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سُورَةُ النَّمۡلِ

27. अन-नम्ल 

(मक्का में उतरी-आयतें 93)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 18 में 'नम्ल' (चीटी) की घाटी का उल्लेख हुआ है। सूरा का नाम इसी से उद्धृत है।

उतरने का समय

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली मक्का के मध्यकाल की सूरतों से पूरी तरह मिलती-जुलती है और इसकी पुष्टि रिवायतों से भी होती है। इब्‍ने-अब्बास (रजि०) और जाबिर-बिन-ज़ैद का बयान है कि 'पहले सूरा-26 (शुअरा) उतरी, फिर सूरा-27 (अन-नम्ल), फिर सूरा-28 (अल-क़सस)।'

विषय और वार्ताएँ

यह सूरा दो व्याख्यानों पर आधारित है। पहला व्याख्यान सूरा के आरम्भ से आयत 58 तक चला गया है। और दूसरा व्याख्यान आयत 59 से सूरा के अन्त तक । पहले व्याख्यान में बताया गया है कि कु़ुरआन की रहनुमाई से केवल वही लोग लाभ उठा सकते हैं जो इन सच्चाइयों को मान लें जिन्हें यह किताब इस विश्व की मौलिक सच्चाइयों की हैसियत से प्रस्तुत करती है और फिर मान लेने के बाद अपने व्यावहारिक जीवन में भी आज्ञापालन और पैरवी की नीति अपनाएँ, लेकिन इस राह पर आने और चलने में जो चीज़ सबसे बड़ी रुकावट होती है वह आख़िरत (परलोक) का इंकार है।

इस भूमिका के बाद तीन प्रकार के चरित्रों के नमूने प्रस्तुत किए गए हैं-

एक नमूना फ़िरऔन और समूद क़ौम के सरदारों और लूत (अलैहि०) की क़ौम के सरकशों (उद्दंडों) का है, जिनका चरित्र आख़िरत की फ़िक्र के प्रति उदासीनता और उसके नतीजे में अपने मन की बन्दगी से निर्मित हुआ था। ये लोग किसी निशानी को देखकर भी ईमान लाने को तैयार न हुए। ये उलटे उन लोगों के शत्रु हो गए जिन्होंने उनको भलाई एवं कल्याण की ओर बुलाया।

दूसरा नमूना हज़रत सुलैमान (अलै०) का है जिनको अल्लाह ने धन, राज्य और सुख-वैभव से बड़े पैमाने पर सम्पन्न किया था, लेकिन इस सबके बावजूद चूँकि वे अपने आपको अल्लाह के सामने उत्तरदायी समझते थे, इसलिए उनका सिर हर वक़्त अपने महान उपकारकर्ता (ईश्वर) के आगे झुका रहता था।

तीसरा नमूना सबा की मलिका (रानी) का है जो अरब के इतिहास की सुप्रसिद्ध धनी क़ौम की शासिका थी। उसके पास तमाम वे साधन इकट्ठा थे जो किसी इंसान को अहंकारी बना सकते हैं। फिर वह एक बहुदेववादी क़ौम से ताल्लुक रखती थी। बाप-दादा के पीछे चलने की वजह से भी और अपनी क़ौम में अपनी सरदारी बाक़ी रखने के लिए भी, उसके लिए बहुदेववादी धर्म को छोड़कर तौहीद का दीन (एकेश्वरवादी धर्म) अपनाना बहुत कठिन था। लेकिन जब उसपर सत्य खुल गया तो कोई चीज़ उसे सत्य अपनाने से न रोक सकी, क्योंकि उसकी गुमराही सिर्फ़ एक बहुदेववादी वातावरण में आँखें खोलने की वजह से थी। मन की दासता और इच्छाओं की ग़ुलामी का रोग उसपर छाया हुआ न था।

दूसरे व्याख्यान में सबसे पहले सृष्टि की कुछ अत्यन्त स्पष्ट और प्रसिद्ध सच्चाइयों की ओर इशारे करके मक्का के विधर्मियों से लगातार सवाल किया गया है कि बताओ, ये सच्चाइयाँ शिर्क की गवाहियाँ दे रही हैं या तौहीद [की?] इसके बाद विधर्मियों के असल रोग पर उंगली रख दी गई है कि जिस चीज़ ने उनको अंधा-बहरा बना रखा है, वह वास्तव में आख़िरत का इंकार है। इस वार्ता का अभिप्राय सोनेवालों को झिझोड़कर जगाना है। इसी लिए आयत 67 से सूरा के अन्त तक लगातार वे बातें कही गई हैं जो लोगों में आख़िरत की चेतना जगाएँ। अन्त में क़ुरआन की असल दावत, अर्थात् एक अल्लाह की बन्दगी की दावत, बहुत ही संक्षेप में मगर बड़ी ही प्रभावकारी शैली में प्रस्तुत करके लोगों को सचेत किया गया है कि इसे क़ुबूल करना तुम्हारे अपने लिए लाभप्रद और इसे रद्द करना तुम्हारे अपने लिए ही हानिकारक है।

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سُورَةُ النَّمۡلِ
27. अन नम्ल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
طسٓۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡقُرۡءَانِ وَكِتَابٖ مُّبِينٍ
(1) ता०सीन० ! ये आयते हैं क़ुरआन और स्पष्ट किताब1 की,
1. "किताबे मुबीन' का एक अर्थ यह है कि यह किताब अपनी शिक्षाओं, अपने आदेशों और अपनी हिदायतों को बिल्कुल स्पष्ट रूप से बयान करती है। दूसरा अर्थ यह है कि वह सत्य और असत्य का अन्तर स्पष्ट करके खोल देती है और एक तीसरा अर्थ यह भी है कि इसका किताबे इलाही (ईश-ग्रंथ) होना स्पष्ट है।
هُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2-3) हिदायत और शुभ-सूचना2 उन ईमान लानेवालों के लिए जो नमाज़ क़ायम करते और ज़कात देते हैं3, और फिर वे ऐसे लोग हैं जो आख़िरत पर पूरा यकीन रखते हैं।4
2. अर्थात् ये आयतें हिदायत और शुभ-सूचना हैं। हिदायत करनेवाली' और 'शुभ-सूचना देनेवाली' कहने के बजाय उन्हें अपने आपमें हिदायत' और 'शुभ-सूचना' कहा गया है, जिससे रहनुमाई और शुभ-सूचना के गुण में उनको पराकाष्ठा बताना अपेक्षित है।
3. अर्थात् क़ुरआन मजीद की ये आयतें रहनुमाई भी केवल उन्हीं लोगों को करती हैं और अच्छे अंजाम को ख़ुशख़बरी भी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को देती हैं जिनमें दो विशेषताएं पाई जाती हों- एक यह कि वे ईमान लाएँ और कुरआन और मुहम्मद (सल्ल.) की दावत को ग्रहण कर लें। दूसरी यह कि [इस दावत को केवल ग्रहण करके] न रह जाएं, बल्कि व्यावहारिक रूप से अनुसरण और आज्ञापालन के लिए तैयार हों, इस तैयार होने की पहली निशानी यह है कि वे नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें।
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 2
0
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ زَيَّنَّا لَهُمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 3
(4) सच तो यह है कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते, उनके लिए हमने उनके करतूतों को शोभायमान बना दिया है, इसलिए वे भटकते फिरते हैं।5
5. अर्थात् अल्लाह का प्राकृतिक क़ानून यह है, मानवीय मनोविज्ञान का स्वाभाविक तर्क यही है कि जब आदमी जिंदगी और उसकी कोशिशों और अमल के नतीजों को सिर्फ इसी दुनिया तक सीमित समझेगा तो अनिवार्य रूप से उसके अंदर एक भौतिकवादी दृष्टिकोण विकसित होगा। उसे सत्य और झूठ, शिर्क और तौहीद (बहुदेववाद ब एकेश्वरवाद), नेकी और बदी, नैतिकता और अनैतिकता की सारी वार्ताएँ सरासर निरर्थक दीख पड़ेंगी। उसकी अभीष्ट वस्तु केवल संसारिक जीवन की साज-सज्जा और सफलता होगी, जिनके प्राप्त करने की चिन्ता उसे हर घाटी में लिए भटकती फिरेगी और इस उद्देश्य के लिए जो कुछ भी वह कोगा, उसे अपने नजदीक बड़ी खूबी की बात समझेगा। किसी के टुष्कर्मों को उसके लिए शोभायमान बना देने का यह कार्य कुरआन मजीद में कभी अल्लाह से जोड़ा गया है और कभी शैतान से। जब उसे अल्लाह से जोड़ा जाता है तो उससे तात्पर्य जैसा कि अपर बयान हुआ, यह होता है कि जो आदमी यह दृष्टिकोण अपनाता है, उसे स्वाभाविक रूप से जीवन की यही दिशा अच्छी महसूस होती है और जब यह काम शैतान से जोड़ा जाता है तो इसका अर्थ यह होता है कि इस विचार-शैली और कार्य-पद्धति को अपनानेवाले आदमी के सामने शैतान हर समय एक काल्पनिक जन्नत पेश करता रहता है और उसे अच्छी वरह सन्तुष्ट किए रहता है कि शाबाश बेटे ! बहुत अच्छे जा रहे हो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَهُمۡ سُوٓءُ ٱلۡعَذَابِ وَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡأَخۡسَرُونَ ۝ 4
(5) ये वे लोग हैं जिनके लिए बुरी सज़ा हैं6 और आख़िरत में यही सबसे ज़्यादा घाटे में रहनेवाले हैं।
6. उस बुरी सजा की शक्ल, समय और जगह का निर्धारण नहीं किया गया है, क्योंकि यह इस दुनिया में भी विभिन्न लोगों, गिरोहों और क़ौमों को अनगिनत विभिन्न तरीक़ों से मिलती है । इस दुनिया से विदा होते समय ठीक मौत के दरवाज़े पर भी इसका एक हिस्सा ज़ालिमों को पहुंचता है। मौत के बाद आलमे बर्जख़ (वह लोक जहाँ समस्त मानव-आत्मा को प्रलय दिवस तक रखा जाता है) में भी इससे आदमी दो-चार होता है और फिर हश्र के दिन से तो इसका एक सिलसिला शुरू हो जाएगा, जो फिर कहीं जाकर ख़त्म न होगा।
وَإِنَّكَ لَتُلَقَّى ٱلۡقُرۡءَانَ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ عَلِيمٍ ۝ 5
(6) और (ऐ नबी ) वेशक तुम यह कुरआन एक तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ सत्ता की ओर से पा रहे हो।7
7. अर्थात् ये बातें, एक तत्वदर्शी और सर्वत्र हस्ती प्रकाशना द्वारा भेज रही है जो तत्वदर्शिता और सूझ-बुझ और ज्ञान-विवेक में पूर्ण है, जिसे अपनी पैदा की हुई चीज़ों और उनके हितों और अतीत-वर्तमान और भविष्य का पूरा ज्ञान है, और जिसकी हिक्मत बन्दों के सुधार और मार्गदर्शन के लिए अच्छे से अच्छा उपाय अपनाती है।
إِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِأَهۡلِهِۦٓ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا سَـَٔاتِيكُم مِّنۡهَا بِخَبَرٍ أَوۡ ءَاتِيكُم بِشِهَابٖ قَبَسٖ لَّعَلَّكُمۡ تَصۡطَلُونَ ۝ 6
(7) (इन्हें उस समय का क़िस्सा सुनाओ) जब मूसा ने अपने घरवालों से कहा कि8 "मुझे एक आग-सी नज़र आई है। मैं अधी या तो वहाँ से कोई ख़बर लेकर आता हूँ या कोई अंगारा चुन लाता हूँ ताकि तुम लोग गर्म हो सको।"9
8. यह उस समय का क़िस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन में आठ-दस साल गुज़ारने के बाद अपने घरवालों को साथ लेकर कोई ठिकाना खोजने जा रहे थे। इसका विवरण इससे पहले सूरा-20 ता० हा० आयत 9 से 24 में आ चुका है और आगे सूरा-28 क़सस आयत (29-36) में आ रहा है।
9. सन्दर्भ यह बता रहा है कि यह रात का समय और जाड़े का मौसम था और हज़रत मूसा (अलैहि०) अजनबी क्षेत्र से गुज़र रहे थे, इसलिए उन्होंने अपने घरवालों से फ़रमाया कि मैं जाकर मालूम करता हूँ कि यह कौन-सी बस्ती है जहाँ आग जल रही है, आगे किधर-किधर रास्ते जाते हैं और कौन-कौन-सी बस्तियाँ क़रीब हैं। फिर भी अगर वे भी हमारी ही तरह कोई चलते-फिरते मुसाफ़िर हुए, जिनसे कोई जानकारी न मिल सकी, तो कम से कम मैं कुछ अंगारे ही ले आऊँगा कि तुम लोग आग जलाकर कुछ गर्मी हासिल कर सको।
فَلَمَّا جَآءَهَا نُودِيَ أَنۢ بُورِكَ مَن فِي ٱلنَّارِ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 7
(8) वहाँ जो पहुँचा तो आवाज़ आई 10 कि "मुबारक (शुभ) है वह जो इस आग में है और जो इसके माहौल में है। पाक है अल्लाह, सब जहानवालों का परवरदिगार ।11
10. सूरा-28 क़सस में है कि आवाज़ एक पेड़ से आ रही थी। इससे मामले की जो शक्ल समझ में आती है वह यह है कि घाटी के किनारे एक भाग में आग सी लगी हुई थी, मगर न कुछ जल रहा था, न कोई धुआँ उठ रहा था और उस आग के भीतर एक हरा-भरा पेड़ खड़ा था, जिसपर से यकायक यह आवाज़ आनी शुरू हुई। यह | वह्य के उतरने की अचानक शुरुआत] एक अनोखा मामला है जो नबियों के साथ पेश आता रहा है। इन मौक़ों पर वास्तव में एक ऐसी असाधारण स्थिति बाहर भी और नबियों के अन्तः करण में भी मौजूद होती है, जिसके आधार पर उन्हें इस बात का विश्वास प्राप्त हो जाता है कि यह किसी जिन्न या शैतान या ख़ुद उनके अपने मन का कोई चमल्कार नहीं है, न उनकी चेतना-शक्तियाँ कोई धोखा खा रही हैं, बल्कि वास्तव में यह जगत् के स्वामी या उसका फ़रिश्ता ही है जो उनसे बातें कर रहा है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-53, अन-नज्म, टिप्पणी 10)
11. इस अवसर पर 'पाक है अल्लाह' कहने से वास्तव में हज़रत मूसा (अलैहि०) को इस बात पर सावधान करना अपेक्षित था कि यह मामला अत्यंत पावनता के साथ पेश आ रहा है, अर्थात् ऐसा नहीं है कि अल्लाह सारे जहान का रब पेड़ पर बैठा हो या इसमें प्रविष्ट कर गया हो या उसका ईश्वरीय नूर तुम्हारी नेत्रज्योति की सीमाओं में समा गया हो या कोई ज़बान किसी मुँह में हरकत करके यहाँ बात कर रही हो, बल्कि इन समस्त सीमाओं से पवित्र और पावन होते हुए वह स्वतः तुम्हें सम्बोधित कर रहा है।
يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّهُۥٓ أَنَا ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 8
(9) ऐ मूसा, यह मैं हूँ अल्लाह, प्रभुत्वशाली और सूझ-बूझवाला,
وَأَلۡقِ عَصَاكَۚ فَلَمَّا رَءَاهَا تَهۡتَزُّ كَأَنَّهَا جَآنّٞ وَلَّىٰ مُدۡبِرٗا وَلَمۡ يُعَقِّبۡۚ يَٰمُوسَىٰ لَا تَخَفۡ إِنِّي لَا يَخَافُ لَدَيَّ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 9
(10) और फेंक तो ज़रा अपनी लाठी।" ज्यों ही कि मूसा ने देखा, लाठी साँप की तरह बल खा रही है12 तो पीठ फेरकर भागा और पीछे मुड़कर भी न देखा। “ऐ मूसा ! डरो नहीं, मेरे समक्ष रसूल डरा नहीं करते,13
12. सूरा-7 आराफ़ और सूरा-26 शुअरा में इसके लिए सोबान (अजगर) का शब्द इस्तेमाल किया गया है और यहाँ इसके लिए 'जान्न' शब्द प्रयोग किया गया है जो छोटे-से साँप के लिए बोला जाता है। इसकी वजह यह है डील-डौल में वह अजगर था, मगर उसकी हरकत को तेज़ी एक छोटे साँप जैसी थी। इसी अर्थ को सूरा-20 ता. हाल में दौड़ते हुए साँप के शब्दों में अदा किया गया है।
13. अर्थात् मेरे हुजूर इस बात का कोई खतरा नहीं है कि रसूल को कोई कष्ट पहुंचे। रिसालत के महान पद पर नियुक्त करने के लिए जब मैं किसी को अपनी पेशी में बुलाता हूँ तो उसकी हिफ़ाज़त का ख़ुद ज़िम्मेदार होता हूँ।
إِلَّا مَن ظَلَمَ ثُمَّ بَدَّلَ حُسۡنَۢا بَعۡدَ سُوٓءٖ فَإِنِّي غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 10
(11) अलावा इसके किसी ने क़ुसूर किया हो।14 फिर अगर बुराई के बाद उसने भलाई से (अपने कर्म को) बदल लिया तो मैं क्षमा करनेवाला मेहरबान हूँ।15
14. यह अपवाद मिला हुआ भी हो सकता है और अलग भी। मिला हुआ होने की स्थिति में अर्थ यह होगा कि खौफ़ का उचित कारण अगर हो सकता है तो यह कि रसूल से कोई कुसूर हो गया। और अलग होने की स्थिति में तात्पर्य यह होगा कि मेरे समक्ष तो किसी को भी कोई खतरा नहीं है जब तक कि आदमी क़ुसूरवार न हो।
15. अर्थात् क़ुसूर करनेवाला भी अगर तौबा करके अपने रवैए को सुधार ले तो मेरे यहाँ उसके क्षमा किए जाने का दरवाज़ा खुला है । इस मौके पर यह बात कहने से अभिप्रेत एक चेतावनी भी थी और शुभ-सूचना भी। [चेतावनी एक क़िब्ती की हत्या पर, (अगरचे वह बिना इरादा हो गया था) और शुभ-सूचना उस माझी पर जो माफ़ी मांगने पर उन्हें दी गयी थी। (देखिए सूरा-28 कसस, आयत 16)] मानो अर्थ इस वार्ता का यह हुआ कि ऐ मूसा ! मेरे समक्ष तुम्हारे लिए डरने की एक वजह तो ज़रूर हो सकती थी, क्योंकि तुमसे एक क़ुसूर हो गया था, लेकिन जब तुम उस बुराई को भलाई से बदल चुके हो तो मेरे पास तुम्हारे लिए अब क्षमा और रहमत के सिवा कुछ नहीं है। कोई सज़ा देने के लिए इस वक्त मैंने तुम्हें नहीं बुलाया है, बल्कि बड़े-बड़े मोजज़े देकर मैं तुम्हें एक बड़े काम पर भेजनेवाला हूँ।
وَأَدۡخِلۡ يَدَكَ فِي جَيۡبِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٖۖ فِي تِسۡعِ ءَايَٰتٍ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَقَوۡمِهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 11
(12) और तनिक अपना हाथ अपने गरेबान में तो डालो, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी कष्ट के। ये (दो निशानियाँ) नौ निशानियों में से हैं फ़िरऔन और उसकी क़ौम की ओर (ले जाने के लिए)16, वे बड़े दुराचारी लोग हैं।"
16. सूरा-17 बनी इसराईल |आयत 101] में फ़रमाया गया है कि मूसा को हमने खुले तौर पर नज़र आनेवाली नौ निशानियाँ प्रदान की थीं और सूरा-7 आराफ़ में उनका विवरण दिया गया है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 113, और सूरा-43 अज-ज़ुख़रुफ़, टिप्पणी 43) ।
فَلَمَّا جَآءَتۡهُمۡ ءَايَٰتُنَا مُبۡصِرَةٗ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 12
(13) मगर जब हमारी खुली-खुली निशानियाँ उन लोगों को सामने आई तो उन्होंने कहा कि यह तो खुला जादू है ।
وَجَحَدُواْ بِهَا وَٱسۡتَيۡقَنَتۡهَآ أَنفُسُهُمۡ ظُلۡمٗا وَعُلُوّٗاۚ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 13
(14) उन्होंने सरासर जुल्म और घमंड की राह से इन निशानियों का इंकार किया, हालाँकि दिल उनको मान चुके थे।17 अब देख लो कि उन बिगाड़ पैदा करनेवालों का अंजाम कैसा हुआ।
17. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर बयान किया गया है कि जब मूसा अलैहिस्सलाम के एलान के अनुसार कोई आम मुसीबत मिस्र पर आती थी तो फ़िरऔन हज़रत मूसा से कहता था कि तुम अपने ख़ुदा से दुआ करके इस मुसीबत को टलवा दो, फिर जो कुछ तुम कहते हो वह हम मान लेंगे। मगर जब वह मुसीबत टल जाती थी तो फ़िरऔन अपनी उसी हठधर्मी पर तुल जाता था, (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 134, सूरा-43 अज़-ज़ुख़रुफ़ आयत 49-50)। बाइबल में भी इसका उल्लेख मौजूद है (निर्गमन, अध्याय 8-10) और वैसे भी ये ऐसे खुले हुए मोजज़े थे कि उन्हें एक मूर्ख से मूर्ख आदमी भी अल्लाह के विशेष अधिकार हो का फल समझ सकता था ।। इसी वजह से हज़रत मूसा ने फ़िरऔन से साफ़-साफ़ कह दिया था कि 'तू ख़ूब जान चुका है कि ये निशानियाँ ज़मीन व आसमान के मालिक के सिवा किसी और ने नहीं उतारी हैं। (सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 102)
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ عِلۡمٗاۖ وَقَالَا ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي فَضَّلَنَا عَلَىٰ كَثِيرٖ مِّنۡ عِبَادِهِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 14
(15) (दूसरी ओर) हमने दाऊद व सुलैमान को ज्ञान प्रदान किया,18 और उन्होंने कहा कि “शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमको अपने बहुत-से मोमिन बन्दों पर श्रेष्ठता प्रदान की।"19
18. अर्थात् वास्तविकता का ज्ञान । इस बात का ज्ञान कि वास्तव में उनके पास अपना कुछ भी नहीं है, जो कुछ है अल्लाह की देन है और उनके बारे में इस्तेमाल करने के लिए जो अधिकार भी उनको प्रदान किए गए हैं, उन्‍हें अल्लाह ही की इच्छा के अनुसार इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इस अधिकार के सही व ग़लत इस्तेमाल पर उन्हें वास्तविक मालिका के सामने जवाबदेही करनी है। यह जान उस अज्ञानता का विलोम है जिसमे फिरोग प्रस्तपा। उस अज्ञानता ने जो चरित निर्माण किया था उसका नमूना ऊपर उल्लेख हुआ। अब बताया जाता है कि यह शान कैसे चरित्र का नमूना तैयार करता है।
19. अर्थात् दूसरे मोमिन बाद भी ऐसे मौजूद थे जिनको खिलाफत दी जा सकती थी लेकिन यह हमारा कोई निजी गुण नहीं, बल्कि सिर्फ अल्लाह का उपकार है कि उसने हमें इस राज्य के शासन के लिए चुन लिया।
وَوَرِثَ سُلَيۡمَٰنُ دَاوُۥدَۖ وَقَالَ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ عُلِّمۡنَا مَنطِقَ ٱلطَّيۡرِ وَأُوتِينَا مِن كُلِّ شَيۡءٍۖ إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 15
(16) और दाऊद का वारिस सुलैमान हुआ 20 और उसने कहा, "लोगो । हमें परिदों की बोलियाँ सिखाई गई हैं। 21
20. विरासत से तात्पर्य माल-जायदाद की विरासत नहीं, बल्कि नुबूवत और ख़िलाफत में हज़रत दाऊद (अलैहि०) का उत्तराधिकार है। माल और जायदाद की मीरास अगर मान लीजिए मुंतकिल दुई भी हो तो वह अकेले हजरत सुलैमान (अलैहि०) की ओर ही नहीं मुंतकिल हो सकती थी। क्योंकि हजरत दाऊद (अलैहि०) की दूसरी औलाद भी मौजूद थी। हजरत सुलैमान (अलैहि०) हज़रत दाऊद (अलैहि०) के सबसे छोटे बेटे थे। उनका मूल इबानी नाम सोलोमोन था जो 'सलीम' (योग्य एवं सूझबूझवाला) का पर्याय है। 965 ई० पूर्व में हज़रत दाऊद (अलैहि०) के उत्तराधिकारी हुए और 926 ई० पू० तक लगभग 40 साल शासक रहे । उनका राज्य वर्तमान फलस्तीन व पूर्वी जार्डन तक था और शाम (सीरिया) का एक हिस्सा भी उसमें शामिल था।
21. बाइबल इस उल्लेख से खाली है कि हजरत सुलैमान को परिदों और जानवरों की बोलियों का ज्ञान दिया गया था, लेकिन बनी इसराईल की रिवायतों में इसकी व्याख्या विद्यमान है। (जेविश इसाइक्लोपीडिया, भाग-11, पृष्ठ 439)
وَحُشِرَ لِسُلَيۡمَٰنَ جُنُودُهُۥ مِنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ وَٱلطَّيۡرِ فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 16
(17) सुलैमान के लिए जिन्‍न और इंसानों और परिदों की फ़ौज जमा की गई थी23 और वे अनुशासन में रखे जाते थे।
23. बाइबल में इसका भी कोई उल्लेख नहीं है कि जिन्न हजरत सुलैमान (अलैहित) की फौजों में शामिल थे और वे उनसे खिदमत लेते थे, लेकिन तलमूद और रिलियों को रिवायतों में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है। (जेविश इंसाइक्लोपोडिया, भाग 11, 440) वर्तमान समय के कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने के लिए एडो-चोटी का जोर लगाया है कि जिन्न से [तात्पर्य पहाड़ी क़बीलों के विशालकाय लोग और तैर से तात्पर्य घोड़-सवारों के तीवगामी दस्ते हैं, न कि जिन्न और परिंदे ।] लेकिन यह क़ुरआन मजीद में अनुचित अर्थ निकालने को अत्यंत बुरी मिसाले हैं। क़ुरआन यहाँ जिन्न, इसान और परिंदे, तीन अलग-अलग प्रकार को फौज बयान कर रहा है जो अरबी भाषा का कुछ भी ज्ञान रखता है, यह सोच नहीं सकता कि इस भाषा में केवल शब्द जिन्न बोलकर इंसानों का कोई गिरोह या सिर्फ परिंदा बोलकर सवारों का दस्ता, भी मुराद लिया जा सकता है। फिर आगे इन दोनों गिरोहों के एक-एक व्यक्ति का जो हाल और काम बयान किया गया है, वे भी इस नए अर्थ के बिल्कुल विपरीत अर्थ के लिए खुली दलील जुटा रहा है।
حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَوۡاْ عَلَىٰ وَادِ ٱلنَّمۡلِ قَالَتۡ نَمۡلَةٞ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّمۡلُ ٱدۡخُلُواْ مَسَٰكِنَكُمۡ لَا يَحۡطِمَنَّكُمۡ سُلَيۡمَٰنُ وَجُنُودُهُۥ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 17
(18) (एक भार वह उनके साथ कूच कर रहा था) यहाँ तक कि जब ये सब चींटियों की घाटी में पहुँचे तो एक चींटी ने कहा, "ऐ चींटियो । अपने बिलों में घुस जाओ, कहीं ऐसा न हो कि सुलैमान और उसकी फ़ौज तुम्हें कुचल डाले और उन्हें ख़बर भी न हो।"24
24. इस आयत को भी आजकल के कुछ टीकाकारों ने नया अर्थ देने की खराद पर चढ़ाया है। वे कहते हैं कि नम्ल को घाटो से तात्पर्य चौटियों की घाटी नहीं है, बल्कि यह एक घाटी का नाम है जो शाम के इलाके में यो और नमलः का अर्थ एक चोंटो के नहीं है, बल्कि यह एक क़बीले का नाम है। इस तरह वे आयत का अर्थ यह बयान करते हैं कि “जब हज़रत सुलैमान नमल को घाटी में पहुंचे तो एक नमली ने कहा कि ऐ नमल ऊबोले के लोगो_!" लेकिन यह भी एक ऐसा अर्थ है जिसका साथ क़ुरआन के शब्द नहीं देते। अगर मान लीजिए कि नम्ल को उस घाटी का नाम मान लिया जाए और यह भी मान लिया जाए कि वहाँ बनो नम्‍ल नाम का कोई क़बीला रहता था, तब भी यह बात अरबी भाषा के प्रयोगों के बिलकुल विपरीत है कि नम्ल क़बीले के एक व्यक्ति को नम्लः कहा जाए । बौद्धिक दृष्टि से यह बात बिल्कुल असम्भव नहीं है कि एक चोटी अपनी जाति के लोगों को किसी आते हुए खतरे से ख़बरदार करे और बिलों में घुस जाने के लिए कहे। रही यह बात को हज़रत सुलैमान ने उसकी बात कैसे सुन ली, तो जिस आदमी की इन्द्रियाँ वह्य जैसी सूक्ष्म चीज़ को अनुभूति कर सकती हों, उसके लिए चींटी की आवाज़ जैसी सूक्ष्म (Crude) चीज़ को अनुभूति प्राप्त कर लेना कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है।
فَتَبَسَّمَ ضَاحِكٗا مِّن قَوۡلِهَا وَقَالَ رَبِّ أَوۡزِعۡنِيٓ أَنۡ أَشۡكُرَ نِعۡمَتَكَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَٰلِدَيَّ وَأَنۡ أَعۡمَلَ صَٰلِحٗا تَرۡضَىٰهُ وَأَدۡخِلۡنِي بِرَحۡمَتِكَ فِي عِبَادِكَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 18
(19) सुलैमान उसकी बात पर मुस्कराते हुए इस पड़ा और बोला- “ऐ मेरे रख ! मुझे क़ाबू में25 रख कि मैं तेरे इस एहसान का शुक्र अदा करता रहूँ जो तुने मुझपर और मेरे माँ-बाप पर किया है और ऐसा भला कर्म करूँ जो तुझे पसन्द आए और अपनी रहमत से मुझे अपने नेक बन्दों में दाख़िल कर।"26
25. मूल में अरबी शब्द हैं 'रबि औजि अनी' व-ज़-अ के वास्तविक अर्थ अरबी भाषा में रोकने के हैं। इस मौक़े पर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का 'औज़िअ-नी अन अशकु-र निअ-मति-क' (मुझे रोक कि मैं तेरे उपकार के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करू) हमारे नज़दीक वास्तव में यह अर्थ देता है कि ऐ मेरे रब !, जो महान शक्तियां और योग्यताएँ तूने मुझे दी हैं, वे ऐसी हैं कि अगर मैं तनिक-सी ग़फ़लत में पड़ जाऊँ तो बन्दगी की सीमा से निकलकर अपने अहंकार के पागलपन में न जाने कहाँ से कहाँ निकल जाऊँ। इसलिए ऐ मेरे पालनहार ! तू मुझे क़ाबू में रख, ताकि मैं नेमत की नाशुक्री के बजाय नेमत का शुक्र अदा करने पर क़ायम रहूँ।
26. नेक बन्दों में दाख़िल करने से तात्पर्य शायद यह है कि आख़िरत में मेरा अंजाम नेक बन्दों के साथ हो और मैं उनके साथ जन्नत में दाखिल हूँ। इसलिए कि आदमी जब भले कर्म करेगा तो भला तो वह आपसे आप होगा ही, अलबत्ता आख़िरत में किसी का जन्नत में दाख़िल होना सिर्फ़ उसके भले काम के बल पर नहीं हो सकता, बल्कि यह अल्लाह की रहमत पर निर्भर है।
وَتَفَقَّدَ ٱلطَّيۡرَ فَقَالَ مَالِيَ لَآ أَرَى ٱلۡهُدۡهُدَ أَمۡ كَانَ مِنَ ٱلۡغَآئِبِينَ ۝ 19
(20) (एक और अवसर पर) सुलैमान ने परिंदों का जायजा लिया 27 और कहा, “क्या बात है कि मैं फलाँ हुदहुद को नहीं देख रहा हूँ? क्या वह कहीं ग़ायब हो गया है?
27. अर्थात् उन परिंदों का जिनके बारे में ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि जिन्न और इंसान की तरह उनकी फ़ौज भी हज़रत सुलैमान की फ़ौज में शामिल थी। सम्भव है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उनसे ख़बर पहुंचाने और शिकार और इसी तरह के दूसरे काम लेते हों।
لَأُعَذِّبَنَّهُۥ عَذَابٗا شَدِيدًا أَوۡ لَأَاْذۡبَحَنَّهُۥٓ أَوۡ لَيَأۡتِيَنِّي بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 20
(21) मैं उसे कड़ी सज़ा दूंगा या उसे ज़िब्ह कर दूंगा, वरना उसे मेरे सामने यथोचित कारण बताना होगा।"28
28. वर्तमान समय के कुछ लोग कहते हैं कि हुद-हुद से तात्पर्य वह परिंदा नहीं है जो अरबी और उर्दू भाषा में इस नाम से प्रसिद्ध है, बल्कि यह एक आदमी का नाम है जो हज़रत सुलैमान को फ़ौज में एक अफसर था। इस दावे की बुनियाद [इस बात पर रखी| गई है कि जानवरों के नामों पर इंसानों के नाम रखने का रिवाज तमाम भाषाओं की तरह अरबी भाषा में भी पाया जाता है और इबरानी में भी था। साथ ही यह भी कि आगे इस हुदहुद का जो काम बयान किया गया है और हज़रत सुलैमान से उसकी बातचीत का जो उल्लेख है, वह उनके नज़दीक सिर्फ़ एक इंसान ही कर सकता है। लेकिन क़ुरआन मजीद के वार्ता-संदर्भ को आदमी देखे तो साफ़ मालूम होता है कि यह क़ुरआन की व्याख्या नहीं, बल्कि उसमें परिवर्तन करना और इससे कुछ बढ़कर उसको ग़लत ठहराना है । इस सिलसिले में तनिक कुरआन मजीद के वर्णन-क्रम को देखिए- पहले कहा जाता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अल्लाह की इस मेहरबानी पर शुक्र अदा किया कि "हमें परिन्दों की भाषा का ज्ञान दिया गया है। इस वाक्य में अगर तैर से मुराद परिन्दे नहीं, बल्कि इंसानों का कोई गिरोह हो तो उसके लिए मंतिक (बोली) के बजाए शब्द कोष अर्थात् भाषा का शब्द अधिक सही होता। इसके बाद फ़रमाया गया कि 'सुलैमान के लिए जिन और इंसान और परिन्दों के फ़ौज जमा की गयी थी। इस वाक्य में एक तो जिन्न और इंसान और परिन्दा तीन प्रचलित जाति वाचक संज्ञाएँ प्रयुक्त हुई हैं, जो तीन विभिन्न और मालूम जातियों के लिए अरबी भाषा में प्रयुक्त की गई हैं और फिर इन्हें स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल किया गया है, और कोई संकेत उनमें से किसी के किसी उपमा रूपक या उपमा होने का मौजूद नहीं है जिससे एक आदमी भाषा के प्रचलित अर्थों के सिवा किसी और अर्थ में इन्हें ले। फिर इंस (इंसान) का शब्द जिन्न और तैर (परिन्दा) के बीच में आया है जो यह अर्थ लेने में स्पष्टत: रुकावट है कि जिन्न और तैर वास्तव में इस ही की जाति के दो गिरोह थे । यह अर्थ अगर होता तो 'अल-जिन्न वत्तैरि मिनल इंसि' (इंसानों में से जिन्न और परिन्दे) कहा जाता न कि 'मिनल जिन्नि वल इंसि वत्तैरि' अर्थात इंसानों में से, जिन्नों में से, परिन्दों मे से । फिर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) हुदहुद को गायब देखकर फ़रमाते हैं कि हुदहुद या तो अपने ग़ायब होने का कोई उचित कारण बयान करे वरना मैं उसे कड़ी सज़ा दूंगा या जिव्ह कर दूंगा। इंसान को क़त्ल किया जाता है, फांसी दी जाती है। मौत की सज़ा दी जाती है ज़िव्ह कौन करता है? कोई ही संगदिल और बेदर्द आदमी बदले की भावना में अंधा हो चुका हो तो शायद किसी आदमी को ज़िम्ह भी कर दे, मगर क्या पैग़म्बर से हम यह उम्मीद करेंगे कि वह अपनी फ़ौज के एक आदमी को केवल मौजूद न होने के अपराध में ज़िब्ह कर देने का एलान करेगा? कुछ दूर आगे चलकर अभी आप देखेंगे कि हज़रत सुलैमान उसी हुदहुद को सबा को रानी के नाम पत्र देकर भेजते हैं और फ़रमाते हैं कि उसे उनकी ओर डाल दे या फेंक दे। स्पष्ट है कि यह आदेश परिंदे को तो दिया जा सकता है, लेकिन किसी आदमी को दूत या एलची बना कर भेजने की स्थिति में यह बड़ी अनुचित [और असभ्य बात होगी ।] ये तमाम संकेत साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ हुदहुद का अर्थ वही है जो शब्द कोश में इस शब्द का अर्थ है, अर्थात् यह कि वह इंसान नहीं, बल्कि एक परिंदा था।
فَمَكَثَ غَيۡرَ بَعِيدٖ فَقَالَ أَحَطتُ بِمَا لَمۡ تُحِطۡ بِهِۦ وَجِئۡتُكَ مِن سَبَإِۭ بِنَبَإٖ يَقِينٍ ۝ 21
(22) कुछ अधिक समय न बीता था कि उसने आकर कहा, “मैंने वे जानकारियाँ प्राप्त की हैं जो आपको मालूम नहीं हैं। मैं सबा के बारे में विश्वसनीय सूचना लेकर आया हूँ।29
29. सबा दक्षिणी अरब की मशहूर व्यापारी कौम थी जिसकी राजधानी 'मआरिब' आज के यमन की राजधानी सना से 55 मील दूर उत्तर-पूरब की ओर स्थित था। इसकी तरक्क़ी का ज़माना मीन के शासन के पतन के बाद लगभग 1100 ई. पूर्व से शुरू हुआ और एक हजार साल तक यह अरब में अपनी महानता के डंके बजाती रही। हुदहुद का यह बयान कि 'मैंने वे जानकारियाँ प्राप्त की हैं जो आप नहीं जानते हैं ' यह अर्थ नहीं रखता कि हज़रत सुलैमान सबा को बिल्कुल नहीं जानते थे। स्पष्ट है कि फ़लस्तीन व शाम के जिस शासक का शासन लाल सागर के उत्तरी किनारे (अक़बा की खाड़ी)तक पहुँचा हुआ था, वह इसी लाल सागर के दक्षिणी किनारे (यमन) की एक ऐसी कौम से बेखबर न हो सकता था जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के एक महत्त्वपूर्ण भाग पर क़ब्ज़ा किए हुए थी। इसलिए हुदहुद के कथन का अर्थ यह मालूम होता है कि क़ौमे सबा के केन्द्र में जो आँखों देखे हालात मैं देखकर आया हूँ, वे अभी तक आपको नहीं पहुँचे हैं।
إِنِّي وَجَدتُّ ٱمۡرَأَةٗ تَمۡلِكُهُمۡ وَأُوتِيَتۡ مِن كُلِّ شَيۡءٖ وَلَهَا عَرۡشٌ عَظِيمٞ ۝ 22
(23) मैने वहाँ एक औरत देखी जो उस क़ौम की शासिका है। उसको हर प्रकार की सामग्री प्रदान की गई है और उसका सिंहासन अति भव्य है ।
وَجَدتُّهَا وَقَوۡمَهَا يَسۡجُدُونَ لِلشَّمۡسِ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَصَدَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ فَهُمۡ لَا يَهۡتَدُونَ ۝ 23
(24-25) मैंने देखा कि वह और उसकी क़ौम अल्लाह के बजाय सूरज के आगे सज्दा30 करती है"31 - शैतान ने उनके काम उनके लिए शोभायमान बना दिए32 और उन्हें मुख्य मार्ग से रोक दिया, इस वजह से वे यह सीधा रास्ता नहीं पाते कि उस अल्लाह को सज्दा करें जो आसमानों और ज़मीन की छिपी चीजें निकालता है33 और वह सब कुछ जानता है जिसे तुम छिपाते और प्रकट करते हो।34
30. इससे मालूम होता है कि यह कौम उस ज़माने में सूर्य-पूजा के धर्म को मानती थी। अरब की पुरानी रिवायतों से भी इसका यही धर्म मालूम होता है।
31. वार्ताशैली से यह लगता है कि यहाँ से [आयत 26 के अन्त तक हुदहुद के कथन पर अल्लाह को अपनी] अभिवृद्धि है। इस अनुमान को जो चीज़ शक्ति पहुँचाती है, वह यह वाक्य है- 'और वह सब कुछ जानता है जिसे तुम छिपाते और ज़ाहिर करते हो।' अल्लामा आलूसी, रूहुल मआनी के लेखक भी इसी अनुमान को प्रमुखता देते हैं।
أَلَّاۤ يَسۡجُدُواْۤ لِلَّهِ ٱلَّذِي يُخۡرِجُ ٱلۡخَبۡءَ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَيَعۡلَمُ مَا تُخۡفُونَ وَمَا تُعۡلِنُونَ ۝ 24
0
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ۩ ۝ 25
(26) अल्लाह कि जिसके सिवा कोई इबादत के योग्य नहीं, जो बड़े अर्श (सिहांसन) का मालिक है।35
35. इस जगह पर सज्दा अनिवार्य है। यहाँ सज्दा करने का उद्देश्य यह है कि एक मोमिन अपने आपको सूर्य-पूजकों से अलग करे और अपने व्यवहार से इस बात का इकरार और प्रदर्शन करे कि वह सूरज को नहीं बल्कि सिर्फ अल्लाह ही को अपना मस्जूद व माबूद (जिसे सज्दा किए जाए या जिसकी इबादत की जाए) मानता है।
۞قَالَ سَنَنظُرُ أَصَدَقۡتَ أَمۡ كُنتَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 26
(27) सुलैमान ने कहा, "अभी हम देखे लेते हैं कि तूने सच कहा है या तू झूठ बोलनेवालों में से है।
ٱذۡهَب بِّكِتَٰبِي هَٰذَا فَأَلۡقِهۡ إِلَيۡهِمۡ ثُمَّ تَوَلَّ عَنۡهُمۡ فَٱنظُرۡ مَاذَا يَرۡجِعُونَ ۝ 27
(28) मेरा यह पा ले जा और इसे उन लोगों की ओर डाल दे, फिर अलग हटकर देख कि वे क्या प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं।36
36. यहाँ पहुँचकर हुदहुद की भूमिका समाप्त होती है। बौद्धिकता के दावेदार लोगों ने जिस आधार पर उसे परिंदा मानने से इंकार किया है, वह यह है कि इन्हें एक परिदे की उस निरीक्षण-शक्ति, विवेक शक्ति और वर्णन-शक्ति से सुशोभित होना सम्भवाना से परे प्रतीत होता है। [जो क़ुरआन के बयानों से स्पष्ट होता है] लेकिन इन लोगों के पास आखिर वे क्या वैज्ञानिक जानकारियाँ हैं जिनके आधार पर वे निश्चित रूप से कह सकते हो कि प्राणियों और उनकी विभिन्न प्रजातियों और फिर उनके विभिन्न लोगों की ताकतें और क्षमताएँ क्या हैं और क्या नहीं है ? इंसान को आज तक किसी यकीनी ज़रिए से यह मालूम नहीं हो सका कि अलग-अलग प्रकार के जीव क्या जानते हैं, क्या कुछ देखते और सुनते हैं, क्या महसूस करते हैं, क्या सोचते और समझते हैं और इनमें से हर एक का दिमाग़ किस तरह काम करता है। फिर भी जो थोड़ा-बहुत निरीक्षण जीवों के विभिन्न प्रजातियों के जीवन का किया गया है, उससे अत्यंत आश्चर्यजनक क्षमताओं का पता चला है। अब अगर अल्लाह, जो इन (जीवों) को पैदा करनेवाला है, हमको यह बताता है कि उसने अपने एक नबी के जानवरों की बोली समझने और उनसे बात करने की क्षमता प्रदान की थी और उस नबी के पास सधाए जाने और प्रशिक्षण पाने से एक हुदहुद इस योग्य हो गया था कि दूसरे देशों से यह कुछ अवलोकन करके आता और पैगम्बर को उनकी खबर देता था, तो बजाय इसके कि हम अल्लाह के इस बयान की रौशनी में जीवों के बारे में अपने आज तक के थोड़े से ज्ञान और बहुत से अनुमानों पर दोबारा सोच विचार करें, यह क्या अक्लमंदी है हम अपने इस नाकाफ़ी ज्ञान को मापदण्ड निर्धारित करके अल्लाह के उस ज्ञान को झुठलाने लगे था उसके अर्थ में परिवर्तन करने लगें।
قَالَتۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ إِنِّيٓ أُلۡقِيَ إِلَيَّ كِتَٰبٞ كَرِيمٌ ۝ 28
(29) रानी बोली, 36अ ऐ दरबारियो । मेरी ओर एक बड़ा महत्त्वपूर्ण पत्र फेंका गया है।
36अ. [बीच का किस्सा छोड़कर अब उस वक्त का उल्लेख होता है जब हुदहुद ने पत्र रानी के आगे फेंक दिया।]
إِنَّهُۥ مِن سُلَيۡمَٰنَ وَإِنَّهُۥ بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 29
(30) वह सुलैमान की ओर से है ओर अल्लाह रहमान व रहीम के नाम से शुरू किया गया है ।
أَلَّا تَعۡلُواْ عَلَيَّ وَأۡتُونِي مُسۡلِمِينَ ۝ 30
(31) विषय यह है कि "मेरे मुकाबले में सरकशी न करो और मुस्लिम (आज्ञाकारी) होकर मेरे पास हाज़िर हो जाओ।"37
37. अर्थात् पत्र का महल कई कारणों से हैं- एक यह कि वह अजीब असाधारण तरीके से आया है, इसके बजाय कि कोई दूत इसे लाकर देता, एक परिद ने इसे लाकर मुझपर रपका दिया है। दूसरे यह कि वह फलस्तीन व शाम के महान शासक सुलैमान की ओर से है। तीसरे यह कि इसे अल्लाह दयावान एवं कपाशील के नाम से शुरू किया गया है जो एक असाधारण बात है। इन सब बातों के साथ यह बात इसके महत्त्व को और ज्यादा बढ़ा देती है कि इसमें बिल्कुल साफ़-साफ़ हमको यह दावत दी गई कि हम सरकशी छोड़कर आज्ञापालन स्वीकार कर ले। और आज्ञाकारी बनकर या मुसलमान बनकर सुलैमान के आगे हाजिर हो जाएँ। 'मुस्लिम' (आज्ञाकारी) होकर हाजिर होने के दो अर्थ हो सकतेहैं- एक मह कि आज्ञाकारी बनकर हाजिर हो जाओ। दूसरे यह कि इस्लाम धर्म अपनाकर हाजिर हो जाओ। पहला अर्थ हजरत सुलैमान की फरमारवाई की शान से मेल खाता है और दूसरा अर्थ उनकी पैग़म्बरी की शान से।
قَالَتۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ أَفۡتُونِي فِيٓ أَمۡرِي مَا كُنتُ قَاطِعَةً أَمۡرًا حَتَّىٰ تَشۡهَدُونِ ۝ 31
(32) (पत्र सुनाकर) रानी ने कहा, "ऐ क़ौम के सरदारो । मेरे इस मामले में मुझे मश्विरा दो, मैं किसी मामले का फ़ैसला तुम्हारे बिया नहीं करती हूँ"38
38. मूल अरबी शब्द हैं 'हत्ता तश हदून" अर्थात 'जब तक कि तुम हाजिर न हो' या 'तुम गवाह न हो'। इससे जो बात स्पष्ट होती है, वह यह कि सबा कौम में बादशाही व्यवस्था तो थी, मगर दमनकारी व्यवस्था न थी, बल्कि समय का शासक मामलों के फैसले सरकार के दरबाररियों के मशिवरे से करता था।
قَالُواْ نَحۡنُ أُوْلُواْ قُوَّةٖ وَأُوْلُواْ بَأۡسٖ شَدِيدٖ وَٱلۡأَمۡرُ إِلَيۡكِ فَٱنظُرِي مَاذَا تَأۡمُرِينَ ۝ 32
(33) उन्‍होंने जवाब दिया, "हम ताक़तवर और लड़नेवाले लोग हैं। आगे फ़ैसला आपके हाथ में है। आप ख़ुद देख लें कि आपको क्या हुक्म देना है।"
قَالَتۡ إِنَّ ٱلۡمُلُوكَ إِذَا دَخَلُواْ قَرۡيَةً أَفۡسَدُوهَا وَجَعَلُوٓاْ أَعِزَّةَ أَهۡلِهَآ أَذِلَّةٗۚ وَكَذَٰلِكَ يَفۡعَلُونَ ۝ 33
(34) रानी ने कहा कि "बादशाह जब किसी देश में घुस आते हैं तो उसे ख़राब और उसके सम्मानित लोगों को अपमानित कर देते हैं।39 यही कुछ वे किया करते हैं।40
39. इस एक वाक्य में साम्राज्यवाद और उसके प्रभावों और परिणामों की पूर्ण समीक्षा कर दी गई है । बादशाहों का मुल्कों को जीतना और जीतनेवाली कौमों का दूसरी क़ौमों पर हाथ डालना भी सुधार और भलाई के लिए नहीं होता। उसका उद्देश्य हो यह होता है कि दूसरी क़ौम को अल्लाह ने जो रोज़ी दी है और जो साधन दिए हैं, उनसे वह स्वयं फायदा उठाए और उस क़ौम को इतना बेबस कर दे कि वे कभी उनके मुकाबले में सर उठाकर अपना हिस्सा न मांग सके । इस उद्देश्य के लिए वे उसकी ख़ुशहाली, शक्ति और प्रतिष्ठा के तमाम साधन नष्ट कर देते हैं। उसके जिन लोगों में भी अपने आत्मसम्मान और मर्यादा का अहसास होता है, उन्हें कुचलकर रख देते हैं।
40. इस वाक्य में दो बराबर की संभावनाएं की हैं- एक यह कि यह सबा को रानी का ही कथन हो और उसने अपने पिछले कथन पर ताकीद के तौर पर इसे बढ़ा दिया हो। दूसरे यह कि अल्लाह का कथन हो जो रानी के कथन की पुष्टि के लिए प्रासंगिक वाक्य कहा गया हो ।
وَإِنِّي مُرۡسِلَةٌ إِلَيۡهِم بِهَدِيَّةٖ فَنَاظِرَةُۢ بِمَ يَرۡجِعُ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 34
(35) मैं उन लोगों की ओर एक उपहार भेजती हूँ, फिर देखती हूँ कि मेरे दूत क्या उत्तर लेकर पलटते हैं।"
فَلَمَّا جَآءَ سُلَيۡمَٰنَ قَالَ أَتُمِدُّونَنِ بِمَالٖ فَمَآ ءَاتَىٰنِۦَ ٱللَّهُ خَيۡرٞ مِّمَّآ ءَاتَىٰكُمۚ بَلۡ أَنتُم بِهَدِيَّتِكُمۡ تَفۡرَحُونَ ۝ 35
(36) जब वह (रानी का दूत) सुलैमान के यहाँ पहुँचा तो उसने कहा, “क्या तुम लोग माल से मेरी मदद करना चाहते हो? जो कुछ अल्लाह ने मुझे दे रखा है, वह उससे बहुत अधिक है जो तुम्हें दिया है 41 तुम्हारा उपहार तुम्हीं को मुबारक रहे ।
41. इस वाक्य से अभिप्रेत घमंड और अहंकार प्रकट करना नहीं है। वास्तविक उद्देश्य यह है कि मुझे तुम्हारा माल अभीष्ट नहीं है, बल्कि तुम्हारा ईमान अभीष्ट है, या फिर कम से कम जो चीज़ मैं चाहता हूँ वह यह है कि तुम एक कल्याणकारी व्यवस्था के अधीन हो जाओ। अगर तुम इन दोनों बातों में से किसी एक पर राज़ी नहीं हो तो मेरे लिए यह संभव नहीं है कि माल व दौलत की रिश्वत लेकर तुम्हें इस शिर्क और ज़िंदगी की इस बिगड़ी व्यवस्था के मामले में आज़ाद छोड़ दूं। मुझे मेरे रब ने जो कुछ दे रखा है, वह इससे बहुत ज़्यादा है कि मैं तुम्हारे माल का लालच करूं।
ٱرۡجِعۡ إِلَيۡهِمۡ فَلَنَأۡتِيَنَّهُم بِجُنُودٖ لَّا قِبَلَ لَهُم بِهَا وَلَنُخۡرِجَنَّهُم مِّنۡهَآ أَذِلَّةٗ وَهُمۡ صَٰغِرُونَ ۝ 36
(37) (ऐ दूत !) वापस जा अपने भेजनेवालों की ओर ! हम उनपर ऐसी सेना ले आएँगे42 जिनका मुक़ाबला वे न कर सकेंगे और हम उन्हें ऐसे अपमान के साथ वहाँ से निकालेंगे कि वे अपमानित होकर वहाँ रह जाएँगे।
42. पहले वाक्य और इस वाक्य के बीच एक सूक्षम रिक्तता है अर्थात् बात पूरी यूँ है कि 'ऐ दूत ! यह उपहार वापस ले जा अपने भेजनेवालों की ओर, उन्हें या तो हमारी पहली बात माननी पड़ेगी कि मुस्लिम (आचाकारी) होकर हमारे पास हाज़िर हो जाएँ वरना हम उनपर सेना लेकर आएँगे।'
قَالَ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَؤُاْ أَيُّكُمۡ يَأۡتِينِي بِعَرۡشِهَا قَبۡلَ أَن يَأۡتُونِي مُسۡلِمِينَ ۝ 37
(38) सुलैमान43 ने कहा, “ऐ दरबारियो ! तुममें से कौन उसका तख़्त मेरे पास लाता है इससे पहले कि वे लोग आज्ञाकारी होकर मेरे पास हाज़िर हों?"44
43. बीच में यह किस्सा छोड़ दिया गया है कि दूत रानी का उपहार वापस लेकर पहुंचा और जो कुछ उसने कर देखा और सुना था वह बता दिया। रानी ने उसपर यही उचित समझा कि खुद उनकी मुलाक़ात के लिए बैतुल मक्दिस जाए। अत: वह नौकर-चाकरों और शाही साजो-सामान के साथ सबा से फ़िलस्तीन रवाना हुई और उसकी खबर सुलैमान के दरबार में भेज दी। इन विवरणों को छोड़ कर उस समय का क़िस्सा बयान किया जा रहा है जब रानी बैतुल मनिदस के करीब पहुंच गई थी।
44. अर्थात् वही तख़्त (सिंहासन) जिसके बारे में हुदहुद ने बताया था कि उसका तख्त बहुत भव्य है । हज़रत सुलैमान (अलैहि०) [यह तज्न मंगाकर वास्तव] में प्रचार के साथ-साथ रानी और उसके दरबारियों को एक मोजज़ा भी दिखाना चाहते थे ताकि उसे मालूम हो कि सारे जहानों का रब, अल्लाह, अपने नबियों को कैसी असाधारण क्षमताएँ प्रदान करता है और उसे यक़ीन आ जाए कि हज़रत सुलैमान वास्तव में अल्लाह के नबी हैं।
قَالَ عِفۡرِيتٞ مِّنَ ٱلۡجِنِّ أَنَا۠ ءَاتِيكَ بِهِۦ قَبۡلَ أَن تَقُومَ مِن مَّقَامِكَۖ وَإِنِّي عَلَيۡهِ لَقَوِيٌّ أَمِينٞ ۝ 38
(39) ज़िन्नों में से एक ताक़तवर डील-डौलवाले ने अर्ज़ किया, "मैं उसे हाज़िर कर दूंगा, इससे पहले कि आप अपनी जगह से उठे।45 मैं इसकी शक्ति रखता हूँ और अमानतदार हूँ।"46
45. इससे मालूम हो सकता है कि हज़रत सुलैमान के पास जो जिन्न थे वे मानव-जाति में से थे या आम प्रचलन के अनुसार उसी गुप्त प्राणी में से जो जिन के नाम से प्रसिद्ध है। स्पष्ट है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के दरबार की बैठक अधिक से अधिक तीन-चार घंटे की होगी और बैतुल-मक्दिस से सबा की राजधानी मारिब की दूरी परिन्दे की उड़ान की दृष्टि से भी कम से कम डेढ़ हज़ार मील की थी। इतनी दूरी से एक रानी का सिंहासन इतनी कम मुद्दत में उठा लाना किसी इंसान का काम नहीं हो सकता था। [फिर तख़्त कहीं जंगल में रखा हुआ नहीं था, बल्कि] एक रानी के महल में था। इंसान जाकर उठा लाना चाहता तो उसके साथ एक छापा मार दस्ता होना चाहिए था कि लड़-भिड़कर उसे पहरेदारों से छीन लाए। यह सब कुछ आख़िर दरबार बर्ख़ास्त होने से पहले कैसे हो सकता था। इस चीज़ की कल्पना अगर की जा सकती है तो एक वास्तविक जिन्न ही के बारे में की जा सकती है।
46. अर्थात् आप मुझपर यह भरोसा कर सकते हैं कि मैं उसे स्वयं उड़ा न ले जाऊँगा या उसमें से कोई क़ीमती चीज़ न चुरा लूँगा।
قَالَ ٱلَّذِي عِندَهُۥ عِلۡمٞ مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ أَنَا۠ ءَاتِيكَ بِهِۦ قَبۡلَ أَن يَرۡتَدَّ إِلَيۡكَ طَرۡفُكَۚ فَلَمَّا رَءَاهُ مُسۡتَقِرًّا عِندَهُۥ قَالَ هَٰذَا مِن فَضۡلِ رَبِّي لِيَبۡلُوَنِيٓ ءَأَشۡكُرُ أَمۡ أَكۡفُرُۖ وَمَن شَكَرَ فَإِنَّمَا يَشۡكُرُ لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ رَبِّي غَنِيّٞ كَرِيمٞ ۝ 39
(40) जिस आदमी के पास किताब का एक ज्ञान था वह बोला, “मैं आपकी पलक झपकने से पहले उसे लाए देता हूँ।"47 ज्यों ही कि सुलैमान ने वह तख़्त अपने पास रखा हुआ देखा, वह पुकार उठा, "यह मेरे रब की मेहरबानी है ताकि वह मुझे आज़माए कि मैं शुक्र करता हूँ या नाशुक्रा बन जाता हूँ।48 और जो कोई शुक्र करता है, उसका शुक्र उसके अपने ही लिए लाभदायक है, वरना कोई नाशुक्री करे तो मेरा रख निस्‍पृह (बेनियाज़) और अपनी ज़ात में आप बुज़ुर्ग है।"49
47. उस आदमी के बारे में निश्चित रूप से यह मालूम नहीं है कि वह कौन था और उसके पास वह किस विशेष प्रकार का ज्ञान था और उस किताब से कौन-सी किताब मुराद है जिसका ज्ञान उसके पास था। इन बातों की न कोई व्याख्या कुरआन में है, न किसी सही हदीस में है। टीकाकारों ने इनके बारे में अलग-अलग मत प्रकट किए हैं, लेकिन इन सब मतों की बुनियाद सिर्फ़ अनुमान पर है। हम सिर्फ़ उतनी हो बात जानते और मानते हैं जितनी क़ुरआन में फ़रमाई गई है या जो उसके शब्दों से प्रतिलक्षित होती है। वह आदमी बहरहाल जिन्न को जाति में से न था और असम्भव नहीं कि वह कोई इंसान ही हो। उसके पास कोई असाधारण ज्ञान था और वह अल्लाह की किसी किताब (अल-किताब, मूल किताब) से लिया हुआ था। जिन्न अपने अस्तित्त्व को शक्ति से उस सिंहासन को कुछ घंटों में उठा लाने का दावा कर रहा था। यह आदमी ज्ञान की शक्ति से उसे एक पल में उठा लाया।
48. क़ुरआन मजीद की वर्णनशैली इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है कि उस विशालकाय जिन्न के दावे की तरह उस आदमी का दावा सिर्फ़ दावा ही न रहा, बल्कि वास्तव में उसने जिस वक्त दावा किया उसी समय एक ही पल में वह तख्न हज़रत सुलैमान के सामने रखा नज़र आया । तनिक इन शब्दों पर विचार कीजिए- "उस आदमी ने कहा, मैं आपकी पलक झपकने से पहले इसे ले आता हूँ। ज्यों ही कि सुलैमान ने उसे अपने पास रखा देखा।” जो आदमी भी घटना के विचित्र होने का विचार मन से निकालकर स्वत: इस वाक्य को पढ़ेगा, वह इससे यही अर्थ लेगा कि इस आदमी के यह कहते ही दूसरे पल में बह घटना पेश आ गई जिसका उसने दावा किया था। इस सीधी-सी बात को ख़ामख़ाह नए अर्थ के ख़राद पर चढ़ाने की क्या ज़रूरत है ? फिर तरन्न को देखते ही हज़रत सुलैमान का यह कहना कि “यह मेरे रख की मेहरबानी है। ताकि मुझे आज़माए कि मैं शुक्र करता हूँ या नाशुक्रा बन जाता हूँ, इसी शक्ल में प्रासंगिक हो सकता है जबकि यह कोई असाधारण घटना हो, वरना अगर वास्तविकता यह होती कि उनका एक होशियार नौकर मलका के लिए जल्दी से एक तख्न बनवा लाया या बना लाया, तो ज़ाहिर है कि यह कोई ऐसी अनोखी बात न हो सकती थी कि उसपर हज़रत सुलैमान सहसा “हाज़ा मिन फाजिल रब्बी" (अर्थात् यह मेरे रख की मेहरबानी है) पुकार उठते और उनको यह ख़तरा हो जाता कि इतने जल्दी मान्य मेहमान के लिए तरन्न तैयार हो जाने से कहीं मैं नेमत का शुक्रगुज़ार बनने के बजाय नेमत का नाशुक्रा न बन जाऊँ। आख़िर इतनी-सी बात पर किसी मोमिन शासक को इतना घमंड और अहंकार हो जाने का क्या ख़तरा हो सकता है, मुख्यतः जबकि वह एक सामान्य मोमिन न हो, बल्कि अल्लाह का नबी हो। अब रही यह बात की डेढ़ हज़ार मील से एक तख्ते शाही (राजसिंहासन) पलक झपकते किस तरह उठकर आ गया, इसका संक्षिप्त जवाब यह है कि समय और जगह और द्रव्य एवं गति के जो विचार हमने अपने अनुभवों और अनुभूतियों के आधार पर क़ायम किए हैं, उनकी तमाम सीमाएँ सिर्फ हमारे लिए ही हैं, अल्लाह के लिए न ये सही हैं और न वह इस सीमाओं में बँधा हुआ है। उसकी सामर्थ्य एक मामूली तज्ज़ तो दूर की बात, सूरज और उससे भी अधिक बड़े ग्रहों को आन की आन में लाखों मील का फासला तय करा सकती है। जिस अल्लाह के सिर्फ़ एक हुक्म से यह ब्रह्माण्ड अस्तित्त्व में आ गया है, उसका एक मामूली इशारा ही सबा की मलका के तहन को रौशनी की गति से चला देने के लिए काफ़ी था। आख़िर इसी क़ुरआन में यह उल्लेख भी तो मौजूद है कि अल्लाह एक रात अपने बन्दे मुहम्मद (सल्ल०) को मक्का से बैतुल-मक्दिस भी ले गया और वापिस भी ले आया।
قَالَ نَكِّرُواْ لَهَا عَرۡشَهَا نَنظُرۡ أَتَهۡتَدِيٓ أَمۡ تَكُونُ مِنَ ٱلَّذِينَ لَا يَهۡتَدُونَ ۝ 40
(41) सुलैमान50 ने कहा, “अनजान तरीक़े से उसका तख्‍़त उसके सामने रख दो, देखें वह सही बात तक पहुँचती है या उन लोगों में से है जो सीधा रास्ता नहीं पाते?"51
50. बीच में यह विवरण छोड़ दिया गया है कि रानी कैसे बैतुल मकिदस पहुंची और किस तरह उसका स्वागत हुआ। उसे छोड़कर अब उस समय का हाल बयान हो रहा है जब वह हज़रत सुलैमान की मुलाक़ात के लिए उनके महल में पहुंच गई।
51. द्विअर्थी वाक्य है। इसका यह अर्थ भी है कि वह यकायक अपने देश से इतनी दूर अपना सिंहासन मौजूद पाकर यह समझ जाती है या नहीं कि यह उसी का तख्त उठा लाया गया है। और यह अर्थ भी है कि वह इस अद्भुत मोजज़े को देखकर हिदायत पाती है या अपनी गुमराही पर स्थिर रहती है। इससे उन लोगों के विचारों का खंडन हो जाता है जो कहते हैं कि हज़रत सुलैमान इस तख्त पर कब्जा करने की नीयत रखते थे। यहाँ वह स्वयं इस उद्देश्य को ज़ाहिर कर रहे हैं कि उन्होंने यह काम मलका की हिदायत के लिए किया था।
فَلَمَّا جَآءَتۡ قِيلَ أَهَٰكَذَا عَرۡشُكِۖ قَالَتۡ كَأَنَّهُۥ هُوَۚ وَأُوتِينَا ٱلۡعِلۡمَ مِن قَبۡلِهَا وَكُنَّا مُسۡلِمِينَ ۝ 41
(42) रानी जब हाज़िर हुई तो उससे कहा गया कि क्या तेरा तख्त ऐसा ही है। वह कहने लगी, “यह तो मानो वही है।52 हम तो पहले ही जान गए थे और हम आज्ञाकारी हो गए थे (या हम मुस्लिम हो चुके थे)।"53
52. इससे उन लोगों के विचारों का भी खंडन हो जाता है कि जिन्होंने वस्तु-स्थिति का चित्र कुछ इस तरह खींचा है कि मानो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) अपनी मेहमान मलका के लिए एक तख्न बनवाना चाहते थे। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने टेंडर तलब किए, एक हट्टे-कट्टे कारीगर ने कुछ ज्यादा मुद्दत में तरन्न बना देने की पेशकश की, मगर एक-दूसरे माहिर उस्ताद ने कहा, मैं तुरत-फुरत बनाए देता हूँ। इस सारे चित्र का ताना-बाना इस बात से बिखर जाता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने ख़ुद रानी का ही तख्‍़त लाने के लिए फ़रमाया था और उसके आने पर अपने नौकरों को उसी का तख्त अनजान तरीके से उसके सामने पेश करने का हुक्म दिया था। फिर जब वह आई तो उससे पूछा गया कि क्या तेरा तन्न ऐसा ही है, और उसने कहा मानो यह वही है। इस साफ़ बयान की मौजूदगी में उन व्यर्थ नए अर्थों की क्या गुंजाइश रह जाती है। इसपर भी किसी को सन्देह रहे तो बाद के वाक्य उसे सन्तुष्ट करने के लिए काफ़ी है।
53. अर्थात् यह मोजज़ा देखने से पहले ही सुलैमान (अलैहि०) की जो विशेषताएँ और हालात हमें मालूम हो चुके थे, उनकी बुनियाद पर हमें विश्वास हो गया था कि वह अल्लाह के नबी हैं, सिर्फ एक राज्य के शासक नहीं हैं। तन को देखने और 'मानो यह वही है' कहने के बाद इस वाक्य की बढ़ोत्तरी करने में आख़िर क्या सार्थकता बाकी रह जाता है अगर यह मान कर लिया जाए कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने उसके लिए एक तख्न बनवाकर रख दिया था? मान लीजिए अगर वह तख्‍़त रानी के तख़्त के जैसा ही तैयार करा लिया गया हो, तब भी उसमें आखिर वह क्या कमाल हो सकता था कि एक सूर्यपूजक रानी उसे देखकर यह बोल उठती कि "हमें पहले ही ज्ञान प्राप्त हो गया था और हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो चुके थे।"
وَصَدَّهَا مَا كَانَت تَّعۡبُدُ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ إِنَّهَا كَانَتۡ مِن قَوۡمٖ كَٰفِرِينَ ۝ 42
(43) उसको (ईमान लाने से) जिस चीज़ ने रोक रखा था वह उन उपास्यों की उपासना थी जिन्हें वह अल्लाह के सिवा पूजती थी, क्योकि वह एक विधर्मी क़ौम से थी।54
54. यह वाक्य अल्लाह की ओर से उसकी स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा गया है, यानी उसमें दुराग्रह और हठधर्मों न थीं। वह उस समय तक केवल इसलिए अधर्मी थी कि अधर्मी कौम में पैदा हुई थी। होश संभालने के बाद से उसको जिस चीज़ के आगे सज्दा करने की आदत पड़ी हुई थी, बस वही उसके रास्ते में एक रुकावट बन गई थी। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से साबक़ा पेश आने पर जब उसकी आँखें खुली तो इस रुकावट के हट जाने में तनिक भी देर न लगी।
قِيلَ لَهَا ٱدۡخُلِي ٱلصَّرۡحَۖ فَلَمَّا رَأَتۡهُ حَسِبَتۡهُ لُجَّةٗ وَكَشَفَتۡ عَن سَاقَيۡهَاۚ قَالَ إِنَّهُۥ صَرۡحٞ مُّمَرَّدٞ مِّن قَوَارِيرَۗ قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي ظَلَمۡتُ نَفۡسِي وَأَسۡلَمۡتُ مَعَ سُلَيۡمَٰنَ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 43
(44) उससे कहा गया कि महल में दाख़िल हो । उसने जो देखा तो समझी कि पानी का हौज़ है और उतरने के लिए उसने अपने पाईचे उठा लिए। सुलैमान ने कहा, “यह शीशे का चिकना फ़र्श है।"55 इसपर वह पुकार उठी, “ऐ मेरे रब ! (आज तक) मैं अपने नफ़्स पर बड़ा ज़ुल्म करती रही और अब मैने सुलैमान के साथ सारे जहान के रब अल्लाह का आज्ञापालन स्वीकार कर लिया।"56
55. यह अन्तिम चीज़ थी जिसने मलका की आँखें खोल दीं। पहली चीज़ हज़रत सुलैमान का वह पत्र था जो सामान्य बादशाहों के तरीके से हटकर अल्लाह, रहमान व रहीम के नाम से शुरू किया गया था। दूसरी चीज़ उसके कीमती उपहारों को रद्द करना था जिससे मलका को अन्दाज़ा हुआ कि यह बादशाह किसी और ढंग का है। तीसरी चीज़ मलका के दूतों का बयान था जिससे उसको हज़रत सुलैमान की धर्म-परायण जीवन, उनको तत्वदर्शिता और उनकी हक़ की दावत का ज्ञान हुआ। इसी चीज़ ने उसे तैयार किया कि ख़ुद चलकर उनसे मुलाक़ात करे और इसी की ओर उसने अपने इस कथन में इशारा किया कि “हम तो पहले ही जान गए थे और हम मुस्लिम हो चुके थे।” चौथी चीज़ उस भव्य तख्त का आनन-फ़ानन मारिब से बेतुल-मक्दिस पहुँच जाना था, जिससे रानी को मालूम हुआ कि उस आदमी की पीठ पर अल्लाह की शक्ति है और अब आख़िरी चीज़ यह थी कि उसने देखा जो आदमी यह सुख-वैभव का सामान रखता है और ऐसे शानदार महल में रहता है, वह मन के अहं से कितना मुक्त है, कितना सदाचारी और ख़ुदातरस है। किस तरह बात-बात पर उसका सिर अल्लाह के आगे शुक्रगुज़ारी में झुका जाता है और उसकी जिंदगी दुनिया की जिंदगी पर रीझनेवाले की जिंदगी से कितनी अलग है। यही चीज़ थी जिसने उसे वह कुछ पुकार उठने पर मजबूर कर दिया जो आगे उसकी ज़बान से नक़ल किया गया है।
56. हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और सबा की रानी का यह किस्सा बाइबल के पुराने और नये नियम और यहूदी रिवायतें, सब में विभिन्न तरीकों से आया है, मगर कुरआन का बयान इन सबसे अलग है। पुराने नियम में इस किस्से का सार यह है : “और जब सबा की रानी ने ख़ुदाबन्द के नाम के बारे में सुलैमान की ख्याति सुनी, तो वह आई ताकि कठिन प्रश्नों से उसे आज़माए और वह बहुत बड़ी शान-शौकत के साथ यरूशलम आई- जब वह सुलैमान के पास पहुँची तो उसने उन सब बातों के बारे में जो उसके दिल में थीं, उससे बातें कीं। सुलैमान ने उन सबका उत्तर दिया.. और जब सबा की रानी ने सुलैमान की सारी हिक्मत और उस महल को जो उसने बनवाया था और उसके दस्तरखवान की नेमतों और उसके कर्मचारियों की बैठक और उसके सेवकों की तेज़ी और उनको वर्दी और उसके साकियों और उस सीढ़ी को जिससे वह ख़ुदावंद के घर को जाता था, देखा तो उसके होश उड़ गए और उसने बादशाह से कहा कि वह सच्ची खबर थी जो मैंने तेरे कामों और तेरी हिक्मत के बारे में अपने देश में सुनी थी। तो भी मैंने उन बातों पर ध्यान न दिया, जब तक स्वयं अपनी आँखों से देख न लिया। और मुझे तो आधा भी नहीं बताया गया था, क्योंकि तेरी समझ और तेरा प्रताप उस ख्याति से जो मैंने सुना, बहुत ज़्यादा है। भाग्यवान है तेरे लोग और भाग्यवान हैं ये तेरे कर्मचारी जो बराबर तेरे समाने खड़े रहते और तेरी समझदारी की बातें सुनते हैं। ख़ुदाबन्द, तेरा ख़ुदा हो मुबारक हो जो तुझसे ऐसा प्रसन्न हुआ कि तुझे इसराईल के तख्त पर बिठाया और उसने बादशाह को एक सौ बीस किन्तार (अरबी का एक पैमाना) सोना और मसाले का बहुत बड़ा भडार और मूल्यवान जवाहर दिए और जैसे मसाले सबा की रानी ने सुलैमान बादशाह को दिए वैसे फिर कभी ऐसे बहुतायत के साथ न आए.... और सुलैमान बादशाह ने सबा की रानी को सब कुछ, जिसकी वह इच्छुक हुई और जो कुछ उसने माँगा दिया। फिर वह अपने कर्मचारियों सहित अपने देश को लौट गई।" (1-सलातीन 10:1-13 इसी से मिलता-जुलता विषय 2-इतिहास 9:1-12 में भी है) नये नियम में हज़रत ईसा के एक भाषण का केवल यह वाक्य सबा की रानी के बारे में नक़ल किया गया है : “दक्षिण की रानी अदालत के दिन इस ज़माने के लोगों के साथ उठकर इनको अपराधी ठहराएगी क्योंकि वह दुनिया के किनारे से सुलैमान को तत्वदर्शिता की बातें सुनने को आई, और देखो यहाँ वह है जो सुलैमान से भी बड़ा है ।” (मत्ती 12 : 43,लूका 11: 31) यहूदी रिब्बियों की रिवायतों में हज़रत सुलैमान और सबा को रानी का किस्सा अपने अधिकतर विवरणों में क़ुरआन से मिलता-जुलता है । हुदहुद का ग़ायब होना, फिर आकर सबा और उसकी रानी के हालात बयान करना, हज़रत सुलैमान का उसके द्वारा से पत्र भेजना। हुदहुद का ठीक उस वक़्त वह पत्र रानी के आगे गिराना, जबकि वह सूरज की पूजा को जा रही थी, रानी का उस पत्र को देखकर अपने मंत्रियों की कौंसिल आयोजित करना, फिर रानी का एक मूल्यवान उपहार हज़रत सुलैमान के पास भेजना, ख़ुद यरूशलम पहुँचकर उनसे मिलना, उनके महल में पहुँचकर यह ख्याल करना कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पानी के हौज़ में बैठे हैं और उसमें उतरने के लिए पांयचे चढ़ा लेना, यह सब उन रिवायतों में उसी तरह उल्लिखित है जिस तरह कुरआन में बयान हुआ है। मगर उपहार मिलने पर हज़रत सुलैमान का जवाब, रानी के तख्न को उठवा मँगाना, हर मौके पर उनका अल्लाह के आगे झुकना, और अन्ततः रानी का उनके हाथ पर ईमान लाना, ये सब बातें, बल्कि खुदापरस्ती और तौहीद (एकेश्वरवाद) की सारी बातें ही इन रिवायतों में नहीं हैं। सबसे बढ़कर भयंकर बात यह है कि इन ज़ालिमों ने हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर आरोप लगाया है कि उन्होंने सबा की रानी के साथ, मआज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह) ज़िना (व्यभिचार) किया और उसी हरामी नस्ल से बाबिल का बादशाह बख्न नसर पैदा हुआ, जिसने बैतुल मतिदस को नष्ट किया। (जैविश इंसाइक्लोपीडिया, भाग 11, पृ. 443) असल मामला यह है कि यहूदी उलमा का एक गिरोह हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का घोर विरोधी रहा है। उन लोगों ने उनपर तौरात के आदेशों का उल्लंघन, शासन का दंभ, बुद्धि विवेक का घमंड,नारी-मोह, भोग-विलास और शिर्क व बुतपरस्ती के घिनौने आरोप लगाए हैं। (जैविश इंसाइक्लोपिडिया, भाग 11, पृ० 439-441) और यह इसी प्रचार का प्रभाव है कि बाइबल उन्हें नबी के बजाय सिर्फ एक बादशाह की हैसियत से पेश करती है और बादशाह भी ऐसा जो, अल्लाह की पनाह, अल्लाह के आदेशों के विपरीत मुश्रिक औरतों के प्रेम में गुम हो गया, जिसका दिल अल्लाह से फिर गया और जो अल्लाह के सिवा दूसरे उपास्यों की ओर आकृष्ट हो गया । (1-सलातीन 11:1-11) इन चीज़ों को देखकर अन्दाज़ा होता है कि कुरआन ने बनी इसराईल पर कितना बड़ा उपकार किया है कि उनके बड़ों का दामन खुद उनकी फेंकी हुई गंदगियों से साफ़ किया और ये बनी इसराईल कितने कृतघ्न है कि इसपर भी ये कुरआन और उसके लानेवाले को अपना शत्रु समझते हैं।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ فَإِذَا هُمۡ فَرِيقَانِ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 44
(45) और 57 समूद की ओर हमने उनके भाई सालेह को (यह सन्देश देकर भेजा कि अल्लाह की बन्दगी करो, तो यकायक वे दो लड़नेवाले गिरोह फरीक़ बन गए।58
57. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयतें 73-79, सूरा-11 हूद, आयत 61-68, सूरा-26 अश-शुअरा 141-159,सूरा-54 अल-कमर 23-32, सूरा-91 अश-शम्स आयत 11-15 ।
58. अर्थात् ज्यों ही कि हज़रत सालेह की दावत शुरू हुई उनकी क़ौम दो गिरोहों में बँट गई । एक गिरोह ईमान लानेवालों का, दूसरा गिरोह इंकार करनेवालों का। और इस फूट के साथ ही उनके बीच संघर्ष शुरू हो गया, जैसा कि कुरआन मजीद में दूसरी जगह कहा गया है, "उसकी क़ौम में से जो सरदार अपनी बड़ाई का घमंड रखते थे, उन्होंने उन लोगों से जो कमजोर बनाकर रखे गए थे, जो उनमें से ईमान लाए थे, कहा, क्या वास्तव में तुम यह जानते हो कि सालेह अपने रब की ओर से भेजा गया है ?" उन्होंने उत्तर दिया हम उस चीज़ पर ईमान रखते हैं जिसको लेकर वे भेजे गए हैं। उन घमंडियों ने कहा, "जिस चीज़ पर तुम ईमान लाए हो, उसके हम इंकारी हैं।" (सूरा-7 अल-आराफ़, आयतें 75-76) याद रहे कि ठीक यही स्थिति मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाकर भेजे जाने के साथ मक्का में भी पैदा हुई थी कि क़ौम दो हिस्सों में बँट गई और इसके साथ ही इन दोनों गिरोहों में संघर्ष शुरू हो गया। इसलिए यह किस्सा आपसे आप उन परिस्थितियों पर फिट, हो रहा था, जिनमें ये आयतें उतरीं ।
قَالَ يَٰقَوۡمِ لِمَ تَسۡتَعۡجِلُونَ بِٱلسَّيِّئَةِ قَبۡلَ ٱلۡحَسَنَةِۖ لَوۡلَا تَسۡتَغۡفِرُونَ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 45
(46) सालेह ने कहा, “ ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! भलाई से पहले बुराई के लिए क्यों जल्दी मचाते हो?59 क्यों नहीं, अल्लाह से क्षमा माँगते? शायद कि तुमपर दया की जाए।"
59. अर्थात् अल्लाह से ख़ैर (भलाई) माँगने के बजाय अज़ाब माँगने में क्यों जल्दी करते हो? व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 (आराफ़), आयत 77।
قَالُواْ ٱطَّيَّرۡنَا بِكَ وَبِمَن مَّعَكَۚ قَالَ طَٰٓئِرُكُمۡ عِندَ ٱللَّهِۖ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ تُفۡتَنُونَ ۝ 46
(47) उन्होंने कहा, “हमने तो तुमको और तुम्हारे साथियों को अपशकुन का प्रतीक पाया है।"60 सालेह ने जवाब दिया, “तुम्हारे भले और बुरे शकुन का सिरा तो अल्लाह के पास है। सच्ची बात यह है कि तुम लोगों की परीक्षा हो रही है।"61
60. उनके इस कथन का एक अर्थ यह है कि तुम्हारा यह आन्दोलन हमारे लिए अत्यंत अशुभ सिद्ध हुआ है, जबसे तुमने और तुम्हारे साथियों ने बाप-दादा के धर्म के विरुद्ध यह विद्रोह शुरू किया है, हमपर आए दिन कोई न कोई मुसीबत आती रहती है । इस अर्थ की दृष्टि से यह कथन प्रायः उन मुश्कि कौमों के कथनों से मिलता-जुलता है जो अपने नबियों को मनहूस करार देती थीं। [मिसाल के लिए देखिए सूरा-36 यासीन, आयत 18 और सूरा-37 आराफ़, आयत 130] दूसरा अर्थ इस कथन का यह है कि तुम्हारे आते ही हमारी क़ौम में फूट पड़ गई है। पहले हम एक क़ौम थे जो एक दीन पर जमा थे। तुम ऐसे महापुरुष' आए कि भाई-भाई का दुश्मन हो गया और बेटा बाप से कट गया। यही वह आरोप था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) के विरोधी आपके विरुद्ध बार-बार पेश करते थे।
61. अर्थात् बात वह नहीं है जो तुमने समझ रखी है। असल मामला जिसे अब तक तुम नहीं समझे हो यह है कि मेरे आने से तुम्हारी परीक्षा शुरू हो गई है, जब तक मैं न आया था तुम अपनी अज्ञानता में एक डगर पर चले जा रहे थे। सत्य और असत्य का कोई खुला अन्तर सामने न था, मगर अब एक कसौटो आ गई है जिसपर तुम सब जाँचे और परखे जाओगे। अब सत्य और असत्य आमने-सामने मौजूद हैं, जो सत्य को अपनाएगा वह भारी उतरेगा और जो असत्य पर जमेगा, उसका वज़न रत्ती भर भी न रहेगा, चाहे वह आज तक सरदारों का सरदार ही बना रहा हो।
وَكَانَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ تِسۡعَةُ رَهۡطٖ يُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا يُصۡلِحُونَ ۝ 47
(48) उस शहर में नौ जत्थेदार थे62 जो देश में बिगाड़ फैलाते और कोई सुधार का काम न करते थे।
62. अर्थात् कबीलों के नौ सरदार जिनमें से हर एक अपने साथ एक बड़ा जत्था रखता था।
قَالُواْ تَقَاسَمُواْ بِٱللَّهِ لَنُبَيِّتَنَّهُۥ وَأَهۡلَهُۥ ثُمَّ لَنَقُولَنَّ لِوَلِيِّهِۦ مَا شَهِدۡنَا مَهۡلِكَ أَهۡلِهِۦ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 48
(49) उन्होंने आपस में कहा, “अल्लाह की क़सम खाकर प्रण कर लो कि हम सालेह और उसके घरवालों पर रात हमला करेंगे और फिर उसके वली63 (अभिभावक) से कह देंगे कि हम उसके परिवार के विनाश के मौके पर मौजूद न थे, हम बिल्कुल सच कहते है।"64
63. अर्थात् हज़रत सालेह (अलैहि.) के क़बीले के सरदार से जिसको पुराने क़बीलेवालों के रस्म व रिवाज के अनुसार उनके ख़ून के दावे का हक़ पहुंचता था। यह वही स्थिति थी जो नबी (सल्ल०) के समय आपके चचा अबू तालिब को प्राप्त थी। कुरैश के विधर्मी भी इसी अन्देशे से हाथ रोकते थे कि अगर नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर देंगे तो बनी हाशिम के सरदार अबू तालिब अपने क़बीले की ओर से ख़ून का दावा लेकर उठेंगे।
64. यह ठीक उसी प्रकार का षड्यंत्र था जैसा मक्का के कबीलों के सरदार नबी (सल्ल.) के ख़ि़लाफ़ सोचने रहते थे और अन्ततः यही षड्यंत्र उन्होंने हिजरत के मौके पर नबी (सल्ल०) को कल करने के लिए किया। अर्थात् यह कि सब क़बीले के लोग मिलकर आप पर हमला करें ताकि बनी हाशिम किसी एक क़बीले को आरोपी न ठहरा सकें और सब कबीलों से एक ही समय में लड़ना उनके लिए संभव न हो।
وَمَكَرُواْ مَكۡرٗا وَمَكَرۡنَا مَكۡرٗا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 49
(50) यह चाल तो वे चले और फिर एक चाल हमने चली जिसकी उन्हें खबर न थी।65
65. अर्थात् इससे पहले कि वे अपने निर्धारित समय पर हज़रत सालेह के यहाँ रात में हमला करते, अल्लाह ने अपना अज़ाब भेज दिया और न सिर्फ वह, बल्कि उनकी पूरी कोम नष्ट हो गई। मालूम ऐसा होता है कि यह षड्यंत्र उन लोगों ने ऊंटनी की कूचे काटने के बाद किया था। मूग-11 हूद में उल्लेख हुआ है कि जब उन्होंने ऊँटनी को मार डाला, तो हज़रत सालेह ने उन्हें नोटिस दिया कि बस अब तीन दिन मजे का लो, इसके बाद तुमपर अज़ाब आ जाएगा। इसपर शायद उन्होंने सोचा होगा कि अजाब जिसका वादा सालेह कर रहा है आए चाहे न आए, हम लगे हाथों ऊंटनी के साथ उसका भी क्यों न काम तमाम कर दें। चुनांचे अधिक संभावना यह है कि उन्होंने रात में हमला बोलने के लिए वही रात तज्‍वीज़ की होगी जिस रात अज़ाब आना था और इससे पहले कि उनका हाथ हज़रत सालेह पर पड़ता अल्लाह का ज़बरदस्त हाथ उन पर पड़ गया।
فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ مَكۡرِهِمۡ أَنَّا دَمَّرۡنَٰهُمۡ وَقَوۡمَهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 50
(51) अब देख लो कि उनकी चाल का अंजाम क्या हुआ। हमने नष्ट करके रख दिया उनको और उनकी पूरी क़ौम को ।
فَتِلۡكَ بُيُوتُهُمۡ خَاوِيَةَۢ بِمَا ظَلَمُوٓاْۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 51
(52) वे उनके घर खाली पड़े हैं उस ज़ुल्म के बदले में जो वे करते थे, इसमें शिक्षा सामग्री है उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखते हैं।66
66. अर्थात् अज्ञानियों का मामला तो दूसरा है। वे तो कहेंगे कि हजरत सालेह और उनकी ऊँटनी के मामले से इस भूकम्प का कोई ताल्लुक़ नहीं है जो समूद कौम पर आया, ये चीजें तो अपने प्राकृतिक कारणों से आया करती हैं, लेकिन जो लोग ज्ञान रखते हैं, वे जानते हैं कि कोई अंधा-बहरा खुदा इस सृष्टि पर शासन नहीं कर रहा है, बल्कि एक तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञाता सत्ता यहाँ किस्मतों के फैसले कर रही है। उसके फ़ैसले प्राकृतिक कारणों के दास नहीं हैं, बल्कि प्राकृतिक कारण उसके इरादे के दास हैं। उसके यहाँ क़ौमों को गिराने और उठाने के फैसले तत्त्वदर्शिता और न्याय के साथ किए जाते हैं। इन वास्तविकताओं से जो लोग
وَأَنجَيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 52
(53) और बचा लिया हमने उन लोगों को जो ईमान लाए थे और अवज्ञा से बचते थे।
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 53
(54) और लूत67 को हमने भेजा। याद करो वह समय जब उसने अपनी कौम से कहा, "क्या तुम आँखो देखते कुकर्म करते हो?68
67. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 80-84, सूरा- 11 हूद 74-83, सूरा- 15 अल-हिज 57-77, सूरा-21 अल-अंबिया 71-75, सूरा- 26 अश-शुअरा 160-174, सूरा- 29 अल-अंकबूत 28-75, सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात 133-138, सूरा-54 अल-क़मर 33-39
68. इस कथन के कई अर्थ हो सकते हैं और शायद वे सब ही अभिप्रेत हैं- एक यह कि तुम इस अश्लील और दुष्कर्म से अपरिचित नहीं हो, बल्कि जानते-बूझते उसे करते हो। दूसरे यह कि तुम इस बात से भी अनजान नहीं हो कि मर्द की काम-वासना के लिए मर्द नहीं पैदा किया गया, बल्कि औरत पैदा की गई है। तीसरे यह कि तुम एक-दूसरे के सामने कुकर्म करते हो। इसका विवरण आगे सूरा-29 अनकबूत, आयत 29 में भी आया है कि वे अपनी मज्लिसों में यह कुकर्म करते थे।
أَئِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ شَهۡوَةٗ مِّن دُونِ ٱلنِّسَآءِۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ تَجۡهَلُونَ ۝ 54
(55) क्या तुम्हारा यही चलन है कि औरतों को छोड़कर मर्दों के पास वासना पूरी करने के लिए जाते हो? वास्तविकता यह है कि तुम लोग घोर अज्ञानता का कार्य करते हो।"69
69. अज्ञानता (जिहालत) का शब्द यहाँ मूर्खता और बुद्धिहीनता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । हिन्दी में भी हम गाली-गलौज और बेहूदा हरकतों के करनेवाले को कहते हैं कि वह जिहालात (अज्ञानता) पर उतर आया है। इस अर्थ में यह शब्द अरबी भाषा में भी प्रयुक्त होता है। चुनांचे कुरआन मजीद में इरशाद होता है "और जब जाहिल उनके मुंह आएँ तो सलाम कहकर निकल जाते हैं।" (सूरा-25 अल-फ़ुर्क़ान, आयत 63) लेकिन अगर इस शब्द को अज्ञानता ही के अर्थ में लिया जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि तुम अपनी इन हरकतों के बुरे अंजाम को नहीं जानते। अल्लाह का अज़ाब तुमपर टूट पड़ने के लिए तैयार खड़ा है और तुम हो कि अंजाम से बे-खबर अपने इस गन्दे खेल में लगे हुए हो ।
۞فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَخۡرِجُوٓاْ ءَالَ لُوطٖ مِّن قَرۡيَتِكُمۡۖ إِنَّهُمۡ أُنَاسٞ يَتَطَهَّرُونَ ۝ 55
(56) मगर उसकी क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, "निकाल दो लूत के घरवालो को अपनी बस्ती से, ये बड़े पवित्राचारी बनते हैं।"
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَٰهَا مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 56
(57) अन्तत: हमने बचा लिया उसको और उसके घरवालों को, अलावा उसको बीवी के जिसका पीछे रह जाना हमने तय कर दिया था70
70. अर्थात् पहले ही हज़रत लूत (अलैहि०) को हिदायत कर दी गई थी कि वे उस औरत को अपने साथ न ले जाएँ, क्योंकि उसे अपनी कौम के साथ ही नष्ट होना है।
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَسَآءَ مَطَرُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 57
(58) और बरसाई उन लोगों पर एक बरसात, बहुत ही बुरी बरसात थी वह उन लोगों के हक में जिनको सचेत किया जा चुका था।
قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ وَسَلَٰمٌ عَلَىٰ عِبَادِهِ ٱلَّذِينَ ٱصۡطَفَىٰٓۗ ءَآللَّهُ خَيۡرٌ أَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 58
(59) (ऐ नबी !71) कहो, प्रशंसा है अल्लाह के लिए और सलाम उसके उन बन्दो पर जिन्हें उसने चुन लिया। (इनसे पूछो) अल्लाह बेहतर है या वे उपास्य जिन्हें ये लोग उसका साझी बना रहे है?72
71. यहाँ से दूसरा व्याख्यान शुरू होता है और यह वाक्य उसकी भूमिका है। इस भूमिका से यह शिक्षा दी गई है कि मुसलमानों को अपने भाषण का आरंभ किस तरह [अल्लाह की स्तुति और नेक बन्दों पर सलाम से] करना चाहिए।
72. प्रत्यक्ष में यह प्रश्न विचित्र सा लगता है कि अल्लाह बेहतर है या ये झूठे उपास्य । चुनांचे स्वयं मुश्रिक भी) इस भ्रम में न थे कि अल्लाह का और इन उपास्यों का कोई मुकाबला है, लेकिन यह सवाल इनके सामने इसलिए रखा गया कि वे अपनी ग़लती पर सचेत हों। और वे महसूस कर लें कि जब अल्लाह हर हैसियत से बेहतर है तो उनके दीन की कोई बुनियाद नहीं रह जाती। इसलिए कि फिर यह बात पूर्णत: अनुचित समझी गई थी कि बेहतर को छोड़कर बदतर को अपनाया जाए।
أَمَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَأَنزَلَ لَكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَنۢبَتۡنَا بِهِۦ حَدَآئِقَ ذَاتَ بَهۡجَةٖ مَّا كَانَ لَكُمۡ أَن تُنۢبِتُواْ شَجَرَهَآۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٞ يَعۡدِلُونَ ۝ 59
(60) भला वह कौन है जिसने आसमानों और जमीन को पैदा किया और तुम्हारे लिए आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके जरिये से वह खुशनुमा बाग़ उगाए जिनके पेड़ों का उगाना तुम्हारे बस में न था? क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी (इन कामों में शरीक) है?73 (नही) बल्कि यही लोग सीधे रास्ते से हटकर चले जा रहे हैं।
73. मुश्किों में से कोई भी इस सवाल का यह जवाब न दे सकता था कि ये काम अल्लाह के सिवा किसी और के हैं या अल्लाह के साथ कोई और भी उनमें शरीक है। क़ुरआन मजीद ने विभिन्न स्थानों पर मक्का के विधर्मियों और अरब के मुश्रिकों का यह मानना और उनका यह अक़ीदा नक़ल किया है कि वह अल्लाह ही है जिसने ज़मीन और आसमान को पैदा किया है (सूरा-43 जुख रूफ, आयत 9), जिसने स्वयं उन्हें भी अस्तित्त्व प्रदान किया है (सूरा-43 जूख-रूफ़, आयत 87), जिसने आसमान से पानी बरसाया और मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया है। (सूरा-39 अनकबूत, आयत 63) और जो इस जगत् की इस व्यवस्था का संचालन कर रहा है । (सूरा-10 यूनूस, आयत 31) अरब के मुश्कि ही नहीं, दुनिया भर के मुश्कि सामान्य रूप से यही मानते थे और आज भी मानते हैं कि सृष्टि का पैदा करनेवाला और सृष्टि-व्यवस्था का नियंता अल्लाह ही है। इसलिए कुरआन मजीद के इस सवाल का यह जवाब उनमें से कोई आदमी हठधर्मी को बुनियाद पर बहस के लिए भी न दे सकता था कि हमारे उपास्य अल्लाह के साथ इन कामों में शरीक हैं। इस सवाल और इसके बाद के सवालों में सिर्फ़ मुश्किों ही के शिर्क का झुठलाना नहीं है, बल्कि नास्तिकों को नास्तिकता का भी खंडन है। जैसे इसी पहले सवाल में पूछा गया है कि यह बारिश बरसानेवाला और उसके ज़रिये से हर तरह के पेड़-पौधे उगानेवाला कौन है? अब विचार कीजिए, ज़मीन में उस तत्त्व का ठीक सतह पर या सतह से मिला हुआ मौजूद होना, जो अनगिनत विभिन्न प्रकार के वनस्पति वाली जिंदगी के लिए दरकार है और पानी के अन्दर ठीक उन गुणों का मौजूद होना, जो जैविक और वनस्पति जीवन को ज़रूरतों के अनुसार हैं, और इस पानी का बार बार समुद्रों में उठाया जाना और ज़मीन के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर एक नियम के साथ बरसाया जाना और ज़मीन, हवा, पानी और तापमान आदि अलग-अलग ताक़तों के दर्मियान ऐसा संतुलित सहयोग स्थापित करना कि इससे वनस्पति-जीवन को विकास मिले और वे हर तरह की जैविक जीवन के लिए उसकी अनगिनत ज़रूरत पूरी करे, क्या यह सब कुछ एक तत्त्वदर्शी की योजनाबद्धता और बुद्धिसंगत उपाय और प्रभावकारी इरादे के बगैर स्वतः संयोग वश हो सकता है? और क्या वह संभव है कि यह संयोगीय घटना लगातार हज़ारों वर्ष बल्कि लाखों-करोड़ों वर्षों तक इसी नियम-बद्धता से घटित होती चली जाए? सिर्फ़ एक हठधर्म आदमी हो जो तास्सुब में अंधा हो चुका हो, उसे एक संयोग का मामला कह सकता है, किसी सत्यप्रिय बुद्धिमान इंसान के लिए ऐसा निरर्थक दावा करना और मानना संभव नहीं है।
أَمَّن جَعَلَ ٱلۡأَرۡضَ قَرَارٗا وَجَعَلَ خِلَٰلَهَآ أَنۡهَٰرٗا وَجَعَلَ لَهَا رَوَٰسِيَ وَجَعَلَ بَيۡنَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ حَاجِزًاۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 60
(61) और वह कौन है जिसने ज़मीन को ठहरने की जगह 74 बनाया और उसके अन्दर नदियाँ जारी की और उसमें (पहाड़ों की) मेखे गाड़ दी और पानी के दो भंडारों के दर्मियान परदे डाल दिए?75 क्या अल्लाह के साथ कोई और खुदा भी (इन कामों में शरीक) है? नहीं, बल्कि इनमें से अधिकतर लोग नादान है।
74. ज़मीन का अपनी विभिन्न प्रकार की असीम आबादी के लिए ठहरने की जगह होना भी कोई सादा-सी बात नहीं है। इसी धरती को जिन विवेकपूर्ण अनुकूलताओं के साथ बनाया गया है, उनके विवरण पर आदमी विचार करे तो उसकी बुद्धि चकित रह जाती है और उसे ऐसा महसूस होता है कि यह अनुकूलताएँ एक तत्त्वदर्शी, विवेकी और सर्वशक्तिमान के उपाय के बगैर कायम न हो सकती थी। यह पृथ्वी विस्तृत वायुमंडल में स्थित है, मगर इसके बावजूद इसमें कोई हलचल और कम्पन नहीं है। अगर इसमें जरा-सा भी कम्पन होता तो यहाँ कोई आबादी संभव न थी। यह पृथ्वी नियमानुसार सूरज के सामने आतो और छिपती है, जिससे रात और दिन होते हैं। अगर इसका एक ही रुख हर वक्त सूरज के सामने रहता और दूसरा रुख़ हर वक़्त छिपा रहता तो यहाँ कोई आबादी संभव न होतो। इस पृथ्वी पर पाँच सौ मील ऊँचाई तक हवा का एक मोटा रद्दा चढ़ा दिया गया है जो उल्का पिण्डों की ख़ौफ़नाक बमबारी से उसे बचाए हुए है, वरना हर दिन दो करोड़ उल्काएँ, जो 30 मील प्रति सेकंड की रफ़्तार से ज़मीन की ओर गिरती हैं यहाँ वे तबाही मचातों कि कोई इंसान, जीव या पेड़ जीवित न रह सकता था। यही हवा तापमान को क़ाबू में रखती है, यही समुद्रों से बादल उठाती है और धरती के विभिन्न भागों तक पानी पहुंचाने की सेवा करती है और यही इंसान और जीव और वनस्पतियों के जीवन को वांछित गैसें जुटाती है। यह न होती तब भी ज़मीन किसी आबादी के लिए ठहरने की जगह न बन सकती । इस धरती को सूरज से एक खास दूरी पर रखा गया है जो आबादी के लिए अत्यंत अनुकूल है। अगर उसका फासला ज़्यादा होता तो सूरज से उसको गर्मी कम मिलती, सर्दी बहुत ज़्यादा होती, मौसम बहुत लम्बे होते और मुश्किल ही से यह आबादी के क़ाबिल होती और अगर दूरी कम होती तो इसके विपरीत गर्मो की ज़्यादती और दूसरी बहुत-सी चीजें मिल-जुलकर उसे इंसान जैसी मखलूक के रहने के काबिल न रहने देतीं। ये सिर्फ कुछ वे अनुकूलताएँ हैं जिनके कारण ज़मीन अपनी मौजूदा आबादी के लिए निवास स्थान बनी है। कोई आदमी बुद्धि रखता हो और इन बातों को निगाह में रखकर सोचे तो वह एक लम्हे के लिए भी न यह सोच सकता है कि किसी तत्वदर्शी-स्रष्टा के बग़ैर ये अनुकूलताएँ सिर्फ़ एक संयोग और घटना के नतीजे में अपने आप कायम हो गई हैं और न यह गुमान कर सकता है कि सृष्टि-संरचना की इस महान योजना को बनाने और उसे कार्यान्वित रूप देने में किसी देवी-देवता या जिन्न,या नबी व वली या फ़रिश्ते का कोई हाथ है।
75. अर्थात् मीठे और खारे पानी के भंडार जो इसी धरती पर मौजूद हैं, मगर आपस में गड्ड-मड्ड नहीं होते। भूमिगत पानी को स्रोतें कभी-कभी एक ही क्षेत्र में खारा पानी अलग और मीठा पानी अलग लेकर चलते हैं । खारा पानी के समुद्र तक में कुछ जगहों पर मीठे पानी के स्रोत बहते हैं और उनकी धार समुद्र के पानी से अलग होती है। (विस्तृत वार्ता के लिए देखिए सूरा-25, अल फ़ुरक़ान, टिप्पणी-68)
أَمَّن يُجِيبُ ٱلۡمُضۡطَرَّ إِذَا دَعَاهُ وَيَكۡشِفُ ٱلسُّوٓءَ وَيَجۡعَلُكُمۡ خُلَفَآءَ ٱلۡأَرۡضِۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 61
(62) कौन है जो बे-करार (विकल) की दुआ सुनता है जबकि वह उसे पुकारे और कौन उसका कष्ट दूर करता है?76 और (कौन है जो) तुम्हें जमीन का ख़लीफ़ा बनाता है?77 क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी (यह काम करनेवाला) है? तुम लोग कम ही सोचते हो।
76. अरब के मुश्कि स्वयं इस बात को जानते और मानते थे कि मुसीबत को टालनेवाला वास्तव में अल्लाह ही है। (विस्तार के लिए देखिए सूरा 6 अल-अनआम, टिप्पणी 29-41, सूरा-10, यूनुस आयत 21-22, टिप्पणी 31, सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी-46, सूरा-17, बनी इसराईल, टिप्पणी 84)
77. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल और एक कौम के बाद दूसरी क़ौम उठाता है। दूसरे यह कि तुमको ज़मीन में उपभोग और शासन के अधिकार प्रदान करता है।
أَمَّن يَهۡدِيكُمۡ فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ وَمَن يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦٓۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ تَعَٰلَى ٱللَّهُ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 62
(63) और वह कौन है जो ख़ुश्की और समुद्र के अंधेरों में तुमको रास्ता दिखाता है78 और कौन अपनी रहमत के आगे हवाओं को शुभ सूचना लेकर भेजता है?79 क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी (यह काम करता) है ? बहुत उच्च व श्रेष्ठ है अल्लाह उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
78. अर्थात् जिसने सितारों के जरिये से ऐसा प्रबन्ध कर दिया है कि तुम रात के अंधेरे में भी अपना रास्ता खोज सकते हो, यह भी अल्लाह के विवेकपूर्ण उपायों में से एक है कि उसने भूमि और समुद्र के सफ़रों में इन्सान की रहनुमाई के लिए वे साधन पैदा कर दिए हैं जिनसे वह अपने सफ़र की दिशा और अभीष्ट मंजिल की ओर अपनी राह तय करता है।
79. रहमत से तात्पर्य है वर्षा जिसके आने से पहले हवाएँ उसके आगमन की ख़बर दे देती हैं।
أَمَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَمَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۗ أَءِلَٰهٞ مَّعَ ٱللَّهِۚ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 63
(64) और वह कौन है जो सृष्टि का आरंभ करता और फिर उसे दोहराता है?80 और कौन तुमको आसमान और जमीन से रोजी देता है?81 क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी (इन कामों में हिस्सेदार) है? कहो कि लाओ अपनी दलील अगर तुम सच्चे हो?82
80. यह सादा-सी बात जिसको एक वाक्य में बयान कर दिया गया है अपने भीतर ऐसी व्यापकता रखती है कि आदमी उसकी गहराई में जितनी दूर तक उतरता जाता है, उतने ही अल्लाह के अस्तित्त्व और उसके एक होने के प्रमाण उसे मिलते चले जाते हैं। पहले तो स्वयं रचना कार्य को ही देखिए । इंसान का ज्ञान आज तक यह भेद नहीं पा सका है कि जिंदगी कैसे और कहां से आती है। इस समय तक सर्वमान्य वैज्ञानिक मान्यता यही है कि बेजान पदार्थ के सिर्फ़ संयोजन से अपने आप जान नहीं पैदा हो सकती। [विज्ञान के समस्त अनुभवों और अनुसंधानात्मक प्रयत्नों के उपरांत] ज़िंदगी अब भी अपने आपमें चमत्कार ही है जिसका कोई वैज्ञानिक कारण इसके सिवा नहीं बताया जा सकता है कि यह एक पैदा करनेवाले के हुक्म और इरादे और योजना का परिणाम है। इसके बाद आगे देखिए। ज़िंदगी मात्र एक रूप में नहीं, बल्कि भांति-भांति रंगारंग रूपों में पाई जाती है। इस वक्त (अर्थात् 1960 ई०) धरती पर प्राणियों की लगभग दस लाख और वनस्पतियों की लगभग दो लाख क़िस्मों का पता चला है। ये लाखों किस्में अपनी बनावट और जातीय विशेषताओं में एक दूसरे से अत्यन्त स्पष्ट अंतर रखती हैं और प्राचीनतम ज्ञात काल से अपने-अपने रूपों को इस तरह लगातार बरकरार रखती चली आ रही हैं कि एक अल्लाह की रचनात्मक योजना (Design) के सिवा ज़िंदगी के इस बड़ी विभिन्नताओं का कोई और यथोचित कारण बता देना किसी डार्विन के बस की बात नहीं है। इस समय तक यह सत्य अपनी जगह बिल्कुल अटल है कि एक तत्वदर्शी निर्माता, एक संरचना के प्रारूपक अस्तित्वदाता; रूप देनेवाले ने जिंदगी को ये लाखों अलग-अलग रूप दिए हैं। यह तो है पहली बार पैदा करने का मामला। अब तनिक पुनः पैदा करने पर विचार कीजिए । स्रष्टा ने जीवों और वनस्पतियों की बनावट और रचना में वह चकित करनेवाला रचनातंत्र (Mechanism) रख दिया है जो उसके अनगनित जाति और प्रजाति में से असीमित एवं असंख्य नस्ल ठीक उसी के रूपों और प्राकृतिक विशेषताओं के साथ निकलता चला जाता है और कभी झूटों (भूले से) भी उन करोड़ों लोटे-छोटे कारखानों में यह भूल-चूक नहीं होती कि एक विशेष जाति प्रजानि को वंश-उत्पति की कोई कार्यशाला किसी दूसरी प्रजाति का एक नमूना निकालकर फेंक दे। अगर कोई आदमी प्रजनन के कोशाणु को उस सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखे जो समस्त जातीय अंतरों और पैतृक विशेषताओं को अपने तनिक से अस्तित्व के भी मात्र एक भाग में लिए हुए होता है और फिर इस अत्यंत सूक्ष्म और जटिल अंग-व्यवस्था और अत्यन्त सूक्ष्म और पेंचदार प्रक्रियाओं (Progresses) को देखिए, जिनकी मदद से हर जाति के हर व्यक्ति का कोशाणु उसी जाति का व्यक्ति अस्तित्व में लाता है, तो वह एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोच सकता कि ऐसी सूक्ष्म और जटिल कार्य व्यवस्था कभी अपने आप बन सकती है और फिर विभिन्न जातियों के अरबों मिलियन व्यक्तियों में आपसे आप ठीक चलती भी रह सकती है। यह चीज़ न केवल अपनी शुरुआत के लिए एक तत्त्वदर्शी रचनाकार चाहती है, बल्कि हर क्षण अपने ठीक तरीक़े पर चलते रहने के लिए जीवन्त सत्ता की मुहताज है जो इस पूरी व्यवस्था। को कायम और स्थिर रखने वाली हो और जो एक क्षण के लिए भी इन कारखानों की निगरानी व रहनुमाई से गाफिल न हो । ये तथ्य एक नास्तिक के रचनाकार के इंकार की भी उसी तरह जड़ काट देते हैं, जिस तरह एक मुश्कि के शिर्क की। कौन मूर्ख़ यह विचार कर सकता है कि अल्लाह के इस काम में कोई फ़रिश्ता या जिन्न या नबी या वली कण भर भी कोई हिस्सा रखता है और कौन बुद्धिवाला व्यक्ति दुराग्रह से युक्त होकर यह कह सकता है कि पैदा करने या दोबारा पैदा करने का यह सारा कारखाना इस पूर्ण तत्त्वदर्शिता और अनुशासन के साथ संयोगवश शुरू हुआ और आप से आप चले जा रहा है।
81. रोज़ी देने का मामला भी यह है कि इस ज़मीन पर लाखों प्रकार के जीव और लाखों प्रकार की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं जिनमें से हर एक अरबों की संख्या में है और हर एक की आहार संबंधी आवश्यकताएँ अलग है। पैदा करनेवाले प्रभु ने इनमें से हर प्रकार के जीव एवं वनस्पनि के आहार का सामान इस अधिकता से और हर एक को पहुंच से इतना करीब जुटा दिया है कि इनमें से कोई भी यहाँ आहार पाने से वंचित नहीं रह जाता। फिर इस प्रबन्ध में ज़मीन व आसमान की इतनी अनेक शक्तियाँ मिलजुल कर काम करती हैं जिनका गिनना कठिन है । कौन आदमी सोच सकता है कि यह तत्त्वदर्शितापूर्ण प्रबन्ध एक नियंता के नियंत्रण और सोची समझी योजना के बिना यूँ ही संयोगवश से हो सकता था? या इस प्रबन्ध में किसी जिन्न या फ़रिश्ते या किसी बुजुर्ग की रूह का कोई दखल है?
قُل لَّا يَعۡلَمُ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلۡغَيۡبَ إِلَّا ٱللَّهُۚ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ ۝ 64
(65) इनसे कहो : अल्लाह के सिवा आसमानों और जमीन में कोई परोक्ष का ज्ञान नहीं रखता।83 और (वे तुम्हारे उपास्य तो यह भी) नहीं जानते कि कब वे उठाए जाएँगे?84
83. ऊपर सृष्टि-रचना, संचालन करने और भरण-पोषण करने की दृष्टि से अल्लाह के एक होने (अर्थात् अकेले खुदा और अकेले उपासना का अधिकारी होने) पर दलील लाई गई थी। अब खुदाई के एक और गुण अर्थात् ज्ञान की दृष्टि से बताया जा रहा है कि इसमें भी अल्लाह ला-शरीक (अर्थात् उसका कोई साझी नहीं) है । रौब का अर्थ-छिपा हुआ, अदृश्य और परोक्ष है। परिभाषा में इमसे तात्पर्य वे तमाम चीजें हैं जो मालूम न हों, जिस तक ज्ञान-साधनों की पहुंच न हो, दुनिया में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जो अलग-अलग कुछ इंसानों को मालूम हैं और कुछ को नहीं और बहुत सी चीजें ऐसी हैं जो सामान्यतः सम्पूर्ण मानव-जाति के ज्ञान में न कभी थीं न आज हैं न आगे कभी आएंगी। ऐसा ही मामला जिन्नों, फ़रिश्तों और दूसरी चीज़ों का भी है। ये तमाम तरह के रौब सिर्फ एक ज़ात पर रौशन हैं और वह अल्लाह की ज़ात है। उसके लिए कोई चीज़ गैब (अप्रत्यक्ष) नहीं, सब प्रत्यक्ष ही प्रत्यक्ष है। इस सच्चाई को बयान करने में सवाल का वह तरीक़ा नहीं अपनाया गया जो ऊपर सृष्टि रचना व संचालन तथा जीविका दाता होने के बयान में अपनाया गया। इसका कारण यह है कि उन गुणों के कारण तो बिल्कुल स्पष्ट हैं जिन्हें हर व्यक्ति देख रहा है और उनके बारे में विधर्मों और मुश्कि तक यह मानते थे और मानते हैं कि ये सारे काम अल्लाह ही के हैं, लेकिन ज्ञान का गुण अपना कोई ऐसा लक्षण नहीं रखता जिसकी अनुभूति हो जिनकी ओर संकेत किया जा सके । यह मामला सिर्फ सोच-विचार ही से समझ में आ सकता है। इसलिए इसको सवाल के बजाय दावे को शैली में प्रस्तुत किया गया है। ईश्वत्त्व और परोक्ष-ज्ञान के दर्मियान एक ऐसा गहरा ताल्लुक़ है कि प्राचीनतम समय से इंसान ने जिस हस्ती में ईश्वत्व के किसी अंश का विचार किया है, उसके बारे में यह विचार ज़रूर किया है कि उसपर सब कुछ रौशन है और कोई चीज़ उससे छिपी हुई नहीं है। मानो इंसान को बुद्धि इस सत्य को बिल्कुल स्पष्ट रूप से जानती है कि भाग्यों का बनाना और बिगाड़ना, दुआओं का सुनना और ज़रूरतें पूरी करना केवल उसी हस्ती का कर्म हो सकता है जो सब कुछ जानती हो और जिससे कुछ भी छिपा हुआ न हो। अब अगर यह वास्तविकता है कि पैदा करनेवाला, नियंता और दुआओं का सुननेवाला और रोज़ी देनेवाला अल्लाह के सिवा कोई दूसरा नहीं है, जैसा कि ऊपर की आयतों में सिद्ध किया गया है, तो आप से आप यह भी सत्य है कि गैब का जाननेवाला भी अल्लाह के सिवा कोई दूसरा नहीं। फिर यह गुण विश्लेषणीय भी नहीं है कि कोई बन्दा जैसे सिर्फ पृथ्वी की हद तक, और पृथ्वी में भी केवल इंसानों की हद तक रौब का जाननेवाला हो। यह उसी तरह विश्लेषणीय नहीं है जिस तरह अल्लाह का पैदा करना, रोज़ी देना, संचालन करना और भरण-पोषण विश्लेषणीय नहीं है। आदिकाल से वर्तमान काल तक जितने इंसान दुनिया में पैदा हुए और क़ियामत तक पैदा होंगे, माँ के गर्भाश्य में गर्भ के ठहरने से जीवन की अन्तिम घड़ी तक इन सबके हालात और स्थितियों को जानना आख़िर किस बन्दे का काम हो सकता है? और वह कैसे और क्यों इसको जानेगा जब कि वह न उनका पैदा करनेवाला है, न रोज़ी देनेवाला है, न भाग्य बनानेवाला है। इसी आधार पर यह इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा (विश्वास) है कि ग़ैब का जाननेवाला अल्लाह के सिवा कोई दूसरा नहीं है। अल्लाह अपने बन्दों में से जिस पर चाहे और जितना चाहे अपने ज्ञान का कोई हिस्सा उसे दे दे। और किसी ग़ैब या कुछ ग़ैबों को उस पर रौशन कर दे, लेकिन ग़ैब का ज्ञान कुल मिलाकर किसी को प्राप्त नहीं और ग़ैब का ज्ञान रखनेवाले की विशेषता केवल अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए विशिष्ट है । (देखिए सूरा-6 अनआम, आयत 59, सूरा-31 लुकमान, आयत 34, सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 255) कुरआन मजीद सृष्टि (जीव प्राणी) के लिए गैब के ज्ञान का पूर्णतः निषेध ही नहीं करता, बल्कि मुख्य रूप से नबियों और खुद हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में इस बात की स्पष्ट व्याख्या करता है कि वे गैब के जानने वाले नहीं हैं और उनको रौब का सिर्फ उतना ज्ञान अल्लाह की ओर से दिया गया है जो रिसालत की ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए चाहिए था। सूरा । अन-आम, आयत 50, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 187, सूरा-) अत-तौबा, आयत 101, सूरा-11 हूद, आयत 31, सूरा-33 अहज़ाब, आयत 63, सूरा 46 अल-अहकाफ़, आयत 9, सूरा-66 ' अत-तहरीम, आयत 3 और सूरा-72 अल-जिन्न, आयतें 26-28) इस मामले में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं छोड़तीं।
84. अर्थात् दूसरे जिनके बारे में यह समझा जाता है कि उन्हें ग़ैब का ज्ञान है और इसी कारण जिनको तुम लोगों ने ईश्वत्त्व में साझी ठहरा लिया है, उन बेचारों को तो ख़ुद अपने भविष्य का भी पता नहीं। वे नहीं जानते कि कब क़ियामत को वह घड़ी आएगी जब अल्लाह उनको दोबारा उठा खड़ा करेगा।
بَلِ ٱدَّٰرَكَ عِلۡمُهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ مِّنۡهَاۖ بَلۡ هُم مِّنۡهَا عَمُونَ ۝ 65
(66) बल्कि आख़िरत का तो ज्ञान ही इन लोगों से गुम हो गया है, बल्कि ये उसकी ओर से सन्देह में हैं, बल्कि ये उससे अंधे हैं।85
85. अल्लाह के एक होने के बारे में उन लोगों की बुनियादी ग़लतियों पर सचेत करने के बाद अब यह बताया जा रहा है कि ये लोग जो इन बड़ी गुमराहियों में पड़े हुए हैं, इसकी असली वजह यह नहीं है कि सोच-विचार करने के बाद ये किसी तर्क और प्रमाण से इस नतीज़े पर पहुंचे थे कि ईश्वत्त्व में वास्तव में कुछ दूसरी हस्तियाँ अल्लाह की शरीक हैं, बल्कि इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने कभी गंभीरता के साथ सोच-विचार ही नहीं किया है। चूंकि ये लोग आख़िरत से बेख़बर हैं या उसको ओर से सन्देह में हैं या उससे अंधे बने हुए हैं, इसलिए आख़िरत को सोच के प्रति बेपरवाही ने उनके भीतर पूरी तरह एक ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया पैदा कर दिया है । यह सृष्टि और ख़ुद अपनी जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के बारे में सिरे से तनिक भर भी गंभीर नहीं। इनको इसकी परवाह ही नहीं है कि वास्तविकता क्या है और इनका जीवन-दर्शन उस वास्तविकता से मेल खाता है या नहीं, क्योंकि उनके नज़दीक अन्ततः मुश्कि और अनीश्वरवादी और एकेश्वरवादी और सन्देह रखनेवाले सबको मरकर मिट्टी हो जाना है और किसी चीज़ का भी कोई नतीजा निकलना नहीं है। आखिरत का यह विषय इसके पहले की आयत के इस वाक्य से निकला है कि "वे नहीं जानते कि कब वे उठाए जाएँगे।" उस वाक्य में तो यह बताया गया था कि जिनको उपास्य बनाया जाता है और उनमें फ़रिश्ते, जिन्न, अंबिया और औलिया, सब शामिल थे-उनमें से कोई भी आख़िरत के वक़्त को नहीं जानता कि वह कब आएगी। इसके बाद अब आम मुश्किों और इस्लाम-विरोधियों के बारे में तीन बातें बताई गई हैं- एक यह कि वे सिरे से यही नहीं जानते थे कि आख़िरत कभी होगी भी या नहीं। दूसरी यह कि उनकी यह बेख़बरी इस कारण नहीं है कि उन्हें इसकी सूचना ही कभी न दी गई हो, बल्कि इस कारण है कि जो खबर उन्हें दी गई, उस पर उन्होंने विश्वास नहीं किया, बल्कि उसके सही होने पर सन्देह करने लगे। तीसरा यह कि उन्होंने कभी सोच-विचार करके उन तर्कों को जाँचने-परखने का कष्ट ही नहीं सहन किया जो आख़िरत के होने के बारे में प्रस्तुत किए गए, बल्कि उसकी ओर से अंधे बनकर रहने ही को उन्होंने प्राथमिकता दी।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا تُرَٰبٗا وَءَابَآؤُنَآ أَئِنَّا لَمُخۡرَجُونَ ۝ 66
(67) ये इंकार करनेवाले कहते हैं क्या जब हम और हमारे बाप-दादा मिट्टी हो चुके होंगे तो हमें वास्तव में क़बों से निकला जाएगा?
لَقَدۡ وُعِدۡنَا هَٰذَا نَحۡنُ وَءَابَآؤُنَا مِن قَبۡلُ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 67
(68) ये खबरें हमको भी बहुत दी गई हैं और पहले हमारे बाप-दादाओं को भी दी जाती रही हैं, मगर ये बस कहानियाँ ही कहानियाँ हैं जो अगले समयों से सुनते चले आ रहे हैं।"
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 68
(69) कहो, ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि अपराधियों का क्या अंजाम हो चुका है।86
86. इस संक्षिप्त वाक्य में आखिरत की दो प्रबल दलीलें भी हैं और नसीहत भी। पहली दलील यह है कि दुनिया की जिन क़ौमों ने भी आखिरत को नज़रअन्दाज़ किया है वे अपराधी बने बिना नहीं रह सकी हैं, वे और-ज़िम्मेदार बन कर रहीं। उन्होंने जुल्म व सितम ढाए। वे अवज्ञा और दुष्कर्म के कार्यों में डूब गई और नैतिक विनाश ने अन्ततः उनको बर्बाद करके छोड़ा। यह मानव-इतिहास का अनवरत अनुभव तजुर्बा, जिस पर पृथ्वी में हर ओर विनष्ट क़ौमों के खंडहर गवाही दे रहे हैं, साफ़ जाहिर करता है कि आखिरत के मानने और न मानने का बड़ा गहरा ताल्लुक़ इंसानी रवैये के सही होने और सही न होने से है। इसको माना जाए तो रवैया ठीक-ठाक रहता है, न माना जाए तो रवैया ग़लत हो जाता है। यह इस बात का खुला प्रमाण है कि इसका मानना वास्तविकता के अनुकूल है। इसी लिए इसके मानने से मानव-जीवन ठीक डगर पर चलता है। और इसका न मानना वास्तविकता के विपरीत है। इसी वजह से यह गाड़ी पटरी से उतर जाती है। दूसरी दलील यह है कि इतिहास के इस लम्बे अनुभव में अपराधी बन जानेवाली क़ौमों का लगातार नष्ट होना इस सच्चाई की गवाही दे रहा है कि यह सृष्टि चेतनाहीन शक्तियों की अंधी-बहरी हुकूमत नहीं है, बल्कि यह एक विवेकपूर्ण व्यवस्था है, जिसके भीतर बदला दिए जाने का एक अटल काम कर रहा है, जिसका शासन इंसानी कौमों के साथ सरासर नैतिक मूल्यों पर मामला कर रहा है। जिसमें किसी क़ौम को मन कुकृत्यों की खुली छूट नहीं दी जाती कि एक बार उन्नति प्राप्त हो जाने के बाद वह हमेशा-हमेशा तक भोग-विलास में मस्त रहे और जुल्म व सितम के डंके बजाए चली जाए, बल्कि एक विशेष सीमा पर पहुँचकर एक प्रभुत्वशाली हाथ आगे बढ़ता है और उसको उन्नति शिखर से गिराकर अपमान के गढ़े में फेंक देता है। इस वास्तविकता को जो व्यक्ति समझ ले, वह कभी इस मामले में सन्देह नहीं कर सकता कि बदला दिए जाने का यही कानून इस सांसारिक जीवन के बाद एक दूसरे लोक का तकाज़ा करता है। जहाँ व्यक्तियों का और कौमों का और सामूहिक रूप से पूरी मानव-जाति का न्यायपूर्वक फैसला किया जाए, क्योंकि मात्र एक ज़ालिम क़ौम के नष्ट हो जाने से तो न्याय के सारे तक़ाज़े पूरे नहीं हो गए। इससे उन पीड़ितों को कुछ मिला नहीं जिनकी लाशों पर उन्होंने अपनी श्रेष्ठता का महल बनाया था। इससे उन ज़ालिमों को तो कोई सज़ा नहीं मिली जो तबाही के आने से पहले मज़े उड़ाकर जा चुके थे। इससे उन दुराचारियों की भी कोई पकड़ नहीं हुई जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बाद आनेवाली नस्लों के लिए गुमराहियों और दुराचरणों की विरासत छोड़ते चले गए थे। दुनिया में अज़ाब भेजकर तो सिर्फ़ उनकी आख़िरी नस्ल के और अधिक ज़ुल्म करने का सिलसिला तोड़ दिया गया, अभी अदालत का असली काम तो हुआ ही नहीं कि हर ज़ालिम को उसके किए का बदला दिया जाए और हर पीड़ित के नुक्सान की क्षतिपूर्ति की जाए और उन सब लोगों को इनाम दिया जाए जो बदी के इस तूफ़ान में सीधे रास्ते पर क़ायम रहे और सुधार के लिए कोशिशें करते रहे और उम्र भर इस राह में यातना सहन करते रहे। यह सब अनिवार्य रूप से किसी समय होना चाहिए। क्योंकि दुनिया में कर्म-फल नियम की निरंतर क्रियाशीलता, सृष्टि की शासन-सत्ता का यह स्वभाव और कार्य प्रणाली साफ़ बता रही है कि वह मानव-क्रर्मों को उनके नैतिक मूल्यों की दृष्टि से तौलती और उनका इनाम व दण्ड देती है। इन दो तर्कों के साथ इस आयत में नसीहत का पहलू यह है कि पिछले अपराधियों का अंजाम देखकर उससे शिक्षा लो और आखिरत के इंकार के उसी मूर्खतापूर्ण विश्वास पर आग्रह न किए चले जाओ जिसने उन्हें अपराधी बनाकर छोड़ा था।
وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُن فِي ضَيۡقٖ مِّمَّا يَمۡكُرُونَ ۝ 69
(70) ऐ नबी ! इनके हाल पर रंज न करो और न इनकी चालों पर दिल तंग हो87
87. अर्थात् तुमने समझाने का हक़ अदा कर दिया। अब अगर ये नहीं मानते और अपनी मूर्खता पर अड़कर अल्लाह के अज़ाब के हक़दार बनना ही चाहते हैं, तो तुम ख़ामवाह उनके हाल पर कुढ़-कुढ़कर अपनी जान क्यों हल्कान करो। फिर ये वास्तविकता और सच्चाई से लड़ने और तुम्हारे सुधारात्मक प्रयत्नों को नीचा दिखाने के लिए जो घटिया दर्जे की चालें चल रहे हैं, उनपर दुखी होने की तुम्हें क्या ज़रूरत है। तुम्हारे पीछे अल्लाह की ताकत है । ये तुम्हारी बात न मानेंगे तो अपना ही कुछ बिगाड़ेंगे, तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 70
(71) वे कहते हैं कि "यह धमकी कब पूरी होगी, अगर तुम सच्चे हो?"88
88. इससे तात्पर्य वही धमकी है जो ऊपर की आयत में अन्तर्निहित हैं। उनका मतलब यह था कि इस वाक्य में हमारी ख़बर लेने की जो परोक्ष रूप से धमकी दी जा रही है यह आख़िर कब व्यवहार रूप में सामने लाई जाएगी? हम तो तुम्हारी बात रद्द भी कर चुके हैं और तुम्हें नीचा दिखाने के लिए अपने उपायों में भी हमने कोई कमी नहीं की है। अब क्यों हमारी ख़बर नहीं ली जानी?
قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ رَدِفَ لَكُم بَعۡضُ ٱلَّذِي تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 71
(72) कहो, क्या अजब कि जिस अज़ाब के लिए तुम जल्दी मचा रहे हो उसका एक हिस्सा तुम्हारे क़रीब ही आ लगा हो।89
89. यह राजसी वाक्य-शैली है। सर्वशक्तिमान सत्ता की वाणी में जब 'शायद' और 'क्या अजब' और 'क्या असम्भव है' जैसे शब्द आते हैं तो उनमें सन्देह का कोई अर्थ नहीं होता, बल्कि उनसे निस्पृहता प्रदर्शित होती है। उसकी शक्ति ऐसी छाई हुई है कि उसका किसी चीज़ को चाहना और उस चीज़ का हो जाना मानो एक ही बात है। इसके बारे में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वह कोई काम करना चाहे और वह न हो सके, इसलिए उसका यह कहना 'क्या आश्चर्य ऐसा ही हो' यह अर्थ रखता है कि ऐसा होकर रहेगा, अगर तुम सीधे न हुए। एक मामूली थानेदार भी अगर आबादी के किसी व्यक्ति से कह दे कि तुम्हारी शामत पुकार रही है तो उसे रात को नींद नहीं आती, कहाँ यह कि सर्वशक्तिमान प्रभु किसी से कह दे कि तुम्हारा बुरा समय कुछ दूर नहीं है, और फिर बह निडर पड़ा रहे।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 72
(73) सच तो यह है कि तेरा रब तो लोगों पर बड़ी दया करनेवाला है, मगर अधिकतर लोग कृतज्ञता नहीं दिखाते।90
90. अर्थात् यह तो सारे जहानों के रब अल्लाह की अनुकंपा है कि वह लोगों को ग़लती होते ही नहीं पकड़ लेता, बल्कि संभलने की मोहलत देता है, मगर अधिकतर लोग इसपर कृतज्ञ होकर इस मोहलत को अपने सुधार के लिए इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि पकड़ में देर होने का अर्थ यह लेते हैं कि यहाँ कोई पकड़ करनेवाला नहीं है, इसलिए जो जी में आए. करते रहो और किसी समझानेवाले की बात मान कर न दो।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَعۡلَمُ مَا تُكِنُّ صُدُورُهُمۡ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 73
(74) निस्सन्देह तेरा रब अच्छी तरह जानता है जो कुछ उनके सीने अपने भीतर छिपाए हुए हैं और जो कुछ वे जाहिर करते है।91
91. अर्थात् वह इनकी एलानियाँ हरकतों ही से बाख़बर नहीं है, बल्कि जो घोर शत्रुता और द्वेष इनके सीनों में छिपा हुआ है और जो चालें ये अपने दिलों में सोचते हैं, इन्हें भी वह ख़ूब जानता है । इसलिए जब इनकी शामत आने का समय आ पहुंचेगा तो कोई चीज़ छोड़ी नहीं जाएगी जिसपर उनकी ख़बर न ली जाएगी। यह बार्ता-शैली बिल्कुल ऐसी ही है जैसे एक अधिकारी अपने क्षेत्र के किसी बदमाश से कहे कि, मुझे तेरे सब करतूतों की ख़बर है। इसका केवल यही अर्थ नहीं होता कि वह अपने बाख़बर होने की उसे सूचना दे रहा है, बल्कि अर्थ यह होता है कि तू अपनी हरकतों से बाज़ आ जा, वरना याद रख कि जब पकड़ा जाएगा तो तेरे एक-एक अपराध की पूरी सजा दी जाएगी।
وَمَا مِنۡ غَآئِبَةٖ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ ۝ 74
(75) आसमान और ज़मीन की कोई छिपी हुई ची। ऐसी नहीं है जो एक खुली किताब में लिखी हुई मौजूद न हो।92
92. यहाँ किताब से तात्पर्य क़ुरआन नहीं है, बल्कि अल्लाह का वह रिकार्ड है जिसमें कण-कण अंकित है।
إِنَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ يَقُصُّ عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَكۡثَرَ ٱلَّذِي هُمۡ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 75
(76-77) यह सच है कि यह क़ुरआन बनी इसराईल को प्राय: उन बातों की वास्तविकता बताता है जिनमें वे मतभेद रखते है।93 और यह हिदायत और रहमत है ईमान लानेवालों के लिए।94
93. इस वाक्य का सम्बन्ध पीछे के विषय से भी है और बाद के विषय से भी। पिछले विषय से इसका सम्बन्ध यह है कि उसी परोक्ष-ज्ञाता प्रभु के ज्ञान का एक करिश्मा यह है कि एक उम्मी की ज़बान से इस क़ुरआन में उन घटनाओं की वास्तविकता खोली जा रही है, जो बनी इसराईल के इतिहास में घटी हैं, हालांकि स्वयं बनी इसराईल के उलमा के दर्मियान उनके अपने इतिहास की इन घटनाओं में मतभेद है। (इसके दृष्टांत इसी सूरा नम्ल की शुरू के आयतों में गुजर चुके हैं, जैसा कि हमने अपनी टिप्पणियों में स्पष्ट किया है) और बाद के विषय से इसका सम्बन्ध यह है कि जिस तरह अल्लाह ने उन मतभेदों का फैसला फ़रमाया है, उसी तरह वह उस मतभेद का भी फैसला कर देगा जो मुहम्मद (सल्ल०) और उनके विरोधियों के बीच पाया जाता है। वह खोलकर रख देगा कि दोनों में से सत्य पर कौन है और असत्य पर कौन । चुनांचे इन आयतों के उतरे हुए कुछ ही वर्ष बीते थे कि फैसला सारी दुनिया के सामने आ गया। उसी अरब की धरती में और उसी क़ुरैश के क़बीले में एक व्यक्ति भी ऐसा न रहा जो इस बात का क़ायल न हो गया हो कि सत्य पर मुहम्मद (सल्ल०) थे, न कि अबू जहल और अबू लहब । उन लोगों की अपनी औलाद तक मान गई कि उनके बाप ग़लती पर थे।
94. अर्थात् उन लोगों के लिए जो क़ुरआन की दावत को अपना लें और वह बात मान लें जिसे यह पेश कर रहा है। ऐसे लोग उन गुमराहियों से बच जाएंगे जिनमें उनकी क़ौम संलिप्त हुई है । उनको इस क़ुरआन के कारण जिंदगी का सीधा रास्ता मिल जाएगा और उनपर अल्लाह की वे मेहरबानियाँ होंगी जिनके बारे में क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (विधर्मी) आज सोच भी नहीं सकते । इस रहमत की बारिश को भी कुछ ही साल बाद दुनिया ने देख लिया कि वही लोग जो अरब के मरूस्थल में एक गुमनामी कोने में पड़े हुए थे और विधर्म की हालत में अधिक से अधिक एक सफल छापामार बन सकते थे, इस कुरआन पर ईमान लाने के बाद यकायक वे दुनिया के पेशवा, क़ौमों के नायक, मानव सभ्यता के गुरु और धरती के एक बड़े हिस्से पर शासक हो गए।
وَإِنَّهُۥ لَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 76
0
إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُم بِحُكۡمِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 77
(78) निश्चय ही (इसी तरह) तेरा रब इन लोगों के दर्मियान95 भी अपने हुक्म से फैसला कर देगा, और वह शबरदस्त और सब कुछ जाननेवाला है।96
95. अर्थात् क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) और ईमानवालों के दर्मियान ।
96. अर्थात् न उसके फ़ैसले के लागू होने से कोई शक्ति रोक सकती है और न उन उसके फ़ैसले में ग़लती की कोई संभावना है।
فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۖ إِنَّكَ عَلَى ٱلۡحَقِّ ٱلۡمُبِينِ ۝ 78
(79) अत: ऐ नबी! अल्लाह पर भरोसा रखो, निश्चय ही तुम स्पष्ट रूप से सत्य पर हो।
إِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ ۝ 79
(80) तुम मुर्दो को नहीं सुना सकते,97 न उन बहरों तक अपनी पुकार पहुंचा सकते हो जो पीठ फेरकर भागे जा रहे हों98,
97. अर्थात् ऐसे लोगों को जिनको अन्तरात्मा मर चुकी है और जिनमें दुराग्रह और हठधर्मी और रस्म-परस्ती ने सत्य-असत्य का अन्तर समझने की कोई क्षमता बाकी नहीं छोड़ी है।
98. अर्थात् तुम्हारी बात के लिए सिर्फ़ अपने कान बन्द कर लेने को ही काफ़ी नहीं समझते, बल्कि उस जगह से कतराकर निकल जाते हैं जहां उन्हें डर होता है कि कहीं तुम्हारी बात उनके कान में न पड़ जाए।
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِي ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 80
(81) और न अन्धों को रास्ता बताकर भटकने से बचा सकते हो।99 तुम तो अपनी बात उन्हीं लोगों को सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान लाते हैं और फिर आज्ञाकारी बन जाते हैं।
۞وَإِذَا وَقَعَ ٱلۡقَوۡلُ عَلَيۡهِمۡ أَخۡرَجۡنَا لَهُمۡ دَآبَّةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ تُكَلِّمُهُمۡ أَنَّ ٱلنَّاسَ كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا لَا يُوقِنُونَ ۝ 81
(82) और जब हमारी बात पूरी होने का समय उनपर आ पहुँचेगा100 तो हम उनके लिए एक जानवर ज़मीन से निकालेगे जो उनसे बातें करेगा कि लोग हमारी आयतों पर विश्वास नहीं करते थे।101
100. अर्थात् क़ियामत क़रीब आ जाएगी, जिसका वादा उनसे किया जा रहा है।
101. हज़रत इब्ने उमर (रजि०) का कथन है कि यह उस समय होगा जब ज़मीन में कोई नेकी का हुक्म करनेवाला और बदी से रोकनेवाला बाकी न रहेगा। इब्ने मर्दुयह ने एक हदोस हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रजि०) से नकल की है, जिसमें वे फ़रमाते हैं कि यही बात उन्होंने स्वयं नबी (सल्ल०) से सुनी थी। इससे मालूम हुआ कि जब इंसान नेकियों का हुक्म देना और बुराइयों से रोकना छोड़ देंगे तो क़ियामत क़ायम होने से पहले अल्लाह एक जानवर के ज़रिए से अन्तिम बार युक्ति पूरी करेगा। यह बात स्पष्ट नहीं है कि यह एक ही जानवर होगा या एक विशेष प्रकार के जानवर की प्रजाति होगी जिसके बहुत-से लोग धरती पर फैल जाएंगे- 'दाब्बतुम मिनल अर्जि' के शब्दों में दोनों अर्थ हो सकते हैं। बहरहाल, जो बात वह कहेगा वह यह होगी कि लोग अल्लाह की इन आयतों पर विश्वास नहीं करते थे जिनमें कियामत के आने और आख़िरत बरपा होने की खबरें दी गई थीं। तो लो अब उसका समय आ पहुँचा है। और जान लो कि अल्लाह की आयतें सच्ची थीं। यह वाक्य कि 'लोग हमारी आयतों पर विश्वास नहीं करते थे' या तो उस जानवर के अपने शब्दों की नक़ल है, या अल्लाह की ओर से उसकी वाणी की अभिव्यक्ति। अगर यह उसी के शब्दों की नक़ल है तो 'हमारी' का शब्द वह उसी तरह प्रयोग करेगा जिस तरह एक सरकार का हर कारिंदा 'हम' का शब्द इस अर्थ में बोलता है कि वह अपनी सरकार की ओर से बात कर रहा है न कि अपनी व्यक्तिगत हैसियत में। दूसरी शक्ल में बात स्पष्ट है कि अल्लाह उसकी वाणी को चूँकि अपने शब्दों में बयान फरमा रहा है. इसलिए उसने 'हमारी आयतों' का शब्द प्रयोग किया है। इस जानवर के निकलने का समय कौन-सा होगा इसके बारे में नबी (सल्ल०) का कथन यह है कि "सूरज पश्चिम से निकलेगा और एक दिन दिन-दहाड़े यह जानवर निकल आएगा। इनमें से जो निशानी भी पहले हो, वह बहरहाल दूसरी के करीब ही प्रकट होगी।” (मुस्लिम) दूसरी रिवायतें जो मुस्लिम, इब्ने, माजा, तिर्मिज़ी और मुस्नद अहमद आदि में आई हैं, उनमें नबी (सल्ल०) ने बताया है कि क़ियामत के करीब ज़माने में दज्जाल का निकलना,दाब्बतुल अर्ज़ (एक विशेष प्रकार का जानवर) का प्रकट होना, धुआँ और सूरज का पश्चिम से निकलना ऐसी निशानियाँ हैं जो एक के बाद एक प्रकट होंगी। इस जानवर की विशेषता,रूप-रंग, निकलने की जगह और ऐसी ही दूसरे विवरणों के बारे में तरह-तरह की रिवायतें नक़ल की गई हैं जो आपस में अत्यंत भिन्न और विपरीत हैं। इन चीज़ों के उल्लेख से मन के उलझाव के अलावा कुछ और प्राप्त नहीं होता और उनके जानने का कोई लाभ भी नहीं, क्योंकि जिस उद्देश्य के लिए कुरआन में यह उल्लेख हुआ है इससे इन विवरणों का कोई ताल्लुक नहीं है। रहा किसी जानवर का इंसानों से इंसानी भाषा में बात करना, तो यह अल्लाह की कुदरत का एक करिश्मा है, वह जिस चीज़ को चाहे, वाक्-शक्ति प्रदान कर सकता है। क़ियामत से पहले तो वह एक जानवर ही को वाक्-शक्ति प्रदान करेगा, मगर जब वह क़ियामत क़ायम हो जाएगी तो अल्लाह की अदालत में इंसान की आँख, कान और उसके जिस्म की खाल तक बोल उठेगी, जैसा कि कुरआन में स्पष्टत: बयान किया गया है। देखिए सूरा-41 हा० मीम० अस-सज्दा, आयत 20-21)
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ فَوۡجٗا مِّمَّن يُكَذِّبُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 82
(83) और तनिक सोचो उस दिन का जब हम हर उम्मत में से एक फ़ौज की फौज उन लोगों की घेर लाएंगे जो हमारी आयतों को झुठलाया करते थे, फिर उनको (उनकी किस्मों के हिसाब से श्रेणियों मे) क्रमबद्ध किया जाएगा,
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُو قَالَ أَكَذَّبۡتُم بِـَٔايَٰتِي وَلَمۡ تُحِيطُواْ بِهَا عِلۡمًا أَمَّاذَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 83
(84) यहाँ तक कि जब सब आ जाएँगे तो (उनका रब उनसे) पूछेगा कि "तुमने मेरी आयतों को झुठला दिया, हालाँकि ज्ञान की दृष्टि से तुम उनपर हावी न हुए थे?102 अगर यह नहीं तो और तुम क्या कर रहे थे?"103
102. अर्थात् तुम्हारे झुठलाने की वजह यह कदापि नहीं थी कि किसी ज्ञानात्मक साधन से शोध करके तुम्हें मालूम हो गया था कि ये आयतें झूठी हैं। तुमने तहकीक़ और सोच विचार के बिना बस यूँ ही हमारी आयतों को झुठला दिया?
103. अर्थात् अगर ऐसा नहीं है तो क्या तुम यह सिद्ध कर सकते हो कि तुमने जांच-पड़ताल के बाद इन आयतों को झूठा ही पाया था और तुम्हें सच में यह ज्ञान प्राप्त हो गया था कि वास्तविक सच्चाई वह नहीं है जो इन आयतों में बयान की गई है।
وَوَقَعَ ٱلۡقَوۡلُ عَلَيۡهِم بِمَا ظَلَمُواْ فَهُمۡ لَا يَنطِقُونَ ۝ 84
(85) और उनके जुल्म की वजह से अज़ाब का वादा उनपर पूरा हो जाएगा, तब वे कुछ भी न बोल सकेगे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا جَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ لِيَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 85
(86) क्या उनको सुझाई न देता था कि हमने रात उनके लिए सुकून हासिल करने को बनाई थी और दिन को रौशन किया था?104 इममें बहुत निशानियाँ थीं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते थे।105
104. अर्थात् अनगिनत निशानियों में से ये दो निशानियाँ तो ऐसी थीं जिनको वे सब हर वक़्त देख रहे थे, जिनके फ़ायदों से हर क्षण लाभांवित हो रहे थे, जो किसी अंधे-बहरे और गूंगे तक से छिपी हुई न थी। क्यों न रात के आराम और दिन के मौक़ों से फ़ायदा उठाते वक़्त उन्होंने कभी सोचा कि यह एक हिक्मतवाली हस्ती की बनाई हुई व्यवस्था है जिसने ठीक-ठीक उनकी ज़रूरतों के अनुसार ज़मीन और सूरज का ताल्लुक कायम किया है। यह कोई संयोग से होनेवाली घटना नहीं हो सकती, क्योंकि इसमें उद्देश्यपरकता, तत्वदर्शिता और योजनाबद्धता स्पष्ट नज़र आ रही है जो अंधी प्राकृतिक शक्ति की विशेषता नहीं हो सकती। और यह बहुत से खुदाओं की कारफ़रमाई भी नहीं है, क्योंकि यह व्यवस्था ज़रूर ही किसी एक ही ऐसे पैदा करनेवाले मालिक और संचालन करनेवाले का क़ायम किया हुआ हो सकता है जो ज़मीन व चाँद-सूरज और तमाम दूसरे ग्रहों पर शासन कर रहा हो । सिर्फ़ उसी एक चीज़ को देखकर वे जान सकते थे कि हमने अपने रसूल और अपनी किताब के ज़रिये से जो सच्चाई बताई है, यह रात और दिन की गर्दिश उसकी पुष्टि कर रही है।
105. अर्थात् यह कोई समझ में न आ सकनेवाली बात भी नहीं थी। आखिर उन्हीं के भाई-बन्धु उन्हीं के क़बीले और बिरादरी के लोग, उन्हीं जैसे इंसान ऐसे मौजूद थे जो यही निशानियाँ देखकर मान गए थे कि नबी जिस ख़ुदापरस्ती और तौहीद की ओर बुला रहा है, वह बिल्कुल सच्चाई के मुताबिक़ है।
وَيَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِ فَفَزِعَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا مَن شَآءَ ٱللَّهُۚ وَكُلٌّ أَتَوۡهُ دَٰخِرِينَ ۝ 86
(87) और क्या गुज़रेगी उस दिन जब कि सूर फूंका जाएगा और हौल खा जाएंगे वे सब जो आसमानों और ज़मीन में हैं।106 -सिवाय उन लोगों के जिन्हें अल्लाह उस हौल से बचाना चाहेगा- और सब कान दबाए उसके समक्ष हाज़िर हो जाएँगे।
106. अर्थात् सूर फूंकने पर विस्तृत जानकारी के लिए देखिए सूरा ( अन-आम, टिप्पणी 47, सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 57, सूरा-20 ता. हा०, टिप्पणी 78, सूरा-22 हज, टिप्पणी 1, सूरा-36 यासीन, टिप्पणी 46-47, सूरा-39 अज़-जुमर टिप्पणी 79।
وَتَرَى ٱلۡجِبَالَ تَحۡسَبُهَا جَامِدَةٗ وَهِيَ تَمُرُّ مَرَّ ٱلسَّحَابِۚ صُنۡعَ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ أَتۡقَنَ كُلَّ شَيۡءٍۚ إِنَّهُۥ خَبِيرُۢ بِمَا تَفۡعَلُونَ ۝ 87
(88) आज तू पहाड़ों को देखता है और समझता है कि ख़ूब जमे हुए हैं, मगर उस वक़्त ये बादलों की तरह उड़ रहे होंगे, यह अल्लाह की कुदरत का करिश्मा होगा जिसने हर चीज़ को हिक्मत के साथ सुदृढ़ किया है। वह ख़ूब जानता है कि तुम लोग क्या करते हो?107
107. अर्थात् ऐसे अल्लाह से तुम यह उम्मीद न रखो कि अपनी दुनिया में तुमको बुद्धि एवं विवेक और उपयोग के अधिकार देकर वे तुम्हारे कामों से बे-खबर रहेगा और यह न देखेगा कि उसकी ज़मीन में तुम उन अधिकारों का कैसे उपयोग करते रहे हो।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ خَيۡرٞ مِّنۡهَا وَهُم مِّن فَزَعٖ يَوۡمَئِذٍ ءَامِنُونَ ۝ 88
(89) जो आदमी भलाई लेकर आएगा, उसे उससे ज्यादा बेहतर बदला मिलेगा108, और ऐसे लोग उस दिन के हौल से बचे हुए होंगे।109
108. अर्थात् वह इस दृष्टि से भी बेहतर होगा कि जितनी नेकी उसने की होगी, उससे ज़्यादा इनाम उसे दिया जाएगा और इस हिसाब से भी कि उसकी नेकी तो क्षणिक थी और उसके प्रभाव भी दुनिया में एक सीमित समय के लिए थे, मगर उसका बदला हमेशा-हमेशा का होगा।
109. अर्थात् क़ियामत और मरने के बाद उठाए जाने को वे हौलनाकियाँ जो सत्य के इंकारियों के होश उड़ाए दे रही होंगी, उनके दर्मियान ये लोग सन्तुष्ट होंगे। इसलिए कि यह सब कुछ उनकी आशाओं के अनुसार होगा। वे पहले से अल्लाह और उसके रसूलों की दी हुई ख़बरों के मुताबिक़ अच्छी तरह जानते थे कि क़ियामत क़ायम होनी है,एक दूसरी ज़िंदगी पेश आनी है और उसमें यही सब कुछ होना है। इसलिए उन पर वह बदहवासी और घबराहट न छाई होगी जो मरते दम तक इस चीज़ का इंकार करनेवालों और उससे ग़ाफ़िल रहनेवालों पर छाई होगी। फिर उनके इत्मीनान की वजह यह भी होगी कि उन्होंने उस दिन की उम्मीद पर इसके लिए चिन्ता को थी और यहाँ की कामयाबी के लिए कुछ सामान करके दुनिया से आए थे, इसलिए उनपर वह घबराहट छाई न होगी जो उन लोगों पर छाई होगी जिन्होंने अपनी ज़िदंगी की पूरी पूंजी दुनिया ही कि सफलताएं प्राप्त करने पर लगा दी थी और कभी न सोचा था कि कोई आख़िरत भी है जिसके लिए कुछ सामान करना है। इंकार करनेवालों के विपरीत ईमानवाले अब संतुष्ट होंगे कि जिस दिन के लिए हमने नाजायज़ लज्ज़तों और फ़ायदों को छोड़ा था और परेशानियां और मशक्कतें सहन की थीं, वह दिन आ गया है और अब यहाँ हमारी मेहनतों का बदला नष्ट होने जानेवाला नहीं है।
وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَكُبَّتۡ وُجُوهُهُمۡ فِي ٱلنَّارِ هَلۡ تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 89
(90) और जो बुराई लिए हुए आएगा, ऐसे सब लोग औंधे मुँह आग में फेंके जाएँगे। क्या तुम लोग इसके सिवा कोई और बदला पा सकते हो कि जैसा करो वैसा भरो? 109अ
109अ. क़ुरआन मजीद में अनेकों जगहों पर इस बात को स्पष्ट किया गया है कि आख़िरत में बदी का बदला उतना ही दिया जाएगा जितनी किसी ने बदी की होगी और नेकी का बदला अल्लाह आदमी के अमल से बहुत ज्यादा प्रदान करेगा। इसकी और मिसालों के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस आयत 20-27, सूरा-28 अल-क़सस आयत 84, सूरा-29 अल-अन-कबूत आयत 7, सूरा-34 सबा आयत 37-38, सूरा-40 अल-मोमिन आयत 40 ।
إِنَّمَآ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ رَبَّ هَٰذِهِ ٱلۡبَلۡدَةِ ٱلَّذِي حَرَّمَهَا وَلَهُۥ كُلُّ شَيۡءٖۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 90
(91-92) (ऐ नबी, इनसे कहो) "मुझे तो यही हुक्म दिया गया है कि इस शहर (मक्का) के रब की बन्दगी करूँ जिसने इसे हरम (आदरणीय) बनाया है और जो हर चीज़ का मालिक है।110 मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं मुस्लिम बनकर रहूँ और यह क़ुरआन पढ़कर सुनाऊँ ।" अब जो हिदायत अपनाएगा, वह अपने ही भले के लिए हिदायत अपनाएगा, और जो गुमराह हो उससे कह दो कि "मैं तो ख़बरदार कर देनेवाला हूँ।
110. यह सूरा चूंकि उस समय में उतरी थी जबकि इस्लाम को दावत अभी सिर्फ़ मक्का मुअज्जमा तक सीमित थी और सम्बोधन सिर्फ़ उस शहर के लोगों से था, इसलिए फ़रमाया, "मुझे इस शहर के रब की बन्दगी का हुक्म दिया गया है।" इसके साथ उस रब की विशेषता यह बयान की गई कि उसने इसे हरम (प्रतिष्ठित) नगर बनाया है। इससे मक्का के कुफ्फार को सचेत करना अभिप्रेत है कि जिस अल्लाह का तुमपर यह महान उपकार है कि उसने अरब की इंतिहाई बद-अग्नी और फसाद व खुरेज़ी से भरी धरती पर तुम्हारे शहर को शांतिगृह बना रखा है, और जिसकी मेहरबानी से तुम्हारा यह शहर पूरे अरब देश को श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है, तुम उसकी नाशुक्री करना चाहो तो करते रहो, मगर मुझे तो यही हुक्म दिया गया है कि मैं उसका शुक्रगुज़ार बन्दा बनूँ और उसी के आगे विनीत भाव से समर्पित होऊँ। तुम जिन्हें उपास्य बना बैठे हो उनमें से किसी की यह ताकत न थी कि इस शहर को हरम (प्रतिष्ठित) बना देता और अरब के लड़ाकू और लूट-मार करनेवाले कबीलों से उसका आदर करा सकता। मेरे लिए तो यह सम्भव नहीं है कि असल उपकारकर्ता को छोड़कर उनके आगे झुकूँ जिनका कोई लेशमात्र भी उपकार मुझपर नहीं है।
وَأَنۡ أَتۡلُوَاْ ٱلۡقُرۡءَانَۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَقُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُنذِرِينَ ۝ 91
0
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ سَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ فَتَعۡرِفُونَهَاۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 92
(93) उनसे कहो, "प्रशंसा अल्‍लाह ही के लिए है, बहुत जल्‍द वह तुम्‍हें अपनी निशानियाँ दिखा देगा और तुम उन्‍हें पहचान लोगो, और तेरा रब बे-ख़बर नहीं है उन कामों से जो तुम लोग करते हो।