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سُورَةُ الوَاقِعَةِ

56. अल-वाक़िआ

(मक्का में उतरी, आयतें 96)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्‍ने-हिशाम ने इब्‍ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्‍नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।

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سُورَةُ الوَاقِعَةِ
56. अल-वाक़िआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
إِذَا وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ
(1) जब वह होनेवाली घटना घटित हो जाएगी
لَيۡسَ لِوَقۡعَتِهَا كَاذِبَةٌ ۝ 1
(2) तो कोई उसके घटित होने को झुठलानेवाला न होगा।1
1. इस वाक्यांश से वार्ता का आरम्भ स्वयं यह स्पष्ट कर रहा है कि यह उन बातों का उत्तर है जो उस समय इस्लाम-विरोधियों की सभाओं में क़ियामत के विरुद्ध बनाई जा रही थीं। [इन बातों के उत्तर] में कहा गया है कि जब वह होनेवाली घटना घटित हो जाएगी, उस समय कोई उसे झुठलानेवाला न होगा। मूल अरबी में जो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उनके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि कोई शक्ति फिर उस घटना को घटित होने से रोक नहीं सकेगी। दूसरे यह कि कोई व्यक्ति उस समय यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटना घटित नहीं हुई है।
خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ ۝ 2
(3) वह तलपट कर देनेवाली आफ़त होगी2,
2. मूल अरबी शब्द 'ख़ाफ़िज़तुर-राफ़िआ' अर्थात् 'है गिरानेवाली और उठानेवाली' । इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि वह सब कुछ उलट-पलट करके रख देगी। नीचे की चीजें ऊपर और ऊपर की चीजें नीचे हो जाएँगी। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि वह गिरे हुए लोगों को उठानेवाली और उठे हुए लोगों को गिरानेवाली होगी, अर्थात् उसके आने पर इंसानों के बीच मान-अपमान का फ़ैसला एक दूसरे ही आधार पर होगा। जो दुनिया में इज़्ज़तवाले बने फिरते थे, वे अपमानित हो जाएँगे और जो अपमानित समझे जाते थे, वे सम्मान पा जाएंगे।
إِذَا رُجَّتِ ٱلۡأَرۡضُ رَجّٗا ۝ 3
(4) ज़मीन उस वक़्त एकाएक हिला डाली जाएगी3
3. अर्थात् वह कोई स्थानीय भूकम्प न होगा जो किसी सीमित क्षेत्र में आए, बल्कि पूरी की पूरी ज़मीन एक ही समय में हिला मारी जाएगी।
وَبُسَّتِ ٱلۡجِبَالُ بَسّٗا ۝ 4
(5) और पहाड़ इस तरह चूरा-चूरा कर दिए जाएँगे
فَكَانَتۡ هَبَآءٗ مُّنۢبَثّٗا ۝ 5
(6) कि बिखरी हुई धूल बनकर रह जाएँगे।
وَكُنتُمۡ أَزۡوَٰجٗا ثَلَٰثَةٗ ۝ 6
(7) तुम लोग उस समय तीन गिरोहों में बँट जाओगे: 4
4. सम्बोधन बज़ाहिर उन लोगों से है जिन्हें यह वाणी सुनाई जा रही थी या जो अब उसे पढ़ें या सुनें। लेकिन वास्तव में इसका सम्बोधन पूरी मानव-जाति से है।
فَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 7
(8) दाहिने बाज़ूवाले,5 तो दाहिने बाजूवालों (के सौभाग्य) का क्या कहना।
5. मूल अरबी शब्द 'असहाबुल मैमनः' प्रयुक्त हुआ है। 'मैमनः' अरबी व्याकरण के अनुसार ' यमीन' से भी हो सकता है जिसका अर्थ 'सीधा हाथ' है और 'युम्न' से भी हो सकता है, जिसका अर्थ है शुभ शगुन। अगर इसको यमीन' से माना जाए, तो अस्हाबुल मैमन:' का अर्थ होगा 'सीधे हाथवाले', लेकिन इससे शाब्दिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है 'ऊँचे दरजे के लोग'। अरब के लोग सीधे हाथ को ताक़त, सरबुलन्दी और मान-सम्मान का निशान समझते थे। जिसका मान-सम्मान अभीष्ट होता था उसे सभा में सीधे हाथ पर बिठाते थे और अगर उसको 'युम्न' से माना जाए तो 'अरहाबुल मैमन:' का अर्थ होगा भाग्यशाली और किस्मतवाले लोग।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 8
(9) और बाएँ बाजूवाले,6 तो बाएँ बाज़ूवालों (के दुर्भाग्य) का क्या ठिकाना।
6. मूल में अरबी शब्द 'अस्हाबुल-मश-अम:' प्रयुक्त हुआ है। मश-अम:' शूम से है जिसका अर्थ दुर्भाग्य, अशुभ और बद शगुनी के हैं। अरबी भाषा में बाएं हाथ को भी 'शूमा' कहा जाता है। अरब के लोग 'शिमाल' (बाएँ हाथ) और 'शूम' (बद शगुन) को समानार्थी समझते थे। उनके यहाँ बायाँ हाथ कमज़ोरी और अपमान का प्रतीक था। अतएव अस्हाबुल मशअम: से अभिप्रेत हैं बदकिस्मत लोग, या वे लोग जो अल्लाह के यहाँ अपमानित होंगे और अल्लाह के दरबार में बाएँ ओर खड़े किए जाएंगे।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلسَّٰبِقُونَ ۝ 9
(10) और आगेवाले तो फिर आगेवाले ही हैं।7
7. आगेवालों (साबिक़ीन) से अभिप्रेत वे लोग हैं जो भलाई और सत्यवादिता में सबपर बाजी ले गए हों, भलाई के हर काम में सबसे आगे हों, अल्लाह और रसूल की पुकार पर सबसे पहले हाज़िर होनेवाले हों। इस आधार पर आख़िरत में भी सबसे आगे वही रखे जाएंगे। मानो वहाँ अल्लाह के दरबार का नक्शा यह होगा कि दाहिने बाजू में नेक लोग, बाएँ बाजू में नाफ़रमान लोग और सबसे आगे अल्लाह के दरबार के निकट साबिक़ीन (आगेवाले) लोग।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡمُقَرَّبُونَ ۝ 10
(11) वही तो निकटवर्ती लोग हैं।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 11
(12) नेमत भरी जन्नतों में रहेंगे।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 12
(13) अगलों में से बहुत होंगे
وَقَلِيلٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 13
(14) और पिछलों में से कम।8
8. क़ुरआन के टीकाकारों के बीच इस बात में मतभेद है कि अगलों और पिछलों से अभिप्रेत कौन हैं । एक वर्ग का विचार है कि आदम (अलैहि०) के समय से नबी (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने तक जितनी उम्मतें गुज़री हैं, वे अगले हैं और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के भेजे जाने के बाद क़ियामत तक के लोग पिछले हैं। इस दृष्टि से आयत का अर्थ यह होगा कि मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी से पहले हजारों वर्ष के दौरान में जितने इंसान गुजरे हैं, उनके आगेवालों की तादाद अधिक होगी और नबी (सल्ल०) के भेजे जाने के बाद से क़ियामत तक आनेवाले इंसानों में से जो लोग आगेवालों का दरजा पाएँगे, उनकी संख्या कम होगी। दूसरा वर्ग कहता है कि यहाँ अगलों और पिछलों से अभिप्रेत नबी (सल्ल०) की उम्मत के अगले और पिछले हैं। अर्थात् आप (सल्ल०) की उम्मत में आरम्भिक काल के लोग अगले हैं जिनमें आगेवालों की संख्या ज़्यादा होगी और बाद के लोग पिछले हैं जिनमें आगेवालों की संख्या कम होगी। तीसरा वर्ग कहता है कि इससे अभिप्रेत हर नबी की उम्मत के अगले और पिछले हैं। आयत के शब्दों में ये तीनों अर्थ पाए जाते हैं और असंभव नहीं कि ये तीनों ही सही हों, क्योंकि वास्तव में इनमें कोई टकराव नहीं है। इनके अलावा एक और अर्थ भी इन शब्दों से निकलता है और वह भी सही है कि हर पहले दौर में इंसानी आबादी के अंदर अगलों का अनुपात अधिक होगा और बाद के दौर में उनका अनुपात कम निकलेगा।
عَلَىٰ سُرُرٖ مَّوۡضُونَةٖ ۝ 14
(15-16) सजे-सजाए तख़्तों पर तकिए लगाए आमने-सामने बैठेंगे।
مُّتَّكِـِٔينَ عَلَيۡهَا مُتَقَٰبِلِينَ ۝ 15
0
يَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ ۝ 16
(17-18) उनकी मजलिसों में सदैव रहनेवाले लड़के9 सदा प्रवाहित स्रोत को शराब से भरे प्याले और कंटर और साग़र लिए दौड़ते फिरते होंगे,
9. इससे अभिप्रेत हैं ऐसे लड़के जो सदैव लड़के ही रहेंगे। उनकी उम्र हमेशा एक ही हालत पर ठहरी रहेगी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ्फात, टिप्पणी 26; सूरा-52 तूर, टिप्पणी 19)
بِأَكۡوَابٖ وَأَبَارِيقَ وَكَأۡسٖ مِّن مَّعِينٖ ۝ 17
0
لَّا يُصَدَّعُونَ عَنۡهَا وَلَا يُنزِفُونَ ۝ 18
(19) जिसे पीकर न उनका सिर चकराएगा, न उनकी बुद्धि में विकार आएगा।10
10. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ़्फात, टिप्पणी 27; सूरा- मुहम्मद, टिप्पणी 22; सूरा-52 तूर, टिप्पणी 18
وَفَٰكِهَةٖ مِّمَّا يَتَخَيَّرُونَ ۝ 19
(20) और वे उनके सामने तरह-तरह के स्वादिष्ट फल पेश करेंगे कि जिसे चाहें चुन लें,
وَلَحۡمِ طَيۡرٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 20
(21) और पक्षियों के मांस पेश करेंगे कि जिस पक्षी का चाहें इस्तेमाल करें।11
11. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-52 तूर, टिप्पणी 17
وَحُورٌ عِينٞ ۝ 21
(22) और उनके लिए सुन्दर आँखोंवाली हूरें (अप्सराएँ) होंगी,
كَأَمۡثَٰلِ ٱللُّؤۡلُوِٕ ٱلۡمَكۡنُونِ ۝ 22
(23) ऐसी सुन्दर जैसे छिपाकर रखे हुए मोती।12
12. व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्पणी 28, 29; सूरा-44 अद-दुख़ान, टिप्पणी 42; सूरा-55 अर-रहमान, टिप्पणी 51
جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 23
(24) यह सब कुछ उन कर्मों के बदले के रूप में उन्हें मिलेगा जो वे दुनिया में करते रहे थे।
لَا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا تَأۡثِيمًا ۝ 24
(25) वहाँ वे कोई बकवास या गुनाह की बात न सुनेंगे।13
13. अर्थात् इंसान के कान वहाँ अशिष्टता, बकवास, झूठ, गीबत (पीठ पीछे बुराई), चुगली, बोहतान, गाली, डोंगें मारना, व्यंग्य व उपहास और लानत-मलामत की बातें सुनने से सुरक्षित होंगे। अगर किसी व्यक्ति को अल्लाह ने कुछ भी शिष्टता और सुरुचि प्रदान की हो तो वह अच्छी तरह महसूस कर सकता है कि दुनिया की जिंदगी का यह कितना बड़ा अज़ाब है, जिससे इंसान को जन्नत में छुटकारा पाने की उम्मीद दिलाई गई है।
إِلَّا قِيلٗا سَلَٰمٗا سَلَٰمٗا ۝ 25
(26) जो बात भी होगी ठीक-ठीक होगी।14
14. मूल में अरबी शब्द 'इल्ला कीलन सलामन सलामा' प्रयुक्त हुए हैं। कुछ टीकाकारों और अनुवादकों ने इसका अर्थ यह लिया है कि वहाँ हर ओर 'सलाम-सलाम' ही की आवाजें सुनने में आएँगी। लेकिन सही बात यह है कि इससे अभिप्रेत है ठीक-ठीक बात, अर्थात् ऐसी वार्ता जो भाषा दोषों से मुक्त हो, जिसमें वे अवगुण न हों जो पिछले वाक्यांश में बताए गए हैं।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ ۝ 26
(27) और दाहिने बाजूवाले, दाहिने बाजूवालों (के सौभाग्य) का क्या कहना।
فِي سِدۡرٖ مَّخۡضُودٖ ۝ 27
(28) वे काँटे रहित बेरियों15
15. अर्थात् ऐसी बेरियाँ जिनके पेड़ों में काँटे न होंगे। बेर जितने अच्छे किस्म के होते हैं, उनके पेड़ों में काँटे उतने ही कम होते हैं। इसी लिए जन्नत के बेरों की यह प्रशंसा की गई है कि उनके पेड़ बिलकुल ही काँटों से ख़ाली होंगे, अर्थात् ऐसे उत्तम प्रकार के होंगे जो दुनिया में नहीं जाए जाते।
وَطَلۡحٖ مَّنضُودٖ ۝ 28
(29) और ऊपर-तले चढ़े हुए केलों,
وَظِلّٖ مَّمۡدُودٖ ۝ 29
(30) और दूर तक फैली हुई छाँव,
وَمَآءٖ مَّسۡكُوبٖ ۝ 30
(31) और हर पल बहता पानी,
وَفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ ۝ 31
(32-33) और कभी समाप्त न होनेवाले और बे-रोक-टोक मिलनेवाले ढेर सारे फलों16
16. मूल अरबी शब्द हैं, 'ला मक्तूअतिव व ला मम्नूआ'। 'ला मक़्तूअः' से तात्पर्य यह है कि ये फल न मौसमी होंगे कि मौसम गुजर जाने के बाद न मिल सकें, न इनकी पैदावार का सिलसिला कभी समाप्त होगा कि किसी बाग़ के सारे फल अगर तोड़ लिए जाएँ कि एक मुद्दत तक वह बगैर फल के रह जाए, बल्कि हर फल वहाँ हर मौसम में मिलेगा और चाहे कितना ही खाया जाए, लगातार पैदा होता चला जाएगा। और 'ला मम्नूअः' का अर्थ है कि दुनिया के बागों की तरह वहाँ कोई रोक-टोक न होगी, न फलों के तोड़ने और खाने में कोई बात रुकावट बनेगी कि पेड़ों पर काँटे होने या अधिक ऊँचाई पर होने के कारण तोड़ने में कोई परेशानी हो।
لَّا مَقۡطُوعَةٖ وَلَا مَمۡنُوعَةٖ ۝ 32
0
وَفُرُشٖ مَّرۡفُوعَةٍ ۝ 33
(34) और ऊँची बैठकों में होंगे।
إِنَّآ أَنشَأۡنَٰهُنَّ إِنشَآءٗ ۝ 34
(35) उनकी बीवियों को हम विशेष रूप से नए सिरे से पैदा करेंगे
فَجَعَلۡنَٰهُنَّ أَبۡكَارًا ۝ 35
(36) और उन्हें कुँवारियाँ बना देंगे।17
17. इससे अभिप्रेत दुनिया की वे नेक औरतें हैं जो अपने ईमान और अच्छे कामों की वजह से जन्नत में जाएंगी। अल्लाह उन सबको वहाँ जवान बना देगा, चाहे वे कितनी ही बूढ़ी होकर मरी हों। अति सुन्दर बना देगा चाहे दुनिया में वे सुन्दर रही हों या न रही हों। कुँवारी बना देगा, चाहे दुनिया में वे कुँवारी मरी हों या बाल-बच्चोंवाली होकर। उनके शौहर भी अगर उनके साथ जन्नत में पहुँचेंगे, तो वे उनसे मिला दी जाएँगी, वरना अल्लाह किसी और जन्नती से उनको ब्याह देगा। इस आयत की यही व्याख्या बहुत-सी हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उद्धृत है। शमाइले-तिर्मिज़ी में उल्लिखित है कि एक बुढ़िया ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, मेरे हक़ में जन्नत की दुआ फ़रमाएँ। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, जन्नत में कोई बुढ़िया दाखिल न होगी। वह रोती हुई वापस चली गई, तो आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया कि उसे बताओ, वह बुढ़ापे की हालत में जन्नत में दाख़िल न होगी। अल्लाह का कथन है कि "हम उन्हें ख़ासतौर से नए सिरे से पैदा करेंगे और कुँवारी बना देंगे।" इब्ने-अबी हातिम ने हज़रत सलमा बिन यज़ीद (रजि०) की यह रिवायत नक़ल की है कि मैंने इस आयत की व्याख्या में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते हुए सुना, "इससे तात्पर्य दुनिया की औरतें हैं, चाहे वे कुँवारी मरी हों या विवाहिता।" तबरानी में हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) की एक लंबी रिवायत है जिसमें वे जन्नत की औरतों के बारे में क़ुरआन मजीद की विभिन्न जगहों का मतलब नबी (सल्ल०) से मालूम करती हैं। इस लिससिले में नबी (सल्ल०) इस आयत की व्याख्या करते हुए फ़रमाते हैं कि "ये वे औरतें हैं जो दुनिया की जिंदगी में मरी हैं। बूढ़ी-फंस, आँखों में चीपड़, सर के बाल सफ़ेद, उस बुढ़ापे के बाद अल्लाह उनको फिर से कुँवारी पैदा कर देगा।" हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) पूछती हैं, अगर किसी औरत के दुनिया में कई पति रह चुके हों और वे सब जन्नत में जाएँ, तो वह उनमें से किसको मिलेगी? नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, "उसको अधिकार दिया जाएगा कि वह जिसे चाहे चुन ले और वह उस व्यक्ति को चुनेगी जो उनमें सबसे अच्छा अखलाक़ का था। वह अल्लाह से अर्ज करेगी कि ऐ रब! इसका व्यवहार मेरे साथ सबसे अच्छा था, इसलिए मुझे इसकी बीवी बना दे। ऐ उम्मे-सलमा! सद्व्यवहार दुनिया और आख़िरत की सारी भलाई लूट ले गया है।" (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-55 रहमान, टिप्पणी 51)
عُرُبًا أَتۡرَابٗا ۝ 36
(37) अपने शौहरों की आशिक़18 और उम्र में बराबर।19
18. मूल में अरबी में शब्द 'उरुबा' प्रयुक्त हुआ है। यह शब्द अरबी भाषा में औरत के स्त्री सम्बन्धी उत्तम गुणों के लिए बोला जाता है। इससे अभिप्रेत ऐसी औरत है जो सुन्दर हो, सुशीला हो, मीठे बोलवाली हो, स्त्री सम्बन्धी भावनाओं से भरी हो, अपने शौहर को दिल व जान से चाहती हो और उसका शौहर भी उसका आशिक हो।
19. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि वे अपने शौहरों की हमउम्र होंगी। दूसरा यह कि वे आपस में हमउम्र होंगी। अर्थात् तमाम जन्नती औरतें एक ही उम्र की होंगी और हमेशा उसी उम्र की रहेंगी। असंभव नहीं कि ये दोनों ही बातें एक ही वक़्त में सही हों। अर्थात् ये औरतें स्वयं भी हमउम्र हों और उनके शौहर भी उनके हमउम्र बना दिए जाएँ। एक हदीस में आता है कि जन्नतवाले जब जन्नत में दाखिल होंगे" तो उनके शरीर बालों से साफ़ होंगे, मसें भीग रही होंगी, मगर दाढ़ी न निकली होगी। गोरे-चिट्टे होंगे, गठे हुए बदन होंगे, कजरारे नयनोंवाली होंगी, सब की उम्र 33 साल की होंगी।" (मुस्नद अहमद) लगभग यही बात तिर्मिज़ी में हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि०) और हज़रत अबू सईद खुदरी (रजि०) से भी उल्लिखित है।
لِّأَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 37
(38) यह कुछ दाहिने बाजूवालों के लिए है।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 38
(39) वे अगलों में से भी बहुत होंगे
وَثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 39
(40) और पिछले में से भी बहुत।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ ۝ 40
(41) और बाएँ बाजूवाले, बाएँ बाजूवालों (के दुर्भाग्य) का क्या पूछना।
فِي سَمُومٖ وَحَمِيمٖ ۝ 41
(42-43) वे लू की लपट और खौलते हुए पानी और काले धुएँ की छाया में होंगे,
وَظِلّٖ مِّن يَحۡمُومٖ ۝ 42
0
لَّا بَارِدٖ وَلَا كَرِيمٍ ۝ 43
(44) जो न शीतल होगा, न सुखदायक ।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُتۡرَفِينَ ۝ 44
(45) ये वे लोग होंगे जो इस अंजाम को पहुँचने से पहले ख़ुशहाल थे
وَكَانُواْ يُصِرُّونَ عَلَى ٱلۡحِنثِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 45
(46) और बड़े गुनाह पर आग्रह करते थे।20
20. अर्थात् खुशहाली ने उनपर उलटा प्रभाव डाला था। अल्लाह के कृतज्ञ होने के बजाय वे उलटे नेमतों के अकृतज्ञ हो गए थे, अपने मन की लज्ज़तों में मग्न होकर ख़ुदा को भूल गए थे और बड़े-बड़े गुनाह कर रहे थे। 'बड़े गुनाह' का शब्द व्यापक है। इससे अभिप्रेत कुफ्र व शिर्क और नास्तिकता भी है और चरित्र व आचरण का हर बड़ा गुनाह भी।
وَكَانُواْ يَقُولُونَ أَئِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 46
(47) कहते थे, "क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पिंजर बन जाएंगे तो फिर उठा खड़े किए जाएँगे?
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 47
(48) और क्या हमारे वे बाप-दादा भी उठाए जाएंगे जो पहले गुज़र चुके हैं?'
قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَوَّلِينَ وَٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 48
(49-50) ऐ नबी! इन लोगों से कहो, निश्चय ही अगले और पिछले सब एक दिन ज़रूर जमा किए जानेवाले हैं, जिसका समय तय किया जा चुका है।
لَمَجۡمُوعُونَ إِلَىٰ مِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 49
0
ثُمَّ إِنَّكُمۡ أَيُّهَا ٱلضَّآلُّونَ ٱلۡمُكَذِّبُونَ ۝ 50
(51) फिर ऐ गुमराहो और झुठलानेवालो!
لَأٓكِلُونَ مِن شَجَرٖ مِّن زَقُّومٖ ۝ 51
(52) तुम ज़क्कम (थूहड़) के पेड़21 का भोजन करनेवाले हो।
21. जक्‍़क़ूम की व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्पणी 34
فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 52
(53) उसी से तुम पेट भरोगे,
فَشَٰرِبُونَ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 53
(54-55) और ऊपर से खौलता हुआ पानी तौँस लगे हुए ऊँट की तरह पियोगे।
فَشَٰرِبُونَ شُرۡبَ ٱلۡهِيمِ ۝ 54
0
هَٰذَا نُزُلُهُمۡ يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 55
(56) यह है इन (बाएँ बाज़ूवालों) की मेहमानी का सामान बदला दिए जाने के दिन।
نَحۡنُ خَلَقۡنَٰكُمۡ فَلَوۡلَا تُصَدِّقُونَ ۝ 56
(57) हमने तुम्हें22 पैदा किया है, फिर क्यों पुष्टि नहीं करते?23
22. यहाँ से आयत 74 तक जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, उनमें एक ही वक़्त में आख़िरत और तौहीद दोनों के लिए प्रमाण जुटाए गए हैं।
23. अर्थात् इस बात की पुष्टि कि हम ही तुम्हारे रब और उपास्य हैं, और हम तुम्हें दोबारा भी पैदा कर सकते हैं।
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تُمۡنُونَ ۝ 57
(58) कभी तुमने विचार किया, यह वीर्य जो तुम डालते हो,
ءَأَنتُمۡ تَخۡلُقُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 58
(59) इससे बच्चा तुम बनाते हो या उसके बनानेवाले हम हैं?24
24. अर्थात् इंसान अगर केवल इसी एक बात पर विचार करे कि वह स्वयं किस तरह पैदा हुआ है तो उसे न क़ुरआन की एकेश्वरवादी शिक्षा में कोई सन्देह रह सकता है, न उसकी आख़िरत की शिक्षा में। इंसान आखिर इसी तरह तो पैदा होता है कि मर्द अपना वीर्य औरत के गर्भाशय तक पहुँचा देता है। मगर क्या इस वीर्य में बच्चा पैदा करने की और अनिवार्य रूप से इंसान ही का बच्चा पैदा करने की क्षमता आप से आप पैदा हो गई है? या इंसान ने स्वयं पैदा की है? या ख़ुदा के सिवा किसी और ने पैदा कर दी है? और क्या यह मर्द के या औरत के या दुनिया की किसी शक्ति के अधिकार में है कि इस वीर्य से गर्भ ठहरा दे? फिर गर्भ ठहरने से लेकर बच्चा पैदा होने तक माँ के पेट में क्रमवार बच्चे की संरचना, पोषण और हर बच्चे की अलग-अलग शक्ल व सूरत बनाना और हर बच्चे के भीतर विभिन्न मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को एक विशेष अनुपात के साथ रखना, जिससे वह एक विशेष व्यक्तित्त्ववाला इंसान बनकर उठे, क्या यह सब कुछ एक ख़ुदा के सिवा किसी और का काम है ? क्या इसमें किसी और का तनिक भर भी कोई दख़ल है? फिर क्या यह फैसला करना भी ख़ुदा के सिवा किसी के अधिकार में है कि बच्चा लड़का हो या लड़की? सुन्दर हो या बदसूरत? बलवान हो या दुर्बल? अंधा, बहरा, लंगड़ा-लूला हो या सही अंगोंवाला? बुद्धिमान हो या बुद्धिहीन? अगर कोई व्यक्ति आग्रह और हठधर्मी का शिकार न हो तो वह ख़ुद महसूस करेगा कि शिर्क या नास्तिकता के आधार पर इन प्रश्नों का कोई यथोचित उत्तर नहीं दिया जा सकता। इनका उचित उत्तर एक ही है और वह यह है कि इंसान पूरे का पूरा खुदा का बनाया और सँवारा हुआ है। और जब वास्तविकता यह है तो ख़ुदा के बनाए और सँवारे हुए इस इंसान को क्या अधिकार पहुँचता है कि अपने पैदा करनेवाले के मुकाबले में स्वतंत्रता और स्वछन्दता का दावा करे? या उसके सिवा किसी दूसरे की बन्दगी करने लगे? तौहीद (एकेश्वरवाद) की तरह यह प्रश्न आखिरत के मामले में भी निर्णायक है। इंसान की पैदाइश एक ऐसे कीड़े से होती है जो शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र के बिना नज़र तक नहीं आ सकता। यह कीड़ा औरत के शरीर के अंधेरों में किसी समय उस मादा अंडे से जा मिलता है जो उसी की तरह एक तुच्छ-सा सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखा जानेवाला अस्तित्त्व होता है, फिर इन दोनों के मिलने से एक छोटी-सी जीवित कोशिका (Cell) बन जाता है जो मानव-जीवन का उद्गम बिन्दु है। इस सूक्ष्म कोशिका को विकसित करके अल्लाह नौ महीने कुछ दिन के भीतर माँ के गर्भाशय में एक जीता-जागता इंसान बना देता है। इसके बाद सिर्फ एक अक्ल का अँधा ही यह कह सकता है कि जो ख़ुदा इस तरह इंसानों को आज पैदा कर रहा है, वह कल किसी समय अपने ही पैदा किए हुए इन इंसानों को दोबारा किसी और तरह पैदा न कर सकेगा।
نَحۡنُ قَدَّرۡنَا بَيۡنَكُمُ ٱلۡمَوۡتَ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 59
(60) हमने तुम्हारे दर्मियान मौत को बाँट दिया है,25 और हमारे वश से यह बाहर नहीं है
25. अर्थात तुम्‍हारे जन्‍म की तरह तुम्हारी मौत भी हमारे अधिकार में है। हम यह तय करते हैं कि किसको माँ के पेट ही में मर जाना है और किसे पैदा होते ही मर जाना है और किसे किस उम्र तक पहुँचकर मरना है। जिसकी मौत का जो समय हमने निश्चित कर दिया है, उससे पहले दुनिया की कोई शक्ति उसे मार नहीं सकती और उसके बाद एक क्षण के लिए भी जिंदा नहीं रख सकती।
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمۡثَٰلَكُمۡ وَنُنشِئَكُمۡ فِي مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 60
(61) कि तुम्हारा रूप बदल दें और किसी ऐसे रूप में तुम्हें पैदा कर दें जिसको तुम नहीं जानते।26
26. अर्थात् जिस तरह हम इससे विवश न थे कि तुम्हें तुम्हारे वर्तमान रूप-रंग में पैदा करें उसी तरह हम इससे भी विवश नहीं हैं कि तुम्हारी पैदाइश का तरीका बदलकर किसी और रूप-रंग में, कुछ दूसरी विशेषताओं और गुणों के साथ तुमको कर दें। आज तुमको हम जिस तरह पैदा करते हैं, हमारे पास बस वही एक लगा-बंधा तरीक़ा नहीं है जिसके सिवा हम कोई और तरीका न जानते हों, या न व्यवहार में ला सकते हों। क़ियामत के दिन हम तुम्हें उसी उम्र के इंसान के रूप में पैदा कर सकते हैं जिस उम्र में तुम मरे थे। आज तुम्हारे देखने, सुनने और दूसरी इन्द्रियों का पैमाना हमने कुछ और रखा है, मगर हमारे पास इंसान के लिए बस यही एक पैमाना नहीं है जिसे हम बदल न सकते हों। क़ियामत के दिन हम उसे बदलकर कुछ से कुछ कर देंगे, यहाँ तक कि तुम वह कुछ देख और सुन सकोगे जो यहाँ नहीं देख सकते और नहीं सुन सकते। आज तुम्हारी खाल और तुम्हारे हाथ-पाँव और तुम्हारी आँखों में बोलने की कोई शक्ति नहीं है, मगर जबान को बोलने की शक्ति हम ही ने तो दी है। हम इससे मजबूर नहीं हैं कि क़ियामत के दिन तुम्हारा हर अंग और तुम्हारे शरीर की खाल का हर टुकड़ा हमारे हुक्म से बोलने लगे। आज तुम एक ख़ास उन तक ही जीते हो और उसके बाद मर जाते हो। यह तुम्हारा जीना और मरना भी हमारे ही निश्चित किए हुए एक नियम के अन्तर्गत होता है। कल हम एक दूसरा क़ानून तुम्हारी जिंदगी के लिए बना सकते हैं, जिसके अन्तर्गत तुम्हें कभी मौत न आए। आज तुम एक विशेष सीमा तक ही अज़ाब सह सकते हो, जिससे ज़्यादा अज़ाब अगर तुम्हें दिया जाए तो तुम जिंदा नहीं रह सकते। यह नियम भी हमारा ही बनाया हुआ है। कल हम तुम्हारे लिए एक दूसरा नियम बना सकते हैं जिसके अन्तर्गत तुम ऐसा अज़ाब ऐसी लंबी मुद्दत तक भुगत सकोगे जिसके बारे में तुम सोच तक नहीं सकते, और किसी बड़े से बड़े अज़ाब से भी तुम्हें मौत न आएगी। आज तुम सोच नहीं सकते कि कोई बूढ़ा जवान हो जाए, कभी बीमार न हो, कभी उसपर बुढ़ापा नआए और हमेशा-हमेशा वह एक ही उम्र का जवान रहे। मगर यहाँ जवानी पर बुढ़ापा हमारे बनाए हुए जीवन-नियमों ही के अनुसार तो आता है। कल हम तुम्हारी जिंदगी के लिए कुछ दूसरे नियम बना सकते हैं, जिनके अनुसार जन्नत में जाते ही हर बूढ़ा जवान हो जाए और उसकी जवानी और स्वास्थ्य कभी ख़त्म न हो।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُولَىٰ فَلَوۡلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 61
(62) अपनी पहली पैदाइश को तो तुम जानते ही हो, फिर क्यों शिक्षा ग्रहण नहीं करते? 27
27. अर्थात् तुम यह तो जानते ही हो कि पहले तुम कैसे पैदा किए गए थे। किस तरह एक सूक्ष्म कण को विकसित करके ये दिल व दिमाग, ये आँख-कान और ये हाथ-पाँव उसमें पैदा किए गए और बुद्धि व चेतना, ज्ञान-विवेक, कारीगरी, आविष्कार और उपाय अपनाने और काम लेने की ये आश्चर्यजनक क्षमताएँ उसे प्रदान की गई, क्या यह चमत्कार मुर्दो को दोबारा जिला उठाने से कुछ कम आश्चर्यजनक है? फिर क्यों इससे शिक्षा नहीं लेते कि जिस ख़ुदा की सामर्थ्य से यह चमत्कार दिन-रात हो रहा है, उसी की सामर्थ्य से मरने के बाद की जिंदगी और हश्र व नश्र (दोबारा उठाया और जमा किया जाना) और जन्नत-दोज़ख़ का चमत्कार भी प्रकट हो सकता है?
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَحۡرُثُونَ ۝ 62
(63) कभी तुमने सोचा, यह बीज जो तुम बोते हो,
ءَأَنتُمۡ تَزۡرَعُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلزَّٰرِعُونَ ۝ 63
(64) इनसे खेतियाँ तुम उगाते हो या उनके उगानेवाले हम हैं?28
28. अर्थात् जिस रोज़ी पर तुम पलते हो, वह अल्लाह ही तुम्हारे लिए पैदा करता है। जिस तरह तुम्हारी पैदाइश में इंसानी कोशिश का दखल इससे बढ़कर कुछ नहीं है कि तुम्हारा बाप तुम्हारी माँ के अन्दर वीर्य डाल दे, उसी तरह तुम्हारी रोज़ी की पैदावार में भी इंसान की कोशिश का दखल इससे बढ़कर कुछ नहीं है कि किसान खेती में बीज डाल दे। बाकी सब कुछ अल्लाह की सामर्थ्य और उसके विकसित करने का चमत्कार है। फिर जब तुम अस्तित्त्व में उसी के लाने से आए हो और उसी की रोज़ी से पल रहे हो, तो तुमको उसके मुक़ाबले में स्वतंत्रता का या उसके सिवा किसी और की बन्दगी का अधिकार आख़िर कैसे पहुँचता है? यह आयत ज़ाहिर में तो तौहीद (एकेश्वरवाद) के हक़ में प्रमाण प्रस्तुत कर रही है, मगर इसमें जो बात बयान की गई है उसपर अगर आदमी थोड़ा-सा और विचार करे तो इसी के अन्दर आख़िरत का प्रमाण भी मिल जाता है। जो बीज धरती में बोया जाता है, वह अपने आप में मुर्दा होता है, मगर धरती की क़ब्र में जब किसान उसे दफन कर देता है तो अल्लाह उसके अन्दर वह वनस्पति सम्बन्धी जीवन पैदा कर देता है जिससे कोपलें फूटती हैं और लहलहाती हुई खेतियाँ बहार का दृश्य प्रस्तुत करती हैं। ये अनगिनत मुर्दे हमारी आँखों के सामने आए दिन क़ब्रों से जी-जीकर उठ रहे हैं। ये चमत्कार क्या कुछ कम विचित्र हैं कि कोई व्यक्ति उस दूसरे चमत्कार को असंभव ठहरा दे जिसकी ख़बर क़ुरआन हमें दे रहा है, अर्थात् इंसानों की मरने के बाद की जिंदगी।
لَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَٰهُ حُطَٰمٗا فَظَلۡتُمۡ تَفَكَّهُونَ ۝ 64
(65) हम चाहें तो उन खेतियों को भुस बनाकर रख दें और तुम तरह-तरह की बातें बनाते रह जाओ
إِنَّا لَمُغۡرَمُونَ ۝ 65
(66) कि हमपर तो उलटा डाँड़ पड़ गया,
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 66
(67) बल्कि हमारे तो नसीब ही फूटे हुए हैं
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلۡمَآءَ ٱلَّذِي تَشۡرَبُونَ ۝ 67
(68) कभी तुमने आँखें खोलकर देखा, यह पानी जो तुम पीते हो,
ءَأَنتُمۡ أَنزَلۡتُمُوهُ مِنَ ٱلۡمُزۡنِ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنزِلُونَ ۝ 68
(69) इसे तुमने बादल से बरसाया है या इसके बरसानेवाले हम हैं?29
29. अर्थात् यह पानी भी, जो तुम्हारी जिंदगी के लिए रोटी से भी ज़्यादा ज़रूरी है, तुम्हारा अपना उपलब्ध किया हुआ नहीं है, बल्कि इसे हम उपलब्ध कराते हैं। फिर हमारे पैदा करने से अस्तित्त्व में आकर, हमारा खाना खाकर और हमारा पानी पीकर यह अधिकार तुम्हें कहाँ से प्राप्त हो गया कि हमारे मुक़ाबले में ख़ुदमुख्तार बनो या हमारे सिवा किसी और की बन्दगी करने लगो?
لَوۡ نَشَآءُ جَعَلۡنَٰهُ أُجَاجٗا فَلَوۡلَا تَشۡكُرُونَ ۝ 69
(70) हम चाहें तो इसे अत्यन्त खारा बना कर रख दें।30 फिर तुम क्‍यों कृतज्ञ नहीं होते? 31
30. पानी के अन्दर अल्लाह ने जो आश्चर्यजनक गुण रखे हैं, उनमें से एक गुण यह भी है कि उसके अन्दर भले ही कितनी ही चीजें घुल-मिल जाएँ, जब वह ताप के प्रभाव से भाप में परिवर्तित होता है तो सारी मिलावटें नीचे छोड़ देता है और केवल अपने मूल जलीय तत्त्वों को लेकर हवा में उड़ता है। यह गुण अगर इसमें न होता तो समुद्र से जो भा उठतीं, उनमें समुद्र का नमक भी शामिल होता और उनकी वर्षा समस्त भू-भाग को खारा बना देती। न इंसान इस पानी को पीकर जी सकता था, न किसी प्रकार के पेड़-पौधे उससे उग सकते थे। [पानी का यह तत्त्वदर्शितापूर्ण गुण] इस बात की खुली गवाही दे रहा है कि यह गुण पैदा करनेवाले ने पानी में इसको खूब सोच-समझकर इरादे के साथ इस उद्देश्य के लिए पैदा किया है कि वह उसकी पैदा की हुई मखलूक (सृष्टि) की परवरिश का साधन बन सके।
31. दूसरे शब्दों में नेमत की क्यों नाशुक्री करते हो? ख़ुदा की इतनी बड़ी नेमत से फ़ायदा उठाते हो और फिर जवाब में कुफ़्र (इंकार) व शिर्क और नाशुक्री और अवज्ञा करते हो?
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي تُورُونَ ۝ 70
(71) कभी तुमने विचार किया, यह आग जो तुम सुलगाते हो,
ءَأَنتُمۡ أَنشَأۡتُمۡ شَجَرَتَهَآ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنشِـُٔونَ ۝ 71
(72) इसका पेड़32 तुमने पैदा किया है, या इसके पैदा करनेवाले हम हैं?
32. पेड़ से अभिप्रेत या तो वे पेड़ हैं जिनसे आग जलाने के लिए लकड़ी प्राप्त होती है या मूर्ख और अफ़ार नामक वे दो पेड़ हैं जिनकी हरी-भरी टहनियों को एक-दूसरे पर मारकर प्राचीन काल में अरबवाले आग झाड़ा करते थे।
نَحۡنُ جَعَلۡنَٰهَا تَذۡكِرَةٗ وَمَتَٰعٗا لِّلۡمُقۡوِينَ ۝ 72
(73) हमने उसको याददेहानी का साधन33 और ज़रूरतमंदों34 के लिए ज़िंदगी का सामान बनाया है।
33. इस आग को याददेहानी का साधन बनाने का मतलब यह है कि यह वह चीज़ है जो हर वक्त रौशन होकर इंसान को उसका भूला हुआ सबक़ याद दिलाती है। अगर आग न होती तो इंसान की जिंदगी जानवर की जिंदगी से अलग न हो सकती। आग ही से इंसान ने जानवरों की तरह कच्चे भोज्य पदार्थ खाने के बजाय उनको पकाकर खाना शुरू किया और फिर उसके लिए उद्योग और आविष्कारों के लिए नए-नए दरवाजे खुलते चले गए, वरना उसकी आविष्कार-सम्बन्धी क्षमताओं का ताला ही न खुलता, मगर इंसान गफ़लत में मदहोश न हो तो तन्हा एक आग ही उसे यह याद दिलाने के लिए काफ़ी है कि ये किसके उपकार और किसकी नेमतें हैं जिनसे वह दुनिया में लाभ उठा रहा है।
34. मूल में अरबी शब्द 'मुक्वीन' प्रयुक्त किया गया है। भाषाविदों ने इसके बहुत से अर्थ बताए हैं। कुछ इसे रेगिस्तान में उतरे हुए मुसाफ़िरों के अर्थ में लेते हैं, कुछ इसे भूखे आदमी के अर्थ में लेते हैं और कुछ के नज़दीक इससे अभिप्रेत वे सब लोग हैं जो आग से लाभ उठाते हैं।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 73
(74) अत: ऐ नबी! अपने महान रब के नाम की तस्बीह (महिमागान) करो।35
35. अर्थात् उसका शुभ नाम लेकर यह प्रदर्शन और घोषणा करो कि वह उन समस्त दोषों, कमजोरियों और त्रुटियों से पाक है जो इस्लाम-विरोधी और मुशरिक लोग उससे जोड़ते हैं और जो कुफ्र व शिर्क के हर अक़ीदे और आख़िरत के इंकारियों के हर तर्क में निहित हैं।
۞فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ ۝ 74
(75) अतः नहीं!36 मैं क़सम खाता हूँ तारों की स्थितियों की,
36. अर्थात् बात वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो । यहाँ क़ुरआन के अल्लाह की ओर से होने पर क़सम खाने से पहले शब्द 'ला' (नहीं) का प्रयोग स्वयं यह व्यक्त कर रहा है कि लोग इस पवित्र ग्रन्थ के बारे में कुछ बातें बना रहे थे, जिनका खंडन करने लिए यह क़सम खाई जा रही है।
وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٞ لَّوۡ تَعۡلَمُونَ عَظِيمٌ ۝ 75
(76-77) और अगर तुम समझो तो यह बहुत बड़ी क़सम है कि यह एक उच्च कोटि का क़ुरआन है,37
37. तारों और उपग्रहों की स्थितियों से अभिप्रेत उनकी जगहें, उनकी मंज़िलें और उनके भ्रमणकक्ष हैं और क़ुरआन के उच्च कोटि की किताब होने पर उसकी क़सम खाने का अर्थ यह है कि ऊपरी लोक में आकाशीय पिंडों की व्यवस्था जैसी सुदृढ़ और मज़बूत है, वैसी ही सुदृढ़ और मज़बूत यह वाणी भी है। जिस ख़ुदा ने वह व्यवस्था बनाई है, उसी ख़ुदा ने यह वाणी उतारी है।
إِنَّهُۥ لَقُرۡءَانٞ كَرِيمٞ ۝ 76
0
فِي كِتَٰبٖ مَّكۡنُونٖ ۝ 77
(78) एक सुरक्षित किताब में अंकित38
38. इससे अभिप्रेत है लौहे- महफूज़ (सुरक्षित पट्टिका)। उसके लिए मूल अरबी 'किताबिम मक्सून' का शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है ऐसा लेख जो छिपाकर रखा गया है, अर्थात् जिस तक किसी की पहुँच नहीं है। उस सुरक्षित लेख में क़ुरआन के अंकित होने का अर्थ यह है कि नबी (सल्ल०) पर उतारे जाने से पहले वह अल्लाह के यहाँ उस नियति-पत्र में अंकित हो चुका है जिसके अन्दर किसी परिवर्तन की सम्भावना नहीं है, क्योंकि वह हर मखलूक (सृष्टि) की पहुँच से परे है।
لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُطَهَّرُونَ ۝ 78
(79) जिसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता।39
39. यह खंडन है [मक्का के इस्लाम-विरोधियों के] उन आरोपों का जो वे क़ुरआन पर लगाया करते थे। वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ज्योतिषी क़रार देते थे और कहते थे कि यह वाणी आपके मन में जिन्‍न और शैतान डालते हैं। इसका उत्तर क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर दिया गया, जैसे सूरा-26 शूअरा में कहा गया है "इसको लेकर शैतान नहीं उतरे हैं, न यह वाणी उनको सजती है और न वे ऐसा कर ही सकते हैं। वे तो इसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं," (आयत 210 से 212)। इसी विषय को यहाँ इन शब्दों में बयान किया गया है कि इसे "पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता।" अर्थात् शैतानों का इसे लाना या इसके उतरते समय उसमें हस्तक्षेप करना तो दूर की बात, जिस समय यह सुरक्षित पट्टिका से नबी (सल्ल०) पर उतारा जाता है, उस समय पवित्रों अर्थात् पवित्र फ़रिश्तों के सिवा कोई क़रीब फटक भी नहीं सकता। फ़रिश्तों के लिए 'पवित्रों' का शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि अल्लाह ने उनको हर प्रकार की अपवित्र भावनाओं और इच्छाओं से मुक्त रखा है। इस आयत की यही टीका हज़रत अनस बिन मालिक (रजि०), इब्ने-अब्बास (रजि०), सईद बिन ज़ुबैर, इक्रिमा, मुजाहिद, क़तादा, अबुल आलिया, सुद्दी, जहाक़ और इब्ने-जैद (रजि०) ने बयान की है और वार्ता सन्दर्भ के साथ भी यही बात मेल खाती है, क्योंकि वार्ता-क्रम यह स्वयं बता रहा है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत के बारे में मक्का के इस्लाम विरोधियों के ग़लत विचारों का खंडन करने के बाद अब क़ुरआन मजीद के बारे में उनके झूठे गुमानों और अटकलों का खंडन किया जा रहा है और तारों की स्थितियों की क़सम खाकर यह बताया जा रहा है कि यह एक उच्च कोटि की किताब है, अल्लाह के सुरक्षित लेख में अंकित है जिसमें किसी मखलूक (सृष्टि) की घुसपैठ की कोई संभावना नहीं और नबी (सल्ल०) पर यह ऐसे तरीके से उतरती है कि पवित्र फ़रिश्तों के सिवा कोई इसे छू तक नहीं सकता। कुछ टीकाकारों ने इस आयत में 'ला' को 'नहीं' के अर्थ में लिया है और आयत का अर्थ यह बताया है कि "कोई ऐसा व्यक्ति इसे न छूए जो पवित्र न हो" या "किसी ऐसे व्यक्ति को इसे न छूना चाहिए जो अपवित्र हो", और कुछ दूसरे टीकाकार यद्यपि 'ला' को 'नहीं' के अर्थ में लेते हैं और आयत का अर्थ यह बताते हैं कि "इस किताब को 'पवित्रों' के सिवा कोई नहीं छूता।" मगर उनका कहना यह है कि यह निषेध उसी तरह 'नहीं' के अर्थ में है जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह कथन कि "मुसलमान मुसलमान का भाई है, वह उसपर ज़ुल्म करता।" इसमें यद्यपि ख़बर दी गई है कि मुसलमान मुसलमान पर जुल्म नहीं करता, लेकिन वास्तव में इससे यह आदेश निकलता है कि मुसलमान मुसलमान पर ज़ुल्म न करे। इसी तरह इस आयत में यद्यपि कहा गया है कि पवित्र लोगों के सिवा क़ुरआन को कोई नहीं छूता, मगर इससे आदेश यह निकलता है कि जब तक कोई व्यक्ति पवित्र न हो, वह इसको न छुए। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह टीका आयत के प्रसंग एवं संदर्भ से मेल नहीं खाती। संदर्भ से अलग करके तो इसके शब्दों से यह अर्थ निकाला जा सकता है, मगर जिस वार्ता-क्रम में यह आयत आई है, उसमें रखकर इसे देखा जाए तो यह कहने का सिरे से कोई अवसर दिखाई नहीं देता कि "इस किताब को पवित्र लोगों के सिवा कोई न छूए।" क्योंकि यहाँ तो इस्लाम का इंकार करनेवाले सम्बोधित हैं और उनको यह बताया जा रहा है कि यह सारे जहान के रब, अल्लाह की उतारी हुई किताब है, इसके बारे में तुम्हारा यह गुमान निश्चित रूप से ग़लत है कि इसे शैतान नबी (सल्ल.) के दिल में डाल देते हैं। इस जगह पर शरई हुक्म (धर्म-सम्बन्धी आदेश) बयान करने का आख़िर क्या मौक़ा हो सकता था कि कोई व्यक्ति पवित्रता के बिना इसको हाथ न लगाए? अधिक से अधिक जो बात कही जा सकती है, वह यह है कि यह आयत यद्यपि यह आदेश देने क लिए नहीं उतरी है, लेकिन वार्ता-सन्दर्भ इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि जिस तरह अल्लाह के यहाँ इस किताब को सिर्फ 'पवित्र' ही छू सकते हैं, उसी तरह दुनिया में भी कम से कम वे लोग, जो इसके ईश-वाणी होने पर ईमान रखते हैं, इसे नापाकी की हालत में छूने से बचें। फ़ुक्‍़हा (धर्मशास्त्रियों) के मस्लक (मत) इस सिलसिले में निन्नलिखित हैं- हनफ़ी मस्लक को व्याख्या इमाम अलाउद्दीन अल-काशानी ने 'बदाइउस-सनाअ' में यूँ की है : जिस तरह बे-वुजू नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है, उसी तरह कुरआन मजीद को हाथ लगाना जाइज़ नहीं है। अलबत्ता अगर वह गिलाफ़ के अन्दर हो तो हाथ लगाया जा सकता है। ग़िलाफ़ से अभिप्रेत कुछ फ़ुक़्हा के नज़दीक जिल्द है और कुछ के नज़दीक वह थैली या लिफ़ाफ़ा या जुज़दान है जिसके अन्दर क़ुरआन रखा जाता है और उसमें से निकाला भी जा सकता है। इसी तरह टीका (तफ़सीर) की किताबों को भी बे-वुजू हाथ न लगाना चाहिए, न किसी ऐसी चीज़ को जिसमें कुरआन की कोई आयत लिखी हुई हो। अलबत्ता फ़िक़ह की किताबों को हाथ लगाया जा सकता है, अगरचे पसंदीदा यही है कि उनको भी बे-बुजू हाथ न लगाया जाए, क्योंकि इनमें भी कुरआनी आयतें प्रमाण के रूप में लिखी होती हैं। कुछ हनफ़ी फ़ुक़हा इस बात के क़ायल हैं कि किताब के सिर्फ उस हिस्से को बे-वुजू हाथ लगाना सही नहीं है जहाँ क़ुरआन की आयत लिखी हुई हो, बाक़ी रही टिप्पणियाँ, तो चाहे वे सादा हों या उनमें स्पष्टीकरण के रूप में कुछ लिखा हुआ हो, उनको हाथ लगाने में हरज नहीं। मगर सही बात यह है कि टिप्पणियाँ भी किताब ही का एक अंश हैं और उनको हाथ लगाना किताब ही को हाथ लगाना है । रहा क़ुरआन पढ़ना, तो वह वुजू के बिना जाइज़ है। फ़तावा आलमगीरी में बच्चों को इस आदेश से अलग रखा गया है। शिक्षा के लिए क़ुरआन मजीद बच्चों के हाथ में दिया जा सकता है, चाहे वे वुजू से हों या बे-वुज़ू। शाफ़ई मस्लक को इमाम नववी ने अल-मिनहाज में इस तरह बयान किया है, "नमाज़ और तवाफ़ की तरह किताब का हाथ लगाना और उसके किसी पन्ने को छूना भी वुजू के बिना हराम है। इसी तरह क़ुरआन को जिल्द को छूना भी मना है, और अगर क़ुरआन किसी थैली, गिलाफ़ या संदूक में हो या क़ुरआन-पाठ के लिए उसका कोई अंश तख़्ती पर लिखा हुआ हो तो उसको भी हाथ लगाना जाइज़ नहीं। अलबत्ता कुरआन किसी के सामान में रखा हो या टीका की किताबों में लिखा हुआ हो या किसी सिक्के में उसका कोई अंश अंकित हो, तो उसे हाथ लगाना हलाल (वैध) है। बच्चा अगर बे-वुजू हो तो वह भी क़ुरआन को हाथ लगा सकता है और बे वुजू आदमी अगर कुरआन पढ़े तो वह लकड़ी या किसी और चीज़ से उसका पन्ना पलट सकता है।" मालिकिया का मस्लक जो 'अल-फ़िक़ह अलल मज़ाहिबिल अर-बआ' में बयान किया गया है, वह यह है कि आम फुकहा के साथ वे इस बात में सहमत हैं कि किताब को हाथ लगाने के लिए वुजू शर्त है। लेकिन क़ुरआन की शिक्षा के लिए वे शिक्षक और छात्र दोनों को इससे अलग करते हैं। बल्कि उस औरत के लिए भी जिसे महावारी हो रही हो, शिक्षा देने के उद्देश्य से किताब को हाथ लगाना जाइज़ कहते हैं। इल्ले-कुदामा ने 'अल मुग़नी' में इमाम मालिक (रह०) का यह कथन भी उदृद्धत किया है कि जनाबत (अर्थात् वह नापाकी जिसमें गुस्ल अनिवार्य है) की हालत में तो क़ुरआन पढ़ने से मना किया गया है, मगर माहवारी की हालत में औरत को कुरआन पढ़ने की इजाज़त है, क्योंकि एक लंबी मुद्दत तक अगर हम उसे क़ुरआन पढ़ने से रोकेंगे तो वह भूल जाएगी। हंबली मस्लक के आदेश जो इब्ने क़ुदामा ने उद्धृत किए हैं, ये हैं कि "जनाबत की हालत में और माहवारी और प्रसूति को अवस्था में क़ुरआन या उसकी किसी पूरी आयत को पढ़ना जाइज़ नहीं है, अलबत्ता बिस्मिल्लाह, अलहम्दुलिल्लाह वगैरह कहना जाइज़ है, क्योंकि यद्यपि ये भी किसी न किसी आयत के अंश हैं, मगर इनका उद्देश्य क़ुरआन पाठ नहीं होता। रहा क़ुरआन को हाथ लगाना, तो वह किसी हाल में वुजू के बिना जाइज़ नहीं, अलबत्ता क़ुरआन की कोई आयत किसी पत्र या फ़िक़ह की किसी किताब या किसी और लेख के सिलसिले में लिखी हो तो उसे हाथ लगाना मना नहीं है। इसी तरह क़ुरआन अगर किसी चीज़ में रखा हुआ हो, तो उसे वुजू के बगैर उठाया जा सकता है। टीका की पुस्तकों को हाथ लगाने के लिए भी वुजू शर्त नहीं है, साथ ही बे वुजू आदमी को अगर किसी तात्कालिक ज़रूरत के लिए क़ुरआन को हाथ लगाना पड़े, तो वह तयम्मुम कर सकता है।" 'अल-फ़िक़ह अलल मज़ाहिबिल अर-बआ' में हंबली मस्लक का यह मसला भी लिखा है कि बच्चों के लिए शिक्षा के उद्देश्य से भी वुजू के बिना क़ुरआन को हाथ लगाना ठीक नहीं है और यह उनके अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि वे क़ुरआन उनके हाथ में देने से पहले उन्हें वुज़ू कराएँ। ज़ाहिरिया का मस्लक यह है कि कुरआन पढ़ना और उसको हाथ लगाना हर हाल में जाइज़ है, चाहे आदमी बे-वुजू हो, जनाबत की हालत में हो या औरत माहवारी की हालत में हो। इब्ने-हज़म ने अलमुहल्ला, भाग-1, पृ० 77 से 84 में इस मसले पर सविस्तार वार्ता की है, जिसमें उन्होंने इस मस्लक के सही होने की दलीलें दी हैं और यह बताया है कि फ़ुक़हा ने क़ुरआन पढ़ने और उसको हाथ लगाने के लिए जो शर्ते बयान की हैं, उनमें से कोई भी क़ुरआन और सुन्नत से प्रमाणित नहीं है।
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 79
(80) यह सारे जगत् के रब का उतारा हुआ है।
أَفَبِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَنتُم مُّدۡهِنُونَ ۝ 80
(81) फिर क्या इस वाणी की तुम उपेक्षा करते हो,40
40. मूल अरबी शब्द हैं 'अन्तुम मुदहिनून'। 'इदहान' का अर्थ है किसी चीज़ से मुदाहनत (लापरवाही) बरतना, उसको महत्त्व न देना, उसको गम्भीरतापूर्वक ध्यान देने योग्य न समझना।
وَتَجۡعَلُونَ رِزۡقَكُمۡ أَنَّكُمۡ تُكَذِّبُونَ ۝ 81
(82) और इस नेमत में अपना हिस्सा तुमने यह रखा है कि इसे झुठलाते हो?41
41. इमाम राज़ी ने तज्अलू-न रिज्क-कुम की टीका में एक सम्भावना यह भी व्यक्त की है कि यहाँ शब्द 'रिस्क' आजीविका के अर्थ में हो। चूँकि कुरैश के इस्लाम-विरोधी क़ुरआन की दावत को अपने आर्थिक हितों के लिए हानिकारक समझते थे और उनका विचार यह था कि यह दावत अगर सफल हो गई तो हमारा रिज्‍़क (रोज़ी) मारा जाएगा। इसलिए इस आयत का यह अर्थ भी हो सकता है कि तुमने इस क़ुरआन के इंकार को अपने पेट का धंधा बना रखा है, तुम्हारे नज़दीक सत्य और असत्य का प्रश्न कोई महत्त्व नहीं रखता। वास्तविक महत्त्व तुम्हारी निगाह में रोटी का है और उसके लिए सत्य का विरोध करने और असत्य का सहारा लेने में तुम्हें कोई झिझक नहीं।
فَلَوۡلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلۡحُلۡقُومَ ۝ 82
(83-86) अब अगर तुम किसी के अधीन नहीं हो और अपने इस विचार में सच्चे हो, तो जब मरनेवाले की जान हलक तक पहुँच चुकी होती है और तुम आँखों देख रहे होते हो कि वह मर रहा है, उस समय उसकी निकलती हुई जान को वापस क्यों नहीं ले आते?
وَأَنتُمۡ حِينَئِذٖ تَنظُرُونَ ۝ 83
0
وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُبۡصِرُونَ ۝ 84
0
فَلَوۡلَآ إِن كُنتُمۡ غَيۡرَ مَدِينِينَ ۝ 85
0
تَرۡجِعُونَهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 86
(87) उस समय तुम्हारी अपेक्षा हम उसके अधिक क़रीब होते हैं, मगर तुमको नज़र नहीं आते।
فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 87
(88) फिर वह मरनेवाला अगर निकटवर्ती लोगों में से हो
فَرَوۡحٞ وَرَيۡحَانٞ وَجَنَّتُ نَعِيمٖ ۝ 88
(89) तो उसके लिए राहत और अच्छी रोज़ी और नेमत भरी जन्नत है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 89
(90) और अगर वह दाहिने पक्षवालों में से हो
فَسَلَٰمٞ لَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 90
(91) तो उसका स्वागत यूँ होता है कि सलाम है तुझे, तू दाहिने पक्षवालों में से है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 91
(92) और अगर वह झुठलानेवाले गुमराह लोगों में से हो,
فَنُزُلٞ مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 92
(93) तो उसके सत्कार के लिए खौलता हुआ पानी है,
وَتَصۡلِيَةُ جَحِيمٍ ۝ 93
(94) और जहन्नम में झोंका जाना।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ حَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 94
(95) यह सब कुछ परम सत्य है।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 95
(96) अत: ऐ नबी! अपने महान रब के नाम की तस्बीह (महीमागान) करो।42
42. हजरत उक़बा बिन आमिर जुहनी (रजि०) की रिवायत है कि जब यह आयत उतरी तो अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने आदेश दिया कि इसको तुम लोग अपने स्कूल में रख दो, अर्थात् रुकूअ् में 'सुब-हा-न रब्बिबल अजीम' कहा करो और जब आयत 'सब्बिहिस- म रब्बिकल अअला' उतरी तो आपने फ़रमाया, इसे अपने मजदे में रखो, अर्थात् 'सुब-हा-न रब्बियल अअ़ला' कहा करो, (मुस्नद अहमद, अबू दाऊद)। इससे पता चलता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने नमाज का जो तरीका निर्धारित किया है, उसके छोटे से छोटे अंश तक क़ुरआन मजीद के इशारों से उद्धृत है।