इस बात पर भी सचेत किया गया है कि नबियों (अलैहि०) की बात न मानना और अपनी अज्ञानतापूर्ण धारणाओं पर आग्रह करना स्वयं उन्हीं क़ौमों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ है जिन्होंने यह नीति अपनाई है। आख़िरत के बारे में जो बात इस सूरा के छोटे-छोटे, मगर अत्यंत अर्थपूर्ण वाक्यों में बयान की गई है, वह यह है कि मानव-जीवन के परिणामों के बारे में लोगों की विभिन्न और परस्पर विरोधी धारणाएँ स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि इनमें से कोई धारणा भी ज्ञान पर आधारित नहीं है, बल्कि हर एक ने अटकलें दौड़ाकर अपनी जगह जो दृष्टिकोण बना लिया, उसी को वह अपनी धारणा बनाकर बैठ गया। इतनी बड़ी और महत्त्वपूर्ण मौलिक समस्या पर, जिसके बारे में आदमी की राय का ग़लत हो जाना उसकी पूरी ज़िन्दगी को ग़लत करके रख देता है, ज्ञान के बिना केवल अटकलों के आधार पर कोई धारणा बना लेना एक विनाशकारी मूर्खता है। ऐसी समस्या के बारे में सही राय क़ायम करने का बस एक ही रास्ता है और वह यह है कि इंसान को आख़िरत के बारे में जो ज्ञान अल्लाह की ओर से उसका नबो (ईशदूत) दे रहा है, उसपर वह गम्भीरतापूर्वक विचार करे और ज़मीन तथा आसमान की व्यवस्था और स्वयं अपने अस्तित्व पर दृष्टि डालकर खुली आँखों से देखे कि क्या उस ज्ञान के सही होने की गवाही हर ओर मौजूद नहीं है? इसके बाद बड़े संक्षिप्त शब्दों में एकेश्वरवाद की ओर बुलाते हुए कहा गया है कि तुम्हारे पैदा करनेवाले ने तुमको दूसरों को बन्दगी (भक्ति और आज्ञापालन) के लिए नहीं, बल्कि अपनी बन्दगी के लिए पैदा किया है। वह तुम्हारे बनावटी उपास्यों की तरह नहीं है जो तुमसे रोज़ी (आजीविका) लेते हैं और तुम्हारी सहायता के बिना जिनकी प्रभुता नहीं चल सकती। वह ऐसा उपास्य है जो सबको रोज़ी देता है, किसी से रोज़ी लेने का मुहताज नहीं, और जिसका प्रभुत्व स्वयं उसके अपने बल-बूते पर चल रहा है। इसी सिलसिले में यह भी बताया गया कि नबियों (अलैहि०) का मुक़ाबला जब भी किया गया है, बुद्धिसंगत आधार पर नहीं, बल्कि उसो दुराग्रह, हठधर्मी और अज्ञानतापूर्ण अहंकार के आधार पर किया गया है जो आज मुहम्मद (सल्ल०) के साथ बरता जा रहा है। फिर मुहम्मद (सल्ल०) को निर्देश दिया गया है कि इन सरकशों की ओर ध्यान न दें और अपने आमंत्रण और याद दिलाने का काम करते रहें, क्योंकि वह इन लोगों के लिए चाहे लाभप्रद न हो, किन्तु ईमानवालों के लिए लाभप्रद है।

---------------------

سُورَةُ الذَّارِيَاتِ
51. अज़-जारियात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلذَّٰرِيَٰتِ ذَرۡوٗا
(1) क़सम है उन हवाओं की जो धूल उड़ानेवाली हैं,
فَٱلۡحَٰمِلَٰتِ وِقۡرٗا ۝ 1
(2) फिर पानी से लदे हुए बादल उठानेवाली हैं,1
1. इस बात पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले सभी आलिम एक राय हैं कि 'अज़-ज़ारियात' से मुराद तितर-बितर करनेवाली और धूल उड़ानेवाली हवाएँ हैं, और 'अल-हामिलाति विक़रा' (भारी बोझ उठानेवालियों) से मुराद वे हवाएँ हैं जो समुद्रों से लाखों-करोड़ों ग़ैलन पानी की भापें बादलों की शक्ल में उठा लेती हैं। यही तफ़सीर हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और मुजाहिद, सईद-बिन-जुबैर, हसन बसरी, क़तादा और सुद्दी (रह०) वग़ैरा लोगों से नक़्ल हुई है।
إِنَّكُمۡ لَفِي قَوۡلٖ مُّخۡتَلِفٖ ۝ 2
(8) (आख़िरत के बारे में) तुम्हारी बात एक-दूसरे से अलग है।6
6. बातों के इस इख़्तिलाफ़ पर अलग-अलग शक्लोंवाले आसमान की क़सम मिसाल (उपमा) के तौर पर खाई गई है। यानी जिस तरह आसमान के बादलों और तारों के झुरमुटों की शक्लें अलग-अलग हैं और उनमें कोई बात मिलती-जुलती नहीं पाई जाती, इसी तरह आख़िरत के बारे में तुम लोग भाँति-भाँति की बोलियाँ बोल रहे हो और हर एक की बात दूसरे से अलग है। कोई कहता है कि यह दुनिया हमेशा से है और हमेशा रहेगी और कोई क़ियामत बरपा नहीं हो सकती। कोई कहता है कि यह निज़ाम (व्यवस्था) मिट जानेवाला है और एक वक़्त में यह जाकर ख़त्म भी हो सकता है, मगर इनसान समेत जो चीज़ भी फ़ना हो गई, फिर उसका दोबारा पैदा होना मुमकिन नहीं है। कोई दोबारा पैदा होने को मुमकिन मानता है, मगर उसका अक़ीदा यह है कि इनसान अपने आमाल (कर्मों) के अच्छे और बुरे नतीजे भुगतने के लिए बार-बार इसी दुनिया में जन्म लेता है। कोई जन्नत और जहन्नम को भी मानता है, मगर इसके साथ ही तनासुख़ (आवागमन) को भी मिलाता है, यानी उसका ख़याल यह है कि गुनहगार जहन्नम में भी जाकर सज़ा भुगतता है और फिर इस दुनिया में भी सज़ा पाने के लिए जन्म लेता रहता है। कोई कहता है कि दुनिया की ज़िन्दगी ख़ुद एक अज़ाब है, जब तक इनसान के मन को माद्दी (भौतिक) ज़िन्दगी से लगाव बाक़ी रहता है उस वक़्त तक वह इस दुनिया में मर-मरकर फिर जन्म लेता रहता है, और उसकी हक़ीक़ी नजात (निर्वाण) यह है कि वह बिलकुल फ़ना हो जाए। कोई आख़िरत और जन्नत व जहन्नम को मानता है, मगर कहता है कि ख़ुदा ने अपने इकलौते बेटे को सलीब (सूली) पर मौत देकर इनसान के पैदाइशी गुनाह का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा कर दिया है, और उस बेटे पर ईमान लाकर आदमी अपने बुरे कामों के बुरे नतीजों से बच जाएगा। कुछ दूसरे लोग आख़िरत और इनाम और सज़ा, हर चीज़ को मानकर कुछ ऐसे बुज़ुर्गों को सिफ़ारिशी मान लेते हैं जो अल्लाह के ऐसे प्यारे हैं, या अल्लाह के यहाँ ऐसा ज़ोर रखते हैं कि जो उनका दामन थाम ले वह दुनिया में सब कुछ करके भी सज़ा से बच सकता है। इन बुज़ुर्ग हस्तियों के बारे में भी इस अक़ीदे के माननेवालों में एक राय नहीं है, बल्कि हर एक गरोह ने अपने अलग-अलग सिफ़ारिशी बना रखे हैं। बातों का यह इख़्तिलाफ़ और फ़र्क़ ख़ुद ही इस बात का सुबूत है कि वह्य और रिसालत (पैग़म्बरी) से बे-परवाह होकर इनसान ने अपने और इस दुनिया के अंजाम पर जब भी कोई राय क़ायम की है, इल्म (ज्ञान) के बिना क़ायम की है। वरना अगर इनसान के पास इस मामले में सचमुच सीधे तौर पर इल्म का कोई ज़रिआ होता तो इतने अलग-अलग और एक-दूसरे के उलट अक़ीदे पैदा न होते।
يُؤۡفَكُ عَنۡهُ مَنۡ أُفِكَ ۝ 3
(9) उससे वही मुँह फेरता है जो हक़ से फिरा हुआ है।7
7. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'यूअ-फ़कु अन्हु मन उफ़िक'। इस जुमले में 'अन्हु' की ज़मीर (सर्वनाम) का ताल्लुक़ दो बातों से हो सकता है : एक आमाल के बदले से, दूसरी अलग-अलग बात से। पहली सूरत में इस हुक्म का मतलब यह है कि “आमाल का बदला तो ज़रूर सामने आना है, तुम लोग उसके बारे में तरह-तरह के अलग-अलग अक़ीदे रखते हो। मगर उसको मानने से वही शख़्स मुँह फेरता है जो हक़ से फिरा हुआ है। दूसरी सूरत में मतलब यह है कि “इन अलग-अलग बातों से वही शख़्स गुमराह होता है जो अस्ल में हक़ से फिरा हुआ है।
قُتِلَ ٱلۡخَرَّٰصُونَ ۝ 4
(10) मारे गए अटकल और गुमान से हुक्म लगानेवाले,8
8. इन अलफ़ाज़ में क़ुरआन मजीद एक अहम हक़ीक़त पर इनसान को ख़बरदार कर रहा है। अटकल और गुमान की बुनियाद पर कोई अन्दाज़ा करना या तख़मीना (अनुमान) लगाना, दुनियावी ज़िन्दगी के छोटे-छोटे मामलों में तो किसी हद तक चल सकता है, अगरचे इल्म का बदल फिर भी नहीं हो सकता, लेकिन इतना बड़ा बुनियादी मसला कि हम अपनी पूरी ज़िन्दगी के आमाल (कर्मों) के लिए किसी के सामने ज़िम्मेदार और जवाबदेह हैं या नहीं, और हैं तो किसके सामने, कब और क्या जवाबदेही हमें करनी होगी, और उस जवाबदेही में कामयाबी और नाकामी के नतीजे क्या होंगे, यह ऐसा मसला नहीं है कि इसके बारे में आदमी सिर्फ़ अपनी अटकलों और अपने गुमान के मुताबिक़ एक अन्दाज़ा क़ायम कर ले और फिर उसी जुए के दाँव पर अपनी ज़िन्दगी की सारी पूँजी लगा दे। इसलिए कि यह अन्दाज़ा अगर ग़लत निकले तो इसका मतलब यह होगा कि आदमी ने अपने-आपको बिलकुल तबाह और बरबाद कर लिया। इसके अलावा यह मसला सिरे से उन मसलों में से है ही नहीं जिनके बारे में आदमी सिर्फ़ अटकलों और अन्दाज़ों से कोई सही राय क़ायम कर सकता हो। क्योंकि अन्दाज़ा उन मामलों में चल सकता है जो इनसान को महसूस होनेवाली चीज़ों में शामिल हों, और यह मसला ऐसा है जिसका कोई पहलू भी महसूस होनेवाली चीज़ों के दायरे में नहीं आता। लिहाज़ा यह बात मुमकिन ही नहीं है कि इसके बारे में अटकल से मालूम की हुई बात सही हो सके। अब रहा यह सवाल कि फिर आदमी के लिए इन समझ में न आने और महसूस न हो सकनेवाले मामलों के बारे में राय क़ायम करने की सही सूरत क्या है, तो इसका जवाब क़ुरआन मजीद में जगह-जगह यह दिया गया है, और ख़ुद इस सूरा से भी यही जवाब ज़ाहिर होता है कि (1) इनसान सीधे तौर पर ख़ुद हक़ीक़त तक नहीं पहुँच सकता, (2) हक़ीक़त का इल्म अल्लाह तआला अपने नबी के ज़रिए से देता है और (3) उस इल्म के सही होने के बारे में आदमी अपना इत्मीनान इस तरीक़े से कर सकता है कि ज़मीन और आसमान और ख़ुद उसके अपने वुजूद में जो अनगिनत निशानियाँ मौजूद हैं उनपर गहरी निगाह डालकर देखे और फिर बेलाग तरीक़े पर सोचे कि ये निशानियाँ क्या उस हक़ीक़त की गवाही दे रही हैं जो नबी बयान कर रहा है, या उन तरह-तरह के नज़रियों की ताईद करती हैं जो दूसरे लोगों ने उसके बारे में पेश किए हैं? ख़ुदा और आख़िरत के बारे में इल्मी जाँच का यही एक तरीक़ा है जो क़ुरआन में बताया गया है। इससे हटकर जो भी अपनी अटकलों पर चला वह मारा गया।
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي غَمۡرَةٖ سَاهُونَ ۝ 5
(11) जो जहालत में डूबे हुए और ग़फ़लत में मस्त हैं।9
9. यानी उन्हें कुछ पता नहीं है कि अपने इन ग़लत अन्दाज़ों की वजह से वे किस अंजाम की तरफ़ चले जा रहे हैं। इन अन्दाज़ों की बुनियाद पर जो रास्ता भी किसी ने अपनाया है वह सीधा तबाही की तरफ़ जाता है। जो शख़्स आख़िरत का इनकार करनेवाला है वह सिरे से किसी जवाबदेही की तैयारी ही नहीं कर रहा है और इस ख़याल में मग्न है कि मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं होगी, हालाँकि अचानक वह वक़्त आ जाएगा जब उसकी उम्मीदों के बिलकुल ख़िलाफ़ दूसरी ज़िन्दगी में उसकी आँखें खुलेंगी और उसे मालूम होगा कि यहाँ उसको अपने एक-एक अमल की जवाबदेही करनी है। जो शख़्स इस ख़याल में सारी उम्र खपा रहा है कि मरकर फिर इसी दुनिया में वापस आऊँगा, उसे मरते ही मालूम हो जाएगा कि अब वापसी के सारे दरवाज़े बन्द हैं, किसी नए अमल (कर्म) से पिछली ज़िन्दगी के आमाल (कर्मों) की भरपाई का अब कोई मौक़ा नहीं, और आगे एक और ज़िन्दगी है जिसमें हमेशा-हमेशा के लिए उसे अपनी दुनियावी ज़िन्दगी के नतीजे देखने और भुगतने हैं। जो शख़्स इस उम्मीद में अपने-आपको तबाह किए डालता है कि मन और उसकी ख़ाहिशों को जब पूरी तरह मार दूँगा तो पूरी तरह मिट जाने की शक्ल में मुझे ज़िन्दगी के अज़ाब से नजात मिल जाएगी, वह मौत के दरवाज़े से गुज़रते ही देख लेगा कि आगे मिट जाना नहीं, बल्कि बाक़ी रहना है और उसे अब इस बात की जवाबदेही करनी है कि क्या तुझे वुजूद की नेमत इसी लिए दी गई थी कि तू उसे बनाने और सँवारने के बजाय मिटाने में अपनी सारी मेहनतें लगा देता? इसी तरह जो शख़्स किसी ख़ुदा के बेटे के कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बन जाने या किसी बुज़ुर्ग हस्ती के सिफ़ारिशी बन जाने पर भरोसा करके उम्र-भर ख़ुदा की नाफ़रमानियाँ करता रहा उसे ख़ुदा के सामने पहुँचते ही पता चल जाएगा कि यहाँ न कोई किसी का कफ़्फ़ारा अदा करनेवाला है और न किसी में यह ताक़त है कि अपने ज़ोर से या अपने पसन्दीदा होने की वजह से किसी को ख़ुदा की पकड़ से बचा ले। इसलिए ये तमाम अटकलों पर बने अक़ीदे हक़ीक़त में एक अफ़ीम हैं, जिसकी पिनक में ये लोग बेसुध पड़े हुए हैं और इन्हें कुछ ख़बर नहीं है कि ख़ुदा और पैग़म्बरों के दिए हुए सही इल्म को नज़रअन्दाज़ करके अपनी जिस जहालत पर ये मग्न हैं वह इन्हें किधर लिए जा रही है।
يَسۡـَٔلُونَ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلدِّينِ ۝ 6
(12) पूछते हैं, “आख़िर वह बदले का दिन कब आएगा?”
يَوۡمَ هُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ يُفۡتَنُونَ ۝ 7
(13) वह उस दिन आएगा जब ये लोग आग पर तपाए जाएँगे"10
10. इस्लाम का इनकार करनेवाले लोगों का यह सवाल कि बदले का दिन कब आएगा, इल्म हासिल करने के लिए न था, बल्कि मज़ाक़ उड़ाने और ताने देने के तौर पर था, इसलिए उनको जवाब इस अन्दाज़ से दिया गया। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे आप किसी शख़्स को बुरे कामों को छोड़ देने की नसीहत करते हुए उससे कहें कि एक दिन इन हरकतों का बुरा नतीजा देखोगे, और वह इसपर एक ठहाका मारकर आपसे पूछे कि जनाब! आख़िर वह दिन कब आएगा? ज़ाहिर है कि उसका यह सवाल उस बुरे अंजाम की तारीख़ मालूम करने के लिए नहीं, बल्कि आपकी नसीहतों का मज़ाक़ उड़ाने के लिए होगा। इसलिए उसका सही जवाब यही है कि वह उस दिन आएगा जब तुम्हारी शामत आएगी। इसके साथ यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि आख़िरत के मसले पर अगर कोई आख़िरत का इनकार करनेवाला संजीदगी के साथ बहस कर रहा हो तो वह उसके हक़ में और उसके ख़िलाफ़ दलीलों पर तो बात कर सकता है, मगर जब तक उसका दिमाग़ बिलकुल ही ख़राब न हो चुका हो, यह सवाल वह कभी नहीं कर सकता कि बताओ वह आख़िरत किस तारीख़ को आएगी। उसकी तरफ़ से यह सवाल जब भी होगा मज़ाक़ और ठिठोली के तौर पर ही होगा। इसलिए कि आख़िरत के आने की तारीख़ बयान करने और न करने का कोई असर भी अस्ल बहस पर नहीं पड़ता। कोई शख़्स न इस बुनियाद पर आख़िरत का इनकार करता है कि उसके आने का साल, महीना और दिन नहीं बताया गया है, और न यह सुनकर उसके आने को मान सकता है कि वह फ़ुलाँ साल, फ़ुलाँ महीने की फ़ुलाँ तारीख़ को आएगी। तारीख़ का तय होना सिरे से कोई दलील ही नहीं है कि वह किसी इनकार करनेवाले को मान लेने पर आमाद कर दे, क्योंकि उसके बाद फिर यह सवाल पैदा हो जाता है कि वह दिन आने से पहले आख़िर कैसे यह यक़ीन कर लिया जाए कि उस दिन सचमुच आख़िरत बरपा हो जाएगी।
ذُوقُواْ فِتۡنَتَكُمۡ هَٰذَا ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 8
(14) (इनसे कहा जाएगा :) अब चखो मज़ा अपने फ़ितने का।11 यह वही चीज़ है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे।12
11. फ़ितने का लफ़्ज़ यहाँ दो मतलब दे रहा है : एक मतलब यह है कि अपने इस अज़ाब का मज़ा चखो। दूसरा मतलब यह कि अपने उस फ़ितने का मज़ा चखो जो तुमने दुनिया में बरपा कर रखा था। अरबी ज़बान में इस लफ़्ज़ के इन दोनों मतलबों की बराबर गुंजाइश है।
12. इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का यह पूछना कि 'आख़िर वह बदले का दिन कब आएगा' अपने अन्दर ख़ुद यह मतलब रखता था कि उसके आने में देर क्यों लग रही है? जब हम उसका इनकार कर रहे हैं और उसके झुठलाने की सज़ा हमारे लिए लाज़िम हो चुकी है तो वह आ क्यों नहीं जाता? इसी लिए जहन्नम की आग में जब वे तप रहे होंगे उस वक़्त उनसे कहा जाएगा कि यह है वह चीज़ जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे। इस जुमले यह मतलब आप-से-आप निकलता है कि यह तो अल्लाह तआला की मेहरबानी थी कि उसने तुमसे नाफ़रमानी का अमल होते ही तुम्हें फ़ौरन न पकड़ लिया और सोचने, समझने और सम्भलने के लिए वह तुमको एक लम्बी मुद्दत देता रहा। मगर तुम ऐसे बेवक़ूफ़ थे कि इस मुहलत से फ़ायदा उठाने के बजाय उलटी यह माँग करते रहे कि यह वक़्त तुमपर जल्दी ले आया जाए। अब देख लो कि वह क्या चीज़ थी जिसके जल्दी आ जाने की माँग तुम कर रहे थे।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 9
(15) अलबत्ता मुत्तक़ी (परहेज़गार) लोग13 उस दिन बाग़ों और चश्मों (स्रोतों) में होंगे,
13. इस मौक़ा-महल में लफ़्ज़ 'मुत्तक़ी' (परहेज़गार) साफ़ तौर पर यह मतलब दे रहा है कि इससे मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की किताब और उसके रसूलों की दी हुई ख़बर पर यक़ीन लाकर आख़िरत को मान लिया, और वह रवैया अपनाया जो आख़िरत की ज़िन्दगी की कामयाबी के लिए उन्हें बताया गया था, और उस रवैये से परहेज़ किया जिसके बारे में उन्हें बता दिया गया था कि यह ख़ुदा के अज़ाब में मुब्तला करनेवाला है।
ءَاخِذِينَ مَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُحۡسِنِينَ ۝ 10
(16) जो कुछ उनका रब उन्हें देगा उसे ख़ुशी-ख़ुशी ले रहे होंगे।14 वे उस दिन के आने से पहले भले काम करनेवाले थे,
14. अगरचे अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'आख़िज़ी-न मा आताहुम रब्बुहुम', और इनका लफ़्ज़ी तर्जमा सिर्फ़ यह है कि “ले रहे होंगे जो कुछ उनके रब ने उनको दिया होगा”, लकिन मौक़ा-महल के लिहाज़ से देखा जाए तो इस जगह ‘लेने' का मतलब सिर्फ़ 'लेना' नहीं, बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी लेना है, जैसे कुछ लोगों को एक सख़ी (दानशील) दाता मुट्ठियाँ भर-भरकर इनाम दे रहा हो और वे लपक-लपककर उसे ले रहे हों। जब किसी शख़्स को उसकी पसन्द की चीज़ दी जाए तो उसे लेने में आप-से-आप ख़ुशी के साथ क़ुबूल करने का मतलब पैदा हो जाता है। क़ुरआन मजीद में एक जगह कहा गया है कि “क्या इन लोगों को मालूम नहीं है कि वह अल्लाह ही है जो अपने बन्दों की तौबा क़ुबूल करता है और उनके सदक़े (दान) लेता है, (सूरा-9 तौबा, आयत-104)। इस जगह सदक़े लेने से मुराद सिर्फ़ उनको वुसूल करना नहीं बल्कि पसन्दीदगी के साथ उनको क़ुबूल करना है।
كَانُواْ قَلِيلٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مَا يَهۡجَعُونَ ۝ 11
(17) रातों को कम ही सोते थे।15
15. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के एक गरोह ने इस आयत का यह मतलब लिया है कि कम ही ऐसा होता था कि वे रात-भर सोकर गुज़ार दें और उसका कुछ-न-कुछ हिस्सा, कम या ज़्यादा, रात के शुरू में या बीच की रात में या आख़िरी रात में, जागकर अल्लाह तआला की इबादत में न लगाएँ। यह तफ़सीर थोड़े-थोड़े लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), मुहम्मद अल-बाक़िर, मुतर्रिफ़-बिन-अब्दुल्लाह, अबुल-आलिया, मुजाहिद, क़तादा, रबीअ-बिन-अनस (रह०) वग़ैरा से नक़्ल हुई है। दूसरे गरोह ने इसका मतलब बयान किया कि वे अपनी रातों का ज़्यादा हिस्सा अल्लाह तआला की इबादत में गुजारते थे और कम सोते थे। यह राय हज़रत हसन बसरी, अहनफ़-बिन-क़ैस और इब्ने-शिहाब ज़ुहरी (रह०) की है, और बाद के तफ़सीर लिखनेवालों और तर्जमा करनेवालों ने इसी को तरजीह (प्राथमिकता) दी है, क्योंकि आयत के अलफ़ाज़ और मौक़ा-महल के लिहाज़ से यही तफ़सीर ज़्यादा मेल खाती हुई नज़र आती है। इसी लिए हमने तर्जम में यही मतलब लिया है।
وَبِٱلۡأَسۡحَارِ هُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 12
(18) फिर वही रात के पिछले पहरों में (ख़ुदा से) माफ़ी माँगते थे,16
16. यानी वे उन लोगों में से न थे जो अपनी रातें गुनाह के कामों और बेशर्मी व बेहयाई के कामों में गुजारते रहे और फिर भी किसी इसतिग़फ़ार (अल्लाह से माफ़ी माँगने) का ख़याल तक उन्हें न आया। इसके बरख़िलाफ़ उनका हाल यह था कि रात का अच्छा-ख़ासा हिस्सा अल्लाह की इबादत में गुज़ार देते थे और फिर भी पिछले पहरों में अपने रब के सामने माफ़ी माँगते थे कि आपकी बन्दगी का जो हक़ हमपर था, उसके अदा करने में हमसे कोताही हुई। 'हुम यस्तग़फ़िरून' के अलफ़ाज़ में एक इशारा इस बात की तरफ़ भी निकलता है कि यह रवैया उन ही को ज़ेब (शोभा) देता था। वही बन्दगी की शान के क़ाबिल थे कि अपने रब की बन्दगी में जान भी लड़ाएँ और फिर उसपर फूलने और अपनी नेकी पर इतराने के बजाय गिड़गिड़ाकर अपनी कोताहियों की माफ़ी भी माँगें। यह उन बेशर्म गुनहगारों का रवैया नहीं हो सकता था जो गुनाह भी करते थे और ऊपर से अकड़ते भी थे।
وَفِيٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ حَقّٞ لِّلسَّآئِلِ وَٱلۡمَحۡرُومِ ۝ 13
(19) और उनके मालों में हक़ था माँगनेवाले और महरूम (वंचित) के लिए।17
17. दूसरे अलफ़ाज़ में, एक तरफ़ अपने रब का हक़ वे इस तरह पहचानते और अदा करते थे, दूसरी तरफ़ बन्दों के साथ उनका मामला यह था। जो कुछ भी अल्लाह ने उनको दिया था, चाहे थोड़ा या बहुत, उसमें वे सिर्फ़ अपना और अपने बाल-बच्चों ही का हक़ नहीं समझते थे, बल्कि उनको यह एहसास था कि हमारे इस माल में ख़ुदा के हर उस बन्दे का हक़ है जो हमारी मदद का मुहताज हो। वे बन्दों की मदद ख़ैरात के तौर पर नहीं करते थे कि उसपर उनसे शुकिए के तलबगार होते और उनपर अपने एहसान का बोझ जताते, बल्कि वे इसे उनका हक़ समझते थे और अपना फ़र्ज़ समझकर अदा करते थे। फिर उनकी यह ख़िदमते-ख़ल्क़ (समाज सेवा) सिर्फ़ उन ही लोगों तक महदूद (सीमित) न थी जो ख़ुद सवाली बनकर उनके पास मदद माँगने के लिए आते, बल्कि जिसके बारे में भी उनकी जानकारी में यह बात आ जाती थी कि वह अपनी रोज़ी पाने से महरूम रह गया है, उसकी मदद के लिए वे ख़ुद बेचैन हो जाते थे। कोई यतीम बच्चा जो बे-सहारा रह गया हो, कोई बेवा (विधवा) जिसका कोई सरपरस्त न हो, कोई मजबूर (अपंग) जो अपनी रोज़ी के लिए हाथ-पाँव न मार सकता हो, कोई शख़्स जिसका रोज़गार छूट गया हो या जिसकी कमाई उसकी ज़रूरतों के लिए काफ़ी न हो रही हो, कोई शख़्स जो किसी आफ़त का शिकार हो गया हो और अपने नुक़सान की भरपाई ख़ुद न कर सकता हो, कहने का मतलब यह है कि कोई जरूरतमन्द ऐसा न था जिसकी हालत उनकी जानकारी में आई हो और वे उसकी मदद कर सकते हों, और फिर भी उन्होंने उसका हक़ मानकर उसकी मदद करने में कोताही की हो। ये तीन सिफ़ात (गुण) हैं जिनकी बुनियाद पर अल्लाह तआला उनको मुत्तक़ी (परहेज़गार) और मुहसिन (बेहतरीन काम करनेवाले) क़रार देता है और फ़रमाता है कि इन ही तीन सिफ़ात (गुणों) ने उनको जन्नत का हक़दार बनाया है। एक यह कि आख़िरत पर ईमान लाकर उन्होंने हर उस रवैये से परहेज़ किया जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने आख़िरत की ज़िन्दगी के लिए तबाह कर डालनेवाला बताया था। दूसरी यह कि उन्होंने अल्लाह की बन्दगी का हक़ अपनी जान लड़ाकर अदा किया और उसपर इतराने के बजाय इसतिग़फ़ार ही करते रहे (यानी अल्लाह से अपनी कोताहियों के लिए माफ़ी ही माँगते रहे)। तीसरे यह कि उन्होंने अल्लाह के बन्दों की ख़िदमत उनपर एहसान समझकर नहीं, बल्कि अपना फ़र्ज़ और उनका हक़ समझकर की। इस जगह पर यह बात और जान लेनी चाहिए कि ईमानवालों के मालों में माँगनेवाले और महरूम के जिस हक़ का यहाँ ज़िक्र किया गया है उससे मुराद ज़कात नहीं है, जिसे शरई तौर पर उनपर फ़र्ज़ कर दिया गया है, बल्कि यह वह हक़ है जो ज़कात अदा करने के बाद भी एक हैसियतवाला मोमिन अपने माल में ख़ुद महसूस करता है और अपने दिल की ख़ुशी से उसको अदा करता है, बिना इसके कि शरीअत ने उसे लाज़िम किया हो। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद और ज़ैद-बिन-असलम (रह०) वग़ैरा बुज़ुर्गों ने इस आयत का यही मतलब बयान किया है। हक़ीक़त में अल्लाह की इस हिदायत की अस्ल रूह यह है कि एक मुत्तक़ी (परहेज़गार) और मुहसिन इनसान कभी इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला नहीं होता कि अल्लाह और उसके बन्दों का जो हक़ मेरे माल में था, ज़कात अदा करके मैं उससे बिलकुल निबट चुका हूँ, अब मैंने इस बात का कोई ठेका नहीं ले लिया है कि हर नंगे, भूखे, मुसीबत के मारे आदमी की मदद करता फिरूँ। इसके बरख़िलाफ़ जो अल्लाह का बन्दा सचमुच मुत्तक़ी और मुहसिन होता है वह हर वक़्त हर उस भलाई के लिए जो उसके बस में हो, दिल व जान से तैयार रहता है और जो मौक़ा भी उसे दुनिया में कोई भला काम करने के लिए मिले उसे हाथ से नहीं जाने देता। उसके सोचने का यह अन्दाज़ ही नहीं होता कि जो नेकी मुझपर फ़र्ज़ की गई थी वह मैं कर चुका हूँ, अब और नेकी क्यों करूँ? नेकी की क़द्र जो शख़्स पहचान चुका हो वह उसे बोझ समझकर बरदाश्त नहीं करता, बल्कि अपने ही फ़ायदे का सौदा समझकर ज़्यादा-से-ज़्यादा कमाने की कोशिश करता है।
وَفِي ٱلۡأَرۡضِ ءَايَٰتٞ لِّلۡمُوقِنِينَ ۝ 14
(20) ज़मीन में बहुत-सी निशानियाँ हैं यक़ीन लानेवालों के लिए,18
18. निशानियों से मुराद वे निशानियाँ हैं जो इस बात की गवाही दे रही हैं कि आख़िरत का आना मुमकिन भी है और ज़रूरी भी। ज़मीन का अपना वुजूद और उसकी बनावट, उसका सूरज से एक ख़ास फ़ासले और एक ख़ास जगह (कोण) पर रखा जाना, उसपर गर्मी और रौशनी का इन्तिज़ाम, उसपर अलग-अलग मौसमों का आना-जाना, उसके ऊपर हवा और पानी का फ़राहम (उपलब्ध) होना, उसके पेट में तरह-तरह के अनगिनत ख़ज़ानों का जुटाया जाना, उसकी सतह पर एक उपजाऊ छिलका चढ़ाया जाना, उसमें तरह-तरह के बेहद और बेहिसाब पेड़-पौधों का उगाया जाना, उसके अन्दर सूखे, पानी और हवा में रहनेवाले जानवरों की अनगिनत नस्लें जारी रहना, उसमें हर क़िस्म की ज़िन्दगी के लिए मुनासिब हालात और मुनासिब ख़ुराक (भोजन) का इन्तिज़ाम करना, उसपर इनसान को वुजूद में लाने से पहले वे तमाम ज़राए व वसाइल (साधन-संसाधन) जुटा देना जो इतिहास के हर मरहले में उसकी दिन-पर-दिन बढ़ती ज़रूरतों ही का नहीं, बल्कि उसकी तहज़ीब व तमवुन (सभ्यता और संस्कृति) की तरक़्क़ी का साथ भी देते चले जाएँ, ये और दूसरी अनगिनत निशानियाँ ऐसी हैं कि खुली आँखें रखनेवाला जिस तरफ़ भी ज़मीन और उसके माहौल में निगाह डालेगा वह उसका दिल मोह लेती हैं। जो शख़्स यक़ीन के लिए अपने दिल के दरवाज़े बन्द कर चुका हो उसकी बात तो दूसरी है। वह उनमें और सब कुछ देख लेगा, बस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करनेवाली कोई निशानी ही न देखेगा। मगर जिसका दिल तास्सुब (पक्षपात) से पाक और सच्चाई के लिए खुला हुआ है वह इन चीज़ों को देखकर हरगिज़ यह तसव्वुर क़ायम न करेगा कि यह सब कुछ किसी इत्तिफ़ाक़ी धमाके का नतीजा है जो कई अरब साल पहले कायनात में अचानक हुआ था, बल्कि उसे यक़ीन आ जाएगा कि यह कमाल दरजे की हिकमत-भरी कारीगरी ज़रूर एक सब कुछ कर सकने की क़ुदरत रखनेवाले (सर्वशक्तिमान) और सब कुछ जाननेवाले ख़ुदा की पैदा की हुई है, और वह ख़ुदा, जिसने यह ज़मीन बनाई है, न इस बात से बेबस हो सकता है कि इनसान को मरने के बाद दोबारा पैदा कर दे, और न ऐसा नादान हो सकता है कि अपनी ज़मीन में अक़्ल और समझ रखनेवाले एक जानदार को अधिकार देकर बे-नथे बैल की तरह छोड़ दे। अधिकारों का दिया जाना आप-से-आप हिसाब लिए जाने का तक़ाज़ा करता है, जो अगर न हो तो हिकमत और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ होगा। और मुकम्मल क़ुदरत का पाया जाना ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात का सुबूत है कि दुनिया में इनसानों का काम ख़त्म होने के बाद उसका पैदा करनेवाला जब चाहे उसे हिसाब-किताब के लिए उसके तमाम लोगों को ज़मीन के हर कोने से, जहाँ भी वे मरे पड़े हों, उठाकर ला सकता है।
وَفِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 15
(21) और ख़ुद तुम्हारे अपने वुजूद में हैं।19 क्या तुमको सूझता नहीं?
19. यानी बाहर देखने की भी ज़रूरत नहीं, ख़ुद अपने अन्दर देखो तो तुम्हें इसी हक़ीक़त पर गवाही देनेवाली अनगिनत निशानियाँ मिल जाएँगी। किस तरह एक बारीक कीड़े (शुक्राणु) और ऐसे ही एक बारीक अण्डे (अण्डाणु) को मिलाकर माँ के जिस्म के एक हिस्से में तुम्हारी पैदाइश की बुनियाद डाली गई। किस तरह तुम्हें उस अंधेरे कोने में परवरिश करके धीरे-धीरे बढ़ाया गया। किस तरह तुम्हें एक बेमिसाल बनावट का जिस्म और हैरत-अंगेज़ क़ुव्वतों से मालामाल शख़सियत दी गई। किस तरह तुम्हारी बनावट मुकम्मल होते ही माँ के पेट की तंग और अंधेरी दुनिया से निकालकर तुम्हें इस कुशादा और फैली हुई (विशाल) दुनिया में इस शान के साथ लाया गया कि एक ज़बरदस्त ख़ुद से चलनेवाली मशीन तुम्हारे अन्दर फ़िट है, जो पैदाइश के दिन से जवानी और बुढ़ापे तक साँस लेने, खाना पचाने, ख़ून बनाने और रग-रग में उसको दौड़ाने, गन्दगी निकालने, जिस्म के घुल जानेवाले हिस्सों की जगह दूसरे हिस्से तैयार करने, और अन्दर से पैदा होनेवाली या बाहर से आनेवाली आफ़तों का मुक़ाबला करने और नुक़सानों की भरपाई करने, यहाँ तक कि थकावट के बाद तुम्हें आराम के लिए सुला देने तक का काम ख़ुद-ब-ख़ुद किए जाती है, बिना इसके कि तुम्हारे ध्यान और कोशिशों का कोई हिस्सा ज़िन्दगी की इन बुनियादी ज़रूरतों पर ख़र्च हो। एक अजीब दिमाग़ तुम्हारी खोपड़ी में रख दिया गया है जिसकी पेचीदा तहों में अक़्ल, फ़िक्र, ख़याल, समझ, तमीज़ (फ़र्क़ करने की सलाहियत), इरादा, याद्दाश्त, ख़ाहिश, एहसासात और जज़बात, दिलचस्पियाँ और रुझान और दूसरी ज़ेहनी क़ुव्वतों की एक अनमोल दौलत भरी पड़ी है। इल्म के बहुत-से ज़रिए (साधन) तुमको दिए गए हैं जो आँख, नाक, कान और पूरे जिस्म की खाल से तुमको हर तरह की ख़बरें देते हैं। ज़बान और बोलने की ताक़त तुमको दे दी गई, जिसके ज़रिए से तुम अपने मन की बात ज़ाहिर कर सकते हो। और फिर तुम्हारे वुजूद की इस पूरी सल्तनत पर तुम्हारी अना (स्वाभिमान) को एक सरदार बनाकर बिठा दिया गया है कि इन तमाम क़ुव्वतों से काम लेकर राएँ क़ायम करो और यह फ़ैसला करो कि तुम्हें किन राहों में अपने वक़्तों, मेहनतों और कोशिशों को लगाना है, क्या चीज़ रद्द करनी है और क्या क़ुबूल करनी है, किस चीज़ को अपना मक़सद बनाना है और किसको नहीं बनाना। यह हस्ती बनाकर जब तुम्हें दुनिया में लाया गया तो ज़रा देखो कि यहाँ आते ही कितना सरो-सामान तुम्हारी परवरिश, तुम्हारे फलने-फूलने और तरक़्क़ी व शख़सियत की तकमील (पूर्णता) के लिए तैयार था, जिसकी बदौलत तुम ज़िन्दगी के एक ख़ास मरहले पर पहुँचकर अपने इन इख़्तियारात को इस्तेमाल करने के क़ाबिल हो गए। इन इख़्तियारात को इस्तेमाल करने के लिए ज़मीन में तुमको ज़राए (साधन) दिए गए। मौक़े जुटाए गए। बहुत-सी चीज़ों पर तुमको इस्तेमाल की ताक़त दी गई। बहुत-से इनसानों के साथ तुमने तरह-तरह के मामले किए। तुम्हारे सामने कुफ़्र और ईमान, नाफ़रमानी और फ़रमाँबरदारी, ज़ुल्म और इनसाफ़, भलाई और बुराई, हक़ और बातिल की तमाम राहें खुली थीं, और उन राहों में से हर एक की तरफ़ बुलानेवाली और हर एक की तरफ़ ले जानेवाली वजहें मौजूद थीं। तुममें से जिसने जिस राह को भी चुना अपनी जिम्मेदारी पर चुना, क्योंकि फ़ैसला और चुनाव की ताक़त उसके अन्दर रखी गई थी। हर एक के अपने ही चुनाव के मुताबिक़ उसकी नीयतों और इरादों को अमल में लाने के जो मौक़े उसको हासिल हुए उनसे फ़ायदा उठाकर कोई नेक बना और कोई बुरा, किसी ने ईमान की राह अपनाई और किसी ने कुफ़्र और शिर्क या नास्तिकता की राह ली, किसी ने अपने मन को नाजाइज़ ख़ाहिशों से रोका और कोई ख़ाहिशों का बन्दा (दास) बनकर सब कुछ कर गुज़रा, किसी ने ज़ुल्म किया और किसी ने ज़ुल्म सहा, किसी ने हक़ अदा किए और किसी ने हक़ मारे, किसी ने मरते दम तक दुनिया में भलाई की और कोई ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक बुराइयाँ करता रहा, किसी ने सच का बोलबाला करने के लिए जान लड़ाई, और कोई बातिल (असत्य) को सरबुलन्द करने के लिए हक़परस्तों पर ज़ुल्म करता रहा। अब क्या कोई शख़्स जिसके दिल की आँखें बिलकुल ही फूट न गई हों, यह कह सकता है कि इस तरह की एक हस्ती ज़मीन पर इत्तिफ़ाक़ से वुजूद में आ गई है? कोई हिकमत और कोई मंसूबा उसके पीछे काम नहीं कर रहा है? ज़मीन पर उसके हाथों ये सारे हंगामें जो बरपा हो रहे हैं सब बे-मक़सद हैं और बे-नतीजा ही ख़त्म हो जानेवाले हैं? किसी भलाई का इनाम और किसी बुराई की कोई सज़ा नहीं? किसी ज़ुल्म की कोई सुनवाई और किसी ज़ालिम की पूछ-गछ नहीं? इस तरह की बातें एक अक़्ल का अन्धा तो कह सकता है, या फिर वह शख़्स कह सकता है जो पहले से क़सम खाए बैठा है कि इनसान की पैदाइश के पीछे किसी हिकमतवाले की हिकमत को नहीं मानना है। मगर एक ग़ैर-जानिबदार (निष्पक्ष) और समझदार आदमी यह माने बिना नहीं रह सकता कि इनसान को जिस तरह, जिन क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों के साथ इस दुनिया में पैदा किया गया है और जो हैसियत उसको यहाँ दी गई है वह यक़ीनन एक बहुत बड़ा हिकमत-भरा मंसूबा है, और जिस ख़ुदा का यह मंसूबा है उसकी हिकमत लाज़िमन यह तक़ाज़ा करती है कि इनसान से उसके आमाल की पूछ-गछ हो, और उसकी क़ुदरत के बारे में यह गुमान करना हरगिज़ दुरुस्त नहीं हो सकता कि जिस इनसान को वह एक बहुत ही बारीक ख़लिए (कोशिका) से शुरू करके इस मक़ाम तक पहुँचा चुका है, उसे फिर वुजूद में न ला सकेगा।
وَفِي ٱلسَّمَآءِ رِزۡقُكُمۡ وَمَا تُوعَدُونَ ۝ 16
(22) आसमान ही में है तुम्हारा रिज़्क़ (रोज़ी) भी और वह चीज़ भी जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है।20
20. 'आसमान' से मुराद यहाँ ऊपरी दुनिया है। 'रिज़्क़' से मुराद वह सब कुछ है जो दुनिया में इनसान को जीने और काम करने के लिए दिया जाता है। और ‘मा तू-अदून' (जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है) से मुराद क़ियामत, मरने के बाद दोबारा उठाया जाना और इकट्ठा किया जाना, पूछ-गछ और हिसाब-किताब, इनाम व सज़ा और जन्नत व जहन्नम हैं, जिनके सामने आने का वादा तमाम आसमानी किताबों में और इस क़ुरआन में किया जाता रहा है। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह है कि ऊपरी दुनिया ही से यह फ़ैसला होता है कि तुममें से किसको क्या कुछ दुनिया में दिया जाए, और वहीं से यह फ़ैसला भी होना है कि तुम्हें पूछ-गछ और आमाल के बदले के लिए कब बुलाया जाए।
فَوَرَبِّ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ إِنَّهُۥ لَحَقّٞ مِّثۡلَ مَآ أَنَّكُمۡ تَنطِقُونَ ۝ 17
(23) तो क़सम है आसमान और ज़मीन के मालिक की! यह बात हक़ है, ऐसी ही यक़ीनी जैसे तुम बोल रहे हो।
هَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 18
(24) ऐ नबी!"21 इबराहीम के इज़्ज़तदार मेहमानों का क़िस्सा भी तुम तक पहुँचा है?22
21. अब यहाँ से रुकू 2 (आयतें—24 से 46) के ख़त्म होने तक नबियों (अलैहि०) और कुछ पिछली क़ौमों के अंजाम की तरफ़ लगातार छोटे-छोटे इशारे किए गए हैं, जिनका मक़सद दो बातें ज़ेहन में बिठाना है— एक यह कि इनसानी इतिहास में ख़ुदा का बदले (सज़ा या जज़ा) का क़ानून बराबर काम करता रहा है, जिसमें नेक लोगों के लिए इनाम और ज़ालिमों के लिए सज़ा की मिसालें लगातार पाई जाती हैं। यह इस बात की खुली अलामत (दलील) है कि दुनिया की इस ज़िन्दगी में भी इनसान के साथ उसके पैदा करनेवाले के मामले का दारोमदार सिर्फ़ क़ुदरती क़ानून (Physical law) पर नहीं है, बल्कि अख़लाक़ी क़ानून (नैतिक नियम, Moral law) उसके साथ काम कर रहा है। और जब कायनात की सल्तनत का मिज़ाज यह है कि जिस जानदार को क़ुदरती जिस्म में रहकर अख़लाक़ी आमाल (कामों) का मौक़ा दिया गया हो उसके साथ जानवरों और पेड़-पौधों की तरह सिर्फ़ क़ुदरती क़ानून पर मामला न किया जाए, बल्कि उसके अख़लाक़ी आमाल पर अख़लाक़ी क़ानून भी लागू किया जाए, तो यह बात अपनी जगह ख़ुद इस हक़ीक़त की साफ़ निशानदेही करती है कि इस सल्तनत में एक वक़्त ऐसा ज़रूर आना चाहिए जब इस क़ुदरती दुनिया में इनसान का काम ख़त्म हो जाने के बाद ख़ालिस अख़लाक़ी क़ानून के मुताबिक़ उसके अख़लाक़ी नतीजे पूरी तरह सामने आएँ, क्योंकि इस क़ुदरती दुनिया में वे पूरे तौर पर सामने नहीं आ सकते। दूसरी बात जो इन ऐतिहासिक इशारों से ज़ेहन में बिठाई गई है वह यह है कि जिन क़ौमों ने भी नबियों (अलैहि०) की बात न मानी और अपनी ज़िन्दगी का पूरा रवैया तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (पैग़म्बरी) और आख़िरत के इनकार पर क़ायम किया वे आख़िरकार तबाही की हक़दार होकर रहीं। इतिहास का यह लगातार तजरिबा इस बात पर गवाह है कि ख़ुदा का अख़लाक़ी क़ानून जो नबियों (अलैहि०) के ज़रिए से दिया गया, और उसके मुताबिक़ इनसानी आमाल की पूछ-गछ जो आख़िरत में होनी है, उसकी बुनियाद सरासर हक़ीक़त पर है, क्योंकि जिस क़ौम ने भी इस क़ानून से बे-परवाह होकर अपने-आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह समझते हुए दुनिया में अपना रवैया तय किया है, वह आख़िरकार सीधी तबाही की तरफ़ गई है।
22. यह क़िस्सा क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर पहले गुज़र चुका है। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयतें—69 से 76; सूरा-15 हिज्र, आयतें—51 से 60; सूरा-29 अन्‌कबूत,आयतें—31, 32।
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 19
(25) जब वे उसके यहाँ आए तो कहा, “आपको सलाम है!” उसने कहा, “आप लोगों को भी सलाम है! कुछ अजनबी से लोग हैं।"23
23. मौक़ा-महल को देखते हुए इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं एक यह कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ख़ुद उन मेहमानों से कहा कि आप लोगों से कभी पहले मुलाक़ात का मौक़ा नहीं मिला, आप शायद इस इलाक़े में नए-नए आए हैं। दूसरा यह कि उनके सलाम का जवाब देकर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने दिल में कहा, या घर में ख़ातिरदारी का इन्तिज़ाम करने के लिए जाते हुए अपने नौकरों से कहा कि ये कुछ अज्रनबी-से लोग हैं, पहले कभी इस इलाक़े में इस शान और हुलिए के लोग देखने में नहीं आए।
فَرَاغَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ فَجَآءَ بِعِجۡلٖ سَمِينٖ ۝ 20
(26) फिर वह चुपके से अपने घरवालों के पास गया,24 और एक मोटा-ताज़ा बछड़ा25 लाकर मेहमानों के आगे पेश किया।
24. यानी अपने मेहमानों से यह नहीं कहा कि मैं आपके लिए खाने का इन्तिज़ाम करता हूँ, बल्कि उन्हें बिठाकर चुपचाप खाने-पीने का इन्तिज़ाम करने चले गए, ताकि मेहमान तकल्लुफ़ (झिझक) की वजह से यह न कहें कि इस तकलीफ़ की क्या ज़रूरत है।
25. सूरा-11 हूद में 'इजलिन हनीज़' (भुने हुए बछड़े) के अलफ़ाज़ हैं। यहाँ यह बताया गया कि इबराहीम (अलैहि०) ने ख़ूब छाँटकर मोटा-ताज़ा बछड़ा भुनवाया था।
فَقَرَّبَهُۥٓ إِلَيۡهِمۡ قَالَ أَلَا تَأۡكُلُونَ ۝ 21
(27) उसने कहा, “आप लोग खाते क्यों नहीं?"
فَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۖ قَالُواْ لَا تَخَفۡۖ وَبَشَّرُوهُ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 22
(28) फिर वह अपने दिल में उनसे डरा।26 उन्होंने कहा, “डरिए नहीं!” और उसे एक इल्मवाले लड़के की पैदाइश की ख़ुशख़बरी सुनाई।27
26. यानी जब उनके हाथ खाने की तरफ़ न बढ़े तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दिल में डर पैदा हुआ। इस डर की वजह यह भी हो सकती है कि अजनबी मुसाफ़िरों का किसी के घर जाकर खाने से परहेज करना, क़बीले की ज़िन्दगी में इस बात की अलामत होता है कि वे किसी बुरे इरादे से आए हैं। लेकिन गुमान यह है कि उनके इस बचने ही से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) समझ गए कि ये फ़रिश्ते हैं, जो इनसानी शक्ल में आए हैं, और चूँकि फ़रिश्तों का इनसानी रूप में आना बड़े ग़ैर-मामूली हालात में होता है, इसलिए उनको डर महसूस हुआ कि कोई ख़ौफ़नाक मामला आ पड़ा है, जिसके लिए ये लोग इस शान से तशरीफ़ लाए हैं।
27. सूरा-11 हूद में बयान हुआ है कि यह हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश की ख़ुशख़बरी थी, और इसमें यह ख़ुशख़बरी भी दी गई थी कि हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) से उनको हज़रत याक़ूब (अलैहि०) जैसा पोता नसीब होगा।
فَأَقۡبَلَتِ ٱمۡرَأَتُهُۥ فِي صَرَّةٖ فَصَكَّتۡ وَجۡهَهَا وَقَالَتۡ عَجُوزٌ عَقِيمٞ ۝ 23
(29) यह सुनकर उसकी बीवी चीख़ती हुई आगे बढ़ी और उसने अपना मुँह पीट लिया और कहने लगी, “बूढ़ी बाँझ!"28
28. यानी एक तो मैं बूढ़ी, ऊपर से बाँझ। अब मेरे यहाँ बच्चा होगा? बाइबल का बयान है कि उस वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की उम्र सौ साल और हज़रत सारा (अलैहि०) की उम्र 90 साल थी। (उत्पत्ति, 17:17)
قَالُواْ كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 24
(30) उन्होंने कहा, “यही कुछ फ़रमाया है तेरे रब ने, वह हिकमतवाला है और सब कुछ जानता है।29
29. इस क़िस्से का मक़सद यह बताना है कि जिस बन्दे ने अपने रब की बन्दगी का हक़ दुनिया में ठीक-ठीक अदा किया था, उसके साथ आख़िरत में तो जो मामला होगा सो होगा, इसी दुनिया में उसको यह इनाम दिया गया कि आम क़ुदरती क़ानून के मुताबिक़ जिस उम्र में उसके यहाँ औलाद पैदा न हो सकती थी, और उसकी बूढ़ी बीवी तमाम उम्र बे-औलाद रहकर इस तरफ़ से बिलकुल मायूस हो चुकी थी, उस वक़्त अल्लाह ने उसे न सिर्फ़ औलाद दी, बल्कि ऐसी बेमिसाल औलाद दी जो आज तक किसी को नसीब नहीं हुई है। दुनिया में कोई दूसरा इनसान ऐसा नहीं है जिसकी नस्ल में लगातार चार पैग़म्बर पैदा हुए हों। वे सिर्फ़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ही थे जिनके यहाँ तीन पीढ़ियों तक पैग़म्बरी चलती रही और हज़रत इसमाईल (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जैसे बड़े-बड़े नबी उनके घराने से उठे।
۞قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 25
(31) इबराहीम ने कहा, “ऐ अल्लाह के फ़रिश्तो! क्या मुहिम आपके सामने है?"30
30. चूँकि फ़रिश्तों का इनसानी शक्ल में आना किसी बड़े अहम काम के लिए होता है, इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०), ने, उनके आने का मक़सद पूछने के लिए 'ख़त्ब' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया। 'ख़त्ब' अरबी ज़बान में किसी मामूली काम के लिए नहीं, बल्कि किसी बड़े और अहम काम के लिए बोला जाता है।
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 26
(32) उन्होंने कहा, “हम एक मुजरिम क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं,31
31. मुराद है लूत (अलैहि०) की क़ौम। उसके जुर्म इतने ज़्यादा बढ़ चुके थे कि सिर्फ़ 'मुजरिम का क़ौम' का लफ़्ज़ ही यह बताने के लिए काफ़ी था कि उससे मुराद कौन-सी क़ौम है। इससे पहले क़ुरआन मजीद में नीचे लिखी जगहों पर इसका ज़िक्र गुज़र चुका है— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयतें—80 से 84; सूरा-11 हूद, आयतें—74 से 83; सूरा-15 हिज्र, आयतें—58 से 77; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—74, 75; सूरा-26 शुअरा, आयतें—160 से 175; सूरा-27 नम्ल, आयतें—54 से 58; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—28 से 35; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—133 से 138।
لِنُرۡسِلَ عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن طِينٖ ۝ 27
(33) ताकि उसपर पक्की हुई मिट्टी के पत्थर बरसा दें,
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 28
(34) जो आपके रब के यहाँ हद से गुज़र जानेवालों के लिए निशान लगे हुए हैं।32
32. यानी एक-एक पत्थर पर आपके रब की तरफ़ से निशान लगा दिया गया है कि उसे किस मुजरिम का सर कुचलना है। सूरा-11 हूद और सूरा-15 हिज्र में इस अज़ाब की तफ़सील यह बताई गई है कि उनकी बस्तियों को तलपट कर दिया गया और ऊपर से पक्की हुई मिट्टी के पत्थर बरसाए गए। इससे यह समझा जा सकता है कि सख़्त ज़लज़ले के असर से पूरा इलाक़ा उलट दिया गया और जो लोग ज़लज़ले से बचकर भागे उनको आतिशफ़िशाँ (ज्वालामुखी) के पत्थरों की बारिश ने ख़त्म कर दिया।
فَأَخۡرَجۡنَا مَن كَانَ فِيهَا مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 29
(35) फिर33 हमने उन सब लोगों को निकाल लिया जो उस बस्ती में ईमानवाले थे,
33. बीच में यह क़िस्सा छोड़ दिया गया है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पास से ये फ़रिश्ते किस तरह हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ पहुँचे और वहाँ उनके और लूत (अलैहि०) की क़ौम के बीच क्या कुछ हुआ। यह तफ़सीलात सूरा-11 हूद; सूरा-15 हिज्र और सूरा-29 अन्‌कबूत में गुज़र चुकी हैं। यहाँ सिर्फ़ उस आख़िरी वक़्त का ज़िक्र किया जा रहा है जब इस क़ौम पर अज़ाब आनेवाला था।
فَمَا وَجَدۡنَا فِيهَا غَيۡرَ بَيۡتٖ مِّنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 30
(36) और वहाँ हमने एक घर के सिवा मुसलमानों का कोई घर न पाया।34
34. यानी पूरी क़ौम में और उसके पूरे इलाक़े में सिर्फ़ एक घर था जिसमें ईमान और इस्लाम की रौशनी पाई जाती थी, और वह अकेला हज़रत लूत (अलैहि०) का घर था। बाक़ी पूरी क़ौम गुनाह और बदकारी में डूबी हुई थी, और उसका सारा देश गन्दगी से भर चुका था। इसलिए अल्लाह तआला ने उस एक घर के लोगों को बचाकर निकाल लिया और उसके बाद उस देश पर वह तबाही डाल दी जिससे उस बदकार क़ौम का कोई शख़्स बचकर न जा सका। इस आयत में तीन अहम बातें बयान हुई हैं— एक यह कि अल्लाह का (आमाल के मुताबिक़) बदले का क़ानून उस वक़्त तक किसी क़ौम की मुकम्मल तबाही का फ़ैसला नहीं करता जब तक उसमें कुछ अहमियत देने लायक़ भलाई मौजूद रहे। बुरे लोगों की ज़्यादा तादाद के मुक़ाबले में अगर एक थोड़ी-सी तादाद भी ऐसी पाई जाती हो जो बुराई को रोकने और नेकी के रास्ते की तरफ़ बुलाने के लिए कोशिश कर रही हो, तो अल्लाह तआला उसे काम करने का मौक़ा देता है और उस क़ौम की मुहलत बढ़ाता रहता है जो अभी भलाई से बिलकुल ख़ाली नहीं हुई है। मगर जब हालत यह हो जाए कि किसी क़ौम के अन्दर आटे में नमक के बराबर भी भलाई बाक़ी न रहे तो ऐसी सूरत में अल्लाह का क़ानून यह है कि जो दो-चार नेक इनसान उसकी बस्तियों में बुराई के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते थककर बेबस हो चुके हों उन्हें वह अपनी क़ुदरत से किसी-न-किसी तरह बचाकर निकाल देता है और बाक़ी लोगों के साथ वही मामला करता है जो हर होशमन्द मालिक अपने सड़े हुए फलों के साथ किया करता है। दूसरी यह कि 'मुसलमान' सिर्फ़ उसी उम्मत का नाम नहीं है जो मुहम्मद (सल्ल०) की पैरौकार है, बल्कि आप (सल्ल०) से पहले के तमाम नबी (अलैहि०) और उनके पैरोकार भी मुसलमान ही थे। उनके दीन अलग-अलग न थे कि कोई दीने-इबराहीमी हो और कोई मूसवी और कोई ईसवी। बल्कि वे सब मुस्लिम थे और उनका दीन यही इस्लाम था। क़ुरआन मजीद में यह हक़ीक़त जगह-जगह इतने साफ़ अलफ़ाज़ में बयान की गई है कि इसमें किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं है। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयतें—128, 131, से 133; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-67; सूरा-5 माइदा, आयतें—44, 111; सूरा-7 आराफ़, आयत-126; सूरा-10 यूनुस, आयतें—72, 84; सूरा-12 यूसुफ़, आयत-101; सूरा-27 नम्ल, आयतें—31, 42, 44। तीसरी यह कि 'मोमिन' और 'मुस्लिम' के अलफ़ाज़ इस आयत में बिलकुल एक ही मानी में इस्तेमाल हुए हैं। इस आयत को अगर सूरा-49 हुजुरात की आयत-14 के साथ मिलाकर पढ़ा जाए तो उन लोगों के ख़याल की ग़लती पूरी तरह वाज़ेह हो जाती है जो यह समझते हैं कि 'मोमिन' और 'मुस्लिम' क़ुरआन मजीद के ऐसे दो मुस्तक़िल अलफ़ाज़ (शब्द) हैं जो हर जगह एक ही मतलब के लिए इस्तेमाल हुए हैं और 'मुस्लिम' लाज़िमी तौर से उसी शख़्स को कहते हैं जो ईमान के बिना सिर्फ़ बज़ाहिर इस्लाम के दायरे में दाख़िल हो गया हो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-49 हुजुरात, हाशिया-31)
وَتَرَكۡنَا فِيهَآ ءَايَةٗ لِّلَّذِينَ يَخَافُونَ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 31
(37) उसके बाद हमने वहाँ बस एक निशानी उन लोगो के लिए छोड़ा दी जो दर्दनाक अज़ाब से डरते हों।35
35. इस निशानी से मुराद मृत-सागर (Dead Sea) है, जिसका जुनूबी (दक्षिणी) इलाक़ा आज भी एक बड़ी तबाही की निशानियाँ पेश कर रहा है। आसारे-क़दीमा के माहिरीन (पुरातत्व विशेषज्ञों) का अन्दाज़ा है कि लूत (अलैहि०) की क़ौम के बड़े शहर शायद सख़्त ज़लज़ले से ज़मीन के अन्दर धँस गए थे और उनके ऊपर मृत-सागर का पानी फैल गया था, क्योंकि इस सागर का वह हिस्सा जो 'अल-लिसान' नाम के छोटे-से जज़ीरा-नुमा (प्रायद्वीप) के जुनूब (दक्षिण) में है, साफ़ तौर पर बाद की पैदावार मालूम होता है और पुराने मृत-सागर की जो निशानियाँ इस जज़ीरा-नुमा (प्रायद्वीप) के शिमाल (उत्तर) तक नज़र आती हैं वे जुनूब (दक्षिण) में पाई जानेवाली निशानियों से बहुत अलग हैं। इससे यह अन्दाज़ा किया जाता है कि जुनूब (दक्षिण) का हिस्सा पहले इस सागर की सतह से बुलन्द था, बाद में किसी वक़्त धँसकर उसके नीचे चला गया। इसके धँसने का ज़माना भी दो हज़ार साल ई० पू० के लगभग का ज़माना मालूम होता है, और यही तारीख़ी (ऐतिहासिक) तौर पर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) का ज़माना है। 1965 ई० में आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की कि तलाश करनेवाले एक अमरीकी ग्रुप को 'अल-लिसान' पर एक बहुत बड़ा क़ब्रिस्तान मिला है जिसमें 20 हज़ार से ज़्यादा क़ब्रें हैं। इससे अन्दाज़ा होता है कि क़रीब में कोई बड़ा शहर ज़रूर का आबाद होगा। मगर किसी ऐसे शहर की निशानियाँ आसपास कहीं मौजूद नहीं हैं जिससे मिला हुआ इतना बड़ा क़ब्रिस्तान बन सकता हो। इससे भी यह शक मज़बूत होता है कि जिस शहर का यह क़ब्रिस्तान था वह समुद्र में डूब चुका है। समुद्र के जुनूब (दक्षिण) में जो इलाक़ा है उसमें अब भी हर तरफ़ तबाही की निशानियाँ मौजूद हैं और ज़मीन में गन्धक, राल, कोलतार और क़ुदरती ग़ैस के इतने ज़ख़ीरे (भण्डार) पाए जाते हैं जिन्हें देखकर गुमान होता है कि किसी वक़्त बिजलियों के गिरने से या ज़लज़ले का लावा निकलने से यहाँ एक जहन्नम फट पड़ी होगी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-114)
وَفِي مُوسَىٰٓ إِذۡ أَرۡسَلۡنَٰهُ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 32
(38) और (तुम्हारे लिए निशानी है) मूसा के क़िस्से में। जब हमने उसे खुली सनद के साथ फ़िरऔन के पास भेजा,36
36. यानी ऐसे साफ़ मोजिज़ों (चमत्कारों) और ऐसी खुली-खुली निशानियों के साथ भेजा जिनसे इस बात में शक न रहा था कि नबी (सल्ल०) ज़मीन-आसमान के पैदा करनेवाले की तरफ़ से मुक़र्रर होकर आए हैं।
فَتَوَلَّىٰ بِرُكۡنِهِۦ وَقَالَ سَٰحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٞ ۝ 33
(39) तो वह अपने बल-बूते पर अकड़ गया और बोला, “यह जादूगर है37 या दीवाना है।”
37. यानी कभी उसने नबी (सल्ल०) को जादूगर क़रार दिया और कभी कहा कि यह शख़्स दीवाना है।
فَأَخَذۡنَٰهُ وَجُنُودَهُۥ فَنَبَذۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ وَهُوَ مُلِيمٞ ۝ 34
(40) आख़िरकार हमने उसे और उसके लश्करों को पकड़ा और सबको समुद्र में फेंक दिया और वह मलामत का मारा (निन्दित) होकर रह गया।38
38. इस छोटे-से जुमले में इतिहास की एक पूरी दास्तान समेट दी गई है। इसको समझने के लिए ज़रा तसव्वुर की आँखों के सामने यह नक़्शा ले आइए कि फ़िरऔन उस वक़्त दुनिया के तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता और संस्कृति) के सबसे बड़े मर्कज़ (केन्द्र) का महान बादशाह था जिसकी शानो-शौकत से आसपास की सारी क़ौमें डरी हुई थीं। ज़ाहिर बात है कि वह जब अपने लश्करों समेत अचानक एक दिन डूब गया होगा तो सिर्फ़ मिस्र ही में नहीं, आसपास की तमाम क़ौमों में इस वाक़िए की धूम मच गई होगी। मगर इसपर सिवाय उन लोगों के जिनके अपने क़रीबी रिश्तेदार डूबे थे, बाक़ी कोई न था जो उनके अपने देश में, या दुनिया की दूसरी क़ौमों में मातम (विलाप) करता या उनका मरसिया (शोक-गीत) कहता, या कम-से-कम यही कहनेवाला होता कि अफ़सोस, कैसे अच्छे लोग थे जो इस हानि के शिकार हो गए! इसके बजाय, चूँकि दुनिया उनके ज़ुल्म से तंग आई हुई थी, इसलिए उनके सीख देनेवाले अंजाम पर हर शख़्स ने इत्मीनान की साँस ली, हर ज़बान ने उनपर मलामत की फटकार बरसाई, और जिसने भी इस ख़बर को सुना वह पुकार उठा कि ये ज़ालिम इसी अंजाम के हक़दार थे। सूरा-44 दुख़ान, आयत-29 में इसी कैफ़ियत को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है “फिर न आसमान उनपर रोया और न ज़मीन।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-25)
وَفِي عَادٍ إِذۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلرِّيحَ ٱلۡعَقِيمَ ۝ 35
(41) और (तुम्हारे लिए निशानी है) आद में, जबकि हमने उनपर एक ऐसी बे-ख़ैर (अशुभ) हवा भेज दी
مَا تَذَرُ مِن شَيۡءٍ أَتَتۡ عَلَيۡهِ إِلَّا جَعَلَتۡهُ كَٱلرَّمِيمِ ۝ 36
(42) कि जिस चीज़ पर भी वह गुज़र गई उसे तहस-नहस करके रख दिया।39
39. इस हवा के लिए अरबी लफ़्ज़ 'अक़ीम' इस्तेमाल हुआ है जो बाँझ औरत के लिए बोला जाता है, और लुग़त (शब्दकोश) में इसका अस्ल मतलब 'याबिस' (सूखा) है। अगर इसे लुग़वी मानी में लिया जाए जो इसका मतलब यह होगा कि वह ऐसी सख़्त और गर्म और सूखी हवा थी कि जिस चीज़ पर से वह गुज़र गई उसे सुखाकर रख दिया। और अगर इसे मुहावरे के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि बाँझ औरत की तरह वह ऐसी हवा थी कि जो अपने अन्दर कोई फ़ायदा न रखती थी। न ख़ुशगवार थी, न बारिश लानेवाली, न पेड़ों पर फल लानेवाली, और न उन फ़ायदों में से कोई फ़ायदा उसमें था जिनके लिए हवा का चलना ज़रूरी होता है। दूसरी जगहों पर बताया गया है कि यह सिर्फ़ बे-फ़ायदा और ख़ुश्क ही न थी, बल्कि बहुत तेज़ आँधी की शक्ल में थी, जिसने लोगों को उठा-उठाकर पटक दिया, और यह लगातार आठ दिन और सात रातों तक चलती रही, यहाँ तक कि आद क़ौम के पूरे इलाक़े को उसने बरबाद करके रख दिया। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—20, 21; सूरा-46 अहक़ाफ़, हाशिए—25 से 28)
وَفِي ثَمُودَ إِذۡ قِيلَ لَهُمۡ تَمَتَّعُواْ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 37
(43) और (तुम्हारे लिए निशानी है) समूद में, जब उनसे कहा गया था कि एक ख़ास वक़्त तक मज़े कर लो।40
40. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में इस बात पर राएँ अलग-अलग हैं कि इससे मुराद पकौन-सी मुहलत है। हज़रत क़तादा (रह०) कहते हैं कि यह इशारा सूरा-11 हूद की उस आयत की तरफ़ है जिसमें बयान किया गया है कि समूद के लोगों ने जब हज़रत सॉलेह (अलैहि०) की ऊँटनी को मार डाला तो अल्लाह तआला की तरफ़ से उनको ख़बरदार कर दिया गया कि तीन दिन तक मज़े कर लो, उसके बाद तुमपर अज़ाब आ जाएगा। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत हसन बसरी (रह०) का ख़याल है कि यह बात हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने अपनी दावत के शुरू में अपनी क़ौम से कही थी और इससे उनका मतलब यह था कि अगर तुम तौबा और ईमान का रवैया न अपनाओगे तो एक ख़ास वक़्त तक ही तुमको दुनिया में ऐश करने की मुहलत मिल सकेगी और उसके बाद तुम्हारी शामत आ जाएगी। इन दोनों तफ़सीरों में से दूसरी तफ़सीर ही ज़्यादा सही मालूम होती है, क्योंकि बाद की आयत, “फिर उन्होंने अपने रब के हुक्म से सरकशी की,” यह बताती है कि जिस मुहलत का यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है वह सरकशी से पहले दी गई थी और उन्होंने सरकशी इस तंबीह (चेतावनी) के बाद की। इसके बरख़िलाफ़ सूरा-11 हूद की आयत में तीन दिन की जिस मुहलत का ज़िक्र किया गया है वह उन ज़ालिमों की तरफ़ से आख़िरी और फ़ैसला कर देनेवाली सरकशी हो जाने के बाद दी गई थी।
فَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 38
(44) मगर इस तंबीह (चेतावनी) पर भी उन्होंने अपने रब के हुक्म से सरकशी की। आख़िरकार उनके देखते-देखते एक अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब41 ने उनको आ लिया।
41. क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर इस अज़ाब के लिए अलग-अलग अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। कहीं इसे 'रजफ़ा' (दहला देनेवाली और हिला मारनेवाली आफ़त) कहा गया है। कहीं इसको 'सैहा' (धमाका और कड़का) कहा गया है। कहीं इसके लिए 'ताग़िया' बहुत ही सख़्त आफ़त) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। और यहाँ इसी को 'साइक़ा' कहा गया है जिसका मतलब बिजली की तरह अचानक टूट पड़नेवाली आफ़त भी है और सख़्त कड़क भी। शायद यह अज़ाब एक ज़लज़ले की शक्ल में आया था जिसके साथ भयानक आवाज़ भी थी।
وَمِن كُلِّ شَيۡءٍ خَلَقۡنَا زَوۡجَيۡنِ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 39
(49) और हर चीज़ के हमने जोड़े बनाए हैं,"46 शायद कि तुम इससे सबक़ लो।47
46. यानी दुनिया की सारी चीज़ें जोड़े-जोड़े के उसूल पर बनाई गई हैं। कायनात का यह सारा कारख़ाना इस क़ायदे पर चल रहा है कि कुछ चीज़ों का कुछ चीज़ों से जोड़ लगता है और फिर उनका जोड़ लगने ही से तरह-तरह की बनावट की चीज़ें वुजूद में आती हैं। यहाँ कोई चीज़ भी ऐसी अनोखी नहीं है कि दूसरी कोई चीज़ उसका जोड़ न हो, बल्कि हर चीज़ अपने जोड़े से मिलकर ही नतीजा देनेवाली होती है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-31; सूरा-43 जुख़रुफ़, हाशिया-12)
47. मतलब यह है कि सारी कायनात का जोड़े-जोड़े उसूल पर बनाया जाना और दुनिया की तमाम चीज़ों का जोड़ा-जोड़ा होना एक ऐसी हक़ीक़त है जो आख़िरत के वाजिब और लाज़िमी होने पर साफ़ गवाही दे रही है। अगर तुम ग़ौर करो तो इससे ख़ुद तुम्हारी अक़्ल यह नतीजा निकाल सकती है कि जब दुनिया की हर चीज़ का एक जोड़ा है, और कोई चीज़ अपने जोड़े से मिले बिना नतीजा देनेवाली नहीं होती, तो दुनिया की यह ज़िन्दगी कैसे बेजोड़ हो सकती है? इसका जोड़ा लाज़िमन आख़िरत है। वह न हो तो यह बिलकुल बे-नतीजा होकर रह जाए। आगे की बात को समझने के लिए इस मक़ाम पर यह चीज़ भी समझ लेनी चाहिए कि अगरचे यहाँ तक सारी बहस आख़िरत के बारे में चली आ रही है, लेकिन इसी बहस और इन ही दलीलों से तौहीद (एकेश्वरवाद) का सुबूत भी मिलता है। बारिश का इन्तिज़ाम, ज़मीन की बनावट, आसमान की पैदाइश, इनसान का अपना वुजूद, कायनात में जोड़े-जोड़े के क़ानून का हैरत-अंगेज़ तौर पर काम करना, ये सारी चीज़ें जिस तरह आख़िरत के ज़रूरी होने पर गवाह हैं, उसी तरह यही इस बात की भी गवाही दे रही हैं कि यह कायनात न बेख़ुदा है और न इसके बहुत-से ख़ुदा हैं, बल्कि एक ही हिकमतवाला और सब कुछ कर सकनेवाला (सर्वशक्तिमान) ख़ुदा इसका पैदा करनेवाला और मालिक और इसको चलानेवाला है। इसलिए आगे इन ही दलीलों की बुनियाद पर तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत पेश की जा रही है। इसके अलावा आख़िरत को मानने का लाज़िमी नतीजा यह है कि इनसान ख़ुदा से बग़ावत का रवैया छोड़कर फ़रमाँबरदारी और बन्दगी की राह अपनाए। वह ख़ुदा से उसी वक़्त तक फिरा रहता है जब तक वह इस ग़फ़लत में मुब्तला रहता है कि मैं किसी के सामने जवाबदेह नहीं हूँ और अपनी दुनियावी ज़िन्दगी के आमाल का कोई हिसाब मुझे किसी को देना नहीं है। यह ग़लतफ़हमी जिस वक़्त भी दूर हो जाए, इसके साथ ही फ़ौरन आदमी के ज़मीर (अन्तर्मन) में यह एहसास उभर आता है कि अपने-आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार समझकर वह बड़ी भारी ग़लती कर रहा था और यह एहसास उसे ख़ुदा की तरफ़ पलटने पर मजबूर कर देता है। इसी वजह से आख़िरत की दलीलें ख़त्म करते ही फ़ौरन बाद यह कहा गया, “तो दौड़ो अल्लाह की तरफ़।”
فَفِرُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 40
(50) तो दौड़ो अल्लाह की तरफ़, मैं तुम्हारे लिए उसकी तरफ़ से साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ।
وَلَا تَجۡعَلُواْ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 41
(51) और न बनाओ अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद, मैं तुम्हारे लिए उसकी तरफ़ से साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ।48
48. ये जुमले अगरचे अल्लाह ही का कलाम हैं, मगर इनमें बात अल्लाह तआला की तरफ़ से नहीं बल्कि नबी (सल्ल०) की तरफ़ से कही गई है। मानो बात अस्ल में यूँ है कि अल्लाह अपने नबी की ज़बान से यह कहलवा रहा है कि दौड़ो अल्लाह की तरफ़, मैं तुम्हें उसकी तरफ़ से ख़बरदार करता हूँ। बात के इस अन्दाज़ की मिसाल क़ुरआन की सबसे पहली सूरा, यानी सूरा-1 फ़ातिहा में मौजूद है, जिसमें कलाम तो अल्लाह तआला ही का है, मगर बात करनेवाले की हैसियत से बन्दे अर्ज़ करते हैं, 'इय्या-क नअ-बुदु व इय्या-क नस्तईन, इहदिनस-सिरातल- मुस्तक़ीम' (हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं, हमको सीधा रास्ता दिखा)। जिस तरह वहाँ यह बात नहीं कही गई है कि “ऐ ईमानवालो! तुम अपने रब से यूँ दुआ माँगो,” मगर अन्दाज़े-बयान से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि यह एक दुआ है। जो अल्लाह अपने बन्दों को सिखा रहा है, उसी तरह यहाँ भी यह नहीं फ़रमाया गया है कि "ऐ नबी! तुम इन लोगों से कहो,” मगर अन्दाज़े-बयान ख़ुद बता रहा है कि यह तौहीद की एक दावत है जो अल्लाह की हिदायत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। सूरा-1 फ़ातिहा के अलावा इस अन्दाज़े-बयान की और भी कई मिसालें क़ुरआन मजीद में मौजूद हैं जिनमें कलाम तो अल्लाह ही का होता है, मगर कहीं कहनेवाले फ़रिश्ते होते हैं और कहीं नबी (सल्ल०), और इस बात को साफ़ तौर से बताए बिना कि यहाँ कहनेवाला कौन है, इबारत के मौक़ा-महल से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि अल्लाह अपना यह कलाम किसकी ज़बान से अदा कर रहा है। मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-19 मरयम, आयतें—64, 65; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—159 से 167; सूरा-42 शूरा, आयत-10।
كَذَٰلِكَ مَآ أَتَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا قَالُواْ سَاحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٌ ۝ 42
(52) यूँ ही होता रहा है, इनसे पहले की क़ौमों के पास भी कोई रसूल (पैग़म्बर) ऐसा नहीं आया जिसे उन्होंने यह न कहा हो कि यह जादूगर है या दीवाना।49
49. यानी आज पहली बार ही यह वाक़िआ पेश नहीं आया है कि अल्लाह के भेजे हुए रसूल की ज़बान से आख़िरत की ख़बर और तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत (पैग़ाम) सुनकर लोग उसे जादूगर और दीवाना कह रहे हैं। पैग़म्बरी का पूरा इतिहास गवाह है कि जब से इनसानों की हिदायत के लिए रसूल आने शुरू हुए हैं, आज तक जाहिल लोग इसी एक बेवक़ूफ़ी को बिलकुल एक ही तरीक़े से दोहराते चले जा रहे हैं। जिस रसूल ने भी आकर ख़बरदार किया कि तुम बहुत-से ख़ुदाओं के बन्दे नहीं हो, बल्कि सिर्फ़ एक ही ख़ुदा तुम्हारा पैदा करनेवाला, माबूद (पूज्य) और तुम्हारी क़िस्मतों का मालिक और मुख़्तार है, जाहिलों ने शोर मचा दिया कि यह जादूगर है जो अपने जादू से हमारी अक़्लों को बिगाड़ना चाहता है। जिस रसूल ने भी आकर ख़बरदार किया कि तुम ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर दुनिया में नहीं छोड़ दिए गए हो, बल्कि अपनी ज़िन्दगी की मुद्दत पूरी करने के बाद तुम्हें अपने पैदा करनेवाले और मालिक के सामने हाज़िर होकर अपना हिसाब देना है और इस हिसाब के नतीजे में अपने आमाल का अच्छा या बुरा बदला पाना है, नादान लोग चीख़ उठे कि यह पागल है, इसकी अक़्ल मारी गई है। भला मरने के बाद हम कहीं दोबारा भी ज़िन्दा हो सकते हैं?
أَتَوَاصَوۡاْ بِهِۦۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 43
(53) क्या इन सबने आपस में इसपर कोई समझौता कर लिया है? नहीं, बल्कि ये सब सरकश लोग हैं।50
50. यानी यह बात तो ज़ाहिर है कि हज़ारों साल तक हर ज़माने में अलग-अलग देशों और क़ौमों के लोगों का पैग़म्बरों की दावत के मुक़ाबले में एक ही रवैया अपनाना और एक ही तरह की बातें उनके ख़िलाफ़ बनाना कुछ इस वजह से तो न हो सकता था कि एक कॉन्फ़्रेंस करके इन सब अगली-पिछली नस्लों ने आपस में यह तय कर लिया हो कि जब कोई नबी आकर यह दावत पेश करे तो उसका यह जवाब दिया जाए। फिर उनके रवैये का इस तरह एक जैसा होना और एक ही ढंग के जवाब का यह लगातार दोहराना क्यों है? इसकी कोई वजह इसके सिवा नहीं है कि बग़ावत और सरकशी इन सबमें ही पाई जाती है। चूँकि हर ज़माने के जाहिल लोग ख़ुदा की बन्दगी से आज़ाद और उसकी पूछ-गछ से निडर होकर दुनिया में बे-नकेल ऊँट की तरह जीना चाहते रहे हैं, इसलिए और सिर्फ़ इसी लिए जिसने भी उनको ख़ुदा की बन्दगी और परहेज़गारी की ज़िन्दगी के रास्ते की तरफ़ बुलाया, उसको वह एक ही लगा-बंधा जवाब देते रहे। इस बात से एक और अहम हक़ीक़त पर भी रौशनी पड़ती है, और वह यह कि गुमराही और हिदायत, नेकी और बदी, ज़ुल्म और इनसाफ़ और ऐसे ही दूसरे आमाल पर उभारनेवाले जो जज़्बात इनसान के अन्दर फ़ितरी तौर पर मौजूद हैं उनका ज़ाहिर होना हमेशा हर ज़माने में और ज़मीन के हर इलाक़े में एक ही तरह होता है, चाहे ज़राए-वसाइल (साधन-संसाधनों) की तरक़्क़ी से उसकी शक्लें बज़ाहिर कितनी ही अलग-अलग नज़र आती हों। आज का इनसान चाहे टैंकों और हवाई जहाज़ों और हाइड्रोजन बमों के ज़रिए से लड़े और पुराने ज़माने का इनसान चाहे पत्थरों और लाठियों से लड़ता हो, मगर इनसानों के बीच जंग पर उभारनेवाली बुनियादी बातों में बाल बराबर फ़र्क़ नहीं आया है। इसी तरह आज का नास्तिक अपनी नास्तिकता के लिए दलीलों के चाहे कितने ही अम्बार लगाता रहे, उसके इस राह पर जाने के सबब ठीक वही हैं जो आज से छह हज़ार साल पहले के किसी नास्तिक को इस तरफ़ ले गए और बुनियादी तौर पर वह अपनी दलीलें देने में भी अपने पिछले पेशवाओं (गुरुओं) से कुछ भी अलग नहीं है।
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ فَمَآ أَنتَ بِمَلُومٖ ۝ 44
(54) तो ऐ नबी! इनसे मुँह फेर लो, तुमपर कुछ मलामत (बुराई) नहीं।51
51. इस आयत में दीन की तबलीग़ का एक उसूल बयान किया गया है जिसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। हक़ की तरफ़ दावत देनेवाला एक शख़्स जब किसी शख़्स के सामने समझ में आनेवाली दलीलों के साथ अपनी दावत साफ़-साफ़ पेश कर दे और उसके शुब्हों व एतिराज़ों और दलीलों का जवाब भी दे दे तो हक़ वाज़ेह करने का जो फ़र्ज़ उसके ज़िम्मे था उससे वह बरी हो जाता है। इसके बाद भी अगर वह शख़्स अपने अक़ीदे और ख़याल पर जमा रहे तो उसकी कोई ज़िम्मेदारी हक़ की दावत देनेवाले पर नहीं रहती। अब कुछ ज़रूरी नहीं कि वह उसी शख़्स के पीछे पड़ा रहे, उसी से बहस में अपनी उम्र खपाए चला जाए, और उसका काम बस यह रह जाए कि उस एक आदमी को किसी-न-किसी तरह अपना हम-ख़याल बनाना है। दावत देनेवाला अपना फ़र्ज़ अदा कर चुका। वह नहीं मानता तो न माने। उसकी तरफ़ ध्यान देने पर दावत देनेवाले को यह इलज़ाम नहीं दिया जा सकता कि तुमने एक आदमी को गुमराही में मुब्तला रहने दिया, क्योंकि अब अपनी गुमराही का वह शख़्स ख़ुद ज़िम्मेदार है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को मुख़ातब करके यह क़ायदा इसलिए बयान नहीं किया गया है कि अल्लाह की पनाह! आप (सल्ल०) अपनी तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) में ग़लत तरीक़े से लोगों के पीछे पड़ जाते थे और अल्लाह तआला आप (सल्ल०) को उससे रोकना चाहता था। अस्ल में इसके बयान करने की वजह यह है कि हक़ की दावत देनेवाला एक शख़्स जब कुछ लोगों को ज़्यादा-से-ज़्यादा अच्छे तरीक़े से समझाने का हक़ अदा कर चुकता है और उनके अन्दर ज़िद और झगड़ालूपन के आसार देखकर उनसे अलग हो जाता है तो वे उसके पीछे पड़ जाते हैं और उसपर इलज़ाम रखना शुरू कर देते हैं कि वाह साहब! आप अच्छे हक़ की दावत के अलमबरदार हैं, हम आपसे बात समझने के लिए बहस करना चाहते हैं और आप हमारी तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। हालाँकि उनका मक़सद बात को समझना नहीं बल्कि अपनी बहसा-बहसी में दावत देनेवाले को उलझाना और सिर्फ़ उसका वक़्त बरबाद करना होता है। इसलिए अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी किताब क़ुरआन मजीद में साफ़ अलफ़ाज़ में यह फ़रमा दिया कि “ऐसे लोगों की तरफ़ ध्यान न दो, उनपर ध्यान न देने पर तुम्हें कोई मलामत नहीं की जा सकती।” इसके बाद कोई शख़्स अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह इलज़ाम नहीं दे सकता था कि जो किताब आप लेकर आए हैं उसके मुताबिक़ तो आप हमको अपना दीन समझाने पर मुक़र्रर हैं, फिर आप हमारी बातों का जवाब क्यों नहीं देते?
وَذَكِّرۡ فَإِنَّ ٱلذِّكۡرَىٰ تَنفَعُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 45
(55) अलबत्ता नसीहत करते रहो, क्योंकि नसीहत ईमान लानेवालों के लिए फ़ायदेमन्द है।52
52. इस आयत में तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) का दूसरा क़ायदा बयान किया गया है। हक़ की दावत का अस्ल मक़सद उन नेक रूहों (पवित्रात्माओं) तक ईमान की नेमत पहुँचाना है जो इस नेमत की क़द्र पहचाननेवाले हों और उसे ख़ुद हासिल करना चाहें। मगर दावत देनेवाले को यह मालूम नहीं होता कि इनसानी समाज के हज़ारों-लाखों लोगों में वे नेक रूहें कहाँ हैं। इसलिए उसका काम यह है कि अपनी आम दावत का सिलसिला बराबर जारी रखे, ताकि जहाँ-जहाँ भी ईमान क़ुबूल करनेवाले लोग मौजूद हों वहाँ उसकी आवाज़ पहुँच जाए। यही लोग उसकी अस्ल दौलत हैं। इन ही की तलाश उसका अस्ल काम है। और इन ही को समेट-समेटकर ख़ुदा के रास्ते पर ला खड़ा करना उसका मक़सद होना चाहिए। बीच में इनसानों का जो बेकार हिस्सा उसको मिले, उसकी तरफ़ बस उसी वक़्त तक दावत देनेवाले को ध्यान देना चाहिए, जब तक उसे तजरिबे से यह मालूम न हो जाए कि यह बिलकुल खोटा सिक्का है। उसके बेकार और ख़राब होने का तजरिबा हो जाने के बाद उसे फिर अपना क़ीमती वक़्त इस तरह के लोगों पर बरबाद न करना चाहिए, क्योंकि ये उसकी नसीहत से फ़ायदा उठानेवाले लोग नहीं हैं, और इनपर अपनी क़ुव्वत ख़र्च करने से नुक़सान उन लोगों का होता है जो इससे फ़ायदा उठानेवाले हैं।
وَمَا خَلَقۡتُ ٱلۡجِنَّ وَٱلۡإِنسَ إِلَّا لِيَعۡبُدُونِ ۝ 46
(56) मैंने जिन्न और इनसानों को इसके सिवा किसी काम के लिए पैदा नहीं किया है कि वे मेरी बन्दगी करें।53
53. यानी मैंने इनको दूसरों की बन्दगी के लिए नहीं, बल्कि अपनी बन्दगी के लिए पैदा किया है। मेरी बन्दगी तो इनको इसलिए करनी चाहिए कि मैं इनका पैदा करनेवाला हूँ। दूसरे किसी ने जब इनको पैदा नहीं किया है तो उसको क्या हक़ पहुँचता है कि ये उसकी बन्दगी करें, और इनके लिए यह कैसे जाइज़ हो सकता है कि इनका पैदा करनेवाला तो हूँ मैं और ये बन्दगी करते फिरें दूसरों की! यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि अल्लाह तआला सिर्फ़ जिन्न और इनसानों ही का पैदा करनेवाला तो नहीं है, बल्कि सारे जहान और उसकी हर चीज़ का पैदा करनेवाला है, फिर यहाँ सिर्फ़ जिन्न और इनसानों ही के बारे में क्यों कहा गया कि मैंने इनको अपने सिवा किसी की बन्दगी के लिए पैदा नहीं किया है। हालाँकि अल्लाह ने जितनी चीज़ें भी पैदा की हैं उनका ज़र्रा-ज़र्रा अल्लाह ही की बन्दगी के लिए है। इसका जवाब यह है कि ज़मीन पर सिर्फ़ जिन्न और इनसान ऐसे जानदार हैं जिनको यह आजादी दी गई है कि अपने इख़्तियार के दायरे में अल्लाह तआला की बन्दगी करना चाहें तो करें, वरना वे बन्दगी से मुँह भी मोड़ सकते हैं और अल्लाह के सिवा दूसरों की बन्दगी भी कर सकते हैं। दूसरी जितनी भी चीज़ें इस दुनिया में हैं, वे इस तरह की कोई आज़ादी नहीं रखतीं। उनके लिए सिरे से कोई इख़्तियार (अधिकार) का दायरा है ही नहीं कि वे उसमें अल्लाह की बन्दगी न करें या किसी और की बन्दगी कर सकें। इसलिए यहाँ सिर्फ़ जिन्न और इनसानों के बारे में कहा गया है कि वे अपने इख़्तियार की हदों में अपने पैदा करनेवाले की फ़रमाँबरदारी और बन्दगी से मुँह मोड़कर और पैदा करनेवाले के सिवा दूसरों की बन्दगी करके ख़ुद अपनी फ़ितरत (नेचर) से लड़ रहे हैं, उनको यह जानना चाहिए कि वे पैदा करनेवाले के सिवा किसी की बन्दगी के लिए पैदा नहीं किए गए हैं, और उनके लिए सीधी राह यह है कि जो आज़ादी उन्हें दी गई है उसे ग़लत इस्तेमाल न करें, बल्कि इस आज़ादी की हदों में भी ख़ुद अपनी मरज़ी से उसी तरह ख़ुदा की बन्दगी करें जिस तरह उनके जिस्म का रोम-रोम उनकी ज़िन्दगी की उन तमाम हदों में उसकी बन्दगी कर रहा है जिनमें उसको इख़्तियार नहीं है। इबादत का लफ़्ज़ इस आयत में सिर्फ़ नमाज़-रोज़े और इसी तरह की दूसरी इबादतों के मानी में इस्तेमाल नहीं किया गया है कि कोई शख़्स इसका मतलब यह ले ले कि जिन्न और इनसान सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने, रोज़े रखने और तसबीह (महिमागान) और कलिमे पढ़ने के लिए पैदा किए गए हैं। यह मतलब भी अगरचे इसमें शामिल है, मगर यह इसका पूरा मतलब नहीं है। इसका पूरा मतलब यह है कि जिन्न और इनसान अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी, इताअत, फ़रमाँबरदारी और उसके आगे झुकने के लिए पैदा नहीं किए गए हैं। उनका काम किसी और के सामने झुकना, किसी और के हुक्मों पर अमल करना, किसी और से डरना, किसी और के बनाए हुए दीन की पैरवी करना, किसी और को अपनी क़िस्मतों का बनाने और बिगाड़नेवाला समझना और किसी दूसरी हस्ती के आगे दुआ के लिए हाथ फैलाना नहीं है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-34 सबा, हाशिया-63; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-2; सूरा-45 जासिया, हाशिया-30) एक और बात भी जो इस आयत से साफ़ ज़ाहिर होती है वह यह है कि जिन्न इनसानों से बिलकुल अलग एक मुस्तक़िल जानदार है। इससे उन लोगों के ख़याल की ग़लती बिलकुल वाज़ेह हो जाती है जो दावा करते हैं कि इनसानों ही में से कुछ लोगों को क़ुरआन में जिन्न कहा गया है। इसी हक़ीक़त पर क़ुरआन मजीद की नीचे लिखी आयतें भी नाक़ाबिले-इनकार गवाही देती हैं: सूरा-6 अनआम, आयतें—100, 128; सूरा-7 आराफ़, आयतें—38, 79; सूरा-11 हूद, आयत-119; सूरा-15 हिज्र, आयतें—27 से 83; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-88; सूरा-18 कह्फ़, आयत-50; सूरा-32 सजदा, आयत-13; सूरा-34 सबा, आयत-41; सूरा-38 सॉद, आयतें—75, 76; सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-25; सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-18; सूरा-55 रहमान; आयतें—15, 39, 56। (इस मसले पर तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-21; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—23, 45; सूरा-34 सबा, हाशिया-24)
مَآ أُرِيدُ مِنۡهُم مِّن رِّزۡقٖ وَمَآ أُرِيدُ أَن يُطۡعِمُونِ ۝ 47
(57) मैं उनसे कोई रोज़ी नहीं चाहता और न यह चाहता हूँ कि वे मुझे खिलाएँ।54
54. यानी मेरी कोई ग़रज़ जिन्न और इनसानों से अटकी हुई नहीं है कि ये मेरी इबादत करेंगे तो मेरी ख़ुदाई चलेगी और ये मेरी बन्दगी से मुँह मोड़ लेंगे तो मैं ख़ुदा न रहूँगा। मैं इनकी इबादत का मुहताज नहीं है, बल्कि मेरी इबादत करना ख़ुद इनकी अपनी फ़ितरत का तक़ाज़ा है, इसी के लिए ये पैदा किए गए हैं, और अपनी फ़ितरत से लड़ने में इनका अपना नुक़सान है और यह जो फ़रमाया कि “मैं इनसे रोज़ी नहीं चाहता और न यह चाहता हूँ कि वे मुझे खिलाएँ,” इसमें एक हलका-सा तंज़ (व्यंग्य) छिपा है। ख़ुदा से फिरे हुए लोग दुनिया में जिन-जिनकी बन्दगी कर रहे हैं, वे सब हक़ीक़त में अपने इन बन्दों के मुहताज हैं। ये उनकी ख़ुदाई न चलाएँ तो एक दिन भी वह न चले। वे इनको रोज़ी देनेवाले नहीं, बल्कि उलटे ये उनको रोज़ी पहुँचाते हैं। वे इनको नहीं खिलाते, बल्कि उलटे ये उनको खिलाते हैं। वे इनकी जान की हिफ़ाज़त करनेवाले नहीं, बल्कि उलटे ये उनकी जानों की हिफ़ाज़त करते हैं। उनके लश्कर ये हैं, जिनके बल पर उनकी ख़ुदाई चलती है। जहाँ भी इन झूठे ख़ुदाओं की हिमायत करनेवाले बन्दे न रहे, या बन्दों ने उनकी हिमायत से हाथ खींच लिया, वहाँ उनके सब ठाठ पड़े रह गए और दुनिया की आँखों ने उनकी कसमपुरसी का हाल (दयनीय हालत) देख लिया। सारे माबूदों (उपास्यों) में अकेला एक अल्लाह तआला ही वह हक़ीक़ी माबूद है जिसकी ख़ुदाई अपने बल-बूते पर चल रही है, जो अपने बन्दों से कुछ लेता नहीं, बल्कि वही अपने बन्दों को सब कुछ देता है।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلرَّزَّاقُ ذُو ٱلۡقُوَّةِ ٱلۡمَتِينُ ۝ 48
(58) अल्लाह तो ख़ुद ही बड़ा रोज़ी देनेवाला है, बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।55
55. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मतीन' इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है मज़बूत और अडिग, जिसे कोई हिला न सकता हो।
فَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذَنُوبٗا مِّثۡلَ ذَنُوبِ أَصۡحَٰبِهِمۡ فَلَا يَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 49
(59) तो जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है।56 उनके हिस्से का भी वैसा ही अज़ाब तैयार है जैसा इन ही जैसे लोगों को उनके हिस्से का मिल चुका है, उसके लिए यह लोग जल्दी न मचाएँ57
56. 'ज़ुल्म’ से मुराद यहाँ हक़ीक़त और सच्चाई पर ज़ुल्म करना, और ख़ुद अपनी फ़ितरत पर ज़ुल्म करना है। मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि यहाँ ज़ुल्म करनेवालों से वे लोग मुराद हैं जो सारे जहान के रब के सिवा दूसरों की बन्दगी कर रहे हैं, जो आख़िरत का इनकार करनेवाले हैं और अपने-आपको दुनिया में ग़ैर-ज़िम्मेदार समझ रहे हैं, और उन पैग़म्बरों को झुठला रहे हैं जिन्होंने इनको हक़ीक़त से ख़बरदार करने की कोशिश की है।
57. यह जवाब है इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उस माँग का कि वह बदले का दिन कहाँ आते-आते रह गया, आख़िर वह आ क्यों नहीं जाता!
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن يَوۡمِهِمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 50
(60) आख़िर को तबाही है कुफ़्र (इनकार) करनेवालों के लिए उस दिन जिससे उन्हें डराया जा रहा है।
فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مِن قِيَامٖ وَمَا كَانُواْ مُنتَصِرِينَ ۝ 51
(45) फिर न उनमें उठने की ताक़त थी और न वे अपना बचाव कर सकते थे।42
42. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: ‘मा कानू मुन्तसिरीन'। 'इन्तिसार' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में दो मानी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसका एक मतलब है अपने-आपको किसी के हमले से बचाना। और दूसरा मतलब है हमला करनेवाले से बदला लेना।
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 52
(46) और इन सबसे पहले हमने नूह की क़ौम को हलाक किया, क्योंकि वे खुले नाफ़रमान लोग थे।
وَٱلسَّمَآءَ بَنَيۡنَٰهَا بِأَيۡيْدٖ وَإِنَّا لَمُوسِعُونَ ۝ 53
(47) आसमान43 को हमने अपने ज़ोर से बनाया है और हम इसकी क़ुदरत रखते हैं।44
43. आख़िरत के हक़ में तारीख़़ी (ऐतिहासिक) दलीलें पेश करने के बाद अब फिर उसी के सुबूत में कायनात से दलीलें पेश की जा रही हैं।
44. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'व इन्ना लमूसिऊन'। 'मूसिअ' का मतलब ताक़त और क़ुदरत रखनेवाला भी हो सकता है और बढ़ाने और फैलानेवाला भी। पहले मतलब के लिहाज़ से इस बात का मतलब यह है कि यह आसमान हमने किसी की मदद से नहीं, बल्कि अपने ज़ोर से बनाया है और इसको बनाना हमारे बस के बाहर न था। फिर यह तसव्वुर तुम लोगों के दिमाग़ में आख़िर कैसे आ गया कि हम तुम्हें दोबारा पैदा न कर सकेंगे? दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि इस लम्बी-चौड़ी कायनात को हम बस एक बार बनाकर नहीं रह गए हैं, बल्कि लगातार इसको बढ़ाते और फैलाते जा रहे हैं और हर पल इसमें हमारी पैदाइश के नए-नए करिश्मे ज़ाहिर हो रहे हैं। ऐसी ज़बरदस्त पैदा करनेवाली हस्ती को आख़िर तुमने दोबारा पैदा करने में बेबस क्यों समझ रखा है?
وَٱلۡأَرۡضَ فَرَشۡنَٰهَا فَنِعۡمَ ٱلۡمَٰهِدُونَ ۝ 54
(48) ज़मीन को हमने बिछाया है और हम बड़े अच्छे हमवार (समतल) करनेवाले हैं।45
45. इसकी तशरीह हाशिया-18 में गुज़र चुकी है। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफहीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिया-74; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-29; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिए—7 से 10
فَٱلۡجَٰرِيَٰتِ يُسۡرٗا ۝ 55
(3) फिर नर्म चाल के साथ चलनेवाली हैं,
فَٱلۡمُقَسِّمَٰتِ أَمۡرًا ۝ 56
(4) फिर एक बड़े काम (बारिश) को बाँटनेवाली हैं!2
2. आयत में इस्तेमाल अस्ल अरबी अलफ़ाज़ 'अल-जारियाति युसरा' और 'अल-मुक़स्सिमाति अमरा' की तफ़सीर में तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह ने इस बात को ज़्यादा अहमियत दी है, या यह मतलब लेना जाइज़ रखा है कि इन दोनों से मुराद भी हवाएँ ही हैं, यानी यही हवाएँ फिर बादलों को लेकर चलती हैं और फिर धरती के अलग-अलग हिस्सों में फैलकर अल्लाह तआला के हुक्म के मुताबिक, जहाँ जितना हुक्म होता है, पानी बाँटती हैं। दूसरे गरोह ने 'अल-जारियाति युसरा' से मुराद नर्म चाल के साथ चलनेवाली नावें ली हैं और 'अल-मुक़स्सिमाति अमरा' से मुराद वे फ़रिश्ते लिए हैं जो अल्लाह तआला के हुक्म के मुताबिक़ उसकी मख़लूक़ात (सृष्टि) के नसीब की चीज़े उनमें बाँटते हैं। एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत उमर (रज़ि०) ने इन दोनों जुमलों का यह मतलब बयान करके फ़रमाया कि अगर मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से न सुना होता तो मैं इसे बयान न करता। इसी वजह से अल्लामा आलूसी इस ख़याल का इज़हार करते हैं कि इसके सिवा इन जुमलों का कोई और मतलब लेना जाइज़ नहीं है और जिन लोगों ने कोई दूसरा मतलब लिया है उन्होंने बेजा जसारत (दुस्साहस) की है। लेकिन हाफ़िज़ इबने-कसीर कहते हैं कि इस रिवायत की सनद कमज़ोर है और इसकी बुनियाद पर यक़ीनी तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि सचमुच नबी (सल्ल०) ही ने इन जुमलों की यह तफ़सीर फ़रमाई है। इसमें शक नहीं कि सहाबा और ताबिईन की एक अच्छी-ख़ासी जमाअत से यही दूसरी तफ़सीर नक़्ल हुई है, लेकिन तफ़सीर लिखनेवालों की एक अच्छी-ख़ासी जमाअत ने पहली तफ़सीर भी बयान की है और बात के सिलसिले से वह ज़्यादा मेल खाती है। शाह रफ़ीउद्दीन साहब, शाह अब्दुल क़ादिर साहब और मौलाना महमूद हसन साहब (रह०) ने भी अपने तर्जमों में पहला मतलब ही लिया है।
إِنَّمَا تُوعَدُونَ لَصَادِقٞ ۝ 57
(5) सच तो यह है कि जिस चीज़ से तुम्हें डराया जा रहा है3 वह सच्ची है
3. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तू-अदून' इस्तेमाल किया गया है। यह अगर 'वअद' से है तो इसका मतलब होगा “जिस चीज़ का तुमसे वादा किया जा रहा है, और 'वईद' से हो तो मतलब यह होगा कि “जिस चीज़ का तुमको डरावा दिया जा रहा है।” ज़बान के लिहाज़ से दोनों मतलब यकसाँ (समान रूप से) दुरुस्त हैं। लेकिन मौक़ा-महल के साथ दूसरा मतलब ज़्यादा मेल खाता है, क्योंकि सुननेवाले वे लोग हैं जो कुफ़्र व शिर्क और फ़िस्क़ व फ़ुजूर (अल्लाह की खुली और छिपी नाफ़रमानी) में डूबे हुए थे और यह बात मानने के लिए तैयार न थे कि कभी उनको हिसाब और आमाल (कर्मों) के बदले का भी सामना होनेवाला है। इसी लिए हमने 'तू-अदून' को 'वादे' के बजाय 'वईद' (धमकी) के मानी में लिया है।
وَإِنَّ ٱلدِّينَ لَوَٰقِعٞ ۝ 58
(6) और आमाल (कर्मा) का बदला ज़रूर सामने आना है।4
4. यह है वह बात जिसपर क़सम खाई गई है। इस क़सम का मतलब यह है कि जिस बेमिसाल इन्तिज़ाम और बाक़ायदगी के साथ बारिश का यह अज़ीमुश्शान ज़ाबिता (क़ानून) तुम्हारी आँखों के सामने चल रहा है, और जो हिकमत और मस्लहतें इसमें साफ़ तौर से काम करती नज़र आती हैं, वे इस बात पर गवाही दे रही हैं कि यह दुनिया कोई बे-मक़सद और बे-मतलब घरौंदा नहीं है, जिसमें लाखों-करोड़ों साल से एक बहुत बड़ा खेल बस यूँ ही अलल-टप हुए जा रहा हो, बल्कि यह हक़ीक़त में एक कमाल दरजे का हिकमत-भरा निज़ाम (व्यवस्था) है, जिसमें हर काम किसी मक़सद और किसी मस्लहत के लिए हो रहा है। इस निज़ाम में यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि यहाँ इनसान जैसे एक जानदार को अक़्ल, समझ, तमीज़ (फ़र्क़ करने की सलाहियत) और इस्तेमाल के इख़्तियारात देकर, उसमें नेकी (भलाई) और बदी (बुराई) का अख़लाक़ी एहसास पैदा करके, और उसे हर तरह के अच्छे और बुरे, सही और ग़लत कामों के मौक़े देकर, ज़मीन में लूट-मार और हमला करने के लिए सिर्फ़ फ़ुज़ूल और बेकार तरीक़े से छोड़ दिया जाए, और उससे कभी यह पूछ-गछ न हो कि दिल और दिमाग़ और जिस्म की जो क़ुव्वतें उसको दी गई थीं, दुनिया में काम करने के लिए जो वसीअ ज़राए (व्यापक साधन) उसके हवाले किए गए थे, और ख़ुदा की बनाई हुई अनगिनत जानदार और बेजान चीज़ों पर इस्तेमाल के जो अधिकार उसे दिए गए थे, उनको उसने किस तरह इस्तेमाल किया। कायनात के जिस निज़ाम में सारी चीज़ें एक मक़सद रखती हों, उसमें सिर्फ़ इनसान जैसे अहम जानदार की पैदाइश कैसे बे-मक़सद हो सकती है? जिस निज़ाम में हर चीज़ की बुनियाद हिकमत पर है, उसमें अकेले एक इनसान ही की पैदाइश कैसे फ़ुज़ूल और बेकार हो सकती है? मख़लूक़ात (सृष्टि) की जो क़िस्में अक़्ल और समझ नहीं रखतीं उनकी पैदाइश की मस्लहत तो इसी फ़ितरी दुनिया में पूरी हो जाती है। इसलिए अगर वे अपनी उम्र की मुद्दत ख़त्म होने के बाद मिटा दी जाएँ तो यह बिलकुल समझ में आनेवाली बात है, क्योंकि उन्हें कोई इख़्तियार ही नहीं दिए गए हैं कि उनसे हिसाब लेने का कोई सवाल पैदा हो। मगर अक़्ल व समझ और इख़्तियार रखनेवाला जानदार, जिसके आमाल (कर्म) सिर्फ़ फ़ितरी दुनिया तक महदूद नहीं हैं, बल्कि अख़लाक़ी पहलू भी रखते हैं, और जिसके अख़लाक़ी नतीजे पैदा करनेवाले आमाल का सिलसिला सिर्फ़ ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक ही नहीं चलता, बल्कि मरने के बाद भी उसके अख़लाक़ी नतीजे निकलते रहते हैं, उसे सिर्फ़ उसका फ़ितरी काम ख़त्म हो जाने के बाद पेड़-पौधों और जानवरों की तरह कैसे बिलकुल ख़त्म किया जा सकता है? उसने तो अपने इख़्तियार और इरादे से जो भलाई या बुराई भी की है, उसका ठीक-ठीक हक़ और इनसाफ़ के मुताबिक़ बदला उसको लाज़िमन मिलना ही चाहिए, क्योंकि यह उस मस्लहत का बुनियादी तक़ाज़ा है जिसके तहत दूसरे जानदारों के बरख़िलाफ़ उसको एक इख़्तियार रखनेवाला जानदार बनाया गया है। उससे पूछ-गछ न हो, उसके अख़लाक़ी आमाल पर इनाम और सज़ा न हो, और उसको भी इख़्तियार न रखनेवाले जानदारों की तरह क़ुदरती उम्र ख़त्म होने पर मिटा दिया जाए, तो ज़रूर ही उसकी पैदाइश सरासर बेकार (व्यर्थ) होगी, और एक हिकमतवाले से बेकार और बे-मक़सद काम की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके अलावा आख़िरत और इनाम व सज़ा के होने पर कायनात की इन चार निशानियों की क़सम खाने की एक और वजह भी है। आख़िरत का इनकार करनेवाले मरने के बाद की ज़िन्दगी को जिस वजह से नामुमकिन समझते हैं वह यह है कि हम जब मरकर मिट्टी में रल-मिल जाएँगे और हमारा ज़र्रा-ज़र्रा ज़मीन में बिखर जाएगा तो कैसे मुमकिन है कि जिस्म के ये सारे बिखरे हिस्से (अंश) फिर इकट्ठे हो जाएँ और हमें दोबारा बना खड़ा किया जाए। इस शक की ग़लती कायनात की उन चारों निशानियों पर ग़ौर करने से ख़ुद-ब-ख़ुद दूर हो जाती है, जिन्हें आख़िरत के लिए दलील के तौर पर पेश किया गया है। सूरज की किरनें धरती के उन तमाम पानी के ज़ख़ीरों (भण्डारों) पर अपना असर डालती हैं जिन तक उनकी गर्मी पहुँचती है। इस अमल से पानी की बेहद और बेहिसाब बूंदें उड़ जाती हैं और अपनी अस्ल जगह में बाक़ी नहीं रहतीं। मगर वे मिट नहीं जातीं, बल्कि भाप बनकर एक-एक बूँद हवा में महफ़ूज़ रहती है। फिर जब ख़ुदा का हुक्म होता है तो यही हवा उन बूँदों की भाप को समेट लाती है, उसको बोझल बादलों की शक्ल में उठा खड़ा करती है, उन बादलों को लेकर धरती के अलग-अलग हिस्सों में फैल जाती है, और ख़ुदा की तरफ़ से जो वक़्त मुक़र्रर है, ठीक उसी वक़्त एक-एक बूँद को उसी शक्ल में जिसमें वह पहले था, ज़मीन पर वापस पहुँचा देती है। यह मंज़र (दृश्य) जो आए दिन इनसानों की आँखों के सामने गुज़र रहा है, इस बात की गवाही देता है कि मरे हुए इनसानों के जिस्मों के हिस्से (अंश) भी अल्लाह तआला के एक इशारे पर इकट्ठा हो सकते हैं और उन इनसानों को उसी शक्ल में फिर उठा खड़ा किया जा सकता है जिसमें वे पहले मौजूद थे। यह हिस्से (अंश) चाहे मिट्टी में हों, या पानी में, या हवा में, बहरहाल रहते इसी ज़मीन और इसके माहौल ही में हैं। जो ख़ुदा पानी की भाप को हवा में बिखर जाने के बाद फिर उसी हवा के ज़रिए से समेट लाता है और उन्हें फिर पानी की शक्ल में बरसा देता है, उसके लिए इनसानी जिस्मों के बिखरे हुए हिस्सों (अंशों) को हवा, पानी और मिट्टी में से समेट लाना और फिर पिछली शक्लों में इकट्ठा कर देना आख़िर क्यों मुश्किल हो?
وَٱلسَّمَآءِ ذَاتِ ٱلۡحُبُكِ ۝ 59
(7) क़सम है अलग-अलग शक्लोंवाले आसमान की!5
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ातिल-हुबुक' इस्तेमाल हुआ है। 'हुबुक' रास्तों को भी कहते हैं। उन लहरों को भी कहते हैं जो हवा के चलने से रेगिस्तान की रेत और ठहरे हुए पानी में पैदा हो जाती हैं। और धुंघराले बालों में जो लटें-सी बन जाती हैं उनके लिए भी यह लफ़्ज़ बोला जाता है। यहाँ आसमान को हुबुकवाला या तो इस लिहाज़ से कहा गया है कि आसमान पर अकसर तरह-तरह की शक्लोंवाले बादल छाए रहते हैं, जिनमें हवा के असर से बार-बार तबदीली होती है और कभी कोई शक्ल न ख़ुद क़ायम रहती है, न किसी दूसरी शक्ल से मिलती-जुलती है। या इस बुनियाद पर फ़रमाया गया है कि रात के वक़्त आसमान पर जब तारे बिखरे होते हैं तो आदमी देखता है कि उनकी बहुत-सी मुख़्तलिफ़ शक्लें हैं और कोई शक्ल दूसरी शक्ल से नहीं मिलती।