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سُورَةُ القَلَمِ

68. अल-क़लम

(मक्का में उतरी, आयतें 52)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम 'नून' भी है और 'अल-क़लम' भी। दोनों शब्द सूरा के आरम्भ ही में मौजूद हैं।

उतरने का समय

यह मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल [में उस समय] अवतरित हुई थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध बड़ी हद तक उग्र रूप धारण कर चुका था।

विषय और वार्ता

इसमें तीन विषय वर्णित हुए हैं : (1) विरोधियों के आक्षेपों का उत्तर, (2) उनको चेतावनी और उपदेश और (3) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को धैर्य और अपनी जगह जमे रहने की नसीहत। वार्ता के आरम्भ में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा गया है कि ये इस्लाम-विरोधी तुम्हें दीवाना कहते हैं, हालाँकि जो किताब तुम प्रस्तुत कर रहे हो और नैतिकता के जिस उच्च पद पर तुम आसीन हो, वह स्वयं इनके इस झूठ के खण्डन के लिए पर्याप्त है। शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब सभी देख लेंगे कि दीवाना कौन था और बुद्धिमान कौन। अत: विरोध का जो तूफ़ान तुम्हारे विरुद्ध उठाया जा रहा है, उसके दबाव में कदापि न आना। फिर जनसामान्य की आँखें खोलने के लिए नाम लिए बिना विरोधियों में से एक प्रमुख व्यक्ति का चरित्र प्रस्तुत किया गया है, [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) किस पवित्र नैतिक स्वभाव [के मालिक हैं और] आपके विरोध में मक्का के जो सरदार आगे-आगे हैं उनमें किस चरित्र के लोग सम्मिलित हैं। इसके पश्चात् आयत 17-33 तक एक बाग़वालों की मिसाल पेश की गई है जो अल्लाह से सुख-सामग्री पाकर उसके प्रति अकृतज्ञ रहे और उनमें जो व्यक्ति सबसे अच्छा था, समय पर उसकी नसीहत न मानी। अन्ततः वे उस नेमत (कृपानिधि) से वंचित होकर रह गए। यह मिसाल प्रस्तुत करके मक्कावालों को सावधान किया गया है कि यदि तुम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की [बात न मानोगे तो तुम्हें भी उसी तरह विनाश का सामना करना पड़ेगा।] फिर आयत 34-47 तक निरन्तर इस्लाम-विरोधियों को हितोपदेश दिया गया है, जिसमें कहीं तो सम्बोधन प्रत्यक्षत: उनसे है और कहीं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सम्बोधित करते हुए वास्तव में सचेत उनको ही किया गया है। अन्त में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अल्लाह का फ़ैसला आने तक जिन कठिनाइयों का भी धर्म-प्रसार के मार्ग में सामना करना पड़े उनको धैर्य के साथ सहन करते चले जाएँ और उस अधैर्य से बचें जिसके कारण यूनुस (अलैहि०) आज़माइश में डाले गए थे।

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سُورَةُ القَلَمِ
68. अल-क़लम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
نٓۚ وَٱلۡقَلَمِ وَمَا يَسۡطُرُونَ
(1) नून, क़सम है क़लम की और उस चीज़ की जिसे लिखनेवाले लिख रहे हैं।1
1. क़ुरआन के प्रमुख टीकाकार मुजाहिद कहते हैं कि कलम से मुराद वह कलम है जिससे 'ज़िक्र' अर्थात् क़ुरआन लिखा जा रहा था। इससे अपने आप यह नतीजा निकलता है कि वह चीज़ जो लिखी जा रही थी उससे तात्पर्य कुरआन मजीद है।
مَآ أَنتَ بِنِعۡمَةِ رَبِّكَ بِمَجۡنُونٖ ۝ 1
(2) तुम अपने रब की कृपा से 'मजनून' (उन्मादी) नहीं हो2।
2. यह है वह बात जिस पर क़लम और किताब की कसम खाई गई है। मतलब यह है कि यह क़ुरआन जो वस्य (प्रकाशना) के लिपिकों के हाथों लिखा जा रहा है, अपने आप में इस्लाम विरोधियों के इस आरोप के खंडन के लिए काफ़ी है कि (अल्लाह की पनाह!) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मजनून (उन्मादी) हैं। यह ऊँचे दर्जे की सुभाषितायुक्त, प्रभावकारी वाणी, जो ऐसे ऊँचे दर्जे के विषयों पर सम्मिलित है, इसका प्रस्तुत करना तो इस बात का प्रमाण है कि मुहम्मद (सल्ल०) पर अल्लाह की विशेष कृपा हुई है, कहाँ यह कि इसे इस बात का प्रमाण बनाया जाए कि आप (अल्लाह की पनाह) दीवाने हो गए हैं। इस जगह पर यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि यहाँ सम्बोधन तो बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से है, लेकिन अस्ल मक़सद इस्लाम-विरोधियों को उनके आरोप का उत्तर देना [और उन] से यह कहना है कि तुम जिस कुरआन की वजह से उसके प्रस्तुत करनेवाले को मजनून कह रहे हो, वही तुम्हारे इस आरोप के झूठे होने का प्रमाण है। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-52 अत-तूर, टिप्पणी 22)
وَإِنَّ لَكَ لَأَجۡرًا غَيۡرَ مَمۡنُونٖ ۝ 2
(3) और निश्चित रूप से तुम्हारे लिए ऐसा बदला है जिसका सिलसिला कभी समाप्त होनेवाला नहीं।3
3. अर्थात् आपके लिए इस बात पर बेहिसाब और कभी न खत्म होनेवाला बदला है कि आप अल्लाह के बन्दों को मार्ग दिखाने के लिए जो कोशिश कर रहे हैं, उनके उत्तर में आपको ऐसी-ऐसी पीड़ादायक बातें सुननी पड़ रही हैं और फिर भी आप अपने इस फ़र्ज़ को अंजाम दिए चले जा रहे हैं।
وَإِنَّكَ لَعَلَىٰ خُلُقٍ عَظِيمٖ ۝ 3
(4) और निश्चित रूप से तुम नैतिकता के उच्च पद पर हो।4
4. इस जगह यह वाक्य दो अर्थ दे रहा है- एक यह कि आप चरित्र के अत्यन्त उच्च पद पर आसीन हैं, इसी वजह से आप बन्दों को सत्य-मार्ग दिखाने के काम में ये पीड़ाएँ सहन कर रहे हैं, वरना एक कमज़ोर चरित्र का इंसान यह काम नहीं कर सकता था। दूसरे यह कि कुरआन के अलावा आपके उच्च चरित्र भी इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस्लाम-विरोधी आप पर उन्माद (दीवानगी) का जो आरोप लगा रहे हैं, वह बिल्कुल ही झूठा है, क्योंकि शील-स्वभाव की उच्चता और उन्माद, दोनों एक जगह जमा नहीं हो सकते । अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के चरित्र जैसे कुछ थे, मक्कावाले उनसे नाबाक़िफ़ न थे। इसलिए उनकी ओर केवल संकेत कर देना ही इस बात के लिए काफ़ी था कि मक्का का हर समझदार व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो जाए कि वे लोग कितने बेशर्म हैं जो ऐसे उच्च चरित्रवाले व्यक्ति को मजनून (उन्मादी) कह रहे हैं।
فَسَتُبۡصِرُ وَيُبۡصِرُونَ ۝ 4
(5) जल्द ही तुम भी देख लोगे और वे भी देख लेंगे
بِأَييِّكُمُ ٱلۡمَفۡتُونُ ۝ 5
(6) कि तुममें से कौन जुनून (उन्माद) में ग्रस्त है।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 6
(7) तुम्हारा रब उन लोगों को भी खूब जानता है जो उसकी राह से भटके हुए हैं और वही उनको भी अच्छी तरह जानता है जो सीधे रास्ते पर हैं।
فَلَا تُطِعِ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 7
(8) अत: तुम इन झुठलानेवालों के दबाव में कदापि न आओ।
وَدُّواْ لَوۡ تُدۡهِنُ فَيُدۡهِنُونَ ۝ 8
(9) ये तो चाहते हैं कि कुछ तुम झुको तो ये भी झुकें।5
5. अर्थात् तुम इस्लाम के प्रचार में कुछ ढीले पड़ जाओ तो ये भी तुम्हारे विरोध में कुछ नर्मी अपना लें या तुम इनकी गुमराहियों की रिआयत करके अपने दीन में कुछ संशोधन करने पर तैयार हो जाओ तो ये तुम्हारे साथ समझौता कर लें।
وَلَا تُطِعۡ كُلَّ حَلَّافٖ مَّهِينٍ ۝ 9
(10) कदापि न दबो किसी ऐसे व्यक्ति से जो बहुत क़समें खानेवाला हीन व्यक्ति है6,
6. मूल में अरबी शब्द 'महीन' प्रयुक्त हुआ है जो हीन, अपमानित और घटिया आदमी के लिए बोला जाता है। वास्तव में यह बहुत कसमें खानेवाले व्यक्ति का अनिवार्य गुण है। वह बात-बात पर इसलिए क़सम खाता है कि उसे ख़ुद यह एहसास होता है कि लोग उसे झूठा समझते हैं और उसकी बात पर उस समय तक विश्वास नहीं करेंगे जब तक वह क़सम न खाए। इस कारण वह अपनी दृष्टि में ख़ुद भी अपमानित होता है और समाज में भी उसका कोई मूल्य नहीं होता।
هَمَّازٖ مَّشَّآءِۭ بِنَمِيمٖ ۝ 10
(11) ताने देता है, चुग़लियाँ खाता फिरता है,
مَّنَّاعٖ لِّلۡخَيۡرِ مُعۡتَدٍ أَثِيمٍ ۝ 11
(12) भलाई से रोकता है।7 ज़ुल्म व ज़्यादती में हद से गुज़र जानेवाला है, बड़ा दुराचारी है,
7. मूल में अरबी शब्द 'मन्नाइल लिल खैर' प्रयुक्त हुए हैं। 'खैर' अरबी भाषा में माल को भी कहते हैं और भलाई को भी। अगर इसको माल के अर्थ में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि वह बड़ा कंजूस आदमी है। किसी को फूटी कौड़ी देने का भी वादार नहीं। और अगर खैर को नेकी और भलाई के अर्थ में लिया जाए तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वह हर नेक काम में रुकावट डालता है और यह भी कि वह इस्लाम से लोगों को रोकने में अत्यन्त सक्रिय है।
عُتُلِّۭ بَعۡدَ ذَٰلِكَ زَنِيمٍ ۝ 12
(13) अत्याचारी है8 और इन सब दोषों के साथ अधम है9,
8. मूल में अरबी शब्द 'उतुल' प्रयुक्त हुआ है जो अरबी भाषा में ऐसे व्यक्ति के लिए बोला जाता है जो ख़ूब हट्टा-कट्टा और बहुत खाने-पीनेवाला हो और इसके साथ अत्यन्त बुरे स्वभाववाला, झगड़ालू और अत्याचारी हो।
9. मूल में अरबी शब्द 'ज़नीम' प्रयुक्त हुआ है। अरबों की भाषा में यह शब्द उस 'हरामी' (अवैध) बच्चे के लिए बोला जाता है जो वास्तव में एक परिवार का व्यक्ति न हो मगर उसमें शामिल हो गया हो। सईद बिन ज़ुबैर और शाबी कहते हैं कि यह शब्द उस व्यक्ति के लिए बोला जाता है जो लोगों में अपनी बुराई की वजह से प्रसिद्ध और जाना जाता हो। इन आयतों में जिस व्यक्ति के ये गुण बयान किए गए हैं [क़ुरआन मजीद ने उसका नाम नहीं लिया है], इससे मालूम होता है कि मक्का में वह अपने इन गुणों के लिए इतना प्रसिद्ध था कि उसका नाम लेने की ज़रूरत न थी। उसके ये गुण सुनते ही हर व्यक्ति समझ सकता है कि संकेत किसकी ओर है।
أَن كَانَ ذَا مَالٖ وَبَنِينَ ۝ 13
(14) इस कारण कि वह बहुत माल व औलाद रखता है10,
10. इस वाक्य का संबंध ऊपर के वार्ता-क्रम से भी हो सकता है और बाद के वाक्य से भी। पहली शक्ल में अर्थ यह होगा कि ऐसे व्यक्ति की धौंस इस कारण स्वीकार न करो कि वह बहुत माल और औलाद रखता है। दूसरी शक्ल में अर्थ यह होगा कि बहुत माल व औलाद होने के कारण वह घमंडी हो गया है। जब हमारी आयतें उसको सुनाई जाती हैं तो कहता है कि ये अगले वक़्तों की कहानियाँ हैं।
إِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِ ءَايَٰتُنَا قَالَ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 14
(15) जब हमारी आयतें उसको सुनाई जाती हैं तो कहता है कि ये तो अगले समयों की कहानियाँ हैं।
سَنَسِمُهُۥ عَلَى ٱلۡخُرۡطُومِ ۝ 15
(16) बहुत जल्द हम उसकी सूंड पर दाग़ लगाएँगे।11
11. चूँकि वह अपने आपको बड़ी नाकवाला समझता था, इसलिए उसकी नाक को सूंड कहा गया है और नाक पर दाग लगाने' से मुराद अपमानित करना है अर्थात् हम दुनिया और आख़िरत में उसको ऐसा अपमानित करेंगे कि अनन्तकाल तक यह बदनामी उसका पीछा न छोड़ेगी।
إِنَّا بَلَوۡنَٰهُمۡ كَمَا بَلَوۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ إِذۡ أَقۡسَمُواْ لَيَصۡرِمُنَّهَا مُصۡبِحِينَ ۝ 16
(17) हमने इन (मक्कावालों) को उसी तरह परीक्षा में डाला है जिस तरह एक बाग़ के मालिकों को परीक्षा में डाला था12, जब उन्होंने क़सम खाई कि सुबह सवेरे ज़रूर ही अपने बाग़ के फल तोड़ेंगे,
12. इस जगह पर सूरा-18 अल-कह्फ़ की आयतें 32-44 भी सामने रहें, जिनमें इस तरह शिक्षा दिलाने के लिए दो बागवालों की मिसाल पेश की गई है।
وَلَا يَسۡتَثۡنُونَ ۝ 17
(18) और वे ऐसा न होने की कोई गुंजाइश नहीं रख रहे थे।13
13. अर्थात् उन्हें अपनी सामर्थ्य और अपने अधिकार पर ऐसा भरोसा था कि क़सम खा कर बे-झिझक कह दिया कि हम कल ज़रूर अपने बाग़ के फल तोड़ेंगे और यह कहने की कोई ज़रूरत वे महसूस नहीं करते थे कि अगर अल्लाह ने चाहा तो हम यह काम करेंगे।
فَطَافَ عَلَيۡهَا طَآئِفٞ مِّن رَّبِّكَ وَهُمۡ نَآئِمُونَ ۝ 18
(19) रात को वे सोए पड़े थे कि तुम्हारे रब की ओर से एक बला उस बाग़ पर फिर गई
فَأَصۡبَحَتۡ كَٱلصَّرِيمِ ۝ 19
(20) और उसकी ऐसी दशा हो गई जैसे कटी हुई फ़सल हो।
فَتَنَادَوۡاْ مُصۡبِحِينَ ۝ 20
(21) सुबह उन लोगों ने एक-दूसरे को पुकारा
أَنِ ٱغۡدُواْ عَلَىٰ حَرۡثِكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰرِمِينَ ۝ 21
(22) कि अगर फल तोड़ने हैं तो सवेरे-सवेरे अपनी खेती14 की तरफ़ निकल चलो।
14. खेती का शब्द शायद इसलिए प्रयुक्त किया गया है कि बाग़ में पेड़ों के बीच में खेत भी थे।
فَٱنطَلَقُواْ وَهُمۡ يَتَخَٰفَتُونَ ۝ 22
(23) अत: वे चल पड़े और आपस में चुपके-चुपके कहते जाते थे
أَن لَّا يَدۡخُلَنَّهَا ٱلۡيَوۡمَ عَلَيۡكُم مِّسۡكِينٞ ۝ 23
(24) कि आज कोई मिस्कीन (मुहताज) तुम्हारे पास बाग़ में न आने पाए।
وَغَدَوۡاْ عَلَىٰ حَرۡدٖ قَٰدِرِينَ ۝ 24
(25) वे कुछ न देने का फ़ैसला किए हुए सुबह-सवेरे जल्दी-जल्दी15 इस तरह वहाँ गए जैसे कि वे (फल तोड़ने की) सामर्थ्य रखते हैं,
15. मूल में अरबी शब्द हैं 'अला हर्द' । हर्द अरबी भाषा में रोकने और न देने के लिए भी बोला जाता है । इरादे और तयशुदा फ़ैसले के लिए भी इस्तेमाल होता है, और जल्दी' के अर्थ में भी इस्तेमाल होता है। इसी लिए हमने अनुवाद में तीनों अर्थों की रिआयत रखी है।
فَلَمَّا رَأَوۡهَا قَالُوٓاْ إِنَّا لَضَآلُّونَ ۝ 25
(26) मगर जब बाग़ को देखा तो कहने लगे, "हम रास्ता भूल गए हैं
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 26
(27) नहीं, बल्कि हम वंचित रह गए।"16
16. अर्थात् पहले तो उन्हें बाग़ को देखकर विश्वास न हुआ कि यह उन्हीं का बाग़ है और कहने लगे कि शायद हम रास्ता भूलकर किसी और जगह निकल आए हैं। फिर जब गौर किया और मालूम हुआ कि यह उनका अपना बारा ही है, तो चीख उठे कि हमारा भाग्य फूट गया।
قَالَ أَوۡسَطُهُمۡ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ لَوۡلَا تُسَبِّحُونَ ۝ 27
(28) उनमें जो सबसे बेहतर आदमी था उसने कहा, "मैंने तुमसे कहा न था कि तुम महिमागान क्यों नहीं करते?''17
17. इसका मतलब यह है कि जब वे कसम खाकर कह रहे थे कि कल हम अपने बाग़ के फल ज़रूर तोड़ेंगे, उस समय इस व्यक्ति ने उनको सचेत किया था कि अल्लाह को याद क्यों नहीं करते? क्यों यह बात भूल गए हो कि ऊपर पालनहार मौजूद है ? मगर उन्होंने इसकी परवाह न की। फिर जब वे मुहताजों को कुछ न देने का फैसला कर रहे थे, उस वक़्त भी इसने उन्हें नसीहत की कि अल्लाह को याद करो और इस बुरी नीयत से बाज़ आ जाओ, मगर वे अपनी बात पर जमे रहे।
قَالُواْ سُبۡحَٰنَ رَبِّنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 28
(29) वे पुकार उठे, “पाक है हमारा रब, वास्तव में हम गुनाहगार थे।"
فَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَلَٰوَمُونَ ۝ 29
(30) फिर उनमें से हर एक दूसरे को मलामत करने (कोसने) लगा।18
18. अर्थात् हर एक ने दूसरे को इलज़ाम देना शुरू किया कि उसके बहकाने से हम ख़ुदा को भूल गए और बदनीयती में ग्रस्त हो गए।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا طَٰغِينَ ۝ 30
(31) आख़िर को उन्होंने कहा, "अफ़सोस हमारे हाल पर, निस्सन्देह हम सरकश हो गए थे।
عَسَىٰ رَبُّنَآ أَن يُبۡدِلَنَا خَيۡرٗا مِّنۡهَآ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا رَٰغِبُونَ ۝ 31
(32) असम्भव नहीं कि हमारा रब हमें बदले में इससे बेहतर बाग प्रदान करे। हम अपने रब की ओर रुजूअ करते हैं।"
كَذَٰلِكَ ٱلۡعَذَابُۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 32
(33) ऐसा होता है अज़ाब, और आख़िरत का अज़ाब इससे भी बड़ा है। काश, ये लोग इसको जानते!
إِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 33
(34) निश्चय ही19 अल्लाह से डरनेवाले लोगों के लिए उनके रब के यहाँ नेमत भरी जन्नतें हैं।
19. मक्का के बड़े-बड़े सरदार मुसलमानों से कहते थे कि हमको ये नेमतें जो दुनिया में मिल रही हैं, ये ख़ुदा के यहाँ हमारे प्रिय और मान्य होने की निशानियाँ हैं, और तुम जिस दुर्दशा के शिकार हो, यह इस बात का प्रमाण है कि तुमपर ख़ुदा का प्रकोप है। इसलिए अगर कोई आख़िरत हुई भी, जैसा कि तुम कहते हो, तो हम वहाँ भी मज़े करेंगे और अज़ाब तुम पर होगा, न कि हम पर। इसका उत्तर इन आयतों में दिया गया है।
أَفَنَجۡعَلُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ كَٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 34
(35) क्या हम आज्ञाकारियों की हालत अपराधियों जैसी कर दें?
مَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 35
(36) तुम लोगों को क्या हो गया है, तुम कैसे फ़ैसले करते हो?20
20. अर्थात् यह बात बुद्धि के विरुद्ध है कि ख़ुदा आज्ञाकारी और अपराधी में अन्तर न करे। तुम्हारी समझ में आख़िर कैसे यह बात आती है कि सृष्टि का पैदा करनेवाला कोई अंधा राजा है, जो यह नहीं देखेगा कि किन लोगों ने दुनिया में उसके आदेशों का पालन किया और कौन लोग थे जो उससे निडर होकर हर प्रकार के गुनाह और अपराध और अन्याय व अत्याचार करते रहे ? तुमने ईमान लानेवालों की दुर्दशा और अपनी ख़ुशहाली तो देख ली, मगर अपने और उनके चरित्र तथा आचरण का अन्तर नहीं देखा और बे-झिझक फैसला कर दिया कि ख़ुदा के यहाँ इन आज्ञाकारियों के साथ तो अपराधियों जैसा मामला किया जाएगा और तुम जैसे अपराधियों को जन्नत प्रदान कर दी जाएगी।
أَمۡ لَكُمۡ كِتَٰبٞ فِيهِ تَدۡرُسُونَ ۝ 36
(37) क्या तुम्हारे पास कोई किताब21 है जिसमें तुम यह पढ़ते हो
21. अर्थात् अल्लाह की भेजी हुई किताब।
إِنَّ لَكُمۡ فِيهِ لَمَا تَخَيَّرُونَ ۝ 37
(38) कि तुम्हारे लिए ज़रूर वहाँ वही कुछ है जो तुम अपने लिए पसन्द करते हो?
أَمۡ لَكُمۡ أَيۡمَٰنٌ عَلَيۡنَا بَٰلِغَةٌ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ إِنَّ لَكُمۡ لَمَا تَحۡكُمُونَ ۝ 38
(39) या फिर क्या तुम्हारे लिए क़ियामत के दिन तक हम पर कुछ प्रण एवं प्रतिज्ञाएँ साबित हैं कि तुम्हें वही कुछ मिलेगा जिसका तुम फ़ैसला करो?
سَلۡهُمۡ أَيُّهُم بِذَٰلِكَ زَعِيمٌ ۝ 39
(40) इनसे पूछो, तुममें से कौन इसकी गारंटी लेता है?22
22. मूल में अरबी शब्द 'ज़ईम' प्रयुक्त हुआ है। अरबी साहित्य में 'जईम' उस व्यक्ति को कहते हैं जो ज़िम्मेदार या जामिन या किसी क़ौम की ओर से बोलनेवाला हो। मतलब यह है कि तुममें से कौन आगे बढ़कर यह दावा करता है कि उसने अल्लाह से तुम्हारे लिए ऐसा कोई वचन ले रखा है।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَآءُ فَلۡيَأۡتُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ إِن كَانُواْ صَٰدِقِينَ ۝ 40
(41) या फिर इनके ठहराए हुए कुछ साझीदार हैं (जिन्होंने इसका ज़िम्मा लिया हो)? यह बात है तो लाएँ अपने उन साझीदारों को अगर ये सच्चे हैं।23
23. अर्थात् तुम अपने पक्ष में जो फैसला कर रहे हो उसके लिए सिरे से कोई बुनियाद नहीं है। यह बुद्धि के भी विरुद्ध है। ख़ुदा की किसी किताब में भी तुम यह लिखा हुआ नहीं दिखा सकते। तुममें से कोई यह दावा भी नहीं कर सकता कि उसने ख़ुदा से ऐसा कोई वचन ले लिया है और जिनको तुमने उपास्य बना रखा है, उनमें से भी किसी से तुम यह गवाही नहीं दिलवा सकते कि ख़ुदा के यहाँ तुम्हें जन्नत दिलवा देने का वह ज़िम्मा लेता है। फिर यह भ्रम आखिर तुम्हारे अन्दर कहाँ से पैदा हो गया।
يَوۡمَ يُكۡشَفُ عَن سَاقٖ وَيُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلسُّجُودِ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 41
(42) जिस दिन कठिन समय आ पड़ेगा24 और लोगों को सजदा करने के लिए बुलाया जाएगा तो ये लोग सजदा न कर सकेंगे,
24. मूल अरबी शब्द हैं, 'यौ-म युक्शफु अन साक़' (जिस दिन पिंडुली खोली जाएगी) सहाबा और ताबिईन का एक गरोह कहता है कि अरबी मुहावरे के अनुसार 'सख्त वक़्त आ पड़ने को' पिंडुली खोलना कहा जाता है। एक और कथन जो इब्ने-अब्बास और रबीअ बिन अनस (रजि०) से उद्धृत है, इसमें पिंडुली खोलने से तात्पर्य तथ्यों पर से परदा उठाना लिया गया है। इस अर्थ के अनुसार मतलब यह होगा कि जिस दिन तमाम तथ्य बे-नक़ाब हो जाएंगे और लोगों के कर्म खुलकर सामने आ जाएँगे।
خَٰشِعَةً أَبۡصَٰرُهُمۡ تَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۖ وَقَدۡ كَانُواْ يُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلسُّجُودِ وَهُمۡ سَٰلِمُونَ ۝ 42
(43) इनकी निगाहें नीची होंगी, अपमान इनपर छा रहा होगा। ये जब भले-चंगे थे, उस समय इन्हें सजदे के लिए बुलाया जाता था (और ये इंकार करते थे)25
25. इसका अर्थ यह है कि क़ियामत के दिन एलानिया तौर पर इस बात का प्रदर्शन कराया जाएगा कि दुनिया में कौन अल्लाह की इबादत करनेवाला था और कौन उससे विमुख था। इस उद्देश्य के लिए लोगों को बुलाया जाएगा कि वे अल्लाह के सामने सजदा करें। जो लोग दुनिया में इबादत करते थे वे सजदे में गिर जाएँगे और जिन लोगों ने दुनिया में अल्लाह के आगे आज्ञाकारी बनकर नतमस्तक होने से इंकार कर दिया था उनको कमर तख़्ते की तरह सख़्त हो जाएगी, उनके लिए यह संभव न होगा कि वहाँ इबादतगुज़ार होने का झूठा प्रदर्शन कर सकें।
فَذَرۡنِي وَمَن يُكَذِّبُ بِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِۖ سَنَسۡتَدۡرِجُهُم مِّنۡ حَيۡثُ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 43
(44) अतः ऐ नबी ! तुम इस कलाम (वाणी) के झुठलानेवालों का मामला मुझपर छोड़ दो।26 हम ऐसे तरीके से इनको क्रमशः विनाश की ओर ले जाएँगे कि इनको ख़बर भी न होगी।27
26. अर्थात् इनसे निमटने की चिन्ता में न पड़ो। इनसे निमटना मेरा काम है।
27. बेख़बरी में किसी को विनाश की ओर ले जाने की शक्ल यह है कि एक सत्य-विरोधी और अत्याचारी को दुनिया में नेमतों से नवाज़ा जाए। स्वास्थ्य, माल, सन्तान और सांसारिक सफलताएँ प्रदान की जाएँ, जिनसे धोखा खाकर वह समझे कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ, खूब कर रहा हूँ। मेरे व्यवहार में कोई ग़लती नहीं है। इस तरह वह सत्य-विरोध और अन्याय व अत्याचार में ज़्यादा से ज़्यादा डूबता चला जाता है और नहीं समझता कि जो नेमतें उसे मिल रही हैं, वे इनाम नहीं हैं, बल्कि वास्तव में यह उसके विनाश का सामान है।
وَأُمۡلِي لَهُمۡۚ إِنَّ كَيۡدِي مَتِينٌ ۝ 44
(45) मैं इनकी रस्सी ढीली कर रहा हूँ, मेरी चाल28 बड़ी ज़बरदस्त है।
28. मूल में अरबी शब्द 'क़ैद' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ किसी के विरुद्ध गुप्त चाल चलता है। यह चीज़ सिर्फ़ उस शक्ल में एक बुराई होती है जब यह नाहक़ किसी को हानि पहुँचाने के लिए हो, वरना अपने आप में इसमें कोई बुराई नहीं है, खास तौर से जब किसी ऐसे व्यक्ति के ख़िलाफ़ यह तरीक़ा अपनाया जाए जिसने अपने आपको इसका हक़दार बना लिया हो।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ أَجۡرٗا فَهُم مِّن مَّغۡرَمٖ مُّثۡقَلُونَ ۝ 45
(46) क्या तुम इनसे कोई बदला माँग रहे हो कि ये उस चट्टी (तावान) के बोझ तले दबे जा रहे हों?29
29. सवाल ज़ाहिर में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से किया जा रहा है, मगर असल सम्बोधन उन लोगों से है जो आपके विरोध में सीमा पार करते जा रहे थे। उनसे पूछा जा रहा है कि क्या हमारा रसूल तुमसे कुछ माँग रहा है कि तुम उसपर इतना बिगड़ रहे हो? तुम स्वयं जानते हो कि वह एक नि:स्वार्थ व्यक्ति है और जो कुछ तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, केवल इसलिए कर रहा है कि उसके नज़दीक इसी में तुम्हारी भलाई है। तुम नहीं मानना चाहते तो न मानो, मगर इस प्रचार पर इतना गुस्सा क्यों हो रहे हो? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-52 अत-तूर, टिप्पणी 31)
أَمۡ عِندَهُمُ ٱلۡغَيۡبُ فَهُمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 46
(47) क्या इनके पास परोक्ष का ज्ञान है जिसे ये लिख रहे हों?30
30. यह दूसरा सवाल भी जाहिर में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में इसका सम्बोधन आपके विरोधियों से है। मतलब यह है कि क्या तुम लोगों ने परोक्ष के परदे के पीछे झाँककर देख लिया है कि यह रसूल वास्तव में ख़ुदा का भेजा हुआ रसूल नहीं है और जो तथ्य यह तुमको बता रहा है वे भी ग़लत हैं, इसलिए तुम इसको झुठलाने में इतनी सख्ती दिखा रहे हो? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-52 अत-तूर, टिप्पणी 32)
فَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ وَلَا تَكُن كَصَاحِبِ ٱلۡحُوتِ إِذۡ نَادَىٰ وَهُوَ مَكۡظُومٞ ۝ 47
(48) अच्छा, अपने रख का फ़ैसला आने तक सब करो31 और मछलीवाले (यूनुस) की तरह न हो जाओ32, जब उसने पुकारा था और वह ग़म से भरा हुआ था।33
31. अर्थात् वह समय अभी दूर है जब अल्लाह तुम्हारी विजय और सहायता और तुम्हारे इन विरोधियों के पराजय का फ़ैसला फ़रमा देगा। उस वक़्त के आने तक जिन तकलीफ़ों और मुसीबतों का सामना भी इस दीन के प्रचार में हो, उन्हें धैर्य के साथ सहन करते चले जाओ।
32. अर्थात् यूनुस (अलैहि०) की तरह बेसब्री से काम न लो, जो अपनी बेसब्री के कारण मछली के पेट में पहुँचा दिए गए थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, आयत 98, टिप्पणी 99; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 87-88, टिप्पणी 82-85; सूरा-37 अस-अस्साफ़्फात, आयत 139-148, टिप्पणी 78-85)
لَّوۡلَآ أَن تَدَٰرَكَهُۥ نِعۡمَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ لَنُبِذَ بِٱلۡعَرَآءِ وَهُوَ مَذۡمُومٞ ۝ 48
(49) अगर उसके रब की कृपा उसके साथ न हो जाती तो वह निदित होकर चटियल मैदान में फेंक दिया जाता।34
34. इस आयत को सूरा-37 साफ़्फात की आयत 142-146 के साथ मिलाकर देखा जाए तो मालूम होता है कि जिस समय हज़रत यूनुस (अलैहि०) मछली के पेट में डाले गए थे उस समय वे निन्दित थे, लेकिन जब उन्होंने अल्लाह का महिमागान किया और अपने कुसूर का इकरार कर लिया, तो यद्यपि वे मछली के पेट से निकालकर बड़ी दुर्दशा में एक चटियल ज़मीन पर फेंके गए, मगर वे उस समय निन्दित न थे।
فَٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَجَعَلَهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 49
(50) अन्तत: उसके रब ने उसे चुन लिया और उसे नेक बन्दों में शामिल कर दिया।
وَإِن يَكَادُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَيُزۡلِقُونَكَ بِأَبۡصَٰرِهِمۡ لَمَّا سَمِعُواْ ٱلذِّكۡرَ وَيَقُولُونَ إِنَّهُۥ لَمَجۡنُونٞ ۝ 50
(51) जब ये अधर्मी लोग नसीहत की वाणी (क़ुरआन) सुनते हैं तो तुम्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं कि मानो तुम्हारे क़दम उखाड़ देंगे35 और कहते हैं कि यह ज़रूर दीवाना है,
35. मक्का के इस्लाम-विरोधियों के इस गुस्से और प्रकोप की स्थिति सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 73-77 में भी बयान हुई है।
وَمَا هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 51
(52) हालाँकि यह तो सारे जहानवालों के लिए एक नसीहत है।