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سُورَةُ النِّسَاءِ

(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)

परिचय

उतरने का समय और विषय

इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।

जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'

पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)

उतरने के कारण और वार्ताएँ

इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।

नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।

इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।

सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्‍नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।

यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।

मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।

ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्‍चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।

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سُورَةُ النِّسَاءِ
4. अन-निसा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَخَلَقَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَبَثَّ مِنۡهُمَا رِجَالٗا كَثِيرٗا وَنِسَآءٗۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِي تَسَآءَلُونَ بِهِۦ وَٱلۡأَرۡحَامَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَيۡكُمۡ رَقِيبٗا
(1) लोगो, अपने रब से डरो जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और इन दोनों से बहुत मर्द और औरत दुनिया में फैला दिए।1 उस ख़ुदा से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और नाते-रिश्तों के ताल्लुक़ात को बिगाड़ने से बचो। यक़ीन जानो कि अल्लाह तुमपर निगरानी कर रहा है।
1. चूँकि आगे चलकर इनसानों के आपसी हक़ और अधिकार बयान किए जाने हैं और ख़ास तौर से ख़ानदानी निज़ाम को बेहतर और पायदार बनाने के लिए ज़रूरी क़ानून बयान किए जाने हैं, इसलिए शुरुआत इस तरह की गई कि एक तरफ़ अल्लाह से डरने और उसकी नाराज़ी से बचने की ताकीद की और दूसरी तरफ़ यह बात दिल और दिमाग़ में बिठाई कि सभी इनसान एक अस्ल (मूल) से हैं और एक-दूसरे का ख़ून और हाड़-माँस हैं। 'तुमको एक जान से पैदा किया', यानी इनसानों की पैदाइश सबसे पहले एक आदमी से की। दूसरी जगह क़ुरआन ख़ुद इसको वाज़ेह करते हुए बताता है कि वह पहला इनसान आदम था, जिससे दुनिया में इनसानी नस्ल फैली। 'उसी जान से उसका जोड़ा बनाया', इस बात की तफ़सील हमारे इल्म में नहीं है कि उसे किस तरह बनाया गया। आम तौर पर जो बात क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने बयान की है, और जो बाइबल में भी बयान की गई है, वह यह है कि आदम की पसली से हव्वा को पैदा किया गया। (तलमूद में और ज़्यादा खोलकर बताया गया है कि हज़रत हव्वा को हज़रत आदम (अलै०) की दाहिनी तरफ़ की तेरहवीं पसली से पैदा किया गया था), लेकिन अल्लाह की किताब क़ुरआन इस बारे में ख़ामोश है और जो हदीस इसकी ताईद में पेश की जाती है उसका मतलब वह नहीं है जो लोगों ने समझा है। इसलिए बेहतर यह है कि बात को इसी तरह मुजमल (अस्पष्ट) रहने दिया जाए जिस तरह अल्लाह ने उसे मुजमल रखा है और इसकी तफ़सीली कैफ़ियत तय करने में वक़्त बरबाद न किया जाए।
وَءَاتُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰٓ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَتَبَدَّلُواْ ٱلۡخَبِيثَ بِٱلطَّيِّبِۖ وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَهُمۡ إِلَىٰٓ أَمۡوَٰلِكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حُوبٗا كَبِيرٗا ۝ 1
(2) यतीमों के माल उनको वापस दो,2 अच्छे माल को बुरे माल से न बदल लो3, और उनके माल अपने माल के साथ मिलाकर न खा जाओ, यह बहुत बड़ा गुनाह है।
2. यानी जब तक वे बच्चे हैं, उनके माल उन्हीं के फ़ायदे और भलाई पर ख़र्च करो और जब वे बड़े हो जाएँ तो जो उनका हक़ है वह उन्हें वापस कर दो।
3. यह एक ऐसा जुमला है जो अपने अन्दर बहुत से मानी और मतलब रखता है, जिसका एक मतलब यह है कि हलाल की कमाई के बजाय हरामख़ोरी न करने लगो, और दूसरा मतलब यह है कि यतीमों के अच्छे माल को अपने बुरे माल से न बदल लो।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ ۝ 2
(3) और अगर तुम यतीमों के साथ नाइनसाफ़ी करने से डरते हो तो जो औरतें तुमको पसन्द आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो।4 लेकिन अगर तुम्हें डर हो कि उनके साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो फिर एक ही बीवी रखो5 या उन औरतों को बीवी बनाओ जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आई हैं।6 नाइनसाफ़ी से बचने के लिए यह ज़्यादा अच्छा है।
4. क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने इसके तीन मतलब बयान किए हैं– (1) हज़रत आइशा (रज़ि०) इसकी तफ़सीर करते हुए कहती हैं कि जाहिलियत के ज़माने में जो यतीम बच्चियाँ लोगों की सरपरस्ती में होती थीं उनके माल और उनके हुस्न और ख़ूबसूरती की वजह से या यह सोचकर कि उनका कोई सिरधरा (सरपरस्त) तो है नहीं, जिस तरह हम चाहेंगे दबाकर रखेंगे, वे उनसे ख़ुद निकाह कर लेते थे और फिर उनपर ज़ुल्म किया करते थे। इसपर कहा गया कि अगर तुमको यह अन्देशा हो कि यतीम लड़कियों के साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो दूसरी औरतें दुनिया में मौजूद हैं, उनमें से जो तुम्हें पसन्द आएँ उनके साथ निकाह कर लो। इसी सूरा की 125 वीं आयत इस तफ़सीर की ताईद और पुष्टि (तसदीक़) करती है। (2) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और उनके शागिर्द इकरिमा इस आयत की तफ़सीर यह बयान करते हैं कि जाहिलियत के ज़माने में निकाह की कोई हद न थी। एक एक आदमी दस-दस बीवियाँ कर लेता था और जब बीवियों की इस बड़ी तादाद से ख़र्चे बढ़ जाते थे तो मजबूर होकर अपने यतीम भतीजों, भाँजों और दूसरे बेबस रिश्तेदारों के हक़ों पर हाथ डालता था। इसपर अल्लाह ने निकाह के लिए चार की हद मुक़र्रर कर दी और फ़रमाया कि ज़ुल्म और नाइनसाफ़ी से बचने की सूरत यह है कि एक से लेकर चार तक इतनी बीवियाँ करो जिनके साथ तुम इनसाफ़ पर क़ायम रह सको। (3) सईद-बिन-जुबैर और क़तादा और कुछ दूसरे मुफ़स्सिर (टीकाकार) कहते हैं कि जहाँ तक यतीमों का मामला है जाहिलियत के ज़माने के लोग भी उनके साथ नाइनसाफ़ी करने को अच्छी निगाह से नहीं देखते थे। लेकिन औरतों के मामले में उनके दिल और दिमाग़ अद्ल और इनसाफ़ के तसव्वुर से ख़ाली थे। जितनी चाहते थे, शादियाँ कर लेते थे और फिर उनके साथ ज़ुल्म आर ज़्यादती से पेश आते थे। इसपर ख़ुदा ने कहा कि अगर तुम यतीमों के साथ नाइनसाफ़ी करने से डरते हो तो औरतों के साथ भी नाइनसाफ़ी करने से डरो। पहली बात तो चार से ज़्यादा निकाह ही न करो और दूसरे इस चार की हद में भी बस उतनी ही बीवियाँ रखो जिनके साथ इनसाफ़ कर सको। आयत के अलफ़ाज़ में इन तीनों बातों की गुंजाइश है और अजब नहीं कि तीनों मतलब मुराद हों। साथ ही इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि अगर तुम यतीमों के साथ उस तरह इनसाफ़ नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
5. इस बात पर मुसलमानों के सभी आलिम एक राय रखते हैं कि इस आयत के मुताबिक़ निकाह की तादाद की हदबन्दी कर दी गई है और एक ही वक़्त में चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को मना कर दिया गया है। रिवायतों से भी इसकी तस्दीक़ होती है। चुनाँचे हदीसों में आया है कि ताइफ़ के सरदार ग़ैलान ने जब इस्लाम क़ुबूल किया तो उसकी नौ बीवियाँ थीं। नबी (सल्ल०) ने उसे हुक्म दिया कि चार बीवियाँ रख ले और बाक़ी को तलाक़ दे दे। इसी तरह एक-दूसरे आदमी (नौफ़ल-बिन-मुआविया) की पाँच बीवियाँ थीं। नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि इनमें से एक को तलाक़ दे दे। इसी के साथ-साथ यह आयत एक से ज़्यादा बीवी रखने की इजाज़त के लिए अद्ल और इनसाफ़ की शर्त जो आदमी इनसाफ़ की शर्त पूरी नहीं करता, मगर एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने की इजाज़त से फ़ायदा उठाता है वह अल्लाह के साथ दग़ाबाज़ी करता है। इस्लामी हुकूमत की अदालतों को यह हक़ हासिल है कि जिस बीवी या जिन बीवियों के साथ वह इनसाफ़ न कर रहा हो उनको इनसाफ़ दिलाएँ। कुछ लोग मग़रिब (पश्चिम) के मसीही ख़यालों से मुतास्सिर होकर और रोब खाकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का अस्ल मक़सद कई बीवियाँ रखने के तरीक़े को (जो मग़रिब की नज़र में बुरा तरीक़ा है) मिटा देना था। मगर चूँकि यह तरीक़ा बहुत ज़्यादा रिवाज़ पा चुका था इसलिए इसपर सिर्फ़ पाबन्दियाँ लगाकर छोड़ दिया गया। लेकिन इस तरह की बातें अस्ल में सिर्फ़ ज़ेहनी ग़ुलामी (मानसिक दासता) का नतीजा हैं। इस बात को तस्लीम नहीं किया जा सकता कि एक से ज़्यादा बीवियाँ रखना अपने-आप में कोई बुराई है, क्योंकि कुछ हालतों में यह चीज़ एक तहज़ीबी, समाजी और अख़लाक़ी ज़रूरत बन जाती है। अगर इसकी इजाज़त न हो तो फिर वे लोग जो एक बीवी पर मुत्मइन नहीं हो सकते, शादी के बन्धन और दायरे से बाहर जिंसी बदअमनी फैलाने लगते हैं, जिसके नुक़सान तहज़ीब, समाज और अख़लाक़ के लिए इससे कहीं ज़्यादा हैं जो कई बीवियाँ रखने से पहुँच सकते हैं। इसी लिए क़ुरआन ने उन लोगों को इसकी इजाज़त दी है जो इसकी ज़रूरत महसूस करें। फिर भी जिन लोगों के नज़दीक एक से ज़्यादा बीवियाँ रखना अपने आप में एक बुराई है उनको यह इख़्तियार तो ज़रूर हासिल है कि चाहें तो क़ुरआन के बरख़िलाफ़ एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने को बुरा क़रार दे और इसे ख़त्म कर देने का मश्वरा दें। लेकिन यह हक़ उन्हें नहीं पहुँचता कि अपनी राय को ख़ाह-मख़ाह क़ुरआन की राय से जोड़ें। क्योंकि क़ुरआन ने साफ़ शब्दों में इसको जाइज़ ठहराया है और इशारे के लफ़्ज़ों में भी इसके बुरा होने में कोई ऐसा लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि हक़ीक़त में क़ुरआन इसे ख़त्म करना चाहता था। (इस सिलसिले में और ज़्यादा जानकारी के लिए देखें मेरी किताब 'सुन्नत की आईनी हैसियत' पेज-307 से 316।)
6. यहाँ औरतों से मुराद लौड़ियाँ या दासियाँ हैं, यानी वे औरतें जो जंग में गिरफ़्तार होकर आएँ और हुकूमत की तरफ़ से लोगों में तक़सीम कर दी जाएँ। मतलब यह है कि अगर एक आजाद ख़ानदानी बीवी का भार भी बर्दाश्त न कर सको तो फिर लौंडी से निकाह कर लो, जैसा कि आगे आयत-23 से 25 में आ रहा है। या यह कि अगर एक से ज़्यादा औरतों की तुम्हें जरूरत हो और आज़ाद ख़ानदानी बीवियों के दरमियान इनसाफ़ करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो तो लौंडियों की तरफ़ रुजू करो; क्योंकि उनकी वजह से तुम पर ज़िम्मेदारियों का भार ख़ानदानी बीवियों के मुक़ाबले में कम पड़ेगा। (आगे हाशिया-44 में लौंडियों के बारे में जो हुक्म और आदेश हैं, उनकी और अधिक जानकारी मिलेगी)।
وَءَاتُواْ ٱلنِّسَآءَ صَدُقَٰتِهِنَّ نِحۡلَةٗۚ فَإِن طِبۡنَ لَكُمۡ عَن شَيۡءٖ مِّنۡهُ نَفۡسٗا فَكُلُوهُ هَنِيٓـٔٗا مَّرِيٓـٔٗا ۝ 3
(4) और औरतों के मह्‍र ख़ुशी से (फ़र्ज़ जानते हुए) अदा करो। अलबत्ता अगर वे ख़ुद ही अपनी ख़ुशी से मह्‍र का कोई हिस्सा तुम्हें माफ़ कर दें तो उसे तुम मज़े से खा सकते हो।7
7. हज़रत उमर (रज़ि०) और क़ाज़ी शुरैह का फ़ैसला यह है कि अगर किसी औरत ने अपने शौहर का पूरा मह्‍र या उसका कोई हिस्सा माफ़ कर दिया हो और बाद में वह इसकी फिर माँग करे तो शौहर इसके अदा करने पर मजबूर किया जाएगा; क्योंकि उसकी माँग का मतलब यह है कि वह औरत अपनी ख़ुशी से मह्‍र या उसका कोई हिस्सा छोड़ना नहीं चाहती। (ज़्यादा जानकारी के लिए देखें मेरी किताब 'इस्लाम में पति-पत्नी के अधिकार' अध्याय 'मह्‍र’)
وَلَا تُؤۡتُواْ ٱلسُّفَهَآءَ أَمۡوَٰلَكُمُ ٱلَّتِي جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ قِيَٰمٗا وَٱرۡزُقُوهُمۡ فِيهَا وَٱكۡسُوهُمۡ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 4
(5) और अपने वे माल जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे लिए ज़िन्दगी को बाक़ी रखने का ज़रिआ बनाया है, नादान लोगों के हवाले न करो, अलबत्ता उन्हें खाने और पहनने के लिए दो और उनकी अच्छी रहनुमाई करो8
8. यह आयत अपने अन्दर बहुत-से मानी और मतलब रखती है। इसमें मुस्लिम उम्मत (समुदाय) को यह जामे हिदायत की गई है कि माल, जो ज़िन्दगी को बाक़ी रखने का ज़रिआ है, बहरहाल ऐसे नादान और नासमझ लोगों के अधिकार और इस्तेमाल में नहीं रहना चाहिए जो उसे ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करके समाजी, मआशी (आर्थिक) और यहाँ तक कि अख़लाक़ी निज़ाम को बिगाड़ दें। मिल्कियत के हक़ जो किसी को अपने माल-जायदाद पर हासिल हैं वे इतने लामहदूद नहीं हैं कि वह अगर इन हक़ों को सही तौर पर इस्तेमाल करने के लायक़ न हो और उनके इस्तेमाल से वह समाज में फ़साद फैला दे तब भी उसके वे हक़ छीने न जा सकें। जहाँ तक आदमी की ज़िन्दगी की ज़रूरतों की बात है वे तो ज़रूर पूरी होनी चाहिएँ, लेकिन जहाँ तक मालिकाना हक़ों के आज़ादाना इस्तेमाल की बात है उसपर यह पाबन्दी लागू होनी चाहिए कि यह इस्तेमाल अख़लाक़़, समाज और इज्तिमाई मईशत (समाज की आर्थिक व्यवस्था) के लिए खुले तौर पर नुक़सान देनेवाला न हो। इस हिदायत के मुताबिक़ छोटे पैमाने पर माल रखनेवाले हर आदमी को इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि वह अपना माल जिसके हवाले कर रहा है। वह इसके इस्तेमाल की सलाहियत रखता है या नहीं। और बड़े पैमाने पर इस्लामी हुकूमत को इस बात का इन्तिज़ाम करना चाहिए कि जो लोग अपने मालों पर ख़ुद मालिक की हैसियत से ख़र्च करने की सलाहियत न रखते हों या जो लोग अपनी दौलत को बुरे तरीक़ों से इस्तेमाल कर रहे हों, उनके माल-जायदाद को वह अपने इन्तिज़ाम में ले ले और उनकी ज़िन्दगी की जरूरतों का इन्तिज़ाम कर दे।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا ۝ 5
(6) और यतीमों की आज़माइश करते रहो, यहाँ तक कि वे निकाह की उम्र की पहुँच जाएँ।9 फिर अगर तुम उनके अन्दर सलाहियत पाओ तो उनके माल उनके हवाले कर दो।10 ऐसा कभी न करना कि इनसाफ़ की हद से आगे बढ़कर इस डर से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने हक़ की माँग करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त मालदार हो वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो वह भले तरीक़े से खाए11 फिर जब उनके माल उनके हवाले करने लगो तो लोगों को इसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
9. यानी जब वे बालिग़ (वयस्क) होने की उम्र के क़रीब पहुँच रहे हों तो देखते रहो कि उनकी ज़ेहनी तरक़्क़ी कैसी है और उनमें अपने मामलों को ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी पर चलाने की सलाहियत किस हद तक पैदा हो रही है?
10. माल उनके हवाले करने के लिए दो शर्ते लगाई गई हैं। एक 'बालिग़ होना' (वयस्कता), दूसरी ‘समझदारी' यानी माल के सही इस्तेमाल की सलाहियत। पहली शर्त के बारे में तो मुस्लिम उम्मत के फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में इत्तिफ़ाक़ है। दूसरी शर्त के बारे में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की राय यह है कि अगर बालिग़ होने की उम्र को पहुँचने पर यतीम में समझदारी न पाई जाए तो उस यतीम के सरपरस्त को ज़्यादा-से-ज़्यादा सात साल और इन्तिज़ार करना चाहिए। फिर चाहे समझदारी पाई जाए या न पाई जाए उसका माल उसके हवाले कर देना चाहिए। और इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम मुहम्मद और इमाम शाफ़िई (रह०) की राय यह है कि माल हवाले किए जाने के लिए बहरहाल समझदारी का पाया जाना ज़रूरी है। शायद बाद के लोगों की राय के मुताबिक़ यह बात ज़्यादा सही होगी कि इस मामले में क़ाज़ी (जज) से रुजू किया जाए और अगर क़ाज़ी के सामने यह बात साबित हो जाए कि यतीम में समझदारी नहीं पाई जाती तो वह इसके मामलों की निगरानी के लिए ख़ुद कोई मुनासिब इन्तिज़ाम कर दे।
11. यानी वह यतीम की जो ख़िदमत कर रहा है उसके बदले में इस हद तक माल ले कि हर ग़ैर-जानिबदार (निष्पक्ष) समझदार आदमी उसको मुनासिब समझे। साथ ही यह भी कि अपना ख़िदमत के बदले में वह जो कुछ भी ले चोरी-छिपे न ले, बल्कि अलानिया तय करके ले और उसका हिसाब रखे।
لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنۡهُ أَوۡ كَثُرَۚ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 6
(7) मर्दो के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, चाहे थोड़ा हो या बहुत,12 और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुक़र्रर है।
12. इस आयत में वाज़ेह तौर पर पाँच क़ानूनी हुक्म दिए गए हैं– एक यह कि मीरास सिर्फ़ मर्दो ही का हिस्सा नहीं है, बल्कि औरतें भी इसकी हक़दार है। दूसरे यह कि मीरास का हर हाल में बँटवारा होना चाहिए, चाहे वह कितनी ही कम हो, यहाँ तक कि अगर मरनेवाले ने एक गज़ कपड़ा छोड़ा है और दस वारिस हैं तो उसे भी दस हिस्सों में बाँटा जाना चाहिए। यह और बात है कि एक वारिस दूसरे वारिसों से उनका हिस्सा ख़रीद ले। तीसरे इस आयत से यह बात भी मालूम होती है कि विरासत का क़ानून हर क़िस्म के मालों और जायदादों पर लागू होगा। चाहे वे मनक़ूला हों या ग़ैर-मनक़ूला (चल सम्पत्ति हो या अचल), चाहे खेती-बाड़ी की हों या उद्योग-धन्धों (Industrial) की या किसी और तरह के माल में उनकी गिनती होती हो। चौथे इससे मालूम होता है कि मीरास का हक़ उस वक़्त पैदा होता है जब कोई आदमी (मूरिस) माल छोड़कर मरा हो। पाँचवें इससे यह क़ायदा भी निकलता है कि क़रीबी रिश्तेदार की मौजूदगी में दूर का रिश्तेदार मीरास न पाएगा। आगे इसी उसूल को आयत-11 के आख़िर में और आयत-33 में और ज़्यादा वाज़ेह किया गया है।
وَإِذَا حَضَرَ ٱلۡقِسۡمَةَ أُوْلُواْ ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينُ فَٱرۡزُقُوهُم مِّنۡهُ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 7
(8) और जब बाँटने के मौक़े पर कुंबे के लोग और यतीम और मिस्कीन आएँ तो उस माल में से उनको भी कुछ दो और उनके साथ भले मानसों की-सी बात करो।13
13. यह हिदायत मैयत के वारिसों को की जा रही है और हुक्म दिया जा रहा है कि मीरास के बँटवारे के मौक़े पर जो दूर और क़रीब के रिश्तेदार और कुंबे के ग़रीब और मुहताज लोग और यतीम बच्चे आ जाएँ उनके साथ तंगदिली न बरतो। मीरास में शरीअत के मुताबिक़ उनका हिस्सा नहीं है तो न सही, फ़राख़दिली और कुशादादिली से काम लेकर मैयत के ज़रिए छोड़े गए माल में से उनको भी कुछ न कुछ दे दो और उनके साथ ऐसी दिल तोड़ देनेवाली बातें न करो जो ऐसे मौक़ों पर आम तौर से छोटे दिल के छिछोरे लोग किया करते हैं।
وَلۡيَخۡشَ ٱلَّذِينَ لَوۡ تَرَكُواْ مِنۡ خَلۡفِهِمۡ ذُرِّيَّةٗ ضِعَٰفًا خَافُواْ عَلَيۡهِمۡ فَلۡيَتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡيَقُولُواْ قَوۡلٗا سَدِيدًا ۝ 8
(9) लोगों को इस बात का ख़याल करके डरना चाहिए कि अगर वे ख़ुद अपने पीछे बे-बस औलाद छोड़ते तो मरते वक़्त उन्हें अपने बच्चों के बारे में कैसे-कैसे अन्देशे होते। इसलिए चाहिए कि वे ख़ुदा का खौफ़ करें और सीधी-सच्ची बात करें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلۡيَتَٰمَىٰ ظُلۡمًا إِنَّمَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ نَارٗاۖ وَسَيَصۡلَوۡنَ سَعِيرٗا ۝ 9
(10) जो लोग ज़ुल्म के साथ यतीमों के माल खाते हैं हक़ीक़त में वे अपने पेट आग से भरते हैं, और वे ज़रूर जहन्नम की भड़कती हुई आग में झोंके जाएँगे।114
14. हदीस में आया है कि उहुद की लड़ाई के बाद हज़रत साद-बिन-रबी की बीवी अपनी दो बच्चियों को लिए हुए नबी (सल्ल०) के पास आई और उन्होंने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल ये साद की बच्चियाँ हैं जो आपके साथ उहुद की लड़ाई में शहीद हुए हैं। इनके चचा ने पूरी जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लिया है और इनके लिए एक दाना तक नहीं छोड़ा है। अब भला इन बच्चियों से कौन निकाह करेगा?” इस पर ये आयतें नाज़िल हुईं।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 10
(11) तुम्हारी औलाद के बारे में अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है– कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।15 * अगर (मैयत की वारिस) दो से ज़्यादा लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके (छोड़े हुए माल) का दो तिहाई दिया जाए।16 * और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो छोड़ हुए माल में से आधा उसका है। * अगर मरनेवाले के औलाद हो तो उसके माँ-बाप में से हर एक को छोड़े हुए माल का छठा हिस्सा मिलना चाहिए।17 * और अगर वह औलादवाला न हो और माँ-बाप ही उसके वारिस हों तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए।18 * और अगर मरनेवाले के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से की हक़दार होगी।19 (ये सब हिस्से उस वक़्त निकाले जाएँगे) जबकि वसीयत, जो मरनेवाले ने की हो, पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उसपर हो अदा कर दिया जाए।20 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी औलाद में से फ़ायदे और नफ़ा के लिहाज़ से कौन ज़्यादा तुमसे क़रीब है। ये हिस्से अल्लाह ने तय कर दिए हैं, और अल्लाह यक़ीनन सब हक़ीक़तों को जानता है और सारी मस्लहतों का जाननेवाला है।21
15. मीरास के मामले में यह सबसे पहली उसूली हिदायत है कि मर्द का हिस्सा औरत से दो गुना है। चूँकि शरीअत ने ख़ानदानी ज़िन्दगी में मर्द पर ज़्यादा (मआशी) ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है और औरत को बहुत-सी मआशी ज़िम्मेदारियों के बोझ से आज़ाद रखा है, इसलिए इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द के मुक़ाबले में कम रखा जाता।
16. यही हुक्म दो लड़कियों पर भी लागू होगा। मतलब यह है कि अगर किसी आदमी ने कोई लड़का न छोड़ा हो और उसकी औलाद में सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियों हों तो चाहे दो लड़कियाँ हो या दो से ज़्यादा, बहरहाल उसके कुल तरके में का 2/3 हिस्सा उन लड़कियों में बाँटा जाएगा और बाक़ी 1/3 दूसरे वारिसों में। लेकिन अगर मैयत का सिर्फ़ एक लड़का हो तो इसपर सभी का इत्तिफ़ाक़ है कि दूसरे वारिसों की ग़ैर-मौजूदगी में वह पूरे माल का वारिस होगा, और दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाक़ी सब माल उसे मिलेगा।
17. यानी अगर मरनेवाले (मैयत) ने अपनी कोई औलाद छोड़ी है तो इस सूरत में उसके माँ-बाप में से हर एक 1/6 का हक़दार होगा, चाहे मैयत की वारिस सिर्फ़ बेटियाँ हों, या सिर्फ़ बेटे हों, या बेटे और बेटियाँ हों, या एक बेटा हो या एक बेटी। रहा बाक़ी 2/3 तो इनमें दूसरे वारिस शरीक होंगे।
18. माँ-बाप के सिवा कोई और वारिस न हो तो बाक़ी दो तिहाई बाप को मिलेगा। वरना दो तिहाई हिस्से में बाप और दूसरे वारिस शरीक होंगे।
19. भाई-बहन होने की सूरत में माँ का हिस्सा एक तिहाई के बजाय छठा कर दिया गया है। इस तरह माँ के हिस्से में से जो छठा हिस्सा लिया गया है वह बाप के हिस्से में डाला जाएगा। क्योंकि इस सूरत में बाप की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती है। यह बात वाज़ेह रहे कि मैयत के माँ-बाप अगर ज़िन्दा हों तो इसके बहन-भाइयों को हिस्सा नहीं पहुँचता।
20. वसीयत को क़र्ज़ से पहले इसलिए बयान किया गया है कि क़र्ज़ का होना हर मरनेवाले के हक़ में ज़रूरी नहीं है और वसीयत करना उसके लिए ज़रूरी है। लेकिन हुक्म के एतिबार से मुस्लिम उम्मत इसमें एक राय है कि क़र्ज़ का नम्बर वसीयत से पहले है। यानी अगर मैयत के ज़िम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मैयत के तरके में से उसे अदा किया जाएगा, फिर वसीयत पूरी की जाएगी, और इसके बाद विरासत बाँटी जाएगी। वसीयत के बारे में सूरा-2, अल-बक़रा के हाशिए—182 में हम बता चुके हैं कि आदमी का अपने कुल माल के एक तिहाई (1/3) हिस्से की हद तक वसीयत करने का इख़्तियार है और यह वसीयत का क़ायदा इसलिए मुक़र्रर किया गया है कि विरासत के क़ानून के मुताबिक़ जिन रिश्तेदारों को मीरास में से हिस्सा नहीं पहुँचता उनमें से जिसको या जिस-जिसको आदमी मदद का हक़दार पाता हो उसके लिए अपने इख़्तियार से हिस्सा मुक़र्रर कर दे। जैसे कोई यतीम पोता या पोती मौजूद है, या किसी बेटे की बीवी मुसीबत के दिन काट रही है या कोई भाई या बहन या भावज या भतीजा या भाँजा या और कोई रिश्तेदार ऐसा है जो सहारे का मुहताज नज़र आता है तो उसके हक़ में वसीयत के ज़रिए से हिस्सा मुक़र्रर किया जा सकता है। और अगर रिश्तेदारों में कोई ऐसा नहीं है तो दूसरे हक़दारों के लिए या (आम लोगों की भलाई) के किसी काम में ख़र्च करने के लिए वसीयत की जा सकती है। ख़ुलासा यह है कि आदमी की कुल जायदाद में से दो तिहाई या इससे कुछ ज़्यादा के बारे में शरीअत ने मीरास का क़ानून बना दिया है जिसमें से उन वारिसों को तयशुदा हिस्सा मिलेगा जिनके नाम शरीअत ने बता दिए हैं। और एक तिहाई या इससे कुछ कम को ख़ुद उसकी समझ पर छोड़ दिया गया है कि अपने ख़ास ख़ानदानी हालात के लिहाज से (जो ज़ाहिर है कि हर आदमी के मामले में अलग-अलग होंगे) जिस तरह मुनासिब समझे बाँटने की वसीयत कर दे। फिर अगर कोई आदमी अपने वसीयत में ज़ुल्म करे या दूसरे लफ़्ज़ों में अपने इख़्तियार को ग़लत तौर पर इस तरह इस्तेमाल करे जिससे किसी के जाइज़ हक़ों पर असर पड़ता हो तो उसके लिए यह तरीक़ा रख दिया है। कि ख़ानदान के लोग आपस की रज़ामन्दी से इसका सुधार कर लें या क़ाज़ी (जज) से दख़ल देने की दरख़ास्त की जाए और वह वसीयत को ठीक कर दे। ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें हमारी किताब 'यतीम पोते की विरासत’।
21. यह जवाब है उन सब नादानों को जो मीरास के इस ख़ुदाई क़ानून को नहीं समझते और अपनी कम अक़्ली से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर उनकी कोई औलाद न हो, वरना आलाद होने की सूरत में छोड़े हुए माल का एक चौथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वे तुम्हारे छोड़े हुए माल में से चौथाई की हक़दार होगी अगर तुम बे-औलाद हो, वरना औलाद होने की सूरत में उनका हिस्सा आठवाँ होगा।22 इसके बाद कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो (क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह अदा कर दिया जाए। और अगर वह मर्द या औरत (जिसकी मीरास, बाँटी जानी है) बे-औलाद भी हो और उसके माँ-बाप भी ज़िन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से ज़्यादा हों तो छोड़ हुए कुल माल के एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे,23 जबकि वसीयत जो की गई हो, पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मरनेवाले ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, शर्त यह है कि वह नुक़सान पहुँचानेवाली न हो।24 यह हुक्म है अल्लाह की तरफ़ से, और अल्लाह जानता, देखता और नर्मख़ू (सहनशील) है।25
22. यानी चाहे एक बीवी हो या कई बीवियाँ हों औलाद होने की सूरत में वे आठवें (1/8) हिस्से की और औलाद न होने की सूरत में चौथाई (1/4) हिस्से की हक़दार होंगी और यह चौथाई या आठवाँ हिस्सा सब बीवियों में बराबरी के साथ बाँटा जाएगा।
23. बाक़ी 5/6 या 2/3 जो बचते हैं उनमें अगर कोई और वारिस मौजूद हो तो उसको हिस्सा मिलेगा वरना इस पूरी बाक़ी बची हुई जायदाद के बारे में उस आदमी को वसीयत करने का हक़ होगा। इस आयत के बारे में क़ुरआन के सभी आलिम एकमत हैं कि इसमें भाई और बहनों से मुराद अख़याफ़ी भाई-बहन हैं यानी जो मैयत के साथ सिर्फ़ माँ की तरफ़ से रिश्ता रखते हों और बाप उनका दूसरा हो। रहे सगे भाई-बहन और वे सातेले भाई-बहन जो बाप की तरफ़ से मैयत के साथ रिश्ता रखते हों, तो उनका हुक्म इसी सूरा के आख़िर में आया है।
24. वसीयत में नुक़सान पहुँचाना यह है कि ऐसे ढंग से वसीयत की जाए जिससे हक़दार रिश्तेदारों के हक़ मारे जाते हों। और क़र्ज़ में नुक़सान पहुँचाना यह है कि सिर्फ़ हक़दारों को महरूम करने के लिए आदमी ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर ऐसे क़र्ज़ का इक़रार करे जो उसने हक़ीक़त में न लिया हो। या और कोई ऐसी चाल चले जिससे मक़सद यह हो कि हक़दार मीरास से महरूम हो जाएँ। इस तरह के नुक़सान को बड़ा गुनाह (महापाप) कहा गया है। चुनाँचे हदीस में आया है कि वसीयत में नुक़सान पहुँचाना बड़े गुनाहों में से है। और एक दूसरी हदीस में नबी (सल्ल०) का फ़रमान है कि आदमी पूरी उम्र जन्नतियों के से काम करता रहता है मगर मरते वक़्त वसीयत में नुक़सान पहुँचाकर अपनी ज़िन्दगी की किताब को ऐसे अमल पर ख़त्म कर जाता है, जो उसे दोज़ख़ का हक़दार बना देता है। यह नुक़सान पहुँचाना और हक़ मारना हालाँकि हर हाल में गुनाह है, मगर ख़ास तौर पर 'कलाला' के बारे में अल्लाह ने इसका बयान इसलिए किया है कि जिस आदमी के न औलाद हो और न माँ-बाप हो उसमें आम तौर से यह रुझान पैदा हो जाता है कि अपनी जायदाद को किसी न किसी तरह ख़त्म कर जाए और दूर के रिश्तेदारों को हिस्सा पाने से महरूम कर दे।
25. यहाँ अल्लाह की एक सिफ़त (गुण) 'इल्म' दो वजहों से बयान की गई है: एक यह कि अगर इस क़ानून की ख़िलाफ़वर्जी की गई तो अल्लाह की पकड़ से आदमी न बच सकेगा। दूसरी यह कि अल्लाह ने जो हिस्से जिस तरह मुक़र्रर किए हैं वे बिलकुल सही हैं, क्योंकि बन्दों की भलाई जिस चीज़ में है अल्लाह उसको ख़ुद बन्दों से ज़्यादा बेहतर जानता है। और अल्लाह की सिफ़ते-हिल्म यानी उसकी नर्मख़ूई (सहनशीलता) का बयान इसलिए किया कि अल्लाह ने इन क़ानूनों को मुक़र्रर करने में सख़्ती नहीं की है, बल्कि ऐसे क़ायदे मुक़र्रर किए हैं जिनमें बन्दों के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा सुहूलत है; ताकि वे सख़्ती और तंगी में गिरफ़्तार न हों।
تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۚ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 12
(13) ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं जो अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करेगा उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होगी और उन बाग़ों में वह हमेशा रहेगा, और यही बड़ी कामयाबी है।
وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَتَعَدَّ حُدُودَهُۥ يُدۡخِلۡهُ نَارًا خَٰلِدٗا فِيهَا وَلَهُۥ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 13
(14) और जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करेगा और उसकी मुक़र्रर की हुई हदों से आगे बढ़ेगा उसे अल्लाह आग में डालेगा जिसमें वह हमेशा रहेगा, और उसके लिए रुसवा कर देनेवाली सज़ा है।25अ
25. (अ) यह एक बड़ी डरावनी आयत है जिसमें उन लोगों को हमेशा के अज़ाब की धमकी दी गई, है जो अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए विरासत के क़ानून को बदलें या उन दूसरी क़ानूनी हदों को तोड़ें जो ख़ुदा नें अपनी किताब में साफ़ तौर पर मुक़र्रर कर दी है। लेकिन सख़्त अफ़सोस है कि इतनी सख़्त धमकी के होते हुए भी मुसलमानों ने बिलकुल यहूदियों की सी ढिठाई के साथ ख़ुदा के क़ानून को बदला और उसकी हदों को तोड़ा। विरासत के इस क़ानून के मामले में जो नाफ़रमानियों की गई हैं ये ख़ुदा के ख़िलाफ़ खुली बग़ावत की हद तक पहुँचती हैं। कहीं औरतों को मीरास से हमेशा के लिए महरूम किया गया; कहीं सिर्फ़ बड़े बेटे को मीरास का हक़दार समझा गया, कहीं सिरे से विरासत के बँटवारे के तरीक़े को छोड़कर ‘मुश्तरक ख़ानदानी जायदाद' (संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति) का तरीक़ा अपना लिया गया। कहीं औरतों और मर्दों का हिस्सा बराबर कर दिया गया और अब उन पुरानी बग़ावतों के साथ सबसे ताज़ा बग़ावत यह है कि कुछ मुसलमान हुकूमतें मग़रिबवालों की पैरवी में 'वफ़ात-टैक्स' (मृत्यु-कर) अपने यहाँ लागू कर रही हैं, जिसका मतलब यह है कि मरनेवाले के वारिसों में एक वारिस हुकूमत भी है जिसका हिस्सा रखना अल्लाह मियाँ भूल गए थे, हालाँकि इस्लामी उसूल पर अगर मरनेवाले का छोड़ा हुआ माल-जायदाद किसी सूरत में हुकूमत को पहुँचता है तो वह सिर्फ़ यह है कि किसी मरनेवाले का कोई क़रीब व दूर का रिश्तेदार मौजूद न हो और उसका छोड़ा हुआ सारा माल बे-दावा जायदादों (Unclaimed properties) की तरह बैतुल-माल में दाख़िल हो जाए या फिर हुकूमत इस सूरत में कोई हिस्सा पा सकती है जबकि मरनेवाला अपनी वसीयत में उसके लिए कोई हिस्सा मुक़र्रर कर जाए।
وَٱلَّٰتِي يَأۡتِينَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مِن نِّسَآئِكُمۡ فَٱسۡتَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِنَّ أَرۡبَعَةٗ مِّنكُمۡۖ فَإِن شَهِدُواْ فَأَمۡسِكُوهُنَّ فِي ٱلۡبُيُوتِ حَتَّىٰ يَتَوَفَّىٰهُنَّ ٱلۡمَوۡتُ أَوۡ يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لَهُنَّ سَبِيلٗا ۝ 14
(15) तुम्हारी औरतों में से जो बदकारी के काम कर बैठे उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, और अगर चार आदमी गवाही दे दें तो उनको घरों में बन्द रखो यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे।
وَٱلَّذَانِ يَأۡتِيَٰنِهَا مِنكُمۡ فَـَٔاذُوهُمَاۖ فَإِن تَابَا وَأَصۡلَحَا فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ تَوَّابٗا رَّحِيمًا ۝ 15
(16) और तुममें से जो इस तरह की हरकत कर बैठें उन दोनों को तकलीफ़ दो, फिर अगर ये तौबा करें और अपना सुधार कर लें तो उन्हें छोड़ दो कि अल्लाह बहुत तौबा क़ुबूल करनेवाला और रहम करनेवाला है।26
26. इन दोनों (15 और 16) आयतों में ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा बयान की गई है। पहली आयत सिर्फ़ ज़िना करनेवाली औरतों के बारे में है और उनकी सज़ा यह बताई गई है कि उन्हें दूसर हुक्म तक क़ैद रखा जाए। दूसरी आयत ज़िना करनेवाले मर्द और ज़िना करनेवाली औरत दोनों के बारे में है कि दोनों को तकलीफ़ दी जाए, यानी मारा-पीटा जाए, सख़्त-सुस्त कहा जाए और उनको रुसवा किया जाए। ज़िना के बारे में यह शुरुआती हुक्म था। बाद में सूरा-24, अन-नूर की आयत-2 नाज़िल हुई जिसमें मर्द और औरत दोनों के लिए एक ही हुक्म दिया गया कि उन्हें सौ-सौ कौड़े लगाए जाएँ। अरब के लोग चूँकि उस वक़्त तक किसी बाक़ायदा हुकूमत के मातहत रहने और अदालत व क़ानून के निज़ाम की इताअत करने के आदी न थे, इसलिए यह बात हिकमत और समझदारी के ख़िलाफ़ होती अगर इस्लामी हुकूमत क़ायम होते ही सजा का क़ानून (दंड-संहिता) बनाकर फ़ौरन उनपर लागू कर दिया जाता। अल्लाह ने उनको धीरे-धीरे सज़ा के क़ानून का आदी बनाने के लिए पहले ज़िना के बारे में ये सज़ाएँ तय कीं, फिर धीरे-धीरे ज़िना, क़ज़फ़ (लाँछन) और चोरी की सज़ाएँ तय कीं और आख़िर में इसी बुनियाद पर वह तफ़सीली क़ानून बना जो नबी (सल्ल०) और ख़ुलफ़ाए- राशिदीन की हुकूमत में लागू था। क़ुरआन के एक मुफ़स्सिर (टीकाकार) सुद्दी को इन दोनों आयतों के ज़ाहिरी फ़र्क़ से यह ग़लतफ़हमी हुई है कि पहली आयत शादी-शुदा औरतों के लिए है और दूसरी आयत ग़ैर-शादी-शुदा मर्द और औरत के लिए। लेकिन यह एक कमज़ोर तफ़सीर है जिसकी ताईद में कोई वज़नी दलील नहीं। और इससे ज़्यादा कमज़ोर बात वह है जो अबू-मुस्लिम अस्फ़हानी ने लिखी है कि पहली आयत औरत और औरत के नाजाइज़ ताल्लुक़ के बारे में है और दूसरी आयत मर्द और मर्द के नाजाइज़ ताल्लुक़ के बारे में। ताज्जुब है अबू-मुस्लिम जैसे आलिम की नज़र इस हक़ीक़त की तरफ़ क्यों न गई कि क़ुरआन इनसानी ज़िन्दगी के लिए क़ानून और अख़लाक़ की शाहेराह (राजमार्ग) बनाता है और उन्हीं मसलों से बहस करता है जो शाहेराह पर पेश आते हैं। रहीं गलियाँ और पगडण्डियाँ, तो उनकी तरफ़ ध्यान देना और उनपर पेश आनेवाले छोटे-छोटे मसलों से बहस करना शाहाना कलाम के लिए हरगिज़ मुनासिब नहीं है। ऐसी चीज़ों को उसने इज्तिहाद (इस्लामी तालीमात की रौशनी में समझदारी के साथ फ़ैसले) के लिए छोड़ दिया है। यही वजह है कि नुबूवत के दौर के बाद जब यह सवाल पैदा हुआ कि मर्द और मर्द के नाजाइज़ ताल्लुक़ पर क्या सज़ा दी जाए तो सहाबा (रज़ि०) में किसी ने भी यह नहीं समझा कि सूरा निसा की इस आयत में इसका हुक्म मौजूद है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَرِثُواْ ٱلنِّسَآءَ كَرۡهٗاۖ وَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ لِتَذۡهَبُواْ بِبَعۡضِ مَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِن كَرِهۡتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَيَجۡعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيۡرٗا كَثِيرٗا ۝ 16
(19) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए यह हलाल (जाइज़) नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो,28 और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मह्‍र का कुछ हिस्सा उड़ा लेने की कोशिश करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ, अगर वे कोई खुली बदचलनी कर बैठें (तो ज़रूर तुम्हें तंग करने का हक़ है।) 29 उनके साथ भले तरीक़े से ज़िन्दगी गुज़ारो। अगर वे तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।30
28. इससे मुराद यह है कि शौहर के मरने के बाद उसके ख़ानदानवाले उसकी बेवा को मैयत की मीरास समझकर उसके वली-वारिस न बन बैठें। औरत का शौहर जब मर गया तो वह आज़ाद है। इद्दत गुज़ारकर जहाँ चाहे जाए और जिससे चाहे निकाह कर ले।
29. माल उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि बदचलनी की सज़ा देने के लिए।
30. यानी अगर औरत ख़ूबसूरत न हो या उसमें कोई और ऐसी कमी हो जिसकी वजह से वह शौहर को पसन्द न आए तो यह मुनासिब नहीं है कि शौहर फ़ौरन बददिल होकर उसे छोड़ देने को तैयार हो जाए। जहाँ तक हो सके उसे सब्र और बर्दाश्त से काम लेना चाहिए। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक औरत ख़ूबसूरत नहीं होती, मगर उसमें कुछ दूसरी ख़ूबियाँ ऐसी होती हैं, जो इज़दिवाजी ज़िन्दगी (दाम्पत्य जीवन) में शक्ल-सूरत की ख़ूबसूरती से ज़्यादा अहमियत रखती हैं। अगर उसे अपनी उन ख़ूबियों को ज़ाहिर करने का मौक़ा मिले तो वही शौहर जो शुरू में सिर्फ़ उसकी शक्ल-सूरत की ख़राबी की वजह से बददिल हो रहा था उसकी सीरत और किरदार के हुस्न पर फ़िदा हो जाता है। इसी तरह कभी-कभी इज़दिवाजी ज़िन्दगी (दाम्पत्य जीवन) की शुरुआत में औरत की कुछ बातें शौहर को नापसन्द होती हैं और वह उससे बददिल हो जाता है, लेकिन अगर यह सब्र से काम ले और औरत की सभी ख़ूबियों को उभरने का मौक़ा दे तो उसपर ख़ुद साबित हो जाता है कि उसकी बीवी बुराइयों से बढ़कर ख़ूबियाँ रखती है। इसलिए यह बात पसन्दीदा नहीं है कि आदमी शादी के ताल्लुक़ को तोड़ने में जल्दबाज़ी से काम ले। तलाक बिलकुल आख़िरी रास्ता है जिसको बिलकुल मजबूरी की हालतों में इस्तेमाल करना चाहिए। नबी (सल्ल०) का फ़रमान है कि तलाक़ हालाँकि जाइज़ है, मगर तमाम जाइज़ कामों में अल्लाह को सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा अगर कोई चीज़ है तो यह तलाक़ है। दूसरी हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि शादी करो और तलाक़ न दो, क्योंकि अल्लाह ऐसे मर्दों और औरतों को पसन्द नहीं करता जो भौंरे की तरह फूल-फूल का मज़ा चखते फिरें।
وَإِنۡ أَرَدتُّمُ ٱسۡتِبۡدَالَ زَوۡجٖ مَّكَانَ زَوۡجٖ وَءَاتَيۡتُمۡ إِحۡدَىٰهُنَّ قِنطَارٗا فَلَا تَأۡخُذُواْ مِنۡهُ شَيۡـًٔاۚ أَتَأۡخُذُونَهُۥ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 17
(20) और अगर तुम एक बीवी की जगह दूसरी बीवी ले आने का इरादा ही कर लो तो चाहे तुमने उसे ढेर सारा माल ही क्यों न दिया हो, उसमें से कुछ वापस न लेना। क्या तुम उसे बोहतान लगाकर और खुले तौर पर ज़ुल्म करके वापस लोगे?
وَكَيۡفَ تَأۡخُذُونَهُۥ وَقَدۡ أَفۡضَىٰ بَعۡضُكُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ وَأَخَذۡنَ مِنكُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 18
(21) और आख़िर तुम उसे किस तरह ले लोगे जबकि तुम एक-दूसरे से लुत्फ़ (आनन्द) ले चुके हो और वे तुमसे पुख़्ता वादा ले चुकी हैं?31
31. पुख़्ता वादा लेने से मुराद निकाह है; क्योंकि निकाह हक़ीक़त में वफ़ादारी का एक मज़बूत इक़रार है जिसकी मज़बूती पर भरोसा करके ही एक औरत अपने आपको एक मर्द के हवाले करती है। अब अगर मर्द अपनी ख़ाहिश से इसको तोड़ता है तो उसे वह मुआवज़ा वापस लेने का हक़ नहीं है जो उसने समझौता करते वक़्त पेश किया था। (देखें सूरा-2 , अल-बक़रा, हाशिया-251)
وَلَا تَنكِحُواْ مَا نَكَحَ ءَابَآؤُكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۚ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَمَقۡتٗا وَسَآءَ سَبِيلًا ۝ 19
(22) और जिन औरतों से तुम्हारे बाप निकाह कर चुके हों उनसे हरगिज़ निकाह न करो, जो पहले हो चुका सा हो चुका।32 हक़ीक़त में यह एक बेशर्मी और बेहयाई का काम है, नापसन्दीदा है और बुरा चलन है।33
32. रहन-सहन और समाजी मसलों में जाहिलियत के ग़लत तरीक़ों को हराम ठहराते हुए आम तौर से क़ुरआन मजीद में यह बात ज़रूर फ़रमाई जाती है कि 'जो हो चुका सो हो चुका'। इसके दो मतलब हैं। एक यह कि बेइल्मी और नादानी के ज़माने में जो ग़लतियाँ तुम लोग करते रहे हो नपर कोई पकड़ नहीं की जाएगी। शर्त यह है कि अब हुक्म आ जाने के बाद अपने रवैये में सुधार कर लो और जो काम ग़लत हैं उन्हें छोड़ दो। दूसरा यह कि पिछले ज़माने के किसी तरीक़े को अब अगर हराम ठहराया गया है तो उससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि पिछले क़ानून या रस्म व रिवाज के मुताबिक़ जो काम पहले किए जा चुके हैं उनको ख़त्म, उनसे पैदा होनेवाले नतीजों को नाजाइज़ और डाली गई ज़िम्मेदारियों को लाज़िमी तौर पर ख़त्म भी किया जा रहा है। जैसे कि अगर सौतेली माँ से निकाह को आज हराम किया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि अब तक जितने लोगों ने ऐसे निकाह किए थे उनकी औलाद हरामी ठहराई जा रही है और अपने बापों के माल में उनके विरासत के हक़ को ख़त्म किया जा रहा है। इसी तरह अगर लेन-देन के किसी तरीक़े को हराम किया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि पहले जितने मामले इस तरीक़े पर हुए हैं उन्हें भी ख़त्म कर दिया गया है और अब वह सब दौलत जो इस तरीक़े से किसी ने कमाई हो उससे वापस ली जाएगी या उसे हराम ठहराया जाएगा।
33. इस्लामी क़ानून में यह काम फ़ौजदारी जुर्म है और पुलिस को इसपर पकड़ करने का हक़ हासिल है। अबू-दाऊद, नसई और मुस्नद अहमद में ये रिवायतें मिलती हैं कि नबी (सल्ल०) ने इस जुर्म के करनेवालों को मौत और जायदाद ज़ब्त करने की सज़ा दी है। इब्ने-माजा ने इब्ने-अब्बास से जो रिवायत बयान की है उससे मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने यह बुनियादी उसूल बताया था कि जो आदमी महरम औरतों (वे क़रीबी रिश्ते की औरतें जिनसे निकाह न हो सके) में से किसी के साथ ज़िना करे उसे क़त्ल की सज़ा दो। फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) का इस मसले में इख़्तिलाफ़ है। इमाम अहमद तो इसी बात की ताईद करते हैं कि ऐसे आदमी को क़त्ल किया जाए और उसका माल ज़ब्त कर लिया जाए। इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम मालिक और इमाम शाफ़िई की राय यह है कि अगर उसने महरम औरतों में किसी के साथ ज़िना किया हो तो उसपर ज़िना की सज़ा का क़ानून लागू होगा और अगर निकाह किया हो तो उसे सख़्त इबरतनाक सज़ा दी जाएगी।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 20
(23) तुमपर हराम की गईं तुम्हारी माएँ,34 बेटियाँ,35 बहनें,36 फूफियाँ, ख़ालाएँ, भतीजियाँ, भाजियाँ,37 और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुमको दूध पिलाया हो, और तुम्हारी दूध-शरीक बहनें, और तुम्हारी बीवियों की माएँ,39 और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिन्होंने तुम्हारी गोदों में परवरिश पाई है40 उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे जिस्मानी ताल्लुक़ क़ायम कर चुके हो। वरना अगर (सिर्फ़ निकाह हुआ हो) और जिस्मानी ताल्लुक़ क़ायम न हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारे अपने नुतफ़े (वीर्य) से हों।41 और यह भी तुम पर हराम किया गया कि निकाह में दो बहनों को जमा करो।42 मगर जो पहले हो चुका वह हो चुका, अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।43
34. माँ से मुराद सगी और सौतेली दोनों तरह की माएँ हैं। इसलिए दोनों हराम है। साथ ही इस हुक्म में बाप की माँ और माँ की माँ भी शामिल हैं। इस बात में उलमा में इख़्तिलाफ़ है कि जिस औरत से बाप का नाजाइज़ जिस्मानी ताल्लुक़ चुका हो वह भी बेटे पर हराम है या नहीं। पहले के मुस्लिम आलिमों में से कुछ इसको हराम नहीं मानते और कुछ ऐसे भी हैं जो इसे हराम कहते हैं, बल्कि उनके नज़दीक जिस औरत को बाप ने शहवत (कामातुरता) से हाथ लगाया हो वह भी बेटे पर हराम है। इसी तरह पहले के आलिमों में इस बात में भी इख़्तिलाफ़ रहा है कि जिस औरत से बेटे का नाजइज़ जिस्मानी ताल्लुक़ हो चुका हो वह बाप पर हराम है या नहीं। और जिस मर्द से माँ या बेटी का नाजाइज़ ताल्लुक़ रहा हो या बाद में हो जाए उससे निकाह माँ और बेटी दोनों के लिए हराम है या नहीं, इस बारे में क़ानूनी बहसें तो बहुत लम्बी हैं मगर यह बात मामूली-से शिक्षक के बग़ैर समझ में आ सकती है कि किसी आदमी के निकाह में ऐसी औरत का होना जिसपर उसका बाप या उसका बेटा भी नज़र रखता हो या जिसकी माँ या बेटी पर भी उसकी निगाह हो एक नेक और भले समाज के लिए किसी तरह मुनासिब नहीं हो सकता। ख़ुदा की शरीअत का मिज़ाज इस मामले में उन क़ानूनी बाल की खाल निकालने को क़ुबूल नहीं करता जिनकी बुनियाद पर निकाह और ग़ैर-निकाह, निकाह से पहले और निकाह के बाद, छूने और बुरी नज़र डालने में फ़र्क़ किया जाता है। सीधी और साफ़ बात यह है कि ख़ानदानी ज़िन्दगी में एक ही औरत के साथ बाप और बेटे के या एक ही मर्द के साथ माँ और बेटी के शहवानी जज़बात (काम भावनाओं) का मौजूद होना बहुत बड़े बिगाड़ों का सबब है और शरीअत इसे बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकती। नबी (सल्ल०) का फ़रमान है कि जिस आदमी ने किसी औरत के छिपे हिस्सों (जिस्म के ख़ास हिस्सों) पर नज़र डाली हो उसकी माँ और बेटी दोनों उसपर हराम हैं। और कहा कि ख़ुदा उस आदमी की सूरत देखना पसन्द नहीं करता जो एक ही वक़्त में माँ और बेटी दोनों के छिपे हिस्सों पर नज़र डाले। इन रिवायतों से शरीअत का मक़सद साफ़ वाज़ेह हो जाता है।
35. बेटी के हुक्म में पोती और नवासी भी शामिल हैं। अलबत्ता इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि नाजाइज़ ताल्लुक़ के नतीजे में जो लड़की हुई हो वह भी हराम है या नहीं। इमाम अबू-हनीफ़ा, मालिक और अहमद-बिन-हंबल (रह०) के निकट वह भी जाइज़ बेटी की तरह उन औरतों में शामिल है जिनसे निकाह हराम है, और इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक वह उन औरतों में शामिल नहीं है जिनसे निकाह हराम है। मगर हक़ीक़त में यह सोचना भी एक ऐसे आदमी (लड़की) पर भार है जो सही और भला ज़ौक़ रखता है, कि जिस लड़की के बारे में वह यह जानता हो कि वह उसी के नुतफ़े (वीर्य) से पैदा हुई है, उसके साथ निकाह करना उसके लिए जाइज़ हो।
36. सगी बहन और माँ-शरीक बहन और बाप-शरीक बहन तीनों इस हुक्म में बराबर हैं।
37. इन सब रिश्तों में भी सगे और सौतेले के बीच कोई फ़र्क़ नहीं। बाप और माँ की बहन चाहे सगी हो या सौतेली या बाप शरीक, बहरहाल वह बेटे के लिए हराम है। इसी तरह भाई और बहन चाहे सगे हों या सौतेले या बाप शरीक, उनकी बेटियाँ एक आदमी के लिए अपनी बेटी की तरह हराम हैं।
38. इस बात पर मुस्लिम उम्मत का इत्तिफ़ाक़ है कि एक लड़के या लड़की ने जिस औरत का दूध पिया हो उसके लिए वह औरत माँ के हुक्म में और उसका शौहर बाप के हुक्म में है और तमाम वे रिश्ते जो सगी माँ और बाप के ताल्लुक़ से हराम होते हैं, रिज़ाई (दूध शरीक) माँ और बाप के ताल्लुक़ से भी हराम हो जाते हैं। यह हुक्म नबी (सल्ल०) के उस फ़रमान से लिया गया है कि 'दूध पीने (स्तनपान) से वही हराम होता है जो नसब (वंश) से हराम होता है।’ (हदीस :बुख़ारी, मुस्लिम), अलबत्ता इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि कितना दूध पीने में हराम होने का यह क़ानून लागू होता है। अबू-हनीफ़ा और मालिक (रह०) के नज़दीक जितनी मिक़दार से रोज़ेदार का रोज़ा टूट सकता है उतनी ही मिक़दार में अगर बच्चा किसी का दूध पी ले तो हराम होने का यह क़ानून लागू हो जाता है। मगर इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक तीन बार पीने से और इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक पाँच बार पीने से हराम होने का यह क़ानून लागू होता है। इसी के साथ इस बात में भी इख़्तिलाफ़ है कि किस उम्र में पीने से ये रिश्ते हराम होते हैं। इस बारे में फ़ुक़हा के बयान इस तरह हैं— (1) यह क़ानून सिर्फ़ उस ज़माने में दूध पीने पर लागू होता है जबकि बच्चे का दूध छुड़ाया न जा चुका हो और सिर्फ़ औरत का दूध ही उसकी ग़िज़ा (खाना) हो। वरना दूध छूटने के बाद अगर किसी बच्चे ने किसी औरत का दूध पी लिया हो तो उसकी हैसियत ऐसी ही है जैसे उसने पानी पी लिया। यह राय उम्मे-सलमा और इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की है। हज़रत अली (रज़ि०) से भी एक रिवायत इस मानी में आई है। ज़ुहरी, हसन बसरी, क़तादा, इकरिमा और औज़ाई की भी यही राय है। (2 ) दो साल की उम्र के अन्दर-अन्दर जो दूध पिया गया हो सिर्फ़ उसी से हराम होने का यह क़ानून लागू होगा। यह राय हज़रत उमर, इब्ने-मसऊद, अबू-हुरैरा और इब्ने-उमर (रज़ि०) की है। और फ़ुक़हा में से इमाम शाफ़िई, इमाम अहमद, इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम मुहम्मद और सुफ़ियान सौरी ने इसे क़ुबूल किया है। इमाम अबू-हनीफ़ा से भी एक क़ौल इसी की ताईद में मिलता है। इमाम मालिक भी उम्र की इसी हद को मानते हैं, मगर वे कहते हैं कि दो साल से अगर महीने दो महीना ज़्यादा उम्र भी हो तो उसमें दूध पीने का वही हुक्म है। (3) इमाम अबू-हनीफ़ा और इमाम ज़ुफ़र का मशहूर क़ौल यह है कि दूध पीने की मुद्दत ढाई साल है और इसके अन्दर दूध पीने से रिश्ते हराम हो जाते हैं। (4) चाहे किसी उम्र में दूध पिए, रिश्ते हराम होने का क़ानून लागू हो जाएगा। यानी इस मामले में अस्ल लिहाज़ दूध का है, न कि उम्र का। पीनेवाला अगर बूढ़ा भी हो तो उसका वही हुक्म है जो दूध पीते बच्चे का है। यही राय हज़रत आइशा की है और हज़रत अली से भी एक सही रिवायत से इसी की ताईद होती है। फ़ुक़हा में से उरवह-बिन-ज़ुबैर, अता, लैस-बिन-सअद और इब्ने-हज़म ने इसी क़ौल को अपनाया है।
39. इस बारे में इख़्तिलाफ़ है कि जिस औरत से सिर्फ़ निकाह हुआ हो उसकी माँ हराम है या नहीं। इमाम अबू-हनीफ़ा, मालिक, अहमद और शाफ़िई (रह०) इसको हराम मानते हैं और हज़रत अली (रज़ि०) की राय यह है कि जब तक किसी औरत से जिस्मानी ताल्लुक़ न हुआ हो उसकी माँ हराम नहीं होती।
40. ऐसी लड़की से निकाह हराम होने के लिए यह शर्त नहीं है कि उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो। ये अलफ़ाज़ अल्लाह ने सिर्फ़ इस रिश्ते की नज़ाकत ज़ाहिर करने के लिए इस्तेमाल किए हैं। मुस्लिम उलमा का इस बात पर क़रीब-क़रीब इत्तिफ़ाक़ है कि सौतेली बेटी आदमी पर बहरहाल हराम है, चाहे उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो या न पाई हो।
41. यह पाबन्दी इस मक़सद से बढ़ाई गई है कि जिसे आदमी ने बेटा बना लिया हो उसकी बेवा (विधवा) या तलाक़शुदा औरत आदमी पर हराम नहीं है। हराम सिर्फ़ उस बेटे की बीवी है जो उसके अपने नुत्फे से हो। और बेटे ही की तरह पोते और नाती की बीवी भी दादा और नाना पर हराम है।
42. नबी (सल्ल०) की हिदायत है कि ख़ाला (मौसी) और भाँजी और फूफी और भतीजी को भी एक साथ निकाह में रखना हराम है। इस मामले में यह उसूल समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों को एक निकाह में रखना बहरहाल हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से हराम होता।
43. यानी जाहिलियत के ज़माने में जो ज़ुल्म तुम लोग करते रहे हो कि दो-दो बहनों से एक ही वक़्त में निकाह कर लेते थे इसपर पकड़ न होगी, बशर्ते कि अब इससे रुके रहो। (देखें हाशिया-32) इसी बुनियाद पर यह हुक्म है कि जिस आदमी ने कुफ़्र की हालत में दो बहनों को निकाह में रखा हो उसे इस्लाम क़ुबूल करने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ना होगा।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 21
(24) और वे औरतें भी तुमपर हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात)। अलबत्ता ऐसी औरतें इससे अलग हैं जो (जंग में) तुम्हारे हाथ आएँ।44 यह अल्लाह का क़ानून है जिसकी पाबन्दी तुमपर लाज़िम कर दी गई है। इनके अलावा जितनी औरतें हैं उन्हें अपने मालों के ज़रिए से हासिल करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, शर्त यह है कि निकाह के घेरे में उनको महफ़ूज़ करो, न यह कि आज़ादाना तौर पर शहवतरानी (काम तृप्ति) करने लगो। फिर मियाँ-बीबी की हैसियत से ज़िन्दगी का जो लुत्फ़ (आनन्द) तुम उनसे उठाओ उसके बदले उनके मह्‍र फर्ज़ समझते हुए अदा करो। अलबत्ता मह्‍र तय हो जाने के बाद आपस की रज़ामन्दी से तुम्हारे बीच अगर कोई समझौता हो जाए तो उसमें कोई हरज नहीं, अल्लाह जाननेवाला और सूझ-बूझ रखनेवाला (तत्त्वदर्शी) है।
44. यानी जो औरतें जंग में पकड़ी हुई आएँ और उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहर दारुल-हर्ब (वह मुल्क जिससे लड़ाई चल रही हो) में मौजूद हों वे हराम नहीं हैं, क्योंकि दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम में आने के बाद उनके निकाह टूट गए। ऐसी औरतों के साथ निकाह भी किया जा सकता है और जिसकी मिल्कियत में वे हों वह उनसे जिस्मानी ताल्लुक़ात भी बना सकता है। अलबत्ता फ़ुक़हा के बीच इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि अगर मियाँ और बीवी दोनों एक साथ गिरफ़्तार हों तो उनका क्या हुक्म है। इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके शागिर्द कहते हैं कि उनका निकाह बाक़ी रहेगा और इमाम मालिक व शाफ़िई की राय यह है कि उनका निकाह भी बाक़ी न रहेगा। लौंडियों से जिस्मानी ताल्लुक़ के मामले में बहुत-सी ग़लतफ़हमियाँ लोगों के मन में है, इसलिए नीचे लिखी बातों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए– (1) जो औरतें जंग में गिरफ़्तार हों उनको पकड़ते ही हर सिपाही उनके साथ ताल्लुक़ बना लेने का हक़दार नहीं है, बल्कि इस्लामी क़ानून यह है कि ऐसी औरतें हुकूमत के हवाले कर दी जाएँगी। हुकूमत को इख़्तियार है कि चाहे उनको रिहा कर दे, चाहे उनसे फ़िदया ले, चाहे उनका तबादला उन मुसलमान क़ैदियों से करे जो दुश्मन के हाथ में हों और चाहे तो उन्हें सिपाहियों में बाँट दे। एक सिपाही सिर्फ़ उस औरत ही से ताल्लुक़ बनाने का हक़दार है जो हुकूमत की तरफ़ से बाक़ायदा उसकी मिल्कियत में दी गई हो। (2) जो औरत इस तरह किसी की मिल्कियत में दे दी जाए उसके साथ भी उस वक़्त तक ताल्लुक़ नहीं बनाया जा सकता जब तक कि उसे एक बार माहवारी न आ जाए और यह इत्मीनान न हो जाए कि वह गर्भवती (हामिला) नहीं है। इससे पहले ताल्लुक़ात बनाना हराम है, और अगर वह हामिला हो तो बच्चा पैदा होने से पहले भी ताल्लुक़ बनाना नाजाइज़ है। (3) जंग में पकड़ी हुई औरतों से जिस्मानी ताल्लुक़ात के मामले में यह शर्त नहीं है कि वे अहले-किताब ही में से हों। उनका मज़हब चाहे कोई हो बहरहाल जब वे तक़सीम कर दी जाएँगी तो जिनके हिस्से में वे आएँ वे उनसे जिस्मानी ताल्लुक़ात बना सकते हैं। (4) जो औरत जिस आदमी के हिस्से में दी गई हो सिर्फ़ वही उसके साथ जिस्मानी ताल्लुक़ात बना सकता है। किसी दूसरे को उसे हाथ लगाने का हक़ नहीं है। उस औरत से जो औलाद होगी वह उसी आदमी की जाइज़ औलाद समझी जाएगी जिसकी मिल्कियत में वह औरत है। उस औलाद के क़ानूनी हक़ वही होंगे जो शरीअत में सगी औलाद के लिए मुक़र्रर् हैं। औलाद हो जाने के बाद वह औरत बेची नहीं जा सकेगी और मालिक के मरते ही वह आप से आप आज़ाद हो जाएगी। (5) जो औरत इस तरह किसी आदमी की मिल्कियत में आई हो उसे अगर उसका मालिक किसी दूसरे आदमी के निकाह में दे दे तो फिर मालिक को उससे दूसरी तामाम ख़िदमतें लेने का हक़ तो रहता है, लेकिन जिंसी ताल्लुक़ का हक़ बाक़ी नहीं रहता। (6) जिस तरह शरीअत ने बीवियों की तादाद पर चार की पाबन्दी लगाई है उस तरह लौडियों की तादाद पर नहीं लगाई। लेकिन इस मामले में कोई हद मुक़र्रर न करने से शरीअत का मक़सद यह नहीं था कि मालदार लोग अनगिनत लौंडियाँ ख़रीद-खरीदकर जमा कर लें और अपने घर को ऐयाशी का घर बना लें। बल्कि हक़ीक़त में इस मामले में तादाद तय न करने की वजह यह है कि उस समय जंगी हालात तय नहीं थे। (7) मिल्कियत के तमाम दूसरे हक़ों की तरह वे मालिकाना हक़ भी मुन्तक़िल किए जा सकते। हैं जो किसी आदमी को क़ानून के मुताबिक़ किसी जंगी कैदी पर हुकूमत ने दिए हों। (8) हुकूमत की तरफ़ से मिल्कियत के हक़ों का बाक़ायदा दिया जाना वैसा ही एक क़ानूनी काम है जैसा निकाह एक क़ानूनी काम है। इसलिए कोई मुनासिब वजह नहीं कि जो आदमी निकाह में किसी तरह की कराहत महसूस नहीं करता वह ख़ाह-मख़ाह लौंडी से जिस्मानी ताल्लुक़ात में कराहत महसूस करे। (9) जंगी कैदियों में से किसी औरत को किसी आदमी की मिल्कियत में दे देने के बाद फिर हुकूमत उसे वापस लेने का हक़ नहीं रखती, बिलकुल उसी तरह जैसे किसी औरत का वली (सरपरस्त) उसको किसी के निकाह में दे चुकने के बाद फिर वापस लेने का हक़दार नहीं रहता। (10) अगर कोई फ़ौजी कमाण्डर सिर्फ़ वक़्ती और आरज़ी (अस्थायी) तौर पर अपने सिपाहियों को क़ैदी औरतों से अपनी जिसी प्यास बुझाने की इजाज़त दे दे और सिर्फ़ कुछ वक़्त के लिए उन्हें फ़ौज में बाँट दे तो यह इस्लामी क़ानून कि निगाह में बिलकुल नाजाइज़ हरकत है। इस हरकत में और ज़िना में कोई फ़र्क़ नहीं है। और ज़िना इस्लामी क़ानून में जुर्म है। इस मसले पर और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें हमारी किताब 'तफ़हीमात भाग-2' और 'रसाइल व मसाइल भाग-1' ।
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 22
(25) और तुममें से जो आदमी इतनी क़ुदरत न रखता हो कि ख़ानदानी मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके, उसे चाहिए। कि तुम्हारी उन लोडियों में से किसी के साथ निकाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और ईमानवाली हों। अल्लाह तुम्हारे ईमानों का हाल अच्छी तरह जानता है। तुम सब एक ही गरोह के लोग हो,45 इसलिए उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो। और भले तरीक़े से उनके मह्‍र अदा कर दो, ताकि वे निकाह के घेरे में महफ़ूज़ (मुहसनात) होकर रहें, न आज़ादाना तौर पर शहवतरानी (काम-तृप्ति) करती फिरें और न चोरी-छिपे नाजाइज़ ताल्लुक़ बनाएँ। फिर जब वे निकाह के घेरे में महफ़ूज़ हो जाएँ और उसके बाद कोई बदचलनी कर बैठें तो उनपर उस सज़ा के मुक़ाबले आधी सज़ा है जो ख़ानदानी औरतों (मुहसनात) के लिए मुक़र्रर है।46 यह सुहूलत47 तुम में से उन लोगों के लिए पैदा की गई है जिनको शादी न करने से तक़वा और परहेज़गारी के क़ायम न रह जाने का अन्देशा हो। लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला है।
45. यानी रहन-सहन में लोगों के बीच मर्तबे का जो फ़र्क़ है वह सिर्फ़ एक एतिबारी (Relative) चीज़ (औपचारिकता) है। वरना अस्ल में सब मुसलमान बराबर हैं और उनके दरमियान फ़र्क़ करने की अगर हक़ीक़त में कोई चीज़ है तो वह ईमान है, जो सिर्फ़ ऊँचे घरानों ही का हिस्सा नहीं है। हो सकता है कि एक लौंडी ईमान और अख़लाक़ में एक ख़ानदानी औरत से बेहतर हो।
46. सरसरी निगाह में यहाँ एक पेचीदगी पैदा होती है जिससे ख़ारिजी गरोह और उन दूसरे लोगों ने फ़ायदा उठाया है जो रज्म (पत्थरों से मार-मारकर मार डालने के हुक्म) के इनकारी हैं। वे कहते हैं कि “अगर आज़ाद शादीशुदा औरत के लिए इस्लामी शरीअत में ज़िना की सज़ा रज्म है तो इसकी आधी सज़ा क्या हो सकती है, जो लौंडी को दी जाए? इसलिए यह आयत इस बात की खुली दलील है कि इस्लाम में रज्म की सज़ा है ही नहीं।” लेकिन उन लोगों ने क़ुरआन लफ़्ज़ पर ग़ौर नहीं किया। इस रुकू में लफ़्ज़ मुहसनात (महफ़ूज़ औरतें) दो अलग-अलग मानों में इस्तेमाल किया गया है। एक 'शादी-शुदा औरतें जिनको शौहर की हिफ़ाज़त हासिल हो। दूसरे 'ख़ानदानी औरतें' जिनको ख़ानदान की हिफ़ाज़त हासिल हो, चाहे शादी-शुदा न हों। इस आयत में ‘मुह्सनात' का लफ़्ज़ लौंडी के मुक़ाबले में ख़ानदानी औरतों के लिए दूसरे मानी में (इस्तेमाल हुआ है, न कि पहले पानी में, जैसा कि आयत के मज़मून से साफ़ ज़ाहिर है। इसके बरख़िलाफ़ लौडियों के लिए मुहसनात का लफ़्ज़ पहले मानी में इस्तेमाल हुआ है और साफ़ लफ़्ज़ों में कहा गया है कि जब उन्हें निकाह की हिफ़ाज़त हासिल हो जाए तब उनके लिए ज़िना करने पर वह सज़ा है जो यहाँ बयान हुई है। अब अगर गहरी निगाह से देखा जाए तो यह बात बिलकुल वाज़ेह हो जाती है कि ख़ानदानी औरत को दो तरह की हिफ़ाज़तें हासिल होती हैं। एक ख़ानदान की हिफ़ाज़त जिसकी बुनियाद पर वह शादी के बग़ैर भी 'मुहसना' (महफ़ूज़) होती है। दूसरी शौहर की हिफ़ाज़त, जिसकी वजह से उसके लिए ख़ानदान की हिफ़ाज़त पर एक और हिफ़ाज़त की बढ़ोतरी हो जाती है। इसके बरख़िलाफ़ लौंडी जब तक लौंडी है मुहसना नहीं है, क्योंकि उसको किसी ख़ानदान की हिफ़ाज़त हासिल नहीं है। अलबत्ता निकाह होने पर उसको सिर्फ़ शौहर की हिफ़ाज़त हासिल होती है और वह भी अधूरी, क्योंकि शौहर की हिफ़ाज़त में आने के बाद भी न तो वह उन लोगों की बन्दगी से आज़ाद होती है जिनकी मिल्कियत में वह थी, और न उसे समाज में वह मर्तबा हासिल होता है जो ख़ानदानी औरत को नसीब हुआ करता है। इसलिए उसे जो सज़ा दी जाएगी वह ग़ैर-शादी-शुदा ख़ानदानी औरतों की सज़ा से आधी होगी, न कि शादी-शुदा ख़ानदानी औरतों की सज़ा से। साथ ही यहीं से यह बात भी मालूम हो गई कि क़ुरआन की सूरा नूर की दूसरी आयत में ज़िना की जिस सज़ा का बयान है वह सिर्फ़ ग़ैर-शादी-शुदा ख़ानदानी औरतों के लिए है जिनके मुक़ाबले में यहाँ शादी-शुदा लौंडी की सज़ा आधी बयान की गई है। रहीं शादी-शुदा ख़ानदानी औरतें, तो वे ग़ैर-शादी-शुदा मुह्सनात से ज़्यादा सख़्त सज़ा की हक़दार हैं, क्योंकि वे दोहरी हिफ़ाज़त को तोड़ती हैं। हालाँकि क़ुरआन उनके लिए रज्म की सज़ा नही बताता, लेकिन बहुत ही ख़ूबसूरत अन्दाज़ से उसकी तरफ़ इशारा करता है जो कम अक़्ल लोगों से छिपा रह जाए तो रह जाए लेकिन नबी के तेज़ जेहन से छिपा नहीं रह सकता था।
47. यानी ख़ानदानी औरत से निकाह करने की ताक़त न हो तो किसी लौंडी से उसके मालिकों की इजाज़त लेकर निकाह कर लेने की सुहूलत।
يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمۡ وَيَهۡدِيَكُمۡ سُنَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَيَتُوبَ عَلَيۡكُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 23
(26) अल्लाह चाहता है कि तुमपर उन तरीक़ों को वाज़ेह करे और उन्हीं तरीक़ों पर तुम्हें चलाए जिनकी पैरवी तुमसे पहले गुज़रे हुए अच्छे लोग करते थे। वह अपनी रहमत के साथ तुम्हारी तरफ़ पलटना चाहता है। सब कुछ जानता और गहरी समझ रखता है।48
48. सूरा के शुरू से यहाँ तक जो हिदायतें दी गई हैं और इस सूरा के उतरने से पहले सूरा-2 अल-बक़रा में रहन-सहन के मामलों और समाजी मसलों के बारे में जो हिदायतें दी जा चुकी थीं, उन सबकी तरफ़ कुल मिलाकर इशारा करते हुए कहा जा रहा है कि ये रहन-सहन, अख़लाक़ और तमद्दुन (संस्कृति) के वे क़ानून हैं जिन पर पुराने ज़माने से हर दौर के नबी और उनके नेक पैरोकार अमल करते चले आए हैं और यह अल्लाह की देन और मेहरबानी है कि वह तुमको जाहिलियत की हालत से निकाल कर नेक लोगों की ज़िन्दगी के तरीक़े की तरफ़ तुम्हारी रहनुमाई कर रहा है।
وَٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡكُمۡ وَيُرِيدُ ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلشَّهَوَٰتِ أَن تَمِيلُواْ مَيۡلًا عَظِيمٗا ۝ 24
(27) हाँ, अल्लाह तो तुम्हारी तरफ़ रहमत के साथ पलटना चाहता है, मगर जो लोग ख़ुद अपने मन की ख़ाहिशों के पीछे चल रहे हैं वे चाहते हैं कि तुम सीधे रास्ते से हटकर दूर निकल जाओ।49
49. यह इशारा मुनाफ़िक़ों और पुराने ज़माने से चले आ रहे तरीक़ों पर चलनेवाले जाहिलों और मदीना के बाहरी हिस्सों में बसे यहूदियों की तरफ़ है। मुनाफ़िक़ों और पुराने ज़माने से चले आ रहे तरीक़ों की पैरवी करनेवालों को तो वे सुधार बहुत ही नापसन्द थे जो समाज तमद्दुन और समाज, में सदियों के जमे और रचे-बसे तास्सुब (पक्षपात) और रस्म व रिवाज के ख़िलाफ़ किए जा रहे थे। मीरास में लड़कियों का हिस्सा, बेवा औरत का सुसराल की बन्दिशों से रिहाई पाना और इद्दत के बाद उसका किसी भी आदमी से निकाह के लिए आज़ाद हो जाना, सोतेली माँ से निकाह हराम होना, दो बहनों के एक साथ निकाह में जमा किए जाने को नाजाइज़ क़रार देना, मुँह बोले बेटे (लेपालक) को विरासत से महरूम करना और मुँह बोले बाप के लिए मुँहबोले बेटे की बेवा या तलाक़ दी हुई औरत से निकाह को जाइज़ ठहराना, ये और इस तरह के दूसरे सुधारों में से एक-एक चीज़ ऐसी थी जिस पर बड़े-बूढ़े और बाप-दादा से चली आ रही रस्मों के पुजारी चीख़-चीख़ उठते थे। मुद्दतों इन हुक्मों पर चर्चे होते रहते थे। शरारत पसन्द लोग इन बातों को लेकर नबी (सल्ल०) और आपके सुधार के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काते फिरते थे। मिसाल के तौर पर, जो आदमी किसी ऐसे निकाह से पैदा हुआ था जिसे अब इस्लामी शरीअत हराम क़रार दे रही थी, उसको यह कह कर भड़काया जाता था कि लीजिए, आज जो नए अहकाम यहाँ आए हैं उनके मुताबिक़ आपकी माँ और आपके बाप का ताल्लुक़ नाजाइज़ ठहरा दिया गया है। इस तरह ये नादान लोग उस इस्लाह के काम में रुकावट डाल रहे थे जो उस वक़्त अल्लाह के हुक्मों के तहत अंजाम दिया जा रहा था। दूसरी तरफ़ यहूदी थे, जिन्होंने सदियों बाल की खाल निकालते रहने से ख़ुदा की सच्ची शरीअत पर अपने ख़ुद के गढ़े हुए हुक्मों और क़ानूनों का एक भारी ख़ौल चढ़ा रखा था। अनगिनत पाबन्दियाँ, बारीकियाँ और सख़्तियाँ थीं जो उन्होंने शरीअत में बढ़ा ली थीं। ज़्यादातर हलाल चीज़ें ऐसी थीं जिनको वे हराम कर बैठे थे। बहुत-सी अन्धविश्वास की बातें थीं जिनको उन्होंने अल्लाह के क़ानून में दाख़िल कर दिया था। अब यह बात उनके आलिमों और आम लोगों की ज़ेहनियत, उनकी पसन्द और ज़ौक़ के बिलकुल ख़िलाफ़ थी कि वे इस सीधी-सादी शरीअत की क़द्र पहचान सकते जो क़ुरआन पेश कर रहा था। वे क़ुरआन के हुक्मों को सुनकर बेताब हो-हो जाते थे। एक-एक चीज़ पर सौ-सौ एतिराज़ करते। उनकी माँग यह थी कि या तो क़ुरआन उनके आलिमों के ज़रिए से पैदा हुए तमाम तरीक़ों और उनके बुज़ुर्गों (पूर्वजों) के सारे अन्धविश्वासों और अनर्गल बातों को ख़ुदा की शरीअत क़रार दे, वरना यह हरगिज़ ख़ुदा की किताब नहीं है। मिसाल के तौर पर, यहूदियों के यहाँ यह दस्तूर था कि माहवारी के दिनों में औरत को बिलकुल गन्दा समझा जाता था। न उसका पकाया हुआ खाना खाते, न उसके हाथ का पानी पीते, न उसके साथ फ़र्श पर बैठते; बल्कि उसके हाथ से हाथ छू जाने को भी ना पसन्द और बुरा समझते थे। इन कुछ दिनों में औरत ख़ुद अपने घर में अछूत बनकर रह जाती थी। यही रिवाज यहूदियों के असर से मदीना के अनसार में भी चल पड़ा था। जब नबी (सल्ल०) मदीना तशरीफ़ लाए तो आपसे इसके बारे में सवाल किया गया। जवाब में सूरा-2 , अल-बक़रा, आयत-222 उतरी। नबी (सल्ल०) ने इस आयत के मुताबिक़ हुक्म दिया कि माहवारी के दिनों में सिर्फ़ जिस्मानी ताल्लुक़ात बनाना नाजाइज़ है। बाक़ी सारे ताल्लुक़ात औरतों के साथ उसी तरह रखे जाएँ जिस तरह दूसरे दिनों में होते हैं। इस पर यहूदियों में शोर मच गया। वे कहने लगे कि यह आदमी तो क़सम खाकर बैठा है कि जो-जो कुछ हमारे यहाँ हराम है उसे हलाल करके रहेगा और जिस-जिस चीज़ को हम नापाक कहते हैं उसे पाक ठहराएगा।
يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُخَفِّفَ عَنكُمۡۚ وَخُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ ضَعِيفٗا ۝ 25
(28) अल्लाह तुम पर से पाबन्दियों को हल्का करना चाहता है, क्योंकि इनसान कमज़ोर पैदा किया गया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 26
(29) ऐलोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ। लेन- देन आपस की रज़ामन्दी से होना चाहिए।50 और अपने-आप को क़त्ल न करो।51 यक़ीन मानो कि अल्लाह तुम्हारे ऊपर मेहरबान है।52
50. 'ग़लत ढंग' से मुराद वे तमाम तरीक़े हैं जो हक़ के ख़िलाफ़ हों और शरीअत और अख़लाक़ की नज़र से नाजाइज़ हों। 'लेन-देन' से मुराद यह है कि आपस में फ़ायदों और नफ़ों का तबादला होना चाहिए जिस तरह तिजारत, कारोबार वग़ैरा में होता है कि एक आदमी दूसरे आदमी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मेहनत करता है और वह उसका मुआवज़ा देता है। 'आपस की रज़ामन्दी' से मुराद यह है कि लेन-देन न तो किसी नाजाइज़ दबाव से हो और न छल-कपट से। रिश्वत और सूद (ब्याज) में बज़ाहिर रज़ामन्दी होती है मगर हक़ीक़त में वह रज़ामन्दी मजबूरी के तहत होती है और दबाव का नतीजा होती है। जुए में भी बज़ाहिर रज़ामन्दी होती है लेकिन हक़ीक़त में जुए में हिस्सा लेनेवाला हर आदमी उस ग़लत उम्मीद पर रज़ामन्द होता है कि जीत उसकी होगी। हारने के इरादे से कोई भी राज़ी नहीं होता। छल-कपट के कारोबार में भी बज़ाहिर रज़ामन्दी होती है, मगर इस ग़लतफ़हमी की बुनियाद पर होती है कि अन्दर छल-कपट नहीं है। अगर दूसरे फ़रीक़ को मालूम हो कि तुम इससे छल-कपट कर रहे हो तो वह कभी इस पर राज़ी न हो।
51. यह जुमला पिछले जुमले का ततिम्मा (पूरक) भी हो सकता है और ख़ुद अपने-आपमें एक मुकम्मल जुमला भी। अगर पिछले जुमले का पूरक समझा जाए तो इसका मतलब यह है कि दूसरों का माल नाजाइज़ तौर पर खाना ख़ुद अपने आपको हलाकत में डालना है। दुनिया में इससे समाज का निज़ाम ख़राब होता है और इसके बुरे नतीजों से हरामख़ोर आदमी ख़ुद भी नहीं बच सकता और आख़िरत में इसकी बदौलत आदमी सख़्त सज़ा का हक़दार बन जाता है। अगर इसे अपने-आप में एक मुकम्मल जुमला समझा जाए तो इसके दो मतलब हैं— एक यह कि एक-दूसरे को क़त्ल न करो। दूसरे यह कि ख़ुदकुशी न करो। अल्लाह ने अलफ़ाज़ ऐसे जामेअ (व्यापक) इस्तेमाल किए हैं और बात की तरतीब ऐसी रखी है कि इससे ये तीनों मतलब निकलते हैं और तीनों सही है।
52. यानी अल्लाह तुम्हारा भला चाहनेवाला है, तुम्हारी भलाई चाहता है और यह उसकी मेहरबानी ही है कि वह तुमको ऐसे कामों से मना कर रहा है जिनमें तुम्हारी अपनी बरबादी है।
وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ عُدۡوَٰنٗا وَظُلۡمٗا فَسَوۡفَ نُصۡلِيهِ نَارٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرًا ۝ 27
(30) जो शख़्स ज़ुल्म और ज़्यादती के साथ ऐसा करेगा उसको हम ज़रूर आग में झोंकेंगे और यह अल्लाह के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है।
إِن تَجۡتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنۡهَوۡنَ عَنۡهُ نُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَنُدۡخِلۡكُم مُّدۡخَلٗا كَرِيمٗا ۝ 28
(31) अगर तुम उन बड़े-बड़े गुनाहों से बचते रहो जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है तो तुम्हारी छोटी-मोटी बुराइयों को हम तुम्हारे हिसाब में से हटा देंगे53 और तुमको इज़्ज़त की जगह में दाख़िल करेंगे।
53. यानी हम तंगदिल और तंगनज़र नहीं हैं कि छोटी-छोटी बातों पर पकड़कर अपने बन्दों को सज़ा दें। जगर तुम्हारा आमाल-नामा (कर्म-पत्र) बड़े गुनाहों से ख़ाली हो तो छोटी ग़लतियों को नज़र-अन्दाज़ कर दिया जाएगा और तुम पर जुर्म का कोई इलज़ाम लगाया ही न जाएगा। लेकिन अगर बड़े गुनाह और जुर्म करके जाओगे तो फिर जो मुक़द्दमा तुम पर क़ायम किया जाएगा उसमें छोटी ग़लतियों भी पकड़ में आ जाएँगी। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि बड़े गुनाह और छोटे गुनाह में उसूली फ़र्क़ क्या है? जहाँ तक मैंने क़ुरआन और सुन्नत में ग़ौर किया है मुझे ऐसा मालूम होता (और अल्लाह बेहतर जानता) है कि तीन चीज़ें हैं जो किसी काम को बड़ा गुनाह बनाती है– (1) किसी का हक़ मार लेना। चाहे वह ख़ुदा हो जिसका हक़ मारा गया है या माँ-बाप हों, या दूसरे इनसान या ख़ुद अपना नफ़्स। फिर जिसका हक़ जितना ज़्यादा है, उसके हक़ को मारना उतना ही ज़्यादा बड़ा गुनाह है। इसी बुनियाद पर गुनाह को ज़ुल्म भी कहा जाता है और इसी बुनियाद पर शिर्क को क़ुरआन में बड़ा ज़ुल्म कहा गया है। (2) अल्लाह से निडर और बेख़ौफ़ होना और उसके मुक़ाबले में घमण्ड करना, जिसकी वजह से आदमी अल्लाह के करने न करने के हुक्म की परवाह न करे और नाफ़रमानी के इरादे से जान-बूझकर वह काम करे जिससे अल्लाह ने मना किया और जान-बूझकर उन कामों को न करे जिनका उसने हुक्म दिया है। यह नाफ़रमानी जितनी ज़्यादा ढिठाई और जसारत (दुस्साहस) और ख़ुदा से बेख़ौफ़ होने की कैफ़ियत अपने अंदर लिए हुए होगी, उतना ही गुनाह भी सख़्त होगा। इसी मानी के लिहाज़ से गुनाह के लिए 'फ़िस्क़' और मासियत के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। (3) उन बन्धनों को तोड़ना और उन ताल्लुक़ात को बिगाड़ना जिनके जोड़ने, मज़बूत बनाने और ठीक होने पर इनसानी ज़िन्दगी के अम्न का दारोमदार है, चाहे ये ताल्लुक़ात बन्दे और ख़ुदा के बीच हों या बन्दे और बन्दे के बीच। फिर जो ताल्लुक़ जितना ज़्यादा अहम है और जिसके कटने से अम्न को जितना ज़्यादा नुक़सान पहुँचता है और जिसके मामले में अम्न की जितनी ज़्यादा उम्मीद की जाती है, उतना ही उसको तोड़ने और काटने और ख़राब करने का गुनाह ज़्यादा बड़ा है। जैसे कि ज़िना और उसकी बहुत-सी शक्लों पर ग़ौर कीजिए। यह काम अपने आप में समाज और संस्कृति (तहज़ीब) के निज़ाम को ख़राब कर देनेवाला है। इसलिए अपने-आप में एक बड़ा गुनाह है, मगर इसकी अलग-अलग सूरतें एक-दूसरे से गुनाह में ज़्यादा बढ़कर हैं। शादी-शुदा औरत का ज़िना करना बिन ब्याहे के मुक़ाबले में ज़्यादा बड़ा गुनाह है। शादी-शुदा औरत के साथ ज़िना करना ग़ैर-शादी-शुदा औरत से ज़िना के मुक़ाबले में ज़्यादा बड़ा गुनाह है। पड़ोसी के घरवालों से ज़िना करना ग़ैर-पड़ोसी से ज़िना करने के मुक़ाबले में ज़्यादा बुरा है। महरम औरतों जैसे बहन, बेटी या माँ से ज़िना करना ग़ैर-औरत से ज़िना करने के मुक़ाबले में ज़्यादा क़ाबिले-नफ़रत और बुरा है। मस्जिद में ज़िना करना किसी और जगह करने के मुक़ाबले में ज़्यादा संगीन जुर्म है। इन मिसालों में एक ही काम की अलग-अलग सूरतों के दमियान गुनाह होने की हैसियत से दरजों का फ़र्क़ इन्हीं वजहों से है जो ऊपर बताई गई हैं। जहाँ अम्न क़ायम रहने की उम्मीद जितनी ज़्यादा है, जहाँ इनसानी राब्ते और रिश्ते का जितना ज़्यादा एहतिराम ज़रूरी है और जहाँ इस राब्ते और रिश्ते को काटना जितना ज़्यादा फ़साद, और बिगाड़ का सबब है वहाँ ज़िना करना उतना ही ज़्यादा बड़ा गुनाह है। इसी मानी के लिहाज से गुनाह के लिए 'फ़ुजूर’ की इस्तिलाह (परिभाषा) इस्तेमाल की जाती है।
وَلَا تَتَمَنَّوۡاْ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِۦ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبُواْۖ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبۡنَۚ وَسۡـَٔلُواْ ٱللَّهَ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 29
(32) और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना न करो। जो कुछ मर्दों ने कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा। हाँ, अल्लाह से उसके फ़ज़्ल (अनुग्रह) की दुआ माँगते रहो, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।54
54. इस आयत में एक बड़ी अहम अख़लाक़ी हिदायत दी गई है, जिसे अगर ध्यान में रखा जाए तो सामाजिक ज़िन्दगी में इनसान को बड़ा अम्न नसीब हो जाए। अल्लाह ने सारे इनसानों को एक जैसा नहीं बनाया है, बल्कि उनके दरमियान अनगिनत हैसियतों से फ़र्क़ रखे हैं। कोई ख़ूबसूरत है और कोई बदसूरत। किसी की आवाज़ में मिठास है और किसी की आवाज़ में कड़ुवाहट। कोई ताक़तवर है और कोई कमज़ोर। किसी का पूरा जिस्म सही-सालिम है और कोई पैदाइशी तौर पर जिस्मानी कमज़ोरी और ऐब लेकर आया है। किसी को जिस्मानी और ज़ेहनी ताक़तों में से कोई ताक़त ज़्यादा दी है और किसी को कोई दूसरी ताक़त। किसी को बेहतर हालात में पैदा किया है और किसी को बदतर हालात में। किसी को ज़्यादा ज़रिए और साधन दिए हैं और किसी को कम। इसी फ़र्क़ और इम्तियाज़ (विशिष्टता) पर इनसानी समाज और संस्कृति (तमद्दुन) की सारी रंगा-रंगी क़ायम है और यह ठीक हिकमत का तक़ाज़ा भी है। जहाँ इस फ़र्क़ को इसकी फ़ितरी हदों से बढ़ाकर इनसान अपने बनावटी इम्तियाज़ों की इसपर बढ़ोतरी करता है, वहाँ एक तरह का बिगाड़ पैदा होता है और जहाँ सिरे से इस फ़र्क़ ही को मिटा देने के लिए फ़ितरत से जंग करने की कोशिश की जाती है वहाँ एक दूसरी तरह का बिगाड़ पैदा होता है। आदमी की यह सोच और ज़ेहनियत कि जिसे किसी हैसियत से अपने मुक़ाबले में बढ़ा हुआ देखे बेचैन हो जाए, यही सामाजिक ज़िन्दगी में हसद, जलन (द्वेष) दुश्मनी, और खींच-तान के जड़ है और इसका नतीजा यह होता है कि जो चीज़ उसे जाइज़ तरीक़ों से हासिल नहीं होती, उसे फिर वह नाजाइज़ तदबीरों से हासिल करने पर उतर आता है। अल्लाह इस आयत में इसी ज़ेहनियत से बचने की हिदायत कर रहा है। उसके फ़रमान का मक़सद यह है कि जो नेमत उसने दूसरों को दी हो उसकी तमन्ना न करो; अलबत्ता अल्लाह से फ़ज़्ल और मेहरबानी की दुआ करो, वह जिस फ़ज़्ल और नेमत को अपने इल्म और हिकमत से तुम्हारे लिए मुनासिब समझेगा दे देगा। और यह जो कहा कि 'मर्दों ने जो कुछ कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा', इसका मतलब जहाँ तक मैं समझ सका हूँ यह है कि मर्दों और औरतों में से जिसको जो कुछ अल्लाह ने दिया है उसको इस्तेमाल करके जो जितनी और जैसी बुराई या भलाई कमाएगा उसी के मुताबिक़, या दूसरे अलफ़ाज़़ में उसी शक्ल में अल्लाह के यहाँ हिस्सा पाएगा।
وَلِكُلّٖ جَعَلۡنَا مَوَٰلِيَ مِمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَۚ وَٱلَّذِينَ عَقَدَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَـَٔاتُوهُمۡ نَصِيبَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا ۝ 30
(33) और हमने हर उस तरके (छोड़े हुए माल) के हक़दार मुक़र्रर कर दिए हैं, जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनसे तुम्हारे वादे और समझौते हों तो उनका हिस्सा उन्हें दो। यक़ीनन हर चीज़ अल्लाह की निगाह में है।55
55. अरब के लोगों का क़ायदा था कि जिन लोगों के बीच दोस्ती और भाईचारे के क़ौल व क़रार हो जाते थे वे एक-दूसरे की मीरास के हक़दार बन जाते थे। इसी तरह जिसे बेटा बना लिया जाता था वह भी मुँह बोले बाप का वारिस क़रार पाता था। इस आयत में जाहिलियत के इस तरीक़े को रद्द करते हुए फ़रमाया गया है कि विरासत तो उसी क़ायदे के मुताबिक़ रिश्तेदारों में तक़सीम होनी चाहिए जो हमने तय कर दिया है। अलबत्ता जिन लोगों से तुम्हारे क़ौल व क़रार हों उनको अपनी ज़िन्दगी में तुम जो चाहो दे सकते हो।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا ۝ 31
(34) मर्द औरतों पर क़व्वाम (मामलों के ज़िम्मेदार) हैं,56 इस बुनियाद पर अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत57 दी है। और इस बुनियाद पर कि मर्द अपने माल ख़र्च करते हैं। इसलिए जो नेक और भली औरतें हैं वे फ़रमाँबरदार होती हैं और मर्दों के पीछे अल्लाह की हिफ़ाज़त और निगरानी में उनके हक़ों की हिफ़ाज़त करती हैं।58 और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का डर हो उन्हें समझाओ, सोने की जगहों में उनसे अलग रहो और मारो,59 फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगें तो बिला बजह उन पर हाथ चलाने के बहाने तलाश न करो। यक़ीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और बालातर (सर्वोच्च) है।
56. अरबी ज़बान में 'क़व्वाम' या 'क़य्यिम' उस आदमी को कहते हैं जो किसी शख़्स, इदारे या निज़ाम के मामलों को ठीक-ठाक चलाने और उसकी हिफ़ाज़त और देखभाल करने और उसकी ज़रूरतें पूरी करने का ज़िम्मेदार हो।
57. यहाँ 'फ़ज़ीलत' बड़ाई, इज़्ज़त और बुज़ुर्गी के मानी में नहीं है। जैसा कि उर्दू-हिन्दी जाननेवाला एक आम आदमी इस लफ़्ज़ का मतलब लेगा, बल्कि यहाँ यह लफ़्ज़ इस मानी में है कि मर्द और औरतों में से मर्द को अल्लाह ने फ़ितरी तौर पर कुछ ऐसी ख़ुसूसियतें और ताक़तें दी हैं जो औरत को नहीं दीं या अगर दी हैं तो मर्द से कम। इस बुनियाद पर ख़ानदानी निज़ाम में मर्द ही क़व्वाम (ज़िम्मेदार) होने की सलाहियत रखता है और औरत फ़ितरी तौर पर ऐसी बनाई गई है कि उसे ख़ानदानी ज़िन्दगी में मर्द की हिफ़ाज़त और देखभाल के तहत रहना चाहिए।
58. हदीस में आया है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बेहतरीन बीवी वह है कि जब तुम उसे देखो तो तुम्हारा जी ख़ुश हो जाए, जब तुम उसे किसी बात का हुक्म दो तो वह तुम्हारी इताअत करे और जब तुम घर में न हो तो वह तुम्हारे पीछे तुम्हारे माल की और अपने नफ़्स (इज्ज़त व सतीत्त्व) की हिफ़ाज़त करे।” यह हदीस इस आयत की बेहतरीन तफ़सीर (व्याख्या) करती है। मगर यहाँ यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि औरत पर अपने शौहर की फ़रमाँबरदारी से बढ़कर अहम बात अपने ख़ालिक़ यानी अल्लाह की इताअत है। इसलिए अगर कोई शौहर ख़ुदा की नाफ़रमानी का हुक्म दे या ख़ुदा की तरफ़ से ठहराए हुए किसी फ़र्ज़ से रोकने की कोशिश करे तो उसकी बात मानने से इनकार कर देना औरत के लिए ज़रूरी है। इस सूरत में अगर वह उसका कहा मानेगी तो गुनाहगार होगी। इसके बरख़िलाफ़ अगर शौहर अपनी बीवी को नफ़्ल नमाज़ या नफ़्ल रोज़ा छोड़ने के लिए कहे तो उसपर लाज़िम है कि वह उसका कहा माने। उस सूरत में अगर वह नफ़्ल काम करेगी तो (ख़ुदा के यहाँ) वे क़ुबूल न होंगे।
59. इसका मतलब यह नहीं है कि तीनों काम एक ही वक़्त में कर डाले जाएँ, बल्कि मतलब यह है कि सरकशी की हालत में इन तीनों तदबीरों और उपायों की इजाज़त है। अब रहा इनको अमल में लाना तो बहरहाल इसमें इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि क़ुसूर के मुताबिक़ सज़ा दी जाए। और जहाँ हल्की तदबीर से सुधार हो सकता हो वहाँ सख़्त तदबीर से काम नहीं लेना चाहिए। नबी (सल्ल०) ने बीवियों के मारने की जब कभी इजाज़त दी है न चाहते हुए दी है और फिर भी इसे नापसन्द ही किया है। फिर भी कुछ औरतें ऐसी होती हैं जो पिटे बग़ैर ठीक ही नहीं होतीं। ऐसी हालत में नबी (सल्ल०) ने हिदायत की है कि मुँह पर न मारा जाए, बेरहमी से न मारा जाए और ऐसी चीज़ से न मारा जाए जो जिस्म पर निशान छोड़ जाए।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِهِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَٰحٗا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرٗا ۝ 32
(35) और अगर तुम लोगों को कहीं मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात बिगड़ जाने का डर हो तो एक फ़ैसला करनेवाला मर्द के रिश्तेदारों में से और एक औरत के रिश्तेदारों में से मुक़र्रर करो, वे दोनों60 सुलह करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच मेल-मिलाप का रास्ता निकाल देगा। अल्लाह सब कुछ जानता है और ख़बर रखता है।61
60. दोनों से मुराद पंच (मध्यस्थ) भी हैं और शौहर-बीवी भी। हर झगड़े में सुलह होना मुमकिन है बशर्ते कि दोनों फ़रीक़ भी सुलह चाहते हों और बीचवाले भी चाहते हों कि दोनों फ़रीक़ों में किसी तरह सुलह-सफ़ाई हो जाए।
61. इस आयत में हिदायत की गई है कि जहाँ मियाँ और बीवी में अनबन हो जाए वहाँ झगड़े से जुदाई तक नौबत पहुँचने या अदालत में मामला जाने से पहले घर के घर ही में इस्लाह की कोशिश कर लेनी चाहिए और इसका तरीक़ा यह है कि मियाँ और बीवी में से हर एक के ख़ानदान का एक-एक आदमी इस मक़सद के लिए मुक़र्रर किया जाए कि दोनों मिलकर इस बात की छानबीन करें कि शौहर और बीवी में अनबन की वजहें क्या हैं। और फिर आपस में सर जोड़कर बैठें और सुलह की कोई सूरत निकालें। इन पंचों को कौन मुक़र्रर करेगा? इस बात को अल्लाह ने खोला नहीं है, ताकि अगर मियाँ-बीवी ख़ुद चाहें तो अपने-अपने रिश्तेदारों में से ख़ुद ही एक-एक आदमी को अपने इख़्तिलाफ़ का फ़ैसला करने के लिए चुन लें, वरना दोनों ख़ानदानों के बड़े-बूढ़े दख़ल देकर पंच मुक़र्रर करें, और अगर मुक़द्दमा अदालत में पहुँच ही जाए तो अदालत ख़ुद कोई कार्रवाई करने से पहले ख़ानदानी पंच मुक़र्रर करके सुधार की कोशिश करे। इस बात में उलमा के बीच इख़्तिलाफ़ है कि पंचों के इख़्तियारात (अधिकार) क्या हैं। एक गरोह कहता है कि ये पंच फ़ैसला करने का इख़्तियार नहीं रखते। अलबत्ता मामला हल करने की जो सूरत उनके नज़दीक मुनासिब हो उनके लिए सिफ़ारिश कर सकते हैं। मानना या न मानना मियाँ-बीवी के इख़्तियार में है। हाँ, अगर मियाँ-बीवी ने उनको तलाक़ या ख़ुला या किसी और बात का फ़ैसला कर देने के लिए अपना वकील बनाया हो तो ऐसी सूरत में उनका फ़ैसला मानना उनके लिए ज़रूरी होगा। यह हनफ़ी और शाफ़िई आलिमों का मसलक है। दूसरे गरोह के नज़दीक दोनों पंचों को मेल-मिलाप का फ़ैसला करने का हक़ है, मगर जुदाई का फ़ैसला नहीं कर सकते। यह हसन बसरी (रह०) और क़तादा और कुछ दूसरे फ़ुक़हा का बयान है। एक और गरोह इस बात का क़ायल है कि इन पंचों को मिलाने और जुदा कर देने के पूरे इख़्तियारात हासिल हैं। इब्ने-अब्बास, सईद-बिन-जुबैर, इबराहीम नख़ई, शअबी, मुहम्मद-बिन-सीरीन और दूसरे आलिमों ने इसी राय को अपनाया है। हज़रत उस्मान और हज़रत अली (रज़ि०) के फ़ैसलों की जो नज़ीरें हम तक पहुँची हैं उनसे मालूम होता है कि ये दोनों बुज़ुर्ग पंच मुक़र्रर करते हुए अदालत की तरफ़ से उनको फ़ैसले के इख़्तियारात दे देते थे। चुनाँचे हज़रत अक़ील-बिन-अबी-तालिब और उनकी बीवी फ़ातिमा बिन्ते-उत्बा-बिन-रबीआ का मुक़द्दमा जब हज़रत उस्मान (रज़ि०) की अदालत में पेश हुआ तो उन्होंने शौहर के ख़ानदान में से हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) को और बीवी के ख़ानदान में से हज़रत मुआविया-बिन-अबी-सुफ़ियान को पंच मुक़र्रर किया और उनसे कहा कि अगर आप दोनों की राय में इन दोनों के बीच जुदाई कर देना ही मुनासिब हो तो जुदाई कर दें। इसी तरह एक मुक़द्दमे में हज़रत अली (रज़ि०) ने पंच मुक़र्रर किए और उनको इख़्तियार दिया कि चाहें इनको मिला दें और चाहें अलग कर दें। इससे मालूम हुआ कि पंच अपने तौर पर तो फ़ैसले का इख़्तियार नहीं रखते, अलबत्ता अगर अदालत उनको मुक़र्रर करते वक़्त उन्हें इख़्तियार दे दे तो फिर उनका फ़ैसला एक अदालती फ़ैसले की तरह लागू होगा।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا ۝ 33
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को साझी साथ बनाओ, माँ-बाप के साथ अच्छे बर्ताव करो, नातेदारों और यतीमों और मुहताजों के अच्छा सुलूक करो और पड़ोसी रिश्तेदार से, अजनबी पड़ोसी से, पहलू के साथी62 और मुसाफ़िर से, और उन लौंडी-ग़ुलामों से जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों, एहसान का मामला रखो। यक़ीन जानो अल्लाह किसी ऐसे शख़्स को पसन्द नहीं करता जो अपने घमंड में चूर हो और डीगें मारने वाला हो और अपनी बड़ाई पर फ़ख़्र करे।
62. अस्ल अरबी में 'अस्साहिब-बिलजम्ब' कहा गया है, जिससे मुराद हर वक़्त साथ उठने-बैठनेवाला दोस्त भी है और ऐसा आदमी भी जिससे कहीं किसी वक़्त आदमी का साथ हो जाए। मिसाल के तौर पर आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई आदमी आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा ख़रीद रहे हों और कोई दूसरा ख़रीदार भी आपके पास बैठा हो या सफ़र के दौरान में कोई आदमी आपका हमसफ़र हो। यह वक़्ती साथी भी हर मुहज़्ज़ब और शरीफ़ इनसान पर एक हक़ डालता है जिसका तक़ाज़ा यह है कि वह जहाँ तक मुमकिन हो उसके साथ अच्छाई का बर्ताव करे और उसे तकलीफ़ देने से बचे।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِ وَيَكۡتُمُونَ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 34
(37) और ऐसे लोग भी अल्लाह को पसन्द नहीं हैं जो कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी पर उभारते हैं और जो कुछ अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं।63 नेमत के ऐसे नाशुक्रों के लिए हमने रुसवा कर देनेवाला अज़ाब तैयार कर रखा है।
63. अल्लाह की मेहरबानी को छिपाना यह है कि आदमी इस तरह रहे कि मानो अल्लाह ने उस पर मेहरबानी नहीं की है। मिसाल के तौर पर किसी को अल्लाह ने दौलत दी हो और वह अपनी हैसियत से गिरकर रहे। न अपने ऊपर और न अपने बीवी-बच्चों पर ख़र्च करे, न अल्लाह के बन्दों की मदद करे और न नेक कामों में हिस्सा ले। लोग देखें तो समझें कि बेचारा बड़ा ही फटे-हाल है। यह अस्ल में अल्लाह की सख़्त नाशुक्री है। हदीस में आया है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अल्लाह जब किसी बन्दे को नेमत देता है तो वह पसन्द करता है कि उस नेमत का असर बन्दे पर ज़ाहिर हो।” यानी उसके खाने-पीने, रहने-सहने, कपड़ा और मकान और उसके नेक कामों में देने हर चीज़ से अल्लाह की दी हुई उस नेमत का इज़हार होता रहे।
وَٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ وَمَن يَكُنِ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَهُۥ قَرِينٗا فَسَآءَ قَرِينٗا ۝ 35
(38) और वे लोग भी अल्लाह को नापसन्द हैं जो अपने माल सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते हैं और हक़ीक़त में न अल्लाह पर ईमान रखते हैं, न आख़िरत के दिन पर। सच यह है कि शैतान जिसका साथी हुआ उसे बहुत ही बुरा साथ मिला।
وَمَاذَا عَلَيۡهِمۡ لَوۡ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِهِمۡ عَلِيمًا ۝ 36
(39) आख़िर इन लोगों पर क्या आफ़त आ जाती अगर ये अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते और जो कुछ अल्लाह ने दिया है उसमें से ख़र्च करते। अगर ये ऐसा करते तो अल्लाह से इनकी नेकी का हाल छिपा न रह जाता।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖۖ وَإِن تَكُ حَسَنَةٗ يُضَٰعِفۡهَا وَيُؤۡتِ مِن لَّدُنۡهُ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 37
(40) अल्लाह किसी पर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं करता। अगर कोई एक नेकी करे तो अल्लाह उसे दोगुना कर देता है और फिर अपनी तरफ़ से बड़ा बदला देता है।
فَكَيۡفَ إِذَا جِئۡنَا مِن كُلِّ أُمَّةِۭ بِشَهِيدٖ وَجِئۡنَا بِكَ عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ شَهِيدٗا ۝ 38
(41) फिर सोचो कि उस वक़्त ये क्या करेंगे जब हम हर उम्मत में से एक गवाह लाएँगे और इन लोगों पर तुम्हें (यानी मुहम्मद सल्ल०को) गवाह की हैसियत से खड़ा करेंगे।64
64. यानी हर दौर का पैग़म्बर अपने दौर के लोगों पर अल्लाह की अदालत में गवाही देगा कि ज़िन्दगी का वह सीधा रास्ता और फ़िक्र व अमल का वह सही तरीक़ा, जिसकी तालीम आपने मुझे दी थी उसे मैंने इन लोगों तक पहुँचा दिया था। फिर यही गवाही मुहम्मद (सल्ल०) अपने दौर के लोगों पर देंगे और क़ुरआन से मालूम होता है कि आप (सल्ल०) का दौर आप को नबी बनाए जाने के वक़्त से लेकर क़ियामत तक है। (देखें सूरा-3, आले-इमरान, हाशिया-69)
يَوۡمَئِذٖ يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَعَصَوُاْ ٱلرَّسُولَ لَوۡ تُسَوَّىٰ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضُ وَلَا يَكۡتُمُونَ ٱللَّهَ حَدِيثٗا ۝ 39
(42) उस वक़्त वे सब लोग जिन्होंने रसूल की बात न मानी और उसकी नाफ़रमानी करते रहे, तमन्ना करेंगे कि काश! ज़मीन फट जाए और वे उसमें समा जाएँ। वहाँ ये अपनी कोई बात अल्लाह से छिपा न सकेंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا ۝ 40
(43) ऐ, लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब65 न जाओ। नमाज़ उस वक़्त पढ़नी चाहिए जब तुम जानो कि क्या कर रहे हो66 और इसी तरह नापाकी67 की हालत में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि गुस्ल न कर लो, यह और बात है कि रास्ते से गुज़रते हो68 और अगर कभी ऐसा हो कि बीमार हो या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शख़्स ज़रूरत पूरी (पाख़ाना-पेशाब) करके आए या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो69 और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से तुम काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो (हाथ फेर लो)।70 बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और माफ़ करनेवाला है।
65. यह शराब के बारे में दूसरा हुक्म है। पहला हुक्म यह था जो सूरा-2 अल-बक़रा की आयत-219 में आ चुका है। उसमें सिर्फ़ यह ज़ाहिर करके छोड़ दिया गया था कि शराब बुरी चीज़ है, अल्लाह को पसन्द नहीं है। चुनाँचे मुसलमानों में से एक गरोह उसके बाद ही शराब से बचने लगा था। मगर बहुत से लोग इसे पहले ही की तरह इस्तेमाल करते रहे थे, यहाँ तक कि कभी कभार नशे की हालत ही में नमाज़ पढ़ने खड़े हो जाते थे और कुछ का कुछ पढ़ जाते थे। शायद सन् चार हिजरी के शुरू में यह दूसरा हुक्म आया और नशे में नमाज़ पढ़ने से रोक दिया गया। इसका असर यह हुआ कि लोगों ने अपने शराब पीने के वक़्त बदल दिए और ऐसे वक़्तों में शराब पीनी छोड़ दी जिनमें यह डर होता कि कहीं नशे ही की हालत में नमाज़ का वक़्त न आ जाए। इसके कुछ दिनों बाद शराब के बिलकुल ही हराम किए जाने का हुक्म आया जो सूरा-5 अल-माइदा की आयत-90 और 91 में है। यहाँ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि आयत में अरबी शब्द 'सुकर’ आया है जिसके मानी नशे के हैं। इसलिए यह हुक्म सिर्फ़ शराब के लिए ख़ास नहीं था, बल्कि हर नशीली चीज़ के लिए आम था और अब भी इसका हुक्म बाक़ी है। हालाँकि नशीली चीज़ों का इस्तेमाल अपने आप में हराम है, लेकिन नशे की हालत में नमाज़ पढ़ना दोहरा और बहुत बड़ा गुनाह है।
66. इसी वजह से नबी (सल्ल०) ने हिदायत फ़रमाई है कि जब किसी आदमी पर नींद का ग़लबा हो रहा हो और वह नमाज़ पढ़ने में बार-बार ऊँघ जाता हो तो उसे नमाज़ छोड़कर सो जाना चाहिए। कुछ लोग इस आयत से यह नतीजा निकालते हैं कि जो आदमी नमाज़ में पढ़ी जानेवाली अरबी इबारतों का मतलब नहीं समझता उसकी नमाज़ नहीं होती। लेकिन यह उनकी नामुनासिब और ज़बरदस्ती की दलील तो है ही, ख़ुद क़ुरआन के अलफ़ाज़़ भी इसका साथ नहीं देते। क़ुरआन में 'हत्ता तफ़क़हू' या 'हत्ता तफ़हमू मा तक़ूलून' (यहाँ तक कि तुम समझ लो कि क्या कह रहे हो) नहीं फ़रमाया है, बल्कि “हत्ता तअ-लमु मा तक़ूलून” (जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो।) कहा है, यानी नमाज़ में आदमी को इतना होश रहना चाहिए कि वह क्या चीज़ अपनी ज़बान से अदा कर रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा तो हो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल।
67. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'जुनुबन' इस्तेमाल हुआ है और 'जुनुबन' से बना लफ़्ज़ 'जनाबत'। 'जनाबत' के मानी दूरी और परायापन है। इसी से लफ़्ज़ अजनबी निकला है। इस्लामी शरीअत की इस्तिलाह (परिभाषा) में 'जनाबत' से मुराद वह नापाकी (गन्दगी) है जो शहवानी ज़रूरत पूरी करने के बाद या (किसी और तरीक़े के नतीजे में या) ख़ाब में वीर्य निकल जाने से होती है, क्योंकि शरीअत की नजर में ऐसा आदमी पाकी से दूर और बेगाना होता है, इसी लिए ऐसी हालत को जनाबत कहा जाता है।
68. फ़ुक़हा और क़ुरआन के मुफ़स्सिरों में से एक गरोह ने इस आयत का मतलब यह समझा है कि जनाबत (नापाकी) की हालत में मस्जिद में नहीं जाना चाहिए, यह और बात है कि किसी मस्जिद से गुज़रना हो। इसी राय को माननेवालों में अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद, अनस-बिन-मालिक, हसन बसरी और इबराहीम नख़ई वग़ैरा हैं। दूसरा गरोह इससे सफ़र मुराद लेता है। यानी अगर आदमी सफ़र की हालत में हो और नापाक (जनाबत की हालत में) हो जाए तो तयम्मुम किया जा सकता है। रहा मस्जिद का मामला तो इस गरोह की राय में नापाक (जुनबी) आदमी के लिए वुज़ू करके मस्जिद में बैठना जाइज़ है। यह राय हज़रत अली, इब्ने-अब्बास, सईद-बिन-जुबैर और कुछ दूसरे लोगों ने अपनाई है। हालाँकि इस मामले में लगभग सभी का इत्तिफ़ाक़ है कि अगर आदमी सफ़र की हालत में हो और नापाक हो जाए और नहाना मुमकिन न हो तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन पहला गरोह इस मसले को हदीस से लेता है और दूसरा गरोह इस रिवायत की बुनियाद क़ुरआन की ऊपर लिखी इस आयत पर रखता है।
69. अस्ल अरबी आयत में जुमला 'औलामस्तुमुन्निसा-अ' इस्तेमाल हुआ है इसका हिन्दी तर्जमा 'तुमने औरतों को हाथ लगाया हो' किया गया है। इस मामले में इख़्तिलाफ़ है कि 'लम्स' यानी हाथ लगाने से क्या मुराद है। हज़रत अली, इब्ने-अब्बास, अबू-मूसा अशअरी, उबई-बिन-कअब, सईद-बिन-जुबैर, हसन बसरी और कई दूसरे इमामों की राय यह है कि इस से मुराद मुबाशरत (सहवास Sexual intercourse) है और यही राय इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके साथियों और इमाम सुफ़ियान सौरी की है। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत अब्दुल्लाह-इब्ने-मसऊद, अब्दुल्लाह-इब्ने-उमर की राय है और कुछ रिवायतों से मालूम होता है कि हज़रत उमर-इब्ने-ख़त्ताब की भी यही राय है कि इससे मुराद छूना या हाथ लगाना है और इसी राय को इमाम शाफ़िई (रह०) ने अपनाया है। कुछ इमामों ने बीच की राह भी इख़्तियार की है। जैसे, इमाम मालिक (रह०) की राय है कि अगर औरत या मर्द एक-दूसरे को शहवानी जज़बात (काम-वासना) के साथ हाथ लगाएँ तो उनका वुज़ू खत्म हो जाएगा और नमाज़ के लिए उन्हें नया वुज़ू करना होगा, लेकिन अगर शहवानी जज़बात के बग़ैर एक का जिस्म दूसरे से छू जाए तो इसमें कोई हरज नहीं।
70. हुक्म की तफ़सीली सूरत यह है कि अगर आदमी बे-वुज़ू है या उसे ग़ुस्ल की ज़रूरत है और पानी नहीं मिलता तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर मरीज़ है और ग़ुस्ल या वुज़ू करने से उसको नुक़सान का डर है तो पानी मौजूद होने के बावजूद तयम्मुम की इजाज़त से फ़ायदा उठा सकता है। तयम्मुम का मतलब इरादा करना है। मतलब यह है कि जब पानी न मिले या पानी हो और उसका इस्तेमाल मुमकिन न हो तो (पाकी हासिल करने के लिए) पाक मिट्टी का इरादा करो (यानी पाक मिट्टी से काम लो)। तयम्मुम के तरीक़े के बारे में फ़ुक़हा के दरमियान इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह के नज़दीक इसका तरीक़ा यह है कि एक बार मिट्टी पर हाथ मारकर मुँह पर फेर लिया जाए, फिर दूसरी बार हाथ मारकर कुहनियों तक हाथों पर फेर लिया जाए। इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम शाफ़िई, इमाम मालिक और ज़्यादातर फ़ुक़हा इसी तरीक़े को मानते हैं और सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन में से हज़रत अली, अब्दुल्लाह-बिन-उमर, हसन बसरी, शअबी और सालिम-बिन-अब्दुल्लाह वग़ैरा इसी तरीक़े के क़ायल थे। दूसरे गरोह के नज़दीक मिट्टी पर एक बार ही हाथ मारना काफ़ी है। वही हाथ मुँह पर भी फेर लिया जाए और उसी को कलाई तक हाथों पर भी फेर लिया जाए। कुहनियों तक मसह करने यानी हाथ फेरने की ज़रूरत नहीं। इसी तरीक़े को अता और मकहूल और औज़ाई और अहमद-बिन-हंबल (रह०) मानते हैं और आम तौर पर अहले-हदीस हज़रात भी इसी तरीक़े को मानते हैं। तयम्मुम के लिए ज़रूरी नहीं कि ज़मीन ही पर हाथ मारा जाए। इस मक़सद के लिए हर धूल से अटी चीज़ और हर चीज़ जिसमें ज़मीन के सूखे कण (अजज़ा) मौजूद हों काफ़ी है। लोग एतिराज़ करते हैं कि इस तरह मिट्टी पर हाथ मारकर मुँह और हाथों पर फेर लेने से आख़िर पाकी किस तरह हासिल हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त में यह आदमी के अन्दर पाकी का एहसास और नमाज़ का एहतिराम क़ायम रखने के लिए एक अहम नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) तदबीर है। इससे फ़ायदा यह है कि आदमी चाहे कितनी ही मुद्दत तक पानी के इस्तेमाल पर क़ुदरत न रखता हो बहरहाल उसके अन्दर पाकी का एहसास बाक़ी रहेगा, पाकी के जो क़ानून शरीअत में मुक़र्रर कर दिए गए हैं उनकी पाबन्दी वह बराबर करता रहेगा और उसके मन से नमाज़ के क़ाबिल होने की हालत और नमाज़ के क़ाबिल न होने की हालत का फ़र्क़ कभी मिट न सकेगा।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يَشۡتَرُونَ ٱلضَّلَٰلَةَ وَيُرِيدُونَ أَن تَضِلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 41
(44) तुमने उन लोगों को भी देखा जिन्हें किताब के इल्म का कुछ हिस्सा दिया गया है?71 वे ख़ुद गुमराही के ख़रीदार बने हुए हैं और चाहते हैं कि तुम भी गुमराह हो जाओ।
71. अहले-किताब के आलिमों के बारे में क़ुरआन ने अकसर ये लफ़्ज़ इस्तेमाल किए हैं कि इन्हें किताब के इल्म का कुछ हिस्सा दिया गया है।” इसकी वजह यह है कि एक तो उन्होंने अल्लाह की किताब का एक हिस्सा गुम कर दिया था। फिर जो कुछ अल्लाह की किताब में से उनके पास मौजूद था उसकी रूह और उसके मक़सद से भी वे बेगाना हो चुके थे। उनकी तमान दिलचस्पियाँ लफ़्ज़ी बहसों और अहकाम की छोटी-छोटी बातों और अक़ीदों की फ़लसफ़ियाना (दार्शनिक) पेचीदगियों तक महदूद थीं। यही वजह थी कि वे दीन की हक़ीक़त से अनजान और दीनदारी के जौहर से ख़ाली थे। हालाँकि वे दीन के आलिम और मिल्लत के रहनुमा व पेशवा कहे जाते थे।
وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِأَعۡدَآئِكُمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَلِيّٗا وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ نَصِيرٗا ۝ 42
(45) अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों को ख़ूब जानता है और तुम्हारी हिमायत व मददगारी के लिए अल्लाह ही काफ़ी है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 43
(46) जो लोग यहूदी बन गए कुछ हैं72 उनमें कुछ लोग हैं जो लफ़्ज़ों को उनकी जगह से फेर देते हैं73 और दीने-हक़ के ख़िलाफ़ चोट करने के लिए अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़कर कहते हैं, 'समिअना व असैना'74 (हमने सुना, लेकिन हम मानते नहीं) और 'इस्मअ ग़ैर-मुस्मइन’75 (सुनिए, आप ऐसे नहीं कि कोई सुनाए) और ‘राअइना'76 (हमारी रिआयत करो), हालाँकि अगर वे कहते ‘समिअना व अतअना' (हमने सुना और माना) और 'इस्मअ' (सुनिए) और ‘उनज़ुरना' (हमारी तरफ़ ध्यान दें) तो यह उन्हीं के लिए बेहतर था और ज़्यादा सच्चाई का तरीक़ा था, मगर उनपर तो उनकी बातिल-परस्ती (असत्यवादिता) की वजह से अल्लाह की फिटकार हुई है, इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
72. यह नहीं कहा कि 'यहूदी हैं’ बल्कि यह कहा कि 'यहूदी बन गए हैं'। क्योंकि शुरू में तो वे भी मुसलमान ही थे, जिस तरह हर नबी की उम्मत अस्ल में मुसलमान होती है, मगर बाद में सिर्फ़ यहूदी बनकर रह गए।
73. इसके तीन मतलब हैं। एक यह कि अल्लाह की किताब के अलफ़ाज़ में फेर-बदल करते हैं। दूसरे यह कि अपनी तावीलों (मनमानी व्याख्या) से किताब की आयतों के मतलब कुछ से कुछ बना देते हैं। तीसरे यह कि ये लोग मुहम्मद (सल्ल०) और आपके माननेवालों की मजलिसों में आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने ग़लत तरीक़े से बयान करते हैं। बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी शरारत से कुछ का कुछ बनाकर लोगों में मशहूर करते हैं, ताकि उन्हें बदनाम किया जाए और उनके बारे में ग़लतफ़हमियाँ फैलाकर लोगों को इस्लामी जमाअत की तरफ़ आने से रोका जाए।
74. यानी जब उन्हें ख़ुदा के अहकाम सुनाए जाते हैं तो ज़ोर से कहते हैं 'समिअना' (हमने सुन लिया) और धीरे से कहते हैं 'असैना' (हमने क़ुबूल नहीं किया)। या 'अतअना' (हमने क़ुबूल किया) को इस अन्दाज़ से ज़बान को लचका देकर अदा करते हैं कि 'असैना' (हमने क़ुबूल नहीं किया) बन जाता है।
75. यानी बातचीत के दौरान में जब वे कोई बात मुहम्मद (सल्ल०) से कहना चाहते हैं तो कहते हैं 'इस्मअ' (सुनिए) और फिर साथ ही ‘ग़ै-र मुस्मइन' भी कहते हैं, जिसके दो मतलब हैं। इसका एक मतलब यह है कि आप ऐसे मुहतरम हैं कि आपको कोई बात मरज़ी के ख़िलाफ़ नहीं सुनाई जा सकती। दूसरा मतलब यह है कि तुम इस क़ाबिल नहीं हो कि तुम्हें कोई कुछ सुनाए। एक और मतलब यह है कि ख़ुदा करे तुम बहरे हो जाओ।
76. इसकी तशरीह (व्याख्या) के लिए देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-108 ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ ءَامِنُواْ بِمَا نَزَّلۡنَا مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُم مِّن قَبۡلِ أَن نَّطۡمِسَ وُجُوهٗا فَنَرُدَّهَا عَلَىٰٓ أَدۡبَارِهَآ أَوۡ نَلۡعَنَهُمۡ كَمَا لَعَنَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلسَّبۡتِۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولًا ۝ 44
(47) ऐ वे लोगो जिन्हें किताब दी गई थी, मान लो उस किताब को जो हमने अब उतारी है और जो उस किताब की तसदीक़ और ताईद करती है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी।77 इसपर ईमान ले आओ इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें या उनको उसी तरह फिटकारा हुआ कर दें जिस तरह सब्त (सनीचर) वालों के साथ हमने किया था,78 और याद रखो कि अल्लाह का हुक्म लागू होकर रहता है।
77. तशरीह के लिए देखें सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-2।
78. देखें सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी-82 और 83।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفۡتَرَىٰٓ إِثۡمًا عَظِيمًا ۝ 45
(48) अल्लाह बस शिर्क (साथी/बनाने) ही को माफ़ नहीं करता79 इसके सिवा दूसरे जितने गुनाह हैं, वह जिसके लिए चाहता है माफ़ कर देता है।80 अल्लाह के साथ जिसने किसी और को साझी ठहराया उसने तो बहुत ही बड़ा झूठ रचा और बड़े सख़्त गुनाह की बात की।
79. यह इसलिए कहा कि अहले-किताब हालाँकि नबियों और आसमानी किताबों की पैरवी के दावेदार थे मगर शिर्क में पड़ गए थे।
80. इसका मतलब यह नहीं है कि आदमी बस शिर्क न करे बाक़ी दूसरे गुनाह दिल खोलकर करता रहे; बल्कि अस्ल में इसका मक़सद यह बात ज़ेहन में बिठाना है कि शिर्क, जिसको इन लोगों ने बहुत मामूली चीज़ समझ रखा था, तमाम गुनाहों से बड़ा गुनाह है। यहाँ तक कि और गुनाहों की माफ़ी तो मुमकिन है, मगर यह ऐसा गुनाह है कि माफ़ नहीं किया जा सकता। यहूदी आलिम शरीअत के छोटे-छोटे अहकाम का तो बड़ा ख़याल रखते थे, बल्कि उनका सारा वक़्त उन्हीं छोटी-छोटी बातों की नाप-तौल ही में गुज़रता था जो उनके फ़क़ीहों ने ज़बरदस्ती खोज खोजकर निकाले थे, मगर शिर्क उनकी निगाह में ऐसा हल्का काम था कि न ख़ुद उससे बचने की फ़िक्र करते थे, न अपनी क़ौम को इन मुशरिकाना ख़याल और कामों से बचाने की कोशिश करते और न मुशरिकों की दोस्ती और हिमायत ही में उन्हें कोई हरज नज़र आता था।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنفُسَهُمۚ بَلِ ٱللَّهُ يُزَكِّي مَن يَشَآءُ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 46
(49) तुमने उन लोगों को भी देखा जो अपने नफ़्स की पाकीज़गी का बहुत दम भरते हैं? हालाँकि पाकीज़गी (पवित्रता) तो अल्लाह ही जिसे चाहता है अता करता है। और (इन्हें जो पाकीज़गी नहीं मिलती तो हक़ीक़त में) इनपर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं किया जाता।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَكَفَىٰ بِهِۦٓ إِثۡمٗا مُّبِينًا ۝ 47
(50) देखो तो सही, ये अल्लाह पर भी झूठा इलज़ाम गढ़ने से नहीं चूकते और इनके खुले गुनाहगार होने के लिए यही एक गुनाह काफ़ी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا ۝ 48
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया है और उनका हाल यह है कि जिब्त81और ताग़ूत82 को मानते हैं और (हक़ का) इनकार करनेवालों के बारे में कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं।83
81. अरबी लफ़्ज़ 'जिब्त' के असली मानी बेहक़ीक़त, बेअस्ल और बेफ़ायदा चीज़ के हैं। इस्लाम की ज़बान में जादू, कहानत (ज्योतिष), फ़ालगीरी, टोने-टोटके, शगुन, मुहूर्त और तमाम दूसरे अन्धविश्वास की ख़याली बातों को जिब्त कहा गया है। चुनाँचे हदीस में आया है कि जानवरों की आवाज़ों से फ़ाल लेना, ज़मीन पर जानवरों के क़दमों के निशानों से शगुन निकालना और फ़ालगीरी के दूसरे तरीक़े सब जिब्त की क़िस्म ही के काम हैं। तो जिब्त का मतलब वही है जिसे हम उर्दू-हिन्दी में औहाम या अन्धविश्वास कहते हैं और जिसके लिए अंग्रेजी में Superstitions का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है।
82. तशरीह के लिए देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-286 और 288।
83. यहूदी आलिमों की हठधर्मी यहाँ तक पहुँच गई थी कि जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाए थे उनको वे अरब के मुशरिकों के मुक़ाबले में ज़्यादा गुमराह बताते थे और कहते थे कि उनसे तो ये मुशरिक ही ज़्यादा सीधे रास्ते पर हैं। हालाँकि वे साफ़ तौर पर देख रहे थे कि एक तरफ़ तो ख़ालिस तौहीद (विशुद्ध एकेश्वरवाद) है, जिसमें शिर्क का निशान तक नहीं और दूसरी तरफ़ खुली बुतपरस्ती है जिसको पूरी बाइबिल में बुराई कहा गया है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَمَن يَلۡعَنِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ نَصِيرًا ۝ 49
(52) ऐसे ही लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की है और जिसपर अल्लाह लानत कर दे फिर तुम उसका कोई मददगार नहीं पाओगे।
أَمۡ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُلۡكِ فَإِذٗا لَّا يُؤۡتُونَ ٱلنَّاسَ نَقِيرًا ۝ 50
(53) क्या हुकूमत में उनका कोई हिस्सा है? अगर ऐसा होता तो ये दूसरों को एक फूटी कौड़ी तक न देते।84
84. यानी क्या ख़ुदा की हुकूमत का कोई हिस्सा इनके क़ब्ज़े में है कि ये फ़ैसला करने चले हैं कि कौन सीधे रास्ते पर है और कौन नहीं? अगर ऐसा होता तो इनके हाथों दूसरों को एक फूटी कौड़ी भी न मिलती। क्योंकि इनके दिल तो इतने छोटे हैं कि ये हक़ को तसलीम तक नहीं कर सकते। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि क्या इनके पास किसी देश की हुकूमत है कि उसमें दूसरे लोग हिस्सा बटाना चाहते हैं और ये उन्हें इसमें से कुछ नहीं देना चाहते? यहाँ तो सिर्फ़ हक़ को तसलीम करने का सवाल सामने है और इसमें भी ये कंजूसी से काम ले रहे हैं।
أَمۡ يَحۡسُدُونَ ٱلنَّاسَ عَلَىٰ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۖ فَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ ءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَءَاتَيۡنَٰهُم مُّلۡكًا عَظِيمٗا ۝ 51
(54) फिर क्या ये दूसरों से इसलिए जलन रखते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से नवाज़ दिया है।85 अगर यह बात है तो उन्हें मालूम हो कि हमने तो इबराहीम की औलाद को किताब और हिकमत (सूझ-बूझ) दी और मुल्के-अज़ीम (महान राज्य) बख़्श दिया86
85. यानी ये अपनी नालायक़ी के बावजूद अल्लाह के जिस फ़ज़्ल और जिस इनाम की आस ख़ुद लगाए बैठे थे, उसे जब दूसरे लोगों को दे दिया गया और अरब के उम्मियों (अनपढ़ों) में एक अज़ीमुश्शान नबी के आने से वह रूहानी (आध्यात्मिक) व अख़लाक़ी और ज़ेहनी व अमली ज़िन्दगी पैदा हो गई जिसका लाज़िमी नतीजा तरक्क़ी और सरबुलन्दी है तो अब ये उस पर जल रहे हैं और ये बातें इसी जलन की वजह से उनके मुँह से निकल रही हैं।
86. 'मुल्के-अजीम' (महान राज्य) से मुराद दुनिया की इमामत व रहनुमाई और पूरी दुनिया की क़ौमों पर क़ाइदाना इक़तिदार है जो अल्लाह की किताब का इल्म पाने और इस इल्म व हिकमत (तत्त्वदर्शिता) के मुताबिक़ अमल करने से लाज़िमी तौर पर हासिल होता है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 52
(58) मुसलमानो! अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें अमानतवालों के सिपुर्द करो और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो तो इनसाफ़ के साथ करो, 88 अल्लाह तुमको निहायत अच्छी नसीहत करता है और यक़ीनन अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
88. यानी तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें बनी-इसराईल पड़ गए हैं। बनी-इसराईल की बुनियादी ग़लतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने ज़वाल (पतन) के ज़माने में अमानतें, यानी ज़िम्मेदारी के मनसब और मज़हबी पेशवाई और क़ौमी सरदारी के मर्तबे (Position of Trust) ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो इसके लायक़ नहीं थे और नालायक़, ओछे, बदअख़लाक़ व बेईमान और बदकार थे। नतीजा यह हुआ कि बुरे लोगों की रहनुमाई में सारी क़ौम ख़राब होती चली गई। मुसलमानों को हिदायत की जा रही है कि तुम ऐसा न करना बल्कि अमानतें उन लोगों के सिपुर्द करना जो उनके लायक़ (योग्य) हों, यानी जिनमें अमानत का भार उठाने की सलाहियत हो। बनी-इसराईल की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे इनसाफ़ की रूह से ख़ाली हो गए थे। वे निजी और क़ौमी फ़ायदों के लिए बेझिझक ईमान निगल जाते थे। खुली हठधर्मी बरत जाते थे। इनसाफ़ के गले पर छुरी फेरने में उन्हें ज़रा भी झिझक नहीं होती थी। उनकी बेइनसाफ़ी का सबसे कड़वा तजरिबा उस ज़माने में ख़ुद मुसलमानों को हो रहा था। एक तरफ़ उनके सामने अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) और उन पर ईमान लोनेवालों की पाकीज़ा ज़िन्दगियाँ थीं। दूसरी तरफ़ वे लोग थे जो बुतों को पूज रहे थे, बेटियों को ज़िन्दा गाड़ते थे, सौतेली माँओं तक से निकाह कर लेते थे और काबा के चारों तरफ़ बिलकुल नंगे होकर तवाफ़ करते थे। ये सिर्फ़ नाम के किताबवाले इनमें से दूसरे गरोह को पहले गरोह पर तरजीह (प्राथमिकता) देते थे और उनको यह कहते हुए ज़रा शर्म न आती थी कि पहले गरोह के मुक़ाबले में यह दूसरा गरोह ज़्यादा सही रास्ते पर है। अल्लाह उनकी इस बेइनसाफ़ी पर ख़बरदार करने के बाद अब मुसलमानों को हिदायत करता है कि तुम कहीं ऐसे बेइनसाफ़ न बन जाना। चाहे किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, बहरहाल बात जब कहो इनसाफ़ की कहो और फ़ैसला जब करो इनसाफ़ के साथ करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا ۝ 53
(59 ) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बात मानो अल्लाह की और बात मानो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से हुक्म देने का अधिकार रखते हों। फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो।89 अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। काम करने का यही एक सही तरीक़ा है और अंजाम के लिहाज़ से भी बेहतर है।90
89. यह आयत इस्लाम के पूरे मज़हबी, समाजी, तमद्दुनी (सांस्कृतिक) और सियासी निज़ाम की बुनियाद और इस्लामी हुकूमत के दस्तूर की सबसे पहली दफ़ा है। इसमें नीचे लिखे चार उसूल मुस्तक़िल तौर पर (स्थायी रूप से) बयान कर दिए गए हैं– (1) इस्लामी निज़ाम में अस्ल इताअत अल्लाह की है। एक मुसलमान सबसे पहले अल्लाह का बन्दा है, बाक़ी जो कुछ भी है उसके बाद है। मुसलमान की इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) ज़िन्दगी और मुसलमानों के समाजी निज़ाम दोनों का मर्कज़ और धुरी अल्लाह की फ़रमाँबरदारी और वफ़ादारी है। दूसरी फ़रमाँबरदारियाँ और वफ़ादारियाँ सिर्फ़ इस सूरत में क़ुबूल की जाएँगी कि वे ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी और वफ़ादारी के ख़िलाफ़ न हों, बल्कि उसके तहत और उसकी फ़रमाँबरदारी के अन्दर रहते हुए हों। वरना फ़रमाँबरदारी का वह फन्दा तोड़कर फेंक दिया जाएगा जो इस अस्ली और बुनियादी फ़रमाँबरदारी के ख़िलाफ़ हो। यही बात है जिसे नबी (सल्ल०) ने इस तरह बयान किया है कि “ख़ालिक़ (स्रष्टा) की नाफ़रमानी में किसी मख़लूक़ के लिए कोई इताअत नहीं है”। (2) इस्लामी निज़ाम की दूसरी बुनियाद रसूल की इताअत है। यह अपने आप में कोई मुस्तक़िल (स्थायी) इताअत नहीं है, बल्कि अल्लाह ही की इताअत की एक अमली सूरत है। रसूल की इताअत इसलिए ज़रूरी है कि वही एक भरोसेमन्द ज़रिआ है जिससे हम तक ख़ुदा के हुक्म और फ़रमान पहुँचते हैं। हम ख़ुदा की इताअत सिर्फ़ इसी तरीक़े से कर सकते हैं कि रसूल की इताअत करें। ख़ुदा की कोई फ़रमाँबरदारी सही मानों में उस वक़्त तक नहीं कही जा सकती जब तक रसूल के ज़रिए से साबित न हो। और रसूल की पैरवी से मुँह मोड़ना ख़ुदा के ख़िलाफ़ बग़ावत है। इसी बात को यह हदीस वाज़ेह करती है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा, “जिसने मेरी इताअत की उसने ख़ुदा की इताअत की और जिसने मेरी नाफ़रमानी की उसने ख़ुदा की नाफ़रमानी की।” और यही बात ख़ुद क़ुरआन में भी वाज़ेह तौर पर बयान की गई है जो आगे आ रही है। (3) ऊपर बयान की गई दोनों इताअतों के बाद और उनके मातहत तीसरी इताअत जो इस्लामी निज़ाम में मुसलमानों पर वाजिब है वह उन ' ज़िम्मेदारों' की इताअत है जो ख़ुद मुसलमानों में से हों। ‘उलुल-अम्र’ के मानी में वे सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के इज्तिमाई और समाजी मामलों के ज़िम्मेदार हों, चाहे वे ज़ेहनी और फ़िक्री रहनुमाई करनेवाले उलमा हों या सियासी रहनुमाई करनेवाले लीडर या मुल्की इन्तिज़ाम करनेवाले हाकिम या अदालती फ़ैसले करनेवाले जज, या तमद्दुनी (संस्कृतिक) और समाजी मामलों में क़बीलों और बस्तियों और मुहल्लों की सरबराही करनेवाले बुज़ुर्ग और सरदार। मक़सद यह कि जो जिस हैसियत से भी मुसलमानों के मामलों का ज़िम्मेदार है इस बात का हक़दार है कि उसकी बात मानी जाए। उसकी मुख़ालफ़त और उससे झगड़कर मुसलमानों की इज्तिमाई ज़िन्दगी में ख़लल डालना ठीक नहीं है। शर्त यह है कि वह ख़ुद मुसलमानों के गरोह में से हो और ख़ुदा और रसूल का फ़रमाँबरदार हो। ये दोनों शर्तें इस इताअत के लिए लाज़िमी शतें हैं और ये न सिर्फ़ इस आयत में साफ़ तौर पर दर्ज हैं, बल्कि हदीस में भी नबी (सल्ल०) ने इनको पूरी तफ़सील के साथ वाज़ेह तौर पर बयान कर दिया है। मिसाल के तौर पर नीचे ये हदीसें देखें, “मुसलमान को लाज़िम है कि अपने ‘ऊलुल-अम्र' (ज़िम्मेदार) की बात सुने और माने, चाहे उसे पसन्द हो या नापसन्द, उस वक़्त तक जब तक कि उसे अल्लाह की नाफ़रमानी का हुक्म न दिया जाए और जब उसे अल्लाह की नाफ़रमानी का हुक्म दिया जाए, तो फिर उसे न कुछ सुनना चाहिए और न मानना चाहिए।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) “ख़ुदा और रसूल की नाफ़रमानी में कोई इताअत नहीं है। इताअत जो कुछ भी है ‘मारूफ़’ यानी भलाई के कामों में है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : तुम पर ऐसे लोग भी हुकूमत करेंगे जिनकी कुछ बातों को तुम मारूफ़ यानी भली पाओगे और कुछ बातों को मुनकर यानी बुरी। तो जिसने उनकी बुरी बातों पर नाराज़ी ज़ाहिर की वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी हो गया और जिसने उनको नापसन्द किया वह भी बच गया। मगर जो उनपर राज़ी हुआ और पैरवी करने लगा उसकी पकड़ होगी। सहाबा (रज़ि०) ने पूछा कि फिर जब ऐसे हाकिमों का दौर आए तो क्या हम उनसे जंग न करें? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि नहीं, जब तक कि वे नमाज़ पढ़ते रहें। (हदीस : मुस्लिम) यानी नमाज़ का छोड़ना वह अलामत होगी जिससे साफ़ तौर पर मालूम हो जाएगा कि वे अल्लाह और रसूल की इताअत से बाहर हो गए हैं और फिर उनके ख़िलाफ़ जिद्दो-जुह्द करना सही होगा। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : तुम्हारे बदतरीन सरदार (हाकिम) वे हैं जो तुम्हारे लिए नापसन्दीदा हों और तुम उनके लिए नापसन्द हो। तुम उनपर लानत करो और वे तुमपर लानत करें। सहाबा (रज़ि०) ने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल! जब यह सूरत हो तो क्या हम उनके मुक़ाबले पर न उठे? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि नहीं, जब तक वे तुम्हारे बीच नमाज़ क़ायम करते रहें। नहीं, जब तक वे तुम्हारे बीच नमाज़ क़ायम करते रहें। (हदीस : मुस्लिम) इस हदीस में ऊपरवाली शर्त को और ज़्यादा वाज़ेह कर दिया गया है। ऊपर की हदीस से गुमान हो सकता था कि अगर वे अपनी निजी ज़िन्दगी में नमाज़ के पाबन्द हों तो उनके ख़िलाफ़ बग़ावत नहीं की जा सकती। लेकिन यह हदीस बताती है कि नमाज़ पढ़ने से मुराद अस्ल में मुसलमानों की जमाअती ज़िन्दगी में नमाज़ का निज़ाम क़ायम करना है। यानी सिर्फ़ यही काफ़ी नहीं है कि वे लोग ख़ुद नमाज़ के पाबन्द हों, बल्कि साथ ही यह भी ज़रूरी है कि उनके तहत हुकूमत का जो निज़ाम चल रहा हो वह कम-से-कम नमाज़ को क़ायम करने का इन्तिज़ाम करे। यह इस बात की पहचान होगी कि उनकी हुकूमत अपनी उसूली शक्ल के लिहाज़ से एक इस्लामी हुकूमत है। वरना अगर यह भी न हो तो फिर इसके मानी ये होंगे कि वह हुकूमत इस्लाम से फिर चुकी है और उसे उलट फेंकने की कोशिश करना मुसलमानों के लिए जाइज़ हो जाएगा। इसी बात को एक और रिवायत में इस तरह बयान किया गया है कि नबी (सल्ल०) ने हमसे और बातों के साथ-साथ इस बात का भी वादा लिया कि “हम अपने सरदारों और हाकिमों से झगड़ा नहीं करेंगे, सिवाय इसके कि हम उनके कामों में खुला-खुला कुफ़्र (ख़ुदा की नाफ़रमानी) देखें जिसकी मौजूदगी में उनके ख़िलाफ़ हमारे पास ख़ुदा के सामने पेश करने के लिए दलील मौजूद हो।” (हदीस : मुस्लिम, बुख़ारी) (4) चौथी बात जो इस आयत में एक मुस्तक़िल (स्थायी) और क़तई उसूल के तौर पर तय कर दी गई है, यह है कि इस्लामी निज़ाम में ख़ुदा का हुक्म और रसूल का तरीक़ा बुनियादी क़ानून और आख़िरी सनद (Final Authority) की हैसियत रखता है। मुसलमानों के बीच या हुकूमत जनता के बीच जिस मसले में भी इख़्तिलाफ़ होगा उसमें फ़ैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत की तरफ़ रूजू किया जाएगा और जो फ़ैसला वहाँ से हासिल होगा उसको सब तसलीम करेंगे। इस तरह ज़िन्दगी के तमाम मामलों में अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत को सनद (प्रमाण) तसलीम करना और इस बात को तसलीम करना कि सारे मामलों में उन्हीं की तरफ़ रुजू किया जाएगा और अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत को आख़िरी बात तसलीम करना इस्लामी निज़ाम की वह लाज़िमी ख़ुसूसियत है जो उसे ग़ैर-इस्लामी निज़ामे-ज़िन्दगी से अलग करती है। जिस निज़ाम में यह चीज़ न पाई जाए वह यकीनी तौर पर एक ग़ैर-इस्लामी निज़ाम है। इस मौक़े पर कुछ लोग यह शुब्हाा (सन्देह) ज़ाहिर करते हैं कि ज़िन्दगी के तमाम मामलों में फ़ैसले के लिए अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत की तरफ़ कैसे रुजू किया जा सकता है? जबकि म्युनिसपेलिटी, रेलवे और डाकख़ानों वग़ैरा के क़ानून-ज़ाब्ते और ऐसे ही बेशुमार मामलों के अहकाम वहाँ सिरे से मौजूद ही नहीं हैं। लेकिन हक़ीक़त में यह शुब्हाा दीन के उसूल को न समझने से पैदा होता है। मुसलमान को जो चीज़ ग़ैर-मुस्लिम से अलग करती है वह यह है कि ग़ैर-मुस्लिम पूरे तौर पर आज़ादी का दावेदार है और मुसलमान असूल में बन्दा होने के बाद सिर्फ़ उस दायरे में आज़ादी से फ़ायदा उठाता है जो उसके रब ने उसे दी है। ग़ैर-मुस्लिम अपने सारे मामलों का फ़ैसला ख़ुद अपने बनाए हुए उसूल, क़ानूनों और ज़ाब्तों के मुताबिक़ करता है और सिरे से किसी ख़ुदाई सनद का अपने आपको ज़रूरतमन्द समझता ही नहीं। इसके बरख़िलाफ़ मुसलमान अपने हर मामले में सबसे पहले ख़ुदा और उसके रसूल (सल्ल०) की तरफ़ रुजू करता है, फिर अगर वहाँ से कोई हुक्म मिले तो वह उसकी पैरवी करता है और अगर कोई हुक्म न मिले तो वह सिर्फ़ इसी सूरत में अमल में आज़ादी बरतता है। और उसकी अमल की यह आज़ादी इस दलील की बुनियाद पर होती है कि इस मामले में शरीअत का कोई हुक्म न देना उसकी तरफ़ से अमल की आज़ादी दिए जाने की दलील है।
90. क़ुरआन मजीद चूँकि सिर्फ़ क़ानून की किताब ही नहीं है, बल्कि यह सिखाने, हिदायत देने और उपदेश व नसीहत की किताब है, इसलिए पहले जुमले में जो क़ानूनी उसूल बयान किए गए थे, अब इस दूसरे जुमले में उनकी हिकमत और मस्लहत समझाई जा रही है। इसमें दो बातें बयान की गई हैं : एक यह कि ऊपर बयान किए गए चारों उसूलों की पैरवी करना ईमान का लाज़मी तक़ाज़ा है। मुसलमान होने का दावा और इन उसूलों से मुँह मोड़ना, ये दोनों चीज़ें एक जग जमा नहीं हो सकतीं। दूसरी यह कि इन उसूलों पर अपनी ज़िन्दगी के निज़ाम को तामीर करने ही में मुसलमानों की भलाई भी है। सिर्फ़ यही एक चीज़ उनको दुनिया में सीधे रास्ते पर क़ायम रख सकती है और इसी से उनकी आख़िरत भी संवर सकती है। यह नसीहत ठीक उस तक़रीर के ख़ात्मे पर बयान की गई है जिसमें यहूदियों की अख़लाक़ी व दीनी हालत पर तबसिरा किया जा रहा था। इस तरह एक निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) तरीक़े से मुसलमानों को ख़बरदार किया गया है कि तुमसे पिछली उम्मत दीन के इन बुनियादी उसूलों से मुँह मोड़कर जिस पस्ती में गिर चुकी है उससे सबक़ हासिल करो। जब कोई गरोह ख़ुदा की किताब और उसके रसूल की हिदायत को पीठ पीछे डाल देता है और ऐसे सरदारों और रहनुमाओं के पीछे लग जाता है जो ख़ुदा और रसूल के फ़रमाँबरदार न हों और अपने मज़हबी पेशवाओं और सियासी हाकिमों से ख़ुदा की किताब और रसूल की सुन्नत की सनद पूछे बग़ैर उनकी इताअत करने लगता है तो वह उन ख़राबियों में पड़ने से किसी तरह बच नहीं सकता जिनमें बनी-इसराईल पड़ गए थे।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يَزۡعُمُونَ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُوٓاْ إِلَى ٱلطَّٰغُوتِ وَقَدۡ أُمِرُوٓاْ أَن يَكۡفُرُواْ بِهِۦۖ وَيُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُضِلَّهُمۡ ضَلَٰلَۢا بَعِيدٗا ۝ 54
(60 ) ऐ नबी! तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हम ईमान लाए हैं उस किताब पर जो तुम्हारी तरफ़ उतारी गई है और उन किताबों पर जो तुमसे पहले उतारी गई थीं। मगर चाहते यह हैं कि अपने मामलों का फ़ैसला कराने के लिए ताग़ूत की तरफ़ जाएँ, हालाँकि उन्हें ताग़ूत से इनकार करने का हुक्म दिया गया था91 — शैतान उन्हें भटकाकर सीधे रास्ते से बहुत दूर ले जाना चाहता है।
91. यहाँ साफ़ तौर पर 'ताग़ूत' से मुराद वह हाकिम है जो अल्लाह के क़ानून के सिवा किसी दूसरे क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करता हो और अदालत का वह निज़ाम है जो न तो अल्लाह के इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) को तसलीम करता हो और न अल्लाह की किताब को आख़िरी सनद (Final Authority) मानता हो। इसलिए यह आयत इस मानी में बिलकुल साफ़ है कि जो अदालत 'ताग़ूत' की हैसियत रखती हो उसके पास अपने मामलों को फ़ैसले के लिए ले जाना ईमान के ख़िलाफ़ है और ख़ुदा और उसकी किताब पर ईमान लाने का लाज़िमी तकाज़ा यह है कि आदमी ऐसी अदालत को जाइज़ अदालत तसलीम करने से इनकार कर दे। क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह पर ईमान और ताग़ूत से इनकार दोनों एक-दूसरे के लिए लाज़िमी हैं और ख़ुदा और ताग़ूत दोनों के आगे एक ही वक़्त में झुकना खुली मुनाफ़क़त (कपटाचार) है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ رَأَيۡتَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودٗا ۝ 55
(61) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की तरफ़ जो अल्लाह ने उतारी है और आओ रसूल की तरफ़ तो इन मुनाफ़िक़ों को तुम देखते हो कि ये तुम्हारी तरफ़ आने से कतराते हैं।92
92. इससे मालूम होता है कि यह मुनाफ़िक़ों का आम रवैया था कि जिस मुक़द्दमे में उन्हें उम्मीद होती थी कि फ़ैसला उनके हक़ में होगा उसको तो नबी (सल्ल०) के पास ले आते थे, मगर जिस मुक़द्दमे में डर होता था कि फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ होगा उसको आप (सल्ल०) के पास लाने से इनक़ार कर देते थे। यही हाल अब भी बहुत-से मुनाफ़िक़ों का है कि अगर शरीअत का फ़ैसला उनके हक़ में हो तो सर आँखों पर, वरना हर उस क़ानून, हर उस रस्म व रिवाज और हर उस अदालत के दामन में जाकर पनाह लेंगे जिससे उन्हें अपनी मरज़ी के मुताबिक़ फ़ैसला हासिल होने की उम्मीद हो।
فَكَيۡفَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ جَآءُوكَ يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّآ إِحۡسَٰنٗا وَتَوۡفِيقًا ۝ 56
(62) फिर उस वक़्त क्या होता है जब इनके अपने हाथों की लाई हुई मुसीबत इन पर आ पड़ती है? उस वक़्त ये तुम्हारे पास क़समें खाते हुए आते हैं।93 और कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम, हम तो सिर्फ़ भलाई चाहते थे और हमारी नीयत तो यह थी कि दोनों गरोहों में किसी तरह मेल-मिलाप हो जाए।
93. शायद इससे मुराद यह है कि जब उनकी इस मुनाफ़िक़ाना हरकत का मुसलमानों को इल्म हो जाता है और उन्हें डर होता है कि अब पूछ-गछ होगी और सज़ा मिलेगी उस वक़्त क़समें खा-खाकर अपने ईमान का यक़ीन दिलाने लगते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَعِظۡهُمۡ وَقُل لَّهُمۡ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَوۡلَۢا بَلِيغٗا ۝ 57
(63) अल्लाह जानता है जो कुछ इनके दिलो में है, इन्हें जाने दो, इन्हें समझाओ और ऐसी नसीहत करो जो इनके दिलों में उतर जाए।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ إِذ ظَّلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ جَآءُوكَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡتَغۡفَرَ لَهُمُ ٱلرَّسُولُ لَوَجَدُواْ ٱللَّهَ تَوَّابٗا رَّحِيمٗا ۝ 58
(64) ( इन्हें बताओ कि) हमने जो रसूल भी भेजा है इसी लिए भेजा है कि अल्लाह की इजाज़त से उसकी फ़रमाँबरदारी की जाए।94 अगर इन्होंने यह तरीक़ा अपनाया होता कि जब ये अपने ऊपर ज़ुल्म कर बैठे थे तो तुम्हारे पास आ जाते और अल्लाह से माफ़ी माँगते और रसूल भी इनके लिए माफ़ी की दरख़ास्त करता तो यक़ीनन अल्लाह को बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला पाते।
94. यानी ख़ुदा की तरफ़ से रसूल इसलिए नहीं आता है कि बस उसकी रिसालत (पैग़म्बरी) पर ईमान ले आओ और फिर इताअत जिसकी चाहो करते रहो, बल्कि रसूल के आने का मक़सद ही यह होता है कि ज़िन्दगी का जो क़ानून वह लेकर आया है, तमाम क़ानूनों को छोड़कर सिर्फ़ उसी की पैरवी की जाए और ख़ुदा की तरफ़ से जो अहकाम और हिदायतें वह देता है, तमाम अहकाम और हिदायतों को छोड़कर सिर्फ़ उन्हीं पर अमल किया जाए। अगर किसी ने यही न किया तो फिर उसका सिर्फ़ रसूल को रसूल मान लेना कोई मतलब नहीं रखता।
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَرَجٗا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمٗا ۝ 59
(65) नहीं, ऐ नबी! तुम्हारे रब की क़सम, ये कभी ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के इख़्तिलाफ़ों (विवादों) में ये तुमको फ़ैसला करनेवाला न मान लें। फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उस पर अपने दिलों में भी कोई तंगी न महसूस करें, बल्कि पूरी तरह मान लें।95
95. इस आयत का हुक्म सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी तक महदूद नहीं है, बल्कि क़ियामत तक के लिए है। जो कुछ अल्लाह की तरफ़ से नबी (सल्ल०) लाए हैं और जिस तरीक़े पर अल्लाह की हिदायत व रहनुमाई के तहत आप (सल्ल०) ने अमल किया है वह हमेशा-हमेशा के लिए मुसलमानों के दरमियान फ़ैसलाकुन सनद है। और इस सनद को मानने या न मानने ही पर आदमी के ईमानवाला होने और ईमानवाला न होने का फ़ैसला है। हदीस में इसी बात को नबी (सल्ल०) ने इस तरह कहा है कि “तुममें से कोई आदमी ईमानवाला नहीं हो सकता जब तक कि उसके दिल की ख़ाहिश उस तरीक़े की पाबन्द न हो जाए जिसे मैं लेकर आया हूँ।"
وَلَوۡ أَنَّا كَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَنِ ٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ أَوِ ٱخۡرُجُواْ مِن دِيَٰرِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلَّا قَلِيلٞ مِّنۡهُمۡۖ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ فَعَلُواْ مَا يُوعَظُونَ بِهِۦ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَشَدَّ تَثۡبِيتٗا ۝ 60
(66) अगर हमने इन्हें हुक्म दिया होता कि अपने आपको हलाक कर दो या अपने घरों से निकल जाओ तो इनमें से थोड़े ही आदमी इसपर अमल करते।96 हालाँकि जो नसीहत इन्हें की जाती है अगर ये इसपर अमल करते तो ये इनके लिए ज़्यादा अच्छाई और ज़्यादा जमाव की वजह बनता।97
96. यानी जब उनका हाल यह है कि शरीअत की पाबन्दी करने में ज़रा-सा नुक़सान या थोड़ी-सी तकलीफ़ भी ये बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इनसे किसी बड़ी क़ुरबानी की हरगिज़ उम्मीद नहीं की जा सकती। अगर जान देने या फिर घर-बार छोड़ने की माँग इनसे की जाए तो ये फ़ौरन भाग खड़े होंगे और ईमान और इताअत के बजाय कुफ़्र और नाफ़रमानी की राह लेंगे।
97. यानी अगर ये लोग शक और शुब्हाा और तरद्दुद को छोड़कर यकसूई के साथ रसूल की इताअत और पैरवी पर जम जाते और डँवाडोल न रहते तो इनकी ज़िन्दगी डाँवाडोल होने से महफ़ूज़ हो जाती। इनके ख़यालात, अख़लाक़ और मामले सबके सब एक मुस्तक़िल और पायदार बुनियाद पर क़ायम हो जाते और ये उन बरकतों से मालामाल होते जो एक सीधे रास्ते पर मज़बूती क़दम जमाकर चलने से ही हासिल हुआ करती हैं। जो आदमी शक-शुब्हाा और तरद्दुद की हालत में पड़ा हो, कभी इस रास्ते पर चले और कभी उस रास्ते पर और इत्मीनान किसी रास्ते के भी सही होने पर उसे हासिल न हो उसकी सारी ज़िन्दगी पानी पर बनी लकीरों की तरह बसर होती है और एक बेफ़ायदा कोशिश बनकर रह जाती है।
وَإِذٗا لَّأٓتَيۡنَٰهُم مِّن لَّدُنَّآ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 61
(67) और जब ये ऐसा करते तो हम इन्हें अपनी तरफ़ से बहुत बड़ा बदला देते
وَلَهَدَيۡنَٰهُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 62
(68) और इन्हें सीधा रास्ता दिखा देते।98
98. यानी जब वे शक छोड़कर ईमान और यक़ीन के साथ रसूल की पैरवी का फ़ैसला कर लेते तो अल्लाह की मेहरबानी से उनके सामने कोशिश और अमल का सीधा रास्ता बिलकुल रौशन हो जाता और उन्हें साफ़ नज़र आ जाता कि वे अपनी ताक़तों और मेहनतों को किस राह में ख़र्च करें जिससे उनका हर क़दम अपनी उस हक़ीक़ी मंज़िल की तरफ़ उठे जो उसका मक़सद हो।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلصِّدِّيقِينَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَٱلصَّٰلِحِينَۚ وَحَسُنَ أُوْلَٰٓئِكَ رَفِيقٗا ۝ 63
(69) जो अल्लाह और रसूल की इताअत करेगा वह उन लोगों के साथ होगा जिनपर अल्लाह ने इनाम किया है, यानी नबी और सच्चे लोग और शहीद और अच्छे लोग।99 कैसे अच्छे हैं ये साथी जो किसी को मिलें।100
99. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सिद्दीक़' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद वह आदमी है जो बहुत ही सच्चा हो, जिसके अन्दर सच्चाई ‘पसन्दी' और हक़परस्ती कमाल दरजे पर हो, जो अपने मामलों और बर्ताव में हमेशा सीधा और साफ़ तरीक़ा अपनाए। जब साथ दे तो हक़ और इनसाफ़ ही का साथ दे और सच्चे दिल से दे, और जिस चीज़ को हक़ के ख़िलाफ़ पाए उसके मुक़ाबले में डटकर खड़ा हो जाए और ज़रा कमज़ोरी न दिखाए। जिसकी सीरत और क़िरदार ऐसा साफ़-सुथरा और बेग़रज़ हो कि अपने और ग़ैर किसी को भी उससे ख़ालिस सच्चाई और हक़ के सिवा किसी दूसरे रवैये का अन्देशा न हो। यहाँ अस्ल अरबी में एक और लफ़्ज़ 'शहीद' इस्तेमाल हुआ है, जिसके मानी गवाह के हैं। इससे मुराद वह आदमी है जो अपने ईमान की सच्चाई पर अपनी ज़िन्दगी के पूरे रवैये और अमल से गवाही दे। अल्लाह की राह में लड़कर जान देनेवाले को भी शहीद इसी वजह से कहते हैं कि वह जान देकर साबित कर देता है कि वह जिस चीज़ पर ईमान लाया था उसे वाक़ई में सच्चे दिल से हक़ समझता था और उस चीज़ से उसे इतनी मुहब्बत होती थी कि उसके लिए जान क़ुरबान करने में भी उसे कोई झिझक न हुई। ऐसे सच्चे लोगों को भी शहीद कहा जाता है। जो इतने ज़्यादा भरोसेमन्द हों कि जिस चीज़ पर वे गवाही दें उसका सही और हक़ होना बे-झिझक तसलीम कर लिया जाए। यहाँ एक और अरबी लफ़्ज़ 'सॉलेह' इस्तेमाल हुआ है। इससे मुराद वह आदमी है जो अपने ख़यालात और अक़ीदों में, अपनी नीयत और इरादों में और अपनी बातों और कामों में सीधे रास्ते पर क़ायम हो और कुल मिलाकर अपनी ज़िन्दगी में नेक रवैया रखता हो।
100. यानी वह इनसान ख़ुशक़िस्मत है जिसे ऐसे लोग दुनिया में साथ के लिए मिल जाएँ और जिसका अंजाम आख़िरत में भी ऐसे ही लोगों के साथ हो। किसी आदमी के एहसास मुर्दा हो जाएँ तो बात दूसरी है, वरना हक़ीक़त में बुरे चाल-चलन और बुरे क़िरदारवाले लोगों के साथ ज़िन्दगी बसर करना दुनिया ही में एक दर्दनाक अज़ाब है, यहाँ तक कि आख़िरत में भी आदमी उन्हीं के साथ उस अंजाम से दो-चार हो जो उनके लिए मुक़द्दर है। इसी लिए अल्लाह के नेक बन्दों की हमेशा यही तमन्ना रही है कि उनको नेक लोगों की सोसाइटी नसीब हो और मरकर भी वे नेक लोगों के साथ रहें।
ذَٰلِكَ ٱلۡفَضۡلُ مِنَ ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ عَلِيمٗا ۝ 64
(70) यह हक़ीक़ी मेहरबानी है जो अल्लाह की तरफ़ से मिलती है और हक़ीक़त जानने के लिए बस अल्लाह ही का इल्म काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ خُذُواْ حِذۡرَكُمۡ فَٱنفِرُواْ ثُبَاتٍ أَوِ ٱنفِرُواْ جَمِيعٗا ۝ 65
(71) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, मुक़ाबले के लिए हर वक़्त तैयार रहो।101 फिर जैसा मौक़ा हो अलग-अलग टुकड़ियों की शक्ल में निकलो या इकट्ठे होकर।
101. वाज़ेह रहे कि यह तक़रीर उस ज़माने में उतरी हुई थी जब उहुद की लड़ाई में हार की वजह से मदीना के आस-पास के क़बीलों की हिम्मतें बढ़ गई थीं और मुसलमान हर तरफ़ से ख़तरों में घिर गए थे। आए दिन ख़बरें आती रहती थीं कि फ़ुलाँ क़बीले के तेवर बिगड़ रहे हैं, फ़ुलाँ क़बीला दुश्मनी पर आमादा है, फ़ुलाँ जगह पर हमले की तैयारियाँ हो रही हैं। मुसलमानों के साथ एक के बाद एक ग़द्दारियाँ की जा रही थीं। उनके मुबल्लिग़ों (प्रचारकों) को धोखे से बुलाया जाता था और क़त्ल कर दिया जाता था। मदीना की हदों से बाहर उनके लिए जान और माल की सलामती बाक़ी न रही थी। इन हालात में मुसलमानों की तरफ़ से एक ज़बरदस्त जिद्दो-जुह्द और सख़्त मेहनत की ज़रूरत थी, ताकि इन ख़तरों की भीड़ से इस्लाम की यह तहरीक़ (आन्दोलन) मिट न जाए।
وَإِنَّ مِنكُمۡ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنۡ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَالَ قَدۡ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيَّ إِذۡ لَمۡ أَكُن مَّعَهُمۡ شَهِيدٗا ۝ 66
(72) हाँ, तुममें कोई-कोई आदमी ऐसा भी है जो लड़ाई से जी चुराता है।102 अगर तुमपर कोई मुसीबत आए तो कहता है अल्लाह ने मुझ पर बड़ा फ़्ज़्ल किया कि मैं इन लोगों के साथ न गया,
102. इस आयत का एक मतलब यह भी है कि ख़ुद तो जी चुराता ही है, दूसरों की भी हिम्मत पस्त करता है और उनको जिहाद से रोकने के लिए ऐसी बातें करता है कि वे भी उसी की तरह बैठ रहें।
وَلَئِنۡ أَصَٰبَكُمۡ فَضۡلٞ مِّنَ ٱللَّهِ لَيَقُولَنَّ كَأَن لَّمۡ تَكُنۢ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُۥ مَوَدَّةٞ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ مَعَهُمۡ فَأَفُوزَ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 67
(73) और अगर अल्लाह की तरफ़ से तुम पर फ़्ज़्ल होता तो कहता है— और इस तरह कहता है कि मानो तुम्हारे और इसके बीच मुहब्बत का तो कोई रिश्ता था ही नहीं— कि काश! मैं भी इनके साथ होता तो बड़ा काम बन जाता।
۞فَلۡيُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يَشۡرُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَن يُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيُقۡتَلۡ أَوۡ يَغۡلِبۡ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 68
(74) (ऐसे लोगों को मालूम हो कि) अल्लाह की राह में लड़ना चाहिए उन लोगों को जो आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िन्दगी को बेच दें,103 फिर जो अल्लाह की राह में लड़ेगा और मारा जाएगा या ग़ालिब रहेगा उसे ज़रूर हम बड़ा बदला देंगे।
103. यानी अल्लाह की राह में लड़ना दुनिया चाहनेवाले लोगों का काम है ही नहीं। यह तो ऐसे लोगों का काम है जिनके सामने सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी हो। जो अल्लाह और आख़िरत पर पूरा भरोसा रखते हों, और दुनिया में अपनी कामयाबी और ख़ुशहाली के सारे इमकानात (सम्भावनाएँ), उम्मीदें और अपने हर क़िस्म के दुनियवी फ़ायदों को इस उम्मीद पर क़ुरबान करने के लिए तैयार हो जाएँ कि उनका रब उनसे राज़ी होगा और इस दुनिया में नहीं तो आख़िरत में बहरहाल उनकी क़ुरबानियाँ बरबाद नहीं होंगी। रहे वे लोग जिनकी निगाह में अस्ल अहमियत अपने दुनियावी फ़ायदे ही की हो, तो हक़ीक़त में यह रास्ता उनके लिए नहीं है।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا مِنۡ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلظَّالِمِ أَهۡلُهَا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيّٗا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا ۝ 69
(75) आख़िर क्या वजह है कि तुम अल्लाह की राह में उन बेबस मर्दो, औरतों और बच्चों की खातिर न लड़ो जो कमज़ोर पाकर दबा लिए गए हैं और फ़रियाद कर रहे हैं कि ऐ हमारे रब! हमको इस बस्ती से निकाल जिसके बाशिन्दे ज़ालिम हैं, और अपनी तरफ़ से हमारा कोई हिमायती और मददगार पैदा कर दे।104
104. यहाँ इशारा उन मज़लूम बच्चों, औरतों और मर्दो की तरफ़ है जो मक्का में और अरब के दूसरे क़बीलों में इस्लाम क़ुबूल कर चुके थे मगर न हिजरत करने की ताक़त रखते थे और न अपने आप को ज़ुल्म से बचा सकते थे। इन बेचारों पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाए जा रहे थे। वे लोग दुआएँ माँगते थे कि कोई उन्हें इस ज़ुल्म से बचाए।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱلطَّٰغُوتِ فَقَٰتِلُوٓاْ أَوۡلِيَآءَ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّ كَيۡدَ ٱلشَّيۡطَٰنِ كَانَ ضَعِيفًا ۝ 70
(76) जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जिन्होंने इनकार (कुफ़्र) का रास्ता अपनाया है वे ताग़ूत की राह में लड़ते हैं।105 तो शैतान के साथियों से लड़ो और यक़ीन जानो कि शैतान की चालें हक़ीक़त में बहुत ही कमज़ोर106 हैं।
105. यह अल्लाह का दो टूक फ़ैसला है। अल्लाह की राह में इस मक़सद के लिए लड़ना कि ज़मीन पर अल्लाह का दीन क़ायम हो, यह ईमानवालों का काम है आर जो वाक़ई ईमानवाला है वह इस काम से कभी न रुकेगा और ताग़ूत की राह में इस मक़सद के लिए लड़ना कि ख़ुदा की ज़मीन पर ख़ुदा के बाग़ियों का राज हो, यह कुफ़्र करनेवालों का काम है और कोई ईमान रखनेवाला आदमी यह काम नहीं कर सकता।
106. यानी ज़ाहिर में शैतान और उसके साथी बड़ी तैयारियों से उठते हैं और बड़ी ज़बरदस्त चाल चलते हैं, लेकिन ईमानवालों को न उनकी तैयारियों से डरना चाहिए और न उनकी चालों से आख़िरकार उनका अंजाम नाकामी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمۡ كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَخۡشَوۡنَ ٱلنَّاسَ كَخَشۡيَةِ ٱللَّهِ أَوۡ أَشَدَّ خَشۡيَةٗۚ وَقَالُواْ رَبَّنَا لِمَ كَتَبۡتَ عَلَيۡنَا ٱلۡقِتَالَ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖۗ قُلۡ مَتَٰعُ ٱلدُّنۡيَا قَلِيلٞ وَٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّمَنِ ٱتَّقَىٰ وَلَا تُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 71
(77) तुमने उन लोगों को भी देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का हुक्म दिया गया तो उनमें से एक गरोह का हाल यह है कि लोगों से ऐसा डर रहे हैं जैसा ख़ुदा से डरना चाहिए या कुछ इससे भी बढ़कर।107 कहते हैं कि ऐ हमारे रब! यह हमपर लड़ाई का हुक्म क्यों लिख दिया? क्यों न हमें अभी कुछ और मुहलत दी? इनसे कहो दुनिया की ज़िन्दगी का सरमाया थोड़ा है और आख़िरत ख़ुदा से डरनेवाले एक इनसान के लिए ज़्यादा बेहतर है और तुमपर ज़ुल्म एक ज़र्रा बराबर भी न किया जाएगा।108
107. इस आयत के तीन मतलब हैं और तीनों अपनी-अपनी जगह सही हैं— एक मतलब यह है कि पहले ये लोग ख़ुद जंग के लिए बेताब थे। बार-बार कहते थे कि साहब, हमपर ज़ुल्म किया जा रहा है, हमें सताया जाता है, मारा जाता है, गालियाँ दी जाती हैं, आख़िर हम कब तक सब्र करें, हमें मुक़ाबले की इजाज़त दी जाए। उस वक़्त इनसे कहा जाता था कि सब्र करो और नमाज़ और ज़कात से भी अपने नफ़्स की इस्लाह करते रहो, तो यह सब्र और बर्दाश्त का हुक्म इनको बुरा लगता था। मगर अब जो लड़ाई का हुक्म दे दिया गया तो उन्हीं (जंग का) तक़ाज़ा करनेवालों में से एक गरोह दुश्मनों की भीड़ और जंग के ख़तरों को देख-देखकर सहमा जा रहा है। दूसरा मतलब यह है कि जब तक मुतालबा नमाज़ और ज़कात और ऐसे ही बिना किसी जोखिम के कामों का था और जानें लड़ाने का कोई सवाल बीच में न आया तो ये लोग पक्के दीनदार थे, मगर अब जो हक़ की ख़ातिर जान को जोखिम में डालने का काम शुरू हुआ तो उनपर कपकपी तारी होने लगी। तीसरा मतलब यह है कि पहले तो लूट-खसोट और ख़ाहिशों से भरी लड़ाइयों के लिए उनकी तलवार हर वक़्त म्यान से निकल पड़ती थी और रात-दिन का काम ही लड़ना और मुक़ाबला था। उस वक़्त इन्हें ख़ून-ख़राबे से हाथ रोकने और नमाज़ और ज़कात से नफ़्स की इस्लाह करने के लिए कहा गया था। अब जो ख़ुदा के लिए तलवार उठाने का हुक्म दिया गया तो वे लोग जो नफ़्स की ख़ातिर लड़ने में शेर-दिल थे, ख़ुदा की ख़ातिर लड़ने में बुज़दिल बने जाते हैं। तलवारवाला वह हाथ जो नफ़्स और शैतान की राह में बड़ी तेज़ी दिखाता था अब ख़ुदा की राह में ठण्डा हुआ जाता है। ये तीनों मतलब अलग-अलग तरह के लोगों पर चस्पाँ होते हैं और आयत के अलफ़ाज़ ऐसे जामेअ (सारगर्भित) हैं कि तीनों मतलब यकसाँ तौर पर लिए जा सकते हैं।
108. यानी अगर तुम ख़ुदा के दीन की ख़िदमत करो और उसकी राह में जान लड़ाओ तो यह मुमकिन नहीं है कि ख़ुदा के यहाँ तुम्हारा इनाम बरबाद हो जाए।
أَيۡنَمَا تَكُونُواْ يُدۡرِككُّمُ ٱلۡمَوۡتُ وَلَوۡ كُنتُمۡ فِي بُرُوجٖ مُّشَيَّدَةٖۗ وَإِن تُصِبۡهُمۡ حَسَنَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِكَۚ قُلۡ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ فَمَالِ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلۡقَوۡمِ لَا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ حَدِيثٗا ۝ 72
(78) रही। मौत, तो जहाँ भी तुम हो हर हाल में तुम्हें आकर रहेगी, चाहे तुम कैसी ही मज़बूत इमारतों में हो। अगर इन्हें कोई फ़ायदा पहुँचता है तो कहते हैं कि यह अल्लाह की तरफ़ से है और अगर कोई नुक़सान पहुँचता है तो कहते हैं कि (ऐ नबी) यह सब तुम्हारी वजह से है।109 कहो, सब कुछ अल्लाह ही की तरफ़ से है। आख़िर इन लोगों को क्या हो गया है, कोई बात इनकी समझ में नहीं आती।
109. यानी जब फ़तह, कामयाबी और सरबुलन्दी नसीब होती है तो उसे अल्लाह का फ़ज़ल क़रार देते हैं और भूल जाते हैं कि अल्लाह ने इनपर यह फ़्ज़्ल नबी ही के ज़रिए से किया है। मगर जब ख़ुद अपनी ग़लतियों और कमज़ोरियों की वजह से कहीं हार का सामना करना पड़ता है और बढ़ते हुए कदम पीछे पड़ने लगते हैं तो सारा इल्ज़ाम नबी के सर थोपते हैं और ख़ुद ज़िम्मेदारी से बरी होना चाहते हैं।
مَّآ أَصَابَكَ مِنۡ حَسَنَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ وَمَآ أَصَابَكَ مِن سَيِّئَةٖ فَمِن نَّفۡسِكَۚ وَأَرۡسَلۡنَٰكَ لِلنَّاسِ رَسُولٗاۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 73
(79) ऐ इनसान! तुझे जो भलाई भी हासिल होती है अल्लाह की मेहरबानी से होती है, और जो मुसीबत तुझ पर आती है वह तेरी अपनी कमाई और करतूत की वजह से है। ऐ नबी! हमने तुमको लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और इसपर ख़ुदा की गवाही काफ़ी है।
مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدۡ أَطَاعَ ٱللَّهَۖ وَمَن تَوَلَّىٰ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗا ۝ 74
(80) जिसने रसूल की फ़रमाँबरदारी की उसने अस्ल में ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी की। और जो मुँह मोड़ गया तो बहरहाल हमने तुम्हें इन लोगों पर चौकीदार बनाकर तो नहीं भेजा है।110
110. यानी अपने अमल के ये ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। उनके कामों की पूछ-गछ तुम से न होगी। तुम्हारे सिपुर्द जो काम किया गया है वह तो सिर्फ़ यह है कि अल्लाह के अहकाम और हिदायतें इन तक पहुँचा दो। यह काम तुमने अच्छी तरह अंजाम दे दिया। अब यह तुम्हारा काम नहीं है कि हाथ पकड़कर इन्हें ज़बरदस्ती सीधे रास्ते पर चलाओ। अगर ये उस हिदायत की पैरवी न करें जो तुम्हारे ज़रिए से पहुँच रही है तो इसकी कोई ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। तुमसे यह नहीं पूछा जाएगा कि ये लोग क्यों नाफ़रमानी करते थे।
وَيَقُولُونَ طَاعَةٞ فَإِذَا بَرَزُواْ مِنۡ عِندِكَ بَيَّتَ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ غَيۡرَ ٱلَّذِي تَقُولُۖ وَٱللَّهُ يَكۡتُبُ مَا يُبَيِّتُونَۖ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 75
(81) वे मुँह पर कहते हैं कि हम फ़रमाँबरदार हैं। मगर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो इनमें से एक गरोह रातों को जमा होकर तुम्हारी बातों के ख़िलाफ़ मश्वरे करता है। अल्लाह इनकी ये सारी कानाफूसियाँ लिख रहा है। तुम उनकी परवाह न करो और अल्लाह पर भरोसा रखो। वही भरोसे के लिए काफ़ी है।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَۚ وَلَوۡ كَانَ مِنۡ عِندِ غَيۡرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ ٱخۡتِلَٰفٗا كَثِيرٗا ۝ 76
(82) क्या ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते? अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ़ से होता तो इसमें कुछ बे-मेल बयान पाया जाता।111
111. मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमान के लोगों को जिस रवैये पर ऊपर की आयतों में ख़बरदार किया गया है उसकी बड़ी और असली वजह यह थी कि उन्हें क़ुरआन के अल्लाह की किताब होने में शक था। उन्हें यक़ीन न आता था कि रसूल पर वाक़ई वह्य उतरती है और ये जो कुछ हिदायतें आ रही हैं सीधे तौर पर ख़ुदा ही के पास से आ रही हैं। इसी लिए उनके मुनाफ़िक़ाना रवैये पर मलामत करने के बाद अब फ़रमाया जा रहा है कि ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर ही नहीं करते वरना यह कलाम तो ख़ुद गवाही दे रहा है कि यह ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे का कलाम हो ही नहीं सकता। कोई इनसान इस बात पर क़ुदरत नहीं रखता है कि सालों-साल तक वह अलग-अलग हालतों में, अलग-अलग मौक़ों पर, अलग-अलग मज़मूनों पर तक़रीरें करता रहे और शुरू से आख़िर तक उसकी सारी तक़रीरें ऐसी हमवार, एक रंग और आपस में तालमेल रखनेवाला ऐसा मजमूआ (संग्रह) बन जाएँ जिसका कोई हिस्सा दूसरे हिस्से से टकराता न हो, जिसमें राय की तब्दीली का कहीं निशान तक न मिले, जिसमें बात करनेवाले के मन की अलग-अलग कैफ़ियतें अपने अलग-अलग रंग न दिखाएँ और जिसपर कभी नज़े-रसानी तक की ज़रूरत न पेश आए।
وَإِذَا جَآءَهُمۡ أَمۡرٞ مِّنَ ٱلۡأَمۡنِ أَوِ ٱلۡخَوۡفِ أَذَاعُواْ بِهِۦۖ وَلَوۡ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنۡهُمۡ لَعَلِمَهُ ٱلَّذِينَ يَسۡتَنۢبِطُونَهُۥ مِنۡهُمۡۗ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَٱتَّبَعۡتُمُ ٱلشَّيۡطَٰنَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 77
(83) ये लोग जहाँ कोई इत्मीनान दिलानेवाली या ख़ौफ़नाक ख़बर सुन पाते हैं, लेकर फैला देते हैं। हालाँकि अगर ये उसे रसूल और अपनी जमाअत के ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाएँ तो वह बात ऐसे लोगों की जानकारी में आ जाए जो इनके बीच इस बात की सलाहियत रखते हैं कि इससे सही नतीजा निकाल सकें।112 तुम लोगों पर अल्लाह की मेहरबानी और रहमत न होती तो (तुम्हारी कमज़ोरियाँ ऐसी थीं कि) कुछ गिने-चुने थोड़े-से लोगों के सिवा तुम सब शैतान के पीछे लग गए होते।
112. वह चूँकि हँगामे का मौक़ा था, इसलिए हर तरफ़ अफ़वाहें उड़ रही थीं। कभी ख़तरे की बेबुनियाद बढ़ा-चढ़ाकर ख़बरें आतीं और उनसे यकायक मदीना और उसके आस-पास के इलाक़ों में परेशानी फैल जाती। कभी कोई चालाक दुश्मन किसी वाक़ई ख़तरे को छिपाने के लिए इत्मीनान बख़्श ख़बरें भेज देता और लोग उन्हें सुनकर ग़फ़लत में पड़ जाते। इन अफ़वाहों में वे लोग बड़ी दिलचस्पी लेते थे जो सिर्फ़ हंगामा पसन्द थे, जिनके लिए इस्लाम और जाहिलियत का यह मोर्चा कोई संजीदा मामला न था, जिन्हें कुछ ख़बर न थी कि इस तरह की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना अफ़वाहें फैलाने के नतीजे कितनी दूर तक असर डालते हैं। उनके कान में जहाँ कोई भनक पड़ जाती उसे लेकर जगह-जगह फूँकते फिरते थे। उन्हीं लोगों को इस आयत में फिटकार लगाई गई है और उन्हें सख़्ती के साथ ख़बरदार किया गया है कि अफ़वाहें फैलाने से बचे रहें और हर ख़बर जो उनको पहुँचे उसे ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाकर ख़ामोश हो जाएँ।
فَقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا تُكَلَّفُ إِلَّا نَفۡسَكَۚ وَحَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَكُفَّ بَأۡسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَٱللَّهُ أَشَدُّ بَأۡسٗا وَأَشَدُّ تَنكِيلٗا ۝ 78
(84) तो ऐ नबी, तुम अल्लाह की राह में लड़ो, तुम अपने आप के सिवा किसी और के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो। अलबत्ता ईमानवालों को लड़ने के लिए उकसाओ, नामुमकिन नहीं कि अल्लाह इनकार करनेवालों का ज़ोर तोड़ दे। अल्लाह का ज़ोर सबसे ज़्यादा ज़बरदस्त और उसकी सज़ा सबसे ज़्यादा सख़्त है।
مَّن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةً حَسَنَةٗ يَكُن لَّهُۥ نَصِيبٞ مِّنۡهَاۖ وَمَن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةٗ سَيِّئَةٗ يَكُن لَّهُۥ كِفۡلٞ مِّنۡهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقِيتٗا ۝ 79
(85) जो भलाई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा और जो बुराई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा।113 और अल्लाह हर चीज़ पर नज़र रखनेवाला है।
113. यानी यह कि अपनी-अपनी पसन्द और अपना-अपना नसीब है कि कोई ख़ुदा की राह में कोशिश करने और हक़ को सरबुलन्द करने के लिए लोगों को उभारे और उसका बदला पाए और कोई ख़ुदा के बन्दों को ग़लतफ़हमियों में डालने और उनकी हिम्मते पस्त करने और उन्हें अल्लाह का बोलबाला करने की कोशिश और जिद्दो-जुहूद से दूर रखने में अपनी ताक़त लगा दे और उसकी सज़ा का हक़दार बने।
وَإِذَا حُيِّيتُم بِتَحِيَّةٖ فَحَيُّواْ بِأَحۡسَنَ مِنۡهَآ أَوۡ رُدُّوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَسِيبًا ۝ 80
(86) और जब कोई एहतिराम के साथ तुम्हें सलाम करे तो उसको उससे ज़्यादा अच्छे तरीक़े से जवाब दो या कम-से-कम उसी तरह।114 अल्लाह हर चीज़ का हिसाब लेनेवाला है।
114. उस वक़्त मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के ताल्लुक़ात बहुत कशीदा (तनावपूर्ण) हो रहे थे, और जैसा कि ताल्लुक़ात की कशीदगी में हुआ करता है, इस बात का डर था कि कहीं मुसलमान दूसरे लोगों के साथ बदअख़लाक़ी से न पेश आने लगें। इसलिए उन्हें हिदायत की गई कि जो तुम्हारे साथ अच्छाई और इज़्ज़त का बर्ताव करे उसके साथ तुम भी वैसे ही, बल्कि उससे ज़्यादा इज़्ज़त से पेश आओ। अख़लाक़ का जवाब अख़लाक़ ही है। बल्कि तुम्हारा मक़ाम यह है कि दूसरों से बढ़कर बाअख़लाक़ बनो। दावत देने और तबलीग़ करनेवाले एक गरोह के लिए, जो दुनिया को सीधे रास्ते पर लाने और हक़ के रास्ते की तरफ़ बुलाने के लिए उठा हो, मिज़ाज में सख़्ती, कड़वे और तीखे अंदाज़ में बात करना मुनासिब नहीं है। इससे मन को सुकून तो मिल जाता है, मगर उस मक़सद को उलटा नुक़सान पहुँचता है जिसके लिए वह उठा था।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۗ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ حَدِيثٗا ۝ 81
(87) अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। वह तुम सबको उस क़ियामत के दिन जमा करेगा जिसके आने में कोई शक नहीं और अल्लाह की बात से बढ़कर सच्ची बात और किसकी हो सकती है।115
115. यानी कुफ़्र और शिर्क में मुब्तला लोग ख़ुदा का इनकार करनेवाले नास्तिक और बेदीन लोग जो कुछ कर रहे हैं उससे ख़ुदा की ख़ुदाई का कुछ नहीं बिगड़ता उसका एक ख़ुदा होना और ऐसा ख़ुदा होना, जो सारी ताक़तों का आज़ाद तौर पर मालिक है, एक ऐसी सच्चाई है जो किसी के बदलने से बदल नहीं सकती। फिर एक दिन वह सब इनसानों को जमा करके हर एक को उसके अमल का नतीजा दिखाएगा। उसकी ताक़त और क़ुदरत के दायरे से बचकर कोई भाग नहीं सकता। इसलिए ख़ुदा हरगिज़ इस बात का ज़रूरतमन्द नहीं है कि उसकी तरफ़ से कोई उसके बाग़ियों पर जले दिल का बुख़ार निकालता फिरे और बदअख़लाक़ी और कड़वी बातों को दिल के जाम का मरहम बनाए। यह तो इस आयत का ताल्लुक़ ऊपर की आयत से है। लेकिन इसी आयत पर इस बात का पूरा सिलसिला ख़त्म भी हो गया है, जो पिछले दो-तीन रुकूओं से चला आ रहा है। इस पहलू से आयत का मतलब यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी में जो आदमी जिस तरीक़े पर चाहे चलता रहे और जिस राह में अपनी कोशिशें और मेहनतें लगाना चाहता है लगाता रहे, आख़िरकार सबको एक दिन उस ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है जिसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं फिर हर एक अपनी कोशिश और अमल के नतीजे देख लेगा।
۞فَمَا لَكُمۡ فِي ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِئَتَيۡنِ وَٱللَّهُ أَرۡكَسَهُم بِمَا كَسَبُوٓاْۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَهۡدُواْ مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 82
(88) फिर यह तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ों के बारे में तुम्हारे बीच दो राएँ पाई जाती हैं।116 हालाँकि जो बुराइयाँ उन्होंने कमाई हैं उनकी वजह से अल्लाह उन्हें उलटा कर चुका है।117 क्या तुम चाहते हो कि जिसे अल्लाह ने सीधे रास्ते पर नहीं लगाया, उसे तुम रास्ते से लगा दो? हालाँकि जिसको अल्लाह ने रास्ते से भटका दिया उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।
116. यहाँ बात उन मुनाफ़िक मुसलमानों के मसले के बारे में की गई है जो मक्का में और अरब के दूसरे हिस्सों में इस्लाम तो क़ुबूल कर चुके थे, मगर हिजरत करके दारुल-इस्लाम की तरफ़ चले जाने के बजाय बदस्तूर अपनी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम के साथ रहते-बसते थे और थोड़ा या बहुत उन तमाम कार्रवाइयों में अमली तौर पर हिस्सा लेते थे जो उनकी क़ौम इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ करती थी। मुसलमानों के लिए यह मसला सख़्त पेचीदा था कि उनके साथ आख़िर क्या मामला किया जाए। कुछ लोग कहते थे कि कुछ भी हो, आख़िर ये हैं तो मुसलमान ही। कलिमा पढ़ते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं, रोज़े रखते हैं, क़ुरआन की तिलावत करते हैं। इनके साथ ग़ैर-मुस्लिम का-सा मामला कैसे किया जा सकता है। अल्लाह ने इस रुकू (आयत-88 से 91) में इसी इख़्तिलाफ़ का फ़ैसला किया है। इस मौक़े पर एक बात को साफ़ तौर पर समझ लेना ज़रूरी है, वरना डर है कि न सिर्फ़ इस जगह को, बल्कि क़ुरआन मजीद की उन तमाम जगहों को समझने में आदमी ठोकर खाएगा जहाँ हिजरत न करनेवाले मुसलमानों को मुनाफ़िक़ों में गिना गया है। हक़ीक़त यह है कि जब नबी (सल्ल०) ने मदीना की तरफ़ हिजरत की और एक छोटा-सा इलाक़ा अरब की सरज़मीन में ऐसा हासिल हो गया जहाँ एक ईमानवाले के लिए अपने दीन और ईमान के तक़ाज़ों को पूरा करना मुमकिन था, तो आम हुक्म दे दिया गया कि जहाँ-जहाँ, जिस-जिस इलाक़े और जिस-जिस क़बीले में ईमानवाले लोग कुफ़्र करनेवालों से दबे हुए हैं और इस्लामी ज़िन्दगी बसर करने की आज़ादी नहीं रखते, वहाँ से वे हिजरत करें और मदीना के दारुल-इस्लाम में आ जाएँ। उस वक़्त जो लोग हिजरत करने की ताक़त रखते थे और फिर सिर्फ़ इसलिए उठकर न आए कि उन्हें अपने घर-बार, रिश्ते-नाते के लोग और अपने फ़ायदे इस्लाम के मुक़ाबले में ज़्यादा प्यारे थे, उन सबको मुनाफ़िक़ ठहराया गया। और जो लोग हक़ीक़त में बिलकुल मजबूर थे उनको कमज़ोर लोगों में शुमार किया। जैसा कि आगे रुकू 14 (आयत, 97-100) में आ रहा है। अब यह ज़ाहिर है कि दारुल-कुफ़्र के रहनेवाले किसी मुसलमान को सिर्फ़ हिजरत न करने पर मुनाफ़िक़ इस सूरत में कहा जा सकता है जबकि दारुल-इस्लाम की तरफ़ से ऐसे तमाम मुसलमानों को या तो आम दावत हो या कम-से-कम उसने उनके लिए अपने दरवाज़े खुले रखे हों। इसमें कोई शक नहीं कि इस सूरत में वे सब मुसलमान मुनाफ़िक़ ठहरेंगे जो दारुल-कुफ़्र को दारुल-इस्लाम बनाने की कोशिश भी न कर रहे हों और ताक़त रखने के बावजूद हिजरत भी न करें। लेकिन अगर दारुल-इस्लाम की तरफ़ से न तो आम दावत ही हो और न उसने अपने दरवाज़े ही हिजरत करनेवालों के लिए खुले रखे हों तो इस सूरत में सिर्फ़ हिजरत न करना किसी आदमी को मुनाफ़िक़ न बना देगा, बल्कि वह मुनाफ़िक़ सिर्फ़ उस वक़्त कहलाएगा जबकि हक़ीक़त में कोई मुनाफ़िक़ाना काम करे।
117. यानी जिस दो रंगी और मस्लहत परस्ती और आख़िरत पर दुनिया को तरजीह (प्राथमिकता) देने का जो काम इन्होंने किया है उसकी वजह से अल्लाह ने इन्हें उसी तरफ़ फेर दिया है जिस तरफ़ से आए थे। इन्होंने कुफ़्र से निकलकर इस्लाम की तरफ़ क़दम तो ज़रूर बढ़ाए थे, लेकिन इस सरहद में आने और ठहरने के लिए यकसू हो जाने की ज़रूरत थी, हर उस फ़ायदे को क़ुरबान कर देने की ज़रूरत थी जो इस्लाम और ईमान के फ़ायदे से टकराता हो और आख़िरत पर ऐसे यक़ीन की ज़रूरत थी जिसकी बुनियाद पर आदमी इत्मीनान के साथ अपनी दुनिया का क़ुरबान कर सकता हो। यह उनको गवारा न हुआ इसलिए जिधर से आए थे उलटे पाँव उधर ही को वापस चले गए। अब उनके मामले में इख़्तिलाफ़ का कौन-सा मौक़ा बाक़ी है।
وَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ كَمَا كَفَرُواْ فَتَكُونُونَ سَوَآءٗۖ فَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ أَوۡلِيَآءَ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡۖ وَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرًا ۝ 83
(89) वे तो यह चाहते हैं कि जिस तरह वे ख़ुद कुफ़्र में पड़े हुए हैं उसी तरह तुम भी कुफ़्र में पड़ जाओ, ताकि तुम और वे सब बराबर हो जाएँ। तो उनमें से किसी को अपना दोस्त न बनाओ जब तक कि वे अल्लाह की राह में घर-बार छोड़ कर न आ जाएँ और अगर वे घर-बार छोड़ने (हिजरत) से रुके रहें तो जहाँ पाओ उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो118 और उनमें से किसी को अपना दोस्त और मददगार न बनाओ।
118. यह हुक्म उन मुनाफ़िक़ मुसलमानों के बारे में है जो जंग कर रही इस्लाम मुख़ालिफ़ क़ौम से ताल्लुक़ रखते हों और इस्लामी हुकूमत के ख़िलाफ़ दुश्मनाना कार्रवाइयों में अमली तौर पर हिस्सा लें।
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٌ أَوۡ جَآءُوكُمۡ حَصِرَتۡ صُدُورُهُمۡ أَن يُقَٰتِلُوكُمۡ أَوۡ يُقَٰتِلُواْ قَوۡمَهُمۡۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمۡ عَلَيۡكُمۡ فَلَقَٰتَلُوكُمۡۚ فَإِنِ ٱعۡتَزَلُوكُمۡ فَلَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ وَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سَبِيلٗا ۝ 84
(90) अलबत्ता वे मुनाफ़िक़ इस हुक्म से अलग हैं जो किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें जिसके साथ तुम्हारा समझौता है।119 इसी तरह उन मुनाफ़िक़ों का मामला भी इससे अलग है जो तुम्हारे पास आते हैं और लड़ाई से उनका मन दुखी हो चुका है। न तुमसे लड़ना चाहते हैं, न अपनी क़ौम से। अल्लाह चाहता तो उनको तुम पर मुसल्लत कर देता और वे भी तुमसे लड़ते। तो अगर वे तुमसे किनारा खींच लें और लड़ने से रुके रहें और तुम्हारी तरफ़ सुलह का हाथ बढ़ाएँ तो अल्लाह ने तुम्हारे लिए उनपर हाथ बढ़ाने की कोई राह नहीं रखी है।
119. मुनाफ़िक़ों को इस हुक्म से अलग नहीं किया गया है कि “उन्हें दोस्त और मददगार न बनाया जाए”, बल्कि इससे अलग रखा गया है कि “उन्हें पकड़ा और मारा जाए।” मतलब यह है कि अगर ये मुनाफ़िक़, जिनका क़त्ल किया जाना वाजिब है, किसी ऐसी इस्लाम-मुख़ालिफ़ क़ौम की हदों में जाकर पनाह लें जिसके साथ इस्लामी हुकूमत का समझौता हो चुका हो, तो उसके इलाक़े में उनका पीछा नहीं किया जाएगा और न यही जाइज़ होगा कि दारुल-इस्लाम का कोई मुसलमान ग़ैर-जानिबदार मुल्क में किसी क़त्ल के लायक़ मुनाफ़िक़ को पाए और उसे मार डाले। एहतिराम अस्ल में मुनाफ़िक़ के ख़ून का नहीं, बल्कि समझौते का है।
سَتَجِدُونَ ءَاخَرِينَ يُرِيدُونَ أَن يَأۡمَنُوكُمۡ وَيَأۡمَنُواْ قَوۡمَهُمۡ كُلَّ مَا رُدُّوٓاْ إِلَى ٱلۡفِتۡنَةِ أُرۡكِسُواْ فِيهَاۚ فَإِن لَّمۡ يَعۡتَزِلُوكُمۡ وَيُلۡقُوٓاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ وَيَكُفُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكُمۡ جَعَلۡنَا لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 85
(91) एक और तरह के मुनाफ़िक़ तुम्हें ऐसे मिलेंगे जो चाहते हैं कि तुमसे भी अम्न में रहें और अपनी क़ौम से भी। मगर जब कभी फ़ितने का मौक़ा पाएँगे, उसमें कूद पड़ेंगे। ऐसे लोग अगर तुम्हारे मुक़ाबले से रुके न रहें और सुलह व सलामती तुम्हारे सामने न रखें और अपने हाथ न रोकें तो जहाँ वे मिलें उन्हें पकड़ो और मारो, उनपर हाथ उठाने के लिए हमने तुम्हें खुली सनद दे दी है।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 86
(92) किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमानवाले को क़त्ल करे यह और बात है कि उससे चूक हो जाए।120 और जो आदमी किसी ईमानवाले को ग़लती से क़त्ल कर दे तो उसके गुनाह का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) यह है कि एक ईमानवाले आदमी को ग़ुलामी से आज़ाद करे!121 और जो आदमी क़त्ल हुआ उसके वारिसों को इसका ख़ूँबहा (हत्या-दण्ड)122 दे यह और बात है कि वे ख़ूँबहा माफ़ कर दें। लेकिन अगर वह मुसलमान (क़त्ल होनेवाला) किसी ऐसी क़ौम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो तो इसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद करना है। और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का आदमी था जिससे तुम्हारा समझौता हो तो उसके वारिसों को ख़ूँबहा दिया जाएगा और एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा।123 फिर जो ग़ुलाम न पाए वह लगातार दो महीने के रोज़े रखे।124 यह इस गुनाह पर अल्लाह से तौबा करने का तरीक़ा है125 और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी समझ वाला है।
120. यहाँ उन मुनाफ़िक़ मुसलमानों का ज़िक्र नहीं है जिनके क़त्ल की ऊपर इजाज़त दी गई है, बल्कि उन मुसलमानों का ज़िक्र है जो या तो दारुल-इस्लाम के रहनेवाले हों या अगर दारुल-हर्ब या दारुल-कुफ़्र में भी हों तो इस्लाम-दुश्मनों की कार्रवाइयों में उनके शरीक होने का कोई सुबूत न हो। उस वक़्त बहुत-से लोग ऐसे भी थे जो इस्लाम क़ुबूल करने के बाद अपनी वाक़ई मजबूरियों की वजह से इस्लाम-दुश्मन क़बीलों के दरमियान ठहरे हुए थे। और ज़्यादातर ऐसे वाक़िए पेश आ जाते थे कि मुसलमान किसी दुश्मन क़बीले पर हमला करते और वहाँ अनजाने में कोई मुसलमान उनके हाथ से मारा जाता था। इसलिए अल्लाह ने यहाँ उस सूरत का हुक्म बयान किया है जबकि ग़लती से कोई मुसलमान किसी मुसलमान के हाथ से मारा जाए।
121. चूँकि मक़्तूल (क़त्ल किया गया आदमी) ईमानवाला था, इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद कराना क़रार दिया गया।
122. नबी (सल्ल०) ने ख़ूँबहा (हत्या-दण्ड) की तादाद सौ ऊँट या दो सौ गायें (या भैंसें) या दो हज़ार बकरियाँ तय की हैं। अगर दूसरी किसी शक्ल में कोई आदमी ख़ूँबहा देना चाहे तो उसकी तादाद इन्हीं चीज़ों की बाज़ारी क़ीमत के लिहाज़ से तय की जाएगी। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) के ज़माने में नक़द ख़ूँबहा देनेवालों के लिए आठ सौ दीनार या आठ हज़ार दिरहम तय थे। जब हज़रत उमर (रज़ि०) की हुकूमत का ज़माना आया तो उन्होंने कहा कि ऊँटों की क़ीमत अब चढ़ गई है, इसलिए अब सोने के सिक्के में एक हज़ार दीनार या चाँदी के सिक्के में 12 हज़ार दिरहम ख़ूँबहा दिलवाया जाएगा। मगर वाज़ेह रहे कि ख़ूँबहा की यह तादाद जो तय की गई है उस सूरत की नहीं है, जबकि जान-बूझकर क़त्ल किया गया हो, बल्कि ग़लती से क़त्ल हो जाने की सूरत के लिए है।
123. इस आयत से जो हुक्म सामने आते हैं उनका ख़ुलासा यह है– अगर मक़्तूल (मृतक) दारुल-इस्लाम का बाशिन्दा हो तो उसके क़ातिल को ख़ूँबहा भी देना होगा और ख़ुदा से अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगने के लिए एक ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा। अगर वह दारुल-हर्ब का बाशिन्दा हो तो क़ातिल को सिर्फ़ ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। उसका ख़ूँबहा (हत्या-दण्ड) कुछ नहीं है। अगर वह किसी ऐसे दारुल-कुफ़्र का बाशिन्दा हो जिससे इस्लामी हुकूमत का समझौता हो तो क़ातिल को एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा और उसके अलावा ख़ूँबहा भी देना होगा। लेकिन ख़ूँबहा की मिक़दार वही होगी जितनी उस क़ौम, जिसके साथ समझौता हुआ है, के किसी ग़ैर-मुस्लिम आदमी को क़त्ल कर देने की सूरत में समझौते के मुताबिक़ दी जानी चाहिए।
124. यानी रोज़े लगातार रखे जाएँ, बीच में एक रोज़ा भी छूटने न पाए। अगर कोई आदमी शरई मजबूरी के बग़ैर एक रोज़ा भी बीच में छोड़ दे तो नए सिरे से सारे रोज़ों का सिलसिला शुरु करना पड़ेगा।
125. यानी यह 'जुर्माना' नहीं, बल्कि ‘तौबा' और 'कफ्फ़ारा' है। जुर्माने में शर्मिन्दगी की कोई नीयत और रूह नहीं होती, बल्कि आम तौर से वह सख़्त नागवारी के साथ मजबूरी की हालत में दिया जाता है और बेज़ारी और कड़ुवाहट अपने पीछे छोड़ जाता है। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह चाहता है कि जिस बन्दे से ग़लती हुई है वह इबादत, नेकी के कामों और अच्छे काम और लोगों का हक़ अदा करके उसका असर अपनी रूह पर से धो दे और शर्मिन्दगी और इस ग़लती पर अफ़सोस करते हुए अल्लाह की तरफ़ रुजू करे ताकि न सिर्फ़ यह गुनाह माफ़ हो बल्कि आगे के लिए उसका नफ़्स (मन) ऐसी ग़लतियों को दोहराने से भी महफ़ूज़ रहे। कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के मानी हैं 'छिपानेवाली चीज़'। किसी भलाई के काम को गुनाह का कफ़्फ़ारा ठहराने का मतलब यह है कि यह नेकी उस गुनाह पर छा जाती है और उसे ढाँक लेती है जैसे किसी दीवार पर दाग़ लग गया हो और इस पर सफ़ेदी फेरकर दाग़ का असर मिटा दिया जाए।
لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡقَٰعِدُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ غَيۡرُ أُوْلِي ٱلضَّرَرِ وَٱلۡمُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ فَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ دَرَجَةٗۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَفَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 87
(95) मुसलमानों में से वे लोग जो किसी मजबूरी के बग़ैर घर बैठे रहते हैं और वे जो अल्लाह की राह में जान और माल से जान-तोड़ कोशिश करते हैं, दोनों की हैसियत बराबर नहीं है। अल्लाह ने बैठनेवालों के मुक़ाबले जान-माल से जिहाद करनेवालों का दरजा बड़ा रखा है। हालाँकि हरेक के लिए अल्लाह ने भलाई ही का वादा फ़रमाया है, मगर उसके यहाँ जान-तोड़ कोशिश करनेवालों की ख़िदमतों का बदला बैठे रहनेवालों से बहुत ज़्यादा है।128
128. यहाँ उन बैठनेवालों का ज़िक्र नहीं है जिनको जिहाद पर जाने का हुक्म दिया जाए और वे बहाने करके बैठे रहें या आम एलान हो और जिहाद फ़र्ज़े-ऐन (यानी सबके लिए ज़रूरी) हो जाए, फिर भी वे जंग पर जाने से जी चुराएँ, बल्कि यहाँ ज़िक्र उन बैठनेवालों का है जो जिहाद के फ़र्ज़े-किफ़ाया (यानी जिस में सिर्फ़ कुछ लोगों का शरीक होना ज़रूरी हो) की सूरत में मैदाने-जंग की तरफ़ जाने के बजाय दूसरे कामों में लगे रहें। पहली दो सूरतों में जिहाद के लिए न निकलनेवाला सिर्फ़ मुनाफ़िक़ ही हो सकता है और उसके लिए अल्लाह की तरफ़ से किसी भलाई का वादा नहीं है सिवाय इसके कि वह किसी हक़ीक़ी मजबूरी का शिकार हो। इसके बरख़िलाफ़ यह आख़िरी सूरत ऐसी है जिसमें इस्लामी जमाअत की पूरी फ़ौजी ताक़त की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि सिर्फ़ उसके एक हिस्से की ज़रूरत होती है। इस सूरत में अगर हाकिम की तरफ़ से अपील की जाए कि कौन हैं सर की बाजी लगानेवाले जो फ़ुलाँ मुहिम के लिए अपने आप को पेश करते हैं, तो जो लोग इस पुकार को ख़ुशी के साथ क़ुबूल करने के लिए उठ खड़े हों वे बेहतर हैं उन लोगों के मुक़ाबले में, जो दूसरे कामों में लगे रहें, चाहे वे दूसरे काम भी अपने-आप में फ़ायदेमन्द ही हों।
دَرَجَٰتٖ مِّنۡهُ وَمَغۡفِرَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا ۝ 88
(96) उनके लिए अल्लाह की तरफ़ से बड़े दरजे हैं और मग़फ़िरत और रहमत है और अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمۡۖ قَالُواْ كُنَّا مُسۡتَضۡعَفِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ قَالُوٓاْ أَلَمۡ تَكُنۡ أَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٗ فَتُهَاجِرُواْ فِيهَاۚ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 89
(97) जो लोग अपने आप पर ज़ुल्म कर रहे थे129 उनकी रूहें जब फ़रिश्तों ने क़ब्ज़ कीं तो उनसे पूछा कि ये तुम किस हाल में थे? उन्होंने जवाब दिया कि हम ज़मीन में कमज़ोर और मजबूर थे। फ़रिश्तों ने कहा, “क्या ख़ुदा की ज़मीन कुशादा न थी कि तुम उसमें घर-बार छोड़कर कहीं चले जाते?”130 ये वे लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है। और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
129. मुराद वे लोग हैं जो इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी अभी तक बिना किसी मजबूरी और बिना किसी ज़रूरी वजह के अपनी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम के दरमियान रह रहे थे और आधे मुसलमान और आधे ग़ैर-मुस्लिम की ज़िन्दगी जीने पर राज़ी थे। जब कि एक दारुल-इस्लाम (इस्लामी राज्य) क़ायम हो चुका था, जिसकी तरफ़ हिजरत करके अपने दीन और अक़ीदे के मुताबिक़ पूरी इस्लामी ज़िन्दगी बसर करना उनके लिए मुमकिन हो गया था। यही उनका अपने आप पर ज़ुल्म था; क्योंकि उनको पूरी इस्लामी ज़िन्दगी के मुक़ाबले में उस आधे कुफ़्र और आधे इस्लाम पर जिस चीज़ ने मुत्मइन कर रखा था वह कोई वाक़ई में मजबूरी नहीं थी, बल्कि सिर्फ़ अपने मन के ऐश और आराम और अपने ख़ानदान, अपनी जायदाद और मिल्कियत और अपने दुनियावी फ़ायदों की मुहब्बत थी जिसे उन्होंने अपने दीन पर तरजीह दी। (तशरीह के लिए देखें इसी सूरा का हाशिया-116)
130. यानी जब एक जगह ख़ुदा के बाग़ियों का ग़लबा था और ख़ुदा के दीन के क़ानून पर अमल करना मुमकिन न था, तो वहाँ रहना क्या ज़रूरी था? क्यों न उस जगह को छोड़कर किसी ऐसी सरज़मीन की तरफ़ चले गए, जहाँ अल्लाह के क़ानून की पैरवी मुमकिन होती?
إِلَّا ٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ حِيلَةٗ وَلَا يَهۡتَدُونَ سَبِيلٗا ۝ 90
(98) हाँ, जो मर्द, औरतें और बच्चे वाक़ई बेबस हैं और निकलने का कोई रास्ता और ज़रिआ नहीं पाते,
فَأُوْلَٰٓئِكَ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَعۡفُوَ عَنۡهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَفُوًّا غَفُورٗا ۝ 91
(99) बहुत मुमकिन है कि अल्लाह उन्हें माफ़ कर दे। अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला है।
۞وَمَن يُهَاجِرۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يَجِدۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُرَٰغَمٗا كَثِيرٗا وَسَعَةٗۚ وَمَن يَخۡرُجۡ مِنۢ بَيۡتِهِۦ مُهَاجِرًا إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ يُدۡرِكۡهُ ٱلۡمَوۡتُ فَقَدۡ وَقَعَ أَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 92
(100) जो कोई अल्लाह की राह में हिजरत करेगा वह ज़मीन में पनाह लेने के लिए बहुत जगह और गुज़र-बसर के लिए बड़ी गुंजाइश पाएगा और जो अपने घर से सब कुछ छोड़कर अल्लाह और रसूल की तरफ़ हिजरत के लिए निकले, फिर रास्ते ही में उसे मौत आ जाए उसका बदला अल्लाह के ज़िम्मे वाजिब हो गया, अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहमवाला है।131
131. यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि जो आदमी अल्लाह के दीन पर ईमान लाया हो उसके लिए ग़ैर-इस्लामी निज़ाम के तहत ज़िन्दगी बसर करना सिर्फ़ दो ही सूरतों में जाइज़ हो सकता है। एक यह कि वह इस्लाम को इस सरज़मीन में ग़ालिब करने और कुफ़्र के निज़ाम को इस्लामी निज़ाम में बदलने की कोशिश और जिद्दो-जुहूद करता रहे, जिस तरह नबी और उनके शुरू के पैरोकार (अनुयायी) करते रहे हैं। दूसरे यह कि वह हक़ीक़त में वहाँ से निकलने की कोई राह न पाता हो और सख़्त नफ़रत और बेदिली के साथ वहाँ मजबूरी की हालत में ठहरा हुआ हो। इन दो सूरतों के सिवाय हर सूरत में दारुल-कुफ़्र में ठहरे रहना अपने-आप में एक गुनाह है और इस गुनाह के लिए यह वजह कोई बहुत वज़नी वजह नहीं है कि हम दुनिया में कोई ऐसा दारुल-इस्लाम पाते ही नहीं हैं, जहाँ हम हिजरत करके जा सकें। अगर कोई दारुल-इस्लाम मौजूद नहीं है, तो क्या ख़ुदा की ज़मीन में कोई पहाड़ या कोई जंगल भी ऐसा नहीं है जहाँ आदमी पेड़ों के पत्ते खाकर और बकरियों का दूध पीकर गुज़र कर सकता हो और कुफ़्र के अहकाम की इताअत से बचा रहे? कुछ लोगों को एक हदीस से ग़लतफ़हमी हुई है जिसमें कहा गया है कि 'मक्का फ़तह होने के बाद अब हिजरत नहीं है।' हालाँकि अस्ल में इस हदीस में कोई ऐसा हुक्म नहीं दिया गया है कि जो हमेशा लागू रहेगा, बल्कि सिर्फ़ उस वक़्त के हालात में अरबवालों से ऐसा कहा गया या। जब तक अरब का ज़्यादातर हिस्सा दारुल-कुफ़्र और दारुल-हर्ब था और सिर्फ़ मदीना और उसके आस-पास के इलाक़ों में इस्लामी अहकाम लागू हो रहे थे, मुसलमानों के लिए ताक़ीदी हुक्म था कि हर तरफ़ से सिमटकर दारुल-इस्लाम में आ जाएँ। मगर जब फ़तह मक्का के बाद अरब में कुफ़्र का ज़ोर टूट गया और क़रीब-क़रीब पूरा मुल्क इस्लाम के तहत आ गया तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अब हिजरत की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही है। इससे यह मुराद हरगिज़ नहीं था कि तमाम दुनिया के मुसलमानों के लिए तमाम हालात में क़ियामत तक के लिए कि हिजरत का फ़र्ज़ होना ख़त्म कर दिया गया।
وَإِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَقۡصُرُواْ مِنَ ٱلصَّلَوٰةِ إِنۡ خِفۡتُمۡ أَن يَفۡتِنَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْۚ إِنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ كَانُواْ لَكُمۡ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 93
(101) और जब तुम लोग सफ़र के लिए निकलो तो इसमें कोई हरज नहीं अगर नमाज़ को मुख़्तसर कर दो।132 (ख़ास तौर से) जबकि तुम्हें डर हो कि कुफ़्र करनेवाले लोग (दुश्मन) तुम्हें सताएँगे।133, क्योंकि वे खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी दुश्मनी पर तुले हुए हैं।
132. उस वक़्त के सफ़र में जबकि अम्न और सुकून के हालात हों, नमाज़ को मुख़्तसर करना (क़सर) यह है कि जिन वक़्तों की नमाज़ में चार रकअतें फ़र्ज़ हैं उनमें दो रकअतें पढ़ी जाएँ और अगर जंग की हालत हो उसमें क़स्र की कोई हद तय नहीं है। जंगी हालात जिस तरह भी इजाज़त दें, नमाज़ पढ़ी जाए। जमाअत का मौक़ा हो तो जमाअत से पढ़ो वरना अकेले-अकेले करके ही सही। क़िबले की तरफ़ रुख़़ नहीं कर सकते हो तो जिधर रुख़ हो, सवारी पर बैठे हुए और चलते हुए भी पढ़ सकते हो। रुकू और सजदा मुमकिन न हो तो इशारे ही से सही। ज़रूरत पड़े तो नमाज़ ही की हालत में चल भी सकते हो। कपड़ों को ख़ून लगा हुआ हो तब भी कोई हरज नहीं। इन सब आसानियों के बावजूद अगर ऐसी ख़तरनाक हालत हो कि किसी तरह नमाज़ न पढ़ी जा सके तो मजबूरन आगे के लिए टाल दिया जाए, जैसा कि ख़न्दक़ की लड़ाई के मौक़े पर हुआ। इस बात में उलमा की राएँ अलग-अलग हैं कि सफ़र में सिर्फ़ फ़र्ज़ पढ़े जाएँ या सुन्नतें भी। नबी (सल्ल०) के अमल से जो कुछ साबित है वह यह है कि आप (सल्ल०) सफ़र में फ़ज्र की सुन्नतों और इशा के वित्र को तो पाबन्दी से पढ़ते थे मगर बाक़ी वक़्तों में सिर्फ़ फ़र्ज़ पढ़ते थे, आप (सल्ल०) ने सुन्नतें पाबन्दी से पढ़ी हों यह साबित नहीं है। अलबत्ता नफ़्ल नमाज़ों का जब मौक़ा मिलता था पढ़ लिया करते थे, यहाँ तक कि सवारी पर बैठे हुए भी पढ़ते रहते थे। इसी वजह से हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने लोगों को सफ़र में फ़ज्र के सिवा दूसरे वक़्तों की सुन्नतें पढ़ने से मना किया है। मगर बहुत-से आलिम सुन्नतों को छोड़ देने और पढ़ने दोनों को जाइज क़रार देते हैं, और उसे बन्दे के इख़्तियार पर छोड़ देते हैं। हनफ़ी उलमा ने जो रास्ता इख़्तियार किया है वह यह है कि मुसाफ़िर जब रास्ता तय कर रहा हो तो सुन्नतें न पढ़ना बेहतर है और जब किसी मक़ाम पर ठहरे और इत्मीनान हासिल हो तो पढ़ना बेहतर है। जिस सफ़र में क़स्र किया जा सकता है उसके लिए कुछ इमामों (उलमा) ने यह शर्त लगाई है। कि वह सफ़र अल्लाह के रास्ते में होना चाहिए, जैसे जिहाद, हज, उमरा और इल्म हासिल करना वग़ैरा। इब्ने-उमर, इब्ने-मसऊद (रज़ि०) और अता का यही फ़तवा है। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद कहते हैं कि सफ़र किसी ऐसे मक़सद के लिए होना चाहिए जो शरीअत में जाइज़ हो, हराम और नाजाइज़ मक़सद के लिए जो सफ़र किया जाए उसमें क़स्र की इजाज़त से फ़ायदा उठाने का किसी को हक़ नहीं है। हनफ़ी उलमा कहते हैं कि क़स्र हर सफ़र में किया जा सकता है, रही यह बात कि सफ़र किस तरह का है तो वह अपने आप में इनाम या सज़ा का हक़दार हो सकता है, मगर क़स्र की इजाज़त पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। ऊपर आयत के तर्जमे में 'हरज नहीं’ आया है जिसका मतलब कुछ इमामों (आलिमों) ने यह समझा है कि सफ़र में क़स्र करना ज़रूरी नहीं है, बल्कि सिर्फ़ इसकी इजाज़त है। आदमी चाहे तो इससे फ़ायदा उठाए वरना पूरी नमाज़ पढ़े। यही राय इमाम शाफ़िई (रह०) ने इख़्तियार की है। हालाँकि वे क़स्र करने को बेहतर कहते हैं और क़स्र न करने के बारे में कहते हैं कि वह बेहतर चीज़ का छोड़ देना है। इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक क़स्र करना वाजिब तो नहीं है, मगर न करना मकरूह (नापसन्दीदा) है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नजदीक क़स्र करना वाजिब है और यही राय एक रिवायत में इमाम मालिक (रह०) से बयान की गई है। हदीस से साबित है कि नबी (सल्ल०) ने हमेशा सफ़र में क़स्र किया है और किसी भरोसेमन्द रिवायत में यह बात नहीं बयान हुई है कि आप (सल्ल०) ने कभी सफ़र में चार रकअतें पढ़ी हों। इब्ने-उमर फ़रमाते हैं कि मैं नबी (सल्ल०) और अबू-बक्र और उमर और उस्मान (रज़ि०) के साथ सफ़रों में रहा हूँ और कभी नहीं देखा कि उन्होंने क़स्र न किया हो। इसी की ताईद में इब्ने-अब्बास और दूसरे बहुत-से सहाबा से भी मुस्तनद रिवायतें बयान हुई हैं। हज़रत उस्मान (रज़ि०) ने जब हज के मौक़े पर मिना में चार रकअतें पढ़ाईं तो सहाबा ने इस पर एतिराज़ किया और हज़रत उस्मान ने यह जवाब देकर लोगों को मुत्मइन किया कि मैने मक्का में शादी कर ली है, और चूँकि नबी (सल्ल०) से मैंने सुना है कि जो आदमी किसी शहर में शादी कर ले तो वह मानो उस शहर का बाशिन्दा है। इसलिए मैंने यहाँ क़स्र नहीं किया। इन बहुत-सी रिवायतों के ख़िलाफ़ दो रिवायतें हज़रत आइशा (रज़ि०) से बयान हुई हैं, जिनसे मालूम होता है कि क़स्र करना और पूरी नमाज़ पढ़ना दोनों ठीक हैं, लेकिन ये रिवायतें सनद के लिहाज़ से कमज़ोर होने के अलावा ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) ही के साबित-शुदा मसलक के ख़िलाफ़ हैं। अलबत्ता यह सही है कि एक हालत ऐसी भी होती है जिसमें आदमी सफ़र और क़ियाम दोनों के बीच होता है जिसमें एक ही वक़्ती (अस्थायी) क़ियामगाह पर मौक़े के लिहाज से कभी क़स्र कर सकते हैं और भी पूरी नमाज़ पढ़ सकते हैं। और शायद हज़रत आइशा (रज़ि०) ने इसी हालत के बारे में फ़रमाया होगा कि नबी (सल्ल०) ने सफ़र में क़स्र भी किया है और पूरी भी पढ़ी है। रहे क़ुरआन के ये अलफ़ाज़ कि 'हरज नहीं, अगर मुख़्तसर (क़स्र) करो' तो इनकी नज़ीर सूरा-2 अल-बक़रा के रुकू 19 (आयत-153 से 163) में गुज़र चुकी है, जहाँ सफ़ा और मरवा के बीच सई के बारे में भी यही अलफ़ाज़ कहे गए हैं, हालाँकि यह सई हज के अरकान में से है और वाजिब है। अस्ल में दोनों जगह यह कहने का मक़सद लोगों के इस अन्देशे को दूर करना है। कि ऐसा करने से कहीं कोई गुनाह तो लाज़िम नहीं आएगा या सवाब में कमी तो नहीं होगी। इस बात में भी इख़्तिलाफ़ पाया जाता है कि कितने दूर सफ़र पर क़स्र किया जा सकता है। ज़ाहिरिया के नज़दीक हर सफ़र में क़स्र किया जा सकता है, चाहे कम हो या ज़्यादा। इमाम मालिक के नज़दीक 48 मील या एक दिन-रात से कम के सफ़र में क़स्र नहीं है। यही राय इमाम अहमद (रह०) की है। इब्ने-अब्बास का भी यही मानना है और इमाम शाफ़िई (रह०) से भी एक बयान इसकी ताईद में है। हज़रत अनस 15 मील के सफ़र में कसर करना जाइज़ समझते हैं। इमाम औज़ाई और इमाम ज़ुहरी, हज़रत उमर (रज़ि०) की इस राय को लेते हैं कि एक दिन का सफ़र क़स्र के लिए काफ़ी है। हसन बसरी (रह०) दो दिन और इमाम अबू-यूसुफ़ दो दिन से ज़्यादा की दूरी के सफ़र में क़स्र को जाइज़ समझते हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा के नज़दीक जिस सफ़र में पैदल या ऊँट की सवारी से तीन दिन लगते हों (यानी लगभग 18 फ़रसंग या 54 मील) उसमें क़स्र किया जा सकता है। यही राय इब्ने-उमर, इब्ने-मसऊद और हज़रत उसमान (रज़ि०) की है। सफ़र में क़ियाम के दौरान कितने दिन तक क़स्र किया जा सकता है, बहुत-से इमामों (आलिमों) के दरमियान इसमें भी इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक जहाँ आदमी ने चार दिन ठहरने का इरादा कर लिया हो वहाँ पूरी नमाज़ पढ़नी होगी। इमाम मालिक और इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक जहाँ चार दिन से ज़्यादा ठहरने का इरादा हो वहाँ क़स्र जाइज़ नहीं। इमाम औज़ाई (रह०) 13 दिन और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) 15 दिन या उससे ज़्यादा ठहरने की नीयत पर पूरी नमाज़ अदा करने का हुक्म देते हैं। नबी (सल्ल०) से इस सिलसिले में कोई वाज़ेह हुक्म बयान नहीं हुआ है। और अगर किसी जगह आदमी मजबूरी में रुका हुआ हो और हर वक़्त यह ख़याल हो कि मजबूरी दूर होते ही वतन वापस हो जाएगा तो सभी आलिमों का इत्तिफ़ाक़ है कि ऐसी जगह मुद्दत को मुतैयन (तय) किए बग़ैर क़स्र किया जाता रहेगा। सहाबा (रज़ि०) से बहुत-सी मिसालें मिलती हैं कि उन्होंने ऐसे हालात में दो-दो साल लगातार क़सर किया है। इमाम अहमद बिन-हंबल (रह०) इसी को सामने रख कर क़ैदी को भी उसके पूरे क़ैद के ज़माने में क़स्र की इजाज़त देते हैं।
133. ज़ाहिरी और ख़ारिजी फ़िरक़ों ने इस बात का यह मतलब लिया है कि नमाज़ का मुख़्तसर करना (क़स्र) सिर्फ़ लड़ाई की हालत के लिए है और अमन की हालत के सफ़र में क़स्र करना क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। लेकिन हदीस में मुस्तनद रिवायत से साबित है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने जब यही शुब्हाा नबी (सल्ल०) के सामने पेश किया तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह क़स्र की इजाज़त एक इनआम है जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है, इसलिए उसके इनाम को क़ुबूल करो।” (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद, मुस्नद अहमद) यह बात बहुत सारी रवायतों से साबित है। कि नबी (सल्ल०) ने अमन और ख़ौफ़ दोनों हालतों के सफ़र में क़स्र किया है। इब्ने अब्बास बयान करते हैं कि “नबी (सल्ल०) मदीना से मक्का गए और उस वक़्त रब्बुल-आलमीन के सिवा किसी का खौफ़ न था, मगर आप (सल्ल०) ने (चार के बजाय) दो रकअतें पढ़ीं।” (हदीसः नसई) इसी वजह से मैंने तर्जमे में 'ख़ास तौर पर’ के अलफ़ाज़ क़ौसैन (कोष्ठक) में बढ़ा दिए हैं।
وَإِذَا كُنتَ فِيهِمۡ فَأَقَمۡتَ لَهُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَلۡتَقُمۡ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُم مَّعَكَ وَلۡيَأۡخُذُوٓاْ أَسۡلِحَتَهُمۡۖ فَإِذَا سَجَدُواْ فَلۡيَكُونُواْ مِن وَرَآئِكُمۡ وَلۡتَأۡتِ طَآئِفَةٌ أُخۡرَىٰ لَمۡ يُصَلُّواْ فَلۡيُصَلُّواْ مَعَكَ وَلۡيَأۡخُذُواْ حِذۡرَهُمۡ وَأَسۡلِحَتَهُمۡۗ وَدَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ تَغۡفُلُونَ عَنۡ أَسۡلِحَتِكُمۡ وَأَمۡتِعَتِكُمۡ فَيَمِيلُونَ عَلَيۡكُم مَّيۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن كَانَ بِكُمۡ أَذٗى مِّن مَّطَرٍ أَوۡ كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَن تَضَعُوٓاْ أَسۡلِحَتَكُمۡۖ وَخُذُواْ حِذۡرَكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 94
(102) और ऐ नबी! जब तुम मुसलमानों के बीच हो और (लड़ाई की हालत में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े134 हो तो चाहिए कि उनमें135 से एक गरोह तुम्हारे साथ खड़ा हो और अपने हथियार लिए रहे, फिर जब वह सजदा कर ले तो पीछे चला जाए और दूसरा गरोह जिसने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी है आकर तुम्हारे साथ पढ़े और वह भी चौकन्ना रहे और अपने हथियार लिए रहे,136 क्योंकि काफ़िर (दुश्मन) इस ताक में है कि तुम अपने हथियारों और अपने सामान की तरफ़ से ज़रा ग़ाफ़िल हों तो वे तुम पर एक साथ टूट पड़ें। अलबत्ता अगर तुम बारिश की वजह से तकलीफ़ महसूस करो या बीमार हो तो हथियार रख देने में कोई हरज नहीं। मगर फिर भी चौकन्ने रहो। यक़ीन रखो कि अल्लाह काफ़िरों के लिए रुसवा कर देनेवाला अज़ाब तैयार कर रखा है।137
134. इमाम अबू-यूसुफ़ और हसन-बिन-ज़ियाद ने इन अलफ़ाज़ से यह गुमान किया है कि ख़ौफ़ की हालत की नमाज़ सिर्फ़ नबी (सल्ल०) के ज़माने के लिए ख़ास थी। लेकिन क़ुरआन में इसकी बहुत-सी मिसालें मौजूद हैं कि नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके एक हुक्म दिया गया है और वही हुक्म आप (सल्ल०) के बाद आपके जानशीनों के लिए भी है। इसलिए ख़ौफ़ की हालत की नमाज़ को नबी (सल्ल०) के साथ ख़ास करने की कोई वजह नहीं। फिर बहुत-से बड़े सहाबा से साबित है कि उन्होंने नबी (सल्ल०) के बाद भी ख़ौफ़ की हालत की नमाज़ पढ़ी है और इस सिलसिले में किसी सहाबी का इख़्तिलाफ़ बयान नहीं हुआ है।
135. ख़ौफ़ की नमाज़ का यह हुक्म उस सूरत के लिए है जबकि दुश्मन के हमले का ख़तरा तो हो, मगर अमली तौर पर लड़ाई छिड़ी हुई न हो। रही यह सूरत कि अमली तौर पर लड़ाई हो रही हो तो उस सूरत में हनफ़ी आलिमों के नज़दीक नमाज़ उस वक़्त न पढकर बाद में पढ़ी जाएगी। इमाम मालिक (रह०) और इमाम सौरी (रह०) के नज़दीक अगर रुकू और सजदे करना मुमकिन न हो तो इशारों से पढ़ ली जाए। इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक नमाज़ की हालत में थोड़ी झड़प भी की जा सकती है। नबी (सल्ल०) के अमल से साबित है कि आप (सल्ल०) ने ख़न्दक़ की जंग के मौक़े पर चार नमाज़ें नहीं पढ़ीं और फिर मौक़ा पाकर तरतीब के साथ इन्हें अदा किया, हालाँकि ख़न्दक़ की लड़ाई से पहले ख़ौफ़ की हालत में नमाज़ का हुक्म आ चुका था।
136. खौफ़ की हालत में नमाज़ कैसे पढ़ी जाए इस बात का दारोमदार बड़ी हद तक जंगी हालात पर है। नबी (सल्ल०) ने अलग-अलग हालात में अलग-अलग तरीक़ों से नमाज़ पढ़ाई है और वक़्त के इमाम को यह इख़्तियार है कि इन तरीक़ों में से जिस तरीक़े की इजाज़त जंगी सूरते-हाल दे, उसी को अपनाए। एक तरीक़ा यह है कि फ़ौज का एक हिस्सा इमाम के साथ नमाज़ पढ़े और दूसरा हिस्सा दुश्मन के मुक़ाबले पर रहे। फिर जब एक रकअत पूरी हो जाए तो पहला हिस्सा सलाम फेरकर चला जाए और दूसरा हिस्सा आकर दूसरी रकअत इमाम के साथ पूरी करे। इस तरह इमाम की दो रकअतें होंगी और फ़ौज की एक-एक रकअत। दूसरा तरीक़ा यह है कि एक हिस्सा इमाम के साथ एक रकअत पढ़कर चला जाए, फिर दूसरा हिस्सा आकर एक रकअत इमाम के पीछे पढ़े, फिर दोनों हिस्से बारी-बारी से आकर अपनी छूटी हुई एक-एक रकअत ख़ुद से पढ़ लें। इस तरह दोनों हिस्सों की एक-एक रकअत इमाम के पीछे अदा होगी और एक रकअत अलग अपने तौर पर। तीसरा तरीक़ा यह है कि इमाम के पीछे फ़ौज का एक हिस्सा दो रकअतें अदा करे और तशह्हुद के बाद सलाम फेरकर चला जाए। फिर दूसरा हिस्सा तीसरी रकअत में आकर शरीक हो और इमाम के साथ सलाम फेरे। इस तरह इमाम की चार और फ़ौज की दो-दो रकअतें होंगी। चौथा तरीक़ा यह है कि फ़ौज का एक हिस्सा इमाम के साथ एक रकअत पढ़े और जब इमाम दूसरी रकअत के लिए खड़ा हो तो मुक़्तदी (इमाम के पीछे नमाज़ पढ़नेवाले) अपने तौर पर एक रकअत तशहहुद के साथ पढ़कर सलाम फेर दें। फिर दूसरा हिस्सा आकर इस हाल में इमाम के पीछे खड़ा हो कि अभी इमाम दूसरी ही रकअत में हो और ये लोग बाक़ी नमाज़ इमाम के साथ अदा करने के बाद एक रकअत ख़ुद पढ़ लें। इस सूरत में इमाम को दूसरी रकअत में लम्बा क़ियाम करना होगा। पहली सूरत को इब्ने-अब्बास, जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह और मुजाहिद (रज़ि०) ने रिवायत किया है। दूसरे तरीक़े को अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने रिवायत किया है और हनफ़ी उलमा इसी तरीक़े को तरजीह देते हैं। तीसरे तरीक़े को हसन बसरी (रह०) ने अबू-बकरह से रिवायत किया है। और चौथे तरीक़े को इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) ने थोड़े से फ़र्क़ के साथ तरजीह दी है और इसको उन्होंने सुहैल-बिन-अबी-हसमा की रिवायत से लिया है। इनके अलावा ख़ौफ़ की हालत में नमाज़ के और भी तरीक़े हैं जिनकी तफ़सीली जानकारी इस्लामी फ़िक़्ह की उन किताबों में मिल सकती है जिनमें इस बारे में तफ़सील से बात की गई है।
137. यानी यह एहतियात जिसका हुक्म तुम्हें दिया जा रहा है, सिर्फ़ दुनियावी तदबीरों के लिहाज़ से है, वरना अस्ल में हार और जीत का दारोमदार तुम्हारी तदबीरों और उपाय पर नहीं, बल्कि अल्लाह के फ़ैसलों पर है। इसलिए इन एहतियाती तदबीरों पर अमल करते हुए तुम्हें इस बात हा यक़ीन रखना चाहिए कि जो लोग अल्लाह के नूर को अपनी फूँकों से बुझाने की कोशिश कर रहे हैं, अल्लाह उन्हें रुसवा करेगा।
فَإِذَا قَضَيۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِكُمۡۚ فَإِذَا ٱطۡمَأۡنَنتُمۡ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۚ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ كَانَتۡ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ كِتَٰبٗا مَّوۡقُوتٗا ۝ 95
(103) फिर जब नमाज़ से फ़ारिग हो जाओ तो खड़े और बैठे और लेटे हर हाल में अल्लाह को याद करते रहो। और जब इत्मीनान हासिल हो जाए तो पूरी नमाज़ पढ़ो। नमाज़ हक़ीक़त में ऐसा क़र्ज़ है जो वक़्त की पाबन्दी के साथ ईमानवालों पर लाज़िम किया गया है।
وَلَا تَهِنُواْ فِي ٱبۡتِغَآءِ ٱلۡقَوۡمِۖ إِن تَكُونُواْ تَأۡلَمُونَ فَإِنَّهُمۡ يَأۡلَمُونَ كَمَا تَأۡلَمُونَۖ وَتَرۡجُونَ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا يَرۡجُونَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا ۝ 96
(104) इस गरोह138 का पीछा करने में कमज़ोरी न दिखाओ। अगर तुम तकलीफ़ उठा रहे हो तो तुम्हारी तरह वे भी तकलीफ़ उठा रहे हैं। और तुम अल्लाह से उस चीज़ के उम्मीदवार हो जिसके वे उम्मीदवार नहीं हैं।139 अल्लाह सब कुछ जानता है और हिकमतवाला व गहरी सोचवाला है।
138. यानी इस्लाम-दुश्मनों का गरोह जो उस वक़्त इस्लाम की दावत और इस्लामी निज़ाम को क़ायम करने की राह में रुकावट बनकर खड़ा हुआ था।
139. यानी ताज्जुब की बात है, अगर ईमानवाले हक़ की ख़ातिर उतनी तकलीफ़ें भी बर्दाश्त न करें जितनी इस्लाम-दुश्मन लोग बातिल और झूठ की ख़ातिर बर्दाश्त कर रहे हैं, हालाँकि उनके सामने सिर्फ़ दुनिया और उसके नापायदार फ़ायदे हैं और इसके बरख़िलाफ़ ईमानवाले लोग आसमानों और ज़मीन के मालिक की ख़ुशनूदी, उसके क़रीब होने और उसके हमेशा के इनामों के उम्मीदवार हैं।
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِتَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِمَآ أَرَىٰكَ ٱللَّهُۚ وَلَا تَكُن لِّلۡخَآئِنِينَ خَصِيمٗا ۝ 97
(105) ऐ नबी!140 हमने यह किताब हक़ के साथ तुम्हारी तरफ़ उतारी है, ताकि जो सीधा रास्ता अल्लाह ने तुम्हें दिखाया है उसके मुताबिक़ लोगों के बीच फ़ैसला करो। तुम बददियानत (विश्वासघाती) लोगों की तरफ़ से झगड़नेवाले न बनो,
140. इस रुकू और इसके बाद वाले रुकू (आयत-105 से 113 तक) में एक अहम मामले में बात की गई है जो उसी ज़माने में पेश आया था। क़िस्सा यह है कि अनसार के क़बीले बनी-ज़फ़र में एक आदमी तअमा या बशीर-बिन-उबैरिज़्क़ था। उसने एक अनसारी की ज़िरह (कवच) चुरा ली और जब उसकी छान-बीन शुरू हुई तो चोरी का माल एक यहूदी के यहाँ रख दिया। ज़िरह के मालिक ने नबी (सल्ल०) के सामने मसला रखा और तअमा पर अपना शुब्हाा ज़ाहिर किया। मगर तअमा और उसके भाई-बन्धुओं और उसके क़बीले बनी-जफ़र के बहुत-से लोगों ने आपस में साँठ-गाँठ करके उस यहूदी पर इलज़ाम थोप दिया। यहूदी से पूछा गया तो उसने कहा कि मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं। लेकिन ये लोग तअमा की हिमायत में ज़ोर-शोर से वकालत करते रहे और कहा कि यह शरारती यहूदी, जो हक़ का इनकार और अल्लाह के रसूल का इनकार करनेवाला है, इसकी बात का क्या भरोसा, बात हमारी तसलीम की जानी चाहिए, क्योंकि हम मुसलमान हैं। क़रीब था कि नबी (सल्ल०) इस मुक़द्दमे की ज़ाहिरी रिपोर्ट से मुतास्सिर होकर उस यहूदी के ख़िलाफ़ फ़ैसला कर देते और मुक़द्दमा करनेवाले ज़िरह के मालिक को भी बनी-उबैरिज़्क़ पर इलज़ाम लगाने पर ख़बरदार करते। इतने में वह्य आई और मामले की सारी हक़ीक़त खोल दी गई। हालाँकि एक क़ाज़ी (जज) की हैसियत से नबी (सल्ल०) का रिपोर्ट के मुताबिक़ फ़ैसला कर देना अपने-आप में आप (सल्ल०) के लिए कोई गुनाह न होता। और ऐसी सूरतें क़ाज़ियों और जजों को पेश आती है कि उनके सामने ग़लत रिपोर्ट पेश करके हक़ीक़त के ख़िलाफ़ फ़ैसले हासिल कर लिए जाते हैं। लेकिन उस वक़्त जबकि इस्लाम और कुफ़्र के बीच एक ज़बरदस्त कशमकश जारी थी अगर नबी (सल्ल०) मुक़द्दमे की रिपोर्ट के मुताबिक़ यहूदी के ख़िलाफ़ फ़ैसला कर देते तो इस्लाम के मुख़ालिफ़ों को आपके ख़िलाफ़ और पूरी इस्लामी जमाअत और ख़ुद इस्लाम की दावत के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त अख़लाक़ी हथियार मिल जाता। वे यह कहते फिरते कि अजी, यहाँ हक़ और इनसाफ़ का क्या सवाल है, यहाँ तो वही जत्थेबन्दियाँ और असबियत (पक्षपात) काम कर रही है जिसके ख़िलाफ़ तबलीग़ की जाती है। इसी ख़तरे से बचाने के लिए अल्लाह ने ख़ास तौर पर इस मुक़द्दमे में दख़ल दिया। इन आयतों में एक तरफ़ उन मुसलमानों को सख़्ती के साथ मलामत की गई है जिन्होंने सिर्फ़ ख़ानदान और क़बीले की असबियत (पक्षपात) में मुजरिमों की हिमायत की थी। दूसरी तरफ़ आम मुसलमानों को यह सबक़ दिया गया है कि इनसाफ़ के मामले में किसी तास्सुब (पक्षपात) का दख़ल नहीं होना चाहिए। यह हरगिज़ दियानतदारी नहीं है कि अपने गरोह का आदमी अगर ग़लती पर हो तो उसकी बेजा हिमायत की जाए और दूसरे गरोह का आदमी अगर हक़ पर हो तो उसके साथ बे-इनसाफ़ी की जाए।
وَٱسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 98
(106) और अल्लाह से माफ़ी की दरख़ास्त करो, वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहमवाला है।
وَلَا تُجَٰدِلۡ عَنِ ٱلَّذِينَ يَخۡتَانُونَ أَنفُسَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ خَوَّانًا أَثِيمٗا ۝ 99
(107) जो लोग ख़ुद अपने आपसे ख़ियानत करते हैं।141 तुम उनकी हिमायत न करो। अल्लाह को ऐसा आदमी पसन्द नहीं है जो ख़ियानत करनेवाला और गुनाह करनेवाला हो।
141. जो आदमी दूसरे के साथ ख़ियानत करता है वह अस्ल में सबसे पहले ख़ुद अपने आपके साथ ख़ियानत करता है; क्योंकि दिल और दिमाग़ की जो क़ुव्वतें उसके पास अमानत के तौर पर हैं उनका बेजा इस्तेमाल करके वह उन्हें मजबूर करता है कि ख़ियानत (भ्रष्टाचार) में उसका साथ दें। और अपने ज़मीर (अन्तःकरण) को, जिसे अल्लाह ने उसके अख़लाक़ का मुहाफ़िज़ बनाया था, इस हद तक दबा देता है कि वह इस ख़ियानत के काम में रुकावट बनने के क़ाबिल नहीं रहता। जब इनसान अपने अन्दर इस ज़ालिमाना हरकत को मुकम्मल कर लेता है तब कहीं बाहर उससे ख़ियानत और गुनाह के काम होते हैं।
يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَلَا يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱللَّهِ وَهُوَ مَعَهُمۡ إِذۡ يُبَيِّتُونَ مَا لَا يَرۡضَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطًا ۝ 100
(108 ) ये लोग इनसानों से अपनी करतूतों को छिपा सकते हैं मगर ख़ुदा से नहीं छिपा सकते। वह तो उस वक़्त भी उनके साथ होता है जब ये रातों को छिपकर उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ मश्वरे करते हैं। इनके सारे कामों का अल्लाह अपने दायरे में लिए हुए है
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ جَٰدَلۡتُمۡ عَنۡهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَمَن يُجَٰدِلُ ٱللَّهَ عَنۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَم مَّن يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 101
(109) हाँ, तुम लोगों ने इन मुजरिमों की तरफ़ से दुनिया की ज़िन्दगी में तो झगड़ा कर लिया, मगर क़ियामत के दिन इनके लिए अल्लाह से कौन झगड़ा करेगा? आख़िर वहाँ कौन इनका वकील होगा?
وَمَن يَعۡمَلۡ سُوٓءًا أَوۡ يَظۡلِمۡ نَفۡسَهُۥ ثُمَّ يَسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَ يَجِدِ ٱللَّهَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 102
(110) अगर कोई आदमी बुरा काम कर बेठे या ख़ुद अपने पर ज़ुल्म कर जाए और उसके बाद अल्लाह से माफ़ी की दरख़ास्त करे तो अल्लाह को माफ़ करनेवाला और रहमवाला पाएगा।
وَمَن يَكۡسِبۡ إِثۡمٗا فَإِنَّمَا يَكۡسِبُهُۥ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 103
(111) मगर जो बुराई कमा ले तो उसकी यह कमाई उसी के लिए वबाल होगी, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है और वह गहरी समझवाला और सब कुछ जाननेवाला है।
وَمَن يَكۡسِبۡ خَطِيٓـَٔةً أَوۡ إِثۡمٗا ثُمَّ يَرۡمِ بِهِۦ بَرِيٓـٔٗا فَقَدِ ٱحۡتَمَلَ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 104
(112) फिर जिसने कोई ख़ता या गुनाह करके उसका इलज़ाम किसी बे-गुनाह पर थोप दिया उसने तो बड़े बोहतान और खुले गुनाह का बोझ समेट लिया।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ وَرَحۡمَتُهُۥ لَهَمَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ أَن يُضِلُّوكَ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡۖ وَمَا يَضُرُّونَكَ مِن شَيۡءٖۚ وَأَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمۡ تَكُن تَعۡلَمُۚ وَكَانَ فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ عَظِيمٗا ۝ 105
(113) ऐ नबी! अगर अल्लाह का फ़ज़्ल (अनुग्रह) तुम पर न होता और उसकी रहमत तुम्हारे साथ न होती तो इनमें से एक गरोह ने तो तुम्हें ग़लतफ़हमी में डाल देने का फ़ैसला कर ही लिया था, हालाँकि हक़ीक़त में वे ख़ुद अपने सिवा किसी को ग़लतफ़हमी में नहीं डाल रहे थे और तुम्हारा कोई नुक़सान नहीं कर सकते थे।142 अल्लाह ने तुम पर किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) उतारी है और तुमको वह कुछ बताया है। जो तुम्हे मालूम नहीं था, और उसका फ़ज़्ल तुम पर बहुत है।
142. यानी अगर वे ग़लत रूदाद पेश करके तुम्हें ग़लतफ़हमी में डालने में क़ामयाब हो भी जाते। और अपने हक़ में इनसाफ़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला हासिल कर लेते तो नुक़सान उन्हीं का था, तुम्हारा कुछ भी न बिगड़ता; क्योंकि ख़ुदा के नज़दीक मुजरिम वे होते, न कि तुम। जो आदमी हाकिम को धोखा देकर अपने हक़ में ग़लत फ़ैसला हासिल करता है, वह अस्ल में ख़ुद अपने आपको इस ग़लतफ़हमी में डालता है कि इन तदबीरों से हक़ उसके साथ हो गया, हालाँकि हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक हक़ जिसका है, उसी का रहता है और धोखा खाए हुए हाकिम के फ़ैसले से हक़ीक़त पर कोई असर नहीं पड़ता। (देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-197)
۞لَّا خَيۡرَ فِي كَثِيرٖ مِّن نَّجۡوَىٰهُمۡ إِلَّا مَنۡ أَمَرَ بِصَدَقَةٍ أَوۡ مَعۡرُوفٍ أَوۡ إِصۡلَٰحِۭ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 106
(114) लोगों की ख़ुफ़िया कानाफूसियों में ज़्यादातर कोई भलाई नहीं होती। हाँ, अगर कोई छिपे तौर पर सदक़ा या किसी भले काम के लिए उकसाए या लोगों के मामलों में सुधार के लिए किसी से कुछ कहे तो अलबत्ता यह भली बात है और जो कोई अल्लाह की ख़ुशी चाहने के लिए ऐसा करेगा उसे हम बड़ा बदला देंगे।
وَمَن يُشَاقِقِ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَتَّبِعۡ غَيۡرَ سَبِيلِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ نُوَلِّهِۦ مَا تَوَلَّىٰ وَنُصۡلِهِۦ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 107
(115) मगर जो रसूल की दुश्मनी पर उतर आए और ईमानवालों के रवैये के सिवा किसी आर राह पर चले, जबकि उसपर सीधा रास्ता वाज़ेह हो चुका हो, तो उसको हम उसी तरफ़ चलाएँगे जिधर वह ख़ुद फिर गया143 और उसे जहन्नम में झोंकेंगे जो सबसे बुरा ठिकाना है।
143. ऊपर बयान किए गए मुक़द्दमे में जब अल्लाह की वह्य की बुनियाद पर नबी (सल्ल०) ने उस मुसलमान के ख़िलाफ़ और उस बे-गुनाह यहूदी के हक़ में फ़ैसला दे दिया तो इस मुनाफ़िक़ पर जाहिलियत का इतना बड़ा दौरा पड़ा कि वह मदीना से निकलकर इस्लाम और नबी (सल्ल०) के दुश्मनों के पास मक्का चला गया और खुल्लम-खुल्ला दुश्मनी पर उतर आया। इस आयत में उसकी इसी हरकत की तरफ़ इशारा है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 108
(116) अल्लाह के यहाँ144 बस शिर्क ही की माफ़ी नहीं है, इसके सिवा और कुछ माफ़ हो सकता है जिसे वह माफ़ करना चाहे। जिसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराया वह तो गुमराही में बहुत दूर निकल गया।
144. इस आयत और इससे आगे की कुछ आयतों में ऊपर कही गई बात को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि अपनी जाहिलियत के तैश में आकर यह आदमी जिस रास्ते की तरफ़ गया है, कैसा रास्ता है और नेक लोगों के गरोह से अलग होकर जिन लोगों का साथ इसने पकड़ा है वे कैसे लोग हैं।
إِن يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ إِنَٰثٗا وَإِن يَدۡعُونَ إِلَّا شَيۡطَٰنٗا مَّرِيدٗا ۝ 109
(117) वे अल्लाह को छोड़कर देवियों को माबूद बनाते हैं। वे उस बाग़ी शैतान को माबूद बनाते हैं145
145. शैतान को इस मानी में तो कोई भी माबूद (उपास्य) नहीं बनाता कि उसके आगे पूजा और इबादत की रस्में अदा करता हो और उसको ख़ुदा का दरजा देता हो। अलबत्ता उसे माबूद बनाने की सूरत यह है कि आदमी अपने मन की बागें शैतान के हाथ में दे देता है और जिधर-जिधर वह चलाता है उधर चलता है, मानो कि यह उसका बन्दा है और वह इसका ख़ुदा। इससे मालूम हुआ कि किसी की बातों पर बिना सोचे-समझे चलने और अन्धी पैरवी करने का नाम भी 'इबादत' है और जो आदमी इस तरह की इताअत करता है वह अस्ल में उसकी इबादत करता है, जिसे अल्लाह को छोड़ कर उसने अपना रब और हाकिम बनाया हो।
لَّعَنَهُ ٱللَّهُۘ وَقَالَ لَأَتَّخِذَنَّ مِنۡ عِبَادِكَ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 110
(118) जिस पर अल्लाह ने लानत की है। (वह उस शैतान का कहा मान रहे हैं) जिसने अल्लाह से कहा था कि “मैं तेरे बन्दों से एक मुक़र्रर हिस्सा ले कर रहूँगा,146
146. यानी उनके वक़्तों में, उनकी मेहनतों और कोशिशों में, उनकी ताक़तों और क़ाबिलियतों में, उनके माल और उनकी औलाद में अपना हिस्सा लगाऊँगा और उनको धोखा देकर ऐसा परचाऊँगा कि वे उन सारी चीज़ों का एक बड़ा हिस्सा मेरी राह में लगाएँगे।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا ۝ 111
(119) मैं उन्हें बहकाऊँगा; मै उन्हें आरज़ुओं में उलझाउँगा; मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे147 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ख़ुदा की साख़्त (संरचना) में फेर-बदल करेंगे।"148 उस शैतान को जिसने अल्लाह के बदले अपना दोस्त और सरपरस्त बना लिया वह खुले घाटे में पड़ गया।
147. इस आयत में अरब के लोगों के अन्धविश्वासों में से एक की तरफ़ इशारा है। उनके यहाँ क़ायदा यह था कि जब ऊँटनी पाँच या दस बच्चे जन लेती तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम पर छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊँट के वीर्य (नुत्फ़े) से दस बच्चे हो जाते उसे भी देवता के नाम पर दान कर दिया जाता था और कान चीरना इस बात की निशानी कि यह दान किया हुआ जानवर है।
148. ख़ुदा की साख़्त (संरचना) में बदलाव करने का मतलब चीज़ों की पैदाइशी बनावट में तबदीली करना नहीं है। अगर इसका यह मतलब लिया जाए तब तो पूरी इनसानी तहज़ीब (सभ्यता) ही शैतान के अपहरण (इग़वा) का नतीजा समझ जाएगी। इसलिए कि तहज़ीब (संस्कृति) तो नाम ही उन इस्तेमालों (प्रयोगों) का है जो इनसान ख़ुदा की बनाई हुई चीज़ों में करता है। अस्ल में इस जगह जिस तबदीली को शैतानी काम कहा गया है वह यह है कि इनसान किसी चीज़ से वह काम ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा नहीं किया है और किसी चीज़ से वह काम न ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा किया है। दूसरे अलफ़ाज़ में वे तमाम काम जो इनसान अपनी और चीज़ों की फ़ितरत के ख़िलाफ़ करता है और वे तमाम सूरतें जो वह फ़ितरत के मक़सद से बचने के लिए इख़्तियार करता है इस आयत के मुताबिक़ शैतान की गुमराही में डालनेवाली उकसाहटों का नतीजा हैं। मिसाल के तौर पर हज़रत लूत (अलैहि०) की क़ौम की बदकारी मर्दों का मर्दो के साथ जिस्मानी ताल्लुक़ात बनाना, बर्थ-कंट्रोल, रहबानियत (संन्यास), ब्रह्मचर्य, मर्दों और औरतों को बाँझ बनाना यानी नसबन्दी, मर्दों को हिजड़ा करना, औरतों को उन कामों से हटाना जो फ़ितरत ने उनके सिपुर्द किए हैं और उन्हें तमद्दुन (संस्कृति) के उन मैदानों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किए गए हैं। ये और इस तरह के दूसरे बहुत से काम जो शैतान के चेले दुनिया में कर रहे हैं, अस्ल में यह मानी रखते हैं कि ये लोग कायनात के पैदा करनेवाले ख़ुदा के ठहराए हुए क़ानूनों को ग़लत समझते हैं और उनको सुधारना चाहते हैं।
يَعِدُهُمۡ وَيُمَنِّيهِمۡۖ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 112
(120) वह इन लोगों से वादे करता है और इन्हें उम्मीदें दिलाता है,149 मगर शैतान के सारे वादे धोखे के सिवा और कुछ नहीं हैं।
149. शैतान का सारा कारोबार ही वादों और उम्मीदों के बल पर चलता है। वह इनसान को निजी तौर पर या इज्तिमाई तौर पर जब किसी ग़लत रास्ते की तरफ़ ले जाना चाहता है तो उसके आगे एक हरा-भरा बाग़ पेश कर देता है। किसी को इनफ़िरादी लुत्फ़ और लज़्ज़त और क़ामयाबियों की उम्मीद, किसी को क़ौमी सरबुलन्दियों की उम्मीद, किसी को इनसानी नस्ल की क़ामयाबी का यक़ीन, किसी को सच्चाई तक पहुँच जाने का इत्मीनान। किसी को यह भरोसा कि न ख़ुदा है, न आख़िरत, बस मरकर मिट्टी हो जाना है, किसी को यह तसल्ली कि आख़िरत है भी तो वहाँ की पकड़ से फ़ुलाँ की मेहरबानी और फ़ुलाँ की वजह से बच निकलोगे। ग़रज़ जो जिस वादे और जिस उम्मीद से धोखा खा सकता है उसके सामने वही पेश करता है और फाँस लेता है।
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ وَلَا يَجِدُونَ عَنۡهَا مَحِيصٗا ۝ 113
(121) इन लोगों का ठिकाना जहन्नम है जिससे छुटकारे कोई सूरत ये न पाएँगे।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٗاۚ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ قِيلٗا ۝ 114
(122) वे लोग जो ईमान ले आएँ और अच्छे काम करें, तो उन्हें हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे वहाँ हमेशा-हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का सच्चा वादा है और अल्लाह से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा।
لَّيۡسَ بِأَمَانِيِّكُمۡ وَلَآ أَمَانِيِّ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِۗ مَن يَعۡمَلۡ سُوٓءٗا يُجۡزَ بِهِۦ وَلَا يَجِدۡ لَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 115
(123) अंजाम न तुम्हारी आरज़ुओं पर निर्भर करता है और न किताबवालों की आरज़ुओं पर। जो भी बुराई करेगा उसका फल पाएगा और अल्लाह के मुक़ाबले में अपने लिए कोई हिमायती और मददगार न पा सकेगा।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ وَلَا يُظۡلَمُونَ نَقِيرٗا ۝ 116
(124) और जो अच्छा काम करेगा, शर्त यह है कि हो वह ईमानवाला, तो ऐसे ही लोग जन्नत में दाख़िल होंगे और उनका ज़र्रा बराबर भी हक़ न मारा जाएगा।
وَمَنۡ أَحۡسَنُ دِينٗا مِّمَّنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ وَٱتَّبَعَ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۗ وَٱتَّخَذَ ٱللَّهُ إِبۡرَٰهِيمَ خَلِيلٗا ۝ 117
(125) उस आदमी से बेहतर ज़िन्दगी का तरीक़ा और किसका हो सकता है जिसने अल्लाह के आगे फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका दिया और अच्छे से अच्छा रवैया अपनाया और यकसू (एकाग्र) होकर इबराहीम के तरीक़े की पैरवी की, उस इबराहीम के तरीक़े की जिसे अल्लाह ने अपना दोस्त बना लिया था।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطٗا ۝ 118
(126) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है150 और अल्लाह हर चीज़ को अपने घेरों में लिए हुए है।151
150. यानी अल्लाह के आगे सर झुका देना और सरकशी व मनमानी को छोड़ देना इसलिए बेहतरीन तरीक़ा है कि यह हक़ीक़त के ठीक मुताबिक़ है। जब अल्लाह ज़मीन और आसमान का और उन सारी चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमान में हैं तो इनसान के लिए सही रवैया यही है कि उसकी बन्दगी और इताअत पर राज़ी हो जाए और सरकशी छोड़ दे।
151. यानी अगर इनसान अल्लाह की फ़रमाँबरदारी न करे और सरकशी से न रुके तो वह अल्लाह की पकड़ से बचकर कहीं भाग नहीं सकता, अल्लाह की क़ुदरत उसको हर तरफ़ से घेरे हुए है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا ۝ 119
(127) लोग तुमसे औरतों के मामले में फ़तवा (धर्मादेश) पूछते हैं।152 कहो अल्लाह तुम्हें उनके मामले में हुक्म देता है, और साथ ही वे हिदायतें और हुक्म भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे हैं।153 यानी वे हिदायतें जो उन यतीम लड़कियों के बारे में हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते154 और जिनके निकाह करने से तुम रुके रहते हो (या लालच की वजह से तुम ख़ुद उनसे निकाह कर लेना चाहते हो।155 ) और वे हिदायतें जो उन बच्चों के बारे में हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते।156 अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि यतीमों के साथ इनसाफ़ पर क़ायम रहो और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह के इल्म से छिपी न रह जाएगी।
152. इस बात को वाज़ेह नहीं किया गया है कि औरतों के मामले में लोग क्या पूछते थे। लेकिन आगे चलकर (आयत-128-130 तक में) जो फ़तवा दिया गया है उससे सवाल किस तरह का था, यह बात वाज़ेह हो जाती है।
153. यह अस्ल सवाल का जवाब नहीं है, बल्कि लोगों के सवाल की तरफ़ तवज्जोह करने से पहले अल्लाह ने उन अहकाम की पाबन्दी पर फिर एक बार ज़ोर दिया है जो इसी सूरा के शुरू में यतीम लड़कियों के बारे में ख़ास तौर से और यतीम बच्चों के बारे में आम तौर से बयान किए थे। इससे मालूम होता है कि अल्लाह की निगाह में यतीमों के हक़ों की अहमियत कितनी ज़्यादा है। शुरू के दो रुकूओं (आयत-1-14) में उनके हक़ों को महफ़ूज़ रखने की ताक़ीद बड़ी सख़्ती के साथ की जा चुकी थी। मगर इसपर बस नहीं किया गया। अब जो समाजी मसलों की बातचीत छिड़ी तो इससे पहले कि लोगों के सवाल का जवाब दिया जाता, यतीमों के फ़ायदों और हितों की बात ख़ुद ही छेड़ दी गई।
154. इशारा है उस आयत की तरफ़ जिसमें कहा गया है कि “अगर यतीमों के साथ वबेइनसाफ़ी करने से डरते हो तो जो औरतें तुमको पसन्द आएँ ......” (देखें इसी सूरा की आयत-3)
155. अस्ल अरबी के जुमले 'तरग़बू-न अन तनकिहूहुन्न' का एक मतलब यह भी हो सकता है कि “तुम इनसे निकाह करने की चाहत रखते हो।” और यह भी हो सकता है कि “तुम इनसे निकाह करना पसन्द नहीं करते।” हज़रत आइशा (रज़ि०) इसका मतलब बयान करते हुए कहती हैं कि जिन लोगों की सरपरस्ती में ऐसी यतीम लड़कियाँ होती थीं जिनके पास माँ-बाप की छोड़ी हुई कुछ दौलत होती थी वे उन लड़कियों के साथ कई तरीक़ों से ज़ुल्म करते थे। अगर लड़की मालदार होने के साथ ख़ूबसूरत भी होती तो ये लोग चाहते थे कि ख़ुद उससे निकाह कर लें और मह्‍र और गुज़ारा भत्ता अदा किए बग़ैर उसके माल और उसकी ख़ूबसूरती दोनों से फ़ायदा उठाएँ। और अगर वह बदसूरत होती तो ये लोग न उससे ख़ुद निकाह करते थे और न किसी दूसरे से उसका निकाह होने देते थे, ताकि उसका कोई ऐसा सरधरा पैदा न हो जाए जो कल उसके हक़ की माँग करनेवाला हो।
156. इशारा है उन अहकाम की तरफ़ जो इसी सूरा के पहले और दूसरे रुकू (आयत-1-14) में यतीमों के हक़ों के बारे में बयान हुए हैं।
وَإِنِ ٱمۡرَأَةٌ خَافَتۡ مِنۢ بَعۡلِهَا نُشُوزًا أَوۡ إِعۡرَاضٗا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يُصۡلِحَا بَيۡنَهُمَا صُلۡحٗاۚ وَٱلصُّلۡحُ خَيۡرٞۗ وَأُحۡضِرَتِ ٱلۡأَنفُسُ ٱلشُّحَّۚ وَإِن تُحۡسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 120
(128) अगर157 किसी औरत को अपने शौहर से बदसुलूकी या बेरुख़़ी का ख़तरा हो तो कोई हरज नहीं कि शौहर और बीवी (कुछ हक़ों की कमी-बेशी पर) आपस में समझौता कर लें। समझौता हर हाल में अच्छा है।158 मन (नफ़्स) तंगदिली की तरफ़ जल्द ही झुक जाते हैं।159 लेकिन अगर तुम लोग एहसान से पेश आओ और ख़ुदा से डरो तो यक़ीन रखो कि अल्लाह तुम्हारे इस रवैये से बेख़बर न होगा।160
157. यहाँ से अस्ल सवाल का जवाब शुरू होता है। इस जवाब को समझने के लिए ज़रूरी है कि पहले सवाल को अच्छी तरह ज़ेहन में बिठा लिया जाए। जाहिलियत के ज़माने में एक आदमी अनगिनत निकाह करने के लिए आज़ाद था और इन बहुत-सी बीवियों के लिए कुछ भी हक़ मुक़र्रर न थे। इस सूरा निसा की शुरू की आयतें जब उतरीं तो इस आज़ादी पर दो तरह की पाबन्दियाँ लागू हो गईं। एक यह की बीवियों की तादाद ज़्यादा-से-ज़्यादा चार तक महदूद कर दी गई। दूसरे यह कि एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने के लिए इनसाफ़ (यानी बराबरी के बर्ताव) की शर्त रखी गई। अब यह सवाल पैदा हुआ कि अगर किसी आदमी की बीवी बाँझ है, या मुस्तक़िल मरीज़ है, जिस्मानी ताल्लुक़ात के लायक़ नहीं रही है और शौहर दूसरी बीवी कर लाता है तो क्या वह मजबूर है कि दोनों के साथ बराबर लगाव रखे? बराबर मुहब्बत रखे? जिस्मानी ताल्लुक़ रखने में भी बराबरी बरते? और अगर वह ऐसा न करे तो क्या इनसाफ़ की शर्त का तक़ाज़ा यह है कि वह दूसरी शादी करने के लिए पहली बीवी को छोड़ दे? फिर यह भी कि अगर पहली बीवी ख़ुद अलग न होना चाहे तो क्या मियाँ-बीवी में इस तरह का मामला हो सकता है कि जिस बीवी से लगाव न रह गया हो वह अपने कुछ हक़ों से ख़ुद हाथ खींचकर अपने शौहर को तलाक़ देने से रुक जाने पर तैयार कर ले? क्या ऐसा करना इनसाफ़ की शर्त के ख़िलाफ़ तो न होगा? ये सवाल हैं जिनका जवाब इन आयतों में दिया गया है।
158. यानी तलाक़ और जुदाई से बेहतर है कि इस तरह आपसी समझौता करके एक औरत उसी शौहर के साथ रहे जिसके साथ वह उम्र का एक हिस्सा गुज़ार चुकी है।
159. औरत की तरफ़ से तंगदिली यह है कि वह अपने अन्दर शौहर से लगाव न होने की वजहों को ख़ुद महसूस करती हो और फिर भी वह सुलूक चाहे जो एक पसन्दीदा बीवी के साथ ही बरता जा सकता है। मर्द की तरफ़ से तंगदिली यह है कि जो औरत दिल से उत्तर जाने पर भी उसके साथ ही रहना चाहती हो उसको वह हद से ज़्यादा दबाने की कोशिश करे और उसके हक़ नाक़ाबिले-बर्दाश्त हद तक घटा देना चाहे।
160. यहाँ फिर अल्लाह ने मर्द ही के जज़बा-ए-फ़ैयाज़ी (उदार-भावना) से अपील की है जिस तरह आम तौर से ऐसे मामलों में उसका क़ायदा है, उसने मर्द को इस बात पर उभारा है कि वह लगाव न होने के बावजूद उस औरत के साथ एहसान से पेश आए जो बरसों उसकी ज़िन्दगी की साथी रही है और उस ख़ुदा से डरे जो अगर किसी इनसान की कमियों की वजह से अपना ध्यान उससे फेर ले और उसके नसीब में कमी करने पर उतर आए, तो फिर उसका दुनिया में कहीं ठिकाना न रहे।
وَلَن تَسۡتَطِيعُوٓاْ أَن تَعۡدِلُواْ بَيۡنَ ٱلنِّسَآءِ وَلَوۡ حَرَصۡتُمۡۖ فَلَا تَمِيلُواْ كُلَّ ٱلۡمَيۡلِ فَتَذَرُوهَا كَٱلۡمُعَلَّقَةِۚ وَإِن تُصۡلِحُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 121
(129) बीवियों के बीच पूरा-पूरा इनसाफ़ करना तुम्हारे बस में नहीं है। तुम चाहो भी तो तुम्हें इसकी क़ुदरत नहीं है। तो (अल्लाह के क़ानून के मक़सद को पूरा करने के लिए यह काफ़ी है कि) एक बीवी की तरफ़ इस तरह न झुक जाओ कि दूसरी को अधर में लटकता छोड़ दो।161 अगर तुम अपना रवैया ठीक रखो और अल्लाह से डरते रहो तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।162
161. मतलब यह है कि आदमी तमाम हालतों में तमाम हैसियतों से दो या ज़्यादा बीवियों के बीच बराबरी नहीं बरत सकता। एक ख़ूबसूरत है और दूसरी बदसूरत, एक जवान है और दूसरी बूढ़ी, एक मुस्तक़िल मरीज़ है दूसरी तन्दुरुस्त, एक बदमिज़ाज है और दूसरी हँसमुख और इसी तरह के दूसरे फ़र्क़ भी मुमकिन हैं जिनकी वजह से एक बीवी की तरफ़ फ़ितरी तौर पर आदमी का लगाव कम हो और दूसरी की तरफ़ ज़्यादा हो सकता है। ऐसी हालतों में क़ानून यह माँग नहीं करता कि मुहब्बत और लगाव और जिस्मानी ताल्लुक़ में ज़रूर ही दोनों के बीच बराबरी रखी जाए, बल्कि सिर्फ़ यह माँग करता है कि जब तुम लगाव न होने के बावजूद एक औरत को तलाक़ नहीं देते और उसको अपनी ख़ाहिश या ख़ुद उसकी ख़ाहिश की वजह से बीवी बनाए रखते हो तो उससे कम-से-कम इस हद तक ताल्लुक़ ज़रूर रखो कि वह अमली तौर पर बे-शौहर होकर न रह जाए। ऐसे हालात में एक बीवी के मुक़ाबले में दूसरी की तरफ़ झुकाव ज़्यादा होना तो फ़ितरी बात है, लेकिन ऐसा भी न होना चाहिए कि दूसरी यों अधर में लटक जाए मानो कि उसका कोई शौहर ही नहीं है। इस आयत से कुछ लोगों ने यह नतीजा निकाला है कि क़ुरआन एक तरफ़ इनसाफ़ की शर्त के साथ कई बीवियाँ रखने की इजाज़त देता है और दूसरी तरफ़ इनसाफ़ को नामुमकिन कहकर इस इजाज़त को अमली तौर पर रद्द कर देता है। लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नतीजा निकालने के लिए इस आयत में कोई गुंजाइश नहीं है। अगर सिर्फ़ इतना ही कहने पर बस किया गया होता कि “तुम औरतों के बीच इनसाफ़ नहीं कर सकते।” तो यह नतीजा निकाला जा सकता था, मगर इसके बाद ही जो यह कहा गया कि “इसलिए एक बीवी की तरफ़ बिलकुल न झुक पड़ो।” इस जुमले ने कोई मौक़ा उस मतलब के लिए बाक़ी नहीं छोड़ा जो मसीही यूरोप की पैरवी करनेवाले लोग इससे निकालना चाहते हैं।
162. यानी अगर, जहाँ तक मुमकिन हो, तुम जान-बूझकर ज़ुल्म न करो और इनसाफ़ ही से काम लेने की कोशिश करते रहो तो फ़ितरी मजबूरियों की वजह से जो थोड़ी-बहुत कमियाँ तुमसे इनसाफ़ के मामले में होंगी उन्हें अल्लाह माफ़ कर देगा।
وَإِن يَتَفَرَّقَا يُغۡنِ ٱللَّهُ كُلّٗا مِّن سَعَتِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ وَٰسِعًا حَكِيمٗا ۝ 122
(130) लेकिन अगर शौहर-बीवी एक-दूसरे से अलग ही हो जाएँ तो अल्लाह अपनी समाई से हर एक को दूसरे की मुहताजी से बेपरवाह कर देगा। अल्लाह बड़ी समाईवाला है और वह सब कुछ देखनेवाला और गहरी समझवाला है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ وَصَّيۡنَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَإِيَّاكُمۡ أَنِ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَنِيًّا حَمِيدٗا ۝ 123
(131) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह ही का है। तुमस पहले जिनको हमने किताब दी थी उन्हें भी यही हिदायत की थी और अब तुमको भी यही हिदायत करते हैं कि ख़ुदा से डरते हुए काम करो। लेकिन अगर तुम नहीं मानते तो न मानो; आसमानों और ज़मीन की सारी चीज़ों का मालिक अल्लाह ही है और वह बेनियाज़ है, हर तारीफ़ का हक़दार।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 124
(132) हाँ, अल्लाह ही मालिक है उन सब चीज़ों का जो आसमानों में हैं और जो ज़मीन में हैं और काम बनाने के लिए बस वही काफ़ी है।
إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ أَيُّهَا ٱلنَّاسُ وَيَأۡتِ بِـَٔاخَرِينَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ ذَٰلِكَ قَدِيرٗا ۝ 125
(133) अगर वह चाहे तो तुम लोगों को हटाकर तुम्हारी जगह दूसरों को ले आए, और वह इस पर पूरी क़ुदरत रखता है।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ ثَوَابُ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 126
(134) जो आदमी सिर्फ़ दुनिया का सवाब (भलाई) ही चाहता हो उसे मालूम होना चाहिए कि अल्लाह के पास दुनिया का सवाब (भलाई) भी है और आख़िरत का सवाब (भलाई) भी और अल्लाह सुनता और देखता है।163
163. आम तौर से क़ानूनी हिदायतें बयान करने के बाद और ख़ास तौर से तमद्दुन और रहन-सहन के उन पहलुओं के सुधार पर ज़ोर देने के बाद, जिनमें इनसान ज़्यादातर ज़ुल्म करता रहा है, अल्लाह इस तरह के कुछ असरदार जुमलों में एक छोटी-सी नसीहत ज़रूर करता है और उससे मक़सद यह होता है कि दिलों को उन हिदायतों की पाबन्दी पर आमादा किया जाए। ऊपर चूँकि औरतों और यतीम बच्चों के साथ इनसाफ़ और अच्छे सुलूक की हिदायत की गई है इसलिए उसके बाद ज़रूरी समझा गया कि कुछ बातें ईमानवालों के ज़ेहन में बिठा दी जाएँ— एक यह कि तुम कभी इस भुलावे में न रहना कि किसी की क़िस्मत का बनाना और बिगाड़ना तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम उससे हाथ खींच लोगे तो उसका कोई ठिकाना न रहेगा नहीं, तुम्हारी और उसकी सबकी क़िस्मतों का मालिक अल्लाह है और अल्लाह के पास अपने किसी बन्दे या बन्दी की मदद का एक तुम ही अकेला ज़रिआ नहीं हो। ज़मीन और आसमान के उस मालिक के ज़रिए बेहद फैले हुए हैं और वह अपने ज़रिओं से काम लेने की हिकमत भी रखता है। दूसरे यह कि तुम्हें और तुम्हारी तरह पिछली तमाम उम्मतों को हमेशा यही हिदायत की जाती रही है कि ख़ुदा से डरते हुए काम करो। इस हिदायत की पैरवी में तुम्हारी अपनी कामयाबी है, ख़ुदा का कोई फ़ायदा नहीं। अगर तुम उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करोगे तो पिछली तमाम उम्मतों ने नाफ़रमानियाँ करके ख़ुदा का क्या बिगाड़ लिया है जो तुम बिगाड़ सकोगे। कायनात के उस बादशाह को न पहले किसी की परवाह थी, न अब तुम्हारी परवाह है। उसके हुक्म से पीठ फेरोगे तो वह तुमको हटाकर किसी दूसरी क़ौम को सरबुलन्द कर देगा और तुम्हारे हट जाने से उसकी सल्तनत की रौनक़ में कोई फ़र्क़ न आएगा। तीसरे यह कि ख़ुदा के पास दुनिया के फ़ायदे भी हैं और आख़िरत के फ़ायदे भी, आरज़ी (अस्थायी) और वक़्ती फ़ायदे भी हैं, पायदार और हमेशा रहनेवाले भी। अब यह तुम्हारे अपने जर्फ़ (अतःकरण) और हिम्मत की बात है कि तुम उससे किस तरह के फ़ायदे चाहते हो। अगर तुम सिर्फ़ दुनिया के कुछ दिनों के फ़ायदों ही पर रीझते हो और उनकी ख़ातिर हमेशा की ज़िन्दगी के फ़ायदों को क़ुरबान कर देने के लिए तैयार हो तो ख़ुदा यही कुछ तुम को यहीं और अभी दे देगा, मगर फिर आख़िरत के हमेशा के फ़ायदों में तुम्हारा कोई हिस्सा न रहेगा। दरिया तो तुम्हारी खेती को हमेशा सींचने के लिए तैयार है, मगर यह तुम्हारे अपने दिल की तंगी और हौसले की पस्ती है कि सिर्फ़ एक फ़सल की सिंचाई को हमेशा के सूखे (अकाल) क़ीमत पर ख़रीदते हो। कुछ सोच में कुशादगी हो तो इताअत और बन्दगी का वह रास्ता इख़्तियार करो जिससे दुनिया और आख़िरत दोनों के फ़ायदे तुम्हारे हिस्से में आएँ। आख़िर में कहा गया कि अल्लाह सुनता और देखता है। इसका मतलब यह है कि अल्लाह अन्धा और बहरा नहीं है कि किसी बेख़बर बादशाह की तरह अन्धाधुन्ध काम करे और अपनी अता और बख़्शिश में भले और बुरे के दरमियान कोई फ़र्क़ न करे। वह पूरी बाख़बरी के साथ अपनी इस कायनात पर हुकूमत कर रहा है। हर एक के ज़र्फ़ और मिजाज़ और हौसले पर उसकी निगाह है। हरेक की सिफ़तों (गुणों) को वह जानता है। उसे ख़ूब मालूम है कि तुम में से कौन किस रास्ते में अपनी मेहनतें और कोशिशें लगा रहा है। तुम उसकी नाफ़रमानी का रास्ता इख़्तियार करके उन बख़्शिशों की उम्मीद नहीं कर सकते जो उसने सिर्फ़ फ़रमाँबरदारों ही के लिए ख़ास की हैं।
إِنَّمَا ٱلتَّوۡبَةُ عَلَى ٱللَّهِ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ يَتُوبُونَ مِن قَرِيبٖ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 127
(17) हाँ, यह जान लो कि अल्लाह पर उन्हीं लोगों की तौबा को क़ुबूल करने का हक़ है जो नादानी की वजह से कोई बुरा काम कर गुज़रते हैं और उसके बाद जल्दी ही तौबा कर लेते हैं। ऐसे लोगों पर अल्लाह अपनी मेहरबानी की निगाह के साथ फिर तवज्जोह करता है, और अल्लाह सारी बातों की ख़बर रखनेवाला, हिकमतवाला (तत्त्वदर्शी) और सूझ-बूझवाला है।
وَلَيۡسَتِ ٱلتَّوۡبَةُ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ حَتَّىٰٓ إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ إِنِّي تُبۡتُ ٱلۡـَٰٔنَ وَلَا ٱلَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمۡ كُفَّارٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 128
(18) मगर तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे काम किए चले जाते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का वक़्त आ जाता है उस वक़्त वह कहता है कि अब मैंने तौबा की। और इसी तरह तौबा उनके लिए भी। नहीं है जो मरते दम तक काफ़िर (हक़ के इनकारी) रहें। ऐसे लोगों के लिए तो हमने दर्दनाक सज़ा तैयार कर रखी है।27
27. तौबा के मानी हैं पलटना और रुजू करना। गुनाह के बाद बन्दे का ख़ुदा से तौबा करना यह मानी रखता है कि एक ग़ुलाम जो अपने मालिक का नाफ़रमान बनकर उससे मुँह फेर गया था अब अपने किए पर शर्मिन्दा है और इताअत और फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलट आया है। और ख़ुदा की तरफ़ से बन्दे पर तौबा का यह मतलब है कि ग़ुलाम की तरफ़ से मालिक की नज़रे-इनायत (कृपा-दृष्टि) जो फिर गई थी वह नए सरे से उसकी तरफ़ पलट आई। अल्लाह इस आयत में फ़रमाता है कि मेरे यहाँ माफ़ी सिर्फ़ उन बन्दों के लिए है जो जान-बूझ कर नहीं, बल्कि नादानी और नासमझी की वजह से ग़लती करते हैं और जब आँखों पर से जहालत का परदा हटता है तो शर्मिन्दा होकर अपने क़ुसूर की माफ़ी माँग लेते हैं। ऐसे बन्दे जब भी अपनी ग़लती पर शर्मिन्दा होकर अपने मालिक की तरफ़ पलटेंगे उसका दरवाज़ा खुला पाएँगे कि– ई दरगहे मा दरगहे नौमीदी नेस्त। सद बार अगर तौबा शिकस्ती बाज़ आ।। (यह चौखट नाउम्मीदी-मायूसी की चौखट नहीं है। सौ बार भी अगर तौबा टूट जाए तो भी गुनाह को छोड़ दे।) मगर तौबा उनके लिए नहीं है जो अपने ख़ुदा से निडर और बेपरवाह होकर सारी उम्र गुनाह पर गुनाह किए चले जाएँ और फिर ठीक उस वक़्त जबकि मौत का फ़रिश्ता सामने आ खड़ा हो माफ़ी माँगने लगें। इसी बात को नबी (सल्ल०) ने इस तरह बयान किया है कि “अल्लाह बन्दे की तौबा बस उसी वक़्त तक क़ुबूल करता है जब तक कि मौत की निशानियों दिखाई देनी शुरू न हों।” क्योंकि इम्तिहान की मुहलत जब पूरी हो गई और ज़िन्दगी की किताब ख़त्म हो चुकी तो अब पलटने का कौन-सा मौक़ा है। इसी तरह जब कोई आदमी कुफ़्र और नाफ़रमानी की हालत में दुनिया से विदा हो जाए और दूसरी ज़िन्दगी की सरहद में दाख़िल होकर अपनी आँखों से देख ले कि मामला उसके बरख़िलाफ़ है जो वह दुनिया में समझता रहा, तो उस वक़्त माफ़ी माँगने का कोई मौक़ा नहीं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 129
(136) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमान लाओ166 अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह उतार चुका है। जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आख़िरत के दिन से कुफ़्र (इनकार) किया167 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
166. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ, बज़ाहिर अजीब मालूम होता है। लेकिन अस्ल में यहाँ लफ़्ज़ ईमान दो अलग मानी में इस्तेमाल हुआ है। ईमान लाने का एक मतलब यह है कि आदमी इनकार के बजाय इक़रार की राह अपनाए, न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए। इसका दूसरा मतलब यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने उसे सच्चे दिल से माने। पूरी संजीदगी और ख़ुलूस (सच्चाई) के साथ माने। अपनी सोच को, अपने ज़ौक़ (रुचि) को, अपनी पसन्द को, अपने रवैये और चलन को, अपनी दोस्ती और दुश्मनी को, और अपनी कोशिशों और जिद्दो-जुह्द के मक़सद को बिलकुल अक़ीदे के मुताबिक़ बना ले जिसपर वह ईमान लाया है। इस आयत में बात उन तमाम मुसलमानों से कही गई है जो पहले मतलब के लिहाज़ से ‘माननेवालों' में गिने जाते हैं। और उनसे माँग यह की गई है कि दूसरे मतलब के लिहाज़ से सच्चे ईमानवाले बनें।
167. कुफ़्र करने के भी दो मतलब हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इनकार कर दे। दूसरे यह कि ज़बान से तो माने मगर दिल से न माने या अपने रवैये से साबित कर दे कि वह जिस चीज़ को मानने का दावा कर रहा है हक़ीक़त में उसे नहीं मानता। यहाँ कुफ़्र से ये दोनों मानी मुराद हैं, और आयत का मक़सद लोगों को इस बात पर ख़बरदार करना है कि इस्लाम के इन बुनियादी अक़ीदों के साथ कुफ़्र की इन दोनों क़िस्मों में से जिस क़िस्म का बर्ताव भी आदमी करेगा, उसका नतीजा हक़ से दूरी और बातिल के रास्तों में भटकने और नाकाम होने के सिवा कुछ न होगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ سَبِيلَۢا ۝ 130
(137) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इनकार किया, फिर ईमान लाए, फिर इनकार किया, फिर अपने इनकार में बढ़ते चले गए168 तो अल्लाह हरगिज़ उनको माफ़ न करेगा और न कभी उनको सीधा रास्ता दिखाएगा।
168. इससे मुराद वे लोग हैं जिनके लिए दीन सिर्फ़ एक ग़ैर-संजीदा तफ़रीह (मनोरंजन) और खेल है। एक खिलौना है जिससे वे अपने ख़यालों या अपनी ख़ाहिशों के मुताबिक़ खेलते रहते हैं। जब दिमाग़ में एक लहर उठी, मुसलमान हो गए और जब दूसरी लहर उठी, इनकारी (ग़ैर-मुस्लिम) बन गए, या जब फ़ायदा मुसलमान बन जाने में नज़र आया, मुसलमान बन गए और जब फ़ायदे के बुत ने दूसरी तरफ़ जलवा दिखाया तो उसकी पूजा करने के लिए बेझिझक उसी तरफ़ चले गए। ऐसे लोगों के लिए अल्लाह के पास न मग़फ़िरत (मोक्ष) है, न हिदायत। और यह जो कहा कि “फिर अपने इनकार में बढ़ते चले गए” तो इसका मतलब यह है कि एक आदमी सिर्फ़ इनकारी (ग़ैर-मुस्लिम) बन जाने ही पर बस न करे, बल्कि उसके बाद दूसरे लोगों को भी इस्लाम से फेरने की कोशिश करे। इस्लाम के ख़िलाफ़ खुफ़िया साज़िशें और अलानिया तदबीरें शुरू कर दे और अपनी ताक़त इसी भाग-दौड़ और जिद्दो-जुह्द में लगाने लगे कि कुफ़्र का बोलबाला हो और उसके मुक़ाबले में अल्लाह के दीन का झण्डा झुक जाए। यह इनकार में तरक्क़ी और एक जुर्म पर बार-बार किए गए जुर्मों की बढ़ोतरी है, जिसका वबाल भी सिर्फ़ इनकार से लाज़िमी तौर पर ज़्यादा होना चाहिए।
بَشِّرِ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ بِأَنَّ لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 131
ٱلَّذِينَ يَتَّخِذُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَيَبۡتَغُونَ عِندَهُمُ ٱلۡعِزَّةَ فَإِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا ۝ 132
(138, 139) और जो मुनाफ़िक़ ईमानवालों को छोड़कर कुफ़्र करनेवालों को अपना साथी बनाते हैं उन्हें यह ख़ुशख़बरी सुना दो कि उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है। क्या ये लोग इज्ज़त की चाह में उनके पास जाते हैं?169 हालाँकि इज्ज़त तो सारी की सारी अल्लाह ही के लिए है।
169. 'इज़्ज़त' का मतलब अरबी ज़बान में उर्दू और हिन्दी के मुक़ाबले ज़्यादा वसीअ (व्यापक) है। उर्दू और हिन्दी में इज़्ज़त सिर्फ़ एहतिराम, क़द्र करना और बुलन्द दरजा देने के मानी में इस्तेमाल होता है। मगर अरबी में इज्ज़त का मतलब यह है कि किसी आदमी को ऐसी बुलन्द और महफ़ूज़ हैसियत हासिल हो जाए कि कोई उसका कुछ बिगाड़ न सके। दूसरे अलफ़ाज़ में इज्ज़त ऐसे एहतिराम (प्रतिष्ठा) को कहते हैं जिसको कोई नुक़सान न पहुँचाया जा सके।
وَقَدۡ نَزَّلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أَنۡ إِذَا سَمِعۡتُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ يُكۡفَرُ بِهَا وَيُسۡتَهۡزَأُ بِهَا فَلَا تَقۡعُدُواْ مَعَهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦٓ إِنَّكُمۡ إِذٗا مِّثۡلُهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ جَامِعُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡكَٰفِرِينَ فِي جَهَنَّمَ جَمِيعًا ۝ 133
(140) अल्लाह इस किताब में तुमको पहले ही हुक्म दे चुका है कि जहाँ तुम सुनो कि अल्लाह की आयतों के ख़िलाफ़ कुफ़्र बका जा रहा है और उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है वहाँ न बैठो, जब तक कि लोग किसी दूसरी बात में न लग जाएँ। अब अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम भी उन्हीं की तरह हो।170 यक़ीन जानो कि अल्लाह मुनाफ़िक़ों और हक़ का इनकार करनेवालों को जहन्नम में एक जगह जमा करनेवाला है।
170. यानी अगर एक आदमी इस्लाम का दावा रखने के बावजूद इनकारियों की उन बैठकों में शरीक होता है जहाँ अल्लाह की आयतों के ख़िलाफ़ कुफ़्र (कुधर्म) बका जाता है और ठण्डे दिल से उन लोगों को ख़ुदा और रसूल का मज़ाक़ उड़ाते हुए सुनता है तो इसमें और उन इनकारियों में कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहता। (जिस हुक्म का इस आयत में ज़िक्र किया गया है वह सूरा अनआम की आयत-68 में बयान हुआ है।)
ٱلَّذِينَ يَتَرَبَّصُونَ بِكُمۡ فَإِن كَانَ لَكُمۡ فَتۡحٞ مِّنَ ٱللَّهِ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡ وَإِن كَانَ لِلۡكَٰفِرِينَ نَصِيبٞ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَسۡتَحۡوِذۡ عَلَيۡكُمۡ وَنَمۡنَعۡكُم مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلًا ۝ 134
(141) ये मुनाफ़िक़ तुम्हारे मामले में इन्तिज़ार कर रहे हैं (कि ऊँट किस करवट बैठता है) अगर अल्लाह की तरफ़ से फ़तह तुम्हारी हुई तो आकर कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे? अगर इनकार करनेवालों (दुश्मनों) का पल्ला भारी रहा तो उनसे कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे ख़िलाफ़ लड़ने की क़ुदरत न रखते थे और फिर भी हमने तुमको मुसलमानों से बचाया?171 बस अल्लाह ही तुम्हारे और उनके मामले का फ़ैसला क़ियामत के दिन करेगा और (इस फ़ैसले में) अल्लाह ने इनकार करनेवालों के लिए मुसलमानों पर ग़ालिब आने की हरगिज़ कोई राह नहीं रखी है।
171. हर ज़माने के मुनाफ़िक़ों की यही ख़ासियत है। मुसलमान की हैसियत से जो फ़ायदे हासिल किए जा सकते हैं उनको ये अपने ज़बानी इक़रार और इस्लाम के दायरे में बराए-नाम शामिल होने के ज़रिए से हासिल करते हैं और जो फ़ायदे ग़ैर-मुस्लिम होने की हैसियत से हासिल होने मुमकिन हैं उनकी ख़ातिर ये ग़ैर-मुस्लिमों से जाकर मिलते हैं और हर तरीक़े से उनको यक़ीन दिलाते हैं कि हम कोई “मुतास्सिब (पक्षपात करनेवाले) मुसलमान” नहीं हैं, नाम का ताल्लुक़ मुसलमानों से ज़रूर है मगर हमारी दिलचस्पियाँ और वफ़ादारियाँ तुम्हारे साथ हैं, सोच, तहज़ीब और ज़ौक़ के लिहाज़ से हर तरह का मेल तुम्हारे साथ है और कुफ़्र और इस्लाम की कश-मकश में हमारा वज़न जब पड़ेगा तुम्हारे ही पलड़े में पड़ेगा।
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَهُوَ خَٰدِعُهُمۡ وَإِذَا قَامُوٓاْ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ قَامُواْ كُسَالَىٰ يُرَآءُونَ ٱلنَّاسَ وَلَا يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 135
(142) ये मुनाफ़िक़ अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं; हालाँकि हक़ीक़त में अल्लाह ही ने उन्हें धोखे में डाल रखा है। जब ये नमाज़ के लिए उठते हैं तो कसमसाते हुए सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए उठते हैं और अल्लाह को याद थोड़े ही करते हैं।172
172. नबी (सल्ल०) के ज़माने में कोई आदमी मुसलमानों की जमाअत में गिना ही नहीं जा सकता था जब तक कि वह नमाज़ का पाबन्द न हो। जिस तरह तमाम दुनियावी जमाअतें और इदारे अपनी मीटिंगों और इज्तिमाओं में किसी मेम्बर के, बग़ैर किसी मजबूरी के, शरीक न होने को समझती हैं कि उसकी दिलचस्पी नहीं रही और लगातार कुछ इज्तिमाओं और मीटिंगों में ग़ैर हाज़िर रहने पर उसे मेम्बरी से निकाल देती हैं, इसी तरह इस्लामी जमाअत के किसी मेम्बर का जमाअत के साथ नमाज़ न पढ़ना उस ज़माने में इस बात की खुली दलील समझी जाती थी कि वह आदमी इस्लाम से कोई दिलचस्पी नहीं रखता। और अगर वह लगातार कुछ बार जमाअत से ग़ैर-हाज़िर रहता तो यह समझ लिया जाता था कि वह मुसलमान नहीं है। इस वजह से पक्के से पक्के मुनाफ़िक़ों को भी उस ज़माने में पाँचों वक़्त मस्जिद की हाज़िरी ज़रूर देनी पड़ती थी; क्योंकि इसके बग़ैर वे मुसलमानों की जमाअत में गिने ही नहीं जा सकते थे। अलबत्ता जो चीज़ उनको सच्चे ईमानवालों से अलग करती थी वह यह थी कि सच्चे ईमानवाले ज़ौक़ और शौक़ से आते थे, वक़्त से पहले मस्जिदों में पहुँच जाते थे, नमाज़ से फ़ारिग़ होकर भी मस्जिदों में ठहरे रहते थे और उनकी एक-एक हरकत से ज़ाहिर होता था कि नमाज़ से उनको सच्ची दिलचस्पी है। इसके बरख़िलाफ़ अज़ान की आवाज़ सुनते ही मुनाफ़िक़ की जान पर बन जाती थी। दिल पर जब्र करके उठता था। उसके आने का अन्दाज़ साफ़ तौर पर बताता था कि आ नहीं रहा है, बल्कि अपने आपको खींचकर ला रहा है। जमाअत ख़त्म होते ही इस तरह भागता था मानो किसी क़ैदी को रिहाई मिली है और उसकी तमाम हरकतों और कामों से ज़ाहिर होता था कि यह आदमी ख़ुदा के ज़िक्र से कोई लगाव नहीं रखता।
مُّذَبۡذَبِينَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ لَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ وَلَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 136
(143) कुफ़्र और ईमान के बीच डाँवाडोल हैं; न पूरे इस तरफ़ हैं, न पूरे उस तरफ़। जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो, उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।173
173. यानी जिसने ख़ुदा के कलाम और उसके रसूल की सीरत से सीधा रास्ता न पाया हो, जिसको सच्चाई से हटा हुआ और बातिल-परस्ती की तरफ़ झुका हुआ देखकर ख़ुदा ने भी उसी तरफ़ फेर दिया हो जिस तरफ़ वह ख़ुद फिरना चाहता था, और जिसकी गुमराही चाहने की वजह से ख़ुदा ने उसपर हिदायत के दरवाज़े बन्द और सिर्फ़ गुमराही ही के रास्ते खोल दिए हों, ऐसे आदमी को सीधा रास्ता दिखाना हक़ीक़त में किसी इनसान के बस का काम नहीं है। इस मामले को रोज़ी की मिसाल से समझिए। यह एक हक़ीक़त है कि रोज़ी के तमाम ख़ज़ाने अल्लाह के क़ब्ज़े में हैं। जिस इनसान को जो कुछ भी मिलता है अल्लाह ही के यहाँ से मिलता है। मगर अल्लाह हर आदमी को रोज़ी उस रास्ते से देता है जिस रास्ते से वह ख़ुद माँगता हो। अगर कोई आदमी अपनी रोज़ी हलाल रास्ते से माँगे और उसी के लिए कोशिश भी करे तो अल्लाह उसके लिए हलाल रास्तों को खोल देता है और जितनी उसकी नीयत सच्ची होती है उसी हिसाब से हराम के रास्ते उसके लिए बन्द कर देता है। इसके ख़िलाफ़ जो आदमी हराम खाने पर तुला हुआ होता है और उसी के लिए भाग-दौड़ करता है उसको ख़ुदा की इजाज़त से हराम ही की रोटी मिलती है और फिर यह किसी के बस की बात नहीं कि उसके नसीब में हलाल रोज़ी लिख दे। बिलकुल इसी तरह यह भी हक़ीक़त है कि दुनिया में सोच और अमल के सारे रास्ते अल्लाह के इख़्तियार में हैं। कोई आदमी किसी रास्ते पर भी अल्लाह की इजाज़त और उसकी ताक़त के बग़ैर नहीं चल सकता। रही यह बात कि किस इनसान को किस रास्ते पर चलने की इजाज़त मिलती है और किस रास्ते पर चलने की वजहें उसके लिए तैयार की जाती हैं तो इसका दारोमदार सरासर आदमी की अपनी चाहत और कोशिश पर है। अगर वह ख़ुदा से लगाव रखता है, सच्चाई की चाहत रखता है और ख़ालिस नीयत से ख़ुदा के रास्ते पर चलने की कोशिश करता है तो अल्लाह उसी की इजाज़त और उसी की तौफ़ीक़ उसे देता है और उसी राह पर चलने के असबाब उसके लिए जुटा देता है। इसके बरख़िलाफ़ जो आदमी ख़ुद गुमराही को पसन्द करता है और ग़लत रास्तों ही पर चलने की कोशिश करता है अल्लाह की तरफ़ से उसके लिए हिदायत के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं और वही रास्ते उसके लिए खोल दिए जाते हैं जिनको उसने आप आपने लिए चुना है। ऐसे आदमी को ग़लत सोचने, ग़लत काम करने और ग़लत रास्तों में अपनी ताक़तें लगाने से बचा लेना किसी के इख़्तियार में नहीं है। अपने नसीब का सीधा रास्ता जिसने ख़ुद खोद डाला और जिससे अल्लाह ने उसको महरूम कर दिया, उसके लिए यह गुम हुई नेमत किसी के ढूँढ़े नहीं मिल सकती।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينًا ۝ 137
(144) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमानवालों को छोड़कर कुफ़्र करनेवालों को अपना साथी न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह को अपने ख़िलाफ़ खुली हुज्जत (ठोस दलील) दे दो?
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِي ٱلدَّرۡكِ ٱلۡأَسۡفَلِ مِنَ ٱلنَّارِ وَلَن تَجِدَ لَهُمۡ نَصِيرًا ۝ 138
(145) यक़ीन जानो कि मुनाफ़िक़ जहन्नम के सबसे निचले तबक़े में जाएँगे और तुम किसी को उनका मददगार न पाओगे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَٱعۡتَصَمُواْ بِٱللَّهِ وَأَخۡلَصُواْ دِينَهُمۡ لِلَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَسَوۡفَ يُؤۡتِ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 139
(146) अलबत्ता जो उनमें से तौबा कर लें और अपने रवैये का सुधार कर लें और अल्लाह का दामन थाम लें और अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस कर दें,174 ऐसे लोग ईमानवालों के साथ हैं और अल्लाह ईमानवालों को ज़रूर बड़ा बदला देगा।
174. अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस कर देने का मतलब यह है कि आदमी की वफ़ादारियाँ अल्लाह के सिवा किसी और से जुड़ी हुई न हों, अपनी सारी दिलचस्पियों और मुहब्बतों और अक़ीदतों को वह अल्लाह के आगे पेश कर दे, किसी चीज़ के साथ भी दिल का ऐसा लगाव बाक़ी न रहे कि अल्लाह की रज़ा और ख़ुशी के लिए उसे क़ुरबान न किया जा सकता हो।
مَّا يَفۡعَلُ ٱللَّهُ بِعَذَابِكُمۡ إِن شَكَرۡتُمۡ وَءَامَنتُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ شَاكِرًا عَلِيمٗا ۝ 140
(147) आख़िर अल्लाह को क्या पड़ी है कि तुम्हें ख़ाह-मख़ाह सज़ा दे अगर तुम शुक्रगुजार बन्दे बने रहो175 और ईमान की रविश पर चलो। अल्लाह बड़ा क़द्रदान है।176 और सबके हाल को जानता है।
175. शुक्र के अस्ल मानी नेमत के तसलीम करने या एहसानमन्दी के हैं। आयत का मतलब यह है कि अगर तुम अल्लाह के साथ नाशुक्री और नमकहरामी का रवैया न अपनाओ, बल्कि सही तौर पर उसके शुक्रगुज़ार (एहसानमन्द) बनकर रहो तो कोई वजह नहीं कि अल्लाह बिला वजह तुम्हें सज़ा दे। एक एहसान करनेवाले के मुक़ाबले में सही एहसानमन्दी का रवैया यही हो सकता है कि आदमी दिल से उसके एहसान को तसलीम करे, ज़बान से उसका इक़रार करे और अमल से एहसानमन्दी का सुबूत दे। इन्हीं तीन चीज़ों के मजमूए का नाम शुक्र है। और इस शुक्र का तक़ाज़ा यह है कि सबसे पहले आदमी एहसान की निस्बत उसी की तरफ़ करे जिसने अस्ल में एहसान किया है, किसी दूसरे को एहसान के शुक्रिए और नेमत को तसलीम करने में उसका हिस्सेदार न बनाए। दूसरी बात यह कि आदमी का दिल अपने मुहसिन के लिए मुहब्बत और वफ़ादारी के जज़्बे से भरा हुआ हो और उसके मुख़ालिफ़ों से मुहब्बत और ख़ुलूस और वफ़ादारी का ज़र्रा बराबर ताल्लुक़ भी न रखे। तीसरी बात यह है कि वह अपने मुहसिन का फ़रमाँबरदार हो और उसकी दी हुई नेमतों को उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल न करे।
176. अस्ल अरबी में 'शाकिर' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसका तर्जमा हमने 'क़द्रदान' किया है। शुक्र जब अल्लाह की तरफ़ से बन्दे की जानिब हो तो इसके मानी 'बन्दे की ख़िदमतों का एतिराफ़' या क़द्रदानी के होंगे, और जब बन्दे की तरफ़ से अल्लाह के लिए हो तो इसको उसकी नेमतों के तसलीम करने या एहसानमन्दी के मानी में लिया जाएगा। अल्लाह की तरफ़ से बन्दों का शुक्रिया अदा किए जाने का मतलब यह है कि अल्लाह नाक़द्री करनेवाला नहीं है, जितनी और जैसी ख़िदमतें भी बन्दे उसकी राह में करें अल्लाह के यहाँ उनकी क़द्र की जाती है। किसी की ख़िदमतें बदले और इनाम से महरूम नहीं रहतीं, बल्कि वह बहुत ही फ़ैयाज़ी (उदारता) के साथ हर आदमी को उसकी ख़िदमत से ज़्यादा बदला और इनाम देता है। बन्दों का हाल तो यह है कि जो कुछ आदमी ने किया उसकी क़द्र कम करते हैं और जो कुछ न किया उसपर पकड़ करने में बड़ी सख़्ती दिखाते हैं। लेकिन अल्लाह का हाल यह है कि जो कुछ आदमी ने नहीं किया है उस पर हिसाब लेने में वह बहुत नरमी और अनदेखी से काम लेता है, और जो कुछ किया है उसकी क़द्र उसके मर्तबे से बढ़कर करता है।
۞لَّا يُحِبُّ ٱللَّهُ ٱلۡجَهۡرَ بِٱلسُّوٓءِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ إِلَّا مَن ظُلِمَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعًا عَلِيمًا ۝ 141
(148) अल्लाह इसको पसन्द नहीं करता कि आदमी बुरे लफ़्ज़ों के लिए ही ज़बान खोले। यह और बात है कि किसी पर ज़ुल्म किया गया हो, और अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
إِن تُبۡدُواْ خَيۡرًا أَوۡ تُخۡفُوهُ أَوۡ تَعۡفُواْ عَن سُوٓءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوّٗا قَدِيرًا ۝ 142
(149) (अगर तुमपर ज़ुल्म हुआ है तो हालाँकि तुम्हें हक़ है कि बुराई बयान करो) लेकिन अगर तुम खुले और छिपे में भलाई ही किए जाओ, या कम-से-कम बुराई को माफ़ कर दो तो अल्लाह की सिफ़त भी यही कि वह बड़ा माफ़ करनेवाला है। हालाँकि सजा देने पर पूरी की पूरी क़ुदरत उसे हासिल है।177
177. इस आयत में मुसलमानों को एक निहायत बुलन्द दरजे की अख़लाक़ी तालीम दी गई है। मुनाफ़िक़ और यहूदी और बुत-परस्त सबके सब उस वक़्त हर मुमकिन तरीक़े से इस्लाम की राह में रोड़े अटकाने और उसकी पैरवी क़ुबूल करनेवालों को सताने और परेशान करने पर तुले हुए थे। कोई बुरी से बुरी चाल ऐसी न थी जो वे इस नई तहरीक के ख़िलाफ़ इस्तेमाल न कर रहे हों। इसपर मुसलमानों के अन्दर नफ़रत और ग़ुस्से के जज़बात का पैदा होना एक फ़ितरी बात थी। अल्लाह ने उनके दिलों में इस तरह के जज़बात का तूफ़ान उठते देखकर कहा कि बुरी बात कहने पर ज़बान खोलना तुम्हारे ख़ुदा के नज़दीक कोई पसन्दीदा काम नहीं है। इसमें शक नहीं कि तुमपर ज़ुल्म किया गया है और अगर जिसपर ज़ुल्म किया गया है वह ज़ुल्म करनेवाले के ख़िलाफ़ बुरी बात कहने के लिए ज़बान खोले तो उसे इसका हक़ है। लेकिन फिर भी बेहतर यही है कि खुफ़िया और अलानिया हर हाल में भलाई किए जाओ और बुराइयों को माफ़ करो। क्योंकि तुमको अपने अख़लाक़ में ख़ुदा के अख़लाक़ से ज़्यादा-से-ज़्यादा क़रीब होना है। जिस ख़ुदा के तुम क़रीब होना चाहते हो उसकी शान यह है कि वह बहुत ही सहन करनेवाला है। सख़्त से सख़्त मुजरिमों तक को रोज़ी देता है और बड़ी से बड़ी ग़लतियों पर भी पकड़ नहीं करता, बल्कि माफ़ किए चला जाता है। इसलिए उससे ज़्यादा क़रीब होने के लिए तुम भी बुलन्द हौसलेवाले और ख़ूब कुशादा दिल बनो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيُرِيدُونَ أَن يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ ٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيَقُولُونَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٖ وَنَكۡفُرُ بِبَعۡضٖ وَيُرِيدُونَ أَن يَتَّخِذُواْ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلًا ۝ 143
(150) जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच फ़र्क़ करें और कहते हैं कि हम किसी को मानेंगे और किसी को न मानेंगे और कुफ़्र और ईमान के बीच में एक राह निकालना चाहते हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ حَقّٗاۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 144
(151) वे सब पक्के इनकारी।178 हैं और ऐसे इनकारियों के लिए हमने वह सज़ा तैयार कर रखी है जो उन्हें रुसवा और बेइज्ज़त कर देनेवाली होगी
178. यानी इनकारी होने में वे लोग जो न ख़ुदा को मानते हैं, न उसके रसूलों को और वे लोग जो ख़ुदा को मानते हैं मगर रसूलों को नहीं मानते और वे लोग जो किसी रसूल को मानते हैं और किसी को नहीं मानते, सब बराबर हैं। इनमें से किसी के इनकारी होने में ज़र्रा बराबर शक की गुजाइश नहीं।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَلَمۡ يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ أُوْلَٰٓئِكَ سَوۡفَ يُؤۡتِيهِمۡ أُجُورَهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 145
(152) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग अल्लाह और उसके तमाम रसूलों को मानें और उनके बीच फ़र्क़ न करें उनको हम ज़रूर उनके बदले देंगे,179 और अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।180
179. यानी जो लोग ख़ुदा को अपना वाहिद माबूद और मालिक तसलीम कर लें, और उसके भेजे हुए तमाम रसूलों की पैरवी क़ुबूल करें, सिर्फ़ वही अपने आमाल पर अज्र के हक़दार हैं, और वे जिस दरजे का नेक काम करेंगे उसी दरजे का अज्र पाएँगे। रहे वे लोग जिन्होंने ख़ुदा की बे-शरीक ख़ुदाई और रुबूबियत ही तसलीम न की, या जिन्होंने ख़ुदा के नुमाइन्दों (पैग़म्बरों) में से कुछ को क़ुबूल और कुछ को रद्द करने का बाग़ियाना रवैया अपनाया, तो उनके लिए किसी अमल पर किसी अज्र का सवाल सिरे से पैदा ही नहीं होता, क्योंकि ऐसे लोगों का कोई अमल ख़ुदा की निगाह में क़ानूनी अमल नहीं है।
180. यानी जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाएँगे उनका हिसाब लेने में अल्लाह सख़्ती से काम नहीं लेगा, बल्कि उनके साथ बहुत नर्मी और माफ़ी से काम लेगा।
يَسۡـَٔلُكَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيۡهِمۡ كِتَٰبٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ فَقَدۡ سَأَلُواْ مُوسَىٰٓ أَكۡبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوٓاْ أَرِنَا ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ بِظُلۡمِهِمۡۚ ثُمَّ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَعَفَوۡنَا عَن ذَٰلِكَۚ وَءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 146
(153) (ए नबी!) ये किताबवाले अगर आज तुमसे माँग कर रहे हैं कि तुम आसमान से कोई तहरीर (लेख्य) उनपर नाज़िल कराओ।181 तो इससे बढ़-चढ़कर मुजरिमाना माँगें ये पहले मूसा से कर चुके हैं। उससे तो इन्होंने कहा था कि हमें ख़ुदा को खुल्लम-खुल्ला दिखा दो और इसी सरकशी की वजह से अचानक इनपर बिजली टूट पड़ी थी।182 फिर इन्होंने बछड़े को अपना माबूद बना लिया, हालाँकि ये खुली-खुली निशानियाँ देख चुके थे।183 इसपर भी हमने इन्हें माफ़ किया। हमने मूसा को साफ़-साफ़ फ़रमान दिया था
181. मदीना के यहूदी नबी (सल्ल०) से जो अजीब-अजीब मुतालबे करते थे। उनमें से एक मुतालबा यह भी था कि हम आपको उस वक़्त तक ख़ुदा का पैग़म्बर न तसलीम करेंगे, जब तक कि हमारी आँखों के सामने एक लिखी-लिखाई किताब आसमान से न उतरे या हम में से एक-एक आदमी के नाम ऊपर से इस मज़मून (विषय) की तहरीर न आ जाए कि ये मुहम्मद हमारे रसूल है, इनपर ईमान लाओ।
182. यहाँ मक़सद किसी वाक़िए की तफ़सील बयान करना नहीं है, बल्कि यहूदियों के जुर्मो और अपराधों की एक मुख़्तसर सी लिस्ट पेश करना है। इसके लिए उनके क़ौमी इतिहास के कुछ नुमायाँ और चुने हुए वाक़िआत की तरफ़ सरसरी इशारे किए गए हैं। इस आयत में जिस वाक़िए का ज़िक्र है वह सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-55 में भी गुज़र चुका है। (देखें सूरा-2- अल-बक़रा, हाशिया-71)
183. खुली-खुली निशानियों से मुराद वे निशानियाँ हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के रसूल बनाए जाने के बाद से लेकर फ़िरऔन के डूबने और बनी-इसराईल के मिस्र से निकलने तक लगातार उन लोगों की नज़र में आ चुकी थीं। ज़ाहिर है कि मिस्र की सल्तनत की अज़ीमुश्शान ताक़त के पंजों से जिसने बनी-इसराईल को छुड़ाया था वह कोई गाय का बच्चा न था, बल्कि सारे जहानों का रब अल्लाह था। मगर यह उस क़ौम की बातिलपरस्ती का कमाल था कि ख़ुदा की क़ुदरत और उसके फल की निहायत रोशन निशानियों का तजरिबा करने और उन्हें देखने के बाद भी जब झुकी तो अपने एहसान करनेवाले ख़ुदा के आगे नहीं, बल्कि एक बछड़े की बनावटी मूर्ति ही के आगे झुकी।
وَرَفَعۡنَا فَوۡقَهُمُ ٱلطُّورَ بِمِيثَٰقِهِمۡ وَقُلۡنَا لَهُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُلۡنَا لَهُمۡ لَا تَعۡدُواْ فِي ٱلسَّبۡتِ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 147
(154) और इन लोगों पर तूर (पहाड़) को उठाकर इनसे (उस हुक्म पर चलने का) पक्का वादा लिया था।184 हमने इनको हुक्म दिया कि दरवाज़े में सजदा करते हुए दाख़िल हो185 हमने इनसे कहा कि सब्त (शनिवार) का क़ानून न तोड़ो और इसपर इनसे पक्का वादा लिया।186
184. साफ़-साफ़ फ़रमान से मुराद वे अहकाम और हिदायतें हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को तख़्तियों पर लिख कर दी गई थीं। सूरा-7 अल-आराफ़ के रुकू-17 (आयत 143 से आगे) में इसका बयान ज़्यादा तफ़सील के साथ आएगा। और अह्द से मुराद वह मीसाक़ (वचन) है जो तूर पहाड़ के दामन में बनी-इसराईल के नुमाइन्दों से लिया गया था। सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-63 में इसका बयान गुज़र चुका है और सूरा-7 आराफ़ आयत-171 में फिर उसकी तरफ़ इशारा आएगा।
185. देखें सूरा-2, अल-बक़रा, आयत-58 और 59, हाशिया-75 ।
186. देखें सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-65, हाशिया-82 और 83 ।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ وَكُفۡرِهِم بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَقَتۡلِهِمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَقَوۡلِهِمۡ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَلۡ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَيۡهَا بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 148
(155) आख़िरकार इनके वादा तोड़ने की वजह से और इस वजह से कि इन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया और बहुत-से पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल किया और यहाँ तक कहा कि हमारे दिल गिलाफ़ों में महफ़ूज़ हैं187— हालाँकि188 हक़ीक़त में इनकी बातिलपरस्ती की वजह से अल्लाह ने इनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया है और इसी वजह से ये बहुत कम ईमान लाते हैं
187. यहूदियों की इस बात की तरफ़ सूरा-2 अल-बक़रा की आयत-88 में भी इशारा किया गया है। हक़ीक़त में ये लोग तमाम बातिलपरस्त जाहिलों की तरह इस बात पर फ़ख्र करते थे कि जो ख़यालात और तास्सुबात (पूर्वाग्रह) और रस्मो-रिवाज हमने अपने बाप-दादा से पाए हैं उनपर हमारा अक़ीदा इतना पुख़्ता है कि किसी तरह हम उनसे नहीं हटाए जा सकते। जब कभी ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बरों ने आकर इनको समझाने की कोशिश की, इन्होंने उनको यही जवाब दिया कि तुम चाहे कोई दलील और कोई आयत ले आओ हम तुम्हारी किसी बात का असर न लेंगे, जो कुछ मानते और करते चले आए हैं वही मानते रहेंगे और वही किए चले जाएँगे। (देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-94)
188. यह बीच में आया हुआ वह जुमला है जिसमें पहले से चल रही बात से हटकर एक दूसरी बात कही गई है।
وَبِكُفۡرِهِمۡ وَقَوۡلِهِمۡ عَلَىٰ مَرۡيَمَ بُهۡتَٰنًا عَظِيمٗا ۝ 149
(156) – फिर189 अपने कुफ़्र और इनकार में ये इतने बढ़े कि मरयम पर सख़्त बुहतान लगाया,190
189. यह जुमला तक़रीर के अस्ल सिलसिले से ताल्लुक़ रखता है।
190. हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश के मामले में यहूदी क़ौम के अन्दर हक़ीक़त में जरा बराबर भी शक व शुब्हाा न था, बल्कि जिस दिन वे पैदा हुए थे उसी दिन अल्लाह ने पूरी क़ौम को इस बात पर गवाह बना दिया था कि यह एक ग़ैर-मामूली शख़्सियत का बच्चा है जिसकी पैदाइश मोजिज़े का नतीजा है न कि किसी अख़लाक़ी जुर्म का। जब बनी-इसराईल के एक सबसे ज़्यादा शरीफ़ और मशहूर व नामवर मज़हबी घराने की बिन-ब्याही लड़की गोद में बच्चा लिए हुए आई और क़ौम के बड़े और छोटे सैकड़ों-हज़ारों की तादाद में उसके घर पर भीड़ की शक्ल में आ गए तो इस लड़की ने उनके सवालों का जवाब देने के बजाय ख़ामोशी के साथ उस नवजात बच्चे की तरफ़ इशारा कर दिया कि यह तुम्हें जवाब देगा। मजमे ने हैरत से कहा कि इस बच्चे से हम क्या पूछे जो पालने में लेटा हुआ है। मगर अचानक वह बच्चा बोल उठा। और उसने निहायत साफ़, वाज़ेह, उम्दा ज़बान में मजमे को ख़िताब करके कहा कि “मैं अल्लाह का बन्दा हूँ, अल्लाह ने मुझे किताब दी है और नबी बनाया है।” (देखें सूरा-मरयम, रुकू-2, मरयम, आयत-30) इस तरह अल्लाह ने उस शुब्हाे की हमेशा के लिए जड़ काट दी थी जो मसीह की पैदाइश के बारे में पैदा हो सकता था। यही वजह है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) के जवानी के पहुँचने तक कभी किसी ने न हज़रत मरयम पर ज़िना (बदकारी) का इलज़ाम लगाया, न हज़रत ईसा को नाजाइज़ पैदाइश का ताना दिया। लेकिन जब तीस बरस की उम्र को पहुँचकर हज़रत ईसा ने अपने नुबूवत के काम की शुरुआत की और जब आपने यहूदियों को उनके बुरे कामों पर मलामत करनी शुरू की, उनके आलिमों और फ़क़ीहों को उनके दिखावटी कामों पर टोका, उनके आम और ख़ास सब लोगों को उस अख़लाक़ी गिरावट पर ख़बरदार किया जिनका वे शिकार हो गए थे और ख़तरे से भरे उस रास्ते की तरफ़ अपनी क़ौम को दावत दी जिसमें ख़ुदा के दीन को अमली तौर पर क़ायम करने के लिए हर तरह की क़ुरबानियाँ बरदाश्त करनी पड़ती थीं और हर मोर्चे पर शैतानी ताक़तों से लड़ाई का सामना था, तो ये बेख़ौफ़ मुजरिम सच्चाई की आवाज़ को दबाने के लिए हर नापाक से नापाक हथियार इस्तेमाल करने पर उतर आए। उस वक़्त इन्होंने वह बात कही जो तीस साल तक न कही थी कि मरयम (अलैहि०) (अल्लाह पनाह में रखे) ज़ानिया (बदकार) हैं और मरयम के बेटे ईसा वलदुज़्ज़िना (यानी बदकारी के नतीजे में पैदाशुदा औलाद) हैं। हालाँकि ये ज़ालिम लोग पूरे यक़ीन के साथ जानते थे कि ये दोनों माँ-बेटे इस गन्दगी से बिलकुल पाक हैं। इसी लिए हक़ीक़त में इनका यह बुहतान किसी हक़ीक़ी शुब्हाे का नतीजा नहीं था, जो वाक़ई में इनके दिलों में मौजूद होता, बल्कि ख़ालिस बोहतान था जो उन्होंने जान-बूझकर सिर्फ़ हक़ की मुख़ालफ़त के लिए गढ़ा था। इसी वजह से अल्लाह ने इसे ज़ुल्म और झूठ के बजाय कुफ़्र (अधर्म) कहा है, क्योंकि इस इलज़ाम से इनका अस्ल मक़सद ख़ुदा के दीन का रास्ता रोकना था, न कि एक बे-गुनाह औरत पर इलज़ाम लगाना।
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا ۝ 150
(157) और ख़ुद कहा कि हमने मसीह, मरयम के बेटे ईसा, अल्लाह के रसूल, का क़त्ल कर दिया है191 हालाँकि192 सही बात यह है कि उन्होंने न उसको क़त्ल किया, न सूली पर चढ़ाया, बल्कि मामला उनके लिए मुश्तबह (सन्दिग्ध) कर दिया गया।193 और जिन लोगों ने इसके बारे में इख़्तिलाफ़ किया है वे भी हक़ीक़त में शक में पड़े हुए हैं। उनके पास इस मामले में कोई इल्म नहीं है, सिर्फ़ अटकल पर चलते रहे हैं।194 उन्होंने मसीह को यक़ीनन क़त्ल नहीं किया,
191. यानी उनकी मुजरिमाना जुर्रत इतनी बढ़ी हुई थी कि रसूल को रसूल जानते थे और उसके बाद भी उसके क़त्ल की कोशिश की और फ़ख़्र से कहा कि हमने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है। ऊपर हमने पालने के वाक़िए का जो हवाला दिया है उस पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ हो जाती है कि यहूदियों के लिए मसीह (अलैहि०) की नुबूवत में शक करने की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं थी। फिर जो रौशन निशानियाँ उन्होंने हज़रत मसीह (अलैहि०) से देखीं। (जिनका बयान सूरा-3 आले-इमरान के रुकू की आयत-19 में गुज़र चुका है) उनके बाद तो इस मामले में बिलकुल ही शक और शुब्हाा बाक़ी न रहा था कि हज़रत मसीह पैग़म्बर हैं। इसलिए हक़ीक़त यह है कि उन्होंने जो कुछ आपके साथ किया वह किसी ग़लतफ़हमी की वजह से न था, बल्कि वे ख़ूब जानते थे कि हम यह जुर्म उस आदमी के साथ कर रहे हैं जो अल्लाह की तरफ़ से पैग़म्बर बनकर आया है। ज़ाहिर में यह बात बड़ी अजीब मालूम होती है कि कोई क़ौम किसी आदमी को नबी जानते और मानते हुए उसे क़त्ल कर दे। मगर सच तो यह है कि बिगड़ी हुई क़ौमों के अन्दाज़ और और तौर-तरीक़े होते ही कुछ अजीब हैं। वे अपने दरमियान किसी ऐसे आदमी को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होतीं जो उनकी बुराइयों पर उन्हें टोके और नाजाइज़ कामों से उन्हें रोके। ऐसे लोग, चाहे वे नबी ही क्यों न हों, हमेशा बदकिरदार क़ौमों में क़ैद और क़त्ल की सज़ाएँ पाते ही रहे हैं। तलमूद में लिखा है कि बख़्त नस्सर ने जब बैतुल-मक़दिस को फ़त्‌ह किया तो वह हैकले-सुलैमानी में दाख़िल हुआ और उसकी सैर करने लगा। ठीक क़ुरबानगाह के सामने एक जगह दीवार पर उसे एक तीर का निशान नज़र आया। उसने यहूदियों से पूछा, यह कैसा निशान है? उन्होंने जवाब दिया, “यहाँ ज़करीया नबी को हमने क़त्ल किया था। वह हमारी बुराइयों पर हमें मलामत करता था। आख़िर जब हम उसकी मलामतों से तंग आ गए तो हमने उसे मार डाला।” बाइबल में यर्मियाह नबी के बारे में लिखा है कि जब बनी-इसराईल की बद-अख़लाक़ियाँ हद से गुज़र गई और हज़रत यर्मियाह ने उनको ख़बरदार किया कि इन कामों के बदले में ख़ुदा तुमको दूसरी क़ौमों से पामाल करा देगा तो उन पर इलज़ाम लगाया गया कि यह आदमी कस्दियों (किल्दानियों) से मिला हुआ है और क़ौम का ग़द्दार है। इस इलज़ाम में उनको जेल भेज दिया गया। ख़ुद हज़रत मसीह (अलैहि०) के सलीब के वाक़िए से दो ढाई साल पहले ही हज़रत यह्या का मामला पेश आ चुका था। यहूदी आम तौर से उनको नबी जानते थे और कम-से-कम यह तो मानते ही थे कि वे उनकी क़ौम के सबसे भले लोगों में से हैं। मगर जब उन्होंने हेरोदेस (यहूदी रियासत के हाकिम) के दरबार में बुराइयों पर टोका-टोकी की तो उसे बर्दाश्त नहीं किया गया। पहले जेल भेजे गए और फिर मुल्क के हाकिम की महबूबा के मुतालबे पर उनका सर कटवा दिया गया। यहूदियों के इस रिकॉर्ड को देखते हुए यह कोई हैरत की बात नहीं है कि इन्होंने अपने घमंड में मसीह (अलैहि०) को सूली पर चढ़ाने के बाद सीने पर हाथ मारकर कहा हो, “हमने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है।”
192. यह भी बीच में आया हुआ वह जुमला है जिसमें ऊपर से चली आ रही बात से हटकर एक दूसरी बात कही गई।
193. यह आयत वाज़ेह करती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) सूली पर चढ़ाए जाने से पहले उठा लिए गए थे और ईसाइयों और यहूदियों, दोनों का यह ख़याल कि मसीह ने सलीब पर जान दी, सिर्फ़ ग़लतफ़हमी की वजह से है। क़ुरआन और बाइबल के बयानों को एक-दूसरे से मिलाकर पढ़ने से हम यह समझते हैं कि शायद पीलातुस की अदालत में तो पेशी हज़रत मसीह ही की हुई थी, मगर जब वह मौत की सज़ा का फ़ैसला सुना चुका और जब यहूदियों ने मसीह जैसे पाक दिल इनसान के मुक़ाबले में एक डाकू की जान को ज़्यादा क़ीमती ठहराकर अपनी हक़-दुश्मनी और बातिल-पसन्दी पर आख़िरी मुहर भी लगा दी, तब अल्लाह ने किसी वक़्त हज़रत ईसा को उठा लिया। बाद में यहूदियों ने जिस आदमी को सूली पर चढ़ाया वह हज़रत मसीह (अलैहि०) की पाक ज़ात न थी, बल्कि कोई और आदमी था जिसको मालूम नहीं किस वजह से इन लोगों ने मरयम का बेटा ईसा समझ लिया। फिर भी इनका जुर्म इससे कम नहीं होता, क्योंकि जिसको इन्होंने काँटों का ताज पहनाया, जिसके मुँह पर थूका और जिसे ज़िल्लत और रुसवाई के साथ सूली पर चढ़ाया उसको वे मरयम का बेटा ईसा समझ रहे थे। अब यह मालूम करने का हमारे पास कोई ज़रिआ नहीं है कि मामला किस तरह उनके लिए मुश्तबह (सन्दिग्ध) हो गया। चूँकि इस बारे में मालूमात का कोई यक़ीनी ज़रिआ नहीं है, इसलिए सिर्फ़ अन्दाज़े, गुमान और अफ़वाहों की बुनियाद पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह शुब्हाा किस तरह का था जिसकी वजह से यहूदी यह समझे कि उन्होंने मरयम के बेटे ईसा (अलैहि०) को सूली दी है। हालाँकि मरयम के बेटे ईसा उनके हाथ से निकल चुके थे।
194. इख़्तिलाफ़ करनेवालों से मुराद ईसाई हैं। उनमें मसीह (अलैहि०) को सूली दिए जाने पर कोई एक बयान नहीं है जिसपर सब एक राय हों, बल्कि बीसियों बयान हैं और ये बहुत-से बयान होना ख़ुद इस बात की दलील है कि अस्ल हक़ीक़त इनके लिए भी मुश्तबह (सन्दिग्ध) ही रही। इनमें से कोई कहता है कि सूली पर जो आदमी चढ़ाया गया वह मसीह न था, बल्कि मसीह की शक्ल में कोई और था जिसे यहूदी और रूमी सिपाही रुसवाई के साथ सूली दे रहे थे और मसीह वहीं किसी जगह खड़ा उनकी बेवक़ूफ़ी पर हँस रहा था। कोई कहता है कि सूली पर चढ़ाया तो मसीह ही को गया था मगर उनकी मौत सूली पर नहीं हुई, बल्कि उतारे जाने के बाद उनमें जान थी। कोई कहता कि उनकी मौत सूली पर हुई और फिर वे जी उठे और कुछ कम या ज़्यादा दस बार अपने बहुत-से हवारियों (साथियों) से मिले और बातें कीं। कोई कहता है कि मसीह के इनसानी जिस्म पर तो सूली से मौत आ गई और वह दफ़न हुआ, मगर अल्लाह की रूह जो उसमें थी वह उठा ली गई। और कोई कहता है कि मरने के बाद मसीह (अलैहि०) जिस्म के साथ ज़िन्दा हैं और जिस्म के साथ उठाए गए। ज़ाहिर है कि अगर इन लोगों के पास हक़ीक़त का इल्म होता तो इतनी बहुत-सी बातें इनमें मशहूर न होतीं।
بَل رَّفَعَهُ ٱللَّهُ إِلَيۡهِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 151
(158) बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी तरफ़ उठा लिया,195 अल्लाह ज़बरदस्त ताक़त रखनेवाला और हिकमतवाला है।
195. यह इस मामले की अस्ल हक़ीक़त है जो अल्लाह ने बताई है। इसमें वाज़ेह तौर पर जो बात बताई गई है वह सिर्फ़ यह है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) को क़त्ल करने में यहूदी कामयाब नहीं हुए और यह कि अल्लाह ने उनको अपनी तरफ़ उठा लिया। अब रहा यह सवाल कि उठा लेने की कैफ़ियत क्या थी तो उसके बारे में कोई तफ़सील क़ुरआन में नहीं बताई गई। क़ुरआन न इसको वाज़ेह करता है कि अल्लाह उनको जिस्म और रूह के साथ ज़मीन से उठाकर आसमानों पर कहीं ले गया, और न यह ही साफ़ कहता है कि उन्होंने ज़मीन पर अपनी फ़ितरी मौत पाई और सिर्फ़ उनकी रूह उठाई गई। इसलिए क़ुरआन की बुनियाद पर न तो इनमें से किसी एक पहलू का साफ़ तौर पर इनकार किया जा सकता है और न इक़रार। लेकिन क़ुरआन के अन्दाज़े-बयान पर ग़ौर करने से यह बात बिलकुल नुमायाँ तौर पर महसूस होती है कि उठाए जाने की शक्ल और कैफ़ियत चाहे कुछ भी हो, बहरहाल मसीह (अलैहि०) के साथ अल्लाह ने कोई ऐसा मामला ज़रूर किया है जो ग़ैर मामूली क़िस्म का है। इस ग़ैर-मामूलीपन का इज़हार तीन चीज़ों से होता है– एक यह कि ईसाइयों में मसीह (अलैहि०) के जिस्म और रूह समेत उठाए जाने का अक़ीदा पहले से मौजूद था और उन वजहों में से था जिनकी बुनियाद पर एक बहुत बड़ा गरोह मसीह के ख़ुदा होने को मानने लगा है। लेकिन इसके बावजूद क़ुरआन ने न सिर्फ़ यह कि बात को साफ़ तौर पर रद्द नहीं किया, बल्कि ठीक वही 'रफ़अ' यानी उठाए जाने (Ascension) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया, जो ईसाई इस वाक़िए के लिए इस्तेमाल करते हैं। किताबे-मुबीन (वाज़ेह किताब) की शान से यह बात मेल नहीं खाती है कि किसी ख़याल को रद्द करना चाहती हो और फिर ऐसी ज़बान इस्तेमाल करे जो इस ख़याल को और ताक़त पहुँचानेवाली हो। दूसरी यह कि अगर मसीह (अलैहि०) का उठाया जाना वैसा ही उठाया जाना होता जैसा कि हर मरनेवाला दुनिया से उठाया जाता है, या अगर इस उठाए जाने से मुराद सिर्फ़ दरजों और मर्तबों की बुलन्दी होती जैसे हज़रत इदरीस के बारे में कहा गया है 'रफ़अनाहु मकानन अलीया' (उसे हमने बुलन्द मक़ाम पर उठाया था।) तो इस बात को बयान करने का अन्दाज़ यह न होता जो हम यहाँ देख रहे हैं। इसको बयान करने के लिए ज़्यादा मुनासिब अलफ़ाज़ ये हो सकते थे कि “यक़ीनन इन्होंने मसीह को क़त्ल नहीं किया, बल्कि अल्लाह ने उसको ज़िन्दा बचा लिया और फिर फ़ितरी मौत दी। यहूदियों ने उसको रुसवा करना चाहा था, मगर अल्लाह ने उसको बुलन्द दरजा दिया।” तीसरी यह कि अगर यह उठाया जाना, मामूली क़िस्म का उठाया जाना होता जैसे हम मुहावरे में किसी मरनेवाले को कहते हैं कि उसे अल्लाह ने उठा लिया तो इसको बयान करने के बाद यह जुमला बिलकुल नामुनासिब था कि “अल्लाह ज़बरदस्त ताक़त रखनेवाला और हिकमतवाला है।” यह तो सिर्फ़ किसी ऐसे वाक़िए के बाद ही सही और मुनासिब हो सकता है जिसमें अल्लाह की ज़बरदस्त ताक़त और उसकी हिकमत ग़ैर-मामूली शक्ल में ज़ाहिर हुई हो। इसके जवाब में क़ुरआन से अगर कोई दलील पेश की जा सकती है तो वह ज़्यादा-से-ज़्यादा सिर्फ़ यह है कि सूरा-3, आले-इमरान, आयत-55 में अल्लाह ने 'मुतवफ़्फ़ी-क' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है जिसका मतलब 'तुझे वापस ले लूँगा' है। लेकिन जैसा कि वहाँ हम हाशिया-51 में बता चुके हैं कि यह लफ़्ज़ फ़ितरी मौत के मानी में वाज़ेह नहीं है, बल्कि रूह का क़ब्ज़ करना और जिस्म और रूह के क़ब्ज़ करना, दोनों मानी हो सकते हैं, इसलिए यह उन मुमकिन पहलुओं को ख़त्म कर देने के लिए काफ़ी नहीं है जो हमने ऊपर बयान किए हैं। कुछ लोग, जो इस बात पर पूरा ज़ोर देते हैं कि मसीह (अलैहि०) की फ़ितरी मौत हुई है, सवाल करते हैं कि अरबी लफ़्ज़ 'तवफ़्फ़ी' रूह और जिस्म दोनों के क़ब्ज़ होने पर इस्तेमाल होने की कोई और मिसाल भी है? लेकिन जबकि रूह और जिस्म के क़ब्ज़ होने का वाक़िआ इनसानी इतिहास में पेश ही एक बार आया हो तो इस मानी पर इस लफ़्ज़ के इस्तेमाल होने की मिसाल पूछना सिर्फ़ एक बेमानी सी बात है। देखना यह चाहिए कि अस्ल लुग़त (शब्दकोश) में इस इस्तेमाल की गुंजाइश है या नहीं। अगर है तो मानना पड़ेगा कि क़ुरआन ने जिस्म के उठाए जाने के अक़ीदे को साफ़ तौर से रद्द करने के बजाय यह लफ़्ज़ इस्तेमाल करके उन मुमकिन पहलुओं में एक और पहलू का इज़ाफ़ा कर दिया है, जिनसे इस अक़ीदे को उलटी मदद मिलती है। वरना कोई वजह न थी कि वह मौत के वाज़ेह लफ़्ज़ को छोड़ कर दोमाने रखनेवाला वफ़ात का लफ़्ज़ ऐसे मौक़े पर इस्तेमाल करता जहाँ जिस्म को उठाए जाने का अक़ीदा पहले से मौजूद या और एक ग़लत अक़ीदे, यानी मसीह के ख़ुदा होने का सबब बन रहा था। फिर जिस्म को उठाए जाने के इस अक़ीदे को और ज़्यादा ताक़त उन बहुत-सी हदीसों से पहुँचती है जो क़ियामत से पहले हज़रत ईसा-इब्ने-मरयम (अलैहि०) के दोबारा दुनिया में आने और दज्जाल से जंग करने के बारे में बताती हैं (तफ़सीर सूरा-33 अल-अहज़ाब के आख़िर में हमने उन हदीसों को दर्ज कर दिया है)। उन हदीसों से हज़रत ईसा का दोबारा आना तो यक़ीनी तौर पर साबित होता है। अब यह हर आदमी ख़ुद देख सकता है कि उनका मरने के बाद दोबारा दुनिया में आना गुमान के ज़्यादा क़रीब है या ज़िन्दा कहीं ख़ुदा की कायनात में मौजूद होना और फिर वापस आना?
وَإِن مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا لَيُؤۡمِنَنَّ بِهِۦ قَبۡلَ مَوۡتِهِۦۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا ۝ 152
(159) और किताबवालों में से कोई ऐसा न होगा जो उसकी मौत से पहले उस पर ईमान न ले आएगा196 और क़ियामत के दिन वह उस पर गवाही देगा।197
196. इस जुमले के दो मतलब बयान किए गए हैं और अलफ़ाज़ में दोनों यकसाँ तौर पर पाए जाते है। एक मतलब वह है जो ऊपर तर्जमे में हमने दर्ज किया है। दूसरा मतलब यह है कि “किताबवालों में से कोई ऐसा नहीं जो अपनी मौत से पहले मसीह पर ईमान न ले आए।” किताबबालों से मुराद यहूदी हैं और हो सकता है ईसाई भी हों। पहले मानी के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि मसीह की फ़ितरी मौत जब आएगी उस वक़्त जितने किताबवाले मौजूद होंगे वे सब उनपर (यानी उनकी रिसालत और पैग़म्बरी पर) ईमान ला चुके होंगे। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि तमाम किताबवालों पर मरने से ठीक पहले मसीह की रिसालत की हक़ीक़त खुल जाती है और ये मसीह पर ईमान ले आते हैं, मगर यह उस वक़्त होता है, जबकि ईमान लाना फ़ायदेमन्द नहीं हो सकता। दोनों मानी कई सहाबा, ताबिईन और क़ुरआन की तफ़सीर करनेवाले बड़े आलिमों ने बयान किए हैं और सही बात सिर्फ़ अल्लाह ही के इल्म में है।
197. यानी यहूदियों और ईसाइयों ने मसीह (अलैहि०) के साथ और उस पैग़ाम के साथ जो मसीह (अलैहि०) लाए थे, जो मामला किया है उसपर वे ख़ुदा की अदालत में गवाही देंगे। इस गवाही की कुछ तफ़सील आगे सूरा-5 अल-माइदा की आख़िरी आयतों में आनेवाली है।
فَبِظُلۡمٖ مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ طَيِّبَٰتٍ أُحِلَّتۡ لَهُمۡ وَبِصَدِّهِمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ كَثِيرٗا ۝ 153
وَأَخۡذِهِمُ ٱلرِّبَوٰاْ وَقَدۡ نُهُواْ عَنۡهُ وَأَكۡلِهِمۡ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 154
(160, 161) मतलब यह198 कि इन यहूदी बन जानेवालों के इसी ज़ालिमाना रवैये की वजह से और इस वजह से कि ये बहुत ज़्यादा अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं,199 और सूद (ब्याज) लेते हैं जिससे इन्हें मना किया गया था,200 और लोगों के माल नाजाइज़ तरीक़ों से खाते हैं, हमने बहुत-सी वे अच्छी पाक चीज़ें इनपर हराम कर दीं जो पहले इनके लिए हलाल थीं,201 और जो लोग इनमें से इनकार करनेवाले हैं उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।202
198. ऊपर से चली आ रही बात से हटकर बीच में लाई हुई बात ख़त्म होने के बाद यहाँ से तक़रीर का फिर वही सिलसिला शुरू होता है जो ऊपर से चला आ रहा था।
199. यानी सिर्फ़ इसी पर बस नहीं करते कि ख़ुद अल्लाह के रास्ते से फिरे हुए हैं, बल्कि ज़्यादा बेख़ौफ़ मुजरिम बन चुके हैं कि दुनिया में ख़ुदा के बन्दों को गुमराह करने के लिए जो तहरीक भी उठती है, ज़्यादातर उसके पीछे यहूदी दिमाग़ और यहूदी सरमाया ही काम करता नज़र आता है और सच्चे रास्ते की तरफ़ बुलाने के लिए जो तहरीक भी शुरू होती है ज़्यादातर उसके मुक़ाबले में यहूदी ही सबसे बढ़कर रुकावट बनते हैं। जबकि हाल यह है कि ये कमबख़्त अल्लाह की किताब रखनेवाले और नबियों के वारिस हैं। इनका सबसे ताज़ा जुर्म वे कम्यूनिस्ट (साम्यवादी) तहरीक है जिसे यहूदी दिमाग़ ने गढ़ा और यहूदी रहनुमाई ही ने परवान चढ़ाया है। सिर्फ़ नाम के इन अहले-किताब के नसीब में यह जुर्म भी लिखा हुआ था कि दुनिया के इतिहात में पहली बार जो निज़ामे-ज़िन्दगी और निज़ामे-हुकूमत ख़ुदा के खुले इनकार पर, ख़ुदा से खुल्लम-खुल्ला दुश्मनी पर और ख़ुदापरस्ती को मिटा देने के खुल्लम-खुल्ला एलान और मजबूत इरादे पर तामीर किया गया उसके ईजाद करनेवाले, उसको गढ़नेवाले, उसकी बुनियाद डालनेवाले और उसके कर्ताधर्ता हज़रत मूसा के नामलेवा हों। कम्यूनिज़्म (साम्यवाद) के बाद नए दौर में गुमराही का दूसरा बड़ा सुतून फ़्रायड का फ़लसफ़ा है और मज़े की बात यह है कि वह भी बनी-इसराईल ही का एक आदमी है।
200. तौरात (बाइबल) में साफ़ तौर पर यह हुक्म मौजूद है कि– “अगर तू मेरी जनता में से किसी मुहताज को जो तेरे पास रहता हो, क़र्ज़ दे तो उससे महाजन (क़र्ज़ देनेवाले) की तरह सुलूक न करना और न उससे सूद (ब्याज) लेना। अगर व किसी वक़्त अपने पड़ोसी के कपड़े गिरवी रख भी ले तो सूरज के डूबने तक उसको वापस कर देना, क्योंकि सिर्फ़ वही एक उसका ओढ़ना उसके जिस्म का वही लिबास है, फिर वह क्या ओढ़कर सोएगा। इसलिए जब वह फ़रियाद करेगा तो मैं उसकी सुनूँगा, क्योंकि मैं मेहरबान हूँ।” (निर्गमन-22:25 से 27) इसके अलावा और भी कई जगहों पर तौरात में सूद (ब्याज़) को हराम किए जाने का हुक्म बयान हुआ है। लेकिन इसके बावजूद उसी तौरात के माननेवाले यहूदी आज दुनिया के सबसे बड़े सूद खानेवाले हैं और अपनी तंगदिली और संगदिली के लिए मिसाल बन चुके हैं।
201. शायद यह उसी बात की तरफ़ इशारा है जो आगे सूरा-6 अनआम आयत-146 में आनेवाली है। यानी यह कि बनी-इसराईल पर तमाम वे जानवर हराम कर दिए गए जिनके नाख़ुन होते हैं और उनपर गाय और बकरी की चरबी भी हराम कर दी गई। इसके अलावा मुमकिन है कि इशारा उन दूसरी पाबन्दियों और सख़्तियों की तरफ़ भी हो जो यहूदी फ़िक़्ह (शरीअत) में पाई जाती हैं। किसी गरोह के लिए ज़िन्दगी के दायरे को तंग कर दिया जाना हक़ीक़त में एक तरह की सज़ा ही है। (और ज़्यादा जानकारी के लिए देखें सूरा-6 अनआम, आयत-46, हाशिया-122)
202. यानी उस क़ौम के जो लोग ईमान और इताअत से फिरे हुए और बग़ावत व इनकार की रविश पर क़ायम हैं उनके लिए ख़ुदा की तरफ़ से दर्दनाक सज़ा तैयार है। दुनिया में भी और आख़िरत में भी। दुनिया में जो इबरतनाक सज़ा उनको मिली और मिल रही है वह कभी किसी दूसरी क़ौम को नहीं मिली। दो हज़ार साल हो चुके हैं कि ज़मीन पर कहीं उनको इज्ज़त का ठिकाना नहीं मिला। दुनिया में तितर-बितर कर दिए गए हैं और हर जगह ग़रीबुल-वतन (बाहरी) हैं। कोई दौर ऐसा नहीं गुज़रता जिसमें वे दुनिया के किसी न किसी हिस्से में रुसवाई के साथ पामाल न किए जाते हों और अपनी दौलतमन्दी के बावजूद कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ इन्हें इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता हो। फिर ग़ज़ब यह है कि क़ौमें पैदा होती और मिटती हैं, मगर इस क़ौम को मौत भी नहीं आती। इसको दुनिया में 'ला यमूतु वला यह्या' (उसमें न मरेंगे न ज़िन्दा रहेंगे) की सज़ा दी गई है, ताकि क़ियामत तक दुनिया की क़ौमों के लिए इबरत की एक ज़िन्दा मिसाल बनी रहे और अपने हालात से यह सबक़ देती रहे कि ख़ुदा की किताब बग़ल में रखकर ख़ुदा के मुक़ाबले में बाग़ी बनने की जुर्रअतें करने का यही अंजाम होता है। रही आख़िरत तो अगर अल्लाह ने चाहा वहाँ का अज़ाब उससे भी ज़्यादा दर्दनाक होगा। (इस मौक़े पर जो शुब्हाा फ़िलस्तीन की इसराईली रियासत के क़ायम होने की वजह से पैदा होता है उसे दूर करने के लिए देखें सूरा-3 आले-इमरान की आयत-112)
لَّٰكِنِ ٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ مِنۡهُمۡ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَۚ وَٱلۡمُقِيمِينَ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَٱلۡمُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أُوْلَٰٓئِكَ سَنُؤۡتِيهِمۡ أَجۡرًا عَظِيمًا ۝ 155
(162) मगर इनमें जो लोग पुख़्ता इल्म रखनेवाले हैं और ईमानदार हैं वे सब उस तालीम पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की गई है और जो तुमसे पहले नाज़िल की गई थी।203 इस तरह के ईमान लानेवाले और नमाज़ और ज़कात की पाबन्दी करनेवाले और अल्लाह और आख़िरत के दिन पर सच्चा ईमान रखनेवाले लोगों को हम ज़रूर ही बड़ा बदला देंगे।
203. यानी उनमें से जो लोग आसमानी किताबों की सच्ची तालीमात के जानकार हैं और हर क़िस्म के तास्सुब (पूर्वाग्रह), जाहिलाना ज़िद, बाप-दादा की अन्धी पैरवी और अपने मन की ग़ुलामी से आज़ाद होकर उस हक़ बात को सच्चे दिल से मानते हैं जिसका सुबूत आसमानी किताबों से मिलता है, उनकी रविश काफ़िर और ज़ालिम यहूदियों की आम रविश से बिलकुल अलग है। उनको एक ही नज़र में महसूस हो जाता है कि जिस दीन की तालीम पिछले नबियों ने दी थी उसी की तालीम क़ुरआन दे रहा है, इसलिए वे बेलाग हक़परस्ती के साथ दोनों पर ईमान ले आते हैं।
۞إِنَّآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ كَمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ نُوحٖ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَٰرُونَ وَسُلَيۡمَٰنَۚ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 156
(163) ऐ नबी! हमने तुम्हारी तरफ़ उसी तरह वह्य भेजी है जिस तरह नूह और उसके बाद के पैग़म्बरों की तरफ़ भेजी थी।204 हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और औलादे-याक़ूब, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की तरफ़ वह्य भेजी। हमने दाऊद को ज़बूर दी।205
204. इसका मक़सद यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल०) कोई अनोखी चीज़ लेकर नहीं आए हैं, जो पहले न आई हो। इनका यह दावा नहीं है कि मैं दुनिया में पहली मर्तबा एक नई चीज़ पेश कर रहा है, बल्कि अस्ल में उनको भी इल्म के उसी एक चश्मे से हिदायत मिली है जिससे तमाम पिछले नबियों को हिदायत मिलती रही है और वे भी उसी एक सच्चाई और हक़ीक़त को पेश कर रहे हैं जिसे दुनिया के अलग-अलग बहुत से कोनों में पैदा होनेवाले पैग़म्बर हमेशा से पेश करते चले आए हैं। वह्य का मतलब है इशारा करना, दिल में कोई बात डालना, ख़ुफ़िया तरीक़े से कोई बात कहना, पैग़ाम भेजना।
205. मौजूदा बाइबल में ज़बूर (भजन संहिता) के नाम से जो किताब पाई जाती है वह सारी की सारी हज़रत दाऊद (अलैहि०) की ज़बूर नहीं हैं। इसमें बहुत-से गीत दूसरे लोगों के भी भर दिए गए हैं और उनको अपने-अपने लेखकों से जोड़ दिया गया है। अलबत्ता जिन गीतों पर वाज़ेह कर दिया गया है कि वे हज़रत दाऊद (अलैहि०) के हैं उनके अन्दर हक़ीक़त में अल्लाह के कलाम की रौशनी महसूस होती है। इसी तरह बाइबिल में सुलैमान (अलैहि०) के 'नीति वचन' के नाम से जो किताब मौजूद है उसमें भी बहुत कुछ मिलावट पाई जाती है और उसके आख़िर के दो बाब (अध्याय) तो साफ़ तौर पर बाद में जोड़े हुए लगते हैं, मगर इसके बावजूद इन 'नीति वचन' का बड़ा हिस्सा सही और हक़ मालूम होता है। इन दो किताबों के साथ एक और किताब हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के नाम से भी बाइबल में दर्ज है। लेकिन हिकमत और तत्त्वदर्शिता के बहुत-से हीरे अपने अन्दर रखने के बावजूद उसे पढ़ते हुए यह यक़ीन नहीं आता कि वाक़ई हज़रत अय्यूब से इस किताब को जोड़ना सही है। इसलिए कि क़ुरआन में और ख़ुद इस किताब के शुरू में हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के जिस बड़े सब्र की तारीफ़ की गई है इसके बिलकुल बरख़िलाफ़ वह पूरी किताब हमें यह बताती है कि हज़रत अय्यूब (अलैहि०) अपनी मुसीबत के ज़माने में अल्लाह के ख़िलाफ़ सरापा शिकायत बने हुए थे, यहाँ तक कि उनके साथी उन्हें इस बात पर मुत्मइन करने की कोशिश करते थे कि ख़ुदा ज़ालिम नहीं है, मगर वह किसी तरह मानकर न देते थे। इन किताबों के अलावा बाइबल में बनी-इसराईल के नबियों की 17 किताबें और भी दर्ज हैं। जिनका ज़्यादातर हिस्सा सही मालूम होता है। ख़ास तौर से यशायाह, यर्मियाह, हिज्रक़ीएल, आमूस और कुछ दूसरी किताबों में तो बहुत-सी जगहें ऐसी आती हैं जिन्हें पढ़कर आदमी की रूह झूमने लगती है। इनमें आसमानी कलाम होने की शान साफ़ तौर पर महसूस होती है। इनकी अख़लाक़ी तालीम, उनका शिर्क के ख़िलाफ़ जिहाद, उनकी तौहीद के हक़ में ज़ोरदार दलीलें, और उनकी बनी-इसराईल के अख़लाक़ी गिरवावट पर सख़्त तनक़ीद और मलामतें पढ़ते वक़्त आदमी यह महसूस किए बग़ैर नहीं रह सकता कि इंजीलों में हज़रत मसीह की तक़रीरे क़ुरआन मजीद और ये किताबें एक ही सरचश्मे से निकली हुई धाराएँ हैं।
فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن صَدَّ عَنۡهُۚ وَكَفَىٰ بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا ۝ 157
(55) मगर उनमें से कोई इस पर ईमान लाया और कोई इससे मुँह मोड़ गया,87 और मुँह मोड़नेवालों के लिए तो बस जहन्नम की भड़कती हुई आग ही काफ़ी है।
87. याद रहे कि यहाँ जवाब बनी-इसराईल की हसद और जलन से भरी हुई बातों का दिया जा रहा है। इस जवाब का मतलब यह है कि तुम लोग आख़िर जलते किस बात पर हो? तुम भी इबराहीम की औलाद हो और ये बनी-इसमाईल भी इबराहीम ही की औलाद हैं। इबराहीम से दुनिया की इमामत (नेतृत्व) का जो वादा हमने किया था वह इबराहीम की औलाद में से सिर्फ़ उन लोगों के लिए था जो हमारी भेजी हुई किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) की पैरवी करें। यह किताब और हिकमत पहले हमने तुम्हारे पास भेजी थी मगर तुम्हारी अपनी नालायक़ी थी तुम इससे मुँह मोड़ गए। अब वही चीज़ हमने बनी-इसमाईल को दी है और यह उनकी ख़ुशनसीबी है कि वे इस पर ईमान ले आए हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَوۡفَ نُصۡلِيهِمۡ نَارٗا كُلَّمَا نَضِجَتۡ جُلُودُهُم بَدَّلۡنَٰهُمۡ جُلُودًا غَيۡرَهَا لِيَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 158
(56) जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इनकार कर दिया है उन लोगों को हम यक़ीनन आग में झोंकेंगे और जब उनके बदन की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे, ताकि वे ख़ूब अज़ाब का मज़ा चखें। अल्लाह बड़ी क़ुदरत रखता है और अपने फ़ैसलों को अमल में लाने की हिकमत ख़ूब जानता है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ لَّهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَنُدۡخِلُهُمۡ ظِلّٗا ظَلِيلًا ۝ 159
(57) और जिन लोगों ने हमारी आयतों को मान लिया और नेक अमल किए उनको हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, जहाँ वे हमेशा-हमेशा रहेंगे और उनको पाकीज़ा बीवियाँ मिलेंगी और उन्हें हम घनी छाओं में रखेंगे।
إِلَّا طَرِيقَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 160
(168, 169) इस तरह जिन लोगों ने इनकार और बग़ावत का तरीक़ा अपनाया और ज़ुल्म व सितम पर उतर आए अल्लाह उनको हरगिज़ माफ़ न करेगा। और उन्हें कोई रास्ता जहन्नम के रास्ते के सिवा न दिखाएगा जिसमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह के लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلرَّسُولُ بِٱلۡحَقِّ مِن رَّبِّكُمۡ فَـَٔامِنُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 161
(170) लोगो, यह रसूल तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से हक़ लेकर आ गया है। ईमान ले आओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और अगर इनकार करते हो तो जान लो कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह का है209 और अल्लाह जाननेवाला भी है और गहरी समझवाला भी।210
209. यानी ज़मीन और आसमान के मालिक की नाफ़रमानी करके तुम उसका कोई नुक़सान नहीं कर सकते, नुक़सान जो होगा तुम्हारा अपना होगा।
210. यानी तुम्हारा ख़ुदा न तो बे-ख़बर है कि उसकी सल्तनत में रहते हुए तुम शरारतें करो और उसे मालूम न हो और न वह नादान है कि उसे अपनी हिदायतों के ख़िलाफ़ काम करनेवालों से निपटने का तरीक़ा न आता हो।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 162
(171) ऐ किताबवालो, अपने दीन में हद से आगे न बढ़ो211 और अल्लाह से जोड़कर हक़ के सिवा कोई बात न कहो, मसीह मरयम का बेटा ईसा इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था और एक फ़रमान था,212 था, जो अल्लाह ने मरयम की तरफ़ भेजा और एक रूह थी अल्लाह की तरफ़ से213 (जिसने मरयम के पेट में बच्चे की शक्ल इख़्तियार की) तो तुम अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान214 लाओ और न कहो कि 'तीन' हैं।215 बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ख़ुदा है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो216 ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़ों का वही मालिक217 है और उनकी ज़रूरतों को पूरी करने और उनकी ख़बर रखने के लिए बस वही काफ़ी है।218
211. यहाँ किताबवालों से मुराद ईसाई हैं और हद से आगे बढ़नेवाले के मानी हैं किसी चीज़ की ताईद और हिमायत में हद से गुज़र जाना। यहूदियों का जुर्म यह था कि वे मसीह के इनकार और मुख़ालफ़त में हद से गुज़र गए और ईसाइयों का जुर्म यह है कि वे मसीह की अक़ीदत और मुहब्बत में हद से गुज़र गए।
212. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘कलिमा' इस्तेमाल हुआ है। मरयम की तरफ़ कलिमा भेजने का मतलब यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के रहम (गर्भाशय) पर यह फ़रमान उतारा कि किसी मर्द के वीर्य (नुत्फ़े) से सैराब (सिंचित) हुए बग़ैर हमल ठहरा ले। ईसाइयों को शुरू में मसीह (अलैहि०) के बग़ैर बाप के पैदा होने का यही राज़ बताया गया था। मगर उन्होंने यूनानी फ़लसफ़े से गुमराह होकर पहले लफ़्ज़ कलिमे को 'कलाम' (वाक्य) या 'बोल' (Locos) का हममानी समझ लिया। फिर इस कलाम और बोल से अल्लाह के ज़ाती कलाम की सिफ़त ले ली। फिर यह गुमान क़ायम किया कि अल्लाह की इस ज़ाती सिफ़त ने मरयम (अलैहि०) के पेट में दाख़िल होकर वह जिस्मानी सूरत इख़्तियार की जो मसीह की शक्ल में ज़ाहिर हुई। इस तरह ईसाइयों में मसीह (अलैहि०) के ख़ुदा होने का ग़लत अक़ीदा पैदा हुआ और इस ग़लत तसव्वुर ने जड़ पकड़ ली कि ख़ुदा ने ख़ुद अपने आपको या अपनी अज़ली (अनादिकालिक) सिफ़तों में से बोल और कलाम की सिफ़तों को मसीह की शक्ल में ज़ाहिर किया है।
213. यहाँ ख़ुद मसीह को 'ख़ुदा की तरफ़ से एक रूह' कहा गया है और सूरा-2, अल-बक़रा में इस बात को यूँ अदा किया गया है कि हमने पाक रूह से मसीह की मदद की। दोनों इबारतों का मतलब यह है कि अल्लाह ने मसीह (अलैहि०) को वह पाकीज़ा रूह अता की थी, जिसे बुराई छूकर भी नहीं गुज़री थी। सरासर हक़ और सच्चाई थी और मुकम्मल तौर पर अख़लाक़ी फ़जीलत थी। यही तारीफ़ मसीह (अलैहि०) की ईसाइयों को बताई गई थी। मगर वे इसमें भी हद से बढ़ गए और 'अल्लाह की तरफ़ से एक रूह' को ठीक अल्लाह की रूह बना डाला और रुहुल-क़ुदुस (Holy Ghost) का मतलब यह लिया कि वह अल्लाह की अपनी पाकीज़ा रूह थी जो मसीह के अन्दर दाख़िल हो गई थी। इस तरह अल्लाह और मसीह के साथ एक तीसरा ख़ुदा रूहुल-क़ुदुस (पवित्रात्मा) को बना डाला गया। यह ईसाइयों का दूसरा बड़ा ग़ुलू (हद से बढ़ना) था जिसकी वजह से वे गुमराही में पड़ गए। मज़े की बात यह है कि आज भी इंजील मत्ती में यह जुमला मौजूद है कि 'फ़रिश्ते ने उसे (यानी यूसुफ़ नज्जार को) ख़ाब में दिखाई देकर कहा कि ऐ यूसुफ़-इब्ने-दाऊद! अपनी बीवी मरयम को अपने हाँ ले आने से न डर, क्योंकि जो उसके पेट में है वह रूहुल-क़ुदुस की क़ुदरत से है।' (अध्याय-1, आयत-20)
214. यानी अल्लाह को अपना अकेला इलाह मानो और तमाम रसूलों की रिसालत (पैग़म्बरी) तसलीम करो जिनमें से एक रसूल मसीह भी हैं। यही मसीह (अलैहि०) की असली तालीम थी और यही बात हक़ है जिसे मसीह के एक सच्चे पैरोकार को मानना चाहिए।
215. यानी तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे को छोड़ दो, चाहे वह किसी शक्ल में तुम्हारे अन्दर पाया जाता हो। हक़ीक़त यह है कि ईसाई एक ही वक़्त में तौहीद को भी मानते हैं और तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे (Trinity) को भी। मसीह (अलैहि०) की वाज़ेह बातें जो इंजीलों में मिलती हैं उनकी वजह से कोई ईसाई इससे इनकार नहीं कर सकता कि ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है और उसके सिवा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है। उनके लिए यह माने बिना चारा नहीं है कि तौहीद अस्ल दीन है। मगर वह जो एक ग़लतफ़हमी शुरू में उनको हो गई थी कि अल्लाह का कलाम मसीह की शक्ल में ज़ाहिर हुआ और अल्लाह की रूह उसमें दाख़िल हुई, इसकी वजह से उन्होंने मसीह रुहुल-क़ुदुस की ख़ुदाई को भी ख़ुदा की ख़ुदाई के साथ मानना ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर लाज़िम कर लिया। इस ज़बरदस्ती के लाज़िम करने से उनके लिए यह मसला एक न सुलझनेवाली पहेली बन गया कि तौहीद के अक़ीदे के बावजूद तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे (त्रिवाद) को और तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे के बावजूद तौहीद के अक़ीदे को किस तरह निबाहें। तक़रीबन 1800 बरस से मसीही आलिम ख़ुद की पैदा की हुई मुश्किल को हल करने में सर खपा रहे हैं। बीसियों फ़िरक़े इसी की मुख़्तलिफ़ ताबीरों पर बने हैं। इसी पर एक गरोह ने दूसरे को बेदीन क़रार दिया है। इसी के झगड़ों में कलीसा पर कलीसा अलग होते चले गए। इसी पर उनके सारे इल्मे-कलाम (धार्मिक तर्क-वितक) का ज़ोर लगा है। हालाँकि यह मुश्किल न ख़ुदा ने पैदा की थी, न उसके भेजे हुए मसीह ने, और न इस मुश्किल का कोई हल मुमकिन है कि ख़ुदा तीन भी माने जाएँ और फिर तौहीद (एकेश्वरवाद) भी बरक़रार रहे। इस मुश्किल को सिर्फ़ उनके ग़ुलू (यानी हद से आगे बढ़ने के रवैये) ने पैदा किया है और इसका बस यही एक हल है कि वे हद से आगे बढ़ना छोड़ दें, मसीह और रूहुल-क़ुदुस की ख़ुदाई का ख़याल छोड़ दें, सिर्फ़ अल्लाह को एक ख़ुदा और इलाह तसलीम कर लें और मसीह को सिर्फ़ उसका पैग़म्बर क़रार दें, न कि किसी तौर पर ख़ुदाई में शरीक।
216. यह ईसाइयों के चौथे ग़ुलू (अतिशयोक्ति) का रद्द है। बाइबल के नए नियम की रिवायतें अगर सही भी हों तो उनसे (ख़ास तौर से पहली तीन इंजीलों से) ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतना ही साबित होता है कि मसीह (अलैहि०) ने ख़ुदा और बन्दों के ताल्लुक़ को बाप और औलाद के ताल्लुक़ से तशबीह (उपमा) दी थी और 'बाप' का लफ़्ज़ ख़ुदा के लिए वे सिर्फ़ मजाज़ और इस्तिआरे (लक्षण और रूपक) के तौर पर इस्तेमाल करते थे। यह अकेले मसीह की ही ख़ुसूसियत नहीं है, पुराने ज़माने से बनी-इसराईल ख़ुदा के लिए बाप का लफ़्ज़ बोलते चले आ रहे थे और उसकी बहुत-सी मिसालें बाइबल के पुराने नियम में मौजूद हैं। मसीह ने यह लफ़्ज़ अपनी क़ौम के मुहावरे के मुताबिक़ ही इस्तेमाल किया था और वे ख़ुदा को सिर्फ़ अपना ही नहीं, बल्कि सब इनसानों का बाप कहते थे। लेकिन ईसाइयों ने यहाँ फिर ग़ुलू से काम लिया और मसीह को ख़ुदा का इकलौता बेटा क़रार दिया। इनका अजीबो-ग़रीब नज़रिया इस बारे में यह है कि चूँकि मसीह ख़ुदा का दूसरा रूप है और उसके कलिमे और उसकी रूह का जिस्मानी ज़ुहूर है इसलिए वह ख़ुदा का इकलौता बेटा है और ख़ुदा ने अपने इकलौते को ज़मीन पर इनसान के इसलिए भेजा कि इनसानों के गुनाह अपने सर लेकर सलीब पर चढ़ जाए और अपने ख़ून से गुनाह का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करे। हालाँकि इसका कोई सुबूत ख़ुद मसीह (अलैहि०) के किसी बयान से वे नहीं दे सकते। यह अक़ीदा उनका अपना गढ़ा हुआ है और इस ग़ुलू (अत्युक्ति) का नतीजा है जिसमें वे अपने पैग़म्बर की अज़ीमुश्शान शख़्सियत से मुतास्तिर होकर गिरफ़्तार हो गए थे। अल्लाह ने यहाँ कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के अक़ीदे को रद्द नहीं किया है, क्योंकि ईसाइयों के यहाँ यह कोई मुस्तक़िल (स्थायी) अक़ीदा नहीं है, बल्कि मसीह को ख़ुदा का बेटा क़रार देने का नतीजा है और इस सवाल का सूफ़ी मत से मिलता-जुलता और एक फ़ल्सफ़ियाना जवाब है कि जब मसीह ख़ुदा का इकलौता था तो वह सलीब पर चढ़कर लानत की मौत क्यों मरा? इसलिए इस अक़ीदे का रद्द आप से आप हो जाता है, अगर मसीह के अल्लाह का बेटा होने की तरदीद (खण्डन) कर दी जाए और इस ग़लतफ़हमी को दूर कर दिया जाए कि मसीह (अलैहि०) सूली पर चढ़ाए गए थे।
217. यानी ज़मीन और आसमान में मौजूद सारी चीज़ों में से किसी के साथ भी ख़ुदा का रिश्ता बाप और बेटे का नहीं है, बल्कि सिर्फ़ मालिक और मिलकियत का रिश्ता है।
218. यानी ख़ुदा अपनी ख़ुदाई का इन्तिज़ाम करने के लिए ख़ुद काफ़ी है। उसको किसी से मदद लेने की ज़रूरत नहीं कि किसी को अपना बेटा बनाए।
لَّن يَسۡتَنكِفَ ٱلۡمَسِيحُ أَن يَكُونَ عَبۡدٗا لِّلَّهِ وَلَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ٱلۡمُقَرَّبُونَۚ وَمَن يَسۡتَنكِفۡ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيَسۡتَكۡبِرۡ فَسَيَحۡشُرُهُمۡ إِلَيۡهِ جَمِيعٗا ۝ 163
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡتَنكَفُواْ وَٱسۡتَكۡبَرُواْ فَيُعَذِّبُهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 164
(172-173) मसीह ने कभी इस बात को अपने लिए बुरा नहीं समझा कि वह अल्लाह का एक बन्दा हो, और न (अल्लाह के) क़रीबी फ़रिश्ते इसको अपने लिए बुरा समझते हैं। अगर कोई अल्लाह की बन्दगी को अपने लिए बुरा समझता है और घमण्ड करता है तो एक वक़्त आएगा जब अल्लाह सब को घेर कर अपने सामने हाज़िर करेगा। उस वक़्त वे लोग जिन्होंने ईमान लाकर अच्छे काम किए हैं अपने बदले पूरे-पूरे पाएँगे और अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको और ज़्यादा बदला देगा और जिन लोगों ने बन्दगी को अपने लिए बुरा समझा और घमण्ड किया है उनको अल्लाह दर्दनाक सज़ा देगा और अल्लाह के सिवा जिन-जिनकी सरपरस्ती और मदद पर वे भरोसा रखते हैं उनमें से किसी को भी वे वहाँ न पाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُم بُرۡهَٰنٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ نُورٗا مُّبِينٗا ۝ 165
(174) लोगो! तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास खुली दलील आ गई है। और हमने तुम्हारी तरफ़ ऐसी रौशनी भेज दी है जो तुम्हें साफ़-साफ़ रास्ता दिखानेवाली है।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱعۡتَصَمُواْ بِهِۦ فَسَيُدۡخِلُهُمۡ فِي رَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَفَضۡلٖ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَيۡهِ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 166
(175) अब जो लोग अल्लाह की बात मान लेंगे और उसकी पनाह ढूँढ़ेंगे उनको अल्लाह अपनी रहमत और अपने फ़्ज़्ल व करम के दामन में ले लेगा और अपनी तरफ़ आने का सीधा रास्ता उनको दिखा देगा।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 167
(176) ऐ नबी! लोग219 तुम से कलाला220 के बारे में पूछते हैं (यानी उनके बारे में हुक्म मालूम करना चाहते हैं जिनके ज़ाहिर में वारिस न हों) । कहो अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है। अगर कोई आदमी बे-औलाद मर जाए और उसकी एक बहन221 हो तो वह उसके तरके (छोड़े हुए माल) में से आधा पाएगी, और अगर बहन बेऔलाद मरे तो भाई उसका वारिस होगा।222 अगर मरनेवाले की वारिस दो बहनें हों तो वे तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी223 और अगर कई भाई-बहनें हों तो औरतों का इकहरा और मर्दो का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए हुक्मों को वाज़ेह करता है, ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह को हर चीज़ का इल्म है।
219. यह आयत इस सूरा के उतरने से बहुत बाद में उत्तरी है। कुछ रिवायतों से तो यहाँ तक मालूम होता है कि यह क़ुरआन की सबसे आख़िरी आयत है। यह बयान अगर सही न भी हो तब भी कम-से-कम इतना तो साबित है कि यह आयत सन नौ हिजरी में उतरी। और सूरा-4 निसा इससे बहुत पहले एक मुकम्मल सूरा की हैसियत से पढ़ी जा रही थी। इसी वजह से इस आयत को उन आयतों के सिलसिले में शामिल नहीं किया गया जो मीरास के अहकाम के बारे में सूरा के शुरू में बयान हुई हैं, बल्कि इसे ज़मीमे (परिशिष्ट) के तौर पर आख़िर में लगा दिया गया।
220. कलाला के मानी में भी राएँ अलग-अलग हैं। कुछ की राय में कलाला वह आदमी है जो बे-औलाद भी हो और जिसके बाप और दादा भी ज़िन्दा न हों। और कुछ के निकट सिर्फ़ बे-औलाद मरनेवाले को कलाला कहा जाता है। हज़रत उमर (रज़ि०) आख़िर वक़्त तक इस मामले में कोई एक राय न बना सके। लेकिन आम फ़ुक़हा ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की इस राय को तसलीम कर लिया है कि कलाला सिर्फ़ पहली सूरत के मानी में ही है और ख़ुद क़ुरआन से भी इसकी ताईद होती है, क्योंकि यहाँ कलाला की बहन को छोड़े हुए माल यानी तरके के आधे हिस्से का वारिस बताया गया है। हालाँकि अगर कलाला का बाप ज़िन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुँचता ही नहीं।
221. यहाँ उन भाई-बहनों की मीरास का बयान हो रहा है जिनके माँ-बाप वही हों जो मैयत के हों या सिर्फ़ बाप मैयत का और उनका एक हो। हज़रत अबू-बक्र (रज़िo ) ने एक बार एक ख़ुतबे में इस मानी को वाज़ेह किया था और सहाबा में से किसी ने इससे इख़्तिलाफ़ नहीं किया। इस वजह से इस मसले में सभी एक राय हैं।
222. यानी भाई उसके पूरे माल का वारिस होगा, अगर कोई और हक़दार न हो। और अगर कोई और हक़ दार मौजूद हो, जैसे शौहर, तो उसका हिस्सा अदा करने के बाद बाक़ी तमाम छोड़ा हुआ माल भाई को मिलेगा।
223. यही हुक्म दो से ज़्यादा बहनों का भी है।
وَمَن يَقۡتُلۡ مُؤۡمِنٗا مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآؤُهُۥ جَهَنَّمُ خَٰلِدٗا فِيهَا وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَلَعَنَهُۥ وَأَعَدَّ لَهُۥ عَذَابًا عَظِيمٗا ۝ 168
(93) रहा वह आदमी जो किसी ईमानवाले को जान-बूझकर क़त्ल करे तो उसकी सज़ा जहन्नम है जिसमें वह हमेशा रहेगा। उसपर अल्लाह का ग़ज़ब और उसकी लानत है। और अल्लाह ने उसके लिए सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 169
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुम अल्लाह की राह में लड़ने के लिए निकलो तो दोस्त और दुश्मन में फ़र्क़ करो और जो तुम्हें सलाम करे उसे फ़ौरन न कह हो कि तुम ईमान नहीं रखते।126 अगर तुम दुनियावी फ़ायदा चाहते हो तो अल्लाह के पास तुम्हारे लिए बहुत-से माल हैं। आख़िर इसी हालत में तुम ख़ुद भी तो इससे पहले रह चुके हो। फिर अल्लाह ने तुमपर एहसान किया,127 तो जाँच-परख से काम लो जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
126. इस्लाम के शुरुआती ज़माने में 'अस्सलामु अलैकुम' का लफ़्ज़ मुसलमानों के लिए पहचान और अलामत की हैसियत रखता था और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देख कर ये लफ्ज़ इस मानी में इस्तेमाल करता था कि मैं तुम्हारे ही गरोह का आदमी हूँ, दोस्त और ख़ैरख़ाह हूँ, मेरे पास तुम्हारे लिए सलामती और आफ़ियत के सिवा कुछ नहीं है, इसलिए न तुम मुझसे दुश्मनी करो और न मेरी तरफ़ से दुश्मनी और नुक़सान का अन्देशा रखो। जिस तरह फ़ौज में एक लफ़्ज़ पहचान (Pass word ) के तौर पर मुक़र्रर किया जाता है और रात के वक़्त एक फ़ौज के आदमी एक-दूसरे के पास से गुज़रते हुए उसे इस मक़सद के लिए इस्तेमाल करते हैं कि दुश्मन फ़ौज के आदमियों से अलग हों, इसी तरह सलाम का लफ़्ज़ भी मुसलमानों में पहचान के तौर पर मुक़र्रर किया गया था। ख़ास तौर से उस ज़माने में इस पहचान की अहमियत इस वजह से और भी ज़्यादा थी कि उस वक़्त अरब के नए मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के दरमियान लिबास, ज़बान, और किसी दूसरी चीज़ में कोई नुमायाँ फ़र्क़ नहीं था, जिसकी वजह से एक मुसलमान सरसरी नज़र में दूसरे मुसलमान को पहचान नहीं पाता। लेकिन लड़ाइयों के मौक़े पर एक पेचीदगी यह सामने आती थी कि मुसलमान जब किसी दुश्मन गरोह पर हमला करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वह हमला करनेवाले मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका दीनी भाई है “अस्सलामु अलैकुम' या 'ला-इला-ह इल्लल्लाह' पुकारता था, मगर मुसलमानों को इस पर यह शक होता था कि यह कोई इस्लाम-दुश्मन है जो सिर्फ़ अपनी जान बचाने के लिए बहाना कर रहा है, इसलिए कभी-कभी वह उसे क़त्ल कर बैठते थे और उसकी चीज़ें ग़नीमत के माल के तौर पर ले लेते थे। नबी (सल्ल०) ने ऐसे हर मौक़े पर निहायत सख़्ती के साथ ख़बरदार किया। मगर इस तरह के वाक़िए बराबर पेश आते रहे। आख़िरकार अल्लाह ने क़ुरआन में इस पेचीदा मसले को हल कर दिया। आयत का मक़सद यह है कि जो आदमी अपने आपको मुसलमान की हैसियत से पेश कर रहा है उसके बारे में तुम्हें सरसरी तौर पर यह फ़ैसला कर देने का हक़ नहीं है कि वह सिर्फ़ जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। हक़ीक़त तो छान-बीन से ही मालूम हो सकती है। छान-बीन के बग़ैर छोड़ देने में अगर यह बात मुमकिन है कि एक दुश्मन झूठ बोलकर जान बचा ले जाए तो क़त्ल कर देने में भी मुमकिन है कि एक ईमानवाला बे-गुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जाए। और बहरहाल तुम्हारा एक दुश्मन को छोड़ देने में ग़लती करना उससे कई गुना ज़्यादा बेहतर है कि तुम एक ईमानवाले को क़त्ल करने की ग़लती करो।
127. यानी एक वक़्त तुम पर भी ऐसा गुज़र चुका है कि तुम इनफ़िरादी तौर से अलग-अलग काफ़िर क़बीलों में बिखरे हुए थे, अपने इस्लाम को ज़ुल्मो-सितम के डर से छिपाने पर मजबूर और तुम्हारे पास ईमान के ज़बानी इक़रार के सिवा अपने ईमान का कोई सुबूत मौजूद न था। अब यह अल्लाह का एहसान है कि उसने तुमको इज्तिमाई ज़िन्दगी दी और तुम इस क़ाबिल हुए कि काफ़िरों के मुक़ाबिले में इस्लाम का झण्डा बुलन्द करने उठे हो। इस एहसान का यह कोई सही शुक्रिया नहीं है कि जो मुसलमान अभी पहली हालत में पड़े हुए हैं उनके साथ तुन नरमी और रिआयत से काम न लो।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ بِٱلۡقِسۡطِ شُهَدَآءَ لِلَّهِ وَلَوۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَوِ ٱلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَۚ إِن يَكُنۡ غَنِيًّا أَوۡ فَقِيرٗا فَٱللَّهُ أَوۡلَىٰ بِهِمَاۖ فَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلۡهَوَىٰٓ أَن تَعۡدِلُواْۚ وَإِن تَلۡوُۥٓاْ أَوۡ تُعۡرِضُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 170
(135) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इनसाफ़ के अलमबरदार164 और अल्लाह के लिए गवाह बनो,165 भले ही तुम्हारे इनसाफ़ और तुम्हारी गवाही की ज़द (मार) ख़ुद तुम्हारी अपनी ज़ात पर या तुम्हारे माँ-बाप और रिश्तेदारों पर ही क्यों न पड़ती हो। मामले से ताल्लुक़ रखनेवाला फ़रीक़ (पक्ष) चाहे मालदार हो या ग़रीब अल्लाह तुमसे ज़्यादा उनका भला चाहनेवाला है। तो अपने मन की ख़ाहिश की पैरवी में इनसाफ़ से न हटो। और अगर तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से पहलू बचाया तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
164. यह कहने पर बस नहीं किया कि इनसाफ़ की रविश पर चलो, बल्कि यह कहा कि इनसाफ़ के अलमबरदार बनो। तुम्हारा काम सिर्फ़ इनसाफ़ करना ही नहीं है बल्कि इनसाफ़ का झण्डा लेकर उठना है। तुम्हें इस बात पर कमर कस लेनी चाहिए कि ज़ुल्म मिटे और उसकी जगह इनसाफ़ और सीधे रास्ते पर क़ायम हो। इनसाफ़ को अपने क़ायम रहने के लिए जिस सहारे की ज़रूरत है, ईमानवाला होने की हैसियत से तुम्हारा मक़ाम यह है कि वह सहारा तुम बनो।
165. यानी तुम्हारी गवाही सिर्फ़ ख़ुदा के लिए होनी चाहिए, किसी की रिआयत और किसी की तरफ़दारी उसमें न हो, कोई निजी फ़ायदा या ख़ुदा के सिवा किसी की ख़ुशी तुम्हारे सामने न हो।
وَرُسُلٗا قَدۡ قَصَصۡنَٰهُمۡ عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُ وَرُسُلٗا لَّمۡ نَقۡصُصۡهُمۡ عَلَيۡكَۚ وَكَلَّمَ ٱللَّهُ مُوسَىٰ تَكۡلِيمٗا ۝ 171
(164) हमने उन रसूलों पर भी वह्य भेजी जिनकी चर्चा हम इससे पहले तुमसे कर चुके हैं और उन रसूलों पर भी जिनकी चर्चा तुमसे नहीं की। हमने मूसा से इस तरह बातचीत की जिस तरह बातचीत की जाती है।206
206. दूसरे नबियों पर तो वह्य इस तरह आती थी कि एक आवाज़ आ रही है या फ़रिश्ता पैग़ाम सुना रहा है और वे सुन रहे हैं। लेकिन मूसा (अलैहि०) के साथ यह ख़ास मामला बरता गया कि अल्लाह ने ख़ुद उनसे बातचीत की। बन्दे और ख़ुदा के बीच इस तरह बातें होती थीं जैसे दो आदमी आपस में बात करते हैं। मिसाल के लिए उस बातचीत का हवाला काफ़ी है जो सूरा-20 ताहा, आयत 11-14 , में दर्ज की गई है। बाइबल में भी हज़रत मूसा (अलैहि०) की ख़ुसूसियत का बयान इसी तरह किया गया है। चुनाँचे लिखा है कि “जैसे कोई आदमी अपने दोस्त से बात करता है वैसे ही ख़ुदा आमने-सामने होकर मूसा से बातें करता था।” (निर्गमन-33:11)
رُّسُلٗا مُّبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى ٱللَّهِ حُجَّةُۢ بَعۡدَ ٱلرُّسُلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 172
(165) ये सारे रसूल ख़ुशख़बरी देनेवाले और डरानेवाले बनाकर भेजे गए थे207 ताकि उनको नबी बनाकर भेजे जाने के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हुज्जत (ठोस दलील) न रहे208 और अल्लाह हर हाल में ग़ालिब रहनेवाला और हिकमतवाला और गहरी समझवाला है।
207. यानी इन सबका एक काम था और वह यह कि जो लोग ख़ुदा की भेजी हुई तालीम पर ईमान लाएँ और अपने रवैये को उसके मुताबिक़ ठीक कर लें उन्हें कामयाबी और ख़ुशक़िस्मती की ख़ुशख़बरी सुना दें और जो सोच और अमल के ग़लत रास्तों पर चलते रहें उनको इस ग़लत रवैये के बुरे अंजाम से आगाह कर दें।
208. यानी इन तमाम पैग़म्बरों के भेजने की एक ही ग़रज़ और मक़सद था और यह था कि अल्लाह तमाम इनसानों पर हुज्जत पूरी करना चाहता था ताकि आख़िरी अदालत के मौक़े पर कोई गुमराह मुजरिम उसके सामने यह बहाना न बना सके कि हम जानते न थे और आपने हमें हक़ीक़त से आगाह करने का कोई इन्तिज़ाम नहीं किया था। इसी मक़सद के लिए ख़ुदा ने दुनिया के अलग-अलग कोनों और इलाक़ों में पैग़म्बर भेजे और किताबें उतारीं। इन पैग़म्बरों ने इनसानों की बड़ी तादाद तक हक़ीक़त का इल्म पहुँचा दिया और अपने पीछे किताबें छोड़ गए, जिनमें से कोई न कोई किताब इनसानों की रहनुमाई के लिए हर ज़माने में मौजूद रही है। अब अगर कोई आदमी गुमराह होता है तो उसका इलज़ाम ख़ुदा पर और उसके पैग़म्बरों पर नहीं आता, बल्कि या तो ख़ुद उस आदमी पर आता है कि उस तक पैग़ाम पहुँचा और उसने क़ुबूल नहीं किया या उन लोगों पर आता है जिनको सीधा रास्ता मालूम था और उन्होंने ख़ुदा के बन्दों को गुमराही में पड़ा देखा तो उन्हें आगाह न किया।
لَّٰكِنِ ٱللَّهُ يَشۡهَدُ بِمَآ أَنزَلَ إِلَيۡكَۖ أَنزَلَهُۥ بِعِلۡمِهِۦۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَشۡهَدُونَۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدًا ۝ 173
(166) (लोग नहीं मानते तो न मानें) मगर अल्लाह गवाही देता है कि जो कुछ उसने तुम पर उतारा है अपने इल्म से उतारा है, और इसपर फ़रिश्ते भी गवाह हैं, हालाँकि अल्लाह का गवाह होना बिलकुल काफ़ी है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ قَدۡ ضَلُّواْ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 174
(167) जो लोग इसको मानने से ख़ुद इनकार करते हैं और दूसरों को अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं वे यक़ीनन गुमराही में हक़ से बहुत दूर निकल गए हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَظَلَمُواْ لَمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ طَرِيقًا ۝ 175