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سُورَةُ الحَدِيدِ

57. अल-हदीद

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

आयत 25 के वाक्यांश "व अंज़ल-नल हदीद' अर्थात् "और हमने लोहा (हदीद) उतारा" से लिया गया है।

उतरने का समय

इसके मदनी सूरा होने में सभी टीकाकार एकमत हैं और इसके विषयों पर विचार करने से महसूस होता है कि शायद यह उहुद के युद्ध और हुदैबिया के समझौते के बीच किसी समय उतरी है। यह वह समय था जब इस्लाम को अपने अनुयायियों से केवल प्राण की क़ुरबानी ही की ज़रूरत न थी, बल्कि धन की क़ुरबानी की भी थी, और इस सूरा में इसी क़ुरबानी के लिए ज़ोरदार अपील की गई है। इस अनुमान की आयत 10 से और अधिक पुष्टि होती है।

विषय और वार्ता

इसका विषय अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने पर उभारता है। यह सूरा इस उद्देश्य के लिए उतारी गई थी कि मुसलमानों को विशेष रूप से धन की क़ुरबानियों के लिए तैयार किया जाए और यह बात उनके मन में बिठा दी जाए कि ईमान [की मूल आत्मा और वास्तविकता] अल्लाह और उसके धर्म के लिए निष्ठावान होना है। जो व्यक्ति इस आत्मा से वंचित है और ख़ुदा और उसके धर्म की तुलना में अपनी जान-माल और अपने हित को अधिक प्रिय समझे, उसके ईमान की स्वीकृति खोखली है। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले अल्लाह के गुणों को बयान किया गया है, ताकि सुननेवालों को अच्छी तरह यह एहसास हो जाए कि इस महान हस्ती की ओर से उनको संबोधित किया जा रहा है। इसके बाद निम्नलिखित विषय-वस्तुएँ क्रमशः प्रस्तुत की गई हैं—

  1. ईमान का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि आदमी ख़ुदा के रास्ते में माल ख़र्च करने से न कतराए।
  2. ख़ुदा की राह में जान-माल की क़ुरबानी देना यद्यपि हर हाल में अपना मूल्य रखता है,

मगर इन क़ुरबानियों का मूल्य मौक़ों की गंभीरता की दृष्टि से निश्चित होता है। जो लोग इस्लाम की कमज़ोरी की हालत में उसे उच्च करने के लिए जानें लड़ाएँ और माल खर्च करें, उनके दर्जे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो इस्लाम के प्रभावी होने की स्थिति में उसकी तदधिक उन्नति और आगे बढ़ाने के लिए जान-माल क़ुरबान करें।

  1. सत्य मार्ग में जो माल भी ख़र्च किया आए, वह अल्लाह के ज़िम्मे है, और अल्लाह न सिर्फ़ यह कि उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा, बल्कि अपनी और से और अधिक प्रतिदान भी प्रदान करेगा।
  2. आख़िरत में ख़ुदा का नूर (प्रकाश) उन्हीं ईमानवालों को मिलेगा, जिन्होंने अल्लाह के मार्ग में अपना माल ख़र्च किया हो। रहे ये मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) जो दुनिया में अपने ही हित को देखते रहे, आख़िरत में उनको ईमानवालों से अलग कर दिया जाएगा। वे प्रकाश से वंचित होंगे और उनका परिणाम वही होगा जो इंकार करनेवालों का होगा।
  3. मुसलमानों को उन अहले-किताब की तरह नहीं हो जाना चाहिए जिनके दिल लम्बे समय की ग़फ़लतों (बेसुधियों) की वजह से पत्थर हो गए हैं। वह ईमानवाला ही क्या जिसका दिल ख़ुदा की याद से न पिघले और उसके उतारे हुए सत्य के आगे न झुके।
  4. अल्लाह की दृष्टि में 'सिद्दीक़' (सत्यवान) और 'शहीद' (साक्षी) कैवल वे ईमानवाले हैं जो अपना माल किसी दिखावे की भावना के बिना सच्चे दिल से उसके मार्ग में ख़र्च करते हैं।
  5. दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ़ कुछ दिनों की बहार और एक धोखे का सामान है। यहाँ की साज-सजा और यहाँ का धन-दौलत, जिसमें लोग एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिशें करते हैं, सब कुछ अस्थायी है। स्थायी जीवन वास्तव में आख़िरत की ज़िन्दगी है। तुम्हें एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करनी है तो यह कोशिश जन्नत की ओर दौड़ने में करो।
  6. दुनिया में सुख और दुख जो भी होता है, अल्लाह के पहले से लिखे हुए फ़ैसले के अनुसार होता है। ईमानवालों का चरित्र यह होना चाहिए कि दुख या मुसीबत आए तो हिम्मत न हार बैठें, और सुख आए तो इतराने न लगें।
  7. अल्लाह ने अपने रसूल खुली-खुली निशानियों और किताब और न्याय-तुला के साथ भेजे, ताकि लोग न्याय पर स्थिर रह सकें, और इसके साथ लोहा भी उतारा, ताकि सत्य को स्थापित करने और असत्य का सिर नीचा करने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाए। इस तरह अल्लाह यह देखना चाहता है कि इंसानों में से कौन लोग ऐसे निकलते हैं जो उसके धर्म के समर्थन और उसकी सहायता के लिए खड़े हों और उसके लिए जान लड़ा दें।
  8. अल्लाह की ओर से पहले पैग़म्बर आते रहे जिनकी दावत से कुछ लोग सीधी राह पर आए और अधिकतर अवज्ञाकारी बने रहे। फिर ईसा (अलैहि०) आए, जिनकी शिक्षा से लोगों में बहुत-से नैतिक गुण पैदा हुए, मगर उनकी उम्मत ने संन्यास की नई नीति अपना ली। अब सर्वोच्च अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) को भेजा है। उनपर जो लोग ईमान लाएँगे, अल्लाह उनको अपनी दयालुता का दोहरा हिस्सा देगा और उन्हें [सीधी राह दिखानेवाला] नूर (प्रकाश) प्रदान करेगा। अहले-किताब चाहे अपने आपको अल्लाह की कृपाओं का ठेकेदार समझते रहें, मगर अल्लाह की कृपा उसके अपने ही हाथ में है, उसे अधिकार है जिसे चाहे अपने उदार दान से सम्पन्न करे।

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سُورَةُ الحَدِيدِ
57. अल-हदीद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह का महिमागान किया है हर उस चीज़ ने जो ज़मीन और आसमानों में है,1 और वही प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।2
1. अर्थात् हमेशा जगत् की हर वस्तु ने इस सत्य का प्रदर्शन और इसकी उद्घोषणा की है कि उसका पैदा करनेवाला और पालनेवाला हर दोष, कमी और कमज़ोरी और ख़ता (ग़लती) और बुराई से पाक है। यहाँ 'सब्ब-ह' भूतकाल की क्रिया में प्रयुक्त हुआ है, और कुछ दूसरी जगहों पर 'युसब्बिहु' भविष्य और वर्तमानकाल की क्रिया में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि जगत् का कण-कण हमेशा अपने पैदा करनेवाले और पालनेवाले की पवित्रता का वर्णन करता रहा है, आज भी कर रहा है और सदैव करता रहेगा।
2. मूल अरबी शब्द हैं 'हुवल अज़ीजुल हकीम', [जिनका अर्थ] यह है कि वही ऐसी हस्ती है जो अज़ीज़ भी है और हकीम भी। अज़ीज़ का अर्थ है ऐसा प्रभुत्वशाली और सामर्थ्यवान व बलशाली जिसके निर्णय को लागू होने से दुनिया की कोई शक्ति रोक नहीं सकती, और हकीम का अर्थ यह है कि वह जो कुछ भी करता है, हिकमत (तत्त्वदर्शिता) और सूझ-बूझ के साथ करता है। उसके किसी काम में नादानी और अज्ञान नाममात्र का भी नहीं है। इस जगह एक सूक्ष्म बात और भी है जिसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। कुरआन मजीद में कुछ जगहों को छोड़कर बाक़ी जहाँ भी अल्लाह के लिए 'अज़ीज़' का शब्द इस्तेमाल किया गया है, वहाँ उसके साथ हकीम (तत्त्वदर्शी), अलीम (ज्ञानवान), रहीम (दयावान), गफूर (क्षमा करनेवाला), वहाब (दाता) और हमीद (प्रशंसित) में से कोई शब्द ज़रूर लाया गया है। इसका कारण यह है कि अगर कोई हस्ती ऐसी हो जिसे अपार शक्ति प्राप्त हो, मगर उसके साथ वह नादान हो, अज्ञानी हो, क्रूर हो, कंजूस हो और चरित्रहीन हो तो उसकी सत्ता का परिणाम ज़ुल्म के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। इसी लिए क़ुरआन मजीद में अल्लाह के गुण 'अजीज़' के साथ उसके 'हकीम' व 'अलीम' और रहीम व ग़फूर और हमीद और वहाब होने का उल्लेख अनिवार्य रूप से किया गया है, ताकि इंसान यह जान ले कि जो ख़ुदा इस जगत् पर हुकूमत कर रहा है, वह एक ओर तो ऐसी पूर्ण सत्ता रखता है कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक कोई उसके फैसलों को लागू होने से रोक नहीं सकता, मगर दूसरी ओर वह तत्त्वदर्शी भी है, उसका हर फैसला सर्वथा समझदारी पर आधारित होता है। अलीम (जाननेवाला) भी है, जो फ़ैसला भी करता है, ठीक-ठीक ज्ञान के अनुसार करता है। रहीम (दयावान) भी है, अपनी असीम सत्ता को निर्दयता के साथ इस्तेमाल नहीं करता। गफूर (क्षमा करनेवाला) भी है, अपने मातहतों के साथ आलोचना का नहीं, बल्कि अनदेखा करने और क्षमा कर देने का मामला करता है। वहाब (दाता) भी है, अपनी प्रजा के साथ कंजूसी का नहीं, बल्कि असीम दानशीलता का बर्ताव कर रहा है। और 'हमीद' भी है, तमाम प्रशंसनीय गुण और कमाल उसकी जात में जमा हैं। कुरआन के इस बयान का पूरा महत्त्व वे लोग ज़्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं जो संप्रभुता (Sovereignty) के प्रकरण पर राजनीति दर्शन और क़ानून के दर्शन से परिचित हैं।
لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 1
(2) ज़मीन और आसमानों के राज्य का मालिक वही है, जीवन प्रदान करता है और मौत देता है, और उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
هُوَ ٱلۡأَوَّلُ وَٱلۡأٓخِرُ وَٱلظَّٰهِرُ وَٱلۡبَاطِنُۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 2
(3) वही प्रथम भी है और अन्तिम भी, और जाहिर भी है और छिपा3 भी, और वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
3. अर्थात् जब कुछ न था तो वह था और जब कुछ न रहेगा तो वह रहेगा। वह सब ज़ाहिरों से बढ़कर ज़ाहिर है, क्योंकि दुनिया में जो कुछ भी ज़ाहिर हो रहा है उसी के गुणों और उसी के कामों और उसी के नूर का जुहूर (प्रकटन) है। और वह हर छिपे से बढ़कर छिपा हुआ है, क्योंकि इन्द्रियों से उसकी जात को महसूस करना तो दूर की बात, बुद्धि, चिन्तन, कल्पना और विचार तक उसके रहस्य और वास्तविकता को नहीं पा सकते।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۖ وَهُوَ مَعَكُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 3
(4) वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया और फिर सिंहासन पर विराजमान हुआ।4 उसके ज्ञान में है जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है।5 वह तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम हो।6 जो काम भी तुम करते हो उसे वह देख रहा है।
4. अर्थात् सृष्टि का पैदा करनेवाला भी वही है और शासक भी वही। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 41-42; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 4; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 2-5; सूरा-41 हामीम-सज्दा, टिप्पणी 11 से 15)
5. दूसरे शब्दों में वह सिर्फ़ समग्र और कुल ही का ज्ञाता नहीं है, बल्कि उसे गौण और आंशिक बातों का भी ज्ञान है। एक-एक दाना जो ज़मीन की तहों में जाता है, एक एक पत्ती और कोपल जो धरती से फूटती है, वर्षा की एक-एक बूंद जो आसमान से गिरती है, भाप को हर मात्रा जो समुद्रों और झीलों से उठकर आसमान की ओर जाती है, उसकी दृष्टि में है। उसको मालूम है कि कौन-सा दाना धरती में किस जगह पड़ा है, तभी तो वह उसे फाड़कर उसमें से कोंपल निकालता है और उसे परवरिश करके बढ़ाता है। उसको मालूम है कि भापों को कितनी कितनी मात्रा कहाँ-कहाँ से उठी है और कहाँ पहुँची है, तभी तो वह उन सबको जमा करके बादल बनाता है और धरती के विभिन्न भागों में बाँटकर हर जगह एक हिसाब से वर्षा बरसाता है।
لَّهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 4
(5) वही ज़मीन और आसमानों के राज्य का मालिक है, और सारे मामले फ़ैसले के लिए उसी की ओर पलटाए जाते हैं।
يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۚ وَهُوَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 5
(6) वही रात को दिन में और दिन को रात में दाख़िल करता है और दिलों के छिपे हुए रहस्य तक जानता है।
ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَأَنفِقُواْ مِمَّا جَعَلَكُم مُّسۡتَخۡلَفِينَ فِيهِۖ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَأَنفَقُواْ لَهُمۡ أَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 6
(7) ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर7 और ख़र्च करो8 उन चीज़ों में से जिनपर उसने तुमको ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाया है।9 जो लोग तुममें से ईमान लाएँगे और माल ख़र्च करेंगे10 उनके लिए बड़ा बदला है।
7. सम्बोधन उन मुसलमानों से है जो ईमान के तक़ाज़े पूरे करने से कतरा रहे थे। सन्दर्भ की दृष्टि से यहाँ "ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर" कहने का अर्थ यह है कि ऐ वे लोगो जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में शामिल हो गए हो! अल्लाह और उसके रसूल को सच्चे मन से मानो और वह नीति अपनाओ जो निष्ठापूर्वक ईमान लानेवालों को अपनानी चाहिए।
8. इस जगह पर 'ख़र्च करने' से अभिप्रेत उस जिद्दोजहद के खर्चों में हिस्सा लेना है जो उस समय कुफ़्र के मुक़ाबले में इस्लाम को सरबुलन्द करने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के नेतृत्व में की जा रही थी। सच्चे ईमानवाले इन खर्चों को पूरा करने के लिए अपनी ज़ात पर इतना बोझ सहन कर रहे थे जो उनकी शक्ति और सामर्थ्य से बहुत अधिक था। लेकिन मुसलमानों के गरोह में बहुत-से अच्छे खासे खाते-पीते लोग ऐसे मौजूद थे जो कुफ्र व इस्लाम के इस संघर्ष को सिर्फ तमाशाई बनकर देख रहे थे। यही दूसरे प्रकार के लोगों को इस आयत में सम्बोधित किया गया है। उनसे कहा जा रहा है कि सच्चे मोमिन बनो और अल्लाह की राह में माल ख़र्च करो।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ لِتُؤۡمِنُواْ بِرَبِّكُمۡ وَقَدۡ أَخَذَ مِيثَٰقَكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, हालाँकि रसूल तुम्हें अपने रब ईमान लाने की दावत (निमंत्रण) दे रहा है11 और वह तुमसे पक्का वादा ले चुका है12, अगर तुम वास्तव में माननेवाले हो।
11. अर्थात् तुम यह गैर-ईमानी रवैया इस हालत में अपना रहे हो कि अल्लाह का रसूल (सल्ल.) स्वयं तुम्हारे बीच मौजूद है और [ईमान और निष्ठा की] दावत तुम्हें किसी दूर के वास्ते से नहीं, बल्कि सीधे तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल0) की ज़बान से पहुंच रही है।
12. इस वादे से अभिप्रेत अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञापालन का वह चेतनापूर्ण वादा है जो हर मुसलमान ईमान लाकर अपने रब से करता है। [(देखिए सूरा-5 माइदा, आयत 7)]
هُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦٓ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لِّيُخۡرِجَكُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ بِكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 8
(9) वह अल्लाह ही तो है जो अपने बन्दे पर साफ़-साफ़ आयतें उतार रहा है, ताकि तुम्हें अँधेरों से निकालकर रौशनी में ले आए और वास्तविकता यह है कि अल्लाह तुम्हारे लिए बड़ा ही करुणामय और दयावान है।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا يَسۡتَوِي مِنكُم مَّنۡ أَنفَقَ مِن قَبۡلِ ٱلۡفَتۡحِ وَقَٰتَلَۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡظَمُ دَرَجَةٗ مِّنَ ٱلَّذِينَ أَنفَقُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَقَٰتَلُواْۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 9
(10) आख़िर क्या कारण है कि तुम अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते, हालाँकि ज़मीन और आसमानों की मीरास (विरासत) अल्लाह ही के लिए है।13 तुममें से जो लोग विजय के बाद ख़र्च और जिहाद करेंगे, वे कभी उन लोगों के बराबर नहीं हो सकते जिन्होंने विजय से पहले ख़र्च और जिहाद किया है। उनका दर्जा बाद में ख़र्च और जिहाद करनेवालों से बढ़कर है, यद्यपि अल्लाह ने दोनों ही से अच्छे वादे किए हैं।14 जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।15
13. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि यह माल तुम्हारे पास सदैव रहनेवाला नहीं है, एक दिन तुम्हें ज़रूर ही इसे छोड़कर जाना है और अल्लाह ही इसका वारिस होनेवाला है। फिर क्यों न अपनी जिंदगी में इसे अपने हाथ अल्लाह राह में खर्च कर दो, ताकि अल्लाह के यहाँ इसका बदला (प्रतिदान) तुम्हारे लिए साबित (निश्चित) हो जाए। दूसरा अर्थ यह है कि अल्लाह की राह में माल खर्च करते हुए तुमको किसी मुहताजी और तंगी का अंदेशा न होना चाहिए, क्योंकि जिस ख़ुदा के लिए तुम उसे ख़र्च करोगे, वह ज़मीन और आसमान के सारे ख़ज़ानों का मालिक है, उसके पास तुम्हें देने को बस उतना ही कुछ न था जो उसने आज तुम्हें दे रखा है, बल्कि कल वह तुम्हें इससे बहुत ज्यादा दे सकता है। यही बात [सूरा-34 सबा, आयत 39 में भी] कही गई है।
14. अर्थात् बदले के हक़दार तो दोनों ही हैं, लेकिन एक गरोह का दर्जा दूसरे गरोह से अनिवार्यतः अधिक ऊँचा है, क्योंकि उसने अधिक कठिन परिस्थितियों में अल्लाह के लिए वे ख़तरे मोल लिए जो दूसरे गरोह के सामने नहीं आ सके थे। उसने ऐसी हालत में माल ख़र्च किया जब दूर-दूर कहीं यह संभावना नज़र नहीं आती थी कि कभी विजयों से इस ख़र्च की पूर्ति हो जाएगी और उसने ऐसे नाजुक दौर में शत्रुओं से युद्ध किया, जब हर समय यह आशंका थी कि शत्रु ग़ालिब आकर इस्लाम का नाम लेनेवालों को पीस डालेंगे। टीकाकारों में से मुजाहिद, क़तादा और जैद बिन असलम कहते हैं कि इस आयत में जिस चीज़ के लिए शब्द 'विजय' प्रयुक्त किया गया है उससे अभिप्रेत मक्का-विजय है और आमिर शोअबी कहते हैं कि इससे अभिप्रेत हुदैबिया का समझौता है। पहले कथन को अधिकतर टीकाकारों ने अपनाया है और दूसरे कथन के समर्थन में हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रजि०) की यह रिवायत पेश की जाती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने हमसे हुदैबिया के समझौते के समय में फ़रमाया कि बहुत जल्द ऐसे लोग आनेवाले हैं जिनके कर्मों को देखकर तुम लोग अपने कर्मों को तुच्छ समझोगे, मगर "इनमें से किसी के पास पहाड़ बराबर भी सोना हो और वह सारे का सारा ख़ुदा की राह में खर्च कर दे तो वह तुम्हारे दो रतल (पौंड) बल्कि एक रतल ख़र्च करने के बराबर भी न पहुँच सकेगा।" (इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी हातिम, इब्ने-मर्दूया, अबू नुऐम अस्फहानी) तथा इसका समर्थन उस हदीस से भी होता है जो इमाम अहमद ने हज़रत अनस (रज़ि०) से उद्धृत की है। वे फ़रमाते हैं कि एक बार हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (रजि०) और हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ के बीच झगड़ा हो गया। झगड़े के दौरान में हज़रत ख़ालिद (रजि०) ने हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ से कहा, 'तुम लोग अपनी पिछली सेवाओं के कारण हमारे सामने अपनी बड़ाई बयान करते हो।' यह बात जब नबी (सल्ल.) तक पहुँची तो आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "उस खुदा की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है ! अगर तुम लोग उहुद के बराबर या पहाड़ों के बराबर सोना भी ख़र्च करो तो इन लोगों के कर्मों को न पहुँच सकोगे।" इससे यह दलील दी जा सकती है कि इस आयत में विजय से तात्पर्य हुदैबिया का समझौता है, क्योंकि हज़रत ख़ालिद (रजि०) उसी समझौते के बाद ईमान लाए थे और मक्का की विजय में शरीक (प्रतिभागी) थे। लेकिन इस विशेष अवसर पर विजय से तात्पर्य चाहे हुदैबिया का समझौता लिया जाए या मक्का की विजय, बहरहाल इस आयत का अर्थ यह नहीं है कि दों का यह अन्तर बस इसी एक विजय पर समाप्त हो गया है, बल्कि उसूली तौर पर इससे यह बात मालूम होती है कि जब कभी इस्लाम पर ऐसा कोई वक़्त आ जाए, जिसमें कुफ्र और इस्लाम-विरोधियों का पलड़ा बहुत भारी हो और प्रत्यक्ष में इस्लाम के ग़लबे (वर्चस्व) के लक्षण दूर-दूर तक नज़र न आते हों, उस समय जो लोग इस्लाम के समर्थन में जानें लड़ाएँ और माल ख़र्च करें, उनके मर्तबे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष का फ़ैसला इस्लाम के पक्ष में हो जाने के बाद क़ुर्बानियाँ दें।
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥ وَلَهُۥٓ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 10
(11) कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़ दे? अच्छा क़र्ज़, ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ाकर लौटाए और उसके लिए उत्तम बदला है।16
16. यह अल्लाह की दयालुता है कि आदमी अगर उसके दिए हुए माल को उसी की राह में ख़र्च करे तो उसे वह अपने ज़िम्मे क़र्ज़ ठहराता है, बस शर्त यह है कि वह क़र्जे-हसन (अच्छा क़र्ज़) हो, अर्थात् सच्चे इरादे के साथ किसी निजी हित के बिना दिया जाए, उसका देनेवाला केवल अल्लाह की ख़ुशी के लिए दे और उसके सिवा किसी के बदले और किसी की प्रसन्नता पर नज़र न रखे। इस क़र्ज़ के बारे में अल्लाह के दो वादे हैं। एक यह कि वह उसको कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस देगा। दूसरे यह कि वह उसपर अपनी ओर से उत्तम बदला भी देगा।
يَوۡمَ تَرَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَسۡعَىٰ نُورُهُم بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَبِأَيۡمَٰنِهِمۖ بُشۡرَىٰكُمُ ٱلۡيَوۡمَ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 11
(12) उस दिन जबकि तुम ईमानवाले मर्दो और ईभानवाली औरतों को देखोगे कि उनका नूर (प्रकाश) उनके आगे-आगे और उनकी दाईं ओर दौड़ रहा होगा।17 (उनसे कहा जाएगा कि) "आज ख़ुशख़बरी है तुम्हारे लिए।" जन्नतें होंगी जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे हमेशा रहेंगे। यही है बड़ी सफलता।
17. इस आयत और बादवाली आयतों से मालूम होता है कि हश्र के मैदान में नूर (प्रकाश) सिर्फ सत्यकर्मी ईमानवालों के लिए खास होगा। रहे इनकार करनेवाले, मुनाफिक (कपटाचारी) और अवज्ञाकारी व दुष्कर्मी और नाफरमान तो वे वहाँ भी उसी तरह अंधेरे में भटक रहे होंगे जिस तरह दुनिया में भटकते रहे थे। वहाँ रोशनी जो कुछ भी होगी, सही तथा विशुद्ध धारणा और सतकर्मों की होगी। ईमान की सत्यता और चरित्र एवं आचरण की पवित्रता ही नूर में बदल जाएगी, जिससे नेक बन्दों का व्यक्तित्त्व जगमगा उठेगा। जिस व्यक्ति का कर्म जितना उज्ज्वल होगा, उसके अस्तित्व की रौशनी उतनी ही अधिक तेज़ होगी और जब वह हश्र के मैदान में से जन्नत की और चलेगा तो उसका नूर उसके आगे-आगे दौड़ रहा होगा। इसकी सबसे अच्छी व्याख्या कतादा (रह०) की वह मुर्सल रिवायत है जिसमें वे कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फरमाया, "किसी का नूर (प्रकाश) इतना तेज होगा कि मदीना से अदन तक की दूरी के बराबर फ़ासले तक पहुँच रहा होगा और किसी का नूर (प्रकाश) मदीना से सनआ तक और किसी का उससे कम, यहाँ तक कि कोई मोमिन ऐसा भी होगा जिसका नूर उसके कदमों से आगे न बढ़ेगा", (इब्ने-जरीर)। दूसरे शब्दों में जिसकी जात से दुनिया में जितनी भलाई फैली होगी, उसका नूर (प्रकाश) उतना ही तेज होगा और जहाँ-जहाँ तक दुनिया में उसकी भलाई पहुँची होगी, हश्र के मैदान में उतनी ही दूरी तक उसके नूर की किरणें दौड़ रही होगी। यहाँ एक प्रश्न आदमी के मन में खटक पैदा कर सकता है। वह यह कि आगे-आगे नूर का दौड़ना तो समझ में आता है, पर नूर का सिर्फ दाहिनी ओर दौड़ने का क्या अर्थ ? क्या उनके बाईं ओर अंधेरा होगा? इसका उत्तर यह है कि एक व्यक्ति अगर अपने दाहिने हाथ पर रौशनी लिए चल रहा हो तो उससे रौशनी तो बाई ओर भी होगी, मगर वस्तुस्थिति यही होगी कि रौशनी उसके दाहिने हाथ पर है। इस बात की व्याख्या नबी (सल्ल.) [का यह कथन करता है कि "मैं अपनी उम्मत के सदाचारियों को वहाँ उनके उस नूर से पहचानूँगा जो उनके आगे और उनके दाए-बाएँ दौड़ रहा होगा।" (हाकिम, इब्ने-अबी हातिम, इब्ने-मर्दूया)
يَوۡمَ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱنظُرُونَا نَقۡتَبِسۡ مِن نُّورِكُمۡ قِيلَ ٱرۡجِعُواْ وَرَآءَكُمۡ فَٱلۡتَمِسُواْ نُورٗاۖ فَضُرِبَ بَيۡنَهُم بِسُورٖ لَّهُۥ بَابُۢ بَاطِنُهُۥ فِيهِ ٱلرَّحۡمَةُ وَظَٰهِرُهُۥ مِن قِبَلِهِ ٱلۡعَذَابُ ۝ 12
(13) उस दिन मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) मर्दो और औरतों का हाल यह होगा कि वे ईमानवालों से कहेंगे, "तनिक हमारी ओर देखो, ताकि हम तुम्हारे नूर (प्रकाश) से कुछ लाभ उठाएँ।''18 मगर उनसे कहा जाएगा, "पीछे हट जाओ, अपना प्रकाश (नूर) कहीं और तलाश करो।" फिर उनके बीच एक दीवार खड़ी कर दी जाएगी जिसमें एक दरवाज़ा होगा। उस दरवाज़े के अन्दर रहमत (दयालुता) होगी और बाहर अजाब (यातना)।19
18. अर्थ यह है कि ईमानवाले जब जन्नत की ओर जा रहे होंगे तो रौशनी उनके आगे होगी और पीछे मुनाफ़िक अंधेरे में ठोकरें खा रहे होंगे। उस समय वे उन ईमानवालों को जो दुनिया में उनके साथ एक ही मुस्लिम समाज में रहते थे, पुकार-पुकारकर कहेंगे कि तनिक हमारी ओर पलटकर देखो, ताकि हमें भी कुछ रौशनी मिल जाए।
19. इसका अर्थ यह है कि जन्नतवाले उस दरवाज़े से जन्नत में प्रवेश कर जाएंगे और दरवाज़ा बन्द कर दिया जाएगा। दरवाजे के एक ओर जन्नत की नेमतें होंगी और दूसरी ओर दोज़ख़ का अज़ाब । मुनाफ़िकों के लिए उस सीमा-रेखा को पार करना संभव न होगा जो उनके और जन्नत के बीच रुकावट होगी।
يُنَادُونَهُمۡ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ وَلَٰكِنَّكُمۡ فَتَنتُمۡ أَنفُسَكُمۡ وَتَرَبَّصۡتُمۡ وَٱرۡتَبۡتُمۡ وَغَرَّتۡكُمُ ٱلۡأَمَانِيُّ حَتَّىٰ جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَغَرَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 13
(14) वे ईमानवालों से पुकार-पुकार कर कहेंगे, "क्या हम तुम्हारे साथ न थे?''20 ईमानवाले उत्तर देंगे, "हाँ, मगर तुमने अपने आपको स्वयं फ़ितने में डाला,21 अवसरवादिता से काम लिया,22 सन्देह में पड़े रहे23 और झूठी आशाएँ तुम्हें धोखा देती रहीं, यहाँ तक कि अल्लाह का फैसला आ गया,24 और अन्तिम समय तक वह बड़ा धोखेबाज़25 तुम्हें अल्लाह के मामले में धोखा देता रहा।
20. अर्थात् क्या हम तुम्हारे साथ एक ही मुस्लिम समाज में शामिल न थे, फिर आज हमारे और तुम्हारे बीच यह जुदाई कैसी पैदा हो गई?
21. अर्थात् मुसलमान होकर भी तुम सच्चे मुसलमान न बने, बल्कि ईमान और कुफ्र के बीच लटकते रहे।
25. अभिप्रेत है शैतान।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يُؤۡخَذُ مِنكُمۡ فِدۡيَةٞ وَلَا مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ مَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُۖ هِيَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 14
(15) इसलिए आज न तुमसे कोई फ़िदया (मुक्ति-प्रतिदान) क़बूल किया जाएगा और न उन लोगों से जिन्होंने खुला-खुला कुफ़्र (इनकार) किया था।26 तुम्हारा ठिकाना जहन्नम है, वही तुम्हारी ख़बर रखनेवाली है27 और यह सबसे बुरा अंजाम है।
26. यहाँ इस बात को स्पष्ट किया गया है कि आखिरत में मुनाफ़िक का अंजाम वही होगा जो कुफ्र (इंकार) करनेवाले का होगा।
27. मूल अरबी शब्द हैं 'हि-य मौला कुम' (दोज़ख़ ही तुम्हारी मौला है)। इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि वही तुम्हारे लिए सर्वथा उचित जगह है। दूसरा यह कि अल्लाह को तो तुमने अपना मौला बनाया नहीं कि वह तुम्हारी ख़बर रखे। अब तो दोज़ख़ ही तुम्हारी मौला है, वही तुम्हारी अच्छी तरह ख़बर लेगी।
۞أَلَمۡ يَأۡنِ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن تَخۡشَعَ قُلُوبُهُمۡ لِذِكۡرِ ٱللَّهِ وَمَا نَزَلَ مِنَ ٱلۡحَقِّ وَلَا يَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلُ فَطَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَمَدُ فَقَسَتۡ قُلُوبُهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 15
(16) क्या ईमान लानेवालों के लिए अभी वह समय नहीं आया कि उनके दिल अल्लाह की याद से पिघलें और उसके उतारे हुए सत्य के आगे झुकें28 और वे उन लोगों की तरह न हो जाएँ जिन्हें पहले किताब दी गई थी, फिर एक लंबा समय उनपर गुज़र गया तो उनके दिल कठोर हो गए, और आज उनमें से अधिकतर अवज्ञाकारी बने हुए हैं? 29
28. यहाँ ईमान लानेवालों से अभिप्रेत तमाम मुसलमान नहीं, बल्कि मुसलमानों का वह खास गरोह है, जो ईमान का इक़रार करके अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के माननेवालों में सम्मिलित हो गया था और इसके बावजूद इस्लाम के दर्द से उसका दिल ख़ाली था। आँखों से देख रहा था कि कुफ्र की तमाम शक्तियाँ इस्लाम को मिटा देने पर तुली हुई हैं, मगर ईमान का दावा करनेवाला यह गरोह टस से मस नहीं हो रहा था। इसपर उन लोगों को शर्म दिलाई जा रही है कि तुम कैसे ईमान लानेवाले हो? इस्लाम के लिए परिस्थितियाँ इस सीमा तक विकट हो चुकी हैं, क्या अब भी वह समय नहीं आया कि अल्लाह का ज़िक्र (अनुस्मरण) सुनकर तुम्हारे दिल पिघलें और उसके दीन के लिए तुम्हारे दिलों में त्याग व क़ुरबानी और सरफ़रोशी की भावना पैदा हो? क्या ईमान लानेवाले ऐसे ही होते हैं कि अल्लाह के नाम पर उन्हें पुकारा जाए और वे अपनी जगह से हिलें तक नहीं? अल्लाह अपनी उतारी हुई किताब में स्पष्ट रूप से यह भी सुना दे कि इन परिस्थितियों में जो अपने माल को मेरे दीन से अधिक प्रिय रखेगा, वह ईमानवाला नहीं, बल्कि मुनाफ़िक (कपटाचारी) होगा। इसपर भी उनके दिल न खुदा के डर से कॉपे, न उसके आदेश के आगे झुकें?
29. अर्थात् यहूदी और ईसाई तो अपने नबियो के सैकड़ों वर्ष बाद आज तुम्हें इस संवेदनहीनता और आत्मा की मुरदनी (मृतप्राय अवस्था) और चरित्र की गिरावट में पड़े नज़र आ रहे हैं, क्या तुम इतने गए-गुज़रे हो कि अभी रसूल तुम्हारे सामने मौजूद है और अभी से तुम्हारा हाल वह हो रहा है जो सदियों तक ख़ुदा के दीन और उसकी आयतों से खेलते रहने के बाद यहूदियों और ईसाइयों का हुआ है ?
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 16
(17) ख़ूब जान लो कि अल्लाह ज़मीन को उसकी मौत के बाद जिंदगी प्रदान करता है। हमने निशानियाँ तुमको साफ़-साफ़ दिखा दी हैं, शायद कि तुम बुद्धि से काम लो।30
30. यहाँ जिस सम्बन्ध में यह बात कही गई है उसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर नुबूवत और किताब के उतरने की मिसाल बारिश की बरकतों से दी गई है, क्योंकि मानवता पर उसके वही प्रभाव पड़ते हैं जो धरती पर वर्षा के हुआ करते हैं। जिस धरती में कुछ भी उगने की क्षमता होती है, वह रहमत की वर्षा का एक छींटा पड़ते ही लहलहा उठती है। इसी तरह जिस देश में अल्लाह की रहमत से एक नबी भेजा जाता है और वह्य व किताब का उतरना शुरू होता है, वहाँ मरी हुई मानवता यकायक जी उठती है और उसके जौहर खुलने लगते हैं। इस वास्तविकता की तरफ़ जिस उद्देश्य के लिए यहाँ संकेत किया गया है, वह यह है कि ईमान के कमज़ोर मुसलमानों की आँखें खुलें और वे अपनी हालत पर विचार करें। नुबूवत और वह्य की दया-वर्षा से मानवता जिस शान से नए सिरे से जिंदा हो रही थी, वे खुद अपनी आँखों से सहाबा किराम (रजि०) के पवित्र समाज में उसे देख रहे थे। इसलिए उनको विस्तार के साथ यह बताने की कोई ज़रूरत न थी, बस यह इशारा कर देना काफ़ी था कि मुर्दा ज़मीन को अल्लाह अपनी दया-वर्षा से किस तरह जीवन प्रदान करता है, उसकी निशानियाँ तुमको साफ़-साफ़ दिखा दी गई हैं। अब तुम ख़ुद बुद्धि से काम लेकर अपनी हालत पर विचार कर लो कि इस नेमत से तुम क्या लाभ उठा रहे हो?
إِنَّ ٱلۡمُصَّدِّقِينَ وَٱلۡمُصَّدِّقَٰتِ وَأَقۡرَضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا يُضَٰعَفُ لَهُمۡ وَلَهُمۡ أَجۡرٞ كَرِيمٞ ۝ 17
(18) मर्दो और औरतों में से जो लोग सदके31 (दान) देनेवाले हैं और जिन्होंने अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दिया है, उनको वास्तव में कई गुना बढ़ाकर दिया जाएगा और उनके लिए बड़ा ही अच्छा बदला है।
31. सदका इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली में उस दान को कहते हैं जो सच्चे दिल और विशुद्ध नीयत के साथ केवल अल्लाह की प्रसन्नता के लिए किया जाए, जिसमें कोई दिखावा न हो, किसी पर एहसान न जताया जाए, देनेवाला सिर्फ इसलिए दे कि वह अपने रब के लिए बन्दगी की सच्ची भावना रखता है। यह शब्द सिद्क (सत्य) से उद्धृत है, इसलिए सच्चाई ठीक उसकी वास्तविकता में सम्मिलित है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصِّدِّيقُونَۖ وَٱلشُّهَدَآءُ عِندَ رَبِّهِمۡ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ وَنُورُهُمۡۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 18
(19) और जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हैं, 32 वही अपने रब के नज़दीक सिद्दीक़33 (अत्यन्त सच्चे) और शहीद (साक्षी) हैं।34 उनके लिए उनका बदला और उनका प्रकाश (नूर) है।35 और जिन लोगों ने कुफ्र (इंकार) किया है और हमारी आयतों को झुठलाया है, वे दोज़ख़ी हैं।
32. यहाँ ईमान लानेवालों से अभिप्रेत वे सच्चे ईमानवाले लोग हैं जिनको कार्य-नीति ईमान के झूठे दावेदारों और कमज़ोर ईमानवाले लोगों से बिल्कुल भिन्न थी।
33. यह सिद्क़ शब्द का अत्युक्तिपरक रूप है। सादिक़ का अर्थ है सच्चा और सिद्दीक़ का अर्थ है अत्यन्त सच्चा। मगर यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सिद्क़ केवल सच्चे और वास्तविकता के अनुरूप कथन को नहीं कहते, बल्कि यह केवल उस कथन के लिए बोला जाता है जो अपने आप में भी सच्चा हो और जिसका बोलनेवाला भी सच्चे दिल से उस वास्तविकता को मानता हो जिसे वह जबान से अदा कर रहा है। इसी तरह सिद्क़ के अर्थ में वफ़ादारी और खुलूस (निष्ठा) और व्यावहारिक सत्ववादिता भी शामिल है। 'सादिकुल-वअद' (वादे का सच्चा) उस व्यक्ति को कहेंगे जो व्यावहारिक रूप में अपना वादा पूरा करता हो और कभी उसका उलंघन न करता हो। अब विचार करना चाहिए कि यह परिभाषा जब 'सिद्क़' और 'सादिक़' की है तो इसके अत्युक्तिरूप में किसी को सिद्दीक़ कहने का अर्थ क्या होगा। इसका अर्थ अनिवार्य रूप से ऐसे सत्यवादी आदमी का है जिसमें कोई खोट न हो, जो कभी हक और सच्चाई से न हटा हो, जिससे यह उम्मीद ही न की जा सकती हो कि कभी वह अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध कोई बात कहेगा। जिसने किसी बात को माना हो तो पूरे खुलूस (निष्ठा) के साथ माना हो, उसको वफ़ादारी का हक़ अदा किया हो और अपने कर्म से सिद्ध कर दिया हो कि वह वास्तव में वैसा ही माननेवाला है जैसा कि एक माननेवाले को होना चाहिए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 99)
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞ وَزِينَةٞ وَتَفَاخُرُۢ بَيۡنَكُمۡ وَتَكَاثُرٞ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِۖ كَمَثَلِ غَيۡثٍ أَعۡجَبَ ٱلۡكُفَّارَ نَبَاتُهُۥ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَىٰهُ مُصۡفَرّٗا ثُمَّ يَكُونُ حُطَٰمٗاۖ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٞ شَدِيدٞ وَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٞۚ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 19
(20) ख़ूब जान लो कि यह दुनिया की ज़िंदगी इसके सिवा कुछ नहीं कि एक खेल और दिल्लगी और ऊपरी टीप-टाप और तुम्हारा आपस में एक-दूसरे पर बड़ाई जताना और माल और औलाद में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करना है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक वर्षा हो गई तो उससे पैदा होनेवाले पेड़-पौधों को देखकर किसान खुश हो गए। फिर वही खेती पक जाती है और तुम देखते हो कि वह पीली हो गई, फिर वह भुस बनकर रह जाती है। इसके विपरीत आख़िरत (परलोक) वह जगह है जहाँ कड़ा अज़ाब (कठोर यातना) है और अल्लाह की माफ़ी और उसकी प्रसन्नता है। दुनिया की ज़िंदगी एक धोखे की टट्टी के सिवा कुछ नहीं।36
36. इस विषय को पूरी तरह समझने के लिए कुरआन मजीद की निम्नलिखित जगहों को नज़र में रखना चाहिए-सूरा-3 आले-इमरान, आयत 14-15; सूरा-10 यूनुस, आयत 24-25; सूरा-14 इबराहीम, आयत 18; सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 45-46; सूरा-24 अन-नूर, आयत 39 | इन सब जगहों पर जो बात इंसान के मन में बिठाने की कोशिश की गई है, वह यह है कि यह दुनिया की जिंदगी असल में एक अस्थाई जिंदगी है। यहाँ की बहार (वसन्त) भी अस्थाई है और पतझड़ भी अस्थाई। दिल बहलाने का सामान यहाँ बहुत कुछ है, मगर वास्तव में वे अत्यन्त तुच्छ और छोटी-छोटी चीजें हैं जिन्हें अपनी संकीर्ण दृष्टि के कारण आदमी बड़ी चीज समझता है और इस धोखे में पड़ जाता है कि इन्हीं को पा लेना मानो सफलता की चरम तक पहुँच जाना है, हालाँकि जो बड़े से बड़े लाभ और स्वाद व लज्जत के सामान भी यहाँ प्राप्त होने सम्भव है, वे बहुत तुच्छ और केवल कुछ साल की क्षणिक जिंदगी तक सीमित हैं और उनका हाल भी यह है कि भाग्य की एक ही गर्दिश खुद इसी दुनिया में इन सब पर झाड़ फेर देने के लिए काफ़ी है। इसके विपरीत आख़िरत की जिंदगी एक महान और शाश्वत जिंदगी है। वहाँ के फ़ायदे भी विराट और स्थाई हैं और नुकसान भी विराट और स्थाई। किसी ने अगर वहाँ अल्लाह की क्षमा और उसकी प्रसन्नता पा ली तो उसको हमेशा-हमेशा के लिए वह नेमत मिल गई जिसके सामने दुनिया भर की दौलत और हुकूमत भी तुच्छ है। और जो वहाँ ख़ुदा के अज़ाब में गिरफ्तार हो गया, उसने अगर दुनिया में वह सब कुछ भी पा लिया हो जिसे वह अपने नज़दीक बड़ी चीज़ समझता था, तो उसे मालूम हो जाएगा कि वह बड़े घाटे का सौदा करके आया है।
سَابِقُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا كَعَرۡضِ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أُعِدَّتۡ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 20
(21) दौड़ो और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करो37, अपने रब की माफ़ी और उस जन्नत की ओर जिसका विस्तार आसमान व ज़मीन जैसा है,38 जो तैयार की गई है उन लोगों के लिए जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए हों। यह अल्लाह का उदार अनुग्रह है, जिसे चाहता है प्रदान करता है, और अल्लाह बड़ा अनुग्रहवाला है।
37. मूल में अरबी शब्द 'साबिकू' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ केवल दौड़ो' शब्द से पूरा नहीं होता। इसका अर्थ मुकाबले में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करना है। मतलब यह है कि तुम दुनिया की दौलत और लज़्जतें और फ़ायदे समेटने में एक-दूसरे से बढ़ जाने की जो कोशिश कर रहे हो, उसे छोड़कर उस चीज़ को प्राप्ति का लक्ष्य बनाओ और इसकी ओर दौड़ने में बाज़ी जीत ले जाने की कोशिश करो।
38. मूल अरबी शब्द हैं, 'अर्जुहा कअ़र्जिस्समाइ वल अर्ज़ि' (जिसका विस्तार आसमान और ज़मीन जैसा है)। कुछ टीकाकारों ने अर्ज' को चौड़ाई के अर्थ में लिया है, लेकिन वास्तव में यहाँ यह शब्द विस्तार और विशालता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अरबी भाषा में शब्द 'अर्ज़' केवल चौड़ाई ही के लिए नहीं बोला जाता जो लम्बाई के मुक़ाबले में है, बल्कि इसे मात्र 'विस्तार' के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, जैसा कि एक दूसरी जगह कुरआन में कहा गया है, "इंसान फिर लम्बी-चौड़ी दुआएँ करने लगता है" (सूरा-41 हामीम-अस-सज्दा, आयत 51)। इसके साथ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि इस कथन का मक़सद जन्नत का क्षेत्रफल बताना नहीं है, बल्कि उसके विस्तार का नक्शा सामने लाना है। यहाँ उसकी विशालता आसमान व ज़मीन जैसा बताया गया है और सूरा-3 आले-इमरान में कहा गया है कि 'सारिऊ इला मग़फ़ि-र-तिम मिर्रब्बिकुम व जन्नातिन अर्जुहस्समावातु बल अर्जु उअिद्दत लिल मुत्तक़ीन' (आयत 133) अर्थात् "दौड़कर चलो उस मार्ग पर जो तुम्हारे रब की क्षमादान और उस जन्नत की ओर जाता है म जिसका विस्तार धरती और आकाशों जैसा है, और वह ईश्वर से डरनेवाले लोगों के लिए तैयार की गई है।" इन दोनों आयतों को मिलाकर पढ़ने से कुछ ऐसी परिकल्पना सामने आती है कि जन्नत में एक इंसान को जो बाग़ और महल मिलेंगे, वे तो सिर्फ उसके आवास के लिए होंगे, मगर वास्तव में पूरी सृष्टि उसकी सैरगाह होगी, कहीं वह बन्द न होगा। वहाँ उसका हाल इस दुनिया की तरह न होगा कि चाँद जैसे सबसे करीब ग्रह पर पहुँचने के लिए भी वह वर्षों पापड़ बेलता रहा और इस थोड़ी-सी यात्रा की कठिनाइयों को दूर करने में उसे अपार साधन लगाने पड़े। वहाँ सम्पूर्ण सृष्टि उसके लिए खुली होगी। जो कुछ चाहेगा अपनी जगह से बैठे-बैठे देख लेगा और जहाँ चाहेगा, बे-झिझक जा सकेगा।
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ أَن نَّبۡرَأَهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 21
(22) कोई मुसीबत ऐसी नहीं है जो धरती में या तुम्हारी अपनी जान पर आती हो और हमने उसको पैदा करने से पहले39 एक किताब में लिख न रखा हो।40 ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान काम है।41
39. 'उसको' का संकेत मुसीबत की ओर भी हो सकता है, धरती की ओर भी, मन की ओर भी और सन्दर्भ की दृष्टि से मखलूक़ात (सृष्ट वस्तुओं) की ओर भी।
40. किताब से अभिप्रेत है भाग्य का लिखा।
لِّكَيۡلَا تَأۡسَوۡاْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا تَفۡرَحُواْ بِمَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخۡتَالٖ فَخُورٍ ۝ 22
(23) (यह सब कुछ इसलिए है) ताकि जो कुछ भी नुक़सान तुम्हें हो, उसपर तुम्हारा दिल छोटा न हो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें प्रदान करे उसपर फूल न जाओ।42 अल्लाह ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता जो अपने आपको बड़ी चीज़ समझते हैं और डींगें मारते हैं,
42. इस वार्ता-क्रम में यह बात जिस उद्देश्य के लिए कही गई है उसे समझने के लिए उन [सख़्त और ख़तरनाक] हालात को दृष्टि में रखना चाहिए जो इस सूरा के उतरने के समय ईमानवालों को पेश आ रहे थे। सच्चे ईमानवाले यद्यपि पूरी दृढ़ता के साथ इन हालात का मुकाबला कर रहे थे, मगर कभी-कभी मुसीबतों का जमघट उनके लिए भी धैर्य की कड़ी परीक्षा बन जाता था। इसपर मुसलमानों को तसल्ली देने के लिए कहा जा रहा है कि तुमपर कोई मुसीबत भी मआज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह) तुम्हारे रब की बेख़बरी में उतर नहीं गई है। जो कुछ पेश आ रहा है, यह सब अल्लाह की तयशुदा स्कीम के अनुसार है जो पहले से उसके दफ्तर में लिखी हुई मौजूद है। और इन हालात से तुम्हें इसलिए गुज़ारा जा रहा है कि तुम्हारा प्रशिक्षण अपेक्षित है । जो महान कार्य अल्लाह तुमसे लेना चाहता है, उसके लिए यह प्रशिक्षण अनिवार्य है।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِۗ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 23
(24) जो स्वयं कंजूसी करते हैं और दूसरों को कंजूसी करने पर उकसाते हैं।43 अब अगर कोई मुँह मोड़ता है तो अल्लाह निस्पृह (बेनियाज़) और प्रशंसनीय है।44
43. यह संकेत है उस आचरण की ओर जो स्वयं मुस्लिम समाज के मुनाफ़िकों में उस समय सबको दिखाई दे रहा था। जाहिरी तौर पर ईमान के इक़रार के लिहाज से उनमें और सच्चे मुसलमानों में कोई अन्तर न था, लेकिन निष्ठा की कमी के कारण वे उस प्रशिक्षण में सम्मिलित न हुए थे जो निष्ठावान को दिया जा रहा था। इसलिए उनका हाल यह था कि जो तनिक सी खुशहाली और चौधराहट उनको अरब के एक मामूली क़स्बे में मिली हुई थी, वही उनकी संकीर्ण मानसिकता को फुलाए दे रही थी, उसी पर वे फटे पड़ते थे और दिल की तंगी इस दर्जे की थी कि जिस दीन को मानने का दावा करते थे, उसके लिए स्वयं एक पैसा तो क्या देते, दूसरे देनेवालों को भी यह कह कहकर रोकते थे कि क्यों अपना पैसा इस भाड़ में झोंक रहे हो। स्पष्ट बात है कि अगर मुसीबतों की भट्टी गर्म न की जाती तो इस खोटे माल को, जो अल्लाह के किसी काम का न था, असली माल से अलग न किया जा सकता था, और उसको अलग किए बिना कच्चे-पक्के मुसलमानों की एक मिश्रित भीड़ को दुनिया के नेतृत्त्व का वह उच्च पद न सौंपा जा सकता था जिसकी महान बरकतों को अन्तत: दुनिया ने 'ख़िलाफ़ते-राशिदा' (आदर्श इस्लामी शासन) में देखा।
44. अर्थात् उपदेश की ये बातें सुनने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति अल्लाह और उसके दीन के लिए निष्ठा और आज्ञापालन और त्याग व कुरबानी का तरीका नहीं अपनाता तो अल्लाह को उसकी कुछ परवाह नहीं। वह बेनियाज़ है। उसकी कोई ज़रूरत उन लोगों से अटकी हुई नहीं है। और वह स्वयं में प्रशंसनीय है, उसके यहाँ अच्छे गुण रखनेवाले लोग ही लोकप्रिय हो सकते हैं, दुराचारी लोग उसकी कृपा-दृष्टि के पात्र नहीं हो सकते।
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَنزَلۡنَا مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمِيزَانَ لِيَقُومَ ٱلنَّاسُ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَنزَلۡنَا ٱلۡحَدِيدَ فِيهِ بَأۡسٞ شَدِيدٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥ وَرُسُلَهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٞ ۝ 24
(25) हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और मार्गदर्शनों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तुला उतारी, ताकि लोग न्याय पर क़ायम हों,45 और लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर है और लोगों के लिए फ़ायदे हैं।46 यह इसलिए किया गया है कि अल्लाह को मालूम हो जाए कि कौन उसको देखे बिना उसकी और उसके रसूलों की सहायता करता है। निश्चय ही अल्लाह बड़ी शक्तिवाला और प्रभुत्वशाली है।47
45. इस संक्षिप्त से वाक्य में नबियों के मिशन का सारांश बयान कर दिया गया है। इसमें बताया गया है कि दुनिया में अल्लाह के जितने रसूल भी अल्लाह की ओर से आए, वे सब तीन चीजें लेकर आए थे- (1) 'बय्यिनात' अर्थात् खुली-खुली निशानियाँ, जो स्पष्ट कर रही थीं कि ये वास्तव में अल्लाह के रसूल हैं; रौशन दलीलें' जो इस बात को सिद्ध करने के लिए बिल्कुल काफ़ी थी कि जिस चीज़ को वे सत्य कह रहे हैं, वह वास्तव में सत्य है और जिस चीज़ को वे असत्य ठहरा रहे हैं, वह वास्तव में असत्य है। स्पष्ट हिदायतें जिनमें साफ़-साफ़ बता दिया गया था कि अक़ीदों (धारणाओं), अख़्लाक़ (चरित्र), इबादतों और मामलों में लोगों के लिए सीधा रास्ता क्या है। (2) 'किताब' जिसमें वे सारी शिक्षाएँ लिख दी गई थीं जो इंसान के मार्गदर्शन के लिए ज़रूरी थीं। (3) 'मीज़ान' (तुला) अर्थात् सत्य-असत्य की वह कसौटी और आदर्श जो ठीक-ठीक तराज़ू द्वारा तौल तौलकर यह बता दे कि विचार, नैतिक व्यवहार और मामलों में न्यूनता एवं अधिकता के विभिन्न अतिक्रमों के बीच न्याय की बात क्या है। इन तीन चीज़ों के साथ नबियों को जिस उद्देश्य के लिए भेजा गया वह यह था कि दुनिया में इंसान का रवैया और मानव-जीवन की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से भी और सामूहिक रूप से भी न्याय पर स्थापित हो।
46. लोहा उतारने का मतलब धरती में लोहा पैदा करना है, क्योंकि धरती में जो कुछ पाया जाता है वह अल्लाह के आदेश से यहाँ आया है, इसलिए इनके पैदा किए जाने को क़ुरआन मजीद में उतारे जाने से परिभाषित किया गया है। नबियों के मिशन को बयान करने के तुरन्त बाद यह कहना कि, "हमने लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर और लोगों के लिए लाभ हैं" स्वतः इस बात की ओर संकेत करता है कि यहाँ लोहे से अभिप्रेत राजनीतिक और सामारिक शक्ति है और वार्ता का उद्देश्य यह है कि अल्लाह ने अपने रसूलों को न्याय-स्थापना की केवल एक स्कीम पेश कर देने के लिए नहीं भेजा था, बल्कि यह बात भी उनके मिशन में शामिल थी कि उसको व्यावहारिक रूप में लागू करने की कोशिश की जाए और वह शक्ति जुटाई जाए जिससे वास्तव में न्याय स्थापित हो सके, उसे छिन्न-भिन्न करनेवालों को सज़ा दी जा सके और उसमें रुकावट पैदा करनेवालों का ज़ोर तोड़ा जा सके।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحٗا وَإِبۡرَٰهِيمَ وَجَعَلۡنَا فِي ذُرِّيَّتِهِمَا ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلۡكِتَٰبَۖ فَمِنۡهُم مُّهۡتَدٖۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 25
(26) हमने48 नूह और इबराहीम को भेजा और उन दोनों की नस्ल में नुबूवत (पैग़म्बरी) और किताब रख दी।49 फिर उनकी सन्तान में से किसी ने सन्मार्ग अपनाया और बहुत-से अवज्ञाकारी हो गए।50
48. अब यह बताया जा रहा है कि मुहम्मद (सल्ल०) से पहले जो रसूल 'बय्यिनात', 'किताब' और 'मीज़ान' लेकर आए थे, उनके माननेवालों में क्या बिगाड़ पैदा हुआ।
49. अर्थात् जो रसूल भी अल्लाह की किताब लेकर आए, वे हज़रत नूह (अलैहि०) की और उनके बाद हजरत इबराहीम (अलैहि०) की नस्ल से थे।
ثُمَّ قَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِرُسُلِنَا وَقَفَّيۡنَا بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَۖ وَجَعَلۡنَا فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ رَأۡفَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَرَهۡبَانِيَّةً ٱبۡتَدَعُوهَا مَا كَتَبۡنَٰهَا عَلَيۡهِمۡ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ رِضۡوَٰنِ ٱللَّهِ فَمَا رَعَوۡهَا حَقَّ رِعَايَتِهَاۖ فَـَٔاتَيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۡهُمۡ أَجۡرَهُمۡۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 26
(27) उनके बाद हमने एक के बाद एक अपने रसूल भेजे, और उन सबके बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा और उसको इंजील प्रदान की और जिन लोगों ने उसका अनुसरण किया उनके दिलों में हमने तरस और दयालुता डाल दी।51 और रहबानियत (संन्यास)52 उन्होंने खुद ईजाद कर ली, हमने उसे उनके लिए अनिवार्य नहीं किया था, मगर अल्लाह की प्रसन्नता की तलब में उन्होंने आप ही यह बिदअत (नई चीज़) निकाली53 और फिर उसकी पाबन्दी करने का जो हक़ था, उसे अदा न किया।54 उनमें से जो लोग ईमान लाए हुए थे, उनका बदला हमने उनको प्रदान किया, मगर उनमें से अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।
51. मूल अरबी शब्द है 'रअफ़त और रहमत'। रअफ़त से अभिप्रेत दिल की वह नर्मी है जो किसी को कष्ट और मुसीबत में देखकर एक व्यक्ति के दिल में पैदा हो। और रहमत से अभिप्रेत वह भावना है जिसके तहत वह उसकी मदद को कोशिश करे। हज़रत ईसा (अलैहि०) चूँकि बड़े ही नर्म दिल और दुनियावालों के लिए दयालु और स्नेही थे, इसलिए उनके आचरण का यह प्रभाव उनके माननेवालों में दाख़िल हो गया कि वे अल्लाह के बन्दों पर तरस खाते थे और हमदर्दी के साथ उनकी सेवा करते थे।
52. इस अरबी शब्द का उच्चारण 'रहबानियत' और 'रुहबानियत' दोनों है। रहबानियत का अर्थ है 'डरे रहने का पंथ' और रुहबानियत का मतलब है 'डरे हुए लोगों का पंथ।' पारिभाषिक शब्दों में इससे तात्पर्य है किसी व्यक्ति का भय के कारण (इसको देखे बौर कि वह किसी के अत्याचार का डर हो या दुनिया के फ़ितनों का डर या अपने मन की कमजोरियों का डर) संसार-त्यागी बन जाना और दुनिया की जिंदगी से भागकर जंगलों और पहाड़ों में पनाह लेना या एकान्तवास में जा बैठना।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَءَامِنُواْ بِرَسُولِهِۦ يُؤۡتِكُمۡ كِفۡلَيۡنِ مِن رَّحۡمَتِهِۦ وَيَجۡعَل لَّكُمۡ نُورٗا تَمۡشُونَ بِهِۦ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 27
(28) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो और उसके रसूल (मुहम्मद सल्ल०) पर ईमान55 लाओ, अल्लाह तुम्हें अपनी रहमत (दयालुता) का दोहरा हिस्सा प्रदान करेगा और तुम्हें वह नूर (प्रकाश) प्रदान करेगा जिसकी रौशनी में तुम चलोगे56 और तुम्हारे कुसूर माफ़ कर देगा।57 अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान है।
55. इस आयत की व्याख्या में टीकाकारों के बीच मतभेद है। एक गरोह कहता है कि यहाँ ऐ लोगो जो ईमान लाए हो' का सम्बोधन उन लोगों से है जो हज़रत ईसा (अलैहि०) पर ईमान लाए हुए थे। उनसे फ़रमाया जा रहा है कि अब मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाओ, तुम्हें इसपर दोहरा प्रतिदान मिलेगा। एक प्रतिदान ईसा पर ईमान लाने का और दूसरा प्रतिदान मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाने का। दूसरा गरोह कहता है कि यह सम्बोधन मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लानेवालों से है। उनसे कहा जा रहा है कि तुम केवल जबान से आपकी नुबूवत को स्वीकार करके न रह जाओ, बल्कि सच्चे दिल से ईमान ले आओ और ईमान लाने का हक़ अदा करो। इसपर तुम्हें दोहरा बदला मिलेगा। एक बदला कुफ्र से इस्लाम की ओर आने का और दूसरा बदला इस्लाम में निष्ठा अपनाने और उसपर जमे रहने का। पहली व्याख्या का समर्थन सूरा-28 क्रसस की आयतें 52 से 54 करती हैं। दूसरी व्याख्या का समर्थन सूरा-34 सबा की आयत 37 करती है। प्रमाण की दृष्टि से दोनों व्याख्याओं का मूल बराबर है, लेकिन आगे के विषय पर विचार किया जाए तो मालूम होता है कि दूसरी व्याख्या ही इस स्थान से ज़्यादा मेल खाती है, बल्कि वास्तव में इस सूरा का पूरा विषय आरंभ से लेकर अंत तक इसी व्याख्या का समर्थन करता है।
56. अर्थात् दुनिया में ज्ञान व विवेक का वह नूर (प्रकाश) प्रदान करेगा जिसकी रौशनी में तुमको क़दम-क़दम पर साफ़ दिखाई देता रहेगा कि जिंदगी के विभिन्न मामलों में अज्ञानता की टेढ़ी राहों के बीच इस्लाम की सीधी राह कौन-सी है और आख़िरत में वह नूर प्रदान करेगा जिसका उल्लेख आयत 12 में हो चुका है।
لِّئَلَّا يَعۡلَمَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَلَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 28
(29) (तुमको यह नीति अपनानी चाहिए) ताकि अहले-किताब को मालूम हो जाए कि अल्लाह के अनुग्रह पर उनका कोई एकाधिकार नहीं है और यह कि अल्लाह का अनुग्रह उसके अपने ही हाथ में है, जिसे चाहता है प्रदान करता है और वह बड़ा अनुग्रहवाला है।