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سُورَةُ الصَّفِّ

61. अस-सफ़्फ़

(मदीना में उतरी, आयतें 14) 

परिचय

नाम

चौथी आयत के वाक्यांश ‘युक़ातिलू-न फ़ी सबीलिही सफ़्फ़ा' (जो उसके मार्ग में इस तरह पंक्तिबद्ध होकर लड़ते हैं) से लिया गया है। अभिप्राय यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'सफ़्फ़' आया है।

उतरने का समय

इसके विषयों पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह सूरा शायद उहुद की लड़ाई के फ़ौरन बाद के समय में उतरी होगी, क्योंकि इसमें सूक्ष्मत: जिन स्थितियों की ओर संकेत का आभास होता है, वे स्थितियाँ उसी कालखण्ड की हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय है मुसलमानों को ईमान में सत्य-निष्ठा अपनाने और अल्लाह की राह में जान लड़ाने पर उभारना। इसमें कमज़ोर ईमानवाले मुसलमानों को भी सम्बोधित किया गया है और उन लोगों को भी जो ईमान का झूठा दावा करके इस्लाम में दाख़िल हो गए थे, और उनको भी जो निष्ठावान एवं निश्छल थे। वर्णनशैली से स्वयं मालूम हो जाता है कि कहाँ किसको सम्बोधित किया गया है। आरंभ में तमाम ईमानवालों को सचेत किया गया है कि अल्लाह की दृष्टि में अत्यन्त घृणित और वैरी हैं वे लोग जो कहें कुछ और करें कुछ; और अत्यन्त प्रिय हैं वे लोग जो सत्य-मार्ग में लड़ने के लिए सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह डटकर खड़े हों। फिर आयत 5 से 7 तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की उम्मत (समुदाय) के लोगों को सचेत किया गया है कि अपने रसूल और अपने दीन (धर्म) के साथ तुम्हारा रवैया वह न होना चाहिए जो मूसा (अलैहि०) और ईसा (अलैहि०) के साथ बनी-इसराईल (इसराईल की संतान) ने अपनाया। [और जिसका] परिणाम यह हुआ कि उस क़ौम के स्वभाव का साँचा ही टेढ़ा होकर रह गया और उससे संमार्ग का सौभाग्य ही छीन लिया गया। फिर आयत 8-9 में पूरी चुनौती के साथ एलान किया गया कि यहूदी और ईसाई और उनसे साँठ-गाँठ रखनेवाले मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) अल्लाह के इस प्रकाश (नूर) को बुझाने की चाहे कितनी ही कोशिश कर लें, यह पूरी चमक-दमक के साथ संसार में फैलकर रहेगा, और बहुदेववादियों को चाहे कितना ही अप्रिय हो, सच्चे रसूल (सल्ल०) का लाया हुआ धर्म हर दूसरे धर्म पर प्रभावी होकर रहेगा। इसके बाद आयत 10 से 13 में ईमानवालों को बताया गया है कि दुनिया और आख़िरत (लोक और परलोक) में सफलता का मार्ग केवल एक है, और वह यह है कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) पर सच्चे दिल से ईमान लाओ और अल्लाह की राह में जान-माल से जिहाद (जान-तोड़ कोशिश) करो। अन्त में ईमानवालों को शिक्षा दी गई है कि जिस तरह हज़रत ईसा (अलैहि०) के निष्ठावान साथियों ने अल्लाह की राह में उनका साथ दिया था, उसी तरह वे भी 'अल्लाह के सहायक' बनें ताकि शत्रुओं के मुक़ाबले में उनको भी उसी तरह अल्लाह की सहायता और समर्थन प्राप्त हो, जिस तरह पहले ईमान लानेवालों को प्राप्त हुआ था।

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سُورَةُ الصَّفِّ
61. अस-सफ़्फ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह की तस्बीह (महिमागान) की है हर उस चीज़ ने जो आसमानों और ज़मीन में है, और वह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।1
1. यह इस व्याख्यान की संक्षिप्त भूमिका है। व्याख्या के लिए देखिए सूरा-57 हदीद, टिप्पणी 1-21 वाणी का आरंभ इस भूमिका से इसलिए किया गया है कि आगे जो कुछ कहा जानेवाला है उसको सुनने या पढ़ने से पहले आदमी यह बात अच्छी तरह समझ ले कि अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) और इससे उच्च है कि उसकी खुदाई (ईश्वरत्व) का चलना किसी के ईमान और किसी की सहायता और क़ुरबानियों पर निर्भर हो। वह अगर ईमान लानेवालों को ईमान में निष्ठा अपनाने की ताकीद करता है तो यह सब कुछ उनके अपने ही भले के लिए है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِمَ تَقُولُونَ مَا لَا تَفۡعَلُونَ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम क्यों वह बात कहते हो जो करते नहीं हो?
كَبُرَ مَقۡتًا عِندَ ٱللَّهِ أَن تَقُولُواْ مَا لَا تَفۡعَلُونَ ۝ 2
(3) अल्लाह की दृष्टि में यह अत्यन्त अप्रिय हरकत है कि तुम कहो वह बात जो करते नहीं।2
2. इस कथन का एक मक़सद तो आम है जो इसके शब्दों से प्रकट हो रहा है। और एक मक़सद ख़ास है जो बादवाली आयत को इसके साथ मिलाकर पढ़ने से मालूम होता है। पहला मकसद यह कि एक सच्चे मुसलमान की कथनी और करनी में एकरूपता होनी चाहिए। कहना कुछ और करना कुछ, यह इंसान के निकृष्टतम दुर्गुणों में से है। नबी (सल्ल.) ने व्याख्या की है कि किसी व्यक्ति में इस दुर्गुण का पाया जाना उन लक्षणों में से है जो व्यक्त करते हैं कि वह मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) है। यह तो है इन आयतों का आम मक़सद। रहा वह खास मक़सद जिसके लिए इस अवसर पर ये आयतें उतरी हैं, तो वह बादवाली आयत को इनके साथ मिलाकर पढ़ने से मालूम होता है। अभिप्राय उन लोगों की निन्दा करनी है जो इस्लाम के लिए सरफ़रोशी और जांबाज़ी के लंबे-चौड़े वादे करते थे, मगर जब परीक्षा की घड़ी आती थी तो भाग निकलते थे। कमज़ोर ईमानवालों की इस कमज़ोरी पर क़ुरआन मजीद में कई जगह पकड़ की गई है। उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-4 अन-निसा, आयत 77 [और सूरा-47 मुहम्मद, आयत 20]।
إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلَّذِينَ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِهِۦ صَفّٗا كَأَنَّهُم بُنۡيَٰنٞ مَّرۡصُوصٞ ۝ 3
(4) अल्लाह को तो पसन्द वे लोग हैं जो उसकी राह में इस तरह पंक्तिबद्ध होकर लड़ते हैं, मानो वे एक सीसा पिलाई हुई दीवार हैं।3
3. इससे एक तो यह मालूम हुआ कि अल्लाह की प्रसन्नता उन्हीं ईमानवालों को प्राप्त होती है जो उसकी राह में जान लड़ाने और ख़तरे सहने के लिए तैयार हों। दूसरी बात यह मालूम हुई कि अल्लाह को जो सेना पसन्द है, उनमें तीन गुण पाए जाने चाहिएँ। एक यह कि वह खूब सोच-समझकर अल्लाह की राह में लड़े और किसी ऐसी राह में न लड़े जो 'अल्लाह के मार्ग' की परिभाषा में न आती हो। दूसरा यह कि वह अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई न हो, बल्कि मज़बूत व्यवस्था के साथ पंक्तिबद्ध होकर लड़े। तीसरा यह कि दुश्मनों के मुकाबले में उसकी हालत 'सीसा पिलाई हुई दीवार' की-सी हो।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ لِمَ تُؤۡذُونَنِي وَقَد تَّعۡلَمُونَ أَنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُمۡۖ فَلَمَّا زَاغُوٓاْ أَزَاغَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُمۡۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 4
(5) और याद करो मूसा की वह बात जो उसने अपनी क़ौम से कही थी कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम क्यों मुझे दुख देते हो, हालाँकि तुम खूब जानते हो कि मैं तुम्हारी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ?''4 फिर जब उन्होंने टेढ़ अपनाई तो अल्लाह ने भी उनके दिल टेढ़े कर दिए, अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्ग नहीं दिखाता।5
4. क़ुरआन मजीद में अनेक स्थानों पर सविस्तार बताया गया है कि बनी इसराईल ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी और अपना उपकारी जानने के बावजूद किस-किस तरह तंग किया और कैसी-कैसी बेवफ़ाइयाँ उनके साथ कीं। उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, आयतें 51, 55, 60, 67 से 71; सूरा-4 अन-निसा, आयत 153; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 20 से 26; सूरा-7 अल-आराफ़, आयतें 138 से 147, 148 से 151; सूरा-20 ता०हा०, आयतें 86 से 98। बाइबल में स्वयं यहूदियों का अपना बयान किया हुआ इतिहास भी इस प्रकार की घटनाओं से भरा हुआ है। सिर्फ नमूने के तौर पर कुछ घटनाओं के लिए देखिए, निर्गमन 5 : 20-21, 14 : 11-12, 16 : 2-3, 17 : 3-4, गिनती, 11 : 1-15, 14 : 1-10, 16, सम्पूर्ण, 20 : 1-5। यहाँ इन घटनाओं की ओर संकेत मुसलमानों को सचेत करने के लिए किया जा रहा है कि वे अपने नबी के साथ वह नीति न अपनाएँ जो बनी इसराईल ने अपने नबी के साथ अपनाई थी, वरना वे उस अंजाम से दोचार हुए बिना नहीं रह सकते जिससे बनी इसराईल दोचार हुए।
5. अर्थात् अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि जो लोग स्वयं टेढ़ी राह चलना चाहें उन्हें वह ख़ामखाह सीधी राह चलाए और जो लोग उसकी अवज्ञा पर तुले हुए हों उनको ज़बरदस्ती सीधा रास्ता दिखाए। इससे यह बात स्वतः स्पष्ट हो गई कि किसी व्यक्ति या क़ौम की पथभ्रष्टता का आरंभ अल्लाह की ओर से नहीं होता, बल्कि स्वयं उस व्यक्ति या क़ौम की तरफ़ से होता है। अलबत्ता अल्लाह का क़ानून यह है कि जो पथभ्रष्टता (गुमराही) पसन्द करे, वह उसके लिए सन्मार्ग के नहीं, बल्कि पथभ्रष्टता के साधन ही जुटाता है, ताकि जिन-जिन राहों में वह भटकना चाहे भटकता चला जाए। अल्लाह ने तो इंसान को चुनाव की आजादी (Freedom of Choice) प्रदान कर दी है। इसके बाद यह निर्णय करना हर व्यक्ति का और इंसान के हर गिरोह का अपना काम है कि वह अपने आज्ञापालन करना चाहता है या नहीं, और सीधा मार्ग पसन्द करता है या टेढ़े रास्तों में किसी पर जाना चाहता है। [जो जिस रास्ते पर जाना चाहता है, उसे उसी पर जाने दिया जाता है। लेकिन यह अपने आपमें खुद एक सत्य है कि जो व्यक्ति जिस रास्ते को भी अपने लिए चुने उसपर वह व्यवहारत: एक क़दम भी नहीं चल सकता, जब तक अल्लाह उसके लिए वे संसाधन न जुटा दे और वे हालात न पैदा कर दे जो उसपर चलने के लिए अपेक्षित होते हैं। यही अल्लाह का दिया हुआ वह योगदान ( तौफ़ीक़) है जिसपर इंसान के हर प्रयास का फलदायक होना निर्भर है। अब अगर कोई व्यक्ति सिरे से चाहता ही नहीं कि उसे भलाई का सुअवसर मिले, बल्कि वह उलटी बुराई का अवसर चाहता है तो उसको वही मिलता है। और जब उसे बुराई का अवसर मिलता तो उसी के अनुसार उसकी मानसिकता का साँचा टेढ़ा और उसके प्रयास व कर्म का रास्ता टेढ़ा होता चला जाता है, यहाँ तक कि धीरे-धीरे उसके भीतर से भलाई को ग्रहण करने की क्षमता बिल्कुल समाप्त होकर रह जाती है। यही अर्थ है इस कथन का कि "जब उन्होंने टेढ़ अपनाई तो अल्लाह ने भी उनके दिल टेढ़े कर दिए।" इस स्थिति में यह बात अल्लाह के क़ानून के ख़िलाफ़ है कि जो स्वयं गुमराही चाहता है, उसे ज़बरदस्ती सन्मार्ग की ओर मोड़ दिया जाए। क्योंकि ऐसा करना उस परीक्षा के मकसद को समाप्त कर देगा जिसके लिए दुनिया में इंसान को चुनाव की आजादी दी गई है। यही अर्थ है इस कथन का कि "अल्लाह अवज्ञाकारियों को सीधा रास्ता नहीं दिखाता।" अर्थात् जिन लोगों ने अपने लिए स्वयं बुराई तथा अवज्ञा का रास्ता चुन लिया है, उनको वह भलाई और फ़रमांबरदारी की राह पर चलने का सुयोग नहीं दिया करता।
وَإِذۡ قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُم مُّصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَمُبَشِّرَۢا بِرَسُولٖ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِي ٱسۡمُهُۥٓ أَحۡمَدُۖ فَلَمَّا جَآءَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 5
(6) और6 याद करो मरयम के बेटे ईसा की वह बात जो उसने कही थी कि "ऐ बनी इसराईल! मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ, पुष्टि करनेवाला हूँ उस तौरात की जो मुझसे पहले आई हुई मौजूद है,7 और शुभ-सूचना देनेवाला हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा, जिसका नाम अहमद होगा।8
6. यह बनी इसराईल की दूसरी अवज्ञा का उल्लेख है। एक अवज्ञा वह थी जो उन्होंने अपने उन्नति-काल के आरंभ में की और दूसरी अवज्ञा यह है जो इस काल के अन्त और बिल्कुल अन्त पर उन्होंने की, जिसके बाद हमेशा-हमेशा के लिए उनपर अल्लाह की फिटकार पड़ गई। मक़सद इन दोनों घटनाओं को बयान करने का यह है कि मुसलमानों को अल्लाह के रसूल के साथ बनी इसराईल की-सी नीति अपनाने के परिणाम से सचेत किया जाए।
7. इस वाक्य के तीन अर्थ हैं और तीनों सही हैं- एक यह कि मैं वही 'दीन' (धर्म) लाया हूँ जो मूसा (अलैहि०) लाए थे। मैं तौरात का खंडन करता हुआ नहीं आया हूँ, बल्कि उसकी पुष्टि कर रहा हूँ। इसलिए कोई कारण नहीं कि तुम मेरी रिसालत (पैग़म्बरी) को मानने में संकोच करो। दूसरा अर्थ यह है कि मुझपर वे शुभ-सूचनाएँ चरितार्थ होती हैं जो मेरे आगमन के बारे में तौरात में मौजूद हैं। अत: इसके बजाय कि तुम मेरा विरोध करो, तुम्हें तो मेरे आगमन का स्वागत करना चाहिए। और इस वाक्य को बादवाले वाक्य से मिलाकर पढ़ने से तीसरा अर्थ यह निकलता है कि मैं अल्लाह के रसूल अहमद (सल्ल०) के आगमन के बारे में तौरात की दी हुई शुभ-सूचना की पुष्टि करता हूँ और स्वयं भी उनके आने की शुभ-सूचना देता हूँ। इस तीसरे अर्थ की दृष्टि से हज़रत ईसा (अलैहि०) के इस कथन का संकेत उस शुभ-सूचना की ओर है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के बारे में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अपनी क़ौम को सम्बोधित करते हुए दी थी। उसमें वे फ़रमाते हैं : "ख़ुदावन्द, तेरा ख़ुदा, तैरे लिए तेरे ही दरमियान से, यानी तेरे ही भाइयों में से मेरी तरह एक नबी उठाएगा, तुम उसकी सुनना। यह तेरे उस निवेदन के अनुसार होगा जो तुमने ख़ुदावन्द, अपने ख़ुदा से, जनसभा के दिन होरेब (पहाड़) में की थी कि मुझको न तो ख़ुदावंद, अपने ख़ुदा, की आवाज़ फिर सुननी पड़े और न ऐसी बड़ी आग ही का नज़ारा हो ताकि मैं मर न जाऊँ, और ख़ुदावन्द ने मुझसे कहा कि वे जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। मैं उनके लिए उन्हीं के भाइयों में से तेरी तरह का एक नबी उठाऊँगा और अपना कलाम उसके मुंह में डालूँगा और जो कुछ मैं उसे हुक्म दूंगा, वही वह उनसे कहेगा। और जो कोई मेरी उन बातों को जिनको वह मेरा नाम लेकर कहेगा, न सुने तो मैं उनका हिसाब उससे लूँगा।" (व्यवस्थाविवरण, अध्याय 18, आयत 15-19) यह तौरात की स्पष्ट भविष्यवाणी है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा किसी और पर फिट नहीं हो सकती। इसमें हजरत मूसा (अलैहि०) अपनी क़ौम को अल्लाह का यह इर्शाद सुना रहे हैं कि मैं तेरे लिए तेरे भाइयों में से एक नबी उठाऊँगा। स्पष्ट है कि एक क़ौम के भाइयों' से अभिप्राय स्वयं उसी क़ौम का कोई क़बीला या परिवार नहीं हो सकता, बल्कि कोई दूसरी ऐसी क़ौम ही हो सकती है जिसके साथ उसका क़रीबी नस्ली रिश्ता हो। अगर तात्पर्य स्वयं बनी इसराईल में से किसी नबी का आगमन होता तो शब्द ये होते कि मैं तुम्हारे लिए स्वयं में से एक नबी उठाऊँगा। अत: बनी इसराईल के भाइयों से अभिप्राय निश्चय ही बनी इसमाईल ही हो सकते हैं जो हज़रत इबराहीम की औलाद होने के कारण उनके वंशीय नातेदार हैं। इसके अलावा यह बात भी है कि यह भविष्यवाणी बनी इसराईल के किसी नबी पर चरितार्थ इस कारण नहीं हो सकती कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद बनी इसराईल में कोई एक नबी नहीं, बहुत सारे नबी आए हैं जिनके उल्लेख से बाइबल भरी पड़ी है। दूसरी बात इस शुभ-सूचना में यह फ़रमाई गई है कि जो नबी उठाया जाएगा वह हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरह होगा। इससे अभिप्राय स्पष्ट है कि इसके सिवा [और कुछ] नहीं हो सकता कि वह नबी एक स्थाई शरीअत लाने की दृष्टि से हज़रत मूसा (अलैहि०) के जैसा होगा और यह विशेषता मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा किसी में नहीं पाई जाती, क्योंकि आप (सल्ल०) से पहले बनी इसराईल में जो नबी भी आए थे वे मूसा (अलैहि०) की लाई हुई शरीअत के अनुपालक थे, उनमें से कोई भी एक स्थाई शरीअत लेकर न आया था। इस अर्थ को और अधिक बल भविष्यवाणी ( के बाद के वाक्य] से मिलता है। इस वाक्य में होरेब से मुराद वह पहाड़ है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को पहली बार शरीअत के आदेश दिए गए थे। और बनी इसराईल के जिस निवेदन का इसमें उल्लेख हुआ है उसका अर्थ यह है कि आगे अगर कोई शरीअत हमको दी जाए तो उन भयावह परिस्थितियों में न दी जाए जो होरेब पहाड़ के दामन में शरीअत देते वक़्त पैदा की गई थी। उन परिस्थितियों का उल्लेख कुरआन में भी मौजूद है और बाइबल में भी। (देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 55-56,63; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 155, 171; बाइबल, किताब निर्गमन 19 : 17-181) इसके उत्तर में हज़रत मूसा (अलैहि०) बनी इसराईल को बताते हैं कि अल्लाह ने तुम्हारा यह निवेदन स्वीकार कर लिया है। इस स्पष्टीकरण पर विचार करने के बाद क्या इस बात में किसी सन्देह की गुंजाइश रह जाती है कि मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा यह किसी पर चरितार्थ नहीं होती? हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद स्थाई शरीअत सिर्फ़ आप (सल्ल०) ही को दी गई। उसके प्रदान करने के समय कोई ऐसी सभा नहीं हुई जैसा होरेब पर्वत के दामन में बनी इसराईल की हुई थी और किसी वक़्त भी शरीअत के आदेश प्रदान करने के अवसर पर वे परिस्थितियाँ पैदा नहीं की गईं जो वहाँ पैदा की गई थीं।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُوَ يُدۡعَىٰٓ إِلَى ٱلۡإِسۡلَٰمِۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(7) मगर जब वह उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आया तो उन्होंने कहा, यह तो स्पष्ट धोखा है।9 अब भला उस व्यक्ति से बड़ा अत्याचारी और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा आरोप लगाए10, जबकि उसे इस्लाम (अल्लाह के आगे आज्ञापालन) की ओर बुलाया जा रहा हो?11 ऐसे अत्याचारियों को अल्लाह रास्ता नहीं दिखाया करता।
9. मूल में अरबी शब्द 'सिहर' प्रयुक्त हुआ है। सिहर यहाँ जादू के अर्थ में नहीं, बल्कि धोखे और फ़रेब के अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। अरबी शब्दकोष में जादू की तरह इसका यह अर्थ भी प्रसिद्ध और प्रचलित है। कहते हैं, 'स-ह-रहू इख-द-अ-हू' (उसने अमुक व्यक्ति पर सिहर किया अर्थात् उसको धोखा दिया)। आयत का अर्थ यह है कि जब वह नबी, जिसके आने की शुभ-सूचना ईसा (अलैहि०) ने दी थी, अपने नवी होने की स्पष्ट निशानियों के साथ आ गया तो बनी इसराईल और ईसा (अलैहि०) की उम्मत (समुदाय) ने उसके नबी होने के दावे को बिल्कुल धोखा (फ़रेब) बताया।
10. अर्थात् अल्लाह के भेजे हुए नबी को झूठा दावेदार ठहराए और अल्लाह की उस वाणी को, जो उसके नबी पर उतर रही हो, नबी की अपनी गढ़ी हुई वाणी ठहराए।
يُرِيدُونَ لِيُطۡفِـُٔواْ نُورَ ٱللَّهِ بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَٱللَّهُ مُتِمُّ نُورِهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 7
(8) ये लोग अपने मुंह की फूंकों से अल्लाह के प्रकाश (नूर) को बुझाना चाहते हैं, और अल्लाह का फ़ैसला यह है कि वह अपने प्रकाश (नूर) को पूरा फैलाकर रहेगा, चाहे इंकार करनेवालों को यह कितना ही अप्रिय हो।12
12. यह बात दृष्टि में रहे कि ये आयते सन् 03 हिजरी में उहुद की लड़ाई के बाद उतरी थीं, जबकि इस्लाम सिर्फ मदीना नगर ही तक सीमित था। मुसलमानों की तादाद कुछ हजार से अधिक न थी और सारा अरब इस दीन (धर्म) को मिटा देने पर तुला हुआ था। उहुद की लड़ाई में जो हानि मुसलमानों को पहुँची थी, उसकी वजह से उनकी हवा उखड़ गई थी और आस-पास के क़बीले उनपर शेर हो गए थे। इन हालात में फ़रमाया गया कि अल्लाह का यह नूर किसी के बुझाए बुझ न सकेगा, बल्कि पूरी तरह रौशन होकर और दुनिया भर में फैलकर रहेगा। यह एक स्पष्ट भविष्यवाणी है जिसका एक-एक शब्द सही सिद्ध हुआ। अल्लाह के सिवा उस वक्त और कौन यह जान सकता था कि इस्लाम का भविष्य क्या है? इंसानी निगाहें तो उस समय यह देख रही थीं कि यह एक टिमटिमाता हुआ चिराग है जिसे बुझा देने के लिए बड़े ज़ोर की आँधियाँ चल रही हैं।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ ۝ 8
(9) बही तो है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और दीने-हक़ (सत्य-धर्म) के साथ भेजा है, ताकि उसे पूरे के पूरे दीन (धर्म) पर प्रभुत्व प्रदान कर दे, चाहे मुशरिकों (बहुदेववादियों) को यह कितना ही अप्रिय हो।13
13. 'मुशरिकों' को अप्रिय हो, अर्थात् उन लोगों को जो अल्लाह की बन्दगी के साथ दूसरों की बन्दगियाँ मिलाते हैं और अल्लाह के दीन (धर्म) में दूसरे दीनों की मिलावट करते हैं। जो इस बात पर राजी नहीं हैं कि जीवन की पूरी की पूरी व्यवस्था केवल एक ख़ुदा के आज्ञापालन और उसके बताए सन्मार्ग पर क़ायम हो। जिन्हें इस बात पर आग्रह है कि जिस-जिस उपास्य का चाहेंगे आज्ञापालन करेंगे और जिन-जिन दर्शनों और सिद्धान्तों पर चाहेंगे अपनी आस्थाओं व नैतिकता और संस्कृति व सभ्यता की नींव रखेंगे, ऐसे सब लोगों के विपरीत यह फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह का रसूल उनके साथ समझौता करने के लिए नहीं भेजा गया है, बल्कि इसलिए भेजा गया है कि जो सीधा रास्ता और सच्चा दीन (धर्म) वह अल्लाह की ओर से लाया है, उसे पूरे दीन अर्थात् जीवन-व्यवस्था के हर विभाग पर ग़ालिब (प्रभावी) कर दे। यह काम उसे बहरहाल करके रहना है। कुफ्र और शिर्क करनेवाले मान लें तो और न मानें तो, और प्रतिरोध में एड़ी-चोटी का जोर लगा दें तो, रसूल का यह मिशन हर हालत में पूरा होकर रहेगा। यह एलान इससे पहले कुरआन में दो जगह हो चुका है, एक सूरा-9 अत-तौबा, आयत 33 में, दूसरे सूरा-48 अल-फतह, आयत 28 में। अब तीसरी बार उसे यहाँ दोहराया जा रहा है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-9 अत-तौबा, टिप्पणी 32; सूरा-48 फ़त्ह, टिप्पणी 51)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ تِجَٰرَةٖ تُنجِيكُم مِّنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 9
(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, मैं बताऊँ तुमको वह व्यापार14 जो तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचा दे?
14. व्यापार वह चीज़ है जिसमें आदमी अपना धन, समय, मेहनत, और बुद्धि और योग्यता इसलिए खपाता है कि उससे लाभ मिले। इसी पहलू से यहाँ ईमान और अल्लाह के मार्ग में जिहाद करने को व्यापार कहा गया है। मतलब यह है कि इस राह में अपना सब कुछ खपाओगे तो वह लाभ तुम्हें प्राप्त होगा जो आगे बयान किया जा रहा है। यही विषय सूरा-9 अत-तौबा, आयत 111 में एक और ढंग से बयान किया गया है। (देखिए सूरा-9 अत-तौबा, टिप्पणी 106)
تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 10
(11) ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर15 और जिहाद करो अल्लाह की राह में अपने मालों से और अपनी जानों से। यही तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो।16
15. ईमान लानेवालों से जब कहा जाए कि ईमान लाओ तो उससे अपने आप यह अर्थ निकलता है कि निष्ठावान मुसलमान बनो। ईमान के मात्र ज़बानी दावे को काफ़ी न समझो, बल्कि जिस चीज़ पर ईमान लाए हो, उसके लिए हर प्रकार के त्याग को सहन करने के लिए तैयार हो जाओ।
16. अर्थात् यह व्यापार तुम्हारे लिए दुनिया के व्यापारों से अधिक अच्छा है।
يَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡ وَيُدۡخِلۡكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ وَمَسَٰكِنَ طَيِّبَةٗ فِي جَنَّٰتِ عَدۡنٖۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 11
(12) अल्लाह तुम्हारे गुनाह माफ़ कर देगा और तुमको ऐसे बागों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, और सदैव रहने की जन्नतों में बेहतरीन घर तुम्हें प्रदान करेगा। यह है बड़ी सफलता।17
17. ये उस व्यापार के असल फ़ायदे हैं जो आखिरत के शाश्वत जीवन में प्राप्त होंगे। एक ख़ुदा के अज़ाब से सुरक्षित रहना, दूसरे गुनाहों माफ़ी, तीसरे खुदा की उस जन्नत में दाखिल होना जिसको नेमतें कभी न समाप्त होनेवाली हैं।
وَأُخۡرَىٰ تُحِبُّونَهَاۖ نَصۡرٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَتۡحٞ قَرِيبٞۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 12
(13) और वह दूसरी चीज़ जो तुम चाहते हो, वह भी तुम्हें देगा, अल्लाह की ओर से मदद और क़रीब ही में प्राप्त हो जानेवाली विजय।18 ऐ नबी! ईमानवालों को इसको शुभ-सूचना दे दो।
18. दुनिया में विजय और सफलता भी यद्यपि अल्लाह की एक बड़ी नेमत है, लेकिन मोमिन (ईमानवाले) के लिए असल महत्त्व की चीज़ यह नहीं है, बल्कि आखिरत की सफलता है। इसी लिए जो नतीजा दुनिया के इस जीवन में प्राप्त होनेवाला है, उसका उल्लेख बाद में किया गया और जो नतीजा आख़िरत में सामने आनेवाला है, उसका वर्णन पहले किया गया।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُوٓاْ أَنصَارَ ٱللَّهِ كَمَا قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ لِلۡحَوَارِيِّـۧنَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِۖ فَـَٔامَنَت طَّآئِفَةٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَكَفَرَت طَّآئِفَةٞۖ فَأَيَّدۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَىٰ عَدُوِّهِمۡ فَأَصۡبَحُواْ ظَٰهِرِينَ ۝ 13
(14) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के मददगार बनो, जिस तरह मरयम के बेटे ईसा ने हवारियों19 को सम्बोधित करके कहा था, "कौन है अल्लाह की ओर (बुलाने में) मेरा सहायक?" और हवारियों ने जवाब दिया था, "हम हैं अल्लाह के मददगार।’’20 उस वक़्त बनी इसराईल का एक गिरोह ईमान लाया और दूसरे गिरोह ने इंकार किया। फिर हमने ईमान लानेवालों का उनके दुश्मनों के मुकाबले में सहयोग किया और वही प्रभावी होकर रहे।21
19. हज़रत ईसा (अलैहि०) के साथियों के लिए बाइबल में आमतौर पर शब्द 'शिष्य' प्रयोग किया गया है, लेकिन बाद में उनके लिए रसूल (Apostles) का पारिभाषिक शब्द ईसाइयों में प्रचलित हो गया। इस अर्थ में नहीं कि वे खुदा के रसूल थे, बल्कि इस अर्थ में कि हज़रत ईसा उनको अपनी ओर से धर्म-प्रचारक बनाकर फ़िलस्तीन के क्षेत्रों में भेजा करते थे। यहूदियों के यहाँ यह शब्द पहले से उन लोगों के लिए बोला जाता था जो हैकल के लिए चन्दा जमा करने के उद्देश्य से भेजे जाते थे। इसकी तुलना में क़ुरआन का पारिभाषिक शब्द 'हवारी' इन दोनों मसीही पारिभाषिक शब्दों से बेहतर है। इस शब्द का मूल हूर है, जिसका अर्थ सफेदी है। धोबी को हवारी कहते हैं, क्योंकि वह कपड़े धोकर सफेद कर देता है। शुद्ध और बिना मिलावट की चीज़ को भी हवारी कहा जाता है। जिस आटे को छानकर भूसी निकाल दी गई हो उसे 'हुव्वारा' कहते हैं। इसी अर्थ में निष्ठावान मित्र और नि:स्वार्थ समर्थक के लिए यह शब्द बोला जाता है। इब्ने-सैयदा कहता है, "हर वह व्यक्ति जो किसी की सहायता करने में अतिशयता से काम ले, वह उसका हवारी है।" (शब्दकोष लिसानुल-अरब)
20. यह अन्तिम स्थान है जहाँ क़ुरआन मजीद में उन लोगों को अल्लाह का मददगार कहा गया है जो ख़ुदा के बन्दों को दीन (धर्म) की तरफ़ बुलाने और अल्लाह के दीन को कुफ्र (अधर्म) के मुकाबले में ग़ालिब (प्रभावी) करने का प्रयास करें। इससे पहले यही विषय सूरा-3 आले-इमरान, आयत 52; सूरा-22 अल-हज, आयत 40; सूरा-47 मुहम्मद, आयत 7; सूरा-57 अल-हदीद, आयत 25 और सूरा-59 अल-हश्र, आयत 8 में गुज़र चुका है। और इन आयतों की व्याख्या हम सूरा-3 आले-इमरान, टिप्पणी 50; सूरा-22 अल-हज, टिप्पणी 84; सूरा-47 मुहम्मद, टिप्पणी 12, और सूरा-57 अल-हदीद, टिप्पणी 47 में कर चुके हैं। इसके अलावा सूरा-47 मुहम्मद, टिप्पणी 9 में भी इस मामले के एक अंश पर स्पष्ट रौशनी डाली जा चुकी है। इसके बावजूद कुछ लोगों के ज़ेहन में यह उलझन पाई जाती है कि जब अल्लाह सर्वशक्तिमान है, तमाम चीज़ों से बेनियाज़ है, किसी का मुहताज नहीं है और सब उसके मुहताज हैं, तो कोई बन्दा आख़िर अल्लाह का मददगार कैसे हो सकता है। इस उलझन को दूर करने के लिए हम यहाँ इस मामले को और खोलकर बयान कर देते हैं। वास्तव में ऐसे लोगों को अल्लाह का मददगार इसलिए नहीं कहा गया है कि सारे जहानों का रब अल्लाह (अल्लाह की पनाह) किसी काम के लिए अपनी किसी मखलूक (सृष्टि) की मदद का मुहताज है, बल्कि यह इसलिए फ़रमाया गया है कि जिंदगी के जिस क्षेत्र में अल्लाह ने खुद इंसान को कुफ़्र (इंकार) व ईमान (इक़रार) और आज्ञापालन और अवज्ञा की स्वंत्रता प्रदान की है, उसमें वह लोगों को अपनी शक्ति और बल से काम लेकर ज़बरदस्ती ईमानवाला और आज्ञापालक नहीं बनाता, बल्कि अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रीये से उनको सीधा रास्ता दिखाने के लिए उपदेश व शिक्षा और समझाने-बुझाने और नसीहत करने का तरीक़ा अपनाता है। इस उपदेश और शिक्षा को जो व्यक्ति अपनी ख़ुशी और इच्छा से अपना ले, वह ईमानवाला (आस्थावान) है। जो व्यावहारतः आदेशों का पालनकर्ता बन जाए वह मुस्लिम (समर्पित), आज्ञाकारी और इबादतगुज़ार है। जो खुदातरसी का रवैया इख़्तियार कर ले वह मुत्तक़ी (परहेज़गार) है, जो भलाइयों की ओर अग्रसर हो वह मुहसिन (उत्तम कर्मी) है और इससे एक और क़दम आगे बढ़कर जो इसी उपदेश और शिक्षा के ज़रीये से अल्लाह के बन्दों के सुधार के लिए और कुफ़्र व नाफरमानी की जगह अल्लाह के आज्ञापालन की व्यवस्था स्थापित करने के लिए काम करने लगे उसे अल्लाह स्वयं अपना मददगार करार देता है, जैसा कि उपर्युक्त आयतों में कई जगह स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। अगर असल अभिप्राय अल्लाह का नहीं बल्कि अल्लाह के दीन का मददगार कहना होता तो 'अल्लाह के मददगार' के बजाय 'अल्लाह के दीन के मददगार', कहा जाता। वे अल्लाह की मदद करेंगे' के बजाय 'वे अल्लाह के दीन की मदद करेंगे' फ़रमाया जाता। अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे' को बजाय 'अगर तुम अल्लाह के दीन की मदद करोगे' फ़रमाया जाता। जब एक विषय को अदा करने के लिए अल्लाह ने एक के बाद एक कई जगहों पर एक ही वर्णन-शैली अपनाई है, तो यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि असल मक़सद ऐसे लोगों को अल्लाह का मददगार ही कहना है। मगर यह 'मददगारी' अल्लाह की पनाह इस अर्थ में नहीं है कि ये लोग अल्लाह की कोई ज़रूरत पूरी करते हैं जिसके लिए वह इनकी मदद का मुहताज है, बल्कि यह इस अर्थ में है कि ये लोग उसी काम में हिस्सा लेते हैं जिसे अल्लाह अपनी शक्ति और बल के जरीये से करने के बजाय अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रीये से करना चाहता है।