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سُورَةُ المَائـِدَةِ

  1. अल-माइदा

(मदीना में उतरी, आयतें 120)

परिचय

नाम:

इस सूरा का नाम पंद्रहवें रुकूअ की आयत-112 'हल यस्ततीउ रब्बु-क अंय्युनज़्ज़ि-ल अलैना माइदतम मिनस्समाइ' (क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान (थाल) उतार सकता है?) के शब्द ‘माइदा' से लिया गया है।

उतरने का समय

सूरा के विषयों से स्पष्ट होता है और रिवायतों से इसकी पुष्टि होती है कि यह “हुदैबिया की संधि” के बाद सन् 06 हि० के आख़िर या सन् 07 हि० के शुरू में उतरी है। ज़ी-कादा सन् 06 हि० की घटना है कि नबी (सल्ल.) चौदह सौ मुसलमानों के साथ उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए। परन्तु सत्य के विरोधी कुरैशियों ने दुश्मनी के जोश में अरब की प्राचीनतम धार्मिक परम्पराओं के विपरीत आपको उमरा न करने दिया और बड़े वाद-विवाद के बाद यह बात स्वीकार की कि अगले साल आप (सल्ल.) ज़ियारत (दर्शन) के लिए आ सकते हैं। इस अवसर पर ज़रूरत आ पड़ी कि मुसलमानों को एक ओर तो काबा की ज़ियारत के लिए सफ़र के आदाब (नियम) बताए जाएँ और दूसरी ओर उन्हें ताकीद की जाए कि विधर्मो दुश्मनों ने उन्हें उमरा से रोककर जो अन्याय किया है, उसके उत्तर में वे स्वयं कोई उत्पीड़न का पथ न अपनाएँ, इसलिए कि बहुत-से विरोधी क़बीलों के हज का मार्ग इस्लामी इलाक़ों से होकर जाता था और मुसलमानों के लिए यह संभव था कि जिस तरह इन्हें काबे की ज़ियारत से रोका गया है, उसी तरह वे भी उनको रोक दें।

उतरने का कारण

सूरा आले इमरान और सूरा निसा के उतरने के समय से इस सूरा के उतरने तक पहुँचते-पहुँचते परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका था। या तो वह समय था कि उहुद की लड़ाई के सदमे ने मुसलमानों के लिए मदीना के क़रीबी माहौल को भी ख़तरनाक बना दिया था या अब यह समय आ गया कि अरब में इस्लाम एक अजेय शक्ति दिखाई पड़ने लगा और इस्लामी राज्य एक ओर नज्द तक, दूसरी ओर शाम (सीरिया) की सीमाओं तक, तीसरी ओर लाल सागर के तट पर और चौथी ओर मक्का के क़रीब तक फैल गया। अब इस्लाम मात्र एक अक़ीदा और दृष्टिकोण ही न था जिसका शासन सिर्फ़ दिलों और दिमाग़ों तक सीमित हो, बल्कि वह एक स्टेट भी था जिसकी हुक्मरानी व्यावहारिक रूप से अपनी सीमाओं में रहनेवाले तमाम लोगों के जीवन पर छाई हुई थी।

फिर इन कुछ वर्षों में इस्लामी सिद्धान्तों एवं धारणाओं के अनुसार मुसलमानों की अपनी एक स्थायी सभ्यता बन चुकी थी जो जीवन के तमाम क्षेत्रों में दूसरों से अलग अपना एक विशिष्ट गौरव रखती थी। नैतिकता, रहन-सहन, संस्कृति, हर चीज़ में अब मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बिल्‍कुल अलग पहचाने जाते थे। इस्‍लामी जीवन का ऐसा पूर्ण स्‍वरूप बन जाने के बाद ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इस ओर से पूरे तौर पर निराश हो चुकी थी कि ये लोग, जिनकी अपनी एक अलग संस्कृति बन चुकी है, फिर कभी उनमें आ मिलेंगे। हुदैबिया में समझौते से पहले तक मुसलमानों के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह थी कि वे करैशी विरोधियों के साथ एक लगातार संघर्ष में उलझे हुए थे और उन्हें अपने आह्वान का क्षेत्र विस्तृत करने की छूट न मिलती थी। इस रुकावट को हुदैबिया की बाह्य किन्तु वास्तविक जीत ने दूर कर दिया। इससे उनको न केवल यह कि अपने राज्य की सीमाओं में शान्ति मिल गई, बल्कि इतनी मोहलत भी मिल गई कि आस-पास के क्षेत्रों में इस्लाम की दावत को लेकर फैल जाएँ।

वार्ताएँ

ये परिस्थितियाँ थीं जब सूरा माइदा उतरी। यह सूरा नीचे लिखे तीन बड़े-बड़े विषयों पर सम्मिलित है-

  1. मुसलमानों के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन के बारे में और अधिक आदेश और मार्गदर्शन- इस संबंध में हज के सफ़र के तरीक़े तय किए गए। अल्लाह की निशानियों के सम्मान का और काबे की ज़ियारत करनेवालों को न छेड़ने का आदेश दिया गया, खाने-पीने की चीज़ों में हराम और हलाल की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित की गईं और अज्ञानकाल के मनगढ़ंत बन्धनों को तोड़ दिया गया, अहले-किताब (किताबवालों) के साथ खाने-पीने और उनकी औरतों से निकाह करने की इजाज़त दी गई, वुज़ू और तयम्मुम और ग़ुस्ल (स्‍नान) की विधियाँ निश्चित की गई, विद्रोह करने, बिगाड़ पैदा करने और चोरी करने की सज़ाएँ तय की गईं, शराब और जुए को पूर्ण रूप से हराम कर दिया गया, क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) मुक़र्रर किया गया और गवाही के क़ानून में कुछ और धाराओं को बढ़ाया गया।
  2. मुसलमानों को नसीहत : अब चूँकि मुसलमान एक शासक समुदाय बन चुके थे, इसलिए उनको सम्बोधित करते हुए बार-बार नसीहत की गई कि न्याय पर जमे रहें, अपने से पूर्व गुज़रे हुए किताबबालों के आचरण से बचें। अल्लाह के आज्ञापालन और उसके आदेशों की पैरवी का जो वचन उन्होंने दिया उसपर अटल रहें।
  3. यहूदियों और ईसाइयों को ताकीद : यहूदियों का ज़ोर अब टूट चुका था और उत्तरी अरब की लगभग समस्त यहूदी बस्तियाँ मुसलमानों के अधीन हो गई थीं। इस अवसर पर उनको एक बार फिर उनकी ग़लत नीति पर सचेत किया गया और सीधे रास्ते पर आने का आह्वान किया गया। साथ ही चूँकि हुदैबिया के समझौते के कारण अरब और पड़ोसी देशों की क़ौमों में इस्लाम के प्रचार-प्रसार का सुअवसर निकल आया था, इसलिए ईसाइयों को भी सविस्तार सम्बोधित करके उनके अक़ीदों (विश्वासों) की ग़लतियाँ बताई गई हैं और उन्हें अरबी नबी पर ईमान लाने का आह्वान किया गया है।

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سُورَةُ المَائـِدَةِ
5. अल-माइदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَوۡفُواْ بِٱلۡعُقُودِۚ أُحِلَّتۡ لَكُم بَهِيمَةُ ٱلۡأَنۡعَٰمِ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ غَيۡرَ مُحِلِّي ٱلصَّيۡدِ وَأَنتُمۡ حُرُمٌۗ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ مَا يُرِيدُ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! बन्दिशों की पूरी पाबन्दी करो।1, तुम्हारे लिए मवेशी की किस्म के सब जानवर हलाल किए गए2, सिवाय उनके जो आगे चलकर तुमको बताए जाएंगे, लेकिन इहराम की हालत में शिकार को अपने लिए हलाल न कर लो3, निस्सन्देह अल्लाह जो चाहता है. आदेश देता है।4
1. अर्थात उन सीमाओं और शर्तों की पाबंदी करो जो इस सूरा में तुमपर लागू की जा रही हैं और जो आम तौर से अल्लाह की शरीअत में तुमपर लगाई गई हैं। इस भूमिकास्वरूप संक्षिप्त वाक्य के बाद ही उन बन्धनों का वर्णन शुरू हो जाता है जिनकी पाबंदी का आदेश दिया गया है।
2. 'अनआम' (चौपाए) का शब्द अरबी भाषा में ऊँट, गाय, भेड़ और बकरी के लिए बोला जाता है और 'बहीमा हर चरनेवाले चौपाए को कहा जाता है। “मवेशी की किस्म के चरनेवाले चौपाए तुमपर हलाल किए गए" का अर्थ यह है कि वे सब चरनेवाले जानवर हलाल हैं जो मवेशी की किस्म के हों, अर्थात जो केचुलियाँ न रखते हों, जीव-जन्तुओं का आहार करने के बजाय, घास-फूस और वनस्पतियाँ खाते हों और दूसरे पशुओं के गुणों में चौपायों से समानता रखते हों, तथा इससे सांकेतिक रूप में यह बात भी सामने आती है कि वे चौपाए जो मवेशियों के विपरीत केचुलियाँ रखते हो और दूसरे जानवरों को मारकर खाते हों, हलाल (वैध) नहीं हैं। इसी संकेत को नबी (सल्ल) ने स्पष्ट करके हदीस में साफ़ हक्म दे दिया कि हिंसक पशु हराम हैं। इसी तरह हुजूर (सल्ल.) ने उन परिंदों को भी हराम ठहराया दिया जिनके पंजे होते हैं और जो दूसरे जानवरों का शिकार करके खाते हैं या मुरदार खाते हैं ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحِلُّواْ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ وَلَا ٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَلَا ٱلۡهَدۡيَ وَلَا ٱلۡقَلَٰٓئِدَ وَلَآ ءَآمِّينَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّهِمۡ وَرِضۡوَٰنٗاۚ وَإِذَا حَلَلۡتُمۡ فَٱصۡطَادُواْۚ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ أَن صَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ أَن تَعۡتَدُواْۘ وَتَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَلَا تَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! ख़ुदापरस्ती (अल्लाह के आज्ञापालन) को निशानियों का अनादर न करों 5-हराम महीनों में से किसी को हलाल न कर लो, कुरबानी के जानवरों पर हाथ न डालो, न उन जानवरों पर हाथ डालो जिनकी गरदनों में अल्लाह की नज़्र की निशानी के तौर पर पट्टे पड़े हुए हो, न उन लोगों को छेड़ो जो अपने रब की कृपा और उसकी प्रसन्नता की खोज में प्रतिष्ठित घर (काबा) को ओर जा रहे हों। 6 हाँ, जब इहराम की हालत समाप्त हो जाए तो शिकार तुम कर सकते हो 7 -और देखो, एक गिरोह ने जो तुम्हारे लिए मस्जिदे हराम का रास्ता बन्द कर दिया है, तो उसपर तुम्हारा क्रोध तुम्हें इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम भी उनके मुक़ाबले में अनुचित ज़्यादतियाँ करने लगो।8 नहीं, जो काम नेकी और खुदातरसी (धर्मपरायणता) के हैं उनमें सबसे सहयोग करो और जो गुनाह और ज़्यादती के काम हैं उनमें किसी से सहयोग न करो। अल्लाह से डरो, उसकी सज़ा बहुत कठोर है।
5. हर वह चीज़ जो किसी पंथ या धारणा या कार्य एवं चिंतनशैली या किसी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती हो, वह उसका 'शिआर' (बहु० शआइर अर्थात पहचान, प्रतीक) कहलाएगी, क्योंकि वह उसके लिए लक्षण या निशानी का काम देती है। सरकारी झंडे, फ़ौज और पुलिस आदि के यूनिफ़ार्म, सिक्के नोट और स्टाम्प सरकारों के शआइर हैं और वे अपने आधीनों से, बल्कि जिन-जिन पर उनका ज़ोर चलता है, सबसे उनके सम्मान की मांग करती हैं। गिरजा और बलिस्थली और सलीब ईसाई-धर्म के शआइर हैं। चोटी, जनेव और मन्दिर हिन्दुत्व के शआइर हैं । केश, कड़ा और कृपाण और पगड़ी आदि सिख धर्म के शआइर हैं। हथौड़ा और दरांतो कम्युनिज्म के शाआइर हैं, स्वस्तिक आर्यों का शिआर है। ये सब पंथ अपने-अपने माननेवालों से अपने इन शआइर और प्रतीक के आदर की मांग करते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी विचारधारा के शआइर में से किसी शिआर का अनादर करता है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि वह वास्तव में उस व्यवस्था के विरुद्ध शत्रुता रखता है और अगर वह अनादर करनेवाला व्यक्ति स्वयं उसी व्यवस्था से ताल्लुक रखता हो तो उसका यह काम अपनी व्यवस्था से फिर जाने और विद्रोह करने के समान है। "अल्लाह के शआइर" से अभिप्रेत वे समस्त लक्षण और निशानियाँ हैं जो शिर्क व कुफ्र (अनेकेश्वरवाद और विधर्मिता) और नास्तिकता की अपेक्षा विशुद्ध ईशपरायणता एवं एकेश्वरवाद के मत का प्रतिनिधित्व करती हो। ऐसी निशानियाँ जहाँ जिस पंथ और जिस व्यवस्था में भी पाई जाएँ, मुसलमान उनके आदर पर लगा दिए गए हैं, बस शर्त यह है कि उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि विशुद्धतः एकेश्वरवाद एवं ईशपरायणता पर आश्रित हो-याद रखना चाहिए कि अल्लाह के शआइर के आदर का यह आदेश उस समय दिया गया था जबकि मुसलमान और अरब के मुशरिकों के बीच लड़ाई चल रही थी। मक्का अनेकेश्वरवादियों का क़ब्ज़ा था। अरब के हर हिस्से से मुशरिक क़बीलों के लोग हज और ज़ियारत के लिए काबे की ओर जाते थे और बहुत-से कबीलों के रास्ते मुसलमानों के निशाने पर थे। उस समय आदेश दिया गया कि ये लोग मुशरिक ही सही, तुम्हारे और उनके बीच युद्ध ही सही, मगर जब ये अल्लाह के घर की ओर जाते हैं तो इन्हें न छेडो, क्योंकि इनके बिगड़े हुए धर्म में खुदापरस्ती (धर्मपराणता) का जितना हिस्सा बाक़ी है वह अपने आपमें आदर के योग्य है, न कि अनादर के।
6. 'शआइरुल्लाह' (अल्लाह के शआइर) के आदर का सामान्य आदेश देने के बाद कुछ शआइर का नाम लेकर उनके आदर का मुख्य रूप से आदेश दिया गया, क्योंकि उस समय जंगी हालात होने के कारण यह आशंका पैदा हो गई थी कि लड़ाई के उन्माद में कहीं मुसलमानों के हाथों उनका अनादर न हो जाए।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةُ وَٱلدَّمُ وَلَحۡمُ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦ وَٱلۡمُنۡخَنِقَةُ وَٱلۡمَوۡقُوذَةُ وَٱلۡمُتَرَدِّيَةُ وَٱلنَّطِيحَةُ وَمَآ أَكَلَ ٱلسَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيۡتُمۡ وَمَا ذُبِحَ عَلَى ٱلنُّصُبِ وَأَن تَسۡتَقۡسِمُواْ بِٱلۡأَزۡلَٰمِۚ ذَٰلِكُمۡ فِسۡقٌۗ ٱلۡيَوۡمَ يَئِسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن دِينِكُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِۚ ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَٰمَ دِينٗاۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ فِي مَخۡمَصَةٍ غَيۡرَ مُتَجَانِفٖ لِّإِثۡمٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 2
(3) तुमपर हराम किया गया मुरदार 9, खून, सुअर का मास, वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर जिब्हकिया गया हो10, वह जो गला घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई में गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो—सिवाय उसके जिसे तुमने जि़न्दा पाकर जिब्ह कर लिया11, -और वह जो किसी आस्ताने (थान) पर12 ज़िब्ह किया गया हो।13 साथ ही यह भी तुम्हारे लिए हराम है कि पांसों के जरिये से अपना भाग्य मालूम करो 14; ये सभी काम फ़िस्क (अवज्ञा के) हैं। आज विरोधियों को तुम्हारे धर्म की ओर से पूर्ण निराशा हो चुकी है, इसलिए तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।15 आज मैंने तुम्हारे दीन (जीवन-विधान) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन (धर्म) की हैसियत से कबूल कर लिया है, (इसलिए हराम व हलाल की जो कैदें तुमपर डाली गई है उनको पाबन्दी करो)16, अलबत्ता जो व्यक्ति भूख से मजबूर होकर उनमें से कोई चीज़ खा ले, बिना इसके कि गुनाह को ओर उसका झुकाव हो, तो निस्सन्देह अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।17
9. अर्थात वह जानवर जो स्वाभाविक मौत मर गया हो।
10. अर्थात् जिसको जिब्ह करते वक़्त अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो या जिसको ज़िब्‍ह करने से पहले यह नीयत की गई हो कि यह अमुक बुजुर्ग या अमुक देवी या देवता को भेंट है। (देखिए सूरा-2, की टिप्पणी 171)
14. इस आयत में जिस चीज़ को हराम किया गया है उसकी तीन बड़ी किस्में दुनिया में पाई जाती हैं और आयत का हुक्म इन तीनों पर लागू होता है- (1) मुशरिकाना (अनेकेश्वरवादी) फ़ालगीरी जिसमें किसी देवी या देवता से भाग्य-निर्णय मालूम किया जाता है, या गैब (परोक्ष) की ख़बर मालूम की जाती है या आपसी झगड़ों का निबटारा किया जाता है। मक्का के मुशरिकों ने इस ध्येय के लिए काबा के अन्दर “हुबल” नामक देवता के बुत को ‘ख़ास’ कर रखा था। उसके थान में सात तीर रखे हुए थे जिनपर अलग-अलग शब्द और वाक्य खुदे थे। किसी काम के करने या न करने का प्रश्न हो या खोई हुई चीज़ का पता पूछना हो, या खून (हत्या) के मुक़द्दमे का फैसला आपेक्षित हो, मतलब यह कि कोई काम भी हो इसके लिए हुबल के पाँसेदार के पास पहुँच जाते। उसका नज़राना पेश करते और हुबल से दुआ मांगते कि हमारे इस मामले का फैसला कर दे, फिर पांसा डालनेवाला उन तीरों के ज़रिए से फ़ाल निकालता और जो तीर भी फ़ाल में निकल आता, उसपर लिखे हुए शब्द को हुबल का निर्णय समझा जाता था। (2) अंधविश्वास पर आधारित फ़ालगीरी, मृत्तिका-शकून विचार (Geomancy), फलित ज्योतिष, भविष्यक्ता, विभिन्न प्रकार के शकुन, और नक्षत्र और फ़ालगीरी के अनगिनत तरीके इसमें शामिल हैं। (3) जुए के प्रकार के समस्त खेल और काम जिनमें चीज़ों के बंटवारे की बुनियाद, हक़ों, सेवाओं और तर्कसंगत निर्णयों पर रखने के बजाय केवल किसी संयोगवश बात पर रख दी जाए, उदाहरणतः लाटरी या मुअम्मे (पहेलियाँ)। इन तीन किस्मों को हराम कर देने के बाद कुरआ-अंदाज़ी को सिर्फ वह सादा शक्ल इस्लाम में जाइज़ रखी गई है जिसमें दो बराबर के वैध कामों या दो बराबर के हकों के बीच निर्णय करना हो।
15. 'आज' से अभिप्रेत कोई विशेष दिन तिथि नहीं है, बल्कि वह समय या काल अभिप्रेत है जिसमें ये आयतें उतरी थीं। हमारी भाषा में भी आज का शब्द 'वर्तमान काल' के लिए आम तौर पर बोला जाता है। 'विरोधियों' को तुम्हारे धर्म की ओर से निराशा हो चुकी है' अर्थात अब तुम्हारा दीन एक स्थायी व्यवस्था का रूप धारण कर चुका है और स्वयं अपनी शासन-शक्ति के साथ लागू और क़ायम है। विरोधी जो अब तक इसकी स्थापना में रुकावट और अवरोधक रहे हैं, अब इस ओर से निराश हो चुके हैं कि वे इसे मिटा सकेंगे और तुम्हें फिर पिछली अज्ञानता की ओर वापस ले जा सकेंगे। इसलिए तुम उनसे न डरो बल्कि मुझसे डरो" अर्थात् इस धर्म के आदेश और उसके निर्देशों पर चलने में अब किसी विरोधी ताक़त के ग़लबा व कहर, हस्तक्षेप और अवरोध का खतरा तुम्हारे लिए बाक़ी नहीं रहा है। इंसानों के डर का अब कोई कारण नहीं रहा। अब तुम्हें अल्लाह से डरना चाहिए कि उसके आदेशों के पालन में अगर कोई कोताही तुमने को तो तुम्हारे पास कोई ऐसा बहाना न होगा जिसके आधार पर तुम्हारे साथ कुछ भी नर्मी को जाए। अब अल्लाह के कानून की खिलाफ़ों का मतलब यह नहीं होगा कि तुम दूसरों के प्रभाव से विवश हो, बल्कि इसका साफ मतलब यह होगा कि तुम अल्लाह का आज्ञापालन करना नहीं चाहते।
16. "धर्म के पूर्ण कर देने से अभिप्रेत उसको कार्य एवं चिंतन की एक स्थायी व्यवस्था और एक ऐसी पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था बना देना है जिसमें ज़िन्दगी को तमाम समस्याओं का हल सैद्धांतिक रूप से या विस्तृत रूप से मौजूद हो और मार्गदर्शन और रहनुमाई हासिल करने के लिए किसी भी स्थिति में उससे बाहर जाने की जरूरत न पड़े । नेमत पूरी करने से तात्पर्य रहनुमाई की नेमत को पूर्ण कर देना है और इस्लाम को धर्म की हैसियत से कबूल कर लेने का अर्थ यह है कि तुमने मेरा आज्ञापालन और बन्दगी इख़्तियार करने का जो बचन दिया था, उसको चूँकि तुम अपने प्रयत्ल और कार्य से सच्चा और निष्ठापूर्ण वचन सिद्ध कर चुके हो, इसलिए मैंने उसे स्वीकार कर लिया है और तुम्हें व्यावहारिक रूप से इस स्थिति को पहुंचा दिया है कि अब वास्तव में मेरे सिवा किसी के आज्ञापालन व बन्दगी का जुआ तुम्हारी गरदनों पर बाक़ी नहीं रहा। अब जिस प्रकार धारणा की दृष्टि से तुम मेरे 'मुस्लिम' (आज्ञापालक) हो, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में भी मेरे सिवा किसी और के 'मुस्लिम' बनकर रहने के लिए तुमपर कोई मजबूरी नहीं रही।
17. देखिए सूरा 2 (बक़रा) की टिप्पणी न० 172
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَآ أُحِلَّ لَهُمۡۖ قُلۡ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُ وَمَا عَلَّمۡتُم مِّنَ ٱلۡجَوَارِحِ مُكَلِّبِينَ تُعَلِّمُونَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ ٱللَّهُۖ فَكُلُواْ مِمَّآ أَمۡسَكۡنَ عَلَيۡكُمۡ وَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 3
(4) लोग पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल किया गया है, कहो, तुम्हारे लिए सारी पाक चीजें हलाल कर दी गई है।18 और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधाया हो—जिनको अल्लाह के दिए हुए ज्ञान के आधार पर तुम शिकार को ट्रेनिंग दिया करते हो-वे जिस जानवर को तुम्हारे लिए पकड़ रखें, उसको भी तुम खा सकते हो 19, अलबत्ता उसपर अल्लाह का नाम ले लो 20 और अल्लाह का क़ानून तोड़ने से डरो, अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती।
18. पूछनेवालों का उद्देश्य यह था कि उन्हें तमाम हलाल चीज़ों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया जाए, ताकि उनके सिवा हर चीज़ को वे हराम समझें । जवाब में कुरआन ने हराम चीज़ों के बारे में विस्तार से बताया और इसके बाद यह आम हिदायत देकर छोड़ दिया कि सारी पाक चीजें हलाल हैं। इस प्रकार प्राचीन धार्मिक दृष्टिकोण बिल्कुल उलट गया। प्राचीन दृष्टिकोण यह था कि सब कुछ हराम है अलावा उसके जिसे हलाल ठहराया जाए। कुरआन ने इसके विपरीत यह सिद्धान्त निर्धारित किया कि सब कुछ हलाल है अलावा उसके जिसके हराम होने को स्पष्टतः बता दिया जाए। यह एक बहुत बड़ा सुधार था जिसने मानव-जीवन को बन्धनों से मुक्त करके फैली हुई दुनिया की विशालताओं का दरवाज़ा उसके लिए खोल दिया। 'हलाल' के लिए 'पाक' की क़ैद इसलिए लगाई कि नापाक चीज़ों को इस सामान्य वैधता के तर्क से हलाल ठहराने की कोशिश न को जाए। अब रहा यह प्रश्न कि चीज़ों का 'पाक' होना किस तरह तय होगा, तो इसका जवाब यह है कि जो चीजें शरीअत के नियमाधीन नापाक बता दी जाएँ या जिन चीज़ों से सहसजत: घृणा आए या जिन्हें सभ्य पुरुष ने सामान्यतः अपने स्वाभाविक निर्मलता के एहसास के विरुद्ध पाया हो उनके अलावा सब कुछ पाक है।
19. शिकारी जानवरों से अभिप्रेत कुत्ते, चीते, बाज़, शकरे और तमाम वे दरिंदे और परिंदे हैं जिनसे इंसान शिकार का काम लेता है। सधाए हुए जानवर की विशेषता यह होती है कि वह जिसका शिकार करता है उसे सामान्य दरिंदों की तरह फाड़ नहीं खाता बल्कि अपने मालिक के लिए पकड़ रखता है। इसी वजह से सामान्य दरिंदों का फाड़ा हुआ जानवर हराम है और सधाए हुए दरिंदों का शिकार हलाल।
ٱلۡيَوۡمَ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُۖ وَطَعَامُ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حِلّٞ لَّكُمۡ وَطَعَامُكُمۡ حِلّٞ لَّهُمۡۖ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِيٓ أَخۡدَانٖۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ حَبِطَ عَمَلُهُۥ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 4
(5) आज तुम्हारे लिए सारी पाक चीजें हलाल कर दी गई हैं। किताबवालों का खाना तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिए। 21 और सुरक्षित औरतें भी तुम्हारे लिए हलाल (वैध) हैं, चाहे वे ईमानवालों के गिरोह से हों, या उन क़ौमों में से जिनको तुमसे पहले किताब दी गई थी 22, बस शर्त यह है कि तुम उनके महर अदा करके निकाह में उनके रक्षक बनो, न यह कि स्वछन्द काम तप्ति में लगो या चोरी-छिपे आशनाइयाँ करो। और जिस किसी ने ईमान की नीति पर चलने से इनकार किया तो उसके जीवन का सारा किया-धरा बर्बाद हो जाएगा और वह आखिरत में दीवालिया होगा। 23
21. किताबवालों के खाने में उनका ज़बीहा (ज़िब्ह किया हुआ जानवर) भी शामिल है। हमारे लिए उनका और उनके लिए हमारा खाना हलाल होने का अर्थ यह है कि हमारे और उनके बीच खाने-पीने में कोई रुकावट और कोई छूतछात नहीं है। हम उनके साथ खा सकते हैं और वे हमारे साथ, लेकिन यह आम इजाज़त देने से पहले इस वाक्य को दोहरा दिया गया है कि “तुम्हारे लिए पाक चीजें हलाल कर दी गई हैं।" इससे मालूम हुआ कि किताबबाले अगर पाकी और तहारत के उन कानूनों की पाबन्दी न करें जो शरीअत के दृष्टिकोण से ज़रूरी है या अगर उनके खाने में हराम चीजें शामिल हों तो उससे बचना चाहिए, जैसे अगर वह अल्लाह का नाम लिए बिना किसी जानवर को जिबह करें या उसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम ले तो उसे खाना हमारे लिए वैध नहीं। इसी तरह अगर उनके दस्तरखान पर शराब या सुअर या कोई और हराम चीज़ हो तो हम उनके साथ शरीक नहीं हो सकते-किताबवाले के अलावा दूसरे गैर-मुस्लिमों के बारे में भी यही आदेश है। अन्तर केवल यह है कि ज़बीहा अहले किताब ही का वैध है, जबकि उन्होंने अल्लाह का नाम उसपर लिया हो, रहे और अहले किताब, तो उनके हलाक किए हुए जानवर को हम नहीं खा सकते।
22. इससे अभिप्रेत यहूदी और ईसाई हैं। निकाह की इजाजत सिर्फ उन्हीं की औरतों से दी गई है और उसके साथ शर्त यह लगा दी गई है कि वे मुहसनात (सुरक्षित) औरतें हों। इस आदेश के स्पष्टीकरण में धर्मशास्त्रियों (फुकहा) में मतभेद पाया जाता है। इन्ने अब्बास (रजि.) का विचार है कि यहाँ किताबवाल से तात्पर्य वे किताबवाले हैं जो इस्लामी राज्य की प्रजा हों। रहे 'दारुल हर्ब' और 'दारुल कुफ़' के यहूदी और ईसाई, तो उनकी औरतों से निकाह करना ठीक नहीं । हनफ़ीया इससे थोड़ा मतभेद करते हैं। उनके नज़दीक विदेश के किताबवालों की औरतों से निकाह करना हराम तो नहीं है, पर मकरूह (अप्रिय) ज़रूर है। इसके विपरीत सईद बिन मुसय्यिब और हसन बसरी (रह.) इसके कायल हैं कि आयत अपने आदेश में सामान्य है, इसलिए ज़िम्मी (देशी) और गैर-ज़िम्मी (विदेशी) में अन्तर करने की ज़रूरत नहीं। फिर मुहसनात (सुरक्षित) के अर्थ में भी फुकहा के बीच मतभेद है। हज़रत उमर (रजि.) के नज़दीक इससे तात्पर्य पाकदामन और सतीत्त्व की रक्षा करनेवाली औरतें हैं और इस कारण वे अहले किताब की स्वच्छन्द आचरणवाली औरतों को इस इजाज़त से अलग कर देते हैं। यही मत हसन,शाबी और इबराहीम नख़ई को है और हनफीया ने भी इसी को पसन्द किया है। इसके विपरीत इमाम शाफ़ई की राय यह है कि यहाँ यह शब्द लौडियों के मुकाबले में इस्तेमाल हुआ है, अर्थात इससे किताबवालों की वे औरतें हैं जो लौंडियाँ न हों।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَكُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ وَإِن كُنتُمۡ جُنُبٗا فَٱطَّهَّرُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُم مِّنۡهُۚ مَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيَجۡعَلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ حَرَجٖ وَلَٰكِن يُرِيدُ لِيُطَهِّرَكُمۡ وَلِيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो चाहिए कि अपने मुँह और हाथ कुहनियों तक धो लो. सिरों पर हाथ फेर लो और पाँव टखनों तक धो लिया करो।24 अगर नापाको को हालत में हो तो नहाकर पाक हो जाओ।25 अगर बीमार हो या सफर की हालत में हो, या तुममें से कोई आदमी ज़रूरत पूरी करके आए या तुमने औरतो को हाथ लगाया हो और पानी न मिले, तो पाक मिट्टी से काम लो, बस उसपर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर फेर लिया करो।26 अल्लाह तुमपर जिन्दगी को तंग नहीं करना चाहता, मगर वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दे27, शायद कि तुम शुक्रगुज़ार (कृतज्ञ) बनो।
24. नबी (सल्ल.) ने इस आदेश को जो व्याख्या की है उससे मालूम होता है कि मुँह धोने में कुल्ली करना और नाक साफ़ करना भी सम्मिलित है, बिना इसके मुंह का धोना पूरा नहीं होता और कान चूंकि सिर का एक हिस्सा है, इसलिए सिरके मसह (गीला हाथ फेरने) में कानों के अन्दर और बाहर के हिस्सों का 'मसह’ भी सम्मिलित है तथा वुजू शुरू करने से पहले हाथ धो लेना चाहिए, ताकि जिन हाथों से आदमी वुज़ू कर रहा हो, वे स्वयं पहले पाक हो जाएँ।
25. नापाको चाहे संभोग से हुई हो या सपने में मनो के निकल पड़ने की वजह से, दोनों स्थितियों में ग़ुस्ल (स्नान) ज़रूरी है। इस हालत में नहाए बगैर नमाज़ पढ़ना या कुरआन को हाथ लगाना जाइज़ (वैध) नहीं। (और अधिक विस्तार के लिए देखिए क़ुरआन 4 : 43 की टिप्पणी न० 67-69.)
وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمِيثَٰقَهُ ٱلَّذِي وَاثَقَكُم بِهِۦٓ إِذۡ قُلۡتُمۡ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 6
(7) अल्लाह ने तुमको जो नेमत प्रदान की है28 उसका ध्यान रखो और उस पक्के वचन और प्रतिज्ञा को न भूलो जो उसने तुमसे ली है, अर्थात् तुम्हारा यह कथन कि “हमने सुना और आज्ञापालन स्वीकार किया।" 'अल्लाह से डरो, अल्लाह दिलों के भेद तक जानता है ।
28. अर्थात् यह नेमत कि ज़िन्दगी का सीधा रास्ता तुम्हारे लिए रौशन कर दिया और दुनिया के मार्गदर्शन और नेतृत्व के पद से तुम्हें सम्मानित किया।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ لِلَّهِ شُهَدَآءَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ عَلَىٰٓ أَلَّا تَعۡدِلُواْۚ ٱعۡدِلُواْ هُوَ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह के लिए सच्चाई पर कायम रहनेवाले और न्याय की गवाही देनेवाले बनो,29 किसी गिरोह की दुश्मनी तुमको इतना उत्तेजित न कर दे कि न्याय से फिर जाओ। न्याय करो, यह ईशपरायणता (खुदातरसी) से अधिक अनुकूलता रखता है। अल्लाह से डरकर काम करते रहो, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे पूरी तरह बाख़बर है।
29. देखिए क़ुरआन,4 : 135 को टिप्पणी न० 164-165.
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 8
(9) जो लोग ईमान लाएँ और नेक अमल करें, अल्लाह ने उनसे वादा किया है कि उनको ग़लतियों को माफ़ किया जाएगा और उन्हें बड़ा बदला मिलेगा।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 9
(10) रहे वे लोग जो कुफ़ (इंकार) करें और अल्लाह की आयतों को झुठलाएँ, तो वे दोज़ख में जानेवाले हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ هَمَّ قَوۡمٌ أَن يَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ فَكَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह के उस उपकार को याद करो जो उसने (अभी है। इंसान पर अल्लाह की नेमत उसी समय पूरी हो सकती है जबकि नफ्स व जिस्म दोनों की स्वच्छता और पाकीजगी के लिए उसे पूरी हिदायत मिल जाए। हाल में) तुमपर किया है, जबकि एक गिरोह ने तुमपर हाथ डालने का इरादा कर लिया था, मगर अल्‍लाह ने उनके हाथ तुमपर उठने से रोक दिए।30 अल्लाह से डरकर काम करते रहो. ईमान रखनेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
30. संकेत है उस घटना ओर जिसका उल्लेख हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि.) ने किया है. कि यहूदियों में से एक गिरोह ने नबी (सल्ल.) और आपके खास-खास साथियों को खाने को दावत पर बुलाया था और खुफ़िया तौर पर यह साज़िश की थी कि अचानक उनपर टूट पड़ेंगे और इस तरह इस्लाम की जान निकाल देंगे, लेकिन ठीक समय पर अल्लाह की कृपा से नबी (सल्ल.) को इस साज़िश का हाल मालूम हो गया और आप दावत पर तशरीफ़ न ले गए। चूंकि यहाँ से बनी इसराईल को संबोधित करना आरंभ हो रहा है, इसलिए प्रस्तावना के रूप में इस घटना का उल्लेख किया जा रहा है। यहाँ से जो व्यख्यान शुरू हो रहा है उसके दो उद्देश्य है- पहला उद्देश्य यह है कि मुसलमानों को उस नीति पर चलने से रोका जाए जिसपर उनसे पहले के अहले किताब चल रहे थे। अत: उन्हें बताया जा रहा है कि जिस तरह आज तुमसे वचन लिया गया है, उसी तरह कल यही वचन बनी इसराईल से और मसीह अलैहिस्सलाम की उम्मत (अनुयायियों) से भी लिया जा चुका है। फिर कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह वे अपने वचन को तोड़कर गुमराहियों में पड़ गर, उसी तरह तुम भी उसे तोड़ दो और गुमराह हो जाओ। दूसरा उद्देश्य यह है कि यहूदी और ईसाइयों दोनों को उनकी गलतियों पर सचेत किया जाए और उन्हें सत्य-धर्म की ओर बुलाया जाए।
۞وَلَقَدۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَبَعَثۡنَا مِنۡهُمُ ٱثۡنَيۡ عَشَرَ نَقِيبٗاۖ وَقَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مَعَكُمۡۖ لَئِنۡ أَقَمۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَيۡتُمُ ٱلزَّكَوٰةَ وَءَامَنتُم بِرُسُلِي وَعَزَّرۡتُمُوهُمۡ وَأَقۡرَضۡتُمُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا لَّأُكَفِّرَنَّ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ فَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 11
(12) अल्लाह ने बनी इसराईल से दृढ वचन लिया था और उनमें बारह नक़ीब 31 नियुक्त किए थे और उनसे कहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, अगर तुमने नमाज़ कायम रखी और ज़कात दी और मेरे रसूलों को माना और उनकी मदद की 32 और अपने अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ देते रहे 33 तो विश्वास रखो कि मैं तुम्हारी बुराइयाँ तुमसे मिटा दूँगा 34 और तुमको ऐसे बागों में दाखिल करूगाँ जिनके नीचे नहरे बहती होगी, मगर इसके बाद जिसने तुममें से कुफ़्र (इंकार) की नीति अपनाई, तो वास्तव में वह सीधे मार्ग 35 से भटक गया।”
31. नक़ीब' का अर्थ है-निगरानी और जाँच करनेवाला । बनी इसराईल के बारह कबीले थे और अल्लाह ने उनमें से हर क़बीले पर एक-एक नकीब स्वयं उसी कबीले से नियुक्त करने का आदेश दिया था, ताकि वह इनके हालात पर नज़र रखे और उन्हें अधर्म और अनैतिकता से बचाने की कोशिश करता रहे बाइबल की किताब 'गिनती' में बारह (सरदारों) का उल्लेख है. मगर उनकी वह हैसियत जो यहाँ शब्‍द ‘नक़ीब’ से क़ुरआन में स्पष्ट की गई है. बाइबल के बयान से स्पष्ट नहीं होती। बाइबल उसे रईसो और सरदारों की हैसियत से पेश करती है और क़ुरआन उनकी हैसियत नैतिक और धार्मिक संरक्षक को ठहराता।
32. अर्थात जो रसूल भी मेरी ओर से आएँ, उनको पुकार पर अगर तुम लपकते और उनकी सहायता करते रहे।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ لَعَنَّٰهُمۡ وَجَعَلۡنَا قُلُوبَهُمۡ قَٰسِيَةٗۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلَىٰ خَآئِنَةٖ مِّنۡهُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱصۡفَحۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 12
(13) फिर यह उनका अपने वचन को भंग कर डालना था जिसकी वजह से हमने उनको अपनी रहमत से दूर फेक दिया और उनके दिल कठोर कर दिए। अब उनका हाल यह है कि शब्दों का उलट-फेर करके बात को कहीं से कहीं ले जाते हैं, जो शिक्षा उन्हें दी गई थी उसका बड़ा भाग भूल चुके हैं और आए दिन तुम्हें उनकी किसी न किसी खियानत का पता चलता रहता है। इनमें से बहुत कम लोग इस बुराई से बचे हुए हैं। (तो जब ये इस हाल को पहुँच चुके हैं तो जो दुष्टताएँ भी ये करें, उनकी उनसे आशा की जानी चाहिए) इसलिए उन्हें क्षमा करो और उनकी हरकतों को अनदेखा करते रहो। अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो उत्तमकर्मी हैं।
وَمِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰٓ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَهُمۡ فَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَأَغۡرَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَاوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَسَوۡفَ يُنَبِّئُهُمُ ٱللَّهُ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 13
(14) इसी तरह हमने उन लोगों से भी दृढ वचन लिया था जिन्होंने कहा था कि हम 'नसारा’ हैं 36, मगर उनको भी जो पाठ याद कराया गया था उसका एक बड़ा भाग उन्होंने भुला दिया। अन्ततः हमने उनके बीच कयामत तक के लिए शत्रुता और पारस्परिक द्वेष और वैर का बीज बो दिया और अवश्य ही एक समय आएगा, जब अल्लाह उन्हें बताएगा कि वे दुनिया में क्या बनाते रहे हैं।
36. लोगों का यह विचार ग़लत है कि 'नसारा' (ईसाई) का शब्द 'नासिरा' से बना है जो मसीह (अलैहिo) का वतन था, वास्तव में यह 'नुसरत' से बना है और इसका आधार वह कथन (कुरआन 3 : 52) है जो मसीह (अलैहि.) के सवाल "मन अनसारी इलल्लाहि" (अल्लाह की राह में कौन लोग मेरे मददगार हैं ?) के जवाब में हवारियों (अनुयायियों) ने कहा था कि "नहनु अनसारुल्लाह" (हम अल्लाह के काम में मददगार है)। ईसाई लेखकों को आम तौर से केवल जाहिरी अनुरूपता देखकर यह भ्रम हुआ कि ईसाई धर्म के आरंभिक इतिहास में नासरिया (Nazarenes) के नाम से जो एक सम्प्रदाय पाया जाता था और जिन्हें तुच्छ समझकर नासिरी और एबोनी कहा जाता था, उन्हों के नाम को क़ुरआन ने तमाम ईसाइयों के लिए इस्तेमाल किया है। लेकिन यहाँ कुरआन साफ़ कह रहा है कि उन्होंने स्वयं कहा था कि हम 'नसारा' हैं और यह स्पष्ट है कि ईसाइयों ने अपना नाम कभी नासिरी नहीं रखा। इस संबंध में यह बात उल्लेखनीय है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अपने अनुयायियों का नाम कभी 'ईसाई' या 'मसीही' नहीं रखा था, नउन्होंने आम बनी इसराईल और मूसा की शरीअत के माननेवालों से अलग कोई जमाअत बनाई थी। इनके आरंभिक अनुयायी स्वयं भी न अपने आपको इसराईली समुदाय से अलग समझते थे, न एक स्थाई गिरोह बनकर रहे । वे आम यहूदियों के साथ बैतुल मक्दिस ही के उपासनागृह में इबादत करने के लिए जाते थे और अपने आपको हज़रत मूसा (अलैहित) की शरीअत ही पर अमल करने का पाबन्द समझते थे। (देखिए बाइबल में पुस्तक प्रेरितों के काम 3 : 1; 10 : 14, 15:1 एवं 5,21:21) आगे चलकर जुदाई का कार्य दो तरफ़ से शुरू हुआ। एक ओर हज़रत ईसा के अनुयायियों में से पोलोस (सेंटपाल) ने शरीअत (धर्म-विधान) की पाबन्दी खत्म करके यह एलान कर दिया कि बस मसीह पर ईमान ले आना मुक्ति के लिए पर्याप्त है और दूसरी ओर यहूदी धर्मशास्त्रियों ने मसीह के अनुयायियों को एक पथभ्रष्ट सम्प्रदाय ठहराकर आम बनी इसराईल से काट दिया। लेकिन इस जुदाई के बावजूद शुरू में इस नये सम्प्रदाय का कोई विशेष नाम न था। स्वयं मसीह के अनुयायी अपने लिए कभी 'शिष्य' का (समानार्थी शब्द इस्तेमाल करते थे और कभी अपने साथियों का उल्लेख भाइयों','ईमानदारों ' 'जो ईमान लाए' और पवित्र लोगों के समानार्थी शब्दों से करते थे। (बाइबल में पुस्तक प्रेरितों के काम 2 : 44, 4 : 32,9 : 26, 11: 29, 13 : 52, 15 : 1, 23 रोमियों 15 : 25, कुलुस्सियों 1 : 2)। इसके विपरीत यहूदी उन लोगों को कभी 'गलेली' कहते थे कभी 'नासिरियों का बिदअती (धर्म में नई बात पैदा करनेवाला अर्थात् कुपन्थी) सम्प्रदाय' कहकर पुकारते थे। (प्रेरितों 24 : 5, लूका 13 : 2) यह नाम धरने की कोशिश उन्होंने व्यंग्य के रूप में इस कारण की थी कि हज़रत ईसा (अलैहित) का वतन नासिरा था और वह फ़िलस्तीन के जिला गलील में स्थित था। इस गिरोह का वर्तमान नाम मसीही... पहली बार सन् 43 ई० या 44 ई. में अन्ताकिया के मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) निवासियों ने |व्यंग्य या उपहास के रूप में ] रखा था, जबकि सेंटपाल और बरनबास ने वहाँ पहुँचकर अपने धर्म का आम प्रचार शुरू किया। (प्रेरितों 11 : 26) लेकिन बाद ] में धीरे-धीरे ये लोग स्वयं भी आपको इसी नाम से करने लगे, यहाँ तक कि अन्ततः उनके भीतर से यह एहसास ही समाप्त हो गया कि यह वास्तव में एक बुरा नाम था जो उन्हें दिया गया था। क़ुरआन मजीद ने इसी लिए मसीह के माननेवालों को मसीही या ईसाई के नाम से याद नहीं किया है, बल्कि उन्हें याद दिलाया है कि तुम वास्तव में उन लोगों के नामलेवा हो जिन्हें मरियम के बेटे ईसा ने पुकारा था कि 'मन अनसारी इलल्लाहि (कौन है जो अल्लाह की राह में मेरी मदद करे) और उन्होंने जवाब दिया था कि 'नहनु अनसारुल्लाह' (हम अल्लाह की राह में मददगार है)। इसलिए तुम अपने आरंभिक और मौलिक वास्तविकता की दृष्टि से 'नसारा' या 'अनसार' हो। लेकिन आज ईसाई मिशनरी इस याद दिहानी पर क़ुरआन का शुक्रिया अदा करने के बजाय उलटी शिकायत कर रहे हैं कि क़ुरआन ने उनको मसीही कहने के बजाय नसारा के नाम से क्यों याद किया?
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ كَثِيرٗا مِّمَّا كُنتُمۡ تُخۡفُونَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖۚ قَدۡ جَآءَكُم مِّنَ ٱللَّهِ نُورٞ وَكِتَٰبٞ مُّبِينٞ ۝ 14
(15,16) ऐ किताबवालो । हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है जो ईश्वरीय ग्रन्थ की बहुत-सी उन बातों को तुम्हारे सामने खोल रहा है जिनपर तुम परदा डाला करते थे, और बहुत-सी बातों को अनदेखा भी कर जाता है। 37 तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से रौशनी आ गई है, और एक ऐसी सत्य दशनिवाली किताब जिसके ज़रिये से अल्लाह उन लोगों को जो उसकी प्रसन्नता को तलब रखते हैं, सलामती के तरीक़े बताता है 38 और अपने हुक्म से उनको अँधेरों से निकालकर उजाले की ओर लाता है और सीधे रास्ते की ओर उनका मार्गदर्शन करता है।
37. अर्थात तुम्हारी कुछ चोरियाँ और खियानतें खोल देता है, जिनका खोलना सत्य धर्म को स्थापित करने के लिए ज़रूरी है और कुछ से आँखें बचा जाता है, जिनके खोलने की कोई वास्तविक आवश्यकता नहीं है।
38. 'सलामती' से तात्पर्य गलत देखने, ग़लत सोचने और ग़लत कर्म से बचना और उसके नतीजों से सुरक्षित रहना है। जो आदमी अल्लाह की किताब और उसके पैग़म्बर की ज़िन्दगी से रौशनी हासिल करता है, उसके कार्य और चिंतन के हर चौराहे पर यह मालूम हो जाता है कि वह किस तरह इन गलतियों से बचा रहे।
يَهۡدِي بِهِ ٱللَّهُ مَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَهُۥ سُبُلَ ٱلسَّلَٰمِ وَيُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِهِۦ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 15
0
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ أَن يُهۡلِكَ ٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗاۗ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) निश्चित रूप से कुल (इनकार) किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि मरियम का बेटा मसीह ही खुदा है। 39 ऐ नबी ! इनसे कहो कि अगर अल्लाह मसीह इब्ने मरयम को और उसकी माँ और तमाम धरतीवालों को नष्ट कर देना चाहे तो किसकी मजाल है कि उसको इस इरादे से रोक सके? अल्लाह तो जमीन और आसमानों का और उन सब चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमानों के बीच पाई जाती हैं, जो कुछ चाहता है पैदा करता है40, और उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
39. ईसाइयों ने शुरू में मसीह (अलैहि.) के व्यक्तित्व को मानवता और ईश्वरत्व का योग बताकर जो गलती की थी उसका फल यह निकला कि उनके लिए मसीह की वास्तविकता एक पहेली बनकर रह गई, जिसे उनके विद्वानों ने शब्द-जाल और अटकल पच्चू की मदद से हल करने की जितनी कोशिश की उतने ही ज़्यादा उलझते चले गए। उनमें से जिसके दिमाग पर इस मिश्रित व्यक्तित्व का मानव अंश छा गया उसने मसीह के ख़ुदा का बेटा होने और तीन स्थाई खुदाओं में से एक होने पर जोर दिया और जिसके दिमाग़ पर ईश्वरत्व के अंश का प्रभाव ज़्यादा प्रभावी हुआ उसने मसीह को अल्लाह का शारीरिक प्रकटीकरण समझकर साक्षात् खुदा ही बना दिया, और खुदा होने की हैसियत से ही मसीह की इबादत की। उनके मध्य की राह जिन्होंने निकालनी चाही, उन्होंने सारा ज़ोर शब्दों की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करने पर लगा दिया जिनसे मसीह को इंसान भी कहा जाता रहे और उसके साथ खुदा भी समझा जा सके। खुदा और मसीह अलग-अलग भी हों और फिर एक भी रहें। (देखिए कुरआन 4 :171 की टिप्पणी- 212, 213, 215)
40. इस वाक्य में एक सूक्ष्म संकेत है इस ओर कि सिर्फ मसीह का चमत्कारिक जन्म और उनके नैतिक परिपूर्णताएँ और महसूस चमत्कारों को देखकर जो लोग इस धोखे में पड़ गए कि मसीह ही खुदा है, वे वास्तव में बड़े नादान हैं। मसीह तो अल्लाह की अनगिनत अद्भुत संरचनाओं में से केवल एक नमूना है, जिसे देखकर इन कमज़ोर आँखवालों की निगाहें चुंधिया गईं। अगर इन लोगों की निगाह कुछ व्यापक होती तो इन्हें नज़र आता कि अल्लाह ने अपनी रचनाओं में इससे भी अधिक आश्चर्यपूर्ण नमूने पेश किए हैं और उसकी कुदरत किसी सीमा के अंदर सीमित नहीं है। अतः यह बड़ी नासमझी की बात है कि सृष्टि को पराकाष्ठाओं को देखकर उसी पर स्रष्टा होने का गुमान कर लिया जाए। समझदार वे हैं जो सृष्टि की पराकाष्ठाओं में स्रष्टा की महान कुदरत के चिह्न देखते हैं और उनसे ईमान का प्रकाश प्राप्त करते हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ وَٱلنَّصَٰرَىٰ نَحۡنُ أَبۡنَٰٓؤُاْ ٱللَّهِ وَأَحِبَّٰٓؤُهُۥۚ قُلۡ فَلِمَ يُعَذِّبُكُم بِذُنُوبِكُمۖ بَلۡ أَنتُم بَشَرٞ مِّمَّنۡ خَلَقَۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 17
(18) यहूद और नसारा (यहूदी और ईसाई) कहते हैं कि हम अल्लाह के बेटे और उसके चहेते हैं। उनसे पूछो, फिर वह तुम्हारे गुनाहों पर तुम्हें सज़ा क्यों देता है ? वास्तव में तुम भी वैसे ही इंसान हो जैसे और इंसान अल्लाह ने पैदा किए हैं। वह जिसे चाहता है, माफ़ करता है और जिसे चाहता है, सज़ा देता है। ज़मीन और आसमान और उनमें मौजूद सारी चीजें उसकी मिल्कियत हैं और उसी की ओर सबको जाना है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ عَلَىٰ فَتۡرَةٖ مِّنَ ٱلرُّسُلِ أَن تَقُولُواْ مَا جَآءَنَا مِنۢ بَشِيرٖ وَلَا نَذِيرٖۖ فَقَدۡ جَآءَكُم بَشِيرٞ وَنَذِيرٞۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 18
(19) ऐ किताबवालो ! हमारा यह रसूल ऐसे समय में तुम्हारे पास आया है और धर्म की स्पष्ट शिक्षा तुम्हें दे रहा है जबकि रसूलों के आने का सिलसिला एक मुद्दत से बन्द था, ताकि तुम यह न कह सको कि हमारे पास कोई शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला नहीं आया। तो देखो, अब वह शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला आ गया-और अल्लाह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है।41
41. इस अवसर पर यह वाक्य अत्यन्त भावपूर्ण और सूक्ष्म है। इसका अर्थ यह भी है कि जो अल्लाह पहले शुभ-सूचना देनेवाले और डरानेवाले भेजने की सामर्थ्य रखता था, उसी ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इस सेवा पर लगाया है और वह ऐसा करने में समर्थ था। दूसरा अर्थ यह है कि अगर तुमने उस शुभ-सूचना देनेवाले और डरानेवाले की बात न मानी, तो याद रखो कि अल्लाह समर्थ्यवान और बलशाली है। हर सज़ा जो वह तुम्हें देना चाहे, बिना प्रतिरोध दे सकता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَعَلَ فِيكُمۡ أَنۢبِيَآءَ وَجَعَلَكُم مُّلُوكٗا وَءَاتَىٰكُم مَّا لَمۡ يُؤۡتِ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 19
(20) याद करो जब मूसा ने अपनी कोम से कहा था कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! अल्लाह की उस नेमत को याद करो जो उसने तुम्हें दी थी। उसने तुममें नबी पैदा किए, तुमको शासक बनाया और तुमको वह कुछ दिया जो दुनिया में किसी को न दिया था।42
42. यह संकेत है बनी इसराईल के उस पिछले गौरव की ओर जो हज़रत मूसा (अलैहि०) से बहुत पहले किसी ज़माने में उनको प्राप्त था। एक ओर हज़रत इबराहीम, हज़रत इसहाक, हज़रत याकूब और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जैसे महान पैग़म्बर उनकी कौम में पैदा हुए और दूसरी ओर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समय में और उनके बाद मिस्र में उनको बड़ी सत्ता प्राप्त हुई। लम्बी मुदत तक यही उस समय की सभ्य दुनिया के सबसे बड़े शासक थे और इन्हीं का सिक्का मिस्र और उसके आस-पास में चलता था। आम तौर से लोग बनी इसराईल के उत्थान का इतिहास हज़रत मूसा से शुरू करते हैं, मगर कुरआन इस जगह स्पष्ट करता है कि बनी इसराईल का असल उत्थानकाल हज़रत मूसा (अलैहि०) से पहले बीत चुका था, जिसे स्वयं हजरत मूसा (अलैहि०) अपनी कौम के सामने उसके शानदार अतीत को हैसियत से पेश करते थे।
يَٰقَوۡمِ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡأَرۡضَ ٱلۡمُقَدَّسَةَ ٱلَّتِي كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَارِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 20
(21) ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! उस पावन धरती में प्रवेश करो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है,43 पीछे न हटो, वरना असफल होकर पलटोगे। 44
43. इससे अभिप्रेत फ़िलस्तीन की धरती है जो हज़रत इबराहीम, हज़रत इसहाक़ और हज़रत याकूब (अलैहि.) की गृहस्थली रह चुकी थी और उस समय कट्टर बहुदेववादी और दुष्कर्मी क़ौमों से आबाद थी । बनी इसराईल जब मित्र से निकल आए तो इसी भूभाग को अल्लाह ने उनके लिए नामांकित किया और आदेश दिया कि जाकर उसपर विजय प्राप्त कर लो।
44. हज़रत मूसा (अलैहि.) का यह भाषण उस अवसर का है जबकि मिस्र से निकलने के लगभग दो साल बाद आप अपनी क़ौम को लिए हुए फ़ारान के जंगलों में पड़ाव डाले हुए थे। यह जंगल सीना प्रायद्वीप में अरब की उत्तरी और फ़िलस्तीन की दक्षिणी सीमा से मिला हुआ है
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ فِيهَا قَوۡمٗا جَبَّارِينَ وَإِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَا حَتَّىٰ يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِنَّا دَٰخِلُونَ ۝ 21
(22) उन्होंने उत्तर दिया, “ऐ मूसा ! वहाँ तो बड़े ज़बरदस्त लोग रहते हैं, हम वहाँ कदापि न जाएँगे जब तक वे वहाँ से निकल न जाएँ। हाँ, अगर वे निकल गए तो हम प्रवेश के लिए तैयार हैं।”
قَالَ رَجُلَانِ مِنَ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمَا ٱدۡخُلُواْ عَلَيۡهِمُ ٱلۡبَابَ فَإِذَا دَخَلۡتُمُوهُ فَإِنَّكُمۡ غَٰلِبُونَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَتَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 22
(23) उन डरनेवालों में दो व्यक्ति ऐसे भी थे 45 जिनको अल्लाह ने अपनी नेमतें दे रखी थीं। उन्होंने कहा कि “इन क्रूरों के मुक़ाबले में दरवाजे के भीतर घुस जाओ, जब तुम भीतर पहुँच जाओगे तो तुम्ही प्रभावी रहोगे। अल्लाह पर भरोसा रखो, अगर तुम ईमानवाले हो ।”
45. का-ल रजुलानि मिनल्लज़ी न यख़ाफ़ू-न' ( उन हरनेवालों में दो व्यक्ति ऐसे भी थे) के दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि जो लोग क्रूर लोगों से डर रहे थे उनके बीच से दो आदमी बोल उठे, दूसरा यह कि जो लोग अल्लाह से डरनेवाले थे उनमें से दो आदमियों ने यह बात कही। उन दो बुजुर्गो (महापुरुषो) में से एक हज़रत यूशअ बिन नून थे जो हज़रत मूसा के बाद उनके खलीफ़ा (उत्तराधिकारी) हुए। दूसरे हज़रत कालिब थे जो हज़रत यूशअ के दाहिने हाथ (अर्थात सहयोगी) बने । चालीस वर्ष तक भटकने के बाद जब बनी इसराईल फ़िलस्तीन में दाख़िल हुए, उस समय हज़रत मूसा के साथियों में से केवल यही दो महापुरुष जीवित थे।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَآ أَبَدٗا مَّا دَامُواْ فِيهَا فَٱذۡهَبۡ أَنتَ وَرَبُّكَ فَقَٰتِلَآ إِنَّا هَٰهُنَا قَٰعِدُونَ ۝ 23
(24) लेकिन उन्होंने फिर यही कहा कि “ऐ मूसा ! हम तो वहाँ कभी न जाएँगे जब तक वे वहाँ मौजूद हैं। बस तुम और तुम्हारा रब, दोनों जाओ और लड़ो, हम यहाँ बैठे हैं।"
قَالَ رَبِّ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ إِلَّا نَفۡسِي وَأَخِيۖ فَٱفۡرُقۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 24
(25) इसपर मूसा ने कहा, “ऐ मेरे रब ! मेरे वश में कोई नहीं, मगर या मेरी अपनी जात या मेरा भाई, अत: तू हमें इन अवज्ञाकारियों से अलग कर दे।”
قَالَ فَإِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيۡهِمۡۛ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗۛ يَتِيهُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) अल्लाह ने जवाब दिया, “अच्छा तो वह देश चालीस साल तक इनपर हराम है, ये धरती में मारे-मारे फिरेंगे,46 इन अवज्ञाकारियों की दशा पर कदापि तरस न खाओ।"47
46. इस क़िस्से का विवरण बाइबल की किताब गिनती, व्यवस्था विवरण और यहोशू में मिलेगा। सारांश इसका यह है कि हज़रत मूसा ने पारान के जंगलों से बनी इसराईल के 12 सरदारों को फ़िलस्तीन का दौरा करने के लिए भेजा, ताकि वहाँ की परिस्थितियों को मालूम करके आएँ। ये लोग चालीस दिन दौरा करके वहां से वापस आए और क़ौम की आम सभा में बताया कि “वास्तव में वहाँ दूध और शहद को नहरें बहती हैं, परन्तु उस देश के निवासी बलवान हैं.... हम इसकी क्षमता नहीं रखते कि इन लोगों पर हमला करें...वहाँ जितने आदमी हमने देखे, वे सब बड़े डील-डौल के हैं और हमने वहाँ अनाक़वंशियों (बनी उनाक) को भी देखा जो नपीली जाति के हैं और क्रूर हैं । हम अपनी दृष्टि में ऐसे थे जैसे टिड्डे होते हैं और ऐसे ही उनकी निगाह में थे।" ये बातें सुनकर सारे लोग चीख उठे कि “ऐ काश ! हम मिस्र ही में मर जाते ! या काश ! इस जंगल ही में मर जाते । खुदावन्द ! क्यों हमको उस देश में ले जाकर तलवार से क़त्ल कराना चाहता है ? फिर तो हमारी स्त्रियाँ और बाल-बच्चे लूट में चले जाएंगे। क्या हमारे लिए बेहतर न होगा कि हम मिस्र को वापस चले जाएँ ।" फिर वे आपस में कहने लगे कि आओ, हम किसी को अपना सरदार बना लें और मिस्र को लौट चलें । इसपर उन बारह सरदारों में से, जो फ़िलस्तीन के दौरे पर भेजे गए थे, दो सरदार यहोशू और कालेब उठे और उन्होंने इस भोरुता पर क़ौम की निंदा की। कालेब ने कहा, चलो, हम अचानक जाकर उस देश पर कब्जा कर लें, क्योंकि हम इसकी क्षमता रखते हैं कि उसका उपभोग करें।‘’ फिर दोनों ने एक साथ कहा, “अगर ख़ुदा हमसे राज़ी रहे तो वह हमको उस देश में पहुँचाएगा. . . केवल इतना हो कि तुम खुदावन्द से विद्रोह न करो और न इस देश के लोगों से डरो... और हमारे साथ खुदावन्द है, सो उनका डर न करो।” परन्तु कौम ने उसका जवाब यह दिया कि “इन्हें पत्थर मार-मारकर हलाक कर दो।" अन्ततः अल्लाह का प्रकोप भड़का और उसने फैसला फ़रमाया कि अच्छा अब यहोशू और कालेब के सिवा इस कौम के बालिग़ मर्दो में से कोई भी उस धरती में प्रवेश न करने पाएगा। यह कौम चालीस वर्ष तक बेघर-द्वार फिरती रहेगी, यहाँ तक कि जब उनमें से 20 वर्ष से लेकर ऊपर की उम्र तक के सब मर्द मर जाएंगे और नई नस्ल जवान होकर उठेगी, तब उन्हें फ़िलस्तीन जीतने का मौक़ा दिया जाएगा। अतः अल्लाह के इस फैसले के अनुसार बनी इसराईल को पारान के जंगल से पूर्व जार्डन तक पहुंचते-पहुंचते पूरे 38 वर्ष लग गए। इस बीच वे सब लोग मर-खप गए जो जवानी की उम्र में मिस्र से निकले थे। पूर्वी जार्डन पर विजय के बाद हज़रत मूसा (अलैहित) का भी देहान्त हो गया। इसके बाद हज़रत यूशअ बिन नून के शासनकाल में बनी इसराईल इस योग्य हुए कि फिलस्तीन पर विजय प्राप्त कर सकें।
47. यहाँ इस घटना का उल्लेख करने का उद्देश्य पूरे वार्ताक्रम पर विचार करने से साफ़ समझ में आ जाता है। कथाशैली में वास्तव में बनी इसराईल को यह जताना अभीष्ट है कि मूसा (अलैहि.) के काल में अवज्ञा, विमुखता और हतोत्साह से काम लेकर जो सज़ा तुमने पाई थी, अब उससे बहुत ज्यादा कड़ी सज़ा मुहम्मद (सल्ल.) के मुक़ाबले में विद्रोहपूर्ण नीति अपनाकर पाओगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱبۡنَيۡ ءَادَمَ بِٱلۡحَقِّ إِذۡ قَرَّبَا قُرۡبَانٗا فَتُقُبِّلَ مِنۡ أَحَدِهِمَا وَلَمۡ يُتَقَبَّلۡ مِنَ ٱلۡأٓخَرِ قَالَ لَأَقۡتُلَنَّكَۖ قَالَ إِنَّمَا يَتَقَبَّلُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 26
(27) और तनिक इन्हें आदम के दो बेटों का क़िस्सा भी शब्दशः (वे-घटाए-बढ़ाए) सुना दो। जब उन दोनों ने क़ुरबानी को तो उनमें से एक को क़ुरबानी स्वीकार की गई और दूसरे की न की गई। उसने कहा, "मैं तुझे मार डालूंगा।" उसने उत्तर दिया, "अल्लाह तो अपने डरनेवालों ही की भेंट स्वीकार करता है48
48. अर्थात् तेरी क़ुरबानी अगर स्वीकार नहीं हुई तो यह मेरे किसी कुसूर के कारण नहीं है, बल्कि इस कारण है कि तुझमें अल्लाह का डर नहीं है, इसलिए मेरी जान लेने के बजाय तुझको अपने भीतर अल्लाह का डर पैदा करने की चिन्ता करनी चाहिए।
لَئِنۢ بَسَطتَ إِلَيَّ يَدَكَ لِتَقۡتُلَنِي مَآ أَنَا۠ بِبَاسِطٖ يَدِيَ إِلَيۡكَ لِأَقۡتُلَكَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 27
(28) अगर तू मुझे. कत्ल करने के लिए हाथ उठाएगा तो मैं तुझे क़त्ल करने के लिए हाथ न उठाऊँगा,49 मैं अल्लाह, जो सर्वजगत् का पालनहार है, से डरता हूँ।
49. इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए आएगा तो मैं हाथ बाँधकर तेरे सामने क़त्ल होने के लिए बैठ जाऊंगा और अपना बचाव न करूंगा, बल्कि इसका अर्थ यह है कि तू मेरा क़त्ल करने को तैयार होता है तो हो, मैं तेरे कत्ल के लिए तैयार न होऊँगा, तू मेरे क़त्ल के प्रयास में लगना चाहे तो तुझे अधिकार है, लेकिन मैं यह जानने के बाद भी कि तू मेरे कत्ल की तैयारियां कर रहा है, यह कोशिश न करूंगा कि पहले मैं ही तुझे मार डालूँ। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि किसी व्यक्ति का अपने आपको स्वयं क़ातिल के आगे पेश कर देना और अत्याचारपूर्ण हमले से बचाव न करना कोई नेकी नहीं है। अलबत्ता नेकी यह है कि अगर कोई व्यक्ति मेरे क़त्ल पर उतर आए और मैं जानता हूँ कि वह मेरी घात में लगा हुआ है, तब भी मैं उसके कत्ल की चिन्ता न करूं और इसी बात को प्राथमिकता दूं कि यह अत्याचारपूर्ण कारवाई उसकी ओर से हो, न कि मेरी ओर से। यही अर्थ था इस बात का जो आदम (अलैहि.) के उस नेक बेटे ने कही।
إِنِّيٓ أُرِيدُ أَن تَبُوٓأَ بِإِثۡمِي وَإِثۡمِكَ فَتَكُونَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 28
(29) मैं चाहता हूँ कि मेरा और अपना गुनाह तू ही समेट ले 50 और दोज़खी बनकर रहे। ज़ालिमों के ज़ुल्म का यही ठीक बदला है।"
50. अर्थात बजाय इसके कि एक-दूसरे के क़त्ल की कोशिश में हम दोनों गुनाहगार हों, मैं इसको ज़्यादा अच्छा समझता हूँ कि दोनों का गुनाह अकेले तेरे ही हिस्से में आ जाए, तेरे अपने क़ातिलाना कारवाई का गुनाह भी और उस क्षति का गुनाह भी जो अपनी जान बचाने की कोशिश करते हुए मेरे हाथ से तुझे पहुँच जाए।
فَطَوَّعَتۡ لَهُۥ نَفۡسُهُۥ قَتۡلَ أَخِيهِ فَقَتَلَهُۥ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 29
(30) अन्तत: उसके मन ने अपने भाई का क़त्ल उसके लिए आसान कर दिया और वह उसे मारकर उन लोगों में शामिल हो गया जो घाटा उठानेवाले हैं।
فَبَعَثَ ٱللَّهُ غُرَابٗا يَبۡحَثُ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُرِيَهُۥ كَيۡفَ يُوَٰرِي سَوۡءَةَ أَخِيهِۚ قَالَ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ أَعَجَزۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِثۡلَ هَٰذَا ٱلۡغُرَابِ فَأُوَٰرِيَ سَوۡءَةَ أَخِيۖ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلنَّٰدِمِينَ ۝ 30
(31) फिर अल्लाह ने एक कौवा भेजा जो धरती खोदने लगा ताकि उसे बताए कि अपने भाई की लाश कैसे छिपाए। यह देखकर वह बोला, “अफ़सोस मुझपर ! मैं इस कौवे जैसा भी न हो सका कि अपने भाई की लाश को छिपाने का उपाय ढूँढ़ लेता।"51. इसके बाद वह अपने किए पर बहुत पछताया।52
51. इस प्रकार अल्लाह ने एक कौवे के द्वारा आदम के उस दुराचारी बेटे को उसको अज्ञानता और मूर्खता पर सचेत किया और जब एक बार उसको अपने मन की ओर ध्यान देने का अवसर मिल गया तो उसकी शर्मिंदगी केवल इसी बात तक सीमित न रही कि वह लाश छिपाने का उपाय खोजने में कौवे से पीछे क्यों रह गया, बल्कि उसको यह भी एहसास होने लगा कि उसने अपने भाई को क़त्ल करके कितनी बड़ी अज्ञानता और मूर्खता का सुबूत दिया है। बाद का वाक्य कि “वह अपने किए पर पछताया” इसी अर्थ को प्रमाणित करता है।
52. यहाँ इस घटना का उल्लेख करने का मूलोद्देश्य यहूदियों की उस साज़िश पर सूक्ष्म ढंग से निन्दा करना है जो उन्होंने नबी (सल्ल.) और आपके प्रतिष्ठित सहाबा को कत्ल करने के लिए की थी। (देखिए इसी सूरा की टिप्पणी न. 30), दोनों घटनाओं में एकरूपता बिल्कुल स्पष्ट है। यह बात कि अल्लाह ने अरब के इन उम्मियों को स्वीकृति का सम्मान प्रदान किया और उन पुराने किताबवालों को रद्द कर दिया, स्पष्टतः इस आधार पर थी कि एक ओर धर्मपरायणता थी और दूसरी ओर धर्मपरायणता न थी, लेकिन बजाय इसके कि वे लोग जिन्हें रद्द किया गया था, अपने रद्द किए जाने पर विचार करते और उस ग़लती को दूर करने पर तैयार होते जिसकी वजह से वे रद्द किए गए थे, उनपर ठीक उसी अज्ञानता का दौरा पड़ गया जिसमें आदम (अलैहि०) का वह दुराचारी बेटा ग्रस्त हुआ था और उसी की तरह वे जलन और द्वेष के कारण उन लोगों के क़त्ल पर तैयार हो गए जिन्हें ख़ुदा ने क़बूल कर लिया था, हालाँकि स्पष्ट था कि ऐसी जाहिलाना चालों से वे अल्लाह के प्रिय न हो सकते थे,बल्कि ये करतूत उन्हें और अधिक तिरस्कृत कर देनेवाले थे।
مِنۡ أَجۡلِ ذَٰلِكَ كَتَبۡنَا عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنَّهُۥ مَن قَتَلَ نَفۡسَۢا بِغَيۡرِ نَفۡسٍ أَوۡ فَسَادٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ ٱلنَّاسَ جَمِيعٗا وَمَنۡ أَحۡيَاهَا فَكَأَنَّمَآ أَحۡيَا ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡأَرۡضِ لَمُسۡرِفُونَ ۝ 31
(32) इसी कारण बनी इसराईल पर हमने यह फ़रमान लिख दिया था 53 कि “जिसने किसी इंसान को खून के बदले या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और कारण से क़त्ल किया, उसने मानो तमाम इंसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी को जीवन प्रदान किया, उसने मानो तमाम इंसानों को जीवन प्रदान किया।‘’54 मगर उनका हाल यह है कि हमारे रसूल बराबर उनके पास खुले-खुले आदेश लेकर आए, फिर भी उनमें अधिकतर लोग धरती में अत्याचार करनेवाले हैं।
53. अर्थात चूँकि बनी इसराईल के भीतर उन्हीं दुर्गुणों के लक्षण पाए जाते थे जिनका प्रदर्शन आदम (अलैहि.) के उस अत्याचारी बेटे ने किया था, इसलिए अल्लाह ने किसी की हत्या से बाज़ रहने की सख्त ताकीद की थी और अपने फ़रमान में ये शब्द लिखे थे। खेद है कि आज जो बाईबल पाई जाती है वह ईश्वरीय आदेश के इन बहुमूल्य शब्दों से खाली है । अलबत्ता तलमूद में यह वर्ण्यविषय इस तरह बयान हुआ है- “जिसने एक इसराईली की हत्या की, अल्लाह की किताब की दृष्टि में उसने मानो संसार के सारे इंसानों की हत्या की और जिसने एक इसराईली की रक्षा की, अल्लाह की किताब के निकट उसने मानो संसार के सारे इंसानों की रक्षा की। इसी तरह तलमूद में यह भी बयान हुआ है कि क़त्ल के मुक़द्दमों में बनी इसराईल के न्यायधीश गवाहों को संबोधित करके कहा करते थे कि "जो व्यक्ति एक इंसान का क़त्ल करता है, वह ऐसी पूछताछ का हक़दार है कि मानो उसने दुनिया भर के इंसानों को क़त्ल किया है।"
54. अर्थ यह है कि दुनिया में मानवजाति का बाकी रहना निर्भर करता है इसपर कि प्रत्येक इंसान के दिल में दूसरे इंसानों की जान का सम्मान पाया जाता हो और प्रत्येक एक-दूसरे के जीवन को बाक़ी रखने और रक्षा में सहायक बनने की भावना रखता हो । जो व्यक्ति नाहक (अकारण) किसी की जान लेता है, वह सिर्फ एक ही आदमी पर जुल्म नहीं करता, बल्कि यह भी सिद्ध करता है कि उसका दिल इंसानी जीवन के आदर से और इंसानी सहानुभूति को भावना से ख़ाली है, इसलिए वह पूरी मानवता का दुश्मन है, क्योंकि उसके अन्दर वह दुर्गण पाया जाता है जो अगर तमाम इंसानों में पाया जाए तो पूरी मानवता का खात्मा हो जाए। इसके विपरीत जो व्यक्ति इंसान के जीवन को बाक़ी रखने में सहयोग करता है, वह वास्तव में इंसानियत का समर्थक है,क्योंकि उसमें वह विशेषता पाई जाती है जिसपर इंसानियत का बाकी रहना आश्रित है ।
إِنَّمَا جَزَٰٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ ذَٰلِكَ لَهُمۡ خِزۡيٞ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 32
(33) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और धरती में इसलिए दौड़-भाग करते फिरते हैं कि बिगाड़ पैदा करें 55, उनकी सजा यह है कि क़त्ल किए जाएँ या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ और पाँव विपरीत दिशाओं से काट डाले जाएँ या वे देश से निष्कासित कर दिए जाएँ ।,56 यह अपमान और अनादर तो उनके लिए दुनिया में है, और आखिरत में उनके लिए इससे बड़ी सज़ा है,
55. धरती से तात्पर्य यहाँ वह देश या वह इलाका है जिसमें शान्ति व व्यवस्था स्थापित रखने की ज़िम्मेदारी इस्लामी राज्य ने ले रखी हो और अल्लाह और रसूल से लड़ने का अर्थ उस कल्याणकारी व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध करना है जो इस्लामी राज्य ने देश में स्थापित कर रखा हो। इस्लाम के फुकहा (धर्मशास्त्रियों) के नज़दीक इससे अभिप्रेत वे लोग हैं जो हथियारबन्द होकर और जत्थाबंदी करके डाकाज़नी और ग़ारतगरी करें।
56. ये विभिन्न सजाएँ संक्षेप में बयान कर दी गई हैं ताकि क़ाज़ी (जज) या समय का शासनाध्यक्ष अपने विवेक से हर अपराधी को उसके अपराध के अनुसार सज़ा दे। असल मकसद यह बताना है कि किसी आदमी का इस्लामी राज्य के भीतर रहते हुए इस्लामी व्यवस्था को उलटने की कोशिश करना जघन्य अपराध है और उसे इन कड़ी सज़ाओं में से कोई भी सज़ा दी जा सकती है।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِن قَبۡلِ أَن تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهِمۡۖ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 33
(34) मगर जो लोग तौबा कर लें इससे पहले कि तुम उनपर काबू पाओ-तुम्हें मालूम होना चाहिए कि अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।57
57. अर्थात अगर वे बिगाड़ पैदा करने की कोशिश से रुक गए हों और कल्याणकारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने या ठलटने की कोशिश छोड़ चुके हों और उनकी बाद की कार्यशैली साबित कर रही हो कि वे शान्तिप्रिय, कानून की पाबन्दी करनेवाले और सदाचारी इंसान बन चुके हैं और इसके बाद उनके पिछले अपराधों का पता चले, तो इन सज़ाओं में से कोई सज़ा उनको न दी जाएगी जो ऊपर बयान हुई हैं। हाँ, लोगों के अधिकारों पर अगर उन्होंने कोई हाथ डाला था तो इसकी ज़िम्मेदारी उनपर से समाप्त न होगी। मिसाल के तौर पर अगर किसी इंसान को उन्होंने क़त्ल किया था या किसी का माल लिया था या कोई और अपराध इंसानी जान-माल के विरुद्ध किया था तो उसी अपराध के बारे में फौजदारी मुक़द्दमा उनपर चलाया जाएगा, लेकिन विद्रोह और गद्दारी और अल्लाह और रसूल के विरुद्ध युद्ध का कोई मुक़द्दमा न चलाया जाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱبۡتَغُوٓاْ إِلَيۡهِ ٱلۡوَسِيلَةَ وَجَٰهِدُواْ فِي سَبِيلِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 34
(35) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह से डरो और उसका सामीप्य प्राप्त करने का ज़रिया तलाश करो 58 और उसकी राह में संघर्ष करों 59, शायद कि तुम्हें सफलता मिल जाए।
58. अर्थात हर उस साधन के अभिलाषी और इच्छुक रहो जिससे तुम अल्लाह का सान्निध्य प्राप्त कर सको और उसको प्रसन्नता प्राप्त कर सको।
59. मूल अरबी में शब्द 'जाहिदू' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ मात्र संघर्ष से पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता। 'मुजाहदा' का शब्द मुकाबले का तकाज़ा करता है और इसका सही अर्थ यह है कि जो शक्तियाँ अल्लाह की राह में बाधक बन रही हैं, जो तुमको अल्लाह की मर्जी के मुताबिक़ चलने से रोकती और उसकी राह से हटाने की कोशिश करती हैं और जो तुमको पूरी तरह अल्लाह का बन्दा बनकर नहीं रहने देती और तुम्हें अपना या अल्लाह के अलावा किसी और का बन्दा बनने पर मजबूर करती हैं, उनके विरुद्ध अपनी तमाम संभव शक्तियों से संघर्ष और यत्न करो। इसी संघर्ष पर तुम्हारा कल्याण और सफलता और अल्लाह से तुम्हारा सामीप्य निर्भर है। इस प्रकार यह आयत मोमिन बन्दे को हर मोर्चे पर चौमुखी लड़ाई लड़ने की हिदायत करती है। एक ओर लानतज़दा इब्लीस और उसको शैतानी फ़ौज है, दूसरी ओर आदमी का अपना मन और उसकी उच्छंखल कामनाएँ हैं। तीसरी ओर अल्लाह से फिरे हुए बहुत-से इंसान हैं जिनके साथ आदमी हर प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बंधनों में बँधा हुआ है। चौथीं ओर वे ग़लत धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ हैं जो अल्लाह से विद्रोह पर कायम हुई हैं और हक़ (सत्य) को बन्दगी के बजाय बातिल (असत्य) की बन्दगी पर इंसान को मजबूर करते हैं। इन सबकी चालें अलग-अलग हैं, परन्तु सबको एक ही कोशिश है कि आदमी को अल्लाह के बजाय अपना आज्ञापालक बनाएं। इसके विपरीत आदमी की उन्नति का और अल्लाह की समीपता के स्थान तक उसके उत्थान की निर्भरता पूरी तरह इसपर है कि वह पूरी तरह से अल्लाह का आज्ञापालक और बाहर से लेकर अन्दर तक विशुद्ध रूप से उसका बन्दा बन जाए। इसलिए अपने उद्देश्य तक उसका पहुंचना बिना इसके संभव नहीं है कि वह इन तमाम रुकावटों और बाधक बननेवाली शक्तियों के विरुद्ध एक साथ युद्धरत हो, हर वक़्त, हर हाल में उनसे संघर्ष करता रहे और उन सारी रुकावटों को पामाल (पददलित) करता हुआ अल्लाह की राह में बढ़ता चला जाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لِيَفۡتَدُواْ بِهِۦ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنۡهُمۡۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 35
(36) खूब जान लो कि जिन लोगों ने कुफ़ (विधर्मिकता) की नीति अपनाई है, अगर उनके क़ब्ज़े में सारी धरती का धन हो और उतनी ही और उसके साथ, और वे चाहें कि उसे फ़िदया (प्रतिदान) में देकर कियामत के दिन के अज़ाब (यातना) से बच जाएं, तब भी वह उनसे क़बूल न की जाएगी और उन्हें. दर्दनाक सज़ा मिलकर रहेगी।
يُرِيدُونَ أَن يَخۡرُجُواْ مِنَ ٱلنَّارِ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنۡهَاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 36
(37) वे चाहेंगे कि दोज़ख़ की आग से निकल भागे, मगर न निकल सकेंगे और उन्हें स्थिर रहनेवाला अज़ाब दिया जाएगा।
وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا نَكَٰلٗا مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 37
(38) और चोर, चाहे औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो 60, यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद सज़ा। अल्लाह की सामर्थ्य सब पर प्रभावी है और वह सर्वज्ञ और तत्वदों है ।
60. दोनों हाथ नहीं, बल्कि एक हाथ । और उम्मत (मुस्लिम समुदाय) का इसपर भी एकमत है कि पहली चोरी पर सीधा हाथ काटा जाएगा। नबी (सल्ल.) ने स्पष्ट किया है कि 'ला क़त-अ अला ख़ाइनिन (खयानत करनेवाले पर हाथ काटने की सज़ा नहीं लागू होगी) । इससे मालूम हुआ कि चोरी में खियानत आदि शामिल नहीं है, बल्कि चोरी इस कर्म को कहेंगे कि आदमी किसी के माल को उसको रक्षा से निकालकर अपने क़ब्ज़े में कर ले । फिर नबी (सल्ल.) ने यह हिदायत भी फरमाई है कि एक ढाल को क़ीमत से कम की चोरी में हाथ न काटा जाए। एक ढाल की क़ीमत नबी (सल्ल.) के समय में अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि.) की रिवायत के अनुसार दस दिरहम, हज़रत इब्ने उमर (रजि.) की रिवायत के अनुसार तीन दिरहम, हज़रत अनस बिन मालिक (रजि.) की रिवायत के अनुसार पाँच दिरहम और हज़रत आइशा (रजि.) की रिवायत की रौशनी में एक चौथाई दीनार होती थी। इसी मतभेद के आधार पर फुकहा (धर्मशास्त्रियों) के बीच चोरी की कम-से-कम मात्रा में मतभेद हुआ है। इमाम अबू हनीफ़ा (रहo) के नजदीक चोरी की मात्रा दस दिरहम है और इमाम मालिक शाफई और अहमद के नज़दीक चौथाई दीनार (उस समय के दिरहम में 3 माशा 1⅕ रत्ती चाँदी होती थी और एक चौथाई दीनार 3 दिरहम के बराबर था)। फिर बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सज़ा न दी जाएगी, मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल.) की हिदायत है कि "फल और तरकारी को चोरी में हाथ न काटा जाएगा" “खाने की चोरी में हाथ काटने को सजा नहीं है” और हजरत आइशा (रज़ि.) की हदीस है कि तुच्छ वस्तुओं की चोरी में नबी (सल्ल.) के समय में हाथ नहीं काटा जाता था। हजरत अली (रज़ि.) और हज़रत उसमान (रज़ि.) का फैसला है और सहाबा किराम में से किसी ने इसमें मतभेद नहीं किया है कि "परिंदे की चोरी में हाथ काटने की सजा नहीं है, और हजरत उमर और हजरत अली (रज़ि.) ने बैतुलमाल (इस्लामी कोषागार) से चोरी करनेवाले का हाथ भी नहीं काटा और इस मामले में भी सहाबा किराम में से किसी का मतभेद नहीं मिलता है। इन स्रोतों (और शिक्षाओं) के आधार पर इस्लामी धर्मशास्त्रियों ने बहुत-सी चीज़ों को हाथ काटने की सज़ा के अंतर्गत नहीं रखा है। इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक तरकारियाँ, फल, गोश्त, पका हुआ खाना, अनाज जिसका अभी खलिहान न किया गया हो, खेल और गाने-बजाने के यंत्र -वे चीजे हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सजा नहीं है तथा उनके निकट जंगल में चरते हुए जानवरों की चोरी और बैतुलमाल (सरकारी खजाना) की चोरी में भी हाथ काटने की सज़ा नहीं है। इसी तरह दूसरे धर्मशास्त्रियों ने भी कुछ चीज़ों की चोरी को हाथ काटने के इस आदेश से अलग रखा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन चोरियों पर सिरे से कोई मजा ही न दी जाएगी। मतलब यह है कि इन अपराधों में हाथ न काटा जाएगा।
فَمَن تَابَ مِنۢ بَعۡدِ ظُلۡمِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَتُوبُ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 38
(39) फिर जो ज़ुल्म करने के बाद तौबा करे और अपना सुधार कर ले तो अल्लाह की कृपादृष्टि फिर उसकी ओर उन्मुख हो जाएगी।61 अल्लाह बहुत क्षमाशील और दयावान है।
61. इसका यह अर्थ नहीं कि उसका हाथ न काटा जाए, बल्कि अर्थ यह है कि हाथ कटने के बाद जो व्यक्ति तौबा कर ले और अपने मन को चोरी से पाक करके अल्लाह का सदाचारी बन्दा बन जाए, वह अल्लाह के प्रकोप से बच जाएगा और अल्लाह उसके दामन से उस धब्बे को धो देगा। लेकिन अगर किसी व्यक्ति ने हाथ कटवाने के बाद भी अपने आपको बुरी नीयत से पाक न किया और वही गन्दी भावनाएं अपने भीतर पाली, जिनके कारण उसने चोरी की और उसका हाथ काटा गया, तो इसका अर्थ यह है कि हाथ तो उसके देह से अलग हो गया, मगर चोरी उसके मन में पहले की तरह मौजूद रही, इस वजह से वह अल्लाह के प्रकोप का उसी तरह पात्र रहेगा जिस तरह हाथ कटने से पहले था। इसी लिए क़ुरआन मजीद चोर को सचेत करते हुए कहता है कि वह अल्लाह से क्षमा मांगे और अपने मन का सुधार करे, क्योंकि हाथ काटना तो सामाजिक अनुशासन एवं व्यवस्था के लिए है, इस सज़ा से मन पवित्र नहीं हो सकता । मन को पवित्रता सिर्फ तौबा करने और अल्लाह की ओर पलट आने से प्राप्त होती है। नबी (सल्ल.) के बारे में हदीसों में उल्लेख है कि एक चोर का हाथ जब आपके आदेश के अनुसार काटा जा चुका तो आपने उसे अपने पास बुलाया और उससे कहा, "कर, मैं अल्लाह से माफ़ी चाहता हूँ और उससे तौबा करता हूँ।" उसने आपके बताए अनुसार उक्त शब्द कहे, फिर आपने उसके हित में दुआ फ़रमाई कि “ऐ अल्लाह ! इसे क्षमा कर दे।‘’
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 39
(40) क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह जमीन और आसमानों के राज्य का स्वामी है? जिसे चाहे दण्ड दे और जिसे चाहे क्षमा कर दे। उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ لَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِ مِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَلَمۡ تُؤۡمِن قُلُوبُهُمۡۛ وَمِنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْۛ سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ سَمَّٰعُونَ لِقَوۡمٍ ءَاخَرِينَ لَمۡ يَأۡتُوكَۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ مِنۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِهِۦۖ يَقُولُونَ إِنۡ أُوتِيتُمۡ هَٰذَا فَخُذُوهُ وَإِن لَّمۡ تُؤۡتَوۡهُ فَٱحۡذَرُواْۚ وَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ فِتۡنَتَهُۥ فَلَن تَمۡلِكَ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يُطَهِّرَ قُلُوبَهُمۡۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 40
(41) ऐ पैग़म्बर ! तुम्हारे लिए दुख का कारण न बनें वे लोग जो कुफ़्र (विधर्मिता) की राह में बड़ी तेज़ रफ़्तारी दिखा रहे हैं 62 चाहे वे उनमें से हों जो मुँह से कहते हैं 'हम ईमान लाए' मगर दिल उनके ईमान नहीं लाए, या उनमें से हों जो यहूदी हैं, जिनका हाल यह है कि झूठ के लिए कान लगाते हैं 63, और दूसरे लोगों के लिए, जो तुम्हारे पास कभी नहीं आए, सुन-गुन लेते फिरते हैं 64 अल्लाह की किताब के शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बावजूद वास्तविक अर्थ से फेरते हैं 65, और लोगों से कहते हैं कि अगर तुम्हें यह हुक्म दिया जाए तो मानो, नहीं तो न मानो। 66 जिसे अल्लाह ही ने फि़तने में डालने का इरादा कर लिया हो उसको अल्लाह की पकड़ से बचाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते 67 ये वे लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना न चाहा,68 उनके लिए दुनिया में रुसवाई है और आखि़रत में सख्त सज़ा ।
62. अर्थात जिनकी बुद्धिमत्ता और गतिविधियाँ सारी को सारी इस प्रयास में लग रही हैं कि अज्ञानता की जो स्थिति पहले से चली आ रही है, वही बाक़ी रहे और इस्लाम का यह सुधारात्मक आन्दोलन उस बिगाड़ को ठीक करने में सफल न होने पाए। ये लोग तमाम नैतिक बंधनों से स्वतंत्र होकर नबी (सल्ल.) के विरुद्ध हर प्रकार की घटिया से घटिया चालें चल रहे थे, जान-बूझकर सत्य को निगल रहे थे। अत्यंत घृष्टता और दुस्साहस के साथ झूठ, छल-कपट और धोखे के हथियारों से उस पवित्रात्मा पैग़म्बर के काम को परास्त करने की कोशिश कर रहे थे जो पूर्ण निस्वार्थता के आधार पर आम इंसानों की और स्वयं उनके कल्याण और भलाई के लिए रात व दिन परिश्रम कर रहा था। उनकी इन हरकतों को देख-देखकर नबी (सल्ल.) का दिल कुढ़ता था और यह कुढ़ना बिल्कुल स्वाभाविक बात थी। जब किसी पाकीज़ा इंसान को घटिया चरित्रवालों से वास्ता पड़ता है और वे सिर्फ अपनी अज्ञानता और स्वार्थपरायणता और संकीर्ण दृष्टि के कारण पर उसके हितकारी प्रयासों को रोकने के लिए घटिया दर्जे की चालबाजियों से काम लेते हैं, तो स्वाभाविक रूप से दिल दुखता ही है। अत: अल्लाह के इर्शाद का मंशा यह नहीं है कि इन हरकतों पर जो स्वाभाविक दुख आपको होता है, वह न होना चाहिए, बल्कि मंशा वास्तव में यह है कि उससे आप हतोत्साह न हों, हिम्मत न हारें, धैर्य के साथ अल्लाह के बन्दों के सुधार के लिए काम किए चले जाएँ। रहे ये लोग, तो जिस प्रकार के घटिया आचरण व्यवहार को इन्होंने अपने भीतर विकसित किया है, इनके आधार पर इनसे इसी आचरण की आशा है कोई चीज़ इनके इस आचरण में आशा के विपरीत नहीं है।
63. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि ये लोग चूँकि इच्छाओं के दास बन गए हैं, इसलिए इन्हें सत्य में कोई रुचि नहीं है। झूठ ही इन्हें पसन्द आता है और इसी को ये जो लगाकर सुनते हैं, क्योंकि इनके मन की प्यास इसी से बुझती है । दूसरा अर्थ यह है कि नबी (सल्ल.) और मुसलमानों को सभाओं में ये झूठ के ध्येय से आकर बैठते हैं, ताकि यहाँ जो कुछ देखें और जो बातें सुनें उनको उलटा अर्थ पहनाकर या उनके साथ अपनी ओर से ग़लत बातों को मिलाकर के पैग़म्बर (सल्ल.) और मुसलमानों को बदनाम करने के लिए लोगों में फैलाएँ।
67. अल्लाह की ओर से किसी के फि़तना में डाले जाने का अर्थ यह है कि जिस आदमी के भीतर अल्लाह किसी प्रकार के बुरे रुझान पलते -बढ़ते देखता है, उसके सामने लगातार ऐसे अवसर लाता है जिनमें उसकी कड़ी आज़माइश होती है। अगर वह व्यक्ति अभी बुराई की ओर पूरी तरह नहीं झुका है वो इन आजमाइशों से संघल जाता है और उसके अन्दर बुराई का मुक़ाबला करने के लिए नेकी की जो ताक़तें मौजूद होती हैं, वे उभर आती हैं, लेकिन अगर वह बुराई की और पूरी तरह झुक चुका होता है और उसकी नेकी उसकी बुराई से अन्दर ही अंदर परास्त (पराभूत) हो चुकी होती है तो हर ऐसी आज़माइश के मौक़े पर वह और ज़्यादा बुराई के पदे में फंसता चला जाता है। यही अल्लाह का वह फितना है जिससे किसी बिगड़ते हुए इंसान को बचा लेना उसके किसी हितैषी के बस में नहीं होता और इस फ़ितने में सिर्फ़ व्यक्ति ही नहीं डाले जाते, बल्कि कौमें भी डाली जाती हैं।
68. इसलिए कि उन्होंने स्वयं पवित्र होना न चाहा। जो स्वयं पवित्रता का अभिलाषी होता है और उसके लिए कोशिश करता है, उसे पवित्रता से वंचित करना अल्लाह की नीति नहीं है। अल्लाह पवित्र करना उसी को नहीं चाहता जो स्वयं पवित्र होना नहीं चाहता।
سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ أَكَّٰلُونَ لِلسُّحۡتِۚ فَإِن جَآءُوكَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُمۡ أَوۡ أَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡۖ وَإِن تُعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ فَلَن يَضُرُّوكَ شَيۡـٔٗاۖ وَإِنۡ حَكَمۡتَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 41
(42) ये झूठ सुननेवाले और हराम के माल खानेवाले हैं।69 इसलिए अगर ये तुम्हारे पास (अपने मुक़द्दमे लेकर) आएँ तो तुम्हें अधिकार दिया जाता है कि चाहो, तो इनका फैसला करो वरना इंकार कर दो। इंकार कर दो तो ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते और फैसला करो तो फिर ठीक-ठीक न्याय के साथ करो कि अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है70
69. यहाँ मुख्य रूप से उनके धर्मादेश देनेवालों और काज़ियों (जजों) की ओर इशारा है जो झूठी गवाहियाँ लेकर और झूठी कहानियाँ सुनकर उन लोगों के हक में न्याय के विरुद्ध फैसले किया करते थे जिनसे उन्हें रिश्वत पहुँच जाती थी या जिनके साथ उनके अनुचित हित जुड़े होते थे।
70. यहूदी उस समय तक इस्लामी राज्य की विधिवत प्रजा नहीं बने थे, बल्कि इस्लामी राज्य के साथ उनके संबंध समझौतों पर आधारित थे। इन समझौतों के अनुसार यहूदियों को अपने अन्दरूनी मामलों में आज़ादी प्राप्त थी और उनके मुक़द्दमों के फैसले उन्हीं के क़ानूनों के मुताबिक़ उनके अपने जज करते थे। नबी (सल्ल.) के पास या आपके नियुक्त क़ाज़ियों के पास अपने मुकद्दमे लाने के लिए वे क़ानूनी तौर पर मजबूर न थे। लेकिन ये लोग जिन मामलों में स्वयं अपने धार्मिक क़नून के अनुसार फैसला करना न चाहते थे, उनका फैसला कराने के लिए नबी (सल्ल.) के पास इस आशा के साथ आ जाते थे कि शायद आपकी शरीअत में इनके लिए कोई दूसरा आदेश हो और इस तरह वे अपने धार्मिक क़ानून की पैरवी से बच जाएँ। यहाँ मुख्य रूप से जिस मुक़द्दमे की ओर इशारा है, वह यह था कि खैबर के प्रतिष्ठित यहूदी परिवारों में से एक औरत और एक के बीच अवैध संबंध पाया गया । तौरात के अनुसार उनकी सज़ा रज्म थी, अर्थात यह कि दोनों को पत्थर मार-मारकर हलाक कर दिया जाए। (बाइबल की पुस्तिका : व्यवस्था विवरण 22 : 23-24) लेकिन यहूदी इस सज़ा को लागू करना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में मशविरा किया कि इस मुकद्दमे में मुहम्मद (सल्ल.) को पंच बनाया जाए। अगर वह रज्म ( पत्थर मारकर मृत्युदण्ड देने के सिवा कोई और फैसला सुनाएँ तो कबूल कर लिया जाए और रज्म ही का फ़ैसला दें तो न कबूल किया जाए। अतः मुक़द्दमा आपके सामने लाया गया। आपने रज्म का फ़ैसला सुनाया। उन्होंने इस फ़ैसले को मानने से इंकार कर दिया। इसपर आपने पूछा, "तुम्हारे धर्म में इसकी क्या सज़ा है ?" उन्होंने कहा, कोड़े मारना और मुंह काला करके गधे पर सवार करना।" आपने उनके उलमा से क़सम देकर पूछा, क्‍या तौरात में शादीशुदा व्यभिचारी मर्द और औरत की यही सज़ा है ?" उन्होंने फिर वही झूठा जवाब दिया। लेकिन उनमें से एक व्यक्ति इब्ने सुरिया, जो स्वयं यहूदियों के बयान के अनुसार अपने समय में तौरात का सबसे बड़ा 'विद्वान' था,खामोश रहा। आपने उसे सम्बोधित करके कहा कि मैं तुझे उस खुदा की क़सम देकर पूछता हूँ जिसने तुम लोगों को फिरऔन से बचाया और तूर (पहाड़) पर तुम्ने, शरीअत प्रदान की, क्या वास्तव में तौरात में व्यभिचार की यही सज़ा लिखी है। उसने जवाब दिया कि "अगर आप मुझे ऐसी भारी क़सम न देते तो में न बताता। सच तो यह है कि व्यभिचार की सजा तो रज्म ही है,मगर हमारे यहाँ जब व्यभिचार बढ़ गया तो हमारे धर्मादेशकों ने यह तरीका अपनाया कि बड़े लोग व्यभिचार करते तो उन्हें छोड़ दिया जाता और छोटे लोगों से यही अपराध होता तो उन्हें रज्म कर दिया जाता। फिर जब इससे आम लोगों में रोष पैदा होने लगा तो हमने तौरात के क़ानून को बदलकर यह नियम बना लिया कि व्यभिचार करनेवाले मर्द या औरत को कोड़े लगाए जाएँ और उन्हें मुंह काला करके गधे पर उलटे मुंह सवार किया जाए।" इसके बाद यहूदियों के लिए कुछ बोलने की गुंजाइश न रही और नबी (सल्ल.) के आदेश से ज़िना करनेवाले मर्द और औरत को पत्थर मार-मारकर हलाक़ कर दिया गया।
وَكَيۡفَ يُحَكِّمُونَكَ وَعِندَهُمُ ٱلتَّوۡرَىٰةُ فِيهَا حُكۡمُ ٱللَّهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوۡنَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 42
(43) और ये तुम्हें कैसे मध्यस्थ बनाते हैं जबकि उनके पास तौरात मौजूद है, जिसमें अल्लाह का आदेश लिखा हुआ है और फिर ये उससे मुंह मोड़ रहे है?71 सच्ची बात यह है कि ये लोग ईमान ही नहीं रखते।
71. इस आयत में अल्लाह ने इन लोगों की बेईमानी को बिल्कुल बेनकाब कर दिया है। ये धार्मिक लोग' जिन्होंने पूरे अरब पर अपनी धार्मिकता और अपने ग्रंथीय ज्ञान का सिक्का जमा रखा था, उनकी दशा यह थी कि जिस किताब को स्वयं अल्लाह की किताब मानते थे और जिसपर ईमान रखने के दावेदार थे, उसके आदेश को छोड़कर नबी (सल्ल.) के पास अपना मुक़दमा लाए थे जिनके पैगम्बर होने का उनको सख़्ती से इंकार था। इससे यह रहस्य बिल्कुल खुल गया कि ये किसी चीज़ पर भी सच्चाई के साथ ईमान नहीं रखते, वास्तव में उनका ईमान अपने नफ्स (मन) और उसकी इच्छाओं पर है। जिसे अल्लाह को किताब मानते हैं, उससे सिर्फ इसलिए मुंह मोड़ते हैं कि उसका आदेश उनके मन को नागवार है और जिसे (अल्लाह की पनाह) पैराम्बर होने का झूठा दावेदार कहते हैं, उसके पास सिर्फ यह आशा लेकर जाते हैं कि शायद वहाँ से कोई ऐसा फैसला मिल जाए जो उनके मंशा के मुताबिक़ हो ।
إِنَّآ أَنزَلۡنَا ٱلتَّوۡرَىٰةَ فِيهَا هُدٗى وَنُورٞۚ يَحۡكُمُ بِهَا ٱلنَّبِيُّونَ ٱلَّذِينَ أَسۡلَمُواْ لِلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ بِمَا ٱسۡتُحۡفِظُواْ مِن كِتَٰبِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ عَلَيۡهِ شُهَدَآءَۚ فَلَا تَخۡشَوُاْ ٱلنَّاسَ وَٱخۡشَوۡنِ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗاۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 43
(44) हमने तौरात उतारी जिसमें हिदायत और रौशनी थी। सारे नबी जो मुस्लिम थे, उसी के अनुसार इन यहूदियों 72 के मामलों का फैसला करते थे और इसी तरह रब्बानी और अह्बार73 भी (उसी के आधार पर फैसला करते थे) क्योंकि उन्हें अल्लाह की किताब की रक्षा का ज़िम्मेदार बनाया गया था और वे इसपर गवाह थे। (तो ऐ यहूदियों के गिरोह!) तुम लोगों से न डरो, बल्कि मुझसे डरो और मेरी आयतों को थोड़ा-थोड़ा मुआवजा लेकर बेचना छोड़ दो। जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें, वही 'अधर्मी' हैं।
72. यहाँ संकेततः इस वास्तविकता से भी सचेत कर दिया गया कि नबी सब के सब 'मुस्लिम' (ईश्वर के आज्ञाकारी) थे, इसके विपरीत ये यहूदी 'इस्लाम' (ईश्वरीय आज्ञापालन) से हटकर और फ़िरक़ाबन्दी में पड़कर सिर्फ़ 'यहूदी' बनकर रह गए थे।
73. रब्बानी से अभिप्रेत धार्मिक विद्वान (उलमा) हैं और अस्वार से अभिप्रेत धार्मिक विधिवेत्ता (फ़ुक़हा) ।
وَكَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيهَآ أَنَّ ٱلنَّفۡسَ بِٱلنَّفۡسِ وَٱلۡعَيۡنَ بِٱلۡعَيۡنِ وَٱلۡأَنفَ بِٱلۡأَنفِ وَٱلۡأُذُنَ بِٱلۡأُذُنِ وَٱلسِّنَّ بِٱلسِّنِّ وَٱلۡجُرُوحَ قِصَاصٞۚ فَمَن تَصَدَّقَ بِهِۦ فَهُوَ كَفَّارَةٞ لَّهُۥۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 44
(45) तौरात में हमने यहूदियों पर यह हुक्म लिख दिया था कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और तमाम घावों के लिए बराबर का बदला।74 फिर जो क़िसास (खून के बदले) का सदका (दान) कर दे तो वह उसके लिए कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है।75 और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें, वही ज़ालिम हैं।
74. तुलना के लिए देखिए बाइबल के पुराने नियम की पुस्तक “निर्गमन" अध्याय 21, आयत 23-25
75. अर्थात जो आदमी 'सदके' (दान) की नीयत से किसास (बदला) माफ कर दे, उसके हक़ में यह नेकी उसके बहुत-से गुनाहों का कफ्फारा (प्रायश्चित) हो जाएगी। इसी अर्थ में नबी (सल्ल.) का यह कथन है कि "जिसके देह में कोई घाव लगाया गया और उसने क्षमा कर दिया तो जिस श्रेणी की यह क्षमा होगी, उसी के हिसाब से उसके गुनाह क्षमा कर दिए जाएँगे।"
وَقَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَ فِيهِ هُدٗى وَنُورٞ وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 45
(46) फिर हमने इन पैग़म्बरों के बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा। तौरात में से जो कुछ उसके सामने मौजूद था, वह उसकी पुष्टि करनेवाला था और हमने उसको इंजील दी जिसमें रहनुमाई और रौशनी थी और वह भी तौरात में से जो कुछ उस समय मौजूद था, उसकी पुष्टि करनेवाली थी 76 और ख़ुदातरस लोगों के लिए सरासर हिदायत और नसीहत थी।
76. अर्थात मसीह (अलै.) कोई नया धर्म लेकर नहीं आए थे, बल्कि वही एक दीन (धर्म) जो तमाम पिछले नबियों का दीन था, मसीह का दीन भी था और उसी की ओर वे दावत देते थे। तौरात की मूल शिक्षाओं में से जो कुछ उनके समय में सुरक्षित था, उसको मसीह स्वयं भी मानते थे और इंजील भी उसकी पुष्टि करती थी। (देखिए मत्ती 5: 17-18) क़ुरआन इस वास्तविकता को बार-बार दोहराता है कि अल्लाह की ओर से जितने नबी दुनिया के किसी हिस्से में आए हैं, उनमें से कोई भी पिछले नबियों के खंडन के लिए और उनके काम को मिटाकर अपना नया धर्म चलाने के लिए नहीं आया था, बल्कि हर नबी अपने पिछले नबियों की पुष्टि करता था और उसी काम को आगे बढ़ाने के लिए आता था जिसे पिछलों ने एक पवित्र वरासत के रूप में छोड़ा था। इसी तरह अल्लाह ने अपनी कोई किताब अपनी ही पिछली किताबों का खण्डन करने के लिए कभी नहीं भेजी, बल्कि उसकी हर किताब पहले आई हुई किताबों का समर्थन और पुष्टि करनेवाली थी।
وَلۡيَحۡكُمۡ أَهۡلُ ٱلۡإِنجِيلِ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فِيهِۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 46
(47) हमारा आदेश यह था कि इंजीलवाले उस क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करें जो अल्लाह ने उसमें उतारा है और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें, वही फ़ासिक (अवज्ञाकारी) हैं।77
77. यहाँ अल्लाह ने उन लोगों के लिए जो अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फैसला न करें, तीन आदेश दिए हैं- एक यह कि वे इंकारी (काफ़िर) हैं, दूसरे यह कि वे ज़ालिम हैं, तीसरे यह कि वे फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी) हैं। इसका खुला अर्थ यह है कि जो इंसान अल्लाह के आदेश और उसके उतारे कानून को छोड़कर अपने या दूसरे इंसानों के बनाए हुए क़ानूनों पर फ़ैसला करता है, वह वास्तव में तीन बड़े अपराध करता है- पहला यह कि उसका यह काम अल्लाह के आदेश के इंकार जैसा ही है और यह सत्य से इनकार और अधर्म (कुफ़्र) है । दूसरा यह कि उसका यह काम न्याय और इनसाफ़ के विरुद्ध है, क्योंकि ठीक-ठीक न्याय के अनुसार जो आदेश हो सकता था वह तो अल्लाह ने दे दिया था, इसलिए जब अल्लाह के आदेश से हटकर उसने फ़ैसला किया तो ज़ुल्म किया। तीसरा यह कि बन्दा होने के बावजूद जब उसने अपने मालिक के क़ानून से विमुख होकर अपना या किसी दूसरे का क़ानून लागू किया तो वास्तव में बन्दगी और आज्ञापालन की सीमा से बाहर क़दम निकाला और यही फिस्क (अवज्ञा) है। यह कुफ़्र, ज़ुल्म और फ़िस्क़ अपनी प्रकृति की दृष्टि से अनिवार्यतः "अल्लाह के आदेश से विमुख हो जाने " के मूल अर्थ में सम्मिलित है। संभव नहीं है कि जहाँ वह विमुखता मौजूद हो, वहाँ ये तीनों चीजें मौजूद न हों। अलबत्ता जिस तरह विमुखता के दों और श्रेणियों में अन्तर है, उसी तरह इन तीनों चीज़ों की श्रेणियों में भी अन्तर है। जो आदमी अल्लाह के हुक्म के विरुद्ध इसलिए फैसले करता है कि वह अल्लाह के हुक्म को ग़लत और अपने या किसी दूसरे इंसान के हुक्म को सही समझता है, वह पूरी तरह काफ़िर (विधर्मी), ज़ालिम और फ़ासिक है और जो अक़ीदे (विश्वास) के एतिबार से अल्लाह के हुक्म को सत्य समझता है, मगर व्यावहारिक रूप से उसके विरुद्ध फैसला करता है, वह यद्यपि मिल्लत से निकला हुआ तो नहीं है, परन्तु अपने ईमान को कुफ़्र, ज़ुल्म और फ़िस्क से मिला रहा है। इसी तरह जिसने तमाम मामलों में अल्लाह के हुक्म से विमुखता अपना ली है, वह तमाम मामलों में काफ़िर, ज़ालिम और फासिक है और जो कुछ मामलों में आज्ञापालक है और कुछ में विमुख है, उसकी ज़िन्दगी में ईमान व इस्लाम और कुफ़ व जुल्म च फ़िरक को मिलावट ठीक-ठीक उसी अनुपात में है जिस अनुपात में उसने आज्ञापालन और विमुखता को मिला रखा है। कुरआन के कुछ टीकाकारों ने इन आयतों को किताबवालों के साथ खास करने की कोशिश की है, परन्तु ईशवाणी के शब्दों में इस प्रकार के अर्थ-निर्धारण के लिए कोई गुंजाइश मौजूद नहीं । इस अर्थ-निर्धारण का सही उत्तर वह है जो हज़रत हुजैफ़ा (रज़ि.) ने दिया है । उनसे किसी ने कहा कि ये तीनों आयतें तो बनी इसराईल के संबंध में है। इसपर हज़रत हुजैफा (रज़ि०) ने फरमाया, "कितने अच्छे भाई हैं तुम्हारे लिए ये बनी इमराईल कि कड़वा कड़वा सब उनके लिए है और मीठा-मीठा सब तुम्हारे लिए। कदापि नहीं, खुदा की क़सम । तुम इन्हीं के तरीक़े पर क़दम-ब-क़दम चलोगे।"
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ لِكُلّٖ جَعَلۡنَا مِنكُمۡ شِرۡعَةٗ وَمِنۡهَاجٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 47
(48) फिर ऐ नबी ! हमने तुम्हारी ओर यह किताब भेजी जो सत्य लेकर आई है और 'अल-किताब' में से जो कुछ उसके आगे मौजूद है, उसकी पुष्टि करनेवाली 78 और उसकी रक्षा करनेवाली और निगहबान है।79 इसलिए तुम अल्लाह के उतारे हुर क़ानून के मुताबिक़ लोगों के मामलों का फैसला करो और जो सत्य तुम्हारे पास आया है, उससे मुंह मोड़कर उनकी इच्छाओं का पालन न करो-हमने तुम (इंसानो) में से हर एक के लिए एक शरीअत और एक कार्य-प्रणाली निश्चित की।80 यद्यपि तुम्हारा खुदा चाहता तो तुम सबको एक उम्मत (समुदाय) भी बना सकता था, लेकिन उसने यह इसलिए किया कि जो कुछ उसने तुम लोगों को दिया है. उसमें तुम्हारी आज़माइश करे, इसलिए भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने का यत्न करो। अन्ततः तुम सबको अल्लाह को ओर पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें असल सच्चाई बता देगा जिसमें तुम मतभेद करते रहे हो 81
78. यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है। यद्यपि इस विषय को यूं भी व्यक्त किया जा सकता था कि पिछली किताबों में से जो कुछ अपनी असली और सही रूप में बाक़ी है, क़ुरआन उसकी पुष्टि करता है, लेकिन अल्लाह ने पिछली किताबों' के बजाय 'अल किताब' का शब्द प्रयोग किया। इससे यह रहस्य भी सामने आता है कि क़ुरआन और तमाम वे किताबें जो अलग-अलग समयों और अलग-अलग भाषाओं में अल्लाह की ओर से अवतरित हुई, सब की सब वास्तव में एक ही किताब हैं। एक ही उनका रचयिता है, एक ही उनका आशय एवं उद्देश्य है, एक ही उनकी शिक्षा है और एक ही ज्ञान है जो उनके द्वारा मानवजाति को प्रदान किया गया। अन्तर अगर है तो वर्णनों का है, जो एक ही उद्देश्य के लिए विभिन्न श्रोताओ के अनुसार विभिन्न ढंग से अपनाए गए।
79. क़ुरआन को 'अल-किताब' का रक्षा करनेवाला और निगहबान कहने की अर्थ यह है कि उसने उन तमाम सच्ची शिक्षाओं को, जो पिछली आसमानी किताबों में दी गई थीं, अपने अन्दर लेकर सुरक्षित कर दिया है। अब उनकी सच्ची शिक्षाओं का कोई अंश नष्ट न होने पाएगा।
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَهُم بِبَعۡضِ ذُنُوبِهِمۡۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَٰسِقُونَ ۝ 48
(49) अत:82 ऐ नबी ! तुम अल्लाह के उतारे हुए कानून के मुताबिक इन लोगों के मामलों का फ़ैसला करो और इनकी इच्छाओं का पालन न करो। होशियार रहो कि ये लोग तुमको आजमाइश में डालकर उस मार्गदर्शन से तनिक भर भी हटाने न पाएँ जो अल्लाह ने तुम्हारी और उतारा है। फिर अगर ये उससे मुँह मोड़ें तो जान लो कि अल्लाह ने इनके कुछ गुनाहों के बदले में इनको मुसीबत में डालने का इरादा ही कर लिया है और यह वास्तविकता है कि इन लोगों में अधिकतर 'फ़ासिक' (उल्लघंनकारी) हैं ।
82. यहाँ से वही व्याख्यानक्रम चल पड़ता है जो ऊपर से चला आ रहा था।
أَفَحُكۡمَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ يَبۡغُونَۚ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ حُكۡمٗا لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 49
(50) (अगर ये अल्लाह के क़ानून से मुंह मोड़ते हैं। तो क्या फिर जाहिलियत 83 (अज्ञान) का फ़ैसला चाहते हैं? हालाँकि जो लोग अल्लाह में विश्वास रखते हैं उनके नज़दीक अल्लाह से बेहतर फ़ैसला करनेवाला और कौन हो सकता है?
83. 'जाहिलियत' का शब्द इस्लाम के मुक़ाबले में इस्तेमाल किया जाता है । इस्लाम का तरीक़ा साक्षात ज्ञान है, क्योंकि इसकी ओर अल्लाह ने मार्गदर्शन किया है, जो तमाम तथ्यों का ज्ञान रखता है और इसके विपरीत हर वह तरीक़ा जो इस्लाम से भिन्न है."जाहिलियत” का तरीक़ा है। अरब के इस्लाम से पहले को जाहिलियत का काल इसी अर्थ में कहा गया है कि इस ज़माने में ज्ञान के बिना, मात्र अंधविश्वास या अटकल या इच्छाओं के आधार पर, इंसानों ने अपने लिए ज़िन्दगी के तरीक़े मुक़र्रर कर लिए थे। यह कार्यशैली जहाँ जिस काल में भी इंसान अपनाएँ उसे हर स्थिति में जाहिलियत ही की कार्यशैली कहा जाएगा। विद्यालयों और यूनिवर्सिटियों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह केवल एक आंशिक ज्ञान है और किसी अर्थ में भी इंसान के मार्गदर्शन के लिए काफ़ी नहीं है। इसलिए अल्लाह के दिए हुए ज्ञान से बेपरवाह होकर ज़िन्दगी की जो व्यवस्था इस आंशिक ज्ञान के साथ भ्रम, अटकल और कामनाओं की मिलावट करके बना लिए गए हैं, वे भी उसी तरह जाहिलियत की परिभाषा में आते हैं जिस तरह प्राचीनकाल के जाहिली तरीक़े इस परिभाषा में आते थे।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلنَّصَٰرَىٰٓ أَوۡلِيَآءَۘ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَإِنَّهُۥ مِنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 50
(51) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! यहूदियों और ईसाइयों को अपना साथी और राज़दार न बनाओ। ये आपस ही में एक-दूसरे के साथी और राज़दार हैं। अगर तुममें से कोई उनको अपना साथी और राज़दार बनाता है तो उसकी गणना भी फिर उन्हीं में है, निश्चित रूप से अल्लाह ज़ालिमों को अपने मार्गदर्शन से वंचित कर देता है।
فَتَرَى ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يُسَٰرِعُونَ فِيهِمۡ يَقُولُونَ نَخۡشَىٰٓ أَن تُصِيبَنَا دَآئِرَةٞۚ فَعَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَ بِٱلۡفَتۡحِ أَوۡ أَمۡرٖ مِّنۡ عِندِهِۦ فَيُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَآ أَسَرُّواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 51
(52) तुम देखते हो कि जिनके दिलों में निफ़ाक़ (कपटाचार) की बीमारी है, वे उन्हीं में दौड़-धूप करते फिरते हैं। कहते हैं, “हमें डर लगता है कि कहीं हम किसी मुसीबत के चक्कर में न फँस जाएँ।"84 मगर यह दूर नहीं कि अल्लाह जब तुम्हें निर्णायक विजय देगा या अपनी ओर से कोई और बात प्रकट करेगा85 तो ये लोग अपने इस निफ़ाक़ (कपटाचार) पर, जिसे ये दिलों में छिपाए हुए हैं, लज्जित होंगे
84. उस समय तक अरब में कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष का फैसला नहीं हुआ था। यद्यपि इस्लाम अपने अनुयायियों की सरफ़रोशियों की वजह से एक ताक़त बन चुका था, लेकिन मुक़ाबले की ताक़तें भी ज़बरदस्त थीं। इस्लाम की जीत की जैसी संभावना थी, वैसी ही कुफ्र की जीत की भी थी। इसलिए मुसलमानों में जो लोग मुनाफिक़ थे, वे इस्लामी जमाअत में रहते हुए यहूदियों और ईसाइयों के साथ भी मेल-जोल बनाए रखना चाहते थे, ताकि यह संघर्ष अगर इस्लाम की हार पर समाप्त हो तो उनके लिए कोई-न-कोई शरणस्थली सुरक्षित रहे। इसके अलावा उस समय अरब में यहूदियों और ईसाइयों की आर्थिक शक्ति सबसे अधिक थी। साहूकारा अधिकतर उन्हीं के हाथ में था। अरब के बेहतरीन हरे-भरे और उपजाऊ इलाके उनके क़ब्ज़े में थे। उनको सूदखोरी का जाल हर ओर फैला हुआ था। अतः आर्थिक कारणों से भी ये मुनाफ़िक़ लोग उनके साथ अपने पिछले संबंधों को बनाए रखने के इच्छुक थे। उनका विचार था कि अगर इस्लाम और कुफ़ के इस संघर्ष में पूरी तरह लगकर हमने इन सब कौमों से अपने संबंध काट लिए, जिनके साथ इस्लाम इस समय युद्धरत है, तो यह काम राजनीतिक और आर्थिक दोनों हैसियतों से हमारे लिए खतरनाक होगा।
85. अर्थात निर्णायक विजय से निम्नस्तर की कोई ऐसी चीज़ जिससे सामान्य रूप से लोगों को यह विश्वास हो जाए कि हार-जीत का अन्तिम निर्णय इस्लाम ही के पक्ष में होगा।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ إِنَّهُمۡ لَمَعَكُمۡۚ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَأَصۡبَحُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 52
(53) और उस समय ईमानवाले कहेंगे, "क्या ये वही लोग हैं जो अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर विश्वास दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं ?"-इनके सब कर्म नष्ट हो गए और अन्तत: ये नाकाम व असफल होकर रहे। 86
86. अर्थात जो कुछ उन्होंने इस्लाम की पैरवी में किया, नमाजें पढ़ीं, रोज़े रखे, ज़कात दी, जिहाद में शरीक हुए, इस्लाम के कानूनों को माना, यह सब कुछ इस कारण नष्ट हो गया कि उनके दिलों में इस्लाम के लिए निष्ठा न थी और वे सबसे कटकर सिर्फ एक अल्लाह के होकर न रह गए थे, बल्कि अपनी दुनिया के लिए उन्होंने अपने आपको अल्लाह और उसके विद्रोहियों के बीच आधा-आधा बाँट रखा था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَن يَرۡتَدَّ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَسَوۡفَ يَأۡتِي ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ يُحِبُّهُمۡ وَيُحِبُّونَهُۥٓ أَذِلَّةٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَعِزَّةٍ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ يُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَخَافُونَ لَوۡمَةَ لَآئِمٖۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 53
(54) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो अगर तुममें से कोई अपने धर्म से फिरता है (तो फिर जाए), अल्लाह और बहुत से ऐसे लोगों को पैदा कर देगा जो अल्लाह को प्रिय होगे और अल्लाह प्रिय उनको होगा, जो ईमानवालो पर नर्म और कुफ्फार (विरोधी, शत्रुओ) पर सख़्त होंगे 87, जो अल्लाह की राह में जिद्दोजहद करेंगे और किसी निन्दा करनेवाले को निन्दा से न डरेंगे।88 यह अल्लाह की कृपा है, जिसे चाहता है देता है। अल्लाह व्यापक साधनों का मालिक है और सब कुछ जानता है।
87. "ईमानवालों” पर नर्म होने का अर्थ यह है कि एक आदमी ईमानवालों के मुक़ाबले में अपनी ताक़त कभी इस्तेमाल न करे। उसको बौद्धिक शक्ति, उसको समझदारी, उसको योग्यता, उसकी पहुंच और प्रभाव, उसका माल, उसको शारीरिक शक्ति कोई चीज़ भी मुसलमानों को दबाने और सताने और हानि पहुँचाने के लिए न हो। मुसलमान अपने बीच उसको सदैव एक नम्र स्वभाव. दयालु, हितैषी और सहनशील इंसान हो पाएँ। ‘’कुफ़्फ़ार पर सख्‍़त’’ होने का अर्थ यह है कि एक मोमिन आदमी अपने ईमान को दृढ़ता, धर्मनिष्ठा, सिद्धांत को मज़बूती, चरित्र-बल और ईमान को विवेक के कारण इस्लाम के विरोधियों के मुकाबले में पत्थर को चट्टान की तरह हो कि किसी तरह अपनी जगह से हटाया न जा सके। वे इसे कभी मोम को नाक और नर्म चारा न पाएँ। उन्हें जब भी इससे वास्ता पड़े, उनपर यह सिद्ध हो जाए कि यह अल्लाह का बन्दा मर सकता है, मगर किसी कीमत पर बिक नहीं सकता और किसी दबाव से दब नहीं सकता।
88. अर्थात अल्लाह के धर्म की पैरवी करने में उसके आदेशों का पालन करने में और इस धर्म के अनुसार जो कुछ सत्य है, उसे सत्य और जो कुछ असत्य है, उसे असत्य कहने में उन्हें कोई झिझक न होगी। किसी का विरोध, किसी का व्यंग्य और उपहास, किसी की आपत्ति और किसी की फबतियों और आवाज़ों की वे परवाह न करेंगे। अगर आम लोगों की राय इस्लाम की विरोधी हो और इस्लाम के तरीके पर चलने का अर्थ अपने आपको दुनिया भर में नक्कू बना लेना हो, तब भी वे उसी राह पर चलेंगे जिसे वे सच्चे दिल से सत्य जानते हैं।
إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُمۡ رَٰكِعُونَ ۝ 54
(55) तुम्हारे मित्र तो वास्तव में सिर्फ अल्लाह और अल्लाह का रसूल और वे ईमानवाले हैं जो नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं।
وَمَن يَتَوَلَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَإِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 55
(56) और जो अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों को अपना मित्र बना ले, उसे मालूम हो कि अल्लाह का दल ही छाकर रहनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَكُمۡ هُزُوٗا وَلَعِبٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَٱلۡكُفَّارَ أَوۡلِيَآءَۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 56
(57) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे पहले के किताबबालों में से जिन लोगों ने तुम्हारे दीन को मज़ाक़ और मनोरंजन का सामान बना लिया है, उन्हें और दूसरे अधर्मियों को अपना दोस्त और राजदार न बनाओ। अल्लाह से डरो अगर तुम ईमानवाले हो।
وَإِذَا نَادَيۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ ٱتَّخَذُوهَا هُزُوٗا وَلَعِبٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 57
(58) जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो तो वे उसका मजाक उड़ाते और उससे खेलते हैं।89 इसका कारण यह है कि वे बुद्धि नहीं रखते।90
89.अर्थात अज़ान की आवाज़ सुनकर उसकी नक़लें उतारते हैं, उपहास के लिए उसके शब्द बदलते और तोड़-मरोड़ देते हैं और उसपर आवाज़ें कसते हैं।
90.अर्थात उनकी ये हरकतें मात्र बेअक़्ली का फल हैं। आर वे अज्ञानता और नादानी में न पड़े होते तो मुसलमानों से धार्मिक मतभेद रखने के बावजूट ऐसी छिछोरी हरकतें उनसे न होतीं। आख़िर कौन सूझ-बूझवाला व्यक्ति यह पसन्द कर सकता है कि जब कोई गिरोह अल्लाह की इबादत के लिए बुलाए तो उसकी खिल्ली उड़ाई जाए।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ هَلۡ تَنقِمُونَ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلُ وَأَنَّ أَكۡثَرَكُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 58
(59) इनसे कहो, "ऐ किताबवालो ! तुम जिस बात पर हमसे बिगड़े हो वह इसके सिवा और क्या है कि हम अल्लाह पर और धर्म की उस शिक्षा पर ईमान ले आए हैं जो हमारी ओर अवतरित हुई है और हमसे पहले भी अवतरित हुई थी, और तुममें से अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।"
قُلۡ هَلۡ أُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكَ مَثُوبَةً عِندَ ٱللَّهِۚ مَن لَّعَنَهُ ٱللَّهُ وَغَضِبَ عَلَيۡهِ وَجَعَلَ مِنۡهُمُ ٱلۡقِرَدَةَ وَٱلۡخَنَازِيرَ وَعَبَدَ ٱلطَّٰغُوتَۚ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 59
(60) फिर कहो, “क्या मैं उन लोगों की निशानदेही करूँ जिनका अंजाम अल्लाह के यहाँ अवज्ञाकारियों के अंजाम से भी बुरा है? वे जिनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी, जिनपर उसका प्रकोप हुआ, जिनमें से बन्दर और सुअर बनाए गए, जिन्होंने ताग़ूत (ग़ैर-अल्लाह) को बन्दगी की, उनका दर्जा और भी ज्यादा बुरा है और वे 'सवाउस्सबील' (सीधे मार्ग) से बहुत ज़्यादा भटके हुए हैं।91
91.सूक्ष्म संकेत है स्वयं यहूदियों की ओर, जिनका अपना इतिहास यह कह रहा है कि बार-बार वे अल्लाह के प्रकोप और उसकी लानत में ग्रस्त हुए। सब्त (सनीचर) का क़ानून तोड़ने पर उनकी क़ौम के बहुत-से लोगों की शक्लें विकृत हो गई, यहाँ तक कि वे पतन की उस सीमा को पहुंचे कि तागत की बन्दगी तक उन्हें करनी पड़ी। अत: कहने का अर्थ यह है कि आखिर तुम्हारी बेशर्मी और आपराधिक की कोई सीमा भी है कि स्वयं अवज्ञा और नाफ़रमानी और अत्यंत नैतिक पतन में ग्रस्त हो और अगर कोई दूसरा गिरोह अल्लाह पर ईमान लाकर सच्ची दीनदारी का तरीक़ा अपनाता है तो उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हो।
وَإِذَا جَآءُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَقَد دَّخَلُواْ بِٱلۡكُفۡرِ وَهُمۡ قَدۡ خَرَجُواْ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا كَانُواْ يَكۡتُمُونَ ۝ 60
(61) जब ये तुम लोगों के पास आते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि विधर्मिकता (कुफ़्र) ही लिए हुए आए थे और विधर्मिकता ही लिए हुए वापस चले गए, और अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ ये दिलों में छिपाए हुए हैं।
وَتَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 61
(62) तुम देखते हो कि इनमें से अधिकतर लोग गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती के कामों में दौड़-धूप करते फिरते हैं और हराम के माल खाते हैं। बहुत बुरी हरकतें हैं जो ये कर रहे हैं।
لَوۡلَا يَنۡهَىٰهُمُ ٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ عَن قَوۡلِهِمُ ٱلۡإِثۡمَ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 62
(63) क्यों इनके उलमा (विद्वान) और मशाइख़ (धर्म-गुरु) इन्हें गुनाह पर ज़बान खोलने और हराम खाने से नहीं रोकते? निश्चय ही ज़िन्दगी का बहुत ही बुरा कारनामा है जो वे तैयार कर रहे हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ يَدُ ٱللَّهِ مَغۡلُولَةٌۚ غُلَّتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَلُعِنُواْ بِمَا قَالُواْۘ بَلۡ يَدَاهُ مَبۡسُوطَتَانِ يُنفِقُ كَيۡفَ يَشَآءُۚ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۚ وَأَلۡقَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ كُلَّمَآ أَوۡقَدُواْ نَارٗا لِّلۡحَرۡبِ أَطۡفَأَهَا ٱللَّهُۚ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗاۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 63
(64) यहूदी कहते हैं, अल्लाह के हाथ बँधे हुए हैं।92 -बाँधे गए इनके हाथ93, और फिटकार पड़ी इनपर इस बकवास की वजह से जो ये करते हैं।94 - अल्लाह के हाथ तो खुले हुए हैं, जिस तरह चाहता है, ख़र्च करता है। वास्तविकता यह है कि जो वाणी तुम्हारे रब की ओर से तुमपर अवतरित हुई है, वह इनमें से अधिकतर लोगों की उदंडता और असत्य प्रियता में उलटे बढ़ोत्तरी का कारण बन गई है95 और (इसके बदले में) हमने इनके बीच क़ियामत तक के लिए द्वेष और दुश्मनी डाल दी है। जब कभी ये युद्ध की आग भड़काते हैं, अल्लाह उसको ठंडा कर देता है। ये ज़मीन में बिगाड़ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को कदापि पसन्द नहीं करता।
92.अरबी मुहावरे के अनुसार किसी के हाथ बंधे हुए होने का अर्थ यह है कि वह कंजूस है, दान-पुण्य से उसका हाथ रुका हुआ है। अतः यहूदियों के इस कथन का अर्थ यह नहीं है कि वास्तव में अल्लाह के हाथ बंधे हुए हैं, बल्कि अर्थ यह है कि अल्लाह कंजूस है। चूंकि सदियों से यहूदी क़ौम अपमान और रुसवाई को हालत में पड़ी हुई थी और उसकी पिछली शान की एक पुरानी कहानी बनकर रह गई थी जिसके फिर वापस आने की कोई संभावना उन्हें दिखाई नहीं देती थी, इसलिए आम तौर से अपनी क़ौमी आपदाओं पर मातम करते हुए उस क़ौम के नादान लोग यह अमर्यादित वाक्य कहा करते थे कि अल्लाह की पनाह | अल्लाह तो कंजूस हो गया है, उसके ख़ज़ाने का मुंह बंद है, हमें देने के लिए अब उसके पास आफ़तों और मुसीबतों के सिवा और कुछ नहीं रहा। यह बात कुछ यहूदियों तक ही सीमित नहीं, दूसरी कौमों के अज्ञानियों का भी यही हाल है कि जब उनपर कोई सख्त वक़्त आता है तो अल्लाह की ओर पलटने के बजाय वे जल-जलकर इस प्रकार की बेअदबी की बातें किया करते हैं।
93.अर्थात कंजूसी में ये स्वयं ग्रस्त हैं। दुनिया में अपनी कंजूसी और अपनी तंगदिली के लिए कहावत बन चुके हैं।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَكَفَّرۡنَا عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 64
(65) अगर (इस उदंडता के बजाय) ये किताबवाले ईमान ले आते और धर्मपरायणता की नीति की रीति अपनाते तो हम इनकी बुराइयाँ इनसे दूर कर देते और इनको नेमत भरी जन्नतों में पहुँचाते ।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ أَقَامُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِم مِّن رَّبِّهِمۡ لَأَكَلُواْ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۚ مِّنۡهُمۡ أُمَّةٞ مُّقۡتَصِدَةٞۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ سَآءَ مَا يَعۡمَلُونَ ۝ 65
(66) काश, इन्होंने तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को कायम किया होता जो इनके रब की ओर से इनके पास भेजी गई थी ! ऐसा करते तो इनके लिए ऊपर से रोज़ी बरसती और नीचे से उबलती।96 यद्यपि इनमें कुछ लोग सीधे रास्ते पर चलनेवाले भी हैं, लेकिन इनमें अधिकतर बड़े दुष्कर्मी हैं।
96.बाइबल की पुस्तक 'लैव्यव्यस्था के अध्याय 26 और व्यवस्था विवरण के अध्याय 28 में हज़रत मूसा (अलैहि.) के एक व्याख्यान का उल्लेख है, जिसमें उन्होंने बनी इसराईल को बड़े विस्तार के साथ बताया है कि अगर तुम अल्लाह के आदेशों का ठीक-ठीक पालन करोगे तो किस-किस तरह अल्लाह की रहमतों और बरकतों से नवाज़े जाओगे और अगर अल्लाह की किताब को पीठ पीछे डालकर नाफ़रमानियाँ करोगे तो किस तरह बलाएँ, मुसीबतें और तबाहियाँ हर ओर से तुमपर धावा बोलेंगी। हज़रत मूसा (अलैहि०) का वह व्याख्यान क़ुरआन के इस छोटे-से वाक्य की बेहतरीन व्याख्या है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ وَإِن لَّمۡ تَفۡعَلۡ فَمَا بَلَّغۡتَ رِسَالَتَهُۥۚ وَٱللَّهُ يَعۡصِمُكَ مِنَ ٱلنَّاسِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 66
(67) ऐ पैग़म्बर ! जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुमपर उतारा गया है, वह लोगों तक पहुँचा दो। अगर तुमने ऐसा न किया तो उसकी पैग़म्बरी का हक़ अदा न किया। अल्लाह तुमको लोगों की दुष्टता से बचानेवाला है। विश्वास करो कि वह काफ़िरों (विरोधियों) को (तुम्हारे मुक़ाबले में) सफलता का रास्ता कदापि न दिखाएगा।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَسۡتُمۡ عَلَىٰ شَيۡءٍ حَتَّىٰ تُقِيمُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡۗ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۖ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 67
(68) साफ़ कह दो कि “ऐ किताबवालो ! तुम कदापि किसी असल पर नहीं हो, जब तक कि तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को कायम न करो जो तुम्हारी ओर तुम्हारे रब की ओर से उतारी गई हैं ।‘’97 ज़रूर है कि यह फ़रमान जो तुम्हारें रब की ओर से तुमपर उतारा गया है, इनमें से अधिकतर को उद्दंडता और इंकार को और अधिक बढ़ा देगा98, मगर इंकार करनेवालों के हाल पर कुछ अफसोस न करो।
97.तौरात और इंजील को क़ायम करने से अभिप्रेत सच्चाई के साथ उनका पालन करना और उन्हें अपना जीवन-विधान बनाना है। इस अवसर पर यह बात अच्छी तरह मन-मस्तिक में बिठा लेनी चाहिए कि बाइबल की पवित्र पुस्तकों के संग्रह में एक प्रकार के लेख तो वे हैं जो यहूदी और ईसाई लेखकों ने अपने तौर पर लिखे हैं और दूसरे प्रकार के लेख वे हैं जो अल्लाह के आदेशों या हज़रत मूसा (अलैहि०), ईसा (अलैहि०) और दूसरे पैग़म्बरों के कथन होने को हैसियत से वर्णित हैं और जिनमें यह बात स्पष्ट की गई है कि अल्लाह ने ऐसा फ़रमाया या फलाँ नबी ने ऐसा कहा। इनमें से पहले प्रकार के लेख को अलग करके अगर कोई व्यक्ति सिर्फ दूसरे प्रकार के लेखों पर विचार करे तो आसानी से यह देख सकता है कि उनकी शिक्षा और कुरआन की शिक्षा में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं है। यद्यपि अनुवादकों और नासिखों (निरस्त करनेवालों) और शारिहों (टीकाकारों) के हस्तक्षेप से और कुछ जगह ज़बानी रिवायत करनेवालों की ग़लती से ये दूसरे प्रकार के लेख भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद कोई आदमी यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि इनमें ठीक उसी विशुद्ध तौहीद (एकेश्वरवाद) को दावत दी गई है जिसकी ओर कुरआन बुला रहा है, वही अक़ीदे पेश किए गए हैं जो क़ुरआन पेश करता है और ज़िन्दगी के उसी तरीक़े की ओर रहनुमाई की गई है जिसकी हिदायत क़ुरआन देता है। अतः वास्तविकता यह है कि यदि यहूदी और ईसाई उसी शिक्षा पर जमे रहते जो इन किताबों में अल्लाह और पैग़म्बरों की ओर से नक़ल की गई है, तो यक़ीनन नबी (सल्ल.) के पैग़म्बर बनाए जाने के वक्त वे एक सत्यवादी और सत्यमार्गी गिरोह पाए जाते और उन्हें कुरआन के अन्दर वही रौशनी नज़र आती जो पिछली किताबो में पाई जाती थी। इस स्थिति में उनके लिए नबी (सल्ल.) की पैरवी अपनाने में धर्मपरिवर्तन का सिरे से कोई प्रश्न पैदा ही न होता, बल्कि वे उसी रास्ते पर निरन्तर चलते हुए, जिसपर वे पहले से चले आ रहे थे, आपके अनुपालक बनकर आगे चल सकते थे।
98.अर्थात यह बात सुनकर ठंडे मन से विचार करने और वास्तविकता को समझने के बजाय वे ज़िद में आकर और अधिक सख्त विरोध शुरू कर देंगे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـُٔونَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 68
(69) (विश्वास करो कि यहाँ ठेकेदारी किसी की भी नहीं है) मुसलमान हों या यहूदी, साबी हों या ईसाई जो भी अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान लाएगा और भले कर्म करेगा, निस्सन्देह उसके लिए न किसी डर की जगह है, न दुख की।99
99.देखें सूरा-2, (बक़रा), आयत 62 व टिप्पणी न० 80 ।
لَقَدۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ رُسُلٗاۖ كُلَّمَا جَآءَهُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُهُمۡ فَرِيقٗا كَذَّبُواْ وَفَرِيقٗا يَقۡتُلُونَ ۝ 69
(70,71) हमने बनी इसराईल से दृढ़ वचन लिया और उनकी ओर बहुत-से रसूल भेजे, मगर जब कभी उनके पास कोई रसूल उनकी मनोकामनाओं के विरुद्ध कुछ लेकर आया, तो किसी को उन्होंने झुठलाया और किसी की हत्या कर दी और अपने नज़दीक यह समझे कि कोई फ़ितना न पैदा होगा, इसलिए अंधे और बहरे बन गए । फिर अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया तो उनमें से अधिकतर लोग और अधिक अंधे और बहरे बनते चले गए। अल्लाह उनकी ये सब हरकतें देखता रहा है।
وَحَسِبُوٓاْ أَلَّا تَكُونَ فِتۡنَةٞ فَعَمُواْ وَصَمُّواْ ثُمَّ تَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ ثُمَّ عَمُواْ وَصَمُّواْ كَثِيرٞ مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 70
0
لَقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ وَقَالَ ٱلۡمَسِيحُ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۖ إِنَّهُۥ مَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ حَرَّمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ ٱلۡجَنَّةَ وَمَأۡوَىٰهُ ٱلنَّارُۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 71
(72) निश्चय ही कुफ़्र (इंकार) किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह मरयम का बेटा मसीह ही है। हालाँकि मसीह ने कहा था, “ऐ बनी इसराईल ! अल्लाह की बन्दगी करो, जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” जिसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराया, उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी और उसका ठिकाना जहन्नम है, और ऐसे ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ ثَالِثُ ثَلَٰثَةٖۘ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّآ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ وَإِن لَّمۡ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 72
(73) निश्चय ही कुफ़्र (अधर्म) किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन में का एक है, हालाँकि एक अल्लाह के सिवा कोई खुदा नहीं है। अगर ये लोग अपनी इन बातों से बाज़ न आए तो इनमें से जिस-जिस ने कुफ़्र किया है, उसको दर्दनाक सज़ा दी जाएगी।
أَفَلَا يَتُوبُونَ إِلَى ٱللَّهِ وَيَسۡتَغۡفِرُونَهُۥۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 73
(74) फिर क्या ये अल्लाह से तौबा न करेंगे और उससे क्षमा न माँगेंगे? अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।
مَّا ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُ وَأُمُّهُۥ صِدِّيقَةٞۖ كَانَا يَأۡكُلَانِ ٱلطَّعَامَۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ ٱنظُرۡ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 74
(75) मरयम का बेटा मसीह इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल था, उससे पहले और भी बहुत-से रसूल गुज़र चुके थे, उसकी माँ एक सत्यवती स्त्री थी और वे दोनों खाना खाते थे। देखो, हम किस तरह उनके सामने हक़ीक़त (यथार्थ) की निशानियाँ स्पष्ट करते हैं, फिर देखो ये किधर उलटे फिरे जाते हैं?100
100.इन कुछ शब्दों में मसीह के बारे में ईश्वरत्व की धारणा का ऐसा स्पष्ट खंडन किया गया है कि इससे अधिक स्पष्टीकरण संभव नहीं है । मसीह के बारे में अगर कोई यह मालूम करना चाहे कि वास्तव में वह क्या था, तो इन लक्षणों से बिल्कुल असंदिग्ध रूप में मालूम कर सकता है कि वह केवल एक इंसान था। स्पष्ट है कि जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, जिसकी वंशावली तक मौजूद है, जो मानवीय शरीर रखता था, जो उन तमाम सीमाओं से सीमित और उन तमाम बंधनों से बँधा हुआ और उन समस्त गुणों से परिपूर्ण था जो इंसान के लिए विशिष्ट हैं, जो सोता था, खाता था, गर्मी और सर्दी महसूस करता था, यहाँ तक कि जिसे शैतान द्वारा आज़माइश में भी डाला गया, उसके बारे में कौन बुद्धिजीवी व्यक्ति यह सोच सकता है कि वह स्वयं ईश्वर (खुदा) है या ईश्वरत्व में ईश्वर का शरीक और साझीदार है, लेकिन यह मानव-बुद्धि की गुमराही का एक अनोखा चमत्कार है कि ईसाई स्वयं अपने धार्मिक ग्रंथों में मसीह की ज़िन्दगी को स्पष्ट रूप से एक इंसानी ज़िन्दगी पाते हैं और फिर भी उसे ईश्वरत्व के गुणों से परिपूर्ण ठहराने पर हठ किए चले जाते हैं। वास्तविकता यह है कि ये लोग उस ऐतिहासिक मसीह को मानते ही नहीं हैं जो अस्तित्व में आया था, बल्कि उन्होंने स्वयं अपने अटकल और गुमान से एक काल्पनिक मसीह गढ़ करके उसे ख़ुदा बना लिया है।
قُلۡ أَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗاۚ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 75
(76) इनसे कहो, क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उसकी उपासना करते हो जो न तुम्हें हानि पहुँचाने का अधिकार रखता है, न लाभ का? हालाँकि सबको सुननेवाला और सब कुछ जाननेवाला तो अल्लाह ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوٓاْ أَهۡوَآءَ قَوۡمٖ قَدۡ ضَلُّواْ مِن قَبۡلُ وَأَضَلُّواْ كَثِيرٗا وَضَلُّواْ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 76
(77) कहो, ऐ किताबवालो ! अपने धर्म में नाहक़ सीमा से आगे न बढ़ो और न उन लोगों की कल्पनाओं और विचारों का पालन करो जो तुमसे पहले स्वयं गुमराह हुए और बहुतों को गुमराह किया और 'सवाउस्सबील' (सीधे-समतल मार्ग) से भटक गए।101
101.संकेत है उन पथभ्रष्ट क़ौमों की ओर जिनसे ईसाइयों ने ग़लत धारणाएँ और असत्य तरीक़े प्राप्त किए, विशेषकर यूनान के दार्शनिकों की ओर। मसीह के आरंभिक अनुयायी जो धारणाएँ रखते थे, वे बड़ी हद तक उस वास्तविकता के अनुकूल थे जिसका अवलोकन उन्होंने स्वयं किया था और जिसकी शिक्षा उनके मार्गदर्शक और उपदेशक ने उनको दी थी। मगर बाद के ईसाइयों ने एक ओर मसीह को श्रद्धा और प्रतिष्ठा में अतिशयोक्ति करके और दूसरी ओर पड़ोसी क़ौमों के अंधविश्वासों और दर्शनों से प्रभावित होकर अपनी धारणाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण दार्शनिक अर्थ निकालने शुरू कर दिए और एक बिल्कुल ही नया धर्म तैयार कर लिया, जिसको मसीह की मौलिक शिक्षाओं से दूर का संबंध भी न रहा। इस बारे में स्वयं एक ईसाई धार्मिक विद्वान रैवरेंड चार्ल्स एंडरसन स्काट) का कथन देखने योग्य है । इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के चौदहवें एडीशन में 'यीशू मसीह' (Jesus Chirist) के विषय पर उसने जो लम्बा लेख लिखा है, उसमें वह कहता है- ‘’पहली तीन इंजीलों (मत्ती, मरकुस,लूका) में कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता हो कि इन इंजीलों के लिखनेवाले यीशू को इंसान के सिवा कुछ और समझते थे... स्वयं मत्ती इसका उल्लेख बढ़ई के बेटे की हैसियत से करता है और एक जगह बयान करता है कि पतरस ने उसको 'मसीह' मान लेने के बाद अलग एक ओर ले जाकर उसकी निन्दा की (मत्ती 16 : 22) । लूक़ा में हम देखते हैं कि सूली की घटना के बाद यीशू के दो शिष्य इम्माऊस की ओर जाते हुए उसका उल्लेख इस हैसियत से करते हैं कि 'वह अल्लाह और सारी उम्मत (समुदाय) के नज़दीक कर्म और कथन में सामर्थ्यवान नबी था।" (लूक़ा 24:19) आगे चलकर वह फिर लिखता है- ‘’यह बात कि यीशू खुद अपने आपको एक नबी की हैसियत से पेश करता था इंजीलों के बहुत-से लेखों में स्पष्ट होता है, उदाहरणत: यह कि 'मुझे आज और कल और परसों अपनी राह पर चलना ज़रूर है, क्योंकि संभव नहीं कि नबी यरूशलम से बाहर हलाक हो । (लूका 13 : 23) वह प्रायः अपना उल्लेख 'आदम की संतान' के नाम से करता है ।... यीशू कहीं अपने आपको अल्लाह को संतान' नहीं कहता । फिर यही लेखक लिखता है- "पिन्तेकुस्त पर्व के मौके पर पतरस के ये शब्द कि एक इंसान जो ख़ुदा की ओर से था' यीशू को इस हैसियत में पेश करते हैं जिसमें उसके समकालीन के लोग उसको जानते और समझते थे... इंजीलों से हमें मालूम होता है कि यीशू बचपन से जवानी तक बिल्कुल स्वाभाविक रूप से शारीरिक और मानसिक विकास के चरणों से गुज़रा... उसने केवल यही नहीं कि 'सर्वज्ञ' होने का दावा नहीं किया, बल्कि स्पष्टत: इससे इनकार किया है. वास्तव में उसके हर जगह मौजूद होने और सर्वदृष्टा होने का अगर दावा किया जाए तो यह उस सम्पूर्ण कल्पना के बिल्कुल विपरीत होगा जो हमें इंजीलों से प्राप्त होता है... फिर मसीह को सर्वशक्तिमान समझने की गुंजाइश तो इंजीलों में और भी कम है। कहीं इस बात का संकेत तक नहीं मिलता कि वह अल्लाह से अनपेक्ष होकर स्वतंत्र रूप से काम करता था, इसके विपरीत वह बार-बार दुआ मांगने की आदत से और इस प्रकार के शब्दों से कि 'यह चीज़ दुआ के सिवा किसी और ज़रिये से नहीं टल सकती', इस बात को स्पष्टतः स्वीकार करता है कि उसकी हस्ती बिल्कुल अल्लाह पर आश्रित है।" इसके बाद यह लेखक फिर लिखता है- ‘’वह सेंटपाल था जिसने एलान किया कि 'उठाए जाने की घटना के समय इसी उठाए जाने की प्रकिया के माध्यम से यीशू सम्पूर्ण अधिकारों के साथ 'इब्नुल्लाह' (अल्लाह के बेटे) के पद पर खुलेआम आसीन किया गया... इस बात का फैसला अब नहीं किया जा सकता कि क्या वह शुरू के ईसाइयों का गिरोह था या पाल जिसने मसीह के लिए 'प्रभु' की उपाधि का प्रयोग मूल धार्मिक अर्थ में किया। शायद यह कृत्य पूर्व उल्लिखित गिरोह का ही हो, लेकिन इसमें सन्देह नहीं है कि वह पाल था जिसने इस उपाधि को पूर्ण अर्थ में बोलना शुरू किया, फिर अपने उद्देश्य को इस तरह और भी अधिक स्पष्ट कर दिया कि प्रभु यीशू मसीह' से बहुत-सी वे धारणाएँ और पारिभाषिक शब्द स्थानांतरित कर दिए गए जो प्राचीन पवित्र ग्रंथों में प्रभु यहुवह (अल्लाह) के लिए विशिष्ट थे।" इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के एक दूसरे लेख 'Christianity में रेवरेंड जार्ज विलियम नाक्स मसीही चर्च के बुनियादी अक़ीदे पर बहस करते हुए लिखता है- ‘’तस्लीस के अकीदे (त्रिएकपरमेश्वरवाद) का वैचारिक सांचा यूनानी है और यहूदी शिक्षाएँ उनमें ढाली गई हैं। इस दृष्टि से यह हमारे लिए एक विचित्र प्रकार का संमिश्रण है। 'धार्मिक विचार के और ढले हुए एक अनजान दर्शन के रूप में।" "बाप-बेटा और पवित्र अत्मा की परिभाषाएँ यहूदी माध्यगों की जुटाई हुई हैं..." (आखिर तक) इसी सिलसिले में इंसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका के एक और लेख चर्च का इतिहास (Church History) के ये वाक्य भी देखने योग्य हैं- ‘’तीसरी सदी ईसवी के अंत से पहले मसीह को आम तौर पर 'वाणी' का दैहिक प्रकटीकरण तो मान लिया गया था, फिर भी बहुत-से ईसाई ऐसे थे जो मसीह की खुदाई के कायल न थे। चौथी सदी में इस समस्या पर घोर विवाद चल रहा था जिससे चर्च की बुनियादें हिल गई थीं। अन्ततः 325 ई० में नीकिया की कौंसिल ने मसीह की खुदाई को विधिवत सरकारी तौर पर मूल मसीही अक़ीदा करार दिया....बेटे की खुदाई के साथ रूह की खुदाई भी मान ली गई और इसे बपतिस्मा देते समय पढ़े जानेवाले वाक्य और उस समय के प्रचलित प्रतीकों में बाप और बेटे के साथ जगह दी गई। इस तरह नीकिया में मसीह के बारे में जो धारणा स्थापित की गई, उसका परिणाम यह निकला कि त्रिएकपरमेश्वरवाद (Trinity) की धारणा मूल मसीही धर्म का एक अभिन्न अंग होने का स्थान पा गई। मसीही धर्मशास्त्रियों के इन वक्तव्यों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि शुरू में जिस चीज़ ने मसीहियों को भटकाया, वह श्रद्धा और प्रेम की अतिशयोक्ति थी। इसी अतिशयोक्ति के आधार पर मसीह (अलैहि.) के लिए प्रभु और ईश्वर-पुत्र जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया, ईश्वरीय गुण उनसे जोड़ दिए गए और कफ्फारा (प्रायश्चित) की धारणा गढ़ी गई, हालांकि हज़रत मसीह की शिक्षाओं में इन बातों को कदापि कोई गुंजाइश मौजूद न थी। फिर जब दर्शन की हवा मसीहियों को लगी तो बजाय इसके कि ये लोग इस शुरू की गुमराही को समझकर इससे बचने की कोशिश करते. उन्होंने अपने पिछले पेशवाओं (धर्म-गुरुओं) की ग़लतियों को निभाने के लिए उनकी पुष्टि में तर्क देने शुरू कर दिए और मसीह को मूल शिक्षाओं की ओर रुजू किए बिना सिर्फ़ तर्क और दर्शन की मदद से धारणाओं पर धारणाएँ गढ़ते चले गए। यही वह गुमराही है जिसपर कुरआन ने इन आयतों में मसीहियों को सचेत किया है।
لُعِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ لِسَانِ دَاوُۥدَ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 77
(78, 79) बनी इसराईल में से जिन लोगों ने कुफ्र (अधर्म) का रास्ता अपनाया, उनपर दाऊद और मरियम के बेटे ईसा की ज़बान से लानत (फिटकार) की गई, क्योंकि वे उदंड हो गए थे और ज़्यादतियाँ करने लगे थे। उन्होंने एक-दूसरे को बुरे कामों के करने से रोकना छोड़ दिया था।102 बुरा तरीक़ा था जो उन्होंने अपनाया।
102.हर क़ौम का बिगाड़ आरंभ में कुछ लोगों से शुरू होता है। अगर क़ौम को सामूहिक अन्तरात्मा जीवित होती है तो जन सम्मति इन बिगड़े हुए व्यक्तियों को दबाए रखती है और कौम सामूहिक रूप से बिगड़ने नहीं पाती। लेकिन अगर क़ौम इन व्यक्तियों के बारे में कोताहो शुरू कर देती है और ग़लत काम करनेवाले लोगों की निंदा करने के बजाय इन्हें समाज में ग़लत काम करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है, तो फिर धीरे-धीरे वही खराबी जो पहले कुछ आदमियों तक सीमित थी, पूरी क़ौम में फैलकर रहती है। यही चीज़ थी जो अन्ततः बनी इसराईल के बिगाड़ का कारण बनी। हज़रत दाऊद और हज़रत ईसा (अलैहित) की ज़बान से जो लानत बनी इसराईल पर की गई उसके लिए देखिए बाइबल की पुस्तकों में भजनसंहिता, अध्याय 10 तथा 50; मत्ती, अध्याय 23 ।
كَانُواْ لَا يَتَنَاهَوۡنَ عَن مُّنكَرٖ فَعَلُوهُۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 78
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تَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يَتَوَلَّوۡنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ لَبِئۡسَ مَا قَدَّمَتۡ لَهُمۡ أَنفُسُهُمۡ أَن سَخِطَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَفِي ٱلۡعَذَابِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 79
(80) आज तुम उनमें अधिकांश ऐसे लोगों को देखते हो जो (ईमानवालों के मुक़ाबले में) अधर्मियों का समर्थन करते और उनका साथ देते हैं। निश्चय ही बहुत बुरा अंजाम है जिसकी तैयारी उनके मन ने उनके लिए की है, अल्लाह उनपर क्रुद्ध हो गया है और वह सदा रहनेवाली यातना में पड़नेवाले हैं।
وَلَوۡ كَانُواْ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلنَّبِيِّ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَا ٱتَّخَذُوهُمۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 80
(81) अगर वास्तव में ये लोग अल्लाह और पैग़म्बर और उस चीज़ के माननेवाले होते जो पैग़म्बर पर उतारी गई थी तो कभी (ईमानवालों के मुक़ाबले में) अधर्मियों को अपना साथी न बनाते103, मगर इनमें से तो बहुत-से लोग अल्लाह के आज्ञापालन से निकल चुके हैं।
103.अर्थ यह है कि जो लोग अल्लाह और नबी और किताब के माननेवाले होते हैं उन्हें स्वभावतः मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों) के मुक़ाबले में उन लोगों के साथ अधिक सहानुभूति होती है जो धर्म में चाहे उनसे मतभेद ही रखते हो, मगर बहरहाल उन्हीं की तरह अल्लाह और वह्य व रिसालत के सिलसिले को मानते हों, लेकिन ये यहूदी विचित्र प्रकार के किताबवाले हैं कि ऐकश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद की लड़ाई में खुल्लम-खुल्ला मुशरिकों का साथ दे रहे हैं। पैग़म्बर को मानने और न मानने की लड़ाई में एलानिया उनकी हमदर्दियाँ पैग़म्बर का इनकार करनेवालों के साथ हैं और फिर भी वे बिना किसी संकोच और लज्जा के यह दावा रखते हैं कि हम अल्लाह और पैग़म्बरों और किताबों के माननेवाले हैं।
۞لَتَجِدَنَّ أَشَدَّ ٱلنَّاسِ عَدَٰوَةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۖ وَلَتَجِدَنَّ أَقۡرَبَهُم مَّوَدَّةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّ مِنۡهُمۡ قِسِّيسِينَ وَرُهۡبَانٗا وَأَنَّهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 81
(82) तुम ईमानवालों की दुश्मनी में सबसे अधिक कठोर यहूदियों और मुशरिकों (बहुदेववादियो) को पाओगे और ईमान लानेवालों के लिए दोस्ती में अधिक क़रीब उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा था कि हम 'नसारा' (ईसाई) हैं। यह इस कारण कि उनमें उपासना में लगे रहनेवाले ज्ञानी और संसार-त्यागी सन्त पाए जाते हैं और उनमें अहंकार नहीं है।
وَإِذَا سَمِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَى ٱلرَّسُولِ تَرَىٰٓ أَعۡيُنَهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ مِمَّا عَرَفُواْ مِنَ ٱلۡحَقِّۖ يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 82
(83) जब वे इस वाणी को सुनते हैं जो अल्लाह के रसूल पर उतरा है, तो तुम देखते हो कि सत्य पहचानने के प्रभाव से उनकी आँखें आँसुओं से भीग जाती हैं। वे बोल उठते हैं कि "पालनहार ! हम ईमान लाए, हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।"
وَمَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡحَقِّ وَنَطۡمَعُ أَن يُدۡخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 83
(84) और वे कहते हैं कि “आखिर क्यों न हम अल्लाह पर ईमान लाएँ और जो सत्य हमारे पास आया है उसे क्यों न मान लें, जबकि हम इस बात की इच्छा रखते हैं कि हमारा पालनहार हमें सदाचारी लोगों में शामिल करे?"
فَأَثَٰبَهُمُ ٱللَّهُ بِمَا قَالُواْ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 84
(85) उनके इस कथन की वजह से अल्लाह ने उनको ऐसी जन्नतें प्रदान की जिनके नीचे नहरें बहती हैं और वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह बदला है अच्छी नीति अपनानेवालों के लिए।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 85
(86) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को मानने से इंकार किया और उन्हें झुठलाया, तो वे जहन्नम के हक़दार हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحَرِّمُواْ طَيِّبَٰتِ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 86
(87) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो पाक चीज़े अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की हैं उन्हें हराम न कर लो104 और सीमा से आगे न बढ़ो105, अल्लाह को ज्यादती करनेवाले सख्त नापसन्द हैं।
104.इस आयत में दो बातें कही गई हैं- प्रथम यह कि किसी चीज़ को हराम व हलाल करनेवाले स्वयं न बन जाओ। हलाल वही है जो अल्लाह ने हलाल किया है और हराम वही है जो अल्लाह ने हराम किया। अपने अधिकार से किसी हलाल को हराम करोगे तो अल्लाह के कानून के बजाय मन के क़ानून का पालन करनेवाले ठहरोगे। दूसरी बात यह कि ईसाई राहियों, हिन्दू योगियों, बौद्ध धर्म के भिक्षुओं और प्राच्याविद् संतों की तरह संन्यास और रूपास्वादन से विरक्ति की नीति न अपनाओ। धार्मिक प्रवृत्ति के भले स्वभाव के लोगों में सदा से यह रुझान पाया जाता रहा है कि मन और देह के हक़ों के पूरा करने को वे आध्यात्मिक विकास में बाधा समझते हैं और यह विचार करते हैं कि अपने आपको कष्ट में डालना, अपने मन को सांसारिक सुख-स्वादों से वंचित करना और दुनिया की जीवन-सामग्री से ताल्लुक़ तोड़ना अपने आपमें पुण्यकर्म है और अल्लाह का सान्निध्य इसके बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। नबी (सल्ल.) के प्राणोत्सर्गक आदरणीय साथियों में भी कुछ लोग ऐसे थे जिनके भीतर यह मनोवृत्ति पाई जाती थी। अतः एक बार नबी (सल्ल.) को मालूम हुआ कि उनके कुछ साथियों ने प्रतिज्ञा की है कि हमेशा दिन को रोज़ा रखेंगे, रातों को बिस्तर पर न सोएंगे, बल्कि जाग-जागकर इबादत करते रहेंगे, गोश्त और चिकनाई इस्तेमाल न करेंगे, औरतों से वास्ता न रखेंगे। इसपर आपने एक भाषण दिया और उसमें फ़रमाया कि “मुझे ऐसी बातों का आदेश नहीं दिया गया है। तुम्हारी इंद्रियों का भी तुमपर हक़ है । रोज़ा भी रखो और खाओ-पियो भी, रातों को इबादत भी करो और सोओ भी। मुझे देखो, मैं सोता भी हूँ और इबादत भी करता हूँ, रोज़ा भी रखता हूँ और नहीं भी रखता । गोश्त भी खाता हूँ और घी भी। तो जो मेरे तरीक़े को पसन्द नहीं करता, वह मुझसे नहीं है। फिर फ़रमाया, “यह लोगों को क्या हो गया है कि उन्होंने औरतों को और अच्छे खाने को और खुशबू और नींद और सांसारिक स्वादों को अपने ऊपर हराम (अवैध) कर लिया है ? मैंने तो तुम्हें यह शिक्षा नहीं दी है कि तुम राहिब (संन्यासी) और पादरी बन जाओ। मेरे धर्म में न औरतों और गोश्त से बचने की बात है और न एकांतवास (संन्यास) और ब्रह्मचर्य है । इन्द्रियों पर नियंत्रण के लिए मेरे यहाँ रोज़ा है, रहबानियत (संन्यास) के सारे लाभ यहाँ जिहाद से प्राप्त होते हैं। अल्लाह को बन्दगी करो, उसके साथ किसी को शरीक न करो, हज और उमरा करो, नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और रमज़ान के रोज़े रखो। तुमसे पहले जो लोग हलाक हुए, वे इसलिए हलाक़ हुए कि उन्होंने अपने ऊपर सख्ती की और जब उन्होंने स्वयं अपने ऊपर सख्ती की तो अल्लाह ने भी उनपर सख्ती की। ये उन्हीं के अवशेष हैं जो तुमको मठों और खानकाहों में नज़र आते हैं।" इसी सिलसिले में कुछ रिवायतों से यहाँ तक मालूम होता है कि एक सहाबी के बारे में नबी (सल्ल.) ने सुना कि वे एक मुद्दत से अपनी बीवी के पास नहीं गए हैं और रात-दिन इबादत में लगे रहते हैं, तो आपने बुलाकर उनको आदेश दिया कि अभी अपनी बीवी के पास जाओ। उन्होंने कहा: मैं रोज़े से हूँ। आपने फ़रमाया: रोज़ा तोड़ दो और जाओ। हज़रत उमर (रज़ि.) के समय में एक औरत ने शिकायत पेश की कि मेरे शौहर दिन भर रोज़ा रखते हैं और रात भर इबादत करते हैं और मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं रखते। हज़रत उमर (रज़ि.) ने मशहूर ताबई बुजुर्ग क़ाब बिन सौरल अज़दी को उनके मुक़द्दमे की सुनवाई के लिए नियुक्त किया और उन्होंने फैसला दिया कि इस औरत के शौहर को तीन रातों के लिए अधिकार है कि जितनी चाहें इबादत करें.मगर चौथी रात अनिवार्य रूप से उनकी बीवी का हक़ है।
105.“सीमा से आगे बढ़ने” का व्यापक अर्थ है। हलाल को हराम करना और अल्लाह को ठहराई हुई पाक चीज़ों से इस तरह बचना कि मानो वे नापाक हैं, यह अपने आपमें एक ज़्यादती है। फिर पाक चीज़ों के इस्तेमाल में ज़रूरत से ज़्यादा खर्च करना भी ज़्यादती है, फिर हलाल की सीमा से बाहर क़दम निकालकर हराम की सीमाओं में प्रवेश करना भी ज़्यादती है। अल्लाह को ये तीनों बातें नापसन्द हैं।
وَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(88) जो कुछ हलाल और पाक रोज़ी अल्लाह ने तुमको दी है उसे खाओ-पियो, और उस अल्लाह की अवज्ञा से बचते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
لَا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا عَقَّدتُّمُ ٱلۡأَيۡمَٰنَۖ فَكَفَّٰرَتُهُۥٓ إِطۡعَامُ عَشَرَةِ مَسَٰكِينَ مِنۡ أَوۡسَطِ مَا تُطۡعِمُونَ أَهۡلِيكُمۡ أَوۡ كِسۡوَتُهُمۡ أَوۡ تَحۡرِيرُ رَقَبَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖۚ ذَٰلِكَ كَفَّٰرَةُ أَيۡمَٰنِكُمۡ إِذَا حَلَفۡتُمۡۚ وَٱحۡفَظُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 88
(89) तुम लोग जो व्यर्थ की कसमें खा लेते हो उनपर अल्लाह पकड़ नहीं करता, मगर जो कसमें तुम जान-बूझकर खाते हो उनपर वह ज़रूर तुम्हारी पकड़ करेगा। (ऐसी क़सम तोड़ने का) कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) यह है कि दस मुहताजों को ऐसे औसत दर्जे का खाना खिलाओ जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो या उन्हें कपड़े पहनाओ या एक गुलाम आज़ाद करो, और जो इसकी ताक़त न रखता हो वह तीन दिन के रोजे रखे। यह तुम्हारी कसमों का कफ़्फ़ारा है जबकि तुम कसम खाकर तोड़ दो106 अपनी क़समों की हिफ़ाज़त किया करो।107 इस तरह अल्लाह अपने आदेश तुम्हारे लिए स्पष्ट करता है, शायद कि तुम शुक्र अदा करो।
106.चूंकि कुछ लोगों ने हलाल चीज़ों को अपने ऊपर हराम कर लेने की क़सम खा रखी थी, इसलिए अल्लाह ने इसी सिलसिले में क़सम का हुक्म भी बयान फरमा दिया कि अगर किसी आदमी के मुख से बे-इरादा क़सम का शब्द निकल गया है तो उसकी पाबन्दी करने को वैसे ही ज़रूरत नहीं, क्योंकि ऐसी क़सम पर कोई पकड़ नहीं है और अगर जान-बूझकर किसी ने क़सम खाई है तो वह उसे तोड़ दे और कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करे, क्योंकि जिसने किसी पाप की क़सम खाई हो उसे अपनी क़सम पर क़ायम न रहना चाहिए।” (देखिए सूरा-2 (बकरा) टिप्पणी न० 243-44, तथा कफ्फारा की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 (निसा),टिप्पणी न० 125)
107.कसम की रक्षा के कई अर्थ हैं- एक यह कि क़सम को सही काम में इस्तेमाल किया जाए, व्यर्थ को बातों और गुनाह के कामों में इस्तेमाल न किया जाए। दूसरे यह कि जब किसी बात पर आदमी क़सम खाए तो उसे याद रखे,ऐसा न हो कि अपनी गफ़लत की वजह से वह उसे भूल जाए और फिर उसके विरुद्ध कार्य करे। तीसरे यह कि जब किसी सही मामले में इरादे के साथ क़सम खाई जाए तो उसे पूरा किया जाए और अगर टूट जाए तो उसका कफ़्फ़ारा अदा किया जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡخَمۡرُ وَٱلۡمَيۡسِرُ وَٱلۡأَنصَابُ وَٱلۡأَزۡلَٰمُ رِجۡسٞ مِّنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَٱجۡتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 89
(90) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, यह शराब और जुआ और ये आस्ताने (धान) और पाँसे108, ये सब गन्दे शैतानी आम है. इनसे बचो। आशा है कि तुम्हें सफलता मिलेगी।109
108.आस्तानों और पांसों तथा जुए की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-5.(माइदा), टिप्पणी न० 12,141 यद्यपि पांसे अपने रूप की दृष्टि से जुए हो की एक किस्म हैं, लेकिन इन दोनों में अन्तर यह है कि अरबी भाषा में अज़लान (पांसे), मालगिरी और पर्ची डालने की उस रात को कहते हैं जो शिर्क (अनेकेश्वरवादी) धारणाओं और अंधविश्वासों से प्रदूषित हो। और मैसिर (जुछ उन खेलों और उन कामों को कहते हैं जिनमें संयोग की बातों को कमाई और किस्मत आज़माई और माल और चीज़ों के बंटवारे का ज़रिया बनाया जाता है।
109.इस आयत में चार चीजें निश्चित रूप से हराम की गई हैं-एक शराब, दूसरे जुआ, तीसरे दे जगहें जो अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की इबादत करने या अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर क़ुर्बानी और पेंट बढ़ाने के लिए खास किए गए हों, चौथे पाँसे। बाद में उल्लेख की गई तीनों चीजों की आवश्यक व्याख्या पहले की जा चुकी है । शराब से सम्बन्धित आदेशों का विस्तार नीचे दिया जा रहा है। शराब के हराम किए जाने के सिलसिले में इससे पहले दो आदेश आ चुके थे जो सूरा-2, (बक़रा), आयत 219, और सूरा-4, निसा) आयत 43 में गुज़र चुके हैं। अब इस अन्तिम आदेश के आने से पहले नबी (सल्ल०) ने एक भाषण में लोगों को सचेत किया कि अल्लाह को शराब सहन नापसन्द है। असंभव नहीं कि इसके पूर्ण रूप से हराम किए जाने का आदेश आ जाए। इसलिए जिन-जिन लोगों के पास शराब मौजूद हो, वे उसे बेच दें। इसके कुछ समय बाद यह आयत अवतरित हुई और आपने एलान कराया कि अब जिनके पास शराब है, वे न उसे पी सकते हैं, न बेच सकते हैं, बल्कि वे उसे नष्ट कर दें। अतएव, उसी समय मदीने की गलियों में शराब बहा दी गई। कुछ लोगों ने पूछा, “हम यहूदियों को उपहार में क्यों न दे दें?" आपने फ़रमाया, जिसने यह चीज़ हराम की है उसने इसे उपहार के रूप में देने से भी मना कर दिया है। कुछ लोगों ने पूछा कि हम शराब को सिरके में क्यों न बदल दें? आपने इससे भी मना किया और हुक्म दिया कि नहीं, इसे बहा दो।" एक साहब ने आग्रह करके पूछा कि "दवा के तौर पर इस्तेमाल को तो अनुमति है?" फ़रमाया, "नहीं, वह दवा नहीं है, बल्कि बीमारी है।" एक और साहब ने निवेदन किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! हम एक ऐसे क्षेत्र के रहनेवाले हैं जो बहुत ठंडा है और हमें मेहनत भी बहुत करनी पड़ती है। हम लोग शराब से थकान और सर्दी का मुक़ाबला करते हैं। आपने पूछा, “जो चीज़ तुम पीते हो, वह नशा करती है ?" उन्होंने बताया कि, हाँ। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया,"तो उससे बचो।" उन्होंने कहा, "मगर हमारे इलाक़े के लोग तो नहीं मानेंगे?" तो आपने फ़रमाया, "अगर वे न मानें तो उनसे जंग करो।" इन्ने उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, "अल्लाह ने लानत की है-1.शराब पर, 2. उसके पीनेवाले पर, 3. पिलानेवाले पर, 4. बेचनेवाले पर, 5. ख़रीदनेवाले पर, 6. निचोड़ने और तैयार करनेवाले पर, 7. तैयार करानेवाले पर 8. दोकर ले जानेवाले पर और 9. उस आदमी पर जिसके लिए वह ढोकर ले जाई गई हो।" एक अन्य हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने उस दस्तरख्वान पर खाना खाने से मना फ़रमाया जिसपर शराब पी जा रही हो । शुरू में आपने उन बरतनों तक के इस्तेमाल को मना कर दिया था जिसमें शराब बनाई और पी जाती थी। बाद में जब शराब के हराम किए जाने का आदेश पूरी तरह लागू हो गया तब आपने बरतनों पर से यह क़ैद उठा ली। 'ख़म्र' का शब्द अरब में अंगूरी शराब के लिए इस्तेमाल होता था और लाक्षणिक रूप से वे गेहूँ, जौ, किशमिश, खजूर और शहद की शराबों के लिए भी ये शब्द बोलते थे, परन्तु नबी (सल्ल०) ने हराम के इस आदेश में तमाम उन चीज़ों को शामिल कर दिया जो नशा पैदा करनेवाली हैं। अतः हदीस में नबी (सल्ल०) के ये स्पष्ट आदेश हमें मिलते हैं कि "हर नशावर चीज़ खम्र है। और हर नशावर चीज़ हराम है।" "हर वह पेय चीज़ जो नशा पैदा करे, हराम है।" "और मैं हर नशावर चीज़ से मना करता हूँ।" हज़रत उमर (रज़ि०) ने जुमा के ख़ुत्वे में शराब की यह परिभाषा की थी कि “ख़म्र से अभिप्रेत हर वह चीज़ है जो बुद्धि को ढाँक ले।" साथ ही नबी (सल्ल०) ने यह नियम भी बयान फ़रमाया कि "जिस चीज़ की अधिक मात्रा नशा पैदा करे, उसकी थोड़ी मात्रा भी हराम है।" "जिस चीज़ का एक पूरा कराबा (अर्थात् बरतन) नशा पैदा करता हो, उसका चुल्लू भर पीना भी हराम है।" नबी (सल्ल०) के समय में शराब पीनेवाले के लिए कोई खास सज़ा निश्चित न थी। जो व्यक्ति इस अपराध में गिरफ्तार होकर आता था उसे जूते, लात, मुक्के, बल दी हुई चादरों के सोंटे और खजूर के संटे मारे जाते थे। ज़्यादा-से-ज्यादा 40 ज़र्बें (चोटें) आपके समय में इस अपराध पर लगाई गई हैं। हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) के समय में 40 कोड़े मारे जाते थे। हज़रत उमर (रज़ि०) के समय में भी शुरू में चालीस कोड़ों ही की सज़ा रही। फिर जब उन्होंने देखा कि लोग इस अपराध से रुकते नहीं तो उन्होंने सहाबा किराम (रज़ि०) के मशविरे से 80 कोड़े सज़ा को निश्चित की। इसी सज़ा को इमाम मालिक (रह०) और इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और एक रिवायत के अनुसार इमाम शाफ़ई (रह०) भी शराब की सज़ा करार देते हैं, परन्तु इमाम अहमद बिन हंबल (रह०) और एक दूसरी रिवायत के अनुसार इमाम शाफ़ई (रह०) 40 कोड़ों के कायल हैं और हज़रत अली (रज़ि०) ने भी इसी को पसन्द फ़रमाया है। शरीअत के अनुसार यह बात इस्लामी राज्य की ज़िम्मेदारियों में शामिल है कि वह शराबबन्दी के इस आदेश को ताक़त के ज़रिये लागू करे। हज़रत उमर (रज़ि०) के समय में बनी सक़ीफ़ के रूवैशिद नामी एक आदमी की दुकान इस कारण जलवा दी गई कि वह छिपे तौर पर शराब बेचता था। एक दूसरे अवसर पर एक पूरा गाँव हज़रत उमर (रज़ि०) के आदेश से इस अपराध में जला डाला गया कि वहाँ खुफिया तरीक़े से शराब निकालने और बेचने का कारोबार हो रहा था।
إِنَّمَا يُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُوقِعَ بَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ فِي ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِ وَيَصُدَّكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَعَنِ ٱلصَّلَوٰةِۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّنتَهُونَ ۝ 90
(91) शैतान तो यह चाहता है कि शराब और जुए के ज़रिये से तुम्हारे बीच शत्रुता और द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद से और नमाज़ रोक दे। फिर क्या तुम इन चीज़ों से रुक जाओगे
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَٱحۡذَرُواْۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 91
(92) अल्लाह और उसके रसूल की बात मानो और रुक जाओ, लेकिन अगर तुमने अवज्ञा की तो जान लो कि हमारे रसूल पर बस साफ़-साफ़ आदेश पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी।
لَيۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ إِذَا مَا ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّأَحۡسَنُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 92
(93) जो लोग ईमान ले आए और अच्छे कर्म करने लगे, उन्होंने पहले जो कुछ खाया-पिया था, उसपर कोई पकड़ न होगी, बस शर्त यह है कि वे आगे उन चीज़ों से बचे रहे जो हराम की गई हैं और ईमान पर जमे रहें और अच्छे कार्य करें, फिर जिस-जिस चीज़ से रोका जाए उससे रुकें और जो अल्लाह का आदेश हो उसे माने, फिर अल्लाह से डरते हुए अच्छी नीति अपनाएँ। अल्लाह अच्छे चरित्रवालों को पसन्द करता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَيَبۡلُوَنَّكُمُ ٱللَّهُ بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلصَّيۡدِ تَنَالُهُۥٓ أَيۡدِيكُمۡ وَرِمَاحُكُمۡ لِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَخَافُهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 93
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह तुम्हें उस शिकार के द्वारा कड़ी परीक्षा में डालेगा जो बिल्कुल तुम्हारे हाथों और नेज़ों के निशाने पर होगा, यह देखने के लिए कि तुममें से कौन उससे बिन देखे डरता है, फिर जिसने इस चेतावनी के बाद अल्लाह की निश्चित की हुई सीमा का उल्लंघन किया, उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡتُلُواْ ٱلصَّيۡدَ وَأَنتُمۡ حُرُمٞۚ وَمَن قَتَلَهُۥ مِنكُم مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآءٞ مِّثۡلُ مَا قَتَلَ مِنَ ٱلنَّعَمِ يَحۡكُمُ بِهِۦ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ هَدۡيَۢا بَٰلِغَ ٱلۡكَعۡبَةِ أَوۡ كَفَّٰرَةٞ طَعَامُ مَسَٰكِينَ أَوۡ عَدۡلُ ذَٰلِكَ صِيَامٗا لِّيَذُوقَ وَبَالَ أَمۡرِهِۦۗ عَفَا ٱللَّهُ عَمَّا سَلَفَۚ وَمَنۡ عَادَ فَيَنتَقِمُ ٱللَّهُ مِنۡهُۚ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 94
(95) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, 'एहराम', की हालत में शिकार न मारो110, और अगर तुममें से कोई जान-बूझकर ऐसा कर गुज़रे तो जो जानवर उसने मारा हो, उसी के बराबर, एक जानवर उसे मवेशियों में से भेंट करना होगा, जिसका निर्णय तुममें से दो न्यायनिष्ठ व्यक्ति करेंगे, और यह भेंट काबा पहुँचाई जाएगी या नहीं तो इस गुनाह के कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) में कुछ मुहताजो को खाना खिलाना होगा या उसके बराबर रोजे रखने होंगे111, ताकि वह अपने किए का मजा चखे। पहले जो कुछ हो चुका उसे अल्लाह ने क्षमा कर दिया, लेकिन अब अगर किसी ने इस हरकत को दोहराया तो उससे अल्लाह बदला लेगा। अल्लाह सबपर प्रभावी है और बदला लेने की शक्ति रखता है।
110.शिकार चाहे आदमी स्वयं करे या किसी दूसरे को शिकार में किसी रूप में मदद दे, दोनों बातें एहराम बाँधने की हालत में मना हैं, साथ ही अगर इहराम बाँधनेवाले के लिए शिकार मारा गया हो तब भी उसको खाना इहराम बाँधनेवाले के लिए जाइज़ नहीं है। अलबत्ता अगर किसी आदमी ने अपने लिए स्वयं शिकार किया हो और फिर वह उसमें से इहराम बाँधनेवाले को उपहारस्वरूप कुछ दे दे, तो उसके खाने में भी कुछ दोष नहीं। इस सामान्य आदेश से पीड़ादायक और हिंसक जानवरों का मामला अलग है। साँप, बिच्छू, पागल कुत्ता और ऐसे दूसरे जानवर जो इंसान को क्षति पहुंचानेवाले हैं, इहराम की हालत में मारे जा सकते हैं।
111.इन बातों का फ़ैसला भी दो न्यायनिष्ठ व्यक्ति ही करेंगे कि किस जानवर के मारने पर आदमी कितने मुहताजों को खाना खिलाए या कितने रोज़े रखे।
أُحِلَّ لَكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَحۡرِ وَطَعَامُهُۥ مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِلسَّيَّارَةِۖ وَحُرِّمَ عَلَيۡكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَرِّ مَا دُمۡتُمۡ حُرُمٗاۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 95
(96) तुम्हारे लिए समुद्र का शिकार और उसका खाना हलाल कर दिया गया112, जहाँ तुम ठहरो वहाँ भी उसे खा सकते हो और क़ाफ़िले के लिए रास्ते का सामान भी बना सकते हो, अलबत्ता थलीय (ख़ुशकी का) शिकार, जब तुम एहराम की हालत में हो, तुमपर हराम किया गया है, अत: बचो उस अल्लाह की अवज्ञा से जिसकी पेशी में तुम सबको घेरकर हाज़िर किया जाएगा।
112.चूँकि समुद्र की यात्रा में कभी-कभी रास्ते का सामान समाप्त हो जाता है और खाना जुटाने के लिए अलावा इसके कि पानी के जानवरों का शिकार किया जाए और कोई उपाय संभव नहीं होता, इसलिए समुद्री शिकार हलाल कर दिया गया।
۞جَعَلَ ٱللَّهُ ٱلۡكَعۡبَةَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ قِيَٰمٗا لِّلنَّاسِ وَٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَٱلۡهَدۡيَ وَٱلۡقَلَٰٓئِدَۚ ذَٰلِكَ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَأَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 96
(97) अल्लाह ने आदरणीय घर काबा को लोगों के लिए (सामूहिक जीवन की) स्थापना का साधन बनाया और आदरणीय महीनों और कुर्बानी के जानवरों और क़लादों को भी (इस काम में मददगार बना दिया।)113, ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह आसमानों और जमीन के सब हालात को जानता है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है ।114
113.अरब में काबा की हैसियत मात्र एक 'मुकद्दस इबादतगाह' (पवित्र उपासनागृह) ही की न थी, बल्कि अपनी केन्द्रीयता और अपनी पावनता के कारण वही पूरे देश के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का सहारा बना हुआ था। हज और उमरे के लिए सारा देश उसकी ओर खिंचकर आता था और इस सम्मेलन को वजह से बिखराव के मारे हुए अरबों में एकता का एक रिश्ता पैदा होता । अलग-अलग क़बीलों और क्षेत्रों के लोग आपस में सांस्कृतिक संबंध बनाते, काव्य के मुकाबलों (प्रतियोगिताओं) से उनकी भाषा और साहित्य का विकास होता और कारोबारी लेन-देन से सारे देश की आर्थिक आवश्यकताएं पूरी होती । आदरणीय महीनों की बदौलत अरबों को साल का पूरा एक तिहाई समय शांति का प्राप्त हो जाता था। बस यही समय ऐसा था जिसमें उनके काफिले देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आसानी से आते-जाते थे। क़ुर्बानी के जानवरों और कलादों की मौजूदगी से भी इस चलत-फिरत में बड़ी मदद मिलती थी, क्योंकि नज़र की निशानी के तौर पर जिन जानवरों की गरदन में पट्टे पड़े होते, उन्हें देखकर अरबों की गरदने आदर से झुक जातीं और किसी लुटेरे कबीले को उनपर हाथ डालने का साहस न होता।
114.अर्थात अगर तुम इस व्यवस्था पर विचार करो तो तुम्हें स्वयं अपने देश की सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन ही में इस बात की एक खुली गवाही मिल जाए कि अल्लाह अपनी सृष्टि के हितों और उनकी आवश्यकताओं का कैसा पूर्ण और गहरा ज्ञान रखता है और अपने एक-एक आदेश से मानव-जीवन के कितने-कितने विभागों को लाभ पहुंचा देता है। अशान्ति के ये सैकड़ों वर्ष जो पैगम्बर के आने से पहले बीते हैं, उनमें तुम लोग स्वयं अपने हितों से अपरिचित थे और अपने आपको तबाह करने पर तुले हुए थे, मगर अल्लाह तुम्हारी आवश्यकताओं को जानता था और उसने सिर्फ़ एक काबे की केन्द्रीयता स्थापित करके तुम्हारे लिए वह व्यवस्था कर दी थी जिसकी वजह से तुम्हारा राष्ट्रीय जीवन बाक़ी रह सका। दूसरी अनगिनत बातों को छोड़कर अगर केवल इसी एक बात पर ध्यान दो तो तुम्हें विश्वास प्राप्त हो जाए कि अल्लाह ने जो आदेश तुम्हें दिए हैं उनकी पाबन्दी में तुम्हारी अपनी भलाई है और उनमें तुम्हारे लिए ऐसे-ऐसे हित निहित हैं जिनको न तुम स्वयं समझ सकते हो और न अपने उपायों से पूरा कर सकते हो।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ وَأَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 97
(98) ख़बरदार हो जाओ ! अल्लाह सज़ा देने में भी कठोर है और उसके साथ बहुत क्षमा और दया भी करनेवाला है।
مَّا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 98
(99) रसूल पर तो सिर्फ पैग़ाम पहुँचा देने की जिम्मेदारी है, आगे तुम्हारे खुले और छिपे सब हालात का जाननेवाला अल्लाह है।
قُل لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡخَبِيثُ وَٱلطَّيِّبُ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ كَثۡرَةُ ٱلۡخَبِيثِۚ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 99
(100) ऐ पैग़म्बर ! इनसे कह दो कि पाक और नापाक बहरहाल बराबर नहीं हैं, चाहे नापाक की बहुतायत तुम्हें कितनी ही लुभानेवाली हो ।115 अत: ऐ लोगो जो बुद्धि रखते हो, अल्लाह की अवज्ञा से बचते रहो; आशा है कि तुम्हें सफलता मिलेगी।
115.यह आयत मूल्यांकन का एक दूसरा ही आदर्श प्रस्तुत करती है जो प्रत्यक्ष में इंसान के आदर्श से बिल्कुल अलग है। प्रत्यक्ष देखनेवाली नज़र में सौ रुपये पाँच रुपये के मुकाबले में अनिवार्य रूप से अधिक मूल्यवान हैं, क्योंकि वे सौ हैं और ये पाँच । लेकिन यह आयत कहती है कि सौ रुपये अगर अल्लाह की अवज्ञा करके प्राप्त किए गए हों तो वे नापाक हैं और पाँच रुपये अगर अल्लाह का आज्ञापालन करते हुए कमाए गए हों तो वे पाक हैं । और नापाक, चाहे मात्रा में कितने ही अधिक हो बहरहाल वह पाक के बराबर किसी तरह नहीं हो सकता। गन्दगी के एक ढेर से इत्र की एक बूंद ज़्यादा मूल्यवान है और पेशाब से भरे हुए एक नांद के मुकाबले में पाक पानी का एक चुल्लू ज्यादा वज़नी है। इसलिए एक सच्चे बुद्धिमान व्यक्ति को अनिवार्य रूप से हलाल ही पर संतोष करना चाहिए, चाहे वह प्रत्यक्ष में कितना ही तुच्छ और थोड़ा हो और हराम की ओर किसी हाल में भी हाथ न बढ़ाना चाहिए, चाहे वह देखने में कितना ही अधिक और शानदार हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَسۡـَٔلُواْ عَنۡ أَشۡيَآءَ إِن تُبۡدَ لَكُمۡ تَسُؤۡكُمۡ وَإِن تَسۡـَٔلُواْ عَنۡهَا حِينَ يُنَزَّلُ ٱلۡقُرۡءَانُ تُبۡدَ لَكُمۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهَاۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 100
(101) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ऐसी बातें न पूछा करो जो तुमपर प्रकट कर दी जाएँ तो तुम्हें अप्रिय हो116, लेकिन अगर तुम उन्हें ऐसे समय पूछोगे जबकि क़ुरआन उतर रहा हो तो वे तुमपर खोल दी जाएँगी। अब तक जो कुछ तुमने किया उसे अल्लाह ने क्षमा कर दिया, वह क्षमा करनेवाला और सहनशील है ।
116.नबी (सल्ल०) से कुछ लोग विचित्र प्रकार के और निरर्थक प्रश्न किया करते थे जिनको न दीन (धर्म) के किसी मामले में जरूरत होती थी और न दुनिया ही के किसी मामले में, उदाहरणतः एक अवसर पर एक साहब भरी सभा में आपसे पूछ बैठे कि “मेरा असली बाप कौन है ?” इसी तरह कुछ लोग शरीअत के आदेशों में गैर-ज़रूरी पूछताछ किया करते थे और ख़ामखाह पूछ-पूछकर ऐसी चीज़ों का निश्चयकरण करा देना चाहते थे जिन्हें शरीअत देनेवाले ने किसी निहित हित के कारण अनिश्चित रखा है, उदाहरणत: कुरआन में संक्षिप्ततः यह आदेश दिया गया था कि हज तुमपर फ़र्ज किया गया है। एक साहब ने आदेश सुनते ही नबी (सल्ल.) से पूछा, “क्या हर साल फ़र्ज़ किया गया है ?" आपने (सल्ल.) कुछ जवाब न दिया। उन्होंने फिर पूछा। आप फिर ख़ामोश हो गए। तीसरी बार पूछने पर आपने फरमाया, "तुमपर अफ़सोस है। अगर मेरी ज़बान से हाँ निकल जाए तो हज हर साल फ़र्ज़ करार पा जाए। फिर तुम ही लोग उसका पालन न कर सकोगे और अवज्ञा करने लगोगे।" ऐसे ही निरर्थक और अनावश्यक सवालों से इस आयत में मना किया गया है। नबी (सल्ल०) स्वयं भी लोगों को बहुत अधिक प्रश्न करने से और ख़ामख़ाह हर बात की खोज लगाने से मना फरमाते रहते थे। अत: हदीस में है कि "मुसलमानों के हक़ में सबसे बड़ा अपराधी वह व्यक्ति है जिसने किसी ऐसी चीज़ के बारे में प्रश्न किया जो लोगों पर हराम न की गई थी और फिर केवल उसके प्रश्न करने की वजह से वह चीज़ हराम ठहराई गई।” एक दूसरी हदीस में है, “अल्लाह ने तुमपर कुछ जिम्मेदारियाँ डाली हैं, उन्हें बर्बाद न करो, कुछ चीज़ों को हराम किया है, उनके पास न फटको, कुछ सीमाएँ निश्चित हैं, उनका उल्लंघन न करो और कुछ चीज़ों के बारे में ख़ामोशी अपनाई है, बिना इसके दि उससे भूल हो गई हो; इसलिए उनकी खोज न लगाओ।" इन दोनों हदीसो में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य से सचेत किया गया है। जिन मामलों को शरीअत देनेवाले ने संक्षिप्त रूप में बयान किया है और उनका विस्तृत विवेचन नहीं किया या जो आदेश संक्षिप्त रूप में दिए हैं और मात्रा या संख्या या दूसरी बातें निश्चित नहीं की हैं उनमें संक्षिप्तता और विस्तृत विवेचन का न होना इस कारण नहीं है कि शरीअत देनेवाले से भूल हो गई, विस्तृत विवेचन कर देना था किन्तु न किया, बल्कि इसका मूल कराण यह है कि शरीअत देनेवाला इन बातों को विस्तृत विवेचन से सीमित करना नहीं चाहता और आदेश में लोगों के लिए व्यापकता रखना चाहता है। अब जो आदमी खामखाही प्रश्न में प्रश्न निकालकर विस्तृत विवेचन को, निश्चित की हुई चीज़ों को और बन्धनों को बढ़ाने की कोशिश करता है और अगर शरीअत देनेवाले के शब्दों से ये चीजें किसी तरह नहीं निकलती तो अटकल से, कुरेद से, किसी न किसी तरह संक्षिप्त को विस्तृत, अबाध को बाधित, अनिश्चित को निश्चित बनाकर ही छोड़ता है, वह वास्तव में मुसलमानों को बड़े खतरे में डालता है। इसलिए कि नैसर्गिक मामलों में जितना विस्तृत विवेचन होगा, ईमान लानेवाले के लिए उतने ही अधिक उलझन के अवसर बढ़ेगे और आदेशों में जितने बन्धन अधिक होंगे, पालन करनेवाले के लिए आदेश के विरुद्ध काम करने की संभावनाएँ भी उतनी अधिक होंगी।
قَدۡ سَأَلَهَا قَوۡمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡ ثُمَّ أَصۡبَحُواْ بِهَا كَٰفِرِينَ ۝ 101
(102) तुमसे पहले एक गिरोह ने इसी प्रकार के प्रश्न किए थे, फिर वे लोग इन्हीं बातों की वजह से (अधर्म) में पड़ गए।117
117.अर्थात पहले उन्होंने स्वयं ही धारणाओं और हुक्म और आदेशों में बाल की खाल निकाली और एक-एक चीज़ के बारे में प्रश्न कर-करके विस्तार और पाबंदियों का एक जाल अपने लिए तैयार कराया, फिर स्वयं ही उसमें उलझकर अक़ीदे की गुमराहियों और व्यावहारिक अवज्ञाओं में पड़ गए-इस गिरोह से तात्पर्य यहूदी हैं जिनके पदचिह्नों पर चलने में, कुरआन और मुहम्मद (सल्ल.) की चेतावनियों के बावजूद, मुसलमानों ने कोई कसर उठा नहीं रखी है।
مَا جَعَلَ ٱللَّهُ مِنۢ بَحِيرَةٖ وَلَا سَآئِبَةٖ وَلَا وَصِيلَةٖ وَلَا حَامٖ وَلَٰكِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَأَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 102
(103) अल्लाह ने न कोई बहीरा मुक़र्रर किया है, न साइबा और न वसीला और न हाम 118, मगर ये अधर्मी अल्लाह पर झूठी तोहमत लगाते हैं और उनमें से अधिकांश बुद्धिहीन हैं (कि ऐसे अंधविश्वास को मान रहे हैं ।)
118.यह अरबवासियों के अंधविश्वास का उल्लेख है। जिस तरह हमारे देश में गाय,बैल और बकरे अल्लाह के नाम पर या किसी बुत या कब या देवता या पीर के नाम पर छोड़ दिए जाते हैं और उनसे कोई ख़िदमत लेना या उन्हें ज़िव्ह (बलि) करना या किसी प्रकार भी उनसे लाभ उठाना अवैध समझा जाता है, उसी तरह अज्ञानकाल में अरब के लोग भी विभिन्न तरीकों से जानवरों को पुण्य समझकर छोड़ दिया करते थे और इन तरीकों से छोड़े हुए जानवरों के अलग-अलग नाम रखते थे। "बहीरा" उस ऊंटनी को कहते थे जो पाँच बार बच्चे जन चुकी हो और अन्तिम बार उसके यहाँ नर बच्चा हुआ हो । उसके कान चीरकर उसे आज़ाद छोड़ दिया जाता था, फिर न कोई उसपर सवार होता, न उसका दूध पिया जाता, न उसे ज़िन्द किया जाता, न उसका ऊन उतारा जाता । उसे अधिकार था कि जिस खेत और जिस चरागाह में चाहे,चरे और जिस घाट से चाहे पानी पिए। 'साइबा" उस ऊँट या ऊंटनी को कहते थे जिसे किसी मन्नत के पूरा होने या किसी बीमारी से मुक्त होने या किसी खतरे से बच जाने पर कृतज्ञता प्रकाशन के तौर पर पुण्य कर दिया गया हो। इसके अलावा जिस अंटनी ने दस बार बच्चे दिए हों और हर बार मादा बच्चा ही जना हो, उसे भी आजाद छोड़ दिया जाता था। "वसीला"-अगर बकरी का पहला बच्चा नर होता तो वह खुदाओं के नाम पर जिब्ह कर दिया जाता और अगर वह पहली बार मादा जनती तो उसे अपने लिए रख लिया जाता था, लेकिन अगर नर और मादा एक साथ पैदा होते तो नर को जिब्ब करने के बजाय यूँ ही खुदाओं के नाम पर छोड़ दिया जाता था और इसका नाम वसीला था। ‘’हाम’’-अगर किसी ऊँट का पोता सवारी देने के योग्य हो जाता तो उस बूढ़े ऊँट को आज़ाद छोड़ दिया जाता और अगर किसी ऊँट के वीर्य से दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसे भी आजादी मिल जाती।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ قَالُواْ حَسۡبُنَا مَا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 103
(104) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस क़ानून की ओर जो अल्लाह ने उतारा है और आओ पैग़म्बर की ओर, तो वे जवाब देते हैं कि हमारे लिए तो बस वही तरीका काफ़ी है जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या ये बाप-दादा ही की पैरवी किए चले जाएँगे, चाहे वे कुछ न जानते हों और सही रास्ते की उन्हें खबर ही न हो?
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَيۡكُمۡ أَنفُسَكُمۡۖ لَا يَضُرُّكُم مَّن ضَلَّ إِذَا ٱهۡتَدَيۡتُمۡۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 104
(105) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपनी चिन्ता करो, किसी दूसरे को गुमराही से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता अगर तुम स्वयं सीधे रास्ते पर हो119, अल्लाह की ओर तुम सबको पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
119.अर्थात इसके बजाय कि आदमी हर वक्त यह देखता रहे कि फलां क्या कर रहा है और फ़लाँ के अक़ीदे में क्या खराबी है और फलों के कामों में क्या बुराई है, उसे यह देखना चाहिए कि वह स्वयं क्या कर रहा है। उसे चिन्ता अपने विचारों की, अपने चरित्र और आचरण की होनी चाहिए कि वे कहीं खराब न हों। अगर आदमी स्वयं अल्लाह का आज्ञापालन कर रहा है, अल्लाह और बन्दों के जो हक़ उसपर आते हैं उन्हें अदा कर रहा है और धर्मपरायणता तथा सत्यवादिता की अपेक्षाओं को पूरा कर रहा है, जिनमें अनिवार्य रूप से भलाई का उपदेश करना और बुराई का मिटाना भी शामिल है, तो निश्चित रूप से किसी व्यक्ति की गुमराही, टेढ़ और दुराचार उसके लिए हानिकारक नहीं हो सकता। इस आयत का यह आशय कदापि नहीं है कि आदमी बस अपनी नजात की चिन्ता करे, दूसरों के सुधार की चिन्ता न करे । हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) इस भ्रम को दूर करते हुए अपने एक भाषण में फ़रमाते हैं, ‘’लोगो ! तुम इस आयत को पढ़ते हो और इसका ग़लत अर्थ निकालते हो। मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को यह फ़रमाते सुना है कि जब लोगों का हाल यह हो जाए कि वे बुराई को देखें और उसे बदलने की कोशिश न करें, ज़ालिम को ज़ुल्म करते हुए पाएँ और उसका हाथ न पकड़ें, तो असंभव नहीं कि अल्लाह अपने अज़ाब में सबको लपेट ले। अल्लाह की क़सम ! तुमको ज़रूरी है कि भलाई का उपदेश दो और बुराई से रोको, वरना अल्लाह तुमपर ऐसे लोगों को मुसल्लत कर देगा जो तुममें से सबसे बुरे होंगे और वे तुमको बड़ी तकलीफें पहुँचाएँगे, फिर तुम्हारे नेक लोग अल्लाह से दुआएँ माँगेंगे, मगर वे क़बूल न होंगी।‘’
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيۡنِكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ حِينَ ٱلۡوَصِيَّةِ ٱثۡنَانِ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ أَوۡ ءَاخَرَانِ مِنۡ غَيۡرِكُمۡ إِنۡ أَنتُمۡ ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةُ ٱلۡمَوۡتِۚ تَحۡبِسُونَهُمَا مِنۢ بَعۡدِ ٱلصَّلَوٰةِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ لَا نَشۡتَرِي بِهِۦ ثَمَنٗا وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰ وَلَا نَكۡتُمُ شَهَٰدَةَ ٱللَّهِ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡأٓثِمِينَ ۝ 105
(106) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुममें से किसी की मौत का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो, तो उसके लिए गवाही की प्रक्रिया यह है कि तुम्हारी जमाअत में से दो न्यायप्रिय120 व्यक्ति गवाह बनाए जाएँ या अगर तुम सफ़र की हालत में हो और वहाँ मौत की मुसीबत पेश आ जाए तो गैर-लोगों ही में से दो गवाह ले लिए जाएँ ।121 फिर अगर कोई सन्देह हो जाए तो नमाज़ के बाद दोनों गवाहों को (मस्जिद में) रोक लिया जाए और वे अल्लाह की क़सम खाकर कहें कि “हम किसी निजी फायदे के बदले गवाही बेचनेवाले नहीं हैं, और चाहे कोई हमारा रिश्तेदार ही क्यों न हो (हम उसकी रिआयत करनेवाले नहीं), और न अल्लाह वास्ते की गवाही को हम छिपानेवाले हैं, अगर हमने ऐसा किया तो गुनाहगारों (पापियों) में गिने जाएंगे।"
120.अर्थात दीनदार, सत्यप्रिय और भरोसेमंद मुसलमान ।
121.इससे मालूम हुआ कि मुसलमानों के मामलों में ग़ैर-मुस्लिम को गवाह बनाना केवल उस स्थिति में सही है जबकि कोई मुसलमान गवाह बनने के लिए न मिल सके।
فَإِنۡ عُثِرَ عَلَىٰٓ أَنَّهُمَا ٱسۡتَحَقَّآ إِثۡمٗا فَـَٔاخَرَانِ يَقُومَانِ مَقَامَهُمَا مِنَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَوۡلَيَٰنِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ لَشَهَٰدَتُنَآ أَحَقُّ مِن شَهَٰدَتِهِمَا وَمَا ٱعۡتَدَيۡنَآ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 106
(107) लेकिन अगर पता चल जाए कि इन दोनों ने अपने आपको गुनाह में डाल दिया है, तो फिर उनकी जगह दो और आदमी जो उनके मुक़ाबले में गवाही देने के अधिक योग्य हों, उन लोगो में से खड़े हो जिनका हक मारा गया हो और वे अल्लाह की क़सम खाकर कहें कि “हमारी गवाही उसकी गवाही से ज्यादा सही है और हमने अपनी गवाही में कोई ज़्यादती नहीं की है, अगर हम ऐसा करें तो ज़ालिमों में से होंगे।"
ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِٱلشَّهَٰدَةِ عَلَىٰ وَجۡهِهَآ أَوۡ يَخَافُوٓاْ أَن تُرَدَّ أَيۡمَٰنُۢ بَعۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡمَعُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 107
(108) इस तरीक़े से ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है कि लोग ठीक-ठीक गवाही देंगे या कम-से-कम इस बात ही का डर रखेंगे कि उनकी कसमों के बाद दूसरी कसमों से कहीं उनका खंडन न हो जाए। अल्लाह से डरो और सुनो, अल्लाह अवज्ञाकारियों को अपने मार्गदर्शन से वंचित कर देता है।
۞يَوۡمَ يَجۡمَعُ ٱللَّهُ ٱلرُّسُلَ فَيَقُولُ مَاذَآ أُجِبۡتُمۡۖ قَالُواْ لَا عِلۡمَ لَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 108
(109) जिस दिन122 अल्लाह सब रसूलों को जमा करके पूछेगा कि तुम्हें क्या जवाब 123 दिया गया, तो वे कहेंगे कि हमें कुछ मालूम नहीं 124, आप ही समस्त छिपी सच्चाइयों को जानते हैं।
122.अभिप्रेत है क़ियामत का दिन।
123.अर्थात इस्लाम की ओर जो दावत तुमने दुनिया को दी थी, उसका क्या जवाब दुनिया ने तुम्हें दिया।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱذۡكُرۡ نِعۡمَتِي عَلَيۡكَ وَعَلَىٰ وَٰلِدَتِكَ إِذۡ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِ تُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗاۖ وَإِذۡ عَلَّمۡتُكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَۖ وَإِذۡ تَخۡلُقُ مِنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ بِإِذۡنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِيۖ وَتُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ تُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ كَفَفۡتُ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَنكَ إِذۡ جِئۡتَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 109
(110, 111) फिर सोचो उस मौक़े को जब अल्लाह फ़रमाएगा 125 कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा! याद कर मेरी उस नेमत को जो मैंने तुझे और तेरी माँ को प्रदान की थी, मैंने पाक रूह से तेरी मदद की, तू पालने में भी लोगों से बात करता था और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी, मैने तुझको किताब और गहरी समझ और तौरात और इंजील की शिक्षा दी, तू मेरे आदेश से मिट्टी का पुतला परिन्दे की शक्ल का बनाता और उसमें फूंकता था और वह मेरे आदेश से परिन्दा बन जाता था, तू जन्मजात अंधे और कोढ़ी को मेरे आदेश से अच्छा करता था, तू मुर्दों को मेरे आदेश से निकालता था 126, फिर जब तू बनी इसराईल के पास खुली निशानियाँ लेकर पहुंचा और जो लोग उनमें से सत्य के इंकारी थे उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादूगरी के सिवा और कुछ नहीं हैं, तो मैंने ही तुझे उनसे बचाया और जब मैंने हवारियों को इशारा किया कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ तब उन्होंने कहा कि हम ईमान लाए, और गवाह रहो कि हम मुस्लिम हैं’’127
125.शुरू का प्रश्न तमाम रसूलों से सामूहिक रूप से होगा। फिर एक-एक रसूल से अलग-अलग गवाही ली जाएगी, जैसा कि क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर स्पष्ट रूप से कहा गया है। इस सिलसिले में हज़रत ईसा (अलैहि.) से जो प्रश्न किया जाएगा, वह यहाँ मुख्य रूप से नकल किया जा रहा है।
126.अर्थात मौत की हालत से निकालकर ज़िन्दगी की हालत में लाता था।
وَإِذۡ أَوۡحَيۡتُ إِلَى ٱلۡحَوَارِيِّـۧنَ أَنۡ ءَامِنُواْ بِي وَبِرَسُولِي قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّنَا مُسۡلِمُونَ ۝ 110
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إِذۡ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ هَلۡ يَسۡتَطِيعُ رَبُّكَ أَن يُنَزِّلَ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِۖ قَالَ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 111
(112) (हवारियों128 के बारे में) यह घटना भी याद रहे कि जब हवारियों ने कहा, “ऐ मरियम के बेटे ईसा ! क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने से भरा एक थाल उतार सकता है?" तो ईसा ने कहा, “अल्लाह से डरो अगर तुम ईमानवाले हो।”
128.चूँकि हवारियों का उल्लेख आ गया था, इसलिए वार्ताक्रम को तोड़कर उस संदर्भ से हटकर एक अन्य बात यहाँ हवारियों ही के बारे उस घटना की ओर इशारा कर दिया गया जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि मसीह से जिन शिष्यों ने सीधे शिक्षा पाई थी, वह मसीह को एक इंसान और केवल एक बन्दा समझते थे और उनकी परिकल्पना और भावनाओं में भी अपने गुरु के खुदा या ख़ुदा का शरीक या खुदा का बेटा होने की धारणा न थी इसके अलावा यह भी धारणा कि मसीह ने स्वयं भी अपने आपको उनके सामने एक अधिकारहीन और बेबस बन्दे की हैसियत सें पेश किया था। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि जो वार्ता क़ियामत के दिन होनेवाली है उसके अन्दर संदर्भ से हटकर आई इस बात का कौन-सा मौका होगा? इसका उत्तर यह है कि संदर्भ से हटकर बीच में जो बात कही गई है वह उस वार्ता से संबंधित नहीं है जो क़ियामत के दिन होगी, बल्कि उसकी उस पेशगी दास्तान से संबंधित है जो इस दुनिया में की जा रही है। क़ियामत की इस होनेवाली वार्ता का उल्लेख यहाँ किया ही इसलिए जा रहा है कि वर्तमान जीवन में ईसाइयों को उससे शिक्षा मिले और वे सीधे मार्ग पर आएँ। इसलिए इस वार्ता के सिलसिले में हवारियों की इस घटना का उल्लेख संदर्भ से हटकर बीच में आना किसी तरह असम्बद्ध नहीं है।
قَالُواْ نُرِيدُ أَن نَّأۡكُلَ مِنۡهَا وَتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُنَا وَنَعۡلَمَ أَن قَدۡ صَدَقۡتَنَا وَنَكُونَ عَلَيۡهَا مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 112
(113) उन्होंने कहा, “हम बस यह चाहते हैं कि उस थाल से खाना खाएँ और हमारे दिल सन्तुष्ट हों और हमें मालूम हो जाए कि आपने जो कुछ हमसे कहा है वह सच है और हम उसपर गवाह हो।‘’
قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ ٱللَّهُمَّ رَبَّنَآ أَنزِلۡ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ تَكُونُ لَنَا عِيدٗا لِّأَوَّلِنَا وَءَاخِرِنَا وَءَايَةٗ مِّنكَۖ وَٱرۡزُقۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 113
(114) इसपर मरियम के बेटे ईसा ने दुआ की, “ऐ अल्लाह ! हमारे रब ! हमपर आसमान से एक थाल उतार जो हमारे लिए और हमारे अगलों-पिछलों के लिए खुशी का मौक़ा क़रार पाए और तेरी ओर से एक निशानी हो, हमको रोज़ी दे और तू सबसे अच्छा रोज़ी देनेवाला है।"
قَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مُنَزِّلُهَا عَلَيۡكُمۡۖ فَمَن يَكۡفُرۡ بَعۡدُ مِنكُمۡ فَإِنِّيٓ أُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا لَّآ أُعَذِّبُهُۥٓ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 114
(115) अल्लाह ने जवाब दिया, “मैं उसको तुमपर उतारनेवाला हूँ।129 मगर इसके बाद जो तुममें से इंकार करेगा, उसे मैं ऐसी सज़ा दूंगा जो दुनिया में किसी को न दी होगी।"
129.क़ुरआन इस बारे में चुप है कि यह थाल वास्तव में उतारा गया या नहीं। दूसरे किसी विश्वसनीय माध्यम से भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता, संभव है कि यह उतरा हो और संभव है कि हवारियों ने बाद की डरावनी धमकी सुनकर अपनी दरख्वास्त वापस ले ली हो।
وَإِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ءَأَنتَ قُلۡتَ لِلنَّاسِ ٱتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيۡنِ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أَقُولَ مَا لَيۡسَ لِي بِحَقٍّۚ إِن كُنتُ قُلۡتُهُۥ فَقَدۡ عَلِمۡتَهُۥۚ تَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِي وَلَآ أَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِكَۚ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 115
(116) मतलब यह कि जब (इन उपकारों को याद दिलाकर) अल्लाह फ़रमाएगा कि “ऐ मरियम के बेटे ईसा ! क्या तूने लोगों से कहा था कि अल्लाह के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी ख़ुदा बना लो ?130 तो वह जवाब में अर्ज करेगा कि “सुब्हानल्लाह ! (पाक है अल्लाह !) मेरा यह काम न था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे अधिकार न था, अगर मैंने ऐसी बात कही होती तो आपको ज़रूर ज्ञान होता। आप जानते हैं जो कुछ मेरे दिल में है और मैं नहीं जानता जो कुछ आपके दिल में है। आप तो सारी छिपी सच्चाइयों के जानकार हैं।
130.ईसाइयों ने अल्लाह के साथ सिर्फ मसीह और पवित्रात्मा ही को खुदा बनाने पर बस नहीं किया, बल्कि मसीह की माँ हज़रत मरयम को भी एक स्थायी रूप से एक माबूद (पूज्य) बना डाला। हज़रत मरयम (अलैहि.) के ईश्वरत्व या 'अति पावनता' के बारे में कोई संकेत तक बाइबल में मौजूद नहीं है । मसीह के बाद आरंभिक तीन सौ वर्ष तक ईसाई दुनिया इस कल्पना से अनभिज्ञ थी। तीसरी सदी ईस्वी के अन्तिम चरण में सिकन्दरिया (Alexandria) के कुछ धार्मिक आचार्यों ने पहली बार हज़रत मरयम को अल्लाह की माँ या ईश्वर की माँ कहा। इसके बाद धीरे-धीरे मरयम के ईश्वरत्व (ख़ुदाई) को धारणा और मरयम की पूजा ईसाइयों में फैलनी शुरू हुई, लेकिन शुरू-शुरू में चर्च इसे विधिवत स्वीकार करने को तैयार न था, बल्कि मरयम की पूजा करनेवालों को भ्रष्ट धारणा रखनेवाले कहा गया था। फिर जब नस्तूरियस के इस अक़ीदे पर कि मसीह की अकेली हस्ती में दो स्थायी भिन्न व्यक्तित्व एकत्र थे, मसीही दुनिया में वाद-विवाद का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ तो उसका निपटारा करने के लिए 431 ई० में शहर अफ़िसुस में एक कौंसिल आयोजित की गई और इस कौंसिल में पहली बार चर्च की सरकारी भाषा में हज़रत मरयम के लिए 'मादरे खुदा' (खुदा मा) का लक़ब (उपाधि) इस्तेमाल किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि मरयम को पूजा का जो रोग अब तक चर्च के बाहर फैल रहा था, वह इसके बाद चर्च के भीतर भी तेज़ी के साथ फैलने लगा, यहाँ तक कि कुरआन उतरने के ज़माने तक पहुँचते-पहुँचते हज़रत मरयम इतनी बड़ी देवी बन गई कि बाप, बेटा और पवित्रात्मा तीनों उनके सामने तुच्छ हो गए। उनकी प्रतिमाएं जगह-जगह चर्चों में रखी हुई थीं, उनके आगे आराधना की तमाम रस्में पूरी की जाती थीं । कैसर जस्टीनेन अपने एक कानून की प्रस्तावना में हज़रत मरयम को अपने राज्य का समर्थक और सहायक करार देता है। इसका प्रसिद्ध जनरल नरसीस लड़ाई के मैदान में हज़रत मरयम से निर्देश और मार्गदर्शन तलब करता है। नबी (सल्ल.) के समय का कैसर हिरकूल ने अपने झंडे पर 'ईश-माता' का चित्र बना रखा था और उसे विश्वास था कि इस चित्र की बरकत से यह झंडा झुकेगा नहीं। यद्यपि बाद की सदियों में सुधार आन्दोलन के प्रभाव से प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों ने मरयम की पूजा के खिलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ उठाई, लेकिन रोमन कैथोलिक चर्च आज तक इस रास्ते पर चल रहा है।
مَا قُلۡتُ لَهُمۡ إِلَّا مَآ أَمَرۡتَنِي بِهِۦٓ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۚ وَكُنتُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا مَّا دُمۡتُ فِيهِمۡۖ فَلَمَّا تَوَفَّيۡتَنِي كُنتَ أَنتَ ٱلرَّقِيبَ عَلَيۡهِمۡۚ وَأَنتَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 116
(117) मैंने उनसे उसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने आदेश दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। मैं उसी समय तक उनका निगराँ था जब तक कि मैं उनके बीच था जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर निगराँ थे और आप तो सारी ही चीज़ों पर निगरौं हैं।
إِن تُعَذِّبۡهُمۡ فَإِنَّهُمۡ عِبَادُكَۖ وَإِن تَغۡفِرۡ لَهُمۡ فَإِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 117
(118) अब अगर आप उन्हें सजा दें तो वे आपके बन्दे हैं और अगर क्षमा कर दें तो आप शक्तिशाली और तत्त्वदर्शी हैं।"
قَالَ ٱللَّهُ هَٰذَا يَوۡمُ يَنفَعُ ٱلصَّٰدِقِينَ صِدۡقُهُمۡۚ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 118
(119) तब अल्लाह फ़रमाएगा, “यह वह दिन है जिसमें सच्चों को उनकी सच्चाई लाभ देती है, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, यहाँ वे सदैव रहेंगे। अल्लाह उनसे राजी हुआ और वे अल्लाह से, यही बड़ी सफलता है।"
لِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا فِيهِنَّۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرُۢ ۝ 119
(120) ज़मीन और आसमानों और उसमें तमाम मौजूद चीज़ों की बादशाही अल्लाह ही के लिए है, और उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है।