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سُورَةُ المُلۡكِ

67. अल-मुल्क

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

परिचय

नाम

पहले वाक्यांश “तबा-र-कल्लज़ी बियदिहिल मुल्क” अर्थात् “अत्यन्त श्रेष्ठ और उच्च है वह जिसके हाथ में (जगत् का) राज्य (अल मुल्क) है” के शब्द ‘अल-मुल्क' (राज्य) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली से साफ़ मालूम होता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसमें एक ओर संक्षिप्त रूप से इस्लाम की शिक्षाओं का परिचय कराया गया है और दूसरी ओर बड़े प्रभावशाली अन्दाज़ में उन लोगों को चौंकाया गया है जो बेसुध पड़े हुए थे। पहली पाँच आयतों में मनुष्य को यह आभास कराया गया है कि वह जिस जगत् में रहता है वह एक अत्यन्त व्यवस्थित और सुदृढ़ राज्य है। इस राज्य को अनस्तित्व से अस्तित्व अल्लाह ही ने प्रदान किया है और इसके प्रबन्ध एवं व्यवस्था और शासन के सभी अधिकार भी पूरे तौर से अल्लाह ही के हाथ में है। इसके साथ मनुष्य को यह भी बताया गया है कि इस अत्यन्त तत्त्वदर्शिता पर आधारित जगत् में वह निरुद्देश्य नहीं पैदा कर दिया गया है, बल्कि उसे यहाँ परीक्षा के लिए भेजा गया है, और इस परीक्षा में वह अपने अच्छे कर्म द्वारा ही सफल हो सकता है। आयत 6-11 तक कुफ़्र (इनकार) के उन भयावह परिणामों का उल्लेख किया गया है जो परलोक में सामने आनेवाले हैं। आयत 12-14 तक इस तथ्य को मन में बिठाया गया है कि स्रष्टा अपने सृष्ट जीवों से बेखबर नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हर खुली और छिपी बात, यहाँ तक कि तुम्हारे मन के विचारों तक को जानता है। अत: नैतिकता का वास्तविक आधार यह है कि मनुष्य उस अलख ईश्वर की पूछगछ से डरकर बुराई से बचे। यह नीति जो लोग अपनाएँगे वही परलोक में कृपा और महान प्रतिदान के अधिकारी होंगे। आयत 15-23 तक सामने के उन सामान्य साधारण तथ्यों की ओर जिन्हें मनुष्य संसार की नित्य व्यवहृत वस्तुएँ (मामूलात) समझकर उन्हें ध्यान देने योग्य नहीं समझता, निरन्तर संकेत करके उनपर सोचने के लिए आमंत्रित किया गया है। [और लोगों की इस बात पर निन्दा की गई है कि] ये सारी वस्तुएँ तुम्हें सत्य का ज्ञान कराने के लिए मौजूद हैं, मगर इन्हें तुम पशुओं की भाँति देखते हो और सुनने और देखने की उस शक्ति और सोचने-समझनेवाले मस्तिष्कों से काम नहीं लेते जो मनुष्य होने की हैसियत से ईश्वर ने तुम्हें दिए हैं। इसी कारण सीधा मार्ग तुम्हें दिखाई नहीं देता। आयत 24-27 तक बताया गया है कि अन्त में तुम्हें अनिवार्यतः अपने ईश्वर की सेवा में उपस्थित होना है। नबी का कार्य यह नहीं है कि तुम्हें उसके [क्रियामत के] आने का समय और तिथि बताए, [जैसा कि तुम इसकी माँग कर रहे हो] । उसका कर्तव्य बस यह है कि तुम्हें उस आनेवाले समय से पहले ही सचेत कर दे। आयत 28-29 में मक्का के उन सत्य-विरोधियों की उन बातों का उत्तर दिया गया है जो वे नबी (सल्ल०) और आपके साथियों के विरुद्ध करते थे। वे नबी (सल्ल०) को कोसते थे और आपके लिए और ईमानवालों के लिए विनाश की प्रार्थनाएँ करते थे। इसपर कहा गया है कि तुम्हें सीधे मार्ग की ओर बुलानेवाले चाहे विनष्ट हों या अल्लाह उनपर दया करे, इससे तुम्हारा भाग्य कैसे बदल जाएगा? तुम अपनी चिन्ता करो। [तुम ईमानवालों को गुमराह समझ रहे हो, एक समय आएगा जब यह बात खुल जाएगी कि वास्तव में गुमराह कौन था? अन्त में लोगों के समक्ष यह प्रश्न रख दिया गया है कि अरब के मरुस्थलों और पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ तुम्हारा जीवन पूर्ण रूप से उस पानी पर निर्भर करता है जो किसी स्थान पर धरती से निकल आया है, वहाँ यदि यह जल धरती में उतरकर विलुप्त हो जाए तो ईश्वर के सिवा कौन तुम्हें यह अमृत जल लाकर दे सकता है?

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سُورَةُ المُلۡكِ
67. अल-मुल्क
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
تَبَٰرَكَ ٱلَّذِي بِيَدِهِ ٱلۡمُلۡكُ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ
(1) अत्यन्त श्रेष्ठ और उच्च है।1 वह जिसके हाथ में (जगत् का) राज्य है,2 और वह हर चीज़ को सामर्थ्य रखता है।3
1. अर्थात् वह अपनी सत्ता, गुणों और कामों में अपने सिवा हर एक से श्रेष्ठ है, बेहद व हिसाब भलाइयों का लाभ उसी से प्राप्त हो रहा है और उसके गुण अविनाशी हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 43; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 14; सूरा-25 अल-फुरकान, टिप्पणी 1)
2. 'अल-मुल्क' का शब्द चूँकि एक व्यापक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है, इसलिए इसे किसी सीमित अर्थ में नहीं लिया जा सकता। अनिवार्य रूप से इससे मुराद जगत् की तमाम मौजूद चीज़ों पर राजसी सत्ता ही हो सकती है।
ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡمَوۡتَ وَٱلۡحَيَوٰةَ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفُورُ ۝ 1
(2) जिसने मौत और जिंदगी को ईजाद (आविष्कृत) किया, ताकि तुम लोगों को आज़माकर देखे कि तुममें से कौन अच्छा कर्म करनेवाला है,4 और वह प्रभुत्वशाली भी है और क्षमाशील भी है6,
4. अर्थात् दुनिया में इंसानों के मरने और जीने का यह सिलसिला उसने इसलिए शुरू किया है कि उनकी परीक्षा ले और यह देखे कि किस इंसान का कर्म अधिक उत्तम है। इस छोटे से वाक्य में बहुत-से तथ्यों की ओर इशारा कर दिया गया है। एक यह कि मौत और जिंदगी उसी की ओर से है। कोई दूसरा न जीवन प्रदान करनेवाला है, न मौत देनेवाला। दूसरा यह कि इंसान की न जिंदगी निरुद्देश्य है, न मौत। पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने उसे यहाँ परीक्षा के लिए पैदा किया है। जिंदगी उसके लिए परीक्षा की मुहलत है और मौत का अर्थ यह है कि उसकी परीक्षा का समय समाप्त हो गया। तीसरा यह कि इसी परीक्षा के उद्देश्य से पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने हर एक को कर्म का अवसर दिया है ताकि वह दुनिया में कर्म करके अपनी अच्छाई या बुराई व्यक्त कर सके। चौथा यह कि पैदा करनेवाला (ख़ुदा) ही वास्तव में इस बात का निर्णय करनेवाला है कि किसका कर्म अच्छा है और किसका बुरा। पाँचवाँ तथ्य यह कि जिस व्यक्ति का जैसा कर्म होगा, उसके अनुसार उसको बदला दिया जाएगा, क्योंकि अगर बदला न हो तो सिरे से परीक्षा लेने का कोई अर्थ ही नहीं रहता।
5. इसके दो अर्थ हैं और दोनों ही यहाँ मुराद हैं। एक यह कि वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली और सबपर पूरी तरह ग़ालिब होने के बावजूद अपनी मख़लूक (सृष्टि) के लिए दया करनेवाला और क्षमा करनेवाला है, ज़ालिम और सख़्त पकड़ करनेवाला नहीं है। दूसरा यह कि बुरे कर्म करनेवाले उसकी सज़ा से बच नहीं सकते], मगर जो शर्मिन्दा होकर बुराई से रुक जाए और माफ़ी माँग ले, उसके साथ वह माफ़ी का मामला करनेवाला है।
ٱلَّذِي خَلَقَ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖ طِبَاقٗاۖ مَّا تَرَىٰ فِي خَلۡقِ ٱلرَّحۡمَٰنِ مِن تَفَٰوُتٖۖ فَٱرۡجِعِ ٱلۡبَصَرَ هَلۡ تَرَىٰ مِن فُطُورٖ ۝ 2
(3) जिसने ऊपर-तले सात आसमान बनाए। तुम रहमान (करुणामय ईश्वर) की रचना में किसी प्रकार की असंगति न पाओगें।7 फिर पलटकर देखो, कहीं तुम्हें कोई खलल नज़र आता है?8
7. मूल अरबी में शब्द 'तफ़ावुत' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है, असन्तुलन, एक चीज़ का दूसरी चीज़ से मेल न खाना। अनमिल बे-जोड़ होना। अत: इस कथन का मतलब यह है कि पूरे जगत् में तुम कहीं अव्यवस्था, अनियमितता और असंगति न पाओगे। उसके तमाम हिस्से और अंश परस्पर सम्बद्ध हैं और उनमें पूर्ण रूप से सन्तुलन पाया जाता है।
8. मूल अरबी में शब्द 'फुतूर' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है, दरार, शगाफ़, छेद, फटा हुआ होना, टूटा-फूटा होना। मतलब यह है कि सम्पूर्ण जगत् की संरचना ऐसी चुस्त है और धरती के एक कण से लेकर विराट आकाश-गंगाओं तक हर चीज़ ऐसी सम्बद्ध है कि कहीं विश्व-व्यवस्था का क्रम नहीं टूटता, तुम चाहे जितनी ही खोज कर लो, तुम्हें इसमें किसी जगह कोई गड़बड़ी नहीं मिल सकती। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-50 क़ाफ़, टिप्पणी 8)
ثُمَّ ٱرۡجِعِ ٱلۡبَصَرَ كَرَّتَيۡنِ يَنقَلِبۡ إِلَيۡكَ ٱلۡبَصَرُ خَاسِئٗا وَهُوَ حَسِيرٞ ۝ 3
(4) बार-बार निगाह दौड़ाओ। तुम्हारी निगाह थककर असफल पलट आएगी।
وَلَقَدۡ زَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِمَصَٰبِيحَ وَجَعَلۡنَٰهَا رُجُومٗا لِّلشَّيَٰطِينِۖ وَأَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابَ ٱلسَّعِيرِ ۝ 4
(5) हमने तुम्हारे निकटवर्ती आसमान9 को भव्य प्रदीपों से सुसज्जित किया है10 और उन्हें शैतानों को मार भगाने का ज़रोआ बना दिया है।11 इन शैतानों के लिए भड़कती हुई आग हमने तैयार कर रखी है।
9. निकटवर्ती आसमान से मुराद वह आसमान है जिसके तारों और ग्रहों को हम दूरबीन के बिना नंगी आँखों से देखते हैं। इससे आगे जिन चीज़ों के देखने के लिए यंत्रों की आवश्यकता होती हो वे दूर के आसमान हैं और उनसे भी अधिक दूर के आसमान वे हैं जिन तक यंत्रों की पहुँच भी नहीं है।
10. मूल अरबी में शब्द 'मसाबीह' प्रयुक्त हुआ है। और इसके होने से अपने आप इन प्रदीपों के भव्य होने का अर्थ पैदा होता है। कहने का मतलब यह है कि यह सृष्टि हमने अंधेरी और सुनसान नहीं बनाई है, बल्कि उसे सितारों से खूब सुसज्जित किया है जिसकी शान और जगमगाहट रात के अंधेरों में देखकर इंसान दंग रह जाता है।
وَلِلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡ عَذَابُ جَهَنَّمَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 5
(6) जिन लोगों ने अपने रब के साथ कुफ़्र (इंकार) किया है12 उनके लिए जहन्नम का अजाब है, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
12. अर्थात् इंसान हो या शैतान, जिन लोगों ने भी अपने रब से कुफ्र (इंकार) किया है उनका यह अंजाम है। (रब से कुफ्र करने के मतलब की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 161; सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 178; सूरा-18 अल-कहफ़, टिप्पणी 39; सूरा-50 अल-मोमिन, टिप्पणी 3)
إِذَآ أُلۡقُواْ فِيهَا سَمِعُواْ لَهَا شَهِيقٗا وَهِيَ تَفُورُ ۝ 6
(7) जब वे उसमें फेंके जाएंगे तो उसके दहाड़ने की भयंकर आवाज सुनेंगे13 और वह जोश खा रही होगी।
13. इसका मतलब यह भी हो सकता है कि यह खुद जहन्नम की आवाज़ होगी और यह भी हो सकता है कि यह आवाज जहन्नम से आ रही होगी जहाँ उन लोगों से पहले गिरे हुए लोग चीखें मार रहे होंगे। इस दूसरे मतलब की पुष्टि सूरा-11 हूद की आयत 106 से और पहले मतलब की पुष्टि सूरा-25 फ़ुरक़ान की आयत 12 से होती है। इस कारण सही यह है कि यह शोर ख़ुद जहन्नम का भी होगा और जहन्नमियों का भी |
تَكَادُ تَمَيَّزُ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۖ كُلَّمَآ أُلۡقِيَ فِيهَا فَوۡجٞ سَأَلَهُمۡ خَزَنَتُهَآ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَذِيرٞ ۝ 7
(8) प्रकोप की भीषणता से फटी जाती होगी, हर बार जब कोई समूह उसमें डाला जाएगा, उसके कारिंदे (कार्यकर्ता) उन लोगों से पूछेगे, "क्या तुम्हारे पास कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया था?''14
14. इस प्रश्न का मूल स्वरूप प्रश्न का नहीं होगा, बल्कि इसका मकसद उन लोगों को यह बात मनवानी होगी कि उन्हें जहन्नम में डालकर उनके साथ कोई अन्याय नहीं किया जा रहा है, इसलिए जहन्नम के कारिंदे (कार्यकर्ता) ख़ुद उनके मुँह से यह स्वीकार कराना चाहेंगे कि अल्लाह ने उनको बेख़बर नहीं रखा था, उनके पास नबी भेजे थे, उनको बता दिया था कि वास्तविकता क्या है और सीधा रास्ता कौन-सा है। मगर उन्होंने नबियों की बात न मानी, इसलिए अब जो सज़ा उन्हें दी जा रही है वह वास्तव में इसके हक़दार हैं।
قَالُواْ بَلَىٰ قَدۡ جَآءَنَا نَذِيرٞ فَكَذَّبۡنَا وَقُلۡنَا مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ كَبِيرٖ ۝ 8
(9) वे उत्तर देंगे, "हाँ, ख़बरदार करनेवाला हमारे पास आया था, मगर हमने उसे झुठला दिया और कहा, अल्लाह ने कुछ भी नहीं उतारा है, तुम बड़ी गुमराही में पड़े हुए हो।"15
15. अर्थात् तुम भी बहके हुए हो और तुमपर ईमान लानेवाले लोग भी सख़्त गुमराही में पड़े हुए हैं।
وَقَالُواْ لَوۡ كُنَّا نَسۡمَعُ أَوۡ نَعۡقِلُ مَا كُنَّا فِيٓ أَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 9
(10) और वे कहेंगे, "काश, हम सुनते या समझते16 तो आज इस भड़कती हुई आग के भोगियों में शामिल न होते!"
16. अर्थात् हमने सत्य की तलब रखनेवाले बनकर नबियों की बात को ध्यान से सुना होता, या बुद्धि से काम लेकर इसे समझने की कोशिश की होती। यहाँ सुनने को समझने पर प्राथमिकता दी गई है। इसका कारण यह है कि पहले नबी की शिक्षा को ध्यान देकर सुनना (या पढ़ना) सन्मार्ग पाने के लिए पहली शर्त है। इसपर ध्यान देकर सत्य को समझने की कोशिश करने का दर्जा इसके बाद आता है। नबी के मार्गदर्शन के बिना अपनी बुद्धि से अपने आप काम लेकर इंसान सीधे तौर पर सत्य तक नहीं पहुँच सकता।
فَٱعۡتَرَفُواْ بِذَنۢبِهِمۡ فَسُحۡقٗا لِّأَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 10
(11) इस तरह वे अपने अपराध17 को स्वयं स्वीकार कर लेंगे। धिक्कार है इन जहन्नमवालों पर।
17. अपराध का शब्द एकवचन इस्तेमाल हुआ है। इसका अर्थ यह है कि अस्ल अपराध जिसके कारण वे जहन्नम के हक़दार हुए रसूलों का झुठलाना और उनके अनुसरण से इंकार करना है। शेष सारे अपराध उसी की शाखाएँ हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 11
(12) जो लोग बिना देखे अपने रब से डरते हैं18, निश्चय ही उनके लिए माफ़ी है और बड़ा बदला।19
18. यह दीन (धर्म) में नैतिकता का मूलाधार है। किसी का बुराई से इसलिए बचना कि उसकी व्यक्तिगत राय में वह बुराई है या दुनिया उसे बुरा समझती है या उसके करने से दुनिया में कोई नुकसान पहुंचने की आशंका है या इसपर किसी सांसारिक शक्ति को पकड़ का खतरा है, यह नैतिकता के लिए एक अत्यन्त कमजोर आधार है। [इनमें से कोई चीज भी ऐसी नहीं जो मनुष्य को सही अर्थों में एक चरित्रवान और सज्जन पुरुष बना सके।] इसलिए सत्य-धर्म ने नैतिकता को पूरी इमारत इस आधार पर खड़ी की है कि उस अनदेखे खुदा से डरकर बुराई से बचा जाए जो हर हाल में इंसान को देख रहा है, जिसकी पकड़ से इंसान बचकर कहीं नहीं जा सकता, जिसने भलाई-बुराई का एक विस्तृत, विश्वव्यापी और स्थाई मापदंड इंसान को दिया है।
19. अर्थात् अल्लाह से बिना देखे डरने के दो अनिवार्य परिणाम हैं। एक यह कि जो क़ुसूर भी इंसानी कमज़ोरियों की वजह से आदमी से हो गए हों वे माफ़ कर दिए जाएंगे, बशर्ते कि उनकी तह में अल्लाह से निर्भयता काम न कर रही हो। दूसरे यह कि जो भले कर्म भी इंसान इस विश्वास के साथ करेगा, उसपर वह बड़ा इनाम पाएगा।
وَأَسِرُّواْ قَوۡلَكُمۡ أَوِ ٱجۡهَرُواْ بِهِۦٓۖ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 12
(13) तुम चाहे चुपके से बात करो या ऊँची आवाज़ से, (अल्लाह के लिए समान है) वह तो दिलों का हाल तक जानता है।20
20. यह बात तमाम इंसानों को सम्बोधित करके कही गई है, भले ही वे ईमानवाले हों या कुफ़्र करनेवाले। ईमानवाले के लिए इसमें यह उपदेश है कि उसे हर समय यह एहसास अपने मन में ताज़ा रखना चाहिए [कि उसका खुला-छिपा कुछ भी] अल्लाह से छिपा नहीं है और कुफ़्र करनेवाले के लिए इसमें यह चेतावनी है कि वह अपनी जगह ख़ुदा से निडर होकर जो कुछ चाहे करता रहे, उसकी कोई बात अल्लाह की पकड़ से छूटी नहीं रह सकती।
أَلَا يَعۡلَمُ مَنۡ خَلَقَ وَهُوَ ٱللَّطِيفُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 13
(14) क्या वही न जानेगा जिसने पैदा किया?21 हालाँकि वह सूक्ष्मदर्शी22 और ख़बर रखनेवाला है।
21. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "क्या वह अपने पैदा किए हुए ही को न जानेगा?" दोनों शक्लों में मतलब एक ही रहता है। यह दलील है उस बात की जो ऊपर के वाक्य में कही गई है। अर्थात् आख़िर यह कैसे संभव है कि पैदा करनेवाला अपने पैदा किए हुए से बेखबर हो? [ जिसके शरीर का और जिसके दिल व दिमाग़ का एक-एक रेशा उसका बनाया हुआ है उससे [ उसकी] कोई बात कैसे छिपी रह सकती है?
22. मूल में अरबी शब्द 'लतीफ़' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ गैर-महसूस तरीके से काम करनेवाला भी है और छिपे तथ्यों को जाननेवाला भी।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ ذَلُولٗا فَٱمۡشُواْ فِي مَنَاكِبِهَا وَكُلُواْ مِن رِّزۡقِهِۦۖ وَإِلَيۡهِ ٱلنُّشُورُ ۝ 14
(15) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती को वशीभूत कर रखा है। चलो उसकी छाती पर और खाओ अल्लाह की रोज़ी23, उसी के यहाँ तुम्हें दोबारा ज़िंदा होकर जाना है।24
23. अर्थात् यह धरती तुम्हारे लिए आप से आप अधीन नहीं बन गई है, और वह रोज़ी भी जो तुम खा रहे हो अपने आप यहाँ पैदा नहीं हो गया है, बल्कि [यह सब कुछ अल्लाह की तत्त्वदर्शिता और सामर्थ्य का करिश्मा है।] अगर तुम गफलत में न पड़ो और कुछ होश से काम लेकर देखो तो तुम्हें मालूम हो कि इस धरती को तुम्हारी जिंदगी के क़ाबिल बनाने और इसके भीतर रोज़ी के अथाह ख़ज़ाने जमा करने में कितनी हिकमतें काम कर रही हैं? (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 73-74, 81; सूरा-36 यासीन, टिप्पणी 29, 32; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 90-91; सूरा-43 अज़-जुलफ़, टिप्पणी 7; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्पणी 7; सूरा-50 क़ाफ़, टिप्पणी 18)
24. अर्थात् इस धरती पर चलते-फिरते और अल्लाह की दी हुई रोजी खाते हुए इस बात को न भूलो कि अन्ततः तुम्हें एक दिन ख़ुदा सामने हाज़िर होना है।
ءَأَمِنتُم مَّن فِي ٱلسَّمَآءِ أَن يَخۡسِفَ بِكُمُ ٱلۡأَرۡضَ فَإِذَا هِيَ تَمُورُ ۝ 15
(16) क्या तुम इससे निश्चिन्त हो कि वह जो आसमान में है25 तुम्हें धरती में धंसा दे और अचानक यह धरती झकोले खाने लगे?
25. इसका यह अर्थ नहीं है कि अल्लाह आसमान में रहता है, बल्कि यह बात इस पहलू से कही गई है कि इंसान स्वाभाविक रूप से जब खुदा से रुजूअ करना चाहता है तो आसमान की ओर देखता है। दुआ माँगता है तो आसमान की ओर हाथ उठाता है। किसी मुसीबत के अवसर पर सब सहारों से निराश हो जाता है तो आसमान का रुख करके ख़ुदा से फ़रियाद करता है। कोई अचानक बला आ पड़ती है तो कहता है कि यह ऊपर से उतरी है। असाधारण रूप से प्राप्त होनेवाली चीज़ के बारे में कहता है यह ऊपरी लोक से आई है। अल्लाह की भेजी हुई किताबों को आसमानी किताबें या आसमानी ग्रंथ कहा जाता है। इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि यह बात कुछ इंसान की प्रकृति ही में है कि वह जब ख़ुदा की कल्पना करता है तो उसका ज़ेहन नीचे धरती की ओर नहीं, बल्कि आसमान की ओर जाता है। इसी बात को देखते हुए यहाँ अल्लाह के मुताल्लिक़ वह जो आसमान में है' जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
أَمۡ أَمِنتُم مَّن فِي ٱلسَّمَآءِ أَن يُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ حَاصِبٗاۖ فَسَتَعۡلَمُونَ كَيۡفَ نَذِيرِ ۝ 16
(17) क्या तुम इससे निश्चिन्त हो कि वह जो आसमान में है तुमपर पथराव करनेवाली हवा भेज दे?26 फिर तुम्हें मालूम हो जाएगा कि मेरी चेतावनी कैसी होती हैं?27
26. मुराद मन में यह बिठाना है कि इस धरती पर तुम्हारा बाक़ी रहना और तुम्हारी सलामती (शांति) हर समय अल्लाह की कृपा पर निर्भर है, वरना किसी समय भी उसके एक इशारे से एक भूकंप ऐसा आ सकता है कि यही धरती तुम्हारे लिए माँ की गोद के बजाए क़ब्र का गढ़ा बन जाए या हवा का ऐसा तूफ़ान आ सकता है जो तुम्हारी आबादियों को नष्ट करके रख दे।
27. चेतावनी से मुराद वह चेतावनी है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और पवित्र क़ुरआन के जरीए से मक्का के विधर्मियों को की जा रही थी कि अगर कुफ्र व शिर्क से बाज़ न आओगे तो ख़ुदा के अज़ाब में गिरफ़्तार हो जाओगे।
وَلَقَدۡ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 17
(18) इनसे पहले गुज़रे हुए लोग झुठला चुके हैं, फिर देख लो कि मेरी पकड़ कैसी सख़्त थी28 ?
28. संकेत है उन क़ौमों की ओर जो अपने यहाँ आनेवाले नबियों को झुठलाकर इससे पहले अज़ाब में गिरफ़्ता हो चुकी थीं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلطَّيۡرِ فَوۡقَهُمۡ صَٰٓفَّٰتٖ وَيَقۡبِضۡنَۚ مَا يُمۡسِكُهُنَّ إِلَّا ٱلرَّحۡمَٰنُۚ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءِۭ بَصِيرٌ ۝ 18
(19) क्या ये लोग अपने ऊपर उड़नेवाले पक्षियों को पंख फैलाए और सिकोड़ते नहीं देखते? रहमान (करुणामय ईश्वर) के सिवा कोई नहीं जो इन्हें थामे हुए हो ।29 वही हर चीज़ का निगहबान है:30
29. अर्थात् एक-एक पक्षी जो हवा में उड़ रहा है, दयावान ख़ुदा की सुरक्षा में उड़ रहा है। उसी ने हर पक्षी को वह बनावट प्रदान की जिससे वे उड़ने के लायक़ हुए। उसी ने हर पक्षी को उड़ने का तरीक़ा सिखाया। उसी ने हवा को उन क़ानूनों का पाबन्द किया जिनकी वजह से हवा से ज़्यादा भारी जिस्म रखनेवाली चीज़ों का उसमें उड़ना संभव हुआ। और वही हर उड़नेवाले को वायुमंडल में थामे हुए है, वरना जिस समय भी अल्लाह अपनी सुरक्षा उससे हटाए, वह धरती में आ रहे।
30. अर्थात् कुछ पक्षियों ही तक बात नहीं है, जो चीज़ भी दुनिया में मौजूद है, अल्लाह की निगहबानी की बदौलत मौजूद है।
أَمَّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي هُوَ جُندٞ لَّكُمۡ يَنصُرُكُم مِّن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ إِنِ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِلَّا فِي غُرُورٍ ۝ 19
(20) बताओ, आख़िर वह कौन-सी सेना तुम्हारे पास है जो रहमान के मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता कर सकती है ?31 वास्तविकता यह है कि ये इंकार करनेवाले धोखे में पड़े हुए हैं।
31. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "रहमान (दयावान ईश्वर) के सिवा वह कौन है जो तुम्हारा लश्कर बना हुआ तुम्हारी मदद करता हो।" हमने ऊपर मूल में जो अनुवाद किया है वह आगे के वाक्य से अनुकूलता रखता है और इस दूसरे अनुवाद की अनुकूलता पिछले वार्ता-क्रम से है।
أَمَّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي يَرۡزُقُكُمۡ إِنۡ أَمۡسَكَ رِزۡقَهُۥۚ بَل لَّجُّواْ فِي عُتُوّٖ وَنُفُورٍ ۝ 20
(21) या फिर बताओ, कौन है जो तुम्हें रोज़ी दे सकता है अगर रहमान अपनी रोज़ी रोक ले ? वास्तव में ये लोग सरकशी और सत्य से मुँह मोड़ने पर अड़े हुए हैं।
أَفَمَن يَمۡشِي مُكِبًّا عَلَىٰ وَجۡهِهِۦٓ أَهۡدَىٰٓ أَمَّن يَمۡشِي سَوِيًّا عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 21
(22) भला सोचो, जो व्यक्ति मुँह औंधाए चल रहा हो 32 वह अधिक सही राह पानेवाला है या वह जो सिर उठाए सीधा एक समतल सड़क पर चल रहा हो?
32. अर्थात् पशुओं की तरह मुँह नीचा किए हुए उसी डगर पर चला रहा हो जिसपर किसी ने उसे डाल दिया हो।
قُلۡ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَكُمۡ وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 22
(23) इनसे कहो, अल्लाह ही है जिसने तुम्हें पैदा किया, तुमको सुनने और देखने की ताक़तें दी और सोचने-समझनेवाले दिल दिए, मगर तुम कम ही कृतज्ञता दिखाते हो।33
33. अर्थात् अल्लाह ने तो तुम्हें इंसान बनाया था, पशु नहीं बनाया था। तुम्हारा काम यह नहीं था कि जो गुमराही भी दुनिया में फैली हुई हो उसके पीछे आँखें बन्द करके चल पड़ो और कुछ न सोचो कि जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो वह सही भी है या नहीं। अल्लाह ने ज्ञान, बुद्धि, सुनने और देखने की नेमतें तुम्हें सत्य को पहचानने के लिए दी थीं। तुम नाशुक्री कर रहे हो कि इनसे और सारे काम तो लेते हो, मगर बस वही एक काम नहीं लेते जिसके लिए ये दी गई थीं। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 72-73; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 74-76; सूरा-23 अस-सजदा, टिप्पणी 17-18; सूरा-46 अल-अहक़ाफ़, टिप्पणी 31)
قُلۡ هُوَ ٱلَّذِي ذَرَأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 23
(24) इनसे कहो, अल्लाह ही है जिसने तुम्हें धरती में फैलाया है और उसी की ओर तुम समेटे जाओगे।34
34. अर्थात् मरने के बाद दोबारा जिंदा करके धरती के हर कोने से घेर लाए जाओगे और उसके सामने हाज़िर कर दिए जाओगे।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 24
(25) ये कहते हैं, “अगर तुम सच्चे हो तो बताओ यह वायदा कब पूरा होगा?''35
35. यह प्रश्न इस उद्देश्य के लिए न था कि वे क्रियामत का वक़्त और उसकी तिथि मालूम करना चाहते थे और इस बात के लिए तैयार थे कि अगर उन्हें उसके आने का साल, महीना, दिन और समय बता दिया जाए तो वे उसे मान लेंगे। बल्कि वास्तव में वे उसके आने को असंभव और बुद्धि से परे समझते थे और यह सवाल इस उद्देश्य से करते थे कि उसे झुठलाने का एक बहाना उनके हाथ आए। इस सिलसिले में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि कोई व्यक्ति अगर क़ियामत का क़ायल (माननेवाला) हो सकता है तो बौद्धिक प्रमाणों से हो सकता है, और क़ुरआन में जगह-जगह वे प्रमाण विस्तार के साथ दे दिए गए हैं। रही उसकी तिथि, तो क़ियामत की वार्ता में इसका प्रश्न करना एक अज्ञानी व्यक्ति ही का काम हो सकता है, क्योंकि अगर मान लीजिए कि वह बता भी दी जाए तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। न माननेवाला यह कह सकता है कि जब वह तुम्हारी बताई हुई तिथि पर आ जाएगी तो मान लूँगा, आज आख़िर मैं कैसे विश्वास कर लूँ कि वह उस दिन ज़रूर आ जाएगी। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-31 लुकमान, टिप्पणी 63; सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 116; सूरा-34 अस-सबा, टिप्पणी 5, 48; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 45)
قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡعِلۡمُ عِندَ ٱللَّهِ وَإِنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 25
(26) कहो, "इसका ज्ञान तो अल्लाह के पास है, मैं तो बस साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला हूँ।"36
36. अर्थात् यह तो मुझे मालूम है कि वह अवश्य आएगी और लोगों को इसके आने से पहले सचेत कर देने के लिए यही जानना काफ़ी है। रही यह बात कि वह कब आएगी तो इसका ज्ञान अल्लाह को है, मुझे नहीं है। और ख़बरदार कर देने के लिए इस ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं। इस मामले को एक मिसाल से अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह बात कि कौन व्यक्ति कब मरेगा, अल्लाह के सिवा किसी को मालूम नहीं, अलबत्ता यह हमें मालूम है कि हर व्यक्ति को एक दिन मरना है। हमारा यह ज्ञान इस बात के लिए काफ़ी है कि हम अपने किसी असावधान मित्र को सचेत करें कि वह मरने से पहले अपने हित की रक्षा का प्रबंध करे। इस चेतावनी के लिए यह जानना ज़रूरी नहीं है कि वह किस दिन मरेगा।
فَلَمَّا رَأَوۡهُ زُلۡفَةٗ سِيٓـَٔتۡ وُجُوهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقِيلَ هَٰذَا ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تَدَّعُونَ ۝ 26
(27) फिर जब ये उस चीज़ को क़रीब देख लेंगे तो उन सब लोगों के चेहरे बिगड़ जाएँगे जिन्होंने इंकार किया है37 और उस वक़्त उनसे कहा जाएगा कि यही है वह चीज़ जिसकी तुम माँग कर रहे थे।
37. अर्थात् उनका वही हाल होगा जो फाँसी के तख्ते की ओर ले जानेवाले किसी अपराधी का होता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَهۡلَكَنِيَ ٱللَّهُ وَمَن مَّعِيَ أَوۡ رَحِمَنَا فَمَن يُجِيرُ ٱلۡكَٰفِرِينَ مِنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 27
(28) इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अल्लाह चाहे मुझे या मेरे साथियों को नष्ट कर दे या हम पर कृपा करे, इंकार करनेवालों को दर्दनाक अज़ाब से कौन बचा लेगा? 38
38. मक्का मुअज़्ज़मा में जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के दावती काम की शुरुआत हुई और क़ुरैश के विभिन्न घरानों से ताल्लुक़ रखनेवाले व्यक्तियों ने इस्लाम स्वीकार करना शुरू कर दिया तो घर-घर नबी (सल्ल०) और आपके साथियों को बद-दुआएँ दी जाने लगीं, जादू-टोने किए जाने लगे ताकि आप तबाह हो जाएँ। यहाँ तक कि हत्या की योजनाएँ बनने लगी। इसपर यह फ़रमाया गया कि इनसे कहो, चाहे हम तबाह हों या खुदा की मेहरबानी से जिंदा रहें, इससे तुम्हें क्या प्राप्त होगा? तुम अपनी चिन्ता करो कि ख़ुदा के अज़ाब से कैसे बचोगे?
قُلۡ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ءَامَنَّا بِهِۦ وَعَلَيۡهِ تَوَكَّلۡنَاۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ هُوَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 28
(29) इनसे कहो, वह बड़ा दयावान है, उसी पर हम ईमान लाए हैं और उसी पर हमारा भरोसा है।39 बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा कि खुली गुमराही में पड़ा हुआ कौन है ?
39. अर्थात् हम ख़ुदा पर ईमान लाए हैं और तुम इससे इंकार कर रहे हो। हमारा भरोसा ख़ुदा पर है और तुम्हारा अपना जत्थों, अपने साधनों और उनपर है जिन्हें तुमने अल्लाह को छोड़कर अपना उपास्य बनाया है, इसलिए खुदा की कृपा के हकदार हम हो सकते हैं, न कि तुम।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَصۡبَحَ مَآؤُكُمۡ غَوۡرٗا فَمَن يَأۡتِيكُم بِمَآءٖ مَّعِينِۭ ۝ 29
(30) इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर तुम्हारे कुँओं का पानी ज़मीन में उतर जाए तो कौन है जो इस पानी की बहती हुई सोतें तुम्हें निकाल कर ला देगा? 40
40. अर्थात् क्या ख़ुदा के सिवा किसी में यह शक्ति है कि इन सोतों को फिर से जारी कर दे? अगर नहीं है, और तुम जानते हो कि नहीं है, तो फिर इबादत (बन्दगी) का अधिकारी खुदा है या तुम्हारे वे उपास्य जो उन्हें जारी करने की कोई शक्ति नहीं रखते? इसके बाद तुम स्वयं अपनी अन्तरात्मा से पूछो कि गुमराह एक ख़ुदा को माननेवाले हैं या वे जो शिर्क कर रहे हैं?