(3) तुमपर हराम किया गया मुरदार 9, खू़न, सुअर का मांस, वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो 10, वह जो गला घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई में गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो—सिवाय उसके जिसे तुमने ज़िन्दा पाकर ज़ब्ह कर लिया 11, -और वह जो किसी आस्ताने (थान) पर 12 ज़ब्ह किया गया हो।13 साथ ही यह भी तुम्हारे लिए हराम है कि पांसों के ज़रिये से अपना भाग्य मालूम करो 14; ये सभी काम फ़िस्क़ (अवज्ञा के) हैं। आज विरोधियों को तुम्हारे धर्म की ओर से पूर्ण निराशा हो चुकी है, इसलिए तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।15 आज मैंने तुम्हारे दीन (जीवन-विधान) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन (धर्म) की हैसियत से क़ुबूल कर लिया है, (इसलिए हराम व हलाल की जो कै़दें तुमपर डाली गई है उनको पाबन्दी करो)16, अलबत्ता जो व्यक्ति भूख से मजबूर होकर उनमें से कोई चीज़ खा ले, बिना इसके कि गुनाह की ओर उसका झुकाव हो, तो निस्सन्देह अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।17
9. अर्थात वह जानवर जो स्वाभाविक मौत मर गया हो।
10. अर्थात् जिसको ज़ब्ह करते वक़्त अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो या जिसको ज़ब्ह करने से पहले यह नीयत की गई हो कि यह अमुक बुजु़र्ग या अमुक देवी या देवता को भेंट है। (देखिए सूरा-2, की टिप्पणी 171)
11. अर्थात जो जानवर उपरोक्त दुर्घटनाओं में से किसी दुर्घटना का शिकार हो जाने के बावजूद मरा न हो, बल्कि ज़िन्दगी के कुछ लक्षण उसमें पाए जाते हों, उसको अगर ज़ब्ह कर लिया जाए तो उसे खाया जा सकता है। इससे यह भी मालूम हुआ कि हलाल जानवर का गोश्त सिर्फ़ ज़ब्ह करने से हलाल होता है, कोई दूसरा तरीक़ा उसको हलाल करने का सही नहीं है। ये 'ज़ब्ह' और 'ज़कात' इस्लाम के पारिभाषिक शब्द हैं। इनसे अभिप्रेत हलक (गरदन) का उतना हिस्सा काट देना है जिससे जिस्म का ख़ून अच्छी तरह निकल जाए। झटका करने या गला घोंटने या किसी और तरीक़े से जानवर को मारने का नुक़सान यह होता है कि ख़ून का बड़ा हिस्सा जिस्म के भीतर ही रुककर रह जाता है और वह जगह-जगह जमकर मांस के साथ चिमट जाता है। इसके विपरीत ज़ब्ह करने की शक्ल में दिमाग़ के साथ जिस्म का ताल्लुक देर तक बाक़ी रहता है जिसके कारण नस-नस का ख़ून खिंचकर बाहर आ जाता है और इस तरह पूरे जिस्म का मांस ख़ून से साफ़ हो जाता है। ख़ून के बारे में अभी ऊपर ही यह बात गुज़र चुकी है कि वह हराम है, इसलिए गोश्त के पाक और हलाल होने के लिए ज़रूरी है कि ख़ून उससे अलग हो जाए।
12. अरबी में मूल शब्द 'नुसुब' प्रयुक्त हुआ है। इससे तात्पर्य वे सब जगहें हैं जिनको अल्लाह से हटकर किसी और की नज़्र व नियाज़ चढ़ाने के लिए लोगों ने ख़ास कर रखा हो, चाहे वहाँ कोई पत्थर या लकड़ी की मूर्ति हो या न हो। हमारी भाषा में इसका समानार्थी शब्द 'आस्ताना या थान' है जो किसी बुज़ुर्ग या देवता से या किसी ख़ास अनेकेश्वरवादी धारणा से जुड़ा हुआ हो। ऐसे किसी आस्ताने पर ज़ब्ह किया हुआ जानवर भी हराम है।
13. यहाँ यह बात खू़ब समझ लेनी चाहिए कि खाने-पीने की चीज़ों में हराम व हलाल की जो पाबंदियाँ शरीअत की ओर से लगाई जाती हैं उनकी असल बुनियाद उन चीज़ों के डाक्टरी फ़ायदे या नुक़सान नहीं होते, बल्कि उनके नैतिक फ़ायदे या नुकसान होते हैं। जहाँ तक प्राकृतिक मामलों और डॉक्टरी तथ्यों का ताल्लुक़ है, अल्लाह ने उनको इंसान को अपनी कोशिश, शोध और प्रयत्नों पर छोड़ दिया है।
14. इस आयत में जिस चीज़ को हराम किया गया है उसकी तीन बड़ी क़िस्में दुनिया में पाई जाती हैं और आयत का हुक्म इन तीनों पर लागू होता है- (1) मुशरिकाना (अनेकेश्वरवादी) फ़ालगीरी जिसमें किसी देवी या देवता से भाग्य-निर्णय मालूम किया जाता है, या गै़ब (परोक्ष) की ख़बर मालूम की जाती है या आपसी झगड़ों का निबटारा किया जाता है। मक्का के मुशरिकों ने इस ध्येय के लिए काबा के अन्दर “हुबल”नामक देवता के बुत को ‘ख़ास’ कर रखा था। उसके थान में सात तीर रखे हुए थे जिनपर अलग-अलग शब्द और वाक्य खुदे थे। किसी काम के करने या न करने का प्रश्न हो या खोई हुई चीज़ का पता पूछना हो, या खू़न (हत्या) के मुक़द्दमे का फै़सला आपेक्षित हो, मतलब यह कि कोई काम भी हो इसके लिए हुबल के पाँसेदार के पास पहुँच जाते। उसका नज़राना पेश करते और हुबल से दुआ मांगते कि हमारे इस मामले का फै़सला कर दे, फिर पांसा डालनेवाला उन तीरों के ज़रिये से फ़ाल निकालता और जो तीर भी फ़ाल में निकल आता, उसपर लिखे हुए शब्द को हुबल का निर्णय समझा जाता था। (2) अंधविश्वास पर आधारित फ़ालगीरी, मृत्तिका-शकून विचार (Geomancy), फलित ज्योतिष, भविष्य-वक्ता, विभिन्न प्रकार के शकुन, और नक्षत्र और फ़ालगीरी के अनगिनत तरीके़ इसमें शामिल हैं। (3) जुए के प्रकार के समस्त खेल और काम जिनमें चीज़ों के बंटवारे की बुनियाद, हक़ों, सेवाओं और तर्कसंगत निर्णयों पर रखने के बजाय केवल किसी संयोगवश बात पर रख दी जाए, उदाहरणतः लाटरी या मुअम्मे (पहेलियाँ)। इन तीन क़िस्मों को हराम कर देने के बाद कु़रआ-अंदाज़ी को सिर्फ़ वह सादा शक्ल इस्लाम में जाइज़ रखी गई है जिसमें दो बराबर के वैध कामों या दो बराबर के हक़ों के बीच निर्णय करना हो।
15. 'आज' से अभिप्रेत कोई विशेष दिन तिथि नहीं है, बल्कि वह समय या काल अभिप्रेत है जिसमें ये आयतें उतरी थीं। हमारी भाषा में भी आज का शब्द 'वर्तमान काल' के लिए आम तौर पर बोला जाता है। 'विरोधियों' को तुम्हारे धर्म की ओर से निराशा हो चुकी है' अर्थात अब तुम्हारा दीन एक स्थायी व्यवस्था का रूप धारण कर चुका है और स्वयं अपनी शासन-शक्ति के साथ लागू और क़ायम है। विरोधी जो अब तक इसकी स्थापना में रुकावट और अवरोधक रहे हैं, अब इस ओर से निराश हो चुके हैं कि वे इसे मिटा सकेंगे और तुम्हें फिर पिछली अज्ञानता की ओर वापस ले जा सकेंगे। इसलिए तुम उनसे न डरो बल्कि मुझसे डरो”अर्थात् इस धर्म के आदेश और उसके निर्देशों पर चलने में अब किसी विरोधी ताक़त के ग़लबा व क़हर, हस्तक्षेप और अवरोध का ख़तरा तुम्हारे लिए बाक़ी नहीं रहा है। इंसानों के डर का अब कोई कारण नहीं रहा। अब तुम्हें अल्लाह से डरना चाहिए कि उसके आदेशों के पालन में अगर कोई कोताही तुमने की तो तुम्हारे पास कोई ऐसा बहाना न होगा जिसके आधार पर तुम्हारे साथ कुछ भी नर्मी को जाए। अब अल्लाह के क़ानून के विरोध का मतलब यह नहीं होगा कि तुम दूसरों के प्रभाव से विवश हो, बल्कि इसका साफ़ मतलब यह होगा कि तुम अल्लाह का आज्ञापालन करना नहीं चाहते।
16. "धर्म के पूर्ण कर देने से अभिप्रेत उसको कार्य एवं चिंतन की एक स्थायी व्यवस्था और एक ऐसी पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था बना देना है जिसमें ज़िन्दगी की तमाम समस्याओं का हल सैद्धांतिक रूप से या विस्तृत रूप से मौजूद हो और मार्गदर्शन और रहनुमाई हासिल करने के लिए किसी भी स्थिति में उससे बाहर जाने की जरूरत न पड़े। नेमत पूरी करने से तात्पर्य रहनुमाई की नेमत को पूर्ण कर देना है और इस्लाम को धर्म की हैसियत से क़ुबूल कर लेने का अर्थ यह है कि तुमने मेरा आज्ञापालन और बन्दगी इख़्तियार करने का जो बचन दिया था, उसको चूँकि तुम अपने प्रयत्ल और कार्य से सच्चा और निष्ठापूर्ण वचन सिद्ध कर चुके हो, इसलिए मैंने उसे स्वीकार कर लिया है और तुम्हें व्यावहारिक रूप से इस स्थिति को पहुंचा दिया है कि अब वास्तव में मेरे सिवा किसी के आज्ञापालन व बन्दगी का जुआ तुम्हारी गरदनों पर बाक़ी नहीं रहा। अब जिस प्रकार धारणा की दृष्टि से तुम मेरे 'मुस्लिम' (आज्ञापालक) हो, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में भी मेरे सिवा किसी और के 'मुस्लिम' बनकर रहने के लिए तुमपर कोई मजबूरी नहीं रही।
17. देखिए सूरा 2 (बक़रा) की टिप्पणी न० 172