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سُورَةُ عَبَسَ

80. अ-ब-स

(मक्का में उतरी, आयतें 42)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'अ़-ब-स' (त्योरी चढ़ाई) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

टीकाकारों और हदीस के विद्वानों ने एकमत होकर इस सूरा के उतरने की वजह यह बताई है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सभा में मक्का मुअज़्ज़मा के कुछ बड़े सरदार बैठे हुए थे और नबी (सल्ल०) उनको इस्लाम अपना लेने पर तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। इतने में इब्ने-उम्मे-मक्तूम नामक एक नेत्रहीन व्यक्ति नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने आपसे इस्लाम के बारे में कुछ पूछना चाहा। नबी (सल्ल०) को उनका यह हस्तक्षेप बुरा लगा और आपने उनसे बेरुख़ी बरती। इसपर अल्लाह की ओर से यह सूरा उतरी। इस ऐतिहासिक घटना से इस सूरा के उतरने का समय आसानी से निश्चित हो जाता है। एक तो यह कि यह बात सिद्ध है कि हज़रत इब्ने-उम्मे-मक्तूम बिल्कुल आरंभिक काल के इस्लाम लानेवालों में से हैं। दूसरे यह कि हदीस की जिन रिवायतों में इस घटना का वर्णन हुआ है, उनमें से कुछ से मालूम होता है कि उस समय वे इस्लाम ला चुके थे और कुछ से मालूम होता है कि इस्लाम की ओर उनका झुकाव हो चुका था और सत्य की खोज में नबी (सल्ल०) के पास आए थे। तीसरे यह कि नबी (सल्ल०) की सभा में जो लोग उस समय बैठे थे, विभिन्न रिवायतों में उनके नामों का उल्लेख किया गया है। इस सूची में हमें उत्बा, शैबा, अबू-जहल, उमैया-बिन-ख़ल्फ़ और उबई-बिन-ख़ल्फ़ जैसे इस्लाम के घोर विरोधियों के नाम मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय घटी थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ इन लोगों का मेल-जोल अभी बाक़ी था और संघर्ष इतना नहीं बढ़ा था कि आपके यहाँ उनका आना-जाना और आपके साथ उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला बन्द हो गया हो। ये सब बातें इसका प्रमाण हैं कि यह सूरा अति आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

प्रत्यक्ष रूप से इस सूरा में नबी (सल्ल०) के प्रति रोष व्यक्त किया गया है, लेकिन पूरी सूरा पर सामूहिक रूप से विचार किया जाए तो मालूम होता है कि वास्तव में रोष क़ुरैश के उन सरदारों पर व्यक्त किया गया है जो अपने गर्व, हठधर्मी, सत्य-विमुखता के आधार पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सत्य-प्रचार का तुच्छता के साथ खंडन कर रहे थे और [जहाँ तक नबी (सल्ल०) का ताल्लुक़ है, आपको सिर्फ़ प्रचार का सही तरीक़ा बताया गया है । आप (सल्ल०) ने नेत्रहीन के प्रति बेरुख़ी का और क़ुरैश के सरदारों के प्रति ध्यान देने का जो रवैया उस वक़्त अपनाया था, उस] का प्रेरक पूर्णत: निष्ठा और सत्य-सन्देश को आगे बढ़ाने की भावना थी, न कि बड़े लोगों का सम्मान और छोटे लोगों के अपमान का विचार। लेकिन अल्लाह ने आपको समझाया कि इस्लामी दावत का सही तरीक़ा यह नहीं है, बल्कि इस दावत की दृष्टि से आपके ध्यान देने के अस्ल हक़दार वे लोग हैं जिनमें सत्य अपनाने की तत्परता पाई जाती हो और आप और आपके उच्चस्तरीय आह्वान के पद से यह बात गिरी हुई है कि आप उसे उन अहंकारियों के सामने रखें जो अपनी बड़ाई के घमंड में यह समझते हों कि उनको आपकी नहीं, बल्कि आपको उनकी ज़रूरत है। यह सूरा के आरम्भ से आयत 16 तक का विषय है। इसके बाद आयत 17 से सीधे-सीधे रोष की दिशा उन काफ़िरों (इंकारियों) की ओर बदल जाती है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पैग़ाम को रद्द कर रहे थे।

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سُورَةُ عَبَسَ
80. अ़-ब-स
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
عَبَسَ وَتَوَلَّىٰٓ
(1) त्योरी चढ़ाई और विमुख हुआ
أَن جَآءَهُ ٱلۡأَعۡمَىٰ ۝ 1
(2) इस बात पर कि वह अंधा उसके पास आ गया।1
1. जिन नेत्रहीन का यहाँ उल्लेख किया गया है, उनसे तात्पर्य, जैसा कि हम सूरा के परिचय में उल्लेख कर चुके हैं, प्रसिद्ध सहाबी हज़रत इब्ने-उम्मे-मक्तूम (रजि०) हैं। ये पैग़म्बर (सल्ल०) की धर्म पत्नी हज़रत ख़दीजा (रजि०) के फुफेरे भाई थे। पैग़म्बर (सल्ल०) के साथ उनका यह रिश्ता मालूम हो जाने के बाद यह सन्देह बाक़ी नहीं रहता कि आपने उनको निर्धन या कम हैसियत का आदमी समझकर उनसे बेरुखी दिखाई थी और बड़े आदमियों की ओर ध्यान दिया था, बल्कि मूल कारण जिसके आधार पर आप (सल्ल०) ने उनके साथ यह रवैया अपनाया, शब्द आमा (नेत्रहीन) से मालूम होता है जिसे अल्लाह ने नबी (सल्ल०) की बेरुख़ी के कारण के रूप में स्वयं बयान फ़रमा दिया है। यानी नबी (सल्ल०) का विचार यह था कि मैं इस समय जिन लोगों को सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश कर रहा हूँ उनमें से कोई एक आदमी भी सन्मार्ग पा ले तो [वह इस नेत्रहीन मजबूर आदमी के मुक़ाबले में] इस्लाम को शक्ति पहुँचाने का बहुत बड़ा साधन बन सकता है, इसलिए इनको इस अवसर पर बात-चीत में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये जो कुछ समझना या मालूम करना चाहते हैं, उसे बाद में किसी समय भी मालूम कर सकते हैं।
وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّهُۥ يَزَّكَّىٰٓ ۝ 2
(3) तुम्हें क्या ख़बर, शायद वह सुधर जाए
أَوۡ يَذَّكَّرُ فَتَنفَعَهُ ٱلذِّكۡرَىٰٓ ۝ 3
(4) या नसीहत पर ध्यान दे, और नसीहत करना उसके लिए लाभप्रद हो?
أَمَّا مَنِ ٱسۡتَغۡنَىٰ ۝ 4
(5) जो आदमी बेपरवाही करता है
فَأَنتَ لَهُۥ تَصَدَّىٰ ۝ 5
(6) उसकी ओर तो तुम ध्यान देते हो।
وَمَا عَلَيۡكَ أَلَّا يَزَّكَّىٰ ۝ 6
(7) हालाँकि अगर वह न सुधरे तो तुमपर उसकी क्या ज़िम्मेदारी है?
وَأَمَّا مَن جَآءَكَ يَسۡعَىٰ ۝ 7
(8) और जो ख़ुद तुम्हारे पास दौड़ा आता है
وَهُوَ يَخۡشَىٰ ۝ 8
(9) और डर रहा होता है,
فَأَنتَ عَنۡهُ تَلَهَّىٰ ۝ 9
(10) उससे तुम बेरुख़ी अपनाते हो।2
2. यही है वह अस्ल बात जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दीन के प्रचार के मामले में इस अवसर पर नज़र-अंदाज़ कर दिया और इसी को समझाने के लिए अल्लाह ने पहले इब्ने-उम्मे-मक्तूम (रज़ि०) के साथ आप (सल्ल०) के रवैये पर पकड़ फ़रमाई, फिर आप (सल्ल०) को बताया कि सत्य-सन्देश देनेवाले की दृष्टि में वास्तविक महत्त्व किस चीज़ का होना चाहिए और किसका न होना चाहिए।
كَلَّآ إِنَّهَا تَذۡكِرَةٞ ۝ 10
(11) कदापि नहीं3, यह तो एक नसीहत है4,
3. अर्थात् ऐसा कदापि न करो। अल्लाह को भूले हुए और अपनी दुनिया के साज़ व सामान पर फूले हुए लोगों को अनुचित महत्त्व न दो। न इस्लाम की शिक्षा ऐसी चीज़ है कि जो इससे मुंह मोड़े, उसके सामने इसे खुशामदें करके पेश किया जाए और न तुम्हारी यह शान है कि इन घमण्डी लोगों को इस्लाम की ओर लाने के लिए किसी ऐसे ढंग से कोशिश करो जिससे ये इस भ्रम में पड़ जाएँ कि तुम्हारा कोई स्वार्थ इनसे अटका हुआ है, ये मान लेंगे तो तुम्हारी 'दावत' फैल सकेगी, वरना विफल हो जाएगी। सत्य इनसे उतना ही बेपरवाह है जितने ये सत्य से बेपरवाह हैं।
4. तात्पर्य है क़ुरआन।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 11
(12) जिसका जी चाहे, इसे क़बूल करे।
فِي صُحُفٖ مُّكَرَّمَةٖ ۝ 12
(13) यह ऐसे सहीफ़ों (पन्नों) में अंकित है जो आदरणीय हैं,
مَّرۡفُوعَةٖ مُّطَهَّرَةِۭ ۝ 13
(14) उच्चकोटि के हैं, पवित्र हैं,5
5. अर्थात् हर प्रकार की मिलावटों से पवित्र हैं। इनमें विशुद्ध सत्य की शिक्षा प्रस्तुत की गई है। किसी प्रकार के असत्य और विकृत विचार और दृष्टिकोण इनमें राह नहीं पा सके हैं।
بِأَيۡدِي سَفَرَةٖ ۝ 14
(15-16) प्रतिष्ठित और नेक कातिबों 6 (लिखनेवालों) के हाथों में रहते हैं।7
6. इनसे तात्पर्य वे फ़रिश्ते हैं जो क़ुरआन के इन सहीफ़ों को अल्लाह की सीधी हिदायत के अनुसार लिख रहे थे, उनकी रक्षा कर रहे थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तक उन्हें ज्यों का त्यों पहुँचा रहे थे।
7. जिस वार्ता-क्रम में ये आयतें आई हैं उनपर विचार किया जाए तो मालूम होता है कि उस जगह कुरआन मजीद की यह प्रशंसा केवल उसकी महानता बताने के लिए नहीं की गई है, बल्कि मूल उद्देश्य उन तमाम घमंडी लोगों को, जो घृणा के साथ इसकी दावत से मुँह मोड़ रहे हैं, साफ़-साफ़ जता देना है कि यह महान किताब इससे कहीं अधिक उच्च व श्रेष्ठ है कि तुम्हारे सामने इसे पेश किया जाए और तुमसे यह चाहा जाए कि तुम इसे स्वीकार करके सौभाग्य प्रदान करो। यह किताब तुम्हारी मुहताज नहीं है, बल्कि तुम इसके मुहताज हो।
كِرَامِۭ بَرَرَةٖ ۝ 15
0
قُتِلَ ٱلۡإِنسَٰنُ مَآ أَكۡفَرَهُۥ ۝ 16
(17) फिटकार हो8 इंसान पर9, यह सत्य का10 कैसा कट्टर इंकारी है,
8. यहाँ से क्रोध का रुख सीधे-सीधे उन इंकार करनेवालों की ओर फिरता है जो सत्य से बेपरवाही बरत रहे थे। इससे पहले, सूरा के आरम्भ से आयत 16 तक, सम्बोधन नबी (सल्ल०) से था और क्रोध अप्रत्यक्षतः सत्य के इंकारियों पर किया जा रहा था। उसकी वार्ता का अन्दाज़ यह था कि ऐ नबी ! सत्य के अभिलाषी को छोड़कर आप यह किन लोगों पर अपना ध्यान लगा रहे हैं। यह तो सत्य की दावत की दृष्टि से बिल्कुल मूल्यहीन और तुच्छ हैं। इनकी यह हैसियत नहीं है कि आप जैसा महान पैग़म्बर क़ुरआन जैसी ऊँची चीज़ को इनके आगे पेश करे।
9. कुरआन मजीद में ऐसी तमाम जगहों पर इंसानों से तात्पर्य इंसानी नसल का हर व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वे लोग होते हैं जिनके अप्रिय गुणों की निन्दा करना होता है। इंसान' का शब्द कहीं तो इसलिए का प्रयुक्त किया जाता है कि मानवजाति के अधिकतर लोगों में वे अप्रिय गुण पाए जाते हैं और कहीं इसके इस्तेमाल का कारण यह होता है कि विशेष लोगों को निश्चित करके अगर उनकी निन्दा की जाए तो उनमें हठ पैदा हो जाती है, इसलिए नसीहत का यह ढंग अधिक प्रभावी होता है कि साधारण अंदाज़ में बात कही जाए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-41, हा-मीम सज्दा, टिप्पणी 65; सूरा-42, अश-शूरा, टिप्पणी 75)
مِنۡ أَيِّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥ ۝ 17
(18) किस चीज़ से अल्लाह ने इसे पैदा किया है?
مِن نُّطۡفَةٍ خَلَقَهُۥ فَقَدَّرَهُۥ ۝ 18
(19) वीर्य की एक बूंद से।11 अल्लाह ने इसे पैदा किया, फिर इसका भाग्य नियत किया,12
11. अर्थात् पहले तो तनिक यह अपनी वास्तविकता पर विचार करे कि किस चीज़ से यह अस्तित्त्व में आया? किस जगह इसका पालन-पोषण हुआ? और किस बेबसी की हालत से दुनिया में इसकी ज़िंदगी का आरम्भ हुआ? अपनी इस अस्ल को भूलकर यह 'हम जो हैं दूसरे नहीं हैं' के भ्रम में कैसे पड़ जाता है और कहाँ इसके दिमाग़ में यह हवा भरती है कि अपने पैदा करनेवाले के मुँह आए? (यही बात है जो सूरा-36, या-सीन, आयत 77-78 में फ़रमाई गई है।)
12. अर्थात् यह अभी माँ के पेट ही में बन रहा था कि उसका भाग्य निश्चित कर दिया गया, उसकी [शारीरिक विशेषताएँ और उसकी मानसिक क्षमताएँ, उसकी जन्म-भूमि और उसका परिवार, उसकी जीवन-वृत्ति और उसका वातावरण, उसका चरित्र व आचरण, उसके व्यक्तित्त्व का निर्माण करनेवाले तत्त्व और उसकी जिंदगी की मुद्दत, सब कुछ तय कर दिया गया। इस भाग्य से यह बाल बराबर भी हट नहीं सकता। फिर कैसा विचित्र है इसका दुस्साहस कि जिस पैदा करनेवाले के बनाए हुए भाग्य के आगे यह इतना बेबस है, उसके मुकाबले में इंकार का रवैया अपनाता है।
ثُمَّ ٱلسَّبِيلَ يَسَّرَهُۥ ۝ 19
(20) फिर इसके लिए ज़िंदगी की राह आसान की13,
13. अर्थात् दुनिया में उन तमाम संसाधनों को जुटाया जिनसे यह काम ले सके, वरना इसके शरीर और बुद्धि की सारी शक्तियाँ बेकार साबित होतीं। इसके अलावा पैदा करनेवाले ने इसको यह मौक़ा भी दे दिया कि अपने लिए भलाई या बुराई, शुक्र या कुफ़्र, आज्ञापालन या अवज्ञा की जो राह भी यह अपनाना चाहे, अपनाए। उसने दोनों रास्ते इसके सामने खोलकर रख दिए और हर राह इसके लिए हमवार कर दी कि जिसपर भी यह चलना चाहे, चले।
ثُمَّ أَمَاتَهُۥ فَأَقۡبَرَهُۥ ۝ 20
(21) फिर इसे मौत दी और क़ब्र में पहुँचाया।14
14. अर्थात् अपनी पैदाइश और अपने भाग्य के मामले ही में नहीं बल्कि अपनी मौत के मामले में भी यह अपने पैदा करनेवाले के आगे बिल्कुल बेबस है। जिस वक्त, जहाँ, जिस हाल में भी इसकी मौत का निर्णय कर दिया गया है, उसी समय, उसी जगह और उसी हाल में वह मरकर रहता है और जिस प्रकार की क़ब्र भी उसके लिए तैयार कर दी गई है, उसी प्रकार की क़ब्र में वह पहुँच जाता है, चाहे वह ज़मीन का पेट हो या समुद्र की गहराइयाँ, आग का अलाव हो या किसी दरिदे का पेट।
ثُمَّ إِذَا شَآءَ أَنشَرَهُۥ ۝ 21
(22) फिर जब चाहे वह इसे दोबारा उठा खड़ा कर दे।15
15. अर्थात् इसकी यह मजाल भी नहीं है कि पैदा करनेवाला जब इसे मौत के बाद दोबारा जिंदा करके उठाना चाहे तो यह उठने से इंकार कर सके। पहले जब उसे पैदा किया गया था तो इससे पूछकर पैदा नहीं किया गया था, इससे राय नहीं ली गई थी कि तू पैदा होना चाहता है या नहीं। यह इंकार भी कर देता तो पैदा होकर रहता। इसी तरह अब दोबारा पैदा होना भी इसकी मर्जी पर टिका हुआ नहीं है कि यह मरकर उठना चाहे तो उठे और उठने से इंकार कर दे तो न उठे। पैदा करनेवाले की मर्जी के आगे इस मामले में भी यह बिल्कुल बेबस है। जब भी वह चाहेगा, इसे उठा खड़ा करेगा और इसको उठना होगा, चाहे यह राजी हो या न हो।
كَلَّا لَمَّا يَقۡضِ مَآ أَمَرَهُۥ ۝ 22
(23) कदापि नहीं, इसने वह कर्तव्य पूरा नहीं किया जिसका अल्लाह ने इसे हुक्म दिया था।16
16. हुक्म से तात्पर्य वह आदेश भी है जो अल्लाह ने प्राकृतिक मार्गदर्शन के रूप में हर इंसान के अन्दर रख दिया है, वह हुक्म भी जिसकी ओर इंसान का अपना अस्तित्त्व और ज़मीन से लेकर आसमान की सृष्टि का हर कण और ख़ुदाई ताक़त का हर दृश्य इशारा कर रहा है, और वह हुक्म भी जो हर काल में अल्लाह ने अपने नबियों और अपनी किताबों के जरीये से भेजा और हर काल के भले लोगों के जरीये से फैलाया है। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-76 अद-दहर, टिप्पणी 5) इस वार्ताक्रम में यह बात इस अर्थ में कही गई है कि जो तथ्य ऊपर की आयतों में बयान हुए हैं, उनके आधार पर अनिवार्य तो यह था कि इंसान अपने पैदा करनेवाले का आज्ञापालन करता, मगर उसने उलटे अवज्ञा का रास्ता अपनाया और बन्दा होने का जो तक़ाज़ा था, उसे पूरा न किया।
فَلۡيَنظُرِ ٱلۡإِنسَٰنُ إِلَىٰ طَعَامِهِۦٓ ۝ 23
(24) फिर तनिक इंसान अपने भोजन को देखें17,
17. अर्थात् जिस भोजन को वह एक साधारण चीज़ समझता है उसपर तनिक विचार करे कि यह आख़िर पैदा कैसे होता है। अगर अल्लाह ने इसके साधन न जुटाए होते तो क्या इंसान के बस में यह था कि ज़मीन पर वह भोजन खुद पैदा कर लेता?
أَنَّا صَبَبۡنَا ٱلۡمَآءَ صَبّٗا ۝ 24
(25) हमने ख़ूब पानी लुँढाया18,
18. इससे तात्पर्य वर्षा है। सूरज की गर्मी से अपार मात्रा में समुद्रों से पानी भाप बनाकर उठाया जाता है, फिर उससे बोझिल बादल बनते हैं, फिर हवाएँ उनको लेकर दुनिया के विभिन्न भागों में फैलाती हैं, फिर ऊपरी जगत् की ठंडक से वे भा नए सिरे से पानी का रूप धारण करतीं और हर क्षेत्र में एक खास हिसाब से बरसती हैं। फिर वह पानी सीधे तौर पर धरती पर बरसता है, भूमिगत कुँओं और स्रोतों का रूप भी धारण करता है, दरियाओं, नदियों और नालों के रूप में भी बहता है और पहाड़ों पर बर्फ के रूप में जमकर फिर पिघलता है और वर्षा के मौसम के सिवा दूसरे मौसमों में भी नदियों के अंदर बहता है। क्या ये सारे प्रबन्ध इंसान ने स्वयं किए हैं ? उसका पैदा करनेवाला उसको रोज़ी पहुँचाने के लिए यह प्रबन्ध न करता तो क्या इंसान ज़मीन पर जी सकता था?
ثُمَّ شَقَقۡنَا ٱلۡأَرۡضَ شَقّٗا ۝ 25
(26) फिर ज़मीन को अजीब तरह फाड़ा19,
19. ज़मीन को फाड़ने से तात्पर्य उसको इस तरह फाड़ना है कि जो बीज या गुठलियाँ या वनस्पति की पनीरियाँ इंसान उसके अन्दर बोए या जो हवाओं और परिंदों के जरीये या किसी और तरीके से उसके अन्दर पहुँच जाएँ, वे कोंपलें निकाल सकें। इंसान इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता कि ज़मीन को खोदता है या उसमें हल चलाता है और जो बीज अल्लाह ने पैदा कर दिए हैं, उन्हें ज़मीन के भीतर उतार देता है। इसके सिवा सब कुछ अल्लाह का काम है। उसी ने अनगिनत प्रकार की वनस्पतियों के बीज पैदा किए हैं। उसी ने इन बीजों में ये गुण पैदा किए हैं कि ज़मीन में पहुँचकर वे फूटें और हर बीज से उसी की प्रजाति की वनस्पति उगे, और उसी ने जमीन में यह क्षमता पैदा की है कि पानी से मिलकर वह इन बीजों को खोले और हर प्रजाति की वनस्पति के लिए उसकी स्थिति के अनुरूप भोजन पहुँचाकर उसे परवान चढ़ाए। ये बीज इन विशेषताओं के साथ और धरती की ये ऊपरी तहें इन क्षमताओं के साथ अल्लाह ने पैदा न की होती तो क्या इंसान कोई भोजन भी यहाँ पा सकता था?
فَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا حَبّٗا ۝ 26
(27) फिर उसके अन्दर उगाए अन्न
وَعِنَبٗا وَقَضۡبٗا ۝ 27
(28) और अंगूर और तरकारियाँ,
وَزَيۡتُونٗا وَنَخۡلٗا ۝ 28
(29) और जैतून और खजूरें,
وَحَدَآئِقَ غُلۡبٗا ۝ 29
(30) और घने बाग़,
وَفَٰكِهَةٗ وَأَبّٗا ۝ 30
(31) और तरह-तरह के फल और चारे,
مَّتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِأَنۡعَٰمِكُمۡ ۝ 31
(32) तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए जिंदगी के सामान के रूप में।20
20. अर्थात् तुम्हारे ही लिए नहीं बल्कि उन जानवरों के लिए भी जिनसे तुमको मांस, चर्बी, दूध-मक्खन आदि खाने की चीजें प्राप्त होती हैं और जो तुम्हारी आजीविका के लिए अनगिनत दूसरी सेवाएँ भी करते हैं। क्या यह सब कुछ इसी लिए है कि तुम इन चीजों से फ़ायदा भी उठाओ और जिस मालिक की रोजी पर पल रहे हो उसी का ईकार भी करो?
فَإِذَا جَآءَتِ ٱلصَّآخَّةُ ۝ 32
(33) आख़िरकार जब वह कान बहरे कर देनेवाली आवाज़21 बुलन्द होगी
21. नात्पर्य है अन्तिम बार सूर (नरसिंघा) में फूँके जाने की प्रलयकारी आवाज़ जिसके तेज होते ही तमाम मरे हुए इंसान जी उठेगे
يَوۡمَ يَفِرُّ ٱلۡمَرۡءُ مِنۡ أَخِيهِ ۝ 33
(34-35-36) उस दिन आदमी अपने भाई और अपनी माँ और अपने बाप और अपनी पत्नी और अपनी सन्तान से भागेगा।22
22. इससे मिलता-जुलता विषय सूरा-70 अल-मआरिज, आयत 10-14 में आ चुका है। भागने' का अर्थ यह भी हो सकता है कि वह अपने इन नातेदारों को, जो दुनिया में उसे सबसे ज़्यादा प्यारे थे, मुसीबत में फंसा देखकर बजाय इसके कि उनकी मदद को दौड़े, उलटा उनसे भागेगा कि कहीं वे उसे मदद के लिए पुकार न बैठें। और यह अर्थ भी हो सकता है कि दुनिया में अल्लाह से निर्भय और आखिरत से ग़ाफ़िल होकर जिस तरह ये सब एक-दूसरे के लिए गुनाह और एक-दूसरे को गुमराह करते रहे, उसके बुरे नतीजे सामने आते देखकर उनमें से हर एक-दूसरे से भागेगा कि कहीं वह अपनी गुमराहियों और पापों की ज़िम्मेदारी उसपर न डालने लगे। भाई को भाई से, औलाद को माँ-बाप से, पति को पत्नी से और माँ-बाप को औलाद से ख़तरा होगा कि ये अभागे अब हमारे खिलाफ मुकद्दमे के गवाह बननेवाले हैं।
وَأُمِّهِۦ وَأَبِيهِ ۝ 34
0
وَصَٰحِبَتِهِۦ وَبَنِيهِ ۝ 35
0
لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ يَوۡمَئِذٖ شَأۡنٞ يُغۡنِيهِ ۝ 36
(37) उनमें से हर व्यक्ति पर उस दिन ऐसा समय आ पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश न होगा।23
23. हदीसों में विभिन्न तरीकों और सनदों से यह उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क़ियामत के दिन सब लोग नंगे बुच्चे उठेंगे।" आपकी पवित्र बीवियों में से किसी ने (कुछ रिवायतों के अनुसार हज़रत आइशा रजि० ने और कुछ रिवायतों के अनुसार हजरत सौदा (रजि०) ने और कुछ रिवायतों के अनुसार एक औरत ने) घबरा कर पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या हमारे गुप्तांग उस दिन सबके सामने खुले होंगे?" नबी (सल्ल०) ने यही आयत पड़कर बताया कि उस दिन किसी को किसी को ओर देखने का होश न होगा। (नसई, तिमित्री, इने अबी हातिम, इन्ने जरीर, तबरानी, इब्ने मविया, बैहकी, हाकिम)
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ مُّسۡفِرَةٞ ۝ 37
(38) कुछ चेहरे उस दिन दमक रहे होंगे,
ضَاحِكَةٞ مُّسۡتَبۡشِرَةٞ ۝ 38
(39) प्रफुल्लित और प्रसन्न होंगे,
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذٍ عَلَيۡهَا غَبَرَةٞ ۝ 39
(40) और कुछ चेहरों पर उस दिन धूल उड़ रही होगी,
تَرۡهَقُهَا قَتَرَةٌ ۝ 40
(41) और क्लौस छाई हुई होगी,
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَفَرَةُ ٱلۡفَجَرَةُ ۝ 41
(42) यही इंकारी और दुराचारी लोग होंगे।