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سُورَةُ السَّجۡدَةِ

32. अस-सजदा

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

 

परिचय

नाम

आयत 15 में सजदे का जो उल्लेख हुआ है, उसी को सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है और उसका भी आरंभिक काल [जब मक्का के इस्लाम-विरोधियों के अत्याचारों में अभी शिद्दत पैदा नहीं हुई थी] ।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय तौहीद (एकेश्वरवाद), आख़िरत (परलोकवाद) और रिसालत (ईशदूतत्व) के बारे में लोगों के सन्देहों को दूर करना और इन तीनों सच्चाइयों पर ईमान लाने की दावत देना है। [सत्य की दावत की इन तीनों बुनियादी बातों पर मक्का के इस्लाम-विरोधियों की आपत्तियों का जवाब देते हुए सबसे पहले उनसे] यह कहा गया है कि निस्सन्देह यह अल्लाह की वाणी है और इसलिए उतारी गई है कि नुबूवत की बरकत से वंचित, ग़फ़लत में पड़ी हुई एक क़ौम को चौंकाया जाए। इसे तुम झूठ कैसे कह सकते हो, जबकि इसका अल्लाह की ओर से उतारा जाना पूरी तरह स्पष्ट है। फिर उनसे कहा गया है कि यह कुरआन जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने पेश करता है, बुद्धि से काम लेकर ख़ुद सोचो कि इनमें क्या चीज़ अचंभे की है। आसमान और ज़मीन के प्रबन्ध को देखो, स्वयं अपनी पैदाइश और बनावट पर विचार करो, क्या यह सब कुछ क़ुरआनी शिक्षाओं के सच्चे होने पर गवाह नहीं है। फिर आख़िरत की दुनिया का एक चित्र खींचा गया है और ईमान के सुख़द फल और कुफ़्र (इनकार) के कुपरिणामों को बयान करके इस बात पर उभारा गया है कि लोग बुरा अंजाम सामने आने से पहले कुफ़्र छोड़ दें और क़ुरआन की इस शिक्षा को स्वीकार कर लें। फिर उनको बताया गया है कि यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि वह इंसान के कु़सूरों पर यकायक अन्तिम और निर्णायक अज़ाब में उसे नहीं पकड़ लेता, बल्कि उससे पहले हल्की-हल्की चोटें लगाता रहता है, ताकि उसे चेतावनी हो और उसकी आँखें खुल जाएँ। फिर कहा कि दुनिया में किताब उतरने की यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है, इससे पहले आख़िर मूसा (अलैहिस्सलाम) पर भी तो किताब आई थी जिसे तुम सब लोग जानते हो। विश्वास करो कि यह किताब अल्लाह ही की ओर से आई है और खू़ब समझ लो कि अब फिर वही कुछ होगा जो मूसा के समय में हो चुका है। पेशवाई और नेतृत्त्व अब उन्हीं के हिस्से में आएगा जो अल्लाह की इस किताब को मान लेंगे। इसे रद्द कर देनेवाले के लिए नाकामी मुक़द्दर हो चुकी है। फिर मक्का के इस्लाम विरोधियों से कहा गया है कि अपनी व्यापारिक यात्राओं के दौरान में तुम जिन पिछली तबाह हुई क़ौमों की बस्तियों पर से गुजरते हो, उनका अंजाम देख लो। क्या यही अंजाम तुम अपने लिए पसन्द करते हो? प्रत्यक्ष से धोखा न खा जाओ।आज [ईमानवाले जिन हालात से दोचार हैं, उन्हें देखकर] तुम यह समझ बैठे हो कि यह चलनेवाली बात नहीं है, लेकिन यह केवल तुम्हारी निगाह का धोखा है। क्या तुम रात-दिन यह देखते नहीं रहते कि आज एक भू-भाग बिल्कुल सूखा मुर्दा पड़ा हुआ है, मगर कल एक ही बारिश में वह भू-भाग इस तरह फबक उठता है कि उसके चप्पे-चप्पे से विकास की शक्तियाँ उभरनी शुरू हो जाती हैं। अन्त में नबी (सल्ल.) को सम्बोधित करके कहा गया है कि ये लोग [तुम्हारे मुँह से फै़सले के दिन की बात] सुनकर उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं । इनसे कहो कि जब हमारे और तुम्हारे फ़ैसले का समय आ जाएगा, उस समय मानना तुम्हारे लिए कुछ भी लाभप्रद न होगा। मानना है तो अभी मान लो।

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سُورَةُ السَّجۡدَةِ
32. अस-सज्दा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 1
(2) इस किताब का उतारा जाना बेशक सारे जहानों के रब की ओर से है।1
1. क़ुरआन मजीद की किसी सूरा का आरम्भ जब इस असाधारण एलान से होता है कि यह सन्देश सृष्टि के बादशाह की ओर से आ रहा है, तो यह सिर्फ़ इस बात का ही एलान नहीं होता कि वह कहाँ से आ रहा है बल्कि इसके साथ इसमें एक बहुत बड़ा दावा, एक बड़ी चुनौती और एक बड़ी चेतावनी भी शामिल होती है। फिर यहाँ सिर्फ़ इतनी बात कहने को काफ़ी नहीं समझा गया है कि यह किताब 'सारे जहानों के रच' की ओर से उतरी है, बल्कि साथ ही पूरे जोर के साथ यह भी फ़रमाया गया है कि 'बेशक यह ख़ुदा की किताब है' अल्लाह की और से इसके अवतरित होने में किसी सन्देह की बिलकुल गुंजाइश नहीं है। इस ताकीदी वाक्य की अगर क़ुरआन के उतरने की वास्तविक पृष्ठभूमि और स्वयं क़ुरआन के अपने संदर्भ में देखा जाए तो महसूस होता है कि उसके भीतर दावे के साथ 'दलील' भी छिपी है, और यह दलील मक्का मुअजमा के उन निवासियों से छिपी न थी, जिनके सामने यह दावा किया जा रहा था। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 21; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 66; सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, टिप्पणी 12; सूरा-28 अल-क्रसस, टिप्पणी, 64, 109)
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۚ بَلۡ هُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 2
(3) क्या ये लोग 2 कहते हैं कि इस आदमी ने इसे स्वयं गढ़ लिया है?3 नहीं, बल्कि यह सत्य है तेरे रब की ओर से 4 ताकि तू सावधान करे एक ऐसी कौम को जिसके पास तुझसे पहले कोई सावधान करनेवाला नहीं आया, शायद कि वे सीधा मार्ग पा जाएँ।5
2. ऊपर के आरंभिक वाक्यों के बाद मक्का के मुशरिकों की पहली आपत्ति को लिया जा रहा है जो वे मुहम्मद 'सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम' की पैगम्बरी पर करते थे।
3. अर्थ यह है कि उन सारी बातों के बावजूद, जिनकी वजह से इस किताब का अल्लाह की ओर से उतरना हर सन्देह और शंका से परे है, क्या ये लोग ऐसी खुली हठधर्मी की बात कह रहे हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) ने इसे स्वयं गढ़कर झूठ-मूठ सारे जहानों के रब अल्लाह से जोड़ दिया है?
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ مَا لَكُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا شَفِيعٍۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 3
(4) वह अल्लाह 6 ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को और उन सारी चीज़ों को जो उनके बीच हैं, छः दिनों में पैदा किया और उसके बाद अर्श पर आसीन हो गया।7 उसके सिवा न तुम्हारा कोई समर्थक व सहायक है और न कोई उसके आगे सिफ़ारिश करनेवाला, फिर क्या तुम होश में न आओगे? 8
6. अब मुशरिकों की दूसरी आपत्तियों को लिया जाता है, जो कि नबी (सल्ल.) के एकेश्वरवादी सन्देश पर करते थे। उनको इस बात पर बड़ी आपत्ति थी कि नबी (सल्ल.) उनके देवताओं और बुजुर्गों के उपास्य होने का इंकार करते हैं और हाँके-पुकारे यह दावत देते हैं कि एक अल्लाह के सिवा कोई उपास्य, कोई काम बनानेवाला, कोई जरूरतें पूरी करनेवाला, कोई दुआएँ सुननेवाला और बिगड़ी बनानेवाला और कोई अधिकारोंवाला शासक नहीं है।
7. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 आराफ, टिप्पणी 41; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 4: सूरा-13 रअद ,टिप्पणी 3
يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ يَعۡرُجُ إِلَيۡهِ فِي يَوۡمٖ كَانَ مِقۡدَارُهُۥٓ أَلۡفَ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 4
(5) वह आसमान से ज़मीन तक दुनिया के मामलों का संचालन करता है और इस संचालन का ब्यौरा ऊपर उसके सामने जाता है, एक ऐसे दिन में जिसकी माप तुम्हारे गिनने से एक हज़ार साल है।9
9. अर्थात् तुम्हारे नजदीक जो एक हजार वर्ष का इतिहास है, वह अल्लाह के यहाँ मानो एक दिन का काम है, जिसकी स्कीम आज उन कार्यकर्ताओं के सुपुर्द की जाती है जिन्हें उसके फैसलों को लागू करने के काम पर नियुक्त किया गया है और कल वे उसकी रिपोर्ट उसके हुजूर पेश करते हैं, ताकि दूसरे दिन (अर्थात् तुम्हारे हिसाब से एक हज़ार वर्ष) का काम उनके सुपुर्द किया जाए। [यह बात कुरैश के उन इंकारियों की इस आपत्ति और इस चुनौती के जवाब में फ़रमाई गई है कि हम इस दावत को बराबर ठुकराते चले आ रहे हैं, फिर हमपर वह अज़ाब क्यों नहीं आ जाता जिसकी धमकी हमें दी जा रही है? जवाब का मंशा यह है कि] इंसानी इतिहास में अल्लाह के फैसले दुनिया की घड़ियों से नहीं होते। [पथ-भ्रष्टता और दुष्कर्मों के नतीजों के प्रकट होने के लिए दिन और महीने और साल तो क्या चीज़ हैं, सदियाँ भी कोई बड़ी मुद्दत नहीं हैं। (और व्याख्या के लिए देखिए सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 93; सूरा-70 मआरिज, टिप्पणी 1-5)
ذَٰلِكَ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 5
(6) वही है हर छिपे और खुले का जाननेवाला10 प्रभुत्वशाली11 और दयावान12 ।
10. अर्थात् फ़रिश्ते हों या जिन्न या नबी और वली और चुनिंदा इंसान, इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सब कुछ जाननेवाला हो, यह गुण सिर्फ अल्लाह का है कि उसपर हर चीज़ ज़ाहिर है। जो कुछ बीत चुका है, जो कुछ मौजूद है और जो कुछ आनेवाला है, सब उसपर रौशन है।
11. अर्थात् हर चीज़ पर ग़ालिब (प्रभावी)। सृष्टि में कोई शक्ति ऐसी नहीं है जो उसके इरादे में अवरोध पैदा कर सके और उसके आदेश को लागू होने से रोक सके। हर चीज़ पर उसका ग़लबा है और किसी में उसके मुक़ाबले का बल-बूता नहीं है।
ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ كُلَّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥۖ وَبَدَأَ خَلۡقَ ٱلۡإِنسَٰنِ مِن طِينٖ ۝ 6
(7) जो चीज़ भी उसने बनाई, खूब ही बनाई13 उसने इंसान के सृजन का आरम्भ गारे से किया,
13. अर्थात् इस भव्य सृष्टि में उसने अनगिनत चीजें बनाई हैं, मगर कोई एक चीज़ भी ऐसी नहीं है जो बे-ढंगी और बे-तुकी हो। हर चीज़ अपना एक अलग सौन्दर्य रखती है। हर चीज़ अपनी जगह सन्तुलित और यथोचित है। जो चीज़ जिस काम के लिए भी उसने बनाई है, उसे सर्वथा उचित रूप में यथोचित गुणों के साथ बनाई है। देखने के लिए आँख और सुनने के लिए कान की बनावट से ज़्यादा उचित किसी बनावट को सोचा तक नहीं जा सकता। हवा और पानी जिन उद्देश्यों के लिए बनाए गए हैं, उनके लिए हवा ठीक वैसी ही है जैसे होनी चाहिए और पानी वही गुण रखता है जो होना चाहिए । तुम खुदा की बनाई हुई किसी चीज़ की रूप-रेखा में किसी कमी की निशानदेही नहीं कर सकते, न उसमें कोई संशोधन कर सकते हो।
ثُمَّ جَعَلَ نَسۡلَهُۥ مِن سُلَٰلَةٖ مِّن مَّآءٖ مَّهِينٖ ۝ 7
(8) फिर उसकी नस्ल एक ऐसे सत् से चलाई जो तुच्छ पानी की तरह का है14,
14. अर्थात् पहले उसने सीधे तौर पर अपने संरचना-कार्य (Direct Creation) से इंसान को पैदा किया और इसके बाद खुद उसी के अंदर पैदा करने की यह ताकत रख दी कि उसके वीर्य से वैसे ही इंसान पैदा होते चले जाएँ। एक कमाल यह था कि धरती के तत्त्वों को जमा करके एक सृजन संबंधी आदेश से उसमें वह जिंदगी और वह चेतना व बुद्धिमत्ता पैदा कर दी जिससे इंसान जैसी एक अद्भुत मुखलूक अस्तित्व में आ गई और दूसरा कमाल यह है कि आगो और इंसानों की पैदाइश के लिए ऐसी विचित्र मशीनरी ख़ुद इंसानी शोर के भीतर रख दी, जिसकी बनावट और कार्य क्षमता को देखकर बुद्धि चकित रह जाती है। यह आपतकुरआन मजीद को उन आयतों में से है जिनसे प्रथम इंसान की सृष्टिका स्पष्टीकरण प्रत्यक्षतः होता है। हार्जिन के समय से वैज्ञानिक इस बात पर बहुत नाक-भौं चढ़ाते हैं और बड़ी वृणा के साथ वे इसको एक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का कर मानो फैक देते हैं लेकिन इंसान को न सही, दमानजीवधारियों की न सही जीवन के प्रथम जीवाणु को सीधे तौर पर सृजन से तो वे किसी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकते। इस सूजन को न माना जाए, तो फिर यह अत्यंत निरर्थक बात माननी पड़ेगी कि जिंदगी की शुरुआत सिर्फ़ एक घटना के रूप में हुई है. हालाँके सिर्फ एक कोशिका (Cell) वाले प्राली में जिंदगी की सबसे सादा श्क्ल भी इतनी पेचीदा और नाजुक हिकतों से भरी हुई है कि उसे घटना का नतीजा बता देना उससे लाखों दर्जा अवैज्ञानिक बात है जितना विकासवाद-सिद्धान्त के माननेवाले सृजन के सिद्धान्त को ठहराते हैं और भारक कार आदनों यह मानले कि जिंदगी का पहला कोटानुसीधी और पर सृजन से अस्तित्व में आया आगाज, टिमो०-सू-15 अल-हिज, टिप्‍पणी 17 सूच-22 अल-हज़, मोमिनून टिप्‍पणी 13)
ثُمَّ سَوَّىٰهُ وَنَفَخَ فِيهِ مِن رُّوحِهِۦۖ وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 8
(9) फिर उसको नख-शिख से ठीक किया15 और उसके अंदर अपनी रूह फूँक दीं16 और तुमको कान दिए, आँखें दीं और दिल दिए17। तुम लोग कम ही कृतज्ञ होते हो।18
15. अर्थात एक अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍मदर्शी अस्तित्व से बढ़ाकर इसे पूरी इंसानी शक्ल तक पहुंचाया और उसका शरीर तमाम अंग-प्रत्‍यंग के साथ पूर्ण कर दिया।
16. ‘रूह’ से अ‍भिप्रेत सिर्फ़ वह ज़िंदगी नहीं है, जिससे एक प्राणी के शरीर की मशीन गतिशील होती है, बल्कि इससे अभिप्रेत वह ख़ास जौहर है जिसमें विचार एवं चेतना, बुद्धि और विवेक और निर्णय और अधिकार की क्षमता पाई जाती है, जिसकी वजह से इंसान ज़मीन के अन्‍य सृष्‍ट प्राणियों में विशिष्‍ट, एक व्‍यक्तित्‍त्‍ववान हस्‍ती, एक अना (अहंयुक्‍त) हस्‍ती और एक प्रतिनिधित्‍व करनेवाली हस्‍ती बनता है। इस रूह को अल्‍लाह ने अपनी रूह या तो इस अर्थ में कहा है कि वह उसी की मिल्कियत है और उसकी पाक ज़ात से उसे सम्‍बद्ध करना बिल्‍कुल उसी तरह का है जैसे एक चीज़ अपने मालिक से सम्‍बद्ध होकर उसकी चीज़ कहलाती है या फिर इसका अर्थ यह है कि इंसान के अन्‍दर ज्ञान, चिन्‍तन, चेतना, निश्‍चय, निर्णय, अधिकार और ऐसे ही दूसरे जो गुण पैदा हुए हैं, वे सब अल्‍लाह के गुणों के प्रतिबिम्‍ब हैं। उनका स्रोत पदार्थ का कोई मिश्रण नहीं है, बल्कि अल्‍लाह की ज़ात है। अल्‍लाह के ज्ञान से उसको ज्ञान मिला है, अल्‍लाह की तत्‍वदर्शिता से उसको समझ-बूझ मिली है। अल्‍लाह के अधिकार से उसको अधिकार मिला है। ये ख़ूबियाँ किसी ज्ञानहीन, चेतनाहीन और अधिकारहीन स्रोत से इंसान के अन्‍दर नहीं आई हैं। (अधिक व्‍याख्‍या के लिए देखिए सूरा हिज्र, टिप्‍पणी 19)
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا ضَلَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَءِنَّا لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدِۭۚ بَلۡ هُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 9
(10) और 19 ये लोग कहते हैं, "जब हम मिट्टी में रल-मिल चुके होंगे, तो क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?" वास्तविकता तो यह है कि ये अपने रब की मुलाक़ात के इंकारी हैं20
19. अब इस्लाम के तीसरे बुनियादी अक़ीदे अर्थात् आख़िरत पर उनके आक्षेप को लेकर उसका उत्तर दिया जाता है। आयत में व-कालू का अक्षर 'सहयोजक वाव' (और) गत विषय से इस पैराग्राफ़ का संबंध जोड़ता है।
20. [इस कथन का उद्देश्य वास्तव में यह बताना है] कि उनकी आपत्ति जिन दो भागों पर आधारित है वे दोनों ही पूर्णतः अनुचित हैं। उनका यह कहना कि हम मिट्टी में रल-मिल चुके होंगे' आख़िर क्या अर्थ रखता है? 'हम' जिस चीज़ का नाम है, वह कब मिट्टी में रलती-मिलती है? मिट्टी में तो केवल वह शरीर मिलता है जिससे हम' निकल चुका होता है। अतः आपत्ति करनेवालों का पहला मुक़द्दमा ही निराधार है। रहा उसका दूसरा भाग ! 'क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?' [उन्होंने तनिक विचार नहीं किया कि] इस 'हम' की मौजूदा पैदाइश इसके सिवा क्या है कि कहीं से कोयला, कहीं से लोहा और कहीं से चूना और इसी तरह के दूसरे अंश जमा हुए और उसकी मिट्टी की लुब्दी (ढाँचा) में यह 'हम' विराजमान हो गया। फिर उसकी मिट्टी की लुब्दी में से जब हम' निकल जाता है, तो उसका मकान बनाने के लिए जो अंश जमीन के अलग-अलग हिस्सों से जुटाए गए थे, वे सब उसी ज़मीन में वापस चले जाते हैं। सवाल यह है कि जिसने पहले इस 'हम' को यह मकान बना कर दिया था, क्या वह दोबारा इसी सामग्री से वही मकान बनाकर उसे नए सिरे से उसमें नहीं बसा सकता? ये बातें तो हैं जिन्हें तनिक-सी बुद्धि आदमी उपयोग करे तो स्वयं ही समझ सकता है। लेकिन वह अपनी बुद्धि को इस दिशा में क्यों नहीं जाने देता? बीच की सारी वार्ता छोड़कर अल्लाह दूसरे वाक्य में इसी प्रश्न का उत्तर देता है कि 'वास्तव में ये अपने रब की मुलाक़ात के इंकारी हैं।' अर्थात् जो चीज़ उन्हें यह बात समझने से रोकती है, वह उनकी यह इच्छा है कि हम धरती में छूटे फिरें और अपनी करतूतों का कोई हिसाब हमें न देना पड़े।
۞قُلۡ يَتَوَفَّىٰكُم مَّلَكُ ٱلۡمَوۡتِ ٱلَّذِي وُكِّلَ بِكُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ تُرۡجَعُونَ ۝ 10
(11) इनसे कहो, "मौत का वह फ़रिश्ता, जो तुमपर नियुक्त किया गया है, तुमको पूरे का पूरा अपने क़ब्ज़े में ले लेगा और फिर तुम अपने रब की ओर पलटा लाए जाओगे?'21
21. अर्थात् तुम्हारा 'वह' 'हम' मिट्टी में रल-मिल न जाएगा, बल्कि उसके काम की मुहलत समाप्त होते ही अल्लाह का भेजा हुआ मौत का फ़रिश्ता आएगा और उसे शरीर से निकालकर समूचा अपने क़ब्ज़े में ले लेगा। इस छोटी-सी आयत में बहुत-से तथ्यों पर रौशनी डाली गई है- (1) इसमें स्पष्ट है कि मौत कुछ यूँ ही नहीं आ जाती कि एक घड़ी चल रही थी, कूक ख़त्म हुई और वह चलते-चलते यकायक बन्द हो गई, बल्कि वास्तव में इस काम के लिए अल्लाह ने एक खास फ़रिश्ता मुक़र्रर कर रखा है जो आकर बाक़ायदा रूह को ठीक उसी तरह वुसूल करता है, जिस तरह एक सरकारी अमीन (Official Receiver) किसी चीज़ को अपने कब्जे में लेता है। (2) इससे यह भी मालूम होता है कि मौत से इंसान खत्म नहीं हो जाता, बल्कि उसकी रूह शरीर से निकलकर बाक़ी रहती है। कुरआन के शब्द 'मौत का फ़रिश्ता तुमको पूरे का पूरा अपने कब्जे में ले लेगा' इसी सच्चाई को सिद्ध करते हैं, क्योंकि ऐसी चीज़ क़ब्जे में नहीं ली जाती जिसका वुजूद ही न हो। (3) इससे यह भी मालूम होता है कि मौत के वक़्त जो चीज़ क़ब्जे में ली जाती है, वह आदमी का जैविक जीवन (Biological Life) नहीं, बल्कि उसका वह स्वाभिमान, उसका वह अहं (Ego) है, जो 'मैं' 'हम' और 'तुम' के शब्दों से जाना जाता है। यह अहं दुनिया में काम करके जैसा कुछ व्यक्तित्त्व भी बनता है, वह पूरा का पूरा, ज्यों का त्यों (Intact) निकाल लिया जाता है, इसके बिना कि उसके गुणों में कोई कमी-बेशी हो। और यही चीज़ मौत के बाद अपने रब की ओर पलटाई जाती है। इसी को आख़िरत में नया जन्म और नया शरीर दिया जाएगा, इसी पर मुक़द्दमा क़ायम किया जाएगा, इसी से हिसाब लिया जाएगा और इसी को इनाम औ सज़ा देखनी होगी।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلۡمُجۡرِمُونَ نَاكِسُواْ رُءُوسِهِمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ رَبَّنَآ أَبۡصَرۡنَا وَسَمِعۡنَا فَٱرۡجِعۡنَا نَعۡمَلۡ صَٰلِحًا إِنَّا مُوقِنُونَ ۝ 11
(12) काश!22 तुम देखो वह समय जब ये अपराधी सर झुकाए अपने रब के सामने खड़े होंगे। (उस वक़्त ये कह रहे होंगे) “ऐ हमारे रब! हमने खूब देख लिया और सुन लिया, अब हमें वापस भेज दे, ताकि हम नेक अमल करें। हमें अब यकीन आ गया है।"
22. अब उन हालात का नक्शा प्रस्तुत किया जाता है जब अपने रब की ओर पलटकर यह मानवीय 'अहं' अपना हिसाब देने के लिए उसके हुजूर खड़ा होगा।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَأٓتَيۡنَا كُلَّ نَفۡسٍ هُدَىٰهَا وَلَٰكِنۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ مِنِّي لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 12
(13) (जवाब में कहा जाएगा) "अगर हम चाहते तो पहले ही हर प्राणी को इसकी हिदायत दे देते।23 मगर मेरी वह बात पूरी हो गई जो मैंने कही थी कि मैं जहन्नम को जिन्नों और इंसानों, सबसे भर दूंगा।24
23. अर्थात् इस तरह यथार्थ का प्रत्यक्षीकरण और अनुभव कराकर ही लोगों को हिदायत देना हमारे सामने होता तो ऐसी हिदायत हम पहले ही तुमको दे सकते थे, लेकिन हम तो यथार्थ को निगाहों से ओझल रखकर तुम्हारी परीक्षा लेना चाहते थे कि तुम [बाह्य एवं आन्तरिक निशानियों और हमारी उतारी हुई आयतों पर विचार करके उसे पहचानते हो या नहीं। इस परीक्षा में तुम असफल हो चुके हो। अब दोबारा इसी परीक्षा का सिलसिला शुरू करने से क्या मिलेगा? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 228; सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 60; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 26; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 91)
24. संकेत है उस कथन की ओर जो अल्लाह ने आदम की पैदाइश के वक्त इब्लीस को सम्बोधित करके कहा था। सूरा-38 साँद के अन्तिम रुकूअ में उस वक़्त का पूरा क्रिस्सा बयान किया गया है, "जिन्नों और इंसानों सबसे भर दूँगा" का अर्थ यह है कि शैतान और इन शैतानों की पैरवी करनेवाले इंसान सब एक साथ जहन्नम में डाल दिए जाएँगे।
فَذُوقُواْ بِمَا نَسِيتُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَآ إِنَّا نَسِينَٰكُمۡۖ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) तो अब चखो मज़ा अपनी इस हरकत का कि तुमने उस दिन की मुलाक़ात को भुला दिया।25 हमने भी अब तुम्हें भुला दिया है। चखो, हमेशा के अज़ाब का मज़ा अपने करतूतों की सज़ा में।"
25. अर्थात् दुनिया के ऐश में गुम होकर तुमने इस बात को बिल्कुल भुला दिया कि कभी अपने रब के सामने भी जाना है।
إِنَّمَا يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِهَا خَرُّواْۤ سُجَّدٗاۤ وَسَبَّحُواْ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ۩ ۝ 14
(15) हमारी आयतों पर तो वे लोग ईमान लाते हैं, जिन्हें ये आयतें सुनाकर जब नसीहतें की जाती हैं तो सज्दे में गिर पड़ते हैं और अपने रब की प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह करते हैं और घमंड नहीं करते।26
26. दूसरे शब्दों में अपने बड़े होने का भाव उनके सत्य स्वीकार करने और रब के आज्ञापालन करने में रुकावट नहीं बनता।
تَتَجَافَىٰ جُنُوبُهُمۡ عَنِ ٱلۡمَضَاجِعِ يَدۡعُونَ رَبَّهُمۡ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 15
(16) उनकी पीठें बिस्तरों से अलग रहती हैं। अपने रख को डर और लालच के साथ पुकारते हैं।27 और जो कुछ रोजी हमने उन्हें दी हैं, उसमें से ख़र्च करते हैं।28
27. अर्थात् रातों को भोग-विलास में व्यतीत करने के बजाय वे अपने रब की इबादत करते हैं। उनका हाल उन दुनियादारों जैसा नहीं है जिन्हें दिन की मेहनतों की थकन दूर करने के लिए रातों को नाच-गाने, शराब पीने और खेल-तमाशों के मनोरंजनों की जरूरत होती है। इसके बजाय उनका हाल यह होता है कि दिन भर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद जब वे निश्चिंत होते हैं तो अपने रब के सामने खड़े हो जाते हैं। उसकी याद में रातें गुजारते हैं, उसके डर से काँपते हैं और उसी से अपनी सारी आशाएँ रखते हैं। बिस्तरों से पीटें अलग रहने का अर्थ यह नहीं है कि वे रातों को सोते ही नहीं है, बल्कि इससे मुराद यह है कि रातों का एक हिस्सा अल्लाह की इबादत में लगाते हैं।
28. रोज़ी से तात्पर्य है हलाल रोजी। हराम माल को अल्लाह अपनी दी हुई रोजी नहीं कहता। इसलिए इस आयत का अर्थ यह है कि जो थोड़ी या बहुत पाक रोजी हमने उन्हें दी है, उसी में से खर्च करते हैं। उससे आगे बढ़कर अपना खर्च पूरा करने के लिए हराम माल पर हाथ नहीं मारते।
فَلَا تَعۡلَمُ نَفۡسٞ مَّآ أُخۡفِيَ لَهُم مِّن قُرَّةِ أَعۡيُنٖ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 16
(17) फिर जैसा कुछ आँखों की ठंडक का सामान उनके कर्मों के बदले में उनके लिए छिपा रखा गया है उसकी किसी जीव को ख़बर नहीं है।29
29. बुख़ारी, मुस्लिम, लिमिज़ी और पुस्तद अहमद में बहुत-से तरीकों से हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत नक़ल की गई है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अल्लाह फ़रमाता है कि मैंने अपने नेक बन्दों के लिए वह कुछ जुटा रखा है जिसे न कभी किसी आँख ने देखा, न कभी किसी कान से सुना, न कोई इंसान कभी इसकी कल्पना कर सका है।" यही विषय थोड़े-से शब्दों के अन्तर के साथ हज़रत अबू सईद बुदरी, हजरत मुगीरा बिन शोबा और हजरत सहल बिन साद साइदी ने भी नबी (सल्ल०) से रिवायत किया है, जिसे मुस्लिम, अहमद, इब्ने-जरीर और तिर्मिज़ी ने सही सनदों के साथ नक़ल किया है।
أَفَمَن كَانَ مُؤۡمِنٗا كَمَن كَانَ فَاسِقٗاۚ لَّا يَسۡتَوُۥنَ ۝ 17
(18) भला कहीं यह हो सकता है कि जो आदमी ईमानवाला हो, वह उस आदमी जैसा हो जाए, जो 'फ़ासिक' हो?30 ये दोनों बराबर नहीं हो सकते।31
30. यहाँ मोमिन और फ़ासिक दो मुक़ाबिल के पारिभाषिक शब्द प्रयोग में लाए गए हैं। मोमिन से तात्पर्य वह आदमी है जो अल्लाह को अपना रब और उसे अकेला उपास्य मानकर उस कानून का पालन करे जो अल्लाह ने अपने पैगम्बरों के जरिये से भेजा है। इसके विपरीत फ़ासिक वह है जो फ़िस्क (आज्ञापालन से निकलने, या दूसरे शब्दों में बगावत, खुदमुख्तारी और खुदा के अलावा दूसरों का आज्ञापालन) का रवैया अपनाए।
31. अर्थात् न दुनिया में उनकी सोच का और जिंदगी का रवैया एक जैसा हो सकता है और न आख़िरत में उनके साथ अल्लाह का मामला एक जैसा हो सकता है।
أَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَلَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡمَأۡوَىٰ نُزُلَۢا بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म किए हैं उनके लिए तो जन्नतों की क़ियामगाहें (निवास स्थल) हैं32 मेहमाननवाज़ी के तौर पर उनके कामों के बदले में।
32. अर्थात् वे जन्नतें सिर्फ़ उनकी सैरगाहें नहीं होंगी, बल्कि वही उनकी क़ियामतगाहें भी होंगी, जिनमें वे सदैव रहेंगे।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فَسَقُواْ فَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَآ أُعِيدُواْ فِيهَا وَقِيلَ لَهُمۡ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تُكَذِّبُونَ ۝ 19
(20) और जिन्होंने 'फ़िस्क़' (इनकार) अपनाया है, उनका ठिकाना दोज़ख़ है। जब कभी वे उससे निकलना चाहेंगे, उसी में धकेल दिए जाएँगे, और उनसे कहा जाएगा कि चखो अब उसी आग के अज़ाब का मज़ा, जिसको तुम झुठलाया करते थे।
وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَدۡنَىٰ دُونَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَكۡبَرِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 20
(21) उस बड़े अज़ाब से पहले हम इसी दुनिया में (किसी न किसी छोटे) अज़ाब का मज़ा इन्हें चखाते रहेंगे, शायद कि ये (अपनी द्रोहपूर्ण नीति) से रुक जाएँ।33
33. 'बड़े अज़ाब' से तात्पर्य आख़िरत का अज़ाब है जो कुफ्र व फ़िस्क (इनकार और नाफ़रमानी) के बदले में दिया जाएगा। इसके मुकाबले में छोटा अज़ाब' की बात कही गई है, जिससे तात्पर्य वे तकलीफें, मुसीबतें और विपदाएँ हैं, जो इसी दुनिया में इंसान को पहुँचती हैं, जैसे कि लोगों की जिंदगी में गम्भीर बीमारियाँ, अपने सबसे प्रिय लोगों की मौत, दर्दनाक घटनाएँ, नुकसान, असफलताएँ आदि। और सामूहिक जीवन में तूफ़ान, भूकम्प, बाढ़, महामारी, अकाल, दंगे, लड़ाइयाँ और दूसरी बहुत-सी विपदाएँ (बलाएँ) जो हज़ारों, लाखों, करोड़ों इंसानों को अपनी लपेट में ले लेती हैं। इन विपदाओं के आने की मस्लहत यह बवान की गई है कि बड़े अज़ाब में पड़ने से पहले ही लोग होश में आ जाएँ और उस सोच और व्यवहार के तरीक़े को छोड़ दें जिसके बदले में आख़िरकार उन्हें वह बड़ा अज़ाब भुगतना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि दुनिया में अल्लाह ने इंसान को बिल्कुल सकुशल ही नहीं रखा है कि पूरे सुख- शान्ति से जिंदगी की गाड़ी चलती रहे और आदमी इस भ्रम में पड़ जाए कि उससे ऊँची कोई शक्ति नहीं है जो उसका कुछ विगाड़ सकती ही, बल्कि अल्लाह ने कुछ ऐसा प्रबन्‍ध कर रखा है कि समय-समय पर लोगों पर भी और कौमों और देशों पर भी ऐसी आफतं भेजता रहता है कि जी से अपनी बेबसी का और अपने से उच्चतर एक व्यापक राज्य के शासन का एहसास दिलाती है। ये आमों एक-गक आदमी को, एक एक गिरोह की और एक-एक कौम की यह याद दिलाती हैं कि असा तुम्ही भाग्यों की कोई और कंट्रोल कर रहा है। सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं दे दिया गया है और अग्ल ताकत उसी कार्यशील सत्ता के हाथ में है। उसकी और से जब कोई आफत तुम्हारे पाप, तीन तुम्हारा कोई उपाय उसे दूर कर सकता है और न किसी जिन्न या सह या देवी और देवता या नबी और बली से मदद मांगकर तुम उसको रोक सकते हो। इस दृष्टि से ये आमने सिर्फ आफ़त नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की चेतावनियाँ हैं, जो दूर कर सकता है और न किसी जिन्‍न या रूह या देवी और देवता या नबी ओर वली से मदद माँगकर तुम उसको रोक सकते हो। इस दृष्टि से ये आफ़तें सिर्फ़ आफ़तें नहीं हैं, बल्कि अल्‍लाह की चेतावनियाँ हैं जो इंसान को सच्चाई से आगाह करने और उसकी भ्रान्तियाँ दूर करने के लिए भेजी जाती हैं। इनसे शिक्षा लेकर दुनिया ही में आदमी अपना अक़ीदा और अमल ठीक कर ले लो आख़िरत में अल्लाह का बड़ा अज़ाब देखने की नौबत ही क्यों आए।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ ثُمَّ أَعۡرَضَ عَنۡهَآۚ إِنَّا مِنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُنتَقِمُونَ ۝ 21
(22) और उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयतों के ज़रिये से नसीहत की जाए और फिर वह उनसे मुँह फेर ले।34 ऐसे अपराधियों से तो हम बदला लेकर रहेंगे।
34. 'रब की आयतों' अर्थात् उसकी निशानियों के शब्द बड़े ही व्यापक है, जिनक भीतर हर प्रकार की निशानियाँ आ जाती हैं। क़ुरआन मजीद के तमाम वयानी को दृष्टि में रखा जाए, तो मालूम होता है कि ये निशानियाँ छ: प्रकार की हैं- (1) वै निशानियाँ जो ज़मीन से लेकर आसमान तक हर चीज़ में और सृष्टि की सामूहिक व्यवस्था में पाई जाती हैं। (2) वै निशानियाँ जो ईसान के अपने जन्म और उसकी बनावट और उसके अस्तित्व में पाई जाती है। (3) वे निशानियाँ हैं जो इंसान की प्रजा-शक्ति में, उसके अचेतन और अवचेतन में और उसकी नैतिक धारणाओं में पाई जाती हैं। (4) वे निशानियाँ जो मानव इतिहास के लगातार होनेवाले अनुभवों में पाई जाती हैं। (5) वे निशानियाँ जो जमीन और आसमानों की उन आपदाओं और आकर्ता में पाई जाती हैं जो इंसान पर आती हैं। (6) और इन सबके बाद वे निशानियाँ जो अल्लाह ने अपने नबियों के जरिये से भेजी ताकि बुद्धिसंगत रीति से ईसानों को इन्हीं वास्तविकताओं से आगाह किया जाए जिनकी और अपर की तमाम निशानियाँ संकेत कर रही हैं। ये सारी निशानियाँ एकरसता और उच्च स्वर के साथ इंसान को यह बता रही हैं कि तू बे-ख़ुदा नहीं है, न बहुत-से ख़ुदाओं का बन्दा है, बल्कि तेरा ख़ुदा सिर्फ़ एक ही ख़ुदा है, जिसकी बन्दगी और आज्ञापालन के सिवा तेरे लिए कोई दूसरा रास्ता सही नहीं है। तू इस दुनिया में आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार और ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर नहीं छोड़ दिया गया है, बल्कि तुझे अपनी जिंदगी का काम-काज ख़त्‍म करने के बाद अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर जवाबदेही करनी है। अब यह स्पष्ट है कि जिस इंसान को इतने अलग-अलग ढंगों से समझाया गया हो, जिसके समझाने के लिए तरह-तरह की इतनी अनगिनत निशानियाँ जुटाई गई हों, वह अगर इन सारी निशानियों की ओर से आँखें बन्द कर लेता है, तो उससे बड़ा जालिम कोई नहीं हो सकता। वह फिर इसी का अधिकारी है कि जब वह अपने के सामने हाज़िर हो तो विद्रोह की भरपूर सज़ा पाए।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَلَا تَكُن فِي مِرۡيَةٖ مِّن لِّقَآئِهِۦۖ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 22
(23) इससे पहले हम मूसा को किताब दे चुके हैं, इसलिए उसी चीज़ के मिलने पर तुम्हें कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।35 उस किताब को हमने बनी इसराईल के लिए हिदायत बनाया था36,
35. सम्बोधन प्रत्यक्ष में तो नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में सम्बोधन मक्का के कुफ़्फ़ार (इस्लाम-विरोधियों) से है, यहाँ से वार्ता का रुख उसी विषय की ओर फिर रहा है जो सूरा के शुरू (आयत 2 और 3) में बयान हुआ था, इस सिलसिले में पहली बात जो फ़रमाई गई है, वह यह है कि ऐ नबी! ये नादान लोग तुमपर किताबे-इलाही के उतरने को अपने नज़दीक असंभव समझ रहे हैं, लेकिन एक बन्दे पर अल्लाह की ओर से किताब का उतरना कोई अनोखी घटना तो नहीं है। इससे पहले बहुत-से नबियों पर किताबें उतर चुकी हैं, जिनमें से सबसे मशहूर किताब वह है जो मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। इसलिए इसी प्रकार की एक चीज़ आज तुम्हें दी गई है तो आख़िर इसमें अनोखी बात क्या है, जिसपर ख़ाम-ख़ाह सन्देह किया जाए।
36. अर्थात् वह किताब बनी इसराईल के लिए मार्गदर्शन का साधन बनाई गई थी और यह किताब उसी तरह तुम लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजी गई है। इस कथन की पूरी सार्थकता [को समझने के लिए बनी इस्राईल के उस इतिहास को सामने रखना चाहिए जो मित्र में उनकी गुलामी के दौर से शुरू होकर मूसा के सत्य-संदेश के कारण हासिल होनेवाली उनकी आज़ादी और इज्जत व सरबुलंदी के युग पर समाप्त होता है।]
وَجَعَلۡنَا مِنۡهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا لَمَّا صَبَرُواْۖ وَكَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يُوقِنُونَ ۝ 23
(24) और जब उन्होंने सब किया और हमारी आयतों पर यकीन दिलाते रहे तो उनके अन्दर हमने ऐसे पेशवा पैदा किए जो हमारे आदेश से रहनुमाई करते थे।37
37. अर्थात् बनी इस्राईल को इस किताब ने जो कुछ बनाया और बुलंदी के जिन दों पर उनको पहुँचाया वह 'सारा कमाल उस ईमान का था जो वे अल्लाह की आयतों पर लाए और उस सन और जमाव का था जो उन्होंने अल्लाह के आदेशों की पैरवी में दिखाई। ख़ुद बनी इसराईल के अन्दर भी नेतृत्त्व उन्हीं को मिला जो उनमें से अल्लाह की किताब के सच्चे मोमिन और निष्ठावान पैरवी करनेवाले थे। इससे उद्देश्य अरब के कुफ़्फ़ार को सावधान करना है कि जिस तरह अल्लाह की किताब के अवतरण ने बनी इस्राईल के अन्दर क़िस्मतों के फैसले किए थे, उसी तरह अब इस किताब का उतरना तुम्हारे बीच भी क़िस्मतों का फ़ैसला कर देगा।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 24
(25) निश्चय ही तेरा रब ही क़ियामत के दिन उन बातों का फ़ैसला करेगा, जिनमें (बनी इसराईल) आपस में विभेद करते रहे हैं।38
38. यह संकेत है उन विभेदों और गुटबन्दियों की और जिनके अन्दर बनी इस्राईल बाद में गिरफ़्तार हुए। इस स्थिति का एक नतीजा तो स्पष्ट है जिसे सारी दुनिया देख रही है कि बनी इसराईल रुसवाई और अपमान में गिरफ़्तार हैं। दूसरा नतीजा वह है जो दुनिया नहीं जानती, और वह क़ियामत के दिन जाहिर होगा।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٍۚ أَفَلَا يَسۡمَعُونَ ۝ 25
(26) और क्या इन लोगों को (इन ऐतिहासिक घटनाओं में) कोई हिदायत नहीं मिली कि उनसे पहले कितनी क़ौमों को हम हलाक़ कर चुके हैं, जिनके रहने की जगहों में आज ये चलते-फिरते हैं?39 इसमें बड़ी निशानियाँ हैं, क्या ये सुनते नहीं हैं?
39. अर्थात् क्या इतिहास के इस लगातार अनुभवों से इन लोगों ने कोई शिक्षा नहीं ली कि जिस क़ौम में भी अल्लाह का रसूल आया है, उसके भाग्य का फ़ैसला उस रवैये के साथ सम्बद्ध हो गया है जो अपने रसूल के मामले में उसने अपनाया। रसूल को झुठला देने के बाद फिर कोई कौम बच न सकी है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا نَسُوقُ ٱلۡمَآءَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡجُرُزِ فَنُخۡرِجُ بِهِۦ زَرۡعٗا تَأۡكُلُ مِنۡهُ أَنۡعَٰمُهُمۡ وَأَنفُسُهُمۡۚ أَفَلَا يُبۡصِرُونَ ۝ 26
(27) और क्या इन लोगों ने यह दृश्य कभी नहीं देखा कि हम एक सूखी और चटियल जमीन की ओर पानी बहा लाते हैं और फिर उसी ज़मीन से वह फ़सल उगाते हैं, जिससे उनके जानवरों को भी चारा मिलता है और ये ख़ुद भी खाते हैं? तो क्या इन्हें कुछ नहीं सूझता?40
40. सन्दर्भ और प्रसंग को दृष्टि में रखने से साफ़ महसूस होता है कि यहाँ यह उल्लेख मौत के बाद की जिंदगी पर दलील पेश करने के लिए नहीं किया गया है, जैसा कि क़ुरआन में आम तौर से होता है, बल्कि इस वार्ताक्रम में यह बात एक और ही उद्देश्‍य से कही गई है। इसमें वास्‍तव में एक सूक्ष्‍म संकेत है इस बात की और कि जिस तरह बजर पड़ी हुई ज़मीन को देखकर आदमी यह गुमान नहीं कर सकता कि यह भी कभी लहलहाती खेती बन जाएगी, मगर अल्लाह की भेजी हुई बरसात का एक ही रेला उसका रंग बदल देता है, उसी तरह, इस्लाम की यह दावत भी इस समय तुमको एक न चलनेवाली चीज़ नजर आती है, लेकिन अल्लाह के सामर्थ्‍य का एक ही चमत्कार इसको इस तरह फैला देगा कि तुम दंग रह जाओगे।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡفَتۡحُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 27
(28) ये लोग कहते हैं कि "यह फ़ैसला कब होगा अगर तुम सच्चे हो?’’41
41. अर्थात तुम जो कहते हो कि अन्‍नत: अल्लाह की मदद आएगी और हमें झुठलानेवालों पर उसका प्रकोप टूट पड़ेगा, तो बताओ वह समय कब आएगा? कब हमार-तुम्हारा फ़ैसला होगा?
قُلۡ يَوۡمَ ٱلۡفَتۡحِ لَا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِيمَٰنُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 28
(29) इनसे कहो, "फ़ैसले के दिन ईमान लाना उन लोगों के लिए तनिक भी लाभप्रद न होगा, जिन्होंने कुफ़्र किया है और फिर उनको कोई मुहलत न मिलेगी।’’42
42. अर्थात कौन-सी ऐसी चीज़ है जिसके लिए तुम बेचैन होते हो? अल्लाह का अज़ाब आ गया तो फिर संभलने का मौक़ा न मिलेगा। इस मुहलत को ग़नीमत जानो जो अज़ाब आने से पहले तुमको मिली हुई है। अज़ाब सामने देखकर ईमान लाओगे तो कुछ न प्राप्त होगा।
فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَٱنتَظِرۡ إِنَّهُم مُّنتَظِرُونَ ۝ 29
(30) अच्छा, इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो और इंतिज़ार करो, ये भी इंतिज़ार में हैं।