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سُورَةُ فَاطِرٍ

 35. फ़ातिर

(मक्का में उतरी, आयतें 45)

परिचय

नाम

पहली ही आयत का शब्द 'फ़ातिर' (बनानेवाला) को इस सूरा का शीर्षक बना दिया गया है, जिसका अर्थ केवल यह है कि यह वह सूरा है जिसमें ‘फ़ातिर' शब्द आया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली के आन्तरिक साक्ष्यों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय शायद मक्का मुअज़्ज़मा का मध्यकाल है और उसका भी वह भाग जिसमें विरोध में काफ़ी तेज़ी आ चुकी थी।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य यह है कि नबी (सल्ल०) की तौहीद की दावत (एकेश्वरवादी आमंत्रण) के मुक़ाबले में जो रवैया उस समय मक्कावालों और उनके सरदारों ने अपना रखा था, उसपर नसीहत के रूप में उनको चेतावनी दी और उनकी निंदा भी की जाए और शिक्षा देने की शैली में समझाया-बुझाया भी जाए। वार्ता का सार यह है कि मूर्खो! यह नबी जिस राह की ओर तुमको बुला रहा है, उसमें तुम्हारा अपना भला है । इसपर तुम्हारा क्रोध और उसको विफल करने के लिए तुम्हारी चालें वास्तव में उसके विरुद्ध नहीं, बल्कि तुम्हारे अपने विरुद्ध पड़ रही हैं। वह जो कुछ तुमसे कह रहा है, उसपर ध्यान तो दो कि उसमें ग़लत क्या बात है? वह शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन करता है, वह तौहीद की दावत देता है, वह तुमसे कहता है कि दुनिया की इस ज़िन्दगी के बाद एक और ज़िन्दगी है जिसमें हर एक को अपने किए का नतीजा देखना होगा। तुम ख़ुद सोचो कि इन बातों पर तुम्हारे सन्देह और अचंभे कितने आधारहीन हैं। अब अगर इन पूर्ण तर्कसंगत और सत्य पर आधारित बातों को तुम नहीं मानते हो, तो इसमें नबी की क्या हानि है। शामत तो तुम्हारी अपनी ही आएगी। वार्ता-क्रम में बार-बार नबी (सल्ल०) को तसल्ली दी गई है कि आप जिस नसीहत का हक़ पूरी तरह अदा कर रहे हैं, तो गुमराही पर आग्रह करनेवालों के सीधा रास्ता स्वीकार न करने की कोई ज़िम्मेदारी आपके ऊपर नहीं आती। इसके साथ आपको यह भी समझा दिया गया है कि जो लोग नहीं मानना चाहते, उनके रवैये पर न आप दुखी हों और न उन्हें सीधे रास्ते पर लाने की चिन्ता में अपनी जान घुलाएँ, इसके बजाय आप अपना ध्यान उन लोगों पर लगाएँ जो बात सुनने के लिए तैयार हैं। ईमान अपनानेवालों को भी इसी सिलसिले में बड़ी शुभ सूचनाएँ दी गई हैं, ताकि उनके दिल मज़बूत हों और वे अल्लाह के वादों पर भरोसा करके सत्य-मार्ग पर जमे रहें।

 

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سُورَةُ فَاطِرٍ
35. अल-फ़ातिर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ جَاعِلِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ رُسُلًا أُوْلِيٓ أَجۡنِحَةٖ مَّثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۚ يَزِيدُ فِي ٱلۡخَلۡقِ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ
(1) प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जो आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला और फ़रिश्तों को सन्देश पहुँचाने के लिए नियुक्त करनेवाला है1, (ऐसे फ़रिश्ते) जिनके दो-दो और तीन-तीन और चार-चार बाजू (भुजाएँ) हैं।2 वह अपनी सृष्टि की बनावट में जैसी चाहता है, अभिवृद्धि करता है।3 निश्चय ही अल्लाह हर चीज़ पर सामर्थ्य रखता है।
1. इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ये फ़रिश्ते अल्लाह और उसके नबियों के दर्मियान सन्देश पहुँचाने का सेवा-कार्य करते हैं और यह भी कि सम्पूर्ण सृष्टि में अल्लाह के आदेशों को ले जाना और उनको लागू करना इन्हीं फ़रिश्तों का काम है। उल्लेख का अभिप्राय इस वास्तविकता को मन में बिठाना है कि ये फ़रिश्ते जिनको मुशरिक देवी और देवता बनाए बैठे हैं, उनकी हैसियत एक अल्लाह, जिसका कोई शरीक नहीं, के आज्ञाकारी सेवकों से अधिक कुछ नहीं है। जिस तरह किसी बादशाह के सेवक उसके हुक्मों को पूरा करने के लिए दौड़े फिरते हैं उसी तरह ये फ़रिश्ते सृष्टि के वास्तविक शासक की सेवा करने के लिए उड़े फिरते हैं। इन सेवकों के अधिकार में कुछ नहीं है। सारे अधिकार सच्चे शासक के हाथ में हैं।
2. हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इन फ़रिश्तों के बाजू (भुजा) और पर (पंख) किस प्रकार के हैं, मगर जब अल्लाह ने इस चीज़ को बयान करने के लिए दूसरे शब्दों के बजाय वह शब्द प्रयुक्त किया है जो मानवीय-भाषा में परिंदों के बाजुओं के लिए इस्तेमाल होता है तो यह ज़रूर सोचा जा सकता है कि हमारी भाषा का यही शब्द सही स्थिति से अधिक क़रीब है। दो-दो और तीन-तीन और चार-चार बाज़ुओं के उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि अलग-अलग फरिश्तों को अल्लाह ने अलग-अलग प्रकार की शक्तियाँ दे रखी हैं और जिससे जैसी सेवा लेनी है, उसको वैसी ही रफ्तार की ज़बरदस्त तेज़ी और काम करने की शक्ति दे रखी है।
مَّا يَفۡتَحِ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ مِن رَّحۡمَةٖ فَلَا مُمۡسِكَ لَهَاۖ وَمَا يُمۡسِكۡ فَلَا مُرۡسِلَ لَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 1
(2) अल्लाह जिस रहमत का दरवाज़ा भी लोगों के लिए खोल दे, उसे कोई रोकनेवाला नहीं और जिसे वह बन्द कर दे, उसे अल्लाह के बाद फिर कोई दूसरा खोलनेवाला नहीं।4 वह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।5
4. इसका अभिप्राय भी मुशरिकों के इस भ्रम को दूर करना है कि अल्लाह के बन्दों में से कोई उन्हें रोज़गार दिलानेवाला और कोई उनको सन्तान देनेवाला और कोई उनके बीमारों को स्वास्थ्य देनेवाला है। शिर्क के ये तमाम विचार बिल्कुल निराधार हैं और विशुद्ध सच्चाई केवल यह है कि जिस प्रकार की रहमत भी बन्दों को पहुँचती है, केवल अल्लाह की मेहरबानी से पहुँचती है। कोई दूसरा न उसके देने पर समर्थ है और न रोक देने की शक्ति रखता है।
5. 'ज़बरदस्त' है अर्थात् सब पर ग़ालिब और पूर्ण सम्प्रभुत्त्व का स्वामी है। कोई उसके फ़ैसलों को लागू होने से रोक नहीं सकता और इसके साथ ही वह तत्त्वदर्शी भी है। जो निर्णय भी वह करता है, पूर्ण तत्त्वदर्शिता के आधार पर करता है। किसी को देता है, तो इसलिए देता है कि तत्त्वदर्शिता को यही अपेक्षित है। और किसी को नहीं देता तो इसलिए नहीं देता कि उसे देना तत्त्वदर्शिता के विरुद्ध है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ هَلۡ مِنۡ خَٰلِقٍ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 2
(3) लोगो! तुमपर अल्लाह के जो उपकार हैं, उन्हें याद रखो।6 क्या अल्लाह के सिवा कोई और पैदा करनेवाला भी है जो तुम्हें आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता हो?- कोई उपास्य उसके सिवा नहीं, आख़िर तुम कहाँ से धोखा खा रहे हो?7
6. अर्थात् उपकार भूलनेवाले न बनो। नमकहरामी न अपनाओ। इस सच्चाई को न भूल जाओ कि तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है, अल्लाह का दिया है। दूसरे शब्दों में, यह वाक्य इस बात पर सचेत कर रहा है कि जो आदमी भी अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी और पूजा करता है या किसी नेमत को अल्लाह के सिवा किसी दूसरी हस्ती का दान और बखिशश समझता है। या किसी नेमत के मिलने पर अल्लाह के सिवा किसी और के प्रति कृज्ञता दर्शाता है या कोई नेमत माँगने के लिए अल्लाह के सिवा किसी और से दुआ करता है, वह बहुत बड़ा उपकार भुला देनेवाला (कृतघ्न) है।
7. पहले वाक्य और दूसरे वाक्य के बीच में एक सूक्ष्म रिक्तता है, जिसे वार्ता का संदर्भ और प्रसंग स्वयं भर रहा है। इसको समझने के लिए यह चित्र कल्पना की आँखों के सामने लाइए कि व्याख्यान मुशरिकों के सामने दिया जा रहा है। मुक़र्रर (वक्ता) मौजूद लोगों से पूछता है कि क्या अल्लाह के सिवा कोई और भी पैदा करनेवाला है जिसने तुमको पैदा किया हो और जो ज़मीन व आसमान से तुम्हारी रोजी जुटाने का प्रबंध कर रहा ही? मगर देखता है कि सारा मज्ज्म खामोश है। कोई नहीं कहता कि अल्लाह के सिवा कोई और भी पैदा करनेवाला और रोजी देनेवाला है। इससे अपने आप यह नतीजा निकलता है कि मौजूद लोगों की भी इस बात का इकरार है कि पैदा करनेवाला और रोज़ी देनेवाला अल्लाह के सिवा कोई नहीं है। तब वक्ता कहता है कि उपाय भी फिर उसके सिवा कोई नहीं हो सकता। आखिर तुम्हें यह धोखा कहाँ से हो गया कि पैदा करनेवाला और रोजी देनेवाला ती हो केवल अल्लाह, मगर उपास्य बन जाएँ उसके सिवा दूसरे।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كُذِّبَتۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 3
(4) अब अगर (ऐ नबी!) ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं8 (तो यह कोई नई बात नहीं), तुमसे पहले भी बहुत से रसूल झुटलाए जा चुके हैं और सारे मामले आख़िरकार अल्लाह ही की ओर पलटनेवाले हैं।9
8. अर्थात् तुम्हारी इस बात को नहीं मानते कि अल्लाह के सिवा इबादत का हकदार कोई नहीं है, और तुमपर यह आरोप रखते हैं कि तुम नुव्वत का एक झूठा दावा लेकर खड़े हो गए हो।
9. अर्थात् निर्णय लोगों के हाथ में नहीं है कि जिसे वे झूठा कह दें, वह वास्तव में झुठा हो जाएगा। फैसला तो अल्लाह के हाथ में है। वह अन्तत: बता देगा कि झूठा कौन था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ فَلَا تَغُرَّنَّكُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَلَا يَغُرَّنَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 4
(5) लोगो। अल्लाह का वादा निश्चय ही सच्चा है10, इसलिए दुनिया की जिंदगी तुम्हें धोखे में न डाले11 और न वह बड़ा धोखेबाज़ तुम्हें अल्लाह के बार में धोखा देने पाए।12
10. वादे से तात्पर्य आख़िरत का वादा है जिसकी और ऊपर के वाक्य में इशारा किया गया था।
11. अर्थात् इस धोखे में कि जो कुछ है बस यही दुनिया है, इसके बाद कोई आखिरत नहीं है, जिसमें कर्मों का हिसाब होनेवाला हो या इस धोखे में कि अगर कोई आखिरत है भी तो जो इस दुनिया में मजे कर रहा है, वह वहाँ भी मजे करेगा।
إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لَكُمۡ عَدُوّٞ فَٱتَّخِذُوهُ عَدُوًّاۚ إِنَّمَا يَدۡعُواْ حِزۡبَهُۥ لِيَكُونُواْ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 5
(6) वास्तव में शैतान तुम्हारा दुश्मन है, इसलिए तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझो। वह तो अपनी पैरवी करनेवालों को अपनी राह पर इसलिए बुला रहा है कि वे दोज़ख़ियों में शामिल हो जाएँ।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٌ ۝ 6
(7) जो लोग इंकार करेंगे13 उनके लिए कड़ा अज़ाब है। और जो ईमान लागे और भले कर्म करेंगे उनके लिए क्षमा और बड़ा बदला है।14
13. अर्थात् अल्लाह की किताब और उसके रसूल की इस दावत को मानने से इंकार कर देंगे।
14. अर्थात् अल्लाह उनकी ख़ताओं से दरगुजर फ़रमाएगा और जो भले कर्म उन्होंने किए होंगे उनका सिर्फ़ बराबर-बराबर ही बदला देकर न रह जाएगा, बल्कि उन्हें बड़ा बदला प्रदान करेगा।
أَفَمَن زُيِّنَ لَهُۥ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ فَرَءَاهُ حَسَنٗاۖ فَإِنَّ ٱللَّهَ يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۖ فَلَا تَذۡهَبۡ نَفۡسُكَ عَلَيۡهِمۡ حَسَرَٰتٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 7
(8) (भला15 कुछ ठिकाना है उस आदमी की गुमराही का) जिसके लिए उसका बुरा कर्म सुन्दर बना दिया गया हो और वह उसे अच्छा समझ रहा हो?16 सच तो यह है कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है। तो (ऐ नबी!) ख़ामख़ाह तुम्हारी जान उन लोगों के लिए ग़म व अफ़सोस में न घुले।17 जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उसको खूब जानता है।18
15. ऊपर के दो पैराग्राफ़ आम लोगों को सम्बोधित करके बयान किए गए थे। अब इस पैराग्राफ में गुमराही के उन अलम्बरदारों का उल्लेख हो रहा है जो नबी (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे थे।
16. अर्थात् जिनका जेहन बिगड़ चुका होता है, जिसमें बुरे और भले का अन्तर बाक़ी नहीं रहता, जिसके लिए, गुनाह की जिंदगी एक पसंदीदा और चमकदार जिंदगी होती है। ऐसे आदमी पर कोई उपदेश काम नहीं करता। ऐसे आदमी के पीछे पड़ना बेकार है। उसे सन्मार्ग देने की चिंता में अपनी जान घुलाने के बजाय सत्य की दावत देनेवाले को उन लोगों की ओर ध्यान देना चाहिए जिनकी अन्तरात्मा अभी जीवित हो।
وَٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَسُقۡنَٰهُ إِلَىٰ بَلَدٖ مَّيِّتٖ فَأَحۡيَيۡنَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ كَذَٰلِكَ ٱلنُّشُورُ ۝ 8
(9) वह अल्लाह ही तो है जो हवाओं को भेजता है, फिर ये बादल उठाती हैं, फिर हम उसे एक उजाड़ इलाक़े की ओर ले जाते हैं और उसके ज़रिये से उसी धरती को जिला उठाते हैं, जो मरी पड़ी थी। मरे हुए इंसानों का जी उठना भी इसी तरह होगा।19
19. अर्थात् थे मूर्ख लोग आखिरत को असंभव चीज समझते हैं और इसी लिए अपनी जगह इस विचार में मान है कि दुनिया में ये चाहे जो कुछ करते रहें, बहरहाल वह वास्त कभी आना नहीं है, के लिए अल्लाह के हुनर हाजिर होना पड़ेगा। लेकिन यह केवल एक भ्रम है जिसमें ये पड़े हुए है। क़ियामत के दिन तमाम अगले पिछले मरे हुए इंसान अल्लाह के एक इशारे पर बिल्कुल उसी तरह यकायक जी उठेंगे, जिस तरह एक वर्षा होते ही सूनी पड़ी हुई जमीन यकायक लहलहा उठती है और मुद्दतों की मरी हुई जड़ें हरी-भरी होकर ज़मीन की तहों में से सर निकालना शुरू कर देती हैं।
مَن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡعِزَّةَ فَلِلَّهِ ٱلۡعِزَّةُ جَمِيعًاۚ إِلَيۡهِ يَصۡعَدُ ٱلۡكَلِمُ ٱلطَّيِّبُ وَٱلۡعَمَلُ ٱلصَّٰلِحُ يَرۡفَعُهُۥۚ وَٱلَّذِينَ يَمۡكُرُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۖ وَمَكۡرُ أُوْلَٰٓئِكَ هُوَ يَبُورُ ۝ 9
(10) जो कोई सम्मान चाहता हो, उसे मालूम होना चाहिए कि सम्मान सारे का सारा अल्लाह का है। 20 उसके यहाँ जो चीज ऊपर चढ़ती है वह सिर्फ़ पाकीज़ा बात है, और भला कार्य उसको ऊपर पढ़ाता है। 21 रहे वे लोग जो बेहूदा चालबाज़ियाँ करते हैं 22, उनके लिए सख़्त अज़ाब है और उनकी चाल स्वयं ही नष्ट होनेवाली है।
20. यह बात ध्यान में रहे कि क़ुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में जो कुछ भी कर रहे थे, अपने सामान और अपनी प्रतिष्ठा के लिए कर रहे थे। उनका विचार यह था कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) की बात चल गई तो हमारी बड़ाई समाप्त हो जाएगी। इसपर कहा जा रहा है कि अल्लाह से इंकार और द्रोह करके जो हालात तुमने बना रखी है, यह तो एक झूठा सम्मान है जिसके लिए धूल ही में मिलना निश्चित है। सच्चा सम्मान और शेष रहनेवाला सम्मान, जो दुनिया से लेकर आख़िरत तक कभी अपमान का मुंह नहीं देख सकता, सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी में ही मिल सकता है।
21. यह है सम्मान प्राप्त करने का वास्तविक साधन । अल्लाह के यहाँ झूठे, गन्दे और बिगाड़ पैदा करनेवाले कथनों को कभी बढ़ावा नहीं मिलता। उसके यहाँ तो केवल वह कथन उन्नति पाता है, जो सच्चा हो, पवित्र हो, सच्चाई पर आधारित हो, और जिसमें अच्छी नीयत के साथ सही धारणा और एक सही चिन्तन-शैली व्यक्त की गई हो। फिर जो चीज़ एक पाकीज़ा कलिमे (पवित्र सूत्र) को ऊँचाई की ओर ले जाती है वह कथनी के अनुसार कर्म है जहाँ कथनी अति पवित्र हो मगर करनी उसके विरुद्ध हो, वहाँ कथन की पावनता ठिठुर कर रह जाती है। सिर्फ ज़बान के फाग उड़ाने (डींग हाँकने) से किसी बात को उच्चता प्राप्त नहीं होती। उसे बुलन्दी पर पहुँचाने के लिए भले कर्म की शक्ति चाहिए होती है। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि कुरआन मजीद भले कथन और भले कर्म को एक दूसरे के लिए अनिवार्य ठहराता है। कोई को सिर्फ़ अपनी ऊपरी शक्ल के एतिवार से भला नहीं हो सकता, जब तक उसके पीछे सही आक़ीदा न हो। और कोई सही अक़ीदा ऐसी हालत में भरोसेमंद नहीं हो सकता जब तक कि आदमी का कर्म उसका समर्थन और पुष्टि न कर रहा हो।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ جَعَلَكُمۡ أَزۡوَٰجٗاۚ وَمَا تَحۡمِلُ مِنۡ أُنثَىٰ وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلۡمِهِۦۚ وَمَا يُعَمَّرُ مِن مُّعَمَّرٖ وَلَا يُنقَصُ مِنۡ عُمُرِهِۦٓ إِلَّا فِي كِتَٰبٍۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 10
(11) अल्लाह23 ने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य24 से, फिर तुम्हारे जोड़े बना दिए (अर्थात् मर्द और औरत) । कोई औरत गर्भवती नहीं होती और न बच्चा जनती है, मगर यह सब कुछ अल्लाह के ज्ञान में होता है। कोई उम्र पानेवाला उम्र नहीं पाता और न किसी की उम्र में कुछ कमी होती है, मगर यह सब कुछ एक किताब में लिखा होता है।25 अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।26
23. यहाँ से फिर सम्बोधन आम लोगों से होता है।
24. अर्थात् इंसान की रचना पहले सीधे तौर पर मिट्टी से की गई, फिर उसकी नस्ल वीर्य से चलाई गई।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡبَحۡرَانِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ سَآئِغٞ شَرَابُهُۥ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞۖ وَمِن كُلّٖ تَأۡكُلُونَ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُونَ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ فِيهِ مَوَاخِرَ لِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 11
(12) और पानी के दोनों भंडार एक जैसे नहीं हैं।27 एक मीठा और प्यास बुझानेवाला है, पीने में अच्छा लगनेवाला, और दूसरा अत्यन्त खारा कि गला छील दे, मगर दोनों से तुम तरो-ताज़ा मांस प्राप्त करते हो28, पहनने के लिए सौंदर्य की सामग्री निकालते हो29, और उसी पानी में तुम देखते हो कि नावें उसका सीना चीरती चली जा रही हैं, ताकि तुम अल्लाह का अनुग्रह (रोज़ी) तलाश करो और उसके कृतज्ञ बनो।
27. अर्थात् एक वह भंडार जो समुद्रों में है। दूसरा वह भंडार जो नदियों, स्रोतों और झीलों में है।
28. अर्थात् जल जीवों का मांस।
يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ لَهُ ٱلۡمُلۡكُۚ وَٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ مَا يَمۡلِكُونَ مِن قِطۡمِيرٍ ۝ 12
(13) वह दिन के अन्दर रात को और रात के अन्दर दिन को पिरोता हुआ ले आता है30, चाँद और सूरज को उसने वशीभूत कर रखा है।31 यह सब कुछ एक नियत समय तक चला जा रहा है। वही अल्लाह (जिसके ये सारे काम हैं) तुम्हारा रब है। बादशाही उसी की है। उसे छोड़कर जिन दूसरों को तुम पुकारते हो, वे एक तिनके32 के मालिक भी नहीं हैं,
30. अर्थात् दिन की रौशनी धीरे-धीरे घटनी शुरू होती है और रात का अँधेरा बढ़ते-बढ़ते अन्ततः पूरी तरह छा जाता है। इसी तरह रात के अन्त में पहले क्षितिज पर हलकी-सी रौशनी प्रकट होती है और फिर धीरे-धीरे रौशन दिन निकल आता है।
31. एक नियम का पाबंद बना रखा है।
إِن تَدۡعُوهُمۡ لَا يَسۡمَعُواْ دُعَآءَكُمۡ وَلَوۡ سَمِعُواْ مَا ٱسۡتَجَابُواْ لَكُمۡۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكۡفُرُونَ بِشِرۡكِكُمۡۚ وَلَا يُنَبِّئُكَ مِثۡلُ خَبِيرٖ ۝ 13
(14) उन्हें पुकारो तो वे तुम्हारी दुआएँ सुन नहीं सकते और सुन लें तो उनका तुम्हें कोई जवाब नहीं दे सकते हैं।33 और क़ियामत के दिन वे तुम्हारे शिर्क का इंकार कर देंगे।34 वस्तुस्थिति की ऐसी सही ख़बर तुम्हें एक ख़बर रखनेवाले के सिवा कोई नहीं दे सकता।35
33. इसका अर्थ यह नहीं है कि वे तुम्हारी दुआ के जवाब में पुकारकर यह नहीं कह सकते कि तुम्हारी दुआ क़बूल की गई या नहीं की गई। बल्कि इसका मतलब यह है कि वह तुम्हारी दरखास्तों पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। एक आदमी अगर अपनी दरख़ास्त किसी ऐसे आदमी के पास भेजता है जो अधिकारी नहीं है तो उसकी दरख़ास्त बेकार जाती है, क्योंकि वह जिसके पास भेजी गई है, उसके हाथ में सिरे से कोई अधिकार ही नहीं है, न रद्द करने का अधिकार और न स्वीकार करने का अधिकार। अलबत्ता अगर वही दरखास्त उस हस्ती के पास भेजी जाए जो वास्तविक हाकिम हो, तो उसपर अवश्य ही कोई न कोई कार्रवाई होगी, इससे हटकर कि वह कबूल करने के रूप में हो या रद्द करने के रूप में।
34. अर्थात् वे साफ़ कह दें कि हमने उनसे कभी यह नहीं कहा था कि हम अल्लाह के शरीक हैं, तुम हमारी इबादत किया करो, बल्कि हमें यह खबर भी न थी कि ये हमको अल्लाह सारे जहानों के रब का शरीक ठहरा रहे हैं और हमसे दुआएँ माँग रहे हैं। इनकी कोई दुआ हमें नहीं पहुँची और इनकी किसी नज़्र व नियाज़ की हम तक पहुँच नहीं हुई।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ أَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 14
(15) लोगो! तुम ही अल्लाह के मुहताज हो36, और अल्लाह तो सम्पन्न (ग़नी) और 'हमीद' (प्रशंस्य) है37।
37. सम्पन्न (ग़नी) से तात्पर्य यह है कि वह हर वस्तु का स्वामी है, हर एक से निस्पृह और बेनियाज़ है। किसी की मदद का मुहताज नहीं है, और 'हमीद' से तात्पर्य यह है कि वह आप से आप 'महमूद (प्रशंसित) है, कोई उसका गुण-गान करे या न करे, मगर हम्द (कृतज्ञता और प्रशंसा) का अधिकार उसी को पहुँचता है, क्योंकि वह तुम्हारी और दुनिया की तमाम चीज़ों की आवश्यकताएं पूरी कर रहा है।
إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَأۡتِ بِخَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 15
(16) वह चाहे तो तुम्हें हटाकर कोई नई मालूक (सृष्टि) तुम्हारी जगह ले आए.
وَمَا ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ بِعَزِيزٖ ۝ 16
(17) ऐसा करना अल्लाह के लिए कुछ भी कठिन नहीं।38
38. अर्थात् तुम कुछ अपने बल-बूते पर उसकी जमीन में नहीं दनदना रहे हो। उसका एक संकेत इस बात के लिए पर्याप्त है कि तुम्हें यहाँ से चलता करे और किसी और क़ौम को तुम्हारी जगह उठा खड़ा करे। इसलिए अपनी औक़ात पहचानो और वह रवैया न अपनाओ, जिससे आख़िरकार क़ौमों की शामत आया करती है।
وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ وَإِن تَدۡعُ مُثۡقَلَةٌ إِلَىٰ حِمۡلِهَا لَا يُحۡمَلۡ مِنۡهُ شَيۡءٞ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰٓۗ إِنَّمَا تُنذِرُ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَمَن تَزَكَّىٰ فَإِنَّمَا يَتَزَكَّىٰ لِنَفۡسِهِۦۚ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 17
(18) कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा,39 और अगर कोई लदा हुआ नपस (प्राणी) अपना बोझ उठाने के लिए पुकारेगा तो उसके बोझ का एक छोटा-सा हिस्सा भी बटाने के लिए कोई न आएगा, चाहे वह सबसे क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हो।40 (ऐ नबी!) तुम सिर्फ़ उन्हीं लोगों को सचेत कर सकते हो जो बिना देखे अपने रब से डरते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं।41 जो आदमी भी पवित्रता अपनाता है अपनी ही भलाई के लिए अपनाता है और पलटना सबको अल्लाह ही की ओर है।
39. 'बोझ' से तात्पर्य कर्मों की जिम्मेदारियों का बोझ है। अर्थ यह है कि अल्लाह के यहाँ हर आदमी अपने कर्म का ख़ुद ज़िम्मेदार है और हर एक पर सिर्फ़ उसके अपने ही कर्म की ज़िम्मेदारी आती है। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि एक आदमी की ज़िम्मेदारी का बोझ अल्लाह की ओर से किसी दूसरे पर डाल दिया जाए, और न यही संभव है कि कोई आदमी किसी दूसरे की ज़िम्मेदारी का बोझ स्वयं अपने ऊपर ले ले। यह बात यहाँ इस कारण कही जा रही है कि मक्का मुअज्जमा में जो लोग इस्लाम क़बूल कर रहे थे, उनसे उनके मुशरिक रिश्तेदार और बिरादरी के लोग कहते थे कि तुम हमारे कहने से इस नए दीन को छोड़ दो, अज़ाब-सवाब हमारी गरदन पर।
40. अर्थात् जो लोग आज यह बात कह रहे हैं कि तुम हमारी ज़िम्मेदारी पर कुफ़ और गुनाह के काम करो, वे वास्तव में सिर्फ़ एक झूठा भरोसा दिला रहे हैं। जब क़ियामत आएगी तो हर एक को अपनी पड़ जाएगी। भाई-भाई से और बाप बेटे से मुँह मोड़ लेगा और कोई किसी का कणभर बोझ भी अपने ऊपर लेने के लिए तैयार न होगा।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ ۝ 18
(19) अंधा और आँखोंवाला बराबर नहीं है,
وَلَا ٱلظُّلُمَٰتُ وَلَا ٱلنُّورُ ۝ 19
(20) न अंधेरे और रौशनी बराबर हैं,
وَلَا ٱلظِّلُّ وَلَا ٱلۡحَرُورُ ۝ 20
(21) न ठंडी छाँव और धूप की तपन एक जैसी हैं,
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَحۡيَآءُ وَلَا ٱلۡأَمۡوَٰتُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُسۡمِعُ مَن يَشَآءُۖ وَمَآ أَنتَ بِمُسۡمِعٖ مَّن فِي ٱلۡقُبُورِ ۝ 21
(22) और न ज़िंदे और मुर्दे बराबर हैं।42 अल्लाह जिसे चाहता है सुनवाता है, मगर (ऐ नबी!) तुम उन लोगों को नहीं सुना सकते जो क़ब्रों में दफ़न हैं।43
42. इन उदाहरणों में मोमिन और काफ़िर के वर्तमान और भविष्य का अन्तर बताया गया है। एक बह आदमी है जो बाहरी जगत् की और उसके अपने भीतर की वास्तविकताओं से आँखें बन्द किए हुए है। दूसरा वह आदमी है जिसकी आँखें खुली हैं और वह साफ़-साफ़ देख रहा है कि उसके बाहर और भीतर की हर चीज़ अल्लाह के एक होने और उसके सामने इंसान के उत्तरदायी होने पर गवाही दे रही है। एक वह आदमी है जो अज्ञानतापूर्ण अंधविश्वासों की अंधेरियों में भटक रहा है और दूसरा वह आदमी है जिसकी आँखें खुली हैं और पैग़म्बर की फैलाई हुई रौशनी सामने आते ही उसपर यह बात बिल्कुल साफ़ हो गई है कि भलाई की राह केवल वह है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दिखाई है। अब आख़िर यह कैसे सम्भव है कि दुनिया में इन दोनों का रवैया बराबर हो और दोनों एक साथ एक ही राह पर चल सकें? और आख़िर यह भी कैसे सम्भव है कि दोनों का अंजाम एक जैसा हो और दोनों ही मरकर फ़ना (नष्ट) हो जाएँ, न एक को बुरा रास्ता अपनाने की सज़ा मिले, न दूसरा सीधा रास्ता अपनाने का कोई पुरस्कार पाए? 'ठंडी छाँव और धूप की तपन एक जैसी नहीं है' का संकेत उसी अंजाम की ओर है कि एक अल्लाह की रहमत की छाँव में जगह पानेवाला है और दूसरा जहन्नम की तपन में झुलसनेवाला है। आख़िर में मोमिन को ज़िंदा से और हठधर्म इंकारियों को मुर्दा से उपमा दी गई है, अर्थात् मोमिन वह है जिसके भीतर एहसास और चेतना और सूझ-बूझ और विवेक मौजूद है और उसकी अन्तरात्मा उसे भले और बुरे के अन्तर से हर वक़्त आगाह कर रही है। और उसके विपरीत जो आदमी इंकार के पक्षपात में पूरी तरह डूबा हुआ है, उसका हाल उस अंधे से भी बुरा है जो अंधेरे में भटक रहा हो उसकी हालत तो उस मुर्दे की-सी है जिसमें कोई चेतना शेष न रही हो।
43. अर्थात् अल्लाह की इच्छा की तो बात ही दूसरी है, वह चाहे तो पत्थरों को सुनने की शक्ति दे दे, लेकिन रसूल के बस का यह काम नहीं है कि जिन लोगों के सीने अन्तरात्मा की क़ब्र बन चुके हों, उनके दिलों में वह अपनी वात उतार सके और जो बात सुनना ही न चाहते हों, उनके बहरे कानों को सत्य की आवाज़ सुना सके। वह तो उन्हीं लोगों को सुना सकता है जो यथोचित बात पर कान धरने के लिए तैयार हों।
إِنۡ أَنتَ إِلَّا نَذِيرٌ ۝ 22
(23) तुम तो बस एक सचेत करनेवाले हो।44
44. अर्थात् तुम्हारा काम लोगों को सचेत कर देने से अधिक कुछ नहीं है। इसके बाद अगर कोई होश में नहीं आता तो उसका कोई दायित्व तुमपर नहीं है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗاۚ وَإِن مِّنۡ أُمَّةٍ إِلَّا خَلَا فِيهَا نَذِيرٞ ۝ 23
(24) हमने तुमको सत्य के साथ भेजा है, शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला बनाकर। और कोई समुदाय ऐसा नहीं गुज़रा है जिसमें कोई सचेत करनेवाला न आवर हो।45
45. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर कही गई है कि दुनिया में कोई उम्मत ऐसी नहीं गुज़री है जिसको रास्ता दिखाने के लिए अल्लाह ने नबी न भेजे हों, मगर इस सिलसिले में दो बातें समझ लेनी चाहिएँ ताकि कोई भ्रम न हो। एक यह कि एक नबी का प्रचार जहाँ-जहाँ तक पहुँच सकता हो, वहाँ के लिए वहीं नबी काफ़ी है। यह अनिवार्य नहीं है कि हर हर बस्ती और हर-हर क़ौम में अलग-अलग नबी भेजे जाएँ। दूसरी यह कि एक नबी के आह्वान और संमार्ग के लक्षण, उसके मार्गदर्शन के पद-चिह्न जब तक सुरक्षित रहें, उस समय तक किसी नए नबी की ज़रूरत नहीं है। यह ज़रूरी नहीं कि हर नस्ल और हर पीढ़ी के लिए अलग नबी भेजा जाए।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلزُّبُرِ وَبِٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُنِيرِ ۝ 24
(25) अब अगर ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं, तो इनसे पहले गुज़रे हुए लोग भी झुठला चुके हैं। उनके पास उनके रसूल खुले प्रमाण46 और सहीफ़े (ग्रंथ) और स्पष्ट आदेश देनेवाली किताब47 लेकर आए थे।
46. अर्थात् ऐसे प्रमाण जो इस बात की खुली गवाही देते थे कि वह अल्लाह के रसूल हैं।
47. 'सहीफ़ों' (ग्रंथों) और 'किताब' में शायद यह अंतर है कि सहीफ़ों में अधिकतर नसीहतें और नैतिक आदेश होते हैं और किताब एक पूरी शरीअत (धर्म-विधान) लेकर आती थी।
ثُمَّ أَخَذۡتُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 25
(26) फिर जिन लोगों ने न माना, उनको मैंने पकड़ लिया, और देख लो कि मेरी सज़ा कैसी कठोर थी।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ ثَمَرَٰتٖ مُّخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهَاۚ وَمِنَ ٱلۡجِبَالِ جُدَدُۢ بِيضٞ وَحُمۡرٞ مُّخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهَا وَغَرَابِيبُ سُودٞ ۝ 26
(27) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और फिर उसके द्वारा हम तरह-तरह के फल निकाल लाते हैं, जिनके रंग अलग-अलग होते हैं। पहाड़ों में भी सफ़ेद, लाल और गहरी काली धारियाँ पाई जाती हैं, जिनके रंग अलग-अलग होते हैं।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ وَٱلدَّوَآبِّ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ مُخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهُۥ كَذَٰلِكَۗ إِنَّمَا يَخۡشَى ٱللَّهَ مِنۡ عِبَادِهِ ٱلۡعُلَمَٰٓؤُاْۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ غَفُورٌ ۝ 27
(28) और इसी तरह इंसानों और जानवरों और मवेशियों के रंग भी अलग-अलग हैं।48 वास्तविकता यह है कि अल्लाह के बन्दों में से सिर्फ़ ज्ञान रखनेवाले लोग ही उससे डरते हैं।49 बेशक अल्लाह प्रभुत्वशाली और क्षमा करनेवाला है।50
48. इससे यह समझाना अभिप्रेत है कि अल्लाह की पैदा की हुई सृष्टि में कहीं भी एकरूपता और समानता नहीं है। हर ओर विविधता ही विविधता है। एक ही ज़मीन और एक ही पानी से तरह-तरह के पेड़ निकल रहे हैं और एक पेड़ के दो फल तक अपने रंग-रूप, आकार और स्वाद में एक जैसे नहीं हैं। एक ही पहाड़ को देखो तो उसमें कई-कई रंग तुम्हें नज़र आएँगे और उसके अलग-अलग हिस्सों की भौतिक संरचना में बड़ा अन्तर पाया जाएगा। इंसानों और जानवरों में एक माँ-बाप के दो बच्चे तक एक जैसे न मिलेंगे। इस सृष्टि में अगर कोई स्वभावों और रुचियों और मनोवृत्तियों में समरूपता ढूँढे और वह विविधता देखकर घबरा उठे, जिनकी ओर ऊपर (आयत 19-22 में) संकेत किया गया है, तो यह उसकी अपनी समझ की कमज़ोरी है। यही भिन्नता और विविधता इस बात का पता दे रही है कि इस सृष्टि को किसी महान तत्त्वदर्शी ने अनगिनत हितों और उद्देश्यों के साथ पैदा किया है और इसका बनानेवाला कोई बेमिसाल स्रष्टा और बनानेवाला है जो हर चीज़ का कोई एक ही नमूना लेकर नहीं बैठ गया है बल्कि उसके पास हर चीज़ के लिए नए से नए डिज़ाइन और अनगिनत डिज़ाइन हैं। फिर मुख्य रूप से इंसानी स्वभावों और मानसिकताओं की विविधता पर कोई व्यक्ति विचार करे तो उसे मालूम हो सकता है कि यह कोई संयोगिक घटना नहीं है, बल्कि वास्तव में पैदा करने की हिक्मत का बेहतरीन नमूना है। अगर तमाम इंसान पैदाइशी तौर पर हर दृष्टि से एक जैसे बना दिए जाते तो दुनिया में इंसान की क़िस्म की एक नई मलूक (प्राणी) पैदा करना ही सिरे से व्यर्थ हो जाता। पैदा करनेवाले ने जब इस ज़मीन पर एक ज़िम्मेदार मख़्लूक़ और अधिकारोंवाली मलूक को अस्तित्त्व में लाने का फ़ैसला किया तो इस फ़ैसले के स्वरूप का ज़रूरी तक़ाज़ा यही था कि उसकी बनावट में हर प्रकार की विविधता की गुंजाइश रखी जाती। यह चीज़ इस बात की सबसे बड़ी गवाही है कि इंसान किसी संयोगिक घटना का परिणाम नहीं है, बल्कि एक महान तत्वदर्शितापूर्ण योजना का परिणाम है और स्पष्ट है कि तत्वदर्शितापूर्ण योजना जहाँ भी पाई जाएगी, वहाँ जरूरी तौर पर उसके पीछे एक तत्त्वदर्शी सत्ता का हाथ निश्चित रूप से होगा। तत्त्वदर्शी के बिना तत्त्वदर्शिता का अस्तित्त्व सिर्फ एक मूर्ख ही मान सकता है।
49. अर्थात् जो आदमी अल्लाह के गुणों से जितना अधिक अनभिज्ञ होगा, वह उससे उतना ही निडर होगा और इसके विपरीत जिस आदमी को अल्लाह की सामर्थ्य, उसकी तत्त्वदर्शिता, उसकी प्रकोपता और बलशाली होने के गुण तथा उसके दूसरे गुणों का जितना भी ज्ञान होगा, उतना ही वह उसकी अवज्ञा से भय खाएगा। अत: वास्तव में इस आयत में ज्ञान से तात्पर्य दर्शन और विज्ञान और इतिहास और गणित आदि पढ़ाई जानेवाली किताबों का ज्ञान नहीं है, बल्कि अल्लाह के गुणों का ज्ञान है। इससे हटकर आदमी पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, जो आदमी अल्लाह से निडर है, वह समय का बड़ा विद्वान भी हो तो इस ज्ञान की दृष्टि से अज्ञानी मात्र है, और जो आदमी अल्लाह के गुणों को जानता है और उसका डर अपने मन में रखता है, वह अनपढ़ हो, तो भी ज्ञानवाला है। इसी सिलसिले में यह बात भी जान लेनी चाहिए कि इस आयत में शब्द 'उलमा' से वे पारिभाषिक 'उलमा' भी तात्पर्य नहीं हैं जो क़ुरआन और हदीस और फ़िलह व कलाम (तर्कशास्त्र) का ज्ञान रखने की वजह से 'दीन के उलमा' कहे जाते हैं। उनपर यह आयत सिर्फ़ इसी रूप में चरितार्थ होगी जबकि उनके भीतर ईश-भय मौजूद हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ كِتَٰبَ ٱللَّهِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ يَرۡجُونَ تِجَٰرَةٗ لَّن تَبُورَ ۝ 28
(29) जो लोग अल्लाह की किताब को पढ़ते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं, और जो कुछ हमने उन्हें रोज़ी दी है, उसमें से खुले और छिपे खर्च करते हैं, निश्चित रूप से वे एक ऐसे कारोबार की आशा रखते हैं, जिसमें कदापि घाटा न होगा।
لِيُوَفِّيَهُمۡ أُجُورَهُمۡ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ غَفُورٞ شَكُورٞ ۝ 29
(30) (इस कारोबार में उन्होंने अपना सब कुछ इसलिए खपाया है) ताकि अल्लाह उनके बदले पूरे के पूरे उनको दे और और अधिक अपनी कृपा से उनको प्रदान करे।51 निस्सन्देह अल्लाह क्षमा करनेवाला और गुणग्राहक है52
51. ईमानवालों के इस कार्य को व्यापार से इसलिए उपमा दी गई है कि आदमी व्यापार में अपनी पूँजी और मेहनत और योग्यता इस आशा पर लगाता है कि न सिर्फ मूल वापस मिलेगा और न सिर्फ़ वक़्त और मेहनत का बदला मिलेगा, बल्कि कुछ और अधिक लाभ भी मिलेगा। इसी तरह एक मोमिन भी अल्लाह के आज्ञापालन में अपना सब कुछ इस उम्मीद पर खपा देता है कि न सिर्फ उनका पूरा-पूरा बदला मिलेगा, बल्कि अल्लाह अपनी कृपा से कुछ अधिक ही प्रदान करेगा। मगर दोनों व्यापारों में अन्तर और बहुत बड़ा अन्तर इस बुनियाद पर है कि सांसारिक व्यापार में केवल लाभ ही की आशा नहीं होती, घाटे और दीवालिए हो जाने तक का ख़तरा भी होता है। इसके विपरीत जो कारोबार एक निष्ठावान बंदा अपने अल्लाह के साथ करता है उसमें किसी घाटे का अंदेशा नहीं।
52. अर्थात् सच्चे ईमानवालों के साथ अल्लाह का मामला उस तंग दिल स्वामी का-सा नहीं है जो बात-बात पर पकड़ करता हो और एक छोटी-सी ग़लती पर अपने नौकर की सारी सेवाओं और वफ़ादारियों पर पानी फेर देता हो। वह दाता और कृपालु स्वामी है। जो बन्दा उसका वफ़ादार हो, उसकी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करता है और जो कुछ भी सेवा उससे बन आई हो, उसको महत्त्व देता है।
وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ هُوَ ٱلۡحَقُّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِعِبَادِهِۦ لَخَبِيرُۢ بَصِيرٞ ۝ 30
(31) (ऐ नबी!) जो किताब हमने तुम्हारी ओर वह्य (प्रकाशना) के ज़रिये से भेजी है, वही सत्य है, पुष्टि करती हुई आई है उन किताबों की जो इससे पहले आई थीं।53 निस्सन्देह अल्लाह अपने बन्दों के हाल की ख़बर रखता है और हर चीज़ पर निगाह रखनेवाला है।54
53. अर्थ यह है कि वह कोई निराली बात नहीं पेश कर रही है, बल्कि उसी शाश्वत सत्य को प्रस्तुत कर रही है जो हमेशा से तमाम नबी प्रस्तुत करते चले आ रहे हैं।
54. अल्लाह के इन गुणों को यहाँ बयान करने का अभिप्राय इस वास्तविकता पर सचेत करना है कि बन्दों के लिए भलाई किस चीज़ में है और उनकी हिदायत और रहनुमाई के लिए क्या नियम उचित हैं और कौन-से विधान ठीक-ठीक उनकी मस्लहत के मुताबिक़ हैं, इन मामलों को अल्लाह के सिवा कोई नहीं जान सकता, क्योंकि बन्दों के स्वभाव और उसके तक़ाज़ों की वही ख़बर रखता है और उनके वास्तविक हितों पर वही निगाह रखता है। बन्दे स्वयं अपने आपको उतना नहीं जानते जितना उनका पैदा करनेवाला ख़ुदा उनको जानता है। इसलिए सत्य वही है और वही हो सकता है जो उसने वह्य के द्वारा से बता दिया है।
ثُمَّ أَوۡرَثۡنَا ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِينَ ٱصۡطَفَيۡنَا مِنۡ عِبَادِنَاۖ فَمِنۡهُمۡ ظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ وَمِنۡهُم مُّقۡتَصِدٞ وَمِنۡهُمۡ سَابِقُۢ بِٱلۡخَيۡرَٰتِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 31
(32) फिर हमने उस किताब का वारिस बना दिया उन लोगों को जिन्हें हमने (इस विरासत के लिए) अपने बन्दों में से चुन लिया।55 अब कोई तो इनमें से अपने आपपर ज़ुल्म करनेवाला है और कोई बीच की रास है और कोई अल्लाह के हुक्म से नेकियों में बाज़ी ले जानेवाला है, यही बहुत बड़ी मेहरबानी है।56
55. मुराद है मुसलमान । यद्यपि किताब प्रस्तुत तो की गई है सारे इंसानों के सामने मगर जिन्होंने आगे बढ़कर उसे अपना लिया, वहीं इस श्रेष्ठ कार्य के लिए चुन लिए गए कि क़ुरआन जैसी महान किताब के वारिस और मुहम्मद अरबी (सल्ल०) जैसे महान रसूल की शिक्षा और मार्गदर्शन के अमानतदार बनें।
56. अर्थात् ये मुसलमान सब के सब एक ही तरह के नहीं हैं बल्कि ये तीन वर्गों में बँट गए हैं- 1. अपने आप पर ज़ुल्म करनेवाले- ये वे लोग हैं जो क़ुरआन को सच्चे दिल से अल्लाह की किताब और मुहम्मद (सल्ल०) को ईमानदारी के साथ अल्लाह का रसूल तो मानते हैं, मगर व्यावहारिक रूप से अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत की पैरवी का हक़ अदा नहीं करते। मोमिन हैं, मगर गुनाहगार हैं। अपराधी हैं, मगर द्रोही नहीं हैं। 2. बीच की रास- ये वे लोग हैं जो इस विरासत का हक़ कमो-बेश अदा तो करते हैं, मगर पूरी तरह नहीं 56. अर्थात् ये मुसलमान सब के सब एक ही तरह के नहीं हैं बल्कि ये तीन वर्गों में बँट गए हैं- 1. अपने आप पर ज़ुल्म करनेवाले- ये वे लोग हैं जो क़ुरआन को सच्चे दिल से अल्लाह की किताब और मुहम्मद (सल्ल०) को ईमानदारी के साथ अल्लाह का रसूल तो मानते हैं, मगर व्यावहारिक रूप से अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत की पैरवी का हक़ अदा नहीं करते। मोमिन हैं, मगर गुनाहगार हैं। अपराधी हैं, मगर द्रोही नहीं हैं। 2. बीच की रास- ये वे लोग हैं जो इस विरासत का हक़ कमो-बेश अदा तो करते हैं, मगर पूरी तरह नहीं करते। आज्ञापालक भी हैं और ग़लतियाँ भी करते हैं। अपने मन को अल्लाह का आज्ञापालक बनाने की अपनी हद तक कोशिशें करते हैं, लेकिन कभी ये उसकी बागें ढीली भी छोड़ देते हैं। 3. नेकियों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जानेवाले- ये किताब के वारिसों में प्रथम पंक्ति के लोग हैं। यही वास्तव में इस विरासत का हक़ अदा करनेवाले हैं। ये किताब और सुन्नत की पैरवी में और भलाई के हर काम में आगे-आगे [रहते हैं।]
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَلُؤۡلُؤٗاۖ وَلِبَاسُهُمۡ فِيهَا حَرِيرٞ ۝ 32
(33) हमेशा रहनेवाली जन्नतें हैं, जिनमें ये लोग दाख़िल होंगे”57, वहाँ उन्हें सोने के कंगनों और मोतियों से सजाया जाएगा, वहाँ उनका लिबास रेशम होगा
57. अधिकतर टीकाकार कहते हैं कि इस वाक्य का सम्बंध ऊपर के पूरे हिस्से से है और इसका अर्थ यह है कि उम्मत के ये तीनों गिरोह अन्ततः जन्नत में दाखिल होंगे, चाहे हिसाब-किताब के बिना हो या हिसाब किताब के बाद, चाहे हर जवाबदेही से बचकर या कोई सज़ा पाने के बाद । क़ुरआन के प्रसंग तथा सन्दर्भ से भी इसी बात का समर्थन होता है। फिर इसी का समर्थन नबी (सल्ल०) की वह हदीस करती है जिसका उल्लेख हज़रत अबुद्दा (रजि०) ने रिवायत किया है और इमाम अहमद, इने जरीर, इब्ने-अबी हातिम, तबरानी, बैहकी (रह०) और कुछ दूसरे हदीसशास्त्रियों ने किया है। इस हदीस में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, "जो लोग नेकियों में आगे निकल गए हैं, वे जन्नत में किसी हिसाब के बिना दाखिल होंगे और जो बीच की रास रहे हैं, उनसे हिसाब-किताब होगा, लेकिन हलका हिसाब-किताब। रहे वे लोग जिन्होंने अपने आप पर जुल्म किया है, तो वे हश्र के मैदान में हिसाब-किताब की इस लम्बी मुद्दत में रोके रखे जाएँगे, फिर उन्हीं को अल्लाह अपनी रहमत में ले लेगा और यही लोग हैं जो कहेंगे कि शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमसे ग़म दूर कर दिया। इस हदीस में नबी (सल्ल०) ने इस आयत की पूरी टीका स्वयं बयान कर दी है और ईमानवालों के तीनों वर्गों का अंजाम अलग-अलग बता दिया है। 'बीच की रास' वालों से हल्का हिसाब-किताब होने का अर्थ यह है कि 'कुफ़्फ़ार' को तो उनके कुफ़्र (इंकार) के अलावा उनके हर-हर अपराध और गुनाह की अलग-अलग सज़ा भी दी जाएगी, मगर इसके विपरीत ईमानवालों में जो लोग अच्छे और बुरे दोनों तरह के कर्मों को लेकर पहुंचेंगे उनकी नेकियों और उनके गुनाहों को सामने रखकर हिसाब-किताब होगा। यह नहीं होगा कि हर नेकी का अलग बदला और हर ग़लती की अलग सज़ा दी जाए। और यह जो फ़रमाया कि ईमानवालों में से जिन लोगों ने अपने आप पर ज़ुल्म किया होगा वे 'महशर' की पूरी मुद्दत में रोक रखे जाएँगे। इसका अर्थ यह है कि वे जहन्नम में नहीं डाले जाएंगे, बल्कि उनको अदालत के बरखास्त होने तक' की सज़ा दी जाएगी। यानी हश्र के दिन की पूरी मुद्दत (जो न मालूम कितनी सदियों के बराबर लम्बी होगी) उनपर अपनी सारी सख़्तियों के साथ गुज़र जाएगी, यहाँ तक कि अन्ततः अल्लाह उनपर अपनी कृपा करेगा और अदालत के खात्मे के वक़्त हुक्म देगा कि अच्छा, इन्हें भी जन्नत में दाखिल कर दो। मगर इससे यह न समझ लेना चाहिए कि मुसलमानों में से जिन लोगों ने अपने आप पर ज़ुल्म किया है उनके लिए सिर्फ़ अदालत के बरख़ास्त होने तक' ही की सज़ा है और उनमें से कोई जहन्नम में जाएगा ही नहीं। क़ुरआन और हदीस में कई ऐसे अपराधों का उल्लेख है जिनके करनेवाले को ईमान भी जहन्नम में जाने से नहीं बचा सकता।
وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِيٓ أَذۡهَبَ عَنَّا ٱلۡحَزَنَۖ إِنَّ رَبَّنَا لَغَفُورٞ شَكُورٌ ۝ 33
(34) और वे कहेंगे कि "शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमसे ग़म दूर कर दिया58।" निश्चित रूप से हमारा पालनहार क्षमा करनेवाला और गुणग्राहक है,59
58. हर प्रकार का ग़म । दुनिया में जिन चिन्ताओं और परेशानियों में हम पड़े हुए थे, उनसे भी मुक्ति मिली, आखिरत में अपने अंजाम की जो चिन्ता लगी हुई थी, वह भी समाप्त हुई, और अब आगे चैन ही चैन है, किसी रंज और तकलीफ़ का कोई प्रश्न बाक़ी न रहा।
59. अर्थात् हमारी ग़लतियाँ उसने क्षमा कर दी और कर्म की जो थोड़ी-सी पूँजी हम लाए थे, उसका ऐसा मूल्य समझा कि अपनी जन्नत उसके बदले में अता फ़रमा दी।
ٱلَّذِيٓ أَحَلَّنَا دَارَ ٱلۡمُقَامَةِ مِن فَضۡلِهِۦ لَا يَمَسُّنَا فِيهَا نَصَبٞ وَلَا يَمَسُّنَا فِيهَا لُغُوبٞ ۝ 34
(35) जिसने हमें अपनी कृपा से शाश्वत आवास की जगह ठहरा दिया60, अब यहाँ न हमें कोई मशक़्क़त पेश आती है और न थकन होती है।61
60. अर्थात् दुनिया हमारी जिंदगी के सफ़र की एक मंज़िल थी जिससे हम गुज़र आए हैं और हश्र का मैदान भी उस सफ़र का एक मरहला था जिससे हम गुजर लिए हैं। अब हम उस जगह पहुंच गए हैं जहाँ से निकलकर फिर कहीं जाना नहीं है।
61. दूसरे शब्दों में, हमारी तमाम मेहनतों और कष्टों का अन्त हो चुका है। अब यहाँ हमें कोई ऐसा काम नहीं करना पड़ता, जिसके अंजाम देने में हमको मशक्कत पेश आती हो और जिससे फ़ारिग़ होकर हम थक जाते हों।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ نَارُ جَهَنَّمَ لَا يُقۡضَىٰ عَلَيۡهِمۡ فَيَمُوتُواْ وَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُم مِّنۡ عَذَابِهَاۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي كُلَّ كَفُورٖ ۝ 35
(36) और जिन लोगों ने कुफ़्र (इंकार) किया है62, उनके लिए जहन्नम की आग है, न उनका क़िस्सा पाक कर दिया जाएगा कि मर जाएँ और न उनके लिए जहन्नम के अज़ाब में कोई कमी की जाएगी। इस तरह हम बदला देते हैं हर उस आदमी को जो इंकार करनेवाला हो।
62. अर्थात् उस किताब को मानने से इंकार कर दिया है जो अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारी है।
وَهُمۡ يَصۡطَرِخُونَ فِيهَا رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا نَعۡمَلۡ صَٰلِحًا غَيۡرَ ٱلَّذِي كُنَّا نَعۡمَلُۚ أَوَلَمۡ نُعَمِّرۡكُم مَّا يَتَذَكَّرُ فِيهِ مَن تَذَكَّرَ وَجَآءَكُمُ ٱلنَّذِيرُۖ فَذُوقُواْ فَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٍ ۝ 36
(37) वे वहाँ चीख-चीखकर कहेंगे कि "ऐ हमारे रब! हमें यहाँ से निकाल ले ताकि हम भले कर्म करें, उन कर्मों से भिन्न जो पहले करते रहे थे।" (उन्हें जवाब दिया जाएगा) “क्या हमने तुमको इतनी उम्र न दी थी जिसमें कोई शिक्षा लेना चाहता तो शिक्षा ले सकता था?63 और तुम्हारे पास सचेत करनेवाला भी आ चुका था, अब मज़ा चखो। ज़ालिमों का यहाँ कोई मददगार नहीं है।"
63. इससे तात्पर्य हर वह उम्र है जिसमें आदमी इस योग्य हो सकता हो कि अगर वह नेक और बद और सत्य और असत्य में अन्तर करना चाहे तो कर सके और पथभ्रष्टता छोड़कर सत्य पाने की ओर उन्मुख होना चाहे तो हो सके। इस उम्र को पहुँचने से पहले अगर कोई आदमी मर चुका हो तो इस आयत के अनुसार उस पर कोई पकड़ न होगी। अलबत्ता जो इस उम्र को पहुँच चुका हो, वह अपने कर्म के लिए अवश्य ही उत्तरदायी क़रार पाएगा। और फिर उस उम्र के शुरू हो जाने के बाद जितनी मुद्दत भी वह जिंदा रहे और संभलकर सीधे रास्ते पर आने के लिए जितने मौक़े भी उसे मिलते चले जाएँ, उतनी ही उसकी ज़िम्मेदारी ज़्यादा सख़्त होती चली जाएगी, यहाँ तक कि जो आदमी बुढ़ापे को पहुँचकर भी सीधा न हो, उसके लिए किसी उज्ज की गुंजाइश बाक़ी न रहेगी। यही बात है जो एक हदीस में हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) और हज़रत सहल (रजि०) बिन साद साअिदी ने नबी (सल्ल.) से नकल फ़रमाई है कि जो आदमी कम उम्र पाए, उसके लिए तो उन का मौका है, मगर 60 साल और उससे ऊपर उम्र पानेवाले के लिए कोई उज्ज़ नहीं है। (बुख़ारी, अहमद, नसई, इब्ने-जरीर और इने-अबी हातिम वग़ैरह)
إِنَّ ٱللَّهَ عَٰلِمُ غَيۡبِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 37
(38) निस्सन्देह अल्लाह आसमानों और ज़मीन की हर छिपी चीज़ को जाननेवाला है, वह तो सीनों के छिपे हुए भेद तक जानता है।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَكُمۡ خَلَٰٓئِفَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَمَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَلَا يَزِيدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ كُفۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ إِلَّا مَقۡتٗاۖ وَلَا يَزِيدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ كُفۡرُهُمۡ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 38
(39) वही तो है जिसने तुमको ज़मीन में खलीफ़ा' बनाया है।64 अब जो कोई कुफ़्र करता है उसके कुफ़्र का वबाल उसी पर है65, और इंकारियों को उनका इंकार इसके सिवा कोई तरक़्क़ी नहीं देता कि उनके रब का प्रकोप उनपर ज़्यादा से ज़्यादा भड़कता चला जाता है। इनकारियों के लिए घाटे के सिवा कोई प्रगति नहीं।
64. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि उसने पिछली नस्लों और क़ौमों के गुज़र जाने के बाद अब तुमको उनकी जगह अपनी ज़मीन में बसाया है। और दूसरा यह कि उसने तुम्हें ज़मीन में उपभोग के जो अधिकार दिए हैं, वे इस हैसियत से नहीं हैं कि तुम इन चीज़ों के मालिक हो, बल्कि इस हैसियत से हैं कि तुम वास्तविक स्वामी के खलीफ़ा हो।
65. अगर पहले वाक्य का यह अर्थ लिया जाए कि तुमको पिछली क़ौमों का जानशीन बनाया है, तो इस वाक्य का अर्थ यह होगा कि जिसने पिछली क़ौमों के अंजाम से कोई शिक्षा न ली और वही कुफ़्र का रवैया अपनाया, जिसकी वजह से वे क़ौमें तबाह हो चुकी हैं। वह अपनी इस मूर्खता का बुरा नतीजा देखकर रहेगा। और अगर इस वाक्य का अर्थ यह लिया जाए कि अल्लाह ने तुमको अपने ख़लीफ़ा की हैसियत से ज़मीन में अधिकार दिए हैं तो इस वाक्य का अर्थ यह होगा कि जो अपनी खिलाफ़त की हैसियत को भूल कर ख़ुद-मुख्तार बन बैठा या जिसने असल मालिक को छोड़कर किसी और की बन्दगी अपना ली वह अपने इस विद्रोहपूर्ण रवैये का बुरा अंजाम देख लेगा।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ شُرَكَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُواْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ لَهُمۡ شِرۡكٞ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ أَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ كِتَٰبٗا فَهُمۡ عَلَىٰ بَيِّنَتٖ مِّنۡهُۚ بَلۡ إِن يَعِدُ ٱلظَّٰلِمُونَ بَعۡضُهُم بَعۡضًا إِلَّا غُرُورًا ۝ 39
(40) (ऐ नबी!) इनसे कहो, "कभी तुमने देखा भी है अपने उन शरीकों66 को जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते हो? मुझे बताओ, उन्होंने ज़मीन में क्या पैदा किया है? या आसमानों में उनकी क्या शिरकत है ?" (अगर यह नहीं बता सकते तो इनसे पूछो) क्या हमने इन्हें कोई लेख लिख दिया है, जिसकी बिना पर ये (अपने इस शिर्क के लिए) कोई खुला प्रमाण रखते हों?67 नहीं, बल्कि ये ज़ालिम एक-दूसरे को सिर्फ़ फ़रेब के झाँसे दिए जा रहे हैं।68
66. 'अपने शरीक' का शब्द इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि वास्तव में वे अल्लाह के शरीक तो हैं नहीं, मुशरिकों ने उनको अपने तौर पर उसका शरीक बना रखा है।
67. अर्थात् क्या हमारा लिखा हुआ कोई परवाना इनके पास ऐसा है, जिसमें हमने यह लिखा हो कि फ़लाँ-फ़लाँ लोगों को हमने बीमारों को तन्दुरुस्त करने या बेरोज़गारों को रोज़गार दिलाने या ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी करने के अधिकार दिए हैं, या फ़ला-फ़लाँ हस्तियों को हमने अपनी ज़मीन के फ़लाँ हिस्सों का अधिकारी बना दिया है और इन इलाकों के लोगों के भाग्यों को बनाना और बिगाड़ना अब उनके हाथ में है, इसलिए हमारे बन्दों को अब उन्हीं से दुआएँ माँगनी चाहिए और उन्हीं के हुजूर नरें और नियातें चढ़ानी चाहिएँ, और जो नेमतें भी मिलें, उनपर उन्हीं छोटे ख़ुदाओं' का शुक्र बजा लाना चाहिए। ऐसा कोई प्रमाण अगर तुम्हारे पास है तो लाओ उसे पेश करो और अगर नहीं है तो स्वयं ही सोचो कि ये शिर्क भरे विश्वास और कर्म आख़िर तुमने किस आधार पर गढ़ लिए हैं ? तुमसे पूछा जाता है कि ज़मीन और आसमान में कहीं तुम्हारे इन बनावटी उपास्यों के अल्लाह के शरीक होने की कोई निशानी पाई जाती है ? तुम इसके उत्तर में किसी निशानी की निशानदेही नहीं कर सकते। तुमसे पूछा जाता है कि अल्लाह ने अपनी किसी किताब में यह फ़रमाया है या तुम्हारे पास या इन बनावटी उपास्यों के पास अल्लाह का दिया हुआ कोई परवाना ऐसा मौजूद है जो इस बात की गवाही देता हो कि अल्लाह ने ख़ुद इन्हें वे अधिकार दिए हैं जो तुम उनसे संबंद्ध कर रहे हो ? तुम वे भी पेश नहीं कर सकते। अब आखिर वह चीज़ क्या है जिसके आधार पर तुम अपने ये विश्वास बनाए बैठे हो? क्या तुम खुदाई के मालिक हो कि ख़ुदा के इख़्तियारों को जिस-जिस को चाहो बाँट दो।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يُمۡسِكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ أَن تَزُولَاۚ وَلَئِن زَالَتَآ إِنۡ أَمۡسَكَهُمَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنۢ بَعۡدِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا ۝ 40
(41) वास्तविकता यह है कि अल्लाह ही है जो आसमानों और ज़मीन को टल जाने से रोके हुए है और अगर वे टल जाएँ तो अल्लाह के बाद कोई दूसरा उन्हें थामनेवाला नहीं है।69 निस्सन्देश अल्लाह बड़ा सहनशील और क्षमाशील है।70
69. अर्थात् यह अथाह सृष्टि अल्लाह के क़ायम रखने से क़ायम है। कोई फ़रिश्ता या जिन्न या नबी या वली उसको सँभाले हुए नहीं है। सृष्टि को सँभालना तो दूर की बात, ये बेबस बन्दे तो अपने वुजूद को सँभालने पर भी सामर्थ्य नहीं। हर एक अपनी पैदाइश और अपनी जिंदगी के लिए हर क्षण अल्लाह का मुहताज है। इनमें से किसी के बारे में यह समझना कि खुदाई के गुण और इख़्तियारों में इसका कोई हिस्सा है, विशुद्ध मूर्खता और धोखा खाने के सिवा और क्या हो सकता है।
70. अर्थात् यह सरासर अल्लाह की सहनशीलता और उसका नज़रअंदाज़ करना है कि इतनी बड़ी गुस्ताखियाँ उसके हुजूर में की जा रही हैं और फिर भी वह सज़ा देने में जल्दी नहीं कर रहा है।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِن جَآءَهُمۡ نَذِيرٞ لَّيَكُونُنَّ أَهۡدَىٰ مِنۡ إِحۡدَى ٱلۡأُمَمِۖ فَلَمَّا جَآءَهُمۡ نَذِيرٞ مَّا زَادَهُمۡ إِلَّا نُفُورًا ۝ 41
(42) ये लोग कड़ी कड़ी कसमें खाकर कहा करते थे कि अगर कोई ख़बरदार करनेवाला उनके यहाँ आ गया होता तो यह दुनिया की हर दूसरी क़ौम से बढ़कर सीधे रास्ते पर चलनेवाले होते71, मगर जब सचेत करनेवाला उनके यहाँ आ गया तो उसके आने ने इनके अन्दर हक़ से फ़रार के सिवा किसी चीज़ में वृद्धि न किया।
71. यह बात नबी (सल्ल०) के नबी बनाए जाने से पहले अरब के लोग आम तौर से और क़ुरैश के लोग विशेष रूप से यहूदियों और ईसाइयों की बिगड़ी हुई नैतिक स्थिति को देखकर कहा करते थे। उनके इस कथन का उल्लेख इससे पहले सूरा-6 अनआम (आयत 156-157) में भी गुज़र चुका है और आगे सूरा-37 साफ़्फ़ात (आयत 167-169) में भी आ रहा है।
ٱسۡتِكۡبَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَكۡرَ ٱلسَّيِّيِٕۚ وَلَا يَحِيقُ ٱلۡمَكۡرُ ٱلسَّيِّئُ إِلَّا بِأَهۡلِهِۦۚ فَهَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا سُنَّتَ ٱلۡأَوَّلِينَۚ فَلَن تَجِدَ لِسُنَّتِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗاۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّتِ ٱللَّهِ تَحۡوِيلًا ۝ 42
(43) ये ज़मीन में और अधिक उईडता करने लगे और बुरी-बुरी चालें चलने लगे, हालांकि बुरी चालें अपने चलनेवालों ही को ले बैठती हैं। अब क्या ये लोग इसका इन्तिज़ार कर रहे हैं कि पिछली क़ौमों के साथ अल्लाह का जो तरीक़ा रहा है, वही उनके साथ भी बरता जाए72, यही बात है तो तुम अल्लाह के तरीक़े में कदापि कोई परिवर्तन न पाओगे और तुम कभी न देखोगे कि अल्लाह की सुन्नत को उसके निर्धारित रास्ते से कोई ताक़त फेर सकती है।
72. अर्थात् अल्लाह का यह क़ानून इनपर भी लागू हो जाए कि जो क़ौम अपने नबी को झुठलाती है, वह नष्ट करके रख दी जाती है।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَكَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعۡجِزَهُۥ مِن شَيۡءٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَلِيمٗا قَدِيرٗا ۝ 43
(44) क्या ये लोग ज़मीन में कभी चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता, जो इनसे पहले गुजर चुके हैं और इनसे बहुत ज़्यादा ताक़तवर थे? अल्लाह को कोई चीज़ विवश करनेवाली नहीं है, न आसमानों में और न ज़मीन में। वह सब कुछ जानता है और उसे हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है।
وَلَوۡ يُؤَاخِذُ ٱللَّهُ ٱلنَّاسَ بِمَا كَسَبُواْ مَا تَرَكَ عَلَىٰ ظَهۡرِهَا مِن دَآبَّةٖ وَلَٰكِن يُؤَخِّرُهُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِعِبَادِهِۦ بَصِيرَۢا ۝ 44
(45) अगर कहीं वह लोगों को उनके किए करतूतों पर पकड़ता तो धरती पर किसी जीव को जीता न छोड़ता, मगर वह उन्हें एक निश्चित समय तक के लिए मुहलत दे रहा है। फिर जब उनका वक्त आ पूरा होगा, तो अल्लाह अपने बन्दों को देख लेगा।