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سُورَةُ قٓ

50. क़ाफ़

(मक्‍का में उतरी, आयतें 45 )

परिचय

नाम

आरंभ ही के अक्षर ‘क़ाफ़' से लिया गया है। मतलब यह है कि वह सूरा जिसका आरंभ 'क़ाफ़' अक्षर से होता है।

उतरने का समय

किसी विश्वस्त उल्लेख से यह पता नहीं चलता कि यह ठीक किस काल में उतरी है, मगर विषय-वस्तुओं पर विचार करने से ऐसा महसूस होता है कि इसके उतरने का समय मक्का मुअज़्ज़मा का दूसरा काल-खण्ड है जो नुबूवत (पैग़म्बरी) के तीसरे साल से आरंभ होकर पाँचवें साल तक रहा। इस काल की विशेषताएँ हम सूरा-6 अनआम के प्राक्कथन में बयान कर चुके हैं।

विषय और वार्ता

विश्वस्त उल्लेखों से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) प्राय: दोनों ईदों की नमाज़ों में इस सूरा को पढ़ा करते थे। कुछ और उल्लेखों में आया है कि फ़ज्र की नमाज़ में भी आप अधिकतर इसको पढ़ा करते थे। इससे यह बात स्पष्ट है कि नबी (सल्ल०) की दृष्टि में यह एक बड़ी महत्त्वपूर्ण सूरा थी। इसलिए आप अधिक से अधिक लोगों तक बार-बार इसकी वार्ताओं को पहुँचाने की व्यवस्था करते थे। इसके महत्त्व का कारण सूरा को ध्यानपूर्वक पढ़ने से आसानी के साथ समझ में आ जाता है। पूरी सूरा का विषय आख़िरत (परलोक) है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जब मक्का मुअज़्ज़मा में अपनी दावत (पैग़ाम) का आरंभ किया तो लोगों को सबसे ज़्यादा आश्चर्य आप (सल्ल०) की जिस बात पर हुआ, वह यह थी कि मरने के बाद इंसान दोबारा उठाए जाएंँगे और उनको अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। लोग कहते थे कि यह तो बिलकुल अनहोनी बात है, आख़िर यह कैसे सम्भव है कि जब हमारा कण-कण धरती में बिख़र चुका हो तो इन बिखरे हुए अंशों को हज़ारों साल बीत जाने के बाद फिर से इकट्ठा करके हमारा यह शरीर नए सिरे से बना दिया जाए और हम ज़िन्दा होकर उठ खड़े हों। इसके उत्तर में अल्लाह की ओर से यह अभिभाषण अवतरित हुआ। इसमें अति संक्षेप में, छोटे-छोटे वाक्यों में एक ओर आख़िरत की संभावना और उसके घटित होने की दलीलें दी गई हैं और दूसरी ओर लोगों को सचेत किया गया है कि तुम भले ही आश्चर्य करो या बुद्धि से परे समझो या झुठलाओ, बहरहाल इससे हक़ीक़त नहीं बदल सकती।

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سُورَةُ قٓ
50. क़ाफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
قٓۚ وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡمَجِيدِ
(1) क़ाफ़, क़सम है क़ुरआन मजीद की1
1. 'मजीद' का शब्द अरबी भाषा में दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। एक अर्थ है उच्च श्रेणी, महान, बुज़ुर्ग, प्रतिष्ठावान और श्रेयवाला। दूसरा अर्थ है कृपालु, अत्यन्त दानशील और बहुत लाभ पहुंचानेवाला। क़ुरआन के लिए यह शब्द इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। क़ुरआन इस दृष्टि से महान है कि दुनिया की कोई किताब उसके मुक़ाबले में नहीं लाई जा सकती और इस दृष्टि से बह कृपालु है कि ईसान जितना अधिक उससे मार्गदर्शन प्राप्त करने की कोशिश करे, उतनी ही ज्यादा वह उसको रहनुमाई देता है और जितना ज्यादा उसका पालन करे उतना ही ज्यादा उसे दुनिया और आख़िरत की भलाइयाँ प्राप्त होती चली जाती हैं।
بَلۡ عَجِبُوٓاْ أَن جَآءَهُم مُّنذِرٞ مِّنۡهُمۡ فَقَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ هَٰذَا شَيۡءٌ عَجِيبٌ ۝ 1
(2) बल्कि इन लोगों को आश्चर्य इस बात पर हा कि एक सचेत करनेवाला ख़ुद इन्हीं में से इनके पास आ गया।2 फिर इंकार करनेवाले कहने लगे, "यह तो आश्चर्यजनक बात है,
2. कुरान की कसम जिस बात पर खाई गई है, उसे बयान नहीं किया गया है। उसका उल्लेख करने के बजाय बीच में एक सूक्ष्म अन्तराल छोड़कर आगे की बात' बल्कि' से शुरू कर दी गई है। [विचार करने से स्पष्ट] मालूम होता है कि [यहाँ] कसम जिस बात पर खाई गई है, वह यह है कि "मक्कावालों ने मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) को मानने से किसी उचित आधार पर इंकार नहीं किया है, बल्कि इस सर्वथा अनुचित आधार पर किया है कि उनकी अपनी ही जाति के एक ‘बशर' (मनुष्य) और उनकी अपनी ही क़ौम के एक व्यक्ति का ख़ुदा की ओर से सचेत करनेवाला बनकर आ जाना उनके नज़दीक अत्यन्त आश्चर्यजनक बात है, हालाँकि आश्चर्य की कोई बात अगर हो सकती थी तो वह यह थी कि ख़ुदा अपने बन्दों की भलाई और बुराई से बेपरवाह होकर उन्हें सावधान करने का कोई प्रबन्ध न करता, या ईसानों को सावधान करने के लिए किसी और-इंसान को भेजता, या अरबों को सावधान करने के लिए किसी चीनी को भेज देता।" अब रह जाता है यह सवाल कि क्या मुहम्मद (सल्ल०) ही वह व्यक्ति हैं जिन ख़ुदा ने इस काम के लिए भेजा है, तो इसका फ़ैसला करने के लिए किसी और गवाही की ज़रूरत नहीं, यह महान और कृपानिधि क़ुरआन, जिसे वे प्रस्तुत कर रहे हैं, इस बात का प्रमाण देने के लिए बिलकुल काफ़ी है।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗاۖ ذَٰلِكَ رَجۡعُۢ بَعِيدٞ ۝ 2
(3) क्या जब हम मर जाएँगे और मिट्टी हो जाएंगे (तो दोबारा उठाए जाएँगे)? यह वापसी तो बुद्धि से परे है।''3
3. यह उन लोगों का दूसरा आश्चर्य था। पहला आश्चर्य इस बात पर था कि एक इंसान रसूल बनकर आया, और उसपर और अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि तमाम इंसान मरने के बाद नए सिरे से जिंदा किए जाएँगे और इन सबको इकट्ठा करके अल्लाह की अदालत में पेश किया जाएगा।
قَدۡ عَلِمۡنَا مَا تَنقُصُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۡهُمۡۖ وَعِندَنَا كِتَٰبٌ حَفِيظُۢ ۝ 3
(4) (हालाँकि) ज़मीन उनके शरीर में से जो कुछ खाती है, वह सब हमारे ज्ञान में है और हमारे पास एक किताब है जिसमें सब कुछ सुरक्षित है।4
4. अर्थात् ये समझते हैं कि आदिकाल से क़ियामत तक मरनेवाले अनगिनत इंसानों के शरीर के अंश जो ज़मीन में बिखर चुके हैं और आगे बिखरते चले जाएँगे, उनको जमा करना किसी तरह संभव नहीं है। लेकिन तथ्य तो यह है कि उनमें से हर-हर अंश जिस शक्ल में जहाँ भी है, अल्लाह प्रत्यक्ष रूप से उसको जानता है, और साथ ही उसका पूरा रिकार्ड अल्लाह के दफ्तर में सुरक्षित किया जा रहा है जिसमें कोई एक अंश भी छूटा हुआ नहीं है। जिस समय अल्लाह का आदेश होगा, उसी समय आनन-फानन उसके फ़रिश्ते इस रिकार्ड से रुजूअ् करके एक-एक अंश को निकाल लाएँगे और तमाम इंसानों के वही शरीर फिर बना देंगे जिनमें रहकर उन्होंने दुनिया की जिंदगी में काम किया था। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, टिप्पणी 25)
بَلۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَهُمۡ فِيٓ أَمۡرٖ مَّرِيجٍ ۝ 4
(5) बल्कि इन लोगों ने तो, जिस समय सत्य इनके पास आया, उसी समय उसे साफ़ झुठला दिया। इसी कारण अब ये उलझन में पड़े हुए हैं।5
5. मतलब यह है कि जिस समय मुहम्मद (सल्ल०) ने सत्य का अपना सन्देश प्रस्तुत किया उसी समय उन्होंने बे-झिझक उसे पूर्णत: झूठ क़रार दे दिया। इसका नतीजा अनिवार्य रूप से यह होना था और यही हुआ कि इन्हें इस सन्देश और इसके प्रस्तुत करनेवाले रसूल के मामले में किसी एक मत पर ठहराव नहीं है। कभी उसको कवि कहते हैं, तो कभी ज्योतिषी और कभी मजनून। कभी कहते हैं कि यह जादूगर है और कभी कहते हैं कि किसी ने इसपर जादू कर दिया है। कभी कहते हैं कि यह अपनी बड़ाई क़ायम करने के लिए स्वयं ही यह चीज़ बना लाया है, और कभी यह आरोप लगाते हैं कि इसके पीछे कुछ दूसरे लोग हैं जो यह वाणी घड़-घड़कर इसे देते हैं। ये एक-दूसरे से टकरानेवाली बातें स्वयं पता देती हैं कि ये लोग अपने मत में बिलकुल उलझकर रह गए हैं। इस उलझन में ये कदापि न पड़ते अगर जल्दबाज़ी करके नबी को पहले ही क़दम पर झुठला न देते और बिना सोचे-समझे एक पेशगी फ़ैसला कर देने से पहले गम्भीरतापूर्वक विचार करते कि यह सन्देश कौन दे रहा है, क्या बात कह रहा है और इसके लिए दलील क्या दे रहा है।
أَفَلَمۡ يَنظُرُوٓاْ إِلَى ٱلسَّمَآءِ فَوۡقَهُمۡ كَيۡفَ بَنَيۡنَٰهَا وَزَيَّنَّٰهَا وَمَا لَهَا مِن فُرُوجٖ ۝ 5
(6) अच्छा,6 तो क्या इन्होंने कभी अपने ऊपर आसमान की ओर नहीं देखा? किस तरह हमने इसे बनाया और सजाया,7 और इसमें कहीं कोई दरार नहीं है।8
7. यहाँ आसमान से मुराद वह पूरा ऊपरी जगत् है जिसे इंसान रात-दिन अपने ऊपर छाया हुआ देखता है। जिसमें दिन को सूरज चमकता है और रात को चाँद और अनगिनत तारे चमकते नज़र आते हैं । जिसे आदमी नंगी आँख ही से देखे तो चकित रह जाता है, लेकिन अगर दूरबीन लगा ले तो एक ऐसी लम्बी-चौड़ी और फैली हुई सृष्टि उसके सामने आती है जो अथाह है, कहीं से आरंभ होकर कहीं समाप्त होती नज़र नहीं आती। इस विशाल सृष्टि को जो अल्लाह अस्तित्व में लाया है, उसके बारे में धरती का रेंगनेवाला यह छोटा-सा प्राणी, जिसका नाम इंसान है, अगर यह हुक्म लगाए कि वह इसे मरने के बाद दोबारा पैदा नहीं कर सकता, तो यह उसकी अपनी ही बुद्धि की तंगी है। जगत् स्रष्टा की सामर्थ्य इससे कैसे तंग हो जाएगी?
8. अर्थात् अपनी इस आश्चर्यजनक व्यापकता के बावजूद सृष्टि की यह शानदार व्यवस्था ऐसी निरंतर और सुदृढ़ है और इसका बन्धन इतना चुस्त है कि इसमें किसी जगह कोई ऐसी दरार या झरी नहीं है और इसका सिलसिला कहीं जाकर टूट नहीं जाता। अल्लाह इस तथ्य की ओर संकेत करके वास्तव में यह प्रश्न आदमी के सामने पेश करता है कि मेरी सृष्टि की इस व्यवस्था में जब तुम एक तनिक-सी दरार का पता नहीं दे सकते, तो मेरी सामर्थ्य में इस कमज़ोरी का विचार कहाँ से तुम्हारे दिमाग में आ गया कि परीक्षा की तुम्हारी मोहलत समाप्त हो जाने के बाद तुमसे हिसाब लेने के लिए मैं तुम्हें फिर जिंदा करके अपने सामने हाजिर करना चाहूँ तो न कर सकूँगा।
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ ۝ 6
(7) और ज़मीन को हमने बिछाया और उसमें पहाड़ जमाए और उसके अन्दर हर तरह की सुदृश्य वनस्पतियाँ उगा दी।9
9. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 12 से 14; सूरा 27 अन नम्ल, टिप्पणी 73, 74; सूरा-43 अज़-ज़ुख़रूफ़, टिप्पणी 7
تَبۡصِرَةٗ وَذِكۡرَىٰ لِكُلِّ عَبۡدٖ مُّنِيبٖ ۝ 7
(8) ये सारी चीजें आँखें खोलनेवाली और शिक्षा देनेवाली हैं हर उस बन्दे के लिए जो (सत्य की ओर) रुजू करनेवाला हो
وَنَزَّلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ مُّبَٰرَكٗا فَأَنۢبَتۡنَا بِهِۦ جَنَّٰتٖ وَحَبَّ ٱلۡحَصِيدِ ۝ 8
(9-10) और आसमान से हमने बरकतवाला पानी उतारा, फिर उससे बाग़ और फ़स्ल के अनाज और ऊँचे-ऊँचे खजूर के पेड़ पैदा कर दिए जिनपर फलों से लदे हुए गुच्छे तह-ब-तह लगते हैं।
وَٱلنَّخۡلَ بَاسِقَٰتٖ لَّهَا طَلۡعٞ نَّضِيدٞ ۝ 9
0
رِّزۡقٗا لِّلۡعِبَادِۖ وَأَحۡيَيۡنَا بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗاۚ كَذَٰلِكَ ٱلۡخُرُوجُ ۝ 10
(11) यह प्रबन्ध है बन्दों को रोज़ी देने का। इस पानी से हम एक मुर्दा ज़मीन को जिंदगी दे देते हैं।10 (मरे हुए इंसानों का ज़मीन से) निकलना भी इसी तरह होगा।11
10. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 73-74,81; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 25, 33, 35; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 29
11. तर्क यह दिया जा रहा है कि जिस ख़ुदा ने पृथ्वी के इस पिण्ड को जीवित मखलूक़ (प्राणी) के रहने के लिए यथोचित और अनुकूल स्थान बनाया, और जिसने ज़मीन की बेजान मिट्टी को आसमान के बेजान पानी के साथ मिलाकर इतनी ऊँचे दर्जे का वनस्पति-जीवन पैदा कर दिया, उसके बारे में तुम्हारा यह विचार कि वह तुम्हें मरने के बाद दोबारा पैदा करने की सामर्थ्य नहीं रखता है, सर्वथा बुद्धिहीनता की बात है। तुम अपनी आँखों से आए दिन देखते हो कि एक क्षेत्र बिलकुल सूखा और बेजान पड़ा हुआ है। बारिश का एक छोटा पड़ते ही उसके अन्दर यकायक जीवन के सोते फूट निकलते हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मौत के बाद दोबारा जिंदगी सम्भव है। अपने इस प्रत्यक्ष अवलोकन को जब तुम नहीं झुठला सकते, तो इस बात को कैसे झुठलाते हो कि जब ख़ुदा चाहेगा तुम स्वयं भी उसी तरह ज़मीन से निकल आओगे जिस तरह पेड़-पौधों की कोंपलें निकल आती हैं। इस सिलसिले में यह बात उल्लेखनीय है कि अरब की धरती में बहुत-से क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ कभी-कभी पाँच-पाँच साल तक बारिश नहीं होती। इतने लम्बे समय तक तपते हुए मरुस्थलों में घास की जड़ों और ज़मीन के कीड़े-मकोड़ों का जीवित रहना कल्पनीय बात नहीं है! इसके बावजूद जब वहाँ किसी वक़्त थोड़ी-सी बारिश भी हो जाती है तो वहाँ घास निकल आती है और ज़मीन के कीड़े-मकोड़े जी उठते हैं। इसलिए अरब के लोग इस दलील को उन लोगों के मुक़ाबले में ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं, जिन्हें इतने लम्बे सूखे का अनुभव नहीं होता।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَأَصۡحَٰبُ ٱلرَّسِّ وَثَمُودُ ۝ 11
(12) इनसे पहले नूह की क़ौम और असहाबुर्रस्स12, और समूद,
12. [व्याख्या के लिए देखिए सूरा-25 अल-फुरकान, टिप्पणी 52
وَعَادٞ وَفِرۡعَوۡنُ وَإِخۡوَٰنُ لُوطٖ ۝ 12
(13) और आद, और फ़िरऔन13, और लूत के भाई,
13. फ़िरऔन की कौम के बजाय सिर्फ़ फ़िरऔन का नाम लिया गया है, क्योंकि वह अपनी क़ौम पर इस तरह आधिपत्य स्थापित किए हुआ था कि उसके मुकाबले में क़ौम की कोई स्वतंत्र राय और संकल्प शक्ति बाक़ी नहीं रही थी। जिस गुमराही की ओर वह जाता था, क़ौम उसके पीछे घिसटती चली जाती थी। इस कारण पूरी क़ौम की गुमराही का ज़िम्मेदार अकेले उस व्यक्ति को ठहराया गया।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ وَقَوۡمُ تُبَّعٖۚ كُلّٞ كَذَّبَ ٱلرُّسُلَ فَحَقَّ وَعِيدِ ۝ 13
(14) और ऐकावाले, और तुब्बअ की क़ौम14 के लोग भी झुठला चुके हैं।15 हर एक ने रसूलों को झुठलाया16 और अन्ततः मेरी धमकी उनपर चस्पाँ हो गई।17
14. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-34 सबा, टिप्पणी 37, सूरा-44 अद-दुखान टिप्पणी 32
15. अर्थात् इन सबने अपने रसूलों की रिसालत (पैग़म्बरी) को भी झुठलाया और उनकी दी हुई इस ख़बर को भी झुठलाया कि तुम मरने के बाद फिर उठाए जाओगे।
أَفَعَيِينَا بِٱلۡخَلۡقِ ٱلۡأَوَّلِۚ بَلۡ هُمۡ فِي لَبۡسٖ مِّنۡ خَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 14
(15) क्या पहली बार पैदा करने में हम असमर्थ थे? मगर एक नई सृष्टि (पैदाइश) की ओर से ये लोग संदेह में पड़े हुए हैं।18
18. यह आख़िरत (परलोक) के पक्ष में बौद्धिक तर्क है। जो व्यक्ति ख़ुदा का इंकारी न हो उसके लिए यह माने बिना चारा नहीं है कि खुदा ही ने हमें और इस पूरी सृष्टि को पैदा किया है। अब यह तथ्य कि हम इस दुनिया में जिंदा मौजूद हैं और ज़मीन और आसमान का यह सारा कारख़ाना हमारी आँखों के सामने चल रहा है, आप ही इस बात का खुला प्रमाण है कि ख़ुदा हमें और इस सृष्टि को पैदा करने में असमर्थ न था। इसके बाद अगर कोई व्यक्ति यह कहता है कि क़ियामत लाने के बाद वही ख़ुदा दुनिया की एक दूसरी व्यवस्था न बना सकेगा और मौत के बाद वह हमें दोबारा पैदा न कर सकेगा, तो वह सिर्फ़ बुद्धि के विरुद्ध एक बात कहता है। ख़ुदा असमर्थ होता तो पहले ही पैदा न कर सकता।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ وَنَعۡلَمُ مَا تُوَسۡوِسُ بِهِۦ نَفۡسُهُۥۖ وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنۡ حَبۡلِ ٱلۡوَرِيدِ ۝ 15
(16) हमने19 इंसान को पैदा किया है और उसके दिल में उभरनेवाले वस्वसों (भ्रामक विचारों) तक को हम जानते हैं। हम उसकी गरदन की रग से भी अधिक उससे करीब हैं,20
19. आख़िरत की दलीलें पेश करने के बाद अब यह फ़रमाया जा रहा है कि आख़िरत को तो बहरहाल आना है और यह एक ऐसा तथ्य है जो तुम्हारे इंकार के बाद भी पेश आकर रहेगा। नबियों की पेशगी चेतावनी को मानकर उस समय के लिए पहले से तैयारी कर लोगे तो अपना भला करोगे। न मानोगे तो स्वयं ही अपनी
20. अर्थात् हमारी सामर्थ्य और हमारे ज्ञान ने इंसान को अंदर और बाहर से इस तरह घेर रखा है कि उसकी गरदन को नस भी उससे इतनी करीब नहीं है जितना हमारा ज्ञान और हमारी सामर्थ्य उससे क़रीब है। उसकी बात सुनने के लिए हमें कहीं से चलकर नहीं आना पड़ता, उसके दिल में आनेवाले विचारों तक को हम प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं। इसी तरह अगर उसे पकड़ना होगा तो हम कहीं से आकर उसको नहीं पकड़ेंगे, वह जहाँ भी है हर समय हमारी पकड़ में है, जब चाहेंगे उसे धर लेंगे।
إِذۡ يَتَلَقَّى ٱلۡمُتَلَقِّيَانِ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَعَنِ ٱلشِّمَالِ قَعِيدٞ ۝ 16
(17) (और हमारे इस प्रत्यक्ष ज्ञान के अतिरिक्त) दो लिखनेवाले उसके दाएँ और बाएँ बैठे हर चीज़ अंकित कर रहे हैं।
مَّا يَلۡفِظُ مِن قَوۡلٍ إِلَّا لَدَيۡهِ رَقِيبٌ عَتِيدٞ ۝ 17
(18) कोई शब्द उसके मुख से नहीं निकलता है जिसे सुरक्षित करने के लिए एक मौजूद रहनेवाला निगराँ मौजूद न हो।21
21. अर्थात् एक ओर तो हम स्वयं प्रत्यक्ष रूप से इंसान की हरकतों और उसके विचारों को जानते हैं. दूसरी ओर हर इंसान पर दो फ़रिश्ते नियुक्त हैं जो उसकी एक-एक बात को नोट कर रहे हैं और उसकी कोई कथनी-करनी उनके रिकार्ड से नहीं छूटती। इसका अर्थ यह है कि जिस वक्त सर्वोच्च अल्लाह की अदालत में इंसान की पेशी होगी, उस वक्त अल्लाह को स्वयं भी मालूम होगा कि कौन क्या करके आया है और उसपर गवाही देने के लिए दो गवाह भी मौजूद होंगे जो उसके कर्मों का दस्तावेजी सुबूत लाकर सामने रख देंगे। यह दस्तावेज़ी सुबूत किस किस्म का होगा उसको ठीक-ठीक कल्पना करना तो हमारे लिए मुश्किल है, मगर जो तथ्य आज हमारे सामने आ रहे हैं, उन्हें देखकर यह बात बिलकुल यक़ीनी मालूम होती है कि जिस वातावरण में इंसान रहता और काम करता है, उसमें हर ओर उसकी आवाजें, उसके चित्र और उसके कार्यकलापों और हरकतों के निशान कण-कण पर अंकित हो रहे हैं और उनमें से हर चीज़ को ठीक उन्हीं शक्लों और आवाज़ों में दोबारा इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है कि अस्ल और नक़ल में तनिक भर भी अन्तर न हो। इंसान यह काम बड़े ही सीमित पैमाने पर यंत्रों की मदद से कर रहा है। लेकिन ख़ुदा के फ़रिश्ते न इन यंत्रों के मुहताज हैं, न इन क़ैदों के पाबन्द। इंसान का अपना जिस्म और उसके आप-पास की हर चीज़ उनकी टेप और उनकी फ़िल्म है जिसपर वह हर आवाज़ और हर तस्वीर को उसके अत्यन्त सूक्ष्म विवरण के साथ ज्यों की त्यों अंकित कर सकते हैं।
وَجَآءَتۡ سَكۡرَةُ ٱلۡمَوۡتِ بِٱلۡحَقِّۖ ذَٰلِكَ مَا كُنتَ مِنۡهُ تَحِيدُ ۝ 18
(19) फिर देखो, वह मौत को बेहोशी सत्‍य लेकर आ पहुंची।22 वही चीज़ है जिससे तू भागता था।23
22. सत्य लेकर आ पहुँचने से मुराद यह है कि मौत की बेहोशी वह आरंभ-बिन्दु है जहाँ से वह सत्य प्रकट होना शुरू हो जाता है जिसपर दुनिया की जिंदगी में परदा पड़ा हुआ था। इस स्थान से आदमी वह दूसरी दुनिया स्पष्ट देखने लगता है जिसकी ख़बर नबियों और पैग़म्बरों ने दी थी।
23. अर्थात् यह वही सच्चाई है जिसको मानने से तू कभी कन्नी काटता था। तू चाहता था कि दुनिया में बे-नथे बैल की तरह छूटा फिरे और मरने के बाद कोई दूसरी जिंदगी न हो जिसमें तुझे अपने कर्मों की सजा भुगतनी पड़े। इसी लिए परलोक की धारणा से तू दूर भागता था और किसी तरह यह मानने के लिए तैयार न था कि कभी यह लोक भी अस्तित्व में आना है। अब देख ले, यह वही दूसरा लोक तेरे सामने आ रहा है।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِۚ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡوَعِيدِ ۝ 19
(20) और फिर सूर फ़ूँका गया।24 यह है वह दिन जिसका तुझे भय दिलाया जाता था।
24. इससे मुराद वह सूर (नरसिंहा) का फूंकना है जिसके साथ ही तमाम मरे हुए लोग दोबारा दैहिक जीवन पाकर उठ खड़े होंगे। व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 47; सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 57; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 78; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 1; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 46-47; सूरा-39 अज़-ज़ुमर, टिप्पणी 791)
وَجَآءَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّعَهَا سَآئِقٞ وَشَهِيدٞ ۝ 20
(21) हर आदमी इस हाल में आ गया कि उसके साथ एक हाँककर लानेवाला है और एक गवाही देनेवाला।25
25. प्रबल संभावना यह है कि इससे अभीष्ट वही दो फ़रिश्ते हैं जो दुनिया में उस व्यक्ति की कथनी-करनी का रिकार्ड तैयार करने के लिए नियुक्त रहे थे। क़ियामत के दिन जब सूर की आवाज़ ऊँची होते ही हर इंसान अपनी क़ब्र से उठेगा तो तुरन्त वे दोनों फ़रिश्ते आकर उसे अपने चार्ज में ले लेंगे। एक उसे ख़ुदा की अदालत की और हाँकता हुआ ले चलेगा और दूसरा उसका आमालनामा साथ लिए हुए होगा।
لَّقَدۡ كُنتَ فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا فَكَشَفۡنَا عَنكَ غِطَآءَكَ فَبَصَرُكَ ٱلۡيَوۡمَ حَدِيدٞ ۝ 21
(22) इस चीज़ की ओर से तू ग़फ़लत में था, हमने वह परदा हटा दिया जो तेरे आगे पड़ा हुआ था और आज तेरी निगाह ख़ूब तेज है।26
26. अर्थात् अब तो तुझे ख़ूब नज़र आ रहा है कि वह सब कुछ यहाँ मौजूद है जिसकी ख़बर ख़ुदा के नबी तुझे देते थे।
وَقَالَ قَرِينُهُۥ هَٰذَا مَا لَدَيَّ عَتِيدٌ ۝ 22
(23) उसके साथी ने अर्ज़ किया, यह जो मुझे सौंपा गया था, हाज़िर है।27
27. 'साथी' से मुराद हाँककर लानेवाला फ़रिश्ता है और वही अल्लाह की अदालत में पहुँचकर अर्ज़ करेगा कि यह व्यक्ति जो मुझे सौंपा गया था, सरकार की पेशी में हाज़िर है।
أَلۡقِيَا فِي جَهَنَّمَ كُلَّ كَفَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 23
(24) आदेश दिया गया फेंक दो जहन्नम में,28 हर कट्टे काफ़िर29 को जो सत्य से द्वेष रखता था
28. मूल अरबी शब्द हैं 'अलकिया फ़ी जहन्नम' अर्थात् "फेंक दो जहन्नम में तुम दोनों।" वार्ता-क्रम स्वयं बता रहा है कि यह आदेश उन दोनों फ़रिश्तों को दिया जाएगा जिन्होंने क़ब्र से उठते ही अपराधी को गिरफ़्तार किया था और लाकर अदालत में हाज़िर कर दिया था।
29. मूल अरबी में शब्द 'क़फ़्फ़ार' प्रयुक्त हुआ है जिसके दो अर्थ हैं- एक सख्त नाशुक्रा, दूसरा सत्य का सख्त इंकारी।
مَّنَّاعٖ لِّلۡخَيۡرِ مُعۡتَدٖ مُّرِيبٍ ۝ 24
(25) भलाई को रोकनेवाला30 और सीमा का उल्लंघन करनेवाला था,31 सन्देह में पड़ा हुआ था32
30. 'ख़ैर' का शब्द अरबी भाषा में माल के लिए भी इस्तेमाल होता है और भलाई के लिए भी। पहले अर्थ की दृष्टि से मतलब यह है कि वह अपने माल में से किसी का हक़ अदा न करता था, न खुदा का, न बन्दों का। दूसरे अर्थ की दृष्टि से मतलब यह होगा कि वह भलाई के रास्ते से स्वयं ही रुक जाने पर बस न करता था बल्कि दूसरों को भी उससे रोकता था, दुनिया में 'ख़ैर' के लिए बाधक बना हुआ था। अपनी तमाम ताकतें इस काम में लगा रहा था कि भलाई किसी तरह फैलने न पाए।
31. अर्थात् अपने हर काम में नैतिक सीमाएँ तोड़ देनेवाला था। अपने हितों और अपनी इच्छाओं और अपनी वासनाओं के लिए सब कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार था। हराम (अवैध) तरीक़ों से माल समेटता और हराम रास्तों में ख़र्च करता था। लोगों के हक़ और अधिकारों पर डाके डालता था। न उसकी जबान किसी मर्यादा की पाबन्द थी, न उसके हाथ किसी अन्याय व अत्याचार से रुकते थे। भलाई के रास्ते में सिर्फ़ रुकावटें डालने ही पर बस न करता था, बल्कि उससे आगे बढ़कर भलाई अपनानेवालों को सताता था और भलाई के लिए काम करनेवालों पर अत्याचार करता था।
ٱلَّذِي جَعَلَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَأَلۡقِيَاهُ فِي ٱلۡعَذَابِ ٱلشَّدِيدِ ۝ 25
(26) और अल्लाह के साथ किसी दूसरे को ख़ुदा बनाए बैठा था। डाल दो उसे कड़ी यातना में।33
33. इन आयतों में अल्लाह ने वे दुर्गुण गिनकर बता दिए हैं जो इंसान को जहन्नम का पात्र बनानेवाली हैं- (1) सत्य का इंकार, (2) ख़ुदा की नाशुक्री, (3) सत्य और सत्यवादियों से बैर, (4) भलाई के रास्ते में बाधक बनना, (5) अपने माल से खुदा और बन्दों के हक़ व अधिकार अदा न करना, (6) अपने मामलों में मर्यादाओं का उल्लंघन करना, (7) लोगों पर जुल्म और ज़्यादतियाँ करना, (8) दीन की सच्चाइयों पर सन्देह करना, (9) दूसरों के दिलों में सन्देहों का डालना और (10) अल्लाह के साथ किसी दूसरे को ख़ुदाई में शरीक ठहराना।
۞قَالَ قَرِينُهُۥ رَبَّنَا مَآ أَطۡغَيۡتُهُۥ وَلَٰكِن كَانَ فِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٖ ۝ 26
(27) उसके साथी ने अर्ज़ किया, “ऐ पालनहार ! मैंने इसको सरकश नहीं बनाया, बल्कि यह स्वयं ही परले दर्जें की गुमराही में पड़ा हुआ था।''34
34. यहाँ वार्ता का सन्दर्भ स्वयं बता रहा है कि 'साथी' से मुराद वह शैतान है जो दुनिया में उस व्यक्ति के साथ लगा हुआ था।और यह बात भी वार्ताशैली ही से मालूम होती है कि वह व्यक्ति और उसका शैतान दोनों ख़ुदा की अदालत में एक-दूसरे से झगड़ रहे हैं। वह कहता है कि हुजूर! यह ज़ालिम मेरे पीछे पड़ा हुआ था और इसी ने अन्तत: मुझे गुमराह करके छोड़ा, इसलिए सज़ा इसको मिलनी चाहिए। और शैतान जवाब में कहता है कि सरकार! मेरा इसपर कोई ज़ोर तो नहीं था कि यह सरकश न बनना चाहता हो और मैंने ज़बरदस्ती इसको सरकश बना दिया हो। यह अभागा तो स्वयं भलाई से घृणा करता था और बुराई पर आसक्त था, इसी लिए नबियों की कोई बात इसे पसन्द न आई और मेरे प्रलोभनों पर यह फिसलता चला गया।
قَالَ لَا تَخۡتَصِمُواْ لَدَيَّ وَقَدۡ قَدَّمۡتُ إِلَيۡكُم بِٱلۡوَعِيدِ ۝ 27
(28) उत्तर में कहा गया, "मेरे समक्ष झगड़ा न करो, मैं तुमको पहले ही बुरे परिणाम से सचेत कर चुका था।35
35. अर्थात् तुम दोनों ही को मैंने सचेत कर दिया था कि तुममें से जो बहकाएगा, वह क्या सज़ा पाएगा और जो बहकेगा, उसे क्या सज़ा भुगतनी पड़ेगी। मेरी इस चेतावनी के बावजूद जब तुम दोनों अपने-अपने हिस्से का अपराध करने से बाज़ न आए, तो अब झगड़ा करने से फ़ायदा क्या है। बहकनेवाले को बहकने की और बहकानेवाले को बहकाने की सज़ा तो अब अवश्य मिलनी ही है।
مَا يُبَدَّلُ ٱلۡقَوۡلُ لَدَيَّ وَمَآ أَنَا۠ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 28
(29) मेरे यहाँ बात पलटी नहीं जाती36 और मैं अपने बन्दों पर जुल्म तोड़नेवाला नहीं हूँ।37
36. अर्थात् फ़ैसले बदलने का नियम मेरे यहाँ नहीं है । तुमको जहन्नम में फेंक देने का जो आदेश मैं दे चुका हूँ, वह अब वापस नहीं लिया जा सकता और न उस क़ानून ही को बदला जा सकता है जिसका एलान मैंने दुनिया में कर दिया था कि गुमराह करने और गुमराह होने की क्या सज़ा आख़िरत में दी जाएगी।
37. मूल में अरबी शब्द 'जल्लाम' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है- बहुत बड़ा ज़ालिम । इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अपने बन्दों के हक़ में ज़ालिम तो हूँ, मगर बहुत बड़ा ज़ालिम नहीं हूँ, बल्कि इसका मतलब यह है कि अगर मैं स्रष्टा और पालनहार होकर अपने ही द्वारा पोषित प्राणियों पर ज़ुल्म करूँ तो बहुत बड़ा ज़ालिम हूँगा। इसलिए मैं सिरे से कोई ज़ुल्म भी अपने बन्दों पर नहीं करता। यह सज़ा जो मैं तुमको दे रहा हूँ, यह ठीक-ठीक वही सज़ा है जिसका पात्र तुमने अपने आप को स्वयं बनाया है।
يَوۡمَ نَقُولُ لِجَهَنَّمَ هَلِ ٱمۡتَلَأۡتِ وَتَقُولُ هَلۡ مِن مَّزِيدٖ ۝ 29
(30) वह दिन जबकि हम जहन्नम से पूछेगे, क्या तू भर गई? और वह कहेगी, क्या और कुछ है?38
38. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि "मेरे अन्दर अब और ज़्यादा आदमियों की गुंजाइश नहीं है।" दूसरा यह कि " और जितने भी अपराधी हैं, उन्हें ले आइए।" पहला मतलब लिया जाए तो इस कथन से चित्र यह सामने आता है कि अपराधियों को जहन्नम में इस तरह दूंस-ठूसकर भर दिया गया है कि उसमें एक गई को भी गुंजाइश नहीं रही। दूसरा मतलब लिया जाए तो यह चित्र दिमाग में उभरता है कि जहन्नम का गुस्सा इस समय अपराधियों पर कुछ इस बुरी तरह भड़का हुआ है कि वह 'कुछ और भी है!' की माँग किए जाती है और चाहती है कि आज कोई अपराधी उससे छूटने न पाए। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि जहन्नम से अल्लाह के इस सम्बोधन और उसके उत्तर का स्वरूप क्या है। इस मामले में वास्तव में कोई बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती। हो सकता है कि यह लक्षणात्‍मक हो और केवल वस्तुस्थिति का चिखींचने के लिए जहन्नम की स्थिति को प्रश्न और उत्तर के रूप में बयान किया गया हो। लेकिन यह बात भी बिलकुल संभव है कि इस बात में वास्‍विकता ही बताई गई हो, इसलिए कि दुनिया की जो चीज़ें हमारे लिए जड़ और मौन हैं, उनके बारे में हमारा यह सोचना सही नहीं हो सकता कि वे अवश्‍य ही अल्‍लाह के लिए भी वैसी ही जड़ और मौन होंगी।
وَأُزۡلِفَتِ ٱلۡجَنَّةُ لِلۡمُتَّقِينَ غَيۡرَ بَعِيدٍ ۝ 30
(31) और जन्नत परहेज़गारों के क़रीब ले आई जाएगी, कुछ भी दूर न होगी।39
39. अर्थात ज्यों ही किसी व्यक्ति के बारे में अल्लाह की अदालत से यह फैसला होगा कि वह परहेजगार और जन्‍नत का अधिकारी है, तत्‍काल वह जन्‍नत को अपने सामने मौजूद पाएगा। इससे कुछ अनुमान लगाया जा सकता है कि आख़िरत की दुनिया में स्थान और समय की कल्पना हमारी इस दुनिया की कल्पना से कितनी अलग होगी, जल्दी और देर और दूरी और नजदीकी के वे सारे विचार वहाँ निरर्थक होंगे जिनसे हम इस दुनिया में परिचित हैं।
هَٰذَا مَا تُوعَدُونَ لِكُلِّ أَوَّابٍ حَفِيظٖ ۝ 31
(32) कसा जाएगा, ''यह है यह चीज, जिसका तुपसे वादा किया जाता था, हर उस व्यक्ति के लिए जो बहुत मजा करनेवाला40 और बड़ी निगरानी करनेवाला था,41
40. इससे मुराद ऐसा व्यक्ति है जिसने अवज्ञा और मनोकामनाओं के पीछे चलने का रास्ता छोड़कर आज्ञापालन और अल्लाह की प्रसन्नता का रास्ता अपना लिया हो, जो अधिक से अधिक अल्लाह को याद करनेवाला और अपने तमाम मामलों में उसकी ओर रुजूअ् करनेवाला हो।
41. इससे गुराद ऐसा व्यक्ति है जो अल्लाह की मर्यादाओं और उसके कर्तव्यों और उसकी प्रतिष्ठाओं और उसकी सुपर्द की हुई अमानतों की रक्षा करे, जो उन हकों और अधिकारों की निगरानी करे जो अल्लाह की और से उसपर आयद होते हैं, जो उन वादों और अनुबन्धों की हिफाजत करे जो ईमान लाकर उसने अपने रखसे किया है, जो हर बात अपना जायजा लेकर देखता रहे कि कहीं मैं अपनी करनी-कथनी में अपने रब की अवज्ञा तो नहीं कर रहा हूँ।
مَّنۡ خَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِ وَجَآءَ بِقَلۡبٖ مُّنِيبٍ ۝ 32
(33) जो बे-देखे 'रहमान' (दयावान ईश्वर) से डरता था,42 और जो आसक्त हृदय लिए हुए आया है।43
42. अर्थात बावजूद इसके कि 'रहमान' (दयावान ईश्वर) उसको कहीं नज़र न आता था और अपनी इन्द्रियों से किसी तरह भी वह उसको महसूस न कर सकता था, फिर भी वह उसकी अवज्ञा करते हुए डरता था और यह जानते हुए भी कि वह रहमान' है, उसकी रहमत के भरोसे पर वह गुनाहगार नहीं बना, बल्कि हमेशा उसकी नाराजी से डरता ही रहा। अरबी भाषा में डर के लिए 'ख़ौफ' और 'ख़शीयत' दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनके अधों में एक सूक्ष्‍म अन्तर है। रीफ' का शब्द आमतौर से उस डर के लिए इस्तेमाल होता है जो किसी की शक्ति के मुक़ाबले में अपनी कमज़ोरी के एहसास के कारण आदमी के दिल में पैदा हो, और ‘ख़शीयत' उस हैवत (बच दबदबा) के लिए बोलते हैं जो किसी की महानता की कल्पना से आदमी के दिल पर छा जाए। यहाँ 'पीक' के बजाय अशीयत' का शब्द प्रयुक्त किया गया है, जिससे यह बताना अभिप्रेत है कि मोमिन के दिल में अन्नाह का दर मिा उसको सजा के डर ही से नहीं होता, बल्कि उससे भी बढ़कर अल्लाह के महानता और बुजुर्गी का एहसास उसपर हर वक्‍़त एक हैबत बनकर छाया रहता है।
43. मूल आनी शब्द 'क़लबिम मुनीब' । क़लबिम-मुनीब से मुराद ऐसा दिल है जो हर ओर से रुख़ फेरकर एक अल्लाह की ओर मुड़ गया और फिर जिंदगी भर जो हालात भी उसपर गुजरे, उनमें वह बार-बार उसी की ओर पलटता रहा।
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٖۖ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡخُلُودِ ۝ 33
(34) दाख़िल हो जाओ जन्नत में सलामती के साथ।’’44 वह दिन शाश्वत जीवन का दिन होगा।
44. मूल में अरबी शब्द हैं 'उद खुलूहा बिसलाम'। 'सलाम' को अगर सलामती के अर्थ में लिया जाए तो उसका अर्थ यह है कि हर प्रकार के दुख और शोक और चिन्ताओं और विपत्तियों से सुरक्षित होकर इस जन्नत में दाख़िल हो जाओ। और अगर उसे सलाम ही के अर्थ में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि आओ इस जन्नत में अल्लाह और उसके फ़रिश्ते की ओर से तुमको सलाम है।
لَهُم مَّا يَشَآءُونَ فِيهَا وَلَدَيۡنَا مَزِيدٞ ۝ 34
(35) वहाँ उनके लिए वह सब कुछ होगा जो वे चाहेंगे, और हमारे पास इससे ज़्यादा भी बहुत कुछ उनके लिए है।45
45. अर्थात् जो कुछ वे चाहेंगे वह तो उनको मिलेगा ही, मगर इसपर और अधिक हम उन्हें वह कुछ भी देंगे जिसकी कोई कल्पना तक उनके मन में नहीं आई है कि वे उसके प्राप्त करने की इच्छा करें।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هُمۡ أَشَدُّ مِنۡهُم بَطۡشٗا فَنَقَّبُواْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ هَلۡ مِن مَّحِيصٍ ۝ 35
(36) हम इनसे पहले बहुत-सी क़ौमों को तबाह कर चुके हैं जो इनसे बहुत ज़्यादा शक्तिशाली थीं और दुनिया के देशों को उन्होंने छान मारा था।46 फिर क्या वे कोई शरण लेने की जगह पा सके?47
46. अर्थात् केवल अपने देश ही में शक्तिशाली न थीं, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी वे जा घुसी थीं और उनके हमलों और तबाहकारियों का सिलसिला धरती पर दूर-दूर तक पहुँचा हुआ था।
47. अर्थात् जब ख़ुदा की ओर से उनकी पकड़ का वक्त आया तो क्या उनकी वह शक्ति उनको बचा सकी? और क्या दुनिया में फिर कहीं उनको पनाह मिल सकी? अब आख़िर तुम किसके भरोसे पर यह आशा करते हो कि ख़ुदा के मुक़ाबले में विद्रोह करके तुम्हें कहीं पनाह मिल जाएगी।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَذِكۡرَىٰ لِمَن كَانَ لَهُۥ قَلۡبٌ أَوۡ أَلۡقَى ٱلسَّمۡعَ وَهُوَ شَهِيدٞ ۝ 36
(37) इस इतिहास में शिक्षा सामग्री है हर उस व्यक्ति के लिए जो दिल रखता हो, या जो ध्यान से बात को सुने।48
48. दूसरे शब्दों में, जो या तो स्वयं अपनी इतनी बुद्धि रखता हो कि सही बात सोचे, या नहीं तो गफ़लत और तास्सुब (पक्षपात) से इतना पाक हो कि जब दूसरा कोई व्यक्ति उसे वास्तविकता समझाए तो वह खुले कानों से उसकी बात सुने। यह न हो कि समझानेवाले की आवाज़ कान के परदे पर से गुज़र रही है और सुननेवाले का दिमाग किसी दूसरी ओर लगा हुआ है।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَمَا مَسَّنَا مِن لُّغُوبٖ ۝ 37
(38) हमने ज़मीन और आसमानों को और उनके दरमियान की सारी चीज़ों को छ: दिनों में पैदा कर दिया49 और हमें कोई थकान न छू सकी।
49. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, टिप्पणी 11 से 15
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ ٱلۡغُرُوبِ ۝ 38
(39) अत: ऐ नबी ! जो बातें ये लोग बनाते हैं उनपर सब्र करो,50 और अपने रब की प्रशंसा के साथ उसका महिमागान करते रहो। सूरज के निकलने और उसके डूबने से पहले।
50. अर्थात् वास्तविकता यह है कि यह पूरी सृष्टि हमने छः दिन में बना डाली है और उसको बनाकर हम थक नहीं गए हैं कि उसका नव-निर्माण करना हमारे बस में न रहा हो। अब अगर ये नादान लोग तुमसे मौत के बाद की जिंदगी की ख़बर सुनकर तुम्हारी हँसी उड़ाते हैं तो इसपर सब्र करो, और जिस सच्चाई के बयान करने पर नियुक्त किए गए हो उसे बयान करते चले जाओ। इस आयत में गौण रूप से एक सूक्ष्म व्यंग्य यहूदियों और ईसाइयों पर भी है, जिनकी बाइबल में यह कहानी गढ़ी गई है कि ख़ुदा ने छ: दिनों में जमीन व आसमान को बनाया और सातवें दिन आराम किया। (उत्पत्ति 2 : 2) यद्यपि अब मसीही पादरी इस बात से शर्माने लगे हैं और उन्होंने पवित्र ग्रंथ के उर्दू अनुवाद में आराम किया को 'फ़ारिग़ हुआ' से बदल दिया है, मगर किंग जेम्ज़ की प्रामाणिक अंग्रेज़ी बाइबल में And He rested on the seventh day के शब्द साफ़ मौजूद हैं, और यही शब्द उस अनुवाद में भी पाए जाते हैं जो 1954 ई० में यहूदियों ने फिलाडेलफ़िया से प्रकाशित किया है। अरबी अनुवाद में भी फ़स्तरा-ह फ़िल यौमिस्साबिअ' (और उसने सातवें दिन आराम किया) के शब्द हैं।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡهُ وَأَدۡبَٰرَ ٱلسُّجُودِ ۝ 39
(40) और रात के वक़्त फिर उसका महिमागान करो और सजदा गुज़ारियों से फ़ारिग होने के बाद भी।51
51. यह है वह साधन जिससे व्यक्ति को यह शक्ति प्राप्त होती है कि सत्य सन्देश की राह में उसे चाहे कैसे ही दिल तोड़नेवाले और हौसला पस्त करनेवाले हालात का सामना करना पड़े, वह दृढ़ संकल्प के साथ जिंदगी भर अपना काम जारी रखे। रब की प्रशंसा और उसके महिमागान से मुराद यहाँ नमाज़ है। ‘सूरज निकलने से पहले' फज्र की नमाज़ है। ‘सूरज डूबने से पहले दो नमाजें हैं- एक जुहर, दूसरी अस्त्र। ‘रात के वक़्त' मग़रिब और इशा की नमाजें हैं और तीसरी तहज्जुद भी रात के महिमागान में शामिल है। (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 91 से 97, सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 111, सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 23, 24) । रहा वह महिमागान जो 'सजदों से फ़ारिश होने के बाद' करने का आदेश दिया गया है, तो उससे मुराद नमाज़ के बाद का ज़िक्र' भी हो सकता है और फ़र्ज़ के बाद नफ़्ल अदा करना भी। बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) की रिवायत है कि एक बार ग़रीब मुहाजिरों से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क्या मैं तुम्हें ऐसी चीज़ बताऊँ जिसे अगर तुम करो तो तुम दूसरे लोगों से बाज़ी ले जाओगे अलावा उनके जो वही अमल करें जो तुम करोगे? वह अमल यह है कि तुम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार सुबहानल्लाह, अलहम्दुलिल्लाह और अल्लाहु अकबर कहा करो।" एक रिवायत में इन कलिमों की तादाद 33-33 के बजाए 10-10 भी आई है। हज़रत ज़ैद बिन साबित की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हमको आदेश दिया था कि हम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार सुबहानल्लाह और अलहम्दुलिल्लाह कहा करें और 34 बार अल्लाहु अकबर कहें। बाद में एक अंसारी ने अर्ज किया कि मैंने सपने में देखा कि कोई कहता है, अगर तुम 25, 25 बार ये तीन कलिमे कहो और फिर 25 बार ला इला-ह इल्लल्लाह कहो तो यह ज़्यादा बेहतर होगा। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अच्छा, इसी तरह किया करो।" (अहमद, नसई, दारमी) इसके अलावा भी नमाज़ के बाद के ज़िक्र की अनेक शक्लें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उल्लिखित हैं। [ज़िक्र के सिलसिले में यह ध्यान रखना चाहिए.] कि ज़िक्र से असल मक़सद कुछ विशेष शब्दों को ज़बान से गुज़ार देना नहीं है, बल्कि उनके अर्थ को मन में ताजा और मजबूत करना है, जो इन शब्दों में बयान किए गए हैं। इसलिए जो ज़िक्र भी किया जाए उसके अर्थ अच्छी तरह समझ लेने चाहिएँ और फिर अर्थों को मन में ताजा रखते हुए जिक्र करना चाहिए।
وَٱسۡتَمِعۡ يَوۡمَ يُنَادِ ٱلۡمُنَادِ مِن مَّكَانٖ قَرِيبٖ ۝ 40
(41) और सुनी, जिस दिन पुकारनेवाला (हर व्यक्ति के क़रीब ही से पुकारेगा,52
52. अर्थात् जो व्यक्ति जहाँ मरा पड़ा होगा या जहाँ भी दुनिया में उसकी मौत आई थी, वहीं ख़ुदा के घोषणाकर्ता (मुनादी) की आवाज़ उसको पहुँचेगी कि उठो और चलो अपने रब की ओर अपना हिसाब देने के लिए। यह आवाज़ कुछ इस तरह की होगी कि धरती के चप्पे-चप्पे पर जो व्यक्ति भी जिंदा होकर उठेगा, वह महसूस करेगा कि पुकारनेवाले ने कहीं क़रीब ही से उसको पुकारा है।
يَوۡمَ يَسۡمَعُونَ ٱلصَّيۡحَةَ بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡخُرُوجِ ۝ 41
(42) जिस दिन सब लोग क़ियामत के कोलाहल को ठीक-ठीक सुन रहे होंगे,53 वह जमीन से मुर्दो के निकलने का दिन होगा।
53. इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि सब लोग वास्तविकता की पुकार को सुन रहे होंगे। इस अर्थ की दृष्टि से मतलब यह है कि लोग उसी वास्तविकता की पुकार को अपने कानों से सुन रहे होंगे जिसको दुनिया में वे मानने के लिए तैयार न थे। पहले अर्थ कि दृष्टि से मतलब यह है कि वे निश्चिय रूप से कियामत की यह आवाज़ सुनेंगे। उन्हें स्वयं मालूम हो जाएगा कि यह कोई वहम नहीं है, बल्कि वास्तव में यह क़ियामत की आवाज़ ही है।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَإِلَيۡنَا ٱلۡمَصِيرُ ۝ 42
(43) हम ही जीवन प्रदान करते हैं और हम ही मौत देते हैं, और हमारी ओर ही उस दिन सबको पलटना है
يَوۡمَ تَشَقَّقُ ٱلۡأَرۡضُ عَنۡهُمۡ سِرَاعٗاۚ ذَٰلِكَ حَشۡرٌ عَلَيۡنَا يَسِيرٞ ۝ 43
(44) जब ज़मीन फटेगी और लोग उसके अन्दर से निकलकर तेज़-तेज़ भागे जा रहे होंगे। यह इकट्ठा करना हमारे लिए बहुत आसान है।54
54. यह जवाब है इस्लाम-विरोधियों की उस बात का जो आयत 3 में बयान की गई है। [वह मौत के बाद की जिंदगी को बुद्धि और संभावना से परे ठहराते थे] उनकी इसी बात के उत्तर में फ़रमाया गया है कि यह कियामत अर्थात् सब अगले पिछले इंसानों को एक ही समय में जिंदा करके जमा कर लेना, हमारे लिए बिलकुल आसान है। हमारे एक संकेत से यह सब कुछ आनन-फानन हो सकता है। वे तमाम इंसान जो आदम के समय से क़ियामत तक दुनिया में पैदा हुए हैं हमारे एक आदेश पर बड़ी आसानी से जमा हो सकते हैं। तुम्हारी छोटी-सी बुद्धि इसे असंभव समझती हो तो समझा करे। सृष्टि के पैदा करनेवाले की सामर्थ्य से यह असंभव नहीं है।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِجَبَّارٖۖ فَذَكِّرۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مَن يَخَافُ وَعِيدِ ۝ 44
(45) ऐ नबी ! जो बातें ये लोग बना रहे हैं उन्हें हम खूब जानते हैं,55 और तुम्हारा काम उनसे ज़बरदस्ती बात मनवाना नहीं है। बस तुम इस कुरआन के माध्यम से हर उस व्यक्ति को नसीहत कर दो जो मेरी चेतावनी से डरे।56
55. इस वाक्य में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए तसल्ली भी है और इस्लाम विरोधियों के लिए धमकी भी।
56. यह बात नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करके वास्तव में इस्लाम-विरोधियों को सुनाई जा रही है। मानी इनसे यह कहा जा रहा है कि हमारे नबी का काम ज़बरदस्ती तुम्हे मोमिन (आस्थावान) बनाना नहीं है कि तुम न मानना चाहो और वह ज़बरदस्ती तुमसे मनवाए। उसकी ज़िम्मेदारी तो बस इतनी है कि जो सावधान करने से होश में आ जाए, उसे क़ुरआन सुनाकर वास्तविकता समझा दे। अब अगर तुम नहीं मानते तो नबी तुमसे नहीं निपटेगा, बल्कि हम तुमसे निपटेंगे।