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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن

55. अर-रहमान

(मक्का में उतरी, आयतें 78)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।

उतरने का समय

विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्‍वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।

आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।

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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن
55. अर-रहमान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلرَّحۡمَٰنُ
(1-2) बड़े ही कृपाशील (अल्लाह) ने इस क़ुरआन की शिक्षा दी है।1
1. अर्थात् इस कुरआन का शिक्षक स्वयं अत्यन्त कृपाशील अल्लाह है। आरम्भ इस वाक्यांश से करने का पहला उद्देश्य तो यही बताना है कि नबी (सल्ल.) स्वयं इसके रचयिता नहीं हैं, बल्कि इस शिक्षा का देनेवाला अल्लाह है। इसके अलावा दूसरा एक उद्देश्य और भी है जिसकी ओर शब्द 'कृपाशील' संकेत कर रहा है? और वह यह कि बन्दों के मार्गदर्शन के लिए कुरआन मजीद का उतारा जाना सर्वथा अल्लाह की रहमत (कृपा) है। वह चूँकि अपनी मखलूक (सृष्टि) पर अत्यन्त दयावान है, इसलिए उसकी रहमत इस बात की अपेक्षा करती है कि यह कुरआन भेजकर तुम्हें वह ज्ञान प्रदान करे जिसपर दुनिया में तुम्हारा सीधे रास्ते पर चलना और आख़िरत में तुम्हारी सफलता निर्भर करती है।
عَلَّمَ ٱلۡقُرۡءَانَ ۝ 1
0
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ ۝ 2
(3) उसी ने इंसान को पैदा किया2
2. दूसरे शब्दों में, चूँकि अल्लाह इंसान का पैदा करनेवाला है और पैदा करनेवाले ही की यह ज़िम्मेदारी है कि अपनी मख़लूक़ का मार्गदर्शन करे और उसे वह रास्ता बताए जिससे वह अपने अस्तित्त्व का उद्देश्य पूरा कर सके, इसलिए अल्लाह की ओर से क़ुरआन की इस शिक्षा का उतरना सिर्फ़ उसके कृपाशील होने ही का तक़ाज़ा नहीं है, बल्कि उसके स्रष्टा होने का भी ज़रूरी और स्वाभाविक तक़ाज़ा है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 9; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 23; सूरा-92 अल-लैल, टिप्पणी 7)
عَلَّمَهُ ٱلۡبَيَانَ ۝ 3
(4) और उसे बोलना सिखाया।3
3. मूल में अरबी शब्द बयान' प्रयुक्त हुआ है। इसका एक अर्थ तो जो कुछ मन के अन्दर है उसे व्यक्त करना है, अर्थात् बोलना और अपना मतलब व उद्देश्य बयान करना और दूसरा अर्थ है अन्तर और भेद का स्पष्टीकरण। बोलना वह विशेष गुण है जो इंसान को जानवरों और धरती पर पाए जानेवाले दूसरे प्राणियों से अलग करता है। यह केवल वाक्-शक्ति ही नहीं है, बल्कि इसके पीछे बुद्धि एवं चेतना, सुझ-बूझ और बोध और विवेक और संकल्प और दूसरी मानसिक शक्तियाँ काम कर रही होती हैं जिनके बिना इंसान की वाक्-शक्ति काम नहीं कर सकती। इसलिए बोलना वास्तव में इंसान के चेतना और अधिकार रखनेवाली मख़लूक़ (सृष्टि) होने की खुली निशानी है। इसी तरह इंसान का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण विशिष्ट गुण यह है कि अल्लाह ने उसके अंदर एक नैतिक चेतना रख दी है जिसके कारण वह स्वाभाविक रूप से भलाई और बुराई के दर्मियान अन्तर करता है। इन दोनों विशिष्ट गुणों का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि इंसान के चेतनापूर्ण और अधिकारपूर्ण जीवन के लिए शिक्षा का तरीक़ा उस जन्मजात शिक्षा के तरीके से भिन्न हो जिसके अन्तर्गत मछली को तैरना और परिंदे को उड़ना और स्वयं मानव-शरीर के अन्दर पलक को झपकना, आँख को देखना, कान को सुनना और मेदे को पचाना सिखाया गया है। फिर यह बात आख़िर क्यों अनोखी हो कि इंसान के पैदा करनेवाले पर उसके मार्गदर्शन का जो दायित्त्व आता है, उसे अदा करने के लिए उसने रसूल और किताब को शिक्षा का माध्यम बनाया है ? जैसी मखलूक (सृष्टि) वैसी ही उसकी शिक्षा।
ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ بِحُسۡبَانٖ ۝ 4
(5) सूरज और चाँद एक हिसाब के पाबन्द हैं4
4. अर्थात् एक ज़बरदस्त क़ानून और एक अटल विधान है जिससे ये विशाल एवं भव्य ग्रह बंधे हुए हैं। इंसान समय, दिन, तिथियों, फ़सलों और मौसमों का हिसाब इसी वजह से कर रहा है कि सूरज के निकलने और डूबने और अलग-अलग मंज़िलों से उसके गुजरने का जो नियम निश्चित कर दिया गया है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। ज़मीन पर असंख्य जीव जिंदा ही इस कारण से हैं कि सूरज और चाँद को ठीक-ठीक हिसाब करके ज़मीन से एक विशेष दूरी पर रखा गया है और इस दूरी में कमी-बेशी सही नाप-तौल से एक विशेष-क्रम के साथ होती है।
وَٱلنَّجۡمُ وَٱلشَّجَرُ يَسۡجُدَانِ ۝ 5
(6) और तारे5 और पेड़ सब सजदे में हैं।6
5. मूल में अरबी शब्द 'अन-नज्म' प्रयुक्त हुआ है, जिसका मशहूर और प्रत्यक्ष अर्थ तारा है, लेकिन अरब के शब्दकोष में यह शब्द ऐसे पौधों और बेल-बूटों के लिए भी बोला जाता है जिनका तना नहीं होता। क़ुरआन के टीकाकारों में इस बात में मतभेद है कि यहाँ यह शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमारे नज़दीक हाफ़िज़ इब्ने-कसीर की यह राय सही है कि भाषा और विषय दोनों की दृष्टि से दूसरा अर्थ ज़्यादा प्राथमिकता योग्य दिखाई देता है। [सूरा-22 हज्ज, आयत 18 में] भी तारों और पेड़ों के सज्दे में होने का उल्लेख हुआ है और वहाँ 'नुजूम' को तारों के सिवा और किसी अर्थ में नहीं लिया जा सकता।
6. अर्थात् आसमान के तारे और ज़मीन के पेड़-पौधे सब अल्लाह के आदेशों के अधीन और उसके क़ानून के पाबन्द हैं। इन दोनों आयतों में जो कुछ बयान किया गया है, उसका मकसद यह बताना है कि जगत् की पूरी व्यवस्था अल्लाह की बनाई हुई है और उसी के आज्ञापालन में चल रहा है। ज़मीन से लेकर आसमानों तक न कोई ख़ुदमुख़्तार (स्वाधीन) है, न किसी और की खुदाई इस दुनिया में चल रही है। इसलिए तौहीद (एकेश्वरवाद) ही सत्य है जिसकी शिक्षा यह क़़ुरआन दे रहा है।
وَٱلسَّمَآءَ رَفَعَهَا وَوَضَعَ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 6
(7) आसमान को उसने ऊँचा किया और तुला स्थापित कर दी।7
7. क़रीब-क़रीब तमाम टीकाकारों ने यहाँ तुला (तराज़ू) से तात्पर्य अद्ल (न्याय) लिया है। और 'तुला' स्थापित करने का मतलब यह बयान किया है कि अल्लाह ने जगत् की इस पूरी व्यवस्था को इनसाफ़ पर स्थापित किया है। ये असीय व असंख्य तारे और यह जो अन्तरिक्षा में घूम रहे हैं, ये शानदार शक्तियाँ जो इस दुनिया में काम कर रही हैं और ये अनगिनत प्राणी और चीजें जो इस दुनिया में पाई जाती है, इन सबके समिधान अगर पूर्ण सन्तुलन बन्याय न स्थापित किया गया होता, तो जगत् का यह काराणाना एक क्षण के लिए भी चल सकता था।
أَلَّا تَطۡغَوۡاْ فِي ٱلۡمِيزَانِ ۝ 7
(8) इसका तक़ाज़ा यह है कि तुम तुला में विघ्न न डालो,
وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 8
(9) इंसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो, और तराज़ू में डंडी न मारो।8
8. यानी चूँकि तुम एक सन्तुलित जगत् में रहते हो, जिसकी सारी व्यवस्था 'न्याय' पर स्थापित की गई है, इसलिए तुम्हें भी न्‍याय पर क़ायम होना चाहिए। जिस झेत्र में तुम्हें अधिकार दिया गया है, उसमें अगर तुम अन्याय करोगे और जिन हक़दारों के हक़ तुम्हारे हाथ में दिए गए हैं, अगर तुम उनके हक़ मारोगे तो यह सृष्टि की प्रकृति के प्रति तुम्‍हारा विद्रोह होगा।
وَٱلۡأَرۡضَ وَضَعَهَا لِلۡأَنَامِ ۝ 9
(10) ज़मीन9 को उसने सारी यखलाकात (राति) के लिए बनाया10
9. अब यहाँ से आयत 25 तक अल्लाह की उन नेमतों (कृपादानों) और उसके उन उपकारों और उसकी क़ुदरत के उन करिश्मों का उल्लेख किया जा रहा है जिनसे इंसान और जिन्न दोनों लाभ उठा रहे हैं और जिनकी प्राकृतिक और नैतिक अपेक्षा यह है कि वे कुफ (इंकार) व ईमान का इम्तियार रखने के अपनी मर्जी और राजी खुशी से अपने रब की बन्दगी और आज्ञापालन का रास्ता अपनाएँ।
10. मूल अरबी शब्द हैं ज़मीन को 'अनाम' के लिए 'वजअ' किया। बजा करने से तात्पर्य है रचना, बनाना, तैयार करना, रखना, अंकित करना। और 'अनाम' अरबी भाषा में सष्टजीव के लिए प्रयुक्त होता है जिसमें शंसान और दूसरी सब जिन्दा मखलूक (सृष्टि) सम्मिलित हैं। यही अर्थ सभी भाषाविदों ने बयान किए हैं। इससे मालूम हुआ कि जो लोग इस आयत से जमीन को राज्य की मिल्कियत बनाने का हुक्म निकालते हैं, वे एक व्यर्थ बात कहते हैं। अनाम' सिर्फ़ ईसानी समाज को नहीं कहते, बल्कि ज़मीन के दूसरे प्राणी भी इसमें शामिल हैं और ज़मीन को अनाम' के लिए बनाने का मतलब यह नहीं है कि वह सबकी संयुक्त मिल्कियत हो, और वाक्यांश का संदर्भ भी यह नहीं बता रहा है कि वार्ता का अभिप्राय इस जगह कोई आर्थिक नियम बयान करना है। यहाँ तो मकसद वास्तव में यह बताना है कि अल्लाह ने इस धरती को इस तरह बनाया और तैयार कर दिया कि यह भाँति-भांति की जीवित सृष्टि के लिए रहने-बसने और जिंदगी बसर करने के योग्य हो गई। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-27 अन नम्ल, टिप्पणी 73-74; सूरा-36 या सीन, टिप्पणी 29 से 32; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 90-91, सूरा-41 हा मीम अस-सदा, टिप्पणी 11 से 13; सूरा-43 अज़-ज़ुख़रफ़, टिपणी 7 से 10; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्पणी 7)
فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَٱلنَّخۡلُ ذَاتُ ٱلۡأَكۡمَامِ ۝ 10
(11) उसमें हर प्रकार के बहुत-से मज़ेदार फल हैं। खजूर के पेड़ है, जिसके फल ग़िलाफ़ों (आवरणों) में लिपटे हुए हैं।
وَٱلۡحَبُّ ذُو ٱلۡعَصۡفِ وَٱلرَّيۡحَانُ ۝ 11
(12) तरह-तरह के अनाज हैं जिनमें भूसा भी होता है और दाना भी।11
11. अर्थात् आदमियों के लिए दाना और जानवरों के लिए चारा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 12
(13) अत: ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब की किन-किन नेमतों12 को झुठलाओगे?13
12. मूल में शब्द आला' प्रयुक्त हुआ है, जिसे आगे की आयतों में बार-बार दोहराया गया है और हमने विभिन्न जगहों पर इसका अर्थ अलग-अलग शब्दों में अदा किया है। इसलिए आरंभ ही में यह समझ लेना चाहिए कि इस शब्द में अर्थ की कितनी व्यापकता है और इसके अर्थ में क्या-क्या मतलब शामिल हैं। 'आला' का अर्थ भाषाविद् और टीकाकारों ने आम तौर से 'नेमतों' में बयान किया है। इस शब्द के अन्य अर्थ 'कुदरत' या 'कुदरत के चमत्कार' या 'कुदरत के कमालात' हैं। तीसरे अर्थ हैं विशेषताएँ, सद्गुण और कमालात और महानता। इस अर्थ को भाषाविदों और टीकाकारों ने बयान नहीं किया है, मगर अरब-काव्य में यह शब्द अत्यधिक इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। [इन सब अर्थों ] को दृष्टि में रखकर हमने शब्द 'आला' को उसके व्यापक अर्थ में लिया है और हर जगह सन्दर्भ को देखते हुए उसका जो अर्थ सर्वाधिक उपयुक्त नजर आया, वही अनुवाद में लिख दिया है। लेकिन कुछ स्थानों पर एक ही जगह 'आला' के कई मतलब हो सकते हैं और अनुवाद की मजबूरियों से हमको उसका एक ही मतलब लेना पड़ा है, क्योंकि उर्दू भाषा में कोई शब्द इतना व्यापक नहीं है कि वह इन सारे अर्थों को एक ही समय में अदा कर सके।
13. झुठलाने से तात्पर्य वे अनेक रवैये हैं जो अल्लाह की नेमतों और उसकी क़ुदरत के करिश्मों और उसके सद्गुणों के मामले में लोग अपनाते हैं, जैसे (1) कुछ लोग सिरे से यही नहीं मानते कि इन सारी चीज़ों का पैदा करनेवाला अल्लाह है। यह खुला-खुला झुठलाना है। (2) कुछ दूसरे लोग यह तो मानते हैं कि इन चीजों का पैदा करनेवाला अल्लाह ही है, मगर उसके साथ दूसरों को खुदाई में शरीक ठहराते हैं और उसकी नेमतों का शुक्रिया दूसरों को अदा करते हैं। (3) कुछ और लोग हैं जो सारी चीज़ों का पैदा करनेवाला और तमाम नेमतों का देनेवाला अल्लाह ही को मानते हैं, मगर इस बात को नहीं मानते कि उन्हें अपने पैदा करनेवाले और पालनेवाले के आदेशों का पालन और उसकी हिदायतों की पैरवी करनी चाहिए। यह कृतघ्नता और नेमत के इंकार का एक और रूप है। (4) कुछ और लोग ज़बान से न नेमत का इंकार करते हैं, न नेमत देनेवाले के हक को झुठलाते हैं, मगर व्यावहारिक रूप से उनके जीवन और एक इंकार करनेवाले और झुठलानेवाले के जीवन में कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं होता। यह मुख से झुठलाना नहीं, बल्कि व्यवहार एवं कर्म से झुठलाना है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ كَٱلۡفَخَّارِ ۝ 13
(14) इंसान को उसने ठीकरी जैसे सूखे सड़े गारे से बनाया14
14. इंसान की पैदाइश के शुरुआती मरहले जो क़ुरआन मजीद में बयान किए गए हैं, उनका सिलसिलेवार क्रम विभिन्न स्थानों के विवरणों को जमा करने से यह मालूम होता है- (1) 'तुराब' अर्थात् मिट्टी या ख़ाक, (2) 'तीन' अर्थात् गारा जो मिट्टी में पानी मिलाकर बनाया जाता है, (3) 'तीने-लाज़िब' अर्थात् लैसदार गारा, अर्थात् वह गारा जिसके अन्दर काफ़ी देर तक पड़े रहने की वजह से लेस पैदा हो जाए। (4) 'ह-म-इम मस्नून', वह गारा जिसके अन्दर गंध पैदा हो जाए, (5) 'सल सालिम मिन ह म इम मस्तूनिन कल फ्खार' अर्थात वह सड़ा हुआ गारा जो सूखने के बाद पकी हुई मिट्टी के ठीकरे जैसा हो जाए। (6) 'बशर' जो मिट्टी के इस अन्तिम रूप से बनाया गया, जिसमें अल्लाह ने अपनी खास रूह फूंकी, जिसको फरिश्तों से सज्दा कराया गया और जिसकी जाति से उसका जोड़ा पैदा किया गया। (7) फिर आगे उसकी नस्ल एक तुच्छ पानी जैसे सत से चलाई गई है, जिसके लिए दूसरी जगहों पर नुत्फ़ा (वीर्य) का शब्द प्रयोग किया गया है। इन मरहलों के लिए क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों को क्रमवार देखिए। । सूरा-3 आले इमरान, आयत 59; सूरा-32 सज्दा, आयत-7; सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात, आयत 11; सूरा-55 अर रहमान, आयत 14; सूरा-38 साँद, आयत 71-72, सूरा-4 अन-निसा, आयत 1; सूरा-32 अस-सज्दा, आयत 8; सूरा-22 अल-हज्ज, आयत 5]
وَخَلَقَ ٱلۡجَآنَّ مِن مَّارِجٖ مِّن نَّارٖ ۝ 14
(15) और जिन्न को आग की लपट से पैदा किया।15
15. मूल शब्द हैं 'मिन मारिजिम मिन नारि'। नार से तात्पर्य एक विशेष प्रकार की आग है, न कि वह आग जो लकड़ी या कोयला जलाने से पैदा होती है। और 'मारिज' का अर्थ है खालिस शोला, जिसमें धुआँ न हो। इस कथन का अर्थ यह है कि जिस तरह पहला इंसान मिट्टी से बनाया गया, फिर पैदाइश के अलग-अलग मरहलों से गुजरते हुए उस मिट्टी की लुबदी ने गोश्त-पोस्त के जिंदा इंसान का रूप धारण किया और आगे उसका नस्ल वीर्य से चली, उसी तरह पहला जिन्न ख़ालिस आग के शोले, या आग की लपट से पैदा किया गया और बाद में उसकी औलाद से जिनों की नस्ल पैदा हुई। उस पहले जिन्न की हैसियत जिन्नों के मामले में वही है जो आदम की हैसियत इंसानों के मामले में है। इस आयत से दो बातें मालूम हुई- एक यह कि जिन्न केवल आत्मा नहीं है, बल्कि एक विशुद्ध प्रकार के भौतिक देह ही हैं, मगर चूँकि वे विशुद्ध आग के अंशों से बने हैं, इसलिए वे मिट्टी के अंशों से बने हुए इंसानों को नज़र नहीं आते। दूसरी बात इससे यह मालूम हुई कि जिन्न न सिर्फ़ यह कि इंसान से बिल्कुल अलग प्रकार के प्राणी हैं, बल्कि उनका रचना-तत्त्व ही इंसान, हैवान, पेड़-पौधे और जड़ पदार्थ आदि से बिल्कुल भिन्न है। यह आयत स्पष्ट शब्दों में उन लोगों के विचार की ग़लती सिद्ध कर रही है जो जिन्नों को इंसानों ही की एक क़िस्म कहते हैं। (और व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-51 अज़-ज़ारियात, टिप्पणी 53]
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 15
(16) अत: ऐ जिन्न और इंसान ! तुम अपने रब की कुदरत के किन-किन चमत्कारों16 को झुठलाओगे?
16. यहाँ मौक़े के लिहाज़ से 'आला' का अर्थ 'क़ुदरत के चमत्कार' अधिक उपयुक्त है, लेकिन इसमें नेमत का पहलू भी मौजूद है। मिट्टी से इंसान जैसी और आग के शोले से जिन्न जैसी आश्चर्यजनक प्राणियों को अस्तित्त्व प्रदान करना जिस तरह खुदा की क़ुदरत (सामर्थ्य) का एक अजीब करिश्मा है, उसी तरह इन दोनों प्राणियों के लिए यह बात एक बड़ी नेमत भी है कि अल्लाह ने उनको न सिर्फ अस्तित्त्व प्रदान किया, बल्कि हर एक की बनावट ऐसी रखी और हर एक के अन्दर ऐसी शक्तियाँ और क्षमताएँ रख दीं, जिनसे ये दुनिया में बड़े-बड़े काम करने के योग्य हो गए। फिर यही चीज़ अल्लाह के सद्गुणों का प्रमाण भी बनती है। आख़िर ज्ञान, तत्त्वदर्शिता, कृपाशीलता और कमाल दर्जे की रचना-शक्ति के बिना इस शान के इंसान और जिन्न कैसे पैदा हो सकते थे? संयोग से होनेवाली घटनाएँ और अपने आप काम करनेवाले अंधे-बहरे प्राकृतिक क़ानून पैदाइश के ये चमत्कार कैसे दिखा सकते हैं?
رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ وَرَبُّ ٱلۡمَغۡرِبَيۡنِ ۝ 16
(17) दोनों पूरब और दोनों पश्चिम, सबका मालिक और पालनहार वही है।17
17. दो पूर्वो और दो पश्चिमों से तात्पर्य जाड़े के छोटे से छोटे दिन और गर्मी के बड़े से बड़े दिन के पूरब और पश्चिम भी हो सकते हैं और पृथ्वी के दोनों अर्ध गोलार्डों के पूरब और पश्चिम भी। अल्लाह को इन दोनों पूरबों और पश्चिमों का रब कहने के कई अर्थ हैं। एक यह कि उसी के आदेश से सूरज के निकलने और डूबने और साल के बीच में उनके निरन्तर बदले रहने की यह व्यवस्था स्थापित है। दूसरा यह कि ज़मीन और सूरज का मालिक और शासक वही है, वरना इन दोनों के रब अलग-अलग होते तो ज़मीन पर सूरज के निकलने और डूबने की यह नियमित व्यवस्था कैसे स्थापित हो सकती थी और सदैव कैसे स्थापित रह सकती थी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 17
(18) अत: ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों18 को झुठलाओगे?
18. यहाँ भी यद्यपि संदर्भ और प्रसंग की दृष्टि से 'आला' का अर्थ 'कुदरत' अधिक नुमायाँ महसूस होता है, मगर साथ ही 'नेमत' और सद्गुणों का पहलू भी इसमें मौजूद है।
مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ يَلۡتَقِيَانِ ۝ 18
(19) दोनों समुद्रों को उसने छोड़ दिया कि आपस में मिल जाएँ,
بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٞ لَّا يَبۡغِيَانِ ۝ 19
(20) फिर भी उनके बीच एक परदा पड़ा है जिसको वे पार नहीं करते।19
19. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-25 फ़ुरक़ान, टिप्पणी 68
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 20
(21) अत: ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन करिश्मों को झुठलाओगे?
يَخۡرُجُ مِنۡهُمَا ٱللُّؤۡلُؤُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 21
(22) इन समुद्रों से मोती और मूंगे20 निकलते हैं।21
20. मूल अरबी में शब्द मरजान प्रयुक्त हुआ है। हज़रत इब्ने-अब्बास (रजि०) [आदि] का कथन है कि इससे तात्पर्य छोटे मोती हैं और हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि यह शब्द अरबी में मूंगों के लिए प्रयुक्त होता है।
21. मूल अरबी शब्द हैं' यख़रुजु मिन्हुमा' (इन दोनों समुद्रों से निकलते हैं।) आपत्ति करनेवाले इसपर आपत्ति करते हैं कि मोती और मूंगे तो सिर्फ़ खारे पानी से निकलते हैं, फिर यह कैसे कहा गया कि मीठे और खारे दोनों पानियों से ये चीजें निकलती हैं? इसका उत्तर यह है कि समुद्रों में मीठा और खारा दोनों तरह का पानी जमा हो जाता है, इसलिए चाहे यह कहा जाए कि दोनों के योग से ये चीजें निकलती हैं या यह कहा जाए कि वे दोनों पानियों से निकलती हैं, बात एक ही रहती है, और कुछ अजब नहीं कि नई खोजों से यह सिद्ध हो कि इन चीज़ों की पैदाइश समुद्र में उस जगह होती है जहाँ उसकी तह से मीठे पानी के स्रोत फूटते हैं और उनकी पैदाइश और परवरिश में दोनों तरह के पानियों के मेल का कुछ दख़ल है। बहरैन में, जहाँ बहुत पुराने समय से मोती निकाले जा रहे हैं, वहाँ तो यह बात सिद्ध है कि खाड़ी की तह में मीठे पानी के स्रोत मौजूद हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 22
(23) अत: ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन कमालात को झुठलाओगे? 22
22. यहाँ भी हालाँकि 'आला' में क़ुदरत का पहलू नुमायाँ है, लेकिन नेमत और सद्गुणों का पहलू भी छिपा नहीं है।
وَلَهُ ٱلۡجَوَارِ ٱلۡمُنشَـَٔاتُ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 23
(24) और ये जहाज़ उसी के हैं,23 जो समुद्र में पहाड़ों की तरह ऊँचे उठे हुए हैं।
23. अर्थात् उसी की क़ुदरत से बने हैं। उसी ने इंसान को यह क्षमता दी कि जहाज़ बनाए और उसी ने पानी को उन नियमों का पाबन्द बनाया जिनके कारण उफनते समुद्रों के सीने पर पहाड़ जैसे जहाज़ों का चलना संभव हुआ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 24
(25) अत: ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब के किन-किन उपकारों को झुठलाओगे? 24
24. यहाँ आला' में नेमत और उपकार का पहलू उभरा हुआ है, मगर ऊपर की व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुदरत और सद्गुणों का पहलू भी इसमें मौजूद है।
كُلُّ مَنۡ عَلَيۡهَا فَانٖ ۝ 25
(26) हर चीज़25 जो इस ज़मीन में है, मिट जानेवाली है
25. यहाँ से आयत 30 तक जिन्नों और इंसानों को दो तथ्यों से अवगत कराया गया है। एक यह कि न तुम स्वयं अमर हो और न वह सरोसामान हमेशा रहनेवाला है जिससे तुम इस दुनिया में लाभान्वित हो रहे हो। अमर और हमेशा रहनेवाली तो सिर्फ उस बुजुर्ग और बरतर की हस्ती है जिसकी महानता और श्रेष्ठता पर यह जगत् गवाही दे रहा है और जिसकी कृपा से तुमको ये सब नेमतें मिली हुई हैं। अब अगर तुममें से कोई व्यक्ति 'हम जो कुछ हैं, दूसरा कोई नहीं' के घमंड में ग्रस्त होना है तो यह सिर्फ उसकी संकीर्णता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसपर इन दोनों प्राणियों को सावधान किया गया है, यह है कि प्रतापवान अल्लाह के सिवा दूसरी जिन हस्तियों को भी तुम उपास्य, संकट मोचक और ज़रूरतें पूरी करनेवाला बनाते हो, उनमें से कोई तुम्हारी किसी ज़रूरत को पूरी नहीं कर सकता, वे बेचारे तो स्वयं अपनी ज़रूरतों के लिए अल्लाह के मुहताज हैं। इनके हाथ तो स्वयं उसके आगे फैले हुए हैं। वे स्वयं अपने संकट भी अपने हाथों नहीं दूर कर सकते तो तुम्हारा संकट क्या दूर करेंगे।
وَيَبۡقَىٰ وَجۡهُ رَبِّكَ ذُو ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 26
(27) और सिर्फ़ तेरे रब का प्रतापवान और उदार स्वरूप ही बाक़ी रहनेवाला है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 27
(28) अतः ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?26
26. यहाँ सन्दर्भ बता रहा है कि 'आला' का शब्द कमालात के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नश्वर प्राणियों में जो कोई भी बड़ाई के दंभ में ग्रस्त होता है और अपनी झूटी खुदाई को अमिट समझकर ऐंठता और अकड़ता है. वह अगर ज़बान से नहीं तो अपने कर्म से ज़रूर जहानों के रब की महानता और प्रताप को झुठलाता है।
يَسۡـَٔلُهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ كُلَّ يَوۡمٍ هُوَ فِي شَأۡنٖ ۝ 28
(29) ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं, सब अपनी आवश्यकतों की पूर्ति की उसी से माँग कर रहे हैं । नित्य वह नई शान में है।27
27. अर्थात् हर वक्त जगत् के इस कारखाने में उसकी क्रियाशीलता का एक न समाप्त होनेवाला सिलसिला जारी है और वह असीम व असंख्य चीजें नई से नई बनावट और रूप और गुणों के साथ पैदा कर रहा है। उसकी दुनिया कभी एक हाल पर नहीं रहती। हर क्षण उसकी परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं और उसका पैदा करनेवाला हर बार उसे एक नए रूप से क्रमबद्ध करता है जो पिछले तमाम रूपों से भिन्न होता है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 29
(30) अतः ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब के किन-किन प्रशंस्य-गुणों को झुठलाओगे?28
28. यहाँ आला' का अर्थ गुण (सिफ़ात) ही अधिक उचित लगता है। हर व्यक्ति जो किसी भी प्रकार का शिर्क करता है, वास्तव में वह अल्लाह के किसी न किसी गुण को झुठलाता है। जैसे किसी का यह कहना कि फ़ला हज़रत ने मेरी बीमारी दूर कर दी, वास्तव में यह अर्थ रखता है कि अल्लाह सेहत देनेवाला नहीं है, बल्कि वे हज़रत सेहत देनेवाले हैं। इसी तरह हर मुशरिकाना (अनेकेश्वरवादी) अक़ीदा (आस्था) और मुशरिकाना कथन के अन्तिम विश्लेषण का अन्त अल्लाह के गुणों के निषेध पर होता है।
سَنَفۡرُغُ لَكُمۡ أَيُّهَ ٱلثَّقَلَانِ ۝ 30
(31) ऐ ज़मीन के बोझो!29 बहुत जल्द हम तुमसे पूछ-गच्छ के लिए निवृत्त हुए जाते हैं।30
29. मूल में अरबी शब्द 'स-क्र-लान' इस्तेमाल हुआ है। सकल' उस बोझ को कहते हैं जो सवारी पर लदा हुआ हो। 'स-क-लैन' का शाब्दिक अनुवाद होगा, "दो लदे हुए बोझ''। इस जगह यह शब्द जिन्न और इंसान के लिए इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि ये दोनों धरती पर लदे हुए हैं और चूँकि सम्बोधन उन इंसानों और जिन्नों से है जो अपने रब के आज्ञापालन और बन्दगी से हटे हुए हैं, इसलिए उनको 'ऐ ज़मीन के बोझो!' कहकर सम्बोधित किया गया है, मानो स्रष्टा अपनी इन सृष्टि के दोनों नालायक़ गिरोहों से फ़रमा रहा है कि ऐ वे लोगो जो मेरी धरती पर बोझ बने हुए हो, बहुत जल्द मैं तुम्हारी ख़बर लेने के लिए फ़ारिग़ (निवृत्त) हुआ जाता हूँ।
30. इसका यह अर्थ नहीं कि इस समय अल्लाह ऐसा व्यस्त है कि उसे इन अवज्ञाकारियों से पूछ-गछ करने का समय नहीं मिलता। बल्कि इसका अर्थ वास्तव में यह है कि अल्लाह ने एक विशेष कार्यक्रम निश्चित कर रखा है, जिसके अनुसार अभी इंसानों और जिन्नों से अन्तिम पूछ-गछ करने का समय नही आया है, मगर बहुत जल्द वह समय आनेवाला है, जब [वह उनकी ख़बर लेने के लिए फ़ारिश हो जाएगा। इस फ़ारिग़ न होने] की शक्ल बिलकुल ऐसी है जैसे एक व्यक्ति ने अलग-अलग कामों के लिए एक टाइम टेबुल बना रखा हो और उसके अनुसार जिस काम का समय अभी नहीं आया है, उसके बारे में वह कहे कि मैं अभी उस काम के लिए फ़ारिश नहीं हूँ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 31
(32) (फिर देख लेंगे कि) तुम अपने रब के किन-किन उपकारों को झुठलाते हों।31
31. यहाँ आला' को क़ुदरतों के अर्थ में भी लिया जा सकता है। वार्ताक्रम को दृष्टि में रखा जाए तो ये दोनों अर्थ एक-एक लिहाज़ से उचित दिखाई देते हैं। एक अर्थ लिया जाए तो मतलब यह होगा कि आज तुम हमारी नेमतों की नाशुक्रियाँ कर रहे हो और कुफ (अधर्म), शिर्क (अनेकेश्वरवाद), दहरियत (नास्तिकता), फिस्क (अवज्ञा) और नाफरमानी के विभिन्न रवैये अपनाकर तरह-तरह की नमकहरामियाँ किए चले जाते हो, मगर कल जब पूछ-गछ का समय आएगा उस समय हम देखेंगे कि हमारी किस-किस नेमत को तुम संयोग की घटना या अपनी योग्यता का फल या किसी देवी-देवता या बुजुर्ग हस्ती की कृपाओं का करिश्मा सिद्ध करते हो। दूसरा अर्थ लिया जाए तो मतलब यह होगा कि आज तुम क़ियामत और हश्र व नश्र [आदि को असंभव करार देकर उन] का मज़ाक उड़ाते हो, मगर जब हम पूछ-गछ के लिए तुमको घेर लाएँगे और वह सब कुछ तुम्हारे सामने आ जाएगा जिसका आज तुम इंकार कर रहे हो, उस समय हम देखेंगे कि हमारी किस-किस क़ुदरत (सामर्थ्य) को तुम झुठलाते हो।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ إِنِ ٱسۡتَطَعۡتُمۡ أَن تَنفُذُواْ مِنۡ أَقۡطَارِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ فَٱنفُذُواْۚ لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلۡطَٰنٖ ۝ 32
(33) ऐ जिन्न और इंसान के गिरोह! अगर तुम जमीन और आसमानों की सीमाओं से निकल कर भाग सकते हो तो भाग देखो। नहीं भाग सकते। इसके लिए बड़ा ज़ोर चाहिए।32
32. ज़मीन और आसमानों से अभिप्रेत है जगत् या दूसरे शब्दों में खुदा की खुदाई। आयत का अर्थ यह है कि अल्लाह की पकड़ से बच निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। जिस पूछ-गछ की तुम्हें खबर दी जा रही है, उसका समय आने पर तुम चाहे किसी जगह भी हो, हर हाल में पकड़ लाए जाओगे। उससे बचने के लिए तुम्हें ख़ुदा की ख़ुदाई से भाग निकलना होगा और इसका बलबूता तुममें नहीं है। अगर ऐसा घमंड तुम अपने दिल में रखते हो तो अपना ज़ोर लगाकर देख लो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 33
(34) अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को तुम झुठलाओगे?
يُرۡسَلُ عَلَيۡكُمَا شُوَاظٞ مِّن نَّارٖ وَنُحَاسٞ فَلَا تَنتَصِرَانِ ۝ 34
(35) (भागने की कोशिश करोगे तो) तुमपर आग का शोला और धुआँ33 छोड़ दिया जाएगा, जिसका तुम मुक़ाबला न कर सकोगे।
33. मूल में 'शुवाज़' और 'नुहास' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शुवाज़' विशुद्ध शोले और नुहास विशुद्ध धुएँ को कहते हैं । ये दोनों चीजें एक के बाद एक इंसानों और जिन्नों पर उस हालत में छोड़ी जाएँगी, जबकि वे अल्लाह की पूछ-ताछ से बचकर भागने की कोशिश करें।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 35
(36) ऐ जिन्न और इंसान! तुम अपने रब की किन-किन सामथ्र्यों का इंकार करोगे?
فَإِذَا ٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ وَرۡدَةٗ كَٱلدِّهَانِ ۝ 36
(37) फिर (क्या बनेगी उस समय) जब आसमान फटेगा और लाल चमड़े की तरह सुर्ख (लाल) हो जाएगा?34
34. यह क़ियामत के दिन का उल्लेख है। आसमान के फटने से अभिप्रेत है आसमानों के बन्धनों का खुल जाना, जगत् की व्यवस्था का तितर-बितर हो जाना, सितारों और ग्रहों का बिखर जाना। और यह जो फ़रमाया कि आसमान उस समय लाल चमड़े की तरह सुर्ख (लाल) हो जाएगा, इसका अर्थ यह है कि उस भीषण हंगामे के वक्त जो आदमी ज़मीन से आसमान की ओर देखेगा, उसे यूँ महसूस होगा कि जैसे सारे ऊपरी लोक में आग सी लगी हुई है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 37
(38) ऐ जिन्न और इंसान! (उस समय) तुम अपने रब की किन-किन सामयों को झुठलाओगे? 35
35. अर्थात् आज तुम क़ियामत को असम्भव कहते हो, जिसका मतलब यह है कि तुम्हारे नज़दीक अल्लाह इसके बरपा करने की क़ुदरत (सामर्थ्य) नहीं रखता। मगर जब वह बरपा हो जाएगी और अपनी आँखों से तुम सब कुछ देख लोगे, उस समय तुम अल्लाह की किस-किस कुदरत का इंकार करोगे?
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُسۡـَٔلُ عَن ذَنۢبِهِۦٓ إِنسٞ وَلَا جَآنّٞ ۝ 38
(39) उस दिन किसी इंसान और किसी जिन्न से उसका गुनाह पूछने की ज़रूरत36 न होगी?
36. इसकी व्याख्या आगे का यह वाक्यांश कर रहा है कि 'अपराधी वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएंगे।' अर्थ यह है कि उस अपार जनसमूह में जहाँ तमाम अगले-पिछले लोग इकट्ठा होंगे, यह पूछते फिरने की ज़रूरत न होगी कि कौन-कौन लोग अपराधी हैं। न किसी इंसान या जिन्न से यह पूछने की ज़रूरत पेश आएगी कि वह अपराधी है या नहीं। अपराधियों के उतरे हुए चेहरे और उनकी डरी हुई आँखें और उनकी घबराई हुई शक्लें और उनके छूटते हुए पसीने खुद स्वयं ही यह राज़ खोल देने के लिए काफ़ी होंगे कि वे अपराधी हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 39
(40) (फिर देख लिया जाएगा कि) तुम दोनों गिरोह अपने रब के किन-किन उपकारों का इंकार करते हो।37
37. अपराध का वास्तविक आधार क़ुरआन की दृष्टि में यह है कि बन्दा जो अपने रब की नेमतों से लाभांवित हो रहा है, अपने नज़दीक यह समझ बैठे कि ये नेमतें (अनुकंपाएँ) किसी की दी हुई नहीं हैं, बल्कि आप से आप उसे मिल गई हैं या यह कि ये नेमतें ख़ुदा की देन नहीं बल्कि उसकी अपनी योग्यता या सौभाग्य का फल है या यह कि ये हैं तो खुदा की देन, मगर उस खुदा का अपने बन्दे पर कोई हक़ नहीं है, या यह कि ख़ुदा ने स्वयं ये मेहरबानियाँ उसपर नहीं की हैं, बल्कि यह किसी दूसरी हस्ती ने उससे करवा दी हैं। यही वे ग़लत विचार हैं जिनके आधार पर आदमी खुदा से बेनियाज़ (निस्पृह) और उसके आज्ञापालन और बन्दगी से आज़ाद होकर दुनिया में वे कर्म करता है जिनसे खुदा ने मना किया है और वे कर्म नहीं करता जिनका उसने आदेश दिया है। इस दृष्टि से हर अपराध और हर गुनाह अपनी वास्तविकता की दृष्टि से अल्लाह के उपकारों को झुठलाना है, इससे हटकर कि कोई व्यक्ति ज़बान से उनका इंकार करता हो या इकरार। इसी लिए फ़रमाया कि जब तुम लोग अपराधी की हैसियत से गिरफ्तार हो जाओगे, उस वक़्त हम देखेंगे कि तुम हमारे किस-किस उपकार का इंकार करते हो।
يُعۡرَفُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ بِسِيمَٰهُمۡ فَيُؤۡخَذُ بِٱلنَّوَٰصِي وَٱلۡأَقۡدَامِ ۝ 40
(41) अपराधी वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएंगे और उन्हें माथे के बाल और पाँव पकड़-पकड़कर घसीटा जाएगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 41
(42) (उस समय) तुम अपने रब को किन-किन सामथ्‍यों को झुठलाओगे?
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي يُكَذِّبُ بِهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 42
(43) (उस समय कहा जाएगा) यह वही जहन्नम है जिसको अपराधी झूठ ठहराया करते थे।
يَطُوفُونَ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَ حَمِيمٍ ءَانٖ ۝ 43
(44) उसी जहन्नम और खौलते हुए पानी के बीच वे घूमते रहेंगे।38
38. अर्थात् जहन्नम में बार-बार प्यास के मारे उनका बुरा हाल होगा, भाग-भागकर पानी के स्रोतों की ओर जाएँगे, मगर वहाँ खौलता हुआ पानी मिलेगा जिसके पीने से कोई प्यास न बुझेगी। इस तरह जहन्नम और उनके स्रोतों के बीच चक्कर लगाने ही में उनकी उमें बीत जाएँगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 44
(45) फिर अपने रब की किन-किन कुदरतों को तुम झुठलाओगे? 39
39. अर्थात् क्या उस समय भी तुम इसका इंकार कर सकोगे कि ख़ुदा क्रियामत ला सकता है, तुम्हें मौत के बाद दूसरी जिंदगी दे सकता है। तुमसे पूछ-गछ भी कर सकता है और यह जहन्नम भी बना सकता है जिसमें आज तुम सज़ा पा रहे हो?
وَلِمَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ جَنَّتَانِ ۝ 45
(46) और हर उस आदमी के लिए जो अपने रब के सामने पेश होने का डर रखता हो,40 दो बाग़ हैं।41
40. अर्थात् जिसने दुनिया में खुदा से डरते हुए जिंदगी बसर की हो और यह समझते हुए काम किया हो कि एक दिन मुझे अपने रब के सामने खड़ा होना और अपने कर्मों का हिसाब देना है।
41. जन्नत का मूल अर्थ बाग़ है । कुरआन मजीद में कहीं तो उस पूरे लोक को, जिसमें नेक लोग रखे जाएंगे, जन्नत कहा गया है, मानो वह पूरे का पूरा एक बाग है। और कहीं कहा गया है कि उनके लिए जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। इसका अर्थ यह है कि उस बड़े बाग़ में अनगिनत बाग़ होंगे, और यहाँ निश्चित रूप से कहा गया है कि हर नेक आदमी को उस बड़ी जन्नत में दो-दो जन्नतें दी जाएंगी जो उसी के लिए ख़ास होंगी, जिनमें उसके लिए वह कुछ सरोसामान उपलब्ध होगा जिसका उल्लेख आगे आ रहा है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 46
(47) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?42
42. यहाँ से आख़िर तक आला' का शब्द नेमतों के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है और क़ुदरतों (सामर्थ्यो) के अर्थ में भी और एक पहलू इसमें सद्गुणों का भी है। अगर पहला अर्थ लिया जाए तो इस वार्ताक्रम में इस वाक्य को बार-बार दोहराने का मतलब यह होगा कि तुम झुठलाना चाहते हो तो झुठलाते रहो, खुदा के नेक बन्दों को जो उनके रख की ओर से ये नेमतें ज़रूर मिलकर रहेंगी। दूसरा अर्थ लिया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि तुम्हारे नजदीक अल्लाह का जन्नत बनाने पर सामर्थ्यवान होना और उसमें ये नेमतें अपने नेक बन्दों को अता करना असम्भव है तो होता रहे, अल्लाह निश्चय ही इसकी क़ुदरत रखता है और वह यह काम करके रहेगा। तीसरे अर्थ की दृष्टि से इसका मतलब यह है कि अल्लाह को तुम भलाई और बुराई का अन्तर करने में विवश समझते हो, तुम्हारे नज़दीक वह इतनी बड़ी दुनिया तो बना बैठा है, मगर इसमें चाहे कोई बुराई फैलाए या भलाई. उसे इसकी कोई परवाह नहीं। उसके सद्गुणों को आज तुम जितना चाहो झुकला लो, कल जब वह जालिमों को जहन्नम में झोंक देगा और सत्यवादियों को जन्नत में ये सब नेमतें देगा. क्या उस समय भी तुम उसके इन गुणों को झुठला सकोगे?
ذَوَاتَآ أَفۡنَانٖ ۝ 47
(48) हरी-भरी डालियों से भरपूर
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 48
(49) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ تَجۡرِيَانِ ۝ 49
(50) दोनों बागों में दो स्रोत प्रजाहित ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 50
(51) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا مِن كُلِّ فَٰكِهَةٖ زَوۡجَانِ ۝ 51
(52) दोनों बागों में हर फल की दो क़िस्में।43
43. इसका एक मतलब यह हो सकता है कि दोनों बागों के फलों की शान निराली होगी। एक बाग में जाएगा तो एक शान के फल उसकी डालियों में लदे हुए होंगे। दूसरे बाग़ में जाएगा, उसके फलों की शान कुछ और ही होगी। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि इनमें से हर बाग में एक प्रकार के फल जाने-पहचाने होंगे जिनसे वह दुनिया में भी परिचित था, भले ही स्वाद में वे दुनिया के फलों से कितने ही बढ़कर हों, और दूसरे प्रकार के फल और दुर्लभ होंगे जो दुनिया में कभी उसके सपने और कल्पना में भी न आए थे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 52
(53) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ فُرُشِۭ بَطَآئِنُهَا مِنۡ إِسۡتَبۡرَقٖۚ وَجَنَى ٱلۡجَنَّتَيۡنِ دَانٖ ۝ 53
(54) जन्नती लोग ऐसे विज्ञौजों पर तकिए लगा के बैठेंगे जिनके अस्तर दबीज़ (गाढ़े) रेशम के होंगे,44 और बाग़ों की डालियाँ फुलों से झुको पड़ी होंगी।
44. अर्थात् जब उनके अस्तर इस शान के होंगे, तो अनुमान कर लो कि अबरे किस शान के होंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 54
(55) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 55
(56) इन नेमतों के बीच शर्माली निगाहोंवालियाँ होंगी,45 जिन्हें इन जन्नतियों से पहले कभी किसी इंसान या जिन्न ने न छुआ होगा।46
45. यह औरत का वास्तविक गुण है कि वह बेशर्म और बेबाक न हो, बल्कि निगाह में लज्जा रखती हो। इसी लिए अल्लाह ने जन्नत की नेमतों के दर्मियान औरतों का उल्लेख करते हुए सबसे पहले उनकी ख़ूबसूरती की नहीं, बल्कि उनकी लज्जा और सतीत्व (पाकदामनी) की प्रशंसा की है। सुन्दर औरतें तो सह-कल्बों और फ़िल्मी रंगशालाओं में भी जमा हो जाती हैं, और हुस्न के मुक़ाबलों में तो छाँट-छाँटकर एक से एक सुन्दर औरत लाई जाती है, मगर सिर्फ एक बुरी अभिरुचिवाला और बदकिरदार आदमी ही उनसे दिलचस्पी ले सकता है। किसी सज्जन व्यक्ति को वह हुस्न आकर्षित नहीं कर सकता जो प्रत्येक बुरी दृष्टि को नज़ारे के लिए आमंत्रित करे और हर आगोश (आलिंगन) की शोभा बनने के लिए तैयार हो।
46. इसका मतलब यह है कि दुनिया की जिंदगी में चाहे कोई औरत कुँवारी मर गई हो या किसी की पत्नी रह चुकी हो, जवान मरी हो या बूढ़ी होकर दुनिया से विदा हुई हो, आख़िरत में जब ये सब नेक औरतें जन्नत में दाख़िल होंगी तो जवान और कुँवारी बना दी जाएँगी और वहाँ उनमें से जिस औरत को भी किसी नेक मर्द की जीवन संगिनी बनाया जाएगा, वह जन्नत में अपने उस शौहर से पहले किसी और के उपभोग में आई हुई न होगी। इस आयत से एक बात यह भी मालूम हुई कि जन्नत में नेक इंसानों की तरह नेक जिन्न भी दाख़िल होंगे और वहाँ जिस तरह इंसान मर्दो के लिए इंसान औरतें होंगी, उसी तरह जिन्न मर्दो के लिए जिन्न औरतें भी होंगी। दोनों के साथ के लिए उन्हीं के सहजाति जोड़े होंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 56
(57) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
كَأَنَّهُنَّ ٱلۡيَاقُوتُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 57
(58) ऐसी सुन्दर जैसे हीरे और मोती।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 58
(59) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
هَلۡ جَزَآءُ ٱلۡإِحۡسَٰنِ إِلَّا ٱلۡإِحۡسَٰنُ ۝ 59
(60) भलाई का बदला भलाई के सिवा और क्या हो सकता है।47
47. अर्थात् आख़िर यह कैसे संभव है कि जो लोग अल्लाह के लिए दुनिया में उम्र भर अपने मन की इच्छाओं पर पाबन्दियाँ लगाए रहे हों, फ़र्ज़ (कर्तव्य) को फ़र्ज़ जानकर अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी करते रहे हों और बुराई के मुक़ाबले में हर तरह की तकलीफें और परेशानियाँ सहन करके भलाई का समर्थन करते रहे हों, अल्लाह उन्हें कभी इनका बदला न दे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 60
(61) फिर ऐ जिन्नो और इंसानो! अपने रब के किन-किन प्रशंस्य-गुणों का तुम इंकार करोगे?48
48. स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जन्नत और उसके इनाम और प्रतिदान का इंकारी है, वह वास्तव में अल्लाह के बहुत-से सद्गुणों का इंकार करता है। वह या तो उसे अंधा और बहरा समझता है जिसे कुछ ख़बर ही नहीं कि उसकी ख़ुदाई में कौन उसकी प्रसन्नता के लिए जान, माल, मन (नफ़्स) और मेहनतों की क़ुर्बानियाँ दे रहा है या उसके नज़दीक वह चेतनारहित और गुणों से अपरिचित है जिसे भले और बुरे की कोई पहचान नहीं। या फिर उसके अपूर्ण विचार में वह विवश और मजबूर है जिसकी निगाह में नेकी का मूल्य चाहे कितना ही हो, मगर उसका बदला देना उसके बस ही में नहीं है। इसी लिए फ़रमाया कि जब आख़िरत में नेकी का अच्छा बदला तुम्हारी आँखों के सामने दे दिया जाएगा, क्या उस समय भी तुम अपने रब के सद्गुणों का इंकार कर सकोगे?
وَمِن دُونِهِمَا جَنَّتَانِ ۝ 61
(62) और उन दो बाग़ों के अलावा दो बाग और होंगे।49
49. मूल शब्द हैं 'मिन दूनिहिमा जन्नतान' (उन दो बागों के अलावा दो बाग़ और होंगे) में 'दून' का शब्द अरबी भाषा में तीन विभिन्न अर्थों के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थ की इस भिन्नता के कारण इन शब्दों में एक सम्भावना यह है कि हर जन्नती को पहले के दो बागों के अलावा ये दो बाग़ और दिए जाएंगे, [इस स्थिति में] शायद पहले दो बाग निवास स्थान होंगे और दूसरे दो बाग़ विहार-स्थल (तफरीहगाह)। दूसरी सम्भावना यह है कि ये दो बाग़ ऊपर के दोनों बागों की तुलना में स्थान या देर्जे में कुछ कम होंगे। इस स्थिति में मतलब यह होगा कि पहले दो बारा अल्लाह के निकटवर्ती बन्दों के लिए हैं, और ये दो बाग़ दाएँवालों के लिए। इस दूसरी सम्भावना को जो चीज़ शक्ति पहुँचाती है वह यह है कि सूरा-56 अल-वाक़िआ में नेक इंसानों की दो किस्में बताई गई हैं, एक आगेवाले (साबिक़ीन), जिन्हें निकटवर्ती भी कहा गया है, दूसरे दाएँवाले (अस्हाबुल यमीन) जिन्हें 'दाएँ बाजूवाले' (असहाबुल मैमनः) के नाम से भी याद किया गया है। और इन दोनों के लिए दो जन्नतों के गुण अलग-अलग बताए गए हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 62
(63) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُدۡهَآمَّتَانِ ۝ 63
(64) घने हरे-भरे बाग।50
50. इन बागों की प्रशंसा में अरबी शब्द 'मुद्हाम्मतान' प्रयुक्त हुआ है। 'मुद्हाम्मः' ऐसी घनी हरियाली को कहते हैं जो अत्यन्त हरे-भरे होने की वजह से कालिमा-युक्त हो गई हो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 64
(65) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ نَضَّاخَتَانِ ۝ 65
(66) दोनों बागों में दो स्रोत फ़व्वारों की तरह उबलते हुए।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 66
(67) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا فَٰكِهَةٞ وَنَخۡلٞ وَرُمَّانٞ ۝ 67
(68) उनमें भरपूर फल और खजूरें और अनार।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 68
(69) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ خَيۡرَٰتٌ حِسَانٞ ۝ 69
(70) इन नेमतों के बीच सुचरिता और सुन्दर पत्नियाँ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 70
(71) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
حُورٞ مَّقۡصُورَٰتٞ فِي ٱلۡخِيَامِ ۝ 71
(72) खेमों में ठहराई हुई हूरें (अप्सराएं, परम रूपवती स्त्रियाँ)51
51. हूर की व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्पणी 28-29 और टीका सूरा-44 अद-दुख़ान, टिप्पणी 42 | खेमों से तात्पर्य शायद उस तरह के खेमे हैं जैसे अमीरों और रईसों के लिए सैरगाहों (पर्यटन स्थलों) पर लगाए जाते हैं। अधिक सम्भावना यह है कि जन्नतवालों की पलियाँ उनके साथ उनके महलों में रहेंगी और उनके विहार-स्थलों में जगह-जगह खेमे लगे होंगे, जिनमें हो उनके लिए आनन्द और अभिरुचि की सामग्री जुटाएँगी। हमारे इस अनुमान की बुनियाद यह है कि पहले चरित्रवान और रूपवती पत्नियों का उल्लेख किया जा चुका है। इसके बाद अब हूरों का उल्लेख अलग करने का अर्थ यह है कि ये उन पलियों से अलग प्रकार की औरतें होंगी। इस अनुमान को अधिक बल उस हदीस से मिलता है जो हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) से रिवायत की गई है। वह फ़रमाती हैं कि "मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा : ऐ अल्लाह के रसूल! दुनिया की औरतें बेहतर हैं या हरे? नबी (सल्ल०) ने उत्तर दिया : दुनिया की औरतों को हूरों पर वही श्रेष्ठता प्राप्त है जो अबरे को अस्तर पर होती है। मैंने पूछा : किस कारण से? फ़रमाया : इसलिए कि इन औरतों ने नमाजें पढ़ी हैं, रोजे रखे हैं और इबादतें की हैं।" (तबरानी)
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 72
(73) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे ?
لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 73
(74) इन जन्नतियों से पहले कभी किसी इंसान या जिन्न ने उनको न छुआ होगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 74
(75) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ رَفۡرَفٍ خُضۡرٖ وَعَبۡقَرِيٍّ حِسَانٖ ۝ 75
(76) वे जन्नती हरी कालीनों और उत्कृष्ट और असाधारण बिछौनों52 पर तकिए लगाकर बैठेंगे।
52. मूल में अरबी शब्द 'अबक्ररी' प्रयुक्त हुआ है। अरब अज्ञानता के किस्से-कहानियों में जिन्नों की राजधानी का नाम अबकर था, जिसे हम उर्दू-हिन्दी में परिस्तान' कहते हैं। इसी की निस्बत से अरब के लोग हर उत्तम, अपूर्व और दुर्लभ चीज़ को 'अबक़री' कहते थे, मानो वह परिस्तान की चीज़ है जिसका मुकाबला इस दुनिया में सामान्य चीजें नहीं कर सकती। यहाँ तक कि उनके मुहावरे में ऐसे आदमी को भी अबक्ररी कहा जाता था जो असाधारण योग्यताओं का स्वामी हो। इसी लिए यहाँ अरबवालों को जन्नत के सरो-सामान की असामान्य उत्तमता और अच्छाई का आभास कराने के लिए अबक़री का शब्द प्रयोग किया गया है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 76
(77) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
تَبَٰرَكَ ٱسۡمُ رَبِّكَ ذِي ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 77
(78) बड़ी बरकतवाला है तेरे प्रतापवान और उदार रब का नाम।