وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا يَسۡتَوِي مِنكُم مَّنۡ أَنفَقَ مِن قَبۡلِ ٱلۡفَتۡحِ وَقَٰتَلَۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡظَمُ دَرَجَةٗ مِّنَ ٱلَّذِينَ أَنفَقُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَقَٰتَلُواْۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 9
(10) आख़िर क्या कारण है कि तुम अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते, हालाँकि ज़मीन और आसमानों की मीरास (विरासत) अल्लाह ही के लिए है।13 तुममें से जो लोग विजय के बाद ख़र्च और जिहाद करेंगे, वे कभी उन लोगों के बराबर नहीं हो सकते जिन्होंने विजय से पहले ख़र्च और जिहाद किया है। उनका दर्जा बाद में ख़र्च और जिहाद करनेवालों से बढ़कर है, यद्यपि अल्लाह ने दोनों ही से अच्छे वादे किए हैं।14 जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।15
13. इसके दो अर्थ हैं-
एक यह कि यह माल तुम्हारे पास सदैव रहनेवाला नहीं है, एक दिन तुम्हें ज़रूर ही इसे छोड़कर जाना है और अल्लाह ही इसका वारिस होनेवाला है। फिर क्यों न अपनी जिंदगी में इसे अपने हाथ अल्लाह राह में खर्च कर दो, ताकि अल्लाह के यहाँ इसका बदला (प्रतिदान) तुम्हारे लिए साबित (निश्चित) हो जाए।
दूसरा अर्थ यह है कि अल्लाह की राह में माल खर्च करते हुए तुमको किसी मुहताजी और तंगी का अंदेशा न होना चाहिए, क्योंकि जिस ख़ुदा के लिए तुम उसे ख़र्च करोगे, वह ज़मीन और आसमान के सारे ख़ज़ानों का मालिक है, उसके पास तुम्हें देने को बस उतना ही कुछ न था जो उसने आज तुम्हें दे रखा है, बल्कि कल वह तुम्हें इससे बहुत ज्यादा दे सकता है। यही बात [सूरा-34 सबा, आयत 39 में भी] कही गई है।
14. अर्थात् बदले के हक़दार तो दोनों ही हैं, लेकिन एक गरोह का दर्जा दूसरे गरोह से अनिवार्यतः अधिक ऊँचा है, क्योंकि उसने अधिक कठिन परिस्थितियों में अल्लाह के लिए वे ख़तरे मोल लिए जो दूसरे गरोह के सामने नहीं आ सके थे। उसने ऐसी हालत में माल ख़र्च किया जब दूर-दूर कहीं यह संभावना नज़र नहीं आती थी कि कभी विजयों से इस ख़र्च की पूर्ति हो जाएगी और उसने ऐसे नाजुक दौर में शत्रुओं से युद्ध किया, जब हर समय यह आशंका थी कि शत्रु ग़ालिब आकर इस्लाम का नाम लेनेवालों को पीस डालेंगे। टीकाकारों में से मुजाहिद, क़तादा और जैद बिन असलम कहते हैं कि इस आयत में जिस चीज़ के लिए शब्द 'विजय' प्रयुक्त किया गया है उससे अभिप्रेत मक्का-विजय है और आमिर शोअबी कहते हैं कि इससे अभिप्रेत हुदैबिया का समझौता है। पहले कथन को अधिकतर टीकाकारों ने अपनाया है और दूसरे कथन के समर्थन में हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रजि०) की यह रिवायत पेश की जाती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने हमसे हुदैबिया के समझौते के समय में फ़रमाया कि बहुत जल्द ऐसे लोग आनेवाले हैं जिनके कर्मों को देखकर तुम लोग अपने कर्मों को तुच्छ समझोगे, मगर "इनमें से किसी के पास पहाड़ बराबर भी सोना हो और वह सारे का सारा ख़ुदा की राह में खर्च कर दे तो वह तुम्हारे दो रतल (पौंड) बल्कि एक रतल ख़र्च करने के बराबर भी न पहुँच सकेगा।" (इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी हातिम, इब्ने-मर्दूया, अबू नुऐम अस्फहानी) तथा इसका समर्थन उस हदीस से भी होता है जो इमाम अहमद ने हज़रत अनस (रज़ि०) से उद्धृत की है। वे फ़रमाते हैं कि एक बार हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (रजि०) और हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ के बीच झगड़ा हो गया। झगड़े के दौरान में हज़रत ख़ालिद (रजि०) ने हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ से कहा, 'तुम लोग अपनी पिछली सेवाओं के कारण हमारे सामने अपनी बड़ाई बयान करते हो।' यह बात जब नबी (सल्ल.) तक पहुँची तो आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "उस खुदा की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है ! अगर तुम लोग उहुद के बराबर या पहाड़ों के बराबर सोना भी ख़र्च करो तो इन लोगों के कर्मों को न पहुँच सकोगे।" इससे यह दलील दी जा सकती है कि इस आयत में विजय से तात्पर्य हुदैबिया का समझौता है, क्योंकि हज़रत ख़ालिद (रजि०) उसी समझौते के बाद ईमान लाए थे और मक्का की विजय में शरीक (प्रतिभागी) थे। लेकिन इस विशेष अवसर पर विजय से तात्पर्य चाहे हुदैबिया का समझौता लिया जाए या मक्का की विजय, बहरहाल इस आयत का अर्थ यह नहीं है कि दों का यह अन्तर बस इसी एक विजय पर समाप्त हो गया है, बल्कि उसूली तौर पर इससे यह बात मालूम होती है कि जब कभी इस्लाम पर ऐसा कोई वक़्त आ जाए, जिसमें कुफ्र और इस्लाम-विरोधियों का पलड़ा बहुत भारी हो और प्रत्यक्ष में इस्लाम के ग़लबे (वर्चस्व) के लक्षण दूर-दूर तक नज़र न आते हों, उस समय जो लोग इस्लाम के समर्थन में जानें लड़ाएँ और माल ख़र्च करें, उनके मर्तबे को वे लोग नहीं पहुँच सकते जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष का फ़ैसला इस्लाम के पक्ष में हो जाने के बाद क़ुर्बानियाँ दें।