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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

47. मुहम्मद

(मदीना में उतरी, आयतें 38)

परिचय

नाम

आयत 2 के वाक्यांश ‘व आमिनू बिमा नुज़्ज़ि-ल अला मुहम्मदिन' (उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें  मुहम्मद (सल्ल०) का शुभ नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक और मशहूर नाम क़िताल' (युद्ध) भी है जो आयत 20 के वाक्यांश ‘व जुकि-र फ़ीहल क़िताल' (जिसमें युद्ध का उल्लेख था) से लिया गया है।

इसकी विषय-वस्तुएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह हिजरत के बाद मदीना में उस समय उतरी थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था। इसका विस्तृत प्रमाण आगे टिप्पणी 8 में मिलेगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस कालखंड में यह सूरा उतरी है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज़्ज़मा में विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्य रूप से हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उनका जीना दूभर कर दिया गया था। मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तय्यिबा के शान्ति-गृह में इकट्ठा हो गए थे, मगर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर ओर से शत्रुओं के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे। मुसलमानों के लिए ऐसी स्थिति में दो ही रास्ते शेष बचे थे। या तो वे सत्य-धर्म की ओर बुलावे और उसके प्रचार-प्रसार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक से हाथ खींचकर अज्ञानता के आगे हथियार डाल दें। या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फ़ैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को। अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस का रास्ता दिखाया जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है। उसने पहले सूरा-22 हज (आयत 39) में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी, फिर सूरा-2 बक़रा (आयत 190) में इसका आदेश दे दिया। मगर उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है। मदीना में ईमानवालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह था, जो पूरे एक हज़ार सैनिक भी जुटा पाने की क्षमता न रखता था, और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए। फिर युद्ध के लिए जिन साधनों की जरूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल से वह जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बे-घर-बार के मुहाजिर (हिजरत करनेवाले) अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरबवालों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।

विषय और वार्ता

इसका विषय ईमानवालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सम्बन्ध में आरंभिक आदेश देना है। इसी पहलू से इसका नाम सूरा क़िताल (युद्ध) भी रखा गया है। इसमें क्रमश: नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :

आरंभ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के बीच मुक़ाबला आ पड़ा है। एक गिरोह [सत्य के इंकारियों और अल्लाह के दुश्मनों का है। दूसरा गिरोह सत्य के माननेवालों का है।] अब अल्लाह का दो-टूक फ़ैसला यह है कि पहले गिरोह की तमाम कोशिशों और क्रिया-कलापों को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं। इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया गया है। उनको अल्लाह की राह में क़ुर्बानियाँ करने पर बेहतरीन बदला पाने की आशा दिलाई गई है। फिर इस्लाम के शत्रुओं के बारे में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनकी कोई चाल ईमानवालों के मुक़ाबले में सफल न होगी और वे इस दुनिया में भी और आख़िरत (परलोक) में भी बहुत बुरा अंजाम देखेंगे। इसके बाद वार्ता का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की ओर फिर जाता है जो लड़ाई का हुक्म आने से पहले तो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, मगर यह हुक्म आ जाने के बाद अपनी कुशल-क्षेम की चिन्ता में इस्लाम विरोधियों से सांँठ-गाँठ करने लगे थे। उनको साफ़-साफ़ सचेत किया गया है कि अल्लाह और उसके दीन के मामले में निफ़ाक़ (कपट) अपनानेवालों का कोई कर्म भी अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्प संख्या और साधनहीनता और इस्लाम-विरोधियों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर साहस न छोड़ें, उनके आगे समझौते की पेशकश करके कमज़ोरी प्रकट न करें जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुक़ाबले में और अधिक बढ़ जाएँ। बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ़्र (अधर्म) के उस पहाड़ से टकरा जाएँ। अल्लाह मुसलमानों के साथ है। अन्त में मुसलमानों को अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने की दावत (आमंत्रण) दी गई है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी किन्तु सामने समस्या यह खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को ज़िन्दा रहना है या नहीं। इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा, वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल लेगा।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
سُورَةُ مُحَمَّدٍ
47. मुहम्‍मद
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ أَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ
(1) जिन लोगों ने इंकार किया1 और अल्लाह के रास्ते से रोका,2 अल्लाह ने उनके कर्मों को अकारथ कर दिया।3
1. अर्थात् उस शिक्षा व मार्गदर्शन को मानने से इंकार कर दिया है जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे थे।
2. मूल अरबी में सदू अन सबीलिल्लाहि' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इन शब्दों का अर्थ यह भी है कि वे स्वयं अल्लाह के रास्ते पर आने से बाज रहे, और यह भी कि उन्होंने दूसरों को इस राह पर आने से रोका [या वे दूसरों के लिए इस राह पर आने से रुक जाने का कारण बने।]
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَءَامَنُواْ بِمَا نُزِّلَ عَلَىٰ مُحَمَّدٖ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡ كَفَّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَأَصۡلَحَ بَالَهُمۡ ۝ 1
(2) और जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए और उस चीज़ को मान लिया जी मुहम्मद पर उतरी है4 - और है वह सर्वथा सत्य उनके रब की ओर से अल्‍लाह ने उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दीं5 और उनका हाल ठीक कर दिया।6
4. 'अल्लज़ी-न आमनू' (जो लोग ईमान लाए) कहने के बाद 'आमिनू बिमा नुज्जि-ल अलामुहम्मदिन (और उसको मान लिया जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरी है) का अलग उल्लेख विशेष रूप से यह बताने के लिए किया गया है कि मुहम्मद (सल्ल.) के पैग़म्बर नियुक्त हो जाने के बाद किसी आदमी का ख़ुदा और आख़िरत और पिछले रसूलों और पिछली किताबों को मानना भी उस समय तक लाभप्रद नहीं है, जब तक कि वह आप (सल्ल०) को और आपकी लाई हुई शिक्षा को न मान ले। यह स्पष्टीकरण इसलिए ज़रूरी था कि हिजरत के बाद अब मदीना में उन लोगों का भी सामना था जो ईमान की दूसरी तमाम चीज़ों को तो मानते थे, मगर मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) को मानने से इंकार कर रहे थे।
5. इसके दो अर्थ हैं। एक यह कि अज्ञानता काल में जो पाप उनसे हुए थे, अल्लाह ने वे सब उनके हिसाब में से खत्म कर दिए। दूसरा अर्थ यह है कि विश्वास और विचार और चरित्र व आचरण की जिन बुराइयों में वे पड़े हुए थे, अल्लाह ने वे सब उनसे दूर कर दी।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡبَٰطِلَ وَأَنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡحَقَّ مِن رَّبِّهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ أَمۡثَٰلَهُمۡ ۝ 2
(3) यह इसलिए कि इंकार करनेवालों ने असत्य का अनुसरण किया और ईमान लानेवालों ने उस सत्य का अनुसरण किया जो उनके रब की ओर से आया है। इस तरह अल्लाह लोगों को उनकी ठीक-ठीक हैसियत बताए देता है।7
7. अर्थात् अल्लाह इस तरह दोनों फ़रीकों (पक्षों) को उनकी स्थिति ठीक-ठीक बता देता है। एक पक्ष असत्य के पालन पर आग्रह कर रहा है, इसलिए अल्लाह ने उनकी सारी कोशिशों और कामों को अकारथ कर दिया है और दूसरे पक्ष ने सत्य का पालन किया है, इसलिए अल्लाह ने उसको बुराइयों से पाक करके उसकी हालत ठीक कर दी है।
فَإِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَضَرۡبَ ٱلرِّقَابِ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَثۡخَنتُمُوهُمۡ فَشُدُّواْ ٱلۡوَثَاقَ فَإِمَّا مَنَّۢا بَعۡدُ وَإِمَّا فِدَآءً حَتَّىٰ تَضَعَ ٱلۡحَرۡبُ أَوۡزَارَهَاۚ ذَٰلِكَۖ وَلَوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَٱنتَصَرَ مِنۡهُمۡ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَاْ بَعۡضَكُم بِبَعۡضٖۗ وَٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَلَن يُضِلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 3
(4) अत: जब इन इंकार करनेवालों (शत्रुओं) से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मजबूत बाँधो, इसके बाद (तुम्हें अधिकार है) उपकार करो या अर्थदण्ड (फ़िदिया) का मामला कर लो, यहाँ तक कि नहाई अपने हथियार डाल दे।8 यह है तुम्हारे करने का काम। अल्लाह चाहता तो स्वयं ही उनसे निपट लेता, मगर (यह तरीक़ा उसने इसलिए अपनाया है) ताकि तुम लोगों को एक-दूसरे के ज़रिये से आजमाएं।9 और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँगे, अल्लाह उनके कर्मों को हरगिज़ अकारथ न करेगा।10
8. इस आयत के शब्दों से भी और प्रसंग में आए विषयों को देखते हुए भी यह बात स्पष्ट रूप से मालूम होती है कि यह लड़ाई का आदेश आ जाने के बाद और लड़ाई शुरू होने से पहले उतरी है। ‘जब इंकार करनेवालों (काफ़िरों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो' के शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि अभी मुठभेड़ हुई नहीं है, और इसके होने से पहले यह आदेश दिया जा रहा है कि जब वह हो तो क्या करना चाहिए। आगे आयत 20 के शब्द इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह सूरा उस ज़माने में उतरी थी, जब सूरा-22 हज की आयत 39 और सूरा-2 बकरा की आयत 190 में लड़ाई का आदेश आ चुका था और उसपर भय के मारे मदीना के मुनाफ़िकों और कमज़ोर ईमानवाले लोगों की दशा यह हो रही थी कि जैसे उनपर मौत छा गई हो। इसके अलावा सूरा-8 अनफ़ाल की आयत 67 से 69 भी इस बात पर गवाह है कि यह आयत बद्र की लड़ाई से पहले उतर चुकी थी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, तफ़्सीर सूरा-8 अनफ़ाल, टिप्पणी 49) यह क़ुरआन मजीद की पहली आयत है जिसमें युद्ध के नियमों के बारे में आरंभिक आदेश दिए गए हैं। इससे जो आदेश निकलते हैं और उसके अनुसार नबी (सल्ल०), और सहाबा किराम (रजि०) ने जिस तरह अमल किया है, और फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) द्वारा इस आयत और सुन्नत से जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनका सारांश यह है- (1) युद्ध में मुसलमानों की फ़ौज का असल निशाना दुश्मन की सामरिक (युद्ध) शक्ति को तोड़ देना है, यहाँ तक कि उसमें लड़ने की शक्ति न रहे और युद्ध समाप्त हो जाए। इस लक्ष्य से ध्यान हटाकर दुश्मन के आदमियों को गिरफ्तार करने में न लग जाना चाहिए। क़ैदी पकड़ने की ओर ध्यान उस समय देना चाहिए, जब दुश्मन को अच्छी तरह उखाड़ फेंका जाए और लड़ाई के मैदान में उसके कुछ आदमी बाक़ी रह जाएँ। (2) युद्ध में जो लोग गिरफ़्तार हों उनके बारे में फ़रमाया गया कि तुम्हें अधिकार है, चाहे उनपर उपकार करो, या उनसे प्रतिदान (अर्थदण्ड) का मामला कर लो। इससे सामान्य नियम यह निकलता है कि युद्ध-बन्दियों को क़त्ल न किया जाए। (3) मगर चूँकि इस आयत में क़त्ल पर स्पष्ट रूप से रोक भी नहीं लगाई गई है, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह के आदेश का मतलब यह समझा और इसी पर अमल भी किया कि अगर कोई ख़ास वजह ऐसी हो, जिसके कारण इस्लामी राज्य का शासक किसी क़ैदी या कुछ क़ैदियों को क़त्ल करना ज़रूरी समझे, तो वह ऐसा कर सकता है। यह सामान्य नियम नहीं है, बल्कि सामान्य नियमों में एक अपवाद है जिसे ज़रूरत पर ही इस्तेमाल किया जाएगा। (4) युद्ध-बन्दियों के बारे में आम हुक्म जो दिया गया है, वह यह है कि या उनपर उपकार करो या प्रतिदान (अर्थ-दण्ड) का मामला कर लो। उपकार में चार चीजें सम्मिलित हैं- एक, यह कि क़ैद की हालत में उनसे अच्छा बर्ताव किया जाए। दूसरी, यह कि क़त्ल या उम्र कैद के बजाय उनको गुलाम बनाकर मुसलमानों के हवाले कर दिया जाए। तीसरी, यह कि जिज़या लगाकर उनको ज़िम्मी बना लिया जाए। चौथी, यह कि मुआवज़ा लिए बगैर उन्हें रिहा कर दिया जाए। प्रतिदान का मामला करने की तीन शक्लें हैं- एक, यह कि माली मुआवज़ा (अर्थदण्ड) लेकर उन्हें छोड़ा जाए। दूसरी, यह कि रिहाई की शर्त के रूप में कोई विशेष सेवा लेने के बाद छोड़ दिया जाए। तीसरी, यह कि अपने उन आदमियों से, जो दुश्मन के कब्जे में हों, उनका तबादला कर लिया जाए। इन सब अलग-अलग शक्लों पर नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रजि०) ने अलग-अलग समयों में यथास्थिति अमल किया है। (5) नबी (सल्‍ल०) और सहाबा के अमल ये यह सिȑद्ध है कि एक युद्ध-बन्‍दी जब तक हुकूमत की क़ैद में रहे, उसका भोजन और कपड़ा और अगर वह बीमार या घायल हो तो उसका इलाज हुकूमत के ज़िम्‍मे है। (6) क़ैदियों के मामले में यह शक्ल इस्लाम ने सिरे से अपने यहाँ रखी ही नहीं है कि उनको हमेशा क़ैद रखा जाए और हुकूमत उनसे बलात परिश्रम कराती रहे। अगर उनके साथ या उनकी क़ौम के साथ युद्ध-बन्दियों के तबादले या प्रतिदान का कोई मामला तय न हो सके तो उनके मामले में उपकार का तरीक़ा यह रखा गया है कि उन्हें गुलाम बनाकर अलग-अलग लोगों की मिल्कियत में दे दिया जाए और उनके मालिकों को निर्देश दिया जाए कि वे उनके साथ अच्छा व्यवहार करें। (7) कैदियों के साथ उपकार की तीसरी शक्ल इस्लाम में यह रखी गई है कि जिज़या लगाकर उनको दारुल इस्लाम की ज़िम्मी प्रजा बना लिया जाए और वह इस्लामी राज्य में उसी तरह आज़ाद होकर रहें जिस तरह मुसलमान रहते हैं। (8) उपकार की चौथी शक्ल यह है कि कैदी को बिना किसी प्रतिदान और मुआवजे के यूँ ही रिहा कर दिया जाए। इस्लामी-धर्मशास्त्रियों (फुकहा) ने इसके औचित्य के लिए यह शर्त लगाई कि 'अगर मुसलमानों के शासक क़ैदियों को या उनमें से कुछ को उपकार के रूप में छोड़ देने में मस्लहत समझें तो ऐसा करने में कोई दोष नहीं है' (अस्सियरुल क़बीर) । नबी (सल्ल०) के ज़माने में इसकी बहुत-सी मिसालें मिलती हैं, और क़रीब-क़रीब सब में मस्लहत का पहलू स्पष्ट है। (9) आर्थिक मुआवज़ा लेकर कैदियों को छोड़ने की मिसाल नबी (सल्ल०) के ज़माने में केवल बद्र की लड़ाई के मौके पर मिलती है। सहाबा किराम (रजि०) के दौर में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती और इस्लामी धर्मशास्त्रियों (फुक़हा) ने आमतौर पर इसको नापसंद किया है। इमाम मुहम्मद 'अस्सियरुल कबीर' में कहते हैं कि अगर मुसलमानों को इसकी ज़रूरत पेश आए तो वे आर्थिक मुआवजा लेकर क़ैदियों को छोड़ सकते हैं। (10) कोई सेवा लेकर छोड़ने की मिसाल भी बद्र की लड़ाई के मौके पर मिलती है। क़ुरैश के क़ैदियों में से जो लोग प्रतिदान देने योग्य न थे, उनकी रिहाई के लिए नबी (सल्ल०) ने यह शर्त लगाई कि वे अंसार के दस-दस बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखा दें। (मुस्नद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-सब्द, किताबुल अम्वाल) (11) क़ैदियों के तबादले की कई मिसालें हमको नबी (सल्ल०) के ज़माने में मिलती हैं। इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम ने युद्ध-बन्दियों के मामले में एक ऐसा व्यापक नियम बनाया है जिसके अंदर हर ज़माने और हर प्रकार के हालात में इस समस्या से निमटने की गुंजाइश है। जो लोग क़ुरआन मजीद की इस आयत का बस यह संक्षिप्त सा अर्थ ले लेते हैं कि युद्ध में क़ैद होनेवालों को या तो उपकार के रूप में छोड़ दिया जाए या प्रतिदान लेकर रिहा कर दिया जाए वे इस बात को नहीं जानते कि युद्ध-बन्दियों का मामला कितने अलग-अलग पहलू रखता है और अलग-अलग समयों में वह कितनी समस्याएँ पैदा करता रहा है और आगे कर सकता है।
9. अर्थात् अगर अल्लाह को केवल असत्यवादियों का सिर ही कुचलना होता तो वह इस काम के लिए तुम्हारा मुहताज न था। यह काम तो उसका एक भूकंप या एक तूफान पलक झपकते ही कर सकता था। मगर उसके समक्ष तो यह है कि इंसानों में से जो सत्यवादी हों, वे असत्यवादियों से टकराएँ और उनके मुक़ाबले में जिहाद करें, ताकि जिसके अंदर जो कुछ विशेषताएँ हैं, वे इस परीक्षा से निखरकर पूरी तरह स्पष्ट हो जाएँ और हर एक अपने चरित्र के अनुसार जिस स्थान और श्रेणी का अधिकारी हो, वह उसको दिया जाए।
سَيَهۡدِيهِمۡ وَيُصۡلِحُ بَالَهُمۡ ۝ 4
(5) वह उनका मार्गदर्शन करेगा, उनकी हालत ठीक कर देगा
وَيُدۡخِلُهُمُ ٱلۡجَنَّةَ عَرَّفَهَا لَهُمۡ ۝ 5
(6) और उनको उस जन्नत में दाख़िल करेगा जिससे वह उनको वाक़िफ़ (परिचित) करा चुका है।11
11. यह है वह फ़ायदा जो ख़ुदा के रास्ते में जान देनेवालों को प्राप्त होगा। इसके तीन दरजे बताए गए हैं- एक, यह कि अल्लाह उनका मार्गदर्शन करेगा, और दूसरा, यह कि उनकी हालत ठीक कर देगा, तीसरा, यह कि उनको उस जन्नत में दाखिल करेगा जिससे वह पहले ही उनको अवगत करा चुका है। मार्गदर्शन करने से तात्पर्य स्पष्ट है कि इस जगह पर जन्नत की ओर रहनुमाई करना है। हालात ठीक करने से तात्पर्य यह है कि जन्नत में दाखिल होने से पहले अल्लाह उनको शाही पोशाकों से सुसज्जित करके वहाँ ले जाएगा और हर उस गन्दगी, दोष को दूर कर देगा जो दुनिया की जिंदगी में उनको लग गया था। और तीसरे दरजे का मतलब यह है कि दुनिया में पहले ही उनको क़ुरआन और नबी (सल्ल०) की ज़बान से बताया जा चुका है कि वह जन्नत कैसी है जो अल्लाह ने उनके लिए तैयार कर रखी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَنصُرُواْ ٱللَّهَ يَنصُرۡكُمۡ وَيُثَبِّتۡ أَقۡدَامَكُمۡ ۝ 6
(7) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा12 और तुम्हारे क़दम मज़बूत जमा देगा।
12. अल्लाह की मदद करने का एक सीधा-सादा अर्थ तो यह है कि उसका कलिमा बुलन्द करने और सत्य को सरबुलन्द करने के लिए जान व माल से अथक प्रयत्न किया जाए। लेकिन उसका एक गूढ़ अभिप्राय भी है जिसकी हम इससे पहले व्याख्या कर चुके हैं। ( देखिए टीका सूरा-3 आले-इमरान, टिप्पणी 50)
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَتَعۡسٗا لَّهُمۡ وَأَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 7
(8) रहे वे लोग जिन्होंने इंकार किया है, तो उनके लिए हलाकत (तबाही) है13 और अल्लाह ने उनके कर्मों को भटका दिया है।
13. मूल अरबी शब्द हैं 'फ़-तअ सल लहुम' । 'तअस' ठोकर खाकर मुंह के बल गिरने को कहते हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَرِهُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 8
(9) क्योंकि उन्होंने उस चीज़ को नापसन्द किया जिसे अल्लाह ने उतारा है,14 अत: अल्लाह ने उनके कर्म अकारथ कर दिए।
14. अर्थात् उन्होंने अपनी पुरानी अज्ञानता को प्राथमिकता दी और उस शिक्षा को पसन्द न किया जो अल्लाह ने उनको सीधा रास्ता बताने के लिए उतारा था।
۞أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ دَمَّرَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۖ وَلِلۡكَٰفِرِينَ أَمۡثَٰلُهَا ۝ 9
(10) क्या वे ज़मीन में चले-फिरे न थे कि उन लोगों का अंजाम देखते जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं ? अल्लाह ने उनका सब कुछ उनपर उलट दिया, और ऐसे ही परिणाम इन इंकार करनेवालों के लिए मुक़द्दर (नियत) हैं।15
15. इस वाक्य के दो अर्थ हैं। एक यह कि जिस तबाही से वे इंकार करनेवाले दोचार हुए, वैसी ही तबाही अब इन इंकार करनेवालों के लिए मुक़द्दर है जो मुहम्मद (सल्ल.) के संदेश को नहीं मान रहे हैं। दूसरा अर्थ यह है कि उन लोगों की तबाही सिर्फ दुनिया के अज़ाब पर ख़त्म नहीं हो गई है, बल्कि यही तबाही उनके लिए आख़िरत में भी मुक़द्दर हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَأَنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ لَا مَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 10
(11) यह इसलिए कि ईमान लानेवालों का संरक्षक व सहायक अल्लाह है और इंकार करनेवालों का संरक्षक और सहायक कोई नहीं।16
16. उहुद के में जब नबी (सल्ल०) घायल होकर कुछ सहाबा के साथ एक घाटी में ठहरे हुए थे, उस समय अबू सुफ़यान ने नारा लगाया, "हमारे पास उज़्ज़ा (देवता) है और तुम्हारा कोई उज़्ज़ा नहीं है।" इसपर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से फ़रमाया, उसे जवाब दो, “हमारा संरक्षक और सहायक अल्लाह है और तुम्हारा संरक्षक और सहायक कोई नहीं।" नबी (सल्ल०) का यह उत्तर इसी आयत से उद्धृत था।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَتَمَتَّعُونَ وَيَأۡكُلُونَ كَمَا تَأۡكُلُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ وَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡ ۝ 11
(12) ईमान लानेवालों और सत्कर्मियों को अल्लाह उन जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं, और इंकार करनेवाले बस दुनिया की कुछ दिनों की जिंदगी के मज़े लूट रहे हैं, जानवरों की तरह खा-पी रहे हैं17,
17. अर्थात् जिस तरह जानवर खाता है और कुछ नहीं सोचता कि यह रोज़ी कहाँ से आई है और किसकी पैदा की हुई है और इस रोज़ी के साथ मेरे ऊपर रोजी देनेवाले का क्या हक़ और अधिकार वाजिब हो जाता है, उसी तरह ये लोग भी बस खाए जा रहे हैं, चरने-चुगने से आगे किसी चीज़ की इन्हें कोई चिन्ता नहीं है। और उनका अन्तिम ठिकाना जहन्नम है।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ هِيَ أَشَدُّ قُوَّةٗ مِّن قَرۡيَتِكَ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَتۡكَ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ فَلَا نَاصِرَ لَهُمۡ ۝ 12
(13) ऐ नबी! कितनी ही बस्तियाँ ऐसी गुज़र चुकी हैं जो तुम्हारी इस बस्ती से बहुत ज़्यादा शक्तिशाली थीं जिसने तुम्हें निकाल दिया है। उन्हें हमने इस तरह नष्ट कर दिया कि कोई उनका बचानेवाला न था।18
18. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को मक्का से निकलने का बहुत दुख था। जब आप (सल्ल०) हिजरत करने पर मजबूर हुए तो शहर से बाहर निकलकर आप (सल्ल.) ने उसकी ओर रुख करके फ़रमाया था, "ऐ मक्का! तू दुनिया के तमाम शहरों में ख़ुदा को सबसे ज़्यादा प्रिय है और ख़ुदा के तमाम शहरों में मुझे सबसे बढ़कर तुझसे प्रेम है। अगर मुशरिकों ने मुझे न निकाला होता तो मैं तुझे छोड़कर कभी न निकलता।" इसी पर कहा गया है कि मक्कावाले तुम्हें निकालकर अपनी जगह यह समझ रहे हैं कि उन्होंने कोई बड़ी सफलता प्राप्त की है, हालाँकि वास्तव में यह हरकत करके उन्होंने अपनी शामत बुलाई है। आयत की वर्णन-शैली साफ़ बता रही है कि यह जरूर हिजरत के करीब ही उतरी होगी।
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ كَمَن زُيِّنَ لَهُۥ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم ۝ 13
(14) भला कहीं ऐसा हो सकता है कि जो अपने रब की ओर से एक स्पष्ट और प्रत्यक्ष मार्ग पर हो, वह उन लोगों की तरह हो जाए जिनके लिए उनका बुरा कर्म सुन्दर बना दिया गया है और वे अपनी कामनाओं के अनुगामी बन गए हैं।19
19. अर्थात् आख़िर यह कैसे संभव है कि पैग़म्बर और उसके अनुयायियों को जब ख़ुदा की ओर से एक स्पष्ट और सीधा रास्ता मिल गया है और पूरे ज्ञान और विवेक के आलोक में वे इसपर कायम हो चुके हैं तो अब वे उन लोगों के साथ चल सकें जो अपनी पुरानी अज्ञानता के साथ चिमटे हुए हैं। अब तो न इस दुनिया में इन दोनों गिरोहों की जिंदगी एक जैसी हो सकती है और न आख़िरत में उनका अंजाम एक जैसा हो सकता है।
مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ فِيهَآ أَنۡهَٰرٞ مِّن مَّآءٍ غَيۡرِ ءَاسِنٖ وَأَنۡهَٰرٞ مِّن لَّبَنٖ لَّمۡ يَتَغَيَّرۡ طَعۡمُهُۥ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ خَمۡرٖ لَّذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ عَسَلٖ مُّصَفّٗىۖ وَلَهُمۡ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَمَغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡۖ كَمَنۡ هُوَ خَٰلِدٞ فِي ٱلنَّارِ وَسُقُواْ مَآءً حَمِيمٗا فَقَطَّعَ أَمۡعَآءَهُمۡ ۝ 14
(15) परहेज़गारों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान तो यह है कि इसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की,20 नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके स्वाद में ज़रा फ़र्क न आया होगा,21 नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए स्वादिष्ट होंगी,22 नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की।23 उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की ओर से बख्शिश।24 (क्या वह व्यक्ति जिसके हिस्से में यह जन्नत आनेवाली है) उन लोगों की तरह हो सकता है जो जहन्नम में हमेशा रहेंगे और जिन्हें ऐसा गर्म पानी पिलाया जाएगा जो उनकी आँतें तक काट देगा?
19. अर्थात् आख़िर यह कैसे संभव है कि पैग़म्बर और उसके अनुयायियों को जब ख़ुदा की ओर से एक स्पष्ट और सीधा रास्ता मिल गया है और पूरे ज्ञान और विवेक के आलोक में वे इसपर कायम हो चुके हैं तो अब वे उन लोगों के साथ चल सकें जो अपनी पुरानी अज्ञानता के साथ चिमटे हुए हैं। अब तो न इस दुनिया में इन दोनों गिरोहों की जिंदगी एक जैसी हो सकती है और न आख़िरत में उनका अंजाम एक जैसा हो सकता है।
20. मूल अरबी शब्द हैं 'माइन गैरी आसिन'।'आसिन' उस पानी को कहते हैं जिसका स्वाद और रंग बदला हुआ हो, या जिसमें किसी तरह की गंध पैदा हो गई हो। दुनिया में नदियों और नहरों के पानी आम तौर पर [ऐसे ही हो जाया करते हैं । इसलिए जन्नत की नदियों और नहरों के पानी की यह परिभाषा बताई गई है कि वह 'ग़ैर-आसिन' होगा, अर्थात् वह शुद्ध, निर्मल और साफ़ सुथरा पानी होगा। किसी प्रकार की मिलावट उसमें न होगी।
24. जन्नत की इन नेमतों के बाद अल्लाह की ओर से क्षमा (मग़फ़िरत) का उल्लेख करने के दो अर्थ हो सकते हैं । एक यह कि इन सारी नेमतों से बढ़कर यह नेमत है कि अल्लाह उनको क्षमा-दान देगा। दूसरा अर्थ यह है कि दुनिया में जो कोताहियाँ उनसे हुई थीं, उनका उल्लेख तक जन्नत में कभी उनके सामने न आएगा, बल्कि अल्लाह उनपर हमेशा के लिए परदा डाल देगा।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَ حَتَّىٰٓ إِذَا خَرَجُواْ مِنۡ عِندِكَ قَالُواْ لِلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مَاذَا قَالَ ءَانِفًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُمۡ ۝ 15
(16) उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं और फिर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उन लोगों से, जिन्हें ज्ञान की नेमत दी गई है, पूछते हैं, कि अभी-अभी इन्होंने क्या कहा था?25 ये वे लोग हैं जिनके दिलों पर अल्लाह ने ठप्पा लगा दिया है और ये अपनी मनोकामनाओं के पीछे चल रहे हैं।26
25. यह उल्लेख इस्लाम के उन इंकारियों, मुनाफ़िकों और अहले-किताब में से इस्लाम का इंकार करनेवालों का है जो नबी (सल्ल०) की सभा में आकर बैठते थे और आप (सल्ल०) की बातें या क़ुरआन मजीद की आयतें सुनते थे, मगर चूंकि उनका दिल उन विषयों से दूर था जो आप (सल्ल०) की ज़बान से अदा होते थे, इसलिए सब कुछ सुनकर भी वे कुछ न सुनते थे और बाहर निकलकर मुसलमानों से पूछते थे कि अभी-अभी आप (सल्ल०) क्या फ़रमा रहे थे।
26. यह था वह मूल कारण जिसकी वजह से उनके दिल के कान नबी (सल्ल.) की बातों के लिए बहरे हो गए थे। वे अपनी मनोकामनाओं के दास थे, और नबी (सल्ल०) जो शिक्षा दे रहे थे वे उनकी कामनाओं के विपरीत थीं। इसलिए अगर वे कभी आप (सल्ल०) की सभा में आकर संकोच के साथ आप (सल्ल०) की ओर कान लगाते भी थे तो उनके पल्ले कुछ न पड़ता था।
وَٱلَّذِينَ ٱهۡتَدَوۡاْ زَادَهُمۡ هُدٗى وَءَاتَىٰهُمۡ تَقۡوَىٰهُمۡ ۝ 16
(17) रहे वे लोग जिन्होंने मार्ग पा लिया है, अल्लाह उनको और अधिक पथप्रदर्शन करता है27 और उन्हें उनके हिस्से का तक़वा (परहेज़गारी) प्रदान करता है।28
27. अर्थात् वही बातें जिनको सुनकर इस्लाम-विरोधी और कपटाचारी लोग पूछते थे कि अभी-अभी आप (सल्ल०) क्या फ़रमा रहे थे, संमार्ग पाए हुए लोगों के लिए और अधिक हिदायत का कारण बनती है और जिस सभा से वे अभागे लोग अपना समय बर्बाद करके उठते हैं, उसी सभा से ये भाग्यवान लोग ज्ञान और बोध का एक नया भंडार प्राप्त करके पलटते हैं।
28. अर्थात् जिस तक़वा (परहेज़गारी) की क्षमता वे अपने भीतर पैदा कर लेते हैं, अल्लाह उसका सौभाग्य उन्हें प्रदान कर देता है।
فَهَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗۖ فَقَدۡ جَآءَ أَشۡرَاطُهَاۚ فَأَنَّىٰ لَهُمۡ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ ذِكۡرَىٰهُمۡ ۝ 17
(18) अब क्या ये लोग बस क़ियामत ही की प्रतीक्षा में हैं कि वह अचानक इनपर आ जाए?29 उसकी निशानियाँ तो आ चुकी हैं।30 जब वह ख़ुद आ जाएगी तो इनके लिए शिक्षा ग्रहण करने का कौन-सा अवसर बाक़ी रह जाएगा?
29. अर्थात् जहाँ तक सत्य स्पष्ट करने का संबंध है, वह तो दलीलों से, क़ुरआन के चामत्कारिक वर्णन से, मुहम्मद (सल्ल०) के पवित्र जीवन से और सहाबा किराम (रजि०) की जिंदगियों की क्रान्ति से, अत्यन्‍त रौशन तरीक़े पर स्पष्ट किया जा चुका है। अब क्या ईमान लाने के लिए ये लोग इस बात का इंतिज़ार कर रहे हैं कि क्रियामत इनके सामने आ खड़ी हो?
30. क़ियामत की निशानियों से तात्पर्य वे निशानियाँ हैं जिनसे प्रकट होता है कि उसके आने का समय क़रीब आ लगा है। इनमें से एक अहम निशानी अल्लाह के आख़िरी नबी का आ जाना है, जिसके बाद क़ियामत तक कोई और नबी आनेवाला नहीं है। [हदीस की मशहूर किताबें] बुख़ारी और मुस्लिम आदि में है कि नबी (सल्ल०) ने अपनी शहादत की उँगली (अंगूठे के बादवाली उँगली) और बीच की उँगली खड़ी करके फ़रमाया, "मेरा भेजा जाना और क़ियामत इन दो उँगलियों की तरह है।" अर्थात् जिस तरह इन दो उँगलियों के बीच कोई और उँगली नहीं है, इसी तरह मेरे और क़ियामत के बीच कोई और नबी भी भेजा जानेवाला नहीं है। मेरे बाद अब बस क़ियामत ही आनेवाली है।
فَٱعۡلَمۡ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مُتَقَلَّبَكُمۡ وَمَثۡوَىٰكُمۡ ۝ 18
(19) अत: ऐ नबी! ख़ूब जान लो कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत (उपासना) का अधिकारी नहीं है, और माफ़ी माँगो अपने क़ुसूर के लिए भी और ईमानवाले मर्दों और औरतों के लिए भी।31 अल्‍लाह तुम्हारी सरगर्मियों को भी जानता है और तुम्हारे ठिकाने से भी परिचित है।
31. इस्लाम ने जो शिष्टाचार इंसान को सिखाए हैं, उनमें से एक यह भी है कि बन्दा अपने रब की बन्दगी और इबादत (भक्ति और आज्ञापालन) बजा लाने में और उसके दीन के लिए जान लड़ाने में, चाहे अपनी हद तक कितनी ही कोशिश करता रहा हो, उसको कभी इस दंभ में न पड़ना चाहिए कि जो कुछ मुझे करना चाहिए था, वह मैंने कर दिया है। बल्कि उसे हमेशा यही समझते रहना चाहिए कि मेरे मालिक का मुझपर जो हक़ था, वह मैं अदा नहीं कर सका हूँ और हर वक्त अपने कुसूर को मान करके अल्लाह से यही दुआ करते रहना चाहिए कि तेरो सेवा में जो कुछ भी मुझसे कोताही हुई है उसे माफ़ कर। यही मूल भावना है अल्लाह के इस कथन को कि “ऐ नबी! अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगो।" इसका अभिप्राय यह नहीं है कि अल्लाह को पनाह ! नबी (सल्ल०) ने वास्तव में जान-बूझकर कोई कुसूर किया था, बल्कि इसका सही अभिप्राय यह है कि ख़ुदा के तमाम बन्दों से बढ़कर जो बन्दा अपने रब की बन्दगी बजा लानेवाला था, उसका पद भी यह न था कि अपने कारनामे पर घमंड या गर्व का लेशमात्र भी उसके दिल में राह पाए, बल्कि उसका पद यह था कि अपनी तमाम महान सेवाओं के बावजूद अपने रब के समक्ष क़ुसूर को मानता ही रहे।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡلَا نُزِّلَتۡ سُورَةٞۖ فَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ مُّحۡكَمَةٞ وَذُكِرَ فِيهَا ٱلۡقِتَالُ رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ نَظَرَ ٱلۡمَغۡشِيِّ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَأَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 19
(20) जो लोग ईमान लाए हैं, वे कह रहे थे कि कोई सूरा क्यों नहीं उतारी जाती (जिसमें युद्ध का आदेश दिया जाए), मगर जब एक पक्की सूरा उतार दी गई, जिसमें युद्ध का उल्लेख था, तो हमने देखा कि जिनके दिलों में बीमारी थी वे तुम्हारी ओर इस तरह देख रहे हैं जैसे किसी पर मौत छा गई हो।32 अफ़सोस उनके हाल पर।
32. मतलब यह है कि जिन हालात से मुसलमान उस समय गुज़र रहे थे और इस्लाम-विरोधियों का जो रवैया उस समय इस्लाम और मुसलमानों के साथ था, उसके कारण युद्ध का आदेश आने से पहले ही सच्चे ईमानवालों को आम राय यह थी कि अब हमें युद्ध की अनुमति मिल जानी चाहिए, बल्कि वे बेचैनी के साथ अल्लाह के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे और बार-बार पूछते थे कि हमें इन ज़ालिमों से लड़ने का आदेश क्यों नहीं दिया जाता? मगर जो लोग निफ़ाक़ (कपट) के साथ मुसलमानों के गिरोह में शामिल हो गए थे, उनका हाल ईमानवालों के हाल से बिलकुल भिन्न था। वे अपनी जान व माल को ख़ुदा और उसके दीन से अधिक प्रिय रखते थे और उसके लिए कोई ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार न थे। युद्ध के आदेश ने आते ही उनको और सच्चे ईमानवालों को एक-दूसरे से छाँटकर अलग कर दिया। जब तक यह आदेश न आया था उनमें और आम ईमानवालों में प्रत्यक्ष में कोई अन्तर न पाया जाता था। नमाज़ वे भी पढ़ते थे और ये भी। रोजे रखने में भी उन्हें संकोच न था। ठंडा-ठंडा इस्लाम उन्हें क़बूल था। मगर जब इस्लाम के लिए जान की बाजी लगाने का समय आया तो उनके निफ़ाक़ (कपट) का हाल खुल गया और दिखावटी ईमान का वह मुखौटा उतर गया जो उन्होंने ऊपर से पहन रखा था। सूरा-4 निसा में उनकी इस दशा का उल्लेख इस प्रकार किया गया है, "तुमने देखा उन लोगों को जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो, और नमाज़ क़ायम करो, और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का आदेश दे दिया गया तो उनमें से एक गिरोह का हाल यह है कि इंसानों से इस तरह डर रहे हैं, जैसे ख़ुदा से डरना चाहिए, बल्कि कुछ इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं, "ऐ ख़ुदा ! यह युद्ध का आदेश हमें क्यों दे दिया? हमें अभी कुछ और मुहलत क्यों न दी?" [और अधिक विस्तार के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, आयत 77]
طَاعَةٞ وَقَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞۚ فَإِذَا عَزَمَ ٱلۡأَمۡرُ فَلَوۡ صَدَقُواْ ٱللَّهَ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ ۝ 20
(21) (उनकी ज़बान पर है) आज्ञापालन की स्‍वीकारोक्ति और अच्छी-अच्छी बातें, मगर जब निश्चित आदेश दे दिया गया, उस वक़्त वे अल्लाह से अपने वचन में सच्चे निकलते तो उन्हीं के लिए अच्छा था।
فَهَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن تَوَلَّيۡتُمۡ أَن تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَتُقَطِّعُوٓاْ أَرۡحَامَكُمۡ ۝ 21
(22) अब क्या तुम लोगों से इसके सिवा कुछ और आशा की जा सकती है कि अगर तुम उलटे मुँह फिर गए33 तो धरती में फिर बिगाड़ फैलाओगे और आपस में एक-दूसरे के गले काटोगे?34
33. मूल अरबी शब्द हैं इन तवल्लैतुम'। इनका एक अनुवाद वह है जो हमने ऊपर किया है और दूसरा अनुवाद यह है कि "अगर तुम लोगों के हाकिम बन गए।"
34. इस कथन का एक मतलब यह है कि अगर इस वक़्त तुम इस्लाम की प्रतिरक्षा से जी चुराते हो और उस महान सुधार-क्रान्ति के लिए जान व माल को बाजी लगाने से मुंह मोड़ते हो, जिसको कोशिश मुहम्मद (सल्‍ल०) और ईमानवाले कर रहे हैं, तो इसका परिणाम आखिर इसके सिवा और क्या हो सकता है कि तुम फिर उसी अज्ञान व्यवस्था की ओर पलट जाओ जिसमें तुम लोग सदियों से एक दूसरे के गले काटते रहे हो, अपनी सन्तान तक को जिंदा गाड़ देते रहे हो, और खुदा की जमीन को जुल्म व फ़साद से भरते रहे हो। दूसरा मतलब यह है कि जब तुम्हारे चरित्र व आचरण का हाल यह है कि जिस दीन पर ईमान लाने का तुमने इक़रार किया था उसके लिए तुम्हारे अन्दर कोई निष्ठा और कोई वफ़ादारी नहीं है और उसके लिए कोई क़ुर्बानी देने के लिए तुम तैयार नहीं हो, तो इस नैतिक स्थिति के साथ अगर अल्लाह तुम्हें सत्ता दे दे और दुनिया के मामलों की बागडोर तुम्हारे हाथ में आ जाए तो तुमसे अत्याचार और बिगाड़ तथा अपने भाइयों को क़त्‍ल करने के सिवा और किस चीज़ की आशा की जा सकती है। यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि इस्लाम में रिश्तेदारी को तोड़ना हराम है। दूसरी ओर सकारात्मक ढ़ग से क़ुरआन मजीद में अनेक स्थानों पर रिश्तेदारों के साथ सद्व्यवहार करने को 'बड़ी नेकियों’ में गिना गया है और रिश्तों के जोड़ने का आदेश दिया गया है। (उदाहरणस्वरूप देखिए, सूरा-2 अल-बक़रा, आयतें 83, 177: सूरा-4 अन-निसा, आयतें 8, 36; सूरा-16 अन-नह्ल, आयत 90; सूरा-17 बनी इमाईल, आयत 26; सूरा-24 अन-नर, आयत 22) 'रहम' का शब्द अरबी भाषा में नाते और रिश्तेदारी के लिए लाक्षणिक रूप में प्रयुक्त होता है। एक आदमी के तमाम रिश्तेदार चाहे वे दूर के हों या क़रीब के, उसके रिश्तेदार है। जिससे जितना ज्यादा करीब का रिश्ता हो, उसका हक़ आदमी पर उतना ही ज़्यादा है और उससे रिश्ता तोड़ना उतना ही बड़ा पाप है। रिश्ता जोड़ना यह है कि अपने रिश्तेदार के साथ जो भलाई करना भी आदमी के बस में हो, उससे न भागे। और रिश्ता तोड़ना यह है कि आदमी उसके साथ बुरा व्यवहार करे या जो भलाई करना उसके लिए संभव हो, उससे जान-बूझकर बचे। हज़रत उमर (रजि०) ने इसी आयत को दलील बनाते हुए उम्मे-वलद (वह दासी जिसके स्वामी से औलाद उत्पन्न हुई हो) को बेचना हराम क़रार दिया था और सहाबा किराम (रजि०) ने इससे सहमति व्यक्त की थी। हाकिम ने मुस्तदरक में हजरत बुरैदा से यह रिवायत नकल की है कि एक दिन मैं हज़रत उमर (रजि०) की सभा में बैठा था कि यकायक मुहल्ले में शोर मच गया। पूछने पर मालूम हुआ कि एक लौंडी बेची जा रही है और उसकी लड़की रो रही है। हज़रत उमर (रजि०) ने उसी समय अंसार व मुहाजिरों को जमा किया और उनसे पूछा कि जो दीन (धर्म) मुहम्मद (सल्ल.) लाए हैं, क्या उसमें आप लोगों को रिश्ते तोड़ने का भी कोई औचित्य मिलता है? सब ने कहा, नहीं। हजरत उमर (रजि०) ने फ़रमाया, फिर यह क्या बात है कि आपके यहाँ माँ को बेटी से अलग किया जा रहा है ? रिश्तों को तोड़नेवाली इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? फिर आपने यह आयत तिलावत फ़रमाई। लोगों ने कहा, आपकी राय में इसको रोकने के लिए जो उपाय उचित हो, वह करें। इसपर हज़रत उमर (रजि०) ने तमाम इस्लामी प्रांतों के लिए यह आम फ़रमान जारी कर दिया कि किसी ऐसी लौंडी को न बेचा जाए जिससे उसके मालिक के यहाँ सन्तान पैदा हो चुकी हो, क्योंकि यह रिश्तों को तोड़ना है, और यह वैध नहीं है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ فَأَصَمَّهُمۡ وَأَعۡمَىٰٓ أَبۡصَٰرَهُمۡ ۝ 22
(23) ये लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की और उनको अंधा और बहरा बना दिया।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ أَمۡ عَلَىٰ قُلُوبٍ أَقۡفَالُهَآ ۝ 23
(24) क्‍या उन लोगों ने क़ुरआन पर विचार नहीं किया, या दिलों पर इनके ताले चढ़े हुए हैं?35
35. अर्थात् या तो ये लोग क़ुरआन मजीद पर विचार नहीं करते या विचार करने की कोशिश तो करते हैं, मगर उसकी शिक्षा और उसके अर्थ उनके दिलों में उतरते नहीं हैं, क्योंकि उनके दिलों पर ताले चढ़े हुए हैं। और यह जो फ़रमाया कि "दिलों पर उनके ताले चढ़े हुए हैं" तो इसका अर्थ यह है कि उनपर वे ताले चढ़े हुए है जो ऐसे हक़ को पहचाननेवाले दिलों के लिए विशिष्ट हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَى ٱلشَّيۡطَٰنُ سَوَّلَ لَهُمۡ وَأَمۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 24
(25) वास्तविकता यह है कि जो लोग सन्मार्ग स्पष्ट हो जाने के बाद उससे फिर गए, उनके लिए शैतान ने इस नीति को आसान बना दिया है और झूठी आशाओं का सिलसिला उनके लिए लंबा कर रखा है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لِلَّذِينَ كَرِهُواْ مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ سَنُطِيعُكُمۡ فِي بَعۡضِ ٱلۡأَمۡرِۖ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِسۡرَارَهُمۡ ۝ 25
(26) इसी लिए उन्होंने अल्लाह के उतारे हुए धर्म को नापसन्द करनेवालों से कह दिया कि कुछ मामलों में हम तुम्हारी मानेंगे।36 अल्लाह उनकी ये गुप्त बातें ख़ूब जानता है।
36. अर्थात् ईमान का इक़रार करने और मुसलमानों के गिरोह में शामिल हो जाने के बावजूद वे अन्दर ही अन्दर इस्लाम के दुश्मनों से साठ-गाँठ करते रहे और उनसे वादे करते रहे कि कुछ मामलों में हम तुम्हारा साथ देगे।
فَكَيۡفَ إِذَا تَوَفَّتۡهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ ۝ 26
(27) फिर उस समय क्या हाल होगा जब फ़रिश्ते उनके प्राण निकालेंगे और उनके मुंह और पीठों पर मारते हुए उन्हें ले जाएँगे?37
37. अर्थात् दुनिया में तो यह रवैया उन्होंने इसलिए अपना लिया कि अपने हितों की रक्षा कर लें और कुफ़्र और इस्लाम के युद्ध के ख़तरों से अपने आपको बचाए रखें। लेकिन मरने के बाद ये अल्लाह की पकड़ से बचकर कहाँ जाएँगे? उस समय तो उनकी कोई चाल फ़रिश्तों की मार से उनको न बचा सकेगी। यह आयत भी उन आयतों में से है जो बरजख (क़ब्र) के अज़ाब का विवरण पेश करती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मौत के वक्त ही सत्य के इंकारियों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) पर अज़ाब शुरू हो जाता है और यह अजाब उस सज़ा से अलग चीज़ है जो क़ियामत में उनके मुक़द्दमे का फ़ैसला होने के बाद उनको दी जाएगी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-4 अन-निसा, आयत 97; सूरा -6 अल-अनआम आयत 95, 94; सूरा-8 अल-अनफ़ाल, आयत 50; सूरा-16 अन-नल, आयत 28 से 32; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 99-100; सूरा-36 या सीन, आयत 26, 27 एवं टिप्पणी 22, 23; सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 46, एवं टिप्पणी 63)
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱتَّبَعُواْ مَآ أَسۡخَطَ ٱللَّهَ وَكَرِهُواْ رِضۡوَٰنَهُۥ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 27
(28) यह इसी लिए तो होगा कि उन्होंने उस तरीक़े की पैरवी की जो अल्‍लाह को नाराज़ करनेवाला है, और उसकी प्रसन्‍नता का रास्‍ता अपनाना पसन्‍द न किया, इसी कारण उसने सब कर्म अकारथ कर दिए।38
38. कर्म से तात्पर्य वे सभी कर्म हैं जो मुसलमान बनकर वे अंजाम देते रहे। उनकी नमाज़ें, उनके रोज़े, उनकी ज़कात, तात्पर्य यह कि वे तमाम इबादते और वे सारी नेकियाँ जो अपने प्रत्यक्ष रूप की दृष्टि से अच्छे कामों में गिनी जाती हैं, इस कारण नष्ट हो गई कि उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अल्लाह और उसके दीन (धर्म) और मुसलमानों के साथ निष्ठा व वफ़ादारी (कृतज्ञता) का रवैया न अपनाया, बल्कि सिर्फ़ अपनी दुनिया के लाभ के लिए दीन के दुश्मनों के साथ साँठ-गाँठ करते रहे और अल्लाह की राह में जिहाद का अवसर आते ही अपने आपको ख़तरों से बचाने की चिन्ता में लग गए। ये आयतें इस मामले में साफ़-साफ़ बता देनेवाली हैं कि कुफ्र व इस्लाम की लड़ाई में जिस आदमी की सहानुभूतियाँ इस्लाम और मुसलमानों के साथ न हों, या कुफ़्र और कुफ़्फ़ार के साथ हों, उसका ईमान ही सिरे से भरोसेमंद नहीं है। कहाँ यह कि उसका कोई कर्म अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य हो।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَن لَّن يُخۡرِجَ ٱللَّهُ أَضۡغَٰنَهُمۡ ۝ 28
(29) क्या वे लोग, जिनके दिलों में बीमारी है, यह समझे बैठे हैं कि अल्लाह उनके दिलों के खोट प्रकट नहीं करेगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَأَرَيۡنَٰكَهُمۡ فَلَعَرَفۡتَهُم بِسِيمَٰهُمۡۚ وَلَتَعۡرِفَنَّهُمۡ فِي لَحۡنِ ٱلۡقَوۡلِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 29
(30) हम चाहें तो उन्‍हें तुमको आँखों से दिखा दें और उनके चेहरों से तुम उनको पहचान लो, मगर उनके बात करने के ढंग से तो तुम उनको जान ही लोगे। अल्‍लाह तुम सबके कर्मों को ख़ूब जानता है।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُمۡ حَتَّىٰ نَعۡلَمَ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَنَبۡلُوَاْ أَخۡبَارَكُمۡ ۝ 30
(31) हम ज़रूर तुम लोगों को आज़माइश में डालेंगे ताकि तुम्हारे हालात की जाँच करें और देख लें कि तुममें मुजाहिद (जान तोड़ प्रयास करनेवाले) और मज़बूती से जमे रहनेवाले कौन हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَشَآقُّواْ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗا وَسَيُحۡبِطُ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 31
(32) जिन लोगों ने इंकार किया और अल्लाह की राह से रोका और रसूल से झगड़ा किया, जबकि उनपर सीधा रास्ता स्पष्ट हो चुका था, वास्तव में वे अल्लाह का कोई नुक़सान भी नहीं कर सकते, बल्कि अल्लाह ही उनका सब किया कराया बरबाद कर देगा।39
39. इस वाक्य के दो मतलब हैं। एक यह कि जिन कामों को उन्होंने अपने नज़दीक भला समझ कर किया है, अल्लाह उन सबको नष्ट कर देगा और आख़िरत में उनका कोई बदला भी वे न पा सकेंगे। दूसरा मतलब यह कि जो चालें भी वे अल्लाह और उसके रसूल के दीन का रास्ता रोकने के लिए चल रहे हैं, वे सब विफल व निष्फल हो जाएंगी।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَلَا تُبۡطِلُوٓاْ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 32
(33) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और अपने कर्मों का बरबाद न कर लो।40
40. दूसरे शब्दों में, कर्मों का लाभप्रद और फलदायक होना पूर्णरूपेण अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञापालन पर निर्भर है। आज्ञापालन से विमुख हो जाने के बाद कोई कर्म भी भला कर्म नहीं रहता कि आदमी उसपर कोई बदला पाने का अधिकारी बन सके।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ مَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡ ۝ 33
(34) इंकार करनेवालों और अल्लाह के रास्ते से रोकनेवालों और मरते दम तक इंकार (कुफ़्र) पर जमे रहनेवालों को तो अल्लाह कदापि माफ़ न करेगा।
فَلَا تَهِنُواْ وَتَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلسَّلۡمِ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ وَٱللَّهُ مَعَكُمۡ وَلَن يَتِرَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 34
(35) अत: तुम बोदे न बनो और समझौते का निवेदन न करो।41 तुम ही प्रभावी रहनेवाले हो। अल्लाह तुम्हारे साथ है और तुम्हारे कर्मों को कदापि अकारथ न करेगा।
41. यहाँ यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि यह बात उस समय में कही गई है जब सिर्फ़ मदीना की छोटी-सी बस्ती में कुछ सौ मुहाजिर व अनसार की एक मुट्ठी भर जमाअत इस्लाम का झंडा उठाए हुए थी, और उसका मुक़ाबला सिर्फ़ क़ुरैश के शक्तिशाली क़बीले ही से नहीं, बल्कि पूरे अरब के इस्लाम-विरोधियों और मुशरिकों से था। ऐसी स्थिति में कहा जा रहा है कि हिम्मत हारकर इन दुश्मनों से समझौते का निवेदन न करने लगो, बल्कि सिर-धड़ की बाज़ी लगा देने के लिए तैयार हो जाओ। इस कथन का यह मतलब नहीं है कि मुसलमानों को कभी समझौते की बात-चीत करनी ही नहीं चाहिए बल्कि इसका मतलब यह है कि ऐसी हालत में समझौते की बात चलाना ठीक नहीं है, जब उसका मतलब अपनी कमज़ोरी प्रकट करना हो और उससे दुश्मन और अधिक दुस्साहसी हो जाएँ। मुसलमानों को पहले अपनी शक्ति का लोहा मनवा लेना चाहिए। इसके बाद वे समझौते की बात-चीत करें तो दोष नहीं।
إِنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ يُؤۡتِكُمۡ أُجُورَكُمۡ وَلَا يَسۡـَٔلۡكُمۡ أَمۡوَٰلَكُمۡ ۝ 35
(36) यह दुनिया की जिंदगी तो एक खेल और तमाशा है।42 अगर तुम ईमान रखो और तकवा (परहेज़गारी) की नीति पर चलते रहो, तो अल्लाह तुम्हारे कर्मों का बदला तुमको देगा और वह तुम्हारे माल तुमसे न माँगेगा।43
42. अर्थात् आख़िरत के मुक़ाबले में इस दुनिया की हैसियत इससे अधिक कुछ नहीं है कि कुछ दिनों का दिल बहलावा है। यहाँ की सफलता और विफलता कोई असली और मज़बूत चीज़ नहीं है, जिसे कोई महत्त्व प्राप्त हो। वास्तविक जीवन आख़िरत का है जिसकी सफलता के लिए इंसान को चिन्ता करनी चाहिए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए तफ़्सीर सूरा-29 अल अनकबूत, टिप्पणी 102)
43. अर्थात् वह ग़नी (धनी) है, उसे स्वयं अपने लिए तुमसे लेने की कुछ ज़रूरत नहीं है। अगर वह अपनी राह में तुमसे कुछ ख़र्च करने के लिए कहता है तो वह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता है |
إِن يَسۡـَٔلۡكُمُوهَا فَيُحۡفِكُمۡ تَبۡخَلُواْ وَيُخۡرِجۡ أَضۡغَٰنَكُمۡ ۝ 36
(37) अगर कहीं वह तुम्हारे माल तुमसे माँग ले और सबके सब तुमसे तलब कर ले तो तुम कैंजूसी करोगे और वह तुम्हारे खोट वालों और मरते उभार लाएगा।44
44. अर्थात इतनी बड़ी आज़माइश में वह तुम्हें नहीं डालता जिससे तुम्‍हारी कमज़ोरियाँ उभर आए।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تُدۡعَوۡنَ لِتُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَمِنكُم مَّن يَبۡخَلُۖ وَمَن يَبۡخَلۡ فَإِنَّمَا يَبۡخَلُ عَن نَّفۡسِهِۦۚ وَٱللَّهُ ٱلۡغَنِيُّ وَأَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُۚ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ يَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُونُوٓاْ أَمۡثَٰلَكُم ۝ 37
(38) देखो, तुम लोगों को दावत दी जा रही है कि अल्लाह की राह में माल ख़र्च करो। इसपर तुममें से कुछ लोग हैं जो कँजूसी कर रहे हैं, हालाँकि जो कैंजूसी करता है वह वास्तव में अपने आप से ही कॅजूसी कर रहा है। अल्लाह तो धनी है, तुम ही उसके मुहताज हो। अगर तुम मुंह मोड़ोगे तो अल्लाह तुम्हारी जगह किसी और क़ौम को ले आएगा और वे तुम जैसे न होंगे।