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سُورَةُ نُوحٍ

71. नूह

(मक्का में उतरी, आयते 28)

परिचय

नाम

'नूह' इस सूरा का नाम भी है और विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक भी, क्योंकि इसमें प्रारम्भ से अन्त तक हज़रत नूह (अलै०) ही का क़िस्सा बयान किया गया है।

उतरने का समय

यह भी मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है, जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आह्वान और प्रचार के मुक़ाबले में मक्का के इस्लाम-विरोधियों का विरोध बड़ी हद तक प्रचण्ड रूप धारण कर चुका था।

विषय और वार्ता

इसमें हज़रत नूह (अलै०) का क़िस्सा मात्र कथा-वाचन के लिए बयान नहीं किया गया है, बल्कि इससे अभीष्ट मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सावधान करना है कि तुम मुहम्मद (सल्ल०) के साथ वही नीति अपना रहे हो जो हज़रत नूह (अलैहि०) के साथ उनकी जाति के लोगों ने अपनाई थी। इस नीति को तुमने त्याग न दिया तो तुम्हें भी वही परिणाम देखना पड़ेगा जो उन लोगों ने देखा था। पहली आयत में बताया गया है कि हज़रत नूह (अलैहि०) को जब अल्लाह ने पैग़म्बरी के पद पर आसीन किया था, उस समय क्या सेवा उन्हें सौंपी गई थी। आयत 2 से 4 तक में संक्षिप्त रूप से यह बताया गया है कि उन्होंने अपने आह्वान का आरम्भ किस तरह किया और अपनी जाति के लोगों के समक्ष क्या बात रखी। फिर दीर्घकालों तक आह्वान एवं प्रसार के कष्ट उठाने के बाद जो वृत्तान्त हज़रत नूह (अलैहि०) ने अपने प्रभु की सेवा में प्रस्तुत किया वह आयत 5 से 20 तक में वर्णित है। इसके बाद हज़रत नूह (अलैहि०) का अन्तिम निवेदन आयत 21 से 24 तक में अंकित है जिसमें वे अपने प्रभु से निवेदन करते हैं कि यह जाति मेरी बात निश्चित रूप से रद्द कर चुकी है। अब समय आ गया है कि इन लोगों को मार्ग पाने के अवसर से वंचित कर दिया जाए। यह हज़रत नूह (अलैहि०) की ओर से किसी अधैर्य का प्रदर्शन न था, बल्कि सैकड़ों वर्ष तक अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में सत्य के प्रचार के कर्तव्य का निर्वाह करने के बाद जब वे अपनी जाति के लोगों से पूर्णत: निराश हो गए तो उन्होंने अपनी यह धारणा बना ली कि अब इस जाति के सीधे मार्ग पर आने की कोई सम्भावना शेष नहीं है। यह विचार ठीक-ठीक वही था जो स्वयं अल्लाह का अपना निर्णय था। अत: इसके फ़ौरन बाद आयत 25 में कहा गया है कि उस जाति पर उसकी करतूतों के कारण ईश्वरीय यातना अवतरित हुई। अन्त की आयतों में हज़रत नूह (अलैहि०) की वह प्रार्थना प्रस्तुत की गई है जो उन्होंने ठीक यातना उतरने के समय अपने प्रभु से की थी। इसमें वे अपने लिए और सब ईमानवालों के लिए मुक्ति की प्रार्थना करते हैं और अपनी जाति के सत्य-विरोधियों के विषय में अल्लाह से निवेदन करते हैं कि उनमें से किसी को धरती पर बसने के लिए जीवित न छोड़ा जाए, क्योंकि उनमें अब कोई भलाई शेष नहीं रही। उनके वंशज में से जो भी उठेगा, विधर्मी और दुराचारी ही उठेगा। इस सूरा का अध्ययन करते हुए हज़रत नूह (अलैहि०) के क़िस्से के वे विस्तृत वर्णन दृष्टि में रहने चाहिएँ जो इससे पहले क़ुरआन मजीद में वर्णित हो चुके हैं। (देखिए क़ुरआन सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 59-64; सूरा-10 यूनुस, आयत 71-73; सूरा-11 हूद, आयत 25-49; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 23-31; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 105-122; सूरा-29 अल-अन्‍कबूत, आयत 14-15; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 75-82; सूरा-54 अल-क़मर, आयत 9-16)

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سُورَةُ نُوحٍ
71. नूह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرۡ قَوۡمَكَ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ
(1) हमने नूह को उसकी क़ौम की ओर भेजा (इस आदेश के साथ) कि आपनी क़ौम के लोगों को सचेत कर दे इससे पहले कि उनपर एक दर्दनाक अज़ाब आ जाए।1
1. अर्थात् उनको इस बात से सचेत कर दे कि जिन गुमराहियों और नैतिक दोषों में वे पड़े हुए हैं वे उनको अल्लाह के अज़ाब का हकदार बना देंगी अगर वे उनसे बाज न आए, और उनको बता दे कि उस आज़ाब से बचने के लिए उन्हें कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए।
قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 1
(2) उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं तुम्हारे लिए एक साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला (पैग़म्बर) हूँ।
أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱتَّقُوهُ وَأَطِيعُونِ ۝ 2
(3) (तुमको बताता हूँ) कि अल्लाह की बन्दगी करो और उससे डरो और मेरी आज्ञा का पालन करों2,
2. ये तीन बातें थीं जो हजरत नूह (अलैहि०) ने अपनी रिसालत (पैग़म्बरी) का आरंभ करते हुए अपनी क़ौम के सामने प्रस्तुत की- एक अल्लाह की बन्दगी, दूसरी तक्रवा (खुदा का डर) और तीसरी रमूल का आज्ञापालन।
يَغۡفِرۡ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُؤَخِّرۡكُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمًّىۚ إِنَّ أَجَلَ ٱللَّهِ إِذَا جَآءَ لَا يُؤَخَّرُۚ لَوۡ كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 3
(4) अल्लाह तुम्हारे गुनाहों को माफ़ करेगा3 और तुम्हें एक निश्चित समय तक बाक़ी रखेगा।4 सत्य तो यह है कि अल्लाह का नियत किया हुआ समय जब आ जाता है तो फिर टाला नहीं जाता।5 काश, तुम्हें इसका ज्ञान हो।6"
3. मूल अरबी शब्द हैं 'याफिर लकुम मिन जुनूबिकुम'। इसका अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह तुम्हारे गुनाहो में से कुछ को क्षमा कर देगा, बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि अगर तुम इन तीन बातों को स्वीकार कर लो जो तुम्हारे सामने प्रस्तुत की जा रही हैं तो अब तक जो गुनाह तुम कर चुके हो, उन सबको वह क्षमा कर देगा।
4. अर्थात् अगर तुमने ये तीन बातें मान ली तो तुम्हें दुनिया में उस समय तक जीने की मुहलत दे दी जाएगी जो अल्लाह ने तुम्हारी प्राकृतिक मौत के लिए निश्चित किया है।
قَالَ رَبِّ إِنِّي دَعَوۡتُ قَوۡمِي لَيۡلٗا وَنَهَارٗا ۝ 4
(5) उसने7 अर्ज़ किया, "ऐ मेरे रब! मैंने अपनी क़ौम के लोगों को रात व दिन पुकारा,
7. बीच में एक लम्बी अवधि का इतिहास छोड़कर अब हज़रत नूह (अलैहि०) के उस आवेदन का उल्लेख किया जा रहा है जो उन्होंने अपनी रिसालत के आख़िरी दौर में अल्लाह के सामने पेश किया।
فَلَمۡ يَزِدۡهُمۡ دُعَآءِيٓ إِلَّا فِرَارٗا ۝ 5
(6) मगर मेरी पुकार ने उनके पलायन (फ़रार) ही में बढ़ोत्तरी की।8
8. अर्थात् जितना-जितना मैं उनको पुकारता गया, उतने ही ज्यादा दूर भागते चले गए।
وَإِنِّي كُلَّمَا دَعَوۡتُهُمۡ لِتَغۡفِرَ لَهُمۡ جَعَلُوٓاْ أَصَٰبِعَهُمۡ فِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَٱسۡتَغۡشَوۡاْ ثِيَابَهُمۡ وَأَصَرُّواْ وَٱسۡتَكۡبَرُواْ ٱسۡتِكۡبَارٗا ۝ 6
(7) और जब भी मैंने उनको बुलाया, ताकि तू उन्हें माफ़ कर दे9, उन्होंने कानों में उंगलियाँ ढूँस लीं और अपने कपड़ों से मुँह ढाँक लिए10 और अपनी नीति पर अड़ गए और बड़ा घमंड किया।11
9. इसमें अपने आप यह विषय सम्मिलित है कि वे अवज्ञा की नीति छोड़कर माफ़ी मांगें, क्योंकि इसी सूरत में उनको अल्लाह से माफ़ी मिल सकती थी।
10. मुँह ढाँकने का उद्देश्य या तो यह था कि वे हज़रत नूह (अलैहि०) की बात सुनना तो दूर की बात, आपकी शक्ल भी देखना पसन्द न करते थे या फिर यह हरकत वे इसलिए करते थे कि आपके सामने से गुजरते हुए मुँह छिपाकर निकल जाएँ और इसकी नौबत ही न आने दें कि आप उन्हें पहचानकर उनसे बात करने लगे। यह ठीक वही नीति थी जो मक्का के इस्लाम विरोधी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ अपना रहे थे। (देखिए सूरा-11 हूद, टिप्पणी 5-6)
ثُمَّ إِنِّي دَعَوۡتُهُمۡ جِهَارٗا ۝ 7
(8) फिर मैंने उनको हाँक-पुकार कर बुलावा दिया,
ثُمَّ إِنِّيٓ أَعۡلَنتُ لَهُمۡ وَأَسۡرَرۡتُ لَهُمۡ إِسۡرَارٗا ۝ 8
(9) फिर मैंने एलानिया भी उनको सन्देश पहुँचाया और चुपके-चुपके भी समझाया।
فَقُلۡتُ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ إِنَّهُۥ كَانَ غَفَّارٗا ۝ 9
(10) मैंने कहा, "अपने रब से माफ़ी माँगो, निस्सन्देह वह बड़ा माफ़ करनेवाला है।
يُرۡسِلِ ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡكُم مِّدۡرَارٗا ۝ 10
(11) वह तुमपर आसमान से ख़ूब वर्षाएँ करेगा,
وَيُمۡدِدۡكُم بِأَمۡوَٰلٖ وَبَنِينَ وَيَجۡعَل لَّكُمۡ جَنَّٰتٖ وَيَجۡعَل لَّكُمۡ أَنۡهَٰرٗا ۝ 11
(12) तुम्हें माल और संतान से अनुगृहीत करेगा, तुम्हारे लिए बाग़ पैदा करेगा और तुम्हारे लिए नहरें जारी कर देगा।12
12. यह बात क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर बयान की गई है कि अल्लाह से विद्रोह का रवैया सिर्फ़ आख़िरत ही में नहीं, दुनिया में भी इंसान की जिंदगी को तंग कर देती है और इसके विपरीत अगर कोई क़ौम अवज्ञा के बजाए ईमान व तक़वा और अल्लाह के आदेशों के पालन का तरीका अपना ले तो यह आख़िरत ही में लाभप्रद नहीं है, बल्कि दुनिया में भी उसपर नेमतों की वर्षा होने लगती है। जैसे सूरा-5 अल-माइदा, आयत 66 में फ़रमाया गया है, "और अगर इन अहले-किताब ने तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम किया होता जो इनके रब की ओर से इनके पास भेजी गई थीं तो इनके लिए ऊपर से रोज़ी बरसती और नीचे से उबलती।" [इसी तरह] सूरा-7 आराफ़, आयत 96 में फ़रमाया, "और अगर बस्तियों के लोग ईमान लाते और तक़वा का रवैया अपनाते तो हम इनपर आसमान और ज़मीन से बरकतों के दरवाज़े खोल देते।" (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-5 अल-माइदा, टिप्पणी 96; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 3, 573; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 105 सूरा-38 साँद की भूमिका) क़ुरआन मजीद के इसी आदेश को व्यवहार में लाते हुए एक बार अकाल के अवसर पर हज़रत उमर (रज़ि०) वर्षा की दुआ करने के लिए निकले और केवल माफ़ी माँगने ही पर बस किया। लोगों ने अर्ज़ किया, अमीरुल मोमिनीन। आपने वर्षा के लिए तो दुआ की ही नहीं। फ़रमाया, मैंने आसमान के उन दरवाज़ों को खटखटा दिया है जहाँ से वर्षा उतरती है, और फिर सूरा-71 नूह की ये आयतें लोगों को पढ़कर सुना दी। (इन्ने-जरीर व इन्ने कसीर)
مَّا لَكُمۡ لَا تَرۡجُونَ لِلَّهِ وَقَارٗا ۝ 12
(13) तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह के लिए तुम किसी गौरव की आशा नहीं रखते?13
13. अर्थ यह है कि दुनिया के छोटे-छोटे रईसों और सरदारों के बारे में तो तुम यह समझते हो कि उनकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध कोई हरकत करना ख़तरनाक है, मगर सारे जहान के रब अल्लाह के बारे में तुम यह आशा नहीं रखते कि वह भी कोई प्रतिष्ठित हस्ती होगा। उसके विरुद्ध विद्रोह करते हो, उसकी खुदाई में दूसरों को शरीक ठहराते हो, उसके आदेशों की अवज्ञा करते हो और उससे तुम्हें यह भय नहीं पैदा होता कि वह उसकी सज़ा देगा।
وَقَدۡ خَلَقَكُمۡ أَطۡوَارًا ۝ 13
(14) हालाँकि उसने तरह-तरह से तुम्हें बनाया है14।
14. अर्थात् जन्म के विभिन्न चरणों और अवस्थाओं से गुजारता हुआ तुम्हें वर्तमान अवस्था तक लाया है। पहले तुम माँ और बाप की पीठों में अलग-अलग वीर्यों के रूप में थे, फिर खुदा के सामर्थ्य ही से ये दोनों वीर्य मिले और तुम्हारा गर्भ ठहरा। फिर नौ महीने तक माँ के पेट में धीरे-धीरे विकसित करके तुम्हें पूर्ण मानव रूप दिया गया और तुम्हारे भीतर वे समस्त शक्तियाँ पैदा की गई जो दुनिया में इंसान की हैसियत से काम करने के लिए तुम्हें चाहिए थीं। फिर एक जिंदा बच्चे के रूप में तुम माँ के पेट से बाहर आए और हर क्षण तुम्हें एक हालत से दूसरी हालत तक तरक्की दी जाती रही, यहाँ तक कि तुम जवानी और बुढ़ापे की उम्र को पहुँचे। इन तमाम चरणों से होते हुए तुम हर समय पूरी तरह अल्लाह के बस में थे। वह चाहता तो तुम्हारा गर्भ ही न ठहरने देता और तुम्हारी जगह किसी और आदमी का गर्भ ठहर जाता। वह चाहता तो माँ के पेट ही में तुम्हें अंधा, बहरा, गूंगा या अपाहिज बना देता या तुम्हारी बुद्धि में कोई दोष रख देता। वह चाहता तो तुम जिंदा बच्चे के रूप में पैदा ही न होते, पैदा होने के बाद भी वह तुम्हें हर वक़्त नष्ट कर सकता था और उसके एक संकेत पर किसी वक़्त भी तुम किसी दुर्घटना का शिकार हो सकते थे। जिस ख़ुदा के हाथ में तुम इस तरह विवश हो उसके बारे में तुमने यह कैसे समझ रखा है कि उसकी शान में हर गुस्ताखी की जा सकती है। उसके साथ हर प्रकार की नमकहरामी और एहसान फरामोशी की जा सकती है। उसके विरुद्ध हर प्रकार का विद्रोह किया जा सकता है और इन हरकतों की कोई सजा तुम्हें भुगतनी नहीं पड़ेगी।
أَلَمۡ تَرَوۡاْ كَيۡفَ خَلَقَ ٱللَّهُ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖ طِبَاقٗا ۝ 14
(15) क्या देखते नहीं हो कि अल्लाह ने किस तरह सात आसमान ऊपर तले बनाए,
وَجَعَلَ ٱلۡقَمَرَ فِيهِنَّ نُورٗا وَجَعَلَ ٱلشَّمۡسَ سِرَاجٗا ۝ 15
(16) और उनमें चाँद को नूर (प्रकाश) और सूरज को चिराग (प्रदीप) बनाया?
وَٱللَّهُ أَنۢبَتَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ نَبَاتٗا ۝ 16
(17) और अल्लाह ने तुमको ज़मीन से अद्भुत रूप से उगाया,15
15. यहाँ धरती के पदार्थों से इंसान की पैदाइश को वनस्पतियों के उगने की उपमा दी गई है। जिस तरह किसी समय इस धरती पर वनस्पति मौजूद न थी और फिर अल्लाह ने यहाँ उसको उगाया, उसी तरह एक समय था जब धरती पर इंसान का कोई अस्तित्व न था, फिर अल्लाह ने यहाँ उसकी पौध लगाई।
ثُمَّ يُعِيدُكُمۡ فِيهَا وَيُخۡرِجُكُمۡ إِخۡرَاجٗا ۝ 17
(18) फिर वह तुम्हें इसी धरती में वापस ले जाएगा और इससे अचानक तुमको निकाल खड़ा करेगा।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ بِسَاطٗا ۝ 18
(19) और अल्लाह ने धरती को तुम्हारे लिए बिछौने की तरह बिछा दिया,
لِّتَسۡلُكُواْ مِنۡهَا سُبُلٗا فِجَاجٗا ۝ 19
(20) ताकि तुम उसके अन्दर खुले रास्तों में चलो।16
16. मूल अरबी शब्द 'मक्र' से मुराद उन सरदारों और नेताओं के वे छल-कपट हैं जिनसे वे अपनी क़ौम की जनता को हज़रत नूह (अलैहि०) की शिक्षाओं के विरुद्ध बहकाने की कोशिश करते थे। जैसे, वे कहते थे कि नूह तुम्ही जैसा एक आदमी है, कैसे मान लिया जाए कि इसपर ख़ुदा की ओर से वय आई है (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 63; सूरा-11 हूद, आयत 27) । नूह की पैरवी तो हमारे गिरे-पड़े लोगों ने बेसोचे-समझे स्वीकार कर ली है। अगर उसकी बात में कोई वज़न होता तो क़ौम के बड़े उसपर ईमान लाते (सूरा-11 हूद, आयत 27)। खुदा को अगर भेजना होता तो कोई फ़रिश्ता भेजता (सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 24)। अगर यह व्यक्ति खुदा का भेजा हुआ होता तो इसके पास ख़ज़ाने होते, इसको परोक्ष-ज्ञान प्राप्त होता और यह फ़रिश्तों की तरह तमाम इंसानी ज़रूरतों से बेनियाज़ (निस्पृह) होता (सूरा-11 हूद, आयत 31)। नूह और उसके अनुयायियों में आखिर कौन सा चमत्कार दिखाई पड़ता है जिसके आधार पर उनकी बड़ाई मान ली जाए (सूरा-11 हूद, आयत 29) । यह आदमी वास्तव में तुमपर अपनी सरदारी जमाना चाहता है (सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 24)। इस व्यक्ति पर किसी जिन्न का साया है जिसने इसे दीवाना बना दिया है (सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 25) । क़रीब-करीब यही बातें थीं जिनसे कुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) के विरुद्ध लोगों को बहकाया करते थे।
قَالَ نُوحٞ رَّبِّ إِنَّهُمۡ عَصَوۡنِي وَٱتَّبَعُواْ مَن لَّمۡ يَزِدۡهُ مَالُهُۥ وَوَلَدُهُۥٓ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 20
(21) नूह ने कहा, "ऐ मेरे रब! उन्होंने मेरी बात रद्द कर दी और उन (रईसों) का अनुसरण किया जो माल और सन्तान पाकर और अधिक असफल हो गए हैं।
وَمَكَرُواْ مَكۡرٗا كُبَّارٗا ۝ 21
(22) उन लोगों ने बड़ा भारी छल-कपट का जाल फैला रखा है।
وَقَالُواْ لَا تَذَرُنَّ ءَالِهَتَكُمۡ وَلَا تَذَرُنَّ وَدّٗا وَلَا سُوَاعٗا وَلَا يَغُوثَ وَيَعُوقَ وَنَسۡرٗا ۝ 22
(23) इन्होंने कहा, कदापि न छोड़ो अपने उपास्यों को और न छोड़ो वद्द और सुवाअ को, और न यगूस व यऊक और नस्त्र को17 ।
17. नूह (अलैहि०) की क़ौम के उपास्यों में से यहाँ उन उपास्यों के नाम लिए गए हैं जिन्हें बाद में अरबवासियों ने भी पूजना शुरू कर दिया था और इस्लाम के आरंभ में जगह-जगह उनके उपासनाग्रह बने हुए थे। असंभव नहीं कि तूफान में जो लोग बच गए थे उनके मुख से बाद की नस्लों में नूह (अलैहि०) की क़ौम के प्राचीन उपास्यों का वर्णन सुना होगा और जब नए सिरे से उनकी सन्तानों में अज्ञानता फैली होगी तो इन्हीं उपास्यों के बुत बनाकर उन्होंने फिर उन्हें पूजना शुरू कर दिया होगा। वद्द क़बीला कज़ाआ की शाखा बनी कल्ब बिन-वबरा का उपास्य था जिसका स्थान उन्होंने दूमतुल-जन्दल में बना रखा था। अरब के प्राचीन शिला लेखों में इसका नाम वद्दाम अबम (वद्द बापू) लिखा हुआ मिलता है। कल्बी का बयान है कि उसका बुत एक भारी-भरकम जिस्मवाले मर्द की शक्ल में बना हुआ था। क़ुरैश के लोग भी इसको उपास्य मानते थे और इसका नाम उनके यहाँ वुद था। इसी के नाम पर इतिहास में एक व्यक्ति का नाम अब्दे-वुद्द' मिलता है। 'सुवाअ' हुजैल क़बीले की देवी थी और उसका बुत औरत की शक्ल का बनाया गया था। यंबूअ के क़रीब रुहात के स्थान पर उसका मन्दिर स्थित था। यग़ूस तै क़बीले की शाखा अनउम और क़बीला मज़हिज की कुछ शाखाओं का उपास्य था। मज़हिजवालों ने यमन और हिजाज़ के दर्मियान जुरसिश नामी स्थान पर उसका बुत स्थापित कर रखा था, जिसकी शक्ल शेर की थी। कुरैश के लोगों में भी कुछ का नाम अब्दे-यगूस मिलता है। यऊक़ यमन के हमदान क्षेत्र में हमदान क़बीले की शाखा खैवान का उपास्य था और उसका बुत घोड़े की शक्ल का था। नस्र हिमयर के क्षेत्र में क़बीला हिमयर की शाखा आले-जुल-कुलाअ का उपास्य था और बलखा के स्थान पर उसकी मूर्ति लगी हुई थी जिसकी शक्ल गिद्ध की-सी थी। सबा के प्राचीन शिला-लेखों में इसका नाम नसूर लिखा हुआ मिलता है। इसके मन्दिर को वे लोग बैते-नसूर और उसके पुजारियों को अहले-नसूर कहते थे। प्राचीन मन्दिरों के जो चिह्न अरब और उसके पास के क्षेत्रों में पाए जाते हैं, इनमें से बहुत-से मन्दिरों के दरवाज़ों पर गिद्ध का चित्र बना हुआ है।
وَقَدۡ أَضَلُّواْ كَثِيرٗاۖ وَلَا تَزِدِ ٱلظَّٰلِمِينَ إِلَّا ضَلَٰلٗا ۝ 23
(24) इन्होंने बहुत लोगों को पथभ्रष्ट किया है, और तू भी इन जालिमों को गुमराही के सिवा किसी चीज़ में तरक़्क़ी न दे।''18
18. जैसा कि हम इस सूरा के परिचय में बयान कर चुके हैं, हज़रत नूह (अलैहि०) की यह बद-दुआ (अभिशाप) किसी अधीरता के कारण न थी, बल्कि यह उस समय उनके मुख से निकली थी जब सदियों तक समझाने-बुझाने और प्रचार-प्रसार का हक़ अदा करने के बाद वे अपनी क़ौम से पूरी तरह निराश हो चुके थे। ऐसी ही परिस्थितियों में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने भी फ़िरऔन और फ़िरऔन की क़ौम के हक़ में यह बद-दुआ की थी कि "पालनहार! इनके माल नष्ट कर दे और इनके दिलों पर ऐसी मुहर कर दे कि ईमान न लाएँ, जब तक दर्दनाक अज़ाब न देख लें।" और अल्लाह ने उसके उत्तर में फ़रमाया था, "तुम्हारी दुआ क़बूल की गई।" (सूरा-10 यूनुस, आयत 88-89) हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरह हज़रत नूह (अलैहि०) की यह बद-दुआ भी अल्लाह की मंशा के ठीक अनुसार थी। चुनाँचे सूरा ।। हूद में इर्शाद हुआ है,"और नूह पर वह्य की गई कि तेरी क्रीम में से जो लोग ईमान ला चुके हैं, उनके सिवा अब और कोई ईमान लानेवाला नहीं है, अब उनके करतूतों पर दुखी होना छोड़ दे।" (सूरा 11 हूद, आयत 36)
مِّمَّا خَطِيٓـَٰٔتِهِمۡ أُغۡرِقُواْ فَأُدۡخِلُواْ نَارٗا فَلَمۡ يَجِدُواْ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ أَنصَارٗا ۝ 24
(25) अपनी खताओं के कारण ही वे डुबोए गए और आग में झोंक दिए गए,19 फिर उन्होंने अपने लिए अल्लाह से बचानेवाला कोई सहायक न पाया20।
19. अर्थात् डूब जाने पर उनका किस्सा पूरा नहीं हो गया, बल्कि मरने के बाद तुरन्त ही उनकी रूहें आग के अज़ाब में डाल दी गई। यह ठीक वही मामला है जो फ़िरऔन और उसकी क़ौम के साथ किया गया, जैसा कि सूरा-40 मोमिन, आयत 45-46 में बयान किया गया है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 63) यह आयत भी उन आयतों में से है जिनसे बरज़ख का अज़ाब साबित होता है।
20. अर्थात् अपने जिन उपास्यों को वे अपना समर्थक व सहायक समझते थे उनमें से कोई भी उन्हें बचाने के लिए न आया। यह मानो चेतावनी थी मक्कावालों के लिए कि तुम भी अगर अल्लाह के अजाब के शिकार हो गए तो तुम्हारे ये उपास्य जिनपर तुम भरोसा किए बैठे हो, तुम्हारे किसी काम न आएंगे।
وَقَالَ نُوحٞ رَّبِّ لَا تَذَرۡ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ دَيَّارًا ۝ 25
(26) और नूह ने कहा, "ऐ मेरे रब! इन इंकार करनेवालों में से कोई धरती पर बसनेवाला न छोड़।
إِنَّكَ إِن تَذَرۡهُمۡ يُضِلُّواْ عِبَادَكَ وَلَا يَلِدُوٓاْ إِلَّا فَاجِرٗا كَفَّارٗا ۝ 26
(27) अगर तूने इनको छोड़ दिया तो ये तेरे बन्दों को गुमराह करेंगे और इनकी नस्ल से जो भी पैदा होगा, दुराचारी और बड़ा इंकार करनेवाला ही होगा।
رَّبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيَّ وَلِمَن دَخَلَ بَيۡتِيَ مُؤۡمِنٗا وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۖ وَلَا تَزِدِ ٱلظَّٰلِمِينَ إِلَّا تَبَارَۢا ۝ 27
(28) मेरे रब, मुझे और मेरे माँ-बाप को और हर उस व्यक्ति को जो मेरे घर में ईमानवाले की हैसियत से दाख़िल हुआ है और सब ईमानवाले मदों और ईमानवाली औरतों को माफ़ कर दे और ज़ालिमों के लिए तबाही के सिवा किसी चीज़ में अभिवृद्धि न कर।"