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سُورَةُ الدُّخَانِ

44. अद-दुख़ान

(मक्‍का में उतरी, आयतें 59)

परिचय

नाम

आयत 10 "जब आकाश प्रत्यक्ष धुआँ (दुख़ान) लिए हुए आएगा" के 'दुख़ान' शब्द को इस सूरा का शीर्षक बनाया गया है, अर्थात् यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'दुख़ान' आया है।

उतरने का समय

सूरा की विषय-वस्तुओं के आन्तरिक साक्ष्य से पता चलता है कि यह भी उसी समय उतरी है जिस समय सूरा-43 जुखरुफ़ और उससे पहले की कुछ सूरतें उतरी थीं, अलबत्ता यह उनसे कुछ बाद की है। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि [वह ज़बरदस्त अकाल है, जो सारे इलाक़े में पड़ा था। (इस अकाल का विवरण आगे टिप्पणी 13 में आ रहा है।)]

विषय और वार्ता

इस सूरा की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण वार्ताओं पर आधारित है :

एक यह कि यह किताब अपने आप में स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह किसी इंसान की नहीं, बल्कि जगत-प्रभु की किताब है।

दूसरे यह कि तुम्हारे नज़दीक यह एक आपदा है जो तुमपर उतरी है, हालाँकि वास्तव में वह घड़ी बड़ी शुभ घड़ी थी, जब अल्लाह ने सरासर अपनी रहमत के कारण तुम्हारे यहाँ अपना रसूल भेजने और अपनी किताब उतारने का फ़ैसला किया।

तीसरे यह कि इस रसूल का भेजा जाना और इस किताब का उतारा जाना उस ख़ास घड़ी में हुआ जब अल्लाह भाग्यों के फ़ैसले किया करता है, और अल्लाह के फ़ैसले बोदे नहीं होते कि जिसका जी चाहे उन्हें बदल डाले, न वे किसी अज्ञान और नादानी पर आधारित होते हैं कि उनमें दोष और कमी पाई जाए। वे तो उस जगत-शासक के पक्के और अटल फ़ैसले होते हैं जो सब कुछ सुननेवाला, सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है। उनसे लड़ना कोई खेल नहीं है।

चौथे यह कि अल्लाह को तुम स्वयं भी जगत् की हर चीज़ का मालिक और पालनकर्ता मानते हो, मगर इसके बावजूद तुम्हें दूसरों को उपास्य बनाने पर आग्रह है और इसके लिए तर्क तुम्हारे पास इसके सिवा और कुछ नहीं है कि बाप-दादा के समयों से यही काम होता चला आ रहा है। हालाँकि तुम्हारे बाप दादा ने अगर यह मूर्खता की थी तो कोई कारण नहीं कि तुम भी आँखें बन्द करके वही करते चले जाओ।

पाँचवें यह की अल्लाह को पालन-क्रिया और दयालुता को केवल यही अपेक्षित नहीं है कि तुम्हारा पेट पाले, बल्कि यह भी है कि तुम्हारे मार्गदर्शन का प्रबन्ध करे। इस मार्गदर्शन के लिए उसने रसूल भेजा है और किताब उतारी है।

इस भूमिका के बाद उस अकाल के मामले को लिया गया है जो उस वक़्त पड़ा हुआ था [और बताया गया है कि यह अकाल रूपी चेतावनी भी सत्य के इन शत्रुओं की गफ़लत (बेसुध अवस्था) दूर न कर सकेगी।] इसी सिलसिले में आगे चलकर फ़िरऔन और उसकी क़ौम का हवाला दिया गया है कि उन लोगों को भी ठीक इसी प्रकार परीक्षा ली गई थी जो परीक्षा क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी सरदारों की ली जा रही है। उनके पास भी ऐसा ही एक प्रतिष्ठित रसूल आया था। वे भी निशानी पर निशानी देखते चले गए, मगर अपने दुराग्रह को त्याग न सके, यहाँ तक कि अन्त में रसूल की जान लेने पर उतर आए और नतीजा वह कुछ देखा जो हमेशा के लिए शिक्षाप्रद बनकर रह गया।

इसके बाद दूसरा विषय आख़िरत (परलोक) का लिया गया है जिससे मक्का के इस्लाम-विरोधियों को पूर्णत: इंकार था। इसके उत्तर में आख़िरत के अक़ीदे की दो दलीलें संक्षेप में दी गई हैं-

एक यह कि इस अक़ीदे का इंकार हमेशा नैतिकता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता रहा है।

दूसरे यह कि जगत् किसी खिलवाड़ करनेवालों का खिलौना नहीं है, बल्कि यह एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित व्यवस्था है, और तत्त्वदर्शी का कोई काम निरर्थक नहीं होता। फिर यह कहकर बात समाप्त कर दी गई है कि तुम लोगों को समझाने के लिए यह क़ुरआन साफ़-सुथरी भाषा में और तुम्हारी अपनी भाषा में उतार दिया गया है। अब अगर तुम समझाने से नहीं समझते तो इन्तिज़ार करो, हमारा नबी भी इन्तिज़ार कर रहा है, जो कुछ होना है वह अपने समय पर सामने आएगा।

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سُورَةُ الدُّخَانِ
44. अद-दुख़ान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) क़सम है इस स्पष्ट किताब की
إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ فِي لَيۡلَةٖ مُّبَٰرَكَةٍۚ إِنَّا كُنَّا مُنذِرِينَ ۝ 2
(3) कि हमने इस एक बड़ी भलाई व वरकतवाली रात में उतारा है, क्योंकि हम लोगों को सचेत करने का इरादा रखते थे।1
1. स्पष्ट किताब की क़सम खाने का मतलब सूरा-43 ज़ुख़रूफ़, टिप्पणी 1 में बयान किया जा चुछा है। क़मम खाने के बाद यह बात भी फरमाई गई है कि वह बड़ी भलाई व बरकतवाली बात थी जिसमें इसे उतारा गया। दूसरे शब्दों में, मानव-जाति के लिए वह बड़ी बड़ी ही शुभ थी जब 'हम' ने गफ़लत में पड़े हुए लोगों को चौंकाने के लिए इस किताब की उतारने का फ़ैसला किया। उस रात से मुराद वही रात है जिसे सूरा-97 क़द्र में ‘लैलतुल-क़द्र' कहा गया है। फिर यह बात भी क़ुरआन मजीद ही मैं बता दी गई है कि वह रमज़ान के महीने की एक रात थी। (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 185)
فِيهَا يُفۡرَقُ كُلُّ أَمۡرٍ حَكِيمٍ ۝ 3
(4-5) यह बह रान थी जिसमें हर मामले का तत्त्वदर्शितापूर्ण निर्णय2 हमारे आदेश में प्रचलित किया जाता है।3 हम एक रमूल भेजनेवाले थे
2. मूल अरबी शब्द 'अमरिन हकीम' प्रयुक्त हुआ है जिसके दो अर्थ हैं- एक यह कि वह आदेश पूरी तरह तत्वदर्शिता पर आधारित होता है। दूसरे यह कि वह एक पक्का और सुदृढ़ निर्णय होता है।
3. सूरा-97 क़द्र में यही विषय इस तरह, बयान किया गया है, "उस रात फ़रिश्ते और जिबरील अपने रब के आदेश से हर तरह का हुक्म लेकर उतरते हैं।" इससे मालूम हुआ कि अल्लाह के राजकीय प्रबन्ध में यह एक ऐसी रात है, जिसमें वह व्यक्तियों और क़ौमों और देशों के भाग्य के किसले करके अपने फ़रिश्तों के हवाले कर देता है और फिर वे इन्हीं फ़ैसलों के अनुसार काम करते रहते हैं।
أَمۡرٗا مِّنۡ عِندِنَآۚ إِنَّا كُنَّا مُرۡسِلِينَ ۝ 4
0
رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 5
(6) तरै रब की रहमत के तौर पर4, यक़ीनन वही सब कुछ सुनने और जाननेवाला है,5
4. अर्थात् यह किताब देकर एक रसूल को भेजना न सिर्फ़ तत्वदर्शिता का तक़ाज़ा था, बल्कि अल्लाह की रहमत का तक़ाज़ा भी था, क्योंकि वह रब (पालनहार) है और पालनहार होने ही का यह तक़ाज़ा है कि सही ज्ञान से उनका मार्गदर्शन किया जाए।
5. इस सन्दर्भ में अल्लाह के इन दो गुणों को बयान करने का मकसद लोगों को इस वास्तविकता पर सचेत करना है कि सही ज्ञान सिर्फ वही दे सकता है, क्योंकि तमाम तथ्य को वहीं जानता है। एक इंसान तो क्या, सारे इंसान मिलकर भी अगर अपने लिए जिंदगी का कोई रास्ता तय करें तो उसके सत्य होने की कोई जमानत नहीं, क्योंकि पूरी मानव-जाति इकट्ठा होकर भी एक सब कुछ सुननेवाली और सब कुछ जाननेवाली हस्ती नहीं बनती।
رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُم مُّوقِنِينَ ۝ 6
(7) आसमानों और ज़मीन का रब और हर उस चीज़ का रब, जो आमसान और ज़मीन के बीच में है, अगर तुम लोग वास्तव में विश्वास रखनेवाले हो।6
6. अरबवाले स्वयं स्वीकार करते थे कि अल्लाह ही जगत और उसकी हर चीज़ का रब (मालिक और पालनहार) है। इसलिए इनसे फ़रमाया गया कि अगर तुम बे-सोचे-समझे सिर्फ मुँह ही से यह स्वीकार नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम्हें सच में उसके पालनहार होने का एहसास और उसके स्वामी होने का विश्वास है, तो तुम्हें मानना चाहिए कि- (1) इंसान के मार्गदर्शन के लिए किताब और रसूल का भेजना उसकी कृपा दृष्टि और परवरदिगारी का खुला तक़ाज़ा है, और (2) स्वामी होने को हैसियत से यह उसका अधिकार और बन्दा की हैसियत से यह तुम्हारा कर्तव्य है कि उसकी ओर से जो मार्गदर्शन आए उसे मानो और जो आदेश आए, उसके पालन में नतमस्तक हो जाओ।
لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ رَبُّكُمۡ وَرَبُّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 7
(8) कोई आराध्य उसके सिवा नहीं है।7 वही जीवन प्रदान करता है और वही मौत देता है।8 तुम्हारा रब और तुम्हारे उन पूर्वजों का रब, जो पहले गुज़र चुके हैं।9
7. उपास्य से मुराद है वास्तविक उपास्य, जिसका अधिकार यह है कि उसकी उपासना (बन्दगी और पूजा) की जाए।
8. यह प्रमाण है इस बात का कि उसके सिवा कोई उपास्य नहीं है और नहीं हो सकता है।
بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ يَلۡعَبُونَ ۝ 8
(9) (मगर वास्तव में इन लोगों को यक़ीन नहीं है) बल्कि ये अपने सन्देह में पड़े खेल रहे हैं।10
10. दहरिये (अनीश्वरवादी) हों या मुशरिक (अनेकेश्वरवादी), इन सब पर समय-समय पर ऐसी घड़ियाँ आती रहती हैं जब इनका दिल भीतर से कहता है कि ख़ुदा के बारे में जो कुछ तुम समझे बैठे हो, उसमें कहीं न कहीं झोल मौजूद है। लेकिन इस अन्दरूनी एहसास का नतीजा न तो यह होता है कि इन्हें ख़ुदा के अस्तित्त्व और उसके एक होने का विश्वास प्राप्त हो जाए, न यही होता है कि उन्हें अपने शिर्क और अपनी दहरियत (अनीश्वरवाद) में पूरा विश्वास व सन्तोष हासिल रहे। इसके बजाय उनका धर्म वास्तव में सन्देह पर क़ायम होता है, भले ही उसमें यक़ीन की कितनी ही ज़्यादा तेज़ी वे दिखा रहे हों।
فَٱرۡتَقِبۡ يَوۡمَ تَأۡتِي ٱلسَّمَآءُ بِدُخَانٖ مُّبِينٖ ۝ 9
(10) अच्छा, इंतिजार करो उस दिन का जब आसमान प्रत्यक्ष धुआँ लिए हुए आएगा
يَغۡشَى ٱلنَّاسَۖ هَٰذَا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 10
(11) और वह लोगों पर छा जाएगा, यह है दर्दनाक सज़ा।
رَّبَّنَا ٱكۡشِفۡ عَنَّا ٱلۡعَذَابَ إِنَّا مُؤۡمِنُونَ ۝ 11
(12) (अब कहते हैं कि) "पालनहार! हम पर से यह अज़ाब टाल दे, हम ईमान लाते हैं।’’10अ
10अ. इन आयतों और आयत 16 में कियामत के अज़ाब का उल्लेख है और आयत 15 में जिस अज़ाब का उल्लेख है, उससे मुराद अकाल का वह अज़ाब है जिसमें मक्कावाले इस सूरा के उतरने के समय ग्रस्त थे।
أَنَّىٰ لَهُمُ ٱلذِّكۡرَىٰ وَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مُّبِينٞ ۝ 12
(13) इनकी ग़फ़लत कहाँ दूर होती है? इनका हाल तो यह है कि इनके पास रसूले-मुबीन आ गया,11
11. 'रसूले-मुबीन' के दो अर्थ हैं। एक यह कि उसका रसूल होना उसकी जीवनी, उसके चरित्र व आचरण और उसके कारनामों से बिल्कुल स्पष्ट है। दूसरे यह कि उसने वास्तविकता को खोल-खोल कर बयान करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
ثُمَّ تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَقَالُواْ مُعَلَّمٞ مَّجۡنُونٌ ۝ 13
(14) फिर भी इन्होंने उसकी ओर ध्यान न दिया, और कहा कि “यह तो सिखाया-पढ़ाया बावला है।’’12
12. उनका मतलब यह था कि यह बेचारा तो सीधा-साधा आदमी था, कुछ दूसरे लोगों ने इसे भरों पर चढ़ा लिया, वे परदे के पीछे से क़ुरआन की आयतें गढ़-गढ़कर इसे पढ़ा देते हैं, यह आकर आम लोगों के सामने उन्हें पेश कर देता है। इस तरह एक चालू-सा वाक्य कहकर वे उन सारी दलीलों और उपदेशों और गंभीर शिक्षाओं को उड़ा देते थे, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) वर्षों से उनके सामने प्रस्तुत कर-करके थके जा रहे थे। (और ज़्यादा व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 108; सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, टिप्पणी 12)]
إِنَّا كَاشِفُواْ ٱلۡعَذَابِ قَلِيلًاۚ إِنَّكُمۡ عَآئِدُونَ ۝ 14
(15) हम ज़रा अज़ाब हटाए देते हैं, तुम लोग फिर वही कुछ करोगे जो पहले कर रहे थे।
يَوۡمَ نَبۡطِشُ ٱلۡبَطۡشَةَ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ إِنَّا مُنتَقِمُونَ ۝ 15
(16) जिस दिन हम बड़ी चोट लगाएँगे, वह दिन होगा जब हम तुमसे बदला लेंगे।13
13. इन आयतों का अर्थ निश्चित करने में टीकाकारों के बीच बड़ा मतभेद पैदा हुआ है। [हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०) फ़रमाते हैं] कि जब कुरैश के लोग इस्लाम का विरोध करते ही चले गए तो नबी (सल्ल०) ने दुआ की कि 'ऐ अल्लाह! यूसुफ़ (अलैहि०) के अकाल जैसे अकाल से मेरी सहायता कर।' अतः ऐसा भयानक अकाल पड़ा कि लोग हड्डियाँ, चमड़ा और मुरदार तक खा गए। उस समय स्थिति यह थी कि जो व्यक्ति आसमान की ओर देखता था, उसे भूख को सीखता में बस धुआँ ही धुँआ नज़र आता था। अन्ततः अबू सुफ़ियान ने आकर नबी (सल्ल०) से कहा कि आप तो रिश्तों-नातों का हक़ अदा करने को दावत देते हैं, आपको क़ौम भूखों मर रही है, अल्लाह से दुआ कीजिए कि इस मुसीबत को दूर कर दे। यहीं समय था जब कुरैश के लोग कहने लगे थे कि 'ऐ अल्लाह । हम पर से यह अज़ाब दूर कर दे. हम ईमान ले आएंगे। इसी घटना का उल्लेख इन आयतों में हुआ है और 'बड़ो चोट' से मुराद वह चोट है जो अन्ततः बद की लड़ाई के दिन कुरैश को दी गई। अहमद, बुखारी, तिर्मिजो आदि) दूसरी ओर हजरत अली, इने उमर और इन्ने-अब्बास (रजि०) आदि कहते हैं कि इन आयतों में सारा उल्लेख क़ियामत के क़रीब ज़माने का किया गया है और वह धुआँ जिसकी ख़बर दी गई है इसी ज़माने में ज़मीन पर छाएगा। और अधिक बल इस टोका को उन रिवायतों से मिलती है जो मुस्लिम, तबरानी और इब्ने-जरीर में] बुद नबी (सल्ल०) से उद्त की गई हैं। इन दोनों टीकाओं का टकराव ऊपर की आयतों पर विचार करने से आसानी के साथ दूर किया जा सकता है। जहाँ तक हजरत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०) की टीका का सम्बन्ध है, यह सही बात है कि मक्का मुअजमा में नबी (सल्ल०) को दुआ से भारी अकाल पड़ा था, जिससे इस्लाम-विरोधियों को हेकड़ियाँ बहुत कुछ डीली पड़ गई थी और उन्होंने उस अकाल को ख़त्म कराने के लिए नबी (सल्ल०) से दुआ की अपील की थी। इस घटना की ओर क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर संकेत किए गए हैं। इन आयतों में भी साफ़ महसूस होता है कि संकेत उसी स्थिति की ओर है। [क्योंकि इनमें जो बातें फ़रमाई गई हैं, वे सब उसी स्थिति में सही हो सकती हैं, जबकि घटना नबी (सल्ल०) ही के समय को हो। इसलिए इस हद तक तो इब्ने-मस्ऊद (रजि०) की टीका ही सही मालूम होती है, लेकिन उसका यह हिस्सा सही नहीं मालूम होता कि धुआँ' भी उसी समय में प्रकट हुआ था। क़ुरआन में कहा गया है कि आसमान धुऔं लिए हुए आ गया और लोगों पर छा गया। वहाँ तो कहा गया है कि "अच्छा तो, उस दिन का इन्तिजार करो जब आसमान स्पष्ट धुऔं लिए हुए आएगा और वह लोगों पर छा जाएगा।" बाद की आयतों को निगाह में रखकर देखा जाए तो इस कथन का स्पष्ट अर्थ यह होता है कि जब तुम न रसूल के समझाने से मानते हो, न अकाल के रूप में जो चेतावनी तुम्हें की गई है उससे ही होश में आते हो, तो फिर कि‍यामत का इन्तिजार करो, उस समय सब कुछ तुम्हारी समझ में आ जाएगा। अतः जहाँ तक धुएँ का ताल्लुक़ है, उसके बारे में सही बात यही है कि वह अकाल के ज़माने की चीज नहीं है, बल्कि क़़ियामत को निशानियों में से है।
۞وَلَقَدۡ فَتَنَّا قَبۡلَهُمۡ قَوۡمَ فِرۡعَوۡنَ وَجَآءَهُمۡ رَسُولٞ كَرِيمٌ ۝ 16
(17) हम इनसे पहले फिरऔन की कौम को इसो आजमाइश में डाल चुके हैं। उनके पास एक अत्यन्त भला रसूल14 आया
14. मूल अरबों में रसूलुन करीम' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। करोम' का शब्द जब इंसान के लिए बोला जाता है तो इससे मुराद यह होता है कि वह अति उत्तम सज्जनतापूर्ण आदतों और अत्यन्त प्रशंसनीय गुणों वाला है। साधारण गुणों के लिए यह शब्द नहीं बोला जाता।
15. यह बात आरंभ ही में समझ लेनी चाहिए कि यहाँ हजरत मूसा (अलैहिक) के जो कथन उद्धत किए जा रहे हैं, वे एक समय में एक ही निरन्तर व्याख्यान के अंश नहीं हैं, बल्कि कई सालों में अलग-अलग मौक़ों पर जो बातें उन्होंने फ़िरऔन और उसके दरबारियों से कहीं थीं, उनका सारांश कुछ वाक्यों में बयान किया जा रहा है। (विस्तृत विवरण के लिए देखिए [सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 103 से 137; सूरा-10 यूनुस, आयत 75 से 92; सूरा-20 ता-हा आयत 47 से 76; सूरा-26 शुअरा, आयत 10 से 66; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 7 से 14; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 25 से 43;] सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 23 से 46; सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़, आयत 46 से 56 टिप्पणियाँ सहित।)
أَنۡ أَدُّوٓاْ إِلَيَّ عِبَادَ ٱللَّهِۖ إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 17
(18) और उसने कहा,15 “अल्लाह के बन्दों को मेरे हवाले करो,16 मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।17
16. मूल अरबी में अहू इलय-य इबादल्लाह' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनका एक अनुवाद तो वह है जो ऊपर हमने किया है और उस दृष्टि से यह उस माँग का ही समानार्थी है जो सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 105; सूरा-20 ता-हा, आयत 47 और सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 17 में गुज़र चुका है कि "बनी इस्राईल को मेरे साथ जाने के लिए छोड़ दो।" दूसरा अनुवाद जो हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) से उल्लिखित है, यह है कि "अल्लाह के बन्दो! मेरा हक़ अदा करो" यानी मेरी बात मानो, मुझ पर ईमान लाओ और मेरी हिदायत की पैरवी करो। यह ख़ुदा की ओर से तुम्हारे ऊपर मेरा हक़ है। बाद का यह वाक्य कि "मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ" इस दूसरे अर्थ के साथ ज़्यादा अनुकूलता रखता है।
17. अर्थात् भरोसे के योग्य रसूल हूँ। अपनी ओर से कोई बात मिलाकर कहनेवाला नहीं हूँ। न अपनी किसी निजी इच्छा और हित के लिए स्वयं एक आदेश या क़ानून गढ़कर ख़ुदा के नाम से पेश करनेवाला हूँ। मुझ पर तुम यह भरोसा कर सकते हो कि जो कुछ मेरे भेजनेवाले ने कहा है, वही बिना किसी कमी बेशी के तुम तक पहुँचाऊँगा। (स्पष्ट रहे कि ये दो वाक्य उस समय के हैं जब हज़रत मूसा अलैहि ने सबसे पहले अपना सन्देश पेश किया था।)
وَأَن لَّا تَعۡلُواْ عَلَى ٱللَّهِۖ إِنِّيٓ ءَاتِيكُم بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 18
(19) अल्लाह के मुक़ाबले में उदंडता न दिखलाओ। मैं तुम्हारे सामने (अपनी नियुक्ति का) खुला प्रमाण पेश करता हूँ18
18. दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि मेरे मुक़ाबले में जो सरकशी तुम कर रहे हो, यह वास्तव में अल्लाह के मुक़ाबले में सरकशी है, क्योंकि मेरी जिन बातों पर तुम बिगड़ रहे हो, वे मेरी नहीं अल्लाह की बातें हैं और मैं उसी के रसूल की हैसियत से उन्हें बयान कर रहा हूँ। अगर तुम्हें इसमें सन्देह है कि मैं अल्लाह का भेजा हुआ हूँ या नहीं] तो मैं तुम्हारे सामने अल्लाह की ओर से अपने भेजे जाने का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता हूँ। इस प्रमाण से मुराद कोई एक चमत्कार नहीं है, बल्कि मोजज़ों (चमत्कारों) का वह लंबा सिलसिला है जो फ़िरऔन के दरबार में पहली बार पहुँचने के बाद से मिस्र में ठहरने के आख़िरी ज़माने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन और उसकी क़ौम को वर्षों तक दिखाते रहे। जिस प्रमाण को भी उन लोगों ने झुठलाया, उससे बढ़कर खुला प्रमाण मूसा (अलैहि०) आप प्रस्तुत करते चले गए। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-43 अज़-जुखरूफ, टिप्पणी 42-43)
وَإِنِّي عُذۡتُ بِرَبِّي وَرَبِّكُمۡ أَن تَرۡجُمُونِ ۝ 19
(20) और मैं अपने रब और तुम्हारे रब की पनाह ले चुका हूँ इससे कि तुम मुझपर हमलावर हो।
وَإِن لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ لِي فَٱعۡتَزِلُونِ ۝ 20
(21) अगर तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो मुझपर हाथ डालने से बाज़ रहो।"19
21. अर्थात् उन सब लोगों को जो ईमान लाए हैं। उनमें बनी इस्राईल भी थे और मिस्र के वे किती निवासी भी जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के ज़माने से हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने तक मुसलमानों में शामिल हो चुके थे, और वे लोग भी जिन्होंने हज़रत मूसा (अलैहि०) की निशानियाँ देखकर और आपकी दावत व तब्लीग़ से प्रभावित होकर मिस्त्रियों में से इस्लाम स्वीकार किया था। (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-12 यूसुफ़, टिप्पणी 68)]
فَدَعَا رَبَّهُۥٓ أَنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ مُّجۡرِمُونَ ۝ 21
(22) अन्ततः उसने अपने रब को पुकारा कि ये लोग अपराधी हैं।20
20. यह हज़रत मूसा (अलैहि०) की अन्तिम रिपोर्ट है, जो उन्होंने अपने रब के सामने प्रस्तुत की। "ये लोग अपराधी हैं" अर्थात् इनका अपराधी होना अब निश्चित रूप से सिद्ध हो चुका है, कोई गुंजाइश इनके साथ रिआयत करने और उनको हालत के सुधार करने का और अधिक मौक़ा देने की बाकी नहीं रही है। अब समय आ गया है कि हुजूर आख़िरी फ़ैसला कर दें।
فَأَسۡرِ بِعِبَادِي لَيۡلًا إِنَّكُم مُّتَّبَعُونَ ۝ 22
(23) (जवाब दिया गया) "अच्छा, तो रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर21 चल पड़, तुम लोगों का पीछा किया जाएगा।22
21. अर्थात् उन सब लोगों को जो ईमान लाए हैं। उनमें बनी इस्राईल भी थे और मिस्र के वे किती निवासी भी जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के ज़माने से हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने तक मुसलमानों में शामिल हो चुके थे, और वे लोग भी जिन्होंने हज़रत मूसा (अलैहि०) की निशानियाँ देखकर और आपकी दावत व तब्लीग़ से प्रभावित होकर मिस्त्रियों में से इस्लाम स्वीकार किया था। (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-12 यूसुफ़, टिप्पणी 68)]
22. यह आरंभिक आदेश है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को हिजरत के लिए दिया गया था। (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 53; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 52 से 66)]
وَٱتۡرُكِ ٱلۡبَحۡرَ رَهۡوًاۖ إِنَّهُمۡ جُندٞ مُّغۡرَقُونَ ۝ 23
(24) समुद्र को उसके हाल पर खुला छोड़ दे। यह सारी सेना डूबनेवाली है।"23
23. यह हुक्म उस वक्त दिया गया जब हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने क़ाफ़िले को लेकर समुद्र पार उत्तर चुके थे और चाहते थे कि समुद्र पर लाठी (असा) मारकर उसे फिर वैसा ही कर दें जैसा कि वह फटने से पहले था, ताकि फ़िरऔन और उसकी सेना उस रास्ते से गुज़रकर न आ जाए जो मोजज़े (चमत्कार) से बना था। उस समय कहा गया कि ऐसा न करो, उसको इसी तरह फटा का फटा रहने दो, ताकि फ़िरऔन अपनी सेना सहित इस रास्ते में उतर आए, फिर समुद्र को छोड़ दिया जाएगा और यह पूरी सेना डुबो दी जाएगी।
كَمۡ تَرَكُواْ مِن جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 24
(25-26) कितने ही बाग और स्रोत और खेत और शानदार महल थे, जो वे छोड़ गए,
وَزُرُوعٖ وَمَقَامٖ كَرِيمٖ ۝ 25
0
وَنَعۡمَةٖ كَانُواْ فِيهَا فَٰكِهِينَ ۝ 26
(27) कितनी ही ऐश की सुख-सामग्री जिनमें वे मज़े कर रहे थे,
كَذَٰلِكَۖ وَأَوۡرَثۡنَٰهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 27
(28) उनके पीछे धरी रह गई। यह हुआ उनका अंजाम और हमने दूसरों को इन चीज़ों का वारिस बना दिया,24
24. हज़रत हसन बसरी कहते हैं कि इससे मुराद बनी इस्राईल हैं जिन्हें अल्लाह ने फ़िरऔन की क़ौम के बाद मिस्र को धरती का वारिस बना दिया। और क़तादा कहते हैं कि इससे मुराद दूसरे लोग हैं जो फ़िरऔन के लोगों के बाद मिस्र के वारिस हुए, क्योंकि इतिहासों में कहीं भी यह उल्लेख नहीं मिलता कि मिस्र से निकलने के बाद बनी इस्राईल कभी वहाँ वापस गए हों और इस भूभाग के वारिस हुए हों। यही मतभेद बाद के टीकाकारों में भी पाया जाता है। (विस्तृत वार्ता के लिए देखिए [सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 45)]
فَمَا بَكَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَا كَانُواْ مُنظَرِينَ ۝ 28
(29) फिर न आसमान उनपर रोया, न ज़मीन,25 और ज़रा-सी मोहलत भी उनको न दी गई।
25. अर्थात् जब वे शासक थे तो उनकी महानता के डंके बज रहे थे, मगर जब वे गिरे तो कोई आँख उनके लिए रोनेवाली न थी। स्पष्ट है कि उन्होंने न दुनियावालों के साथ कोई भलाई की थी कि ज़मीनवाले उनके लिए रोते, न अल्लाह की प्रसन्नता के लिए उन्होंने कोई काम किया था कि आसमानवालों को उनके विनाश पर दुख होता।
وَلَقَدۡ نَجَّيۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مِنَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡمُهِينِ ۝ 29
(30-31) इस तरह बनी इसराईल को हमने घोर अपमान के अज़ाब, फ़िरऔन26 से छुटकारा दिया, जो हद से गुज़र जानेवालों में सचमुच उच्च श्रेणी का आदमी था,27
26. अर्थात् फ़िरऔन स्वयं उनके लिए अपमान व रुसवाई का अज़ाब था और दूसरे तमाम अज़ाब इसी एक सर्वथा अजाब का परिणाम थे।
27. इसमें एक सूक्ष्म व्यंग्य है कुरैश के इस्लाम-विरोधी पर। अर्थ यह है कि बन्दगी की सीमा पार कर जानेवालों में तुम्हारा दर्जा और स्थान ही क्या है। बड़े ऊँचे दर्जे का सरकश तो वह था जो उस समय दुनिया के सबसे बड़े राज्य-सिंहासन पर ईश्वरत्त्व का रूप धारे आसीन था। उसे जब घास-फूंस की तरह बहा दिया गया तो तुम्हारी क्या हस्ती है कि ईश-प्रकोप के आगे ठहर सको।
مِن فِرۡعَوۡنَۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَالِيٗا مِّنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 30
0
وَلَقَدِ ٱخۡتَرۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ عِلۡمٍ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 31
(32) और उनकी हालत जानते हुए उनको दुनिया की दूसरी क़ौमों पर प्राथमिकता दी,28
28. अर्थात् बनी इसराईल की खूबियाँ और कमजोरियाँ दोनों अल्लाह पर स्पष्ट थीं। उसने बे-देखे-भाले उनका चुनाव अंधाधुंध नहीं कर लिया था। उस समय दुनिया में जितनी क़ौमें मौजूद थीं, उनमें से इस क़ौम को जब उसने अपने सन्देश का वाहक और अपनी तौहीट की दावत का अलमबरदार बनाने के लिए चुना तो इस आधार पर चुना कि उसके ज्ञान में समय की मौजूद क्रीमों में से यही उसके लिए सबसे योग्य थी।
وَءَاتَيۡنَٰهُم مِّنَ ٱلۡأٓيَٰتِ مَا فِيهِ بَلَٰٓؤٞاْ مُّبِينٌ ۝ 32
(33) और उन्‍हें ऐसी निशानियाँ दिखाई जिनमें खुली आजमाइश थी।29
29. व्याख्या के लिए देखिए (सूरा-2 अल-बकरा, आयत 47 से 73; सूरा-4 अन्न-निसा, आयत 153 से 161; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 20 से 26; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 137 से 171; सूरा-20 ता-हा, आयत 80 से 98]
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ لَيَقُولُونَ ۝ 33
(34) ये लोग कहते हैं,
إِنۡ هِيَ إِلَّا مَوۡتَتُنَا ٱلۡأُولَىٰ وَمَا نَحۡنُ بِمُنشَرِينَ ۝ 34
(35) "हमारी पहली मौत के सिवा और कुछ नहीं, उसके बाद हम दोबारा उठाए जानेवाले नहीं हैं।30
30. अर्थात् पहली बार जब हम मरेंगे तो बस फ़ना (नष्ट) हो जाएंगे. इसके बाद फिर कोई जिंदगी नहीं है। 'पहली मौत के शब्दों से यह जरूरी नहीं होता कि उसके बाद कोई दूसरी मौत भी हो हम जब यह कहते हैं कि फ़लाँ आदमी के यहाँ पहला बच्चा पैदा हुआ तो इस बात के सच होने के लिए यह ज़रूरी नहीं होता कि इसके बाद कोई दूसरा बच्चा पैदा ही हो, बल्कि सिर्फ यह काफी होता है कि इससे पहले कोई बच्चा पैदा न हुआ हो।
فَأۡتُواْ بِـَٔابَآئِنَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 35
(36) अगर तुम सच्चे हो तो उठा लाओ हमारे बाप-दादा को।''31
31. उनका तर्क यह था कि हमने कभी मरने के बाद किसी को दोबारा जी उठते नहीं देखा है, इसलिए हम विश्वास रखते हैं कि मरने के बाद कोई दूसरी जिंदगी नहीं होगी। तुम लोग अगर दावा करते कि दूसरी जिंदगी होगी, तो हमारे बाप-दादों को कब्रों से उठा लाओ, ताकि हमें मौत के बाद जिंदगी का विवाह हो जाए। यह काम तुमने न किया तो हम समझेंगे कि तुम्हारा दावा निराधार है। यह मानो उनके नज़दीक मरने के बाद की जिंटगी के खंडन में बड़ी पक्की दलील थी, हालाँकि सरासर बकवास थी। आख़िर यह उनसे कहा किसने था कि मरनेवाले दोबारा जिंदा होकर इसी दुनिया में वापस आएँगे? और नबी (सल्ल०) या किसी मुसलमान ने यह दावा कब किया था कि हम मुर्दों को ज़िंदा करनेवाले हैं?
أَهُمۡ خَيۡرٌ أَمۡ قَوۡمُ تُبَّعٖ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 36
(37) ये बेहतर हैं या तुब्बअ़ की जाति32 और उससे पहले के लोग? हमने उनको इसी कारण नष्ट किया कि वे अपराधी हो गए थे।33
32. 'तुब्बअ' हिमयर क़बीले के बादशाहों की उपाधि थी, जैसे किसरा, क़ैसर, फ़िरऔन आदि उपाधियाँ विभिन्न देशों के बादशाहों के लिए विशिष्ट रहे हैं। ये लोग सबा क़ौम की एक शाखा से संबंध रखते थे। 115 ई० पू० में इनको सबा देश पर प्रभुत्व प्राप्त हुआ और 300 ई. तक ये शासक रहे। अरब में सदियों तक इनकी महानता की कहानियाँ लोगों की ज़बानों पर छाई रही है। (विवरण के लिए देखिए सूरा-34 सबा, टिप्पणी 37)
33. यह इस्लाम-विरोधियों की आपत्ति का पहला उत्तर है। इस उत्तर का सारांश यह है कि आखिरत का इंकार वह चीज़ है जो किसी व्यक्ति, गिरोह या क़ौम को अपराधी बनाए बौर नहीं रहती। चरित्र का दोष इसका अनिवार्य परिणाम है और इंसानी इतिहास गवाह है कि जिंदगी के इस सिद्धान्त को जिस क़ौम ने भी अपनाया है, वह अन्ततः नष्ट होकर रही है। रहा यह प्रश्न कि "ये बेहतर हैं या तुब्बअ की क़ौम और उससे पहले के लोग?" इसका अर्थ यह है कि मक्का के ये इस्लमा-विरोधी तो इस ख़ुशहाली और शान व शौकत को पहुँच भी नहीं सके हैं जो तुब्बअकी क़ौम और उससे पहले सबा और फ़िरऔन की क़ौम और दूसरी क़ौमों को हासिल है, मगर यह भौतिक समृद्धि और दुनिया की शान व शौकत नैतिक गिरावट के परिणामों से उनको कब बचा सकी थी कि ये अपनी ज़रा-सी पूँजी और अपने संसाधनों के बल-बूते पर उनसे बच जाएँगे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-34 अस-सबा, टिप्पणी 25 से 36)
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 37
(38) ये आसमानों और ज़मीन और इनके बीच की चीजें हमने कुछ खेल के तौर पर नहीं बना दी हैं।
مَا خَلَقۡنَٰهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39) उनको हमने सत्य के आधार पर पैदा किया है, मगर इनमें से अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।34
34. यह उनकी आपत्ति का दूसरा उत्तर है। इसका अर्थ यह है कि जो आदमी भी मरने के बाद की जिंदगी और आख़िरत के इनाम व सज़ा का इंकारी है, वह वास्तव में जगत के इस कारखाने को खिलौना और उसके पैदा करनेवाले को नादान बच्चा समझता है। इसी कारण उसने यह राय क़ायम है कि इंसान दुनिया में हर तरह के हंगामे बरपा करके एक दिन बस यूँ ही मिट्टी में रल-मिल जाएगा और उसके किसी अच्छे या बुरे काम का कोई नतीजा न निकलेगा। हालाँकि यह सृष्टि किसी खिलंडरे की नहीं, बल्कि एक तत्त्वदर्शी स्रष्टा की बनाई हुई है और किसी तत्त्वदर्शी से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह कोई व्यर्थ काम करेगा। आख़िरत के इंकार के जवाब में यह तर्क क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दिया गया है और हम उसकी विस्तृत व्याख्या कर चुके हैं। [ (इस तर्क की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 46; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 11; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 15 से 17; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 102-103; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 6)]
إِنَّ يَوۡمَ ٱلۡفَصۡلِ مِيقَٰتُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 39
(40) इन सबके उठाए जाने के लिए तयशुदा समय निर्णय का दिन है,35
35. यह उनकी इस माँग का जवाब है कि "उठा लाओ हमारे बाप-दादा को अगर तुम सच्चे हो।" मतलब यह है कि मौत के बाद की जिंदगी कोई तमाशा तो नहीं है कि जहाँ कोई उससे इंकार करे, तुरन्त एक मुर्दा क़ब्रिस्तान से उठाकर उसके सामने ला खड़ा किया जाए। इसके लिए तो जगत स्वामी ने एक समय तय कर दिया है, जब तमाम अगलों-पिछलों को दोबारा जिंदा करके अपनी अदालत में जमा करेगा और उनके मुक़द्दमों का फ़ैसला कर देगा। तुम मानो चाहे न मानो, यह काम बहरहाल अपने निर्धारित समय पर ही होगा। तुम मानोगे तो अपना ही भला करोगे, क्योंकि इस तरह समय से पहले खबरदार होकर उस अदालत से सफल निकलने की तैयारी कर सकोगे, न मानोगे तो अपनी ही हानि करोगे, क्योंकि अपनी सारी उम्र इस भ्रम में खपा दोगे कि बुराई और भलाई जो कुछ भी है, बस इसी दुनिया की जिंदगी तक है, मरने के बाद फिर कोई अदालत नहीं होनी है, जिसमें हमारे अच्छे या बुरे कर्मों का कोई स्थाई परिणाम निकलता हो।
يَوۡمَ لَا يُغۡنِي مَوۡلًى عَن مَّوۡلٗى شَيۡـٔٗا وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 40
(41) वह दिन जब कोई क़रीबी रिश्तेदार अपने किसी क़रीबी रिश्तेदार36 के कुछ भी काम न आएगा और न कहीं से उन्हें कोई सहायता पहुँचेगी,
36. मूल में अरबी शब्द 'मौला' प्रयुक्त किया गया है जो अरबी भाषा में ऐसे व्यक्ति के लिए बोला जाता है जो किसी संबंध के कारण दूसरे आदमी का समर्थन करे, इसका लिहाज़ किए बगैर कि वह रिश्तेदारी का संबंध हो या दोस्ती का या किसी और प्रकार का।
إِلَّا مَن رَّحِمَ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 41
(42) सिवाय इसके कि अल्लाह ही किसी पर दया करे, वह ज़बरदस्त और दया करनेवाला है।37
37. इन वाक्यों में बताया गया है कि फ़ैसले के दिन जो अदालत कायम होगी, उसका क्या रंग होगा। किसी को सहायता या समर्थन वहाँ किसी अपराधी को न छुड़ा सकेगी, न उसकी सज़ा ही कम करा सकेगी। तमाम अधिकार उस वास्तविक हाकिम ही के हाथ में होंगे, जिसके फ़ैसले को लागू होने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती और जिसके निर्णय पर प्रभाव डालने का बलबूता किसी में नहीं है। यह बिल्कुल उसके अपने अधिकार में होगा कि किसी पर दया करके उसको सज़ा न दे या कम सज़ा दे, और वास्तव में उसकी शान यही है कि न्याय करने में बेरहमी से नहीं, बल्कि रहम ही से काम ले। लेकिन जिसके मुक़द्दमे में जो फ़ैसला भी वह करेगा, वह बहरहाल, बिना कुछ घटाए-बढ़ाए लागू होगा। अल्लाह की अदालत की यह स्थिति बयान करने के बाद आगे के कुछ वाक्यों में बताया गया है कि उस अदालत में जो लोग अपराधी सिद्ध होंगे, उनका अंजाम क्या होगा, और जिन लोगों के बारे में यह सिद्ध हो जाएगा कि वे दुनिया में अल्लाह से डरकर अवज्ञाओं से बचते रहे थे, उनको कौन-से इनाम दिए जाएंगे।
إِنَّ شَجَرَتَ ٱلزَّقُّومِ ۝ 42
(43) ज़क़्क़ूम38 का पेड़ गुनाहगार का खाजा होगा,
38. ज़क्‍़क़ूम की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, टिप्पणी 34।
طَعَامُ ٱلۡأَثِيمِ ۝ 43
(44) तेल की तलछट39 जैसा,
39. मूल अरबी में शब्‍द, ‘अल-मुह्ल’ प्रयुक्‍त हुआ है जिसके कई अर्थ हैं- पिघली हुई धातु, पीप, लहु, पिघला हुआ तारकोल, लावा, तेल की तलछट। ये विभिन्‍न अर्थ भाषाविदों और टीकाकारों ने बयान किए हैं, लेकिन अगर ज़क़्क़ूम से मुराद वही चीज़ है, जिसे हमारे यहाँ थूहर कहते हैं, तो उसको चबाने से जो रस निकलेगा, ज्यादा सही गुमान यही है कि वह तेल की तलछट जैसा होगा।
كَٱلۡمُهۡلِ يَغۡلِي فِي ٱلۡبُطُونِ ۝ 44
(45-46) पेट में वह इस तरह जोश खाएगा जैसे खौलता हुआ पानी जोश खाता है,
كَغَلۡيِ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 45
0
خُذُوهُ فَٱعۡتِلُوهُ إِلَىٰ سَوَآءِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 46
(47) "एकड़ो इसे और रगेदते हुए ले जाओ इसको जहन्नम के बीचों-बीच
ثُمَّ صُبُّواْ فَوۡقَ رَأۡسِهِۦ مِنۡ عَذَابِ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 47
(48) और उंडेल दो इसके सर पर खौलते पानी का अजाब।
ذُقۡ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡكَرِيمُ ۝ 48
(49) चख इसका मजा, बड़ा जबरदस्त इज्जतदार आदमी है तू।
إِنَّ هَٰذَا مَا كُنتُم بِهِۦ تَمۡتَرُونَ ۝ 49
(50) यह वही चीज है जिसके आने में तुम लोग सन्देह करते थे।"
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي مَقَامٍ أَمِينٖ ۝ 50
(51) अल्लाह का डर रखनेवाले लोग शान्ति की जगह40 में होंगे,
40. शान्ति की जगह से तात्पर्य ऐसी जगह है जहाँ किसी प्रकार का खटका न हो। कोई दुख, कोई परेशानी, कोई ख़तरा और शंका, कोई मशक्कत और कष्ट न पैदा हो। हदीस में आता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जन्नतवालों से कह दिया जाएगा कि यहाँ तुम हमेशा स्वस्थ रहोगे, कभी बीमार न होगे, हमेशा जिंदा रहोगे, कभी न मरोगे, हमेशा खुशहाल रहोगे, कभी बदहाल न होगे, हमेशा जवान रहोगे, कभी बूढ़े न होगे।" (मुस्लिम, अबू हुरैरा और अबू सईद खुदरी रजि० की रिवायत)
فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 51
(52-53) बाग़ों और स्रोतों में, हरोर व दोबा (रेशम और कमख़ाब)41 के वस्त्र पहने, आमने-सामने बैठे होंगे।
41. मूल अरबी में 'सुन्दुस' और इस्तबरक' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। सुन्दुस अरबी भाषा में बारीक रेशमी कपड़े को कहते हैं और 'इस्तबरक' फ़ारसी शब्द स्तबर' का अरबी भाषा में निर्मित शब्द है और यह मोटे रेशमी कपड़े के लिए इस्तेमाल होता है।
يَلۡبَسُونَ مِن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 52
0
كَذَٰلِكَ وَزَوَّجۡنَٰهُم بِحُورٍ عِينٖ ۝ 53
(54) यह होगो उनको शान। और हम गोरी-गोरी मृगनयनी औरतों से42 उनका ब्याह कर देंगे।
42. मूल अरबी शब्द हैं हरून ईन । हूर, बहुवचन है हौरा का और हौरा अरबी भाषा में 'गोरी औरत' को कहते हैं। और ईन बहुवचन है ऐना का और यह शब्द बड़ी-बड़ी आँखोंवाली औरत के लिए बोला जाता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात, टिप्पणी 28-29)
يَدۡعُونَ فِيهَا بِكُلِّ فَٰكِهَةٍ ءَامِنِينَ ۝ 54
(55) वहाँ वे निश्चिन्त होकर हर तरह की स्वादिष्ट चीजें तलब करेंगे।43
43. "निश्चिन्त होकर तलब करने का मतलब यह है किजो चीज, जितनी चाहेंगे, बेफ़िक्री के साथ जन्नत के सेवकों को इसके लाने का हुक्म देंगे और वह हाजिर कर दी जाएगी।
لَا يَذُوقُونَ فِيهَا ٱلۡمَوۡتَ إِلَّا ٱلۡمَوۡتَةَ ٱلۡأُولَىٰۖ وَوَقَىٰهُمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 55
(56-57) वहाँ मौत का मज़ा वे कभी न चखेगें। बस दुनिया में जो मौत आ चुकी, सो आ चुकी। और अल्लाह अपनी कृपा से उनको जहन्नम के अज़ाब से बचा देगा,44 यही बड़ी सफलता है।
44. इस आयत में उो बातें ध्‍यान देने योग्‍य हैं- एक यह कि जन्नत की नेमतों का उल्लेख करने के बाद जहन्नम से बचाए जाने का उल्लेख मुख्य रूप से अलग से किया गया है। इसका कारण यह है कि आज्ञाकारिता के पुरस्कार का मूल्य इंसान को पूरी तरह उसी समय महसूस हो सकता है, जबकि उसके सामने यह बात भी हो कि अवज्ञाकारी कहाँ पहुँचे हैं और वह किस बुरे अंजाम से बच गया है। दूसरी बात यह है कि अल्लाह उन लोगों के जहन्नम से बचने और जन्नत में पहुँचने को अपनी कृपा का परिणाम बता रहा है। इसका मकसद इंसान को इस वास्तविकता पर सचेत करना है कि यह सफलता किसी व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक अल्लाह की कृपा उसके साथ न हो। यद्यपि आदमी को पुरस्कार उसके अपने अच्छे कर्मों पर ही मिलेगा, लेकिन एक तो अच्छे कर्म ही का सुअवसर आदमी को अल्लाह को कृपा के बिना कैसे मिल सकता है, फिर जो उत्तम से उत्तम कर्म भी आदमी कर सकता है, वह कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता जिसके बारे में दावे से यह कहा जा सके कि इसमें कमी का कोई पहलू नहीं है। यह अल्लाह ही की कृपा है कि वह बन्दे को कमज़ोरियों और उसके कर्मों को ख़ामियों को नजरअंदाज करके उसकी सेवाओं को स्वीकार कर ले और उसे इनाम से नवाज़े।
فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 56
0
فَإِنَّمَا يَسَّرۡنَٰهُ بِلِسَانِكَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 57
(58) ऐ नबी! हमने इस किताब को तुम्हारी भाषा में आसान बना दिया है, ताकि वे लोग नसीहत हासिल करें।
فَٱرۡتَقِبۡ إِنَّهُم مُّرۡتَقِبُونَ ۝ 58
(59) अब तुम भी इन्तिज़ार करो, ये भी इन्तिज़ार में हैं।45
45. अर्थात् अब अगर ये लोग नसीहत क़बूल नहीं करते तो देखते रहो कि इनकी किस तरह शामत आती है, और ये भी इन्तिजार में हैं कि देखें तुम्हारे इस पैशाम का क्या अंजाम होता है।