- अत-तौबा
(मदीना में उतरी – आयतें 129)
परिचय
नाम
यह सूरा दो नामों से मशहूर है। एक अत-तौबा, दूसरे अल-बराअत । तौबा इस दृष्टि से कि इसमें एक जगह कुछ ईमानवालों की ग़लतियों की माफ़ी का उल्लेख है और बराअत इस दृष्टि से कि इसके आरंभ में मुशरिकों (बहुदेववादियों) के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्ति पाने का एलान है
'बिस्मिल्लाह' न लिखने का कारण
इस सूरा के आरंभ में 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' नहीं लिखी जाती है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं नहीं लिखवाई थी।
उतरने का समय और सूरा के भाग
यह सूरा तीन व्याख्यानों पर सम्मिलित है-
पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 37 तक चलता है। इसके उतरने का समय ज़ी-क़ादा सन् 09 हि० या उसके लगभग है। नबी (सल्ल.) इस वर्ष हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को 'अमीरुल-हाज्ज' (हाजियों का अमीर) नियुक्त करके मक्का भेज चुके थे कि यह व्याख्यान उतरा और नबी (सल्ल०) ने तुरन्त हज़रत अली (रज़ि०) को उनके पीछे भेजा ताकि हज के अवसर पर तमाम अरब के प्रतिनिधि सम्मेलन में उसे सुनाएँ और उसके मुताबिक़ जो कार्य-नीति तय की गई थी, उसका एलान कर दें।
दूसरा व्याख्यान आयत 38 से आयत 22 तक चलता है और यह रजब सन् 09 हि० या इससे कुछ पहले उतरा, जबकि नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। इसमें ईमानवालों को जिहाद पर उकसाया गया है और मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवालों की कठोरता के साथ निन्दा की गई है।
तीसरा व्याख्यान आयत 73 से आरंभ होकर सूरा के साथ समाप्त होता है और यह तबूक की लड़ाई से वापसी पर उतरा। इसमें मुनाफ़िक़ों की हरकतों पर चेतावनी, तबूक की लड़ाई से पीछे रह जानेवालों पर डाँट-फटकार और उन सच्चे ईमानवालों पर निन्दा के साथ क्षमा करने का एलान है, जो अपने ईमान में सच्चे तो थे, परन्तु अल्लाह की राह के जिहाद में भाग लेने से रुके रह गए थे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिस घटनाक्रम से इस सूरा के विषयों का संबंध है, उसकी शुरुआत हुदैबिया के समझौते से होती है। हुदैबिया तक अरब के लगभग एक तिहाई भाग में इस्लाम एक संगठित समाज का दीन (धर्म) और एक पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त राज्य का धर्म बन गया था। हुदैबिया का जब समझौता हुआ तो इस धर्म को यह अवसर भी प्राप्त हो गया कि अपने प्रभावों को कुछ अधिक सुख-शान्ति के वातावरण में चारों ओर फैला सके। इसके बाद घटनाओं की गति ने दो बड़े रास्ते अपनाए जिसके आगे चलकर बड़े महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इनमें से एक का सम्बन्ध अरब से था और दूसरे का रोमी साम्राज्य से।
अरब पर अधिकार प्राप्ति
अरब में हुदैबिया के बाद प्रचार-प्रसार और शक्ति को दृढ़ बनाने के जो उपाय किए गए उनके कारण दो साल के भीतर ही इस्लाम का प्रभावक्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि क़ुरैश के अधिक उत्साही तत्त्वों से रहा न गया और उन्होंने हुदैबिया के समझौते को तोड़ डाला। वे इस बंधन से मुक्त होकर इस्लाम से एक अन्तिम निर्णायक मुक़ाबला करना चाहते थे, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनके इस समझौते को भंग करने के बाद उनको संभलने का कोई अवसर न दिया और अचानक मक्का पर हमला करके रमज़ान सन् 08 हि० में उसे जीत लिया। इसके बाद पुरानी अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था की अन्तिम ख़ूनी चाल हुनैन के मैदान में ली गई, लेकिन यह चाल भी विफल रही और हुनैन की पराजय के साथ अरब के भाग का पूर्ण निर्णय हो गया कि उसे अब 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनकर रहना है। इस घटना को हुए पूरा साल भी न हुआ कि अरब का बड़ा भाग इस्लाम के क्षेत्र में सम्मिलित हो गया।
तबूक की लड़ाई
रोमी साम्राज्य के साथ संघर्ष की शुरुआत मक्का-विजय से पहले ही हो चुकी थी। नबी (सल्ल०) ने हुदैबिया के बाद इस्लाम का सन्देश फैलाने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल अरब के विभिन्न भागों में भेजे थे, उनमें से एक उत्तर की ओर शाम (सीरिया) की सीमा से मिले [ईसाई] क़बीलों में [और एक बुसरा के ईसाई सरदार के पास भी गया था, लेकिन इन प्रतिनिधिमंडलों के अधिकतर आदमियों को क़त्ल कर दिया गया।] इन कारणों से नबी (सल्ल.) ने जुमादल-ऊला सन् 08 हि० में तीन हज़ार मुजाहिदीन की एक सेना शाम की सीमा की ओर भेजी, ताकि आगे के लिए यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए शान्तिपूर्ण बन जाए। यह छोटी-सी सेना मौता नामी जगह पर शुरहबील की एक लाख सेना से जा टकराई। एक और 33 के इस मुक़ाबले में भी शत्रु मुसलमानों पर विजयी न हो सके। यही चीज़ थी जिसने शाम और उससे मिले क्षेत्रों में रहनेवाले अर्धस्वतंत्र अरबी क़बीलों को, बल्कि इराक़ के क़रीब रहनेवाले नज्दी कबीलों को भी जो किसरा के प्रभाव में थे, इस्लाम की ओर आकर्षित कर दिया और वे हज़ारों की संख्या में मुसलमान हो गए। दूसरे ही साल क़ैसर ने मुसलमानों को मौता की लड़ाई की सजा देने के लिए शाम की सीमा पर सैनिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) [को इसकी सूचना मिली तो] रजब सन् 09 हि० में तीस हज़ार मुजाहिदों के साथ शाम की ओर रवाना हो गए। तबूक पहुँचकर मालूम हुआ कि क़ैसर ने मुक़ाबले पर आने के बजाय अपनी सेनाएँ सीमा से हटा ली हैं। क़ैसर के यों टाल जाने से जो नैतिक विजय प्राप्त हुई उसको नबी (सल्ल०) ने इस मरहले पर काफ़ी समझा और बजाय इसके कि तबूक से आगे बढ़कर शाम की सीमा में प्रवेश करते, आपने इस बात को प्रमुखता दी कि इस विजय से अति संभव राजनैतिक व सामरिक लाभ प्राप्त कर लें। चुनांँचे आपने तबूक में 20 दिन ठहरकर उन बहुत-से छोटे-छोटे राज्यों को, जो रूमी साम्राज्य और 'दारुल इस्लाम' के बीच स्थित थे और अब तक रोमवासियों के प्रभाव में रहे थे, सैनिक दबाव से इस्लामी राज्य को लगान देनेवाला और अधीन बना लिया। फिर इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रोमी साम्राज्य से एक लंबे संघर्ष में उलझ जाने से पहले इस्लाम को अरब पर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने का पूरा अवसर मिल गया।
समस्याएँ और वार्ताएँ
इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने के बाद हम आसानी से उन बड़ी-बड़ी समस्याओं को समझ सकते हैं जो उस समय सामने थीं और जिन्हें सूरा तौबा में लिया गया है :
(1) अब चूँकि अरब का प्रबंध पूर्ण रूप से ईमानवालों के हाथ में आ गया था इसलिए वह नीति खुलकर सामने आ जानी चाहिए थी जो अरब को पूर्ण 'दारुल इस्लाम' बनाने के लिए अपनानी ज़रूरी थी। चुनांँचे वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की गई—
(अ) अरब से शिर्क (बहुदेववाद) को बिलकुल ही मिटा दिया जाए, ताकि इस्लाम का केन्द्र सदा के लिए विशुद्ध इस्लामी केन्द्र हो जाए। इसी उद्देश्य के लिए मुशरिकों (बहुदेववादियो) से छुटकारे और उनके साथ समझौतों के अन्त का एलान किया गया।
(ब) आदेश हुआ कि आगे काबा की देख-रेख भी तौहीद (एकेश्वरवाद) वालों के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए और अल्लाह के घर की सीमाओं में शिर्क और अज्ञानता की तमाम रस्में भी बलपूर्वक बन्द कर देनी चाहिएँ, बल्कि अब मुशरिक इस घर के क़रीब फटकने भी न पाएँ ।
(इ) अरब के सांस्कृतिक जीवन में अज्ञानता की रस्मों की जो निशानियाँ अभी तक बाक़ी थीं, उनके उन्मूलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया। 'नसी' का नियम उन रस्मों में सबसे अधिक भौंडा नियम था इसलिए उसपर सीधे-सीधे चोट लगाई गई।
(2) अरब में इस्लाम का मिशन पूरा होने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण जो सामने था, वह यह था कि अरब के बाहर सत्य-धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक बनाया जाए। इस सिलसिले में मुसलमानों को आदेश दिया गया कि अरब के बाहर जो लोग सत्य-धर्म का पालन करनेवाले नहीं हैं उनके स्वतंत्र प्रभुत्व को तलवार के बल पर समाप्त कर दो, यहाँ तक कि वह इस्लामी सत्ता के अधीन होकर रहना स्वीकार कर लें। जहाँ तक सत्य-धर्म पर ईमान लाने का संबंध है, उनको अधिकार है कि ईमान लाएँ या न लाएँ।
(3) तीसरी महत्त्वपूर्ण समस्या मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की थी जिनके साथ अब तक सामयिक निहितार्थ की दृष्टि से छोड़ देने और क्षमा कर देने का मामला किया जा रहा था अब आदेश दिया गया कि आगे उनके साथ कोई नर्मी न की जाए और वही कठोर बर्ताव इन छिपे हुए सत्य के इंकारियों के साथ भी हो जो खुले सत्य के इंकारियों के साथ होता है।
(4) सच्चे ईमानवालो में अब तक जो थोड़ी-बहुत इरादे की कमज़ोरी बाक़ी थी उसका इलाज भी अनिवार्य था। इसलिए जिन लोगों ने तबूक के अवसर पर सुस्ती और कमज़ोरी दिखाई थी उनकी घोर निन्दा की गई और आगे के लिए पूरी सफ़ाई के साथ यह बात स्पष्ट कर दी गई कि अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने की जिद्दोजुहद और कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम का संघर्ष ही वह असली कसौटी है, जिसपर ईमानवालों के ईमान का दावा परखा जाएगा।
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۞إِنَّمَا ٱلصَّدَقَٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡعَٰمِلِينَ عَلَيۡهَا وَٱلۡمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمۡ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَٱلۡغَٰرِمِينَ وَفِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۖ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ 59
(60) ये सदक़े तो वास्तव में फ़क़ीरो 61 और मिस्कीनों 62 के लिए हैं और उन लोगों के लिए जो सदकों के काम पर नियुक्त हो 63, और उनके लिए जिनका मन मोहना हो 64, साथ ही यह गरदनों के छुड़ाने 65 और कर्ज़दारों की मदद करने में 66 और अल्लाह के रास्ते में 67 और मुसाफिर की सहायता में 68 इस्तेमाल करने के लिए है। एक कर्तव्य है अल्लाह की ओर से, और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी सूझ-बूझवाला है।
61. फ़क़ीर से तात्पर्य वह व्यक्ति है जो अपने जीवन यापन के लिए दूसरों की मदद का मुहताज हो। यह शब्द तमाम जरूरतमंदों के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त होता है, चाहे वे किसी भी वजह से मदद के मुहताज हो गए हो, जैसे यतीम बच्चे, विधवा औरतें, बेरोज़गार लोग और वे लोग जो सामयिक घटनाओं के शिकार हो गए हो।
62. 'मस्किनत' शब्द में विनम्रता, विवशता, मजबूरी और अपमान का अर्थ सम्मिलित है। इस दृष्टि से मसाकीन वे लोग हैं जो सामान्य जरूरतमंदों के मुक़ाबले में अधिक खस्ताहाल हों। नबी (सल्ल०) ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए मुख्य रूप से ऐसे लोगों को मदद का अधिकारी ठहराया है जो सख्त तंगहाल हों, मगर न तो उनका स्वाभिमान किसी के आगे हाथ फैलाने की अनुमति देता हो और न उनकी जाहिरी हालत ऐसी हो कि कोई उन्हें जरूरतमंद समझकर उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाए।
66. अर्थात् ऐसे ऋणी (क़र्ज़दार) जो अगर अपने माल से अपना पूरा क़र्ज़ (ऋण) चुका दें तो उनके पास निसाब (इतना माल जिससे जकात अनिवार्य हो जाता है) की मात्रा से कम माल बच सकता है।
67. 'अल्लाह के रास्ते' का शब्द आम है। तमाम वे नेकी के काम, जिनमें अल्लाह की प्रसन्नता हो, इस शब्द के अर्थ में सम्मिलित हैं। इसी कारण उलमा के एक गिरोह ने यह मत व्यक्त किया है कि इस आदेश के अनुसार ज़कात का माल हर प्रकार के नेक कामों में ख़र्च किया जा सकता है। लेकिन अधिकतर इस बात को मानते हैं कि यहाँ 'अल्लाह के रास्ते में से तात्पर्य 'अल्लाह के रास्ते का जिहाद' है, अर्थात् वह जिद्दोजुहद जिसका अभिप्राय कुफ की व्यवस्था को मिटाना और उसकी जगह इस्लामी व्यवस्था को स्थापित करना हो। इस जिद्दोजुहद में जो लोग काम करें, उनके सफर खर्च के लिए, सवारी के लिए, अस्त्र-शस्त्र और सामग्री जुटाने के लिए जकात से मदद दी जा सकती है, चाहे वे निजी तौर पर खाते-पीते लोग हों और अपनी निजी जरूरतों के लिए उनको मदद की जरूरत न हो। इसी तरह जो लोग स्वेच्छा से अपनी तमाम सेवाएँ और अपना तमाम समय, अस्थाई या स्थाई रूप से, इस काम के लिए दे दें उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए भी ज़कात से अस्थाई या स्थाई मदद दी जा सकती है।
68. मुसाफ़िर, भले ही अपने घर का ख़ुशहाल हो, लेकिन सफ़र की हालत में अगर वह मदद का मुहताज हो जाए तो उसकी मदद ज़कात की मद से की जाएगी।
وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَيُطِيعُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ سَيَرۡحَمُهُمُ ٱللَّهُۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ 70
(71) ईमानवाले मर्द और ईमानवाली औरतें, ये सब एक-दूसरे के साथी हैं, भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, जकात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करते हैं।80 ये वे लोग हैं जिनपर अल्लाह की रहमत उतरकर रहेगी, निश्चिय ही अल्लाह को सब पर प्रभुत्व प्राप्त है और वह तत्त्वदर्शी और बड़ी सूझ-बूझवाला है।
80. जिस तरह मुनाफ़िक़ एक अलग समुदाय हैं, उसी तरह ईमानवाले भी एक अलग समुदाय हैं। यद्यपि ईमान का जाहिरी इकरार और इस्लाम पर चलने का बाह्य प्रदर्शन दोनों गिरोहों में मिलता है, लेकिन दोनों के स्वभाव, चरित्र, तौर-तरीके, आदत और सोच-विचार और कार्य-पद्धति एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं । जहाँ ज़बान पर ईमान का दावा है, परन्तु दिल सच्चे ईमान से खाली हैं, वहाँ ज़िन्दगी का सारा रंग-ढंग ऐसा है जो अपनी एक एक अदा से ईमान के दावे को झुठला रहा है। ऊपर के लेबिल पर तो लिखा है कि यह मुश्क (कस्तूरी) है, परन्तु लेबिल के नीचे जो कुछ है वह अपने पूरे अस्तित्व से प्रमाणित कर रहा है कि यह गोबर के सिवा कुछ नहीं। इसके विपरीत जहाँ ईमान अपनी मूल वास्तविकता के साथ मौजूद है, वहां मुश्क अपने रूप से, अपनी सुगंध से, अपने गुणों से हर परीक्षा और हर मामले में अपना मुश्क होना खोले दे रहा है। इस्लाम और ईमान के (प्रचलित) नाम ने प्रत्यक्षतः दोनों गिरोहों को एक उम्मत (समुदाय) बना रखा है, परन्तु सच तो यह है कि मुनाफ़िक़ मुसलमानों का नैतिक स्वभाव और रंग-ढंग कुछ और है और सच्चे ईमानवाले मुसलमानों का कुछ और। इसी कारण कपटपूर्ण दुर्गुण रखनेवाले मर्द और औरत एक अलग जत्था बन गए हैं, जिनको अल्लाह से ग़फ़लत, बुराई से दिलचस्पी, नेकी से दूरी और भलाई से असहयोग को संयुक्त विशेषताओं ने एक-दूसरे से जोड़ रखा है और ईमानवालों से व्यवहारतः असंबद्ध कर दिया है और दूसरी ओर सच्चे ईमानवाले मर्द और औरत एक-दूसरा गिरोह बन गए हैं, जिनके सारे लोगों में यह विशेषता संयुक्त रूप से मौजूद है कि नेकी से वे दिलचस्पी रखते हैं, बदी से नफ़रत करते हैं, अल्लाह को बाद उनके लिए भोजन की तरह जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताओं में सम्मलित है। अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने के लिए उनके दिल और हाथ खुले हुए है और अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन उनकी जीवनशैली है। इस संयुक्त नैतिक स्वभाव और जीवन पद्धति ने उन्हें आपस में एक दूसरे से जोड़ दिया है और मुनाफ़िक़ों के गिरोह से तोड़ दिया है।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلضُّعَفَآءِ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرۡضَىٰ وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُواْ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ مِن سَبِيلٖۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 90
(91) कमज़ोर, बूढ़े और बीमार लोग और वे लोग जो जिहाद में शरीक होने के लिए रास्ते का ख़र्च नहीं पाते, अगर पीछे रह जाएँ तो कोई दोष नहीं, जबकि वे पूरी निष्ठा के साथ अल्लाह और उसके रसूल के वफ़ादार हों। 92 ऐसे उत्तमकर्मियों पर आपत्ति की कोई गुंजाइश नहीं है और अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया दर्शानेवाला है।
92. इससे मालूम हुआ कि जो लोग देखने में विवश हों, उनके लिए भी केवल कमज़ोरी और बीमारी या मात्र निर्धनता क्षमा के लिए पर्याप्त कारण नहीं है, बल्कि उनकी ये मजबूरियाँ केवल उस स्थिति में उनके लिए क्षमा का कारण बन सकती हैं, जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के सच्चे वफ़ादार हों, वरना अगर वफ़ादारी मौजूद न हो तो किसी व्यक्ति का केवल इसलिए क्षमा नहीं किया जा सकता कि वह कर्तव्य निभाने के समय बीमार या धनहीन था। अल्लाह केवल प्रत्यक्ष को नहीं देखता है कि ऐसे सब लोग जो बीमारी की डॉक्टरी सर्टिफ़िकेट या बुढ़ापे और शारीरिक कमी की मजबूरी पेश कर दें उसके यहाँ समान रूप से मजबूर समझ लिए जाएँ और उनपर से पूछताछ समाप्त हो जाए। वह तो उनमें से एक-एक आदमी के दिल को जायज़ा लेगा, उसके पूरे छिपे और खुले बर्तावों को देखेगा और यह जाँचेगा कि उसकी यह मजबूरी एक वफादार बन्दे की-सी मजबूरी थी या एक द्रोही और बाग़ी की-सी। एक आदमी है कि जब उसने कर्त्तव्य की पुकार सुनी तो दिल में लाख-लाख शुक्र अदा किया कि “बड़े अच्छे अवसर पर मैं बीमार हो गया, वरना यह बला किसी तरह टाले न टलती और खामख़ाही मुसीबत भुगतनी पड़ती।" दूसरे आदमी ने यही पुकार सुनी तो तिलमिला उठा कि “हाय, कैसे समय पर इस कमबख्त बीमारी ने आ दबोचा। जो समय मैदान में सेवा करने का था, वह किस बुरी तरह यहाँ बिस्तर पर नष्ट हो रहा है।” एक ने अपने लिए तो सेवा से बचने का बहाना पाया ही था, मगर इसके साथ उसने दूसरों को भी इससे रोकने की कोशिश की। दूसरा यद्यपि स्वयं बीमारी के बिस्तर पर विवश पड़ा हुआ था, पर वह बराबर अपने नातेदारों, मित्रों और भाइयों को जिहाद का जोश दिलाता रहा और अपनी देखभाल करनेवालों से भी कहता रहा कि "मेरा अल्लाह मालिक है, दवा-इलाज का प्रबन्ध किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा, मुझ अकेले इंसान के लिए तुम इस मूल्यवान समय को नष्ट न करो जिसे सत्य धर्म की सेवा में लगना चाहिए।" एक ने बीमारी के बहाने से घर बैठकर लड़ाई का पूरा समय बददिली फैलाने, बुरी ख़बरें उड़ाने, सामरिक प्रयत्नों को ख़राब करने और मुजाहिदों के पीछे उनके घर बिगाड़ने में लगाया। दूसरे ने यह देखकर कि मैदान में जाने के सौभाग्य से वह वंचित रह गया है, अपनी सीमा तक पूरी कोशिश की कि घर के मोर्चे (Home-front) को मज़बूत रखने में जो अधिक से अधिक सेवा उससे हो सके, उसे करे । प्रत्यक्ष में तो ये दोनों ही विवश हैं, पर अल्लाह की दृष्टि में ये दो अलग-अलग प्रकार के विवश किसी प्रकार भी बराबर नहीं हो सकते । अल्लाह के यहाँ क्षमा अगर है तो केवल दूसरे व्यक्ति के लिए। रहा पहला व्यक्ति तो वह अपनी विवशता के बाद भी ग़द्दारी और बेवफ़ाई का अपराधी है।
وَقُلِ ٱعۡمَلُواْ فَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 104
(105) और ऐ नबी ! इन लोगों से कह दो कि तुम कर्म करो, अल्लाह और उसका रसूल और ईमानवाले सब देखेंगे कि तुम्हारी कर्मनीति अब क्या रहती है।99 फिर तुम उसकी ओर पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबको जानता है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते हो।100
99. यहाँ ईमान के झूठे दावेदारों और गुनहगार मोमिनों (ईमानवालों) का अन्तर साफ़-साफ़ स्पष्ट कर दिया गया है। जो व्यक्ति ईमान का दावा करता है, मगर वास्तव में अल्लाह और उसके दीन और ईमानवालों की जमाअत के प्रति कोई निष्ठा नहीं रखता, उसके अनिष्ठावान होने का प्रमाण अगर उसकी रीति-नीति से मिल जाए तो उसके साथ कठोरता का व्यवहार किया जाएगा, अल्लाह की राह में खर्च करने के लिए वह कोई माल दे तो उसे रद्द कर दिया जाएगा। मर जाए तो न मुसलमान उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ेंगे और न कोई ईमानवाला उसके लिए मग़फ़िरत (मुक्ति) की दुआ करेगा, चाहे वह उसका बाप या भाई ही क्यों न हो। इसके विपरीत जो व्यक्ति ईमानवाला हो और उससे कोई अनिष्ठापूर्ण कार्य हो जाए, वह अगर अपने क़ुसूर को मान ले तो उसको क्षमा भी किया जाएगा, उसके सदके भी क़बूल किए जाएंगे और उसके लिए मरहमत की दुआ भी की जाएगी। अब रही यह बात कि किस व्यक्ति को अनिष्ठापूर्ण रीति अपनाने के बावजूद मुनाफ़िक़ के स्थान पर केवल गुनाहगार मोमिन (ईमानवाला) समझा जाएगा, तो यह तीन कसौटियों से परखी जाएगी जिनकी ओर इन आयतों में संकेत किया गया है :
1. वह अपनी ग़लती का कोई अनुचित कारण और वजह पेश करने के बजाय सीधी तरह साफ़-साफ़ लेगा,
2. उसकी पिछली कर्म नीति पर दृष्टि डालकर देखा जाएगा कि यह अनिष्ठा का आदी मुजरिम तो नहीं है। अगर उसका व्यवहार और कर्म नीति पहले खैर और भलाइयों की रही है तो मान लिया जाएगा कि यह केवल एक कमजोरी है जो क्षणिक रूप से सामने आ गई है।
3. उसके आगे की कार्म-नीति पर नज़र रखी जाएगी कि क्या उसका अपनी ग़लती स्वीकार कर लेना मात्र मौखिक है या वास्तव में उसके भीतर पछतावे का कोई गहरा एहसास मौजूद है। अगर वह अपने क़ुसूर की क्षति-पूर्ति के लिए बेचैन नज़र आए तो समझा जाएगा कि वह वास्तव में लज्जित है और यह लज्जा ही उसके ईमान और निष्ठा का प्रमाण होगी।
हदीस विशेषज्ञों ने इन आयतों के उतरने का कारण बताते हुए जिस घटना का उल्लेख किया है उससे यह विषय खुलकर सामने आ जाता है। वे कहते हैं कि ये आयतें अबू लुबाबा बिन अब्दुल मुंजिर (रजि०) और उनके छ: साथियों के मामले में उतरी थीं। अबू लुबाबा (रजि०) उन लोगों में से थे जो बैअते अक़्बा के अवसर पर हिजरत से पहले इस्लाम लाए थे, फिर बद्र, उहुद की लड़ाई और दूसरे युद्धों में बराबर सम्मिलित रहे, पर तबूक की लड़ाई के अवसर पर 'नफ्स' की कमज़ोरी ग़ालिब आ गई और ये किसी शरई कमज़ोरी के बिना बैठे रह गए। ऐसे ही निष्ठावान उनके दूसरे साधी भी थे और वे भी इसी कमज़ोरी के शिकार हो गए। जब नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई से वापस तशरीफ़ लाए और उन लोगों को मालूम हुआ कि पीछे रह जानेवालों के बारे में अल्लाह और रसूल की क्या राय है तो वे अति लज्जित हुए। इससे पहले कि कोई पूछ-गछ होती, उन्होंने स्वयं ही अपने आपको एक खम्बे से बाँध लिया और कहा कि हम पर सोना-खाना हराम है, जब तक हम क्षमा न कर दिए जाएं या फिर हम मर जाएँ । चुनांचे कई दिन वे इसी तरह बिना खाए-पिए और बिना सोए बंधे रहे, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। अन्ततः जब उन्हें बताया गया कि अल्लाह और रसूल (सल्ल०) ने तुम्हें क्षमा कर दिया तो उन्होंने नबी (सल्ल०) से निवेदन किया कि हमारी तौबा में यह भी शामिल है कि जिस घर के आराम ने हमें कर्त्तव्य से असावधान कर दिया, उसे और अपने तमाम माल को अल्लाह की राह में दे दें। मगर नबी। (सल्ल०) ने फ़रमाया कि सारा माल देने की आवश्यकता नहीं, केवल एक तिहाई काफी है। अतः वह उन्होंने उसी समय अल्लाह की राह में दे दिया। इस किस्से पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि अल्लाह के यहाँ क्षमा किस प्रकार की कमज़ोरियों के लिए है। ये सब लोग अभ्यस्त अनिष्ठावान न थे, बल्कि इनके जीवन का पिछला कारनामा इनकी ईमानी निष्टा का प्रमाण था। इनमें से किसी ने बहाने नहीं बनाए, बल्कि अपने कुसूर को स्वयं ही क़ुसूर मान लिया। उन्होंने क़ुसूर मानने के साथ अपने रवैये से सिद्ध कर दिया कि वे सच में अति लज्जित और अपने उस गुनाह की क्षतिपूर्ति के लिए बड़े बेचैन हैं।
100. अर्थ यह है कि अन्तत: मामला उस अल्लाह के साथ है जिससे कोई चीज़ छिप नहीं सकती। इसलिए मान लीजिए अगर कोई आदमी दुनिया में अपने निफाक को छिपाने में सफल हो आए और ईसान जिन-जिन कसौटियों पर किसी के ईमान और निष्ठा को परख सकते हैं उन सब पर भी पूरा उतर जाए, तो यह न समझना चाहिए कि वह निफाक की सजा पाने से बच निकला है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱشۡتَرَىٰ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَنفُسَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُم بِأَنَّ لَهُمُ ٱلۡجَنَّةَۚ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيَقۡتُلُونَ وَيُقۡتَلُونَۖ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ وَٱلۡقُرۡءَانِۚ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ مِنَ ٱللَّهِۚ فَٱسۡتَبۡشِرُواْ بِبَيۡعِكُمُ ٱلَّذِي بَايَعۡتُم بِهِۦۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ 110
(111) वास्तविकता यह है कि अल्लाह ने ईमानवालों से उनके जान और उनके माल जन्नत के बदले में ख़रीद लिए हैं।106 वे अल्लाह की राह में लड़ते और मारते और मरते हैं। उनसे (जन्नत का वादा) अल्लाह के जिम्मे एक पक्का वादा है. तौरात और इंजील और कुरआन में।107 और कौन है जो अल्लाह से बढ़कर अपने वादे का पूरा करनेवाला हो? पस खुशियाँ मनाओ अपने इस सौदे पर जो तुमने अल्लाह से चुका लिया है, यही सबसे बड़ी सफलता है।
106. यहाँ ईमान के उस मामले को जो अल्लाह और बन्दे के बीच तय होता है, 'क्रय-विक्रय' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ईमान वास्तव में एक समझौता है जिसके अनुसार बन्दा अपने प्राण और अपना धन अल्लाह के हाथ बेच देता है और उसके मुआवज़े में अल्लाह की ओर से इस बादे को क़बूल कर लेता है कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में वह उसे जन्नत प्रदान करेगा । इस महत्त्वपूर्ण विषय के निहित अर्थों को समझने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले इस क्रय-विकय की वास्तविकता को अच्छी तरह मन-मस्तिष्क में बिठा लिया जाए । जहाँ तक मूल वास्तविकता का ताल्लुक़ है, उसके अनुसार तो इंसान की जान व माल का स्वामी सर्वोच्च अल्लाह ही है, इसलिए यह क्रय-विकय इस अर्थ में नहीं है कि जो चीज़ इंसान की है, अल्लाह उसे ख़रीदना चाहता है। बल्कि इस मामले का सही रूप यह है कि जो चीज़ अल्लाह की है और जिसे उसने अमानत के तौर पर इंसान के हवाले किया है और जिसमें अमानतदार रहने या खियानत करनेवाला बन जाने की स्वतंत्रता उसने इंसान को दे रखी है, उसके बारे में वह इंसान से माँग करता है कि तू राज़ी-खुशी से (न कि मजबूरी से) मेरी चीज़ को मेरी ही चीज़ मान ले और ज़िन्दगी-भर उसमें साधिकार स्वामी की हैसियत से नहीं, बल्कि अमानतदार होने की हैसियत से ख़र्च करना स्वीकार कर ले। क्रय-विकय की इस वास्तविकता को समझ लेने के बाद अब उसमें अन्तर्निहित अर्थ का जाइज़ा लीजिए :
1. इस मामले में अल्लाह ने इंसान को दो बहुत बड़ी परीक्षाओं में डाला है। पहली परीक्षा इस बात की कि आजाद छोड़ दिए जाने पर यह अपने स्वामी के स्वामित्व का अधिकार स्वीकार करता है या नहीं? दूसरी
परीक्षा इस बात को कि यह अपने अल्लाह पर इतना भरोसा करता है या नहीं कि उसके किए हुए कल के जन्नत के वादे के बदले में अपनी आज की स्वतंत्रता और उसका आनन्द बेच देने पर खुशी से तैयार हो जाए।
2. अल्लाह के यहाँ जो ईमान विश्वसनीय है उसकी वास्तविकता यह है कि बन्दा विचार और व्यवहार दोनों में अपनी स्वतंत्रता को अल्लाह के हाथ बेच दे और उसके पक्ष में मिल्कियत के अपने दावे से पूरी तरह अलग हो जाए।
3. ईमान की यह वास्तविकता जीवन की इस्लामी रीति-नीति और जीवन के कुफ़वाली रीति-नीति को आदि से अन्त तक बिलकुल एक-दूसरे से अलग कर देती है । मुस्लिम व्यक्ति भी और मुस्लिम गिरोह भी, अपने जीवन के हर क्षेत्र में अल्लाह की मर्जी के अधीन होकर काम करता है। अल्लाह से स्वतंत्र होकर काम करना और अपने मन और मन से संबंधित चीज़ों के बारे में स्वयं यह फैसला करना कि हम क्या करें और क्या न करें, बहरहाल कुफ़ से सम्बन्धित जीवन की रीति-नीति है।
4. इस क्रय-विकय की रौशनी में अल्लाह की जिस मर्जी का पालन व्यक्ति पर अनिवार्य होता है, वह व्यक्ति की अपनी प्रस्तावित मर्जी नहीं, बल्कि वह मर्जी जो अल्लाह स्वयं बताए।
ये उस खरीदने-बेचने में अन्तर्निहित विषय हैं और इनको समझ लेने के बाद यह बात भी अपने आप समझ में आ जाती है कि इस ख़रीदने बेचने के मामले में मूल्य (अर्थात् जन्नत) को वर्तमान सांसारिक जीवन के अन्त तक के लिए क्यों स्थगित किया गया है? स्पष्ट है कि जन्नत केवल इस मान लेने का मुआवज़ा नहीं है कि 'बेचनेवाले ने अपनी जान व माल अल्लाह के हाथ बेच दिया', बल्कि वह इस कर्म का मुआवज़ा है कि 'बेचनेवाला अपने सांसारिक जीवन में इस बेची हुई चीज़ का मनमानी तौर पर उपभोग करना छोड़ दे और अल्लाह का अमानतदार बनकर उसकी मर्जी के अनुसार उपभोग करे।' इसलिए यह बेचना पूरा ही उस समय होगा जबकि बेचनेवाले का सांसारिक जीवन समाप्त हो जाए और वास्तव में यह प्रमाणित हो कि उसने बेचने का समझौता करने के बाद से अपने सांसारिक जीवन के अन्तिम क्षणों तक बेचने की शर्ते पूरी की हैं। इससे पहले वह न्याय की दृष्टि से मूल्य पाने का हकदार नहीं हो सकता ।
107. जहाँ तक इंजील का ताल्लुक है, उसमें आज भी हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम के बहुत से कथन हमें ऐसे मिलते हैं जो इस आयत के समानार्थी हैं, जैसे-
"मुबारक हैं वे जो सच्चाई की वजह से सताए गए हैं, क्योंकि आसमान की बादशाही उन्हीं की है।' (मत्ती 5 : 10, मत्ती 10: 39 और मत्ती 19 : 29 इत्यादि)
अलबत्ता तौरात जिस दशा में इस समय मौजूद है उसमें यह विषय नहीं पाया जाता, और यही विषय क्या, वह तो मरने के बाद की ज़िन्दगी, हिसाब के दिन और आख़िरत की जज़ा (बदला) व सज़ा के विचार ही से ख़ाली है, हालांकि यह विश्वास सदा से सत्य धर्म का अभिन्न अंग रहा है, लेकिन वर्तमान तोरात में इस विषय के न पाए जाने से यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि वास्तव में तोरात इससे खाली थी। सच तो यह है कि यहूदी अपने पतन काल में कुछ ऐसे भौतिकवादी और सांसारिक समृद्धि के भूखे हो गए ये कि उनके नजदीक नेमत और इनाम का कोई अर्थ इसके सिवा न रहा था कि वह इसी दुनिया में मिल जाए।
ٱلتَّٰٓئِبُونَ ٱلۡعَٰبِدُونَ ٱلۡحَٰمِدُونَ ٱلسَّٰٓئِحُونَ ٱلرَّٰكِعُونَ ٱلسَّٰجِدُونَ ٱلۡأٓمِرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱلنَّاهُونَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡحَٰفِظُونَ لِحُدُودِ ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 111
(112) अल्लाह की ओर बार-बार पलटनेवाले108, उसकी बन्दगी बजा लानेवाले, उसका गुणगान करनेवाले, उसके लिए जमीन में गर्दिश करने (घूमने फिरने) वाले109, उसके आगे झुकने और सजदे करनेवाले, नेकी का हुक्म देनेवाले, बदी से रोकनेवाले और अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करनेवाले110, (इस शान के होते हैं वे ईमानवाले जो अल्लाह से क्रय-विक्रय का यह मामला तय करते है। और ऐ नबी ! इन ईमानवालों को खुशखबरी दे दो।
108. अरबी में शब्द' अत्ताइबून ' प्रयुक्त हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'तौबा करनेवालें, लेकिन जिस शैली में या शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे स्पष्ट है कि तौबा करना ईमानवालों के स्थाई गुणों में से है, इसलिए इसका सही अर्थ यह है कि वे एक ही बार तौबा नहीं करते, बल्कि सदैव तौबा करते रहते हैं। और तौबा का मूल अर्थ सूकाना या पलटना है, इसलिए इस शब्द का वास्तविक भाव व्यक्त करने के लिए हमने इसका व्याख्यात्मक अनुवाद यूं किया है कि वे अल्लाह की ओर बार-बार पलटते हैं। ईमानवाला यद्यपि ख़ूब सोच-समझकर अल्लाह से अपनी जान व माल को खरीदने बेचने का मामला तय करता है, लेकिन चूँकि बार-बार ऐसे अवसर आते रहते हैं जबकि वह ईसान होने के नाते अस्थायी रूप से अल्लाह के साथ अपने ख़रीदने बेचने के मामले को भूल जाता है, इसलिए एक सच्चे ईमानवाले की हैसियत से जब भी उसकी यह अस्थायी भूल दूर होती है और वह अपनी गफलत से चौंकता है तो उसे शर्मिदगी होती है और वह अपने अल्लाह की ओर पलटकर अपनी प्रतिज्ञा को फिर से ताजा कर लेता है।
109. अरबी में शब्द 'साइहून प्रयुक्त हुआ है जिसकी व्याख्या कुछ टीकाकारों ने अस्साइमून' (रोज़ा रखनेवाले) केप में की है, लेकिन सियाहत' का अर्थ रोजा लाक्षणिक अर्थ है। शब्दकोष में इसका यह अर्थ नहीं है और किसी सहीह हदीस से भी इस शब्द का यह अर्थ प्रमाणित नहीं। इसलिए हम इस शब्द को मूल अर्थ ही मे लेना अधिक सही समझते हैं। फिर जिस तरह क़ुरआन में बहुत से मौक़ों पर ख़ाली ‘इंफ़ाक़' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ ख़र्च करना है और तात्पर्य उससे अल्लाह के रास्ते में खर्च करना है. इसी तरह यहाँ भी 'सियारत' से तात्पर्य मात्र धूमना-फिरना नहीं है, बल्कि ऐसे उद्देश्यों के लिए धरती में धूमना-फिरना है जो पवित्र और उच्च हो और जिनमें अल्लाह की ख़ुशी चाही गई हो, जैसे दीन स्थापित करने के लिए रिसाद, कुमवाले हिजरत, दीन की दावत, इंसानों का सुधार, अच्छे जान को तलब, अल्लाह की निशानियों का अवलोकन और हलाल रोजी की तलाश इत्यादि ।
وَمَا كَانَ ٱسۡتِغۡفَارُ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَن مَّوۡعِدَةٖ وَعَدَهَآ إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥٓ أَنَّهُۥ عَدُوّٞ لِّلَّهِ تَبَرَّأَ مِنۡهُۚ إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَأَوَّٰهٌ حَلِيمٞ 113
(114) इबराहीम ने अपने बाप के लिए जो मुक्ति की दुआ की थी वह तो इस वादे की वजह से थी जो उसने अपने बाप से किया था112, परन्तु जब उसपर यह बात खुल गई कि उसका बाप अल्लाह का वैरी है तो वह उससे विमुख हो गया। सत्य यह है कि इबराहीम बड़ा कोमल-हृदय और अल्लाह से डरनेवाला और सहनशील व्यक्ति था।113
112. संकेत है उस बात की ओर जो अपने मुशरिक बाप से ताल्लुकात समाप्त करते हुए हज़रत इबराहोम (अलैहि०) ने कही थी कि “आपको सलाम है । मैं आपके लिए अपने रब से दुआ करूँगा कि आपको क्षमा कर दे। वह मेरे ऊपर बहुत मेहरबान है। (क़ुरआन, 19 : 47) अतएव इसी वादे की बुनियाद पर आपने अपने बाप के लिए यह दुआ माँगी थी कि और मेरे बाप को क्षमा कर दे, निस्सन्देह वह गुमराह लोगों में से था और उस दिन मुझे रुसवा न कर,जबकि सब इंसान उठाए जाएँगे, जबकि न माल किसी के कुछ काम आएगा, न सन्तान, निजात (मुक्ति) केवल उसे मिलेगी जो अपने अल्लाह के समक्ष विद्रोह से पाक दिल लेकर हाजिर हुआ हो। (क़ुरआन, 26 : 86-89) यह दुआ एक तो स्वयं बड़ी संतुलित-शैली में माँगी गई थी, मगर इसके बाद जब हजरत इबराहीम (अलै०) की नज़र इस ओर गई कि मैं जिस आदमी के लिए दुआ कर रहा हूँ वह तो अल्लाह का खुल्लम-खुल्ला विद्रोही था, तो बे इससे भी बाज़ आ गए और एक सच्चे बफ़ादार ईमानवाले की तरह उन्होंने विद्रोही की हमदर्दी से साफ़-साफ़ अपने को अलग कर लिया।
113. अरबी में अव्वाह' और 'हलीम के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अव्वाह का अर्थ है बहुत आहें भरनेवाला, आँसू बहानेवाला, डरनेवाला, हसरत करनेवाला और 'हलीम उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने स्वभाव पर क़ाबू रखता हो, न क्रोध, शत्रुता और विरोध में आपे से बाहर हो, न मुहब्बत, दोस्ती और ताल्लुक जोड़ने में सन्तुलन छोड़ बैठे । ये दोनों इस जगह दोहरा अर्थ दे रहे हैं। हज़रत इबराहीम ने अपने बाप के लिए मुक्ति की दुआ की,क्योंकि वह बड़े नर्मदिल आदमी थे, इस विचार से कांप उठे ये कि मेरा यह बाप जहन्नम का ईंधन बन जाएगा, और हलीम थे उस अत्याचार के बाद भी जो उनके बाप ने इस्लाम से उनको रोकने के लिए उनपर किया था, उनकी ज़बान उसके हक में दुआ ही के लिए खुली। फिर उन्होंने यह देखकर कि उनका बाप अल्लाह का वैरी है, उससे अपने आपको अलग कर लिया, क्योंकि वह अल्लाह से डरनेवाले ईसान थे और किसी की मुहब्बत में सीमा का उल्लंघन करनेवाले न थे।
۞وَمَا كَانَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لِيَنفِرُواْ كَآفَّةٗۚ فَلَوۡلَا نَفَرَ مِن كُلِّ فِرۡقَةٖ مِّنۡهُمۡ طَآئِفَةٞ لِّيَتَفَقَّهُواْ فِي ٱلدِّينِ وَلِيُنذِرُواْ قَوۡمَهُمۡ إِذَا رَجَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَحۡذَرُونَ 121
(122) और यह कुछ जरूरी न था कि ईमानवाले सारे के सारे ही निकल खड़े होते, परन्तु ऐसा क्यों न हुआ कि उनकी आबादी के हर हिस्से में से कुछ लोग निकलकर आते और दीन की समझ पैदा करते और वापस जाकर अपने क्षेत्र के निवासियों को खबरदार करते, ताकि वे (ग़ैर इस्लामी नीति से) परहेज़ करते।120
120. इस आयत का उद्देश्य समझने के लिए इसी सूरा की आयत 97 दृष्टि में रखनी चाहिए, जिसमें केवल इतनी बात बयान करने को काफी समझ लिया गया था कि दारुल इस्लाम की देहाती आबादी का बड़ा भाग निफाक़ के रोग में इस वजह से गिरफ्त है कि ये सारे के सारे लोग अज्ञानता में पड़े हुए हैं । ज्ञान के केन्द्र से जुड़े न होने और ज्ञानवालों की संगति न मिलने के कारण अल्लाह के दीन की मर्यादाएँ उनको मालूम नहीं हैं। अब यह फरमाया जा रहा है कि देहाती आबादियों को इस हालत में पड़ा न रहने दिया जाए, बल्कि उनकी अज्ञानता को दूर करने और उनके अन्दर इस्लामी चेतना उत्पन्न करने का अब बाक़ायदा इन्तिज़ाम होना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए यह कुछ ज़रूरी न था कि तमाम देहाती अरब अपने-अपने घरों से निकल-निकलकर मदीना आ जाते और यहाँ ज्ञान प्राप्त करते । हर देहाती क्षेत्र और हर बस्ती और हर क़बीले से अगर कुछ आदमी निकलकर ज्ञान के केन्द्रों, जैसे मदीना और मक्का और ऐसी ही दूसरी जगहों में आकर दीन का ज्ञान प्राप्त करते, फिर अपनी-अपनी आबादियों में वापस जाकर अपने क्षेत्र के लोगों को दीन सिखाते, तो बद्दुओं में वह अज्ञानता बाक़ी न रहती जिसके कारण वे निफ़ाक़ की बीमारी का शिकार हैं और इस्लाम कबूल कर लेने के बाद भी मुसलमान होने का हक़ अदा नहीं करते।
यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि सार्वजनीक शिक्षा के जिस प्रबंध का आदेश इस आयत में दिया गया है, उसका मूल उद्देश्य आम लोगों को केवल पढ़ा-लिखा बनाना और उनमें किताब पढ़ लेने जैसे ज्ञान का फैलाना न था, बल्कि स्पष्ट रूप से उसका वास्तविक उद्देश्य यह तय किया गया था कि लोगों में दीन की समझ पैदा हो और उनको इस हद तक होशियार व ख़बरदार कर दिया जाए कि वे ग़ैर-इस्लामी जीवनशैली से बचने लगे। यह मुसलमानों की शिक्षा का वह बुनियादी और वास्तविक उद्देश्य है जो सदा सर्वदा के लिए अल्लाह ने स्वयं निश्चित कर दिया है, और हर शिक्षा-व्यवस्था को इसी दृष्टि से परखा जाएगा कि वह इस उद्देश्य को कहाँ तक पूरा करता है । (बाकी बीजों का जो महत्त्व होगा। इसके बाद ही होगा,इसके बिना कुछ भी न होगा।)
इस आयत में शब्द 'लि य-त-फ़क़्क़हू फ़िद-दीनि' (दीन की समझ पैदा करते) जो प्रयुक्त हुआ है, उससे बाद के लोगों में एक विचित्र ग़लतफहमी पैदा हो गई। अल्लाह ने तो 'दीन की समझ को शिक्षा का उद्देश्य बताया था, जिसका अर्थ है-दीन को समझना, उसकी व्यवस्था में सूझ-बूझ प्राप्त करना, उसके स्वभाव और उसकी आत्मा को समझना और इस योग्य हो जाना कि विचार और व्यवहार के हर पहलू में इंसान यह जान सके कि सोच का कौन-सा तरीक़ा और कार्य की कौन-सी पद्धति दीन की भावना के अनुरूप है, लेकिन आगे चलकर जो क़ानूनी जान 'फ़िक़ह' शब्द से जाना जाने लगा और जो धीरे-धीरे इस्लामी ज़िन्दगी की सिर्फ़ शक्ल (स्प्रिट के मुकाबले में) विस्तृत ज्ञान बनकर रह गया, लोगों ने शाब्दिक समानता के कारण समझ लिया कि बस यही वह चीज़ है जिसका प्राप्त करना अल्लाह के आदेश के अनुसार शिक्षा का अंतिम उद्देश्य है, हालाँकि वह सम्पूर्ण उद्देश्य नहीं, बल्कि केवल उद्देश्य का एक अंश था। इस बड़ी ग़लतफ़हमी से जो हानियाँ दीन और दीन के माननेवालों को पहुँची, उनका जायजा लेने के लिए तो एक भारी-भरकम किताब चाहिए, मगर यहाँ हम इसपर सचेत करने के लिए संक्षेप में इतना संकेत किए देते हैं कि मुसलमानों की धार्मिक शिक्षा को जिस चीज़ ने दीन को कम से खाली करके सिर्फ़ दीन के शरीर या दीन की शक्ल की व्याख्या तक केन्द्रित कर दिया और अंततः जिस चीज़ को वजह से मुसलमानों की जिन्दगी में एक निरी बेजान ज़ाहिरदारी, दीनदारी की आखिरी मंजिल बनकर रह गई, वह बड़ी हद तक यही ग़लतफहमी है।