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سُورَةُ التَّوۡبَةِ

  1. अत-तौबा

(मदीना में उतरी – आयतें 129)

परिचय

नाम

यह सूरा दो नामों से मशहूर है। एक अत-तौबा, दूसरे अल-बराअत । तौबा इस दृष्टि से कि इसमें एक जगह कुछ ईमानवालों की ग़लतियों की माफ़ी का उल्लेख है और बराअत इस दृष्टि से कि इसके आरंभ में मुशरिकों (बहुदेववादियों) के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्ति पाने का एलान है

'बिस्मिल्लाह' न लिखने का कारण

इस सूरा के आरंभ में 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' नहीं लिखी जाती है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं नहीं लिखवाई थी।

उतरने का समय और सूरा के भाग

यह सूरा तीन व्याख्यानों पर सम्मिलित है-

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 37 तक चलता है। इसके उतरने का समय ज़ी-क़ादा सन् 09 हि० या उसके लगभग है। नबी (सल्ल.) इस वर्ष हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को 'अमीरुल-हाज्ज' (हाजियों का अमीर) नियुक्त करके मक्का भेज चुके थे कि यह व्याख्यान उतरा और नबी (सल्ल०) ने तुरन्त हज़रत अली (रज़ि०) को उनके पीछे भेजा ताकि हज के अवसर पर तमाम अरब के प्रतिनिधि सम्मेलन में उसे सुनाएँ और उसके मुताबिक़ जो कार्य-नीति तय की गई थी, उसका एलान कर दें।

दूसरा व्याख्यान आयत 38 से आयत 22 तक चलता है और यह रजब सन् 09 हि० या इससे कुछ पहले उतरा, जबकि नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। इसमें ईमानवालों को जिहाद पर उकसाया गया है और मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवालों की कठोरता के साथ निन्दा की गई है।

तीसरा व्याख्यान आयत 73 से आरंभ होकर सूरा के साथ समाप्त होता है और यह तबूक की लड़ाई से वापसी पर उतरा। इसमें मुनाफ़िक़ों की हरकतों पर चेतावनी, तबूक की लड़ाई से पीछे रह जानेवालों पर डाँट-फटकार और उन सच्चे ईमानवालों पर निन्दा के साथ क्षमा करने का एलान है, जो अपने ईमान में सच्चे तो थे, परन्तु अल्लाह की राह के जिहाद में भाग लेने से रुके रह गए थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस घटनाक्रम से इस सूरा के विषयों का संबंध है, उसकी शुरुआत हुदैबिया के समझौते से होती है। हुदैबिया तक अरब के लगभग एक तिहाई भाग में इस्लाम एक संगठित समाज का दीन (धर्म) और एक पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त राज्य का धर्म बन गया था। हुदैबिया का जब समझौता हुआ तो इस धर्म को यह अवसर भी प्राप्त हो गया कि अपने प्रभावों को कुछ अधिक सुख-शान्ति के वातावरण में चारों ओर फैला सके। इसके बाद घटनाओं की गति ने दो बड़े रास्ते अपनाए जिसके आगे चलकर बड़े महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इनमें से एक का सम्बन्ध अरब से था और दूसरे का रोमी साम्राज्य से।

अरब पर अधिकार प्राप्ति

अरब में हुदैबिया के बाद प्रचार-प्रसार और शक्ति को दृढ़ बनाने के जो उपाय किए गए उनके कारण दो साल के भीतर ही इस्लाम का प्रभावक्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि क़ुरैश के अधिक उत्साही तत्त्वों से रहा न गया और उन्होंने हुदैबिया के समझौते को तोड़ डाला। वे इस बंधन से मुक्त होकर इस्लाम से एक अन्तिम निर्णायक मुक़ाबला करना चाहते थे, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनके इस समझौते को भंग करने के बाद उनको संभलने का कोई अवसर न दिया और अचानक मक्का पर हमला करके रमज़ान सन् 08 हि० में उसे जीत लिया। इसके बाद पुरानी अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था की अन्तिम ख़ूनी चाल हुनैन के मैदान में ली गई, लेकिन यह चाल भी विफल रही और हुनैन की पराजय के साथ अरब के भाग का पूर्ण निर्णय हो गया कि उसे अब 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनकर रहना है। इस घटना को हुए पूरा साल भी न हुआ कि अरब का बड़ा भाग इस्लाम के क्षेत्र में सम्मिलित हो गया।

तबूक की लड़ाई

रोमी साम्राज्य के साथ संघर्ष की शुरुआत मक्का-विजय से पहले ही हो चुकी थी। नबी (सल्ल०) ने हुदैबिया के बाद इस्लाम का सन्देश फैलाने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल अरब के विभिन्न भागों में भेजे थे, उनमें से एक उत्तर की ओर शाम (सीरिया) की सीमा से मिले [ईसाई] क़बीलों में [और एक बुसरा के ईसाई सरदार के पास भी गया था, लेकिन इन प्रतिनिधिमंडलों के अधिकतर आदमियों को क़त्ल कर दिया गया।] इन कारणों से नबी (सल्ल.) ने जुमादल-ऊला सन् 08 हि० में तीन हज़ार मुजाहिदीन की एक सेना शाम की सीमा की ओर भेजी, ताकि आगे के लिए यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए शान्तिपूर्ण बन जाए। यह छोटी-सी सेना मौता नामी जगह पर शुरहबील की एक लाख सेना से जा टकराई। एक और 33 के इस मुक़ाबले में भी शत्रु मुसलमानों पर विजयी न हो सके। यही चीज़ थी जिसने शाम और उससे मिले क्षेत्रों में रहनेवाले अर्धस्वतंत्र अरबी क़बीलों को, बल्कि इराक़ के क़रीब रहनेवाले नज्दी कबीलों को भी जो किसरा के प्रभाव में थे, इस्लाम की ओर आकर्षित कर दिया और वे हज़ारों की संख्या में मुसलमान हो गए। दूसरे ही साल क़ैसर ने मुसलमानों को मौता की लड़ाई की सजा देने के लिए शाम की सीमा पर सैनिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) [को इसकी सूचना मिली तो] रजब सन् 09 हि० में तीस हज़ार मुजाहिदों के साथ शाम की ओर रवाना हो गए। तबूक पहुँचकर मालूम हुआ कि क़ैसर ने मुक़ाबले पर आने के बजाय अपनी सेनाएँ सीमा से हटा ली हैं। क़ैसर के यों टाल जाने से जो नैतिक विजय प्राप्त हुई उसको नबी (सल्ल०) ने इस मरहले पर काफ़ी समझा और बजाय इसके कि तबूक से आगे बढ़कर शाम की सीमा में प्रवेश करते, आपने इस बात को प्रमुखता दी कि इस विजय से अति संभव राजनैतिक व सामरिक लाभ प्राप्त कर लें। चुनांँचे आपने तबूक में 20 दिन ठहरकर उन बहुत-से छोटे-छोटे राज्यों को, जो रूमी साम्राज्य और 'दारुल इस्लाम' के बीच स्थित थे और अब तक रोमवासियों के प्रभाव में रहे थे, सैनिक दबाव से इस्लामी राज्य को लगान देनेवाला और अधीन बना लिया। फिर इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रोमी साम्राज्य से एक लंबे संघर्ष में उलझ जाने से पहले इस्लाम को अरब पर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने का पूरा अवसर मिल गया।

समस्याएँ और वार्ताएँ

इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने के बाद हम आसानी से उन बड़ी-बड़ी समस्याओं को समझ सकते हैं जो उस समय सामने थीं और जिन्हें सूरा तौबा में लिया गया है :

(1) अब चूँकि अरब का प्रबंध पूर्ण रूप से ईमानवालों के हाथ में आ गया था इसलिए वह नीति खुलकर सामने आ जानी चाहिए थी जो अरब को पूर्ण 'दारुल इस्लाम' बनाने के लिए अपनानी ज़रूरी थी। चुनांँचे वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की गई—

(अ) अरब से शिर्क (बहुदेववाद) को बिलकुल ही मिटा दिया जाए, ताकि इस्लाम का केन्द्र सदा के लिए विशुद्ध इस्लामी केन्द्र हो जाए। इसी उद्देश्य के लिए मुशरिकों (बहुदेववादियो) से छुटकारे और उनके साथ समझौतों के अन्त का एलान किया गया।

(ब) आदेश हुआ कि आगे काबा की देख-रेख भी तौहीद (एकेश्वरवाद) वालों के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए और अल्लाह के घर की सीमाओं में शिर्क और अज्ञानता की तमाम रस्में भी बलपूर्वक बन्द कर देनी चाहिएँ, बल्कि अब मुशरिक इस घर के क़रीब फटकने भी न पाएँ ।

(इ) अरब के सांस्कृतिक जीवन में अज्ञानता की रस्मों की जो निशानियाँ अभी तक बाक़ी थीं, उनके उन्मूलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया। 'नसी' का नियम उन रस्मों में सबसे अधिक भौंडा नियम था इसलिए उसपर सीधे-सीधे चोट लगाई गई।

(2) अरब में इस्लाम का मिशन पूरा होने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण जो सामने था, वह यह था कि अरब के बाहर सत्य-धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक बनाया जाए। इस सिलसिले में मुसलमानों को आदेश दिया गया कि अरब के बाहर जो लोग सत्य-धर्म का पालन करनेवाले नहीं हैं उनके स्वतंत्र प्रभुत्व को तलवार के बल पर समाप्त कर दो, यहाँ तक कि वह इस्लामी सत्ता के अधीन होकर रहना स्वीकार कर लें। जहाँ तक सत्य-धर्म पर ईमान लाने का संबंध है, उनको अधिकार है कि ईमान लाएँ या न लाएँ।

(3) तीसरी महत्त्वपूर्ण समस्या मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की थी जिनके साथ अब तक सामयिक निहितार्थ की दृष्टि से छोड़ देने और क्षमा कर देने का मामला किया जा रहा था अब आदेश दिया गया कि आगे उनके साथ कोई नर्मी न की जाए और वही कठोर बर्ताव इन छिपे हुए सत्य के इंकारियों के साथ भी हो जो खुले सत्य के इंकारियों के साथ होता है।

(4) सच्चे ईमानवालो में अब तक जो थोड़ी-बहुत इरादे की कमज़ोरी बाक़ी थी उसका इलाज भी अनिवार्य था। इसलिए जिन लोगों ने तबूक के अवसर पर सुस्ती और कमज़ोरी दिखाई थी उनकी घोर निन्दा की गई और आगे के लिए पूरी सफ़ाई के साथ यह बात स्पष्ट कर दी गई कि अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने की जिद्दोजुहद और कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम का संघर्ष ही वह असली कसौटी है, जिसपर ईमानवालों के ईमान का दावा परखा जाएगा।

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سُورَةُ التَّوۡبَةِ
9. अत-तौबा
بَرَآءَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ
(1) बराअत (अर्थात समझौता समाप्त करने) का एलान1 है और अल्लाह और उसके रसूल की ओर से उन मुशरिकों (बहुदेववादियों) को जिनसे तुमने समझौते किए थे।2
1. यह व्याख्यान आयत 1 से 37 तक सन् 09 हित में उस समय उतरी थी जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को हज के लिए रवाना कर चुके थे। उनके पीछे जब ये आयतें उतरीं तो नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि) को भेजा, ताकि हाजियों की जन-सभा में इसे सुनाएँ और फिर निम्नलिखित चार बातों का भी एलान कर दें- (1) जन्नत में कोई ऐसा आदमी दाखिल न होगा जो इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार करे, (2) इस साल के बाद कोई मुशरिक हज के लिए न आए, (3) अल्लाह के घर के पास नंगे तवाफ़ (परिक्रमा) करना मना है, (4) जिन लोगों के साथ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का समझौता बाक़ी है, अर्थात् जिन्होंने समझौता नहीं तोड़ा,उनके साथ समझौते की अवधि तक उसका पालन किया जाएगा। नबी (सल्ल०) के इस आदेश के अनुसार हज़रत अली (रजि.) ने यह एलान 10 ज़िलहिज्जा को किया। इस स्थान पर यह जान लेना भी लाभप्रद होगा कि मक्का की विजय के बाद इस्लामी दौर का पहला हज सन् 08 हि० में पुराने तरीके पर हुआ। फिर 09 हिo में दूसरा हज मुसलमानों ने अपने तरीक़े पर किया और मुशरिकों ने अपने तरीक़े पर। इसके बाद तीसरा हज सन् 10 हित में विशुद्ध इस्लामी तरीके पर हुआ और यही वह मशहूर हज है जिसे “हिज्जतुल विदाअ' कहते हैं। नबी (सल्ल०) पहले दो साल हज के लिए तशरीफ़ न ले गए। तीसरे साल जब बिल्कुल शिर्क का अंत हो गया तब आपने हज अदा किया।
2. सूरा-8 (अनफ़ाल) आयत 58 में गुज़र चुका है कि जब तुम्हें किसी कौम से विश्वासघात (प्रतिज्ञाभंग करने और ग़द्दारी) की आशंका हो तो खुल्लम-खुल्ला उसका समझौता उसकी ओर फेंक दो और उसे सचेत कर दो कि अब हमारा तुम्हारा कोई समझौता बाक़ी नहीं है। इसी आचार संहिता के अनुसार समझौतों की मंसूखी का यह आम एलान उन तमाम क़बीलों के विरुद्ध किया गया जो प्रतिज्ञा और वचन देने के बाद भी सदा इस्लाम के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे थे और अवसर मिलते ही वचन-पालन को एक किनारे रखकर दुश्मनी पर उतर आते थे । बराअत (अर्थात समझौता समाप्त करने) के इस एलान से अरब में शिर्क और मुशरिकों का अस्तित्व मानो व्यावहारिक रूप से क़ानून के विरुद्ध (Out-law) हो गया और उनके लिए सारे देश में कोई शरण-स्थली न रही, क्योंकि देश का बड़ा भाग इस्लाम के शासनाधीन आ चुका था। इस एलान के बाद अरब के मुशरिकों के लिए कोई उपाय शेष न रहा कि या तो लड़ने पर तैयार हो जाएँ और इस्लामी शक्ति से टकराकर दुनिया से मिट जाएँ या देश छोड़कर निकल जाएँ या फिर इस्लाम स्वीकार करके अपने आपको और अपने क्षेत्र को उस प्रशासन और व्यवस्था में दे दें जो देश के बड़े भाग को पहले ही इस्लामी राज्य का आधीन बना चुका था। इस बेहतरीन उपाय की सार्थकता उस समय समझ में आ सकती है जबकि हम इस्लाम-विमुखता के उस फ़ितने को नज़र में रखें जो इस घटना के डेढ़ साल बाद ही [हज़रत अबू बक्र की खिलाफ़त के आरंभ में] पैदा हुआ था। अगर कहीं सन् 09 हिके बराअत के इस एलान से शिर्क को संगठित शक्ति समाप्त न कर दी गई होती और पूरे देश पर इस्लाम की वैधानिक शक्ति पहले ही न प्रभावी हो चुकी होती, तो [नहीं कहा जा सकता कि यह फ़ितना विद्रोह और गृहयुद्ध का कितना भयानक रूप धारण कर लेता और फिर इस्लाम का इतिहास क्या होता ।]
فَسِيحُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُخۡزِي ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 1
(2) तो तुम लोग देश में चार महीने और चल-फिर लो 3 और जान रखो कि तुम अल्लाह को विवश करनेवाले नहीं हो, और यह कि अल्लाह सत्य के इंकारियों को रुसवा करनेवाला है।
3. यह एलान 10 ज़िलहिज्जा सन् 09 हि० को हुआ था। उस समय से 10 रबीउस्सानी सन् 10 हि. तक चार महीने की मोहलत उन लोगों को दी गई कि इस बीच अच्छी तरह विचार करके [अपने लिए कोई राह तय कर लें।]
وَأَذَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلنَّاسِ يَوۡمَ ٱلۡحَجِّ ٱلۡأَكۡبَرِ أَنَّ ٱللَّهَ بَرِيٓءٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ وَرَسُولُهُۥۚ فَإِن تُبۡتُمۡ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 2
(3-4) सार्वजनिक सूचना है अल्लाह और उसके रसूल की ओर से 'बड़े हज के दिन सब4 लोगों के लिए कि अल्लाह शिर्क करनेवालों से बरी है और उसका रसूल भी। अब अगर तुम लोग तौबा कर लो तो तुम्हारे ही लिए बेहतर है और जो मुँह फेरते हो तो खूब समझ लो कि तुम अल्लाह को विवश करनेवाले नहीं हो। और ऐ नबी ! इंकार करनेवालों को कठोर अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो, अलावा उन मुशरिकों के जिनसे तुमने समझौते किए, फिर उन्होंने अपने वचन को पूरा करने में तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुद्ध किसी की सहायता की, तो ऐसे लोगों के साथ तुम भी समझौते की मुद्दत तक वफ़ा करो, क्योंकि अल्लाह डर रखनेवालों ही को पसन्द करता है।5
4. अर्थात 10 ज़िलहिज्जा, जिसे 'यौमुन-नह' कहते हैं । सहीह हदीस में आया है कि हिज्जतुल विदाअ में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भाषाण देते हुए उपस्थित जनों से पूछा “यह कौन-सा दिन है ?" लोगों ने अर्ज़ किया, “यौमुन-नह (क़ुर्बानी का दिन) है।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "यह बड़े हज (हज्जे अक्बर) का दिन है।" 'हज्जे अक्बर' का शब्द 'हज्जे असग़र' (छोटा हज) के मुकाबले में है। अरब के लोग उमरे को छोटा हज कहते हैं। इसके मुक़ाबले में वह हज जो ज़िलहिज्जा की निश्चित तिथियों में किया जाता है, 'हज्जे अक्बर' कहलाता है।
5. अर्थात यह बात ईशपरायणता के विरुद्ध होगी कि जिन्होंने तुमसे समझौते का कोई उल्लंघन नहीं किया है, उनसे तुम समझौते का उल्लंघन करो। अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा सिर्फ वही लोग हैं जो हर हाल में धर्मपरायणता को अपनाएँ।
إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ثُمَّ لَمۡ يَنقُصُوكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَمۡ يُظَٰهِرُواْ عَلَيۡكُمۡ أَحَدٗا فَأَتِمُّوٓاْ إِلَيۡهِمۡ عَهۡدَهُمۡ إِلَىٰ مُدَّتِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 3
0
فَإِذَا ٱنسَلَخَ ٱلۡأَشۡهُرُ ٱلۡحُرُمُ فَٱقۡتُلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡ وَخُذُوهُمۡ وَٱحۡصُرُوهُمۡ وَٱقۡعُدُواْ لَهُمۡ كُلَّ مَرۡصَدٖۚ فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَخَلُّواْ سَبِيلَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) इसलिए जब हराम (प्रतिष्ठत) महीने बीत जाएँ 6 तो मुशरिकों को क़त्ल करो जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने के लिए बैठो। फिर अगर वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उन्हें छोड़ दो।7 अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
6. यहाँ हराम महीनों से पारिभाषिक हराम महीने मुराद नहीं हैं जो हज और उमरे के लिए हराम ठहरा दिए गए हैं, बल्कि इस जगह उन चार महीनों से तात्पर्य है जिनकी मुशरिकों को मोहलत दी गई थी। चूँकि इस मोहलत के ज़माने में मुसलमानों के लिए वैध न था कि मुशरिकों पर हमलावर हो जाते, इसलिए इन्हें हराम महीने कहा गया है।
7. अर्थात् मात्र कुफ़्र (इंकार) व शिर्क से तौबा कर लेने पर मामला समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि उन्हें नमाज़ कायम करनी और ज़कात देनी होगी, वरना यह नहीं माना जाएगा कि उन्होंने कुफ़्र छोड़कर इस्लाम अपना लिया है। इसी आयत को हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने इस्लाम-विमुखता के फ़ितने के समय में प्रमाण के रूप में रखा था । नबी (सल्ल०) की मृत्यु के बाद जिन लोगों ने फ़ितना बरपा किया था, उनमें से एक गिरोह कहता था कि हम इस्लाम के इंकारी नहीं हैं, नमाज़ भी पढ़ने के लिए तैयार हैं, परन्तु ज़कात नहीं देंगे। सहाबा किराम को आम तौर पर यह परेशानी हो रही थी कि आखिर ऐसे लोगों के विरुद्ध तलवार कैसे उठाई जा सकती है ? परन्तु हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने इसी आयत का हवाला देकर फ़रमाया कि हमें तो इन लोगों को छोड़ देने का आदेश केवल इस शक्ल में दिया गया था जबकि ये शिर्क से तौबा करें, नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें, मगर जब ये तीनों शतों में से एक शर्त उड़ाए देते हैं तो फिर हम इन्हें कैसे छोड़ दें।
وَإِنۡ أَحَدٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ٱسۡتَجَارَكَ فَأَجِرۡهُ حَتَّىٰ يَسۡمَعَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ أَبۡلِغۡهُ مَأۡمَنَهُۥۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 5
(6) और अगर मुशरिकों में से कोई आदमी पनाह माँगकर तुम्हारे पास आना चाहे (ताकि अल्लाह की वाणी सुने) तो उसे पनाह दे दो यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। ऐसा इसलिए करना चाहिए कि ये लोग ज्ञान नहीं रखते।8
8. अर्थात लड़ाई के समय में अगर कोई शत्रु तुमसे निवदेन करे कि मैं इस्लाम को समझना चाहता हूँ तो मुसलमानों को चाहिए कि उसे शरण देकर अपने यहाँ आने का अवसर दें और उसे समझाएँ, फिर अगर वह स्वीकार न करे तो उसे अपनी रक्षा में उसके ठिकाने तक वापस पहुँचा दें।
كَيۡفَ يَكُونُ لِلۡمُشۡرِكِينَ عَهۡدٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعِندَ رَسُولِهِۦٓ إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ فَمَا ٱسۡتَقَٰمُواْ لَكُمۡ فَٱسۡتَقِيمُواْ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 6
(7) इन मुशरिकों के लिए अल्लाह और उसके रसूल के निकट कोई समझौता आख़िर कैसे हो सकता है?–अलावा उन लोगों के जिनसे तुमने मस्जिदे हराम के पास समझौता किया था9, तो जब तक वे तुम्हारे साथ सीधे रहें, तुम भी उनके साथ सीधे रहो, क्योंकि अल्लाह डर रखनेवालों को पसन्द करता है
9. अर्थात् बनी किनाना और बनी खुजाआ और बनी ज़मरा ।
كَيۡفَ وَإِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ لَا يَرۡقُبُواْ فِيكُمۡ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ يُرۡضُونَكُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَتَأۡبَىٰ قُلُوبُهُمۡ وَأَكۡثَرُهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 7
(8) परन्तु इनके सिवा दूसरे मुशरिकों के साथ कोई समझौता कैसे हो सकता है जबकि उनका हाल यह है कि तुमपर काबू पा जाएँ तो न तुम्हारे मामले में किसी रिश्तेदारी का ध्यान करें, न किसी समझौते की ज़िम्मेदारी का? वे अपनी ज़बानों से तुमको राज़ी करने की कोशिश करते हैं, पर दिल उनके इंकार करते हैं 10 और उनमें से अधिकतर नाफ़रमान (अवज्ञाकारी) हैं। 11
10. अर्थात् प्रत्यक्ष में तो वे समझौते की शर्ते तय करते हैं, मगर दिल में उल्लंघन का इरादा होता है और इसका प्रमाण अनुभव से इस तरह मिलता है कि जब कभी उन्होंने समझौता किया, तोड़ने के लिए ही किया।
11. अर्थात् ऐसे लोग हैं जिन्हें न नैतिक दायित्वों का आभास है और न चरित्र के बन्धनों के तोड़ने में कोई झिझक।
ٱشۡتَرَوۡاْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلٗا فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 8
(9) उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले थोड़ी-सी कीमत स्वीकार कर ली12 फिर अल्लाह के रास्ते में रुकावट बनकर खड़े हो गए।13 बहुत बुरे करतूत थे जो ये करते रहे।
12. अर्थात् एक ओर अल्लाह की आयतें उनको भलाई और सच्चाई और सत्य पर आधारित क़ानून की पाबन्दी का बुलावा दे रही थीं। दूसरी ओर सांसारिक जीवन के वे कुछ दिनों के लाभ थे जो मन की इच्छा के बेलगाम पालन से प्राप्त होते थे । इन लोगों ने इन दोनों चीज़ों की तुलना की और फिर पहली को छोड़कर दूसरी चीज़ को अपने लिए चुन लिया।
لَا يَرۡقُبُونَ فِي مُؤۡمِنٍ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُعۡتَدُونَ ۝ 9
(10) किसी ईमानवाले के मामले में न ये नातेदारी की परवाह करते हैं और न किसी समझौते के दायित्व की, और ज्यादती सदैव उन्हीं की ओर से हुई है।
فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِۗ وَنُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 10
(11) तो अगर ये तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो तुम्हारे दीनी-भाई हैं, और जाननेवालों के लिए हम अपने आदेश स्पष्ट किए देते हैं।14
14. 'जाननेवालों' से तात्पर्य वे लोग हैं जो अल्लाह की अवज्ञा का अंजाम जानते हैं और उसका कुछ डर अपने दिल में रखते हैं। और यह जो फ़रमाया गया कि अगर ऐसा करें तो वे 'तुम्हारे दीनी-भाई' हैं तो इसका अर्थ यह है कि इन शर्तों को पूरा करने का परिणाम केवल यही न होगा कि तुम्हारे लिए उनपर हाथ उठाना और उनके जान व माल को नुक़सान पहुँचाना हराम हो जाएगा, बल्कि आगे बढ़कर उसका लाभ यह भी होगा इस्लामी समाज में उनको बराबर के अधिकार प्राप्त हो जाएंगे। सामाजिक, सांस्कृतिक और क़ानूनी हैसियत से वे तमाम दूसरे मुसलमानों की तरह होंगे। कोई अन्तर और भेद उनके विकास के रास्ते में बाधा न बनेगा।
وَإِن نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُم مِّنۢ بَعۡدِ عَهۡدِهِمۡ وَطَعَنُواْ فِي دِينِكُمۡ فَقَٰتِلُوٓاْ أَئِمَّةَ ٱلۡكُفۡرِ إِنَّهُمۡ لَآ أَيۡمَٰنَ لَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَنتَهُونَ ۝ 11
(12) और अगर समझौता करने के बाद ये फिर अपनी प्रतिज्ञाओं को तोड़ डालें और तुम्हारे धर्म पर हमले करने शुरू कर दें तो कुफ़्र (अधर्म) के ध्वजावाहकों से लड़ो, क्योंकि प्रतिज्ञाओं का कोई भरोसा नहीं, शायद कि (फिर तलवार ही के बल पर) वे बाज़ आएँगे।15
15. इस आयत के शब्दों से प्रत्यक्ष में तो यही गुमान होता है कि अगर वे अपनी प्रतिज्ञाओं को तोड़ ले तो उनसे लड़ो, लेकिन संदर्भ पर विचार करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि यहाँ प्रतिज्ञा से तात्पर्य इस्लाम और आदेश के पालन को प्रतिज्ञा है, क्योंकि समझौतों को तो पहले ही समाप्त किया जा चुका था और अब आगे उनसे कोई समझौता करना सिरे से सामने था ही नहीं, इसलिए यहाँ समझौते के विरुद्ध काम करने का कोई प्रश्न पैदा नहीं होता। फिर यह आयत ऊपर वाली आयत के तुरन्त बाद आई है, जिसमें कहा गया है कि अगर वे तौबा करें और नमाज़ व ज़कात की पाबन्दी स्वीकार कर लें तो तुम्हारे दीनी-भाई हैं। इसके बाद यह कहना कि 'अगर...वे अपनी प्रतिज्ञाएँ तोड़ दें' स्पष्ट रूप से यह अर्थ रखता है कि इससे तात्पर्य उनका इस्लाम स्वीकार करने और इस्लाम की सामूहिक व्यवस्था की पाबन्दी की प्रतिज्ञा करने के बाद फिर म उसे तोड़ देना है। वास्तव में इस आयत में इस्लाम विमुखता के उस फ़ितने की ओर संकेत है जो डेढ़ साल बाद हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) की खिलाफ़त के आरंभ में पैदा हुआ। हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने इस म अवसर पर जो नीति अपनाई, वह ठीक उस निर्देश के अनुसार थी जो इस आयत में पहले ही दिया जा चुका था। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए मेरी किताब 'मुरतद की सज़ा इस्लामी क़ानून में'।)
أَلَا تُقَٰتِلُونَ قَوۡمٗا نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ وَهَمُّواْ بِإِخۡرَاجِ ٱلرَّسُولِ وَهُم بَدَءُوكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٍۚ أَتَخۡشَوۡنَهُمۡۚ فَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَوۡهُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 12
(13) क्या तुम 16 न लड़ोगे ऐसे लोगों से जो अपनी प्रतिज्ञा भंग करते रहे हैं और जिन्होंने रसूल को देश से निकाल देने का निश्चय किया था और ज़्यादती की शुरुआत करनेवाले वही थे? क्या तुम उनसे डरते हो? अगर तुम ईमानवाले हो तो अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उससे डरो।
16. अब व्याख्यान का सम्बोधन मुसलमानों की ओर हो जाता है और उनको लड़ाई पर उभारने और धर्म के मामले में किसी रिश्ते व नाते और किसी सांसारिक लाभ व हित का विचार न करने की ज़ोरदार ताकीद की जाती है। व्याख्यान के इस भाग को पूरी भावना समझने के लिए फिर एक बार उस परिस्थिति को सामने की रख लेना चाहिए जो उस समय पैदा हो गई थी। इसमें सन्देह नहीं कि इस्लाम अब देश के एक बड़े भाग उस पर छा गया था और अरब में कोई ऐसी बड़ी शक्ति न रही थी जो उसको चुनौती दे सकती हो, लेकिन फिर भी जो निर्णायक कदम और अति क्रान्तिकारी कदम इस अवसर पर उठाया जा रहा था उसके भीतर का बहुत-से ख़तरनाक पहलू प्रत्यक्षदर्शियों को दिखाई पड़ रहे थे। एक तो यह कि तमाम मुशरिक कबीलों को एक ही समय में समझौतों के निरस्त किए जाने की चुनौती दे देना, फिर मुशरिकों के हज पर रोक, काबे के प्रबंध-अधिकार में परिर्वतन और अज्ञानतापूर्ण रस्मों का पूर्ण के उन्मूलन यह अर्थ रखता था कि एक बार सारे देश में आग-सी लग जाए और मुशरिक और मुनाफ़िक़ अपने ख़ून की अन्तिम बूँद तक अपने स्वार्थों और दुराग्रहों की रक्षा के लिए बहा देने पर तैयार हो जाएँ। दूसरे यह कि हज को केवल तौहीदवालों (एकेश्वरवादियों) के लिए मुख्य कर देने और मुशरिकों पर काबा का रास्ता बन्द कर देने का अर्थ यह था कि देश की आबादी का एक बड़ा भाग, जो अभी मुशरिक था, काबे की ओर उस चलत-फिरत से रुक जाए जो केवल धार्मिक पहलू ही से नहीं, बल्कि आर्थिक पहलू से भी अरब में असाधारण महत्व रखती थी और जिसपर उस समय अरब के आर्थिक जीवन का बहुत बड़ा आश्रय था। तीसरे यह कि जो लोग हुदैबिया के समझौते और मक्का की विजय के बाद ईमान लाए थे उनके लिए यह मामला बड़ी कड़ी अज़माइश का था, क्योंकि उनके बहुत-से भाई-बन्धु, नाते-रिश्तेदार अभी तक मुशरिक थे और उनमें ऐसे लोग भी थे जिनके स्वार्थ पुरानी अज्ञानी व्यवस्था के पदों से जुड़े हुए थे। अब जो प्रत्यक्ष में अरब के तमाम मुशरिकों को नष्ट विनष्ट कर डालने की तैयारी की जा रही थी तो इसका अर्थ यह था कि ये नये मुसलमान स्वयं अपने हाथों अपने परिवारों और अपने जिगर के टुकड़ों को मिट्टी में मिला दें और उनकी प्रतिष्ठा और पद और सदियों के स्थापित भेदभावों को समाप्त कर दें। यद्यपि वास्तव में इनमें से कोई खतरा भी व्यावहारिक रूप से सामने न आया। अपने को उनसे बरी कर लेने के एलान से देश में पूरी तरह लड़ाई की आग भड़कने के बजाय यह नतीजा सामने आया कि अरब के हर ओर के बचे-खुचे मुशरिक क़बीलों और सरदारों के प्रतिनिधिमंडल आने शुरू हो गए, जिन्होंने नबी (सल्ल०) के सामने इस्लाम और आज्ञापालन का प्रण किया और उनके इस्लाम स्वीकार कर लेने पर नबी (सल्ल०) ने हर एक को उसके पद पर बनाए रखा, लेकिन जिस समय इस नई नीति का एलान किया जा रहा था उस समय तो बहरहाल कोई भी इस परिणाम को पहले से न देख सकता था। साथ ही यह कि इस एलान के साथ ही अगर मुसलमान इसे शक्ति से लागू करने के लिए पूरी तरह तैयार न हो जाते तो शायद यह परिणाम भी न निकलता, इसलिए अनिवार्य था कि मुसलमानों को इस अवसर पर अल्लाह की राह में जिहाद पर जोरदार तरीके से उभारा जाता और उनके मन से उन तमाम आशंकाओं को दूर किया जाता जो इस नीति पर अमल करने में उनको नज़र आ रही थीं और उनको आदेश दिया जाता कि अल्लाह की मर्जी पूरी करने में उन्हें किसी चीज़ की परवाह न करनी चाहिए । इस व्याख्यान का यही विषय है।
قَٰتِلُوهُمۡ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ بِأَيۡدِيكُمۡ وَيُخۡزِهِمۡ وَيَنصُرۡكُمۡ عَلَيۡهِمۡ وَيَشۡفِ صُدُورَ قَوۡمٖ مُّؤۡمِنِينَ ۝ 13
(14-15) इनसे लड़ो, अल्लाह तुम्हारे हाथों से उनको सजा दिलवाएगा और उन्हें अपमानित करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा और बहुत-से ईमानवालों के दिल ठंडे करेगा और उनके दिलों की जलन मिटा देगा, और जिसे चाहेगा तौबा का सौभाग्य भी प्रदान करेगा।17 अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है ।
17. यह एक हल्का-सा संकेत है उस संभावना की ओर जो आगे चलकर घटना के रूप में प्रकट हुई । मुसलमान जो यह समझ रहे थे कि बस इस एलान के साथ ही देश में खून की नदियाँ बह जाएँगी, उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए संकेत के रूप में उन्हें बताया गया है कि यह नीति अपनाने में जहाँ इसकी संभावना है कि युद्ध छिड़ जाएगा, वहीं इसकी भी संभावना है कि लोगों को तौबा का सौभाग्य प्राप्त हो जाएगा, लेकिन इस संकेत को अधिक स्पष्ट इसलिए नहीं किया गया कि ऐसा करने से एक ओर तो मुसलमानों की लड़ाई की तैयारी हल्की पड़ जाती और दूसरी ओर मुशरिकों के लिए उस धमकी का पहलू भी हल्का हो जाता जिसने उन्हें पूरी गंभीरता के साथ अपनी कमज़ोर स्थिति पर विचार करने और अन्ततः इस्लामी व्यवस्था में आत्मसात हो जाने पर तैयार किया।
وَيُذۡهِبۡ غَيۡظَ قُلُوبِهِمۡۗ وَيَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 14
0
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تُتۡرَكُواْ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَلَمۡ يَتَّخِذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَا رَسُولِهِۦ وَلَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَلِيجَةٗۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यूँ ही छोड़ दिए जाओगे, हालाँकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें से कौन वे लोग हैं जिन्होंने (उसकी राह में) जान खोई और अल्लाह और रसूल और ईमानवालों के सिवा किसी को घनिष्ठ मित्र न बनाया18, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।
18. सम्बोधन है उन नए लोगों से जो निकट के समय में इस्लाम लाए थे। उनसे कहा जा रहा है कि जब तक तुम इस परीक्षा से गुज़रकर यह प्रमाणित न कर दोगे कि वास्तव में तुम अल्लाह और उसके दोन को अपनी जान व माल और अपने भाई-बन्दों से बढ़कर प्रिय रखते हो, तुम सच्चे ईमानवाले नहीं कहे जा सकते। अब तक तो प्रत्यक्ष को देखते हुए तुम्हारी स्थिति यह है कि इस्लाम चूंकि सच्चे ईमानवालों और सबसे पहले ईमानलानेवालों की कुर्बानियों से विजयी हुआ और देश पर छा गया, इसलिए तुम मुसलमान हो गए।
مَا كَانَ لِلۡمُشۡرِكِينَ أَن يَعۡمُرُواْ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ شَٰهِدِينَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِم بِٱلۡكُفۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ وَفِي ٱلنَّارِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 16
(17) मुशरिकों का यह काम नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों के मुजाविर व सेवक बनें जबकि अपने ऊपर वे स्वयं कुफ़्र (इंकार) की गवाही दे रहे हैं।19 उनका तो सारा किया-धरा अकारथ हो गया 20, और जहन्नम में उन्हे सदैव रहना है।
19. अर्थात् जो मस्जिदें एक अल्लाह की इबादत के लिए बनी हों उनके मुतवल्ली, मुजाविर, सेवक और आबादकार बनने के लिए वे लोग किसी तरह योग्य नहीं हो सकते जो अल्लाह के साथ अल्लाह के गुणों, हक़ों और अधिकारों में दूसरों को साझीदार ठहराते हों । फिर जबकि वे स्वयं भी तौहीद की दावत स्वीकार करने से इंकार कर चुके हों और उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया हो कि हम अपनी बन्दगी और इबादत को एक अल्लाह के लिए विशिष्ट कर देने पर तैयार नहीं हैं, तो आखिर उन्हें क्या अधिकार है कि किसी ऐसी इबादतगाह के मुतवल्ली बने रहें जो केवल अल्लाह की इबादत के लिए बनाई गई थी। यहाँ यद्यपि बात सामान्य रूप से कही गई है और अपनी वास्तविकता को दृष्टि से यह सामान्य है भी, लेकिन मुख्य रूप से यहाँ इसका उल्लेख किए जाने का अभिप्राय यह है कि खाना काबा और मस्जिदे हराम पर से मुशरिकों के प्रबंध अधिकार को समाप्त कर दिया जाए और उसपर सदा के लिए तौहीदवालों (एकेश्वरवादियों) को प्रबंध अधिकारी बना दिया जाए।
20. अर्थात् जो थोड़ी-बहुत वास्तव में उन्होंने बैतुल्लाह की सेवा की, वह भी इस कारण अकारथ हो गई कि ये लोग उसके साथ शिर्क और अज्ञानतापूर्ण रीतियों की मिलावट करते रहे । उनकी थोड़ी भलाई को उनकी बहुत बड़ी बुराई खा गई।
إِنَّمَا يَعۡمُرُ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَلَمۡ يَخۡشَ إِلَّا ٱللَّهَۖ فَعَسَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ أَن يَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 17
(18) अल्लाह की मस्जिदों के आबादकार (मुजाविर व सेवक) तो वही लोग हो सकते हैं जो अल्लाह और आख़िरत के दिन को माने और नमाज़ स्थापित करें, ज़कात दें और अल्लाह के सिवा किसी से न डरें। इन्हीं से यह आशा है कि सीधी राह चलेंगे
۞أَجَعَلۡتُمۡ سِقَايَةَ ٱلۡحَآجِّ وَعِمَارَةَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ كَمَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَجَٰهَدَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ لَا يَسۡتَوُۥنَ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 18
(19) क्या तुम लोगों ने हाजियों को पानी पिलाने और मस्जिदे हराम की मुजावरी करने को उस व्यक्ति के काम के बराबर ठहरा लिया है जो ईमान लाया अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर और जिसने जान खपाई अल्लाह की राह में?21
21. अर्थात् किसी ज़ियारतगाह को गद्दीनशीनी, मुजावरी और कुछ दिखावटी धार्मिक कार्यों का करना, जिसको दुनिया के ओछे दृष्टि रखनेवाले लोग सामान्यतः सौभाग्य और पवित्रता का आधार ठहराते हैं, अल्लाह के नज़दीक उसका कोई मूल्य नहीं है। वास्तविक मूल्य तो ईसान का और अल्लाह के रास्ते में त्याग का है। इन गुणों का जो व्यक्ति भी धारक हो, वह मूल्यवान व्यक्ति है, भले ही उसका ताल्लुक किसी ऊँचे परिवार से न हो और किसी प्रकार की विशिष्टिताएँ उसके साथ लगी हुई न हों। लेकिन जो लोग इन गुणों से वंचित हैं, वे केवल इसलिए की बड़ों की संतान हैं, गद्दीनशीनी उनके परिवार में मुद्दतों से चली आ रही है और विशेष अवसरों पर कुछ धार्मिक रस्मों का प्रदर्शन वे बड़ी शान के साथ कर दिया करते हैं, न किसी पद के अधिकारी हो सकते है और न यह वैध हो सकता है कि ऐसे मूल्यहीन, 'पैतृक' अधिकारों को मानकर के पवित्र स्थान और धार्मिक संस्थाएँ अयोग्य लोगों के हाथों में रहने दिए जाएँ। इस कथन से यह निर्णय कर दिया गया कि अल्लाह के घर का प्रबंध-अधिकारी अब मुशरिक नहीं रह सकता, क़ुरैश के मुशरिक सिर्फ़ इस कारण इसके अधिकारी नहीं हो सकते कि वे हाजियों की सेवा करते रहे हैं।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ أَعۡظَمُ دَرَجَةً عِندَ ٱللَّهِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 19
(20) अल्लाह के नज़दीक तो ये दोनों बराबर नहीं हैं, और अल्लाह ज़ालिमों को रास्ता नहीं दिखाता। अल्लाह के यहाँ तो उन्हीं लोगों का दर्जा बड़ा है जो ईमान लाए और जिन्होंने उसकी राह में घर-बार छोड़े और जान व माल से जिहाद किया वही सफल हैं।
يُبَشِّرُهُمۡ رَبُّهُم بِرَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَرِضۡوَٰنٖ وَجَنَّٰتٖ لَّهُمۡ فِيهَا نَعِيمٞ مُّقِيمٌ ۝ 20
(21) उनका रब उन्हें अपनी रहमत और प्रसन्नता और ऐसी जन्नतों की शुभ-सूचना देता है जहाँ उनके लिए स्थायी सुख-सुविधाएँ हैं।
خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 21
(22) इनमें वे सदैव रहेंगे। निश्चय ही अल्लाह के पास सेवाओं का बदला देने को बहुत कुछ है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَابَآءَكُمۡ وَإِخۡوَٰنَكُمۡ أَوۡلِيَآءَ إِنِ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡكُفۡرَ عَلَى ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 22
(23) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अपने बापों और भाइयों को भी अपना साथी न बनाओ अगर वे ईमान पर कुफ़्र को प्राथमिकता दें। तुममें से जो उनको साथी बनाएँगे, वहीं ज़ालिम होंगे।
قُلۡ إِن كَانَ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ وَإِخۡوَٰنُكُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ وَعَشِيرَتُكُمۡ وَأَمۡوَٰلٌ ٱقۡتَرَفۡتُمُوهَا وَتِجَٰرَةٞ تَخۡشَوۡنَ كَسَادَهَا وَمَسَٰكِنُ تَرۡضَوۡنَهَآ أَحَبَّ إِلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَجِهَادٖ فِي سَبِيلِهِۦ فَتَرَبَّصُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 23
(24) ऐ नबी ! कह दो कि अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी बीवियाँ और तुम्हारे रिश्ते-नातेदार और तुम्हारे वे माल जो तुमने कमाए हैं, और तुम्हारे वे कारोबार जिनके ठंडे पड़ जाने का तुमको डर है और तुम्हारे वे घर जो तुमको पसन्द हैं तुमको अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में जिहाद से अधिक प्रिय हैं तो इन्तिज़ार करो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना निर्णय तुम्हारे सामने ले आए22, और अल्लाह अवज्ञाकारियों को रास्ते पर नहीं लगाया करता।
22. अर्थात तुम्हें हटाकर सच्ची धार्मिकता की नेमत और उसके ध्वजावाहन का सौभाग्य और मार्गदर्शन करने का पद किसी और गिरोह को प्रदान कर दे।
لَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ فِي مَوَاطِنَ كَثِيرَةٖ وَيَوۡمَ حُنَيۡنٍ إِذۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡ كَثۡرَتُكُمۡ فَلَمۡ تُغۡنِ عَنكُمۡ شَيۡـٔٗا وَضَاقَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ ثُمَّ وَلَّيۡتُم مُّدۡبِرِينَ ۝ 24
(25) अल्लाह इससे पहले बहुत-से अवसरों पर तुम्हारी सहायता कर चुका है। अभी हुनैन की लड़ाई के दिन (उसकी मदद को शान तुम देख चुके हो)23, उस दिन तुम्हें अपनी संख्या की अधिकता पर घमण्ड था, परन्तु वह तुम्हारे कुछ काम न आया और धरती अपने फैलाव के बाद भी तुमपर तंग हो गई और तुम पीठ फेरकर भाग निकले।
23. जो लोग इस बात से डरते थे कि उत्तरदायित्व से बरी होने के एलान की भयानक नीति को व्यवहार में लाने से तमाम अरब के कोने-कोने में लड़ाई की आग भड़क उठेगी और उसका मुकाबला करना कठिन होगा, उनसे कहा जा रहा है कि इन आशंकाओं से क्यों डरे जाते हो, जो अल्लाह इससे अति भयानक ख़तरों के का अवसरों पर तुम्हारी सहायता कर चुका है, वह अब भी तुम्हारी सहायता को मौजूद है। अगर यह काम मोट तुम्हारी शक्ति पर आश्रित होता तो मक्का ही से आगे न बढ़ता, वरना बद्र में तो अवश्य ही समाप्त हो ना जाता, परन्तु उसके पीछे तो अल्लाह की शक्ति है और पिछले तजुर्बे तुमपर सिद्ध कर चुके हैं कि अल्लाह ही की शक्ति अब तक इसको आगे बढ़ाती रही है। इसलिए विश्वास रखो कि आज भी वही इसे आगे बढ़ाएगा। हुनैन की लड़ाई, जिसका यहाँ उल्लेख हुआ है, शव्वाल सन् 08 हि० में इन आयतों के उतरने से केवल बारह-तेरह महीने पहले मक्का और तायफ़ के बीच हुनैन की घाटी में हुई थी। इस लड़ाई में मुसलमानों को काम ओर से 12 हज़ार की सेना थी जो इससे पहले कभी किसी इस्लामी लड़ाई में इकट्ठी नहीं हुई थी और दूसरी ओर शत्रु उनसे बहुत कम थे, लेकिन इसके बाद भी हवाज़न क़बीले के तीरंदाज़ों ने उनका मुँह फेर दिया और इस्लामी सेना बुरी तरह तितर-बितर होकर पराजित हुई। उस समय केवल नबी (सल्ल०) और कुछ मुट्ठी-भर जाँबाज़ सहाबा थे जिनके कदम अपनी जगह जमे रहे और उन्हीं के जमे रहने का परिणाम था कि दोबारा सेना व्यवस्थित कर दी गई और अन्त में विजय मुसलमानों के हाथ लगी, वरना मक्का की विजय से जो कुछ प्राप्त किया गया था उससे बहुत ज़्यादा हुनैन में खो देना पड़ता।
ثُمَّ أَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَنزَلَ جُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَا وَعَذَّبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 25
(26) फिर अल्लाह ने अपनी 'सकीनत' (प्रशांति) अपने रसूल पर और ईमानवालों पर उतारी और वे सेनाएँ उतारी जो तुमको नज़र न आती थी और सत्य के इंकारियों को सजा दी कि यही बदला है उन लोगों के लिए जो सत्य का इंकार करें ।
ثُمَّ يَتُوبُ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 26
(27) फिर (तुम यह भी देख चुके हो कि) इस तरह सज़ा देने के बाद अल्लाह जिसको चाहता है, तौबा की तौफ़ीक़ भी प्रदान करता है24, अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
24. हुनैन की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद नबी (सल्ल.) ने पराजित शत्रुओं के साथ जिस उदारता और शालीनता का व्यवहार किया, उसका फल यह निकला कि उनमें से अधिकतर लोग मुसलमान हो गए। इस उदाहरण से मुसलमानों को यह बताना अभिप्रेत है कि तुमने यही क्यों समझ रखा है कि बस अब अरब के सारे मुशरिक नष्ट-विनष्ट कर डाले जाएंगे। नहीं, पहले के अनुभवों को देखते हुए तो तुमको यह आशा जा होनी चाहिए कि जब अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था के विकास और अस्तित्व की कोई आशा उन लोगों को बाक़ी न रहेगी और वे सहारे समाप्त हो जाएँगे, जिनके कारण ये अब तक अज्ञानता से चिमटे हुए हैं, तो स्वतः ये इस्लाम की रहमत के दामन में पनाह लेने के लिए आ जाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡمُشۡرِكُونَ نَجَسٞ فَلَا يَقۡرَبُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ بَعۡدَ عَامِهِمۡ هَٰذَاۚ وَإِنۡ خِفۡتُمۡ عَيۡلَةٗ فَسَوۡفَ يُغۡنِيكُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦٓ إِن شَآءَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 27
(28) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, मुशरिकीन नापाक हैं, इसलिए इस साल के बाद ये मस्जिदे हराम के क़रीब न फटकने पाएँ25, और अगर तुम्हें तंगदस्ती का डर है तो असंभव नहीं कि अल्लाह चाहे तो तुम्हे अपनी मेहरबानी से मालामाल कर दे। अल्लाह जाननेवाला और तत्वदर्शी है।
25. अर्थात् आगे के लिए उनका हज और उनकी ज़ियारत ही बन्द नहीं, बल्कि मस्जिदे हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद) की सीमाओं में उनका प्रवेश भी बन्द है, ताकि शिर्क और जाहिलियत (अज्ञानता) के दोहराए जाने की कोई संभावना ही बाक़ी न रहे । 'नापाक' होने से तात्पर्य यह नहीं है कि वे अपने आपमें नापाक हैं, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उनके विश्वास व आस्थाएँ, उनके चरित्र, उनके कर्म और जीवन बिताने के उनके अज्ञानतापूर्ण तरीके नापाक हैं और इसी नापाकी के कारण हरम की सीमाओं में उनका प्रवेश बन्द कर दिया गया है। इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) के निकट इससे तात्पर्य केवल यह है कि वे हज और उमरा और अज्ञानतापूर्ण रस्मों को अदा करने के लिए हरम की सीमाओं में नहीं जा सकते । इमाम शाफ़ई (रह०) के की नज़दीक इस आदेश का उद्देश्य यह है कि वे मस्जिदे हराम में जा ही नहीं सकते और इमाम मालिक (रह०) यह राय रखते हैं कि केवल मस्जिदे हराम ही नहीं, बल्कि किसी मस्जिद में भी उनका प्रवेश करना सही नहीं। लेकिन यह आखिरी राय सही नहीं है,क्योंकि नबी (सल्ल.) ने स्वयं मस्जिदे नबवी में उन लोगों को आने की अनुमति दी थी।
قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ ٱلۡحَقِّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حَتَّىٰ يُعۡطُواْ ٱلۡجِزۡيَةَ عَن يَدٖ وَهُمۡ صَٰغِرُونَ ۝ 28
(29) युद्ध करो किताबवालों में से उन लोगों के विरुद्ध जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं लाते26 और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम करार दिया है उसे हराम नहीं करते27 और सत्य धर्म को अपना दीन (धमी नहीं बनाते । (इनसे लड़ो) यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या (रक्षा-कर) दें और छोटे (अधीनस्थ) बनकर रहें।28
26. यद्यपि किताबवाले अल्लाह और आखिरत पर ईमान रखने के दावेदार हैं, लेकिन सच तो यह है कि न वे अल्लाह पर ईमान रखते हैं,न आखिरत पर। अल्लाह पर ईमान रखने का अर्थ यह नहीं है कि आदमी बस इस बात को मान ले कि अल्लाह है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि आदमी अल्लाह को अकेला उपास्य और अकेला पालनहार मान ले और उसकी जात, उसके गुणों, उसके हक़ों और अधिकारों में न स्वयं साझीदार बने, न किसी को साझीदार ठहराए । लेकिन ईसाई और यहूदी, दोनों यह अपराध करते हैं, जैसा कि बाद वाली आयतों में स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसलिए उनका अल्लाह को मानना निरर्थक है और उसे कदापि 'अल्लाह पर ईमान' नहीं कहा जा सकता। इसी तरह आखिरत को मानने का अर्थ केवल यही नहीं है कि आदमी यह बात मान ले कि हम मरने के बाद फिर उठाए जाएंगे, बल्कि उसके साथ यह मानना भी आवश्यक है कि वहाँ सिफ़ारिश की कोई कोशिश, कोई फ़िदया और किसी बुज़ुर्ग से जुड़ा होना काम न आएगा और न कोई किसी का प्रायश्चित बन सकेगा। अल्लाह की अदालत में बे-लाग इंसाफ़ होगा और आदमी के ईमान और कर्म के सिवा किसी चीज़ का लिहाज़ न किया जाएगा। इस विश्वास के बिना आख़िरत को मानना निरर्थक है। लेकिन यहूदियों और ईसाइयों ने इसी पहलू से अपने विश्वास व आस्था को खराब कर लिया है, इसलिए उनका आखिरत पर ईमान भी मान्य नहीं है।
27. अर्थात् उस शरीअत को अपने जीवन का क़ानून नहीं बनाते जो अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल०) द्वारा उतारी है।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ عُزَيۡرٌ ٱبۡنُ ٱللَّهِ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَى ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ ٱللَّهِۖ ذَٰلِكَ قَوۡلُهُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡۖ يُضَٰهِـُٔونَ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَبۡلُۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 29
(30) यहूदी कहते हैं कि उजैर अल्लाह का बेटा है 29 और ईसाई कहते हैं कि मसीह अल्लाह का बेटा है। ये तथ्यहीन बातें हैं जो वे अपनी ज़बानों से निकालते हैं, उन लोगों की देखा-देखी जो इनसे पहले कुफ़ (अधर्म) में पड़े हुए थे। 30 अल्लाह की मार इनपर, ये कहाँ से धोखा खा रहे हैं।
29. उज़ैर से तात्पर्य एज़रा (EZRA) हैं जिनको यहूदी अपने धर्म का पुनर्स्थापक मानते हैं। उनका समय 450 ई० पू० के आस-पास बताया जाता है। इसराईली रिवायतों के अनुसार हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम के बाद जो आज़माइश का दौर बनी इसराईल पर आया, उसमें न केवल यह कि तौरात दुनिया से गुम हो गई थी, बल्कि बाबिल की कैद ने इसराईली नस्लों को अपनी शरीअत, अपनी रिवायतों और अपनी क़ौमी भाषा इबरानी तक से अनभिज्ञ कर दिया था। अन्ततः उन्हीं उज़ैर या एज़रा ने बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट को फिर से तर्तीब दिया और नए सिरे से शरीअत बनाई। इसी कारण बनी इसराईल उनका बहुत सम्मान करते हैं और यह सम्मान इस सीमा तक बढ़ गया कि कुछ यहूदी गिरोहों ने उनको अल्लाह का बेटा तक बना दिया। यहाँ कुरआन मजीद के कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि तमाम यहूदियों ने एकमत होकर ख़ुदा का बेटा बनाया है, बल्कि अभिप्रेत यह बताना है कि अल्लाह के बारे में यहूदियों के विश्वासों में जो दोष पैदा हुआ, वह इस सीमा तक तरक्की कर गया कि एज़रा को अल्लाह का बेटा कहनेवाले भी उनमें पैदा हुए।
30. अर्थात् मिस्र, यूनान, रूम, ईरान और दूसरे देशों में जो क़ौमें पहले पथभ्रष्ट हो चुकी थीं उनके दर्शनों और अंधविश्वासों व कल्पनाओं से प्रभावित होकर उन लोगों ने भी वैसी ही भ्रष्टतापूर्ण धारणाएँ गढ़ लीं।
ٱتَّخَذُوٓاْ أَحۡبَارَهُمۡ وَرُهۡبَٰنَهُمۡ أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَمَآ أُمِرُوٓاْ إِلَّا لِيَعۡبُدُوٓاْ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗاۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ سُبۡحَٰنَهُۥ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 30
(31) इन्होंने अपने विद्वानों और संतों को अल्लाह के सिवा अपना रब (प्रभु) बना लिया है31 और इसी तरह मरयम के बेटे मसीह को भी, हालाँकि उनको एक उपास्य के सिवा किसी की बन्दगी करने का आदेश नहीं दिया गया था, वह जिसके सिवा कोई उपासना का अधिकारी नहीं पाक है वह उन शिर्क भरी बातों से,, जो ये लोग करते हैं।
31. हदीस में आता है कि हज़रत अदी बिन हातिम, जो पहले ईसाई थे, जब नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित होकर मुसलमान हुए तो उन्होंने और प्रश्नों के साथ एक यह प्रश्न भी किया था कि इस आयत में हम पर अपने विद्वानों और सन्तों को ‘प्रभु’ बना लेने का जो आरोप लगाया गया है उसकी वास्तविकता क्या है ? उत्तर में नबी (सल्ल०) ने फरमाया, क्या यह सच नहीं है कि जो कुछ ये लोग हराम क़रार देते हैं, उसे तुम हराम मान लेते हो और जो कुछ ये हलाल क़रार देते हैं, उसे हलाल मान लेते हो? उन्होंने कहा कि यह तो ज़रूर हम करते रहे हैं। फरमाया, बस यही उनको प्रभु बना लेना है । इससे मालमू हुआ कि अल्लाह की किताब के प्रमाण के बिना जो लोग मानव-जीवन के लिए वैध और अवैध की सीमाएं निर्धारित करते हैं, वे वास्तव में 'प्रभुता' के पद पर अपने आप जा विराजते हैं और जो उनकी शरीअत के इस अधिकार को मानते हैं, वे उन्हें 'प्रभु' स्वीकार करते हैं। ये दोनों आरोप, अर्थात् किसी को अल्लाह का बेटा करार देना और किसी को शरीअत क़ानूनसाज़ी का अधिकार दे देना, इस बात के प्रमाण में प्रस्तुत किए गए हैं कि ये लोग अल्लाह पर ईमान के दावे में झूठे हैं। अल्लाह की हस्ती को चाहे ये मानते हों,मगर इनकी ईशधारणा इतनी ग़लत है कि इसके कारण उनका ईश्वर (अल्लाह) को मानना न मानने के बराबर हो गया है।
يُرِيدُونَ أَن يُطۡفِـُٔواْ نُورَ ٱللَّهِ بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَيَأۡبَى ٱللَّهُ إِلَّآ أَن يُتِمَّ نُورَهُۥ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 31
(32) ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपनी फूँकों से बुझा दें। परन्तु अल्लाह अपना प्रकाश पूर्ण किए बिना माननेवाला नहीं है, भले ही वह इनकार करनेवालों को कितना ही अप्रिय हो।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ ۝ 32
(33) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्य धर्म के साथ भेजा है, ताकि उसे दीन की पूरी जिंस पर ग़ालिब कर दे32 चाहे मुशरिकों को यह कितना ही अप्रिय हो ।
32. मूल अरबी में 'अद-दीन' शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका अनुवाद हमने दीन की पूरी जिंस किया है। 'दीन' का शब्द, जैसा कि हम पहले भी वर्णन कर चुके हैं, अरबी भाषा में उस जीवन-व्यवस्था या 'जीवन बिताने का तरीक़ा' के लिए प्रयुक्त होता है जिसके स्थापित करनेवाले को विश्वसनीय और माननीय स्वीकार करके उसका पालन किया जाए। अतएव रसूल के भेजे जाने का उद्देश्य इस आयत में यह बताया गया है कि जिस मार्गदर्शन और सच्चे धर्म को वह अल्लाह की ओर से लाया है, उसे दीन (धर्म) का स्वरूप रखनेवाले तमाम तरीकों और व्यवस्थाओं पर ग़ालिब कर दे। दूसरे शब्दों में रसूल कभी इस उद्देश्य के लिए नहीं भेजे गए कि जो जीवन व्यवस्था लेकर वह आया है, वे किसी दूसरी जीवन-व्यवस्था के आधीन और उसके का वशीभूत होकर और उसकी दी हुई रियायतों और गुंजाइशों में सिमटकर रहे, बल्कि वह धरती और आकाश के बादशाह का प्रतिनिधि बनकर आता है और अपने बादशाह की सत्य व्यवस्था को ग़ालिब देखना चाहता है। अगर कोई दूसरी जीवन-व्यवस्था दुनिया में रहे भी तो उसे अल्लाह की व्यवस्था की दी हुई गुंजाइशों में सिमटकर रहना चाहिए, जैसा कि जिज़या अदा करने की शक्ल में ज़िम्मियों को जीवन-व्यवस्था रहती है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡأَحۡبَارِ وَٱلرُّهۡبَانِ لَيَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۗ وَٱلَّذِينَ يَكۡنِزُونَ ٱلذَّهَبَ وَٱلۡفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 33
(34) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इन किताबवालों के अधिकतर विद्वानों और सन्तों का हाल यह है कि वे लोगों के माल ग़लत तरीक़ों से खाते हैं और उन्हें अल्लाह की राह से रोकते हैं।33 दर्दनाक सज़ा की ख़ुशख़बरी दो उनको जो सोने और चाँदी जमा करके रखते हैं और उन्हें अल्लाह की राह में खर्च नहीं करते।
يَوۡمَ يُحۡمَىٰ عَلَيۡهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكۡوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمۡ وَجُنُوبُهُمۡ وَظُهُورُهُمۡۖ هَٰذَا مَا كَنَزۡتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡ فَذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَكۡنِزُونَ ۝ 34
(35) एक दिन आएगा कि इसी सोने-चाँदी पर जहन्नम की आग दहकायी जाएगी और फिर इसी से उन लोगों की पेशानियों और पहलुओं और पीठों को दाग़ा जाएगा—यह है वह ख़ज़ाना जो तुमने अपने लिए जमा किया था, लो अब अपनी समेटी हुई दौलत का मज़ा चखो।
إِنَّ عِدَّةَ ٱلشُّهُورِ عِندَ ٱللَّهِ ٱثۡنَا عَشَرَ شَهۡرٗا فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ يَوۡمَ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ مِنۡهَآ أَرۡبَعَةٌ حُرُمٞۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُۚ فَلَا تَظۡلِمُواْ فِيهِنَّ أَنفُسَكُمۡۚ وَقَٰتِلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ كَآفَّةٗ كَمَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ كَآفَّةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 35
(36) वास्तविकता यह है कि महीनों की संख्या जब से अल्लाह ने आकाश और धरती को पैदा किया है, अल्लाह के लेख्य में 12 ही है। 34 और उनमें से चार महीने हराम (आदर के) है 34अ, यही ठीक विधान है, इसलिए इन चार महीनों में अपने ऊपर अत्याचार न करो।35 और मुशरिकों से सब मिलकर लड़ो जिस तरह वे सब मिलकर तुमसे लड़ते हैं 36, और जान रखो कि अल्लाह डरनेवालों ही के साथ है।
34. अर्थात जब से अल्लाह ने चाँद, सूरज और धरती को पैदा किया है, उसी समय से यह हिसाब भी चला आ रहा है कि महीने में एक ही बार चाँद 'हिलाल' (पहली का चाँद) बनकर उदय होता है और इस हिसाब से साल के 12 महीने ही बनते हैं। यह बात इसलिए फरमाई गई है कि अरब के लोग नसी (महीने को हटाने की प्रथा) के लिए महीनों की संख्या 13 या 14 बना लेते थे, ताकि जिस हराम महीने को उन्होंने हलाल कर लिया हो, उसे साल की जंत्री में खपा सकें। इस विषय की व्याख्या आगे आती है।
34अ.चार हराम महीनों से तात्पर्य है ज़ीक़ादा, ज़िलहिज्जा और मुहर्रम हज के लिए और रजब उमरे के लिए।
إِنَّمَا ٱلنَّسِيٓءُ زِيَادَةٞ فِي ٱلۡكُفۡرِۖ يُضَلُّ بِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُحِلُّونَهُۥ عَامٗا وَيُحَرِّمُونَهُۥ عَامٗا لِّيُوَاطِـُٔواْ عِدَّةَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ فَيُحِلُّواْ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُۚ زُيِّنَ لَهُمۡ سُوٓءُ أَعۡمَٰلِهِمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 36
(37) नसी तो कुफ़्र (अधर्म) में एक और कुफ़ भरी हरकत है जिससे ये काफ़िर लोग गुमराही में डाले जाते हैं। किसी साल एक महीने को हलाल कर लेते हैं और किसी साल उसको हराम कर देते हैं, ताकि अल्लाह के हराम किए हुए महीनों की संख्या पूरी भी कर दें और अल्लाह का हराम किया हुआ हलाल भी कर लें।37 उनके बुरे कर्म उनके लिए शोभायमान बना दिए गए हैं, और अल्लाह सत्य के इंकारियों को रास्ता नहीं दिखाया करता।
37. अरब में नसी (महीने को हटाने की प्रथा) दो प्रकार की थी। एक प्रकार की नसी तो यह थी कि लड़ाई-झगड़े, लूटपाट करने और खून का बदला लेने के लिए किसी हराम महीने को हलाल क़रार दे लेते थे और इसके बदले में किसी हलाल महीने को हराम करके हराम महीनों की संख्या पूरी कर देते थे। दूसरे प्रकार की नसी यह थी कि चाँद के साल को सूरज के साल के अनुसार ढालने के लिए उसमें कबीसा (लौंद) का एक महीना बढ़ा देते थे, ताकि हज हमेशा एक ही मौसम में आता रहे और वे उन परेशानियों से बच जाएँ जो चाँद के हिसाब के अनुसार अलग-अलग मौसमों में हज के घूमते रहने से झेलनी पड़ती है। इस तरह 33 वर्ष तक हज अपने असल समय के विपरीत दूसरी तिथियों में होता रहता था और केवल चौंतीसवें वर्ष एक बार असल ज़िलहिज्जा की 9-10 तारीख को अदा होता था। यही वह बात है जो (अंतिम हज) हिज्जतुल विदाअ के अवसर पर नबी (सल्ल०) ने अपने वक्तव्य में फ़रमाई थी कि 'इस साल हज का समय गर्दिश करता हुआ ठीक अपनी उस तारीख़ पर आ गया है जो प्राकृतिक रूप से उसकी असल तारीख़ है।' इस आयत में नसी को हराम और वर्जित करके अरब के अज्ञानियों के उन दोनों उद्देश्यों को ग़लत बता दिया गया है। पहला उद्देश्य तो स्पष्ट है कि खुले तौर पर एक गुनाह था। इसका तो मतलब ही यह था कि अल्लाह के हराम किए हुए को हलाल भी कर लिया जाए और फिर बहानेबाज़ी करके और क़ानून की प्रत्यक्ष रूप में पाबन्दी करके उसकी पूर्ति भी कर ली जाए। रहा दूसरा उद्देश्य तो विहंगम दृष्टि डालने पर वह निर्दोष और स्वार्थ की पूर्ति करनेवाला दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में वह भी अल्लाह के क़ानून के प्रति घोर विद्रोह था। अल्लाह तआला ने अपने बताए कर्तव्यों के लिए सूर्य के हिसाब के बजाय चाँद का हिसाब जिन महत्वपूर्ण हितों के कारण अपनाया है, उनमें से एक यह भी है कि उसके बन्दे समय की तमाम गर्दिशों में, हर प्रकार के हालात और परिस्थितियों में उसके आदेशों पर चलने के आदी हों, जैसे रमज़ान है तो वह कभी गर्मी में और कभी बरसात में और कभी सर्दियों में आता है और ईमानवाले इन सब बदले हुए हालात में रोज़े रखकर आज्ञापालन का प्रमाण भी देते हैं और सर्वोत्तम नैतिक प्रशिक्षण भी पाते हैं। इसी तरह हज भी चाँद के हिसाब से अलग-अलग मौसमों में आता है और इन सब तरह के अच्छे और बुरे हालात में अल्लाह की प्रसन्नता के लिए यात्रा करके बन्दे अपने अल्लाह को आज़माइश में पूरे भी उतरते हैं और बन्दगी में दृढ़ता भी प्राप्त करते हैं। अब अगर कोई गिरोह अपनी यात्रा और अपने व्यापार और अपने मेलो-ठेलों को आसानी के लिए हज को किसी प्रिय मौसम में सदा के लिए तय कर दे, तो यह ऐसा ही है जैसे मुसलमान कोई सम्मेलन करके तय कर लें कि आगे से रमज़ान का महीना दिसम्बर या जनवरी के अनसार कर दिया जाएगा। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि बन्दों ने अपने अल्लाह के प्रति विद्रोह किया, स्वच्छन्द हो गए और उसके श्रेष्ठतम हितों को अपने घटिया स्वार्थों और इच्छाओं पर बलि चढ़ा दी। इन्हीं कारणों से अल्लाह ने इस आयत में 'नसी' को ' कुफ्र में ज़्यादती' क़रार दिया है। यह बात भी ध्यान में रहे कि नसी निरस्त किए जाने का यह एलान सन् 09 हि० के हज के अवसर पर किया गया और अगले साल सन् 10 हिo का हज ठीक उन तारीखों में हुआ जो चाँद के हिसाब के अनुसार थी। इसके बाद से आज तक हज अपनी सही तारीखों में हो रहा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَا لَكُمۡ إِذَا قِيلَ لَكُمُ ٱنفِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱثَّاقَلۡتُمۡ إِلَى ٱلۡأَرۡضِۚ أَرَضِيتُم بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ فَمَا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا قَلِيلٌ ۝ 37
(38) ऐ लोगो38 जो ईमान लाए हो ! तुम्हें क्या हो गया कि जब तुमसे अल्लाह की राह में निकलने के लिए कहा गया तो तुम धरती से चिमटकर रह गए? क्या तुमने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया? ऐसा है तुम्हें मालूम हो कि दुनिया की ज़िन्दगी की यह सब सामग्री आखिरत में बहुत थोड़ी निकलेगी।39
38. यहाँ से वह व्याख्यान आरंभ होता है जो तबूक की तैयारी के समय में अवतरित हुआ था।
39. इसके दो अर्थ हो सकते हैं-एक यह कि आख़िरत का असीम जीवन और वहाँ की अनगिनत व असीम सामग्री को जब तुम देखोगे तब तुम्हें मालूम होगा कि दुनिया की ज़िन्दगी को थोड़ी-सी अवधि में रसास्वादन की जो बड़ी-बड़ी संभावनाएँ तुम्हें मिली हुई थीं और अधिक से अधिक ऐश के जो सामान तुम्हें मिले हुए थे, वे इन अथाह संभावनाओं और इन नेमतों और विशाल सल्तनत के मुक़ाबले में कुछ भी मूल्य नहीं रखते और उस समय तुमको अपनी भविष्य के परिणाम से असावधानी बरतने और संकीर्ण दृष्टि पर अफ़सोस होगा कि तुमने क्यों हमारे समझाने के बाद भी दुनिया के सामयिक और तुच्छ लाभ के लिए अपने आपको उन शाश्वत और बड़े लाभों से वंचित कर लिया। दूसरे यह कि दुनिया की ज़िन्दगी की पूँजी आखिरत में काम आनेवाली चीज़ नहीं है। यहाँ तुम भले ही कितनी सामग्री जुटा लो, मौत की आख़िरी हिचकी के साथ हर चीज़ से हाथ धोना पड़ेगा और मौत की सीमा के उस पार जो दुनिया है, वहाँ इनमें से कोई चीज़ भी तुम्हारे साथ न होगी, वहाँ इसका कोई हिस्सा अगर तुम पा सकते हो तो केवल वही जिसे तुमने अल्लाह की प्रसन्नता पर क़ुरबान किया हो और जिसकी मुहब्बत पर तुमने अल्लाह और उसके दीन की मुहब्बत को प्रमुखता दी हो।
إِلَّا تَنفِرُواْ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَيَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّوهُ شَيۡـٔٗاۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 38
(39) तुम न उठोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सज़ा देगा40, और तुम्हारी जगह किसी और गिरोह को उठाएगा41 और तुम अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकोगे, उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है ।
40. इसी से यह नियम बना है कि जब तक आम एलान (युद्ध संबंधी सेवाओं के लिए आम बुलावा) न हो या जब तक किसी क्षेत्र की मुस्लिम आबादी या मुसलमानों के किसी गिरोह को जिहाद के लिए निकलने का आदेश न दिया जाए, उस समय तक तो जिहाद 'फ़र्ज़ किफ़ाया' रहता है। अर्थात् अगर कुछ लोग उसे अदा करते रहें तो बाक़ी लोगों पर से उसकी अनिवार्यता ही समाप्त हो जाती है। लेकिन जब मुसलमानों के प्रमुख की ओर से मुसलमानों को जिहाद व आम बुलावा हो जाए, या किसी विशेष गिरोह या विशेष क्षेत्र की आबादी को बुलावा दे दिया जाए, तो फिर जिन्हें बुलावा दिया गया हो, उनपर जिहाद फ़र्जे-ऐन (यानी हर व्यक्ति के अनिवार्य) है, यहाँ तक कि जो व्यक्ति किसी उचित मजबूरी के बिना न निकले, उसका ईमान तक मान्य नहीं है।
41. अर्थात् अल्लाह का काम कुछ तुमपर निर्भर नहीं है कि तुम करोगे तो होगा, वरना न होगा। वास्तव में यह तो अल्लाह की मेहरबानी और एहसान है कि वह तुम्हें अपने दीन की सेवा का सुनहरा मौका दे रहा है। अगर तुम अपनी नासमझी से इस अवसर को खो दोगे तो अल्लाह किसी और क़ौम को इसका सौभाग्य प्रदान करेगा और तुम निष्फल रह जाओगे।
إِلَّا تَنصُرُوهُ فَقَدۡ نَصَرَهُ ٱللَّهُ إِذۡ أَخۡرَجَهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ثَانِيَ ٱثۡنَيۡنِ إِذۡ هُمَا فِي ٱلۡغَارِ إِذۡ يَقُولُ لِصَٰحِبِهِۦ لَا تَحۡزَنۡ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَنَاۖ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَيۡهِ وَأَيَّدَهُۥ بِجُنُودٖ لَّمۡ تَرَوۡهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلسُّفۡلَىٰۗ وَكَلِمَةُ ٱللَّهِ هِيَ ٱلۡعُلۡيَاۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 39
(40) तुमने अगर नबी की सहायता न की तो कुछ परवाह नहीं, अल्लाह उसकी सहायता उस समय में थे, जब वह अपने साथी से कह रहा था कि "ग़म न कर, अल्लाह हमारे साथ है।‘’42 उस समय अल्लाह ने उसपर अपनी ओर से हृदय-शान्ति उतारी और उसकी सहायता ऐसी सेनाओं से की जो तुमको दिखाई न पड़ती थीं और काफ़िरों (शत्रुओं) का बोल नीचा कर दिया, और अल्लाह का बोल तो ऊँचा ही है, अल्लाह ज़बरदस्त और गहरी सूझ-बूझवाला है।
42. यह उस अवसर का उल्लेख है जब मक्का के इस्लाम दुश्मनों ने नबी (सल्ल०) की हत्या का निश्चय कर लिया था और आप ठीक उस रात को, जो हत्या के लिए निश्चित की गई थी, मक्का से निकलकर मदीना की ओर हिजरत कर गए थे । मुसलमानों की बड़ी संख्या दो-दो, चार-चार करके पहले ही मदीना जा चुकी थी। मक्का में केवल वही मुसलमान रह गए थे जो बिल्कुल विवश थे या कपटपूर्ण भरा ईमान रखते थे और उनपर कोई भरोसा न किया जा सकता था। इस स्थिति में जब आपको मालूम हुआ कि आपकी हत्या का निर्णय हो चुका है, तो आप केवल एक साथी हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को साथ लेकर मक्का से निकले, और इस विचार से कि आपका पीछा अवश्य किया जाएगा, आपने मदीना का रास्ता छोड़कर (जो उत्तर की ओर था) दक्षिण का रास्ता अपनाया । यहाँ तीन दिन तक आप सौर नामी गुफा में छिपे रहे। खून के प्यासे दुश्मन आपको हर ओर ढूंढते फिर रहे थे। मक्का के आसपास की घाटियों में उन्होंने कोई कोना ऐसा न छोड़ा जहाँ आपको खोजा न हो। इसी सिलसिले में एक बार उनमें से कुछ लोग ठीक उसी गुफा के मुहाने पर भी पहुंच गए जिसमें आप छिपे हुए थे। हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) बहुत डरे कि अगर इन लोगों में से किसी ने तनिक भी आगे बढ़कर गुफा में झाँक लिया तो वह हमें देख लेगा, लेकिन नबी (सल्ल०) तनिक न घबराए और आपने यह कहकर हज़रत अबू बक्र (रज़ि.) को तसल्ली दी कि "ग़म न करो, अल्लाह हमारे साथ है।"
ٱنفِرُواْ خِفَافٗا وَثِقَالٗا وَجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 40
(41) निकलो, चाहे हलके हो या बोझल43 और जिहाद करो अल्लाह की राह में अपने मालों और अपनी जानों के साथ, यह तुम्हारे लिए अच्छा है अगर तुम जानो ।
43. 'हलके और बोझल' के शब्द व्यापक अर्थ रखते हैं। अर्थ यह है कि जब निकलने का आदेश हो चुका है तो बहरहाल तुमको निकलना चाहिए, चाहे इच्छा से, चाहे अनिच्छा से, चाहे तंगदस्ती में, चाहे ख़ुशहाली में, चाहे सामान की बहुतायत के साथ, चाहे बे-सामानी के साथ, चाहे अनुकूल परिस्थिति में, चाहे प्रतिकूल परिस्थिति में, चाहे जवान व तन्दुरुस्त, चाहे बूढ़ा व कमज़ोर।
لَوۡ كَانَ عَرَضٗا قَرِيبٗا وَسَفَرٗا قَاصِدٗا لَّٱتَّبَعُوكَ وَلَٰكِنۢ بَعُدَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلشُّقَّةُۚ وَسَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَوِ ٱسۡتَطَعۡنَا لَخَرَجۡنَا مَعَكُمۡ يُهۡلِكُونَ أَنفُسَهُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 41
(42) ऐ नबी ! अगर लाभ आसानी से प्राप्त हो जानेवाला होता और यात्रा हलकी होती तो वे अवश्य तुम्हारे पीछे चलने पर तैयार हो जाते, परन्तु उनपर तो यह रास्ता बहुत कठिन हो गया।44 अब वे अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहेंगे कि अगर हम चल सकते तो निश्चय ही तुम्हारे साथ चलते। वे अपने आपको तबाही में डाल रहे हैं। अल्लाह खूब जानता है कि वे झूठे हैं।
44. अर्थात् यह देखकर कि मुक़ाबला रूम जैसी शक्ति से है और मौसम तेज़ गर्मी का है और देश में अकाल पड़ा हुआ है और नये वर्ष की फ़सलें, जिनसे आस लगी हुई थी, कटने के करीब हैं, उनको तबूक की यात्रा बहुत ही बोझ मालूम होने लगा।
عَفَا ٱللَّهُ عَنكَ لِمَ أَذِنتَ لَهُمۡ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْ وَتَعۡلَمَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 42
(43) ऐ नबी ! अल्लाह तुम्हे क्षमा करे, तुमने क्यों उन्हें छूट दे दी ? (तुम्हें चाहिए था कि स्वयं छूट न देते) ताकि तुमपर खुल जाता कि कौन लोग सच्चे हैं और झूठों को भी तुम जान लेते।45
45. कुछ मुनाफ़िक़ों ने बनावटी बहाने पेश करके नबी (सल्ल०) से छूट माँगी थी और नबी (सल्ल०) ने भी अपने नर्म स्वभाव के कारण यह जानने के बावजूद कि वे मात्र बहाने कर रहे हैं, उनको छूट दे दी थी। इसे अल्लाह ने पसन्द नहीं फ़रमाया और आपको सचेत किया कि ऐसी नर्मी उचित नहीं है। छूट दे देने के कारण इन मुनाफ़िक़ों को अपने निफ़ाक़ पर परदा डालने का अवसर मिल गया। अगर उन्हें छूट न दी जाती और फिर ये घर बैठे रहते तो उनका ईमान का झूठा दावा बेनक़ाब हो जाता ।
لَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 43
(44) जो लोग अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखते हैं वे तो तुमसे कभी यह निवेदन न करेंगे कि उन्हें अपनी जान व माल के साथ जिहाद करने से माफ़ रखा जाए। अल्लाह डर रखनेवालों को खूब जानता है।
إِنَّمَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱرۡتَابَتۡ قُلُوبُهُمۡ فَهُمۡ فِي رَيۡبِهِمۡ يَتَرَدَّدُونَ ۝ 44
(45) ऐसा निवेदन तो केवल वही लोग करते हैं जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं रखते, जिनके दिलों में सन्देह है और वे अपने सन्देह ही में दुविधाग्रस्त हो रहे हैं। 46
46. इससे मालूम हुआ कि कुफ्र व इस्लाम का संघर्ष एक कसौटी है जो खरे मोमिन और खोटे ईमान के दावेदार के अन्तर को स्पष्ट खोलकर रख देती है। जो व्यक्ति इस संघर्ष में दिल व जान से इस्लाम का समर्थन करे और अपनी सारी शक्ति और तमाम साधनों को उसका बोलबाला करने की कोशिश में खपा दे और किसी क़ुरबानी से संकोच न करे वही सच्चा मोमिन है। इसके विपरीत जो इस संघर्ष में इस्लाम का साथ देने से जो चुराए और कुफ्र के प्रभुत्व का खतरा सामने देखते हुए भी इस्लाम के प्रभुत्व के लिए जान-माल की बाज़ी खेलने से बचे, उसका यह रवैया स्वयं इस तथ्य को स्पष्ट कर देता है कि उसके दिल में ईमान नहीं है।
۞وَلَوۡ أَرَادُواْ ٱلۡخُرُوجَ لَأَعَدُّواْ لَهُۥ عُدَّةٗ وَلَٰكِن كَرِهَ ٱللَّهُ ٱنۢبِعَاثَهُمۡ فَثَبَّطَهُمۡ وَقِيلَ ٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 45
(46) अगर वास्तव में उनका इरादा निकलने का होता तो वे इसके लिए कुछ तैयारी करते, लेकिन अल्लाह को उनका उठना पसन्द ही न था 47 इसलिए उसने उन्हें सुस्त कर दिया और कह दिया गया कि बैठ रहो बैठनेवालों के साथ ।
47. अर्थात् न चाहते हुए उठना अल्लाह को पसन्द न था, क्योंकि जब वे जिहाद में शरीक होने के जज़्बे और नीयत से खाली थे और उनके भीतर दीन को प्रतिष्ठित बनाने के लिए जान लगा देने की कोई कामना न थो, तो वे केवल मुसलमानों की शरमा-शरमी से बददिली के साथ या किसी गड़बड़ी फैलाने की नीयत से मुस्तैदी के साथ उठते, और यह चीज़ हज़ार खराबियों का कारण बनती, जैसा कि बादवाली आयत में स्पष्टतः कह दिया गया है।
لَوۡ خَرَجُواْ فِيكُم مَّا زَادُوكُمۡ إِلَّا خَبَالٗا وَلَأَوۡضَعُواْ خِلَٰلَكُمۡ يَبۡغُونَكُمُ ٱلۡفِتۡنَةَ وَفِيكُمۡ سَمَّٰعُونَ لَهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 46
(47) अगर वे तुम्हारे साथ निकलते तो तुम्हारे अन्दर खराबी के सिवा किसी चीज़ को न बढ़ाते, वे तुम्हारे बीच फ़ित्ना पैदा करने के लिए दौड़-धूप करते और तुम्हारे गिरोह का हाल यह है कि अभी उसमें बहुत-से ऐसे लोग मौजूद हैं जो उनकी बातें कान लगाकर सुनते हैं, अल्लाह इन ज़ालिमों को खूब जानता है।
لَقَدِ ٱبۡتَغَوُاْ ٱلۡفِتۡنَةَ مِن قَبۡلُ وَقَلَّبُواْ لَكَ ٱلۡأُمُورَ حَتَّىٰ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَظَهَرَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 47
(48) इससे पहले भी इन लोगों ने फ़ितना पैदा करने की कोशिशें की हैं और तुम्हें विफल करने के लिए ये हर प्रकार के उपायों का उलट-फेर कर चुके हैं, यहाँ तक कि उनकी इच्छा के विपरीत सत्य आ गया और अल्लाह का काम होकर रहा।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ ٱئۡذَن لِّي وَلَا تَفۡتِنِّيٓۚ أَلَا فِي ٱلۡفِتۡنَةِ سَقَطُواْۗ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 48
(49) इनमें से कोई है जो कहता है कि “मुझे छूट दे दीजिए और मुझको फ़ित्ने में न डालिए48 सुन रखो ! फ़ितने ही में तो ये लोग पड़े हुए है49 और जहन्नम ने इन अधर्मियों को घेर रखा है50
48. जो मुनाफ़िक़ बहाने कर-करके पीछे ठहर जाने की इजाज़ते माँग रहे थे, उनमें से कुछ ऐसे ढीठ भी थे जो अल्लाह के रास्ते से पीछे कदम हटाने के लिए धार्मिक और नैतिक ढंग के हीले-बहाने खोजते थे। चुनाँचे उनमें से एक व्यक्ति जद्द बिन कैस के बारे में रिवायतों में आया है कि उसने नबी (सल्ल०) की सेवा में आकर कहा कि मैं एक हुस्नपरस्त (सौन्दर्य प्रिय) आदमी हूँ, मेरी कौम के लोग मेरी इस कमज़ोरी को जानते हैं कि औरत के मामले में मुझसे सब नहीं हो सकता । डरता हूँ कि कहीं रूमी औरतों को देखकर मेरा क़दम फिसल न जाए, इसलिए आप मुझे आज़माइश में न डालें और इस जिहाद में सम्मिलित होने में मुझे विवश समझें।
49. अर्थात् नाम तो फ़ितने से बचने का लेते हैं, मगर वास्तव में निफाक और झूठ और पाखण्ड का फितना बुरी तरह उनपर छाया हुआ है। अपने नज़दीक यह समझते हैं कि छोटे-छोटे फ़ितनों की संभावना से परेशानी और भय प्रकट करके ये अल्लाह से बड़े डरनेवाले साबित हुए जा रहे हैं, हालाँकि वास्तव में कुफ़्र व इस्लाम के निर्णायक संघर्ष के अवसर पर इस्लाम के समर्थन से पहलू बचाकर ये इतने बड़े फ़ितने में पड़ रहे हैं जिससे बढ़कर किसी फ़ितने के बारे में सोचा नहीं जा सकता।
إِن تُصِبۡكَ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡۖ وَإِن تُصِبۡكَ مُصِيبَةٞ يَقُولُواْ قَدۡ أَخَذۡنَآ أَمۡرَنَا مِن قَبۡلُ وَيَتَوَلَّواْ وَّهُمۡ فَرِحُونَ ۝ 49
(50) तुम्हारा भला होता है तो इनको रंज होता है और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये मुँह फेरकर खुश खुश पलटते हैं और कहते जाते हैं कि अच्छा हुआ हमने पहले ही अपना मामला ठीक कर लिया था।
قُل لَّن يُصِيبَنَآ إِلَّا مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَنَا هُوَ مَوۡلَىٰنَاۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 50
(51) इनसे कहो, "हमें कदापि कोई (बुराई या भलाई) नहीं पहुँचती मगर यह जो अल्लाह ने हमारे लिए लिख दी है। अल्लाह ही हमारा मौला (स्वामी) है, और ईमानवालों को उसी पर भरोसा करना चाहिए।‘’51
51. यहाँ दुनियापरस्त और ख़ुदापरस्त की मनोवृत्ति के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। दुनियापरस्त जो कुछ करता है, अपने मन की खुशी के लिए करता है और उसके मन की प्रसन्नता कुछ दुनिया के लाभों के पा लेने पर निर्भर होती है। ये उद्देश्य उसे प्राप्त हो जाएँ तो वह फूल जाता है और प्राप्त न हों तो मुरझा जाता है। फिर उसका सहारा पूर्ण रूप से भौतिक साधनों पर होता है। वे अनुकूल हो तो उसका दिल बढ़ने लगता है, प्रतिकूल होते दिखाई दें तो उसकी हिम्मत टूट जाती है। इसके विपरीत ख़ुदापरस्त ईसान जो कुछ करता है अल्लाह की प्रसन्नता के लिए करता है और इस काम में उसका भरोसा अपनी शक्ति या भौतिक साधनों पर नहीं, बल्कि अल्लाह की ज़ात पर होता है । सत्य-मार्ग में काम करते हुए उसपर विषदाएँ आएँ या सफलताओं की वर्षा हो, दोनों परिस्थितियों में वह यही समझता है कि जो कुछ अल्लाह की इच्छा है, वह पूरी हो रही है। विपदाएँ उसका दिल नहीं तोड़ सकतीं और सफलताएँ उसको इतराहट में नहीं डाल सकतीं, क्योंकि एक तो दोनों को वह अपने पक्ष में अल्लाह की ओर से समझता है और उसे हर हाल में यह चिंता होती है कि अल्लाह की डाली हुई इस परीक्षा से सकुशल गुज़र जाए। दूसरे उसकी दृष्टि में दुनिया के लक्ष्य नहीं होते कि उनके हिसाब से वह अपनी सफलता या असफलता का अनुमान करे। उसके सामने तो अल्लाह की प्रसन्नता का एक मात्र उद्देश्य होता है और इस उद्देश्य से उसके करीब होने या दूर होने की कसौटी दुनिया की किसी सफलता का प्राप्त हो जाना या न प्राप्त होना नहीं होती, बल्कि केवल यह बात होती है कि अल्लाह के रास्ते में जान व माल की बाज़ी लगाने का जो दायित्व उसपर आता है, उसे उसने कहाँ तक निभाया। अगर यह दायित्त्व उसने अदा कर दिया हो, तो भले ही दुनिया में उसकी बाज़ी बिलकुल ही हर गई लेकिन उसे पूरा भरोसा रहता है कि जिस अल्लाह के लिए उसने माल खपाया और जान दी है, वह उसके बदले को नष्ट करनेवाला नहीं है। फिर दुनिया के साधनों से वह आशा ही नहीं करता कि उनकी अनुकूलता या प्रतिकूलता उसको प्रसन्न या दुखी करे। उसका पूरा भरोसा अल्लाह पर होता है जो करण-कारण जगत का स्वामी है, शासक है और उसके भरोसे पर वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भो उसी संकल्प और साहस के साथ काम किए जाता है, जिसका प्रदर्शन दुनियावालों से केवल अनुकूल परिस्थितियों ही में हुआ करता है। अतः अल्लाह फ़रमाता है कि इन दुनियापरस्त मुनाफ़िकों से कह दो कि हमारा मामला तुम्हारे मामले से बुनियादी तौर पर अलग है। तुम्हारी प्रसन्नता और दुख के क़ानून कुछ और हैं और हमारे कुछ और। तुम सन्तोष और असन्तोष किसी और स्रोत से लेते हो और हम किसी और स्रोत से।
قُلۡ هَلۡ تَرَبَّصُونَ بِنَآ إِلَّآ إِحۡدَى ٱلۡحُسۡنَيَيۡنِۖ وَنَحۡنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمۡ أَن يُصِيبَكُمُ ٱللَّهُ بِعَذَابٖ مِّنۡ عِندِهِۦٓ أَوۡ بِأَيۡدِينَاۖ فَتَرَبَّصُوٓاْ إِنَّا مَعَكُم مُّتَرَبِّصُونَ ۝ 51
(52) उनसे कहो, "तुम हमारे मामले में जिस चीज़ की प्रतीक्षा कर रहे हो वह इसके सिवा और क्या है कि दो भलाइयों में से एक भलाई है।52 और हम तुम्हारे मामले में जिस चीज़ की प्रतीक्षा कर रहे हैं वह यह है कि अल्लाह स्वयं तुमको सज़ा देता है या हमारे हाथों दिलवाता है ? अच्छा तो अब तुम भी प्रतीक्षा करो और हम भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करते हैं।"
52. मुनाफ़िक़ीन अपनी आदत के अनुसार इस अवसर पर भी कुफ्र और इस्लाम के इस संघर्ष में भाग लेने के बजाय अपनी समझ में खूब सोच-विचार कर दूर बैठे हुए यह देखना चाहते थे कि इस संघर्ष का नतीजा क्या होता है, रसूल (सल्ल०) और रसूल के साथी (रज़ि०) जीतकर आते हैं या रूमियों की सैनिक शक्ति से टकराकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। इसका उत्तर उन्हें यह दिया गया कि जिन दो नतीजों में से एक के प्रकट होने का तुम्हें इन्तिज़ार है, ईमानवालों के लिए तो वे दोनों ही सरासर भलाई हैं वे अगर विजयी हों तो उसका भलाई होना तो स्पष्ट ही है, लेकिन अगर अपने उद्देश्य की राह में जानें लड़ाते हुए वे सब के सब हलाक हो जाएँ तब भी दुनिया की निगाह में चाहे यह भारी असफलता हो, परन्तु वास्तव में यह भी एक दूसरी सफलता है, इसलिए कि ईमानवाले की सफलता और विफलता की कसौटी यह नहीं है कि उसने कोई देश जीत लिया या नहीं, या कोई शासन स्थापित कर लिया या नहीं, बल्कि उसकी कसौटी यह है कि उसने अपने अल्लाह के कलिमे को उच्च करने के लिए अपने मन व मस्तिष्क और शरीर व प्राण की सारी शक्तियाँ लड़ा दीं या नहीं। यह काम अगर उसने कर दिया तो वास्तव में वह सफल है, भले ही दुनिया को दृष्टि से उसकी कोशिश का परिणाम शून्य ही क्यों न हो।
قُلۡ أَنفِقُواْ طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا لَّن يُتَقَبَّلَ مِنكُمۡ إِنَّكُمۡ كُنتُمۡ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 52
(53) उनसे कहो, “तुम अपने माल चाहे राज़ी-ख़ुशी ख़र्च करो या नागवारी के साथ53, बहरहाल वे स्वीकार न किए जाएँगे, क्योंकि तुम फ़ासिक (अवज्ञाकारी) लोग हो।”
53. कुछ मुनाफ़िक़ ऐसे भी थे जो अपने आपको ख़तरे में डालने के लिए तो तैयार न थे, लेकिन यह भी न चाहते थे कि इस जिहाद और इसकी कोशिश से बिल्कुल ही दूर रहकर मुसलमानों की दृष्टि में अपना सारा महत्त्व खो दें और अपने निफाक़ (कपटभाव) को एलानिया ज़ाहिर कर दें। इसलिए वे कहते थे कि हम सामरिक सेवा के लिए तो इस समय छूट चाहते हैं लेकिन माल से सहायता करने के लिए हाज़िर हैं।
وَمَا مَنَعَهُمۡ أَن تُقۡبَلَ مِنۡهُمۡ نَفَقَٰتُهُمۡ إِلَّآ أَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَبِرَسُولِهِۦ وَلَا يَأۡتُونَ ٱلصَّلَوٰةَ إِلَّا وَهُمۡ كُسَالَىٰ وَلَا يُنفِقُونَ إِلَّا وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 53
(54) उनके दिए हुए माल के स्वीकार न होने का कोई कारण इसके सिवा नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का इंकार किया है, नमाज़ के लिए आते हैं तो कसमसाते हुए आते हैं और अल्लाह के रास्ते में खर्च करते हैं तो अनिच्छापूर्वक ख़र्च करते हैं।
فَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 54
(55) इनके माल व दौलत और इनकी सन्तान की अधिकता को देखकर धोखा न खाओ। अल्लाह तो यह चाहता कि इन ही चीज़ों के द्वारा इनको दुनिया की ज़िन्दगी में भी अज़ाब में डाल दे54 और ये जान भी दें तो सत्य के इंकार ही की स्थिति में दें।55
54. अर्थात् उस माल और सन्तान की मोह में पड़कर जो कपटपूर्ण नीति उन्होंने अपनाई है, उसके कारण मुस्लिम समाज में ये अति अपमानित होकर रहेंगे और हुकूमत की वह सारी शान और इज़्ज़त व नामवरी, बुज़ुर्गी और चौधराहट, जो अब तक अरब समाज में उनको प्राप्त रही है, नई इस्लामी सामूहिक व्यवस्था में वह मिट्टी में मिल जाएगी। साधारण से साधारण दास और दासपुत्र और सामान्य किसान और चरवाहे जिन्होंने ईमानी निष्ठा का प्रमाण दिया है, इस नई व्यवस्था में सम्मानित होंगे और पारिवारिक चौधरी अपनी दुनियापरस्ती के कारण अपमानित होकर रह जाएँगे। इस स्थिति का एक दिलचस्प नमूना वह घटना है जो एक बार हज़रत उमर (रज़ि०) की सभा में घटित हुई। कुरैश के कुछ बड़े-बड़े सरदार, जिनमें सुहैल बिन अम्र और हारिस बिन हिशाम जैसे लोग भी थे, हज़रत उमर (रज़ि०) से मिलने गए। वहाँ ऐसी स्थिति बनी कि अंसार और मुहाजिरीन में से कोई साधारण आदमी भी आता तो हज़रत उमर (रज़ि०) उसे अपने पास बुलाकर बिठाते और इन सरदारों से कहते कि इसके लिए जगह खाली करो। थोड़ी देर में नौबत यह आई कि ये लोग सरकते-सरकते सभा के पिछले हिस्से में पहुँच गए। बाहर निकलकर हारिस बिन हिशाम ने साथियों से कहा कि तुम लोगों ने देखा कि आज हमारे साथ क्या व्यवहार हुआ है ? सुहैल बिन अम्र ने कहा, इसमें उमर (रज़ि०) की कोई ग़लती नहीं, ग़लती हमारी है कि जब हमें इस दीन की ओर बुलाया गया तो हमने मुँह मोड़ा और ये लोग उसकी ओर दौड़कर आए। फिर ये दोनों साहब दोबारा हज़रत उमर (रज़ि०) के पास हाज़िर हुए और कहा कि आज हमने आपका व्यवहार देखा और हम जानते हैं कि यह हमारी अपनी कोताहियों का नतीजा है, किन्तु इसकी भरपाई की भी कोई शक्ल है ? हज़रत उमर (रज़ि०) ने ज़बान से कुछ जवाब न दिया और केवल रूम की सीमा की ओर संकेत कर दिया। अर्थ यह था कि अब जिहाद के मैदान में जान व माल खपाओ तो शायद वह स्थान पुनः मिल जाए, जिसे खो चुके हो।
55. अर्थात् इस अपमान व अनादर से बढ़कर परेशानी उनके लिए यह होगी कि जिन कपटपूर्ण गुणों को ये अपने भीतर पाल रहे हैं, उनकी बदौलत इन्हें मरते दम तक सच्चे ईमान का सौभाग्य प्राप्त न होगा और अपनी दुनिया ख़राब कर लेने के बाद ये इस हाल में दुनिया से विदा होंगे कि आख़िरत भी ख़राब, बल्कि खराब-से-खराब होगी।
وَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنَّهُمۡ لَمِنكُمۡ وَمَا هُم مِّنكُمۡ وَلَٰكِنَّهُمۡ قَوۡمٞ يَفۡرَقُونَ ۝ 55
(56) वे अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हम तुम्हीं में से हैं, हालाँकि वे कदापि तुममें से नहीं हैं। वास्तव में तो वे ऐसे लोग हैं जो तुमसे भयभीत हैं।
لَوۡ يَجِدُونَ مَلۡجَـًٔا أَوۡ مَغَٰرَٰتٍ أَوۡ مُدَّخَلٗا لَّوَلَّوۡاْ إِلَيۡهِ وَهُمۡ يَجۡمَحُونَ ۝ 56
(57) अगर वे कोई शरण-स्थली पा ले, या कोई खोह या घुस बैठने की जगह, तो भागकर उसमें जा छिपें।56
56. मदीना के ये मुनाफ़िक़ अधिकतर, बल्कि सब के सब धनी और बूढ़े पुराने लोग थे। इब्ने कसीर ने अल-बिदाया वन-निहाया में इनकी जो सूची दी है, उसमें केवल एक युवक का वर्णन मिलता है, और निर्धन इनमें से कोई भी नहीं। ये लोग मदीना में जायदादें और फैले हुए कारोबार रखते थे और दुनिया देखे होने के कारण वे अपने स्वार्थों के पुजारी बन गए थे। इस्लाम जब मदीना पहुंचा और आबादी के एक बड़े हिस्से ने पूरी निष्ठा और ईमान भरे उत्साह के साथ उसे अपना लिया, तो उन लोगों ने अपने आपको एक विचित्र उलझन में पाया। उन्होंने देखा कि एक ओर तो स्वयं उनके अपने क़बीलों की भारी संख्या, बल्कि उनके बेटों और बेटियों तक को इस नये दीन ने ईमान के नशे से भर दिया है, उनके विपरीत अगर वे कुफ़्र व इंकार पर जमे रहते हैं तो उनकी सत्ता, सम्मान और प्रसिद्धि सब मिट्टी में मिल जाती है, यहाँ तक कि उनके अपने घरों में उनके विरुद्ध विद्रोह के उत्पन्न हो जाने का भय है। दूसरी ओर इस दीन का साथ देने का अर्थ यह है कि वे सारे अरब से, बल्कि आसपास की क़ौमों और राज्यों से भी लड़ाई मोल लेने को तैयार हो जाएँ। मनोकामनाओं की दासता ने मामले के इस पहलू पर विचार करने की क्षमता तो उनके भीतर बाकी ही नहीं रहने दी थी कि सत्य और यथार्थ भी अपने आपमें कोई मूल्यवान वस्तु है, जिसके इश्क में इंसान खतरे मोल ले सकता है और जान व माल की कुरबानियाँ सहन कर सकता है। वे दुनिया के तमाम मामलों और समस्याओं पर केवल स्वार्थ और अपने हित ही की दृष्टि से विचार करने के आदी हो चुके थे, इसलिए उनको अपने हितों की रक्षा के लिए यही उचित जान पड़ा कि ईमान का दावा करें, ताकि अपनी कौम के बीच अपनी वाह्य सम्मान और अपनी जायदादों और अपने कारोबार को बाक़ी रख जी सकें, मगर निष्ठापूर्ण ईमान न ग्रहण करें, ताकि उन खतरों और हानियों से बच जाएँ जो निष्ठा का मार्ग अपनाने से निश्चित रूप से सामने आनी थीं। उनकी इसी मानसिक दशा और सोच का यहाँ इस तरह उल्लेख किया गया है कि वास्तव में ये लोग तुम्हारे साथ नहीं हैं, बल्कि हानियों के भय ने इन्हें ज़बरदस्ती तुम्हारे साथ बाँध दिया है। जो चीज़ इन्हें इस बात पर मजबूर करती है कि अपने आपकी मुसलमानों में गिनती कराएँ, वह केवल यह डर है कि मदीना में रहते हुए खुल्लम-खुल्ला ग़ैर-मुस्लिम बनकर रहें तो मान-मर्यादा समाप्त होती है और बीवी-बच्चों तक से संबंध समाप्त हो जाते हैं। मदीना को छोड़ दें तो अपनी जायदादों और कारोबारों से हाथ धोना पड़ता है और उनके भीतर कुफ़ के लिए भी इतनी निष्ठा नहीं है कि उसके लिए वे उन हानियों को सहन करने के लिए तैयार हो जाएं। इस उलझन ने उन्हें कुछ ऐसा फाँस रखा है कि मजबूर होकर मदीने में बैठे हुए हैं, कुढ़न के साथ नमाजें पढ़ रहे और ज़कात का 'जुर्माना' भुगत रहे हैं, वरना आए दिन जिहाद और आए दिन किसी-न-किसी भयानक शत्रु के मुकाबले और आए दिन जान व माल की कुर्बानियों की माँगों की जो 'मुसीबत' उनपर पड़ी हुई है, उससे बचने के लिए इतने बेचैन हैं कि अगर कोई छेद या बिल भी ऐसा नज़र आ जाए जिसमें उन्हें शरण मिलने की आशा हो, तो ये भागकर उसमें घुस बैठे।
وَمِنۡهُم مَّن يَلۡمِزُكَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ فَإِنۡ أُعۡطُواْ مِنۡهَا رَضُواْ وَإِن لَّمۡ يُعۡطَوۡاْ مِنۡهَآ إِذَا هُمۡ يَسۡخَطُونَ ۝ 57
(58) ऐ नबी ! इनमें से कुछ लोग सदक़ो56अ के बँटवारे में तुमपर आपत्ति करते हैं। अगर इस माल में से उन्हें कुछ दे दिया जाए तो प्रसन्न हो जाएँ और न दिया जाए तो बिगड़ने लगते हैं।57
56 अ. अर्थात् जकात के माल।
57. अरब में यह पहला अवसर था कि देश के उन तमाम निवासियों पर जो एक निर्धारित मात्रा से अधिक माल रखते थे, विधिवत जकात लगाई गई थी, और वह उनकी खेती की पैदावार से, उनके मवेशियों से, उनके व्यापार के माल से, उनके खनिज पदार्थों से और उनके सोने-चांदी के भंडारों से 2.5 फीसदी,5, फीसदी 10 फीसदी और 20 फीसदी की विभिन्न दरों के अनुसार वुसूल की जाती थी। ये सब जकात के माल व्यवस्थित रूप से वुसूल किए जाते और एक केन्द्र पर जमा होकर संगठित रूप से खर्च किए जाते। इस तरह नबी (सल्ल०) के पास देश के चारों ओर से इतना धन सिमटकर आता और आपके हार्थो ख़र्च होता था जो अरब के लोगों ने कभी इससे पहले किसी एक व्यक्ति के हाथों जमा होते और बंटते नहीं देखा था। दुनियापरस्त मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) के मुंह में इस धन को देखकर पानी भर-भर आता था। वे चाहते थे कि इस बहती हुई नदी से उनको खूब पेट भरकर पीने का अवसर मिले, पर यहाँ पिलानेवाला स्वयं अपने ऊपर और अपने रिश्तेदारों पर इस नदी की एक-एक बूंद को हराम कर चुका था और कोई यह आशा न कर सकता था कि उसके हाथों से हक़दार लोगों के सिवा किसी और के होंठों तक जाम पहुँच सकेगा। यही कारण है कि मुनाफ़िक नबी (सल्ल.) के सदकों के बंटवारे को देख-देखकर दिलों में घुटते थे, और हर बंटवारे के अवसर पर आप पर तरह-तरह के आरोप लगा दिया करते थे। वास्तव में शिकायत तो उन्हें यह थी कि इस माल पर हमें हाथ मारने का अवसर नहीं दिया जाता,मगर इस सच्ची शिकायत को छिपाकर वे यह आरोप लगाते थे कि माल का बंटवारा न्याय के साथ नहीं किया जाता और उसमें तरफदारी से काम लिया जाता है।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ رَضُواْ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ سَيُؤۡتِينَا ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَرَسُولُهُۥٓ إِنَّآ إِلَى ٱللَّهِ رَٰغِبُونَ ۝ 58
(59) क्या अच्छा होता कि अल्लाह और रसूल ने जो कुछ भी उन्हें दिया था उसपर वे राजी रहते58 और कहते कि "अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है, वह अपनी मेहरबानी से हमें और बहुत कुछ देगा और उसका रसूल भी हमपर कृपा करेगा59, हम अल्लाह ही की ओर नजर जमाए हुए हैं। 60
58. अर्थात गनीमत के माल में से जो हिस्सा नबी (सल्ल.) उनको देते हैं, उसपर सन्तुष्ट रहते और अल्लाह की मेहरबानी से जो कुछ स्वयं कमाते हैं और अल्लाह की दी हुई आमदनी के साधनों से जो खुशहाली उन्हें मिली हुई है उसको अपने लिए पर्याप्त समझते।
59. अर्थात् जकात के अलावा जो माल राज्य कोष में आएंगे, उनसे हक के अनुसार हम लोगों को उसी तरह लाभ उठाने का अवसर प्राप्त रहेगा, जिस तरह अब तक रहा है।
۞إِنَّمَا ٱلصَّدَقَٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡعَٰمِلِينَ عَلَيۡهَا وَٱلۡمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمۡ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَٱلۡغَٰرِمِينَ وَفِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۖ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 59
(60) ये सदक़े तो वास्तव में फ़क़ीरो 61 और मिस्कीनों 62 के लिए हैं और उन लोगों के लिए जो सदकों के काम पर नियुक्त हो 63, और उनके लिए जिनका मन मोहना हो 64, साथ ही यह गरदनों के छुड़ाने 65 और कर्ज़दारों की मदद करने में 66 और अल्लाह के रास्ते में 67 और मुसाफिर की सहायता में 68 इस्तेमाल करने के लिए है। एक कर्तव्य है अल्लाह की ओर से, और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी सूझ-बूझवाला है।
61. फ़क़ीर से तात्पर्य वह व्यक्ति है जो अपने जीवन यापन के लिए दूसरों की मदद का मुहताज हो। यह शब्द तमाम जरूरतमंदों के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त होता है, चाहे वे किसी भी वजह से मदद के मुहताज हो गए हो, जैसे यतीम बच्चे, विधवा औरतें, बेरोज़गार लोग और वे लोग जो सामयिक घटनाओं के शिकार हो गए हो।
62. 'मस्किनत' शब्द में विनम्रता, विवशता, मजबूरी और अपमान का अर्थ सम्मिलित है। इस दृष्टि से मसाकीन वे लोग हैं जो सामान्य जरूरतमंदों के मुक़ाबले में अधिक खस्ताहाल हों। नबी (सल्ल०) ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए मुख्य रूप से ऐसे लोगों को मदद का अधिकारी ठहराया है जो सख्त तंगहाल हों, मगर न तो उनका स्वाभिमान किसी के आगे हाथ फैलाने की अनुमति देता हो और न उनकी जाहिरी हालत ऐसी हो कि कोई उन्हें जरूरतमंद समझकर उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाए।
66. अर्थात् ऐसे ऋणी (क़र्ज़दार) जो अगर अपने माल से अपना पूरा क़र्ज़ (ऋण) चुका दें तो उनके पास निसाब (इतना माल जिससे जकात अनिवार्य हो जाता है) की मात्रा से कम माल बच सकता है।
67. 'अल्लाह के रास्ते' का शब्द आम है। तमाम वे नेकी के काम, जिनमें अल्लाह की प्रसन्नता हो, इस शब्द के अर्थ में सम्मिलित हैं। इसी कारण उलमा के एक गिरोह ने यह मत व्यक्त किया है कि इस आदेश के अनुसार ज़कात का माल हर प्रकार के नेक कामों में ख़र्च किया जा सकता है। लेकिन अधिकतर इस बात को मानते हैं कि यहाँ 'अल्लाह के रास्ते में से तात्पर्य 'अल्लाह के रास्ते का जिहाद' है, अर्थात् वह जिद्दोजुहद जिसका अभिप्राय कुफ की व्यवस्था को मिटाना और उसकी जगह इस्लामी व्यवस्था को स्थापित करना हो। इस जिद्दोजुहद में जो लोग काम करें, उनके सफर खर्च के लिए, सवारी के लिए, अस्त्र-शस्त्र और सामग्री जुटाने के लिए जकात से मदद दी जा सकती है, चाहे वे निजी तौर पर खाते-पीते लोग हों और अपनी निजी जरूरतों के लिए उनको मदद की जरूरत न हो। इसी तरह जो लोग स्वेच्छा से अपनी तमाम सेवाएँ और अपना तमाम समय, अस्थाई या स्थाई रूप से, इस काम के लिए दे दें उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए भी ज़कात से अस्थाई या स्थाई मदद दी जा सकती है।
68. मुसाफ़िर, भले ही अपने घर का ख़ुशहाल हो, लेकिन सफ़र की हालत में अगर वह मदद का मुहताज हो जाए तो उसकी मदद ज़कात की मद से की जाएगी।
وَمِنۡهُمُ ٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱلنَّبِيَّ وَيَقُولُونَ هُوَ أُذُنٞۚ قُلۡ أُذُنُ خَيۡرٖ لَّكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَيُؤۡمِنُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ رَسُولَ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 60
(61) इनमें से कुछ लोग है जो अपनी बातों से नबी को दुख देते हैं और कहते हैं कि यह आदमी कानों का कच्चा है।69 कहो, "वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसा है70, अल्लाह पर ईमान रखता है और ईमानवालों पर भरोसा करता है।71 और सरासर रहमत (नितांत दयालुता) है उन लोगों के लिए जो तुममें से ईमानदार हैं, और जो लोग अल्लाह के रसूल को दुख देते हैं उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।"
69. मुनाफ़िक़ नबी (सल्ल०) पर जो दोष आरोपित करते थे उनमें से एक यह बात भी थी कि नबी (सल्ल०) हर आदमी की सुन लेते थे और हर एक को अपनी बात कहने का अवसर दिया करते थे। यह गुण उनकी दृष्टि में दोष था। कहते थे कि आप कानों के कच्चे हैं, हर एक की बात मान लेते हैं। इस आरोप की चर्चा अधिकतर इस कारण की जाती थी कि सच्चे ईमानवाले इन मुनाफिकों के षड्यंत्रों और इनकी दुष्टताओं और इनकी विरोधी बातों का हाल नबी (सल्ल.) तक पहुंचा दिया करते थे और इसपर ये लोग जल-भुनकर कहते थे कि आप-हम जैसे सज्जनों और इज्जतदारों के विरुद्ध हर कंगाल और हर फ़कीर की दी हुई ख़बरों पर भरोसा कर लेते हैं।
70. उत्तर में एक व्यापक बात कही गई है जो अपने भीतर दो पहलू रखती है। एक यह कि वह बिगाड़ और दुष्टता की बातें सुननेवाला व्यक्ति नहीं है, बल्कि केवल उन्हीं बातों पर ध्यान देता है जिनमें भलाई और अच्छाई है और जिनकी ओर ध्यान देना उम्मत (मुस्लिम समुदाय) की बेहतरी और दीन के हित में लाभदायक होता है। दूसरे यह कि उसका ऐसा होना तुम्हारे लिए ही भलाई है। अगर वह हर एक की सुन लेनेवाला और धैर्य और सहनशीलता से काम लेनेवाला आदमी न होता तो ईमान के तुम्हारे झूठे दावे सुन-सुनकर वह यूँ चुप न बैठ रहता।
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ لِيُرۡضُوكُمۡ وَٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ أَحَقُّ أَن يُرۡضُوهُ إِن كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 61
(62) ये लोग तुम्हारे सामने कसमें खाते हैं ताकि तुम्हें राज़ी करें, हालाँकि अगर ये ईमानवाले हैं तो अल्लाह और रसूल इसके ज़्यादा हक़दार हैं कि ये उनको राजी करने की चिन्ता करें।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّهُۥ مَن يُحَادِدِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَأَنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدٗا فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡخِزۡيُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 62
(63) क्या इन्हें मालूम नहीं है कि जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करता है, उसके लिए दोज़ख़ की आग है जिसमें वह हमेशा रहेगा? यह बहुत बड़ी रुसवाई है।
يَحۡذَرُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ أَن تُنَزَّلَ عَلَيۡهِمۡ سُورَةٞ تُنَبِّئُهُم بِمَا فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلِ ٱسۡتَهۡزِءُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ مُخۡرِجٞ مَّا تَحۡذَرُونَ ۝ 63
(64) ये मुनाफ़िक डर रहे हैं कि कहीं मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरा न उतर आए, जो उनके दिलों के भेद खोलकर रख दे।72 ऐ नबी ! इनसे कहो, “और हँसी उड़ाओ ! अल्लाह उस चीज़ को खोल देनेवाला है जिसके खुल जाने से तुम डरते हो।"
72. ये लोग नबी (सल्ल०) के रसूल होने पर सच्चा ईमान तो नहीं रखते थे लेकिन जो अनुभव वे पिछले आठ-नौ वर्षों में कर चुके थे उनके आधार पर उन्हें इस बात का विश्वास हो चुका था कि आपके पास कोई न कोई जानकारी का पराप्राकृतिक साधन अवश्य है, जिससे आपको उनके छिपे भेदों तक की सूचना पहुँच जाती है, और कभी-कभी कुरआन में (जिसे वे नबी सल्ल० की अपनी लिखी किताब समझते थे) आप उनके निफाक़ और उनके षड्यंत्रों को बेनकाब करके रख देते हैं।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُمۡ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلۡعَبُۚ قُلۡ أَبِٱللَّهِ وَءَايَٰتِهِۦ وَرَسُولِهِۦ كُنتُمۡ تَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 64
(65) अगर इनसे पूछो कि तुम क्या बातें कर रहे थे, तो झट कह देंगे कि हम तो हँसी-मज़ाक़ और दिल्लगी कर रहे थे।73 इनसे कहो, क्या तुम्हारी हँसी-दिल्लगी अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल ही के साथ थी?
73. तबूक की लड़ाई के समय में मुनाफ़िक़ प्राय: अपनी सभाओं में बैठकर नबी (सल्ल०) और मुसलमानों का मज़ाक उड़ाते थे और अपने मज़ाक़ से उन लोगों का मनोबल तोड़ने का यल करते थे जिन्हें वे निष्ठापूर्वक जिहाद पर तैयार पाते थे। चुनाँचे रिवायतों में इन लोगों की बहुत-सी बातें नक़ल हुई हैं, जैसे एक सभा में कुछ मुनाफ़िक़ बैठे गप्प लड़ा रहे थे। एक ने कहा,"अजी.क्या रूमियों को भी तुमने कुछ अरबों की तरह समझ रखा है? कल देख लेना कि ये सब योद्धा जो लड़ने के लिए आए हैं, रस्सियों में बँधे हुए होंगे।" दूसरा बोला, “मज़ा हो जो ऊपर से सौ-सौ कोड़े भी लगाने का आदेश हो जाए।" एक और मुनाफ़िक़ ने नबी (सल्ल.) को लड़ाई की सरगर्म तैयारियाँ करते देखकर अपने यार-दोस्तों से कहा, "आपको देखिए, आप रूम व शाम के किले जीतने चले हैं।
لَا تَعۡتَذِرُواْ قَدۡ كَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡۚ إِن نَّعۡفُ عَن طَآئِفَةٖ مِّنكُمۡ نُعَذِّبۡ طَآئِفَةَۢ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 65
(66) अब बहाने न गढ़ो। तुमने ईमान लाने के बाद इंकार किया है। अगर हमने तुममें से एक गिरोह को क्षमा कर भी दिया तो दूसरे गिरोह को तो हम ज़रूर सज़ा देंगे, क्योंकि वह अपराधी है।74
74. अर्थात् वे मूर्ख खिल्ली उड़ानेवाले तो क्षमा किए जा सकते हैं, जो केवल इसलिए ऐसी बातें करते और उनमें रुचि लेते हैं कि उनके निकट दुनिया में कोई चीज़ गंभीर है ही नहीं, लेकिन जिन लोगों ने जान-बूझकर ये बातें इसलिए की हैं कि वे रसूल और उसके लाए हुए दीन को अपने ईमान के दावे के बावजूद एक उपहास समझते हैं और जिनके इस उपहास का वास्तविक उद्देश्य यह है कि ईमानवालों के मनोबल टूटें और वे पूरी शक्ति के साथ जिहाद की तैयारी न कर सकें, उनको तो कदापि क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि वे मज़ाक़ उड़ानेवाले नहीं, बल्कि अपराधी हैं।
ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ بَعۡضُهُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمُنكَرِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَقۡبِضُونَ أَيۡدِيَهُمۡۚ نَسُواْ ٱللَّهَ فَنَسِيَهُمۡۚ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 66
(67) मुनाफ़िक़ मर्द और मुनाफ़िक़ औरतें, सब एक-दूसरे के हमरंग हैं, बुराई का हुक्म देते हैं और भलाई से मना करते हैं और अपने हाथ भलाई से रोके रखते हैं।75 ये अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने भी इन्हें भुला दिया। निश्चित रूप से ये मुनाफ़िक़ ही अवज्ञाकारी हैं।
75. ये तमाम मुनाफ़िकों की संयुक्त विशेषता है। इन सबको बुराई से दिलचस्पी और भलाई से दुश्मनी होती है। कोई आदमी बुरा काम करना चाहे तो उनकी सहानुभूति, उनके मशविरे, उनका प्रोत्साहन, उनकी सहायताएँ, उनकी सिफ़ारिशें, उनकी प्रशंसाएँ सब इसके लिए हर समय प्राप्त होंगी, दिल व जान से स्वयं इस बुरे काम में शरीक होंगे. दूसरों को उसमें हिस्सा लेने पर उभारेंगे, करनेवाले की हिम्मत बढ़ाएँगे और उनकी हर गति से यह प्रकट होगा कि इस बुराई के परवान चढ़ने ही से कुछ उनके दिल को राहत और उनकी आँखों को ठंडक पहुँचती है। इसके विपरीत कोई भला काम हो रहा हो तो उसकी ख़बर से उनको सदमा होता है, उसे सोचकर उनका दिल दुखता है । उसका प्रस्ताव तक उन्हें गवारा नहीं होता, उसकी ओर किसी को बढ़ते-देखते हैं तो उनकी आत्मा बेचैन होने लगती है। हर संभव तरीके से उसकी राह में रोड़े अटकाते हैं और हर तरीके से यह कोशिश करते हैं कि किसी तरह वह इस नेकी से बाज़ आ जाए और बाज़ नहीं आता तो इस काम में सफल न हो सके। फिर यह भी इन सबकी संयुक्त विशेषता है कि नेकी के काम में खर्च करने के लिए उनका हाथ कभी नहीं खुलता, चाहे वे कंजूस हों या बड़े खर्च करनेवाले, बहरहाल उनका धन या तो तिजोरियों के लिए होता है या फिर हराम रास्तों से आता और हराम ही रास्तों में बह जाता है। बदी के लिए चाहे वे अपने समय के कारून हों, परन्तु नेकी के लिए इनसे ज़्यादा ‘दरिद्र' कोई नहीं होता।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ هِيَ حَسۡبُهُمۡۚ وَلَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 67
(68) इन मुनाफ़िक मर्दो और औरतों और काफ़िरों (इंकार करनेवालों) के लिए अल्लाह ने जहन्नम की आग का वादा किया है जिसमें वे हमेशा रहेंगे, वहीं इनके लिए उचित है। उनपर अल्लाह की फिटकार है और उनके लिए सदैव स्थिर रहनेवाला अज़ाब है—
كَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنكُمۡ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرَ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا فَٱسۡتَمۡتَعُواْ بِخَلَٰقِهِمۡ فَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِخَلَٰقِكُمۡ كَمَا ٱسۡتَمۡتَعَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُم بِخَلَٰقِهِمۡ وَخُضۡتُمۡ كَٱلَّذِي خَاضُوٓاْۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 68
—(69) तुम लोगों के76 रंग-ढंग वही हैं जो तुमसे पहले के लोगों के थे। वे तुमसे अधिक बलशाली और तुमसे बढ़कर माल और औलादवाले थे। फिर उन्होंने दुनिया में अपने हिस्से के मज़े लूट लिए और तुमने भी अपने हिस्से के मज़े उसी तरह लूटे जैसे उन्होंने लूटे थे, और वैसे ही वाद-विवादों में तुम भी पड़े रहे जैसे वाद-विवादों में वे पड़े थे। सो उनका परिणाम यह हुआ कि दुनिया और आखिरत में उनका सब किया-धरा नष्ट हो गया और वही घाटे में है
76. मुनाफ़िकों का परोक्ष वर्णन करते करते यकायकी उनसे सीधा सम्बोधन शुरू हो गया है।
أَلَمۡ يَأۡتِهِمۡ نَبَأُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَقَوۡمِ إِبۡرَٰهِيمَ وَأَصۡحَٰبِ مَدۡيَنَ وَٱلۡمُؤۡتَفِكَٰتِۚ أَتَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 69
70) क्या77 इन लोगों को अपने अगलों का इतिहास नहीं पहुँचा? नूह को क़ौम, आद, समूद और इबराहीम की क़ौम, मदयन के लोग और वे आबादियाँ जिन्हें उलट दिया गया78, उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, फिर यह अल्लाह का काम न था कि उनपर अत्याचार करता, परन्तु वह आप ही अपने ऊपर अत्याचार करनेवाले थे।79
77. यहाँ से फिर इनका परोक्ष वर्णन आरंभ हो गया।
78. संकेत है लूत की क़ौम की आवादियों की ओर, जिन्हें तलपट करके रख दिया गया था।
وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَيُطِيعُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ سَيَرۡحَمُهُمُ ٱللَّهُۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 70
(71) ईमानवाले मर्द और ईमानवाली औरतें, ये सब एक-दूसरे के साथी हैं, भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, जकात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करते हैं।80 ये वे लोग हैं जिनपर अल्लाह की रहमत उतरकर रहेगी, निश्चिय ही अल्लाह को सब पर प्रभुत्व प्राप्त है और वह तत्त्वदर्शी और बड़ी सूझ-बूझवाला है।
80. जिस तरह मुनाफ़िक़ एक अलग समुदाय हैं, उसी तरह ईमानवाले भी एक अलग समुदाय हैं। यद्यपि ईमान का जाहिरी इकरार और इस्लाम पर चलने का बाह्य प्रदर्शन दोनों गिरोहों में मिलता है, लेकिन दोनों के स्वभाव, चरित्र, तौर-तरीके, आदत और सोच-विचार और कार्य-पद्धति एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं । जहाँ ज़बान पर ईमान का दावा है, परन्तु दिल सच्चे ईमान से खाली हैं, वहाँ ज़िन्दगी का सारा रंग-ढंग ऐसा है जो अपनी एक एक अदा से ईमान के दावे को झुठला रहा है। ऊपर के लेबिल पर तो लिखा है कि यह मुश्क (कस्तूरी) है, परन्तु लेबिल के नीचे जो कुछ है वह अपने पूरे अस्तित्व से प्रमाणित कर रहा है कि यह गोबर के सिवा कुछ नहीं। इसके विपरीत जहाँ ईमान अपनी मूल वास्तविकता के साथ मौजूद है, वहां मुश्क अपने रूप से, अपनी सुगंध से, अपने गुणों से हर परीक्षा और हर मामले में अपना मुश्क होना खोले दे रहा है। इस्लाम और ईमान के (प्रचलित) नाम ने प्रत्यक्षतः दोनों गिरोहों को एक उम्मत (समुदाय) बना रखा है, परन्तु सच तो यह है कि मुनाफ़िक़ मुसलमानों का नैतिक स्वभाव और रंग-ढंग कुछ और है और सच्चे ईमानवाले मुसलमानों का कुछ और। इसी कारण कपटपूर्ण दुर्गुण रखनेवाले मर्द और औरत एक अलग जत्था बन गए हैं, जिनको अल्लाह से ग़फ़लत, बुराई से दिलचस्पी, नेकी से दूरी और भलाई से असहयोग को संयुक्त विशेषताओं ने एक-दूसरे से जोड़ रखा है और ईमानवालों से व्यवहारतः असंबद्ध कर दिया है और दूसरी ओर सच्चे ईमानवाले मर्द और औरत एक-दूसरा गिरोह बन गए हैं, जिनके सारे लोगों में यह विशेषता संयुक्त रूप से मौजूद है कि नेकी से वे दिलचस्पी रखते हैं, बदी से नफ़रत करते हैं, अल्लाह को बाद उनके लिए भोजन की तरह जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताओं में सम्मलित है। अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने के लिए उनके दिल और हाथ खुले हुए है और अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन उनकी जीवनशैली है। इस संयुक्त नैतिक स्वभाव और जीवन पद्धति ने उन्हें आपस में एक दूसरे से जोड़ दिया है और मुनाफ़िक़ों के गिरोह से तोड़ दिया है।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَمَسَٰكِنَ طَيِّبَةٗ فِي جَنَّٰتِ عَدۡنٖۚ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 71
(72) इन ईमानवाले मदों और औरतों से अल्लाह का वादा है कि उन्हें ऐसे बारा देगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें सदैव रहेंगे। इन सदाबहार बागों में उनके लिए पाक-साफ़ रहने की जगहें होगी, और सबसे बढ़कर यह कि अल्लाह की प्रसन्नता उन्हें प्राप्त होगी। यही बड़ी सफलता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ جَٰهِدِ ٱلۡكُفَّارَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱغۡلُظۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 72
(73) ऐ नबी !81 अधर्मियों और मुनाफ़िक़ों दोनों का पूरी शक्ति से मुक़ाबला करो और उनसे सख्ती से निपटो।82 अन्तत: उनका ठिकाना जहन्नम है और वह सबसे बुरी ठहरने की जगह है।
81. यहाँ से वे आयतें शुरू होती हैं जो तबूक की लड़ाई के बाद उतरी थीं।
82. उस समय तक मुनाफ़िकों के साथ अधिकतर क्षमा का मामला हो रहा था, और इसके दो कारण थे। एक यह कि मुसलमानों को शक्ति अभी इतनी मज़बूत न हुई थी कि बाहर के शत्रुओं से लड़ने के साथ-साथ घर के दुश्मनों से भी लड़ाई मोल ले लेते । दूसरे यह कि इनमें से जो लोग सन्देहों में पड़े हुए थे, उनको ईमान और विश्वास प्राप्त करने के लिए पर्याप्त समय भी देना था। ये दोनों कारण अब बाक़ी नहीं रहे थे। मुसलमानों की शक्ति अब पूरे अरब को अपनी पकड़ में ले चुकी थी और अरब के बाहर की शक्तियों से संघर्ष का सिलसिला शुरू हो रहा था, इसलिए आस्तीन के इन सांपों का सिर कुचलना अब संभव भी था और ज़रूरी भी हो गया था, ताकि ये लोग बाहरी शक्तियों से सांठ-गांठ करके देश में कोई भीतरी संकट न पैदा कर सकें। फिर इन लोगों को पूरे 9 साल तक सोचने-समझने और सत्य-धर्म को परखने का अवसर भी दिया जा चुका था जिससे वे लाभ उठा सकते थे, अगर उनमें वस्तुत: भलाई की कोई तलब होती। इसके बाद उनके साथ और अधिक छूट देने का कोई कारण न था। इसलिए आदेश हुआ कि विधर्मियों के साथ-साथ अब इन मुनाफ़िकों के विरुद्ध भी जिहाद शुरू कर दिया जाए और जो नर्म रवैया अब तक इनके मामले में अपनाया जाता रहा है, उसे समाप्त करके अब इनके साथ कड़ा बर्ताव किया जाए। मुनाफ़िक़ों के विरुद्ध जिहाद और कड़े बर्ताव से तात्पर्य यह नहीं है कि उनसे युद्ध किया जाए। वास्तव में इससे तात्पर्य यह है कि उनके निफ़ाक़ भरे (कपटपूर्ण) रवैये को जो अबतक अनदेखा किया गया है, जिसके कारण ये मुसलमानों में मिले-जुले रहे और आम मुसलमान उनको अपने ही समाज का एक अंग समझते रहे और उनको जमाअत (समुदाय) के मामलों में हस्तक्षेप करने और समाज में अपने निफ़ाक़ (कपट) का विष फैलाने का अवसर मिलता रहा, उसको आगे के लिए समाप्त कर दिया जाए। अब जो आदमी भी मुसलमानों में शामिल रहकर निफ़ाक़ भरा रवैया अपनाए और जिसके तौर-तरीके से भी यह स्पष्ट हो कि वह अल्लाह और रसूल और ईमानवालों का निष्ठावान साथी नहीं है, उसे खुल्लम-खुल्ला बेनकाब किया जाए, खुले तौर पर उसकी निंदा की जाए, समाज में उसके लिए आदर और भरोसे का कोई स्थान बाक़ी न रहने दिया जाए, सामाजिक मामलों में कोई संबंध न हो, सामूहिक मशविरों से वह अलग रखा जाए, अदालतों में उसकी गवाही अमान्य हो, पद और ओहदों का द्वार उसके लिए बन्द रहे, सभाओं में उसे कोई मुँह न लगाए, हर मुसलमान उससे ऐसा बर्ताव करे जिससे उसको स्वयं मालूम हो जाए कि मुसलमानों की पूरी आबादी में कहीं भी उसका सम्मान नहीं और किसी दिल में भी उसके लिए आदर का कोई अंश नहीं। फिर अगर उनमें से कोई व्यक्ति खुला विद्रोह कर बैठे, तो उसके अपराध की लीपापोती न की जाए, न उसे क्षमा किया जाए, बल्कि सबके सामने उसपर मुक़द्दमा चलाया जाए और उसे समुचित सज़ा दी जाए। यह एक बड़ा महत्त्वपूर्ण निर्देश था जो इस मरहले पर मुसलमानों को दिया जाना ज़रूरी था। इसके बिना
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ مَا قَالُواْ وَلَقَدۡ قَالُواْ كَلِمَةَ ٱلۡكُفۡرِ وَكَفَرُواْ بَعۡدَ إِسۡلَٰمِهِمۡ وَهَمُّواْ بِمَا لَمۡ يَنَالُواْۚ وَمَا نَقَمُوٓاْ إِلَّآ أَنۡ أَغۡنَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ مِن فَضۡلِهِۦۚ فَإِن يَتُوبُواْ يَكُ خَيۡرٗا لَّهُمۡۖ وَإِن يَتَوَلَّوۡاْ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ عَذَابًا أَلِيمٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَا لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 73
(74) ये लोग अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हमने वह बात नहीं कही, हालांकि उन्होंने अवश्य ही वह कुफ़्र (अधर्म) की बात कही है।83 उन्होंने इस्लाम लाने के बाद कुफ्र किया और उन्होंने वह कुछ करने का इरादा किया है जिसे कर न सके।84 यह उनका सारा क्रोध इसी बात पर है ना कि अल्लाह और उसके रसूल ने अपनी मेहरबानी से उनको धनी कर दिया है।85 अब अगर ये अपने इस रवैये से बाज़ आ जाएँ तो इन्हीं के लिए बेहतर है, और अगर ये बाज़ न आए तो अल्लाह उनको बड़ी दर्दनाक सज़ा देगा। दुनिया में भी और आखिरत में भी, और धरती में कोई नहीं जो उनका समर्थक और सहायक हो।
83. वह क्या बात थी जिसकी ओर यहाँ संकेत किया गया है, उसके बारे में कोई निश्चित जानकारी हम तक नहीं पहुँची है। अलबत्ता रिवायतों में बहुत-सी ऐसी कुफ़्र भरी बातों का उल्लेख हुआ है जो उस समय मुनाफ़िकों ने की थीं, जैसे एक मुनाफ़िक के बारे में रिवायत किया जाता है कि उसने अपने नातेदारों में से एक मुसलमान नौजवान के साथ बातें करते हुए कहा कि “अगर सच में वह सब कुछ सत्य है जो यह व्यक्ति (अर्थात् नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) प्रस्तुत करता है तो हम सब गधों से भी बुरे हैं। एक और रिवायत में है कि तबूक के सफ़र में एक जगह नबी (सल्ल०) की ऊँटनी गुम हो गई। मुसलमान उसको खोजते फिर रहे थे। इसपर मुनाफ़िक़ों के एक गिरोह ने अपनी सभा में बैठकर खूब मज़ाक उड़ाया और आपस में कहा कि “ये हज़रत आसमान की ख़बरें तो खूब सुनाते हैं, पर उनको अपनी ऊँटनी को कुछ खबर नहीं कि वह इस समय कहाँ है।"
84. यह संकेत है उन षड्यंत्रों की ओर जो मुनाफ़िकों ने तबूक की लड़ाई के समय में रचे थे। इनमें से पहले षड्यंत्र की घटना का वर्णन हदीस के अलिमों ने इस तरह किया है कि तबूक से वापसी पर जब मुसलमानों की सेना एक ऐसे स्थान के निकट पहुंची जहाँ से पहाड़ों के बीच से रास्ता गुज़रता था, तो कुछ मुनाफ़िकों ने आपस में तय किया कि रात के समय किसी घाटी में से गुज़रते हुए नबी (सल्ल०) को खड्डु में फेंक देंगे। प्यारे नबी (सल्ल०) को इसका पता चल गया। आपने तमाम सेनावालों को आदेश दिया कि घाटी के रास्ते से निकल जाएँ और आप स्वयं केवल अम्मार बिन यासिर (रजि०) और हुज़ैफ़ा बिन यमान (रजि०) को लेकर घाटी के अन्दर से होकर चले । रास्ते में यकायक मालूम हुआ कि दस-बारह मुनाफ़िक़ ढाठे बाँधे हुए पीछे-पीछे आ रहे हैं। यह देखकर हज़रत हुज़ैफ़ा (रजि०) उनकी ओर लपके, ताकि उनके ऊँटों को मार-मारकर उनके मुंह फेर दें। मगर वे दूर हो से हज़रत हुज़ैफ़ा को आते देखकर डर गए और इस डर से कि कहीं हम पहचान न लिए जाएँ, तुरन्त भाग निकले। दूसरा षड्यंत्र, जिसका इस संबंध में उल्लेख हुआ है, यह है कि मुनाफ़िक़ों को रूमियों के मुक़ाबले से नबी (सल्ल.) और आपके वफ़ादार साथियों के सकुशल बचकर वापस आ जाने की आशा न थी, इसलिए उन्होंने आपस में तय कर लिया था कि ज्यों ही उधर कोई दुर्घटना घटित हो, इधर मदीना में अब्दुल्लाह बिन उबई (मुनाफ़िक़) के सर पर शाही ताज रख दिया जाए।
۞وَمِنۡهُم مَّنۡ عَٰهَدَ ٱللَّهَ لَئِنۡ ءَاتَىٰنَا مِن فَضۡلِهِۦ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 74
(75) इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अल्लाह से प्रण किया था कि अगर उसने अपनी मेहरबानी से हमें प्रदान किया तो हम दान देंगे और अच्छे बनकर रहेंगे।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُم مِّن فَضۡلِهِۦ بَخِلُواْ بِهِۦ وَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 75
(76) मगर जब अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से उनको धनी बना दिया तो वे कंजूसी पर उतर आए और अपने प्रण से ऐसे फिरे कि उन्हें इसकी परवाह तक नहीं है।86
86. ऊपर की आयत में उन मुनाफ़िक़ों की जिस कृतघ्नता, नाशुक्री और एहसान फरामोशी की निंदा की गई थी, उसका एक और प्रमाण स्वयं उन्हीं की जीवनी से प्रस्तुत करके यहाँ स्पष्ट किया गया है कि वास्तव में ये लोग आदी मुजरिम हैं, इनके नैतिक नियमों में शुक्रगुज़ारी, उपकार मानने और वादा निभाने जैसे गुणों का कहीं नाम व निशान तक नहीं पाया जाता।
فَأَعۡقَبَهُمۡ نِفَاقٗا فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ يَلۡقَوۡنَهُۥ بِمَآ أَخۡلَفُواْ ٱللَّهَ مَا وَعَدُوهُ وَبِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 76
(77) परिणाम यह निकला कि उनकी इस प्रतिज्ञा भंग करने की वजह से जो उन्होंने अल्लाह के साथ की और उस झूठ की वजह से जो वे बोलते रहे, अल्लाह ने उनके दिलों में निफाक बिठा दिया जो उसके समक्ष उनकी पेशी के दिन तक उनका पीछा न छोड़ेगा।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 77
(78) क्या ये लोग जानते नहीं हैं कि अल्लाह को उनके छिपे भेद और उनकी छिपी कानाफूसियाँ तक मालूम है, और वह तमाम परोक्ष की बातों से पूरी तरह बाख़बर है ?
ٱلَّذِينَ يَلۡمِزُونَ ٱلۡمُطَّوِّعِينَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ وَٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهۡدَهُمۡ فَيَسۡخَرُونَ مِنۡهُمۡ سَخِرَ ٱللَّهُ مِنۡهُمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 78
(79) (वह ख़ूब जानता है उन कंजूस दौलतमंदों को) जो राजी-ख़ुशी से देनेवाले ईमानवालों की माली क़ुरबानियों पर बातें छाँटते हैं और उनका उपहास करते हैं जिनके पास अल्लाह की राह में देने के लिए उसके सिवा कुछ नहीं है जो वे अपने ऊपर मशक़्क़त सहन करके देते हैं।87 अल्लाह इन मज़ाक उड़ानेवालों का मज़ाक़ उड़ाता है और इनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
87. तबूक की लड़ाई के अवसर पर जब नबी (सल्ल०) ने चन्दे की अपील की तो बड़े-बड़े धनी मुनाफ़िक़ हाथ रोके बैठे रहे, परन्तु जब निष्ठावान ईमानवाले बढ़-बढ़कर चन्दे देने लगे तो इन लोगों ने उनपर बार्ने छाँटनी शुरू कीं। कोई सामर्थ्यवान मुसलमान अपनी हैसियत के अनुसार या उससे बढ़कर कोई बड़ी रक़म पेश करता तो ये उसपर दिखावा करने का आरोप लगाते और अगर कोई निर्धन मुसलमान अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट काटकर कोई छोटी-सी रकम पेश करता या रात-भर मेहनत-मज़दूरी करके कुछ ख़जूरें प्राप्त करता और वही लाकर प्रस्तुत कर देता, तो ये उसपर आवाजें कसते कि लो, यह टिड्डी की टाँग भी आ गई है, ताकि इससे रूम के क़िलों पर विजय प्राप्त की जाए। न देने और घर बैठे रहने पर प्रसन्न हुए और उन्हें गवारा न हुआ कि अल्लाह की राह में जान व माल से जिहाद करें। उन्होंने लोगों से कहा कि "इस सख्‍़त गर्मी में न निकलो।" उनसे कहो कि जहन्नम की आग इससे अधिक गर्म है, काश उन्हें इसकी समझ होती ! (82) अब चाहिए कि ये लोग हँसना कम करें और रोएँ अधिक, इसलिए कि जो बुराई ये कमाते रहे हैं उसका बदला ऐसा ही है (कि इन्हें इसपर रोना चाहिए)। (83) अगर अल्लाह इनके बीच तुम्हें वापस ले जाए और आगे इनमें से कोई गिरोह जिहाद के लिए निकलने की तुमसे अनुमति माँगे तो साफ़ कह देना, “अब तुम मेरे साथ कदापि नहीं चल सकते और न मेरे साथ किसी शत्रु से लड़ सकते हो, तुमने पहले बैठे रहने को पसन्द किया था, तो अब घर बैठनेवालों के साथ ही बैठे रहो।"
ٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ أَوۡ لَا تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ إِن تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ سَبۡعِينَ مَرَّةٗ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 79
(80) ऐ नबी ! तुम चाहे ऐसे लोगों के लिए क्षमा की प्रार्थना करो या न करो, अगर तुम सत्तर बार भी इन्हें क्षमा कर देने की प्रार्थना करोगे तो अल्लाह इन्हें कदापि क्षमा न करेगा, इसलिए कि इन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है, और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मुक्ति का रास्ता नहीं दिखाता।
فَرِحَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ بِمَقۡعَدِهِمۡ خِلَٰفَ رَسُولِ ٱللَّهِ وَكَرِهُوٓاْ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَالُواْ لَا تَنفِرُواْ فِي ٱلۡحَرِّۗ قُلۡ نَارُ جَهَنَّمَ أَشَدُّ حَرّٗاۚ لَّوۡ كَانُواْ يَفۡقَهُونَ ۝ 80
(81) जिन लोगों को पीछे रह जाने की अनुमति दे दी गई थी वे अल्लाह के रसूल का साथ न देने और घर बैठे रहने पर प्रसन्न हुए और उन्हें गवारा न हुआ कि अल्लाह की राह में जान व माल से जिहाद करें। उन्होंने लोगों से कहा कि "इस सख्‍़त गर्मी में न निकलो।" उनसे कहो कि जहन्नम की आग इससे अधिक गर्म है, काश उन्हें इसकी समझ होती !
فَلۡيَضۡحَكُواْ قَلِيلٗا وَلۡيَبۡكُواْ كَثِيرٗا جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 81
(82) अब चाहिए कि ये लोग हँसना कम करें और रोएँ अधिक, इसलिए कि जो बुराई ये कमाते रहे हैं उसका बदला ऐसा ही है (कि इन्हें इसपर रोना चाहिए)।
فَإِن رَّجَعَكَ ٱللَّهُ إِلَىٰ طَآئِفَةٖ مِّنۡهُمۡ فَٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِلۡخُرُوجِ فَقُل لَّن تَخۡرُجُواْ مَعِيَ أَبَدٗا وَلَن تُقَٰتِلُواْ مَعِيَ عَدُوًّاۖ إِنَّكُمۡ رَضِيتُم بِٱلۡقُعُودِ أَوَّلَ مَرَّةٖ فَٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡخَٰلِفِينَ ۝ 82
(83) अगर अल्लाह इनके बीच तुम्हें वापस ले जाए और आगे इनमें से कोई गिरोह जिहाद के लिए निकलने की तुमसे अनुमति माँगे तो साफ़ कह देना, “अब तुम मेरे साथ कदापि नहीं चल सकते और न मेरे साथ किसी शत्रु से लड़ सकते हो, तुमने पहले बैठे रहने को पसन्द किया था, तो अब घर बैठनेवालों के साथ ही बैठे रहो।"
وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰٓ أَحَدٖ مِّنۡهُم مَّاتَ أَبَدٗا وَلَا تَقُمۡ عَلَىٰ قَبۡرِهِۦٓۖ إِنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَمَاتُواْ وَهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 83
(84) और आगे इनमें से जो कोई मरे उसकी जनाज़े की नमाज़ भी तुम कदापि न पढ़ना और न कभी उसकी क़ब्र पर खड़े होना, क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र (अवज्ञा) किया है और वे मरे हैं इस हाल में कि वे अवज्ञाकारी थे।88
88. तबूक से वापसी पर कुछ अधिक समय न बीता था कि अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ों का सरदार मर गया। उसके बेटे अब्दुल्लाह बिन अब्दुल्लाह, जो निष्ठावान मुसलमानों में से थे, नबी (सल्ल०) की सेवा में आए और कफ़न में लगाने के लिए आपका कुरता माँगा। आपने पूर्ण सहृदयता के साथ प्रदान कर दिया। फिर उन्होंने निवेदन किया कि आप ही इसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ाएँ। आप इसके लिए भी तैयार हो गए। हज़रत उमर (रजि०) ने आग्रहपूर्वक कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या आप उस आदमी पर जनाज़े की नमाज़ पढ़ेंगे जो यह और यह कर चुका है। मगर हुजूर (सल्ल०) उनकी ये सब बातें सुनकर मुस्कराते रहे और अपनी उस दयाशीलता के कारण, जो शत्रु-मित्र सबके लिए समान थी, आपने उस सबसे बुरे शत्रु के लिए भी मग़फ़िरत (मुक्ति) की दुआ करने में संकोच न किया । आख़िर जब आप नमाज़ पढ़ाने खड़े हो गए, तो यह आयत उतरी और अल्लाह के सीधे-सीधे आदेश से आपको रोक दिया गया, क्योंकि अब यह स्थायो नीति निश्चित की जा चुकी थी कि मुसलमानों को जमाअत में मुनाफ़िक़ों को किसी तरह पनपने न दिया जाए और कोई ऐसा काम न किया जाए जिससे इस गिरोह को प्रोत्साहन मिले। इसी से यह मसला निकला है कि फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी), फ़ाज़िर और फ़िस्क़ के लिए प्रसिद्ध लोगों की जनाज़े की नमाज़ मुसलमानों के इमाम और ज़िम्मेदार लोगों को न पढ़ानी चाहिए, न पढ़नी चाहिए। इन आयतों के बाद नबी (सल्ल०) का तरीका यह हो गया था कि जब आपको किसी जनाज़े पर तशरीफ़ ले जाने के लिए कहा जाता तो आप पहले मरनेवाले के बारे में पूछ लेते थे कि किस प्रकार का आदमी था, और अगर मालूम होता कि बुरे चलन का आदमी था तो आप उसके घरवालों से कह देते थे कि तुम्हें अधिकार है कि जिस तरह चाहो,उसे दफ़न कर दो।
وَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَأَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 84
(85) उनकी मालदारी और सन्तान की अधिकता तुमको धोखे में न डाले। अल्लाह ने तो इरादा कर लिया है कि इस धन और सन्तान के द्वारा उनको इसी दुनिया में सज़ा दे और उनकी जानें इस हाल में निकले कि वे अधर्मी हों।
وَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٌ أَنۡ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَجَٰهِدُواْ مَعَ رَسُولِهِ ٱسۡتَـٔۡذَنَكَ أُوْلُواْ ٱلطَّوۡلِ مِنۡهُمۡ وَقَالُواْ ذَرۡنَا نَكُن مَّعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 85
(86) जब कभी कोई सूरा इस विषय की उतरी कि अल्लाह को मानो और उसके रसूल के साथ मिलकर जिहाद करो तो तुमने देखा कि जो लोग इनमें से सामर्थ्यवान थे वही तुमसे निवेदन करने लगे कि इन्हें जिहाद में शरीक होने से माफ़ रखा जाए और उन्होंने कहा कि हमें छोड़ दीजिए कि हम बैठनेवालों के साथ हैं ।
رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 86
। (87) इन लोगों ने घर बैठने वालियों में सम्मिलित होना पसन्द किया और उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया गया, इसलिए उनकी समझ में अब कुछ नहीं आता।89
89. अर्थात् यद्यपि यह बड़ी लज्जाजनक बात है कि अच्छे-भले हट्टे-कट्टे, स्वस्थ, सामर्थ्यवान लोग, ईमान का दावा रखने के बाद भी काम का समय आने पर मैदान में निकलने के बजाय घरों में घुस बैठे और औरतों में जा सम्मिलित हों, लेकिन चूँकि इन लोगों ने स्वयं जान-बूझकर अपने लिए यही रीति पसन्द की थी, इसलिए प्रकृति के नियम के अनुसार उनसे वे पवित्र भावनाएँ छीन ली गईं जिनके कारण आदमी ऐसे में नीच तौर-तरीके अपनाने में लज्जा महसूस किया करता है।
لَٰكِنِ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ جَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡخَيۡرَٰتُۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 87
(88) इसके विपरीत रसूल ने और उन लोगों ने जो रसूल के साथ ईमान लाए थे अपनी जान व माल से जिहाद किया, और अब सारी भलाइयाँ उन्हीं के लिए हैं और वही सफलता पानेवाले हैं।
أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 88
(89) अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, इनमें वे सदैव रहेंगे। यह है महान् सफलता।
وَجَآءَ ٱلۡمُعَذِّرُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ لِيُؤۡذَنَ لَهُمۡ وَقَعَدَ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 89
(90) बद्दू अरबों में से भी बहुत से लोग आए90 जिन्होंने बहाने किए ताकि उन्हें भी पीछे रह जाने की अनुमति मिल जाए। इस तरह बैठे रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से ईमान की झूठी प्रतिज्ञा की थी। इन बदुओं में से जिन लोगों ने कुफ़्र (अवज्ञा) का तरीका अपनाया है91 बहुत जल्द वे दर्दनाक सज़ा के शिकार होंगे।
90. अरब बद्दूओं से तात्पर्य मदीने के आसपास रहनेवाले देहाती और रेगिस्तानी अरब हैं जिन्हें सामान्यतः का बदू कहा जाता है।
91. ईमान का निफ़ाक़ भरा प्रदर्शन, जिसके पीछे वास्तव में पुष्टि, स्वीकरण, निष्ठा और आज्ञापालन न हो और जिसके ऊपरी इकरार के बाद भी इंसान अल्लाह और उसके दीन की अपेक्षा अपने स्वार्थ और अपनी सांसारिक रुचियों को अधिक प्रिय रखता हो, वास्तविकता की दृष्टि से कुफ़ और इंकार ही है। अल्लाह के म यहाँ ऐसे लोगों के साथ वही मामला होगा जो इंकारियों और द्रोहियों के साथ होगा, भले ही दुनिया में इस प्रकार के लोग काफ़िर न ठहराए जा सकते हों और उनके साथ मुसलमानों ही का-सा मामला होता रहे। दुनिया की इस ज़िन्दगी में जिस क़ानून पर मुस्लिम समाज की व्यवस्था स्थापित की गई है और जिस विधान के आधार पर इस्लामी राज्य और उसके जज नियमों को लागू करते हैं, उसको दृष्टि से तो निफ़ाक़ दिखाने पर कुफ़्र या ' कुफ़्र जैसा' का हुक्म केवल उन्हीं शक्लों में लगाया जा सकता है जबकि इंकार, द्रोह या गद्दारी और बेवफाई का प्रदर्शन खुले तौर पर हो जाए। इसलिए निफ़ाक़ को बहुत सी शक्लें और दशाएँ ऐसी रह जाती हैं जो शरीअत की अदालत में कुफ़्र के हुक्म से बच जाती हैं, लेकिन शरीअत के किसी फ़ैसले में किसी मुनाफ़िक का कुफ़्र के हुक्म से बच निकलना यह अर्थ नहीं रखता कि अल्लाह के फ़ैसले में भी वह इस हुक्म और उसकी सज़ा से बच निकलेगा।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلضُّعَفَآءِ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرۡضَىٰ وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُواْ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ مِن سَبِيلٖۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 90
(91) कमज़ोर, बूढ़े और बीमार लोग और वे लोग जो जिहाद में शरीक होने के लिए रास्ते का ख़र्च नहीं पाते, अगर पीछे रह जाएँ तो कोई दोष नहीं, जबकि वे पूरी निष्ठा के साथ अल्लाह और उसके रसूल के वफ़ादार हों। 92 ऐसे उत्तमकर्मियों पर आपत्ति की कोई गुंजाइश नहीं है और अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया दर्शानेवाला है।
92. इससे मालूम हुआ कि जो लोग देखने में विवश हों, उनके लिए भी केवल कमज़ोरी और बीमारी या मात्र निर्धनता क्षमा के लिए पर्याप्त कारण नहीं है, बल्कि उनकी ये मजबूरियाँ केवल उस स्थिति में उनके लिए क्षमा का कारण बन सकती हैं, जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के सच्चे वफ़ादार हों, वरना अगर वफ़ादारी मौजूद न हो तो किसी व्यक्ति का केवल इसलिए क्षमा नहीं किया जा सकता कि वह कर्तव्य निभाने के समय बीमार या धनहीन था। अल्लाह केवल प्रत्यक्ष को नहीं देखता है कि ऐसे सब लोग जो बीमारी की डॉक्टरी सर्टिफ़िकेट या बुढ़ापे और शारीरिक कमी की मजबूरी पेश कर दें उसके यहाँ समान रूप से मजबूर समझ लिए जाएँ और उनपर से पूछताछ समाप्त हो जाए। वह तो उनमें से एक-एक आदमी के दिल को जायज़ा लेगा, उसके पूरे छिपे और खुले बर्तावों को देखेगा और यह जाँचेगा कि उसकी यह मजबूरी एक वफादार बन्दे की-सी मजबूरी थी या एक द्रोही और बाग़ी की-सी। एक आदमी है कि जब उसने कर्त्तव्य की पुकार सुनी तो दिल में लाख-लाख शुक्र अदा किया कि “बड़े अच्छे अवसर पर मैं बीमार हो गया, वरना यह बला किसी तरह टाले न टलती और खामख़ाही मुसीबत भुगतनी पड़ती।" दूसरे आदमी ने यही पुकार सुनी तो तिलमिला उठा कि “हाय, कैसे समय पर इस कमबख्त बीमारी ने आ दबोचा। जो समय मैदान में सेवा करने का था, वह किस बुरी तरह यहाँ बिस्तर पर नष्ट हो रहा है।” एक ने अपने लिए तो सेवा से बचने का बहाना पाया ही था, मगर इसके साथ उसने दूसरों को भी इससे रोकने की कोशिश की। दूसरा यद्यपि स्वयं बीमारी के बिस्तर पर विवश पड़ा हुआ था, पर वह बराबर अपने नातेदारों, मित्रों और भाइयों को जिहाद का जोश दिलाता रहा और अपनी देखभाल करनेवालों से भी कहता रहा कि "मेरा अल्लाह मालिक है, दवा-इलाज का प्रबन्ध किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा, मुझ अकेले इंसान के लिए तुम इस मूल्यवान समय को नष्ट न करो जिसे सत्य धर्म की सेवा में लगना चाहिए।" एक ने बीमारी के बहाने से घर बैठकर लड़ाई का पूरा समय बददिली फैलाने, बुरी ख़बरें उड़ाने, सामरिक प्रयत्नों को ख़राब करने और मुजाहिदों के पीछे उनके घर बिगाड़ने में लगाया। दूसरे ने यह देखकर कि मैदान में जाने के सौभाग्य से वह वंचित रह गया है, अपनी सीमा तक पूरी कोशिश की कि घर के मोर्चे (Home-front) को मज़बूत रखने में जो अधिक से अधिक सेवा उससे हो सके, उसे करे । प्रत्यक्ष में तो ये दोनों ही विवश हैं, पर अल्लाह की दृष्टि में ये दो अलग-अलग प्रकार के विवश किसी प्रकार भी बराबर नहीं हो सकते । अल्लाह के यहाँ क्षमा अगर है तो केवल दूसरे व्यक्ति के लिए। रहा पहला व्यक्ति तो वह अपनी विवशता के बाद भी ग़द्दारी और बेवफ़ाई का अपराधी है।
وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ إِذَا مَآ أَتَوۡكَ لِتَحۡمِلَهُمۡ قُلۡتَ لَآ أَجِدُ مَآ أَحۡمِلُكُمۡ عَلَيۡهِ تَوَلَّواْ وَّأَعۡيُنُهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ حَزَنًا أَلَّا يَجِدُواْ مَا يُنفِقُونَ ۝ 91
(92) इसी तरह उन लोगों पर भी किसी आपत्ति की गुंजाइश नहीं है जिन्होंने स्वयं आकर तुमसे निवेदन किया था कि हमारे लिए सवारियाँ जुटाई जाएँ और जब तुमने कहा कि मैं तुम्हारे लिए सवारियों का प्रबन्ध नहीं कर सकता तो वे विवश होकर वापस गए और हाल यह था कि उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे और उन्हें इस बात का बड़ा दुख था कि वे अपने ख़र्च पर जिहाद में शरीक होने की सामर्थ्य नहीं रखते।93
93. ऐसे लोग जो दीन की सेवा के लिए बेचैन हो, और अगर किसी वास्तविक मजबूरी की वजह से या साधन न होने के कारण व्यावहारिक रूप से सेवा न कर सकें, तो उनके दिल को उतना ही जबरदस्त सदमा हो जितना किसी दुनियापरस्त को रोजगार छूट जाने या किसी बड़े लाभ के अवसर से वंचित रह जाने का हुआ करता है। उनकी गिनती अल्लाह के यहाँ सेवा करनेवालों ही में होगी, भले ही उन्होंने व्यावहारिक रूप से कोई सेवा न की हो। इसलिए कि वे चाहे हाथ पाँव से काम न कर सके हों, लेकिन दिल से तो वे सेवा ही में लगे रहे हैं। यही बात है जो तबूक की लड़ाई से वापसी पर यात्रा के बीच नबी (सल्ल०) ने अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कही थी कि "मदीना में कुछ लोग ऐसे हैं कि तुमने कोई घाटी पार नहीं की और कोई कूच नहीं किया जिसमें वे तुम्हारे साथ साथ न रहे हों।" सहाबा ने आश्चर्य से कहा,"क्‍या मदीना ही में रहते हुए?" फरमाया, "हाँ, मदीना ही में रहते हुए, क्योंकि मजबूरी ने उन्हें रोक लिया था, वरना वे स्वयं रुकनेवाले न थे।"
۞إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ وَهُمۡ أَغۡنِيَآءُۚ رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 92
(93) अलबर आपति उन लोगों पर है जो धनवान है और फिर भी तुमसे निवेदन करते हैं कि उन्हें जिहाद में शरीक होने से माफ़ रखा जाए। उन्होंने पर बैठनेवालियों में शामिल होना पसन्द किया और अल्लाह ने उनके दिलो पर ठप्पा लगा दिया, इसलिए अब ये कुछ नहीं जानते (कि अल्लाह के यहाँ उनके इस रवैये का क्या परिणाम निकलनेवाला है)।
يَعۡتَذِرُونَ إِلَيۡكُمۡ إِذَا رَجَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡۚ قُل لَّا تَعۡتَذِرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكُمۡ قَدۡ نَبَّأَنَا ٱللَّهُ مِنۡ أَخۡبَارِكُمۡۚ وَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 93
(94) तुम जब पलटकर उनके पास पहुँचोगे तो ये तरह-तरह के बहाने पेश करेंगे, मगर तुम साफ़ कह देना कि "बहाने न करो, हम तुम्हारी किसी बात पर भरोसा न करेंगे। अल्लाह ने हमको तुम्हारे हालात बता दिए है। अब अल्लाह और उसका रसूल तुम्हारे काम के तौर-तरीके को देखेंगा, फिर तुम उसकी ओर पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबका जाननेवाला है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।"
سَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ إِذَا ٱنقَلَبۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ لِتُعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ إِنَّهُمۡ رِجۡسٞۖ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 94
(95) तुम्हारी वापसी पर ये तुम्हारे सामने कसमें खाएँगे ताकि तुम उन्हें अनदेखा कर जाओ। तो निस्सन्देह तुम उन्हें अनदेखा ही कर लो 94, क्योंकि ये गन्दगी हैं और इनका वास्तविक स्थान जहन्नम है, जो इनकी कमाई के बदले में इन्हें मिलेगा।
94. पहले वाक्य में अनदेखा करने से तात्पर्य क्षमा करना है और दूसरे वाक्य में ताल्लुक़ तोड़ना, अर्थात् वे तो चाहते हैं कि तुम उनसे न उलझो मगर अच्छा यह है कि तुम उनसे कोई वास्ता ही न रखो और समझ लो कि तुम उनसे कट गए और वे तुमसे।
يَحۡلِفُونَ لَكُمۡ لِتَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡۖ فَإِن تَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَرۡضَىٰ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 95
(96) ये तुम्हारे सामने कसमें खाएँगे ताकि तुम इनसे राजी हो जाओ, हालाँकि अगर तुम इनसे राज़ी हो भी गए तो अल्लाह कदापि ऐसे अवज्ञाकारियों से राज़ी न होगा।
ٱلۡأَعۡرَابُ أَشَدُّ كُفۡرٗا وَنِفَاقٗا وَأَجۡدَرُ أَلَّا يَعۡلَمُواْ حُدُودَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 96
(97) ये अरब बदू कुफ़्र (इंकार) व निफ़ाक़ (कपटाचार) में अधिक कठोर हैं और इनके मामले में इस बात की संभावनाएँ अधिक हैं कि उस दीन की सीमाओं को न जानें जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारा है। 95 अल्लाह सब कुछ जानता है और तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ है।
95. जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं, यहाँ अरब बद्दूओं से तात्पर्य वे देहाती और रेगिस्तानी स्थानों में रहनेवाले अरब हैं जो मदीना के चारों ओर आबाद थे। ये लोग मदीना में एक सुदृढ़ और संगठित शक्ति को उठते देखकर पहले तो भयभीत हो गए। फिर इस्लाम और कुफ़ के संघर्ष के दौरान में एक समय तक अवसरवाद और स्वार्थ सिद्धि की रीति पर चलते रहे। फिर जब इस्लामी राज्य की सत्ता हिजाज़ और नज्द के एक बड़े भाग पर छा गई और विरोधी कबीलों का ज़ोर उसके मुकाबले में टूटने लगा, तो इन लोगों ने अपना हित इसी में देखा कि इस्लाम की परिधि में प्रवेश कर जाएँ, लेकिन इनमें कम लोग ऐसे थे जो इस दोन को सच्चा दीन समझकर सच्चे दिल से ईमान लाए हों और निष्ठापूर्ण ढंग से उसके तक़ाज़ों को पूरा करने पर तैयार हों। अधिकतर बद्दुओं के लिए इस्लाम अपनाने की हैसियत ईमान और आस्था की नहीं, बल्कि मात्र स्वार्थ और नीति की थी। वे चाहते थे कि उनके हिस्से में केवल वे लाभ आ जाएँ जो सत्ता में रहनेवाले गिरोह का सदस्य बनने से प्राप्त हुआ करते हैं। मगर वे नैतिक बंधन जो इस्लाम उनपर लगाता था. वह नमाज़-रोज़े की पाबंदियाँ जो इस दीन को अपनाते ही उनपर लग जाती थीं, वह ज़कात जो विधिवत वसूल करनेवालों के द्वारा उनके बाग़ों और उनके रेवड़ों से वुसूल की जाती थी, वह अनुशासन और व्यवस्था जिसके बंधन में वे अपने इतिहास में पहली बार कसे गए थे, वे जान व माल की क़ुरबानियाँ जो लूटमार को लड़ाइयों में नहीं, बल्कि अल्लाह के विशुद्ध रास्ते में जिहाद में आए दिन उनसे तलब की जा रही थीं, ये सारी चीजें उनको अत्यन्त अप्रिय थीं और वे उनसे पीछा छुड़ाने के लिए हर तरह की चालबाज़ियाँ और बहानेबाज़ियाँ करते रहते थे। उनको इससे कोई मतलब न था कि सत्य क्या है और उनकी और तमाम इंसानों की वास्तविक सफलता किस चीज़ में है। उन्हें जो कुछ भी दिलचस्पी थी वह अपने आर्थिक लाभ, अपने आराम, अपनी ज़मीनों, अपने ऊँटों और अपनी बकरियों और अपने ख़ेमे के आसपास की सीमित दुनिया से थी। इससे ऊपर किसी चीज़ के साथ वे उस तरह की श्रद्धा तो रख सकते थे जैसी पीरों और फ़क़ीरों से रखी जाती है कि ये उनके आगे नज़्र व नियाज़ पेश करें और वे उसके बदले रोज़गार की तरक़्क़ी, आफ़तों से बचाव और ऐसे ही दूसरे कामों के लिए उनको तावीज़-गंडे दें और उनके लिए दुआएँ करें, लेकिन ऐसे ईमान और आस्था के लिए वे तैयार न थे जो उनके पूरे सांस्कृतिक,आर्थिक और सामाजिक जीवन को नैतिकता और विधानों की जकड़नों में कस दे और साथ ही एक विश्वव्यापी सुधारात्मक मिशन के लिए उनसे जान व माल की कुरर्बानियों की माँग भी करे। उनकी इसी दशा का यहाँ इस प्रकार उल्लेख किया गया है कि शहरवालों की अपेक्षा ये देहाती और रेगिस्तानी इलाकों के रहनेवाले अधिक निफ़ाक़ भरा रवैया रखते हैं और सत्य से इंकार की स्थिति उनके भीतर अधिक पाई जाती है। फिर इसका कारण भी बता दिया है कि शहर के लोग तो ज्ञानियों और सत्य के माननेवालों की संगति से अधिक लाभ उठाकर कुछ दीन को और उसकी सीमाओं को जान भी लेते हैं, मगर ये बदू चूंकि सारी-सारी उम्र बिल्कुल एक आर्थिक पशु की तरह रात-दिन रोज़ी के चक्कर में ही पड़े रहते हैं और पशुवत जीवन की ज़रूरतों से ऊपर उठकर किसी चीज़ को ओर ध्यान देने का उन्हें अवसर ही नहीं मिलता, इसलिए दीन और उसकी मर्यादाओं से उनके अनभिज्ञ रहने की संभावनाएँ अधिक हैं,आगे आयत 122 में उनके इस रोग का इलाज प्रस्तावित किया गया है। यहाँ इस तथ्य की ओर भी इशारा कर देना अनुचित न होगा कि इन आयतों के उतरने से लगभग दो साल बाद हज़रत अबू बक्र (रजि.) के आरंभिक खिलाफत-काल में इस्लाम से विमुख होने और ज़कात न देने का जो तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था, उसके कारणों में एक बड़ा कारण यही था जिसका उल्लेख इन आयतों में किया गया है।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ مَغۡرَمٗا وَيَتَرَبَّصُ بِكُمُ ٱلدَّوَآئِرَۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 97
(98) इन बद्दुओं में ऐसे-ऐसे लोग मौजूद है जो अल्लाह के रास्ते में कुछ ख़र्च करते हैं तो उसे अपने ऊपर जबरदस्ती की चट्टी (जुर्माना) समझते हैं96 और तुम्हारे हक़ में कालचक्रों की प्रतीक्षा कर रहे हैं (कि तुम किसी चक्कर में फंसो तो वे अपनी गरदन से इस व्यवस्था के पालन का पट्टा उतार फेंकें जिसमें तुमने उन्हें कस दिया है। हालाँकि बुराई के चक्कर ने स्वयं उनको अपनी लपेट में ले लिया है और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
96. अर्थ यह है कि जो जकात इनसे वुसूल की जाती है, उसे ये एक जुर्माना समझते हैं। यात्रियों के सत्कार और आतिथ्य का जो दायित्त्व इनपर डाला गया है, वह इनको बुरी तरह खलता है और अगर किसी युद्ध के मौक़े पर ये कोई चन्दा देते हैं तो अपनी हार्दिक भावना से अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए नहीं देते, बल्कि अनचाहे मन से अपनी वफ़ादारी का भरोसा दिलाने के लिए देते हैं।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ قُرُبَٰتٍ عِندَ ٱللَّهِ وَصَلَوَٰتِ ٱلرَّسُولِۚ أَلَآ إِنَّهَا قُرۡبَةٞ لَّهُمۡۚ سَيُدۡخِلُهُمُ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 98
(99) और इन्हीं बदुओं में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हैं और जो कुछ ख़र्च करते हैं उसे अल्लाह के यहाँ समीपता का और रसूल की ओर से रहमत की दुआएँ लेने का साधन बनाते हैं। हाँ, वह अवश्य उनके लिए समीपता का साधन है और अल्लाह अवश्य ही उनको अपनी रहमत में दाख़िल करेगा, निश्चय ही अल्लाह क्षमाशील और दयावान है।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلۡأَوَّلُونَ مِنَ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ وَٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُم بِإِحۡسَٰنٖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي تَحۡتَهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 99
(100) वे मुहाजिर और अंसार जिन्होंने सबसे पहले ईमान के संदेश को स्वीकार करने में पहल की, साथ ही वे जो बाद में सच्चाई के साथ उनके पीछे आए, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राजी हुए, अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें सदैव रहेंगे। यही बड़ी महान सफलता है
وَمِمَّنۡ حَوۡلَكُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مُنَٰفِقُونَۖ وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ مَرَدُواْ عَلَى ٱلنِّفَاقِ لَا تَعۡلَمُهُمۡۖ نَحۡنُ نَعۡلَمُهُمۡۚ سَنُعَذِّبُهُم مَّرَّتَيۡنِ ثُمَّ يُرَدُّونَ إِلَىٰ عَذَابٍ عَظِيمٖ ۝ 100
(101) तुम्हारे पास-पड़ोस में जो बदू रहते हैं उनमें बहुत-से मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) हैं और इसी तरह स्वयं मदीना के निवासियों में भी मुनाफ़िक़ मौजूद हैं जो निफ़ाक़ में पक्के हो गए हैं। तुम उन्हें नहीं जानते, हम उन्हें जानते हैं।97 क़रीब है वह समय जब हम उनको दोहरी सज़ा देंगे98 फिर वे और अधिक बड़ी सज़ा के लिए वापस लाए जाएँगे।
97. अर्थात् अपने निफ़ाक़ को छिपाने में वे इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि स्वयं नबी (सल्ल०) भी अपनी उच्च श्रेणी की बुद्धिमत्ता और सूझबूझ के बावजूद उनको नहीं पहचान सकते थे।
98. दोहरी सज़ा से तात्पर्य यह है कि एक ओर तो वह दुनिया, जिसके मोह में पड़कर उन्होंने ईमान और निष्ठा के स्थान पर निफ़ाक़ और द्रोह का रवैया अपनाया है, उनके हाथ से जाएगी और यह धन और प्रतिष्ठा और आदर प्राप्त करने के स्थान पर उलटे अपमान और असफलता पाएँगे। दूसरी ओर जिस मिशन को ये विफल देखना और अपनी चालबाजियों से असफल करना चाहते हैं, वे उनकी कामनाओं और कोशिशों में बाद भी उनकी आँखों के सामने पलेगा-बढ़ेगा।
وَءَاخَرُونَ ٱعۡتَرَفُواْ بِذُنُوبِهِمۡ خَلَطُواْ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَءَاخَرَ سَيِّئًا عَسَى ٱللَّهُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 101
(102) कुछ और लोग हैं जिन्होंने अपनी ग़लतियों को मान लिया है। उनका कर्म मिला-जुला है, कुछ भला है और कुछ बुरा । असंभव नहीं कि अल्लाह उनपर फिर मेहरबान हो जाए, क्योंकि वह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡ صَدَقَةٗ تُطَهِّرُهُمۡ وَتُزَكِّيهِم بِهَا وَصَلِّ عَلَيۡهِمۡۖ إِنَّ صَلَوٰتَكَ سَكَنٞ لَّهُمۡۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 102
(103) ऐ नबी ! तुम इनके मालों में से सदक़ा लेकर इन्हें पाक करो और (नेकी की राह में) इन्हें बढ़ाओ और इनके हक़ में रहमत की दुआ करो, क्योंकि तुम्हारी दुआ इनके लिए तसल्ली का कारण होगी, अल्लाह सबकुछ सुनता और जानता है।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَأۡخُذُ ٱلصَّدَقَٰتِ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 103
(104) क्या इन लोगों को मालूम नहीं है कि वह अल्लाह ही है जो अपने बन्दों की तौबा क़बूल करता है और इनकी खैरात (सदके) को स्वीकृति प्रदान करता है, और यह कि अल्लाह बहुत क्षमाशील और दयावान है ?
وَقُلِ ٱعۡمَلُواْ فَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 104
(105) और ऐ नबी ! इन लोगों से कह दो कि तुम कर्म करो, अल्लाह और उसका रसूल और ईमानवाले सब देखेंगे कि तुम्हारी कर्मनीति अब क्या रहती है।99 फिर तुम उसकी ओर पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबको जानता है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते हो।100
99. यहाँ ईमान के झूठे दावेदारों और गुनहगार मोमिनों (ईमानवालों) का अन्तर साफ़-साफ़ स्पष्ट कर दिया गया है। जो व्यक्ति ईमान का दावा करता है, मगर वास्तव में अल्लाह और उसके दीन और ईमानवालों की जमाअत के प्रति कोई निष्ठा नहीं रखता, उसके अनिष्ठावान होने का प्रमाण अगर उसकी रीति-नीति से मिल जाए तो उसके साथ कठोरता का व्यवहार किया जाएगा, अल्लाह की राह में खर्च करने के लिए वह कोई माल दे तो उसे रद्द कर दिया जाएगा। मर जाए तो न मुसलमान उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ेंगे और न कोई ईमानवाला उसके लिए मग़फ़िरत (मुक्ति) की दुआ करेगा, चाहे वह उसका बाप या भाई ही क्यों न हो। इसके विपरीत जो व्यक्ति ईमानवाला हो और उससे कोई अनिष्ठापूर्ण कार्य हो जाए, वह अगर अपने क़ुसूर को मान ले तो उसको क्षमा भी किया जाएगा, उसके सदके भी क़बूल किए जाएंगे और उसके लिए मरहमत की दुआ भी की जाएगी। अब रही यह बात कि किस व्यक्ति को अनिष्ठापूर्ण रीति अपनाने के बावजूद मुनाफ़िक़ के स्थान पर केवल गुनाहगार मोमिन (ईमानवाला) समझा जाएगा, तो यह तीन कसौटियों से परखी जाएगी जिनकी ओर इन आयतों में संकेत किया गया है : 1. वह अपनी ग़लती का कोई अनुचित कारण और वजह पेश करने के बजाय सीधी तरह साफ़-साफ़ लेगा, 2. उसकी पिछली कर्म नीति पर दृष्टि डालकर देखा जाएगा कि यह अनिष्ठा का आदी मुजरिम तो नहीं है। अगर उसका व्यवहार और कर्म नीति पहले खैर और भलाइयों की रही है तो मान लिया जाएगा कि यह केवल एक कमजोरी है जो क्षणिक रूप से सामने आ गई है। 3. उसके आगे की कार्म-नीति पर नज़र रखी जाएगी कि क्या उसका अपनी ग़लती स्वीकार कर लेना मात्र मौखिक है या वास्तव में उसके भीतर पछतावे का कोई गहरा एहसास मौजूद है। अगर वह अपने क़ुसूर की क्षति-पूर्ति के लिए बेचैन नज़र आए तो समझा जाएगा कि वह वास्तव में लज्जित है और यह लज्जा ही उसके ईमान और निष्ठा का प्रमाण होगी। हदीस विशेषज्ञों ने इन आयतों के उतरने का कारण बताते हुए जिस घटना का उल्लेख किया है उससे यह विषय खुलकर सामने आ जाता है। वे कहते हैं कि ये आयतें अबू लुबाबा बिन अब्दुल मुंजिर (रजि०) और उनके छ: साथियों के मामले में उतरी थीं। अबू लुबाबा (रजि०) उन लोगों में से थे जो बैअते अक़्बा के अवसर पर हिजरत से पहले इस्लाम लाए थे, फिर बद्र, उहुद की लड़ाई और दूसरे युद्धों में बराबर सम्मिलित रहे, पर तबूक की लड़ाई के अवसर पर 'नफ्स' की कमज़ोरी ग़ालिब आ गई और ये किसी शरई कमज़ोरी के बिना बैठे रह गए। ऐसे ही निष्ठावान उनके दूसरे साधी भी थे और वे भी इसी कमज़ोरी के शिकार हो गए। जब नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई से वापस तशरीफ़ लाए और उन लोगों को मालूम हुआ कि पीछे रह जानेवालों के बारे में अल्लाह और रसूल की क्या राय है तो वे अति लज्जित हुए। इससे पहले कि कोई पूछ-गछ होती, उन्होंने स्वयं ही अपने आपको एक खम्बे से बाँध लिया और कहा कि हम पर सोना-खाना हराम है, जब तक हम क्षमा न कर दिए जाएं या फिर हम मर जाएँ । चुनांचे कई दिन वे इसी तरह बिना खाए-पिए और बिना सोए बंधे रहे, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। अन्ततः जब उन्हें बताया गया कि अल्लाह और रसूल (सल्ल०) ने तुम्हें क्षमा कर दिया तो उन्होंने नबी (सल्ल०) से निवेदन किया कि हमारी तौबा में यह भी शामिल है कि जिस घर के आराम ने हमें कर्त्तव्य से असावधान कर दिया, उसे और अपने तमाम माल को अल्लाह की राह में दे दें। मगर नबी। (सल्ल०) ने फ़रमाया कि सारा माल देने की आवश्यकता नहीं, केवल एक तिहाई काफी है। अतः वह उन्होंने उसी समय अल्लाह की राह में दे दिया। इस किस्से पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि अल्लाह के यहाँ क्षमा किस प्रकार की कमज़ोरियों के लिए है। ये सब लोग अभ्यस्त अनिष्ठावान न थे, बल्कि इनके जीवन का पिछला कारनामा इनकी ईमानी निष्टा का प्रमाण था। इनमें से किसी ने बहाने नहीं बनाए, बल्कि अपने कुसूर को स्वयं ही क़ुसूर मान लिया। उन्होंने क़ुसूर मानने के साथ अपने रवैये से सिद्ध कर दिया कि वे सच में अति लज्जित और अपने उस गुनाह की क्षतिपूर्ति के लिए बड़े बेचैन हैं।
100. अर्थ यह है कि अन्तत: मामला उस अल्लाह के साथ है जिससे कोई चीज़ छिप नहीं सकती। इसलिए मान लीजिए अगर कोई आदमी दुनिया में अपने निफाक को छिपाने में सफल हो आए और ईसान जिन-जिन कसौटियों पर किसी के ईमान और निष्ठा को परख सकते हैं उन सब पर भी पूरा उतर जाए, तो यह न समझना चाहिए कि वह निफाक की सजा पाने से बच निकला है।
وَءَاخَرُونَ مُرۡجَوۡنَ لِأَمۡرِ ٱللَّهِ إِمَّا يُعَذِّبُهُمۡ وَإِمَّا يَتُوبُ عَلَيۡهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 105
(106) कुछ दूसरे लोग हैं जिनका मामला अभी अल्लाह के आदेश पर ठहरा हुआ है, चाहे उन्हें सज़ा दे और चाहे उनपर नये सिरे से मेहरबान हो जाए। अल्लाह सब कुछ जानता है और तत्वदर्शी और सर्वश है।101
101. ये लोग ऐसे थे जिनका मामला संदिग्ध था। न उनके मुनाफ़िक होने का फैसला किया जा सकता था न गुनाहगार मोमिन होने का। इन दोनों चीजों के लक्षण अभी पूरी तरह न उभरे थे। इसलिए अल्लाह ने इनके मामले को स्थगित रखा। न इस अर्थ में कि वास्तव में अल्लाह के सामने मामला संदिग्ध था, बल्कि इस अर्थ में कि मुसलमानों के किसी व्यक्ति या गिरोह के मामले में अपनी रीति-नीति उस समय तक न निश्चित करनी चाहिए जब तक कि उसकी दशा ऐसी निशानियों से स्पष्ट न हो जाए जो गैब (परोक्ष) के जान से नहीं, बल्कि चेतना और बुद्धि से जाँची जा सकती हों ।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مَسۡجِدٗا ضِرَارٗا وَكُفۡرٗا وَتَفۡرِيقَۢا بَيۡنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَإِرۡصَادٗا لِّمَنۡ حَارَبَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ مِن قَبۡلُۚ وَلَيَحۡلِفُنَّ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّا ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 106
(107) कुछ और लोग हैं जिन्होंने एक मस्जिद बनाई इस उद्देश्य के लिए कि (सत्य संदेश को) हानि पहुँचाएँ और (अल्लाह की बन्दगी करने के बजाय) कुफ़्र (अवज्ञा) करें और ईमानवालों में फूट डालें और (इस दिखावे की इबादतगाह को) उस आदमी के लिए घात-स्थल बनाएँ जो इससे पहले अल्लाह और उसके रसूल के विरुद्ध लड़ चुका है। वे अवश्य ही कसमें खा-खाकर कहेंगे कि हमारा इरादा तो भलाई के सिवा किसी दूसरी चीज़ का न था, परन्तु अल्लाह गवाह है कि वे बिलकुल झूठे हैं।
لَا تَقُمۡ فِيهِ أَبَدٗاۚ لَّمَسۡجِدٌ أُسِّسَ عَلَى ٱلتَّقۡوَىٰ مِنۡ أَوَّلِ يَوۡمٍ أَحَقُّ أَن تَقُومَ فِيهِۚ فِيهِ رِجَالٞ يُحِبُّونَ أَن يَتَطَهَّرُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُطَّهِّرِينَ ۝ 107
(108) तुम कदापि उस इमारत में खड़े न होना। जो मस्जिद पहले दिन से तक्रवा (अल्लाह का डर) पर कायम की गई थी वही इसके लिए अधिक उचित है कि तुम उसमें (इबादत के लिए खड़े हो, उसमें ऐसे लोग हैं जो पाक रहना पसन्द करते हैं और अल्लाह को पाकी अपनानेवाले ही पसन्द है।102
102. नबी (सल्ल०) के मदीना तशरीफ ले जाने से पहले खजरज कबीले में एक व्यक्ति अबू आमिर नाम का था जो अज्ञानता काल में ईसाई सन्यासी बन गया था। उसकी गिनती अहले किताब उलेमा में होती थी। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे तो उसने आपकी पैग़म्बरी और दावत (बुलावे) को अपनी बुज़ुर्गी और बड़प्पन के लिए मौत का सन्देश समझकर कड़ा विरोध शुरू कर दिया। उहुद की लड़ाई से लेकर हुनैन की लड़ाई तक हितनी लड़ाइयाँ अरब के मुशरिकों और मुसलमानों के बीच हुई उन सबमें यह ईसाई संत इस्लाम के विरुद्ध शिर्क़ का समय समर्थक रहा। अन्त में उसने अरब को छोड़कर रूम का रख अपनाया, ताकि क़ैसर को उस 'खतरे से सूचित को जो अब से सिर उठा रहा था। यह वही अवसर था जब मदीना में ये ख़बर पहुँचीं कि कैसर अरम पर चढ़ाई की तैयारियां कर रहा है और उसी की रोकथाम के लिए नबी (सल्ल०) को तबूक की मुहिम पर जाना पड़ा। अबू आमिर संन्यासी की इन तमाम गतिविधियों में मदीना के मुनाफिकों का एक गिरोह उसके साथ पड्यंत्र में सम्मिलित था। जब या स्म की ओर चलने लगा तो उसके और इन मुनाफिकों के दर्मियान यह समझौता हुआ कि मदीना में ये लोग अपनी एक अलग मस्जिद बना लेंगे, ताकि आम मुसलमानों से बचकर मुनाफिक मुसलमानों की अलग जत्थाबन्दी इस तरह की जा सके कि उसपर धर्म का परदा पढ़ा रहे, और आसानी से उसपर कोई सन्देह न किया जा सके और वहीं न केवल यह कि मुनाफिक संगठित हो सकें और आगे की कार्रवाइयों के लिए मशविरे कर सकें, बल्कि अबू आमिर के पास से जो एजेंट ख़बरें और हिदायतें लेकर आएं, वे भी असंदिग्य फकीरों और यात्रियों के रूप में उस मस्जिद में ठहर सकें। यह था वह अपवित्र पढ़या जिसके अन्तर्गत वह मस्जिद तैयार की गई थी, जिसका इन आयतों में उल्लेख किया गया है। मदीना में उस समय दो मस्जिद थीं। एक मस्जिदे कुबा जो शहर के किनारे थी,दूसरे मस्जिदे नबवी जो शहर के अन्दर थी। इन दो मस्जिदों की मौजूदगी में एक तीसरी मस्जिद बनाने की कोई ज़रूरत न थी, बल्कि इससे मुसलमानों की जमाअत में खामखाही फूट पैदा होने की आशंका थी। इसलिए ये लोग मजबूर हुए कि अपनी अलग मस्जिद बनाने से पहले उसकी आवश्यकता बताएँ । चुनांचे उन्होंने नबी (सल्ल०) के सामने इस नए निर्माण के लिए, यह जरूरत रखी कि वर्षा में और जाड़े की रातों में आम लोगों को और मुख्य रूप से खुदो और मजबूर लोगों को, जो इन दोनों मस्जिदों से दूर रहते हैं, पाँचों वक़्त हाज़िरी देनी मुश्किल होती है, इसलिए हम केवल नमाजियों की सुविधा के लिए इस एक नई मस्जिद का निर्माण करना चाहते हैं। इस तरह उन्होंने इसके निर्माण की अनुमति ले ली और इसे अपने षड्यंत्रों का अड्डा बना लिया। ये चाहते थे कि नबी (सल्ल.) को धोखा देकर आपसे इसका उद्घाटन कराएँ, परन्तु आपने यह कहकर टाल दिया कि इस समय में युद्ध की तैयारी में व्यस्त हूँ और एक बड़ी मुहिम सामने है। इस मुहिम से वापस आकर देगा।" इसके बाद आप तबूक की ओर रवाना हो गए और आपके पीछे ये लोग इस मस्जिद में अपनी अत्याबन्दी और पदयंत्र करते रहे। वापसी पर जब नबी (सल्ल०) मदीना के क़रीब ‘जु अदान' नामी जगह पर पहुँचे तो 4 आयते उतरी और आपने उसी समय कुछ आदमियों को मदीना की और भेज दिया, ताकि आपके शहर में दाख़िल होने से पहले ये इस नुकसान पहुँचानेवाली मस्जिद को ही धवस्त कर दें।
أَفَمَنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ تَقۡوَىٰ مِنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٍ خَيۡرٌ أَم مَّنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ شَفَا جُرُفٍ هَارٖ فَٱنۡهَارَ بِهِۦ فِي نَارِ جَهَنَّمَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 108
(109) फिर तुम्हारा क्या विचार है कि अच्छा इंसान वह है जिसने अपनी इमारत की बुनियाद अल्लाह के हर और उसकी प्रसन्नता की चाहत पर रखी हो या पर जिसने अपनी इमारत की नीव एक पारी की खोखली कमज़ोर कगार पर103 उठाई और वह उसे लेकर सीधी जहन्नम की आग में जा गिरी? ऐसे ज़ालिम लोगों को अलाह कभी सीधी राह नहीं दिखाता।104
103. अरबी में शब्द 'ज़ुरूफ़' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ किसी नदी या दरिया के उस किनारे के लिए प्रयुक्त होता है जि‍सके नीचे की मिट्टी को पानी में कार काटकर बहा दिया हो और ऊपर का हिस्सा बेसहारा खड़ा हो । जो लोग अपने कर्म का आधार अल्लाह के प्रति निर्भयता और उसकी प्रसन्नता से विमुखता पर रखते हैं उनकी ज़िन्दगी के निर्माण को यहाँ उस इमारत से उपमा दी गई है जो नदी के ऐसे खोखले अस्थिर किनारे पर उठाई गई हो।
104. 'सीधी राह' अर्थात् वह रास्ता जिससे मनुष्य का मनोरथ पूरा होता है और वह वास्तविक सफलता की मंज़िल पर पहुँचता है।
لَا يَزَالُ بُنۡيَٰنُهُمُ ٱلَّذِي بَنَوۡاْ رِيبَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَّآ أَن تَقَطَّعَ قُلُوبُهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 109
(110) यह इमारत जो उन्होंने बनाई है, सदैव उनके दिलों में अनिश्चितता की जड़ बनी रहेगी (जिसके निकलने की अब कोई शक्ल नहीं) अलावा इसके कि उनके दिल ही टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ।105 अल्लाह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
105. अर्थात् उन लोगों ने निफ़ाक़ भरे छल-कपट का इतना बड़ा अपराध करके अपने दिलों को सदा-सर्वदा के लिए ईमान की क्षमता से वंचित कर लिया है और बेईमानी का रोग इस तरह उनके दिलों के एक-एक नसमें घुस गया है कि जब तक उनके दिल बाक़ी हैं, यह रोग भी उनमें मौजूद रहेगा।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱشۡتَرَىٰ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَنفُسَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُم بِأَنَّ لَهُمُ ٱلۡجَنَّةَۚ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيَقۡتُلُونَ وَيُقۡتَلُونَۖ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ وَٱلۡقُرۡءَانِۚ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ مِنَ ٱللَّهِۚ فَٱسۡتَبۡشِرُواْ بِبَيۡعِكُمُ ٱلَّذِي بَايَعۡتُم بِهِۦۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 110
(111) वास्तविकता यह है कि अल्लाह ने ईमानवालों से उनके जान और उनके माल जन्नत के बदले में ख़रीद लिए हैं।106 वे अल्लाह की राह में लड़ते और मारते और मरते हैं। उनसे (जन्नत का वादा) अल्लाह के जिम्मे एक पक्का वादा है. तौरात और इंजील और कुरआन में।107 और कौन है जो अल्लाह से बढ़कर अपने वादे का पूरा करनेवाला हो? पस खुशियाँ मनाओ अपने इस सौदे पर जो तुमने अल्लाह से चुका लिया है, यही सबसे बड़ी सफलता है।
106. यहाँ ईमान के उस मामले को जो अल्लाह और बन्दे के बीच तय होता है, 'क्रय-विक्रय' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ईमान वास्तव में एक समझौता है जिसके अनुसार बन्दा अपने प्राण और अपना धन अल्लाह के हाथ बेच देता है और उसके मुआवज़े में अल्लाह की ओर से इस बादे को क़बूल कर लेता है कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में वह उसे जन्नत प्रदान करेगा । इस महत्त्वपूर्ण विषय के निहित अर्थों को समझने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले इस क्रय-विकय की वास्तविकता को अच्छी तरह मन-मस्तिष्क में बिठा लिया जाए । जहाँ तक मूल वास्तविकता का ताल्लुक़ है, उसके अनुसार तो इंसान की जान व माल का स्वामी सर्वोच्च अल्लाह ही है, इसलिए यह क्रय-विकय इस अर्थ में नहीं है कि जो चीज़ इंसान की है, अल्लाह उसे ख़रीदना चाहता है। बल्कि इस मामले का सही रूप यह है कि जो चीज़ अल्लाह की है और जिसे उसने अमानत के तौर पर इंसान के हवाले किया है और जिसमें अमानतदार रहने या खियानत करनेवाला बन जाने की स्वतंत्रता उसने इंसान को दे रखी है, उसके बारे में वह इंसान से माँग करता है कि तू राज़ी-खुशी से (न कि मजबूरी से) मेरी चीज़ को मेरी ही चीज़ मान ले और ज़िन्दगी-भर उसमें साधिकार स्वामी की हैसियत से नहीं, बल्कि अमानतदार होने की हैसियत से ख़र्च करना स्वीकार कर ले। क्रय-विकय की इस वास्तविकता को समझ लेने के बाद अब उसमें अन्तर्निहित अर्थ का जाइज़ा लीजिए : 1. इस मामले में अल्लाह ने इंसान को दो बहुत बड़ी परीक्षाओं में डाला है। पहली परीक्षा इस बात की कि आजाद छोड़ दिए जाने पर यह अपने स्वामी के स्वामित्व का अधिकार स्वीकार करता है या नहीं? दूसरी परीक्षा इस बात को कि यह अपने अल्लाह पर इतना भरोसा करता है या नहीं कि उसके किए हुए कल के जन्नत के वादे के बदले में अपनी आज की स्वतंत्रता और उसका आनन्द बेच देने पर खुशी से तैयार हो जाए। 2. अल्लाह के यहाँ जो ईमान विश्वसनीय है उसकी वास्तविकता यह है कि बन्दा विचार और व्यवहार दोनों में अपनी स्वतंत्रता को अल्लाह के हाथ बेच दे और उसके पक्ष में मिल्कियत के अपने दावे से पूरी तरह अलग हो जाए। 3. ईमान की यह वास्तविकता जीवन की इस्लामी रीति-नीति और जीवन के कुफ़वाली रीति-नीति को आदि से अन्त तक बिलकुल एक-दूसरे से अलग कर देती है । मुस्लिम व्यक्ति भी और मुस्लिम गिरोह भी, अपने जीवन के हर क्षेत्र में अल्लाह की मर्जी के अधीन होकर काम करता है। अल्लाह से स्वतंत्र होकर काम करना और अपने मन और मन से संबंधित चीज़ों के बारे में स्वयं यह फैसला करना कि हम क्या करें और क्या न करें, बहरहाल कुफ़ से सम्बन्धित जीवन की रीति-नीति है। 4. इस क्रय-विकय की रौशनी में अल्लाह की जिस मर्जी का पालन व्यक्ति पर अनिवार्य होता है, वह व्यक्ति की अपनी प्रस्तावित मर्जी नहीं, बल्कि वह मर्जी जो अल्लाह स्वयं बताए। ये उस खरीदने-बेचने में अन्तर्निहित विषय हैं और इनको समझ लेने के बाद यह बात भी अपने आप समझ में आ जाती है कि इस ख़रीदने बेचने के मामले में मूल्य (अर्थात् जन्नत) को वर्तमान सांसारिक जीवन के अन्त तक के लिए क्यों स्थगित किया गया है? स्पष्ट है कि जन्नत केवल इस मान लेने का मुआवज़ा नहीं है कि 'बेचनेवाले ने अपनी जान व माल अल्लाह के हाथ बेच दिया', बल्कि वह इस कर्म का मुआवज़ा है कि 'बेचनेवाला अपने सांसारिक जीवन में इस बेची हुई चीज़ का मनमानी तौर पर उपभोग करना छोड़ दे और अल्लाह का अमानतदार बनकर उसकी मर्जी के अनुसार उपभोग करे।' इसलिए यह बेचना पूरा ही उस समय होगा जबकि बेचनेवाले का सांसारिक जीवन समाप्त हो जाए और वास्तव में यह प्रमाणित हो कि उसने बेचने का समझौता करने के बाद से अपने सांसारिक जीवन के अन्तिम क्षणों तक बेचने की शर्ते पूरी की हैं। इससे पहले वह न्याय की दृष्टि से मूल्य पाने का हकदार नहीं हो सकता ।
107. जहाँ तक इंजील का ताल्लुक है, उसमें आज भी हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम के बहुत से कथन हमें ऐसे मिलते हैं जो इस आयत के समानार्थी हैं, जैसे- "मुबारक हैं वे जो सच्चाई की वजह से सताए गए हैं, क्योंकि आसमान की बादशाही उन्हीं की है।' (मत्ती 5 : 10, मत्ती 10: 39 और मत्ती 19 : 29 इत्यादि) अलबत्ता तौरात जिस दशा में इस समय मौजूद है उसमें यह विषय नहीं पाया जाता, और यही विषय क्या, वह तो मरने के बाद की ज़िन्दगी, हिसाब के दिन और आख़िरत की जज़ा (बदला) व सज़ा के विचार ही से ख़ाली है, हालांकि यह विश्वास सदा से सत्य धर्म का अभिन्न अंग रहा है, लेकिन वर्तमान तोरात में इस विषय के न पाए जाने से यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि वास्तव में तोरात इससे खाली थी। सच तो यह है कि यहूदी अपने पतन काल में कुछ ऐसे भौतिकवादी और सांसारिक समृद्धि के भूखे हो गए ये कि उनके नजदीक नेमत और इनाम का कोई अर्थ इसके सिवा न रहा था कि वह इसी दुनिया में मिल जाए।
ٱلتَّٰٓئِبُونَ ٱلۡعَٰبِدُونَ ٱلۡحَٰمِدُونَ ٱلسَّٰٓئِحُونَ ٱلرَّٰكِعُونَ ٱلسَّٰجِدُونَ ٱلۡأٓمِرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱلنَّاهُونَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡحَٰفِظُونَ لِحُدُودِ ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 111
(112) अल्लाह की ओर बार-बार पलटनेवाले108, उसकी बन्दगी बजा लानेवाले, उसका गुणगान करनेवाले, उसके लिए जमीन में गर्दिश करने (घूमने फिरने) वाले109, उसके आगे झुकने और सजदे करनेवाले, नेकी का हुक्म देनेवाले, बदी से रोकनेवाले और अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करनेवाले110, (इस शान के होते हैं वे ईमानवाले जो अल्लाह से क्रय-विक्रय का यह मामला तय करते है। और ऐ नबी ! इन ईमानवालों को खुशखबरी दे दो।
108. अरबी में शब्द' अत्ताइबून ' प्रयुक्त हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'तौबा करनेवालें, लेकिन जिस शैली में या शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे स्पष्ट है कि तौबा करना ईमानवालों के स्थाई गुणों में से है, इसलिए इसका सही अर्थ यह है कि वे एक ही बार तौबा नहीं करते, बल्कि सदैव तौबा करते रहते हैं। और तौबा का मूल अर्थ सूकाना या पलटना है, इसलिए इस शब्द का वास्तविक भाव व्यक्त करने के लिए हमने इसका व्याख्यात्मक अनुवाद यूं किया है कि वे अल्लाह की ओर बार-बार पलटते हैं। ईमानवाला यद्यपि ख़ूब सोच-समझकर अल्लाह से अपनी जान व माल को खरीदने बेचने का मामला तय करता है, लेकिन चूँकि बार-बार ऐसे अवसर आते रहते हैं जबकि वह ईसान होने के नाते अस्थायी रूप से अल्लाह के साथ अपने ख़रीदने बेचने के मामले को भूल जाता है, इसलिए एक सच्चे ईमानवाले की हैसियत से जब भी उसकी यह अस्थायी भूल दूर होती है और वह अपनी गफलत से चौंकता है तो उसे शर्मिदगी होती है और वह अपने अल्लाह की ओर पलटकर अपनी प्रतिज्ञा को फिर से ताजा कर लेता है।
109. अरबी में शब्द 'साइहून प्रयुक्त हुआ है जिसकी व्याख्या कुछ टीकाकारों ने अस्साइमून' (रोज़ा रखनेवाले) केप में की है, लेकिन सियाहत' का अर्थ रोजा लाक्षणिक अर्थ है। शब्दकोष में इसका यह अर्थ नहीं है और किसी सहीह हदीस से भी इस शब्द का यह अर्थ प्रमाणित नहीं। इसलिए हम इस शब्द को मूल अर्थ ही मे लेना अधिक सही समझते हैं। फिर जिस तरह क़ुरआन में बहुत से मौक़ों पर ख़ाली ‘इंफ़ाक़' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ ख़र्च करना है और तात्पर्य उससे अल्लाह के रास्ते में खर्च करना है. इसी तरह यहाँ भी 'सियारत' से तात्पर्य मात्र धूमना-फिरना नहीं है, बल्कि ऐसे उद्देश्यों के लिए धरती में धूमना-फिरना है जो पवित्र और उच्च हो और जिनमें अल्लाह की ख़ुशी चाही गई हो, जैसे दीन स्थापित करने के लिए रिसाद, कुमवाले हिजरत, दीन की दावत, इंसानों का सुधार, अच्छे जान को तलब, अल्लाह की निशानियों का अवलोकन और हलाल रोजी की तलाश इत्यादि ।
مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن يَسۡتَغۡفِرُواْ لِلۡمُشۡرِكِينَ وَلَوۡ كَانُوٓاْ أُوْلِي قُرۡبَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمۡ أَنَّهُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 112
(113) नबी को और उन लोगों को जो ईमान लाए हैं, शोभा नहीं देता कि मुशरिकों के लिए मुक्ति की दुआ करें, चाहे वे उनके रिश्तेदार ही क्यों न हों, जबकि उनपर यह बात खुल चुकी है कि वे जहन्नम के हक़दार हैं।111
111. किसी व्यक्ति के लिए क्षमा को दरख्वास्त अनिवार्य रूप से यह अर्थ रखती है कि एक तो हम उसके साथ हमदर्दी और मुहब्बत रखते हैं, दूसरे यह कि उसके कुसूर को क्षमा के योग्य समझते हैं। ये दोनों बाते उस आदमी के मामले में तो ठीक हैं जो वफ़ादारों की पंक्ति में सम्मिलित हो और सिर्फ़ गुनाहगार हो। लेकिन जो आदमी खुला हुआ द्रोही हो, उसके साथ हमदर्दी और मुहब्बत रखना और उसके अपराध को क्षमा योग्य समझना सिद्धांततः गलत है और उस ईमान के विरुद्ध है जिसका तकाज़ा यह है कि अल्लाह और उसके दीन के साथ हमारी मुहब्बत बिलकुल बेलाग हो, अल्लाह का दोस्त हमारा दोस्त हो और उसका दुश्मन हमारा दुश्मन । इसी कारण अल्लाह ने यह नहीं फरमाया कि 'मुशरिकों के लिए क्षमा की दुआ न करो।' बल्कि यूँ फरमाया है कि 'तुम्हें यह शोभा नहीं देता कि तुम उनके लिए क्षमा की दुआ करो। अर्थात् हमारे मना करने से अगर तुम बाज़ रहे तो कोई बात नहीं, तुममें तो स्वयं वफादारी की अनुभूति इतनी तीव्र होनी चाहिए कि जो हमारा द्रोही है, उसके साथ हमदर्दी रखना और उसके अपराध को क्षमा के योग्य समझना तुमको अपने लिए अशोभनीय प्रतीत हो। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि अल्लाह के विद्रोहियों के प्रति जिस सहानुभूति से मना किया है, वह केवल वह सहानुभूति है जो दीन के मामले में हस्तक्षेप का कारण बनती है। रही इंसानी हमदर्दी और दुनिया के रिश्ते-नाते को जोड़े रखना तो इससे नहीं मना किया गया है, बल्कि यह तो एक पसंदीदा काम है। नातेदार चाहे काफिर हो या ईमानवाला,उसके सांसारिक हक़ अवश्य अदा किए जाएँगे।
وَمَا كَانَ ٱسۡتِغۡفَارُ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَن مَّوۡعِدَةٖ وَعَدَهَآ إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥٓ أَنَّهُۥ عَدُوّٞ لِّلَّهِ تَبَرَّأَ مِنۡهُۚ إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَأَوَّٰهٌ حَلِيمٞ ۝ 113
(114) इबराहीम ने अपने बाप के लिए जो मुक्ति की दुआ की थी वह तो इस वादे की वजह से थी जो उसने अपने बाप से किया था112, परन्तु जब उसपर यह बात खुल गई कि उसका बाप अल्लाह का वैरी है तो वह उससे विमुख हो गया। सत्य यह है कि इबराहीम बड़ा कोमल-हृदय और अल्लाह से डरनेवाला और सहनशील व्यक्ति था।113
112. संकेत है उस बात की ओर जो अपने मुशरिक बाप से ताल्लुकात समाप्त करते हुए हज़रत इबराहोम (अलैहि०) ने कही थी कि “आपको सलाम है । मैं आपके लिए अपने रब से दुआ करूँगा कि आपको क्षमा कर दे। वह मेरे ऊपर बहुत मेहरबान है। (क़ुरआन, 19 : 47) अतएव इसी वादे की बुनियाद पर आपने अपने बाप के लिए यह दुआ माँगी थी कि और मेरे बाप को क्षमा कर दे, निस्सन्देह वह गुमराह लोगों में से था और उस दिन मुझे रुसवा न कर,जबकि सब इंसान उठाए जाएँगे, जबकि न माल किसी के कुछ काम आएगा, न सन्तान, निजात (मुक्ति) केवल उसे मिलेगी जो अपने अल्लाह के समक्ष विद्रोह से पाक दिल लेकर हाजिर हुआ हो। (क़ुरआन, 26 : 86-89) यह दुआ एक तो स्वयं बड़ी संतुलित-शैली में माँगी गई थी, मगर इसके बाद जब हजरत इबराहीम (अलै०) की नज़र इस ओर गई कि मैं जिस आदमी के लिए दुआ कर रहा हूँ वह तो अल्लाह का खुल्लम-खुल्ला विद्रोही था, तो बे इससे भी बाज़ आ गए और एक सच्चे बफ़ादार ईमानवाले की तरह उन्होंने विद्रोही की हमदर्दी से साफ़-साफ़ अपने को अलग कर लिया।
113. अरबी में अव्वाह' और 'हलीम के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अव्‍वाह का अर्थ है बहुत आहें भरनेवाला, आँसू बहानेवाला, डरनेवाला, हसरत करनेवाला और 'हलीम उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने स्वभाव पर क़ाबू रखता हो, न क्रोध, शत्रुता और विरोध में आपे से बाहर हो, न मुहब्बत, दोस्ती और ताल्लुक जोड़ने में सन्तुलन छोड़ बैठे । ये दोनों इस जगह दोहरा अर्थ दे रहे हैं। हज़रत इबराहीम ने अपने बाप के लिए मुक्ति की दुआ की,क्योंकि वह बड़े नर्मदिल आदमी थे, इस विचार से कांप उठे ये कि मेरा यह बाप जहन्नम का ईंधन बन जाएगा, और हलीम थे उस अत्याचार के बाद भी जो उनके बाप ने इस्लाम से उनको रोकने के लिए उनपर किया था, उनकी ज़बान उसके हक में दुआ ही के लिए खुली। फिर उन्होंने यह देखकर कि उनका बाप अल्लाह का वैरी है, उससे अपने आपको अलग कर लिया, क्योंकि वह अल्लाह से डरनेवाले ईसान थे और किसी की मुहब्बत में सीमा का उल्लंघन करनेवाले न थे।
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِلَّ قَوۡمَۢا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰهُمۡ حَتَّىٰ يُبَيِّنَ لَهُم مَّا يَتَّقُونَۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 114
(115) अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि लोगों को हिदायत देने के बाद फिर गुमराही में डाल दे जब तक कि उन्हें साफ़-साफ़ बता न दे कि उन्हें किन चीज़ों से बचना चाहिए।114 वास्तव में अल्लाह हर वस्तु का ज्ञान रखता है।
114. अर्थात् अल्लाह पहले यह बता देता है कि लोगों को किन विचारों, किन कामों और किन तरीक़ों से बचना चाहिए। फिर जब बे बाज नहीं आते तो अल्लाह भी उनकी हिदायत व रहनुमाई से हाथ खींच लेता है और उसी ग़लत राह पर उन्हें धकेल देता है जिसपर वे स्वयं जाना चाहते हैं। यह कथन एक सर्वमान्य सिद्धांत को बयान करता है जिससे क़ुरआन मजीद की वे तमाम जगहें अच्छी तरह समझी जा सकती हैं जहाँ हिदायत देने और गुमराह करने को अल्लाह ने अपना काम बताया है। वाणी के इस विशेष क्रम में यह बात एक प्रकार की चेतावनी है जो बड़े उचित ढंग से पिछले वर्णन का समापन भी कही जा सकती है और आगे जो वर्णन आ रहा है, उसकी प्रस्तावना भी।
إِنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۚ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 115
(116) और यह भी वास्तविकता है कि अल्लाह ही के क़ब्ज़े में आसमान और ज़मीन का राज्य है, उसी के अधिकार में जिन्दगी और मौत है, और तुम्हारा कोई समर्थक व सहायक ऐसा नहीं है जो तुम्हें उससे बचा सके।
لَّقَد تَّابَ ٱللَّهُ عَلَى ٱلنَّبِيِّ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ ٱلۡعُسۡرَةِ مِنۢ بَعۡدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٖ مِّنۡهُمۡ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّهُۥ بِهِمۡ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 116
(117) अल्लाह ने माफ़ कर दिया नबी को और उन मुहाजिरीन और अंसार को जिन्होंने बड़ी तंगी के समय में नबी का साथ दिया,115 यद्यपि इनमें से कुछ लोगों के दिल टेढ़ की ओर झुक चले थे,116 (मगर जब उन्होंने इस टेढ़ का पालन न किया, बल्कि नबी का साथ ही दिया तो) अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया।117 निस्संदेह उसका मामला इन लोगों के साथ प्रेम और दया का है
115. अर्थात् तबूक की लड़ाई के सिलसिले में जो छोटी-छोटी गलतियाँ नबी (सल्ल०) और आपके सहाबा से हुई, उन सबको अल्लाह ने उनकी श्रेष्ठ सेवाओं को ध्यान में रखते हुए क्षमा कर दिया। नबी (सल्ल०) से जो चूक हुई थी, उसका उल्लेख आयत 43 में किया जा चुका है।
116. अर्थात् कुछ निष्ठावान सहाबा भी उस कठिन घड़ी में युद्ध पर जाने से किसी-न-किसी हद तक जी चुराने लगे थे, पर चूँकि उनके दिलों में ईमान था और वे सच्चे दिल से सत्य-धर्म के साथ लगाव रखते थे, इसलिए अन्ततः उन्होंने अपनी इस कमज़ोरी पर क़ाबू पा लिया।
وَعَلَى ٱلثَّلَٰثَةِ ٱلَّذِينَ خُلِّفُواْ حَتَّىٰٓ إِذَا ضَاقَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ وَضَاقَتۡ عَلَيۡهِمۡ أَنفُسُهُمۡ وَظَنُّوٓاْ أَن لَّا مَلۡجَأَ مِنَ ٱللَّهِ إِلَّآ إِلَيۡهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡ لِيَتُوبُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 117
(118) और उन तीनों को भी उसने क्षमा किया जिनके मामले को स्थगित कर दिया गया था।118 जब धरती अपने सारे फैलाव के बावजूद उनपर तंग हो गई और उनकी अपनी जानें भी उनपर बोझ होने लगी और उन्होंने जान लिया कि अल्लाह से बचने के लिए कोई शरण-स्थली स्वयं अल्लाह की रहमत के दामन के सिवा कोई नहीं है, तो अल्लाह अपनी दयालुता से उनको ओर पलटा, ताकि वे उसकी ओर पलट आएँ, निश्चय ही वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।119
नबी (सल्ल०) जब तबूक से मदीना वापस तशरीफ़ लाए तो वे लोग मजबूरी बयान करने के लिए उपस्थित हुए जो पीछे रह गए थे। इनमें से 80 से कुछ अधिक मुनाफ़िक़ थे और तीन सच्चे ईमानवाले भी थे। मुनाफ़िक़ झूठे बहाने पेश करते गए और प्यारे नबी (सल्ल०) उनकी मजबूरी स्वीकार करते चले गए। फिर इन तीनों मोमिनों की बारी आई और उन्होंने साफ़-साफ़ अपने कुसूरों को मान लिया। नबी (सल्ल०) ने इन तीनों के मामले में फैसले को स्थगित कर दिया और आम मुसलमानों को आदेश दे दिया कि जब तक अल्लाह का आदेश न आए, उनसे किसी प्रकार का सामाजिक सम्बन्ध न रखा जाए। इसी मामले का फैसला करने के लिए यह आयत उतरी। (यहाँ यह बात सामने रहे कि इन तीन सहाबियों का मामला उन सात सहाबियों से अलग है जिनका उल्लेख टिप्पणी 99 में किया जा चुका है। उन्होंने पूछताछ से पहले ही स्वयं अपने आपको सज़ा दे ली थी।)
119. ये तीनों साहब काब बिन मालिक (रजि०), हिलाल बिन उमैया (रजि०) और मुरारा बिन रुबैअ (रजि०) थे। जैसा कि हम ऊपर वर्णन कर चुके हैं, तीनों सच्चे ईमानवाले थे। इससे पहले अपनी निष्ठा का कई बार प्रमाण जुटा चुके थे, कुर्बानियाँ दे चुके थे। आखिर के दो साहब तो बद्र की लड़ाई में सम्मिलित होनेवालों में से थे, जिनके ईमान की सच्चाई हर संदेह से परे थी और पहले बुज़ूर्ग यद्यपि बद्री न थे, लेकिन बद्र के सिवा हर लड़ाई में नबी (सल्ल०) के साथ रहे। मगर इन सेवाओं के बावजूद जो सुस्ती तबूक की लड़ाई के गंभीर अवसर, जबकि लड़ाई लड़ने योग्य तमाम ईमानवालों को लड़ाई के लिए निकल आने का आदेश दिया गया था, इन लोगों ने दिखाई उनपर सख्न पकड़ की गई। नबी (सल्ल०) ने तबूक से वापस तशरीफ़ लाकर मुसलमानों को आदेश दे दिया कि कोई उनसे सलाम-कलाम न करे। 40 दिन के बाद उनकी पलियों को भी उनसे अलग रहने की ताकीद कर दी गई। सच तो यह है कि आबादी में उनकी वही दशा हो गई थी जिसका चित्र इस आयत में खींचा गया है। अन्ततः जब उनके बहिष्कार को 50 दिन हो गए तब क्षमा का यह आदेश आया। इन तीनों में से हज़रत काब बिन मालिक रजि. ने अपनी कहानी अत्यन्त विस्तार के साथ बयान की है जो अत्यन्त शिक्षाप्रद है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَكُونُواْ مَعَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 118
(119) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों का साथ दो।
مَا كَانَ لِأَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ وَمَنۡ حَوۡلَهُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ أَن يَتَخَلَّفُواْ عَن رَّسُولِ ٱللَّهِ وَلَا يَرۡغَبُواْ بِأَنفُسِهِمۡ عَن نَّفۡسِهِۦۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ لَا يُصِيبُهُمۡ ظَمَأٞ وَلَا نَصَبٞ وَلَا مَخۡمَصَةٞ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَطَـُٔونَ مَوۡطِئٗا يَغِيظُ ٱلۡكُفَّارَ وَلَا يَنَالُونَ مِنۡ عَدُوّٖ نَّيۡلًا إِلَّا كُتِبَ لَهُم بِهِۦ عَمَلٞ صَٰلِحٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 119
(120) मदीना के रहनेवालों और आस पास के बददुओं के लिए कदापि उचित न था कि अल्लाह के रसूल को छोड़कर घर बैठे रहते और उसकी ओर से बेपरवाह होकर अपनी-अपनी जान (नफ़्स) की चिन्ता में लग जाते। इसलिए कि ऐसा कभी न होगा कि अल्लाह की राह में भूख-प्यास और शारीरिक परिश्रम का कोई कष्ट वे झेलें और सत्य के इंकारियों को जो राह अप्रिय है उसपर कोई क़दम वे उठाएँ, और किसी दुशमन से (सत्य की दुश्मनी का) कोई बदला वे लें और उसके बदले उनके पक्ष में एक अच्छा कर्म न लिखा जाए। निश्चय ही अल्लाह के यहाँ उत्तमकारियों का पारिश्रमिक मारा नहीं जाता है।
وَلَا يُنفِقُونَ نَفَقَةٗ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةٗ وَلَا يَقۡطَعُونَ وَادِيًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمۡ لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 120
(121) इसी तरह यह भी कभी न होगा कि वे (अल्लाह के रास्ते में) थोड़ा या बहुत कोई खर्च उठाएँ और (प्रयास और जिहाद में) कोई घाटी वे पार करें और उनके हक़ में उसे लिख न लिया जाए, ताकि अल्लाह उनके इस अच्छे कारनामे का बदला उन्हें प्रदान करे।
۞وَمَا كَانَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لِيَنفِرُواْ كَآفَّةٗۚ فَلَوۡلَا نَفَرَ مِن كُلِّ فِرۡقَةٖ مِّنۡهُمۡ طَآئِفَةٞ لِّيَتَفَقَّهُواْ فِي ٱلدِّينِ وَلِيُنذِرُواْ قَوۡمَهُمۡ إِذَا رَجَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَحۡذَرُونَ ۝ 121
(122) और यह कुछ जरूरी न था कि ईमानवाले सारे के सारे ही निकल खड़े होते, परन्तु ऐसा क्यों न हुआ कि उनकी आबादी के हर हिस्से में से कुछ लोग निकलकर आते और दीन की समझ पैदा करते और वापस जाकर अपने क्षेत्र के निवासियों को खबरदार करते, ताकि वे (ग़ैर इस्लामी नीति से) परहेज़ करते।120
120. इस आयत का उद्देश्य समझने के लिए इसी सूरा की आयत 97 दृष्टि में रखनी चाहिए, जिसमें केवल इतनी बात बयान करने को काफी समझ लिया गया था कि दारुल इस्लाम की देहाती आबादी का बड़ा भाग निफाक़ के रोग में इस वजह से गिरफ्त है कि ये सारे के सारे लोग अज्ञानता में पड़े हुए हैं । ज्ञान के केन्द्र से जुड़े न होने और ज्ञानवालों की संगति न मिलने के कारण अल्लाह के दीन की मर्यादाएँ उनको मालूम नहीं हैं। अब यह फरमाया जा रहा है कि देहाती आबादियों को इस हालत में पड़ा न रहने दिया जाए, बल्कि उनकी अज्ञानता को दूर करने और उनके अन्दर इस्लामी चेतना उत्पन्न करने का अब बाक़ायदा इन्तिज़ाम होना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए यह कुछ ज़रूरी न था कि तमाम देहाती अरब अपने-अपने घरों से निकल-निकलकर मदीना आ जाते और यहाँ ज्ञान प्राप्त करते । हर देहाती क्षेत्र और हर बस्ती और हर क़बीले से अगर कुछ आदमी निकलकर ज्ञान के केन्द्रों, जैसे मदीना और मक्का और ऐसी ही दूसरी जगहों में आकर दीन का ज्ञान प्राप्त करते, फिर अपनी-अपनी आबादियों में वापस जाकर अपने क्षेत्र के लोगों को दीन सिखाते, तो बद्दुओं में वह अज्ञानता बाक़ी न रहती जिसके कारण वे निफ़ाक़ की बीमारी का शिकार हैं और इस्लाम कबूल कर लेने के बाद भी मुसलमान होने का हक़ अदा नहीं करते। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि सार्वजनीक शिक्षा के जिस प्रबंध का आदेश इस आयत में दिया गया है, उसका मूल उद्देश्य आम लोगों को केवल पढ़ा-लिखा बनाना और उनमें किताब पढ़ लेने जैसे ज्ञान का फैलाना न था, बल्कि स्पष्ट रूप से उसका वास्तविक उद्देश्य यह तय किया गया था कि लोगों में दीन की समझ पैदा हो और उनको इस हद तक होशियार व ख़बरदार कर दिया जाए कि वे ग़ैर-इस्लामी जीवनशैली से बचने लगे। यह मुसलमानों की शिक्षा का वह बुनियादी और वास्तविक उद्देश्य है जो सदा सर्वदा के लिए अल्लाह ने स्वयं निश्चित कर दिया है, और हर शिक्षा-व्यवस्था को इसी दृष्टि से परखा जाएगा कि वह इस उद्देश्य को कहाँ तक पूरा करता है । (बाकी बीजों का जो महत्त्व होगा। इसके बाद ही होगा,इसके बिना कुछ भी न होगा।) इस आयत में शब्द 'लि य-त-फ़क़्क़हू फ़िद-दीनि' (दीन की समझ पैदा करते) जो प्रयुक्त हुआ है, उससे बाद के लोगों में एक विचित्र ग़लतफहमी पैदा हो गई। अल्लाह ने तो 'दीन की समझ को शिक्षा का उद्देश्य बताया था, जिसका अर्थ है-दीन को समझना, उसकी व्यवस्था में सूझ-बूझ प्राप्त करना, उसके स्वभाव और उसकी आत्मा को समझना और इस योग्य हो जाना कि विचार और व्यवहार के हर पहलू में इंसान यह जान सके कि सोच का कौन-सा तरीक़ा और कार्य की कौन-सी पद्धति दीन की भावना के अनुरूप है, लेकिन आगे चलकर जो क़ानूनी जान 'फ़िक़ह' शब्द से जाना जाने लगा और जो धीरे-धीरे इस्लामी ज़िन्दगी की सिर्फ़ शक्ल (स्प्रिट के मुकाबले में) विस्तृत ज्ञान बनकर रह गया, लोगों ने शाब्दिक समानता के कारण समझ लिया कि बस यही वह चीज़ है जिसका प्राप्त करना अल्लाह के आदेश के अनुसार शिक्षा का अंतिम उद्देश्य है, हालाँकि वह सम्पूर्ण उद्देश्य नहीं, बल्कि केवल उद्देश्य का एक अंश था। इस बड़ी ग़लतफ़हमी से जो हानियाँ दीन और दीन के माननेवालों को पहुँची, उनका जायजा लेने के लिए तो एक भारी-भरकम किताब चाहिए, मगर यहाँ हम इसपर सचेत करने के लिए संक्षेप में इतना संकेत किए देते हैं कि मुसलमानों की धार्मिक शिक्षा को जिस चीज़ ने दीन को कम से खाली करके सिर्फ़ दीन के शरीर या दीन की शक्ल की व्याख्या तक केन्द्रित कर दिया और अंततः जिस चीज़ को वजह से मुसलमानों की जिन्दगी में एक निरी बेजान ज़ाहिरदारी, दीनदारी की आखिरी मंजिल बनकर रह गई, वह बड़ी हद तक यही ग़लतफहमी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ يَلُونَكُم مِّنَ ٱلۡكُفَّارِ وَلۡيَجِدُواْ فِيكُمۡ غِلۡظَةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 122
(123) ऐ लोगो ओ ईमान लाए हो । अंग को सत्य के उन इकारियों से जो तुम्हारे निकट हैं121 और चाहिए कि वे तुम्हारे अन्दर सख्ती पाएँ122, और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है।123
121. संदर्भ पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ इनकारियों से तात्पर्य वे मुनाफ़िक़ लोग है, सत्य से जिनका इंकार पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था, जिनके इस्लामी समाज में घुले मिले रहने की वजह से बड़ी हानियाँ पहुँच रही थीं। आयत 73 से भाषण के इस क्रम की शुरुआत हुई थी, पहली बात यही कही गई थी कि अब इन आस्तीन के सांपों की जड़ काटने के लिए विधिवत जिहाद शुरू कर दिया जाए। वही बात अब भाषण के अन्त में ताकीद के लिए फिर दोहराई गई है, ताकि मुसलमान इसके महत्त्व को समझें और इन मुनाफ़िक़ों के मामले में उनसे अपने नस्ली और पारिवारिक व सामाजिक संबंधों का लिहाज़ न करें। वहाँ इनके विरुद्ध 'जिहाद' करने का आदेश दिया गया था, यहाँ उससे अधिक तीव्र शब्द 'किताल' प्रयुक्त किया गया है, जिससे तात्पर्य यह है कि इनकी पूरी तरह जड़ें उखाड़ दी जाएँगी। कुफ़्फार (इनकारी) और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) दो अलग शब्द बोले गए थे। यहाँ एक ही शब्द कुफ़्फार (इनकारी) को काफ़ी समझा गया है, ताकि इन लोगों का सत्य का इंकार, जो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका था, उनके ऊपरी तौर पर मान लेने व ईमान ले आने के परदे में छिपकर किसी रिआयत का हकदार न समझ लिया जाए।
122. अर्थात् अब वह नम्रता का व्यवहार समाप्त हो जाना चाहिए जो अब तक उनके साथ होता रहा है। यही बात आयत 73 में कही गई थी कि 'इनके साथ कठोरता से पेश आओ।'
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ فَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ أَيُّكُمۡ زَادَتۡهُ هَٰذِهِۦٓ إِيمَٰنٗاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَزَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَهُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 123
(124-125) जब कोई नयी सूरा उतरती है तो उनमें से कुछ लोग (मजाक के तौर पर मुसलमानो से) पूछते हैं कि “कहो, तुममें से किसके ईमान में इससे बढ़ोत्तरी हुई ? जो लोग ईमान लाए हैं उनके ईमान में वास्तव में (हर उतरनेवाली सूरा ने) बढ़ोत्तरी ही की है और वे इससे प्रसन्न हैं, अलबत्ता जिन लोगों के दिलों को (निफ़ाक़ का) रोग लगा हुआ था उनकी पिछली गंदगी पर (हर नई सूरा ने) एक और गन्दगी बढ़ा दी124 और वे मरते दम तक कुफ़्र ही में पड़े रहे।
124. ईमान और कुफ़ और निफ़ाक में कमी-बेशी का क्या अर्थ है, इसकी व्याख्या के लिए देखिए सूरा-8 (अनफ़ाल), टिप्पणी न०2
124. ईमान और कुफ़ और निफ़ाक में कमी-बेशी का क्या अर्थ है, इसकी व्याख्या के लिए देखिए सूरा-8 (अनफ़ाल), टिप्पणी न०2
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَتۡهُمۡ رِجۡسًا إِلَىٰ رِجۡسِهِمۡ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 124
0
أَوَلَا يَرَوۡنَ أَنَّهُمۡ يُفۡتَنُونَ فِي كُلِّ عَامٖ مَّرَّةً أَوۡ مَرَّتَيۡنِ ثُمَّ لَا يَتُوبُونَ وَلَا هُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 125
(126) क्या ये लोग देखते नहीं कि हर साल एक-दो बार ये परीक्षा में डाले जाते हैं?125 परन्तु इसपर भी न ये तौबा करते हैं, न कोई शिक्षा लेते हैं।
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ نَّظَرَ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ هَلۡ يَرَىٰكُم مِّنۡ أَحَدٖ ثُمَّ ٱنصَرَفُواْۚ صَرَفَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُم بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 126
(127) जब कोई सूरा उतरती है तो ये लोग आँखों ही आँखों में एक-दूसरे से बातें करते हैं कि कहीं कोई तुमको देख तो नहीं रहा है, फिर चुपके से निकल भागते हैं।126 अल्लाह ने उनके दिल फेर दिए हैं, क्‍योंकि ये नासमझ लोग हैं।127
126. नियम यह था कि जब कोई सूरा उतरती थी तो नबी (सल्ल.) मुसलमानों के इकठ्ठा हो जाने का एलान कराते और फिर उनके सामने उस सूरा को भाषण के रूप में सुनाते थे। उस सभा में ईमानवालों का तो यह हाल होता था कि पूरा ध्यान लगाकर उस भाषण को सुनते और उसमें डूब जाते थे लेकिन मुनाफ़िक़ों का रंग-ढंग कुछ और था। वे आ तो इसलिए आते थे कि हाज़िरी का हुक्‍म था और वहाँ न आने का अर्थ था कि अपने निफ़ाक़ का भेद स्वयं खोल दें, मगर उस भाषण में उनकी कोई रूचि न होती थी। बड़ी बद-दिली के साथ उकताए हुए बैठे रहते थे और अपने आपकी हाज़िर लोगों में गिनती का लेने के बाद उन्‍हें बस यह चिन्ता लगी रहती थी कि किसी तरह जल्द-जल्दी से यहाँ से भाग निकले। उनकी इसी हालत का चित्र यहाँ खींचा गया है।
127. अर्थात् ये मूर्ख स्वयं अपने हित को नहीं समझते। अपनी सफ़लता से ग़ाफ़िल और अपनी भलाई से निश्चिन्त हैं। उनको एहसास नहीं है कि कितनी बड़ी नेमन है जो इस क़ुरआन और इस पैग़म्‍बर के द्वारा उनको दी जा रही है। अपनी छोटी-सी दुनिया और उसकी अति घटिया क़िस्म की दिलचस्‍पियों में ये कुएँ के मेंढक ऐसे दबे हुए हैं कि उस भव्य ज्ञान और उस प्रबल मार्गदर्शन का मूल्य व महत्व उनकी समझ में नहीं आता, जिस कारण ये अरब के इस मरूस्थल के इस तंग और अंधे कोने से सम्पूर्ण मानव-जगत के इमाम व पेशवा (नेता) बन सकते हैं और इस नश्वर जीवन ही में नहीं, बल्कि बाद की न समाप्‍त होनेवाली सदा-सर्वदा की ज़िन्दगी में भी हमेशा-हमेशा के लिए सफ़ल हो सकते हैं। इस नासमझी और मूर्खता का स्वाभाविक परिणाम यह है कि अल्लाह ने उन्हें लाभ उठाने के सौभाग्य से वंचित कर दिया है। जब सफलता और कल्याण और शक्ति और महानता का यह ख़ज़ाना मुफ़्त लुट रहा होता है और भाग्यवान लोग इसे दोनों हार्थों से लूट रहे होते हैं, उस समय इन अभागों के दिल किसी और तरफ़ मुतवज्‍जह होते हैं और उन्हें ख़बर तक नहीं होती कि किस दौलत से वंचित रह गए।
لَقَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ عَزِيزٌ عَلَيۡهِ مَا عَنِتُّمۡ حَرِيصٌ عَلَيۡكُم بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 127
(128) देखो ! तुम लोगों के पास एक रसूल आया है जो स्वयं तुम ही में से है। तुम्‍हारा नुक़सान में पढ़ना उसके लिए असत्य है, तुम्हारी सफलता की वह लालसा रखता है। ईमान लानेवालों के लिए वह मेहरबान और रहमदिल है
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ حَسۡبِيَ ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَهُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 128
(129) अब अगर ये लोग तुमसे मुँह फेरते हैं तो ऐ नबी इनसे कह दी कि “मेरे लिए अल्लाह काफी है, कोई पूज्य नहीं मगर वह, उसी पर मैंने भरोसा किया और वह स्वामी है बड़े अर्श (महान् सिंहासन) का।"