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سُورَةُ الطُّورِ

52. अत-तूर

(मक्का में उतरी, आयतें 49)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वत-तूर' (क़सम है तूर की) से लिया गया है। यहाँ 'तूर’ शब्‍द एक पर्वत विशेष के लिए आया है जिसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी दी गई थी।

उतरने का समय

विषय-वस्तुओं के आन्तरिक प्रमाणों से अनुमान होता है कि यह भी मक्का मुअज्‍़ज़मा के उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-51 अज़-ज़ारियात उतरी थी।

विषय और वार्ता

आयत 1 से लेकर आयत 28 तक का विषय आख़िरत (परलोक) है। सूरा-51 अज़-ज़ारियाल में इसकी सम्भावना, अनिवार्यता और इसके घटित होने के प्रमाण दिए जा चुके हैं, इसलिए यहाँ इनको दोहराया नहीं गया है, अलबत्ता आख़िरत की गवाही देनेवाले कुछ तथ्यों और लक्षणों की क़सम खाकर पूरे जोर के साथ कहा गया है कि वह निश्चय ही घटित होकर रहेगी। फिर यह बताया गया कि जब वह सामने आ पड़ेगी तो उसके झुठलानेवालों का परिणाम क्या होगा और इसे मानकर ईशपरायणता (तक़वा) की नीति अपनानेवाले किस प्रकार अल्लाह के अनुग्रह और उसकी कृपाओं से सम्मानित होंगे। इसके बाद आयत 29 से सूरा के अन्त तक में क़ुरैश के सरदारों की उस नीति की आलोचना की गई है जो वे अल्लाह के रसूल (सल्ल.)के आह्वान के मुक़ाबले में अपनाए हुए थे। वे आपको कभी काहिन (ज्योतिषी), कभी मजनून (उन्मादग्रस्त) और कभी कवि घोषित करते थे। वे आपपर इलज़ाम लगाते थे कि यह क़ुरआन आप स्वयं गढ़-गढ़कर ख़ुदा के नाम से पेश कर रहे हैं। वे बार-बार व्यंग्य करते थे कि ख़ुदा की पैग़म्बरी के लिए मिले भी तो बस यही साहब मिले। वे आपके आहवान और प्रचार-प्रसार पर अत्यन्त अप्रसन्नता और खिन्नता व्यक्त करते थे। वे आपस में बैठ-बैठकर सोचते थे कि आपके विरुद्ध क्या चाल ऐसी चली जाए जिससे आपकी यह दावत (आहवान) समाप्त हो जाए। अल्लाह ने उनकी इसी नीति की आलोचना करते हुए निरन्तर एक के बाद एक कुछ प्रश्न किए हैं जिनमें से हर प्रश्न या तो उनके किसी आक्षेप का उत्तर है या उनकी किसी अज्ञानता की समीक्षा। फिर कहा है कि इन हठधर्म लोगों को आपकी पैग़म्बरी स्वीकार करने के लिए कोई चमत्कार दिखाना बिलकुल व्यर्थ है। आयत 28 के बाद कुछ आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया है कि इन विरोधियों और शत्रुओं के आरोपों और आक्षेपों की परवाह किए बिना अपने आह्वान और लोगों को सचेत करने का काम निरन्तर जारी रखें, और अन्त में भी आपको ताकीद की गई कि धैर्य के साथ इन रुकावटों का मुक़ाबला किए चले जाएँ, यहाँ तक कि अल्लाह का फ़ैसला आ जाए। इसके साथ आपको तसल्ली दी गई है कि आपके रब (प्रभु-पालनहार) ने आपको सत्य के शत्रुओं के मुक़ाबले में खड़ा करके अपने हाल पर छोड़ नहीं दिया है, बल्कि वह निरन्तर आपकी देख-रेख कर रहा है। जब तक उसके फ़ैसले की घड़ी आए, आप सब कुछ सहन करते रहें और अपने प्रभु की स्तुति और उसके महिमा-गान से वह शक्ति प्राप्त करते रहें जो ऐसी परिस्थितियों में अल्लाह का काम करने के लिए अपेक्षित होती है।

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سُورَةُ الطُّورِ
52. अत-तूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
وَٱلطُّورِ
(1) क़सम है तूर की1,
1. 'तूर' का शाब्दिक अर्थ पहाड़ है, और 'अत-तूर' से तात्पर्य वह ख़ास पहाड़ है जिसपर अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को नुबूवत (पैग़म्बरी) प्रदान की थी।
وَكِتَٰبٖ مَّسۡطُورٖ ۝ 1
(2-3) और एक ऐसी स्पष्ट किताब की जो पतली खाल में लिखी हुई है,2
2. प्राचीन काल में जिन किताबों और लेखों को लंबे समय तक सुरक्षित रखना होता था, उन्हें काग़ज के बजाय हिरन की खाल पर लिखा जाता था। यह खाल ख़ास तौर से लिखने ही के लिए नरम और पतली या झिल्ली के रूप में तैयार की जाती थी और पारिभाषिक शब्द में उसे 'रक्क' कहा जाता था। अहले-किताब आम तौर से तौरात, ज़बूर, इंजील और नबियों के ग्रन्थों को इसी 'रक्क' पर लिखा करते थे। यहाँ स्पष्ट किताब से तात्पर्य यही पवित्र ग्रंथों का संग्रह है जो अहले किताब के यहाँ मौजूद था। उसे स्पष्ट किताब' इसलिए कहा गया है कि वह दुर्लभ न था, पढ़ा जाता था और आसानी से मालूम किया जा सकता था कि इसमें क्या लिखा है।
فِي رَقّٖ مَّنشُورٖ ۝ 2
0
وَٱلۡبَيۡتِ ٱلۡمَعۡمُورِ ۝ 3
(4) और बसे हुए घर की3,
3. 'आबाद घर' से तात्पर्य हज़रत हसन बसरी (रह०) के नज़दीक बैतुल्लाह (अल्लाह का घर) अर्थात् ख़ाना काबा है जो कभी हज और उमरा और तवाफ़ (परिक्रमा) और ज़ियारत (दर्शन) करनेवालों से खाली नहीं रहता। और हज़रत अली (रजि०) और इब्ने-अब्बास (रजि०) आदि इससे मुराद वह आबाद घर लेते हैं जिसका उल्लेख मेराज के सिलसिले में नबी (सल्ल०) ने किया है, जिसकी दीवार से आप (सल्ल०) ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को टेक लगाए देखा था।
وَٱلسَّقۡفِ ٱلۡمَرۡفُوعِ ۝ 4
(5) और ऊँची छत की4,
4. ऊँची छत से तात्पर्य आसमान है जो ज़मीन पर एक 'कुब्बे' (गुम्बद) की तरह छाया हुआ नज़र आता है, और यहाँ यह शब्द पूरे ऊपरी लोक के लिए प्रयुक्त हुआ है। (व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-50 क़ाफ़, टिप्पणी 7)
وَٱلۡبَحۡرِ ٱلۡمَسۡجُورِ ۝ 5
(6) और लहरें मारते हुए समुद्र की5,
5. मूल में शब्द अल-बहरिल मस्जूर' प्रयुक्त हुआ है। इसके कई अर्थ बताए गए हैं, लेकिन इनमें से तीन अर्थ हो लिए जा सकते हैं । एक तो महबूस ( कैद किए हुए) के अर्थ में, जिसका मतलब यह है कि समुद्र को रोककर रखा गया है, ताकि उसका पानी ज़मीन में उतर कर ग़ायब भी न हो जाए और ख़ुश्की पर छा भी न जाए कि धरती के सब निवासी उसमें डूब जाएँ। दूसरा मख़लूत (मिश्रित) के अर्थ में, जिसका मतलब यह है कि उसके अन्दर मीठा और खारा, गर्म और ठंडा हर तरह का पानी आकर मिल जाता है। और तीसरा लबरेज़ (लबालब) और मौजज़न (लहरें मारने) के अर्थ में।
إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ لَوَٰقِعٞ ۝ 6
(7-8) कि तेरे रब का अज़ाब ज़रूर घटित होनेवाला है, जिसे कोई हटानेवाला नहीं।6
6. यह है वह वास्तविकता जिसपर इन पाँच चीज़ों की क़सम खाई गई है। रब के अज़ाब से तात्पर्य आख़िरत है। अब विचार कीजिए कि उसके घटित होने पर वे पाँच चीजें किस प्रकार प्रमाण बनती हैं, जिनकी क़सम खाई गई है: (i) तूर वह जगह है जहाँ एक दबी और पिसी हुई क़ौम को उठाने और एक दमनकारी और ज़ालिम क़ौम को गिराने का फैसला किया गया और यह फैसला प्राकृतिक नियम (Physical Law) के आधार पर नहीं, बल्कि नैतिक नियम (Moral Law) और बदला दिए जाने के क़ानून (Law of Retribution) के आधार पर था। इसलिए आख़िरत के पक्ष में ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में तूर को एक निशानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। तात्पर्य यह है कि बनी इस्राईल [के इतिहास की यह घटना,] जिसका फ़ैसला एक सुनसान रात में तूर पर्वत पर किया गया था, मानव-इतिहास में इस बात का एक अत्यन्त स्पष्ट उदाहरण है कि सृष्टि के साम्राज्य का स्वभाव किस प्रकार मानव जैसी एक बुद्धि और अधिकारवाली एक मखलूक के मामले में नैतिक पूछगछ और कर्मों के बदले का तक़ाज़ा करता है, और इस तक़ाज़े को पूरा करने के लिए हिसाब का एक ऐसा दिन ज़रूरी है, जिसमें पूरी मानव जाति को इकट्ठा करके उसका हिसाब किताब लिया जाए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-51 ज़ारियात, टिप्पणी 21) (ii) पवित्र ग्रन्थों के संग्रह की क़सम इस कारण खाई गई है कि जगत के स्वामी ख़ुदा की ओर से दुनिया में जितने भी नबी आए और जो किताबें भी वे लाए, उन सब ने आख़िरत के आने की ख़बर दी है। (iii) बैते-मामूर' की क़सम इसलिए खाई गई है कि ख़ासतौर से अरबवालों के लिए उस ज़माने में खाना-काबा की इमारत एक ऐसी खुली निशानी थी जो अल्लाह के पैग़म्बरों की सत्यता पर और इस वास्तविकता पर कि सर्वोच्च अल्लाह की अत्यन्त उच्च कोटि की तत्त्वदर्शिता और प्रबल शक्ति उनकी पीठ पर है, खुली गवाही दे रही थी। इन आयतों के उतरने के ढाई हज़ार वर्ष पहले बिलकुल बंजर और निर्जन पहाड़ों में [हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के हाथों निर्मित होनेवाला यह काबा जिस शान और बड़ाई, जिस भलाई व बरकत और जिस लोकप्रियता का मालिक था,] उससे बढ़कर क्या चीज़ इस बात का प्रमाण हो सकती थी कि ख़ुदा के पैग़म्बर हवाई बातें नहीं किया करते। उनकी आँखें वह कुछ देखती हैं जो दूसरों को नजर नहीं आतीं। वे बजाहिर ऐसे काम करते हैं जिनको एक समय के लोग देखें तो दीवानापन समझें और सदियों बाद के लोग उन्हीं को देखकर उनकी समझ-बूझ पर दंग रह जाएँ। इस शान के लोग जब एक स्वर में हर ज़माने में यह सूचना देते रहे हैं कि क़ियामत आएगी और दोबारा उठाया और जमा किया जाएगा तो इसे दीवानों को बड़ समझना ख़ुद दीवानगी है। (iv) ऊँची छत (आसमान) और (v) लहरें मारते समुद्र की क़सम इसलिए खाई गई है कि ये दोनों चीजें अल्लाह की तत्त्वदर्शिता और उसके सामर्थ्य का प्रमाण हैं। और इसी तत्त्वदर्शिता और सामर्थ्य से आखिरत की सम्भावना भी सिद्ध होती है और उसका घटित होना और घटित होने की अनिवार्यता भी। आसमान के प्रमाण होने पर हम इससे पहले टीका सूरा-50 काफ़, टिप्पणी 7 में वार्ता कर चुके हैं। रहा समुद्र, तो जो व्यक्ति भी इंकार का पेशगी फ़ैसला किए बिना उसको विचार की दृष्टि से देखेगा, उसका दिल यह गवाही देगा कि ज़मीन पर पानी के इतने बड़े भंडार का उपलब्ध हो जाना अपने आप में एक ऐसी कारीगरी है जो किसी संयोगिक घटना का नतीजा नहीं हो सकती। फिर उसके साथ इतनी अनगिनत तत्त्वदर्शिताएँ जुड़ी हुई हैं कि संयोगवश ऐसी तत्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था स्थापित हो जाना सम्भव नहीं है। अब अगर वास्तव में यह इस बात की अकाट्य गवाही है कि एक तत्त्वदर्शी और सामर्थ्यवान खुदा ने इंसान को ज़मीन पर आबाद करने के लिए दूसरे अनगिनत प्रबन्धों के साथ यह कोलाहल करता हुआ समुद्र भी इस शान का पैदा किया है, तो वह व्यक्ति बड़ा मूर्ख होगा जो उस तत्वदर्शी से इस नादानी की आशा रखे कि वह इस समुद्र से इंसान की खेतियाँ सींचने और उसके ज़रिये से इंसान को रोज़ी देने का प्रबन्ध तो कर देगा, मगर उससे कभी यह न पूछेगा कि तूने मेरी रोज़ी खाकर उसका हक़ कैसे अदा किया। और वह इस समुद्र के सीने पर अपने जहाज़ दौड़ाने की शक्ति तो इंसान को प्रदान कर देगा, मगर उससे कभी यह न पूछेगा कि यह जहाज़ तूने हक और सच्चाई के साथ दौड़ाए थे या इनके ज़रिये से दुनिया में डाके मारता फिरता था। इसी तरह यह सोचना भी एक बहुत बड़ी मूर्खता की बात होगी कि जिस सर्वशक्तिमान के सामर्थ्य का एक मामूली-सा करिश्मा इस भव्य समुद्र की पैदाइश है, वह इंसान को एक बार पैदा करने के बाद ऐसा विवश हो जाता है कि फिर उसे पैदा करना चाहे भी तो नहीं कर सकता।
مَّا لَهُۥ مِن دَافِعٖ ۝ 7
0
يَوۡمَ تَمُورُ ٱلسَّمَآءُ مَوۡرٗا ۝ 8
(9-10) वह उस दिन घटित होगा जब आसमान बुरी तरह डगमगाएगा7 और पहाड़ उड़े उड़े फिरेंगे।8
7. मूल अरबी शब्द हैं 'तमूरुस्समाउ मौरा' । मौर अरबी भाषा में घूमने, औंटने, फड़कने, झूम-झूमकर चलने, चक्कर खाने और बार-बार आगे-पीछे हरकत करने के लिए बोला जाता है। क़ियामत के दिन आसमान की जो हालत होगी, इसे इन शब्दों में बयान करके यह आभास दिलाया गया है कि उस दिन ऊपरी लोक की सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी और देखनेवाला जब आसमान की ओर देखेगा तो उसे यूँ महसूस होगा कि वह जमा-जमाया चित्र जो हमेशा एक ही शान से नज़र आता था, बिगड़ चुका है और हर और एक बेचैनी फैली हुई है।
8. दूसरे शब्दों में, धरती की वह पकड़, जिसने पहाड़ों को जमा रखा है. ढीली पड़ जाएगी और वह अपनी जड़ों से उखड़कर वायुमंडल में इस तरह उड़ने लगेंगे जैसे बादल उड़ते फिरते हैं।
وَتَسِيرُ ٱلۡجِبَالُ سَيۡرٗا ۝ 9
0
فَوَيۡلٞ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 10
(11-12) तबाही है उस दिन उन झुठलानेवालों के लिए जो आज खेल के रूप में अपनी हुज्जत-बाज़ियों में लगे हुए हैं।9
9. मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) से क़ियामत और आखिरत और जन्नत व दोजख की खबरें सुनकर हँसी का विषय बना रहे हैं और गम्भीरतापूर्वक उनपर विचार करने के बजाय सिर्फ़ तफरीह (मनोरंजन) के तौर पर उनपर बातें छाँट रहे हैं। आख़िरत पर उनकी वार्ताओं का अभिप्राय सच्चाई को समझने की कोशिश नहीं है, बल्कि एक खेल है जिससे ये मन बहलाते हैं और इन्हें कुछ होश नहीं है कि वास्तव में ये किस अंजाम की ओर चले जा रहे हैं।
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي خَوۡضٖ يَلۡعَبُونَ ۝ 11
0
يَوۡمَ يُدَعُّونَ إِلَىٰ نَارِ جَهَنَّمَ دَعًّا ۝ 12
(13) जिस दिन उन्हें धक्के मार-मारकर जहन्नम की आग की ओर ले चला जाएगा,
هَٰذِهِ ٱلنَّارُ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 13
(14) उस समय उनसे कहा जाएगा कि "यह वही आग है जिसे तुम झुठलाया करते थे।
أَفَسِحۡرٌ هَٰذَآ أَمۡ أَنتُمۡ لَا تُبۡصِرُونَ ۝ 14
(15) अब बताओ, यह जादू है या तुम्हें सूझ नहीं रहा है?10
10. अर्थात् दुनिया में जब रसूल तुम्हें इस जहन्नम के अज़ाब से डराते थे तो तुम कहते थे कि यह सिर्फ़ शब्दों की जादूगरी है जिससे हमें मूर्ख बनाया जा रहा है। अब बोलो, यह जहन्नम जो तुम्हारे सामने है यह उसी जादू का चमत्कार है या अब भी तुम्हें न सूझा कि वास्तव में उसी जहन्नम से तुम्हारा पाला पड़ गया है जिसकी ख़बर तुम्हें दी जा रही थी?
ٱصۡلَوۡهَا فَٱصۡبِرُوٓاْ أَوۡ لَا تَصۡبِرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡۖ إِنَّمَا تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) जाओ, अब झुलसो इसके अन्दर, तुम चाहे सब्र करो या न करो, तुम्हारे लिए बराबर है, तुम्हें वैसा ही बदला दिया कर्म कर रहे थे।"
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَنَعِيمٖ ۝ 16
(17) डर रखनेवाले लोग11 वहाँ बागों और नेमतों में होंगे,
فَٰكِهِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ وَوَقَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 17
(18) मज़े ले रहे होंगे उन चीज़ों से जो उनका रब उन्हें देगा, और उनका रब उन्हें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा लेगा।12
12. किसी व्यक्ति के जन्नत में दाखिल होने का उल्लेख कर देने के बाद फिर दोज़ख़ से उसके बचाए जाने का उल्लेख करने की प्रत्यक्षतः कोई ज़रूरत नहीं रहती, मगर कुरआन मजीद में कई जगहों पर ये दोनों बातें अलग-अलग इसलिए बयान की गई हैं कि आदमी का दोज़ख़ से बच जाना अपने आप में एक बहुत बड़ी नेमत है। और यह कथन कि "अल्लाह ने उनको दोज़ख़ के अज़ाब से बचा लिया" वास्तव में संकेत है इस वास्तविकता की ओर कि आदमी का दोज़ख़ से बच जाना अल्लाह की मेहरबानी ही से संभव है, वरना इंसानी कमजोरियाँ प्रत्येक व्यक्ति के कर्म में ऐसी-ऐसी ख़राबियाँ पैदा कर देती हैं कि अगर अल्लाह अपनी उदारता और मेहरबानी से उनको नज़रअंदाज़ न करे और सख़्त हिसाव किताब पर उतर आए, तो कोई भी उसकी पकड़ से नहीं छूट सकता। इसी लिए जन्नत में दाखिल होना अल्लाह की जितनी बड़ी नेमत है, उससे कुछ कम नेमत यह नहीं है कि आदमी दोजख से बचा लिया जाए।
كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ هَنِيٓـَٔۢا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) (उनसे कहा जाएगा) खाओ और पियो मज़े से13 अपने उन कर्मों के बदले में जो तुम करते रहे हो।
13. यहाँ मज़े से' का शब्द अपने भीतर बहुत बड़ा अर्थ रखता है। जन्नत में इंसान को जो कुछ मिलेगा, किसी मशक्कत और मेहनत के बिना मिलेगा। उसके समाप्त हो जाने या उसके अंदर कमी हो जाने की कोई आशंका न होगी। इसके लिए इंसान को कुछ ख़र्च करना नहीं पड़ेगा। वह ठीक उसकी इच्छा और उसकी मन की पसन्द के अनुसार होगा। जितना चाहेगा और जब चाहेगा हाज़िर कर दिया जाएग। मेहमान के रूप में वह वहाँ न ठहरेगा कि कुछ तलब करते हुए शर्माए, बल्कि सब कुछ उसके अपने पिछले कर्मों का बदला और उसकी अपनी पिछली कमाई का फल होगा। उसके खाने-पीने से किसी रोग का ख़तरा भी न होगा। वह भूख मिटाने और जिंदा रहने के लिए नहीं, बल्कि केवल स्वाद प्राप्त करने के लिए होगा और आदमी जितना आनन्द उससे उठाना चाहे, उठा सकेगा बिना इसके कि उससे कोई बदहज़मी हो। और वह भोजन किसी प्रकार की गन्दगी पैदा करनेवाली भी न होगी। इसलिए दुनिया में मजे से' खाने-पीने का जो अर्थ है, जन्नत में मज़े से खाने-पीने का अर्थ उससे कहीं अधिक व्यापक, उच्च और श्रेष्ठ है।
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ سُرُرٖ مَّصۡفُوفَةٖۖ وَزَوَّجۡنَٰهُم بِحُورٍ عِينٖ ۝ 19
(20) वे आमने-सामने बिछे हुए ततों पर तकिए लगाए बैठे होंगे और हम सुन्दर आँखोंवाली हूरें, (अति रूपवती औरतें) उनसे ब्याह देंगे।14
14. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ्फात, टिप्पणी 28-29; सूरा-44 दुखान, टिप्पणी 42
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱتَّبَعَتۡهُمۡ ذُرِّيَّتُهُم بِإِيمَٰنٍ أَلۡحَقۡنَا بِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَمَآ أَلَتۡنَٰهُم مِّنۡ عَمَلِهِم مِّن شَيۡءٖۚ كُلُّ ٱمۡرِيِٕۭ بِمَا كَسَبَ رَهِينٞ ۝ 20
(21) जो लोग ईमान लाए हैं और उनकी सन्तान भी ईमान के किसी दर्जे में उनके पद-चिह्नों पर चली है, उनकी उस सन्तान को भी हम (जन्नत में) उनके साथ मिला देंगे और उनके कर्म में कोई घाटा उनको न देंगे।15 हर व्यक्ति अपनी कमाई के बदले रेहन है।16
15. यह विषय इससे पहले सूरा-13 रअद, आयत 23 और सूरा-40 मोमिन, आयत 8 में भी आ चुका है। मगर यहाँ दोनों जगहों से भी अधिक एक बड़ी खुशखबरी सुनाई गई है, और वह यह कि अगर औलाद ईमान के किसी न किसी दर्जे में भी अपने बाप-दादों के पद-चिह्नों का पालन करती रही हो, तो चाहे अपने कर्म की दृष्टि से वह उस दर्जे की अधिकारी न हो जो बाप-दादा को उनके बेहतर ईमान और कर्म के आधार पर प्राप्त होगा, फिर भी यह औलाद अपने बाप-दादों के साथ मिला दी जाएगी और वह जन्नत में उनके साथ ही रखी जाएगी। इसपर और यह तसल्ली दी गई है कि औलाद से मिलाने के लिए बाप-दादों का दर्जा घटाकर उन्हें नीचे नहीं उतारा जाएगा, बल्कि बाप-दादों से मिलाने के लिए औलाद का दर्जा बढ़ाकर उन्हें ऊपर पहुंचा दिया जाएगा।
16. यहाँ रेहन' का रूपक बड़ा मार्मिक है। ख़ुदा ने इंसान को जो सामग्रियाँ, साधन, जो शक्तियाँ और क्षमताएँ और जो अधिकार दुनिया में दिए हैं, वे मानो एक क़र्ज़ है जो मालिक ने अपने बन्दे को दिया है, और इस क़र्ज़ की जमानत के रूप में बन्दे का नफ़्स (मन) ख़ुदा के पास रेहन (गिरवी) है। बन्दा इस सरो-सामान और इन शक्तियों और अधिकारों को सही ढंग से प्रयोग में ला करके अगर वह नेकियाँ कमाए जिनसे यह कर्ज़ अदा हो सकता हो, तो वह रेहन रखे हुए अपने मन को छुड़ा लेगा, वरना उसे ज़ब्त कर लिया जाएगा। [अर्थ यह है कि जिस तरह कोई व्यक्ति कर्ज अदा किए बिना रेहन नहीं छुड़ा सकता उसी तरह कोई व्यक्ति फ़र्ज अदा किए बिना अपने आपको अल्लाह की पकड़ से नहीं बचा सकता। औलाद अगर स्वयं नेक नहीं है तो बाप-दादा की नेकी उसके रेहन को नहीं छुड़ा सकती।
وَأَمۡدَدۡنَٰهُم بِفَٰكِهَةٖ وَلَحۡمٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 21
(22) हम उनको हर तरह के फल और गोश्त,17 जिस चीज़ को भी उनका जी चाहेगा, ख़ूब दिए चले जाएंगे।
17. इस आयत में जन्नतवालों को अबाध रूप से हर प्रकार का गोश्त दिए जाने का उल्लेख है और सूरा-56 वाक़िआ, आयत 21 में फ़रमाया गया है कि परिदों के गोश्त से उनका सत्कार किया जाएगा। यह गोश्त किस प्रकार का होगा, हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं है, मगर जिस तरह क़ुरआन के कुछ स्पष्टीकरणों और कुछ हदीसों में जन्नत के दूध [और शहद और शराब] के बारे में बताया गया है कि अल्लाह की सामर्थ्य से ये सारी चीजें स्रोतों से निकलेंगी और नहरों में बहेंगी। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि जन्नत का गोश्त भी जानवरों का वध करके प्राप्त किया हुआ न होगा, बल्कि यह भी प्राकृतिक रूप से पैदा होगा, जो ख़ुदा धरती के तत्त्वों से सीधे-तौर पर दूध और शहद और शराब पैदा कर सकता है, उसकी सामर्थ्य-शक्ति से यह असंभव नहीं है कि उन्हीं तत्त्वों से हर तरह का स्वादिष्ट गोश्त पैदा कर दे जो जानवरों के गोश्त से भी अपने स्वाद में बढ़कर हो। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्पणी 25; टीका सूरा-47 मुहम्मद, टिप्पणी 21-23)
يَتَنَٰزَعُونَ فِيهَا كَأۡسٗا لَّا لَغۡوٞ فِيهَا وَلَا تَأۡثِيمٞ ۝ 22
(23) वे एक-दूसरे से शराब का जाम लपक-लपककर ले रहे होंगे जिसमें न बकवास होगी, न दुश्चरित्रता।18
18. अर्थात् वह शराब नशा पैदा करनेवाली न होगी कि उसे पीकर वे मदमस्त हों और बेहूदा बकवास करने लगें या गालम-ग्लोच और धौल-घप्पे पर उतर आएँ, या उस तरह की गन्दी हरकतें करने लगें जैसी दुनिया की शराब पीनेवाले करते हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-37 साफ़्फात, टिप्पणी 27)
۞وَيَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ غِلۡمَانٞ لَّهُمۡ كَأَنَّهُمۡ لُؤۡلُؤٞ مَّكۡنُونٞ ۝ 23
(24) और उनकी सेवा में वे लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे जो उन्हीं (की सेवा) के लिए ख़ास होंगे,19 ऐसे सुन्दर जैसे छिपाकर रखे हुए मोती।
19. यह बात ध्यान देने की है कि मूल अरबी में 'ग़िलमानुहुम' (उनके लड़के) नहीं कहा, बल्कि 'ग़िलमानुल्लहुम' (उनकी सेवा के लिए लड़के) कहा है। अगर 'ग़िलमानुहुम' कहा जाता तो इससे यह सोचा जा सकता था कि दुनिया में उनके जो सेवा करनेवाले थे, वे जन्नत में भी उनके सेवक बना दिए जाएँगे। गिलमानुल्लहुम' कहकर इस विचार की गुंजाइश बाक़ नहीं रहने दी गई। यह शब्द इस बात को स्पष्ट कर देता है कि ये वे लड़के होंगे जो जन्नत में उनकी सेवा के लिए ख़ास कर दिए जाएंगे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्पणी 26)
وَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 24
(25) ये लोग आपस में एक-दूसरे से (दुनिया में गुज़रे हुए) हालात पूछेगे।
قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا قَبۡلُ فِيٓ أَهۡلِنَا مُشۡفِقِينَ ۝ 25
(26) ये कहेंगे कि हम पहले अपने घरवालों में डरते हुए जीवन बिताते थे,20
20. अर्थात् हम वहाँ ऐश में पड़े हुए और अपनी दुनिया में मग्न होकर ग़फ़लत की जिंदगी नहीं बिता रहे थे, बल्कि हर समय हमें यह धड़का लगा रहता था कि कहीं हमसे कोई ऐसा काम न हो जाए जिसपर ख़ुदा के यहाँ हमारी पकड़ हो। यहाँ ख़ास तौर से अपने घरवालों के बीच डरते हुए जिंदगी बसर करने का उल्लेख इसलिए किया गया है कि आदमी सबसे ज़्यादा जिस कारण से गुनाहों में लिप्त होता है, वह अपने बाल-बच्चों को ऐश कराने और उनकी दुनिया बनाने की चिन्ता है।
فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَوَقَىٰنَا عَذَابَ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) अन्ततः अल्लाह ने हमपर अनुग्रह किया और हमें झुलसा देनेवाली हवा21 के अज़ाब से बचा लिया।
21. मूल अरबी में शब्द 'समूम' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ अत्यधिक गर्म हवा हैं। इससे तात्पर्य लू कि‍ वे लपटे हैं जो दोज़ख़ से उठ रही होंगी।
إِنَّا كُنَّا مِن قَبۡلُ نَدۡعُوهُۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡبَرُّ ٱلرَّحِيمُ ۝ 27
(28) हम पिछली ज़िंदगी में उसी से दुआएँ माँगते थे। वह वास्तव में बड़ा ही उपकारी और दयावान है।
فَذَكِّرۡ فَمَآ أَنتَ بِنِعۡمَتِ رَبِّكَ بِكَاهِنٖ وَلَا مَجۡنُونٍ ۝ 28
(29) अत: ऐ नबी! तुम नसीहत किए जाओ, अपने रब के अनुग्रह से न तुम काहिन हो और न मजनून (दीवाने) ।22
22. आख़िरत की तस्वीर पेश करने के बाद अब वार्ता का रुख मक्का के इस्लाम-विरोधियों की उन हठधर्मियों की ओर फिर रहा है, जिससे वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत का मुक़ाबला कर रहे थे। वहाँ सम्बोधन प्रत्यक्ष में तो नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में आपके माध्यम से ये बातें मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सुनाना अभीष्ठ हैं। उनके सामने जब [आप सल्ल० अपनी दावत और अल्लाह की वाणी पेश करते थे] तो उनके सरदार और धर्म-गुरु और दुराचारी आप (सल्ल०) की इन बातों पर गंभीरता के साथ न स्वयं विचार करते थे, न यह चाहते थे कि आम लोग इनकी ओर ध्यान दें। इसलिए वे आप (सल्ल.) के ऊपर कभी यह व्यंग्य करते थे कि आप काहिन (ज्योतिषि) हैं और कभी यह कि आप (सल्ल०) मजनून (उन्मादी) हैं और कभी यह कि आप (सल्ल०) कवि हैं। इसपर फ़रमाया जा रहा है कि ऐ नबी! वास्तव में सच्चाई तो वही कुछ है जो सूरा के शुरू से यहाँ तक बयान की गई है। अब अगर ये लोग इन बातों पर तुम्हें काहिन और मजनून कहते हैं तो परवाह न करो और खुदा के बन्दों को ग़फ़लत से चौंकाने और सत्य से ख़बरदार करने का काम करते चले जाओ, क्योंकि ख़ुदा की कृपा से न तुम काहिन हो, न मजनून।
أَمۡ يَقُولُونَ شَاعِرٞ نَّتَرَبَّصُ بِهِۦ رَيۡبَ ٱلۡمَنُونِ ۝ 29
(30) क्या ये लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति कवि है जिसके लिए हम समय पलटने का इन्तिज़ार कर रहे हैं ?23
23. अर्थात् हम इंतिज़ार में हैं कि इस व्यक्ति पर कोई आफ़त आए और किसी तरह इससे हमारा पीछा छुटे ।
قُلۡ تَرَبَّصُواْ فَإِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُتَرَبِّصِينَ ۝ 30
(31) इनसे कहो, अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।24
24. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि मैं भी देखता हूँ कि तुम्हारी यह आरजू पूरी होती है या नहीं। दूसरा यह कि मैं भी इंतिज़ार में हूँ कि शामत मेरी आती है या तुम्हारी।
أَمۡ تَأۡمُرُهُمۡ أَحۡلَٰمُهُم بِهَٰذَآۚ أَمۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 31
(32) क्या इनकी बुद्धि इन्हें ऐसी ही बातें करने के लिए कहती है ? या वास्तव में ये दुश्मनी में सीमा से आगे बढ़े हुए लोग हैं ?25
25. इन संक्षिप्त वाक्यों में विरोधियों के सारे प्रोपगंडे की हवा निकाल दी गई है। तर्क का सार यह है कि ये क़ुरैश के सरदार और बड़े लोग बहुत बुद्धिमान बने फिरते हैं, मगर क्या इनकी बुद्धि यही कहती है कि जो व्यक्ति कवि नहीं है उसे कवि कहो, जिसे सारी क़ौम एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में जानती है उसे मजनून कहो और जिस आदमी का 'कहानत' (ज्योतिष) से कोई दूर-दूर का सम्बन्ध भी नहीं है, उसे खामाखाह काहिन करार दो। फिर अगर बुद्धि ही के आधार पर ये लोग बात कहते, तो कोई एक बात कहते, बहुत-सी परस्पर विरोधी बातें तो एक साथ नहीं कह सकते थे। एक व्यक्ति आख़िर एक ही समय में कवि, मजनून और काहिन कैसे हो सकता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-7 आराफ़, टिप्पणी 144; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 3; सूरा-17 बनी इस्राईल, टिप्पणी 53-54; सूरा-26 शुअरा, टिप्पणी 130-131, 140, 142, 143, 144)
أَمۡ يَقُولُونَ تَقَوَّلَهُۥۚ بَل لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 32
(33) क्या ये कहते हैं कि इस आदमी ने यह क़ुरआन स्वयं गढ़ लिया है? असल बात यह है कि ये ईमान नहीं लाना चाहते।26
26. दूसरे शब्दों में, इस कथन का अर्थ यह है कि कुरैश के जो लोग कुरआन को मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी रचना कहते हैं, स्वयं उनका दिल यह जानता है कि यह आप (सल्ल०) का कलाम (वाणी) नहीं हो सकता। अत: साफ़ और सीधी बात यह है कि क़ुरआन को आप (सल्ल०) की रचना बतानेवाले वास्तव में ईमान नहीं लाना चाहते, इसलिए वे तरह-तरह के झूठे बहाने घड़ रहे हैं जिनमें से एक बहाना यह भी है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 21; सूरा-25 फ़ुरक़ान, टिप्पणी 12; सूरा-28 क्रसस, टिप्पणी 64; सूरा-29 अनकबूत, टिप्पणी 88-89; सूरा सज्दा, टिप्पणी 1-4; सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, टिप्पणी 54; सूरा-46 अहकाफ़, टिप्पणी 8-10)
فَلۡيَأۡتُواْ بِحَدِيثٖ مِّثۡلِهِۦٓ إِن كَانُواْ صَٰدِقِينَ ۝ 33
(34) अगर ये अपनी इस बात में सच्चे हैं तो इसी शान का एक कलाम (वाणी) बना लाएँ।27
27. अगर तुम इसे इंसानी कलाम (वाणी) कहते हो तो इस दर्जे का कोई कलाम लाकर दिखाओ जिसकी रचना किसी इंसान ने की हो। यह चुनौती, न सिर्फ़ क़ुरैश को बल्कि, तमाम दुनिया के इंकारियों को सबसे पहले इस आयत में दी गई थी। इसके बाद तीन बार मक्का मुअज्जमा में और फिर अन्तिम बार मदीना मुनव्वरा में उसे दोहराया गया। (देखिए सूरा-10 यूनुस, आयत 38; सूरा-11 हूद; आयत 13, सूरा-17 बनी इस्राईल, आयत 88; सूरा-2 बक़रा, आयत 23 1) मगर कोई उसका उत्तर देने का न उस समय साहस कर सका था, न उसके बाद आज तक किसी का यह दुस्साहस हुआ कि क़ुरआन के मुकाबले में किसी इंसानी रचना को ले आए। संक्षेप में वे कुछ बड़ी-बड़ी विशेषताएँ नीचे लिखी जा रही हैं, जिनके कारण क़ुरआन पहले भी मोजज़ा (दैवी चमत्कार) था और आज भी मोजज़ा है- (i) जिस भाषा में कुरआन मजीद अवतरित हुआ है, उसके साहित्य का वह सर्वोत्तम और सम्पूर्ण नमूना है। वाणी इतनी प्रभावपूर्ण है कि कोई भाषाविद् उसे सुनकर सर धुने बिना नहीं रह सकता, यहाँ तक कि इंकारी और विरोधी की आत्मा भी मस्त हो उठती है। 14 सौ वर्ष बीतने के बाद भी आज तक यह किताब अपनी भाषा के साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नमूना है, जिसके बराबर तो दूर की बात, जिसके क़रीब भी अरबी भाषा की कोई किताब अपना साहित्यिक मूल्य नहीं रख पाती। यही नहीं, बल्कि यह किताब अरबी भाषा को इस तरह पकड़कर बैठ गई है कि 14 सदियाँ बीत जाने पर भी सुभाषिता का आदर्श वही है जो इस किताब ने क़ायम कर दिया था, हालाँकि इतनी मुद्दत में भाषाएँ बदलकर कुछ से कुछ हो जाती हैं। लेकिन यह केवल कुरआन की ताक़त है जिसने अरबी भाषा को अपनी जगह से हिलने न दिया। उसका साहित्य आज भी अरबी का आदर्श साहित्य है और लेखन और भाषण आज भी सर एवं सुन्दर भाषा वही मानी जाती है, जो 14 सौ वर्ष पहले क़ुरआन में प्रयुक्त हुई थी। क्या दुनिया में किसी भाषा में कोई इंसानी रचना इस शान की है? (ii) यह दुनिया की एक मात्र किताब है जिसने मानव-जाति के विचार, चरित्र, सभ्यता और जीवन-शैली पर इतने विस्तार, इतनी गहराई और इतनी व्यापकता के साथ प्रभाव डाला है कि दुनिया में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। पहले इसके प्रभाव ने एक क़ौम को बदला और फिर उस क़ौम ने उठकर दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से को बदल डाला। कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं है जो इतनी क्रान्तिकारी सिद्ध हुई हो। (iii) जिस विषय पर यह किताब वार्ता करती है, वह एक अति व्यापक विषय है, जिसका क्षेत्र आदि से अन्त तक पूरी सृष्टि पर छाया हुआ है। वह सृष्टि की वास्तविकता और उसकी शुरुआत और अंजाम और उसकी व्यवस्था और संविधान पर वार्ता करती है। वह बताती है कि इंसान के लिए चिन्तन और आचरण का सही रास्ता क्या है जो वास्तविकता से पूरी अनुकूलता रखता है और ग़लत रास्ते क्या हैं जो वास्तविकता से टकराते हैं? वह सही रास्ते की ओर केवल इशारा करके ही नहीं रह जाती, बल्कि उस रास्ते पर चलने के लिए जीवन की एक सम्पूर्ण व्यवस्था की रूप-रेखा प्रस्तुत करती है, जिसमें विश्वास (धारणाएँ), नैतिकता, मन की शुद्धि, इबादत, सामाजिकता, सभ्यता, संस्कृति, अर्थव्यस्था, राजनीति, अदालत, क़ानून तात्पर्य यह कि मानव-जीवन के हर पहलू से सम्बद्ध एक अत्यन्त परस्पर सम्बद्ध विधान बयान कर दिया गया है। इसके अलावा वह पूरे विस्तार के साथ बताती है कि इस सही रास्ते की पैरवी करने और उन ग़लत रास्तों पर चलने के क्या नतीजे इस दुनिया में हैं और क्या नतीजे दुनिया की वर्तमान व्यवस्था समाप्त होने के बाद एक-दूसरे लोक में निकलनेवाले हैं। वह इस दुनिया के समाप्त होने और दूसरा लोक बरपा होने की अति विस्तृत स्थिति बयान करती है। इस विस्तृत विषय पर जो वार्ता इस किताब में की गई है वह इस हैसियत से है कि इसका लेखक वास्तविकता का सीधे तौर पर ज्ञान रखता है, उसकी दृष्टि आदिकाल से अन्तकाल तक सब कुछ देख रही है, तमाम तथ्य उसपर स्पष्ट हैं । सृष्टि और इंसान की जो परिकल्पना वह पेश करता है, वह तमाम मूर्त वस्तुओं और घटनाओं का पूर्ण स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है और ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में शोध की बुनियाद बन सकती है। दर्शन और विज्ञान और समाजशास्त्र की समस्त आत्यान्तिक मस्याओं एवं प्रश्नों के समाधान इस वाणी में मौजूद है और इन सबके बीच ऐसा तार्किक संबंध है कि पर एक पूर्ण सम्बद्ध और चिंतन प्रणाली स्थापित होती है। फिर व्यावहारिक रूप से जो मार्गदर्शन उसने जीवन के हर पहलू के बारे में इंसान को दिया है, वह केवल अत्यन्त बुद्धिसंगत और अत्यन्त पवित्र ही नहीं बल्कि 14 सौ वर्ष से धरती के अलग-अलग भागों में अनगिनत इंसान व्यावहारिक रूप से उसका पालन कर रहे हैं और अनुभव ने उसको सर्वोत्तम सिद्ध किया है। क्या इस शान की कोई इंसानी रचना दुनिया में मौजूद है या कभी मौजूद रही है, जिसे इस किताब के मुक़ाबले में लाया जा सकता हो? (iv) यह किताब पूरी की पूरी एक ही वक़्त में लिखकर दुनिया के सामने प्रस्तुत नहीं कर दी गई थी, बल्कि कुछ प्रारम्भिक निर्देशों के साथ एक सुधार आन्दोलन का आरंभ किया गया था और इसके बाद तेईस साल तक वह आन्दोलन जिन-जिन मरहलों से गुज़रता रहा, उनके हालात और उनकी ज़रूरतों के अनुसार इसके अंश उस आन्दोलन के महानायक के मुख से कभी लम्बे व्याख्यानों और कभी संक्षिप्त वाक्यों के रूप में अदा होते रहे। फिर इस मिशन के पूरा होने पर विभिन्न समयों में दिए जानेवाले ये अंश उस पूर्ण किताब के रूप में संगृहीत करके दुनिया के सामने रख दिए गए, जिसे 'कुरआन' का नाम दिया गया है। आन्दोलन के महानायक का बयान है कि ये व्याख्यान और वाक्य उसके अपने तैयार किए हुए नहीं हैं, बल्कि जगत् के स्वामी की ओर से उसपर अवतरित हुए हैं। अगर कोई व्यक्ति उन्हें स्वयं उस महानायक का तैयार किया हुआ बताता है तो वह दुनिया के पूरे इतिहास से कोई उदाहरण ऐसा पेश करे कि किसी इंसान ने सालों-साल तक निरन्तर एक ज़बरदस्त सामूहिक आन्दोलन का स्वतः संचालन करते हुए कभी एक उपदेशक और चरित्र-शिक्षक के रूप में, कभी एक उत्पीडित वर्ग के नेता के रूप में, कभी एक राज्य के शासक के रूप में, कभी एक युद्धरत सेना के सेनापति के रूप में, कभी एक विजेता के रूप में, कभी एक धर्म-विधाता और क़ानून बनानेवाले के रूप में, तात्पर्य यह है कि प्रायः भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और समयों में बहुत-सी अलग-अलग हैसियतों से जो विभिन्न व्याख्यान दिए हों या बातें कही हों, वे जमा होकर एक पूर्ण सम्बद्ध और प्रसंगबद्ध और सारगर्भित बना दे, उनमें कहीं कोई टकराव और विरोधाभास न पाया जाए, उनमें शुरू से आख़िर तक एक ही केन्द्रीय विचार और चिन्तन-क्रम काम करता नज़र आए। (v) जिस मार्गदर्शक (महानायक) की ज़बान पर ये व्याख्यान और वाक्य जारी हुए थे, वह मानव समाज ही का एक व्यक्ति था। उसकी बातचीत और व्याख्यानों की भाषा और शैली को लोग अच्छी तरह जानते थे। हदीसों में उनका एक बड़ा हिस्सा अब भी सुरक्षित है जिसे बाद के अरबी भाषा जाननेवाले लोग पढ़कर स्वयं आसानी से देख सकते हैं कि उस मार्गदर्शक की अपनी वर्णनशैली क्या थी? उसके सहभाषी लोग उस समय भी स्पष्ट रूप से महसूस करते थे और आज भी अरबी भाषा के जाननेवाले यह महसूस करते हैं कि इस किताब की भाषा और इसकी शैली उस मार्गदर्शक की भाषा और उसको शैली से बहुत भिन्न है। प्रश्न यह है कि क्या दुनिया में कोई इंसान कभी इस बात पर समर्थ हुआ है या हो सकता है कि वर्षों तक दो बिलकुल ही भिन्न-भिन्न शैलियों में वार्ता करने का कष्ट निभाता चला जाए और कभी यह रहस्य न खुल सके कि ये दो भिन्न शैलियाँ वास्तव में एक ही व्यक्ति की हैं? (vi) वह मार्गदर्शक (महानायक) इस आन्दोलन को चलाने के दौरान में विभिन्न परिस्थितियों से दोचार होता रहा। विभिन्न परिस्थितियों में एक इंसान की भावनाएँ स्पष्ट है कि एक जैसी नहीं रह सकतीं। उस मार्गदर्शक ने इन भिन्न भिन्न अवसरों पर स्वयं अपनी निजी हैसियत से जब कभी बात की, उसमें उन भावनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है जो ऐसे अवसरों पर इंसान के मन में पैदा होते हैं। लेकिन ख़ुदा की ओर से आई हुई वह्य के रूप में इन भिन्न भिन्न परिस्थितियों में जो वाणी उसके मुख से सूनी कार्ड वह मानवीय भावनाओं से बिल्कुल खाली है। (vii) जो विस्तृत और व्यापक ज्ञान इस किताब में पाया जाता है, वह उस काल के अरब और रोम और यूनान और ईरानवासी तो दूर इस इक्कीसवीं सदी के महान विद्वानों में से भी किसी के पास नहीं है। आज स्थिति यह है कि दर्शन और विज्ञान और समाजशास्त्रों की किसी एक शाखा के अध्ययन में अपनी उम्र खपा देने के बाद आदमी को पता चलता है कि ज्ञान के उस विभाग की आत्यान्तिक समस्याएँ क्या हैं, और फिर जब वह गहरी दृष्टि से कुरआन को देखता है तो उसे मालूम होता है कि इस किताब में उन समस्याओं का एक स्पष्ट समाधान मौजूद है। यह मामला किसी एक ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि उन तमाम ज्ञान-विज्ञानों के सिलसिले में सही है जो सृष्टि और इंसान से कोई ताल्लुक रखते हैं। कैसे सोचा जा सकता है कि 14 सौ वर्ष पहले अरब के रेगिस्तानों में एक अनपढ़ को ज्ञान-विज्ञान के हर पहलू पर इतनी व्यापक दृष्टि प्राप्त थी और उसने मूल समस्या पर चिंतन-मनन करके उसका एक स्पष्ट और निश्चित जवाब सोच लिया था? क़ुरआन के मोजज़ा होने के यद्यपि और भी कई कारण हैं, लेकिन केवल इन कुछ कारणों ही पर अगर आदमी विचार करे तो उसे मालूम हो जाएगा कि क़ुरआन का मोजज़ा होना जितना क़ुरआन के उतरने के समय में स्पष्ट उससे कहीं अधिक आज स्पष्ट है, और अगर अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत तक यह अधिक स्पष्ट होता चला जाएगा।
أَمۡ خُلِقُواْ مِنۡ غَيۡرِ شَيۡءٍ أَمۡ هُمُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 34
(35) क्या ये किसी पैदा करनेवाले के बिना स्वयं पैदा हो गए हैं? या ये स्वयं अपने स्रष्टा हैं ?
أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ ۝ 35
(36) या ज़मीन और आसमानों को इन्होंने पैदा किया है? असल बात यह है कि ये विश्वास नहीं रखते?28
28. इस आयत में [मक्का के इस्लाम विरोधियों के सामने] यह प्रश्न रखा गया है कि जो पैग़ाम मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, आख़िर उसमें वह बात क्या है जिसपर तुम लोग इतना बिगड़ रहे हो। वह यही तो कह रहे हैं कि अल्लाह तुम्हारा पैदा करनेवाला है और उसी की तुमको बन्दगी करनी चाहिए। इसपर तुम्हारे बिगड़ने का आख़िर क्या औचित्य है? क्या तुम स्वयं बन गए हो, किसी बनानेवाले ने तुम्हें नहीं बनाया? या अपने बनानेवाले तुम स्वयं हो? या यह विशाल जगत् तुम्हारा बनाया हुआ है ? अगर इनमें से कोई बात भी सही नहीं है और तुम स्वयं मानते हो कि तुम्हारा पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है और इस सृष्टि का पैदा करनेवाला भी वही है, तो उस आदमी पर तुम्हें गुस्सा क्यों आता है जो तुमसे कहता है कि वही अल्लाह तुम्हारी बन्दगी और उपासना का अधिकारी है?
أَمۡ عِندَهُمۡ خَزَآئِنُ رَبِّكَ أَمۡ هُمُ ٱلۡمُصَۜيۡطِرُونَ ۝ 36
(37) क्या तेरे रब के ख़ज़ाने इनके क़ब्जे में हैं? या उनपर इन्हीं का आदेश चलता है?29
29. यह मक्का के इस्लाम-विरोधियों के इस आक्षेप का उत्तर है कि आख़िर अब्दुल्लाह के पुत्र मुहम्मद (सल्ल०) ही क्यों रसूल बनाए गए? इस उत्तर का मतलब यह है कि इन लोगों को गुमराही से निकालने के लिए बहरहाल किसी न किसी को तो रसूल नियुक्त किया जाना ही था। अब प्रश्न यह है कि यह फ़ैसला करना किसका काम है कि खुदा अपना रसूल किसको बनाए और किसको न बनाए? अगर ये लोग ख़ुदा के बनाए हुए रसूल को मानने से इंकार करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि या तो ख़ुदा की ख़ुदाई का मालिक ये अपने आपको समझ बैठे हैं या फिर ये इस दंभ में हैं कि अपनी खुदाई का मालिक तो ख़ुदा ही हो मगर उसमें हुक्म इनका चले।
أَمۡ لَهُمۡ سُلَّمٞ يَسۡتَمِعُونَ فِيهِۖ فَلۡيَأۡتِ مُسۡتَمِعُهُم بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 37
(38) क्या इनके पास कोई सीढ़ी है जिसपर चढ़कर ये ऊपरी लोक की सुन-गुन लेते हैं? इनमें से जिसने सुन-गुन ली हो, वह लाए कोई स्पष्ट प्रमाण ।
أَمۡ لَهُ ٱلۡبَنَٰتُ وَلَكُمُ ٱلۡبَنُونَ ۝ 38
(39) क्या अल्लाह के लिए तो हैं बेटियाँ और तुम लोगों के लिए हैं बेटे?30
30. इन संक्षिप्त वाक्यों में एक बड़ा व्यापक प्रमाण समाहित कर दिया गया है। विवरण इसका यह है कि अगर तुम्हें रसूल की बात मानने से इंकार है तो तुम्हारे पास स्वयं वास्तविकता को जानने का आख़िर साधन क्या है ? क्या तुममें से कोई व्यक्ति ऊपरी लोक में पहुँचा है और अल्लाह या उसके फ़रिश्तों से उसने सीधे तौर पर यह मालूम कर लिया है कि वे अक़ीदे बिल्कुल वास्तविकता के अनुसार हैं जिनपर तुम लोग अपने दीन की बुनियाद रखे हुए हो? यह दावा अगर किसी को है तो वह सामने आए और बताए कि उसे कब और कैसे ऊपरी लोक तक पहुँच हुई है और क्या जानकारी वह वहाँ से लेकर आया है। और अगर यह दावा तुम नहीं रखते तो फिर स्वयं ही विचार करो कि इससे अधिक हास्यास्पद धारणा और क्या हो सकती है कि तुम सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए औलाद प्रस्तावित करते हो और औलाद भी लड़कियाँ, जिन्हें तुम स्वयं अपने लिए शर्म और अपमान का कारण समझते हो? ज्ञान के बिना इस प्रकार की खुली अज्ञानताओं के अंधेरे में भटक रहे हो और खुदा की ओर से जो आदमी ज्ञान का प्रकाश तुम्हारे सामने पेश करता है उसकी जान के दुश्मन हुए जाते हो।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ أَجۡرٗا فَهُم مِّن مَّغۡرَمٖ مُّثۡقَلُونَ ۝ 39
(40) क्या तुम इनसे कोई बदला माँगते हो कि ये ज़बरदस्ती पड़ी हुई चट्टी (तावान) के बोझ तले दबे जाते हैं? 31
31. प्रश्न वास्तव में इस्लाम-विरोधियों से किया जा रहा है। मतलब यह है कि अगर रसूल तुमसे कोई स्वार्थ रखता और अपने किसी निजी लाभ के लिए यह सारी दौड़-धूप कर रहा होता, तो इससे तुम्हारे भागने का कम से कम एक समुचित कारण होता, मगर तुम स्वयं जानते हो कि वह अपनी इस दावत में बिल्कुल नि:स्वार्थ है और केवल तुम्हारी भलाई के लिए अपनी जान खपा रहा है। फिर क्या कारण है कि तुम ठंडे दिल से उसकी बात सुनने तक को तैयार नहीं हो? इस प्रश्न में एक सूक्ष्म व्यंग्य भी है। सारी दुनिया के बनावटी पेशवा और मज़हबी आस्तानों के मुजाविरों की तरह अरब में भी मुशरिकों के पेशवा और पंडित और पुरोहित खुला-खुला धार्मिक कारोबार चला रहे थे। इसपर यह प्रश्न उनके सामने रख दिया गया कि एक ओर ये धर्म के व्यापारी हैं जो खुल्लम-खुल्ला तुमसे भेंट, मन्नतें व नियाजें और हर धार्मिक सेवा के मुआविजे वुसूल कर रहे हैं, दूसरी ओर एक पुरुषोत्तम नि:स्वार्थ भाव से, बल्कि अपने व्यापारिक कारोबार को बर्बाद करके तुम्हें अत्यन्त उचित तर्कों से दीन का सीधा रास्ता दिखाने की कोशिश कर रहा है। अब यह स्पष्ट मूर्खता नहीं तो और क्या है कि तुम इससे भागते और उनकी ओर दौड़ते हो।
أَمۡ عِندَهُمُ ٱلۡغَيۡبُ فَهُمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 40
(41) क्या इनके पास ग़ैब (परोक्ष) की वास्तविकताओं का ज्ञान है कि उसके आधार पर ये लिख रहे हों? 32
32. अर्थात् क्या तुम यह लिखकर देने के लिए तैयार हो कि रौब (परोक्ष) की वास्तविकताओं के बारे में रसूल के बयानों को तुम इस आधार पर झुठला रहे हो कि रौब के परदे के पीछे झाँक कर तुमने यह देख लिया है कि सच्चाई वह नहीं है जो रसूल बयान कर रहा है?
أَمۡ يُرِيدُونَ كَيۡدٗاۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هُمُ ٱلۡمَكِيدُونَ ۝ 41
(42) क्या ये कोई चाल चलना चाहते हैं?33 अगर यह बात है तो इंकार करनेवालों पर उनकी चाल उलटी ही पड़ेगी।34
33. संकेत है उन उपायों की ओर जो मक्का के इस्लाम-विरोधी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को परास्त करने और आपकी हत्या करने के लिए आपस में बैठ-बैठकर सोचा करते थे।
34. यह क़ुरआन की स्पष्ट भविष्यवाणियों में से एक है। मक्का-काल के आरंभिक समय में इस्लाम और कुफ़्र का मुक़ाबला हर देखनेवाले को बड़ा ही नाबराबरी का मुक़ाबला नज़र आ रहा था और प्रत्यक्ष देखनेवाली दृष्टि यह देख रही थी कि क़ुरैश और सारे अरब का विरोध अन्ततः इस दावत का अन्त करके छोड़ेगा। मगर इस हालत में पूरी ललकार के साथ इस्लाम-विरोधियों से यह साफ़-साफ़ कह दिया गया कि इस दावत को नीचा दिखाने के लिए जो उपाय भी तुम करना चाहो, करके देख लो। वे सब उलटे तुम्हारे ही विरुद्ध पड़ेंगे और तुम इसे पराजित करने में कदापि सफल न हो सकोगे।
أَمۡ لَهُمۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 42
(43) क्या अल्लाह के सिवा ये कोई और उपास्य रखते हैं? अल्लाह पाक है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं?35
35. अर्थात् वास्तविकता यह है कि जो व्यक्ति तौहीद (ऐकेश्वरवाद) का संदेश लेकर उठा है, उसके साथ सच्चाई की ताक़त है और जो लोग शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का समर्थन कर रहे हैं, वे एक सत्यविहीन चीज़ के लिए लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में शिर्क आख़िर कैसे जीत जाएगा?
وَإِن يَرَوۡاْ كِسۡفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ سَاقِطٗا يَقُولُواْ سَحَابٞ مَّرۡكُومٞ ۝ 43
(44) ये लोग आसमान के टुकड़े भी गिरते हुए देख लें तो कहेंगे, ये बादल हैं जो उमड़े चले आ रहे हैं।36
36. इस कथन का अभिप्राय एक ओर क़ुरैश के सरदारों की हठधर्मी को बेनक़ाब करना और दूसरी ओर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को तसल्ली देना है। नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के आदरणीय साथियों (रजि०) के दिल में बार-बार यह इच्छा पैदा होती थी कि इन लोगों को अल्लाह की ओर से कोई मोजज़ा (चमत्कार) ऐसा दिखा दिया जाए जिससे इनको मुहम्मद (सल्ल०) की सुबूवत की सत्यता मालूम हो जाए। इसपर फ़रमाया गया है कि ये चाहे कोई मोजज़ा भी अपनी आँखों से देख लें, बहरहाल ये उसका कोई न कोई अर्थ निकाल कर किसी न किसी तरह अपने इंकार पर जमे रहने का बहाना ढूंढ निकालेंगे, क्योंकि इनके दिल ईमान लाने के लिए तैयार नहीं हैं।
فَذَرۡهُمۡ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي فِيهِ يُصۡعَقُونَ ۝ 44
(45) अत: ऐ नबी! इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो, यहाँ तक कि ये अपने उस दिन को पहुँच जाएँ, जिसमें ये मार गिराए जाएँगे,
يَوۡمَ لَا يُغۡنِي عَنۡهُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 45
(46) जिस दिन न इनकी अपनी कोई चाल इनके किसी काम आएगी, न कोई इनकी मदद को आएगा।
وَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ عَذَابٗا دُونَ ذَٰلِكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 46
(47) और उस समय के आने से पहले भी ज़ालिमों के लिए एक अजाब है, मगर उनमें से अधिकतर जानते नहीं हैं।37
37. यहाँ उसी विषय को दोहराया गया है जो सूरा-32 सज्दा, आयत 21 में गुज़र चुका है कि 'उस बड़े अज़ाब से पहले हम इसी दुनिया में किसी न किसी छोटे अज़ाब का मज़ा इन्हें चखाते रहेंगे, शायद कि ये अपने विद्रोहपूर्ण नीति से रुक जाएँ। अर्थात् दुनिया में समय-समय पर व्यक्तिगत और सामूहिक मुसीबतें भेजकर हम उन्हें यह याद दिलाते रहेंगे कि ऊपर कोई सर्वोच्च ताक़त उनकी क़िस्मतों के फ़ैसले कर रही है। मगर जो लोग अज्ञान में लिप्त हैं, उन्होंने न पहले कभी इन घटनाओं से शिक्षा ली है, न आगे कभी लेंगे।
وَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ فَإِنَّكَ بِأَعۡيُنِنَاۖ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 47
(48) ऐ नबी! अपने रब का फ़ैसला आने तक सब्र करो,38 तुम हमारी दृष्टि में हो39 तुम जब उठो तो अपने रब की प्रशंसा के साथ उसका महिमागान करो,40
38. दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि सब्र और दृढ़ता के साथ अपने रब के आदेश को पूरा करने पर डटे रहो।
39. अर्थात् हम तुम्हारी निगरानी कर रहे हैं। तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ नहीं दिया है।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡهُ وَإِدۡبَٰرَ ٱلنُّجُومِ ۝ 48
(49) रात को भी उसका महिमागान किया करो41 और सितारे जब पलटते हैं, उस समय भी।42
41. इससे तात्पर्य मगरिब व इशा और तहजुद की नमाजें भी हैं और कुरआन की तिलावत (क़ुरआन-पाठ) भी और अल्लाह का ज़िक्र भी।
42. सितारों के पलटने से तात्पर्य रात के आख़िरी हिस्से में उनका डूबना और सुबह की सफ़ेदी के प्रकट होने पर उनकी रौशनी का मधम और धुन्धला पड़ जाना है। यह फज्र की नमाज़ का वक़्त है।