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سُورَةُ الصَّافَّاتِ

37. अस-साफ़्फ़ात

(मक्का में उतरी, आयतें 182)

 

परिचय

 

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अस-साफ़्फात' (क़तार दर क़तार सफ़ (पंक्ति) बाँधनेवाले) से लिया गया है।

उतरने का समय

विषयों और शैली से पता चलता है कि यह सूरा शायद मक्की काल के मध्य में, बल्कि शायद इस मध्यकाल के भी अन्तिम समय में उतरी है। [जब विरोध पूर्णत: उग्र रूप धारण कर चुका था]।

विषय और वार्ता

उस समय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तौहीद और आख़िरत की दावत का जवाब जिस तरह उपहास और हँसी-मज़ाक़ के साथ दिया जा रहा था और आपकी रिसालत के दावे को मानने से जिस तेज़ी के साथ इनकार किया जा रहा था, उसपर मक्का के काफ़िरों (इस्लाम-विरोधियों) को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से सचेत किया गया है और अन्त में उन्हें साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दिया गया है कि बहुत जल्द यही पैग़म्बर, जिसका तुम मज़ाक़ उड़ा रहे हो, तुम्हारे देखते-देखते तुमपर ग़ालिब आ जाएगा और तुम अल्लाह की फ़ौज को स्वयं अपने घर के आंगन में उतरा हुआ पाओगे (आयत 171-179)। यह नोटिस उस ज़माने में दिया गया था जब नबी (सल्ल०) की सफलता के चिह्न दूर-दूर तक कहीं नज़र न आते थे, बल्कि देखनेवाले तो यह समझ रहे थे कि यह आन्दोलन मक्का की घाटियों ही में दफ़न होकर रह जाएगा। लेकिन 15-16 साल से अधिक समय न बीता था कि मक्का की जीत के मौक़े पर ठीक वही कुछ पेश आ गया जिससे इनकारियों को सचेत किया गया था। चेतावनी के साथ-साथ अल्लाह ने इस सूरा में सत्य को अच्छी तरह समझाने और उसपर उभारने का हक़ भी पूरी तरह अदा कर दिया है। तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के अक़ीदे की सत्यता पर संक्षेप में दिल में उतर जानेवाले तर्क दिए गए हैं। बहुदेववादियों की धारणाओं की आलोचना करके बताया गया है कि वे कैसी-कैसी बेकार बातों पर ईमान लाए बैठे हैं, इन गुमराहियों के बुरे नतीजों से आगाह किया है और यह भी बताया है कि ईमान और भले कामों के नतीजे कितने शानदार हैं। फिर [इसी सिलसिले में पिछले इतिहास की मिसालें दी हैं ] इस उद्देश्य से जो ऐतिहासिक वृत्‍तांतों का इस सूरा में वर्णन किया गया है, इनमें सबसे अधिक शिक्षाप्रद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पवित्र जीवन की यह महत्वपूर्ण घटना है कि वह अल्लाह का एक इशारा पाते ही अपने इकलौते बेटे को क़ुरबान करने पर तैयार हो गए थे। इसमें केवल कुरैश के उन इस्लाम विरोधियों ही के लिए सबक़ नहीं था जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ अपने पारिवारिक संबंध पर गर्व किया करते फिरते थे, बल्कि उन मुसलमानों के लिए भी सबक़ था जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए थे। यह घटना सुनाकर उन्हें बता दिया गया कि इस्लाम की वास्तविकता और उसकी मूल आत्मा क्या है। सूरा की आख़िरी आयतें सिर्फ़ काफ़िरों (विधर्मियों) के लिए चेतावनी ही न थीं, बल्कि उन ईमानवालों के लिए विजयी और प्रभावी होने की शुभ-सूचना भी थीं, जो नबी (सल्ल०) के समर्थन और सहायता में अत्यंत हतोत्साहित कर देनेवाले हालात का मुक़ाबला कर रहे थे।

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سُورَةُ الصَّافَّاتِ
37. अस-साफ़्फ़ात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
وَٱلصَّٰٓفَّٰتِ صَفّٗا
(1) क़तार दर क़तार सफ़ (पंक्ति) बांधनेवालों की क़सम,
فَٱلزَّٰجِرَٰتِ زَجۡرٗا ۝ 1
(2) फिर उनकी क़सम, जो डाँटने-फटकारनेवाले हैं,
فَٱلتَّٰلِيَٰتِ ذِكۡرًا ۝ 2
(3) फिर उनकी क़सम जो नसीहत की बात सुनानेवाले हैं,1
1. टीकाकारों की एक बड़ी संख्या इस बात से सहमत है कि इन तीनों गिरोहों से तात्पर्य फ़रिश्तों के गिरोह हैं। इसमें कतार दर क़तार पंक्ति बाँधने' का संकेत इस ओर है कि वे तमाम फ़रिश्ते जो सृष्टि-व्यवस्था का प्रबन्ध कर रहे हैं, आज्ञापालन और बंदगी में सफें बाँधे हुए हैं और उसके फ़रमानों को पूरा करने के लिए हर समय मुस्तइद हैं। 'डाँटने और फटकारने' से तात्पर्य यह है कि इन्हीं फ़रिश्तों में से एक गिरोह वह भी है जो अवज्ञाकारियों और अपराधियों को फटकारता है और उसकी यह फटकार सिर्फ शब्दों ही में नहीं होती, बल्कि इंसानों पर वह प्राकृतिक घटनाओं और ऐतिहासिक विपदाओं की शक्ल में बरसती है। 'नसीहत की बात सुनाने' से मुराद यह है कि इन्हीं फ़रिश्तों में वे भी हैं जो अलग-अलग तरीक़ों से अल्लाह की याद दिलवाते हैं। काल-घटनाओं के रूप में भी, जिनसे शिक्षा लेनेवाले शिक्षा प्राप्त करते हैं, और उन शिक्षाओं के रूप में भी जो उनके ज़रिये से नबियों पर उतरती हैं और उन इलहामों के रूप में भी जो उनके वास्ते से नेक इंसानों पर होते हैं।
إِنَّ إِلَٰهَكُمۡ لَوَٰحِدٞ ۝ 3
(4) तुम्हारा वास्तविक उपास्य बस एक ही है,2
2. यह वह वास्तविकता है जिसपर उपर्युक्त गुणोंवाले फ़रिश्तों की क़सम खाई गई है। मानो दूसरे शब्दों में, यह फ़रमाया गया है कि सृष्टि की यह पूरी व्यवस्था, जो अल्लाह की बन्दगी में चल रही है, इस बात पर गवाह है कि इंसानों का इलाह' (पूज्य-प्रभु) केवल एक ही है। 'इलाह' शब्द दो अर्थों में बोला जाता है। एक, वह उपास्य जिसकी अमलन बन्दगी और इबादत की जा रही हो। दूसरे, वह जो वास्तव में इसका अधिकारी हो कि उसकी बन्दगी और इबादत की जाए। यहाँ 'इलाह' का शब्द दूसरे अर्थ में इस्तेमाल किया गया है।
رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَرَبُّ ٱلۡمَشَٰرِقِ ۝ 4
(5)-वह जो ज़मीन और आसमानों का और तमाम उन चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमान में है और सारे मश्रिक़ों3 (पूर्व दिशाओं) की मालिक।4
3. सूरज हमेशा एक ही जगह से नहीं निकलता, बल्कि हर दिन एक नए कोण के साथ निकलता है, साथ ही सारी ज़मीन पर वह एक ही समय में नहीं निकलता, बल्कि जमीन के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग समय पर निकला करता है। इन कारणों से मश्रित (पूरब) के बजाय मशारिक पुलबों का शब्द इस्तेमाल किया गया है और उसके साथ मरिरवों (पश्चिमों) का शब्द नहीं इस्तेमाल किया गया है, क्‍योंकि मशारिक कहकर स्वयं ही 'मगारिब' (पश्चिमों) की दलील पैदा कर दी गई है, फिर भी एक जगह मशारिक और मशारिब के रब शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। (सूरा-70 अल-मआरिज, आयत 40)
4. इन आयतों में जो सच्चाई मन में बिठाई गई है, वह यह है कि सृष्टि का स्वामी और शासक ही इंसानों का वास्तविक उपास्य है। यह बात पूर्णतः बुद्धि के विपरीत है कि रब (यानो मालिक और हाकिम और परवरिश करनेवाला और पालनहार) कोई हो और 'इलाह' (उपासना का अधिकारी) कोई और हो जाए।
إِنَّا زَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِزِينَةٍ ٱلۡكَوَاكِبِ ۝ 5
(6) हमने दुनिया के आसमान5 को तारों को जीनत से सजाया है
5. 'दुनिया के आसमान से तात्पर्य क़रीब का आसमान है जिसका देखना किसी दूरबीन को सहायता के बिना हम खुली आँख से करते हैं। इस सिलसिले में यह बात भी ध्यान में रहे कि आसमान' किसी निश्चित चीज़ का नाम नहीं है बल्कि प्राचीन समय से आज तक इंसान सामान्य रूप से यह शब्द और इसी जैसा अर्थ देनेवाले शब्दों का प्रयोग ऊपरी दुनिया के लिए करता चला आ रहा है।
وَحِفۡظٗا مِّن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ مَّارِدٖ ۝ 6
(7) और हर उट्टेड शैतान से उसको सुरक्षित कर दिया है।6
6. अर्थात् ऊपर की दुनिया मात्र शून्य नहीं है कि जिसका जी चाहे उसमें दाखिल हो जाए बल्कि उसका बंधन ऐसा मजबूत है और उसके विभिन्न भाग ऐसी सुदृढ़ सीमाओं से घेर दिए गए हैं कि किसी उद्दंड शैतान का इन सीमाओं से गुजर जाना संभव नहीं है।
لَّا يَسَّمَّعُونَ إِلَى ٱلۡمَلَإِ ٱلۡأَعۡلَىٰ وَيُقۡذَفُونَ مِن كُلِّ جَانِبٖ ۝ 7
(8) ये शैतान 'मला-ए-आला’6अ की बातें नहीं सुन सकते, हर ओर से मारे और हाँके जाते हैं
इससे तात्पर्य है ऊपरी दुनिया की मख़लूक़ अर्थात् फ़रिश्ते।
دُحُورٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ وَاصِبٌ ۝ 8
(9) और उनके लिए निरंतर अजाब है,
إِلَّا مَنۡ خَطِفَ ٱلۡخَطۡفَةَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ ثَاقِبٞ ۝ 9
(10) इसपर भी अगर कोई इनमें से कुछ ले उड़े, तो एक तेज़ शोला उसका पीछा करता है।7
7. इस विषय को समझने के लिए यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि उस समय अरब में कहानत (ज्योतिष विद्या) की बहूत चर्चा थी। काहिनों (ज्‍योतिषियों) का दावा यह था कि जिन्‍न और शैतान उनके क़ब्‍ज़े में हैं और ये उन्हें हर तरह की खबरें ला लाकर देते हैं। इस वातावरण में जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नुबूवत के पद पर आसीन हुए और आपने क़ुरआन मजीद की आयतें सुनानी शुरू की, जिनमें पिछले इतिहास और आगे पेश आनेवाले हालात की खबरें दी गई थीं और साथ-साथ आपने यह भी बताया कि एक फ़रिश्ता ये आयतें मेरे पास लाता है, तो आपके विरोधियों ने तुरन्त आपके ऊपर काहिन की फबती कस दी और लोगों से कहना शुरू कर दिया कि उनका संबंध भी दूसरे काहिनों की तरह किसी शैतान से है जो ऊपरी जगत से कुछ सुन-गुन लेकर उनके पास आ जाता है और यह उसे अल्लाह की वय बनाकर पेश कर देते हैं। इस आरोप के उत्तर में अल्लाह यह सच्चाई बयान फ़रमा रहा है कि शैतानों की तो पहुँच ही ऊपरी जगत तक नहीं हो सकती, वे इसपर समर्थ नहीं हैं कि फ़रिश्तों की बातें सुन सकें और लाकर किसी को खबरें दे सकें। और अगर संयोग से कोई जरा-सी भनक किसी शैतान के कान में पड़ जाती है, तो इससे पहले कि वह उसे लेकर नीचे आए, एक तेज़ शोला उसका पीछा करता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-15, हिज़, टिप्पणी 8, 10 से 12 तक।)
فَٱسۡتَفۡتِهِمۡ أَهُمۡ أَشَدُّ خَلۡقًا أَم مَّنۡ خَلَقۡنَآۚ إِنَّا خَلَقۡنَٰهُم مِّن طِينٖ لَّازِبِۭ ۝ 10
(11) अब इनसे पूछो, इनकी पैदाइश ज़्यादा कठिन है या उन चीजों को जो हमने पैदा कर रखी है ?8 इनको तो हमने लैसदार गारे से पैदा किया है।9
8. मक्का के इस्लाम विरोधियों का विचार यह था कि आखिरत सम्भव नहीं है, क्योंकि मरे हुए इंसानों का दोबारा पैदा होना असंभव है। इसके जवाब में आखिरत की संभावना की दलीलें पेश करते हुए अल्लाह सबसे पहले उनके सामने यह सवाल रखता है कि अगर तुम्हारे नज़दीक मरे हुई इंसानों को दोबारा पैदा करना बड़ा कठिन काम है, जिसकी शक्ति तुम्हारे विचार में हमको प्राप्त नहीं है, तो बताओ कि यह ज़मीन व आसमान और ये अनगिनत चीजें, जो आसमानों और जमीन में है, उनका पैदा करना कोई आसान काम है? फिर तुम यह क्यों समझते हो कि तुम्हारे दोबारा पैदा करने से अल्लाह विवश है।
9. अर्थात् यह इंसान कोई बड़ी चीज तो नहीं है, मिट्टी से बनाया गया है और फिर उसी मिट्टी से बनाया जा सकता है। लैसदार गारे से इंसान के पैदा होने का अर्थ यह भी है कि पहले इंसान की पैदाइश मिट्टी से हुई थी और फिर आगे इंसानी नस्ल उसी पहले इंसान के वीर्य से अस्तित्व में आई। और यह भी है कि हर इंसान लैसदार गारे से बना है, इसलिए कि इंसान के अस्तित्व का सम्पूर्ण तत्त्व ज़मीन ही से प्राप्त होता है। जिस वीर्य से वह पैदा हुआ है, वह भोजन से बनता है और गर्भ ठहरने के वक्त से मरते दम तक उसकी पूरी हस्ती जिन अंशों से बनती है, वे सब भी भोजन ही से मिलते हैं। यह भोजन चाहे जानवरों से प्राप्त किया हुआ हो या पेड़-पौधों से। अन्तत: वह मिट्टी है जो पानी के साथ मिलकर इस योग्य होती है कि इंसान के भोजन के लिए अन्न और तरकारियाँ और फल निकाले और उन हैवानों को पाले-पोसे जिनका दूध और मांस इंसान खाता है। अत: तर्क का आधार यह है कि यह मिट्टी अगर आज जिंदगी क़बूल करने के योग्य न थी, तो तुम आज कैसे जिंदा मौजूद हो? और अगर इसमें जिंदगी पैदा किए जाने की आज संभावना है, जैसा कि तुम्हारा मौजूद होना स्वयं उसकी संभावना को खुले तौर पर सिद्ध कर रहा है, तो कल दोबारा उसी मिट्टी से तुम्हारा जन्म क्यों संभव न होगा?
بَلۡ عَجِبۡتَ وَيَسۡخَرُونَ ۝ 11
(12) तुम (अल्लाह की क़ुदरत के करिश्‍मो” पर) हैरान हो और ये उसका मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।
وَإِذَا ذُكِّرُواْ لَا يَذۡكُرُونَ ۝ 12
(13) समझाया जाता है तो समझ कर नहीं देते।
وَإِذَا رَأَوۡاْ ءَايَةٗ يَسۡتَسۡخِرُونَ ۝ 13
(14) कोई निशानी देखते हैं तो उसे ठठ्टों में उड़ाते हैं
وَقَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٌ ۝ 14
(15) और कहते हैं, यह तो खुला जादू है।10
10. अर्थात् जादू की दुनिया की बातें हैं। कोई जादू की दुनिया है जिसका यह आदमी उल्लेख कर रहा है, जिसमें मुर्दे उठेंगे, अदालत होगी, जन्नत बसाई जाएगी और दोज़ख़ के अज़ाब होंगे। या फिर यह अर्थ भी हो सकता है कि यह आदमी दिलचलों की-सी बातें कर रहा है, उसकी ये बातें ही इस बात का खुला प्रमाण हैं कि किसी ने उसपर जादू कर दिया है, जिसकी वजह से भला-चंगा आदमी यह बातें करने लगा।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 15
16) भला कहीं ऐसा हो सकता है कि जब हम मर चुके हों और मिट्टी बन जाएँ और हड्डियों का पंजर रह जाएं, उस समय हम फिर ज़िंदा करके उठा खड़े किए जाएँ?
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 16
(17) और क्‍या हमारे अगले वक़्तों के बाप-दादा भी उठाए जाएँगे?'
قُلۡ نَعَمۡ وَأَنتُمۡ دَٰخِرُونَ ۝ 17
(18) इनसे कहो. "हाँ, और तुम (अल्‍लाह के मुक़ाबले में) बेबस हो।’’11
11. अर्थात् अल्लाह जो कुछ भी तुम्हें बनाना चाहे बना सकता है। जब उसने चाहा, उसके एक इशारे पर तुम अस्तित्त्व में आ गए। जब वह चाहेगा, उसके एक इशारे पर तुम मर जाओगे और फिर जिस समय भी वह चाहेगा, उसका एक इशारा तुम्हें उठा खड़ा करेगा।
فَإِنَّمَا هِيَ زَجۡرَةٞ وَٰحِدَةٞ فَإِذَا هُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 18
(19) बस एक ही झिड़की होगी और यकायक ये अपनी आँखों से (वह सब कुछ जिसकी ख़बर दी जा रही है) देख रहे होंगे।12
12. अर्थात् जब यह बात होने का समय आएगा, तो दुनिया को दोबारा उठा खड़ा कर देना कोई बड़ा लंबा-चौड़ा काम न होगा। बस एक ही झिड़की सोतों को जगा उठाने के लिए काफ़ी होगी। 'झिड़की' का शब्द यहाँ बहुत अर्थपूर्ण है। इससे मरने के बाद उठाए जाने का कुछ ऐसा चित्र निगाहों के सामने आता है कि शुरू से कियामत तक जो इंसान मरे थे, वे मानो सोए पड़े हैं। यकायक कोई डाँटकर कहता है, 'उठ जाओ', और बस आन की आन में वे सब उठ खड़े होते हैं।
وَقَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا هَٰذَا يَوۡمُ ٱلدِّينِ ۝ 19
(20) उस समय ये कहेंगे, "हाय हमारा दुर्भाग्य! यह तो बदले का दिन है"
هَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡفَصۡلِ ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تُكَذِّبُونَ ۝ 20
(21) -यह वही फ़ैसले का दिन है, जिसे तुम झुठलाया करते थे।13
13. हो सकता है कि यह बात उनसे ईमानवाले कहें, हो सकता है कि यह फ़रिश्तों का कथन हो, हो सकता है कि हत्र के मैदान का पूरा वातावरण उस समय अपनी स्थिति के ज़बान से यह बता रहा हो और यह भी हो सकता है कि यह स्वयं उन लोगों की अपनी ही दूसरी प्रतिक्रिया हो। अर्थात् अपने दिलों में वे अपने आप ही को सम्बोधित करके कहें कि दुनिया में सारी उम्र तुम यह समझते रहे कि कोई फ़ैसले का दिन नहीं आना है, अब आ गई तुम्हारी शामत, जिस दिन को झुठलाते थे वही सामने आ गया।
۞ٱحۡشُرُواْ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ وَأَزۡوَٰجَهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ۝ 21
(22-23) (हुक्म होगा) "घेर लाओ सब ज़ालिमों14 को और उनके साथियों15 और उन उपास्यों को, जिनकी वे अल्लाह को छोड़कर बंदगी किया करते थे।16 फिर इन सबको जहन्नम का रास्ता दिखाओ।
14. ज़ालिम से तात्पर्य सिर्फ़ वही लोग नहीं हैं जिन्होंने दूसरों पर जुल्म किया हो, बल्कि क़ुरआन की परिभाषा में हर वह आदमी ज़ालिम है जिसने अल्लाह के मुक़ाबले में विद्रोह और उदंडता और अवज्ञा का रास्ता अपनाया हो।
15. मूल शब्द 'अजवाज' इस्तेमाल किया गया है जिससे तात्पर्य उनकी वे बीवियाँ भी हो सकती हैं जो इस विद्रोह में उनकी साथी थी, और वे सब लोग भी हो सकते हैं जो उन्हीं की तरह विद्रोही व उदंड और अवज्ञाकारी थे। इसके अलावा इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि एक-एक प्रकार के अपराधी अलग-अलग जत्थों के रूप में जमा किए जाएंगे।
مِن دُونِ ٱللَّهِ فَٱهۡدُوهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 22
0
وَقِفُوهُمۡۖ إِنَّهُم مَّسۡـُٔولُونَ ۝ 23
(24) और तनिक इन्हें ठहराओ, इनसे कुछ पूछना है।
مَا لَكُمۡ لَا تَنَاصَرُونَ ۝ 24
(25) क्या हो गया तुम्हें, अब क्यों एक-दूसरे की मदद नहीं करते?
بَلۡ هُمُ ٱلۡيَوۡمَ مُسۡتَسۡلِمُونَ ۝ 25
(26) अरे, आज तो ये अपने आपको (और एक-दूसरे को) हवाले किए दे रहे हैं!"17
17. पहला वाक्य अपराधियों को सम्बोधित करके कहा जाएगा और दूसरा वाक्य उन आम मौजूद लोगों की ओर रुख करके फ़रमाया जाएगा जो उस वक्त जहन्नम की ओर अपराधियों की रवानगी का दृश्य देख रहे होंगे। यह वाक्य स्वयं बता रहा है कि उस वक़्त हालत क्या होगी। बड़े-बड़े हेकड़ अपराधियों की हेकड़ियाँ निकल चुकी होंगी और किसी विरोध के बिना वे कान दबाए जहन्नम की ओर जा रहे होंगे, को कोई हिज़ मैजेस्टी धक्के खा रहे होंगे और दरबारियों में से कोई आला हज़रत' को बचाने के लिए आगे न बढ़ेगा। कहीं कोई विश्व-विजेता और कोई डिक्टेटर अत्यन्त अपमानित होकर चला जा रहा होगा और उसकी भारी फ़ौज ख़ुद उसे सज़ा के लिए पेश कर देगी। कहीं कोई पीर साहब या गुरु जी या होली फ़ादर जहन्नम में पहुंच रहे होंगे और मुरीदों में से किसी को यह चिन्ता न होगी कि हज़रते-वाला का अनादर न होने पाए। कहीं कोई लीडर साहब दयनीय दशा में जहन्नम की ओर जा रहे होंगे और दुनिया में जो लोग उनकी बड़ाई के झंडे उठाए फिरते थे, वे सब वहाँ उनकी ओर से निगाहें फेर लेंगे। हद यह है कि जो आशिक़ दुनिया में अपने माशूल पर जान छिड़कते थे, उन्हें भी उसकी दुर्गति की कोई परवाह न होगी। इस हालत का चित्र खींचकर अल्लाह वास्तव में यह बात मन में बिठाना चाहता है कि दुनिया में इंसान और इंसान के जो ताल्लुक़ात अपने रब के प्रति विद्रोह पर आधारित हैं, वे किस तरह आख़िरत में टूटकर रह जाएँगे, और यहाँ जो लोग 'हम जैसा कोई दूसरा नहीं' के भ्रम में पड़े हुए हैं, वहाँ उनका घमंड किस तरह धूल में मिल जाएगा।
وَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 26
(27) इसके बाद ये एक दूसरे की ओर मुड़ेंगे और आपस में तकरार शुरू कर देंगे।
قَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَأۡتُونَنَا عَنِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 27
(28) (पैरवी करनेवाले अपने पेशवाओं से) कहेंगे, "तुम हमारे पास सीधे रूख़ से आते थे।’’18
18. मूल अरबी वाक्य में शब्द 'यमीन' प्रयुक्त हुआ है। यमीन' का शब्द अरबी भाषा में बहुत से अर्थों में बोला जाता है। अगर इसे शक्ति व ताक़त के अर्थ में लिया जाए तो अर्थ यह होगा कि हम कमज़ोर थे और तुम हमपर ग़ालिब थे, इसलिए तुम अपने ज़ोर से हमको गुमराही की ओर खींच ले गए। अगर इसको और और भलाई के अर्थ में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि तुमने हितैषी बनकर हमें धोखा दिया। तुम हमें विश्वास दिलाते रहे कि जिस राह पर तुम हमें चला रहे हो, यही सत्य और भलाई की राह है, इसलिए हम तुम्हारे फ़रेब में आ गए। और अगर इसे क़सम के अर्थ में लिए जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि तुमन क़समें खा-खाकर हमें इत्मीनान दिलाया था कि सत्य वही है जो तुम पेश कर रहे हो।
قَالُواْ بَل لَّمۡ تَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 28
(29) वे जवाब देंगे, ‘‘नहीं, बल्कि तूम ख़ुद ईमान लानेवाले न थे,
وَمَا كَانَ لَنَا عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭۖ بَلۡ كُنتُمۡ قَوۡمٗا طَٰغِينَ ۝ 29
(30) हमारा तुमपर कोई ज़ोर न था, तुम खुद ही उदंड लोग थे।
فَحَقَّ عَلَيۡنَا قَوۡلُ رَبِّنَآۖ إِنَّا لَذَآئِقُونَ ۝ 30
(31) अन्ततः हम अपने रब के इस फ़रमान के अधिकारी हो गए कि हम अज़ाब का मज़ा चखनेवाले हैं ।
فَأَغۡوَيۡنَٰكُمۡ إِنَّا كُنَّا غَٰوِينَ ۝ 31
(32) सो हमने तुमको बहकाया, हम ख़ुद बहके हुए थे।"19
19. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-34 सबा, टिप्पणी 51, 52, 53
فَإِنَّهُمۡ يَوۡمَئِذٖ فِي ٱلۡعَذَابِ مُشۡتَرِكُونَ ۝ 32
(33) इस तरह वे सब उस दिन अज़ाब में हिस्सेदार होंगे।20
20. अर्थात् पैरवी करनेवाले भी और पेशवा भी, गुमराह करनेवाले भी और गुमराह होनेवाले भी एक ही अज़ाब में सम्मिलित होंगे, न पैरवी करनेवालों का यह उन (बहाता) सुना जाएगा कि वे स्वयं गुमराह नहीं हुए थे, बल्कि उन्हें गुमराह किया गया था और न पेशवाओं के इस बहाने को स्वीकार किया जाएगा कि गुमराह होनेवाले स्वयं ही सीधे रास्ते की तलब नहीं रखते थे।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَفۡعَلُ بِٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 33
(34) हम अपराधियों के साथ यही कुछ किया करते हैं।
إِنَّهُمۡ كَانُوٓاْ إِذَا قِيلَ لَهُمۡ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 34
(35) ये वे लोग थे कि जब उनसे कहा जाता," अल्लाह के सिवा कोई वास्तविक उपास्य नहीं है", तो ये घमंड में आ जाते थे
وَيَقُولُونَ أَئِنَّا لَتَارِكُوٓاْ ءَالِهَتِنَا لِشَاعِرٖ مَّجۡنُونِۭ ۝ 35
(36) और कहते थे कि "क्‍या हम एक मजनून शायर के लिए अपने उपायों को छोड़ दें?"
بَلۡ جَآءَ بِٱلۡحَقِّ وَصَدَّقَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 36
(37) हालाँकि वह सत्य लेकर आया था और उसने रसूलों की पुष्टि की थी।21
21. रसूलों की पुष्टि के तीन अर्थ हैं और तीनों ही अभिप्रेत भी हैं- एक, यह कि उसने किसी पिछले रसूल का विरोध न किया था कि उस रमूल के माननेवालों के लिए उसके विरुद्ध विद्वेष का कोई उचित कारण होता, बल्कि वह अल्लाह के तमाम पिछले रसूलों की पुष्टि करता था। दूसरे, यह कि वह कोई नाई और निराली बात नहीं लाया था, बल्कि बही बात पेश करता था जो शुरू से अल्लाह के तमाम रसूल पेश करते चले आ रहे थे। तीसरे, यह कि उसपर ये तमाम खबरें सही सिद्ध हो रही थी जो पिछले रसूलों ने उसके बारे में दी थीं।
إِنَّكُمۡ لَذَآئِقُواْ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَلِيمِ ۝ 37
(38) (अब उनसे कहा जाएगा कि) तुम निश्चय ही टार्टनाक सजा का मजा चखनेवाले हो
وَمَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 38
(39) और तुम्हें जो बटला भी दिया जा रहा है, उन्हीं कार्यों का दिया जा रहा है, जो तुम करते रहे हो।
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 39
(40) मगर अल्लाह के चुने हुए बन्दै (इस बुरे अंजाम से) बचे हुए होंगे।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ رِزۡقٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 40
(41) उनके लिए जाती-बूझी रोज़ी है।22
22. अर्थात् ऐसी रोजी जिसकी तमाम खुबियाँ बनाई जा चुकी हैं, जिसके मिलने का उन्हें कित्वास है, जिसके बारे में उन्हें यह भी इत्मीनान है कि वह हमेशा मिलता रहेगा, जिसके बारे में यह उतरा लगा हुआ नहीं है कि क्या ख़बर, मिले या न मिले।
فَوَٰكِهُ وَهُم مُّكۡرَمُونَ ۝ 41
(42-43) हर तरह की स्वादिष्ट वस्तुएँ,23 और नेमत भरी जन्नतें,जिनमें वे आदर के साथ रखे जाएंगे।
23. इसमें एक सूक्ष्म संकेत इस और भी है कि जन्नत में खाना भोजन के रूप में नहीं, बल्कि स्वाद के लिए होगा। अर्थात् वहाँ खाना इस उद्देश्य के लिए न होगा कि शरीर के घुल चुके अंशों की जगह दूसरे अंश भोजन के द्वारा जुटाए जाएँ क्योंकि इस शाश्वत जीवन में सिरे से शरीर के अंश घुलेंगे ही नहीं, न आदमी को भूख लगेगी, न देह अपने आपको जिंदा रखने के लिए भोजन माँगेगा। इसी कारण जन्नत के इन खानों के लिए फ़वाकह' का शब्द इस्तेमाल किया गया है, जिसके अर्थ में पौष्टिकता के बजाय स्वाद का पहलू अधिक नुमायाँ है।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 42
0
عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 43
(44) तख़्तों पर आमने-सामने बैठेंगे।
يُطَافُ عَلَيۡهِم بِكَأۡسٖ مِّن مَّعِينِۭ ۝ 44
(45) शराब24 के स्रोतों25 से सागर भर-भर कर उनके बीच फिराए जाएंगे,26
24. वास्तव में यहाँ शराब को स्पष्ट नहीं किया गया है, बल्कि सिर्फ़ 'कास' (सागर) का शब्द इस्तेमाल किया गया है। लेकिन अरबी भाषा में 'कास' का शब्द बोलकर हमेशा शराब ही समझा जाता है। जिस प्याले में शराब के बजाय दूध हो या पानी हो या जिस प्याले में कुछ न हो, उसे कास नहीं कहते। कास का शब्द केवल उसी समय बोला जाता है जब उसमें शराब हो।
25. अर्थात् वह शराब उस प्रकार की न होगी जो दुनिया में फलों और अनाजों को सड़ाकर तैयार की जाती है, बल्कि वह प्राकृतिक रूप से स्रोतों से निकलेगी और नहरों की शक्ल में बहेगी।
بَيۡضَآءَ لَذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ ۝ 45
(46) चमकती हुई शराब, जो पीनेवालों के लिए 'स्वाद' होगी।
لَا فِيهَا غَوۡلٞ وَلَا هُمۡ عَنۡهَا يُنزَفُونَ ۝ 46
(47) न उनके शरीर को उससे कोई नुकसान होगा और न उनकी बुद्धि उससे ख़राब होगी।27
27. अर्थात् वह शराब उन दोनों प्रकार के दोषों से खाली होगी, जो दुनिया की शराब में होते हैं। दुनिया की शराब में एक प्रकार का दोष यह होता है कि आदमी के क़रीब आते ही पहले तो उसकी बदबू और सड़ांध नाक में पहुँचती है, फिर उसका मज़ा आदमी के स्वाद को कड़वा बनाता है, फिर हलक से उतरते ही वह पेट पकड़ लेती है, फिर वह दिमाग़ को चढ़ती है और सिर में चक्कर शुरू होता है, फिर वह जिगर पर असर डालती है और आदमी की सेहत पर उसके बुरे असर पड़ने लगते हैं और फिर जब उसका नशा उतरता है तो आदमी ख़ुमार में गिरफ़्त हो जाता है। ये सब शरीर को पहुँचनेवाले नुक़सान हैं। दूसरी प्रकार के दोष यह होते हैं कि उसे पीकर आदमी बहकता है, अनाप-शनाप बकता है और लड़ाई-झगड़ा करता है। ये शराब की बौद्धिक हानियाँ हैं। दुनिया में इंसान सिर्फ आनन्द के लिए शराब की ये सारी हानियाँ सहन करता है। अल्लाह फ़रमाता है कि जन्नत की शराब में आनन्द तो पूरी तरह होगा, लेकिन इन दोनों प्रकार के दोषों में से कोई दोष भी उसमें न होगा।
وَعِندَهُمۡ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ عِينٞ ۝ 47
(48) और उनके पास निगाहें बचाने वाली,28 सुन्दर आँखोंवाली औरतें होंगी,29
28. अर्थात् अपने पति के सिवा किसी और की ओर निगाह न करनेवाली।
29. असंभव नहीं है कि ये वे लड़कियाँ हों जो दुनिया में व्यस्क होने से पहले मर गई हों। (अल्लाह बेहतर जानता है)
كَأَنَّهُنَّ بَيۡضٞ مَّكۡنُونٞ ۝ 48
(49) ऐसी नाज़ुक, जैसे अंडे के छिलके के नीचे छिपी हुई झिल्ली।30
30. मूल अरबी में जो शब्द प्रयुक्त हुए हैं, कुरआन के टीकाकारों ने उनके अनेक भाव लिखे हैं, मगर सही टीका वही है जो हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) ने नबी (सल्ल०) के जरिये से बयान की है। वह फ़रमाती हैं कि मैंने इस आयत का अर्थ नबी (सल्ल०) से पूछा तो आपने फ़रमाया कि उनकी नर्मी व नज़ाकत उस झिल्ली जैसी होगी जो अंडे के छिलके और उसके गूदे के दर्मियान होती है। (इब्ने-जरीर)
فَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 49
(50) फिर वे एक-दूसरे की ओर ध्यान देकर हालात पूछेगे।
قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ إِنِّي كَانَ لِي قَرِينٞ ۝ 50
(51) उनमें से एक कहेगा, "दुनिया में मेरा एक साथी था,
يَقُولُ أَءِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُصَدِّقِينَ ۝ 51
(52) जो मुझसे कहा करता था, क्या तुम भी पुष्टि करने वालों में से हो?31
31. अर्थात् तुम भी ऐसे कमज़ोर अक़ीदेवाले निकले कि मौत के बाद की जिंदगी जैसी बे-अक़्ली की बात को मान बैठे।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَدِينُونَ ۝ 52
(53) क्या वास्तव में जब हम मर चुके होंगे और मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाएँगे, तो हमें बदला व सज़ा दी जाएगी?
قَالَ هَلۡ أَنتُم مُّطَّلِعُونَ ۝ 53
(54) अब क्या आप लोग देखना चाहते हैं कि वे साहब अब कहाँ हैं?"
فَٱطَّلَعَ فَرَءَاهُ فِي سَوَآءِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 54
(55) यह कहकर ज्यों ही वह झुकेगा तो जहन्नम की गहराई में उसको देख लेगा
قَالَ تَٱللَّهِ إِن كِدتَّ لَتُرۡدِينِ ۝ 55
(56) और उसे सम्बोधित करके कहेगा, "ख़ुदा की क़सम! तू तो मुझे तबाह ही कर देनेवाला था,
وَلَوۡلَا نِعۡمَةُ رَبِّي لَكُنتُ مِنَ ٱلۡمُحۡضَرِينَ ۝ 56
(57) मेरे रब की मेहरबानी न होती तो आज मैं भी उन लोगों में से होता जो पकड़े हुए आए हैं।32
32. इससे अनुमान होता है कि आख़िरत में इंसान की सुनने, देखने और बोलने की शक्ति किस स्तर की होगी। जन्नत में बैठा हुआ एक आदमी जब चाहता है किसी टेलिविज़न यंत्र के बिना बस यूँ ही झुककर एक ऐसे आदमी को देख लेता है जो उससे न मालूम कितने हज़ार मील की दूरी पर जहन्नम का अजाब भोग रहा है। फिर यही नहीं कि वे दोनों एक दूसरे को देखते हैं, बल्कि उनके बीच किसी टेलिफ़ोन या रेडियो के वास्ते के बिना सीधे तौर पर बात भी होती है। वे इतनी लम्बी दूरी से बात करते हैं और एक-दूसरे की बात सुनते हैं।
أَفَمَا نَحۡنُ بِمَيِّتِينَ ۝ 57
(58) अच्छा, तो क्या अब हम मरनेवाले नहीं हैं?
إِلَّا مَوۡتَتَنَا ٱلۡأُولَىٰ وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 58
(59) मौत जो हमें आनी थी, वह बस पहले आ चुकी, अब हमें कोई अज़ाब नहीं होना।’’33
33. वार्ताशैली साफ़ बता रही है कि अपने उस दोज़ख़ी साथी से बातें करते करते यकायक यह जन्नती आदमी अपने आपसे बातें करने लगता है और ये तीन वाक्य उसके मुख से इस तरह अदा होते हैं, जैसे कोई आदमी अपने आपको हर आशा और हर अन्दाज़े से बेहतर हालत में पाकर बड़ी हैरत, ताज्जुब और ख़ुशी की भावनाओं में डूबकर आप ही आप बोल रहा हो। इस तरह की वाणी में कोई विशेष व्यक्ति सम्बोधित नहीं होता और न इस वार्ता में जो सवाल आदमी करता है उनसे वास्तव में किसी से कोई बात पूछना अभिप्रेत होता है, बल्कि इसमें आदमी के अपने ही एहसासों का प्रकटीकरण उसके मुख से होने लगता है। वह जन्नती आदमी उस दोज़ख़ी से बात करते-करते यकायक यह महसूस करता है कि मेरा सौभाग्य मुझे कहाँ ले आया है। अब न मौत है, न अज़ाब है। सारी विपदाओं का अन्त हो चुका है और मुझे हमेशा की जिंदगी मिल चुकी है। यही वह भावना है जिसके होते वह सहसा बोल उठता है, क्या अब हम इस श्रेणी को पहुँच गए हैं?
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 59
(60) निश्चय ही यही महान सफलता है।
لِمِثۡلِ هَٰذَا فَلۡيَعۡمَلِ ٱلۡعَٰمِلُونَ ۝ 60
(61) ऐसी ही सफलता के लिए कर्म करनेवालों को कर्म करना चाहिए।
أَذَٰلِكَ خَيۡرٞ نُّزُلًا أَمۡ شَجَرَةُ ٱلزَّقُّومِ ۝ 61
(62) बोलो, यह मेहमानी अच्छी है या ज़क्‍़क़ूम34 का पेड़?
34. ज़क़्क़ूम एक प्रकार का पेड़ है जो तिहामा के क्षेत्र में होता है। स्वाद उसका कडुवा होता है, गंध अप्रिय होती है और तोड़ने पर उसमें दूध-सा रस निकलता है जो अगर जिस्म को लग जाए तो सूज जाता है। शायद यह वही चीज़ है जिसे हमारे देश में थूहर कहते हैं।
إِنَّا جَعَلۡنَٰهَا فِتۡنَةٗ لِّلظَّٰلِمِينَ ۝ 62
(63) हमने उस पेड़ को ज़ालिमों के लिए फ़ितूना बना दिया है।35
35. अर्थात् इंकार करनेवाले यह बात सुनकर क़ुरआन पर तान और नबी (सल्ल०) का मज़ाक़ उड़ाने का एक नया मौक़ा पा लेते हैं । वे इसपर ठट्ठा मारकर कहते हैं, लो, अब नई सुनो, जहन्नम की दहकती हुई आग में पेड़ उगेगा।
إِنَّهَا شَجَرَةٞ تَخۡرُجُ فِيٓ أَصۡلِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 63
(64) वह एक पेड़ है जो जहन्नम की तह से निकलता है।
طَلۡعُهَا كَأَنَّهُۥ رُءُوسُ ٱلشَّيَٰطِينِ ۝ 64
(65) उसके शगूफे (गाभे) ऐसे हैं, जैसे शैतानों के सिर।36
36. किसी को यह भ्र्म न हो कि शैतान का सर किसने देखा है जो ज़वकूम के शगूफ़ों को उसकी उपमा दी गई। वास्तव में यह एक काल्पनिक प्रकार की भरी उपमा है और आम तौर पर हर भाषा के साहित्य में इससे काम लिया जाता है। जैसे, हम एक औरत की अति सुन्दरता की कल्पना कराने के लिए कहते हैं, वह परी है। और अति कुरूपता बयान करने के लिए कहते हैं, वह चुडैल है या भुतनी है। किसी आदमी की नूरानी शक्ल की तारीफ़ में कहा जाता है, वह फ़रिश्ता सूरत है और कोई अति भयानक शक्ल में सामने आए तो देखनेवाले कहते हैं कि वह शैतान बना चला आ रहा है।
فَإِنَّهُمۡ لَأٓكِلُونَ مِنۡهَا فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 65
(66) जहन्नम के लोग उसे खाएंगे और उसी से पेट भरेंगे,
ثُمَّ إِنَّ لَهُمۡ عَلَيۡهَا لَشَوۡبٗا مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 66
(67) फिर उसपर पीने के लिए उनको खोलता हुआ पानी मिलेगा
ثُمَّ إِنَّ مَرۡجِعَهُمۡ لَإِلَى ٱلۡجَحِيمِ ۝ 67
(68) और इसके बाद उनकी वापसी उसी दोज़ख़ की आग की ओर होगी।37
37. इससे मालूम होता है कि दोज़खी जब भूख-प्यास से बेताब होने लगेंगे तो उन्हें उस जगह हाँक दिया जाएगा जहाँ ज़क्‍़क़ूम के पेड़ और खौलते हुए पानी के स्रोत होंगे। फिर जब वे वहाँ से खा-पीकर फ़ारिग़ हो जाएँगे तो उन्हें दोज़ख़ की ओर वापस लाया जाएगा।
إِنَّهُمۡ أَلۡفَوۡاْ ءَابَآءَهُمۡ ضَآلِّينَ ۝ 68
(69) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने बाप दादा को गुमराह पाया
فَهُمۡ عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِمۡ يُهۡرَعُونَ ۝ 69
(70) और उन्हीं के पद चिह्नों पर दौड़ चले।38
38. अर्थात् उन्होंने स्वयं अपनी बुद्धि से काम लेकर कभी न सोचा कि बाप-दादा से जो तरीक़ा चला आ रहा है, वह ठीक भी है या नहीं। बस आँखें बन्द करके उसी डगर पर हो लिए जिसपर दूसरों को चलते देखा |
وَلَقَدۡ ضَلَّ قَبۡلَهُمۡ أَكۡثَرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 70
(71) हालांकि इनसे पहले बहुत से लोग गुमराह हो चुके थे
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا فِيهِم مُّنذِرِينَ ۝ 71
(72) और उनमें हमने सचेत करनेवाले रसूल भेजे थे।
فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 72
(73) अब देख लो कि उन सचेत किए जानेवालों का क्या परिणाम हुआ।
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 73
(74) इस दुष्परिणाम से बस अल्लाह के वही बन्दे बचे हैं, जिन्हें उसने अपने लिए मुख्य कर लिया है।
وَلَقَدۡ نَادَىٰنَا نُوحٞ فَلَنِعۡمَ ٱلۡمُجِيبُونَ ۝ 74
(75) हमको39 (इससे पहले) नूह ने पुकारा था,40 तो देखो कि हम कैसे अच्छे जवाब देनेवाले थे।
39. इस विषय का सम्बन्ध पिछले रुकूअ के आखिरी वाक्यों से है। उनपर विचार करने से समझ में आ जाता हैं कि ये किस्से यहाँ किस उद्देश्य से सुनाए जा रहे हैं।
40. इससे तात्पर्य वह फ़रियाद है जो हज़रत नूह (अलैहि०) ने एक लंबी मुद्दत तक अपनी क़ौम को सत्य धर्म की दावत देने के बाद अन्ततः निराश होकर अल्लाह से की थी। इस फ़रियाद के शब्द सूरा-54 अल-क़मर (आयत 10) में इस तरह आए हैं कि "उसने अपने रब को पुकारा कि मैं पराजित हो गया हूँ, अब तू मेरी सहायता को पहुँच।"
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 75
(76) हमने उसको और उसके घरवालों को बड़ी बेचैनी से बचा लिया।41
41. अर्थात् उस भारी पीड़ा से जो एक दुराचारी और ज़ालिम क़ौम के निरंतर विरोध से उनको पहुँच रही थी। इसमें एक सूक्ष्म संकेत इस मामले की ओर भी है जिस तरह नूह (अलैहि०) और उनके साथियों को उस भारी पीड़ा से बचाया गया, उसी तरह अन्ततः हम मुहम्मद (सल्ल०) और आपके साथियों को भी इस भारी पीड़ा से बचा लेंगे जिसमें मक्कावालों ने उनको ग्रस्त कर रखा है।
وَجَعَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُۥ هُمُ ٱلۡبَاقِينَ ۝ 76
(77) और उसी की नस्ल को बाक़ी रखा,42
42. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि जो लोग हज़रत नूह (अलैहि०) का विरोध कर रहे थे, उनकी नस्ल दुनिया से समाप्त कर दी गई और हज़रत नूह (अलैहि०) ही की नस्ल बाक़ी रखी गई। दूसरे यह कि तमाम इंसानी नस्ल समाप्त कर दी गई और आगे सिर्फ हज़रत नूह (अलैहि०) ही की औलाद से दुनिया आबाद की गई।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 77
(78) और बाद की नस्लों में उसकी प्रशंसा और सराहना छोड़ दी।
سَلَٰمٌ عَلَىٰ نُوحٖ فِي ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 78
(79) सलाम है नूह पर तमाम दुनियावालों में।43
43. अर्थात् आज दुनिया में हज़रत नूह (अलैहि०) की बुराई करनेवाला कोई नहीं है। तूफ़ाने-नूह के बाद से आज तक हज़ारों वर्षों से दुनिया उनको भलाई के साथ ही याद कर रही है।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 79
(80) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला दिया करते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 80
(81) सच तो यह है कि वह हमारे मोमिन बन्दों में से था।
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 81
(82) फिर दूसरे गिरोह को हमने डुबो दिया।
۞وَإِنَّ مِن شِيعَتِهِۦ لَإِبۡرَٰهِيمَ ۝ 82
(83) और नूह ही के तरीके पर चलनेवाला इबराहीम था।
إِذۡ جَآءَ رَبَّهُۥ بِقَلۡبٖ سَلِيمٍ ۝ 83
(84) जब वह अपने रब के सामने सरल हृदय लेकर आया।44
44. रब के सामने आने से तात्पर्य उसकी और रुजू करना और सबसे मुँह मोड़कर उसी की ओर रुख़ करना है। और मूल अरबी में कल्वे-सलीम' प्रयुक्त हुआ है जिससे अभिप्रेत ऐसा दिल है जो तमाम आस्था और नैतिकता संबंधी तमाम खराबियों से मुक्त हो, जिसमें कुफ्र और शिर्क और शक व शुबहे का लेश मात्र तक न हो, जिसमें अवज्ञा और उर्दडता की कोई भावना न पाई जाती हो, जिसमें कोई ऐच-पेंच और उलझाव न हो, जो हर प्रकार के बुरे रुझानों और अपवित्र इच्छाओं से बिल्कुल साफ़ हो।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَاذَا تَعۡبُدُونَ ۝ 84
(85) जब उसने अपने बाप और अपनी क्रीम से कहा,45 "ये क्या चीजें है जिनकी तुम उपासना कर रहे हो ?
45. हज़रत इबराहीम के इस किस्से की विस्तृत जानकारी के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 74-84 टिप्पणियाँ सहित; सूरा-19 मरयम, आयत 41-50; सूरा-21 अंबिया, आयत 51-73; सूरा-26 शुअरा, आयत 69-89; सूरा-29 अनकबूत, आयत 16-27
أَئِفۡكًا ءَالِهَةٗ دُونَ ٱللَّهِ تُرِيدُونَ ۝ 85
(86) क्या अल्लाह को छोड़कर झूठ गढ़े हुए उपास्य चाहते हो?
فَمَا ظَنُّكُم بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 86
(87) आखिर सारे जहान के रख (अल्लाह) के बारे में तुम्हारा क्या गुमान है?''46
46. अर्थात् अल्लाह को आखिर तुमने क्या समझ रखा है? क्या तुम्हारा विचार यह है कि ये लकड़ी पत्थर के उपास्य उसके सहजातीय हो सकते हैं या उसके गुणों और उसके अधिकारों में शरीक हो सकते हैं? और क्या तुम इस भ्रम में पड़े हो कि उसके साथ इतनी बड़ी गुस्ताखी करके तुम उसकी पकड़ से बचे रह जाओगे?
فَنَظَرَ نَظۡرَةٗ فِي ٱلنُّجُومِ ۝ 87
(88) फिर47 उसने तारों पर एक निगाह डाली,48
47. अब एक विशेष घटना का उल्लेख किया जा रहा है जिसका विवरण सूरा-21 अंबिया (आयत 51-73), सूरी-29 अनकबूत (आयत 16-27) में गुजर चुका है।
48. इब्ने-अबी हातिम ने प्रसिद्ध ताबई टीकाकार क़तादा का यह कथन उद्धृत किया है कि अरबवासी'न-ज़्र-रफिन्नुजूम' (उसने तारों पर निगाह डाली) के शब्द मुहावरे के रूप में इस अर्थ में बोला करते हैं कि उस व्यक्ति ने विचार किया या वह आदमी सोचने लगा। अल्लामा इब्ने-कसीर ने इसी कथन को प्राथमिकता दी है और वैसे भी यह बात प्राय: देखने में आती है कि जब किसी आदमी के सामने कोई विचारणीय मामला आता है तो वह आसमान की और या ऊपर की और कुछ देर देखता रहता है, फिर सोचकर जवाब देता है।
فَقَالَ إِنِّي سَقِيمٞ ۝ 88
(89) और कहा मेरी तबियत ख़राब है।49
49. यह उन तीन बातों में से एक है जिसके बारे में कहा जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी जिंदगी में ये तीन झूठ बोले थे, हालांकि इस बात को झूठ या सच्चाई के विरुद्ध कहने के लिए पहले किसी माध्यम से यह मालूम होना चाहिए कि उस समय हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को किसी प्रकार की कोई तकलीफ़ न थी और उन्होंने सिर्फ़ बहाने के तौर पर यह बात बना दी थी। अगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है तो ख़ामख़ाह उसे झूठ आख़िर किस आधार पर कह दिया जाए। इस सिलसिले में विस्तृत वार्ता हम सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 60 में कर चुके हैं।
فَتَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ مُدۡبِرِينَ ۝ 89
(90) चुनांचे वे लोग उसे छोड़कर चले गए।50
50. यह वाक्य स्वतः स्पष्ट कर रहा है कि वस्तुस्थिति क्या थी। मालूम होता है कि क़ौम के लोग अपने किसी मेले में जा रहे होंगे। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के परिवारवालों ने उनसे भी साथ चलने को कहा होगा। उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि मेरी तबियत खराब है, मैं नहीं चल सकता। अब अगर यह बात बिल्कुल ही सच्चाई के विरुद्ध होती तो ज़रूर घर के लोग उनसे कहते कि अच्छे-भले चंगे हो, अकारण बहाना बना रहे हो। लेकिन जब वे इस वजह को स्वीकार करके उसे पीछे छोड़ गए, तो इससे स्वयं ही यह बात स्पष्ट होती है कि ज़रूर उस वक़्त हज़रत इबराहीम को नज़ला, खाँसी या कोई और ऐसी ही नुमायाँ पीड़ा होगी जिसकी वजह से घरवाले उन्हें छोड़ जाने पर राज़ी हो गए।
فَرَاغَ إِلَىٰٓ ءَالِهَتِهِمۡ فَقَالَ أَلَا تَأۡكُلُونَ ۝ 90
(91) उनके पीछे वह चुपके से उनके उपास्यों के मंदिर में घुस गया और बोला, "आप लोग खाते क्यों नहीं हैं?51
51. इससे साफ़ मालूम होता है कि मन्दिर में बुतों के सामने तरह-तरह के खाने की चीजें रखी हुई होंगी।
مَا لَكُمۡ لَا تَنطِقُونَ ۝ 91
(92) क्या हो गया, आप लोग बोलते भी नहीं।"
فَرَاغَ عَلَيۡهِمۡ ضَرۡبَۢا بِٱلۡيَمِينِ ۝ 92
(93) इसके बाद वह उनपर पिल पड़ा और सीधे हाथ से ख़ूब चोटें लगाईं।
فَأَقۡبَلُوٓاْ إِلَيۡهِ يَزِفُّونَ ۝ 93
(94) (वापस आकर) वे लोग भागे-भागे उसके पास आए।52
52. यहाँ क्रिस्सा संक्षेप में बयान किया जा रहा है। सूरा-21 अंबिया में इसका जो विवरण दिया गया है, वह यह है कि जब उन्होंने आकर अपने मन्दिर में देखा कि सारे बुत टूटे पड़े हैं, तो पूछ-गछ शुरू की। कुछ लोगों ने बताया कि इबराहीम नामक एक नौजवान बुतपरस्ती के विरुद्ध ऐसी-ऐसी बातें करता रहा है। इसपर मज्मे ने कहा कि पकड़ लाओ उसे। चुनांचे एक गिरोह दौड़ता हुआ उनके पास पहुंचा और उन्हें मज्मे के सामने ले आया।
قَالَ أَتَعۡبُدُونَ مَا تَنۡحِتُونَ ۝ 94
(95) उसने कहा, "क्या तुम अपनी ही तराशी हुई चीज़ों को पूजते हो?
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ وَمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 95
(96) हालांकि अल्लाह ही ने तुमको भी पैदा किया है और उन चीज़ों को भी जिन्हें तुम बनाते हो।"
قَالُواْ ٱبۡنُواْ لَهُۥ بُنۡيَٰنٗا فَأَلۡقُوهُ فِي ٱلۡجَحِيمِ ۝ 96
(97) उन्होंने आपस में कहा, "इसके लिए एक अलाव तैयार करो और इसे दहकती हुई आग के ढेर में फेंक दो।"
فَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَسۡفَلِينَ ۝ 97
(98) उन्होंने उसके विरुद्ध एक कार्रवाई करनी चाही थी, मगर हमने उन्हीं को नीचा दिखा दिया।53
53. सूरा-21 अंबिया (आयत 69) में इस तरह कहा गया है- "हमने कहा, ऐ आग, ठंडी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम के लिए।" और सूरा-29 अनकबूत (आयत 24) में कहा गया है, "फिर अल्लाह ने उसको आग से बचा लिया।" इससे यह सिद्ध होता है कि उन लोगों ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को आग में फेंक दिया था और फिर अल्लाह ने उन्हें उससे सलामती के साथ निकाल दिया। और [इस तरह] उनके चामत्कारिक ढंग से बच जाने का नतीजा यह हुआ कि इबराहीम (अलैहि०) की बड़ाई सिद्ध हो गई और मुशरिकों को अल्लाह ने नीचा दिखा दिया।
وَقَالَ إِنِّي ذَاهِبٌ إِلَىٰ رَبِّي سَيَهۡدِينِ ۝ 98
(99) इबराहीम ने कहा,54 "मैं अपने रब की ओर जाता हूँ,55 वही मेरी रहनुमाई करेगा।"
54. अर्थात् आग से सलामती के साथ निकल आने के बाद जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने देश से निकल जाने का फ़ैसला किया तो चलते समय ये शब्द कहे।
55. इसका अर्थ यह है कि मैं अपने रब के लिए घर और वतन छोड़ रहा हूँ, क्योंकि उसी का हो जाने की वजह से मेरी क़ौम मेरी दुश्मन हो गई है। साथ ही यह कि मेरा दुनिया में कोई ठिकाना नहीं है जिसका रुख करूँ, जिधर वह ले जाएगा उसी ओर चला जाऊँगा।
رَبِّ هَبۡ لِي مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 99
(100) ऐ पालनहार! मुझे एक बेटा दे जो सदाचारियों में से हो।''56
56. इस दुआ से अपने आप यह बात मालूम होती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उस वक़्त बे-औलाद थे। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर जो हालात बयान किए गए हैं उनसे मालूम होता है कि आप सिर्फ़ एक बीवी और एक भतीजे (हज़रत लूत अलैहि०) को लेकर देश से निकले थे। उस वक़्त स्वाभाविक रूप से आपके मन में वह इच्छा पैदा हुई कि अल्लाह कोई नेक औलाद प्रदान करे जो इस प्रवासी जीवन की दशा में आपका गम दूर करे।
فَبَشَّرۡنَٰهُ بِغُلَٰمٍ حَلِيمٖ ۝ 100
(101) (इस दुआ के जवाब में) हमने उसको एक सहनशील लड़के की खुशखबरी दी।57
57. तात्पर्य है हज़रत इस्माईल । इससे यह न समझ लिया जाए कि दुआ करते ही यह शुभ-सूचना दे दी गई। सूरा-14 इबराहीम (आयत 39) से सिद्ध होता है कि सैयिदिना हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की दुआ और इस शुभ-सूचना के बीच वर्षों का फ़ासला था।
فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ ٱلسَّعۡيَ قَالَ يَٰبُنَيَّ إِنِّيٓ أَرَىٰ فِي ٱلۡمَنَامِ أَنِّيٓ أَذۡبَحُكَ فَٱنظُرۡ مَاذَا تَرَىٰۚ قَالَ يَٰٓأَبَتِ ٱفۡعَلۡ مَا تُؤۡمَرُۖ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 101
(102) वह लड़का, जब उसके साथ दौड़-धूप करने की उम्र को पहुँच गया तो (एक दिन) इबराहीम ने उससे कहा, "बेटा! मैं सपने में देखता हूँ कि मैं तुझे ज़ब्‍ह कर रहा हूँ ।58 अब तू बता, तेरा यया विचार है?''59 उसने कहा, "अब्बाजान! जो कुछ आपको हुक्म दिया जा रहा है,60 उसे कर डालिए, आप इनशा अल्लाह, पर सब्र करनेवालों में से पाएँगे।'
58. यह बात ध्यान में रहे कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने सपने में यह नहीं देखा था कि उन्होंने बेटे को ज़ब्ह कर दिया है, बल्कि यह देखा था कि वे उसे जल्द कर रहे हैं। यद्यपि वे उस समय उस सपने का अर्थ यही समझे थे कि वे बेटे को ज़ब्ह कर दें। इसी बुनियाद पर वे ठंडे दिल से बेटा क़ुरबान कर देने के लिए बिल्कुल तैयार हो गए थे, मगर सपना दिखाने में जो सूक्ष्म संकेत अल्लाह ने सामने रखा था, उसे आगे की आयत 105 में उसने स्वयं खोल दिया है।
59. बेटे से यह बात पूछने का उद्देश्य यह न था कि तू राजी हो तो अल्लाह के आदेश का पालन करें, वरना न करूँ। बल्कि हज़रत इबराहीम वास्तव में यह देखना चाहते थे कि जिस नेक औलाद की उन्होंने दुआ माँगी थी वह सच में कितनी नेक है। अगर वह स्वयं भी अल्लाह की प्रसन्नता पर जान क़ुरबान कर देने के लिए तैयार है तो इसका अर्थ यह है कि दुआ पूरे तौर पर क़बूल हुई है और बेटा सिर्फ़ शारीरिक रूप ही से उनकी औलाद नहीं है, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक हैसियत से भी उनका सपूत है।
فَلَمَّآ أَسۡلَمَا وَتَلَّهُۥ لِلۡجَبِينِ ۝ 102
(103) आखिरकार जब इन दोनों ने अपने आपको हवाले कर दिया और इबराहीम ने बेटे को माथे के बल गिरा दिया,61
61. अर्थात् हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ज़व्ह करने के लिए बेटे को चित नहीं लिटाया, बल्कि औंधे मुँह लिटाया, ताकि ज़ब्ह करते वक्त बेटे का चेहरा देखकर कहीं मुहब्बत व प्यार हाथ में कपकपी पैदा न कर दे। इसलिए वे चाहते थे कि नीचे की ओर से हाथ डालकर छुरी चलाएँ।
وَنَٰدَيۡنَٰهُ أَن يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 103
(104) और हमने आवाज दी62 कि "ऐ इबराहीम!
62. व्याकरणविदों का एक वर्ग कहता है कि यहाँ 'और' 'तो' के अर्थ में है, अर्थात् वाक्य यूँ है कि 'जब इन दोनों ने आत्म-समर्पण कर दिया और इबराहीम ने बेटे को माथे के बल गिरा दिया तो हमने आवाज़ दी,' लेकिन एक दूसरा गिरोह कहता है कि यहाँ शब्द 'जब' का उत्तर छुपा हुआ है और इसको सुननेवाले की समझ पर छोड़ दिया गया है, क्योंकि बात इतनी बड़ी थी कि इसे शब्दों में बयान करने के बजाय परिकल्पना ही के लिए छोड़ देना अधिक उचित था। जब अल्लाह ने देखा होगा कि बूढ़ा बाप अपने अरमानों से माँगे हुए बेटे को सिर्फ़ हमारी प्रसन्नता पर क़ुरबान कर देने के लिए तैयार हो गया है और बेटा भी गले पर छुरी चलवाने के लिए राज़ी है, तो यह दृश्य देखकर कैसा कुछ रहमत के दरिया ने जोश मारा होगा और मालिक को इन बाप-बेटों पर कैसा कुछ प्यार आया होगा, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है।
قَدۡ صَدَّقۡتَ ٱلرُّءۡيَآۚ إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 104
(105) तूने सपना सच कर दिखाया,63 हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।64
63. चूँकि सपने में यह दिखाया गया था कि ज़ब्ह कर रहे हैं, यह नहीं दिखाया गया था कि ज़ब्‍ह कर दिया है, इसलिए जब हज़रत इबराहीम ने ज़ब्ह करने की पूरी तैयारी कर ली, तो फ़रमाया कि तुमने अपना सपना सच कर दिखाया। अब हमें तुम्हारे बच्चे की जान लेनी अभीष्ट नहीं है, वास्तविक उद्देश्य जो कुछ था, वह तुम्हारी इस तत्परता और तैयारी से प्राप्त हो गया है।
64. अर्थात् जो लोग अत्युत्तम कार्यनीति अपनाते हैं, उनके ऊपर आज़माइशें हम इसलिए नहीं डाला करते कि उन्हें ख़ामख़ाह कष्ट में डालें और रंज व ग़म में ग्रस्त करें, बल्कि ये आज़माइशें उनके उच्च गुणों को उभारने के लिए और उन्हें बड़े दर्जे देने के लिए उनपर डाली जाती हैं और फिर आज़माइश की ख़ातिर जिस परेशानी में हम उन्हें डालते हैं, उससे सकुशल उनको निकलवा भी देते हैं। चुनांचे देखो, बेटे की क़ुरबानी के लिए तुम्हारी तत्परता और तैयारी ही बस इसके लिए काफ़ी हो गई कि तुम्हें वह रुत्बा दे दिया जाए जो हमारी प्रसन्नता पर सच में बेटा क़ुरबान कर देनेवाले को मिल सकता था। इस तरह हमने तुम्हारे बच्चे की जान भी बचा दी और तुम्हें यह ऊँचा रुत्वा भी दे दिया।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡبَلَٰٓؤُاْ ٱلۡمُبِينُ ۝ 105
(106) निश्चय ही यह एक खुली आज़माइश थी।’’65
65. अर्थात् अभिप्रेत तुम्हारे हाथ से तुम्हारे बच्चे को ज़ब्‍ह करा देना न था, बल्कि वास्तविक उद्देश्य तुम्हारा इम्तिहान लेना था कि तुम हमारे मुक़ाबले में दुनिया की किसी चीज़ को प्रियतम तो नहीं रखते!
وَفَدَيۡنَٰهُ بِذِبۡحٍ عَظِيمٖ ۝ 106
(107) और हमने एक बड़ी क़ुरबानी फ़िदये (प्रतिदान) में देकर उस बच्चे को छुड़ा लिया।66
66. 'बड़ी क़ुरबानी' से तात्पर्य, जैसा कि बाइबिल और इस्लामी रिवायतों में बयान हुआ है, एक मेंढा है जो उस समय अल्लाह के फ़रिश्ते ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सामने पेश किया, ताकि बेटे के बदले उसको जब्ह कर दें। इसे 'बड़ी क़ुरबानी' के शब्द से इसलिए व्यक्त किया गया है कि वह इबराहीम (अलैहि०) जैसे वफ़ादार बन्दे के लिए, इबराहीम के बेटे जैसे धैर्यवान और जाँनिसार लड़के का फ़िदया (प्रतिदान) था। और उसे अल्लाह ने एक बेमिसाल कुरबानी की नीयत पूरी करने का माध्यम बनाया था। इसके अलावा उसे 'बड़ी क़ुरबानी' करार देने की एक वजह यह भी है कि क़ियामत तक के लिए अल्लाह ने यह सुन्नत जारी कर दी कि उसी तारीख़ को तमाम ईमानवाले दुनिया भर में जानवर क़ुरबान करें और वफ़ादारी और जाँनिसारी की इस महान घटना की याद ताज़ा करते रहें।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 107
(108) और उसकी तारीफ़ और सराहना हमेशा के लिए बाद की नस्लों में छोड़ दी।
سَلَٰمٌ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 108
(109) सलाम है इबराहीम पर।
كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 109
(110) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 110
(111) निश्चय ही वह हमारे ईमानवाले बन्दों में से था
وَبَشَّرۡنَٰهُ بِإِسۡحَٰقَ نَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 111
(112) और हमने उसे इसहाक़ शुभ-सूचना दी,66अ एक नबी नेकों में से।
66अ. अर्थात् क़ुरबानी की इस घटना के बाद हज़रत इसहाक़ के पैदा होने की शुभ-सूचना दी।
وَبَٰرَكۡنَا عَلَيۡهِ وَعَلَىٰٓ إِسۡحَٰقَۚ وَمِن ذُرِّيَّتِهِمَا مُحۡسِنٞ وَظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ مُبِينٞ ۝ 112
(113) और उसे और इसहाक़ को बरकत दी।67 अब इन दोनों की नस्ल में से कोई उत्तम कार्य करनेवाला है और कोई अपने आप पर खुला जुल्म करनेवाला है।68
67. यहाँ पहुँचकर यह प्रश्न हमारे सामने आता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने जिन लड़के को क़ुर्बान करने के लिए तैयार हुए थे, वे कौन थे। [आज की बाइबिल इस प्रश्न के उत्तर में हजरत इसहाक का नाम लेती है। (उत्पत्ति 22 : 1-2) मगर स्वयं बाइबिल ही के दूसरे बयान इस दावे का खुला खंडन कर रहे हैं। (देखिए किताब उत्पत्ति 16 : 1-3, 11-16 और 17 : 15-25 तथा 21:5) इस्लामी उलमा में से भी एक गिरोह इसी बात को मानता है, जबकि दूसरे उलमा के नज़दीक यह लड़के हज़रत इसहाक नहीं, बल्कि हज़रत इस्माईल (अलैहि०) थे, और यही बात सही है। इसके तर्क नीचे दिए जा रहे हैं- (1) ऊपर क़ुरआन मजीद में अल्लाह का यह इर्शाद गुज़र चुका है कि अपने देश से चलते समय हज़रत इबराहीम ने एक नेक बेटे के लिए दुआ की थी और उसके उत्तर में अल्लाह ने उनको एक सहनशील लड़के की शुभ-सूचना दी। प्रसंग-संदर्भ स्पष्ट बता रहा है कि यह शुभ-सूचना जिस लड़के की दी गई, वह आपका पहलौंटा बच्चा था। फिर यह भी कुरआन ही के वार्ताक्रम से स्पष्ट होता है कि वही बच्चा जब बाप के साथ दौड़ने-चलने के योग्य हुआ, तो उसे ज़ब्द करने का इशारा फ़रमाया गया। अब यह बात निश्चित रूप से सिद्ध है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पहलौटे बेटे हज़रत इस्माईल (अलैहि०) थे, न कि हज़रत इसहाक। (2) क़ुरआन मजीद में जहाँ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की शुभ-सूचना दी गई है वहाँ उनके लिए 'ग़ुलामे-अलीम' (ज्ञानवान लड़का) के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। (सूरा-51, अज़-ज़ारियात, आयत 28) और (सूरा-15, अल-हिज्र, आयत 53) मगर यहाँ जिस लड़के की शुभ-सूचना दी गई है, उसके लिए 'गुलामे-हलीम' (सहनशील लड़के) के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि दो लड़कों की दो खुली विशेषताएँ अलग-अलग थीं और ज़ब्ह का आदेश ज्ञानवाले लड़के के लिए नहीं, 'सहनशील' लड़के के लिए इस्तेमाल हुआ था। (3) क़ुरआन मजीद में हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश की शुभ-सूचना देते हुए साथ ही साथ यह शुभ-सूचना भी दे दी गई थी कि उनके यहाँ याकूब जैसा बेटा होगा (सूरा-11 हूद, आयत 71) । अब स्पष्ट है कि जिस बेटे के जन्म की ख़बर देने के साथ ही यह ख़बर भी दी जा चुकी हो कि उसके यहाँ एक योग्य लड़का पैदा होगा, उसके बारे में अगर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को यह सपना दिखाया जाता कि आप उसे ज़ब्ह कर रहे हैं तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) इससे कभी यह न समझ सकते थे कि उस बेटे को क़ुरबान कर देने का संकेत किया जा रहा है। (4) अल्लाह सारा किस्सा बयान करने के बाद आखिर में फ़रमाता है कि, 'हमने उसे इसहाक की शुभ- सूचना दी, एक नबी सदाचारियों में से।' इससे साफ़ मालूम होता है कि यह वही बेटा नहीं है जिसे ज़ब्ह करने का संकेत किया गया था, बल्कि पहले किसी और बेटे की शुभ सूचना दी गई, फिर वह जब बाप के साथ दौड़ने-चलने के योग्य हुआ तो उसे ज़व्ह करने का आदेश हुआ। फिर जब इबराहीम इस परीक्षा में सफल हो गए, तब उनको एक और बेटे इसहाक़ के पैदा होने की शुभ-सूचना दी गई। यह वार्ता-क्रम निश्चित रूप से निर्णाय कर देता है कि जिस बेटे को ज़व्ह करने का आदेश हुआ था, वह हज़रत इसहाक़ न थे, बल्कि वह उनसे कई वर्ष पहले पैदा हो चुके थे। (5) भरोसेमंद रिवायतों से यह सिद्ध है कि हज़रत इस्माईल (अलैहि०) के फ़िये में जो मेंढा ज़व्ह किया गया था, उसके सींग ख़ाना काबा में हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ि०) के ज़माने तक सुरक्षित थे। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरबानी की यह घटना शाम (सीरिया) में नहीं, बल्कि मक्का मुअज्जमा में घटित हुई थी और हज़रत इस्माईल (अलैहि०) के साथ घटित हुई थी, इसी लिए तो हज़रत इबराहीम व इस्माईल (अलैहि०) के द्वारा निर्माण किए गए ख़ाना काबा में उसकी यादगार सुरक्षित रखी गई थी। (6) यह बात सदियों से अरब की रिवायतों में सुरक्षित थी कि कुरबानी की यह घटना मिना में घटित हुई थी, और यह सिर्फ़ रिवायत ही न थी, बल्कि उस वक़्त से नबी (सल्ल०) के समय तक हज के कामों में यह काम भी बराबर शामिल चला आ रहा था कि उसी मक़ामे-मिना में जाकर लोग उसी जगह पर, जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने क़ुरबानी की थी, जानवर क़ुरबान किया करते थे। फिर जब नबी (सल्ल०) पैग़म्बर बनाकर भेजे गए, तो अपने भी इस तरीक़े को जारी रखा, यहाँ तक कि आज तक हज के मौके पर दस ज़िलहिज्जा को मिना में क़ुरबानियाँ की जाती हैं। साढ़े चार हज़ार वर्ष का यह लगातार कार्य इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस क़ुरबानी की वारिस इस्माईल (अलैहि०) की संतान हुई है, न कि इसहाक (अलैहि०) की संतान।
68. यह वाक्य उस पूरे उद्देश्य पर रौशनी डालता है कि जिसके लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ुरबानी का यह किस्सा यहाँ बयान किया गया है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दो बेटों की नस्ल से दो बहुत बड़ी क़ौमें पैदा हुईं। एक बनी इस्राईल और दूसरे बनी इस्माईल। यहाँ अल्लाह उस परिवार की तारीख़ का सबसे ज़्यादा सुनहरा कारनामा सुनाने के बाद उन दोनों गिरोहों को यह एहसास दिलाता है कि तुम्हें दुनिया में यह जो कुछ श्रेय मिला है, वह ख़ुदापरस्ती (ईश्वरवादिता) और इख्लास (निष्ठा) और जौनसारी की उन शानदार रिवायतों की वजह से हुआ है जो तुम्हारे बाप-दादा इबराहीम व इस्माईल और इसहाक़ (अलैहि०) ने कायम की थीं। वह इन्हें बताता है कि हमने उनको जो बरकत दी और उनपर अपनी दया व कृपा की जो बारिशें बरसाईं, यह कोई अंधी बाँट न थी कि बस यूँ ही एक आदमी और उसके दो लड़कों को छाँटकर नवाज़ दिया गया हो, बल्कि उन्होंने अपने सच्चे मालिक के साथ अपनी वफ़ादारी के कुछप्रमाण जुटाए थे और इनकी बिना पर वे इन कृपाओं के हक़दार बने थे। अब तुम लोग सिर्फ़ इस श्रेय के आधार पर कि तुम उनकी सन्तान हो, इन कृपाओं के अधिकारी नहीं हो सकते। हम तो यह देखेंगे कि तुममें से अच्छे से अच्छा काम करनेवाला कौन है और ज़ालिम कौन? फिर जो जैसा होगा, उसके साथ वैसा ही मामला करेंगे।
وَلَقَدۡ مَنَنَّا عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 113
(114) और हमने मूसा व हारून पर उपकार किया,
وَنَجَّيۡنَٰهُمَا وَقَوۡمَهُمَا مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 114
(115) उनको और उनकी क़ौम को बड़ी बेचैनी से नजात दी।69
69. अर्थात् उस भारी मुसीबत से जिसमें वे फ़िरऔन और उसकी क़ौम के हाथों में गिरफ्तार थे।
وَنَصَرۡنَٰهُمۡ فَكَانُواْ هُمُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 115
(116) उन्हें मदद दी जिसकी वजह से वही ग़ालिब रहे।
وَءَاتَيۡنَٰهُمَا ٱلۡكِتَٰبَ ٱلۡمُسۡتَبِينَ ۝ 116
(117) उनको अत्यन्त स्पष्ट किताब दी।
وَهَدَيۡنَٰهُمَا ٱلصِّرَٰطَ ٱلۡمُسۡتَقِيمَ ۝ 117
(118) उन्हें सीधा रास्ता दिखाया
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِمَا فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 118
(119) और बाद की नस्लों में उनकी शुभ-चर्चा बाक़ी रखी।
سَلَٰمٌ عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 119
(120) सलाम है मूसा और हारून पर।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 120
(121) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُمَا مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 121
(122) वास्तव में वे हमारे मोमिन बन्दों में से थे।
وَإِنَّ إِلۡيَاسَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 122
(123) और इलयास भी निश्चित रूप से भेजे हुए (रसूलों) में से था।70
70. हज़रत इलियास (अलैहि०) बनी इसराइलियों के नबियों में से थे। इनका उल्लेख कुरआन मजीद में सिर्फ़ दो ही जगहों पर आया है। एक इस जगह और दूसरी जगह सूरा-6 अनआम, आयत 85 । वर्तमान काल के शोधकर्ता उनका समय सन् 875 और 850 ई० पू० के बीच निश्चित करते हैं। वे जिलआद के रहनेवाले थे। (पुराने ज़माने में जिलआद उस इलाके को कहते थे जो आजकल मौजूदा स्टेट जार्डन के उत्तरी ज़िलों पर सम्मिलित है और यरमूक नदी के दक्षिण में स्थित है।) बाइबल में उनका ज़िक्र एलियाह तिश्वी (Elijah the Tishbite) के नाम से किया गया है। इनको [नबी बनाकर भेजे जाने के समय बनी इसराईल में बअल देवता और उसकी बीवी अस्तारात देवी की उपासना बुरी तरह फैली हुई थी। [हज़रत इलियास (अलैहि०) के हालात के] विवरण के लिए बाइबल के निम्नलिखित अध्याय देखे जाएँ, 1 राजा, अध्याय 17, 18, 19, 21; 2, राजा अध्याय 1-2; इतिहास अध्याय 21)
إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 123
(124) याद करो जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि "तुम लोग डरते नहीं हो?
أَتَدۡعُونَ بَعۡلٗا وَتَذَرُونَ أَحۡسَنَ ٱلۡخَٰلِقِينَ ۝ 124
(125) क्या तुम बअल71 को पुकारते हो, और सबसे अच्छे स्रष्टा को छोड़ देते हो,
71. बअल शब्द का अर्थ स्वामी, सरदार और मालिक है। शौहर के लिए भी यह शब्द बोला जाता था और बहुत-सी जगहों पर स्वयं कुरआन मजीद में इस्तेमाल हुआ है, जैसे सूरा-2 बक़रा, आयत 228, सूरा-4 निसा, आयत 127, सूरा-11 हूद, आयत 72 और सूरा-24 नूर, आयत 31 में। लेकिन प्राचीन समय में सामी क़ौमें इस शब्द को पूज्य-प्रभु या खुदावंद के अर्थ में प्रयुक्त करती थीं और उन्होंने एक ख़ास देवता का नाम 'बअल' रखा हुआ था।
ٱللَّهَ رَبَّكُمۡ وَرَبَّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 125
(126) उस अल्लाह को जो तुम्हारा और तुम्हारे अगले-पिछले बाप-दादाओं का रब है?"
فَكَذَّبُوهُ فَإِنَّهُمۡ لَمُحۡضَرُونَ ۝ 126
(127) मगर उन्होंने उसे झुठला दिया, सो अब निश्चित रूप से सज़ा के लिए पेश किए जानेवाले हैं,
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 127
(128) सिवाय अल्लाह के उन बन्दों के जिनको ख़ास कर लिया गया था।72
72. अर्थात् इस सज़ा में सिर्फ वही लोग शामिल नहीं होंगे, जिन्होंने हज़रत इलियास (अलैहि०) को न झुठलाया और जिनको अल्लाह ने उस क़ौम में से अपनी बन्दगी के लिए छाँट लिया।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 128
(129) और इलयास की शुभ- चर्चा हमने बाद की नस्लों में बाक़ी रखी।73
73. हज़रत इलियास (अलैहि०) को तो उनकी जिंदगी में बनी इसराईल ने हद से ज़्यादा सताया, मगर बाद में वे उनको ऐसा चाहने और पसंद करने लगे कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद कम ही लोगों उन्होंने उनसे बढ़कर उच्च और महान माना होगा। उनके यहाँ मशहूर हो गया कि इलियास एक बगोले में आसमान पर ज़िंदा उठा लिए गए हैं। (2 राजा, अध्याय 2) और यह कि वह फिर दुनिया में तशरीफ़ लाएँगे। चुनांचे बाइबल की किताब मुलाकी में लिखा है, "देखो खुदावंद के बुजुर्ग और भयावह दिन के आने से पहले मैं एलयाह नबी को तुम्हारे पास भेजूंगा।" (4 : 5)। हज़रत यह्या और ईसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी के ज़माने में यहूदी सामान्य रूप से तीन आनेवालों के इन्तिज़ार में थे। एक हज़रत इलियास, दूसरे हज़रत मसीह, तीसरे वह नबी' (अर्थात् प्यारे नबी सल्ल०)। जब हज़रत यह्या की नुबूवत शुरू हुई और उन्होंने लोगों को बपतिस्मा देना शुरू किया तो यहूदियों के धर्म गुरुओं ने उनके पास जाकर पूछा, क्या तुम मसीह हो? उन्होंने कहा, नहीं। फिर पूछा, क्या तुम एलियाह हो? उन्होंने कहा, नहीं। फिर पूछा, क्या तुम वह, नबी हो? उन्होंने कहा, मैं वह भी नहीं हूँ। तब उन्होंने कहा, अगर तुम न मसीह हो, न एलियाह हो, न वह नबी, तो फिर बपतिस्मा क्यों देते हो? (यूहन्ना 19 : 26) फिर कुछ समय बाद जब हज़रत ईसा (अलैहि०) का बोल बाला हुआ, तो यहूदियों में यह ख्याल फैल गया कि शायद एलियाह नबी आ गए हैं। हैं। (मरक़ुस 6 : 14-15) स्वयं हज़रत ईसा (अलैहि०) के हवारियों में भी यह विचार फैला हुआ था कि एलियाह नबी आनेवाले हैं, मगर हज़रत ने यह फ़रमाकर उनका भ्रम दूर कर दिया कि 'एलियाह तो आ चुका' और लोगों ने उसे नहीं पहचाना, बल्कि जो चाहा उसके साथ किया। इससे हवारी स्वयं जान गए कि असल में आनेवाले हज़रत यह्या थे, न कि आठ सौ वर्ष पहले गुज़रे हुए हज़रत इलियास । (मत्ती 11 : 14, और मत्ती 17 : 10-13)
سَلَٰمٌ عَلَىٰٓ إِلۡ يَاسِينَ ۝ 129
(130) सलाम है इलयास पर।74
74. मूल शब्द हैं 'सलामुन अला इलयासीन'। इसके बारे में कुछ टीकाकार कहते हैं कि यह हज़रत इलियास (अलैहि०) का दूसरा नाम है, जिस तरह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का दूसरा नाम अब्राहाम था और कुछ दूसरे टीकाकारों का कथन है कि अरबों में इबरानी नामों के अलग-अलग उच्चारण प्रचलित थे, जैसे मीकाल और मीकाईल और मीकाईन एक ही फ़रिश्ते को कहा जाता था। ऐसा ही मामला हज़रत इलियास के नाम के साथ भी हुआ है। स्वयं क़ुरआन मजीद में एक ही पहाड़ का नाम तूरे सीना भी आया है और तूरे-सीनीन भी।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 130
(131) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 131
(132) निश्चय ही वह हमारे मोमिन बन्दों में से था।
وَإِنَّ لُوطٗا لَّمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 132
(133) और लूत भी उन्हीं लोगों में से था, जो रसूल बनाकर भेजे गए हैं।
إِذۡ نَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 133
(134) याद करो, जब हमने उसको और उसके सब घरवालों को नजात दी,
إِلَّا عَجُوزٗا فِي ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 134
(135) सिवाय एक बुढ़िया के जो पीछे रह जानेवालों में से थी।75
75. इससे तात्पर्य हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवी है जो हिजरत का हुक्म आने पर अपने पति के साथ न गई, बल्कि अपनी क़ौम के साथ रही और अज़ाब में ग्रस्त हुई।
ثُمَّ دَمَّرۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 135
(136) फिर बाक़ी सबको तहस-नहस कर दिया।
وَإِنَّكُمۡ لَتَمُرُّونَ عَلَيۡهِم مُّصۡبِحِينَ ۝ 136
(137-138) आज तुम रात व दिन उनकी उजड़ी आबादियों पर से गुज़रते हो।76 क्या तुमको अक्ल नहीं आती?
76. संकेत है इस बात की ओर कि क़ुरैश के व्यापारी शाम व फ़िलिस्तीन की ओर जाते हुए रात व दिन उस क्षेत्र से गुज़रते थे, जहाँ लूत की क़ौम की तबाहशुदा बस्तियाँ स्थित हैं।
وَبِٱلَّيۡلِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 137
0
وَإِنَّ يُونُسَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 138
(139) और निश्चित रूप से यूनुस भी रसूलों में से था।77
77. यह तीसरा अवसर है जहाँ हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख क़ुरआन मजीद में हुआ है। इससे पहले सूरा-10 यूनुस और सूरा-21 अंबिया में उनका उल्लेख आ चुका है और हम उसकी व्याख्या कर चुके हैं (देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 98-100; सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 82-85)।
إِذۡ أَبَقَ إِلَى ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 139
(140) याद करो जब वह एक भरी नाव की ओर भाग निकला,78
78. मूल में शब्द 'अ-ब-क़' प्रयुक्त हुआ है, जो अरबी भाषा में सिर्फ़ उस समय बोला जाता है जबकि ग़ुलाम अपने आक्का के यहाँ से भाग जाए।
فَسَاهَمَ فَكَانَ مِنَ ٱلۡمُدۡحَضِينَ ۝ 140
(141) फिर क़ुरआ-अंदाज़ी में शरीक हुआ और उसमें मात खाई।
فَٱلۡتَقَمَهُ ٱلۡحُوتُ وَهُوَ مُلِيمٞ ۝ 141
(142) अन्ततः मछली ने उसे निगल लिया, और वह मलामत किया हुआ था।79
79. इन वाक्यों पर विचार करने से जो सही घटना समझ में आती है, वह यह है कि (1) हज़रत यूनुस (अलैहि०) जिस नाव में सवार हुए वह अपनी गुंजाइश से ज़्यादा भरी हुई थी।(2) पर्ची डालने का काम नाव में हुआ और शायद उस समय हुआ जब समुद्री यात्रा के दौरान में यह महसूस हुआ कि बोझ की ज्यादती की वजह से तमाम मुसाफिरों की जान ख़तरे में पड़ गई है, इसलिए, पी इस उद्देश्य से डाली गई कि जिसका नाम पर्ची में निकले, ठसे पानी में फेंक दिया जाए। (3) पर्ची में हज़रत यूनुस ही का नाम निकला, वह समुद्र में फेंक दिए गए, और एक मछली ने उनको निगल लिया। (4) इस आज़ामइश में हजरत यूनुस (अलैहि०) इसलिए, डाले गए कि वे अपने आक्रा (अर्थात् अल्लाह) की इजाज़त के बग़ैर उस जगह से फ़रार हो गए थे जहाँ उन्हें नियुक्त किया गया था। यही अर्थ शब्द 'अ-ब-क' का है जिसकी व्याख्या ऊपर टिप्पणी 78 में गुजर चुकी है। और यही अर्थ शब्द 'मुलीम' का भी है। मुलीम' ऐसे कुसूरवार आदमी को कहते हैं जो अपने कुसूर की वजह से आप ही निन्दा का अधिकारी हो गया हो, भले ही उसकी निन्दा की जाए या न की जाए।
فَلَوۡلَآ أَنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلۡمُسَبِّحِينَ ۝ 142
(143) अब अगर वह तस्वीह (गुण-गान) करनेवालों में से न होता,80
80. इसके दो अर्थ हैं और दोनों ही मुराद हैं- एक अर्थ यह है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) पहले ही से उन लोगों में से थे जो सदा अल्लाह का गुणगान करनेवाले हैं। दूसरे यह कि जब वे मछली के पेट में पहुँचे तो उन्होंने अल्लाह ही की और रुजूअ किया और उसका महिमागान किया।
لَلَبِثَ فِي بَطۡنِهِۦٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 143
(144) तो क़ियामत के दिन तक उसी मछली के पेट में रहता।81
81. अर्थ यह है कि क्रियामत तक उस मछली का पेट ही हज़रत यूनुस (अलैहि०) की क़ब्र बना रहता।
۞فَنَبَذۡنَٰهُ بِٱلۡعَرَآءِ وَهُوَ سَقِيمٞ ۝ 144
(145) अन्ततः हमने ठसे इस हालत में कि वह निढाल था, एक चटयल जमीन पर फेंक दिया।82
82. अर्थात् जब हज़रत यूनुस ने अपने कुसूर को मान लिया और वह मोमिन और शुक्रगुज़ार बन्दे की तरह उसके महिमागान में लग गए तो अल्लाह के आदेश से मछली ने उनको तट पर उगल दिया। तट एक चटयल मैदान था, जिसमें हरियाली का नामोनिशान तक न था। इस जगह पर बहुत-से तर्कवादी लोग यह कहते सुने जाते हैं कि मछली के पेट में जाकर किसी इंसान का जिंदा निकल आना असंभव है, लेकिन पिछली ही सदी के अन्त में इस तथाकथित तर्कवाद के गढ़ (इंग्लैंड) के साहिलों (तटों) के करीब एक घटना घट चुकी है जो उनके दावे का खंडन कर देती है। अगस्त 1891 ई० में एक जहाज़ (Star of the East) पर कुछ मछुआरे हेल मछली के शिकार के लिए गहरे समुद्र में गए। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ी मछली को, जो 20 फ़िट लम्बी, 50 फिट चौड़ी और सौ टन वज़नी थी, 'बुरी तरह घायल कर दिया, मगर उससे संघर्ष करते हुए जेम्स बार्बले नामक एक मछुआरे को उसके साथियों की आँखों के सामने मछली ने निगल लिया। दूसरे दिन मछली उस जहाज़ के लोगों को मरी हुई मिल गई। उन्होंने बड़ी मुश्किल से उसे जहाज़ पर चढ़ाया और फिर लंबी कोशिशों के बाद जब उसका पेट चाक किया, तो बार्बले उसके पेट से जिंदा बरामद हो गया। यह आदमी मछली के पेट में पूरे 60 घंटे रहा था। (उर्दू डाइजेस्ट, फ़रवरी 1964 ई०) । विचार करने की बात है कि अगर सामान्य हालात में स्वाभाविक रूप से ऐसा होना संभव है तो असाधारण परिस्थितियों में अल्लाह के मोजज़े (चमत्कार) के तौर पर ऐसा होना क्यों असंभव है?
وَأَنۢبَتۡنَا عَلَيۡهِ شَجَرَةٗ مِّن يَقۡطِينٖ ۝ 145
(146) और उसपर एक बेलदार पेड़ लगा दिया।83
83. मूल अरबी शब्द हैं 'श-ज-रतम मिंय यक्तीन'।' यक्तीन' अरबी भाषा में ऐसे पौधे को कहते हैं जो किसी तने पर खड़ा नहीं होता, बल्कि वे बेल के रूप में फैलता है, जैसे कद्दू, तरबूज़, ककड़ी आदि । बहरहाल वहाँ कोई ऐसी बेल चामत्कारिक रूप से पैदा कर दी गई थी, जिसके पत्ते हज़रत यूनुस (अलैहि०) पर साया भी करें, और जिसके फल उनके लिए एक ही समय में भोजन का काम भी दें और पानी का काम भी।
وَأَرۡسَلۡنَٰهُ إِلَىٰ مِاْئَةِ أَلۡفٍ أَوۡ يَزِيدُونَ ۝ 146
(147) इसके बाद हमने उसे एक लाख या उससे अधिक लोगों की ओर भेजा।84
84. 'एक लाख या उससे अधिक' कहने का अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह को उनकी संख्या में शक था, बल्कि इसका अर्थ यह है कि अगर कोई उनकी बस्ती को देखता तो यही अन्दाज़ा करता कि उस शहर की आबादी एक लाख से अधिक ही होगी, कम न होगी। ज़्यादा गुमान यह है कि यह वही बस्ती है जिसको छोड़कर हज़रत यूनुस (अलैहि०) भागे थे। उनके जाने के बाद अज़ाब आता देखकर जो ईमान उस बस्ती के लोग ले आए थे, उसकी हैसियत सिर्फ तौबा की थी, जिसे क़बूल करके अज़ाब उनपर से टाल दिया गया था। अब हज़रत यूनुस (अलैहि०) दोबारा उनकी ओर भेजे गए, ताकि वे नबी पर ईमान लाकर बाक़ायदा मुसलमान हो जाएँ। इस विषय को समझने के लिए सूरा-10 यूनुस, आयत 98 दृष्टि में रहनी चाहिए।
فَـَٔامَنُواْ فَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 147
(148) वे ईमान लाए और हमने एक विशेष समय तक उन्हें बाक़ी रखा।85
85. हज़रत यूनुस (अलैहि०) के इस क़िस्से के बारे में सूरा-10 यूनुस और सूरा-21 अंबिया की व्याख्या में जो कुछ हमने लिखा है [वह ठीक वही बात है जो दूसरे टीकाकारों ने भी लिखी है। (विवरण मालूम करने के लिए देखिए, तफ़सीर इब्ने-कसीर, भाग 2, पृ० 433, रूहुल मआनी, भाग 11, पृ० 170 और भाग 17, पृ०77-78, तफ़सीर कबीर, भाग 7, पृ. 158 1 मौलाना अशरफ़ अली थानवी की टीका बयानुल क़ुरआन और मौलाना शब्बीर अहमद साहब उस्मानी की टीका की टिप्पणियाँ।)]
فَٱسۡتَفۡتِهِمۡ أَلِرَبِّكَ ٱلۡبَنَاتُ وَلَهُمُ ٱلۡبَنُونَ ۝ 148
(149) फिर तनिक इन लोगों से पूछो,86 क्या (इनके दिल को यह बात लगती है कि) तुम्हारे रब के लिए तो हों बेटियाँ और इनके लिए हों बेटे87
86. यहाँ से एक दूसरा विषय शुरू होता है। पहला विषय आयत 11 से शुरू हुआ था, जिसमें मक्का के कुफ़्फ़ार (इस्लाम-विरोधियों) के सामने यह प्रश्न रखा गया था, “इनसे पूछो, क्या इनका पैदा करना अधिक कठिन काम है या उन चीज़ों का जो हमने पैदा कर रखी है?’’ अब इन्‍हीं के सामने यह दूसरा प्रश्‍न पेश किया जा रहा है। पहले प्रश्न का उद्देश्य इस्लाम विरोधी को उनकी इस गुमराही पर सचेत करना था कि वे मरने के बाद की जिंदगी और जज़ा व सज़ा को असंभव समझते थे और इसपर नबी (सल्ल०) का मज़ाक उड़ाते थे। अब यह दूसरा प्रश्न उनकी इस अज्ञानता पर सचेत करने के लिए पेश किया जा रहा है कि वे इस बात को मानते थे कि अल्लाह औलादवाला है और वे अनुमान के घोड़े दौड़ाकर जिसका चाहते थे अल्लाह से रिश्ता जोड़ देते थे।
87. रिवायतों से मालूम होता है कि अरब में कुरैश जुहना, बनी सलमा, खुजाआ, बनी मुलैज और कुछ दूसरे कवीलों का विश्वास यह था कि फ़रिश्ते अल्लाह की बेटियाँ हैं। कुरआन मजीद ने कई जगहों पर उनके इस जिहालत भरे अक़ीदे का उल्लेख किया गया है। मिसाल के तौर पर देखिए सूरा-4 निसा, आयत 117, सूरा-16 अन-नल, आयत 57-58, सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 40, सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़, आयत 16-19, सूरा-53 अन-नज्म, आयत 21-27
أَمۡ خَلَقۡنَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِنَٰثٗا وَهُمۡ شَٰهِدُونَ ۝ 149
(150) क्या वास्तव में हमने फ़रिश्तों को औरतें ही बनाया है और ये आँखों देखी बात कह रहे हैं ?
أَلَآ إِنَّهُم مِّنۡ إِفۡكِهِمۡ لَيَقُولُونَ ۝ 150
(151) खूब सुन रखो, वास्तव में ये लोग अपनी मनघड़त से यह बात कहते हैं
وَلَدَ ٱللَّهُ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 151
(152) कि अल्लाह सन्तान रखता है, और सच तो यह है कि ये झूठे है।
أَصۡطَفَى ٱلۡبَنَاتِ عَلَى ٱلۡبَنِينَ ۝ 152
(153) क्या अल्लाह ने बेटों के बजाय बेटियाँ अपने लिए पसन्द कर ली?
مَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 153
(154) तुम्हें क्या हो गया है, कैसे हुक्म लगा रहे हो?
أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 154
(155) क्या तुम्हें होश नहीं आता?
أَمۡ لَكُمۡ سُلۡطَٰنٞ مُّبِينٞ ۝ 155
(156) या फिर तुम्हारे पास अपनी इन बातों के लिए कोई साफ़ सनद है
فَأۡتُواْ بِكِتَٰبِكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 156
(157) तो लाओ अपनी वह किताब अगर तुम सच्चे हो।88
88. अर्थात् फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियाँ ठहराने के लिए दो ही बुनियादें हो सकती हैं। या तो ऐसी बात अवलोकन की बुनियाद पर कही जा सकती है, या फिर इस तरह का दावा करनेवाले के पास अल्लाह की कोई किताब होनी चाहिए, जिसमें अल्लाह ने स्वयं यह फ़रमाया हो कि फ़रिश्ते मेरी बेटियां हैं। अब अगर इस अक़ीदे के माननेवाले न अवलोकन का दावा कर सकते हैं और न कोई अल्लाह की किताब ऐस रखते हैं जिसमें यह बात कही गई हो तो इससे बड़ी अज्ञानता और मूर्खता और क्या हो सकती है कि सिर्फ़ हवाई बातों पर एक दीनी अक़ीदा कायम कर लिया जाए और सारे जहानों के रब अल्लाह से ऐसी बातें जोड़ दी जाएँ जिनपर हँसी आए।
وَجَعَلُواْ بَيۡنَهُۥ وَبَيۡنَ ٱلۡجِنَّةِ نَسَبٗاۚ وَلَقَدۡ عَلِمَتِ ٱلۡجِنَّةُ إِنَّهُمۡ لَمُحۡضَرُونَ ۝ 157
(158) इन्होंने अल्लाह और फ़रिश्तों89 के बीच वंश का रिश्ता बना रखा है, हालांकि रिश्ते ख़ूब जानते हैं कि ये लोग अपराधी के रूप में पेश होने वाले हैं।
89. यद्यपि शब्द 'जिन' प्रयुक्त हुआ है, लेकिन कुछ बड़े टीकाकारों का विचार है कि यहाँ जिन्न का शब्द अपने शाब्दिक अर्थ (छिपी मख़्लूक़) की दृष्टि से फ़रिश्तों के लिए प्रयुक्त किया गया है, क्योंकि फ़रिश्ते भी वास्तव में एक पोशीदा मख़्लूक़ (अदृश्य प्राणी) ही हैं। और बाद का विषय इसी बात का तक़ाज़ा करता है कि यहाँ 'अल-जिन्न' के शब्द को फ़रिश्तों के अर्थ में लिया जाए।
سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 158
(159-160) (और वे कहते हैं कि) “अल्लाह इन गुणों से पाक है, जो उसके विशेष बन्दों के सिवा दूसरे लोग उससे जोड़ देते हैं,
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 159
0
فَإِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ ۝ 160
(161-162) अत: तुम और तुम्हारे ये उपास्य अल्लाह से किसी को फेर नहीं सकते,
مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ بِفَٰتِنِينَ ۝ 161
0
إِلَّا مَنۡ هُوَ صَالِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 162
(163) मगर सिर्फ़ उसको जो दोज़ख़ की भड़कती हुई आग में झुलसनेवाला हो।90
90. इस आयत का दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है, "अत: तुम और तुम्हारी यह उपासना, इसपर तुम किसी को फ़ितने में नहीं डाल सकते, मगर सिर्फ उसको जो.....।" इस दूसरे अनुवाद की दृष्टि से अर्थ यह होगा कि ऐ गुमराहो, यह जो तुम हमारी उपासना कर रहे हो और हमें सारे जहानों के रख अल्लाह की सन्तान करार दे रहे हो, इससे तुम हमको फ़ितने में नहीं डाल सकते। इससे तो कोई ऐसा मूर्ख ही फ़ित्ने में पड़ सकता है जिसकी शामत सर पर सवार हो। दूसरे शब्दों में, मानो फ़रिश्ते अपने इन पुजारियों से कह रहे हैं कि 'यह जाल किसी और मुर्ग पर डालो?'
وَمَامِنَّآ إِلَّا لَهُۥ مَقَامٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 163
(164) और हमारा हाल तो यह है कि हममें से हर एक की एक जगह निश्चित है,91
91. अर्थात् अल्लाह की सन्तान होना तो दरकिनार, हमारा हाल तो यह है कि हममें से जिसका जो दर्जा और रुत्वा निश्चित है उससे कण भर भी हटने तक की सामर्थ्य हम नहीं रखते।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ ٱلصَّآفُّونَ ۝ 164
(165) और हम सफ़ बाँधे सेवक हैं
وَإِنَّا لَنَحۡنُ ٱلۡمُسَبِّحُونَ ۝ 165
(166) और गुणगान करनेवाले हैं।"
وَإِن كَانُواْ لَيَقُولُونَ ۝ 166
(167-168) ये लोग पहले तो कहा करते थे कि काश, हमारे पास वह 'ज़िक्र' होता जो पिछली क़ौमों को मिला था,
لَوۡ أَنَّ عِندَنَا ذِكۡرٗا مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 167
0
لَكُنَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 168
(169) तो हम अल्लाह के चुने हुए बन्दे होते।92
92. यही विषय सूरा-35 फ़ातिर, आयत 42 में गुज़र चुका है।
فَكَفَرُواْ بِهِۦۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 169
(170) मगर (जब वह आ गया) तो उन्होंने उसका इंकार कर दिया। अब बहुत जल्द इन्हें (इस रवैये का नतीजा) मालूम हो जाएगा।
وَلَقَدۡ سَبَقَتۡ كَلِمَتُنَا لِعِبَادِنَا ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 170
(171) अपने भेजे हुए बन्दों से हम पहले ही वादा कर चुके हैं
إِنَّهُمۡ لَهُمُ ٱلۡمَنصُورُونَ ۝ 171
(172) कि निश्चित रूप से उनकी मदद की जाएगी
وَإِنَّ جُندَنَا لَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 172
(173) और हमारी फ़ौज ही ग़ालिब होकर रहेगी।93
93. अल्लाह की फ़ौज से तात्पर्य वे ईमानवाले हैं जो अल्लाह के रसूल की पैरवी करें और उनका साथ दें, साथ ही वे परोक्ष ताक़तें भी उसमें शामिल हैं, जिनके ज़रिये से अल्लाह सत्यवादियों की मदद फ़रमाता है। इस मदद और गलबे का अर्थ अनिवार्य रूप से यह नहीं है कि हर ज़माने में अल्लाह के हर नबी और उसकी पैरवी करनेवालों को राजनीतिक प्रभुत्व ही प्राप्त हो, बल्कि इस प्रभुत्व की बहुत-सी शक्लें हैं जिनमें से एक राजनीतिक ग़लबा भी है, जहाँ इस प्रकार का प्रभुत्व अल्लाह के नबियों को प्राप्त नहीं हुआ है, वहाँ भी उनकी नैतिक श्रेष्ठता सिद्ध होकर रही है। जिन क़ौमों ने उनकी बात नहीं मानी है और उनकी दी हुई हिदायतों के विरुद्ध रास्ता अपनाया है, वे अन्तत: बर्बाद होकर रही हैं। अज्ञानता और गुमराही के जो दर्शन भी लोगों ने गढ़े और जिंदगी के जो बिगड़े हुए तौर-तरीके भी ज़बरदस्ती प्रचलित किए गए, वे सब कुछ मुद्दत तक ज़ोर दिखाने के बाद अन्तत: अपनी मौत आप मर गए। मगर जिन वास्तविकताओं को हज़ारों वर्ष से अल्लाह के नबी हक़ीक़त और तथ्यों की हैसियत से पेश करते रहे हैं, वे पहले भी अटल थे और आज भी अटल हैं। उन्हें अपनी जगह से कोई हिला नहीं सकता है।
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 173
(174) अत: ऐ नबी ! ज़रा कुछ मुद्दत तक इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो
وَأَبۡصِرۡهُمۡ فَسَوۡفَ يُبۡصِرُونَ ۝ 174
(175) और देखते रहो, बहुत जल्द ये स्वयं भी देख लेंगे।94
94. अर्थात् कुछ ज़्यादा समय न गुज़रेगा कि अपनी हार और तुम्हारी जीत को ये लोग स्वयं अपनी आँखों से देख लेंगे। यह बात जिस तरह फ़रमाई गई थी, उसी तरह पूरी हुई। इन आयतों को उतरे हुए मुश्किल से 14-15 साल गुज़रे थे कि मक्का के कुफ्फार ने अपनी आँखों से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विजयपूर्ण प्रवेश अपने शहर में देख लिया और फिर उसके कुछ साल बाद उन्हीं लोगों ने यह भी देख लिया कि इस्लाम न सिर्फ़ अरब पर, बल्कि रोम और ईरान के महान साम्राज्यों पर भी ग़ालिब आ गया।
أَفَبِعَذَابِنَا يَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 175
(176) क्या ये हमारे अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं?
فَإِذَا نَزَلَ بِسَاحَتِهِمۡ فَسَآءَ صَبَاحُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 176
(177) जब वह इनके आँगन में आ उतरेगा तो वह दिन उन लोगों के लिए बहुत बुरा होगा, जिनको सचेत किया जा चुका है।
وَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 177
(178) बस ज़रा इन्हें कुछ मुद्दत के लिए छोड़ दो
وَأَبۡصِرۡ فَسَوۡفَ يُبۡصِرُونَ ۝ 178
(179) और देखते रहो, बहुत जल्द ये खुद देख लेंगे।
سُبۡحَٰنَ رَبِّكَ رَبِّ ٱلۡعِزَّةِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 179
(180) पाक है तेरा रब, इज़्ज़त का मालिक, उन तमाम बातों से जो ये लोग बना रहे हैं
وَسَلَٰمٌ عَلَى ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 180
(181) और सलाम है रसूलों पर,
وَٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 181
(182) और सारी प्रशंसा सारे जहानों के रब अल्लाह ही के लिए है।