Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ القَصَصِ

28. अल-क़सस 

(मक्का में उतरी-आयतें 88)

परिचय

नाम

आयत 25 के इस वाक्य से लिया गया है, "व क़स-स अलैहिल क़-स-स" (और अपना सारा वृत्तांत, अल-क़सस, सुनाया) अर्थात् वह सूरा जिसमें 'अल-क़सस' का शब्द आया है।

उतरने का समय

सूरा-27 नम्ल के परिचय में इब्‍ने-अब्बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का यह कथन हम नक़्ल कर चुके हैं कि सूरा-26 शुअरा, सूरा-27 नम्ल और सूरा-28 क़सस क्रमश: उतरी हैं। भाषा, वर्णन-शैली और विषय-वस्तुओं से भी यही महसूस होता है कि इन तीनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब एक ही हैं। और इस लिहाज़ से भी इन तीनों में क़रीबी ताल्लुक़ है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के किस्से के अलग-अलग हिस्से जो इनमें बयान हुए हैं, वे आपस में मिलकर एक पूरा क़िस्सा बन जाते हैं।

विषय और वार्ताएँ

इसका विषय उन सन्देहों और आपत्तियों को दूर करना है जो नबी (सल्ल०) की रिसालत पर की जा रही थीं और बहानों को रद्द करना है जो आपपर ईमान न लाने के लिए पेश किए जा रहे थे। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले हज़रत मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा बयान किया गया है जो उतरने के समय की परिस्थितियों से मिलकर अपने आप कुछ सच्चाइयाँ सुननेवालों के मन में बिठा देता है। एक यह कि अल्लाह जो कुछ करना चाहता है, उसके लिए वह ग़ैर-महसूस तरीक़े से साधन जुटा देता है। जिस बच्चे के हाथों अन्तत: फ़िरऔन का तख़्ता पलटना था, उसे अल्लाह ने स्वयं फ़िरऔन ही के घर में उसके अपने हाथों परवरिश करा दिया। दूसरे यह कि नुबूवत किसी आदमी को किसी बड़े जश्न और ज़मीन-आसमान से किसी भारी एलान के साथ नहीं दी जाती। तुमको आश्चर्य है कि मुहम्मद (सल्ल०) को चुपके से यह नुबूवत कहाँ से मिल गई और बैठे-बिठाए ये नबी कैसे बन गए। मगर जिन मूसा (अलैहि०) का तुम स्वयं हवाला देते हो कि “क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" (आयत 48), उन्हें भी इसी तरह राह चलते नुबूवत मिल गई थी। तीसरे यह कि जिस बन्दे से अल्लाह कोई काम लेना चाहता है, कोई ताक़त प्रत्यक्ष में उसके पास नहीं होती, मगर बड़े-बड़े लाव-लश्कर और संसाधनोंवाले  अन्तत: उसके मुक़ाबले में धरे के धरे रह जाते हैं। जो तुलनात्मक अन्तर तुम अपने और मुहम्मद के बीच पा रहे हो, उससे बहुत ज्यादा अन्तर मूसा और फ़िरऔन की शक्ति के बीच था, मगर देख लो कि आखिर कौन जीता और कौन हारा। चौथे यह कि तुम लोग बार-बार मूसा का हवाला देते हो कि "मुहम्मद को वह कुछ क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" अर्थात् (चमत्कारी) लाठी और चमकता हाथ और दूसरे खुले-खुले मोजिज़े (चमत्कार)। मगर तुम्हें कुछ मालूम भी है कि जिन लोगों को वे मोजिज़े दिखाए गए थे वे उन्हें देखकर भी ईमान न लाए, क्योंकि वे सत्य के विरुद्ध हठधर्मी और वैमनस्य में पड़े हुए थे। इसी रोग में आज तुम पड़े हुए हो। क्या तुम इसी तरह के मोजिज़े देखकर ईमान ले आओगे? फिर तुम्हें कुछ यह भी ख़बर है कि जिन लोगों ने वे मोजिज़े देखकर सत्य का इंकार किया था उनका अंजाम क्या हुआ? अन्तत: अल्लाह ने उन्हें तबाह करके छोड़ा। अब क्या तुम भी हठधर्मी के साथ मोजिज़ा माँगकर अपनी शामत बुलाना चाहते हो? ये वे बातें हैं जो किसी स्पष्टीकरण के रूप में बिना, आपसे आप हर उस आदमी के मन में उतर जाती थीं जो मक्का के अधर्मपूर्ण माहौल में इस क़िस्से को सुनता था, क्योंकि उस समय मुहम्मद (सल्ल०) और मक्का के विधर्मियों के बीच वैसा ही एक संघर्ष चल रहा था जैसा इससे पहले फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) के दर्मियान बरपा हो चुका था। इसके बाद आयत-43 से मूल विषय पर प्रत्यक्ष रूप से वार्ता शुरू होती है। पहले इस बात को मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत का एक सुबूत क़रार दिया जाता है कि आप उम्मी (अनपढ़) होने के बावजूद दो हज़ार वर्ष पहले गुज़री हुई एक ऐतिहासिक घटना को इस विस्तार के साथ हू-ब-हू सुना रहे हैं। फिर आप के नबी बनाए जाने को उन लोगों के हक़ में अल्लाह की एक रहमत (अनुकम्पा) क़रार दिया जाता है कि वे भुलावे में पड़े हुए थे और अल्लाह ने उनके मार्गदर्शन के लिए यह प्रबन्ध किया। फिर उनकी इस आपत्ति का उत्तर दिया जाता है, “यह नबी वह मोजिज़े क्यों न लाया जो इससे पहले मूसा लाये थे?" इनसे कहा जाता है कि मूसा ही को तुमने कब माना है कि अब इस नबी से मोजिज़े की माँग करते हो। आख़िर में मक्का के विधर्मियों की उस मूल आपत्ति को लिया जाता है जो नबी (सल्ल०) की बात न मानने के लिए वे पेश करते थे। उनका कहना यह था कि अगर हम अरबवालों के शिर्क के धर्म को छोड़कर तौहीद (एकेश्वरवाद) के इस नये दीन को अपना लें तो यकायक इस देश से हमारी धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक चौधराहट समाप्त हो जाएगी। यह चूंकि क़ुरैश के सरदारों के सत्य-विरोध का मूल प्रेरक था इसलिए अल्लाह ने इसपर सूरा के अन्त तक सविस्तार वार्ता की है

---------------------

سُورَةُ القَصَصِ
28. अल-क़सस
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
طسٓمٓ
(1) ता०सीन०मीम० !
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) ये खुली किताब की आयतें हैं।
نَتۡلُواْ عَلَيۡكَ مِن نَّبَإِ مُوسَىٰ وَفِرۡعَوۡنَ بِٱلۡحَقِّ لِقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 2
(3) हम मूसा और फ़िरऔन का कुछ हाल ठीक-ठीक तुम्हें सुनाते हैं,1 ऐसे लोगों के लाभ के लिए जो ईमान लाएँ ।2
1. तुलना के लिए देखिए सूरा-2 अल-बकरा (आयत 47-59), सूरा-7 अल-आराफ़ (आयत 100-141), सूरा-10 युनूस (आयत 75-92), सूरा-11 हूद (आयत 96-109) सूरा-17 बनी इसराईल (आयत 101-111), सूरा-19 मरयम (आयत 51-53), सूरा-20 ता. हा० (आयत 45-59), सूरा-23 अल-मोमिनून (आयत 45-49), सूरा-20 अश-शुअरा (आयत 10-68), सूरा-27 अन-नम्ल (आयत 7-14), सूरा-29 अल-अनकबूत (आयत 39-40), सूरा-40 अल-मोमिन (आयत- 23-50), सूरा-43 अज़-जुखरुफ (आयत 46-56), सूरा-44 अद-दुखान (आयत 17-33), सूरा-51 अज़-ज़ारियात (आयत 38-40), सूरा-79 अन-नाज़िआत (आयत 15-26)
2. अर्थात् जो लोग बात मानने के लिए तैयार हो न हों उनको सुनाना तो बेकार है। अलबत्ता जिन्होंने हठधर्मी का ताला अपने दिलों पर चढ़ा न रखा हो उन्हीं से यह वार्ता की जा रही है।
إِنَّ فِرۡعَوۡنَ عَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَجَعَلَ أَهۡلَهَا شِيَعٗا يَسۡتَضۡعِفُ طَآئِفَةٗ مِّنۡهُمۡ يُذَبِّحُ أَبۡنَآءَهُمۡ وَيَسۡتَحۡيِۦ نِسَآءَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 3
(4) सच यह है कि फ़िरऔन ने धरती में सिर उठाया3 और उसके निवासियों को गिरोहों में बाँट दिया।4 इनमें से एक गिरोह को वह अपमानित करता था, उसके लड़कों को क़त्ल करता और उसकी लड़कियों को जीता रहने देता था।5 वास्तव में वह फ़सादी लोगों में से था।
3. मूल में शब्द "अला फिल-अर्जि" इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थ यह है कि उसने धरती में सर उठाया, विद्रोहपूर्ण रवैया अपनाया, अपनी असल हैसियत अर्थात् बन्दगी के पद से उठकर निरंकुश और ख़ुदावन्दी का रूप धार लिया और दमनकारी और अहंकारी बनकर जुल्म ढाने लगा।
4. अर्थात् उसके राज्य का नियम यह न था कि कानून की दृष्टि में देश के सब रहनेवाले बराबर हों और सबको बराबर हक़ दिए जाएँ, बल्कि उसने संस्कृति और राजनीति का यह तरीका अपनाया कि देश के रहनेवालों को गिरोहों में बाँटा जाए, किसी को रियायतें और विशेष अधिकार देकर शासक वर्ग ठहराया जाए और किसी को अधीन बनाकर दबाया, पीसा और लूटा जाए।
وَنُرِيدُ أَن نَّمُنَّ عَلَى ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَنَجۡعَلَهُمۡ أَئِمَّةٗ وَنَجۡعَلَهُمُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 4
(5) और हम यह इरादा रखते थे कि मेहरबानी करें उन लोगों पर जो धरती में अपमानित करके रखे गए थे और उन्हें पेशवा बना दें6 और उन्हीं को वारिस बनाएँ7
6. अर्थात् उन्हें दुनिया में नेतृत्त्व और मार्गदर्शन का पद प्रदान करें।
7. अर्थात् उनको ज़मीन की विरासत प्रदान करें और वे हुक्मरान और शासक हों।
وَنُمَكِّنَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَنُرِيَ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَجُنُودَهُمَا مِنۡهُم مَّا كَانُواْ يَحۡذَرُونَ ۝ 5
(6) और ज़मीन में उनको सत्ता प्रदान करें और उनसे फ़िरऔन और हामान8 और उनकी फ़ौजों को वहीं कुछ दिखला दें जिसका उन्हें डर था।
8. पश्चिमी प्राच्यविदों ने इस बात पर बड़ी ले-दे की है कि हामान तो ईरान के बादशाह अख़सवीरस अर्थात् ख़शयारशाँ (Xerxes) के दरबार का एक अमीर (सरदार) था और उस बादशाह का ज़माना हज़रत मूसा के सैकड़ों वर्ष बाद 486 और 465 ई० पू० में गुज़रा है, मगर कुरआन ने उसे मिस्र ले जाकर फ़िरऔन का मंत्री बना दिया। इन लोगों की अक्ल पर दुराग्रह का परदा पड़ा हुआ न हो तो ये स्वयं विचार करें कि आखिर इनके पास यह यक़ीन करने के लिए क्या ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद है कि अख्सवीरस के दरबारी हामान से पहले दुनिया में कोई आदमी कभी इस नाम का नहीं गुज़रा है । जिस फ़िरऔन का उल्लेख यहाँ हो रहा है अगर उसके तमाम मंत्रियों, सरदारों और दरबारियों की कोई पूर्ण सूची बिल्कुल प्रामाणिक ज़रिये से किसी पश्चिमी विद्वान को मिल गई है जिसमें हामान का नाम नहीं है तो वह उसे छिपाए क्यों बैठे हैं ?
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَرۡضِعِيهِۖ فَإِذَا خِفۡتِ عَلَيۡهِ فَأَلۡقِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ وَلَا تَخَافِي وَلَا تَحۡزَنِيٓۖ إِنَّا رَآدُّوهُ إِلَيۡكِ وَجَاعِلُوهُ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 6
(7) हमने मूसा की माँ को इशारा किया9 कि "इसको दूध पिला, फिर जब तुझे उसकी जान का ख़तरा हो तो उसे दरिया में डाल दे और कुछ भय और ग़म न कर, हम उसे तेरे ही पास वापस ले आएँगे और उसको पैग़म्बरों में शामिल करेंगे।"10
9. बीच में यह उल्लेख छोड़ दिया गया है कि इन्हीं परिस्थितियों में एक इसराईली दाम्पत्ति के यहाँ वह बच्चा पैदा हो गया जिसको दुनिया ने मूसा के नाम से जाना । बाइबल और तलमूद के बयान के अनुसार यह परिवार हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के बेटे लावो की औलाद में से था। हज़रत मूसा के बाप का नाम इन दोनों किताबों में इमराम बताया गया है। क़ुरआन इसका उच्चारण इमरान करता है। मूसा के जन्म से पहले इनके यहाँ दो बच्चे हो चुके थे। सबसे बड़ी लड़की मिरयम (Miriam) थीं जिनका उल्लेख आगे आ रहा है। इनसे छोटे हज़रत हारून थे।
10. अर्थात् पैदा होते ही दरिया में डाल देने का हुक्म न था, बल्कि इर्शाद यह हुआ कि जब तक ख़तरा न हो बच्चे को दूध पिलाती रहो। जब भेद खुलता नज़र आए तो बिना डरे और खतरा महसूस किए उसे एक ताबूत (संदूक) में रखकर दरिया में डाल देना । बाइबल का बयान है कि जन्म के बाद तीन महीने तक हज़रत मूसा की माँ उनको छिपाए रहीं। तलमूद इसमें इस बात की बढ़ोत्तरी भी करती है कि फ़िरऔन की हुकूमत ने उस समय में जासूस औरतें छोड़ रखी थीं जो इसराईली घरों में अपने साथ छोटे-छोटे बच्चे ले जाती थीं और वहाँ किसी न किसी तरह इन बच्चों को रुला देती थीं ताकि अगर किसी इसराईली ने अपने यहाँ कोई बच्चा छिपा रखा हो तो वह भी दूसरे बच्चे की आवाज़ सुनकर रोने लगे। जासूसी के इस नये तरीके से हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँ परेशान हो गई और उन्होंने अपने बच्चे की जान बचाने के लिए जन्म के तीन महीने बाद उसे दरिया में डाल दिया। इस हद तक इन दोनों किताबों का बयान क़ुरआन के अनुकूल है, लेकिन सबसे बड़ी बात जो कुरआन में बयान की गई है उसका कोई उल्लेख इसराईली रिवायतों में नहीं है, अर्थात् यह कि हज़रत मूसा की माँ ने यह काम अल्लाह के इशारे पर किया था और अल्लाह ने पहले ही उनको यह सन्तोष दिला दिया था कि इस तरीक़े पर अमल करने में न सिर्फ़ यह कि तुम्हारे बच्चे को जान को कोई ख़तरा नहीं है, बल्कि हम बच्चे को तुम्हारे पास हो पलटा लाएंगे और यह कि तुम्हारा यह बच्चा आगे चलकर हमारा रसूल होनेवाला है।
فَٱلۡتَقَطَهُۥٓ ءَالُ فِرۡعَوۡنَ لِيَكُونَ لَهُمۡ عَدُوّٗا وَحَزَنًاۗ إِنَّ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَجُنُودَهُمَا كَانُواْ خَٰطِـِٔينَ ۝ 7
(8) अन्तत: फ़िरऔन के घरवालों ने उसे (दरिया) से निकाल लिया ताकि वह उनका दुश्मन और उनके लिए रंज की वजह बने,11 बाकई फ़िरऔन और हामान और उनकी फ़ौज (अपने उपायों में) बड़ी ग़लती कर रहे थे।
11. यह उनका उद्देश्य न था, बल्कि उनके इस काम का निश्चित परिणाम था। वे उस बच्चे को उठा रहे थे जिसके हाथों अन्ततः उन्हें नष्ट होना था।
وَقَالَتِ ٱمۡرَأَتُ فِرۡعَوۡنَ قُرَّتُ عَيۡنٖ لِّي وَلَكَۖ لَا تَقۡتُلُوهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 8
(9) फ़िरऔन की बीवी ने (उससे) कहा, “यह मेरे और तेरे लिए आँखों की ठंडक है, इसे क़त्ल न करो, क्या अजब कि यह हमारे लिए लाभप्रद सिद्ध हो, या हम इसे बेटा ही बना लें।"12 और वे (अंजाम से) बेख़बर थे।
12. इस बयान से जो बात साफ़ समझ में आती है कि वह यह कि संदूक या टोकरा दरिया में बहता हुआ जब उस जगह पहुँचा जहाँ फ़िरऔन के महल थे तो फ़िरऔन के नौकरों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर राजा और रानी के सामने उसे पेश कर दिया। सम्भव है राजा और रानी स्वयं उस समय दरिया के किनारे सैर में व्यस्त हों और उनकी दृष्टि उस टोकरे पर पड़ी हो और उन्हीं के हुक्म से वह निकाला गया हो । उसमें एक बच्चा पड़ा हुआ देखकर [परिस्थिति के आधार पर] आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि यह ज़रूर किसी इसराईली का बच्चा है। [इसलिए] कुछ ज़रूरत से ज़्यादा वफ़ादार दासों ने अर्ज़ किया कि हुजूर! इसे तुरन्त क़त्ल करा दें, यह भी कोई संपोला ही है, लेकिन फ़िरऔन की बीवी आख़िर औरत थी और असम्भव नहीं कि निस्सन्तान हो, फिर बच्चा भी बहुत प्यारी सूरत का था जैसा कि सूरा-20 ता० हा० (आयत 39) |से स्पष्ट होता है। इसलिए उस औरत से न रहा गया और उसने कहा कि उसे क़त्ल न करो, बल्कि लेकर पाल लो। यह जब हमारे यहाँ परवरिश पाएगा और हम इसे अपना बेटा बना लेंगे तो इसे क्या ख़बर होगी कि मैं इसराईली हूँ । यह अपने आपको फ़िरऔन परिवार ही का एक सदस्य समझेगा और इसकी योग्यताएँ बनी इसराईल के बजाय हमारे काम आएँगी । बाइबल और तलमूद का बयान है कि वह औरत जिसने हज़रत मूसा को पालने और बेटा बनाने के लिए कहा था, फ़िरऔन के बेटी थी, लेकिन क़ुरआन स्पष्ट शब्दों में उसे 'फ़िरऔन की बीवी' कहता है और स्पष्ट है कि सदियों के बाद तैयार की हुई ज़बानी रिवायतों के मुकाबले में अल्लाह का सीधा यह बयान भरोसे के लायक है। कोई कारण नहीं कि ख़ामख़ाह इसराईली रिवायतों से अनुकूलता पैदा करने के लिए अरबी मुहावरे और इस्तेमाल के विरुद्ध दूसरा अर्थ यानी फ़िरऔन के ख़ानदान की औरत लिया जाए।
وَأَصۡبَحَ فُؤَادُ أُمِّ مُوسَىٰ فَٰرِغًاۖ إِن كَادَتۡ لَتُبۡدِي بِهِۦ لَوۡلَآ أَن رَّبَطۡنَا عَلَىٰ قَلۡبِهَا لِتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 9
(10) उधर मूसा की माँ का दिल उड़ा जा रहा था। वह उसका भेद खोल बैठती, अगर हम उसको ढाढ़स न बँधा देते, ताकि वह (हमारे वादे पर) ईमान लानेवालों में से हो।
وَقَالَتۡ لِأُخۡتِهِۦ قُصِّيهِۖ فَبَصُرَتۡ بِهِۦ عَن جُنُبٖ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 10
(11) उसने बच्चे की बहन से कहा, उसके पीछे-पीछे जा। चुनांचे वह अलग से उसको इस तरह देखती रही कि (दुश्मनों को) उसका पता न चला13,
13. अर्थात् लड़की ने इस तरीक़े से टोकरे पर निगाह रखी कि बहते हुए टोकरे के साथ-साथ वह उसको देखती हुई चलती भी रही और दुश्मन यह न समझ सके कि उसका कोई ताल्लुक टोकरेवाले बच्चे के साथ है।
۞وَحَرَّمۡنَا عَلَيۡهِ ٱلۡمَرَاضِعَ مِن قَبۡلُ فَقَالَتۡ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰٓ أَهۡلِ بَيۡتٖ يَكۡفُلُونَهُۥ لَكُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ نَٰصِحُونَ ۝ 11
(12) और हमने बच्चे पर पहले ही दूध पिलाने वालियों की छातियाँ हराम कर रखी थीं।14 (यह स्थिति देखकर) उस लड़की ने उनसे कहा, "मैं तुम्हें ऐसे घर का पता बताऊँ जिसके लोग उसकी परवरिश का जिम्मा लें और उसका हित चाहते हुए उसे रखें?"15
14. अर्थात् फ़िरऔन की बीवी जिस अन्ना को भी दूध पिलाने के लिए बुलाती थी. बच्चा उसकी छाती को मुँह न लगाता था।
15. इससे मालूम हुआ कि फ़िरऔन के महल में भाई के पहुंच जाने के बाद बहन होशियारी के साथ महल के आस-पास चक्कर लगाती रही। फिर जब उसे पता चला कि बच्चा किसी का दूध नहीं पी रहा है तो वह होशियार लड़की सीधे महल में पहुंच गई और जाकर कहा कि मैं एक अच्छी अन्ना का पता बताती हूँ जो इस बच्चे को बड़े प्रेम से पालेगी। इस जगह यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि पुराने समय में इन देशों के बड़े और ख़ानदानी लोग बच्चों को अपने यहाँ पालने के बजाय आम तौर पर अन्नाओं के सुपूर्द कर देते थे और वे अपने यहाँ उनकी परवरिश करती थीं। इसी कारण हज़रत मूसा की बहन ने यह नहीं कहा कि मैं एक अच्छी अन्ना लाकर देती हूं, बल्कि यह कहा कि मैं ऐसे घर का पता बताती हूँ जिसके लोग उसको परवरिश का जिम्मा लेंगे और उसे उसके हित की दृष्टि से पालेंगे।
فَرَدَدۡنَٰهُ إِلَىٰٓ أُمِّهِۦ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَ وَلِتَعۡلَمَ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 12
(13) इस तरह हम मूसा16 को उसकी माँ के पास पलटा लाए ताकि उसकी आँखें ठंडी हों और वह दुखी न हो और जान ले कि अल्लाह का वादा सच्चा था17, मगर अधिकतर लोग इस बात को नहीं जानते।
16. बाइबल और तलमूद से मालूम होता है कि बच्चे का नाम 'मूसा' फ़िरऔन के घर में रखा गया था। यह इब्रानी भाषा का नहीं, बल्कि क़िबती भाषा का शब्द है और इसका अर्थ है "मैंने उसे पानी से निकाला" प्राचीन मिस्री भाषा से भी हज़रत मूसा (अलैहि०) के नामकरण का यह कारण सही साबित होता है। उस भाषा में 'मू पानी को कहते थे और 'ओशे' का मतलब था 'बचाया हुआ'।
17. और अल्लाह के इस विवेकपूर्ण उपाय का लाभ यह भी हुआ कि हज़रत मूसा (अलैहि०) वास्तव में फ़िरऔन के राजकुमार न बन सके, बल्कि अपने ही माँ-बाप और बहन-भाइयों में परवरिश पाकर उन्हें अपनी वास्तविकता अच्छी तरह मालूम हो गई। अपनी पारिवारिक रिवायतों से, अपने बाप-दादा के धर्म से और अपनी क़ौम से उनका रिश्ता न कट सका। वह फ़िरऔन परिवार के एक सदस्य बनने के बजाय अपनी हार्दिक भावनाओं और विचार को दृष्टि से पूरी तरह बनी इसराईल के एक व्यक्ति बनकर उठे।
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُۥ وَٱسۡتَوَىٰٓ ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 13
(14) जब मूसा अपनी पूरी जवानी को पहुँच गया और उसका विकास पूर्ण18 हो गया तो हमने उसे हुक्म और इल्म प्रदान किया।19 हम नेक लोगों को ऐसा ही बदला देते हैं।
18. अर्थात् जब उनका शारीरिक और मानसिक विकास पूर्ण हो गया। यहूदी रिवायतों में उस समय हज़रत मूसा की विभिन्न उमें बताई गई हैं। किसी ने 18 साल लिखी है, किसी ने 20 साल और किसी ने 40 साल । बाइबल के नवीन विधान (New Testament) में 40 साल उम्र बताई गई है (आमाल 7 : 23)। लेकिन कुरआन ने उम्र के बारे में कुछ नहीं बताया। जिस उद्देश्य के लिए किस्सा बयान किया जा रहा है, उसके लिए बस इतना ही जान लेना काफ़ी है कि आगे जिस घटना का उल्लेख हो रहा है, वह उस समय की है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) पूरी जवानी को पहुँच चुके थे।
19. 'हुक्म' से तात्पर्य हिकमत, सूझ-बूझ, विवेक और निर्णय शक्ति है और 'इल्म' से तात्पर्य धार्मिक और सांसारिक ज्ञान दोनों हैं, क्योंकि अपने माँ-बाप के साथ ताल्लुक़ जोड़े रखने की वजह से उनको अपने बाप-दादा (हज़रत यूसुफ़, याक़ूब, इसहाक़ और इब्राहीम (अलैहि०) की शिक्षाओं से भी परिचय प्राप्त हो गया और समय के बादशाह के यहाँ शाहज़ादे की हैसियत से परवरिश पाने की वजह से उनको वे तमाम सांसारिक ज्ञान भी प्राप्त हुए जो उस समय के मिस्रवासियों में प्रचलित थे। इस हुक्म और इल्म की देन से तात्पर्य नुबूवत की देन नहीं है क्योंकि हज़रत मूसा (अलैहि०) को नुबूवत तो इसके कई साल बाद प्रदान को गई। जिस समय वह शाहजादा थे उस समय की शिक्षा व दीक्षा के बारे में बाइबल की किताबुल आमाल में बताया गया है कि "मूसा ने मिस्त्रियों की तमाम कलाओ को शिक्षा प्राप्त की और वह काम और बात में शक्तिवान था।”7/22 (तलमूद के उद्धरण, पृ० 129)
وَدَخَلَ ٱلۡمَدِينَةَ عَلَىٰ حِينِ غَفۡلَةٖ مِّنۡ أَهۡلِهَا فَوَجَدَ فِيهَا رَجُلَيۡنِ يَقۡتَتِلَانِ هَٰذَا مِن شِيعَتِهِۦ وَهَٰذَا مِنۡ عَدُوِّهِۦۖ فَٱسۡتَغَٰثَهُ ٱلَّذِي مِن شِيعَتِهِۦ عَلَى ٱلَّذِي مِنۡ عَدُوِّهِۦ فَوَكَزَهُۥ مُوسَىٰ فَقَضَىٰ عَلَيۡهِۖ قَالَ هَٰذَا مِنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّهُۥ عَدُوّٞ مُّضِلّٞ مُّبِينٞ ۝ 14
(15) (एक दिन) वह शहर में ऐसे समय दाखिल हुआ जबकि शहरवाले ग़फ़लत में थे।20 वहाँ उसने देखा कि दो आदमी लड़ रहे हैं। एक उसकी अपनी क़ौम का था और दूसरा उसकी दुश्मन क़ौम से ताल्लुक़ रखता था। उसकी क़ौम के आदमी ने दुश्मन क़ौमवाले के विरुद्ध उसे मदद के लिए पुकारा । मूसा ने उसको एक घुसा मारा21 और उसका काम तमाम कर दिया। (ऐसी हरकत होते ही) मूसा ने कहा, "यह शैतान ही का कारनामा है।" यह सख्‍़त दुश्मन और खुला गुमराह करनेवाला है।22
20. हो सकता है कि वह सुबह-सवेरे का समय हो या गर्मी में दोपहर का या सर्दियों में रात का, बहरहाल तात्पर्य यह है कि जब सड़कें सुनसान थीं और शहर में सन्नाटा छाया हुआ था। "शहर में दाख़िल हुआ, इन शब्दों से स्पष्ट होता है राजधानी के शाही महल आम आबादी से बाहर स्थित थे। हज़रत मूसा चूंकि शाही महल में रहते थे, इसलिए “शहर में निकले” कहने के बजाय “शहर में दाखिल हुए" फ़रमाया गया है।
21. मूल अरबी शब्द 'व-क-ज़' प्रयुक्त हुआ है, जिसके मानी थप्पड़ मारने के भी हैं और घूसा मारने के भी। हमने इस विचार से कि थपड़ मारने से मौत का हो जाना 'रो के मुकाबले में अधिक मुश्किल है, इसका अनुवाद पूंसा मारना किया है।
قَالَ رَبِّ إِنِّي ظَلَمۡتُ نَفۡسِي فَٱغۡفِرۡ لِي فَغَفَرَ لَهُۥٓۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 15
(16) फिर वह कहने लगा, "ऐ मेरे रब। मैंने अपने आपपर ज़ुल्म कर डाला। मुझे क्षमा कर दे।"23 चुनांचे अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया। वह क्षमा करनेवाला, बड़ा दयावान है।24
23. मूल अरबी शब्द मग्‍फ़‍िरत का अर्थ दरगुज़र करने और माफ़ कर देने के भी हैं और छुपाने के भी। हज़रत मूसा की दुआ का अर्थ यह था कि मेरे इस गुनाह को जिसे तू जानता है कि मैंने जान-बूझकर नहीं किया है) क्षमा भी कर दे और इसपर परदा भी डाल दे ताकि दुश्मनों को इसका पता न चले।
24. अर्थात् अल्लाह ने उनका यह क़ुसूर क्षमा भी कर दिया और हज़रत मूसा का परदा भी ढाँक दिया अर्थात किन्ती क़ौम के किसी व्यक्ति और किनी शासन के किसी आदमी का उस समय उनके आस-पास कहीं गुज़र न हुआ कि वह कत्ल की इस पटना को देख लेता।
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ فَلَنۡ أَكُونَ ظَهِيرٗا لِّلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 16
(17) मूसा ने प्रतिज्ञा की कि "मेरे रब ! यह एहसान जो तूने मुझपर किया है25 इसके बाद अब मैं का अपराधियों का मददगार न बनूँगा।"
25. अर्थात् यह एहसान कि मेरा यह काम छिपा रह गया और दुश्मन कौम के किसी व्यक्ति ने मुझको नहीं देखा और मुझे बच निकलने का मौका मिल गया।
فَأَصۡبَحَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ خَآئِفٗا يَتَرَقَّبُ فَإِذَا ٱلَّذِي ٱسۡتَنصَرَهُۥ بِٱلۡأَمۡسِ يَسۡتَصۡرِخُهُۥۚ قَالَ لَهُۥ مُوسَىٰٓ إِنَّكَ لَغَوِيّٞ مُّبِينٞ ۝ 17
(18) दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे डरता और हर ओर से खतरा भाँपता हुआ शहर में जा रहा था कि यकायक क्या देखता है कि वही आदमी, जिसने कल उसे मदद के लिए पुकारा था, आज फिर उसे पुकार रहा है। मूसा ने कहा, “तू तो बड़ा ही बहका हुआ आदमी है।"27
26. हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह वचन बहुत व्यापक शब्दों में है। इससे तात्पर्य सिर्फ यही नहीं है कि मैं किसी अपराधी का मददगार नहीं बनूँगा, बल्कि इससे तात्पर्य यह भी है कि मेरी मदद कभी उन लोगों के साथ न होगी जो दुनिया में जुल्म व सितम करते हों । इन्ने जरीर और बहुत-से दूसरे टीकाकारों ने इसका यह अर्थ बिल्कुल ठीक लिया है कि उसी दिन हज़रत मूसा ने फ़िरऔन और उसकी जालिम हुकूमत से ताल्लुक तोड़ लेने का प्रण कर लिया। मुसलमान उलमा ने आम तौर से हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस वचन से यह दलील ली है कि एक मोमिन को ज़ालिम की मदद से पूरी तरह बचना चाहिए, चाहे वे ज़ालिम लोग हों या गिरोह या शासन और राज्य । मशहूर ताबई हज़रत अता बिन अबी रिबाह से एक साहब ने अर्ज़ किया कि मेरा भाई बनी उमैया के शासन में कूफ़ा के गवर्नर का कातिब (सेक्रेट्री) है, मामलों का फैसला करना उसका काम नहीं है, अलबत्ता जो फैसले किए जाते हैं, वे उसके क़लम से जारी होते हैं। यह नौकरी वह न करे तो ग़रीब हो जाए । हज़रत अता (रह०) ने जवाब में यही आयत पढ़ी और फ़रमाया, तेरे भाई को चाहिए कि अपना कलम फेंक दे, रोज़ी देनेवाला अल्लाह है। ज़हाक़ को तो अब्दुर्रहमान बिन मुस्लिम ने सिर्फ इस सेवा के लिए भेजना चाहा था कि वे बुखारा के लोगों को वेतन जाकर बाँट आएँ, मगर उन्होंने इससे भी इंकार कर दिया | और लोगों से कहा, "मैं ज़ालिमों के किसी काम में भी मददगार नहीं बनना चाहता।" (रूहुल मआनी, भाग 5, पृ० 49) इमाम अबू हनीफा (रह०) की यह घटना उनके तमाम प्रामाणिक जीवनी लेखकों ने लिखा है कि उन्हीं के कहने पर मंसूर के कमांडर इनचीफ़ हसन बिन क़हतुबा ने यह कहकर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था कि आज तक मैंने आपके राज्य के समर्थन के लिए जो कुछ किया है, यह अगर अल्लाह की राह में था तो मेरे लिए बस इतना ही काफ़ी है, लेकिन अगर यह ज़ुल्म की राह में था तो मैं अपने आमालनामे में और अधिक अपराधों को नहीं बढ़ाना चाहता।
27. अर्थात् तू झगड़ालू आदमी मालूम होता है, हर दिन तेरा किसी न किसी से झगड़ा होता रहता है।
فَلَمَّآ أَنۡ أَرَادَ أَن يَبۡطِشَ بِٱلَّذِي هُوَ عَدُوّٞ لَّهُمَا قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ أَتُرِيدُ أَن تَقۡتُلَنِي كَمَا قَتَلۡتَ نَفۡسَۢا بِٱلۡأَمۡسِۖ إِن تُرِيدُ إِلَّآ أَن تَكُونَ جَبَّارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا تُرِيدُ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ ۝ 18
(19) फिर जब मूसा ने इरादा किया कि दुश्मन क़ौम के आदमी पर हमला करे28 तो वह पुकार उठा,29 "ऐ मूसा ! क्या आज तू मुझे उसी तरह क़त्ल करने लगा है जिस तरह कल एक आदमी को क़त्ल कर चुका है? तू इस मुल्क में निर्दयी-अत्याचारी बनकर रहना चाहता है, सुधार करना नहीं चाहता।"
28. बाइबल का बयान यहाँ कुरआन के बयान से भिन्न है । बाइबल कहती है कि दूसरे दिन का झगड़ा दो इसराईलियों के दर्मियान था लेकिन यह बात न सिर्फ कुरआन के, बल्कि अनुमान के भी विपरीत क्योंकि पहले दिन के कत्ल का भेद खुल जाने की जो शक्ल आगे बयान हो रही है, वह इसी तरह सामने आ सकती थी कि मिस्त्री क़ौम के एक आदमी को उस घटना की खबर हो जाती। एक इसराईली के ज्ञान में इसके आ जाने से यह संभावना कम थी कि अपनी क़ौम के पले शाहजादे को इतने बड़े अपराध की ख़बर मिलते ही वह जाकर फ़िरऔनी शासन में उसकी मुख़बरी कर देता।
29. यह पुकारनेवाला वही इसराईली था जिसकी मदद के लिए हज़रत मूसा आगे बढ़े थे। उसको डाँटने के बाद जब आप मिस्री को मारने के लिए चले तो उस इसराईली ने समझा कि यह मुझे मारने आ रहे हैं, इसलिए उसने चीखना शुरू कर दिया और अपनी मूर्खता से कल की हत्या का भेद खोल दिया।
وَجَآءَ رَجُلٞ مِّنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ ٱلۡمَلَأَ يَأۡتَمِرُونَ بِكَ لِيَقۡتُلُوكَ فَٱخۡرُجۡ إِنِّي لَكَ مِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 19
(20) इसके बाद एक आदमी शहर के परले सिरे से दौड़ता हुआ आया30 और बोला, "मूसा ! सरदारों में तेरे क़त्ल के मश्विरे हो रहे हैं, यहाँ से निकल जा, मैं तेरा भला चाहनेवाला हूँ।"
30. अर्थात् इस दूसरे झगड़े में जब क़स्ल का भेद खुल गया और उस मिस्री ने जाकर मुख़बरी कर दी, तब यह घटना घटी।
فَخَرَجَ مِنۡهَا خَآئِفٗا يَتَرَقَّبُۖ قَالَ رَبِّ نَجِّنِي مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 20
(21) यह ख़बर सुनते ही मूसा डरता और सहमता निकल खड़ा हुआ और उसने दुआ की कि "ऐ मेरे रब ! मुझे ज़ालिमों से बचा।"
وَلَمَّا تَوَجَّهَ تِلۡقَآءَ مَدۡيَنَ قَالَ عَسَىٰ رَبِّيٓ أَن يَهۡدِيَنِي سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 21
(22) (मिस्र से निकलकर) जब मूसा ने मदयन का रुख़ किया31 तो उसने कहा, “आशा है कि मेरा रब मुझे ठीक रास्ते पर डाल देगा।"32
31. बाइबल का बयान क़ुरआन के इस बयान से मिलता-जुलता है कि हज़रत मूसा ने मिस्र से निकलकर मदयन का रुख़ किया था, लेकिन तलमूद यह बे-सिर-पैर का किस्सा बयान करती है कि हज़रत मूसा मिस्र से भागकर हबश चले गए और वहाँ बादशाह के दरबारी बन गए फिर उसके मरने पर लोगों ने उनको अपना बादशाह बना लिया और उसकी विधवा से उनकी शादी कर दी। 40 साल उन्होंने वहाँ शासन किया। [फिर उसी औरत की शिकायत पर] राज्य के सरदारों ने उन्हें हटाकर और बहुत-सा माल देकर देश से सम्मानपूर्वक बिदा कर दिया । तब वह हबश से मदयन पहुंचे और वे घटनाएं घटीं जो आगे बयान हो रही हैं। उस वक़्त उनकी उम्र 67 साल थी। [यह किस्सा इतिहास और भूगोल के तथ्यों से इतना अलग है कि कोई भी सूझ-बूझ और ज्ञानवाला इसके सही होने को मान ही नहीं सकता। इसके बावजूद ईसाई और यहूदी प्राच्यविद् को यह कहते ज़रा शर्म नहीं आती कि कुरआन ने ये किस्से बनी इसराईल से नकल कर लिए हैं।
32. अर्थात् ऐसे रास्ते पर जिससे मैं सकुशल मदयन पहुँच जाऊँ । यह बात स्पष्ट रहे कि उस समय मदयन फ़िरऔन के राज्य से बाहर था । इसी वजह से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने मिस्र से निकलते ही मदयन का रुख़ किया था, क्योंकि सबसे ज़्यादा क़रीब और आज़ाद आबाद क्षेत्र वही था, लेकिन वहाँ जाने के लिए उन्हें गुज़रना बहरहाल मिस्र के अधीनस्थ क्षेत्रों से ही था और मिस्र की पुलिस और फौजी चौकियों से बचकर निकलना था। इसी लिए अल्लाह से उन्होंने दुआ की कि मुझे ऐसे रास्ते पर डाल दे जिससे मैं सही-सलामत मदयन पहुँच जाऊँ।
وَلَمَّا وَرَدَ مَآءَ مَدۡيَنَ وَجَدَ عَلَيۡهِ أُمَّةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ يَسۡقُونَ وَوَجَدَ مِن دُونِهِمُ ٱمۡرَأَتَيۡنِ تَذُودَانِۖ قَالَ مَا خَطۡبُكُمَاۖ قَالَتَا لَا نَسۡقِي حَتَّىٰ يُصۡدِرَ ٱلرِّعَآءُۖ وَأَبُونَا شَيۡخٞ كَبِيرٞ ۝ 22
(23) और जब वह मदयन के कुएँ पर पहुँचा33 तो उसने देखा कि बहुत-से लोग अपने जानवरों को पानी पिला रहे हैं और उनसे अलग एक ओर दो औरतें अपने जानवरों को रोक रही है। मूसा ने उन औरतों से पूछा, "तुम्हें क्या परेशानी है ?" उन्होंने कहा, “हम अपने जानवरों को पानी नहीं पिला सकती, जब तक ये चरवाहे अपने जानवर निकाल न ले जाएँ। और हमारे बाप एक बहुत बूढ़े आदमी हैं।"34
33. यह जगह जहाँ हज़रत मूसा पहुंचे थे, अरबी रिवायतों के अनुसार, अक़बा खाड़ी के पश्चिमी तट पर मक़ना से कुछ मील दूर उत्तर की ओर स्थित था। आजकल उसे अल-बिदा कहते हैं और वहाँ एक छोटा-सा क़स्बा आबाद है। मैंने दिसम्बर 1959 ई० में तबूक से अक़बा जाते हुए उस जगह को देखा है। वहाँ के लोगों ने मुझे बताया कि हम बाप-दादा से यही सुनते चले आए हैं कि मदयन इसी जगह स्थित था। यूसी फ़ोस से लेकर ब्रिटेन तक पुराने और नये पर्यटकों और भूगोल के लेखकों ने भी आम तौर से मदयन के स्थित होने की जगह यही बताई है।
34. अर्थात् हम औरतें हैं, इन चरवाहों से टकराव और संघर्ष करके अपने जानवरों को पानी पिलाना हमारे बस में नहीं है। बाप हमारे इतने बूढ़े हैं कि स्वयं यह मशक्कत उठा नहीं सकते । घर में कोई दूसरा मर्द भी नहीं है। इसलिए हम औरतें ही यह काम करने निकलती हैं और जब तक सब चरवाहे अपने जानवरों को पानी पिलाकर चले नहीं जाते, हमें विवश होकर इन्तिज़ार करना पड़ता है । इन औरतों के बाप के बारे में हमारे यहाँ की रिवायतों में यह बात मशहूर हो गई है कि वह हज़रत शुऐब (अलैहि.) थे। लेकिन क़ुरआन मजीद [या किसी सही हदीस से इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता] हालांकि शुऐब (अलैहि०) का व्यक्तित्त्व क़ुरआन में चिर परिचित व्यक्तित्व है। अगर इन औरतों के बाप वही होते तो कोई कारण न था कि यहाँ उसे खोल न दिया जाता। बाइबल में एक जगह उन बुजुर्ग का नाम राबायल और दूसरी जगह यतरो बयान किया गया है और बताया गया है कि वह मदयन के काहिन थे (निर्गमन 2:16.18, 3:1,8: 5) तलमूदी लिट्रेचर में रावायल, यथरू और हूबाब तीन अलग-अलग नाम बताए गए हैं। वर्तमानकाल के यहूदी विद्वानों का विचार है कि यथरू हिज़ एक्सेलेसी की समानार्थी उपाधि थी और असल नाम रावायल या हूबाव था। उनके धर्म के बारे में अनुमान यही है कि हज़रत मूसा की तरह वे भी इबाहीमी दीन के माननेवाले थे, क्योंकि जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) इस्हाक बिन इब्राहीम (अलैहि०) की औलाद थे, उसी तरह वह मदयान बिन इब्राहीम की औलाद में से थे। तलमूद में बयान किया गया है कि वह मदयानियों की बुतपरस्ती को एलानिया मूर्खता कहते थे। इसी लिए मदयन के लोग उनके विरोधी हो गए थे।
فَسَقَىٰ لَهُمَا ثُمَّ تَوَلَّىٰٓ إِلَى ٱلظِّلِّ فَقَالَ رَبِّ إِنِّي لِمَآ أَنزَلۡتَ إِلَيَّ مِنۡ خَيۡرٖ فَقِيرٞ ۝ 23
(24) यह सुनकर मूसा ने उनके जानवरों को पानी पिला दिया, फिर एक साए की जगह जा बैठा और बोला, “पालनहार ! जो ख़ैर (भलाई) भी तू मुझपर उतार दे, मैं उसका मुहताज हूँ।"
فَجَآءَتۡهُ إِحۡدَىٰهُمَا تَمۡشِي عَلَى ٱسۡتِحۡيَآءٖ قَالَتۡ إِنَّ أَبِي يَدۡعُوكَ لِيَجۡزِيَكَ أَجۡرَ مَا سَقَيۡتَ لَنَاۚ فَلَمَّا جَآءَهُۥ وَقَصَّ عَلَيۡهِ ٱلۡقَصَصَ قَالَ لَا تَخَفۡۖ نَجَوۡتَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 24
(25) (कुछ देर न गुज़री थी कि) उन दोनों औरतों में से एक शर्म व हया के साथ चलती हुई उसके पास आई35 और कहने लगी, "मेरे बाप आपको बुला रहे हैं, ताकि आपने हमारे लिए जानवरों को पानी जो पिलाया है उसका बदला आपको दें।"36 मूसा जब उसके पास पहुंचा और अपना सारा किस्सा उसे सुनाया तो उसने कहा, "कुछ भय न करो, अब तुम ज़ालिम लोगों से बच निकले हो।"
35. हज़रत उमर (रजि०) ने इस वाक्य की यह व्याख्या की है,"वह शर्म व हया के साथ चलती हुई अपना मुंह बूंघट से छिपाए हुए आई। उन बेबाक औरतों की तरह बेधड़क नहीं चली आई जो हर ओर निकल जातीं और हर जगह जा घुसती हैं। इससे साफ़ मालूम होता है कि सहाबा किराम के युग में हयादारी का इस्लामी विचार जो कुरआन और नबी (सल्ल०) की शिक्षा-दीक्षा से इन बुजुर्गों ने समझा था, चेहरे को अजनबियों के सामने खोले फिरने और घर से बाहर बेबाकी से चलत-फिरत दिखाने के बिल्कुल विपरीत था।
36. यह बात भी शर्म व हया ही की वजह से उन्होंने कही, क्योंकि एक पराए मर्द के पास अकेली जगह आने का कोई यथोचित कारण बताना अनिवार्य था, वरना स्पष्ट है कि एक सज्जन व्यक्ति ने अगर औरत जाति को परेशानी में पड़ा देखकर उसकी कोई मदद की हो तो उसका बदला देने के लिए कहना कोई अच्छी बात न थी। और फिर इस बदले का नाम सुन लेने के बावजूद हज़रत मूसा (अलैहि०) जैसे उच्च स्वभाव इंसान का चल पड़ना यह स्पष्ट करता है कि वह उस समय बड़ी मजबूरी की हालत में थे। बे-सरो-सामानी और सफ़र की धकन से बुरा हाल होगा और सबसे बढ़कर यह चिन्ता होगी की इस परदेस में कोई ठिकाना मिले। इसी मज़बूरी की वजह से यह शब्द सुन लेने के बावजूद कि इस तनिक-सी सेवा का बदला देने के लिए बुलाया जा रहा है, हज़रत मूसा ने जाने में संकोच न किया। उन्होंने सोचा होगा कि अल्लाह से अभी-अभी जो दुआ मैंने मांगी है उसे पूरा करने का यह सामान अल्लाह की ओर से ही हुआ है, इसलिए उसे ठुकाराना उचित नहीं है।
قَالَتۡ إِحۡدَىٰهُمَا يَٰٓأَبَتِ ٱسۡتَـٔۡجِرۡهُۖ إِنَّ خَيۡرَ مَنِ ٱسۡتَـٔۡجَرۡتَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡأَمِينُ ۝ 25
(26) उन दोनों औरतों में से एक ने अपने बाप से कहा, "अब्बा जान । इस आदमी को नौकर रख लीजिए. बेहतरीन आदमी जिसे आप नौकर रखें वही हो सकता है जो ताक़तवर और अमानतदार हो ।37
37. अनिवार्य नहीं कि यह बात लड़की ने अपने बाप से हज़रत मूसा की पहली मुलाक़ात के वक़्त ही कह दी हो। अधिक अनुमान यही है कि उसके बाप ने अजनबी मुसाफ़िर को एक-दो दिन अपने पास ठहरा लिया होगा और इस बीच किसी समय बेटी ने बाप को मश्विरा दिया होगा। इस मश्विरे का अर्थ यह था कि अपने बुढ़ापे को देखते हुए आप इस आदमी को नौकर रख लें। मजबूत आदमी है, हर तरह की मेहनत करेगा और भरोसे के योग्य आदमी है।
قَالَ إِنِّيٓ أُرِيدُ أَنۡ أُنكِحَكَ إِحۡدَى ٱبۡنَتَيَّ هَٰتَيۡنِ عَلَىٰٓ أَن تَأۡجُرَنِي ثَمَٰنِيَ حِجَجٖۖ فَإِنۡ أَتۡمَمۡتَ عَشۡرٗا فَمِنۡ عِندِكَۖ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أَشُقَّ عَلَيۡكَۚ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 26
(27) उसके बाप ने (मूसा से) कहा,38 "मैं चाहता हूँ कि अपनी इन दो बेटियों में से एक का निकाह तुम्हारे साथ कर दूँ, बशर्ते कि तुम आठ साल तक मेरे यहाँ नौकरी करो और अगर दस साल पूरे कर दो तो यह तुम्हारी मर्जी है। मैं तुमपर सख्ती नहीं करना चाहता। तुम इंशा-अल्लाह (अगर ख़ुदा ने चाहा) मुझे नेक आदमी पाओगे?"
38. यह भी ज़रूरी नहीं कि बेटी की बात सुनते ही बाप ने तुरन्त हज़रत मूसा से यह बात कह दी हो । अनुमान कहता है कि उन्होंने बेटी के मश्विरे पर विचार करने के बाद यह राय बनाई होगी कि आदमी सज्जन सही, मगर इन बेटियों के घर में एक जवान तन्दरुस्त और मज़बूत आदमी को यूँ ही नौकर रख छोड़ना उचित नहीं है। जब ये सज्जन पढ़ा-लिखा सभ्य खानदानी आदमी है (जैसा कि हज़रत मूसा का क़िस्सा सुनकर उन्हें मालूम हो चुका होगा) तो क्यों न उसे दामाद बनाकर ही घर में रखा जाए, इस राय पर पहुंचने के बाद उन्होंने किसी मुनासिब समय पर हज़रत मूसा से यह बात कही होगी। [अब तलमूद का बयान देखिए, जिस] में कहा गया है कि "मूसा रावायल के यहाँ रहने लगे और वह अपने मेज़बान की बेटी सिफ़ोरा पर कृपादृष्टि रखते थे, यहाँ तक कि अन्ततः उन्होंने उससे ब्याह कर लिया।” एक और यहूदी रिवायत जो जैविश इंसाइक्लोपेडिया में नक़ल की गई है, यह है कि “हज़रत मूसा ने जब यथरू को अपनी सारी दास्तान सुनाई तो उसने समझ लिया कि यही वह व्यक्ति है जिसके हाथों फ़िरऔन का साम्राज्य नष्ट होने की भविष्यवाणियाँ की गई थी। इसलिए उसने तुरन्त हज़रत मूसा को कैद कर लिया ताकि उन्हें फ़िरऔन के हवाले करके पुरस्कार प्राप्त करे। सात या दस साल तक वह उसकी कैद में रहे । एक अंधकारमय तहख़ाना था जिसमें वे बन्द थे, मगर यथरू की बेटी ज़फूरा (या सिफ़ोरा) जिससे कुएँ पर उनकी पहली मुलाक़ात हुई थो, चुपके-चुपके उनसे कैदखाने में मिलती रही और उन्हें खाना-पानी भी पहुँचाती रही। इन दोनों में शादी का ख़ुफ़िया समझौता हो चुका था। सात या दस साल के बाद ज़फूरा ने अपने बाप से कहा कि इतनी मुद्दत हुई। आपने एक आदमी को कैद में डाल दिया था और फिर उसकी ख़बर तक न ली। अब तक उसे मर जाना चाहिए था। लेकिन अगर वह अब भी जिंदा हो तो ज़रूर कोई सिद्ध पुरुष है। यथरू उसकी यह बात सुनकर जब क़ैदख़ाने में गया तो हज़रत मूसा को जिंदा देखकर उसे यकीन आ गया कि वह मोजज़े से जिंदा है। तब उसने ज़रा से उनकी शादी कर दी।" जो पश्चिमी प्राच्यविद् विद्वान क़ुरआनी क़िस्सों के सोत ढूंढते फिरते हैं उन्हें कहीं यह खुला अन्तर भी नज़र आता है जो कुरआन के बयान और इसराईली रिवायतों में पाया जाता है?
قَالَ ذَٰلِكَ بَيۡنِي وَبَيۡنَكَۖ أَيَّمَا ٱلۡأَجَلَيۡنِ قَضَيۡتُ فَلَا عُدۡوَٰنَ عَلَيَّۖ وَٱللَّهُ عَلَىٰ مَا نَقُولُ وَكِيلٞ ۝ 27
(28) मूसा ने जवाब दिया, “यह बात मेरे और आपके दर्मियान तय हो गई। इन दोनों मुद्दतों में से जो भी मैं पूरी कर दूँ, उसके बाद फिर कोई ज्यादती मुझपर न हो, और जो कुछ क्रौल व करार (समझौता) हम कर रहे हैं अल्लाह उसपर निगहबान है।"39
39. कुछ लोगों ने हज़रत मूसा (अलैहि०) और लड़की के बाप की इस बात-चीत को निकाह का ईजाब व क़बूल (पेशकश और स्वीकृति) समझ लिया है और यह बहस छेड़ दी है कि क्या बाप की सेवा बेटी के निकाह का महर करार पा सकती है? और क्या निकाह के बंधन में इस तरह की बाहरी शर्ते शामिल हो सकती हैं। हालांकि इन आयतों से खुद ही यह बात जाहिर हो रही है कि निकाह का यह बंधन न था, बल्कि वह शुरू की बात-चीत थी जो निकाह से पहले निकाह के प्रस्ताव के सिलसिले में आम तौर से दुनिया में हुआ करती है। आख़िर यह निकाह का ईजाब व क़बूल कैसे हो सकता है, जबकि यह बात भी उसमें तय न की गई थी कि दोनों लड़कियों में से कौन-सी निकाह में दी जा रही है। इस बात-चीत का सार तो केवल यह था कि लड़की के बाप ने कहा कि मैं अपनी लड़कियों में से एक का निकाह तुमसे कर देने के लिए तैयार हूँ, बशर्ते कि तुम मुझसे वादा करो कि आठ या दस साल मेरे यहाँ रहकर मेरे घर के काम-काज में मेरा हाथ बटाओगे। क्योंकि इस रिश्ते से मेरा मूल उद्देश्य यही है कि मैं बूढ़ा आदमी हूँ, कोई बेटा मेरे यहाँ नहीं है जो मेरो जायदाद का प्रबंध संभाले, लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं जिन्हें मजबूरन बाहर निकालता हूं। मैं चाहता हूं कि दामाद मेरा दस्त व बाजू बनकर रहे, यह ज़िम्मेदारी अगर तुम संभालने के लिए तैयार हो और शादी के बाद ही बीवी को लेकर चले जाने का इरादा न रखते हो, तो मैं अपनी एक लड़की का निकाह तुमसे कर दूंगा। हज़रत मूसा उस वक़्त खुद एक ठिकाने के ज़रूरतमंद थे। उन्होंने इस प्रस्ताव को मान लिया । स्पष्ट है कि यह एक समझौते जैसी शक्ल थी जो निकाह से पहले दोनों फरीकों में तय हुई थी। इसके बाद असल निकाह नियमानुसार हुआ होगा और उसमें मह भी बाँधा गया होगा। उस बंधन में सेवा को शर्त शामिल होने का कोई कारण न था।
۞فَلَمَّا قَضَىٰ مُوسَى ٱلۡأَجَلَ وَسَارَ بِأَهۡلِهِۦٓ ءَانَسَ مِن جَانِبِ ٱلطُّورِ نَارٗاۖ قَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِخَبَرٍ أَوۡ جَذۡوَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ لَعَلَّكُمۡ تَصۡطَلُونَ ۝ 28
(29) जब मूसा ने अवधि पूरी कर दी40 और वह अपने घरवालों को लेकर चला तो तूर की ओर उसको एक आग नज़र आई।41 उसने अपने घरवालों से कहा, "ठहरो मैंने एक आग देखी है, शायद मैं वहाँ से कोई ख़बर ले आऊँ या उस आग से कोई अंगारा ही उठा लाऊँ जिससे तुम ताप सको।"
40. हज़रत हसन बिन अली बिन अबी तालिब (रजि०) फ़रमाते हैं कि हज़रत मूसा ने आठ के बजाय दस साल की अवधि पूरी की थी। इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह बात खुद नबी (सल्ल०) से उल्लिखित है। हुजूर (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मूसा (अलैहि०) ने दोनों अवधि में से वह अवधि पूरी की जो अधिक पूर्ण और उनके ससुर के लिए अधिक पसंदीदा थी, अर्थात् दस साल ।”
41. इस सफ़र की दिशा तूर की ओर होने की वजह से यह विचार आता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने बाल-बच्चों को लेकर मिस्र ही जाना चाहते होंगे, इसलिए कि तूर उस रास्ते पर है जो मदयन से मिस्र की ओर जाता है। शायद हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सोचा होगा कि दस साल गुज़र चुके हैं। वह फ़िरऔन भी मर चुका है जिसके शासनकाल में वे मिस्र से निकले थे। अब अगर ख़ामोशी के साथ वहाँ चला जाऊँ और अपने परिवारवालों के साथ रह पडूं तो शायद किसी को मेरा पता भी न चले।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ مِن شَٰطِيِٕ ٱلۡوَادِ ٱلۡأَيۡمَنِ فِي ٱلۡبُقۡعَةِ ٱلۡمُبَٰرَكَةِ مِنَ ٱلشَّجَرَةِ أَن يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّيٓ أَنَا ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 29
(30) वहाँ पहुँचा तो घाटी के दाहिने किनारे42 पर मुबारक क्षेत्र में43 एक पेड़ से पुकारा गया कि "ऐ मूसा ! मैं ही अल्लाह हूँ, सारे जहानवालों का मालिक !"
42. अर्थात् उस किनारे पर जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के दाहिने हाथ की ओर था।
43. अर्थात् उस क्षेत्र में जो ईश-प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था।
وَأَنۡ أَلۡقِ عَصَاكَۚ فَلَمَّا رَءَاهَا تَهۡتَزُّ كَأَنَّهَا جَآنّٞ وَلَّىٰ مُدۡبِرٗا وَلَمۡ يُعَقِّبۡۚ يَٰمُوسَىٰٓ أَقۡبِلۡ وَلَا تَخَفۡۖ إِنَّكَ مِنَ ٱلۡأٓمِنِينَ ۝ 30
(31) और (आदेश दिया गया कि) फेंक दे अपनी लाठी । ज्यों ही कि मूसा ने देखा कि वह लाठी साँप की तरह बल खा रही है तो वह पीठ फेरकर भागा और उसने मुड़कर भी न देखा । (इर्शाद हुआ) “मूसा पलट आ और भय न कर, तू बिल्कुल सुरक्षित है ।
ٱسۡلُكۡ يَدَكَ فِي جَيۡبِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٖ وَٱضۡمُمۡ إِلَيۡكَ جَنَاحَكَ مِنَ ٱلرَّهۡبِۖ فَذَٰنِكَ بُرۡهَٰنَانِ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 31
(32) अपना हाथ गरेबान में डाल, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी पीड़ा के।44 और भय से बचने के लिए अपना बाजू भींच ले।45 ये दो रौशन निशानियाँ है तेरे रब की ओर से फ़िरऔन और उसके दरबारियों के सामने पेश करने के लिए, वे बड़े अवज्ञाकारी लोग हैं।"46
44. ये दोनों मोजज़े उस समय हज़रत मूसा को इसलिए दिखाए गए कि एक तो उन्हें खुद पूरी तरह विश्वास हो जाए कि सच में वही हस्ती उन्हें सम्बोधित कर रही है जो सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था को स्रष्टा (पैदा म करनेवाली), मालिक और शासक है । दूसरे वे उन मोजज़ों को देखकर संतुष्ट हो जाएँ कि जिस ख़तरनाक मिशन पर उन्हें फ़िरऔन की ओर भेजा जा रहा है, उसका सामना करने के लिए वे बिल्कुल निहत्थे नहीं जाएँगे, बल्कि दो शक्तिशाली हथियार लेकर जाएंगे।
45. अर्थात् जब कभी कोई ख़तरनाक मौक़ा ऐसा आए जिससे तुम्हारे दिल में डर पैदा हो तो अपना बाज़ू भींच लिया करो, इससे तुम्हारा दिल मज़बूत हो जाएगा और रौब और दहशत की कोई दशा तुम्हारे भीतर बाक़ी न रहेगी। बाजू से तात्पर्य शायद सीधा बाजू हैं क्योंकि सिर्फ़ हाथ बोलकर सीधा हाथ ही समझा जाता है। भौंचने की दो शक्लें संभव हैं। एक यह कि बाज़ू को पहलू के साथ लगाकर दबा लिया जाए । दूसरी यह कि एक हाथ को दूसरे हाथ की बग़ल में रखकर दबाया जाए। अधिक अनुमान यह है कि पहली शक्ल ही से तात्पर्य होगा, क्योंकि इस शक्ल में दूसरा कोई आदमी यह महसूस नहीं कर सकता कि आदमी अपने दिल का डर दूर करने के लिए कोई खास अमल कर रहा है। हज़रत मूसा को ये उपाय इस इसलिए बताए गए कि वे एक ज़ालिम राज्य का मुकाबला करने के लिए किसी लाव-लश्कर और दुनिया के साज़ व सामान के बगैर भेजे जा रहे थे । बार-बार ऐसे भयानक मौके पेश आनेवाले थे जिनमें एक दृढ़ निश्चिय नबी तक आतंक से बचा न रह सकता था। अल्लाह ने फ़रमाया कि जब कोई ऐसी शक्ल पेश आए तो तुम बस यह अमल कर लिया करो, फ़िरऔन अपने पूरे सत्ता का ज़ोर लगाकर भी तुम्हारे दिल की ताक़त को डग-मड न सकेगा।
قَالَ رَبِّ إِنِّي قَتَلۡتُ مِنۡهُمۡ نَفۡسٗا فَأَخَافُ أَن يَقۡتُلُونِ ۝ 32
(33) मूसा ने अर्ज़ किया, “मेरे आका ! मैं तो उनका एक आदमी क़त्ल कर चुका हूँ, डरता हूँ कि वे मुझे मार डालेंगे47
47. इसका अर्थ यह नहीं था कि इस डर से मैं वहाँ नहीं जाना चाहता, बल्कि मतलब यह था कि हुजूर की ओर से ऐसा कोई इन्तिज़ाम होना चाहिए कि मेरे पहुंचते ही किसी बात-चीत और रिसालत की ज़िम्मेदारी अदा करने की नौबत आने से पहले वे लोग मुझे क़त्ल के आरोप में गिरफ़्तार न कर लें, क्योंकि इस शक्ल में तो वह उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा जिसके लिए मुझे इस मुहिम पर भेजा जा रहा है। बाद के वाक्य से यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है।
وَأَخِي هَٰرُونُ هُوَ أَفۡصَحُ مِنِّي لِسَانٗا فَأَرۡسِلۡهُ مَعِيَ رِدۡءٗا يُصَدِّقُنِيٓۖ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُكَذِّبُونِ ۝ 33
(34) और मेरा भाई हारून मुझसे ज़्यादा ज़बान का धनी है, उसे मेरे साथ सहायक के रूप में भेज, ताकि वह मेरा समर्थन करे, मुझे डर है कि वे लोग मुझे झुठलाएँगे।"
قَالَ سَنَشُدُّ عَضُدَكَ بِأَخِيكَ وَنَجۡعَلُ لَكُمَا سُلۡطَٰنٗا فَلَا يَصِلُونَ إِلَيۡكُمَا بِـَٔايَٰتِنَآۚ أَنتُمَا وَمَنِ ٱتَّبَعَكُمَا ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 34
" (35) फ़रमाया, “हम तेरे भाई के द्वारा तेरा हाथ मज़बूत करेंगे और तुम दोनों को ऐसा प्रताप प्रदान करेंगे कि वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। हमारी निशानियों के बल से तुम और तुम्हारे अनुयायी ही प्रभावी रहेंगे।"48
48. अल्लाह के साथ हज़रत मूसा (अलैहि०) की इस मुलाकात और बात-चीत का हाल इससे अधिक विस्तार के साथ सूरा-20 ता०हा० (आयत 9-48) में बयान हुआ है। क़ुरआन मजीद के इस बयान का जो आदमी भी उस दास्तान से तुलना करेगा जो इस सिलसिले में बाइबल की किताब निर्गमन (अध्याय 3-4) में बयान की गई है, वह अगर कुछ भी अच्छी अभिरुचि रखता हो तो खुद महसूस कर लेगा कि इन दोनों में कलामे इलाही कौन-सा है और इंसानी दास्तान कौन-सी है? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता०हा०, टिप्पणी 19)
فَلَمَّا جَآءَهُم مُّوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا بَيِّنَٰتٖ قَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّفۡتَرٗى وَمَا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِيٓ ءَابَآئِنَا ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 35
(36) फिर जब मूसा उन लोगों के पास हमारी खुली-खुली निशानियाँ लेकर पहुंचा तो उन्होंने कहा कि “यह कुछ नहीं है मगर बनावटी जादू 49, और ये बातें तो हमने अपने बाप-दादा के ज़माने में कभी सुनी ही नहीं।" 50
49. मूल अरबी शब्द हैं सेहरुम- मुफ़-त-रन' ।' इसका अर्थ है गढ़ा हुआ जादू । इस गढ़ा हुआ होने को अगर झूठ के अर्थ में लिया जाए तो अर्थ यह होगा कि यह लाठी का अज़दहा बनना और हाथ का चमक उठना, मूल वस्तु में कोई बास्तविक परिवर्तन नहीं है, बल्कि सिर्फ एक नुमाइशी धोखा है जिसे यह आदमी मोजज़ा कहकर हमें धोखा दे रहा है। और अगर इसे बनावट के अर्थ में लिया जाए तो तात्पर्य यह होगा कि यह आदमी किसी करतब से एक ऐसी चीज़ बना लाया है जो देखने में लाठी मालूम होती है, परन्तु जब यह उसे फेंक देता है तो सांप नज़र आने लगती है और अपने हाथ पर भी उसने कोई ऐसी चीज़ मल ली है कि उसको बग़ल से निकलने के बाद वह यकायक चमक उठता है। यह बनावटी जादू उसने ख़ुद तैयार किया है और हमें यह यकीन दिला रहा है कि ये मोजज़े हैं जो अल्लाह ने उसे दिए हैं।
50. संकेत है उन बातों की ओर जो रिसालत के प्रचार के सिलसिले में हज़रत मूसा ने प्रस्तुत की थी। क़ुरआन मजोद में दूसरी जगहों पर इन बातों का विवरण दिया गया है (देखिए सूरा-20 ता०हा०, आयत 47-48, सूरा-79 अन-नाज़िआत, आयत 18-19)। इन्हीं बातों के बारें में फ़िरऔन ने कहा कि हमारे बाप-दादा ने भी कभी यह नहीं सुना था कि मिस्र के फ़िरऔन से ऊपर भी कोई ऐसी सत्ता-सम्पन्न हस्ती है जो उसे आदेश देने का अधिकार रखती हो, जो उसे सज़ा दे सकती हो, जो उसे हिदायत देने के लिए किसी आदमी को उसके दरबार में भेजे और जिससे डरने के लिए मिस्र के बादशाह से कहा जाए, ये तो निराली बातें हैं जो आज एक आदमी के मुख से सुन रहे हैं।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبِّيٓ أَعۡلَمُ بِمَن جَآءَ بِٱلۡهُدَىٰ مِنۡ عِندِهِۦ وَمَن تَكُونُ لَهُۥ عَٰقِبَةُ ٱلدَّارِۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 36
(37) मूसा ने जवाब दिया, "मेरा रख उस आदमी के हाल को ख़ूब जानता है जो उसकी ओर से हिदायत लेकर आया है, और वही बेहतर जानता है कि आख़िरी अंजाम किस का अच्छा होना है। सत्य यह है कि जालिम कभी सफलता नहीं पाते।"51
51. अर्थात् तू मुझे जादूगर और झूठ गढ़नेवाला कह रहा है, लेकिन मेरा रब मेरा हाल खूब जानता है और आखिरी अंजाम का फ़ैसला उसी के हाथ में है। मैं झूठा हूँ तो मेरा अंजाम बुरा होगा और तू झूठा है तो ख़ूब जान ले कि तेरा अंजाम अच्छा नहीं है । बहरहाल यह सच्चाई अपनी जगह अटल है कि ज़ालिम के लिए सफलता नहीं है। जो आदमी अल्लाह का रसूल न हो और झूठ-मूठ का रसूल बनकर अपना कोई लाभ अर्जित करना चाहे, वह भी ज़ालिम है और सफलता से महरूम रहेगा। और जो तरह-तरह के झूठे आरोप लगाकर सच्चे रसूल को झुठलाए और मक्कारियों से सच्चाई को दबाना चाहे, वह भी ज़ालिम है और उसे कभी सफलता प्राप्त न होगी।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ مَا عَلِمۡتُ لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرِي فَأَوۡقِدۡ لِي يَٰهَٰمَٰنُ عَلَى ٱلطِّينِ فَٱجۡعَل لِّي صَرۡحٗا لَّعَلِّيٓ أَطَّلِعُ إِلَىٰٓ إِلَٰهِ مُوسَىٰ وَإِنِّي لَأَظُنُّهُۥ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 37
(38) और फ़िरऔन ने कहा, "ऐ दरबारियो ! मैं तो अपने सिवा तुम्हारे किसी ख़ुदा को नहीं जानता।52 हामान ! तनिक ईटें पकवाकर मेरे लिए एक ऊँची इमारत तो बनवा, शायद कि उसपर चढ़कर मैं मूसा के रब को देख सकूँ, मैं तो इसे झूठा समझता हूँ।"53
52. इस बात से फ़िरऔन का तत्पर्य स्पष्ट है कि यह नहीं था और नहीं हो सकता था कि मैं ही तुम्हारा और ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला हूँ, क्योंकि ऐसी बात सिर्फ एक पागल ही के मुंह से निकल सकती थी। और इसी तरह इसका अर्थ यह भी नहीं हो सकता था कि मेरे सिवा तुम्हारा कोई उपास्य नहीं है, क्योंकि मिस्त्रियों के धर्म में बहुत-से उपास्यों की पूजा होती थी और स्वयं फ़िरऔन को जिस आधार पर उपास्य होने का पद मिला हुआ था वह भी सिर्फ यह था कि उसे सूरज देवता का अवतार माना जाता था। सबसे बड़ी गवाही क़ुरआन मजीद की मौजूद है कि फ़िरऔन स्वयं बहुत-से देवताओं का उपासक था और फ़िरऔन की कौम के सरदारों ने कहा और क्या तू मूसा और उसकी क़ौम को छूट दे देगा कि देश में बिगाड़ फैलाएँ और तुझे और तेरे उपास्यों को छोड़ दें?" (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 127) इसलिए कहा जा सकता है कि अवश्य ही यहाँ फ़िरऔन ने शब्द 'खुदा' अपने लिए 'पैदा करनेवाले और उपास्य के अर्थ में नहीं, बल्कि इस अर्थ में इस्तेमाल किया था कि वही शासक है, उसी का आज्ञानुपालन किया जाए। उसका उद्देश्य यह था कि मिस्र को इस धरती का मालिक मैं हूँ, यहाँ मेरा हुक्म चलेगा। मेरा ही क़ानून यहाँ माना जाएगा। मेरी ज़ात ही यहाँ आदेश देने और मना करने का स्रोत मानी जाएगी। कोई यहाँ दूसरा हुक्म चलाने का अधिकारी नहीं है। यह मूसा कौन है जो संसारों के पालनहार का नुमाइन्दा बनकर आ खड़ा हुआ है और मुझे इस तरह हुक्म सुना रहा है कि मानो मूल शासक यह है और मैं इसके अधीन हूँ। इस दृष्टि से अगर विचार किया जाए तो फ़िरऔन की स्थिति उन राज्यों की स्थिति से कुछ भी अलग नहीं है जो अल्लाह के पैग़म्बर को लाई शरीअत से आज़ाद और स्वाधीन होकर अपने राजनैतिक और क़ानूनी सम्प्रभुत्व के दावेदार हैं। वे चाहे क़ानून का स्रोत और हुक्म देने और मना करने का अधिकारी किसी बादशाह को मानें या कौम की मज़ों को, बहरहाल जब तक वे यह नीति अपनाए हुए हैं कि मुल्क में अल्लाह और उसके रसूल का नहीं, बल्कि हमारा हुक्म चलेगा, उस वक़्त तक उनके और फ़िरऔन की नीति में कोई सैद्धान्तिक अन्तर नहीं है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता०हा० ,टिप्पणी 21)
53. यह उसी प्रकार की मनोवृत्ति थी जैसा कि वर्तमान समय के रूसी कम्युनिस्ट ज़ाहिर कर रहे हैं। ये सूटनिक (Sputnik) और लूनिक (Lunic) छोड़कर दुनिया को खबर देते हैं कि हमारी इन गेंदों को ऊपर कहीं अन्लाह नहीं मिला। वह मूर्ख एक मीनारे पर चढ़कर अल्लाह को झांकना चाहता था। इससे मालूम हुआ कि गुमराह लोगों की बुद्धि की उड़ान साढ़े तीन हजार वर्ष पहले जहाँ तक थी, आज भी वहीं तक है। मालूम नहीं कि किस मूर्ख ने इनको ख़बर दी थी कि ख़ुदापरस्त लोग जिस स्वामी को मानते हैं, वह उनके अक़ीदे को रौशनी में ऊपर कहीं बैठा हुआ है और इस अथाह सृष्टि में ज़मीन से कुछ हज़ार फ़ीट या कुछ लाख मील ऊपर उठकर अगर वह इन्हें न मिले तो यह बात मानो बिल्कुल सिद्ध हो जाएगी कि वह कहीं मौजूद नहीं है। कुरआन यहाँ यह नहीं कहता कि फ़िरऔन ने सच में एक इमारत इस उद्देश्य के लिए बनवाई थी और उसपर चढ़कर अल्लाह को झाँकने की कोशिश भी की थी, बल्कि वह उसके सिर्फ इस कथन को नक़ल करता है। इससे प्रत्यक्ष में यही मालम होता है कि उसने व्यावहारिक रूप से यह मूर्खता नहीं की थी। इन बातों से उनका उद्देश्य सिर्फ मूर्ख बनाना था।
وَٱسۡتَكۡبَرَ هُوَ وَجُنُودُهُۥ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ إِلَيۡنَا لَا يُرۡجَعُونَ ۝ 38
(39) उसने और उसकी फ़ौजों ने ज़मीन में बिना किसी अधिकार के अपनी बड़ाई का घमंड किया54 और समझे कि उन्हें कभी हमारी ओर पलटना नहीं है।55
54. अर्थात् बड़ाई का अधिकार तो इस सृष्टि में सिर्फ़ अल्लाह रब्बुल आलमीन को है मगर फ़िरऔन और उसको फ़ौज ज़मीन के एक ज़रा-से क्षेत्र में थोड़ी-सी सत्ता पाकर यह समझ बैठे कि यहाँ बड़े बस वही हैं।
55. अर्थात् उन्होंने अपने आपको उत्तरदायी नहीं समझा और यह मान करके स्वाधीनतापूर्वक काम करने लगे कि उन्हें जाकर किसी के सामने उत्तर नहीं देना है।
فَأَخَذۡنَٰهُ وَجُنُودَهُۥ فَنَبَذۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 39
(40) अन्तत: हमने उसे और उसकी फ़ौजों को पकड़ा और समुद्र में फेंक दिया।56 अब देख लो कि इन ज़ालिमों का कैसा अंजाम हुआ।
56. इन शब्दों में अल्लाह ने उनके झूठे अहंकार की तुलना में उनकी अस्तित्वहीनता और उनकी तुच्छता का चित्र खींच दिया है। वे अपने आपको बड़ी चीज़ समझ बैठे थे, मगर जब वह मोहलत जो अल्लाह ने उनको सन्मार्ग पर आने के लिए दी थी, सामप्त हो गई तो उन्हें इस तरह उठाकर समुद्र में फेंक दिया गया जैसे कूड़ा-करकट फेंका जाता है।
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلنَّارِۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا يُنصَرُونَ ۝ 40
(41) हमने इन्हें जहन्नम की ओर बुलानेवाले पेशवा बना दिया।57 और क्रियामत के दिन वे कहीं से कोई मदद न पा सकेंगे।
57. अर्थात् वे बाद की नस्लों के लिए एक मिसाल छोड़कर गए हैं कि जुल्म यूँ किया जाता है, सत्य के इंकार पर डट जाने और अन्तिम समय तक डटे रहने की शान यह होती है और सच्चाई के मुकाबले में झूठ पर जमे लोग ऐसे-ऐसे हथियार इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सब रास्ते दुनिया को दिखाकर वे जहन्नम की ओर जा चुके हैं और उनके उत्तराधिकारी अब उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलकर उसी मंज़िल की ओर लपके चले कि जा रहे हैं।
وَأَتۡبَعۡنَٰهُمۡ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا لَعۡنَةٗۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ هُم مِّنَ ٱلۡمَقۡبُوحِينَ ۝ 41
(42) हमने इस दुनिया में उनके पीछे लानत लगा दी और क़ियामत के दिन वे बड़ी बदहाली में ग्रस्त होंगे।58
58. मूल शब्द हैं क़ियामत के दिन वे 'मक़बूहीन' में से होंगे। इसके कई अर्थ हो सकते हैं -वे धुत्कारे और फिटकार हुए होंगे, अल्लाह की रहमत से बिल्कुल महरूम कर दिए जाएंगे, उनकी बुरी गत बनाई जाएगी और उनके चेहरे बिगाड़ दिए जाएंगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ ٱلۡأُولَىٰ بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 42
(43) पिछली नस्लों को नष्ट करने के बाद हमने मूसा को किताब प्रदान की, लोगों के लिए समझ-बूझ का सामान बनाकर, हिदायत और रहमत बनाकर, ताकि शायद लोग शिक्षा प्राप्त करें।59
59. अर्थात् पिछली नस्लें जब पिछले नबियों की शिक्षाओं से विमुखता का बुरा नतीजा भुगत चुकीं और उनका आखिरी अंजाम वह कुछ हो चुका जो फ़िरऔन और उसकी फौजों ने देखा, तो इसके बाद मूसा (अलैहि०) को किताब दी गई ताकि मानवता का एक नया युग शुरू हो ।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلۡغَرۡبِيِّ إِذۡ قَضَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَى ٱلۡأَمۡرَ وَمَا كُنتَ مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 43
(44) (ऐ नबी ) तुम उस वक़्त पश्चिमी कोने में मौजूद न थे60 जब हमने मूसा को शरीअत का यह फ़रमान दिया और न तुम गवाहों में शामिल थे,61
60. पश्चिमी कोने से तात्पर्य सीना प्रायद्वीप पहाड़ है जिसपर हज़ा मूसा (अलैहि.) को शरीअत के आदेश दिए गए थे। यह क्षेत्र हिजाज़ के पश्चिमी भाग में स्थित है।
61. अर्थात् बनी इसराईल के उन सत्तर प्रतिनिधियों में जिनको शरीअत की पाबन्दी का वचन लेने लिए हजरत मूसा के साथ बुलाया गया था। (सूरा-7 आराफ, आयत 155 में उन प्रतिनिधियों के बुलाए जाने का उल्लेख हो चुका है और बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय 24 में भी उसका उल्लेख मौजूद है।)
وَلَٰكِنَّآ أَنشَأۡنَا قُرُونٗا فَتَطَاوَلَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۚ وَمَا كُنتَ ثَاوِيٗا فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ تَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَا وَلَٰكِنَّا كُنَّا مُرۡسِلِينَ ۝ 44
(45) बल्कि इसके बाद (तुम्हारे ज़माने तक) हम बहुत-सी नस्लें उठा चुके हैं और उनपर बहुत ज़माना बीत चुका है।62 तुम मदयनवालों के दर्मियान भी मौजूद न थे कि उनको हमारी आयतें सुना रहे होते63, मगर (उस वक्त की ये ख़बरे) भेजनेवाले हम है।
62. अर्थात् तुम्हारे पास इन जानकारियों को प्राप्त करने का कोई सीधा-साधन नहीं था। आज जो तुम इन घटनाओं को दो हज़ार वर्ष से ज़्यादा मुद्दत गुज़र जाने के बाद इस तरह बयान कर रहे हो कि मानो ये सब तुम्हारी आँखों देखा हाल है, इसका कोई कारण इसके सिवा नहीं है कि अल्लाह की वह्य के ज़रिये से तुमको ये जानकारियाँ पहुंचाई जा रही हैं।
63. अर्थात् जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन पहुँचे और जो कुछ वहाँ उनके साथ पेश आया और दस वर्ष गुज़ारकर जब वे वहाँ से रवाना हुए, उस वक्त तुम्हारा कहीं पता भी न था। तुम उस वक़्त मदयन की बस्तियों में वह काम नहीं कर रहे थे जो आज मक्का की गलियों में कर रहे हो। उन घटनाओं का उल्लेख तुम कुछ इस कारण से नहीं कर रहे हो कि यह तुम्हारी आँखों देखी बात है, बल्कि यह ज्ञान भी तुमको हमारी वह्य के ज़रिये से ही प्राप्त हुआ है।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلطُّورِ إِذۡ نَادَيۡنَا وَلَٰكِن رَّحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 45
(46) और तुम तूर के दामन में भी उस वक़्त मौजूद न थे जब हमने (मूसा को पहली बार) पुकारा था, मगर यह तुम्हारे रब की रहमत है (कि तुमको ये जानकारियाँ दी जा रही हैं) 64 ताकि तुम उन लोगों को सचेत करो जिनके पास तुमसे पहले कोई सचेत करनेवाला नहीं आया,65 शायद कि वे होश में आएँ।
64. ये तीनों बातें मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत के प्रमाण में प्रस्तुत की गई हैं। जिस समय ये बातें कही गई थीं उस समय मक्का के तमाम सरदार और आम विधर्मी लोग इस बात पर पूरी तरह तुले हुए थे कि किसी न किसी तरह आपको गैर नबी और (अल्लाह की पनाह) झूठा दावेदार साबित कर दें। उनकी मदद के लिए यहूदी उलमा और ईसाइयों के राहिब भी हिजाज़ की बस्तियों में मौजूद थे और मुहम्मद (सल्ल०) भी उसी मक्का के रहनेवाले थे और आपको ज़िंदगी का कोई गोशा लोगों से छिपा हुआ न था । यही कारण है कि जिस समय इस खुली चुनौती के रूप में प्यारे नबी (सल्ल०) को नुवूवत के प्रमाण के तौर पर ये तीन बातें फ़रमाई गई, उस वक्त मक्का और हिजाज़ और पूरे अरब में कोई आदमी भी उठकर वह बेहूदा बात न कह सका जो आज के प्राच्यविद् कहते हैं। यद्यपि ये झूठ गढ़ने में वे लोग इनसे कुछ कम न थे, लेकिन ऐसा सफेद झूठ आख़िर वे कैसे बोल सकते थे जो एक क्षण के लिए भी न चल सकता हो । वे कैसे कहते कि ऐ मुहम्मद ! तुम फला-फलाँ यहूदी आलिमों और ईसाई राहिबों से यह जानकारियाँ प्राप्त कर लाए हो, क्योंकि पूरे देश में वे इस उद्देश्य के लिए किसी का नाम नहीं ले सकते थे। जिसका नाम भी वे लेते, तुरन्त ही यह सिद्ध हो जाता कि इससे नबी (सल्ल०) ने कोई जानकारी प्राप्त नहीं की है। कुरआन ने यह चुनौती इसी एक जगह नहीं दी है, बल्कि बहुत-सी जगहों पर अलग-अलग किस्सों के सिलसिले में दी है। (देखिए सूरा-3 आले इमरान, आयत 44, सूरा-12 यूसुफ़ आयत 102, सूरा-11 हूद, आयत 49) इस चीज़ की पुनरावृत्ति से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुरआन मजीद अपने अल्लाह की ओर से उतरे हुए होने और मुहम्मद (सल्ल०) को अल्लाह के रसूल होने पर जो बड़ी-बड़ी दलीलें देता था उनमें एक यह दलील थी कि सैंकड़ों हज़ारों वर्ष पहले की गुज़री हुई घटनाओं के जो विवरण एक अनपढ़ के मुख से बयान हो रहे हैं, उनके ज्ञान का कोई स्रोत उसके पास वह्य के सिवा नहीं है।
65. अरब में हज़रत इस्माईल और हज़रत शुऐब (अलैहि०) के बाद कोई नबी नहीं आया था। लगभग दो हज़ार वर्ष की इस लम्बी अवधि में बाहर के नबियों की शिक्षाएँ तो ज़रूर वहाँ पहुंची, जैसे हज़रत मूसा, हज़रत सुलैमान और हज़रत ईसा (अलैहि०) की शिक्षाएँ, किन्तु किसी नबी का विशेष रूप से भेजा जाना इस धरती पर नहीं हुआ था।
وَلَوۡلَآ أَن تُصِيبَهُم مُّصِيبَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَيَقُولُواْ رَبَّنَا لَوۡلَآ أَرۡسَلۡتَ إِلَيۡنَا رَسُولٗا فَنَتَّبِعَ ءَايَٰتِكَ وَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(47) (और यह हमने इसलिए किया कि कहीं ऐसा न हो कि उनके अपने किए-करतूतों की बदौलत कोई मुसीबत जब उनपर आए तो वे कहें, “ऐ पालनहार ! तूने क्यों न हमारी ओर कोई रसूल भेजा कि हम तेरी आयतों की पैरवी करते और ईमानवालों में से होते।"66
66. इसी चीज़ को क़ुरआन मजीद बहुत-सी जगहों पर रसूलों को भेजे जाने की वजह के रूप में प्रस्तुत करता है, मगर इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि इस उद्देश्य के लिए हर समय हर जगह एक रसूल आना चाहिए। जब तक दुनिया में एक रसूल का सन्देश अपनी सही शक्ल में मौजूद रहे और लोगों तक उसके पहुँचने के साधन मौजूद रहें, किसी नए रसूल की ज़रूरत नहीं रहती अलावा इसके कि पिछले सन्देश में किसी बढ़ोत्तरी की और कोई नया सन्देश देने की ज़रूरत हो। अलबत्ता जब नबियों की शिक्षाएँ भुला दी जाएँ या गुमराहियों में गड्डमड्ड होकर हिदायत का जरिया बनने के योग्य न रहे तब लोगों के लिए यह कारण पेश करने का मौका पैदा हो जाता है कि हमें सत्य व असत्य के अन्तर से अवगत करने और सही रास्ता बताने का कोई प्रबन्ध सिरे से मौजूद ही नहीं था, फिर भला हम कैसे हिदायत पा सकते थे। इसी कारण को समाप्त करने के लिए अल्लाह ऐसे हालात में नबी भेजता है ताकि उसके बाद जो आदमी भी ग़लत राह पर चले, वह अपनी पथभ्रष्टता का ज़िम्मेदार ठहराया जा सके।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُواْ لَوۡلَآ أُوتِيَ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ مُوسَىٰٓۚ أَوَلَمۡ يَكۡفُرُواْ بِمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۖ قَالُواْ سِحۡرَانِ تَظَٰهَرَا وَقَالُوٓاْ إِنَّا بِكُلّٖ كَٰفِرُونَ ۝ 47
(48) मगर जब हमारे यहाँ से सत्य उनके पास आ गया तो वे कहने लगे, "क्यों न दिया गया इसको वही कुछ जो मूसा को दिया गया था?"67 क्या ये लोग उसका इंकार नहीं कर चुके हैं जो इससे पहले मूसा को दिया गया था?68 उन्होने कहा, “दोनों जादू हैं69, जो एक-दूसरे की मदद करते हैं।" और कहा, "हम किसी को नहीं मानते।"
67. अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) को वे सारे मोजज़े क्यों न दिए गए जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को दिए गए थे। यह भी लाठी को अजगर बनाकर हमें दिखाते। इनका हाथ भी सूरज की तरह चमक उठता और ये भी पत्थर को तरिक्षयों पर लिखे हुए आदेश लाकर हमें देते।
68. यह उनकी आपत्तियों का जवाब है। अर्थ यह है कि इन मोजज़ों के बावजूद मूसा ही पर तुम कब ईमान लाए थे जो अब मुहम्मद (सल्ल०) से उनकी मांग कर रहे हो। तुम स्वयं कह रहे हो कि मूसा को ये मोजज़े दिए गए थे, मगर फिर भी उनको नबी मानकर उनकी पैरवी तुमने कभी नहीं कबूल की। सूरा-34 सबा, आयत 31 में भी मक्का के विधर्मियों का यह कथन नक़ल किया गया है कि “न हम इस क़ुरआन को मानेंगे,न उन किताबों को जो इससे पहले आई हुई हैं।"
قُلۡ فَأۡتُواْ بِكِتَٰبٖ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ هُوَ أَهۡدَىٰ مِنۡهُمَآ أَتَّبِعۡهُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 48
(49) ऐ नबी ! इनसे कहो, “अच्छा तो लाओ अल्लाह की ओर से कोई किताब जो इन दोनों से अधिक हिदायत देनेवाली हो अगर तुम सच्चे हो, मैं उसी की पैरवी इख्तियार करूँगा।"70
70. अर्थात् मुझे तो आदेश का पालन करना है बशर्ते कि वह किसी की मनगढ़त न हो, बल्कि अल्लाह की ओर से सच्चा मार्गदर्शन हो। अगर तुम्हारे पास अल्लाह की कोई किताब मौजूद है जो कुरआन और तौरात से बेहतर रहनुमाई करती हो तो उसे तुमने छिपा क्यों रखा है? उसे सामने लाओ, मैं बे-झिझक उसका पालन स्वीकार कर लूँगा।
فَإِن لَّمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَكَ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يَتَّبِعُونَ أَهۡوَآءَهُمۡۚ وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّنِ ٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ بِغَيۡرِ هُدٗى مِّنَ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 49
(50) अब अगर वे तुम्हारी ये माँग नहीं पूरी करते तो समझ लो कि वास्तव में ये अपनी कामनाओं के पीछे चलनेवाले हैं, और उस आदमी से बढ़कर कौन गुमराह होगा जो अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना बस अपनी इच्छाओं के पीछे चले? अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को हरगिज़ रास्ता नहीं दिखाता
۞وَلَقَدۡ وَصَّلۡنَا لَهُمُ ٱلۡقَوۡلَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 50
(51) और (नसीहत की) बात निरंतर हम उन्हें पहुँचा चुके हैं, ताकि वे ग़फ़लत से जाग जाएँ।71
71. अर्थात् जहाँ तक नसीहत का हक़ अदा करने का ताल्लुक़ है हम इस कुरआन में निरंतर उसे अदा कर चुके हैं, लेकिन सन्मार्ग तो उसी को मिल सकता है जो दुराग्रह और हठधमी छोड़े और तास्सुबात से दिल को पाक करके सच्चाई की सीधी राह अपनाने को तैयार हो ।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِهِۦ هُم بِهِۦ يُؤۡمِنُونَ ۝ 51
(52) जिन लोगों को इससे पहले हमने किताब दी थी, वे इस (कुरआन) पर ईमान लाते हैं।72
72. इससे यह तात्पर्य नहीं है कि तमाम अहले किताब (यहूदी और ईसाई) इसपर ईमान लाते हैं, बल्कि यह संकेत वास्तव में उस घटना की ओर है जो इस सूरा के उतरने के समय में पेश आई थी और इससे मक्कावालों को शर्म दिलाना अपेक्षित है कि तुम अपने घर आई हुई नेमत को ठुकरा रहे हो, हालाँकि दूर-दूर के लोग इसकी ख़बर सुनकर आ रहे हैं और उसका मूल्य पहचानकर उससे लाभ उठा रहे हैं। [वह घटना जिस ओर यह संकेत है, यह थी] कि हब्शा की हिजरत के बाद जब नबी (सल्ल०) को नबी बनाए जाने और दावत और उनकी शिक्षाओं की ख़बरें हबश के देश में फैली तो वहाँ से लगभग 20 ईसाइयों का एक दल वस्तुस्थिति जानने के लिए मक्का आया और नबी (सल्ल०) से मस्जिदे हराम में मिला । क़ुरैश के बहुत-से लोग भी यह माजरा देखकर आस-पास खड़े हो गए। दल के लोगों ने नबी (सल्ल०) से कुछ सवाल किए जिनका आपने जवाब दिया। फिर आपने उनको इस्लाम की ओर दावत दी और क़ुरआन की आयतें उनके सामने पढ़ीं। कुरआन सुनकर उनकी आँखों से आँसू जारी हो गए और उन्होंने उसके ईशवाणी होने की पुष्टि की और नबी (सल्ल.) पर ईमान ले आए। जब मज्लिस बर्ख़ास्त हुई तो अबू जल और उसके कुछ साथियों ने उन लोगों को रास्ते में जा लिया और उनकी घोर निंदा की । इसपर उन्होंने उत्तर सन दिया कि "सलाम है भाइयो तुमको । हम तुम्हारे साथ अज्ञानता की नीति नहीं अपना सकते । हमें हमारे तरीक़े पर चलने दो और तुम अपने तरीके पर चलते रहो। हम अपने आपको जान-बूझकर भलाई से महरूम नहीं रख सकते ।" (सौरत इब्ने हिशाम, भाग 2, पृ० 32,अल-बिदाया वन्निहाया, भाग 3, पृ०82) और विस्तार के लिए देखिए, सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 123
وَإِذَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِهِۦٓ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّنَآ إِنَّا كُنَّا مِن قَبۡلِهِۦ مُسۡلِمِينَ ۝ 52
(53) और जब यह उनको सुनाया जाता है तो वे कहते हैं कि "हम इसपर ईमान लाए. यह सच में सत्य है, हमारे रब की ओर से. हम तो पहले ही से मुस्लिम हैं।''73
73. अर्थात् इससे पहले भी हम नबियों और आसमानी किताबों के माननेवाले थे, इसलिए इस्लाम के सिवा हमारा कोई और दीन न था और अब जो नबी अल्लाह की ओर से किताब लेकर आया है, उसे भी हमने मान लिया है। इसलिए वास्तव में हमारे दीन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, बल्कि जैसे हम पहले मुसलमान थे, वैसे ही अब भी मुसलमान हैं। यह कथन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि इस्लाम केवल उस दीन का नाम नहीं है जिसे मुहम्मद (सल्ल०) लेकर आए हैं और मुस्लिम' शन्द सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल०) के माननेवालों तक सीमित नहीं है, बल्कि हमेशा से तमाम नबियों का दीन यही इस्लाम था और हर ज़माने में इन सबके पैरवी करनेवाले मुसलमान ही थे। ये मुसलमान अगर कभी क़ाफ़िर (विधर्मी) हुए तो सिर्फ़ उस वक़्त जबकि किसी बाद के आनेवाले सच्चे नबी को मानने से उन्होंने इंकार किया। लेकिन जो लोग पहले नबी को मानते थे और बाद के आनेवाले नबी पर भी ईमान ले आए उनके इस्लाम में कोई क्रमभंगता उत्पन्न नहीं हुई। वे जैसे मुसलमान पहले थे, वैसे ही बाद में रहे । क़ुरआन सिर्फ़ इसी एक ही जगह पर नहीं, बल्कि बीसियों जगहों पर इस मूल तथ्य को बयान करता है कि मूल धर्म सिर्फ़ 'इस्लाम' (अल्लाह का आज्ञापालन) है और अल्लाह की सृष्टि में अल्लाह को पैदा की हुई चीज़ों के लिए इसके सिवा कोई दूसरा दोन हो नहीं सकता और सृष्टि के आरंभ ही से जो नबी भी इंसानों के मार्गदर्शन के लिए आया है वह यही दीन लेकर आया है, और यह कि नबी हमेशा ख़ुद मुस्लिम रहे हैं, अपने माननेवालों को उन्होंने मुस्लिम ही बनकर रहने की ताकीद की है और उनके बे सब अनुयायी जिन्होंने पैग़म्बर के ज़रिये से आए हुए ईश-विधान के आगे सर झुका दिया, हर ज़माने में मुस्लिम ही थे। इस सिलसिले में मिसाल के तौर पर देखिए सूरा आले इमरान (आयत 19 और 67 और आयत 85), सूरा-10, यूनुस (आयत 72) सूरा-7, बक़रा (आयतें 131-133), सूरा-12 यूसुफ़ (आयत 101), सूरा-51 ज़रियात (आयत 36), सूरा-10 यूनुस (आयत 84 और आयत 90), सूरा-27 अन-नम्ल (आयत 44).सूरा-5 अल-माइदा (आयत 111)। इस मामले में अगर कोई सन्देह इस आधार पर किया जाए कि अरबी भाषा के शब्द 'इस्लाम' और 'मुस्लिम' इन अलग-अलग देशों और अलग-अलग भाषाओं में कैसे प्रयुक्त हो सकते थे, तो स्पष्ट है कि यह केवल एक नासमझी की बात होगी, क्योंकि असल एतिबार अरबी के इन शब्दों का नहीं बल्कि उस अर्थ का है जिसके लिए ये शब्द अरबी में इस्तेमाल किए जाते हैं। वास्तव में जो बात इन आयतों में बताई गई है वह यह है कि अल्लाह की ओर से आया हुआ सच्चा दीन ईसावाद, मूसावाद या मुहम्मदवाद नहीं है, बल्कि नबियों और आसमानी किताबों के ज़रिये से आए हुए अल्लाह के फरमान के आगे आज्ञापालन के लिए सर झुका देना है, और यह रवैया जहाँ अल्लाह के जिस बन्दे ने भी जिस ज़माने में अपनाया है, वह एक ही विश्वव्यापी, शाश्वत और आदिकालीन तीन सत्य धर्म की पैरवी करनेवाला है। इस दीन को जिन लोगों ने ठीक-ठीक होशो-हवास की निष्ठा के साथ अपनाया है उनके लिए मूसा के बाद मसीह को और मसीह के बाद मुहम्मद (सल्ल०) को मानना धर्म बदलना नहीं, बल्कि यह सत्यधर्म के पालन की तार्किक एवं स्वाभाविक अपेक्षा है।
أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡتَوۡنَ أَجۡرَهُم مَّرَّتَيۡنِ بِمَا صَبَرُواْ وَيَدۡرَءُونَ بِٱلۡحَسَنَةِ ٱلسَّيِّئَةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 53
(54) ये वे लोग हैं जिन्हें इनका बदला दो बार दिया जाएगा74 उस धैर्य और जमाव के बदले जो उन्होंने दिखाई,75 वे बुराई को भलाई से दूर करते हैं76 और जो कुछ रोज़ी हमने उन्हें दी है उसमें से ख़र्च करते हैं77
74. अर्थात् एक बदला [पिछली किताबों पर ईमान लाने का और दूसरा बदला क़ुरआन पर ईमान लाने का ।] यही बात उस हदीस में बयान की गई है जो बुख़ारी व मुस्लिम ने हज़रत अबू मूसा अशअरी (रजि०) से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तीन आदमी हैं जिनको दोहरा बदला मिलेगा। इनमें से एक वह है जो अहले किताब में से था और अपने नबी पर ईमान रखता था, फिर मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाया।"
75. अर्थात् इन्हें यह दोहरा बदला इस बात का मिलेगा कि वे क़ौमी व नस्ली और राष्ट्रीय व गिरोही तास्सुबात से बचकर वास्तविक सत्यधर्म पर जमे रहे और नये नबी के आने पर जो कड़ी परीक्षा सामने आई, उसमें उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वास्तव में वे मसीहपरस्त नहीं, बल्कि खुदापरस्त थे और मसीह के व्यक्तित्व के पुजारी नहीं, बल्कि इस्लाम के अनुयायी थे, इसी कारण मसीह के बाद जब दूसरा नबी वही इस्लाम लेकर आया जिसे मसीह लाए थे तो उन्होंने निःसंकोच उसको रहनुमाई में इस्लाम का रास्ता अपना लिया।
وَإِذَا سَمِعُواْ ٱللَّغۡوَ أَعۡرَضُواْ عَنۡهُ وَقَالُواْ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡ لَا نَبۡتَغِي ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 54
(55) और जब उन्होंने बेहूदा बात सुनी78 तो यह कहकर उससे अलग हो गए कि "हमारे कर्म हमारे लिए और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए, तुमको सलाम है, हम अज्ञानियों का-सा तरीक़ा अपनाना नहीं चाहते।"
78. संकेत है उस बेहूदा बात (और लानत-मलामत) की ओर जो अबू जहल और उसके साथियों ने हब्शी ईसाइयों के उस दल से की थी जिसका उल्लेख ऊपर टिप्पणी 72 में गुज़र चुका है।
إِنَّكَ لَا تَهۡدِي مَنۡ أَحۡبَبۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 55
(56) ऐ नबी ! तुम जिसे चाहो उसे हिदायत नहीं दे सकते, मगर अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है, और वह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो हिदायत क़बूल करनेवाले हैं।79
79. [यद्यपि बात] नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करके (फ़रमाई गई है, मगर इससे) अभिप्रेत वास्तव में मक्का के विधर्मियों को लज्जा का एहसास कराना था। कहना यह था कि भाग्यहीनो । मातम करो अपनी हालत पर कि दूसरे कहाँ-कहाँ से आकर इस नेमत से फायदा उठा रहे हैं और तुम उस कृपा-स्रोत से, जो तुम्हारे अपने घर में बह रहा है, महरूम रह जाते हो। लेकिन कहा गया है इस ढंग से कि ऐ मुहम्मद (सल्ल०) ! तुम चाहते हो कि मेरी कौम के लोग, मेरे भाई-बन्द ! मेरे रिश्ते-नातेदार, इस अमृत से लाभ उठाएँ, लेकिन तुम्हारे चाहने से क्या होता है, हिदायत तो अल्लाह के अधिकार में है, वह इस नेमत से उन्हीं लोगों को मालामाल करता है जिनमें वह हिदायत कबूल करने की तत्परता पाता है, तुम्हारे रिश्तेदारों में अगर यह जौहर मौजूद न हो तो इन्हें यह अनुग्रह कैसे मिल सकता है। बुख़ारी-मुस्लिम की रिवायत है कि यह आयत अबू तालिब के मामले में उतरी है। उनका जब आख़िरी वक्त आया तो नबी (सल्ल०) ने अपनी हद तक बड़ी कोशिश की कि वह कलिमा 'ला-इला-ह इल्लल्लाह' पर ईमान ले आएँ ताकि उनका अन्त भलाई पर हो, मगर उन्होंन अब्दुल मुत्तालिब के मत ही पर जान देने को प्राथमिकता दी। इसपर अल्लाह ने फ़रमाया, 'जिससे तुम्हें मुहब्बत है, तुम उसे हिदायत नहीं दे सकते' लेकिन हदीसशास्त्रियों और क़ुरआन के टीकाकारों [की सामान्य और प्रचलित वर्णन-शैली के अनुसार] इस रिवायत और इस विषय की दूसरी रिवायतों से अनिवार्य रूप से यही नतीजा नहीं निकलता कि सूरा-28 कसस की यह आयत अबू तालिब की मृत्यु के वक़्त उतरी थी, बल्कि इनसे सिर्फ़ यह मालूम होता है कि इस आयत के विषय की सच्चाई सबसे ज्यादा इस अवसर पर ज़ाहिर हुई।
وَقَالُوٓاْ إِن نَّتَّبِعِ ٱلۡهُدَىٰ مَعَكَ نُتَخَطَّفۡ مِنۡ أَرۡضِنَآۚ أَوَلَمۡ نُمَكِّن لَّهُمۡ حَرَمًا ءَامِنٗا يُجۡبَىٰٓ إِلَيۡهِ ثَمَرَٰتُ كُلِّ شَيۡءٖ رِّزۡقٗا مِّن لَّدُنَّا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 56
(57) वे कहते हैं, “अगर हम तुम्हारे साथ इस हिदायत की पैरवी अपना लें तो अपनी ज़मीन से उचक लिए जाएंगे।"80 क्या यह सही नहीं है कि हमने एक शांतिपूर्ण हरम (गृह) को उनके लिए ठहरने की जगह बना दिया जिसकी ओर हर तरह के फल खिंचे चले आते हैं हमारी ओर से रोज़ी के तौर पर? मगर इनमें से अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।81
80. यह वह बात है जो क़ुरैश के विधर्मी क़ुरैशी इस्लाम क़बूल न करने के लिए, बहाने के तौर पर पेश करते थे और अगर ध्यान से देखा जाए तो मालूम होता है कि उनके क़ुफ्र व इंकार का सबसे महत्वपूर्ण मूल कारण यही था। क़ुरैश को शुरू-शुरू में जिस चीज़ ने अरब में महत्त्व दिया वह यह थी कि उनका हज़रत इस्माईल (अलैहि०) की औलाद से होना अरब वंशावली के अनुसार बिल्कुल साबित था और इस आधार पर उनका परिवार अरबों की निगाह में पीरज़ादों (पुरोहितों) का परिवार था। फिर जब कसई बिन किलाब के सुप्रयत्नों से ये लोग काबा के मुतवल्ली (अधिष्ठाता) हो गए और मक्का उनका निवास स्थान बन गया तो महत्त्व पहले से बहुत ज्यादा हो गया। इसलिए कि अब अरब के तमाम कबीलों में उनको मजहबी पेशवाई (धार्मिक गुरुवाई) का पद प्राप्त था और हज की वजह से अरब का कोई कबीला ऐमा न था जो उनसे ताल्लुक़ात न रखता हो। इस केन्द्रीय स्थिति से लाभ उठाकर कुरैश ने धीरे-धीरे कारोबारी तरक्की शुरू की और सौभाग्य से रूम व ईरान के राजनैतिक संघर्ष ने उनको विश्व व्यापार में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया, लेकिन अब के अशान्तिपूर्ण वातावरण में उनकी कारोबारी गतिविधियाँ इसके बिना न हो सकती थी कि व्यापारिक राजमार्ग जिन कबीलों के इलाकों में गुज़रते थे, उनके साथ कुरैश के गहरे ताल्लुकात हो । क़ुरैश के सरदार इस उद्देश्य के लिए सिर्फ अपने धार्मिक प्रभाव को ही काफ़ी न समझ सकते थे, इसके लिए उन्होंने तमाम क़बीलों के साथ समझौते कर रखे थे। इन परिस्थितियों में जब नबी (सल्ल०) को तौहीद की दावत (एकेश्वरवाद का आह्वान) उठी तो बाप-दादा के दीन के तास्सुब से भी बढ़कर जो चीज़ क़ुरैश के लिए उसके विरुद्ध भड़कने की वजह बनी, वह यह थी कि इस दावत (आह्वान) की वजह से उन्हें अपना माहित ख़तरे में नज़र आ रहा था। वे समझते थे कि ऐसा करते ही तमाम अरब हमारे विरुद्ध भड़क उठेगा, हमें काबा के मुतवल्ली रहने से बेदखल कर दिया जाएगा। बुतपरस्त क़बीलों के साथ हमारे वे तमाम समझौते और ताल्लुकात ख़त्म हो जाएंगे जिनकी वजह से हमारे तिजारती क़ाफ़िले रात-दिन अरब के के विभिन्न हिस्सों से गुज़रते हैं। इस तरह यह दीन हमारे मज़हबी प्रभाव का भी अन्त कर देगा और हमारी आर्थिक समृद्धि का भी।
81. यह अल्लाह की ओर से उनके बहाने का पहला जवाब है । इसका अर्थ यह है कि यह हरम जिसके आन व आमान और जिसकी केन्द्रीयता के कारण आज तुम इस योग्य हो कि दुनिया भर का व्यापारिक का माल इस बंजर घाटी में खिंचा चला आ रहा है, क्या उसको यह शान्ति और केन्द्रीयता का स्थान तुम्हारे किसी भान उपाय से प्राप्त हुआ है? अब यह अल्लाह की दी हुई बरकत नहीं तो और क्या है कि पच्चीस सदियों से यह जगह अरब का केन्द्र बनी हुई है, ज़बरदस्त अशान्ति के माहौल में देश का सिर्फ़ यही हिस्सा ऐसा है जहाँ अमन प्राप्त है। इसी नेमत का फल तो है कि तुम अरब के सरदार बने हुए हो और दुनिया के व्यापार का एक बड़ा हिस्सा तुम्हारे कब्जे में है। अब क्या तुम यह समझते हो कि जिस अल्लाह ने यह नेमत तुम्हें प्रदान की है, उससे अलग और विद्रोही होकर तुम फलो-फूलोगे, मगर उसके दीन की पैरवी अपनाते ही बर्बाद हो जाओगे?
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةِۭ بَطِرَتۡ مَعِيشَتَهَاۖ فَتِلۡكَ مَسَٰكِنُهُمۡ لَمۡ تُسۡكَن مِّنۢ بَعۡدِهِمۡ إِلَّا قَلِيلٗاۖ وَكُنَّا نَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 57
(58) और कितनी ही ऐसी बस्तियाँ हम नष्ट कर चुके हैं जिनके लोग अपने आर्थिक सम्पन्नता पर इतरा गए थे। सो देख लो, वे उनके निवास स्थान पड़े हुए हैं जिनमें उनके बाद कम ही कोई बसा है, अन्तत: हम ही वारिस होकर रहे ।82
82. यह उनके बहाने का दूसरा जवाब है। इसका अर्थ यह है कि जिस माल व दौलत और समृद्धि पर तुम इतराए हुए हो और जिसके खोए जाने के खतरे से असत्य पर जमना और सत्य से मुंह मोड़ना चाहते हो, यही चीज़ कभी आद और समूद और सबा और मदयन और लूत की क़ौम के लोगों को भी प्राप्त थी। फिर क्या यह चीज़ उनको विनाश से बचा सकी? आखिर जीवन स्तर की उच्चता ही तो एक मात्र उद्देश्य नहीं है कि आदमी सत्य व असत्य से बेपरवाह होकर बस उसी के पीछे पड़ा रहे और सीधे रास्ते को सिर्फ़ इसलिए क़बूल करने से इंकार कर दे कि ऐसा करने से यह वांच्छित हीरा हाथ से जाने का ख़तरा है। क्या तुम्हरे पास इसकी कोई ज़मानत है कि जिन गुमराहियों और बदकारियों ने पिछली ख़ुशहाल क़ौमों को तबाह किया, उन्हीं पर आग्रह करके तुम बचे रह जाओगे और उनकी तरह तुम्हारी शामत कभी न आएगी?
وَمَا كَانَ رَبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ حَتَّىٰ يَبۡعَثَ فِيٓ أُمِّهَا رَسُولٗا يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۚ وَمَا كُنَّا مُهۡلِكِي ٱلۡقُرَىٰٓ إِلَّا وَأَهۡلُهَا ظَٰلِمُونَ ۝ 58
(59) और तेरा रब बस्तियों को नष्ट करनेवाला न था जब तक कि उनके केन्द्र में एक रसूल न भेज देता जो उनको हमारी आयते सुनाता, और हम बस्तियों को नष्ट करनेवाले न थे जब तक कि उनके रहनेवाले ज़ालिम न हो जाते।83
83. यह उनके बहाने का तीसरा उत्तर है। पहले जो कौमें नष्ट हुई उनके लोग ज़ालिम हो चुके थे मगर अल्लाह ने उनको नष्ट करने से पहले अपने रसूल भेजकर उन्हें सावधान किया और जब उनकी चेतावनी पर भी वे अपने टेढ़ से बाज़ न आए तो उन्हें नष्ट कर दिया । यही मामला अब तुम्हारे सामने है, तुम भी ज़ालिम हो चुके हो और एक रसूल तुम्हें भी चेतावनी देने के लिए आ गया है। अब तुम कुफ़्र व इंकार का रवैया अपना करके अपने ऐश और अपनी समृद्धि को बचाओगे नहीं, बल्कि उलटा ख़तरे में डालोगे।
وَمَآ أُوتِيتُم مِّن شَيۡءٖ فَمَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتُهَاۚ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 59
(60) तुम लोगों को जो कुछ भी दिया गया है वह सिर्फ़ दुनिया की जिंदगी का सामान और उसकी शोभा है, और जो कुछ अल्लाह के पास है वह इससे बेहतर और बाकी रहनेवाला है। क्या तुम लोग बुद्धि से काम नहीं लेते?
أَفَمَن وَعَدۡنَٰهُ وَعۡدًا حَسَنٗا فَهُوَ لَٰقِيهِ كَمَن مَّتَّعۡنَٰهُ مَتَٰعَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا ثُمَّ هُوَ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مِنَ ٱلۡمُحۡضَرِينَ ۝ 60
(61) भला वह आदमी जिससे हमने अच्छा वादा किया हो और वह उसे पानेवाला हो, कभी उस आदमी की तरह हो सकता है जिसे हमने दुनिया की जिंदगी का सरो सामान दे दिया हो और फिर वह क़ियामत के दिन सज़ा के लिए पेश किया जानेवाला हो?84
84. यह उनके बहाने का चौथा उत्तर है। इस उत्तर को समझने के लिए पहले दो बातें अच्छी तरह मन में बिठा लीजिए- एक यह कि दुनिया का वर्तमान जीवन, जिसका परिमाण किसी के लिए भी कुछ सालों से अधिक नहीं होता, केवल एक सफ़र का अस्थाई मरहला है। वास्तविक जीवन जो सदा बाकी रहनेवाला है, आगे आना है। वर्तमान अस्थायी जीवन का ऐश अगर आदमी को इस मूल्य पर प्राप्त होता हो कि आगे की हमेशावाली जिंदगी में वह हमेशा के लिए फटेहाल और मुसीबत में पड़ा रहनेवाला बना रहे तो कोई भी बुद्धिवाला व्यक्ति यह घाटे का सौदा नहीं कर सकता। दूसरी बात यह है कि अल्लाह का दीन इंसान से यह मांग नहीं करता कि वह इस दुनिया के जीवन की पूँजी से लाभ न उठाए और उसकी शोभा को खामखाह लात ही मार दे। उसकी माँग केवल यह है कि वह दुनिया पर आख़िरत को प्राथमिकता दे। इन दो बातों को निगाह में रखकर देखिए कि अल्लाह ऊपर के वाक्यों में मक्का के कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) से क्या फ़रमाता है। वह यह नहीं फ़रमाता कि तुम अपना व्यापार लपेट दो, अपने कारोबार समाप्त कर दो और हमारे पैग़म्बर को मानकर फ़कीर हो जाओ, बल्कि वह यह फ़रमाता है यह दुनिया की पूँजी जिसपर तुम रीझे हुए हो, बहुत थोड़ी पूंजी है और बहुत थोड़े दिनों के लिए तुम इसका लाभ दुनिया व इस सांसारिक जीवन में उठा सकते हो। इसके विपरीत अल्लाह के यहाँ जो कुछ है, वह इसके मुकाबले में मात्रा (Quantity) और गुणवत्ता (Quality) की दृष्टि से भी बेहतर है और सदा बाक़ी रहनेवाला भी है। इसलिए तुम बड़ी मूर्खता करोगे अगर इस अस्थायी जीवन की थोड़ी-सी नेमतों से फ़ायदा उठाने के लिए वह रवैया अपनाओ जिसका नतीजा आखिरत के हमेशा के घाटे के रूप में तुम्हें भुगतना पड़े।
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 61
(62) और (भूल न जाएं ये लोग) उस दिन को जबकि वह इनको पुकारेगा और पूछेगा, “कहाँ हे मेरे वे शरीक जिनका तुम गुमान रखते थे?"85
85. यह वार्ता उसी चौथे जवाब के सिलसिले में है और इसका ताल्लुक ऊपर की आयत के अन्तिम वाक्य से है। इसमें यह बताया जा रहा है कि सिर्फ अपने सांसारिक लाभों के लिए शिर्क और बुतपरस्ती और नबी के इन्कार की जिस गुमराही पर ये लोग आग्रह कर रहे हैं, आखिरत के सदा के जीवन में कैसा बुरा नतीजा उन्हें देखना पड़ेगा।
قَالَ ٱلَّذِينَ حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَغۡوَيۡنَآ أَغۡوَيۡنَٰهُمۡ كَمَا غَوَيۡنَاۖ تَبَرَّأۡنَآ إِلَيۡكَۖ مَا كَانُوٓاْ إِيَّانَا يَعۡبُدُونَ ۝ 62
(63) यह कथन जिनपर चस्माँ होगा86 वे कहेंगे, "ऐ हमारे रब ! बेशक यही लोग हैं जिनको हमने गुमराह किया था, इन्हें हमने उसी तरह गुमराह किया जैसे हम स्वयं गुमराह हुए। हम आपके सामने अपने बरी होने का इज़हार करते हैं।87 ये हमारी तो बन्दगी नहीं करते थे।"88
86. इससे तात्पर्य वे जिन्न व इंसान शैतान हैं जिनको दुनिया में अल्लाह का शरीक बनाया गया था। जिनकी बात के मुक़ाबले में अल्लाह और उसके रसूलों की बात को रद्द किया गया था और जिनका भरोसा करके सीधे रास्ते को छोड़कर जिंदगी के ग़लत रास्ते अपनाए गए थे। ऐसे लोगों को चाहे किसी ने इलाह (माबूद) और रब (पालनहार) कहा हो या न कहा हो, बहरहाल जब उनका आज्ञापालन और पैरवी उस तरह की गई जैसी अल्लाह की होनी चाहिए तो ज़रूरी तौर पर उन्हें ईश्वरत्व में शरीक किया गया। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-18 कहफ़, टिप्पणी 50)
87. अर्थात् हमने ज़बरदस्ती इनको गुमराह नहीं किया था, हमने न इनसे देखने और सुनने की शक्ति छीनी थी, न इनसे सोचने-समझने की क्षमताएँ छीन ली थीं और न ऐसी कोई शक्ल पेश आई थी कि ये तो सीधे रास्ते की ओर जाना चाहते हों, मगर हम उनका हाथ पकड़कर बलपूर्वक उन्हें ग़लत रास्ते पर खींच ले गए हों, बल्कि जिस तरह हम स्वयं अपनी मर्जी से गुमराह हुए थे, उसी तरह हमने इनके सामने भी गुमराही पेश की और इन्होंने अपनी मर्जी से इसको अपनाया। इसलिए हम इनकी ज़िम्मेदारी स्वीकार नहीं करते। हम अपने कर्म के ज़िम्मेदार हैं और ये अपने कर्म के ज़िम्मेदार। यहाँ यह सूक्ष्म बिंदु ध्यान देने योग्य है कि अल्लाह सवाल करेगा शरीक ठहरानेवालों से, मगर इससे पहले कि ये कुछ बोलें, जबाब देने लगेंगे वे जिनको शरीक ठहराया गया था। इसकी वजह यह है कि जब आम मुशिकों से यह सवाल किया जाएगा तो उनके लीडर और पेशवा महसूस करेंगे कि अब आ गई हमारी शामत । यह हमारे पिछले अनुयायी ज़रूर कहेंगे कि ये लोग हमारी गुमराही के असल ज़िम्मेदार हैं। इसलिए अनुयायियों के बोलने से पहले वे ख़ुद आगे बढ़कर अपनी सफ़ाई पेश करनी शुरू कर देंगे।
وَقِيلَ ٱدۡعُواْ شُرَكَآءَكُمۡ فَدَعَوۡهُمۡ فَلَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُمۡ وَرَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۚ لَوۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ يَهۡتَدُونَ ۝ 63
(64) फिर इनसे कहा जाएगा कि पुकारो अब अपने ठहराए हुए शरीकों को।89 ये उन्हें पुकारेंगे, मगर वे इनको कोई जवाब नहीं देंगे, और ये लोग अज़ाब देख लेगे। काश, ये सन्मार्ग ग्रहण करनेवाले होते ।
89. अर्थात् इन्हें मदद के लिए पुकारो। दुनिया में तो तुमने उनपर भरोसा करके हमारी बात रद्द की थी। अब यहाँ इनसे कहो कि आएँ और तुम्हारी मदद करें और तुम्हें अज़ाब से बचाएँ।
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ مَاذَآ أَجَبۡتُمُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 64
(65) और (भूलें नहीं ये लोग) वह दिन जबकि वह इनको पुकारेगा और पूछेगा कि “जो रसूल भेजे गए थे उन्हें तुमने क्या जवाब दिया था?"
فَعَمِيَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَنۢبَآءُ يَوۡمَئِذٖ فَهُمۡ لَا يَتَسَآءَلُونَ ۝ 65
(66) उस वक़्त कोई जवाब इनको न सूझेगा और न ये आपस में एक-दूसरे से पूछ ही सकेंगे।
فَأَمَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَعَسَىٰٓ أَن يَكُونَ مِنَ ٱلۡمُفۡلِحِينَ ۝ 66
(67) अलबत्ता जिसने आज तौबा कर ली और ईमान ले आया और भले कर्म किए वहीं यह आशा कर सकता है कि वहाँ सफलता पानेवालों में से होगा।
وَرَبُّكَ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُ وَيَخۡتَارُۗ مَا كَانَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 67
(68) तेरा रब पैदा करता है जो कुछ चाहता है और (वह खुद ही अपने काम के लिए जिसे चाहता है) चुन लेता है। यह चुनाव इन लोगों के करने का काम नहीं है।90 अल्लाह पाक है और उच्चतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं ।
90. यह इर्शाद वास्तव में शिर्क के खंडन में है। मुश्रिकों ने अल्लाह की मलूकात में से जो अनगिनत उपास्य अपने लिए बना लिए हैं और उनको अपनी ओर से जो गुण, मर्तबे और पद सौंप रखे हैं, इसपर आपत्ति करते हुए अल्लाह फ़रमाता है कि अपने पैदा किए हुए इंसानों, फ़रिश्तों, जिन्नों और दूसरे बन्दों में से हम ख़ुद जिसको जैसे चाहते हैं, ख़ूबियाँ, क्षमताएँ और शक्तियाँ प्रदान करते हैं और जो काम जिससे लेना चाहते हैं, लेते हैं। ये अधिकार आखिर इन मुश्रिकों को कैसे और कहाँ से मिल गए कि मेरे बन्दों में से जिसको चाहें 'मुश्किल कुशा' जिसे चाहें 'गंज बख्श' और जिसे चाहें 'फ़रियाद-रस' करार दे लें? जिसे चाहें बारिश बरसाने का अधिकारी, जिसे चाहें रोज़गार या सन्तान देनेवाला, जिसे चाहें बीमारी और सेहत का मालिक बना दें? जिसे चाहें मेरे ईश्वरत्त्व के किसी हिस्से का अधिकारी ठहरा लें? और मेरे अधिकारों का से जो कुछ जिसको चाहें सौंप दें? कोई फ़रिश्ता हो या जिन्न या नबी या वली, बहरहाल जो भी है हमारा पैदा किया हुआ है। जो कमालात भी किसी को मिले हैं हमारी अता ब बख़शिश से मिले हैं और जो ख़िदमत भी हमने जिससे लेनी चाही, ली है। इस देन और उपकार के यह अर्थ आख़िर कैसे हो गए कि ये बन्दे बन्दगी के मक़ाम सीमा से उठाकर ईश्वर के पद पर पहुंचा दिए जाएँ और अल्लाह को छोड़कर इनके आगे सर झुका दिया जाए, इनको मदद के लिए पुकारा जाने लगे, इनसे हाजतें तलब की जाने लगें, इन्हें क़िस्मतों का बनाने और बिगाड़नेवाला समझ लिया जाए और इन्हें अल्लाह के गुणों-अधिकारोंवाला क़रार दे दिया जाए?
وَرَبُّكَ يَعۡلَمُ مَا تُكِنُّ صُدُورُهُمۡ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 68
(69) तेरा रब जानता है जो कुछ ये अपने दिलों में छिपाये हुए हैं और जो कुछ ये ज़ाहिर करते हैं।91
91. इस वार्ता-क्रम में यह बात जिस उद्देश्य के लिए कही गई है, वह यह है कि एक आदमी या गिरोह दुनिया में लोगों के सामने यह दावा कर सकता है कि जिस गुमराही को उसने अपनाया है, उसके सही होने पर वह बड़े बुद्धिसंगत तर्कों से संतुष्ट है और उसके ख़िलाफ़ जो दलीलें दी गई हैं उनसे वास्तव में उसको सन्तोष नहीं हुआ है और इस गुमराही को उसने किसी बुरी भावना से नहीं बल्कि विशुद्ध नेकनीयती के साथ अपनाया है और उसके सामने कभी कोई ऐसी चीज़ नहीं आई है जिससे उसकी ग़लती उसपर खुले, लेकिन अल्लाह के सामने उसकी यह बात नहीं चल सकती । वह केवल प्रत्यक्ष ही को नहीं देखता, उसके सामने आदमी के दिल व दिमाग़ का एक-एक गोशा खुला हुआ है। वह उसके ज्ञान, अनुभूति, भावना और इच्छा और नीयत और अन्तरात्मा हर चीज़ को सीधे-सीधे तौर पर जानता है। उसको मालूम है कि किस आदमी को किस वक़्त किन साधनों से सचेत किया गया, किन-किन रास्तों से सत्य पहुँचा, किस-किस तरीक़े से असत्य का असत्य होना उसपर खुला और फिर वे मूल उत्प्रेरक क्या थे जिनके आधार पर उसने अपनी गुमराही को प्रमुखता दी और हक़ से मुँह मोड़ा।
وَهُوَ ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ لَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلۡأُولَىٰ وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 69
(70) वहीं एक अल्लाह है जिसके सिवा कोई बन्दगी का अधिकारी नहीं। उसी के लिए प्रशंसा है दुनिया में भी और आखिरत में भी, शासन उसी का है और उसी की ओर तुम सब पलटाए जानेवाले हो ।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن جَعَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمُ ٱلَّيۡلَ سَرۡمَدًا إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِضِيَآءٍۚ أَفَلَا تَسۡمَعُونَ ۝ 70
(71) ऐ नबी ! इनसे कहो, कभी तुम लोगों ने विचार किया कि अगर अल्लाह क़ियामत तक तुमपर हमेशा के लिए रात छा दे तो अल्लाह के सिवा वह कौन-सा उपास्य है जो तुम्हें रौशनी ला दे? क्या तुम सुनते नहीं हो?
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن جَعَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمُ ٱلنَّهَارَ سَرۡمَدًا إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِلَيۡلٖ تَسۡكُنُونَ فِيهِۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 71
(72) इनसे पूछो, कभी तुमने सोचा कि अगर अल्लाह क़ियामत तक तुमपर हमेशा के लिए दिन छा दे तो अल्लाह के सिवा वह कौन-सा उपास्य है जो तुम्हें रात ला दे ताकि तुम उसमें सुकून हासिल कर सको? क्या तुम को सूझता नहीं?
وَمِن رَّحۡمَتِهِۦ جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 72
(73) यह उसी की रहमत है कि उसने तुम्हारे लिए रात और दिन बनाए ताकि तुम (रात में) सुकून हासिल करो और (दिन को) अपने रब की कृपा खोजो, शायद कि तुम कृतज्ञ बनो।
وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ فَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 73
(74) (याद रखें ये लोग) वह दिन जबकि वह उन्हें पुकारेगा, फिर पूछेगा, “कहाँ हैं मेरे वे शरीक जिनका तुम गुमान रखते थे?"
وَنَزَعۡنَا مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا فَقُلۡنَا هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ فَعَلِمُوٓاْ أَنَّ ٱلۡحَقَّ لِلَّهِ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 74
(75) और हम हर समुदाय में से एक गवाह निकाल लाएँगे92, फिर कहेंगे कि “लाओ अब अपनी दलील।"93 उस वक़्त उन्हें मालूम हो जाएगा कि सत्य अल्लाह की ओर है, और गुम हो जाएँगे उनके वे सारे झूठ जो उन्होंने गढ़ रखे थे।
92. अर्थात् वह नबी जिसने इस उम्मत को ख़बरदार किया था, या नबियों के अनुयायियों में से कोई ऐसा हिदायत पाया हुआ इंसान जिसने इस उम्मत में सत्य-प्रचार की ज़िम्मेदारी निभाई थी, या कोई ऐसा साधन जिससे इस उम्मत तक सत्य का सन्देश पहुंच चुका था।
93. अर्थात् अपनी सफ़ाई में कोई ऐसी युक्ति प्रस्तुत करो जिसके आधार पर तुम्हें क्षमा किया जा सके । या तो यह सिद्ध करो कि तुम जिस शिर्क, जिस आख़िरत के इंकार और जिस पैग़म्बर के इंकार पर क़ायम थे वह सत्य था, और तुमने उचित कारणों के आधार पर यह मत अपनाई थी। या यह नहीं तो फिर कम से कम यही सिद्ध कर दो कि अल्लाह की ओर से तुमको इस ग़लती पर सचेत करने और ठीक बात तुम तक पहुँचाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
۞إِنَّ قَٰرُونَ كَانَ مِن قَوۡمِ مُوسَىٰ فَبَغَىٰ عَلَيۡهِمۡۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡكُنُوزِ مَآ إِنَّ مَفَاتِحَهُۥ لَتَنُوٓأُ بِٱلۡعُصۡبَةِ أُوْلِي ٱلۡقُوَّةِ إِذۡ قَالَ لَهُۥ قَوۡمُهُۥ لَا تَفۡرَحۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَرِحِينَ ۝ 75
(76) यह एक तथ्य94 है कि क़ारून मूसा क़ौम का एक आदमी था, फिर वह अपनी क़ौम के विरुद्ध उद्दण्ड हो गया,95 और हमने उसको इतने ख़ज़ाने दे रखे थे कि उनकी कुंजियाँ ताक़तवर आदमियों की एक टीम मुश्किल से उठा सकती थी।96 एक बार जब उसकी क़ौम के लोगों ने उससे कहा, “फूल न जा, अल्लाह फूलनेवालों को पसन्द नहीं करता ।
94. यह घटना भी मक्का के विधर्मियों के उसी बहाने के जवाब में बयान की जा रही है जिसपर आयत 57 से लगातार वार्ता चल रही है। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रहे कि जिन लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) की दावत से राष्ट्रीय हित पर चोट लगने का आशंका प्रकट की थी, वह वास्तव में मक्का के बड़े-बड़े सेठ, साहूकार और पूँजीपति थे, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय के व्यापार और सूदखोरी ने समय का क़ारून बना रखा था। यही लोग अपनी जगह यह समझे बैठे थे कि वास्तविक सत्य बस यह है कि ज्यादा से ज़्यादा दौलत समेटो। इस उद्देश्य पर जिस चीज़ से भी आँच आने का अंदेशा हो, बह बिल्कुल ही असत्य है जिसे किसी हाल में भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर आम लोग दौलत के उन मीनारों को आरज़ू भरी निगाहों से देखते थे और उनकी असल तमन्ना बस यह थी कि जिस ऊंचाई पर ये लोग पहुंचे हुए हैं, काश । हमें भी उस तक पहुंचना नसीब हो जाए। इस धन-पूजा के वातावरण मे यह दलील बड़ी वज़नी समझी जा रही थी कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस तौहीद व आख़िरत की और जिस नैतिकता के नियम की दावत दे रहे हैं उसे मान लिया जाए तो क़ुरैश की महानता का यह गगन चुम्बी महल ज़मीन पर आ रहेगा और व्यापारिक कारोबार तो दूर की बात, जीने तक के लाले पड़ जाएंगे।
95. क़ारून जिसका नाम बाइबल और तलमूद में कोरह (Korah) बताया गया है, हज़रत मूसा (अलैहि०) का चचेरा भाई था। बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय 6, आयत 18-21 में जो वंशावली अंकित है उसके अनुसार हज़रत मूसा और क़ारून के बाप आपस में सगे भाई थे। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगह यह बताया गया है कि यह आदमी बनी इसराईल में से होने के बावजूद फ़िरऔन के साथ जा मिला था और उसका क़रीबी बनकर इस हद को पहुँच गया था कि मूसा (अलैहि०) की दावत के मुक़ाबले में फ़िरऔन के बाद विरोध के जो दो सबसे बड़े सरदार थे, उनमें से एक यही कारून था- "हमने मूसा को अपनी निशानियों और खुली दलील के साथ फिरऔन और हामान और कारून की ओर भेजा, मगर उन्होंने कहा कि यह एक जादूगर है सख्त झूठा" (सूरा-40, अल-मोमिनून, आयत 23-24) । इससे स्पष्ट हो जाता है कि क़ारून अपनी क़ौम का विद्रोही होकर उस दुश्मन ताक़त का पिटठू बन गया था जो बनी इसराईल को जड़-बुनियाद से ख़त्म कर देने पर तुली हुई थी और इस क़ौमी गद्दारी की बदौलत उसने फ़िरऔनी राज्य में यह पद प्राप्त कर लिया था कि हज़रत मूसा फ़िरऔन के अलावा मिन की जिन दो बड़ी हस्तियों की ओर भेजे गए थे, वे दो ही थीं, एक फ़िरऔन का मंत्री हामान और दूसरा यह इसराईली सेठ। बाकी सभी अधिकारी और दरबारी उनसे कमतर श्रेणी में थे, जिनका मुख्य रूप से नाम लेने की ज़रूरत न थी। क़ारून की यही स्थिति सूरा-29 अन-कबूत की आयत 39 में भी बयान की गई है।
وَٱبۡتَغِ فِيمَآ ءَاتَىٰكَ ٱللَّهُ ٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَۖ وَلَا تَنسَ نَصِيبَكَ مِنَ ٱلدُّنۡيَاۖ وَأَحۡسِن كَمَآ أَحۡسَنَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ وَلَا تَبۡغِ ٱلۡفَسَادَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 76
(77) जो माल अल्लाह ने तुझे दिया है उससे आखिरत का घर बनाने की चिन्ता कर और दुनिया में से भी अपना हिस्सा न भूल। उपकार कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ उपकार किया है और जमीन में बिगाड़ पैदा करने की कोशिश न कर। अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को पसन्द नहीं करता।"
قَالَ إِنَّمَآ أُوتِيتُهُۥ عَلَىٰ عِلۡمٍ عِندِيٓۚ أَوَلَمۡ يَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ قَدۡ أَهۡلَكَ مِن قَبۡلِهِۦ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مَنۡ هُوَ أَشَدُّ مِنۡهُ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرُ جَمۡعٗاۚ وَلَا يُسۡـَٔلُ عَن ذُنُوبِهِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 77
(78) तो उसने कहा, "यह सब कुछ तो मुझे उस ज्ञान के आधार पर दिया गया है जो मुझको प्राप्त है"97 -क्या उसको यह मालूम न था कि अल्लाह इससे पहले बहुत से ऐसे लोगों को नष्ट कर चुका है जो इससे अधिक शक्ति और जत्था रखते थे?98 अपराधियों से तो उनके गुनाह नहीं पूछे जाते।99
97. मूल अरबी शब्द हैं "इन्नमा ऊतीतुहू अला इल्मिन इन्दी।" इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि मैंने जो कुछ पाया है, अपनी योग्यता से पाया है, यह कोई कृपा नहीं है जो अधिकार के बजाय उपकार के रूप में किसी ने मुझे दिया हो और अब मुझे उसकी कृतज्ञता इस तरह प्रदर्शित करनी हो कि जिन अयोग्य लोगों को कुछ नहीं दिया गया है उन्हें मैं कृपा और उपकार के रूप में उसमें से कुछ दूं, या कोई दान व खैरात इस उद्देश्य के लिए करूं कि यह मेहरबानी मुझसे छीन न ली जाए। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि मेरे नज़दीक तो अल्लाह ने यह दौलत जो मुझे दी है मेरे गुणों को जानते हुए दी है, अगर मैं उसकी निगाह में एक पसंदीदा इंसान न होता तो ये सब कुछ मुझे क्यों देता। मुझपर इसकी नेमतों की वर्षा होना ही इस बात का प्रमाण है कि मैं उसका प्यारा हूँ और मेरा रवैया उसको पसन्द है।
98. अर्थात् यह आदमी जो बड़ा ज्ञानी, विद्वान और जानकार व बाख़बर बना फिर रहा था और अपनी योग्यता का यह कुछ घमंड रखता था, इसके ज्ञान में क्या यह बात कभी न आई थी कि इससे ज्यादा धन-दौलत और शान व शौकत और ताक़तवाले इससे पहले दुनिया में गुज़र चुके हैं और अल्लाह ने उन्हें आख़िरकार तबाह व बर्बाद करके रख दिया? अगर योग्यता और हुनरमंदी ही दुनिया की तरक़्क़ी के लिए कोई ज़मानत है तो उनको ये क्षमताएं उस वक़्त कहाँ चली गई थी जब वे तबाह हुए? और अगर किसी को दुनिया की तरक्की का मिलना अनिवार्यतः इसी बात का प्रमाण है कि अल्लाह उस आदमी से प्रसन्न है और उसके कर्मों और गुणों को पसन्द करता है, तो फिर उन लोगों को शामत क्यों आई?
فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ فِي زِينَتِهِۦۖ قَالَ ٱلَّذِينَ يُرِيدُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا يَٰلَيۡتَ لَنَا مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ قَٰرُونُ إِنَّهُۥ لَذُو حَظٍّ عَظِيمٖ ۝ 78
(79) एक दिन वह अपनी क़ौम के सामने अपने पूरे ठाठ में निकला। जो लोग दुनिया की तलब रखते थे, वे उसे देखकर कहने लगे, "काश, हमें भी वही कुछ मिलता जो कारून को दिया गया है, यह तो बड़ा भाग्यवान है।"
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَيۡلَكُمۡ ثَوَابُ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّمَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗاۚ وَلَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ٱلصَّٰبِرُونَ ۝ 79
(80) मगर जो लोग ज्ञान रखनेवाले थे वे कहने लगे, "अफसोस तुम्हारे हाल पर, अल्लाह का बदला बेहतर है उस आदमी के लिए जो ईमान लाए और भले कर्म करे और यह दौलत नहीं मिलती, मगर धैर्य से काम लेनेवालों को।"100
100. अर्थात् यह चरित्र, यह सोच-शैली और यह अल्लाह का दिया हुआ इनाम सिर्फ़ उन्हीं लोगों के हिस्से में आता है जिनमें इतना धैर्य और इतना जमाव मौजूद हो कि हलाल तरीक़े ही अपनाने पर मज़बूती के साथ जमे रहें, चाहे उनसे चटनी-रोटी मिले या करोड़पति बन जाना नसीब हो जाए, और हराम तरीक़ों की ओर कतई तौर पर झुकाव न हो, चाहे इनसे दुनिया भर के फायदे समेट लेने का मौका मिल रहा हो। इस आयत में अल्लाह के सवाब से तात्पर्य है वह अच्छी रोज़ी जो अल्लाह की सीमाओं के भीतर रहते हुए मेहनत व कोशिश करने के नतीज़े में इंसान को दुनिया व आख़िरत में मिले, और धैर्य से तात्पर्य है अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर काबू रखना, लालच और लोभ के मुकाबले में ईमानदारी और सच्चाई पर जमे रहना, सच्चाई और ईमानदारी से जो क्षति भी होती है या जो लाभ भी हाथ से जाता है, उसे सह लेना । नाजाइज़ तरीक़ों से जो लाभ भी हासिल हो सकता है उसे ठोकर मार देना, हलाल की रोज़ी, चाहे कितनी ही थोड़ी हो, उसपर सन्तुष्ट रहना, हरामखोरों के ठाठ-बाट देखकर रश्क व तमन्ना की भावनाओं से बेचैन होने के बजाय उसपर ग़लत अन्दाज़ की एक निगाह भी न डालना और ठंडे दिल से यह समझ लेना कि एक ईमानदार आदमी के लिए इस चमकदार गन्दगी के मुकाबले में यह बे-रौनक पवित्रता ही बेहतर है जो अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से उसको दी है। रहा यह कथन कि "यह दौलत नहीं मिलती मगर धैर्य रखने वालों को" तो इस दौलत से तात्पर्य अल्लाह का सवाब भी है और वह पवित्र मनोवृत्ति भी जिसके आधार पर आदमी ईमान और भले कर्म के साथ उपवास कर लेने को इससे बेहतर समझता है कि बेईमानी करके अरबपति बन जाए।
فَخَسَفۡنَا بِهِۦ وَبِدَارِهِ ٱلۡأَرۡضَ فَمَا كَانَ لَهُۥ مِن فِئَةٖ يَنصُرُونَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُنتَصِرِينَ ۝ 80
(81) अन्ततः हमने उसे और उसके घर को धरती में फंसा दिया, फिर कोई उसकी हिमायत करनेवालों का गिरोह न था जो अल्लाह के मुकाबले में उसकी मदद को आता और न वह ख़ुद अपनी मदद आप कर सका ।
وَأَصۡبَحَ ٱلَّذِينَ تَمَنَّوۡاْ مَكَانَهُۥ بِٱلۡأَمۡسِ يَقُولُونَ وَيۡكَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُۖ لَوۡلَآ أَن مَّنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا لَخَسَفَ بِنَاۖ وَيۡكَأَنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 81
(82) अब वही लोग जो कल उसके स्थान की कामना कर रहे थे कहने लगे, "अफसोस, हम भूल गए थे कि अल्लाह अपने बन्दों में से जिसकी रोजी चाहता है बढ़ा देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला देता है।101 अगर अल्लाह ने हमपर उपकार न किया होता तो हमें भी ज़मीन में फंसा देता। अफ़सोस हमको याद न रहा कि काफ़िर (इंकारी) सफलता नहीं पाया करते।"102
101. अर्थात् अल्लाह की ओर से रोज़ी का फैलाव और तंगी जो कुछ भी होती है, उसके मंशा के आधार पर होती है और इस मंशा में उसकी कुछ दूसरी ही मस्लहतें काम करती होती हैं। किसी को ज़्यादा रोज़ी देने का अर्थ अनिवार्य रूप से यही नहीं है कि अल्लाह उससे अति प्रसन्न है और उसे इनाम दे रहा है। कभी-कभी एक आदमी अल्लाह का अत्यंत अप्रिय होता है, मगर वह उसे बड़ी दौलत देता चला जाता है, यहाँ तक कि आखिरकार यही दौलत उसके ऊपर अल्लाह का भारी अज़ाब ले आती है। इसके विपरीत अगर किसी की रोज़ी तंग है तो इसका अर्थ अनिवार्य रूप से यही नहीं है कि अल्लाह उससे रुष्ट है और उसे सज़ा दे रहा है। प्राय: नेक लोगों पर तंगी इसके बावजूद रहती है कि वे अल्लाह के प्रिय होते हैं, बल्कि कई बार यही तंगी उनके लिए अल्लाह की रहमत होती है। इस सच्चाई को न समझने ही का नतीजा यह होना है कि आदमी उन लोगों की समृद्धि को रश्क की दृष्टि से देखता है जो वास्तव में अल्लाह के प्रकोप के अधिकारी होते हैं।
102. अर्थात् हमें यह भ्रम था कि दुनिया को समृद्धि और संपन्नता ही सफलता है। इसी कारण से हम यह समझे बैठे थे कि क़ारून को बड़ी सफलता मिल रही है, मगर अब पता चला कि सच्ची सफलता किसी और चीज़ का नाम है और वह क़ाफ़िरों (इंकारियों) को नहीं प्राप्त होती । क़ारून के क़िस्से का यह शिक्षाप्रद पहलू सिर्फ़ क़ुरआन ही में बयान हुआ है। बाइबिल और तलमूद दोनों में इसका कोई उल्लेख नहीं है, अलबत्ता इन दोनों किताबों में जो विवरण आया है उनसे यह मालूम होता है कि बनी इसराईल जब मिस्र से निकले तो यह आदमी भी अपनी पार्टी समेत उनके साथ निकला और फिर उसने हज़रत मूसा व हारून के विरुद्ध एक षड्यन्त्र रचा जिसमें ढाई सौ आदमी शामिल थे। अन्ततः अल्लाह का प्रकोप इसपर आया और यह अपने घर-बार और माल व अस्बाब समेत ज़मीन में फंस गया।
تِلۡكَ ٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ نَجۡعَلُهَا لِلَّذِينَ لَا يُرِيدُونَ عُلُوّٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فَسَادٗاۚ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 82
(83) वह आख़िरत103 का घर तो हम उन लोगों के लिए खास कर देंगे जो ज़मीन में अपनी बड़ाई नहीं चाहते104 और न बिगाड़ पैदा करना चाहते है,105 और अंजाम की भलाई परहेज़गारों ही के लिए है।106
103. तात्पर्य है जन्नत जो सच्ची सफलता की जगह है।
104. अर्थात् जो अल्लाह की जमीन में अपनी बड़ाई कायम करने की इच्छा नहीं रखते हैं, जो उद्दण्ड, दमनकारी और अहंकारी बनकर नहीं रहते, बल्कि बन्दे बनकर रहते हैं और अल्लाह के बन्दों को अपना बन्दा बनाकर रखने की कोशिश नहीं करते।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ خَيۡرٞ مِّنۡهَاۖ وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَلَا يُجۡزَى ٱلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 83
(84) जो कोई भलाई लेकर आएगा, उसके लिए उससे बेहतर भलाई है, और जो बुराई लेकर आए तो बुराइयाँ करनेवालों को वैसा ही बदला मिलेगा जैसे कर्म वे करते थे।
إِنَّ ٱلَّذِي فَرَضَ عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لَرَآدُّكَ إِلَىٰ مَعَادٖۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ مَن جَآءَ بِٱلۡهُدَىٰ وَمَنۡ هُوَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 84
(85) ऐ नबी ! विश्वास करो कि जिसने यह क़ुरआन तुमपर अनिवार्य किया है107 वह तुम्हें एक उत्तम अंजाम को पहुँचानेवाला है।108 इन लोगों से कह दो कि "मेरा रब खूब जानता है कि हिदायत लेकर कौन आया है और खुली गुमराही में कौन पड़ा हुआ है ।"
107. अर्थात् इस क़ुरआन को अल्लाह के बन्दों तक पहुँचाने और इसकी शिक्षा देने और इसके आदेशनुसार दुनिया को सुधारने की ज़िम्मेदारी तुमपर डाली है।
108. मूल शब्द हैं "ला रा अ-द-दू-क इला मआदिन" (वह तुम्हें एक उत्तम अंजाम को पहुंचानेवाला है) । मआद का शाब्दिक अर्थ है-वह जगह जिसकी ओर अन्ततः आदमी को पलटना हो। और इसे नकरा (जातिवाचक) इस्तेमाल करने से इसमें अपने आप यह अर्थ पैदा हो जाता है कि वह जगह बड़ी शान और इज्जत की जगह है। कुछ टीकाकारों ने इससे तात्पर्य जन्नत लिया है। लेकिन इसे केवल जन्नत के साथ ख़ास कर देने का कोई उचित कारण नहीं है। क्यों न इसे वैसा ही आम रखा जाए जैसा ख़ुद अल्लाह ने बयान फरमाया है, ताकि यह वादा दुनिया और आख़िरत दोनों से सम्बन्धित हो जाए। वाक्य-संदर्भ का तक़ाज़ा भी यह है कि इसे आखिरत ही में नहीं, इस दुनिया में भी नबी (सल्ल०) को अन्ततः बड़ी शान और इज़्ज़त देने का वादा समझा जाए । मक्का के विधर्मियों के जिस कथन पर आयत 57 से लेकर यहाँ तक निरंतर वार्ता चली आ रही है, उसमें उन्होंने कहा था कि ऐ मुहम्मद (सल्ल०) ! तुम अपने साथ हमें भी ले डूबना चाहते हो। अगर हम तुम्हारा साथ दें और इस दीन को स्वीकार कर लें तो अरब की धरती पर हमारा जोना दूभर हो जाए। इसके जवाब में अल्लाह अपने नबी से फ़रमाता है कि ऐ नबी । जिस अल्लाह ने इस क़ुरआन का झंडा उठाने का बोझ तुमपर डाला है वह तुम्हें नष्ट करनेवाला नहीं है, बल्कि तुमको उस दर्जें पर पहुँचानेवाला है जिसको ये लोग आज कल्पना भी नहीं कर सकते । और वास्तव में अल्लाह ने कुछ ही साल बाद नबी (सल्ल०) को इस दुनिया में, उन्हीं लोगों की आँखों के सामने तमाम अरब देश पर ऐसी मुकम्मल सत्ता प्रदान करके दिखा दी कि आपके लिए रोक बननेवाली कोई ताक़त वहाँ न ठहर सकी और आपके दीन के सिवा किसी दीन के लिए वहाँ गुंजाइश न रहो। अरब के इतिहास में इससे पहले कोई नज़ीर इसकी मौजूद न थी कि पूरे अरब प्रायद्वीप पर किसी एक आदमी की ऐसी बे-रोक-टोक बादशाही क़ायम हो गई हो कि देश भर में कोई उसके मुक़ाबले का बाक़ी न रहा हो, किसी में उसके आदेश का उल्लंघन करने का साहस न हो और लोग सिर्फ राजनीतिक रूप से उसके अनुयायी न हुए हों, बल्कि सारे दोनों को मिटाकर उसी एक आदमी ने सबको अपने दीन का अनुयायी भी बना लिया हो । कुछ टीकाकारों ने यह विचार व्यक्त किया है कि सूरा क़सस को यह आयत मक्का से मदीना की ओर हिजरत करते हुए रास्ते में उतरी थी और उसमें अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल०) से यह वादा फ़रमाया था कि वह आपको फिर मक्का वापस पहुँचाएगा, लेकिन एक तो उसके शब्दों में कोई गुंजाइश इस बात की नहीं है कि 'मआद' से तात्पर्य मक्का लिया जाए। दूसरे यह सूरा रिवायतों के हिसाब से भी और अपने विषय की आन्तरिक गवाही की दृष्टि से भी हब्शा की हिजरत के करीबी समय की है और यह बात समझ में नहीं आती कि कई साल बाद मदीने की हिजरत के रास्ते में अगर यह आयत उतरी थी तो उसे किस अनुकूलता से यहाँ इस संदर्भ से लाकर रख दिया गया। तीसरे इस प्रसंग में मक्का की ओर हुजूर (सल्ल०) की वापसी का उल्लेख बिल्कुल बे-मौका नज़र आता है । आयत का यह अर्थ अगर लिया जाए तो यह मक्का के विधर्मियों की बात का जवाब नहीं, बल्कि उनके बहाने को और ताकत पहुंचानेवाला होगा। इसका अर्थ यह होगा कि निस्सन्देह ऐ मक्कावालो तुम ठीक कहते हो, मुहम्मद इस शहर से निकाल दिए जाएंगे, लेकिन वह स्थायी रूप से वतन से बाहर नहीं रहेंगे, बल्कि अन्ततः हम उन्हें उसी जगह वापस ले आएंगे। यह रिवायत यद्यपि बुखारी, नसई, समान इब्ने जरीर और दूसरे हदीसशास्त्रियों ने इब्ने अब्बास (रजि०) से उल्लेख की है, लेकिन यह है इब्ने-अब्बास (रजि०) की अपनी ही राय । कोई मर्फ़ हदीस अर्थात् ऐसी हदीस नहीं है कि इसे मानना ज़रूरी हो।
وَمَا كُنتَ تَرۡجُوٓاْ أَن يُلۡقَىٰٓ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبُ إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۖ فَلَا تَكُونَنَّ ظَهِيرٗا لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 85
(86) तुम इस बात के कदापि उम्मीदवार न थे कि तुमपर किताब उतारी जाए, यह तो सिर्फ़ तुम्हारे रब की मेहरबानी से (तुमपर उतरी है109)। अत: तुम इनकारियों के सहायक न बनो110
109. यह बात मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत के प्रमाण में प्रस्तुत की जा रही है। जिस तरह मूसा (अलैहि०) बिल्कुल बे-ख़बर थे कि उन्हें नबी बनाया जानेवाला है और एक महान मिशन पर वे नियुक्त किए जानेवाले हैं, उनके मन के किसी कोने में भी इसका इरादा या इच्छा तो दूर की बात, इसकी उम्मीद तक कभी न हुई धी, बस यकायक राह चलते उन्हें खींच बुलाया गया और नबी बनाकर उनसे वह आश्चर्यजनक काम ले लिया गया जो उनकी पिछली जिंदगी से कोई अनुकूलता नहीं रखता। ठीक ऐसा ही मामला प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ भी पेश आया। मक्का के लोग स्वयं जानते थे कि हिरा की गुफा से जिस दिन आप नुबूवत का सन्देश लेकर उतरे उससे एक दिन पहले तक आपकी जिंदगी क्या थी, आपके काम क्या थे, आपकी बात-चीत क्या थी, आपकी बातें किस विषय पर होती थीं, आपकी रुचि और गतिविधियाँ किस प्रकार की थीं। यह पूरी जिंदगी सच्चाई, दयानत, अमानत और पाकबाज़ी से भरी जरूर थी। इसमें अति सज्जनता, शान्तिप्रिय वादे का ध्यान, हकों की अदायगी और जन-सेवा का रंग भी असाधारण तरीक़े से नुमायाँ था। मगर इसमें कोई चीज़ ऐसी मौजूद न थी जिसके कारण किसी की कल्पना में भी यह विचार आ सकता हो कि यह नेक बन्दा कल नुबूवत का दावा लेकर उठनेवाला है। आपसे सबसे ज़्यादा निकट सम्बन्ध रखनेवालों में, आपके रिश्तेदारों और पड़ोसियों और दोस्तों में कोई आदमी यह न कह सकता था कि आप पहले से नबी बनने की तैयारी कर रहे थे। किसी ने उन विषयों और मसलों के बारे में कभी एक शब्द तक आपकी ज़बान से न सुना था जो हिरा की गुफा की उस क्रान्तिकारी घड़ी के बाद यकायक आपकी ज़बान पर जारी होने शुरू हो गए। किसी ने आपको बह विशेष भाषा और उन शब्दों और परिभाषाओं का प्रयोग करते न सुना था जो अचानक कुरआन के रूप में ये लोग आपसे सुनने लगे। कभी आप उपदेश देने खड़े न हुए थे, कभी कोई दावत और आन्दोलन लेकर न उठे थे, बल्कि कभी आपकी किसी सरगर्मी से यह सन्देह तक न हो सकता था कि आप सामूहिक समस्याओं के हल या धार्मिक सुधार या नैतिक सुधार के लिए कोई काम शुरू करने की चिन्ता में हैं। इस क्रान्तिकारी घड़ी से एक दिन पहले तक आपकी जिंदगी एक ऐसे व्यापारी की जिंदगी नज़र आती थी जो सीधे-सादे जाइज़ तरीक़े से अपनी रोज़ी कमाता है, अपने बाल-बच्चों के साथ हँसी-ख़ुशी रहता है, मेहमानों का सत्कार, गरीबों की मदद और रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार करता है और कभी-कभी इबादत करने के लिए एकांत में जा बैठता है। ऐसे आदमी का यकायक एक विश्वव्यापी भूकम्प पैदा कर देनेवाले भाषण के साथ उठना, एक क्रान्तिकारी दावत शुरू कर देना, एक निराला लिट्रेचर पैदा कर देना, ज़िंदगी का एक स्थाई दर्शन, चिन्तन, नैतिकता और संस्कृति की एक व्यवस्था लेकर सामने आ जाना, इतना बड़ा परिवर्तन है जो मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से किसी बनावट और तैयारी और इरादी कोशिश के बिना बिलकुल सामने नहीं आ सकता। इसलिए कि ऐसी हर कोशिश और तैयारी बहरहाल क्रमागत विकास के चरणों से गुजरती है और ये चरण उन लोगों से कभी छिपे नहीं रह सकते जिनके बीच आदमी रात-दिन ज़िंदगी गुज़ारता हो। अगर प्यारे नबी (सल्ल०) की जिंदगी इन चरणों से गुज़री होती तो मक्का में सैकड़ों ज़बानें यह कहनेवाली होती कि हम न कहते थे, यह आदमी एक दिन कोई बड़ा दावा लेकर उठनेवाला है, लेकिन इतिहास गवाह है कि मक्का के विधर्मियों ने आप पर हर तरह की आपत्तियाँ की मगर यह आपत्ति करनेवाला उनमें से कोई एक आदमी भी न था। फिर यह बात कि आप स्वयं भी नुबूवत के इच्छुक या आशा और प्रतीक्षा वाले न थे, बल्कि पूरी बेख़बरी की हालत में अचानक आपको इस मामले का सामना करना पड़ा, इसका प्रमाण उस घटना से मिलता है जो हदीसों में वह्य की शरुआत की दशा के बारे में उल्लिखत हुई है । जिबील (अलैहि०) से पहली मुलाकात और सूरा अलक़ की आरंभिक आयतों के अवतरण के बाद आप हिरा की गुफा से कांपते और लरज़ते हुए घर पहुंचते हैं। घरवालों से कहते हैं कि "मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ" । कुछ देर के बाद जब तनिक डर और भय की दशा दूर होती है तो अपनी जीवन-संगिनी को सारी घटना सुनाकर कहते हैं कि “मुझे अपनी जान का डर है।" वह तुरन्त उत्तर देती हैं, “हरगिज़ नहीं, आपको अल्लाह कभी रंज में न डालेगा। आप तो नातेदारों के हक़ अदा करते हैं, असहाय को सहारा देते हैं, गरीबों की मदद करते हैं, मेहमानों का सत्कार करते हैं, हर भले काम में मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।" फिर वह आपको लेकर वरका बिन नौफ़ल के पास जाती हैं जो उनके चचेरे भाई और अहले किताब में से एक विद्वान और सच्चे आदमी थे। वह आपसे पूरी घटना सुनने के बाद बे-झिझक कहते हैं कि “यह जो आपके पास आया था वही नामूस (विशेष काम पर नियुक्त फ़रिश्ता) है जो मूसा के पास आता था। काश, मैं जवान होता और उस समय तक जिंदा रहता जब आपकी क़ौम आपको निकाल देगी।" आप पूछते हैं, क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?" वह जवाब देते हैं, "हाँ, कोई आदमी ऐसा नहीं गुज़रा कि वह चीज़ लेकर आया हो जो आप लाए हैं और लोग उसके शत्रु न हो गए हों।" यह पूरी घटना उस स्थिति का चित्र प्रस्तुत करती है जो बिल्कुल स्वाभाविक रूप से यकायक आशा के विपरीत एक अत्यन्त असाधारण अनुभव सामने आ जाने से किसी सीधे-सादे इंसान पर छा सकती है। अगर प्यारे नबी (सल्ल०) पहले से नबी बनने की चिन्ता में होते, अपने बारे में यह सोच रहे होते कि मुझ जैसे आदमी को नबी होना चाहिए और इस प्रतीक्षा में वह ध्यान मग्न होकर अपने चिन्तन पर ज़ोर डाल रहे होते कि कब कोई फ़रिश्ता आता है और मेरे पास सन्देश लाता है, तो हिरा की गुफावाला मामला पेश आते हो आप खुशी से उछल पड़ते और बड़े दम-दावे के साथ पहाड़ से उतर कर सीधे अपनी क़ौम के सामने पहुंचते और अपनी नुबूवत का एलान कर देते । लेकिन इसके विपरीत यहाँ हालत यह है कि जो कुछ देखा था उसपर दंग रह जाते हैं, काँपते और लरज़ते हुए घर पहुंचते हैं, लिहाफ़ ओढ़कर लेट जाते हैं। तनिक मन में ठहराव पैदा होता है तो बीवी को चुपके से बताते हैं कि आज गुफा की तंहाई में मुझपर यह हादसा गुज़रा है, मालूम नहीं क्या होनेवाला है, मुझे अपनी जान की ख़ैर नज़र नहीं आती। यह दशा नुबूवत के किसी उम्मीदवार की स्थिति से कितनी भिन्न है। फिर बीवी से बढ़कर शौहर की ज़िंदगी, उसके हालात और उसके विचारों को कौन जान सकता है? आगर उनके तजुर्बे में पहले से यह बात आई हुई होती कि मियाँ नुबूवत के उम्मीदवार हैं और हर वक़्त फ़रिश्ते के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो उनका जवाब कदापि वह न होता जो हज़रत ख़दीज दिया। वे कहतीं कि मियाँ ! घबराते क्यों हो, जिस चीज़ को मुद्दतों से तमन्ना थी, वह मिल गई। चलो, अब पीरी की दुकान चमकाओ, मैं भी नज़राने संभालने की तैयारी करती हूँ। लेकिन वे पन्द्रह वर्ष तक आपके साथ रहते हुए आपकी जिंदगी का जो रंग देख चुकी थीं, उसके आधार पर उन्हें यह बात समझने में एक क्षण की भी देर नहीं लगी कि ऐसे नेक और निःस्वार्थ व्यक्ति के पास शैतान नहीं आ सकता, न अल्लाह उसको किसी बुरी आज़माइश में डाल सकता है। उसने जो कुछ देखा है वह पूर्णत: सच है। और यही मामला वरका बिन नौफ़ल का भी है। वह कोई बाहर के आदमी नहीं थे, बल्कि नबी (सल्ल०) की अपनी बिरादरी के आदमी और करीब के रिश्ते से निस्बती भाई (साले) थे। फिर एक विद्वान ईसाई होने को हैसियत से नुबूवत, किताब और वय को बनावटी और जाली होने से अलग कर सकते थे । उम्र में कई साल बड़े होने की वजह से आपकी पूरी जिंदगी बचपन से उस वक़्त उनके सामने थी। उन्होंने भी आपकी ज़बान से हिरा की दास्तान सुनते ही तुरन्त कह दिया कि यह आनेवाला निश्चित रूप से वही फ़रिश्ता है जो मूसा (अलैहि०) पर वह्य लाता था, क्योंकि यहाँ भी वही शक्ल सामने आई थी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के सामने आई थी कि एक अति पवित्र, चरित्र का सीधा-सादा व्यक्ति, जिसका ज़ेहन बिल्कुल खाली है, नुबूवत की चिन्ता तो दूर की बात, उसकी प्राप्ति का विचार भी उसके मन में कभी नहीं आया है, और अचानक वह पूरे होश व हवास की हालत में खुले तौर पर इस अनुभव से दोचार होता है । इसी चीज़ ने उनको दो और दो चार की तरह बिना किसी झिझक के इस नतीजे तक पहुँचा दिया कि यहाँ मन का कोई फरेब या शैतानी करिश्मा नहीं है, बल्कि इस सच्चे इंसान ने अपने किसी इरादे और इच्छा के विना जो कुछ देखा है,वह वास्तव में सच्चाई को देखा है। यह मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का ऐसा खुला हुआ प्रमाण है कि एक सत्यप्रिय व्यक्ति मुश्किल ही से इसका इंकार कर सकता है । इसी लिए कुरआन में बहुत-सी जगहों पर इसे नुबूवत की दलील की हैसियत से पेश किया गया है, जैसे सूरा-10 यूनुस में फ़रमाया- "ऐ नबी । इनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता तो मैं कभी यह कुरआन तुम्हें न सुनाता, बल्कि इसकी खबर तक वह तुमको न देता। आखिर मैं इससे पहले एक उम्र तुम्हारे बीच गुजार चुका हूँ। क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?" (आयत 16) और सूरा-42 शूरा में फ़रमाया- "ऐ नबी ! तुम तो जानते तक न थे कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है, मगर हमने इस वह्य को एक नूर बना दिया जिससे हम रहनुमाई करते हैं अपने बन्दों में से जिसकी चाहते है।" (आयत 52) और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 21, सूरा-29 अनकबूत, टिप्पणी 88-92 सूरा-42 अश-शुरा, टिप्पणी 84 ।
110. अर्थात् जब अल्लाह ने यह नेमत तुम्हें बे-माँगे दी है तो इसका हक़ अब तुम पर यह है कि तुम्हारी सारी ताक़तें और मेहनतें इसका ध्वज उठाने पर, इसके प्रचार और प्रसार पर लगें। इसमें कोताही करने का अर्थ यह होगा कि तुमने सत्य के बजाय सत्य के इंकारियों की मदद की। इसका अर्थ यह नहीं है कि (अल्लाह की पनाह) नबी (सल्ल०) से ऐसी किसी कोताही का अंदेशा था, बल्कि वास्तव में इस तरह अल्लाह विधर्मियों को सुनाते हुए अपने नबी को यह हिदायत फ़रमा रहा है कि तुम इनके शोर व हंगामे और इनके विरोध के बावजूद अपना काम करो और इसकी कोई परवाह न करो कि सत्य के शत्रु इस दावत से अपने क़ौमी हित पर चोट लगने की क्या आशंका व्यक्त करते हैं ।
وَلَا يَصُدُّنَّكَ عَنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بَعۡدَ إِذۡ أُنزِلَتۡ إِلَيۡكَۖ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 86
(87) और ऐसा कभी न होने पाए कि अल्लाह की आयतें जब तुमपर उतरे तो इनकारी तुम्हें उनसे रोके रखें।111 अपने रब की ओर बुलाओ और हरगिज़ मुश्किों (बहुदेववादियों) में शामिल न हो
111. अर्थात् उनके प्रचार और प्रसार से और उनके अनुसार अमल करने से।
وَلَا تَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۘ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ كُلُّ شَيۡءٍ هَالِكٌ إِلَّا وَجۡهَهُۥۚ لَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 87
(88) और अल्लाह के साथ किसी दूसरे उपास्य को न पुकारो। उसके सिवा कोई उपास्य नहीं है। हर चीज़ नष्ट होनेवाली है सिवा उसकी ज़ात के। शासन उसी का है112 और उसी की ओर तुम सब पलटाए जानेवाले हो
112. यह अर्थ भी हो सकता है कि शासनाधिकार उसी के लिए है. अर्थात वही इसका हक़ रखता है।