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سُورَةُ الشُّعَرَاءِ

26. अश-शुअरा 

(मक्का में उतरी-आयतें 227)

परिचय

नाम

आयत 224 वश-शुअराउ यत्तबिउहुमुल ग़ावून' अर्थात् रहे कवि (शुअरा), तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते है" से उद्धृत है।

उतरने का समय 

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से महसूस होता है और रिवायतें भी इसकी पुष्टि करती हैं कि इस सूरा के उत्तरने का समय मक्का का मध्यकाल है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण की पृष्ठभूमि यह है कि मक्का के विधर्मी नबी (सल्ल०) के प्रचार करने और उपदेश का मुक़ाबला लगातार विरोध और इंकार से कर रहे थे और इसके लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े चले जाते थे। नबी (सल्ल०) उन लोगों को उचित प्रमाणों के साथ उनकी धारणाओं की ग़लती और तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत की सच्चाई समझाने की कोशिश करते-करते थके जाते हैं, मगर वे हठधर्मी के नित नए रूप अपनाते हुए न थकते थे। यही चीज़ प्यारे नबी (सल्ल०) के लिए आत्म-विदारक बनी हुई थी और इस ग़म में आपकी जान घुली जाती थी। इन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी।

वार्ता का आरंभ इस तरह होता है कि तुम इनके पीछे अपनी जान क्यों घुलाते हो? इनके ईमान न लाने का कारण यह नहीं है कि इन्होंने कोई निशानी नहीं देखी है, बल्कि इसका कारण यह है कि ये हठधर्म हैं, समझाने से मानना नहीं चाहते।

इस प्रस्तावना के बाद आयत 191 तक जो विषय लगातार वर्णित हुआ है वह यह है कि सत्य की चाह रखनेवाले लोगों के लिए तो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर निशानियाँ-ही-निशानियाँ फैली हुई हैं जिन्हें देखकर वे सत्य को पहचान सकते हैं। लेकिन हठधर्मी लोग कभी किसी चीज़ को देखकर भी ईमान नहीं लाए हैं, यहाँ तक कि अल्लाह के अज़ाब ने आकर उनको पकड़ में ले लिया है। इसी संदर्भ से इतिहास की सात क़ौमों के हालात पेश किए गए हैं, जिन्होंने उसी हठधर्मी से काम लिया था जिससे मक्का के काफ़िर (इंकारी) काम ले रहे थे और इस ऐतिहासिक वर्णन के सिलसिले में कुछ बातें मन में बिठाई गई हैं।

एक यह कि निशानियाँ दो प्रकार की हैं। एक प्रकार की निशानियाँ वे हैं जो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर फैली हुई हैं, जिन्हें देखकर हर बुद्धिवाला व्यक्ति जाँच कर सकता है कि नबी जिस चीज़ की ओर बुला रहा है, वह सत्य है या नहीं। दूसरे प्रकार की निशानियों वे हैं जो [तबाह कर दी जानेवाली क़ौमों] ने देखी। अब यह निर्णय करना स्वयं इंकारियों का अपना काम है कि वे किस प्रकार की निशानी देखना चाहते हैं।

दूसरे यह कि हर युग में काफ़िरों (इंकारियों) की मानसिकता एक जैसी रही है। उनके तर्क एक ही तरह के थे, उनकी आपत्तियाँ एक जैसी थी और अन्तत: उनका अंजाम भी एक जैसा ही रहा। इसके विपरीत हर समय में नबियों की शिक्षा एक थी। अपने विरोधियों के मुक़ाबले में उनके प्रमाण और तर्क की शैली एक थी और इन सबके साथ अल्लाह की रहमत का मामला भी एक था। ये दोनों नमूने इतिहास में मौजूद है। विधर्मी खुद देख सकते हैं कि उनका अपना चित्र किस नमूने से मिलता है।

तीसरी बात जो बार-बार दोहराई गई है वह यह है कि अल्लाह प्रभावशाली, सामर्थ्यवान और शक्तिशाली भी है और दयावान भी। अब यह बात लोगों को स्वयं ही तय करनी चाहिए कि वे अपने आपको उसकी दया का अधिकारी बनाते हैं या क़हर (प्रकोप) का। आयत 192 से सूरा के अंत तक में इस वार्ता को समेटते हुए कहा गया है कि तुम लोग अगर निशानियाँ ही देखना चाहते हो तो आख़िर वह भयानक निशानियाँ देखने पर आग्रह क्यों करते हो जो तबाह होनेवाली क़ौमों ने देखी हैं। इस क़ुरआन को देखो जो तुम्हारी अपनी भाषा में है, मुहम्मद (सल्ल०) को देखो, उनके साथियों को देखो। क्या यह वाणी किसी शैतान या जिन्न की वाणी हो सकती है? क्या इस वाणी का पेश करनेवाला तुम्हें काहिन नज़र आता है? क्या मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथी तुम्हें वैसे हो नज़र आते हैं जैसे कवि और उनके जैसे लोग हुआ करते हैं? [अगर नहीं, जैसा कि ख़ुद तुम्हारे दिल गवाही दे रहे होंगे] तो फिर यह भी जान लो कि तुम ज़ुल्म कर रहे हो और ज़ालिमों का-सा अंजाम देखकर रहोगे ।

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سُورَةُ الشُّعَرَاءِ
26. अश-शुअरा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कपाशील और अत्यन्त दयावान है।
طسٓمٓ
(1) ता० सीन० मीम० !
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) ये खुली किताब की आयतें है।1
1. अर्थात् ये आयतें जो इस सूरा में प्रस्तुत की जा रही है, उस किताब की आयतें हैं जो अपना उद्देश्य स्पष्ट रूप से खोलकर बयान करती है, जिसे पढ़कर या सुनकर हर व्यक्ति समझ सकता है कि वह किस चीज़ की ओर बुलाती है, किस चीज़ से रोकती है, किसे सत्य कहती है और किसे असत्य बताती है। मानना या न मानना अलग बात है, मगर कोई व्यक्ति यह बहाना कभी नहीं बना सकता कि इस किताब की शिक्षा उसको समझ में नहीं आई और वह उससे यह मालूम ही न कर सका कि वह उसको क्या चीज़ छोड़ने और क्या चीज़ अपनाने की ओर बुला रही है। कुरआन को "अल-किताबुल मुबीन" (खुली किताब) कहने का एक दूसरा अर्थ भी है, और वह यह कि इसका ईश्वरीय किताब होना बिल्कुल स्पष्ट है। इसकी भाषा, इसकी शैली, इसके विषय और इसके प्रस्तुत किए हुए तथ्य, सब के सब साफ़-साफ यह प्रमाण जुटा रहे हैं कि यह जगत् के स्वामी ही की किताब है। इस दृष्टि से इसका हर वाक्य (आयत) एक निशानी और एक चमत्कार (आयत) है।
لَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ أَلَّا يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) ऐ नबी ! शायद तुम इस ग़म में अपनी जान खो दोगे कि ये लोग ईमान नहीं लाते।2
2. नबी (सल्ल०) की इस हालत का उल्लेख क़ुरआन मजीद में विभिन्न स्थानों पर किया गया है। [उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-18 (कहफ़), आयत 10, और सूरा-35 (फ़ातिर), आयत 8] इससे अन्दाज़ा होता है कि उस काल में अपनी कौम को गुमराही | और सत्य के विरोध को। देख-देखकर नबी (सल्ल०) वर्षों अपने दिन-रात किस घुटन और जानलेवा स्थिति में बिताते रहे हैं।
إِن نَّشَأۡ نُنَزِّلۡ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ ءَايَةٗ فَظَلَّتۡ أَعۡنَٰقُهُمۡ لَهَا خَٰضِعِينَ ۝ 3
(4) हम चाहें तो आसमान से ऐसी निशानी उतार सकते हैं कि इनकी गरदने उसके आगे झुक जाएँ।3
3. अर्थात् कोई ऐसी निशानी उतार देना जो सारे इनकारियों को ईमान और आज्ञापालन का रवैया अपनाने पर विवश कर दे, अल्लाह के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो इसका कारण यह नहीं है कि यह काम उसको सामर्थ्य से बाहर है, बल्कि इसका कारण यह है कि इस तरह का बलात् ईमान उसको अपेक्षित नहीं है। यदि ऐसा ज़ोर-जबरदस्तीवाला ईमान अपेक्षित होता तो निशानियाँ उतारकर मजबूर करने की क्या ज़रूरत थी। अल्लाह इंसान को उसी प्रकृति और बनावट (साख्‍़त) पर पैदा कर सकता था जिसमें कुछ (इंकार, अवज्ञा और बुराई को कोई सम्भावना ही नहीं होती, बल्कि फ़रिश्तों की तरह इंसान पी पैदाइशी आज्ञाकारी होता। यही वास्तविकता है जिसको ओर अनेक अवसरों पर क़ुरआन मजीद में इशारा किया गया है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणियाँ 101,102, सूरा-11 हुद टिप्पणी 116)
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ مُحۡدَثٍ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهُ مُعۡرِضِينَ ۝ 4
(5) इन लोगों के पास रहमान (दयावान) की ओर से जो नया उपदेश भी आता है ये उससे मुंह मोड़ लेते हैं।
فَقَدۡ كَذَّبُواْ فَسَيَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 5
(6) अब कि ये झुठला चुके हैं, बहुत जल्द इनको उस चीज़ की वास्तविकता (विभिन्न तरीक़ों से) मालूम हो जाएगी जिसका ये उपहास करते रहे हैं।4
4. अर्थात् जिन लोगों का हाल यह हो कि समुचित ढंग से उनको समझाने और सीधा रास्ता दिखाने की जो कोशिश भी की जाए, उसका मुकाबला उदासीनता और बेपरवाही से करें, और फिर बेरुखी से गुज़रकर कराई और बुले झुठलाने पर और उससे भी आगे बढ़कर वास्तविकता का उपहास करने पर उतर आएँ, वे सिर्फ़ इस बात के अधिकारी हैं कि उनका बुरा अंजाम उन्हें दिखा दिया जाए। इस बुरे अंजाम के सामने आने की चौक बहुत-सी शक्लें हैं, और अलग-अलग लोगों के सामने वह अलग-अलग शक्लों में आ सकता है और आता रहा है. इसी लिए आयत में मूल अरबी में शब्द "नबा" का बहुवचन “अंबा" प्रयुक्त हुआ है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ كَمۡ أَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجٖ كَرِيمٍ ۝ 6
(7) और क्या इन्होंने कभी ज़मीन पर दृष्टि नहीं डाली कि हमने कितनी भारी मात्रा में हर प्रकार को अच्छे वनस्पति उसमें पैदा की है?
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) निस्संदेह इसमें एक निशानी हैं5, मगर इनमें से अधिकतर माननेवाले नहीं।
5. अर्थात् सत्य की खोज के लिए किसी को निशानी की ज़रूरत हो तो कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं, आँखें खोलकर तनिक इस धरती ही के फलने-फूलने को देख ले, उसे मालूम हो जाएगा कि सृष्टि-व्यवस्था को जो वास्तविकता (एकेश्वरवाद) नबी पेश करते हैं, वह सही है या वे दृष्टिकोण सही हैं जो मुश्कि (बहुदेववादी) या अल्लाह के इंकारी बयान करते हैं। [प्रमाणों का विवरण मालूम करने के लिए देखिए सूरा-30 (रूम), टिमणी 35]
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 8
(9) और वास्तविकता यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और दयावान भी।6
6. अर्थात् उसको कुदरत (सामर्थ्य) तो ऐसी ज़बरदस्त है कि किसी को सज़ा देना चाहे तो पल भर में मिटाकर रख दे,मगर इसके बावजूद यह सर्वथा उसकी कृपा है कि सज़ा देने में जल्दी नहीं करता । वर्षों और सदियों ढील देता है। सोचने, समझने और संभलने की मोहलत दिए जाता है और उम्र भर की अवज्ञाओं को एक 'तौबा' पर क्षमा कर देने के लिए तैयार रहता है।
وَإِذۡ نَادَىٰ رَبُّكَ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱئۡتِ ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 9
(10) इन्हें उस समय का किस्सा सुनाओ जबकि तुम्हारे रब ने मूसा को पुकारा,7 “ज़ालिम क़ौम के पास जा
7. ऊपर को संक्षिप्त भूमिकीय वार्ता के बाद अब ऐतिहासिक वर्णन की शुरुआत हो रही है, जिसका आरंभ हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन के क़िस्से से किया गया है। इससे मुख्य रूप से जो शिक्षा देना अभिप्रेत है, वह यह है कि – एक यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था वे उन परिस्थितियों के मुक़ाबले में कहीं ज्यादा कठोर थीं जिनसे नबी (सल्ल.) को सामना करना पड़ रहा था, लेकिन फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) का कुछ न बिगाड़ सका और अन्तत: उनसे टकराकर नष्ट हो गया। इससे अल्लाह क़ुरैश के काफ़िरों को यह शिक्षा देना चाहता है कि जिसके पीछे अल्लाह का हाथ हो उसका मुक़ाबला करके कोई जीत नहीं सकता। दूसरे यह कि जो निशानियाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) के द्वारा फ़िरऔन को दिखाई गई उनसे ज़्यादा खुली निशानियाँ और क्या हो सकती हैं, लेकिन इसपर भी जो लोग हठधर्मी में पड़े हुए थे उन्होंने नबी की सच्चाई मान करके न दो। अब तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा ईमान लाना वास्तव में इसपर निर्भर है कि तुम कोई चमत्कार महसूस कर लो और भौतिक प्रमाण देख लो। तीसरे यह कि इस हठधर्मी का जो अंजाम फ़िरऔन ने देखा वह कोई ऐसा अंजाम तो नहीं है जिसे देखने के लिए दूसरे लोग बेचैन हों। अपनी आँखों से अल्लाह की शक्ति की निशानियाँ देख लेने के बाद जो नहीं मानते वे फिर ऐसे ही अंजाम से दोचार होते हैं। अब क्या तुम लोग उससे शिक्षा ग्रहण करने के बजाय उसका मज़ा चखना ही पसन्द करते हो? (तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 103-137, सूरा-10 यूनुस, आयत 75-92, सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 101-104, सूरा-20 ता. हा०, आयत-9-79)
قَوۡمَ فِرۡعَوۡنَۚ أَلَا يَتَّقُونَ ۝ 10
(11) फ़िरऔन की क़ौम के पास8- क्या वे नहीं डरते?"9
8. यह वर्णनशैली फ़िरऔन के कौम के घोर अत्याचार को स्पष्ट करती है। इसका परिचय ही 'अत्याचारी क़ौम' के नाम से कराया गया है, मानो इसका असल नाम ज़ालिम क़ौम है और फ़िरऔन की क़ौम इसका अनुवाद और व्याख्या ।
9. अर्थात् ऐ मूसा ! देखो कैसी अनोखी बात है कि ये लोग अपने आपको सर्वशक्तिमान समझते हुए दुनिया में ज़ुल्म व सितम ढाए जा रहे हैं और इस बात से निर्भीक हैं कि ऊपर कोई ईश्वर भी है जो उनसे पूछ-ताछ करनेवाला है।
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُكَذِّبُونِ ۝ 11
(12) उसने कहा, “ऐ मेरे रब ! मुझे डर है कि वे मुझे झुठला देंगे ।
وَيَضِيقُ صَدۡرِي وَلَا يَنطَلِقُ لِسَانِي فَأَرۡسِلۡ إِلَىٰ هَٰرُونَ ۝ 12
(13) मेरा सीना घुटता है और मेरी ज़बान नहीं चलती। आप हारून की ओर रिसालत भेजें10
10. सूरा-20 ता० हा०, आयत-25 से 46 और सूरा-26 (क़सस) आयत 28 से 42 में इसका जो विवरण आया है, उसे इन आयतों के साथ मिलाकर देखा जाए तो मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) एक तो इतने बड़े मिशन पर अकेले जाते हुए घबराते थे, दूसरे उनको यह भी एहसास था कि वह प्रवाह के साथ वार्ता नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अल्लाह से निवेदन किया कि हज़रत हारून को उनके साथ मददगार की हैसियत से नबी बनाकर भेजा जाए, क्योंकि वे अधिक अच्छी तरह वार्ता कर सकते हैं। जब ज़रूरत पेश आएगी तो वे उनका समर्थन और पुष्टि करके उनकी पीठ मज़बूत करेंगे।
وَلَهُمۡ عَلَيَّ ذَنۢبٞ فَأَخَافُ أَن يَقۡتُلُونِ ۝ 13
(14) और मुझपर उनके यहाँ एक अपराध का आरोप भी है, इसलिए मैं डरता हूँ कि वे मुझे क़त्ल कर देंगे।11
11. यह संकेत है उस घटना की ओर जो सूरा-28 (क़सस), आयत 14 में बयान हुआ है । हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन की क़ौम के एक आदमी को एक इसराईली से लड़ते देखकर एक चूंसा मार दिया था जिससे वह मर गया। अब जो आठ-दस साल के छिपे रहने के बाद यकायकी उन्हें यह आदेश दिया गया कि तुम रिसालत का पैग़ाम लेकर उसी फ़िरऔन के दरबार में जा खड़े हो जिसके यहाँ तुम्हारे विरुद्ध क़त्ल का मुक़द्दमा पहले से मौजूद है, तो हज़रत मूसा (अलैहि०) को उचित तौर पर यह ख़तरा हुआ कि पैग़ाम सुनाने की नौबत आने से पहले ही वह तो मुझे उस हत्या के आरोप में फाँस लेगा।
قَالَ كَلَّاۖ فَٱذۡهَبَا بِـَٔايَٰتِنَآۖ إِنَّا مَعَكُم مُّسۡتَمِعُونَ ۝ 14
(15) फ़रमाया, “हरगिज़ नहीं। तुम दोनों जाओ हमारी निशानियाँ लेकर12, हम तुम्हारे साथ सब कुछ सुनते रहेंगे।
12. निशानियों से तात्पर्य असा (लाठी) और यदे बैज़ा (चमकता हाथ) के मोजज़े (चमत्कार) हैं।
فَأۡتِيَا فِرۡعَوۡنَ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 15
(16) फ़िरऔन के पास जाओ और उससे कहो, हमको सारे जहान के रब ने इसलिए भेजा है
أَنۡ أَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 16
(17) कि तू बनी इसराईल को हमारे साथ जाने दे।"13
13. हज़रत मूसा व हारून (अलैहि०) की दावत के दो हिस्से थे- एक, फ़िरऔन को अल्लाह की बन्दगी की ओर बुलाना जो तमाम नबियों की दावत का मूल उद्देश्य रहा है। दूसरे, बनी इसराईल को फ़िरऔन को दासता से निकालना जो मुख्य रूप से इन्हीं दोनों का मिशन था ।
قَالَ أَلَمۡ نُرَبِّكَ فِينَا وَلِيدٗا وَلَبِثۡتَ فِينَا مِنۡ عُمُرِكَ سِنِينَ ۝ 17
(18) फ़िरऔन ने कहा, "क्या हमने तुझको अपने यहाँ बच्चा-सा नहीं पाला था?14 तू ने अपनी उस के कई साल हमारे यहाँ गुज़ारे,
14. इससे एक संकेत इस विचार की पुष्टि में निकलता है कि यह फ़िरऔन वह फ़िरऔन न था जिसके घर में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने परवरिश पाई थी, बल्कि यह उसका बेटा था। अगर यह वही फ़िरऔन होता तो कहता कि मैंने तुझे पाला था, लेकिन यह कहता है कि हमारे यहाँ तू रहा है और हमने तेरी परवरिश की है। (इस विषय पर विस्तृत वार्ता के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 85,93)
وَفَعَلۡتَ فَعۡلَتَكَ ٱلَّتِي فَعَلۡتَ وَأَنتَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 18
(19) और उसके बाद कर गया जो कुछ कर गया।15 तू बड़ा कृतध्‍न व्यक्ति है।"
15. संकेत है उसी क़त्ल को घटना की ओर जो हज़रत मूसा (अलैहि०) से हो गई थी।
قَالَ فَعَلۡتُهَآ إِذٗا وَأَنَا۠ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 19
(20) मूसा ने उत्तर दिया, "उस वक्त वह काम मैंने अनजाने में कर दिया था।16
16. मूल अरबी शब्द है “व अना मिनज्जालीन" (मैं उस समय गुमराही में था या मैंने उस समय यह काम गुमराही की हालत में किया था)। यह शब्द गुमराही अनिवार्य रूप से “ज़लालत” का ही समानार्थी नहीं है, बल्कि अरबी भाषा में इसे अनभिज्ञता, नादानी, खता, भूल-चूक आदि अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है। जिस घटना का सूरा-28 क़सस में उल्लेख हुआ है, उसपर विचार करने से यहाँ जलालत का अर्थ ख़ता या भूल-चूक या अनजानापन ही लेना ज़्यादा सही है।
فَفَرَرۡتُ مِنكُمۡ لَمَّا خِفۡتُكُمۡ فَوَهَبَ لِي رَبِّي حُكۡمٗا وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 20
(21) फिर मैं तुम्हारे डर से भाग गया। इसके बाद मेरे रब ने मुझको निर्णय-शक्ति प्रदान किया17 और मुझे रसूलों में शामिल फ़रमा लिया।
17. अर्थात् ज्ञान, बुद्धिमत्ता और पैग़म्बरी ।
وَتِلۡكَ نِعۡمَةٞ تَمُنُّهَا عَلَيَّ أَنۡ عَبَّدتَّ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 21
(22) रहा तेरा उपकार जो तूने मुझपर जताया है, तो उसकी हक़ीकत यह है कि तूने बनी इसराईल को गुलाम बना लिया था’’18
18. अर्थात् तेरे घर में परवरिश पाने के लिए, मैं क्यों आना अगर तूने बनी इसराईल पर ज़ुल्म न ढाया होता। तेरे ही ज़ुल्म की वजह से तो मेरी माँ ने मुझे टोकरी में डालका दरिया में बहाया था। वरना क्‍या मेरी परवरिश के लिए मेरा अपना घर मौजूद न था। इसलिए, परवरिश का एहसान जताना तुझे शोभा नहीं देता।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ وَمَا رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 22
(23) फ़िरऔन ने कहा,19 "और यह सारे जहान का रख क्या होता है’’20
19. बीच में यह विवरण छोड़ दिया गया है कि हजरत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन को वह सन्देश पहुंचाया जिसके लिए वे भेजे गए थे। इसे छोड़कर अब वह बात-चीत नक़्ल की जाती है जो इस सन्देश के पहुंचाने के बाद फ़िरऔन और मूसा के बीच हुई।
20. यह उसका प्रश्न हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस कथन पर था कि में रब्बुल आलमीन (सारे जहानों के मालिक और आका और शासक) की ओर से भेजा गया हूँ और इसलिए भेजा गया हूँ कि बनी इसराईल को मेरे साथ जाने दे। इस सन्देश का स्वरूप खुले तौर पर राजनीतिक था। इसका मगष्ट अर्थ यह था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जिसके प्रतिनिधित्व के दावेदार है, वह सारे जहान का प्रशासन और संप्रभुत रखता है और फ़िरऔन को अपना अधीनस्थ समझकर उसके नाम यह फ़रमान भेज रहा है। इसपर फ़िरऔन पूछता है कि यह सारे जहानबालों का स्वामी और प्रशासक है, कौन, जो मिस्त्र के बादशाह को उसकी जनता के एक मामूली आदमी के हार्थो यह आदेश भेज रहा है।
قَالَ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُم مُّوقِنِينَ ۝ 23
(24) मूसा ने जवाब दिया, आयनों और ज़मीन का रब और उन सब चीजों का रब ओ आसमान व जमीन के बीच में है, अगर तुम यकीन लानेवाले हो।’’21
21. अर्थात् अगर तुम इस बात का यकीन रखते हो कि इस सृष्टि का कोई पेटा करनेवाला और मालिक और शासक है तो तुम्हें यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि सारी दुनियावालों का रब कौन है?
قَالَ لِمَنۡ حَوۡلَهُۥٓ أَلَا تَسۡتَمِعُونَ ۝ 24
(25) फ़िरऔन ने अपने आस-पास के लोगों से कहा, "मुनते हो?’’
قَالَ رَبُّكُمۡ وَرَبُّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 25
(26) मूसा ने कहा, “तुम्हारा रब भी और तुम्हारे उन पूर्वजों का रब भी, जो गुज़र चुके हैं।’’22
22. हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह संबोधन फिरऔन के दरबारियों से था जिनसे रिऔन ने कहा था कि “सुनते हो।” हज़रत मूसा ने उनसे फरमाया कि में सिर्फ उस रब का शासन और सम्प्रभुल्न मानता हूँ जो आज भी तुम्हारा और इस फ़िरऔन का रब है, और इससे पहले जो तुम्हारे और इसके बाप-दादा गुज़र चुके हैं, उन सबका रव भी था।
قَالَ إِنَّ رَسُولَكُمُ ٱلَّذِيٓ أُرۡسِلَ إِلَيۡكُمۡ لَمَجۡنُونٞ ۝ 26
(27) फ़िरऔन ने (उपस्थित लोगों से) कहा, “तुम्हारे ये रसूल साहब, जो तुम्हारी और भेजे गए हैं, बिल्कुल ही पागल मालूम होते हैं।"
قَالَ رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 27
(28) मूसा ने कहा, “पूरब और पश्चिम और जो कुछ इनके बीच है, सबका रब, अगर आप लोग कुछ बुद्धि रखते हैं।’’23
23. अर्थात् मुझे तो पागल करार दिया जा रहा है, लेकिन आप लोग अगर बुद्धिवाले हैं तो ख़ुद सोचिए कि वास्तव में रब यह बेचारा फ़िरऔन है जो जमीन के एक छोटे-से हिस्से पर बादशाह बना बैठा है या वह जो पूरब व पश्चिम का मालिक और मिस्र समेत हर उस चीज़ का मालिक है, जो पूरब व पश्चिम से घिरी हुई है।
قَالَ لَئِنِ ٱتَّخَذۡتَ إِلَٰهًا غَيۡرِي لَأَجۡعَلَنَّكَ مِنَ ٱلۡمَسۡجُونِينَ ۝ 28
(29) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तूने मेरे सिवा किसी और को उपास्य माना तो तुझे भी उन लोगों में शामिल कर दूंगा जो कैदखानों में पड़े सड़ रहे हैं । "24
24. इस बात-चीत को समझने के लिए यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि आज की तरह पुराने समय में भी उपास्य की धारणा केवल धार्मिक अर्थों तक सीमित थी अर्थात् यह कि बस उसे पूजा-पाठ और नज्‍न व नियाज़ का अधिकार पहुंचता है । रही किसी उपास्य की यह हैसियत कि वह कानूनी और राजनीतिक अर्थों में भी सबसे बड़ा है, तो यह चीज़ जमीन के अवास्तविक शासकों ने न पहले कभी मान कर दी थी, न आज वे इसे मानने के लिए तैयार है। फिरऔन की इस बात-चीत के पीछे यही सोच काम कर रही थी। अगर मामला सिर्फ़ पूजा-पाठ और नन व नियाज़ का होता तो उसको इससे कोई बहस न था कि हज़रत मूसा दूसरे देवताओं को छोड़कर सिर्फ सारे जहानों के रब अल्लाह को इसका हक़दार समझते हैं। अगर केवल इसी अर्थ में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उसको इबादत में तौहीद की दावत दी होती तो उसे क्रुद्ध होने की कोई ज़रूरत न थी। जिस चीज़ ने उसे क्रुद्ध कर दिया था वह यह थी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सारे जहानों के रब के प्रतिनिधि की हैसियत से अपने आपको पेश करके उसे इस तरह एक राजनैतिक आदेश पहुंचाया कि मानो वह एक आधीन शासक है और एक सबसे बड़े शासक का सन्देशवाहक उससे उसकी आज्ञापालन की मांग कर रहा है। इस अर्थ में वह अपने ऊपर किसी की राजनैतिक और क़ानूनी श्रेष्ठता मानने के लिए तैयार न था। इसी लिए उसने साफ़-साफ़ धमकी दे दी कि मिस्र देश में तुमने मेरे सम्प्रभुत्व के सिवा किसी और की सत्ता का नाम भी लिया तो जेल की हवा खाओगे।
قَالَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكَ بِشَيۡءٖ مُّبِينٖ ۝ 29
(30) मूसा ने कहा, "यद्यपि मैं ले आऊँ तेरे सामने एक खुली चीज़ भी ?"25
25. अर्थात् क्या तू इस स्थिति में भी मेरी बात मानने से इंकार कर देगा और मुझे जेल भेजेगा, जबकि मैं इस बात की एक खुली निशानी पेश कर दूं कि मैं सच में उस अल्लाह का भेजा हुआ हूँ जो तमाम दुनिया का रब, आसमानों और ज़मीन का रब और पूरब और पश्चिम का रब है?
قَالَ فَأۡتِ بِهِۦٓ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 30
(31) फ़िरऔन ने कहा, "अच्छा तो ले आ, अगर तू सच्चा है।’’26
26. हज़रत मूसा (अलैहि०) के प्रश्न पर फ़िरऔन का यह उत्तर स्वयं स्पष्ट करता है कि वह दूसरे तमाम मुश्रिकों की तरह अनैसर्गिक अर्थों में अल्लाह के पूज्यों का पूज्य होने को मानता था। इसी वजह से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उससे कहा कि अगर तुझे मेरे बारे में अल्लाह की ओर से भेजे गए होने का यक़ीन नहीं है तो मैं ऐसी खुली निशानियाँ पेश करूं जिनसे सिद्ध हो जाए कि मैं उसी का भेजा हुआ हूँ और इसी वजह से उसने भी उत्तर दिया कि अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो तो लाओ कोई निशानी ।
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 31
(32) (उसके मुख से यह बात निकलते ही) मूसा ने अपनी लाठी फेंकी और यकायक ही वह एक प्रत्यक्ष अज़दहा (अजगर) था।27
27. क़ुरआन मजीद में किसी जगह इसके लिए 'हय्यतुन' (साँप) और किसी जगह 'जान्नुन' (जो सामान्यतः छोटे साँप के लिए बोला जाता है) के शब्द इस्तेमाल हुए हैं और यहाँ उसे सुअ-बानुन' (अजगर) कहा जा रहा है। इसका स्पष्टीकरण इमाम राज़ी इस तरह करते हैं कि 'हय्यतुन' अरबी भाषा में हर प्रकार के साँप के लिए जातीय नाम है, भले ही छोटा हो या बड़ा और सुअ-बानुन का शब्द इसलिए प्रयोग में लाया गया कि मोटाई की दृष्टि से वह अजगर की तरह था और जानुन का शब्द इसलिए प्रयुक्त हुआ कि उसकी फुर्ती और तेज़ी छोटे साँप जैसी थी।
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 32
(33) फिर उसने अपना हाथ (बग़ल से) बँचा और वह सब देखनेवालों के सामने चमक रहा था।28
28. बड़े-बड़े टीकाकार इसपर सहमत हैं कि यहाँ शब्द "बैजाउ” का अर्थ रौशन और चमकदार है। ज्यों हो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने बग़ल से हाथ निकाला, यकायक सारा माहौल जगमगा उठा और यूं महसूस हुआ जैसे सूरज निकल आया है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता. हा०,टिप्पणी 13)
قَالَ لِلۡمَلَإِ حَوۡلَهُۥٓ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 33
(34) फ़िरऔन अपने आस-पास के सरदारों से बोला, “यह आदमी निश्चय ही एक माहिर जादूगर है।
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِۦ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 34
(35) चाहता है कि अपने जादू के ज़ोर से तुमको तुम्हारे देश से निकाल दे।29 अब बताओ, तुम क्या हुक्म देते हो’’30
29. दोनों मोजज़ों की महानता का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि या तो एक क्षण पहले वह अपनी जनता के एक आदमी को भरे दरबार में रिसालत की बातें और बनी इसराईल की रिहाई की मांग करता देखकर पागल करार दे रहा था और उसे धमकी दे रहा था कि अगर तूने मेरे सिवा किसी को उपास्य माना तो जेल में सड़ा-सड़ाकर मार दूंगा, या अब इन निशानियों को देखते ही उसपर ऐसा भय छा गया कि उसे अपनी बादशाही और अपना देश छिनने का ख़तरा पैदा हो गया और घबराहट में उसे यह भी एहसास न रहा कि मैं भरे दरबार में अपने नौकरों के सामने कैसी बे-तुकी बातें कर रहा हूँ।
30. दूसरे शब्दों में मानो वह यह कह रहा था कि मेरी बुद्धि तो अब कुछ काम नहीं करती,तुम बताओ कि इस ख़तरे का मुकाबला मैं कैसे करूँ?
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَٱبۡعَثۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 35
(36) उन्होंने कहा, “इसे और इसके भाई को रोक लीजिए और शहरों में हरकारों को भेज दीजिए
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَحَّارٍ عَلِيمٖ ۝ 36
(37) कि हर कुशल जादूगर को आपके पास ले आएँ।”
فَجُمِعَ ٱلسَّحَرَةُ لِمِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 37
(38) चुनांचे एक दिन निश्चित समय31 पर जादूगर इकट्ठे कर लिए गए
31. सूरा-20, ता० हा० में गुज़र चुका है कि इस मुक़ाबले के लिए किब्तियों की राष्ट्रीय उत्सव का दिन (यौमुज़-ज़ीना) निश्चित किया गया था।
وَقِيلَ لِلنَّاسِ هَلۡ أَنتُم مُّجۡتَمِعُونَ ۝ 38
(39) और लोगों से कहा गया, “तुम जन-सभा में चलोगे?32
32. अर्थात् सिर्फ़ एलान और इश्तिहार ही को काफी नहीं समझा गया, बल्कि आदमी इस उद्देश्य के लिए छोड़े गए कि लोगों को उकसा-उकसाकर यह मुकाबला देखने के लिए लाएँ। इससे मालूम होता है कि भरे दरबार में जो मोजज़े हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिखाए थे, उनकी खबर आम लोगों में फैल चुकी थी और फ़िरऔन को यह अंदेशा हो गया था कि इससे देश के रहनेवाले प्रभावित होते चले जा रहे हैं। इसलिए उसने चाहा कि अधिक से अधिक लोग जमा हों और स्वयं देख लें कि लाठी का साँप बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है, हमारे देश का हर जादूगर यह कमाल दिखा सकता है।
لَعَلَّنَا نَتَّبِعُ ٱلسَّحَرَةَ إِن كَانُواْ هُمُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 39
(40) शायद कि हम जादूगरों के दीन (धर्म) ही पर रह जाएँ अगर वे विजयी रहे?"33
33. यह वाक्य इस विचार की पुष्टि करता है कि दरबार के जिन हाज़िर लोगों ने हज़रत मूसा (अलैहि०) का मोजज़ा देखा था और बाहर जिन लोगों तक उसको भरोसेमंद खबरें पहुंची थीं, उनके अक़ीदे अपने बाप-दादा के दीन से डगमगाए जा रहे थे और अब उनके दीन का आश्रय बस इसी पर रह गया था कि किसी तरह जादूगर भी वह काम कर दिखाएँ जो मूसा ने कर दिखाया है । फ़िरऔन और उसके दरबारी इसे स्वयं एक निर्णायक मुक़ाबला समझ रहे थे। उनके अपने भेजे हुए आदमी लोगों के मन में यह बात बिठाते फिरते थे कि अगर जादूगर सफल हो गए तो हम मूसा के दीन में जाने से बच जाएँगे वरना हमारे दोन व ईमान की ख़ैर नहीं है।
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالُواْ لِفِرۡعَوۡنَ أَئِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 40
(41) जब जादूगर मैदान में आए तो उन्होंने फ़िरऔन से कहा, "हमें इनाम तो मिलेगा अगर हम विजयी रहे।"34
34. ये थे मुशरिकों के दीन के वे समर्थक जो मूसा के हमले से अपने दीन को बचाने के लिए इस निर्णायक मुक़ाबले के समय इन पवित्र भावनाओं के साथ आए थे कि हमने पाला मार लिया तो सरकार से कुछ इनाम मिल जाएगा
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 41
(42) उसने कहा, “हाँ, और तुम तो उस समय निकटवर्ती लोगों में शामिल हो जाओगे"।35
35. और यह था वह बड़े से बड़ा बदला जो दीन और मिल्लत के इन सेवकों को समय के बादशाह के यहाँ से मिल सकता था, अर्थात् रुपया-पैसा ही नहीं मिलेगा, दरबार में कुर्सी भी प्राप्त हो जाएगी। इस तरह फ़िरऔन और उसके जादूगरों ने पहले ही मरहले पर नबी और जादूगर का महान नैतिक अन्तर स्वयं खोल कर रख दिया।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 42
(43) मूसा ने कहा, “फेंको जो तुम्हें फेंकना है।"
فَأَلۡقَوۡاْ حِبَالَهُمۡ وَعِصِيَّهُمۡ وَقَالُواْ بِعِزَّةِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّا لَنَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 43
(44) उन्होंने तुरन्त अपनी रस्सियाँ और लाठियाँ फेंक दी और बोले, "फ़िरऔन के प्रताप से हम ही विजयी रहेंगे।’’36
36. यहाँ इसका उल्लेख छोड़ दिया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से यह वाक्य सुनते ही जब जादूगरों ने अपनी रस्सियां और लाठियाँ फेंकी तो यकायक वह बहुत-से सांपों के रूप में हज़रत मूसा की ओर लपकती नजर आई [इसका विवरण सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 176 और सूरा-20 ता० हा० आयत (66-67) में आ चुका है।
فَأَلۡقَىٰ مُوسَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 44
(45) फिर मूसा ने अपनी लाठी फेंकी तो यकायक ही वह उनके झूठे करिश्मों (चमत्कारों) को हड़प करती चली जा रही था।
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 45
(46) इसपर सारे जादूगर बे-क़ाबू होकर सज्दे में गिर पड़े
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 46
(47) और बोल उठे कि "मान गए हम सारे जहान के रब को
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 47
(48) मूसा और हारून के रब को।"37
37. इनका सज्दे में गिरकर अल्लाह सारे जहानों के रब पर ईमान ले आना मानो खुले आम मिस्र के हज़ारों निवासियों के सामने इस बात का इक़रार व एलान था कि मूसा (अलैहि०) जो कुछ लाए हैं, यह हमारे फ़न (कला) की चीज़ ही नहीं है, यह काम तो सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह ही की सामर्थ्य से हो सकता है।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَ فَلَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَۚ لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 48
(49) फ़िरऔन ने कहा, “तुम मूसा की बात मान गए इससे पहले के मैं तुम्हें अनुमति देता । अवश्य ही यह तुम्हारा बड़ा है जिसने तुम्हें जादू सिखाया है।38 अच्छा अभी तुम्हें मालूम हुआ जाता है, मैं तुम्हारे हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं से करवाऊँगा और तुम सबको मूली बढ़ा दूँगा।”39
38. यहाँ चूंकि वार्ता-क्रम की अनुरूपता से सिर्फ़ यह दिखाना है कि एक ज़िद्दी और हठधर्मी आदमी किस तरह एक खुला मोजज़ा देखकर और उसके मोजज़ा होने पर खुद जादूगरों की गवाही सुनकर भी उसे जादू कहे जाता है। इसलिए फ़िरऔन का सिर्फ इतना ही वाक्य नकल करने को काफ़ी समझा गया है, लेकिन सूरा-7 आराफ़ (आयत 123) में सविस्तार यह बताया गया है कि फ़िरऔन ने बाजी हारती देखकर तुरन्त ही एक राजनीतिक षड्यंत्र की कहानी गढ़ ली।
39. यह भयानक धमकी फिरऔन ने अपने इस विचार को सफल करने के लिए दी थी कि जादूगर वास्तव में भूसा के साथ साजिश करके आए हैं। उसकी दृष्टि में यह था कि इस तरह ये लोग जान बचाने के लिए साजिश मान लेंगे और वह नाटकीय प्रभाव खत्म हो जाएगा जो पराजित होते ही उनके सजदे में गिरकर ईमान ले आने से उपस्थित जनों पर पड़ा था।
قَالُواْ لَا ضَيۡرَۖ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 49
(50) उन्होंने जवाब दिया, "कुछ परवाह नहीं, हम अपने रख के पास पहुँच जाएँग
إِنَّا نَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لَنَا رَبُّنَا خَطَٰيَٰنَآ أَن كُنَّآ أَوَّلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 50
(51) और हमें आशा है कि हमारा रब हमारे गुनाह माफ़ कर देगा, क्योंकि सबसे पहले हम ईमान लाए हैं।"40
40. अर्थात् हमें अपने रब की ओर तो पलटना बहरहाल एक न एक दिन अवश्य है। अब अगर तू कल का देगा तो इससे ज्यादा कुछ न होगा कि वह दिन जो कभी आना था, आज आ जाएगा। इस स्थिति में डरने का क्या प्रश्न? हमें तो उल्टी क्षमा और गलतियों के माफी की आशा है, क्योंकि आज इस जगह सच्चाई मालूम होते ही हमने मान लेने में एक क्षण की देर भी न की और इस पूरे जनसभा में सबसे पहले आगे बढ़कर हम ईमान ले आए।
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِيٓ إِنَّكُم مُّتَّبَعُونَ ۝ 51
(52) हमने41 मूसा को वह्य की कि "रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर निकल जाओ, तुम्हारा पीछा किया जाएगा।"42
41. यहाँ कई साल का इतिहास बीच में छोड़ दिया गया है जिसे सूरा-17 आराफ़, आयत 127-141 और सूरा-10 यूनुस, आयत 83-89 में बयान किया जा चुका है और जिसका एक हिस्सा आगे सूरा-40 मोमिन, आयत 23-46 और सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़ आयत 46-56 में आ रहा है। यहाँ चूंकि पूरे वार्ताक्रम को देखते हुए केवल यह बताना अपेक्षित है कि फ़िरऔन का अंजाम अन्ततः क्या हुआ और हज़रत मूसा (अलैहि०) की दावत को किस तरह सफलता प्राप्त हुई, इसलिए फ़िरऔन और हज़रत मूसा के संघर्ष के आरंभिक मरहले का उल्लेख करने के बाद अब किस्सा संक्षिप्त करके उस [समय का उल्लेख किया जा रहा है जब हज़रत मूसा को मिस्र से हिजरत करने का हुक्म दिया गया।]
42. यह बात स्पष्ट रहे कि बनी इसराईल की आबादी मिस्र में किसी एक जगह इकट्ठा न थी। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) को जब आदेश दिया गया होगा कि अब तुम्हें बनी इसराईल को लेकर मिस्त्र से निकल जाना है तो उन्होंने बनी इसराईल की तमाम बस्तियों में हिदायतें भेज दी होंगी कि सब लोग अपनी-अपनी जगह हिजरत के लिए तैयार हो जाएं और एक विशेष रात तय कर दी होगी कि उस रात हर बस्ती के हिजरत करनेवाले निकल खड़े हों।
فَأَرۡسَلَ فِرۡعَوۡنُ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 52
(53) इसपर फिरऔन ने (फ्रीजें जमा करने के लिए) शहरों में हरकारे भेज दिए
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ لَشِرۡذِمَةٞ قَلِيلُونَ ۝ 53
(54) (और कहला भेजा) कि "ये कुछ मुट्ठी भर लोग हैं
وَإِنَّهُمۡ لَنَا لَغَآئِظُونَ ۝ 54
(55) और इन्होंने हमको बहुत नाराज़ किया है
وَإِنَّا لَجَمِيعٌ حَٰذِرُونَ ۝ 55
(56) और हम एक ऐसा गिरोह हैं जिसकी नीति हर समय चौकन्ना रहना है।’’43
43. ये बातें फ़िरऔन के उस छिपे हुए भय को स्पष्ट करती है जिसपर वह निर्भयता का दिखावटी परदा डाल रहा था।
فَأَخۡرَجۡنَٰهُم مِّن جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 56
(57-58) और इस तरह हम उन्हें उनके बागों और चश्मों और खजानों और उनके उत्तम निवास स्थानों से निकाल लाए।44
44. अर्थात् फ़िरऔन ने तो यह काम अपने नज़दीक बड़ी बुद्धिमानी का किया था कि दूर-दूर से फौजें तलब करके बनी इसराईल को दुनिया से मिटा देने का सामान किया, लेकिन अल्लाह की योजना ने उसकी चाल उसपर यूँ उलट दी कि फिरऔनी साम्राज्य के बड़े-बड़े सुतून अपनी-अपनी जगह छोड़कर उस जगह जा पहुंचे जहां उन्हें और उनके सारे लाव-लश्कर को एक साथ डूबना था।
وَكُنُوزٖ وَمَقَامٖ كَرِيمٖ ۝ 57
0
كَذَٰلِكَۖ وَأَوۡرَثۡنَٰهَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 58
(59) यह तो हुआ उनके साथ और (दूसरी ओर) बनी इसराईल को हमने इन सब चीज़ों का वारिस कर दिया।45
45. कुछ टीकाकारों ने इस आयत का यह अर्थ लिया है कि जिन बागों, चश्मों, खज़ानों और अति उत्तम निवास-स्थलों से ये जालिम लोग निकले थे, उन्हीं का वारिस अल्लाह ने बनी इसराईल को बना दिया। यह अर्थ अगर लिया जाए तो इसका अर्थ अनिवार्य रूप से यह होना चाहिए कि फ़िरऔन के डूब जाने पर बनी इसराईल फिर मिस्र वापस पहुंच गए हों, लेकिन यह चीज़ इतिहास से भी सिद्ध नहीं है और स्वयं क़ुरआन की दूसरी व्याख्याओं से भी इस आयत का यह अर्थ मेल नहीं खाता । सूरा-2 बक़रा, सूरा-5 माइद, सूरा-7 आराफ़ और सूरा-20 ता० हा० में जो हालात बयान किए गए हैं, उनसे स्पष्ट मालूम होता है कि फ़िरऔन के डूब जाने के बाद बनी इसराईल मिस्र की ओर पलटने के बजाय अपने गन्तव्य स्थल (फ़लस्तीन) ही की ओर आगे रवाना हो गए और फिर हज़रत दाद के ज़माने 973-1013 (ई० पू०) तक उनके इतिहास में जो घटनाएँ भी हुई वे सब उस क्षेत्र में घटित हुई, जो आज सीना प्रायद्वीप, उत्तरी अरब, जार्डन और फ़लस्तीन के नामों से जाने जाते हैं। इसलिए हमारे नज़दीक आयत का सही अर्थ यह है कि अल्लाह ने एक ओर फ़िरऔन वालों को इन नेमतों से महरूम किया और दूसरी ओर बनी इसराईल को यही नेमतें प्रदान कर दी अर्थात् दे फलस्तीन की धरती पर बागों, चश्मों, ख़जानों और उत्तम निवासस्थलों के मालिक हुए। इसी अर्थ की पुष्टि सूरा-7 आराफ़ की आयत 136-137 करती है।
فَأَتۡبَعُوهُم مُّشۡرِقِينَ ۝ 59
(60) सुबह होते ही ये लेग उनका पीछा करने चल पड़े।
فَلَمَّا تَرَٰٓءَا ٱلۡجَمۡعَانِ قَالَ أَصۡحَٰبُ مُوسَىٰٓ إِنَّا لَمُدۡرَكُونَ ۝ 60
(61) जब दोनों गिरोहों का आमना सामना हुआ तो मूसा के साथी चीख उठे कि “हम तो पकड़े गए।”
قَالَ كَلَّآۖ إِنَّ مَعِيَ رَبِّي سَيَهۡدِينِ ۝ 61
(62) मूसा ने कहा, “हरगिज़ नहीं, मेरे साथ मेरा रब है। वह ज़रूर मेरी रहनुमाई फ़रमाएगा।’’46
46. अर्थात् मुझे इस आफ़त से बचने की राह बताएगा।
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡبَحۡرَۖ فَٱنفَلَقَ فَكَانَ كُلُّ فِرۡقٖ كَٱلطَّوۡدِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 62
(63) हमने मूसा को वह्य के ज़रिये से आदेश दिया कि “मार अपनी लाठी समुद्र पर।’’ यकायक समुद्र फट गया और उसका हर टुकड़ा एक विशाल पहाड़ की तरह हो गया।47
47. जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि समुद्र हज़रत मूसा (अले०) की लाठी मारने से फटा था और यह काम एक ओर बनी इसराईल के पूरे क़ाफ़िले को गुज़ारने के लिए किया गया था और दूसरी ओर इससे अभिप्रेत फ़िरऔन की सेना को डुबो देना था, तो इससे साफ़ मालूम होता है कि लाठी को चोट लगने पर पानी बहुत ऊंचे पहाड़ों की शक्ल में खड़ा हो गया और इतनी देर तक खड़ा रहा कि हजारों लाखों बनी इसराईल का मुहाजिर काफिला उसमें से भी गुज़र गया और फिर फिरऔन को पूरी सेना उनके बीच पहुँच भी गई। स्पष्ट है कि प्रकृति के सामान्य नियम के अनुसार जो तूफानी हवाएं चलती हैं, वे चाहे कैसी ही तेज़ और प्रचण्ड हों, उनके प्रभाव से कभी समुद्र का पानी इस तरह विशाल पहाड़ों की तरह इतनी देर तक खड़ा नहीं रहा करता । इसलिए यह स्पष्ट रूप से एक मोजज़े का बयान है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता० हा०, टिप्पणी 53, सूरा-44 अद-दुख़ान, टिप्पणी 23)
وَأَزۡلَفۡنَا ثَمَّ ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 63
(64) उसी जगह पर हम दूसरे गिरोह को भी क़रीब ले आए।48
48. अर्थात् फ़िरऔन और उसकी सेना को।
وَأَنجَيۡنَا مُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 64
(65) मूसा और उन सब लोगों को जो उसके साथ थे, हमने बचा लिया
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 65
(66) और दूसरों को डुबो दिया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 66
(67) इस घटना में एक निशानी है49, मगर इन लोगों में से अधिकतर माननेवाले नहीं है।
49. अर्थात् क़ुरैश के लिए इसमें यह शिक्षा है कि हठधर्म लोग खुले-खुले मोजजे देखकर भी किस तरह ईमानलाने से इंकार ही किए जाते हैं और फिर इस हतपर्मी का अंजाम कैसा दर्दनाक होता है। दूसरी ओर ईमानवालों के लिए भी इसमें यह निशानी है कि हुल्म और उसकी ताकतें चाहे देखने में कैसी ही छाई हुई नज़र आती हो, अन्ततः अल्लाह की मदद से सत्य का बोलबाला होता है और असत्य इस तरह पराजित होकर रहता है।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 67
(68) और सत्य तो यह है कि तेरा रब प्रभावशाली भी है और दयावान भी।
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 68
(69) और इन्हें इबाहीम का किस्सा सुनाओ50,
50. यहाँ हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) की पवित्र जिंदगी के उस काल का किस्सा बयान हुआ है जबकि नुबूवत दिए जाने के बाद शिर्क व तौहीद के मसले पर आपका अपने परिवार और अपनी क़ौम से संघर्ष शुरू हुआ था। इबाहीमी जीवन के इस काल का इतिहास विशेष रूप से जिस कारणवश कुरआन बार-बार सामने लाता है, वह यह है कि अरब के लोग सामान्य रूप से और कुरैश मुख्य रूप से यह दावा रखते थे कि इब्राहीमी मत ही उनका धर्म है। अरब के मुश्किों के अलावा ईसाइयों और यहूदियों का भी यह दावा था कि हज़रत इब्राहीम उनके दीन (धर्म) के पेशवा (मार्गदर्शक) हैं । इसपर क़ुरआन जगह-जगह उन लोगों को सचेत करता है कि हज़रत इब्राहीम जो दीन लेकर आए थे वह यही विशुद्ध इस्लाम जिसे पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं और जिससे आज तुम संघर्षरत हो। वे मुश्कि न थे, बल्कि उनकी सारी लडाई शिर्क ही के ख़िलाफ़ थी और इसी लड़ाई की वजह से उन्हें अपने बाप, ख़ानदान, क़ौम और वतन, सबको छोड़कर शाम (सोरिया) व फ़लस्तीन और हिजाज़ में परदेस का जीवन जीना पड़ा था। इसी तरह वे यहूदी और इसाई भी न थे, बल्कि यहूदियत और ईसाइयत तो उनके सदियों बाद वुजूद में आई।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا تَعۡبُدُونَ ۝ 69
(70) जबकि उसने अपने बाप और अपनी क़ौम
قَالُواْ نَعۡبُدُ أَصۡنَامٗا فَنَظَلُّ لَهَا عَٰكِفِينَ ۝ 70
(71) उन्होंने जवाब दिया, "कुछ बुत है जिनकी हम पूजा करते हैं और उन्हीं की सेवा में हम लगे रहते हैं।"52
52. इस जवाब की मूल आत्मा अपने अक़ीदे पर उनका जमाव और सन्तोष था, मानो वास्तव में वे यह कह रहे थे कि हाँ, हम भी जानते हैं कि ये लकड़ी और पत्थर के बुत हैं जिनकी हम पूजा कर रहे हैं, मगर हमारा दीन व ईमान यही है कि हम इनकी पूजा और सेवा में लगे रहें।
قَالَ هَلۡ يَسۡمَعُونَكُمۡ إِذۡ تَدۡعُونَ ۝ 71
(72) उसने पूछा, “क्या ये तुम्हारी सुनते हैं जब तुम इन्हें पुकारते हो?
أَوۡ يَنفَعُونَكُمۡ أَوۡ يَضُرُّونَ ۝ 72
(73) या ये तुम्हें कुछ लाभ या हानि पहुँचाते हैं।53
53. अर्थात् हमारी इस इबादत की वजह यह नहीं है कि यह हमारी दुआएँ और फ़रियादें सुनते हैं या हमें लाभ और हानि पहुंचाते हैं, बल्कि मूल कारण इस इबादत का यह है कि बाप-दादा के वक्तों से यूँ ही होता चला आ रहा है। इस तरह उन्होंने स्वयं यह मान लिया कि इनके धर्म के लिए बाप-दादा के अंधानुकरण के सिवा कोई प्रमाण नहीं है।
قَالُواْ بَلۡ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا كَذَٰلِكَ يَفۡعَلُونَ ۝ 73
(74) उन्होंने जवाब दिया, "नहीं, बल्कि हमने अपने बाप-दादा को ऐसा करते पाया है।"
قَالَ أَفَرَءَيۡتُم مَّا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 74
(75-76) इसपर इब्राहीम ने कहा, “कभी तुमने (आँखें खोलकर) उन चीज़ों को देखा भी जिनकी बन्दगी तुम और तुम्हारे पिछले बाप-दादा करते रहे?54
54. अर्थात् क्या एक धर्म के सच्चे होने के लिए बस यह तर्क काफ़ी है कि वह बाप-दादा के समयों से चला आ रहा है? क्या आँखें खोलकर यह देखने की कोई ज़रूरत नहीं] कि जिनको बन्दगी हम कर रहे हैं, उनके अन्दर वास्तव में उपास्य होने का कोई (गुण) पाया भी जाता है या नहीं?
أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمُ ٱلۡأَقۡدَمُونَ ۝ 75
0
فَإِنَّهُمۡ عَدُوّٞ لِّيٓ إِلَّا رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 76
(77) मेरे तो ये सब दुश्मन हैं 55, सिवाय एक सारे जहान के रब56 के
55. अर्थात् मैं उनकी इबादत को सिर्फ़ अलाभप्रद और अहानिकारक ही नहीं समझता, बल्कि उलटा हानिप्रद समझता हूँ, इसलिए मेरे नज़दीक तो उनको पूजना दुश्मन को पूजना है। इसके अलावा हज़रत इब्राहीम के इस कथन में उस विषय को ओर भी संकेत है जो सूरा-19 मरयम (आयत 81-82) में बताया गया है।
56. अर्थात् तमाम उन उपास्यों में से, जिनकी दुनिया में बन्दगी और पूजा की जाती है, सिर्फ एक अल्लाह सारे जहानों का रब है जिसको बन्दगी में मुझे अपनी भलाई नज़र आती है। इसके बाद हज़रत इब्राहीम कुछ वाक्यों में उन कारणों का उल्लेख करते हैं जिनके आधार पर सिर्फ सारे जहानों का रब अल्लाह ही इबादत का हक़दार है।
ٱلَّذِي خَلَقَنِي فَهُوَ يَهۡدِينِ ۝ 77
(78) जिसने मुझे पैदा किया57, फिर वही मेरी रहनुमाई फरमाता है,
57. यह पहला कारण है जिसके आधार पर अल्लाह और सिर्फ एक अल्लाह ही इबादत का अधिकारी है। सम्बोधित लोग भी इस सच्चाई को जानते और मानते थे कि अल्लाह उनका पैदा करनेवाला है। इसलिए हज़रत इब्राहीम की पहली दलील यह थी कि मैं सिर्फ उसको इबादत को सही और सत्य समझता हूँ जिसने मुझे पैदा किया है। दूसरी कोई हस्ती मेरी इबादत को कैसे अधिकारी हो सकती है जबकि मेरे पैदा करने में उसकी कोई भागीदारी नहीं।
وَٱلَّذِي هُوَ يُطۡعِمُنِي وَيَسۡقِينِ ۝ 78
(79) जो मुझे खिलाता और पिलाता है
وَإِذَا مَرِضۡتُ فَهُوَ يَشۡفِينِ ۝ 79
(80) और जब बीमार हो जाता हूँ तो वही मुझे अच्छा करता है58,
58. यह दूसरा कारण है अल्लाह और सिर्फ अल्लाह के इबादत के अधिकारी होने का। उसने इंसान को पैदा करने के साथ रहनुमाई, परवरिश, निगरानी, देख-भाल, हिफ़ाज़त और ज़रूरत पूरी करने का जिम्मा भो स्वयं हो ले लिया है। पैदा करनेवाले को यह व्यापक रहमत और पालन-पोषण के कार्य जब हर क्षण हर पहलू से इंसान को सहारा दे रही है तो इससे बड़ी मूर्खता और इससे बढ़कर कृतघ्नता भी और कौन-सी हो सकती है कि इंसान उसको छोड़कर किसी दूसरी हस्ती के आगे नतमस्तक हो।
وَٱلَّذِي يُمِيتُنِي ثُمَّ يُحۡيِينِ ۝ 80
(81) जो मुझे मौत देगा और फिर दोबारा मुझको ज़िंदगी देगा
وَٱلَّذِيٓ أَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لِي خَطِيٓـَٔتِي يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 81
(82) और जिससे मैं उम्मीद रखता हूँ कि बदले के दिन (क़ियामत मे) वह मेरी ग़लती क्षमा कर देगा।"59
59. यह तीसरा कारण है जिसके आधार पर अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की इबादत सही नहीं हो सकती। इंसान का मामला अपने अल्लाह के साथ सिर्फ इस दुनिया और इसकी जिंदगी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके बाद उसका अंजाम भी सर्वथा अल्लाह ही के हाथ में है। वही अल्लाह जो उसको अस्तित्व में लाया है, अन्तत: उसे इस दुनिया से वापस बुला लेता है और कोई शक्ति दुनिया में ऐसी नहीं है कि जो इंसान की इस वापसी को रोक सके। फिर वही अल्लाह है जो अकेले इस बात का फैसला करेगा कि कब इन तमाम इंसानों को, जो दुनिया में पैदा हुए थे, दोबारा अस्तित्व में लाए और उनसे उनके सांसारिक जीवन की जाँच-पड़ताल करे। फिर वही अकेला अल्लाह इस अदालत का क़ाज़ी (न्यायाधीश) और शासक होगा, कोई दूसरा उसके अधिकारों में नाम मात्र को भी साझीदार न होगा, सज़ा देना या माफ़ करना बिल्कुल उसके अपने ही हाथ में होगा। इन सच्चाइयों की मौजूदगी में जो आदमी अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी करता है। वह अपने बुरे अंजाम का ख़ुद सामान करता है।
رَبِّ هَبۡ لِي حُكۡمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 82
(83) (इसके बाद इब्राहीम ने दुआ की) “ऐ मेरे रब ! मुझे हुक्म प्रदान कर60 और मुझे सालेह (नेक) लोगों के साथ मिला,61
60. यहाँ 'हुक्म' से तात्पर्य जान, विवेक, सही समझ और निर्णय-शक्ति है।
61. अर्थात् दुनिया में मुझे नेक और भला समाज दे और आख़िरत में मेरा अंजाम नेक लोगों के साथ कर। जहाँ तक आख़िरत का ताल्लुक़ है, यह तो हर उस इंसान की दुआ होनी ही चाहिए जो मरने के बाद की ज़िंदगी और जज़ा व सज़ा पर यकीन रखता हो, लेकिन दुनिया में भी एक पुनीतात्मा (पाकीजा रूह) की हार्दिक इच्छा यही होती है कि अल्लाह उसे एक दुराचारी, अवज्ञाकारी और भ्रष्ट समाज में जिंदगी बसर करने की मुसीबत से मुक्ति दे।
وَٱجۡعَل لِّي لِسَانَ صِدۡقٖ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 83
(84) और बाद के आनेवालों में मुझे सच्ची ख्याति प्रदान कर62,
62. अर्थात् बाद की नस्लें मुझे खैर (भलाई) के साथ याद करें । मैं दुनिया से वह काम करके जाऊँ जिनकी बदौलत रहती दुनिया तक मेरी जिंदगी दुनियावालों के लिए रौशनी का मीनार बनी रहे ।
وَٱجۡعَلۡنِي مِن وَرَثَةِ جَنَّةِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 84
(85) और मुझे जन्नत के वारिसों में शामिल फ़रमा
وَٱغۡفِرۡ لِأَبِيٓ إِنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 85
(86) और मेरे बाप को माफ कर दे कि बेशक वह गुमराह लोगों में से है।63
63. हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) अपने बाप के अत्याचार से तंग आकर जब घर से निकलने लगे तो उन्होंने विदा होते वक़्त फ़रमाया, आपको सलाम है, मैं आपके लिए अपने रब से क्षमा की दुआ करूंगा, वह मेरे प्रति अति कृपाशील है।" (सूरा-19 मरयम, आयत-47) इसी वादे के आधार पर उन्होंने क्षमा की दुआ न सिर्फ़ अपने बाप के लिए की, बल्कि एक दूसरी जगह पर बयान हुआ है कि माँ और बाप दोनों के लिए की, "ऐ हमारे रब | मुझे माफ़ कर दे और मेरे माँ बाप को भी" (सूरा-14 इब्राहीम, आयत-41)। लेकिन बाद में उन्हें स्वयं यह एहसास हो गया कि हक़ का एक दुश्मन, चाहे वह एक मोमिन का बाप ही क्यों न हो, वह मग़फिरत की दुआ का हक़दार नहीं है । “इब्राहीम का अपने बाप के लिए मगफिरत की दुआ करना सिर्फ़ इस वादे की वजह से था जो उसने उससे किया था, मगर जब यह बात उसपर खुल गई कि वह ख़ुदा का दुश्मन है तो उसने उससे बेजारी जाहिर कर दी।" (सूरा-9 अत-तौबा आयत 114)
وَلَا تُخۡزِنِي يَوۡمَ يُبۡعَثُونَ ۝ 86
(87) और मुझे इस दिन रुसवा न कर जबकि सब लोग जिंदा करके उठाए जाएँगे64,
64. अर्थात् क़ियामत के दिन यह रुसवाई मुझे न दिखा कि हश्र के मैदान में तमाम अगले और पिछले और लोगों के सामने इब्राहीम का बाप सजा पा रहा हो और इब्राहीम खड़ा देख रहा हो।
يَوۡمَ لَا يَنفَعُ مَالٞ وَلَا بَنُونَ ۝ 87
(88) जबकि न पाल कोई लाभ देगा, न सन्तान,
إِلَّا مَنۡ أَتَى ٱللَّهَ بِقَلۡبٖ سَلِيمٖ ۝ 88
(89) अलावा इसके कि कोई आदमी भला चंगा-दिल लिए हुए अल्‍लाह के हुज़ूर हाज़िर हो।"65
65. इन दो वाक्यो के बारे में यह बात विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती कि ये हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) को दुआ का हिस्सा है या इन्हें अल्लाह ने उनके कथन पर बढ़ाते हुए इर्शाद फ़रमाया है। अगर पहली बात मानो जाए तो इसका अर्थ यह है कि हज़रत इब्राहीम अपने बाप के लिए यह दुआ करते वक्त स्वयं भी इन जास्तविकताओं का एहसास रखते थे, और दूसरी बात मान ली जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि उनको दुआ पर टिप्पणी करते हुए अल्लाह यह फरमा रहा है कि कियामत के दिन आदमी के काम अगर कोई चीज़ आ सकता है तो वह माल और औलाद नहीं, बल्कि भला चंगा-दिल है, ऐसा दिल जो कुफ़्र व शिर्क, साफ़रमानों और अवज्ञा और उदंडता से पाक हो । माल और सन्तान भी भले चंगे-दिल के साथ ही लाभप्रद हो सकते हैं, इसके बिना नहीं।
وَأُزۡلِفَتِ ٱلۡجَنَّةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 89
(90) (उस66 दिन) जन्नत परहेज़गारों के क़रीब ले आई जाएगी,
66. यहाँ से आयल 102 तक को इबारत हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के [कथन का हिस्सा नहीं है, बल्कि अल्लाह को ओर से उसपर बढ़ोत्तरी है।]
وَبُرِّزَتِ ٱلۡجَحِيمُ لِلۡغَاوِينَ ۝ 90
(91) और दोज़ख़ बहके हुए लोगों के सामने खोल दी जाएगी67,
67. अर्थात् एक ओर परहेज़गार लोग जन्नत में दाख़िल होने से पहले ही यह देख रहे होंगे कि कैसी नेमतों से भरी हुई जगह है, जहाँ अल्लाह की कृपा से हम जानेवाले हैं। और दूसरी ओर गुमराह लोग अभी हश्र के मैदान में ही होंगे कि उनके सामने उस जहन्नम का भयानक दृश्य पेश कर दिया जाएगा जिसमें उन्हें जाना है।
وَقِيلَ لَهُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 91
(92) और उनसे पूछा जाएगा कि “अब कहाँ हैं वे जिनकी तुम अल्लाह को छोड़कर इबादत करते थे?
مِن دُونِ ٱللَّهِ هَلۡ يَنصُرُونَكُمۡ أَوۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 92
(93) क्या वे तुम्हारी कुछ मदद कर रहे हैं या ख़ुद अपना बचाव कर सकते हैं?"
فَكُبۡكِبُواْ فِيهَا هُمۡ وَٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 93
(94-95) फिर वे उपास्य और ये बहके हुए लोग और इब्लीस की सेनाएँ सब के सब उसमें ऊपर-तले धकेल दिए जाएँगे।68
68. मूल में अरबी शब्द 'कुबकिबू’ फ़रमाया गया है जिसमे दो भाव निहित हैं- एक यह कि एक के ऊपर एक धकेल दिया जाएगा। दूसरे यह कि वे जहन्नम के गढ़े में लुढ़के चले जाएंगे।
وَجُنُودُ إِبۡلِيسَ أَجۡمَعُونَ ۝ 94
0
قَالُواْ وَهُمۡ فِيهَا يَخۡتَصِمُونَ ۝ 95
(96-97) वहाँ ये सब आपस में झगड़ेंगे और ये बहके हुए लोग (अपने उपास्यों से) कहेगे कि "अल्लाह की कसम ! हम तो खुली गुमराही में पड़े हुए थे
تَٱللَّهِ إِن كُنَّا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 96
0
إِذۡ نُسَوِّيكُم بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 97
(98) जबकि तुमको सारे जहान के रब की बराबरी का दर्जा दे रहे थे।
وَمَآ أَضَلَّنَآ إِلَّا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 98
(99) और वे अपराधी लोग ही थे जिन्होंने हमको इस गुमराही में डाला।69
69. यह अनुपालकों और श्रद्धालुओं की ओर से उन लोगों का सत्कार हो रहा होगा जिन्हें यही लोग दुनिया में बुज़ुर्ग, पेशवा और मार्गदर्शक मानते रहे थे। आख़िरत में जाकर जब सच्चाई खुलेगी और पीछे चलनेवालों को मालूम हो जाएगा कि आगे चलनेवाले स्वयं कहाँ आए हैं और हमें कहाँ ले आए हैं, तो यही श्रद्धालु उनको अपराधी ठहराएंगे और उनपर लानत भेजेंगे। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह पारलौकिक जगत का यह शिक्षाप्रद चित्र खींचा गया है ताकि अंधानुकरण करनेवाले दुनिया में आँखें खोलें और किसी के पीछे चलने से पहले देख लें कि वह ठोक भी जा रहा है या नहीं। देखिए सूरा-7 आराफ़, आयत 38, सूरा-41, हा० मीम० अस-सज्दा, आयत 29, सूरा-33 अल-अहज़ाब, आयत (67-68]
فَمَا لَنَا مِن شَٰفِعِينَ ۝ 99
(100) अब न हमारा कोई सिफ़ारिशी है70
70. अर्थात् जिन्हें हम दुनिया में सिफ़ारिशी समझते थे और जिनके बारे में हमारा यह विश्वास था कि उनका दामन जिसने थाम लिया बस उसका बेड़ा पार है, उनमें से आज कोई भी सिफ़ारिश की कोशिश करने के लिए ज़बान खोलनेवाला नहीं है।
وَلَا صَدِيقٍ حَمِيمٖ ۝ 100
(101) और न कोई जिगरी दोस्त।71
71. अर्थात् कोई ऐसा भी नहीं है जो हमारा ग़म बंटानेवाला और हमारे लिए कुढ़नेवाला हो, चाहे हमको छुड़ान सके, मगर कम से कम उसे हमारे साथ कोई सहानुभूति ही हो।। और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-43 [जुख़रुफ़, टिप्पणी 59]
فَلَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 101
(102) काश, हमें एक बार फिर पलटने का मौक़ा मिल जाए तो हम ईमानवाले हों।"72
72. इस तमन्ना का उत्तर भी क़ुरआन में दे दिया गया है कि "अगर उन्हें पिछली जिंदगी को ओर वापस भेज दिया जाए तो वहीं कुछ करेंगे जिससे उन्हें मना किया गया है ।" (सूरा अल-अनआम, आयत 28) [और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 मोमिनून, टिप्पणी 90-92]
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 102
(103) निस्संदेह इसमें एक बड़ी निशानी है73, मगर इनमें से अधिकतर लोग ईमान लानेवाले नहीं ।
73. अर्थात् हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के किस्से में । इस किस्से में निशानी के दो पहलू हैं- एक यह कि अरब के मुश्रिक और मुख्य रूप से कुरैश के लोग एक ओर तो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) को पैरवी का दावा और उनके साथ अपने ताल्लुक जोड़ने पर गर्व करते हैं, मगर दूसरी ओर उसी शिर्क में पड़े हुए हैं जिसके विरुद्ध संघर्ष करते उनकी उम्र बीत गई थी। दूसरा पहलू इस किस्से में निशानी का यह है कि इब्राहीम (अलैहि०) को क़ौम दुनिया से मिट गई और ऐसी मिटी कि इसका नाम व निशान तक बाकी न रहा। इसमें से अगर किसी को स्थाथित्व प्राप्त हुआ तो केवल इब्राहीम और उनके मुबारक बेटो (इस्माईल और इस्हाक) की सन्तान ही को प्राप्त हुआ।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 103
(104) और सच तो यह है कि तेरा रब जबरदस्त भी है और दयावान भी।
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ نُوحٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 104
(105) नूह की क़ौम74 ने रसूलों को झुठलाया।75
74. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ, आयतें 59-64, सूरा-10 युनूस आयतें 71-73, सूरा-11 हूद आयतें 25-48, सूरा-17 बनी इसराईल आयत 3, सूरा-21 अल-अंबिया आयतें 76-77, सूरा-23 अल-मोमिनून आयतें 23-30,सूरा 25 अल-फुरकान आयत 37 ।
75. यद्यपि उन्होंने एक ही रसूल को झुठलाया था, लेकिन चूंकि रसूल का झुठलाना वास्तव में उस दावत और सन्देश का झुठलाना है जिसे लेकर वह अल्लाह की ओर से आता है, इसलिए जो आदमी या गिरोह किसी एक रसूल का भी इंकार कर दे,वह अल्लाह की निगाह में तमाम रसूलों का इंकारी है।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ نُوحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 105
(106) याद करो जबकि उनके भाई नूह ने उनसे कहा था, "क्या तुम डरते नहीं हो?76
76. हज़रत नूह (अलैहि०) के इस कथन का अर्थ सिर्फ डर नहीं, बल्कि अल्लाह का डर है। और अधिक विस्तार कि लिए देखिए, सूरा -23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 25)
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 106
(107) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ77
77. इसके दो अर्थ हैं। एक यह कि जो कुछ अल्लाह की ओर से मुझपर उतरता है वही बिना कुछ घटाए-बढ़ाए तुम तक पहुँचा देता हूँ। और दूसरा अर्थ यह है कि मैं एक ऐसा रसूल हूँ जिसे तुम पहले से एक अमानतदार और सच्चे आदमी की हैसियत से जानते हो। जब मैं दुनियावालों के मामले में ख़ियानत करनेवाला नहीं हूँ तो अल्लाह के मामले में कैसे खियानत कर सकता हूँ । इसलिए तुम्हें समझना चाहिए कि जो कुछ मैं अल्लाह की ओर से पेश कर रहा हूँ, उसमें भी वैसा ही अमानतदार हूँ जैसा दुनिया के मामले में आज तक तुमने मुझे अमानतदार पाया है।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 107
(108) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी आज्ञापालन करो।78
78. अर्थात् मेरे अमानतदार रसूल होने का ज़रूरी तकाज़ा यह है कि तुम दूसरे सब उपास्यों का आज्ञापालन छोड़कर केवल मेरा आज्ञापालन करो क्योंकि मैं सर्व जगत् के स्वामी की मर्जी का नुमाइंदा हूँ। मेरा आज्ञापालन अल्लाह का आज्ञपालन है और मेरी अवज्ञा सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि सीधे तौर पर अल्लाह की अवज्ञा है।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 108
(109) मैं इस काम पर तुमसे कोई बदला नहीं चाहता हूँ। मेरा बदला तो जहान के रब के ज़िम्मे है।79
79. यह अपनी सत्यता पर हज़रत नूह (अलैहि०) का दूसरा तर्क है। इसका अर्थ यह है कि मैं एक निः स्वार्थ आदमी हूँ। तुम किसी ऐसी निजी फायदे की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस काम से मुझे प्राप्त हो रहा हो या जिसके प्राप्त करने की मैं कोशिश कर रहा हूँ। इस निःस्वार्थपूर्ण ढंग से बिना किसी निजी लाभ के जब मैं सत्य की इस दावत के काम में रात व दिन अपनी जान खपा रहा हूँ तो तुम्हें समझना चाहिए कि मैं इस काम में निष्ठावान हूँ, कोई मनोकामना इसकी प्रेरक नहीं कि उसके लिए मैं झूठ गढ़कर लोगों को धोखा दूं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 70)
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 109
(110) अत: तुम अल्लाह से डरो और (बे-खटक) मेरी आज्ञापालन करो"।80
80. इस वाक्य को यहाँ एक दूसरी अनुरूपता से दोहराया गया है। उपरोक्त बात "मैं तुम्हारे लिए अमानतदार रसूल हूँ, अतः तुम अल्लाह से डरो” की अनुरूपता यह थी कि जो आदमी अल्लाह की ओर से एक अमानतदार रसूल है उसे झुठलाते हुए अल्लाह से डरो और यहाँ यह कहा गया कि “मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता" वाक्य की अनुरूपता यह है कि जो आदमी अपने किसी निजी लाभ के बिना सिर्फ दुनिया के सुधार के लिए पूरी निष्ठा के साथ काम कर रहा है उसकी नीयत पर हमला करते हुए अल्लाह से डरो।
۞قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لَكَ وَٱتَّبَعَكَ ٱلۡأَرۡذَلُونَ ۝ 110
(111) उन्होंने उत्तर दिया, “क्या हम तुझे मान लें, हालांकि तेरी पैरवी अत्यन्त नीच लोगों ने अपनाई है?"81
81. ये लोग जिन्होंने हज़रत नूह (अलैहि०) को सत्य के आह्वान का यह उत्तर दिया, उनकी क़ौम के सरदार, प्रधान और गणमान्य लोग थे, जैसा कि [सूरा-11 हूद, आयत 27 में स्पष्ट रूप से फ़रमाया गया है, इससे मालूम होता है कि हज़रत नूह (अलैहि०) पर ईमान लानेवाले अधिकतर ग़रीब लोग, छोटे-छोटे पेशेवर लोग या ऐसे नौजवान थे जिनकी क़ौम में कोई हैसियत न थी। ठीक यही बात कुरैश के विधर्मी नबी (सल्ल०) के बारे में कहते थे कि इनकी पैरवी करनेवाले या तो दास और ग़रीब लोग हैं या कुछ नादान लड़के । क़ौम के बड़े और प्रतिष्ठित लोगों में से कोई भी इनके साथ नहीं है, मानो इन लोगों की सोच यह थी कि सत्य केवल वह है जिसे क़ौम के बड़े लोग सत्य मानें, क्योंकि वही बुद्धि और समझ-बूझ रखते हैं। रहे छोटे लोग, तो उनका छोटा होना ही इस बात की दलील है कि वे बुद्धिहीन और राय के कमज़ोर हैं, इसलिए उनका किसी बात का मान लेना और बड़े लोगों का रद्द कर देना स्पष्ट रूप से यह अर्थ रखता है कि वह एक महत्वहीन बात है।
قَالَ وَمَا عِلۡمِي بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 111
(112) नूह ने कहा, “मैं क्या जानूं कि उनके कर्म कैसे हैं?
إِنۡ حِسَابُهُمۡ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّيۖ لَوۡ تَشۡعُرُونَ ۝ 112
(113) उनका हिसाब तो मेरे रब के ज़िम्मे है। काश, तुम कुछ समझ से काम लो!82
82. यह उनकी आपत्ति का पहला उत्तर है। (हज़रत नूह (अलैहि०) इस उत्तर में फ़रमाते हैं। कि मेरे पास यह जानने का कोई साधन नहीं कि जो आदमी मेरे पास आकर ईमान लाता है और एक अकीदा अपना करके उसके अनुसार कर्म करने लगता है, उसके इस कर्म की तह में क्या-क्या प्रेरक तत्त्व कार्य कर रहे हैं और वे कितना महत्व का मूल्य रखते हैं। इन चीज़ों का देखना और इनका हिसाब लगाना तो अल्लाह का काम है, मेरा और तुम्हारा काम नहीं है।
وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 113
(114) मेरा यह काम नहीं है कि जो ईमान लाएँ उनको मैं धुत्कार दूँ,
إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 114
(115) मैं तो बस एक साफ़ साफ़ सचेत कर देनेवाला आदमी हूँ।''83
83. यह उनकी आपत्ति का दूसरा उत्तर है। उनकी आपत्ति में यह बात भी छिपी हुई थी कि ईमान लानेवालों के गिरोह में चूंकि हमारे समाज के निचले वर्ग लोग शामिल हैं, इसलिए ऊँचे वर्गों में से कोई आदमी ज़ुमरे (दल) शामिल होना गवारा नहीं कर सकता। हज़रत नूह (अलैहि०) इसका उत्तर यह देते हैं कि मैं आख़िर यह अनुचित तरीक़ा कैसे अपना सकता हूँ कि जो लोग मेरी बात नहीं मानते उनके तो पीछे फिरता रहूँ और जो मेरी बात मानते हैं उन्हें धक्के देकर निकाल हूँ। मेरी हैसियत तो एक ऐसे बे-लाग आदमी की है जिसने एलानिया खड़े होकर पुकार दिया है कि जिस तरीके पर तुम लोग चल रहे हो, यह असत्य है और इसपर चलने का अंजाम विनाश है और जिस तरीके की ओर मैं रहनुमाई कर रहा हूँ उसी में तुम सबकी मुक्ति है। अब जिस जी चाहे मेरी इस चेतावनी को स्वीकार करके सीधे रास्ते पर आए और जिसका जी चाहे आँखें बन्द करके विनाश की राह चलता रहे । ठीक यही मामला इन आयतों के उतरने के समय में नबी (सल्ल०) और मक्का के विधर्मियों के बीच चल रहा था। [देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 52, सूरा-80 अ-ब-स, आयत 5-13] और इसी को निगाह में रखने से यह समझ में आ सकता है कि हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के सरदारों की यह बातचीत यहाँ क्यों सुनाई जा रही है।
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰنُوحُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمَرۡجُومِينَ ۝ 115
(116) उन्होंने कहा, “ऐ नूह ! अगर तू बाज़ न आया तो फटकारे हुए लोगों में शामिल होकर रहेगा।"84
84. मूल अरबी शब्द हैं “ल-तकूनन-ना मिनल मरजूमीन" । इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि तुमको पत्थर मार-मारकर हलाक कर दिया जाएगा। दूसरे अर्थ यह हो सकते हैं कि तुमपर हर ओर से गालियों की बौछार की जाएगी। जहाँ जाओगे धुत्कारे और फटकारे जाओगे।
قَالَ رَبِّ إِنَّ قَوۡمِي كَذَّبُونِ ۝ 116
(117) नूह ने दुआ की, “ऐ मेरे रब! मेरी क़ौम ने मुझे झुठला दिया।85
85. अर्थात् आख़िरी और पूरे तौर पर झुठला दिया है जिसके बाद अब किसी तस्दीक (पुष्टि) और ईमान की आशा बाक़ी नहीं रही। प्रत्यक्ष वार्ता से कोई आदमी इस सन्देह में न पड़े कि बस पैग़म्बर और क़ौम के सरदारों के बीच ऊपर की वार्ता हुई और उनकी ओर से प्रथमतः झुठला देने के बाद पैग़म्बर ने अल्लाह के समक्ष रिपोर्ट पेश कर दी कि ये मेरी नुबूवत नहीं मानते। अब आप मेरे और इनके मुक़द्दमे का फ़ैसला फ़रमा दें। क़ुरआन मजीद में विभिन्न जगहों पर उस लम्बे संघर्ष का उल्लेख किया गया है जो हज़रत नूह (अलैहि०) की दावत और उनकी क़ौम के इनकार पर जमे रहने के अन्तराल सदियों चलता रहा। [देखिए सूरा-29 अल अन-कबूत, आयत 14, सूरा-71 नूह, आयत 27.सूरा-11 हूद, आयत 36]
فَٱفۡتَحۡ بَيۡنِي وَبَيۡنَهُمۡ فَتۡحٗا وَنَجِّنِي وَمَن مَّعِيَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 117
(118) अब मेरे और उनके बीच दोटूक फैसला कर दे और मुझे और जो ईमानवाले मेरे साथ है, उनको नजात दे।"86
86. अर्थात् फैसला इस रूप में लागू कर कि असत्यवादी नष्ट कर दिए जाएँ और सत्यवादी बचा लिए जाएँ। यह शब्द कि 'मुझे और मेरे ईमानवाले साथियों को बचा ले' स्वयं ही अपने भीतर यह अर्थ रखते हैं कि बाकी लोगों पर अज़ाब उतार और उन्हें ग़लत हर्फ की तरह मिटाकर रख दे।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 118
(119) अन्तत: हमने उसको और उसके साथियों को एक भरी हुई कश्ती में बचा लिया87
87. 'भरी हुई कश्ती' से तात्पर्य यह है कि वह कश्ती ईमान लानेवाले इंसानों और तमाम जानवरों से भर गई थी जिनका एक-एक जोड़ा साथ रख लेने की हिदायत फरमाई गई थी। इसके विवरण के लिए देखिए सूरा-11 हूद, आयत 40 ।
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا بَعۡدُ ٱلۡبَاقِينَ ۝ 119
(120) और इसके बाद बाकी लोगों को डुबो दिया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 120
(121) निश्चय ही इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अधिकतर लोग माननेवाले नहीं
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 121
(122) और सच तो यह है कि तेरा रब प्रभुत्वशाली भी है और दयावान भी।
كَذَّبَتۡ عَادٌ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 122
(123) आद ने रसूलों को झुठलाया।88
88. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ, आयतें 65-72, सूरा-11 हूद, 50-60 । साथ ही इस क़िस्से के विवरण के लिए कुरआन के निम्नलिखित स्थान भी निगाह में रहें :सूरा-41 हा० मीम० अस-सज्दा, आयतें 13-16, सूरा-46 अल-अहकाफ़, 21-26, सूरा-91 अज़-जारियात, 41-45, सूरा-54 अल-क़मर, 18-22, सूरा-69 अल-हाक्का,4-8,सूरा-89 अल-फ़ज़,6-8 ।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ هُودٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 123
(124) याद करो जबकि उनके भाई हूद ने उनसे कहा था,89 "क्या तुम डरते नहीं ?
89. हज़रत हूद (अलैहि०) के इस भाषण को समझने के लिए अनिवार्य है कि इस क़ौम के बारे में वे जानकारियाँ हमारी दृष्टि में रहें जो कुरआन मजीद ने विभिन्न स्थानों पर हमें उपलब्ध कराई है। उनमें बताया गया है कि- नूह (अलैहि०) की क़ौम के विनाश के बाद दुनिया में जिस क़ौम को उत्थान प्रदान किया गया वह यही थी, (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 69)। शारीरिक दृष्टि से ये बड़े स्वस्थ और शक्तिशाली लोग थे, (सूरा-7 अल-आराफ़ आयत 69)। अपने समय में यह बे-मिसाल क़ौम थी। कोई दूसरी क़ौम इसकी टक्कर की न थी, (सूरा-89 अल-फ़ज, आयत 8)। इसकी सभ्यता एवं संस्कृति बड़ी शानदार थी। ऊँचे-ऊँचे स्तभों की ऊंची ऊंची भव्य हमारते बनाना इसकी यह विशेषता थी जिसके लिए वह उस वक्त की दुनिया में मशहूर थी (सूरा-8) अल-फ़ज्र, आयत 6-7)। इस भौतिक उन्नति और शारीरिक शक्ति ने उनको अत्यन्त घमंडी बना दिया था और उन्हें अपनी शक्ति का बड़ा भांड या (पुरावा हा० मीम अस-सन्दा, आयत 15)। उनकी राजनैतिक व्यवस्था कुछ बड़े बड़े प्रमुखशाली दमनकारियों के हाथ में थी जिनके आगे कोई दम न मार सकता था (हूद आयत 59) । धार्मिक दृष्टि से ये अल्लाह की हस्ती के इंकारी न थे, बल्कि शिर्क में पड़े, हुए थे। उनको इस बात से इंकार था कि बन्दगी सिर्फ अल्लाह की होनी चाहिए, (सूरा अल-आराफ़, आयत 20)। इन विशेषताओं को नज़र में रखने से हजरत इद (अलैहि०) का यह दावती भाषण अच्छी तरह समझ में आ सकता है।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 124
(125) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ,
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 125
(126) इसलिए तुम अल्लाह से डरो, और मेरी आज्ञापालन करो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 126
(127) मैं इस काम पर तुमसे कोई बदला नहीं माँग रहा हूँ। मेरा बदला तो सारे जहान के रब के ज़िम्मे है ।
أَتَبۡنُونَ بِكُلِّ رِيعٍ ءَايَةٗ تَعۡبَثُونَ ۝ 127
(128) यह तुम्हारा क्या हाल है कि हर ऊँची जगह पर व्यर्थ एक यादगार इमारत बना डालते हो90,
90. अर्थात केवल अपने बड़पन और समद्धि का प्रदर्शन करने के लिए, ऐसी भव्य इमारतें बनाते हो जिनका कोई उपयोग नहीं।
وَتَتَّخِذُونَ مَصَانِعَ لَعَلَّكُمۡ تَخۡلُدُونَ ۝ 128
(129) और बड़े-बड़े महल बना डालते हो मानो तुम्हें हमेशा रहना है।91
91. अर्थात तुम्हारी दूसरी प्रकार की इमारतें ऐसी हैं जो यद्यपि उपयोग के लिए हैं, मगर उनको इतना ज्यादा शानदार, सुसज्जित और मजबूत बनाते हो जैसे दुनिया में हमेशा रहने का सामान कर रहे हो।
وَإِذَا بَطَشۡتُم بَطَشۡتُمۡ جَبَّارِينَ ۝ 129
(130) और जब किसी पर हाथ डालते ही, अत्यंत निर्दयी बनकर डालते हो।92
92. अर्थात् अपना जीवन स्तर ऊंचा करने में तो तुम इतना आगे बढ़ गए हो, लेकिन तुम्हारी मानवता का स्तर इतना गिरा हुआ है कि कमजोरों के लिए तुम्हारे दिलों में कोई दया नहीं, आस पास की कमज़ोर क़ौमें हों या स्वयं अपने देश के निम्न वर्ग, सब तुम्हारे दमन और अत्याचार की चक्की में पिस रहे हैं।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 130
(131) इसलिए तुम लोग अल्लाह से हरो, और मेरा आझापालन करो।
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِيٓ أَمَدَّكُم بِمَا تَعۡلَمُونَ ۝ 131
(132) डरो उससे जिसने बह कुछ तुम्हें दिया है जो तुम जानते हो।
أَمَدَّكُم بِأَنۡعَٰمٖ وَبَنِينَ ۝ 132
(133) तुम्हें जानवर दिए, सन्तानें दीं,
وَجَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 133
(134) बारा दिए और जल-स्रोत दिए ।
إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 134
(135) मुझे तुम्हारे बारे में बड़े दिन के अजाब का हर है।"
قَالُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَوَعَظۡتَ أَمۡ لَمۡ تَكُن مِّنَ ٱلۡوَٰعِظِينَ ۝ 135
(136) उन्होंने जवाब दिया, "तू नसीहत कर या न कर, हमारे लिए सब बराबर है।
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا خُلُقُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 136
(137) ये बातें तो यूं ही होती चली आई है।93
93. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि जो कुछ हम कर रहे हैं यह आज कोई नई चीज़ नहीं है, सदियों से हमारे बाप-दादा यही कुछ करते चले आ रहे हैं। यही उनका दीन (धर्म) था और यही उनकी संस्कृति थी, और ऐसे ही उनके आचरण और व्यवहार थे। कौन-सी आफत उनपर टूट पड़ी थी कि अब हम उसके टूट पड़ने का डर रखें। जिंदगी के इस तरीक़े में अगर कोई ख़राबी होती तो पहले ही वह अज़ाब आ चुका होता जिससे तुम डराते हो । दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि जो बातें तुम कर रहे हो, ऐसी ही बातें पहले भी बहुत से धार्मिक, उन्मादी और नैतिकता की बातें बधारनेवाले करते रहे हैं, मगर दुनिया की गाड़ी जिस तरह चल रही थी उसी तरह चली जा रही है। तुम जैसे लोगों की बातें न मानने का यह नतीजा कभी न निकला कि यह गाड़ी किसी सदमे से दो-चार होकर उलट गई होती।
وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 137
(138) और हम अजाब में डाले जानेवाले नहीं है।"
فَكَذَّبُوهُ فَأَهۡلَكۡنَٰهُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 138
(139) अन्ततः निश्चय ही इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अधिकतर लोग माननेवाले नहीं हैं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 139
(140) और वास्तविकता तो यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और दया करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 140
(141) समूद ने रसूलों को झुठलाया।95
95. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 73-79, सूरा-11 हूद,61-68, सूरा-15 अल-हिज्र, 80-84, सूरा-17 बनी इसराईल 59 । इस क़ौम के बारे में कुरआन में विभिन्न स्थानों पर जो बातें कही गई हैं उनसे मालूम होता है कि आद के बाद जो कौम उन्नति के शिखर पर पहुंची थी, वह यही थी। "तुम्हें आद के बाद खलीफ़ा बनाया" (सूरा-7 अल-आराफ़ : 74) मगर उसके सांस्कृतिक विकास ने भी आख़िरकार वही शक्ल इनियार की, जो आद की तरक्क़ी ने की थी अर्थात् जीवन-स्तर को ऊँचे से ऊँचा और मानवता-स्तर घटिया से घटिया होता चला गया। एक ओर मैदानी इलाकों में भव्य महल और पहाड़ों में एलोरा और अजनता की गुफाओं जैसे मकान बन रहे थे, दूसरी ओर समाज में शिर्क और बुतपरस्ती का ज़ोर था और ज़मीन जुल्म व सितम से भरी जा रही थी। क़ौम के निकृष्ट उपद्रवी लोग उसके लीडर बने हुए थे, उच्च वर्ग अपनी बड़ाई के घमंड में मस्त थे। हज़रत सालेह (अलैहि०) के सत्य-आह्वान ने अगर अपील किया तो निचले वर्ग के कमजोर लोगों को किया । उच्च वर्गों ने इसे मानने से सिर्फ़ इसलिए इंकार कर दिया कि "जिस चीज़ पर तुम ईमान लाए हो उसको हम नहीं मान सकते।"
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ صَٰلِحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 141
(142) याद करो जबकि उनके भाई सालेह ने उनसे कहा, "क्या तुम डरते नहीं ?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 142
(143) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ96,
96. हज़रत सालेह की ईमानदारी एवं सच्चाई और असाधारण योग्यता की गवाही स्वयं उस क़ौम के लोगों के मुख से क़ुरआन इन शब्दों में नकल करता है- "उन्होंने कहा, ऐ सालेह। इससे पहले तो तुम हमारे दर्मियान ऐसे आदमी थे जिससे हमारी बड़ी आशाएँ सम्बद्ध थी।" (सूरा-11 हूद, आयत 62)
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 143
(144) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी आज्ञा का पालन करो ।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 144
(145) मैं इस काम पर तुमसे कोई बदला नहीं चाहता हूँ, मेरा बंदला तो अल्लाह, सारे जहान के रब, के ज़िम्मे है।
أَتُتۡرَكُونَ فِي مَا هَٰهُنَآ ءَامِنِينَ ۝ 145
(146) क्या तुम उन सब चीज़ों के दर्मियान, जो यहाँ हैं, बस यूँ ही निश्चिंत होकर रहने दिए जाओगे97
97. अर्थात् क्या तुम्हारा विचार यह है कि तुम्हारा यह ऐश हमेशा-हमेशा का है? क्या यह कभी समाप्त नहीं होगा? क्या तुमसे इन नेमतों का हिसाब न लिया जाएगा?
فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 146
(147) इन बाग़ों और स्रोतों में?
وَزُرُوعٖ وَنَخۡلٖ طَلۡعُهَا هَضِيمٞ ۝ 147
(148) इन खेतों और नलिस्तानों में जिनके गुच्छे रस भरे हैं ?98
98. मूल में शब्द 'हज़ीम' प्रयुक्त हुआ है जिससे तात्पर्य खजूर के ऐसे गुच्छे हैं जो फलों से लदकर झुक गए हों और जिनके फल पकने के बाद नर्मी और तरी की वजह से फटे पड़ते हों।
وَتَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا فَٰرِهِينَ ۝ 148
(149) तुम पहाड़ खोद-खोद कर गर्व से उनमें इमारतें बनाते हो।99
99. जिस तरह आद की संस्कृति की सबसे नुमायाँ विशेषता यह थी कि वे ऊँची-ऊँची स्तंभोंवाली इमारतें बनाते थे, इसी तरह समूद को संस्कृति को सबसे अधिक नुमायाँ विशेषता यह थी कि वे पहाड़ों को कॉट-छाँटकर उनके अन्दर इमारतें बनाते थे। (देखिए सूरा-87 फ़ज़, आयत 9) इसके अतिरिक्त कुरआन में यह भी बताया गया है कि वे अपने यहाँ मैदानी इलाकों में भी बड़े-बड़े महल बनाया करते थे। (सूरा-7 अल-आराफ, आयत 74) और इन निर्माणों का वास्तविक उद्देश्य क्या था? कुरआन इसपर शब्द 'फारिहीन' से रौशनी डालता है, अर्थात् यह सब कुछ अपनी बड़ाई, अपने धन और शक्ति और अपने कला-कौशल के प्रदर्शन के लिए था, कोई वास्तविक ज़रूरत उनके लिए प्रेरक न थी। समूद के इन भवनों में से कुछ अब भी बाक़ी हैं जिन्हें 1950 ई. के दिसम्बर में मैंने स्वयं देखा है । यह जगह मदीना तैयिबा और तबूक के बीच हिजाज़ के प्रसिद्ध स्थान 'अल-उला' (जिसे नबी सल्ल. के समय में “वादोउल-कुरा" कहा जाता था) से कुछ मील की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। आज भी इस जगह को वहाँ के स्थानीय लोग अल-हिज्र और मदाइने-सालेह के नामों ही से याद करते हैं। इस क्षेत्र में जब हम दाखिल हुए तो अल-उला के करीब पहुंचते ही हर ओर हमें ऐसे पहाड़ नज़र आए जो बिल्कुल खोल-खोल हो गए हैं। साफ़ महसूस होता था कि किसी सख्त हौलनाक भूकम्प ने उन्हें ज़मीन की सतह से चोटी तक झकझोरकर टुकड़े-टुकड़े कर रखा है। इसी तरह के पहाड़ हमें पूरब की ओर अल-उला से खैबर जाते हुए लगभग 50 मील तक और उत्तर की ओर जार्डन राज्य की सीमाओं में तीस-चालीस मील अन्दर तक मिलते चले गए। इसका अर्थ यह है तीन-चार सौ मील लम्बा और सौ मील चौड़ा एक क्षेत्र था, जिसे एक भारी भूकम्प ने हिलाकर रख दिया था।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 149
(150) अल्लाह से डरो और मेरी आज्ञा का पालन करो।
وَلَا تُطِيعُوٓاْ أَمۡرَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 150
(151) उन बे-लगाम लोगों की आज्ञा का पालन न करो,
ٱلَّذِينَ يُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا يُصۡلِحُونَ ۝ 151
(152) जो ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं और कोई सुधार नहीं करते ।"100
100. अर्थात् अपने सरदारों, धनवानों और उन नेताओं और शासकों का अनुपालन छोड़ दो, ये सीमा का उल्लंघन करनेवाले लोग हैं। नैतिकता की सारी सीमाएँ लाँधकर बेनकेल ऊँट बन चुके हैं। इनके हाथों से कोई सुधार नहीं हो सकता। तुम्हारे लिए सफलता की कोई शक्ल अगर है तो केवल यह कि अपने भीतर ईशभय पैदा करो और उपद्रवियों का अनुपालन छोड़ कर मेरा आज्ञापालन करो, क्योंकि मैं अल्लाह का रसूल हूँ।-यह था वह संक्षिप्त घोषणा पत्र जो हज़रत सालेह (अलैहि०) ने अपनी क़ौम के सामने पेश किया। इसमें केवल धर्म प्रचार ही न था, सांस्कृतिक व नैतिक सुधार और राजनैतिक क्रान्ति का आह्वान भी साथ-साथ मौजूद था।
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 152
(153) उन्होंने जवाब दिया, “तू सिर्फ़ एक जादू का मारा आदमी है,101
101. "जादू का मारा हुआ" अर्थात् दीवाना व मजनून, जिसकी बुद्धि मारी गई हो।
مَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا فَأۡتِ بِـَٔايَةٍ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 153
(154) तू हम जैसे एक इंसान के सिवा और क्या है? ला कोई निशानी, अगर तू सच्चा है।"102
102. अर्थात् अगर तू अल्लाह की ओर से नियुक्त और अल्लाह की ओर से भेजे हुए होने के दावे में सच्चा है तो कोई ऐसा प्रत्यक्ष मोजज़ा (चमत्कार) पेश कर जिससे हमें विश्वास आ जाए कि सच में सृष्टि के पैदा करनेवाले और ज़मीन व आसमान के मालिक ने तुझको हमारे पास भेजा है।
قَالَ هَٰذِهِۦ نَاقَةٞ لَّهَا شِرۡبٞ وَلَكُمۡ شِرۡبُ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 154
(155) सालेह ने कहा, "यह ऊँटनी है।103 एक दिन इसके पीने का है और एक दिन तुम सबके पानी लेने का।104
103. मोजज़े की माँग पर ऊँटनी पेश करने से स्पष्ट होता है कि वह सिर्फ एक आम ऊँटनी न थी, बल्कि ज़रूर उसकी पैदाइश और उसके ज़ाहिर होने में या उसकी संरचना में कोई ऐसी चीज़ थी जिसे मोजज़े की माँग करने पर पेश करना उचित होता। यह बात यहाँ तो सिर्फ़ वार्ता-सन्दर्भ ही की अपेक्षा से समझ में आती है, लेकिन दूसरी जगहों पर कुरआन में स्पष्टतः इस ऊंटनी के अस्तित्त्व को मोजज़ा कहा गया है। सूरा-7 आराफ़ और सूरा-11 हूद में फ़रमाया गया, “यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए निशानी के तौर पर है।"
104. अर्थात् एक दिन अकेले यह ऊँटनी तुम्हारे चश्मों और कुओं से पानी पिएगी और एक दिन सारी क़ौम के आदमी और जानवर पिएँगे। खबरदार ! इसकी बारी के दिन कोई आदमी पानी लेने की जगह फटकने न पाए । यह चुनौती अपने आप में बड़ी कड़ी थी, लेकिन अरब की विशेष परिस्थितियों में तो किसी क़ौम के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरी चुनौती हो नहीं सकती थी। वहाँ तो पानी ही के मसले पर ख़ून-ख़राबे हो जाते थे। लेकिन हज़रत सालेह ने अकेले उठकर यह चुनौती अपनी कौम को दी और कौम ने न सिर्फ़ यह कि इसको कान लटकाकर (सौर से) सुना, बल्कि बहुत दिनों तक डर के मारे वह इसपर अमल भी करती रही।
وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 155
(156) इसको कदापि न छेड़ना, वरना एक बड़े दिन का अज़ाब तुमको आ लेगा।"
فَعَقَرُوهَا فَأَصۡبَحُواْ نَٰدِمِينَ ۝ 156
(157) मगर उन्होंने उसकी कूचे काट दी105 और अन्ततः पछताते रह गए,
105. यह अर्थ नहीं है कि जिस समय उन्होंने हज़रत सालेह से यह चुनौती सुनी उसी समय वे ऊँटनी पर पिल पड़े और उसकी फूंचे काट डालौं, बल्कि एक लम्बे समय तक यह ऊँटनी सारी कौम के लिए एक समस्या बनी रही, लोग इसपर दिलों में खौलते रहे, मश्विरे होते रहे और आखिरकार एक मनचले काम का बीड़ा उठाया कि वह कौम को इस बला से निजात दिलाएगा । (देखिए मूग 54 अल-कमर, आयत 29 और सूरा-91 शम्स, आयत 12)
فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 157
(158) अजाब में उन्हें आ लिया।106 निश्चय ही इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अधिकतर माननेवाले नहीं,
106. क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस अज़ाब का जो विवरण आया है, वह यह है कि जब ऊंटनी मार डाली गई तो हज़रत सालेह (अलैहि०) ने एलान किया, तीन दिन अपने घरों में मजे कर लो।" (सूरा-11 सूद, आयत 65) इस नोटिस की मुद्दत खत्म होने पर रात को पिछले पहर सुबह के करीब एक ज़बरदस्त धमाका हुआ और उसके साथ ऐसा भयानक भूकम्प आया जिसने देखते ही देखते पूरी कौम को तबाह करके रख दिया। (और व्याख्या के लिए देखिए सूरा-54, अल-कमर आयत-31, सूरा-7, अल-आराफ आयत 78, सूरा-15 अल-हिज,आयत 83-84)।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 158
(159) और सच यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और दया करनेवाला भी।
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 159
(160) लूत की कीम ने रसूलों को झुठलाया।107
107. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ, आयत 80-84, सूरा-।। हूद, 74.83, सूरा-15 शल-हिज्र, 57-77, सूरा-21 अल-अंबिया, 71-75, सूरा-27 अन नम्ल, 54-58, सूरा-29) अल-अनकबूत, 28-35, सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात 133-138,सूरा-54 अल-क़मर 33-39।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ لُوطٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 160
(161) याद करो जबकि उनके भाई लूत ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं ?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 161
(162) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 162
(163) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी आज्ञा का पालन करो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 163
(164) में इस काम पर तुमसे किसी बदले की मांग नहीं करता। मेरा बदला तो सारे जहान के रब के ज़िम्मे है।
أَتَأۡتُونَ ٱلذُّكۡرَانَ مِنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 164
(165) क्या तुम दुनियावालों में से मदों के पास जाते हो108
108. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि सारी मलूक में से सिर्फ मदों को तुमने इस उद्देश्य के लिए छाँट लिया है कि इनसे कामवासना को तृप्ति पूरी करो। दूसरा अर्थ यह है कि दुनिया भर में एक तुम ही ऐसे लोग हो जो कामेच्छा पूरी करने के लिए मदों के पास जाते हो। इस दूसरे अर्थ को सूरा-7 आराफ़ 80 और सूरा-29 अनकबूत आयत 28 में यूं स्पष्ट किया गया है : “क्या तुम वह अश्लीलता का काम करते हो जो दुनिया की मलूक में से किसी ने तुमसे पहले नहीं किया?"
وَتَذَرُونَ مَا خَلَقَ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٌ عَادُونَ ۝ 165
(166) और तुम्हारी बीवियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ पैदा किया है उसे छोड़ देते हो?109 बल्कि तुम लोग तो सीमा ही पार कर गए हो।"110
109. इसके भी दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि इस इच्छा को पूरा करने के लिए जो बीवियाँ अल्लाह ने पैदा की थीं, उन्हें छोड़कर तुम अप्राकृतिक साधन अर्थात् मर्दो को इस काम के लिए इस्तेमाल करते हो। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि खुद इन बीवियों के अन्दर अल्लाह ने इस इच्छा को पूरा करने का जो प्राकृतिक रास्ता रखा था उसे छोड़कर तुम अप्राकृतिक रास्ता अपनाते हो।
110. अर्थात् तुम्हारा सिर्फ यही एक अपराध नहीं है, तुम्हारी जिंदगी का तो पूरा तर्ज़ ही हद से ज़्यादा बिगड़ चुका है। इस आम बिगाड़ की दशा [जानने के लिए देखिए सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 54, सूरा-29 अल-अनकबूत, आयत 29, सूरा-15 अल-हिज्र, टिप्पणी 39]
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰلُوطُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُخۡرَجِينَ ۝ 166
(167) उन्होंने कहा, “ऐ तूत ! अगर तू इन बातों से बाज़ न आया तो जो लोग हमारी बस्तियों से निकाले गए हैं, उनमें तू भी शामिल होकर रहेगा।"111
111. अर्थात् तुझे मालूम है कि इससे पहले जिसने भी हमारे विरुद्ध ज़बान खोली है, या हमारी हरकतों का विरोध किया है या हमारी इच्छा के विरुद्ध काम किया है, वह हमारी बस्तियों से निकाला गया है। अब अगर तू ये बातें करेगा तो तेरा अंजाम भी यही होगा।
قَالَ إِنِّي لِعَمَلِكُم مِّنَ ٱلۡقَالِينَ ۝ 167
(168) उसने कहा, "तुम्हारी करतूतो पर जो लोग कुछ रहे है, में उनमें शामिल हूँ।
رَبِّ نَجِّنِي وَأَهۡلِي مِمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 168
(169) ऐ पालनहार | मुझे और मेरे घरवालों को इनके कुकों से बचा ।"112
112. इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि हमें इनके बुरे कर्मों के बुरे अंजाम से बचा। और यह अर्थ भी लिया जा सकता है कि इस दुष्कर्मी बस्ती में जो नैतिक गन्दगियां फैली हुई हैं, उनकी छूत कहीं हमारी बीवी बच्चों में न लग जाए। इसलिए ऐ पालनहार । हमें इस हर वक्त के अजाब से निजात दे जो इस नापाक समाज में जिंदगी बसर करने से हमपर गुज़र रहा है।
فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 169
(170) अन्तत हमने उसे और उसके सब घरवालों को बचा लिया,
إِلَّا عَجُوزٗا فِي ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 170
(171) अलावा एक बुढ़िया के जो पीछे रह जानेवालों में थी।113
113. इससे तात्पर्य हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवी है। सूरा ।। तहरीम, आयत 10 में हजरत नूह (अलैहि०) और हजरत लूत की बीवियों के बारे में फरमाया गया है कि "ये दोनों औरतें हमारे दो सदाचारी बन्दों के घर में थी, मगर उन्होंने उनके साथ खियानत की।" अर्थात् दोनों ईमान से खाली थी और अपने नेक शौहरों का साथ देने के बजाय दोनों ने अपनी आधी क़ौम का साथ दिया।
ثُمَّ دَمَّرۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 171
(172) फिर बाकी लोगों को हमने मट कर दिया,
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَسَآءَ مَطَرُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 172
(173) और उनपर बरसाई एक बरसात, बड़ी ही बुरी बारिश थी जो उन डराए जानेवालो पर आई।114
114. इस बारिश से तात्पर्य पानी की बारिश नहीं, बल्कि पत्थरों की बारिश है। कुरआन में दूसरी जगहों पर इस अजाब का जो विवरण आया है वह यह है कि हजरत लूत (अलैहि.) जब रात के पिछले पहर अपने बाल बच्चों को लेकर निकल गए तो सुलह पौ फटते ही यकायक एक जोर का धमाका हुआ, एक भयानक भूकम्प ने उनको बस्तियों को तलपट करके रख दिया। एक जबरदस्त ज्वालामुखी फटने से उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर बरसाए गए। और एक तूफानी हवा से भी उनपर पथराव किया गया। बाइबल के उल्लेखों, प्राचीन यूनानी और लेटिन लेखों, आधुनिक युग की भूमि संबंधी खोजों और पुरातात्विक सर्वेक्षणों से इस अज़ाब के विवरणों पर जो रौशनी पड़ती उसका सार यह है : मृत-सागर (Dead Sea) के दक्षिण और पूरब में जो क्षेत्र आज अत्यंत वीरान और सुनसान हालत में पड़ा हुआ है, उसमें बहुतायत के साथ प्राचीन बस्तियों के खंडहरों की मौजूदगी पता देती है कि यह किसी जमाने में अत्यधिक आबाद क्षेत्र रहा था। पुरातत्त्व विशेषज्ञों का अंदाजा है कि इस क्षेत्र की आबादी और समृद्धि का युग सन् 2300 ई. पू. से 1900 ई० पू० तक रहा है और हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के बारे में इतिहासकारों का अनुमान यह है कि वह दो हजार वर्ष ई० पू० के लगभग समय में गुजरे हैं । इस दृष्टि से पुरातत्त्व की गवाही इस बात की पुष्टि करती है कि यह क्षेत्र हजरत इब्राहीम और उनके भतीजे हजरत लूत (अलैहि०) के समय में ही बर्बाद हुआ है। इस क्षेत्र का सबसे अधिक आबाद और हरा-भरा हिस्सा वह था जिसे बाइबिल में "मिहीम की घाटी" कहा गया है। वर्तमान युग के अन्वेषकों की आम राय यह है कि दो हजार वर्ष ईसा पूर्व के लगभग समय में एक जबरदस्त भूकम्प की वजह से यह पाटी फटकर दब गई और मृत सागर का पानी इसके ऊपर छा गया। आज भी यह सागर का सबसे अधिक उथला हिस्सा है। इस समय तक (दक्षिणी) तट के साथ-साथ पानी में डूबे हुए जंगल साफ़ दिखाई देते हैं, बल्कि यह सन्देह भी किया जाता है कि पानी में कुछ इमारतें डूबी हुई हैं। बाइबिल और प्राचीन यूनानी और लेटिन लेखों से मालूम होता है कि इस क्षेत्र में जगह-जगह पेट्रोल और स्फाल्ट (Asphalt) के गढ़े थे और किसी-किसी जगह ज़मीन से ज्वलनशील गैस भी निकलती थी। अब भी वहाँ भूमिगत पेट्रोल और गैसों का पता चलता है। भूगोलीय खोजों से अनुमान किया गया है कि भूकम्प के भारी झटकों के साथ पेट्रोल, गैस और स्फाल्ट जमीन से निकलकर भड़क उठे और सारा क्षेत्र भक से उड़ गया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 173
(174) निश्चय ही इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अधिकतर माननेवाले नहीं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 174
(175) और सत्य तो यह है कि तेरा रब जबरदस्त भी है और दया करनेवाला भी।
كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ لۡـَٔيۡكَةِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 175
(176) ऐकावालों ने रसूलों को झुठलाया।115
115. 'ऐकावालों' का संक्षिप्त उल्लेख सूरा-15 अल-हिज, आयत 78-84 में पहले गुज़र चुका है। यहाँ इसका विवरण दिया जा रहा है। टीकाकारों के बीच इस बात में मतभेद है कि क्या मदयन और ऐकावाले अलग-अलग कौमें हैं या एक ही कौम के दो नाम हैं । एक गिरोह का विचार है कि ये दो अलग कौमें हैं। इसके विपरीत कुछ टीकाकार दोनों को एक ही कौम बताते हैं। तहकीक से पता चलता है कि ये दोनों बातें अपनी जगह सही हैं । मदयन के लोग और ऐका के लोग निस्सन्देह दो अलग-अलग क़बीलें है, मगर हैं एक ही नस्ल की दो शाखाएँ । हजरत इब्राहीम (अलैहि०) की जो सन्तान उनकी बीवी या दासी क़तूरा के पेट से थीं, वह अरब और इसराईल के इतिहास में बनी कतूरा के नाम से प्रसिद्ध है। उनमें से एक क़बीला जो सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ, मदयान बिन इब्राहीम के संबंध से मदयानी या पदयनवाले कहलाया और उसकी आबादी उत्तरी हिजाज़ से फलस्तीन के दक्षिण तक और वहाँ से सीना प्रायद्वीप के आख़िरी कोने तक लाल सागर और उकबा खाड़ी के तटों पर फैल गई। उसकी राजधानी शहर मदयन थी। बाक़ी बनी क़तूरा जिनमें बनी दिदान (Dedanites), कहीं अधिक प्रसिद्ध हैं, उत्तरी अरब में तीमा और तबूक और अल-उला के बीच आबाद हुए और उनकी राजधानी तबूक थी जिसे प्राचीन काल में 'ऐका' कहते थे। मदयन और ऐकावालों के लिए एक ही पैराम्बा भेजे जाने की वजह शायद यह थी कि दोनों एक ही नस्‍ल से भाषा बोलते थे और इनके क्षेत्र भी बिल्कुल एक-दूसरे से मिले हुए थे, बल्कि असंभव नहीं की कुछ मोनों में ये साथ साथ आबाद हो और आपस के शादी-ब्याह से इनका समाज भी आपस में घुल मिल गया हो। इसके अलावा बनी कतरा की इन दोनों शाखाओं का पेशा भी व्यापार था। और दोनों में एक ही तरह की व्यापारिक वे दमानियाँ और धार्मिक और नैतिक बीमारियाँ पाई जाती थी। हज़रत शुऐब (अलैहि०) और मदयनवालों के किस्से के विवरण के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 85-93, सूरा-।। हूद, 84-95, सूरा-29 अल-अनकबूत, 36-37।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ شُعَيۡبٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 176
(177) याद करो कि शुऐब ने उनसे कहा था, "क्या तुम डरते नहीं?
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 177
(178) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ,
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 178
(179) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरा आज्ञापालन करो।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 179
(180) मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले की तलब नहीं करता है, मेरा बदला सारे जहानों के रख के जिम्मे है।
۞أَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُخۡسِرِينَ ۝ 180
(181) (माप-तौल के) पैमाने ठीक भरो और किसी को घाटा न दो।
وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِ ۝ 181
(182) सही तराजू से तौलो
وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 182
(183) और लोगों को उनकी चीजें कम न दो। ज़मीन में बिगाड़ न फैलाते फिरो
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلۡجِبِلَّةَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 183
(184) और उस हस्ती का डा रखो जिसने तुम्हें, और पिछली नस्लों को पैदा किया है।"
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 184
(185) उन्होंने कहा, "तू सिर्फ़, एक जादू का मारा आदमी है,
وَمَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَإِن نَّظُنُّكَ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 185
(186) और तू कुछ नहीं है मगर एक इंसान हम ही जैसा, और हम तो तुझे बिल्कुल झूठा समझते हैं।
فَأَسۡقِطۡ عَلَيۡنَا كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 186
(187) अगर तू सच्चा है तो हमपर आसमान का कोई टुकड़ा गिरा दे।”
قَالَ رَبِّيٓ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 187
(188) शुऐब ने कहा, “मेरा रख जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो।"116
116. अर्थात् अजाब भेजना मेरा काम नहीं है। यह तो सारे जहान के रब अल्लाह के अधिकार में है और वह तुम्हारे करतूत देख ही रहा है। अगर वह तुम्हें इस अज़ाब का पात्र समझेगा तो खुद भेज देगा। ऐकवालों की इस मांग और हजरत शुऐब के इस जवाब में कुरेश के विधर्मियों के लिए भी एक चेतावनी थी। वह भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यही मांग करते थे-“या फिर गिरा दे हमपर आसमान का कोई टुकड़ा जैसा कि तेरा दावा है, (सूरा 17 बनी इसराईल, आयत (92)। इसलिए उनको सुनाया जा रहा है कि ऐसी ही मांग ऐकावालों ने अपने पैगावर से की थी, उसका जो जवाब उन्हें मिला वही मुहम्मद (सल्ल०) की ओर से तुम्हारी मांग का जवाब भी है।
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمِ ٱلظُّلَّةِۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٍ ۝ 188
(189) उन्होंने उसे झुठला दिया। अन्ततः छतरीवाले दिन का अजाब उनपर आ गया117, और वह बड़े ही भयानक दिन का अज़ाब था।
117. इस अजाब का कोई विवरण क़ुरआन में या किसी सही हदीस में नहीं बयान किया गया है। प्रत्यक्ष शब्दों से जो बात समझ में आती है, वह यह कि इन लोगों ने चूंकि आसमानी अज़ाब मांगा था, इसलिए अल्लाह ने उनपर एक बादल भेज दिया और वह छतरी की तरह इनपर उस समय तक छाया रहा जब तक अज़ाब की बारिशों ने उनको बिल्कुल नष्ट न कर दिया । कुरआन से यह बात साफ़ मालूम होती है कि मदयनवालों के अज़ाब की दशा ऐकावालों के अज़ाब से भिन्न थी। ये, जैसा कि यहाँ बताया गया है, छतरीवाले अज़ाब से नष्ट हुए और उनपर अज़ाब एक धमाके और भूकम्प के रूप में आया। इसलिए इन दोनों को मिलाकर एक दास्तान बनाने की कोशिश सही नहीं है। कुछ टीकाकारों ने छतरीवाले दिन के अज़ाब की कुछ व्याख्याएँ बयान की हैं, मगर हमें नहीं मालूम कि इन्हें ये जानकारियाँ कहा से मिलीं । इब्ने जरीर ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास का यह कथन नक़ल किया है कि “उलमा में से जो कोई तुमसे बयान करे कि छतरी के दिन का अज़ाब क्या था,उसको ठीक न समझो।"
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 189
(190) निश्चय ही इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अधिकतर माननेवाले नहीं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 190
(191) और सत्य यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और दया करनेवाला भी।
وَإِنَّهُۥ لَتَنزِيلُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 191
(192) यह118 सारे जहानों के रब की उतारी हुई चीज़ है।119
118. ऐतिहासिक वर्णन समाप्त करके अब वार्ताक्रम उस विषय की ओर फिरता है जिससे सूरा का आरंभ हुआ था।
119. अर्थात् यह क़ुरआन जिसकी आयतें यहाँ सुनाई जा रही हैं और यह 'ज़िक्र' जिससे लोग मुँह मोड़ रहे हैं, किसी इंसान की मनगढ़त चीज़ नहीं है, बल्कि यह सारे जगत के रब की ओर से उतारा हुआ है।
نَزَلَ بِهِ ٱلرُّوحُ ٱلۡأَمِينُ ۝ 192
(193-194) इसे लेकर तेरे दिल पर अमानतदार रूह120 उतरी है ताकि तू उन लोगों में शामिल हो जो (अल्लाह की ओर से दुनियावालों को) सचेत करनेवाले हैं,
120. तात्पर्य है जिबील (अलैहि०) जैसा कि सूरा-2 अल-बक़रा (आयत 97) में स्पष्टतः कहा गया है। यहाँ उनका नाम लेने के बजाय उनके लिए रूहे अमीन (अमानतदार रूह) की उपाधि इस्तेमाल करने से यह बताना अभिप्रेत है कि सारे जहान के रब की ओर से इस प्रकाशना को लेकर कोई (भौतिक शक्ति) नहीं आई है जिसके अन्दर परिवर्तन संभव हो, बल्कि वह एक विशुद्ध रूह है लेशमात्र भौतिकता के बिना, और वह पूरी तरह अमानतदार है, ख़ुदा का पैग़ाम जैसा उसके सुपुर्द किया जाता है वैसा ही कुछ बिना घटाए-बढ़ाए पहुंचा देती है।
عَلَىٰ قَلۡبِكَ لِتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُنذِرِينَ ۝ 193
0
بِلِسَانٍ عَرَبِيّٖ مُّبِينٖ ۝ 194
(195) साफ़-साफ़ अरबी भाषा में121,
121. इस वाक्य का सम्बन्ध "अमानतदार रूह उतरी है" से भी हो सकता है और “सचेत करनेवाले हैं" से भी। प्रथम दशा में इसका अर्थ यह होगा कि वह अमानतदार रूह उसे साफ़-साफ़ अरबी भाषा में लाई है और दूसरी दशा में अर्थ यह होगा कि प्यारे नबी (सल्ल०) उन नबियों में शामिल हैं जिन्हें अरबी भाषा में दुनियावालों को सचेत करने पर नियुक्त किया गया था, अर्थात् हूद, सालेह, इस्माईल और शुऐब (अलैहि०)। दोनों दशाओं में वार्ता का अभिप्राय एक ही है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, टिप्पणी 1)
وَإِنَّهُۥ لَفِي زُبُرِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 195
(196) और अगले लोगों की किताबों में भी यह मौजूद है।122
122. अर्थात् यही ज़िक्र और यही उतारी हुई चीज़ (प्रकाशना) और यही अल्लाह को शिक्षा पिछली आसमानी किताबों में भी मौजूद है। इस शिक्षा की कोई बात भी ऐसी नहीं जो दुनिया में पहली बार क़ुरआन मजीद ही पेश कर रहा हो और कोई आदमी यह कह सके कि तुम बाह, बात कर रहे हो जो अगलों-पिछलों में से किसी ने कभी नहीं की।
أَوَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ ءَايَةً أَن يَعۡلَمَهُۥ عُلَمَٰٓؤُاْ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 196
(197) क्या इन (मक्कावालों) के लिए यह कोई निशानी नहीं है कि इसे बनी इसराईल के उलमा (विद्वान) जानते है?123
123. अर्थात् बनी इसराईल के उलमा इस बात को जानते हैं के जो शिक्षा क़ुरआन में दी गई है वह ठीक वहीं अनोखा और निराला "ज़िक्र नहीं है जो आज पहली बार मुहमद बिन अब्‍दुल्‍लाह ने लाकर तुम्हारे सामने रख दिया हो, बल्कि हज़ारों वर्ष से अल्लाह के नबी यही ‘ज़िक्र’ एक के बाद एक लाते रहे हैं। क्‍या यह बात इस तथ्य पर सन्तोष करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि यह प्रकारमा उसी सारे जहानों के पालनहार की ओर से है जिसने पिछली किताबें उतारी थीं?
وَلَوۡ نَزَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ بَعۡضِ ٱلۡأَعۡجَمِينَ ۝ 197
(198) लेकिन इनकी हठधर्मी का हाल तो यह है कि) अगर हम इसे किसी अजमी (ग़ैर-अरबी) पर भी उतार देते
فَقَرَأَهُۥ عَلَيۡهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 198
(199) और यह (उत्‍कृष्‍ट अरबी वाणी) वह इनकों पढ़कर सुनाता, तब भी ये मान कर न देते।124
124. अर्थात् अब इन्हीं की कौम का एक आदमी इन्हें शुद्ध अरबों में यह कलाम पहकर सुना रहा है तो ये लोग कहते हैं कि इस आदमी ने इसे खुद गढ़ लिया है। अरबवासी के मुख से अरबी भाषण अदा होने में आखिर मोजज़े की क्या बात है कि हम इसे अल्लाह का कलाम मान लें। लेकिन अगर यही मधुर अरबी वाणी अल्लाह की ओर से किसी गैर-अरब पर मोबजे के तौर पर उतार दी जानी और वह उनके सामने आकर अति शुद्ध अरबी शैली में इसे पढ़ता तो यह ईमान न लाने के लिए दूसरा बहाना ढ़ूँढ़ते, उस वक्‍़त कहते कि इसपर कोई जिन आ गया है जो अजमी (ग़ैर-अरबी) की जबान के अरबी बोलना है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-41 हामीम० अस-सद्ध टिपणी 54-58)
كَذَٰلِكَ سَلَكۡنَٰهُ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 199
(200) इसी तरह हमने इस (ज़िक्र को अपराधियों के दिलों में गुज़ारा है।125
125. अर्थात् यह सत्यवादियों के दिलों की रूह की तरह आत्मपरितोष और मन का आरोग्य बनकर उनके भीतर नहीं उतरता, बल्कि एक गर्म लोहे की छड़ बनकर इस तरह गुजरता है कि वे भड़क उठते हैं और उसके विषयों पर विचार करने के बजाय उसके खंडन के लिए तरक़ीबें ढूँढने में लग जाते हैं।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 200
(201) वे इसपर ईमान नहीं लाते जब तक कि दर्दनाक अज़ाब न देख लें।126
126. वैसा ही अज़ाब जैसा वे कौमें देख चुकी है जिनका उल्लेख ऊपर इस सूर में हुआ है।
فَيَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 201
(202) फिर जब वह बेख़बरी में उनपर आ पड़ता है,
فَيَقُولُواْ هَلۡ نَحۡنُ مُنظَرُونَ ۝ 202
(203) उस समय वे कहते हैं कि "क्या अब हमें कुछ मोहलत मिल सकती है?’’127
127. अर्थात् अज़ाब सामने देखकर ही अपराधियों को विश्वास हुआ करता है कि सच में पैराम्बर जो कुछ कहा था वह सच था। उस समय में हसरत के साथ हाथ गल-मलकर कहते है कि काश । अब हमें कुछ मोहलत मिल जाए, हालांकि मोहलत का समय बीत चुका होता है।
أَفَبِعَذَابِنَا يَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 203
(204) तो क्या ये लोग हमारे अजाब के लिए जल्दी मचा रहे है।
أَفَرَءَيۡتَ إِن مَّتَّعۡنَٰهُمۡ سِنِينَ ۝ 204
(205) तुमने कुछ विचार किया, अगर हम इन्हें वर्षों तक ऐश करने की गोगलत भी दे दें
ثُمَّ جَآءَهُم مَّا كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 205
(206) और फिर वही चीज उनपर आ जाए जिससे उन्हें डराया जा रहा है,
مَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يُمَتَّعُونَ ۝ 206
(207) तो जिंदगी का वह सामान, जो उनको मिला हुआ है, उनके किस काम आएगा?128
128. इस वाक्य और इससे पहले के वाक्य के बीच एक गम रिक्तता है जिसे सुननेवाले का मन थोड़ा-सा विचार करके ख़ुद भर सकता है। अजाब के लिए उनके जल्दी मचाने की वजह यह थी कि यह अज़ाब के आने का कोई अंदेशा न रखते थे। इसी वजह से वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चुनौते देते थे कि ले आओ अपना वह अजाब जिससे तुम हमें डराते हो। इसपर फरमाया जा रहा है, अच्छा, अगर मान लीजिए उनका यह विचार सही हो हो, अगर उनपर तुरन्त अजाब न आए, अगर उन्हें दुनिया में मजे करने के लिए एक लंबी ढील भी मिल जाए तो सवाल यह है कि जब भी उनपर आद और समृद या क़ौमे लूत और ऐकावालों की-सी कोई आफ़त यकायक टूट पड़ी या और कुछ नहीं तो मौत ही की अन्तिम घड़ी आ पहुंची तो उस समय दुनिया के भोग-विलास के ये कुछ साल आखिर उनके लिए क्या लाभदायक सिद्ध होंगे।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا لَهَا مُنذِرُونَ ۝ 207
(208) (देखो) हमने कभी किसी बस्ती को इसके बिना नष्‍ट नहीं किया कि उसके लिए ख़बरदार करनेवाले
ذِكۡرَىٰ وَمَا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 208
(209) नसीहत का हक़ अदा करने को मौजूद थे, और हम ज़ालिम न थे।129
129. अर्थात् जब उन्होंने ख़बरदार करनेवालों की चेतावनी और समझानेवालों की नसीहत स्वीकार न की और हमने उन्हें नष्ट कर दिया, तो स्पष्ट है कि यह हमारी ओर से उनपर कोई जुल्म न था। जुल्म तो उस वक़्त होता जब कि नष्ट करने से पहले उन्हें समझाकर सीधे रास्ते पर लाने की कोई कोशिश न की गई होती।
وَمَا تَنَزَّلَتۡ بِهِ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 209
(210) इस (खुली किताब) को शैतान लेकर नहीं उतरे है130
130. अर्थात् इसे शैतान लेकर नहीं उतरे हैं जैसा कि सत्य के दुश्मनों का आरोप है। कुरैश के विधर्मियों ने नबी (सल्ल०) के विरुद्ध जो आरोप आम लोगों में फैलाए थे, उनमें से एक यह था कि मुहम्मद (सल्ल०), अल्लाह की पनाह, काहिन हैं और आम कहिनों की तरह इनके मन में भी शैतान यह वाणी डाला करते हैं।
وَمَا يَنۢبَغِي لَهُمۡ وَمَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 210
(211) न यह काम उनको सजता है131, और न वे ऐसा कर ही सकते हैं।132
131. अर्थात् यह वाणी और ये विषय शैतानों के मुंह पर फबते भी तो नहीं हैं। कोई बुद्धि रखता हो तो स्वयं समझ सकता है कि कहीं ये बातें, जो कुरआन में बयान हो रही हैं, शैतान की ओर से भी हो सकती हैं? क्या कभी तुमने सुना है कि किसी शैतान ने किसी काहिन (भविष्यवक्ता) के ज़रिये से लोगों को ख़ुदापरस्ती और ख़ुदातरसी की शिक्षा दी हो और शिर्क और बुतपरस्ती से रोका हो? आख़िरत की पूछ-ताछ का डर दिलाया हो ? जुल्म और कुकर्म और दुराचरण से मना किया हो ? नेकी और सच्चाई और दुनियावालों के साथ उपकार का उपदेश किया हो?
132. अर्थात् अगर शैतान करना चाहें भी तो यह काम उनके बस का नहीं है कि थोड़ी देर के लिए भी अपने आपको इंसानों के सच्चे शिक्षक और वास्तविक शुद्धीकर्ता के पद पर रखकर विशुद्ध सत्य और विशुद्ध भलाई की वह शिक्षा दे सकें जो कुरआन दे रहा है।
إِنَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّمۡعِ لَمَعۡزُولُونَ ۝ 211
(212) वे तो उसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं।133
133. अर्थात् इस कुरआन के अवतरण में दखल देना तो दूर की बात, जिस वक़्त अल्लाह की ओर से रूहुल अमीन (फ़रिश्ता जिबील अलैहि०) उसको लेकर चलता है और जिस समय मुहम्मद (सल्ल०) के दिल पर वह उसको उतारता है, इस पूरे क्रम में किसी जगह भी शैतानों को कान लगाकर सुनने तक का मौक़ा नहीं मिलता [कहाँ यह कि उन्हें यह मालूम हो सके कि आपपर क्या चीज़ उतर रही है ।] (और विवरण के लिए देखिए सूरा-15 हिज्र, टिप्पणी 8-12, सूरा-37 अस-साफ्फात, टिप्पणी 5-7 और सूरा-72 जिन्न, आयत 8-9,27)
فَلَا تَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُعَذَّبِينَ ۝ 212
(213) अत: ऐ नबी ! अल्लाह के साथ किसी दूसरे उपास्य को न पुकारो, वरना तुम भी सज़ा पानेवालों में शामिल हो जाओगे।134
134. (यद्यपि सम्बोधन प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) से है, लेकिन] वास्तव में इससे अभिप्रेत विधर्मियों और मुश्रिकों को सचेत करना है । वार्ता का उद्देश्य यह है कि कुरआन में जो शिक्षा दी जा रही है, यह चूंकि विशुद्ध सत्य है सृष्टि के शासक की ओर से, और इसमें शैतानी गन्दगियों का लेशमात्र भी दखल नहीं है, इसलिए यहाँ सत्य के मामले में किसी के साथ रू-रियायत का कोई काम नहीं। अल्लाह को सब से बढ़कर अपनी सृष्टि में कोई प्रिय हो सकता है तो वह उसका पाक रसूल है, लेकिन मान लीजिए अगर वह भी बन्दगी की राह से बाल बराबर हट जाए तो पकड़ से नहीं बच सकता, तो फिर दूसरों की क्या मजाल है।
وَأَنذِرۡ عَشِيرَتَكَ ٱلۡأَقۡرَبِينَ ۝ 213
(214) अपने निकटतम रिश्तेदारों को डराओ135,
135. अर्थात् अल्लाह के इस बे-लाग दीन में जिस तरह नबी की ज़ात के लिए कोई रियायत नहीं, उसी तरह नबी के परिवार और उसके निकटतम नातेदारों के लिए भी किसी रिआयत की गुंजाइश नहीं है । इसलिए आदेश हुआ कि अपने सबसे निकटतम नातेदारों को भी साफ़-साफ़ सचेत कर दो। अगर वे अपना अक़ीदा औरअमल ठीक न रखेंगे तो यह बात उनके किसी काम न आ सकेगी कि वे नबी के रिश्तेदार हैं। विश्वसनीय रिवायतों में आया है कि इस आयत के उतरने के बाद नबी (सल्ल०) ने सबसे पहले अपने दादा की सन्तान को सम्बोधित किया और एक-एक को पुकारकर साफ़-साफ़ कह दिया कि "तुम लोग आग के अज़ाब से अपने आप को बचाने की चिन्ता कर लो, मैं अल्लाह की पकड़ से तुमको नहीं बचा सकता, अलबत्ता मेरे माल में से तुम लोग जो कुछ चाहो, मांग सकते हो।" फिर आपने सुबह-सबेरे सफा की सबसे ऊंची जगह पर खड़े होकर पुकारा [और क़ुरैश के एक-एक क़बीले और ख़ानदान का नाम ले-लेकर आवाज़ दी ।] हुजूर (सल्ल०) की आवाज़ पर जब सब लोग जमा हो गए तो आपने फ़रमाया, "लोगो । आगर मैं तुम्हें बताऊँ कि इस पहाड़ की दूसरी ओर एक भारी फौज है जो तुमपर टूट पड़ना चाहती है, तो तुम मेरी बात सच मानोगे?" सबने कहा, "हाँ, हमारे अनुभव में तुम कभी झूठ बोलनेवाले नहीं रहे हो।" आपने फ़रमाया, "अच्छा, तो मैं अल्लाह का कठोर अज़ाब आने से पहले तुमको खबरदार करता हूँ। अपनी जानों को उसकी पकड़ से बचाने की चिन्ता करो । मैं अल्लाह के मुकाबले में तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकता।"
وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 214
(215) और ईमान लानेवालों में से जो लोग तुम्हारा पालन करें, उनके साथ नम्रता का व्यवहार करो,
فَإِنۡ عَصَوۡكَ فَقُلۡ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 215
(216) लेकिन अगर वे तुम्हारी अवज्ञा करें तो उनसे कह दो कि जो कुछ तुम करते हो उसको कोई ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं है।136
136. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि तुम्हारे रिश्तेदारों में से जो लोग ईमान लाकर तुम्हारा अनुकरण करें उनके साथ नम्रता का व्यवहार अपनाओ और जो तुम्हारी बात न मानें, उनसे विरक्ति की घोषणा कर दो। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह बात केवल उन रिश्तेदारों के बारे में न हो जिन्हें सचेत करने का आदेश दिया गया था, बल्कि सबके लिए सामान्य हो ।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 216
(217) और उस ज़बरदस्त और दया करनेवाले पर भरोसा करो137
137. अर्थात् दुनिया की किसी बड़ी से बड़ी ताक़त की भी परवाह न करो और उस जात के भरोसे पर अपना काम किए चले जाओ जो ज़बरदस्त भी है और दयावान भी। उसका ज़बरदस्त होना इस बात की ज़मानत है कि जिसकी पीठ पर उसका समर्थन हो उसे दुनिया में कोई नीचा नहीं दिखा सकता और उसका दयावान होना इस सन्तोष के लिए काफ़ी है कि जो आदमी उसके लिए सत्य संदेश का बोलबाला करने के काम में जान लड़ाएगा,उसको कोशिशों को वह कभी नष्ट न होने देगा।
ٱلَّذِي يَرَىٰكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 217
(218) जो तुम्हें उस समय देख रहा होता है जब तुम उठते हो138,
138. उठने से तात्पर्य रातों को नमाज़ के लिए उठना भी हो सकता है और रिसालत के कर्त्तव्य को निभाने के लिए उठना भी।
وَتَقَلُّبَكَ فِي ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 218
(219) और सज्दा-गुज़ार लोगों में तुम्हारी गतिविधियों पर निगाह रखता है।139
139. इससे कई अर्थ लिए जा सकते हैं- एक यह कि आप जब जमाअत से नमाज में अपने पीछे नमाज़ पढ़नेवालों के साथ उठते और बैठने और रुकूअ और सज्दे करते हैं, उस समय अल्लाह आपको देख रहा होता है। दूसरे जब रातों को उठकर आप अपने सज्दा गुजार साथियों को देखते-फिरते हैं कि वे अपनी आख़िरत संवारने के लिए क्या कुछ कर रहे हैं, उस समय आप अल्लाह की निगाह से छिपे नहीं होते। तीसरे यह कि अल्लाह उस तमाम दौड़-धूप और कोशिशों को जानता है जो आप अपने सज्दागुज़ार साथियों के साथ उसके बन्दों के सुधार के लिए कर रहे हैं। चौथे यह कि सज्दागुज़ार लोगों के गिरोह में आपकी सारी व्यस्तताएँ अल्लाह की दृष्टि में हैं। वह जानता है कि आपने किस तरह मिट्टी को सोना बनाकर रख दिया है।
إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 219
(220) वह सब कुछ सुनो और जानोवाला है।
هَلۡ أُنَبِّئُكُمۡ عَلَىٰ مَن تَنَزَّلُ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 220
(221) लोगो । क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि शैतान किसपर उतरा करते हैं ?
تَنَزَّلُ عَلَىٰ كُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٖ ۝ 221
(222) वे हर जालसाज़ दराचारी पर उतरा करते हैं140
140. तात्पर्य है काहिन, ज्योतिषी, फालगोरी, मिट्टी के द्वारा सगुन विचार करनेवाले और आमिल' क़िस्म के लोग जो ग़ैब (परोक्ष) जानने का ढोंग रचाते फिरते हैं। गोल मोल लच्छेदार बातें बनाकर लोगों की क़िस्मतें बताते हैं या सयाने बनकर जिन्नों और रूहों और मुअक्किलों के जरिये लोगों की बिगड़ी बनाने का कारोबार करते हैं।
يُلۡقُونَ ٱلسَّمۡعَ وَأَكۡثَرُهُمۡ كَٰذِبُونَ ۝ 222
(223) सुनी-सुनाई बाते कानों में फूंकते है और आगे से अधिकतर झूठे होते हैं।141
141. [यह मक्का के विधर्मियों के इस आरोप का उत्तर है कि वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को काहिन कहते थे।] इस उत्तर के दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि शैतान कुछ सुन-गुन लेकर अपने चेलों के दिलों में डालते हैं और इसमें थोड़ी-सी सच्चाई के साथ बहुत-सा झूठ मिला देते हैं। दूसरे यह कि झूठे लपाटिए काहिन शैतानों से कुछ बातें सुन लेते है और फिर अपनी ओर से बहुत-सा झूठ मिलाकर लोगों के कानों में फूंकते फिरते हैं।
وَٱلشُّعَرَآءُ يَتَّبِعُهُمُ ٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 223
(224) रहे कवि, तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते हैं।142
142. [यह भी उनके इस आरोप का उत्तर है कि वे नबी (सल्ल०) को कवि कहते थे। अर्थ यह है कि] कवियों के साथ लगे रहनेवाले लोग अपने चरित्र-आचरण और स्वभाव में उन लोगों से बिल्कुल अलग होते हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) के साथ तुम्हें नज़र आते हैं। दोनों गिरोहों का अन्तर ऐसा खुला अन्तर है कि एक नज़र देखकर ही आदमी जान सकता है कि ये कैसे लोग हैं और वे कैसे?
أَلَمۡ تَرَ أَنَّهُمۡ فِي كُلِّ وَادٖ يَهِيمُونَ ۝ 224
(225) क्या तुम देखते नहीं हो कि वे हर घाटी में भटकते है143
143. अर्थात् कोई एक निश्चित राह नहीं है जिसपर वे सोचते और अपनी वाक्य-शक्ति खर्च करते हों, बल्कि उनकी सोच की रफ्तार एक बे-लगम घोड़े की तरह है जो हर घाटी में भटकती फिरती है और भावनाओं, इच्छाओं और स्वार्थों की हर नयी लहर उनकी ज़बान से एक नया विषय अदा करती है जिसे सोचने और बयान करने में इस बात का सिरे से कोई ध्यान होता ही नहीं कि यह बात हक और सच्ची भी है। कवियों की इन सर्वविदित विशेषताओं को जो आदमी जानता हो उसके दिमाग में आखिर यह बेतुकी बात कैसे उतर सकती है कि इस कुरआन के लानेवाले पर शायरी का आरोप रखा जाए जिसका भाषण जँचा-तुला, जिसको बात दोटूक, जिसका रास्ता बिलकुल साफ़ और निश्चित है और जिसने हक और सच्चाई और भलाई की दावत से हटकर कभी एक बात भी ज़बान से नहीं निकाली है।
وَأَنَّهُمۡ يَقُولُونَ مَا لَا يَفۡعَلُونَ ۝ 225
(226) और ऐसी बाते कहते हैं जो करते नहीं है।144
144. यह कवियों की एक और विशेषता है जो नबी (सल्ल०) की कार्यनीति के बिल्कुल विपरीत थी। नबी (सल्ल०) के बारे में आपका हर जाननेवाला जानता था कि आप जो कुछ कहते हैं, वही करते हैं और जो करते हैं, वही कहते हैं। इसके विपरीत कवियों के बारे में किसी को मालूम न था कि उनके यहाँ कहने की बातें और हैं और करने की और।
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَذَكَرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱنتَصَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْۗ وَسَيَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَيَّ مُنقَلَبٖ يَنقَلِبُونَ ۝ 226
(227)- अलावा उन लोगों के जो ईमान लाए और जिन्होंने भले कर्म किए और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद किया और जब उनपर ज़ुल्म किया गया तो सिर्फ़ बदला ले लिया145- और ज़ुल्म करनेवालों को बहुत जल्द मालूम हो जाएगा कि वे किस अंजाम से दो-चार होते है।146
145. यहाँ कवियों की उस आम निंदा से जो ऊपर बयान हुई, उन कवियों को अपवाद माना गया है जो चार विशेषताएं रखते हैं- एक यह कि वे मोमिन (ईमानवाले) हों, दूसरे यह कि अपने व्यावहारिक जीवन में नेक हों, तीसरे यह कि अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करनेवाले हों, अपनी सामान्य परिस्थितियों और समयों में भी और अपने काव्य में भी, और चौथे यह कि वे निजी स्वार्थों के लिए तो किसी की बुराई न करें, न निजी या नस्ली और क़ौमी पक्षपातों के लिए बदले को आग भड़काएँ, मगर जब ज़ालिमों के मुकाबले में सत्य के समर्थन में ज़रूरत पड़े तो फिर ज़बान से वही काम लें जो एक मुजाहिद तीर व तलवार से लेता है। ।चुनांचे रिवायतों में आता है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) ने हज़रत काब बिन मालिक और हस्सान बिन साबित को इस्लाम का विरोध करनेवाले कवियों का उत्तर देने और उनकी भर्त्सना करने का निर्देश दिया था।
146. ज़ुल्म करनेवालों से तात्पर्य यहाँ वे लोग हैं जो सत्य को नीचा दिखाने के लिए सरासर हठधर्मी की राह से नबी (सल्ल०) पर शायरी और कहानत और जादूगरी और जुनून को तोहमतें लगाते फिरते थे, ताकि अनभिज्ञ लोग आपकी दावत से बदगुमान हों और आपकी शिक्षा की ओर तवज्जोह न दें।